यादों के नश्तर: क्या मां से दूर हो पाई सियोना

सियोना का मोबाइल काफी देर से बज रहा था. वह  जानबूझ कर अपनी मां के फोन को इग्नोर कर रही थी. बारबार फोन कटता और फिर से उस की मां उसे कौल करतीं. लेकिन शायद वह फैसला कर चुकी थी कि आज फोन नहीं उठाएगी. मगर उस की मां थीं कि बारबार फोन मिलाए जा रही थीं. हार कर उस ने मोबाइल बंद कर दिया और लैपटौप औन कर अपने ब्लौग पर कुछ नया टाइप करने लगी.

डायरी से शुरू हुआ सफर अब ब्लौग का रूप ले चुका था. अपने फैंस के कमैंट पढ़ कर सियोना एक पल को मुसकरा उठती पर दूसरे ही पल उस की आंखें नम भी हो जातीं.

ऐसा आज पहली बार नहीं हुआ था. सियोना अकसर अपनी मां का फोन आते देख विचलित हो उठती. उस के मन में गुस्से का ज्वार अपने चरम पर होता और वह मां का फोन इग्नोर कर देती. यदि कभी फोन उठाती भी तो नपेतुले शब्दों में बात करती और फिर मैं बिजी हूं कह कर फोन काट देती.

सियोना की मां एकाकी जीवन जी रही थीं. पिताजी तो अपने दफ्तर के काम में अति व्यस्त रहते. कभीकभार अपनी बेटी के लिए समय निकाल कर उस से बात करते या यों कहें कि अपनी बेटी के बारे में जानकारी लेते.

सौफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाली सियोना चेहरे से आकर्षक, बोलने में बहुत सभ्य थी, लेकिन उस के व्यवहार में कुछ कमियां उसे दूसरों से कमतर ही रखतीं. न तो वह किसी से खुल कर बात कर पाती और न ही किसी को अपने करीब आने देती. अपनेआप को खुद में समेटे बहुत अकेली सी थी. बस ब्लौग ही उस का एकमात्र सहारा था जहां वह अपने दर्द को शब्दों में ढाल देती.

आज सुबह जब सियोना उठी तो व्हाट्सऐप पर मां का मैसेज था कि सियोना तुम्हें कितने फोन किए. उठाती क्यों नहीं? फिर फोन बंद आने लगा… क्या बात है बेटी?

संदेश पढ़ कर उस के होंठों पर कुटिल मुसकान तैर गई. फिर धीरे से

बुदबुदाई कि अब तुम्हें मेरी याद सताने लगी मां जब मैं ने खुद को अपने अंदर समेट लिया है.

तभी उस के पिताजी का फोन आया. बोली, ‘‘जी पापा, कहिए कैसे हैं?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं बेटी पर तुम्हारी मां बहुत परेशान हो रही है… तुम से बात करना चाहती है. कहती है कि तुम फोन नहीं उठा रही सो मैं ने अपने फोन से तुम्हारा नंबर डायल कर के देखा… लो अपनी मां से बात कर लो.’’

मजबूरन सियोना को मां से बात करनी पड़ी, ‘‘हां, बोलो मां क्या बात है? कहो किसलिए फोन कर रही थीं?’’

‘‘किसलिए? क्या मैं अपनी बेटी को बिना कारण फोन नहीं कर सकती?’’

सियोना को अपनी मां द्वारा उस पर हक जताने पर उलझन सी महसूस होने लगी थी. मन का कसैलापन उस के चेहरे पर साफ दिखने लगा था. उस के नथुने फूल गए थे और आंखों से अंगारे बरस रहे थे. कुछ सोच कर बोली, ‘‘क्या बात है आज कहीं बाहर जाने को नहीं मिला क्या? वह तुम्हारा सत्संग गु्रप क्या बंद है आजकल?’’

‘‘हां, वह तो धीरेधीरे छूट ही गया. घुटने में दर्द जो हो रहा है… अब कहां बाहर आनाजाना होता है… सारा दिन घर में अकेली पड़ी रहती हूं… अपने पापा को तो तू जानती ही है. पहले तो अपने दफ्तर के काम में व्यस्त रहते हैं और फिर उस के बाद अपनी किताबों में आंखें गड़ाए रहते हैं.’’

‘‘अच्छा अब और कुछ कहना है? मुझे दफ्तर जाने को देर हो रही है. नईर् नौकरी है न बहुत सोच कर चलना पड़ता है,’’ सियोना बोली.

‘‘कहां बेटी तू दूसरे शहर चली गई… यहीं रहती हमारे पास तो अच्छा रहता… इतना बड़ा घर काटने को दौड़ता है… कामवाली सफाई कर देती है, कुक 3 समय का खाना एकसाथ ही नाश्ते के समय बना देती है. ठंडा खाना फ्रिज से निकाल कर माइक्रोवैव में गरम करती हूं, न कोई स्वाद न कोईर् नई रैसिपी. बस वही एक ही तरह की दाल रोज बना देती है. तड़के में प्याज नहीं डालती. बस दाल के साथ उबाल देती है. ऐसा लगता है अब जीवन यहीं समाप्त हो गया है… तू रहती तो कम से कम कामवाली से काम तो करवा लेती.’’

‘‘हां मां समझती हूं तुम्हें बेटी नहीं, अभी भी एक टाइमपास और जरूरत पूरा करने वाला जिन्न चाहिए जो जैसा तुम कहो करे, जहां तुम कहो तुम्हें ले जाए और जब तुम चाहो तुम्हारे सामने मुंह खोले,’’ कहतेकहते उस की आंखें नम हो आईं और फिर उस ने फोन काट दिया.

दफ्तर पहुंच अपने काम में जुट गई. हां, दफ्तर में उस के बौस उस से हमेशा खुश रहते. काम की कीड़ा जो है वह… जब तक पूरा न कर ले चैन की सांस नहीं लेती. कई बार तो टी ब्रेक और लंच टाइम में भी अपने लैपटौप में घुसी रहती है. आज भी उस की नजरें तो लैपटौप में ही गड़ी थीं, लेकिन दिमाग पुरानी स्मृतियों में खोया था. हर वाकेआ उस की निगाहों के आगे ऐसे तैर रहा था जैसे अभी की बात हो… कहां भूल पाती है वह एक पल को भी हर उलाहने, हर बेइज्जती को…

जब सियोना मात्र 10 साल की थी तो एक सहेली के जन्मदिन की पार्टी में गई. सब सहेलियां सजधज कर पहुंचीं. स्कूल में 2 चोटियां करने वाली सारा ने आज बाल धो कर खोले हुए थे. सभी कह रहे थे कि तुम्हारे बाल कितने सिल्की और शाइनी हैं… बिलकुल स्ट्रेट, सामने से कटी फ्रिज कितनी सुंदर लग रही है. ऊपर से तुम्हारा गुलाबी फ्रौक, तुम बेबी लग रही हो. सब के साथ सियोना को भी यही एहसास हुआ था. किंतु वह स्वयं तो अपने कपड़ों के बटन भी ठीक से नहीं लगा पाई थी.

क्या करती मां तो घर पर थीं नहीं… हर संडे उन का किसी न किसी के घर भजनसत्संग जो होता है… और बाल तो उस ने भी सुबह धोए थे. लंबे बाल शाम तक उलझ गए थे, जिन्हें ठीक करना उसे नहीं आता था. सो वह एक रबड़बैंड बांध कर ऐसे ही पार्टी में आ गई थी. आज उसे पहली बार अपनी मां की अनदेखी का एहसास हुआ था और शर्मिंदगी भी.

जिस लड़की के जन्मदिन की पार्टी थी उस की मां ने पार्टी में थोड़ा खाना भी हाथ से बनाया था, केक भी स्वयं बेक किया था. केक इतना स्वादिष्ठ था कि देखते ही सभी उस पर जैसे लपक पड़े थे. उस की मां के हाथ के बनाए खाने की भी सब तारीफ कर रहे थे और केक से तो जैसे मन ही नहीं भर रहा था.

सियोना को अपने जन्मदिन की याद हो आई जब उस की मां ने सारी सहेलियों को बुला कर बाजार से लाया केक काटा और बाजार के बौक्स में पैक्ड खाना सब को हाथ में दिया और कहा घर जा कर खा लेना. इस बात को पहले तो वह समझ नहीं थी, किंतु अब उसे एहसास हुआ था कि उस की सहेली की मां ने कितने शौक से अपनी बेटी के जन्मदिन की तैयारी की थी. वह स्वयं भी उस की मां के बनाए खाने को खा कर उंगलियां चाटती रह गई थी और फिर पार्टी के अंत में अपनी सहेली की मां से बोली, ‘‘आंटी, क्या मैं घर के लिए भी खाना ले जा सकती हूं?’’

वह मासूम नहीं समझती थी कि यह समाज की नजर में एक व्यावहारिक दोष है, पेटभर खाना खाने के बाद भी वह मांग रही है. उस की सहेली की मां ने उसे घर के लिए खाना तो दिया, किंतु अगले दिन उस की सहेलियां उस की खिल्ली उड़ा रही थीं कि यह खाना मांग कर ले जाती है और वह जवाब में कुछ न बोल पाई. बस मन मसोस कर रह गई. कैसे बताती वह सब को कि उस के घर में तो कुक ही खाना बनाती है. सो वह स्वादिष्ठ खाने को देख अपनेआप को रोक न पाई.

उस की मां तो सहेलियों के साथ कभी इस तीर्थ पर जातीं, तो कभी उस तीर्थ पर. कभी उस पंडे की कथा सुनने 10 दिनों तक बनठन कर जाने का समय हमेशा रहता था जहां नाचना और भरपूर खाना होता था पर बेटी के लिए समय नहीं होता.

4-5 दिन पहले ही फिर उस की मां का फोन आया. उस ने न चाहते हुए भी फोन उठाया, क्योंकि वह जानती थी कि यदि उस ने मां से बात न की तो पिताजी जरूर फोन करेंगे.

फोन उठाते ही मां कहने लगीं, ‘‘मन नहीं लगता सारा दिन घर में पड़ेपड़े.’’

‘‘क्यों मां तुम्हारे पास तो स्मार्ट फोन है… अपनी सहेलियों से वीडियो कौल कर लिया करो… तुम्हें उन के दर्शन हो जाएंगे और उन्हें तुम्हारे या कभी उन्हें घर ही बुला लिया करो… अब तुम तो चलफिर नहीं सकतीं.’’

‘‘किसे कर लूं फोन? सब की सब अपने परिवारों में मस्त हैं. किसी के बेटीदामाद अमेरिका से आए हैं, तो कोई अपने पोते से मिलने बेटे के घर गई है. जो थोड़ी जवान औरतें हैं वे अपने बच्चों में व्यस्त हैं. किसी को फुरसत नहीं मेरे लिए… तेरे पापा भी अब तो दूरदूर रहते हैं. कुछ बोलती हूं तो कहते हैं भजन लगा देता हूं म्यूजिक सिस्टम में या फिर टीवी देख लो… कोई पास बैठ कर बात नहीं करना चाहता.’’

‘‘अच्छा मां मैं फोन रखती हूं हमारे बौस का तबादला दूसरे शहर में हो रहा है. सभी को मिल कर उन की फेयरवैल पार्टी की तैयारी करनी है,’’ कह उस ने फोन काट दिया और अपने बौस के लिए गिफ्ट लेने बाजार निकल गई.

रिकशे में बैठेबैठे उसे फिर अपने अतीत का एक नश्तर चुभ गया… जब वह 12 साल की थी. उस की एक सहेली के पिताजी का तबादला हुआ था और वह सपरिवार पुणे जा रही थी. सभी सहेलियों को मिल कर उस के लिए स्नैक्स लाने थे. उस सहेली को जो गिफ्ट देना चाहे वह गिफ्ट भी ले जा सकती थी.

