चित और पट

आधी रात को नीरा की आंख खुली तो विपिन को खिड़की से झांकते पाया.

‘‘अब क्या हुआ? मैं ने कहा था न कि वक्तबेवक्त की कौल्स अटैंड न किया करें. अब जिस ने कौल की वह तो तुम्हें अपनी प्रौब्लम ट्रांसफर कर आराम से सो गया होगा… अब तुम जागो,’’ नीरा गुस्से से बोलीं.

‘‘तुम सो जाओ प्रिय… मैं जरा लौन में टहल कर आता हूं.’’

‘‘अब इतनी रात में लौन में टहल कर क्या नींद आएगी? इधर आओ, मैं हैडमसाज कर देती हूं. तुरंत नींद आ जाएगी.’’

थोड़ी देर बाद विपिन तो सो गए, पर नीरा की नींद उड़ चुकी थी. विपिन की इन्हीं आदतों से वे दुखी रहती थीं. कितनी कोशिश करती थीं कि घर में तनाव की स्थिति पैदा न हो. घरेलू कार्यों के अलावा बैंकिंग, शौपिंग, रिश्तेदारी आदि सभी मोरचों पर अकेले जूझती रहतीं. गृहस्थी के शुरुआती दौर में प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर घर में आर्थिक योगदान भी किया. विपिन का हर  2-3 साल में ट्रांसफर होने के कारण उन्हें हमेशा अपनी जौब छोड़नी पड़ी. उन्होंने अपनी तरक्की की न सोच कर घर के हितों को सर्वोपरि रखा. आज जब बच्चे भी अपनीअपनी जौब में व्यस्त हो गए हैं, तो विपिन घर के प्रति और भी बेफिक्र हो गए हैं. अब ज्यादा से ज्यादा वक्त समाजसेवा को देने लगे हैं… और अनजाने में ही नीरा की अनदेखी करने लगे हैं.  हर वक्त दिमाग में दूसरों की परेशानियों का टोकरा उठाए घूमते रहते. रमेशजी की बेटी  का विवाह बिना दहेज के कैसे संपन्न होगा, दिनेश के निकम्मे बेटे की नौकरी कब लगेगी, उस के पिता दिनरात घरबाहर अकेले खटते रहते हैं, शराबी पड़ोसी जो दिनरात अपनी बीवी से पी कर झगड़ा करता है उसे कैसे नशामुक्ति केंद्र ले जाया जाए आदिआदि.

नीरा समझासमझा कर थक जातीं कि क्या तुम समाजसुधारक हो? अरे, जो मदद मांगे उसी की किया करो… सब के पीछे क्यों भागते हो? मगर विपिन पर कोई असर न पड़ता.

‘‘नीरा, आज का क्या प्रोग्राम है?’’ यह वर्तिका थी. नए शहर की नई मित्र. ‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘तो फिर सुन हम दोनों फिल्म देखने चलेंगी आज,’’ कह वर्तिका ने फोन काट दिया.

वर्तिका कितनी जिंदादिल है. उसी की हमउम्र पर कुंआरी, ऊंचे ओहदे पर. मगर जमीन से जुड़ी, सादगीपसंद. एक दिन कालोनी के पार्क में मौर्निंग वाक करते समय फोन नंबरों का आदानप्रदान भी हो गया.

फिल्म देखने के बाद भी नीरा चुपचाप  सी थीं.

‘‘भाई साहब से झगड़ा हो गया है क्या?’’ वर्तिका ने छेड़ा.

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है… तू नहीं समझ पाएगी,’’ नीरा ने टालना चाहा.

‘‘क्योंकि मेरी शादी नहीं हुई है, इसलिए कह रही हो… अरे, मर्दों से तो मेरा रोज ही पाला पड़ता है. इन की फितरत को मैं खूब समझती हूं.’’

‘‘अरे, तुम तो सीरियस हो गई मेरी प्रगतिशील मैडम… ऐसा कुछ भी नहीं है. दरअसल, मैं विपिन की तनाव उधार लेने की आदत से परेशान हूं… उन्हें कभी किसी के लिए अस्पताल जाना होता है, कभी किसी की औफिस वर्क में मदद करनी होती है,’’ नीरा उसे विस्तार से बताती चली गईं.

‘‘अच्छा एक बात बताओ कि क्या विवाह के शुरुआती दिनों से ही विपिन ऐसे हैं या फिर अब ऐसे हुए?’’ कौफी शौप में बैठते हुए वर्तिका ने पूछा.

‘‘शादी के 10-15 साल तो घरेलू जिम्मेदारियां ही इतनी अधिक थीं. बच्चे छोटे थे, किंतु जैसेजैसे बच्चे अपने पैरों पर खड़े होते गए, विपिन की जिम्मेदारियां कम होती गईं. अब तो विवाह के 26 वर्ष बीत चुके हैं. बच्चे भी अलग शहरों में हैं. अब तो इन्हें घर से बाहर रहने के  10 बहाने आते हैं,’’ नीरा उकता कर बोलीं.

‘‘तुम्हारे आपसी संबंधों पर इस का असर तो नहीं पड़ रहा है?’’ वर्तिका ने पूछा.

‘‘मैं ने पहले इस विषय पर नहीं सोचा था. मगर अब लगता है कि हमारे संबंधों के बीच भी परदा सा खिंच गया है.’’

‘‘तो मैडम, अपने बीच का परदा उठा कर खिड़कियों में सजाओ… अपने संबंध सामान्य करो… उन्हें इतनी फुरसत ही क्यों देती हो कि वे इधरउधर उलझे रहें,’’ वर्तिका दार्शनिकों की तरह बोली.

‘‘तुम ठीक कहती हो. अब यह कर के भी देखती हूं,’’ और फिर नीरा शरारत से मुसकराईं तो वर्तिका भी हंस पड़ी.

आज विपिन को घर कुछ ज्यादा ही साफ व सजा नजर आया. बैडरूम में भी ताजे गुलाबों का गुलदस्ता सजा मिला. ‘आज नीरा का जन्मदिन तो नहीं या फिर किसी बेटे का?’ विपिन ने सोचा पर कोई कारण न मिला तो रसोई की तरफ बढ़ गए. वहां उन्हें नीरा सजीधजी उन की मनपसंद डिशेज तैयार करती मिलीं.

‘‘क्या बात है प्रिय, बड़े अच्छे मूड में दिख रही हो आज?’’ विपिन नीरा के पीछे खड़े हो बोले.

‘‘अजी, ये सब आप की और अपनी खुशी के लिए कर रही हूं… कहा जाता है कि बड़ीबड़ी खुशियों की तलाश में छोटीछोटी खुशियों को नहीं भूल जाना चाहिए.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है… आई एम इंप्रैस्ड.’’  रात नीरा ने गुलाबी रंग का साटन का गाउन निकाला और स्नानघर में घुस गईं.  ‘‘तुम नहा रही हो… देखो मुझे रोहित ने बुलाया है. मैं एकाध घंटे में लौट आऊंगा,’’ विपिन ने जोर से स्नानघर का दरवाजा खटका कर कहा.

नीरा ने एक झटके में दरवाजा खोल दिया. वे विपिन को अपनी अदा दिखा कर रोकने के मूड में थीं. मगर विपिन अपनी धुन में बाय कर चलते बने.  2 घंटे इंतजार के बाद नीरा का सब्र का बांध टूट गया. वे अपनी बेकद्री पर फूटफूट कर रो पड़ीं. आज उन्हें महसूस हुआ जैसे उन की अहमियत अब विपिन की जिंदगी में कुछ भी नहीं रह गई है.

दूसरे दिन नीरा का उखड़ा मूड देख कर जब विपिन को अपनी गलती का एहसास हुआ, तो उन्होंने रात में नीरा को अपनी बांहों में भर कर सारी कसक दूर करने की ठान ली. मगर आक्रोषित नीरा उन की बांहें झटक कर बोलीं, ‘‘हर वक्त तुम्हारी मरजी नहीं चलेगी.’’

विपिन सोचते ही रह गए कि खुद ही आमंत्रण देती हो और फिर खुद ही झटक देती हो, औरतों का यह तिरियाचरित्तर कोई नहीं समझ सकता.

उधर पीठ पलट कर लेटी नीरा की आंखें डबडबाई हुई थीं. वे सोच रही थीं कि क्या वे सिर्फ हांड़मांस की पुतला भर हैं… उन के अंदर दिल नहीं है क्या? जब दिल ही घायल हो, तो तन से क्या सुख मिलेगा?

2 महीने के बाद वर्तिका और नीरा फिर उसी कौफी शौप में बैठी थीं. ‘‘नीरा, तुम्हारी हालत देख कर तो यह नहीं लग रहा है कि तुम्हारी जिंदगी में कोई बदलाव आया है. तुम ने शायद मेरे सुझाव पर अमल नहीं किया.’’

‘‘सब किया, लेकिन लगता है विपिन नहीं सुधरने वाले. वे अपने पुराने ढर्रे पर  लौट गए हैं. कभी अस्पताल, कभी औफिस का बहाना, लेटलतीफी, फोन पर लगे रहना, समाजसेवा के नाम पर देर रात लौटना… मुझे तो अपनी जिंदगी में अब तनाव ही तनाव दिखने लगा है. बच्चे बड़े हो गए हैं. उन की अपनी व्यस्तताएं हैं और पति की अपनी, सिर्फ एक मैं ही बिलकुल बेकार हो गई हूं, जिस की किसी को भी जरूरत नहीं रह गई है,’’ नीरा के मन का गुबार फूट पड़ा.

‘‘मुझे देख, मेरे पास न तो पति हैं और न ही बच्चे?’’ वर्तिका बोल पड़ी.

‘‘पर तेरे जीवन का लक्ष्य तो है… औफिस में तो तेरे मातहत पुरुष भी हैं, जो तेरे इशारों पर काम करते हैं. मुझे तो घर पर काम वालियों की भी चिरौरी करनी पड़ती है,’’ नीरा रोंआसी हो उठी.

‘‘अच्छा दुखी न हो. सुन एक उपाय बताती हूं. उसे करने पर विपिन तेरे पीछेपीछे भागने लगेंगे.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब एकदम साफ है. तू ने अपने घर को इतना व्यवस्थित और सुविधायुक्त कर रखा है कि विपिन घर और तेरे प्रति अपनी जिम्मेदारियों से निश्चिंत हैं और अपना वक्त दूसरों के संग बांटते हैं… तेरे लिए सोचते हैं कि घर की मुरगी है जब चाहे हलाल कर लो.’’

‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आया,’’ नीरा उलझन में पड़ कर बोलीं.

‘‘तो बस इतना समझ ले विपिन को तनाव लेना पसंद है, तो तू ही उन्हें तनाव देना शुरू कर दे… तब वे तेरे पीछे भागने लगेंगे.’’

‘‘सच में?’’

‘‘एकदम सच.’’

‘‘तो फिर यही सही,’’ कह नीरा ने एक बार फिर से अपनी गृहस्थी की गाड़ी को पटरी पर लाने को कमर कस ली.

‘‘सुनो, यह 105 नंबर वाले दिनेशजी हैं न उन की पत्नी तो विवाह के 5 वर्ष बाद ही गुजर गई थीं, फिर भी उन्होंने अपनी पत्नी के गम में दूसरी शादी नहीं की. अपनी इकलौती औलाद को सीने से लगाए दिन काट लिए. अब देखो न बेटा भी हायर ऐजुकेशन के लिए विदेश चला गया.’’

‘‘उफ, तुम्हें कब से कालोनीवासियों की खबरें मिलने लगीं… तुम तो अपनी ही गृहस्थी में मग्न रहती हो,’’ विपिन को नीरा के मुख से यह बात सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ.

‘‘अरे, कल घर आए थे न उत्सव पार्टी का निमंत्रण देने. मैं ने भी चाय औफर कर दी. देर तक बैठे रहे… अपनी बीवी और बेटे को बहुत मिस कर रहे थे.’’

‘‘ज्यादा मुंह न लगाना. ये विधुर बड़े काइयां होते हैं. एक आंख से अपनी बीवी का रोना रोते हैं और दूसरी से दूसरे की बीवी को ताड़ते हैं.’’

‘‘तुम पुरुष होते ही ऐसे हो… दूसरे मर्द की तारीफ सुन ही नहीं सकते. कितने सरल हृदय के हैं वे. बेचारे तुम्हारी ही उम्र के होंगे, पर देखो अपने को कितना मैंटेन कर रखा है. एकदम युवा लगते हैं.’’

‘‘तुम कुछ ज्यादा ही फिदा तो नहीं हो रही हो उन पर… अच्छा छोड़ो, मेरा टिफिन दो फटाफट. मैं लेट हो रहा हूं. और हां हो सकता है आज मैं घर देर से आऊं.’’

‘‘तो इस में नई बात क्या है?’’ नीरा ने चिढ़ कर कहा, तो विपिन सोच में पड़ गए.

शाम को जल्दी पर घर पहुंच कर उन्होंने नीरा को चौंका दिया, ‘‘अरे, मैडम इतना सजधज कर कहां जाने की तैयारी हो रही है?’’

‘‘यों ही जरा पार्क का एक चक्कर लगाने की सोच रही थी. वहां सभी से मुलाकात भी हो जाती है और कालोनी के हालचाल भी मिल जाते हैं.’’ विपिन हाथमुंह धोने गए तो नीरा ने उन का मोबाइल चैक किया कि आज जल्दी आने का कोई सुराग मिल जाए. पर ऐसा कुछ नहीं मिला.

‘‘आज क्या खिलाने वाली हो नीरा? बहुत दिन हुए तुम ने दालकचौरी नहीं बनाई.’’

‘‘शुक्र है, तुम्हें कुछ घर की भी याद है,’’ नीरा के चेहरे पर उदासी थी.

‘‘यहां आओ नीरा, मेरे पास बैठो. तुम ने पूछा ही नहीं कि आज मैं जल्दी घर कैसे आ

गया जबकि मैं ने बोला था कि मैं देरी से आऊंगा याद है?’’

‘‘हां, मुझे सब याद है. पर पूछा नहीं तुम से.’’

‘‘मैं अपने सहकर्मी रोहित के साथ हर दिन कहीं न कहीं व्यस्त हो जाता था… आज सुबह उस ने बताया कि उस की पत्नी अवसाद में आ गई थी जिस पर उस ने ध्यान ही नहीं दिया था. कल रात वह अचानक चक्कर खा कर गिर पड़ी, तो अस्पताल ले कर भागा. वहीं पता चला कि स्त्रियों में मेनोपौज के बाद ऐसा दौर आता है जब उन की उचित देखभाल न हो तो वे डिप्रैशन में भी चली जाती हैं. डाक्टर का कहना है कि कुछ महिलाओं में अति भावुकता व अपने परिवार में पकड़ बनाए रखने की आदत होती है और उम्र के इस पड़ाव में जब पति और बच्चे इग्नोर करने लगते हैं तो वे बहुत हर्ट हो जाती हैं. अत: ऐसे समय में उन के पौष्टिक भोजन व स्वास्थ्य का खयाल रखना चाहिए वरना वे डिप्रैशन में जा सकती हैं.’’

‘‘मुझे क्यों बता रहे हो?’’ नीरा पलट  कर बोलीं.

‘‘सीधी सी बात है मैं तुम्हें समय देना चाहता हूं ताकि तुम खुद को उपेक्षित महसूस न करो. तुम भी तो उम्र के इसी दौर से गुजर रही हो. अब शाम का वक्त तुम्हारे नाम… हम साथ मिल कर सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया करेंगे.’’

‘‘स्वार्थी कहीं के. आप ने सोचा कहीं मेरी बीवी भी मैंटल केस न बन जाए. इसी डर से परेशान हो कर ऐसा कह रहे हो न? मैं सब समझ गई.’’

‘‘अरे, यह क्या बात हुई? चित भी मेरी और पट भी… अपने मन के काम करूं तो भी मैं ही बुरा हूं और तुम्हारे मन का करूं तो भी मेरा ही स्वार्थ दिखता है तुम्हें.’’

विपिन का उतरा चेहरा देख नीरा मुसकरा उठीं.

एक गलत सोच: बहू सुमि के आने से क्यों परेशान थी सरला

किचन में खड़ा हो कर खाना बनातेबनाते सरला की कमर दुखने लगी पर वे क्या करें, इतने मेहमान जो आ रहे हैं. बहू की पहली दीवाली है. कल तक उसे उपहार ले कर मायके जाना था पर अचानक बहू की मां का फोन आ गया कि अमेरिका से उन का छोटा भाई और भाभी आए हुए हैं. वे शादी पर नहीं आ सके थे इसलिए वे आप सब से मिलना चाहते हैं. उन्हीं के साथ बहू के तीनों भाई व भाभियां भी अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं.

कुकर की सीटी बजते ही सरला ने गैस बंद कर दी और ड्राइंगरूम में आ गईं. बहू आराम से बैठ कर गिफ्ट पैक कर रही थी.

‘‘अरे, मम्मी देखो न, मैं अपने भाईभाभियों के लिए गिफ्ट लाई हूं. बस, पैक कर रही हूं…आप को दिखाना चाहती थी पर जल्दी है, वे लोग आने वाले हैं इसलिए पैक कर दिए,’’ बहू ने कुछ पैक किए गिफ्ट की तरफ इशारा करते हुए कहा. तभी सरलाजी का बेटा घर में दाखिल हुआ और अपनी पत्नी से बोला, ‘‘सिमी, एक कप चाय बना लाओ. आज आफिस में काफी थक गया हूं.’’

‘‘अरे, आप देख नहीं रहे हैं कि मैं गिफ्ट पैक कर रही हूं. मां, आप ही बना दीजिए न चाय. मुझे अभी तैयार भी होना है. मेरी छोटी भाभी बहुत फैशनेबल हैं. मुझे उन की टक्कर का तैयार होना है,’’ इतना कह कर सिमी अपने गिफ्ट पैक करने में लग गई.

शाम को सरलाजी के ड्राइंगरूम में करीब 10-12 लोग बैठे हुए थे. उन में बहू के तीनों भाई, उन की बीवियां, बहू के मम्मीपापा, भाई के बच्चे और उन सब के बीच मेहमानों की तरह उन की बहू सिमी बैठी थी. सरला ने इशारे से बहू को बुलाया और रसोईघर में ले जा कर कहा, ‘‘सिमी, सब के लिए चाय बना दे तब तक मैं पकौड़े तल लेती हूं.’’

‘‘क्या मम्मी, मायके से परिवार के सारे लोग आए हैं और आप कह रही हैं कि मैं उन के साथ न बैठ कर यहां रसोई में काम करूं? मैं तो कब से कह रही हूं कि आप एक नौकर रख लो पर आप हैं कि बस…अब मुझ से कुछ मत करने को कहिए. मेरे घर वाले मुझ से मिलने आए हैं, अगर मैं यहां किचन में लगी रहूंगी तो उन के आने का क्या फायदा,’’ इतना कह कर सिमी किचन से बाहर निकल गई और सरला किचन में अकेली रह गईं. उन्होंने शांत रह कर काम करना ही उचित समझा.

सरलाजी ने जैसेतैसे चाय और पकौड़े बना कर बाहर रख दिए और वापस रसोई में खाना गरम करने चली गईं. बाहर से ठहाकों की आवाजें जबजब उन के कानों में पड़तीं उन का मन जल जाता. सरला के पति एकदो बार किचन में आए सिर्फ यह कहने के लिए कि कुछ रोटियों पर घी मत लगाना, सिमी की भाभी नहीं खाती और खिलाने में जल्दी करो, बच्चों को भूख लगी है.

सरलाजी का खून तब और जल गया जब जातेजाते सिमी की मम्मी ने उन से यह कहा, ‘‘क्या बहनजी, आप तो हमारे साथ जरा भी नहीं बैठीं. कोई नाराजगी है क्या?’’

सब के जाने के बाद सिमी तो तुरंत सोने चली गई और वे रसोई संभालने में लग गईं.

अगले दिन सरलाजी का मन हुआ कि वे पति और बेटे से बीती शाम की स्थिति पर चर्चा करें पर दोनों ही जल्दी आफिस चले गए. 2 दिन बाद फिर सिमी की एक भाभी घर आ गई और उस को अपने साथ शौपिंग पर ले गई. शादी के बाद से यह सिलसिला अनवरत चल रहा था. कभी किसी का जन्मदिन, कभी किसी की शादी की सालगिरह, कभी कुछ तो कभी कुछ…सिमी के घर वालों का काफी आनाजाना था, जिस से वे तंग आ चुकी थीं.

एक दिन मौका पा कर उन्होंने अपने पति से इस बारे में बात की, ‘‘सुनो जी, सिमी न तो अपने घर की जिम्मेदारी संभालती है और न ही समीर का खयाल रखती है. मैं चाहती हूं कि उस का अपने मायके आनाजाना कुछ कम हो. शादी को साल होने जा रहा है और बहू आज भी महीने में 7 दिन अपने मायके में रहती है और बाकी के दिन उस के घर का कोई न कोई यहां आ जाता है. सारासारा दिन फोन पर कभी अपनी मम्मी से, कभी भाभी तो कभी किसी सहेली से बात करती रहती है.’’

‘‘देखो सरला, तुम को ही शौक था कि तुम्हारी बहू भरेपूरे परिवार की हो, दिखने में ऐश्वर्या राय हो. तुम ने खुद ही तो सिमी को पसंद किया था. कितनी लड़कियां नापसंद करने के बाद अब तुम घर के मामले में हम मर्दों को न ही डालो तो अच्छा है.’’

