विरासत: नाजायज संबंध के चलते जब कठघरे में खड़ा हुआ शादीशुदा विनय

कई दिनों से एक बात मन में बारबार उठ रही है कि इनसान को शायद अपने कर्मों का फल इस जीवन में ही भोगना पड़ता है. यह बात नहीं है कि मैं टैलीविजन में आने वाले क्राइम और भक्तिप्रधान कार्यक्रमों से प्रभावित हो गया हूं. यह भी नहीं है कि धर्मग्रंथों का पाठ करने लगा हूं, न ही किसी बाबा का भक्त बना हूं. यह भी नहीं कि पश्चात्ताप की महत्ता नए सिरे में समझ आ गई हो.

दरअसल, बात यह है कि इन दिनों मेरी सुपुत्री राशि का मेलजोल अपने सहकर्मी रमन के साथ काफी बढ़ गया है. मेरी चिंता का विषय रमन का शादीशुदा होना है. राशि एक निजी बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत है. रमन सीनियर मैनेजर है. मेरी बेटी अपने काम में काफी होशियार है. परंतु रमन के साथ उस की नजदीकी मेरी घबराहट को डर में बदल रही थी. मेरी पत्नी शोभा बेटे के पास न्यू जर्सी गई थी. अब वहां फोन कर के दोनों को क्या बताता. स्थिति का सामना मुझे स्वयं ही करना था. आज मेरा अतीत मुझे अपने सामने खड़ा दिखाई दे रहा था…

मेरा मुजफ्फर नगर में नया नया तबादला हुआ था. परिवार दिल्ली में ही छोड़ दिया था.  वैसे भी शोभा उस समय गर्भवती थी. वरुण भी बहुत छोटा था और शोभा का अपना परिवार भी वहीं था. इसलिए मैं ने उन को यहां लाना उचित नहीं समझा था. वैसे भी 2 साल बाद मुझे दोबारा पोस्टिंग मिल ही जानी थी.

गांधी कालोनी में एक घर किराए पर ले लिया था मैं ने. वहां से मेरा बैंक भी पास पड़ता था.

पड़ोस में भी एक नया परिवार आया था. एक औरत और तीसरी या चौथी में

पढ़ने वाले 2 जुड़वां लड़के. मेरे बैंक में काम करने वाले रमेश बाबू उसी महल्ले में रहते थे. उन से ही पता चला था कि वह औरत विधवा है. हमारे बैंक में ही उस के पति काम करते थे. कुछ साल पहले बीमारी की वजह से उन का देहांत हो गया था. उन्हीं की जगह उस औरत को नौकरी मिली थी. पहले अपनी ससुराल में रहती थी, परंतु पिछले महीने ही उन के तानों से तंग आ कर यहां रहने आई थी.

‘‘बच कर रहना विनयजी, बड़ी चालू औरत है. हाथ भी नहीं रखने देती,’’ जातेजाते रमेश बाबू यह बताना नहीं भूले थे. शायद उन की कोशिश का परिणाम अच्छा नहीं रहा होगा. इसीलिए मुझे सावधान करना उन्होंने अपना परम कर्तव्य समझा.

सौजन्य हमें विरासत में मिला है और पड़ोसियों के प्रति स्नेह और सहयोग की भावना हमारी अपनी कमाई है. इन तीनों गुणों का हम पुरुषवर्ग पूरी ईमानदारी से जतन तब और भी करते हैं जब पड़ोस में एक सुंदर स्त्री रहती हो. इसलिए पहला मौका मिलते ही मैं ने उसे अपने सौजन्य से अभिभूत कर दिया.

औफिस से लौट कर मैं ने देखा वह सीढि़यों पर बैठ हुई थी.

‘‘आप यहां क्यों बैठी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी… सर… मेरी चाभी कहीं गिर कई है, बच्चे आने वाले हैं… समझ नहीं आ रहा

क्या करूं?’’

‘‘आप परेशान न हों, आओ मेरे घर में आ जाओ.’’

‘‘जी…?’’

‘‘मेरा मतलब है आप अंदर चल कर बैठिए. तब तक मैं चाभी बनाने वाले को ले कर आता हूं.’’

‘‘जी, मैं यहीं इंतजार कर लूंगी.’’

‘‘जैसी आप की मरजी.’’

थोड़ी देर बाद रचनाजी के घर की चाभी बन गई और मैं उन के घर में बैठ कर चाय पी रहा था. आधे घंटे बाद उन के बच्चे भी आ गए. दोनों मेरे बेटे वरुण की ही उम्र के थे. पल भर में ही मैं ने उन का दिल जीत लिया.

जितना समय मैं ने शायद अपने बेटे को नहीं दिया था उस से कहीं ज्यादा मैं अखिल और निखिल को देने लगा था. उन के साथ क्रिकेट खेलना, पढ़ाई में उन की सहायता करना,

रविवार को उन्हें ले कर मंडी की चाट खाने का तो जैसे नियम बन गया था. रचनाजी अब रचना हो गई थीं. अब किसी भी फैसले में रचना के लिए मेरी अनुमति महत्त्वपूर्ण हो गई थी. इसीलिए मेरे समझाने पर उस ने अपने दोनों बेटों को स्कूल के बाकी बच्चों के साथ पिकनिक पर भेज दिया था.

सरकारी बैंक में काम हो न हो हड़ताल तो होती ही रहती है. हमारे बैंक में भी 2 दिन की हड़ताल थी, इसलिए उस दिन मैं घर पर ही था. अमूमन छुट्टी के दिन मैं रचना के घर ही खाना खाता था. परंतु उस रोज बात कुछ अलग थी. घर में दोनों बच्चे नहीं थे.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं रचना?’’

‘‘अरे विनयजी अब क्या आप को भी आने से पहले इजाजत लेनी पड़ेगी?’’

खाना खा कर दोनों टीवी देखने लगे. थोड़ी देर बाद मुझे लगा रचना कुछ असहज सी है.

‘‘क्या हुआ रचना, तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा सिरदर्द है.’’

अपनी जगह से उठ कर मैं उस का सिर दबाने लगा. सिर दबातेदबाते मेरे हाथ उस के कंधे तक पहुंच गए. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. हम किसी और ही दुनिया में खोने लगे. थोड़ी देर बाद रचना ने मना करने के लिए मुंह खोला तो मैं ने आगे बढ़ कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

उस के बाद रचना ने आंखें नहीं खोलीं. मैं धीरेधीरे उस के करीब आता चला गया. कहीं कोई संकोच नहीं था दोनों के बीच जैसे हमारे शरीर सालों से मिलना चाहते हों. दिल ने दिल की आवाज सुन ली थी, शरीर ने शरीर की भाषा पहचान ली थी.

उस के कानों के पास जा कर मैं धीरे से फुसफुसाया, ‘‘प्लीज, आंखें न खोलना तुम… आज बंद आंखों में मैं समाया हूं…’’

न जाने कितनी देर हम दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप लेटे रहे दोनों के बीच की खामोशी को मैं ने ही तोड़ा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो तुम?’’

‘‘नहीं, परंतु अपनेआप से हूं… आप शादीशुदा हैं और…’’

‘‘रचना, शोभा से मेरी शादी महज एक समझौता है जो हमारे परिवारों के बीच हुआ था. बस उसे ही निभा रहा हूं… प्रेम क्या होता है यह मैं ने तुम से मिलने के बाद ही जाना.’’

‘‘परंतु… विवाह…’’

‘‘रचना… क्या 7 फेरे प्रेम को जन्म दे सकते हैं? 7 फेरों के बाद पतिपत्नी के बीच सैक्स का होना तो तय है, परंतु प्रेम का नहीं. क्या तुम्हें पछतावा हो रहा है रचना?’’

‘‘प्रेम शक्ति देता है, कमजोर नहीं करता. हां, वासना पछतावा उत्पन्न करती है. जिस पुरुष से मैं ने विवाह किया, उसे केवल अपना शरीर दिया. परंतु मेरे दिल तक तो वह कभी पहुंच ही नहीं पाया. फिर जितने भी पुरुष मिले उन की गंदी नजरों ने उन्हें मेरे दिल तक आने ही नहीं दिया. परंतु आप ने मुझे एक शरीर से ज्यादा एक इनसान समझा. इसीलिए वह पुराना संस्कार, जिसे अपने खून में पाला था कि विवाहेतर संबंध नहीं बनाना, आज टूट गया. शायद आज मैं समाज के अनुसार चरित्रहीन हो गई.’’

फिर कई दिन बीत गए, हम दोनों के संबंध और प्रगाढ़ होते जा रहे थे. मौका मिलते ही हम काफी समय साथ बिताते. एकसाथ घूमनाफिरना, शौपिंग करना, फिल्म देखना और फिर घर आ कर अखिल और निखिल के सोने के बाद एकदूसरे की बांहों में खो जाना दिनचर्या में शामिल हो गया था. औफिस में भी दोनों के बीच आंखों ही आंखों में प्रेम की बातें होती रहती थीं.

बीचबीच में मैं अपने घर आ जाता और शोभा के लिए और दोनों बच्चों के लिए ढेर सारे उपहार भी ले जाता. राशि का भी जन्म हो चुका था. देखते ही देखते 2 साल बीत गए. अब शोभा मुझ पर तबादला करवा लेने का दबाव डालने लगी थी. इधर रचना भी हमारे रिश्ते का नाम तलाशने लगी थी. मैं अब इन दोनों औरतों को नहीं संभाल पा रहा था. 2 नावों की सवारी में डूबने का खतरा लगातार बना रहता है. अब समय आ गया था किसी एक नाव में उतर जाने का.

रचना से मुझे वह मिला जो मुझे शोभा से कभी नहीं मिल पाया था, परंतु यह भी सत्य था कि जो मुझे शोभा के साथ रहने में मिलता वह मुझे रचना के साथ कभी नहीं मिल पाता और वह था मेरे बच्चे और सामाजिक सम्मान. यह सब कुछ सोच कर मैं ने तबादले के लिए आवेदन कर दिया.

‘‘तुम दिल्ली जा रहे हो?’’

रचना को पता चल गया था, हालांकि मैं ने पूरी कोशिश की थी उस से यह बात छिपाने की. बोला, ‘‘हां. वह जाना तो था ही…’’

‘‘और मुझे बताने की जरूरत भी नहीं समझी…’’

‘‘देखो रचना मैं इस रिश्ते को खत्म करना चाहता हूं.’’

‘‘पर तुम तो कहते थे कि तुम मुझ से प्रेम करते हो?’’

‘‘हां करता था, परंतु अब…’’

‘‘अब नहीं करते?’’

‘‘तब मैं होश में नहीं था, अब हूं.’’

‘‘तुम कहते थे शोभा मान जाएगी… तुम मुझ से भी शादी करोगे… अब क्या हो गया?’’

‘‘तुम पागल हो गई हो क्या? एक पत्नी के रहते क्या मैं दूसरी शादी कर सकता हूं?’’

‘‘मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी? क्या जो हमारे बीच था वह महज.’’

‘‘रचना… देखो मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, जो भी हुआ उस में तुम्हारी भी मरजी शामिल थी.’’

‘‘तुम मुझे छोड़ने का निर्णय ले रहे हो… ठीक है मैं समझ सकती हूं… तुम्हारी पत्नी है, बच्चे हैं. दुख मुझे इस बात का है कि तुम ने मुझे एक बार भी बताना जरूरी नहीं समझा. अगर मुझे पता नहीं चलता तो तुम शायद मुझे बिना बताए ही चले जाते. क्या मेरे प्रेम को इतने सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी?’’

‘‘तुम्हें मुझ से किसी तरह की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘मतलब तुम ने मेरा इस्तेमाल किया और अब मन भर जाने पर मुझे…’’

‘‘हां किया जाओ क्या कर लोगी… मैं ने मजा किया तो क्या तुम ने नहीं किया? पूरी कीमत चुकाई है मैं ने. बताऊं तुम्हें कितना खर्चा किया है मैं ने तुम्हारे ऊपर?’’

कितना नीचे गिर गया था मैं… कैसे बोल गया था मैं वह सब. यह मैं भी जानता था कि रचना ने कभी खुद पर या अपने बच्चों पर ज्यादा खर्च नहीं करने दिया था. उस के अकेलेपन को भरने का दिखावा करतेकरते मैं ने उसी का फायदा उठा लिया था.

‘‘मैं तुम्हें बताऊंगी कि मैं क्या कर सकती हूं… आज जो तुम ने मेरे साथ किया है वह किसी और लड़की के साथ न करो, इस के लिए तुम्हें सजा मिलनी जरूरी है… तुम जैसा इनसान कभी नहीं सुधरेगा… मुझे शर्म आ रही है कि मैं ने तुम से प्यार किया.’’

उस के बाद रचना ने मुझ पर रेप का केस कर दिया. केस की बात सुनते ही शोभा और मेरी ससुराल वाले और परिवार वाले सभी मुजफ्फर नगर आ गए. मैं ने रोरो कर शोभा से माफी मांगी.

‘‘अगर मैं किसी और पुरुष के साथ संबंध बना कर तुम से माफी की उम्मीद करती तो क्या तुम मुझे माफ कर देते विनय?’’

मैं एकदम चुप रहा. क्या जवाब देता.

‘‘चुप क्यों हो बोलो?’’

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘शायद… हा… हा… हा… यकीनन तुम मुझे माफ नहीं करते. पुरुष जब बेवफाई करता है तो समाज स्त्री से उसे माफ कर आगे बढ़ने की उम्मीद करता है. परंतु जब यही गलती एक स्त्री से होती है, तो समाज उसे कईर् नाम दे डालता है. जिस स्त्री से मुझे नफरत होनी चाहिए थी. मुझे उस पर दया भी आ रही थी और गर्व भी हो रहा था, क्योंकि इस पुरुष दंभी समाज को चुनौती देने की कोशिश उस ने की थी.’’

‘‘तो तुम मुझे माफ नहीं…’’

‘‘मैं उस के जैसी साहसी नहीं हूं… लेकिन एक बात याद रखना तुम्हें माफ एक मां कर रही है एक पत्नी और एक स्त्री के अपराधी तुम हमेशा रहोगे.’’

शर्म से गरदन झुक गई थी मेरी.

पूरा महल्ला रचना पर थूथू कर रहा था. वैसे भी हमारा समाज कमजोर को हमेशा दबाता रहा है… फिर एक अकेली, जवान विधवा के चरित्र पर उंगली उठाना बहुत आसान था. उन सभी लोगों ने रचना के खिलाफ गवाही दी जिन के प्रस्ताव को उस ने कभी न कभी ठुकराया था.

अदालतमें रचना केस हार गई थी. जज ने उस पर मुझे बदनाम करने का इलजाम लगाया. अपने शरीर को स्वयं परपुरुष को सौंपने वाली स्त्री सही कैसे हो सकती थी और वह भी तब जब वह गरीब हो?

रचना के पास न शक्ति बची थी और न पैसे, जो वह केस हाई कोर्ट ले जाती. उस शहर में भी उस का कुछ नहीं बचा था. अपने बेटों को ले कर वह शहर छोड़ कर चली गई. जिस दिन वह जा रही थी मुझ से मिलने आई थी.

‘‘आज जो भी मेरे साथ हुआ है वह एक मृगतृष्णा के पीछे भागने की सजा है. मुझे तो मेरी मूर्खता की सजा मिल गई है और मैं जा रही हूं, परंतु तुम से एक ही प्रार्थना है कि अपने इस फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना.’’

चली गई थी वह. मैं भी अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गया था. मेरे और शोभा के बीच जो खालीपन आया था वह कभी नहीं भर पाया. सही कहा था उस ने एक पत्नी ने मुझे कभी माफ नहीं किया था. मैं भी कहां स्वयं को माफ कर पाया और न ही भुला पाया था रचना को.

किसी भी रिश्ते में मैं वफादारी नहीं निभा पाया था. और आज मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा हो कर मुझ पर हंस रहा था. जो मैं ने आज से कई साल पहले एक स्त्री के साथ किया था वही मेरी बेटी के साथ होने जा रहा था.

नहीं मैं राशि के साथ ऐसा नहीं होने दूंगा. उस से बात करूंगा, उसे समझाऊंगा. वह मेरी बेटी है समझ जाएगी. नहीं मानी तो उस रमन से मिलूंगा, उस के परिवार से मिलूंगा, परंतु मुझे पूरा यकीन था ऐसी नौबत नहीं आएगी… राशि समझदार है मेरी बात समझ जाएगी.

उस के कमरे के पास पहुंचा ही था तो देखा वह अपने किसी दोस्त से वीडियो चैट कर रही थी. उन की बातों में रमन का जिक्र सुन कर मैं वहीं ठिठक गया.

‘‘तेरे और रमन सर के बीच क्या चल रहा है?’’

‘‘वही जो इस उम्र में चलता है… हा… हा… हा…’’

‘‘तुझे शायद पता नहीं कि वे शादीशुदा हैं?’’

‘‘पता है.’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘राशि, देख यार जो इनसान अपनी पत्नी के साथ वफादार नहीं है वह तेरे साथ क्या होगा? क्या पता कल तुझे छोड़ कर…’’

‘‘ही… ही… मुझे लड़के नहीं, मैं लड़कों को छोड़ती हूं.’’

‘‘तू समझ नहीं रही…’’

‘‘यार अब वह मुरगा खुद कटने को तैयार बैठा है तो फिर मेरी क्या गलती? उसे लगता है कि मैं उस के प्यार में डूब गई हूं, परंतु उसे यह नहीं पता कि वह सिर्फ मेरे लिए एक सीढ़ी है, जिस का इस्तेमाल कर के मुझे आगे बढ़ना है. जिस दिन उस ने मेरे और मेरे सपने के बीच आने की सोची उसी दिन उस पर रेप का केस ठोक दूंगी और तुझे तो पता है ऐसे केसेज में कोर्ट भी लड़की के पक्ष में फैसला सुनाता है,’’ और फिर हंसी का सम्मिलित स्वर सुनाई दिया.

सीने में तेज दर्द के साथ मैं वहीं गिर पड़ा. मेरे कानों में रचना की आवाज गूंज रही थी कि अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना… अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना, परंतु विरासत तो बंट चुकी थी.

हमारी सासूमां महान

सुबह हम औफिस जाने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक ऐसा लगा मानो तबीयत खराब हो रही है. घबराहट होने लगी, सीने में दर्द भी होने लगा और लगा कि हम चक्कर खा कर गिर पड़ेंगे.

हम ने अपनी श्रीमतीजी को आवाज देनी चाही तो आवाज गले में दब कर रह गई. पसीना आने लगा. हम सोचने लगे कि क्या करें? वहीं धम्म से बैठ गए. श्रीमतीजी किचन में हमारे लिए लंच बना रही थीं. हमें उन के गाने की आवाज सुनाई दे रही थी. अंतिम आवाज श्रीमतीजी की हमारे कानों में यह आई थी, ‘‘औफिस जाओ, लेट हो रहे हो, मैं ने लंच बना दिया है. कब तक इस तरह फर्श पर लेटे रहोगे?’’

उस के बाद क्या हुआ, हमें नहीं मालूम. हमारी श्रीमतीजी ने जो कुछ बखान किया वह कुछ इस तरह है, ‘‘तुम्हें फर्श पर पड़ा देख कर मैं समझी तुम मुझे परेशान करने के लिए लोट रहे हो. मैं ने तुम्हें खूब खरीखरी सुनाई. लेकिन तुम्हारी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई तो मुझे हैरानी हुई. मैं ने जब तुम्हारे शरीर को देखा तो बर्फ की तरह ठंडा था. तुम पसीने से नहा चुके थे. मैं ने तुरंत पड़ोस के खड़से भैया और उन की बीवी खड़सी को बुलाया. वे तुरंत आ गए. उन्होंने बताया कि तुम्हें हार्ट अटैक आया है.

‘‘सुन कर मेरे हाथपांव फूल गए. फिर पूरे तीन दिनों तक आप को न जाने कितने इंजैक्शन, न जाने कितनी खून की बोतलें चढ़ाईं तब मेरा सुहाग बच पाया है,’’ कहतेकहते हमारी श्रीमतीजी की आंखों से गंगाजमना बहने लगी.

