‘‘तुम्हेंमालूम है चिल्लाते समय तुम बिलकुल जंगली बिल्ली लगती हो. बस थोड़ा बालों को फैलाने की कमी रह जाती है,’’ सौम्य दांत किटकिटा कर चिल्लाया.
‘‘और तुम? कभी अपनी शक्ल देखी है आईने में? चिल्लाचिल्ला कर बोलते समय पागल कुत्ते से लगते हो.’’
यह हम दोनों का असली रूप था, जो अब किसी भी तरह परदे में छिपने को तैयार नहीं था. बस हमारे मासूम बेटे के बाहर जाने की देर होती. फिर वह चाहे स्कूल जाए या क्रिकेट खेलने. पहला काम हम दोनों में से कोई भी एक यह कर देता कि खूब तेज आवाज में गाने बजा देता और फिर उस से भी तेज आवाज में हम लड़ना शुरू कर देते. कारण या अकारण ही. हां, सब के सामने हम अब भी आदर्श पतिपत्नी थे. शायद थे, क्योंकि कितनी ही बार परिचितों, पड़ोसियों की आंखों में एक कटाक्ष, एक उपहास सा कौंधता देखा है मैं ने.
मैं ने और सौम्य ने प्रेमविवाह किया था. मैं मात्र 18 वर्ष की थी और सौम्य का 36वां साल चल रहा था. वे अपनी पहली पत्नी को एक दुर्घटना में गंवा चुके थे और 2 बच्चों को उन के नानानानी के हवाले कर जीवन को पूरी शिद्दत और बेबाकी से जी रहे थे. मस्ती, जोश, फुरतीलापन, कविता, शायरी, कहानियां, नाटक, फिल्में, तेज बाइक चलाना सब कुछ तो था, जो मुझ जैसी फिल्मों से बेइंतहा प्रभावित और उन्हीं फिल्मों की काल्पनिक दुनिया में जीने वाली लड़की के लिए जरूरी रहा था. 36 साल का व्यक्ति 26 साल के युवक जैसा व्यवहार कर रहा है, उस के जैसा बनावशृंगार कर रहा है, इस में मुझे कुछ भी गलत नहीं लगा था उस समय. शायद 18 साल की उम्र होती ही है भ्रमों में जीने की या शायद मैं पूरी तरह सौम्य के इस भ्रमजाल में फंस चुकी थी. मम्मीपापा का कुछ भी समझाना मेरी समझ में नहीं आया.
‘‘36 साल की आयु में कहीं भी उस में गंभीरता नहीं, न संबंधोंरिश्तों को निभाने में और न ही अपनी जिम्मेदारियां निभाने में. वह तुम्हारी क्या देखभाल करेगा? कैसे रहोगी उस के साथ जीवन भर?’’ मम्मी ने समझाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन मैं तो प्रेम के खुमार में डूबी थी.
‘‘यह तो तारीफ की बात है मम्मी. हर समय मुंह लटकाए रखने की जगह अगर कोई खुशदिली से रह रहा है, तो उस में बुरा क्यों देखना? तारीफ करनी चाहिए उस की तो,’’ मैं उलटा मम्मी को ही समझाने लगती.
पापा चुपचाप अखबार पढ़ते रहते. जिस दिन पापा जबरदस्त तनाव में होते उस दिन
के अखबार में न जाने क्याक्या खोजते रहते. फिर भले ही अखबार सुबह पूरा पढ़ लिया हो.
यह देख मैं, मम्मी और मेरे दोनों छोटे भाई शालीन और कुलीन बिलकुल चुप्पी साध लेते. घर में इतनी शांति हो जाती कि केवल बीचबीच में पापा की गहरी सांसों की आवाज ही सुनाई देती.
‘‘तनाव तो सब को हो ही जाता है कभीकभी. शायद बड़ों को ज्यादा ही होता है,’’ मम्मी हमें समझातीं.
तो इस समय पापा पूरी तरह तनाव में हैं.
‘‘शालिनी,’’ पापा ने आवाज लगाई.
पापा का मुझे इस समय शालू के बजाय शालिनी कहना तो यही बताता है कि पापा हाई टैंशन में नहीं वरन सुपर हाई टैंशन में हैं.
