जलते अलाव: भाग 3- क्यों हिम्मत नही जुटा सका नलिन

28 साल का अध्यापन अनुभव प्राचार्य की बारबार नुक्ताचीनी के कारण धीरेधीरे अपना विश्वास खोने लगा. प्राचार्य वक्त- बे-वक्त उसे कक्षा से बुला कर ऐडमिशन के सिलसिले में नित नए सवाल पूछ कर, कभी टीचिंग को ले कर बच्चों के सामने अपमानित करने का मौका ढूंढ़ने लगे. जरी पलपल आहत होती रही पर अपने आत्मविश्वास को डगमगाने नहीं दिया.

प्राचार्य और उन के मुंहलगे चमचे एक तरफ तो शिक्षा को व्यापार बनाने पर तुले हुए थे दूसरी तरफ कर्म के प्रति कटिबद्ध और समर्पित जरी भीड़ में भी एकदम तन्हा रह गई थी.

‘तुम प्राचार्य की कंप्लेन क्यों नहीं करतीं असिस्टैंट कमिश्नर से?’ सहेली, दिल्ली की उपप्राचार्या ने फोन पर सलाह दी थी.

‘मेरे रिटायरमैंट को 2 साल रह गए हैं. मेरी कंप्लेन पर इन्क्वायरी होगी. ऐसे में हो सकता है प्राचार्य कोई नया झूठा केस बना दें क्योंकि वे मालिक हैं स्कूल के, गवाह भी उन्हीं के, वकील भी उन्हीं के. नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनेगा? केस के चलते मेरे फंड के पैसे रोक दिए जाएंगे. मेरी पैंशन भी लागू नहीं होगी. नैनी, एक नौकरी ही तो है मेरा सहारा. पैसे न होंगे तो बच्चों को कैसे पढ़ा सकूंगी? उन का भविष्य अंधेरे से घिर जाएगा. इसलिए चुपचाप सहती रही…’ बोलते हुए गला

भर्रा गया जरी का.

‘लेकिन नैना, उस दिन तो हद हो गई. जब चपरासी को भेज कर शाम 6 बजे मुझे अपने चैंबर में बुलवाया प्राचार्य ने,’ जरी ने हिचकियों के बीच अपने पर किए गए जुल्म की कहानी का एक और पृष्ठ खोला.

‘गुड ईवनिंग सर.’

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‘गुड ईवनिंग.’

‘सर, आप अभी तक औफिस में?’

‘यस, कुछ कौन्फिडैंशियल रिपोर्ट हैडक्वार्टर भेजनी है, इसलिए…’

‘सर, मुझे क्यों बुलाया आप ने?’

‘फर्स्ट औफ औल, लेट मी क्लीयर मिसेज जरीना हमीद. वी आर सैंट्रल गवर्नमैंट एंप्लाई. वी कुड बी कौल ऐट एनीटाइम. वी आर द सर्वेंट औफ ट्वंटीफोर औवर्स, अंडरस्टैंड?’ प्राचार्य की आवाज का खुरदरापन चुभ गया जरी को.

‘यस सर.’

‘मैडम, हैव ए लुक औन दीज पेपर्स,’ कागजों का पुलिंदा जरी की तरफ बढ़ाते हुए बोले प्राचार्य.

‘ह्वाट इज दिस, सर?’

‘आप के खिलाफ पेरैंट्स ने कंप्लेन की है कि आप क्लास में पढ़ाते समय बच्चों के मन में सांप्रदायिकता के कड़वे बीज बो रही हैं,’ प्राचार्य कुटिलता से मुसकराए.

‘नो, दिस इज एब्सौल्यूटली रौंग. आई हैड नैव्हर डन दिस टाइप औफ चीप टौक इन द क्लासरूम,’ जोर से चीखने के कारण जरी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया, ‘दिस इज अ प्लान्ड कौंस्पिरेसी अगेंस्ट मी.’

‘आवाज धीमी कीजिए मैडम जरीना हमीद, ये लिखित कंप्लेंट्स हैं आप के खिलाफ, 1 नहीं 10-12. इन्क्वायरी से पहले स्कूल का हैड होने के नाते मुझ से रिपोर्ट मांगी गई है.’

सुन कर जरी की आंखों में हजारों अलाव सुलगने लगे.

‘सर, ये सारी कंप्लेंट्स फर्जी हैं. आई नो इट वैरी वैल. मैं एक सोशल स्टडीज की टीचर हूं. बच्चों को स्वस्थ सोच देना मेरी जिम्मेदारी है. छोटीछोटी घटनाओं के माध्यम से बच्चों के मन में धर्म निरपेक्षता की फीलिंग भरना मेरी मौरल ड्यूटी है. मैं अब तक 14 प्राचार्यों के साथ काम कर चुकी हूं. 7 अलगअलग शहरों में. मेरी पर्सनल फाइल उठा कर देखिए. कोई मैमो, कोई वार्निंग लेटर नहीं है. सर, बहुत सोचसमझ कर मेरे खिलाफ बनाई गई है यह साजिश. आई नो दैट वैरी वैल.’

‘इट मींस यू आर ब्लेमिंग टू मी? मैं ने कोई साजिश रची है? जानती हैं, आप के द्वारा अथौरिटी की इंसल्ट करने और उस पर बेबुनियाद ब्लेम लगाने के जुर्म में मैं आप को सस्पैंड कर सकता हूं,’ प्राचार्य ने जहरीला फन फुफकारा.

‘आप कुरसी पर हैं, इसलिए जो जी चाहे कर सकते हैं और अल्पसंख्यक महिला शिक्षिका को अपनी सचाई साबित करने की दलील पर सस्पैंड कर सकते हैं. सर, इट इज एनफ. आप ने जब से यहां जौइन किया है, मेरा नौकरी करना मुश्किल कर दिया है क्योंकि मेरा नाम जरीना हमीद है और मैं मुसलमान हूं और आप की दुश्मनी पूरी मुसलिम कौम से है,’ बोलते हुए हांफने लगी जरी.

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‘आप की बेटी और बीवी को सांप्रदायिक दंगों में जिंदा जला दिया गया तो क्या उस की सजा आप मुझे देंगे? आप की जिंदगीभर की कमाई दंगाइयों ने लूट ली तो उस का बदला आप मुझ से मेरी नौकरी छीन कर लेंगे? क्योंकि मैं मुसलमान हूं. नो, नो, यू कांट डू दिस. आप चंद गुमराह लोगों की वहशियाना हरकत की सजा मुझे गुनाहगार साबित कर के देना चाहते हैं. अपने मन की धधकती आग को ठंडा करना चाहते हैं तो यह मैं किसी हाल में होने नहीं दूंगी. खुद को नीचा दिखलाने का कोई मौका आप को कतई नहीं दूंगी, नहीं दूंगी,’ कहती हुई जरी चैंबर से बाहर निकल गई और दूसरे दिन अपनी वीआरएस लेने की ऐप्लिकेशन हैडक्वार्टर भिजवा कर एक कौपी प्राचार्य को थमा आई.

प्राचार्य ने उस रात मुंह लगे चमचों के साथ अपनी कामयाबी का जश्न मनाया. ‘इसी तरह एकएक का सफाया कर दूंगा. और तब तक करता रहूंगा जब तक भारत में एक भी मुसलमान बाकी रहेगा.’

2 महीने बाद जरी की ऐप्लिकेशन हैडक्वार्टर ने मंजूर कर ली और वह बच्चों को अपने कमजोर पंखों में समेटे अपने पैतृक घर में वापस आ गई.

‘‘अब तुम्हीं बतलाओ नैना, मैं तुम्हें कैसे बतलाती कि मेरी 30 साल की ईमानदारी, काम के प्रति पूरा डिवोशन और 10वीं, 12वीं के मासूम बच्चों को कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंचाने के बदले में मुझे क्या मिला…बेइज्जती, जिल्लत, जिंदगीभर के लिए लाचारी और मजबूरियां. धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा कर मैं ने छात्रों के दिल से दूसरी कौम के प्रति उपजने वाली नफरत को जड़मूल से नष्ट करने की कोशिश की, उन्हें सांप्रदायिकता का घिनौना पाठ भला मैं कैसे पढ़ा सकती हूं, नैना.’’

जरी की आंसुओं से भीगी आवाज सुन कर मैं खुद पर नियंत्रण नहीं रख सका. लड़खड़ाते कदमों से कमरे से बाहर निकल कर दोनों हाथों से छाती को दबा लिया. दर्द का गुबार उठा और मैं बालकनी की रेलिंग पकड़ कर नीचे फर्श पर गिर सा गया. चेतनाशून्य होता दिमाग, चक्कर खाती आंखें, धौंकनी की तरह चलती सांसें सवाल करने लगीं, ‘जो शख्सीयत लहू बन कर मेरी रगों में 30 सालों से दौड़ रही है, जिस का तसव्वुर मेरी सांसों को जिंदगी देता रहा है उसे मैं ने और मेरी कौम ने धर्म और जाति के नाम पर क्या दिया? अपमान, तिरस्कार और अविश्वास. जीवनभर का घोर मानसिक आघात. वह मुसलमान होने से पहले एक इंसान है, सिर्फ इंसान, यह कभी नहीं सोचा किसी ने.’

