मजबूती के दावे और सरकार

देश में एक पार्टी मजबूत हो रही है, एक ध्धमर्म मजबूत हो रहा है. संस्कार मजबूत हो रहे हैं. मंदिरों के खंबे मजबूत हो रहे हैं. सरकार की जनता पर पकड़ मजबूत हो रही है. पुलिस के पंजे मजबूत हो रहे हैं. कानून मजबूत हो रहा है. जो चीख सकते हैं, नारे लगा सकते हैं, मजबूत हो रहे हैं.

पर इस चक्कर में सामाजिक बंधन तारतार हो रहे हैं. सपने टूट रहे हैं. कल के भविष्य की आशाएं धूमिल हो रही हैं. चाहे घरों में बच्चे कम हो रहे हैं फिर भी उन्हें पढ़ाई कर के सुखी देखने की आशा टूट रह है. घरों की दीवारों का रंग फीका हो रहा है. ममहीन, सुखद, गारंटेड फ्यूचर की नींव कमजोर हो रही है.

जब देश में हर समय खबरें सिर्फ छापों, रेडों और पाॢटयों को तोडऩे की हो रही हो तो जोडऩे की बातें कहां होंगी. एक समाज तब बनता है जब पड़ोसी से, एक गली का दूसरी गली से जुड़ाव हो, एक ईलाके की मिसाल दूसरे इलाकों से हो, देश के निवासी अपने को व्यापक भीड़ में सुरक्षित समझें न कि भगदड़ का अंदेशा हो, ट्रैफिक जाम का डर हो, लंबी लाइनों का भय हो.

आंकड़ों में देश में सब कुछ अच्छा हो रहा है पर किसी के भी व्हाट्सएप गु्रप, ट्विटर अकाउंट, इंस्टाग्राम, फेसबुक के पेजों को देख लें, एक भय का साया दिख जाएगा. इस काले साए का रंग हर घर पड़ रहा है, पतिपत्नी संबंधों पर पड़ रहा है, भाईबहन पर पड़ रहा है.

सरकार जनता से इतनी भयभीत है कि हर चौराहे पर 4-5 कैमरें लगे हैं. हर मील में 2 जगह बैरीयर रखे हैं, सरकार हर समय आप का आधार नंबर, पैन नंबर, पासवर्ड, यूजर नेम पूछ रही है. हर समय डर लगता है कि बैंक अकाउंट केवाईसी के चक्कर में बंद न हो जाए, क्रेडिट कार्ड की पेमेंट डिक्लाइन न हो जाए, बिजली का बड़ा बिल न आ जाए. पैट्रोल गैस का दाम फिर न बढ़ जाएं. यह डर हर संबंध को दीमक और घुन की तरह खाता है.

पतिपत्नी का जोड़ा साथ रहते हुए भी भरोसा नहीं करता. भाईभाई, भाईबहन अपनेअपने भविष्य के लिए दूसरे के हकों को तो रौंद नहीं रहे, यह डर रहता है. कोई ऐसी बिमारी न आ जाए जिस का इलाज मुश्किल हो या इलाज इतना मंहगा हो कि अफोर्ड नहीं कर सकते. छुट्टी में डर लगता है कि लौंड स्लाइड न हो जाए, लहरें मौत न जाए. नदी का पानी बिमार न कर दे.

देश की सारी मजबूती के दावे असलियत की धरती पर बेमानी हो चुके हैं. कल अच्छा हो या न हो, आज शाम व रात तक सब अच्छा रहे, यही डर सता रहा है और इस के आगे वादे, नारे, दावे सब निरर्थक हैं.

हिंदी फिल्मों में महिलाएं, पिक्चर अभी बाकी क्यों

भारत ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पहला कदम 1913 में रखा था. पहली मूक और ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म बनी- ‘राजा हरिशचंद्र.’ भारतीय सिनेमा ने शुरुआत से ही परदे पर भारतीय नारी को बड़ा निरीह, कोमल, रोनेधोने वाली, अपने दुखों को ले कर ईश्वर के आगे सिर पटकने वाली, भक्तिभजनों में डूबी, पूजापाठ में रमी, सास के हाथों पिटती, अपमानित होती और पति की घरगृहस्थी बच्चों को संभालती औरत के रूप में दिखाया, जबकि उन दिनों भी ऐसी बहुत सी स्त्रियां थीं जो आजादी की लड़ाई में मर्दों से भी 2 कदम आगे बढ़ कर काम कर रही थीं.

रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरतमहल, सावित्रीबाई फुले, कस्तूरबा गांधी, विजया लक्ष्मी पंडित, कमला नेहरू, दुर्गा बाई देशमुख, सुचेता कृपलानी, अरुणा आसफ, सरोजिनी नायडू उन्हीं में शामिल हैं, जिन के संघर्षमय जीवन को, उन की वीरता को रंगीन परदे पर आना चाहिए था ताकि देश उन वीर नारियों के बारे में जान पाता, मगर ऐसा हुआ नहीं.

बेगम हजरतमहल तो 1857 की क्रांति में भाग लेने वाली पहली महिला थीं, जिन्होंने पूरे अवध को अंगरेजों से मुक्त करा लिया था, मगर उन पर भी आज तक कोई फिल्म नहीं बनी. रानी लक्ष्मी बाई पर भी देश की आजादी के 7 दशक बाद जा कर एक फिल्म बनी- ‘मणिकर्णिका.’

बदतर थी औरतों की हालत

यह बात ठीक है कि जब फिल्में बननी शुरू हुईं तो भारत की अधिकांश जनता गरीबी, भुखमरी और प्रताड़ना का शिकार थी. औरतों की हालत बदतर थी. आम औरतों का जीवन चूल्हेचौके, खेतखलिहान में खप जाता था. वे साहूकारों और जमींदारों के जुल्मों का शिकार भी बनती थीं. तब की ज्यादातर पारिवारिक फिल्मों में आम औरत का यही हाल दिखाया गया.

फिल्म ‘मदर इंडिया’ से नई शुरुआत

1957 में ‘मदर इंडिया’ फिल्म में औरत के जज्बे, उस की मेहनत और आक्रोश को दिखाया गया. ‘मदर इंडिया’ भारतीय सिनेमा के शुरुआती और क्लासिक दौर की फिल्म थी. यह उस समय नई राह दिखाने वाली फिल्म थी. इस फिल्म में अभिनेत्री नरगिस ने एक गरीब किसान राधा का किरदार निभाया था. राधा अपने 2 बेटों को बड़ा करने के लिए पूरी दुनिया से लड़ जाती है. गांव वाले उसे न्याय और सत्य की देवी की तरह देखते हैं. यहां तक कि अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए वह अपने विद्रोही बेटे को गोली तक मार देती है.

‘मदर इंडिया’ ने औरत की अबला नारी वाली छवि तोड़ कर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उस के मुखर रूप को दर्शाया. यह फिल्म आज भी देखने वालों के रोंगटे खड़े कर देती है. हालांकि नरगिस को फिल्म में सफल होते दिखाया है पर अंत में यही दिखाया है कि औरतों को कैसे भी वर्ण व्यवस्था को मजबूत रखना होगा और उस के लिए बेटे की जान ले ले तो महान है.

नारी के संघर्ष को दिखाया गया

1993 में स्त्रीप्रधान फिल्म आई थी ‘दामिनी.’ फिल्म ‘दामिनी’ में मुख्य भूमिका मीनाक्षी शेषाद्रि ने निभाई थी. इस फिल्म में ऐसी नारी के संघर्ष को दिखाया गया है, जिस की शादी बेहद संपन्न परिवार में होती है. दामिनी इस फिल्म में अपने देवर को घर की नौकरानी का रेप करते हुए देख लेती है. दामिनी उस महिला को इंसाफ दिलाने और अपराधी को सजा दिलवाने की ठान लेती है.

दामिनी का पूरा परिवार उस के खिलाफ हो जाता है. लेकिन इस के बावजूद वह अपने निश्चय पर टिकी रहती है और घर छोड़ देती है. हालांकि बलात्कार की शिकार महिला की अस्पताल में मौत हो जाती है, मगर एक वकील की मदद से दामिनी अंतत: अपराधी को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने में कामयाब होती है.

औरत की अबला और मासूम छवि को तोड़ने वाली एक अन्य फिल्म थी ‘बैंडिट क्वीन,’ जो 1994 में आई थी. फिल्म एक महिला डकैत फूलन देवी की जिंदगी पर आधारित है. इस फिल्म में फूलन देवी का किरदार सीमा बिस्वास ने निभाया है. इस फिल्म में सीमा बिस्वास ने काफी बोल्ड सीन दिए. पहली बार परदे पर दर्शकों ने भारतीय औरत को जम कर गालीगलौज करते और बंदूक चलाते देखा.

टुटी और बिखरी महिला की कहानी

‘द डर्टी पिक्चर’ में विद्या बालन ने अपने अस्तित्व के लिए जूझती एक अभिनेत्री सिल्क स्मिता के निजी जीवन और उस के संघर्ष को बखूबी दर्शाया. फिल्मी दुनिया में औरतों की कामयाबी और नाकामयाबी, समझतों और धोखों की कहानी पर आधारित इस फिल्म में विद्या ने सिल्क की फर्श से अर्श तक पहुंचने और फिर टूट कर खत्म हो जाने की कहानी को परदे पर जीया. यह फिल्म स्त्रीप्रधान तो जरूर है, मगर एक हताश, टूटी और बिखरी हुई महिला की कहानी है. अधिकांश महिलाप्रधान फिल्मों में नायिका को अंत में दुखी या हताश ही दिखाया गया है चाहे पूरी फिल्म में वह सफलता के झंडे गाड़ रही हो.

विद्या बालन ने दूसरी फिल्म ‘बौबी जासूस’ में महिला जासूस का किरदार निभाया. एक महिला सिर्फ शादी कर के पति का घर और बच्चे संभालने के बजाय अपने जासूसी के हुनर की बदौलत नाम और पैसा कमाने घर से बाहर निकलती है. महिला जासूस पर केंद्रित शायद यह पहली हिंदी फिल्म थी, मगर कहानी ढीली होने के चलते विद्या की यह फिल्म ज्यादा नहीं चली.

उपेक्षित रही महिलाएं

बौलीवुड में बनी महिलाओं के संघर्षों पर आधारित फिल्में उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं. अबला का चोला उतार कर, रूढि़वादी परंपराओं को ठुकरा कर और सामाजिक बंधनों को तोड़ कर अपने दम पर कुछ कर गुजरने वाली औरतों की कुछ कहानियां जो हाल के दशक में परदे पर आईं, उन्हें काफी पसंद किया गया और औरतों के लिए ये फिल्में काफी प्रेरणादाई भी रहीं.