हम ने बिस्तर पर पड़ेपड़े ही कहा, ‘‘क्यों रोती हो? हमारे नहीं रहने पर तुम्हें अनुकंपा नौकरी मिल जाती, फंड का रुपया रिफंड हो जाता, बीमे के रुपए मिल जाते… अच्छा था तुम्हें चैन मिल जाता…’’

श्रीमतीजी ने साड़ी के पल्लू से अपनी तोते जैसी नाक को पोंछा और फिर कहने लगीं, ‘‘क्यों फालतू की बातें करते हो… अगर तुम ने ऐसी बातें की तो सच कहती हूं खटमल मार दवा पी कर मर जाऊंगी.’’

‘‘यानी मरतेमरते भी खर्च में डाल कर जाओगी,’’ हम ने नाराजगी भरे स्वर में कहा. फिर पूछा, ‘‘यह तो बताओ डाक्टर ने हमें बीमारी क्या बताई?’’

‘‘3 ट्यूब ब्लाकेज हैं, कोलैस्ट्रौल बढ़ गया है. हमेशा कहती थी कि घी, तेल वाली व चटपटी चीजें न खाया करो. लेकिन तुम सुनते कहां थे. हमेशा कहते थे कि उबली सब्जियां बनाती हो… कहो, मैं तुम्हारे अच्छे के लिए बनाती थी न? अब जो कुछ भी बनाऊंगी चुपचाप खा लेना.’’

‘‘ऐसे उबले खाने से तो मरना अच्छा है, हम नहीं खाएंगे,’’ हम ने गुस्से से कहा.

‘‘तुम्हें मैं क्या ठीक करूंगी… तुम्हें तो संसार में एक ही… ठीक कर सकती है…’’ न जाने किस का नाम लिया, हम सुन नहीं पाए और वे चली गईं.

एक शाम श्रीमतीजी ने हंसते हुए हमारे कमरे में प्रवेश किया और बताया, ‘‘शाम को मेरी मम्मी आ रही हैं.’’

‘‘आप की मम्मी आ रही हैं? मगर क्यों?’’

‘‘तुम्हें देखने.’’

‘‘हम ठीक तो हैं.’’

‘‘तो क्या मैं उन्हें आने से मना कर देती?’’

शाम को हमारी सासूमां आ धमकीं. आते ही हमारे पास आईं और फटाफट 1 दर्जन हिदायतें दीं.

अगले दिन सुबह से दूध के गिलास में मलाई बिलकुल नहीं थी. परांठे खाने को बैठे तो 2 फुलके बिना घी के आ गए. हम ने यह देखा तो माथा पीट लिया. यह सब परोसने के लिए हमारी सासूमां मौजूद थीं. खाने से घी गायब था, अंडे नहीं थे और जो फल यानी पपीते, सेब, अनार, आम आदि थे उन में से मात्र 25% हम तक आ रहे थे शेष 75% के छिलके हम ने अपनी सासूमां के बैडरूम में रखी डस्टबिन में देखे.

एक दिन पड़ोसी मिस्टर कैथवास और मिसेज कैथवासनी ने चिकन तंदूर चुपके से भेजने का वचन दिया. हम भी प्रतीक्षा कर रहे थे. श्रीमतीजी को हम ने कसम दे कर अपनी ओर मिला लिया था. रात को हम मुंह में पानी लिए खाने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि तभी हमारी थाली में मुरगा नहीं, बल्कि दलिया लिए हमारी सासूमां प्रकट हुईं और आंखें तरेर कर कहने लगीं, ‘‘मैं ने आज आप के दोस्त कैथवास की खूब आरती उतारी है, मुरगा लाया था नालायक आप के लिए…’’

‘‘अरे,’’ हम ने आश्चर्य प्रकट किया, ‘‘मुरगा है कहां?’’ हम ने पूछा.

‘‘हमें आप के मित्र की इज्जत का ध्यान था इसलिए मुरगा रख लिया, आप दलिया जल्दी से खा लो ताकि मैं जा कर मुरगे को निबटाऊं.’’

हम ने आंखें बंद कर के दलिया खाया, पानी पीया और अपनी किस्मत पर बिसूरते हुए सो गए. हमारी सासूमां ने पूरा मुरगा और बटर को निबटाया. यह सिलसिला महीने भर तक चलता रहा.

डाक्टर ने चैकअप किया, रक्त परीक्षण किया और श्रीमतीजी को बधाई दी, ‘‘कोलैस्ट्रौल एकदम 1 महीने में सामान्य हो गया… ऐसा परहेज 3-4 माह और चलने दें, ब्लाकेज भी अपनेआप ठीक हो जाएंगे.’’

श्रीमतीजी प्रसन्न हो गईं, मगर इतना लंबा परहेज सुन कर हम परेशान हो गए. वजन की मशीन पर हमारी सासूमां ने वजन लिया जो पूरा 60 किलोग्राम था.

1 माह में 30 किलोग्राम की बढ़ोतरी हो चुकी थी. सच में हमारी सासूमां के गालों पर लाली आ गई थी, माशा अल्लाह हैल्थ भी अच्छी हो गई थी.

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘जब तक आप पूरी तरह ठीक नहीं हो जाएंगे मम्मी यहीं रहेंगी.’’

हम ने कभी विरोध नहीं किया था इसलिए चुप हो गए. पूरे 3 महीने तक हमें 25% भोजन दिया गया.

एक रोज सुबह श्रीमतीजी रोते हुए बोलीं, ‘‘मम्मीजी के सीने में दर्द है, पसीना आ रहा है, जी घबरा रहा है, बेहोशी आ रही है…’’

हम तेजी से उठे और उन्हें देखा. सच में वे ठीक हमारी तरह ही हो रही थीं. हम उन्हें तुरंत अस्पताल ले गए. डाक्टर ने उन्हें हार्ट अटैक बताया. खानेपीने के परहेज में घी, मक्खन, पनीर, मुरगा, अंडे सब खाने के लिए मना कर दिया. हम इलाज करा कर उन्हें घर ले आए. घर में उन के लिए बिस्तर लगा दिया.

हम उन्हें देखने जब उन के कमरे में गए तो उन्होंने हंसतेमुसकराते हुए हमें देखा और कहा, ‘‘दामादजी, आप की तबीयत ठीक रहे इसलिए नहीं चाहते हुए भी हम ने वह सब खाया, क्योंकि हमें आप की चिंता थी. यदि सामान घर में रहता तो आप भला किसी की सुनते?’’

‘‘हमारे स्वास्थ्य की आप को कितनी चिंता है सासूमां,’’ हम ने बड़े प्यार से कहा.

‘‘क्यों न हो? दामाद बेटे समान होता है.’’

हम प्रेमश्रद्धा से भर उठे और उन के चरण स्पर्श कर लिए. श्रीमतीजी परदे की ओट से सास और दामाद का स्नेह, श्रद्धा से भरा मिलन देख रही थीं. सच में, हमें पहली बार अपनी सास पर गर्व हुआ कि ऐसी महान सास सब को मिले.

एक चुटकी मिट्टी की कीमत

पहले जब लोगों के दिल बड़े हुआ करते थे, तब घर भी बड़े व हवादार हुआ करते थे, भरेपूरे संयुक्त परिवार हुआ करते थे. जब से लोगों के दिल छोटे हुए, घर भी छोटे व बेकार होने लगे डब्बेनुमा. अब जब कोरोना जैसी महामारी आई तो लोगों को पूर्वजों की बड़ी व खुली सोच और बड़े व खुलेखुले घर की अहमियत समझ में आई.

बात पिछले साल की है. बिहार के अपने लंबेचौड़े, संयुक्त पुश्तैनी घर से दिल्ली के 2 कमरों के सिकुड़ेसिमटे फ्लैट में शिफ्ट हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि कोरोना महामारी ने समूचे विश्व पर अपने भयावह पंजे फैला दिए. लौकडाउन और कर्फ्यू के बीच घर में कैद हम बेबसी में नीरस व बेरंग दिन काट रहे थे, फोन पर प्रियजनों के साथ दूरियों को पाट रहे थे. मन ही मन प्रकृति से दिनरात मिन्नतें कर रहे थे कि, हे प्रकृति, इस विदेशी वायरस को जल्दी से जल्दी इस के मायके भेज दे.

एक दिन मुंह पर मास्कवास्क बांध कर मन ही मन कोरोना के उदगम स्थल को हम अपनी बालकनी में बैठे कोस रहे थे कि अथाह भीड़ वाली दिल्ली की कोरोनाकालीन सूनी सड़क से फूलों का एक ठेले वाला अपनी बेसुरी आवाज में चीखते हुए फूल खरीदने की गुहार मचाता गुजरा. देखते ही देखते महामारी को ठेंगा दिखाते लोगों की भीड़ ठेले के पास जमा हो गई.

हम भारतीयों की ख़ासीयत है कि हम लौकडाउन, कर्फ्यू या मास्कवास्क को अपनी सुविधानुसार ही अहमियत देते हैं. भावताव के साथ संपन्न हो रही थी सौदेबाजी, कोरोना ने कहीं महंगे कर दिए थे फूल तो कहीं सस्ते में भाजी मिल रही थी. थोड़ी ही देर बाद मैं ने देखा कि सामने वाले घर की बालकनी गुलाब के गमलों से सज गई है और गमले में लगे यौवन से उन्मत्त लालपीले सुकुमार गुलाब मेरी ओर बड़ी अदा से देख कर मुसकरा रहे हैं. अकेलेपन से व्यथित मेरे ह्रदय को अपनी ख़ूबसूरती से चुरा रहे हैं. अगलबगल के घरों की बालकनी का भी यही नज़ारा था.

गुलाबों का बेहिसाब हुस्न मेरे दिल को बरबस ही भा चुका था. पर करें क्या, फूल वाला तो अपने सारे गुलाब बेचकर जा चुका था. अब हर दिन मैं फूलवाले के इंतज़ार में बालकनी में बैठी रहती. किसी भी बेसुरी आवाज पर मेरी सारी चेतना कानों में समा जाती. पर सूनी सड़क पर यदाकदा भीख मांगने वाले या फिर शौकिया सड़कों की ख़ाक छानने वाले ही नज़र आते. न जाने फूलवाला कहां लुप्त हो गया था.

आखिरकार, एक हफ्ते बाद फूलवाला दोबारा से सड़क पर प्रकट हुआ. भीड़ का जत्था ठेले तक पहुंचे, इस के पहले ही मैं तेज गति से ठेले के पास जा पहुंची. अलगअलग रंगों के 10 गुलाब पसंद कर के मैं ने फूलवाले से उन्हें गमले में लगा देने को कहा.

“फूल लगाने के पैसे अलग से लगेंगे, मैडम जी,” भीड़ देख कर वह वाला भाव खा रहा था.

मैं बोली, “अरे, तो ले लेना अलग से पैसे, फूल तो लगा दो.”

वह बोला, “फूल कैसे लगा दूं, मैडम जी, मिट्टी किधर है?”

मैं सोच में पड़ गई, मिट्टी कहां है. मुझे पसोपेश में देख वह फूलवाला वाला बोला, “ मिट्टी लेनी है?”

मैं ने झट से हामी भरी तो उस ने एक छोटा सा पैकेट निकाला और बोला, “यह 5 किलो मिट्टी है, 375 रुपए लगेंगे. लेना है, तो बोलो.”

मिट्टी इतनी कम थी कि एक गमला भी ठीक से नहीं भर सकता था. पर फूल वाले ने बड़ी कुशलता से 4 गमलों में जराजरा सी मिट्टी डाल कर गुलाब के पौधे लगा दिए और बाकी मिट्टी कल लाने की बात कह कर चला गया.

6 गुलाब के पौधे बेचारे यों ही बालकनी के फर्श पर गिरे पड़े से थे. अपने अंजाम को सोच कर मानो डरेडरे से थे. मैं ने फोन पर अपनी मित्रमंडली में अपनी परेशानी बताई, तो सब ने औनलाइन मिट्टी खरीदने का सुझाव दिया. मैं झटपट औनलाइन मिट्टी सर्च करने लगी. यहां तो तरहतरह की मिट्टियों की भरमार थी. हम तो एक ही मिट्टी समझते थे. यहां मिट्टी की हजारों किस्में उपलब्ध थीं.

गुलाब के लिए अलग मिट्टी तो सिताब के लिए अलग, गुलबहार के लिए अलग तो गुलनार के लिए अलग, मनीप्लांट के लिए अलग जबकि हनी प्लांट के लिए अलग, आम के लिए अलग तो एरिका पाम के लिए अलग. साथ ही कोरोना की वजह से ‘भारी’ डिस्काउंट भी मिल रहा था. 300 रुपए किलो से 1100 रुपए किलो के बीच हजारों तरह की मिट्टियां औनलाइन बेची जा रही थीं. जैसे रेड सोयल, येलो सोयल, और्गेनिक सोयल, इनआर्गेनिक सोयल, पृथ्वी सोयल, आकाश सोयल, गोबर वाली सोयल, खाद वाली सोयल आदि. और तो और, जरा ज्यादा दाम पर यहां मिट्टी के बिस्कुट भी उपलब्ध थे.

सोने के बिस्कुट, खाने के बिस्कुट तो सुने थे पर ये मिट्टी के बिस्कुट पहली बार सुन रही थी. कई घंटे दिमाग खपाने के बाद मैं ने 15 किलो खाद वाली मिट्टी और 10 मिट्टी के बिस्कुट और्डर किए, जो कि सुबहसुबह एक छोटे से पैकेट में डिलीवरी बौय दे गया.

बड़े बुजुर्ग कह गए थे कि एक समय ऐसा आएगा जब पानी भी पैकेट में बिकेगा. पर मिट्टी भी पैकेट में बिकेगी, यह तो किसी ने सोचा ही न होगा. खैर, बिस्कुट समेत पूरी मिट्टी बमुश्किल 5 से 7 किलो होगी. अभी औनलाइन मिट्टी खरीदने का दुख कम भी नहीं हुआ था कि दोपहर को फूलवाला भी 5 किलो कह कर दोचार मुट्ठी मिट्टी दे गया. बदले में वह पेटीएम के पूरे पैसे ले गया. औनलाइन मिट्टी खरीदने के जख्म को फूलवाला हरा कर गया और जराजरा सी मिट्टी में किसी तरह से गुलाबों को खड़ा कर गया.

ऐसी अज़ीबोगरीब मिट्टी को देख कर बेचारे गुलाब बेहद डरे हुए थे. बड़ी मुश्किल से मुट्ठीभर मिट्टी में झुकेझुके से पड़े हुए थे वे. गुलाबों की दशा देख कर मेरा मन दिल्ली के प्रदूषित आसमान की तरह धुंधवारा सा होने लगा. हाय री मिट्टी, तू तो सोने से भी कीमती निकली. मन किया कि बिहार जा कर एक बोरी मिट्टी ही ले आऊं, पर कोरोना माई की वजह से यह मंसूबा भी पूरा नहीं हो सका. भरेमन से आखिरकार मैं ने गुलाबों को उन के हाल पर छोड़ देने का फैसला किया. एक लंबी सांस के साथ मेरे मुंह से निकला- एक चुटकी मिट्टी की कीमत तुम क्या जानो…

यंग फौरएवर थेरैपी

करवट बदल कर बांह फैलाई तो हाथ में सिरहाना आ गया. हम समझ गए कि श्रीमतीजी उठ चुकी हैं. सुबह की शुरुआत रोमांटिक हो तो कहना ही क्या. सोचते हुए लगे श्रीमतीजी को खोजने. फिर किचन से धुआं उठता देख समझ गए कि गरमगरम परांठे सिंक रहे हैं, सो वहीं पहुंच पीछे से ही गलबहियां डाल लगे हांकने, ‘‘दिन जवानी के चार यार प्यार किए जा…’’

झटके से हाथ हटातीं श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘हटो, सुबहसुबह तुम्हें और कोई काम नहीं, जाओ बच्चों को उठाओ, स्कूल भेजना है. बुढ़ाती उम्र में भी इन्हें रोमांस सूझता है.’’

श्रीमतीजी के इस देखेभाले अंदाज को इग्नोर करते हम बोले, ‘‘जानम कहां तुम बुढ़ापे की बातें करने लगीं. तन से तो ढलकती जा रही हो मन से तो मत ढलको. यंग फौरएवर थेरैपी अपनाओ और सदाबहार रोमांटिक बनो,’’ कहते हुए हम फिर उन्हें बांहों में भरते हुए बोले, ‘‘ओ मेरी जोराजबीं, तुझे मालूम नहीं तू अभी तक है हसीं और मैं जवान…’’

‘‘हांहां, तुम होगे सदाबहार जवान और रोमांटिक. मैं तो न हसीन रही, न जवान. इस चूल्हेचौके में झोंक कर तुम ने मुझे हसीन और जवान रहने ही कहां दिया?’’ श्रीमतीजी ने ताना मारा, ‘‘और यह यंग फौरएवर थेरैपी क्या है बुड्ढों को जवान बनाने का नुसखा या रोमांटिक बनाने का?’’

‘‘भई अपना कर देखो इस फौर्मूले को, कैसे बुढि़या से गुडि़या बनती हो तुम भी, बिलकुल बार्बी डौल की तरह,’’ हम ने फिर उन्हें बांहों में भरते हुए कहा.

इसी बीच बच्चे खुद ही उठ कर आ गए और हमें आलिंगनबद्ध देख झेंप से गए. हम भी अपना रोमांसासन छोड़ चल दिए पानी गरम करने की रौड लगाने.

औरत सब कुछ सह सकती है लेकिन बूढ़ी, बहनजी होने का ताना नहीं. ऐसे में भाजीतरकारी बेचने वाला भी अगर गलती से माताजी कह दे तो राशनपानी ले कर उस पर सवार हो जाने वाली हमारी श्रीमतीजी के मुख से खुद के लिए खुद ही किया गया बुड्ढी का संबोधन सुन हम अचंभित थे. पर वापस रोमांटिक मुद्रा में आते हुए बोले, ‘‘हमारा मतलब है आप को फौरएवर यंग बनना चाहिए यानी हर बढ़ते वर्ष में भी पिछले वर्ष जैसा जवान और हसीन. फिर देखो आप भी सदाबहार रोमांटिक गाने न गाने लगो तो हमारा नाम नहीं.’’

‘‘यानी अपनी उम्र से भी कम दिखें? लेकिन कैसे, घर के खपेड़ों से फुरसत मिले तो न? हमेशा तो आप चूल्हेचौके में खपाए रहते हो. 15 वर्षों में ही 50 वर्ष की बूढ़ी लगने लगी हूं तिस पर शरीर थुलथुल होता जा रहा है सो अलग,’’ श्रीमतीजी ने अपनी टमी की ओर इशारा किया.

हम भी मौके पर चौका मारते हुए बोल उठे, ‘‘भई कुछ जौगिंग, ऐक्सरसाइज बगैरा कर फिगर का खयाल रखो, स्वास्थ्य का खयाल रखो तो फिर से गुडि़या बन जाओगी, मेरी बुढि़या. हम तो कहते हैं आज से ही शुरू कर दो यंग फौरएवर की जंग.’’

हमारी बात श्रीमतीजी की समझ में आई कि नहीं, पता नहीं पर इतना जरूर समझ गईं कि उन्हें बुढि़या नहीं गुडि़या दिखना है, बिलकुल बार्बी डौल जैसा. वैसे भी उम्र भले बढ़ती रहे, लेकिन नारी कभी नहीं चाहती कि  वह बुढि़या दिखे. अत: श्रीमतीजी ने सोच लिया कि चाहे लाख जतन करने पड़ें, बुढि़या से गुडि़या बन कर ही रहेंगी.

अगले दिन से ही मेकअप से ले कर ऐरोबिक्स और न जाने कौनकौन से नुसखों से खुद को यंग फौरएवर दिखाने के फौर्मूले ढूंढ़ने में ऐसे रातदिन एक किया कि अगर इतना पहले पढ़ लेतीं तो कालेज डिगरी के साथसाथ पीएचडी की डिगरी भी  मिल ही जाती.

लेकिन हमारे लिए पासा उलटा पड़ गया था. बुढि़या से गुडि़या बनने की धुन में सवार हमारी श्रीमतीजी रोज सुबह जौगिंग पर जातीं और जातेजाते हिदायत दे जातीं कि गैस पर दाल रखी है, 2 सीटियां आने पर उतार देना, बच्चों को उठा देना, नाश्ता करवा देना….

अब हम बच्चों को उठाते तो इतने में 2 की जगह 3 सीटियां बज जातीं, बच्चों को नहला रहे होते तो दूध उबल जाता, दाल को एक ओर तड़का लगाते तो दूसरे चूल्हे पर रखी सब्जी जल जाती. किसी तरह सब तैयार होता तो बच्चे लेट हो जाते. उन की स्कूल वैन निकलने का खामियाजा हमें उन्हें स्कूल छोड़ कर आने के रूप में भुगतना पड़ता.

