असली चेहरा: अवंतिका से क्यों नफरत करने लगी थी उसकी दोस्त

नई कालोनी में आए मुझे काफी दिन हो गए थे. किंतु समयाभाव के कारण किसी से मिलनाजुलना नहीं हो पाता था. इसी वजह से किसी से मेरी कोई खास जानपहचान नहीं हो पाई थी. स्कूल में टीचर होने के कारण मुझे घर से सुबह 8 बजे निकलना पड़ता और 3 बजे वापस आने के बाद घर के काम निबटातेनिबटाते शाम हो जाती थी. किसी से मिलनेजुलने की सोचने तक की फुरसत नहीं मिल पाती थी.

मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही अवंतिका का घर था. उस की बेटी योगिता मेरे ही स्कूल में और मेरी ही कक्षा की विद्यार्थी थी. वह योगिता को छोड़ने बसस्टौप पर आती थी. उस से मेरी बातचीत होने लगी. फिर धीरेधीरे हम दोनों के बीच एक अच्छा रिश्ता कायम हो गया. फिर शाम को अवंतिका मेरे घर भी आने लगी. देर तक इधरउधर की बातें करती रहती.

अवंतिका से मिल कर मुझे अच्छा लगता था. उस की बातचीत का ढंग बहुत प्रभावशाली था. उस के पहनावे और साजशृंगार से उस के काफी संपन्न होने का भी एहसास होता था. मैं खुश थी कि एक नई जगह अवंतिका के रूप में मुझे एक अच्छी सहेली मिल गई है.

योगिता वैसे तो पढ़ाई में ठीक थी पर अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी. जब पहले दिन मैं ने उसे डांटते हुए होमवर्क न करने का कारण पूछा, तो उस ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘‘पापा ने मम्मा को डांटा था, इसलिए मम्मा रो रही थीं और मेरा होमवर्क नहीं करा पाईं.’’

योगिता आगे भी अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी और पूछने पर कारण हमेशा मम्मापापा का झगड़ा ही बताती थी. वैसे तो मात्र एक शिक्षिका की हैसियत से घर पर मैं अवंतिका से इस बारे में बात नहीं करती पर वह चूंकि मेरी सहेली बन चुकी थी और फिर प्रश्न योगिता की पढ़ाई से भी संबंधित था, इसलिए एक दिन अवंतिका जब मेरे घर आई तो मैं ने उसे योगिता के बारबार होमवर्क न करने और उस के पीछे बताने वाले कारण का उस से उल्लेख किया. मेरी बात सुन उस की आंखों में आंसू आ गए और फिर बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप के सामने अपने घर की कमियां उजागर करूं, पर जब योगिता से आप को पता चल ही गया है हमारे झगड़े के बारे में तो आज मैं भी अपने दिल की बात कह कर अपना मन हलका करना चाहूंगी… दरअसल, मेरे पति का स्वभाव बहुत खराब है. उन की बातबात पर मुझ में कमियां ढूंढ़ने और मुझ पर चीखनेचिल्लाने की आदत है. लाख कोशिश कर लूं पर मैं उन्हें खुश नहीं रख पाती. मैं उन्हें हर तरह से बेसलीकेदार लगती हूं. आप ही बताएं आप को मैं बेसलीकेदार लगती हूं? क्या मुझे ढंग से पहननाओढ़ना नहीं आता या मेरे बातचीत का तरीका अशिष्ट है? मैं तो तंग आ गई हूं रोजरोज के झगड़े से… पर क्या करूं बरदाश्त करने के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है मेरे पास.’’

‘‘मैं तुम्हारे पति से 2-4 बार बसस्टौप पर मिली हूं. उन से मिल कर तो नहीं लगता कि वे इतने बुरे मिजाज के होंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘किसी के चेहरे से थोड़े ही उस की हकीकत का पता चल सकता है… हकीकत क्या है, यह तो उस के साथ रह कर ही पता चलता है,’’ अवंतिका बोली.

मैं ने उस की लड़ाईझगड़े वाली बात को ज्यादा महत्त्व न देते हुए कहा, ‘‘तुम ने बताया था कि तुम्हारे पति अकसर काम के सिलसिले में बाहर जाते रहते हैं… वे बाहर रहते हैं तब तो तुम्हारे पास घर के काम और योगिता की पढ़ाई दोनों के लिए काफी समय होता होगा? तुम्हें योगिता की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए.’’

‘‘किसी एक के खयाल रखने से क्या होगा? उस के पापा को तो किसी बात की परवाह ही नहीं होती. बेटी सिर्फ मेरी ही तो नहीं है? उन की भी तो है. उन्हें भी तो अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए. समय नहीं है तो न पढ़ाएं पर जब घर में हैं तब बातबात पर टोकाटाकी कर मेरा दिमाग तो न खराब करें… मैं तो चाहती हूं कि ज्यादा से ज्यादा दिन वे टूअर पर ही रहें…कम से कम घर में शांति तो रहती है.’’

अवंतिका की बातें सुन कर मेरा मन खराब हो गया. देखने में तो उस के पति सौम्य, सुशिक्षित लगते हैं, पर अंदर से कोई कैसा होगा, यह चेहरे से कहां पता चल सकता है? एक पढ़ालिखा उच्चपदासीन पुरुष भी अपने घर में कितना दुर्व्यवहार करता है, यह सोचसोच कर अवंतिका के पति से मुझे नफरत होने लगी.

अब अकसर अवंतिका अपने घर की बातें बेहिचक मुझे बताने लगी. उस की बातें सुन कर मुझे उस से सहानुभूति होने लगी कि इतनी अच्छी औरत की जिंदगी एक बदमिजाज पुरुष की वजह से कितनी दुखद हो गई… पहले जब कभी योगिता को बसस्टौप पर छोड़ने अवंतिका की जगह योगिता के पापा आते थे, तो मैं उन से हर विषय पर बात करती थी, किंतु उन की सचाई से अवगत होने के बाद मैं कोशिश करती कि उन से मेरा सामना ही न हो और जब कभी सामना हो ही जाता तो मैं उन्हें अनदेखा करने की कोशिश करती. मेरी धारणा थी कि जो इनसान अपनी पत्नी को सम्मान नहीं दे सकता उस की नजरों में दूसरी औरतों की भला क्या अहमियत होगी.

एक दिन अवंतिका काफी उखड़े मूड में मेरे पास आई और रोते हुए मुझ से कहा कि मैं 2 हजार योगिता के स्कूल टूअर के लिए अपने पास से जमा कर दूं. पति के वापस आने के बाद वापस दे देगी. चूंकि मैं योगिता की कक्षाध्यापिका थी, इसलिए मुझे पता था कि स्कूल टूअर के लिए बच्चों को 2 हजार देने हैं. अत: मैं ने अवंतिका से पैसे देने का वादा कर लिया. पर उस का रोना देख कर मैं पूछे बगैर न रह सकी कि उसे पैसे मुझ से लेने की जरूरत क्यों पड़ गई?

मेरे पूछते ही जैसे अवंतिका के सब्र का बांध टूट पड़ा. बोली, ‘‘आप को क्या बताऊं मैं अपने घर की कहानी… कैसे जिंदगी गुजार रही हूं मैं अपने पति के साथ… बिलकुल भिखारी बना कर रखा है मुझे. कितनी बार कहा अपने पति से कि मेरा एटीएम बनवा दो ताकि जब कभी तुम बाहर रहो तो मैं अपनी जरूरत पर पैसे निकाल सकूं. पर जनाब को लगता है कि मेरा एटीएम कार्ड बन गया तो मैं गुलछर्रे उड़ाने लगूंगी, फुजूलखर्च करने लगूंगी. एटीएम बनवा कर देना तो दूर हाथ में इतने पैसे भी नहीं देते हैं कि मैं अपने मन से कोई काम कर सकूं. जाते समय 5 हजार पकड़ा गए. कल 3 हजार का एक सूट पसंद आ गया तो ले लिया. 1 हजार ब्यूटीपार्लर में खत्म हो गए. रात में 5 सौ का पिज्जा मंगा लिया. अब केवल 5 सौ बचे हैं. अब देख लीजिए स्कूल से अचानक 3 हजार मांग लिए गए टूअर के लिए तो मुझे आप से मांगने आना पड़ गया… क्या करूं 2 ही रास्ते बचे थे मेरे पास या तो बेटी की ख्वाहिश का गला घोट कर उसे टूअर पर न भेजूं या फिर किसी के सामने हाथ फैलाऊं. क्या करती बेटी को रोता नहीं देख सकती, तो आप के ही पास आ गई.’’

अवंतिका की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई. अगर 2 दिन के लिए पति 5 हजार दे कर जाता है, तो वे कोई कम तो नहीं हैं पर उन्हीं 2 दिनों में पति के घर पर न होते हुए उन पैसों को आकस्मिक खर्च के लिए संभाल कर रखने के बजाय साजशृंगार पर खर्च कर देना तो किसी समझदार पत्नी के गुण नहीं हैं? शायद उस की इसी आदत की वजह से ही उस के पति एटीएम या ज्यादा पैसे एकसाथ उस के हाथ में नहीं देते होंगे, क्योंकि उन्हें पता होगा कि पैसे हाथ में रहने पर अवंतिका इन्हीं चीजों पर खर्च करती रहेगी. पर फिर भी मैं ने यह कहते हुए उसे पैसे दे दिए कि मैं कोई गैर थोड़े ही हूं, जब कभी पैसों की ऐसी कोई आवश्यकता पड़े तो कहने में संकोच न करना.

कुछ ही दिनों बाद विद्यालय में 3 दिनों की छुट्टी एकसाथ पड़ने पर मेरे पास कुछ खाली समय था, तो मैं ने सोचा कि मैं अवंतिका की इस शिकायत को दूर कर दूं कि मैं एक बार भी उस के घर नहीं आई. मैं ने उसे फोन कर के शाम को अपने आने की सूचना दे दी और निश्चित समय पर उस के घर पहुंच गई.

पर डोरबैल बजाने से पहले ही मेरे कदम ठिठक गए. अंदर से अवंतिका और उस के पति के झगड़े की आवाजें आ रही थीं. उस के पति काफी गुस्से में थे, ‘‘कितनी बार समझाया है तुम्हें कि मेरा सूटकेस ध्यान से पैक किया करो, पर तुम्हारा ध्यान पता नहीं कहां रहता है. हर बार कोई न कोई सामान छोड़ ही देती हो तुम… इस बार बनियान और शेविंग क्रीम दोनों ही नहीं रखे थे तुम ने. तुम्हें पता है कि गैस्टहाउस शहर से कितनी दूर है? दूरदूर तक दुकानों का नामोनिशान तक नहीं है. तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकती हो कि मुझे कितनी परेशानी और शर्म का सामना करना पड़ा वहां पर… इस बार तो मेरे सहयोगी ने हंसीहंसी में कह भी दिया कि भाभीजी का ध्यान कहां रहता है सामान पैक करते समय?’’

‘‘देखो, तुम 4 दिन बाद घर आए हो… आते ही चीखचिल्ला कर दिमाग न खराब करो. तुम्हें लगता है कि मैं लापरवाह और बेसलीकेदार हूं तो तुम खुद क्यों नहीं पैक कर लेते हो अपना सूटकेस या फिर अपने उस सहयोगी से ही कह दिया करो आ कर पैक कर जाया करे? मुझे क्यों आदेश देते हो?’’ यह अवंतिका की आवाज थी.

‘‘जब मुझे पहले से पता होता है कि मुझे जाना है तो मैं खुद ही तो पैक करता हूं अपना सूटकेस, पर जब औफिस में जाने के बाद पता चलता है कि मुझे जाना है तो मेरी मजबूरी हो जाती है कि मैं तुम से कहूं कि मेरा सूटकेस पैक कर के रखना. मैं तुम्हें कार्यक्रम तय होते ही सूचित कर देता हूं ताकि तुम्हें हड़बड़ी में सामान न डालना पड़े. इस बार भी मैं ने 3 घंटे पहले फोन कर दिया था तुम्हें.’’

‘‘जब तुम्हारा फोन आया था उसी समय मैं ने चेहरे पर फेस पैक लगाया था. उसे सूखने में तो समय लगता है न? जब तक वह सूखा तब तक तुम्हारा औफिस बौय आ गया सूटकेस लेने, बस जल्दी में चीजें छूट गईं. इस में मेरी इतनी गलती नहीं है जितना तुम चिल्ला रहे हो.’’

‘‘गलती छोटी है या बड़ी यह तो नतीजे पर निर्भर करता है. 3 दिन मैं ने बिना बनियान के शर्ट पहनी और अपने सहयोगी से क्रीम मांग कर शेविंग की. इस में तुम्हें न शर्म का एहसास है और न अफसोस का.’’

‘‘तुम्हें तो बस बात को तूल देने की आदत पड़ गई है. कोई दूसरा पति होता तो बीवीबच्चों से मिलने की खुशी में इन बातों का जिक्र ही नहीं करता… और तुम हो कि उसी बात को तूल दिए जा रहे हो.’’

‘‘बात एक बार की होती तो मैं भी न तूल देता, पर यह गलती तो तुम हर बार करती हो… कितनी बार चुप रहूं?’’

‘‘नहीं चुप रह सकते हो तो ले आओ कोई दूसरी जो ठीक से तुम्हारा खयाल रख सके. मुझ में तो तुम्हें बस कमियां ही कमियां नजर आती हैं.’’

टूअर पर गए पति के पास पहनने को बनियान नहीं थी, दाढ़ी करने के लिए क्रीम नहीं थी अवंतिका की गलती की वजह से. फिर भी वह शर्मिंदा होने के बजाय उलटा बहस कर रही है. कैसी पत्नी है यह? अवंतिका का असली रूप उजागर हो रहा था मेरे सामने. अंदर के माहौल को सोच कर मैं ने उलटे पांव लौट जाने में ही भलाई समझी. पर ज्यों ही मैं ने लौटने के लिए कदम बढ़ाया. अंदर से गुस्से में बड़बड़ाते उस के पति दरवाजा खोल कर बाहर निकल आए.

दरवाजे पर मुझे खड़ा देख उन के कदम ठिठक गए. बोले, ‘‘अरे, मैम आप? आप बाहर क्यों खड़ी हैं? अंदर आइए न,’’ कह कर दरवाजे के एक किनारे खड़े हो कर उन्होंने मुझे अंदर आने का इशारा किया साथ ही अवंतिका को आवाज दी, ‘‘अवंतिका देखो नेहा मैम आई हैं.’’

मुझे देखते ही अवंतिका खुश हो गई. उस के चेहरे पर कहीं भी शर्मिंदगी का एहसास न था कि कहीं मैं ने उन की बहस सुन तो नहीं ली है. किंतु उस के पति के चेहरे पर शर्मिंदगी का भाव साफ नजर आ रहा था.

अवंतिका के घर के अंदर पहुंचने से पहले ही पतिपत्नी के झगड़े को सुन खिन्न हो चुका मेरा मन अंदर पहुंच कर अवंतिका के बेतरतीब और गंदे घर को देख कर और खिन्न हो गया. अवंतिका के हर पल सजेसंवरे व्यक्तित्व के ठीक विपरीत उस का घर अकल्पनीय रूप से अस्तव्यस्त था. कीमती सोफे पर गंदे कपड़े और डाइनिंगटेबल पर जूठे बरतनों के साथसाथ कंघी और तेल जैसी वस्तुएं भी पड़ी हुई थीं. योगिता का स्कूल बैग और जूते ड्राइंगरूम में ही इधरउधर पड़े थे. आज तो स्कूल बंद था. इस का मतलब यह सारा सामान कल से ही इसी तरह पड़ा है. बैडरूम का परदा खिसका पड़ा था. अत: न चाहते हुए वहां भी नजर चली ही गई. बिस्तर पर भी कपड़ों का अंबार साफ नजर आ रहा था. ऐसा लग रहा था कि धुले कपड़ों को कई दिनों से तह कर के नहीं रखा गया. उस के घर की हालत पर अचंभित मैं सोफे पर कपड़े सरका कर खुद ही जगह बना कर बैठ गई.

‘‘आप आज हमारे घर आएंगी यह सुन कर योगिता बहुत खुश थी. बेसब्री से आप का इंतजार कर रही थी पर अभीअभी सहेलियों के साथ खेलने निकल गई है,’’ कहते हुए अवंतिका मेरे लिए पानी लेने किचन में गई तो पीछेपीछे उस के पति भी चले गए.

मुझे साफ सुनाई दिया वे कह रहे थे, ‘‘जब तुम्हें पता था कि मैम आने वाली हैं तब तो घर को थोड़ा साफ कर लिया होता…क्या सोच रही होंगी वे घर की हालत देख कर?’’

‘‘मैम कोई मेहमान थोड़े ही हैं… कुछ भी नहीं सोचेंगी… तुम उन की चिंता न

करो और जरा जल्दी से चायपत्ती और कुछ खाने को लाओ,’’ कह उस ने पति को दुकान पर भेज दिया.

उस के घर पहुंच कर मुझे झटके पर झटका लगता जा रहा था. मैं अवंतिका की गृहस्थी चलाने का ढंग देख कर हैरान हो रही थी. 2 दिन पहले ही अवंतिका मेरे घर से चायपत्ती यह कह कर लाई थी कि खत्म हो गई है और तब से आज तक खरीद कर नहीं लाई? बारबार कहने और बुलाने के बाद आज पूर्व सूचना दे कर मैं आई हूं फिर भी घर में चाय के साथ देने के लिए बिस्कुट तक नहीं?

उस के पति के जाने के बाद मैं ने सोचा कि अकेले बैठने से अच्छा है अवंतिका के साथ किचन में ही खड़ी हो जाऊं. पर किचन में पहुंचते ही वहां जूठे बरतनों का अंबार देख और अजीब सी दुर्गंध से घबरा कर वापस ड्राइंगरूम में आ कर बैठने में ही भलाई समझी.

मेरा मन बुरी तरह उचट चुका था. मैं समझ गई थी कि अवंतिका उन औरतों में से है, जिन के लिए बस अपना साजशृंगार ही महत्त्वपूर्ण होता है. घर के काम और व्यवस्था से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं होता और उन पर कोई उंगली न उठा पाए, इस के लिए वे सब के सामने अपने को बेबस और लाचार सिद्ध करती रहती हैं और सारा दोष अपने पति के मत्थे मढ़ देती हैं. उस के घर आने के अपने निर्णय पर मुझे अफसोस होने लगा था. हर समय सजीसंवरी दिखने वाली अवंतिका के घर की गंदगी में घुटन होने लगी थी. चाय के कप पर जमी गंदगी को अनदेखा कर जल्दीजल्दी चाय का घूंट भर कर मैं वहां से निकल ली.

वहां से वापस आ कर मेरी सोच पलट गई. उस के घर की तसवीर मेरे सामने स्पष्ट हो गई थी. अवंतिका उन औरतों में से थी, जो अपनी कमियों को छिपाने के लिए अपने पति को दूसरों के सामने बदनाम करती हैं. अवंतिका के पति एक सौम्य, सुशिक्षित और सलीकेदार व्यक्ति थे. निश्चित ही वे घर को सुव्यवस्थित और आकर्षक ढंग से सजाने के शौकीन होंगे तभी तो अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने घर में कीमती फर्नीचर, परदों और शो पीस पर खर्च किया था. पर उन के रखरखाव और देखभाल की जिम्मेदारी तो अवंतिका की ही होगी. पर अवंतिका के स्वभाव में घर की सफाई और सुव्यवस्था शामिल नहीं थी. इसी वजह से उस के पति नाखुश और असंतुष्ट हो कर उस पर अपनी खीज उतारते होंगे.

सुबहसवेरे घर छोड़ कर काम पर गए पतियों के लिए घर एक आरामगाह होता है. वहां के लिए शाम को औफिस से छूटते ही पति ठीक उसी तरह भागते हैं जैसे स्कूल से छूटते ही छोटे बच्चे भागते हैं. बाहर की आपाधापी, भागदौड़ से थका पति घर पहुंच कर अगर साफसुथरा घर और शांत माहौल पाता है, तो उस की सारी थकान और तनाव खत्म हो जाता है. पर अवंतिका के अस्तव्यस्त घर में पहुंच कर तो किसी को भी सुकून का एहसास नहीं हो सकता है. जिस घर के कोनेकोने में नकारात्मकता विद्यमान हो वहां रहने वालों को सुकून और शांति कैसे मिल सकती है?

सुबह से शाम तक औफिस में खटता पति अपनी पत्नी के ही हाथों दूसरों के बीच बदनाम होता रहता है. अवंतिका के घर से निकलते वक्त मेरी धारणा पलट चुकी थी. अब मेरे अंदर उस के पति के लिए सम्मान और सहानुभूति थी और अवंतिका के लिए नफरत.

गुरु दक्षिणा: राधा से क्या दक्षिणा चाहता था स्वामी

आश्रम का यह सब से बड़ा कार्यक्रम होता था. जब तक बड़े बाबा थे तब तक ज्यादा भीड़ नहीं होती थी. उन्हें यह तामझाम करना नहीं आता था. छोटेमोटे चढ़ावे और एक प्रौढ़ सी नौकरानी से उन की जिंदगी कट गई थी. पर उन के बाद आश्रम से जो लोग जुड़े थे, उन का स्वार्थ भी इस से जुड़ना शुरू हो गया था. ‘‘गुरु पूर्णिमा का पर्व तो मनाना ही चाहिए,’’ रामगोविंद ने सलाह दी, ‘‘दशपुर के आश्रम में अयोध्या के एक युवा संत आए हैं, उन से निवेदन किया जाए तो अच्छा रहेगा.’’

रामगोविंद की सलाह पर आश्रम वाले प्रज्ञानंद को बुला लाए थे. आश्रम के भक्तजनों का निमंत्रण वे अस्वीकार नहीं कर पा रहे थे. यही तय हुआ कि माह में कुछ दिन के लिए प्रज्ञानंद इधर आते रहेंगे. इस बार विशेष तैयारियां होनी शुरू हो गई थीं. गांव के प्रधान ने पंचायत समिति के प्रधान को जा कर समझाया था कि यह चुनाव का वर्ष है, अभी से सक्रिय होना होगा. कार्ड आदि सामान 15 दिन पहले पहुंचाना है. इस से भीड़ बढ़ जाएगी.