महिला रैसलर पर आधारित फिल्म ‘दंगल’ में 2 खिलाडि़यों और उन के पिता के संघर्ष को दिखाया गया. यह फिल्म गीता फोगाट और उन की बहन बबीता फोगाट के जीवन पर आधारित थी. फिल्म में गीता फोगाट और बबीता फोगाट का किरदार ऐक्ट्रैस फातिमा सना शेख और सान्या मल्होत्रा ने निभाया. वहीं आमिर खान उन के पिता और गुरु के रूप में परदे पर नजर आए.

बाधाओं से पार करने की कहानी

फिल्म ‘शेरनी’ 18 जून, 2021 को ओटीटी प्लेटफौर्म अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई. विद्या बालन इस में लीड रोल में हैं. अमित मसुरकर द्वारा निर्देशित यह फिल्म मानवपशु संघर्ष पर आधारित है. इस में विद्या एक वन अधिकारी की भूमिका निभाती हैं जिस के आगे एक आदमखोर शेरनी को पकड़ने की चुनौती है. उस आदमखोर शेरनी ने आसपास के गांवों में कई लोगों को अपना शिकार बनाया. बावजूद इस के विद्या उस को मारने के पक्ष में नहीं बल्कि जिंदा पकड़ने के पक्ष में होती हैं और एक प्लान तैयार करती हैं.

वे कहती हैं कि कोई भी शेरनी आदमखोर नहीं, भूखी होती है. एक वन्य अधिकारी होने के नाते उन का मानना है कि कोई भी जानवर आदमखोर नहीं होता, लेकिन जब भूख सहन नहीं होती तो वह पेट भरने के लिए इंसान पर भी हमला करता है. अगर जानवरों से उन के जंगल न छीने जाएं तो जानवर भी सुरक्षित रहें और इंसान भी.

इस फिल्म में विद्या ने एक महिला वन अधिकारी की भूमिका बेहतरीन तरीके से निभाई है. वे शिकारियों, गांव की राजनीति, विभागीय राजनीति, पितृसत्ता सोच के साथ लगातार लड़ती हैं. वे अंतर्मुखी हैं, लेकिन कमजोर नहीं हैं. वे कुछकुछ जंगल की शेरनी जैसी हैं. शेरनी को अपना रास्ता मालूम है, लेकिन मनुष्यों द्वारा निर्मित बाधाएं हैं. वहीं, विद्या के सामने सामाजिक बाधाएं हैं. क्या ‘शेरनी’ इन बाधाओं से पार जा पाएगी? इसी के इर्दगिर्द फिल्म की पूरी कहानी घूमती है.

सपनों को पूरा करने की कहानी

कंगना रनौत द्वारा अभिनीत फिल्म ‘थलाइवी’ तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता के जीवन पर बनी फिल्म है, जिस में उन के संघर्ष को कंगना ने बखूबी परदे पर उतारा है. यह फिल्म हमें दिवंगत नेता के जीवन के सभी उतारचढ़ावों से रूबरू कराती है और राजनीति में औरत के संघर्ष को दिखाती है.

फिल्म ‘साइना’ बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल के जीवन पर आधारित है, जो 2021 में आई. इस फिल्म में उन का किरदार परिणीति चोपड़ा ने निभाया. साइना नेहवाल पद्मश्री, अर्जुन अवार्ड, राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित होने वाली विश्व रैंकिंग में शीर्ष तक पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं.

वहीं ऐसिड अटैक की पीडि़त महिलाओं की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘छपाक’ 2020 में आई, जिस में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने ऐसिड अटैक विक्टिम लक्ष्मी के संघर्ष को परदे पर दिखाया. 15 साल की लक्ष्मी के चेहरे और शरीर पर एक युवक ने तब तेजाब फेंक दिया जब उस ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया. घटना के बाद अस्पताल में लक्ष्मी लंबे समय तक मृत्यु से जंग लड़ती रही. अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद जले हुए भयावह चेहरे के साथ जीवन की जंग और अदालत से न्याय पाने की उस की जंग को दीपिका ने परदे पर बखूबी चित्रित किया. यह कहानी उस स्त्री की कहानी है जिस की हिम्मत और अदालतों में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने का नतीजा यह हुआ कि देश में बाजार में खुले तेजाब बेचने पर बैन लग गया.

2020 में लैफ्टिनैंट गुंजन सक्सेना पर फिल्म बनी- ‘गुंजन सक्सेना.’ गुंजन एक भारतीय वायु सेना औफिसर और पूर्व हैलिकाप्टर पायलट है. सक्सेना को कारगिल गर्ल के नाम से भी जाना जाता है. सक्सेना 1994 में इंडियन एयर फोर्स में शामिल हुई थी और 1999 के कारगिल युद्ध में जाने वाली वह एकमात्र महिला थी. इस फिल्म में जाह्नवी कपूर ने गुंजन सक्सेना का किरदार निभाया है.

फिल्में जिन से प्रेरणा मिलती हैं

5 बार की वर्ल्ड चैंपियन रहीं बौक्सर एम. सी. मैरी कौम के जीवन पर आधारित फिल्म ‘मैरी कौम’ में उन का किरदार प्रियंका चोपड़ा ने निभाया. इस फिल्म के जरीए खेल के क्षेत्र में संघर्ष कर रही महिलाओं की सफलताओं को बखूबी दर्शाया गया. खेल जगत का जानामाना नाम मैरी कौम को कई अवार्ड्स से सम्मानित किया जा चुका है, जिन में ‘पद्मभूषण,’ ‘अर्जुन अवार्ड,’ ‘पद्मश्री’ और ‘खेलरत्न’ शामिल हैं.

बीती एक शताब्दी में महिलाओं के संघर्ष ने समाज को उन के प्रति अपनी सोच बदलने के लिए बाध्य किया है. महिलाओं के बुलंद इरादों ने अनेक क्षेत्रों में अपने झंडे गाड़े हैं, मगर उन की कामयाबी अखबारों के भीतरी पन्नों पर कुछ लाइनों की खबर बन कर सिमट जाती है. उन की सफलताओं को अगर रंगीन परदे पर भी प्रदर्शित किया जाता रहता तो देश की अनेकानेक औरतों को इन फिल्मों से प्रेरणा मिलती.

आज औरतें जब परिवार के साथ फिल्म देखने थिएटर जाती हैं तो उन के सामने रोनेधोने वाली पारिवारिक फिल्में या पुरुषप्रधान मारधाड़ वाली ऐक्शन फिल्में ही ज्यादा होती हैं. कभीकभी बनने वाली स्त्रीप्रधान फिल्मों में कुछ तो चलती हैं, लेकिन ज्यादातर कम बजट, प्रचार की कमी, लचर कहानी आदि के कारण पिट जाती हैं.

महिलाओं के संघर्ष को परदे पर न दिखा कर ज्यादातर फिल्मों में उन को रोमांटिक और पारिवारिक दृश्यों तक सीमित रखने का एक बड़ा कारण यह भी है कि बौलीवुड में महिला फिल्म राइटर, प्रोड्यूसर और निर्देशक न के बराबर हैं. पुरुष लेखकनिर्देशकप्रोड्यूसर पुरुषप्रधान और पितृसत्ता को मजबूती देनी वाली फिल्में ही बनाते हैं और ऐसी फिल्मों में औरत अबला ही बनी रहती है.

75 सालों में कितना बदला महिलाओं का जीवन

हाल ही में मेक इन इंडिया के तहत बनी नौका तारिणी में सवार हो कर 6 महिला अफसरों ने एक साहसिक अभियान को अंजाम दिया. वह 19 सितंबर, 2017 का दिन था जब ऐश्वर्या, एस विजया, वर्तिका जोशी, प्रतिभा जम्वाल, पी स्वाति और पायल गुप्ता ने आईएनएस तारिणी पर अपना सफर शुरू किया. 19 मई, 2018 को वे 21,600 नाटिकल माइल्स यानी 216 हजार समुद्री मील की दूरी तय कर के वापस आई थीं. इस अभियान में लगभग 254 दिनों का समय लगा और इसी के साथ ही इन 6 नेवी महिला अफसरों ने अपने नाम को इतिहास के पन्नों में भी दर्ज करा लिया.

21 मई, 2018 को वे आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, पोलैंड और साउथ अफ्रीका होते हुए गोवा पहुंचीं. उन के सामने भी उतनी ही चुनौतियां थीं जितनी पुरुषों के सामने आती हैं, लेकिन उन्होंने उस का डट कर मुकाबला किया और सफलता पाई.

ये है आज की नारी की बदली हुई छवि यानी खुद आगे बढ़ कर जोखिमों का सामना करने वाली महिलाएं. यह प्रगति चाहे 1947 की आजादी की देन है या विश्व में होते हुए बदलाव की, बहुत सुखद है और इसे 75वें साल की सालगिरह पर याद करना एक अच्छी बात है.

भारत को आजाद हुए 75 वर्ष हो गए हैं. आजादी के 7 से ज्यादा दशकों के सफर में देश की महिलाओं का जीवन काफी बदला है. उन की स्थिति में सुधार हुआ है. उन्हें कई अधिकार मिले हैं, उन्होंने कई बंधनों से मुक्ति पाई है, कई तरह के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है, कई जगह सफलता के परचम लहराए हैं और कई क्षेत्रों में पुरुषों से बाजी मारी है. मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कई मानों में उन की जिंदगी आज भी पारंपरिक यातनाओं का दंश ?ोल रही है. आज भी उन्हें दोयम दर्जा प्राप्त है, आज भी उन का शारीरिक शोषण हो रहा है और आज भी उन की मुट्ठी खाली ही है.

आइए, देखते हैं इन 75 सालों में महिलाओं की जिंदगी में किस तरह के बदलाव आए हैं.

भारत के अंगरेज शासकों ने समाज सुधारों और आम सुधारों पर कम ध्यान दिया था. आजादी के बाद संविधान बना जिस में औरतों को हर जगह बराबर के अवसर मिले. हिंदू कानूनों में 1956 तक कई परिवर्तन हुए जिन से बहु विवाह प्रथा समाप्त हुई. शिक्षा के क्षेत्र में कांग्रेस सरकारों ने बहुत नए स्कूल खोले जिन में लड़कियों को भी प्रवेश मिला. आजादी से पहले इस सब के बारे में सोचने की गवर्नर जनरल इन काउंसिल को कभी फुरसत नहीं रही.

समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति में धीरेधीरे ही सही पर बहुत से सकारात्मक परिवर्तन आ रहे हैं.

शिक्षित हुई है नारी

अपने वजूद को पहचानने और अपनी काबिलीयत का लोहा मनवाने के लिए जरूरी है कि एक स्त्री शिक्षित हो. वह अपने हकों को जाने, कर्तव्यों को पहचाने और आगे बढ़ने से घबराए नहीं. महिलाओं के विकास में शिक्षा का सब से बड़ा रोल रहा है. आजादी के बाद महिलाओं को बराबर अधिकार मिले जिस से उन्हें पढ़नेलिखने का अवसर मिला. यहीं से आधी आबादी की दुनिया बदलनी शुरू हुई.