बरसों बाद भी मैं अपनी कंपकंपाती उंगलियों से उस के आंसू पोंछ कर उस के सिर पर तसल्लीभरा हाथ रखने की हिम्मत नहीं जुटा सका.

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जलते अलाव: भाग 1- क्यों हिम्मत नही जुटा सका नलिन

सुपर मार्केट से होली के त्योहार का सामान खरीद कर पार्किंग में गाड़ी के पास पहुंचा तो बगल में ही किसी को गाड़ी पार्क करते देखा. पीछे से हुलिया जानापहचाना सा लगा. महिला ने रिमोट से गाड़ी को लौक किया और चाबी को पर्स में डाल कर जैसे ही मेरी तरफ पलटी, मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया-

‘‘अरे जरी, आप? यहां कब आईं?’’

‘‘नलिनजी,’’ अभिवादन के लिए दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘‘नमस्ते, कैसे हैं आप? नैना कैसी है? मैं पिछले महीने ही यहां आई हूं.’’

वही 30 साल पुराना शालीन अंदाज. आवाज में वही ठहराव. चेहरे पर वही चिरपरिचित सौम्य सी मुसकराहट. जरा भी नहीं बदली जरी.

‘‘आप 1 महीने से यहां हैं और हमें खबर तक नहीं दी,’’ मैं ने नाराजगी दिखाते हुए अधिकारपूर्वक जवाब तलब किया.‘‘दरअसल, वो घर को व्यवस्थित करने में…’’ विषम परिस्थितियों की पीड़ा का कभी भी खुलासा न करने का वही बरसों पुराना अंदाज. इसलिए मैं ने नहीं कुरेदा.

‘‘मैं घर ही जा रहा हूं, आप भी साथ चलिए न. नैना आप के लिए बहुत चिंतित है,’’ मैं ने आग्रह किया.

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‘‘जी, अभी तो मुमकिन नहीं हो सकेगा. यह मेरा फोन नंबर है. नैना जब भी फुरसत में हो कौल कर लेगी तो मैं हाजिर हो जाऊंगी,’’ पर्स से विजिटिंग कार्ड निकाल कर मेरी तरफ बढ़ाते हुए वह बोली और धीमेधीमे कदम बढ़ाते हुए बाजार की भीड़ में खो गई. मैं स्तब्ध खड़ा उसे आंखों से ओझल होने तक देखता रहा.

किसी गाड़ी के हौर्न ने चौंका दिया, और मैं खुद को असमंजस की स्थिति से बाहर निकालने की नाकाम कोशिश करते हुए गाड़ी स्टार्ट करने लगा.

घर पहुंचा तो नैना से सामना होते हुए मैं उसे जरी के बारे में न बतला सका, जानता था कि जरी के इसी शहर में होने की खबर पा कर वह खुद को रोक नहीं पाएगी. उस की जिद मुझे लाचार कर देगी. पिछले  5 सालों में लगभग 5 हजार बार वह जरी की कोई खबर न मिलने की शिकायत कर के चिंता जाहिर कर चुकी है. उस रात कौर गले से नीचे नहीं उतरा. अनमना सा छत पर आ गया. साफशफ्फाक आसमान के टिमटिमाते सितारों ने दिल को सुकून दिया. मेरी जिंदगी के आसमान का ऐसा ही रोशन सितारा तो है जरी. कहने को 3 दशक बीत गए. स्याह बालों में सफेदी ने भी कब्जा जमा लिया मगर लगता है जैसे कल की ही बात हो.

मैं ने एमए में ऐडमिशन लिया तो मेरी छोटी बहन नैना ने भी उसी कालेज में बीए में ऐडमिशन ले लिया. पहले दिन क्लास अटैंड कर के आई तो मां को बतलाने लगी, ‘आई (मां), पता है आज कालेज में एक लड़की से भेंट हो गई. उस के सब्जैक्ट भी मेरे जैसे ही हैं. मैं पूरे 2 घंटे उस के साथ कालेज कैंपस में घूमती रही. लाइब्रेरी का कार्ड बनवाया. औडिटोरियम में टैनिस कोर्ट भी देख लिया और कौन से लैक्चरार किस सब्जैक्ट को पढ़ाएंगे, यह भी जान लिया.’

‘देख, इतनी जल्दी किसी लड़की से इतना घुलनामिलना ठीक नहीं. पता नहीं कैसी है वह लड़की.’

मां ने हिदायत दी तो नैना का उत्साह बर्फीली पहाड़ी के तापमान की तरह तेजी से नीचे आ गया.

‘अच्छा तो यह बात है. क्या नाम है उस का? कहां रहती है? उस के पिताजी क्या काम करते हैं?’ मां ने नैना की उदासी भांप ली.

‘नाम तो मैं ने पूछा ही नहीं, आई. अच्छा, कल पूछ कर तुम्हारे सारे सवालों का जवाब दे दूंगी,’ नैना हिरणी की तरह छलांगें मारते हुए दूसरे कमरे की तरफ बढ़ गई.

दूसरे दिन मैं नैना को साइकिल पर पीछे बैठा कर कालेज ले जा रहा था. रास्ते में एक लड़की को पैदल चलते देख कर वह जोर से चिल्लाई, ‘नीलू भैया, मुझे यहीं पर उतार दीजिए. वह जा रही है मेरी कल वाली सहेली. मैं उस के साथ चली जाऊंगी.’

नैना धम्म से साइकिल से कूदी और दौड़ती हुई उस लड़की के साथ कदम से कदम मिला कर चलने लगी. तब मैं ने पहली बार उस को देखा था. सुडौल काया, तीखे नैननक्श वाली उजली रंगत की लड़की.

कालेज से लौटते ही नैना अपनी क्लास के अलावा अपनी सहेली की चर्चा करना नहीं भूलती. आई को बतलाती, ‘आई, मेरी सहेली का नाम जरीना हमीद है. 11वीं की मैरिट होल्डर है. उस के अब्बू फौरेस्ट औफिस में रेंजर हैं. बहुत ही शांत और सौम्यस्वभाव की है. सब से ज्यादा मजे की बात यह है कि वह मेरी बकबक पर जरा भी इरिटेट नहीं होती. मुसकराती हुई सुनती है मेरी सारी बातें.’

‘पूरे कालेज में एक मुसलमान लड़की ही मिली तुझे दोस्ती करने के लिए?’ धार्मिक असहिष्णु आई अपना अवसाद अधिक समय तक भीतर नहीं रख पाईं.

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सुन कर नैना तिलमिला गई, ‘आई, हमारे घरों में ही हिंदू व मुसलमान में भेदभाव किया जाता है. जानती हो कालेज में कोई किसी की जात नहीं पूछता. सब एकदूसरे को नाम से जानते हैं और आपस में टिफिन शेयर करते हैं.’

‘तो क्या तू भी उस के साथ खाना…?’

‘हां, आई, बहुत अच्छा खाना बनाती हैं उस की मम्मी. चटक मसाले वाला टेस्टी खाना. आई, जरी तो पढ़ाई में सब से तेज है और व्यवहार में दूसरी लड़कियों की तरह न तो चंचल है न ही लड़कों की बातें करती है. और रखरखाव, आई, वह सिर्फ एक सादी सी चोटी बनाती है. उस की बातों में न कोई बनावट है न ही कोई दिखावा, इसलिए वह मुझे सब से अच्छी लगती है.’

नैना ने कब जरीना का नाम संक्षिप्त कर के जरी रख दिया, यह खुद उसे याद नहीं.

नैना की जबानी सुना जरी के व्यक्तित्व का विवरण मेरे दिलोदिमाग पर भविष्य का एक सलोना और दिलकश खाका खींचने लगता. ऐसी ही सीधीसाधी, समझदार लड़की की तसवीर मेरे ख्वाबों के महल में अपनी बड़ी सी जगह बनाने लगती. कभी नैना के लिए नोट्स लेने, कभी कोई कालेज संबंधी सूचना देने जरी को नोटबुक या नैना का खत थमाते हुए मैं उस में गुलाब का फूल रखना नहीं भूलता. जरी देखती मगर उस की बड़ीबड़ी आंखें कोई प्रतिक्रिया नहीं करतीं.

बीए करते ही नैना की शादी तय हो गई. नैना की बड़ी मिन्नतों के बाद जरी को मेहंदी की रात के लिए हमारे घर आने की इजाजत मिली. मेरे तो पंख लग गए और मैं अपने दिल की बात कहने के लिए मंसूबों के कभी इस पहाड़ की चोटी पर जा बैठता, कभी उस चोटी पर. नैना को मेहंदी लगाती जरी, मुझे दुलहन की पोशाक में सजी अपने घर के इस कोने से उस कोने तक छमछम चलतीफिरती दिखाई देने लगी.

रस्म अदायगी के समय नैना के इसरार करने पर जरी की भजन की स्वरलहरी ने पूरे परिवार को हैरान कर दिया. जरी के कंठ में इतनी मधुरता है, यह पहली बार पता चला. आई की आवाज ने चौंका दिया, ‘मुसलमान लड़की और इतना सुंदर भक्तिभाव से ओतप्रोत भजन. कहां से सीखा?’