‘‘भंडारे का खर्चा?’’ पंचायत समिति के प्रधान ने पूछा तो गांव के प्रधान ने कहा था, ‘‘देखो, इस प्रकार के कार्यक्रम में जो भी आता है वह अपनी श्रद्धा से खर्च करता है. भंडारे में सेब, पूरी, सब्जी, बस ज्यादा खर्चा नहीं होगा. हिसाब बाद में होता रहेगा.’’ ‘‘स्वामीजी का खर्चा?’’

‘‘वे तो हम को ही देंगे. चढ़ावे में जो भी आएगा उस का आधा उन का होगा आधा हमारा,’’ गांव के प्रधान ने कहा, ‘‘पिछली बार हम ने 60 प्रतिशत लिया था, जो भेंट होगी, बड़े महाराजजी की तसवीर की होगी, लोग उन्हें भेंट चढ़ाएंगे, वह थाली में रखी रहेगी. वहीं रामगोविंद रहेंगे, वे सारा हिसाब रख लेंगे, बाद में हम बैठ कर जोड़ लगा लेंगे. आप तो बस, मंत्रीजी को आने को कहें.’’ 2 दिन पहले से आश्रम में अखंड रामायण का पाठ शुरू हो चुका था. दूरदूर से भक्त आने लगे थे. इस बार स्वामी प्रज्ञानंद ने बड़े चित्र, जिस में शिव शंकर और स्वामी शंकराचार्य के साथ उन की भी तसवीर थी, गांवगांव बंटवा दिए थे. बहुत बड़ा सा एक पोस्टर आश्रम के दरवाजे पर भी लगा हुआ था.

मास्टर रामचंद्र ने पोस्टर देख कर चौंकते हुए कहा, ‘‘यह क्या, शिव और आदि शंकराचार्य के साथ स्वामी प्रज्ञानंद, क्या यह शिव का पोता है?’’

‘‘चुप करो,’’ उन की पत्नी ने टोकते हुए कहा, ‘‘तुम हर जगह कुतर्क ले आते हो. यह भी नहीं देखते कि ये लोग कितना काम कर रहे हैं, इन्होंने तो कोई चेला, शिष्य नहीं बनाया, ये तो समिति के लोग हैं जो स्वामीजी को ले आते हैं और उत्सव हो जाता है.’’ तब तक नील कोठी से आने वाली बस आ गई थी. औरतें अपनेअपने थैले, अटैचियां ले कर उतरीं. उतरते ही भजन शुरू हो गया. तेज स्वर के साथ सुरबेसुर सभी एकसाथ थे.

‘‘देखदेख, ये बाबा से कहने गए हैं कि हम आ गए हैं,’’ जानकी बहन ने कहा. ‘‘नहींनहीं, ये तो रसोई में बताने गए हैं कि गरम चाय बना दो, हम आ गए हैं,’’ नंदा ने धीरे से कहा.

‘‘चुप कर, लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे,’’ नंदा की मां ने बेटी को टोका. शहर के जानेमाने सेठ भी 2-3 बार वहां आ चुके थे. हर बार की तरह इस बार भी भंडारे की सामग्री उन की दुकान से ही आ रही थी. वे भी जानते थे कि न तो यहां सामान तुलता है न कहीं कोई क्वालिटी देखी जाती है. दानेदार चीनी के भाव में यहां सल्फर की बोरियां आराम से खप जाती हैं. वनस्पति घी की भी 50 किस्में हैं, नुकसान का अंदेशा दूरदूर तक नहीं था.

तभी जीप आ कर रुकी. उस में से स्वामीजी का शिष्य भास्कर नीचे उतरा. उस ने अपनी जेब से एक परचा निकाल कर पंचायत समिति के मानमलजी को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘स्वामीजी ने दिया है. कृपया पढ़ लें.’’ मानमलजी ने परचा पढ़ा और बोले, ‘‘यार, तुम्हीं ले आते, रुपए हम दे देते. महाराज ने फलों के साथ बिसलरी का पानी भी लिखा है, जो यहां मिलता नहीं. खैर, यहां से गाड़ी जाएगी, जो भी होगा, देखेंगे.’’

भास्कर ने फिर गंभीर मुद्रा में कहा, ‘‘महाराज के साथ मथुरा के ठाकुरजी भी आ रहे हैं. महाराज चाहते हैं, यहां कभी रासलीला भी हो, भागवत का पाठ भी, ये उन्हीं के लिए है.’’ ‘‘हां, वे भंडारे का प्रसाद भी तो खाते होंगे,’’ बूढ़े मास्टर रामचंद्रजी चीखे.

‘‘चुप करो,’’ मानमलजी को गुस्सा आ गया था, ‘‘बूढ़ों के साथ यही दिक्कत है.’’ बात आईगई हो गई. सामने सड़क पर दूसरी बस, जो मालता से आई थी, आ कर रुकी. तभी 4-5 कारें, दशपुर से भी आ गईं.

‘‘मैं चलता हूं,’’ मानमलजी बोले, ‘‘महाराज तो कल 11 बजे आएंगे… सुबह हमारे यहां भी कार्यक्रम है.’’ सुबह से ही अतिथियों का आना शुरू हो गया था. लगभग 7 से 10 हजार स्त्रीपुरुष जमा होंगे, इस बार तो गांवगांव जीप घुमाई गई थी. सत्संग और फिर भंडारा, भंडारे के नाम पर भीड़ अच्छी- खासी आ जाती है. संयोजकजी मोबाइल से बारबार स्वामीजी से संपर्क साध रहे थे और माइक पर कहते जा रहे थे, ‘‘थोड़ी देर में स्वामीजी हमारे बीच में होंगे, तब तक हम कार्यक्रम प्रारंभ करते हैं.’’

संयोजकजी ने माइक से घोषणा की कि बड़े बाबा के जमाने से रामचंद्रजी इस आश्रम से जुड़े हैं. वे संक्षेप में अपनी बात कहें, क्योंकि थोड़ी ही देर में स्वामी प्रज्ञानंदजी हमारे बीच में होंगे…अभी और भी श्रोताओं को बोलना है. अचानक दौड़ती कारें आश्रम के प्रांगण में आ कर रुकीं तो आयोजक लोग हाथ में मालाएं ले कर तेजी से उस ओर दौड़े.

‘‘विलंब के लिए क्षमा चाहता हूं,’’ स्वामीजी ने अपने दंड के साथ कार से नीचे उतरते हुए कहा. उन के साथ आए लोग भी उन के पीछेपीछे चल दिए.

‘‘आइए, ठाकुरजी, यह भी अब अपना ही आश्रम है,’’ स्वामी प्रज्ञानंद बोले, ‘‘आप की भागवत की यहां बहुत चर्चा है. आप समय निकालें तो यहां भी भागवत कथा हो जाए.’’

आयोजक समिति के सदस्य स्वामीजी का संकेत पा चुके थे और उद्घोषक ने माइक पर भागवत कथा का महत्त्वपूर्ण समाचार दे दिया. जनजन तक पहुंचाने के लिए आह्वान भी कर दिया. श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट से इस का स्वागत किया. कहा जाता है कि कलियुग में भागवत कथा के श्रवण मात्र से सारे पाप धुल जाते हैं. स्वामीजी कह रहे थे, ‘‘आज गुरु- पूर्णिमा है. गुरु साक्षात शिव के अवतार होते हैं. गुरु का पूरा शरीर ब्रह्म का शरीर है.’’

भाषण के बाद भीड़ खड़ी हो गई. उद्घोषक गुरुपूजा के लिए पंक्ति बना कर आने को कह रहा था. स्वामीजी ने परात में अपने पांव रखे तो बिसलरी के जल को लोटों में लिया गया, क्योंकि कुएं के पानी से स्वामीजी के पांव में इन्फैक्शन होने का डर जो था. पांव धोए गए, चरणामृत अलग से जमा किया गया…फिर उस में पांव के जल को मिला दिया गया. अब चरणामृत को कार्यकर्ता चम्मच से सभी के दाएं हाथ में दे रहे थे और उस के लिए भी धक्का- मुक्की शुरू हो चुकी थी.

फिर स्वामीजी के पैर के नाखून पर रोली लगा कर पूजा करते हुए दक्षिणा देने का कार्यक्रम शुरू हुआ. उद्घोषक कह रहा था, ‘‘स्वामीजी दक्षिणा नहीं लेते, पर सपने में गुरु महाराज ने कहा है कि दक्षिणा जो दी जाती है, उस का दसगुना भक्तों को वापस हो जाता है, यह परंपरा है. आप स्वेच्छा से जो भी देना चाहें, दें, गुरुकृपा से आप को इस का कई गुना मिलता रहेगा, गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु… गुरु साक्षात परब्रह्म…’’ माइक पर मंत्रों का पाठ भी हो रहा था. बड़ी मुश्किल से कामता प्रसाद को स्वामीजी से मिलने का मौका मिला.

‘‘अरे, आप भी यहां आए हैं?’’ स्वामीजी बोले, ‘‘हां, राधाजी तो दिखी थीं, वे तो पूजा के लिए आ गई थीं पर आप कहां रह गए?’’ ‘‘जी, मैं भी यहीं था.’’

‘‘अच्छाअच्छा, ध्यान नहीं गया. रात को आप लोग कमरे में आ जाना, वहां रामगोविंद हैं, वे सब व्यवस्था कर देंगे.’’ संध्या को ही दोनों तैयार हो गए थे. निर्देशानुसार राधा ने गुलाबी रंग की सिल्क की साड़ी और हरे रंग की चूडि़यां पहन रखी थीं. राधा की शादी हुए 7 साल हो गए थे, पर पुत्र सुख नहीं मिला था. पड़ोसिन नंदा ने कहा था कि पूजा होती है, करवा ले. सुना है प्रज्ञानंद से पूजा करवाने पर बहुतों को पुत्र लाभ मिला है. कोई बाधा हो तो हट जाती है. तभी कामता प्रसाद ने स्वामीजी से संपर्क किया था और उन्होंने आज का दिन बताया था.

कामता प्रसाद जब वहां पहुंचे तो उन्हें कमरे के भीतर ले जाया गया. रामगोविंद ने सारी पूजा की सामग्री रख दी. सामने तसवीर के पास एक कद्दू रखा था. सामने की चौकी पर हलदी, रोली, चावल की अनेक आकृतियां बनी हुई थीं. ‘‘आप पहले आएंगे, पूजा होगी, ध्यान होगा, फिर भाभीजी आएंगी, बाद में उन की अलग से भी पूजा होगी,’’ रामगोविंद ने बताया.

कामता प्रसाद तो अपनी पूजा कर के बाहर के कमरे में आ गए. तब भीतर से आवाज आई और राधा को बुलाया गया. राधा भीतर गई. उस ने स्वामी प्रज्ञानंद को प्रणाम किया. कमरे में बाबा ही अकेले थे, वे आंखें बंद किए संस्कृत में श्लोक पढ़ते जा रहे थे, राधा सामने बैठी थी. अचानक प्रज्ञानंद की आंखें खुलीं, दृष्टि सीधी राधा के वक्षस्थल से होती हुई उस की पूरी देह पर फैल गई. राधा सिहर उठी. उसे लगा, कहीं कुछ गलत तो नहीं हो रहा है. स्वामीजी ने फिर आंखें बंद कर लीं, फिर पंचपात्र में से छोटी तांबे की चम्मच से जल निकाल कर स्वामीजी ने राधा की दाईं हथेली पर रखा और बोले, ‘‘आचमन कर लो.’’

‘नहीं, नहीं, राधा, नहीं,’ जैसे उस के भीतर से कोई बोला हो. राधा ने उंगलियों को थोड़ा सा खोल दिया और जल बह गया. उस ने आचमन के लिए अंजलि को होंठों से लगाया फिर हाथ नीचे रख लिया.

‘‘एक बार और,’’ मंत्र पढ़ते हुए स्वामीजी ने जल उस की हथेली पर रखा. इस बार आंखें उस के शरीर पर एक्सरे की किरण की तरह बढ़ रही थीं. उस ने पहले की तरह वहीं जल गिराया और उठना चाहा.

‘‘आप कहां चलीं. पूजा को बीच में छोड़ते नहीं,’’ स्वामी प्रज्ञानंद ने उठ कर उसे पकड़ना चाहा. उन का हाथ राधा की कमर से होते हुए उस की छातियों पर आ चुका था. ‘‘हट, पापी,’’ कहते हुए राधा का हाथ तेजी से प्रज्ञानंद के गाल पर पड़ा और वह चीखी.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ,’’ बोलता रामगोविंद भीतर की ओर दौड़ा. वह किवाड़ बंद करना चाह रहा था लेकिन तब तक राधा किवाड़ को धक्का देती हुई पास के कमरे में पहुंच गई थी. उस की साड़ी खुल गई थी. उस ने उसे तेजी से ठीक किया और बाहर की ओर दौड़ पड़ी. ‘‘कहां हैं ये, कहां हैं ये…’’ राधा चीख रही थी.

‘‘साहब तो अपने कमरे की तरफ गए हैं,’’ किसी ने बताया. राधा तेजी से कामता के कमरे की तरफ दौड़ी. उस के पीछे और भी लोग जो आश्रम में थे, आ गए थे.

कमरे में कामता प्रसाद गहरी नींद में सो रहे थे. अचेत थे. ‘‘रात को जागरण हुआ था, दिनभर कार्यक्रम में थे, थक गए हैं, ऐसी गहरी नींद तो भाग्यवानों को ही आती है,’’ पीछे से आवाज आई.

‘‘जब जग जाएं तब पूजा कर आना, आश्रम का दरवाजा तो हमेशा खुला रहता है,’’ एक सलाह आई.

राधा ने जलती आंखों से उसे देखा और बोली, ‘‘अपनी सलाह अपने पास रख, यह स्वर्ग तुझे ही मुबारक हो,’’ फिर उस ने सामने पानी से भरी बालटी उठाई और कामता के माथे पर उड़ेल दी. पानी की तेज धार से कामता की नींद खुल गई. ‘‘क्या हुआ?’’ वह बोला.

‘‘कुछ नहीं, तुम इतनी गहरी नींद में सो कैसे गए?’’ राधा बोली. ‘‘स्वामीजी ने जो जल दिया था उस का आचमन करते ही मुझे झपकी आनी शुरू हो गई थी, मुझ से वहां बैठा ही नहीं गया, इसलिए उठ कर चला आया. तुम पूजा कर आईं?’’ कामता ने पूछा.

‘‘हां, अच्छी तरह पूजा हो गई है, तुम इस नरक से जल्दी बाहर चलो.’’ कामता प्रसाद कुछ समझ नहीं पा रहे थे. राधा ने तेजी से अपनी अटैची उठाई और गीले कपड़ों में ही पति का हाथ पकड़े आश्रम के अहाते से बाहर निकल गई.

उधर स्वामी प्रज्ञानंद अब बाहर तख्त पर आ कर बैठ गए थे. महिलाएं उन के पांव दबाने के लिए प्रतीक्षारत थीं. ‘‘गुरुपूजा पर गुरु का पाद सेवन का पुण्य वर्षों की साधना से मिलता है,’’ रामगोविंद सब को समझा रहा था.

बाबा की निगाहें अपनी गाड़ी की ओर बढ़ती राधा पर टंगी हुई थीं. उन का दायां हाथ बारबार अपने गाल पर चला जाता जहां अब हलकी सूजन आ गई थी.

अमेरिकन बेटा: डेविड ने कैसे दिखाया अपना प्यार

रीता एक दिन अपनी अमेरिकन मित्र ईवा से मिलने उस के घर गई थी, रीता भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक थी. वह अमेरिका के टैक्सास राज्य के ह्यूस्टन शहर में रहती थी. रीता का जन्म अमेरिका में ही हुआ था. जब वह कालेज में थी, उस की मां का देहांत हो गया था. उस के पिता कुछ दिनों के लिए भारत आए थे, उसी बीच हार्ट अटैक से उन की मौत हो गई थी. रीता और ईवा दोनों बचपन की सहेलियां थीं. दोनों की स्कूल और कालेज की पढ़ाई साथ हुई थी. रीता की शादी अभी तक नहीं हुई थी जबकि ईवा शादीशुदा थी. उस का 3 साल का एक बेटा था डेविड. ईवा का पति रिचर्ड अमेरिकन आर्मी में था और उस समय अफगानिस्तान युद्ध में गया था.

शाम का समय था. ईवा ने ही फोन कर रीता को बुलाया था. शनिवार छुट्टी का दिन था. रीता भी अकेले बोर ही हो रही थी. दोनों सखियां गप मार रही थीं. तभी दरवाजे पर बूटों की आवाज हुई और कौलबैल बजी. अमेरिकन आर्मी के 2 औफिसर्स उस के घर आए थे. ईवा उन को देखते ही भयभीत हो गई थी, क्योंकि घर पर फुल यूनिफौर्म में आर्मी वालों का आना अकसर वीरगति प्राप्त सैनिकों की सूचना ही लाता है. वे डेविड की मृत्यु का संदेश ले कर आए थे और यह भी कि शहीद डेविड का शव कल दोपहर तक ईवा के घर पहुंच जाएगा. ईवा को काटो तो खून नहीं. उस का रोतेरोते बुरा हाल था. अचानक ऐसी घटना की कल्पना उस ने नहीं की थी. रीता ने ईवा को काफी देर तक गले से लगाए रखा. उसे ढांढ़स बंधाया, उस के आंसू पोंछे. इस बीच ईवा का बेटा डेविड, जो कुछ देर पहले कार्टून देख रहा था, भी पास आ गया. रीता ने उसे भी अपनी गोद में ले लिया. ईवा और रिचर्ड दोनों के मातापिता नहीं थे. उन के भाईबहन थे. समाचार सुन कर वे भी आए थे, पर अंतिम क्रिया निबटा कर चले गए. उन्होंने जाते समय ईवा से कहा कि किसी तरह की मदद की जरूरत हो तो बताओ, पर उस ने फिलहाल मना कर दिया था.

ईवा जौब में थी. वह औफिस जाते समय बेटे को डेकेयर में छोड़ जाती और दोपहर बाद उसे वापस लौटते वक्त पिक कर लेती थी. इधर, रीता ईवा के यहां अब ज्यादा समय बिताती थी, अकसर रात में उसी के यहां रुक जाती. डेविड को वह बहुत प्यार करती थी, वह भी ईवा से काफी घुलमिल गया था. इस तरह 2 साल बीत गए. इस बीच रीता की जिंदगी में प्रदीप आया, दोनों ने कुछ महीने डेटिंग पर बिताए, फिर शादी का फैसला किया. प्रदीप भी भारतीय मूल का अमेरिकन था और एक आईटी कंपनी में काम करता था. रीता और प्रदीप दोनों ही ईवा के घर अकसर जाते थे.

कुछ महीनों बाद ईवा बीमार रहने लगी थी. उसे अकसर सिर में जोर का दर्द, चक्कर, कमजोरी और उलटी होती थी. डाक्टर्स को ब्रेन ट्यूमर का शक था. कुछ टैस्ट किए गए. टैस्ट रिपोर्ट्स लेने के लिए ईवा के साथ रीता और प्रदीप दोनों गए थे. डाक्टर ने बताया कि ईवा का ब्रेन ट्यूमर लास्ट स्टेज पर है और वह अब चंद महीनों की मेहमान है. यह सुन कर ईवा टूट चुकी थी, उस ने रीता से कहा, ‘‘मेरी मृत्यु के बाद मेरा बेटा डेविड अनाथ हो जाएगा. मुझे अपने किसी रिश्तेदार पर भरोसा नहीं है. क्या तुम डेविड के बड़ा होने तक उस की जिम्मेदारी ले सकती हो?’’ रीता और प्रदीप दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगे. उन्होंने ऐसी परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. तभी ईवा बोली, ‘‘देखो रीता, वैसे कोई हक तो नहीं है तुम पर कि डेविड की देखभाल की जिम्मेदारी तुम्हें दूं पर 25 वर्षों से

हम एकदूसरे को भलीभांति जानते हैं. एकदूसरे के सुखदुख में साथ रहे हैं, इसीलिए तुम से रिक्वैस्ट की.’’ दरअसल, रीता प्रदीप से डेटिंग के बाद प्रैग्नैंट हो गई थी और दोनों जल्दी ही शादी करने जा रहे थे. इसलिए इस जिम्मेदारी को लेने में वे थोड़ा झिझक रहे थे. तभी प्रदीप बोला, ‘‘ईवा, डोंट वरी. हम लोग मैनेज कर लेंगे.’’

ईवा ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘थैंक्स डियर. रीता क्या तुम एक प्रौमिस करोगी?’’ रीता ने स्वीकृति में सिर हिलाया और ईवा से गले लगते हुए कहा, ‘‘तुम अब डेविड की चिंता छोड़ दो. अब वह मेरी और प्रदीप की जिम्मेदारी है.’’

ईवा बोली, ‘‘थैंक्स, बोथ औफ यू. मैं अपनी प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स की पावर औफ अटौर्नी तुम दोनों के नाम कर दूंगी. डेविड के एडल्ट होने तक इस की देखभाल तुम लोग करोगे. तुम्हें डेविड के लिए पैसों की चिंता नहीं करनी होगी, प्रौमिस.’’ रीता और प्रदीप ने प्रौमिस किया. और फिर रीता ने अपनी प्रैग्नैंसी की बात बताते हुए कहा, ‘‘हम लोग इसीलिए थोड़ा चिंतित थे. शादी, प्रैग्नैंसी और डेविड सब एकसाथ.’’

ईवा बोली, ‘‘मुबारक हो तुम दोनों को. यह अच्छा ही है डेविड को एक भाई या बहन मिल जाएगी.’’ 2 सप्ताह बाद रीता और प्रदीप ने शादी कर ली. डेविड तो पहले से ही रीता से काफी घुलमिल चुका था. अब प्रदीप भी उसे काफी प्यार करने लगा था. ईवा ने छोटे से डेविड को समझाना शुरू कर दिया था कि वह अगर बहुत दूर चली जाए, जहां से वह लौट कर न आ सके, तो रीता और प्रदीप के साथ रहना और उन्हें परेशान मत करना. पता नहीं डेविड ईवा की बातों को कितना समझ रहा था, पर अपना सिर बारबार हिला कर हां करता और मां के सीने से चिपक जाता था.

