हार की जीत- भाग 2: कपिल ने पत्नी को कैसे समझाया

छोटी सी सोसायटी थी. कुल मिला कर 4 टावर. गेट पर चौबीस घंटे का पहरा. कालोनी के बीच में बड़ा सा मैदान, जिस में बच्चों के लिए झूले लगे थे. शहर से थोड़ी दूर थी कालोनी, पर थी बहुत सुंदर. एक ही सप्ताह में दोनों अपनाअपना परिवार ले कर सामान समेत पहुंच गए. दोनों सपरिवार साथसाथ रह कर खुश भी थे. दिनभर औफिस का काम निबटा कर शाम को दोनों परिवार एकसाथ बैठ कर गपशप करते. कई बार रात का डिनर भी हो जाता था. कुछ सौरभ की पत्नी आरुषि पका लेती, तो कुछ शालू पका लेती… पिकनिक, पिक्चर, शौपिंग का प्रोग्राम भी साथसाथ ही चलता रहता था. दिन मजे से कट रहे थे.

एक दिन आरुषि सुबहसुबह शालू के पास आई. कुछ परेशान थी. बोली, ‘‘शालू, आज अचानक चीनी खत्म हो गई. मैं सोच रही थी डब्बे में होगी, पर डब्बा भी खाली था. गलती मेरी ही थी. शायद मंगाना ही भूल गई थी. गुडि़या दूध के लिए रो रही है. 1 कटोरी चीने दे दे. बाजार से मंगा कर वापस दे दूंगी.’’

शालू हंस दी थी, ‘‘हो जाता है कभीकभी. औफिस के काम में हमारे पति भी इतने मशगूल हो जाते हैं कि कई बार घर का सामान लाना ही भूल जाते हैं.’’

आरुषि खुश हो कर बोली, ‘‘शाम को वापस कर दूंगी.’’

‘‘अब 1 कटोरी चीनी वापस करोगी? बस इतनी ही दोस्ती रह गई हमारी…’’ शालू ने आरुषि के संकोच को दूर करने की गरज से कहा, ‘‘लेनदेन तो पड़ोसियों में चलता ही रहता है,’’ और फिर काफी देर तक उदाहरण समेत एक पड़ोसी ने दूसरे पड़ोसी की किस तरह सहायता की, इन भूलीबिसरी बातों की चर्चा छिड़ गई.

आरुषि ने शालू से इतने अच्छे व्यवहार की उम्मीद नहीं की थी. अब वक्तबेवक्त उस का शालू से कुछ भी मांगने का संकोच कम होने लगा. उस के घर हर समय कोई न कोई चीज घटती ही रहती थी. मौका मिलते ही पहुंच जाती थी शालू के घर और साथ ही सौरभ की लापरवाही के किस्से भी सुना आती थी.

आरुषि की हालत देख कर शालू का दिल पसीज उठता. सोचती वह कितनी खुश है कि कपिल कभी कोई सामान समाप्त ही नहीं होने देता. शुरू में उस के पास सिर्फ एक ही गैस का सिलैंडर था. गैस खत्म होती तो उसे हौट प्लेट पर खाना पकाना पड़ता था. जैसे ही दूसरे सिलैंडर की बुकिंग शुरू हुई उस ने दूसरा सिलैंडर तुरंत बुक कर लिया. पर सौरभ कितना लापरवाह है. सामान समाप्त हो जाता है, वह कईकई दिनों तक लाने की सुध ही नहीं लेता. यह तो अच्छा है हम दोनों के घर पासपास हैं वरना ऐसी जरूरत के समय बेचारी कहां मांगती फिरती.

शुरू में कपिल और सौरभ दोनों अपनेअपने स्कूटर से औफिस जाते थे. फिर सौरभ

ने प्रस्ताव रखा कि जब साथसाथ ही जाना है तो डबल खर्चा क्यों किया जाए. एक दिन सौरभ स्कूटर निकाल ले एक दिन कपिल.