‘कहीं से नहीं, आई. बस, कुदरत की देन है संगीत. जरी की रोमरोम में बहता है,’ नैना ने गर्व से बतलाया.

रात गहराती गई और भजनों के बाद गीतों, गजलों का सिलसिला पौ फटने तक चलता रहा. दिनभर के थकेहारे अतिथि धीरेधीरे नींद की आगोश में समाने लगे. जरी ने चाय का कप हाथ में थाम कर तारोंभरे आकाश को देखा तो मेरे मुंह से बरसों की दबी आरजू शब्द बन कर निकल ही गई, ‘जरी, इन तारों ने काली रातों को उजाला बख्शा है बिलकुल ऐसे जैसे तुम्हारे खयालों ने मेरी अंधेरी रातों को रोशनी से जगमगा दिया.’ सुन कर उस की पलकें झुक गईं लेकिन हमेशा की तरह चुप रही. कोई प्रतिक्रिया नहीं.

नैना की विदाई के बाद मेरी शादी की चर्चा की गरम हवा मेरे कानों में चुभने लगी. एक दिन आई को अच्छे मूड में देख कर कह दिया मैं ने, ‘आई, क्यों ढूंढ़ती हो बहू यहांवहां? बहू तो तुम्हारे सामने है.’

‘तुम्हारा मतलब जरी से है,’ बहुत दिनों से मेरे बदलते हावभाव को ताड़ने में उन्हें देर नहीं लगी, ‘सुन बाल्या, आज कहा सो कहा, फिर कभी मत कहना. कहना तो क्या, सोचना भी नहीं. मराठा ब्राह्मण के घर मुसलमान लड़की को बहू बना कर लानेका पाप मैं नहीं कर सकती.’

‘लेकिन आई, है तो वह लड़की न. मुसलमान हो या हिंदू, इस से क्या फर्क पड़ता है? जरी में वे सारी खूबियां हैं जो एक अच्छी पत्नी और बहू में होनी चाहिए,’ मैं ने पहली बार आई से जिरह की थी.

‘पड़ता है फर्क. बहुत फर्क पड़ता है. बिरादरी हुक्कापानी बंद कर देगी. तुम्हारी औलादों को न हिंदू अपनाएंगे न मुसलमान. तब समझ में आएगा जब तुम से बच्चे अपनी जात पूछेंगे. और क्या हिंदू समाज में संस्कारी लड़कियों का अकाल पड़ गया है? शादी 2 लोगों को ही नहीं, 2 खानदानों को जोड़ती है. आने वाली पीढ़ी के संस्कारों और धर्मों को सुनिश्चित करती है.’

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‘आई, किस जमाने की बात कर रही हो? यह तंग सोच अब खत्म हो रही है. अब जात, बिरादरी, धर्म शादी के मापदंड नहीं. शादी 2 दिलों का विश्वास और प्रेम की बुनियाद पर किया गया फैसला होता है,’ मैं ने आई को समझाने की कोशिश की.

‘देख नीलू, मेरे जीतेजी तू ऐसा नहीं करेगा और अगर करना ही है तो पहले मुझे श्मशान घाट पहुंचा दे,’ आई के मर्माहत शब्दों ने मेरी रहीसही हिम्मत भी पस्त कर दी.

6 महीने बाद मैं बिरादरी की रूपवान लड़की की मांग का सिंदूर बना दिया गया. जरी रिसैप्शन में अपने परिवार के साथ आई थी. ऊपर से बिलकुल ठहरी हुई झील की तरह शांत. लेकिन मेरे हाथ में गिफ्ट थमा कर बधाई देते  हुए उस की नजरों में बलि होने वाले बकरे की निरीहता देख कर अंतस तक  आहत हो गया मैं.

30 साल से भी ज्यादा अरसा गुजर गया इस हादसे को लेकिन मैं आज तक इस अपराधबोध से खुद को उबार नहीं सका हूं. तिलतिल जलता हूं. पलपल मरता हूं.

धर्मणा के स्वर्णिम रथ: भाग 3- क्या हुआ था ममता के साथ

आज के दिन के खर्च का हिसाब लगाया जाए तो आसानी से 15 हजार रुपए तक पहुंच जाएगा. ममता समाज को ऐसा ही वैभव दर्शन करवाने की कामना से हर नवरात्र पर 9 दिन अपने घर में कीर्तन रखवाया करतीं. रानी ने भी प्रसाद में अपनी ओर से लाए फल सजवा दिए. कीर्तन प्रारंभ होने पर आदतन रानी ने ढोलक और माइक अपनी ओर खींच लिए. न तो वे किसी और को ढोलक बजाने देतीं और न ही माइक पर भजन गाने का अवसर प्रदान करती. यह मानो उन का एकाधिकार था.

सारी गोष्ठी में रानी के स्वर और थाप गूंजते. उन के मुखमंडल का तेज देखने लायक होता, जैसा उन से महान भक्त इस संसार में दूसरा कोई नहीं. रानी का प्रभुत्वपूर्ण व्यवहार देख पाखी का मन प्रतिवाद करता कि यह कैसी पूजा है जहां आप स्वयं को अन्य से श्रेष्ठ माननेमनवाने में लीन हैं. मुख से गा रहे हैं, ‘तेरा सबकुछ यहीं रह जाएगा…’ और एक ढोलकमाइक का मोह नहीं छूटते बन रहा.

कम उम्र की महिलाएं रानी के चरणस्पर्श करतीं तो वे और भी मधुसिक्त हो झूमने लगतीं. कोई कहती, ‘देखो, कैसे भक्तिरस के खुमार में डूब रही हैं,’ तो कोई कहती कि इन पर माता आ गई है. यह सब देखते हुए पाखी अकसर विचलित हो उठती. उसे इन आडंबरों से पाखंड की बू आती है. वह अकसर स्वयं को अपने आसपास के परिवेश में मिसफिट पाती. कितनी बार उस के मनमस्तिष्क में यह द्वंद्व उफनता कि काश, उस की सोच भी अपने वातावरण के अनुरूप होती तो उस के लिए सामंजस्य बिठाना कितना सरल होता. यदि उस के विचार भी इन औरतों से मेल खाते, तो वह भी इन्हीं में समायोजित रहती.

पाखी ने अपने कमरे में आ कर मनन को खाना खिलाया और फिर कीर्तन मंडली में जा कर बैठने को थी कि रानी ने तंज कसा, ‘‘पाखी, सारी मोहमाया यहीं रह जाएगी. भगवान में मन लगा, ये पतिबच्चे कोई काम नहीं आता. सिर्फ प्रभु नाम ही तारता है इस संसार से.’’

‘‘चाचीजी, मैं बच्चे को भूखा छोड़ कर भजन में मन कैसे लगाऊं?’’ पाखी से इस बार प्रतिउत्तर दिए बिना न रहा गया. इन ढपोलशंखी बातों से वैसे ही उसे खीझ उठ रही थी.

‘‘हमारा काम समझाना है, आगे तुम्हारी मरजी. जब हमारी उम्र में पहुंचोगी तब पछताओगी कि क्यों गृहस्थी के फालतू चक्करों में समय बरबाद किया. तब याद करोगी मेरी बात को.’’

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‘‘तब की तब देखी जाएगी, चाचीजी. किंतु आज मैं अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ सकती. मेरा नन्हा बच्चा, जो मेरे सहारे है, उसे बेसहारा छोड़ मैं प्रभुगान करूं, यह मेरी दृष्टि में अनुचित है. मेरी नजर में यदि मैं अपने बच्चे को सही शिक्षा दे पाऊं, उस का उचित लालनपालन कर सकूं, तो वही मेरे लिए सर्वोच्च पूजा है,’’ अकसर चुप रह जाने वाली पाखी आज अपने शब्दों पर कोई बांध लगाने को तैयार नहीं थी.

उस की वर्तमान मानसिक दशा ताड़ती हुई रानी ने मौके की नजाकत को देखते हुए चुप हो जाने में भलाई जानी. लेकिन सब के समक्ष हुए इस वादप्रतिवाद से वह स्वयं को अवहेलित अनुभव करने से रोक नहीं पा रही थी. आज के घटनाक्रम का बदला वह ले कर रहेगी. मन ही मन प्रतिशोध की अग्नि में सुलगती रानी ने सभा समाप्त होने से पहले ही एक योजना बना डाली.

कुछ समय बाद दीवाली का त्योहार आया. मनन अपने छोटेछोटे हाथों में फुलझडि़यां लिए प्रसन्न था. किशोरीलाल और ममता दुकान में लक्ष्मीपूजन कर अब घर के मंदिर में पूजा करने वाले थे. चाचा और रानी चाची भी पूजाघर में विराजमान हो चुके थे. संबल ने पाखी को पूजा के लिए पुकारा. हर दीवाली पर पाखी वही हार पहनती जो संबल ने उसे सुहागरात पर भेंट दिया था, यह कह कर कि यह पुश्तैनी हार हर शुभ अवसर पर अवश्य पहनना है. किंतु इस बार पाखी को वह हार नहीं मिल रहा था. निराशा और खिन्नता से ओतप्रोत पाखी हार को हर तरफ खोज कर थक चुकी थी. आखिर उसे बिना हार पहने ही जाना पड़ा.