3 महीने के अंदर ही ईवा का निधन हो गया. रीता ने ईवा के घर को रैंट पर दे कर डेविड को अपने घर में शिफ्ट करा लिया. शुरू के कुछ दिनों तक तो डेविड उदास रहता था, पर रीता और प्रदीप दोनों का प्यार पा कर धीरेधीरे नौर्मल हो गया.

रीता ने एक बच्चे को जन्म दिया. उस का नाम अनुज रखा गया. अनुज के जन्म के कुछ दिनों बाद तक ईवा उसी के साथ व्यस्त रही थी. डेविड कुछ अकेला और उदास दिखता था. रीता ने उसे अपने पास बुला कर प्यार किया और कहा, ‘‘तुम्हारे लिए छोटा भाई लाई हूं. कुछ ही महीनों में तुम इस के साथ बात कर सकोगे और फिर बाद में इस के साथ खेल भी सकते हो.’’ रीता और प्रदीप ने डेविड की देखभाल में कोई कमी नहीं की थी. अनुज भी अब चलने लगा था. घर में वह डेविड के पीछेपीछे लगा रहता था. डेविड के खानपान व रहनसहन पर भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप थी. शुरू में तो वह रीता को रीता आंटी कहता था, पर बाद में अनुज को मम्मी कहते देख वह भी मम्मी ही कहने लगा था. शुरू के कुछ महीनों तक डेविड की मामी और चाचा उस से मिलने आते थे, पर बाद में उन्होंने आना बंद कर दिया था.

डेविड अब बड़ा हो गया था और कालेज में पढ़ रहा था. रीता ने उस से कहा कि वह अपना बैंक अकाउंट खुद औपरेट किया करे, लेकिन डेविड ने मना कर दिया और कहा कि आप की बहू आने तक आप को ही सबकुछ देखना होगा. रीता भी डेविड के जवाब से खुश हुई थी. अनुज कालेज के फाइनल ईयर में था. 3 वर्षों बाद डेविड को वेस्टकोस्ट, कैलिफोर्निया में नौकरी मिली. वह रीता से बोला, ‘‘मम्मी, कैलिफोर्निया तो दूसरे छोर पर है. 5 घंटे तो प्लेन से जाने में लग जाते हैं. आप से बहुत दूर चला जाऊंगा. आप कहें तो यह नौकरी जौइन ही न करूं. इधर टैक्सास में ही ट्राई करता हूं.’’

रीता ने कहा, ‘‘बेटे, अगर यह नौकरी तुम्हें पसंद है तो जरूर जाओ.’’ प्रदीप ने भी उसे यही सलाह दी. डेविड के जाते समय रीता बोली, ‘‘तुम अब अपना बैंक अकाउंट संभालो.’’

डेविड बोला ‘‘क्या मम्मी, कुछ दिन और तुम्हीं देखो यह सब. कम से कम मेरी शादी तक. वैसे भी आप का दिया क्रैडिट कार्ड तो है ही मेरे पास. मैं जानता हूं मुझे पैसों की कमी नहीं होगी.’’ रीता ने पूछा कि शादी कब करोगे तो वह बोला, ‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी कैलिफोर्निया की ही है. यहां ह्यूस्टन में राइस यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई थी. वह भी अब कैलिफोर्निया जा रही है.’’

रीता बोली, ‘‘अच्छा बच्चू, तो यह राज है तेरे कैलिफोर्निया जाने का?’’ डेविड बोला, ‘‘नो मम्मी, नौट ऐट औल. तुम ऐसा बोलोगी तो मैं नहीं जाऊंगा. वैसे, मैं तुम्हें सरप्राइज देने वाला था.’’

‘‘नहीं, तुम कैलिफोर्निया जाओ, मैं ने यों ही कहा था. वैसे, तुम क्या सरप्राइज देने वाले हो.’’ ‘‘मेरी गर्लफ्रैंड भी इंडियन अमेरिकन है. मगर तुम उसे पसंद करोगी, तभी शादी की बात होगी.’’

रीता बोली, ‘‘तुम ने नापतोल कर ही पसंद किया होगा, मुझे पूरा भरोसा है.’’ इसी बीच अनुज भी वहां आया. वह बोला, ‘‘मैं ने देखा है भैया की गर्लफ्रैंड को. उस का नाम प्रिया है. डेविड और प्रिया दोनों को लाइब्रेरी में अनेक बार देर तक साथ देखा है. देखनेसुनने में बहुत अच्छी लगती है.’’

डेविड कैलिफोर्निया चला गया. उस के जाने के कुछ महीनों बाद ही प्रदीप का सीरियस रोड ऐक्सिडैंट हो गया था. उस की लोअर बौडी को लकवा मार गया था. वह अब बिस्तर पर ही था. डेविड खबर मिलते ही तुरंत आया. एक सप्ताह रुक कर प्रदीप के लिए घर पर ही नर्स रख दी. नर्स दिनभर घर पर देखभाल करती थी और शाम के बाद रीता देखती थीं.

रीता को पहले से ही ब्लडप्रैशर की शिकायत थी. प्रदीप के अपंग होने के कारण वह अंदर ही अंदर बहुत दुखी और चिंतित रहती थी. उसे एक माइल्ड अटैक भी पड़ गया, तब डेविड और प्रिया दोनों मिलने आए थे. रीता और प्रदीप दोनों ने उन्हें जल्द ही शादी करने की सलाह दी. वे दोनों तो इस के लिए तैयार हो कर ही आए थे.

शादी के बाद रीता ने डेविड को उस की प्रौपर्टी और बैंक डिपौजिट्स के पेपर सौंप दिए. डेविड और प्रिया कुछ दिनों बाद लौट गए थे. इधर अनुज भी कालेज के फाइनल ईयर में था. पर रीता और प्रदीप दोनों ने महसूस किया कि डेविड उतनी दूर रह कर भी उन का हमेशा खयाल रखता है, जबकि उन का अपना बेटा, बस, औपचारिकताभर निभाता है. इसी बीच, रीता को दूसरा हार्ट अटैक पड़ा, डेविड इस बार अकेले मिलने आया था. प्रिया प्रैग्नैंसी के कारण नहीं आ सकी थी. रीता को 2 स्टेंट हार्ट के आर्टरी में लगाने पड़े थे, पर डाक्टर ने बताया था कि उस के हार्ट की मसल्स बहुत कमजोर हो गई हैं. सावधानी बरतनी होगी. किसी प्रकार की चिंता जानलेवा हो सकती है. रीता ने डेविड से कहा, ‘‘मुझे तो प्रदीप की चिंता हो रही है. रातरात भर नींद नहीं आती है. मेरे बाद इन का क्या होगा? अनुज तो उतना ध्यान नहीं देता हमारी ओर.’’

डेविड बोला, ‘‘मम्मी, अनुज की तुम बिलकुल चिंता न करो. तुम को भी कुछ नहीं होगा, बस, चिंता छोड़ दो. चिंता करना तुम्हारे लिए खतरनाक है. आप, आराम करो.’’ कुछ महीने बाद थैंक्सगिविंग की छुट्टियों में डेविड और प्रिया रीता के पास आए. साथ में उन का 4 महीने का बेटा भी आया. रीता और प्रदीप दोनों ही बहुत खुश थे. इसी बीच रीता को मैसिव हार्ट अटैक हुआ. आईसीयू में भरती थी. डेविड, प्रिया और अनुज तीनों उस के पास थे. डाक्टर बोल गया कि रीता की हालत नाजुक है. डाक्टर ने मरीज से बातचीत न करने को भी कहा.

रीता ने डाक्टर से कहा, ‘‘अब अंतिम समय में तो अपने बच्चों से थोड़ी देर बात करने दो डाक्टर, प्लीज.’’ फिर रीता किसी तरह डेविड से बोल पाई, ‘‘मुझे अपनी चिंता नहीं है. पर प्रदीप का क्या होगा?’’ डेविड बोला, ‘‘मम्मी, तुम चुप रहो. परेशान मत हो.’’ वहीं अनुज बोला, ‘‘मम्मा, यहां अच्छे ओल्डएज होम्स हैं. हम पापा को वहां शिफ्ट कर देंगे. हम लोग पापा से बीचबीच में मिलते रहेंगे.’’

ओल्डएज होम्स का नाम सुनते ही रीता की आंखों से आंसू गिरने लगे. उसे अपने बेटे से बाप के लिए ऐसी सोच की कतई उम्मीद नहीं थी. उस की सांसें और धड़कन काफी तेज हो गईं. डेविड अनुज को डांट रहा था, प्रिया ने कहा, ‘‘मम्मी, जब से आप की तबीयत बिगड़ी है, हम लोग भी पापा को ले कर चिंतित हैं. हम लोगों ने आप को और पापा को कैलिफोर्निया में अपने साथ रखने का फैसला किया है. वहां आप लोगों की जरूरतों के लिए खास इंतजाम कर रखा है. बस, आप यहां से ठीक हो कर निकलें, बाकी आगे सब डेविड और मैं संभाल लेंगे.’’

रीता ने डेविड और प्रिया दोनों को अपने पास बुलाया, उन के हाथ पकड़ कर कुछ कहने की कोशिश कर रही थी, उस की सांसें बहुत तेज हो गईं. अनुज दौड़ कर डाक्टर को बुलाने गया. इस बीच रीता किसी तरह टूटतीफूटती बोली में बोली, ‘‘अब मुझे कोई चिंता नहीं है. चैन से मर सकूंगी. मेरा प्यारा अमेरिकन बेटा.’’ इस के आगे वह कुछ नहीं बोल सकी. जब तक अनुज डाक्टर के साथ आया, रीता की सांसें रुक चुकी थीं. डाक्टर ने चैक कर रहा, ‘‘शी इज नो मोर.’’

अलौकिक प्रेम- क्यूं दूर हुए गौरव और सुषमा

कुछदिनों से सुषमा के मन में उथलपुथल मची हुई थी. अपने आत्मीय से नाता तोड़ लेना उस के अंतर्मन को छलनी कर गया था. उस के बाद उस ने मौन धारण कर लिया था. हालांकि वह जानती थी यह मौन बहुत घातक होगा उस के लिए, लेकिन वह गहरे अवसाद में घिर गई थी. उस के डाक्टर ने कह दिया था जब तक वह नहीं चाहेगी वे उसे ठीक नहीं कर पाएंगे. सुषमा को देख कर लगता था वह ठीक होना ही नहीं चाहती है. उस का मन आज बेहद उदास था. उस की आंखों से नींद गायब थी. अचानक जाने क्या हुआ उस ने अपने 4 साल से बंद याहू मेल को खोला.

एक के बाद एक मेल वह पढ़ती गई, तो उस की यादों की परतें खुलती गईं. उसे ऐसा लग रहा था जैसे कल की बात हो जब उस ने सोशल नैटवर्किंग जौइन किया था. उस वक्त बड़ा उत्साह था उस में. रोज नएनए चेहरे जुड़ते. उन से बातें होतीं फिर वह उन्हें बाहर कर देती. लेकिन कुछ दिनों से एक चेहरा ऐसा था जो अकसर उस के साथ चैट पर होता. पहला परिचय ही काफी दमदार था उस का. ‘‘हे, आई एम डाक्टर गौरव. 28 इयर्स ओल्ड, जानवरों का डाक्टर हूं. 2 बार आईएएस का प्री और मेन निकाला है, लेकिन इंटरव्यू में रह गया. पर अभी हारा नहीं हूं. पीसीएस बन कर रहूंगा. फिलहाल एक कोचिंग सैंटर में आईएएस की कोचिंग में पढ़ाता हूं और जल्दी ही अपना कोचिंग सैंटर खोलने वाला हूं.’’

अवाक सी रह गई थी सुषमा. उस ने बस यह लिखा, ‘‘आई एम सुषमा.’’

‘‘बड़ा खूबसूरत है आप का नाम. आप जानती हैं सुषमा का क्या मीनिंग होता है?’’

‘‘मालूम है मीनिंग. आप को बताने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘हाहाहा, बड़ी खतरनाक हैं आप. आई लाइक इट. वैसे क्या पसंद है आप को?’’

‘‘पढ़नालिखना और आप को?’’

‘‘पढ़नालिखना मुझे भी बहुत पसंद है. नहीं पढ़ूंगा तो 2 वक्त की रोटी नहीं मिलेगी. कोचिंग सैंटर में स्टूडैंट बहुत दिमाग खाते हैं. उन्हें समझाने के लिए खुद भी बहुत पढ़ना पड़ता है, यार.’’

‘‘हे, यार किसे कहा?’’

‘‘तुम्हें और किसे.’’

‘‘तुम नहीं आप कहिए मिस्टर गौरव.’’

‘‘ओके झांसी की रानी, इतना गुस्सा.’’

मन ही मन हंस पड़ी थी सुषमा. उस के बाद कुछ दिनों तक वह व्यस्त रही. फिर एक दिन जैसे ही औनलाइन हुई, उधर से मैसेज मिला, ‘‘हे, गौरव हियर, हाऊ आर यू?’’

‘‘आप को और कुछ काम नहीं है क्या? वहीं खाते, पीते और सोते हैं क्या आप?’’

‘‘हाहाहा, सारा काम नैट से ही होता है मेरा और आप ने कितना इंतजार करवाया. कहां थीं आप इतने दिन?’’

‘‘आप से मतलब और भी काम हैं हमारे.’’

‘‘ओकेओके झांसी की रानी. कोई बात नहीं, लेकिन कभीकभार आ जाया कीजिए. आप से 2 बातें कर के मन को सुकून मिलता है.’’ जाने क्यों आज सुषमा ने उस की बातों में संजीदगी महसूस की.

‘‘गौरव, क्या हुआ है. आज आप कुछ उदास हैं?’’

‘‘हां सुषमा, कुछ दिनों से घर में टैंशन चल रही है.’’

‘‘ओह किस बात पर?’’

‘‘घर के लोग चाहते हैं कि मैं कोई जौब कर लूं या अपना क्लिनिक खोल लूं. जबकि मेरा सपना है प्रशासनिक अधिकारी बनने का. रोजरोज इस बात पर घर में कलह होता है. समझ में नहीं आता कि हम क्या करें?’’

‘‘इतना परेशान मत होइए आप. सब ठीक हो जाएगा. खुद पर भरोसा रखिए. आप का सपना जरूर पूरा होगा.’’

‘‘सुषमा, आप की इन बातों से हमें बहुत बल मिलता है. आप हमारी अच्छी दोस्त बनोगी? हम बुरे इंसान नहीं हैं.’’

‘‘हम दोस्त तो हैं गौरव. यह अच्छा और बुरा क्या होता है?’’

‘‘हाहाहा, कैसे समझाऊं आप को. अच्छा, एक छोटा सा फेवर चाहिए मुझे.’’

‘‘क्या?’’

‘‘डरो नहीं आप, जान नहीं मांग रहे हैं हम आप से.’’

‘‘फिर भी बताओ क्या चाहिए आप को मुझ से?’’

‘‘बस इतना कि आप हमारी बात सुन लिया कीजिए. बड़े अकेले हैं हम. घर में मौमडैड हैं जिन्हें सिर्फ पैसा चाहिए. जबकि घर में पैसे की कमी नहीं है. बड़ा भाई अपनी पसंद से शादी कर के हैदराबाद में सैटल्ड है. उस का घर आना वर्जित कर दिया गया है. किसी को फुरसत नहीं है मेरी बात सुनने की.’’ ‘‘ठीक है गौरव, लेकिन दोस्ती में कभी मर्यादा तोड़ने की कोशिश मत करना.’’ ‘‘ओके, कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगा आप को. अब तो तुम कह सकता हूं न?’’

‘‘तुम भी न गौरव, ठीक है कह सकते हो.’’ उस दिन से दोस्ती और गहरी होने लगी थी. जब भी वक्त मिलता सुषमा औनलाइन आती और गौरव से ढेरों बातें करती. हफ्ते में 1 दिन संडे को वे जरूर बात करते. गौरव बड़ा होनहार था. पढ़नेपढ़ाने वाला. उस की बातों में हमेशा शालीनता बनी रहती. और अब वह उसे सुषमा नहीं सु कह कर बुलाने लगा था. कहता था, ‘‘बड़ा लंबा नाम है, मैं तो सु कहूंगा तुम्हें.’’ ‘‘ओके गौरव.’’

एक दिन सुषमा ने कहा, ‘‘गौरव, तुम मेरे बारे में क्या जानते हो?’’

‘‘तुम ने कभी बताया ही नहीं.’’

‘‘और तुम ने पूछा भी नहीं.’’ ‘‘हां नहीं पूछा क्योंकि तुम मेरी दोस्त हो और दोस्ती किसी बात की मुहताज नहीं होती. सच कुछ भी हो दोस्ती हमेशा बनी रहेगी.’’ नाज हो आया था सुषमा को गौरव की दोस्ती पर. लेकिन आज वह यह सोच कर आई थी कि गौरव को अपने जीवन का हर सच बता देगी.

‘‘गौरव…’’

‘‘हां सु.’’

‘‘गौरव…’’

‘‘बोलो न सु, किस बात से परेशान हो आज? जो मन में हो कह दो.’’

‘‘सच जान कर दोस्ती तो नहीं तोड़ोगे?’’

‘‘हाहाहा, मैं प्राण जाए पर वचन न जाए वाला आदमी हूं, अब बताओ.’’

‘‘गौरव, आई एम मैरिड.’’

‘‘हाहाहा, बस इतनी सी बात. मैरिड होना कोई पाप नहीं है. सु, जब तुम मेरी दोस्त बनी थीं तब तुम भी कुछ नहीं जानती थीं मेरे बारे में. आज तुम्हारा मान और बढ़ गया है मेरी नजरों में.’’ सच में आज सुषमा को भी अभिमान हो आया था खुद पर. अब गौरव उस का सब से अच्छा दोस्त था. हफ्ते में 1 दिन वे चैट पर मिलते और उस दिन गौरव के पास बातों का खजाना होता. गौरव का जन्मदिन आने वाले था. सुषमा ने अपने हाथ से उस के लिए कार्ड डिजाइन किया और 19 जुलाई को रात 12 बजे उसे कार्ड मेल किया. गौरव उस वक्त औनलाइन था. बहुत खुश हुआ और अचानक बोला, ‘‘सु, एक बात बोलूं?’’

‘‘नहीं, मत बोलो गौरव.’’

‘‘हाहाहा, अरे मुझे कहनी है यार.’’

‘‘तो कहो न, मुझ से पूछा क्यों? मेरे मना करने से क्या नहीं कहोगे?’’

‘‘सु, मुझे आज एक गिफ्ट चाहिए तुम से.’’

‘‘क्या गिफ्ट गौरव? पहले कहते तो भेज देती तुम्हें.’’

‘‘अरे वह गिफ्ट नहीं.’’

‘‘साफसाफ बोलो गौरव, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘सु, हमारी दोस्ती को पूरा 1 साल हो चुका है. तुम्हारी आवाज नहीं सुनी अब तक. प्लीज, आज अपनी आवाज सुना दो मुझे.’’

‘‘ठीक है गौरव, अपना नंबर दो. कल शाम को काल करूंगी तुम्हें.’’

‘‘थैंक्स सु. कल मैं शाम होने का इंतजार करूंगा.’’ बड़े असमंजस में थी सुषमा कि काल करे या नहीं. गौरव इंतजार करता होगा. अंत में मन की जीत हुई. शाम को उस ने गौरव को काल किया तो वह बहुत खुश हुआ. ‘‘सु, तुम ने आज मुझे जिंदगी का सब से बड़ा गिफ्ट दिया है. तुम्हारी आवाज को मैं ने अपने मनमस्तिष्क में सहेज लिया है.’’

‘‘गौरव, क्या बोलते रहते हो तुम?’’

‘‘सच कह रहा हूं, सु.’’

उस दिन के बाद उन की फोन पर भी बातें होने लगीं. एक दिन शाम को 8 बजे गौरव का फोन आया, ‘‘सु, सुनो न.’’

‘‘हां गौरव, क्या हुआ? ये तुम्हारी आवाज क्यों लड़खड़ा रही है?’’

‘‘सु. मैं शराब पी रहा हूं अपने दोस्तों के साथ.’’

‘‘गौरव, तुम पागल हो गए हो क्या? घर जाओ अपने.’’ ‘‘ओके. अब कल सुबह बात करना मुझ से,’’ फिर फोन काट दिया था. वह जानती थी कि सुबह तक गौरव का गुस्सा शांत हो जाएगा और वह खुद ही अपने घर चला जाएगा. और ऐसा ही हुआ.

उन की दोस्ती को पूरे 2 साल होने वाले थे. दोनों को एकदूसरे का इंतजार रहता.

एक दिन गौरव ने कहा, ‘‘सु, एक बात कहूं?’’

‘‘नहीं गौरव.’’

‘‘मुझे कहनी है, सु.’’

‘‘फिर पूछते क्यों हो?’’

‘‘ऐसे ही. अच्छा लगता है जब तुम मना करती हो और मैं फिर भी पूछता हूं.’’

‘‘पूछो क्या पूछना है?’’

‘‘सु, इन दिनों मैं तुम्हारे बारे में बहुत सोचने लगा हूं. हैरान हूं इस बात से कि मुझे क्या हो रहा है?’’ ‘‘कुछ नहीं हुआ है गौरव, हम बहुत बातें करते हैं न, इसलिए तुम्हें ऐसा लगता है.’’

‘‘नहीं सु, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘कह दो, मना करने पर भी कहोगे ही न?’’

‘‘सु.’’

‘‘हां गौरव बोलो.’’

‘‘मुझे प्यार हो गया है.’’

‘‘बधाई हो गौरव. कौन है वह?’’

‘‘सु, तुम नाराज हो जाओगी.’’

‘‘ओके मत बताओ, मैं जा रही हूं.’’

‘‘सु रुको न, मुझे तुम से प्यार हो गया है. जानता हूं तुम बुरा मान जाओगी, लेकिन एक बात बताओ क्या तुम मुझे रोक सकती हो प्यार करने से? नहीं न? मेरा मन है तुम मत करना मुझ से प्यार.’’ ‘‘गौरव, तुम पागल हो गए हो. तुम जानते हो मेरी सीमाओं को. तुम्हें यह सोचना भी नहीं चाहिए था. यह तो पाप है गौरव.’’ ‘‘मेरा प्यार पाप नहीं है, सु. मैं ने कभी तुम्हें गलत नजर से नहीं देखा है. यह प्यार पवित्र व निस्वार्थ है. सु, तुम से नहीं कहूंगा अपना प्यार स्वीकार करने को.’’

