Humsafar- हमसफर: रोहित ने ऐसा क्या किया कि वह मानसी को फिरसे प्यारा लगने लगा?

दिन के 10 बजे थे. उत्तराखंड आपदा राहत केंद्र की संचालिका अम्माजी अपने कार्यालय में बैठी आपदा राहत केंद्र के कार्यों एवं गतिविधियों का लेखाजोखा देख रही थीं. कार्यालय क्या था, टीन की छत वाला एक छोटा सा कमरा था जिस में एक तरफ की दीवार पर कुछ गुमशुदा लोगों की तसवीरें लगी थीं. दूसरी तरफ की दीवार पर कुछ नामपते लिखे हुए थे उन व्यक्तियों के जिन के या तो फोटो उपलब्ध नहीं थे या जो इस केंद्र में इस आशा के साथ रह रहे थे कि शायद कभी कोई अपना आ कर उन्हें ले जाएगा.

दरवाजे के ठीक सामने कमरे के बीचोंबीच एक टेबल रखी थी जिस के उस तरफ अम्माजी बैठ कर अपना काम करती थीं. उन का चेहरा दरवाजे की तरफ रहता था ताकि आगंतुक को ठीक से देख सकें. कमरे के बाहर रखी कुरसी पर जमुनिया बैठती थी, आने वाले लोगों का नामपता लिख कर अम्माजी को बताने के लिए. फिर उन के हां कहने पर वही आगंतुक को अंदर ले भी जाती थी उन से मिलवाने. जमुनिया की बगल में जमीन पर बैठा एक आंख वाला और एक टांग से लंगड़ा मरियल सा कुत्ता भूरा  झपकी लेता रहता था.

उत्तराखंड में मईजून का महीना टूरिस्ट सीजन होता है. तपती गरमी से जान बचा कर लाखों की संख्या में पर्यटक पहाड़ों की ठंडक का मजा लेने आए हुए थे. ऐसे में जून 2013 में अचानक आई प्राकृतिक विपदा ने उत्तराखंड के जनजीवन को  झक झोर कर रख दिया था. भारी संख्या में पर्यटकों के साथसाथ स्थानीय लोग भी हताहत हुए थे.

यह राहत केंद्र जून 2013 में आए प्राकृतिक विपदा से प्रभावित स्थानीय लोगों की सहायता के लिए काम करता था. सब से महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस के सभी सदस्य किसी न किसी रूप में इस आपदा से पीडि़त और ग्रसित थे. किसी ने धन खोया था तो किसी ने जन. अगर किसी का कोई अपना आ जाता, तो सारे सदस्य खुशीखुशी उस सदस्य को गले लगा कर उस के परिवार को सौंप देते.

झपकी लेता हुआ भूरा अचानक भूंकने लगा. उस के भूंकने की आवाज सुन कर अम्माजी समझ गईं कि जरूर कोई दुखियारा आया होगा. कई वर्ष बीत जाने के बाद भी प्रतिदिन कोई न कोई आ जाता है सहायता मांगने. कभी कोई रोजीरोटी की तलाश में तो कोई अपनों की. जमुनिया ने उस व्यक्ति का नामपता लिख कर कागज अंदर ला कर टेबल पर रख दिया.

अम्माजी रजिस्टर में कुछ लिख रही थीं, बिना देखे ही जमुनिया को आगंतुक को अंदर भेजने का इशारा कर दिया. पता नहीं क्यों, आज आगंतुक के साथ भूरा भी अंदर चला आया अपनी दुम हिलाते हुए, वरना अम्माजी के आवाज दिए बिना कभी भी वह अंदर नहीं आता था.

अपने काम में मगन अम्माजी ने टेबल पर रखा कागज उठाया और पढ़ने लगीं. नाम-हरीश रावत, उम्र-65 साल, गांव-बिसुनपुरा, जिला-चमोली, उद्देश्य-गुमशुदा धर्मपत्नी की तलाश, पत्नी का नाम-लाजवंती रावत, उम्र-61 साल, पहचान-रंग गोरा, भारी बदन और चेहरे पर सिंदूर की बड़ी सी बिंदी. उन्होंने नाम व पता एक बार और पढ़ा और सन्न रह गईं. सिर का पल्लू आगे सरका, आंख उठा कर सामने देखा, फटेपुराने कपड़ों में भूख और लाचारी में डूबा एक व्यक्ति, जो अपनी उम्र से कम से कम 10 वर्ष ज्यादा का लग रहा था, आंखें नीची किए और अपने हाथों को जोड़े खड़ा था, याचनाभरा भाव लिए हुए.

15 जून, 2013 की आधी रात का एकएक लमहा क्या वे भूल सकती हैं? बाहर के कमरे में लाजवंती और उन के पति सो रहे थे. कमरे में प्रकाश के लिए एक ढिबरी रातभर जलती रहती थी. पति की उम्र 62-63 वर्ष की थी. दुबलेपतले और फुरतीले होने के कारण वे अपनी उम्र से 5 वर्ष कम ही प्रतीत होते थे, जबकि वह भारी बदन की थीं, घुटनों में दर्द रहने के कारण चलनेफिरने में उन्हें दिक्कत होती थी.

रात में दर्द की दवा लेने पर ही नींद आती थी उन्हें. सर्दी में दर्द ज्यादा बढ़ जाता तब छोटीछोटी जरूरतों के लिए पति और बहुओं पर निर्भर रहना पड़ता था. अंदर के 2 कमरों में उन के 2 बेटे, बहुएं, पोतेपोतियां सो रहे थे. भरापूरा परिवार था उन का. थोड़ीबहुत खेतीबाड़ी और दरवाजे पर खड़ी गाएं उन के परिवार की दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त थीं.

तभी वह भयानक जलजला आया. पहले तो किसी को कुछ पता ही नहीं चला. पता चलते ही चारों तरफ ‘भागो, भागो पहाड़ हिल रहा है’ की चीखपुकार मच गई. बगल में पति गहरी नींद में सो रहे थे, उन्हें जोर से हिलाया तो वे उठे, अंदर जा कर बच्चों को आवाज लगाई. बेटेबहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर किसी तरह बाहर भाग रहे थे किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में.

चारों तरफ अफरातफरी मची हुई थी. जान के खतरे का आभास होते ही आननफानन भाग खड़े हुए फुरतीले हरीश रावत भी. एक बार पलट कर देखा भी नहीं घुटनों से लाचार अपनी बेबस पत्नी को, जिस ने पिछले 35 सालों से उन के हर सुखदुख में साथ दिया था.

बहुत आहत हुई थीं लाजवंती पति के इस रवैए से. कहां सात फेरे ले कर सात जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खाई थीं दोनों ने, पर सैकंडभर में ही सबकुछ साफ हो गया. एक न एक दिन मरना तो सब को है, पर जीतेजी अपनों का साथ छूटने का दुख मरने से भी भयंकर होता है, ऐसा महसूस हुआ था उस पल.

उस रात अम्माजी बिलकुल असहाय और संवेदनशून्य पड़ी थीं अपने बिस्तर पर. तभी भूरा एक आवारा कुत्ता, जो घर के बाहर वाले बरामदे में पड़ा रहता था, न जाने किधर से अंदर आया और उन्हें देख कर भूंकने लगा मानो कह रहा हो जल्दी चलो, वरना अनर्थ हो जाएगा. वे चाहतीं तो धीरेधीरे निकलने की कोशिश कर सकती थीं. पर जीने की इच्छा तो खत्म हो चुकी थी, अब जीना भी किस के लिए?

उन्होंने भूरा से कहा, ‘तू भी क्यों नहीं भाग जाता नालायक, मुझे छोड़ कर?’ पर भूरा जाता तो कैसे, कुत्ता जो था. एक बार जिस के हाथ की रोटी खा ली, जिंदगीभर उस का गुलाम बन गया. तभी ऐसा लगा कि भूचाल आ गया हो, सबकुछ उलटपुलट…उस के बाद जब आंखें खुलीं तो देखा ऊपर से रोशनी आ रही है, दिन निकल चुका था, ध्यान से देखने पर अनुमान लगाया, शायद चट्टान के टुकड़े छत पर गिरने से छत टूट गई थी और कमरे में चारों तरफ रोड़े पड़े थे. वे नीचे पड़ी थीं और उन की खाट उन के ऊपर.

फिर जब दोबारा होश आया तो खुद को अस्पताल में पाया. लोगों ने बताया कि एक घायल कुत्ते ने किस तरह लोगों को भूंकभूंक कर बताया कि कोई इस मलबे में दबा पड़ा है. तब से वह कुत्ता भूरा और लाजवंती साथसाथ ही रहते हैं. उपचार के बाद धीरेधीरे वे थोड़ी ठीक हुईं तो लोगों के दुखदर्द देख कर अपना गम भूल गईं तथा दिनरात जरूरतमंद लोगों की सेवा में लीन हो गईं. शारीरिक और मानसिक परिश्रम करने से इस दौरान शरीर गल चुका था, अब वे सफेद वस्त्र पहनतीं और मस्तक पर बिंदी नहीं लगाती थीं. उन के सेवाभाव के कारण उन्हें आपदा राहत केंद्र की संचालिका बना दिया गया. किसी को उन का असली नाम नहीं मालूम था. सब उन्हें सम्मान से अम्माजी कहते थे.

तभी जमुनिया अंदर आई यह सोच कर कि अम्माजी क्या आदेश देती हैं. अम्माजी ने इशारे से दीवार पर लगे फोटो और नामपता दिखाने को कहा. आगंतुक ने बड़े ध्यान से उन्हें देखा और निराश हो कर वहीं धम्म से बैठ गया जमीन पर. सारे के सारे अनजान थे उस के लिए. कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा. फिर जमुनिया उस व्यक्ति को ले कर बाहर चली गई और क्षमा मांगते हुए कहा कि यह केंद्र उन की सहायता करने में असमर्थ है. फिर हमेशा की तरह सांत्वना दी और कहा, ‘‘अंकल, हौसला रखिए, आप को आप की पत्नी अवश्य मिल जाएंगी.’’

जमुनिया के साथ ही भूरा भी चल पड़ा उस आगंतुक के पीछेपीछे, जैसे पुराना दोस्त हो. पता नहीं कुत्ते में क्या बात थी कि आगंतुक को अपने बरामदे में पड़े उस आवारा कुत्ते की याद आ गई, जिसे मना करने के बावजूद भी लाजवंती सुबहशाम कुछ न कुछ खाने को दे देती थीं और अकस्मात ही उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘भूरा’. नाम सुनते ही कुत्ता अपनी दुम हिलाने लगा.

रात के करीब 10 बजे भूरा के भूंकने से अम्माजी की नींद खुली, लगा किसी ने हौले से दरवाजा खटखटाया हो, ठीक उसी तरह जिस तरह शादी के बाद उन के नएनवेले पति सब के सोने के बाद खटखटा कर कमरे में घुसते थे. उन्हें लगा, मन का वहम है, पर थोड़ी देर बाद जब दोबारा दरवाजा खटखटाया गया तो उन्होंने दरवाजा खोल दिया. देखा, हरीश खड़े थे, आंखें नीची किए और अपने हाथों को जोड़े, कहा, ‘‘लाजो, मुझे माफ कर दो, मुझसे बड़ी गलती हो गई.’’

धक से कलेजा हो गया एकदम उन का. ‘यह भूरा भी न,’ अम्माजी ने सोचा.

दिल कड़ा कर के कहा, ‘‘कौन सी लाजो? कैसी लाजो?’’

हरीश बोले, ‘‘मेरी धर्मपत्नी, मेरी हमसफर.’’

‘‘वह तो मर चुकी, 15 जून, 2013 की आधी रात को ही जब किसी अपने ने उस का साथ छोड़ दिया था बीच सफर में,’’ कह कर उन्होंने दरवाजा कस कर बंद कर लिया.

 

Family Drama- ममता : कैसी थी माधुरी की सास

माधुरी को आज बिस्तर पकड़े  8 दिन हो गए थे. पल्लव के मित्र अखिल के विवाह से लौट कर कार में बैठते समय अचानक पैर मुड़ जाने के कारण वह गिर गई थी. पैर में तो मामूली मोच आई थी किंतु अचानक पेट में दर्द शुरू होने के कारण उस की कोख में पल रहे बच्चे की सुरक्षा के लिए उस के पारिवारिक डाक्टर ने उसे 15 दिन बैड रैस्ट की सलाह दी थी.

अपनी सास को इन 8 दिनों में हर पल अपनी सेवा करते देख उस के मन में उन के प्रति जो गलत धारणा बनी थी एकएक कर टूटती जा रही थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि मनोविज्ञान की छात्रा होने के बाद भी वह अपनी सास को समझने में चूक कैसे गई?उसे 2 वर्ष पहले का वह दिन याद आया जब मम्मीजी अपने पति पंकज और पुत्र पल्लव के साथ उसे देखने आई थीं. सुगठित शरीर के साथ सलीके से बांधी गई कीमती साड़ी, बौबकट घुंघराले बाल, हीरों का नैकलेस, लिपस्टिक तथा तराशे नाखूनों में लगी मैचिंग नेलपौलिश में वे बेहद सुंदर लग रही थीं. सच कहें तो वे पल्लव की मां कम बड़ी बहन ज्यादा नजर आ रही थीं तथा मन में बैठी सास की छवि में वह कहीं फिट नहीं हो पा रही थीं. उस समय उस ने तो क्या उस के मातापिता ने भी सोचा था कि इस दबंग व्यक्तित्व में कहीं उन की मासूम बेटी का व्यक्तित्व खो न जाए. वह उन के घर में खुद को समाहित भी कर पाएगी या नहीं. मन में संशय छा गया था लेकिन पल्लव की नशीली आंखों में छाए प्यार एवं अपनत्व को देख कर उस का मन सबकुछ सहने को तैयार हो गया था.

यद्यपि उस के मातापिता उच्चाधिकारी थे, किंतु मां को सादगी पसंद थी, उस ने उन्हें कभी भी गहनों से लदाफदा नहीं देखा था. वे साड़ी पहनती तो क्या, सिर्फ लपेट लेती थीं. लिपस्टिक और नेलपौलिश तो उन्होंने कभी लगाई ही नहीं थी. उन के अनुसार उन में पड़े रसायन त्चचा को नुकसान पहुंचाते हैं. वैसे भी उन्हें अपने काम से फुरसत नहीं मिलती थी.पापा को अच्छी तरह से रहने, खानेपीने और घूमने का शौक था. उन की  पैंटशर्ट में तो दूर रूमाल में भी कोई दागधब्बा रहने पर वे आसमान सिर पर उठा लेते थे. खानेपीने तथा घूमने का शौक भी मां के नौकरी करने के कारण पूरा नहीं हो पाया था, क्योंकि जब मां को छुट्टी मिलती थी तब पापा को नहीं मिल पाती थी और जब पापा को छुट्टी मिलती तब मां का कोई अतिआवश्यक काम आ जाता था. उन के घर रिश्तेदारों का आना भी बंद हो गया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि यहां आने पर मेजबान की परेशानियां बढ़ जाती हैं तथा उन्हें व्यर्थ की छुट्टी लेनी पड़ती है.

अत: वे भी कह देते थे, जब आप लोगों का मिलने का मन हो तब आ कर मिल जाइए.मां का अपने प्रति ढीलापन देख कर पापा टोकते तो वे बड़ी सरलता से उत्तर देतीं, ‘व्यक्ति कपड़ों से नहीं, अपने गुणों से पहचाना जाता है और यह भी एक सत्य है कि आज मैं जो कुछ हूं अपने गुणों के कारण हूं.’ वेएक प्राइवेट संस्थान में पर्सनल मैनेजर थीं. कभीकभी औफिस के काम से उन्हें टूर पर भी जाना पड़ता था. घर का काम नौकर के जिम्मे था, वह जो भी बना देता सब वही खा लेते थे. मातापिता का प्यार क्या होता है उसे पता ही नहीं था. जब वे छोटी थीं तब बीमार होने पर उस ने दोनों में इस बात पर झगड़ा होते भी देखा था कि उस की देखभाल के लिए कौन छुट्टी लेगा? तब वह खुद को अत्यंत ही उपेक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि उस की किसी को जरूरत ही नहीं है.मां अत्यंत ही महत्त्वाकांक्षी थीं. यही कारण था कि दादी के बारबार यह कहने पर कि वंश चलाने के लिए बेटा होना ही चाहिए, उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन का कहना था कि आज के युग में लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया है.

बस, परवरिश अच्छी तरह से होनी चाहिए लेकिन वे अच्छी तरह परवरिश भी कहां कर पाई थीं? जब तक दादी थीं तब तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन उन के बाद वह नितांत अकेली हो गई थी. स्कूल से लौटने के बाद घर उसे काटने को दौड़ता था, तब उसे एक नहीं अनेक बार खयाल आया था कि काश, उस के साथ खेलने के लिए कोई भाई या बहन होती.माधुरी को आज भी याद है कि हायर सेकेंडरी की परीक्षा से पहले मैडम सभी विद्यार्थियों से पूछ रही थीं कि वे जीवन में क्या बनना चाहते हैं? कोई डाक्टर बनना चाहता था तो कोई इंजीनियर, किसी की रुचि वैज्ञानिक बनने में थी तो कोई टीचर बनना चाहता था. जब उस की बारी आई तो उस ने कहा कि वह हाउस वाइफ बनना चाहती है. सभी विद्यार्थी उस के उत्तर पर खूब हंसे थे. तब मैडम ने मुसकराते हुए कहा था, ‘हाउस वाइफ के अलावा तुम और क्या बनना चाहोगी?’ उस ने चारों ओर देखते हुए आत्मविश्वास से कहा था, ‘घर की देखभाल करना एक कला है और मैं वही अपनाना चाहूंगी.’उस की इस इच्छा के पीछे शायद मातापिता का अतिव्यस्त रहना रहा था और इसी अतिव्यस्तता के कारण वे उस की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाए थे और शायद यही कारण था कि वह अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए पल्लव की तरफ आकर्षित हुई थी, जो उस की तरह कालेज में बैडमिंटन टीम का चैंपियन था.

वे दोनों एक ही क्लब में अभ्यास के लिए जाया करते थे. खेलतेखेलते उन में न जाने कब जानपहचान हो गई, पता ही न चला. उस से बात करना, उस के साथ घूमना उसे अच्छा लगने लगा था. दोनों साथसाथ पढ़ते, घूमते तथा खातेपीते थे, यहां तक कि कभीकभी फिल्म भी देख आते थे, पर विवाह का खयाल कभी उन के मन में नहीं आया था. शायद मातापिता के प्यार से वंचित उस का मन पल्लव के साथ बात करने से हलका हो जाता था.‘यार, कब तक प्यार की पींगें बढ़ाता रहेगा? अब तो विवाह के बंधन में बंध जा,’ एक दिन बातोंबातों में पल्लव के दोस्त शांतनु ने कहा था. क्या एक लड़की और लड़के में सिर्फ मित्रता नहीं हो सकती. यह शादीविवाह की बात बीच में कहां से आ गई?’ पल्लव ने तीखे स्वर में कहा था.‘मैं मान ही नहीं सकता. नर और मादा में बिना आकर्षण के मित्रता संभव ही नहीं है. भला प्रकृति के नियमों को तुम दोनों कैसे झुठला सकते हो? वह भी इस उम्र में,’ शांतनु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा.शांतनु तो कह कर चला गया, किंतु नदी की शांत लहरों में पत्थर फेंक गया था. पिछली बातों पर ध्यान गया तो लगा कि शांतनु की बातों में दम है, जिस बात को वे दोनों नहीं समझ सके या समझ कर भी अनजान बने रहे, उस आकर्षण को उस की पारखी निगाहों ने भांप लिया था.

गंभीरतापूर्वक सोचविचार कर आखिरकार माधुरी ने ही उचित अवसर पर एक दिन पल्लव से कहा, ‘यदि हम अपनी इस मित्रता को रिश्ते में नहीं बदल सकते तो इसे तोड़ देना ही उचित होगा, क्योंकि आज शांतनु ने संदेह किया है, कल दूसरा करेगा तथा परसों तीसरा. हम किसकिस का मुंह बंद कर पाएंगे. आज हम खुद को कितना ही आधुनिक क्यों न कह लें किंतु कहीं न कहीं हम अपनी परंपराओं से बंधे हैं और ये परंपराएं एक सीमा तक ही उन्मुक्त आचरण की इजाजत देती हैं.’ पल्लव को भी लगा कि जिस को वह अभी तक मात्र मित्रता समझता रहा वह वास्तव में प्यार का ही एक रूप है, अत: उस ने अपने मातापिता को इस विवाह के लिए तैयार कर लिया. पल्लव के पिताजी बहुत बड़े व्यवसायी थे. वे खुले विचारों के थे इसलिए अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में करने को तैयार हो गए. मम्मीजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि जातिपांति पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यदि उन्हें लड़की पसंद आई तभी वे इस विवाह की इजाजत देंगी.माधुरी के मातापिता अतिव्यस्त अवश्य थे किंतु अपने संस्कारों तथा रीतिरिवाजों को नहीं छोड़ पाए थे इसलिए विजातीय पल्लव से विवाह की बात सुन कर पहले तो काफी क्रोधित हुए थे और विरोध भी किया था, लेकिन बेटी की दृढ़ता तथा निष्ठा देख कर आखिरकार तैयार हो गए थे तथा उस परिवार से मिलने की इच्छा जाहिर की थी.दोनों परिवारों की इच्छा एवं सुविधानुसार होटल में मुलाकात का समय निर्धारित किया गया था. बातों का सूत्र भी मम्मीजी ने ही संभाल रखा था. पंकज और पल्लव तो मूकदर्शक ही थे.

उन का जो भी निर्णय होता उसी पर उन्हें स्वीकृति की मुहर लगानी थी. यह बात जान कर माधुरी अत्यंत तनाव में थी तथा पल्लव भी मांजी की स्वीकृति का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.बातोंबातों में मां ने झिझक कर कहा था, ‘बहनजी, माधुरी को हम ने लाड़प्यार से पाला है, इस की प्रत्येक इच्छा को पूरा करने का प्रयास किया है. इस के पापा ने तो इसे कभी रसोई में घुसने ही नहीं दिया.’‘रसोई में तो मैं भी कभी नहीं गई तो यह क्या जाएगी,’ बात को बीच में ही काट कर गर्वभरे स्वर के साथ मम्मीजी ने कहा. मम्मीजी के इस वाक्य ने अनिश्चितता के बादल हटा दिए थे तथा पल्लव और माधुरी को उस पल एकाएक ऐसा महसूस हुआ कि मानो सारा आकाश उन की मुट्ठियों में समा गया हो. उन के स्वप्न साकार होने को मचलने लगे थे तथा शीघ्र ही शहनाई की धुन ने 2 शरीरों को एक कर दिया था.पल्लव के परिवार तथा माधुरी के परिवार के रहनसहन में जमीनआसमान का अंतर था. समानता थी तो सिर्फ इस बात में कि मम्मीजी भी मां की तरह घर को नौकरों के हाथ में छोड़ कर समाजसेवा में व्यस्त रहती थीं.

अंतर इतना था कि वहां एक नौकर था तथा यहां 4, मां नौकरी करती थीं तो ससुराल में सास समाजसेवा से जुड़ी थीं.मम्मीजी नारी मुक्ति आंदोलन जैसी अनेक संस्थाओं से जुड़ी हुई थीं, जहां गरीब और सताई गई स्त्रियों को न्याय और संरक्षण दिया जाता था. उन्होंने शुरू में उसे भी अपने साथ चलने के लिए कहा और उन का मन रखने के लिए वह गई भी, किंतु उसे यह सब कभी अच्छा नहीं लगा था. उस का विश्वास था कि नारी मुक्ति आंदोलन के नाम पर गरीब महिलाओं को गुमराह किया जा रहा है. एक महिला जिस पर अपने घरपरिवार का दायित्व रहता है, वह अपने घरपरिवार को छोड़ कर दूसरे के घरपरिवार के बारे में चिंतित रहे, यह कहां तक उचित है? कभीकभी तो ऐसी संस्थाएं अपने नाम और शोहरत के लिए भोलीभाली युवतियों को भड़का कर स्थिति को और भी भयावह बना देती हैं. उसे आज भी याद है कि उस की सहेली नीता का विवाह दिनेश के साथ हुआ था. एक दिन दिनेश अपने मित्रों के कहने पर शराब पी कर आया था तथा नीता के टोकने पर नशे में उस ने नीता को चांटा मार दिया. यद्यपि दूसरे दिन दिनेश ने माफी मांग ली थी तथा फिर से ऐसा न करने का वादा तक कर लिया था, किंतु नीता, जो महिला मुक्ति संस्था की सदस्य थी, ने इस बात को ऐसे पेश किया कि उस की ससुराल की इज्जत तो गई ही, साथ ही तलाक की स्थिति भी आ गई और आज उस का फल उन के मासूम बच्चे भोग रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएं भलाई का कोई काम ही नहीं करतीं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि किसी भी प्रतिष्ठान की अच्छाइयां छिप जाती हैं जबकि बुराइयां न चाहते हुए भी उभर कर सामने आ जाती हैं.वास्तव में स्त्रीपुरुष का संबंध अटूट विश्वास, प्यार और सहयोग पर आधारित होता है. जीवन एक समझौता है. जब 2 अजनबी सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु विवाह के बंधन में बंधते हैं तो उन्हें एकदूसरे की अच्छाइयों के साथसाथ बुराइयों को भी आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए. प्रेम और सद्भाव से उस की कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, न कि लड़झगड़ कर अलग हो जाना चाहिए.मम्मीजी की आएदिन समाचारपत्रों में फोटो छपती. कभी वह किसी समारोह का उद्घाटन कर रही होतीं तो कभी विधवा विवाह पर अपने विचार प्रकट कर रही होतीं, कभी वह अनाथाश्रम जा कर अनाथों को कपड़े बांट रही होतीं तो कभी किसी गरीब को अपने हाथों से खाना खिलाती दिखतीं. वह अत्यंत व्यस्त रहती थीं.