शिक्षा के कारण महिलाओं की चेतना जाग्रत हुई. वे परंपरागत और पुरातनपंथी सोच से बाहर आईं और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुईं. जब वे शिक्षित हुईं तो नौकरी के लिए घर से बाहर निकलीं, पुरुषों के इस समाज में अपनी जगह सुनिश्चित की और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनीं.

महिलाएं अब महज हाउसवाइफ की भूमिका में नहीं हैं बल्कि वे अब होममेकर बन चुकी हैं. घरपरिवार चलाने में आर्थिक सहयोग दे रही हैं. इस से उन के अंदर आत्मविश्वास पैदा हुआ है. ऐसी महिलाएं किसी पर निर्भर रहने के बजाय घरपरिवार, मातापिता और पति को आर्थिक रूप से सहयोग करने लगी हैं. जो महिलाएं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं वे भी अपनी बेटियों को अच्छी शिक्षा दे कर कुछ बनाना चाहती हैं और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती हैं. यह एक सकारात्मक रुझन है.

पिछले 7 दशकों में महिलाओं की नौकरी करने की दर में अच्छाखासा इजाफा हुआ है. आज बहुत सी महिलाएं कंपनी की सीईओ और मैनेजिंग डाइरैक्टर बन रही हैं, ऊंचे से ऊंचे ओहदे पर बैठ रही हैं. वे न सिर्फ पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं बल्कि इन सभी बदलावों के कारण उन का आत्मविश्वास भी बढ़ा है.

वे अपनी बात सब के सामने रख पाती हैं. अपने अधिकारों को पाने के लिए तत्पर नजर आती हैं. अब वे सोशल मीडिया के जरीए भी अपनी बात रखने लगी हैं. महिलाओं से जुड़े कई कैंपेन भी इस माध्यम के जरीए चलाए जा रहे हैं, जिन के सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बड़ी है. शिक्षण संस्थानों तक लड़कियों की पहुंच लगातार बढ़ रही है. 1 दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1% थी जो अब बढ़ कर 68.4% तक पहुंच गई है. यानी इस क्षेत्र में 13% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है.

आधुनिक तकनीक भी महिलाओं की जिंदगी में शिक्षा का जरीया बनी है. गांव की लड़कियां बड़ेबड़े स्कूलकालेजों से घर बैठे अपनी पढ़ाई कर रही हैं. बड़ी औनलाइन कंपनियों से जुड़ कर उत्पाद बेच रही हैं. अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं.

मन से भी स्वतंत्र हुई हैं महिलाएं

महिलाएं अब अपने मन की बात सुनती हैं और उस पर विचार भी करती हैं. सही फैसले लेने से हिचकिचाती नहीं हैं. यानी वे अब मन से भी स्वतंत्र हो रही हैं. वे अगर कुछ करने की ठान लेती हैं तो कर के गुजरती हैं.

मन में कुछ साहसिक और दुष्कर कर दिखाने की बात ठान लेना और सफलतापूर्वक कर के दिखाना आज की महिलाओं ने सीख लिया है. ऐसा 10-20 साल पहले तक महिलाएं सोच भी नहीं सकती थीं. पर अब उन के पास रास्ते हैं और जज्बा भी है. महिलाएं एकदूसरे से भी प्रेरित हो रही हैं. यही आजाद भारत की महिलाओं की उभरती नई छवि है.

खुद को साबित किया है

किसी देश का विकास उस के मानव संसाधन पर निर्भर होता है. इस में महिला और पुरुष दोनों का ही स्थान आता है. आजाद होने के बाद हमारे देश में भी हर नागरिक को समान अधिकार मिले जिस से उन के विकास की राह खुली. महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी क्षमता और प्रतिभा को साबित किया है. खेल का क्षेत्र हो या विज्ञान का, राजनीति हो या कौरपोरेट वर्ल्ड, अदाकारी हो या सैन्य क्षेत्र, डाक्टरी हो या इंजीनियरिंग महिलाएं हर जगह अपनी काबिलीयत दिखा रही हैं.

आज विदेश और रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारियां महिलाओं पर हैं और वे बखूबी इस काम को कर रही हैं. वे देश के सर्वोच्च पदों पर पहुंच रही हैं. फाइटर पायलट बन कर देश की रक्षा दायित्व भी निभाने के लिए तैयार हैं. ये सभी बदलाव बहुत ही सकारात्मक हैं. अब घर का पुरुष चाहे पिता हो, भाई हो या पति सब महिलाओं के योगदान को महत्त्व दे रहे हैं और उन को सहयोग भी कर रहे हैं.

अपनी मरजी से जीना

खासकर मुंबई और दिल्ली जैसे भारत के महानगरों और अन्य बड़े शहरों में बसने वाली लड़कियों और महिलाओं की स्थिति में काफी बदलाव आए हैं. आज उन्हें शारीरिक पोषण और मानसिक विकास के समान अवसर मिल रहे हैं. सड़कों पर जरूरी काम से देर रात भी निकलना चाहें तो निकल सकती हैं. बेखौफ हो कर अपनी पसंद के कपड़े पहनती हैं.

अपने दिल और मरजी की थाप पर एक साथ गुनगुनाती है. अपनी मरजी से अपना साथी चुनने का अधिकार भी मिलने लगा है. दिल चाहे तो वह बुरका पहनती है और मन करे तो बिकिनी भी. उस की मरजी हो तब लिपस्टिक लगाने का अधिकार है और मरजी हो तो बिना मेकअप घूमनेफिरने का हक. शादी करने या न करने का फैसला भी ले सकती है.

वह अपनी मरजी से अकेली भी रहती है तो कोई उस पर ताने नहीं कसता. अपनी मरजी की जौब कर आत्मनिर्भर जिंदगी जीने के मौके भी उस के पास हैं. हां इतना दुख जरूर है कि यह क्रांति अभी बड़े शहरों तक सीमित है. छोटे शहरों और गांवों में आज भी पंचायत, समाज और खापों की चल रही है. कई जगह नए कपड़े पहनने तक पर पाबंदी है.

घर में सम्मान

शिक्षा और जागरूकता का असर घरेलू हिंसा पर भी पड़ा है. अब इस तरह के मामले पहले से कम हुए हैं. रिपोर्ट के अनुसार वैवाहिक जीवन में हिंसा ?ोल रही महिलाओं का प्रतिशत 37.2 से घट कर 28.8% रह गया है. सर्वे में यह भी पता चला कि गर्भावस्था के दौरान केवल 3.3% को ही हिंसा का सामना करना पड़ा.

एक सर्वेक्षण से यह भी सामने आया है कि 15 से 49 साल की उम्र में 84% विवाहित महिलाएं घरेलू फैसलों में हिस्सा ले रही हैं. इस से पहले 2005-06 में यह आंकड़ा 76% था. ताजा आंकड़ों के अनुसार लगभग 38% महिलाएं अकेली या किसी के साथ संयुक्त रूप से घर या जमीन की मालकिन हैं.

आज के बदलते परिवेश में जिस तरह नारी पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिला कर प्रगति की ओर अग्रसर हो रही है वह समाज के लिए एक गर्व और सराहना की बात है. आज राजनीति, टैक्नोलौजी, सुरक्षा समेत हर क्षेत्र में जहांजहां महिलाओं ने हाथ आजमाया उन्हें कामयाबी ही मिली. अब तो ऐसी कोई जगह नहीं है जहां आज की नारी अपनी उपस्थिति दर्ज न करा रही हो. इतना सब होने के बाद भी वह एक होममेकर के रूप में भी अपना स्थान बनाए हुए है.

हाल ही में भारत ने महिला सशक्तीकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाते हुए देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में एकतिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की. वैसे एक सच यह भी है कि महिला आरक्षण का मात्र वही महिलाएं फायदा उठा सकती हैं जो शिक्षित या योग्य हैं. आज भी जो महिलाएं परदे के पीछे रहती हैं उन की स्थिति वही की वही है.

ज्यादा प्रयास की जरूरत

सिक्के का दूसरा पहलू भी विचारणीय है जहां आज भी महिलाओं को घर के बाहर न निकलने की हिदायत दी जाती है. रेप या बलात्कार होने पर हमारा समाज एक औरत को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देता है. यही नहीं कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनाएं महिलाओं के विकास में अवरोध पैदा कर रही हैं.

आज भी महिलाओं को उतना आगे नहीं आने दिया जा रहा है जितना जरूरत है और इस की सब से बड़ी वजह है हमारे समाज का पुरुषप्रधान होना. हालात ऐसे हैं कि नारी पुरुषों के लिए भोगविलास की वस्तु मानी जाती है. विज्ञापनों, फिल्मों जैसे क्षेत्रों में उन्हें अश्लील रूप में प्रदर्शित किया जाता है.

अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो पाएंगे कि अब भी हमारे देश को महिलाओं की स्थिति सुधारने की जरूरत है. शिक्षा को निचले स्तर तक पहुंचा कर हम नारियों को सशक्त करने का प्रयास कर सकते हैं.

महिला सशक्तीकरण की दिशा में देश में प्रगति हुई है, लेकिन बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां और प्रयासों की जरूरत है. लिंगानुपात के मोरचे पर देश ज्यादा प्रगति नहीं कर पाया है.

शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हुआ है, इसलिए प्रसूति मौतों के मामलों में कमी आई है. हालांकि गांवों की स्थिति अभी ज्यादा नहीं बदली है. यूनिसेफ के अनुसार भारत में प्रसव के दौरान होने वाली मौतें पहले से घटी हैं, लेकिन ये अब भी बहुत ज्यादा हैं. देश में हर साल लगभग 45 हजार महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है.

वेतन संबंधी असमानता

चैरिटी संगठनों के एक अंतर्राष्ट्रीय परिसंघ औक्सफैम के अनुसार भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन असमानता दुनिया में सब से खराब है. मान्स्टर सैलरी इंडैक्स के अनुसार पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा एक ही प्रकार के काम के लिए भारतीय पुरुष महिलाओं की तुलना में 25 रुपए अधिक कमाते हैं.

भारतीय समाज में महिलाओं के ऊपर हिंसा एक प्रमुख मुद्दा है. महिलाओं की सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों को ‘सही ढंग से व्यवहार करना’ सिखाने की तुलना में पुरुषों को ‘सभी महिलाओं का सम्मान’  करना सिखाना अधिक आवश्यक है.

देश की पितृसत्तात्मक संरचना के कारण भारत में घरेलू दुर्व्यवहार अभी भी सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य है. भारत में युवा पुरुषों और महिलाओं के एक सर्वेक्षण के अनुसार 57% लड़के और 53% लड़कियों का मानना है कि महिलाओं को उन के पति द्वारा पीटा जाना उचित है.