इधर काफी दिनों से सौरभ का स्कूटर खराब पड़ा था. वह कपिल के स्कूटर से ही आ जा रहा था. एक बार कपिल ने पूछा तो बोला कि दफ्तर में काम ज्यादा होने के कारण उसे स्कूटर ठीक करवाने का समय ही नहीं मिल पा रहा है.

स्कूटर के हौर्न की आवाज आई तो, शालू दौड़ीदौड़ी बाहर भागी. कब शाम हो गई, उसे पता ही नहीं चला. कपिल औफिस से वापस आ गया था. पीछे सौरभ एक 5 लिटर का रिफाइंड औयल का डब्बा पकड़े बैठा था.

‘‘लीजिए भाभीजी, आप के रसोईघर का इमरजैंसी प्रबंध,’’ सौरभ तेल का डब्बा शालू को पकड़ाते हुए बोला.

उधर कपिल के दिमाग में घर के खर्चे का हिसाब घूम रहा था. उस ने शालू को साथ बैठा कर ध्यान से हिसाब की कौपी में 1-1 आइटम देखनी शुरू की. थोड़ी देर कुछ जोड़तोड़ के बाद उस ने उन जरूरी खर्चों का ही विश्लेषण करना शुरू किया जिन के बारे में शालू ने उसे सुबह बताया था.

‘‘शालू, पिछले महीने चीनी 5 किलोग्राम कैसे आई? 2 लोगों में तो ज्यादा

से ज्यादा 2 किलोग्राम चीनी खर्च होनी चाहिए.’’

शालू एकदम से कोई जवाब नहीं दे पाई.

कपिल फिर से हिसाब में घुस गया, ‘‘इस बार डिटर्जैंट भी 1 किलोग्राम लगा है, जबकि हम 2 लोगों के कपड़ों में 500 ग्राम डिटर्जैंट ही लगा करता था.’’

‘‘वह इस बार दफ्तर में व्यस्तता के कारण सौरभ सामान नहीं ला पाया था, इसलिए आरुषि चीनी और डिटर्जैंट उधार मां कर ले गई थी. कह रही थी कि जल्दी वापस कर देगी.’’

एक तो शालू खुद को गुनहगार समझ रही थी कि कपिल से बिना पूछे उस ने सामान आरुषि को दे दिया, दूसरे सौरभ कपिल का प्रिय मित्र था, इस कारण भी शालू अपनी बात को शिकायत का रूप नहीं देना चाह रही थी.

‘‘और यह क्या गैस का सिलैंडर 20 दिन में खत्म… कहां हमारा सिलैंडर 3 महीने चलता था?’’

‘‘वह सौरभ को टाइम नहीं मिल रहा था, इसलिए गैस बुक नहीं कर पा रहा था… आरुषि दालसब्जी हमारी ही गैस पर बना लेती है,’’ शालू धीरे से बोली तो कपिल चिल्लाया, ‘‘अगर सौरभ को समय नहीं मिल रहा था तो आरुषि बुक कर लेती… मुझे कहती मैं बुक कर देता. और यह क्या, पिछले महीने सब्जी भी बहुत ज्यादा आई है.’’

शालू एकदम से उस का कुछ हिसाब नहीं दे पाई. उसे याद भी नहीं आ रहा था कि सब्जी अधिक क्यों आई होगी? जो भी आई थी, पका कर खा ली गई थी, किसी भी दिन फेंकी नहीं गई थी.

थोड़ीबहुत नोकझोंक के बाद कपिल ने कौपी बंद कर दी.

माहौल को हलका बनाने के लिए शालू बोली, ‘‘तुम भी क्या हिसाबकिताब ले कर बैठ गए हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है शालू. मेरे अकाउंट में कुल क्व10 हजार थे. क्व5 हजार फ्रिज की किस्त में निकल गए. आज सौरभ ने कहा कि उस के पैसे खत्म हो गए हैं और उसे बेटे की फीस भरनी है, सो ढाई हजार मैं ने उधार दे दिए. अब तो मात्र ढाई हजार बचे हैं. इतने पैसों में घर का हिसाब कैसे चलेगा?’’