तिस पर रोज श्रीमतीजी की अलगअलग हिदायतें कि आज मौसंबी का जूस पीना है, आज कौर्न का नाश्ता करना है… जवान दिखने के लिए पौष्टिक आहार जरूरी है न.

और तो और उस दिन जौगिंग से आते ही श्रीमतीजी ने फरमाइश रख दी, ‘‘इन कपड़ों में योगा नहीं होता. ट्रैक सूट लेना होगा, जौगिंग शूज भी चाहिए,’’ और फिर कई हजार की चपत लगा अगले ही दिन ट्रैक सूट पहन इतराती हुई बोलीं, ‘‘आज कौर्न का नाश्ता बना कर रखना, साथ में पालक का सूप और कुछ बादाम भिगो देना.’’

हम हां या न कहते उस से पहले घर का दरवाजा खोल निकल लीं. ट्रैक सूट पहने देख हमें लग रहा था कि बुढ़ाते कदम फिर बैक हो रहे हैं. सो हंस दिए. फिर मन में आया कि आज तो संडे है बच्चों ने भी नहीं जाना सो क्यो न पार्क में चल कर देखा जाए कि श्रीमतीजी कैसे बना रही हैं खुद को जवान. सो कौर्न का नाश्ता बनाया, बादाम भिगोए और पालक का सूप तैयार कर चल दिए हम भी पार्क की ओर.

पार्क का दृश्य देख कर तो हम जलभुन कर कोयला ही हो गए. एक बूढ़ा श्रीमतीजी

को योगा सिखाने के बहाने कभी हाथ पकड़ता तो कभी शीर्षासन करवाने के बहाने टांगें पकड़ कर बैलेंस बनवाता. हमें यह देख अच्छा न लगा, लेकिन अपना सा मुंह लिए बिना उन्हें डिस्टर्ब किए घर वापस आ गए.

थोड़ी ही देर में वही बूढ़ा भागता हुआ आता दिखा. आगेआगे हमारी श्रीमतीजी भी भाग रही थीं. फिर घर आ कर उस से परिचय करवाती बोलीं, ‘‘ये हमारे व्यायाम के टीचर हैं… घर देखना चाहते थे. बहुत अच्छी पकड़ है इन की हर आसन पर…’’

‘‘हां देख ली इन की पकड़. हमें तो बुढ़ापे में यौनासन करते नजर आते हैं ये,’’ हम ने कहना चाहा पर बोल न पाए और न चाहते हुए भी बूढ़े से हाथ मिलाया व सोचने लगे कि श्रीमतीजी को कैसे समझाएं कि योगा के बहाने ये आप को कैसेकैसे बैड टच करते हैं.

श्रीमतीजी ने नाश्ते की फरमाइश की तो हम ने बूढ़े के सामने कौर्न और भीगे बादाम ही रख दिए और मन ही मन बोले कि लो खाओ योगीजी.

उस के मना करने पर हम समझ गए कि न पेट में आंत, न मुंह में दांत, यह बुड्ढा क्या खाएगा कौर्न और बादाम.

उन के जाने पर हम ने चैन की सांस ली, लेकिन लगे श्रीमतीजी पर खीज उतारने, ‘‘यंग फौरएवर बनने को कहा था, फास्ट फौरवर्ड बनने को नहीं, जो उस बुड्ढे संग योगा करने लगीं. उस बुड्ढे की जवानी तो वापस आने से रही, हमारा रोमांस भी कहीं धराशायी न हो जाए.’’

हम कहते हुए कुढ़ते रहे और श्रीमतीजी पैर पटक कर चल दीं फ्रैश होने. फिर हम लगे श्रीमतीजी के गुस्से को शांत करने की जुगत ढूंढ़ने.

अब श्रीमतीजी दिनबदिन यंग होती जा रही थीं और हम चूल्हेचौके में फंसे बैकवर्ड. हमें कुढ़न थी कि हमारा रोमांस का मजा छिन रहा है और वह बुड्ढा दूध से मलाई लपकता जा रहा है.

दिन भर के  थकेहारे, सुबहशाम किचन के मारे हम रात को रोमांस की चाह लिए श्रीमतीजी के गलबहियां डालते तो वे कह उठतीं, ‘‘सोने दो सुबह जल्दी उठना है… बुढि़या से गुडि़या बनना है न तुम्हारे लिए.’’

हम खिसियाते से अपना रोमांस मन और सपनों में लिए दूसरी करवट सो जाते.

उस दिन हम औफिस से निकले तो सारे रास्ते इंतजार करते रहे पर श्रीमतीजी का फोन नहीं आया. पहले तो मैट्रो में पैर बाद में रखते थे कि घंटी बज उठती थी और खनखनाती आवाज में पूछा जाता कि कहां पहुंचे? फिर उसी हिसाब से चाय बनती. हम आशंकित हुए.

तभी फोन घनघनाया तो हम खुशी के मारे बल्लियों उछल पड़े. पर अगले ही पल तब हमारी खुशी काफूर हो गई जब श्रीमतीजी ने हिदायत दी कि घर पहुंच कर दाल चढ़ा देना. सब्जी काट रखना. मैं जिम में हूं. आज से ही जौइन किया है. थोड़ा लेट लौटूंगी.

हम खुद पर ही कुढ़े, ‘‘सुबह योगा, जौगिंग क्या कम थी जो अब जिम भी जौइन कर मारा? बुढि़या को गुडि़या बनने का मंत्र क्या मिला कि हमारी तो जान आफत में फंस गई. पर मरता क्या न करता. हम ने श्रीमतीजी की खुशी के लिए यह भी सह लिया यह सोच कर कि वे भी तो हमें जवां दिखाने के लिए संडे के संडे हमारे बाल रंगती हैं, फेशियल कर हमारे बुढ़ाते फेस की झुर्रियां हटाती हैं

खाने का इंतजाम कर श्रीमतीजी का इंतजार कर ही रहे थे कि डोरबैल बजी. दरवाजा खोला तो श्रीमतीजी का हुलिया देख दंग रह गए. स्लीवलैस टीशर्ट और निकर में उन्हें देख हमारी आंखें खुली की खुली रह गईं.

‘‘इस तरह टुकुरटुकुर क्या देख रहे हो? जिम ट्रेनर ने कहा था ऐसी ड्रैस के लिए,’’ श्रीमतीजी ने बताया तो हम समझ गए कि आज फिर यंग फौरएवर की धुन में हमारी जेब कटी.

इस यंग फौरएवर की धुन में हमारी श्रीमतीजी इतनी फास्ट फौरवर्ड हो गईर् थीं कि हमारी हालत पतली हो गई थी. हम रहरह कर उस क्षण को कोसते जब हम ने बुढि़या को गुडि़या बनने का सपना दिखाया था. इस का 1 ही महीने में इतना असर हुआ कि लग रहा था श्रीमतीजी अगले 3-4 महीनों में बुढि़या से गुडि़या नजर आने लगेंगी पर हम चूल्हेचौके और औफिस के बीच सैंडविच बन कर रह जाएंगे.

खैर, अब सुबह के साथ शाम का काम भी हमारे ही सिर मढ़ दिया गया था. तिस पर श्रीमतीजी के लिए अलग पौष्टिक आहार के चक्कर में घर का खर्च बढ़ा सो गलग.

उस दिन शाम को जल्दी औफिस से निकले तो सोचा जिम जा कर श्रीमतीजी की

ट्रेनिंग का जायजा लिया जाए. लेकिन जिम पहुंचते ही वहां का माहौल देख कर हम तमतमा उठे. हमारा चेहरा फक्क रह गया. श्रीमतीजी ट्रेड मिल पर दौड़ लगा रही थीं और आसपास सभी पुरुष ऐक्सरसाइज के बजाय ऐंटरटेनमैंट ज्यादा कर रहे थे. सब की नजरें हमारी श्रीमतीजी के सैक्सी बदन पर ही थीं, बावजूद इस के ट्रेनर भी डंबल, बैंच प्रैस आदि करवाने के बहाने यहांवहां टच कर जाता.

मूक दर्शक बने हम ने सब देखा, फिर न चाहते हुए भी श्रीमतीजी के कहने पर सब से मिले और वापस घर आ कर श्रीमतीजी पर बिगड़े, ‘‘तुम्हें यंग फौरएवर बनाने के चक्कर में हम काफी बैकवर्ड हो गए हैं. संभालो अपना घर हम तो हम, बच्चे भी इग्नोर हो रहे हैं.’’

‘‘हम ने सोचा था आप की काया छरहरी बनेगी, सुंदर दिखोगी, खुश रहोगी, तो रोमांस का मजा भी दोगुना हो जाएगा. लेकिन इस यंग फौरएवर के चक्कर में आप इतनी फास्ट फौरवर्र्ड हो जाएंगी, सोचा न था. देखा, कैसे ट्रेनिंग के बहाने वह ट्रेनर तुम्हें कहांकहां छू रहा था.’’

हमारी दुखती रग का मर्म श्रीमतीजी क्या समझतीं. उन्हें तो यही लग रहा था कि हम ईर्ष्यालु हो गए हैं. सो भड़कीं, ‘‘भाड़ में गया तुम्हारा यंग फौरएवर का फौर्मूला. हम ही पागल थीं जो आप को मेहंदी लगा तुम्हारे बाल काले कर आप को जवान दिखाने की पुरजोर कोशिश में लगी रहीं. समाज में 2 पुरुषों ने क्या देख लिया तुम से सहा न गया इस से तो हम बुढि़या ही ठीक हैं,’’ और फिर पैर पटकती चली गईं.

अब इन्हें कौन समझाए कि वे जिन योगाभ्यासियों और जिम ट्रेनर से ट्रेनिंग लेती हें वे सिर्फ उन्हें पराई नार समझते हैं और ऐसे कपड़ों में झांकते बदन को टुकुरटुकुर देखते हैं जो हमें कतई बरदाश्त नहीं. दूर से देखना तो अलग सिखाने, ऐक्सरसाइज करवाने के बहाने यहांवहां बैड टच करते रहते हैं, समझती हो क्या.

हालांकि श्रीमतीजी अब खूब छरहरी दिखने लगी थीं. खूबसूरत तो वे पहले से ही थीं तिस पर यंग फौरएवर की धुन ने ऐसा गजब ढाया कि बुढि़या वाकई गुडि़या दिखने लगी थीं. गली से निकलतीं तो सब देखते रह जाते. आसपास की सभी औरतें इस कायाकल्प का रहस्य जानने को उत्सुक थीं.

एक दिन श्रीमतीजी जौगिंग पर गई हुई थीं, किसी ने दरवाजा खटखटाया. हम ने दरवाजा खोला तो सामने महल्ले की नामीगरामी औरतें खड़ी दिखीं. पूछने लगीं, ‘‘भाभीजी घर पर हैं?’’

हम पहले तो अवाक उन्हें देखते रह गए, फिर सहज होते हुए बोले, ‘‘नहीं, वे तो जौगिंग पर गई हैं…’’

अभी हमारी बात पूरी भी न हुई थी कि वे बोल पड़ीं, ‘‘भईर्, आजकल भाभीजी कोे देख कर लगता है उन की जवानी वापस आ गई है… कितनी छरहरी हो गई हैं… स्लीवलैस टीशर्ट और निकर में तो किसी कमसिन हसीना से कम नहीं लगतीं. कल राज जब अपने पापा के साथ सैर कर रही थीं तो कितनी हसीन लग रही थीं. हमें भी बताओ इस का राज?’’

‘वे रात अपने पिताजी के साथ सैर कर रही थीं, सुन हम भी हैरान हुए. फिर सकते में आ गए, कल रात तो हम ही दोनों सैर कर रहे थे. और तो क्या हम इतने बुढ़ा गए कि… नहींनहीं,’ हम ने सोचा. दरअसल, बुढि़या से गुडि़या बनने के चक्कर में श्रीमतीजी का हम पर से ध्यान ही हट गया था, महीने से न बालों में मेहंदी लगी थी न फेशियल किया था. तो हम बुड्ढे तो लगेंगे ही.

‘‘बताइए न क्या घुट्टी पिलाई है आप ने उन्हें,’’ रीमा ने दोबारा पूछा तो हमारी तंद्रा भंग हुई. उन महिलाओं में से कोई मोटापे से परेशान थी तो कोई बढ़ा टमी लिए घूमना पसंद नहीं कर पा रही थी. किसी की जांघें बहुत मोटी थीं. रीना के नितंब तो इतने बड़े और बेडौल थे कि उस के सोफे पर बैठते समय हमें लगा कहीं सोफा ही न बैठ जाए.

‘हमारी तपस्या सफल हो गई,’ सोच हम इतराए और फूले न समाए. सोचा, ‘बता दें इन्हें कि यह तो हमारी यंग फौरएवर थेरैपी का कमाल है,’ लेकिन फिर यह सोच चुप रह गए कि ऐसा कहना अपने मुंह मियांमिट्ठू बनना होगा. अत: बोले, ‘‘श्रीमतीजी आएंगी तो स्वयं ही पूछ लीजिएगा आप. तब तक चाय बनाता हूं.’’

वे चाय पी रही थीं तभी श्रीमतीजी आ गईं. लेकिन हमारी उम्मीद कि वे सब को बताएंगी कि हम हैं उन्हें यंग फौरएवर का फौर्मूला बता बुढि़या से गुडि़या बनाने वाले, पर इस उम्मीद के विपरीत वे बोलीं, ‘‘यह तो सुबह पार्क में योगा करने और शाम को जिम जाने का कमाल है. पता है, हमारे योगा के सर बहुत अच्छी तरह योगा सिखाते हैं. उन की और जिम ट्रेनर की वजह से हमें ऐसी सैक्सी फिगर पाने में कामयाबी मिली है.’’

हम खुद पर कुढ़ रहे थे. आदमी छोटी सी भी सफलता हासिल कर ले तो सब कहते हैं कि इस के पीछे औरत का हाथ है, लेकिन आदमी लाख खपे और औरत को कितना भी ऊपर उठाए, तब भी कोई नहीं कहता कि इस के पीछे आदमी का हाथ है. तिस पर श्रीमतीजी ने उस बुड्ढे योगी और जिम ट्रेनर को इस का श्रेय दिया तो हमारी भृकुटियां तन गईं.

उन औरतों के जाने के बाद हम श्रीमतीजी पर बिगड़े, ‘‘हमारे चूल्हे में खपने का, आप को बुढि़या से गुडि़या बनाने हेतु औफिस और घर में तालमेल बैठाने का आप को जरा भी खयाल नहीं आया? सारा श्रेय उन खूसटों को दे दिया. हम तो कुछ हैं ही नहीं,’’ और फिर खूब हो हल्ला मचा हम औफिस चल दिए.

शाम को वापस आ कर भी अनमने से सब समेटा और सोचने लगे, ‘पार्क में भेजो

तो सब बुड्ढे खूसट दिखेंगे आंखें सेंकते. जिम भेजो तो युवकों का डर. ऐसे में हमें लगा दुनिया के सारे मर्द खासकर बुड्ढे ठरकी ही होते हैं जहां औरत देखी, लाइन मारना चालू.’

समाज के इन भेडि़यों से श्रीमतीजी की हिफाजत अपना फर्ज समझ हम ने यह निर्णय लिया कि हमें भी यंग फौरएवर थेरैपी अपनानी होगी. हम भी गृहस्थी का बोझ ढोतेढोते बुढ़ाने लगे हैं. मिल कर घर के काम निबटाएंगे और साथसाथ हैल्थ बनाएंगे.

यह सोच कर हम पलंग पर लेटे ही थे कि श्रीमतीजी आ गईं यह सोच कर कि हम रूठे हैं. फिर मनाती हुई बोलीं, ‘‘क्या हुआ आप के सदाबहार रोमांस को? थोड़ी यंग फौरवर्ड थेरैपी खुद भी आजमा लो कुढ़ने से क्या फायदा?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं कल से ही हम भी यह फौर्मूला अपनाएंगे. जिंदगी की गृहस्थी की गाड़ी दोनों मिल कर खींचेंगे, फिर समय निकाल कर यंग फौरएवर थेरैपी पर चलते हुए बुढ़ापे को अंगूठा दिखाएंगे अब सो जाओ,’’ हम ने घुड़का और फिर चादर तान करवट बदल कर यह सोच सो गए कि कल से नई शुरुआत करनी है यंग फौरएवर बनने की.

श्रीमतीजी भी हमें मनातीं चादर में छिपे हमारे शरीर को गुदगुदाती हुई बोलीं, ‘‘चादर ओढ़ कर सो गया… हायहाय भरी जवानी में मेरा बालम बुड्ढा हो गया.’’

Raksha Bandhan: राखी का उपहार

इस समय रात के 12 बज रहे हैं. सारा घर सो रहा है पर मेरी आंखों से नींद गायब है. जब मुझे नींद नहीं आई, तब मैं उठ कर बाहर आ गया. अंदर की उमस से बाहर चलती बयार बेहतर लगी, तो मैं बरामदे में रखी आरामकुरसी पर बैठ गया. वहां जब मैं ने आंखें मूंद लीं तो मेरे मन के घोड़े बेलगाम दौड़ने लगे. सच ही तो कह रही थी नेहा, आखिर मुझे अपनी व्यस्त जिंदगी में इतनी फुरसत ही कहां है कि मैं अपनी पत्नी स्वाति की तरफ देख सकूं.

‘‘भैया, मशीन बन कर रह गए हैं आप. घर को भी आप ने एक कारखाने में तबदील कर दिया है,’’ आज सुबह चाय देते वक्त मेरी बहन नेहा मुझ से उलझ पड़ी थी. ‘‘तू इन बेकार की बातों में मत उलझ. अमेरिका से 5 साल बाद लौटी है तू. घूम, मौजमस्ती कर. और सुन, मेरी गाड़ी ले जा. और हां, रक्षाबंधन पर जो भी तुझे चाहिए, प्लीज वह भी खरीद लेना और मुझ से पैसे ले लेना.’’

‘‘आप को सभी की फिक्र है पर अपने घर को आप ने कभी देखा है?’’ अचानक ही नेहा मुखर हो उठी थी, ‘‘भैया, कभी फुरसत के 2 पल निकाल कर भाभी की तरफ तो देखो. क्या उन की सूनी आंखें आप से कुछ पूछती नहीं हैं?’’

‘‘ओह, तो यह बात है. उस ने जरूर तुम से मेरी चुगली की है. जो कुछ कहना था मुझ से कहती, तुम्हें क्यों मोहरा बनाया?’’

‘‘न भैया न, ऐसा न कहो,’’ नेहा का दर्द भरा स्वर उभरा, ‘‘बस, उन का निस्तेज चेहरा और सूनी आंखें देख कर ही मुझे उन के दर्द का एहसास हुआ. उन्होंने मुझ से कुछ नहीं कहा.’’ फिर वह मुझ से पूछने लगी, ‘‘बड़े मनोयोग से तिनकातिनका जोड़ कर अपनी गृहस्थी को सजाती और संवारती भाभी के प्रति क्या आप ने कभी कोई उत्साह दिखाया है? आप को याद होगा, जब भाभी शादी कर के इस परिवार में आई थीं, तो हंसना, खिलखिलाना, हाजिरजवाबी सभी कुछ उन के स्वभाव में कूटकूट कर भरा था. लेकिन आप के शुष्क स्वभाव से सब कुछ दबता चला गया.

‘‘भैया आप अपनी भावनाओं के प्रदर्शन में इतने अनुदार क्यों हो जबकि यह तो भाभी का हक है?’’

‘‘हक… उसे हक देने में मैं ने कभी कोई कोताही नहीं बरती,’’ मैं उस समय अपना आपा खो बैठा था, ‘‘क्या कमी है स्वाति को? नौकरचाकर, बड़ा घर, ऐशोआराम के सभी सामान क्या कुछ नहीं है उस के पास. फिर भी वह…’’

‘‘अपने मन की भावनाओं का प्रदर्शन शायद आप को सतही लगता हो, लेकिन भैया प्रेम की अभिव्यक्ति भी एक औरत के लिए जरूरी है.’’