शाम 5 बजे का समय तय कर सभी लौन में पहुंचने वाले थे कि अचानक मौसम बदला और बारिश आ गई. एक सहेली की मां ने सलाह दी कि उस के घर में पार्टी कर लो वरना तुम्हारा सारा मजा किरकिरा हो जाएगा. सारी सहेलियां उस के घर पहुंच अपनाअपना स्नैक्स एकदूसरे को दिखा रही थीं. जब सियोना की सहेली ने उस से पूछा कि तुम क्या लाई हो तो उस का जवाब था, ‘‘मेरे घर में कुछ था ही नहीं तो मैं क्या लाती?’’

तभी दूसरी सहेली आई और बोली, ‘‘मैं बाहर सुपर मार्केट से कुछ स्नैक्स ले कर आती हूं. सियोना तुम भी सुपर मार्केट से ले आओ स्नैक्स.’’

सियोना ने मां से फोन पर बात की तो मां ने कहा, ‘‘बिस्कुट रखे हैं घर में ले जाओ.’’

‘‘मां, जब घर में कुछ था तो मुझे खाली हाथ क्यों भेज दिया तुम ने? क्यों किसी न किसी तरह मुझे दूसरों के सामने नीचा दिखाती हो मां,’’ और गिफ्ट तो कुछ ले कर ही नहीं गई थी वह अपनी सहेली के लिए. जब फेयरवैल पार्टी कर सब ने उसे गिफ्ट दिया तो वह खाली हाथ थी. बस सब को गिफ्ट देते देखती रही.

सियोना की समझ में नहीं आता कि आखिर ऐसा क्यों करती थीं मां. वे गरीब तो नहीं थे… पिताजी की अच्छी आमदनी थी. घर में कुक और कामवाली तो तब भी आती थीं. मां स्वयं सोशल सर्किल मैंटेन करती थीं, लेकिन उस के बारे में कभी क्यों न सोचा? न जाने उस के रहनसहन और मूर्खताभरे व्यवहार के चलते लोग उस के बारे में क्या बातें बनाते होंगे… कभीकभी तो ऐसा लगता जैसे सारी सहेलियां उसे इग्नोर करने लगी हैं… सब एकसाथ खेलतीं पर कई बार उसे बताया भी न जाता कि सब किस के घर खेलेंगी. वह सब को इंटरकौम करती तब कहीं जा कर उसे कुछ मालूम होता.

अगली सुबह 6 बजे ही मां का फोन आया. सियोना ने नींद से जाग कर देखा और फिर से चादर ओढ़ कर सो गई. फिर जब वह जागी तो देखा मां का मैसेज था कि बेटी, मैं तुम से मिलने आ रही हूं. तुम्हारे पिताजी को बोला है कि मुझे सियोना के पास छोड़ आओ… कुछ दिन तुम्हारे साथ रहूंगी तो जी बहल जाएगा.

अब तो सियोना का गुस्सा 7वें आसमान पर था कि मां तुम मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़तीं… वह बड़बड़ाते हुए नहाधो कर दफ्तर पहुंची. लैपटौप औन किया और काम में लग गई. किंतु आज कहां काम में मन लगने वाला था. दिमाग में तो जैसे कोई हथौड़े मार रहा था. उस का सिर चकराने लगा था. उस ने बैग से सिरदर्द की दवा निकाली और पानी के साथ गटक ली.

अब मां को आने को तो मना नहीं कर सकती. कुछ दिन बाद मां उस के घर आ पहुंची थी. मां के आते ही उस का रूटीन बिगड़ गया. सियोना उन्हें समय पर नाश्ताखाना दे देती, किंतु बात कम ही करती. उस की मां उस के आगेपीछे घूमतीं तो वह कह देती, ‘‘मां क्यों हर वक्त मुझे डिस्टर्ब करती हो… लेट कर आराम करो वरना तुम्हारे घुटने का दर्द बढ़ जाएगा.’’

जैसे ही वह दफ्तर से आती उस की मां चाय की रट लगा देतीं. जब तक वह हाथमुंह धो कर आती तब तक तो उस की मां का स्वर तेज हो चुका होता, ‘‘अरे, पूरा दिन अकेली पड़ी रहती हूं बेटी… अब तो तू चाय बना कर मेरे पास आ जा 2 घड़ी के लिए.’’

‘‘मां तुम भी न बस क्या कहूं… तुम्हें तो चौबीसों घंटे की नौकरानी चाहिए… मुझ से कोई लेनादेना नहीं तुम्हें.’’

‘‘कैसी बातें करती है तू… भला मां को चाय बना कर देने से कोई

नौकरानी हो जाती है… तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया है मैं ने तो क्या इतना भी हक नहीं कि तुम से चाय बनवा लूं?’’

‘‘हूं… तो मुझे हिसाब चुकता करना है तुम्हारा… तुम ने मुझे पैदा किया, लेकिन सही परवरिश नहीं दी मां.’’

‘‘अरे, कैसी बातें करती हो… सारा दिन अकेले पड़ेपड़े मेरी पीठ थक जाती है… जरा कुछ बोलती हूं तो तू काटने को दौड़ती है.’’

‘‘तो मां बाहर खुली जगह में थोड़ा टहल आया करो.’’

अगले दिन जब सियोना दफ्तर से आई तो टेबल पर चाय के कप लुढ़के पड़े थे. रसोई में स्लैब पर चायपत्ती व चीनी बिखरी थी और चींटियां घूम रही थीं. बिस्कुट का डब्बा भी खुला पड़ा था.

सियोना रसोई से ही चीखी, ‘‘मां, आज घर में कोई आया था क्या मेरे पीछे से?’’

‘‘चीखती क्यों है, यहीं बाहर एक सहेली बनी थी कल… मैं ने उसे आज घर बुला लिया. सारा दिन घर पर पड़े बोर होती हूं. तु?ो तो मेरे लिए फुरसत नहीं. किसी से थोड़ा बोलचाल लूं तो मन हलका हो जाता है.’’

‘‘मां अपना बोलनाचालना बाहर तक ही सीमित रखो. रसोई का कितना बुरा हाल किया है… घर में मिट्टी ही मिट्टी हो रही है. सहेली से बोल देतीं कि चप्पलें बाहर ही खोले.’’

‘‘उफ, तुम्हारे घर क्या आई तू तो बड़ा एहसान दिखा रही है मुझ पर जैसे मैं तो तेरी कुछ लगती ही नहीं… क्या तुम्हारी पहचान के लोग नहीं आते घर पर?’’

‘‘नहीं आते मां, मुझे आदत नहीं किसी को घर बुलाने की. तुम ने क्या कभी मुझे अपनी सहेलियों को घर बुलाने दिया था? तुम हमेशा कह देतीं कि घर गंदा हो जाता है जब तुम्हारी सहेलियां आती हैं. सारा सामान इधरउधर कर देती हैं. बारिश और गरमियों के दिनों में मैं अकेली घर पर पड़ी रहती थी. तुम तो सत्संग और मंदिरों के फेरे लगाने में व्यस्त रहीं और मैं सदा घर पर अकेली. बाहर तुम नहीं निकलने देतीं और यदि किसी को बुलाना चाहती तो तुम सदा ही टोक दिया करतीं.’’

‘‘हद हो गई… कब की बातें मन में लिए बैठी है… मुझे तो ये सब याद भी नहीं.’’

‘‘पर मैं भूलने वाली नहीं मां. तुम्हारा दिया हर दंश अच्छी तरह याद है मुझे. न भरने वाले नासूर दिए हैं तुम ने मुझे.’’

तभी पिताजी का फोन आया तो बोली, ‘‘पापा, मां का वापसी का टिकट बुक करा दीजिए… मां यहां बोर हो रही हैं… मुझे तो समय नहीं मिलता…’’

‘‘हां बेटी, मैं स्वयं ही आ कर ले जाता हूं. मैं तो पहले ही जानता था कि वह तुम से ज्यादा दिन नहीं निभा पाएगी.’’

‘‘जातेजाते मां ने भरे मन से सियोना से कह दिया, ‘‘अब मैं तभी आऊंगी जब तू बुलाएगी.

‘‘अलविदा मां, मैं तुम्हें कभी नहीं बुलाऊंगी. तुम से पीछा छुड़ाने के लिए ही मैं ने नौकरी के लिए दूसरा शहर चुना पर तुम तो यहां भी मुझे चैन से नहीं रहने देती,’’ उस के नथुने फूले हुए थे और मन ही मन सोच रही थी कि हो सका तो किसी दूसरे देश में नौकरी ढूंढ़ेगी मां ताकि तुम से छुटकारा मिल सके. तुम्हारे दिए घाव न जाने क्यों भरते ही नहीं मां. काश, तुम मुझे जन्म ही न देतीं और फिर भरे मन से दफ्तर रवाना हो गई.

आज लैपटौप खोलते ही सब से पहले उस ने मां को फेसबुक पर ब्लौक किया. उस के बाद फोन उठाया और व्हाट्सऐप पर भी ब्लौक कर दिया… एक गहरी सांस ले कर काम में जुट गई. द्य

रश्मि : बलविंदर के लालच ने ली रश्मि की जान

लेखक- मुन्ना कुमार सिंह

सुबह के 7 बजे थे. गाडि़यां सड़क पर सरपट दौड़ रही थीं. ट्रैफिक इंस्पैक्टर बलविंदर सिंह सड़क के किनारे एक फुटओवर ब्रिज के नीचे अपने साथी हवलदार मनीष के साथ कुरसी पर बैठा हुआ था. उस की नाइट ड्यूटी खत्म होने वाली थी और वह अपनी जगह नए इंस्पैक्टर के आने का इंतजार कर रहा था.

बलविंदर सिंह ने हाथमुंह धोया और मनीष से बोला, ‘‘भाई, चाय पिलवा दो.’’

मनीष उठा और सड़क किनारे एक रेहड़ी वाले को चाय की बोल कर वापस आ गया. तुरंत ही चाय भी आ गई. दोनों चाय पीते हुए बातें करने लगे.

बलविंदर सिंह ने कहा, ‘‘अरे भाई, रातभर गाडि़यों के जितने चालान हुए हैं, जरा उस का हिसाब मिला लेते.’’

मनीष बोला, ‘‘जनाब, मैं ने पूरा हिसाब पहले ही मिला लिया है.’’

इसी बीच बलविंदर सिंह के मोबाइल फोन की घंटी बजी. वह बड़े मजाकिया अंदाज में फोन उठा कर बोला, ‘‘बस, निकल रहा हूं. मैडम, सुबहसुबह बड़ी फिक्र हो रही है…’’

अचानक बलविंदर सिंह के चेहरे का रंग उड़ गया. वह हकलाते हुए बोला, ‘‘मनीष… जल्दी चल. रश्मि का ऐक्सिडैंट हो गया है.’’

दोनों अपनाअपना हैलमैट पहन तेजी से मोटरसाइकिल से चल दिए.

दरअसल, रश्मि बलविंदर सिंह की 6 साल की एकलौती बेटी थी. उस के ऐक्सिडैंट की बात सुन कर वह परेशान हो गया था. उस के दिमाग में बुरे खयाल आ रहे थे और सामने रश्मि की तसवीर घूम रही थी.

बीच रास्ते में एक ट्रक खराब हो गया था, जिस के पीछे काफी लंबा ट्रैफिक जाम लगा हुआ था. बलविंदर सिंह में इतना सब्र कहां… मोटरसाइकिल का सायरन चालू किया, फुटपाथ पर मोटरसाइकिल चढ़ाई और तेजी से जाम से आगे निकल गया.