‘‘ओह तो इस महीने हम प्रैस नहीं खरीद पाएंगे. मालूम है प्रैस करने का रोज का धोबी का खर्च 10-15 रुपए हो जाता है.’’

कपिल ने गरदन हिला कर बात वहीं समाप्त कर दी.

रविवार का दिन था. अचानक पड़ोस के घर से खटखट की आवाज आई. कपिल ऊपर छत पर चढ़ गया. सौरभ डिश लगवा रहा था. भुनभुनाते हुए वह नीचे उतर आया. बोला, ‘‘कल तक तो फीस के पैसे नहीं थे और आज डिश लगवा रहा है.’’

शालू ने आरुषि की ओर से सफाई दी, ‘‘अरे, उन का टीवी बेकार बंद पड़ा था. आरुषि भी बोर होती थी. इसलिए शायद लगवा लिया होगा.’’

कपिल ने झुंझलाई सी आवाज में कहा, ‘‘ठीक है, पर उधार ले कर क्यों.’’

शालू को थोड़ी हिम्मत बंधी. बोली, ‘‘अगर तुम नाराज न हो तो एक बात बताऊं? तुम्हारे जाने के बाद मैं हिसाब की कौपी ले कर बैठी. काफी सोचने पर मैं ने देखा कि आरुषि जो सामान ले कर जाती है, वह कह तो देती है कि वापस कर देगी, पर आज तक उस ने कभी कुछ वापस नहीं किया. हमें ही अधिक खरीदना पड़ता है. इसीलिए तुम्हें हिसाब में सामान अधिक खरीदा हुआ दिख रहा था.’’

‘‘और क्याक्या ले जाती थी वह…?’’

शालू ने एक ही सांस में बता दिया, ‘‘सभी कुछ सब्जी, दूध, चाय, चीनी, पाउडर, रिफाइंड तेल, बच्चों के लिए रबर, पैंसिल, शार्पनर, गैस का सिलैंडर तो उस ने कभी मांगा नहीं, मेरी किचन में आ कर चायनाश्ता और खाना खूब पकाया है. तभी तो सिलैंडर 15-20 दिन में खत्म हो जाता था.’’

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’’

‘‘एक तो मेरा ध्यान ही नहीं गया, दूसरा सौरभ तुम्हारा मित्र है. इस तरह की छोटीछोटी बातें बताती तो तुम्हें शिकायत लगती.’’

शालू की डरी शक्ल देख कर कपिल थोड़ा शांत हो गया. बोला, ‘‘ठीक है आगे से थोड़ा सतर्क रहना शुरू कर दो.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘आगे से वह कुछ मांगने आए तो बहाना बना देना. ऐसे मना कर देना जिस से उसे बुरा भी न लगे.’’

‘‘मुझे तो बहाने बनाने भी नहीं आते.’’

‘‘अरे, कुछ भी कह देना जैसे दूध फट गया है. चीनी खत्म हो गई है और हम गुड़ की चाय पी रहे हैं. आलू मांगे तो कहना करेले बना रही हूं.’’

कपिल घर से निकला ही था कि आरुषि धड़धड़ाती हुई अंदर आ गई.

‘‘अरे यार यह दरवाजा कैसे खुला छोड़ रखा है? फिर बिना शालू के जवाब की प्रतीक्षा किए ही बोली, ‘‘मैं नहाने घुसी और गैस पर रखा दूध सारा उबल गया. शालू, थोड़ा दूध दे दे. गुडि़या रो रही है.’’

‘‘दूध फट गया,’’ शालू को कपिल का वह बहाना याद आया. जब तक वह यह बहाना बना पाती, उस से पहले ही आरुषि ने फ्रिज खोल लिया. सामने 2 पैकेट रखे थे, ‘‘एक पैकेट मैं ले लेती हूं. शाम को सौरभ से कह कर मंगवा दूंगी,’’ और फिर आरुषि तेजी से वापस लौट गई.