‘‘पर नेहा, क्या तुम यह चाहती हो कि मैं अपना सारा काम छोड़ कर स्वाति के पल्लू से जा बंधूं? अब मैं कोई दिलफेंक आशिक नहीं हूं, बल्कि ऐसा प्रौढ हूं जिस से अब सिर्फ समझदारी की ही अपेक्षा की जा सकती है.’’ ‘‘पर भैया मैं यह थोड़े ही न कह रही हूं कि आप अपना सारा कामधाम छोड़ कर बैठ जाओ. बल्कि मेरा तो सिर्फ यह कहना है कि आप अपने बिजी शैड्यूल में से थोड़ा सा वक्त भाभी के लिए भी निकाल लो. भाभी को आप का पूरा नहीं बल्कि थोड़ा सा समय चाहिए, जब आप उन की सुनें और कुछ अपनी कहें. ‘‘सराहना, प्रशंसा तो ऐसे टौनिक हैं जिन से शादीशुदा जीवन फलताफूलता है. आप सिर्फ उन छोटीछोटी खुशियों को समेट लो, जो अनायास ही आप की मुट्ठी से फिसलती जा रही हैं. कभी शांत मन से उन का दिल पढ़ कर तो देखो, आप को वहां झील सी गहराई तो मिलेगी, लेकिन चंचल नदी सा अल्हड़पन नदारद मिलेगा.’’

अचानक ही वह मेरे नजदीक आ गई और उस ने चुपके से कल की पिक्चर के 2 टिकट मुझे पकड़ा दिए. फिर भरे मन से बोली, ‘‘भैया, इस से पहले कि भाभी डिप्रेशन में चली जाएं संभाल लो उन को.’’ ‘‘पर नेहा, मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा कि वह इतनी खिन्न, इतनी परेशान है,’’ मैं अभी भी नेहा की बात मानने को तैयार नहीं था.

‘‘भैया, ऊपरी तौर पर तो भाभी सामान्य ही लगती हैं, लेकिन आप को उन का सूना मन पढ़ना होगा. आप जिस सुख और वैभव की बात कर रहे हो, उस का लेशमात्र भी लोभ नहीं है भाभी को. एक बार उन की अलमारी खोल कर देखो, तो आप को पता चलेगा कि आप के दिए हुए सारे महंगे उपहार ज्यों के त्यों पड़े हैं और कुछ उपहारों की तो पैकिंग भी नहीं खुली है. उन्होंने आप के लिए क्या नहीं किया. आप को और आप के बेटों अंशु व नमन को शिखर तक पहुंचाने में उन का योगदान कम नहीं रहा. मांबाबूजी और मेरे प्रति अपने कर्तव्यों को उन्होंने बिना शिकायत पूरा किया, तो आप अपने कर्तव्य से विमुख क्यों हो रहे हैं?’’

‘‘पर पगली, पहले तू यह तो बता कि इतने ज्ञान की बातें कहां से सीख गई? तू तो अब तक एक अल्हड़ और बेपरवाह सी लड़की थी,’’ मैं नेहा की बातों से अचंभे में था.

‘‘क्यों भैया, क्या मैं शादीशुदा नहीं हूं. मेरा भी एक सफल गृहस्थ जीवन है. समर का स्नेहिल साथ मुझे एक ऊर्जा से भर देता है. सच भैया, उन की एक प्यार भरी मुसकान ही मेरी सारी थकान दूर कर देती है,’’ इतना कहतेकहते नेहा के गाल शर्म से लाल हो गए थे. ‘‘अच्छा, ये सब छोड़ो भैया और जरा मेरी बातों पर गौर करो. अगर आप 1 कदम भी उन की तरफ बढ़ाओगे तो वे 10 कदम बढ़ा कर आप के पास आ जाएंगी.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, अब बस भी कर. मुझे औफिस जाने दे, लेट हो रहा हूं मैं,’’ इतना कह कर मैं तेजी से बाहर निकल गया था. वैसे तो मैं सारा दिन औफिस में काम करता रहा पर मेरा मन नेहा की बातों में ही उलझा रहा. फिर घर लौटा तो यही सब सोचतेसोचते कब मेरी आंख लगी, मुझे पता ही नहीं चला. मैं उसी आरामकुरसी पर सिर टिकाएटिकाए सो गया.

‘‘भैया ये लो चाय की ट्रे और अंदर जा कर भाभी के साथ चाय पीओ,’’ नेहा की इस आवाज से मेरी आंख खुलीं.

‘‘तू भी अपना कप ले आ, तीनों एकसाथ ही चाय पिएंगे,’’ मैं आंखें मलता हुआ बोला.

‘‘न बाबा न, मुझे कबाब में हड्डी बनने का कोई शौक नहीं है,’’ इतना कह कर वह मुझे चाय की ट्रे थमा कर अंदर चली गई. जब मैं ट्रे ले कर स्वाति के पास पहुंचा तो मुझे अचानक देख कर वह हड़बड़ा गई, ‘‘आप चाय ले कर आए, मुझे जगा दिया होता. और नेहा को भी चाय देनी है, मैं दे कर आती हूं,’’ कह कर वह बैड से उठने लगी तो मैं उस से बोला, ‘‘मैडम, इतनी परेशान न हो, नेहा भी चाय पी रही है.’’ फिर मैं ने चाय का कप उस की तरफ बढ़ा दिया. चाय पीते वक्त जब मैं ने स्वाति की तरफ देखा तो पाया कि नेहा सही कह रही है. हर समय हंसती रहने वाली स्वाति के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी थी, जिसे मैं आज तक या तो देख नहीं पाया था या उस की अनदेखी करता आया था. जितनी देर में हम ने चाय खत्म की, उतनी देर तक स्वाति चुप ही रही.

‘‘अच्छा भाई. अब आप दोनों जल्दीजल्दी नहाधो कर तैयार हो जाओ, नहीं तो आप लोगों की मूवी मिस हो जाएगी,’’ नेहा आ कर हमारे खाली कप उठाते हुए बोली.

‘‘लेकिन नेहा, तुम तो बिलकुल अकेली रह जाओगी. तुम भी चलो न हमारे साथ,’’ मैं उस से बोला.

‘‘न बाबा न, मैं तो आप लोगों के साथ बिलकुल भी नहीं चल सकती क्योंकि मेरा तो अपने कालेज की सहेलियों के साथ सारा दिन मौजमस्ती करने का प्रोग्राम है. और हां, शायद डिनर भी बाहर ही हो जाए.’’ फिर नेहा और हम दोनों तैयार हो गए. नेहा को हम ने उस की सहेली के यहां ड्रौप कर दिया फिर हम लोग पिक्चर हौल की तरफ बढ़ गए.

‘‘कुछ तो बोलो. क्यों इतनी चुप हो?’’ मैं ने कार ड्राइव करते समय स्वाति से कहा पर वह फिर भी चुप ही रही. मैं ने सड़क के किनारे अपनी कार रोक दी और उस का सिर अपने कंधे पर टिका दिया. मेरे प्यार की ऊष्मा पाते ही स्वाति फूटफूट कर रो पड़ी और थोड़ी देर रो लेने के बाद जब उस के मन का आवेग शांत हुआ, तब मैं ने अपनी कार पिक्चर हौल की तरफ बढ़ा दी. मूवी वाकई बढि़या थी, उस के बाद हम ने डिनर भी बाहर ही किया. घर पहुंचने पर हम दोनों के बीच वह सब हुआ, जिसे हम लगभग भूल चुके थे. बैड के 2 सिरों पर सोने वाले हम पतिपत्नी के बीच पसरी हुई दूरी आज अचानक ही गायब हो गई थी और तब हम दोनों दो जिस्म और एक जान हो गए थे. मेरा साथ, मेरा प्यार पा कर स्वाति तो एक नवयौवना सी खिल उठी थी. फिर तो उस ने मुझे रात भर सोने नहीं दिया था. हम दोनों थोड़ी देर सो कर सुबह जब उठे, तब हम दोनों ने ही एक ऐसी ताजगी को महसूस किया जिसे शायद हम दोनों ही भूल चुके थे. बारिश के गहन उमस के बाद आई बारिश के मौसम की पहली बारिश से जैसे सारी प्रकृति नवजीवन पा जाती है, वैसे ही हमारे मृतप्राय संबंध मेरी इस पहल से मानो जीवंत हो उठे थे.

रक्षाबंधन वाले दिन जब मैं ने नेहा को उपहारस्वरूप हीरे की अंगूठी दी तो वह भावविभोर सी हो उठी और बोली, ‘‘खाली इस अंगूठी से काम नहीं चलेगा, मुझे तो कुछ और भी चाहिए.’’

‘‘तो बता न और क्या चाहिए तुझे?’’ मैं मिठाई खाते हुए बोला. ‘‘इस अंगूठी के साथसाथ एक वादा भी चाहिए और वह यह कि आज के बाद आप दोनों ऐसे ही खिलखिलाते रहेंगे. मैं जब भी इंडिया आऊंगी मुझे यह घर एक घर लगना चाहिए, कोई मकान नहीं.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, आज के बाद ऐसा ही होगा,’’ इतना कह कर मैं ने उसे अपने गले से लगा लिया. मेरा मन अचानक ही भर आया और मैं भावुक होते हुए बोला, ‘‘वैसे तो रक्षाबंधन पर भाई ही बहन की रक्षा का जिम्मा लेते हैं पर यहां तो मेरी बहन मेरा उद्धार कर गई.’’ ‘‘यह जरूरी नहीं है भैया कि कर्तव्यों का जिम्मा सिर्फ भाइयों के ही हिस्से में आए. क्या बहनों का कोई कर्तव्य नहीं बनता? और वैसे भी अगर बात मायके की हो तो मैं तो क्या हर लड़की इस बात की पुरजोर कोशिश करेगी कि उस के मायके की खुशियां ताउम्र बनी रहें.’’ इतना कह कर वह रो पड़ी. तब स्वाति ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया

प्यार न माने सरहद: समीर और एमी क्या कर पाए शादी?

समीर को सीएटल आए 3 महीने हो गए थे. वह बहुत खुश था. डाक्टर मातापिता का छोटा बेटा. बचपन से ही कुशाग्र बुद्घि था. आईआईटी दिल्ली का टौपर था. मास्टर्स करते ही माइक्रोसौफ्ट में जौब मिल गई. स्कूल के दिनों से ही वह अमेरिकन सीरियल और फिल्में देखता, मशहूर सीरियल फ्रैंड्स उसे रट गया था. भारत से अधिक वह अमेरिका के विषय में जानता था. वह अपने सपनों के देश पहुंच गया.

सीएटल की सुंदरता देख कर वह मुग्ध हो गया. चारों ओर हरियाली ही हरियाली, नीला साफ आसमान, बड़ीबड़ी झीलें और समुद्र, सब कुछ इतना मनोरम कि बस देखते रहो. मन भरता ही नहीं.

समीर सप्ताह भर काम करता और वीकैंड में घूमने निकल जाता. कभी ग्रीन लेक पार्क, कभी लेक वाशिंगटन, कभी लेक, कभी माउंट बेकर, कभी कसकेडीएन रेंज, तो कभी स्नोक्वाल्मी फाल्स.

खाना खाने के ढेरों स्थान, दुनिया के सभी स्थानों का खाना यहां मिलता. वह नईनई जगह खाना खाने जाता. अब तक वह चीज फैक्ट्री, औलिव गार्डन, कबाब पैलेस, सिजलर्स एन स्पाइस कनिष्क, शालीमार ग्लोरी का खाना चख चुका था.

औफिस उस का रैडमंड में था सीएटल के पास. माइक्रोसौफ्ट में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारी यहां रहते हैं. मिक्स आबादी है- गोरे, अफ्रीकन, अमेरिकन और एशियाई देशों के लोग यहां रहते हैं. यहां भारतीय और पाकिस्तानी भी अच्छी संख्या में हैं. देशी खाने के कई रेस्तरां हैं. इसीलिए समीर ने यहां एक बैडरूम का अपार्टमैंट लिया.

औफिस में बहुत से भारतीय थे. अधिकतर दक्षिण भारत से थे. कुछ उत्तर भारतीय भी थे. सभी इंग्लिश में ही बात करते. हायहैलो हो जाती. देख कर सभी मुसकराते. यह यहां अच्छा था, जानपहचान हो न हो मुसकरा कर अभिवादन करा जाता.

समीर की ट्रेनिंग पूरी हो गई तो उसे प्रोजैक्ट मिला. 5 लोगों की टीम बनी. एक दक्षिण भारतीय, 2 गोरे और 1 लड़की एमन. समीर एमन से बहुत प्रभावित हुआ. बहुत सुंदर, लंबी, पतली, गोरी, भूरे बाल, नीली आंखें. पहनावा भी बहुत अच्छा फौर्मल औफिस ड्रैस. बातचीत में शालीन. अमेरिकन ऐक्सैंट में बातें करती और देखने में भी अमेरिकन लगती थी. मूलतया एमन कहां की थी, इस विषय में कभी बात नहीं हुई. उसे सब एमी कहते थे.

एमी काम में बहुत होशियार थी. सब के साथ फ्रैंडली. समीर भी बुद्घिमान, काम में बहुत अच्छा था. देखने में भी हैंडसम और मदद करने वाला. अत: टीम में सब की अच्छी दोस्ती हो गई.

एक दोपहर समीर ने एमी से साथ में लंच करने को कहा. वह मान गई. दोनों ने लंच साथ किया. समीर ने बर्गर और एमी ने सलाद लिया. वह हलका लंच करती थी.

समीर ने पूछा, ‘‘यहां अच्छा खाना कहां मिलता है?’’

‘‘आई लाइक कबाब पैलेस,’’ एमी ने जवाब दिया.

समीर को आश्चर्य हुआ कि अमेरिकन हो कर भी यह भारतीय देशी खाना पसंद करती है.

समीर ने जब एमी से पूछा कि क्या तुम्हें इंडियन खाना पसंद है, तो उस ने बताया कि हां इंडियन और पाकिस्तानी एकजैसा ही होता है. फिर जब समीर ने पूछा कि क्या तुम अमेरिकन हो तो एमी ने बताया कि हां वह अमेरिकन है, मगर दादा पाकिस्तान से 1960 में अमेरिका आ गए थे.

समीर सोचता रहा कि एमी को देख कर उस के पहनावे से, बोलचाल से कोई नहीं कह सकता कि वह पाकिस्तानी मूल की है. दोनों एकदूसरे में काफी रुचि लेने लगे. अब तो वीकैंड भी साथ गुजरता. एमी ने समीर को सीएटल और आसपास की जगहें दिखाने का जिम्मा ले लिया था. पहाड़ों पर ट्रैकिंग करने जाते, माउंट रेनियर गए. सीएटल की स्पेस नीडल 184 मीटर ऊंचाई पर घूमते हुए स्काई सिटी रेस्तरां में खाना खाया. यहां से शहर देखना एक सपने जैसा लगा.

सीएटली ग्रेट व्हील में वह डरतेडरते बैठा. 53 मीटर की ऊंचाई, परंतु एमी को डर नहीं लगा. भारत में वह मेले में जब भी बैठता था तो बहुत डरता था. यहां आरपार दिखने वाले कैबिन में बैठ कर मध्यम गति से चलने वाला झूला आनंद देता है डराता नहीं.

फेरी से समुद्र से व्हिदबी टापू पर जाना, वहां का इतालियन खाना खाना उसे बहुत रोमांचित करता था. भारत में भी समुद्रतट पर पर जाता था पर पानी एवं वातावरण इतना साफ नहीं होता था. पहाड़ी रास्ते 4 लेन चौड़े, 5 हजार फुट की ऊंचाई पर जाना पता भी नहीं चलता. अपने यहां तो पहाड़ी रास्ते इतने संकरे कि 2 गाडि़यों का एकसाथ निकलना मुश्किल.

साथसाथ घूमतेफिरते दोनों एक दूसरे के बारे में काफी जान गए थे. जैसे एमी के दादा का परिवार 1947 में लखनऊ, भारत से कराची चला गया था. दादी भी लखनऊ से विवाह कर के आई थीं. उन के रिश्तेदार अभी भी लखनऊ में हैं. 1960 में अमेरिका में न्यूयौर्क आए थे. उस के पिता और ताया दोनों छोटेछोटे थे, जब वे अमेरिका आए.

दादादादी ने अपनी संस्कृति के अनुसार बच्चों को पाला था. यहां का खुला माहौल उन्हें बिगाड़ न दे, इस का पूरा खयाल रखा था. ताया पर अधिक सख्ती की गई. वे मुल्ला बन गए. अभी भी न्यूयौर्क में ही रहते हैं और उन का एक बेटा है, जो एबीसीडी है अर्थात अमेरिकन बोर्न कन्फ्यूज्ड देशी.

ताया को अधिक धार्मिक होते देख दादा ने एमी के पिता पर अधिक अनुशासन नहीं लगाया और वे इकोनौमिक्स के प्रोफैसर बन गए. एमी की मां नैंसी अमेरिकन थीं और पिता की सहपाठी. वे अब नरगिस हैं. उन्होंने इसलाम कुबूल कर लिया और दादादादी की देखरेख में नमाजी और उर्दू बोलने वाली बहू बन गईं. दादा तो अब नहीं रहे, दादी साथ रहती थीं, हिंदी फिल्मों की दीवानी. एक सुखी परिवार है.

एमी की परवरिश में देशी और अमेरिकी संस्कृति का समावेश था. अत: वह सभ्य, अनुशासित, समय की पाबंद थी. सुंदर थी, साथ ही अपनी सुंदरता को संवार कर और संभाल कर रखने वाली भी थी. अमेरिकियों की तरह सुबह जल्दी उठना, व्यायाम करना, रात में जल्दी सोना और वीकैंड पर घूमना उस की दिनचर्या में शामिल था. उस के घर में उर्दू भाषा ही बोली जाती. वह उर्दू जानती थी पर बोलती इंग्लिश में थी. एमी के विषय में जान कर समीर को अच्छा लगा. समीर को एमी से प्यार हो गया. वह हर कीमत पर उसे पाना चाहता था. परंतु पाकिस्तानी मूल का होना… कैसे बात बनेगी?

दोनों 6 महीनों से साथ थे. एकदूसरे में रुचि अब एकदूसरे को पाने की चाह में बदल गई थी.

एमी ने समीर को अपने घर वालों से मिलने के लिए बुलाया. घर वालों से यह कह कर मिलाया कि यह औफिस का मित्र है समीर. एमी की दादी को देख कर समीर को अपनी दादी याद आ गई. सलवारसूट में वैसी ही लग रही थीं. प्रोफैसर साहब बहुत हंसमुख थे. तुरंत घुलमिल गए. फुटबौल के दीवाने थे. सीएटल टीम के फैन. समीर को यहां का फुटबौल अजीब लगता था. हाथपैर दोनों से खेला जाता. अधिकतर बौल हाथ में ले कर भागते हैं.

एमी की मां सभ्यशालीन महिला थीं. एमी बिलकुल अपनी मां जैसी थी. एमी की मां ने बिलकुल देशी खाना बनाया था. समीर लखनऊ से है, यह सुन कर दादी तो गदगद हो गईं. अपने बचपन के मायके के किस्से सुनाने लगीं. एक लंबे समय बाद वह इतनी देर हिंदी में बोला. उसे अच्छा लगा. यहां तो वह जब से आया है मुंह टेढ़ा कर के ऐक्सैंट में बोलने की कोशिश करता रहा है.

समीर ने ध्यान दिया दादी, प्रोफैसर, नरगिस सभी उर्दू में बात करते हैं. पर एमी इंग्लिश में जवाब देती. कभीकभी हिंदी में भी. उर्दूहिंदी एकजैसी भाषाएं हैं, जिन्हें वह अपने यहां भी सुनताबोलता था. बस इन के उर्दू में कुछ शब्द गाढ़े उर्दू के हैं पर बात समझ में आ जाती है. उसे यहां अपनापन लगा. एमी के घर वालों को भी समीर अच्छा लगा और उसे बराबर आते रहने का न्योता दिया.

एमी ने समीर के जाने के बाद जब घर वालों से पूछा कि समीर उन्हें कैसा लगा तो वे लोग बोले कि अच्छा है. तब उस ने बताया कि समीर और वह शादी करना चाहते हैं.

यह सुन उस की दादी तो खुश हो गईं क्योंकि वह उन के मायके से जो था और उन्हें समीर नाम से मुसलमान लगा था. प्रोफैसर ने आपत्ति की कि वह पाकिस्तानी नहीं भारतीय है. एमी की मां ने अपना शक जाहिर करते हुए कहा कि कहीं ग्रीन कार्ड के लालच में शादी तो नहीं करना चाहता है. लड़के को अमेरिकन सिटीजन होना चाहिए.

एमी ने धीरेधीरे समीर के बारे में 1-1 बात बताई कि वह भारतीय भी है और हिंदू भी. उस का परिवार भारत में है. अत: कभी भी वापस जा सकता है.