अगले 5 मिनट में वे दोनों उस जगह पर पहुंच गए, जहां ऐक्सिडैंट हुआ था.

बलविंदर सिंह ने जब वहां का सीन देखा, तो वह किसी अनजान डर से कांप उठा. एक सफेद रंग की गाड़ी आधी फुटपाथ पर चढ़ी हुई थी. गाड़ी के आगे के शीशे टूटे हुए थे. एक पैर का छोटा सा जूता और पानी की लाल रंग की बोतल नीचे पड़ी थी. बोतल पिचक गई थी. ऐसा लग रहा था कि कुछ लोगों के पैरों से कुचल गई हो. वहां जमीन पर खून की कुछ बूंदें गिरी हुई थीं. कुछ राहगीरों ने उसे घेरा हुआ था.

बलविंदर सिंह भीड़ को चीरता हुआ अंदर पहुंचा और वहां के हालात देख सन्न रह गया. रश्मि जमीन पर खून से लथपथ बेसुध पड़ी हुई थी. उस की पत्नी नम्रता चुपचाप रश्मि को देख रही थी. नम्रता की आंखों में आंसू की एक बूंद नहीं थी.

बलविंदर सिंह के पैर नहीं संभले और वह वहीं रश्मि के पास लड़खड़ा कर घुटने के बल गिर गया. उस ने रश्मि को गोद में उठाने की कोशिश की, लेकिन रश्मि का शरीर तो बिलकुल ढीला पड़ चुका था.

बलविंदर सिंह को यह बात समझ में आ गई कि उस की लाड़ली इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी है. उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने उस का कलेजा निकाल लिया हो.

बलविंदर सिंह की आंखों के सामने रश्मि की पुरानी यादें घूमने लगीं. अगर वह रात के 2 बजे भी घर आता, तो रश्मि उठ बैठती, पापा के साथ उसे रोटी के दो निवाले जो खाने होते थे. वह तोतली जबान में कविताएं सुनाती, दिनभर की धमाचौकड़ी और मम्मी के साथ झगड़ों की बातें बताती, लेकिन अब वह शायद कभी नहीं बोलेगी. वह किस के साथ खेलेगा? किस को छेड़ेगा?

बलविंदर सिंह बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा. कोई है भी तो नहीं, जो उसे चुप करा सके. नम्रता वैसे ही पत्थर की तरह बुत बनी बैठी हुई थी.

हलवदार मनीष ने डरते हुए बलविंदर सिंह को आवाज लगाई, ‘‘सरजी, गाड़ी के ड्राइवर को लोगों ने पकड़ रखा है… वह उधर सामने है.’’

बलविंदर सिंह पागलों की तरह उस की तरफ झपटा, ‘‘कहां है?’’

बलविंदर सिंह की आंखों में खून उतर आया था. ऐसा लगा, जैसे वह ड्राइवर का खून कर देगा. ड्राइवर एक कोने में दुबका बैठा हुआ था. लोगों ने शायद उसे बुरी तरह से पीटा था. उस के चेहरे पर कई जगह चोट के निशान थे.

बलविंदर सिंह तकरीबन भागते हुए ड्राइवर की तरफ बढ़ा, लेकिन जैसेजैसे वह ड्राइवर के पास आया, उस की चाल और त्योरियां धीमी होती गईं. हवलदार मनीष वहीं पास खड़ा था, लेकिन वह ड्राइवर को कुछ नहीं बोला.

बलविंदर सिंह ने बेदम हाथों से ड्राइवर का कौलर पकड़ा, ऐसा लग रहा था, जैसे वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा हो.

दरअसल, कुछ समय पहले ही बलविंदर सिंह का सामना इस शराबी ड्राइवर से हुआ था.

सुबह के 6 बजे थे. बलविंदर सिंह सड़क के किनारे उसी फुटओवर ब्रिज के नीचे कुरसी पर बैठा हुआ था. थोड़ी देर में मनीष एक ड्राइवर का हाथ पकड़ कर ले आया. ड्राइवर ने शराब पी रखी थी और अभी एक मोटरसाइकिल वाले को टक्कर मार दी थी.

मोटरसाइकिल वाले की पैंट घुटने के पास फटी हुई थी और वहां से थोड़ा खून भी निकल रहा था.

बलविंदर सिंह ने ड्राइवर को एक जोरदार थप्पड़ मारा था और चिल्लाया, ‘सुबहसुबह चढ़ा ली तू ने… दूर से ही बदबू मार रहा है.’

ड्राइवर गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘साहब, गलती हो गई. कल इतवार था. रात को दोस्तों के साथ थोड़ी पार्टी कर ली. ड्यूटी पर जाना है, घर जा रहा हूं. मेरी गलती नहीं है. यह एकाएक सामने आ गया.’

बलविंदर सिंह ने फिर थप्पड़ उठाया था, लेकिन मारा नहीं और जोर से चिल्लाया, ‘क्यों अभी इस की जान चली जाती और तू कहता है कि यह खुद से सामने आ गया. दारू तू ने पी रखी है, लेकिन गलती इस की है… सही है…मनीष, इस की गाड़ी जब्त करो और थाने ले चलो.’

ड्राइवर हाथ जोड़ते हुए बोला था, ‘साहब, मैं मानता हूं कि मेरी गलती है. मैं इस के इलाज का खर्चा देता हूं.’

ड्राइवर ने 5 सौ रुपए निकाल कर उस आदमी को दे दिए. बलविंदर सिंह ने फिर से उसे घमकाया भी, ‘बेटा, चालान तो तेरा होगा ही और लाइसैंस कैंसिल होगा… चल, लाइसैंस और गाड़ी के कागज दे.’

ड्राइवर फिर गिड़गिड़ाया था, ‘साहब, गरीब आदमी हूं. जाने दो,’ कहते हुए ड्राइवर ने 5 सौ के 2 नोट मोड़ कर धीरे से बलविंदर सिंह के हाथ पर रख दिए.

बलविंदर सिंह ने उस के हाथ में ही नोट गिन लिए और उस की त्योरियां थोड़ी कम हो गईं.

वह झूठमूठ का गुस्सा करते हुए बोला था, ‘इस बार तो छोड़ रहा हूं, लेकिन अगली बार ऐसे मिला, तो तेरा पक्का चालान होगा.’

ड्राइवर और मोटरसाइकिल सवार दोनों चले गए. बलविंदर सिंह और मनीष एकदूसरे को देख कर हंसने लगे. बलविंदर बोला, ‘सुबहसुबह चढ़ा कर आ गया.’

मनीष ने कहा, ‘जनाब, कोई बात नहीं. वह कुछ दे कर ही गया है.’

वे दोनों जोरजोर से हंसे थे.

अब बलविंदर सिंह को अपनी ही हंसी अपने कानों में गूंजती हुई सुनाई दे रही थी और उस ने ड्राइवर का कौलर छोड़ दिया. उस का सिर शर्म से झुका हुआ था.

बलविंदर और मनीष एकदूसरे की तरफ नहीं देख पा रहे थे. वहां खड़े लोगों को कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ है, क्यों इन्होंने ड्राइवर को छोड़ दिया.

मनीष ने पुलिस कंट्रोल रूम में एंबुलैंस को फोन कर दिया. थोड़ी देर में पीसीआर वैन और एंबुलैंस आ कर वहां खड़ी हो गई.

पुलिस वालों ने ड्राइवर को पकड़ कर पीसीआर वैन में बिठाया. ड्राइवर एकटक बलविंदर सिंह की तरफ देख रहा था, पर बलविंदर सिंह चुपचाप गरदन नीचे किए रश्मि की लाश के पास आ कर बैठ गया. उस के चेहरे से गुस्से का भाव गायब था और आत्मग्लानि से भरे हुए मन में तरहतरह के विचारों का बवंडर उठा, ‘काश, मैं ने ड्राइवर को रिश्वत ले कर छोड़ने के बजाय तत्काल जेल भेजा होता, तो इतना बड़ा नुकसान नहीं होता.’

तीसरी गलती : क्यों परेशान थी सुधा?

टूर पर जाने के लिए प्रिया ने सारी तैयारी कर ली थी. 2 बैग में सारा सामान भर लिया था. बेटी को पैकिंग करते देख सुधा ने पूछा, ‘‘इस बार कुछ ज्यादा सामान नहीं ले जा रही हो?’’

‘‘हां मां, ज्यादा तो है,’’ गंभीर स्वर में प्रिया ने कहा. अपने जुड़वां भाई अनिल, भाभी रेखा को बाय कह कर, उदास आंखों से मां को देखती हुई प्रिया निकल गई. 10 मिनट के बाद ही प्रिया ने सुधा को फोन किया, ‘‘मां, एक पत्र लिख कर आप की अलमारी में रख आई हूं. जब समय मिले, पढ़ लेना.’’ इतना कह कर प्रिया ने फोन काट दिया.

सुधा मन ही मन बहुत हैरान हुईं, उन्होंने चुपचाप कमरे में आ कर अलमारी में रखा पत्र उठाया और बैड पर बैठ कर पत्र खोल कर पढ़ने लगीं. जैसेजैसे पढ़ती जा रही थीं, चेहरे का रंग बदलता जा रहा था. पत्र में लिखा था, ‘मां, मैं मुंबई जा रही हूं लेकिन किसी टूर पर नहीं. मैं ने अपना ट्रांसफर आप के पास से, दिल्ली से, मुंबई करवा लिया है क्योंकि मेरे सब्र का बांध अब टूट चुका है. अभी तक तो मेरा कोई ठिकाना नहीं था, अब मैं आत्मनिर्भर हो चुकी हूं तो क्यों आप को अपना चेहरा दिखादिखा कर, आप की तीसरी गलती, हर समय महसूस करवाती रहूं. तीसरी गलती, आप के दिल में मेरा यही नाम हमेशा रहा है न. ‘इस दुनिया में आने का फैसला तो मेरे हाथ में नहीं था न. फिर आप क्यों मुझे हमेशा तीसरी गलती कहती रहीं. सुमन और मंजू दीदी को तो शायद उन के हिस्से का प्यार दे दिया आप ने. मेरी बड़ी बहनों के बाद भी आप को और पिताजी को बेटा चाहिए था तो इस में मेरा क्या कुसूर है? मेरी क्या गलती है? अनिल के साथ मैं जुड़वां हो कर इस दुनिया में आ गई. अपने इस अपराध की सजा मैं आज तक भुगत रही हूं. कितना दुखद होता है अनचाही संतान बन कर जीना.

‘आप सोच भी नहीं सकतीं कि तीसरी गलती के इन दो शब्दों ने मुझे हमेशा कितनी पीड़ा पहुंचाई है. जब से होश संभाला है, इधर से उधर भटकती रही हूं. सब के मुंह से यही सुनसुन कर बड़ी हुई हूं कि जरूरत अनिल की थी, यह तीसरी गलती कहां से आ गई. अनिल तो बेटा है. उसे तो हाथोंहाथ ही लिया जाता था. आप लोग हमेशा मुझे दुत्कारते ही रहे. मुझ से 10-12 साल बड़ी मेरी बहनों ने मेरी देखभाल न की होती तो पता नहीं मेरा क्या हाल होता. मेरी पढ़ाईलिखाई की जिम्मेदारी भी उन्होंने ही उठाई.