उस के गले में हार को न देख संबल

एक बार फिर आपा खो बैठा और

उस पर चीखने लगा. पाखी ने उसे समझाने का अथक प्रयास किया पर विफल रही. दीवाली का त्योहार खुशियां लाने के बजाय अशांति और कलह दे गया. सब के समक्ष संबल ने पाखी को खूब लताड़ा. बेचारी पाखी अपने लिए लापरवाह, असावधान, अनुत्तरदायी, अधर्मी जैसे उपमाएं सुनती रही.

‘‘हम तो सोचते थे कि पाखी को केवल धर्म और पूजापाठ से वितृष्णा है. हमें क्या पता कि इसे हर संस्कारी कर्म से परेशानी होती है. पारंपरिक विधियों से भला कैसा बैर,’’ रानी चाची आग में भरपूर घी उड़ेल रही थीं.

‘‘इसीलिए तो कहते हैं, रानी, कि धर्म से मत उलझो. देखो, तुम्हारी भाभी की तरह, हमारी बहू को भी उस के किए की सजा मिल गई. हाय, हमारा पुश्तैनी हार… इस से तो अच्छा था कि वह हार हम ही संभाल लेते,’’ ममता का विलाप परिस्थिति को और जटिल किए जा रहा था.

इस घटना से पाखी भीतर तक सिहर गई. क्या सच में उसे अपने किए की सजा मिल रही थी? क्या धर्म की दुकान के आगे नतमस्तक न हो कर वह पाप की भागीदारिणी बन रही है? पाखी का हृदय व्याकुल हो उठा. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. क्या उसे भी अन्य की भांति धार्मिक ढकोसलों के आगे झुक जाना चाहिए, या फिर अपने तर्कवितर्क से जीवन मूल्यों को मापना चाहिए. इसी अस्तव्यस्तता की अवस्था में वह घर की छत पर जा पहुंची. संभवतया यहां उसे सांस आए. अमूमन घर की स्त्रियां छत पर केवल सूर्यचंद्र को अर्घ्य देने आया करती थीं. लंबीलंबी श्वास भरते हुए पाखी छत के एक कोने में जा बैठी. अभी उस का उद्वेलित मन शांत भी नहीं हुआ था कि उसे छत पर निकट आती कुछ आवाजें सुनाई दीं.

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‘‘तो क्या करती मैं? खून का घूंट पी कर रह जाती उस कल की छोकरी से?’’ ये रानी चाची के स्वर थे, ‘‘उसे सबक सिखाना जरूरी था और फिर हार का क्या, मैं भी तो इसी परिवार का हिस्सा हूं. मेरे पास रह गया हार, तो कोई अनर्थ नहीं हो जाएगा.’’

तो क्या हार को जानबूझ कर रानी चाची ने गायब किया? उफ, पाखी का मन और भी भ्रमित हो उठा. धर्म के आगे न झुकने पर उस के अपने परिवार वाले ही उसे सजा दे रहे थे?

‘‘पकड़ी जाती तो?’’ यह एक मरदाना सुर था.

‘‘पर पकड़ी गई तो नहीं न?’’ रानी चाची अपनी होशियारी पर इठलाती प्रतीत हो रही थीं.

‘‘पकड़ी गई,’’ यह फिर उसी मरदाना सुर में आवाज आई. साथ ही, पाखी ने गुदगुदाने वाले स्वर सुने, मानो कोई चुहलबाजी कर रहा हो. बहुत सावधानी से पाखी ने झांका, तो हतप्रभ रह गई. उस के ससुर किशोरीलाल और रानी चाची एकदूसरे के साथ ठिठोली कर रहे थे. किशोरीलाल की बांहें

रानी चाची को अपने घेरे में लिए

हुए थीं और रानी चाची झूठमूठ कसमसा रही थीं. किशोरीलाल के

हाथ रानी चाची के अंगअंग पर मचल रहे थे.

‘‘छोड़ो न, जाने दो. कहीं ममता आ गई तो क्या कहोगे?’’ अब रानी, किशोरीलाल को छेड़ रही थी, ‘‘इस से तो अपनी दुकान का वह कमरा ही सुरक्षित है. अपने भाई को घर जाने दो. बाद में मुझे छोड़ने के बहाने वहीं चलेंगे. और हां, दीवाली पर एक नई साड़ी लूंगी तुम से.’’

‘‘ले लेना, मेरी जानेमन, पर पहनाऊंगा मैं ही,’’ किशोरीलाल और रानी की बेशर्मियों से पाखी के कान सुर्ख हो चले थे.

आज पाखी के दिल को तसल्ली मिली थी. अच्छा ही है जो वह यहां मिसफिट है. आखिर, ऐसी मानसिकता जो समाज में दोहरे रूप रखे, बाहरी ढकोसलों में स्वयं को भक्तसंत होने का दिखावा करे, पर अंदर ही अंदर परिवार के सगे रिश्तों को भी वासना की आंच से न बचा पाए, उन में ढल जाना पाखी को कतई स्वीकार न था. ऐसी धर्मणा बनने या फिर उस के दिखावेभरे स्वर्णिम रथों पर सवार होने की उस

की कोई इच्छा न थी. वह अधर्मी ही भली.

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धर्मणा के स्वर्णिम रथ: भाग 2- क्या हुआ था ममता के साथ

जाए? आप की मंडली में तो सभी संपन्न घरों से आती हैं. जो चढ़ावा आता है और जो कुछ आप ने प्रसाद के लिए सोचा है, सब मिला कर किसी झोपड़पट्टी के बच्चों को दूधफल खिलाने के काम आ जाएगा.’’

‘‘कैसी बात करती हो, पाखी? तुम खुद तो अधर्मी हो ही, हमें भी अपने पाप की राह पर चलने को कह रही हो. अरे, धर्म से उलझा नहीं करते. अभी सुनी नहीं तुम ने मेरी भाभी वाली बात? हाय जिज्जी, यह कैसी बहू लिखी थी आप के नाम,’’ रानी चाची ने पाखी के सुझाव को एक अलग ही जामा पहना दिया. उन के जोरजोर से बोलने के  कारण आसपास घूम रहा संबल भी वहीं आ गया, ‘‘क्या हो गया, चाचीजी?’’

‘‘होना क्या है, अपनी पत्नी को समझा, अपने परिवार के रीतिरिवाज सिखा. आज के दिन तो कम से कम ऐसी बात न करे,’’ रानी के कहते ही संबल ने आव देखा न ताव, पाखी की बांह पकड़ उसे घर के अंदर ले गया.

‘‘देखो पाखी, मैं जानता हूं कि तुम पूजाधर्म को ढकोसला मानती हो, पर हम नहीं मानते. हम संस्कारी लोग हैं. अगर तुम्हें यहां इतना ही बुरा लगता है तो अपना अलग रास्ता चुन सकती हो. पर यदि तुम यहां रहना चाहती हो तो हमारी तरह रहना होगा,’’ संबल धाराप्रवाह बोलता गया.

वह अकसर बिदक जाया करता था. इसी कारण पाखी उस से धर्म के बारे में कोई बात नहीं किया करती थी. परंतु वह स्वयं को धार्मिक आडंबरों में भागीदार नहीं बना पाती थी. इस समय उस ने चुप रहने में ही अपनी और परिवार की भलाई समझी. वह जान गईर् थी कि संबल को रस्में निभाने में दिलचस्पी थी, न कि रिश्ते निभाने में.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, संबल. चाचीजी को मेरी बात गलत लगी, तो मैं नहीं कहूंगी. तुम बाहर जा कर मेहमानों को देखो,’’ उस ने समझदारी से संबल को बाहर भेज दिया और खुद मनन को खिलानेसुलाने में व्यस्त हो गई. मन अवश्य भीग गया था. उसे संदेह होने लगता है कि काश, उस की मानसिकता भी इन्हीं लोगों की भांति होती तो उस के लिए जीवन कुछ आसान होता. परंतु फिर अगले पल वह अपने मन में उपमा दोहराती कि जैसे कीचड़ में कमल खिलता है, वह भी इस परिवार में इन की अंधविश्वासी व पाखंडी मानसिकता से स्वयं को दूर रखे हुए है.

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इधर किशोरीलाल स्वयं रानी चाची को उन के घर तक छोड़ने गए. ममता ही जिद कर के भेजा करती थीं. ‘‘आप गाड़ी चला कर जाइए रानी को छोड़ने. वह कोई पराई है क्या, जो ड्राइवर के साथ उसे भेज दें?’’

रास्ते में रोशन कुल्फी वाले की दुकान आई तो किशोरीलाल ने पूछा, ‘‘रोकूं क्या, तुम्हारी पसंदीदा दुकान आ गई. खाओगी कुल्फीफालूदा?’’

‘‘पूछ तो ऐसे रहे हो जैसे मेरे मना करने पर मान जाओगे? तुम्हीं ने बिगाड़ा है मुझे. अब हरजाना भी भुगतना पड़ेगा,’’ रानी ने खिलखिला कर कहा. फिर किशोरीलाल की बांह अपने गले से हटाते हुए कहने लगी, ‘‘किसी ने देख लिया तो? आखिर तुम्हारी दुकान यहीं पर है, जानपहचान वाले मिल ही जाते हैं हर बार.’’