‘‘शालिनी, मेरे सामने बैठो… मेरी बात को समझो बेटा. मैं ने पता किया है. सौम्य ठीक लड़का नहीं है. उस की पहली शादी भी प्रेमविवाह थी. फिर बीवी को मानसिक रूप से इतना प्रताडि़त किया कि उस ने आत्महत्या कर ली. बच्चों को उन के नानानानी के पास पहुंचाने के बाद पिछले 5 वर्षों में एक बार भी उन की खोजखबर लेने नहीं गया और न उन्हें कोई पैसे भेजता है. बच्चों के नानानानी को इस कदर डराधमका रखा है कि वे कोर्टकचहरी नहीं करना चाहते और बच्चों और अपनी सुरक्षा के लिए चुप रह गए हैं.
‘‘ऐसा आदमी जो अपनी पहली बीवी और अपनी ही संतान के प्रति इतना निष्ठुर हो, वह तुम्हारी क्या देखभाल करेगा? कैसे रखेगा तुम्हें? फिर तुम दोनों की उम्र में भी बहुत ज्यादा अंतर है. जीवनसाथी तो हमउम्र ही ठीक रहता है. तुम एक बार गंभीरता से सोच कर देखो. प्रेम अच्छी चीज है बेटा. लेकिन प्रेम में इस तरह अंधा हो जाना कि सचाई दिखाई ही न दे, ठीक नहीं है. बेटा, तुम्हें हम ने अच्छे स्कूलों में पढ़ाया, अच्छे संस्कार दिए. आज तुम्हारी सारी समझदारी की परीक्षा है बेटा… 1 बार नहीं 10 बार सोचो और तब निर्णय करो.’’
अपनी सारी अच्छाइयों के बावजूद पापा खुद निर्णय लेने में बेहद दृढ़ रहे हैं. बेहद कड़ाई से निर्णय लेते रहे हैं, लेकिन उस दिन मुझे समझाने में कितने कातर हुए जा रहे थे. उन की कातरता मुझे और भी उद्दंड बना रही थी. उन की किसी बात, किसी तर्क पर मैं ने एक क्षण के लिए भी ध्यान नहीं दिया. सोचनेसमझने की तो बात ही दूर थी.
मैं चिल्ला कर बोली, ‘‘मैं तो निर्णय कर चुकी हूं पापा. एक बार सोचूं या 10 बार… मेरा निर्णय यही है कि मैं सौम्य से शादी कर रही हूं. आप सब की मरजी हो तब भी और न हो तब भी,’’ मैं आपे से बाहर हुई जा रही थी.
‘‘तो मेरा भी निर्णय सुन लो. आज के बाद हमारा तुम से कोई संबंध नहीं. मैं, मेरी बीवी और मेरे दोनों बेटे शालीन और कुलीन तुम्हारे कुछ नहीं लगते और न तुम हमारी कुछ हो. जब मरूंगा तभी आना और मेरी संपत्ति से अपना हिस्सा ले कर निकल जाना. नाऊ, गैट लौस्ट,’’ पापा अपने पूरे दृढ़ रूप में आ गए थे.
मगर मैं ही कौन सा डर रही थी? दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘ओके देन. मैं आप की संपत्ति पर थूकती हूं. कभी इस घर का रुख नहीं करूंगी. बाय,’’ और मैं जोर से दरवाजा बंद कर बाहर निकल गई थी.
उसी रात हम ने मंदिर में शादी कर ली. सौम्य के 2-4 मित्रों की मौजूदगी में. अब मैं श्रीमती सौम्य थी, जिसे बहुत लाड़ से सौम्य ने ही सौम्या नाम दिया था.
शादी के कुछ दिनों बाद तक सब बहुत सुंदर था. कथा, कहानियों या कहें फिल्मों के परीलोक जैसा और फिर जल्द ही मासूम के आने की आहट सुनाई दी. मेरे लिए तो यह पहली बार मां बनने का रोमांच था, लेकिन सौम्य तो इस अनुभव से 2 बार गुजर चुके थे और उस अनुभव को कपड़े पर पड़ी धूल की तरह झाड़ चुके थे. उन्हें कोई उत्साह न होता. लेकिन मैं इसे पूरी उदारता से समझ लेती. आखिर मैं हूं ही बहुत समझदार. दूसरे के मनोविज्ञान, दूसरे के मनोभावों को खूब अच्छी तरह समझती हूं. इसलिए मां बनने के अपने उत्साह को मैं ने तनिक भी कम नहीं होने दिया.