वास्तव में वह एक सामाजिक शख्सियत बन चुकी थीं, उन का जीवन घरपरिवार तक सीमित न रह कर दूरदराज तक फैल गया था. वह खुद ऊंची, बहुत ऊंची उठ चुकी थीं, लेकिन घर उपेक्षित रह गया था, जिस का खमियाजा परिवार वालों को भुगतना पड़ा था. घर में कीमती चीजें मौजूद थीं किंतु उन का उपयोग नहीं हो पाता था.मम्मीजी ने समय गुजारने के लिए उसे किसी क्लब की सदस्यता लेने के लिए कहा था किंतु उस ने अनिच्छा जाहिर कर दी थी. उस के अनुसार घर की 24 घंटे की नौकरी किसी काम से कम तो नहीं है. जहां तक समय गुजारने की बात है उस के लिए घर में ही बहुत से साधन मौजूद थे. उसे पढ़नेलिखने का शौक था, उस के कुछ लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुके थे. वह घर में रहते हुए अपनी इन रुचियों को पूरा करना चाहती थी.यह बात अलग है कि घर के कामों में लगी रहने वाली महिलाओं को शायद वह इज्जत और शोहरत नहीं मिल पाती है जो बाहर काम करने वाली को मिलती है. घरेलू औरतों को हीनता की नजर से देखा जाता है लेकिन माधुरी ने स्वेच्छा से घर के कामों से अपने को जोड़ लिया था.

घर के लोग, यहां तक कि पल्लव ने भी यह कह कर विरोध किया था कि नौकरों के रहते क्या उस का काम करना उचित लगेगा. तब उस ने कहा था कि ‘अपने घर का काम अपने हाथ से करने में क्या बुराई है, वह कोई निम्न स्तर का काम तो कर नहीं रही है. वह तो घर के लोगों को अपने हाथ का बना खाना खिलाना चाहती है. घर की सजावट में अपनी इच्छानुसार बदलाव लाना चाहती है और इस में भी वह नौकरों की सहायता लेगी, उन्हें गाइड करेगी.

‘क्या एक लड़की और लड़के में सिर्फ मित्रता नहीं हो सकती. यह शादीविवाह की बात बीच में कहां से आ गई?’ पल्लव ने तीखे स्वर में कहा था.‘मैं मान ही नहीं सकता. नर और मादा में बिना आकर्षण के मित्रता संभव ही नहीं है. भला प्रकृति के नियमों को तुम दोनों कैसे झुठला सकते हो? वह भी इस उम्र में,’ शांतनु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा.शांतनु तो कह कर चला गया, किंतु नदी की शांत लहरों में पत्थर फेंक गया था. पिछली बातों पर ध्यान गया तो लगा कि शांतनु की बातों में दम है, जिस बात को वे दोनों नहीं समझ सके या समझ कर भी अनजान बने रहे, उस आकर्षण को उस की पारखी निगाहों ने भांप लिया था. गंभीरतापूर्वक सोचविचार कर आखिरकार माधुरी ने ही उचित अवसर पर एक दिन पल्लव से कहा, ‘यदि हम अपनी इस मित्रता को रिश्ते में नहीं बदल सकते तो इसे तोड़ देना ही उचित होगा, क्योंकि आज शांतनु ने संदेह किया है,

कल दूसरा करेगा तथा परसों तीसरा. हम किसकिस का मुंह बंद कर पाएंगे. आज हम खुद को कितना ही आधुनिक क्यों न कह लें किंतु कहीं न कहीं हम अपनी परंपराओं से बंधे हैं और ये परंपराएं एक सीमा तक ही उन्मुक्त आचरण की इजाजत देती हैं.’ पल्लव को भी लगा कि जिस को वह अभी तक मात्र मित्रता समझता रहा वह वास्तव में प्यार का ही एक रूप है, अत: उस ने अपने मातापिता को इस विवाह के लिए तैयार कर लिया. पल्लव के पिताजी बहुत बड़े व्यवसायी थे. वे खुले विचारों के थे इसलिए अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में करने को तैयार हो गए. मम्मीजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि जातिपांति पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यदि उन्हें लड़की पसंद आई तभी वे इस विवाह की इजाजत देंगी.माधुरी के मातापिता अतिव्यस्त अवश्य थे किंतु अपने संस्कारों तथा रीतिरिवाजों को नहीं छोड़ पाए थे इसलिए विजातीय पल्लव से विवाह की बात सुन कर पहले तो काफी क्रोधित हुए थे और विरोध भी किया था, लेकिन बेटी की दृढ़ता तथा निष्ठा देख कर आखिरकार तैयार हो गए थे तथा उस परिवार से मिलने की इच्छा जाहिर की थी.

दोनों परिवारों की इच्छा एवं सुविधानुसार होटल में मुलाकात का समय निर्धारित किया गया था. बातों का सूत्र भी मम्मीजी ने ही संभाल रखा था. पंकज और पल्लव तो मूकदर्शक ही थे. उन का जो भी निर्णय होता उसी पर उन्हें स्वीकृति की मुहर लगानी थी. यह बात जान कर माधुरी अत्यंत तनाव में थी तथा पल्लव भी मांजी की स्वीकृति का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.बातोंबातों में मां ने झिझक कर कहा था, ‘बहनजी, माधुरी को हम ने लाड़प्यार से पाला है, इस की प्रत्येक इच्छा को पूरा करने का प्रयास किया है. इस के पापा ने तो इसे कभी रसोई में घुसने ही नहीं दिया.’‘रसोई में तो मैं भी कभी नहीं गई तो यह क्या जाएगी,’ बात को बीच में ही काट कर गर्वभरे स्वर के साथ मम्मीजी ने कहा. मम्मीजी के इस वाक्य ने अनिश्चितता के बादल हटा दिए थे तथा पल्लव और माधुरी को उस पल एकाएक ऐसा महसूस हुआ कि मानो सारा आकाश उन की मुट्ठियों में समा गया हो. उन के स्वप्न साकार होने को मचलने लगे थे तथा शीघ्र ही शहनाई की धुन ने 2 शरीरों को एक कर दिया था.पल्लव के परिवार तथा माधुरी के परिवार के रहनसहन में जमीनआसमान का अंतर था. समानता थी तो सिर्फ इस बात में कि मम्मीजी भी मां की तरह घर को नौकरों के हाथ में छोड़ कर समाजसेवा में व्यस्त रहती थीं.

अंतर इतना था कि वहां एक नौकर था तथा यहां 4, मां नौकरी करती थीं तो ससुराल में सास समाजसेवा से जुड़ी थीं.मम्मीजी नारी मुक्ति आंदोलन जैसी अनेक संस्थाओं से जुड़ी हुई थीं, जहां गरीब और सताई गई स्त्रियों को न्याय और संरक्षण दिया जाता था. उन्होंने शुरू में उसे भी अपने साथ चलने के लिए कहा और उन का मन रखने के लिए वह गई भी, किंतु उसे यह सब कभी अच्छा नहीं लगा था. उस का विश्वास था कि नारी मुक्ति आंदोलन के नाम पर गरीब महिलाओं को गुमराह किया जा रहा है. एक महिला जिस पर अपने घरपरिवार का दायित्व रहता है, वह अपने घरपरिवार को छोड़ कर दूसरे के घरपरिवार के बारे में चिंतित रहे, यह कहां तक उचित है? कभीकभी तो ऐसी संस्थाएं अपने नाम और शोहरत के लिए भोलीभाली युवतियों को भड़का कर स्थिति को और भी भयावह बना देती हैं. उसे आज भी याद है कि उस की सहेली नीता का विवाह दिनेश के साथ हुआ था. एक दिन दिनेश अपने मित्रों के कहने पर शराब पी कर आया था तथा नीता के टोकने पर नशे में उस ने नीता को चांटा मार दिया. यद्यपि दूसरे दिन दिनेश ने माफी मांग ली थी तथा फिर से ऐसा न करने का वादा तक कर लिया था, किंतु नीता, जो महिला मुक्ति संस्था की सदस्य थी, ने इस बात को ऐसे पेश किया कि उस की ससुराल की इज्जत तो गई ही,

साथ ही तलाक की स्थिति भी आ गई और आज उस का फल उन के मासूम बच्चे भोग रहे हैं.ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएं भलाई का कोई काम ही नहीं करतीं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि किसी भी प्रतिष्ठान की अच्छाइयां छिप जाती हैं जबकि बुराइयां न चाहते हुए भी उभर कर सामने आ जाती हैं.वास्तव में स्त्रीपुरुष का संबंध अटूट विश्वास, प्यार और सहयोग पर आधारित होता है. जीवन एक समझौता है. जब 2 अजनबी सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु विवाह के बंधन में बंधते हैं तो उन्हें एकदूसरे की अच्छाइयों के साथसाथ बुराइयों को भी आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए. प्रेम और सद्भाव से उस की कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, न कि लड़झगड़ कर अलग हो जाना चाहिए.मम्मीजी की आएदिन समाचारपत्रों में फोटो छपती. कभी वह किसी समारोह का उद्घाटन कर रही होतीं तो कभी विधवा विवाह पर अपने विचार प्रकट कर रही होतीं, कभी वह अनाथाश्रम जा कर अनाथों को कपड़े बांट रही होतीं तो कभी किसी गरीब को अपने हाथों से खाना खिलाती दिखतीं.

वह अत्यंत व्यस्त रहती थीं. वास्तव में वह एक सामाजिक शख्सियत बन चुकी थीं, उन का जीवन घरपरिवार तक सीमित न रह कर दूरदराज तक फैल गया था. वह खुद ऊंची, बहुत ऊंची उठ चुकी थीं, लेकिन घर उपेक्षित रह गया था, जिस का खमियाजा परिवार वालों को भुगतना पड़ा था. घर में कीमती चीजें मौजूद थीं किंतु उन का उपयोग नहीं हो पाता था.मम्मीजी ने समय गुजारने के लिए उसे किसी क्लब की सदस्यता लेने के लिए कहा था किंतु उस ने अनिच्छा जाहिर कर दी थी. उस के अनुसार घर की 24 घंटे की नौकरी किसी काम से कम तो नहीं है. जहां तक समय गुजारने की बात है उस के लिए घर में ही बहुत से साधन मौजूद थे. उसे पढ़नेलिखने का शौक था, उस के कुछ लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुके थे. वह घर में रहते हुए अपनी इन रुचियों को पूरा करना चाहती थी.यह बात अलग है कि घर के कामों में लगी रहने वाली महिलाओं को शायद वह इज्जत और शोहरत नहीं मिल पाती है जो बाहर काम करने वाली को मिलती है. घरेलू औरतों को हीनता की नजर से देखा जाता है लेकिन माधुरी ने स्वेच्छा से घर के कामों से अपने को जोड़ लिया था. घर के लोग, यहां तक कि पल्लव ने भी यह कह कर विरोध किया था कि नौकरों के रहते क्या उस का काम करना उचित लगेगा. तब उस ने कहा था कि ‘अपने घर का काम अपने हाथ से करने में क्या बुराई है, वह कोई निम्न स्तर का काम तो कर नहीं रही है. वह तो घर के लोगों को अपने हाथ का बना खाना खिलाना चाहती है. घर की सजावट में अपनी इच्छानुसार बदलाव लाना चाहती है और इस में भी वह नौकरों की सहायता लेगी, उन्हें गाइड करेगी.

उस की बात सुन कर मम्मीजी ने मुंह बिचका दिया था लेकिन जो घर नौकरों के द्वारा चलने से बेजान हो गया था माधुरी के हाथ लगाने मात्र से सजीव हो उठा था. इस बात को पापाजी और पल्लव के साथ मम्मीजी ने भी महसूस किया था.पल्लव, जो पहले रात में 10 बजे से पहले घर में कदम नहीं रखता था. वही अब ठीक 5 बजे घर आने लगा. यही हाल उस के पापाजी का भी था. एक बार भावुक हो कर पापा ने कहा भी था, ‘बेटा, तुम ने इस धर्मशाला बन चुके घर को पुन:

घर बना दिया. सचमुच जब तक घरवाली का हाथ घर में नहीं लगता तब तक घर सुव्यवस्थित नहीं हो पाता है.’एक बार पापाजी उस के हाथ के बने पनीर के पकवान की तारीफ कर रहे थे कि मम्मीजी चिढ़ कर बोलीं, ‘भई, मुझे तो बाहर के कामों से ही फुरसत नहीं है. इन बेकार के कामों के लिए समय कहां से निकालूं?’‘बाहर के लोगों के लिए समय है, किंतु घर वालों के लिए नहीं,’ तीखे स्वर में ससुरजी ने उत्तर दिया था जो सास के जरूरत से अधिक घर से बाहर रहने के कारण अब परेशान हो उठे थे.‘मैं अपनी पूरी जिंदगी घर में निठल्ले बैठे नहीं गुजार सकती. वैसे ही अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा इस परिवार को भेंट कर ही चुकी हूं, लेकिन अब और नहीं कर सकती,’ आक्रोश में सास ने उत्तर दिया था.‘मम्मीजी, घर में भी दूसरे सैकड़ों जरूरी काम हैं, यदि किए जाएं तो,’ कहना चाह कर भी माधुरी कह नहीं सकी थी. व्यर्थ ही उन का गुस्सा बढ़ जाता और हासिल कुछ भी न होता.

हो सकता है वे अपनी जगह ठीक हों वरना कौन पढ़ीलिखी औरत फालतू के कामों में अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहेगी.मम्मीजी का निर्णय अपना है. पर वह उस सचाई को कैसे भूल सकती है जिस के पीछे उस का भोगा हुआ अतीत छिपा है, तनहाइयां छिपी हैं, रुदन छिपा है, जिस को देखने का, पहचानने का उस के पालकों के पास समय ही नहीं था. उस समय उसे लगता था कि ऐसे दंपती संतान को जन्म ही क्यों देते हैं, जब उन के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है. वह बेचारा उन की प्यारभरी निगाह के लिए जीवनभर तड़पता ही रह जाता है लेकिन वह निगाह उसे नसीब नहीं होती. आज इंसान पैसों के पीछे भाग रहा है, लेकिन पैसों से मन की शांति, प्यार तो नहीं खरीदा जा सकता.एक बच्चे को जब मां की कोख की गरमी चाहिए तब उसे बोतल और पालना मिलता है, जब वह मां का हाथ पकड़ कर चलना चाहता है,

अपनी तोतली आवाज में दुनियाभर के प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहता है, तब उसे आया के हाथों में सौंप दिया जाता है या महानगरों में खुले के्रचों में, जहां उस का बचपन, उस की भावनाएं, उमंगें कुचल कर रह जाती हैं. वह एकाकीपन से इतना घबरा उठता है कि अकेले रहने मात्र से सिहर उठता है. उसे याद है कि वह 15 वर्ष तक अंगूठा पीती रही थी, अंगूठा चूसना उसे न केवल मानसिक तृप्ति देता था वरन आसपास किसी के रहने का एहसास भी कराता था. अचानक किसी को सामने पा कर चौंक उठना तथा ठीक से बातें न कर पाना भी उस की कमजोरी बन गई थी. इस कमजोरी के लिए भी सदा उसे ही दोषी ठहराया जाता रहा था.जब सब बच्चे स्कूल में छुट्टी होने पर खुश होते थे तब माधुरी चाहती थी कि कभी छुट्टी हो ही न, क्योंकि छुट्टी में वह और अकेली पड़ जाती थी.

मातापिता के काम पर जाने के बाद घर खाने को दौड़ता था. घर में सुखसुविधा का ढेरों सामान मौजूद रहने के बावजूद उस का बचपन सिसकता ही रह गया था. वह नहीं चाहती थी कि उस की संतानें भी उसी की तरह घुटघुट कर जीते हुए किसी अनहोनी का शिकार हों या मानसिक रोगी बन जाएं.बाद में पल्लव से ही पता चला था कि प्रारंभ में तो मम्मी पूरी तरह घरेलू ही थीं किंतु पापा के व्यापार में निरंतर मिलती सफलता के कारण वे अकेली होती गईं तथा समय गुजारने के लिए उन्होंने समाज सेवा प्रारंभ की. बढ़ती व्यस्तता के कारण घर को नौकरों पर छोड़ा जाने लगा और अब उन्होंने उस क्षेत्र में ऐसी जगह बना ली है कि जहां से लौटना उन के लिए न तो संभव है और शायद न ही उचित.‘‘बेटी, नाश्ता कर ले,’’ मम्मी का स्नेहिल स्वर उसे चौंका गया और वह अतीत की यादों से निकल कर वर्तमान में आ गई.‘‘न जाने तुम ने मम्मी पर क्या जादू कर दिया है कि सबकुछ छोड़ कर तुम्हारी तीमारदारी में लगी हैं,’’ मम्मीजी को आवश्यकता से अधिक उस की देखभाल करते देख पल्लव ने उसे चिढ़ाते हुए कहा था.‘‘क्यों नहीं करूंगी उस की देखभाल? तू तो सिर्फ मेरा बेटा ही है किंतु यह तो बहू होने के साथसाथ मेरी बेटी भी है तथा मेरे होने वाले पाते की मां भी है,’

’ मम्मीजी, जो पास में खड़े बेटे की बात सुन रही थीं, ने अपनी चिरपरिचित मुसकान के साथ कहा था.                  मम्मीजी जहां पहले एक दिन घर में रुकने के नाम पर भड़क जाती थीं, वहीं वह सप्ताहभर से अपने सारे कार्यक्रम छोड़ कर उस की देखभाल में लगी हैं. आज माधुरी को खुद पर ग्लानि हो रही थी. उस के मन में उन के लिए कितने कलुषित विचार थे. वास्तव में उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि स्त्री पहले मां है बाद में पत्नी या अन्य रूपों को जीती है. मां रूपी प्रेम का स्रोत कभी समाप्त नहीं होता. ममता कभी नहीं मरती.मम्मीजी उन स्त्रियों में से नहीं थीं जो घरपरिवार के लिए अपना पूर्ण जीवन समर्पित करना अपना ध्येय समझती हैं, वे उन से कहीं परे थीं, अलग थीं. अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने समाज में अपनी एक खास पहचान बनाई थी.अब उस की यह धारणा धूमिल होती जा रही थी कि समाज सेवा में लिप्त औरतें घर से बाहर रहने के लिए ही इस क्षेत्र में जाती हैं. कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं.उसे लग रहा था कि बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद यदि संभव हो सका तो वह भी देश के गरीब और पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए अपना योगदान अवश्य देगी. फिलहाल तो उसे अपनी कोख में पलने वाले बच्चे की ओर ध्यान देना है,

जो उस की जरा सी असावधानी से मरतेरते बचा है. सोचतेसोचते उस ने करवट बदली और उसी के साथ ही उसे महसूस हुआ मानो वह कह रहा है, ‘ममा, जरा संभल कर, कहीं मुझे फिर से चोट न लग जाए.’‘नहीं बेटा, अब तुझे कुछ नहीं होगा. मैं हूं न तेरी देखभाल के लिए,’ माधुरी ने दोनों हाथों से बढ़े पेट को ऐसे थाम लिया मानो वह गिरते हुए अपने कलेजे के टुकड़े को पकड़ रही है. उस के चेहरे पर मातृत्व की गरिमा, अजन्मे के लिए अनोखा, अटूट प्रेम दिखाई दे रहा था.  द्य    मां अत्यंत ही महत्त्वाकांक्षी थीं. यही कारण था कि दादी के बारबार यह कहने पर कि वंश चलाने के लिए बेटा होना ही चाहिए, उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन का कहना था कि आज के युग में लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया है.

Husband Wife Story- स्नेह के सहारे: पति के जाने के बाद सरला का कौन बना सहारा

लेखिका- प्रमिला नानिवडेकर

रोज की तरह नहा कर माताजी बगीचे में पहुंचीं. वहां से उन की नजर पडो़सी के बगीचे में पडी़. वहां कोई वृद्ध व्यक्ति बड़े ध्यान से काम कर रहा था.

‘शायद इन को माली मिल गया है,’ माताजी बुदबुदाईं. फिर उन्होंने सोचा, ‘पर माली इतनी जल्दी उठ कर काम कर रहा है. फिर उस केघ्कपडे़ भी तो एकदम साफ हैं. ऊंह, होगा कोई उन का रिश्तेदार.’

उन्होंने अपने मन को उधर से हटाने का प्रयास किया. लेकिन उन का ध्यान बारबार पडो़स केघ्बगीचे की ओर ही चला जाता था. वह सोचने लगीं, ‘कौन होगा वह वृú सज्जन?’

कई दिनों के बाद उन के मन को कुछ सोचने लायक मसाला मिला था. कुछ वर्षों से वह अपनी बेटी सरला के साथ रह रही थीं. पहले जब सरला के पिता थे तब चेन्नई के नजदीक के एक छोटे से गांव में वह उन के साथ अपने घर में रहती थीं. पति के रिटायर होने के बाद भी उन्होंने अपने पति के साथ इस तरह का रोज का कार्यक्रम बना लिया था कि उन्हें समय बीतने का पता ही नहीं चलता था. साल में एक बार सरला अपने बच्चों के साथ आती थी. तब कुछ दिनों के लिए उस वृú दंपती का जीवन बच्चों केघ्शोरगुल से भर जाता था. उन्हें यह शोरगुल अच्छा लगता था, लेकिन सरला की वापसी केघ्बाद घर में छाने वाली शांति भी उन्हें बेहद अच्छी लगती थी.

पति के देहांत केघ्बाद उन्हें सरला केघ्पास ही रहना पडा़. सरला के पति सांबशिवन वायुसेना में अफसर थे. वह ही माताजी को समझा कर ले आए थे.

फ्अकेली गांव में क्या करोगी मांजी? फिर हम लोगों को भी आप की चिता लगी रहेगी. इस से अच्छा है कि घर बेचबाच कर पैसे बैंक में जमा करा दो और बुढा़पा हमारे साथ आराम से गुजारो, सांबशिवन ने कहा था.

माताजी ने घर बेचा तो नहीं था, पर किराए पर चढा़ दिया था. पति केघ्बीमे के पैसे भी बैंक में जमा करवा दिए थे. उस के ब्याज का भी कुछ आ ही जाता था. वैसे खानेपीने की सरला केघ्घर में भी कमी नहीं थी, पर सिर्फ शरीर की जरूरतें पूरी होने से ही क्या इनसान खुश रहता है?

वायुसेना के कैंप में बूढों़ की कमी थी. शहर से दूर, अंगरेजी बोलचाल, रहनसहन का अलग तरीका, आधुनिक विचारों वाले बच्चे. माताजी का दम पहलेपहल तो उस वातावरण में घुटता रहता था. पर अब उन्हें इस जीवन की आदत हो गई थी. अब वह आराम से बैठी रहती थीं और मन को इधरउधर बगीचे में लगाने की कोशिश करती थीं.

फ्सरला, बच्चों ने ब्रश भी नहीं किया और नाश्ता खा रहे हैं. तुम ने सिर चढा़ रखा है इन को, शुरू में वह कहती थीं तो सरला हंस देती थी. बच्चे नानी को ‘ओल्ड फैशन’ यानी पुराने रिवाजों वाली कह कर चिढा़ते थे. कभी वह नौकरानी के गंदे काम पर बरस पड़ती थीं तो सरला नौकरानी केघ्जाने के बाद समझाती थी, फ्अम्मां, आजकल नौकर मिलते ही नहीं हैं. अब तुम्हारे वाला पुराना जमाना गया. यह नौकरानी चली गई तो स्वयं काम करना पडे़गा.

फ्तो कर लेंगे, वह गुस्से में बोलतीं.