घंटेभर बाद फिर घंटी बजी. आरुषि ही थी. किचन की तरफ पैर बढ़ाते हुए बोली, ‘‘आज क्या बना रही है खाने में?’’

हार की जीत- भाग 1: कपिल ने पत्नी को कैसे समझाया

कपिल हिसाब की कौपी देख कर दंग रह गया. इतना अधिक खर्चा? यह तो 1 महीने का ही हिसाब है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो दिवाला ही निकल जाएगा.

पिछले 1-2 महीनों से कपिल देख रहा था कि जबतब शालू एटीएम से पैसे निकाल कर भी खर्च कर लेती थी. एटीएम नहीं जा पाती तो कपिल से पैसे मांग लेती थी. शुरू में तो कपिल यही सोच कर टालता रहा कि नईनई शादी है और शालू ने पहली बार गृहस्थी संभाली है, शायद इसीलिए खर्चों का हिसाब नहीं बैठा पा रही. खुद उसे भी कहां अंदाजा था. संयुक्त परिवार में खर्चा मां और बाबूजी चलाते थे. लेकिन हर महीने वेतन से ज्यादा खर्च तो पानी सिर के ऊपर जाने वाली बात हो गई. कपिल दुविधा में था. आखिर इतने पैसे कहां खर्च कर रही शालू?

कुछ दिन पहले ही उन दोनों की शादी हुई थी. कानपुर स्थानांतरण के बाद भी शुरूशुरू के 1-2 महीनों तक तो हिसाब सही चला, पर धीरेधीरे कपिल को महसूस होने लगा कि खर्चा कुछ ज्यादा हो रहा है. उस ने शालू को खर्चों के बारे में सावधान रहने के लिए इशारा भी किया, पर शालू ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया. कपिल को थोड़ी सी झल्लाहट हुई. बिजनैसमैन की बेटी है. ज्यादा कमाई है. शायद उसे अंदाजा ही नहीं होगा कि बंधीबंधाई कमाई से खर्चा कैसे चलाया जाता है. शादी से पहले उसे इसी बात का तो डर था.

कपिल के मांबाप शालू को पहले ही देख आए थे. शहर में शालू के पिता का नाम था. जितना बड़ा नाम उतनी ही बड़ी कोठी. शालू सुंदर थी, शिष्ट थी, पढ़ीलिखी थी. उन्हें पहली ही नजर में शालू पसंद आ गई थी. लेकिन कपिल थोड़ा असमंजस में था. उस ने ऐसे कई किस्से सुन रखे थे, जहां बड़े घर की लड़की बंधीबंधाई आमदनी से गुजारा नहीं कर पाती और खर्चों को ले कर रोज लड़ाईझगड़े होते हैं. कुछ मामलों में तो नौबत तलाक तक पहुंच जाती है.

ऐसा नहीं कि कपिल बड़े घर का नहीं था, पर उस का मानना था कि बड़ा घर तो उस के पिता का है. वह स्वयं तो वेतनभोगी ही है जिसे महीने में सिर्फ 1 बार ही बंधीबंधाई तनख्वाह मिलती है और कभीकभार टूर पर जाता है तो टीए, डीए मिल जाता है. इस के अलावा कोई आमदनी नहीं है. जो भी लड़की उस की पत्नी बन कर आएगी उसे पूरा महीना उसी सैलरी से गुजारा करना पड़ेगा.

मातापिता ने जब शालू के लिए कपिल पर थोड़ा दबाव डाला तो वह इस शर्त पर राजी हो गया कि वह पहले लड़की से बात करेगा, फिर निर्णय लेगा. कपिल की शर्त मान ली गई. कपिल ने दोटूक बात करना उचित समझा, ‘‘देखो शालू हम दोनों को अपनेअपने जीवन के विषय में एक अहम निर्णय लेना है. शक्लसूरत या जन्मपत्री ही सबकुछ नहीं होती. यह जरूरी है कि हम दोनों एकदूसरे के विषय में अच्छी तरह जान लेने के बाद ही किसी तरह का निर्णय लें. कुछ प्रश्न तुम्हारे दिल में होंगे और कुछ मेरे दिल में हैं. उस के बाद ही हम यह निर्णय लेंगे कि हम एकदूसरे के साथ रह सकते हैं या नहीं.’’