समय पर सुंदर बेटे को जन्म दे कर खुद ही निहाल होती रही. सौम्य इस सब में कहीं भी मेरे साथ, मेरे पास नहीं थे. लेडी डाक्टर और नर्सों के साथ उन की हंसीठिठोली चलती रहती. लेकिन इस जिंदादिली की तो मैं खुद कायल थी. तो अब क्या कहती?
इधर मां के रूप में मेरी व्यस्तता बढ़ती जा रही थी उधर सौम्य बरतन साफ करने वाली बाई, मासूम की देखभाल करने वाली आया, यहां तक कि मेरी मालिश करने के लिए आने वाली, मेरा हाल पूछने आने वाली पड़ोसिनों, मेरी सहेलियों को भी अपनी जिंदादिली से भिगोए रहते. काश, थोड़ी सी यही जिंदादिली मेरे मासूम बेटे को भी मिल जाती. ‘मेरे’ इसलिए कहा, क्योंकि सौम्य ने ही कहा था कि यह सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा बच्चा है. मेरे तो पहले ही 2 बच्चे हैं, जो बेचारे मां के मरने की वजह से अपने नानानानी के पास पड़े हैं.
सौम्य का गिरगिट की तरह बदलता रंग मुझे आश्चर्यचकित कर देता. प्रेम की पींगें बढ़ाते समय तो कभी उस ने पत्नी और बच्चों का जिक्र भी नहीं किया था और अब अचानक बच्चों से इतनी ज्यादा सहानुभूति पैदा हो गई थी. बस यहीं कहीं से मेरे प्रेम का दर्पण चटकना शुरू हो गया था और दिनबदिन इस में दरारें बढ़ती जा रही थीं. शायद सब से बड़ी दरार या कहें पूरा दर्पण ही तब चकनाचूर हो गया जब मैं ने सौम्य को किसी से कहते सुना कि यह बेवकूफ औरत (मैं) अपने बाप की सारी दौलत छोड़ कर खाली हाथ मेरा माल उड़ाने चली आई. उस वक्त इस के रूप और यौवन पर फिदा हो कर मैं भी शादी करने की मूर्खता कर बैठा वरना ऐसी औरतों को बेवकूफ बना कर अपना उल्लू सीधा करना मुझे खूब आता है.
आज शादी के 8 साल बाद पेट के निचले हिस्से में दर्द होने पर जब जांच करवाई तो पता चला कि गर्भाशय में कुछ समस्या है, इसलिए उसे निकालना बेहद जरूरी है वरना कैंसर होने का खतरा है.
आज एक बार फिर मैं अस्पताल के बिस्तर पर हूं. किसे खबर करूं? मेजर औपरेशन है, लेकिन कोई ऐसा नहीं दिखता जिसे अपने पास बुला सकूं, जो सांत्वना के 2 शब्द कहे. मासूम के भोले मुखड़े को ममता से दुलारे ताकि उस की उदासी कुछ कम हो जाए. अपने पापा की विरक्ति उस से छिपी नहीं है. और मम्मी? न जाने उन्हें क्या हुआ है, क्या होने वाला है. मम्मी को कुछ हो गया तो? कहां जाएगा वह? पहले वाली मम्मी के मांबाप की तरह उस के नानानानी तो उसे रखेंगे नहीं. वे तो मम्मी से सारे संबंध तोड़ चुके हैं. नन्हे से भोले मन में कितनी दुश्चिंताएं सिर पटक रही हैं और मैं सिर्फ उस की पसीजती हथेलियों को अपनी मुट्ठी में दबा कर उसे झूठी सांत्वना देने की कोशिश ही कर पा रही हूं.
नर्स, वार्डबौय सब यमदूत की तरह घेरे हुए हैं मुझे. कोई नस खोज रहा है सूई लगाने के लिए, कोई ग्लूकोस चढ़ाने का इंतजाम कर रहा है, कोई सफाई कर रहा है. औपरेशन से पहले इतनी तैयारी हो रही है कि मेरा मन कांपा जा रहा है और सौम्य? सौम्य कहां हैं? वे बाहर खड़े बाकी नर्सों से हंसीठट्ठा कर रहे हैं.