‘मेरी परेशानी तब और बढ़ गई जब दोनों का विवाह हो गया था. अब आप थीं, पिताजी थे और अनिल. वह तो गनीमत थी कि मेरा मन शुरू से पढ़ाईलिखाई में लगता था. शायद मेरे मन में बढ़ते अकेलेपन ने किताबों में पनाह पाई होगी. आज तक किताबें ही मेरी सब से अच्छी दोस्त हैं. दुख तब और बढ़ा जब पिताजी भी नहीं रहे. मुझे याद है मेरे स्कूल की हर छुट्टी में आप कभी मुझे मामा के यहां अकेली भेज देती थीं, कभी मौसी के यहां, कभी सुमन या मंजू दीदी के घर. हर जगह अकेली. हर छुट्टी में कभी इस के घर, कभी उस के घर. जबकि मुझे तो हमेशा आप के साथ ही रहने का दिल करता था. ‘कहींकहीं तो मैं बिलकुल ऐसी स्पष्ट, अनचाही मेहमान होती थी जिस से घर के कामों में खूब मदद ली जाती थी, कहींकहीं तो 14 साल की उम्र में भी मैं ने भरेपूरे घर का खाना बनाया है. कहीं ममेरे भाईबहन मुझे किचन के काम सौंप खेलने चले जाते, कहीं मौसी किचन में अपने साथ खड़ा रखतीं. मेरे पास ऐसे कितने ही अनुभव हैं जिन में मैं ने साफसाफ महसूस किया था कि आप को मेरी कोई परवा नहीं थी. न ही आप को कुछ फर्क पड़ता था कि मैं आप के पास रहूं या कहीं और. मैं आप की ऐसी जिम्मेदारी थी, आप की ऐसी गलती थी जिसे आप ने कभी दिल से नहीं स्वीकारा.

‘मैं आप की ऐसी संतान थी जो आप के प्यार और साथ को हमेशा तरसती रही. मेरे स्कूल से लेट आने पर कभी आप ने यह नहीं पूछा कि मुझे देर क्यों हुई. वह तो मेरे पढ़नेलिखने के शौक ने पढ़ाई खत्म होते ही मुझे यह नौकरी दिलवा दी जिस से मैं अब सचमुच आप से दूर रहने की कोशिश करूंगी. अपने प्रति आप की उपेक्षा ने कई बार मुझे जो मानसिक और शारीरिक कष्ट दिए हैं. उन्हें भूल तो नहीं पाऊंगी पर हां, जीवन के महत्त्वपूर्ण सबक मैं ने उन पलों से ही सीखे हैं. ‘आप की उपेक्षा ने मुझे एक ऐसी लड़की बना दिया है जिसे अब किसी भी रिश्ते पर भरोसा नहीं रहा. जीने के लिए थोड़े से रंग, थोड़ी सी खुशबू, थोड़ा सा उजाला भी तो चाहिए, खुशियोें के रंग, प्यार की खुशबू और चाहत का उजाला. पर इन में से कुछ भी तो नहीं आया मेरे हिस्से. अनिल के साथ जुड़वां बन दुनिया में आने की सजा के रूप में जैसे मुझे किसी मरुस्थल के ठीक बीचोंबीच ला बिठाया गया था जहां न कोई छावं थी, न कोई राह.

‘मां, आप को पता है अकेलापन किसी भयानक जंगल से कम नहीं होता. हर रास्ते पर खतरा लगता है. जब आप अनिल के आगेपीछे घूमतीं, मैं आप के आगेपीछे घूम रही होती थी. आप के एक तरफ जब अनिल लेटा होता था तब मेरा मन भी करता था कि आप की दूसरी तरफ लेट जाऊं पर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कभी. आज आप का दिल दुखाना मेरा मकसद नहीं था पर मेरे अंदर लोगों से, आप से मिली उपेक्षा का इतना जहर भर गया है कि मैं चाह कर भी उसे निगल नहीं सकती. आखिर, मैं भी इंसान हूं. आज सबकुछ उगलना ही पड़ा मुझे. बस, आज मैं आप सब से दूर चली गई. आप अब अपने बेटे के साथ खुश रहिए.

‘आप की तीसरी गलती.

‘प्रिया.’

सुधा को अब एहसास हुआ. आंसू तो कब से उन के गाल भिगोते जा रहे थे. यह क्या हो गया उन से. फूल सी बेटी का दिल अनजाने में ही दुखाती चली गई. वे पत्र सीने से लगा कर फफक पड़ीं. अब क्या करें. जीवन तो बहती नदी की तरह है, जिस राह से वह एक बार गुजर गया, वहां लौट कर फिर नहीं आता, आ ही नहीं सकता.

विरासत: अपराजिता को मिले उन खतों में ऐसा क्या लिखा था

अपराजिता की 18वीं वर्षगांठ के अभी 2 महीने शेष थे कि वक्त ने करवट बदल ली. व्यावहारिक तौर पर तो उसे वयस्क होने में 2 महीने शेष थे, मगर बिन बुलाई त्रासदियों ने उसे वक्त से पहले ही वयस्क बना दिया था. मम्मी की मौत के बाद नानी ने उस की परवरिश का जिम्मा निभाया था और कोशिश की थी कि उसे मम्मी की कमी न खले. यह भी हकीकत है कि हर रिश्ते की अपनी अलग अहमियत होती है. लाचार लोग एक पैर से चल कर जीवन को पार लगा देते हैं. किंतु जीवन की जो रफ्तार दोनों पैरों के होने से होती है उस की बात ही अलग होती है. ठीक इसी तरह एक रिश्ता दूसरे रिश्ते के न होने की कमी को पूरा नहीं कर सकता.

वक्त के तकाजों ने अपराजिता को एक पार्सल में तब्दील कर दिया था. मम्मी की मौत के बाद उसे नानी के पास पहुंचा दिया गया और नानी के गुजरने के बाद इकलौती मौसी के यहां. मौसी के दोनों बच्चे उच्च शिक्षा के लिए दूसरे शहरों में रहते थे. अतएव वह अपराजिता के आने से खुश जान पड़ती थीं. अपराजिता के बहुत सारे मित्रों के 18वें जन्मदिन धूमधाम से मनाए जा चुके थे. बाकी बच्चों के आने वाले महीनों में मनाए जाने वाले थे. वे सब मौका मिलते ही अपनाअपना बर्थडे सैलिब्रेशन प्लान करते थे. तब अपराजिता बस गुमसुम बैठी उन्हें सुनती रहती थी. उस ने भी बहुत बार कल्पनालोक में भांतिभांति विचरण किया था अपने जन्मदिन की पार्टी के सैलिब्रेशन को ले कर मगर अब बदले हालात में वह कुछ खास करने की न तो सोच सकती थी और न ही किसी से कोई उम्मीद लगा सकती थी.

2 महीने गुजरे और उस की खास सालगिरह का सूर्योदय भी हुआ. मगर नानी की हाल ही में हुई मौत के बादलों से घिरे माहौल में सालगिरह उमंग की ऊष्मा न बिखेर सकी. अपराजिता सुबह उठ कर रोज की तरह कालेज के लिए निकल गई. शाम को घर वापस आई तो देखा कि किचन टेबल पर एक भूरे रंग का लिफाफा रखा था. वह लिफाफा उठा कर दौड़ीदौड़ी मौसी के पास आई. लिफाफे पर भेजने वाले का नामपता नहीं था और न ही कोई पोस्टल मुहर लगी थी.

‘‘मौसी यह कहां से आया?’’ उस ने आंगन में कपड़े सुखाने डाल रहीं मौसी से पूछा. ‘‘उस पर तो तुम्हारा ही नाम लिखा है अप्पू… खोल कर क्यों नहीं देख लेतीं?’’

अपराजिता ने लिफाफा खोला तो उस के अंदर भी थोड़े छोटे आकार के कई सफेद रंग के लिफाफे थे. उन पर कोई नाम नहीं था. बस बड़ेबड़े अंकों में गहरीनीली स्याही से अलगअलग तारीखें लिखी थीं. तारीखों को गौर से देखने पर उसे पता चला कि ये तारीखें भविष्य में अलगअलग बरसों में पड़ने वाले उस के कुछ जन्मदिवस की हैं. खुशी की बात कि एक लिफाफे पर आज की तारीख भी थी. अपराजिता ने प्रश्नवाचक निगाहों से मौसी को निहारा तो वे मुसकरा भर दीं जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं. ‘प्लीज मौसी बताइए न ये सब क्या है. ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आप को इस के बारे में कुछ खबर न हो… यह लिफाफा पोस्ट से तो आया नहीं है… कोई तो इसे दे कर गया है… आप सारा दिन घर में थीं और जब आप ने इसे ले कर रखा है तो आप को तो पता ही होना चाहिए कि आखिर यह किस का है?’’

‘‘मुझे कैसे पता चलता जब कोई बंद दरवाजे के बाहर इसे रख कर चला गया. तुम तो जानती हो कि दोपहर में कभीकभी मेरी आंख लग जाती है. शायद उसी वक्त कोई आया होगा. मैं ने तो सोचा था कि तुम्हारे किसी मित्र ने कुछ भेजा है. हस्तलिपि पहचानने की कोशिश करो शायद भेजने वाले का कोई सूत्र मिल जाए,’’ मौसी के चेहरे पर एक रहस्यपूर्ण मुस्कराहट फैली हुई थी. अपराजिता ने कई बार ध्यान से देखा, हस्तलिपि बिलकुल जानीपहचानी सी लग रही थी. बहुत देर तक दिमागी कसरत करने पर उसे समझ में आ गया कि यह हस्तलिपि तो उस की नानी की हस्तलिपि जैसी है. परंतु यह कैसे संभव है? उन्हें तो दुनिया को अलविदा किए 2 महीने गुजर गए हैं और आज अचानक ये लिफाफे… उसे कहीं कोई ओरछोर नहीं मिल रहा था.

‘‘मौसी यह हस्तलिपि तो नानी की लग रही है लेकिन…’’ ‘‘लेकिनवेकिन क्या? जब लग रही है तो उन्हीं की होगी.’’

‘‘यह असंभव है मौसी?’’ अपराजिता का स्वर द्रवित हो गया. ‘‘अभी तो संभव ही है अप्पू, मगर 2 महीने पहले तक तो नहीं था. जिस दिन से तुम्हारी नानी को पता चला कि उन का हृदयरोग बिगड़ता जा रहा है और उन के पास जीने के लिए अधिक समय नहीं है तो उन्होंने तुम्हारे लिए ये लैगसी लैटर्स लिखने शुरू कर दिए थे, साथ ही मुझे निर्देश किया था कि मैं यह लिफाफा तुम्हें तुम्हारे 18वें जन्मदिन वाले दिन उपहारस्वरूप दे दूं. अब इन खतों के माध्यम से तुम्हें क्या विरासत भेंट की गई है, यह तो मुझे भी नहीं मालूम. कम से कम जिस लिफाफे पर आज की तारीख अंकित है उसे तो खोल ही लो अब.’’