सरलाजी सोचने लगीं कि इन की बात भी सही है, मैं ने कम से कम 25 लड़कियों को देखने के बाद अपने बेटे के लिए सिमी को चुना था. तभी पति की बातों से सरला की तंद्रा टूटी. वे कह रहे थे, ‘‘सरला, तुम कितने दिनों से कहीं बाहर नहीं गई. ऐसा करो, तुम अपनी बहन के घर हो आओ. तुम्हारा मन अच्छा हो जाएगा.’’

अपनी बहन से मिल कर अपना दिल हलका करने की सोच से ही सरला खुश हो गईं. अगले दिन ही वे तैयार हो कर अपनी बहन से मिलने चली गईं, जो पास में ही रहती थीं. पर बहन के घर पर ताला लगा देख कर उन का मन बुझ गया. तभी बहन की एक पड़ोसिन ने उन्हें पहचान लिया और बोलीं, ‘‘अरे, आप सरलाजी हैं न विभाजी की बहन.’’

‘‘जी हां, आप को पता है विभा कहां गई है?’’

‘‘विभाजी पास के बाजार तक गई हैं. आप आइए न.’’

‘‘नहींनहीं, मैं यहीं बैठ कर इंतजार कर लेती हूं,’’ सरला ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, नहीं, सरलाजी आप अंदर आ कर इंतजार कर लीजिए. वे आती ही होंगी,’’ उन के बहुत आग्रह पर सरलाजी उन के घर चली गईं.

‘‘आप की तसवीर मैं ने विभाजी के घर पर देखी थी…आइए न, शिखा जरा पानी ले आना,’’ उन्होंने आवाज लगाई.

अंदर से एक बहुत ही प्यारी सी लड़की बाहर आई.

‘‘बेटा, देखो, यह सरलाजी हैं, विभाजी की बहन,’’ इतना सुनते ही उस लड़की ने उन के पैर छू लिए.

सरला ने उसे मन से आशीर्वाद दिया तो विभा की पड़ोसिन बोलीं, ‘‘यह मेरी बहू है, सरलाजी.’’

‘‘बहुत प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मम्मीजी, मैं चाय रखती हूं,’’ इतना कह कर वह अंदर चली गई. सरला ने एक नजर घुमाई. इतने सलीके से हर चीज रखी हुई थी कि देख कर उन का मन खुश हो गया. कितनी संस्कारी बहू है इन की और एक सिमी है.

‘‘बहनजी, विभा दीदी आप की बहुत तारीफ करती हैं,’’ मेरा ध्यान विभा की पड़ोसिन पर चला गया. इतने में उन की बहू चायबिस्कुट के साथ पकौड़े भी बना कर ले आई और बोली, ‘‘लीजिए आंटीजी.’’

‘‘हां, बेटा…’’ तभी फोन की घंटी बज गई. पड़ोसिन की बहू ने फोन उठाया और बात करने के बाद अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मी, पूनम दीदी का फोन था. शाम को हम सब को खाने पर बुलाया है पर मैं ने कह दिया कि आप सब यहां बहुत दिनों से नहीं आए हैं, आप और जीजाजी आज शाम खाने पर आ जाओ. ठीक कहा न.’’

‘‘हां, बेटा, बिलकुल ठीक कहा,’’ बहू किचन में चली गई तो विभा की पड़ोसिन मुझ से बोलीं, ‘‘पूनम मेरी बेटी है. शिखा और उस में बहुत प्यार है.’’

‘‘अच्छा है बहनजी, नहीं तो आजकल की लड़कियां बस, अपने रिश्तेदारों को ही पूछती हैं,’’ सरला ने यह कह कर अपने मन को थोड़ा सा हलका करना चाहा.

‘‘बिलकुल ठीक कहा बहनजी, पर मेरी बहू अपने मातापिता की अकेली संतान है. एकदम सरल और समझदार. इस ने यहां के ही रिश्तों को अपना बना लिया है. अभी शादी को 5 महीने ही हुए हैं पर पूरा घर संभाल लिया है,’’ वे गर्व से बोलीं.

‘‘बहुत अच्छा है बहनजी,’’ सरला ने थोड़ा सहज हो कर कहा, ‘‘अकेली लड़की है तो अपने मातापिता के घर भी बहुत जाती होगी. वे अकेले जो हैं.’’

‘‘नहीं जी, बहू तो शादी के बाद सिर्फ एक बार ही मायके गई है. वह भी कुछ घंटे के लिए.’’

हम बात कर ही रहे थे कि बाहर से विभा की आवाज आई, ‘‘शिखा…बेटा, घर की चाबी दे देना.’’

विभा की आवाज सुन कर शिखा किचन से निकली और उन को अंदर ले आई. शिखा ने खाने के लिए रुकने की बहुत जिद की पर दोनों बहनें रुकी नहीं. अगले ही पल सरलाजी बहन के घर आ गईं. विभा के दोनों बच्चे अमेरिका में रहते थे. वह और उस के पति अकेले ही रहते थे.

‘‘दीदी, आज मेरी याद कैसे आ गई?’’ विभा ने मेज पर सामान रखते हुए कहा.

‘‘बस, यों ही. तू बता कैसी है?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं दीदी पर आप को क्या हुआ कि कमजोर होती जा रही हो,’’ विभा ने कहा. शायद सरला की परेशानियां उस के चेहरे पर भी झलकने लगी थीं.

‘‘आंटीजी, आज मैं ने राजमा बनाया है. आप को राजमा बहुत पसंद है न. आप तो खाने के लिए रुकी नहीं इसलिए मैं ले आई और इन्हें किचन में रख रही हूं,’’ अचानक शिखा दरवाजे से अंदर आई, किचन में राजमा रख कर मुसकराते हुए चली गई.

‘‘बहुत प्यारी लड़की है,’’ सरला के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘अरे, दीदी, यही वह लड़की है जिस की बात मैं ने समीर के लिए चलाई थी. याद है न आप को इन के आफिस के एक साथी की बेटी…दीदी आप को याद नहीं आया क्या…’’ विभा ने सरला की याददाश्त पर जोर डालने को कहा.

‘‘अरे, दीदी, जिस की फोटो भी मैं ने मंगवा ली थी, पर इस का कोई भाई नहीं था, अकेली बेटी थी इसलिए आप ने फोटो तक नहीं देखी थी.’’

विभा की बात से सरला को ध्यान आया कि विभा ने उन से इस लड़की के बारे में कहा था पर उन्होंने कहा था कि जिस घर में बेटा नहीं उस घर की लड़की नहीं आएगी मेरे घर में, क्योंकि मातापिता कब तक रहेंगे, भाइयों से ही तो मायका होता है. तीजत्योहार पर भाई ही तो आता है. यही कह कर उन्होंने फोटो तक नहीं देखी थी.

‘‘दीदी, इस लड़की की फोटो हमारे घर पर पड़ी थी. श्रीमती वर्मा ने देखी तो उन को लड़की पसंद आ गई और आज वह उन की बहू है. बहुत गुणी है शिखा. अपने घर के साथसाथ हम पतिपत्नी का भी खूब ध्यान रखती है. आओ, चलो दीदी, हम खाना खा लेते हैं.’’

राजमा के स्वाद में शिखा का एक और गुण झलक रहा था. घर वापस आते समय सरलाजी को अपनी गलती का एहसास हो रहा था कि लड़की के गुणों को अनदेखा कर के उन्होंने भाई न होने के दकियानूसी विचार को आधार बना कर शिखा की फोटो तक देखना पसंद नहीं किया. इस एक चूक की सजा अब उन्हें ताउम्र भुगतनी होगी.

समझौता: आगे बढ़ने के लिए वैशाली ने कैसे समझौता किया

वेल्लूर से कोलकाता वापस आ कर राजीव सीधे घर न जा कर एअरपोर्ट से आफिस आ गया था. उसे बौस का आदेश था कि कर्मचारियों की सारी पेमेंट आज ही करनी है.

पिछले कई दिनों से उस के आफिस में काफी गड़बड़ी चल रही थी. अपने बौस अमन की गैरमौजूदगी में सारा प्रबंध राजीव ही देखता था. कर्मचारियों को भुगतान पूरा करने के बाद राजीव ने तसल्ली से कई दिनों की पड़ी डाक छांटी. फिर थोड़ा आराम करने की मुद्रा में वह आरामकुरसी पर निढाल सा लेट गया. राजीव ने आंखें बंद कीं तो पिछले दिनों की तमाम घटनाएं एक के बाद एक उसे याद आने लगीं. उसे काफी सुकून मिला.

वैशाली को अचानक आए स्ट्रोक के कारण उसे आननफानन में वेल्लूर ले जाना पड़ा था. कई तरह के टैस्ट, बड़ेबड़े और विशेषज्ञ डाक्टरों ने आपस में सलाह कर कई हफ्तों की जद्दोजहद के बाद यह नतीजा निकाला कि अब वैशाली अपने पैरों पर कभी खड़ी नहीं हो सकती क्योंकि उस के शरीर का निचला हिस्सा हमेशा के लिए स्पंदनहीन हो चुका है. वह व्हील चेयर की मोहताज हो गई थी. पत्नी की ऐसी हालत देख कर राजीव का दिल हाहाकार कर उठा, क्योंकि अब उस का वैवाहिक जीवन अंधकारमय हो गया था.

एक तरफ वैशाली असहाय सी अस्पताल में डाक्टरों और नर्सों की निगरानी में थी दूसरी तरफ राजीव को अपनी कोई सुधबुध न थी. कभी खाता, कभी नहीं खाता.

एक झटके में उस की पूरी दुनिया उजड़ गई थी. उस की वैशाली…इस के आगे उस का संज्ञाशून्य दिमाग कुछ सोच नहीं पा रहा था.

मोबाइल बजने से उस की सोच को दिशा मिली.

लंदन से बौस अमन का फोन था. वैशाली के बारे में पूछ रहे थे कि वह कैसी है?

‘‘डा. सुरजीत से बात हुई? वह तो बे्रन स्पेशलिस्ट हैं,’’ अमन बोले.

‘‘हां, उन को भी सारी रिपोर्ट दिखाई थी. मैं ने अभी डा. अभिजीत से भी बात की है. उन्होंने भी सारी रिपोर्ट देख कर कहा कि ट्रीटमेंट तो ठीक ही चल रहा है. पार्किन्सन का भी कुछ सिम्टम दिखाई दे रहा है.’’

‘‘जीतेजी इनसान को मारा तो नहीं जा सकता. जब तक सांस है तब तक आस है.’’

‘‘जी सर.’’

अपने बौस अमन से बात करने के बाद राजीव का मन और भी खट्टा हो गया. घर लौट कर कपड़े भी नहीं बदले, अपने बेडरूम में आ कर लेट गया. मां ने खाने के लिए पूछा तो मना कर दिया. बाबूजी नन्ही श्रेया को सुला रहे थे. आ कर पूछा, ‘‘बेटा, अब कैसी है, वैशाली? कुछ उम्मीद…’’

राजीव ने ना की मुद्रा में गरदन हिला दी तो बाबूजी गमगीन से वापस चले गए.

राजीव के मानसपटल पर वैशाली के साथ की कई मधुर यादें चलचित्र की तरह चलने लगीं.

उस दिन एम.बी.ए. का सेमिनार था. राजीव को घर से निकलने में ही थोड़ी देर हो गई थी. इसलिए वह सेमिनार हाल में पहुंचने के लिए जल्दीजल्दी सीढि़यां चढ़ रहा था. इतने में ऊपर से आती जिस लड़की से टकराया तो अपने को संभाल नहीं सका और जनाब चारों खाने चित.

लड़की ने रेलिंग पकड़ ली थी इसलिए गिरने से बच गई पर राजीव लुढ़कता चला गया. वह तो शुक्र था कि अभी 5-6 सीढि़यां ही वह चढ़ा था इसलिए उसे ज्यादा चोट नहीं आई.

लड़की ने उस के सारे बिखरे पेपर समेट कर उसे दिए तो राजीव अपलक सा उस वीनस की मूर्ति को देखता ही रह गया. उस का ध्यान तब टूटा जब लड़की ने उसे सहारा दे कर उठाना चाहा. औपचारिकता में धन्यवाद दे कर राजीव सेमिनार हाल की ओर चल दिया.

सेमिनार के दौरान दोनों नायक- नायिका बन गए.

सेमिनार के बाद राजीव उस लड़की से मिला तो पता चला कि जिस मूर्ति से वह टकराया था उस का नाम वैशाली है.

राजीव का फाइनल ईयर था तो वैशाली भी 2-4 महीने ही उस से पीछे थी. एक ही पढ़ाई, एक जैसी सोच, रोजरोज का मिलना, एकसाथ बैठ कर चायनाश्ता करते. दोनों की दोस्ती प्यार में बदल गई. कसमें, वादे, एकसाथ खाना, एक ही कुल्हड़ में चाय पीना. प्रोफेसरों की नकलें उतारना, बरसात में भीग कर भुट्टे खाना उन की दिनचर्या बन गई.

एक बार पुचके (गोलगप्पे) खाते वक्त वैशाली की नाक बहने लगी तो राजीव बहुत हंसा…तब वैशाली बोली, ‘खुद तो मिर्ची खाते नहीं…कोई दूसरा खाता है तो तुम्हारे पेट में जलन क्यों होती है?’

‘अरे, अपनी शक्ल तो देखो. ज्यादा तीखी मिर्ची की वजह से तुम्हारी नाक बह रही है?’

‘तो पोंछ दो न,’ वैशाली ठुनक कर बोली.

और अपना रुमाल ले कर सचमुच राजीव ने वैशाली की नाक साफ कर दी.

पढ़ाई खत्म होते ही राजीव ने तपसिया के लेदर की निजी कंपनी में सहायक के रूप में कार्यभार संभाल लिया और वैशाली को भी एक प्राइवेट फर्म में सलाहकार के पद पर नियुक्ति मिल गई.

सुंदर, तीखे नैननक्श की रूपसी वैशाली पर सारा स्टाफ फिदा था पर वह दुलहन बनी राजीव की.

मधुमास कब दिनों और महीनों में गुजर गया, पता ही नहीं चला.

वैशाली अपने काम के प्रति बहुत संजीदा थी. उस की कार्यकुशलता को देखते हुए उस की कंपनी ने उसे प्रमोशन दिया. गाड़ी, फ्लैट सब कंपनी की ओर से मिल गया.

इधर राजीव का भी प्रमोशन हुआ. उसे भी तपसिया में ही फ्लैट और गाड़ी दी गई. अब दिक्कत यह थी कि वैशाली का डलहौजी ट्रांसफर हो गया था.

सुबह की चाय पीते समय वैशाली बुझीबुझी सी थी. प्रमोशन की कोई खुशी नहीं थी. उस ने राजीव से पूछा, ‘राजीव, हम डलहौजी कब शिफ्ट होंगे?’

‘हम?’

‘हम दोनों अलग कैसे रहेंगे?’

‘नौकरी करनी है तो रहना ही पड़ेगा,’ राजीव बोला.

‘राजीव, यह मेरे कैरियर का सवाल है.’

‘वह तो ठीक है,’ राजीव बोला, ‘पर वहां के सीनियर स्टाफ के साथ तुम कैसे मिक्स हो पाओगी?’

‘मजबूरी है…और कोई चारा भी तो नहीं है.’

राजीव चाय पीतेपीते कुछ सोचने लगा, फिर बोला, ‘तपसिया से डलहौजी बहुत दूर है. दोनों का सारा समय तो आनेजाने में ही व्यतीत हो जाएगा. मुझे एक आइडिया आया है. बोलो, मंजूर है?’

‘जरा बताओ तो सही,’ बड़ीबड़ी आंखें उठा कर, वैशाली बोली.

‘देखो, तुम्हारे प्रजेंटेशन से मेरे बौस बहुत प्रभावित हैं, वह तो मुझे कितनी बार अपनी फर्म में तुम्हें ज्वाइन कराने के लिए कह चुके हैं. पर अचानक तुम्हारा प्रमोशन होने से बात दब गई.’

‘जरा सोचो…अगर तुम हमारी फर्म को ज्वाइन कर लेती हो तो कितना अच्छा होगा. तुम्हारा सीनियर स्टाफ का जो फोबिया है उस से भी तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी.’

वैशाली कुछ सोचने लगी तो राजीव फिर बोला, ‘इसी बहाने हम पतिपत्नी एकसाथ कुछ एक पल बिता सकेंगे और तुम्हारा कैरियर भी हैंपर नहीं होगा. अब सोचो मत…कुछ भी हो, कोई भी कारण दिखा कर वहां की नौकरी से त्यागपत्र दे दो.’

वैशाली ने तपसिया में मार्केटिंग मैनेजर का पद संभाल लिया. बौस निश्ंिचत हो कर महीनों विदेश में रहते. अब तो दोनों फर्म के सर्वेसर्वा से हो गए. 6 महीने में ही लेदर मार्केट में अमन अंसारी की कंपनी का नाम नया नहीं रह गया. उन के बनाए लेदर के बैग, बेल्ट, पर्स आदि की मार्केटिंग का सारा काम वैशाली देखती तो सेलपरचेज का काम राजीव.

देखतेदेखते अब कंपनी काफी मुनाफे में चल रही थी और सबकुछ अच्छा चल रहा था. दोनों की जिंदगी में कोई तमन्ना बाकी नहीं रह गई थी. 2 साल यों ही बीत गए. सुख के बाद दुख तो आता ही है.

वैशाली को मार्केटिंग मैनेजर होने की वजह से कभी मुंबई, दिल्ली, जयपुर तो कभी विदेश का भी टूर लगाना पड़ता था. 2-3 बार तो राजीव व वैशाली यूरोप के टूर पर साथसाथ गए. फिर जरूरत के हिसाब से जाने लगे.

इसी बीच कंपनी के मालिक अमन अंसारी लंदन का सारा काम कोलकाता शिफ्ट कर के तपसिया के गेस्ट हाउस में रहने लगे. पता नहीं कब, कैसे वैशाली राजीव से कटीकटी सी रहने लगी.

कई बार वैशाली को बौस के साथ काम की वजह से बाहर जाना पड़ता. राजीव छोटी सोच का नहीं था पर धीरेधीरे दबे पांव बौस के साथ बढ़ती नजदीकियां और अपने प्रति बढ़ती दूरियां देख हकीकत को वह नजरअंदाज भी नहीं कर सकता था.

उस दिन शाम को वैशाली को बैग तैयार करते देख राजीव ने पूछा, ‘कहां जा रही हो?’

‘प्रजेंटेशन के लिए दिल्ली जाना है.’

‘लेकिन 2-3 दिन से तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. तुम्हें तो छुट्टी ले कर डाक्टर स्नेहा को दिखाने की बात…’

बात को बीच में ही काट कर वैशाली उखड़ कर बोली, ‘तबीयत का क्या, मामूली हरारत है. काम ज्यादा जरूरी है, रुपए से ज्यादा हमारी फर्म की प्रतिष्ठा की बात है. वर्षों से मिलता आया टेंडर अगर हमारी प्रतिद्वंद्वी फर्म को मिल गया तो हमारी वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा. मैं नहीं चाहती कि मेरी जरा सी लापरवाही से अमनजी को तकलीफ पहुंचे.’

दिल्ली से आने के बाद वैशाली काफी चुपचुप रहती. उस के व्यवहार में आए इस बदलाव को राजीव ने बहुत करीब से महसूस किया.

इसी बीच वैशाली की वर्षों की मां बनने की साध भी पूरी हुई. बड़ी प्यारी सी बच्ची को उस ने जन्म दिया. श्रेया अभी 2 महीने की हुई भी तो उसे सास के सहारे छोड़ वैशाली ने फिर से आफिस ज्वाइन किया.

‘वैशाली, अभी श्रेया छोटी है. उसे तुम्हारी जरूरत है,’ राजीव के यह कहने पर वैशाली तपाक से बोली, ‘आफिस को भी तो मेरी जरूरत है.’

देर से आना, सुबह जल्दी निकल जाना, काम के बोझ से वैशाली के स्वभाव में काफी चिड़चिड़ापन आ गया था लेकिन उस की सुंदरता, बरकरार थी. एक दिन आधी रात को ‘यह गलत है… यह गलत है’ कह कर वैशाली चीख उठी. वह पूरी पसीने में नहाई हुई थी. मुंह से अजीब सी आवाजें निकल रही थीं. जोरजोर से छाती को पकड़ कर हांफ रही थी.

राजीव घबरा गया, ‘क्या हुआ, वैशाली? ऐसे क्यों कर रही हो? क्या गलत है? बताओ मुझे.’

वैशाली उस की बांहों में बेहोश पड़ी थी. उस की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? उसे फौरन अस्पताल में भर्ती किया गया. डाक्टरों ने बताया कि इन का बे्रन का सेरेब्रल अटैक था, जिसे दूसरे शब्दों में बे्रन हेमरेज का स्ट्रोक भी कह सकते हैं. कई दिनों तक वह आई.सी.यू. में भरती रही. अमन ने पानी की तरह रुपए खर्च किए. डाक्टरों की लाइन लगा दी. वैशाली के शरीर का दायां हिस्सा, जो अटैक से बेकार हो गया था, धीरेधीरे विशेषज्ञ डाक्टरों व फिजियोथैरेपिस्ट की देखरेख में ठीक होने लगा था.