2015 और 2016 के बीच किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 80% कामकाजी महिलाओं को अपने जीवनसाथी के हाथों घरेलू शोषण का सामना करना पड़ता है.

सेना में भारतीय महिलाओं की भागीदारी बेहद कम है और हाल ही के वर्षों में इस में गिरावट आई है. पुरुष से महिला अनुपात सिर्फ 0.36 है.

महिलाओं को नहीं मिली इन चीजों से आजादी

स्वतंत्रता दिवस हर भारतीय के लिए खास है क्योंकि इसी दिन हम अंगरेजों की गुलामी की जंजीरें तोड़ आजाद हुए थे. मगर बात अगर महिलाओं की स्थिति की करें तो आज भी कई ऐसी चीजें हैं जिन से उन्हें आजादी नहीं मिली. महिलाएं जो देश की 49% आबादी का गठन करती हैं अभी भी सुरक्षा, गतिशीलता, आर्थिक स्वतंत्रता, पूर्वाग्रह और पितृसत्ता जैसे मुद्दों से जूझ रही हैं.

फैसले का हक नहीं

हमारे जैसा पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों को निर्णय लेने की शक्ति देता है, लेकिन लड़कियों को नहीं. ज्यादातर लड़कियां अपनी इच्छा से पढ़ नहीं सकतीं, खेल प्रतिस्पर्धा में भाग नहीं ले सकतीं, कैरियर नहीं बना सकतीं यहां तक कि जीवनसाथी चुनने का हक भी उन्हें नहीं मिलता. पढ़ने या काम करने के विकल्प से ले कर आर्थिक फैसले और कमाई के इस्तेमाल जैसे अहम मुद्दों पर अकसर महिलाओं को पुरुषों की बात माननी पड़ती है. पितृसत्ता वाले इस समाज का नतीजा है कि भारत में कन्या भू्रण हत्या की घटनाएं इतनी ज्यादा होती हैं. उन्हें दहेज के नाम पर जला दिया जाता है और उन की जिंदगी चौकेचूल्हे तक सीमित कर दी जाती है.

हिंसा, दुर्व्यवहार और शोषण से मुक्ति नहीं

भारत में महिलाओं को हर दिन एहसास करवाया जाता है कि वे अपने घर, औफिस और पब्लिक प्लेस में कितनी असुरक्षित हैं. घर में दुर्व्यवहार, पति की मारपीट और सास के ताने, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न या मानसिक दबाव, सोशल मीडिया पर भद्दे कमैंट, सड़क पर छेड़खानी और रेप, मोबाइल पर ब्लैंक कौल्स जैसी घटनाओं से महिलाओं को हर दिन गुजरना पड़ता है. पति से ज्यादा कमाने वाली 27% पत्नियां शारीरिक हिंसा की शिकार हैं तो 11% को इमोशनल ब्लैकमेलिंग ?ोलनी पड़ती है.

शादी के बाद काम करने की आजादी

भारत में बहुत सी महिलाएं आज भी हाउसवाइफ की तरह अपनी जिंदगी व्यतीत कर रही हैं. उन में से बहुत सी औरतें तो घर के काम से खुश हैं, लेकिन कुछ मजबूरी के चलते बाहर काम नहीं करतीं. चूंकि आज भी कई जगहों पर महिलाओं को शादी के बाद काम करने की आजादी नहीं है. कुछ पुरुष आज भी पत्नी के काम को अपना अपमान समझते हैं.

मनचाहे कपड़े पहनने की आजादी

कुछ समय पहले उत्तराखंड के सीएम तीरथ सिंह रावत ने महिलाओं की फटी जींस को ले कर बयान देते हुए कहा था कि आजकल महिलाएं फटी जींस पहनती हैं. उन के घुटने दिखते हैं. ये कैसे संस्कार हैं? ये संस्कार कहां से आ रहे हैं? इस से बच्चे क्या सीख रहे हैं और महिलाएं आखिर समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं? अकसर इस तरह के बयान नेताओं या देश के तथाकथित हितचिंतकों की जबानी सुनने को मिल जाते हैं. अब जिस देश को संभालने वालों की ही ऐसी सोच हो तो वहां महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी भला कैसे मिलेगी?

महिलाओं ने अब तक जो हासिल किया भी है वह स्वयं के अनुभव, आत्मविश्वास और मेहनत के आधार पर किया है. मगर पुरुष समाज लैंगिक सोच के दायरे से बाहर नहीं निकला है. स्त्री को देह मानने की मानसिकता अब भी है. खाप पंचायतों की महिलाओं को ले कर हुए तुगलकी फरमान किसी से छिपे नहीं हैं. इसी समाज में रोजाना बुलंदशहर जैसी घटनाएं भी हमारे प्रगतिशील समाज के मुंह पर कालिख पोतती हैं. दलित, निर्धन और अशिक्षित महिलाओं की सुध लेने की बात तो दूर की है जब शहरी आबादी ही बुरी तरह सामाजिक परंपराओं के बोझ ढोने को विवश हो.

विश्वभर की संसदों में महिलाओं की संख्या के हिसाब से भारत आज भी 103वें स्थान पर है, जबकि नेपाल, बंगलादेश और पाकिस्तान की संसद में महिला सांसदों की संख्या कहीं अधिक है, जिन्हें हम अपने से भी ज्यादा पिछड़ा हुआ मानते हैं.

मंजिल अभी दूर

कुल मिला कर आज आजादी के 75 सालों बाद भी भारत में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती. आधुनिकता के विस्तार के साथसाथ देश में दिनप्रतिदिन बढ़ते महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या के आंकड़े चौकाने वाले हैं. उन्हें आज भी कई प्रकार के धार्मिक रीतिरिवाजों, कुत्सित रूढि़ मान्यताओं, यौन अपराधों, लैंगिक भेदभावों, घरेलू हिंसा, निम्न स्तरीय जीवनशैली, अशिक्षा, कुपोषण, दहेज उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या, सामाजिक असुरक्षा, तथा उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है.

हालांकि कुछ महिलाएं इन सभी चुनौतियों से पार पाकर विभिन्न क्षेत्रों में देश के सम्माननीय स्तरों तक भी पहुंची हैं जिन में श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, अमृता प्रीतम, महाश्वेता देवी, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान, अल्का याज्ञनिक, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, मेधा पाटकर, अरुंधती राय, चंदा कोचर, पी.टी. ऊषा, ?साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, साक्षी मलिक, पी. वी. सिंधू, हिमा दास, झलन गोस्वामी, स्मृति मंधाना, मिताली राज, हरमनप्रीत कौर, गीता फोगाट, मैरी काम और हाल ही में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदि नाम उल्लेखनीय हैं.

भारत जैसे पुरुषप्रधान देश में 70 के दशक से महिला सशक्तीकरण तथा फैमिनिज्म शब्द प्रकाश में आए. गैरसरकारी संगठनों ने भी महिलाओं को जाग्रत कर उन में अपने अधिकारों के प्रति चेतना विकसित करने तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि में कन्या भ्रूण हत्या को रोक कर लिंग अनुपात के घटते स्तर को संतुलित करने तथा शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयास में केंद्र सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना चलाई जा रही है.

आजादी के बाद के वर्षों में महिलाओं के लिए समान अधिकार, अवसरों की समानता, समान कार्य के लिए समान वेतन, अपमानजनक प्रथाओं पर रोक आदि के लिए कई प्रावधान भारतीय संविधान में किए गए. इन के अतिरिक्त दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुंब न्यायालय अधिनियम 1984, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (प्रतिषेध) अधिनियम 2013 आदि भारतीय महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने तथा उन की आर्थिक एवं सामाजिक दशा में सुधार करने के लिए बनाए गए प्रमुख कानूनी प्रावधान हैं. कई राज्यों की ग्राम व नगर पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान भी किया गया है.

स्त्री सुरक्षा और समता

स्त्री सुरक्षा और समता में उठाया गया हमारा प्रत्येक कदम किसी न किसी हद तक स्त्रियों की दशा सुधारने में कारगर साबित हो रहा है इस में कोई दोराय नहीं. किंतु सामाजिक सुधार की गति इतनी धीमी है कि इस के यथोचित परिणाम स्पष्ट रूप से सामने नहीं आ पाते. हमें और भी तेजी से इस क्षेत्र में जनजागृति और शिक्षा पहुंचाने का कार्य करने की आवश्यकता है.

हमें यह समझना होगा कि विकास और महिला उत्थान 2 अलग चीजें नहीं हैं. इन्हें 2 अलग नजरिए से देखने पर सिर्फ नाकामी ही हाथ लगेगी. महिलाओं को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रयास किए जाएं ताकि वे आत्मनिर्भर और जागरूक हो सकें.

आज किसी भी बड़े मौल में चले जाएं, सब से चमकदार दुकानों में औरतों का सामान बिक रहा है. सुपर मार्केटों में ज्यादा खरीदारी औरतें कर रही हैं. व्हाइट गुड्स जैसे फ्रिज, एयरकंडीशनर, गैस के चूल्हे, नई मौड्यूल, किचन आदि पर फैसला औरतें कर रही हैं. इंटीरियर डैकोरेशन पर औरतों की राय ली जा रही है और वे धड़ाधड़ नए डिजाइन के बैड, वार्डरोब, नए पेंट, पौलिश बाजार में छा रहे हैं जिन की ग्राहक औरतें हैं.

औरतें हर देश के सकल उत्पादन यानी जीडीपी की वृद्धि में अब बड़ा योगदान कर रही हैं और भारत में भी वे उत्पादन में भी लगी हैं और कंज्यूमर भी हैं.

योग: नए दौर का धार्मिक कर्मकांड

अगर कोईर् यह कहे कि योग कोई धार्मिक कृत्य नहीं है, तो उस की नादानी पर या तो हंसा जा सकता है या फिर बेहिचक यह कहा जा सकता है कि वह नए दौर के पनपते धार्मिक पाखंडों के साजिशकर्ताओं में से एक है. हर साल सरकार अरबों रुपए खर्च कर के देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनवाती है. इसे मोदी सरकार की सफलता के बजाय इस नए नजरिए से देखा जाना मौजूं है कि यह जनता पर गैरजरूरी बोझ है. आखिरकार योग के प्रचारप्रसार और इसे सरकारी स्तर पर मनाने के लिए हमारे योगाचार्यों को अब खूब पैसा मिल रहा है, कुछ सरकार से तो कुछ अंधभक्तों से.

वजह सिर्फ इतनी है कि ‘भारत माता की जय’ बोलने के टोटके के बाद योग ऐसा धार्मिक कृत्य है जो ऊपरी तौर पर कर्मकांड से मुक्त है यानी एक ऐसा काम है जिस के एवज में आप को पंडों को सीधे कोई भुगतान नहीं करना पड़ता. सरकार बताना यही चाह रही है कि कर्मकांडों से इतर भी हिंदू धर्म है जिसे अब गैर शुद्ध दुकानदार भी बेच कर अपनी रोजीरोटी चला सकते हैं.