‘‘गौरव, प्लीज मुझे कमजोर मत बनाओ.’’

‘‘सु, तुम कमजोर नहीं हो. तुम्हारा गौरव तुम्हें कभी कमजोर नहीं बनने देगा.’’ एक लंबी चुप्पी के बाद सुषमा ने बात वहीं खत्म कर दी और इस के बाद कई दिनों तक उस ने गौरव से बात नहीं की. लेकिन कब तक? मन ही मन तो वह भी गौरव से प्यार करने लगी थी. एक दिन उस ने खुद गौरव को फोन किया, ‘‘गौरव कैसे हो?’’

‘‘जिंदा हूं सु. मरूंगा नहीं इतनी जल्दी.’’

‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन.’’

‘‘हाहाहा सु, मुझे विश्वास था कि तुम लौट आओगी मेरे पास.’’ ‘‘हां गौरव लौट आई हूं अपनी सीमाएं तोड़ कर, लेकिन कभी गलत काम न हो हम से.’’ ‘‘मुझ पर यकीन रखो मैं तुम्हें कभी शर्मिंदा नहीं होने दूंगा.’’ प्रेम की मौन स्वीकृति पर दोनों बहुत खुश थे. एक दिन बातों ही बातों में सुषमा ने पूछ लिया, ‘‘गौरव, तुम्हारी लाइफ में कोई और भी है क्या?’’ ‘‘अब सिर्फ तुम हो सु. मैडिकल कालेज, हैदराबाद में थी एक लड़की. हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद जब मैं दिल्ली वापस आ गया तो उस के मांबाप ने उस की शादी कर दी.’’ उस दिन बात यहीं खत्म हो गई. एक दिन गौरव बड़ा परेशान था.

‘‘क्या हुआ गौरव?’’ सुषमा ने पूछा.

‘‘सु, घर वाले शादी की जिद कर रहे हैं. आज शाम को लड़की देखने जाना है.’’

‘‘अरे तो जाओ न गौरव, इस में परेशान होने की क्या बात है?’’

‘‘मेरे घर वालों को दहेज चाहिए सु और इस के लिए वे कोई भी लड़की मेरे पल्ले बांध देंगे.’’ ‘‘तुम जाओ तो सही फिर बताना कैसी है लड़की?’’

‘‘तुम कह रही हो तो जाता हूं.’’ शाम को गौरव का गुस्से से भरा फोन आया, ‘‘तुम ने ही जिद की वरना मैं नहीं जाता. लड़की कंपनी सेक्रेटरी है. खुद को जाने क्या समझ रही थी. मना कर आया हूं मैं.’’

‘‘शांत हो जाओ गौरव, कोई और अच्छी लड़की मिल जाएगी.’’ गौरव के घर वाले शादी के लिए जोर डाल रहे थे. सुषमा जानती थी गौरव की परेशानी को, लेकिन चुप रही. एक दिन वह बोली, ‘‘गौरव, सुनो न.’’

‘‘हां कहो, सु.’’

‘‘राधा और किशन का प्रेम कैसा था?’’

‘‘सु, वह अलौकिक प्रेम था. राधाकिशन का दैहिक नहीं आत्मिक मिलन हुआ था.’’ ‘‘गौरव, मुझे राधाकिशन का प्रेम आकर्षित करता है.’’

‘‘तो आज से तुम मेरी राधा हुईं, सु.’’

सुषमा थोड़ी देर चुप रही फिर बोली, ‘‘गौरव…’’

‘‘हां सु, क्या मैं ने कुछ गलत कहा? तुम चुप क्यों हो गई हो?’’

सुषमा चुप ही रही. 19 जुलाई आने वाली थी. वह इस बार भी गौरव को कुछ खास तोहफा देना चाहती थी. उस ने राधाकिशन का एक कार्ड बनाया और गौरव को अपनी शुभकामनाएं दीं. अपने नाम की जगह उस ने लिखा राधागौरव. कार्ड देख कर पागल हो गया गौरव. बहुत खुश था वह इसलिए फोन पर रोता रहा फिर बोला, ‘‘राधे, आज तुम ने मेरे नाम के साथ अपना नाम जोड़ कर मुझे सब से अनमोल गिफ्ट दिया है. अब कुछ नहीं चाहिए मुझे. यह किशन सिर्फ तुम्हारा है.’’ गौरव के लिए लड़की पसंद कर ली गई थी. जैसेजैसे गौरव की शादी का दिन पास आ रहा था, सुषमा बहुत परेशान रहने लगी थी. उसे डर था उन का रिश्ता कहीं गौरव की नई जिंदगी में दुख न घोल दे.

‘‘गौरव, शादी के बाद तुम मुझ से बात मत करना,’’ एक दिन वह बोली.

‘‘क्यों नहीं करूंगा सु, तुम से बात नहीं हुई तो मैं मर जाऊंगा.’’ नहीं गौरव, ऐसा मत कहो. तुम अपनी पत्नी को बहुत प्यार देना. कभी कोई दुख न देना. तुम चिंता मत करो सु, तुम्हारा गौरव कभी तुम्हें शर्मिंदा नहीं करेगा. गौरव की शादी हो गई. गौरव के घर वालों को खूब सारा दहेज और गौरव को एक अच्छी पत्नी मिल गई. गौरव ने अपनी पत्नी को सुषमा के बारे में सब कुछ बता दिया, तो वह इस बात से खफा रहने लगी. जब भी गौरव चैट पर होता, वह गुस्सा हो जाती. गौरव ने सुषमा को सब बताया. सुषमा का मन बड़ा दुखी हुआ. अब वह खुद भी गौरव से कटने लगी.

‘‘सु, क्या हो गया है तुम्हें, मुझ से बात क्यों नहीं करती हो?’’ एक दिन गौरव बोला.

‘‘गौरव, मैं व्यस्त थी.’’

‘‘नहीं, तुम झूठ बोल रही हो, तुम्हारी आवाज से मैं समझता हूं.’’ गौरव की जिंदगी में खुशियां लाने के लिए सुषमा ने मन ही मन एक फैसला कर लिया. उस ने गौरव को एक मेल किया और कहा, ‘‘गौरव वक्त आ गया है हमारे अलग होने का. किशन भी तो गए थे राधा से दूर, लेकिन उन का प्रेम जन्मजन्मांतर के लिए अमर हो गया. आज यह राधा भी दूर जाने का फैसला कर बैठी है. कोई सवाल मत करना तुम, तुम्हें कसम है मेरे प्यार की. और हां, काल मत करना. मैं ने अपना नंबर बदल दिया है. आज से ये मेल भी बंद हो जाएगी. अब तुम्हें अपनी पत्नी के साथ अपना घरसंसार बसाना है.

-तुम्हारी राधा.’’

मन पर पत्थर रख कर सुषमा ने गौरव से बना ली थीं. आज 3 साल बाद याहू मेल को खोला तो देखा, गौरव ने हर हफ्ते उसे मेल किया था.

‘‘सु, मैं बाप बनने वाला हूं, तुम खुश हो न?’’ ‘‘सु, मैं ने राजस्थान पीसीएस क्लियर कर लिया है. मेरी आंखों से तुम ने जो सपना देखा था वह पूरा हो गया, सु.’’ ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं सु, मेरा बेटा हुआ है. मैं ने उस का नाम मोहित रखा है. तुम्हें पसंद था न मोहित नाम?’’

सु…ये..सु वो.. इन 3 सालों में जाने कितने मेल किए थे गौरव ने. सुषमा यह देख कर हैरान रह गई. 2 दिन पहले का मेल था, ‘‘सु, याद है तुम ने कहा था कि जब तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी हो जाएंगी, तुम मेरे साथ ताजमहल देखने जाओगी. मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं.’’ होंठों पर मीठी सी मुसकराहट आ गई सुषमा के आंखों के आगे. कौंध गया 30 साल बाद का वह दृश्य. वह जर्जर बूढ़ी काया वाली हो गई है और गौरव का हाथ थामे ताजमहल के सामने खड़ी है. और, गौरव सु, ‘देखो ये है ताजमहल. प्रेम की अनमोल धरोहर, प्रेम की शाश्वत तसवीर,’ कह रहा है. वह मजबूती से गौरव का हाथ थामे अलौकिक प्रेम को आत्मसात होते देख रही है.

Women’s Day 2024: बोया पेड़ बबूल का…- शालिनी को कैसे हुआ छले जाने का आभास

‘‘तुम्हेंमालूम है चिल्लाते समय तुम बिलकुल जंगली बिल्ली लगती हो. बस थोड़ा बालों को फैलाने की कमी रह जाती है,’’ सौम्य दांत किटकिटा कर चिल्लाया.

‘‘और तुम? कभी अपनी शक्ल देखी है आईने में? चिल्लाचिल्ला कर बोलते समय पागल कुत्ते से लगते हो.’’

यह हम दोनों का असली रूप था, जो अब किसी भी तरह परदे में छिपने को तैयार नहीं था. बस हमारे मासूम बेटे के बाहर जाने की देर होती. फिर वह चाहे स्कूल जाए या क्रिकेट खेलने. पहला काम हम दोनों में से कोई भी एक यह कर देता कि खूब तेज आवाज में गाने बजा देता और फिर उस से भी तेज आवाज में हम लड़ना शुरू कर देते. कारण या अकारण ही. हां, सब के सामने हम अब भी आदर्श पतिपत्नी थे. शायद थे, क्योंकि कितनी ही बार परिचितों, पड़ोसियों की आंखों में एक कटाक्ष, एक उपहास सा कौंधता देखा है मैं ने.

मैं ने और सौम्य ने प्रेमविवाह किया था. मैं मात्र 18 वर्ष की थी और सौम्य का 36वां साल चल रहा था. वे अपनी पहली पत्नी को एक दुर्घटना में गंवा चुके थे और 2 बच्चों को उन के नानानानी के हवाले कर जीवन को पूरी शिद्दत और बेबाकी से जी रहे थे. मस्ती, जोश, फुरतीलापन, कविता, शायरी, कहानियां, नाटक, फिल्में, तेज बाइक चलाना सब कुछ तो था, जो मुझ जैसी फिल्मों से बेइंतहा प्रभावित और उन्हीं फिल्मों की काल्पनिक दुनिया में जीने वाली लड़की के लिए जरूरी रहा था. 36 साल का व्यक्ति 26 साल के युवक जैसा व्यवहार कर रहा है, उस के जैसा बनावशृंगार कर रहा है, इस में मुझे कुछ भी गलत नहीं लगा था उस समय. शायद 18 साल की उम्र होती ही है भ्रमों में जीने की या शायद मैं पूरी तरह सौम्य के इस भ्रमजाल में फंस चुकी थी. मम्मीपापा का कुछ भी समझाना मेरी समझ में नहीं आया.

‘‘36 साल की आयु में कहीं भी उस में गंभीरता नहीं, न संबंधोंरिश्तों को निभाने में और न ही अपनी जिम्मेदारियां निभाने में. वह तुम्हारी क्या देखभाल करेगा? कैसे रहोगी उस के साथ जीवन भर?’’ मम्मी ने समझाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन मैं तो प्रेम के खुमार में डूबी थी.

‘‘यह तो तारीफ की बात है मम्मी. हर समय मुंह लटकाए रखने की जगह अगर कोई खुशदिली से रह रहा है, तो उस में बुरा क्यों देखना? तारीफ करनी चाहिए उस की तो,’’ मैं उलटा मम्मी को ही समझाने लगती.

पापा चुपचाप अखबार पढ़ते रहते. जिस दिन पापा जबरदस्त तनाव में होते उस दिन

के अखबार में न जाने क्याक्या खोजते रहते. फिर भले ही अखबार सुबह पूरा पढ़ लिया हो.

यह देख मैं, मम्मी और मेरे दोनों छोटे भाई शालीन और कुलीन बिलकुल चुप्पी साध लेते. घर में इतनी शांति हो जाती कि केवल बीचबीच में पापा की गहरी सांसों की आवाज ही सुनाई देती.

‘‘तनाव तो सब को हो ही जाता है कभीकभी. शायद बड़ों को ज्यादा ही होता है,’’ मम्मी हमें समझातीं.

तो इस समय पापा पूरी तरह तनाव में हैं.

‘‘शालिनी,’’ पापा ने आवाज लगाई.

पापा का मुझे इस समय शालू के बजाय शालिनी कहना तो यही बताता है कि पापा हाई टैंशन में नहीं वरन सुपर हाई टैंशन में हैं.

‘‘शालिनी, मेरे सामने बैठो… मेरी बात को समझो बेटा. मैं ने पता किया है. सौम्य ठीक लड़का नहीं है. उस की पहली शादी भी प्रेमविवाह थी. फिर बीवी को मानसिक रूप से इतना प्रताडि़त किया कि उस ने आत्महत्या कर ली. बच्चों को उन के नानानानी के पास पहुंचाने के बाद पिछले 5 वर्षों में एक बार भी उन की खोजखबर लेने नहीं गया और न उन्हें कोई पैसे भेजता है. बच्चों के नानानानी को इस कदर डराधमका रखा है कि वे कोर्टकचहरी नहीं करना चाहते और बच्चों और अपनी सुरक्षा के लिए चुप रह गए हैं.

‘‘ऐसा आदमी जो अपनी पहली बीवी और अपनी ही संतान के प्रति इतना निष्ठुर हो, वह तुम्हारी क्या देखभाल करेगा? कैसे रखेगा तुम्हें? फिर तुम दोनों की उम्र में भी बहुत ज्यादा अंतर है. जीवनसाथी तो हमउम्र ही ठीक रहता है. तुम एक बार गंभीरता से सोच कर देखो. प्रेम अच्छी चीज है बेटा. लेकिन प्रेम में इस तरह अंधा हो जाना कि सचाई दिखाई ही न दे, ठीक नहीं है. बेटा, तुम्हें हम ने अच्छे स्कूलों में पढ़ाया, अच्छे संस्कार दिए. आज तुम्हारी सारी समझदारी की परीक्षा है बेटा… 1 बार नहीं 10 बार सोचो और तब निर्णय करो.’’

अपनी सारी अच्छाइयों के बावजूद पापा खुद निर्णय लेने में बेहद दृढ़ रहे हैं. बेहद कड़ाई से निर्णय लेते रहे हैं, लेकिन उस दिन मुझे समझाने में कितने कातर हुए जा रहे थे. उन की कातरता मुझे और भी उद्दंड बना रही थी. उन की किसी बात, किसी तर्क पर मैं ने एक क्षण के लिए भी ध्यान नहीं दिया. सोचनेसमझने की तो बात ही दूर थी.

मैं चिल्ला कर बोली, ‘‘मैं तो निर्णय कर चुकी हूं पापा. एक बार सोचूं या 10 बार… मेरा निर्णय यही है कि मैं सौम्य से शादी कर रही हूं. आप सब की मरजी हो तब भी और न हो तब भी,’’ मैं आपे से बाहर हुई जा रही थी.

‘‘तो मेरा भी निर्णय सुन लो. आज के बाद हमारा तुम से कोई संबंध नहीं. मैं, मेरी बीवी और मेरे दोनों बेटे शालीन और कुलीन तुम्हारे कुछ नहीं लगते और न तुम हमारी कुछ हो. जब मरूंगा तभी आना और मेरी संपत्ति से अपना हिस्सा ले कर निकल जाना. नाऊ, गैट लौस्ट,’’ पापा अपने पूरे दृढ़ रूप में आ गए थे.

मगर मैं ही कौन सा डर रही थी? दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘ओके देन. मैं आप की संपत्ति पर थूकती हूं. कभी इस घर का रुख नहीं करूंगी. बाय,’’ और मैं जोर से दरवाजा बंद कर बाहर निकल गई थी.

उसी रात हम ने मंदिर में शादी कर ली. सौम्य के 2-4 मित्रों की मौजूदगी में. अब मैं श्रीमती सौम्य थी, जिसे बहुत लाड़ से सौम्य ने ही सौम्या नाम दिया था.

शादी के कुछ दिनों बाद तक सब बहुत सुंदर था. कथा, कहानियों या कहें फिल्मों के परीलोक जैसा और फिर जल्द ही मासूम के आने की आहट सुनाई दी. मेरे लिए तो यह पहली बार मां बनने का रोमांच था, लेकिन सौम्य तो इस अनुभव से 2 बार गुजर चुके थे और उस अनुभव को कपड़े पर पड़ी धूल की तरह झाड़ चुके थे. उन्हें कोई उत्साह न होता. लेकिन मैं इसे पूरी उदारता से समझ लेती. आखिर मैं हूं ही बहुत समझदार. दूसरे के मनोविज्ञान, दूसरे के मनोभावों को खूब अच्छी तरह समझती हूं. इसलिए मां बनने के अपने उत्साह को मैं ने तनिक भी कम नहीं होने दिया.

समय पर सुंदर बेटे को जन्म दे कर खुद ही निहाल होती रही. सौम्य इस सब में कहीं भी मेरे साथ, मेरे पास नहीं थे. लेडी डाक्टर और नर्सों के साथ उन की हंसीठिठोली चलती रहती. लेकिन इस जिंदादिली की तो मैं खुद कायल थी. तो अब क्या कहती?

इधर मां के रूप में मेरी व्यस्तता बढ़ती जा रही थी उधर सौम्य बरतन साफ करने वाली बाई, मासूम की देखभाल करने वाली आया, यहां तक कि मेरी मालिश करने के लिए आने वाली, मेरा हाल पूछने आने वाली पड़ोसिनों, मेरी सहेलियों को भी अपनी जिंदादिली से भिगोए रहते. काश, थोड़ी सी यही जिंदादिली मेरे मासूम बेटे को भी मिल जाती. ‘मेरे’ इसलिए कहा, क्योंकि सौम्य ने ही कहा था कि यह सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा बच्चा है. मेरे तो पहले ही 2 बच्चे हैं, जो बेचारे मां के मरने की वजह से अपने नानानानी के पास पड़े हैं.

सौम्य का गिरगिट की तरह बदलता रंग मुझे आश्चर्यचकित कर देता. प्रेम की पींगें बढ़ाते समय तो कभी उस ने पत्नी और बच्चों का जिक्र भी नहीं किया था और अब अचानक बच्चों से इतनी ज्यादा सहानुभूति पैदा हो गई थी. बस यहीं कहीं से मेरे प्रेम का दर्पण चटकना शुरू हो गया था और दिनबदिन इस में दरारें बढ़ती जा रही थीं. शायद सब से बड़ी दरार या कहें पूरा दर्पण ही तब चकनाचूर हो गया जब मैं ने सौम्य को किसी से कहते सुना कि यह बेवकूफ औरत (मैं) अपने बाप की सारी दौलत छोड़ कर खाली हाथ मेरा माल उड़ाने चली आई. उस वक्त इस के रूप और यौवन पर फिदा हो कर मैं भी शादी करने की मूर्खता कर बैठा वरना ऐसी औरतों को बेवकूफ बना कर अपना उल्लू सीधा करना मुझे खूब आता है.

आज शादी के 8 साल बाद पेट के निचले हिस्से में दर्द होने पर जब जांच करवाई तो पता चला कि गर्भाशय में कुछ समस्या है, इसलिए उसे निकालना बेहद जरूरी है वरना कैंसर होने का खतरा है.

आज एक बार फिर मैं अस्पताल के बिस्तर पर हूं. किसे खबर करूं? मेजर औपरेशन है, लेकिन कोई ऐसा नहीं दिखता जिसे अपने पास बुला सकूं, जो सांत्वना के 2 शब्द कहे. मासूम के भोले मुखड़े को ममता से दुलारे ताकि उस की उदासी कुछ कम हो जाए. अपने पापा की विरक्ति उस से छिपी नहीं है. और मम्मी? न जाने उन्हें क्या हुआ है, क्या होने वाला है. मम्मी को कुछ हो गया तो? कहां जाएगा वह? पहले वाली मम्मी के मांबाप की तरह उस के नानानानी तो उसे रखेंगे नहीं. वे तो मम्मी से सारे संबंध तोड़ चुके हैं. नन्हे से भोले मन में कितनी दुश्चिंताएं सिर पटक रही हैं और मैं सिर्फ उस की पसीजती हथेलियों को अपनी मुट्ठी में दबा कर उसे झूठी सांत्वना देने की कोशिश ही कर पा रही हूं.

नर्स, वार्डबौय सब यमदूत की तरह घेरे हुए हैं मुझे. कोई नस खोज रहा है सूई लगाने के लिए, कोई ग्लूकोस चढ़ाने का इंतजाम कर रहा है, कोई सफाई कर रहा है. औपरेशन से पहले इतनी तैयारी हो रही है कि मेरा मन कांपा जा रहा है और सौम्य? सौम्य कहां हैं? वे बाहर खड़े बाकी नर्सों से हंसीठट्ठा कर रहे हैं.

‘‘अरे मैडम, मुझ से तो यह सब देखा ही नहीं जाता. मेरा वश चले तो मैं अस्पताल आऊं ही नहीं. लेकिन क्या किया जाए? अच्छा है कि आप लोगों जैसी सुंदरसुंदर हंसमुख परियां यहां हैं वरना तो इस नर्क में मेरा बेड़ा गर्क हो जाता. आप सब के भरोसे ही यहां हूं,’’ सौम्य की कामुक आवाज और हंसी अंदर तक आ रही थी.

‘‘चलिए मैडम, औपरेशन का समय हो गया. औपरेशन थिएटर चलना है,’’ स्ट्रेचर लिए

2 वार्डबौय हाजिर हो गए.

मैं दरवाजे की ओर देख रही हूं. शायद अब तो सौम्य अंदर आएं. उन के सामने से ही तो स्ट्रेचर अंदर आई होगी न? आंखों से आंसू भरे मासूम मुझ से लिपट गया.

‘‘अरे, मेरा बहादुर बेटा रो रहा है. मैं जल्दी बाहर आऊंगी और फिर कुछ दिनों में बिलकुल ठीक हो जाऊंगी. रोना नहीं,’’ मैं उसे सांत्वना दे रही हूं, लेकिन मुझे सांत्वना देने वाला वहां कोई नहीं है.

‘‘जल्दी कीजिए मैडम. डाक्टर साहब गुस्सा करेंगी,’’ वार्डबौय ने टोका.

‘‘हां चलिए,’’ कह मैं स्ट्रेचर पर लेट गई. बाहर भी सौम्य का कहीं अतापता न था.