दादी, प्रोफैसर और नरगिस सब ने एकसाथ आपत्ति की कि हिंदू से शादी नहीं हो सकती.

एमी बोली, ‘‘अब तक वह आप सब को बहुत पसंद था पर उस के हिंदू और भारतीय होने से वह बुरा कैसे हो गया?’’

जब कोई प्यार में होता है तो उसे धर्म, भाषा, नागरिकता कुछ दिखाई नहीं देता. दिखता है तो केवल प्यार से भरा मन और वह व्यक्ति जो उस के साथ जीवन बिताना चाहता है. वहीं दूसरे लोगों को व्यक्ति और उस का मन, उस के गुण नहीं दिखते, केवल धर्म दिखता है.

‘‘डैडी आप और ममा ने भी तो दूसरे धर्म में शादी की थी, फिर आप लोग कैसे कह रहे हैं?’’

‘‘बेटी, तुम्हारी मां को हम अपने घर लाए थे. वह हम में रचबस गई. उस ने इसलाम कुबूल कर लिया. तुम्हें दूसरे घर जाना है. यह अंतर है. कल को वह लड़का तुम्हें हिंदू बना ले तो तुम्हारी तो आखरत (मरने के बाद की जिंदगी) गई.’’

एमी ने समीर को सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘हम दोनों को जब कोई प्रौब्लम नहीं तो उन्हें क्यों है? हम जब चाहें शादी कर सकते हैं. हमें कोई रोक नहीं सकता पर मैं चाहती हूं कि मेरी फैमिली मेरे साथ हो,’’ यह एमी की देशी परवरिश की सोच थी.

समीर ने कहा, ‘‘तुम मेरा साथ दोगी?’’

‘‘मरते दम तक.’’

‘‘तो ठीक है अपने घर वालों से मेरी मीटिंग करवाओ.’’

रविवार को समीर एमी के घर वालों से मिलने गया. शाहरुख खान की मूवी की डीवीडी दादी के लिए ले गया. दादी शाहरुख खान की दीवानी थीं सो खुश हो गईं. प्रोफैसर कुछ ठंडे थे. समीर ने उन से सीएटल टीम फुटबौल की बातें छेड़ दीं. वे भी सामान्य हो गए. नरगिस के लिए कबाब ले गया था. वे भी कुछ नौर्मल हो गईं.

फिर समीर ने अपनी मंशा बताई, ‘‘मैं और एमी एकदूसरे से प्यार करते हैं…जीवन भर साथ रहना चाहते हैं…शादी करना चाहते हैं. मगर आप सब की मरजी से…’’ मैं नेशनैलिटी के लिए शादी नहीं कर रहा हूं. मेरी कंपनी ने मेरा ग्रीन कार्ड अप्लाई कर दिया है. हां, मैं इंडियन हूं और मैं भारत आताजाता रहूंगा, मेरे परिवार को जब भी मेरी आवश्यकता होगी मैं उन के पास जाऊंगा… इसी प्रकार जब आप लोगों को भी मेरी जरूरत होगी तो मैं आप का भी साथ दूंगा. रहा धर्म तो यदि मैं आप को दिखाने के लिए मुसलिम बन जाऊं और मन से हिंदू रहूं तो आप क्या कर सकते हैं? धर्म में हम उसे ही याद करते हैं जिसे न आप ने देखा न मैं ने. उसे किस नाम से पुकारें इस पर लड़ाई है, किस प्रकार याद करें इस पर सहमति नहीं. इंसान जिन्हें एकदूसरे से प्यार है वे इसलिए शादी नहीं कर सकते, क्योंकि वे ऊपर वाले को अलगअलग नामों से पुकारते हैं, अलगअलग तरह से याद करते हैं.’’

उस ने मीर को कुछ पढ़ रखा था और एक शेर जो उसे याद था कहा, ‘‘ ‘मत इन नमाजियों को खानसाज-ए-दीं जानो, कि एक ईंट की खातिर ये ढोते होंगे कितने मसीत’ दादी ये धर्म के चोंचले अमेरिका में आ कर तो हम छोड़ दें.’’

सब चुप रहे. जानते थे कि यह ठीक कह रहा.

प्रोफैसर को मुसलिम समाज और सब से बढ़ कर भाईजान का डर था. अमेरिका में भी हम ने अपना पाकिस्तानहिंदुस्तान बना लिया है, अपनी मान्यताएं अपने रीतिरिवाज… यहां वैसे तो इंडियनपाकिस्तानी मिल कर रहते हैं पर शादीविवाह अपने धर्म में ही पसंद करते हैं.

हां, साथसाथ स्कूल, कालेज, औफिस की दोस्ती में अकसर अलगअलग जगह के लोगों में शादियां हो जाती हैं, परंतु मंदिरमसजिद में मिलने वाले साथी पसंद नहीं करते. प्रोफैसर को उन का तो डर नहीं था पर भाईजान…

दादी भी जानतीं थी कि पाकिस्तानियों में तलाक अधिक होते हैं और भारत वाले साथ निभाते हैं. फिर भी हिंदू से…

एमी के घर वाले समीर के बराबर आनेजाने से धीरेधीरे उस से घुलमिल गए. बात टल सी गई पर समीर बराबर जाता रहता. दादी से हिंदी मूवीज पर बातें करता, प्रोफैसर के साथ फुटबौल मैच टीवी पर देखता, उन के लैपटौप में नएनए गेम्स लोड करता, लौन की घास काटने में प्रोफैसर की मदद करता, काटना तो मशीन से होता है पर मेहनत का काम है. नरगिस की किचन में हैल्प करता. यहां सारे काम खुद ही करने होते हैं.

प्रोफैसर कहते, ‘‘मैं तो 3 औरतों में अकेला पड़ गया था… तुम से अच्छी कंपनी मिलती है.’’

समीर एमी से कहता, ‘‘यार एमी, मैं तो तुम्हारे घर का छोटू बन गया पर दामाद बनने के चांस नहीं दिखते. तुम मुझे डिच दे कर किसी पाकी के साथ निकल गईं तो?’’

वह हंस कर कहती, ‘‘यू नैवर नो.’’

प्रोफैसर सोचते समीर अच्छा है, बोलचाल, विचार हमारे जैसे हैं. एमी के साथ जोड़ी अच्छी है, दोनों एकदूसरे के साथ खुश रहेंगे, फिर क्या हुआ अगर वह अल्लाह को ईश्वर कहता है? पूजा करना उस का मामला है… एमी को तो पूजा करने को नहीं कह रहा…

हिम्मत कर के न्यूयौर्क में भाईजान से बात की. बताया कि एमी ने लड़का पसंद कर लिया है हिंदुस्तानी है.

भाईजान बोले, ‘‘क्या पाकिस्तानी लड़कों का अकाल पड़ गया जो हिंदुस्तानी लड़का देखा?’’

‘‘एमी को पसंद है.’’

‘‘हां, अमेरिकन मां की बेटी जो है.’’

‘‘लड़का बहुत अच्छा है. बस वह हिंदू है.’’

भाईजान पर तो जैसे बम फटा, ‘‘क्या कह रहे हो? काफिर को दामाद बनाओगे?’’

प्रोफैसर मिनमिनाए, ‘‘भाईजान, आप तो जानते हैं यहां तो बच्चे भी नहीं सुनते जरा तंबीह करो तो 911 कौल कर पुलिस बुला लेते हैं और बड़े हो कर तो और भी आजाद हो जाते हैं. ये हम से इजाजत मांग रहे हैं, यह क्या कम है? हम हां कर दें तो हमारा बड़प्पन रह जाएगा.’’

भाईजान को लगा कि प्रोफैसर ठीक कह रहे हैं. अत: बोले, ‘‘ठीक है वह मुसलमान हो जाए तो हो सकता है.’’

‘‘नहीं वह इस पर राजी नहीं. वह एमी से भी धर्म परिवर्तन के लिए नहीं कह रहा.’’

भाईजान चिल्लाए, ‘‘काफिर से निकाह नहीं हो सकता. अगर तुम ने शादी की तो मुझ से कोई रिश्ता न रखना… मुल्लाजी को भी तो अपने समाज में सिर उठा कर चलना है वरना उन की कौन सुनेगा.’’

प्रोफैसर को भाई की बातों से बहुत दुख हुआ. हार्ट के मरीज तो थे ही सो हार्ट अटैक आ गया. नरगिस और दादी थीं घर पर. नरगिस ने ऐंबुलैंस कौल की. ऐंबुलैंस डाक्टर व नर्स के साथ आ गई. अस्पताल में भरती किया गया. एमी, नरगिस, दादी और समीर रोज देखने जाते. यहां अस्पताल में भरती करने के बाद डाक्टर व नर्स पूरी देखभाल करते हैं. अस्पताल का रूम फाइवस्टार सुविधा वाला होता है. प्रोफैसर को यहां का खाना पसंद नहीं, तो नरगिस उन का खाना घर से लाती थीं. यहां मरीज की देखभाल अच्छी की जाती है. बिल इंश्योरैंस से जाता है. कुछ 10-15% देना पड़ता है.

कुछ दिन बाद प्रोफै सर घर आ गए. अभी भी देखभाल की आवश्यकता थी. परहेजी खाना ही चल रहा था. इस दौरान समीर उन की देखभाल बराबर करता एक बेटे की तरह और औफिस में भी एमी के काम में मदद करता ताकि एमी प्रोफैसर साहब को अधिक समय दे सके.

प्रोफैसर के दोस्त, मिलने वाले मसजिद के साथी सब दोएक बार आए. भाईजान ने केवल फोन पर खैरियत ली.

बीमारी में कोई देखने आए तो अच्छा लगता है. अमेरिका में किसी के पास समय नहीं है. समीर प्रतिदिन आता. प्रोफैसर को भी अच्छा लगता. प्रोफैसर को लगता अगर उन का अपना बेटा भी होता तो शायद वह भी इतना ध्यान नहीं रखता.

आखिर प्रोफैसर ठीक हो गए. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या तुम ने घर वालों से शादी की बात की?’’

समीर ने बताया, ‘‘हां मैं ने घर वालों को मना लिया है… पहले तो सब नाराज थे पर एमी से बात कर के सब खुश हो गए. मेरे मातापिता धर्मजाति नहीं मानते पर एमी पाकिस्तानी मूल की होने पर चौंके थे. मगर मेरी पसंद के आगे उन्हें सब छोटा लगने लगा. अत: सब राजी हो गए.’’

प्रोफैसर ने अपने ठीक होने की पार्टी में अपने सभी मिलने वालों, दोस्तों को बुलाया और फिर समीर और एमी की मंगनी की घोषणा कर दी. वे जानते थे शादी में बहुत लोग नहीं आएंगे. दोनों परिवारों की मौजूदगी में शादी सादगी से कोर्ट में हो गई और फिर रिसैप्शन पार्टी होटल में की, जिस में दोनों के औफिस के साथी, नरगिस और प्रोफैसर के दोस्त, पड़ोसी, मिलने वाले शामिल हुए. भाईजान और उन की जैसी सोच वाले नहीं आए. 2 प्रेमी पतिपत्नी बन गए. सच ही तो है, प्रेम नहीं मानता कोई सरहद, भाषा या धर्म.

चक्रव्यूह: सायरा को मुल्क अलग होने का क्यों हुआ फर्क

सुबह का अखबार देखते ही मंसूर चौंक पड़ा. धूधू कर जलता ताज होटल और शहीद हुए जांबाज अफसरों की तसवीरें. उस ने लपक कर टीवी चालू किया. तब तक सायरा भी आ गई.

‘‘किस ने किया यह सब?’’ उस ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘वहशी दरिंदों ने.’’

तभी सायरा का मोबाइल बजा. उस की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी, हम ने भी अभी टीवी खोला है…मालूम नहीं लेकिन पुणे तो मुंबई से दूर है…वह तो कहीं भी कभी भी हो सकता है अम्मी…मैं कह दूंगी अम्मी… हां, नाम तो उन्हीं का लगेगा, चाहे हरकत किसी की हो…’’

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‘‘सायरा, फोन बंद करो और चाय बनाओ,’’ मंसूर ने तल्ख स्वर में पुकारा, ‘‘किस की हरकत है…यह फोन पर अटकल लगाने का मुद्दा नहीं है.’’

सायरा सिहर उठी. मंसूर ने पहली बार उसे फोन करते हुए टोका था और वह भी सख्ती से.

‘‘जी…अच्छा, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगी आप को…जी अम्मी जरूर,’’ कह कर सायरा ने मोबाइल बंद कर दिया और चाय बनाने चली गई.

टीवी देखते हुए सायरा भी चुपचाप चाय पीने लगी. पूछने या कहने को कुछ था ही नहीं. कहीं अटकलें थीं और कहीं साफ कहा जा रहा था कि विभिन्न जगहों पर हमले करने वाले पाकिस्तानी आतंकवादी थे.

‘‘आप आज आफिस मत जाओ.’’

इस से पहले कि मंसूर जवाब देता दरवाजे की घंटी बजी. उस का पड़ोसी और सहकर्मी सेसिल अपनी बीवी जेनेट के साथ खड़ा था.

‘‘लगता है तुम दोनों भी उसी बहस में उलझ कर आए हो जिस में सायरा मुझे उलझाना चाह रही है,’’ मंसूर हंसा, ‘‘कहर मुंबई में बरस रहा है और हमें पुणे में, बिल में यानी घर में दुबक कर बैठने को कहा जा रहा है.’’

‘‘वह इसलिए बड़े भाई कि अगला निशाना पुणे हो सकता है,’’ जेनेट ने कहा, ‘‘वैसे भी आज आफिस में कुछ काम नहीं होगा, सब लोग इसी खबर को ले कर ताव खाते रहेंगे.’’

‘‘खबर है ही ताव खाने वाली, मगर जेनी की यह बात तो सही है मंसूर कि आज कुछ काम होगा नहीं.’’

‘‘यह तो है सेसिल, शिंदे साहब का बड़ा भाई ओबेराय में काम करता है और बौस का तो घर ही कोलाबा में है. इसलिए वे लोग तो आज शायद ही आएं. और लोगों को फोन कर के पूछते हैं,’’ मंसूर बोला.

‘‘जब तक आप लोग फोन करते हैं मैं और जेनी नाश्ता बना लेते हैं, इकट्ठे ही नाश्ता करते हुए तय करना कि जाना है या नहीं,’’ कह कर सायरा उठ खड़ी हुई.

‘‘यह ठीक रहेगा. मेरे यहां जो कुछ अधबना है वह यहीं ले आती हूं,’’ कह कर जेनेट अपने घर चली गई. यह कोई नई बात नहीं थी. दोनों परिवार अकसर इकट्ठे खातेपीते थे लेकिन आज टीवी के दृश्यों से माहौल भारी था. सेसिल और मंसूर बीचबीच में उत्तेजित हो कर आपत्तिजनक शब्द कह उठते थे, जेनी और सायरा अपनी भरी आंखें पोंछ लेती थीं तभी फिर मोबाइल बजा. सायरा की मां का फोन था.

‘‘जी अम्मी…अभी वही बात चल रही है…दोस्तों से पूछ रहे हैं…हो सकता है हो, अभी तो कुछ सुना नहीं…कुछ मालूम पड़ा तो जरूर बताऊंगी.’’

‘‘फोन मुझे दो, सायरा,’’ मंसूर ने लपक कर मोबाइल ले लिया, ‘‘देखिए अम्मीजान, जो आप टीवी पर देख रही हैं वही हम भी देख रहे हैं इसलिए क्या हो रहा है उस बारे में फोन पर तबसरा करना इस माहौल में सरासर हिमाकत है. बेहतर रहे यहां फोन करने के बजाय आप हकीकत मालूम करने को टीवी देखती रहिए.’’

मोबाइल बंद कर के मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘‘टीवी पर जो अटकलें लगाई जा रही हैं वह फोन पर दोहराने वाली नहीं हैं खासकर लाहौर की लाइन पर.’’

‘‘आज के जो हालात हैं उन में लाहौर से तो लाइन मिलानी ही नहीं चाहिए. माना कि तुम कोई गलत बात नहीं करोगी सायरा, लेकिन देखने वाले सिर्फ यह देखेंगे कि तुम्हारी कितनी बार लाहौर से बात हुई है, यह नहीं कि क्या बात हुई है,’’ सेसिल ने कहा.

‘‘सायरा, अपनी अम्मी को दोबारा यहां फोन करने से मना कर दो,’’ मंसूर ने हिदायत के अंदाज में कहा.

‘‘आप जानते हैं इस से अम्मी को कितनी तकलीफ होगी.’’

‘‘उस से कम जितनी उन्हें यह सुन कर होगी कि पुलिस ने हमारे लाहौर फोन के ताल्लुकात की वजह से हमें हिरासत में ले लिया है,’’ मंसूर चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘आप भी न बड़े भाई बात को कहां से कहां ले जाते हैं,’’ जेनेट बोली, ‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन फिर भी एहतियात रखनी तो जरूरी है सायरा. अब जब अम्मी का फोन आए तो उन्हें भी यह समझा देना.’’

दूसरे सहकर्मियों को फोन करने के बाद सेसिल और मंसूर ने भी आफिस जाने का फैसला कर लिया.

‘‘मोबाइल पर नंबर देख कर ही फोन उठाना सायरा, खुद फोन मत करना, खासकर पाकिस्तान में किसी को भी,’’ मंसूर ने जातेजाते कहा.

मंसूर ने रोज की तरह अपना खयाल रखने को नहीं कहा. वैसे आज जेनी और सेसिल ने भी ‘फिर मिलते हैं’ नहीं कहा था.

सायरा फूटफूट कर रो पड़ी. क्या चंद लोगों की वहशियाना हरकत की वजह से सब की प्यारी सायरा भी नफरत के घेरे में आ गई?

नौकरानी न आती तो सायरा न जाने कब तक सिसकती रहती. उस ने आंखें पोंछ कर दरवाजा खोला. सक्कू बाई ने उस से तो कुछ नहीं पूछा मगर श्रीमती साहनी को न जाने क्या कहा कि वह कुछ देर बाद सायरा का हाल पूछने आ गईं. सायरा तब तक नहा कर तैयार हो चुकी थी लेकिन चेहरे की उदासी और आंसुओं के निशान धुलने के बावजूद मिटे नहीं थे.

‘‘सायरा बेटी, मुंबई में कोई अपना तो परेशानी में नहीं है न?’’

‘‘मुंबई में तो हमारा कोई है ही नहीं, आंटी.’’

‘‘तो फिर इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

साहनी आंटी से सायरा को वैसे भी लगाव था. उन के हमदर्दी भरे लफ्ज सुनते ही वह फफक कर रो पड़ी. रोतेरोते ही उस ने बताया कि सब ने कैसे उसे लाहौर बात करने से मना किया है. मंसूर ने अम्मी से तल्ख लफ्जों में क्या कहा, यह भी नहीं सोचा कि उन्हें मेरी कितनी फिक्र हो रही होगी. ऐसे हालात में वह बगैर मेरी खैरियत जाने कैसे जी सकेंगी?

‘‘हालात को समझो बेटा, किसी ने आप से कुछ गलत करने को नहीं कहा है. अगर किसी को शक हो गया तो आप की ही नहीं पूरी बिल्ंिडग की शामत आ सकती है. लंदन में तेरा भाई सरवर है न इसलिए अपनी खैरखबर उस के जरिए मम्मी को भेज दिया कर.’’

‘‘पता नहीं आंटी, उस से भी बात करने देंगे या नहीं?’’

‘‘हालात को देखते हुए न करो तो बेहतर है. रंजीत ने तुझे बताया था न कि वह सरवर को जानता है.’’

‘‘हां, आंटी दोनों एक ही आफिस में काम करते हैं,’’ सायरा ने उम्मीद से आंटी की ओर देखा, ‘‘क्या आप मेरी खैरखबर रंजीत भाई के जरिए सरवर को भेजा करेंगी?’’

‘‘खैरखबर ही नहीं भेजूंगी बल्कि पूरी बात भी समझा दूंगी,’’ श्रीमती साहनी ने घड़ी देखी, ‘‘अभी तो रंजीत सो रहा होगा, थोड़ी देर के बाद फोन करूंगी. देखो बेटाजी, हो सकता है हमेशा की तरह चंद दिनों में सब ठीक हो जाए और हो सकता है और भी खराब हो जाए, इसलिए हालात को देखते हुए अपने जज्बात पर काबू रखो. आतंकवादी और उन के आकाओं की लानतमलामत को अपने लिए मत समझो और न ही यह समझो कि तुम्हें तंग करने को तुम से रोकटोक की जा रही…’’ श्रीमती साहनी का मोबाइल बजा. बेटे का लंदन से फोन था.