किशोरीलाल और रानी के बीच अनैतिक संबंध जाने कितने वर्षों से पनप रहा था. सब की नाक के नीचे एक ही परिवार में दोनों अपनेअपने जीवनसाथी को आसानी से धोखा देते आ रहे थे. ममता धार्मिक कर्मकांड में उलझी रहतीं. रानी आ कर उन का हाथ बंटवा देती और ममता की चहेती बनी रहती. कभी पूजा सामग्री लाने के बहाने तो कभी पंडितजी को बुलाने के बहाने, किशोरीलाल और रानी खुलेआम साथसाथ घर से निकलते. किशोरीलाल ने अपनी दुकान में पहले माले पर एक कमरा अपने आराम करने के लिए बनवा रखा था. सभी मुलाजिमों को ताकीद थी  कि जब सेठजी थक जाते हैं तब वहां आराम कर लेते हैं. पर जिस दिन घर पर पूजापाठ का कार्यक्रम होता, किशोरीलाल अपने सभी मुलाजिमों को छुट्टी देते और अपने घर न्योता दे कर बुलाते.

ऐसे में तैयारी करने के बहाने वे और रानी बाजार जाते. फिर दुकान पर एकडेढ़ घंटा एकदूसरे की आगोश में बिताते और आराम से घर लौट आते. मौज की मौज और धर्मकर्म का नाम. बाजार में कोई देख लेता तो सब को यही भान होता कि घर पर पूजा के लिए कुछ लेने दुकान पर आए हैं. वैसे भी, हर बार आयोजन से पहले किशोरीलाल, ममता के लिए अपनी दुकान से नई साडि़यां ले ही जाया करते थे. पत्नी भी खुश और प्रेमिका भी.

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नवरात्र में भजनकीर्तन की तैयारी में जुटी ममता को अपना भी होश न था. सबकुछ भूल कर वे माता का दरबार सजाने में मगन थीं. बहू पाखी ने आज अपने कमरे में रह कर ही भोजन किया, वरना उसे सुबह से ही सास की चार बातें सुनने को मिल जातीं कि कोई व्रतउपवास नहीं करती. पाखी इन नाम के उपवासों में विश्वास नहीं करती थी. कहने को उपवास है, पर खाने का मैन्यू सुन लो तो दंग रह जाओ – साबूदाना की खिचड़ी, आलू फ्राई, कुट्टू के पूरीपकौड़े, घीया की सब्जी, आलू का हलवा, सामक के चावल की खीर, आलूसाबूदाने के पापड़, लय्या के लड्डू, हर प्रकार के फल और भी न जाने क्याक्या.

कहने को व्रत रख रहे हैं पर सारा ध्यान केवल इस ओर कि इस बार खाने में क्या बनेगा. रोजाना के भोजन से कहीं अधिक बनता है इन दिनों में. और विविधता की तो पूछो ही मत. 9 दिन व्रत रखेंगे और फिर कहेंगे कि हमें तो हवा भी लग जाती है, वरना पतले न हो जाते. अरे भई, इतना खाओगे, वह भी तलाभुना, तो पतले कैसे हो सकते हो? पाखी अपनी सेहत और नन्हे मनन की देखरेख को ही अपना धर्म मानती व निभाती रहती.

कीर्तन करने के लिए अड़ोसपड़ोस की महिलाएं एकत्रित होने लगी थीं. सभी एक से बढ़ कर एक वस्त्र धारण किए हुए थीं. देवी की प्रतिमा को भी नए वस्त्र पहनाए गए थे – लहंगाचोलीचूनर, सोने के वर्क का मुकुट, पूरे हौल में फूलों की सजावट, देवी की प्रतिमा के आगे रखी टेबल पर प्रसाद का अथाह भंडार, देसी घी से लबालब चांदी के दीपक, नारियल, सुपारी, पान, रोली, मोली, क्या नहीं था समारोह की भव्यता बढ़ाने के लिए. आने वाली हर महिला को एक लाल चुनरिया दी जा रही थी जिस पर ‘जय माता दी’ लिखा हुआ था.

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धर्मणा के स्वर्णिम रथ: भाग 1- क्या हुआ था ममता के साथ

लाख रुपए का खर्च सुन जब ममता विस्मित हो उठीं तो उन के पति किशोरीलाल ने उन्हें समझाया, ‘‘जब बात धार्मिक उत्सव की हो तो कंजूसी नहीं किया करते. आखिर क्या लाए थे जो संग ले जाएंगे. सब प्रभु का दिया है.’’ फिर वे भजन की धुन पर गुनगुनाने लगे, ‘‘तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा…’’ ममता भी भक्तिरस में डूब झूमने लगीं.

दिल्ली के करोलबाग में किशोरीलाल की साड़ीलहंगों की नामीगिरामी दुकान थी. अच्छीखासी आमदनी होती थी. परिवार में बस एक बेटाबहूपोता. सो, धर्म के मामले में वे अपना गल्ला खुला ही रखते थे.

खर्च करना किशोरीलाल का काम और बाकी सारी व्यवस्था की देखरेख ममता के सुपुर्द रहती. वे अकसर धार्मिक अनुष्ठानों, भंडारों, संध्याओं में घिरी रहतीं. समाज में उन की छवि एक धार्मिक स्त्री के रूप में थी जिस के कारण सामाजिक हित में कोई कार्य किए बिना ही उन की प्रतिष्ठा आदरणीय थी.

अगली शाम साईं संध्या का आयोजन था. ममता ने सारी तैयारी का मुआयना खुद किया था. अब खुद की तैयारी में व्यस्त थीं. शाम को कौन सी साड़ी पहनी जाए… किशोरीलाल ने 3 नई साडि़यां ला दी थीं दुकान से. ‘साईं संध्या पर पीतवस्त्र जंचेगा,’ सोचते हुए उन्होंने गोटाकारी वाली पीली साड़ी चुनी. सजधज कर जब आईना निहारा तो अपने ही प्रतिबिंब पर मुसकरा उठीं, ‘ये भी न, लाड़प्यार का कोई मौका नहीं चूकते.’

शाम को कोठी के सामने वाले मंदिर के आंगन में साईं संध्या का आयोजन था. मंदिर का पूरा प्रांगण लाल और पीले तंबुओं से सजाया गया था. मौसम खुशनुमा था, इसलिए छत खुली छोड़ दी थी. छत का आभास देने को बिजली की लडि़यों से चटाई बनाईर् थी जो सारे परिवेश को प्रदीप्त किए हुए थी. भक्तों के बैठने के लिए लाल दरियों को 2 भागों में बिछाया गया था, बीच में आनेजाने का रास्ता छोड़ कर.

एक स्टेज बनाया गया था जिस पर साईं की भव्य सफेद विशालकाय मूर्ति बैठाईर् गई थी. मूर्ति के पीछे जो परदा लगाया था वह मानो चांदीवर्क की शीट का बना था. साईं की मूर्ति के आसपास फूलों की वृहद सजावट थी जिस की सुगंध से पूरा वातावरण महक उठा था. जो भी शामियाने में आता, ‘वाहवाह’ कहता सुनाई देता. प्रशंसा सुन कर ममता का चेहरा और भी दीप्तिमान हो रहा था.

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नियत समय पर साईं संध्या आरंभ हुई. गायक मंडली ने भजनों का पिटारा खोल दिया. सभी भक्तिरस का रसास्वादन करने में मगन होने लगे. बीचबीच में मंडली के प्रमुख गायक ने परिवारजनों के नाम ले कर अरदास के रुपयों की घोषणा करनी शुरू की. ग्यारह सौ की अरदास, इक्कीस सौ की अरदास… धीरेधीरे आसपास के पड़ोसी भी अरदास में भाग लेने लगे. घंटाभर बीता था कि कई हजारों की अरदास हो चुकी थी. जब अरदास के निवेदन आने बंद होने लगे तो प्रमुख गायक ने भावभीना भजन गाते हुए प्रवेशद्वार की ओर इशारा किया.

सभी के शीश पीछे घूमे तो देखा कि साक्षात साईं अपने 2 चेलों के साथ मंदिर में पधार रहे हैं. उन की अगुआई करती

2 लड़कियां मराठी वेशभूषा में नाचती आ रही हैं. साईं बना कलाकार हो या साथ में चल रहे 2 चेले, तीनों का मेकअप उम्दा था. क्षीणकाय साईं बना कलाकार अपने एक चेले के सहारे थोड़ा लंगड़ा कर चल रहा था. उस की गरदन एक ओर थोड़ी झुकी हुईर् थी और एक हाथ कांपता हुआ हवा में लहरा रहा था. दूसरे हाथ में एक कटोरा था.

उस कलाकार के मंदिर प्रांगण में प्रवेश करने की देर थी कि भीड़ की भीड़ उमड़ कर उस के चरणों में गिरने लगी. कोई हाथ से पैर छूने लगा तो कोई अपना शीश उस के पैरों में नवाने लगा. लगभग सभी अपने सामर्थ्य व श्रद्धा अनुसार उस के कटोरे में रुपए डालने लगे. बदले में वह भक्ति में लीन लोगों को भभूति की नन्हीनन्ही पुडि़यां बांटने लगा.