अपराजिता ने उस लिफाफे को उठा कर पहले दोनों आंखों से लगाया. फिर नजाकत के साथ लिफाफे को खोला तो उस में एक गुलाबी कागज मिला. कागज को आधाआधा कर के 2 मोड़ दे कर तह किया गया था. चंद पल अपराजिता की उंगलियां उस कागज पर यों ही फिसलती रहीं… नानी के स्पर्श के एहसास के लिए मचलती हुईं. जब भावनाओं का ज्वारभाटा कुछ थमा तो उस की निगाहें उस कागज पर लिखे शब्दों की स्कैनिंग करने लगीं:

डियर अप्पू

‘‘जीवन में नैतिक सद््गुणों का महत्त्व समझना बहुत जरूरी है. इन नैतिक सद्गुणों में सब से ऊंचा स्थान ‘क्षमा’ का है. माफ कर देना और माफी मांग लेना दोनों ही भावनात्मक चोटों पर मरहम का काम करते हैं. जख्मों पर माफी का लेप लग जाने से पीडि़त व्यक्ति शीघ्र सब भूल कर जीवनधारा के प्रवाह में बहने लगते हैं. वहीं माफ न कर के हताशा के बोझ में दबा व्यक्ति जीवनपर्यंत अवसाद से घिरा पुराने घावों को खुरचता हुआ पीड़ा का दामन थामे रहता है. जबकि वह जानता है कि वह इस मानअपमान की आग में जल कर दूसरे की गलती की सजा खुद को दे रहा है. ‘‘अप्पू मैं ने तुम्हें कई बार अपने मांबाप पर क्रोधित होते देखा है. तुम्हें गम रहा कि तुम्हारी परवरिश दूसरे सामान्य बच्चों जैसी नहीं हुई है. जहां बाप का जिंदगी में होना न होना बराबर था वही तुम्हारी मां ने जिंदगी के तूफानों से हार कर स्वयं अपनी जान ले ली और एक बार भी नहीं सोचा कि उस के बाद तुम्हारा क्या होगा… बेटा तुम्हारा कुढ़ना लाजिम है. तुम गलत नहीं हो. हां, अगर तुम इस क्रोध की ज्वाला में जल कर अपना मौजूदा और भावी जीवन बरबाद कर लेती हो तो गलती सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही होगी. किसी दूसरे के किए की सजा खुद को देने में कहां की अक्लमंदी है?

‘‘मेरी बात को तसल्ली से बैठ कर समझने की चेष्टा करना और एकदम से न सही तो कम से कम अगले जन्मदिन तक धीरेधीरे उस पर अमल करने की कोशिश करना… बस यही तोहफा है मेरे पास तुम्हारे इस खास दिन पर तुम्हें देने के लिए. ‘‘ढेर सारा प्यार,’’

‘‘नानी.’’

वक्त तेजी से आगे बढ़ रहा था. अपराजिता अब इंजीनियरिंग के आखिरी साल में थी और अपनी इंटर्नशिप में मशगूल थी. वह जिस कंपनी में इंटर्नशिप कर रही थी, प्रतीक भी वहीं कार्यरत था. कम समय में ही दोनों में गहरी मित्रता हो गई.

बीते सालों में अपराजिता नानी से 18वें जन्मदिन पर मिले सौगाती खत को अनगिनत बार पढ़ा था. क्यों न पढ़ती. यह कोई मामूली खत नहीं था. भाववाहक था नानी का. अकसर सोचती कि काश नानी ने उस के हर दिन के लिए एक खत लिखा होता तो कुछ और ही मजा होता. नानी के लिखे 1-1 शब्द ने मन के जख्मों पर चंदन के लेप का काम किया था. उस आधे पन्ने के पत्र की अहमियत किसी ऐक्सपर्ट काउंसलर के साथ हुए 10 सैशन की काउंसलिंग के बराबर साबित हुई थी. अब अपराजिता के मस्तिष्क में बचपन में झेले सदमों के चलचित्रों की छवि धूमिल सी हो कर मिटने लगी थी. मम्मीपापा की बेमेल व कलहपूर्ण मैरिड लाइफ, पापा के जीवन में ‘वो’ की ऐंट्री और फिर रोजरोज की जिल्लत से खिन्न मम्मी का फांसी पर झूल कर जान दे देना… थरथर कांपती थी वह डरावने सपनों के चक्रवात में फंस कर. नानी के स्नेह की गरमी का लिहाफ उस की कंपकंपाहट को जरा भी कम नहीं कर पाया था.

नानी जब तक जिंदा रहीं लाख कोशिश करती रहीं उस की चेतना से गंभीर प्रतिबिंबों को मिटाने की, मगर जीतेजी उन्हें अपने प्रयासों में शिकस्त के अलावा कुछ हासिल न हुआ. शायद यही दुनिया का दस्तूर है कि हमें प्रियजनों के मशवरे की कीमत उन के जाने के बाद समझ में आती है.

प्रतीक और अपराजिता का परिचय अगले सोपान पर चढ़ने लगा था. बिना कुछ सोचे वह प्रतीक के रंग में रंग गई. कमाल की बात थी जहां इंटर्नशिप के दौरान प्रतीक उस के दिल में समाता जा रहा था तो दूसरी तरफ इंजीनियरिंग के पेशे से उस का दिल हटता जा रहा था. वह औफिस आती थी प्रतीक से मिलने की कामना में, अपने पेशे की पेचीदगियों में सिर खपाने के लिए नहीं. ट्रेनिंग बोझ लग रही थी उसे. अपने काम से इतनी ऊब होती थी कि वह औफिस आते ही लंचब्रेक का इंतजार करती और लंचब्रेक खत्म होने पर शाम के 5 बजने का. कुछ सहकर्मी तो उसे पीठ पीछे ‘क्लौक वाचर’ पुकारते थे.

जाहिर था कि अपराजिता ने प्रोफैशन चुनते समय अपने दिल की बात नहीं सुनी. मित्रों की देखादेखी एक भेड़चाल का हिस्सा बन गई. सब ने इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया तो उस ने भी ले लिया. उस ने जब अपनी उलझन प्रतीक से बयां की तो सपाट प्रतिक्रिया मिली, ‘‘अगर तुम्हें इस प्रोफैशन में दिलचस्पी नहीं अप्पू तो मुझे भी तुम में कोई रुचि नहीं.’’ ‘‘ऐसा न कहो प्रतीक… प्यार से कैसी शर्त?’’

‘‘शर्तें हर जगह लागू होती हैं अप्पू… कुदरत ने भी दिमाग का स्थान दिल से ऊपर रखा है. मुझे तो अपने लिए इंजीनियर जीवनसंगिनी ही चाहिए…’’ यह सुन कर अपराजिता होश खो बैठी थी. दिल आखिर दिल है, कहां तक खुद को संभाले… एक बार फिर किसी प्रियजन को खोने के कगार पर खड़ी थी. कैसे सहेगी वह ये सब? कैसे जूझेगी इन हालात से बिना कुछ गंवाए?

अगर वह प्रतीक की शर्त स्वीकार लेती है तो क्या उस कैरियर में जान डाल पाएगी जिस में उस का किंचित रुझान नहीं है? उस की एक तरफ कूआं तो दूसरी तरफ खाई थी, कूदना किस में है उसे पता न था.

अगले महीने फिर अपराजिता का खास जन्मदिन आने वाला था. खास इसलिए क्योंकि नानी ने अपने खत की सौगात छोड़ी थी इस दिन के लिए भी. बड़ी मुश्किल से दिन कट रहे थे… उस का धीरज छूट रहा था… जन्मदिन की सुबह का इंतजार करना भारी हो रहा था. बेसब्री उसे अपने आगोश में ले कर उस के चेतन पर हावी हो चुकी थी. अत: उस ने जन्मदिन की सुबह का इंतजार नहीं किया. जन्मदिन की पूर्वरात्रि पर जैसे ही घड़ी ने रात के 12 बजाए उस ने नानी के दूसरे नंबर के ‘लैगसी लैटर’ का लिफाफा खोल डाला.

लिखा था:

‘‘डियर अप्पू’’ ‘‘जल्दी तुम्हारी इंजीनियरिंग पूरी हो जाएगी. बहुत तमन्ना थी कि तुम्हें डिगरी लेते देखूं, मगर कुदरता को यह मंजूर न था. खैर, जो प्रारब्ध है, वह है… आओ कोई और बात करते हैं.’’

‘‘तुम ने कभी नहीं पूछा कि मैं ने तुम्हारा नाम अपराजिता क्यों रखा. जीतेजी मैं ने भी कभी बताने की जरूरत नहीं समझी. सोचती रही जब कोई बात चलेगी तो बता दूंगी. कमाल की बात है कि न कभी कोई जिक्र चला न ही मैं ने यह राज खोलने की जहमत उठाई. तुम्हारे 21वें जन्मदिन पर मैं यह राज खोलूंगी, आज के लिए इसी को मेरा तोहफा समझना. ‘‘हां, तो मैं कह रही थी कि मैं ने तुम्हें अपराजिता नाम क्यों दिया. असल में तुम्हारे पैदा होने के पहले मैं ने कई फीमेल नामों के बारे में सोचा, मगर उन में से ज्यादातर के अर्थ निकलते थे-कोमल, सुघड़, खूबसूरत वगैराहवगैराह. मैं नहीं चाहती थी कि तुम इन शब्दों का पर्याय बनो. ये पर्याय हम औरतों को कमजोर और बुजदिल बनाते हैं. कुछए की तरह एक कवच में सिमटने को मजबूर करते हैं. औरत एक शरीर के अलावा भी कुछ होती है.

‘‘तुम देवी बनने की कोशिश भी न करना और न ही किसी को ऐसा सोचने का हक देना. बस अपने सम्मान की रक्षा करते हुए इंसान बने रहने का हक न खोना. ‘‘मैं तुम्हें सुबह खिल कर शाम को बिखरते हुए नहीं देखना चाहती. मेरी आकांक्षा है कि तुम जीवन की हर परीक्षा में खरी उतरो. यही वजह थी कि मैं ने तुम्हें अपराजिता नाम दिया… अपराजिता अर्थात कभी न पराजित होने वाली. अपनी शिकस्त से सबक सीख कर आगे बढ़ो… शिकस्त को नासूर बना कर अनमोल जीवन को बरबाद मत करो. जिस काम के लिए मन गवाही न दे उसे कभी मत करो, वह कहते हैं न कि सांझ के मरे को कब तक रोएंगे.’’

‘‘बेटा, जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है. मेरा विश्वास है तुम अपनी मां की तरह हौसला नहीं खोओगी. हार और जीत के बीच सिर्फ अंश भर का फासला होता है. तो फिर जिंदगी की हर जंग जीतने के लिए पूरा दम लगा कर क्यों न लड़ा जाएं.

‘‘बहुतबहुत प्यार’’ ‘‘नानी.’’

अपराजिता ने खत पढ़ कर वापस लिफाफे में रख दिया. रात का सन्नाटा गहराता जा रहा था, किंतु कुछ महीनों से जद्दोजहद का जो शिकंजा उस के दिलोदिमाग पर कसता जा रहा था उस की गिरफ्त अब ढीली होती जान पड़ रही थी. दूसरे दिन की सुबह बेहद दिलकश थी. रेशमी आसमान में बादलों के हाथीघोड़े से बनते प्रतीत हो रहे थे. चंद पल वह यों ही खिड़की से झांकती हुई आसमान में इन आकृतियों को बनतेबिगड़ते देखती रही. ऐसी ही आकृतियों को देखते हुए ही तो वह बचपन में मम्मी का हाथ पकड़ कर स्कूल से घर आती थी.

कल रात वाले लैगसी लैटर को पढ़ने के बाद से ही वह खुद में एक परिवर्तन महसूस कर रही थी… कहीं कोई मलाल न था कल रात से. वह जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का निर्णय कर चुकी थी. औफिस जाने से पहले उस ने एक लंबा शावर लिया मानो कि अब तक के सभी गलत फैसलों व चिंताओं को पानी से धो कर मुक्ति पा लेना चाहती हो. प्रतीक के साथ औफिस कैंटीन में लंच लेते हुए उस ने अपना निर्णय उसे सुनाया, ‘‘प्रतीक मैं तुम्हें भुलाने का फैसला कर चुकी हूं, क्योंकि मेरी जिंदगी के रास्ते तुम से एकदम अलग हैं.’’