योग की आड़ में बिजनैस

यहां यह जानना बेहद दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पटरी उन बाबाओं से नहीं बैठती, जो पूजापाठ, यज्ञ, हवन वगैरह को पूर्णकालिक रोजगार या उद्योग बना चुके हैं, बल्कि उन की पटरी उस किस्म के बाबाओं से बैठती है, जो धर्म के कारोबार में नएनए आइडिए लाते हैं, वे भी ऐसे कि ग्राहक हिंदुत्व से मुंह न मोड़े. इन में रामदेव भी शामिल हैं जिन का प्रचार 2014 में मोदी के खूब काम आया और अब पतंजलि के उद्योग में पनप रहा है.

खुशियां बेचने वाले ‘आर्ट औफ लिविंग’ के प्रणेता श्रीश्री रविशंकर और योग की आड़ में अब हेयर रिमूवर छोड़ कर सबकुछ बेचने बाले योग गुरु के खिताब से ख्वाहमख्वाह नवाज दिए गए बाबा रामदेव बेवजह मोदी की पसंद नहीं हैं, जो गैरहिंदुओं से भी सूर्य पूजा करवाने और ओम भी कहलवाने की कूबत रखते हैं. विश्वभर में योग का प्रचार किया गया जबकि जो व्यायाम योग के नाम किए जाते हैं उन का तो पुराणों में जिक्र ही नहीं है.

धर्म के माने संकुचित क्यों

बात सही है कि धर्म के माने इतने संकुचित भी नहीं होने चाहिए कि वे अगरबत्ती के धुएं और 5-10 रुपए की भगवान की तसवीर में गुंथ कर रहे जाएं. धर्म की व्यापकता दिखाने के लिए सरकार योग के रैपर को भी एक प्रोडक्ट की तरह ले आई है, जिस का बाकायदा पिछले सालों से शुद्धिकारण किया जा रहा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि योग पैसे वाले होते जा रहे अमीर हिंदुओं में इफरात से बिकेगा.

अभी करो योग रहो निरोग का दावा ठीक एक चमत्कार के रूप में किया जा रहा है जैसे कभी यह कहा जाता था कि हनुमान का नाम लेने भर से प्रेतात्माएं नजदीक नहीं फटकतीं. इस पर अंधविश्वासी लोगों ने सहज ही भूतप्रेतों के वजूद पर भरोसा कर लिया था. आज भी ये बुरी और भटकती आत्माएं गांवदेहातों के पीपल और पुराने पेड़ों पर लटकती मिल जाएंगी, जिन से बचाने का ठेका पंडितों ने दक्षिणा के एवज में ले रखा है.

धार्मिक लालसा

योग से बीमारियां दूर होती हैं इसीलिए कोविड-19 के दौरान रामदेव ने अपनी दवा जारी की. और कोई करता तो ड्रग कंट्रोलर उसे जेल में डलवा देता. अभिजात्य और शिक्षित हो चले नव हिंदुओं की धार्मिक लालसा को पकड़े मोदीजी यह दावा किए जा रहे हैं कि यह लालसा मुक्ति और मोक्ष की है जो योग से ही संभव है, स्वास्थ्य तो शुरुआती प्रलोभन भर है.

आप खुद योग करेंगे तो देरसवेर सीधे भगवान से कनैक्ट हो जाएंगे, फिर जीवन में कोई मोह या वासना नहीं रह जाएगी. आप देह से एक प्रकाशपुंज में परिवर्तित हो जाएंगे, जो कभी भी देह का धारण और त्याग इच्छा से कर सकता है यानी अतिमानव या ईश्वर बनने के लिए अब किसी को हिमालय की तरफ जाने की जरूरत नहीं रहेगी.

योगासनों को बेचने के लिए डाक्टरों और विचारकों की भी एक फौज तैयार की गई है. विदेशों में जो ईसा की मूर्ति के सामने बैठ कर अपने दुखों को दूर करने की कामना करते हैं, वे योग को भी ऐसे ही लपक रहे हैं जैसे संडे को चर्च में जाना. साधारण व्यायाम ज्यादा कारगर हैं तभी फिजियोथेरैपी और जिम चलाए जाते हैं जो शरीर विज्ञान के अनुसार चलते हैं.

गर्भपात और सुप्रीम कोर्ट का फैसला

जुलाई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के मामले में एक महत्वपूर्ण जजमैंट दिया कि शादी होना या न होना एक गर्भवती के अधिकारों को कमबढ़ती नहीं करता अगर वह गर्भपात कराना चाहे गर्भवती का गर्भपात कराना न जाने क्यों आज भी सरकारों के हाथों में है, मरीजों और डाक्टरों के हाथों में नहीं. मेडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैगनैंसी एक्ट और इस के अंतर्गत बने रूल्स गर्भवती को दरदर ठोकरें खाने को मजबूर करते हैं और कितनी बार गर्भवती को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ता है जहां उस की इज्जत भी तारतार होती है और जमापूंजी स्वाह होती है.

सैक्स करना मौलिक व मूलभूत प्राक्रतिक अध्धिककार है और जो सरकार, समाज, घर, रीतिरिवाज इस के बीच में आड़े आता है वह अपने को प्रकृति के ऊपर खुद को काल्पनिक भगवान का सा दर्जा देता है. दुनिया के कितने ही देशों में, जिस मेंं  वैज्ञानिक सोच के लिए जाना जाने वाला अमेरिका भी शामिल है, औरतों के इस हक पर खुलेआम डाका डालते हैं.

शादी अपनेआप में एक लीगल फिक्शन. है, यानी समाज व सरकार के कानूनों द्वारा दिया नकली प्रमाणपत्र है कि अब 2 जने सैक्स कर सकते हैं. यह बदलाव नया नहीं है पर सदियों से इस की गाज आदमी पर नहीं औरतों पर ज्यादा पड़ती रही हैं. सदियों से तलाकशुदा, विधवा, कुआंरियों के सैक्स संबंधों पर समाज सिर्फ इसलिए नाकमौं चढ़ाता रहा है कि उन्होंने सैक्स का सामाजिक, कानूनी, धार्मिक लाइसेंस नहीं लिया. सैक्स की वजह से गर्भ हो जाए तो सजा औरतों को मिलती है आदमियों को नहीं.

पहले गर्भपात का अठलन तरीकों में कूएं में कूदना, नदी में बह जाना या रस्सी गले में बांध कर लटक जाना था. आज सेफ एबोर्शन मिल रहा है. यह चिकित्सा जगत का औरतों को उपहार है पर जैसे पंडेपादरी हर खुशी के मौके पर टांग अड़ाते हैं, इस खुशी में भी टांग अड़ाने आ गए. अमेरिका में प्रेमनाटक मूवमैंट चर्च जीवन रहा है और वह काफी अफैक्टिव है. औरतों को चर्च की शरण में जाना पड़ रहा है और इस मूवमैंट से चर्च को डोनेशन भी बढ़ गई है.

भारत में कानून लगातार लिबरल और लचीला हो रहा है और यह खुशी की बात है. इस फैसले से कि अविवाहित गर्भवती को भी शादीशुदा गर्भावती जैसे राइट्स हैं. एक राहत की बात है. इस में आपत्ति बस यही है कि एक भी वजह हो तो बताएं कि मेडिकल टॢमनेशन औफ प्रैगनैंसी एक्ट है क्यों? यह हक हर औरत का प्राकृतिक है कि वह सैक्स करे और अगर गर्भ ठहर जाए तो वह डाक्टर की सलाह पर उसे गिरा दे.

अगर अनैतिक काम हो रहा है तो वह पुरुष कर रहा है. कानून तो बनना चाहिए इम्प्रैग्नैंट प्रोहीबिशन एक्ट जिस में वह पुरुष दोषी हो जिस ने औरत को प्रैग्नैंट किया. यह कानून नहीं बनेगा. यह रेप कानून से अलग होगा क्योंकि यह सिर्फ सैक्स के बारे में नहीं गर्भ ठहरने पर लागू होगा. दरदर ठोकरे पुरुष खाए. उस ने प्रैग्नैंट किया है तो आप से ज्यादा दोष उस का है, यह पति पर भी लागू होगा, प्रेमी होगा, लिव इन पार्टनर पर भी, शिकायत लेने का काम पुरुष का है. प्यार में भी पुरुष का काम है देखना कि उस के पैनट्रेशन से प्रैग्नैंसी तो नहीं होगी.

कानून चाहे संसद का बना हो या धर्म का या समाज का, अब औरतों के बराबर समझे. सदियों से औरतों को जो बच्चे पैदा करने की और खाना बनाने की गुलामी औरतें सह रही हैं, उस के खिलाफ विद्रोह करें. आधुनिक तर्क, वह तकनीक व तथ्य औरतों को पूरी तरह बराबर का हक देते हैं, वही हक जो प्रकृति में हर अन्य प्रजाति का मादा का है.

कंचन अवस्थी को मिला ‘भारत सम्मान’-2022

बुद्धाजंलि रिसर्च फाउन्डेशन एवं बीइंग मदर स्टैंड यूनाइटेड, मुम्बई द्वारा दिल्ली के द अशोका में होटल में आयोजित एक भव्य समारोह में लखनऊ निवासी बालीवुड की जानी मानी अभिनेत्री कंचन अवस्थी को बालीवुड सिंगर उदित नारायण, संगीत निर्देशक अनु मलिक, अभिनेत्री एवं प्लेबैक सिंगर सलमा आगा, माननीया सांसद, लोक सभा श्रीमती सुनीता दुग्गल तथा केलाश मासूम, अध्यक्ष, बुद्धाजंलि रिसर्च फाउन्डेशन चैरिटेबुल ट्रस्ट द्वारा सम्मानित किया गया. इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में माननीय मंत्री भारत सरकार श्री रामदास अठावले ने दीप प्रज्जवलन कर के कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया.

कंचन अवस्थी को इसके पूर्व बेस्ट डांसर अवार्ड, मंजू श्री सम्मान,

सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री सम्मान, यू0पी0 आर्टिस्ट अकादमी द्वारा बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड,वर्ष 2018 में बेस्ट अपकमिंग एक्ट्रेस का सम्मान,ग्लोबल एचीवर्स अवार्ड, फिल्म बंधु,उत्तर प्रदेश द्वारा काशी फिल्म महोत्सव में दिये गये अवार्ड सहित  कई सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है.

कंचन अवस्थी ने फीचर फिल्म फ्राड सैंया, मंटो रीमिक्स ( अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शित),लव हैकर्स,  अंकुर अरोड़ा मर्डर केस, गन वाली दुलहनिया, भूत वाली लव स्टोरी,मैं खुदी राम बोस, चापेकर ब्रदर्स,जय जवान जय किसान, कुतुब मीनार सहित बहुत सी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया है. अभी हाल ही में भैया जी स्माइल सहित कई वेब सीरीज एवं  धारावाहिक अम्मा में भी अहम किरदार निभाया है.

