इस असंतुलन का जिम्मेदार कौन

जब भी ‘हम दो हमारे दो’ या ‘हम दो हमारा एक’ का नारा लगता है और लोग इस सिद्धांत को अपनाने लगते हैं, लड़कियों की कमी होने लगती है. दुनिया के कई देशों में ऐसा हुआ है और भारत में तो यह समस्या गंभीर होने लगी है. गुजरात के पाटीदार समुदाय में 1000 लड़कों की तुलना में 700 लड़कियां हैं और अब जवान लड़कों को लड़कियां नहीं मिल रही हैं. जैसे चीनी लड़के लड़कियों की खोज में वर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम जा रहे हैं वैसे ही पाटीदार मध्य प्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की कुर्मियों की बिरादरियों में लड़कियां ढूंढ़ने लगे हैं.

इस तरह की मांग पर निश्चित है बिचौलियों की बन आएगी. दूसरी भाषा, दूसरा राज्य, दूसरे तरह का रंगरूप होने की वजह से लड़के खुद तो लड़कियां ढूंढ़ नहीं सकेंगे और उन्हें लड़कियों के व्यापार जिस में तस्करी, अपहरण तक शामिल होगा में फंसना पड़ेगा. पत्नी से सुरक्षित माहौल की अपेक्षा की जाती है पर इस तरह दूसरे राज्यों से आने वाली लड़कियां आफत होती हैं यह हरियाणा में दिख चुका है, जहां मणिपुर और मिजोरम तक की लड़कियों को अपनाया गया है.

इस तरह लाई गई लड़कियां आमतौर पर अपनेआप को गुलाम से ज्यादा नहीं मानतीं. घर में थीं तो भूख से भी मरती थीं और बलात्कारों से भी. वहां भी इन की कदर नहीं होती थीं. मांबाप के लिए बोझ ही होती थी. वे लाचारी में आती हैं. कुछ पति के साथ बंध जाती हैं और कुछ जगहजगह मुंह मारने लगती हैं और बेचारा पति कुछ नहीं कर पाता. हां, अगर बच्चे हो जाते हैं तो मां का दिल पसीज जाता है और वह नए माहौल में रचबस जाती है.

एक तरह से यह बुरा भी नहीं है क्योंकि उस देश में जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश की दीवारें तोड़ना बहुत जरूरी है. औरतों को आजादी तब मिलेगी जब उन्हें अपने पैदा हुए माहौल से निकलने की छूट मिलेगी. वेश्यालयों में काम करने वाली औरतें अकसर सुखी रहती हैं क्योंकि उन्हें रीतिरिवाजों से तो छुटकारा मिलता है और अपने से लोगों के बीच रहने का मौका मिलता है. हजारों औरतें खुदबखुद वेश्याएं बनती हैं क्योंकि यह प्रोफैशन दूसरे प्रोफैशनों से बेहतर है.

यही हाल खरीदी हुई हमजोलियों के साथ होगा. कुंआरे रह रहे अकेलों को कैसी भी लड़की नियामत लगेगी. वह उस का भरपूर ध्यान रखेगा. पैसे दे कर लाई गई पत्नी उस पत्नी से ज्यादा कीमती होगी जो दहेज के साथ थोपी गई हो और जिस के मातापिता हर समय चौकीदार की तरह सामने खड़े हों.

ऐसी शादी से किस का भला होगा

शादियों पर आजकल जम कर खर्च होने लगा है. खर्च तो पहले भी हुआ करता था पर तब जेवरों, कपड़ों और संपत्ति पर होता था, अब सजावट पर और खाने की वैरायटी और परोसने के ढंग पर होने लगा है. लोगों का बजट अब लाखों रुपए से बढ़ कर क्व10-20 करोड़ हो गया है और बाकायदा मैरिज कंसलटैंटों की भीड़ उमड़ आई है, जो लाइटिंग, भोजों, फूल, पलपल के इंतजाम से ले कर दूल्हादुलहन के ही नहीं पूरे परिवार के कपड़ों के स्टाइल व रंगों का हिसाब भी रखने लगे हैं.

जिन के पास पैसा है उन्हें खर्च करने का हक है, पैसा काला है या सफेद, इस से फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि देश में ऐसे लोगों की गिनती अब काफी होनी लगी है जिन के पास क्व100-200 करोड़ पूरे सफेद हैं और जो शादियों में कम से कम 10-20 करोड़ आराम से खर्च कर सकते हैं.