सभी पूरी भक्ति से उस भभूति को स्वयं के, अपने बच्चों के माथे पर लगाने लगे. जब कटोरा नोटों से भर जाता तो साथ चल रहे चेले, साईं बने कलाकार के हाथ में दूसरा खाली कटोरा पकड़ा देते और भरा हुआ कटोरा अपने कंधे पर टंगे थैले में खाली कर लेते. और वह कलाकार लंगड़ा कर चलते हुए, गरदन एक ओर झुकाए हुए, कांपते हाथों से सब को आशीर्वाद देता जाता.

भक्ति के इस ड्रामे के बीच यदि किसी को कोफ्त हो रही थी तो वह थी ममता और किशोरीलाल की बहू पाखी. पाखी एक शिक्षित स्त्री थी, जिस की शिक्षा का असर उस के बौद्धिक विकास के कारण साफ झलकता था. वह केवल कहने को पढ़ीलिखी न थी, उस की शिक्षा ने उस के दिमाग के पट खोले थे. वह इन सब आडंबरों को केवल अंधविश्वास मानती थी. लेकिन उस का विवाह ऐसे परिवार में हो गया था जहां पंडिताई और उस से जुड़े तमाशों को सर्वोच्च माना जाता था. अपने पति संबल से उस ने एकदो बार इस बारे में बात करने का प्रयास किया था किंतु जो जिस माहौल में पलाबढ़ा होता है, उसे वही जंचने लगता है.

संबल को इस सब में कुछ भी गलत नहीं लगता. बल्कि वह अपने मातापिता की तरह पाखी को ही नास्तिक कह उठता. तो पाखी इन सब का हिस्सा हो कर भी इन सब से अछूती रहती. उसे शारीरिक रूप से उपस्थित तो होना पड़ता, किंतु वह ऐसी अंधविश्वासी बातों का असर अपने ऊपर न होने देती. जब भी घर में कीर्तन या अनुष्ठान होते, वह उन में थोड़ीथोड़ी देर को आतीजाती रहती ताकि क्लेश न हो.

उस की दृष्टि में उस की असली पूजा उस की गोद में खेल रहे मनन का सही पालनपोषण और बौद्धिक विकास था. अपने सारे कर्तव्यों के बीच उस का असली काम मनन का पूरा ध्यान रखना था. कितनी बार उसे पूजा से उठ कर जाने पर कटु वचन भी सुनने पड़ते थे. परंतु वह इन सब की चिंता नहीं करती थी. उस का उद्देश्य था कि वह मनन को इन सब पोंगापंथियों से दूर रखेगी और आत्मविश्वास से लबरेज इंसान बनाएगी.

साईं संध्या अपनी समाप्ति की ओर थी. अधिकतर भजनों में मोहमाया को त्यागने की बात कही जा रही थी. आखिरी भजन गाने के बाद मुख्य गायक ने भरी सभा में अपना प्रचारप्रसार शुरू किया. कहां पर उन की दुकान है, वे कहांकहां जाते हैं, बताते हुए उन्होंने अपने विजिटिग कार्ड बांटने आरंभ कर दिए, ‘‘जिन भक्तों को साईं के चरणों में जाना हो, और ऐसे आयोजन की इच्छा हो, वे इस संध्या के बाद हम से कौंटैक्ट कर सकते हैं,’’ साथ ही, प्रसाद के हर डब्बे के नीचे एक कार्ड चिपका कर दिया जा रहा था ताकि कोई ऐसा न छूट जाए जिस तक कार्ड न पहुंचे.

सभी रवाना होने लगे कि रानी चाची ने माइक संभाल लिया, ‘‘भक्तजनो, मैं आप सब से अपना एक अनुभव साझा करना चाहती हूं. आप सब समय के बलवान हैं कि ऐसी मनमोहक साईं संध्या में आने का सुअवसर आप को प्राप्त हुआ. मैं ने देखा कि आप सभी ने पूरी श्रद्धा व भक्ति के साथ यह शाम बिताई. साईं बाबा का आशीर्वाद भी मिला. तो बोलो, जयजय साईं,’’ और सारा माहौल गुंजायमान हो उठा, ‘‘जयजय साईं.’’

‘‘रानी की यह बात मुझे बहुत भाती है,’’ अपनी देवरानी के भीड़ को आकर्षित करने के गुण पर ममता बलिहारी जा रही थीं.

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रानी चाची ने आगे कहा, ‘‘आप लोगों में से शायद कोई एकाध ऐसा नास्तिक भी हो सकता है जो आज सभा में आए साईं बाबा को एक मनुष्यरूप में देखने का दुस्साहस कर बैठा हो. पर बाबा ऐसे ही दर्शन दे कर हमारी प्यास बुझाते हैं. मैं आप को एक सच्चा किस्सा सुनाती हूं-‘‘गत वर्ष मैं और मेरी भाभी शिरडी गए थे. वहां सड़क पर मुझे साईं बाबा के दर्शन हुए. उन्हें देख मैं आत्मविभोर हो उठी और उन्हें दानदक्षिणा देने लगी. मेरी भाभी ने मुझे टोका और कहने लगीं कि दीदी, यह तो कोई बहरूपिया है जो साईं बन कर भीख मांग रहा है.

‘‘अपनी भाभी की तुच्छ बुद्धि पर मुझे दया आई. पर मैं ने अपना कर्म किया और बाबा को जीभर कर दान दिया. मुश्किल से

20 कदम आगे बढ़े थे कि मेरी भाभी को ठोकर लगी और वे सड़क पर औंधेमुंह गिर पड़ीं. साईं बाबा ने वहीं न्याय कर दिया. इसलिए हमें भगवान पर कभी शक नहीं करना चाहिए. जैसा पंडितजी कहें, वैसा ही हमें करना चाहिए.’’

सभी लोग धर्म की रौ में पुलकित हो लौटने लगे. रानी को विदा करते समय ममता ने कहा, ‘‘रानी, अगले हफ्ते से नवरात्र आरंभ हो रहे हैं. हर बार की तरह इस बार भी मेरे यहां पूरे 9 दिन भजनकीर्तन का प्रोग्राम रहेगा. तुझे हर रोज 3 बजे आ जाना है, समझ गई न.’’

‘‘अरे जिज्जी, पूजा हो और मैं न आऊं? बिलकुल आऊंगी. और हां, फलों का प्रसाद मेरी तरफ से. आप मखाने की खीर और साबूदाना पापड़ बांट देना. साथ ही खड़ी पाखी सब देखसुन रही थी. पैसे की ऐसी बरबादी देख उसे बहुत पीड़ा होती. स्वयं को रोक न पाई और बोल पड़ी, ‘‘मां, चाचीजी, क्यों न यह पैसा गरीबों में बंटवा दिया.

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आसमान छूते अरमान : चंद्रवती क्या अपने अरमान पूरे कर पायी

चंद्रो बस से उतर कर अपनी सहेलियों के साथ जैसे ही गांव की ओर चली, उस के कानों में गांव में हो रही किसी मुनादी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘गांव वालो, मेहरबानो, कद्रदानो, सुन लो इस बार जब होगा मंगल, गांव के अखाड़े में होगा दंगल. बड़ेबडे़ पहलवानों की खुलेगी पोल, तभी तो बजा रहा हूं जोर से ढोल. देखते हैं कि मंगलवार को लल्लू पहलवान की चुनौती को कौन स्वीकार करता है. खुद पटका जाता है कि लल्लू को पटकनी देता है. मंगलवार शाम4 बजे होगा अखाड़े में दंगल.’‘‘देख चंद्रो, इस बार तो तेरा लल्लू गांव में ही अखाड़ा जमाने आ गया,’’ एक सहेली बोली.

‘‘धत्… चल, मैं तुझ से बात नहीं करती,’’ चंद्रो ने कहा.

‘‘अब तू हम से क्या बात करेगी चंद्रो. अब तो तू उस के खयालों में खो जाएगी,’’ दूसरी सहेली बोली.

चंद्रो ने शरमा कर दुपट्टे में अपना मुंह छिपा लिया. तब तक उस का घर भी आ चुका था. वह अपनी सहेलियों को छोड़ कर तेजी से घर के दरवाजे की ओर बढ़ गई.

चंद्रो का पूरा नाम चंद्रवती था. वह कभी छुटपन में लल्लू की सहपाठी रही थी, तभी उन के बीच प्यार का बीज फूट गया था. चंद्रवती को चंद्रो नाम देने वाला भी लल्लू पहलवान ही था.

चंद्रवती को पढ़नेलिखने, गीतसंगीत और डांस में ज्यादा दिलचस्पी थी. उस के अरमान बचपन से ही ऊंचे थे. लल्लू पहलवानी का शौक रखता था. पढ़ाई में उस की इतनी दिलचस्पी नहीं थी, जितनी अखाड़े में जोरआजमाइश करने की.

फिलहाज, चंद्रवती हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. यह उस का एमए का आखिरी साल था. उस का कालेज गांव से 14-15 किलोमीटर दूर शहर में था. अपनी सहेलियों के साथ वह रोज ही बस से कालेज जाती थी. उस के मातापिता उस के लिए अच्छे वर की तलाश कर रहे थे.