‘‘यह क्या पागलपन है? कौन से हैं तुम्हारे रास्ते… जरा मैं भी तो सुनूं?’’ प्रतीक कुछ बौखला सा गया. ‘‘लेखन, भाषा, साहित्य ये हैं मेरे शौक… किसी वजह से 4 साल पहले मैं ने गलत लाइन पकड़ ली, लेकिन इस का यह अर्थ कतई नहीं कि मैं इस गलती के साथ उम्र गुजार दूं या इस के बोझ से दब कर दूसरी गलती करूं… अगर मैं ने तुम से शादी की तो वह मेरी एक और भूल होगी क्योंकि सच्चा प्यार करने वाले सामने वाले को ज्यों का त्यों अपनाते हैं. उन्हें अपने सांचे में ढाल कर अपनी पसंद और अपने तरीके उन पर नहीं थोपते.’’

‘‘भेजा फिर गया है तुम्हारा… जो समझ में आए करो मेरी बला से.’’ तमतमाया प्रतीक लंच बीच में ही छोड़ कर तेजी से कैंटीन से बाहर निकल गया. अपराजिता ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. इत्मीनान से अपना लंच खत्म करने में मशगूल रही. अपराजिता हर संघर्ष से निबटने को तैयार थी. सच ही तो लिखा था नानी ने कि सांझ के

मरे को कब तक रोएंगे. गलत शादी, गलत कैरियर में फंस कर जिंदगी दारुण मोड़ पर ही चली जानी थी… वह इस अंधे मोड़ के पहले ही सतर्क हो गई. ‘‘अपराजिता नानी ने तुम्हारे लिए कुछ पैसा फिक्स डिपौजिट में रखवाया था. अब तक मैं इस पौलिसी को 2 बार रिन्यू करा चुकी हूं. पर सोचती हूं अब अपनी जिम्मेदारी तुम खुद उठाओ और यह रकम ले कर अपने तरीके से इनवैस्ट करो,’’ एक शाम मौसी ने कहा.

‘‘जैसा आप चाहो मौसी. अगर आप ऐसा चाहती हैं तो ठीक है.’’ अपराजिता अब काफी हद तक आत्मनिर्भर हो चुकी थी. अब तक उस के 2 उपन्यास छप चुके थे. एक पर उसे ‘बुकर प्राइज’ मिला था तो दूसरे उपन्यास ने भी इस साल सब से ज्यादा प्रतिलिपियां बिकने का कीर्तिमान स्थापित किया. अब उसे खुद के नीड़ की तलाश थी. मौसी के प्रति वह कृतज्ञ थी पर उम्रभर उन पर निर्भर रहने का उस का इरादा न था.

बहुत दिन हो चुके थे उसे लेखनसाधना में खोए हुए. कुछ सालों से वह सिर से पांव तक काम में इतना डूबी रही कि स्वयं को पूरी तरह नजरअंदाज कर बैठी थी. इस बार उस ने 21वें जन्मदिन पर खुद को ट्रीट देने का फैसला किया. तमाम टूअर पैकेजेस देखनेसमझने के बाद उसे कुल्लूमनाली का विकल्प पसंद आ गया. कुछ दिन बस खुद के लिए… कहीं बिलकुल अलग कोलाहल से दूर. साथ में होगा तो बस नानी का 21वें जन्मदिन के लिए लिखा गया सौगाती खत :

‘‘डियर अप्पू ‘‘अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा आंसुओं में डुबोने के बाद मैं ने जाना कि 2 प्रकार के व्यक्तियों से कोई संबंध न रखो- मूर्ख और दुष्ट. इस श्रेणी के लोगों को न तो कुछ समझाने की चेष्टा करो न ही उन से कोई तर्कवितर्क करो. मानो या न मानो तुम उन से कभी नहीं जीत पाओगी.

‘‘ऐसे आदमी से नाता न जोड़ो जिस की पहली, दूसरी, तीसरी और आखिरी प्राथमिकता वह खुद हो. ऐसे व्यक्तियों के जीवन के शब्दकोश में ‘मैं’ सर्वनाम के अतिरिक्त कोई दूसरा लफ्ज ही नहीं होता. अहं के अंकुर से अवसाद का वटवृक्ष पनपता है. अहं से मदहोश व्यक्ति अपने शब्द और अपनी सोच को अपने आसपास के लोगों पर एक कानून की तरह लागू करना चाहता है. ऐसों से नाता जुड़ने के बाद दूसरों को रोज बिखर कर खुद को रोज समेटना पड़ता है. तब कहीं जा कर जीवननैया किनारे लग पाती है उन की. ‘‘जोड़े तो ऊपर से बन कर आते हैं जमीं पर तो सिर्फ उन का मिलन होता है, यह निराधार थ्योरी गलत शादी में फंस के दिल को समझाने के लिए अच्छी है, किंतु मैं जानती हूं तुम्हारे जैसी बुद्धिजीवी कोरी मान्यताओं को बिना तार्किक सत्यता के स्वीकार नहीं कर सकती. न ही मैं तुम से ऐसी कोई उम्मीद करती हूं.

‘‘बेटा मेरी खुशी तो इस में होगी कि तुम वे बेडि़यां तोड़ने की हिम्मत रखो जिन का मंगलसूत्र पहन कर तुम्हारी मां की सांसें घुटती रहीं और आखिर में वही मंगलसूत्र उस के गले का फंदा बन कर उस की जान ले गया. ‘‘तुम्हारा बाप तुम्हारी मां की जिंदगी में था, मगर उस के अकेलेपन को बढ़ाने के लिए.

डियर अप्पू शादी का सीधा संबंध भावनात्मक जुड़ाव से होता है. जब यह भावनात्मक बंधन ही न हो तो वह शादी खुदबखुद अमान्य हो जाती है… ऐसी शादियां और कुछ भी नहीं बस सामाजिकता की मुहर लगा हुआ बलात्कार मात्र होती हैं. यह कैसा गठबंधन जहां सांसें भी दूसरों की मरजी से लेनी पड़ें? ‘‘अगर हालातवश ऐेसे रिश्तों में कभी फंस भी जाओ तो अपने आसपास उग आई अवांछित रिश्तों की नागफनियों को काटने का साहस भी रखो अन्यथा ये नागफनियां तुम्हारे पांव को लहूलुहान कर के तुम्हारी ऊंची कुलांचें लेने की शक्ति खत्म कर देंगी, साथ ही तुम्हें जीवन भर के लिए मानसिक तौर पर पंगू बना देंगी.

‘‘ढेर सा प्यार ‘‘तुम्हारी नानी.’’

कुल्लू की वादियों में झरने के किनारे एक चट्टान पर बैठी अपराजिता की आंखों से अचानक आंसू झरने लगे. जाने क्यों आज प्रतीक की याद आ रही थी. शायद यह इन शोख नजारों का असर था कि मन मचलने लगा था किसी के सान्निध्य के लिए. नामपैसा कमा कर भी वह कितनी अकेली थी… या फिर यह अकेलापन उस की सोच का खेल था? वह अकेली कहां थी. उस के साथ थे हजारोंलाखों प्रसंशक. क्यों याद कर रही है वह प्रतीक को… क्यों चाहिए था उसे किसी मर्द का संबल? ऐसा क्या था जो वह खुद नहीं कर पाई? क्या प्रतीक भी उस के बारे में सोचता होगा? ऐसा होता तो वह 10 साल पहले ही उसे ठोकर न मार गया होता. दोष क्या था उस का? सिर्फ इतना कि वह इंजीनियरिंग नहीं लेखन में आगे बढ़ना चाहती थी. ‘‘कौन जानता है प्रतीक को आज की तारीख में?

वहीं वह खुद लेखन के क्षेत्र का प्रमुख हस्ताक्षर बन कर शोहरत का पर्यात बन चुकी थी. बड़ा गुमान था प्रतीक को अपने काबिल इंजीनियर होने पर… लकीर का फकीर कहीं का. मध्यवर्गीय मानसिकता का शिकार… जिन्हें सिर्फ इंजीनियरिंग और कुछ दूसरे इसी तरह के प्रोफैशन ही समझ में आते हैं. लेखन, संगीत और आर्ट उन की सोच से परे की बातें होती हैं. नहीं चाहिए था उसे दिखावे का हीरो अपनी जिंदगी में. रही बात अकेलेपन की तो राहें और भी थी. उस ने निश्चित किया कि वह दिल्ली लौट कर किसी अनाथ बच्ची को अपना लेगी… गोद ले कर उसे अपना उत्तराधिकारी… अपने सूने आंगन की खुशबू बना लेगी.

खुशबू को अपराजिता के आंगन में महकते हुए करीब 10 साल हो गए थे. जिस दिन अपराजिता किसी बच्चे की तलाश में अनाथाश्रम पहुंची थी तो उस 4-5 साल की पोलियोग्रस्त बच्ची की याचक दृष्टि उस के दिल को भीतर तक भेद गई थी. उस रात आंखों से नींद की जंग चलती रही थी. सारी रात करवटें लेतेलेते बदन थक गया था. दूसरे दिन बिना विलंब किए अनाथाश्रम पहुंच गई अपराजिता जरूरी औपचारिकताएं पूरी करने के लिए. अगले कुछ महीनों तक गंभीर कागजी कार्यवाही को पूरा करने के बाद वह कानूनी तौर पर खुशबू को अपनी बेटी का दर्जा देने में कामयाब हो गई. हैरान रह गई थी अपराजिता दुनिया का चलन देख कर तब. किसी ने छींटाकशी की कि उस का दिमाग खराब हो गया है जो वह यह फालतू का काम कर रही है.

किसी ने यहां तक कह दिया कि यदि वह एक संस्कारित, खानदानी परिवार का खून होती तो मर्यादा में रह कर शादी कर के अपने बालबच्चे पाल रही होती. कुछ और लोगों के ऐक्सपर्ट कमैंट थे कि वह शोहरत पाने की लालसा में यह सब कर रही है. मात्र उंगलियों पर गिनने लायक ही लोग थे, जिन्होंने उस के इस कदम की दिल से सराहना की थी.

खैर, कोई बात नहीं. नेकी और बदी की जंग का दस्तूर जहां में सदियों पुराना है. बरसों के लंबे इलाज और फिजियोथेरैपी सैशंस के बाद खुशबू काफी हद तक स्वस्थ हो गई थी. गजब का आत्मविश्वास था उस में. उस की हर पेंटिंग में जीवन रमता था. वह हर समय इंद्रधनुषी रंग कैनवस पर बिखेरती हुई उमंगों से भरपूर खूबसूरत चित्र बनाती. शरीर की विकलांगता, अनाथाश्रम में बीता कोमल बचपन दोनों उस की उमंगों के वेग को बांध न सके थे.

खुशबू के प्रयासों की महक से अपराजिता की जीत का मान बढ़ता ही चला गया. अपनी शर्तों पर नेकी के साथ जिंदगी जीते हुए दोनों जहां की खुशियां पा ली थीं अपराजिता ने और अपने नाम को सार्थक कर दिखाया था. आज रात वह अपना 50वां जन्मदिन मनाने वाली थी नानी के आखिरी ‘सौगाती खत’ को खोल कर.

‘‘डियर अप्पू

तुम अब तक उम्र के 50 वसंत देख चुकी होगी और अपने रिटायरमैंट में स्थिर होने की सोच रही होगी. यह वह उम्र है जिसे जीने का मौका तुम्हारी मां को कुदरत ने नहीं दिया था. इसलिए मुबारक हो… बेटा वक्त तुम पर हमेशा मेहरबान रहे. ‘‘तुम्हारे मन में शायद अध्यात्म और तीर्थ के ख्याल भी आते होंगे. ऐसे ख्याल कई बार स्वेच्छा अनुसार आते हैं और कई बार इस दिशा में दूसरों के दबाव में भी सोचना पड़ता है. विशेषतौर पर महिलाओं से इस तरह की अपेक्षा जरूर की जाती है कि उन का आचरण पूर्णतया धार्मिक हो. यों तो धर्म एक बहुत ही व्यक्तिगत मामला है फिर भी धर्म में रुचि न रखने वाली स्त्रियों पर असंस्कारित होने की मुहर लगा दी जाती है.