‘‘भैया, मेरे पति कहां हैं?’’ मैं हकलाई.

‘‘वे सारी सिस्टर्स के लिए मिठाई लाने गए हैं. कुछ कह रहे थे… आज उन का स्वतंत्रता दिवस है… आते ही होंगे,’’ कह बेहयाई से दांत निपोरे वार्डबौय ने, लेकिन साथ ही थोड़ा धैर्य भी बंधा दिया. शायद मुझ पर दया आ गई उसे.

औपरेशन थिएटर के अंदर तो जैसे भय सा लगने लगा. अबूझ, अनाम सा भय. निराधार होता मेरा अपना वजूद. मुंह पर मास्क, सिर पर टोपी और ऐप्रन पहने डाक्टर, नर्स, वार्डबौय सभी. किसी की अलग से कोई पहचान नहीं. केवल आंखें और दस्ताने पहने हाथ. ये आंखें मुझे घूर रही हैं जैसे कुछ तोल रही हैं. ‘क्या? मेरी मूर्खता? मेरी निरीहता? मेरा अपमान? मेरा मजाक? या मेरी बीमारी? और ये दस्ताने पहने हाथ? मुझे मेरे वजूद से ही छुटकारा दिला देंगे या सिर्फ मेरी बीमारी को ही निकाल फेकेंगे? क्या सोच रही हूं मैं? मम्मीपापा, शालीन, कुलीन सब के चेहरे आंखों के सामने घूम रहे हैं.

फिर सौम्य, एक नर्स के कंधे पर हाथ टिकाए, दूसरी को समोसा खिलाता. उस की आवाज कानों को चीर रही है, ‘‘अरे, जब यूटरस ही नहीं रहा तो औरत औरत नहीं रही. और मैं? मैं तो आजाद पंछी हूं. कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर. बंध कर रहना तो मैं ने सीखा ही नहीं. आज से मैं स्वतंत्र हूं, पहले की तरह… अरे यह मैं क्या सोच रही हूं?

‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय?’ पापा, आप ने, मम्मी ने मुझे अच्छे संस्कार दिए, अच्छी परवरिश दी, अच्छे स्कूलों में पढ़ाया ताकि आप की बेटी संस्कारी बने, समझदार बने. लेकिन मैं न समझदार बनी, न ही संस्कारी. पापा, मुझे माफ कर दो, मम्मी मुझे माफ कर दो.

अरे, यह क्या हो रहा है मुझे? कहीं दूर से आवाज आ रही है, ‘‘अरे डाक्टर, ये तो बेहोश हो रही हैं, बीपी बहुत डाउन हो गया है. अभी तो ऐनेस्थीसिया दिया भी नहीं गया. ये तो खुदबखुद बेहोश हो रही हैं. डाक्टर… डाक्टर… जल्दी आइए.’’

मैं, मेरा वजूद अंधेरे में डूब गया है.

Women’s Day 2024: पीली दीवारें- क्या पति की गलतियों की सजा खुद को देगी आभा?

“तुम कोई भी काम ठीक से कर सकती हो या नहीं? सब्जी में नमक कम है, दूध में चीनी ज्यादा है और रोटियां तो ऐसी लग रही हैं जैसे 2 दिन पहले की बनी हों,’’ अजय इतनी जोर से चिल्लाया कि रसोई में काम कर रही उस की पत्नी आभा के हाथ से बरतन गिर गए. बरतनों के गिरते ही अजय का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.

‘‘जाहिल औरत, किसी भी काम को करने का सलीका नहीं है. कहने को एमए पास है, नौकरी करती है, पर है एकदम गंवार.’’

‘‘कभी अपने अंदर भी झांक कर देखो कि तुम कैसे हो. हर समय झगड़ा करते रहते हो. बात करने तक का सलीका तुम में नहीं है. माना मैं बुरी हूं पर अपने 10 साल पुराने दोस्त विक्रम से किस तरह रूठे हुए हो, यह सोचा है कभी. वह

6 बार घर आ चुका है, पर उस से बात करना तो दूर तुम उस से मिले तक नहीं. ऐसे नहीं निबाहे जाते रिश्ते, उन के लिए त्याग करना ही पड़ता है,’’ आभा औफिस जाने के लिए तैयार होते हुए बोली.

उन की शादी को 2 साल हो गए थे, पर एक भी दिन ऐसा नहीं गया था जब अजय ने झगड़ा न किया हो.

‘‘मुझ से ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. मुझे किसी की परवाह नहीं है. तुम अपनेआप को समझती क्या हो? यह भाषण देना बंद करो.’’

‘‘मैं भाषण नहीं दे रही हूं अजय, सिर्फ तुम्हें समझाने की कोशिश कर रही हूं कि हमेशा अकड़े रहने से कुछ हासिल नहीं होता. ऐसा कर के तो तुम हर किसी को अपने से

दूर कर लोगे. इंसान को अपनी गलती भी माननी चाहिए.’’

‘‘बड़ी आई मुझे समझाने वाली. मुझे सीख मत दो. मैं कभी कोई गलती नहीं करता और अगर तुम्हें इतनी ही दिक्कत हो रही है

तो तुम भी जा सकती हो. मुझे किसी की परवाह नहीं,’’ बड़बड़ाते हुए वह घर से बाहर निकल गया.

आभा सकते में आ गई. क्या कह गया था अजय. वह 2 वर्षों से उसे बरदाश्त कर रही थी, क्योंकि उसे उम्मीद थी कि अजय के स्वभाव में कभी तो बदलाव आएगा और वह रिश्तों की कद्र करना सीख जाएगा. लेकिन अजय था कि हर किसी से लड़ाई करने को तैयार रहता था. कोई भी बात अगर उस के मन की नहीं होती थी तो वह भड़क उठता था. लेकिन आज तो हद ही हो गई थी. आखिर वह कहना क्या चाहता था? आभा कुछ देर तक खड़ी सोचती रही और फिर उस ने निर्णय करने में पल भर की भी देर नहीं की.

अजय औफिस से फिल्म देखने चला गया. फिर रात को देर से घर लौटा तो घर उस समय अंधेरे में डूबा हुआ था. यह देख उसे झल्लाहट हुई.

‘‘पता नहीं क्या समझती है अपनेआप को. मेरे आने से पहले ही सो गई. कम से कम बालकनी की ही लाइट जला कर छोड़ देती,’’ अपनी आदत के अनुसार अजय बड़बड़ाया. फिर काफी देर तक कालबैल बजाने के बाद भी जब दरवाजा नहीं खुला तो उस ने डुप्लीकेट चाबी से दरवाजा खोला. आभा घर पर नहीं थी. हर तरफ एक सन्नाटा बिखरा हुआ था. ऐसा पहली बार हुआ था कि आभा उस के आने के समय घर पर न हो. तो क्या आभा सचमुच घर छोड़ कर चली गई है? पल भर को उसे अजीब लगा, लेकिन फिर वह सामान्य हो गया, ‘‘हुंह,

जाती है तो जाए, मैं उस के नखरे तो उठाने से रहा. अपनेआप 1-2 दिन में वापस आ जाएगी,’’ वह बड़बड़ाया और उस रात भूखा ही सो गया.

दिन, हफ्ते और फिर महीने बीतते गए पर आभा नहीं लौटी, न ही अजय ने उसे बुलाने की कोशिश की. इस बीच उस ने विक्रम को कई बार फोन किया, पर उस ने बिना बात किए ही फोन काट दिया. औफिस के अपने एक सहयोगी से जब उस ने विक्रम के व्यवहार के बारे में जिक्र किया तो वह मुसकराया और अपनी सीट पर जा कर बैठ गया. जब दूसरे सहयोगी ने उस के मुसकराने का कारण पूछा तो वह बोला, ‘‘हमारे अजय को यह नहीं पता कि अपने जीवन से दोस्त को तो एकबारगी हटाना आसान है, पर अगर पत्नी ही चली जाए तो फिर दोस्त ही क्या किसी भी रिश्ते को संभाल कर रखना मुश्किल हो जाता है. अब देखना हर कोई इस से मुंह मोड़ लेगा.’’

आभा के जाने के बाद शुरूशुरू में तो अजय को अपनी आजादी बहुत अच्छी लगी. जब दिल करता घर आता, होटल में खाना खाता और सुबह देर तक सोता. लेकिन धीरेधीरे उसे घुटन सी होने लगी. रात को अंधेरे और सन्नाटे में डूबे घर में लौटना, खुद कच्चापक्का बनाना और अकेले बैठे टीवी देखते रहना. अब आभा तो थी नहीं, जिस पर वह अपनी झुंझलाहट उतारता, इसलिए कामवाली पर ही अपनी खीज उतारता. कभी उस के देर से आने पर तो कभी घर ठीक से साफ न करने पर.

कामवाली मालकिन के जाने के बाद अकेले साहब के लिए काम करने से कतरा

रही थी. उस ने एक दिन यह कह कर काम छोड़ दिया कि घर में कोई औरत नहीं है, इसलिए मेरे मर्द ने यहां काम करने से मना कर दिया है.

क्या करता अजय, उस ने एक लड़का नौकर रखा जो सारा दिन घर पर रहता था. लेकिन वह जितना सामान लाता था, वह कम पड़ने लगा. आज यह नहीं है, वह नहीं है, कह कर वह अजय की जान खाए रहता. उस के पड़ोसी उसे 1-2 बार चेतावनी भी दे चुके थे कि तुम्हारा नौकर दिन में अपने जानपहचान वालों को यहां बैठाए रखता है, पर अजय को लगा था कि उस पड़ोसी को उस के नौकर रखने से शायद जलन हो रही है.

एक दिन तबीयत खराब होने की वजह से अचानक अजय घर आया तो देखा कि उस के बैडरूम में नौकर एक लड़की के साथ है. यह देखते ही वह क्रोध से भड़क उठा और उस ने नौकर को घर से बाहर निकाल दिया.

अकेलापन उस पर हावी होने लगा था. उस ने कई बार अपनी मां से कहा कि वे उस के पास आ कर रह लें, पर उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, मेरी तबीयत खराब रहती है, उस पर से बहू भी नहीं है. कौन देखभाल करेगा मेरी? बेकार में मेरे आने से तेरा काम बढ़ जाएगा.’’

यहां तक कि अजय की बहनें, जो भाभी के होने पर महीने में 2-3 बार चक्कर लगा जाती थीं, उन्होंने भी आना छोड़ दिया. वे कहतीं कि भैया, अपनी ही गृहस्थी से फुरसत नहीं मिलती, अब वहां आ कर भी खाना बनाओ, यह बस में नहीं. भाभी थीं तो आराम था, सब कुछ तैयार मिलता था और हम भी मायके में 2-4 दिन चैन से बिता लेते थे. अजय उन की बातें सुन कर चिढ़ जाता था और उन्हें भी खरीखोटी सुना देता था, लेकिन अकेलेपन और नीरसता के समुद्र में डुबकी लगाने के कारण वह खामोशी से उन की बातें सुन लेता. उस का दिल रोने को होता.

आभा ने कैसे कुशलता और प्यार से सारे रिश्तों को जोड़ा हुआ था. तभी तो उस के जाने के बाद उस के अपनों ने ऐसे मुंह मोड़ा मानो वे आभा के रिश्तेदार हों. कुछ घंटों के लिए बहुत आग्रह करने पर बूआ आईं तो बहुत उदास होते हुए बोलीं, ‘‘अब मन नहीं करता तेरे घर आने को. मेरी बातें तुझे बुरी लग रही होंगी पर सच तो यह है कि तेरा लटका हुआ मुंह देखने को कौन आएगा? आभा थी तो कितनी आवभगत करती थी.

चाहे कितनी भी थकी हुई हो, पर कभी मुंह नहीं बनाती थी. औरत से ही घर होता है बेटा. वह नहीं तो जीवन बेकार हो जाता है. यारदोस्त, रिश्तेदार, सगेसंबंधी कब तक और कितना साथ देंगे? साथ तो पत्नी ही अंत तक निभाती है. पतिपत्नी की आपस में चाहे कितनी भी लड़ाई क्यों न हो जाए, पर वही ऐसा संबंध है, जो जीवन भर कायम रहता है.’’

क्या कहता अजय और कैसे रोकता उन्हें. उसे लगा कि बूआ सचमुच उसे आईना दिखा गई हैं. पिछले 6 महीनों में वह इतनी तकलीफ सह चुका था कि उस की अकड़ हवा हो चुकी थी.

होटल का खाना खातेखाते वह तंग आ चुका था और नौकर कोई घर पर टिकता नहीं था. उस ने यह सोच कर अपने दोस्त पीयूष को फोन किया कि आज रात उस के घर खाना खा लेगा. पर उस ने कहा, ‘‘यार, मेरे पिता की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए आज तो संभव नहीं हो पाएगा. मैं तुझे खुद फोन कर के बुलाऊंगा किसी दिन.’’

क्या करता अजय, रेस्तरां में ही खाने गया. वहां देखा कि पीयूष अपने परिवार के साथ आया हुआ है. एक कसक सी उठी उस के मन में कि उस के दोस्त भी उसे घर नहीं बुलाना चाहते.

पीयूष ने भी उसे देख लिया था, इसलिए अगले दिन फोन कर के उस से बोला, ‘‘यार, क्या करूं, तेरी भाभी कहती है कि अजय अकेला आ कर क्या करेगा. उसे

भी बहुत अनकंफर्टेबल फील होता है. आभा थी तो उसे कंपनी मिल जाती थी. ट्राई टू अंडरस्टैंड, फैमिली वाले घर में अकेले आदमी का आना जरा अखरता है. आई होप तू माइंड नहीं करेगा.’’

अब वह पहले वाला अजय तो रहा नहीं था, जो बुरा मानता. अकेलापन, दिनरात का तनाव और ठीक से खाना न मिल पाने के कारण उस की सेहत लगातार गिरती जा रही थी. आए दिन उसे बुखार हो जाता. उसे महसूस हो रहा था कि थकावट उस के शरीर में डेरा डाल कर बैठ गई है.

बाहर का खाना खाने और पानी पीने से उस के लिवर पर असर हो गया था. अब हालत यह थी कि वह कुछ भी खाता तो उसे उलटी हो जाती या फिर पेट दर्द से वह कराहने लगता. डाक्टर का कहना था कि उसे जौंडिस हो सकता है. तब से उसे लगने लगा  था कि उस की जिंदगी की तरह जैसे हर चीज पीली और मटमैली सी हो गई है.

उस की हालत पर तरस खा कर एक दिन पीयूष अपनी बीवी सहित उस से मिलने आया. उस की बीवी चाय बनाने रसोई में गई तो देखा हर चीज अस्तव्यस्त है. बदबू से परेशान वह चाय की पत्ती ढूंढ़ती रही. हार कर अजय को ही उठ कर चाय बनानी पड़ी. फुसफुसाते हुए वह पीयूष से बोली, ‘‘यहां मैं और एक पल के लिए भी नहीं ठहर सकती. घर है या कूड़े का ढेर.’’

अजय ने सुना तो मनमसोस कर निढाल हो कर पलंग पर लेट गया. किस से शिकायत करता, गलती तो उस की ही थी. आभा को कब उस ने मान दिया था. हर समय उसे दुत्कारता ही तो रहता था. उस के जाने के बाद हर किसी ने उस से मुंह मोड़ लिया था. आखिर क्यों कोई उसे बरदाश्त करे. एक वही थी, जो उस की हर ज्यादती को सह कर भी उस की परवाह करती थी. हर काम उसे परफैक्ट ढंग से किया मिलता था. पर तब वह कमियां ढूंढ़ता रहता था.

उस का गला सूख रहा था. जैसेतैसे उठा तो सामने लगे शीशे पर उस की नजर गई. आंखें अंदर धंस गई थीं, दाढ़ी बढ़ गई थी और दुर्बल शरीर से निकली हड्डियां जैसे उस की बेबसी का उपहास उड़ा रही थीं. पसीने से नहा उठा वह. सारी खिड़कियां

खोल दीं और पानी पीने के लिए फ्रिज खोला. खाली फ्रिज उस का मुंह चिढ़ा रहा था. उस की रोशनी को देख डर से उस ने आंखें बंद कर लीं.

उसे याद आया आज सुबह उस ने पीने का पानी भरा ही नहीं था. कांटे उस के गले

में चुभने लगे और वह उस चुभन के साथ रसोई में खड़ा पीली हो गई दीवारों को देखने लगा. यह पीलापन उसे धीरेधीरे अपने शरीर और मन पर हावी होता महसूस हुआ. उसे लगा उस की बोझिल पलकों पर मानो पीली दीवारें कतराकतरा उतर रही थीं.

एक दोस्त है मेरा: रिया ने किस से मिलाया था हाथ

मैं बैडरूम की खिड़की में बस यों ही खड़ी बारिश देख रही थी. अमित बैड पर लेट कर अपने फोन में कुछ कह रहे थे. मैं ने जैसे ही खिड़की से बाहर देखते हुए अपना हाथ हिलाया, उन्होंने पूछा, ‘‘कौन है?’’

मैं ने कहा, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘तो फिर हाथ किसे देख कर हिलाया?’’

‘‘मैं नाम नहीं जानती उस का.’’

‘‘रिया, यह क्या बात कर रही हो? जिस का नाम भी नहीं पता उसे देख कर हाथ हिला रही हो?’’ मैं चुप रही तो उन्होंने फिर कुछ शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है? लड़का है या लड़की?’’

‘‘लड़का.’’

‘‘ओफ्फो, क्या बात है, भई, कौन है, बताओ तो.’’

‘‘दोस्त है मेरा.’’

इतने में तो अमित ने झट से बिस्तर छोड़ दिया. संडे को सुबह 7 बजे इतनी फुर्ती. तारीफ की ही बात थी, मैं ने भी कहा, ‘‘वाह, बड़ी तेजी से उठे, क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, देखना था उसे जिसे देख कर तुम ने हाथ हिलाया था. बताती क्यों नहीं कौन था?’’

अब की बार अमित बेचैन हुए. मैं ने उन के गले में अपनी बांहें डाल दीं, ‘‘सच बोल रही हूं, मुझे उस का नाम नहीं पता.’’

‘‘फिर क्यों हाथ हिलाया?’’

‘‘बस, इतनी ही दोस्ती है.’’ अमित कुछ समझते नहीं, गरदन पर झटका देते हुए बोले, ‘‘पता नहीं कैसी बात कर रही हो, जान न पहचान और हाथ हिला रही हो हायहैलो में.’’

‘‘अरे उस का नाम नहीं पता पर पहचानती हूं उसे.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘बस यों ही आतेजाते मिल जाता है. एक ही सोसायटी है, पता नहीं कितने लोगों से आतेजाते हायहैलो हो ही जाती है. जरूरी तो नहीं कि सब के नाम पता हों.’’

‘‘अच्छा ठीक है. मैं फ्रैश होता हूं, नाश्ता बना लो,’’ अमित ने शायद यह टौपिक यहीं खत्म करना ठीक समझा होगा.

संडे था, मैं अमित और बच्चों की पसंद का नाश्ता बनाने में व्यस्त हो गई. बच्चों को कुछ देर से ही उठना था.

नाश्ता बनाते हुए मेरी नजर बाहर सड़क पर गई. वह शायद कहीं से कुछ रैडीमेड नाश्ता पैक करवा कर ला रहा था. हां, आज उस की पत्नी आराम कर रही होगी. उस की नजर फिर मुझ पर पड़ी. वह मुसकराता हुआ चला गया.

10 साल पहले हम अंधेरी की इस सोसायटी के फ्लैट में आए थे. हमारी बिल्डिंग के सामने कुछ दूरी पर जो बिल्डिंग है उसी में उस का भी फ्लैट है. मैं तीसरी फ्लोर पर रहती हूं और वह

5वीं पर. जब हम शुरूशुरू में आए थे तभी वह मुझे आतेजाते दिख जाता था. पता नहीं कब उस से हायहैलो शुरू हुई थी, जो आज तक जारी है.

इन 10 सालों में भी न तो मुझे उस का नाम पता है, न शायद उसे मेरा नाम पता होगा. दरअसल, ऐसा कोई रिश्ता है ही नहीं न कि मुझे उस का नाम जानने की जरूरत पड़े. बस समय के साथ इतना जरूर हुआ कि मेरी नजर उस की तरफ उस की नजरें मेरी तरफ अब अनजाने में नहीं, इरादतन उठती हैं, अब तो उस का इकलौता बेटा भी 10-12 साल का हो रहा है. मैं अनजाने में ही उस का सारा रूटीन जान चुकी हूं. दरअसल मेरे बैडरूम की खिड़की से पता नहीं उस के कौन से मरे की खिड़की दिखती है. बस, साल भर पहले ही तो जब उसे खिड़की में खड़े अचानक देख लिया तभी तो पता चला कि वह उसी फ्लैट में रहता है. पर उस के बाद जब भी महसूस हुआ कि वह खिड़की में खड़ा है, तो मैं ने फिर नजरें उधर नहीं उठाईं. अच्छा नहीं लगता न कि मैं उस की खिड़की की तरफ दिखूं.

हां, इतना होता है कि वह जब भी रोड से गुजरता है, तो एक नजर मेरी खिड़की की तरफ जरूर उठाता है और अगर मैं खड़ी होती हूं तो हम एकदूसरे को हाथ हिला देते हैं और कभीकभी यह भी हो जाता है कि मैं सोसायटी के गार्डन में सैर कर रही हूं और वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ आ जाए तब भी वह पत्नी की नजर बचा कर मुसकरा कर हैलो बोलता है, तो मैं मन ही मन हंसती हूं.

अब मुझे उस का सारा रूटीन पता है. सुबह 7 बजे वह अपने बेटे को स्कूल बस में बैठाने जाता है. फिर उस की नजर मेरी किचन की तरफ उठती है. नजरें मिलने पर वह मुसकरा देता है. साढ़े 9 बजे उस की पत्नी औफिस जाती है. 10 बजे वह निकलता है. 3 बजे तक वह वापस आता है. फिर अपने बेटे को सोसायटी के ही डे केयर सैंटर से लेने जाता है. उस की पत्नी लगभग 7 बजे तक आती है.

मेरे बैडरूम और किचन की खिड़की से हमारी सोसायटी की मेन रोड दिखती है. घर में सब हंसते हैं. अमित और बच्चे कहते हैं, ‘‘सब की खबर रहती है तुम्हें.’’ बच्चे तो हंसते हैं, ‘‘कितना बढि़या टाइमपास होता है आप का मौम. कहीं जाना भी नहीं पड़ता आप को और सब को जानती हैं आप.’’