शालू को कपिल से इतनी खुली बात की आशा नहीं थी. वह समझ भी नहीं पा रही थी कि कपिल उस से किस विषय पर बात करेगा. उस की पढ़ाई के विषय में या उस की हौबी के विषय में या फिर घरेलू कामकाज के विषय में उस से सवाल पूछेगा…? हो सकता है उस के सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले. उस ने डर के मारे उसी दिन से अखबार पढ़ना शुरू कर दिया. कोर्स की किताबें एक बार फिर खुल गईं. जैसे नौकरी के लिए साक्षात्कार की तैयारी कर रही हो.

कपिल ने अपना पक्ष रखा, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि हम दोनों के परिवारों का रहनसहन का स्तर सामान्य है. दोनों के घरों में खासा पैसा भी है, लेकिन वे दोनों घर हमारे मातापिता के हैं. मैं एक नौकरीपेशा आदमी हूं. मुझे माह में बंधा हुआ वेतन मिलता है और तुम्हें उसी वेतन में काम चलाना होगा. एक और बात, भविष्य में मैं या तुम कभी अपने मातापिता के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे.’’

शालू ने सहमति में गरदन हिला दी.

‘‘चौकाबरतन के अतिरिक्त हम दूसरे किसी काम के लिए नौकर नहीं रखेंगे. घर के सारे काम हम दोनों को मिलजुल कर करने होंगे.’’

शालू ने इस बार भी हामी भर दी.

‘‘किसी दूसरे की सुखसुविधाओं को देख कर तुलना नहीं करनी है. हम जब समर्थ होंगे, तब खुद ही खरीद लेंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘मुझे बेईमानी की कमाई से सख्त नफरत है. मुझे कभी ऊपर की कमाई के लिए मत कहना.’’

‘‘रिश्वत से तो मुझे भी चिढ़ है.’’

‘‘मेरे रैंक के अनुसार मुझे बड़ा मकान नहीं मिलेगा. शुरूशुरू में तुम्हें छोटे मकान में ही गुजारा करना पड़ेगा.’’

‘‘नहीं कहूंगी. बड़ा मकान तो वैसे भी मैंटेन करना मुश्किल होता है.’’

‘‘बस मुझे इतना ही कहना था. अब तुम्हारी कोई शर्त हो तो वह भी बता दो.’’

शालू मंत्रमुग्ध सी कपिल का चेहरा निहारने लगी. उसे खुद पर नाज हुआ कि कितना सरल स्वभाव है कपिल का. और कोई होता तो अपनी नौकरी के लिए बढ़चढ़ कर बता उसे प्रभावित करने की कोशिश करता. वह तो इस के लिए तैयार ही नहीं थी. तो उस के मुंह से इतना भर ही निकला, ‘‘मेरे पापा मुझे कभी शहर से बाहर घुमाने नहीं ले जाते. तुम मुझे घुमाने तो ले जाओगे न?’’

‘‘भला यह क्या शर्त हुई?’’ कपिल शालू के भोलेपन पर हंस दिया.

दोनों ने एकदूसरे की शर्तें मान लीं और फिर विवाह हो गया.

बरामदे में खड़ाखड़ा कपिल यही सोच रहा था, जब शादी से पहले उस ने सारी बातें खुल कर बता दी थीं, फिर शालू खर्चों पर नियंत्रण क्यों नहीं रख रही है? उस ने वहीं से शालू को आवाज दी. भरसक नियंत्रण रखने के बावजूद उस की आवाज तेज हो गई थी. शालू घबराईहड़बड़ाई सी रसोईघर से बाहर निकल आई. हड़बड़ाहट में वह और सुंदर लग रही थी. अपनी नई पत्नी को इस हाल में देख कर कपिल को तरस आ गया. थोड़ा क्रोध भी शांत हुआ. उस ने बड़े प्यार से पूछा, ‘‘शालू, यह हिसाब की कौपी देखो. तुम खर्चों पर नियंत्रण क्यों नहीं रख रही हो? मैं ने पिछले माह भी टोका था?’’