‘अरे, आज तो तुम ने श्रेया को भी गोद में उठा लिया?’ राजीव बोला तो ‘हां,’ कह कर वैशाली नजरें चुराने लगी. यानी कोई फांस थी जिसे वह निकाल नहीं पा रही थी.

राजीव वैशाली से बहुत प्यार करता था. उस की ऐसी हालत देख कर उस का दिल खून के आंसू रो पड़ता.

वेल्लूर ले जा कर महीनों इलाज चला. डाक्टरों की फीस, इलाज आदि सभी खर्चों में बौस ने कोई कमी नहीं रखी. राजीव का आत्मसम्मान आहत तो होता था, पर वैशाली को बिना इलाज के यों ही तो नहीं छोड़ सकता था.

कितनी बार सोचा कि अब यह नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी कर लूंगा, लेकिन लेदर उद्योग में अमन अंसारी का इतना दबदबा था कि उन के मुलाजिम को उन की मरजी के खिलाफ कोई अपनी फर्म में रख कर उन से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता था. इसलिए भी राजीव के हाथ बंधे थे, आंखों से सबकुछ देखते हुए भी वह खामोश था.

श्रेया अपनी दादी के पास ज्यादा रहती थी इसलिए वह उन्हें ही मां कहती.

दवा और परहेज से वैशाली अब सामान्य जीवन जीने लगी. उस के ठीक होने पर बौस ने पार्टी दी. इसे न चाहते हुए भी राजीव ने बौस का एक और एहसान मान लिया. अपने कुलीग के तीखे व्यंग्य सुन कर उस के बदन पर सैकड़ों चींटियां सी रेंग गई थीं.

उस पार्टी में वैशाली ने गुलाबी शिफौन की साड़ी पहनी थी जिस पर सिल्वर कलर के बेलबूटे जड़े थे. उस पर गले में हीरों का जगमगाता नेकलेस उस के रूप में और भी चार चांद लगा रहा था. सब मंत्रमुग्ध आंखों से वैशाली के रूपराशि और यौवन से भरे शरीर को देख रहे थे और दबेदबे स्वर में खिल्ली भी उड़ा रहे थे कि क्या नसीब वाला है मैनेजर बाबू्. इन के तो दोनों हाथों में लड्डू हैं.

शर्म से गड़ा राजीव अमन अंसारी के बगल में खड़ी अपनी पत्नी को अपलक देख रहा था.

‘अब तुम घर पर रहो. तुम्हें काम करने की कोई जरूरत नहीं है. श्रेया को संभालो. मांबाबा अब उसे नहीं संभाल सकते. अब वह बहुत चंचल हो गई है.’

वैशाली बिना नानुकूर किए राजीव की बात मान गई तो सोचा, बौस से बात करूंगा.

एक दिन अमनजी ने पूछ लिया, ‘अरे, राजीव. मेरी मार्केटिंग मैनेजर को कब तक तुम घर में बैठा कर रखोगे?’

‘सर, मैं नहीं चाहता कि अब वैशाली नौकरी करे. उस का घर पर रह कर श्रेया को संभालना बहुत जरूरी हो गया है. यहां मैं सब संभाल लूंगा.’

‘अरे, ऐसे कैसे हो सकता है?’ अमन थोड़े घबरा गए. फिर संभल कर बोले, ‘राजीव, मैं ने तो तुम्हारे लिए मुंबई वाला प्रोजेक्ट तैयार किया है. इस बार सोचा कि तुम्हें भेजूंगा.’

‘पर सर, वैशाली व श्रेया को ऐसी हालत में मेरी ज्यादा जरूरत है,’ वह धीरे से बोला, ‘नहीं, सर, मैं नहीं जा सकूंगा.’

‘देख लो, मैं तुम्हारे घर की परिस्थितियों से अवगत हूं. सब समझता हूं और मुझे बहुत दुख है. मुझ से जो भी होगा मैं तुम्हारे परिवार के लिए करूंगा. यार, मैं ही चला जाता पर मेरे मातापिता हज करने जा रहे हैं. इसलिए मेरा उन के पास होना बहुत जरूरी है.’

अब नौकरी का सवाल था…मना नहीं कर सकता था.

2 दिन बाद बाबा का फोन आया कि वैशाली आफिस जाने लगी है, देर रात भी लौटी. राजीव ने बात करनी चाही तो अपना मोबाइल नहीं उठाया. दोबारा किया तो स्विच औफ मिला.

लौट कर राजीव ने पूछा, ‘वैशाली, मैं ने तुम्हें काम पर जाने के लिए मना किया था न?’

‘मेरा घर बैठे मन नहीं लग रहा था,’ वैशाली का संक्षिप्त सा उत्तर था.

राजीव की समझ में नहीं आ रहा था कि अमन अंसारी के चंगुल से कैसे वह वैशाली को छुड़ाए. आज वह मान रहा था कि पत्नी को अपनी फर्म में रखवाना उस की बहुत बड़ी भूल थी जिस का खमियाजा आज वह भुगत रहा है.

उसे यह सोच कर बहुत अजीब लगता कि साल्टलेक के अपने आलीशान बंगले को छोड़ कर अमनजी जबतब गेस्ट हाउस में कैसे पड़े रहते हैं? सुना था कि उन की बीवी उन्हें 2 महीने में ही तलाक दे कर अपने किसी प्रेमी के साथ चली गई थी. कारण जो भी रहा हो, यह बात तो साफ थी कि अमन एक दिलफेंक तबीयत का आदमी है.

वैशाली का जो व्यवहार था वह दिन पर दिन अजीब सा होता जा रहा था. कभी वह रोती तो कभी पागलों की तरह हंसती. उस की ऐसी हालत देख कर राजीव उसे समझाता, ‘वैशाली, तुम कुछ मत सोचो, तुम्हारे सारे गुनाह माफ हैं, पर प्लीज, दिल पर बोझ मत लो.’

तब वह राजीव के सीने से लग कर सिसक पड़ती. जैसे लगता कि वह आत्मग्लानि की आग में जल रही हो?

राजीव की समझ में नहीं आ रहा था कि वह पत्नी को कैसे समझाए कि वह जिस हालात की मारी है वह गुनाह किसी और ने किया और सजा उसे मिली.

अपने ही खयालों में उलझा राजीव हड़बड़ा कर उठ बैठा, उस के मोबाइल पर घर का नंबर आ रहा था. उस ने फोन उठाया तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, वैशाली बाथरूम में गिर गई है.’’

अस्पताल में भरती किया तो पता चला कि फिर मेजर स्ट्रोक आया था. यहां कोलकाता के डाक्टरों ने जवाब दे दिया, तब उसे दोबारा वेल्लूर ले जाना पड़ा. बौस अमन अंसारी भी साथ गए. इस बार भी सारा खर्चा उन्होंने किया. राजीव के पास जितनी जमापूंजी थी वह सब कोलकाता में ही लग चुकी थी. क्या करता? इलाज भी करवाना जरूरी था. वह अपनी आंखों के सामने वैशाली को बिना इलाज के मरते भी तो नहीं देख सकता? बिना पैसे के वह कुछ भी नहीं कर सकता था. न उस के पास सिफारिश है न पैसा. आजकल बातबात पर पैसे की जरूरत पड़ती है.

लाखों रुपए इलाज में लगे. 2 महीने से वैशाली वेल्लूर के आई.सी.यू. में थी जिस का रोज का खर्च हजारों में पड़ता था. डाक्टरों की विजिट फीस, आनेजाने का किराया, कहांकहां तक वह चुकाता? इसलिए पैसे की खातिर राजीव ने अपनी वैशाली के लिए हालात से समझौता कर लिया. उसे इस को स्वीकार करने में कोई हिचक महसूस नहीं होती.

अब तो वैशाली बेड पर पड़ी जिंदा लाश थी, जो बोल नहीं सकती थी, पर उस की आंखें, सब बता गईं जो वह मुंह से न कह सकी. राजीव रो पड़ा था. मन करता था कि जा कर अमन को गोली मार कर जेल चला जाए पर वही मजबूरियां, एक आम आदमी होने की सजा भोग रहा था.

वैशाली के शरीर का निचला हिस्सा निर्जीव हो चुका था लेकिन राजीव ने तो उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार किया है…करता है और ताउम्र प्यार करता रहेगा. उस से कैसे नफरत करे?

सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी

मैं अपनी मां के साथ गरमागरम चाय पी रही थी. मां कुछ दिन पूर्व ही भारत से आई थीं. बातें शुरू होने पर कहां खत्म होंगी, यह हम दोनों को ही पता नहीं होता था. इतने दिनों बाद हम मांबेटी एकदूसरे से मिले थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी. रात का 9 बजा था. मां से मैं ने कहा, ‘‘अंकुर के पिताजी होंगे,’’ पर दरवाजा खोला तो पति के स्थान पर उन के मित्र सुहास को खड़े देखा. मैं ने पूछा, ‘‘सुहास भाई साहब, इतनी रात में कैसे कष्ट किया आप ने?’’

मेरे प्रश्न का उत्तर न दे कर उन्होंने ही प्रश्न किया, ‘‘भाभीजी, प्रशांत अब तक आए नहीं क्या?’’

इंगलैंड की नवंबर माह की कंपकंपा देने वाली सर्दी को अपने बदन पर अनुभव करते हुए मैं ने पूछा, ‘‘उन का पता तो आप को होना चाहिए, सुहास भाई, भला मुझ से क्या पूछते हैं?’’

स्ट्रीट लैंप की पीली अलसाई रोशनी में सुहास का चेहरा स्पष्ट नहीं दिख रहा था. पर फिर भी मैं ने उन्हें बुलाने की अपेक्षा जल्दी टाल देना ही उचित समझा.

‘‘उन्हें कल शाम मेरे पास भेज दीजिएगा, भाभीजी, अच्छा नमस्ते,’’ और लंबेलंबे डग भरते हुए वह चले गए.

अब तक मां भी मेरे पीछे आ खड़ी हुई थीं. अंदर आए तो चाय ठंडी हो चुकी थी.

मां ने पूछा, ‘‘और चाय बना दूं तेरे लिए?’’

मैं ने मना कर दिया.

मां बोलीं, ‘‘प्रेरणा, मुझे तो नींद आ रही है अब. तू अभी जागेगी क्या?’’

मैं ने मां से कहा, ‘‘आप सो जाइए, मां. मैं कुछ देर बैठूंगी अभी. आप तो जानती हैं बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आएगी मुझे.’’

‘‘जैसी तेरी इच्छा,’’ कह कर मां ऊपर सोने चली गईं.

मां के ऊपर जाने के थोड़ी देर पश्चात ही यह आ गए. बच्चों व मां के बारे में पूछने लगे. मैं ने कहा, ‘‘वे लोग तो सो गए. आप का खाना लगा दूं?’’

यह बोले, ‘‘हां, लगा दो और तुम चाहो तो अब सो जाओ, मैं अभी कपड़े बदल कर आता हूं.’’

जल्दी से इन का खाना गरम कर के मेज पर रखा, तभी यह कपड़े बदल कर आ गए.

खाना खा कर बोले, ‘‘भई, मुझे तो नींद आ रही है, आप को कब आएगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘आप चलिए, मैं आ रही हूं.’’

जैसी कि मेरी शुरू से ही आदत है, सोने के लिए जाने से पूर्व बैठक को व्यवस्थित कर देती हूं ताकि सुबह कुछ आराम मिले. ऊपर गई तो कमरे में घुसते ही इन्होंने जानापहचाना प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘कोई आया तो नहीं था, प्रेरणा?’’

मैं ने कहा, ‘‘अब सोने भी दीजिए, कल से एक पैड खाने की मेज पर रख दूंगी और उस में रोज आनेजाने वालों के नाम व काम की सूची लिख दिया करूंगी. आखिर मुफ्त की सहायक जो हूं आप की.’’

तब यह हंस कर बोले, ‘‘बता भी दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप के मित्र सुहास आए थे. उन्होंने आप को कल अपने घर बुलाया है.’’

‘‘ठीक है. मिल लूंगा. मां को कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नींद बहुत आती है उन्हें, बाकी सब तो ठीक है.’’

थोड़ी देर बाद इन के खर्राटों की आवाज शांत वातावरण में तैरने लगी. पता नहीं, कुछ लोग बिस्तर पर लेटते ही कैसे सो जाते हैं. खर्राटे सुनते हुए मैं सोने की नाकाम चेष्टा करने लगी और सोचने लगी उस स्त्री के बारे में, जिस से उसी दिन अंकुर के स्कूल में मुलाकात हुई थी. गहरा सांवला रंग, बड़ीबड़ी पर खोईखोई आकर्षक आंखें, घने काले बाल, लंबा कद, अंगरेजी पहनावा और होंठों पर मधुर मुसकान. उसे सुंदर तो नहीं कहा जा सकता था, पर चेहरे पर कुछ ऐसे सात्विक भाव थे कि नजरें हटाने को मन नहीं करता था.

मेरी ही तरह वह भी अपनी बच्ची को ले कर उस कार्यक्रम के अंतर्गत स्कूल आई थी, जिस के तहत सप्ताह में 1 या 2 दिन मां को स्वयं बच्चे के साथ स्कूल में रह कर उस की देखभाल करनी पड़ती है ताकि बच्चा स्कूल आनेजाने में अभ्यस्त हो सके. मैं ने उसे अपनी ओर देखते पाया. मैं यह तो समझ गई कि वह दक्षिण भारतीय है, पर यह पता नहीं था कि वह हिंदी जानती है या नहीं. थोड़ी देर हम दोनों ही चुप रहे. जब स्कूल के सभी बच्चे बाहर बगीचे में पहुंचे तो वह अपनी बच्ची को झूला झूलते हुए देख रही थी और मैं अपने बेटे को लकड़ी की गाड़ी पर बैठा रही थी.

उस की आंखों में मित्रवत भाव देख कर मैं ने ही मौन तोड़ा था और अंगरेजी में पूछा था, ‘क्या आप हिंदी बोल सकती हैं?’ इस पर वह बोली, ‘यस, थोड़ीथोड़ी, बहुत नहीं,’ और उस का प्रमाण भी उस ने फौरन ही यह पूछ कर दे दिया, ‘आप कहां रहते हैं?’

मैं उस के प्रश्न का उत्तर दे कर पूछ बैठी, ‘आप का नाम?’

‘तपस्या,’ वह बोली.

जैसा कि सर्वविदित है, 2 स्त्रियां एकदूसरे का नाम व पता जान कर ही संतुष्ट नहीं होतीं, कम से कम समय में एकदूसरे के बारे में भी कुछ जान लेने की उत्सुकता स्त्री का स्वभाव है. अत: उस ने टूटीफूटी हिंदी में बताया, ‘मैं फिजी की रहने वाली हूं. मेरे विवाह को 3 वर्ष हो चुके हैं, मेरे पति मुसलमान हैं और यहीं एक फैक्टरी में काम करते हैं. मेरी एक बेटी है और इस समय मैं गर्भवती हूं.’

जैसा कि यहां प्रचलन है, हर गर्भवती स्त्री से यह अवश्य पूछा जाता है कि वह लड़का चाहती है या लड़की, मैं ने भी पूछ लिया तो उस ने बताया, ‘मैं तो लड़की ही चाहती हूं. मेरे पति व बेटी भी यही चाहते हैं, क्योंकि लड़कियां लड़कों की अपेक्षा अधिक स्नेही व भावुक होती हैं. मैं तो इन्हें ही लड़कों की तरह पालूंगी. इस का भविष्य बनाना ही मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य है.’

उस दिन इतनी ही बात हुई और हम अपनेअपने घर चले आए. पर उस स्त्री की आंखों में पता नहीं क्या आकर्षण था कि उस की सूरत मेरे दिमाग पर छाई रही. यही सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला.

प्रात: 7 बजे नींद खुली. यहां तो डाक सुबह 7 और 9 बजे के बीच बंट जाती है. देखा, मेरे भैया का पत्र आया है. सब को नाश्ता कराया और सब काम निबटा कर फुरसत के क्षणों में सोचने लगी कि तपस्या से फिर मुलाकात होगी तो उसे अपनी सहेली बनाऊंगी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं कि उन्हें देखते ही ऐसा एहसास होता है कि न जाने कब से इन्हें जानते हैं.

शुक्रवार का दिन आया और मैं अपने पुत्र के साथ उस के स्कूल पहुंची. देखा, वह भी वहां पर उपस्थित है. थोड़ी देर बाद ही स्कूल की अध्यापिका रोजी ने मुझ से कौफी के बारे में पूछा तो ठंड से कंपकंपाते हुए अनायास ही मुंह से हां निकल गया. कुछ देर बाद तपस्या भी अपनी कौफी ले कर मेरे ही पास आ गई.

‘‘प्रेरणाजी, कुछ देर आप के पास बैठ सकती हूं मैं?’’

मैं ने मुसकरा कर हामी भर दी. हम दोनों के बच्चे अपनेअपने खेलों में व्यस्त थे. बातों का सिलसिला फिर आरंभ हो गया. मैं ने पूछा, ‘‘तपस्याजी, आप ने दूसरे धर्म वाले व्यक्ति से विवाह किया. आप को क्या लगता है कि आप ने सही कदम उठाया? क्या आप के अभिभावक इस विवाह के लिए सहमत थे? मैं तो सोचती हूं कि विवाह एक जुआ है. खेलने से पहले पता नहीं होता कि जीत होगी या हार और खेलने के बाद अर्थात विवाह के पश्चात ही पता चलता है कि हम जीते हैं या हारे. और वह भी एक लंबे अंतराल के पश्चात ही पता चलता है, क्योंकि विवाह के 1-2 वर्ष तो एकदूसरे को पहचानने में ही व्यतीत हो जाते हैं.’’

इस पर उस ने कहा, ‘‘प्रेरणाजी, आप क्या करेंगी यह सब जान कर? बड़ी लंबी कहानी है, बहुत समय लगेगा.’’

‘‘मैं आप के इस साहसिक कदम की प्रशंसा करती हूं. फिर भी मैं समय अवश्य निकालूंगी.’’

निश्चय हुआ कि स्कूल से निकलने के बाद वह मेरे साथ मेरे घर चलेगी और एक कप चाय पी कर मेरे घर के पास स्थित एक स्टोर से कुछ खरीदारी भी कर लेगी. हम दोनों के पति अपनेअपने काम पर गए हुए थे. स्कूल की छुट्टी होने पर हम अपनेअपने बच्चों के साथ बाहर निकले. रास्ता लंबा था, अत: बातों का क्रम आरंभ हो गया.

तपस्या ने मुझ से पहला प्रश्न किया, ‘‘क्या आप की निगाह में दूसरे धर्म या जाति के व्यक्ति से विवाह करना अपराध है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बिलकुल नहीं. मैं तो बहुत खुले विचारों की हूं. और हर इनसान को केवल इनसानियत की कसौटी पर कस कर देखती हूं. न कि उस की जाति व धर्म के आधार पर. अगर आप अपने पति के साथ दुखी हैं तो ऐसी भावना हृदय से निकाल फेंकिए, क्योंकि बहुत से युवकयुवतियां एक ही जाति व धर्म के होते हुए भी विवाह के पश्चात आपस में तालमेल बैठाने में असमर्थ होते हैं. तपस्याजी, इनसान यदि एक अच्छा इनसान ही हो तो इस एक विशेषता के कारण अन्य सभी बातें नगण्य हो जाती हैं.’’

बातें करतेकरते कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. हम दोनों के बच्चे एकदूसरे से हिलमिल गए थे. घर में घुसते ही उस ने घर की बड़ी प्रशंसा की. हम लोगों ने अपने कोट, दस्ताने, मफलर इत्यादि उतारे. मां ने पूछा, ‘‘चाय का पानी चढ़ा दूं?’’

मैं ने मां का परिचय तपस्या से कराया और कहा, ‘‘नहीं, मां, आप इन के साथ बैठिए. मैं चढ़ाती हूं चाय का पानी.’’

बच्चों को 1-1 कस्टर्ड केक दे दिया. चाय ले कर मैं बैठक में आ गई. मां भी बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त हो गईं और मैं अपनी मात्र एक दिन की जान- पहचान वाली इस नई सखी के समीप बैठ गई. उस ने मेरा हाथ पकड़ कर बड़े ही भावुक अंदाज में मुझे बताया, ‘‘नर्सरी स्कूल में आप को देखते ही मुझे अनुमान हो गया था कि आप अवश्य ही एक संभ्रांत घराने से संबंध रखती हैं. इस देश में भी आप के भारतीय पहनावे साड़ी, माथे पर बिंदी व चेहरे की सौम्यता ने मुझे अंदर तक प्रभावित किया है.’’

फिर तपस्या ने अपनी कहानी आरंभ की. वह मात्र 3 वर्ष पूर्व इस देश में आई है. इस से पूर्व वह फिजी में एक सरकारी कार्यालय में नौकरी करती थी. उस के मामा अपने परिवार के साथ लंदन में रहते हैं. मात्र घूमनेफिरने के विचार से वह 3 माह का टूरिस्ट वीजा ले कर उन के पास आ गई. वहीं पर घूमतेफिरते एक दिन उसे जमील (उस के पति) मिल गए. एशियाई होने के कारण उन दोनों ने एकदूसरे की ओर मित्रवत भाव से देखा. जमील ने पूछा, ‘‘आप यहां घूमने आई हैं?’’