‘‘मैं तुम से कहूंगी कि ये सब बकवास है. मैं ने अपने जीवन में अनेक ऐसे महात्मा, मुल्ला और पादरियों के बारे में पढ़ा और सुना है जो धर्म की आड़ में हर तरह के घृणित कृत्य करते हैं और दूसरों के बूते पर ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं. ‘‘ज्यादा दूर क्यों जाए मैं ने तो स्वयं तुम्हारे नाना को ये सब पाखंड करते देखा है. उन्होंने हवन, जप, मंत्र करने में पूरी उम्र तो बिताई पर उस के सार के एक अंश को कभी जीवन में नहीं उतारा. दूसरों को प्रताड़ना देना ही उन के जीवन का एकमात्र उद्देश्य और उपलब्धि था. अब तुम ही बताओ यह कैसा पूजापाठ और कर्मकांड जिस में आडंबर करने वाले के स्वयं के कर्म और कांड ही सही नहीं हैं.

‘‘तो डियर अप्पू कहने का सार मेरा यह है कि धर्म, पूजापाठ कभी भी मन की शुद्धता के प्रमाण नहीं होते. मन की शुद्धता होती है अच्छे कर्मों में, अपने से कमजोर का संबल बनने में, बाकी सब तो तुम्हारे अपने ऊपर है, पर एक वचन मैं भी तुम से लेना चाहूंगी और मुझे पूरा भरोसा है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी. ‘‘बेटी यह शरीर नश्वर है, जो भी दुनिया में आया है उसे जाना ही है. इस शरीर का महत्त्व तभी तक है जब तक इस में जान है. जान निकलने के बाद खूबसूरत से खूबसूरत जिस्म भी इतना वीभत्स लगता है कि मृतक के परिजन भी उसे छूने से डरते हैं. जीतेजी हम दुनिया के फेर में इस कदर फंसे होते हैं कि कई बार चाह कर भी कुछ अच्छा नहीं कर पाते. मौत में हम सारी बंदिशों से आजाद हो जाते हैं, तो फिर क्यों न कुछ इंसानियत का काम कर जाएं और दूसरों को भी इंसान बनने का हुनर सिखा जाएं?

‘‘डियर अप्पू, संक्षेप में मेरी बात का अर्थ है कि जैसे मैं ने किया था वैसे ही तुम भी मेरी तरह मृत्यु के बाद अंगदान की औपचारिकताएं पूरी कर देना. मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे 50वें जन्मदिन को मनाने का इस से श्रेष्ठतर तरीका कोई और हो सकता है. ‘‘बस आज के लिए इतना ही अप्पू… तबीयत आज कुछ ज्यादा ही नासाज है. ज्यादा लिखने की हिम्मत नहीं हो रही… लगता है अब जान निकलने ही वाली है. कोशिश करूंगी, मगर फिलहाल तो ऐसा ही महसूस हो रहा है कि यह मेरा आखिरी खत होगा तुम्हारे लिए.

‘‘सदा सुखी रहो मेरी बच्ची. ‘‘नानी.’’

अपराजिता ने पत्र को सहेज कर सुनहरे रंग के कार्डबोर्ड बौक्स में नानी के अन्य पत्रों के साथ रख दिया. इन सभी पत्रों को आबद्ध करा के वह खुशबू के अठारवें जन्मदिन पर भेंट करेगी. अपराजिता अब तक एक बहुत ही सफल लेखिका थी. उस के लिखे उपन्यासों पर कई दूरदर्शन चैनल धारावाहिक बना चुके थे. ट्राफी और अवार्ड्स से उस के ड्राइंगरूम का शोकेस पूरी तरह भर चुका था. रेडियो, टेलीविजन पर उस के कितने ही इंटरव्यू प्रसारित हो चुके थे. देशभर की पत्रपत्रिकाएं भी उस के इंटरव्यू छापने का गौरव ले चुकी थीं.

इन सभी साक्षात्कारों में एक प्रश्न हमेशा पूछा गया कि अपनी लिखी किताबों में उस की पसंदीदा किताब कौन सी है और इस सवाल का एक ही जवाब उस ने हमेशा दिया था, ‘‘मेरी नानी के लिखे ‘विरासती खत’ ही मेरे जीवन की पसंदीदा किताब है और मेरी इच्छा है कि मैं अपनी बेटी के लिए भी ऐसी ही विरासत छोड़ कर जाऊं जो कमजोर पलों में उस का उत्साहवर्द्धन कर उस का जीवनपथ सुगम बनाए. वह लकीर की फकीर न बन कर अपनी एक स्वतंत्र सोच का विकास करे.’’

रिटर्न गिफ्ट: अंकिता ने राकेशजी को कैसा रिटर्न गिफ्ट दिया

मैं  कालिज से 4 बजे के करीब बाहर आई तो शिखा और उस के पापा राकेशजी को अपने इंतजार में गेट  पास खड़ा पाया.

‘‘हैप्पी बर्थ डे, अंकिता,’’ शिखा यह कहती हुई भाग कर मेरे पास आई और गले से लग गई.

‘‘थैंक यू. मैं तो सोच रही थी कि शायद तुम्हें याद नहीं रहा मेरा जन्मदिन,’’ उस के हाथ से फूलों का गुलदस्ता लेते हुए मैं बहुत खुश हो गई.

‘‘मैं तो सचमुच भूल गई थी, पर पापा को तेरा जन्मदिन याद रहा.’’

‘‘पगली,’’ मैं ने नाराज होने का अभिनय किया और फिर हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

राकेशजी से मुझे जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ मेरी मनपसंद चौकलेट का डब्बा भी मिला तो मैं किसी छोटी बच्ची की तरह तालियां बजाने से खुद को रोक नहीं पाई.

‘‘थैंक यू, सर. आप को कैसे पता लगा कि चौकलेट मेरी सब से बड़ी कमजोरी है? क्या मम्मी ने बताया?’’ मैं ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ उन्होंने मेरे बैठने के लिए कार का पिछला दरवाजा खोल दिया.

‘‘फिर किस ने बताया?’’

‘‘अरे, मेरे पास ढंग से काम करने वाले 2 कान हैं और पिछले 1 महीने में तुम्हारे मुंह से ‘आई लव चौकलेट्स’ मैं कम से कम 10 बार तो जरूर ही सुन चुका हूंगा.’’

‘‘क्या मैं डब्बा खोल लूं?’’ कार में बैठते ही मैं डब्बे की पैकिंग चैक करने लगी.

‘‘अभी रहने दो, अंकिता. इसे सब के सामने ही खोलना.’’

शिखा का यह जवाब सुन कर मैं चौंक पड़ी.

‘‘किन सब के सामने?’’ मैं ने यह सवाल उन दोनों से कई बार पूछा पर उन की मुसकराहटों के अलावा कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘शिखा की बच्ची, मुझे तंग करने में तुझे बड़ा मजा आ रहा है न?’’ मैं ने रूठने का अभिनय किया तो वे दोनों जोर से हंस पड़े थे.

‘‘अच्छा, इतना तो बता दो कि हम जा कहां रहे हैं?’’ अपने मन की उत्सुकता शांत करने को मैं फिर से उन के पीछे पड़ गई.

‘‘मैं तो घर जा रही हूं,’’ शिखा के होंठों पर रहस्यमयी मुसकान उभर आई.

‘‘क्या हम सब वहीं नहीं जा रहे हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर तुम ही क्यों जा रही हो?’’

‘‘वह सीक्रेट तुम्हें नहीं बताया जा सकता है.’’

‘‘और आप कहां जा रहे हैं, सर?’’

‘‘मार्किट.’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘यह सीक्रेट कुछ देर बाद ही तुम्हें पता लगेगा,’’ राकेशजी ने गोलमोल सा जवाब दिया और इस के बाद जब बापबेटी मेरे द्वारा पूछे गए हर सवाल पर ठहाका मार कर हंसने लगे तो मैं ने उन से कुछ भी उगलवाने की कोशिश छोड़ दी थी.

शिखा को घर के बाहर उतारने के बाद हम दोनों पास की मार्किट में पहुंच गए. राकेशजी ने कार एक रेडीमेड कपड़ों के बड़े से शोरूम के सामने रोक दी.

‘‘चलो, तुम्हें गिफ्ट दिला दिया जाए, बर्थ डे गर्ल,’’ कार लौक कर के उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और उस शोरूम की सीढि़यां चढ़ने लगे.

कुछ दिन पहले मैं शिखा के साथ इस मार्किट में घूमने आई थी. यहां की एक डमी, जो लाल रंग की टीशर्ट के साथ काली कैपरी पहने हुई थी, पहली नजर में ही मेरी नजरों को भा गई थी.

शिखा ने मेरी पसंद अपने पापा को जरूर बताई होगी क्योंकि 20 मिनट में ही उस डे्रस को राकेशजी ने मुझे खरीदवा दिया था.

‘‘वेरी ब्यूटीफुल,’’ मैं डे्रस पहन कर ट्रायल रूम से बाहर आई तो उन की आंखों में मैं ने तारीफ के भाव साफ पढ़े थे.

उन्होंने मुझे डे्रस बदलने नहीं दी और मुझे पहले पहने हुए कपड़े पैक कराने पड़े.

‘‘अब हम कहां जा रहे हैं, यह मुझे बताया जाएगा या यह बात अभी भी टौप सीक्रेट है?’’ कार में बैठते ही मैं ने उन्हें छेड़ा तो वह हौले से मुसकरा उठे थे.

‘‘क्या कुछ देर पास के पार्क में घूम लें?’’ वह अचानक गंभीर नजर आने लगे तो मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

‘‘मम्मी आफिस से घर पहुंच गई होंगी. मुझे घर जाना चाहिए,’’ मैं ने पार्क में जाने को टालना चाहा.

‘‘तुम्हारी मम्मी से भी तुम्हें मिलवा देंगे पर पहले पार्क में घूमेंगे. मैं तुम से कुछ खास बात करना चाहता हूं,’’ मेरे जवाब का इंतजार किए बिना उन्होंने कार आगे बढ़ा दी थी.

अब मेरे मन में जबरदस्त उथलपुथल मच गई. जो खास बात वह मुझ से करना चाहते थे उसे मैं सुनना भी चाहती थी और सुनने से मन डर भी रहा था.

मैं खामोश बैठ कर पिछले 1 महीने के बारे में सोचने लगी. शिखा और राकेशजी से मेरी जानपहचान इतनी ही पुरानी थी.

मम्मी के एक सहयोगी के बेटे की बरात में हम शामिल हुए तो पहले मेरी मुलाकात शिखा से हुई थी. मेरी तरह उसे भी नाचने का शौक था. हम दोनों दूल्हे के बाकी रिश्तेदारों को नहीं जानते थे, इसलिए हमारे बीच जल्दी ही अच्छी दोस्ती हो गई थी.

खाना खाते हुए शिखा ने अपने पापा राकेशजी से मेरा परिचय कराया था. उस पहली मुलाकात में ही उन्होंने अपने हंसमुख स्वभाव के कारण मुझे बहुत प्रभावित किया था. जब शिखा और मेरे साथ उन्होंने बढि़या डांस किया तो हमारे बीच उम्र का अंतर और भी कम हो गया, ऐसा मुझे लगा था.