शादियों की सजावट के बारे में एक ही आपत्ति है कि इस तड़कभड़क की शादी और दूल्हादुलहन के जीवन पर क्या असर पड़ता है? उन्हें अपने अच्छे कपड़े मिल जाएं, अच्छा घर मिल जाए, शादी के बाद घूमने की जगह मिल जाए यह मुख्य होना चाहिए न कि दूल्हे और दुलहन के घर वालों, रिश्तेदारों, मित्रों पर फालतू का खर्च, जो आएंगे और बनावटी हंसी के साथ लाइन में लग कर हाथ मिलाएंगे, फोटो ख्ंिचवाएंगे और चलते बनेंगे.

शादी तो युवकयुवती की होती है. उस में बेगानों का क्या काम? नाचनागाना तो सारे साल हो सकता है, सारी जिंदगी हो सकता है. विवाह पर लंबाचौड़ा खर्च शादी को पक्का नहीं कर सकता. यह मातापिताओं को रौब मारने का काम कर सकता है पर जितना बड़ा आयोजन होगा उतनी ज्यादा समस्याएं होंगी. उन का काम बेटेबेटी की शादी के लिए तैयार करने की जगह, लोगों को इनवाइट करने, डैकोरेशन व कैटरिंग का हिसाब करने, हौल बुक करने और हजार दूसरी बेकार की बातों में लग जाएगा.

शादी का मतलब है युवकयुवती के संबंध को सामाजिक मान्यता मिलना. वैसे तो धर्म ने टांग अड़ा कर फालतू में इस सामान्य सी प्रक्रिया को लंबाचौड़ा कर दिया है ताकि उस की पत्ती बन सके और वह जीवनभर पतिपत्नी से वसूलता रहे वरना शादी बच्चे पैदा करने, एकदूसरे के साथ रहने और एकदूसरे की सुरक्षा का नाम है जो नैसर्गिक होना चाहिए न कि मैरिज इवेंट कंसल्टैंट के हाथों पैसे व समय की बरबादी का बहाना.

बात ईर्ष्या की उतनी नहीं है. जिस के पास पैसा है वह खर्च करेगा. पर बात यह है कि क्या शादी पर खर्च हो? शादी का महत्त्व क्या पंडाल की डैकोरेशन से फीका हो जाने दिया जाए? ब्यूटीफुल दिखने के लिए क्या हफ्तों ब्यूटीपार्लरों के चक्कर काटे जाएं? सही पोशाकों के लिए क्या बाजारों और टेलरों के यहां बारबार जाया जाए?

शादी से पहले होने वाले पतिपत्नी एकदूसरे को भूल जाते हैं और उन का पूरा ध्यान शादी के प्रबंध में लग जाता है. एक भी चीज मन के हिसाब से न हो तो एक कड़वाहट मन के किसी कोने में

बैठ जाती है जिस का एकदूसरे के व्यवहार से कोई मतलब नहीं होता. शादी को प्रेम का महल बना रहने दीजिए, महल से पंडाल में शादी कर के दूल्हादुलहन को छोटा न करिए.

आज की नैतिकता पुरानी नैतिकता से अच्छी

जब से हिंदू कानून में 1956 और 2005 में बदलाव आया है और  बेटियों को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलने लगा है, तब से भाईबहनों के विवाद बढ़ रहे हैं. 1956 में तो खास परिवर्तन नहीं हुआ था पर तब भी संयुक्त परिवार की संपत्ति में एक जने के अपने हिस्से में से बेटोंबेटियों को बराबर का हिस्सा देने का कानून बना था. 2005 में संयुक्त परिवार में बेटेबेटियों को बराबर का साझीदार कानून घोषित कर दिया गया था.

जो लोग समझते हैं कि इस से भाईबहनों के प्रेम की हिंदू समाज की परंपरा को नुकसान पहुंचा है वे यह नहीं जानते कि असल में पौराणिक कहानियों में ही भाईबहनों के विवादों का बढ़ाचढ़ा कर उल्लेख है और ये कहानियां सिरमाथे पर रखी जाती हैं.

महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक भीम का विवाह हिडिंबा से तब हुआ जब भीम ने हिडिंबा के भाई को मार डाला था. असुर राजा ने अपनी बहन हिडिंबा को अपने इलाके में घुस आए पांडवों को मारने के लिए भेजा था पर हिडिंबा भीम पर आसक्त हो गई और उस के उकसाने पर भीम ने उस के भाई को ही मार डाला.

बाद में हिडिंबा ने भीम से विवाह कर लिया और उन से घटोत्कच नाम का पुत्र हुआ जिस ने कौरवपांडव युद्ध में काफी पराक्रम दिखाया. कहानी में महाभारत का लेखक कहीं भी बहन के भाई के विरुद्ध जाने की आलोचना नहीं करता. वह बहन जिसे भाई ने घुसपैठियों को मारने के लिए भेजा था भाई की प्रिय ही होगी वरना वह क्यों अनजान लोगों को मारने के लिए भेजता? मगर आसक्ति ऐसी चीज है जिस में भाई तक को मरवा डाला जाता है और जिन धर्मग्रंथों का हवाला हमारे पंडे और उन के भक्त नेता देते रहते हैं वे ऐसी अनैतिक गाथाओं से भरे पड़े हैं.