तपस्या ने उत्तर दिया, ‘‘हां, मैं अपने मामाजी के पास आई हूं.’’ बातोंबातों में पता चला कि उस युवक के दादादादी भी कभी फिजी में ही रहते थे और मातापिता बाद में पाकिस्तान में बस गए. उसे बचपन में ही लंदन में बसे चाचाचाची के पास शिक्षा के लिए भेज दिया गया और शिक्षा समाप्त करने के पश्चात उसे यहीं नौकरी भी मिल गई. उस का एक भाई व एक बहन आस्ट्रेलिया में हैं. तपस्या ने बताया कि उस का भी एक भाई आस्ट्रेलिया में इंजीनियर है. इस प्रकार बातें करतेकरते दोनों एकसाथ घूमते रहे. घर जाते जमील ने तपस्या से पूछा, ‘‘आप से फिर मिल सकता हूं?’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यह संभव नहीं है. मेरी माताजी इसे पसंद नहीं करेंगी,’’ इस के बाद दोनों विपरीत दिशाओं में चले गए. पर उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवन भर एक ही दिशा में, एक ही मंजिल के लिए, साथसाथ चलना होगा. कुछ समय पश्चात मामाजी के क्लब में क्रिसमस पार्टी का आयोजन था. वहां तपस्या भी उन लोगों के साथ गई. वहां जमील भी था. जमील और तपस्या एकदूसरे को देख कर हतप्रभ रह गए. भीड़भाड़ व अनजाने वातावरण ने दोनों को पुन: बातचीत करने पर विवश कर दिया.

मामाजी अपने मित्रों व मामीजी अपनी सहेलियों में व्यस्त थीं, अत: इन दोनों ने अपनी बातचीत का क्रम, जोकि उस दिन अधूरा छूट गया था, आगे बढ़ाया. तपस्या की शिक्षा, नौकरी, अन्य बातों से जमील बड़ा प्रभावित हुआ. उस ने अपने लिए बीयर व तपस्या के लिए कोक का आर्डर दिया. दोनों ही परत दर परत खुलते जा रहे थे. जमील ने तपस्या के सामने नृत्य करने का प्रस्ताव रखा. तपस्या ने यह कह कर कि मुझे नहीं आता, इनकार कर दिया.

तब जमील ने कहा, ‘‘इस गहमा- गहमी में किसे फुरसत है, जो हमारी ओर देखेगा? जैसेजैसे मैं कदम रखूंगा वैसे ही आप भी रख दीजिएगा.’’

इस तरह उन दोनों ने एकसाथ नृत्य किया, खाना खाया. कहने की बात नहीं कि दोनों अच्छे मित्र बन चुके थे. तभी जमील ने न जाने क्या सोच कर तपस्या के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया, जिसे सुन कर वह हतप्रभ रह गई.

उस ने पूछा, ‘‘2 दिन की मुलाकात में ही ऐसा प्रस्ताव रख दिया आप ने?’’

जमील ने कहा, ‘‘आप के सांवले सौंदर्य व आंखों के मासूम भावों ने मुझे ऐसा प्रभावित किया है कि मैं स्वयं को रोक नहीं सका, वरना मेरे मातापिता तो पाकिस्तान से ठेठ देहाती लड़की को मेरे लिए भेजने की तैयारी कर रहे हैं. वैसी लड़की से विवाह करने से तो बेहतर है कि जिंदगी भर कुंआरा ही रह जाऊं.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘मैं जाति, धर्म में विश्वास तो नहीं करती, पर चूंकि यहां पर मेरे अभिभावक मामामामी हैं, अत: उन की राय लेनी होगी. मैं अभी कुछ नहीं कह सकती.’’

जमील ने अपना फोन नंबर दे दिया और कहा, ‘‘मैं आप की स्वीकृति की बेसब्री से प्रतीक्षा करूंगा.’’

घर जा कर अगली सुबह ही तपस्या ने अपने मामा और मामी को जमील से संबंधित सभी बातें बता कर उन की राय मांगी. उन लोगों ने भी धर्म की दीवार खड़ी करनी चाही और कहा, ‘‘तुम एक हिंदू लड़की हो और वह एक पाकिस्तानी. यह विवाह संभव नहीं है.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यदि आप की दृष्टि में उस में यही एक खोट है, तो मुझे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है. लड़के को आप लोगों ने क्लब में देखा ही है मेरे साथ. मैं उसे फोन करने जा रही हूं.’’

उन के रोकतेरोकते भी उस ने फोन पर जमील को स्वीकृति दे दी. जमील ने अपनी खुशी में डूबी आवाज में उसे उसी शाम ही पास के एक रेस्तरां में मिलने की दावत दे डाली और शाम को जब तपस्या अपनी सब से सुंदर साड़ी में वहां पहुंची तो देखा, जमील उस की प्रतीक्षा कर रहा है. दोनों ने एकदूसरे को आंखों ही आंखों में मौन बधाई दे डाली और अगले सप्ताह शादी का कार्यक्रम निश्चित कर लिया. निश्चित दिन कोर्ट में दोनों की शादी हो गई. मामामामी को बुझे मन से सम्मिलित होना पड़ा. शादी हो गई और तपस्या अब तपस्या मुदालियर न हो कर तपस्या अली हो गई.

उस के इस विद्रोहात्मक कदम ने फिजी में रह रहे उस के मातापिता को बड़ा नाराज किया. मां की नाराजगी तो खैर कुछ दिनों के बाद दूर हो गई, जब उन की नातिन के जन्म पर जमील ने वापसी टिकट भेज कर बुलाना चाहा तो वह अपनी ममता की नदी पर सख्ती का बांध न बांध सकीं और उन के पास 4 माह रह कर अपनी बेटी की सुखी गृहस्थी देख कर, संतुष्ट मन से वापस फिजी चली गईं पर पिता ने उसे आज तक क्षमा नहीं किया है.

वह अपने पति तथा बच्ची के साथ फिजी भी गई, पर पिता ने न तो उस से और न उस के पति से कोई बात की. पर हां, बच्ची को प्यार करने से वह स्वयं को नहीं रोक सके. बच्ची जब उन्हें नाना कहती तो उन की पलकें भीग जातीं. कहा जाता है मूल से प्यारा ब्याज होता है.

आज तपस्या दूसरी बार गर्भवती है. उस के पति ने उस पर कभी भी अनुचित बंधन नहीं लगाया. अलगअलग धर्मों के होते हुए भी उन में विश्वास, प्रेम व स्नेह की डोर दिनप्रतिदिन दृढ़ होती जा रही है. जमील घर के कार्यों में उसे भरसक सहयोग देते हैं. तपस्या शाम को 4 घंटे की नौकरी करती है और उस समय बच्ची व घर की देखभाल उस के पति ही करते हैं. इतना ही नहीं, कभीकभी घर लौटने पर खाना भी तैयार मिलता है. दोनों एकदूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं जोकि वैवाहिक जीवन का आधार है.

ईद पर सेंवइयां व बकरीद पर मीट व अन्य व्यंजन बनाना तपस्या कभी नहीं भूलती और होली, दशहरा, दीवाली पर तपस्या के लिए नई साड़ी या अन्य उपहार लाना जमील को सदा याद रहता है. अभी शादी की पिछली वर्षगांठ पर 550 पौंड का चायना डिनर सेट जमील ने उसे भेंट किया था.

पर तपस्या मुझ से कहने लगी, ‘‘प्रेरणाजी, ये महंगे उपहार उन के प्यार व सहयोग की भावना के समक्ष कुछ भी नहीं हैं. मुझे शायद मेरे मांबाप द्वारा ढूंढ़ा गया मेरी जाति का लड़का इतना सुख न दे पाता जितना कि इस गैरधर्म, गैरदेश के युवक ने मुझे दिया है. मेरा आंचल तो भरता ही जा रहा है इन के प्यार की सौगात से,’’ और तपस्या की आंखें आंसुओं से छलछला गईं.

मैं सोचने लगी कि यदि आज ऐसे उदाहरणों को देखने के पश्चात भी समाज की आंखों पर जाति व धर्म का परदा पड़ा है तो ऐसा समाज किस काम का? आवश्यकता है हमें अपने मन की आंखों को खोल कर अपना भलाबुरा स्वयं समझने की. सच्चा प्यार भी देश, जाति, धर्म व समाज का मुहताज नहीं होता. प्यार की इस निर्मल स्वच्छ धारा को दूषित करते हैं हमारे ही समाज के कठोर नियम व संकीर्ण दृष्टिकोण.

कौन जाने: व्यर्थ की पीड़ा, द्वेष से क्यों छिनता है सुख चैन?

कितना क्षणिक है मानव जीवन. अगर मनुष्य जीवन का यह सार जान ले तो व्यर्थ की पीड़ा, द्वेष में अपने आज का सुखचैन न गंवाए. कितनी चिंता रहती थी वीना को अपने घर की, बच्चों की. लेकिन न वह, न कोई और जानता था कि जिस कल की वह चिंता कर रही है वह कल उस के सामने आएगा ही नहीं.

घर में मरघट सी चुप्पी थी. सबकुछ समाप्त हो चुका था. अभी कुछ पल पहले जो थी, अब वो नहीं थी. कुछ भी तो नहीं हुआ था, उसे. बस, जरा सा दिल घबराया और कहानी खत्म.

‘‘क्या हो गया बीना को?’’

‘‘अरे, अभी तो भलीचंगी थी?’’

सब के होंठों पर यही वाक्य थे.

जाने वाली मेरी प्यारी सखी थी और एक बहुत अच्छी इनसान भी. न कोई तकलीफ, न कोई बीमारी. कल शाम ही तो हम बाजार से लंबीचौड़ी खरीदारी कर के लौटे थे.

बीना के बच्चे मुझे देख दहाड़े मार कर रोने लगे. बस, गले से लगे बच्चों को मैं मात्र थपक ही रही थी, शब्द कहां थे मेरे पास. जो उन्होंने खो दिया था उस की भरपाई मेरे शब्द भला कैसे कर सकते थे?

इनसान कितना खोखला, कितना गरीब है कि जरूरत पड़ने पर शब्द भी हाथ छुड़ा लेते हैं. ऐसा नहीं कि सांत्वना देने वाले के पास सदा ही शब्दों का अभाव होता है, मगर यह भी सच है कि जहां रिश्ता ज्यादा गहरा हो वहां शब्द मौन ही रहते हैं, क्योंकि पीड़ा और व्यथा नापीतोली जो नहीं होती.

‘‘हाय री बीना, तू क्यों चली गई? तेरी जगह मुझे मौत आ जाती. मुझ बुढि़या की जरूरत नहीं थी यहां…मेरे बेटे का घर उजाड़ कर कहां चली गई री बीना…अरे, बेचारा न आगे का रहा न पीछे का. इस उम्र में इसे अब कौन लड़की देगा?’’

दोनों बच्चे अभीअभी आईं अपनी दादी का यह विलाप सुन कर स्तब्ध रह गए. कभी मेरा मुंह देखते और कभी अपने पिता का. छोटा भाई और उस की पत्नी भी साथ थे. वो भी क्या कहते. बच्चे चाचाचाची से मिल कर बिलखने लगे. शव को नहलाने का समय आ गया. सभी कमरे से बाहर चले गए. कपड़ा हटाया तो मेरी संपूर्ण चेतना हिल गई. बीना उन्हीं कपड़ों में थीं जो कल बाजार जाते हुए पहने थी.

‘अरे, इस नई साड़ी की बारी ही नहीं आ रही…आज चाहे बारिश आए या आंधी, अब तुम यह मत कह देना कि इतनी सुंदर साड़ी मत पहनो कहीं रिकशे में न फंस जाए…गाड़ी हमारे पास है नहीं और इन के साथ जाने का कहीं कोई प्रोग्राम नहीं बनता.

‘मेरे तो प्राण इस साड़ी में ही अटके हैं. आज मुझे यही पहननी है.’

हंस दी थी मैं. सिल्क की गुलाबी साड़ी पहन कर इतनी लंबीचौड़ी खरीदारी में उस के खराब होने के पूरेपूरे आसार थे.

‘भई, मरजी है तुम्हारी.’

‘नहीं पहनूं क्या?’ अगले पल बीना खुद ही बोली थी, ‘वैसे तो मुझे इसे नहीं पहनना चाहिए…चौड़े बाजार में तो कीचड़ भी बहुत होता है, कहीं कोई दाग लग गया तो…’

‘कोई सिंथेटिक साड़ी पहन लो न बाबा, क्यों इतनी सुंदर साड़ी का सत्यानास करने पर तुली हो…अगले हफ्ते मेरे घर किटी पार्टी है और उस में तुम मेहमान बन कर आने वाली हो, तब इसे पहन लेना.’

‘तब तो तुम्हारी रसोई मुझे संभालनी होगी, घीतेल का दाग लग गया तो.’

किस्सा यह कि गुलाबी साड़ी न पहन कर बीना ने वही साड़ी पहन ली थी जो अभी उस के शव पर थी. सच में गुलाबी साड़ी वह नहीं पहन पाई. दाहसंस्कार हो गया और धीरेधीरे चौथा और फिर तेरहवीं भी. मैं हर रोज वहां जाती रही. बीना द्वारा संजोया घर उस के बिना सूना और उदास था. ऐसा लगता जैसे कोई चुपचाप उठ कर चला गया है और उम्मीद सी लगती कि अभी रसोई से निकल कर बीना चली आएगी, बच्चों को चायनाश्ता पूछेगी, पढ़ने को कहेगी, टीवी बंद करने को कहेगी.

क्याक्या चिंता रहती थी बीना को, पल भर को भी अपना घर छोड़ना उसे कठिन लगता था. कहती कि मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है, और अब देखो, कितना समय हो गया, वहीं है वह घर और चल रहा है उस के बिना भी.

एक शाम बीना के पति हमारे घर चले आए. परेशान थे. कुछ रुपयों की जरूरत आ पड़ी थी उन्हें. बीना के मरने पर और उस के बाद आयागया इतना रहा कि पूरी तनख्वाह और कुछ उन के पास जो होगा सब समाप्त हो चुका था. अभी नई तनख्वाह आने में समय था.

मेरे पति ने मेरी तरफ देखा, सहसा मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही बीना ने मुझे बताया था कि उस के पास 20 हजार रुपए जमा हो चुके हैं जिन्हें वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करना चाहती है. रो पड़ी मैं बीना की कही हुई बातों को याद कर, ‘मुझे किसी के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता. कम है तो कम खा लो न, सब्जी के पैसे नहीं हैं तो नमक से सूखी रोटी खा कर ऊपर से पानी पी लो. कितने लोग हैं जो रात में बिना रोटी खाए ही सो जाते हैं. कम से कम हमारी हालत उन से तो अच्छी है न.’

जमीन से जुड़ी थी बीना. मेरे लिए उस के पति की आंखों की पीड़ा असहनीय हो रही थी. घर कैसे चलता

है उन्होंने कभी मुड़ कर भी नहीं देखा था.

‘‘क्या सोच रही हो निशा?’’ मेरे पति ने कंधे पर हथेली रख मुझे झकझोरा. आंखें पोंछ ली मैं ने.

‘‘रुपए हैं आप के घर में भाई साहब, पूरे 20 हजार रुपए बीना ने जमा कर रखे थे. वह कभी किसी से कुछ मांगना नहीं चाहती थी न. शायद इसीलिए सब पहले से जमा कर रखा था उस ने. आप उस की अलमारी में देखिए, वहीं होंगे 20 हजार रुपए.’’

बीना के पति चीखचीख कर रोने लगे थे. पूरे 25 साल साथ रह कर भी वह अपनी पत्नी को उतना नहीं जान पाए थे जितना मैं पराई हो कर जानती थी. मेरे पति ने उन्हें किसी तरह संभाला, किसी तरह पानी पिला कर गले का आवेग शांत किया.

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही सारा सामान मुझे और बेटे को दिखा रही थी. मैं ने पूछा था कि तुम कहीं जा रही हो क्या जो हम दोनों को सब समझा रही हो तो कहने लगी कि क्या पता मर ही जाऊं. कोई यह तो न कहे कि मरने वाली कंगली ही मर गई.

‘‘तब मुझे क्या पता था कि उस के कहे शब्द सच ही हो जाएंगे. उस के मरने के बाद भी मुझे कहीं नहीं जाना पड़ा. अपने दाहसंस्कार और कफन तक का सामान भी संजो रखा था उस ने.’’

बीना के पति तो चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी सोचती रही. जीवन कितना छोटा और क्षणिक है. अभी मैं हूं  पर क्षण भर बाद भी रहूंगी या नहीं, कौन जाने. आज मेरी जबान चल रही है, आज मैं अच्छाबुरा, कड़वामीठा अपनी जीभ से टपका रही हूं, कौन जाने क्षण भर बाद मैं रहूं न रहूं. कौन जाने मेरे कौन से शब्द आखिरी शब्द हो जाने वाले हैं. मेरे द्वारा किया गया कौन सा कर्म आखिरी कर्म बन जाने वाला है, कौन जाने.

मौत एक शाश्वत सचाई है और इसे गाली जैसा न मान अगर कड़वे सत्य सा मान लूं तो हो सकता है मैं कोई भी अन्याय, कोई भी पाप करने से बच जाऊं. यही सच हर प्राणी पर लागू होता है. मैं आज हूं, कल रहूं न रहूं कौन जाने.

मेरे जीवन में भी ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं पाती हूं. मेरे साथ चाहेअनचाहे जुड़े कुछ रिश्ते जो सदा कांटे से चुभते रहे हैं. कुछ ऐसे नाते जिन्होंने सदा अपमान ही किया है.

उन के शब्द मन में आक्रोश से उबलते रहते हैं, जिन से मिल कर सदा तनाव से भरती रही हूं. एकाएक सोचने लगी हूं कि मेरा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है, जिसे तनाव और घृणा की भेंट चढ़ा दूं. कुदरत ने अच्छा पति, अच्छी संतान दी है जिस के लिए मैं उस की आभारी हूं.

इतना सब है तो थोड़ी सी कड़वाहट को झटक देना क्यों न श्रेयस्कर मान लूं.  क्यों न हाथ झाड़ दूं तनाव से. क्यों न स्वयं को आक्रोश और तनाव से मुक्त कर लूं. जो मिला है उसी का सुख क्यों न मनाऊं, क्यों व्यर्थ पीड़ा में अपने सुखचैन का नाश करूं.

प्रकृति ने इतनी नेमतें प्रदान की हैं  तो क्यों न जरा सी कड़वाहट भी सिरआंखों पर ले लूं, क्यों न क्षमा कर दूं उन्हें, जिन्होंने मुझ से कभी प्यार ही नहीं किया. और मैं ने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया, बिना एक भी क्षण गंवाए, क्योंकि जीवन क्षणिक है न. मैं अभी हूं, क्षण भर बाद रहूं न रहूं, ‘कौन जाने.’

हैप्पी न्यू ईयर: नए साल में आखिर क्या करने जा रही थी मालिनी

दिसंबर का महीना था. किट्टी पार्टी इस बार रिया के घर थी. अपना हाऊजी का नंबर कटने पर भी किट्टी पार्टी की सब से उम्रदराज 55 वर्षीय मालिनी हमेशा की तरह नहीं चहकीं, तो बाकी 9 मैंबरों ने आंखों ही आंखों में एकदूसरे से पूछा कि आंटी को क्या हुआ है? फिर सब ने पता नहीं में अपनाअपना सिर हिला दिया. सब में सब से कम उम्र की सदस्या थी रिया. अत: उसी ने पूछा, ‘‘आंटी, आज क्या बात है? इतने नंबर कट रहे हैं आप के फिर भी आप चुप क्यों हैं?’’

फीकी हंसी हंसते हुए मालिनी ने कहा, ‘‘नहींनहीं, कोई बात नहीं है.’’

अंजलि ने आग्रह किया, ‘‘नहीं आंटी, कुछ तो है. बताओ न?’’

‘‘पवन ठीक है न?’’ मालिनी की खास सहेली अनीता ने पूछा.

‘‘हां, वह ठीक है. चलो पहले यह राउंड खत्म कर लेते हैं.’’

हाऊजी का पहला राउंड खत्म हुआ तो रिया ने पूछा, ‘‘अरे, आप लोगों का न्यू ईयर का क्या प्लान है?’’

सुमन ने कहा, ‘‘अभी तो कुछ नहीं, देखते हैं सोसायटी में कुछ होता है या नहीं.’’

नीता के पति विनोद सोसायटी की कमेटी के मैंबर थे. अत: उस ने कहा, ‘‘विनोद बता रहे थे कि इस बार कोई प्रोग्राम नहीं होगा, सब मैंबर्स की कुछ इशूज पर तनातनी चल रही है.’’ सारिका झुंझलाई, ‘‘उफ, कितना अच्छा प्रोग्राम होता था सोसायटी में… बाहर जाने का मन नहीं करता… उस दिन होटलों में बहुत वेटिंग होती है और ऊपर से बहुत महंगा भी पड़ता है. फिर जाओ भी तो बस खा कर लौट आओ. हो गया न्यू ईयर सैलिब्रेशन. बिलकुल मजा नहीं आता. सोसायटी में कोई प्रोग्राम होता है तो कितना अच्छा लगता है.’’

रिया ने फिर पूछा, ‘‘आंटी, आप का क्या प्लान है? पवन के पास जाएंगी?’’

‘‘मुश्किल है, अभी कुछ सोचा नहीं है.’’