इतने में अमित की आवाज आ गई,

‘‘रिया, नाश्ता.’’

‘‘हां, लाई.’’ हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. हमारी 20 वर्षीय बेटी तनु और 17 वर्षीय राहुल 10 बजे उठे. वे भी फ्रैश हो कर नाश्ता कर के हमारे साथ बैठ गए.

इतने में तनु ने कहा, ‘‘आज उमा के घर मूवी देखने सब इकट्ठा होंगे, वहीं लंच है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘कौनकौन?’’

‘‘हमारा पूरा ग्रुप. मैं, पल्लवी, निशा, टीना, सिद्धि, नीरज, विनय और संजय.’’

अमित बोले, ‘‘नीरज, विनय को तो मैं जानता हूं पर अजय कौन है?’’

‘‘हमारा नया दोस्त.’’

अमित ने मुझे छेड़ते हुए कहा, ‘‘ठीक है बच्चों पर कभी मम्मी का दोस्त देखा है?’’

राहुल चौंका, ‘‘क्या?’’

‘‘हां भई, तुम्हारी मम्मी का भी तो एक दोस्त है.’’

तनु गुर्राई, ‘‘पापा, क्यों चिढ़ा रहे हो मम्मी को?’’

राहुल ने कहा, ‘‘उन का थोड़े ही कोई दोस्त होगा.’’

अमित ने बहुत ही भोलेपन से कहा, ‘‘पूछ लो मम्मी से, मैं झूठ थोड़े ही बोल रहा हूं.’’ दरअसल, हम चारों एकदसूरे से कुछ ज्यादा ही फ्रैंक हैं. युवा बच्चों के दोस्त बन कर ही रहते हैं हम दोनों इसलिए थोड़ाबहुत मजाक, थोड़ीबहुत खिंचाई हम एकदूसरे की करते ही रहते हैं.

तनु थोड़ा गंभीर हुई, ‘‘मौम, पापा झूठ बोल रहे हैं न?’’

मैं पता नहीं क्यों थोड़ा असहज सी हो गई, ‘‘नहीं, झूठ तो नहीं है.’’

‘‘मौम, क्या मजाक कर रहे हो आप लोग, कौन है, क्या नाम है?’’

मैं ने जब धीरे से कहा कि नाम तो नहीं पता, तो तीनों जोर से हंस पड़े. मैं भी मुसकरा दी.

राहुल ने कहा, ‘‘कहां रहता है आप का दोस्त मौम?’’

‘‘पता नहीं,’’ मैं ने पता नहीं क्यों झूठ बोल दिया. इस बार मेरे घर के तीनों शैतान हंसहंस कर एकदूसरे के ऊपर गिर गए. वह सामने वाले फ्लैट में रहता है, मैं ने जानबूझ कर नहीं बताया. मुझे पता है अमित की खोजी नजरें फिर सामने वाली खिड़की को ही घूरती रहेंगी. बिना बात के अपना खून जलाते रहेंगे.

तनु ने कहा, ‘‘पापा, आप बहुत शैतान हैं, मम्मी को तो कुछ भी नहीं पता फिर दोस्त कैसे हुआ मम्मी का.’’

‘‘अरे भई, तुम्हारी मम्मी उस की दोस्त हैं. तभी तो उस की हैलो का जवाब दे रही थीं, हाथ हिला कर.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम तीनों के दोस्त हो सकते हैं, मेरा क्यों नहीं हो सकता? आज तुम्हारे पापा ने किसी को हाथ हिलाते देख लिया, उन्हें चैन ही नहीं आ रहा है.’’

तीनों फिर हंसे, ‘‘लेकिन हमें हमारे दोस्तों के नाम तो पता हैं.’’ मैं खिसिया गई. फिर उन की मस्ती का मैं ने भी दिल खोल कर आनंद लिया. इतने में मेड आ गई, तो मैं उस के साथ किचन की सफाई में व्यस्त हो गई.

आज मेरे हाथ तो काम में व्यस्त थे पर मन में कई विचार आजा रहे थे. मुझे उस का नाम नहीं पता पर उसे आतेजाते देखना मेरे रूटीन का एक हिस्सा है अब. बिना कुछ कहेसुने इतना महसूस करने लगी हूं कि अगर उस की पत्नी उस के साथ होगी तो वह हाथ नहीं हिलाएगा. बस धीरे से मुसकराएगा. बेटे को बस में बैठा कर मेरी किचन की तरफ जरूर देखेगा. उस की कार तो मैं दूर से ही पहचानती हूं अब. नंबर जो याद हो गया है.

उस की पार्किंग की जगह पता है मुझे. यह सब मुझे कुछ अजीब तो लगता है पर यह जो ‘कुछ’ है न, यह मुझे अच्छा लगता है. मुझे दिन भर एक अजीब से एहसास से भरे रखता है. यह ‘कुछ’ किसी का नुकसान तो कर नहीं रहा है. मैं जो अपने पति को अपनी जान से ज्यादा प्यार करती हूं, उस में कोई रुकावट, कोई समस्या तो है नहीं इस ‘कुछ’ से. यह सच है कि जब अमित और बच्चों के साथ होती हूं तो यह ‘कुछ’ विघ्न नहीं डालता हमारे जीवन में. ऐसा नहीं है कि वह बहुत ही हैंडसम है. उस से कहीं ज्यादा हैंडसम अमित हैं और उस की पत्नी भी मुझ से ज्यादा सुंदर है पर फिर भी यह जो ‘कुछ’ है न इस बात की खुशी देता है कि हां, एक दोस्त है मेरा जिस का नाम मुझे नहीं पता और उसे मेरा. बस कुछ है जो अच्छा लगता है.

हैप्पीनैस हार्मोन: क्यों दिल से खुश नहीं था दूर्वा

कालेज कंपाउंड में चारों दोस्त सुमति को सांत्वना दे रहे थे. अब हो भी कुछ नहीं सकता था. आज अकाउंट्स के प्रैक्टिकल जमा करने का आखिरी दिन था. सुमति को भी यह बात पता थी परंतु बूआ के लड़के की शादी में जाने के कारण उस के दिमाग से यह बात निकल गई. आज छुट्टियों के बाद कालेज आई तो मालूम पड़ा प्रैक्टिकल पूरे 20 नंबर का है.

‘‘गए 20 नंबर पानी में,’’ सुरक्षा दुखी स्वर में बोली.

‘‘20 नंबर बड़ी अहमियत रखते हैं,’’ रोनी सूरत बनाते हुए सुमति बोली.’’

‘‘मैडम बड़ी स्ट्रिक्ट हैं. आज प्रैक्टिकल सबमिट नहीं किया तो फिर लेंगी नहीं,’’ राजन बोला.

‘‘प्रैक्टिकल में जीरो मिलना मतलब कैंपस इंटरव्यू में भी अवसर खोना,’’ सुयश ने अपना पक्ष रखा.

‘‘इस का असर तो कैरियर पर पड़ेगा,’’ धीरज बोला.

‘‘लो, दूर्वा भी आ गया,’’ दूर से आते हुए देख सुयश बोला. ‘‘मतलब हम 6 में से 5 के प्रैक्टिकल कंपलीट हैं.’’

‘‘यारो, हंसो. रोनी सूरत क्यों बना रखी,’’ दूर्वा जोर से गाता हुआ गु्रप के बीच आ कर खड़ा हो गया.

‘‘क्या मस्तीमजाक करते रहते हो हर टाइम,’’ सुमति चिढ़ कर बोली, ’’यहां मेरी जान पर बनी हुई और तुम्हें मजाक सूझ रहा है.’’

‘‘क्या हुआ?’’ दूर्वा लापरवाही वाले अंदाज में बोला.

पूरा माजरा सुनने के बाद दूर्वा बोला, ‘‘अगर हम सभी आज प्रैक्टिकल जमा न करें तो.’’

‘‘तो क्या? अभी सिर्फ सुमति का नुकसान हो रहा है. फिर हम सब को जीरो नंबर मिलेंगे,’’ सुरक्षा बोली.

‘‘नहीं, मेरा मतलब है पूरी क्लास,’’ दूर्वा बोला.

‘‘मगर क्लास ऐसा करेगी क्यों?’’ सुमति आश्चर्य से बोली.

‘‘अगर मैं ऐसा करवा दूं तो मुझे क्या दोगी?’’ दूर्वा ने प्रश्न किया.

‘‘जो तुम बोलोगे, मैं दे दूंगी पर आज का यह प्रोग्राम डिले करवा दो,’’ सुमति बोली.

‘‘ठीक है अगले 3 दिनों तक बड़ा पिज्जा पार्सल करवा देना,’’ दूर्वा ने शर्त रखी.

‘‘मुझे मंजूर है. बस, तुम प्रैक्टिकल सबमिशन का प्रोग्राम रुकवा दो,’’ सुमति अनुरोध करती हुई बोली.

‘‘देखो, 2 ही कारण से प्रैक्टिकल नहीं लिया जा सकता, या तो कोईर् बड़ा नेता अचानक मर जाए या फिर क्लास में किसी का ऐक्सिडैंट हो जाए.’’

‘‘आज क्लास में एक ऐक्सिडैंट होगा,’’ दूर्वा बोला.

‘‘कैसे, कुछ उलटासीधा करोगे क्या?’’ सुमति ने पूछा.

‘‘देखो, कुल 40 मिनट का पीरियड है. अटेडैंस लेने में 5 मिनट निकल जाएंगे. 5 मिनट मैडम बताने और समझाने में निकाल देगी. बचे 30 मिनट. जैसे ही मैडम बोलेगी प्रैक्टिकल जमा कीजिए, सब से पहले मैं उठूंगा और टेबल पर कौपी रखने से पहले चक्कर खा कर गिर पड़ूंगा. मेरे गिरते ही तुम पांचों मुझे घेर लेना और जोरजोर से चिल्लाना, बेहोश हो गया, बेहोश हो गया. जल्दी पानी लाओ, और पानी लेने के लिए तुम में से ही कोई जाएगा जो कम से कम 15 मिनट बाद ही आएगा. जब पानी आए तब पानी के हलकेहलके छींटे मारना. यदि समय बचा तो मैं होश में आ कर कमजोरी की ऐक्टिंग कर के पीरियड निकाल दूंगा,’’ दूर्वा ने अपनी योजना समझाई.

‘‘इस में रिस्क है दूर्वा,’’ सुरक्षा ने आशंका जाहिर की.

‘‘कोई बात नहीं, दोस्तों के लिए जान हाजिर है. लेकिन सुमति, अपना वादा याद रखना,’’ दूर्वा ने सुमति की तरफ देख कर कहा. दूर्वा का ऐक्टिंग प्रोग्राम सफल रहा, बल्कि मैडम तो घबरा कर प्रिंसिपल के पास चली गईर् और एंबुलैंस बुलवा ली. आधे घंटे बाद एंबुलैंस आई और दूर्वा को अस्पताल ले गई. डाक्टर ने जांच की तो दूर्वा को स्वस्थ पाया.

डाक्टरों ने कहा कि कभीकभी थकान और नींद पूरी नहीं होने की वजह से ऐसा हो जाता है. चिंता की कोई बात नहीं.

‘‘थैंक्यू दूर्वा, तुम्हारे कारण मुझे प्रैक्टिकल में नंबर मिल जाएंगे,’’ सुमति कृतज्ञताभरे शब्दों में बोली.

‘‘नो इमोशनल ब्लैकमेलिंग. अपना वादा पूरा करो. पिज्जा वह भी लार्ज साइज,’’ दूर्वा अधिकारपूर्वक बोला.

‘‘अरे, पैक क्यों करवा रहे हो? यहीं बैठ कर खा लेते हैं न,’’ सुयश बोला.

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे साथ नहीं खा सकता,’’ दूर्वा सपाट शब्दों में बोला.

‘‘क्यों? क्यों नहीं खा सकते?’’ सुयश ने फिर पूछा.

‘‘क्योंकि मेरी नाक में दांत हैं और मैं नाक से खाता हूं,’’ दूर्वा मजाक करता हुआ बोला.

‘‘चायसमोसे तो तुम हमारे साथ खा लेते हो,’’ सुरक्षा बोली.

‘‘यह लो तुम्हारा पिज्जा,’’ सुमति पैकेट बढ़ाती हुई बोली.

‘‘कल और परसों का भी तैयार रखना,’’ पिज्जा बौक्स लेते हुए दूर्वा ने कहा.

परीक्षा के रिजल्ट में सुमति ने अपनी पिछली स्थिति से बेहतर प्रदर्शन किया था और इस का पूरा श्रेय वह दूर्वा को दे रही थी.

‘‘अरे, मेरे देश की रोती प्रजा. आज क्या माजरा है, तुम लोगों के चेहरे खींचे हुए रबर की तरह क्यों लटके हुए हैं?’’ धीरज के टकले सिर पर धीमे से चपत लगाता हुआ दूर्वा बोला.

‘‘फिर मजाक दूर्वा. कभी तो सीरियस रहा करो. अभी राजन के पापा का फोन आया था. उस के चाचा का सीरियय ऐक्सिडैंट हो गया है और उन्हें तुरंत ब्लड देना है. डाक्टर्स ब्लडबैंक की जगह किसी स्वस्थ व्यक्ति के ताजे ब्लड का इंतजाम करने को बोल रहे हैं. उस के पापा कोशिश कर रहे हैं, पर टाइम तो लगेगा ही,’’ सुरक्षा ने बताया.

‘‘कौन सा ब्लड गु्रप चाहिए?’’ दूर्वा ने पूछा.

‘‘ओ नैगेटिव,’’ राजन बोला.

‘‘लो, इसे कहते हैं बगल में छोरा और गांव में ढिंढोरा. हम हैं न इस रेयर गु्रप के मालिक,’’ दूर्वा बोला.

‘‘तू सच बोल रहा है?’’ सुरक्षा ने पूछा.

‘‘हां,’’ दूर्वा हंसता हुआ बोला.

दूर्वा का ब्लड राजन के चाचा से मेल खा गया और राजन के चाचा की जान बच गई.

‘‘दूर्वा, तुम सचमुच कमाल के लड़के हो, हंसीहंसी में ही समस्या का समाधान कर देते हो,’’ राजन कृतज्ञ भाव से बोला.

‘‘तुम हम सब में खुशी का संचार करते हो. हम सब के लिए आशाजनक खुशी का माहौल बनाए रखते हो. जैसे बौडी की ग्रोथ के लिए हार्मोंस जरूरी होते हैं, उसी तरह तुम इस गु्रप के लिए जरूरी हो और तुम्हारा नाम है हैप्पीनैस हार्मोन,’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, मक्खन लगाना छोड़ो और शर्त के मुताबिक 3 दिनों के लिए पिज्जा पार्सल करवा दो, बड़ा वाला,’’ दूर्वा अपने चिरपरिचित अंदाज में बेतक्कलुफी से बोला.

‘‘यार, तू भी कमाल करता है. अगर सब के साथ बैठ कर खाएगा तो मजा दोगुना हो जाएगा,’’ राजन बोला.

‘‘मैं पहले हाथमुंह धोता हूं. फिर पिज्जा खाता हूं, ‘‘दूर्वा अपने पुराने अंदाज में बोला. यारदोस्तों के हंसीमंजाक में यों ही दिन बीत रहे थे. पर कुछ दिनों से दूर्वा कालेज नहीं आ रहा था.

‘‘यार, अब फाइनल एग्जाम्स को सिर्फ एक महीना बचा है और ऐसे क्रूशियल पीरियड में हैप्पीनैस हार्मोन नहीं आ रहा है. क्या बात है? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं?’’ सुरक्षा बोली.

‘‘हां, कल मैं ने फोन किया था, लेकिन कुछ ठीक से बात नहीं हो पा रही थी,’’ राजन ने बताया.

‘‘हमें उस के घर चलना चाहिए. शायद किसी मदद की जरूरत हो उसे,’’ सुमति बोली.

‘‘घर कहां है उस का? देखा है?’’ सुरक्षा ने पूछा.

‘‘देखा तो नहीं, परंतु निचली बस्ती में कहीं रहता है. वहीं जा कर पूछना पड़ेगा,’’ सुयश बोला.

‘‘ठीक है. चलो, हम सब चलते हैं,’’ धीरज बोला.

‘‘क्यों बेटा, यहां कोई दूर्वा कुमार रहता है क्या?’’ निचली बस्ती में प्रवेश करते ही सामने खेल रहे एक 12-13 वर्षीय बालक से सुयश ने पूछा.

‘‘कौन दूर्वा कुमार? वही भैया जो हमेशा जींस और नीली चप्पल पहने रहते हैं?’’ लड़के ने पूछा.

‘‘हां, हां, वही,’’ सुयश बोला.

‘‘सामने संकरी गली में पहला कमरा है उन का,’’ लड़के ने पता बताया.

गली में घुसते ही सामने एक साफसुथरा कमरा दिखाई दिया, जिस में एक पलंग रखा हुआ था और उस पर एक महिला लेटी हुईर् थी. दूर्वा महिला को पंखा झल रहा था.

‘‘दूर्वा,’’ जैसे ही सुयश ने आवाज दी, दूर्वा हड़बड़ा कर उठा.

‘‘अरे, तुम लोग? तुम लोग यहां कैसे? सब ठीक तो है न? आओ, आओ,’’ दूर्वा सभी को आश्चर्य से देखते हुए बोला.

‘‘तुम एक हफ्ते से कालेज नहीं आ रहे हो, तो देखने आए हैं, क्या कारण है?’’ सुमति बोली.

‘‘मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है, इसी कारण नहीं आ पाया,’’ दूर्वा कुछ उदास हो कर बोला.

‘‘डाक्टर को दिखाया, क्या कहा?’’ सुमति ने पूछा.

‘‘नहीं दिखाया और दिखा भी नहीं पाऊंगा. कालेज की फीस भरने व घर का किराया देने के बाद पैसे बचे ही नहीं. मैडिकल स्टोर वाले से पूछ कर दवा दे दी है. उस दवा से या खुद की इच्छाशक्ति से धीरेधीरे ठीक हो रही हैं,’’ दूर्वा की आंखों में आंसू और आवाज में अजीब सा भारीपन था.

‘‘अरे, हमें तो कहा होता, हम कोईर् पराए हैं क्या?’’ धीरज ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

अब तक रोक कर रखी गई रुलाई दूर्वा के गले से फूट पड़ी. वह बच्चों की तरह रोने लगा. कुछ देर जीभर कर रोने के बाद बोला, ‘‘पिताजी का बचपन में ही देहांत हो गया था. तभी से दिनरात लोगों के कपड़े सीसी कर मां ने मुझे पढ़ाया है. अब स्थिति यह है कि मां 5-7 मिनट से अधिक बैठ नहीं पातीं. महल्ले में सभी को पता है. सभी मां की बहुत इज्जत करते हैं. इसी कारण महल्ले के बड़े किराने वाले ने मुझे दोपहर 2 से 6 बजे तक की नौकरी पर रख लिया है.

मैं उन का दिनभर का अकाउंट्स व्यवस्थित कर देता हूं. इस से उन के सीए को भी आसानी हो जाती है. 5 हजार रुपए महीना देते हैं. फीस के लिए भी समय पर पैसे दे देते हैं. अकसर वे मुझे बिस्कुट के पैकेट या इसी तरह की कोई खाने की चीज यह कहते हुए दे देते हैं कि जल्दी ही एक्सपायर्ड होने वाली है, खापी कर खत्म करो. जबकि, मैं जानता हूं कि यदि वे चाहें तो सीधे कंपनी से भी बदलवा सकते हैं.’’

‘‘कभी हमें भी तो हिंट्स करते, कुछ मदद हम भी कर देते. तुम हमेशा हंसीमजाक करते रहते हो. कभी परिवार के बारे में कुछ बताया नहीं,’’ सुमति बोली.

‘‘समान ध्रुव वाले चुंबक प्रतिकर्षण का काम करते हैं. मैं तुम्हें अपनी परेशानियों के बारे में बताने से डरता था. मुझे लगता था शायद मैं तुम को खो दूंगा. यही कारण है कि मैं हमेशा हंसता रहता था. हंसते रहो तो समस्या का समाधान भी शीघ्र हो जाता है,’’ दूर्वा बोला.

‘‘जो हुआ उसे छोड़ो, मेरे पापा डाक्टर हैं, अभी उन्हें बुला कर दिखा देते हैं,’’ सुमति बोली.

‘‘पर मेरे पास दवा के लिए पैसे नहीं हैं,’’ दूर्वा कातर स्वर में बोला.

‘‘मेरे पापा मेरे सभी दोस्तों को बायनेम पहचानते हैं. उन्होंने ही तुम्हें हैप्पीनैस हार्मोन का नाम दिया है. उन्हें पूरी स्थिति बता कर बुलवा लेते हैं. सैंपल वाली दवा होगी तो वह भी लेते आएंगे,’’ सुमति बोली.

कुछ ही देर में सुमति के पापा आ गए. अपने पास से दवा भी दे गए. चिंता वाली कोई बात नहीं थी. जातेजाते बोले, ‘‘कमाल का जज्बा है दूर्वा तुम में, कीप इट अप. अपना हैप्पीनैस हार्मोन कभी कम मत होने देना. और हो सके तो तुम पांचों भी इस से सबक लेना. खुशियां देने से बौंडिंग बढ़ती है, समस्याओं के समाधान के नए रास्ते खुलते हैं.’’

दूर्वा की आंखों में जिंदगी की हर कठिनाई को झेलने की नई उम्मीद, जोश, आशा साफ झलक रही थी.

Women’s Day 2024: काली सोच-शुभा की आंखों पर पड़ा था कैसा परदा?

लेखन कला मुझे नहीं आती, न ही वाक्यों के उतारचढ़ाव में मैं पारंगत हूं. यदि होती तो शायद मुझे अपनी बात आप से कहने में थोड़ी आसानी रहती. खुद को शब्दों में पिरोना सचमुच क्या इतना मुश्किल होता है?

बाहर पूनम का चांद मुसकरा रहा है. नहीं जानती कि वह मुझ पर, अपनेआप पर या किसी और पर मुसकरा रहा है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह भी पूनम की ऐसी ही एक रात थी जब मैं अस्पताल के आईसीयू के बाहर बैठी अपने गुनाहों के लिए बेटी से माफी मांग रही थी, ‘मुझे माफ कर दे बेटी. पाप किया है मैं ने, महापाप.’