लल्लू पहलवान को कुश्ती लड़नेका शौक ऐसा चढ़ा था कि पढ़ाई बहुत पीछे छूट गई थी. लेकिन पहलवानी में उस ने अपनी धाक जमा ली थी. 40-50 किलोमीटर दूर तक के गांवों में उस की बराबरी का कोई पहलवान न था. अब वह पेशेवर पहलवान बन चुका था और अच्छी कमाई कर रहा था.

चंद्रवती रातभर लल्लू की यादों में खोई रही. वे बचपन की यादें और अब अल्हड़ जवानी. चंद्रवती को लल्लू से मिले कई साल हो चुके थे, लेकिन उस का वह बचपन का मासूम चेहरा अभी भी आंखों में समाया हुआ था.

मंगलवार को शाम 4 बजे तक अखाड़े में तिल धरने की भी जगह न बची थी. औरतों को बिठाने के लिए अखाड़ा समिति ने अलग से इंतजाम किया था. पहली कुश्ती मुश्किल से 5 मिनट चली. लल्लू ने कुछ देर तक तो पहलवान के साथ दांवपेंच दिखाए और फिर उसे कंधे पर उठा कर अखाड़े का जो चक्कर लगाया, तो तालियों की बरसात होने लगी.

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कुछ देर बाद पांच मुकाबले हुए और सब का हाल पहले पहलवानों जैसा ही हुआ.

अब लल्लू के चेहरे पर थकान साफ नजर आ रही थी. उसे सभी मुकाबलों में जीत मिलने का इनाम मिल चुका था.

जब सब गांव वाले जाने लगे, तो चंद्रवती की सहेलियां उसे लल्लू से मिलाने के लिए जबरन पकड़ कर ले गईं.लल्लू भीड़ से घिरा हुआ था, फिर भी सहेलियां चंद्रवती को लल्लू से मिलाने पर आमादा थीं. यह काम किया चंद्रवती की सहेली मधु के भाई माधवन ने. उस ने लल्लू से कान में जा कर कहा, ‘‘तुम्हारी कोई रिश्तेदार उधर खड़ी है. वह एक मिनट के लिए तुम से मिलना चाहती है.’’

लल्लू उठ कर गया, तो वहां 5-6 लड़कियां खड़ी थीं. लेकिन उन में से उसे कोई भी अपनी रिश्तेदार नजर नहीं आई. उस ने पूछा, ‘‘कहां है मेरी रिश्तेदार?’’

‘‘पहलवानजी, अपनी रिश्तेदार को भी नहीं पहचानते. बड़े पहलवान हो गए हो, इसलिए बचपन के रिश्ते को ही भूल गए,’’ चंद्रवती की एक सहेली इंदू ने उलाहना देते हुए कहा.

चंद्रवती का दिल जोरजोर से धड़क रहा था कि कहीं लल्लू उसे भूल ही न गया हो. तब मधु ने कहा, ‘‘किसी चंद्रो को जानते हो तुम? कोई चंद्रो पढ़ती थी तुम्हारे साथ बचपन में?’’

चंद्रो का नाम सुनते ही लल्लू का चेहरा खिल उठा. उस के मुंह से अनायास ही निकला, ‘‘अरे चंद्रो, हां, कहां है मेरी चंद्रो?’’

यह सुनते ही चंद्रो शरमा कर अपनेआप में ही मिसट गई. सहेलियां मुसकरा पड़ीं और लल्लू भी अपने उतावलेपन पर शर्मिंदा हो गया. कुछ ही दिनों में चंद्रवती लल्लू के घरआंगन को महकाने के लिए आ गई. कुछ दिन तक तो लल्लू चंद्रवती के प्यार में ऐसा खोया रहा कि पहलवानी के सारे दांवपेंच भूल गया. दोनों एकदूसरे को पा कर बहुत खुश थे.

उन दोनों की गृहस्थी बड़े आराम से पटरी पर चल रही थी. उन्हीं दिनों गांव में पंचायत चुनाव आ गए. लल्लू की राजनीति में कोई दिलचस्पी न थी, लेकिन चंद्रवती को राजनीति विरासत में मिली थी. उस के दादा अपने गांव में कई साल प्रधान रहे थे और अब उस के चाचा राम सिंह अपने गांव के प्रधान थे.

गांव वालों का लल्लू को प्रधान बनाने का इशारा था, लेकिन चुनाव आयोग ने उन के गांव के प्रधान का पद औरत के लिए रिजर्व कर दिया था.

लल्लू को पूरा गांव अपने पक्ष में लग रहा था, इसलिए वह चाह कर भी मना नहीं कर सका और उस ने चंद्रवती को चुनावी मैदान में उतार दिया. चुनाव एकतरफा रहा और चंद्रवती मालिनपुर गांव की प्रधान बन गई. शुरूशुरू में प्रधान के सारे काम लल्लू ही देखता था, लेकिन किसी कागज पर दस्तखत करने हों या फिर ग्राम प्रधानों की बैठक में जाना हो, तब चंद्रवती का जाना जरूरी हो जाता था.

चंद्रवती पढ़ीलिखी थी, अफसरों से बात करना ठीक से जानती थी, ग्राम प्रधान के अपने हकों को भी वह अच्छी तरह समझती थी. धीरेधीरे ग्राम प्रधानी का कामकाज उस के हाथों में आने लगा और लल्लू किनारे लगने लगा.

अब चंद्रवती पराए मर्दों से शरमाती न थी. उसे कहीं अकेले जाना पड़ता, तो वह लल्लू की बाट न जोहती थी. किसी को चंद्रवती से मिलना होता, तो वह उस से सीधा मिलता. लल्लू सिर्फ दरबारी बन कर रह गया था, सिंहासन पर चंद्रवती बैठी थी.

प्रधानों के संघ में चंद्रवती जितनी खूबसूरत और पढ़ीलिखी कम ही औरतें थीं, इसलिए प्रधान संघ का सचिव पद पाने में वह कामयाब हो गई. चंद्रवती के अरमान अब आसमान छूने लगे थे. वह मर्दों को दुनिया में मुकाम हासिल करने के गुर सीखने लगी. लंगोट के कच्चे मर्द को एक ही मुसकान से कैसे पस्त किया जा सकता है, यह वह अच्छी तरह जान गई थी.

अब चंद्रवती हमेशा बड़े नेताओं और अफसरों से मेलजोल बढ़ाने के मौके तलाशने लगी. यह वह सीढ़ी थी, जिस पर चढ़ कर वह अपनी इच्छाओं के आसमान पर पहुंच सकती थी.

एक बार प्रदेश सरकार का मंत्री भूरेलाल जिले के दौरे पर आया, तो उस की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उस का दौरा मालिनपुर में ही लगा दिया.चंद्रवती अपने दबदबे से मालिनपुर में तरक्की के अनेक काम करवा चुकी थी. जिसे देखने के लिए मंत्री को ग्राम प्रधान से मिलने की इच्छा और बढ़ गई.

चंद्रवती ने पहले से ही मंत्री के लिए नाश्ते का इंतजाम घर पर ही कर रखा था. भूरेलाल का स्वागत करने के लिए चंद्रवती सजीधजी दरवाजे पर ही खड़ी थी. वह खूबसूरती के भूखे इन मर्दों को अच्छी तरह से जानती थी.

चंद्रवती के रूप को देख कर भूरेलाल की आंखें चौंधिया गईं. चंद्रवती ने बैठक को भी ऐसा सजाया था कि भूरेलाल देखता ही रह गया. जब चंद्रवती भूरेलाल के सामने बैठी, तो वह गांव की तरक्की के काम की बात भूल कर उस की खूबसूरती को देखने में मगन हो गया.

जब चंद्रवती ने अपने सुकोमल हाथों और एक मोहन मुसकान से उसे चाय की प्याली पकड़ाई, तब जा कर भूरेलाल की नींद टूटी.

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भूरेलाल गांव का दौरा कर के चला तो गया, पर उस का दिल मालिनपुर में ही अटक कर रह गया. शाम को ही मंत्री भूरेलाल ने फोन कर के चंद्रवती को उस की ‘अच्छी चाय’ के लिए धन्यवाद दिया.

चंद्रवती जान गई थी कि तीर निशाने पर लगा है. उस ने योजनाएं बनानी शुरू कर दीं कि मंत्री भूरेलाल से क्याक्या काम करवाने हैं और आगे बढ़ने के लिए इस सीढ़ी का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है.

अब मालिनपुर गांव में तरक्की का जो भी छोटाबड़ा काम होता, उस का उद्घाटन भूरेलाल के ही हाथों होता. भूरेलाल चंद्रवती को पार्टी के कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए बुलाने लगा.

जल्दी ही भूरेलाल ने चंद्रवती की ताजपोशी खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद पर करवा दी. फिर तो चंद्रवती को नीली बत्ती की गाड़ी मिल गई.

ओहदा बढ़ते ही चंद्रवती आजाद पंक्षी हो गई. लल्लू पहलवान ने उसे घोंसले में ही कैद रखने के लिए उस के पर कतरने की काफी कोशिश की, लेकिन चंद्रवती के सामने उस की अब बिसात ही क्या थी.