‘‘बस, टीवी देख रहे हैं…फिलहाल तो पुणे में सब ठीक ही है. पापा काम पर गए. मैं सायरा के पास आई हुई हूं. परेशान है बेचारी…उस की मां का यहां फोन करना मुनासिब नहीं है न…हां, तू सरवर को यह बात समझा देना…वह भी ठीक रहेगा. वैसे तू उसे बता देना कि हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे, उसे सायरा की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

श्रीमती साहनी मोबाइल बंद कर के सायरा की ओर मुड़ीं, ‘‘रंजीत सरवर को बता देगा कि वह मेरे मोबाइल पर तुम से बात करे. वीडियो कानफें्रस कर तुम दोनों बहनभाइयों की मुलाकात करवा देंगे.’’

‘‘शुक्रिया, आंटीजी…’’

‘‘यह तो हमारा फर्ज है बेटाजी,’’ श्रीमती साहनी उठ खड़ी हुईं.

उन के जाने के बाद सायरा ने राहत की सांस ली. हालांकि सरवर के जरिए अम्मी को उस की खैरखबर भिजवाने की जिम्मेदारी और सरवर के साथ वीडियो कानफें्रसिंग करवाने की बात कर के आंटी ने उसे बहुत राहत दी थी मगर उन का यह कहना ‘हमारे यहां तो कसूरवार को भी तंग नहीं करते तो बेकसूर को क्यों परेशान करेंगे’ या ‘यह तो हमारा फर्ज है’ उसे खुद और अपने मुल्क पर कटाक्ष लगा. वह कहना चाहती थी कि आप लोगों की अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने और एहसान चढ़ाने की आदत से चिढ़ कर ही तो लोग आप को मजा चखाने की सोचते हैं.

सायरा को लंदन स्कूल औफ इकनोमिक्स के वे दिन याद आ गए जब पढ़ाई के दबाव के बावजूद वह और मंसूर एकदूसरे के साथ वहां के धुंधले सर्द दिनों में इश्क की गरमाहट में रंगीन सपने देखते थे. सुनने वालों को तो यकीन नहीं होता था लेकिन पहली नजर में ही एकदूसरे पर मर मिटने वाले मंसूर और सायरा को एकदूसरे के बारे में सिवा नाम के और कुछ मालूम नहीं था.

अंतिम वर्ष में एक रोज जिक्र छिड़ने पर कि नौकरी की तलाश के लिए कौन क्या कर रहा है, सायरा ने मुंह बिचका कर कहा था, ‘नौकरी की तलाश और वह भी यहां? यहां रह कर पढ़ाई कर ली वही बहुत है.’

‘तुम ने तो मेरे खयालात को जबान दे दी, सायरा,’ मंसूर फड़क कर बोला, ‘मैं भी डिगरी मिलते ही अपने वतन लौट जाऊंगा.’

‘वहां जा कर करोगे क्या?’

‘सब से पहले तो सायरा से शादी, फिर हनीमून और उस के बाद रोजीरोटी का जुगाड़,’ मंसूर सायरा की ओर मुड़ा, ‘क्यों सायरा, ठीक है न?’

‘ठीक कैसे हो सकता है यार?’ हरभजन ने बात काटी, ‘वतन लौट कर सायरा से शादी कैसे करेगा?’

‘क्यों नहीं कर सकता? मेरे घर वाले शियासुन्नी मजहब में यकीन नहीं करते और वैसे भी हम दोनों पठान यानी खान हैं.’

‘लेकिन हो तो हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी. दोनों मुल्कों के बाशिंदों को नागरिकता या लंबा वीसा आसानी से नहीं मिलता,’ हरभजन ने कहा.

सायरा और मंसूर ने चौंक कर एकदूसरे को देखा.

‘क्या कह रहा है हरभजन? सायरा भी पंजाब से है…’

‘बंटवारे के बाद पंजाब के 2 हिस्से हो गए जिन में से एक में तुम रहते हो और एक में सायरा यानी अलगअलग मुल्कों में.’

‘क्या यह ठीक कह रहा है सायरा?’ मंसूर की आवाज कांप गई.

‘हां, मैं पंजाब यानी लाहौर से हूं.’

‘और मैं लुधियाना से,’ मंसूर ने भर्राए स्वर में कहा, ‘माना कि हम से गलती हुई है, हम ने एकदूसरे को अपने शहर या मुल्क के बारे में नहीं बताया लेकिन अगर बता भी देते तो फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि फिदा तो हम एकदूसरे पर नाम जानने से पहले ही हो चुके थे.’

‘जो हो गया सो हो गया लेकिन अब क्या करोगे?’ दिव्या ने पूछा.

‘मरेंगे और क्या?’ मंसूर बोला.

‘मरना तो हर हाल ही में है क्योंकि अलग हो कर तो जी नहीं सकते सो बेहतर है इकट्ठे मर जाएं,’ सायरा बोली.

‘बुजदिली और जज्बातों की बातें करने के बजाय अक्ल से काम लो,’ अब तक चुप बैठा राजीव बोला, ‘तुम यहां रहते हुए आसानी से शादी कर सकते हो.’

‘शादी के बाद मैं इसे लुधियाना ले कर जा सकता हूं?’ मंसूर ने उतावली से पूछा.

‘शायद.’

‘तब तो बात नहीं बनी. मैं अपना देश नहीं छोड़ सकता.’

‘मैं भी नहीं,’ सायरा बोली.

‘न मुल्क छोड़ सकते हो न एकदूसरे को और मरना भी एकसाथ चाहते हो तो वह तो यहीं मुमकिन होगा इसलिए जब यहीं मरना है तो क्यों नहीं शादी कर के एकसाथ जीने के बाद मरते,’ हरभजन ने सलाह दी.

‘हालात को देखते हुए यह सही सुझाव है,’ राजीव बोला.

‘घर वालों को बता देते हैं कि परीक्षा के बाद यहां आ कर हमारी शादी करवा दें,’ मंसूर ने कहा.

‘मेरी अम्मी तो आजकल यहीं हैं, अब्बू भी अगले महीने आ जाएंगे,’ सायरा बोली, ‘तब मैं उन से बात करूंगी. तुम्हें अगर अपने घर वालों को बुलाना है तो अभी बात करनी होगी.’

‘ठीक है, आज ही तफसील से सब लिख कर ईमेल कर देता हूं.’

‘तुम भी सायरा आज ही अपनी अम्मी से बात करो, उन लोगों की रजामंदी मिलनी इतनी आसान नहीं है,’ राजीव ने कहा.

राजीव का कहना ठीक था. दोनों के घर वालों ने सुनते ही कहा कि यह शादी नहीं सियासी खुदकुशी है. खतरा रिश्तेदारों से नहीं मुल्क के आम लोगों से था, दोनों मुल्कों में तनातनी तो चलती रहती थी और दोनों मुल्कों के अवाम खुनस में उन्हें नुकसान पहुंचा सकते थे.

सायरा की अम्मी ने तो साफ कहा कि शादी के बाद हरेक लड़की को दूसरे घर का रहनसहन और तौरतरीके अपनाने पड़ते हैं लेकिन सायरा को तो दूसरे मुल्क और पूरी कौम की तहजीब अपनानी पड़ेगी.

‘तुम्हारी इस हरकत से हमारी शहर में जो इज्जत और साख है वह मिट्टी में मिल जाएगी. लोग हमें शक की निगाहों से देखने लगेंगे और इस का असर कारोबार पर भी पड़ेगा,’ मंसूर के अब्बा बशीर खान का कहना था.

घर वालों ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था लेकिन एकदूसरे से अलग होना भी मंजूर नहीं था इसलिए दोनों ने घर वालों को यह कह कर मना लिया कि वे शादी के बाद लंदन में ही रहेंगे और उन लोगों को सिवा उन के नाम के किसी और को कुछ बताने की जरूरत नहीं है. उन की जिद के आगे घर वाले भी बेदिली से मान गए. वैसे दोनों ही पंजाबी बोलते थे और तौरतरीके भी एक से थे. शादी हंसीखुशी से हो गई.

कुछ रोज मजे में गुजरे लेकिन दोनों को ही लंदन पसंद नहीं था. दोस्तों का कहना था कि दुबई या सिंगापुर चले जाओ लेकिन मंसूर लुधियाना में अपने पुश्तैनी कारोबार को बढ़ाना चाहता था. भारतीय उच्चायोग से संपर्क करने पर पता चला कि उस की ब्याहता की हैसियत से सायरा अपने पाकिस्तानी पासपोर्ट पर उस के साथ भारत जा सकती थी. सायरा को भी एतराज नहीं था, वह खुश थी कि समझौता एक्सप्रेस से लाहौर जा सकती थी, अपने घर वालों को भी बुला सकती थी लेकिन बशीर खान को एतराज था. उन का कहना था कि सायरा की असलियत छिपाना आसान नहीं था और पंजाब में उस की जान को खतरा हो सकता था.

उन्होंने मंसूर को सलाह दी कि वह पंजाब के बजाय पहले किसी और शहर में नौकरी कर के तजरबा हासिल करे और फिर वहीं अपना व्यापार जमा ले. बशीर खान ने एक दोस्त के रसूक से मंसूर को पुणे में एक अच्छी नौकरी दिलवा दी. काम और जगह दोनों ही मंसूर को पसंद थे, दोस्त भी बन गए थे लेकिन उसे हमेशा अपने घर का सुख और बचपन के दोस्त याद आते थे और वह बड़ी हसरत से सोचता था कि कब दोनों मुल्कों के बीच हालात सुधरेंगे और वह सायरा को ले कर अपनों के बीच जा सकेगा.

सब की सलाह पर सायरा ने नौकरी नहीं की थी. हालांकि पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन घर बैठ कर तालीम को जाया करना उसे अच्छा नहीं लगता था और वैसे भी घर में उस का दम घुटता था. अच्छी सहेलियां जरूर बनी थीं पर कब तक आप किसी से फोन पर बात कर सकती थीं या उन के घर जा सकती थीं.

मंसूर के प्यार में कोई कमी नहीं थी, फिर भी पुणे आने के बाद सायरा को एक अजीब से अजनबीपन का एहसास होने लगा था लेकिन उसे इस बात का कतई गिला नहीं था कि उस ने क्यों मंसूर से प्यार किया या क्यों सब को छोड़ कर उस के साथ चली आई.

महत्त्वाकांक्षा: आधुनिकता की चमक में जब मीत ने आया को सौंपी बेटी की परवरिश

आजमीता का औफिस में कतई मन नहीं लग रहा था. सिर भारी हो गया था, आंखें सूजी हुई थीं. रात में वह सो जो नहीं पाई थी. पति से काफी नोकझोंक हुई थी. उस की पूरी रात टैंशन में गुजरी थी.

‘‘तुम औफिस से छुट्टी क्यों नहीं ले लेतीं.’’

‘‘आप क्यों नहीं ले लेते? पिछली दफा मैं ने लंबी छुट्टी नहीं ली थी क्या?’’ पति के कहने पर मीता फट पड़ी.

‘‘उस के पहले मैं ने भी तो लंबी छुट्टी ली थी.’’

उस के बाद दोनों के बीच खूब झगड़ा हुआ और फिर दोनों बिना कुछ खाएपीए सो गए.

सुबह उठने पर दोनों के चेहरों पर कई सवालिया निशान थे. बिना एकदूसरे से बोले और कुछ खाएपीए दोनों औफिस चले गए.

‘पूरी जिम्मेदारी औरत के सिर ही क्यों थोप दी जाती है.’ रहरह कर यही सवाल उसे बुरी तरह मथे जा रहा था. हर बार औरत ही समझौता करे? पत्नी की प्रौब्लम से पति को सरोकार क्यों नहीं? क्यों पुरुष इतना खुदगरज, लालची और हठधर्मी बन जाता है?

‘‘अरे, क्या हुआ? यह मुंह क्यों लटका हुआ है?’’ मैडम सारिका ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं मैडम, बेटी को ले कर हम दोनों में रोज झगड़ा होता है. वह बीमार है. मुझे दफ्तर की ओर से विदेश यात्रा पर जाना है. ऐसे में मैं कैसे छुट्टी ले सकती हूं. पति मेरी कोई मदद नहीं करते, उलटे गृहिणी बनने की सलाह दे कर मेरा और मूड खराब कर देते हैं.’’

‘‘बेटी को क्या हुआ है?’’

‘‘उस ने हंसनाखेलना छोड़ दिया है. हमेशा उनींदी सी रहती है. रहरह कर दांत किटकिटाती है. हर समय शून्य में निहारती रहती है.’’

‘‘किसी चाइल्ड स्पैशलिस्ट को दिखाओ,’’ मैडम सारिका घबरा कर बोलीं.

‘‘मैं छुट्टी नहीं ले सकती… मेरी टेबल पर बहुत काम पड़ा है.’’

‘‘उस की तुम टैंशन मत लो… मैं सब संभाल लूंगी… तुम बेटी को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाओ.’’

मीता को यह जान कर अच्छा लगा कि पति ने भी अगले दिन की छुट्टी ले ली है. अगली सुबह आया की राह देखी, उस के न आने पर पड़ोसिन को घर की चाबी दे कर डाक्टर के पास रवाना हो गए.

डिस्पैंसरी में बहुत भीड़ थी. प्राइवेट डिस्पैंसरी में भी सरकारी अस्पतालों जैसी भीड़ देख कर मीता दंग रह गई. उसे अपना नंबर आना नामुमकिन सा लगने लगा, क्योंकि शनिवार होने के कारण डिस्पैंसरी 1 बजे बंद हो जानी थी.

मीता को आज पता चला कि छुट्टी की कितनी अहमियत है. सरकारी और प्राइवेट औफिसों में कितना अंतर है. प्राइवेट औफिस सैलरी तो अच्छी देते हैं पर खून चूस लेते हैं. जरा भी आजादी नहीं… कितना मन मार कर काम करना पड़ता है… इंसान मशीन बन जाता है. अपनी आजादी पर ग्रहण लग जाता है.

इस बीच पड़ोसिन का फोन आया कि आया अभी तक नहीं आई है. पता नहीं क्या हो गया था उसे जो बिना बताए छुट्टी कर गई.

बड़ी देर बाद मीता का नंबर आया. बच्ची की हालत देख कर एक बार को डाक्टर भी चौंक गया. उस ने बच्ची की बीमारी से संबंधित बहुत सारे प्रश्न पूछे, जिन के मीता आधेअधूरे उत्तर ही दे पाई. जितना आया जानती थी उतना मीता कहां जानती थी… बच्ची का खानापीना, खेलनाखिलाना सब कुछ उसी के जिम्मे जो था. वह दिन भर आया के पास ही तो रहती थी.

बच्ची का मुआयना कर डाक्टर ने कुछ सावधानियां बरतने की सलाह दी और बच्ची को ज्यादा से ज्यादा अपने पास रखने की ताकीद भी की. साथ ही यह भी कहा कि आया पर पूरी नजर रखें. यह सुन मीता घबरा गई.

अब पतिपत्नी दोनों को एहसास हो रहा था कि उन से बच्ची की उपेक्षा हुई है. उन्होंने अपनी बेटी से ज्यादा नौकरी को अहमियत दी. यह उसी का दुष्परिणाम है, जो बच्ची की हालत बद से बदतर हो गई.

‘‘सुनो जी, मैं 1 सप्ताह की छुट्टी ले लेती हूं… सैलरी कटे तो कटे… बच्ची को इस समय मेरी सख्त जरूरत है,’’ मीता कहतेकहते रो पड़ी.

‘‘मैं भी छुट्टी ले लेता हूं मीता. मेरी भी बराबर की जिम्मेदारी है… कहीं का नहीं छोड़ा इस नौकरी ने हमें, महत्त्वाकांक्षी बन कर रह गए थे हम.’’

‘‘बच्ची को कुछ हो गया तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी. विदेश जाने की धुन ने मुझे एक तरह से अंधा बना दिया था,’’ मीता अपने पति के कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

 

बच्ची की आंखें थोड़ी खुलतीं, फिर बंद हो जातीं. वह अपनी अधखुली आंखों से शून्य में निहारती. अपनी मां को अर्धबेहोशी में देखते रहने का वह पूरा प्रयत्न करती.

‘‘बेटी आंखें खोल… अपनी ममा से बातें कर… देख तो तेरी ममा कितनी दुखी हो रही है… अब तुझे कभी आया के पास नहीं छोड़ेगी तेरी ममा… जरा तो देख..’’ कहतेकहते मीता का कंठ पूरी तरह अवरुद्ध हो गया.

रोतेबिलखते कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. दरवाजे पर आहट से वह जागी. दरवाजा खोला तो सामने पति हाथ में लिफाफा लिए खड़े थे. पति के हाथों से लगभग उसे छीन कर बच्ची की ब्लड रिपोर्ट पढ़ने लगी.

‘‘ड्रग्स,’’ उस ने प्रश्नवाचक दृष्टि से पति की ओर ताका.

‘‘हां, ड्रग्स. बच्ची को धीमा जहर दिया जा रहा था. जरूर यह आया का काम है. तभी तो वह अब नहीं आ रही है.’’

‘‘बेबी के शरीर ने फंक्शन करना बंद कर दिया है,’’ मीता को डाक्टर का यह कहना याद आ गया और वह चक्कर खा कर बिस्तर पर जा गिरी.

कुछ समय बाद अचानक डाक्टर का फोन आया. बच्ची को ले कर क्लीनिक बुलाया. डाक्टर ने पुलिस को फोन कर आया को गिरफ्तार भी करा दिया था. पुलिस आया को ले कर क्लीनिक आ गई थी. उन के वहां पहुंचने पर आया उन से मुंह छिपाने का प्रयास करने लगी. तब पुलिस ने उन के सामने ही आया से पूछताछ शुरू की.

‘‘क्या आप की आया यही है?’’

‘‘जी, यही है,’’ दोनों ने एकसाथ जवाब दिया.

‘‘बच्ची पूरा दिन आया के पास ही रहती थी क्या?’’

‘‘जी हां, हम दोनों तो अपनेअपने औफिस चले जाते थे.’’

‘‘क्या आप ने इसे नौकरी पर रखते समय पुलिस थाने में जानकारी दी थी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यही आप से बहुत बड़ी गलती हुई है…’’ पुलिस इंस्पैक्टर ने दो टूक शब्दों में कहा और फिर आया की ओर मुखातिब हुए, ‘‘पतिपत्नी के औफिस जाने के बाद तुम बच्ची को कहां ले जाती थी?’’

‘‘जी, कहीं नहीं, मैं पूरा समय घर पर ही रहती थी.’’

‘‘झूठ… इन को जानती हो?’’ पुलिस ने पास के पार्क के माली की ओर इशारा कर के पूछा तो आया का चेहरा उतर गया. पार्क में बीमार बच्ची के नाम पर भीख मांगती थी. बच्ची बीमार सी लगे, इसलिए उसे भूखा रखती, ऊपर से धीमे जहर ने बच्ची पर और कहर ढा दिया था. पर समय रहते डाक्टर के रिपोर्ट करने पर पुलिस ने उसे रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार कर लिया था.

अब आया जेल में थी और बच्ची अस्पताल में जीवनमृत्यु के बीच झूल रही थी. वह अपने मातापिता की महत्त्वाकांक्षा की बलि जो चढ़ गई थी.

 

क्यों का प्रश्न नहीं

सुबह के 10 बजे थे. डेरे के अपने औफिस में आ कर मैं बैठा ही था. लाइजन अफसर के रूप में पिछले 2 साल से मैं सेवा में था. हाल से गुजरते समय मैं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि बाहर मिलने के लिए कौनकौन बैठा है. 10 और 12 बजे के बीच मिलने का समय था. सभी मिलने वाले एक पर्ची पर अपना नाम लिख कर बाहर खड़े सेवादार को दे देते और वह मेरे पास बारीबारी भेजता रहता. 12 बजे के करीब मेरे पास जिस नाम की पर्ची आई उसे देख कर मैं चौंका. यह जानापहचाना नाम था, मेरे एकमात्र बेटे का. मैं ने बाहर सेवादार को यह जानने के लिए बुलाया कि इस के साथ कोई और भी आया है.

‘‘जी, एक बूढ़ी औरत भी साथ है.’’