हाऊजी के बाद सब ने 1-2 गेम्स और खेले, फिर सब खापी कर अपनेअपने घर आ गईं.मालिनी भी अपने घर आईं. कपड़े बदल कर चुपचाप बैड पर लेट गईं. सामने टंगी पति शेखर की तसवीर पर नजर पड़ी तो आंसुओं की नमी से आंखें धुंधलाती चली गईं…

शेखर को गए 7 साल हो गए हैं. हार्टअटैक में देखते ही देखते चल बसे थे. इकलौता बेटा पवन मुलुंड के इस टू बैडरूम के फ्लैट में साथ ही रहता था. उस के विवाह को तब 2 महीने ही हुए थे. जीवन तब सामान्य ढंग से चलने ही लगा था पर बहू नीतू अलग रहना चाहती थी. नीतू ने उन से कभी इस बारे में बात नहीं की थी पर पवन की बातों से मालिनी समझ गई थीं कि दोनों ही अलग रहना चाहते हैं. जबकि उन्होंने हमेशा नीतू को बेटी जैसा स्नेह दिया था. उस की गलतियों पर भी कभी टोका नहीं था. बेटी के सारे शौक नीतू को स्नेह दे कर ही पूरे करने चाहे थे.

पवन का औफिस अंधेरी में था. पवन ने कहा था, ‘‘मां, आनेजाने में थकान हो जाती है, इसलिए अंधेरी में ही एक फ्लैट खरीद कर वहां रहने की सोच रहा हूं.’’ मालिनी ने बस यही कहा था, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो. पर यह फ्लैट किराए पर देंगे तो सारा सामान ले कर जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों मां, किराए पर क्यों देंगे? आप रहेंगी न यहां.’’

यह सुन मालिनी को तेज झटका लगा, ‘‘मैं यहां? अकेली?’’

‘‘मां, वहां तो वन बैडरूम घर ही खरीदूंगा. वहां घर बहुत महंगे हैं. आप यहां खुले घर में आराम से रहना… आप की कितनी जानपहचान है यहां… वहां तो आप इस उम्र में नए माहौल में बोर हो जाएंगी और फिर हम हर हफ्ते तो मिलने आते ही रहेंगे… आप भी बीचबीच में आती रहना.’’

मालिनी ने फिर कुछ नहीं कहा था. सारे आंसू मन के अंदर समेट लिए थे. प्रत्यक्षत: सामान्य बनी रही थीं. पवन फिर 2 महीने के अंदर ही चला गया था. जाने के नाम से नीतू का उत्साह देखते ही बनता था. मालिनी आर्थिक रूप से काफी संपन्न थीं. उच्चपदस्थ अधिकारी थे शेखर. उन्होंने एक दुकान खरीद कर किराए पर दी हुई थी, जिस के किराए से और बाकी मिली धनराशि से मालिनी का काम आराम से चल जाता था. मालिनी को छोड़ बेटाबहू अंधेरी शिफ्ट हो गए थे. मालिनी ने अपने दिल को अच्छी तरह समझा लिया था. यों भी वे काफी हिम्मती, शांत स्वभाव वाली महिला थीं. इस सोसायटी में 20 सालों से रह रही थीं. अच्छीखासी जानपहचान थी, सुशिक्षित थीं, हर उम्र के लोग उन्हें पसंद करते थे. अब खाली समय में वे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी थीं. उन का अच्छा टाइम पास हो जाता था.

नीतू ने बेटे को जन्म दिया. पवन मालिनी को कुछ समय पहले ही आ कर ले गया था. नीतू के मातापिता तो विदेश में अपने बेटे के पास ही ज्यादा रहते थे. नन्हे यश की उन्होंने खूब अच्छी देखरेख की. यश 1 महीने का हुआ तो पवन उन्हें वापस छोड़ गया. यश को छोड़ कर जाते हुए उन का दिल भारी हो गया था. पर अब कुछ सालों से जो हो रहा था, उस से वे थकने लगी थीं. त्योहारों पर या किसी और मौके पर पवन उन्हें आ कर ले जाता था. वे भी खुशीखुशी चली जाती थीं. पर पवन के घर जाते ही किचन का सारा काम उन के कंधों पर डाल दोनों शौपिंग करने, अपने दोस्तों से मिलने निकल जाते. जातेजाते दोनों उन से कह चीजें बनाने की फरमाइश कर जाते. सारा सामान दिखा कर यश को भी उन के ही पास छोड़ जाते. यश को संभालते हुए सारे काम करते उन की हालत खराब हो जाती थी. काम खत्म होते ही पवन उन्हें उन के घर छोड़ जाता था. यहां भी वे अकेले ही सब करतीं. उन की वर्षों पुरानी मेड रजनी उन के दुखदर्द को समझती थी. उन की दिल से सेवा करती थी. इस दीवाली भी यही हुआ था. सारे दिन पकवान बना कर किचन में खड़ेखड़े मालिनी की हिम्मत जवाब दे गई तो नीतू ने रूखे धीमे स्वर में कहा पर उन्हें सुनाई दे गया था, ‘‘पवन, मां को आज ही छोड़ आओ. काम तो हो ही गया है. अब वहां अपने घर जा कर आराम कर लेंगी.’’

जब उन की कोख से जन्मा उन का इकलौता बेटा दीवाली की शाम उन्हें अकेले घर में छोड़ गया तो उन का मन पत्थर सा हो गया. सारे रिश्ते मोहमाया से लगने लगे… वे कब तक अपने ही बेटेबहू के हाथों मूर्ख बनती रहेंगी. अगर उन्हें मां की जरूरत नहीं है तो वे क्यों नहीं स्वीकार कर लेतीं कि उन का कोई नहीं है अब. वह तो सामने वाले फ्लैट में रहने वाली सारिका ने उन का ताला खुला देखा तो हैरान रह गई, ‘‘आंटी, आज आप यहां? पवन कहां है?’’ मालिनी बस इतना ही कह पाई, ‘‘अपने घर.’’ यह कह कर उन्होंने जैसे सारिका को देखा था, उस से सारिका को कुछ पूछने की जरूरत नहीं थी. फिर वही उन की दीवाली की तैयारी कर घर को थोड़ा संवार गई थी. बाद में थाली में खाना लगा कर ले आई थी और उन्हें जबरदस्ती खिलाया था.

उस दिन का दर्द याद कर मालिनी की आंखें आज भी भर आई हैं और आज जब वे किट्टी के लिए तैयार हो रही थीं, तो पवन का फोन आया था, ‘‘मां, इस न्यू ईयर पर मेरे बौस और कुछ कुलीग्स डिनर र घर आएंगे, आप को लेने आऊंगा.’’दीवाली के बाद पवन ने आज फोन किया था. वे बीच में जब भी फोन कर बात करना चाहती थीं, पर पवन बहुत बिजी हूं मां, बाद में करूंगा, कह कर फोन काट देता था.

नीतू तो जौब भी नहीं करती थी. तब भी महीने 2 महीने में 1 बार बहुत औपचारिक सा फोन करती थी. अचानक फोन की आवाज से ही वे वर्तमान में लौट आईं. वे हैरान हुईं, नीतू का फोन था, ‘‘मां, नमस्ते. आप कैसी हैं?’’

‘‘ठीक हूं, तुम तीनों कैसे हो?’’

‘‘सब ठीक हैं, मां. आप को पवन ने बताया होगा 31 दिसंबर को कुछ मेहमान आ रहे हैं. 15-20 लोगों की पार्टी है, मां. आप 1 दिन पहले आ जाना. बहुत सारी चीजें बनानी हैं और आप को तो पता ही है मुझे कुकिंग की उतनी जानकारी नहीं है. आप का बनाया खाना सब को पसंद आता है, आप तैयार रहना, बाद में करती हूं फोन,’’ कह कर जब नीतू ने फोन काट दिया तो मालिनी जैसे होश में आईं कि बच्चे इतने चालाक, निर्मोही क्यों हो जाते हैं और वे भी अपनी ही मां के साथ? इतनी होशियारी? कोई यह नहीं पूछता कि वे कैसी हैं? अकेले कैसी रहती हैं? बस, अपने ही प्रोग्राम, अपनी ही बातें. बहू का क्या दोष जब बेटा ही इतना आत्मकेंद्रित हो गया. मालिनी ने एक ठंडी सांस भरी कि नहीं, अब वे स्वार्थी बेटे के हाथों की कठपुतली बन नहीं जीएंगी. पिछली बार बेटे के घरगृहस्थी के कामों में उन की कमर जवाब दे गई थी. 10 दिन लग गए थे कमरदर्द ठीक होने में. अब उतना काम नहीं होता उन से.

अगली किट्टी रेखा के घर थी. न्यू ईयर के सैलिब्रेशन की बात छिड़ी, तो अंजलि ने कहा, ‘‘कुछ प्रोग्राम रखने का मन तो है पर घर तो वैसे ही दोनों बच्चों के सामान से भरा है मेरा. घर में तो पार्टी की जगह है नहीं. क्या करें, कुछ तो होना चाहिए न.’’

रेखा ने पूछा, ‘‘आंटी, आप का क्या प्रोग्राम है? पवन के साथ रहेंगी उस दिन?’’

‘‘अभी सोचा नहीं,’’ कह मालिनी सोच में डूब गईं.

उन्हें सोच में डूबा देख रेखा ने पूछा, ‘‘आंटी, आप क्या सोचने लगीं?’’

‘‘यही कि तुम सब अगर चाहो तो न्यू ईयर की पार्टी मेरे घर रख सकती हो. पूरा घर खाली ही तो रहता है… इसी बहाने मेरे घर भी रौनक हो जाएगी.’’

‘‘क्या?’’ सब चौंकी, ‘‘आप के घर?’’

‘‘हां, इस में हैरानी की क्या बात है?’’ मालिनी इस बार दिल खोल कर हंसीं.

रिया ने कहा, ‘‘वाह आंटी, क्या आइडिया दिया है पर आप तो पवन के घर…’’

मालिनी ने बीच में ही कहा, ‘‘इस बार कुछ अलग सोच रही हूं. इस बार नए साल की नई शुरुआत अपने घर से करूंगी और वह भी अच्छे सैलिब्रेशन के साथ. डिनर बाहर से और्डर कर मंगा लेंगे, तुम लोगों में से जो बाहर न जा रहा हो वह सपरिवार मेरे घर आ जाए… कुछ गेम्स खेलेंगे, डिनर करेंगे… बहुत मजा आएगा. और वैसे भी हमारा यह ग्रुप जहां भी बैठता है, मजा आ ही जाता है.’’

यह सुन कर रिया ने तो मालिनी के गले में बांहें ही डाल दीं, ‘‘वाह आंटी, क्या प्रोग्राम बनाया है. जगह की तो प्रौब्लम ही सौल्व हो गई.’’ सारिका ने कहा, ‘‘आंटी, आप किसी काम का प्रैशर मत लेना. हम सब मिल कर संभाल लेंगे और खर्चा सब शेयर करेंगे.’’

मालिनी ने कहा, ‘‘न्यू ईयर ही क्यों, तुम लोग जब कोई पार्टी रखना चाहो, मेरे घर ही रख लिया करो, तुम लोगों के साथ मुझे भी तो अच्छा लगता है.’’

‘‘मगर आंटी, पवन लेने आ गया तो?’’

‘‘नहीं, इस बार मैं यहीं रहूंगी.’’

फिर तो सब जोश में आ गईं और फिर पूरे उत्साह के साथ प्लान बनने लगा. कुछ दिनों बाद फिर सब मालिनी के घर इकट्ठा हुईं. सुमन, अनीता, मंजू और नेहा तो उस दिन बाहर जा रही थीं. नीता, सारिका, रिया, रेखा और अंजलि सपरिवार इस पार्टी में आने वाली थीं. सब के पति भी आपस में अच्छे दोस्त थे. मालिनी का सब से परिचय तो था ही… जोरशोर से प्रोग्राम बन रहा था. 30 दिसंबर को सुबह पवन का फोन आया, ‘‘मां, आज आप को लेने आऊंगा, तैयार रहना.’’

‘‘नहीं बेटा, इस बार नहीं आ पाऊंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कुछ प्रोग्राम है मेरा.’’

पवन झुंझलाया, ‘‘आप का क्या प्रोग्राम हो सकता है? अकेली तो हो?’’

‘‘नहीं, अकेली कहां हूं. कई लोगों के साथ न्यू ईयर पार्टी रखी है घर पर.’’

‘‘मां आप का दिमाग तो ठीक है? इस उम्र में पार्टी रख रही हैं? यहां कौन करेगा सब?’’

‘‘उम्र के बारे में तो मैं ने सोचा नहीं. हां, इस बार आ नहीं पाऊंगी.’’

पवन ने इस बार दूसरे सुर में बात की, ‘‘मां, आप इस मौके पर क्यों अकेली रहें? अपने बेटे के घर ज्यादा अच्छा लगेगा न?’’

‘‘अकेली तो मैं सालों से रह रही हूं बेटा, उस की तो मुझे आदत है.’’

पवन चिढ़ कर बोला, ‘‘जैसी आप की मरजी,’’ और गुस्से से फोन पटक दिया. पवन का तमतमाया चेहरा देख कर नीतू ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मां नहीं आएंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उन्होंने अपने घर पार्टी रखी है.’’

‘‘क्या? क्यों? अब क्या होगा, मैं तो इतने लोगों का खाना नहीं बना पाऊंगी?’’

‘‘अब तो तुम्हें ही बनाना है.’’

‘‘नहीं पवन, बिलकुल नहीं बनाऊंगी.’’

‘‘मैं सब को इन्वाइट कर चुका हूं.’’

‘‘तो बाहर से मंगवा लेना.’’

‘‘नहीं, बहुत महंगा पड़ेगा.’’

‘‘नहीं, मुझ से तो नहीं होगा.’’

दोनों लड़ पड़े. जम कर बहस हुई. अंत में पवन ने सब से मां की बीमारी का बहाना कर पार्टी कैंसिल कर दी. दोनों बुरी तरह चिढ़े हुए थे. पवन ने कहा, ‘‘अगर तुम मां के साथ अच्छा संबंध रखतीं तो मुझे आज सब से झूठ न बोलना पड़ता. अगर मां को यहां अच्छा लगता तो वे आज अलग वहां अकेली क्यों खुश रहतीं?’’ नीतू ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘मुझे क्या समझा रहे हो… तुम्हारी मां हैं, बिना मतलब के जब तुम ही उन्हें फोन नहीं करते तो मैं तो बहू हूं.’’

दोनों एकदूसरे को तानेउलाहने देते रहे. दूसरे दिन भी दोनों एकदूसरे से मुंह फुलाए रहे.

हाऊजी, गेम्स, म्यूजिक और बढि़या डिनर के साथ न्यू ईयर का जश्न तो मना, पर कहीं और.

जीती तो मोहे पिया मिले, हारी तो पिया संग

सियाने टक बिजनैस स्कूल हैनोवर से एमबीए किया तो भारी पैकेज के साथ गूगल ने उसे अपने यहां नौकरी दे कर उस के वीजा को ऐक्सटैंड करवा दिया. अब कुछ दिनों के लिए वह इंडिया जा रही थी. मगर इतना कुछ हासिल करने के बावजूद सिया के चेहरे पर गमों के बादल मंडरा रहे थे. आंसुओं के बोझ से पलकें सूज गई थीं. यह भी इत्तफाक ही था कि ठीक 2 साल पहले ही दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अपनों से दूर होने का शोकाकुल मन इमिग्रेशन के लिए सिया के बढ़ते कदमों को बारबार पीछे खींच रहा था और आज वही मन उस से कितनी निर्दयता से आंखमिचौली करते हुए उसे आगे ही नहीं बढ़ने दे रहा था.

बोस्टन की गलियों में सैम की बांहों में बंधी वह अनमनी सी दिन भर घूमती रही. उस के मन में उमड़ रहे विरहवियोग के समंदर को शांत करता सैम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ले कर स्टैनफोर्ड के चप्पेचप्पे में उसे घुमाता रहा. सिया के दुबलेपतले नाजुक शरीर को अपनी बांहों में भरते हुए सैम भर्राए कंठ से बोला, ‘‘मुझे ऐसे छोड़ कर मत जाओ सिया, मैं तुम्हारे बिना किसी आईने की तरह टूट कर बिखर जाऊंगा… जिसे तुम जानती तक नहीं उसी की होने के लिए लौट रही हो और जिस ने तुम्हें प्राणों से बढ़ कर चाहा उसे छोड़ रही हो.’’

सैम का इतना कहना था कि सिया किसी लता की तरह उस से लिपट गई. दोनों की आंखों से सावनभादो बरस रहे थे. सैम ने बांहों में भरी सिया को ला कर कार की पिछली सीट पर बैठा दिया. उसे आलिंगन में कसते हुए उस के अश्रुपूरित चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. सिया भी प्यार की इस बरसात में बिना किसी प्रतिवाद के भीगती रही. कभी न खत्म होने वाली जुदाई की घडि़यों से घबरा कर दोनों ने प्यार की मर्यादा की सरहद को पार कर लिया. दोनों को कहीं कोई पछतावा नहीं था. दोनों पूर्णता के एहसास में डूबउतरा रहे थे.

एकदूसरे को समर्पित हो कर दोनों का शोकाकुल मन ऊंची लहरों के जाने के बाद किसी समंदर की तरह शांत पड़ चुका था. परम संतुष्टि का एहसास संजोए अभीअभी शादी के बंधन में बंधे नए जोड़े की तरह दोनों घूमते रहे. मतवाला मन पंख लगा कर उड़ा जा रहा था. दोनों एकदूसरे में इतने खोए हुए थे कि हर बार उन की गाड़ी चारों ओर से घूम कर हाईवे पर आ कर रुक रही थी. यह बोस्टन शहर की अपनी विशेषता है.

सैम के गले में अपनी बांहों का हार पहनाते हुए सिया ने कहा, ‘‘सैम, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सारी जिंदगी इसी तरह गोलगोल घूमते रहें?’’ जवाब में सैम ने उसे बांहों में भर लिया. बड़ी जद्दोजहद के बाद दोनों ने अपने उतावलेपन पर काबू पाया. फिर सिया को बांहों में ही लिए भरे मन से सैम ने अपनी गाड़ी हवाईअड्डे की ओर मोड़ दी.

3 घंटे का रिपोर्टिंग टाइम बीत गया था. प्लेन के उड़ान भरने में घंटा भर रह गया था. सैम से गले मिल कर सिया सामान की ट्रौली के साथ झटके से आगे बढ़ तो गई मगर फिर उसी वेग से पीछे लौट कर सैम से लिपट गई. अश्रुपूरित नेत्रों से सिया ने सैम को बाय कहते हुए विदा ली. जब तक आंखों से वह ओझल नहीं हुई हाथ हिलाते हुए सैम उसे निहारता रहा. यह प्यार भी बड़ी खूबसूरत और अजीबोगरीब घटना होती है. जिस ने किया वह ठगा ही रह जाता है. कैसे प्यार के हजारों रंग मिल कर धनक बन कर, धड़कते दिलों में चुपके से उतर कर देश, जाति, धर्म, भाषा की सारी सरहदें चुटकियों में फांद जाते हैं.

‘उदास, बुझा हुआ सैम हैनोवर लौट रहा होगा,’ सोच सिया बेचैन हो उठी. 4 घंटे के सफर में उस के खयालों से शायद ही वह बाहर आ सकी. ‘यह भी बड़ा हसीन इत्तफाक है कि किसी दूसरे देश का वासी उस के सपनों का, अरे नहीं उस के जीवन का राजकुमार बन गया,’ सोच वह एक अजीब ठंड के एहसास से सिहर उठी. फिर शाल को ओढ़ते हुए सैम की छवि को कल्पना में साकार कर उठी कि काश, इस यात्रा में वह भी उस के साथ होता.

एक मीठी सी आह भर कर उस ने आंखें बंद कर लीं. सभी तरह से अनजान सैम चुपकेचुपके उस की धड़कन बन गया… 2 साल पहले के अतीत के सारे पन्ने 1-1 कर उस के समक्ष खुलते चले गए. डाइनिंगहौल में टेबल पर सजी केवल नौनवैज डिशेज को डबडबाई नजरों से देखती असहाय सी वैजिटेरियन सिया. सभी कितने आनंद से खाने का लुत्फ उठा रहे थे. सिया अपने कमरे में प्रवेश कर ही रही थी कि अचानक सैम वहां आ पहुंचा और फिर उसे डाइनिंगहौल में आने को विवश कर दिया.

बटर लगे ब्रैडपीस, दही और कुछ ताजे फलों के साथ सिया को प्लेट थमाई तो उस का मुरझाया चेहरा खिल उठा. दोनों के विषय एवं क्लासेज बिल्डिंग्स अलगअलग थीं फिर भी उस दिन के बाद से सैम उस की आवश्यकता बन कर उस की हर समस्या का समाधान बन गया. 1 साल बाद सभी स्टूडैंट्स होस्टल से बाहर कौटेज ले कर रहते हैं. 3 लड़कियों के साथ सिया के रहने की व्यवस्था सैम ने ही की. सिया के पैसे कम से कम खर्च हों, सैम को हर समय इस की चिंता रहती थी. उस भयानक रात को सिया कैसे भूल सकती है जब बर्फ का तूफान आया था. सारा हैनोवर अंटार्टिका बन गया था. बिजली के जाने से सब कुछ ठप हो गया था. आवागमन के सारे रास्ते बंद हो चुके थे.