‘‘अरे मैडम, मुझ से तो यह सब देखा ही नहीं जाता. मेरा वश चले तो मैं अस्पताल आऊं ही नहीं. लेकिन क्या किया जाए? अच्छा है कि आप लोगों जैसी सुंदरसुंदर हंसमुख परियां यहां हैं वरना तो इस नर्क में मेरा बेड़ा गर्क हो जाता. आप सब के भरोसे ही यहां हूं,’’ सौम्य की कामुक आवाज और हंसी अंदर तक आ रही थी.
‘‘चलिए मैडम, औपरेशन का समय हो गया. औपरेशन थिएटर चलना है,’’ स्ट्रेचर लिए
2 वार्डबौय हाजिर हो गए.
मैं दरवाजे की ओर देख रही हूं. शायद अब तो सौम्य अंदर आएं. उन के सामने से ही तो स्ट्रेचर अंदर आई होगी न? आंखों से आंसू भरे मासूम मुझ से लिपट गया.
‘‘अरे, मेरा बहादुर बेटा रो रहा है. मैं जल्दी बाहर आऊंगी और फिर कुछ दिनों में बिलकुल ठीक हो जाऊंगी. रोना नहीं,’’ मैं उसे सांत्वना दे रही हूं, लेकिन मुझे सांत्वना देने वाला वहां कोई नहीं है.
‘‘जल्दी कीजिए मैडम. डाक्टर साहब गुस्सा करेंगी,’’ वार्डबौय ने टोका.
‘‘हां चलिए,’’ कह मैं स्ट्रेचर पर लेट गई. बाहर भी सौम्य का कहीं अतापता न था.
‘‘भैया, मेरे पति कहां हैं?’’ मैं हकलाई.
‘‘वे सारी सिस्टर्स के लिए मिठाई लाने गए हैं. कुछ कह रहे थे… आज उन का स्वतंत्रता दिवस है… आते ही होंगे,’’ कह बेहयाई से दांत निपोरे वार्डबौय ने, लेकिन साथ ही थोड़ा धैर्य भी बंधा दिया. शायद मुझ पर दया आ गई उसे.
औपरेशन थिएटर के अंदर तो जैसे भय सा लगने लगा. अबूझ, अनाम सा भय. निराधार होता मेरा अपना वजूद. मुंह पर मास्क, सिर पर टोपी और ऐप्रन पहने डाक्टर, नर्स, वार्डबौय सभी. किसी की अलग से कोई पहचान नहीं. केवल आंखें और दस्ताने पहने हाथ. ये आंखें मुझे घूर रही हैं जैसे कुछ तोल रही हैं. ‘क्या? मेरी मूर्खता? मेरी निरीहता? मेरा अपमान? मेरा मजाक? या मेरी बीमारी? और ये दस्ताने पहने हाथ? मुझे मेरे वजूद से ही छुटकारा दिला देंगे या सिर्फ मेरी बीमारी को ही निकाल फेकेंगे? क्या सोच रही हूं मैं? मम्मीपापा, शालीन, कुलीन सब के चेहरे आंखों के सामने घूम रहे हैं.
फिर सौम्य, एक नर्स के कंधे पर हाथ टिकाए, दूसरी को समोसा खिलाता. उस की आवाज कानों को चीर रही है, ‘‘अरे, जब यूटरस ही नहीं रहा तो औरत औरत नहीं रही. और मैं? मैं तो आजाद पंछी हूं. कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर. बंध कर रहना तो मैं ने सीखा ही नहीं. आज से मैं स्वतंत्र हूं, पहले की तरह… अरे यह मैं क्या सोच रही हूं?
‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय?’ पापा, आप ने, मम्मी ने मुझे अच्छे संस्कार दिए, अच्छी परवरिश दी, अच्छे स्कूलों में पढ़ाया ताकि आप की बेटी संस्कारी बने, समझदार बने. लेकिन मैं न समझदार बनी, न ही संस्कारी. पापा, मुझे माफ कर दो, मम्मी मुझे माफ कर दो.
अरे, यह क्या हो रहा है मुझे? कहीं दूर से आवाज आ रही है, ‘‘अरे डाक्टर, ये तो बेहोश हो रही हैं, बीपी बहुत डाउन हो गया है. अभी तो ऐनेस्थीसिया दिया भी नहीं गया. ये तो खुदबखुद बेहोश हो रही हैं. डाक्टर… डाक्टर… जल्दी आइए.’’
मैं, मेरा वजूद अंधेरे में डूब गया है.