फ्अम्मां, तुम्हें तो बस, किचन, घर और धर्म के सिवा दूसरा कुछ सूझता ही नहीं है. मेरे पास दूसरे हजारों काम हैं. बच्चों को पढा़ना, सिलाई, बुनाई, लेडीज क्लब, सामाजिक जीवन आदि. इसलिए मेरा काम नौकर के बिना नहीं चल सकता.

माताजी को पता चल गया था कि यहां लोग दिखावे के बल पर ही ऊंचे स्तर के माने जाते हैं. यहां बैठक की सजावट, कालीन, परदे और पेंटिग को देखा और सराहा जाता है. चौके में गंदे हाथों वाली आया, बिना नहाए, बिना सब्जी या चावल धोए खाना बनाती है, यह कोई नहीं देखता. बच्चे मन चाहे, तब नहाते हैं, मन चाहे जो पढ़ते हैं. खूब फिल्म देखते हैं और अनुशासन के नाम से नाकभौं चढा़ते हैं. पर इस की यहां कोई परवा नहीं करता. यह सब देखदेख कर अम्मां कुढ़ती रहतीं, लेकिन कर कुछ नहीं पातीं. अपना घर छोड़ने के साथ उन केघ्अधिकार भी भूतकाल में गल गए थे. कभीकभार धीरज छोड़ कर वह कुछ कहतीं तो सरला समझाती, फ्अम्मां, तुम क्यों चिता करती हो? आराम से रहो. दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है, तुम्हें क्या मालूम? सच, मुझे अगर तुम्हारे जितना आराम मिले तो मैं तो इधर की दुनिया उधर कर दूं. इस उम्र में घर के झंझट में दोबारा क्यों पड़ती हो?

लेकिन माताजी जानती थीं कि आराम भी एक हद तक ही किया जा सकता है. ज्यादा आराम व्यक्ति केघ्उत्साह को खत्म कर देता है.

माताजी पडो़स में आए वृú सज्जन के बारे में जानने केघ्लिए बहुत ही उत्सुक थीं. आखिर उन्होंने आया से पूछ ही लिया, फ्कौन हैं रे, वह बूढे़ बाबा?

फ्वह तो महंती साहब के चाचा हैं. अकेले हैं तो यहां रहने आ गए हैं, आया के पास पूरी जानकारी थी.

फ्पहले कहां थे?

फ्इन्हीं चाचाजी ने साहब को बडा़ किया, पढा़यालिखाया. पहले यह साहब के दूसरे भाईबहनों के साथ रहते थे. शादी नहीं की. भाई की मृत्यु के बाद भाई के परिवार के लिए ही इन्होंने अपनी जिदगी काट दी, आया ने पूरी बात बता दी. और माताजी उस से पूछती रहीं. हालांकि वह जानती थीं कि उन का आया से बतियाना भी सरला को पसंद नहीं.

अब माताजी  अकसर पडो़स के बगीचे की तरफ देखती रहतीं. कुछ ही समय में बगीचे में निखार आ गया था. रंगबिरंगे फूल क्यारियों में खिलने लगे थे. उन की देखादेखी माताजी भी थोेडा़बहुत अपना बगीचा संवारने लगीं.

एक दिन अचानक ही उन के कानों में आवाज आई, फ्लगता है, आप को भी बागबानी का शौक है.

माताजी ने चौंक कर देखा तो सामने वही वृú खडे़ थे. उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी. माताजी ने भी उत्तर में मुसकरा कर हाथ जोड़ दिए.

फिर इस के बाद उन की दोस्ती बढ़ती गई. दोनों बातें कर के समय गुजारने लगे और भाषा, जातपांत के कूडे़कचरे को नजरअंदाज करती हुई उन की मित्रता बढ़ती गई. अब वे घंटों बगीचे में खडे़ हो कर बातें करते. शाम को दोनों सब्जी लाने उत्साह से चल पड़ते. माताजी का चिड़चिडा़पन धीरेधीरे गुनगुनाहट में डूबता गया. चाचाजी भी अपने पास की दुनिया को मुसकान भरी आंखों से देखने लगे.

आया के जरिए माताजी को पता चल गया था कि बहू और भतीजे में चाचाजी के खर्चे को ले कर खटपट हो जाया करती है. एक आदमी के आने से उन का महीने का बजट चौपट हो गया था. बच्चों की फीस, शराब का खर्च, पत्नी की रमी और पति केघ्ब्रिज के अड्डों में अब कुछ अड़चनें सी आने लगी थीं.

फ्उन्हें भेज क्यों नहीं देते जेठजी के घर? श्रीमती महंती अपने पति से पूछतीं.

फ्वहां भी तो यही हाल है. उन्हें हम लोगों को छोड़ कर दूसरे किसी का सहारा नहीं है मालू. अगर हम चारों भाईबहन में से कोईघ्भी उन्हें नहीं रखेगा तो—

फ्तब उन्हें वृúाश्रम में भेज दो.

फ्क्या? तुम्हारी जबान इतनी चल कैसे गई? जिस ने हमारे लिए अपना घर नहीं बसाया, उसे मैं वृúाश्रम में छोड़ दूं? महंती चीखने लगे.

फ्मुझ से तो यह झंझट नहीं होगा. कभी चावल ज्यादा खिलाया तो गैस की तकलीफ, कभी रोटी ज्यादा खा गए तो पेट में गड़बड़.

फ्मालू, जरा तो खयाल करो. बुढा़पे पर उन का क्या बस चल सकता है.

फ्जब वह उस मद्रासी बुड्ढी के साथ हंसहंस कर बतियाते हैं तो बुढा़पा कहां गुम हो जाता है, श्रीमती महंती पूछतीं.

इधर सरला ने भी एक दिन झिझकते हुए माताजी से कह दिया, फ्अम्मां, चाचाजी से इतनी दोस्ती इस उम्र में अच्छी नहीं लगती. लोग मजाक उडा़ते हैं.

माताजी बिफर गईं. बोलीं, फ्अच्छे हैं तुम्हारे लोगबाग. पेड़ को सूखते हुए देख कर लोटा भर पानी तो देेंगे नहीं, अगर दूसरा कोई दे भी रहा हो तो जलेंगे भी. क्या हम लोगों को किसी बात करने वाले साथी की जरूरत नहीं है?

फ्मैं ने मना कब किया है? लेकिन— उसे आगे के शब्द नहीं सूझ रहे थे.

फ्हां, तुम्हारी सोसाइटी में स्त्रियां

औरों केघ्साथ खुलेआम नाच  तो सकती हैं, अविवाहित लड़केलड़कियां डेटिग तो कर सकते हैं लेकिन 2 बूढे़, जिन से कोई बात करने वाला नहीं, आपस में भी बातें नहीं कर सकते. यही सोसाइटी है तुम्हारी. वाहवाह.

एक दिन चाचाजी ने भतीजे से कहा,  फ्बेटे, मैं सोचता हूं कि मैं किसी आश्रम में जा कर अपना समय बिता दूं. तुम सभी भाई थोडे़थोडे़ पैसे भेजते रहोगे तो मेरा खर्च तो… मुझे पता है बेटे कि तुम्हारी तनख्वाह तुम्हारे लिए ही पर्याप्त नहीं, पर मैं—मेरा तोे कुछ है ही नहीं. बोझ बनना पड़ रहा है तुम सब पर—

महंती ने उन के पांव पकड़ लिए, फ्चाचाजी, हमें शमिरंा््दा न करें. मालू तो मूर्ख है. मैं उसे समझा दूंगा.

फ्नहीं बेटे, वह मूर्ख नहीं है. मूर्ख मैं हूं जो स्वावलंबी नहीं हूं. नौकरी सरकारी नहीं थी तो पेंशन कहां से मिलती. फिर भी, काश, मैं कुछ बचा कर रखता.

चाचाजी के इस सुझाव के बारे में जब माताजी को पता चला तो उन की आंखें भर आईं. मौका मिलते ही उन्होंने चाचाजी से कहा, फ्तुम मेरे साथ चलो, मेरा एक छोटा सा घर है गांव में. हां, भाषा तुम्हारी नहीं, पर मैं हूं वहां. मेरे साथ रहो. मैं भी तो नितांत अकेली हूं.

चाचाजी अवाक देखते रहे. फिर बोले, फ्लोग क्या कहेंगे, इस उम्र में हमारी दोस्ती लोगों की नजर में पवित्र नहीं हो सकती.

फ्तो हम शादी कर लेंगे. सच, मैं इस भरी दुनिया की तनहाई से तंग आ गई हूं. उस छोटे गांव में, अपने घर में शांति से रहना चाहती हूं. तुम भी चलो. दोनों के बाकी दिन कट जाएंगे, स्नेह केघ्सहारे.

फ्लेकिन लोग—लोग क्या कहेंगे? इतने बुढा़पे में शादी? फिर मैं तो—

फ्मुझे पता है कि तुम निर्धन हो, लेकिन तुम्हारे पास छलकते स्नेह और त्याग की जो दौलत है, उस की कोई कीमत नहीं है. और हां, उन लोगों की क्या परवा करनी जो तुम्हारी इस दौलत की कीमत नहीं जानते. फिर अब हमें कहां अपने बच्चे ब्याहने जाना है? वह हंस पडीं़.

फिर एक दिन उस फूलों से लदे बगीचे के पास एक टैक्सी आ कर रुकी. उस में से फूलों के हार पहने चाचाजी व माताजी उतरे. दोनों ने शादी कर ली थी. उसी टैक्सी में अपनाअपना सामान लदवा कर माताजी और चाचाजी गांव जाने के लिए स्टेशन चले गए.

इस के बाद सारे कैंप में ‘बूढी़ घोडी़, लाल लगाम’ के नारे, लतीफे और कहकहे कई दिनों तक गूंजते रहे. महंती और सांबशिवन का परिवार शरम के मारे कई दिनों तक मुंह छिपाए घर में बैठा रहा. घर से बाहर आने पर दोनों परिवारों ने गैरों से भी बढ़ कर अपने उन बूढों को गालियां दीं.

लेकिन उन बूढों के कानों तक यह सबकुछ कभी नहीं पहुंचा. वे दोनों आदमी स्नेह केघ्सहारे लंबी लगने वाली जिदगी को मजे से जीते रहे. अब वे अकेले जो नहीं रह गए थे.

इच्छा मृत्यु: क्यों भाई के लिए लाचार था डेनियल

‘‘मि. सिंह, क्या आप कुछ घंटे के लिए अपनी कार मुझे दे सकते हैं?’’ डेनियल डिपो ने संकोच भरे स्वर में कहा.

लहना सिंह ने हिसाबकिताब के रजिस्टर से अपना सिर उठाया और पढ़ने का चश्मा उतार कर सामने देखा. उस का स्थायी ग्राहक डेनियल डिपो, जो एक नीग्रो था, सामने खड़ा था.

उस के चेहरे पर याचना और संकोच के मिलजुले भाव थे. उस ने एक सस्ता ओवर कोट और हैट पहना हुआ था.

‘‘ओह, मि. डिपो, हाउ आर यू? क्या परेशानी है?’’ लहना सिंह ने आत्मीयता से पूछा.

‘‘आज ट्यूब बंद है. रेललाइन की मरम्मत चल रही है. मुझे परिवार सहित न्यूयार्क के बड़े अस्पताल अपने छोटे भाई को देखने जाना है. यहां का बस अड्डा दूर है. कैब (टैक्सी) का भाड़ा काफी महंगा पड़ता है. अगर आप की कार खाली हो तो…’’ डेनियल के स्वर में संकोच स्पष्ट झलक रहा था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, हमें आज कहीं नहीं जाना है. आप शौक से ले जाइए,’’ कहते हुए लहना सिंह ने कार की चाबी डेनियल को थमा दी.

‘‘थैंक्यू, थैंक्यू, मि. सिंह,’’ आभार व्यक्त करता डेनियल चाबी ले कर ग्रोसरी स्टोर के एक तरफ खड़ी कार की ओर बढ़ चला.

लहना सिंह को न्यूयार्क के एक उपनगर में किराने की बड़ी दुकान, जिसे ग्रोसरी स्टोर कहा जाता था, चलाते हुए 20 वर्ष से भी ज्यादा समय हो चुका था. उस ने शुरुआत छोटी सी दुकान के तौर पर की थी पर धीरेधीरे वह दुकान बड़े ग्रोसरी स्टोर में बदल गई थी.

भारत की तरह अमेरिका के महानगरों, शहरों और कसबों के आसपास निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय बस्तियां भी बसी हुई थीं. इन बस्तियों में रहने वाले परिवारों की जरूरतें भी आम भारतीय परिवारों जैसी ही थीं.

इन बस्तियों और परिवारों में रहने वालों की मानसिकता को समझने के बाद लहना सिंह को अपना व्यापार चलाने में थोड़ा समय ही लगा था.

आरंभ में उस की यह धारणा थी कि अमेरिका जैसे विकसित देश में महंगा और बढि़या खानेपीने का सामान ही बिक सकता था. मगर इस उपनगर में बसने के बाद उस की यह सोच बदल गई थी.

सस्ते और मोटे अनाज, सस्ते खाद्य तेल, साबुन, शैंपू, झाड़ू और अन्य सस्ते सामान की मांग यहां भी भारत के समान ही थी.

जिस तरह भारत का आम आदमी बड़े और महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरों में कदम रखने से कतराता था लगभग वही स्थिति यहां के आम निम्नवर्गीय लोगों की भी थी.

भारत के बड़े डिपार्टमेंटल स्टोरों में जैसे आम आदमी को उधार सामान मिलना संभव नहीं था, वैसे ही हालात आम अमेरिकी के लिए अमेरिका में भी थे. अमेरिका का निम्न बस्ती में बसने वाला परिवार चाहे श्वेत हो या अश्वेत, उधार सामान देने वाले दुकानदार को ही प्राथमिकता देता है.

लहना सिंह ने इस मानसिकता को समझ लिया और उस ने धीरेधीरे निम्न व मध्यम वर्ग के लोगों में संपर्क बनाने शुरू किए. शुरुआत में थोड़े समय की थोड़ी रकम की उधार, फिर थोड़ी बड़ी उधार दे अपनी दुकान अच्छी जमा ली थी.

उस के ग्राहकों में अब श्वेत अमेरिकियों की तुलना में अश्वेत अमेरिकी, जिन्हें आम भाषा में ‘निगर’ कहा जाता है, थोड़े ज्यादा थे. दरअसल, इस उपनगर के करीब नीग्रो की बस्तियां ज्यादा थीं.

शुरुआत में लहना सिंह को इस उपनगर में दुकान खोलने में डर लगा था. कारण, उस के दिमाग में यह धारणा बनी कि नीग्रो उत्पाती और लुटेरे होते हैं. उन का काम ही बस लूटपाट करना है मगर बाद में यह धारणा अपनेआप बदल गई.

उस के साथी दुकानदारों, जिन में ज्यादातर उसी के समान सिख थे, ने उस को बताया था कि बदअमनी, लूटपाट, जबरन धन वसूली की घटनाएं अमेरिकी इन निम्नवर्ग वाले लोगों की बस्तियों की तुलना में अमेरिकी शहरों या महानगरों में ज्यादा थीं और भारत के अनेक प्रदेशों, जैसे बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश के कसबों में और भी ज्यादा थीं.

इन निगर कहे जाने वाले काले अमेरिकियों से मैत्रीसंबंध बनाने में लहना सिंह और अन्य एशियाई दुकानदारों व व्यापारियों को कोई ज्यादा समय नहीं लगा और दूसरी कोई दिक्कत भी पेश न आई.

जिस तरह किसी खूंखार पशु या जानवर को उस के अनुकूल व्यवहार और आहार दे कर वश में किया जा सकता है उसी तरह इन उत्पाती समझे जाने वाले काले हब्शियों को समयसमय पर सामान और डालर उधार दे कर और कभीकभार उन के साथ खानापीना खा कर लहना सिंह ने दोस्ताना संबंध बना लिए थे.

वह बेखौफ उन की बस्तियों में जा कर घूमफिर आता था, सामान दे आता था और उगाही कर आता था.

शाम को डेनियल उस की कार वापस करने आया. वह चाबी थमाते बारबार आभार व्यक्त करता थैंक्यू

मि. सिंह, थैंक्यू मि. सिंह बोल रहा था.

‘‘कोई बात नहीं मि. डेनियल, बहुत मामूली बात है.’’

‘‘मि. सिंह, मैं ने कार की टंकी में गैस भरवा दी है.’’

‘‘उस की क्या जरूरत थी. मामूली खर्च की बात है.’’

‘‘ओ.के. मि. सिंह, अब मैं चलूंगा.’’

‘‘एक कप कौफी तो पीजिए, भाई कैसा है आप का?’’

डेनियल की आंखें नम हो गईं. वह आर्द्र स्वर में बोला, ‘‘मि. सिंह, हम से उस की तकलीफ नहीं सही जाती है. वह बारबार जहर का इंजेक्शन लगाने को कहता है. डाक्टर बिना सरकारी आदेश के ऐसा करने में असमर्थता जताता है.’’

लहना सिंह ने आत्मीयता के साथ डेनियल का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर बैठाते हुए कौफी का कप पकड़ा दिया. डेनियल इस स्नेह स्पर्श से और भी नम हो उठा. वह चुपचाप कौफी पीने लगा.

डेनियल का छोटा भाई किसी जानलेवा लाइलाज बीमारी से ग्रस्त सरकारी अस्पताल में भरती था. इलाज के सभी प्रयास निष्फल रहे थे. अब उस की इच्छा मृत्यु यानी दया मृत्यु की याचिका अमेरिका के राष्ट्रपति के पास विचाराधीन थी.

कौफी समाप्त कर डेनियल उठा और धन्यवाद कह कर जाने लगा. लहना सिंह ने उस को ढाढ़स बंधाते हुए कहा, ‘‘मि. डेनियल, मैं कल आप के यहां आऊंगा.’’

अगले दिन लहना सिंह अपने लड़के को स्टोर संभालने को कह कर निगर बस्ती की तरफ चल पड़ा. आम भारतीय कसबों की तरह छोटी, संकरी, कच्चीपक्की गलियों से बनी यह बस्ती एक तरह की स्लम ही थी.

निगर बस्ती में मकानों की छतें ऊंचीनीची थीं. गलियों में कपड़े सूखने के लिए तारों पर लटके थे. कई जगह गलियों में पानी जमा था. ढाबेनुमा दुकान के बाहर खड़ेखड़े लोग खापी रहे थे. मांस खाने के बाद हड्डियां यहांवहां बिखरी पड़ी थीं.

एक पबनुमा दुकान के बाहर बीयर का मग थामे नौजवान लड़के- लड़कियां बीयर पी रहे थे. उन में हंसीमजाक हो रहा था. कोई वायलिन बजा रहा था, कोई माउथआरगन से धुनें निकाल रहा था.

अमेरिका की इन निम्न बस्तियों में छेड़छाड़ की घटनाएं कम सुनने में आतीं. कारण, लड़केलड़कियों का खुला मेलजोल होना, डेटिंग पर जाना आम बात थी.

भारत और अमेरिका के निम्न- मध्यवर्गीय लोगों में एक बात एक जैसी थी कि आदमी आदमी के करीब था. भारत में भी जैसेजैसे व्यक्ति पैसे वाला होता है वैसेवैसे वह आम आदमी से दूर होता जाता है.

स्वयं में सिमटने की प्रवृत्ति पाश्चात्य और अमेरिकी देशों में अमीरी बढ़ने के कई दशक पहले बढ़ चुकी थी. वही प्रवृत्ति अब भारत के नवधनाढ्य वर्ग में बढ़ रही है.

लहना सिंह का परिवार भारत में आम और निम्नवर्गीय लोगों के लिए दुकानदारी करता था अब अमेरिका में भी वह इन्हीं तबकों का दुकानदार था.

अमेरिका आने पर लहना सिंह कई महीने न्यूयार्क में कैब यानी टैक्सी चलाता रहा. सप्ताहांत में छुट्टी बिताने पबों, बारों, डिस्कोथैकों में जाता था, जहां उच्च वर्ग के लोग आते थे. उन के चेहरों पर बनावटी मुसकराहट, बनावटी हंसी, झलकती थी. बदन से बदन सटा कर नाचने वाले कितने एकदूसरे के समीप थे यह सभी जानते थे.

उन की तुलना में ये गरीब तबके के लोग खुल कर हंसते और एकदूसरे के समीप थे. दुखसुख में साथ देते थे.

डेनियल उस का इंतजार कर रहा था. उस के यहां लहना सिंह आमतौर पर आताजाता था. किराने का सामान साइकिल की टोकरी या कैरियर पर रख कर थमा जाता था. नियत तारीख पर भुगतान ले जाता था. ऐसा उस बस्ती के अनेक घरों के साथ था.

डेनियल की पत्नी ने लहना सिंह का अभिवादन किया. फिर सभी कौफी पीने लगे. घर का माहौल थोड़ी उदासी भरा था. संवेदना के स्वर हर जगह समान रूप से अपने सुरों का प्रभाव छोड़ते ही हैं.

इधरउधर की सामान्य बातों के बाद लहना सिंह ने डेनियल से उस के छोटे भाई के बाबत पूछा.

‘‘राष्ट्रपति के पास विचाराधीन पड़ी मर्सी किलिंग पेटिशन का फैसला दोचार दिन में होने की संभावना है,’’ डेनियल ने गम भरे स्वर में कहा.

‘‘क्या इस के बिना कोई और रास्ता नहीं है?’’

‘‘निरंतर तकलीफ झेलते, तिलतिल कर मरने के बजाय अगर उसे एकबारगी मुक्ति दिला दी जाए तो क्या अच्छा नहीं है?’’

डेनियल के चेहरे से पीड़ा साफ झलक रही थी.

लहना सिंह भी अवसाद से भर उठा. कहां तो हर कोई मृत्यु से बचने की कोशिश करता था. कहां अब मृत्यु की इच्छा करते मार दिए जाने की दरख्वास्त लगा कर मौत का इंतजार कर रहा था.

‘‘आप अस्पताल कब जाओगे?’’

‘‘रोज ही जाता हूं. आज बड़े लड़के को भेजा है.’’

‘‘भाई का खानापीना?’’

‘‘क्या खा सकता है वह? ट्यूब नली द्वारा उसे तरल भोजन दिया जाता है. सब सरकारी खाना होता है. हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते, न कोई दवा दे सकते हैं, न कोई खुराक.’’

‘‘कल मैं भी चलूंगा.’’

अगले दिन लहना सिंह और डेनियल भूमिगत रेल, जिसे भारत में मेट्रो और अमेरिका व इंगलैंड में ट्यूब कहा जाता है, के द्वारा सरकारी अस्पताल पहुंचे.

एक बड़े बेड पर आक्सीजन मास्क नाक और आधे चेहरे पर चढ़ाए डेनियल का छोटा भाई लेटा था. उस की आंखें अधखुली थीं. उस के चेहरे पर गहन पीड़ा के भाव साफ दिखाई पड़ रहे थे.

भाई ने भाई को देखा. दोनों ही लाचार थे. बड़ा छोटे को बचाना चाहते हुए भी बचा नहीं पा रहा था. छोटा उसे ज्यादा समय परेशानी नहीं देना चाहता था. संवेदना अपनेआप को खामोश रास्ते से व्यक्त कर रही थी.

अवसाद से भरा लहना सिंह डेनियल का कंधा थपथपा लौट आया था.

2 दिन बाद, राष्ट्रपति द्वारा दयामृत्यु की याचिका स्वीकार कर ली गई थी. आज जहर के इंजेक्शन द्वारा मृत्युदान दिया जाना था.

सगेसंबंधी, मित्र, पड़ोसी, लहना सिंह और अनेक समाचारपत्रों के संवाददाता डैथ चेंबर के शीशे से अंदर झांक रहे थे.

जहर का इंजेक्शन देने को नियुक्त डाक्टर का चेहरा भी अवसाद भरा था. उसे जल्लाद की भूमिका निभानी थी. डाक्टर का काम किसी की जान बचाना होता है, जान लेना नहीं. मगर कर्तव्य कर्तव्य था.

डाक्टर ने एकबारगी बाहर की तरफ देखा फिर सिरिंज बांह में पिरो कर उस में भरा द्रव्य शरीर में दाखिल कर दिया. मरने की इच्छा करने वाली आंखें धीरेधीरे बंद होती गईं. सर्वत्र खामोशी छा गई थी.

ताबूत को कब्र में उतार उस पर मिट्टी समतल कर एक पत्थर लगा दिया गया था. फूलों के गुलदस्ते कब्र पर चढ़ा सभी भारी मन से कब्रिस्तान से बाहर आ रहे थे.

Best Family Drama- विदाई: पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

विदाई की रस्म पूरी हो रही थी. नीता का रोरो कर बुरा हाल था. आंसुओं की झड़ी के बीच वह बारबार नजरें उठा कर बेटी को देखती तो उस का कलेजा मुंह को आ जाता.