इतनी ठंड और बर्फ की परवाह न करते हुए सैम सिया के खानेपीने के सामान के साथ उस के कौटेज आ गया था. उस तूफानी रात को सिया ने सैम को रोक लिया था. उस अंधेरी रात को दोनों ने टौर्च की रोशनी में बिताया था. बिजली की हर गरजना के साथ वह सहम कर सैम की हथेलियों को थाम लेती थी. ऐसा देश जहां सैक्स को भी और चीजों की तरह शारीरिक आवश्यकता समझा जाता है, उसी देश के एक फरिश्ते ने उसे आगोश में बांधे सारी रात गुजार दी पर कहीं असंयमित नहीं हुआ… मर्यादा की सीमा नहीं लांघी.

2 हफ्ते पहले सैम सिया को न्यूजर्सी ले गया था. ‘फारमर्स सन औफ गार्डन सिटी’ का कह कर स्वयं का परिचय देने वाले सैम के महल को सिया अपलक देखती रह गई. दरवाजे पर खड़ी चमचमाती 3-3 गाडि़यां, थोड़ी दूरी पर पार्क किया रिक्रीएशन व्हीकल, जो एक तरह से सारी सुविधाओं से सजा मोबाइल घर होता है, ट्रैक्टर, खेती करने के सारे औजार, स्टैबल में बंधे श्वेतश्याम रंग के तगड़े घोड़े, मुरगीखाना आदि को देख कर सिया को अपने देश के दीनहीन, भूखे किसान और उन के नंगधडं़ग बच्चे याद आ गए. कैसे लुटेरों के हाथों में देश चला गया है कि दिनोंदिन गरीबीबेकारी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है. सैम के मम्मीडैडी ने सिया को गले लगा कर प्यार किया. तीनों दिन तक उस की सुखसुविधा का खयाल अच्छी तरह रखने के लिए सैम को आगाह करते रहे. पर रात तक वे नीचे के लिविंग रूम में बैठ कर मूवी देखते रहते और फिर दोनों कितनी शालीनता से गुड नाइट कह अपनेअपने रूम में चले जाते. कोई ताकझांक नहीं.

राबर्ट वुड हौस्पिटल में मैडिसिन की पढ़ाई कर रही सैम की बहन एलिस भी मैमोरियल डे की छुट्टी पर घर आ गई थी. सिया और सैम को देख हंस कर उस ने परफैक्ट पेयर कहा. उस ने सिया को ढेर सारे परफ्यूम, लिपस्टिक और नेलपौलिश दी. सैम की मां ने भी फेयरी जैसे श्वेत परिधान के साथ धवल मोतियों का सैट मुसकराते हुए अंगरेजी में यह कहते हुए सिया को दिया, ‘‘सैम, तुम्हें बहुत चाहता है… हमेशा सुखी व खुश रहो.’’ सिया ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें देखा और फिर अपनी मिट्टी की परंपरा को निभाते हुए उन के पैरों को छू लिया. मैमोरियल डे के दिन सैम उसे न्यूयौर्क सिटी घुमाने ले गया. पूरा दिन दोनों एकदूसरे में बंधे घूमते रहे.

उस दिन हडसन नदी में अनगिनत बड़े जहाज आए थे. उन जहाजों पर कहीं विमान उतर रहे थे तो कहीं उड़ रहे थे जिन्हें देख कर सिया किसी बच्ची की तरह चहक उठी थी. सारे दर्शनीय स्थल देख कर दोनों थक गए थे. टाइम्स स्क्वायर में सड़क के किनारे बनी गैलरी में बैठ कर दोनों ने थिएटर का आनंद उठाया. वहीं पास के रेस्तरां में डिनर ले कर रौक फेलर सैंटर की विपरीत दिशा में बनी लोहे की बैंच पर बैठ गए.

रात को जब सिया को ठंड लगने लगी तो सैम ने उसे अपनी जैकेट के अंदर ले लिया. दोनों यों ही बैठे एकदूसरे के दिलों की धड़कनें सुनते रहे. सैम की उंगलियां जब सिया के बदन पर बिजली का करंट बन कर प्रवाहित होने लगीं तो वह जैकेट से बाहर आ गई. बड़ी मुश्किल से अपने बेताब मन को समझा सकी. ‘‘यू इंडियन बेबी,’’ कहते हुए सैम ने हंस कर उसे पास खींच लिया.

सड़क किनारे पार्किंग में लगी गाड़ी में दोनों ने सारी रात गुजारी थी. बहकते मन पर काबू पाना कितना मुश्किल लगा था.

मैसी मौल से सिया ने अपने मम्मीपापा, दिव्या व दिया के लिए ड्रैसेज लीं. उस के लाख मना करने के बावजूद सैम ने उन लोगों के लिए कितने उपहार खरीद दिए थे. सिया को तो उस ने अपनी पसंद की सारी चीजों से ढक दिया था.

आज जो भी घटित हुआ वह अचानक था, फिर भी कितना तसल्ली दे गया है मन को. जिसे मन से चाहा उस की समर्पिता भी हो गई. क्या हुआ जो अगर उस के म्ममीपापा अपनी सोच और पारिवारिक मर्यादा के लिए सैम को उस के जीवन में नहीं ला सके. वह अपने होंठों को सी लेगी. उफ तक नहीं करेगी. उन की इच्छा का मान रखते हुए वह राज से ब्याह कर लेगी. प्रीत की गली इतनी संकरी होती ही है कि जहां 2 दिल ही मुश्किल से समाते हैं तो तीसरे के समाने की गुंजाइश ही कहां रह जाती है. इस तन पर राज का अधिकार क्यों न हो जाए दुलहनियां तो सैम की ही रहेगी. अपनी समस्त पीड़ा को, मीठी कसक को आंसुओं से नहला आनंद उगा लेगी. जिस ने भी सच्ची प्रेम पगी इस चुनर को ओढ़ा उस के अंतर में ‘एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोए…’ के बोल प्रतिध्वनि हो उठे.

अतीत को खंगालने में सारा समय सिया ने आंखों में ही बिता दिया. देह की सिहरन उसे आनंद की चरम सीमा पर ले आई थी. बीते पलों की खुमारी उसे खुल कर सांसें भी नहीं लेने दे रही थी. सैम तो नहीं पर उस के परिमल को अपने साथ ले कर आई थी जिसे महसूस कर के उस के प्रेम का मधु पी कर सच में बौरा उठा था सिया का कणकण. जहाज की लैंडिंग की घोषणा हो रही थी.

जैसे ही सिया हवाईअड्डे से बाहर आई दोनों छोटी बहनें दिव्या और दिया दौड़ कर उस से लिपट गईं. मम्मीपापा की छलक आई आंखों को देखते ही वे दौड़ कर दोनों से लिपट गई. ‘‘मां देखो न दीदी कितनी खिल गई है… राज जीजू कितने खुश होंगे दीदी को देख कर… दीदी की उपलब्धियों पर उन्हें कितना गर्व होगा,’’ दिव्या बोली.

‘‘अच्छा तो बड़ी बातें बनाने लगी है तू,’’ कहते हुए सिया बुदबुदाई, ‘‘अरे बावरी सैम जीजू कह.’’

दूसरे दिन ही राज अपने मम्मीपापा के साथ सिया के घर आ गया. उसे देख कर सिया खुश नहीं हुई तो उसे दुख भी नहीं हुआ. सब कुछ उस ने अपनी नियति पर छोड़ दिया था. उस के मम्मीपापा तो उन के समक्ष छिपे जा रहे थे. उन्होंने सिया की टक स्कूल की उपलब्धियों को उन्हें बताया जिन्हें सुन कर वे चुप हो गए. औपचरिकता के लिए भी उन्होंने सिया को बधाई नहीं दी. एकांत पाते ही राज ने सिया के समक्ष अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा, ‘‘सुना है अमेरिका में लोग खुलेआम कहीं भी, किसी से भी सैक्स ऐंजौय कर लेते हैं… इतने लंबे समय में तुम ने कभी इस का आनंद लिया या नहीं? अगर नहीं लिया तो तुम परले दर्जे की बेवकूफ हो.

‘‘और कुछ नहीं तो लिप किस तो अवश्य दिया होगा जिसे कोई भी गले लगाते समय अंकित कर के होंठों पर मुहर लगा ही देता है. मुझे नहीं लग रहा है कि तुम इन सब से स्वयं को बचा पाई होगी. क्यों ठीक कहा न? कोई बात नहीं, जब मैं वहां जाऊंगा तो सूद सहित इस की भरपाई कर लूंगा,’’ कहते हुए उस ने सिया की उंगलियों को भींच दिया. दर्द से सिया के मुंह से कराह निकल गई. राज की ओछी मानसिकता पर, उस की गिरी सोच पर घृणा से सिया उस से हाथ छुड़ा कर भागी. कितना फर्क है सैम और राज की छुअन में… एक की जरा सी छुअन सारी ऋतुओं को पल भर में ही पावस और वसंत बना कर रख देती है तो दूसरे के स्पर्श से अनगिनत बिलबिलाते कीड़े उस के शरीर पर रेंग गए… कैसे इस लिजलिजे व्यक्ति के साथ अपना जीवन बिता पाएगी…

इंगेजमैंट से ले कर शादी का सारा इंतजाम सिया के पापा को करना था और ये सब किसी पांचसितारा होटल में होने की बात कह कर उन लोगों ने विदा ली. फेसटाइम कर के सिया ने सारी बातें सैम को बता कर अपने मन को हलका कर लिया था. जैसेजैसे इंगेजमैंट के दिन निकट आ रहे थे, राज के यहां से फरमाइशों की लिस्ट में कोई न कोई नई आइटम जुड़ती जा रही थीं. सिया के पापामम्मी चिंतित से लग रहे थे. उन की खुशियों का दायरा सिमटता जा रहा था.

जब उन्होंने कार की मांग रखी तो सिया के पापा उबल पड़े, ‘‘नहीं करनी हमें सिया की शादी इन लालचियों के यहां. मेरी प्रतिभाशाली बेटी के समक्ष कुछ भी तो नहीं है राज… एक मामूली इंजीनियर जो मेरी बेटी के बल पर अमेरिका जाएगा, फिर इस की मेहरबानियों से एच4 वीजा पर नौकरी करेगा.’’ ‘‘सच पापा,’’ कह कर सिया उन के गले लग गई.

तभी खुसरो की पंक्तियां उस के कानों में रस घोल गईं. ‘‘खुसरो बाजी प्रेम की लागी पी के संग, जीती तो मोहे पिया मिले, हारी तो पिया संग.’’

मारे खुशी के वह पूरी रात सैम से बातें करती प्रेम रस में भीगती रही. सैम से सभी आश्वासन पा कर सिया ने अगले दिन सैम के इतिहास से सभी घर वालों को अवगत करा दिया, जिसे सुन कर सभी सैम के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो गए. फिर क्या था, फेसटाइम पर सैम से सभी ने जी खोल कर बातें कीं. सैम के आकर्षक व्यक्तित्व और शालीनता ने सभी को मोह लिया.

बेटी के शानदार चयन पर गौरवान्वित हो पापा और मम्मी की आंखें भर आईं.

दिव्या व दिया भी आगे की पढ़ाई अमेरिका में करेंगी. सैम से आश्वासन पा कर सभी भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गए. सिया के लिए तो खुशियों की कायनात ही जमीं पर उतर आई थी. जो इश्क आसान नहीं था उसे सिया के धैर्य और अटल विश्वास ने प्राप्त कर लिया था. मीरा बन कर सैम की जोगिन तो हमेशा रहेगी तभी रुक्मिणी और सत्यभामा के जीवन को जी पाएगी.

3 हफ्ते के भीतर सैम अपने परिवार के साथ इंडिया आ गया. पहले रजिस्टर्ड मैरिज और फिर छेड़छाड़ वाली भारतीय परंपराओं वाली ऊटपटांग रस्मों व रिवाज से खूब धूमधाम से शादी हुई. भारतीय दूल्हा बना सैम सब का दुलारा बना हुआ था. उस की मम्मी, पापा और बहन की खुशियां सिया समेट नहीं पा रही थी. श्वेत परिधान और हीरेमोतियों के जेवरों से चमचमाती सिया और सैम के परिवार आपस में जुड़ गए. कहीं जाति, धर्म, देश का आडंबर नहीं था. एकदूसरे के घर के तौरतरीकों को मानसम्मान देते हुए दोनों परिवार खिल उठे थे.

फिर सैम और सिया ने अपना हनीमून अपने परिवार वालों के साथ भारत के सारे दर्शनीय स्थानों को घूमघूम कर मनाया. पंख लगा कर छुट्टी के दिन गुजर गए. अगले हफ्ते ही सिया और सैम को अपनी ड्यूटी जौइन करनी थी. हजारों खूबसूरत सपनों को पलकों में सजाए खुशी के आंसुओं को दामन में समेटे सिया वहां लौट गई जहां एक नया सूर्योदय उस के जीवन को आलोकित करने के लिए बेचैन था.

तुम प्रेमी क्यों नहीं: प्रेमी और पति में क्या फर्क होता है

शेखर के लिए मन लगा कर चाय बनाई थी, पर बाहर जाने की हड़बड़ी दिखाते हुए एकदम झपट कर उस ने प्याला उठा लिया और एक ही घूंट में पी गया. घर से बाहर जाते वक्त लड़ा भी तो नहीं जाता. वह तो दिनभर बाहर रहेगा और मैं पछताती रहूंगी. ऐसे समय में उसे घूरने के सिवा कुछ कर ही नहीं पाती.

मैं सोचती, ‘कितना अजीब है यह शेखर भी. किसी मशीन की तरह नीरस और बेजान. उस के होंठों पर कहकहे देखने के लिए तो आदमी तरस ही जाए. उस का हर काम बटन दबाने की तरह होता है.’ कई बार तो मारे गुस्से के आंखें भर आतीं. कभीकभी तो सिसक भी पड़ती, पर कहती उस से कुछ भी नहीं.

शादी को अभी 3 साल ही तो गुजरे थे. एक गुड्डी हो गई थी. सुंदर तो मैं पहले ही थी. हां, कुछ दुबली सी थी. मां बनने के बाद वह कसर भी पूरी सी हो गई. आईने में जब भी अपने को देखती हूं तो सोचती हूं कि शेखर अंदर से अवश्य मुरदा है, वरना मुझे देख कर जरा सी भी प्रशंसा न करे, असंभव है. कालिज में तो मेरे लिए नारा ही था, ‘एक अनार सौ बीमार.’

दूसरी ओर पड़ोस में ही किशोर बाबू की लड़की थी नीरू. बस, सामान्य सी कदकाठी की थी. सुंदरता के किसी भी मापदंड पर खरी नहीं उतरती थी. परंतु वह जिस से प्यार करती थी वह उस की एकएक अदा पर ऐसी तारीफों के पुल बांधता कि वह आत्मविभोर हो जाती. दिनरात नीरू के होंठों पर मुसकान थिरकती रहती. कभीकभी उस की बहनें ही उस से जल उठतीं.

नीरू मुझ से कहती, ‘‘क्या करूं, दीदी. वह मुझ से खूब प्यार भरी बातें करता है. हर समय मेरी प्रशंसा करता रहता है. मैं मुसकराऊं कैसे नहीं. कल मैं उस के लिए गाजर का हलवा बना कर ले गई तो उस ने इतनी तारीफ की कि मेरी सारी मेहनत सफल हो गई.’’

वास्तव में नीरू की बात गलत न थी. अब कोई मेहनत कर के आग की आंच में पसीनेपसीने हो कर खाना बनाए और खाने वाला ऐसे खाए जैसे कोई गुनाह कर रहा हो तब बनाने वाले पर क्या गुजरती है, यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है.

जाने शेखर ही ऐसा क्यों है. कभीकभी सोचती हूं, उस की अपनी परेशानियां होंगी, जिन में वह उलझा रहता होगा. दफ्तर की ही क्या कम भागदौड़ है. बिक्री अधिकारी है. आज यहां है तो कल वहां है. आज इस समस्या से उलझ रहा है तो कल किसी दूसरी परेशानी में फंसा है. परंतु फिर यह तर्क भी बेकार लगता है. सोचती हूं, ‘एक शेखर ही तो बिक्री अधिकारी नहीं है, हजारों होंगे. क्या सभी अपनी पत्नियों से ऐसा ही व्यवहार करते होंगे?’

वैसे आर्थिक रूप से शेखर बहुत सुरक्षित है. उस का वेतन हमारी गृहस्थी के लिए बहुत अधिक ही है. वह एक भरेपूरे घर का ऐसा मालिक भी नहीं है कि रोज नईनई उलझनों से पाला पड़े. परिवार में पतिपत्नी के अलावा एक गुड्डी ही तो है. सबकुछ तो है शेखर के पास. बस, केवल नहीं हैं तो उस के होंठों में शब्द और एक प्रेमी अथवा पति का उदार मन. इस के साथ नीरू तो दो पल भी न रहे.

मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी शेखर ने मुंह पर मेरे व्यवहार या सुंदरता की तारीफ की हो. मुझ पर कभी मुग्ध हो कर स्वयं को सराहा हो.

अब उस दिन की ही बात लो. नीरू ने गहरे पीले रंग की साड़ी पहन ली थी, जोकि उस के काले रंग पर बिलकुल ही बेमेल लग रही थी. परंतु रवि जाने किस मिट्टी का बना था कि वह नीरू की प्रशंसा में शेर पर शेर सुनाता रहा.

नीरू को तो जैसे खुशी के पंख लग गए थे. वह आते ही मेरी गोद में गिर पड़ी थी. मैं ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ नीरू, कोई बात हुई?’’

‘‘बात क्या होगी,’’ नीरू ने मेरी बांह में चिकोटी काट कर कहा, ‘‘आज क्या मैं सच में पीली साड़ी में कहर बरपा रही थी. कहो तो.’’

मैं क्या उत्तर देती. पीली साड़ी में वह कुछ खास अच्छी न लग रही थी, पर उसे खुश करने की गरज से कहा, ‘‘हां, सचमुच तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘बिलकुल ठीक,’’ नीरू चहक उठी, ‘‘रवि भी ऐसा ही कहता था. बस, वह मुझे देखते ही कवि बन जाता है.’’

मुझे याद है, एक बार पायल पहनने का फैशन चल पड़ा था. ऐसे में मुझे भी शौक चढ़ा कि मैं भी पायल पहन लूं. मेरे पैर पायलों में बंध कर निहायत सुंदर हो उठे थे. जिस ने भी उन दिनों मेरे पैर देखे, बहुत तारीफ की. पर चाहे मैं पैर पटक कर चलूं या साड़ी उठा कर चलूं, पायलों का सुंदर जोड़ा चमकचमक कर भी शेखर को अपनी ओर न खींच पाया था. एक दिन तो मैं ने खीझ कर कहा, ‘‘कमाल है, पूरी कालोनी में मेरी पायलों की चर्चा हो रही है, पर तुम्हें ये अभी तक दिखाई ही नहीं दीं.’’?

‘‘ऐं,’’ शेखर ने चौंक कर कहा, ‘‘यह वही पायलों का सेट है न, जो पिछले महीने खरीदा था. बिलकुल चांदी की लग रही हैं.’’

अब कैसे कहती कि चांदी या पायलों को नहीं, शेखर साहब, मेरे पैरों के बारे में कुछ कहिए. असल बात तो पैरों की तारीफ की है, पर कह न पाई थी.

यह भी तो तभी की बात है. नीरू ने भी मेरी पसंद की पायलें खरीदी थीं. उन्हें पहन कर वह रवि के पास गई थी. बस, जरा सी ही तो उन की झंकार होती थी, मगर बड़ी दूर से ही वे रवि के कानों में बजने लगी थीं. रवि ने मुग्ध भाव से उस के पैरों की ओर देखते हुए कहा था, ‘‘तुम्हारे पैर कितने सुंदर हैं, नीरू.’’

कितनी छोटीछोटी बातों की समझ थी रवि में. सुनसुन कर अचरज होता था. अगर नीरू ने उस से शादी कर ली तो दोनों की जिंदगी कितनी प्रेममय हो जाएगी.

मैं नीरू को सलाह देती, ‘‘नीरू, रवि से शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

पर नीरू को मेरी यह सलाह नहीं भाती. मुसकरा कर कहती, ‘‘रवि अभी प्रेमी ही बना रहना चाहता है, जब तक कि उस के मन की कविता खत्म न हो जाए.’’

‘‘कविता?’’ मैं चौंक कर रह जाती. रवि का मन कविता से भरा है, तभी उस से इतनी तारीफ हो पाती है. कितना आकुल रहता है वह नीरू के लिए. शेखर के मन में कविता ही नहीं बची है, वह तो पत्थर है, एकदम पत्थर. सामान्य दिनों को अगर मैं नजरअंदाज भी कर दूं तो भी बीमारी आदि होने पर तो उसे मेरा खयाल करना ही चाहिए. इधर बीमार पड़ी, उधर डाक्टर को फोन कर दिया. फिर दवाइयां आईं और मैं दूसरे दिन से ही फिर रसोई के कामों में जुट गई.

मुझे याद है, एक बार मैं फ्लू की चपेट में आ गई थी. शेखर ने बिना देर किए दवा मंगा दी थी, पर मैं जानबूझ कर अपने को बीमार दिखा कर बिस्तर पर ही पड़ी रही थी. शेखर ने तुरंत मायके से मेरी छोटी बहन सुलू को बुला लिया था. मैं चाहती थी कि शेखर नीरू के रवि की तरह ही मेरी तीमारदारी करे, मेरे स्वास्थ्य के बारे में बारबार पूछे, मनाए, हंसाए, मगर ऐसा कुछ न हुआ. बीमारी आई और भाग गई.