एक दिन भूरेलाल ने मौका देख कर कहा, ‘‘चंद्रवतीजी, आप खूबसूरत होने के साथसाथ काबिल भी हो. कोशिश करो, तो विधायक भी बन सकती हो.’’

चंद्रवती ने इतराते हुए कहा, ‘‘मंत्रीजी, ऐसे दिन हमारे कहां?’’

‘‘हम तुम्हारे साथ हैं न. बस, तुम्हें साथ देने की जरूरत है,’’ भूरेलाल ने आखिरी शब्द चंद्रवती के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा. चंद्रवती मंत्री भूरेलाल के एहसानों से इतना दब चुकी थी कि वह कोई विरोध न कर सकी, सिर्फ अपना हाथ पीछे खींच लिया.

भूरेलाल ने सकपकाते हुए कहा, ‘‘चंद्रवती, देखो राजनीति करने के लिए बहुतकुछ कुरबान करना पड़ता है. अब देखो विधायक का टिकट पाना है, तो अनेक नेताओं से मिलना ही पड़ेगा. अब मैं तुम्हें प्रदेश अध्यक्ष से मिलवाना चाहता हूं, उस के लिए तुम्हें लखनऊ तो चलना ही पड़ेगा. घर जा कर सोचना और ‘हां’ और ‘न’ में जवाब देना. वैसे तो तुम समझदार हो ही.’’

चंद्रवती इस ‘हां’ और ‘न’ का मतलब अच्छी तरह समझती थी. घर पहुंचने पर वह कुछ दुविधा में थी. लल्लू से जब उस ने लखनऊ जा कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने की बात कही, तो उस ने कहा, ‘‘चंद्रवती, धीरेधीरे चलो, तुम उड़ रही हो. हम जितना ऊंचे उड़ते हैं, उतना नीचे भी गिरते हैं.’’

लेकिन चंद्रवती को लल्लू की बात समझ में नहीं आई. उसे लगा कि पहलवानी करतेकरते लल्लू का दिमाग भी छोटा हो गया है. विधायक बनना है, तो कुछ कुरबानी तो देनी ही पड़ेगी.

चंद्रवती प्रदेश अध्यक्ष से मिलने के लिए लखनऊ जाने की तैयारी करने लगी. बुझे मन से लल्लू भी उस के साथ लखनऊ गया.भूरेलाल ने उन के ठहरने का इंतजाम पहले से ही एक होटल में कर दिया था.

अगले दिन भूरेलाल चंद्रवती को लेने होटल गया. चंद्रवती उस के साथ कार में बैठ कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने चली गई. लल्लू को यह बात नागवार गुजरी.

प्रदेश अध्यक्ष भी चंद्रवती की खूबसूरती को निहारता रह गया. मंत्री भूरेलाल ने चंद्रवती की तारीफ के पुल बांध दिए. प्रदेश अध्यक्ष ने चंद्रवती को विधायक का टिकट देने के लिए विचार करने का आश्वासन दिया. चंद्रवती को लगा, जैसे उसे विधायकी का टिकट मिल ही गया.

इस के बाद तो चंद्रवती पार्टी के नेताओं और मंत्रियों के घर और दफ्तर के चक्कर काटने में ही मशगूल हो गई. मंत्री भूरेलाल ने उसे बता दिया था कि जितने नेता और मंत्री उस के टिकट की सिफारिश कर देंगे, उस का टिकट उतना ही पक्का.

अब चंद्रवती अपना ज्यादा समय लखनऊ में ही बिताने लगी थी. उसे लल्लू की अब कोई चिंता नहीं थी. लल्लू भी इस बात को अच्छी तरह से समझ चुका था कि चिडि़या अब उस के हाथ से निकल चुकी है.

भूरेलाल राजनीति का तो मंजा हुआ खिलाड़ी था ही, इश्कमिजाजी का भी वह शौकीन था. वह जानता था कि चंद्रवती उस के जाल में फंस चुकी है. उस ने खादी के विदेशों में प्रचारप्रसार के लिए यूरोपीय देशों का 20 दिन का टूर बनाया और चंद्रवती का नाम भी टूर में जाने वाले लोगों की लिस्ट में शामिल था. लल्लू के विरोध के बावजूद चंद्रवती भूरेलाल के साथ टूर पर गई.

चंद्रवती को लगता था कि भूरेलाल ही वह सहारा और सीढ़ी है, जो उसे उस की मंजिल तक पहुंचाएगा. यूरोप के 20 दिन के टूर में चंद्रवती ने अपना सबकुछ भूरेलाल को सौंप दिया.

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इधर लल्लू इतना दुखी हो चुका था कि चंद्रवती से तलाक लेने के अलावा उसे और कोई रास्ता न सूझता था. उस ने तलाकनामा के लिए वकील से कागजात तैयार करा लिए. चंद्रवती इस के लिए खुशी से तैयार थी. न अब उसे गांव पसंद था और न लल्लू ही.

चंद्रवती भूरेलाल के जरीए और मंत्रियों से मिली. अब उस की पौबाहर थी. सुबह से शाम तक न जाने कितने लोग उसे सैल्यूट मारते. एक फोन पर वह मंत्रियों और अफसरों से लोगों के काम करवाती. ऐसा लगता, जैसे चंद्रवती प्रदेश में अलग सरकार चला रही हो.

लेकिन राजनीति में किस का सूरज कब उग जाए और कब डूब जाए, कौन कह सकता है. चंद्रवती की हनक देख कई लोग उस के विरोधी हो गए. वे चंद्रवती को फंसाने की ताक में लग गए. मीडिया भी उस की हनक से हैरान था.

एक दिन चंद्रवती और भूरेलाल की जरा सी लापरवाही से उन के अंतरंग संबंधों की तसवीरें विरोधियों के हाथ पड़ गईं. फिर मीडिया तक जाने में इसे कितनी देर लगती.

अगले ही दिन 2 काम हो गए. खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद से चंद्रवती को बरखास्त कर दिया गया. कहां तो वह विधायक बनने का सपना देख रही थी, प्रदेश अध्यक्ष ने उस की पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ही रद्द कर दी. मंत्रियों, नेताओं और अफसरों ने उस का मोबाइल नंबर तक अपने मोबाइलों से निकाल दिया.

भूरेलाल के मंत्री पद पर बन आई, तो उस ने चंद्रवती से अपने संबंधों को विरोधियों की साजिश और मीडिया के गंदे मन की उपज बताया. उस ने सार्वजनिक रूप से ऐलान किया कि वह चंद्रवती को केवल एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में जानता है, उस से ज्यादा उस का चंद्रवती से कोई लेनादेना नहीं है.

चंद्रवती ने इतने दिनों में जो बेनामी दौलत कमाई थी, उस से उस ने लखनऊ में एक बंगला तो खरीद ही लिया था. लेकिन राजनीतिक रुतबा खत्म होते ही उस की सारी शानोशौकत पर रोक लग गई. अब उस का दरबार सूना हो चुका था.

जल्दी ही चंद्रवती को अर्श से फर्श पर गिरने का एहसास हो गया. इस बेकद्री और अकेलेपन के चलते वह तनाव की शिकार हो गई. नींद की गोलियां उस का सहारा बनीं.

भूरेलाल उस के फोन को उठाता तक न था. तब एक दिन उस से मिलने वह उस के दफ्तर पहुंच गई. अर्दली ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन वह ‘मैडम’ ही कहता रह गया और वह उस के दफ्तर में पहुंच गई. उस के वहां पहुंचते ही भूरेलाल उस पर बिफर पड़ा, ‘‘तेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘भूरेलाल, मैं ने तुझ पर अपना सबकुछ लुटा दिया और अब कहता है कि मेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘बकवास बंद कर. जो औरत अपने आदमी को छोड़ कर दूसरों के साथ हमबिस्तर हो, वह किसी की नहीं होती.’’

‘‘और जो मर्द अपनी औरत को छोड़ दूसरी औरतों के साथ गुलछर्रे उड़ाए, वह किस का होता है?’’

‘‘दो कौड़ी की औरत… जबान लड़ाती है… गार्ड, बाहर निकालो इसे.’’

इस से पहले कि गार्ड चंद्रवती को बाहर निकालता, चंद्रवती ने पैर में से चप्पल निकाली और भूरेलाल के सिर पर दे मारी.

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भूरेलाल के गाल पर इतनी चप्पलें पड़ीं कि उस का चेहरा लाल हो गया. उस का कान और होंठ फट गया. नाक से भी खून बहने लगा. जब तक गार्ड और दूसरे लोग चंद्रवती को रोकते, भूरेलाल की काफी फजीहत हो चुकी थी.

भूरेलाल ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ऐयाशी का नतीजा इतना खतरनाक होगा. मामले को दबाए रखने के लिए पुलिस को कोई सूचना नहीं दी गई.

कुछ दिन बाद खबर आई कि चंद्रवती की उस के घर पर ही मौत हो गई. पोस्टमार्टम के लिए लाश भेजी गई, लेकिन उस की मौत में नींद की दवाओं का ज्यादा सेवन करना बताया गया.

जब चंद्रवती का दाह संस्कार किया जा रहा था, तब लल्लू को उस की लाश से अरमानों का धुआं उड़ता नजर आ रहा था.

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