मानसी, मेरी इकलौती बेटी, भीतर आईसीयू में जीवन और मौत के बीच झूल रही है. उस ने आत्महत्या करने की कोशिश की, यह तो सभी जानते हैं पर यह कोई नहीं जानता कि उसे इस हाल तक लाने वाली मैं ही हूं. मैं ने उस मासूम के सामने कोई और रास्ता छोड़ा ही कहां था?

कहते हैं आत्महत्या करना कायरों का काम है पर क्या मैं कायर नहीं जो भविष्य की दुखद घटनाओं की आशंका से वर्तमान को ही रौंदती चली आई?

हर मां का सपना होता है कि वह अपनी नाजों से पाली बेटी को सोलहशृंगार में पति के घर विदा करे. मैं भी इस का अपवाद नहीं थी. तिनकातिनका जोड़ कर जैसे चिडि़या अपना घोंसला बनाती है. वैसे ही मैं भी मानसी की शादी के सपने संजोती गई. वह भी मेरी अपेक्षाओं पर हमेशा खरी उतरी. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. शांत, सुसभ्य, मृदुभाषिणी मानसी घरबाहर सब की चहेती थी. एक मां को इस से ज्यादा और क्या चाहिए?

‘देखना अपनी लाडो के लिए मैं चांद सा दूल्हा लाऊंगी,’ मैं सुशांत से कहती तो वे मुसकरा देते.

उस दिन मानसी की 12वीं कक्षा का परिणाम आया था. वह पूरे स्टेट में फर्स्ट आईर् थी. नातेरिश्तेदारों की तरफ से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. हमारे पड़ोसी व खास दोस्त विनोद भी हमारे घर आए थे मिठाई ले कर.

‘मिठाई तो हमें खिलानी चाहिए भाईसाहब, आप ने क्यों तकलीफ की,’ सुशांत ने गले मिलते हुए कहा तो वे बोले, ‘हां हां, जरूर खाएंगे. सिर्फ मिठाई ही क्यों? हम तो डिनर भी यहीं करेंगे, लेकिन पहले आप मेरी तरफ से मुंह मीठा कीजिए. रोहित का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया है.’

‘फिर तो आज दोहरी खुशी का दिन है. मानसी ने 12वीं में टौप किया है. मैं ने मिठाई की प्लेट उन की ओर बढ़ाई.’

‘आप चाहें तो हम यह खुशी तिहरी कर लें,’ विनोद ने कहा.

‘हम समझे नहीं,’ मैं अचकचाई.

‘अपनी बेटी मानसी को हमारे आंचल में डाल दीजिए. मेरी बेटी की कमी पूरी हो जाएगी और आप की बेटे की,’ मिसेज विनोद बड़ी मोहब्बत से बोली.

‘देखिए भाभीजी, आप के विचारों की मैं इज्जत करती हूं, लेकिन मुंह रहते कोई नाक से पानी नहीं पीता. शादीविवाह अपनी बिरादरी में ही शोभा देते हैं,’ इस से पहले कि सुशांत कुछ कहते मैं ने सपाट सा उत्तर दे दिया.

‘जानती हूं मैं. सदियों पुरानी मान्यताएं तोड़ना आसान नहीं होता. हमें भी काफी वक्त लगा है इस फैसले तक पहुंचने में. आप भी विचार कर देखिएगा,’ कहते हुए वे लोग चले गए.

‘इस में हर्ज ही क्या है शुभा? दोनों बच्चे बचपन से एकदूसरे को जानते हैं, समझते हैं. सब से बढ़ कर बौद्धिक और वैचारिक समानता है दोनों में. मेरे खयाल से तो हमें इस रिश्ते के लिए हां कह देनी चाहिए.’ सुशांत ने कहा तो मेरी त्योरियां चढ़ गईं.

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. आलते का रंग चाहे जितना शोख हो, उस का टीका नहीं लगाते. कहां वो, कहां हम उच्चकुलीन ब्राह्मण. हमारी उन की भला क्या बराबरी? दोस्ती तक तो ठीक है, पर रिश्तेदारी अपनी बराबरी में होनी चाहिए. मुझे यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं है.’

‘एक बार खुलेमन से सोच कर तो देखो. आखिर इस में बुराई ही क्या है? दीपक ले कर ढूंढ़ेंगे तो भी ऐसा दामाद हमें नहीं मिलेगा’, सुशांत ने कहा.

‘मुझे जो कहना था मैं ने कह दिया. तुम्हें इतना ही पसंद है तो कहीं से मुझे जहर ला दो. अपने जीतेजी तो मैं यह अनर्थ नहीं होने दूंगी. अरे, रिश्तेदार हैं, समाज है उन्हें क्या मुंह दिखाएंगे. दस लोग दस तरह के सवाल पूछेंगे, क्या जवाब देंगे उन्हें हम?’

मैं ने कहा तो सुशांत चुप हो गए. उस दिन मैं ने मानसी को ध्यान से देखा. वाकई मेरी गुडि़या विवाहयोग्य हो गई थी. लिहाजा, मैं ने पुरोहित को बुलावा भेजा.

‘बिटिया की कुंडली में तो घोर मंगल योग है बहूरानी. पतिसुख से यह वंचित रहेगी. पुरोहित के मुख से यह सुन कर मेरा मन अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. मैं मध्यवर्गीय धर्मभीरू परिवार से थी और लड़की के मंगला होने के परिणाम से पूरी तरह परिचित थी. मैं ने लगभग पुरोहित के पैर पकड़ लिए, ‘कोई उपाय बताइए पुरोहितजी. पूजापाठ, यज्ञहवन, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. मुझे कैसे भी इस मंगल दोष से छुटकारा दिलाइए.’

‘शांत हो जाइए बहूरानी. मेरे होते हुए आप को परेशान होने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है,’ उन्होंने रसगुल्ले को मुंह में दबाते हुए कहा, ‘ऐसा कीजिए, पहले तो बिटिया का नाम मानसी के बजाय प्रिया रख दीजिए.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है पंडितजी. इस उम्र में नाम बदलने के लिए न तो बिटिया तैयार होगी न उस के पापा. वे कुंडली मिलान के लिए भी तैयार नहीं थे.’

‘तैयार तो बहूरानी राजा दशरथ भी नहीं थे राम वनवास के लिए.’ पंडितजी ने घोर दार्शनिक अंदाज में मुझे त्रियाहट का महत्त्व समझाया व दक्षिणा ले कर चलते बने.

‘आज से तुम्हारा नाम मानसी के बजाय प्रिया रहेगा,’ रात के खाने पर मैं ने बेटी को अपना फैसला सुना दिया.

‘लेकिन क्यों मां, इस नाम में क्या बुराई है?’

‘वह सब मैं नहीं जानती बेटा, पर मैं जो कुछ भी कर रही हूं तुम्हारे भले के लिए ही कर रही हूं. प्लीज, मुझे समझने की कोशिश करो.’

उस ने मुझे कितना समझा, कितना नहीं, यह तो मैं नहीं जानती पर मेरी बात का विरोध नहीं किया.

हर नए रिश्ते के साथ मैं उसे हिदायतों का पुलिंदा पकड़ा देती.

‘सुनो बेटा, लड़के की लंबाई थोड़ा कम है, इसलिए फ्लैटस्लीपर ही पहनना.’

‘लेकिन मां फ्लैटस्लीपर तो मुझ पर जंचते नहीं हैं.’

‘देखो प्रिया, यह लड़का 6 फुट का है. इसलिए पैंसिलहील पहनना.’

‘लेकिन मम्मी मैं पैंसिलहील पहन कर तो चल ही नहीं सकती. इस से मेरे टखनों में दर्द होता है.’

‘प्रिया, मौसी के साथ पार्लर हो आना. शाम को कुछ लोग मिलने आ रहे हैं.’

‘मैं नहीं जाऊंगी. मुझे मेकअप पसंद नहीं है.’

‘बस, एक बार तुम्हारी शादी हो जाए, फिर करती रहना अपने मन की.’

मैं सुबकने लगती तो प्रिया हथियार डाल देती.

पर मेरी सारी तैयारियां धरी की धरी रह जातीं जब लड़के वाले ‘फोन से खबर करेंगे’, कहते हुए चले जाते या फिर दहेज में मोटी रकम की मांग करते, जिसे पूरा करना किसी मध्यवर्गीय परिवार के वश की बात नहीं थी.

‘ऐसा कीजिए बहूरानी, शनिवार की सुबह 3 बजे बिटिया से पीपल के फेरे लगवा कर ग्रहशांति का पाठ करवाइए,’ पंडितजी ने दूसरी युक्ति सुझाई.

‘तुम्हें यह क्या होता जा रहा है मां, मैं ये जाहिलों वाले काम बिलकुल नहीं करूंगी,’ प्रिया गुस्से से भुनभुनाई, ‘पीपल के फेरे लगाने से कहीं रिश्ते बनते हैं.’

‘सच ही तो है, शादियां यदि पीपल के फेरे लगाने से तय होतीं तो सारी विवाहयोग्य लड़कियां पीपल के इर्दगिर्द ही घूमती नजर आतीं,’ सुशांत ने भी हां में हां मिलाई.

‘चलो, माना कि नहीं होती पर हमें यह सब करने में हर्ज ही क्या है?’

‘हर्ज है शुभा, इस से लड़कियों का मनोबल गिरता है. उन का आत्मसम्मान आहत होता है. बारबार लड़के वालों द्वारा नकारे जाने पर उन में हीनभावना घर कर जाती है. तुम ये सब समझना क्यों नहीं चाहतीं. मानसी को पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने दो. उसे जो बनना है वह बन जाने दो. फिर शादी भी हो जाएगी,’ सुशांत ने मुझे समझाने की कोशिश की.

‘तब तक सारे अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाएंगे, फिर सुनते रहना रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने.’

‘रिश्तेदारों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे. उन की बातों से डर कर क्या हम बेटी की खुशियों, उस के सपनों का गला घोंट दें.’

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं क्या इस की दुश्मन हूं. अरे, लड़कियां चाहे कितनी भी पढ़लिख जाएं, उन्हें आखिर पराए घर ही जाना होता है. घरपरिवार और बच्चे संभालने ही होते हैं और इन सब कामों की एक उम्र होती है. उम्र निकलने के बाद यही काम बोझ लगने लगते हैं.’

‘तो हमतुम मिल कर संभाल लेंगे न इन की गृहस्थी.’

‘संभालेंगे तो तब न जब ब्याह होगा इस का. लड़के वाले तो मंगला सुनते ही भाग खड़े होते हैं.’

हमारी बहस अभी और चलती अगर सुशांत ने मानसी की डबडबाई आंखों को देख न लिया होता.

सुशांत ने ही बीच का रास्ता निकाला था. वे कहीं से पीपल का बोनसाई का पौधा ले आए थे, जिस से मेरी बात भी रह जाए और प्रिया को घर से बाहर भी न जाना पड़े.

साल गुजरते जा रहे थे. मानसी की कालेज की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी.

घर में एक अदृश्य तनाव अब हर समय पसरा रहता. जिस घर में पहले प्रिया की शरारतों व खिलखिलाहटों की धूप भरी रहती, वहीं अब सर्द खामोशी थी.

सभी अपनाअपना काम करते, लेकिन यंत्रवत. रिश्तों की गर्माहट पता नहीं कहां खो गई थी.

हम मांबेटी की बातें जो कभी खत्म ही नहीं होती थीं, अब हां…हूं…तक ही सिमट गई थीं.

जीवन फिर पुराने ढर्रे पर लौटने लगा था कि तभी एक रिश्ता आया. कुलीन ब्राह्मण परिवार का आईएएस लड़का दहेजमुक्त विवाह करना चाहता था. अंधा क्या चाहे, दो आंखें.

हम ने झटपट बात आगे बढ़ाई. और एक दिन उन लोगों ने मानसी को देख कर पसंद भी कर लिया. सबकुछ इतना अचानक हुआ था कि मुझे लगने लगा कि यह सब पुरोहितजी के बताए उपायोें के फलस्वरूप हो रहा है.

हंसीखुशी के बीच हम शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गए थे कि पुरोहित दोबारा आए, ‘जयकारा हो बहूरानी.’

‘सबकुछ आप के आशीर्वाद से ही तो हो रहा है पुरोहितजी,’ मैं ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा.

‘इसीलिए विवाह का मुहूर्त निकालते समय आप ने हमें याद भी नहीं किया,’ वे नाराजगी दिखाते हुए बोले.

‘दरअसल, लड़के वालों का इस में विश्वास ही नहीं है, वे नास्तिक हैं. उन लोगों ने तो विवाह की तिथि भी लड़के की छुट्टियों के अनुसार रखी है, न कि कुंडली और मुहूर्त के अनुसार,’ मैं ने अपनी सफाई दी.

‘न हो लड़के वालों को विश्वास, आप को तो है न?’ पंडित ने छूटते ही पूछा.

‘लड़के वालों की नास्तिकता का परिणाम तो आप की बेटी को ही भुगतना पड़ेगा. यह मंगल दोष किसी को नहीं छोड़ता.’

‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’ जैसेतैसे मेरे मुंह से निकला. पुरोहितजी की बात से शादी की खुशी जैसे काफूर गई थी.

‘कुछ कीजिए पुरोहितजी, कुछ कीजिए. अब तक तो आप ही मेरी नैया पार लगाते आ रहे हैं,’ मैं गिड़गिड़ाई.

‘वह तो है बहूरानी, लेकिन इस बार रास्ता थोड़ा कठिन है,’ पुरोहित ने पान की गिलौरी मुंह में डालते हुए कहा.

‘बताइए तो महाराज, बिटिया की खुशी के लिए तो मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूं,’ मैं ने डबडबाई आंखों से कहा.

‘हर बेटी को आप जैसी मां मिले,’ कहते हुए उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया, फिर मेरे कान के पास मुंह ले जा कर जो कुछ कहा उसे सुन कर तो मैं सन्न रह गई.

‘यह क्या कह रहे हैं आप? कहीं बकरे या कुत्ते से भी कोई मां अपनी बेटी की शादी कर सकती है.’

‘सोच लीजिए बहूरानी, मंगल दोष निवारण के लिए बस यही एक उपाय है. वैसे भी यह शादी तो प्रतीकात्मक होगी और आप की बेटी के सुखी दांपत्य जीवन के लिए ही होगी.’

‘लेकिन पुरोहितजी, बिटिया के पापा भी तो कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन की सलाह के बिना…’

‘अब लेकिनवेकिन छोडि़ए बहूरानी. ऐसे काम गोपनीय तरीके से ही किए जाते हैं. अच्छा ही है जो यजमान घर पर नहीं हैं.

‘आप कल सुबह 8 बजे फेरों की तैयारी कीजिए. जमाई बाबू (बकरा) को मेरे साथी पुरोहित लेते आएंगे और बिटिया को मेरे घर की महिलाएं संभाल लेंगी.

‘और हां, 50 हजार रुपयों की भी व्यवस्था रखिएगा. ये लोग दूसरों से तो 80 हजार रुपए लेते हैं, पर आप के लिए 50 हजार रुपए पर बात तय की है.’ मैं ने कहते हुए पुरोहितजी चले गए.

अगली सुबह 7 बजे तक पुरोहित अपनी मंडली के साथ पधार चुके थे.

पुरोहिताइन के समझाने पर प्रिया बिना विरोध किए तैयार होने चली गई तो मैं ने राहत की सांस ली और बाकी कार्य निबटाने लगी.

‘मुहूर्त बीता जा रहा है बहूरानी, कन्या को बुलाइए.’ पुरोहितजी की आवाज पर मुझे ध्यान आया कि प्रिया तो अब तक तैयार हो कर आई ही नहीं.

‘प्रिया, प्रिया,’ मैं ने आवाज दी, लेकिन कोई जवाब न पा कर मैं ने उस के कमरे का दरवाजा बजाया, फिर भी कोई जवाब नहीं मिला तो मेरा मन अनजानी आशंका से कांप उठा.

‘सुनिए, कोई है? पुरोहितजी, पंडितजी, अरे, कोई मेरी मदद करो. मानसी, मानसी, दरवाजा खोल बेटा.’ लेकिन मेरी आवाज सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मेरे हितैषी होने का दावा करने वाले पुरोहित बजाय मेरी मदद करने के, अपने दलबल के साथ नौदोग्यारह हो गए थे.

हां, आवाज सुन कर पड़ोसी जरूर आ गए थे. किसी तरह उन की मदद से मैं ने कमरे का दरवाजा तोड़ा.

अंदर का भयावह दृश्य किसी की भी कंपा देने के लिए काफी था. मानसी ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस की रगों से बहता खून पूरे फर्श पर फैल चुका था और वह खुद एक कोने में अचेत पड़ी थी. मेरे ऊलजलूल फैसलों से बचने का वह यह रास्ता निकालेगी, यह मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.

पड़ोसियों ने ही किसी तरह हमें अस्पताल तक पहुंचाया और सुशांत को खबर की.

ऐसी बातें छिपाने से भी नहीं छिपतीं. अगली ही सुबह मानसी के ससुराल वालों ने यह कह कर रिश्ता तोड़ दिया कि ऐसे रूढि़वादी परिवार से रिश्ता जोड़ना उन के आदर्शों के खिलाफ है.

‘‘यह सब मेरी वजह से हुआ है,’’ सुशांत से कहते हुए मैं फफक पड़ी.

‘‘नहीं शुभा, यह तुम्हारी वजह से नहीं, तुम्हारी धर्मभीरुता और अंधविश्वास की वजह से हुआ.’’

‘‘ये पंडेपुरोहित तो तुम जैसे लोगों की ताक में ही रहते हैं. जरा सा डराया, ग्रहनक्षत्रों का डर दिखाया और तुम फंस गईं जाल में. लेकिन यह समय इन बातों का नहीं. अभी तो बस यही कामना करो कि हमारी बेटी ठीक हो जाए,’’ कहते हुए सुशांत की आंखें भर आईं.

‘बधाई हो, मानसी अब खतरे से बाहर है,’ डा. रोहित ने आईसीयू से बाहर आते हुए कहा.

‘रोहित, विनोद का बेटा है, मानसी के लिए जिस का रिश्ता मैं ने महज विजातीय होने के कारण ठुकरा दिया था, इसी अस्पताल में डाक्टर है और पिछले 48  घंटों से मानसी को बचाने की खूब कोशिश कर रहा है. किसी अप्राप्य को प्राप्त कर लेने की खुशी मुझे उस के चेहरे पर स्पष्ट दिख रही है. ऐसे समय में उस ने मानसी को अपना खून भी दिया है.

‘क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि रोहित सिर्फ व सिर्फ मेरी बेटी मानसी के लिए ही बना है?

‘मैं भी बुद्धू हूं.

‘मैं ने पहले बहुत गलतियां की हैं. अब और नहीं करूंगी,’ यह सब वह सोच रही थी.

रोहित थोड़ी दूरी पर नर्स को कुछ दवाएं लाने को कह रहा था. उस ने हिम्मत जुटा कर रोहित से आहिस्ता से कहा, ‘‘मानसी ने तो मुझे माफ कर दिया, पर क्या तुम व तुम्हारे परिवार वाले मुझे माफ कर पाएंगे.’’

‘कैसी बातें करती हैं आंटी आप, आप तो मेरी मां जैसी है.’ रोहित ने मेरे जुड़े हुए हाथों को थाम लिया था.

आज उन की भरीपूरी गृहस्थी है. रोहित के परिवार व मेरी बेटी मानसी ने भी मुझे माफ कर दिया है. लेकिन क्या मैं कभी खुद को माफ कर पाऊंगी. शायद कभी नहीं.

इन अंधविश्वासों के चंगुल में फंसने वाली मैं अकेली नहीं हूं. ऐसी घटनाएं हर वर्ग व हर समाज में होती रहती हैं.

मैं आत्मग्लानि के दलदल में आकंठ डूब चुकी थी और अपने को बेटी का जीवन बिगाड़ने के लिए कोस रही थी.

Women’s Day 2024: अपने हुए पराए- श्वेता को क्यों मिली फैमिली की उपेक्षा

‘‘अजय, हम साधारण इनसान हैं. हमारा शरीर हाड़मांस का बना है. कोई नुकीली चीज चुभ जाए तो खून निकलना लाजिम है. सर्दीगरमी का हमारे शरीर पर असर जरूर होता है. हम लोहे के नहीं बने कि कोई पत्थर मारता रहे और हम खड़े मुसकराते रहें.

‘‘अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल करेंगे तो शायद सामने वाले का सम्मान ही न कर पाएं. हम प्रकृति के विरुद्ध न ही जाएं तो बेहतर होगा. इनसानी कमजोरी से ओतप्रोत हम मात्र मानव हैं, महामानव न ही बनें तो शायद हमारे लिए उचित है.’’

बड़ी सादगी से श्वेता ने समझाने का प्रयास किया. मैं उस का चेहरा पढ़ता रहा. कुछ चेहरे होते हैं न किताब जैसे जिन पर ऐसा लगता है मानो सब लिखा रहता है. किताबी चेहरा है श्वेता का. रंग सांवला है, इतना सांवला कि काले की संज्ञा दी जा सकती है…और बड़ीबड़ी आंखें हैं जिन में जराजरा पानी हर पल भरा रहता है.

अकसर ऐसा होता है न जीवन में जब कोई ऐसा मिलता है जो इस तरह का चरित्र और हावभाव लिए होता है कि उस का एक ही आचरण, मात्र एक ही व्यवहार उस के भीतरबाहर को दिखा जाता है. लगता है कुछ भी छिपा सा नहीं है, सब सामने है. नजर आ तो रहा है सब, समझाने को है ही क्या, समझापरखा सब नजर आ तो रहा है. बस, देखने वाले के पास देखने वाली नजर होनी चाहिए.

‘‘तुम इतनी गहराई से सब कैसे समझा पाती हो, श्वेता. हैरान हूं मैं,’’ स्टाफरूम में बस हम दोनों ही थे सो खुल कर बात कर पा रहे थे.

‘‘तारीफ कर रहे हो या टांग खींच रहे हो?’’

श्वेता के चेहरे पर एक सपाट सा प्रश्न उभरा और होंठों पर भी. चेहरे पर तीखा सा भाव. मानो मेरा तारीफ करना उसे अच्छा नहीं लगा हो.