शालू ने सहम कर उत्तर दिया, ‘‘मैं तो पूरा खर्चा हाथ रोक कर करती हूं. न कोई कपड़ा खरीदती हूं, न मेकअप का सामान खरीदती हूं, न ब्यूटीपार्लर ही जाती हूं. यह तो रोजमर्रा का आवश्यक सामान है.’’

जब तक कपिल 1-1 आइटम हिसाब की कौपी में देख पाता, उस के मित्र सौरभ का मोबाइल पर फोन आ गया. बिल्ंिडग के बाहर गेट के पास खड़ा वह कपिल की प्रतीक्षा कर रहा था. कपिल अपनी कार निकाल कर सौरभ के साथ औफिस निकल गया. कपिल के स्थानांतरण के साथ ही उस के बैचमैट सौरभ का भी स्थानांतरण कानपुर हो गया था. दोनों ने साथसाथ ही मकान ढूंढ़ा. एक ही बैच के होने के कारण दोनों यही चाहते थे कि एक ही सोसायटी में दोनों को मकान मिल जाए.

सौरभ का परिवार थोड़ा बड़ा था. पत्नी, सासससुर और 2 बच्चे. उस ने 3 बीएचके का फ्लैट लिया. कपिल का परिवार छोटा था. वह और शालू. उस ने 1 बीएचके का फ्लैट लिया. दोनों को एक ही बिल्डिंग में आमनेसामने फ्लैट मिल गए.

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काश, मेरी बेटी होती- भाग 1: शोभा की मां का क्या था फैसला

‘‘यार तू बड़ी खुशनसीब है, तेरी बेटी है,’’ शोभा बोली, ‘‘बेटियां मातापिता का दुखदर्द हृदय से महसूस करती हैं.’’‘‘नहीं यार, मत पूछ, आजकल की बेटियों के हाल. वे हमारे समय की बेटियां होती थीं जो मातापिता, विशेषकर मां, का दुखदर्द शिद्दत से महसूस करती थीं. आजकल की बेटियां तो मातापिता का सिरदर्द बन कर बेटों से होड़ लेती प्रतीत होती हैं. तेरी बेटी नहीं है न, इसलिए कह रही है ऐसा,’’ एक बेटी की मां जयंति बोली, ‘‘बेटी से अच्छी आजकल बहू होती है. बेटी तो हर बात पर मुंहतोड़ जवाब देती है, पर बहू दिल ही दिल में भले ही बड़बड़ाए, पर सामने फिर भी लिहाज करती है, कहना सुन लेती है.’’

‘‘आजकल की बहुओं से लिहाज की उम्मीद करना… तौबातौबा. मुंह से कुछ नहीं बोलेंगी, पर हावभाव व आंखों से बहुतकुछ जता देंगी, रक्षा ने जयंति का प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘‘जिन बेटियों का तू अभीअभी गुणगान कर रही थी, आखिर वही तो बहुएं बनती हैं, ऊपर से थोड़े ही न उतर आती हैं. ऐसा नाकों चने चबवाती हैं आजकल की बहुएं, बस, अंदर ही अंदर दिल मसोस कर रह जाओ. बेटे पर ज्यादा हक नहीं जता सकते, वरना बहू उसे ‘मां का लाड़ला’ कहने से नहीं चूकेगी.’’