मैं समझ गया, यह बूढ़ी औरत और कोई नहीं, मेरी धर्मपत्नी राजी है. इतने समय बाद ये दोनों क्यों आए हैं, मैं समझ नहीं पाया. मेरे लिए ये अतीत के अतिरिक्त और कुछ नहीं थे. संबंध चटक कर कैसे टूट गए, कभी जान ही नहीं पाया. मैं ने इन के प्रति अपने कर्तव्यों को निश्चित कर लिया था.

‘‘साहब, इन दोनों को अंदर भेजूं?’’ सेवादार ने पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘नहीं, ड्राइवर सुरिंदर को मेरे पास भेजो और इन दोनों को बाहर इंतजार करने को कहो.’’

वह ‘जी’ कह कर चला गया.

सुरिंदर आया तो मैं ने दोनों को कोठी ले जाने के लिए कहा और कहलवाया, ‘‘वे फ्रैश हो लें, लंच के समय बात होगी.’’

बेबे, जिस के पास मेरे लिए खाना बनाने की सेवा थी, इन का खाना बनाने के लिए भी कहा. वे चले गए और मैं दूसरे कामों में व्यस्त हो गया.

लंच हम तीनों ने चुपचाप किया. फिर मैं उन को स्टडीरूम में ले आया. दोनों सामने की कुरसियों पर बैठ गए और मैं भी बैठ गया. गहरी नजरों से देखने के बाद मैं ने पूछा, ‘‘तकरीबन 2 साल बाद मिले हैं, फिर भी कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

भाषा में न चाहते हुए भी रूखापन था. इस में रिश्तों के टूटन की बू थी. डेरे की परंपरा को निभा पाने में शायद मैं फेल हो गया था. सब से प्यार से बोलो, मीठा बोलो, चाहे वह तुम्हारा कितना ही बड़ा दुश्मन क्यों न हो. देखा, राजी के होंठ फड़फड़ाए, निराशा से सिर हिलाया परंतु कहा कुछ नहीं.

बेटे ने कहा, ‘‘मैं मम्मी को छोड़ने आया हूं.’’

‘‘क्यों, मन भर गया? जीवन भर पास रखने और सेवा करने का जो वादा और दावा, मुझे घर से निकालते समय किया था, उस से जी भर गया या अपने ऊपर से मां का बोझ उतारने आए हो या मुझ पर विश्वास करने लगे हो कि मैं चरित्रहीन नहीं हूं?’’

थोड़ी देर वह शांत रहा, फिर बोला, ‘‘आप चरित्रहीन कभी थे ही नहीं. मैं अपनी पत्नी सुमन की बातों से बहक गया था. उस ने अपनी बात इस ढंग से रखी, मुझे यकीन करना पड़ा कि आप ने ऐसा किया होगा.’’

‘‘मैं तुम्हारा जन्मदाता था. पालपोस कर तुम्हें बड़ा किया था. पढ़ायालिखाया था. बचपन से तुम मेरे हावभाव, विचारव्यवहार, मेरी अच्छाइयों और कमजोरियों को देखते आए हो. तुम ने कल की आई लड़की पर यकीन कर लिया पर अपने पिता पर नहीं. और राजी, तुम ने तो मेरे साथ 35 वर्ष गुजारे थे. तुम भी मुझे जान न पाईं? तुम्हें भी यकीन नहीं हुआ. जिस लड़की को बहू के रूप में बेटी बना कर घर में लाया था, क्या उस के साथ मैं ऐसी भद्दी हरकत कर सकता था? सात जन्मों का साथ तो क्या निभाना था, तुम तो एक जन्म भी साथ न निभा पाईं. तुम्हारी बहनें तुम से और सुमन से कहीं ज्यादा खूबसूरत थीं, मैं उन के प्रति तो चरित्रहीन हुआ नहीं? उस समय तो मैं जवान भी था. तुम्हें भी यकीन हो गया…?’’

‘‘शायद, यह यकीन बना रहता, यदि पिछले सप्ताह सुमन को अपनी मां से यह कहते न सुना होता, ‘एक को तो उस ने झूठा आरोप लगा कर घर से निकलवा दिया है. यह बुढि़या नहीं गई तो वह उसे जहर दे कर मार देगी,’’’ बेटे ने कहा, ‘‘तब मुझे पता चला कि आप पर लगाया आरोप कितना झूठा था. मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. मैं ने मम्मी को भी इस बारे में बताया. तब से ये रो रही हैं. मन में यह भय भी था कि कहीं सचमुच सुमन, मम्मी को जहर न दे दे.’’

‘‘अब इस का क्या फायदा. तब तो मैं कहता ही रह गया था कि मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया. मैं ऐसा कर ही नहीं सकता था, पर किसी ने मेरी एक न सुनी. किस प्रकार आप सब ने मुझे धक्के दे कर घर से बाहर निकाला, मुझे कहने की जरूरत नहीं है. मैं आज भी उन धक्कों की, उन दुहत्थड़ों की पीड़ा अपनी पीठ पर महसूस करता हूं. मैं इस पीड़ा को कभी भूल नहीं पाया. भूल पाऊंगा भी नहीं.

‘‘मुझे आज भी सर्दी की वह उफनती रात याद है. बड़ी मुश्किल से कुछ कपड़े, फौज के डौक्यूमैंट, एक डैबिट कार्ड, जिस में कुछ रुपए पड़े थे, घर से ले कर निकला था. बाहर निकलते ही सर्दी के जबरदस्त झोंके ने मेरे बूढ़े शरीर को घेर लिया था. धुंध इतनी थी कि हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था. सड़क भी सुनसान थी. दूरदूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था. रात, मेरे जीवन की तरह सुनसान पसरी पड़ी थी. रिश्तों के टूटन की कड़वाहट से मैं निराश था.फिर मैं ने स्वयं को संभाला और पास के

एटीएम से कुछ रुपए निकाले. अभी सोच ही रहा था कि मुख्य सड़क तक कैसे पहुंचा जाए कि पुलिस की जिप्सी बे्रक की भयानक आवाज के साथ मेरे पास आ कर रुकी. उस में बैठे एक इंस्पैक्टर ने कहा, ‘क्यों भई, इतनी सर्द रात में एटीएम के पास क्या कर रहे हो? कोई चोरवोर तो नहीं हो?’ मैं पुलिस की ऐसी भाषा से वाकिफ था.

‘‘‘नहीं, इंस्पैक्टर साहब, मैं सेना का रिटायर्ड कर्नल हूं. यह रहा मेरा आई कार्ड. इमरजैंसी में मुझे कहीं जाना पड़ रहा है. एटीएम से पैसे निकालने आया था. मुख्य सड़क तक जाने के लिए कोई सवारी ढूंढ़ रहा था कि आप आ गए.’

‘‘‘घर में सड़क तक छोड़ने के लिए कोई नहीं है?’ इंस्पैक्टर की भाषा बदल गई थी. वह सेना के रिटायर्ड कर्नल से ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता था.

‘‘‘नहीं, यहां मैं अकेले ही रहता हूं,’ मैं कैसे कहता, घर से मैं धक्के दे कर निकाला गया हूं.

‘‘इंस्पैक्टर ने कहा, ‘आओ साहब, मैं आप को सड़क तक छोड़ देता हूं.’ उन्होंने न केवल सड़क तक छोड़ा बल्कि स्टेशन जाने वाली बस को रोक कर मुझे बैठाया भी. ‘जयहिंद’ कह कर सैल्यूट भी किया, कहा, ‘सर, पुलिस आप की सेवा में हमेशा हाजिर है.’ कैसी विडंबना थी, घर में धक्के और बाहर सैल्यूट. जीवन की इस पहेली को मैं समझ नहीं पाया था.

‘‘स्टेशन पहुंच कर मैं सैनिक आरामगृह में गया. वहां न केवल मुझे कमरा मिला बल्कि नरमगरम बिस्तर भी मिला. तुम्हारे जैसे हृदयहीन लोग इस बात का अनुमान ही नहीं लगा सकते कि उस ठिठुरती रात में बेगाने यदि मदद नहीं करते तो मेरी क्या हालत होती. मैं खुद के जीवन से त्रस्त था. मन के भीतर यह विचार दृढ़ हो रहा था कि ऐसी स्थिति में मैं कैसे जी पाऊंगा. मन में यह विचार भी था, मैं एक सैनिक हूं. मैं अप्राकृतिक मौत मर ही नहीं सकता. मैं डेरे में पनाह मिलने के प्रति भी अनिश्चित था.

पर डेरे ने मुझे दोनों हाथों से लिया. पैसे की तंगी ने मुझे बहुत तंग किया. डेरे के लंगर में खाते समय मुझे जो आत्मग्लानि होती थी, उस से उबरने के लिए मुझे दूरदूर तक कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. आप ने मुझे मेरी पैंशन में से हजार रुपया महीना देना भी स्वीकार नहीं किया तो मेरे पास इस के अलावा और कोई चारा नहीं था कि पहले का पैंशन डेबिट कार्ड कैंसिल करवा कर नया कार्ड इश्यू करवाऊं. मेरे जीतेजी पैंशन पर केवल मेरा अधिकार था.

‘‘मैं जीवनभर ‘क्यों’ के प्रश्नों का उत्तर देतेदेते थक गया हूं. बचपन में, ‘खोता हो गया है, अभी तक बिस्तर में शूशू क्यों करता हूं? अच्छा, अब फैशन करने लगा है. पैंट में बटन के बजाय जिप क्यों लगवा ली? अरे, तुम ने नई पैंट क्यों पहन ली? मौडल टाउन में मौसी के यहां दरियां देने ही तो जाना है. नई पैंट आनेजाने के लिए क्यों नहीं रख लेता? चल, नेकर पहन कर जा.’

‘‘काश, उस रोज मैं नेकर पहन कर न गया होता. मैं अभी भंडारी ब्रिज चढ़ ही रहा था कि साइकिल पर आ रहे लड़के ने मुझे रोका. ‘काम करोगे?’ मुझे उस की बात समझ नहीं आई, इसलिए मैं ने पूछा था, ‘कैसा काम?’ ‘घर का काम, मुंडू वाला.’ उस ने मेरे हुलिए, बिना प्रैस किए पहनी कमीज, बिना कंघी के बेतरतीब बाल, ढीली नेकर, कैंची चप्पल, बगल में दरियां उठाए किसी घर में काम करने वाला मुंडू समझ लिया था.

‘‘मैं ने उसे कहा था, ‘नहीं, मैं ने नहीं करना है, मैं 7वीं में पढ़ता हूं.’ फिर उस ने कहा था, ‘अरे, अच्छे पैसे मिलेंगे. खाना, कपड़ा, रहने की जगह मिलेगी. तुम्हारी जिंदगी बन जाएगी.’ जब मैं ने उसे सख्ती से झिड़क कर कहा कि मैं पढ़ रहा हूं और मुझे मुंडू नहीं बनना है तब जा कर उस ने मेरा पीछा छोड़ा था. बाद में शीशे में अपना हुलिया देखा तो वह किसी मुंडू से भी गयागुजरा था. मेरे कपड़े ऐसे क्यों थे? मेरे पास इस का भी उत्तर नहीं था. बाऊजी के अतिरिक्त सभी मेरा मजाक उड़ाते रहे.

‘‘मेरे दूसरे उपनामों के साथ ‘मुंडू’ उपनाम भी जुड़ गया था. उस भाई से कभी ‘क्यों’ का प्रश्न नहीं पूछा गया जो गली की एक लड़की के लिए पागल हुआ था. अफीम खा कर उस की चौखट पर मरने का नाटक करता रहा. गली में उसे दूसरी चौखट मिलती ही नहीं थी. उस बहन से भी कभी क्यों का प्रश्न नहीं पूछा गया जो संगीत के शौक के विपरीत लेडी हैल्थविजिटर के कोर्स में दाखिला ले कर कोर्स पूरा नहीं कर सकी, पैसा और समय बरबाद किया और परिवार को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया. उस भाई से भी क्यों का प्रश्न नहीं किया गया जो पहले नेवी में गया. छोड़ कर आया पढ़ने लगा, किसी बात पर झगड़ा किया तो फौज में चला गया. वहां बीमार हुआ, फौज से छुट्टी हुई, फिर पढ़ने लगा. पढ़ाई फिर भी पूरी नहीं की. सब से छोटे ने तो परिवार की लुटिया ही डुबो दी. मैं ने बाऊजी को चुपकेचुपके रोते देखा था. मैं पढ़ने में इतना तेज नहीं था. मुझ पर प्रश्नों की बौछार लगा दी जाती. पढ़ना नहीं आता तो इस में पैसा क्यों बरबाद कर रहे हो? इस क्यों का उत्तर उस समय भी मेरे पास नहीं था और आज भी नहीं है.

‘‘17 साल की उम्र में फौज में गया तो वहां भी इस क्यों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा. सही होता तो भी क्यों का प्रश्न किया जाता और सही न होता तो भी. 11 साल तक तन, मन, धन से घर वालों की सेवा की. परिवार छूटते समय मेरे समक्ष फिर यह क्यों का प्रश्न था कि मैं ने अपने लिए क्यों कुछ बचा कर नहीं रखा. तुम से शादी हुई, पहली रात तुम्हें कुछ दे नहीं पाया, मुझे पता ही नहीं था कि कुछ देना होता है. पता होता भी तो दे नहीं पाता. मेरे पास कुछ था ही नहीं. 2 महीने की छुट्टी में मिले पैसे से मैं ने शादी की थी. मैं तुम्हें सब कैसे बताता और तुम क्यों सुनतीं? बताने पर शायद कहतीं, ऐसा था तो शादी क्यों की?

‘‘तुम्हारे समक्ष मेरी इमेज क्या थी? मैं बड़ी अच्छी तरह जानता हूं. तुम ने इस इमेज को कभी सुधरने का मौका नहीं दिया, अफसर बनने पर भी. उलटे मुझे ही दोष देती रहीं. तुम्हारे रिश्तेदार मेरे मुंह पर मुझे आहत कर के जाते रहे, कभी तुम ने इस का विरोध नहीं किया. मुझे याद है, तुम्हारी बहन रचना की नईनई शादी हुई थी. रचना और उस के पति को अपने यहां बुलाना था. तुम चाहती थीं, शायद रचना भी चाहती थी कि इस के लिए मैं उस के ससुर को लिखूं.

‘‘मैं ने साफ कहा था, मेरा लिखना केवल उस के पति को बनता है, उस के ससुर को नहीं. जैसे मैं साहनी परिवार का दामाद हूं, वैसे वह है. मैं उस का ससुर नहीं हूं. बात बड़ी व्यावहारिक थी परंतु तुम ने इस को अपनी इज्जत का सवाल बना लिया था. मन के भीतर अनेक क्यों के प्रश्न होते हुए भी मैं तुम्हारे सामने झुक गया था. मैं ने इस के लिए उस के ससुर को लिखा था.

‘‘जीवन में तुम ने कभी मेरे साथ समझौता नहीं किया. हमेशा मैं ने वह किया जो तुम चाहती थीं. रचना और उस का पति आए तो मिलन के लिए वे रात तक इंतजार नहीं कर सके थे. हमें दिन में ही उन के लिए एकांत का प्रबंध करना पड़ा. मुझे बहुत बुरा लगा था.

‘‘मैं समझ नहीं पाया था कि ऐसा कर के वे हमें क्या बताना चाहते थे? यदि हम उन के यहां जाते तो क्या वे ऐसा कह और कर सकते थे?

‘‘तुम्हें याद होगा, अपनी सीमा से अधिक हम ने उन को दिया था. रचना ने क्या कहा था, वह अपने ससुराल में अपनी ओर से इतना और कह देगी कि यह दीदीजीजाजी ने दिया है. जिस का साफ मतलब था कि जो कुछ दिया गया है, वह कम था. मैं मन से बड़ा आहत हुआ था.

‘‘रचना को इस प्रकार आहत करने, बेइज्जत करने और इस कमी का एहसास दिलाने का कोई हक नहीं था. मैं ने तुम्हारी ओर देखा था, शायद तुम इस प्रकार उत्तर दो पर तुम्हें अपने रिश्तेदारों के सामने मेरे इस प्रकार आहत और बेइज्जत होने का कभी एहसास नहीं हुआ.

‘‘क्यों, मैं इस का उत्तर कभी ढूंढ़ नहीं पाया. रचना को मैं ने उत्तर दिया था, ‘तुम्हें कमी लगी थी तो कह देतीं, जहां इतना दिया था, वहां उसे भी पूरा कर देते पर तुम्हें इस कमी का एहसास दिलाने का कोई अधिकार नहीं था. तुम अपने ससुराल में अपनी और हमारी इज्जत बनाना चाहती थीं न? मजा तब था कि बिना एहसास दिलाए इस कमी को पूरा कर देतीं. पर इस झूठ की जरूरत क्या है? क्या इस प्रकार तुम हमारी इज्जत बना पातीं? मुझे नहीं लगता, क्योंकि झूठ, झूठ ही होता है. कभी न कभी खुल जाता. उस समय तुम्हारी स्थिति क्या होती, तुम ने कभी सोचा है?’

‘‘रचना मेरे इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाई थी. जो बात तुम्हें कहनी चाहिए थी, उसे मैं ने कहा था. उन के जाने के बाद कई दिनों तक तुम ने मेरे साथ बात नहीं की थी. उस रोज तो हद हो गई थी जब मैं अपने एक रिश्तेदार की मृत्यु पर गया था. वे केवल मेरे रिश्तेदार नहीं थे बल्कि उन के साथ तुम्हारा भी संबंध था. उन्होंने किस तरह मुझ से तुम्हारे ब्याह के लिए प्रयत्न किया था, तुम भूल गईं. उसी परिवार ने बाऊजी के मरने पर भी सहयोग किया था.

‘‘वहां मुझ से 500 रुपए खर्च हो गए थे. उस के लिए तुम ने किस प्रकार झगड़ा किया था, कहने की जरूरत नहीं है. तुम ने तो यहां तक कह दिया था कि तुम मेरे पैसे को सौ जूते मारती हो. मेरे पैसे को सौ जूते मारने का मतलब मुझे भी सौ जूते मारना.

‘‘मैं तुम्हारे किन रिश्तेदारों की मौत के सियापे करने नहीं गया. उन्हीं रिश्तेदारों ने माताजी के मरने पर आना तो दूर, किसी ने फोन तक नहीं किया. किसी को डिप्रैशन था, किसी के घुटनों में दर्द था. तुम्हारी भाषा की कड़वाहट आज भी भीतर तक कड़वाहट से भर देती है. पर अब इन सब बातों का क्या फायदा? मैं तो केवल इतना जानता हूं कि आप लोगों के सामने मैं हमेशा गरीब बना रहा. किसी बाप को गरीब नहीं होना चाहिए. गरीब हो तो उस में ताने सुनने की ताकत होनी चाहिए. अगर सुनने की ताकत न हो तो उस की हालत घर के कुत्ते से भी बदतर होती है.

‘‘घर के कुत्ते को जितना मरजी दुत्कारो, वह घर की ओर ही आता है. घर को छोड़ कर न जाना उस की मजबूरी होती है. यह मजबूरी जीवनभर चलती है. काश, मैं पहले ही घर को छोड़ कर चला आया होता. मैं खुद ही अपने आत्मसम्मान को रख नहीं पाया था. यदि ऐसा करता तो मेरे उन कर्मों का क्या होता जो मुझे हर हाल में भुगतने थे.’’

‘‘गलतियां हुई हैं, मैं मानती हूं. क्या इन सब को भूल कर आगे की जिंदगी अच्छी तरह से नहीं जी जा सकती,’’ इतनी देर से चुप मेरी पत्नी ने कहा.

‘‘हर रोज यही कोशिश करता हूं कि सब भूल जाऊं. भूल जाऊं कि जिंदगी के हर मोड़ पर मुझे लताड़ा गया है. हर कदम पर मैं ने आत्मसम्मान को खोया है. भूल जाऊं कि हर गलती के लिए मुझे ही दोषी ठहराया जाता रहा है. चाहे वह सोफे के खराब होने की बात हो या कुरसियों के टूटने की. मैं कैसे कहता कि ये बच्चों की उछलकूद से हुआ है. अगर कहता भी तो इसे कौन मानता.