हादसे को न्योता देती भक्तों की भीड़

ठीक इसी जगह पर 29 जुलाई, 2021 को भी बादल फटा था, लेकिन तब न कोई मरा था, न कोई भगदड़ मची थी और न ही न्यूज चैनल वालों ने मजमा लगाया था. लेकिन बीती 8 जुलाई को जो कहर इसी जगह पर बादल ने बरपाया तो नजारा बेहद बदला हुआ और दहला देने वाला था. मीडिया वाले वहां टूटे पड़ रहे थे. चारों तरफ दहशत थी, मौतें थीं, रुदनकं्रदन था और भुखमरी के से हालात बन रहे थे. सेना के हजारों जवान अपनी जान जोखिम में डाल कर अमरनाथ तीर्थ यात्रियों की जिंदगी बचाने में जुटे थे और देशभर के आम लोग जीवन की क्षणभंगुरता की चर्चा करते आदत के मुताबिक टिप्स दे रहे थे कि इतनी भीड़ वहां नहीं लगने देनी चाहिए थी.

इस हादसे जिस में 20 के लगभग लोग मरे 50 से ज्यादा घायल हुए और 40 से भी ज्यादा लापता हुए का जिम्मेदार भगवान को मानने में धार्मिक आस्था और पूर्वाग्रह आड़े आ रहे थे, इसलिए ठीकरा बड़ी बेशर्मी से श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के सिर फोड़ दिया गया कि उस की लापरवाही से यह हादसा हुआ.

मगर किसी ने यह नहीं कहा कि असल गलती तो लोगों की थी जो दुर्गम पहाड़ पर इकट्ठा हुए. क्या इन्होंने मौसम विभाग की बारबार दी गई चेतावनी नहीं सुनी थी कि इस वक्त वहां जाना एक तरह से आत्महत्या करने जैसा काम है? अगर बोर्ड यात्रा रोकता तो यकीन माने देशभर के हिंदू हल्ला मचाते कि देखो हमारी पवित्र यात्रा मौसम का बहाना ले कर रोकने की साजिश रची जा रही है.

30 जून से अमरनाथ यात्रा शुरू हुई थी तो हर साल की तरह 2 आशंकाएं खासतौर से जताई जा रही थीं. पहली- आतंकी हमले की और दूसरी खराब मौसम की. पहली आशंका से आश्वस्त करने के लिए तो सरकार ने सुरक्षा के लिए

1 लाख से भी ज्यादा जवान तैनात कर दिए थे, लेकिन खराब मौसम की बाबत वह कुछ करने में असमर्थ थी, इसलिए भक्तों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया था. कोरोना के कहर के 2 साल बाद हो रही इस यात्रा को ले कर लोगों में जबरजस्त जोश था, जिस के चलते लाखों लोगों ने रजिस्ट्रेशन करा लिया था.

भीड़ और हादसा

अमरनाथ गुफा से 2 किलोमीटर दूर काली माता स्थान के पास हादसे के दिन शाम जब 5 बजे  के लगभग बादल फटा तब वहां 25 टैंटों में करीब 15 हजार लोग मौजूद थे. पानी बेकाबू हो कर बहा और टैंट सिटी के कई टैंटों को बहा ले गया, साथ में कुछ भक्त भी लकड़ी की तरह बहे. ये टैंट महानगरों की ?ाग्गियों की तरह एकदूसरे से सटे हुए थे जिन के आसपास लगे 3 लंगर भी वह गए.

तबाही का तांडव घंटों चला. घुप्प अंधेरे में कैद यात्री अपने भगवान को याद करते रह गए क्योंकि करंट फैलने के डर से बिजली भी काट दी गई थी.

इस मिनी प्रलय का कहर इतना था कि चट्टानें तो चट्टानें मिट्टी भी निकल कर बहने लगी थी. एक संकरी जगह में हजारों लोगों का होना जानमाल के बड़े नुकसान की वजह बना.

पिछले साल जब बदल फटा था तो एक आदमी भी नहीं मरा था क्योंकि वहां कोई था ही नहीं. साफ  है भीड़ थी इसलिए हादसा हुआ जिसे कुदरती कहने के बजाय मानवीय कहना ज्यादा बेहतर है. भीड़ क्यों थी इस सवाल के कोई खास माने नहीं हैं. माने इस बात के हैं भीड़ न होती तो किसी का कुछ नहीं बिगड़ता.

जिद की भारी कीमत

देशभर में हल्ला मचा, अलर्ट घोषित कर दिया गया, लेकिन यात्रा हैरत की बात है रद्द नहीं की गई बल्कि मौसम साफ होने तक स्थगित कर दी गई और 3 दिन बाद फिर शुरू कर दी गई जबकि मौसम के मिजाज में कोई तबदीली नहीं आई थी. शुरू होने के बाद खराब मौसम के चलते यह यात्रा कई बार रोकी गई थी, लेकिन भीड़ को इस से कोई सरोकार ही नहीं था.

उसे तो बस पवित्र गुफा तक किसी भी हाल में, किसी भी कीमत पर पहुंचना था. इस जिद की भारी कीमत कुछ लोगों ने जान दे कर चुकाई, लेकिन यात्रियों को अक्ल फिर भी नहीं आई.

महंगी पड़ी यात्रा

4 दिन बाद कुछ लोगों को अक्ल आई जब टैंट का किराया डेढ़ सौ रुपए से बढ़ा कर 6 हजार रुपए कर दिया गया. 20 रुपए कीमत वाली पानी की बोतल 100 रुपए में भी मुश्किल से मिली. लंगरों में राशनपानी खत्म हो गया तो मैगी और बिस्कुट के दाम भी 50 गुना बढ़ गए, जिन के पास पैसा खत्म हो चला था उन्होंने परिचितों और रिश्तेदारों से ट्रांसफर कराया.

मध्य प्रदेश के एक तीर्थ यात्री सचिन वारुडे बताते हैं कि मेरा परिवार गुफा से 200 मीटर दूर था. बादलों की गड़गड़ाहट से हम सब घबरा उठे थे. वहां के टैंट और लोग तेजी से बह रहे थे हरकोई भयभीत और लाचार था. बादल छंटने पर सचिन अपने बूढ़े मांबाप और ससुर को ले कर पंचतरणी की तरफ भागा तब तक इन तीनों की सांस फूल चुकी थी.

लूट सको तो लूट

दुश्वारियां यहीं खत्म नहीं हुई. पंचतरणी जाने के लिए उन्होंने जब घोड़े बालों से बात की तो उन्होंने 6 हजार रुपए मांगे जबकि तयशुदा किराया डेढ़ हजार रुपए है. इस तरह 3 घोड़ों के उन्हें 18 हजार रुपए देने पड़े. जिस यात्रा के लिए उन का बजट 20-25 हजार रुपए का था वह 50 हजार रुपए पार कर गया था.

साथ के तीनों बुजुर्गों की तबीयत भी बिगड़ गई थी और खानेपीने का भी कोई ठिकाना नहीं था. यह यात्रा उन्हें ढाई गुना से भी ज्यादा महंगी पड़ी और ब्याज में परेशानियां भुगतीं सो अलग. अब सचिन ने पहाड़ों की यात्रा से तोबा कर ली है.

चार धाम यात्रा भी अछूती नहीं

बात अकेले अमरनाथ यात्रा की नहीं बल्कि हिंदुओं की सब से अहम चार धाम यात्रा की भी है, जिस के लिए देशभर के करीब 22 लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन कराया था. यह यात्रा और भी ज्यादा दुर्गम और खतरनाक मानी जाती है. इस के बाद भी लोग यहां भी मधुमक्खियों की तरह उमड़ रहे थे.

लोग यहां बादल फटने से कम स्वास्थ कारणों से ज्यादा मरे. शुरुआती 23 दिनों में ही करीब 100 लोग अपनी जान गंवा चुके थे.

मृतकों की लगातार बढ़ रही संख्या से हरकोई चिंतित था, लेकिन उन्हें बचाने का उपाय किसी के पास नहीं था. यह कहने की भी हिम्मत कोई नहीं कर पाया कि इतनी बड़ी तादाद में लोगों को यहां नहीं आना चाहिए खासतौर से बीमार और बुजुर्गों को तो यहां आने की सोचनी भी नहीं चाहिए. हालत तो यह थी कि उत्तराखंड की स्वास्थ्य महानिदेशक शैलजा भट्ट को यह कहना पड़ा कि हम तीर्थयात्रियों की मौतें रोकने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं जिन में से अधिकतर बुजुर्ग हैं.

कोई घोषित शोध तो चार धाम के यात्रियों की मौतों पर नहीं हुआ, लेकिन सिक्स सिग्मा हैल्थ केयर के मुखिया प्रदीप भारद्वाज के मुताबिक जिन वजहों के चलते मौतें हुईं उन में प्रमुख कारण अनुकूल तंत्र की अनुपस्थिति, तीर्थयात्रियों की कमजोर इम्यूनिटी और अनिश्चित मौसम है. असल में पहाड़ों के मौसम का अपना अलग मिजाज होता है जहां कभी तेज धूप निकल आती है तो कभी अचानक बारिश होने या फिर ठंड पड़ने लगती है. अभ्यस्त न होने से इस बदलाब को यात्री यानी बाहरी लोग बरदाश्त नहीं कर पाते. चार धाम के पहाड़ पर स्थित मंदिर 1200 फुट की ऊंचाई तक है जहां चढ़ने के लोग ट्रेंड नहीं होते. वहां जलवायु भी एकदम बदलती है और ठंड भी कड़ाके की पड़ती है.

दम तोड़ना आम बात

केदारनाथ के रास्ते में ज्यादातर मौतें हायपोथर्मिया से हुईं जोकि अत्यधिक ठंड के चलते होता है. इस के बाद हार्टअटैक या कार्डियक अरेस्ट से ज्यादा लोग पहाड़ों पर दम तोड़ते हैं- हवा का कम दबाव अल्ट्रावायलेट किरणें और औक्सीजन की कमी से भी लोग या तो मर जाते हैं या फिर बीमार पड़ जाते हैं. डायबिटीज और ब्लडप्रेशर के मरीजों के सिर पर भी मौत मंडराती रहती है. चार धाम यात्रा में हर साल सैकड़ों लोगों का दम तोडना आम बात है.

औफ सीजन पहाड़ों का रोमांच किसी सुबूत का मुहताज नहीं जहां लोग खुली हवा, सुकून और एकांत में आराम करने ज्यादा जाते हैं, लेकिन इस के लिए इंतजार तीर्थ यात्राओं के सीजन का करते हैं जिस में लैंड स्लाइडिंग, तेज बारिश और हवाएं, आसमानी बिजली गिरने और बादल फटने का खतरा बना ही रहता है. एक खास वक्त में जाने से भीड़ बड़ती है और हादसे के अलावा बीमारियों से भी मौतें होती हैं.