शोभा दोनों की बातें मुसकराती हुई सुन रही थी. एक लंबा निश्वास छोड़ती हुई बोली, ‘‘अब मैं क्या जानूं कि बेटियां कैसी होती हैं और बहू कैसी. न मेरी बेटी, न बहू. पता नहीं मेरा नखरेबाज बेटा कब शादी के लिए हां बोलेगा, कब मैं लड़की खोजूंगी, कब शादी होगी और कब मेरी बहू होगी. अभी तो कोई सूरत नजर नहीं आती मेरे सास बनने की.’’

‘‘जब तक नहीं आती तब तक मस्ती मार,’’ रक्षा और जयंति हंसती हुई बोलीं, ‘‘गोल्डन टाइम चल रहा है तेरा. सुना नहीं, पुरानी कहावत है, पहन ले जब तक बेटी नहीं हुई, खा ले जब तक बहू नहीं आई. इसलिए हमारा खानापहनना तो छूट गया. पर तेरा अभी समय है बेटा. डांस पर चांस मार ले, मस्ती कर, पति के साथ घूमने जा, पिक्चरें देख, कैंडिललाइट डिनर कर, वगैरहवगैरह. बाद में नातीपोते खिलाने पड़ेंगे और बच्चों से कहना पड़ेगा, ‘जाओ घूम आओ, हम तो बहुत घूमे अपने जमाने में’ तो दिल तो दुखेगा न,’’ कह कर तीनों सहेलियां व पड़ोसिनें खिलखिला कर हंस पड़ीं और शोभा के घर से उन की सभा बरखास्त हो गई.

रक्षा, जयंति व शोभा तीनों पड़ोसिनें व अभिन्न सहेलियां थीं. उम्र थोड़ाबहुत ऊपरनीचे होने पर भी तीनों का आपसी तारतम्य बहुत अच्छा था. हर सुखदुख में एकदूसरे के काम आतीं. होली पर गुजिया बनाने से ले कर दीवाली की खरीदारी तक तीनों साथ करतीं. तीनों एकदूसरे की राजदार भी थीं और लगभग 15 वर्षों पहले जब उन के बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे थे. थोड़ा आगेपीछे तीनों के घर इस कालोनी में बने थे.

तीनों ही अच्छी शिक्षित महिलाएं थीं और इस समय अपने फिफ्टीज के दौर से गुजर रही थीं. जिस के पास जो था उस से असंतुष्ट और जो नहीं था उस के लिए मनभावन कल्पनाओं का पिटारा उन के दिमाग में अकसर खुला रहता.

लेकिन जो है उस से संतुष्ट रहने की तीनों ही नहीं सोचतीं. नहीं सोच पातीं जो उन्हें नियति ने दिया है कि उसे किस तरह से खूबसूरत बनाया जाए.

जयंति की एक बेटी थी जो कालेज के फाइनल ईयर में थी. रक्षा ने एक साल पहले बेटे का विवाह किया था और शोभा का बेटा इंजीनियर व प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत एक नखरेबाज युवा था. वह मां के मुंह से विवाह का नाम सुन कर नाकभौं सिकोड़ता और ऐसा दिखाता जैसे विवाह करना व बच्चे पैदा करना सब से निकृष्ठ कार्य एवं प्राचीन विचारधारा है और उस के जीवन के सब से आखिरी पायदान पर है. एक तरह से जब सब निबट जाएगा तो यह कार्य भी कर लेगा.

जयंति को अपनी युवा बेटी से ढेरों शिकायतें थीं, ‘घर के कामकाज को तो हाथ भी नहीं लगाती यह लड़की. कुछ बोलो तो काट खाने को दौड़ती है. कल को शादीब्याह होगा, तो क्या सास बना कर इसे खिलाएगी.’ जयंति पति के सामने बड़बड़ा रही होती. अपनी किताबों पर नजरें गड़ाए बेटी मां के ताने सुन कर बिफर जाती, ‘फिक्र मत करो, मु झे खाना बना कर कोई भी खिलाए. आप को तंग करने नहीं आऊंगी.’