‘‘मैं ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संभाला है, अपने ढंग से जिंदगी को सैट किया है. चाहे पहले की यादें मुझे हर रोज पीडि़त करती हैं तो भी मुझे यहां राजी के साथ से कोई एतराज नहीं है परंतु इसे अपनी जिंदगी के दिन दूसरे कमरे में गुजारने होंगे. इस की पूरी सेवा होगी. इस की सारी जरूरतों का ध्यान रखा जाएगा. इस की तकलीफों के बारे में हर रोज पूछा जाएगा और इलाज करवाया जाएगा. इस ने चाहे मुझे हजार रुपया महीना देना स्वीकार न किया हो पर मैं इसे 5 हजार रुपए महीना दूंगा.

‘‘24 घंटे टैलीफोन इस के सिरहाने रहेगा, चाहे जिस से बात करे. पर मेरे जीवन में इस का कोई दखल नहीं होगा. मैं कहां जाता हूं, क्या करता हूं, इस पर कोई क्यों का प्रश्न नहीं होगा. मुझे कोई भी फौरमैलिटी बरदाश्त नहीं होगी. बस, इतना ही.’’

वे दोनों चुप रहे. शायद उन को मेरी बातें मंजूर थीं. मैं ने बेबे से कह कर राजी का सामान दूसरे कमरे में रखवा दिया.

बदलते रिश्ते: रमेश ऐसी कौन सी बात वंदना के बारे में कहना चाहता था

मेरे बचपन का दोस्त रमेश काफी परेशान और उत्तेजित हालत में मुझ से मिलने मेरी दुकान पर आया और अपनी बात कहने के लिए मुझे दुकान से बाहर ले गया. वह नहीं चाहता था कि उस के मुंह से निकला एक शब्द भी कोई दूसरा सुने.

‘‘मैं अच्छी खबर नहीं लाया हूं पर तेरा दोस्त होने के नाते चुप भी नहीं रह सकता,’’ रमेश बेचैनी के साथ बोला.

‘‘खबर क्या है?’’ मेरे भी दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं.

‘‘वंदना भाभी को मैं ने आज शाम नेहरू पार्क में एक आदमी के साथ घूमते देखा है. वह दोनों 1 घंटे से ज्यादा समय तक साथसाथ थे.’’

‘‘इस में परेशान होने वाली क्या बात है?’’ मेरे मन की चिंता काफी कम हो गई पर बेचैनी कायम रही.

‘‘संजीव, मैं ने जो देखा है उसे सुन कर तू गुस्सा बिलकुल मत करना. देख, हम दोनों शांत मन से इस समस्या का हल जरूर निकाल लेंगे. मैं तेरे साथ हूं, मेरे यार,’’ रमेश ने भावुक हो कर मुझे अपनी छाती से लगा लिया.

‘‘तू ने जो देखा है, वह मुझे बता,’’ उस की भावुकता देख मैं, मुसकराना चाहा पर गंभीर बना रहा.

‘‘यार, उस आदमी की नीयत ठीक नहीं है. वह वंदना भाभी पर डोरे डाल रहा है.’’

‘‘ऐसा तू किस आधार पर कह रहा है?’’

‘‘अरे, वह भाभी का हाथ पकड़ कर घूम रहा था. उस के हंसनेबोलने का ढंग अश्लील था…वे दोनों पार्क में प्रेमीप्रेमिका की तरह घूम रहे थे…वह भाभी के साथ चिपका ही जा रहा था.’’

जो व्यक्ति वंदना के साथ पार्क में था, उस के रंगरूप का ब्यौरा मैं खुद रमेश को दे सकता था पर यह काम मैं ने उसे करने दिया.

‘‘क्या तू उस आदमी को पहचानता है?’’ रमेश ने चिंतित लहजे में प्रश्न किया.

मैं ने इनकार में सिर दाएंबाएं हिला कर झूठा जवाब दिया.

‘‘अब क्या करेगा तू?’’

‘‘तू ही सलाह दे,’’ उस की देखादेखी मैं भी उलझन का शिकार बन गया.

‘‘देख संजीव, भाभी के साथ गुस्सा व लड़ाईझगड़ा मत करना. आज घर जा कर उन से पूछताछ कर पहले देख कि वह उस के साथ नेहरू पार्क में होने की बात स्वीकार भी करती हैं या नहीं. अगर दाल में काला होगा… उन के मन में खोट होगा तो वह झूठ का सहारा लेंगी.’’

‘‘अगर उस ने झूठ बोला तो क्या करूं?’’

‘‘कुछ मत करना. इस मामले पर सोचविचार कर के ही कोई कदम उठाएंगे.’’

‘‘ठीक है, पूछताछ के बाद मैं बताता हूं तुझे कि वंदना ने क्या सफाई दी है.’’

‘‘मैं कल मिलता हूं तुझ से.’’

‘‘कल दुकान की छुट्टी है रमेश, परसों आना मेरे पास.’’

रमेश मुझे सांत्वना दे कर चला गया. घर लौटने तक मैं रहरह कर धीरज और वंदना के बारे में विचार करता रहा.

हमारी शादी को 5 साल बीत चुके हैं. वंदना उस समय भी उसी आफिस में काम करती थी जिस में आज कर रही है. धीरज वहां उस का वरिष्ठ सहयोगी था. शादी के बाद जब भी वह आफिस की बातें सुनाती, धीरज का नाम वार्तालाप में अकसर आता रहता.

वंदना मेरे संयुक्त परिवार में बड़ी बहू बन कर आई थी. आफिस जाने वाली बहू से हम दबेंगे नहीं, इस सोच के चलते मेरे मातापिता की उस से शुरू से ही नहीं बनी. उन की देखादेखी मेरा छोटा भाई सौरभ व बहन सविता भी वंदना के खिलाफ हो गए.

सौरभ की शादी डेढ़ साल पहले हुई. उस की पत्नी अर्चना, वंदना से कहीं ज्यादा चुस्त व व्यवहारकुशल थी. वह जल्दी ही सब की चहेती बन गई. वंदना और भी ज्यादा अलगथलग पड़ गई. इस के साथ सब का क्लेश व झगड़ा बढ़ता गया.

अर्चना के आने के बाद वंदना बहुत परेशान रहने लगी. मेरे सामने खूब रोती या मुझ से झगड़ पड़ती.

‘‘आप की पीठ पीछे मेरे साथ बहुत ज्यादा दुर्व्यवहार होता है. मैं इस घर में नहीं रहना चाहती हूं,’’ वंदना ने जब अलग होने की जिद पकड़ी तो मैं बहुत परेशान हो गया.

मुझे वंदना के साथ गुजारने को ज्यादा समय नहीं मिलता था. उस की छुट्टी रविवार को होती और दुकान के बंद होने का दिन सोमवार था. मुझे रात को घर लौटतेलौटते 9 बजे से ज्यादा का समय हो जाता. थका होने के कारण मैं उस की बातें ज्यादा ध्यान से नहीं सुन पाता. इन सब कारणों से हमारे आपसी संबंधों में खटास और खिंचाव बढ़ने लगा.

यही वह समय था जब धीरज ने वंदना के सलाहकार के रूप में उस के दिल में जगह बना ली थी. आफिस में उस से किसी भी समस्या पर हुई चर्चा की जानकारी मुझे वंदना रोज देती. मैं ने साफ महसूस किया कि मेरी तुलना में धीरज की सलाहों को वंदना कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण, सार्थक और सही मानती थी.

‘‘आप का झुकाव अपने घर वालों की तरफ सदा रहेगा जबकि धीरज निष्पक्ष और सटीक सलाह देते हैं. मेरे मन की अशांति दूर कर मेरा हौसला बढ़ाना उन्हें बखूबी आता है,’’ वंदना के इस कथन से मैं भी मन ही मन सहमत था.

घर के झगड़ों से तंग आ कर वंदना ने मायके भाग जाने का मन बनाया तो धीरज ने उसे रोका. घर से अलग होने की वंदना की जिद उसी ने दूर की. उसी की सलाह पर चलते हुए वह घर में ज्यादा शांत व सहज रहने का प्रयास करती थी.

इस में कोई शक नहीं कि धीरज की सलाहें सकारात्मक और वंदना के हित में होतीं. उस के प्रभाव में आने के बाद वंदना में जो बदलाव आया उस का फायदा सभी को हुआ.

पत्नी की जिंदगी में कोई दूसरा पुरुष उस से ज्यादा अहमियत रखे, ये बात किसी भी पति को आसानी से हजम नहीं होगी. मैं वंदना को धीरज से दूर रहने का आदेश देता तो नुकसान अपना ही होता. दूसरी तरफ दोनों के बीच बढ़ती घनिष्ठता का एहसास मुझे वंदना की बातों से होता रहता था और मेरे मन की बेचैनी व जलन बढ़ जाती थी.

धीरज को जाननासमझना मेरे लिए अब जरूरी हो गया. तभी मेरे आग्रह पर एक छुट्टी वाले दिन वंदना और मैं उस के घर पहुंच गए. मेरी तरह उस दिन वंदना भी उस के परिवार के सदस्यों से पहली बार मिली.

धीरज की मां बड़ी बातूनी पर सीधीसादी महिला थीं. उस की पत्नी निर्मला का स्वभाव गंभीर लगा. घर की बेहतरीन साफसफाई व सजावट देख कर मैं ने अंदाजा लगाया कि वह जरूर कुशल गृहिणी होगी.

धीरज का बेटा नीरज 12वीं में और बेटी निशा कालिज में पढ़ते थे. उन्होंने हमारे 3 वर्षीय बेटे सुमित से बड़ी जल्दी दोस्ती कर उस का दिल जीत लिया.

कुल मिला कर हम उन के घर करीब 2 घंटे तक रुके थे. वह वक्त हंसीखुशी के साथ गुजरा. मेरे मन में वंदना व धीरज के घनिष्ठ संबंधों को ले कर खिंचाव न होता तो उस के परिवार से दोस्ती होना बड़ा सुखद लगता.

‘‘तुम्हें धीरज से अपने संबंध इतने ज्यादा नहीं बढ़ाने चाहिए कि लोग गलत मतलब लगाने लगें,’’ अपनी आंतरिक बेचैनी से मजबूर हो कर एक दिन मैं ने उसे सलाह दी.

‘‘लोगों की फिक्र मैं नहीं करती. हां, आप के मन में गलत तरह का शक जड़ें जमा रहा हो तो साफसाफ कहो,’’ वंदना ध्यान से मेरे चेहरे को पढ़ने लगी.

‘‘मुझे तुम पर विश्वास है,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘और इस विश्वास को मैं कभी नहीं तोड़ूंगी,’’ वंदना भावुक हो गई, ‘‘मेरे मानसिक संतुलन को बनाए रखने में धीरज का गहरा योगदान है. मैं उन से बहुत कुछ सीख रही हूं…वह मेरे गुरु भी हैं और मित्र भी. उन के और मेरे संबंध को आप कभी गलत मत समझना, प्लीज.’’

धीरज के कारण वंदना के स्वभाव में जो सुखद बदलाव आए उन्हें देख कर मैं ने धीरेधीरे उन के प्रति नकारात्मक ढंग से सोचना कम कर दिया. अपनी पत्नी के मुंह से हर रोज कई बार उस का नाम सुनना तब मुझे कम परेशान करने लगा.

उस दिन रात को भी वंदना ने खुद ही मुझे बता दिया कि वह धीरज के साथ नेहरू पार्क घूमने गई थी.

‘‘आज किस वजह से परेशान थीं तुम?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘मैं नहीं, बल्कि धीरज तनाव के शिकार थे,’’ वंदना की आंखों में चिंता के भाव उभरे.

‘‘उन्हें किस बात की टैंशन है?’’

‘‘उन की पत्नी के ई.सी.जी. में गड़बड़ निकली है. शायद दिल का आपरेशन भी करना पड़ जाए. अभी दोनों बच्चे छोटे हैं. फिर उन की आर्थिक स्थिति भी मजबूत नहीं है. इन्हीं सब बातों के कारण वह चिंतित और परेशान थे.’’

कुछ देर तक खामोश रहने के बाद वंदना ने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और भावुक लहजे में बोली, ‘‘जो काम धीरज हमेशा मेरे साथ करते हैं, वह आज मैं ने किया. मुझ से बातें कर के उन के मन का बोझ हलका हुआ. मैं एक और वादा उन से कर आई हूं.’’

‘‘कैसा वादा?’’

‘‘यही कि इस कठिन समय में मैं उन की आर्थिक सहायता भी करूंगी. मुझे विश्वास है कि आप मेरा वादा झूठा नहीं पड़ने देंगे. हमारे विवाहित जीवन की सुखशांति बनाए रखने में उन का बड़ा योगदान है. अगर उन्हें 10-20 हजार रुपए देने पड़ें तो आप पीछे नहीं हटेंगे न?’’

वंदना के मनोभावों की कद्र करते हुए मैं ने सहज भाव से मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘अपने गुरुजी के मामलों में तुम्हारा फैसला ही मेरा फैसला है, वंदना. मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ हूं. हमारा एकदूसरे पर विश्वास कभी डगमगाना नहीं चाहिए.’’

अपनी आंखों में कृतज्ञता के भाव पैदा कर के वंदना ने मुझे ‘धन्यवाद’ दिया. मैं ने हाथ फैलाए तो वह फौरन मेरी छाती से आ लगी.

इस समय वंदना को मैं ने अपने हृदय के बहुत करीब महसूस किया. धीरज और उस के दोस्ताना संबंध को ले कर मैं रत्ती भर भी परेशान न था. सच तो यह था कि मैं खुद धीरज को अपने दिल के काफी करीब महसूस कर रहा था.

धीरज को अपना पारिवारिक मित्र बनाने का मन मैं बना चुका था.

2 दिन बाद रमेश परेशान व उत्तेजित अवस्था में मुझ से मिलने पहुंचा. वक्त की नजाकत को महसूस करते हुए मैं ने भी गंभीरता का मुखौटा लगा लिया.

‘‘क्या वंदना भाभी ने उस व्यक्ति के साथ नेहरू पार्क में घूमने जाने की बात तुम्हें खुद बताई, संजीव?’’ रमेश ने मेरे पास बैठते ही धीमी, पर आवेश भरी आवाज में प्रश्न पूछा.

‘‘हां,’’ मैं ने सिर हिलाया.

‘‘अच्छा,’’ वह हैरान हो उठा, ‘‘कौन है वह?’’

‘‘उन का नाम धीरज है और वह वंदना के साथ काम करते हैं.’’

‘‘उस के साथ घूमने जाने का कारण भाभी ने क्या बताया?’’

‘‘किसी मामले में वह परेशान थे. वंदना से सलाह लेना चाहते थे. उस से बातें कर के मन का बोझ हलका कर लिया उन्होंने,’’ मैं ने सत्य को ही अपने जवाब का आधार बनाया.

‘‘मुझे तो वह परेशान या दुखी नहीं, बल्कि एक चालू इनसान लगा है,’’ रमेश भड़क उठा, ‘‘उस ने भाभी का कई बार हाथ पकड़ा… कंधे पर हाथ रख कर बातें कर रहा था. मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि भाभी को ले कर उस की नीयत खराब है.’’

‘‘मेरे भाई, तेरा अंदाजा गलत है. वंदना धीरज को अपना शुभचिंतक व अच्छा मित्र मानती है,’’ मैं ने उसे प्यार से समझाया.

‘‘मित्र, पराए पुरुष के साथ शादीशुदा औरत की मित्रता कैसे हो सकती है?’’ उस ने आवेश भरे लहजे में प्रश्न पूछा.

‘‘एक बात का जवाब देगा?’’

‘‘पूछ.’’

‘‘हम दोस्तों में सब से पहले विकास की शादी हुई थी. अनिता भाभी के हम सब लाड़ले देवर थे. उन का हाथ हम ने अनेक बार पकड़ कर उन से अपने दिल की बातें कही होंगी. क्या तब हमारे संबंधों को तुम ने अश्लील व गलत समझा था?’’

‘‘नहीं, क्योंकि हम एकदूसरे के विश्वसनीय थे. हमारे मन में कोई खोट नहीं था,’’ रमेश ने जवाब दिया.

‘‘इस का मतलब कि स्त्रीपुरुष के संबंध को गलत करार देने के लिए हाथ पकड़ना महत्त्वपूर्ण नहीं है, मन में खोट होना जरूरी है?’’

‘‘हां, और तू इस धीरज…’’

‘‘पहले तू मेरी बात पूरी सुन,’’ मैं ने उसे टोका, ‘‘अगर मैं और तुम हाथ पकड़ कर घूमें… या वंदना तेरी पत्नी के साथ हाथ पकड़ कर घूमे…फिल्म देख आए…रेस्तरां में कौफी पी ले तो क्या हमारे और उन के संबंध गलत कहलाएंगे?’’

‘‘नहीं, पर…’’

‘‘पहले मुझे अपनी बात पूरी करने दे. हमारे या हमारी पत्नियों के बीच दोस्ती का संबंध ही तो है. देख, पहले की बात जुदा थी, तब स्त्रियों का पुरुषों के साथ उठनाबैठना नहीं होता था. आज की नारी आफिस जाती है. बाहर के सब काम करती है. इस कारण उस की जानपहचान के पुरुषों का दायरा काफी बड़ा हुआ है. इन पुरुषों में से क्या कोई उस का अच्छा मित्र नहीं बन सकता?’’

‘‘हमें दूसरों की नकल नहीं करनी है, संजीव,’’ मेरे मुकाबले अब रमेश कहीं ज्यादा शांत नजर आने लगा, ‘‘हम ऐसे बीज बोने की इजाजत क्यों दें जिस के कारण कल को कड़वे फल आएं?’’

‘‘मेरे यार, तू भी अगर शांत मन से सोचेगा तो पाएगा कि मामला कतई गंभीर नहीं है. पुरानी धारणाओं व मान्यताओं को एक तरफ कर नए ढंग से और बदल रहे समय को ध्यान में रख कर सोचविचार कर मेरे भाई,’’ मैं ने रमेश का हाथ दोस्ताना अंदाज में अपने हाथों में ले लिया.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने सोचपूर्ण लहजे में पूछा, ‘‘अपने दिल की बात कहते हुए जैसे तू ने मेरा हाथ पकड़ लिया, क्या धीरज को भी वंदना भाभी का वैसे ही हाथ पकड़ने का अधिकार है?’’

‘‘बिलकुल है,’’ मैं ने जोर दे कर अपनी राय बताई.

‘‘स्त्रीपुरुष के रिश्ते में आ रहे इस बदलाव को मेरा मन आसानी से स्वीकार नहीं कर रहा है, संजीव,’’ उस ने गहरी सांस खींची.

‘‘क्योंकि तुम भविष्य में उन के बीच किसी अनहोनी की कल्पना कर के डर रहे हो. अब हमें दोस्ती को दोस्ती ही समझना होगा…चाहे वह 2 पुरुषों या 2 स्त्रियों या 1 पुरुष 1 स्त्री के बीच हो. रिश्तों के बदलते स्वरूप को समझ कर हमें स्त्रीपुरुष के संबंध को ले कर अनैतिकता की परिभाषा बदलनी होगी.

‘‘देखो, किसी कुंआरी लड़की के अपने पुरुष प्रेमी से अतीत में बने सैक्स संबंध उसे आज चरित्रहीन नहीं बनाते. शादीशुदा स्त्री का उस के पुरुष मित्र से सैक्स संबंध स्थापित होने का हमारा भय या अंदेशा उन के संबंध को अनैतिकता के दायरे में नहीं ला सकता. मेरी समझ से बदलते समय की यही मांग है. मैं तो वंदना और धीरज के रिश्ते को इसी नजरिए से देखता हूं, दोस्त.’’

मैं ने साफ महसूस किया कि रमेश मेरे तर्क व नजरिए से संतुष्ट नहीं था.

‘‘तेरीमेरी सोच अलगअलग है यार. बस, तू चौकस और होशियार रहना,’’ ऐसी सलाह दे कर रमेश नाराज सा नजर आता दुकान से बाहर चला गया.

मेरा उखड़ा मूड धीरेधीरे ठीक हो गया. बाद में घर पहुंच कर मैं ने वंदना को शांत व प्रसन्न पाया तो मूड पूरी तरह सुधर गया.

हां, उस दिन मैं जरूर चौंका था जब हम रामलाल की दुकान में गए थे और वहां रमेश की पत्नी किसी के हाथों से गोलगप्पे खा रही थी और रमेश मजे में आलूचाट की प्लेट साफ करने में लगा था. यह आदमी कौन था मैं अच्छी तरह जानता था. वह रमेश के मकान में ऊपर चौथी मंजिल पर रहता है और दोनों परिवारों में खासी पहचान है. मैं ने गहरी सांस ली, एक और चेला, गुरु से आगे निकल गया न.

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