अमरनाथ और चार धाम की यात्रा करने वाले सरकारी शैड्यूल और धार्मिक मुहूर्तों के गुलाम हो कर रह जाते हैं. वे चाह कर भी आराम नहीं कर पाते जबकि पहाड़ों की यात्रा रुकरुक कर की जाए तो तमाम तरह के जोखिम कम हो जाते हैं और यात्रा का पूरा लुत्फ  भी उठाया जा सकता है.

टूट रहा मिथक

सबक दूसरे पहाड़ी स्थलों कुल्लू, मनाली, शिमला, कश्मीर और नैनीताल से लिया जा सकता है. इन जगहों पर गरमियों में ही जाने का मिथक भी अब टूट रहा है. बारिश के 2-3 महीने छोड़ सैलानी सालभर खासतौर से ठंड के दिनों में इन जगहों पर बड़ी संख्या से जाने लगे हैं.

भीड़भाड़ से बचने के अलावा औफ सीजन पहाड़ी यात्रा के और भी फायदे हैं मसलन, ठहरने के लिए होटल सस्ते मिल जाते हैं, खानापीना भी किफायती दाम में मिल जाता है और अवागमन के साधनों का किराया भी कम हो जाता है. मंदिर और दूसरे दर्शनीय स्थल भी खाली पड़े रहते हैं.

दिल्ली से अकसर बद्रीनाथ केदारनाथ जाने वाले कश्मीरी गेट के एक युवा टैक्सी ड्राइवर परमवीर सिंह के मुताबिक तीर्थ यात्रा के सीजन में टैक्सियों का किराया भीड़ के मुताबिक 5 रुपए से 10 रुपए प्रति किलोमीटर तक बढ़ जाता है. अगर कोई दिल्ली से बद्रीनाथ जाने के लिए टैक्सी लेता है तो उसे एक तरफ के लगभग 5 हजार रुपए तक ज्यादा चुकाने पड़ते हैं. यही हाल होटलों और धर्मशालाओं का होता है जिन का किराया सीजन में दोगुना, चारगुना तक हो जाता है.

बात अकेले पैसे की नहीं है बल्कि बेशकीमती जिंदगी की भी है जो सलामत रहे तो एक बार और उस से भी ज्यादा पहाड़ी यात्राएं की जा सकती हैं. चार धाम और अमरनाथ में जान गंवाने वालों का न तो पुण्य कमाने का मकसद पूरा हुआ और न ही वे पहाड़ों का आनंद ले सके.

उन के घर वाले भी मुद्दत तक दुखी रहेंगे सो अलग और मुमकिन है उस घड़ी को कोस रहे हों जब जोखिम भरी यात्रा के फैसले में उन्होंने अपनी सहमति दी थी.

इन बातों पर ध्यान दें

– मौसम विभाग की भविष्यवाणी सुन कर ही यात्रा तय करें. अमरनाथ यात्रियों ने इस

की अनदेखी की थी जिस की सजा भी उन्होंने भुगती.

– दिल की, अस्थमा की, शुगर की या ब्लडप्रैशर या फिर कोई दूसरी गंभीर बीमारी हो तो पहाड़ों की यात्रा से बचें और जाएं तो अपने डाक्टर से सलाह ले कर ही जाएं बीमारी की दवा समुचित मात्रा में ले जाएं.

– तीर्थ यात्रा के दौरान पहाड़ों के बेस कैंप में मैडिकल चैकअप करवाएं. अगर डाक्टर यात्रा करने से मना करें तो रिस्क न लें.

– पर्याप्त ऊनी व गरम कपड़ों के अलावा स्कार्फ, दस्ताने और मफलर भी साथ रखें. चार धाम यात्रा में कई यात्रियों ने कम कपडे़ ले जाने की गलती की थी.

– मोबाइल फोन की बैटरी फुल रखें और चार्जिंग के लिए सोलर बेटरी ले जाएं ताकि बाहरी दुनिया और अपनों से संपर्क बना रहे.

– लगातार यात्रा न करें. एक दिन आराम कर दूसरे दिन की यात्रा शुरू करें. चढ़ाई ज्यादा हो तो बजाय जोश के होश से काम लें. जब थक जाएं तो रुक कर आराम करें.

– पहाड़ों की ठंड का सामना करने के लिए पानी पीते रहना जरूरी है, इसलिए पर्याप्त मात्रा में पानी साथ रखें.

– इस के बाद भी स्वास्थ संबंधी कोई परेशानी महसूस हो तो तुरंत यात्रा रोक दें और सुरक्षित स्थान पर लौट कर डाक्टर से संपर्क करें.

– सब से अहम बात भीड़ का हिस्सा बनने से बचें. किसी भी आपदा से बचने के लिए भीड़ के पीछे होने के बजाय सुरक्षित ठिकाना ढूंढ़ कर वहीं रुक जाएं. पहाड़ों की जोखिम भरी यात्राओं से बचाने में भगवान और सरकार दोनों कुछ नहीं कर सकते, इसलिए अपना ध्यान और खयाल खुद ही रखें.

पिछले साल जब बदल फटा था तो एक आदमी भी नहीं मरा था क्योंकि वहां कोई था ही नहीं. साफ  है भीड़ थी इसलिए हादसा हुआ जिसे कुदरती कहने के बजाय मानवीय कहना ज्यादा बेहतर है. भीड़ क्यों थी इस सवाल के कोई खास माने नहीं हैं. माने इस बात के हैं भीड़ न होती तो किसी का कुछ नहीं बिगड़ता.

15 अगस्त स्पेशल: किस पायदान पर 76 सालों की स्वतंत्रता के बाद कानून

15 अगस्त 1947, पूरे देश द्वारा मनाया जाने वाला एक दिन और एक संघर्ष के अंत का प्रतीक नहीं था, बल्कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था, कानून व्यवस्था, गरीबी का उन्मूलन, आदिके पुनर्निर्माण की शुरुआत थी. इस वर्ष एक स्वतंत्र राष्ट्र होने के 75 गौरवशाली वर्षों को पूरा कर रहे हैं.वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता उसके आर्थिक इतिहास का सबसे बड़ा मोड़ था. अंग्रेजों द्वारा किए गए विभिन्न हमलों और डीमोनिटाईजेशन के कारण, देश बुरी तरह से गरीब और आर्थिक रूप से ध्वस्त हो गया था. ऐसे में आजाद देश कई समस्याओं से गुजर रहा था, क्या अभी भी उन समस्याओं से देश के नागरिक निजात पा चुके है? क्या कानून व्यवस्था आज भी सर्वोपरि है? आइये जानें,मुंबई हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस विद्यासागर कनाडे से हुई बातचीत के कुछ खास अंश.

विश्वास बनाए रखना है कानून पर

इस बारें में मुंबई हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस विद्यासागर कनाडे कहते है कि 75 सालों बाद भी ये गनीमत है कि देश की जनता का विश्वास कानून से हटा नहीं है. मसलन अयोध्या का केस कई सालों तक पड़ा रहा. हाई कोर्ट के जजमेंट के समय पूरे देश में कर्फ्यू लगा था, शिक्षा संस्थान बंद थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ. न तो सार्वजनिक संपत्ति नष्ट हुई और न ही तोड़-फोड़ हुई. दोनों पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही थी. लोगों को इतना विश्वास कानून तंत्र पर था कि कुछ समस्या नहीं आई और एक बीच का रास्ता निकाला गया. आज भी किसी प्रकार के न्याय के परिणाम में देर होती है, तारीख पर तारीख पड़ते रहते है. समय पर न्याय नहीं मिलता, लेकिन मुझे लगता है कि न्याय तंत्र में कुछ सुधार लाना जरुरी है. ताकि जनता का विश्वास जारी रहे. इसमें सबसे पहले अपॉइंटमेंट में देर होती है, जो केंद्र सरकार और गठबंधन साथ में करती है.

जज दोषी नहीं

इसके आगे वे कहते है कि न्याय में देरी की वजह केवल जज को देना उचित नहीं. वकील को किसी केस को तैयार करने में लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जिसमे तर्क, लोगों की बातें आदि में समय लगता है. आर्गुमेंट को अगर एक से दो घंटे का समय दिया जाय, तो बार काउंसिल धरने पर जाती है. वैसा अमेरिका और इंग्लैंड में नहीं है, कितना भी बड़ा केस हो एक से दो घंटे का समय आर्गुमेंट के लिए दिया जाता है, महीने-महीने बहस चलती है और एक अंतिम निर्णय तक पहुंचा जा सकता है, जो जल्दी भी होती है.

दूसरी अहम बात है कॉस्ट अधिक हो जाता है, क्योंकि पहले लोग PIL का पास करते है. इसमें अगर कोई दावा दाखिल नहीं हुआ फिर भी डिफेन्स करते है, क्योंकि उन्हें अधिक मूल्य नहीं देना पड़ता. ब्रिटेन और अमेरिका में जितना कॉस्ट है पूरा एक साथ देना पड़ता है. उसमे सुधार लाने की जरुरत है, ताकि विशेषाधिकार मुकदमा (प्रिविलेज लिटिगेशन) कम हो जाय. इससे पेंडिंग पड़े फाइल की संख्या कम हो जायेगी, क्योंकि आज भी बिना किसी न्याय के सालों साल फ़ाइलें पड़ी रहती है. जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में लोग आपस में सेटल कर लेते है, क्योंकि उन्हें पता होता है कि केस न जीतने पर उनके लिए ये महंगा साबित होगा. इस प्रोसेस को प्री लिटिगेशन सेटलमेंट कहा जाता है. ये होने पर पेंडिंग की समस्या कम हो जाएगी. करीब 60 प्रतिशत लिटिगेशन सरकार की होती है, जिसमे भूमि अधिग्रहण, अवार्ड देने के बाद रेफ़रेंस आदि सुप्रीमकोर्ट तक चलता रहता है. इनकम टैक्स की प्रक्रियां में राज्य सरकार की करीब 70 प्रतिशत लिटिगेशन के केसेज होती है, उन्हें लिटिगेटिंग नेचर को कम करना जरुरी है.