बेटी तक आवाज पहुंच रही थी. बेवक्त  झगड़े की आशंका से जयंति हड़बड़ा कर चुप हो जाती. पर बेटी का पारा दिल ही दिल में आसमां छू जाता. वह जब टाइट जीन्स और टाइट टीशर्ट डाल कर कालेज या कोचिंग के लिए निकलती तो जयंति का दिल करता कि जीन्स के ऊपर भी उस के गले में दुपट्टा लपेट दे. पर मन मसोस कर रह जाती. घर में जब बेटी शौर्ट्स पहन कर पापा के सामने मजे से सोफे पर अधलेटी हो टीवी के चैनल बदलने लगती तो जयंति का दिमाग भन्ना जाता, ‘आग लगा दे इस लड़की के कपड़ों की अलमारी को’ और उस के दोस्त लड़के जब घर आते तो वह एकएक का चेहरा बड़े ध्यान से पढ़ती. न जाने इन में से कल कौन उस का दामाद बनने का दावा ठोक बैठे.

रोजरोज घर को सिर पर उठा मां से  झगड़ा करने वाली बेटी ने जब एक दिन प्यार से मां के गले में बांहें डालीं तो किसी अनहोनी की आशंका से जयंति का हृदय कांप गया. जरूर कोई कठिन मांग पूरी करने का वक्त आ गया है.

‘‘मम्मी, मेरे कुछ फ्रैंड्स कल लंच पर आना चाह रहे हैं. मैं ने उन्हें बताया है कि आप चाइनीज खाना कितना अच्छा बनाती हैं. बुला लूं न सब को?’’ वह मासूमियत से बोली. बेटी की भोलीभाली शक्ल देख कर जयंति का सारा लाड़दुलार छलक आया.

‘‘हांहां, बुला ले अपनी सहेलियों को. बना दूंगी मैं, कितनी हैं?’’‘‘मु झे मिला कर 8 दोस्त हो जाएंगे मम्मी. वे सारा दिन यहीं बिताने वाले हैं…’’ बेटी आने वालों के लिए गोलमाल जैंडर शब्द का इस्तेमाल करती हुई बोली. ‘‘ठीक है…’’

दूसरे दिन जयंति सुबह से बेटी की फरमाइश पूरी करने में लग गई. घर भी ठीक कर दिया. बेटी ने बाकी घर पर ध्यान भी नहीं दिया. सिर्फ अपना कमरा ठीक किया. ठीक 11 बजे घंटी बजी. दरवाजा खोला तो जयंति गिरतेगिरते बची. आगंतुकों में 4 लड़के थे और 3 लड़कियां. जिन लड़कों को वह थोड़ी देर भी नहीं पचा पाती थी, उन्हें उस दिन उस ने पूरा दिन  झेला और वह भी बेटी के कमरे में. आठों बच्चों ने वहीं खायापिया, वहीं हंगामा किया और खापी कर बरतन बाहर खिसका दिए. जयंति थक कर पस्त हो गई.

बेटी फोन पर जब खिलखिला कर चमकती आंखों से लंबीलंबी बातें करती तो जयंति का दिल करता उस के हाथ से फोन छीन कर जमीन पर पटक दे. फोन से तो उसे सख्त नफरत हो गई थी. मोबाइल फोन के आविष्कारक मार्टिन कूपर को तो वह सपने में न जाने कितनी बार गोली मार चुकी थी. सारे  झगड़े की जड़ है यह मोबाइल फोन.

बेटी कभी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाती तो कभी लौंगड्राइव पर. हां, इन मस्तियों के साथ एक बात जो उन सभी युवाओं में वह स्पष्ट रूप से देखती, वह थी अपने भविष्य के प्रति सजगता. लड़के तो थे ही, पर लड़कियां उन से अधिक थीं. अपना कैरियर बनाने के लिए उन्मुख उन लड़कियों के सामने उन की मंजिल स्पष्ट थी और वे उस के लिए प्रयासरत थीं. घरगृहस्थी के काम, विवाह आदि के बारे में तो वे बात भी न करतीं, न उन्हें कोई दिलचस्पी थी.

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