वास्तव में आज की नैतिकता हमारी पुरानी नैतिकता से बहुत अच्छी है. भाईबहनों में अगर विवाद हो रहे हैं तो अब भाईबहन एकदूसरे के सगे साथी भी बन रहे हैं. जहां घरों में केवल 1 भाई और 1 बहन होना सामान्य हो रहा है, वहां भाईबहन एकदूसरे के लिए जान छिड़क रहे हैं.

राहुल गांधी यदि विवाह किए बिना भी आराम से संतुलित जीवन जी पा रहे हैं तो इसलिए कि उन्हें प्रियंका और उन के बच्चों का साथ मिलता है. 2005 का कानून सोनिया गांधी के कहने पर लाया गया था, हालांकि कांग्रेस आमतौर पर इस का श्रेय हिंदू कट्टरवादियों से डर कर नहीं लेती पर सच यह है कि भारत में समाज सुधार विदेशियों ने किया, हिंदू धर्म का ढिंढोरा पीटने वालों ने नहीं.

 

घटते फासले बढ़ती नाराजगी

देश में अब परिवार नई चुनौतियों से जूझ रहे हैं. पहले सासबहू और देवरानीजेठानी विवादों के कारण घरों में कलह रहती थी, अब पतिपत्नी और उस से ज्यादा पिताबेटे और मांबेटी की कलह के किस्से बढ़ रहे हैं. आमतौर पर खुद को सक्षम और समझदार समझने वाली पत्नियां अब पतियों के आदेशों को मानने से इनकार कर रही हैं और घर के बाहर एक अलग जिंदगी की तलाश करने लगी हैं, फिर चाहे वह दफ्तरों में नौकरी हो या किट्टी पार्टियां.

घरों में विवादों के बढ़ने का कारण न सिर्फ सतही जानकारी का भंडार होना है, बल्कि गहराई वाली सोच का अभाव होना भी है. सतही जानकारी ने यह तो सब को समझा दिया है कि हरेक का अपना अधिकार है, अपना जमीनी व व्यक्तिगत दायरा है, जीवन जीने के फैसले खुद करने का अधिकार है पर यह जानकारी यह नहीं बताती कि कोई भी गलत फैसला कैसे खुद को परेशान कर सकता है.

लोगों ने अपने अधिकारों को जानना तो शुरू कर दिया है पर जब इन अधिकारों के कारण दूसरों के दायरे में दखल हो तो क्या करना चाहिए, यह ज्ञान आज का मीडिया या मोबाइल देने को तैयार नहीं है. आज का मीडिया तब तक ही पसंद और सफल है जब तक वह दर्शकों को आत्ममंथन करने को न कहे.

अपने फैसलों का प्रभाव दूसरों पर खराब पड़ सकता है यह आज का मीडिया नहीं बताता, क्योंकि वह फास्ट फूड की तरह स्वादिष्ठ और शानदार दिखने वाली बात करता है. आज का मीडिया आप को अपनी गलतियों की ओर झांकने को नहीं कहता, क्योंकि इस से आप ऊब कर किसी दूसरी स्क्रीन पर चले जाएंगे.

आज तो दवा के रूप में भी आप को कैप्सूल दिए जा रहे हैं. सेहत बनाने के लिए भी एअरकंडीशंड माहौल वाला जिम चाहिए. फूड सप्लिमैंट चाहिए जो बिना खराबियां बताए आप को मिनटों, घंटों में ठोकपीट कर ठीक कर दे.

ये कैप्सूल, ये टिप्स, ये फास्ट ट्रीटमैंट जीवन को चलाने के लिए नहीं मिलते. पतिपत्नी एकदूसरे से रूठे रहते हैं, बच्चे मातापिता पर भुनभुनाते रहते हैं. हरकोई पकापकाया चाहता है, बिना समस्या की गहराई में जाए उस का हल चाहता है.

सासबहू या जेठानीदेवरानी के झगड़े जब भी होते थे या होते हैं तो इसीलिए कि दोनों को नहीं मालूम कि कैसे एकदूसरे के पूरक बनें. यह शिक्षा कहीं दी ही नहीं जा रही कि लेना है तो किसी को देना भी पड़ेगा. लोगों ने सोच लिया है कि दफ्तरों में काम दे कर जो ले लिया वह घर के लिए देना हो गया. अब घर वाले उस के बदले में मांगी गई चीज दें.