सारी औपचारिकताएं खत्म हो चुकी थीं. टीना धीरेधीरे गाड़ी की ओर बढ़ रही थी. बड़ी बूआ भीगी पलकों के साथ ढेर सारी नसीहतें दे रही थीं, ‘‘टीना, अब तेरे लिए ससुराल ही तेरा अपना घर है. वहां सब का खयाल रखना. सासससुर की सेवा करना…’’ कहतेकहते उन की रुलाई फूट पड़ी.

नीता बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाई, ‘‘अपना खयाल रखना टीना,’’ आगे मां की जबान साथ न दे पाई और वह बड़ी जीजी के कंधे का सहारा ले कर जोरजोर से रोने लगीं.

टीना और नरेश गाड़ी में बैठ गए. दुलहन के लिबास में लिपटी टीना की हालत पर नरेश भावुक हो उठा. उस ने धीरे से टीना का हाथ पकड़ कर उसे ढांढस बंधाने का प्रयास किया. पति का स्पर्श पा कर टीना को कुछ राहत मिली, वरना उसे लग रहा था कि उस के सारे परिचित पीछे छूट गए हैं.

1 घंटे में टीना अपनी ससुराल की दहलीज पर खड़ी थी. नरेश का परिवार उस के लिए अपरिचित न था. दूर की रिश्तेदारी के कारण अकसर उन की मुलाकातें हो जाया करती थीं. ऐसे ही एक विवाह समारोह में नरेश की मां सुधा ने टीना को देखा था. उस का चुलबुलापन उन्हें बहुत अच्छा लगा. बिना समय गंवाए उन्होंने बात चलाई और 6 महीने के अंदर टीना उन की बहू बन कर उन के घर आ गई.

2 दिन तक विवाह की रम्में पूरी होती रहीं. तीसरे दिन नरेश व टीना हनीमून के लिए शिमला आ गए. दोनों बहुत खुश थे. नरेश के प्यार में खो कर टीना, मम्मी से बिछुड़ने का गम भूल  सी गई.

हनीमून के 2 दिन बहुत ही सुखद बीते. तीसरे दिन टीना को सर्दीबुखार ने घेर लिया. नरेश चिंतित था, ‘‘टीना, तुम आराम करो, लगता है यहां के मौसम में आए बदलाव के चलते तुम्हें सर्दी लग गई है.’’

‘‘मेरा बदन बहुत दुख रहा है नरेश.’’

‘‘तुम चिंता न करो, मैं डाक्टर को ले कर आता हूं.’’

‘‘डाक्टर की जरूरत नहीं है. एंटी कोल्ड दवाई से ही बुखार ठीक हो जाएगा, क्योंकि जब मुझे सर्दीबुखार होता था तो मम्मी मुझे यही दिया करती थीं.’’

‘‘मम्मी की बहुत याद आ रही है,’’ टीना को बांहों में भर कर नरेश बोला तो उस ने सिर हिला दिया.

‘‘तो इस में कीमती आंसू बहाने की क्या जरूरत है. अभी मम्मी से बात कर लो,’’ टीना की ओर मोबाइल बढ़ाते हुए नरेश बोला.

‘‘मुझे मम्मी से ढेर सारी बातें करनी हैं, अभी घर पर बहुत सारे मेहमान होंगे.’’

‘‘पगली, बाकी बातें बाद में कर लेना, अभी तो अपना हालचाल बता दो उन्हें.’’

‘‘प्लीज, उन्हें मेरी तबीयत के बारे में कुछ न बताना, वरना वे मुझे देखने यहीं आ जाएंगी. मैं मम्मी को जानती हूं,’’ टीना चहक कर बोली.

मम्मी के बारे में बात कर वह अपना दुखदर्द भूल गई. नरेश ने महसूस किया कि टीना सब से ज्यादा खुश मम्मी की बातों से होती है. अब टीना का दिल बहलाने के लिए वह बहुत देर तक मम्मी के बारे में बात करता रहा.

हनीमून के दौरान पूरे 7 दिनों में टीना ने एक बार भी अपनी ससुराल के बारे में कुछ नहीं पूछा. वह बस, अपनी मम्मी की और सहेलियों की बातें करती रही. हनीमून से वापस लौटते हुए टीना बोली, ‘‘नरेश, मुझे लखनऊ कितने दिन रुकना होगा.’’

‘‘तुम यह सब क्यों पूछ रही हो? अभी हमारी शादी को 8-10 दिन ही हुए हैं. जिस में हम घर पर 3 दिन ही रहे हैं. कम से कम 2 हफ्ते तो रुक ही जाना.’’

‘‘2 हफ्ते तक घर में बहू बन कर रहना मेरे बस की बात नहीं है.’’

‘‘मेरी मम्मी तुम्हें बहू नहीं बेटी की तरह रखेंगी. तुम खुद देख लेना. बहुत अच्छी मां हैं वह.’’

‘‘तुम्हारी बहन को देख कर मुझे अंदाजा लग गया है कि वह बेटी को किस तरह रखती हैं,’’ मुंह बना कर टीना बोली.

‘‘हम यहां से चल कर 2 दिन लखनऊ रुकेंगे. उस के बाद दिल्ली चलेंगे तुम्हारे मम्मीपापा के पास. वहां से जब तुम चाहोगी तब ही वापस आएंगे,’’ न चाहते हुए भी मजबूरी में टीना ने नरेश की यह बात मान ली.

लखनऊ में नरेश के परिवार वालों ने टीना की खूब खातिरदारी की. नरेश को लगा वह टीना को कुछ दिन और यहां रोक लेगा पर दूसरे दिन ही टीना ने अपने मन की बात कह डाली.

‘‘नरेश, हम कल दिल्ली चल रहे हैं न. मैं ने मम्मी को फोन से बता दिया है,’’ टीना बोली तो नरेश चुप हो गया. उस ने यह बात अभी तक अपने मम्मीपापा से नहीं कही थी. वह तुरंत पानी पीने के बहाने वहां से हट कर किचन में आ गया और धीरे से मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, टीना कल अपने मायके जाना चाहती है. आप की इजाजत हो तो…’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है बहू. इतने दिन हो गए हैं उसे ससुराल आए हुए. इकलौती बेटी है वह अपने मां बाप की. घर की याद आनी तो स्वाभाविक है बेटा,’’ बेटे की दुविधा दूर करते हुए सुधा बोलीं.

कमरे में नरेश पहुंचा तो टीना बोली, ‘‘आप मेरी बात अधूरी छोड़ कर कहां चले गए थे?’’

‘‘पानी पीने चला गया था. तुम पैकिंग में व्यस्त थीं सो मैं खुद ही चला गया किचन तक.’’

‘‘कल का प्रोग्राम पक्का है न?’’

‘‘बिलकुल पक्का,’’ नरेश चहक कर बोला तो टीना ने राहत की सांस ली.

मायके पहुंच कर टीना मम्मी से लिपट कर खूब रोई. नीता, टीना को बड़ी देर तक सहलाती रही.

‘‘कितनी दुबली हो गई हैं मम्मी आप,’’ टीना बोली.

नरेश, मांबेटी को छोड़ कर अपने ससुर के पास आ गया.

‘‘पापा, बेटी के बिना घर खालीखाली लग रहा होगा आप को.’’

‘‘बेटी का असली घर तो उस की ससुराल ही होता है बेटा, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए. टीना अपनी मां के लाड़प्यार के कारण थोड़ी लापरवाह है. उस की नादानियों को नजरअंदाज कर दिया करना.’’

‘‘आप चिंता न करें पापाजी, धीरेधीरे टीना मेरे परिवार के साथ घुलमिल जाएगी.’’

एक ही दिन में नरेश समझ गया कि इस घर में टीना के पापा की उपस्थिति केवल नाम लेने भर की है. घर में सारे फैसले नीता के कहे अनुसार ही होते हैं.

एक हफ्ता बीत गया. टीना का मन लखनऊ जाने का न था, वह तो नरेश के साथ सीधे मुंबई जाना चाहती थी पर नरेश से कहने का वह साहस न जुटा सकी.

बेटी को विदा करते हुए नीता ने ढेरों हिदायतें दे डालीं. नरेश साथ खड़ा सबकुछ सुन रहा था पर बोला कुछ नहीं. उसे ताज्जुब हो रहा था कि उस की सास ने एक बार भी टीना को अपने सासससुर की सेवा से संबंधित नसीहत न दी. चलते वक्त वह नरेश से बोलीं, ‘‘बेटा, टीना का खयाल रखना, मैं ने जिंदगी की अमानत तुम्हें सौंप दी है.’’

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शादी के 3 हफ्तों में ही नरेश को सबकुछ समझ में आने लगा था कि मम्मी के लाड़प्यार के कारण टीना की परवरिश एक आम लड़की की तरह नहीं हुई थी. घूमनाफिरना, मौजमस्ती करना और गप्पबाजी उस के खास शौक थे. घर के किसी काम में उस की रुचि न थी. सामान्य शिष्टाचार में उस का विश्वास न था.

छुट्टियां खत्म हुईं तो नरेश के साथ टीना भी मुंबई आ गई.

नरेश, टीना से जितना सामंजस्य बिठाता, टीना अपनी हद आगे सरका देती.

टीना की गुडमार्निंग मम्मी को फोन से होती, और फिर तो बातों में टीना यह भी भूल जाती कि उस के पति को दफ्तर जाना है, महीने का टेलीफोन का बिल हजारों में आया तो नरेश बोला, ‘‘टीना, मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं 5 हजार रुपए महीना टेलीफोन के बिल पर खर्च कर सकूं. हमें अपनी जरूरतें सीमित करनी होंगी.’’

‘‘नरेश, आप के पास रुपए की कमी है तो मैं मम्मी से मांग लेती हूं. मेरे एक फोन पर वह तुरंत रुपए आप के खाते में ट्रांसफर करवा देंगी.’’

‘‘शादी के बाद बेटी को मां पर नहीं पति पर आश्रित रहना चाहिए.’’

‘‘मैं अपनी मम्मीपापा की इकलौती संतान हूं,’’ टीना बोली, ‘‘उन का सबकुछ मेरा ही तो है. पता नहीं किस जमाने की बात कर रहे हो तुम.’’

‘‘छोटीछोटी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना ठीक नहीं होता.’’

‘‘मम्मी, दूसरी नहीं मेरी अपनी हैं.’’

‘‘यही बातें तुम्हें मेरे लिए भी सोचनी चाहिए. मेरे मांबाप का मुझ पर कुछ हक है और हमारा उन के प्रति कुछ फर्ज भी है,’’ पहली बार अपने परिवार की पैरवी की नरेश ने.

दूसरे दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने सारी बातें अपनी मम्मी को बताईं तो वह बोलीं, ‘‘ठीक किया तू ने टीना. तुम्हारी ससुराल में जरा सी भी दिलचस्पी नरेश को उन की ओर मोड़ देगी. तुम्हें अपना भला देखना है कि ससुराल का.’’

शादी के बाद पहली होली पर नरेश ने टीना से घर चलने का आग्रह किया तो वह तुनक गई.

‘‘होली का त्योहार मुझे अच्छा नहीं लगता. रंगों से मुझे एलर्जी होती है.’’

‘‘बड़ों की भावनाओं का सम्मान करना जरूरी होता है टीना, मेरी खातिर तुम लखनऊ चलो न, वहां सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’ नरेश दुविधा में था कि क्या करे, क्योंकि टीना ससुराल जाने के लिए तैयार न थी. तभी नरेश के दिमाग में एक आइडिया आया और वह बोला, ‘‘टीना, चलो दिल्ली चलते हैं.’’ दिल्ली का नाम सुनते ही टीना तैयार हो गई.

होली से 2 दिन पहले वे दिल्ली पहुंच गए. नीता बेटीदामाद को देख कर फू ली न समाई. बेटी को होली पर मायके देख कर टीना के पापा पहली बार बोले, ‘‘टीना, इस समय तुम्हें मायके के बजाय अपनी ससुराल में होना चाहिए था. यह तुम्हारी ससुराल की पहली होली है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है? टीना यहां रहे या ससुराल में.’’

‘‘फर्क हमें नहीं हमारे समधीजी को पड़ेगा, जिन का बेटा होली के दिन अपनी ससुराल में पत्नी के साथ…’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हें कुछ पता है रिश्तेनातों के बारे में. मैं न होती तो…’’

‘‘आप दोनों हमें ले कर आपस में क्यों उलझ रहे हैं. टीना यहां रह लेगी और चूंकि मेरा यहां रुकना ठीक नहीं है इसलिए मैं लखनऊ चला जाता हूं.’’

टीना के सामने अब कोई रास्ता न था. मजबूर हो कर उसे भी नरेश के साथ लखनऊ आना पड़ा. होली पर गुलाल के रंग टीना के सुंदर चेहरे पर बहुत फब रहे थे पर खुशी का असली रंग उस के चेहरे से नदारद था.

सुधा से बहू की उदासी और उकताहट छिपी न थी. वह सबकुछ देख कर भी चुप थी. इस अवसर पर उसे कोई नसीहत देना उस के दुख को क्रोध में बदलना था. बस, एक बार सुधा ने कहा, ‘‘टीना, कितना अच्छा लगता है जब तुम और नरेश यहां होते हो.’’

सुधा की बात सुन कर टीना चुप रही. रात को नरेश ने पूछा, ‘‘टीना, तुम्हारा मन कुछ दिन ससुराल में रहने को हो तो मैं अपनी छुट्टी आगे बढ़ा लेता हूं.’’

सुधा के शब्दों की खीज वह नरेश पर उतारते हुए बोली, ‘‘3 दिन में आप का मन नहीं भरा अपने लोगों के साथ रह कर.’’

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‘‘अपनापन तो मन में होता है, टीना. मुझे तो तुम से जुड़े सभी लोग अपने लगते हैं.’’

‘‘मुझे तुम्हारी फिलोसफी नहीं सुननी, और यहां रुकना मेरे बस की बात नहीं.’’

टीना का दो टूक जवाब सुन कर भी नरेश हंस दिया और बोला, ‘‘सौरी डार्लिंग, हम कल सुबह ही यहां से चल पड़ेंगे.’’

मुंबई वापस लौट कर टीना ने राहत की सांस ली और ससुराल में घटी सब बातोें की जानकारी अपनी मम्मी को दे दी.

अकसर टीना और नरेश शाम को घर से बाहर ही खाना खाते क्योंकि टीना को खाना पकाना नहीं आता था और वह सीखने का प्रयास भी नहीं करती. कभी वह जिद कर के टीना से कुछ बनाने को कहता तो गैस के चूल्हे जलने के साथ टीना का मोबाइल कान से लग जाता.

हां, मम्मी, बताओ कढ़ी बनाने के लिए सब से पहले क्या करना है? इस तरह मम्मी से पूरी रेसिपी सुन कर जितना फोन का बिल बढ़ता उस से कम पैसे में होटल से लजीज खाना मंगाया जा सकता था. सो नरेश ने फरमाइश करनी ही छोड़ दी.

इधर नरेश ने महसूस किया कि टीना उस से उलझने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ती रहती है. कल की ही बात है, टीना को शोरूम में एक घड़ी बहुत पसंद आई. उस ने नरेश से घड़ी लेने का आग्रह किया, ‘‘नरेश देखो, कितनी सुंदर घड़ी है.’’

‘‘टीना, तुम्हारे पास पहले ही कई घडि़या हैं. उन में से कुछ तो तुम ने आज तक पहनी भी नहीं हैं और घड़ी ले कर क्या करोगी?’’

‘‘वे घडि़यां मुझे पसंद नहीं. मुझे तो यही चाहिए,’’ टीना जिद करते हुए  बोली.

इतनी देर में नरेश काउंटर से हट कर अलग खड़ा हो गया. टीना नरेश की ओर बढ़ी तो वह दुकान से बाहर आ गया. गुस्से से भरी टीना, नरेश के साथ घर तो आ गई पर घर में घुसते ही वह फट पड़ी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, दुकान में मेरी बेइज्जती करने की.’’

‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा न था. मैं तो बस, दुकान में उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.’’

‘‘आज तक मेरी मम्मी ने कभी मेरी किसी इच्छा से इनकार नहीं किया. मैं जैसे चाहूं रहूं, खाऊंपीऊं, खरीदारी करूं या घूमू फिरूं.’’

‘‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था. टीना, प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी जेब में उस वक्त उतने रुपए नहीं थे.’’

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‘‘के्रडिट कार्ड तो था. पहली बार मैं ने तुम्हारे सामने अपनी इच्छा रखी और तुम ने मेरी बेइज्जती की.’’

‘‘मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

‘‘तुम्हारा मेरे प्रति यही नजरिया रहा तो देख लेना मैं यहीं इसी घर में आत्महत्या कर लूंगी.’’

‘‘आत्महत्या तुम्हें नहीं मुझे करनी चाहिए जिस ने अपनी इतनी प्यारी पत्नी का दिल दुखाया. चलो, मैं अभी तुम्हारे लिए घड़ी ले आता हूं.’’

‘‘अब मुझे घड़ी नहीं चाहिए, जिस चीज के लिए एक बार ना हो जाए उसे मैं कभी हाथ नहीं लगाती,’’ कहते हुए टीना मुंह फुला कर सो गई. उस ने खाना भी नहीं खाया तो नरेश को भी भूखा सोना पड़ा.

अगले दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने मम्मी को कल की पूरी घटना सुना दी. सुन कर नीता को बड़ा गुस्सा आया और वह बोलीं, ‘‘यह तो नरेश ने अच्छा नहीं किया टीना, उस की हिम्मत तो देखो कि अपनी पत्नी की छोटी सी इच्छा पूरी न कर सका.’’

‘‘मुझे इस बात का बड़ा दुख हुआ मम्मी.’’

‘‘ऐसे मौकों पर तुम कमजोर न पड़ना. आखिर वह इतनी तनख्वाह का करता क्या है? कहीं सारे रुपए घर तो नहीं भेज देता?’’

‘‘मैं ने कभी पूछा नहीं मम्मी.’’

‘‘नरेश की हर हरकत पर नजर रखना. तुम अभी कमजोर पड़ गईं तो फिर कभी पति पर राज नहीं कर सकोगी.’’

मम्मी के कहे अनुसार टीना ने नरेश की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी पर ऐसा कुछ हाथ न लगा जिसे ले कर नरेश पर हावी हुआ जा सके.

टीना ने महसूस किया कि नरेश कुछ दिनों से खोयाखोया सा रहता है. पत्नी की इच्छा के खिलाफ उस ने कभी मांबाप से मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की. उसे यकीन था उस का प्यार और धैर्य एक दिन टीना को बदल देगा. लेकिन एक साल गुजर गया पर टीना के व्यवहार में कोई फर्क न था. अपनी सास से वह नरेश के अनुरोध पर 10-15 दिनों में एकआध मिनट के लिए बात कर लेती. हां, अपनी मम्मी से सुबहशाम नियम से बात करना वह कभी न भूलती.

एक दिन नरेश ने टीना को बताया कि उस के आफिस का माहौल कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यही हाल रहा तो एक दिन वापस घर जाना पडे़गा. यह सुन कर टीना अंदर ही अंदर कांप गई कि कैसे रहेगी वह सासससुर, ननददेवर के बीच. सुबह- शाम खाना बनाना और घर की देखभाल करना उस के बूते की बात न थी. अब भी वह कई बार 9 बजे सो कर उठती. नरेश कभी विरोध न करता. चुपचाप चाय पी कर आफिस चला जाता है. नरेश की कही बात टीना ने तुरंत अपनी मम्मी को बताई. ‘‘यह तो बड़ी बुरी खबर है टीना.’’

‘‘मम्मी, मैं तो नरेश के साथ दिल्ली आ जाऊंगी.’’

‘‘नरेश न माना तो…’’

‘‘इस के लिए आप कोई उपाय करो न मम्मी.’’

‘‘अच्छा, सोच कर बताती हूं,’’ कह कर नीता ने फोन रख दिया.

शाम को नरेश के आने से पहले  नीता ने टीना को फोन किया, ‘‘टीना, तुम्हारी बातों ने मुझे बड़ा विचलित किया है. ससुराल में कैसे रहोगी जीवन भर. मैं एक तांत्रिक को जानती हूं. उस के पास हर समस्या का उपाय है. वह हमारी समस्या चुटकियों में हल कर देंगे.’’

‘‘यह ठीक है मम्मी, कल सुबह बात करूंगी,’’ कह कर टीना आश्वस्त हो गई.

अगले दिन दोपहर को टीना के पास उस की मां का फोन आया,  ‘‘बेटी, घबराने की बात नहीं है. बाबा ने यकीन दिलाया है कि सब ठीक हो जाएगा. उन्होंने नरेश को पहनने के लिए एक अंगूठी दी है. मैं ने कूरियर से उसे तुम्हारे पास भेज दिया है. तुम उसे नरेश को जरूर पहना देना.’’

2 दिन में अंगूठी टीना के पास पहुंच गई. अगूंठी सोने की थी. टीना ने वह बड़े प्यार से नरेश की उंगली में पहना दी. नरेश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से टीना को देखा.

‘‘मम्मी ने भेजी है तुम्हारे लिए.’’

‘‘मेरे पास तो अंगूठियां हैं.’’

‘‘यह स्पेशल है. बडे़ सिद्ध बाबा ने दी है. इस से तुम्हारे दफ्तर के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर नरेश ने बड़ी श्रद्धा से अंगूठी को आंखों से छुआ लिया. टीना आश्वस्त हो गई.

नरेश के साथ हुई पूरी बात टीना ने मम्मी को बताई. नीता बहुत खुश थी कि बाबा की अंगूठी वास्तव में चमत्कारी थी. वह बोली, ‘‘बेटी, तांत्रिक बाबा ने एक छोटा सा अनुष्ठान करवाने के लिए कहा है. तुम्हें 15 दिन के लिए मायके आना होगा. मैं ने सारा प्रबंध कर लिया है. तुम इस बारे में नरेश से बात करना. इस से उस का काम फिर से चल पड़ेगा.’’

शाम को टीना ने नरेश को मम्मी से हुई पूरी बात बता दी और उस से मायके जाने की अनुमति ले ली. नरेश स्वयं उसे दिल्ली छोड़ कर मुंबई आ गया.

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नीता का हर पत्ता सही पड़ रहा था. मांबेटी नियम से बाबा के पास जातीं और घंटों अनुष्ठान में लगी रहतीं. इन 12-13 दिनों में बाबा ने अनुष्ठान के नाम पर हजारों रुपए ठग लिए. आखिर वह दिन आ पहुंचा जिस का मांबेटी को इंतजार था.

तांत्रिक बोला, ‘‘बेटी को अनुष्ठान का पूरा लाभ चाहिए तो अंतिम आहुति उसी व्यक्ति से डलवानी होगी जिस के लिए यह अनुष्ठान किया जा रहा है. आप अपने दामाद को तुरंत बुला लीजिए. ध्यान रहे, इस अनुष्ठान की खबर किसी को नहीं होनी चाहिए.’’

नीता और टीना ने एकदूसरे को देखा और घर की ओर चल पड़ीं. टीना ने खामोशी तोड़ी, ‘‘मम्मी, अब क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, अनुष्ठान के कारण नरेश का मन पहले ही काफी बदल गया है. तुम ने देखा है, वह तुम्हारी किसी बात का विरोध नहीं करता. मुझे यकीन है, वह तुम्हारी यह बात तुरंत मान लेगा. तुम फोन करो तो सही.’’

बाबा का ध्यान कर के टीना ने नरेश को फोन मिलाया.

‘‘कैसी हो टीना, कब आ रही हो?’’

‘‘जब तुम लेने आ जाओ.’’

‘‘तब ठीक है, आज ही चल देता हूं तुम से मिलने.’’

‘‘आज नहीं 2 दिन बाद.’’

‘‘कोई खास बात है क्या?’’

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‘‘यही समझ लो. मैं जिस काम के लिए मायके आई थी वह 2 दिन बाद खत्म हो जाएगा और उस में तुम्हारा आना जरूरी है. आओेगे न?’’

‘‘जैसी तुम्हारी आज्ञा, हम तो हुजूर के गुलाम हैं.’’

‘‘पर एक शर्त है कि यह बात तुम्हारे और मेरे सिवा किसी को मालूम नहीं चलनी चाहिए वरना अनुष्ठान का प्रभाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘मेरे तुम्हारे अलावा मम्मीजी भी तो यह बात जानती हैं.’’

‘‘मम्मी हम दोनोें से अलग थोड़े ही हैं. सच पूछो तो हमारी भलाई उन के अलावा कोई सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘इस अनुष्ठान से तुम्हें यकीन है कि हम सुखी हो जाएंगे?’’

‘‘100 प्रतिशत. मम्मी ने हमारी खुशी के लिए क्या कुछ नहीं किया? दिनरात एक कर के ऐसे सिद्ध बाबा से अनुष्ठान करवाया है. तुम आ रहे हो न.’’