‘‘नहीं तो श्वेता, टांग क्यों खींचूंगा मैं.’’

‘‘मेरी वह उम्र नहीं रही अब जब तारीफ के दो बोल कानों में शहद की तरह घुलते हैं और ऐसा कुछ खास भी नहीं समझा दिया मैं ने जो तुम्हें स्वयं पता न हो. मेरी उम्र के ही हो तुम अजय, ऐसा भी नहीं कि तुम्हारा तजरबा मुझ से कम हो.’’

अचानक श्वेता का मूड ऐसा हो जाएगा, मैं ने नहीं सोचा था…और ऐसी बात जिस पर उसे लगा मैं उस की चापलूसी कर रहा हूं. अगर उस की उम्र अब वह नहीं जिस में प्रशंसा के दो बोल शहद जैसे लगें तो क्या मेरी उम्र अब वह है जिस में मैं चापलूसी करता अच्छा लगूं? और फिर मुझे उस से क्या स्वार्थ सिद्ध करना है जो मैं उस की चापलूसी करूंगा. अपमान सा लगा मुझे उस के शब्दों में, पता नहीं उस ने कहां का गुस्सा कहां निकाल दिया होगा.

‘‘अच्छा, बताओ, चाय लोगे या कौफी…सर्दी से पीठ अकड़ रही है. कुछ गरम पीने को दिल कर रहा है. क्या बनाऊं? आज सर्दी बहुत ज्यादा है न.’’

‘‘मेरा मन कुछ भी पीने को नहीं है.’’

‘‘नाराज हो गए हो क्या? तुम्हारा मन पीने को क्यों नहीं, मैं समझ सकती हूं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन का क्या अर्थ है श्वेता, मेरी जरा सी बात का तुम ने अफसाना ही बना दिया.’’

‘‘अफसाना कहां बना दिया. अफसाना तो तब बनता जब तुम्हारी तारीफ पर मैं इतराने लगती और बात कहीं से कहीं ले जाते तुम. मुझे बिना वजह की तारीफ अच्छी नहीं लगती…’’

‘‘बिना वजह तारीफ नहीं की थी मैं ने, श्वेता. तुम वास्तव में किसी भी बात को बहुत अच्छी तरह समझा लेती हो और बिना किसी हेरफेर के भी.’’

‘‘वह शायद इसलिए भी हो सकता है क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण भी वही होगा जो मेरा है. तुम इसीलिए मेरी बात समझ पाए क्योंकि मैं ने जो कहा तुम उस से सहमत थे. सहमत न होते तो अपनी बात कह कर मेरी बात झुठला सकते थे. मैं अपनेआप गलत प्रमाणित हो जाती.’’

‘‘तो क्या यह मेरा कुसूर हो गया, जो तुम्हारे विचारों से मेरे विचार मेल खा गए.’’

‘‘फैशन है न आजकल सामने वाले की तारीफ करना. आजकल की तहजीब है यह. कोई मिले तो उस की जम कर तारीफ करो. उस के बालों से…रंग से…शुरू हो जाओ, पैर के अंगूठे तक चलते जाओ. कितने पड़ाव आते हैं रास्ते में. आंखें हैं, मुसकान है, सुराहीदार गरदन है, हाथों की उंगलियां भी आकर्षक हो सकती हैं. अरे, भई क्या नहीं है. और नहीं तो जूते, चप्पल या पर्स तो है ही. आज की यही भाषा है. अपनी बात मनवानी हो या न भी मनवानी हो…बस, सामने वाले के सामने ऐसा दिखावा करो कि उसे लगे वही संसार का सब से समझदार इनसान है. जैसे ही पीठ पलटो अपनी ही पीठ थपथपाओ कि हम ने कितना अच्छा नाटक कर लिया…हम बहुत बड़े अभिनेता होते जा रहे हैं…क्या तुम्हें नहीं लगता, अजय?’’

‘‘हो सकता है श्वेता, संसार में हर तरह के लोग रहते हैं…जितने लोग उतने ही प्रकार का उन का व्यवहार भी होगा.’’

‘‘अच्छा, जरा मेरी बात का उत्तर देना. मैं कितनी सुंदर हूं तुम देख सकते हो न. मेरा रंग गोरा नहीं है और मैं अच्छेखासे काले लोगों की श्रेणी में आती हूं. अब अगर कोई मुझ से मिल कर यह कहना शुरू कर दे कि मैं संसार की सब से सुंदर औरत हूं तो क्या मैं जानबूझ कर बेवकूफ बन जाऊंगी? क्या मैं इतनी सुंदर हूं कि सामने वाले को प्रभावित कर सकूं?’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो, श्वेता. तुम से किस ने कह दिया कि तुम सुंदर नहीं हो.’’

सहसा मेरे होंठों से भी निकल गया और मैं कहीं भी कोई दिखावा या झूठ नहीं बोल रहा था. अवाक् सी मेरा मुंह ताकने लगी श्वेता. इतनी स्तब्ध रह गई मानो मैं ने जो कहा वह कोरा झूठ हो और मैं एक मंझा हुआ अभिनेता हूं जिसे अभिनय के लिए पद्मश्री सम्मान मिल चुका हो.

‘‘श्वेता, तुम्हारा व्यक्तित्व दूर से प्रभावित करता है. सुंदरता का अर्थ क्या है तुम्हारी नजर में, क्या समझा पाओगी मुझे?’’

मैं ने स्थिति को सहज रूप में संभाल लिया. उस पर जरा सा संतोष भी हुआ मुझे. फीकी सी मुसकान उभर आई थी श्वेता के चेहरे पर.

‘‘हम 40 पार कर चुके हैं. तुम सही कह रही थीं कि अब हमारी उम्र वह नहीं रही जब तारीफ के झूठे बोल हमारी समझ में न आएं. कम से कम सच्ची और ईमानदार तारीफ तो हमारी समझ में आनी चाहिए न. मैं तुम्हारी झूठी तारीफ क्यों करूंगा…जरा समझाओ मुझे. मेरा कोई रिश्तेदार तुम्हारा विद्यार्थी नहीं है जिसे पास कराना मेरी जरूरत हो और न ही मेरे बालबच्चे ही उस उम्र के हैं जिन के नंबरों के लिए मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ूं. 2 बच्चियों का पिता हूं मैं और  चाहूंगा कि मेरी बेटियां बड़ी हो कर तुम जैसी बनें.

‘‘हमारे विभाग में तुम्हारा कितना नाम है. क्या तुम्हें नहीं पता. तुम्हारी लिखी किताबें कितनी सीधी सरल हैं, तुम जानती हो न. हर बच्चा उन्हीं को खरीदना चाहता है क्योंकि वे जितनी व्यापक हैं उतनी ही सरल भी हैं. अपने विषय की तुम जीनियस हो.’’

इतना सब कह कर मैं ने मुसकराने का प्रयास किया लेकिन चेहरे की मांसपेशियां मुझे इतनी सख्त लगीं जैसे वे मेरे शरीर का हिस्सा ही न हों.

श्वेता एकटक निहारती रही मुझे. सहयोगी हैं हम. अकसर हमारा सामना होता रहता है. श्वेता का रंग सांवला है, लेकिन गोरे रंग को अंगूठा दिखाता उस का गरिमापूर्ण व्यक्तित्व इतना अच्छा है कि मैं अकसर सोचता हूं कि सुंदरता हो तो श्वेता जैसी. फीकेफीके रंगों की उस की साडि़यां बहुत सुंदर होती हैं. अकसर मैं अपनी पत्नी से श्वेता की बातें करता हूं. जैसी सौम्यता, जैसी सहजता मैं श्वेता में देखता हूं वैसी अकसर दिखाई नहीं देती. गरिमा से भरा व्यक्तित्व समझदारी अपने साथ ले कर आता है, यह भी साक्षात श्वेता में देखता हूं मैं.

‘‘अजय, कम से कम तुम तो ऐसी बात न करो,’’ सहसा अपने होंठ खोले श्वेता ने, ‘‘अच्छा नहीं लगता मुझे.’’

‘‘क्यों अच्छा नहीं लगता, श्वेता? अपने को कम क्यों समझती हो तुम?’’

‘‘न कम समझती हूं मैं और न ही ज्यादा… जितनी हूं कम से कम उतने में ही रहने दो मुझे.’’

‘‘तुम एक बहुत अच्छी इनसान हो.’’

अपने शब्दों पर जोर दिया मैं ने क्योंकि मैं चाहता हूं मेरे शब्दों की सचाई पर श्वेता ध्यान दे. सुंदरता किसे कहा जाता है, यह तो कहने वाले की सोच और उस की नजरों में होती है न, जो सुंदरता को देखता है और जिस के मन में वह जैसी छाप छोड़ती है. खूबसूरती तो सदा देखने वाले की नजर में होती है न कि उस में जिसे देखा जाए.

‘‘तुम चाय पिओगे कि नहीं, हां या ना…जल्दी से कहो. मेरे पास बेकार बातों के लिए समय नहीं है.’’

‘‘श्वेता, अकसर बेकार बातें ही बड़े काम की होती हैं, जिन बातों को हम जीवन भर बेकार की समझते रहते हैं वही बातें वास्तव में जीवन को जीवन बनाने वाली होती हैं. बड़ीबड़ी घटनाएं जीवन में बहुत कम होती हैं और हम पागल हैं, जो अपना जीवन उन की दिशा के साथ मोड़तेजोड़ते रहते हैं. हम आधी उम्र यही सोचते रहते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते होंगे, तीनचौथाई उम्र यही सोचने में गुजार देते हैं कि वह कहीं हमारे बारे में बुरा तो नहीं सोचते होंगे.’’

धीरे से मुसकराने लगी श्वेता और फिर हंस कर बोली, ‘‘और उम्र के आखिरी हिस्से में आ कर हमें पता चलता है कि लोगों ने तो हमारे बारे में अच्छा या बुरा कभी सोचा ही नहीं था. लोग तो मात्र अपनी सुविधा और अपने सुख के बारे में सोचते हैं, हम से तो उन्हें कभी कुछ लेनादेना था ही नहीं.’

जीवन का इतना बड़ा सत्य इतनी सरलता से कहने लगी श्वेता. मैं भी अपनी बात पूरी होते देख हंस पड़ा.

‘‘वह सब तो मैं पहले से ही समझती हूं. हालात और दुनिया ने सब समझाया है मुझे. बचपन से अपनी सूरत के बारे में इतना सुन चुकी हूं कि…’’

‘‘कि अपने अस्तित्व की सौम्यता भूल ही गई हो तुम. भीड़ में खड़ी अलग ही नजर आती हो और वह इसलिए नहीं कि तुम्हारा रंग काला है, वह इसलिए कि तुम गोरी मेकअप से लिपीपुती महिलाओं में खड़ी अलग ही नजर आती हो और समझा जाती हो कि सुंदरता किसी मेकअप की मोहताज नहीं है.

‘‘मैं पुरुष हूं और पुरुषों की नजर सुंदरता भांपने में कभी धोखा नहीं खाती. जिस तरह औरत पुरुष की नजर पहचानने में भूल नहीं करती… झट से पहचान जाती है कि नजरें साफ हैं या नहीं.’’

‘‘नजरें तो तुम्हारी साफ हैं, अजय, इस में कोई दो राय नहीं है,’’ उठ कर चाय बनाने लगी श्वेता.

‘‘धन्यवाद,’’ तनिक रुक गया मैं. नजरें उठा कर मुझे देखा श्वेता ने. कुछ पल को विषय थम सा गया. सांवले चेहरे पर सुनहरा चश्मा और कंधे पर गुलाबी रंग की कश्मीरी शाल, पारदर्शी, सम्मोहित सा करता श्वेता का व्यवहार.

‘‘अजय ऐसा नहीं है कि मैं खुश रहना नहीं चाहती. भाईबहन, रिश्तेदार, अपनों का प्यार किसे अच्छा नहीं लगता और फिर अकेली औरत को तो भाईबहन का ही सहारा होता है न. यह अलग बात है, वह सब की बूआ, सब की मौसी तो होती है लेकिन उस का कोई नहीं होता. ऐसा कोई नहीं होता जिस पर वह अधिकार से हाथ रख कर यह कह सके कि वह उस का है.’’

चाय बना लाई श्वेता और पास में बैठ कर बताने लगी :

‘‘मेरी छोटी बहन के पति मेरी जम कर तारीफ करते हैं और इस में बहन भी उन का साथ देती है. लेकिन वह जब भी जाते हैं, मेरा बैंक अकाउंट कुछ कम कर के जाते हैं. बच्चों की महंगी फीस का रोना कभी बहन रोती है और कभी भाभी. घर पर पड़ी नापसंद की गई साडि़यां मुझे उपहार में दे कर वे समझते हैं, मुझ पर एहसान कर रहे हैं. उन्हें क्या लगता है, मैं समझती नहीं हूं. अजय, मेरी बहन का पति वही इनसान है जो रिश्ते के लिए मुझे देखने आया था, मैं काली लगी सो छोटी को पसंद कर गया. तब मैं काली थी और आज मैं उस के लिए संसार की सब से सुंदर औरत हूं.’’

अवाक् रह गया था मैं.

‘‘मेरी तारीफ का अर्थ है मुझे लूटना.’’

‘‘तुम समझती हो तो लुटती क्यों हो?’’

‘‘जिस दिन लुटने से मना कर दिया उसी दिन शीशा दिख जाएगा मुझे…जिस दिन मैं ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की, उसी दिन उन का अपमान हो जाएगा. मैं अकेली जान…भला मेरी क्या जरूरतें, जो मैं ने उन की मदद करने से मना कर दिया. मुझे कुछ हो गया तो मेरा घर, मेरा रुपयापैसा भला किस काम आएगा.’’

‘‘तुम्हें कुछ हो गया…इस का क्या मतलब? तुम्हें क्या होने वाला है, मैं समझा नहीं…’’

‘‘मेरी 40 साल की उम्र है. अब मेरी शादी करने की उम्र तो रही नहीं. किस के लिए है, जो सब मैं कमाती हूं. मैं जब मरूंगी तो सब उन का ही होगा न.’’

‘‘जब मरोगी तब मरोगी न. कौन कब जाने वाला है, इस का समय निश्चित है क्या? कौन पहले जाने वाला है कौन बाद में, इस का भी क्या पता… बुरा मत मानना श्वेता, अगर मैं तुम्हारी मौत की कामना कर तुम्हारी धनसंपदा पर नजर रखूं तो क्या मुझे अपनी मृत्यु का पता है कि वह कब आने वाली है. अपना भी खा सकूंगा इस की भी क्या गारंटी, जो तुम्हारा भी छीन लेने की आस पालूं. तुम्हारे भाई व बहन 100 साल जिएं लेकिन उन्हें तुम्हें लूटने का कोई अधिकार नहीं है.’’

पलकें भीग गईं श्वेता की. कमरे में देर तक सन्नाटा छाया रहा. चश्मा उतार कर आंखें पोंछीं श्वेता ने.

‘‘अजय, वक्त सब सिखा देता है. यह संसार और दुनियादारी बहुत बड़ा स्कूल है, जहां हर पल कुछ नया सीखने को मिलता है. बहुत अच्छा बनने की कोशिश भी इनसान को कहीं का नहीं छोड़ती. मानव से महामानव बनना आसान है लेकिन महामानव से मानव बनना आसान नहीं. किसी को सदा देने वाले हाथ मांगते हुए अच्छे नहीं लगते. मैं सदा देती हूं, जिस दिन इनकार करूंगी…’’

‘‘तुम्हें महामानव होने का प्रमाणपत्र किस ने दिया है? …तुम्हारे भाईबहन ने ही न. वे लोग कितने स्वार्थी हैं क्या तुम्हें दिखता नहीं. इस उम्र में क्या तुम्हारा घर नहीं बस सकता, मरने की बातें करती हो…अभी तुम ने जीवन जिया कहां है… तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं. इस काम में तुम चाहो तो मैं और मेरी पत्नी तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं.’’

अवाक् रह गई थी श्वेता. इस तरह हैरान मानो जो सुना वह कभी हो ही नहीं सकता.

‘‘शायद तुम यह नहीं जानतीं कि हमारे घर में तुम्हारी चर्चा इसलिए भी है क्योंकि मेरी पत्नी और दोनों बेटियां भी सांवले रंग की हैं. पलपल स्वयं को दूसरों से कम समझना उन का भी स्वभाव बनता जा रहा है. तुम्हारी चर्चा कर के उन्हें यह समझाना चाहता हूं कि देखो, हमारी श्वेताजी कितनी सुंदर हैं और मैं सदा चाहूंगा कि मेरी दोनों बेटियां तुम जैसी बनें.’’

स्वर भर्रा गया था मेरा. श्वेता के अति व्यक्तिगत पहलू को इस तरह छू लूंगा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

चुप थी श्वेता. आंखें टपकने लगी थीं. पास जा कर कंधा थपथपा दिया मैं ने.

‘‘हम आफिस के सहयोगी हैं… अगर भाई बन कर तुम्हारा घर बसा पाऊं तो मुझे बहुत खुशी होगी. क्या हमारे साथ रिश्ता बांधना चाहोगी? देखो, हमारा खून का रिश्ता तो नहीं होगा लेकिन जैसा भी होगा निस्वार्थ होगा.’’

रोतेरोते हंसने लगी थी श्वेता. देर तक हंसती रही. चुपचाप निहारता रहा मैं. जब सब थमा तब ऐसा लगा मानो नई श्वेता से मिल रहा हूं. मेरा हाथ पकड़ देर तक सहलाती रही श्वेता. सर पर हाथ रखा मैं ने. शायद उसी से कुछ कहने की हिम्मत मिली उसे.

‘‘अजय, क्या पिता बन कर मेरा कन्यादान करोगे? मैं शादी करना चाहती हूं पर यह समझ नहीं पा रही कि सही कर रही हूं या गलत. कोई ऐसा अपना नहीं मिल रहा था जिस से बात कर पाती. ऐसा लग रहा था, कोई पाप कर रही हूं क्योंकि मेरे अपनों ने तो मुझे वहां ला कर खड़ा कर दिया है जहां अपने लिए सोचना भी बचकाना सा लगता है.’’

मैं सहसा चौंक सा गया. मैं तो बस सहज बात कर रहा था और वह बात एक निर्णय पर चली आएगी, शायद श्वेता ने भी नहीं सोचा होगा.

‘‘सच कह रही हो क्या?’’

‘‘हां. मेरे साथ ही पढ़ते थे वह. एम.ए. तक हम साथ थे. 15 साल पहले उन की शादी हो गई थी. मेरे पिताजी के गुजर जाने के बाद मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी थी इसलिए मेरी मां ने भी मेरा घर बसा देना जरूरी नहीं समझा. भाईबहनों को ही पालतेब्याहते मैं बड़ी होती गई…ऊपर से मेरा रंग भी काला. सोने पर सुहागा.

‘‘पिछली बार जब मैं दिल्ली में होने वाले सेमिनार में गई थी तब सहायजी से वहां मुलाकात हुई थी.’’

‘‘सहायजी, वही जो दिल्ली विश्वविद्यालय में ही रसायन विभाग में हैं. हां, मैं उन्हें जानता हूं. 2 साल पहले कार एक्सीडेंट में उन की पत्नी और बेटे का देहांत हो गया था. उन की बेटी यहीं लुधियाना में है.’’

‘‘और मैं उस बच्ची की स्थानीय अभिभावक हूं,’’ धीरे से कहा श्वेता ने. एक हलकी सी चमक आ गई उस की नजरों में. मैं समझ सकता हूं उस बच्ची की वजह से श्वेता के मन में ममता का अंकुर फूटा होगा. सहाय भी बहुत अच्छे इनसान हैं. बहुत सम्मान है उन का दिल्ली में.

‘‘क्या सहाय ने खुद तुम्हारा हाथ मांगा है?’’

‘‘वह और उन की बेटी दोनों ही चाहते हैं. मैं कोई निर्णय नहीं ले पा रही हूं. मैं क्या करूं, अजय. कहीं इस में उन का भी कोई स्वार्थ तो नहीं है.’’

‘‘जरा सा स्वार्थी तो हर किसी को होना ही चाहिए न. उन्हें पत्नी चाहिए, तुम्हें पति और बच्ची को मां. श्वेता, 3 अधूरे लोग मिल कर एक सुखी घर की स्थापना कर सकते हैं. जरूरतें इनसानों को जोड़ती हैं और जुड़ने के बाद प्यार भी पनपता है. मुझे 2 दिन का समय दो. मैं अपने तरीके से सहाय के बारे में छानबीन कर के तुम्हें बताता हूं.’’

शायद श्वेता के शब्दों का ही प्रभाव होगा, एक पिता जैसी भावना मन को भिगोने लगी. माथा सहला दिया मैं ने श्वेता का.

‘‘मैं और तुम्हारी भाभी सदा तुम्हारे साथ हैं, श्वेता. तुम अपना घर बसाओ और खुश रहो.’’

श्वेता की आंखों में रुका पानी झिलमिलाने लगा था. पसंद तो मैं उस को सदा से करता था, उस से एक रिश्ता भी बंध जाएगा पता न था. उस का मेरा हाथ अपने माथे से लगा कर सम्मान सहित चूम लेना मैं आज भी भूला नहीं हूं. रिश्ता तो वह होता है न जो मन का हो, रक्त के रिश्ते और उन का सत्य अब सत्य कहां रह गया है. किसी चिंतक ने सही कहा है, जो रक्त पिए वही रक्त का रिश्तेदार.

सहाय, श्वेता और वह बच्ची मृदुला, तीनों आज मेरे परिवार का हिस्सा हैं. श्वेता के भाईबहन उस से मिलतेजुलते नहीं हैं. नाराज हैं, क्या फर्क पड़ता है, आज रूठे हैं, कल मान भी जाएंगे. आज का सत्य यही है कि श्वेता के माथे की सिंदूरी आभा बहुत सुंदर लगती है. अपनी गृहस्थी में वह बहुत खुश है. मेरा घर उस का मायका है. एक प्यारी सी बेटी की तरह वह चली आती है मेरी पत्नी के पास. दोनों का प्यार देख कभीकभी सोचता हूं लोग क्यों खून के रिश्तों के लिए रोते हैं. दाहसंस्कार करने के अलावा भला यह काम कहां आता है.

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