पत्नी सोचती है कि उस ने बनठन कर, साथ चल कर या रात को साथ सो कर जो दे दिया वही काफी है. अब उसे सिर्फ लेना है. बच्चे सोचते हैं कि उन्होंने जन्म ले कर मातापिता को संपूर्णता दे दी. अब मातापिता उन्हें वापस देते रहें. जीवन को एटीएम समझ लिया गया है जहां मशीनी तौर पर लेनदेन होता है.

लोग भूल रहे हैं कि आधुनिक सुविधाएं या तकनीकें कितनी महंगी हैं और कितनी तनाव पैदा करने वाली हैं. वे जानते ही नहीं कि लाखों सालों में विकसित हुए मानव स्वभाव को 1 पीढ़ी में नहीं बदला जा सकता. मानव स्वभाव सदियों से बहुतों के सुझावों, ज्ञान, उदाहरणों पर टिका हुआ है. आज यह आप को केवल पढ़ने से मिल सकता है, काउंसलर या प्रवचन से नहीं मिल सकता.

आज भी लेखक आप को भ्रमित या गुदगुदाने के लिए नहीं लिखता. वह अपने और दूसरों के उदाहरणों का विश्लेषण करता है. व्हाट्सऐप मैसेजों में बंटता ज्ञान केवल अच्छे शब्द होते हैं. आमतौर पर वे दूसरों की सलाह लेते हैं, जो खुद को ठीक करने की दवा नहीं देते.

पारिवारिक विवाद, प्रेम विवाहों का तलाकों में बदलना, बारबार के ब्रेकअप, उद्दंड बच्चे, खफा बेटेबेटी उस अंधकार की देन हैं जिस में हम अपनेआप को धकेल रहे हैं. हर रोज, हर घंटे, हर उस समय जब आप फालतू की चैटिंग कर रहे हैं और मोबाइल या टीवी को अपना अकेला मार्गदर्शक मान रहे हैं.

हमें हरदम चमत्कार ही क्यों चाहिए

अभिनेता आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘बधाई हो’ की सफलता  ने आयुष्मान खुराना की पिछली फिल्मों ‘विकी डोनर’ व ‘बरेली की बर्फी’ की तरह लीक से हट कर मगर साधारण लोगों की जिंदगियों पर बेस होने के कारण सफल हुई है. विज्ञापन फिल्में बनाने वाले अमित शर्मा ने इस फिल्म में वास्तविकता दिखाई है और यही वजह है कि थोड़ा टेढ़ा विषय होने पर भी उस ने क्व100 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया और बड़ी उम्र की औरतों को मां बनने के लिए एक रास्ता खोल दिया.

परिवार नियोजन से पहले बच्चे जब चाहे, हो जाते थे. जब पहला बच्चा 14-15 साल की उम्र में हो रहा हो तो आखिरी 40-45 वर्ष की उम्र में होना बड़ी बात नहीं थी और उसी समय पहले बच्चे का बच्चा भी हो सकता था. अब जब बच्चों की शादियां 30 के आसपास होने लगी हैं और परिवार नियोजन के तरीके आसान हैं, तो देर से होने वाले बच्चे पर आंखभौं चढ़ती हैं.

मामला देर से हुए बच्चे का उतना नहीं. ‘बधाई हो’ आम मध्यम परिवारों के रहनसहन की कहानी बयां करती है जो जगह की कमी, बंधीबंधाई सामाजिक मान्यताओं, पड़ोसियों के दखल के बीच जीते हैं. अमित शर्मा ने दिल्ली के जंगपुरा इलाके में बचपन बिताया और उसी महौल को उन्होंने फिल्म में उकेरा. इसीलिए फिल्म में बनावटीपन कम है. दर्शकों को इस तरह की फिल्में अच्छी लगती हैं क्योंकि ऐसी फिल्में आसपास घूमती हैं और बिना भारीभरकम प्रचार के चल जाती हैं.

हमारे यहां धार्मिक कहानियों का बोलबाला रहा है और इसीलिए हर दूसरी फिल्म में काल्पनिक सैटों, सुपरहीरो के सुपर कारनामे, मेकअप से पुती हीरोइनें होती हैं. हम असल में रामलीलाओं के आदी हैं जिन में जंगल में भी सीताएं सोने का मुकुट लगाए घूमती हैं. उन्हें देखतेदेखते हमारी तार्किक शक्ति जवाब दे चुकी है और ‘बधाई हो’ जैसी फिल्म के टिपिकल मध्यम परिवार का दर्शन पचता नहीं है.