इतना ही नहीं, शेखर स्वयं बीमार पड़ता तो इस बात की मुझ से कभी अपेक्षा नहीं करता कि मैं उस की सेवाटहल में लगी रहूं. मैं जानबूझ कर उस के पास बैठ भी जाऊं तो मुझे जबरन उठा कर किसी काम में लगवा देता या अपने दफ्तरी हिसाब के जोड़तोड़ में लग जाता. ऐसी स्थिति में मैं गुस्से से उबल पड़ती. अगर कभी रवि बीमार होता तो उस की डाक्टर सिर्फ नीरू होती.

‘‘मैं रवि को पा कर कभी निराश नहीं होऊंगी, दीदी,’’ नीरू अकसर कहती, ‘‘उसे हमेशा मेरी चिंता सताती रहती है. मैं अगर चाहूं तो भी लापरवाह नहीं हो सकती. पहले ही वह टोक देगा. कभीकभी उस की याददाश्त पर मैं दंग हो जाती हूं. लगता है, जैसे वह डायरी या कैलेंडर हो.’’

याददाश्त के मामले में भी शेखर बिलकुल कोरा है. अगर कहीं जाने का कार्यक्रम बने तो वह अधिकतर भूल ही जाता है. सोचती हूं कि किसी दिन वह कहीं मुझे ही न भूल जाए.

एक दिन मैं ने शादी वाली साड़ी पहनी थी. शेखर ने देखा और एक हलकी सी मिठास से वह घुल भी गया, पर वह बात नहीं आई जो नीरू के रवि में पैदा होती. मुझे इतना गुस्सा आया कि मुंह फुला कर बैठ गई. घंटों उस से कुछ न बोली. शेखर को किसी भी चीज की जरूरत पड़ी तो गुड्डी के हाथों भिजवा दी. शेखर ने रूठ कर कहा, ‘‘अगर गुड्डी न होती तो आप हमें ये चीजें किस तरह से देतीं?’’

‘‘डाक से भेज देती,’’ मैं ने ताव खा कर कहा. शेखर हंसने लगा, ‘‘इतनी सी बात पर इतना गुस्सा. हमें पता होता कि बीवियों की हर बात की प्रशंसा करनी पड़ती है तो शादी से पहले हम कुछ ऐसीवैसी किताबें जरूर पढ़ लेते.’’

मैं ने भन्ना कर शेखर को देखा और बिलकुल रोनेरोने को हो आई, ‘‘प्रेमी होना हर किसी के बस की बात नहीं होती. तुम कभी प्रेमी न बन पाओगे. रवि को तो तुम ने देखा होगा?’’

‘‘कौन रवि?’’ शेखर चौंका, ‘‘कहीं वह नीरू का प्रेमी तो नहीं?’’

‘‘जी हां, वही,’’ मैं ने नमकमिर्च लगाते हुए कहा, ‘‘नीरू की एकएक बात की तारीफ हजार शब्दों में करता है. तुम्हारी तरह हर समय चुप्पी साधे नहीं रहता. बातचीत में भी इतनी कंजूसी अच्छी नहीं होती.’’

‘‘अरे, तो मैं क्या करूं. बिना प्रेम का पाठ पढ़े ही ब्याह के खूंटे से बांध दिए गए. वैसे एक बात है, प्रेमी बनना बड़ा आसान काम है समझीं, मगर पति बनना बहुत मुश्किल है.

‘‘जाने कितनी योग्यताएं चाहिए पति बनने के लिए. पहले तो उत्तम वेतन वाली नौकरी जिस से लड़की का गुजारा भलीभांति हो सके. सिर पर अपनी छत है या नहीं, घर कैसा है, उस के घर के लोग कैसे हैं, घर में कितने लोग हैं. लड़के में कोई बुराई तो नहीं, उस के अच्छे चालचलन के लिए पासपड़ोसियों का प्रमाणपत्र आदि चाहिए और जब पूरी तरह पति बन जाओ तो अपनी सुंदर पत्नी की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न करो. अपनेआप को ही लो. तुम्हें सोना, सजनासंवरना, गपें मारना, फिल्में देखना आदि यही सब तो आता था. नकचढ़ी भी कितनी थीं तुम. हमारे घर की सीमित सुविधाओं में तुम्हारा दम घुटता था.’’

अब शेखर बिलकुल गंभीर हो गया था, ‘‘तुम जानती ही हो कैसे मैं ने धीरेधीरे तुम्हें बिलकुल बदल दिया. व्यर्थ गपें मारना, फिल्में देखना सब तुम ने बंद कर दिया. फिर तुम ने मुझे भी तो बदला है,’’ शेखर ने रुक कर पूछा, ‘‘अब कहो, तुम्हें शेखर की भूमिका पसंद है या रवि की?’’

‘‘रवि की,’’ मैं दृढ़ता से बोली, ‘‘प्रेम ही जिंदगी है, यह तुम क्यों भूल जाते हो?’’

‘‘क्यों, मैं क्या तुम से प्रेम नहीं करता. हर तरह से तुम्हारा खयाल रखता हूं. जो बना कर देती हो, खा लेता हूं. दफ्तर से छुट्टी मिलते ही फालतू गपशप में उलझने के बजाय सीधा घर आता हूं. तुम्हें जरा सी छींक भी आए तो फौरन डाक्टर हाजिर कर देता हूं. क्या यह प्रेम नहीं है?’’

‘‘यह प्रेम है या कद्दू की सब्जी?’’ मैं बिलकुल झल्ला गई, ‘‘तुम्हें प्रेम करना रवि से सीखना पड़ेगा. दिनरात नीरू से जाने क्याक्या बातें करता रहता है. उस की तो बातें ही खत्म नहीं होतीं. नीरू कुछ भी ओढ़ेपहने, खाएपकाए रवि उस की प्रशंसा करते नहीं थकता. नीरू तो उसे पा कर किसी और चीज की तमन्ना ही नहीं रखती.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तब तुम ने नीरू से कभी यह क्यों नहीं कहा कि वह रवि से शादी कर ले.’’

‘‘कहा तो है…’’

‘‘फिर वह विवाह उस से क्यों नहीं करता?’’

‘‘रवि का कहना है कि जब तक उस के अंदर की कविता शेष न हो जाए तब तक वह विवाह नहीं करना चाहता. विवाह से प्रेम खत्म हो जाता है.’’

‘‘सब बकवास है,’’ शेखर उत्तेजित हो कर बोला, ‘‘आदमी की कविता भी कभी मरती है? जिस व्यक्ति ने सभ्यता को विनाशकारी अणुबम दिया, उस के अंदर की भी कविता खत्म नहीं हुई थी. ऐसा होता तो वह कभी अपने अपराधबोध के कारण आत्महत्या नहीं करता, समझीं. असल में रवि कभी भी नीरू से शादी नहीं करेगा. यह सब उस का एक खेल है, धोखा है.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘असल में बात तो प्रेमी और पति बनने के अंतर की है, यह रवि का चौथा प्रेम है. इस से पहले भी उस ने 3 लड़कियों से प्रेम किया था.

‘‘जब पति बनने का अवसर आया, वह भाग निकला. प्रेमी बनना बड़ा आसान है. कुछ हुस्नइश्क के शेर रट लो. कुछ विशेष आदतें पाल लो…और सब से बड़ी बात अपने सामने बैठी महिला की जी भर कर तारीफ करो. बस, आप सफल प्रेमी बन गए.

‘‘जब भी शादी की बात आएगी, देखना कैसे दुम दबा कर भाग निकलेगा.

‘‘तुम देखती चलो, आगेआगे होता है क्या? अब भी तुम्हें शिकायत है कि मैं रवि जैसा प्रेमी क्यों नहीं हूं? और अगर है तो ठीक है, कल से मैं भी कवितागजल की पुस्तकें ला कर तैयारी करूंगा. कल से मेरी नौकरी बंद. गुड्डी की देखभाल बंद, तुम्हारे शिकवेशिकायतें सुनना बंद, बाजारघर का काम बंद. बस, दिनरात तुम्हारे हुस्न की तारीफ करता रहूंगा.’’

शेखर के भोलेपन पर मेरी हंसी छूट गई. अब मैं कहती भी क्या क्योंकि यथार्थ की जमीन पर आ कर मेरे पैर जो टिक गए थे.

स्नेह मृदुल: एक दूसरे से कैसे प्यार करने लगी स्नेहलता और मृदुला

जेठ की कड़ी दोपहर में यदि बादल छा जाएं और मूसलाधार बारिश होने लगे तो मौसम के साथसाथ मन भी थिरक उठता है. मौसम का मिजाज भी स्नेहा की तात्कालिक स्थिति से मेल खा रहा था. जब से मृदुल का फोन आया था उस का मनमयूर नाच उठा था. उन दोनों के प्रेम को स्नेहा के परिवार की सहमति तो पहले ही मिल गई थी. इंतजार था तो बस मृदुल के परिवार की सहमति का. इसीलिए स्नेहा ने ही मृदुल को एक आखिरी प्रयास के लिए आगरा भेजा था. उस के मानने की उम्मीद तो काफी कम थी, परंतु स्नेहा मन में किसी तरह का मैल ले कर नवजीवन में कदम नहीं रखना चाहती थी. बस थोड़ी देर पहले ही मृदुल ने अपने घरवालों की रजामंदी की खुशखबरी उसे दी थी. कल सुबह ही मृदुल और उस के मातापिता आने वाले थे.

स्नेहा जब मृदुल से पहली बार मिली थी, तो उस के आत्मविश्वास से भरे निर्भीक व्यक्तित्व ने ही उसे सब से ज्यादा प्रभावित किया था. स्नेहा कालेज के तीसरे वर्ष में थी. अपनी खूबसूरती तथा दमदार व्यक्तित्व की वजह से वह कालेज में काफी लोकप्रिय थी. हालांकि पढ़ाई में वह ज्यादा होशियार नहीं थी, परंतु वादविवाद तथा अन्य रचनात्मक कार्यों में उस का कोई सानी नहीं था. अपनी क्लास से निकल कर स्नेहा कैंटीन की तरफ जा ही रही थी कि एक तरफ से आ रहे शोर को सुन कर रुक गई.

इंजीनियरिंग कालेज के नए सत्र के पहले दिन कालेज में काफी भीड़ थी. मनाही के बावजूद पुराने विद्यार्थी नए आए विद्यार्थियों की रैगिंग ले रहे थे. काफी तेज आवाज सुन कर स्नेहा उस तरफ मुड़ गई. ‘‘जूनियर हो कर इतनी हिम्मत कि हमें जवाब देती है. इसी वक्त मोगली डांस कर के दिखा वरना हम मोगली की ड्रैस में भी डांस करवा सकते हैं.’’

‘‘हा… हा… हंसी के सम्मिलित स्वर.’’ ‘‘शायद आप को पता नहीं कि दासप्रथा अब खत्म हो गई है. करवा सकने वाले आप हैं कौन? फिर भी अगर आप लोगों ने जबरदस्ती की तो इसी वक्त प्रिंसिपल के पास जा कर आप की शिकायत करूंगी… रैगिंग बंद है शायद इस की भी जानकारी आप को नहीं है.’’

‘‘बिच… लड़कों की तरह कपड़े पहन कर उन की तरह बाल कटवा कर भूल गई है कि तू एक लड़की है और यह भी कि हम तेरे साथ क्याक्या कर सकते हैं.’’ ‘‘जी नहीं, मैं बिलकुल नहीं भूली कि मैं एक लड़की हूं… और आप को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि ताकत दोनों टांगों के बीच क्या है. इस पर निर्भर नहीं करती. चाहिए तो आजमा कर देख लीजिए.’’

देखती रह गई थी स्नेहा. उस निर्भीक तथा रंगरूप में साधारण होते हुए भी असाधारण लड़की को.

इस से पहले कि वे लड़के उसे कुछ कहते, स्नेहा उन के बीच आ गई और उन लड़कों को आगे कुछ भी कहने अथवा करने से रोक दिया. लड़के द्वितीय वर्ष के थे. स्नेहा के जूनियर, इसलिए उस के मना करने पर वहां से चले गए. ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘मृदुला सिंह पर आप मुझे मृदुल कहें तो सही रहेगा. अब पापा ने बिना पूछे यह नाम रख दिया, तो मैं ने अपनी पसंद से उसे छोटा कर लिया.’’ ‘‘अच्छा…फर्स्ट ईयर.’’

‘‘जी, तभी तो ये लोग मेरी ऐसी की तैसी करने की कोशिश कर रहे थे.’’ पता नहीं क्यों स्नेहा स्वयं को उस के आगे असहज महसूस करने लगी. फिर थोड़ा सा मुसकराई और पलट कर वहां से चली ही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘आप ने तो अपना नाम बताया ही नहीं…’’

‘‘मैं?’’ ‘‘जी आप… अब इस खूबसूरत चेहरे का कोई तो नाम होगा.’’

‘‘हा… हा…’’ ‘‘मेरा नाम स्नेहलता है… मैं ने अपना नाम स्वयं छोटा नहीं किया… मेरे दोस्त मुझे स्नेहा बुलाते हैं.’’

‘‘मैं आप को क्या बुलाऊं… स्नेह… मैं आप को…’’ ‘‘1 मिनट… मैं तुम्हारी सीनियर हूं… तो तुम मुझे मैम बुलाओगी.’’

‘‘जी, मैडम.’’ ‘‘हा… हा…’’ दोनों एकसाथ हंस पड़ीं.

उम्र तथा क्लास दोनों में भिन्नता होने के बावजूद दोनों करीब आते चले गए. एक अजनबी डोर उन्हें एकदूसरे से बांध रही थीं. मृदुल आगरा के एक रूढि़वादी परिवार से थी. उस के घर में उस के इस तरह के पहनावे को ले कर उसे कई बातें भी सुननी पड़ती थीं. उस के घर वाले तो उस के इतनी दूर आ कर पढ़ाई करने के भी पक्ष में नहीं थे, परंतु इन सभी स्थितियों को उस ने थोड़े प्यार तथा थोड़ी जिद से अपने पक्ष में कर लिया था. हालांकि इस के लिए उसे एक बहुत लंबी लड़ाई भी लड़नी पड़ी थी, परंतु हारना तो उस ने सीखा ही नहीं था.

उस के पिता का डेरी का बिजनैस था. बड़े भाई तथा बहन की शादी हो चुकी थी. उस से छोटी उस की एक बहन थी. मृदुल बचपन से एक मेधावी छात्रा रही थी. छोटी क्लास से ही उसे छात्रवृत्ति मिलने लगी थी. इसलिए पिता को सहमत करने में उसे अपने टीचर्स का साथ भी मिला था. इस के इतर स्नेहा मणिपुर के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार की एकलौती संतान थी. मातापिता की लाडली. उस के पिता इंफाल के मशहूर आभूषण विक्रेता थे. उस के परिवार वाले तथा स्वयं वह भी काफी आधुनिक विचारों वाली थी.

आर्थिक, सामाजिक तथा पारिवारिक भिन्नता भी दोनों को बांट न सकी. दोनों की दोस्ती और गहरी होती चली गई. इतनी सारी भिन्नताओं के बावजूद दोनों में एक बहुत बड़ी समानता थी. पुरुषों की तरफ किसी भी तरह का आकर्षण न होने की. वैसे तो दोनों के कई पुरुष मित्र थे. परंतु सिर्फ मित्र. 1-2 बार स्नेहा ने कुछ मित्रों के करीब जाने की कोशिश भी की थी, परंतु अपनेआप को निर्लिप्त पाया था उस ने. जो आकर्षण एक पुरुष के लिए स्नेहा चाहती थी, वही आकर्षण मृदुल के लिए महसूस करने लगी थी. वह जान गई थी कि वह बाकी लड़कियों जैसी नहीं है. स्नेहा यह भी जान गई थी कि उसे मृदुल से प्रेम हो गया है, परंतु दिल की बात होंठों तक लाने में झिझक रही थी.

नदी की धारा के विपरीत बहने के लिए जिस साहस की आवश्यकता थी, स्नेहा वह बटोर नहीं पा रही. क्या होगा यदि मृदुल ने उसे गलत समझ लिया? वह उस की दोस्ती खोना नहीं चाहती थी. मगर एक दिल मृदुल ने ही उस की सारी समस्या का समाधान कर दिया. क्लास के बाद अकसर दोनों पास के पार्क में चली जाती थीं. उस दिन अचानक ही मृदुल ने उस की तरफ देख कर पूछा, ‘‘तुम मुझ से कुछ कहना चाहती हो स्नेह?’’

‘‘मैं… नहीं… नहीं तो?’’ ‘‘कह दो स्नेह…’’

‘‘मृदुल वह… वह… मुझे लगता है कि मैं…’’ साहस बटोर कर इतना ही कह पाई स्नेहा. ‘‘मैं नहीं स्नेह… हम दोनों एकदूसरे से प्रेम करते हैं.’’

जिस बात को आधुनिक स्नेहा कहने में झिझक रही थी उसी बात को रूढि़वादी सोच में पलीबढ़ी मृदुला ने सहज ही कह दिया. अचंभित रह गई थी स्नेहा.

‘‘मृदुल परंतु… कहीं यह असामान्य तो…’’ ‘‘प्रेम असामान्य अथवा सामान्य नहीं होता. प्रेम तो प्रेम होता है. परंतु क्योंकि हम दोनों ही स्त्री हैं, तो हमारे बीच का प्रेम अनैतिक, अप्राकृतिक तथा असामान्य है. पता है स्नेह प्रकृति कभी भेदभाव नहीं करती. परंतु समाज सदा से करता आया है.

यह समाज इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझ पाता कि हम भी उन की तरह हंसतेबोलते है, उन की तरह हमारा भी दिल धड़कता है तथा उन की तरह की स्वतंत्र हैं. हां, एक भिन्नता है… उन के मानदंड के हिसाब से हम खरे नहीं उतरते. हमारा हृदय एक पुरुष की जगह स्त्री के लिए धड़कता है.’’ ‘‘वे यह समझ नहीं पाते हैं कि प्रकृति ने ही हमें ऐसा बनाया है.’’

‘‘तुम ने संगम का नाम तो सुना होगा स्नेह?’’ ‘‘हांहां मृदुल… प्रयाग में न?’’

हां, वहां 2 नदियों का मिलन होता है. गंगा तथा यमुना दोनों को ही हमारे देश में स्त्री मानते हैं. उन के साथ एक और नदी सरस्वती भी होती है, जो उन के अभूतपूर्व मिलन की साक्षी होती है. ‘‘आओ अब इसे एक अलग रूप में देखते हैं… 2 नदियां अथवा 2 स्त्रियां… दोनों का संगम… दोनों का एकिकार होना… जब ये पूजनीय हैं, तो 2 स्त्रियों का प्रेम गलत कैसे? कितना विरोधाभाष है’’

‘‘हां मृदुल वह तो है ही. मातापिता के विरोध के बावजूद विवाह करने वाले शिवपार्वती की तो लोग पूजा करते हैं. पर जब स्वयं की बेटी अथवा बेटा अपनी मरजी से विवाह करना चाहे तो उन की हत्या… परिवार की इज्जत के नाम पर.’’ ‘‘हां स्नेह… इस समाज में बलात्कार करने वाले, दंगा करने वाले, खून करने वाले सब सामान्य हैं. इन में से कई तो नेता बन बैठ जाते है, परंतु हम जैसे प्रेम करने वाले अपराधी तथा अमान्य हैं.’’

प्रेम के पथ पर वे आगे बढ़े जरूर परंतु अपने कैरियर पर ध्यान देना कम नहीं किया. वे दोनों ही काफी व्यावहारिक थीं. वे जानती थीं कि किसी भी तरह का निर्णय लेने से पहले उन का आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना आवश्यक था. इसलिए दोनों ने एक पल के लिए भी अपना ध्यान अपनी पढ़ाई से हटने नहीं दिया.

कुछ ही सालों में स्नेहा तथा मृदुल दोनों को ही काफी अच्छी नौकरी मिल गई. मृदुल तो अपना लेखन कार्य भी करने लगी थी. कई पत्रपत्रिकाओं में उस की कहानियां, लेख तथा कविताएं छपती थीं. आजकल वह एक उपन्यास पर काम कर रही थी. 9 खूबसूरत साल बीत गए थे. उन दोनों ने अपना एक फ्लैट भी ले लिया था. मुंबई की जिस कालोनी में वे रहती थीं. वहां के ज्यादातर लोगों को उन के बारे में पता था. मुंबई शहर की यही खूबसूरती है, वह सब को बिना भेदभाव के अपना लेता है. कई लोगों द्वारा उन्हें डिनर पर आमंत्रित भी किया गया था.

स्नेहा और मृदुल के सारे दोस्त उन की प्रेम की मिसाल देते थे. परंतु घरवालों की तरफ से अब शादी के लिए दबाव बढ़ने लगा था. इसलिए उन्होंने अपने रिश्ते को एक नाम देने की सोची. हालांकि मृदुल को यह आवश्यक नहीं लगता था, परंतु स्नेहा विवाह करना चाहती थी. इस के बाद दोनों ने अपने परिवार को वस्तुस्थिति से अवगत कराने की सोची. जैसा कि उम्मीद थी, दोनों परिवारों के लिए यह खबर किसी विस्फोट से कम नहीं थी. दोनों परिवार वाले उन की दोस्ती से अवगत थे, परंतु यह सत्य उन्हें नामंजूर था.

