सबक के बाद: क्या पति प्रयाग का व्यवहार बदल पाई उसकी पत्नी

मेज पर फाइलें बिखरी पड़ी थीं और वह सामने लगे शीशे को देख रहे थे. आने वाले समय की तसवीरें एकएक कर उन के आगे साकार होने लगीं. झुकी हुई कमर, कांपते हुए हाथपांव. वह जहां भी जाते हैं, उपेक्षा के ही शिकार होते हैं. हर कोई उन की ओर से मुंह फेर लेता है. ऐसे में उन्हें नानी के कहे शब्द याद आ गए, ‘अरे पगले, यों आकाश में नहीं उड़ा करते. पखेरू भी तो अपना घोंसला धरती पर ही बनाया करते हैं.’

तनाव से उन का माथा फटा जा रहा था. उसी मनोदशा में वह सीट से उठे और सोफे पर जा धंसे. दोनों हाथों से माथा पकड़े हुए वह चिंतन में डूबने लगे. उन के आगे सचाई परत दर परत खुलने लगी. उन्होंने कभी भी तो अपने से बड़ों की बातें नहीं मानी. उन के आगे वह अपनी ही गाते रहे. सिर उठा कर उन्होंने घड़ी की ओर देखा तो 1 बज रहा था. चपरासी ने अंदर आ कर पूछा, ‘‘सर, लंच में आप क्या लेंगे?’’

‘‘आज रहने दो,’’ उन्होंने मना करते हुए कहा, ‘‘बस, एक कौफी ला दो.’’

‘‘जी, सर,’’ चपरासी बाहर चल दिया.

लोगों की झोली खुशियों से कैसे भरती है? वह इसी पर सोचने लगे. परसों ही तो उन के पास छगनलाल एक फाइल ले कर आए थे. उन्होंने पूछा था, ‘‘कहिए छगन बाबू, कैसे हैं?’’

‘‘बस, साहब,’’ छगनलाल हंस दिए थे, ‘‘आप की दुआ से सब ठीकठाक है. मैं तो जीतेजी जीवन का सही आनंद ले रहा हूं. चहकते हुए परिवार में रह रहा हूं. बहूबेटा दोनों ही घरगृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं. वे तो मुझे तिनका तक नहीं तोड़ने देते. अब वही तो मेरे बुढ़ापे की लाठी हैं.’’

‘‘बहुत तकदीर वाले हो भई,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल पर हस्ताक्षर कर छगनलाल को लौटा दी थी.

चपरासी सेंटर टेबल पर कौफी का मग रख गया. उसे पीते हुए वह उसी प्रकार आत्ममंथन करने लगे.

उन के सिर पर से मांबाप का साया बचपन में ही उठ गया था. वह दोनों एक सड़क दुर्घटना में मारे गए थे. तब नानाजी उन्हें अपने घर ले आए थे. उन का लालनपालन ननिहाल में ही हुआ था. उन की बड़ी बहन का विवाह भी नानाजी ने ही किया था.

नानानानी के प्यार ने उन्हें बचपन से ही उद्दंड बना दिया था. स्कूलकालिज के दिनों से ही उन के पांव खुलने लगे थे. पर उन का एक गुण, तीक्ष्ण बुद्धि का होना उन के अवगुणों पर पानी फेर देता था.

राज्य लोक सेवा आयोग में पहली ही बार में उन का चयन हो गया तो वह सचिवालय में काम करने लगे थे. अब उन के मित्रों का दायरा बढ़ने लगा था. दोस्तों के बीच रह कर भी वह अपने को अकेला ही महसूस किया करते. वह धीरेधीरे अलग ही मनोग्रंथि के शिकार होने लगे. घरबाहर हर कहीं अपनी ही जिद पर अड़े रहते.

उन के भविष्य को ले कर नानाजी चिंतित रहा करते थे. उन के लिए रिश्ते भी आने लगे थे लेकिन वह उन्हें टाल देते. एक दिन अपनी नानी के बहुत समझाने पर ही वह विवाह के लिए राजी हुए थे.

3 साल पहले वे नानानानी के साथ एक संभ्रांत परिवार की लड़की देखने गए थे. उन लोगों ने सभी का हृदय से स्वागत किया था. चायनाश्ते के समय उन्होंने लड़की की झलक देख ली थी. वह लड़की उन्हें पसंद आ गई और बहुत देर तक उन में इधरउधर की बातें होती रही थीं. उन की बड़ी बहन भी साथ थी. उस ने उन के कंधे पर हाथ रख कर पूछा था, ‘क्यों भैया, लड़की पसंद आई?’

इस पर वे मुसकरा दिए थे. वहीं बैठी लड़की की मां ने आंखें नचा कर कहा था, ‘अरे, भई, अभी दोनों का आमना- सामना ही कहां हुआ है. पसंदनापसंद की बात तो दोनों के मिलबैठ कर ही होगी न.’

इस पर वहां हंसी के ठहाके गूंज उठे थे.

ड्राइंगरूम में सभी चहक रहे थे. किचेन में भांतिभांति के व्यंजन बन रहे थे. प्रीति की मां ने वहां आ कर निवेदन किया था, ‘आप सब लोग चलिए, लंच लगा दिया गया है.’

वहां से उठ कर सभी लोग डाइनिंग रूम में चल दिए थे. वहां प्रीति और भी सजसंवर कर आई थी. प्रीति का वह रूप उन के दिल में ही उतरता चला गया था. सभी भोजन करने लगे थे. नानाजी ने उन की ओर घूम कर पूछा था, ‘क्यों रे, लड़की पसंद आई?’

‘जी, नानाजी,’ वह बोले थे, पर…

‘पर क्या?’ प्रीति के पापा चौंके थे.

‘पर लड़की को मेरे निजी जीवन में किसी प्रकार का दखल नहीं देना होगा,’ उन्होंने कहा, ‘मेरी यही एक शर्त है.’

‘प्रयाग’, नानाजी उन की ओर आंखें तरेरने लगे थे, ‘तुम्हारा इतना साहस कि बड़ों के आगे जबान खोलो. क्या हम ने तुम में यही संस्कार भरे हैं?’

नानाजी की उस प्रताड़ना पर उन्होंने गरदन झुका ली थी. प्रीति की मां ने यह कह कर वातावरण को सहज बनाने का प्रयत्न किया था कि अच्छा ही हुआ जो लड़के ने पहले ही अपने मन की बात कह डाली.

‘वैसे प्रयागजी’, प्रीति के पापा सिर खुजलाने लगे थे, ‘मैं आप के निजी जीवन की थ्योरी नहीं समझ पाया.’

‘मैं घर से बाहर क्या करूं, क्या न करूं,’ उन्होंने स्पष्ट किया था, ‘यह इस पर किसी भी प्रकार की टोकाटाकी नहीं करेंगी.’

‘अरे,’ प्रीति के पापा ने जोर का ठहाका लगाया था, ‘लो भई, आप की यह निजता बनी रहेगी.’

रिश्ता पक्का हो चला था. 6 महीने बाद धूमधाम से उन का विवाह हो गया था. विवाह के तुरंत बाद ही वे दोनों नैनीताल हनीमून पर चल दिए थे. सप्ताह भर वे वहां खूब सैरसपाटा करते रहे थे. दोनों ही तो एकदूसरे में डूबते चले गए थे. वहां उन्होंने नैनी झील में जी भर कर बोटिंग की थी.

‘क्योंजी,’ बोटिंग करते हुए प्रीति ने उन से पूछा था, ‘उस दिन मैं आप की फिलौस्फी नहीं समझ पाई थी. जब आप मुझे देखने आए थे तो अपने निजी जीवन की बात कही थी न.’

‘हां,’ उन्होंने कहा था, ‘मैं कहां जाऊंगा, क्या करूंगा, इस पर तुम्हारी ओर से किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी. मैं औरतमर्द में अंतर माना करता हूं.’

‘अरे,’ प्रीति भौचक रह गई थी. वह गला साफ  करते हुए बोली, ‘आज के युग में जहां नरनारी की समता की दुहाई दी जाती है, वहां आप के ये दकियानूसी विचार…’

‘मैं ने कहा न,’ उन्होंने पत्नी की बात बीच में काट दी थी, ‘तुम किसी भी रूप में मेरे साथ वैचारिक बलात्कार नहीं करोगी और न ही मैं तुम्हें अपने ऊपर हावी होने दूंगा.’

तभी फोन की घंटी बजी और उन्होंने आ कर रिसीवर उठा लिया, ‘‘यस.’’

‘‘सर, लंच के बाद आप डिक्टेशन देने की बात कह रहे थे,’’ उधर से उन की पी.ए. कनु ने उन्हें याद दिलाया.

‘‘अरे हां,’’ वह घड़ी देखने लगे. 2 बज चुके थे. अगले ही क्षण उन्होंने कहा, ‘‘चली आओ, मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देना है.’’

इतना कह कर वह कल्पना के संसार में विचरने लगे कि उन की पी.ए. कनुप्रिया कमरे में आएगी. उस के शरीर की गंध से कमरा महक उठेगा. ऐसे में वह सुलगने लगेंगे…तभी चौखट पर कनु आ खड़ी हुई. वह मुसकरा दिए, ‘‘आओ, चली आओ.’’

कनु सामने की कुरसी पर बैठ गई. वह उस के आगे चारा डालने लगे, ‘‘कनु, आज तुम सच में एक संपूर्ण नारी लग रही हो.’’

कनु हतप्रभ रह गई. बौस के मुंह से वह अपनी तारीफ सुन कर अंदर ही अंदर घबरा उठी. उस ने नोट बुक खोल ली और नोटबुक पर नजर गड़ाए हुए बोली, ‘‘मैं समझी नहीं, सर.’’

‘‘अरे भई, कालिज के दिनों में मैं ने काव्यशास्त्र के पीरियड में नायिका भेद के लक्षण पढे़ थे. तुम्हें देख कर वे सारे लक्षण आज मुझे याद आ रहे हैं. तुम पद्मिनी हो…तुम्हारे आने से मेरा यह कमरा ही नहीं, दिल भी महकने लगा है.’’

‘‘काम की बात कीजिए न सर,’’ कनु गंभीर हो आई. उस ने कहा, ‘‘आप मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देने जा रहे थे.’’

‘‘सौरी कनु, मुझे पता न था कि तुम… मैं तो सचाई उगल रहा था.’’

‘‘आप को सब पता है, सर,’’ कनु कहती ही गई, ‘‘आप अपनी आदत से बाज आ जाइए. प्रीति मैडम में ऐसी क्या कमी थी, जो आप ने उन्हें निर्वासित जीवन जीने के लिए विवश किया?’’

अपनी स्टेनो के मुंह से पत्नी का नाम सुन कर प्रयाग को जबरदस्त मानसिक झटका लगा. कनु तो उन्हें नंगा ही कर डालेगी. उन की सारी प्राइवेसी न जाने कब से दफ्तर में लीक होती आ रही है…यानी सभी जानते हैं कि उन के अत्याचारों से तंग आ कर ही उन की पत्नी मायके में बैठी हुई है. कनु के प्रश्न से निरुत्तर हो वह अपने गरीबान में झांकने लगे, तो अतीत फिर उन के सामने साकार होने लगा.

नैनीताल से आ कर वह नानाजी से अलग एक किराए का फ्लैट ले कर रहने लगे थे. नानाजी ने उन्हें बहुत समझाया था लेकिन उन्होंने उन की एक भी नहीं सुनी थी. फ्लैट में आ कर वह अपने आदेशनिर्देशों से प्रीति का जीना ही हराम करने लगे थे.

‘रात की रोटियां क्यों बच गईं?’

‘तुम तार पर कपडे़ डालती हुई इधरउधर क्यों झांकती हो?’

‘तुम्हें लोग क्यों देखते हैं?’

आएदिन वह पत्नी पर इस तरह के प्रश्नों की झड़ी सी लगा दिया करते थे.

उस फ्लैट में प्रीति उन के साथ भीगी बिल्ली बन कर रहने लगी थी. जबतब उसे उन की शर्त याद आ जाया करती. पति के उन अत्याचारों से आहत हो वह आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगी थी. एक बार तो वह मरतीमरती ही बची थी.

उन की आवारगी अब और भी जलवे दिखलाने लगी थी. एक दिन वह किसी युवती को फ्लैट में ले आए थे. प्रीति कसमसा कर ही रह गई थी. उन्होंने उस युवती का परिचय दिया था, ‘यह सुनंदा है. हम लोग कभी एक साथ ही पढ़ा करते थे.’

विवाह के दूसरे साल उन के यहां एक बच्चा आ गया था लेकिन वे वैसे ही रूखे बने रहे. बच्चे के आगमन पर उन्हें कोई भी खुशी नहीं हुई थी. प्रीति उन के अत्याचारों के नीचे दबती ही गई.

‘देखिएजी,’ एक दिन प्रीति ने अपना मुंह खोल ही दिया, ‘मुझे आप प्रतिबंधों के शिंकजे से मुक्त कीजिए… नहीं तो…’

‘नहीं तो तुम मेरा क्या कर लोगी?’ उन्होंने तमक कर पूछा था.

‘अब हमारे बीच नन्हा भी आ गया है. प्रीति उन्हें समझाने लगी थी, ‘हम 2 से 3 हो आए हैं. मुझे इस गुलामी की जंजीर से मुक्त कर दें.’

‘नहीं,’ वे गुर्राए, ‘मैं अपने निश्चय से टस से मस नहीं हो सकता. मैं हमेशा अपने ही मन की करता रहूंगा.’

‘ठीक है,’ प्रीति का भी स्वाभिमान जाग गया था. उस ने कहा, ‘फिर मैं भी अपनी मनमरजी पर उतरने लगूंगी.’ प्रीति के अनुनयविनय का प्रयाग पर कुछ भी असर नहीं पड़ा तो एक दिन नन्हे को ले कर मायके चली गई. रोरो कर उस ने मां को सारी बातें बतला दीं. मां उस का सिर सहलाने लगीं, ‘धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा बेटी.’

तब से प्रीति मायके में ही रह कर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने लगी थी. उन्होंने कभी भी उस की खोजखबर नहीं ली. उन का बेटा नन्हा भी उन्हें नहीं पिघला पाया था. उन के दोस्तों में इजाफा होता गया. बदनाम गलियों में भी वह मुंह मारने लगे थे.

एक दिन बूढ़ी हो आई नानी उन के यहां चली आई थीं. ‘क्यों रे, तेरा यह मनमौजीपन कब छूटेगा?’

‘छोड़ो भी नानी मां,’ उन्होंने बात टाल दी थी, ‘मेरे संस्कार ही ऐसे हैं. जो होगा उसे मैं झेल लूंगा.’

‘संस्कार बदले भी तो जा सकते हैं न,’ नानी का हाथ उन के कंधे पर आ गया था, ‘तू अब भी मान जा. जा कर बहू को लिवा ला. इसी में तेरा भला है.’

वह नहीं समझ पाते कि उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. आज उन की पी.ए. कनु तक ने उन्हें नंगा कर देना चाहा था. ठुड्डी पर हाथ रखे हुए वह प्रीति के बारे में सोचने लगे कि उस में कोई कमी नहीं है. उन्हीं के अत्याचारों से उस बेचारी को आज निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है.

दफ्तर से प्रयाग सीधे ही घर चले आए. उन के पीछेपीछे दोचार उन के मित्र भी चले आए. कुछ देर तक खानेपीने का दौर चला फिर मित्र चले गए तो वह फिर से तन्हा हो गए. उस से नजात पाने के लिए उन्होंने 2-3 बडे़बडे़ पैग लिए और बिस्तर पर जा धंसे.

सुबह हुई, देर से सो कर उठे तो नहा धो कर सीधे आफिस चल दिए. दरवाजे पर खडे़ चपरासी ने निवेदन किया, ‘‘साहब, आप को मैडम याद कर रही हैं.’’

‘‘मुझे?’’ वह चौंके.

‘‘जी,’’ चपरासी बोला, ‘‘मैडम बोली थीं कि आते ही उन्हें मेरे पास भेज दे.’’

वह आशंकित होने लगे. महा- निदेशक ने उन्हें न जाने क्यों बुलवाया है? किसी प्रकार शंकित मन से वह मिसेज रूंगटा के चैंबर में चल दिए. मैडम ने तो उन्हें देखते ही उन की ओर जैसे तोप दाग दी, ‘‘क्यों, मिस्टर, आप को अपने कैरियर का खयाल नहीं है क्या?’’

‘‘ऐसी क्या बात हो आई, मैडम?’’ उन्होंने कुछ सहम कर पूछा.

‘‘यह क्या है, देखिए,’’ मिसेज रूंगटा ने उन्हें कनुप्रिया की शिकायत थमा दी, ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या? आप तो छिपेरुस्तम निकले.’’

शिकायत देख कर उन को सारा कमरा घूमता हुआ सा लगा. वह होंठों पर जीभ फिरा कर बोले, ‘‘माफ करना मैडम, यह लड़की दुश्चरित्र है.’’

‘‘दुश्चरित्र आप हैं,’’ मिसेज रूंगटा ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है कि आप जैसे लंपट व्यक्ति इस पद पर कैसे बने हुए हैं? सुना है, आप का अपनी पत्नी के साथ भी…’’

उन की तो बोलती ही बंद हो आई. उन्होंने अपराधभाव से गरदन झुका ली. मिसेज रूंगटा ने उन्हें चेतावनी दे डाली, ‘‘आइंदा ध्यान रखें. अब आप जा सकते हैं.’’

वह उठे और चुपचाप महानिदेशक के चैंबर से निकल कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गए. तभी उन के कमरे में कनुप्रिया चली आई और बोली,  ‘‘सर, मेरी यहां से बदली हो गई है.’’

वह कुछ बोले नहीं बल्कि चुपचाप फाइलें देखते रहे. आज वह अपने को हारे हुए जुआरी सा महसूस कर रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. तभी उन के पास बाबू छगनलाल चले आए. उन्होंने कहा, ‘‘माफ करना साहब, आज आप कुछ उदास से हैं.’’

‘‘बैठिए छगन बाबू,’’ वह सामान्य हो गए.

छगनलाल कुरसी पर बैठ कर बोले,  ‘‘वैसे हम लोग आफतें खुद ही मोल लिया करते हैं. लगता है कि आप भी किसी आफत में फंसे हैं?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ वह बोले, ‘‘मेरी पी.ए. कनु ने महानिदेशक से मेरी बदसलूकी की शिकायत की है.’’

‘‘वही तो,’’ छगनलाल ने कहा, ‘‘सारे निदेशालय में यही सुगबुगाहट चल रही है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा, छगन बाबू,’’ वह बोले, ‘‘अब मैं सावधानी से रहा करूंगा.’’

‘‘रहना भी चाहिए, साहब,’’ छगनलाल बोले, ‘‘आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिए.’’

उन्हें जीवन में पहली बार सबक मिला था. अब वह ध्यानपूर्वक अपना काम करने लगे. वह नानाजी को फोन मिलाने लगे. मिलने पर वे बोले, ‘‘नानाजी, मैं प्रयाग बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो बेटे,’’ उधर से कहा गया.

‘‘मैं आप के पास ही रहना चाहता हूं,’’ उन्होंने अपनी दिली इच्छा प्रकट की.

‘‘स्वागत है,’’ नानाजी ने पूछा, ‘‘कब आ रहे हो?’’

‘‘एकदो दिन में प्रीति को भी साथ ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘फिर तो यह सोने पर सुहागा वाली बात होगी,’’ नानाजी ने चहक कर कहा, ‘‘यह तो तुम्हें बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था.’’

‘‘सौरी नानाजी,’’ प्रयाग क्षमा मांगने लगे, ‘‘अब तक मैं भटकने की राह पर था.’’

शाम को वह दफ्तर से सीधे ही ससुराल चले गए. आंगन में नन्हा खेल रहा था, उसे उन्होंने गोद में उठाया और प्यार करने लगे. कोने में खड़ी प्रीति उन्हें देखती ही रह गई. वह मुसकरा दिए, ‘‘प्रीति, आज मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘वह तो आप को आना ही था,’’ प्रीति हंस दी.

वह सासससुर के आगे अपने किए पर प्रायश्चित्त करने लगे. ससुर ने उन का कंधा थपथपा दिया, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, आदमी ठोकर खा कर ही तो संभलता है.’’

सुबह उन की नींद खुली तो उन्होंने अपने को तनावमुक्त पाया. प्रीति भी खुश नजर आ रही थी. चायनाश्ते के बाद उन्होंने एक टैक्सी बुला ली. प्रीति और नन्हे को बिठा कर खुद भी उन की बगल में बैठ गए. टैक्सी नानाजी के घर की ओर सड़क पर दौड़ने लगी.

उलझे रिश्ते: क्या प्रेमी से बिछड़कर खुश रह पाई रश्मि

दिनभर की भागदौड़. फिर घर लौटने पर पति और बच्चों को डिनर करवा कर रश्मि जब बैडरूम में पहुंची तब तक 10 बज चुके थे. उस ने फटाफट नाइट ड्रैस पहनी और फ्रैश हो कर बिस्तर पर आ गई. वह थक कर चूर हो चुकी थी. उसे लगा कि नींद जल्दी ही आ घेरेगी. लेकिन नींद न आई तो उस ने अनमने मन से लेटेलेटे ही टीवी का रिमोट दबाया. कोई न्यूज चैनल चल रहा था. उस पर अचानक एक न्यूज ने उसे चौंका दिया. वह स्तब्ध रह गई. यह क्या हुआ? सुधीर ने मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. उस का मन किया कि वह जोरजोर से रोए. लेकिन उसे लगा कि कहीं उस का रोना सुन कर पास के कमरे में सो रहे बच्चे जाग न जाएं. पति संभव भी तो दूसरे कमरे में अपने कारोबार का काम निबटाने में लगे थे. रश्मि ने रुलाई रोकने के लिए अपने मुंह पर हाथ रख लिया, लेकिन काफी देर तक रोती रही. शादी से पूर्व का पूरा जीवन उस की आंखों के सामने घूम गया.

बचपन से ही रश्मि काफी बिंदास, चंचल और खुले मिजाज की लड़की थी. आधुनिकता और फैशन पर वह सब से ज्यादा खर्च करती थी. पिता बड़े उद्योगपति थे. इसलिए घर में रुपयोंपैसों की कमी नहीं थी. तीखे नैननक्श वाली रश्मि ने जब कालेज में प्रवेश लिया तो पहले ही दिन सुधीर से उस की आंखें चार हो गईं.

‘‘हैलो आई एम रश्मि,’’ रश्मि ने खुद आगे बढ़ कर सुधीर की तरफ हाथ बढ़ाया. किसी लड़की को यों अचानक हाथ आगे बढ़ाता देख सुधीर अचकचा गया. शर्माते हुए उस ने कहा, ‘‘हैलो, मैं सुधीर हूं.’’

‘‘कहां रहते हो, कौन सी क्लास में हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘अभी इस शहर में नया आया हूं. पापा आर्मी में हैं. बी.कौम प्रथम वर्ष का छात्र हूं.’’ सुधीर ने एक सांस में जवाब दिया.

‘‘ओह तो तुम भी मेरे साथ ही हो. मेरा मतलब हम एक ही क्लास में हैं,’’ रश्मि ने चहकते हुए कहा. उस दिन दोनों क्लास में फ्रंट लाइन में एकदूसरे के आसपास ही बैठे. प्रोफैसर ने पूरी क्लास के विद्यार्थियों का परिचय लिया तो पता चला कि रश्मि पढ़ाई में अव्वल है. कालेज टाइम के बाद सुधीर और रश्मि साथसाथ बाहर निकले तो पता चला कि सुधीर को पापा का ड्राइवर कालेज छोड़ गया था. रश्मि ने अपनी मोपेड बाहर निकाली और कहा, ‘‘चलो मैं तुम्हें घर छोड़ती हूं.’’

‘‘नहींनहीं ड्राइवर आने ही वाला है.’’

‘‘अरे, चलो भई रश्मि खा नहीं जाएगी,’’ रश्मि के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सुधीर उस की मोपेड पर बैठ गया. पूरे रास्ते रश्मि की चपरचपर चलती रही. उसे इस बात का खयाल ही नहीं रहा कि वह सुधीर से पूछे कि कहां जाना है. बातोंबातों में रश्मि अपने घर की गली में पहुंची, तो सुधीर ने कहा, ‘‘बस यही छोड़ दो.’’

‘‘ओह सौरी, मैं तो पूछना ही भूल गई कि आप को कहां छोड़ना है. मैं तो बातोंबातों में अपने घर की गली में आ गई.’’

‘‘बस यहीं तो छोड़ना है. वह सामने वाला मकान हमारा है. अभी कुछ दिन पहले ही किराए पर लिया है पापा ने.’’

‘‘अच्छा तो आप लोग आए हो हमारे पड़ोस में,’’ रश्मि ने कहा

‘‘जी हां.’’

‘‘चलो, फिर तो हम दोनों साथसाथ कालेज जायाआया करेंगे.’’ रश्मि और सुधीर के बाद के दिन यों ही गुजरते गए. पहली मुलाकात दोस्ती में और दोस्ती प्यार में जाने कब बदल गई पता ही न चला. रश्मि का सुधीर के घर यों आनाजाना होता जैसे वह घर की ही सदस्य हो. सुधीर की मम्मी रश्मि से खूब प्यार करती थीं. कहती थीं कि तुझे तो अपनी बहू बनाऊंगी. इस प्यार को पा कर रश्मि के मन में भी नई उमंगें पैदा हो गईं. वह सुधीर को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर कल्पनाएं करती. एक दिन सुधीर घर में अकेला था, तो उस ने रश्मि को फोन कर कहा, ‘‘घर आ जाओ कुछ काम है.’’

जब रश्मि पहुंची तो दरवाजे पर मिल गया सुधीर. बोला, ‘‘मैं एक टौपिक पढ़ रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं आ रहा था. सोचा तुम से पूछ लेता हूं.’’

‘‘तो दरवाजा क्यों बंद कर रहे हो? आंटी कहां है?’’

‘‘यहीं हैं, क्यों चिंता कर रही हो? ऐसे डर रही हो जैसे अकेला हूं तो खा जाऊंगा,’’ यह कहते हुए सुधीर ने रश्मि का हाथ थाम उसे अपनी ओर खींच लिया. सुधीर के अचानक इस बरताव से रश्मि सहम गई. वह छुइमुई सी सुधीर की बांहों में समाती चली गई.

‘‘क्या कर रहे हो सुधीर, छोड़ो मुझे,’’ वह बोली लेकिन सुधीर ने एक न सुनी. वह बोला,  ‘‘आई लव यू रश्मि.’’

‘‘जानती हूं पर यह कौन सा तरीका है?’’ रश्मि ने प्यार से समझाने की कोशिश की,  ‘‘कुछ दिन इंतजार करो मिस्टर. रश्मि तुम्हारी है. एक दिन पूरी तरह तुम्हारी हो जाएगी.’’ परंतु सुधीर पर कोई असर नहीं हुआ. हद से आगे बढ़ता देख रश्मि ने सुधीर को धक्का दिया और हिरणी सी कुलांचे भरती हुई घर से बाहर निकल गई. उस रात रश्मि सो नहीं पाई. उसे सुधीर का यों बांहों में लेना अच्छा लगा. कुछ देर और रुक जाती तो…सोच कर सिहरन सी दौड़ गई. और एक दिन ऐसा आया जब पढ़ाई की आड़ में चल रहा प्यार का खेल पकड़ा गया. दोनों अब तक बी.कौम अंतिम वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और एकदूजे में इस कदर खो चुके थे कि उन्हें आभास भी नहीं था कि इस रिश्ते को रश्मि के पिता और भाई कतई स्वीकार नहीं करेंगे. उस दिन रश्मि के घर कोई नहीं था. वह अकेली थी कि सुधीर पहुंच गया. उसे देख रश्मि की धड़कनें बढ़ गईं. वह बोली,  ‘‘सुधीर जाओ तुम, पापा आने वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हो गया. दामाद अपने ससुराल ही तो आया है,’’ सुधीर ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘नहीं, तुम जाओ प्लीज.’’

‘‘रुको डार्लिंग यों धक्के मार कर क्यों घर से निकाल रही हो?’’ कहते हुए सुधीर ने रश्मि को अपनी बांहों में भर लिया. तभी जो न होना चाहिए था वह हो गया. रश्मि के पापा ने अचानक घर में प्रवेश किया और दोनों को एकदूसरे की बांहों में समाया देख आगबबूला हो गए. फिर पता नहीं कितने लातघूंसे सुधीर को पड़े. सुधीर कुछ बोल नहीं पाया. बस पिटता रहा. जब होश आया तो अपने घर में लेटा हुआ था. सुधीर और रश्मि के परिवारजनों की बैठक हुई. सुधीर की मम्मी ने प्रस्ताव रखा कि वे रश्मि को बहू बनाने को तैयार हैं. फिर काफी सोचविचार हुआ. रश्मि के पापा ने कहा,  ‘‘बेटी को कुएं में धकेल दूंगा पर इस लड़के से शादी नहीं करूंगा. जब कोई काम नहीं करता तो क्या खाएगाखिलाएगा?’’ आखिर तय हुआ कि रश्मि की शादी जल्द से जल्द किसी अच्छे परिवार के लड़के से कर दी जाए. रश्मि और सुधीर के मिलने पर पाबंदी लग गई पर वे दोनों कहीं न कहीं मिलने का रास्ता निकाल ही लेते. और एक दिन रश्मि के पापा ने घर में बताया कि दिल्ली से लड़के वाले आ रहे हैं रश्मि को देखने. यह सुन कर रश्मि को अपने सपने टूटते नजर आए. उस ने कुछ नहीं खायापीया.

भाभी ने समझाया, ‘‘यह बचपना छोड़ो रश्मि, हम इज्जतदार खानदानी परिवार से हैं. सब की इज्जत चली जाएगी.’’

‘‘तो मैं क्या करूं? इस घर में बच्चों की खुशी का खयाल नहीं रखा जाता. दोनों दीदी कौन सी सुखी हैं अपने पतियों के साथ.’’

‘‘तेरी बात ठीक है रश्मि, लेकिन समाज, परिवार में ये बातें माने नहीं रखतीं. तेरे गम में पापा को कुछ हो गया तो…उन्होंने कुछ कर लिया तो सब खत्म हो जाएगा न.’’

रश्मि कुछ नहीं बोल पाई. उसी दिन दिल्ली से लड़का संभव अपने छोटे भाई राजीव और एक रिश्तेदार के साथ रश्मि को देखने आया. रश्मि को देखते ही सब ने पसंद कर लिया. रिश्ता फाइनल हो गया. जब यह बात सुधीर को रश्मि की एक सहेली से पता चली तो उस ने पूरी गली में कुहराम मचा दिया,  ‘‘देखता हूं कैसे शादी करते हैं. रश्मि की शादी होगी तो सिर्फ मेरे साथ. रश्मि मेरी है.’’ पागल सा हो गया सुधीर. इधरउधर बेतहाशा दौड़ा गली में. पत्थर मारमार कर रश्मि के घर की खिड़कियों के शीशे तोड़ डाले. रश्मि के पिता के मन में डर बैठ गया कि कहीं ऐसा न हो कि लड़के वालों को इस बात का पता चल जाए. तब तो इज्जत चली जाएगी. सब हालात देख कर तय हुआ कि रश्मि की शादी किसी दूसरे शहर में जा कर करेंगे. किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होगी. अब एक तरफ प्यार, दूसरी तरफ मांबाप के प्रति जिम्मेदारी. बहुत तड़पी, बहुत रोई रश्मि और एक दिन उस ने अपनी भाभी से कहा, ‘‘मैं अपने प्यार का बलिदान देने को तैयार हूं. परंतु मेरी एक शर्त है. मुझे एक बार सुधीर से मिलने की इजाजत दी जाए. मैं उसे समझाऊंगी. मुझे पूरी उम्मीद है वह मान जाएगा.’’

भाभी ने घर वालों से छिपा कर रश्मि को सुधीर से आखिरी बार मिलने की इजाजत दे दी. रश्मि को अपने करीब पा कर फूटफूट कर रोया सुधीर. उस के पांवों में गिर पड़ा. लिपट गया किसी नादान छोटे बच्चे की तरह,  ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रश्मि. मैं नहीं जी  पाऊंगा, तुम्हारे बिना. मर जाऊंगा.’’ यंत्रवत खड़ी रह गई रश्मि. सुधीर की यह हालत देख कर वह खुद को नहीं रोक पाई. लिपट गई सुधीर से और फफक पड़ी, ‘‘नहीं सुधीर, तुम ऐसा मत कहो, तुम बच्चे नहीं हो,’’ रोतेरोते रश्मि ने कहा.

‘‘नहीं रश्मि मैं नहीं रह पाऊंगा, तुम बिन,’’ सुबकते हुए सुधीर ने कहा.

‘‘अगर तुम ने मुझ से सच्चा प्यार किया है तो तुम्हें मुझ से दूर जाना होगा. मुझे भुलाना होगा,’’ यह सब कह कर काफी देर समझाती रही रश्मि और आखिर अपने दिल पर पत्थर रख कर सुधीर को समझाने में सफल रही. सुधीर ने उस से वादा किया कि वह कोई बखेड़ा नहीं करेगा. ‘‘जब भी मायके आऊंगी तुम से मिलूंगी जरूर, यह मेरा भी वादा है,’’ रश्मि यह वादा कर घर लौट आई. पापा किसी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए एक दिन रात को घर के सब लोग चले गए एक अनजान शहर में. रश्मि की शादी दिल्ली के एक जानेमाने खानदान में हो गई. ससुराल आ कर रश्मि को पता चला कि उस के पति संभव ने शादी तो उस से कर ली पर असली शादी तो उस ने अपने कारोबार से कर रखी है. देर रात तक कारोबार का काम निबटाना संभव की प्राथमिकता थी. रश्मि देर रात तक सीढि़यों में बैठ कर संभव का इंतजार करती. कभीकभी वहीं बैठेबैठे सो जाती. एक तरफ प्यार की टीस, दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से रश्मि टूट कर रह गई. ससुराल में पासपड़ोस की हमउम्र लड़कियां आतीं तो रश्मि से मजाक करतीं  ‘‘आज तो भाभी के गालों पर निशान पड़ गए. भइया ने लगता है सारी रात सोने नहीं दिया.’’ रश्मि मुसकरा कर रह जाती. करती भी क्या, अपना दर्द किस से बयां करती? पड़ोस में ही महेशजी का परिवार था. उन के एक कमरे की खिड़की रश्मि के कमरे की तरफ खुलती थी. यदाकदा रात को वह खिड़की खुली रहती तो महेशजी के नवविवाहित पुत्र की प्रणयलीला रश्मि को देखने को मिल जाती. तब सिसक कर रह जाने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता था रश्मि के पास.

संभव जब कभी रात में अपने कामकाज से जल्दी फ्री हो जाता तो रश्मि के पास चला आता. लेकिन तब तक संभव इतना थक चुका होता कि बिस्तर पर आते ही खर्राटे भरने लगता. एक दिन संभव कारोबार के सिलसिले में बाहर गया था और रश्मि तपती दोपहर में  फर्स्ट फ्लोर पर बने अपने कमरे में सो रही थी. अचानक उसे एहसास हुआ कोई उस के बगल में आ कर लेट गया है. रश्मि को अपनी पीठ पर किसी मर्दाना हाथ का स्पर्श महसूस हुआ. वह आंखें मूंदे पड़ी रही. वह स्पर्श उसे अच्छा लगा. उस की धड़कनें तेज हो गईं. सांसें धौंकनी की तरह चलने लगीं. उसे लगा शायद संभव है, लेकिन यह उस का देवर राजीव था. उसे कोई एतराज न करता देख राजीव का हौसला बढ़ गया तो रश्मि को कुछ अजीब लगा. उस ने पलट कर देखा तो एक झटके से बिस्तर पर उठ बैठी और कड़े स्वर में राजीव से कहा कि जाओ अपने रूम में, नहीं तो तुम्हारे भैया को सारी बात बता दूंगी, तो वह तुरंत उठा और चला गया. उधर सुधीर ने एक दिन कहीं से रश्मि की ससुराल का फोन नंबर ले कर रश्मि को फोन किया तो उस ने उस से कहा कि सुधीर, तुम्हें मैं ने मना किया था न कि अब कभी मुझ से संपर्क नहीं करना. मैं ने तुम से प्यार किया था. मैं उन यादों को खत्म नहीं करना चाहती. प्लीज, अब फिर कभी मुझ से संपर्क न करना. तब उम्मीद के विपरीत रश्मि के इस तरह के बरताव के बाद सुधीर ने फिर कभी रश्मि से संपर्क नहीं किया.

रश्मि अपने पति के रूखे और ठंडे व्यवहार से तो परेशान थी ही उस की सास भी कम नहीं थीं. रश्मि ने फिल्मों में ललिता पंवार को सास के रूप में देखा था. उसे लगा वही फिल्मी चरित्र उस की लाइफ में आ गया है. हसीन ख्वाबों को लिए उड़ने वाली रश्मि धरातल पर आ गई. संभव के साथ जैसेतैसे ऐडजस्ट किया उस ने परंतु सास से उस की पटरी नहीं बैठ पाई. संभव को भी लगा अब सासबहू का एकसाथ रहना मुश्किल है. तब सब ने मिल कर तय किया कि संभव रश्मि को ले कर अलग घर में रहेगा. कुछ ही दूरी पर किराए का मकान तलाशा गया और रश्मि नए घर में आ गई. अब तक उस के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी हो चुके थे. शादी के 12 साल कब बीत गए पता ही नहीं चला. नए घर में आ कर रश्मि के सपने फिर से जाग उठे. उमंगें जवां हो गईं. उस ने कार चलाना सीख लिया. पेंटिंग का उसे शौक था. उस ने एक से बढ़ कर एक पोट्रेट तैयार किए. जो देखता वह देखता ही रह जाता. अपने बेटे साहिल को पढ़ाने के लिए रश्मि ने हिमेश को ट्यूटर रख लिया. वह साहिल को पढ़ाने के लिए अकसर दोपहर बाद आता था जब संभव घर होता था. 28-30 वर्षीय हिमेश बहुत आकर्षक और तहजीब वाला अध्यापक था. रश्मि को उस का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक लगता था. खुले विचारों की रश्मि हिमेश से हंसबोल लेती. हिमेश अविवाहित था. उस ने रश्मि के हंसीमजाक को अलग रूप में देखा. उसे लगा कि रश्मि उसे पसंद करती है. लेकिन रश्मि के मन में ऐसा दूरदूर तक न था. वह उसे एक शिक्षक के रूप में देखती और इज्जत देती. एक दिन रश्मि घर पर अकेली थी. साहिल अपने दोस्त के घर गया था. हिमेश आया तो रश्मि ने कहा कि कोई बात नहीं, आप बैठिए. हम बातें करते हैं. कुछ देर में साहिल आ जाएगा.

रश्मि चाय बना लाई और दोनों सोफे पर बैठ गए. रश्मि ने बताया कि वह राधाकृष्ण की एक बहुत बड़ी पोट्रेट तैयार करने जा रही है. उस में राधाकृष्ण के प्यार को दिखाया गया है. यह बताते हुए रश्मि अपने अतीत में डूब गई. उस की आंखों के सामने सुधीर का चेहरा घूम गया. हिमेश कुछ और समझ बैठा. उस ने एक हिमाकत कर डाली. अचानक रश्मि का हाथ थामा और ‘आई लव यू’ कह डाला. रश्मि को लगा जैसे कोई बम फट गया है. गुस्से से उस का चेहरा लाल हो गया. वह अचानक उठी और क्रोध में बोली, ‘‘आप उठिए और तुरंत यहां से चले जाइए. और दोबारा इस घर में पांव मत रखिएगा वरना बहुत बुरा होगा.’’ हिमेश को तो जैसे सांप सूंघ गया. रश्मि का क्रोध देख उस के हाथ कांपने लगे.

‘‘आ…आ… आप मुझे गलत समझ रही हैं मैडम,’’ उस ने कांपते स्वर में कहा.

‘‘गलत मैं नहीं समझ रही आप ने मुझे समझा है. एक शिक्षक के नाते मैं आप की इज्जत करती रही और आप ने मुझे क्या समझ लिया?’’ फिर एक पल भी नहीं रुका हिमेश. उस के बाद उस ने कभी रश्मि के घर की तरफ देखा भी नहीं. जब कभी साहिल ने पूछा रश्मि से तो उस से उस ने कहा कि सर बाहर रहने लगे हैं. रश्मि की जिंदगी फिर से दौड़ने लगी. एक दिन एक पांच सितारा होटल में लगी डायमंड ज्वैलरी की प्रदर्शनी में एक संभ्रात परिवार की 30-35 वर्षीय महिला ऊर्जा से रश्मि की मुलाकात हुई. बातों ही बातों में दोनों इतनी घुलमिल गईं कि दोस्त बन गईं. वह सच में ऊर्जा ही थी. गजब की फुरती थी उस में. ऊर्जा ने बताया कि वह अपने घर पर योगा करती है. योगा सिखाने और अभ्यास कराने योगा सर आते हैं. रश्मि को लगा वह भी ऊर्जा की तरह गठीले और आकर्षक फिगर वाली हो जाए तो मजा आ जाए. तब हर कोई उसे देखता ही रह जाएगा.

ऊर्जा ने स्वाति से कहा कि मैं योगा सर को तुम्हारा मोबाइल नंबर दे दूंगी. वे तुम से संपर्क कर लेंगे. रश्मि ने अपने पति संभव को मना लिया कि वह घर पर योगा सर से योगा सीखेगी. एक दिन रश्मि के मोबाइल घंटी बजी. उस ने देखा तो कोई नया नंबर था. रश्मि ने फोन उठाया तो उधर से आवाज आई,  ‘‘हैलो मैडम, मैं योगा सर बोल रहा हूं. ऊर्जा मैडम ने आप का नंबर दिया था. आप योगा सीखना चाहती हैं?’’‘‘जी हां मैं ने कहा था, ऊर्जा से,’’ रश्मि ने कहा.

‘‘तो कहिए कब से आना है?’’

‘‘किस टाइम आ सकते हैं आप?’’

‘‘कल सुबह 6 बजे आ जाता हूं. आप अपना ऐडै्रस नोट करा दें.’’

रश्मि ने अपना ऐड्रैस नोट कराया. सुबह 5.30 बजे का अलार्म बजा तो रश्मि जाग गई. योगा सर 6 बजे आ जाएंगे यही सोच कर वह आधे घंटे में फ्रैश हो कर तैयार रहना चाहती थी. बच्चे और पति संभव सो रहे थे. उन्हें 8 बजे उठने की आदत थी. रश्मि उठते ही बाथरूम में घुस गई. फ्रैश हो कर योगा की ड्रैस पहनी तब तक 6 बजने जा रहे थे कि अचानक डोरबैल बजी. योगा सर ही हैं यह सोच कर उस ने दौड़ कर दरवाजा खोला. दरवाजा खोला तो सामने खड़े शख्स को देख कर वह स्तब्ध रह गई. उस के सामने सुधीर खड़ा था. वही सुधीर जो उस की यादों में बसा रहता था.

‘‘तुम योगा सर?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘हां.’’

फिर सुधीर ने, ‘‘अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ कहा तो रश्मि हड़बड़ा गई.

‘‘हांहां आओ, आओ न प्लीज,’’ उस ने कहा. सुधीर अंदर आया तो रश्मि ने सोफे की तरफ इशारा करते हुए उसे बैठने को कहा. दोनों एकदूसरे के सामने बैठे थे. रश्मि को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले, क्या नहीं. सुधीर कहे या योगा सर. रश्मि सहज नहीं हो पा रही थी. उस के मन में सुधीर को ले कर अनेक सवाल चल रहे थे. कुछ देर में वह सामान्य हो गई, तो सुधीर से पूछ लिया, ‘‘इतने साल कहां रहे?’’

सुधीर चुप रहा तो रश्मि फिर बोली, ‘‘प्लीज सुधीर, मुझे ऐसी सजा मत दो. आखिर हम ने प्यार किया था. मुझे इतना तो हक है जानने का. मुझे बताओ, यहां तक कैसे पहुंचे और अंकलआंटी कहां हैं? तुम कैसे हो?’’ रश्मि के आग्रह पर सुधीर को झुकना पड़ा. उस ने बताया कि तुम से अलग हो कर कुछ टाइम मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ा रहा. फिर थोड़ा सुधरा तो शादी की, लेकिन पत्नी ज्यादा दिन साथ नहीं दे पाई. घरबार छोड़ कर चली गई और किसी और केसाथ घर बसा लिया. फिर काफी दिनों के इलाज के बाद ठीक हुआ तो योगा सीखतेसीखते योगा सर बन गया. तब किसी योगाचार्य के माध्यम से दिल्ली आ गया. मम्मीपापा आज भी वहीं हैं उसी शहर में. सुधीर की बातें सुन अंदर तक हिल गई रश्मि. यह जिंदगी का कैसा खेल है. जो उस से बेइंतहां प्यार करता था, वह आज किस हाल में है सोचती रह गई रश्मि. अजब धर्मसंकट था उस के सामने. एक तरफ प्यार दूसरी तरफ घरसंसार. क्या करे? सुधीर को घर आने की अनुमति दे या नहीं? अगर बारबार सुधीर घर आया तो क्या असर पड़ेगा गृहस्थी पर? माना कि किसी को पता नहीं चलेगा कि योगा सर के रूप में सुधीर है, लेकिन कहीं वह खुद कमजोर पड़ गई तो? उस के 2 छोटेछोटे बच्चे भी हैं. गृहस्थी जैसी भी है बिखर जाएगी. उस ने तय कर लिया कि वह सुधीर को योगा सर के रूप में स्वीकार नहीं करेगी. कहीं दूर चले जाने को कह देगी इसी वक्त.

‘‘देखो सुधीर मैं तुम से योगा नहीं सीखना चाहती,’’ रश्मि ने अचानक सामान्य बातचीत का क्रम तोड़ते हुए कहा.

‘‘पर क्यों रश्मि?’’

‘‘हमारे लिए यही ठीक रहेगा सुधीर, प्लीज समझो.’’

‘‘अब तुम शादीशुदा हो. अब वह बचपन वाली बात नहीं है रश्मि. क्या हम अच्छे दोस्त बन कर भी नहीं रह सकते?’’ सुधीर ने लगभग गिड़गिड़ाने के अंदाज में कहा.

‘‘नहीं सुधीर, मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिस से मेरी गृहस्थी, मेरे बच्चों पर असर पड़े,’’ रश्मि ने कहा. सुधीर ने लाख समझाया पर रश्मि अपने फैसले पर अडिग रही. सुधीर बेचैन हो गया. सालों बाद उस का प्यार उस के सामने था, लेकिन वह उस की बात स्वीकार नहीं कर रहा था. आखिर रश्मि ने सुधीर को विदा कर दिया. साथ ही कहा कि दोबारा संपर्क की कोशिश न करे. सुधीर रश्मि से अलग होते वक्त बहुत तनावग्रस्त था. पर उस दिन के बाद सुधीर ने रश्मि से संपर्क नहीं किया. रश्मि ने तनावमुक्त होने के लिए कई नई फ्रैंड्स बनाईं और उन के साथ बहुत सी गतिविधियों में व्यस्त हो गई. इस से उस का सामाजिक दायरा बहुत बढ़ गया. उस दिन वह बहुत से बाहर के फिर घर के काम निबटा कर बैडरूम में पहुंची तो न्यूज चैनल पर उस ने वह खबर देखी कि सुधीर ने दिल्ली मैट्रो के आगे कूद कर सुसाइड कर लिया था. वह देर तक रोती रही. न्यूज उद्घोषक बता रही थी कि उस की जेब में एक सुसाइड नोट मिला है, जिस में अपनी मौत के लिए उस ने किसी को जिम्मेदार नहीं माना परंतु अपनी एक गुमनाम प्रेमिका के नाम पत्र लिखा है. रश्मि का सिर घूम रहा था. उस की रुलाई फूट पड़ी. तभी संभव ने अचानक कमरे में प्रवेश किया और बोला, ‘‘क्या हुआ रश्मि, क्यों रो रही हो? कोई डरावना सपना देखा क्या?’’ प्यार भरे बोल सुन रश्मि की रुलाई और फूट पड़ी. वह काफी देर तक संभव के कंधे से लग कर रोती रही. उस का प्यार खत्म हो गया था. सिर्फ यादें ही शेष रह गई थीं.

हिंडोला : दीदी के लिए क्या भूल गई अनुभा अपना प्यार?

ढाई इंच मोटी परत चढ़ आई थी, पैंतीसवर्षीय अनुभा के बदन पर. अगर परत सिर्फ चर्बी की होती तो और बात होती, उस के पूरे व्यक्तित्व पर तो जैसे सन्नाटे की भी एक परत चढ़ चुकी थी. खामोशी के बुरके को ओढ़े वह एक यंत्रचालित मशीनीमानव की तरह सुबह उठती, उस के हाथ लगाने से पहले ही जैसे पानी का टैप खुल जाता, गैस पर चढ़ा चाय का पानी, चाय के बड़े मग में परस कर उस के सामने आ जाता. कार में चाबी लगाने से पहले ही कार स्टार्ट हो जाती और रास्ते के पेड़ व पत्थर उसे देख कर घड़ी मिलाते चलते, औफिस की टेबल उसे देखते ही काम में व्यस्त हो जाती, कंप्यूटर और कागज तबीयत बदलने लगते.

आज वह मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर पोस्ट पर काबिज थी. सधे हुए कदम, कंधे तक कटे सीधे बाल, सीधे कट के कपड़े उस के आत्मविश्वास और उस की सफलता के संकेत थे.

कादंबरी रैना, जो उस की सेके्रटरी थी, की ‘गुडमार्निंग’ पर अनुभा ने सिर उठाया. कादंबरी कह रही थी, ‘‘अनु, आज आप को अपने औफिस के नए अधिकारी से मिलना है.’’

‘‘हां, याद है मुझे. उन का नाम…’’ थोड़ा रुक कर याद कर के उस ने कहा, ‘‘जीजीशा, यह क्या नाम है?’’

कादंबरी ने हंसी का तड़का लगा कर अनुभा को पूरा नाम परोसा, ‘‘गिरिजा गौरी शंकर.’’

किंतु अनुभा को यह हंसने का मामला नहीं लगा.

‘‘ठीक है, वह आ जाए तो 2 कौफी भेज देना.’’

बाहर निकल कर कादंबरी ने रोमा से कहा, ‘‘लगता है, एक और रोबोट आने वाली है.’’

‘‘हां, नाम से तो ऐसा ही लगता है,’’ दोनों ने मस्ती में कहा.

जीजीशा तो निकली बिलकुल उलटी.  जैसा सीरियस नाम उस का, उस के उलट था उस का व्यक्तित्व. क्या फिगर थी, क्या चाल, फिल्मी हीरोइन अधिक और एक अत्यंत सीनियर पोस्ट की हैड कम लग रही थी. उस के आते ही सारे पुरुषकर्मी मुंहबाए लार टपकाने लगे, सारी स्त्रियां, चाहें वे बड़ी उम्र की थीं

या कम की, अपनेअपने कपड़े, चेहरे व बाल संवारने लगीं.

लगभग 35 मिनट के बाद जीजीशा जब अनुभा के कमरे से लौटी तो उस के कदम कुछ असंयमित से थे. वह कादंबरी के सामने की कुरसी पर धम से बैठ गई.

‘‘लीजिए, पानी पीजिए. उन से मिल कर अकसर लोगों के गले सूख जाते हैं,’’ मिस रैना ने अनुभा के औफिस की तरफ इशारा किया. अनुभा तो थी ही ऐसी, कड़क चाय सी कड़वी, किंतु गर्म नहीं. कड़वाहट उस के शब्दों में नहीं, उस के चारों ओर से छू कर आती थी.

जीजीशा अनुभा की हमउम्र थी, परंतु औफिस में उसे रिपोर्ट तो अनुभा को ही करना था. औफिस में सब एकदूसरे का नाम लेते थे, सिर्फ नवीन खन्ना को बौस कहते थे.

ऐसा नहीं था कि गला सिर्फ जीजीशा का सूखा हो, उस से मिल कर अनुभा की जीवनरूपी मशीन का एकएक पुर्जा चरचरा कर टूट गया था. जीजीशा ने उसे नहीं पहचाना, किंतु अनुभा उसे देखते ही पहचान गई थी. जीजीशा, उर्फ गिरिजा गौरी शंकर या मिट्ठू?

पलभर में कोई बात ठहर कर सदा के लिए स्थायी क्यों बन जाती है? अनुभा के स्मृतिपटल पर परतदरपरत यह सब क्या खुलता जा रहा था? कभी उसे अपना बचपन झाड़ी के पीछे छुप्पनछुपाई खेलता दिखता तो कभी घुटने के ऊपर छोटी होती फ्रौक को घुटने तक खींचने की चेष्टा में बढ़ा अपना हाथ.

एक दिन फ्रौक के नीचे सलवार पहन कर जब वह बाहर निकली थी उस की फैशनेबल दीदी यामिनी, जो कालेज में पढ़ती थीं, उसे देख कर हंसते हुए उस के गाल पर चिकोटी काट कर बोलीं, ‘अनु, यह क्या ऊटपटांग पहन रखा है? सलवारसूट पहनने का मन है तो मम्मी से कह कर सिलवा ले, पर तू तो अभी कुल 14 बरस की है, क्या करेगी अभी से बड़ी अम्मा बन कर?’

इठलाती हुई यामिनी दीदी किताबें हवा में उछाल कर चलती बनीं.

अनुभा कभी भी दीदी की तरह नए डिजाइन के कपड़े नहीं पहन पाई. उस में ऐसा क्या था जो तितलियों के झुंड में परकटी सी अलगथलग घूमा करती थी. घर में भी आज्ञाकारी पुत्री कह कर उस के चंचल भाईबहन उस पर व्यंग्य कसते थे.

‘मां की दुलारी’, ‘पापा की लाड़ली’, ‘टीचर्स पैट’ आदि शब्दों के बाण उस पर ऐसे छोड़े जाते थे मानो वे गुण न हो कर गाली हों. अनुभा के भीतर, खूब भीतर एक और अनुभा थी, जो सपने बुनती थी, जो चंचल थी, जो पंख लगा कर आकाश में ऊंची उड़ान भरा करती थी. उस के अपने छोटेछोटे बादल के टुकड़े थे, रेशम की डोर थी और तीज बिना तीज वह पींग बढ़ाती खूब झूला झूलती थी, जो खूब शृंगार करती थी, इतना कि स्वयं शृंगार की प्रतिमान रति भी लजा जाए. पर जिस गहरे अंधेरे कोने में वह अनुभा छिपी थी उसे कोई नहीं जान पाया कभी.

एक दिन जब उस के साथ कालेज आनेजाने वाली सहेली कालेज नहीं आई थी, वह अकेली ही माल रोड की चौड़ी छाती पर, जिस के दोनों ओर गुलमोहर के सुर्ख लाल पेड़ छतरी ताने खड़े थे, साइकिल चलाती घर की तरफ आ रही थी. रेशमी बादलों के बीच छनछन कर आ रही धूप की नरमनरम किरणों में ऐसी उलझी कि ध्यान ही नहीं रहा कि कब उस की साइकिल के सामने एक स्कूटर और स्कूटर पर विराजमान एक नौजवान उसे एकटक देख रहा था.

‘लगता है आप आसमान को सड़क समझ रही हैं. यदि मैं अपना पूरा बे्रक न लगा देता तो मैडम, आप उस गड्ढे में होतीं और दोष मिलता मुझे. माना कि छावनी की सड़कें सूनी होती हैं, पर कभीकभी हम जैसे लोग भी इन सड़कों पर आतेजाते हैं और आतेजाते में टकरा जाएं और वह भी किस्मत से किसी परी से…’

अनुभा इस कदर सहम गई, लजा गई और पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि गुलमोहर का लाल रंग उस के चेहरे को रंग गया. अटपटे ढंग से ‘सौरी’ बोल कर तेजतेज साइकिल भगाती चल पड़ी वहां से.

स्कूटर वाला तो निकला उस के भाई सुमित का दोस्त, जो कुछ दिन पहले ही एअरफोर्स में औफिसर बन कर लौटा था. बड़ा ही स्मार्ट, वाक्चतुर. ड्राइंगरूम में उसे बैठा देख वह चौंक पड़ी, वह बच कर चुपके से अपने कमरे की ओर लपकी तभी उस के भाई ने उसे आवाज दी, अपने मित्र से परिचय कराया, ‘आलोक, मिलो मेरी छोटी बहन अनुभा से.’

‘हैलो,’ कह कर वह बरबस मुसकरा पड़ी.

‘सुमित, अपनी बहन से कहो कि सड़क ऊपर नहीं, नीचे है.’

और वह भाग गई, उस के कानों में उन दोनों की बातचीत थोड़ीथोड़ी सुनाई पड़ रही थी, समझ गई कि माल रोड की चर्चा चल रही थी. अपने को बातों का केंद्र बनता देख वह कुमुदिनी सी सिमट गई थी. रात होने को आई, पर उस रात वह कुमुदिनी बंद होने के बदले पंखड़ी दर पंखड़ी खिली जा रही थी.

उन के घर जब भी आलोक आता, उस के आसपास मीठी सी बयार छोड़ जाता. पगली सी अनुभा आलोक की झलक सभी चीजों में देखने लगी थी, सिनेमा के हीरो से ले कर घर में रखी कलाकृतियों तक में उसे आलोक ही आलोक नजर आता था. अनुभा अचानक भक्तिन बनने लगी, व्रतउपवास का सिलसिला शुरू कर दिया. मां ने समझाया, ‘पढ़ाई की मेहनत के साथ व्रतउपवास कैसे निभा पाएगी?’

‘मम्मी, मेरा मन करता है,’ उस ने उत्तर दिया था.

‘अरे, तो कोई बुरा काम कर रही है क्या? अच्छे संस्कार हैं,’ दादी ने मम्मी से कहा.

अनुभा के मन में सिर्फ अब आलोक को पाने की चाहत थी. कालेज जाने से पहले वह मन ही मन सोचती कि बस किसी तरह आलोक मिल जाए.

‘बिटिया, कहीं पिछले जन्म में संन्यासिनी तो नहीं थी? पता नहीं इस का मन संसार में लगेगा कि नहीं?’ मम्मी को चिंता सताती.

‘कुछ नहीं होगा. अपनी यामिनी तो दोनों की कसर पूरी कर देती है. चिंता तो उस की है. न पढ़ने में ध्यान, न घर के कामकाज में. जब देखो तब फैशन, डांस और हंगामा,’ उस के पिता ने मां से कहा था.

‘हां जी, ठीक कहते हो, अब यामिनी की शादी कर दो. फिर मेरी अनुभा के लिए एक अच्छा सा वर ढूंढ़ देना.’

और अनुभा के भीतर वाली अनुभा ‘धत्’ बोल कर हंस पड़ी.

उस के पैर द्रुतगति से तिगदा-तिग-तिग, तिगदा-तिग-तिग तिगदा-तिग-तिग-थेई की ताल पर थिरक रहे थे. परंतु सहसा उस के पैरों की थिरकन द्रुतगति से विलंबित ताल पर होती हुई समय आने से पहले ही रुक गई. पैरों से घुंघरू उतार कर वह चुपचाप जाने लगी तो उस के डांस टीचर ने कहा, ‘आज एक नया तोड़ा सिखाना था, यामिनी तो कभी ठीक से सीखती नहीं, अब तुम भी जा रही हो.’

‘5 साल से नृत्य सीख रही हूं मास्टरजी, अब मैं सितार सीखूंगी,’ अनुभा ने सहज भाव से कहा.

‘हांहां क्यों नहीं,’ मास्टरजी ने भी हामी भर दी थी.

कौन जान पाया कि अनुभा के पैरों की थिरकन क्यों रुक गई. उस में कोई बाहरी परिवर्तन होता तो कोई देखता. अनुभा अपनी पढ़ाई और सितार के तारों में खो गई. दीदी यामिनी की शादी में आलोक दूल्हा बन के आया. दीदी चली गई, उस सपने के हिंडोले में बैठ कर जो उस ने अपने लिए बुना था.

‘याद है माल रोड वाली सड़क की वह टक्कर.’

जीजा बना आलोक उस से ठिठोली करता. जीजा को साली से मजाक करने का पूरा अधिकार था.

जिस घोड़ी पर बैठ कर आलोक आया था उस के गले में पड़ा खूबसूरत हार सब के आकर्षण का केंद्रबिंदु था. उस हार में जड़ा था खूबसूरत पत्थर, जिसे सब देखते नहीं थकते थे.

‘यह कौन है?’ जिज्ञासा से भरे सवाल निकले.

‘आलोक की क्या लगती है?’

‘हाय कितनी सुंदर है, पूरी मौडल जैसी.’

पता चला कि आलोक के पिता के मित्र की लड़की थी और आलोक की बचपन की ‘स्वीटहार्ट’. तब आलोक ने उस से शादी क्यों नहीं की? वह अभी छोटी थी और बहुत महत्त्वाकांक्षी. उस ने अपने लिए जो लक्ष्य तय किए थे उस में विवाह का स्थान था ही नहीं. विवाह को वह बंधन मानती थी. वे दोनों स्वतंत्र थे और स्वच्छंद भी.

यामिनी दीदी ने अपना घर बसाया, खिड़कियों पर झालरदार सफेद लेस के पर्दे टांगे, परंतु जब वह ‘खूबसूरत पत्थर’ उन के घर की खिड़कियों के सारे शीशे तोड़ गया, तब 6 महीने की अपनी प्यारी सी गुडि़या आन्या को गोद में लिए, अपने हाथों बसाए घर का दरवाजा खोल कर, मायके लौट आई थीं. टूटे हुए दिल व उजड़ी हुई गृहस्थी के दुख से यामिनी दीदी थरथर कांप रही थीं. मम्मी, पापा और पूरे घर ने उसे आत्मीयता का गरम लिहाफ ओढ़ा कर संभाल लिया था. दीदी की सारी मस्ती स्वाह हो गई. वे कभी ठीक से पढ़ी नहीं, जैसेतैसे उन्हें पापा ने एकआध कोर्स करवा कर स्कूल में नौकरी दिलवा दी थी. पुनर्विवाह तो क्या, उस घर में विवाह शब्द एक अछूत रोग की तरह माना जाने लगा. यहां तक कि अनुभा के लिए विवाह प्रसंग कभी छिड़ा ही नहीं. वह तो अच्छा हुआ कि सुमित की शादी यामिनी की शादी के महीने भर बाद ही हो गई थी वरना…

आज वही खूबसूरत नुकीला पत्थर उस के सामने कुरसी पर बैठा था. अनुभा सोच में पड़ी थी. क्या वह पोल खोल दे?

न मालूम कितनी और गृहस्थियां उजाड़ देगी यह! किंतु ऐसा क्यों होता है कि हमेशा ‘पति, पत्नी और वो’ में सब से अधिक दोष ‘वो’ को देते हैं? क्या स्त्री प्यार, प्रशंसा व प्रलोभनों से परे है? क्यों पुरुष के हाथ उस के अपने वश में नहीं रहते? इसी उधेड़बुन में डूबतीउतराती, वह नवीन खन्ना से आज की मीटिंग के बारे में बताने दाखिल हुई.

केवल 40 वर्ष की उम्र में नवीन जिस मुकाम पर पहुंचा था, वह मुकाम पुराने जमाने में 60 साल तक भी हासिल नहीं होता था. कंपनी का सीईओ मोटी तनख्वाह, उस से भी मोटे बोनस, उस से भी अधिक धाक. देशविदेश की डिगरियां हासिल कर के उस ने अपने लिए कौर्पोरेट जगत में एक विशिष्ट स्थान बना लिया था. बड़ीबड़ी कंपनियां व बैंक उसे पके आम की तरह लपकने को तैयार रहते थे.

अनुभा स्वयं भी अत्यंत मेधावी थी. आईआईएम में सब से पहला व बड़ा पैकेज उसी को मिला था. 2 साल जापान रही, फिर लंदन. नवीन खन्ना से उस की मुलाकात लंदन में हुई थी. जिस कंपनी में अनुभा काम कर रही थी उस का विलय दूसरी कंपनी में होने वाला था, नवीन खन्ना ने उस की योग्यता को भांप लिया था और उसे सीधे 4 सोपान आगे की पोस्ट व तनख्वाह दे डाली थी.

अनुभा भी भारत वापस आना चाहती थी. सो आ गई. बस तब से वह मुंबई में काम कर रही थी. उस पर नवीन की योग्यताओं की प्रमाणपट्टी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. जो व्यक्ति अनेक डिगरियां हासिल कर ले, जो करोड़ों रुपयों का ढेर लगाता हो, परंतु जिस का कोई नैतिक चरित्र न हो, जो धड़ल्ले से बातबात पर झूठ बोलता हो, जो अपनी पत्नी का फोन देख कर काट देता हो, जो मीटिंग व क्लायंट का भूत अपनी घरगृहस्थी पर लादे रहता हो, जो पति, पिता व पुरुष की मर्यादा न पहचानता हो, उसे अनुभा न तो आदर दे सकती थी न अपनी मित्रता. अनुभा के पिता अकसर अंगरेजी की एक कहावत कहा करते थे, जिस का सारांश था, ‘मैं कालेज तो गया, परंतु शिक्षित नहीं हुआ.’

बस यों समझ लीजिए कि नवीन खन्ना उस कहावत का साक्षात प्रमाण था.

एक बार एक बेहद खूबसूरत किंतु 55 वर्षीय महिला क्लायंट ने अनुभा से कहा था, ‘तेरा बौस तो मुझ जैसी बुढि़या पर भी लाइन मार रहा था.’

अनुभा कर भी क्या सकती थी. चारों तरफ यही सब तो बिखरा पड़ा था. आज के जमाने में दो ही तो पूजे जा रहे हैं, लाभ और पैसा.

कभी वह सोचती थी, क्या इन पुरुषों की पत्नियों को इन के चक्करों का पता नहीं चलता? क्या औफिस में काम कर रही विवाहित स्त्रियों के पतियों को पता नहीं चलता या फिर पता होते हुए भी वे खुली आंखों सोते रहते हैं या फिर पैसे की हायहाय ने प्यार व वफा का कोई मतलब नहीं रहने दिया है?

जो भी हो जीजीशा की नियुक्ति के बाद जीजीशा और नवीन को अकसर  औफिस के बाद इकट्ठे बाहर निकलते देखा जाता था. जीजीशा अभी तक स्वतंत्र थी और उसी तरह स्वच्छंद भी. पता नहीं आलोक को और आलोक की तरह कितनों को कब और कहां छोड़ आई थी?

अनुभा का रिश्ता शुद्ध कामकाज से था. रात को सोते समय कभीकभी पापा की सुनाई हुई लाइनें ‘किसकिस को याद कीजिए, किसकिस को रोइए, आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक के सोइए’ मजे के लिए दोहराती थी.

परंतु वह आराम की नींद कब सो पाई थी. अभी जीजीशा को आए 4-5 महीने ही हुए थे कि वह अचानक एक हफ्ते तक औफिस नहीं आई और जब आई तो बेहद दुबली लग रही थी. मेकअप के भीतर भी उस के गालों का पीलापन छिप नहीं पा रहा था. एक भयावह डर उस की आंखों में तैर रहा था. पता चला कि जीजीशा बीमार है, बहुत बीमार.

‘क्या हुआ है उसे?’ सब की जबान पर यही प्रश्न था.

15 दिन औफिस आने के बाद वह फिर गैरहाजिर हो गई थी. वह अस्पताल में भरती थी. उस के रोग का निदान नहीं हो पा रहा था. अनुभा फूलों का गुलदस्ता ले कर उस से मिलने गई थी और ‘शीघ्र स्वस्थ हो जाओ’ भी कह आई थी.

फिर एक दिन औफिस में उस खबर का बर्फीला तूफान आया. जीजीशा के रोग की पहचान की खबर. जिस रोग के लक्षण उसे क्षीण कर रहे थे उस ने उस के अंतरंग मित्रों के होश उड़ा दिए थे. नवीन खन्ना का औफिस व घर मानो 8 फुट मोटी बर्फ से ढक गया था. सब के दिमाग में अफरातफरी मची थी. जिस बीमारी का नाम लेने की हिम्मत न होती हो, उस एचआईवी के लक्षण जीजीशा की रक्त धमनियों में बह रहे थे. कितने ही लोग अपनेअपने रक्त का निरीक्षण करा रहे थे. अनुभा भयभीत हो उठी. आज पहली बार अनुभा इतनी बेचैन हुई. वह उस कड़ी को देख कर कातर हो रही थी जो यामिनी दीदी, आन्या और आलोक को जोड़ रही थी. आलोक और जीजीशा के रिश्ते की कड़ी. घबरा कर उस ने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई से अपने घर इलाहाबाद आ गई.

‘अनुभा मैडम को क्या हुआ?’ उस के औफिस में एक प्रश्नवाचक मूक जिज्ञासा तैर गई. इलाहाबाद पहुंच कर बगैर किसी से कुछ कहेसुने, उस ने यामिनी दीदी और आन्या के तमाम टैस्ट करवाए और जब दोनों के निरीक्षण से डाक्टर संतुष्ट हो गए, तब जा कर वह इत्मीनान से पैर पसार कर लेट गई. मां ने उस का सिर अपनी गोद में ले लिया और स्नेहपूर्वक उस के माथे का पसीना पोंछने लगीं, ‘‘एसी चल रहा है और तू है कि पसीने में तरबतर, जैसे किसी रेस में दौड़ कर आई हो.’’

‘‘रेस में ही नहीं मम्मा, मैं तो महारेस में दौड़ कर आई हूं. ट्राईथालौन समझती हो, बस उसी में दौड़ कर लौटी हूं.’’

हक्कीबक्की मां उस का मुंह ताकती रह गईं. मन ही मन अनुभा मां से जाने क्याक्या कहे जा रही थी. एक ही जीवन में कई तरह की दौड़ हो गई. सब से पहले मालरोड पर साइकिल चलाई, फिर पढ़ाई कैरियर और यामिनी दीदी की बिखरी हुई जिंदगी के दलदल में फंसी और दौड़ का अंतिम चरण? वह तो मुंबई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से अस्पताल, अस्पताल के गलियारों की दौड़. उफ, यह अंतिम दौर उस का कठिनतम दौर था. उसे लगा जैसे दीदी और आन्या किसी सुनामी से बच कर किनारे पर सुरक्षित पड़ी हों.

निश्ंिचतता और मां की गोद उसे धीरेधीरे नींद की दुनिया में ले जाने लगी, वह सपनों के हिंडोले में झूलने लगी. अचानक उसे लगा कि अगर आलोक उसे मिल गए होते तो…तो…हिंडोला टूट गया. यह क्या? फिर भी वह हंस रही है. खुशी की हंसी, राहत की हंसी. अच्छा हुआ, आलोक की वह नहीं हुई.

खुशी के आंसू : जब आनंद और छाया ने क्यों दी अपने प्यार की बलि?

लेखिका- डा. विभा रंजन  

आनंद आजकल छाया के बदले ब्यवहार से बहुत परेशान था. छाया आजकल उस से दूरी बना रही थी, जो आनंद के लिए असह्य हो रहा था. दोनों की प्रगाढ़ता के बारे में स्कूल के सभी लोगों को भी मालूम था. वे दोनों 5 वर्षों से साथ थे. छाया और आनंद एक ही स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत थे. वहीं जानपहचान हुई और दोनों ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला कर लिया था.

दोनों की प्रेमकहानी को छाया के पिता का आशीर्वाद मिल चुका था. वे दोनों शादी के बंधन में बंधने वाले थे कि छाया के पिता को कैंसर जैसी भंयकर बीमारी से मृत्यु हो गई थी. विवाह एक वर्ष के लिए टल गया था. छाया की छोटी बहन ज्योति थी जो पिता की बीमारी के कारण बीए की परीक्षा नहीं दे पाई थी. छाया उसे आगे पढ़ाना चाहती थी. छाया के कहने पर आनंद उसे पढ़ाने उस के घर जाया करता था.

आजकल वह ज्योति के ब्यवहार में बदलाव देख रहा था. उसे महसूस होने लगा था कि ज्योति उस की तरफ आकर्षित हो रही है. उस ने जब से यह बात छाया को बताई तब से छाया उस से ही दूरी बनाने लगी. अब वह न पहले की तरह आनंद से मिलतीजुलती है और न बात करती है.

आनंद को समझ नहीं आ रहा था आखिर छाया  ने अचानक उस से बातचीत क्यों बंद कर दी. कहीं वह ज्योति की प्यार वाली बात में उस की गलती तो नहीं मान रही. नहींनहीं, वह अच्छी तरह जानती है मैं उस से कितना चाहता हूं. आखिर कुछ तो पता चले उस की बेरुखी का कारण क्या है?

आज 3 दिन हो गए एक स्कूल में रह कर भी हम न मिल पाए न उस ने मेरी एक भी कौल का जवाब दिया. आनंद छाया की गतिविधियों पर अपनी नज़र  जमाए हुए था. वह स्कूल आया जरूर, पर अंदर दाखिल नहीं हुआ. बस, छाया को स्कूल में दाखिल होते देखता रहा.

छुट्टी के समय छाया जैसे ही गेट से बाहर निकलने वाली थी, आनंद ने अपनी बाइक उस के सामने खड़ी कर दी और बोला, “पीछे बैठो, मैं कोई तमाशा नहीं चाहता.”

छाया ने उस की वाणी में कठोरता महसूस की, वह डर गई. वह चुपचाप बाइक पर बैठ गई. बाइक तेजी से सड़क पर दौड़ने लगी. थोड़ी देर बाल आनंद ने बाइक को एक छोटे से पार्क के पास रोक दिया. पार्क में और भी जोड़े बैठे थे. आनंद ने छाया का हाथ पकड़ा और छाया के साथ एक बैंच पर बैठ गया.

दो पल दोनों खामोश बैठे रहे, फिर आनंद ने कहा,  “छाया,  मैं ने तुम्हें कितनी कौल कीं, तुम ने न फोन उठाया, न मुझे कौल ही किया. आखिर क्या बात है, क्यों मुझ से दूर रह कर मुझे परेशान कर रही हो? मेरी क्या गलती है, मुझे बताओ? मैं ने ऐसा  क्या कर दिया?”

“आनंद, तुम्हारी कोई गलती नहीं है.”

“तब फिर, इस बेरुखी का मतलब?”

“मैं खुद बहुत परेशान हूं,” छाया ने भीगे स्वर में कहा.

“तुम्हारी ऐसी कौन सी परेशानी है जो मुझे पता नहीं? मैं तुम्हारा साथी हूं, सुखदुख का भागीदार हूं. मुझे बताओ, हम मिल कर हर समस्या का हल निकाल लेंगे.”

छाया एकटक आनंद को देखे जा रही थी.

“ऐसे क्यों देख रही हो, तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है? तुम जानती हो,मैं झूठ नहीं बोलता, बताओ क्या बात है?” आनंद ने कहा.

“ज्योति मेरी छोटी बहन है.”

“जानता हूं, आगे?”

“मैं उसे बहुत प्यार करती हूं.”

“ठीक है, फिर?”

“पापा ने मरते समय मुझ से वादा लिया था, मैं ज्योति का अच्छे से ध्यान रखूं,उस की हर इच्छा का खयाल रखूं. और उस की इच्छा तुम हो, आनंद.”

“पागल तो नहीं हो गई हो तुम, क्या बोल रही हो, जरा सोचो.”

“सही सोच रही हूं आनंद. तुम से अच्छा लड़का ज्योति के लिए कहां मिलेगा मुझे?”

“शटअप छाया, पागल मत बनो. ज्योति से मैं 8 साल बड़ा हूं.”

“मेरी मां, मेरे पापा से 9 साल छोटी थीं.”

“ओह माई गौड, क्या हो गया तुम्हें, आई लव यू ओनली.”

“बट, ज्योति लव्स यू.”

“उसे हमारे बारे में नहीं पता है, सब सच बता दो उसे. तुम्हारे पापा का आशीर्वाद भी मिल चुका है हमें. हम तो शादी करने वाले थे. जब वह यह सब सच जानेगी तब वह सब समझ जाएगी.”

“वह दिनभर, बस, तुम्हारी बातें किया करती है. तुम ने पढ़ाते समय उसे जो उदाहरण दिए हैं, उन्हें उस ने जीवन के सूत्र बना लिए हैं. वह बच्ची है आनंद, सच जान कर उस का दिल टूट जाएगा. वह बिखर जाएगी. वह तुम्हें बहुत चाहने लगी है आनंद.”

“इस का मतलब?”

“मतलब यह है, ज्योति तुम को चाहती है और मैं ज्योति को तुम्हें सौपना चाहती हूं.”

नहीं, छाया नहीं, मैं जीतेजी मर जाऊंगा. तुम इतनी कठोर कैसे हो सकती हो, क्या तुम्हारा प्यार झूठा था, नकली था? तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो?”  आनंद बिफर गया.

“तुम ने अभीअभी मेरी हर समस्या का हल निकालने की बात कही थी, और अब मुकरने लगे,” छाया ने बिलकुल शांत स्वर में कहा.

“मतलब, तुम मेरे बिना रह लोगी?” आनंद ने व्यंग्य करते हुए कहा.

“यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है,” छाया ने फिर अपनी बात रखनी चाही.

“तुम मुझे प्यार नहीं करती न,” आनंद बात से हटना चाह रहा था.

“यही समझ लो, ज्योति तो करती है न.”

“मैं पागल हो जाऊंगा छाया, मुझ पर रहम करो.”

“तुम ज्योति को अपना लो. बस, मेरी इतनी बात मान लो आनंद. अगर कभी भी मुझे प्यार किया होगा, उसी का वास्ता देती हूं मैं तुम्हें.”

“मैं मां से क्या कहूंगा,” आनंद ने आखिरी दांव फेंका.

“कुछ भी कह देना, बदल गई छाया, बिगड़ गई छाया, जो चाहे सो कह देना.”

“तुम बहुत स्वर्थी हो गई हो छाया. तुम मुझ से प्यार नहीं करतीं. तुम्हें बस अपनी बहन से प्यार है. तुम ने मुझे जीतेजी मार दिया. आज का दिन मैं कभी भी भूल नहीं पाऊंगा.”

“चलो, मुझे छोड़ दो.”

“मैं क्या छोडूंगा तुम्हें, तुम ने मुझे छोड़ दिया.”

आनंद ने बाइक स्टार्ट की. छाया चुपचाप पीछे बैठ गई. आनंद उसे घर से कुछ दूरी पर छोड़ छाया को बिना देखे तेजी से निकल गया. छाया रातभर सो न सकी. वह सारी रात बेचैन रही. उस का स्कूल जाने का मन नहीं था, पर आज जाना जरूरी था, इसलिए उसे जाना पडा. वह सीधे क्लासरूम में चली गई. क्लास लेने के बाद वह लाइब्रेरी में जा कर बैठ गई.

आज उस में आनंद की सामना करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. उस ने पर्स से एक किताब निकाली और पढ़ने की बेकार कोशिश करने लगी. पढ़ने में बिलकुल मन नहीं लग रहा था. पर समय काटना था क्योंकि अभी आनंद स्टाफरूम में होगा. घंटी लगने के बाद वह उठी और क्लास लेने चली गई. उस दिन छाया दिनभर आनंद के सामने आने से बचती रही.

अब छाया ने सोच लिया, बस, पापा के साल होने में मात्र 3 महीने हैं. उसे अब ज्योति की विवाह की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए. उसे आनंद पर विश्वास था, वह उसे धोखा नहीं देगा. अब उसे ज्योति को आनंद से विवाह की बात बता देनी चाहिए.

उस ने जब ज्योति को बताया, वह खुशी से झूम उठी. उस का चेहरा लज्जा से लाल हो गया. उस ने कहा कि शायद इसी कारण आनंद जी अब उसे पढ़ाने नहीं आ रहे हैं. छाया क्या कहती, वह चुप रही. अगले महीने से स्कूल में परीक्षा है. और  स्कूल के अंदर की परीक्षा का कार्यभार छाया के पास था. वह परीक्षा प्रभारी थी. इन दिनों छुट्टी लेना मुश्किल हो जाता है. उस ने सोचा, परीक्षा के बाद से वह विवाह की तैयारी में जुट जाएगी.

छाया की एक सहेली तबस्सुम, जो पहले इसी स्कूल में मनोविज्ञान की शिक्षिका थी, विवाह के बाद हैदराबाद चली गई थी. उस ने अचानक से खबर  किया कि वह दिल्ली आई है और उस से मिलने के लिए आना चाहती है. छाया ने उसे दिन के खाने पर बुला लिया.

उस दिन छाया को जल्दी घर आना था, पर देर हो रही थी. तबस्सुम अपनी 3 महीने की खुबसूरत बेटी नूर को ले कर  छाया के घर आ गई थी. ज्योति नूर को बहुत प्यार कर रही थी.

“दीदी, जी करता है, मैं आप की बेटी को  रख लूं,”   ज्योति ने नूर को पुचकारते हुए कहा.

“रख लो,”  तबस्सुम ने हंस कर कहा.

तबस्सुम ज्योति से पहली बार मिल रही थी. “अगर अंकलजी नहीं गुजरते तब, अभी तक तेरी छाया दीदी को भी मुन्ना या मुन्नी हो गई होती. आनंद और छाया, मम्मी और पापा बन गए होते. अंकलजी अपने सामने शादी नहीं देख पाए पर, उन का आशीर्वाद तो  इन दोनों को मिल ही चुका  है.”

“क्या कहा आप ने तबस्सुम दी?” ज्योति ने हैरत से पूछा.

“यही कि शादी हो गई होती, अब तक छाया और आनंद, मम्मीपापा बन गए होते,”

तबस्सुम ने सच्ची बात कह दी.

ज्योति ने यह सुना तो सन्न रह गई. जो उस ने सुना वह सच है या तबस्सुम दी ने ऐसे ही यह बात कह दी. पर वे आनंद का नाम क्यों ले रही हैं वे किसी और का भी तो नाम ले सकती हैं. इस का मतलब है, दीदी और आनंद जी… ज्योति को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस ने जैसेतैसे खुद को संभाला और अपने चेहरे के भाव को सामान्य कर कर लिया.

तबस्सुम दिनभर रही और रात होने से पहले वापस घर चली गई. पर ज्योति के मन में हलचल मचा गई. मतलब साफ है, पापा भी इन लोगों के बारे में जानते थे, वह कैसे नहीं जान पाई. पापा की बीमारी में अस्पताल में आनंदजी आते रहते थे. उस समय की परिस्थिति ऐसी थी जिस में इन सभी विषयों पर सोचने की फुरसत भी नहीं थी. जब पापा के कैंसर का पता चला तब हम सभी पापा में लग गए. एक बात तो स्पष्ट है कि आनंद और दीदी का प्यार बहुत गहरा है. एकदूसरे के प्रति अटूट विश्वास है. इसी कारण इन्हें किसी को दिखाने की जरूरत नहीं पडी. उसी प्यार में दीदी ने आनंदजी को मुझ से विवाह करने के लिए मना भी लिया. दीदी ने ऐसा क्यों किया? काश, एक बार मुझे सब सच बता दिया होता. यह तो अच्छा हुआ कि तबस्सुम दी ने मुझे सच से अवगत करा दिया वरना…

स्कूल की परीक्षा समाप्त होने के बाद छाया ने ज्योति से कहा, “ज्योति, पापा की बरसी के बाद  मैं तेरे विवाह की सोच रही हूं. बरसी को 2 महीने रह गए हैं. तब तक मैं धीरेधीरे शादी की तैयारियां भी करती रहूंगी.”

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“इतनी जल्दी क्या है दीदी,”  ज्योति ने कहा.

“नहीं ज्योति, शुभकार्य में विलंब ठीक नहीं,”  छाया को जैसे हड़बड़ी थी.

“हां, तो ठीक है. अगले सप्ताह 27 तारीख को तुम्हारा जन्मदिन है, उस दिन कुछ कार्यक्रम कर लो,”    ज्योति ने कहा.

“धत, मेरे जन्मदिन के समय ठीक नहीं है, किसी और दिन रखूंगी.” छाया ने मना कर दिया.

“दीदी, मुझे कुछ कहना है,” ज्योति ने आग्रह किया.

“हां, बोलो,” छाया ज्योति को देखते हुए बोली.

“दीदी, इस बार  मैं तुम्हारा जन्मदिन अपनी पसंद से सैलिब्रेट करना चाहती हूं,” ज्योति ने बहुत लाड़ से कहा.

“अरे, मेरा जन्मदिन क्या मनाना,” छाया ने टालना चाहा.

“मैं ने कहा न, इस बार मैं तुम्हारा जन्मदिन सैलिब्रेट करूंगी, फिर तो मैं ससुराल चली जाऊंगी, तुम तो मेरी हर इच्छा पूरी करती हो, इतनी सी बात नहीं मानोगी,” ज्योति  छाया से मनुहार करने लगी.

“अच्छा बाबा, तुम सैलिब्रेट करना, पर भीड़भाड़ नहीं, समझीं,” छाया ने अपनी बात रख दी.

“ठीक है, मैं समझ गई,” ज्योति खुश हो गई.

छाया स्कूल में आनंद से, बस, काम की बात किया करती थी. वह कोशिश करती कि आनंद से उस का सामना कम हो. उस ने आनंद को छोड़ने का फैसला तो कर लिया पर जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, उस का मन बोझिल होता जा रहा था. अपने जन्मदिन के दिन उस का मन खिन्न हो उठा क्योंकि हर जन्मदिन पर सब से पहले आनंद का ही फोन आता था. इस रास्ते को तो वह स्वयं ही बंद कर आई है.

छाया का मन बेचैन था, इंतजार करता रहा, आनंद का फोन नहीं आया. छाया ने ज्योति से काम का बहाना बनाया और आनंद से मिलने के लिए स्कूल चली आई. स्कूल आ कर पता चला आनंद ने 2 दिनों की छुट्टी ले रखी है. थोड़ी देर स्कूल में रुकने के बाद वह घर आ गई.

ज्योति उस की बेचैनी समझ रही थी. पर वह चुप थी. ज्योति ने पूरे घर को छाया की पसंद के फूलों से सजाया था. उस ने सारा खाना अपने हाथों से बनाया, यहां तक कि केक भी उस ने बडे प्यार से बनाया. छाया ने कहा था इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत है, केक मंगा लेते हैं. पर वह तैयार नहीं हुई.

ज्योति ने छाया को मां की साड़ी दे कर कहा, “दीदी, शाम को यही पहनना.”

“मां की साडी, क्यों?” छाया ने अचरज से पूछा.

“पहन लो न. बस, ऐसे ही. आज तो मेरी हर बात माननी है, याद है न,” ज्योति ने और्डर से कहा.

“अच्छा, हां.”  छाया ने कहा. छाया का मन हो रहा था वह ज्योति से पूछे कि आनंद को बुलाया है या नहीं. पर उस की हिम्मत नहीं हुई. “तुम क्या पहन रही हो?”  छाया ने प्यार से पूछा.

“आज तुम ने जो पीला सूट दिया था न, वह वाला पहनूंगी. ठीक है न?”  ज्योति खुशी से बोली.

शाम को दोनों बहनें तैयार हो रही थीं, तभी बाई ने बताया कि आनंद बाबू आए हैं. छाया का दिल जोर से धड़कने लगा. उसे लगा, वह गिर जाएगी. उस ने अपनेआप को संभाला.

“आ गए आप, मैं ने तो आप को और पहले से आने को कहा था. आप इतनी देर में क्यों आए?” ज्योति का आनंद से बेतकल्लुफ़ हो कर बोलना आनंद और छाया दोनों ने गौर किया.

“वह कुछ काम था, इसलिए देर हो गई, हैप्पी बर्थडे छाया,” आनंद ने रजनीगंधा का एक खुबसूरत बुके देते हुए छाया से सकुचाते हुए कहा.

छाया ने “थैक्स” कह बुके को झट से अपने कलेजे से लगा लिया और अंदर कमरे में जाने लगी.

“दीदी, कहां जा रही हो, केक नहीं काटोगी,” ज्योति ने छाया का हाथ पकड़ा और उसे खींचती हुई आनंद के पास ला कर सोफे पर बिठा दिया और फिर बोली, “मैं केक ले कर आ रही हूं.”

छाया को बड़ी बेचैनी हो रही थी. आनंद से मिलना भी चाह रही थी, जब आनंद सामने आया तब घबराहट सी होने लगी. तभी ज्योति केक ले आई, “हैप्पी बर्थडे टू यू डीयर दीदी, हैप्पी बर्थडे टू यू.”

ज्योति का उत्साह देखते बन रहा था. दोनों बहनों ने एकदूसरे को केक खिलाया फिर आनंद को केक दिया.”केक तो बहुत अच्छा है,” आनंद ने कहा.“ज्योति ने बनाया है,” छाया ने बड़े गर्व से कहा, “आज का सारा इंतजाम मेरी ज्योति ने किया है.”

“ओह, और गिफ्ट क्या दिया?”

“नहीं दी हूं, अभी दूंगी,” ज्योति ने तपाक से कहा, फिर ज्योति ने आनंद के दिए हुए रजनीगंधा के बुके से एक फूल की डंडी निकाल कर छाया को देते हुए कहा,

“त्वदीयं वस्तु दीदी तुभ्यमेव समर्पये.” यानी, “ तुम्हारी चीज तुम्हें ही सौपती हूं दीदी.”

“क्या बोल रही है,” छाया हड़बड़ा गई.

“सही बोल रही हूं दीदी, तुम्हारी चीज मैं तुम्हें वापस लौटा रही हूं,” ज्योति ने आनंद की ओर अपना हाथ दिखाते हुए कहा.

“मुझे पता चल चुका है दीदी आप दोनों के बारे में. आप दोनों की तो शादी होने वाली थी, पर पापा के असमय मौत से टल गई. सब जानते हुए आप ने कैसे मेरी शादी आनंदजी से तय कर दी. मैं नहीं जानती आप ने आनंदजी को किस तरह मुझ से शादी के लिए मजबूर किया होगा, लेकिन यह सब करते आप ने एक बार भी नहीं सोचा कि जिस दिन मुझे इस सच का पता चलेगा, उस दिन मुझ पर क्या बीतेगी. यह सच जान कर मैं तो आत्महत्या ही कर लेती दीदी.”

“ज्योति, ऐसा मत बोल,” छाया ने उस की बात काटते हुए तड़प कर उस के मुंह पर अपना हाथ रख दिया.

“मैं ने, बस, तेरी खुशी चाही, और कुछ नहीं.”

“ऐसी खुशी किस काम की दीदी, जिस में बाद में पछताना पडे. आप को क्या लगा, अगर आप सच बता देतीं, तब मैं आप से नफरत करने लगती, आप से दूर हो जाती? नहीं दीदी, मैं आप से कभी नफरत कर ही नहीं सकती दीदी, लेकिन आप ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया,” यह सब  बोल कर ज्योती हांफने लगी.

“बस कर ज्योति, बस कर. मैं ने इतनी गहरी बात कभी सोची ही नहीं. मैं बहुत बडी गलती करने जा रही थी, मुझे माफ कर दे. कभीकभी बड़ों से भी नादानियां हो जाती हैं. बस, एक बार मुझे माफ कर दे मेरी बहन.”

“एक शर्त पर,” ज्योति ने कहा.”मैं तेरी हर शर्त मानने को तैयार हूं, तू बोल कर तो देख,” छाया ने कहा.”आप अभी यह केक मेरे होने वाले आनंद जीजाजी को खिलाइए,” ज्योती ने आनंद की ओर इशारा करते हुए  कहा.

“ओके.” छाया ने केक का टुकड़ा आनंद के मुंह में डाला. उस की आंखें, उस का तनमन, उस का रोमरोम  उस से क्षमायाचना कर रहा था. तीनों की आंखें भरी थीं, पर ये आंसू खुशी के थे.

तीसरी कौन: क्या था दिशा का फैसला

पलंग के सामने वाली खिड़की से बारिश में भीगी ठंडी हवाओं ने दिशा को पैर चादर में करने को मजबूर कर दिया. वह पत्रिका में एक कहानी पढ़ रही थी. इस सुहावने मौसम में बिस्तर में दुबक कर कहानी का आनंद उठाना चाह रही थी, पर खिड़की से आती ठंडी हवा के कारण चादर से मुंह ढक कर लेट गई. मन ही मन कहानी के रस में डूबनेउतराने लगी…

तभी कमरे में किसी की आहट ने उस का ध्यान भंग कर दिया. चूडि़यों की खनक से वह समझ गई कि ये अपरा दीदी हैं. वह मन ही मन मुसकराई कि वे मुझे गोलू समझेंगी. उसी के बिस्तर पर जो लेटी हूं. मगर अपरा अपने कमरे की साफसफाई में व्यस्त हो गईं. यह एक बड़ा हौल था, जिस के एक हिस्से में अपरा ने अपना बैड व दूसरे सिरे पर गोलू का बैड लगा रखा है. बीच में सोफे डाल कर टीवी देखने की व्यवस्था कर रखी है.

‘‘लाओ, यह कपड़ा मुझे दो. मैं तुम से बेहतर ड्रैसिंग टेबल चमका दूंगा… तुम इस गुलाब को अपने बालों में सजा कर दिखाओ.’’

‘‘यह तो रोहित की आवाज है,’’ दिशा बुदबुदाई. एक क्षण तो उसे लगा कि दोनों मियांबीवी के वार्त्तालाप के बीच कूद पड़े. फिर दूसरे ही क्षण जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, सोच चुपचाप पड़ी रही. उन का वार्त्तालाप उस के कान गूंजने लगा…

‘‘अरे, आप रहने दो मैं कर लूंगी.’’

‘‘फिक्र न करो. मुझे अपने काम की कीमत वसूलनी भी आती है.’’

‘‘आप जाइए न यहां से… कहीं दिन में ही न शुरू हो जाइएगा.’’

‘‘अरे मान भी जाओ… यह रोमांटिक बारिश देख रही हो.’’

दिशा के कान बंद हो चुके थे और आंसू आंखों से निकल कर कनपटियों को जलाने लगे थे. ये रोहित कब से इतने रोमांटिक हो गए? चूडि़यों की खनखन और एक उन्मत्त प्रेमी की सांसें मानो उस के चारों ओर भंवर सी मंडराने लगी थीं. अब उस के अंदर हिलनेडुलने की भी शक्ति शेष न रही थी. कमरे में आया तूफान भले ही थम गया हो, मगर दिशा की गृहस्थी की जड़ों को बुरी तरह हिला गया. किसी तरह अपनेआप को संभाला और दरवाजे की ओर बढ़ गई. जातेजाते एक नजर उस बैड पर डालना न भूली जिस पर अपरा और रोहित कंबल के अंदर एकदूसरे को बांहों में भरे थे.

अपने कमरे में आ कर दिशा ने एक नजर चारों तरफ दौड़ाई… क्या अंतर है इस बैडरूम और अपरा दीदी के बैडरूम में? जो रोहित इस कमरे में तो शांत और गंभीर बने रहते हैं वे उस कमरे में इतने रोमांटिक हो जाते हैं? आज भले ही उस के वैवाहिक जीवन के 15 वर्ष गुजर गए हों. मगर उस ने रोहित का यह रूप कभी नहीं देखा. आईने के सम्मुख दिशा एक बार फिर से अपने चेहरे को जांचने को विवश हो गई थी.

रोहित और दिशा के विवाह के 10 वर्ष बीत जाने पर भी जब उन को संतान की प्राप्ति नहीं हुई तो अपनी शारीरिक कमी को स्वीकारते हुए दिशा ने खुद ही रोहित को पुनर्विवाह के लिए राजी कर लिया और अपने ताऊजी की बेटी, जो 35 वर्ष की दहलीज पर भी कुंआरी थी के साथ करवा दिया. अपरा भले ही दिशा से 6-7 वर्ष बड़ी थी, मगर विवाह के विषय में पीछे रह गई थी. शुरूशुरू के रिश्तों में अपरा मीनमेख ही निकालती रही.

30 पार करतेकरते रिश्ते आने बंद हो गए. फिर दुहाजू रिश्ते आने लगे, जिन के लिए वह साफ मना कर देती. मगर दिशा का लाया प्रस्ताव उस ने काफी नानुकर के बाद स्वीकार कर लिया.

तीनों जानते थे कि यह दूसरा विवाह गैरकानूनी है. ज्यादातर मामलों में हर जगह पत्नी का नाम दिशा ही लिखा जाता चाहे मौजूद अपरा हो. कुछ जुगाड़ कर के अपरा ने 2-2 आधार कार्ड और पैन कार्ड बनवा लिए थे. एक में उस का फोटो पर नाम दिशा था और दूसरे में फोटो व नाम भी उसी के. तीनों जानते थे कि कभी कुछ गड़बड़ हो सकती है पर उन्हें आज की पड़ी है.

फिर साल भर में गोलू भी गोद में आ गया तो सभी कहने लगे कि देखा अपरा का गठजोड़ तो यहां का था तो पहले कैसे विवाह हो जाता. दिशा तो पहले ही इस स्थिति को कुदरत का लेखा मान कर स्वीकार कर चुकी थी.

अब तो गोलू भी 4 वर्ष का हो गया है. तो फिर आज ही उसे क्यों लग रहा है कि वही गलत थी. उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है. उस ने कभी अपने और अपरा दीदी के बीच रोहित के समय को ले कर न कोई विवाद किया, न ही शारीरिक संबंधों को कोई तवज्जो दी. लेकिन आज रोहित का उन्मुक्त व्यवहार उसे कचोट गया. आज लग रहा है वह ठगी गई है अपनों के ही हाथों.

वह कभी रोहित से पूछती कि कैसी लग रही हूं तो सुनने को मिलता ठीक. खाना कैसा बना है? ठीक. यह सामान कैसा लगा? ठीक है.

इन छोटेछोटे वाक्यों से रोहित की बात समाप्त हो जाती. न कभी कोई उपहार, न कोई सरप्राइज और न ही कोई हंसीमजाक. वह तो रोहित के इसी धीरगंभीर रूप से परिचित थी. फिर आज का उन्मुक्त प्रेमी. यह नया मुखौटा… ये सब क्या है? वह रातदिन अपरा दीदी, अपरा दीदी कहते नहीं थकती. पूरे घर की जिम्मेदारी अपरा को सौंप गोलू की मां बन कर ही खुश थी. अगर कोई नया घर में आता तो उसे ही दूसरे विवाह का समझता, एक तो कम उम्र दूसरा कार्यों को जिस निपुणता से अपरा संभालती उस का मुकाबला तो वह कर ही नहीं सकती थी. लोग कहते दोनों बहनें कितने प्रेम से रहती हैं. रहती भी कैसे नहीं, दिशा ने अपने सारे अधिकार जो खुशीखुशी अपरा को सौंप दिए थे. घर की चाबियों से ले कर रोहित तक. पर आज उसे इतना कष्ट क्यों हो रहा है?

बारबार एक ही खयाल आ रहा है कि वह एक बच्चा गोद भी ले सकती थी. मां ने कितना समझाया था कि एक दिन तू जरूर पछताएगी दिशा,

पुनर्विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले अनाथाश्रम से… उसे घर मिल जाएगा और तुझे संतान… जब रोहित को कोई एतराज ही नहीं है

तो फिर तू यह जिद क्यों कर रहीहै? सौत तो मिट्टी की भी बुरी लगती है.

इस पर दिशा कहती कि नहीं मां रोहित मेरी हर बात मानते हैं, कमी मुझ में है, तो मैं रोहित को उस की संतान से वंचित क्यों रखूं?

आज लगता है कि क्या फर्क पड़ जाता यदि गोलू की जगह गोद लिया बच्चा होता तो? घर में सिर्फ 3 प्राणी ही होते और रोहित उस के पहलू में सोया करते. आज उसे अपरा से ज्यादा रोहित अपराधी लग रहे थे. वे हमेशा उस की उपेक्षा करते रहे. लोग ठीक ही कहते हैं कि पहली सेवा करने के लिए और दूसरी मेवा खाने के लिए होती है. वह हमेशा 2 मीठे बोल सुनने को तरसती रही. फिर इसे रोहित की आदत मान कर चुप्पी साध ली, पर आज यह क्या था? ये उच्छृंखल व्यवहार, ये मीठेमीठे बोल, वह गुलाब का फूल.

अपरा दीदी मुझे जो इतना मान देती हैं वह सब नाटक है. मेरे सामने दोनों आपस में ज्यादा बात भी नहीं करते और अपने कमरे में बिछुड़े प्रेमीप्रेमिका या फिर कोई नयानवेला जोड़ा? दिशा की आंखें रोतेरोते सूजने लगी थीं. अपरा दीदी, अपरा दीदी कहतेकहते उस की जबान न थकती थी… वही अपरा आज उस की अपराधी बन सामने है. उस से उम्र में तजरबे में हर लिहाज से बड़ी थीं. उसे समझा सकती थीं कि यह दूसरे विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले. मेरा विवाह तो 19 वर्ष की कच्ची उम्र में ही हो गया था. रोहित 10 साल बड़े थे. एक परिपक्व पुरुष… उन का मेरा क्या जोड़? न तो एकजैसे विचार न ही आचार… सास भी विवाह के साल भर में साथ छोड़ गईं. अपनी कच्ची गृहस्थी में जैसा उचित लगा वैसा करती गई. शायद ज्यादा भावुकता भी उचित नहीं होती. अपनी बेरंग जिंदगी के लिए किसे दोषी ठहराए? कौन है उस का अपराधी. रोहित, अपरा या वह खुद?

त्रिशंकु: नवीन का फूहड़पन और रुचि का सलीकापन

नवीन को बाजार में बेकार घूमने का शौक कभी नहीं रहा, वह तो सामान खरीदने के लिए उसे मजबूरी में बाजारों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. घर की छोटीछोटी वस्तुएं कब खत्म होतीं और कब आतीं, उसे न तो कभी इस बात से सरोकार रहा, न ही दिलचस्पी. उसे तो हर चीज व्यवस्थित ढंग से समयानुसार मिलती रही थी.

हर महीने घर में वेतन दे कर वह हर तरह के कर्तव्यों की इतिश्री मान लेता था. शुरूशुरू में वह ज्यादा तटस्थ था लेकिन बाद में उम्र बढ़ने के साथ जब थोड़ी गंभीरता आई तो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझने लगा था.

बाजार से खरीदारी करना उसे कभी पसंद नहीं आया था. लेकिन विडंबना यह थी कि महज वक्त काटने के लिए अब वह रास्तों की धूल फांकता रहता. साइन बोर्ड पढ़ता, दुकानों के भीतर ऐसी दृष्टि से ताकता, मानो सचमुच ही कुछ खरीदना चाहता हो.

दफ्तर से लौट कर घर जाने को उस का मन ही नहीं होता था. खाली घर काटने को दौड़ता. उदास मन और थके कदमों से उस ने दरवाजे का ताला खोला तो अंधेरे ने स्वागत किया. स्वयं बत्ती जलाते हुए उसे झुंझलाहट हुई. कभी अकेलेपन की त्रासदी यों भोगी नहीं थी. पहले मांबाप के साथ रहता था, फिर नौकरी के कारण दिल्ली आना पड़ा और यहीं विवाह हो गया था.

पिछले 8 वर्षों से रुचि ही घर के हर कोने में फुदकती दिखाई देती थी. फिर अचानक सबकुछ उलटपुलट हो गया. रुचि और उस के संबंधों में तनाव पनपने लगा. अर्थहीन बातों को ले कर झगड़े हो जाते और फिर सहज होने में जितना समय बीतता, उस दौरान रिश्ते में एक गांठ पड़ जाती. फिर होने यह लगा कि गांठें खुलने के बजाय और भी मजबूत सी होती गईं.

सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए नवीन ने फ्रिज खोला और बोतल सीधे मुंह से लगा कर पानी पी लिया. उस ने सोचा, अगर रुचि होती तो फौरन चिल्लाती, ‘क्या कर रहे हो, नवीन, शर्म आनी चाहिए तुम्हें, हमेशा बोतल जूठी कर देते हो.’

तब वह मुसकरा उठता था, ‘मेरा जूठा पीओगी तो धन्य हो जाओगी.’

‘बेकार की बकवास मत किया करो, नाहक ही अपने मुंह की सारी गंदगी बोतलों में भर देते हो.’

यह सुन कर वह चिढ़ जाता और एकएक कर पानी की सारी बोतलें निकाल जूठी कर देता. तब रुचि सारी बोतलें निकाल उन्हें दोबारा साफ कर, फिर भर कर फ्रिज में रखती.

जब बच्चे भी उस की नकल कर ऐसा करने लगे तो रुचि ने अपना अलग घड़ा रख लिया और फ्रिज का पानी पीना ही छोड़ दिया. कुढ़ते हुए वह कहती, ‘बच्चों को भी अपनी गंदी आदतें सिखा दो, ताकि बड़े हो कर वे गंवार कहलाएं. न जाने लोग पढ़लिख कर भी ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं?’

बच्चों का खयाल आते ही उस के मन के किसी कोने में हूक उठी, उन के बिना जीना भी कितना व्यर्थ लगता है.

रुचि जब जाने लगी थी तो उस ने कितनी जिद की थी, अनुनय की थी कि वह बच्चों को साथ न ले जाए. तब उस ने व्यंग्यपूर्वक मुंह बनाते हुए कहा था, ‘ताकि वे भी तुम्हारी तरह लापरवाह और अव्यवस्थित बन जाएं. नहीं नवीन, मैं अपने बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती. मैं उन्हें एक सभ्य व व्यवस्थित इंसान बनाना चाहती हूं. फिर तुम्हारे जैसा मस्तमौला आदमी उन की देखभाल करने में तो पूर्ण अक्षम है. बिस्तर की चादर तक तो तुम ढंग से बिछा नहीं सकते, फिर बच्चों को कैसे संभालोगे?’

नवीन सोचने लगा, न सही सलीका, पर वह अपने बच्चों से प्यार तो भरपूर करता है. क्या जीवन जीने के लिए व्यवस्थित होना जरूरी है?

रुचि हर चीज को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करने की आदी थी.  विवाह के 2 वर्षों बाद जब स्नेहा पैदा हुई थी तो वह पागल सा हो गया था. हर समय गोदी में लिए उसे झुलाता रहता था. तब रुचि गुस्सा करती, ‘क्यों इस की आदत बिगाड़ रही हो, गोदी में रहने से इस का विकास कैसे होगा?’

रुचि के सामने नवीन की यही कोशिश रहती कि स्नेहा के सारे काम तरतीब से हों पर जैसे ही वह इधरउधर होती, वह खिलंदड़ा बन स्नेहा को गुदगुदाने लगता. कभी घोड़ा बन जाता तो कभी उसे हवा में उछाल देता.

वह सोचने लगता कि स्नेहा तो अब 6 साल की हो गई है और कन्नू 3 साल का. इस साल तो वह कन्नू का जन्मदिन भी नहीं मना सका, रुचि ने ही अपने मायके में मनाया था. अपने दिल के हाथों बेबस हो कर वह उपहार ले कर वहां गया था पर दरवाजे पर खड़े उस के पहलवान से दिखने वाले भाई ने आंखें तरेरते हुए उसे बाहर से ही खदेड़ दिया था. उस का लाया उपहार फेंक कर पान चबाते हुए कहा था, ‘शर्म नहीं आती यहां आते हुए. एक तरफ तो अदालत में तलाक का मुकदमा चल रहा है और दूसरी ओर यहां चले आते हो.’

‘मैं अपने बच्चों से मिलना चाहता हूं,’ हिम्मत जुटा कर उस ने कहा था.

‘खबरदार, बच्चों का नाम भी लिया तो. दे क्या सकता है तू बच्चों को,’ उस के ससुर ने ताना मारा था, ‘वे मेरे नाती हैं, राजसी ढंग से रहने के अधिकारी हैं. मेरी बेटी को तो तू ने नौकरानी की तरह रखा पर बच्चे तेरे गुलाम नहीं बनेंगे. मुझे पता होता कि तेरे जैसा व्यक्ति, जो इंजीनियर कहलाता है, इतना असभ्य होगा, तो कभी भी अपनी पढ़ीलिखी, सुसंस्कृत लड़की को तेरे साथ न ब्याहता, वही पढ़ेलिखे के चक्कर में जिद कर बैठी, नहीं तो क्या रईसों की कमी थी. जा, चला जा यहां से, वरना धक्के दे कर निकलवा दूंगा.’

वह अपमान का घूंट पी कर बच्चों की तड़प मन में लिए लौट आया था. वैसे भी झगड़ा किस आधार पर करता, जब रुचि ने ही उस का साथ छोड़ दिया था. वैसे उस के साथ रहते हुए रुचि ने कभी यह नहीं जतलाया था कि वह अमीर बाप की बेटी है, न ही वह कभी अपने मायके जा कर हाथ पसारती थी.

रुचि पैसे का अभाव तो सह जाती थी, लेकिन जब जिंदगी को मस्त ढंग से जीने का सवाल आता तो वह एकदम उखड़ जाती और सिद्धांतों का पक्ष लेती. उस वक्त नवीन का हर समीकरण, हर दलील उसे बेमानी व अर्थहीन लगती. रुचि ने जब अपने लिए घड़ा रखा तो नवीन को महसूस हुआ था कि वह चाहती तो अपने पिता से कह कर अलग से फ्रिज मंगा सकती थी पर उस ने पति का मान रखते हुए कभी इस बारे में सोचा भी नहीं.

नवीन ने रुचि की व्यवस्थित ढंग से जीने की आदत के साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिश की पर हर बार वह हार जाता. बचपन से ही मां, बाबूजी ने उसे अपने ऊपर इतना निर्भर बना कर रखा था कि वह अपनी तरह से जीना सीख ही न पाया. मां तो उसे अपनेआप पानी भी ले कर नहीं पीने देती थीं. 8 वर्षों के वैवाहिक जीवन में वह उन संस्कारों से छुटकारा नहीं पा सका था.

वैसे भी नवीन, रुचि को कभी संजीदगी से नहीं लेता था, यहां तक कि हमेशा उस का मजाक ही उड़ाया करता था, ‘देखो, कुढ़कुढ़ कर बालों में सफेदी झांकने लगी है.’

तब वह बेहद चिढ़ जाती और बेवजह नौकर को डांटने लगती कि सफाई ठीक से क्यों नहीं की. घर तब शीशे की तरह चमकता था, नौकर तो उस की मां ने जबरदस्ती कन्नू के जन्म के समय भेज दिया था.

सुबह की थोड़ी सब्जी पड़ी थी, जिसे नवीन ने अपने अधकचरे ज्ञान से तैयार किया था, उसी को डबलरोटी के साथ खा कर उस ने रात के खाने की रस्म पूरी कर ली. फिर औफिस की फाइल ले कर मेज पर बैठ गया. बहुत मन लगाने के बावजूद वह काम में उलझ न सका. फिर दराज खोल कर बच्चों की तसवीरें निकाल लीं और सोच में डूब गया, ‘कितने प्यारे बच्चे हैं, दोनों मुझ पर जान छिड़कते हैं.’

एक दिन स्नेहा से मिलने वह उस के स्कूल गया था. वह तो रोतेरोते उस से चिपट ही गई थी, ‘पिताजी, हमें भी अपने साथ ले चलिए, नानाजी के घर में तो न खेल सकते हैं, न शोर मचा सकते हैं. मां कहती हैं, अच्छे बच्चे सिर्फ पढ़ते हैं. कन्नू भी आप को बहुत याद करता है.’

अपनी मजबूरी पर उस की पलकें नम हो आई थीं. इस से पहले कि वह जीभर कर उसे प्यार कर पाता, ड्राइवर बीच में आ गया था, ‘बेबी, आप को मेम साहब ने किसी से मिलने को मना किया है. चलो, देर हो गई तो मेरी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी.’

उस के बाद तलाक के कागज नवीन के घर पहुंच गए थे, लेकिन उस ने हस्ताक्षर करने से साफ इनकार कर दिया था. मुकदमा उन्होंने ही दायर किया था पर तलाक का आधार क्या बनाते? वे लोग तो सौ झूठे इलजाम लगा सकते थे, पर रुचि ने ऐसा करने से मना कर दिया, ‘अगर गलत आरोपों का ही सहारा लेना है तो फिर मैं सिद्धांतों की लड़ाई कैसे लड़ूंगी?’

तब नवीन को एहसास हुआ था कि रुचि उस से नहीं, बल्कि उस की आदतों से चिढ़ती है. जिस दिन सुनवाई होनी थी, वह अदालत गया ही नहीं था, इसलिए एकतरफा फैसले की कोई कीमत नहीं थी. इतना जरूर है कि उन लोगों ने बच्चों को अपने पास रखने की कानूनी रूप से इजाजत जरूर ले ली थी. तलाक न होने पर भी वे दोनों अलगअलग रह रहे थे और जुड़ने की संभावनाएं न के बराबर थीं.

नवीन बिस्तर पर लेटा करवटें बदलता रहा. युवा पुरुष के लिए अकेले रात काटना बहुत कठिन प्रतीत होता है. शरीर की इच्छाएं उसे कभीकभी उद्वेलित कर देतीं तो वह स्वयं को पागल सा महसूस करता. उसे मानसिक तनाव घेर लेता और मजबूरन उसे नींद की गोली लेनी पड़ती.

उस ने औफिस का काफी काम भी अपने ऊपर ले लिया था, ताकि रुचि और बच्चे उस के जेहन से निकल जाएं. दफ्तर वाले उस के काम की तारीफ में कहते हैं, ‘नवीन साहब, आप का काम बहुत व्यवस्थित होता है, मजाल है कि एक फाइल या एक कागज, इधरउधर हो जाए.’

वह अकसर सोचता, घर पहुंचते ही उसे क्या हो जाया करता था, क्यों बदल जाता था उस का व्यक्तित्व और वह एक ढीलाढाला, अलमस्त व्यक्ति बन जाता था?

मेजकुरसी के बजाय जब वह फर्श पर चटाई बिछा कर खाने की फरमाइश करता तो रुचि भड़क उठती, ‘लोग सच कहते हैं कि पृष्ठभूमि का सही होना बहुत जरूरी है, वरना कोई चाहे कितना पढ़ ले, गांव में रहने वाला रहेगा गंवार ही. तुम्हारे परिवार वाले शिक्षित होते तो संभ्रांत परिवार की झलक व आदतें खुद ही ही तुम्हारे अंदर प्रकट हो जातीं पर तुम ठहरे गंवार, फूहड़. अपने लिए न सही, बच्चों के लिए तो यह फूहड़पन छोड़ दो. अगर नहीं सुधर सकते तो अपने गांव लौट जाओ.’

उस ने रुचि को बहुत बार समझाने की कोशिश की कि ग्वालियर एक शहर है न कि गांव. फिर कुरसी पर बैठ कर खाने से क्या कोई सभ्य कहलाता है.

‘देखो, बेकार के फलसफे झाड़ कर जीना मुश्किल मत बनाओ.’

‘अरे, एक बार जमीन पर बैठ कर खा कर देखो तो सही, कुरसीमेज सब भूल जाओगी.’ नवीन ने चम्मच छोड़ हाथ से ही चावल खाने शुरू कर दिए थे.

‘बस, बहुत हो गया, नवीन, मैं हार गई हूं. 8 वर्षों में तुम्हें सुधार नहीं पाई और अब उम्मीद भी खत्म हो गई है. बाहर जाओ तो लोग मेरी खिल्ली उड़ाते हैं, मेरे रिश्तेदार मुझ पर हंसते हैं. तुम से तो कहीं अच्छे मेरी बहनों के पति हैं, जो कम पढ़ेलिखे ही सही, पर शिष्टाचार के सारे नियमों को जानते हैं. तुम्हारी तरह बेवकूफों की तरह बच्चों के लिए न तो घोड़े बनते हैं, न ही बर्फ की क्यूब निकाल कर बच्चों के साथ खेलते हैं. लानत है, तुम्हारी पढ़ाई पर.’

नवीन कभी समझ नहीं पाया था कि रुचि हमेशा इन छोटीछोटी खुशियों को फूहड़पन का दरजा क्यों देती है? वैसे, उस की बहनों के पतियों को भी वह बखूबी जानता था, जो अपनी टूटीफूटी, बनावटी अंगरेजी के साथ हंसी के पात्र बनते थे, पर उन की रईसी का आवरण इतना चमकदार था कि लोग सामने उन की तारीफों के पुल बांधते रहते थे.

शादी से पहले उन दोनों के बीच 1 साल तक रोमांस चला था. उस अंतराल में रुचि को नवीन की किसी भी हरकत से न तो चिढ़ होती थी, न ही फूहड़पन की झलक दिखाई देती थी, बल्कि उस की बातबात में चुटकुले छोड़ने की आदत की वह प्रशंसिका ही थी. यहां तक कि उस के बेतरतीब बालों पर वह रश्क करती थी. उस समय तो रास्ते में खड़े हो कर गोलगप्पे खाने का उस ने कभी विरोध नहीं किया था.

नींद की गोली के प्रभाव से वह तनावमुक्त अवश्य हो गया था, पर सो न सका था. चिडि़यों की चहचहाहट से उसे अनुभव हुआ कि सवेरा हो गया है और उस ने सोचतेसोचते रात बिता दी है.

चाय का प्याला ले कर अखबार पढ़ने बैठा, पर सोच के दायरे उस की तंद्रा को भटकाने लगे. प्लेट में चाय डालने की उसे इच्छा ही नहीं हुई, इसलिए प्याले से ही चाय पीने लगा.

शादी के बाद भी सबकुछ ठीक था. उन के बीच न तो तनाव था, न ही सामंजस्य का अभाव. दोनों को ही ऐसा नहीं लगा था कि विपरीत आदतें उन के प्यार को कम कर रही हैं. नवीन भूल से कभी कोई कागज फाड़ कर कचरे के डब्बे में फेंकने के बजाय जमीन पर डाल देता तो रुचि झुंझलाती जरूर थी पर बिना कुछ कहे स्वयं उसे डब्बे में डाल देती थी. तब उस ने भी इन हरकतों को सामान्य समझ कर गंभीरता से नहीं लिया था.

अपने सीमित दायरे में वे दोनों खुश थे. स्नेहा के होने से पहले तक सब ठीक था. रुचि आम अमीर लड़कियों से बिलकुल भिन्न थी, इसलिए स्वयं घर का काम करने से उसे कभी दिक्कत नहीं हुई.

हां, स्नेहा के होने के बाद काम अवश्य बढ़ गया था पर झगड़े नहीं होते थे. लेकिन इतना अवश्य हुआ था कि स्नेहा के जन्म के बाद से उन के घर में रुचि की मां, बहनों का आना बढ़ गया था. उन लोगों की मीनमेख निकालने की आदत जरूरत से ज्यादा ही थी. तभी से रुचि में परिवर्तन आने लगा था और पति की हर बात उसे बुरी लगने लगी थी. यहां तक कि वह उस के कपड़ों के चयन में भी खामियां निकालने लगी थी.

उन का विवाह रुचि की जिद से हुआ था, घर वालों की रजामंदी से नहीं. यही कारण था कि वे हर पल जहर घोलने में लगे रहते थे और उन्हें दूर करने, उन के रिश्ते में कड़वाहट घोलने में सफल हो भी गए थे.

काम करने वाली महरी दरवाजे पर आ खड़ी हुई तो वह उठ खड़ा हुआ और सोचने लगा कि उस से ही कितनी बार कहा है कि जरा रोटी, सब्जी बना दिया करे. लेकिन उस के अपने नखरे हैं. ‘बाबूजी, अकेले आदमी के यहां तो मैं काम ही नहीं करती, वह तो बीबीजी के वक्त से हूं, इसलिए आ जाती हूं.’

नौकर को एक बार रुचि की मां ले गई थी, फिर वापस भेजा नहीं. तभी रुचि ने यह महरी रखी थी.

नवीन के बाबूजी को गुजरे 7 साल हो गए थे. मां वहीं ग्वालियर में बड़े भाई के पास रहती थीं. भाभी एक सामान्य घर से आई थीं, इसलिए कभी तकरार का प्रश्न ही न उठा. उस के पास भी मां मिलने कई बार आईं, पर रुचि का सलीका उन के सरल जीवन के आड़े आने लगा. वे हर बार महीने की सोच कर हफ्ते में ही लौट जातीं. वह तो यह अच्छा था कि भाभी ने उन्हें कभी बोझ न समझा, वरना ऐसी स्थिति में कोई भी अपमान करने से नहीं चूकता.

वैसे, रुचि का मकसद उन का अपमान करना कतई नहीं होता था, लेकिन सभ्य व्यवहार की तख्ती अनजाने में ही उन पर यह न करो, वह न करो के आदेश थोपती तो मां हड़बड़ा जातीं. इतनी उम्र कटने के बाद उन का बदलना सहज न था. वैसे भी उन्होंने एक मस्त जिंदगी गुजारी थी, जिस में बच्चों को प्यार से पालापोसा था, हाथ में हर समय आदेश का डंडा ले कर नहीं.

रुचि के जाने के बाद उस ने मां से कहा था कि वे अब उसी के पास आ कर रहें, लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया था, ‘बेटा, तेरे घर में कदम रखते डर लगता है, कोई कुरसी भी खिसक जाए तो…न बाबा. वैसे भी यहां बच्चों के बीच अस्तव्यस्त रहते ज्यादा आनंद आता है. मैं वहां आ कर क्या करूंगी, इन बूढ़ी हड्डियों से काम तो होता नहीं, नाहक ही तुझ पर बोझ बन जाऊंगी.’

रुचि के जाने के बाद नवीन ने उस के मायके फोन किया था कि वह अपनी आदतें बदलने की कोशिश करेगा, बस एक बार मौका दे और लौट आए. पर तभी उस के पिता की गर्जना सुनाई दी थी और फोन कट गया था. उस के बाद कभी रुचि ने फोन नहीं उठाया था, शायद उसे ऐसी ही ताकीद थी. वह तो बच्चों की खातिर नए सिरे से शुरुआत करने को तैयार था पर रुचि से मिलने का मौका ही नहीं मिला था.

शाम को दफ्तर से लौटते वक्त बाजार की ओर चला गया. अचानक साडि़यों की दुकान पर रुचि नजर आई. लपक कर एक उम्मीद लिए अंदर घुसा, ‘हैलो रुचि, देखो, मैं तुम्हें कुछ समझाना चाहता हूं. मेरी बात सुनो.’

पर रुचि ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती. तुम अपनी मनमानी करते रहे हो, अब भी करो. मैं वापस नहीं आऊंगी. और कभी मुझ से मिलने की कोशिश मत करना.’

‘ठीक है,’ नवीन को भी गुस्सा आ गया था, ‘मैं बच्चों से मिलना चाहता हूं, उन पर मेरा भी अधिकार है.’

‘कोई अधिकार नहीं है,’ तभी न जाने किस कोने से उस की मां निकल कर आ गई थी, ‘वे कानूनी रूप से हमारे हैं. अब रुचि का पीछा छोड़ दो. अपनी इच्छा से एक जाहिल, गंवार से शादी कर वह पहले ही बहुत पछता रही है.’

‘मैं रुचि से अकेले में बात करना चाहता हूं,’ उस ने हिम्मत जुटा कर कहा.

‘पर मैं बात नहीं करना चाहती. अब सबकुछ खत्म हो चुका है.’

उस ने आखिरी कोशिश की थी, पर वह भी नाकामयाब रही. उस के बाद कभी उस के घर, बाहर, कभी बाजार में भी खूब चक्कर काटे पर रुचि हर बार कतरा कर निकल गई.

नवीन अकसर सोचता, ‘छोटीछोटी अर्थहीन बातें कैसे घर बरबाद कर देती हैं. रुचि इतनी कठोर क्यों हो गई है कि सुलह तक नहीं करना चाहती. क्यों भूल गई है कि बच्चों को तो बाप का प्यार भी चाहिए. गलती किसी की भी नहीं है, केवल बेसिरपैर के मुद्दे खड़े हो गए हैं.

‘तलाक नहीं हुआ, इसलिए मैं दोबारा शादी भी नहीं कर सकता. बच्चों की तड़प मुझे सताती रहेगी. रुचि को भी अकेले ही जीवन काटना होगा. लेकिन उसे एक संतोष तो है कि बच्चे उस के पास हैं. दोनों की ही स्थिति त्रिशंकु की है, न वापस बीते वर्षों को लौटा सकते हैं न ही दोबारा कोशिश करना चाहते हैं. हाथ में आया पछतावा और अकेलेपन की त्रासदी. आखिर दोषी कौन है, कौन तय करे कि गलती किस की है, इस का भी कोई तराजू नहीं है, जो पलड़ों पर बाट रख कर पलपल का हिसाब कर रेशेरेशे को तौले.

वैसे भी एकदूसरे पर लांछन लगा कर अलग होने से तो अच्छा है हालात के आगे झुक जाएं. रुचि सही कहती थी, ‘जब लगे कि अब साथसाथ नहीं रह सकते तो असभ्य लोगों की तरह गालीगलौज करने के बजाय एकदूसरे से दूर हो जाएं तो अशिक्षित तो नहीं कहलाएंगे.’

रुचि को एक बरस हो गया था और वह पछतावे को लिए त्रिशंकु की भांति अपना एकएक दिन काट रहा था. शायद अभी भी उस निपट गंवार, फूहड़ और बेतरतीब इंसान के मन में रुचि के वापस आने की उम्मीद बनी हुई थी.

वह सोचने लगा कि रुचि भी तो त्रिशंकु ही बन गई है. बच्चे तक उस के खोखले सिद्धांतों व सनक से चिढ़ने लगे हैं. असल में दोषी कोई नहीं है, बस, अलगअलग परिवेशों से जुड़े व्यक्ति अगर मिलते भी हैं तो सिर्फ सामंजस्य के धरातल पर, वरना टकराव अनिवार्य ही है.

क्या एक दिन रुचि जब अपने एकांतवास से ऊब जाएगी, तब लौट आएगी? उम्मीद ही तो वह लौ है जो अंत तक मनुष्य की जीते रहने की आस बंधाती है, वरना सबकुछ बिखर नहीं जाता. प्यार का बंधन इतना कमजोर नहीं जो आवरणों से टूट जाए, जबकि भीतरी परतें इतनी सशक्त हों कि हमेशा जुड़ने को लालायित रहती हों. कभी न कभी तो उन का एकांतवास अवश्य ही खत्म होगा.

नारीवाद: जननी का था एक अनोखा व्यक्तित्व

मैं पत्रकार हूं. मशहूर लोगों से भेंटवार्त्ता कर उन के बारे में लिखना मेरा पेशा है. जब भी हम मशहूर लोगों के इंटरव्यू लेने के लिए जाते हैं उस वक्त यदि उन के बीवीबच्चे साथ में हैं तो उन से भी बात कर के उन के बारे में लिखने से हमारी स्टोरी और भी दिलचस्प बन जाती है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. मैं मशहूर गायक मधुसूधन से भेंटवार्त्ता के लिए जिस समय उन के पास गया उस समय उन की पत्नी जननी भी वहां बैठ कर हम से घुलमिल कर बातें कर रही थीं. जननी से मैं ने कोई खास सवाल नहीं पूछा, बस, यही जो हर पत्रकार पूछता है, जैसे ‘मधुसूधन की पसंद का खाना और उन का पसंदीदा रंग क्या है? कौनकौन सी चीजें मधुसूधन को गुस्सा दिलाती हैं. गुस्से के दौरान आप क्या करती हैं?’ जननी ने हंस कर इन सवालों के जवाब दिए. जननी से बात करते वक्त न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि बाहर से सीधीसादी दिखने वाली वह औरत कुछ ज्यादा ही चतुरचालाक है.

लिविंगरूम में मधुसूधन का गाते हुए पैंसिल से बना चित्र दीवार पर सजा था. उस से आकर्षित हो कर मैं ने पूछा, ‘‘यह चित्र किसी फैन ने आप को तोहफे में दिया है क्या,’’ इस सवाल के जवाब में जननी ने मुसकराते हुए कहा, ‘हां.’

‘‘क्या मैं जान सकता हूं वह फैन कौन था,’’ मैं ने भी हंसते हुए पूछा. मधुसूधन एक अच्छे गायक होने के साथसाथ एक हैंडसम नौजवान भी हैं, इसलिए मैं ने जानबूझ कर यह सवाल किया. ‘‘वह फैन एक महिला थी. वह महिला कोई और नहीं, बल्कि मैं ही हूं,’’ यह कहते हुए जननी मुसकराईं.

‘‘अच्छा है,’’ मैं ने कहा और इस के जवाब में जननी बोलीं, ‘‘चित्र बनाना मेरी हौबी है?’’ ‘‘अच्छा, मैं भी एक चित्रकार हूं,’’ मैं ने अपने बारे में बताया.

‘‘रियली, एक पत्रकार चित्रकार भी हो सकता है, यह मैं पहली बार सुन रही हूं,’’ जननी ने बड़ी उत्सुकता से कहा. उस के बाद हम ने बहुत देर तक बातें कीं? जननी ने बातोंबातों में खुद के बारे में भी बताया और मेरे बारे में जानने की इच्छा भी प्रकट की? इसी कारण जननी मेरी खास दोस्त बन गईं.

जननी कई कलाओं में माहिर थीं. चित्रकार होने के साथ ही वे एक अच्छी गायिका भी थीं, लेकिन पति मधुसूधन की तरह संगीत में निपुण नहीं थीं. वे कई संगीत कार्यक्रमों में गा चुकी थीं. इस के अलावा अंगरेजी फर्राटे से बोलती थीं और हिंदी साहित्य का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था. अंगरेजी साहित्य में एम. फिल कर के दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी करते समय मधुसूधन से उन की शादी तय हो गई. शादी के बाद भी जननी ने अपनी किसी पसंद को नहीं छोड़ा. अब वे अंगरेजी में कविताएं और कहानियां लिखती हैं. उन के इतने सारे हुनर देख कर मुझ से रहा नहीं गया. ‘आप के पास इतनी सारी खूबियां हैं, आप उन्हें क्यों बाहर नहीं दिखाती हैं?’ अनजाने में ही सही, बातोंबातों में मैं ने उन से एक बार पूछा. जननी ने तुरंत जवाब नहीं दिया. दो पल के लिए वे चुप रहीं.

अपनेआप को संभालते हुए उन्होंने मुसकराहट के साथ कहा, ‘आप मुझ से यह सवाल एक दोस्त की हैसियत से पूछ रहे हैं या पत्रकार की हैसियत से?’’ जननी के इस सवाल को सुन कर मैं अवाक रह गया क्योंकि उन का यह सवाल बिलकुल जायज था. अपनी भावनाओं को छिपा कर मैं ने उन से पूछा, ‘‘इन दोनों में कोई फर्क है क्या?’’

‘‘हां जी, बिलकुल,’’ जननी ने कहा. ‘‘आप ने इन दोनों के बीच ऐसा क्या फर्क देखा,’’ मैं ने सवाल पर सवाल किया.

‘‘आमतौर पर हमारे देश में अखबार और कहानियों से ऐसा प्रतीत होता है कि एक मर्द ही औरत को आगे नहीं बढ़ने देता. आप ने भी यह सोच कर कि मधु ही मेरे हुनर को दबा देते हैं, यह सवाल पूछ लिया होगा?’’

कुछ पलों के लिए मैं चुप था, क्योंकि मुझे भी लगा कि जननी सच ही कह रही हैं. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘आप सच कहती हैं, जननी. मैं ने सुना था कि आप की पीएचडी आप की शादी की वजह से ही रुक गई, इसलिए मैं ने यह सवाल पूछा.’’ ‘‘आप की बातों में कहीं न कहीं तो सचाई है. मेरी पढ़ाई आधे में रुक जाने का कारण मेरी शादी भी है, मगर वह एक मात्र कारण नहीं,’’ जननी का यह जवाब मुझे एक पहेली सा लगा.

‘‘मैं समझा नहीं,’’ मैं ने कहा. ‘‘जब मैं रिसर्च स्कौलर बनी थी, ठीक उसी वक्त मेरे पिताजी की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन की इकलौती संतान होने के नाते उन के कारोबार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी बन गई थी. सच कहें तो अपने पिताजी के व्यवसाय को चलातेचलाते न जाने कब मुझे उस में दिलचस्पी हो गई. और मैं अपनी पीएचडी को बिलकुल भूल गई. और अपने बिजनैस में तल्लीन हो गई. 2 वर्षों बाद जब मेरे पिताजी स्वस्थ हुए तो उन्होंने मेरी शादी तय कर दी,’’ जननी ने अपनी पढ़ाई छोड़ने का कारण बताया.

‘‘अच्छा, सच में?’’ जननी आगे कहने लगी, ‘‘और एक बात, मेरी शादी के समय मेरे पिताजी पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे. मधु के घर वालों से यह साफ कह दिया कि जब तक मेरे पिताजी अपना कारोबार संभालने के लायक नहीं हो जाते तब तक मैं काम पर जाऊंगी और उन्होंने मुझे उस के लिए छूट दी.’’

मैं चुपचाप जननी की बातें सुनता रहा. ‘‘मेरी शादी के एक साल बाद मेरे पिता बिलकुल ठीक हो गए और उसी समय मैं मां बनने वाली थी. उस वक्त मेरा पूरा ध्यान गर्भ में पल रहे बच्चे और उस की परवरिश पर था. काम और बच्चा दोनों के बीच में किसी एक को चुनना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी, लेकिन मैं ने अपने बच्चे को चुना.’’

‘‘मगर जननी, बच्चे के पालनपोषण की जिम्मेदारी आप अपनी सासूमां पर छोड़ सकती थीं न? अकसर कामकाजी औरतें ऐसा ही करती हैं. आप ही अकेली ऐसी स्त्री हैं, जिन्होंने अपने बच्चे की परवरिश के लिए अपने काम को छोड़ दिया.’’ जननी ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

‘‘नहीं शंकर, यह सही नहीं है. जैसे आप कहते हैं उस तरह अगर मैं ने अपनी सासूमां से पूछ लिया होता तो वे भी मेरी बात मान कर मदद करतीं, हो सकता है मना भी कर देतीं. लेकिन खास बात यह थी कि हर औरत के लिए अपने बच्चे की परवरिश करना एक गरिमामयी बात है. आप मेरी इस बात से सहमत हैं न?’’ जननी ने मुझ से पूछा. मैं ने सिर हिला कर सहमति दी.

‘‘एक मां के लिए अपनी बच्ची का कदमकदम पर साथ देना जरूरी है. मैं अपनी बेटी की हर एक हरकत को देखना चाहती थी. मेरी बेटी की पहली हंसी, उस की पहली बोली, इस तरह बच्चे से जुड़े हर एक विषय को मैं देखना चाहती थी. इस के अलावा मैं खुद अपनी बेटी को खाना खिलाना चाहती थी और उस की उंगली पकड़ कर उसे चलना सिखाना चाहती थी. ‘‘मेरे खयाल से हर मां की जिंदगी में ये बहुत ही अहम बातें हैं. मैं इन पलों को जीना चाहती थी. अपनी बच्ची की जिंदगी के हर एक लमहे में मैं उस के साथ रहना चाहती थी. यदि मैं काम पर चली जाती तो इन खूबसूरत पलों को खो देती.

‘‘काम कभी भी मिल सकता है, मगर मेरी बेटी पूजा की जिंदगी के वे पल कभी वापस नहीं आएंगे? मैं ने सोचा कि मेरे लिए क्या महत्त्वपूर्ण है-कारोबार, पीएचडी या बच्ची के साथ वक्त बिताना. मेरी अंदर की मां की ही जीत हुई और मैं ने सबकुछ छोड़ कर अपनी बच्ची के साथ रहने का निर्णय लिया और उस के लिए मैं बहुत खुश हूं,’’ जननी ने सफाई दी. मगर मैं भी हार मानने वाला नहीं था. मैं ने उन से पूछा, ‘‘तो आप के मुताबिक अपने बच्चे को अपनी मां या सासूमां के पास छोड़ कर काम पर जाने वाली औरतें अपना फर्ज नहीं निभाती हैं?’’

मेरे इस सवाल के बदले में जननी मुसकराईं, ‘‘मैं बाकी औरतों के बारे में अपनी राय नहीं बताना चाहती हूं. यह तो हरेक औरत का निजी मामला है और हरेक का अपना अलग नजरिया होता है. यह मेरा फैसला था और मैं अपने फैसले से बहुत खुश हूं.’’ जननी की बातें सुन कर मैं सच में दंग रह गया, क्योंकि आजकल औरतों को अपने काम और बच्चे दोनों को संभालते हुए मैं ने देखा था और किसी ने भी जननी जैसा सोचा नहीं.

‘‘आप क्या सोच रहे हैं, वह मैं समझ सकती हूं, शंकर. अगले महीने से मैं एक जानेमाने अखबार में स्तंभ लिखने वाली हूं. लिखना भी मेरा पसंदीदा काम है. अब तो आप खुश हैं न, शंकर?’’ जननी ने हंसते हुए पूछा. मैं ने भी हंस कर कहा, ‘‘जी, बिलकुल. आप जैसी हुनरमंद औरतों का घर में बैठना गलत है. आप की विनम्रता, आप की गहरी सोच, आप की राय, आप का फैसला लेने में दृढ़ संकल्प होना देख कर मैं हैरान भी होता हूं और सच कहूं तो मुझे थोड़ी सी ईर्ष्या भी हो रही है.’’

मेरी ये बातें सुन कर जननी ने हंस कर कहा, ‘‘तारीफ के लिए शुक्रिया.’’

मैं भी जननी के साथ उस वक्त हंस दिया मगर उस की खुद्दारी को देख कर हैरान रह गया था. जननी के बारे में जो बातें मैं ने सुनी थीं वे कुछ और थीं. जननी अपनी जिंदगी में बहुत सारी कुरबानियां दे चुकी थीं. पिता के गलत फैसले से नुकसान में चल रहे कारोबार को अपनी मेहनत से फिर से आगे बढ़ाया जननी ने. मां की बीमारी से एक लंबी लड़ाई लड़ कर अपने पिता की खातिर अपने प्यार की बलि चढ़ा कर मधुसूधन से शादी की और अपने पति के अभिमान के आगे झुक कर, अपनी ससुराल वालों के ताने सह कर भी अपने ससुराल का साथ देने वाली जननी सच में एक अजीब भारतीय नारी है. मेरे खयाल से यह भी एक तरह का नारीवाद ही है. ‘‘और हां, मधुसूधनजी, आप सोच रहे होंगे कि जननी के बारे में यह सब जानते हुए भी मैं ने क्यों उन से ऐसे सवाल पूछे. दरअसल, मैं भी एक पत्रकार हूं और आप जैसे मशहूर लोगों की सचाई सामने लाना मेरा पेशा है न?’’

अंत में एक बात कहना चाहता हूं, उस के बाद जननी को मैं ने नहीं देखा. इस संवाद के ठीक 2 वर्षों बाद मधुसूदन और जननी ने आपसी समझौते पर तलाक लेने का फैसला ले लिया.

उड़ान: बेटी के साथ क्यों रहना चाहती थी धृति की मां

आज धृति की खुशी का कोई ठिकाना न था. घर पहुंच कर वह जल्द से जल्द अपनी मां को यह खुशखबरी सुना देना चाहती थी. आखिर कितने लंबे इंतजार के बाद और उस के अथक परिश्रम के कारण वह इसे प्राप्त करने में सफल हुई थी.

अपनी मां के चेहरे की उस चमक, उस खुशी को देखने के लिए वह बेताब हुए जा रही थी. उस ने मन ही मन सोचा बस, अब बहुत हो गया.  वह अब और अपनी मम्मी को यहां अकेली इस नर्क में नहीं रहने देगी. वह उन्हें इस बार अवश्य अपने साथ ले जाएगी.

धृति को अमेरिका से आए हुए 2 महीने बीत चुके थे. उस ने आते ही अपनी मम्मी के वीजा के लिए अप्लाई कर दिया था. काफी भागदौड़ के बाद आज उसे अपनी मम्मी के लिए अमेरिका का वीजा मिल गया था.

उसे याद आता है कि  कैसे उस के डाक्टर बनने पर उस की मम्मी का चेहरा खुशी से खिल उठा था और आज फिर से उसे अपनी मम्मी के चेहरे पर आई उस खुशी की चमक को देखने का मौका मिलेगा… हां, इसी दिन के लिए तो उस ने इतनी मेहनत की थी.

ये सब सोचते हुए उस के कदम जैसे ही घर के दरवाजे पर पड़े उस के कानों में किसी अजनबी के स्वर सुनाई दिए. अजनबी. नहीं,  यह तो कोई जानापहचाना स्वर है… उस ने कहां सुनी थी  यह आवाज?

घर का दरवाजा खुला हुआ था. कमरे में दाखिल होते ही जिस अजनबी शख्स पर उस की नजर पड़ी उस शख्स के चेहरे की धुंधली सी तसवीर उस के मस्तिष्क में कहीं खिंची हुई थी.

उस की मम्मी ड्राइंगरूम के एक कोने में चुपचाप गरदन झकाए खड़ी थी. वहीं सोफे पर एक तरफ उस के मामा और नानी बैठे हुए थे और वह व्यक्ति सामने के सोफे पर बैठा हुआ था. चेहरे पर वही चिर परिचित अकड़ लिए हुए…

कमरे के अंदर दाखिल होते ही धृति के कानों में नानी के ये शब्द सुनाई पड़े. वे उस की मम्मी को समझते हुए बड़े ही उपदेशात्मक स्वर में बोले जा रही थी, ‘‘पति पत्नी का संबंध जन्मजन्मांतर का होता है रत्ना… उसे इतनी आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता. आखिर विपिन बाबू सबकुछ भुला कर तुम्हें एक बार फिर से अपनाना चाहते हैं तो तुम्हारा भी यह दायित्व है कि तुम सबकुछ भुला कर उन्हें माफ कर दो…’’

नानी की ये बातें धृति के कानों में तीर की भांति चुभीं और वह गुस्से में तमतमा उठी और फिर क्रोधपूर्ण नजरों से नानी की ओर देखते हुए बोली, ‘‘क्यों नानी… आखिर क्यों… आखिर मम्मी को क्यों सबकुछ भूल कर इन्हें माफ कर देना चाहिए?’’

धृति का इस तरह बीच में बोल पड़ना उस की नानी को जरा भी नहीं भाया और वे अपनी आंखों के इशारे से धृति को चुप रहने का संकेत देते हुए बोलीं, ‘‘तुम बीच में मत बोलो… तुम में अभी इतनी समझ नहीं है… अरे, पति है यह इस का… पति की गलतियों को भुला कर आगे बढ़ने में ही इस की भलाई है…’’

मगर धृति का गुस्सा शांत नहीं हुआ बल्कि वह और भी चिढ़ गई, फिर अपनी नानी की बातों पर खीजते हुए बोली, ‘‘अरे वाह नानी… बचपन से तुम मम्मी को पत्थर के देवता का पूजना सिखाती रहीं और फिर उन की शादी के बाद पति को ही देवता बना कर पूजने की सीख देने लगीं… तुम्हारी इन्हीं सब सीख की वजह से पिता नाम के इस प्राणी ने मेरी मम्मी पर वर्षों जुल्म ढाए हैं,’’ धृति का क्रोध शांत नहीं हो रहा था.

उस की मम्मी इन सभी बातों से आहत सिर झकाए चुपचाप खड़ी थी. अपनी पीड़ा को छिपाने के लिए उस ने अपने होंठ दांत से काट लिए… उस की आंखों में आंसू थे.

धृति को यह बात बिलकुल बरदाश्त नहीं हो रही थी कि इतने वर्षों बाद कोई उन की जिंदगी में अचानक आ धमकता है और अपना अधिकार मांग रहा है… उस के जेहन में बचपन की वह कड़वी यादें फिर से जीवंत होने लगी थीं…

उस के पिता द्वारा उस की मम्मी पर किए जाने वाले असंख्य जुल्म, उन पर होने वाले अत्याचारों को वह कैसे भुला सकती… उस का मन घृणा से भर उठा और फिर घृणा की दृष्टि से अपने पिता की ओर देखा.

तभी उस के कानों में उस के मामा के शब्द गूंज पड़े, ‘‘चुप करो… पिता है यह

तुम्हारा… थोड़ी तो तमीज के दायरे में रहो.’’

मगर प्रकाश की बातों ने धृति के मन में पिता के प्रति उस की नफरत को और भी भड़का दिया. वह गुस्से में बोली, ‘‘पिता… पिता होने की कौन सी जिम्मेदारी निभाई है इन्होंने जो आज अचानक पिता होने का अधिकार जताने आ गए? ये सिर्फ मेरे जन्म के कारण मात्र हैं इस से ज्यादा कुछ नहीं…’’

‘‘पढ़ाईलिखाई ने इस लड़की का दिमाग खराब कर दिया है… डाक्टर क्या बन गई बड़ों से बात करने की तमीज ही भूल गई…’’ प्रकाश ने अपनी भानजी धृति पर आंखें तरेरते हुए कहा.

‘‘बस यही सोच… इसी सोच की वजह से आप लोगों ने मम्मी की पढ़ाई छुड़वा कर इतनी कम उम्र में उन की शादी करा दी… अरे, आप लोगों ने यह तक नहीं देखा कि लड़का उम्र में इन से कितना बड़ा है… उस का स्वभाव कैसा है…’’

‘‘एक पढ़ेलिखे इंजीनियर लड़के से तेरी मां की शादी करवाई थी हम ने… समाज में इस से बड़ी पहचान और इस से बड़ा रुतबा भला क्या चाहिए था इसे… और इसे क्या किसी भी लड़की को और क्या चाहिए और फिर पढ़लिख कर क्या हासिल कर लेती… ज्यादा पढ़लिख कर कौन सी नौकरी करनी थी… आखिर घर ही तो संभालना था… लेकिन इस जिम्मेदारी को भी ठीक तरह से निभा न सकी यह,’’ प्रकाश ने गरजते हुए कहा.

भाई की बातें सुन कर रत्ना की आंखों से आंसू छलक पड़े. आखिर उस का क्या

कसूर था… किस बात के लिए उसे दोषी ठहराया जा रहा था? उस की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी, जिन में न जाने कितने वर्षों का दर्द… पीड़ा… अवहेलना, प्रताड़ना. जमा थी. जाने कैसीकैसी यातनाएं, कैसेकैसे नर्क का पानी जमा पड़ा था जो आज उस की आंखों से बहने लगा था. उस के मानसपटल पर अतीत की वे तमाम स्मृतियां 1-1 कर उभर आई थीं, जिन्हें वह भूले से भी याद नहीं करना चाहती थी… जिंदगी के जिस दुखद अध्याय को पीछे छोड़ वह किसी प्रकार आगे बढ़ पाई थी, उसे ही अब दोहराने की कोशिश की जा रही थी. जिस व्यक्ति ने इतने वर्षों से कभी उस का हाल तक जानना जरूरी नहीं समझ, उसे उस की बेटी पर अब अपना अधिकार चाहिए था…

आखिर ये सब अब किस लिए क्योंकि उस की बेटी अब योग्य बन गई है. तब यह व्यक्ति कहां था? इस व्यक्ति ने तो सालों पहले उसे और उस की बेटी को अकेली निसहाय छोड़ दिया था… दिल्ली से बनारस तक का सफर भूखीप्यासी ने अकेले ही तय… हाथ में 1 रुपए तक नहीं… सोचतेसोचते रत्ना का शरीर निशक्त हो गया. वह दीवार का सहारा ले कर वहीं जमीन पर घुटनों के बल बैठ गई.

आज यहां तक पहुंचने में मांबेटी ने कौनकौन से दिन न देखे थे… कैसेकैसे कष्ट उन्होंने न सहे थे… उस की बेटी ने अपने परिश्रम, अपनी काबिलीयत के दम पर यह मुकाम हासिल किया था. उस के डाक्टर बनने के सपने को पूरा करने में उस ने भी तो जीतोड़ मेहनत की थी. छोटीमोटी नौकरी तक की.

जिंदगी के इन कठिन संघर्षों ने उस की बेटी को बहुत ही समझदार बना दिया था. वैसे तो धृति बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि की थी, लेकिन जिस तरह आग में तपने के बाद ही सोने में निखार आता है वैसे ही जिंदगी के तमाम कष्टों ने, कठिनाइयों ने उसे बेहद समझदार और साहसी बना दिया था.

वर्षों पहले रत्ना और उस की बेटी को अकेली ट्रेन में बैठा कर, अभी आता हूं कह कर, विपिन वापस नहीं आया था. तब दिल्ली से किसी तरह अपनी 9 साल की बेटी के साथ भूखीप्यासी वह बनारस पहुंच तो गई थी, लेकिन आगे के सफर के लिए उस के पास पैसे तक नहीं थे. फिर भी वह किसी तरह अपनी ससुराल पहुंची थी, जहां उस के सासससुर ने भी उसे साथ रखने से मना कर दिया था और फौरन उसे उस की बेटी के साथ उस के मायके पहुंचा दिया गया.

रत्ना अपनी ससुराल वालों की आंखों में उसी वक्त से कांटों की तरह चुभ रही थी जिस वक्त उस ने बेटी को जन्म दिया था और अब उस के पति के द्वारा इस प्रकार से त्यागे जाने से उन लोगों ने भी अपना पल्ला झड़ लिया था.

रत्ना सहानुभूति और अपनापन की उम्मीद लगाए अपने मायके के दहलीज पर

खड़ी थी. अपनी कल्पनाओं में उस ने सोचा कि मां अभी आ कर उसे सीने से लगा लेगी. भाई प्यार से उस के सिर पर हाथ रखेगा, उस पर हुए जुल्म के लिए उस के पति और उस की ससुराल वालों से जवाब तलब करेगा, परंतु इस के ठीक विपरीत मां और भाई ने तब भी उसे ही दोषी करार दिया था. उस का कोई अपराध नहीं होते हुए भी वह उन के समक्ष एक अपराधी की भांति खड़ी थी और अपराध भी क्या… अपनी गृहस्थी ठीक से नहीं चला सकने का अपराध… अपने पति को खुश नहीं रख सकने का अपराध… और पति भी कैसा, जिसे रत्ना के बोलने, उठने, बैठने, हंसने तक पर आपत्ति थी… बेहद संकीर्ण मानसिकता का पति… रत्ना उस के सभी अत्याचार चुपचाप सहती रहती और फिर एक दिन उसे बेटी को जन्म देने का अपराधी घोषित कर उस का तिरस्कार कर दिया गया.

‘‘तुम्हें अपने पति एवं ससुराल वालों के साथ निभाना नहीं आया… जरूर तुम ने ही कुछ गलती की होगी… अरे, चार बातें सह ही लेती तो क्या हो जाता आखिर वह तुम्हारे ससुराल वाले हैं?’’ मां ने भी उसी की कमियां गिनाई थीं.

‘‘तुम्हारी शादी कर के हम ने अपने सिर का बोझ हलका कर लिया था अब वापस आ कर हमारे सिर का बोझ बढ़ा दिया… अरे, समाज और बिरादरी का कुछ तो खयाल रखा होता,’’ भाई ने धिक्कारते हुए कहा.

आंसुओं में डूबी रत्ना के पास अपने ही मां और भाई के द्वारा तिरस्कार

का दुख झेलने के अलावा और कोई चारा न था. उस की 9 साल की बेटी सहमी हुई सी अपनी मां के पल्लू को थामे हुए अपनी ही नानी और मामा के द्वारा अपनी ही मां को तिरस्कृत होते देख रही थी.

लाचार और बेबस रत्ना ने तब बस इतना कहा था, ‘‘मैं आप सभी पर बोझ नहीं बनूंगी… मैं कुछ भी कर के कोई भी काम अपने लिए ढूंढ़ लूंगी,’’ इतना कहतेकहते उस का गला भर्रा गया था.

चूंकि रत्ना को यह बात उस वक्त अच्छे से पता थी कि उस के जैसी साधारण पढ़ीलिखी लड़की के लिए नौकरी या कोई ढंग का काम ढूंढ़ पाना आसान नहीं, लेकिन फिर भी उस ने हिम्मत नहीं हारी थी. शुरुआत में तो उस ने सिलाईकढ़ाई से ले कर छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने तक का हर काम किया और आज अपनी बेटी को इस योग्य बना पाई थी.

रत्ना के मन के किसी कोने से टीस सी उठने लगी थी. उस के मन में रहरह कर एक ही सवाल उठ रहा था कि आखिर उस के साथ जो कुछ हुआ उस सब में उस का क्या कुसूर था? पति की मार खा कर भी वह उस अनचाहे बेमेल रिश्ते को निभाने की कोशिश करती रही थी, लेकिन इस सब के बावजूद जब उस के पति ने उसे धोखे से छोड़ दिया तब भी उस के अपनों ने उसे ही दोषी ठहरा दिया. जिंदगी में उसे रिश्तों के खोखलेपन के सिवा और कुछ भी तो नहीं मिला था. झठे रिश्तों के बंधन में बंधी वह अपनी अस्मिता की तलाश करती भी तो कैसे निरंतर तिरस्कार और उपेक्षा के डंक ने तो उस के पूरे वजूद को ही छलनी कर दिया था.

अपनी मां को रोता देख धृति का गुस्सा फूट पड़ा. अपने नेत्रों में अंगारे भर कर उस ने अपने पिता और मामा की ओर बड़ी ही घृणा से देखा.

धृति को अपनी ओर नफरत भरी नजरों से देखता हुआ देख विपिन सकपका सा गया और फिर अनुनय के स्वर में बोला, ‘‘बीती बातों को याद करने से क्या फायदा… मैं तुम दोनों को वापस ले जाने आया हूं… आखिर पिता होने के कारण मेरा भी तुम पर उतना ही अधिकार है जितना तुम्हारी मां का तुम पर है. तुम्हारे प्रति मेरा प्यार… तुम्हारी मां की अपेक्षा किसी कदर कम नहीं है…’’

‘‘झठ… बिलकुल झठ,’’ धृति के चेहरे पर घृणा, हिकारत… हैरानी ये सारे भाव एकसाथ उमड़ पड़े.

‘‘मैं झठ क्यों बोलूंगा… झठ बोल कर मुझे क्या मिलेगा?’’ विपिन ने हकलाते हुए कहा.

‘‘सहानुभूति, आप खुद को लाचार दिखा कर सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहे हैं… और फिर इस सब के पीछे आप का कोई न कोई निजी स्वार्थ छिपा हुआ है. आप व्यर्थ का दिखावा न करें. इस से कुछ भी हासिल नहीं होगा. आप ने मम्मी पर जो भी अत्याचार किए हैं… आप के गुनाहों की कोई माफी नहीं है… हम दोनों की जिंदगी में आप की कोई आवश्यकता नहीं है… आप मेरे लिए सिर्फ एक अजनबी हैं मिस्टर विपिन.’’

‘‘एक पिता की जरूरत तुम्हें जिंदगी के हर मोड़ पर पड़ेगी. मैं तुम्हें वह सुरक्षा और संरक्षण देना चाहता हूं जिस की तुम हकदार हो और जो एक बेटी के रूप में तुम्हें अपने पिता से मिलना चाहिए. एक पिता होने के नाते मैं तुम्हारा दायित्व उठाना चाहता हूं,’’ विपिन ने लगभग गिड़गिड़ाने के अंदाज में कहा.

‘‘संरक्षण, सुरक्षा, दायित्व, क्या आप इन भारीभरकम शब्दों का मतलब भी समझते हैं?  मिस्टर विपिन संरक्षण और सुरक्षा की बात वह इंसान कर रहा है जिस के साए में मेरी मम्मी की जिंदगी सब से ज्यादा असुरक्षित थी… आप दायित्वों का बोझ नहीं उठा सकेंगे. पिछले 15 वर्षों में जो कार्य आप ने नहीं किया अब वह क्यों  करेंगे? दरअसल, आप हमें सहारा देने नहीं हम से सहारा मांगने आए हैं, लेकिन उसे सीधेसीधे कहने की आप में हिम्मत नहीं है,’’ और फिर धृति ने घृणा भरी नजरों से विपिन की ओर देखा.

‘‘पढ़ाई ने सच में इस लड़की का दिमाग खराब कर दिया है… मैं तो कहता हूं यह सारी गलती रत्ना की है, जो अपनी बेटी को इतनी छूट दे रखी है… शुरू से ही यदि इस ने इसे नियंत्रण में रखा होता तो आज यह नौबत ही नहीं आती,’’ प्रकाश ने अपनी भानजी पर आंखें तरेरते हुए कहा.

‘‘नियंत्रण, किस नियंत्रण की बात करते हैं आप? वही जो आप ने मम्मी पर कर रखा था, जिस के कारण वह कभी खुल कर सांस तक नहीं ले सकी? खुले आसमान में उड़ान भरना तो बहुत दूर की बात थी उन्हें तो अपने हिस्से के सपने तक देखने की आजादी नहीं दी आप लोगों ने.’’

धृति क्रोधपूर्ण नजरों से अपने मामा और पिता की ओर देखती हुई बोले जा रही

थी, ‘‘अरे आप जैसे पुरुष तो महिलाओं को देवी भी तभी तक मानते हैं जब तक कि वह आप के बनाए गए दायरों के अंदर होती है, आप के द्वारा बनाई गई सीमाओं और मान्यताओं का पालन करती है परंतु जैसे ही वह आप के बनाए गए रूढि़वादी बंधनों को तोड़ कर मुक्त और स्वतंत्र होने की कोशिश करती है, आप के द्वारा वह कुलटा करार दी जाती है क्योंकि उस के इस

कृत्य से आप जैसे पुरुषों को अपना साम्राज्य खतरे में दिखता है. आप को अपना सिंहासन डोलता नजर आता है, लेकिन मैं ऐसी किसी भी रूढि़वादी बंधन की परवाह नहीं करती जिंदगी में ऊंचाइयों को छूने के लिए, उड़ान भरने के लिए, मुझे किसी सहारे, किसी संरक्षण की जरूरत नहीं है. ऐसे नीच और स्वार्थी पिता की जरूरत तो हरगिज नहीं है.

‘‘मैं ने अकेले अपने दम पर अपने मुकाम को हासिल किया है. ऐसे किसी भी रूढि़वादी बंधन की परवाह नहीं की है… इन तमाम सामाजिक पाबंदियों, बंधनों को तोड़ कर ही अपने सपनों को साकार किया है… हां, उन्हीं बंधनों को जिन बंधनों ने मेरी मम्मी को सदा से कैद कर रखा है, लेकिन अब और नहीं. इस बार मैं अपनी मम्मी को भी साथ ले जाने के लिए आई हूं.’’

फिर धृति ने अपनी मम्मी की आंसुओं के अपने हाथों से पोंछते हुए कहा, ‘‘मम्मी, अब आप को इन लोगों के लिए और आंसू बहाने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं आप को यहां और नहीं रहने दे सकती. मम्मी आज ही आप का वीजा मिला है. मैं तभी आप को बताना चाहती थी. खैर, इस बार आप मेरे साथ अमेरिका चल रही हैं. जिन बंधनों ने आप को दुख के सिवा कुछ नहीं दिया उन से मुक्त होने का समय अब आ गया है,’’ धृति का इशारा अपने पिता और मामा की ओर था, ‘‘आप अगले हफ्ते ही मेरे साथ अमेरिका के लिए उड़ान भरेंगी.’’

इकलौती बेटी: मीना को ससुराल वापस लाने का क्या था लालाजी का तोड़

‘‘किस का पत्र है, उमा?’’ सास ने पूछा.

‘‘पिताजी का पत्र है, मांजी. गृहप्रवेश के लिए उत्सव का आयोजन कर रहे हैं. मुझे भी बुलाया है,’’ उस ने उत्तर दिया.

‘‘जाना चाहती हो क्या?’’ पति ने प्रश्न किया.

‘‘कहीं जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. बबलू की परीक्षा है. फिर मुझे भी तो छुट्टी नहीं मिलेगी. वैसे भी हम इतने स्वतंत्र थोड़े ही हैं कि जब मन आया अटैची उठा कर चल पड़ें,’’ उमा व्यंग्य से मुसकराते हुए बोली. उस की बात सुन कर पति भी मुसकरा कर रह गए. मां दूसरी ओर देखने लगीं पर मीना तिलमिला कर रह गई. पुरानी घटनाएं तेजी से उस की आंखों के सामने घूमने लगीं.

घड़ी में समय देखते हुए मीना अपने पति मनोज से बोली थी, ‘कितनी देर कर दी? गाड़ी छूटने में केवल 1 घंटा रह गया है. मैं ने तुम्हारे कार्यालय में कई बार फोन किया था. कहां चले गए थे?’

‘क्यों, कहां जाना है? क्या मुझे और कोई काम नहीं है जो सदा तुम्हारी ही हाजिरी में खड़ा रहूं,’ मनोज सुनते ही झुंझला गया था.

‘कितनी जल्दी भूल जाते हो तुम? सुबह ही तो बताया था कि मां का फोन आया है,’ मीना ने याद दिलाया.

‘सहारनपुर से आए हुए कितने दिन हुए हैं? पिछले सप्ताह ही तो लौटी हो. अब फिर जाने की तैयारी कर ली?’

‘अरे, तो क्या हो गया, बेटी हूं उन की, बुलाएंगे तो क्या जाऊंगी नहीं? तुम क्या जानो, मातापिता अपनी संतान से कितना प्यार करते हैं,’ मीना नाटकीय अंदाज में बोली.

‘तुम्हारे कुछ ज्यादा ही करते हैं, मेरे भी मातापिता हैं. 1 वर्ष हो गया विवाह को…कितनी बार गया हूं मैं?’

‘पुरुषों की बात दूसरी है, तुम तो पिछले 10 वर्ष से छात्रावास में ही रहते आए हो, अब भला उन्हें तुम से कितना लगाव होगा. तुम तो परिवार के साथ रहते हुए अधिकतर मित्रों के साथ ही घूमते रहते हो. इसीलिए तो तुम्हारे मातापिता तुम्हें याद नहीं करते.’

‘व्यर्थ की बातें करने की आवश्यकता नहीं है…मांजी का फिर फोन आए तो कह देना, अभी आना संभव नहीं है. यहां मेरे मातापिता भी आने वाले हैं.’

‘क्या?’

‘हां, आज ही पत्र आया है,’ मनोज ने एक अंतर्देशीयपत्र निकाल कर सामने रख दिया था.

‘तब तो और भी आसान है, मांजी आ जाएंगी तो तुम्हें खानेपीने की भी सुविधा हो जाएगी और अकेलापन भी नहीं अखरेगा,’ मीना ने छोटी बच्ची की तरह प्रसन्न हो कर कहा.

‘जरा सोचो, विवाह के बाद पहली बार वे लोग आ रहे हैं. तुम चली जाओगी तो उन के मन को कितनी ठेस पहुंचेगी,’ मनोज ने समझाने का प्रयत्न किया.

‘मेरे मातापिता की भावनाओं की भी कुछ चिंता है तुम्हें? मैं उन की इकलौती बेटी हूं. कजरी तीज का व्रत बड़ी धूमधाम से मनाते हैं हम लोग…3 दिन तक उत्सव चलता है. मैं नहीं गई तो मां कितना बुरा मानेंगी,’ मीना तैश में आ गई.

‘हर बार मैं तुम्हारी बात मानता हूं. इस बार मेरी बात मान लो. विवाह की वर्षगांठ आ रही है, सब साथ रहेंगे तो कितना अच्छा लगेगा,’ मनोज ने मिन्नत की.

‘देखो, ट्रेन का समय हो रहा है, व्यर्थ के तर्कवितर्क में उलझने का समय नहीं है. यदि तुम यह समझते होगे कि तुम जोर दे कर मुझे रोक लोगे तो यह बात भूल जाओ. तुम मेरे साथ नहीं चले तो मैं स्वयं ही चली जाऊंगी. स्टेशन तक का मार्ग मुझे भी मालूम है,’ मीना का उत्तर था.

‘तो ठीक है, चली क्यों नहीं जातीं. मेरी भी जान छूटे. मातापिता से इतना ही प्यार था तो विवाह क्यों किया था?’ मनोज क्रोध में इतनी जोर से चीखा कि मीना एक क्षण को तो स्तंभित रह गई. किंतु दूसरे ही क्षण चेहरा क्रोध से लाल हो गया और वह फूटफूट कर रो पड़ी.

2 दिन तक दोनों के बीच मौन छाया रहा. मीना ने खानापीना छोड़ रखा था. मनोज ने मनाने का प्रयत्न किया तो वह और बिफर पड़ी.

‘ठीक है, पहले खाना खा लो. तुम जाना ही चाहती हो तो छोड़ आऊंगा. किसी को जबरदस्ती यहां रोक कर रखने का मेरा कोई इरादा नहीं है और उस से लाभ ही क्या है,’ अंतत: मनोज ने दुखी हो कर हथियार डाल ही दिए थे और मीना सहारनपुर आ गई थी.

6 महीने बीत गए थे. मनोज ने मीना की सुधि नहीं ली थी और मीना को भी जिद थी कि वह बिना बुलाए जाएगी नहीं. किंतु आज उमा भाभी का व्यंग्य उस के सीने को चीरता निकल गया था. वह इतनी नादान भी नहीं थी कि इतनी सी बात भी न समझ पाती. वह फिर सोचने लगी… भाभी की बात सुन कर मां भी चुप रह गई थीं, इस बात ने उसे और अधिक आहत किया था.

पहले भी मां कई बार मीना को खोदखोद कर पूछ चुकी थीं कि इतने दिन बीत गए हैं, मनोज का कोई पत्र क्यों नहीं आया?

‘उन्हें पत्र लिखने की आदत नहीं है, मां,’ वह हंसने का प्रयत्न करती पर हंस न पाती.

किंतु आज इस घटना ने उसे पूर्णत: उद्वेलित कर दिया था. अपने कमरे में वह अकेली बैठी चुपचाप आंसू बहाती रही.

‘‘अरे, मीना, क्या बात है? शाम होने को आई, अभी तक सो रही हो,’’ अचानक उमा ने आ कर कमरे की बत्ती जलाई तो वह चौंक कर उठ बैठी और वर्तमान में आ गई. रोतेरोते कब आंख लग गई थी, वह समझ ही न पाई.

‘‘तबीयत ठीक नहीं है भाभी, बत्ती बुझा दो,’’ वह बोली.

‘‘बुखार तो नहीं है?’’ भाभी ने माथा छूते हुए कहा.

‘‘नहीं, बुखार नहीं, सिर में तेज दर्द है.’’

‘‘सिरदर्द में भी भला कोई इस तरह बिस्तर पर पड़ा रहता है? चलो, एक गोली खा लो और चाय पी लो, दर्द ठीक हो जाएगा. आज तुम्हारी चचेरी बहन सुधा का विवाह है, वहां भी तो जाना है. उठो, तैयार हो जाओ,’’ उमा ने कहा.

‘‘मेरी ओर से सुधा से माफी मांग लेना भाभी. मैं नहीं जा सकूंगी. जी बिलकुल अच्छा नहीं है,’’ मीना की आंखें डबडबा आईं.

‘‘मीना, तुम्हारे सिरदर्द का कारण मैं जानती हूं. सुबह की मेरी बात पर नाराज हो न? उसी समय तुम्हारा चेहरा देख कर मैं अपने मुंह से निकले उस व्यंग्य पर पश्चात्ताप से भर उठी थी. पर क्या करूं, कमान से निकले तीर की तरह मुंह से निकली इस बात को मैं लौटा तो नहीं सकती पर क्या अब तुम यह चाहती हो कि मैं बड़ी हो कर तुम से माफी मांगूं?’’ उमा दुखी स्वर में बोली.

‘‘कैसी बातें करती हो, भाभी. मैं भला तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगी?’’ मीना उदास स्वर में बोली.

‘‘क्या तुम सचमुच सोचती हो कि तुम्हारा यहां रहना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता?’’ उमा ने कहा.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा, भाभी?’’

‘‘मीना, तुम यहां रहती हो तो घर ज्यादा भराभरा लगता है, पर तुम शायद नहीं जानतीं कि खून का रिश्ता न होते हुए भी मैं तुम्हें हमेशा सुखी देखना चाहती हूं. तुम्हारे चेहरे पर घिरती दुख की छाया अब पूरे परिवार को भी घेरने लगी है.’’

‘‘तो क्या तुम चाहती हो कि मैं जा कर मनोज के पैर पकड़ं ू?’’

‘‘पैर मत पकड़ो, पर कम से कम उस की कुशलता जानने के लिए फोन तो कर सकती हो, पत्र तो लिख सकती हो, उसे भी तो लगे कि उस की पत्नी को उस की चिंता है.’’

‘‘मुझे यहां आए 6 माह हो गए, किसी ने मेरी चिंता की?’’

‘‘किसी न किसी को पहल करनी ही पड़ेगी, मीना. सच बताना, तुम मनोज से लड़ कर आई थीं न?’’

‘‘हां,’’ मीना ने सिर हिलाते हुए आंखें झुका लीं.

‘‘मैं तो उसी दिन तुम्हारा उतरा चेहरा देख कर समझ गई थी और मैं नहीं सोचती कि मां या पिताजी की अनुभवी आंखों से यह तथ्य छिपा रहा होगा. इसीलिए तो लोग कहते हैं कि विवाह के बाद बेटी पराई हो जाती है. सबकुछ जानते हुए भी वे तुम से कुछ नहीं कह सकते और मनोज से संपर्क करने को शायद उन का अहं आड़े आ जाता है,’’ उमा बोली.

‘‘मैं क्या करूं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘मेरी मानो तो इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न मत बनाओ. ये छोटीछोटी बातें ही वैवाहिक जीवन में विष घोल देती हैं. मनोज और उस के परिवार के लोग भले हैं, पर वे भी शायद हम लोगों की तरह पहल नहीं करना चाहते. अब तो तुम्हें ही निर्णय लेना है कि तुम क्या चाहती हो,’’ उमा ने समझाते हुए कहा.

‘‘तुम दोनों यहां छिपी बैठी हो और मैं सारे घर में ढूंढ़ आई,’’ तभी मांजी आ गईं और दोनों की बातचीत बीच में ही रह गई.

‘‘मीना की तबीयत ठीक नहीं है, मांजी. वह विवाह में नहीं जाना चाहती,’’ उमा ने सास की ओर देखा.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘सिर में दर्द है.’’

‘‘अरे, इस का तो चेहरा उतरा हुआ है. ठीक है, तुम्हीं चली जाओ, इसे आराम करने दो.’’

‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी, मीना नहीं जा रही तो आप चलिए,’’ उमा बोली.

‘‘ठीक है, चलो, मैं चलती हूं. जल्दी तैयार हो जाओ, देर हो रही है.’’

सब के जाते ही मीना उठी. उमा भाभी से बातचीत कर के उस का मन काफी हलका हो गया था. वह दिल्ली मनोज को फोन करने का प्रयत्न करने लगी. पर जब बहुत देर तक संपर्क नहीं हुआ तो उस का मन अजीब सी आशंका से भर उठा. तभी उसे याद आया कि मनोज के पड़ोसी लाल भाई का फोन नंबर उस के पास है. अत: उस ने उन से संपर्क करने का निश्चय किया.

‘‘नमस्ते भाभीजी, मैं मीना बोल रही हूं…मनोज कैसे हैं? काफी दिनों से कोई समाचार नहीं मिला,’’ मीना लाल भाई की पत्नी की आवाज पहचान कर बोली.

‘‘अरे, मीना बोल रही हो? क्या हो गया तुम्हें…इस बार तो मायके जा कर जम ही गईं. यहां आने का नाम ही नहीं ले रहीं?’’

एक क्षण को मीना मौन खड़ी रह गई. किस मुंह से कहे कि वह मनोज की प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है.

‘‘हैलो…’’ लाल भाई की पत्नी पुन: बोलीं.

‘‘जी हां, मैं बोल रही हूं. आवश्यक कार्यवश नहीं आ सकी. बहुत देर से मनोज को फोन करने का प्रयत्न कर रही थी पर मिला ही नहीं…वे कैसे हैं?’’

‘‘कैसे होंगे…तुम्हारी अनुपस्थिति में रंगरलियां मना रहे हैं…हर दूसरे दिन नई लड़की के साथ घूमते नजर आते हैं. मैं ने तो समझाया भी पर कौन सुनता है. तुम ने फोन किया तो मैं ने बता दिया परंतु मेरा नाम मत लेना, व्यर्थ ही मनोज बुरा मानेगा,’’ वे बोलीं.

घर के सदस्य विवाह से लौटे तो मीना अस्तव्यस्त दशा में बैठी थी. चेहरा आंसुओं में भीगा था.

‘‘क्या हुआ, मीना?’’ देखते ही सब ने समवेत स्वर में पूछा.

‘‘मुझे दिल्ली जाना है,’’ वह शून्य में देखती हुई बोली.

‘‘अब इस समय? रात के 12 बजे हैं,’’ भैया आश्चर्यचकित हो बोले.

‘‘पर क्या हुआ?’’ मां उलझन भरे स्वर में बोलीं.

‘‘मुझे यहां भेज कर मनोज रंगरलियां मना रहा है.’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ पिताजी ने पूछा.

‘‘उन की पड़ोसिन ने बताया. मैं ने फोन किया था.’’

‘‘सुबह चली जाना…इतनी देर में कुछ नहीं बिगड़ेगा. तुम्हारे भैया जा कर छोड़ आएंगे,’’ पिताजी बोले.

वह रात बच्चों को छोड़ कर सब ने आंखों में ही काटी. दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही मीना पहली बस पकड़ कर भैया के साथ दिल्ली रवाना हो गई.

दोनों भाईबहन घर पहुंचे तो मनोज तो नहीं था पर उस की मां वहां थीं.

‘‘आप कब आईं, मांजी,’’ अभिवादन के बाद भैया ने पूछा.

‘‘मैं तो 4 महीने से पूरे परिवार को छोड़ कर यहां पड़ी हूं. सोचा था मनोज का विवाह हो गया तो उस की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. पर वह लगभग 4 महीने पहले बहुत बीमार हो गया था और मीना सहारनपुर जा कर ऐसी बैठी कि अपने परिवार को भूल ही गई,’’ मनोज की मां शिकायत भरे स्वर में बोलीं.

‘‘सचमुच गलती मीना की है, मांजी. पर इस बार क्षमा कर दीजिए, नासमझ है. आगे से ऐसी भूल नहीं होगी,’’ भैया बोले.

‘‘कैसी बातें करते हो बेटा. मैं तो प्रसन्न हूं कि घर की लक्ष्मी घर आ गई है. अब अपना घर संभाले और मुझे मुक्ति दे,’’ वे बोलीं.

मनोज काफी रात गए घर लौटा, वह मीना को देख हैरान हो गया.

‘‘यह कोई घर आने का समय है?’’ मीना एकांत पाते ही बोली.

उत्तर में मनोज अपनी हंसी न रोक सका.

‘‘इस में हंसने की क्या बात है?’’ मीना ने नाराजगी से कहा.

‘‘नहीं, हंसने की कोई बात नहीं है पर अब तो रोज ही मुझे इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा,’’ मनोज बोला.

‘‘मुझे लाल भाई की पत्नी ने सब बता दिया है,’’ मीना ने आंखें तरेरते हुए कहा.

‘‘मुझे भी उन्होंने आज सुबह सब बताया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि अब तुम्हारे लौटने में अधिक देर नहीं है.’’

‘‘यानी कि उन्होंने सब झूठ कहा था.’’

‘‘यह तो तुम उन्हीं से पूछो.’’

‘‘मैं बिना बुलाए आ गई इसलिए अपनी विजय पर इठला रहे हो.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो मीना, हम दोनों क्या अलग हैं, जो मैं अपमान और सम्मान जैसी ओछी बातें सोचूंगा. तुम अपने घर आई हो, इस में शर्म कैसी? रही बात मेरे वहां आने की तो एक बार लिखा होता या फोन ही कर दिया होता तो मैं सिर के बल दौड़ा आता.’’

‘‘मुझ पर अपना जरा सा भी अधिकार समझते हो तो बिना बुलाए आ सकते थे.’’

‘‘आ सकता था पर सच कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘तुम ठहरीं इकलौती बेटी. याद है, मेरे मना करने पर तुम कितने क्रोध में यहां से गई थीं. वहां जाने पर तुम मेरा अपमान कर देतीं और मेरे साथ न आतीं तो शायद मैं सह न पाता.’’

मीना सोच रही थी कि मनोज के विचार कितने सुलझे हुए हैं और एक वह है जिस ने अपनी हठधर्मी के कारण सब के जीवन में विष घोल दिया. वह तो उमा भाभी ने बचा लिया, नहीं तो शायद पछतावे के अतिरिक्त कुछ भी हाथ न लगता.

कोने वाली टेबल: क्या सुमित को मिली उसकी चाहत

ठाणे में सब से बड़ा मौल है, विवियाना मौल. काफी बड़ा और सुंदर. एक से एक ब्रैंडेड शोरूम हैं. जब से यह मौल बना है, ठाणे में रहने वालों को हाई क्लास शौपिंग के लिए बांद्रा नहीं भागना पड़ता. वीकैंड में टाइम पास करने वालों की यह प्रिय जगह है. थर्डफ्लोर पर बढ़िया फ़ूड कोर्ट है. वैसे, हर फ्लोर पर बहुत ही क्लासी रैस्त्रां हैं, उन में से एक है, येलो चिल्ली. यह मशहूर सैलिब्रिटी शेफ संजीव कपूर की फ़ूडचेन का पार्ट है.

येलो चिल्ली की कोने वाली टेबल पर 30 वर्षीया लकी बहुत देर से बैठी फ्रैश लाइम वाटर पी रही है. उसे इंतज़ार है सुमित का. बस फोटो ही देखी है उस ने सुमित की. अपने घर वालों के कहने पर दोनों आज पहली बार अकेले मिल रहे हैं. सुमित अंदर आया, लकी ध्यान से सुमित को देख रही थी.

सुमित ने इधरउधर देखा, सीधा लकी के पास आ कर ‘हैलो’ बोला और अपना बैग दूसरी खाली पड़ी चेयर पर रखता हुआ बैठ गया. पूछ लिया, “आप इतने ध्यान से क्या देखने की कोशिश कर रही हैं?”

“देख रही हूं, टौल, डार्क एंड हैंडसम वाले कौन्सैप्ट पर कितना फिट बैठते हो.”

सुमित हंस पड़ा, तो क्या देखासुना-

“सब बकवास है, पता नहीं किस ने यह लाइन बना दी. लड़कियां फ़ालतू में टौल, डार्क एंड हैंडसम लड़कों की कल्पना करकर के अपना टाइम खराब करती हैं. अरे, क्या फर्क पड़ जाएगा अगर लड़का गोरा हो गया तो, या न हो लंबा? क्या करना है, सब अमिताभ बच्चन हो सकते हैं क्या? और हैंडसम होने की परिभाषा तो सब की अपनीअपनी अलग होती है न…

सुमित बहुत ही ध्यान से लकी को देखने लगा, लड़की है या तोप का गोला, किस बात पर इतनी भरी बैठी है. अभी तो आ कर बैठा ही हूं और यह तो शुरू हो गई. लकी अब मैन्यू कार्ड देखने लगी थी.

सुमित को लगा यही मौका है इसे ध्यान से देख लूं. वाइट जंप सूट में पोनीटेल बनाए, सुंदर सा चेहरा, अच्छा लग रहा था.

लकी ने कहा, “पहले और्डर दे दें? मुझे भूख लगी है, भूख के आगे मुझे कुछ नहीं सूझता. मेरा पेट भरा होना चाहिए, तभी मुझ से ठीक से बात हो पाती है.’’

सुमित ने कहा, “हां, हां, और्डर करते हैं, बताओ, क्या खाओगी?”

आप अपनी पसंद बताएं, मुझे यहां के छोलेभठूरे अच्छे लगते हैं, जब भी आती हूं, वही खाती हूं.’’

“मैं भी वही खा लूंगा.”

“क्यों, अपनी कोई पसंद नहीं आप की?”

“मैं तो सबकुछ खा लेता हूं, जो सामने दोस्त खा रहे होते हैं, मैं उस में खुश हो जाता हूं.”

“मुझे आप ने दोस्त मान लिया, पहली बार तो मिले हैं?”

सुमित चुप रहा, वेटर आया तो लकी ने कहा, “एक प्लेट छोलेभठूरे, एक प्लेट दहीकबाब, एक प्लेट पनीरटिक्का.”

वेटर के जाने के बाद सुमित ने हैरानी से कहा, “क्याक्या मंगवा लिया?”

लकी ने मुसकरा कर कहा, “मुझे बहुत सारी चीजें और्डर करना अच्छा लगता है, फिर एकदूसरे के साथ शेयर कर के ज्यादा चीजें खाई जा सकती हैं. असल में, आई एम अ बिग फूडी. नहीं तो अभी एकएक प्लेट छोलेभठूरे ही खा पाते, अब और भी चीजें खा सकते हैं. यह ठीक रहता है न.”

“लकी जी, मैं ने कभी और्डर को ले कर इतना सोचा नहीं.”

“आप कितने साल के हैं? सही वाली उम्र बताना, सर्टिफिकेट वाली नहीं.”

“30’’

“मैं भी 30. तो फिर बात करते हुए ये आप, आप, जी, लगाना बंद करें क्या? बोरिंग हो रहा है.’’

“अच्छा रहेगा.’’

“सुनो, तुम सचमुच शादी करना चाहते हो?”

“अभी नहीं, पर घर वाले बहुत जोर डाल रहे हैं.’’

“मेरे साथ भी यही प्रौब्लम है. अभी तो जौब में सेट हुई हूं, सोचा था थोड़ा घूमूंगी, फिरूंगी. मुझे नईनई जगहें देखने का बहुत शौक है. पर एक तो घर वाले और ऊपर से रिश्तेदार, चैन नहीं लेने दे रहे. और मुझे लगता है मेरी किसी से बनेगी भी नहीं, गलत बात किसी की जरा भी सहन नहीं होती, झगड़ा हो जाता है. मुझे गुस्सा भी बहुत आता है. तुम बताओ, क्यों कर रहे हो शादी? तुम तो लड़के हो, तुम्हें तो इतने फायदे हैं, कुछ भी कह सकते हो?”

“बस, मम्मीपापा ने रट लगा रखी है कि तुम शादी करो तो छोटे भाई का नंबर आए.”

“पर तुम्हारे शादी न करने की क्या वजह है?”

“बस, अभी मूड नहीं है.’’

“कोई अफेयर चल रहा है या ब्रेकअप हुआ है?”

“ब्रेकअप हुआ है.’’

“तो उस का गम मनाना चाहते हो?”

“नहीं, अब क्या गम मनाना, 2 महीने हो गए इस बात को.’’

“ब्रेकअप क्यों हुआ?”

इतने में वेटर ने खाना ला कर रखा तो लकी ने कहा, “चलो, खाने पर टूट पड़ती हूं, तुम्हारी सैड स्टोरी बाद में सुनती हूं, टैस्टी चीजों का मजा खराब नहीं करना चाहती.’’

सुमित मुसकरा दिया तो लकी ने कहा, “तुम कम बोलते हो क्या या ब्रेकअप के बाद लड़की से बात करने का कौन्फिडैंस ख़त्म हो गया?”

“हां, हो सकता है, जरा मूड कम ही होता है हंसनेबोलने का.”

“क्या बढ़िया छोले बने हैं, वाह, मजा आ गया. मेरी मम्मी भी छोले बनाती तो हैं अच्छे, पर यहां जैसे थोड़े ही बनते हैं घर पर, है न?”

“हां, अच्छा लग रहा है खाना.”

“तुम्हें पता है जब भी मैं विवियाना आती हूं, चाहे टाइम जो भी हो रहा हो, ये दहीकबाब जरूर खाती हूं. तुम नौनवेज खाते हो?”

“हां, तुम?”

“बाहर दोस्तों के साथ खाती हूं, घर वालों को नहीं पता है. तुम सिगरेट पीते हो?”

“हां, कभीकभी. तुम भी पीती हो क्या?”

“एकदो बार पी, मजा नहीं आया, फिर नहीं पी. शराब?”

“घर वालों को नहीं पता, कभीकभी किसी पार्टी में पीता हूं और फिर किसी दोस्त के घर पर ही रुक जाता हूं.”

“सुनो, एक काम करोगे, अपने घर वालों से कह देना कि मैं मिलने आई ही नहीं थी, मुझे नहीं करनी शादी अभी. अपने घर वालों से मैं निबट लूंगी. उन्हें पता चलना चाहिए कि जबरदस्ती करेंगे तो मैं किसी लड़के से मिलने जाऊंगी ही नहीं. मैं ने पहले 2 लड़कों को तो दूर से देखते ही रास्ता बदल लिया था, मिलने ही नहीं गई थी. मेरे घर वाले भी थकते नहीं मेरी बदतमीजी से.’’

“तो, आज मुझ से क्यों मिलीं?”

“बोर हो रही थी, यहां लंच का मूड हो गया.’’

“कोई बौयफ्रैंड है?”

“अभी तो नहीं है.’’

“कब था?”

“एक साल पहले.’’

“ब्रेकअप क्यों हुआ?”

“अपनी ज्यादा चलाता था, हर बात में रोकटोक करने लगा था, फिर मेरे गुस्से को झेल नहीं पाया. तुम्हें बताया न, कि मुझे बहुत गुस्सा आता है.’’

खाना हो चुका था. लकी ने वेटर को बिल लाने का इशारा किया. सुमित अपना वौलेट निकालने लगा तो लकी ने कहा, “मैं पे करूंगी.’’

“प्लीज, मुझे करने दो.’’

“क्यों?”

“मुझे अच्छा नहीं लगेगा, मुझे करने दो.’’

“नहीं, मेरा मन है.’’

“ओके, अगली बार करने दोगी?”

“हम मिल रहे हैं दोबारा?”

“तुम बताओ?’’

“मुश्किल है.’’

“अच्छा, ठीक है, जैसे तुम्हारी मरजी.’’

खाना खा कर दोनों बाहर निकले, तो लकी ने कहा, “जल्दी है जाने की?”

“नहीं, कुछ काम है?”

“बस, एक ब्लैक पैंट लेनी है ज़ारा से. ले लूं, फिर साथ ही निकलते हैं,” ग्राउंडफ्लोर तक आतेआते लकी ने पूछा, “अरे, तुम ने बताया नहीं, तुम्हारा ब्रेकअप क्यों हुआ था?”

“वह बहुत शक्की थी. किसी से भी बात करता, कहीं भी मैं जाता, बहुत सारे सवालों के साथ शक करती. फिर चैक करती कि कहीं मैं ने झूठ तो नहीं बोला. पूछताछ करती सब से. मुझे लगा, जब रिश्ते में विश्वास ही नहीं तो सब बेकार है.”

“औफिस कहां है तुम्हारा?”

“अंधेरी में.’’

“और तुम्हारा?”

“अंधेरी.’’

“अरे, वाह, कैसे जाती हो?”

“एसी बस से. तुम कैसे जाते हो?”

“कार से.”

“बढ़िया.’’

‘ज़ारा’ शोरूम में अपना बैग सुमित को पकड़ा लकी ने जल्दी से पैंट ट्राई कर के ले ली, तो सुमित ने हंसते हुए कहा-

“इतनी जल्दी ले ली? लड़कियां तो शौपिंग में बहुत टाइम लगाने के लिए मशहूर हैं?’’

“मुझे शौपिंग में टाइम खराब करना पसंद नहीं. काम की चीजें लेती हूं और निकलती हूं, ट्रायल रूम की भीड़ से तबीयत घबरा जाती है मेरी. चलो, निकलते हैं, अब. अच्छा लगा मिल कर.”

“हां, अच्छा तो लगा मुझे भी, कैसे आई हो?”

“औटो से. वैसे, मैं ने कार ले ली है, एकदो दिन में डिलीवरी होने वाली है. मैं बहुत एक्ससाइटेड हूं अपनी कार के लिए.”

“यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है. अपनी कार की एक पार्टी तो बनती है,” सुमित सचमुच बहुत खुश हुआ था सुन कर.

“पार्टी चाहिए तुम्हें कार की?’’

“तुम्हारा मन हो तो मैं दूं तुम्हें तुम्हारी कार की पार्टी? जब कार आ जाए तो तुम्हारी कार से मरीन ड्राइव चलेंगे. वहीं पिज़्ज़ा एक्सप्रैस में पिज़्ज़ा खिलाऊंगा तुम्हें? बोलो, चलोगी?”

“प्रोग्राम तो अच्छा सोच रहे हो तुम? कहीं तुम्हें मैं पसंद तो नहीं आ गई? देखो, मेरा शादी का कोई मूड नहीं है अभी.”

“अरे बाबा, मुझे भी नहीं करनी है शादी, इसलिए तुम्हारे साथ थोड़ा ठीक लग रहा है.’’

“ठीक है, लाओ फोन नंबर दो अपना, कार आने पर तुम्हें फोन करूंगी, चलेंगे घूमने. और याद रखना, अपने घर वालों को कहना कि मैं मिली ही नहीं.”

“ठीक है.’’

अपने घर से थोड़ा दूर ही सुमित की कार से उतरते हुए लकी ने कहा, “अरे, यह तो बताओ, तुम्हारा अपनी गर्लफ्रैंडफ्रेंड के साथ सैक्स भी चलता था?”

“हां, और तुम्हारा?”

“हां, चलो, बाय, मिलते हैं फिर, कार आने पर.’’

घर जा कर दोनों ने झूठ बोल दिया कि वे आपस में मिले ही नहीं, लकी डांट खाती रही, सुमित के घरवाले दूसरी लड़कियों के बारे में अपनी राय देने लगे. लकी और सुमित ने फोन नंबर होने पर भी एकदूसरे से कोई बात न की, न कोई मैसेज भेजा. जिस दिन लकी की कार आई, लकी ने सुमित को फोन किया, “मरीन ड्राइव चलना है?”

“हां, संडे को शाम 5 बजे निकलेंगे. अपना ऐड्रेस भेज रहा हूं, मुझे लेने आ जाना.’’

संडे तक का टाइम दोनों ने वैसा ही बिताया जैसा दोनों का रूटीन था. संडे शाम को सुमित वर्तक नगर की नीलकंठ सोसाइटी में अपनी बिल्डिंग के बाहर ही मिल गया, सीट बेल्ट बांधते हुए सुमित ने कहा, “कलर सुंदर है कार का, ब्लू कलर मुझे भी पसंद है. कैसा लग रहा है अपनी कार चलाना?”

“बढ़िया. मैं कार चला रही हूं, तुम्हारी मेल ईगो तो नहीं हर्ट हो रही है?”

“नहीं, आराम मिल रहा है, थक जाता हूं रोज ड्राइविंग से, आज मजे से बैठ कर जाऊंगा.’’

शाम बहुत सुंदर लगी आज दोनों को. जाने कितनी बातें होती रहीं. दोनों हैरान से एक किनारे साथ घूमते हुए बीचबीच में समुद्र की लहरें देखने के लिए खड़े हो जाते, हलकेहलके सुरमई से अंधेरे में समुद्र किनारे बनी चट्टानों के पास की दीवारों पर बैठे युवा जोड़े चहक रहे थे. कुछ एकदूसरे की कमर में हाथ डाले एकदूसरे में यों खोए थे कि जैसे किसी बात का उन पर असर नहीं. चाहे उन्हें कोई भी देख रहा हो, चाहे कोई कुछ भी सोच रहा हो. मुंबई में इन जगहों में ये सीन बहुत ही आम हैं. बाहर से आए लोग जल्दी इन सीन को हजम नहीं कर पाते. ऐसे प्रेमियों को बेशर्मों का तमगा तुरंत थमा दिया जाता है.

पिज़्ज़ा एक्सप्रैस में पिज़्ज़ा खाते हुए लकी ने कहा, “सुनो, तुम मुझे वैसे तो ठीक ही लग रहे हो, क्या कहते हो, एकदो बार और टाइम साथ बिताते हैं. दिल हां कर रहा हो, तो शादी कर ही लें क्या?”

सुमित हंसा, बोला, “इतनी जल्दी मूड चेंज हो गया?”

“हां, सोच रही हूं, कर ही लूं. साथ की लड़कियों की भी शादी हो गई है. अकेले ऐसी जगह घूमना छूटता जा रहा है. आज कई दिनों बाद ऐसे शाम बिताई, अच्छा लगा. कोई बौयफ्रैंड फिर बनाऊं, न पटे तो फिर ब्रेकअप हो. फिर मूड खराब हो, इस से अच्छा है कि तुम से शादी कर लूं, साथ घूमने वाला साथी भी मिल जाएगा. बोलो, क्या कहते हो?”

“मैं भी सोच रहा हूं कि तुम से ही कर लूं शादी. तुम कार चलाया करोगी तो मुझे भी आराम हो जाएगा. तुम शौपिंग में बोर भी नहीं करोगी. सो, तुम भी मुझे लग तो ठीक ही रही हो. ठीक है, थोड़ा और मिलते हैं, फिर कर ही लेते हैं शादी.”

दोनों जोर से हंस दिए. फिर वही हुआ जो दोनों ने बिलकुल भी नहीं सोचा था. अगले महीने ही दोनों की शादी हो गई, धूमधाम से. और दोनों अकसर विवियाना मौल में येलो चिल्ली की उसी कोने वाली टेबल पर डिनर करने जरूर जाते हैं. दोनों को ही उस कोने वाली टेबल से कुछ इश्क सा हो गया है!

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