असल में हमारी दुर्दशा की वजह ही यह है कि हम आमतौर पर वास्तविक समस्याओं से भागते हैं. हमें हरदम चमत्कार चाहिए. राममंदिर और सरदार पटेल की मूर्तियों को ले कर अरबोंखरबों रुपए खर्च इसीलिए करते हैं कि उस से कुछ ऐसा होगा कि सर्वत्र सुख संपदा संपन्नता फैल जाएगी. यह खामखयाली बड़ी मेहनत से हमारे पंडे हमारे मन में भरते हैं, जो फिल्मों में दिखता है और जहां लोग महलों में रहते हैं, बड़ी गाडि़यों में घूमते हैं और हीरो चमत्कारिक काम करते हैं. ‘बधाई हो’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फिल्में सफल हुईं तो इसलिए कि इस में रोजमर्रा की समस्याओं से जूझते आम लोगों को दिखाया गया उन्हीं के असली वातावरण में.

जीवन बड़ा कठिन और कठोर है. इसे समझनेसमझाने की जरूरत है. यह मंत्रोंतंत्रों से नहीं होगा. इस के लिए ऐसी कहानी कहने वाले चाहिए जो आम लोगों के सुखदुख को समझ सकें, भजन करने वाले और रामरावण युद्ध कराने वाले नहीं.

दायरे तोड़ती स्त्री देह

सदियों से दुनिया ने औरत को सात परदों में छिपा कर और चारदीवारी में घेर कर रखा है. उस पर हर पल नजर रखी गई कि कहीं वह समाज के ठेकेदारों द्वारा स्त्री के लिए विशेषरूप से रची गई मर्यादाओं का उल्लंघन तो नहीं कर रही. उस की हर सीमा का निर्धारण पुरुष ने किया. उस के तन और मन को कब किस चीज की जरूरत है, उस को कब और कितना दिया जाना चाहिए, हर बात को पुरुष ने अपनी सुविधानुसार तय किया. मगर हर बात की एक सीमा होती है. आखिर यह दबावछिपाव भी कहीं तो जा कर रुकना था.

शिक्षा ने औरत को मजबूती दी. लोकतंत्र ने उसे जमीन दी खड़े होने की. सोचने विचारने और अपने अधिकारों को जानने का अवसर दिया. बीते कई दशकों में स्त्री ने कभी बागी हो कर, कभी घरेलू परिस्थितियों से तंग आ कर, कभी घर की लचर परिस्थितियों में आर्थिक संबल बनने के लिए चारदीवारी से बाहर कदम निकाला. बीती 2 सदियों में आर्थिक मजबूती के साथ स्त्री वैचारिक स्तर पर भी काफी मजबूत हुई है. उस को मात्र जिस्म नहीं, बल्कि एक इंसान के रूप में पहचान मिली है.

बेड़ियों से आजाद नारी देह

आज की औरत अपनी इच्छाओं का इजहार करने से झिझकती नहीं है. वह कुछ ऊंचनीच होने पर नतीजा भुगतने को भी तैयार है. अपनी पर्सनैलिटी और समझ से वह उन दरवाजों को भी अपने लिए खोल रही है, जो अभी तक औरतों के लिए बंद थे. सब से बड़ी क्रांति तो देह के स्तर पर आई है. स्त्री देह जिस पर मर्द सदियों से अपना हक मानता आता है, उस देह को उस ने उस की नजरों की बेडि़यों से स्वतंत्र कर लिया है.

धार्मिक व सामाजिक मर्यादाएं जो उस के जिस्म को जकड़े हुए थीं, उन को काट कर उस ने दूर फेंक दिया है. अब वह अपनी शारीरिक जरूरत के लिए खुल कर बात करती है. पहले जहां एक औरत अपनी इच्छाओं का इजहार करने में संकोच करती थी, वहीं अब बैडरूम में बिस्तर पर लाश की मानिंद पड़े रहने के बजाए वह अपनी इच्छाओं के उछाल से मर्द को हक्काबक्का कर देती है.

उस का बैडरूम हर रोज नई उत्तेजना से भरा होता है. शादी से पहले सहमित से सैक्स संबंध बनाने में भी उसे कोई झिझक नहीं है.

इस नई उन्मुक्त स्त्री की हलचल कई दशक पहले से सुनाई देनी शुरू हो गई थी. विवाह की असमान स्थितियों में कैद, नैतिक दुविधाओं से ग्रस्त और अपराधबोध के तनाव से उबर कर अब एक नई स्त्री का पदार्पण हो चुका है, जो अपना भविष्य खुद लिखती, खुद बांचती है, जो अपने मनपसंद कपड़े पहन कर देर रात पार्टियां अटैंड करती है. बड़ेबड़े सपने देखती है और उन्हें पूरा करने का माद्दा रखती है.

मेरी जिंदगी मेरी शर्तें

एक सर्वे के मुताबिक वर्ष 2003 में जहां पोर्न देखने की आदत को सिर्फ 9 फीसदी महिलाओं ने कबूल किया था, वहीं यह संख्या अब 40 फीसदी पर पहुंच गई है. अब औरत अपनी चाहत का, प्यार का गला नहीं दबाती, बल्कि बेझिझक अपने प्रेमी से शारीरिक संबंध स्थापित करती है, फिर चाहे वह शादी के पहले ही क्यों न हो. अब यह उस की इच्छा पर है कि वह किस पुरुष से शादी करना चाहती है. उस की इच्छा पर है कि वह कब मां बनना चाहती है. अगर वह शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहती तो उस के बिना भी वह अपनी शारीरिक जरूरत पूरी करने और मां बनने के लिए स्वतंत्र है.

आज की नारी अपने साथ हुए अन्याय पर भी बोलने लगी है. छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न, हिंसा, बलात्कार पर वह खुद को गुनाहगार नहीं समझती, बल्कि जिस ने उस के साथ ये गुनाह किए हैं उस को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने की हिम्मत रखती है. ‘मीटू’ कैंपेन इस का ताजा उदाहरण है. इंटरनैट सेवाओं ने औरत को काफी सपोेर्ट दिया है और सोशल मीडिया ने उसे अपनी भावनाएं व्यक्त करने का प्लेटफौर्म दिया है.

स्त्री और पुरुष दोनों ही कमोबेश एकदूसरे के प्रति एक ही तरह की वासना से प्रेरित होते हैं. अपनी शारीरिक खूबसूरती का एहसास आज की स्त्री को बखूबी है और वह उसे और ज्यादा सजानेतराशने की कोशिश प्रतिपल करती रहती है. अपनी इस खूबी का प्रयोग उसे कब, कहां और कितना करना है, यह भी वह बखूबी जानती है.

वर्कप्लेस पर बौस को खुश कर के नौकरी में तरक्की पाने के लिए उस का शरीर उस का खास हथियार बन गया है. मीडिया इंडस्ट्री, फिल्म इंडस्ट्री, टीवी या मौडलिंग के क्षेत्र में स्त्री का जिस्म उस के टेलैंट से ज्यादा माने रखता है और उस की सफलता के रास्ते तैयार करता है. तरक्की के लिए सैक्स को आधार बनाने में अब उसे कोई आपत्ति नहीं है. इस यौन आजादी ने स्त्री को पुरुष के समकक्ष और कहींकहीं उस से भी आगे खड़ा कर दिया है.

यह सच अब समाज को स्वीकार कर लेना चाहिए कि सैक्स की जरूरत और अहमियत जितनी पुरुष के लिए है, उतनी ही स्त्री के लिए भी है. अगर पुरुष अपनी पत्नी के अलावा दूसरी स्त्रियों से संबंध रख सकता है, उन से भावनात्मक और यौन संबंध बना सकता है, विवाहेत्तर संबंध रख सकता है और उन के साथ खुशी महसूस कर सकता है, तो फिर एक स्त्री ऐसा क्यों नहीं कर सकती? स्त्री क्यों जीवनपर्यंत एक ही पुरुष से जबरन बंधी रहे? क्यों वह अपनी अनिच्छा के बावजूद उस की शारीरिक जरूरतें पूरी करती रहे? अगर उस का पति उस की भावनात्मक और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने में अक्षम है तो दूसरे पुरुष से वह नाता क्यों नहीं जोड़ सकती?

यह चिंता करने की बात है कि तनुश्री दत्ता के बाद जो भी मामले ‘मीटू’ के सामने आए हैं किसी में भी सताने वाले पुरुष ने यह नहीं कहा कि औरत ने अपने को समर्पित किया था. वे यही कहते हैं कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं.

सुरक्षित आर्थिक भविष्य

आर्थिक आजादी ने स्त्री को पुरुष की गुलामी से मुक्त किया है. उस में चुस्ती और खूबसूरती को बढ़ाया है. आज उन के खूबसूरत शरीर और हसीन चेहरे वर्कप्लेस को भी ताजगी दे रहे हैं. पुरुष सहयोगियों के मुकाबले स्त्रियां अपने वर्कप्लेस पर ज्यादा खुश नजर आती हैं. आज सचाई यह है कि स्त्रियों के लिए सुरक्षित आर्थिक भविष्य के साथ संतोषजनक रिश्ते का बेहतर माहौल जैसा आज है, वह पहले कभी नहीं था.

स्त्री की आजादी को उच्चतम न्यायालय ने भी खूब सपोर्ट किया है. चाहे लिवइन रिलेशनशिप की बात हो या विवाहेत्तर संबंधों की, अदालत ने स्त्री के पक्ष में ही अपने तमाम फैसले सुनाए हैं. इस से औरतों में जोश और उत्साह का माहौल है. बंदिशों को तोड़ कर ताजी हवा में सांस ले रही औरत अपनी सुरक्षा के प्रति आज खूब जाग्रत है. ‘मीटू’ कैंपेन इस का ताजा उदाहरण है.

10-20 साल पहले जो औरतें अपने साथ हुई अश्लीलता पर अनेक सामाजिक बंधनों में बंधी होने और आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम न होने की मजबूरी के चलते चुप्पी साध कर बैठी थीं, आज सोशल मीडिया पर अपना दर्द चीखचीख कर बता रही हैं, बकायदा एफआईआर भी दर्ज करा रही हैं और आरोपियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने को तैयार हैं.

पुरुषों ने समझ रखा है कि औरतों के साथ चाहे जो कर लो, वे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए मुंह नहीं खोलेंगी. कुछ को सैक्स के बदले पद या पैसा दे कर उन्हें लगने लगा था कि हर स्त्री देह बिकाऊ है. हर औरत गाय है जब मरजी दूह ले और फिर लात मार कर चला जाए.

ये ‘मीटू’ कैंपेन का नतीजा है कि देश के विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर को न सिर्फ अपना पद गंवाना पड़ा, बल्कि दुनिया भर में उन के नाम की छीछालेदर हुई. उन की ओछी आपराधिक हरकतों से राजनीतिक जगत और मीडिया जगत दोनों शर्मसार हैं.

जागरूक है आधी आबादी

आज औरत अगर अपनी आजादी के प्रति जागरूक है तो अपने प्रति होने वाले अपराध के प्रति भी. इस से पुरुषों में भय पैदा हुआ है. वर्कप्लेस पर, घर में, पार्टी में, सार्वजनिक स्थलों पर पहले जहां औरतों के साथ छेड़छाड़ और अश्लील हरकतें करना पुरुष अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते थे और उन के खिलाफ कोई काररवाई नहीं होती थी, अब वह समय खत्म हो गया है. अब वह अपने गलत कृत्य पर ऐक्सपोज कर दिया जाएगा, उस के खिलाफ बकायदा मुकदमा दर्ज होगा, उसे सजा होगी और वह सब इसलिए होगा क्योंकि औरत जागरूक हो चुकी है.

‘मीटू’ कैंपेन का असर दूरगामी होगा. मगर इस के कुछ साइडइफैक्ट भी होंगे. जैसे औरतों को कार्यालयों में काम मिलना कुछ हद तक प्रभावित हो सकता है. उन के सहकर्मी उन से हंसीमजाक करते वक्त थोड़ा रिजर्व रहेंगे. मगर इस से डर कर या घबरा कर कदम पीछे खींचने की हरगिज जरूरत नहीं है. यह इफैक्ट कुछ समय का ही होगा.

जब शारीरिक संबंधों में औरत की रजामंदी को शामिल किया जाने लगेगा, तब यह अपराध के दायरे से निकल कर आंनद की पराकाष्ठा छू लेगा. जिस दिन औरत की ‘हां’ का मतलब ‘हां’ और ‘न’ का मतलब ‘न’ होना पुरुष की समझ में आ जाएगा, उस दिन पुरुषस्त्री संबंध इस धरती पर नई परिभाषा रचेंगे और खूबसूरत रूप में सामने आएंगे.

देह की स्वतंत्रता का मतलब है कि जो सहमति से प्यार चाहे उसे ही उपलब्ध है. स्त्री खिलौना नहीं है कि खेलो और छोड़ कर चल दो.

घरेलू हिंसा : सहें नहीं आवाज उठाएं

क्या आज की महिला प्रताड़ना यानी डांटफटकार सह सकती है जबकि न अब वह परदे में है और न ही घर की चारदीवारी तक सीमित है? वह हर क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही है. तब फिर क्या कारण है उसे पगपग पर पुरुष वर्ग से मांगना पड़ता है? कभी आरक्षण, कभी अपने लिए अलग से कानून. 1983 में घरेलू हिंसा को सरकार ने इंडियन पीनल कोड के तहत प्रस्तुत किया और फिर कई सालों बाद भारतीय दंड विधान की धारा 498-ए बनी और इसे लागू किया गया.

सरकार द्वारा स्त्री सुरक्षा बिल पास करने का अर्थ है कि स्त्री प्रताडि़त है. घरेलू और अनपढ़ ही नहीं पढ़ीलिखी और कामकाजी भी. निम्नवर्ग और मध्यवर्ग में ही नहीं, उच्चवर्ग में भी स्त्री प्रताडि़त है. एक सर्वे से पता चलता है कि 50% स्त्रियां घरेलू हिंसा से पीडि़त हैं. पति ही नहीं पति के परिवार के अन्य लोगों से भी वे पीडि़त होती हैं. कई बार उन्हें अपने मांबाप और परिवार के अन्य लोगों से मिलने नहीं दिया जाता है. अपराध है पत्नी से मारपीट

पति द्वारा पत्नी पर अत्याचार करने के रोज सैकड़ों केस दर्ज किए जाते हैं. उन में कुछ ऐसे होते हैं कि जान कर हैरानी होती है कि क्या ये हकीकत में पतिपत्नी हैं. अभी तक यह मारपीट अपराध नहीं मानी जाती थी. यही समझा जाता था कि यह पतिपत्नी का आपसी मामला है, लेकिन नए कानून के पास होने के साथ ही यह एक अपराध बन गया है, जिस में पति को 14 साल की जेल तक हो सकती है.

यद्यपि कार्यवाही कठिन है, परंतु नया कानून बहुत सरल है. नए कानून के अनुसार पहले पुलिस तसवीर में आएगी तब पीडि़ता को एनजीओ के सामने जाना होगा. भारत में पुलिस का क्या रोल है, सभी जानते हैं. केस और उलझ जाएगा. यह विधेयक महिलाओं को पति की हिंसा के विरोध में दीवानी मुकदमे चलाने का विकल्प देने की उम्मीद दिलाता है. यह विधेयक महिला को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर के अपनी शिकायत किसी अंतिम चरण पर पहुचाए बिना ही सीधे अदालत में जाने की सुविधा देता है.

पत्नी के काम को मान्यता नहीं पत्नी घर में कितना काम करती है इस से पति को कोई मतलब नहीं होता. वह उसे सजावटी सामान समझता है. नौकर रखे या न रखे पर यही समझता है कि घर में कोई काम नहीं है. सारा दिन या तो अड़ोसपड़ोस में गप्पें मारी होंगी या फिर पलंग तोड़ा होगा. ‘कौन सी चक्की चलानी पड़ रही है’ यह कहना एक तकिया कलाम है. 2 रोटियां ही तो पकानी थीं. ऐसा क्या काम किया, जिस के लिए तुम्हें जरा से काम के लिए समय नहीं मिला?

निम्नवर्ग में डांटफटकार का मुख्य कारण शराबखोरी है. सुबह से ही सारा ध्यान शराब के लिए पैसे छीनने पर रहता है. इस में चाहे पति हो या बेटा कोई भी हो सकता है. यहां तक कि पिता शराब के लिए बेटी को भी प्रताडि़त करता है. मध्यवर्ग में अहंकार सब से आगे आता है. स्त्री कमाती है तब भी उस के लिए निंदा, लानतमलामत है और न कमाए तो वह निखट्टू है ही. महिलाओं के काम को कहीं भी सराहना नहीं मिलती है न घर में न बाहर. घर की महिलाएं भी बेटे के लिए कहेंगी कि थकाहारा आया है. बहू उस के बाद काम कर के आई होगी तब भी यही कहा जाएगा मटरगश्ती कर के आ रही है. घरपरिवार, औफिस कहीं भी किसी को महिला का ऊंची आवाज में बोलना नहीं सुहाता. सब यही चाहते हैं कि वह दब कर बात करे.

यह बात बचपन से ही लड़कों के मन में भर दी जाती है कि वे लड़कियों से श्रेष्ठ हैं. लड़कियां पराई हैं, लड़का घर का होने वाला मुखिया है, घर का वंशज है, चिराग है. यहीं से लड़का अपने को श्रेष्ठ समझने लगता है. लड़की को बातबात पर डरा कर रखा जाता है. स्त्री को शुरू से ही एक नौकरानी का सा स्वरूप दिया जाता है. एक सेविका के रूप में उसे प्रवेश दिया जाता है. मां भी यही शिक्षा देती है कि तुझे सब को खुश रखना है. इसी में तेरी खुशी है उस की अपनी कोई इच्छा नहीं है. और यहीं से औरत का दमन शुरू हो जाता है.

सीखें खुद को मान देना घरेलू हिंसा से बचने के लिए सब से पहले खुद को को जगाना होगा. खुद को दीनहीन न बना कर मान देना सीखें. सब से पहले घर की बेटी को मान दें. दूसरों की बेटियों यानी बहुओं को मान दें.

प्रताड़ना जब असहनीय हो जाती है तभी स्त्री घर की बात बाहर लाती है. घर की मर्यादा रखने की जिम्मेदारी केवल स्त्री की नहीं है. यदि स्त्री घर की लाज मानी जाती है तो पुरुष को उस लाज को रखना चाहिए. यदि उस का उल्लंघन होता है तो कानून रखवाला बनता है. इस के लिए किसी भी पास के पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराएं, अपने और बच्चों के लिए सुरक्षा मांगें.

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