काम है चुनौतीपूर्ण

जज बनने के बाद खास काम के बारें में पूछने पर जस्टिस कनाडे कहते है कि मैं 16 साल जज था, उस दौरान मैंने 34,000 केसेज को अंजाम तक पहुँचाया था. स्पेशल टाटा स्कैम में मैंने 2000 मैटर्स को मैंने बाहर निकला. लोगों को लगता है कि जज अपना काम निष्ठा से नहीं कर रहे है. जबकि कई पोस्ट जजों के खाली पड़े है. 4 जज का काम एक जज अब कर रहा है. यहाँ 8 बजे तक कोर्ट चलते है. जो काम जज करता है, उससे पहले वकील के रूप में वह जितना कमा पाता है, उसके हिसाब से बहुत कम वेतन है. न्याय का यह काम एक तरीके का त्याग है, लेकिन वे इमानदारी से काम करते है. इसके अलावा जज हमेशा सही न्याय करता है, लेकिन भ्रष्टाचार के जो आरोप जज को लगते है, उसे इग्नोर करना पड़ता है, क्योंकि अगर व्यक्ति केस जित जाता है, तो जज का न्याय उसे ठीक लगता है, अगर हार जाता है, तो जज भ्रष्टाचारी कहा जाता है. बिक गया है, ये इमेज वकीलों के समूह तैयार करते है, लेकिन मेरी नजर में काम ईमानदारी से ही होता है.

आम आदमी के लिए कानून

आम जनता में कानून की कम जानकारी के बारें में उनका कहना है कि CPC में दिए गए बातों को कड़ाई से पालन करना चाहिए, ताकि न्याय पाने में देर न हो. महिलाओं को कानून की जानकारी कम होने की वजह उनका किसी विषय पर जागरूक न होना है. आजकल किसी भी जानकारी को इन्टरनेट के जरिये जाना जा सकता है. ये सही है, साधारण इंसान कानून कम जानते है, इसके लिए विदेशों की तरह कानून की सीरीज बननी चाहिए. खासकर शिक्षा में इसे सरल भाषा में किताबों में लिखी गई हो और सरकार की तरफ से सारे कानून को संक्षेप में स्थानीय भाषा में लिखकर किसी कमिटी के द्वारा पब्लिश कर इसे आम इंसान को देने से उसका फायदा उन्हें मिलेगा, क्योंकि ब्रिटिश चले जाने के बाद आज भी सभी काम अंग्रेजी में किया जाता है, जो गलत है. इसके अलावा किसी भी लॉ कमिशन को लाने के बाद लेजिस्लेचर को सलाह देते है. साधारण लोगों के लिए भारत सरकार को लेखकों की एक समूह बनाना जरुरी है, जिसमे एक्सपर्ट वकील भी शामिल हो और जो स्टैंडर्ड टेक्स्ट बना सकें,जिसमे सरल भाषा में इंडियन पीनल कोड,सीआरपीसी,बेल बांड के प्रोविजन आदि को संक्षिप्त में लिखकर देना चाहिए, ताकि आम नागरिक को समझने में आसानी हो. इसे सेक्शन वाइज न देकर चैप्टर वाइज कॉमन इंसान को देना चाहिये.

हुए कई अलग अनुभव

कार्यकाल में अपने अनुभव के बारें में जस्टिस कनाडे कहते है कि एक ग्रैंड मदर जो दूसरी पत्नी थी और उसकी दूसरेपति की भी मृत्यु हो गई, उनके सौतेले पोते-पोती थे, जबकि सौतेले बेटी का इस बूढी महिला के साथ प्रॉपर्टी को लेकर डिस्प्यूट चल रहा था. बेटी ने स्टेप मदर को जेल में और उनके पोती पोते को चाइल्ड होम में डाला. मैंने बच्चों को कोर्ट में लाने की आदेश दिया, दादी भीकोर्ट में लायी गयी और मैंने तुरंत दादी को पोते पोती से मिलवाया. इसके अलावा एक केस में एक विधवा का लड़का स्कूल जाता था, लेकिन उस महिला के पास बच्चे को पढ़ाने का पैसा नहीं था. मैंने इंस्टिट्यूशन को बुलाकार उनकी समस्या जानी और बच्चे को फ्री में शिक्षा देने की बात कही थी, उन्होंने नहीं माना और मैंने खुद उसे पढ़ने की बात सोची थी, पर इंस्टिट्यूशन ने उसकी फीस माफ़ कर दिया. ऐसे निर्णय देने के बाद खुद को संतुष्टि मिलती है.

सम्हाले नागरिक देश को

75वीं देश की आज़ादी को मना रहे देश की नागरिकों के लिए जस्टिस कनाडे का सन्देश है कि देश के लिए ही काम कीजिये, बाकी सब बेकार है. सभी नगरिक को देश को अहमियत देना है, ताकि भारत भी विकसित देशों की लिस्ट में शामिल हो सकें.

निहत्थों पर वार करना कायरता है

पिछले कुछ सालों से कश्मीर एक बार फिर देश के सैलानियों के लिए एक स्पौट बन रहा था, खासतौर पर सर्दियों में जब गुलमर्ग पर पूरी तरह बर्फ पड़ जाती थी और स्कीइंग और एलैजिंग का मजा लूटा जा सकता था. अब लगता है कि एक बार फिर कश्मीर हिंदूमुसलिम विवाद में फंस रहा है.

भारत सरकार ने बड़ी आनबानशान से कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश घोषित करते हुए उसे उपराज्यपाल के अंतर्गत डाल दिया और संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित करते हुए ऐलान कर डाला कि कश्मीर अब पूरी  तरह भारत का हिस्सा हो गया. पर मईजून माह में ताबड़तोड़ आतंकवादी हमलों ने फिर उन पुराने दहशत भरे दिनों को वापस ला दिया जब देश के बाहरी इलाकों के लोग कश्मीर में व्यापार तक करने जाने से घबराते थे.

आतंकवादी चुनचुन कर देश के बाहरी इलाकों से आए लोगों को मार रहे हैं. एक महिला टीचर और एक युवा नवविवाहित बैंक मैनेजर की मौत ने फिर से कश्मीर को पराया बना डाला है. जो सरकार समर्थक पहले व्हाट्सऐप, फेसबुक, ट्विटर पर कश्मीर में प्लौट खरीदने की बातें कर रहे थे अब न जाने कौन से कुओं में छिप गए हैं.

किसी प्रदेश, किसी जाति, किसी धर्म को दुश्मन मान कर चलने वाली नीति असल में बेहद खतरनाक है. आज के शहरी जीवन में सब लोगों को एकदूसरे के साथ रहने की आदत डालनी होगी क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था सैकड़ों तरह के लोगों के सम्मिलित कामों का परिणाम होती है.

हर महल्ले में, हर सोसाइटी में, हर गली में हर तरह के लोग रहें, शांति से रहें और मिलजुल कर रहें तो ही यह भरोसा रह सकता है कि चाहे कश्मीर में हों या नागालैंड में, आप के साथ भेदभाव नहीं होगा. यहां तो सरकार की शह पर हर गली में जाति और धर्म की लाइनें खींची जा रही हैं ताकि लोग आपस में विभाजित रह कर या तो सरकार के जूते धोएं या अपने लोगों से संरक्षण मांगने के लिए अपनी अलग बस्तियां बनाएं.

जब हम दिल्ली के जाकिर नगर और शाहीन बाग को पराया मानने लगेंगे तो कश्मीर को कैसे अपनाएंगे?

सैलानी अलगअलग इलाकों को एकसाथ जोड़ने का बड़ा काम करते हैं. वे ही एक देश की अखंडता के सब से बड़े सूत्र हैं, सरकार की ब्यूरोक्रेसी या पुलिस व फौज नहीं.

कश्मीरी आतंकवादी इस बात को समझते हैं और इसलिए इस बार निशाने पर बाहर से आए लोगों को ले रहे हैं और परिणाम है कि घर और परिवार सरकारी नीतियों के शिकार हो रहे हैं. निहत्थों पर वार करना कायरता है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अपने देश की जनता से किए वादे को पूरा करेगी और पृथ्वी पर बसे स्वर्ग को हर भारतीय के लिए खोले रखेगी.

टैक्सों का मकड़जाल

स्टांप ड्यूटी किसी जमाने में संपत्ति के रजिस्ट्रेशन के खर्च के लिए हुआ करती थी. ब्रिटिश सरकार ने संपत्ति के मालिकों को एक दस्तावेज देने और लेनदेन को पक्का करने के लिए स्टांप ड्यूटी का प्रावधान बनाया था पर धीरेधीरे देशभर की सरकारें अब इसे टैक्स का एक रूप मानती हैं और मान न मान मैं तेरा मेहमान की तरह किसी भी खरीद में बीच में टपक पड़ती हैं और कीमत का

8% से 12% तक हड़प जाती हैं. कुछ राज्यों में घर में ही संपत्ति हस्तांतरण में भारी स्टांप ड्यूटी लगने लगी और इस से घबरा कर लोग पावर औफ ऊटौर्नी पर ब्रिकी करने लगे.

अब बहुत हल्ले के बाद कुछ राज्यों को यह समझ आया है कि यह माफियागीरी कुछ ज्यादा हो गई है. महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अब संपत्ति का हस्तांतरण अगर परिवार के सदस्यों में ही हो रहा हो तो नाममात्र का शुल्क रखा गया है ताकि पारिवारिक संपत्ति का बंटवारा कागजों पर सही ढंग से हो सके और विवाद न खड़े हों.

संपत्ति की खरीदबेच असल में तो किसी भी सामान की खरीदबेच की तरह होनी चाहिए. हर लेनदेन पर मोटा टैक्स उलटा पड़ता है. लोग इस खर्च को तरहतरह से बचाने की कोशिश करते हैं. ब्लैक का चलन आय कर न देने की इच्छा से तो है ही, स्टांप ड्यूटी न देने की इच्छा भी इस में है क्योंकि लोग नहीं चाहते कि फालतू में पैसे दिए जाएं.

संपत्ति की ब्रिकी तो तभी होती है जब बेचने वाला संकट में हो और तब वह 1-1 पैसे को बचाना चाहता है. सरकार ने खुद ही कानूनों, नियमों और टैक्सों का ऐसा मकड़जाल बनाया हुआ है कि लोग पानी में पैर रखना भी नहीं चाहते जहां मगरमच्छ भरे हुए हैं.

सरकार का खजाना तभी बढ़ेगा जब लोग आसानी से संपत्ति को खरीदबेच सकें क्योंकि तब वे कपड़ों की तरह खरीदबेच करेंगे और अपनी जरूरत की संपत्ति रखेंगे और जरूरत की खरीदेंगे.

घरों में संपत्ति का बंटवारा बहुत मुश्किल होता है क्योंकि स्टांप ड्यूटी का निरर्थक खर्च सामने आ खड़ा होता है. बुजुर्ग अकसर अब चाहने लगे हैं कि वे जीतेजी अपने बच्चों में अचल संपत्ति बांट जाएं पर स्टांप ड्यूटी का पैसा न होने की वजह से टालते रहते हैं.

किसी के मरने के बाद पहले तो किस का कितना हिस्सा है, यह विवाद खड़ा होता है और हल होने पर किस के नाम कैसे करें, यह सवाल स्टांप ड्यूटी के मगरमच्छ की तरह खाने को दौड़ता है. अगर स्टांप ड्यूटी व्यावहारिक हो तो परिवारों में आपसी मतभेद में एक किरकिरी तो कम होगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें