औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 1

संदीप बाहर धूप में बैठे सफेद कागजों पर आड़ीतिरछी रेखाएं बनाबना कर भांतिभांति के मकानों के नक्शे खींच रहे थे. दोनों बेटे पंकज, पवन और बेटी कामना उन के इर्दगिर्द खड़े बेहद दिलचस्पी के साथ अपनीअपनी पसंद बतलाते जा रहे थे.

मुझे हमेशा की भांति अदरक की चाय और कोई लजीज सा नाश्ता बनाने का आदेश मिला था.

बापबेटों की नोकझोंक के स्वर रसोईघर के अंदर तक गूंज रहे थे. सभी चाहते थे कि मकान उन की ही पसंद के अनुरूप बने. पवन को बैडमिंटन खेलने के लिए लंबेचौड़े लान की आवश्यकता थी. व्यावसायिक बुद्धि का पंकज मकान के बाहरी हिस्से में एक दुकान बनवाने के पक्ष में था.

कामना अभी 11 वर्ष की थी, लेकिन मकान के बारे में उस की कल्पनाएं अनेक थीं. वह अपनी धनाढ्य परिवारों की सहेलियों की भांति 2-3 मंजिल की आलीशान कोठी की इच्छुक थी, जिस के सभी कमरों में टेलीफोन और रंगीन टेलीविजन की सुविधाएं हों, कार खड़ी करने के लिए गैराज हो.

संदीप ठठा कर हंस पड़े, ‘‘400 गज जमीन में पांचसितारा होटल की गुंजाइश कहां है हमारे पास. मकान बनवाने के लिए लाखों रुपए कहां हैं?’’

‘‘फिर तो बन गया मकान. पिताजी, पहले आप रुपए पैदा कीजिए,’’ कामना का मुंह फूल उठा था.

‘‘तू क्यों रूठ कर अपना भेजा खराब करती है? मकान में तो हमें ही रहना है. तेरा क्या है, विवाह के बाद पराए घर जा बैठेगी,’’ पंकज और पवन कामना को चिढ़ाने लगे थे.

बच्चों के वार्त्तालाप का लुत्फ उठाते हुए मैं ने मेज पर गरमगरम चाय, पकौड़े, पापड़ सजा दिए और संदीप से बोली, ‘‘इस प्रकार तो तुम्हारा मकान कई वर्षों में भी नहीं बन पाएगा. किसी इंजीनियर की सहायता क्यों नहीं ले लेते. वह तुम सब की पसंद के अनुसार नक्शा बना देगा.’’

संदीप को मेरा सुझाव पसंद आया. जब से उन्होंने जमीन खरीदी थी, उन के मन में एक सुंदर, आरामदेह मकान बनवाने की इच्छाएं बलवती हो उठी थीं.

संदीप अपने रिश्तेदारों, मित्रों से इस विषय में विचारविमर्श करते रहते थे. कई मकानों को उन्होंने अंदर से ले कर बाहर तक ध्यानपूर्वक देखा भी था. कई बार फुरसत के क्षणों में बैठ कर कागजों पर भांतिभांति के नक्शे बनाएबिगाड़े थे, परंतु मन को कोई रूपरेखा संतुष्ट नहीं कर पा रही थी. कभी आंगन छोटा लगता तो कभी बैठक के लिए जगह कम पड़ने लगती.

परिवार के सभी सदस्यों के लिए पृथकपृथक स्नानघर और कमरे तो आवश्यक थे ही, एक कमरा अतिथियों के लिए भी जरूरी था. क्या मालूम भविष्य में कभी कार खरीदने की हैसियत बन जाए, इसलिए गैराज बनवाना भी आवश्यक था. कुछ ही दिनों बाद संदीप किसी अच्छे इंजीनियर की तलाश में जुट गए.

एकांत क्षणों में मैं भी मकान के बारे में सोचने लगती थी. एक बड़ा, आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण रसोईघर बनवाने की कल्पनाएं मेरे मन में उभरती रहती थीं. अपने मकान में गमलों में सजाने के लिए कई प्रकार के पेड़पौधों के नाम मैं ने लिख कर रख दिए थे.

एक दिन संदीप ने घर आ कर बतलाया कि उन्होंने एक भवन निर्माण कंपनी की मालकिन से अपने मकान के बारे में बात कर ली है. अब नक्शा बनवाने से ले कर मकान बनवाने तक की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं की होगी.

सब ने राहत की सांस ली. मकान बनवाने के लिए संदीप के पास कुल डेढ़दो लाख की जमापूंजी थी. घर के खर्चों में कटौती करकर के वर्षों में जा कर इतना रुपया जमा हो पाया था.

संदीप एक दिन मुझे भवन निर्माण कंपनी की मालकिन विनीता से मिलवाने ले गए.

मैं कुछ ही क्षणों में विनीता के मृदु स्वभाव, खूबसूरती और आतिथ्य से कुछ ऐसी प्रभावित हुई कि हम दोनों के बीच अदृश्य सा आत्मीयता का सूत्र बंध गया.

हम उन्हें अपने घर आने का औपचारिक निमंत्रण दे कर चले आए. मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि वह हमारे घर आ कर हमारा आतिथ्य स्वीकार करेंगी. लेकिन एक शाम आकस्मिक रूप से उन की चमचमाती विदेशी कार हमारे घर के सामने आ कर रुक गई. मैं संकोच से भर उठी कि कहां बैठाऊं इन्हें, कैसे सत्कार करूं.

विनीता शायद मेरे मन की हीन भावना भांप गई. मुसकरा कर स्वत: ही एक कुरसी पर बैठ गईं, ‘‘रेखाजी, क्या एक गिलास पानी मिलेगा.’’

मैं निद्रा से जागी. लपक कर रसोई- घर से पानी ले आई. फिर चाय की चुसकियों के साथ वार्त्तालाप का लंबा सिलसिला चल निकला. इस बीच बच्चे कालिज से आ गए थे, वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए. फिर विनीता यह कह कर चली गईं, ‘‘मैं ने आप की पसंद को ध्यान में रख कर मकान के कुछ नक्शे बनवाए हैं. कल मेरे दफ्तर में आ कर देख लीजिएगा.’’

विनीत के जाने के बाद मेरे मन में अनेक अनसुलझे प्रश्न डोलते रह गए थे कि उस का परिवार कैसा है? पति कहां हैं और क्या करते हैं? इन के संपन्न होने का रहस्य क्या है?

कभीकभी ऐसा लगता है कि मैं विनीता को जानती हूं. उन का चेहरा मुझे परिचित जान पड़ता, लेकिन बहुत याद करने पर भी कोई ऐसी स्मृति जागृत नहीं हो पाती थी.

कभी मैं सोचने लगती कि शायद अधिक आत्मीयता हो जाने की वजह से ऐसा लगता होगा. अगले दिन शाम को मैं और संदीप दोनों उन के दफ्तर में नक्शा देखने गए. एक नक्शा छांट कर संतुष्ट भाव से हम ने वैसा ही मकान बनवाने की अनुमति दे दी.

बातों ही बातों में संदीप कह बैठे, ‘‘रुपए की कमी के कारण शायद हम पूरा मकान एकसाथ नहीं बनवा पाएंगे.’’

विनीता झट आश्वासन देने लगीं, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं ने आप का मकान बनवाने की जिम्मेदारी ली है तो पूरा बनवा कर ही रहूंगी. बाकी रुपए मैं अपनी जिम्मेदारी पर आप को कर्ज दिलवा दूंगी. आप सुविधानुसार धीरेधीरे चुकाते रहिए.’’

संदीप उन के एहसान के बोझ से दब से गए. मुझे विनीता और भी अपनी सी लगने लगीं.

नक्शा पास हो जाने के पश्चात मकान का निर्माण कार्य शुरू हो गया.

अब तक विनीता का हमारे यहां आनाजाना बढ़ गया था. अब वह खाली हाथ न आ कर बच्चों के लिए फल, मिठाइयां और कुछ अन्य वस्तुएं ले कर आने लगी थीं.

आते ही वह सब के साथ घुलमिल कर बातें करने लग जातीं. रसोईघर में पटरे पर बैठ कर आग्रह कर के मुझ से दाल- रोटी ले कर खा लेतीं.

मैं संकोच से गड़ जाती. उन्हें फल, मिठाइयां लाने को मना करती, परंतु वह नहीं मानती थीं. संदीप मुझ से कहते, ‘‘विनीताजी जो करती हैं, उन्हें करने दिया करो. मना करने से उन का दिल दुखेगा. उन के अपने बच्चे नहीं हैं इसलिए वह हमारे बच्चों पर अपनी ममता लुटाती रहती हैं.’’

औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 2

मैं परेशान सी हो उठती. भरेपूरे शरीर की स्वामिनी विनीता के अंदर ऐसी कौन सी कमी है, जिस ने उन्हें मातृत्व से वंचित कर दिया है. मैं उन के प्रति असीम सहानुभूति से भर उठती थी. एक दिन मन का क्षोभ संदीप के सामने प्रकट किया तो उन्होंने बताया, ‘‘विनीताजी के पति अपाहिज हैं. बच्चा पैदा करने में असमर्थ हैं. एक आपरेशन के दौरान डाक्टरों ने गलती से उन की शुक्राणु वाली नस काट दी थी.’’

मैं और अधिक सहानुभूति से भर उठी.

संदीप बताते रहे, ‘‘विनीताजी के पति की प्रथम पत्नी का एक पुत्र उन के साथ रहता है, जिसे उन्होंने मां की ममता दे कर बड़ा किया है. इतनी बड़ी फर्म, दौलत, प्रसिद्धि सबकुछ विनीताजी के अटूट परिश्रम का सुखद परिणाम है.’’

अचानक मेरे मन में खयाल आया, ‘विनीता की गुप्त बातों की जानकारी संदीप को कैसे हो गई? कब और कैसे दोनों के बीच इतनी अधिक घनिष्ठता हो गई कि वे दोनों यौन संबंधों पर भी चर्चा करने लगे.’

मैं ने इस विषय में संदीप से प्रश्न किया तो वह झेंप कर खामोश हो गए.

मेरे अंतर में संदेह का कीड़ा कुलबुला उठा था. मुझे लगने लगा कि विनीता अकारण ही हम लोगों से आत्मीयता नहीं दिखलाती हैं. वह हमारे बच्चों पर खर्च कर के हमारे घर में अपना स्थान बनाना चाहती हैं. कोई ऐसे ही तो किसी को हजारों का कर्जा नहीं दिलवा सकता. इन सब का कारण संदीप के प्रति उन का आकर्षण भी तो हो सकता है.

संदीप 50 वर्ष के होने पर भी स्वस्थ, सुंदर थे. शरीर सौष्ठव के कारण अपनी आयु से कई वर्ष छोटे दिखते थे. किसी समआयु की महिला का उन की ओर आकर्षित हो जाना आश्चर्य की बात नहीं थी.

मैं सोचने लगी, ‘विनीता जैसी सुंदर महिला एक अपाहिज आदमी के साथ संतुष्ट रह भी कैसे सकती है?’ मुझे अपना घर उजड़ता हुआ लगने लगा था.

अब जब भी विनीता मेरे घर आतीं, मेरा मन उन के प्रति कड़वाहट से भर उठता था. उन की मधुर मुसकराहट के पीछे छलकपट दिखाई देने लगता. ऐसा लगता जैसे विनीता अपनी दौलत के कुछ सिक्के मेरी झोली में डाल कर मुझ से मेरी खुशियां और मेरा पति खरीद रही हैं. मुझे विनीता, उन की लाई गई वस्तुओं और उन की दौलत से नफरत होती चली गई.

मैं ने उन के दफ्तर जाना बंद कर दिया. वह मेरे घर आतीं तो मैं बीमारी या व्यस्तता का बहाना बना कर उन्हें टालने का प्रयास करने लगती थी. मेरे बच्चे और संदीप उन के आते ही उन की आवभगत में जुटने लगते थे. यह सब देख मुझे बेहद बुरा लगने लगता था.

मैं विनीता के जाने के पश्चात बच्चों को डांटने लगती, ‘‘तुम सब लालची प्रवृत्ति के क्यों बनते जा रहे हो? क्यों स्वीकार करते हो इन के लाए उपहार? इन से इतनी अधिक घनिष्ठता किसलिए? कौन हैं यह हमारी? मकान बन जाएगा, फिर हमारा और इन का रिश्ता ही क्या रह जाएगा?’’

बच्चे सहम कर मेरा मुंह देखते रह जाते क्योंकि अभी तक मैं ने उन्हें अतिथियों का सम्मान करना ही सिखाया था. विनीता के प्रति मेरी उपेक्षा को कोई नहीं समझ पाता था. सभी  मेरी मनोदशा से अनभिज्ञ थे. मकान के किसी कार्यवश जब भी संदीप मुझ से विनीता के दफ्तर चलने को कहते, मैं मना कर देती. वह अकेले चले जाते तो मैं मन ही मन कुढ़ती रहती, लेकिन ऊपर से शांत बनी रहती थी.

मैं संदीप को विनीता के यहां जाने से नहीं रोकती थी. सोचती, ‘मर्दों पर प्रतिबंध लगाना क्या आसान काम है? पूरा दिन घर से बाहर बिताते हैं. कोई पत्नी आखिर पति का पीछा कहां तक कर सकती है?’

मेरे मनोभावों से बेखबर संदीप जबतब विनीता की प्रशंसा करने बैठ जाते. अकसर कहते, ‘‘विनीताजी से मुलाकात नहीं हुई होती तो हमारा मकान इतनी जल्दी नहीं बन पाता.’’

कभी कहते, ‘‘विनीताजी दिनरात परिश्रम कर के हमारा मकान इस प्रकार बनवा रही हैं जैसे वह उन का अपना ही मकान हो.’’

कभी ऐसा भी हो जाता कि विनीता अपने किसी निजी कार्यवश संदीप को कार में बैठा कर कहीं ले जातीं. संदीप घंटों के पश्चात प्रसन्न मुद्रा में वापस लौटते और बताते कि वह किसी बड़े होटल में विनीता के साथ भोजन कर के आ रहे हैं.

मेरे अंदर की औरत यह सब सहन नहीं कर पा रही थी. मैं यह सोच कर ईर्ष्या से जलतीभुनती रहती कि विनीता की खूबसूरती ने संदीप के मन को बांध लिया है. अब उन्हें मैं फीकी लगने लगी हूं. उन के मन में मेरा स्थान विनीता लेती जा रही है.

कभी मैं क्षुब्ध हो कर सोचने लगती, इस शहर में मकान बनवाने से मेरा जीवन ही नीरस हो गया. एक शहर में रहते हुए संदीप और विनीता का साथ कभी नहीं छूट पाएगा. अब संदीप मुझे पहले की भांति कभी प्यार नहीं दे पाएंगे. विनीता अदृश्य रूप से मेरी सौत बन चुकी है, हो सकता है दोनों हमबिस्तर हो चुके हों. आखिर होटलों में जाने का और मकसद भी क्या हो सकता है?’

हमारा मकान पूरा बन गया तो मुहूर्त्त करने के पश्चात हम अपने घर में आ कर रहने लगे.

विनीता का आनाजाना और संदीप के साथ घुलमिल कर बातें करना कम नहीं हो पाया था.

एक दिन मेरे मन का आक्रोश जबान पर फूट पड़ा, ‘‘अब इस औरत के यहां आनाजाना बंद क्यों नहीं कर देते? मकान कभी का बन कर पूरा हो चुका है, अब इस फालतू मेलजोल का समापन हो जाना ही बेहतर है.’’

‘‘कैसी स्वार्थियों जैसी बातें करने लगी हो. विनीताजी ने हमारी कितनी सहायता की थी, अब हम उन का तिरस्कार कर दें, क्या यह अच्छा लगता है?’’

‘‘तब क्या जीवन भर उसे गले से लगाए रहोगे.’’

‘‘तुम्हें जलन होती है उस की खूबसूरती से,’’ संदीप मेरे क्रोध की परवा न कर के मुसकराते रहे. फिर लापरवाही से बाहर चले गए.

क्रोध और उत्तेजना से मैं कांप रही थी. जी चाह रहा था कि अभी जा कर उस आवारा, चरित्रहीन औरत का मुंह नोच डालूं.

अपने अपाहिज पति की आंखों में धूल झोंक कर पराए मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती है. अब तक न मालूम कितने पुरुषों के साथ मुंह काला कर चुकी होगी.

मुझे उस अपरिचित अनदेखे व्यक्ति से गहरी सहानुभूति होने लगी, जिस की पत्नी बन कर विनीता उस के प्रति विश्वासघात कर रही थी.

मैं सोचने लगी, ‘अगर यह कांटा अभी से उखाड़ कर नहीं फेंका गया तो मेरा मन जख्मी हो कर लहूलुहान हो जाएगा. इस से पहले कि मामला और आगे बढ़े मुझे विनीता के पति के पास जा कर सबकुछ साफसाफ बता देना चाहिए कि वे अपनी बदचलन पत्नी के ऊपर अंकुश लगाना शुरू कर दें. वह दूसरों के घर उजाड़ती फिरती है.’

उन के घर का पता मुझे मालूम था. एक बार मैं संदीप के साथ घर के बाहर तक जा चुकी थी. उस वक्त विनीता घर पर नहीं थीं. नौकर के बताने पर हम बाहर से ही लौट आए थे.

घर के सभी काम बच्चों पर छोड़ कर मैं विनीता के घर जाने के लिए तैयार हो गई. एक रिकशे में बैठ कर मैं उन के घर पहुंच गई.

विनीता घर में नहीं थीं. नौकर से साहब का कमरा पूछ कर मैं दनदनाती हुई सीढि़यां चढ़ कर ऊपर पहुंची.

नौकर ने कमरे के अंदर जा कर साहब को मेरे आगमन की सूचना दे दी. फिर मुझे अंदर जाने का इशारा कर के वह किसी काम में लग गया.

महाकुंभ

लेखक डा. प्रत्यूष गुलेरी

सोमवती अमावस्या पर हरिद्वार में महाकुंभ स्नान की बात श्रीकर टाल नहीं पाया. पत्नी ने जो दलील दी वह कुछ इस तरह थी, ‘कुसुम कह रही हैं यह शाही स्नान 714 वर्षों बाद आ रहा है. यह जीवन तो संयोगों का मेला है. आप चल पड़ो तो ठीक है वरना हम तो जाने वाली हैं.’

सोमवती अमावस्या पर देशविदेश के शीर्ष महंतों, संतों, साधुओं के स्नान से पूर्व कुसुम चाहती हैं कि वे इस से पहले संक्रांति स्नान और अमावस्या के बाद पहला नवरात्र स्नान भी कर लें तो जीवन का महापुण्य कमा लेंगी. श्रीमती ने अपनी अगली बात भी श्रीकर से स्वीकार करवा ली.

संक्रांति से पूर्व वे हरिद्वार पहुंच गए. कनखल बाईपास में एक होटल बुक था. गंगा की हर की पौड़ी यहां से

4 किलोमीटर दूर थी. भीड़ को देखते हुए सुबह 5 बजे स्नान के लिए जाने का निर्णय लिया गया.

श्रीकर ने पत्नी से कहा, ‘‘भीड़ के रेले के रेले पूरी रात से आते देख रहा हूं. लगता है सीधे रास्ते से सुबह पुलिस जाने नहीं देगी. तुम कुसुम, उन की बहन व भाभी को बता देना कि सुबह रिकशा, आटो कुछ भी नहीं मिलने वाला. पैदल ही चलना पड़ेगा 8-10 किलोमीटर. होटल वाले बता रहे थे ट्रैफिक पुलिस ने कुछ इस तरह से भीड़ को बांटा है ताकि कोई अनहोनी न घटे.

सुबह जब चले तो 3 घंटे का सफर  तय करने पर भी हर की पौड़ी नजर नहीं आ रही थी. बाईपास की सड़क से कई क्रौस, कई घाट, कई पुल पार कर लिए, तब कहीं उन्हें लगा कि अब हर की पौड़ी के पास पहुंच गए हैं. लग रहा था कि पूरा हिंदुस्तान यहीं उमड़ पड़ा है महाकुंभ स्नान के लिए. शाही स्नान पर नहाना मिले या नहीं, सब आज के ही दिन संक्रांति का पुण्य कमा लेना चाह रहे थे.

बहुत देर तक गंगा में डुबकी लगाने का मौका नहीं मिल रहा था. सुरक्षाकर्मी जबरदस्ती दोचार डुबकियों के बाद लोगों को बाहर खींच रहे थे, ‘चलो, चलो, औरों को भी स्नान करना है.’

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ट्रैफिक पुलिस आनेजाने वालों को उन की दिशाओं की ओर धकेल रही थी.

हमारा वापसी का सफर भी लंबा था. हम जिस रास्ते से आए थे उसी से वापस मुड़ना था. रास्ते में छोटेबड़े सब पूछते मिल रहे थे, ‘हर की पौड़ी अभी और कितनी दूर है?’

‘चलतेचलते, पहुंच ही जाओगे,’ इस उत्तर से दूरी स्वयं पता चल रही थी. श्रीकर से पत्नी ने कहा, ‘सुनते हो जी, कुसुम, उन की बहन, भाभी से पैदल चलना मुश्किल हो गया है.’

‘‘तो अब क्या करूं? आटो या रिकशा कहीं दिख रहा है तो बताओ. जहां से मिलेगा, बैठा दूंगा. अभी पैदल ही चलना पड़ेगा.’’ जब श्रीकर की नजर कुसुम, बहन व भाभी पर पड़ी तो देखा उन के मुंह तपते सूरज से सुर्ख हो गए थे. वे सब हांफ भी रही थीं. उस ने चुटकी ली, ‘‘कुंभ का पुण्य तो यों ही कमाया जाता है, क्यों भाभीजी? लो, रिकशा भी आ गया.’’ उस ने आवाज दी रिकशा वाले को, ‘‘रिकशा, कनखल बाईपास रोड, होटल जाह्नवी चलना है, चलोगे?’’

‘‘हां बाबूजी, 200 रुपया लगेगा. पहले ही बता देता हूं,’’ रिकशे वाला बोला, ‘‘बाबूजी, आप पीछे की तरफ बैठो और ये तीनों माताएं आगे की तरफ.’’

श्रीकर पीछे बैठ कर अपनेआप को एडजस्ट कर ही रहा था कि उस ने पीछे देखा तो रिकशे वाला 2 और औरतों से बात कर रहा था.

‘‘क्या हो गया? अभी तो आप ने खुद 200 रुपए कहे.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मुझे 2 सवारियां 500 रुपया दे रही हैं. मुझे नहीं जाना है आप के साथ, मजबूर हूं.’’

‘‘यह तो बहुत गलत बात है,’’ श्रीकर ने कहा.

अब बोलने की बारी श्रीमती श्रीकर की थी, ‘‘ऐ रिकशे वाले, तेरा कोई ईमान है, जमीर भी बेच दिया क्या?’’

रिकशा वाला चुप था. कुसुम, बहन व भाभी एकसाथ लाल होती बोलीं, ‘‘मौका देख कर नीयत बदल गई रे. कुंभ स्नान पर छोकरे ऐसा कर रहा है.’’

‘‘मुझे भी तो कुंभ कमाना है, इतने बरसों बाद जो आया है.’’

‘‘महाकुंभ कमाना, महाकुंभ नहाना महापुण्य है, बेटा, पर यह तो पैसे की चमक है. पैसा फेंको और तमाशा देखो,’’ श्रीकर ने कहा और रिकशे पर बैठी सवारियां झेंप रही थीं.

अगले ही क्षण रिकशे वाला हवा हो गया. द्य यह भी खूब रही मैंमार्केट गई थी, डस्टबिन के पास सड़क पर खाने का सामान पड़ा था. ट्रैफिक पुलिस का एक सिपाही चौराहे पर ड्यूटी पर था. एक विक्षिप्त लड़का काफी देर से खाने का सामान जुटा रहा था. सिपाही उसे फटकार कर भगा रहा था. पुलिस वाला डंडा भी चला रहा था, लेकिन वह लड़का हट नहीं रहा था. वह अपने खाने के जुगाड़ में लगा था.

जैसे ही उस पुलिस वाले ने उसे जोर से डंडा मारा, एकाएक उस ने डस्टबिन से उठाए चावलदाल को उस के मुंह पर फेंक दिया. पुलिस वाले के पूरे चेहरे पर दालचावल चिपक गए. वह शर्मसार हो गया. आसपास के लोग यह देख जोरजोर से हंसने लगे.

मैं भी देख कर ठहर गई और यह सीख मिली कि कभी भी किसी पर अनावश्यक रोब नहीं दिखाना चाहिए.

मायारानी श्रीवास्तव

सुबह के समय पतिपत्नी आपस में

झगड़ रहे थे. इस दौरान पत्नी पति को गालियां देने लगी. पति ने आव देखा न ताव, एक डंडा ले कर उसे मारने के लिए दौड़ा. एक व्यक्ति दूर खड़ा यह सब देख रहा था. वह उस औरत के पति को डांटने लगा और उस के हाथ से डंडा छीन कर धमकाने लगा कि अगर आगे बढ़े तो मैं तुम्हें मारने लगूंगा.

उस की पत्नी ने जब यह देखा, तो वह उलटे उसी आदमी को डांटने लगी, ‘‘खबरदार, जो मेरे पति पर तुम ने हाथ उठाया, तुम कौन होते हो मेरे पति को धमकाने वाले?’’ उस औरत की यह बात सुन कर वह व्यक्ति हक्काबक्का रह गया.   कैलाश राम

मैं अपने पति के साथ अपनी बहन के घर बेंगलुरु गई. वहां से हम सब मैसूर घूमने गए. मैसूर से बेंगलुरु लौटते वक्त रात हो गई तो मेरे बहनोई ने घर फोन कर के अपनी आया से सब का खाना बनाने को कह दिया.

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थोड़ी देर में उन्होंने फिर फोन कर के आया से कहा, ‘‘तुम पास की दुकान से वैनिला आइसक्रीम भी ले आना. उसे बारबार समझाने के बाद भी वह वैनिला नाम बोल ही नहीं पा रही थी. अंत में मेरे बहनोई ने उस से कहा, ‘‘तुम बहन बोल सकती हो न. आइसक्रीम वाले से जा कर कहना, ‘मुझे बहन ला आइसक्रीम चाहिए.’ वह दे देगा.’’ जब हम लोग पहुंचे तो देखा कि वह आइसक्रीम ले भी आई थी.

रश्मि जैन

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