‘‘टीना, मैं ठीक समय पर घर पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘अरे, बाबा घर नहीं, तुम्हारे लिए मम्मी होटल में कमरा बुक करा देंगी.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘बहुत भोले हो तुम. घर पर पापा भी तो हैं. उन्हें तुम्हारे आने से सबकुछ पता चला जाएगा जबकि यह बात सब से छिपा कर रखनी है.’’

‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर नरेश ने फोन रख दिया.

टीना ने जैसे समझाया था उसी तरह अंतिम आहुति देने के लिए नरेश दिल्ली पहुंच गया. टीना उस के स्वागत में एअरपोर्ट पर खड़ी थी. वह नरेश को ले कर सीधा होटल आ गई और नरेश से लिपट कर बोली, ‘‘ये 15 दिन मुझे कितने लंबे महसूस हुए जानते हो?’’

‘‘तुम्हें ही क्यों मुझे भी तो ऐसा ही एहसास हुआ पर मजबूरी थी. तुम्हारी खुशी जो इसी में थी.’’

‘‘मेरी नहीं हमारी. आज के बाद हमारी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.’’

‘‘चलो, कहां चलना है?’’

‘‘बाबा के शिविर में.’’

‘‘यह बाबा का शिविर कहां पर है?’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चल रही हूं. तुम्हें खुद ब खुद पता चल जाएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर नरेश चलने को तैयार हुआ. दरवाजे पर आ कर वह टीना से बोला, ‘‘डार्लिंग, मैं अपना पर्स तो अंदर ही भूल गया. तुम नीचे चलो मैं उसे लेकर आता हूं.’’

टीना होटल के मुख्य गेट पर आ गई. पापा की गाड़ी उस के पास थी. नरेश आ कर गाड़ी में बैठ गया. उधर नीता बाबा की विदाई की तैयारी में व्यस्त थी. अंतिम आहुति के साथ उसे बाबा को वस्त्र, धन और फलफूल देने थे. नीता ने कपड़े तो पहले ही खरीद लिए थे. ताजे फल खरीदने के लिए वह फल की दुकान पर खड़ी थी. टीना ने गाड़ी एक किनारे पार्क की और मम्मी की ओर बढ़ गई. फल खरीद कर टीना व नीता ज्यों ही दुकान से बाहर निकले सामने पापा के साथ नरेश के मम्मीपापा को देख कर वे दंग रह गईं.

नीता को काटो तो खून नहीं. वह अचकचा कर बोली, ‘‘आप यहां?’’

‘‘हम लोगों का यहां आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं है. असल में एक जरूरी काम से हमें जाना है. आप घर चलिए.’’

‘‘टीना, मेरी मम्मी को जरूरी काम नहीं बताओगी?’’

टीना चुप रही तो नरेश ही बोला, ‘‘मैं बताता हूं पूरी बात. मम्मीजी, बेटी के मोह में अंधी हो कर क्या कर रही हैं यह इन को खुद नहीं पता.’’

‘‘नरेश…’’ टीना चीखी.

‘‘मर गया तुम्हारा नरेश. तुम लोगों की पोल यहीं खोल दूं या तुम्हारे घर जा कर सबकुछ बताऊं?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो नरेश तुम. क्या हुआ बेटा?’’ टीना के पापा ने पूछा.

‘‘यह आप अपनी पत्नी और बेटी से पूछिए भाई साहब, जो रातदिन मेरे घर को बरबाद करने की साजिश रचते रहे,’’ सुधा बोली.

‘‘बहनजी, मेरी इज्जत का कुछ तो लिहाज कीजिए. घर चल कर बात करते हैं,’’ टीना के पापा हाथ जोड़ कर बोले.

सुधा एक नेक इनसान की बात न टाल सकी. घर आ कर उन्होंने पूछा, ‘‘माजरा क्या है नीता?’’

‘‘ये क्या बताएंगी मैं आप को बताती हूं,’’ सुधा बोली.

‘‘शादी के दिन से ही आप की बेटी ससुराल में नहीं रहना चाहती थी. वह अपनी हर इच्छा नरेश पर लादती रहती और उस के मना करने पर आत्महत्या की धमकी देती. बेचारा नरेश क्या करता, चुपचाप सबकुछ सहन करता. यह हर बात अपनी मम्मी को बताती और आप की पत्नी अपनी बेटी टीना को उल्टी शिक्षा देतीं. ताकि बेटी को ससुराल में रह कर कुछ न करना पड़े.’’

‘‘यह सच नहीं है,’’ नीता बोली.

‘‘तो आप ही बात दीजिए सच क्या है?’’ नरेश तीखे स्वर में बोला.

‘‘मेरे बेटे को वश में करने के लिए ये मांबेटी किसी बाबा से अनुष्ठान करवा रही हैं. विश्वास न हो तो खुद चल कर देख लीजिए. हम स्वयं उस बाबा से मिल कर आ रहे हैं, सुधा बोली.’’

‘‘क्या यह सच है?’’ पापा ने पूछा.

‘‘यह क्या जवाब देंगी. इस ने तो एक पल को भी अपनी ससुराल को अपना घर नहीं समझा. इस में इस का भी क्या दोष? इसे अपनी मां से शिक्षा ही ऐसी मिली थी. अब अपनी बेटी को आप अपने ही पास रखिए. इस से न इसे तकलीफ होगी न इस की मम्मी को. मेरे बेटे को भी इन की ज्यादतियों से मुक्ति मिल जाएगी. इस एक साल में हमारे बेटे ने क्या कुछ न सहा… क्या सुख मिला इसे शादी का. ससुराल के नाम से ही चिढ़ है टीना को, बेचारा छिपा कर सब बातें अपनी मां को बताता रहा. मेरे समझाने पर उस ने टीना की, हर नाजायज बात स्वीकार कर ली. मुझे उम्मीद थी कि टीना को एक दिन अपनी गलती का एहसास जरूर होगा पर वह दिन देखना शायद हम लोगों की किस्मत में नहीं था.हम जा रहे हैं. आप अपनी बेटी को अपने पास रखिए. अगर हम इस की हरकतों से तंग आ कर इसे वापस मायके भेजते तो किसी को हमारी बात का यकीन न होता. सब हमें ही दोषी ठहराते. आज सबकुछ आप अपनी आंखों से देख सकते हैं,’’ नरेश के पापा बोले.ॉ

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सुधा, पति व बेटे के साथ जाने लगी तो टीना के पापा ने उन के पैर पकड़ लिए.

‘‘भाई साहब, इस में आप का कोई दोष नहीं है. नीता ने आप को घर का मुखिया समझा ही कब? पहले ये खुद मनमानी करती रहीं अब वही सब बेटी के साथ दोहरा रही हैं.’’

‘‘मेरी बेटी की गलती को माफ कर दीजिए,’’ टीना के पापा बोले.

नरेश उन से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘पापाजी, ससुराल में टीना को रहना है. इस में आप और हम क्या कर सकते हैं. मम्मी की शह पर टीना ने कभी आप को पिता होने का ओहदा न दिया. जो लड़की पिता को कुछ न समझे वह ससुर को क्या समझेगी? अभी हम जा रहे हैं. बाकी निर्णय तो टीना को लेना है.’’

नरेश अपने मम्मीपापा के साथ वापस लखनऊ चला आया.

ससुराल वालों से जलील हो कर टीना बड़ी आहत थी. नीता की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? नरेश अपने मम्मीपापा के साथ मिल कर ऐसा खेल खेलेगा इस की टीना व नीता को रत्ती भर भी उम्मीद न थी.

अपने घर में अपने ही कर्मों से नीता बुरी तरह लज्जित हो गई. पति के सामने उस की हरकतों का कच्चा चिट्ठा दामाद ने खोल दिया. उन के जाते ही प्रकाश बोले, ‘‘तुम मांबेटी की हरकतों ने आज मेरी इज्जत सरेआम उछाल दी. जो कोई भी सुनेगा, थूकेगा तुम दोनों पर. कितनी ओछी हरकत की है तुम दोनों ने.’’

आज पहली बार प्रकाश की बातों का नीता ने पलट कर जवाब नहीं दिया. दामाद को अपनी ओर करने के चक्कर में वह खुद एकदम अकेली पड़ गई.

नीता को गुमसुम देख कर टीना बोली, ‘‘मम्मी, जो होना था सो हो गया. शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था. अब मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे ससुराल के रास्ते मैं ने ही अपने हाथों बंद किए हैं बेटी, उन्हें खोलना मेरा ही फर्ज है,’’ कह कर नीता ने अपनी ननद को फोन मिलाया और सारी बातें ज्यों की त्यों उन्हें बात दीं.

रमा ने भाभी की कही बातें सुनीं तो उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने ही टीना का रिश्ता अपनी ससुराल के दूर के रिश्ते में तय करवाया था.

‘‘भाभी, तुम चिंता मत करो. मैं सुधा व नरेश से बात करूंगी,’’ रमा बोली.

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‘‘रमा, मुझे माफ कर दो. यह बात लोग सुनेंगे तो कहेंगे कि दामाद ने मेरी नासमझी को मेरे ही घर में सुबूत सहित सब को दिखा दिया. मेरे लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.’’

‘‘भाभी, हिम्मत रखो. जिंदगी के रास्ते एकदम सीधे नहीं, टेढे़मेढ़े होते हैं. एक रुकावट आने से मंजिल नहीं छूटती, रास्ते का फेर बढ़ जाता है. टीना को तुम ने लापरवाह बनाया है तो सुधारना भी तुम्हें ही होगा.’’

‘‘मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, टीना को इस बदनामी से बचा लो.’’

‘‘एक अच्छी पत्नी का अच्छी बहू होना जरूरी है. पति के दिल में उतरने का सब से सरल रास्ता उस के मातापिता की सेवा से बनता है. तुम उसे इस बार नरेश के पास नहीं सुधा के पास लखनऊ ले कर चलो. मैं भी वहीं पहुंच रही हूं.’’

नीता के पहुंचने से पहले रमा सुधा के पास पहुंच चुकी थी.

‘‘सुधा, टीना मक्कार नहीं भटकी हुई है. उसे रास्ता दिखाना तुम्हारा फर्ज बनता है. नीता के लाड़प्यार ने आज उसे इस स्थिति पर ला दिया है. यह दो जिंदगियों का सवाल है.’’

रमा के समझाने का सुधा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. वह रमा का आग्रह न टाल सकी.

‘‘बहनजी, मैं वादा करती हूं कि आप के परिवार के बीच कभी कोई अड़चन नहीं डालूंगी,’’ नीता सिर झुका कर बोली, ‘‘यहां तक कि टीना से बात तक नहीं करूंगी. इसे जो कहना होगा अपने पापा से कहेगी, मुझ से नहीं. मैं टीना को आप की छत्रछाया में छोड़ कर जा रही हूं. हो सके तो इसे भी कुछ अच्छे संस्कार सिखा दीजिएगा.’’

‘‘यह टीना के जीवन का प्रश्न है और उसे पति व उस के परिवार के साथ खुद को एडजस्ट करना है. हम उस पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते,’’ सुधा बोली.

‘‘मम्मीजी, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. प्लीज, मुझे यहीं रहने दीजिए,’’ टीना बोली.

‘‘यह घर तुम्हारा ही था बेटी पर तुम ने इसे कभी अपना नहीं समझा. केवल पति तक सीमित हो कर रह गई थीं तुम्हारी भावनाएं. और भावनाएं शर्तों पर नहीं जगाई जा सकतीं.’’

‘‘भूल मुझ से हुई तो प्रायश्चित्त भी मैं ही करूंगी. 6 महीने आप के साथ रह कर अपने को एक अच्छी बहू साबित कर के दिखा दूंगी, मुझे एक मौका दीजिए.’’

सुधा ने नीता और टीना को माफ कर दिया. भारी मन से नीता ने टीना से विदा ली. चलते समय वह बेटी को नसीहत दे रही थी, ‘‘टीना, अपने व्यवहार से सब को खुश रखना. सासससुर की सेवा करना,’’ आगे वह कुछ न कह सकी. सही माने में सच्ची विदाई तो टीना की आज ही हुई थी, मां के आशीर्वाद के साथ.

Social Story In Hindi : रूढ़ियों के साए में: दिव्या ने क्या बनाया था प्लान

दीपों की टेढ़ीमेढ़ी कतारों के कुछ दीप अपनी यात्रा समाप्त कर अंधकार के सागर में विलीन हो चुके थे, तो कुछ उजाले और अंधेरे के बीच की दूरी में टिमटिमा रहे थे. गली का शोर अब कभीकभार के पटाखों के शोर में बदल चुका था.

दिव्या ने छत की मुंडेर से नीचे आंगन में झांका जहां मां को घेर पड़ोस की औरतें इकट्ठी थीं. वह जानबूझ कर वहां से हट आई थी. महिलाओं का उसे देखते ही फुसफुसाना, सहानुभूति से देखना, होंठों की मंद स्मिति, दिव्या अपने अंतर में कहां तक झेलती? ‘कहीं बात चली क्या…’, ‘क्या बिटिया को बूढ़ी करने का इरादा है…’ वाक्य तो अब बासी भात से लगने लगे हैं, जिन में न कोई स्वाद रहता है न नयापन. हां, जबान पर रखने की कड़वाहट अवश्य बरकरार है.

काफी देर हो गई तो दिव्या नीचे उतरने लगी. सीढि़यों पर ही रंभा मिल गई. बड़ेबड़े फूल की साड़ी, कटी बांहों का ब्लाउज और जूड़े से झूलती वेणी…बहुत ही प्यारी लग रही थी, रंभा.

‘‘कैसी लग रही हूं, दीदी…मैं?’’ रंभा ने उस के गले में बांहें डालते हुए पूछा तो दिव्या मुसकरा उठी.

‘‘यही कह सकती हूं कि चांद में तो दाग है पर मेरी रंभा में कोई दाग नहीं है,’’ दिव्या ने प्यार से कहा तो रंभा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘चलो न दीदी, रोशनी देखने.’’

‘‘पगली, वहां दीप बुझने भी लगे, तू अब जा रही है.’’

‘‘क्या करती दीदी, महल्ले की डाकिया रमा चाची जो आ गई थीं. तुम तो जानती हो, अपने शब्दबाणों से वे मां को कितना छलनी करती हैं. वहां मेरा रहना जरूरी था न.’’

दिव्या की आंखें छलछला आईं. रंभा को जाने का संकेत करती वह अपने कमरे में चली आई. बत्ती बुझाने के पूर्व उस की दृष्टि सामने शीशे पर चली गई, जहां उस का प्रतिबिंब किसी शांत सागर की याद दिला रहा था. लंबे छरहरे शरीर पर सौम्यता की पहनी गई सादी सी साड़ी, लंबे बालों का ढीलाढाला जूड़ा, तारे सी नन्ही बिंदी… ‘क्या उस का रूप किसी पुरुष को रिझाने में समर्थ नहीं है? पर…’

बिस्तर पर लेटते ही दिव्या के मन के सारे तार झनझना उठे. 30 वर्षों तक उम्र की डगर पर घिसटघिसट कर बिताने वाली दिव्या का हृदय हाहाकार कर उठा. दीवाली का पर्व सतरंगे इंद्रधनुष में पिरोने वाली दिव्या के लिए अब न किसी पर्व का महत्त्व था, न उमंग थी. रूढि़वादी परिवार में जन्म लेने का प्रतिदान वह आज तक झेल रही है. रूप, यौवन और विद्या इन तीनों गुणों से संपन्न दिव्या अब तक कुंआरी थी. कारण था जन्मकुंडली का मिलान.

तकिए का कोना भीगा महसूस कर दिव्या का हाथ अनायास ही उस स्थान को टटोलने लगा जहां उस के बिंदु आपस में मिल कर अतीत और वर्तमान की झांकी प्रस्तुत कर रहे थे. अभी एक सप्ताह पूर्व की ही तो बात है, बैठक से गुजरते हुए हिले परदे से उस ने अंदर देख लिया था. पंडितजी की आवाज ने उसे अंदर झांकने पर मजबूर किया, आज किस का भाग्य विचारा जा रहा है? पंडितजी हाथ में पत्रा खोले उंगलियों पर कुछ जोड़ रहे थे. कमरे तक आते हुए दिव्या ने हिसाब लगाया, 7 वर्ष से उस के भाग्य की गणना की जा रही है.

खिड़की से आती धूप की मोटी तह उस के बिस्तर पर साधिकार पसरी हुई थी. दिव्या ने क्षुब्ध हो कर खिड़की बंद कर दी.

‘‘दीदी…’’ बाहर से रंभा ने आते ही उस के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘बाहर क्या हो रहा है…’’ संभलते हुए दिव्या ने पूछा था.

‘‘वही गुणों के मिलान पर तुम्हारा दूल्हा तोला जा रहा है.’’

रंभा ने व्यंग्य से उत्तर दिया, ‘‘दीदी, मेरी समझ में नहीं आता…तुम आखिर मौन क्यों हो? तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’

‘‘क्या बोलूं, रंभा?’’

‘‘यही कि यह ढकोसले बंद करो. 7 वर्षों से तुम्हारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है और तुम शांत हो. आखिर ये गुण मिल कर क्या कर लेंगे? कितने अच्छेअच्छे रिश्ते अम्मांबाबूजी ने छोड़ दिए इस कुंडली के चक्कर में. और वह इंजीनियर जिस के घर वालों ने बिना दहेज के सिर्फ तुम्हें मांगा था…’’

‘‘चुप कर, रंभा. अम्मां सुनेंगी तो क्या कहेंगी.’’

‘‘सच बोलने से मैं नहीं डरती. समय आने दो. फिर पता चलेगा कि इन की रूढि़वादिता ने इन्हें क्या दिया.’’

रंभा के जलते वाक्य ने दिव्या को चौंका दिया. जिद्दी एवं दबंग लड़की जाने कब क्या कर बैठे. यों तो उस का नाम रंभा था पर रूप में दिव्या ही रंभा सी प्रतीत होती थी. मां से किसी ने एक बार कहा भी था, ‘बहन, आप ने नाम रखने में गलती कर दी. रंभा सी तो आप की बड़ी बेटी है. इसे तो कोई भाग्य वाला मांग कर ले जाएगा,’

तब मां चुपके से उस के कान के पीछे काला टीका लगा जातीं. कान के पीछे लगा काला दाग कब मस्तक तक फैल आया, स्वयं दिव्या भी नहीं जान पाई.

बी.एड. करते ही एक इंटर कालेज में दिव्या की नौकरी लग गई तो शुरू हुआ सिलसिला ब्याह का. तब पंडितजी ने कुंडली देख कर बताया कि वह मंगली है, उस का ब्याह किसी मंगली युवक से ही हो सकता है अन्यथा दोनों में से कोई एक शीघ्र कालकवलित हो जाएगा.

पहले तो उस ने इसे बड़े हलकेफुलके ढंग से लिया. जब भी कोई नया रिश्ता आता, उस के गाल सुर्ख हो जाते, दिल मीठी लय पर धड़कने लगता. पर जब कई रिश्ते कुंडली के चक्कर में लौटने लगे तो वह चौंक पड़ी. कई रिश्ते तो बिना दानदहेज के भी आए पर अम्मांबाबूजी ने बिना कुंडली का मिलान किए शादी करने से मना कर दिया.

धीरेधीरे समय सरकता गया और घर में शादी का प्रसंग शाम की चाय सा साधारण बैठक की तरह हो गया. एकदो जगह कुंडली मिली भी तो कहीं लड़का विधुर था, कहीं परिवार अच्छा नहीं था. आज घर में पंडितजी की उपस्थिति बता रही थी कि घर में फिर कोई तामझाम होने वाला है.

वही हुआ, रात्रि के भोजन पर अम्मांबाबूजी की वही पुरानी बात छिड़ गई.

‘‘मैं कहती हूं, 21 गुण कोई माने नहीं रखते, 26 से कम गुण पर मैं शादी नहीं होने दूंगी.’’

‘‘पर दिव्या की मां, इतनी देर हो चुकी है. दिव्या की उम्र बीती जा रही है. कल को रिश्ते मिलने भी बंद हो जाएंगे. फिर पंडितजी का कहना है कि यह विवाह हो सकता है.’’

‘‘कहने दो उन्हें, एक तो लड़का विधुर, दूसरे, 21 गुण मिलते हैं,’’ तभी वे रुक गईं.

रंभा ने पानी का गिलास जोर से पटका था, ‘‘सिर्फ विधुर है. उस से पूछो, बच्चे कितने हैं? ब्याह दीदी का उसी से करना…गुण मिलना जरूरी है लेकिन…’’

रंभा का एकएक शब्द उमंगों के तरकश से छोड़ा हुआ बाण था जो सीधे दिव्या ने अपने अंदर उतरता महसूस किया.

‘‘क्या बकती है, रंभा, मैं क्या तुम लोगों की दुश्मन हूं? हम तुम्हारे ही भले की सोचते हैं कि कल को कोई परेशानी न हो, इसी से इतनी मिलान कराते हैं,’’ मां की झल्लाहट स्वर में स्पष्ट झलक रही थी.

‘‘और यदि कुंडली मिलने के बाद भी जोड़ा सुखी न रहा या कोई मर गया तो क्या तुम्हारे पंडितजी फिर से उसे जिंदा कर देंगे?’’ रंभा ने चिढ़ कर कहा.

‘‘अरे, कीड़े पड़ें तेरी जबान में. शुभ बोल, शुभ. तेरे बाबूजी से मेरे सिर्फ 19 गुण मिले थे, आज तक हम दोनों विचारों में पूरबपश्चिम की तरह हैं.’’

अम्मांबाबूजी से बहस व्यर्थ जान रंभा उठ गई. दिव्या तो जाने कब की उठ कर अपने कमरे में चली गई थी. दोचार दिन तक घर में विवाह का प्रसंग सुनाई देता रहा. फिर बंद हो गया. फिर किसी

नए रिश्ते की बाट जोहना शुरू हो गया. दिव्या का खामोश मन कभीकभी विद्रोह करने को उकसाता पर संकोची संस्कार उसे रोक देते. स्वयं को उस ने मांबाप एवं परिस्थितियों के अधीन कर दिया था.

रंभा के विचार सर्वथा भिन्न थे. उस ने बी.ए. किया था और बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. अम्मांबाबूजी के अंधविश्वासी विचारों पर उसे कुढ़न होती. दीदी का तिलतिल जलता यौवन उसे उस गुलाब की याद दिलाता जिस की एकएक पंखड़ी को धीरेधीरे समय की आंधी अपने हाथों तोड़ रही हो.

आज दीवाली की ढलती रात अपने अंतर में कुछ रहस्य छिपाए हुए थी. तभी तो बुझते दीपों के साथ लगी उस की आंख सुबह के हलके शोर से टूट गई. धूप काफी निकल आई थी. रंभा उत्तेजित स्वरों में उसे जगा रही थी, ‘‘दीदी…दीदी, उठो न…देखो तो भला नीचे क्या हो रहा है…’’

‘‘क्या हो रहा है नीचे? कोई आया है क्या?’’

‘‘हां, दीदी, अनिल और उस के घर वाले.’’

‘‘अनिल वही तो नहीं जो तुम्हारा मित्र है और जो मुंसिफ की परीक्षा में बैठा था,’’ दिव्या उठ बैठी.

‘‘हां, दीदी, वही. अनिल की नियुक्ति शाहजहांपुर में ही हो गई है. दीदी, हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. सोचा था शादी की बात घर में चलाएंगे पर कल रात अचानक अनिल के घर वालों ने अनिल के लिए लड़की देखने की बात की तब अनिल ने उन्हें मेरे बारे में बताया.’’

‘‘फिर…’’ दिव्या घबरा उठी.

‘‘फिर क्या? उन लोगों ने तो मुझे देखा था, वह अनिल पर इस कारण नाराज हुए कि उस ने उन्हें इस विषय में पहले ही क्यों नहीं बता दिया, वे और कहीं बात ही न चलाते. वे तो रात में ही बात करने आ रहे थे पर ज्यादा देर हो जाने से नहीं आए. आज अभी आए हैं.’’

‘‘और मांबाबूजी, वे क्या कह रहे हैं?’’ दिव्या समझ रही थी कि रंभा का रिश्ता भी यों आसानी से तय होने वाला नहीं है.

‘‘पता नहीं, उन्हें बिठा कर मैं पहले तुम्हें ही उठाने आ गई. दीदी, तुम उठो न, पता नहीं अम्मां उन से क्या कह दें?’’

दिव्या नीचे पहुंची तो उस की नजर सुदर्शन से युवक अनिल पर पड़ी. रंभा की पसंद की प्रशंसा उस ने मन ही मन की. अनिल की बगल में उस की मां और बहन बैठी थीं. सामने एक वृद्ध थे, संभवत: अनिल के पिताजी. उस ने सुना, मां कह रही थीं, ‘‘यह कैसे हो सकता है बहनजी, आप वैश्य हम बंगाली ब्राह्मण. रिश्ता तो हो ही नहीं सकता. कुंडली तो बाद की चीज है.’’

‘‘पर बहनजी, लड़कालड़की एकदूसरे को पसंद करते हैं. हमें भी रंभा पसंद है. अच्छी लड़की है, फिर समस्या क्या है?’’ यह वृद्ध सज्जन का स्वर था.

‘‘समस्या यही है कि हम दूसरी जाति में लड़की नहीं दे सकते,’’ मां के सपाट स्वर पर मेहमानों का चेहरा सफेद हो गया. अपमान एवं विषाद की रेखाएं उन के अस्तित्व को कुरेदने लगीं. अनिल की नजर उठी तो दिव्या की शांत सागर सी आंखों में उलझ गई. घने खुले बाल, सादी सी धोती और शरीर पर स्वाभिमान की तनी हुई कमान. वह कुछ बोलता इस के पूर्व ही दिव्या की अपरिचित ध्वनि गूंजी, ‘‘यह शादी अवश्य होगी, मां. अनिल रंभा के लिए सर्वथा उपयुक्त वर है. ऐसे घर में जा कर रंभा सुखी रहेगी. चाहे कोई कुछ भी कर ले मैं जाति एवं कुंडली के चक्कर में रंभा का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

‘‘दिव्या, यह तू…तू बोल रही है?’’ पिता का स्वर आश्चर्य से भरा था.

‘‘बाबूजी, जो कुछ होता रहा, मैं शांत हो देखती रही क्योंकि आप मेरे मातापिता हैं, जो करते अच्छा करते. परंतु 7 वर्षों में मैं ने देख लिया कि अंधविश्वास का अंधेरा इस घर को पूरी तरह समेटे ले रहा है.

‘‘रंभा मेरी छोटी बहन है. उसे मुझ से भी कुछ अपेक्षाएं हैं जैसे मुझे आप से थीं. मैं उस की अपेक्षा को टूटने नहीं दूंगी. यह शादी होगी और जरूर होगी,’’ फिर वह अनिल की मां की तरफ मुड़ कर बोली, ‘‘आप विवाह की तिथि निकलवा लें. रंभा आप की हुई.’’

अब आगे किसी को कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ पर रंभा सोच रही थी, ‘दीदी नारी का वास्तविक प्रतिबिंब है जो स्वयं पर हुए अन्याय को तो झेल लेती है पर जब चोट उस के वात्सल्य पर या अपनों पर होती है तो वह इसे सहन नहीं कर पाती. इसी कारण तो ढेरों विवाद और तूफान को अंतर में समेटे सागर सी शांत दिव्या आज ज्वारभाटा बन कर उमड़ आई है.’

Family Story In Hindi- नैपकिंस का चक्कर : मधुश ने क्यों किया सास का शुक्रिया

शनिवार का दिन था. विकास के औफिस की छुट्टी थी. उस ने नहाधो कर अपना नाश्ता बनाया. फिर मधुश का इंतजार करने लगा. मधुश के साथ की कल्पना से ही वह उत्साहित था. मधुश 2 साल से उस की प्रेमिका थी. वह भी मेरठ में ही जौब करती थी. वह अपने मम्मीपापा और भाईबहन के साथ रहती थी. विकास थापरनगर में किराए के घर में अकेला रहता था.

दोनों किसी कौमन फ्रैंड की पार्टी में मिले थे. दोस्ती हुई जो फिर प्यार में बदल गई थी. विकास की मम्मी राधा सहारनपुर में रहती थीं. वे टीचर थीं. विकास के पिता नहीं थे. न कोई और भाईबहन. विकास हमेशा वीकैंड में मम्मी के पास चला जाता था पर इस बार उस की मम्मी ही कल रविवार को आने वाली थीं. दशहरे पर उन के स्कूल की छुट्टियां थीं.

मधुश अकसर अपने मम्मीपापा से  झूठ बोल कर कि ‘दिल्ली में मीटिंग है,’ विकास के पास रात में भी कभीकभी रूक जाती थी. डोरबैल बजी, मधुश थी. सुंदर, स्मार्ट, चहकती हुई मधुश ने घर में आते ही विकास के गले में बांहें डाल दीं. विकास ने भी उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. दोनों ने पूरा दिन साथ में बिताया. रात तक मधुश का घर जाने का मन नहीं हुआ. विकास ने भी कहा, ‘‘आज रात में भी रुक जाओ, कल तो मां भी आ रही हैं.’’

‘‘मां के आने पर मैं बहुत खुश होती हूं, बहुत अच्छी हैं वे.’’

‘‘रुक जाओ आज, फिर कुछ दिन ऐसे नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘सोचती हूं कुछ, क्या बहाना करूं घर पर?’’

‘‘कह दो किसी सहेली के घर स्लीपओवर है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश ने अपनी सहेली निभा को फोन किया, ‘‘निभा, मेरे घर से कोई फोन आए तो कहना मैं तुम्हारे साथ ही हूं. जरा देख लेना.’’

निभा हंसी, ‘‘सम झ गई, वीकैंड मनाया जा रहा है.’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा, डौंट वरी.’’

विकास ने मधुश को फिर बांहों में भर लिया. दोनों ने मिल कर डिनर बनाया. विकास ने कहा, ‘‘गरमी लग रही है, नहा कर आता हूं, फिर डिनर करते हैं.’’

विकास नहाने गया तो लाइट चली गई. मधुश ने कहा, ‘‘विकास, बहुत गरमी है, जब तक तुम नहा रहे हो, छत पर टहल आऊं?’’

‘‘हां, संभल कर रहना, पड़ोस की छत पर कोई हो तो लौट आना, पड़ोसिन आंटी कुछ दकियानूसी लेडी लगती हैं, मां से कुछ कह न दें.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश छत पर चली गई. वह पहले भी ऐसे ही आती रहती थी, इसलिए उसे घर के आसपास का सब पता था. पड़ोस की छत पर कोई नहीं था. वह यों ही टहलती रही. खुलीखुली जगह, ठंडीठंडी हवा बेहद भली लग रही थी. अचानक उसे छत पर एक कोने में कुछ दिखा. वह  झुक कर देखने लगी. फिर बुरी तरह चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन था, ऐसे ही पड़ा हुआ. उसे बहुत गुस्सा आया. यह किस का है? दिमाग पता नहीं क्याक्या सोच गया. क्या कोई और लड़की भी आती है विकास के पास? शक ने जब एक बार मधुश के दिल में जगह बना ली तो गुस्सा बढ़ता ही चला गया. वह पैर पटकते हुए सीढि़यों से नीचे आई. विकास नहा कर आ चुका था. अपने गीले बालों के छींटे उस पर डालता हुआ शरारत से उसे बांहों में भरने के लिए आगे बढ़ा तो मधुश ने उस के हाथ  झटक दिए, चिल्लाई, ‘‘जरा, ऊपर आना.’’ विकास मधुश का गुस्सा देख चौंक गया, बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आना,’’ कह कर मधुश वापस छत पर चली गई, कोने में ले जा कर नैपकिन की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘यह किस का है?’’

‘‘यह क्या है? ओह, मु झे क्या पता.’’

‘‘फिर किसे पता होगा? तुम्हारी छत है, तुम्हारा घर है.’’

‘‘क्या फालतू बात कर रही हो, मु झे क्या पता.’’

‘‘विकास, क्या तुम्हारे किसी और लड़की से भी संबंध हैं?’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, मधुश, शक कर रही हो मु झ पर? मु झे तुम से यह उम्मीद नहीं थी.’’

‘‘मु झे भी तुम से यह उम्मीद नहीं थी, मैं जा रही हूं,’’ विकास मधुश को रोकता रह गया पर वह गुस्से में बड़बड़ाती निकल गई. विकास सिर पकड़ कर बैठ गया, वह देर रात तक मधुश को फोन करता रहा पर मधुश ने गुस्से में फोन ही नहीं उठाया.

मधुश और विकास एकदूसरे को प्यार तो बहुत करते थे, मधुश को भी विकास से नाराज हो कर अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर मन में बैठा शक सामान्य भी नहीं होने दे रहा था. संडे को फिर सुबह ही विकास ने मधुश को फोन किया. उस ने नहीं उठाया तो विकास ने मैसेज किया, ‘मां आने वाली हैं, उन से मिलने तो आओगी न?’ मधुश को पढ़ कर हंसी आ गई. उस ने मैसेज ही किया, ‘हां, जब वे आ जाएं, मु झे बता देना.’

राधा उसे सचमुच अच्छी लगती थीं. अपनी अच्छी दोस्त कह कर विकास ने उसे पिछली बार मिलवाया था. संडे शाम को मधुश राधा से मिलने गई. राधा बहुत स्नेहपूर्वक उस से मिलीं, मधुश उन्हें अच्छी लगती थी. वे उदारमन की आधुनिक विचारों वाली महिला थीं. विकास मधुश से बात करने की कोशिश करता रहा. थोड़ीबहुत नाराजगी दिखाते हुए मधुश फिर सामान्य होती गई. हलकेफुलके माहौल में तीनों ने काफी समय साथ बिताया, फिर मधुश चली गई.

डिनर के बाद राधा ने कहा, ‘‘विकास, मैं थोड़ा छत पर टहल कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, मां.’’

राधा जब भी आती थीं, छत पर जरूर टहलती थीं. उन्हें दूसरी छत पर टहलती पड़ोसिन उमा दिखीं, औपचारिक अभिवादन हुए. उमा के जाने के बाद राधा को छत पर एक कोने में कुछ दिखाई दिया तो वे  झुक कर देखने लगीं, चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन. विकास की छत पर? ओह, इस का मतलब विकास और मधुश एकदूसरे के काफी करीब आ चुके  हैं. दोनों के बीच शायद अब बहुतकुछ चलता है, ठीक है. लड़की अच्छी है. अब उन का विवाह हो ही जाना चाहिए. वे काफीकुछ सोचतीविचारती नीचे आ गईं. विकास टीवी देख रहा था. उस के पास बैठती हुई बोलीं, ‘‘विकास, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, मां, बोलो.’’

‘‘अब तुम और मधुश विवाह कर लो.’’

वह चौंका, ‘‘अरे मां, यह अचानक कैसे सू झा?’’

‘‘हां, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो तो देर क्यों करनी.’’

‘‘पर मैं तो कभी उस के घरवालों से मिला भी नहीं.’’

‘‘वह सब तुम मु झ पर छोड़ दो. अभी मेरी छुट्टियां भी हैं, गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं. तुम पहले मधुश से डिस्कस कर लो.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ कह कर मुसकराता हुआ विकास मां से लिपट गया. वे मुसकरा दीं, ‘‘फिर मेरी चिंता भी कम हो जाएगी, अकेले रहते हो यहां.’’

‘‘आप भी तो वहां अकेली रहती हैं.’’ दोनों हंस दिए. विकास खुश था, मां पर खूब प्यार आ रहा था. फौरन अपने रूम में जा कर मधुश से बात की. वह भी चौंकी पर इस हैरानी में भी बहुत खुशी थी. बोली, ‘‘इतनी जल्दी, यह तो नहीं सोचा था, पर मम्मीपापा…’’

‘‘मां बात कर लेंगी.’’

मधुश भी पिछली नाराजगी एक तरफ रख विचारविमर्श करती रही. अगले ही दिन उस ने अपने मम्मीपापा को विकास के  बारे में सबकुछ बता दिया. और फिर विकास और राधा उन से मिलने गए. राधा के स्नेहमयी, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व, आधुनिक विचारों से सब प्रभावित हुए. अच्छे खुशनुमा माहौल में सब तय हो गया. दोनों पक्ष विवाह की तैयारियों में जुट गए.

मधुश दुलहन बन विकास के घर चली आई. आई तो पहले भी कई बार थी पर अब के आने और तब के आने में जमीनआसमान का अंतर था. मां दोनों को ढेरों आशीष दे सहारनपुर चली गईं. कभी विकास और मधुश उन के पास चले जाते थे, कभी वे आ जाती थीं. एक दिन मां मेरठ आई हुई थीं, रात को उन के सिर में हलका दर्द था. वे छत पर खुली हवा में बैठ गईं. मधुश उन के पास ही तेल ले कर आई. बोली, ‘‘लाओ मां, तेल लगा कर थोड़ा सिर दबा देती हूं.’’

दोनों सासबहू के संबंध बहुत स्नेहपूर्ण थे. खुशनुमा, हलकी रोशनी में ताजगीभरी ठंडक में मधुश धीरेधीरे राधा का सिर दबाने लगी. उन्हें बड़ा आराम मिला. अचानक पायल के घुंघरुओं की आवाज ने उन दोनों का ध्यान खींचा, आंखों तक घूंघट लिए पड़ोस की छत पर एक नारी आकृति धीरेधीरे सावधानीपूर्वक चलते हुए इधरउधर देखती आई और विकास की छत पर एक कोने में कुछ फेंक कर मुड़ने लगी तो मधुश ने सख्त आवाज में कहा, ‘‘ऐ, रुको.’’ आकृति ठहर गई.

मधुश और राधा दोनों अपनी छत की मुंडेर तक गईं, कांपतीडरती सी एक नवविवाहिता खड़ी थी. मधुश ने फेंकी हुई चीज देखी, सैनेटेरी नैपकिन. ओह. पूछा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है? तुम फेंकती हो यह हमारी छत पर?’’

लड़की ने ‘हां’ में सिर हिलाया. मधुश गुर्राई, ‘‘क्यों? यह क्या तरीका है? ऐसे फेंकते हैं?’’ लड़की रोंआसी हो गई, कहने लगी, ‘‘अभी कुछ महीने पहले ही मेरा विवाह हुआ है यहां, मैं गांव से आई हूं. सासुमां से बहुत डर लगता है, उन से पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि कैसे फेंकूं, आप से माफी मांगती हूं.’’ मधुश का सारा गुस्सा उस की डरी हुई आवाज पर खत्म हो गया. उसे उस पर तरस आया, बोली, ‘‘डरो मत, आगे से यहां मत फेंकना, किसी पेपर में लपेट कर अपने घर के डस्टबिन में डालना, ऐसे इधरउधर नहीं फेंकते.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह कर वह तो चली गई, पर मधुश और राधा एकदूसरे को देख कर हंसती चली गईं.

मधुश ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां, पता है मैं ने इसे छत पर देख कर विकास से  झगड़ा किया था. उस पर शक किया था. जिस दिन आप विवाह से पहले आई थीं, तब.’’ राधा और जोर से हंस पड़ीं. वे भी बताने लगीं, ‘‘और पता है तुम्हें, मैं ने भी उसी रात देखा था और तुम्हारे बारे में बहुतकुछ सोच लिया था. तभी फौरन तुम दोनों का विवाह करवाया था.’’

‘‘हां? हाहा, मां.’’

दोनों सासबहू चेयर्स पर बैठ गई थीं और उन की हंसी नहीं रुक रही थी. राधा का सिरदर्द तो हंसतेहंसते गायब हो चुका था और मधुश मन ही मन अपनी सासुमां को थैंक्यू कहते हुए प्यार और सम्मानभरी आंखों से निहार रही थी.

Best Hindi Story- भोर: राजवी को कैसे हुआ अपनी गलती का एहसास

उस दिन सवेरे ही राजवी की मम्मी की किट्टी फ्रैंड नीतू उन के घर आईं. उन की कालोनी में उन की छवि मैरिज ब्यूरो की मालकिन की थी. किसी की बेटी तो किसी के बेटे की शादी करवाना उन का मनपसंद टाइमपास था. वे कुछ फोटोग्राफ्स दिखाने के बाद एक तसवीर पर उंगली रख कर बोलीं, ‘‘देखो मीरा बहन, इस एनआरआई लड़के को सुंदर लड़की की तलाश है. इस की अमेरिका की सिटिजनशिप है और यह अकेला है, इसलिए इस पर किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं है. इस की सैलरी भी अच्छी है. खुद का घर है, इसलिए दूसरी चिंता भी नहीं है. बस गोरी और सुंदर लड़की की तलाश है इसे.’’

फिर तिरछी नजरों से राजवी की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘उस की इच्छा तो यहां हमारी राजवी को देख कर ही पूरी हो जाएगी. हमारी राजवी जैसी सुंदर लड़की तो उसे कहीं भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी.’’ यह सब सुन रही राजवी का चेहरा अभिमान से चमक उठा. उसे अपने सौंदर्य का एहसास और गुमान तो शुरू से ही था. वह जानती थी कि वह दूसरी लड़कियों से कुछ हट कर है.

चमकीले साफ चेहरे पर हिरनी जैसी आंखें और गुलाबी होंठ उस के चेहरे का खास आकर्षण थे. और जब वह हंसती थी तब उस के गालों में डिंपल्स पड़ जाते थे. और उस की फिगर व उस की आकर्षक देहरचना तो किसी भी हीरोइन को चैलेंज कर सकती थी. इस से अपने सौंदर्य को ले कर उस के मन में खुशी तो थी ही, साथ में जानेअनजाने में एक गुमान भी था. मीरा ने जब उस एनआरआई लड़के की तसवीर हाथ में ली तो उसे देखते ही उन की भौंहें तन गईं. तभी नीतू बोल पड़ीं, ‘‘बस यह लड़का यानी अक्षय थोड़ा सांवला है और चश्मा लगाता है.’’

‘लग गई न सोने की थाली में लोहे की कील,’ मीरा मन में ही भुनभुनाईं. उन्हें लगा कि मेरी राजवी शायद इसे पसंद नहीं करेगी. पर प्लस पौइंट इस लड़के में यह था कि यह नीतू के दूर के किसी रिश्तेदार का लड़का था, इसलिए एनआरआई लड़के के साथ जुड़ी हुई मुसीबतें व जोखिम इस केस में नहीं था. जानापहचाना लड़का था और नीतू एक जिम्मेदार के तौर पर बीच में थीं ही.

फिर कुछ सोच कर मीरा बोलीं, ‘‘ओह, बस इतनी सी बात है. आजकल ये सब देखता कौन है और चश्मा तो किसी को भी लग सकता है. और इंडियन है तो रंग तो सांवला होगा ही. बाकी जैसा तुम कहती हो लड़का स्मार्ट भी है, समझदार भी. फिर क्या चाहिए हमें… क्यों राजवी?’’

अपने ही खयालों में खोई, नेल पेंट कर रही राजवी ने कहा, ‘‘हूं… यह बात तो सही है.’’

तब नीतू ने कहा, ‘‘तुम भी एक बार फोटो देख लो तो कुछ बात बने.’’

‘‘बाद में देख लूंगी आंटी. अभी तो मुझे देर हो रही है,’’ पर तसवीर देखने की चाहत तो उसे भी हो गई थी.

मीरा ने नीतू को इशारे में ही समझा दिया कि आप बात आगे बढ़ाओ, बाकी बात मैं संभाल लूंगी. मीरा और राजवी के पापा दोनों की इच्छा यह थी कि राजवी जैसी आजाद खयाल और बिंदास लड़की को ऐसा पति मिले, जो उसे संभाल सके और समझ सके. साथ में उसे अपनी मनपसंद लाइफ भी जीने को मिले. उस की ये सभी इच्छाएं अक्षय के साथ पूरी हो सकती थीं.

नीतू ने जातेजाते कहा, ‘‘राजवी, तुम जल्दी बताना, क्योंकि मेरे पास ऐसी बहुत सी लड़कियों की लिस्ट है, जो परदेशी दूल्हे को झपट लेने की ख्वाहिश रखती हैं.’’

नीतू के जाने के बाद मीरा ने राजवी के हाथ में तसवीर थमा दी, ‘‘देख ले बेटा, लड़का ऐसा है कि तेरी तो जिंदगी ही बदल जाएगी. हमारी तो हां ही समझ ले, तू भी जरा अच्छे से सोच लेना.’’

पर राजवी तसवीर देखते ही सोच में डूब गई. तभी उस की सहेली कविता का फोन आया. राजवी ने अपने मन की उलझन उस से शेयर की, तो पूरे उत्साह से कविता कहने लगी, ‘‘अरे, इस में क्या है. शादी के बाद भी तो तू अपना एक ग्रुप बना सकती है और सब के साथ अपने पति को भी शामिल कर के तू और भी मजे से लाइफ ऐंजौय कर सकती है. फिर वह तो फौरेन कल्चर में पलाबढ़ा लड़का है. उस की थिंकिंग तो मौडर्न होगी ही. अब तू दूसरा कुछ सोचने के बजाय उस से शादी कर लेने के बारे में ही सोचना शुरू कर दे…’’

कविता की बात राजवी समझ गई तो उस ने हां कह दिया. इस के बाद सब कुछ जल्दीजल्दी होता गया. 2 महीने बाद नीतू का दूर का वह भतीजा लड़कियों की एक लिस्ट ले कर इंडिया पहुंच गया. उसे सुंदर लड़की तो चाहिए ही थी, पर साथ में वह भारतीय संस्कारों से रंगी भी होनी चाहिए थी. ऐसी जो उसे भारतीय भोजन बना कर प्यार से खिलाए. साथ ही वह मौडर्न सोच और लाइफस्टाइल वाली हो ताकि उस के साथ ऐडजस्ट हो सके. पर उस की लिस्ट की सभी मुलाकात के बाद एकएक कर के रिजैक्ट होती गईं. तब एक दिन सुबह राजवी के पास नीतू का फोन आया, ‘‘शाम को 7 बजे तक रेडी हो जाना. अक्षय के साथ मुलाकात करनी है. और हां, मीरा से कहना कि वे तुझे अच्छी सी साड़ी पहनाएं.’’

‘‘साड़ी, पर क्यों? मुझ पर जींस ज्यादा सूट करती है,’’ कहते हुए राजवी बेचैन हो गई.

‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. तुम साड़ी यही समझ कर पहनना कि उसी में तुम ज्यादा सुंदर और अटै्रक्टिव लगती हो.’’

नीतू आंटी की बात पर गर्व से हंस पड़ी राजवी, ‘‘हां, वह तो है.’’

और उस दिन शाम को वह जब आकर्षक लाल रंग की डिजाइनर साड़ी पहन कर होटल शालिग्राम की सीढि़यां चढ़ रही थी, उस की अदा देखने लायक थी. होटल के मीटिंग हौल में राजवी को दाखिल होता देख सोफे पर बैठा अक्षय उसे देखता ही रह गया. नीतू ने जानबूझ कर उसे राजवी का फोटो नहीं भेजा था, ताकि मिलने के बाद ही अक्षय उसे ठीक से जान ले, परख ले. नीतू को वहीं छोड़ कर दोनों होटल के कौफी शौप में चले गए.

‘‘प्लीज…’’ कह कर अक्षय ने उसे चेयर दी. राजवी उस की सोच से भी अधिक सुंदर थी. हलके से मेकअप में भी उस के चेहरे में गजब का निखार था. जैसा नाम वैसा ही रूप सोचता हुआ अक्षय मन ही मन में खुश था. फिर भी थोड़ी झिझक थी उस के मन में कि क्या उसे वह पसंद करेगी?

ऐसा भी न था कि अक्षय में कोई दमखम न था और अब तो कंपनी उसे प्रमोशन दे कर उस की आमदनी भी दोगुनी करने वाली थी. फिर भी वह सोच रहा था कि अगर राजवी उसे पसंद कर लेती है तो वह उस के साथ मैच होने के लिए अपना मेकओवर भी करवा लेगा. मन ही मन यह सब सोचते हुए अक्षय ने राजवी के सामने वाली चेयर ली. अक्षय के बोलने का स्मार्ट तरीका, उस के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक और उस का धीरगंभीर स्वभाव राजवी को प्रभावित कर गया. उस की बातों में आत्मविश्वास भी झलकता था. कुल मिला कर राजवी को अक्षय का ऐटिट्यूड अपील कर गया.

उस मुलाकात के बाद दोनों ने एकदूसरे को दूसरे दिन जवाब देना तय किया. पर उसी दिन रात में राजवी ने अक्षय को फोन लगाया, ‘‘एक बात का डिस्कशन तो रह गया. क्या शादी के बाद मैं आगे पढ़ाई कर सकती हूं? और क्या मैं आगे जा कर जौब कर सकती हूं? अगर आप को कोई एतराज नहीं तो मेरी ओर से इस रिश्ते को हां है.’’

‘‘ओह. इस में पूछने वाली क्या बात है? मैं मौडर्न खयालात का हूं क्योंकि मौडर्न समाज में पलाबढ़ा हूं. नारी स्वतंत्रता मैं समझता हूं, इसलिए जैसी तुम्हारी मरजी होगी, वैसा तुम कर सकोगी.’’

अक्षय को भी राजवी पसंद आ गई थी, उसे इतनी सुंदर पत्नी मिलेगी, उस की कल्पना ही उस को रोमांचित कर देने के लिए काफी थी. फिर तो जल्दी ही दोनों की शादी हो गई. रिश्तेदारों की उपस्थिति में रजिस्टर्ड मैरिज कर के 4 ही दिनों के बाद अक्षय ने अमेरिका की फ्लाइट पकड़ ली और उस के 2 महीने बाद आंखों में अमेरिका के सपने संजोए और दिल में मनपसंद जिंदगी की कल्पना लिए राजवी ने ससुराल का दरवाजा खटखटाया. ये ऐसे सपने थे जिन्हें हर कुंआरी, महत्त्वाकांक्षी और उत्साही लड़की देखती है. राजवी खुश थी, लेकिन एक हकीकत उसे खटक रही थी. वह इतनी सुंदर और पति था सांवला. जोड़ी कैसे जमेगी उस के साथ उस की? पर रोमांचित कर देने वाली परदेशी धरती ने उसे ज्यादा सोचने का समय ही कहां दिया.

कई दिन दोनों खूब घूमे. शौपिंग, पार्टी जो भी राजवी का मन किया अक्षय ने उसे पूरा किया. फिर शुरू हुई दोनों की रूटीन लाइफ. वैसे भी सपनों की दुनिया में सब कुछ सुंदर सा, मनभावन ही होता है. जिंदगी की हकीकत तो वास्तविकता के धरातल पर आ कर ही पता चलती है. एक दिन अक्षय ने फरमाइश की, ‘‘आज मेरा इंडियन डिश खाने को मन कर रहा है.’’

‘‘इंडियन डिश? यू मीन दालचावल और रोटीसब्जी? इश… मुझे ये सब बनाना नहीं आता. मैं तो अपने घर में भी खाना कभी नहीं बनाती थी. मां बोलती थीं तब भी नहीं. और वैसे भी पूरा दिन रसोई में सिर फोड़ना मेरे बस की बात नहीं. मैं उन लड़कियों में नहीं, जो अपनी जिंदगी, अपनी खुशियां घरेलू कामकाज के जंजालों में फंस कर बरबाद कर देती हैं.’’

चौंक उठा अक्षय. फिर भी संभलते हुए बोला, ‘‘अब मजाक छोड़ो, देखो मैं ये सब्जियां ले कर आया हूं. तुम रसोई में जाओ. तुम्हारी हैल्प करने मैं आता हूं.’’

‘‘तुम्हें ये सब आता है तो प्लीज तुम ही बना लो न… दालसब्जी वगैरह मुझे तो भाती भी नहीं और बनाना भी मुझे आता नहीं. और हां, 2 दिनों के बाद तो मेरी स्टडी शुरू होने वाली है, क्या तुम भूल गए? फिर मुझे टाइम ही कहां मिलेगा इन सब झंझटों के लिए. अच्छा यही रहेगा कि तुम किसी इंडियन लेडी को कुक के तौर पर रख लो.’’

अक्षय का दिमाग सन्न रह गया. राजवी को हर रोज सुबह की चाय बनाने में भी नखरे करती थी और ठीक से कोई नाश्ता भी नहीं बना पाती थी. लेकिन आज तो उस ने हद ही कर दी थी. तो क्या यही है राजवी का असली रूप? लेकिन कुछ भी बोले बिना अक्षय औफिस के लिए निकल गया. पर यह सब तो जैसे शुरुआत ही थी. राजवी के उस नए रंग के साथ जब नया ढंग भी सामने आने लगा अक्षय के तो होश ही उड़ गए. एक दिन राजवी बिलकुल शौर्ट और पतले से कपड़े पहन कर कालेज के लिए निकलने लगी.

अक्षय ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘यह क्या पहना है राजवी? यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम पढ़ने जा रही हो तो ढंग के कपड़े पहन कर जाओगी तो अच्छा रहेगा…’’

‘‘ये अमेरिका है मिस्टर अक्षय. और फिर तुम ने ही तो कहा था न कि तुम मौडर्न सोच रखते हो, तो फिर ऐसी पुरानी सोच क्यों?’’

‘‘हां कहा था मैं ने पर पराए देश में तुम्हारी सुरक्षा की भी चिंता है मुझे. मौडर्न होने की भी हद होती है, जिसे मैं समझता हूं और चाहता हूं कि तुम भी समझ लो.’’

‘‘मुझे न तो कुछ समझना है और न ही तुम्हारी सोच और चिंता मुझे वाजिब लगती है. और यह मेरी निजी लाइफ है. मैं अभी उतनी बूढ़ी भी नहीं हो गई कि सिर पर पल्लू रख कर व साड़ी लपेट कर रहूं. और बाई द वे तुम्हें भी तो सुंदर पत्नी चाहिए थी न? तो मैं जब सुंदर हूं तो दुनिया को क्यों न दिखाऊं?’’

राजवी के इस क्यों का कोई जवाब नहीं था अक्षय के पास. फिर जैसेजैसे दिन बीतते गए, दोनों के बीच छोटीमोटी बातों पर झगड़े बढ़ते गए. अक्षय को समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे? भूल कहां हो रही है और इस स्थिति में क्या हो सकता है, क्योंकि अब पानी सिर के ऊपर शुरू हो चुका था. राजवी ने जो गु्रप बनाया था उस में अमेरिकन युवकों के साथ इंडियन लड़के भी थे. शर्म और मर्यादा की सीमाएं तोड़ कर राजवी उन के साथ कभी फिल्म देखने तो कभी क्लब चली जाती. ज्यादातर वह उन के साथ लंच या डिनर कर के ही घर आती. कई बार तो रात भर वह घर नहीं आती. अक्षय के पूछने पर वह किसी सहेली या प्रोजैक्ट का बहाना बना देती.

अक्षय बहुत दुखी होता, उसे समझाने की कोशिश करता पर राजवी उस के साथ बात करने से भी कतराती. अक्षय को ज्यादा परेशानी तो तब हुई जब राजवी अपने बौयफ्रैंड्स को ले कर घर आने लगी. अक्षय उन के साथ मिक्स होने या उन्हें कंपनी देने की कोशिश करता तो राजवी सब के बीच उस के सांवले रंग और चश्मे को मजाक का विषय बना देती और अपमानित करती रहती. एक दिन इस सब से तंग आ कर अक्षय ने नीतू आंटी को फोन लगाया. उस ने ये सब बातें बताना शुरू ही किया था कि राजवी उस से फोन छीन कर रोने जैसी आवाज में बोलने लगी, ‘‘आंटी, आप ने तो कहा था कि तुम वहां राज करोगी. जैसे चाहोगी रह सकोगी. पर आप का यह भतीजा तो मुझे अपने घर की कुक और नौकरानी बना कर रखना चाहता है. मेरी फ्रीडम उसे रास नहीं आती.’’

अक्षय आश्चर्यचकित रह गया. उस ने तब तय कर लिया कि अब से वह न तो किसी बात के लिए राजवी को रोकेगा, न ही टोकेगा. उस ने राजवी को बोल दिया कि तुम अपनी मरजी से जी सकती हो. अब मैं कुछ नहीं बोलूंगा. पर थोड़े दिनों के बाद अक्षय ने नोटिस किया कि राजवी उस के साथ शारीरिक संबंध भी नहीं बनाना चाहती. उसे अचानक चक्कर भी आ जाता था. चेहरे की चमक पर भी न जाने कौन सा ग्रहण लगने लगा था.

अब वह न तो अपने खाने का ध्यान रखती थी न ही ढंग से आराम करती थी. देर रात तक दोस्तों और अनजान लोगों के साथ भटकते रहने की आदत से उस की जिंदगी अव्यवस्थित बन चुकी थी. एक दिन रात को 3 बजे किसी अनजान आदमी ने राजवी के मोबाइल से अक्षय को फोन किया, ‘‘आप की वाइफ ने हैवी ड्रिंक ले लिया है और यह भी लगता है कि किसी ने उस के साथ रेप करने की कोशिश…’’

अक्षय सहम गया. फिर वह वहां पहुंचा तो देखा कि अस्तव्यस्त कपड़ों में बेसुध पड़ी राजवी बड़बड़ा रही थी, ‘‘प्लीज हैल्प मी…’

पास में खड़े कुछ लोगों में से कोई बोला, ‘‘इस होटल में पार्टी चल रही थी. शायद इस के दोस्तों ने ही… बाद में सब भाग गए. अगर आप चाहो तो पुलिस…’’

‘‘नहींनहीं…,’’ अक्षय अच्छी तरह जानता था कि पुलिस को बुलाने से क्या होगा. उस ने जल्दी से राजवी को उठा कर गाड़ी में लिटा दिया और घर की ओर रवाना हो गया. राजवी की ऐसी हालत देख कर उस कलेजा दहल गया था. आखिर वह पत्नी थी उस की. जैसी भी थी वह प्यार करता था उस को. घर पहुंचते ही उस ने अपने फ्रैंड व फैमिली डाक्टर को बुलाया और फर्स्ट ऐड करवाया. उस के चेहरे और शरीर पर जख्म के निशान पड़ चुके थे. दूसरे दिन बेहोशी टूटने के बाद होश में आते ही राजवी पिछली रात उस के साथ जो भी घटना घटी थी, उसे याद कर रोने लगी. अक्षय ने उसे रोने दिया. ‘जल्दी ही अच्छी हो जाओगी’ कह कर वह उसे तसल्ली देता रहा पर क्या हुआ था, उस के बारे में कुछ भी नहीं पूछा. खाना बनाने वाली माया बहन की हैल्प से उसे नहलाया, खिलाया फिर उसे अस्पताल ले जाने की सोची.

‘‘नहींनहीं, मुझे अस्पताल नहीं जाना. मैं ठीक हो जाऊंगी,’’ राजवी बोली.

अक्षय को लगा कि राजवी कुछ छिपा रही है. कहीं वह मां तो नहीं बनने वाली? पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि वह तो कहती रही है कि बच्चे के बारे में तो अभी 5 साल तक सोचना भी मत. पहले मैं कैरियर बनाऊंगी, लाइफ को ऐंजौय करूंगी, उस के बाद ही सोचूंगी. फिर कौन सी बात छिपा रही है यह मुझ से? क्या इस के साथ वाकई रेप हुआ होगा? दुखी हो गया अक्षय यह सोच कर. उसे जीवन का यह नया रंग भयानक लग रहा था. 2 दिन बाद अक्षय जब शाम को घर आया तो देखा कि राजवी फिर से बेहोश जैसी पड़ी थी. उसे तेज बुखार था. अक्षय परेशान हो गया. फिर बिना कुछ सोचे वह उसे अस्पताल ले गया. डाक्टर ने जांचपड़ताल करने के बाद उस के जरूरी टैस्ट करवाए और उन की रिपोर्ट्स निकलवाईं.

लेकिन रिपोर्ट्स हाथ में आते ही अक्षय के होश उड़ गए. राजवी की बच्चेदानी में सूजन थी और इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी. डाक्टर ने बताया कि उसे कोई संक्रामक रोग हो गया है.

चेहरा हाथों में छिपा कर अक्षय रो पड़ा. यह क्या हो गया है मेरी राजवी को? वह शुरू से ही कुछ बता देती या खुद ट्रीटमैंट करवा लेती तो बात इतनी बढ़ती नहीं. ये तू ने क्या किया राजवी? मेरे प्यार में तुझे कहां कमी नजर आई कि प्यार की खोज में तू भटक गई? काश तू मेरे दिल की आवाज सुन सकती. अक्षय को डाक्टर ने सांत्वना दी कि लुक मिस्टर अक्षय, अभी भी उतनी देर नहीं हुई है. हम उन का अच्छे से अच्छा ट्रीटमैंट शुरू कर देंगे. शी विल बी औल राइट सून… और वास्तव में डाक्टर के इलाज और अक्षय की केयर से राजवी की तबीयत ठीक होने लगी. लेकिन अक्षय का धैर्य और प्यार भरा बरताव राजवी को गिल्टी फील करा देता था.

अस्पताल से घर लाने के बाद अक्षय राजवी की हर छोटीमोटी जरूरत का ध्यान रखता था. उसे टाइम पर दवा, चायनाश्ता व खाना देना और उस को मन से खुश रखने के लिए तरहतरह की बातें करना, वह लगन से करता था. और राजवी की इन सब बातों ने आंखें खोल दी थीं. नासमझी में उस ने क्याक्या नहीं कहा था अक्षय को. दोस्तों के सामने उस का तिरस्कार किया था. उस के रंग को ले कर सब के बीच उस का मजाक उड़ाया था और कई बार गुस्से और नफरत के कड़वे बोल बोली थी वह. यह सब सोच कर शर्म सी आती थी उसे.

अपनी गोरी त्वचा और सौंदर्य के गुमान की वजह से उस ने अपना चरित्र भी जैसे गिरवी रख दिया था. अक्षय सांवला था तो क्या हुआ, उस के भीतर सब कुछ कितना उजला था. उस के इतने खराब ऐटिट्यूड के बाद भी अक्षय के बरताव से ऐसा लगता था जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. वह पूरे मन से उस की केयर कर रहा था. राजवी सोचती थी मेरी गलतियों, नादानियों और अभिमान को अनदेखा कर अक्षय मुझे प्यार करता रहा और मुझे समझाने की कोशिश करता रहा. लेकिन मैं अपनी आजादी का गलत इस्तेमाल करती रही. कुछ दिनों में राजवी के जख्म तो ठीक हो गए पर उन्होंने अपने गहरे दाग छोड़ दिए थे. जब भी वह आईना देखती थी सहम जाती थी.

पूरी तरह से ठीक होने के बाद राजवी ने अक्षय के पास बैठ कर अपने बरताव के लिए माफी मांगी. अक्षय गंभीर स्वर में बोला, ‘‘देखो राजवी, मैं जानता हूं कि तुम मेरे साथ खुश नहीं हो. मैं यह भी जानता हूं कि मैं शक्लसूरत में तुम्हारे लायक नहीं हूं. काश मैं अपने शरीर का रंग बदलवा सकता पर वह मुमकिन नहीं है. तब एक ही रास्ता नजर आता है मुझे कि तुम मेरे साथ जबरदस्ती रहने के बजाय अपना मनपसंद रास्ता खोज लो.’’ इस बात पर राजवी चौंकी मगर अक्षय बोला, ‘‘मेरा एक कुलीग है. मेरे जैसी ही पोस्ट पर है और मेरी जितनी ही सैलरी मिलती है उसे. प्लस पौइंट यह है कि वह हैंडसम दिखता है. तुम्हारे जैसा गोरा और तुम्हारे जैसा ही फ्री माइंडेड है. अगर तुम हां कहो तो मैं बात कर सकता हूं उस से. और हां, वह भी इंडिया का ही है. खुश रखेगा तुम्हें…’’

‘‘अक्षय, यह क्या बोल रहे हो तुम?’’ राजवी चीख उठी. अक्षय ऐसी बात करेगा यह उस की सोच से परे था.

‘‘मैं ठीक ही तो कह रहा हूं. इस झूठमूठ की शादी में बंधे रहने से अच्छा होगा कि हम अलग हो जाएं. मेरी ओर से आज से ही तुम आजाद हो…’’

अक्षय के होंठों पर अपनी कांपती उंगलियां रखती राजवी कांपती आवाज में बोली, ‘‘इस बात को अब यहीं पर स्टौप कर दो अक्षय. मैं ने कहा न कि मैं ने जो कुछ भी किया वह मेरी भूल थी. मेरा घमंड और मेरी नासमझी थी. अपने सौंदर्य पर गुमान था मुझे और उस गुमान के लिए तुम जो चाहे सजा दे सकते हो. पर प्लीज मुझे अपने से अलग मत करना. मैं नहीं जी पाऊंगी तुम्हारे बिना. तुम्हारे प्यार के बिना मैं अधूरी हूं. जिंदगी का और रिश्तों का सच्चा सुख बाहरी चकाचौंध में नहीं होता वह तो आंतरिक सौंदर्य में ही छिपा होता है, यह सच मुझे अच्छी तरह महसूस हो चुका है.’’

इस के आगे न बोल पाई राजवी. उस की आंखों में आंसू भर गए. उस ने हाथ जोड़ लिए और बोली, ‘‘मेरी गलती माफ नहीं करोगे अक्षय?’’ राजवी के मुरझाए गालों पर बह रहे आंसुओं को पोंछता अक्षय बोला, ‘‘ठीक है, तो फिर इस में भी जैसी तुम्हारी मरजी.’’  और यह कह कर वह मुसकराया तो राजवी हंस पड़ी. फिर अक्षय ने अपनी बांहें फैलाईं तो राजवी उन में समा गई.

Short Story: एक रिश्ता एहसास का

‘सुधा बारात आने वाली है देखो निधि तैयार हुई की नहीं ……’,हर्ष ने सुधा को आवाज़ लगाते हुए कहा.
सुधा का दिल ये सोच कर बहुत ही ज़ोरों से धडकने लगा की अब मेरी निधि मुझसे दूर हो जाएगी.
सुधा निधि को लेने उसके कमरे की तरफ बढ़ी .निधि को दुल्हन के रूप में देख कर वो एक पल को वहीँ दरवाज़े की ओट में खड़ी हो गयी.

सुधा अपने अतीत की यादों में खो गयी . उसकी यादों का कारवां बरसों पहले जा पहुंचा था. नंदिनी और सुधा बहुत की पक्की दोस्त थी और हो भी क्यूँ न बचपन की दोस्ती जो थी.

जिस शाम सुधा की इंगेजमेंट थी उसी शाम जब नंदिनी सुधा के घर अपने पति हर्ष के साथ आ रही थी तभी उनकी गाडी का बहुत ही भयानक एक्सीडेंट हो गया जिसमे नंदिनी चल बसी.और पीछे छोड़ गयी अपनी हंसती खेलती दुनिया.नंदिनी के दो बच्चे थे विशाल और निधि.दोनों बहुत ही छोटे थे.नंदिनी की मौत के बाद परिवार वालों ने हर्ष से दूसरी शादी का दवाब डाला.
जब सुधा को इस बात का पता चला तो उसने बिना आनाकानी किए हर्ष से शादी के लिए हामी भर दी थी, क्योंकि नंदिनी की असमय मौत के बाद उसे सबसे अधिक चिंता उनके दोनों बच्चों- निधि और विशाल के भविष्य की थी.
नई-नई दुल्हन बनकर आई थी सुधा . अचानक ही उसकी ज़िंदगी में सब कुछ बदल गया था. जिस शख़्स को अब तक अपनी दोस्त के के पति के रूप में देखती आई थी, वो अब उसी की पत्नी बन चुकी थी. चूंकि बच्चे बहुत ही छोटे थे और पहले से ही सुधा से घुले-मिले थे, तो उन्होंने भी उसे अपनी मां के रूप में आसानी से स्वीकार कर पाएंगे.

दूसरी तरफ़ हर्ष का भी वो बहुत सम्मान करती थी. समय बीतता रहा, बच्चों के साथ सुधा ख़ुद भी बच्ची ही बन जाती और खेल-खेल में उन्हें कई बातें सिखाने में कामयाब हो जाती. लेकिन इतना कुछ करने पर भी बात-बात पर उसे ‘सौतेली मां’ का तमगा पहना दिया जाता. अगर बच्चे को चोट लग जाए, तो पड़ोसी कहते, “बेचारे बिन मां के बच्चे हैं, सौतेली मां कहां इतना ख़्याल रखती होगी…” इस तरह के ताने सुनने की आदी हो चुकी थी सुधा, लेकिन सबसे ज़्यादा तकलीफ़ तब होती, जब अपना ही कोई इस दर्द को और बढ़ा देता. चाहे बच्चों का जन्मदिन हो या कोई अचीवमेंट, हर बार घर के क़रीबी रिश्तेदार यह कहने से पीछे नहीं हटते थे कि आज इनकी अपनी मां ज़िंदा होती, तो कितनी ख़ुश होती.
अचानक सुधा ने अपने अतीत से बहार आकर महसूस किया की निधि ने आकर पीछे से उसकी आँखों को अपने हाथ से ढक लिया .
सुधा ने बिना उसके कहे पहचान लिया की वो निधि है.उसने कहा तैयार हो गयी मेरी राजकुमारी!

“माँ , तुम्हें कैसे पता चला कि ये मैं हूं?” निधि ने हैरान होकर पूछा.
“बेटा , तुम्हारी ख़ुशबू मैं अच्छी तरह से पहचानती हूं. तुम्हारा एहसास, तुम्हारा स्पर्श सब कुछ मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है? आख़िर मां हूँ मै तुम्हारी .” सुधा ने निधि का हाथ थामकर कहा.
“क्या हुआ माँ तुम कुछ परेशान लग रही हो ,कोई बात है क्या?किसी ने कुछ कहा.” निधि ने सुधा के गले लगकर पूछा.
सुधा ने आँखों में आंसू भरकर कहा,”निधि मै सही हूँ न ?क्या मेरी परवरिश में तुम्हे कोई कमी तो नहीं लगी.अगर मेरे प्यार में कोई कमी रह गयी हो तो मुझे माफ़ कर देना…”
मां… तुमसे ही मैं ममता की गहराई जान पाई हूं. तुम ऐसा मत सोचो ” निधि ने माँ को गले लगाते हुए कहा.

सुधा ने निधि के सर पर हाँथ फेरते हुए कहा,”चलो अब नीचे चले ,बारात आ गयी है और उनको इंतज़ार करवाना ठीक नहीं.” वो हँसते हुए बोली
पर निधि के मन तो तूफ़ान उमड़ रहा था.सुधा के आंसुओं ने उसे अन्दर तक झकझोर कर रख दिया था.वो जान चुकी थी की उसकी माँ के मन में क्या उधेड़बुन चल रही है.
पर उसने अपने आप को शांत किया और सुधा के साथ नीचे आ गयी.
शादी की सारी रश्में पूरी हो चुकी थी .अब विदाई का समय आ चुका था.
निधि अपने परिवार वालों के गले लग कर बहुत रोई .फिर जब वो अपनी माँ के गले लगी तभी पीछे से किसी ने कहा,”आज अगर निधि की सगी माँ जिंदा होती तो वो बहुत खुश होती.”
बस फिर क्या था.निधि तो जैसे इसी मौके के इंतज़ार में थी.
उसने कहा
”ये क्या सगी माँ –सगी माँ लगा रखा है.हमने जबसे होश संभाला, इन्ही को ही देखा, इन्ही को ही पाया. हर क़दम पर साये की तरह इन्होने ने ही ज़िंदगी की धूप से हमें बचाया. अपनी नींदें कुर्बान करके हमें रातभर थपकी देकर सुलाया. फिर भी हर ख़ुशी के मौ़के पर यहां आंसू बहाए जाते हैं कि आज हमारी सगी मां होती, तो ऐसा होता, वैसा होता…
आज इतने बरसों बाद जब मैं पीछे पलटकर देखती हूं, तो एक ही लफ़्ज़ बार-बार मेरे कानों में गूंजता है… सौतेली मां! ताउम्र इस एक शब्द से जंग लड़ती आ रहीं है मेरी माँ … अब तो जैसे ये इनकी पहचान ही बन गया हो. हर बार अग्निपरीक्षा, हर बात पर अपनी ममता साबित करना… जैसे कोई अपराधी हो ये . हर बार तरसती निगाह से सबकी ओर देखती हैं की कहीं से कोई प्रशंसाभरे शब्द कह दे . लेकिन ऐसा होता ही नहीं .
पूरे समाज ने इन्हें कटघरे में खड़ा करके रख दिया है…..पर क्यूँ दें ये सफ़ाई? क्यों करे ख़ुद को साबित…? मां स़िर्फ मां होती है, उसकी ममता सगी या सौतेली नहीं होती… लेकिन कौन समझता है इन भावनाओं को. दो कौड़ी की भी क़ीमत नहीं है इनकी भावनाओं की…

क्या आप सभी जानते है की वो तो अक्सर ख़ुद से इस तरह के सवाल करती रहती है, जिनका जवाब किसी के पास नहीं होता.
इसके बाद निधि रोते हुए सुधा के गले लग गयी और बोली,”माँ मुझे माफ़ कर दो .माँ तुमने जो किया, वो मेरे लिए गर्व की बात है .तुम तो मेरी प्रेरणा हो माँ .शायद मैंने तुम्हारा साथ देने में बहुत देर कर दी .i love you माँ .”
आज सुधा को अपने आप से कोई शिकायत नहीं थी.उसके चेहरे पर एक अजीब सा संतोष था जिसे बयां नहीं किया जा सकता……

Family Story – केलिकुंचिका: दुर्गा की कौनसी गलती बनी जीवनभर की सजा

दीनानाथजी बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे. वे 5वीं मंजिल के अपने अपार्टमैंट में रोज शाम को इसी समय चाय पीते और नीचे बच्चों को खेलते देखा करते थे. उन की पत्नी भी अकसर उन के साथ बैठ कर चाय पिया करती थीं. पर अभी वे किचन में महरी से कुछ काम करा रही थीं. तभी बगल में स्टूल पर रखा उन का मोबाइल फोन बजा. उन्होंने देखा कि उन की बड़ी बेटी अमोलिका का फोन था. दीनानाथ बोले, ‘‘हां बेटा, बोलो, क्या हाल है?’’

अमोलिका बोली, ‘‘ठीक हूं पापा. आप कैसे हैं? मम्मी से बात करनी है.’’ ‘‘मैं ठीक हूं बेटा. एक मिनट होल्ड करना, मम्मी को बुलाता हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्नी को बुलाया.

उन की पत्नी बोलीं, ‘‘अमोल बेटा, कैसी तबीयत है तेरी? अभी तो डिलीवरी में एक महीना बाकी है न?’’ ‘‘वह तो है, पर डाक्टर ने कहा है कि कुछ कौंप्लिकेशन है, बैडरैस्ट करना है. तुम तो जानती हो जतिन ने लवमैरिज की है मुझ से अपने मातापिता की मरजी के खिलाफ. ससुराल से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलने वाली है. तुम 2-3 महीने के लिए यहां आ जातीं, तो बड़ा सहारा मिलता.’’

‘‘मैं समझ सकती हूं बेटा, पर तेरे पापा दिल के मरीज हैं. एक हार्टअटैक झेल चुके हैं. ऐसे में उन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं होगा.’’ ‘‘तो तुम दुर्गा को भेज सकती हो न? उस के फाइनल एग्जाम्स भी हो चुके हैं.’’

‘‘ठीक है. मैं उस से पूछ कर तुम्हें फोन करती हूं. अभी वह घर पर नहीं है.’’

दुर्गा अमोलिका की छोटी बहन थी. वह संस्कृत में एमए कर रही थी. अमोलिका की शादी एक माइनिंग इंजीनियर जतिन से हुई थी. उस की पोस्ंिटग झारखंड और ओडिशा के बौर्डर पर मेघाताबुरू में एक लोहे की खदान में थी. वह खदान जंगल और पहाड़ों के बीच में थी, हालांकि वहां सारी सुविधाएं थीं. बड़ा सा बंगला, नौकरचाकर, जीप आदि. कंपनी का एक अस्पताल भी था जहां सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध थीं. फिर भी अमोलिका को बैडरैस्ट के चलते कोई अपना, जो चौबीसों घंटे उस के साथ रहे, चाहिए था. अमोलिका के मातापिता ने छोटी बेटी दुर्गा से इस बारे में बात की. दुर्गा बोली कि ऐसे में दीदी का अकेले रहना ठीक नहीं है. वह अमोलिका के यहां जाने को तैयार हो गई. उस के जीजा जतिन खुद आ कर उसे मेघाताबुरू ले गए.

दुर्गा के वहां पहुंचने के 2 हफ्ते बाद ही अमोलिका को पेट दर्द हुआ. उसे अस्पताल ले जाया गया. डाक्टर ने उसे भरती होने की सलाह दी और कहा कि किसी भी समय डिलीवरी हो सकती है. अमोलिका ने भरती होने के तीसरे दिन एक बेटे को जन्म दिया. पर बेटे को जौंडिस हो गया था, डाक्टर ने बच्चे को एक सप्ताह तक अस्पताल में रखने की सलाह दी. जतिन और दुर्गा प्रतिदिन विजिटिंग आवर्स में अस्पताल आते और खानेपीने का सामान दे जाते थे. एक दिन जतिन ने जीप को कुछ जरूरी सामान, दवा आदि लेने के लिए शहर भेज दिया था. दुर्गा मोटरसाइकिल पर ही उस के साथ अस्पताल आई थी. उस दिन मौसम खराब था. अस्पताल से लौटते समय बारिश होने लगी. दोनों बुरी तरह भीग गए थे. दुर्गा मोटरसाइकिल से उतर कर गेट का ताला खोल रही थी. उस के गीले कपड़े उस के बदन से चिपके हुए थे जिस के चलते उस के अंगों की रेखाएं स्पष्ट झलक रही थीं. जतिन के मन में तरंगें उठने लगी थीं.

ताला खुलने पर दोनों अंदर गए. बिजली गुल थी. दुर्गा सीधे बाथरूम में गीले कपड़े बदलने चली गई. इस बात से अनजान जतिन तौलिया लेने के लिए बाथरूम में गया. वह रैक पर से तौलिया उठाना चाहता था. दुर्गा साड़ी खोल कर पेटीकोट व ब्लाउज में थी. उस ने नहाने की सोच कर हैंडशावर हाथ में ले रखा था. उस ने दरवाजा थोड़ा खुला छोड़ दिया था ताकि कुछ रोशनी अंदर आ सके. अचानक किसी की उपस्थिति महसूस होने पर उस ने पूछा, ‘‘अरे आप, जीजू, अभी क्यों आए? निकलिए, मैं बंद कर लेती हूं.’’ इतना कह कर उस ने खेलखेल में हैंडशावर से जतिन को गीला कर दिया. जतिन बोलता रहा, ‘‘यह क्या कर रही हो? मुझे पता नहीं था कि तुम अंदर हो़’’

‘‘मुझे भी पता नहीं, अंधेरे में पानी किधर जा रहा है,’’ और वह हंसने लगी. ‘‘रुको, मैं बताता हूं पानी किधर छोड़ा है तुम ने. यह रहा मैं और यह रही तुम,’’ इतना बोल कर जतिन ने उसे बांहों में भर लिया. दुर्गा को भी लगा कि उस का गीला बदन तप रहा है.

‘‘क्या कर रहे हैं आप? छोडि़ए मुझे.’’ ‘‘अभी कहां कुछ किया है मैं ने?’’

दुर्गा को अपने भुजबंधन में लिए हुए ही एक चुंबन उस के होंठों पर जड़ दिया जतिन ने. इस के बाद तपिश खत्म होने पर ही अलग हुए वे दोनों. दुर्गा बोली, ‘‘जो भी हुआ, वह हरगिज नहीं होना चाहिए था. क्षणिक आवेश में आ कर हम दोनों ने अपनी सीमाएं तोड़ डालीं. जरा सोचिए, दीदी को जब कभी यह बात मालूम होगी तो उस पर क्या गुजरेगी.’’

जतिन बोला, ‘‘अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ. उसे बदला तो नहीं जा सकता. ठीक तो मैं भी नहीं समझता हूं, पर बेहतर होगा अमोलिका को इस बारे में कुछ भी पता न चले.’’

इस घटना के एक सप्ताह बाद अमोलिका भी अस्पताल से घर आई. उस का बेटा बंटी ठीक हो गया था. घर में सभी खुश थे. दुर्गा भी मौसी बन कर प्रसन्न थी. वह अपनी दीदी और भतीजे की देखभाल अच्छी तरह कर रही थी. जतिन ने शानदार पार्टी दी थी. अमोलिका के मातापिता भी आए थे. एक सप्ताह रह कर वे लौट गए. लगभग 2 महीने तक सबकुछ सामान्य रहा. दुर्गा की तबीयत ठीक नहीं रह रही थी. अमोलिका ने जतिन से कहा, ‘‘इसे थोड़ा डाक्टर को दिखा लाओ.’’

दुर्गा को अपने अंदर कुछ बदलाव महसूस होने लगा था. पीरियड मिस होने से वह अंदर से डरी हुई थी. जतिन दुर्गा को ले कर अस्पताल गया. वहां लेडी डाक्टर ने चैक कर कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है, सबकुछ नौर्मल है. दुर्गा मां बनने वाली है. जतिन और दुर्गा एकदूसरे को आश्चर्य से देख रहे थे. पर डाक्टर के सामने बनावटी मुसकराहट दिखाते रहे ताकि डाक्टर को सबकुछ नौर्मल लगे.

छोटे से माइनिंग वाले शहर में सभी अफसर एकदूसरे को अच्छी तरह जानतेपहचानते थे. थोड़ी ही देर में डाक्टर ने अमोलिका को फोन कर कहा, ‘‘मुबारक हो, शाम को मैं आ रही हूं, मिठाई खिलाना.’’ ‘‘श्योर, दरअसल हम लोगों ने जिस दिन पार्टी दी थी आप छुट्टी ले कर बाहर गई थीं.’’

‘‘वह तो ठीक है, मैं तुम्हारी मौसी बनने की खुशी में मिठाई मांग रही हूं. ठीक है, शाम को डबल मिठाई खा लूंगी.’’ डाक्टर से बात करने के बाद अमोलिका के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं. उस के मन में संदेह हुआ क्योंकि दुर्गा और जतिन के अलावा घर में तीसरा और कोई नहीं था, कहीं यह बच्चा जतिन का न हो. उसे अपनी बहन पर क्रोध आ रहा था. साथ ही, उसे नफरत भी हो रही थी.

अभी तक दुर्गा और जतिन दोनों अस्पताल से घर भी नहीं लौटे थे. दोनों की समझ में नहीं आ रहा था कि आने वाले भीषण तूफान से कैसे निबटा जाए. कुछ पलों का आनंद इतनी बड़ी मुसीबत बन जाएगा, उन्होंने इस की कल्पना भी नहीं की थी. दोनों सोच रहे थे कि आज नहीं तो कल अमोलिका को यह बात तो पता चलेगी ही, तब उस के सामने कैसे मुंह दिखाएंगे.

घर पहुंच कर दुर्गा बंटी के लिए दूध बना कर ले गई. उस ने दूध की बोतल अमोलिका को दी. वह बहुत गंभीर थी. दुर्गा वापस जाने को मुड़ी ही थी कि अमोलिका ने उसे हाथ पकड़ कर रोक लिया. पहले तो वह सोच रही थी कि सारा गुस्सा अभी के अभी उतार दे, पर उस ने बात बदलते हुए पूछा, ‘‘अब तो तुम्हारा एमए भी पूरा हो गया है. अगले महीने तुम्हारा कौन्वोकेशन भी है.’’ दुर्गा बोली, ‘‘हां.’’

‘‘आगे के लिए क्या सोचा है? और तुम ने संस्कृत ही क्यों चुनी? इनफैक्ट संस्कृत की तो यहां कोई कद्र नहीं है.’’ ‘‘आजकल जरमनी में लोग संस्कृत में रुचि ले रहे हैं. बीए करने के बाद मैं एक साल स्कूल में पार्टटाइम संस्कृत टीचर थी. मैं ने जरमनी की एक यूनिवर्सिटी में संस्कृत ट्यूटर के लिए आवेदन दिया था. मैं ने जरमन भाषा का भी एक शौर्टटर्म कोर्स किया है. मुझे उम्मीद है कि जरमनी से जल्दी ही बुलावा आएगा.’’

‘‘कब तक जाने की संभावना है?’’ ‘‘कुछ पक्का नहीं कह सकती हूं, पर 6 महीने या सालभर लग सकता है. उन्होंने कहा है कि अभी तुरंत वैकेंसी नहीं है, होने पर सूचित करेंगे.’’

‘‘तब तक तुम्हारा ये बच्चा…’’ अमोलिका के मुंह से अचानक यह सुनना दुर्गा के लिए अनपेक्षित था. इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए वह तैयार नहीं थी. उसे चुप देख कर अमोलिका ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आई दीदी के यहां आ कर यह सब गुल खिलाने में. वैसे तो मैं समझ सकती हूं तेरे पेट में किस का अंश है, फिर भी मैं तेरे मुंह से सुनना चाहती हूं.’’

दुर्गा सिर नीचे किए रो रही थी, कुछ बोल नहीं पा रही थी. अमोलिका ने ही फिर कड़क कर कहा, ‘‘यह किस का काम है? बंटी के सिर पर हाथ रख कर कसम खा तू, किस का काम है यह?’’ दुर्गा फिर चुप रही. तब अमोलिका ने ही कहा, ‘‘जतिन का ही दुष्कर्म है न यह? सच बता तुझे बंटी की कसम.’’

‘‘तुम्हारी खामोशी को मैं तुम्हारी स्वीकृति समझ रही हूं. बाकी मैं जतिन से समझ लूंगी.’’ दुर्गा वहां से चली गई. अमोलिका ने अपनी मां को फोन कर कहा, ‘‘मां, मैं कुछ दिनों के लिए वहां आ कर तुम लोगों के साथ रहना चाहती हूं.’’

मां ने कहा, ‘‘बेटा, यह तेरा घर है. जब चाहे आओ और जितने दिन चाहो आराम से रहो.’’ उस रात अमोलिका और जतिन में काफी कहासुनी हुई. उस ने जतिन से कहा, ‘‘तुम्हारे दुष्कर्म के बाद मुझे तुम से घिन हो रही है. मुझे नहीं लगता, मैं यहां और रह पाऊंगी.’’

जतिन के माफी मांगने और मना करने के बावजूद दूसरे दिन अमोलिका दुर्गा के साथ पीहर आ गई. उस ने मेघाताबुरू की कहानी मां को बताई. उस की मां भी बहुत क्रोधित हुईं और उन्होंने दुर्गा से कहा, ‘‘अरे, तू अपनी सगी बहन के घर में आग लगा बैठी.’’ दुर्गा के पास कोई जवाब न था. वह चुप रही. मां ने कहा, ‘‘मैं तेरी जैसी कुलटा को अपने घर में नहीं रख सकती. तू निकल जा मेरे घर से. हम लोग तुम्हारा मुंह नहीं देखना चाहते.’’

उस रात दुर्गा को नींद नहीं आ रही थी. वह रात में एक बैग ले कर दरवाजा खोल कर घर से निकलना ही चाहती थी कि अमोलिका जग उठी. उस ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो?’’ दुर्गा बोली, ‘‘कुछ सोचा नहीं है, या तो आत्महत्या करूंगी या फिर सब से दूर कहीं चली जाऊंगी.’’

‘‘एक पाप तो तूने पहले ही किया, दूसरा पाप आत्महत्या करने का होगा.’’ ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तू एबौर्शन करा ले, उस के बाद आगे की जिंदगी का रास्ता साफ हो जाएगा.’’

‘‘एबौर्शन कराना भी तो एक पाप ही होगा.’’ ‘‘तू अभी चुपचाप घर में बैठ. कुछ दिनों में हम सब लोग मिलजुल कर बात कर कोई समाधान ढूंढ़ लेंगे.’’

दुर्गा ने महसूस किया कि उस के मातापिता दोनों ने ही उस से बोलचाल बंद कर दी है. वह तो अमोलिका की गुनाहगार थी, फिर भी दीदी कभीकभी उस से बात कर लेती थीं. उस को अंदर से ग्लानि थी कि उस की एक छोटी सी भूल की सजा दीदी और बंटी को भी मिल रही है. 2 दिनों बाद ही दुर्गा अचानक घर छोड़ कर कहीं चली गई. उस ने अपना कोई अतापता किसी को नहीं बताया. दुर्गा अपने साथ पढ़ी एक सहेली माधुरी के यहां कोलकाता आ गई. दोनों ने 12वीं तक साथ पढ़ाई की थी. उस ने उसे अपनी कहानी बताई और कहा, ‘‘प्लीज, मेरा पता किसी को मत बताना. मुझे कुछ दिनों के लिए पनाह दे, फिर मैं कहीं दूरदराज चली जाऊंगी.’’

माधुरी अविवाहित थी और नौकरी करती थी. वह बोली, ‘‘तू कहीं नहीं जाएगी. तू जब तक चाहे यहां रह सकती है. तू तो जानती ही है कि इस दुनिया में मेरा अपना निकटसंबंधी कोई नहीं है. तू यहीं रह, तू मां बनेगी और मैं मौसी.’’

वहीं दुर्गा ने एक बालक को जन्म दिया. उस ने वहीं रह कर इग्नू से 2 साल का मास्टर इन वैदिक स्टडीज का कोर्स किया. इसी बीच, उस ने झारखंड में धनबाद के निकट काको मठ और महाराष्ट्र में नासिक के निकट वेद पाठशालाओं में वहां के संतों व गुरुजनों से भी वेद पर विशेष चर्चा कर वेद के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाया.

माधुरी ने उस से कहा, ‘‘तुम वेदों को इतना महत्त्व क्यों दे रही हो? मैं ने तो सुना है कि वेद स्त्रियों के लिए नहीं हैं.’’ दुर्गा बोली, ‘‘तू उस की छोड़, क्लासिकल भाषाओं के अच्छे जानकारों की जरूरत हमेशा रहेगी. हर युग में उन्हें नए ढंग से पढ़ा और समझा जाता है.’’ जब तक दुर्गा माधुरी के साथ रही, उस ने दुर्गा की आर्थिक सहायता भी की. कुछ पैसे दुर्गा ट्यूशन पढ़ा कर भी कमा लेती थी. इस बीच, दुर्गा का बेटा शलभ 2 साल का हो चुका था. तभी जरमनी से संस्कृत टीचर के लिए उस का बुलावा आ गया.

कोलकाता के जरमन कौन्सुलेट से दुर्गा और बेटे शलभ को वीजा भी मिल गया. वह जरमनी के हीडेलबर्ग यूनिवर्सिटी गई.

जरमनी पहुंच कर दुर्गा को बिलकुल अलग माहौल मिला. जरमनी के लगभग एक दर्जन से ज्यादा शीर्ष विश्वविद्यालयों हीडेलबर्ग, एलएम यूनिवर्सिटी म्यूनिक, वुर्जबर्ग यूनिवर्सिटी, टुएबिनजेन यूनिवर्सिटी आदि में संस्कृत की पढ़ाई होती है. उसे देख कर खुशी हुई कि जरमनी के अतिरिक्त अन्य यूरोपियन देश और अमेरिका के विद्यार्थी भी संस्कृत पढ़ते हैं. वे जानना चाहते हैं कि भारत के प्राचीन इतिहास व विचार किस तरह इन ग्रंथों में छिपे हैं. भारत में संस्कृत की डिगरी तो नौकरी के लिए बटोरी जाती है लेकिन जरमनी में लोग अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए संस्कृत पढ़ने आते हैं. इन विद्यार्थियों में हर उम्र के बच्चे, किशोर, युवा और प्रौढ़ होते हैं. दुर्गा ने देखा कि इन में कुछ नौकरीपेशा यहां तक कि डाक्टर भी हैं. दुर्गा को पता चला कि अमेरिका और ब्रिटेन में जरमन टीचर संस्कृत पढ़ाते हैं. हम अपनी प्राचीन संस्कृति और भाषा की समृद्ध विरासत को सहेजने में सफल नहीं रहे हैं. यहां का माहौल देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि जरमन लोग ही शायद भविष्य में संस्कृत के संरक्षक हों. वे दूसरी लेटिन व रोमन भाषाओं को भी संरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं.

दुर्गा का बेटा शलभ भी अब बड़ा हो रहा था. वह जरमन के अतिरिक्त हिंदी, इंगलिश और संस्कृत भी सीख रहा था. दुर्गा ने कुछ प्राचीन पुस्तकों, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम, गीता और वेद के जरमन अनुवाद भी देखे और कुछ पढ़े भी. जरमन विद्वानों का कहना है कि भारत के वेदों में बहुतकुछ छिपा है जिन से वे काफी सीख सकते हैं. सामान्य बातें और सामान्य ज्ञान से ले कर विज्ञान के बारे में भी वेद से सीखा जा सकता है.

जरमनी आने पर भी दुर्गा हमेशा अपनी सहेली माधुरी के संपर्क में रही थी. उस ने माधुरी को कुछ पैसे भी लौटा दिए थे जिस के चलते माधुरी थोड़ा नाराज भी हुई थी. माधुरी से ही दुर्गा को मालूम हुआ कि उस की दीदी अमोलिका और पापा दीनानाथ अब नहीं रहे. अमोलिका का बेटा बंटी कुछ साल नानी के साथ रहा था, बाद में वह अपने पापा जतिन के पास चला गया. उस की नानी भी उसी के साथ रहती थी. बंटी 16 साल का हो चुका था और कालेज में पढ़ रहा था. इधर, दुर्गा का बेटा शलभ 15 साल का हो गया था. वह भी अगले साल कालेज में चला जाएगा. दुर्गा के निमंत्रण पर माधुरी जरमनी आई थी. वह करीब एक महीने यहां रही. दुर्गा ने उसे बर्लिन, बोन, म्युनिक, फ्रैंकफर्ट, कौंलोन आदि जगहें घुमाईं. माधुरी इंडिया लौट गई.

दुर्गा से यूनिवर्सिटी की ओर से वेद पढ़ाने को कहा गया. उस से वेद के कुछ अध्यायों व श्लोकों का समुचित विश्लेषण करने को कहा गया. दुर्गा ने वेदों का अध्ययन किया था, इसलिए उसे पढ़ाने में कोई परेशानी नहीं हुई. उस के पढ़ाने के तरीके की विद्यार्थियों और शिक्षकों ने खूब प्रशंसा की. दुर्गा अब यूनिवर्सिटी में प्रतिष्ठित हो चुकी थी, बल्कि उसे अन्य पश्चिमी देशों में भी कभीकभी पढ़ाने जाना होता था.

5 वर्षों बाद शलभ फिजिक्स से ग्रेजुएशन कर चुका था. उसे न्यूक्लिअर फिजिक्स में आगे की पढ़ाई करनी थी. पीजी में ऐडमिशन से पहले उस ने मां से इंडिया जाने की पेशकश की तो दुर्गा ने उस की बात मान ली. दुर्गा ने उस के जन्म की सचाई अब उसे बता दी थी. सच जान कर उसे अपनी मां पर गर्व हुआ. अकेले ही काफी दुख झेल कर, अपने साहस के बलबूते पर मां खुद को और मुझे सम्मानजनक स्थिति में लाई थी. शलभ को अपनी मां पर गर्व हो रहा था. हालांकि वह किसी संबंधी के यहां नहीं जाना चाहता था लेकिन दुर्गा ने उसे अपने पिता जतिन और नानी से मिलने को कहा. माधुरी ने दुर्गा को जतिन का ठिकाना बता दिया था. जतिन आजकल नागपुर के पास वैस्टर्न कोलफील्ड में कार्यरत था.

इंडिया आ कर शलभ ने पहले देश के विभिन्न ऐतिहासिक व प्राचीन नगरों का भ्रमण किया. बाद में वह पिता से मिलने नागपुर गया. उस दिन रविवार था, जतिन और नानी दोनों घर पर ही थे. डोरबैल बजाने पर जतिन ने दरवाजा खोला. शलभ ने उस के पैर छुए. जतिन बोला, ‘‘मैं ने तुम को पहचाना नहीं.’’ शलभ बोला, ‘‘मैं एक जरमन नागरिक हूं. भारत घूमने आया हूं. मैं अंदर आ सकता हूं. मेरी मां ने मुझे आप से मिलने के लिए कहा है.’’

शलभ का चेहरा एकदम अपनी मां से मिलता था. तब तक उस की नानी भी आई तो उस ने नानी के भी पैर छू कर प्रणाम किया. जतिन और नानी दोनों शलभ को बड़े गौर से देख रहे थे. शलभ ने देखा कि शोकेस पर उस की मौसी और मां दोनों की फोटो पर माला पड़ी हुई है. शलभ ने दोनों तसवीरों की ओर संकेत करते हुए पूछा, ‘‘ये महिलाएं कौन हैं?’’

जतिन ने बताया, ‘‘एक मेरी पत्नी अमोलिका, दूसरी उन की छोटी बहन दुर्गा है, अब दोनों इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘एस तुत मिर लाइट,’’ शलभ बोला. ‘‘मैं समझा नहीं,’’ जतिन ने कहा.

‘‘आई एम सौरी, यही पहले मैं ने जरमन भाषा में कहा था,’’ शलभ बोला. ‘‘अरे वाह, कितनी भाषाएं जानते हो,’’ जतिन ने हैरानी जताई.

‘‘सब मेरी मां की देन है,’’ शलभ ने कहा. फिर दुर्गा की फोटो को दिखाते हुए शलभ बोला, ‘‘तो ये आप की केलिकुंचिका हैं.’’

‘‘व्हाट?’’ ‘‘केलिकुंचिका यानी साली, सिस्टर इन लौ.’’

‘‘यह कौन सी भाषा है…जरमन?’’ ‘‘जी नहीं, संस्कृत.’’

‘‘तो तुम संस्कृत भी जानते हो?’’ ‘‘जी, आप की केलिकुंचिका संस्कृत की विदुषी हैं, उन्हीं ने मुझे संस्कृत भी सिखाई है.’’

‘‘वह तो बहुत पहले मर चुकी है.’’ ‘‘आप के लिए मृत होंगी.’’

‘‘व्हाट? हम लोगों ने उसे ढूढ़ने की बहुत कोशिश की थी, पर वह नहीं मिली. आखिर में हम ने उसे मृत मान लिया.’’ ‘‘अच्छा, तो अब चलता हूं, कल दिल्ली से मेरी फ्लाइट है.’’

शलभ ने उठ कर दोनों के पैर छुए और बाहर निकल गया. ‘‘अरे, जरा रुको तो सही, हमारी बात तो सुनते जाओ, शलभ…’’

वे दोनों उसे पुकारते रहे, पर उस ने एक बार भी मुड़ कर उन की तरफ नहीं देखा.

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