स्नेहा के मातापिता को मनाने के लिए वे दोनों साथ गई थीं. कुछ ही दिनों में उन का प्यार स्नेहा के मातापिता को उन के करीब ले आया. उन्होंने उन के रिश्ते को बड़े प्यार से अपना लिया. चलते समय जब मृदुल ने स्नेहा की मां को बड़े प्यार से मणिपुरी में कहा कि नंग की राशि यमलेरे (आप का चेहरा बहुत सुंदर है) तो वे खिलखिला उठी थीं. मृदुल ने स्नेहा के प्यार में टूटीफूटी मणिपुरी भी सीख ली थी. परंतु मृदुल के परिवार वाले काफी नाराज हो गए थे. उन्होंने मृदुल से सारे रिश्ते तोड़ लिए थे. डेढ़ साल की जद्दोजहद के बाद कुछ महीनों में मृदुल का परिवार उन के रिश्ते को ले कर थोड़ा सकारात्मक लग रहा था. इसलिए एक आखिरी कोशिश करने मृदुल वहां गई थी. अगले हफ्ते वे दोनों शादी करने की सोच रही थीं.

मृदुल के मातापिता ने तो स्नेहा को भी आमंत्रित किया था. स्नेहा जाना भी चाहती थी, परंतु जाने क्या सोच कर मृदुल ने मना कर दिया. फिर मृदुल के समझाने पर स्नेहा मान गई थी. अभी थोड़ी देर पहले मृदुल का फोन आया था और उस ने यह खुशखबरी दी थी. रात बिताना स्नेहा के लिए बहुत कठिन हो रहा था. उसे लग रहा था. जैसे घड़ी जान कर बहुत धीरे चल रही है. अपने स्वर्णिम भविष्य का सपना देखते हुए स्नेहा सो गई.

अगले दिन रविवार था. देर तक सोने वाली स्नेहा सुबह जल्दी उठ गई थी. पूरे घर की सफाई में लगी थी. उस घर की 1-1 चीज स्नेहा और मृदुल की पे्रमस्मृति थी. सुबह से दोपहर हो गई और फिर रात. न तो मृदुल स्वयं आई न ही उस का कोई फोन आया. स्नेहा के बारबार फोन करने पर भी जब मृदुल का फोन नहीं लगा तब स्नेहा ने मृदुल के पापा को फोन किया. उन का फोन भी बंद था.

स्नेहा का दिल किसी अनजानी आशंका से घबराने लगा था. उस के सारे दोस्त आ गए थे. पूरी रात आंखों में निकाल दी थी उन सभी ने. अगले दिन सुबह ही आगरा पुलिस थाने से फोन आया, ‘‘आप की सहेली मृदुला सिंह की मृत्यु छत से गिरने की वजह से हो गई. उन का पूरा परिवार शोककुल है, इसलिए आप को फोन नहीं कर पाए. उन का अंतिम संस्कार आज है. आप आना चाहें तो आ सकती हैं.’’

दर्द से टूट गई स्नेहा. मृत्यु…, मृत्यु…, उस के मृदुल की… नहीं… यह सच नहीं हो सकता ऐसा कैसे हो सकता है… उस ने ही जिद कर के मृदुल को भेजा था. वह तो जाना भी नहीं चाहती थी. स्नेहा को लग रहा था कि सारी गलती उस की है. उस के मम्मीपापा भी इंफाल से आ गए थे. इस दुख की घड़ी में वे अपनी लाडली को कैसे अकेला छोड़ सकते.

2 महीनों तक स्नेहा ने अपनेआप को उस घर में कैद कर लिया था. फिर दोस्तों तथा मम्मीपापा के समझाने पर वह इंफाल जाने को तैयार हो गई. मोबाइल औन कर के अपने औफिस फोन करने की सोच रही थी. उस ने फोन औन किया ही था कि उस की स्क्रीन पर एक वौइस मैसेज आया. स्नेहा यह देख कर चौंक गई, क्योंकि मैसेज मृदुल का था. यह मैसेज उसी दिन का था जिस दिन मृदुल की मृत्यु हुई थी. कांपते हुए हाथों से उस ने मैसेज पर क्लिक किया और मृदुल की आवाज… दर्द में डूबी हुई आवाज…

‘‘स्ने… स्नेह… श… ये… लोग… मुझे मारे देंगे… मैं कोशिश कर रही हूं तुम तक पहुंचने की… पर अगर मैं नहीं आ पाई तो… आगे बढ़ जाना स्नेह… इ ना ननगबु यमना नुंग्सी (मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं).’’ स्नेहा के मातापिता तथा उस के दोस्तों के लिए उसे चुप कराना मुश्किल हो गया था. सब ने सोचा उसे इस माहौल से निकालना जरूरी था. मृदुल के परिवार वाले काफी खतरनाक लोग लग रहे थे. परंतु सब के लाख समझाने पर जब स्नेहा नहीं मानी तो उस की मां वहीं उस के पास रुक गईं. स्नेहा ने मृदुल के हत्यारों को सजा दिलाने की ठान ही थी.

अगले 6 महीने स्नेहा केस के लिए दौड़भाग करती रही. इस लड़ाई में उस के मातापिता तथा दोस्तों का भी सहयोग मिल रहा था. परंतु लड़ाई बहुत कठिन तथा लंबी थी. उस रात स्नेहा को नींद नहीं आ रही थी. कौफी बना कर मृदुल के लिखने वाली टेबल पर बैठ गई. जब भी उसे मृदुल की बहुत याद आती वह वहां बैठ जाती थी. अचानक उस का हाथ मेज की दराज पर चला गया. दराज खुलते ही मृदुल का अधूरा उपन्यास उस के सामने था, जिसे वह बिलकुल भूल गई थी. उफ मृदुल ने तो एक दूसरा काम भी उस के लिए छोड़ा है. यह उपन्यास उसे ही तो पूरा करना होगा.

बड़े प्रेम से स्नेहा ने उपन्यास के शीर्षक को चूमा… स्नेह मृदुल शीर्षक के नीचे कुछ पंक्तियां लिखी थीं: ‘‘स्नेह की डोर में बंधे… स्नेह मृदुल,

मृदुल, कोमल, कंचन है प्रेम जिन का वह स्नेह मृदुल, संगम जिन का मिल पाना भी है कठिन, वह स्नेह मृदुल, जिन का प्रेम है परिमल वह स्नेह मृदुल…, स्नेह मृदुल… स्नेह मृदुल.’’

इस प्यार को हो जाने दो

प्यार धर्मजाति की दीवारों से परे पनपता है. अफजल और पूनम इस की गिरफ्त में थे. लेकिन रिश्तेदार व जमाने वाले ऐसे प्यार को धर्म की भट्टी में राख करने को उतारू रहते हैं. यह तो पूनम व अफजल के लिए किसी कड़े इम्तिहान से कम न था, क्या हुआ दोनों का…

कालेज के वार्षिक उत्सव की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. सभी छात्रछात्राएं अपनीअपनी खूबियों के अनुसार कार्यक्रम में भाग ले रहे थे. अफजल को गजलें लिखने का शौक था. उस की गजल का हर शब्द काबिलेतारीफ होता. पूरा कालेज दीवाना था उस की गजलों का. पूनम को गीतसंगीत बहुत पसंद था. बहुत मीठी आवाज थी उस की. पूरा कालेज उसे ‘स्वर कोकिला’ के नाम से जानता था. दोनों हर कार्यक्रम में एकसाथ ही भाग लेते. और न जाने कब दोनों एकदूसरे को चाहने लगे.

वेलैंटाइन डे पास आ रहा था. कालेज व बाजार में उस का माहौल अपना असर दिखा रहा था. कालेज के कई लड़केलड़कियां कार्ड खरीद कर लाए थे और अफजल से कुछ पंक्तियां लिख कर देने को कह रहे थे ताकि वे कार्ड में लिख अपने प्यार का इजहार कर सकें.

वहीं, कुछ लोगों ने वेलैंटाइन डे पर लाल गुलाब का गुलदस्ता बनवाया था. अफजल आज एक लाल गुलाब ले कर पूनम के पास जा पहुंचा और बोला, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं, पूनम. क्या तुम स्वीकारोगी मेरा प्यार?’’ यह कह वह अपने प्यार का इजहार कर बैठा. पूनम अफजल को मन ही मन चाहने लगी थी. सो, उस ने फूल हाथ में ले, शरमाते हुए, झुकी पलकों संग उस के प्यार को स्वीकार कर लिया था.

दोनों का प्यार बादलों के संग उड़ते हुए आजाद परिंदों की तरह परवाज करने लगा था. कालेज के बाद दोनों छिपछिप कर मिलने लगे थे. लेकिन इश्क और मुश्क भला छिपाए छिपे हैं किसी से? कालेज के सभी लोग उन्हें ‘हंसों का जोड़ा’ के नाम से पुकारते. इसी तरह मिलते और प्यार में डूबे 4 वर्ष बीत गए.

कालेज खत्म कर दोनों अपनीअपनी नौकरियों में लग गए. पूनम अपनी पूरी तनख्वाह अपनी मां के हाथ में रखती, हां, कुछ रुपए हर तनख्वाह में से अपने भाइयों के लिए उपहार के लिए रख लेती.

अब पूनम के घर में उस के विवाह के लिए चर्चा होने लगी थी और वह बहुत चिंतित हो गई थी. आज पूनम जब अफजल से मिली, कहने लगी, ‘‘अफजल, मेरे मातापिता मेरी शादी की बात कर रहे हैं और मुझे नहीं लगता कि वे हमारे प्यार को स्वीकारेंगे.’’

अफजल ने जवाब में कहा, ‘‘पूनम, तुम घबराओ नहीं. तुम अपनी मां को बताओ तो सही या मैं तुम्हारे पिताजी से बात करूं?’’

पूनम कहने लगी, ‘‘अफजल, देखती हूं, आज मैं ही मां को बता देती हूं.’’

जैसे ही मां ने सुना, वे तो बिफर पड़ी और आव देखा न ताव, जा बताया पिताजी को. जैसे ही पूनम के पिताजी ने उस के मुंह से अफजल का नाम सुना, तो वे आगबबूला हो उठे. मां तो कोसने लगी,  ‘‘कहा था लड़की को इतनी छूट मत दो. अब पोत रही है न हमारे मुंह पर कालिख. क्या फायदा इस को पढ़ानेलिखाने का. रातदिन इस की चिंता लगी रही. कभी देर से घर आती तो कलेजा मुंह को आ जाता. किंतु यह दिन दिखाएगी, ऐसा तो सोचा भी न था. मैं सोचती थी पढ़लिख जाए तो अच्छे घर में रिश्ता हो जाएगा. अपने पैरों पर खड़ी होगी तो किसी की मुहताज न होगी. पर हमें तो इस ने कहीं का न छोड़ा, अब क्या मुंह दिखाएंगे हम समाज में.’’

पिताजी बोले, ‘‘अगर प्रेम ही करना था तो कोई हिंदू लड़का नहीं मिला था. इन मुसलमानों में ही तुझे ज्यादा प्यार नजर आया? उन के घर में बुर्का पहन कर रहेगी? मांसमछली खाएगी? अपने धर्म की गीता छोड़ 5 वक्त नमाज पढ़ेगी? अरे, समझती क्यों नहीं, नाम भी बदल देंगे तेरा, जो कि तेरी अपनी पहचान है, कहीं की न रहेगी तू?’’

पूनम ने कितनी बार समझाने की कोशिश की थी अपनी मां को. वह कहती, ‘‘मां, अफजल एक नेक इंसान है, 4 साल साथ में गुजारे हैं हम ने और फिर हम एकदूसरे को अच्छे से समझते भी हैं. ऐसे में तुम क्यों खिलाफ हो उस के? उस की जगह किसी हिंदू लड़के से शादी कर लूं और हमारे विचार ही आपस में न मेल खाएं तो उस शादी का क्या फायदा मां? शादी तो 2 इंसानों का मिलन होता है, उस में धर्म की दीवार क्यों मां? क्या तुम पिताजी के साथ खुश हो मां?’’ जैसेतैसे अपनी जिंदगी की गाड़ी घसीट ही तो रहे हैं आप लोग.’’

इतना सुन मां ने उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया, ‘‘बेशर्म, जबान लड़ाती है, इतनी अंधी हो गई है उस मुसलमान के प्यार में?’’

उस के घर में तो धर्म का बोलबाला था, कोई उस की बात समझना तो दूर की बात, सुनने के लिए भी तैयार न था. इसी कारण उन दोनों ने कोर्टमैरिज करने का फैसला किया. और कोई चारा भी न था.

शादी के बाद जब वे दोनों पूनम के घर आशीर्वाद लेने आए, उस के पिता कहने लगे, ‘‘हमारी छूट व प्यार का गलत फायदा उठाया है तुम ने. जरा सोचो, तुम्हारे छोटे भाइयों का क्या होगा आगे? कुछ तो लिहाज किया होता. बिरादरी में हमारी नाक क्यों कटवा दी? तुझे पैदा होते ही क्यों न मार डाला हम ने? जाओ, अब जहां रिश्ता जोड़ा है वहीं जा कर रहो. अब तो वे तुम्हारा धर्म भी परिवर्तन कर देंगे. अल्लाहअल्लाह करना रातदिन.’’

पूनम चुपचाप सब सुन रही थी. बीचबीच में कुछ बोलने की कोशिश करती, किंतु पिताजी के गुस्से के सामने चुप हो जाती. थोड़ी सी आस अपने दोनों भाइयों से थी. किंतु जैसे ही उस ने उन से नजरें मिलाने की कोशिश की, एक ने तो मुंह फेर लिया और दूसरे ने उस का हाथ पकड़ दरवाजे का रास्ता दिखा दिया और कहा, ‘‘जाओ दीदी, अब इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए सदा के लिए बंद हैं.’’

अफजल दरवाजे के बाहर ही खड़ा सुन रहा था. वह चाहता था कि पूनम के पिताजी से बात करे, किंतु पूनम ने उसे रोक दिया था और वह अफजल से बोली, ‘‘चलो अफजल, घर चलते हैं, पिताजी नहीं मानने वाले.’’

उस के जातेजाते पिताजी ने कह दिया था, ‘‘यदि वे तुम्हें इस्तेमाल कर तलाक दे कर निकाल दें तो लौट कर न आना वापस.’’ अफजल को भी बहुत बुरा लग रहा था कि पूनम उस से प्यार व निकाह क्या कर बैठी, आशीर्वाद मिलना तो दूर, उस के लिए उस के मातापिता के घर के दरवाजे भी हमेशा के लिए बंद हो गए थे. सो, दोनों अफजल के घर आ पहुंचे.

अफजल की मां ने नई बहू के स्वागत की पूरी तैयारियां कर रखी थीं. अफजल के रिश्तेदार इस विवाह के खिलाफ थे. आखिर हिंदू व मुसलिम एकदूसरे के कट्टर दुश्मन जो बने बैठे हैं. सो, उस की मां अकेली ही स्वागत कर रही थी अपनी बहू का. अफजल की मां ने उसे बेटी सा प्यार दिया. वे कहने लगीं, ‘‘बेटी, तुम मेरे अफजल के लिए अपना सबकुछ छोड़ कर आई हो. अब मैं ही तुम्हारी मांबाप, भाई हूं. इस घर में कोई परेशानी हो तो जरूर कहना.’’

अफजल की मां की बातें पूनम को बहुत सुकून दे रही थीं. कहां तो एक तरफ उस के अपने घर वाले उसे कोस रहे थे और जब से उस की व अफजल की बात उन्हें मालूम हुई, एक दिन भी वह चैन की नींद न सो पाई थी और न ही एक भी निवाला सुकून से खाया था. ऐसा मालूम होता था जैसे बरसों से भूखी हो व थकी हो.

2 दिनों बाद दोनों हनीमून के लिए मसूरी घूमने को गए. वहां की वादियों में दोनों रम जाना चाहते थे. लेकिन वहां भी पूनम को अपने मातापिता की बातें याद आती रहतीं. खैर, 15 दिन पूरे हुए, हनीमून खत्म हुआ. अब अफजल व पूनम दोनों को दफ्तर जाना था. अफजल की मां पूनम को सगी बेटी सा प्यार दे रही थीं. एक ही वर्ष में उस ने चांद सी बेटी को जन्म दिया.

पूनम को लगा शायद उस के

मातापिता अपनी नातिन को देख

कर खुश हो जाएंगे. सो, एक दिन उस ने अपनी मां को फोन मिलाया. पिताजी ने फोन उठाया और उस की आवाज सुन मां को फोन थमा दिया. मां ने तो उस की बात सुने बिना ही कह दिया, ‘‘पूनम, तुम हमारे लिए सदा के लिए मर चुकी हो.’’

उन की बात सुन कर पूनम खूब रोई. उस दिन पूनम ने मन ही मन अपने मातापिता से सदा के लिए रिश्ता तोड़ लिया था.

पूनम अपनी सास के साथ पूरी तरह हिलमिल गई थी. कभीकभी छुट्टी के दिन वह अपनी सास के बुटीक में भी जा कर उन का हाथ बंटाती.

पूनम की सास ने किसी भी मसजिदमजार में जाना बंद कर दिया और पूनम मंदिरों में नहीं जाती. वे नया साल, अपनी विवाह की वर्षगांठ, बच्चों के जन्मदिन जम कर मनाते.

ईद के दिन रिश्तेदारों के यहां खाना खाते और दीवालीहोली पर सब को घर पर खाने पर बुलाते. जो मुसलिम रिश्तेदार पहले नाराज थे, धीरेधीरे घुलमिल गए.

ऐसा चलते पूरे 7 वर्ष बीत गए. अब सास का शरीर भी जवाब देने लगा था. सो, बुटीक कम ही संभालती थीं. लेकिन पूनम उन का पूरा सहारा बन गई थी बुटीक को चलाने में. बारबार सास कहतीं, ‘‘अब शरीर तो साथ देता नहीं, लगता है बुटीक बंद ही करना पड़ेगा और वे बहुत दुखी हो जातीं.’’

पूनम उन के दुख को समझती थी. काम के चलते अफजल एक वर्ष के लिए अमेरिका चले गए. तभी अचानक एक दिन पूनम के भाई का फोन आया. पूनम बहुत खुश हो गई और कहने लगी, ‘‘मां कैसी है?’’ उस के भाई ने उस से बहुत प्यार से बात की. पूनम का मीठा रुख देख अगले दिन मां का भी फोन आया. पूनम तो मानो चहक उठी और पूछने लगी, ‘‘कैसी हो मां तुम सब, पिताजी कैसे हैं?’’

मां कहने लगी, ‘‘बेटी पूनम, तुम्हारे पिता तो बूढ़े हो चले हैं, भाई पढ़ाईलिखाई में तो कुछ खास अच्छे निकले नहीं. सो, तुम्हारे पिताजी ने उन्हें एक दुकान खुलवा दी. किंतु दोनों के दोनों एक फूटी कौड़ी घर में नहीं देते हैं, बल्कि कर्जा और हो गया. जिस बैंक से लोन ले कर कारोबार शुरू किया वह भी अब चुका नहीं पा रहे हैं. यदि तुम कुछ रुपयों का इंतजाम कर सको…’’

उसे ठीक तरह बात करते देख मां ने भाइयों के लोन चुकाने के लिए पूनम से रुपए मांग ही लिए.

अब पूनम सब समझ गई थी कि आज भी उन्होंने पूनम से सिर्फ उन की अपनी जरूरत पूरी करवाने के लिए ही फोन किया था. एक वह दिन था जब वह अफजल से निकाह करना चाहती थी, तो उस के परिवार वालों ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था. तब तो उन्हें बेटी से ज्यादा धर्म प्यारा हुआ करता था. और आज, जब पैसों की जरूरत आन पड़ी तो अब वह अपनी हो गई. वरना क्या जैसे अफजल की मां ने हिम्मत कर अकेली हो कर भी गैरधर्म की लड़की को अपना लिया, क्या उस के अपने मांबाप, भाई साथ नहीं दे सकते थे उस का? और उस के निकम्मे भाइयों के लिए मां उस से वापस रिश्ता जोड़ने के लिए राजी हो गई. फिर भी उस ने अपनी मां को मीठा जवाब दे दिया ‘‘हां मां, देखती हूं.’’

और कुछ ही दिनों में जब उस की अपनी सास बीमार हुई और औपरेशन करवाना पड़ा तो पूनम ने अपने बैंक अकाउंट में से पैसे निकलवा कर अपनी सास का दिल का औपरेशन करवाया और उस की सेवा में लग गई. उस के बाद उस ने अपनी नौकरी छोड़ सास का बुटीक भी पूरी तरह से संभाल लिया. सास और बहू अब मांबेटी बन गई थीं. पूनम मन ही मन सोचती रहती, ऐसा धर्म किस काम का जिस की दीवार इतनी बड़ी होती है कि उस के सामने खून के रिश्ते भी बौने हो जाते हैं? और अपने धर्म को निभाने के लिए खून से जुड़े रिश्तों ने उसे छोड़ दिया था. उस ने तो धर्म की वह दीवार ढहा दी थी और वह गुनगुना रही थी –

धर्म, जाति, ऊंचनीच की दीवारों को ढह जाने दो.

इस प्यार को हो जाने दो, इस प्यार को हो जाने दो…

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