शिखा से मेरी मुलाकात रोज ही होने लगी क्योंकि हमारे घर पासपास थे. अकसर वह मुझे अपने घर बुला लेती. जब तक मेरे लौटने का समय होता तब तक उस के पापा को आफिस से आए घंटा भर हो चुका होता था.

उन के साथ गपशप करने का मुझे इंतजार रहने लगा था. वह मेरा बहुत ध्यान रखते थे. हर बार मेरी मनपसंद खाने की कोई न कोई चीज वह मुझे जरूर खिलाते. उन के साथ हंसतेबोलते घंटे भर का समय निकल जाने का पता ही नहीं लगता था.

फिर उन्होंने मुझे घर तक छोड़ आने की जिम्मेदारी ले ली तो हम आधा घंटा और साथ रहने लगे. इस आधे घंटे के समय में उन्होंने मेरी जिंदगी के बारे में बहुत कुछ जान लिया था.

जब पापा की सड़क दुर्घटना में 6 साल पहले मौत हुई थी तब मैं 14 साल की थी. मम्मी तो बुरी तरह से टूट गई थीं. उन्हें रातदिन रोते देख कर मैं कभीकभी इतनी ज्यादा दुखी और उदास हो जाती कि मन में आत्महत्या करने का विचार पैदा हो जाता. उस वक्त के बाद से मैं ने भगवान को मानना ही छोड़ दिया है.

मैं खुद को राकेशजी के इतना ज्यादा करीब महसूस करने लगी कि उन से मन की वे बातें कह जाती जो अब तक किसी को नहीं बताई थीं.

शिखा से मुझे उन के बारे में काफी जानकारी हासिल हुई :

‘वैसे तो मेरे पापा बहुत खुश रहते हैं पर कभीकभी अकेलापन उन्हें बहुत उदास कर जाता है. मैं उन से अकसर कहती हूं कि अकेलेपन को दूर करने के लिए कोई जीवनसाथी ढूंढ़ लो पर वह हंस कर मेरी बात टाल जाते हैं. मेरी शादी हो जाने के बाद तो पापा बहुत अकेले रह जाएंगे.’

शिखा को अपने पापा के लिए यों परेशान देख कर मुझे काफी हैरानी हुई थी.

‘मुझे तो शादी उसी युवक से करनी है जो मम्मी को अपने साथ रखने को राजी होगा. पापा की जगह मैं सारी जिंदगी उन की देखभाल करूंगी,’ मैं ने अपना फैसला शिखा को बताया तो वह चौंक पड़ी थी.

‘शादीशुदा बेटी का अपने मातापिता को साथ रखना हमारे समाज में संभव नहीं है अंकिता, और न ही मातापिता विवाहित बेटी के घर रहना चाहते हैं,’ शिखा की इस दलील को सुन कर मुझे गुस्सा आ गया था.

‘अगर ऐसा कोई चुनाव करना पड़ा तो मैं शादी करने से इनकार कर दूंगी पर मम्मी को अकेले छोड़ने का सवाल ही नहीं उठता,’ मैं इस विषय पर शिखा से बहस करने को तैयार हो गई थी.

‘अच्छा यह बता कि तुझे अपने पापा की कितनी बातें याद हैं?’

‘वह गे्रट इनसान थे, शिखा. तभी तो हमारी जिंदगी में उन की जगह आज तक कोई दूसरा आदमी नहीं ले पाया है और न ले पाएगा,’ मेरी आंखों में अचानक आंसू छलक आए तो शिखा ने विषय बदल दिया था.

शिखा के पापा के साथ मेरे संबंध इतने करीबी हो गए थे कि उन से रोज मिले या फोन पर लंबी बात किए बिना मुझे चैन नहीं मिलता था.

उन्होंने जब पार्क के सामने कार रोकी तो मैं झटके से पुरानी यादों की दुनिया से निकल आई थी.

‘‘आओ,’’ उन्होंने बड़े अधिकार से मेरा हाथ पकड़ा और पार्क के गेट की तरफ बढ़ चले.

उन के हाथ का स्पर्श मैं बड़ी प्रबलता से महसूस कर रही थी. इस का कारण यह था कि उन को ले कर मेरे मन के भावों में पिछले दिनों बदलाव आया था.

करीब सप्ताह भर पहले मुझे घर छोड़ने के लिए जाते हुए उन्होंने इसी अंदाज में मेरा हाथ पकड़ कर कहा था, ‘‘अंकिता, तुम मुझे हमेशा अपना अच्छा दोस्त और शुभचिंतक मानना. हमारे बीच जो संबंध बना है, मैं उसे और ज्यादा गहराई और मजबूती देना चाहता हूं. क्या तुम मुझे ऐसा करने का मौका दोगी?’’

‘‘हम अच्छे दोस्त तो हैं ही,’’ उन की आंखों में अजीब सी बेचैनी के भाव को पहचान कर मैं ने जमीन की तरफ देखते हुए जवाब दिया था.

‘‘मैं तुम्हें दुनिया भर की खुशियां देना चाहता हूं.’’

‘‘थैंक यू, सर,’’ उस समय के बाद से मैं ने उन के लिए ‘अंकल’ का संबोधन त्याग दिया था.

उस दिन उन्होंने अपनी बात को आगे नहीं बढ़ाया था. रात भर करवटें बदलने के बाद मुझे ऐसा लगा कि हमारा रिश्ता उस क्षेत्र में प्रवेश कर रहा था जिसे समाज गलत मानता है.

कम उम्र की लड़की के बड़ी उम्र के आदमी से प्यार हो जाने के किस्से मैं ने भी सुने थे, पर ऐसा कुछ मेरी जिंदगी में भी घट सकता है, यह मैं ने कभी नहीं सोचा था.

मेरा मन कह रहा था कि आज राकेशजी मुझ से प्रेम करने की बात अपनी जबान पर लाने वाले हैं. मैं उन्हें बहुत पसंद करती थी लेकिन उन के साथ गलत तरह का रिश्ता रखने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. मैं अपनी मां और शिखा की नजरों में कैसे गिर सकती थी?

ये अगर कोई उलटीसीधी बात मुंह से न निकालें तो कितना अच्छा हो. तब मैं इन से अपने संबंध सदा के लिए तोड़ने की पीड़ा से बच जाऊंगी. मुझे अपनी प्रेमिका बनाने की इच्छा को जबान पर मत लाना, प्लीज. मन ही मन ऐसी प्रार्थना करते हुए मैं राकेशजी के साथ पार्क में प्रवेश कर गई थी.

मेरा हाथ पकड़ कर कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘अपने जन्मदिन पर क्या तुम मुझे एक रिटर्न गिफ्ट दोगी?’’

‘‘मेरे बस में होगा तो जरूर दूंगी,’’ आगे पैदा होने वाली स्थिति का सामना करने के लिए मैं गंभीर हो गई.

कुछ पलों की खामोशी के बाद उन्होंने कहा, ‘‘अंकिता, जिंदगी में कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब हमें पुरानी मान्यताओं और अडि़यल रुख को त्याग कर नए फैसले करने पड़ते हैं. नई परिस्थितियों को स्वीकार करना पड़ता है. क्या तुम्हें थोड़ाबहुत अंदाजा है कि मैं तुम से रिटर्न गिफ्ट में क्या चाहता हूं?’’

‘‘आप के मन की बात मैं कैसे बता सकती हूं,’’ मैं ने उन्हें आगे कुछ कहने से रोकने के लिए रूखे लहजे में जवाब दिया.

‘‘इस का जवाब मैं तुम्हें एक छोटी सी कहानी सुना कर देता हूं. किसी राज्य की राजकुमारी रोज सुबह भिखारियों को धन और कपड़े दोनों दिया करती थी. एक दिन महल के सामने एक फकीर आया और गरीबों की लाइन से हट कर चुपचाप एक तरफ खड़ा हो गया.

‘‘राजकुमारी के सेवकों ने उस से कई बार कहा कि वह लाइन में न भी लगे पर अपने मुंह से राजकुमारी से जो भी चाहिए उसे मांग तो ले. फकीर ने तब सहज भाव से उन लोगों को जवाब दिया था, ‘क्या तुम्हारी राजकुमारी को मेरा भूख से पिचका हुआ पेट, फटे कपड़े और खस्ता हालत नजर नहीं आ रही है? मुझे उस के सामने फिर भी हाथ फैलाने पड़ें या गिड़गिड़ाना पड़े तो बात का मजा क्या. और फिर मुझे ऐसी नासमझ राजकुमारी से कुछ नहीं चाहिए.’

‘‘अंकिता, जब कभी तुम्हें भी एहसास हो जाए कि मुझे रिटर्न गिफ्ट में क्या चाहिए तो खुद ही उसे मुझे दे देना. उस फकीर की तरह मैं भी कभी तुम्हें अपने मन की इच्छा अपने मुंह से नहीं बताना चाहूंगा,’’ उन्होंने बड़ी चालाकी से सारे मामले में पहल करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी थी.

‘‘जब मुझे आप की पसंद की गिफ्ट का एहसास हो जाएगा तो मैं अपना फैसला आप को जरूर बता दूंगी, अब यहां से चलें?’’

‘‘हां,’’ उन के चेहरे पर एक उदास सी मुसकान उभरी और हम वापस गेट की तरफ चल पड़े थे.

‘‘अब आप मुझे मेरे घर छोड़ दो, प्लीज,’’ मेरी इस प्रार्थना को सुन कर वह अचानक जोर से हंस पड़े थे.

‘‘अरे, अभी एक बढि़या सरप्राइज तुम्हारे लिए बचा कर रखा है. उस का मजा लेने के बाद घर जाना,’’ वह एकदम से सहज नजर आने लगे तो मेरा मन भी तनावमुक्त होने लगा था.

मुझे सचमुच उन के घर पहुंच कर जबरदस्त सरप्राइज मिला.

उन के ड्राइंगरूम में मेरी शानदार बर्थडे पार्टी का आयोजन शिखा ने बड़ी मेहनत से किया था. उस ने बड़ी शानदार सजावट की थी. मेरी खास सहेलियों को उस ने मुझ से छिपा कर बुलाया हुआ था.

‘‘हैप्पी बर्थडे, अंकिता,’’ मेरे अंदर घुसते ही सब ने तालियां बजा कर मेरा स्वागत किया तो मेरा मन खुशी से नाच उठा था.

अचानक मेरी नजर अपनी मम्मी पर पड़ी तो मैं जोशीले अंदाज में चिल्ला उठी, ‘‘अरे, आप यहां कैसे? इस शानदार पार्टी के बारे में आप को तो कम से कम मुझे जरूर बता देना चाहिए था.’’

‘‘हैप्पी बर्थडे, माई डार्लिंग. मुझे ही शिखा ने 2 घंटे पहले फोन कर के इस पार्टी की खबर दी तो मैं तुम्हें पहले से क्या बताती?’’ उन्होंने मुझे छाती से लगाने के बाद जब मेरा माथा प्यार से चूमा तो मेरी पलकें भीग उठी थीं.

कुछ देर बाद मैं ने चौकलेट वाला केक काटा. मेरी सहेलियों ने मौका नहीं चूका और मेरे गालों पर जम कर केक मला.

खाने का बहुत सारा सामान वहां था. हम सब सहेलियों ने डट कर पेट भरा और फिर डांस करने के मूड में आ गए. सब ने मिल कर सोफे दीवार से लगाए और कमरे में डांस करने की जगह बना ली.

मस्त हो कर नाचते हुए अचानक मेरी नजर राकेशजी पर पड़ी. वह मंत्रमुग्ध से हो कर मेरी मम्मी को देख रहे थे. तालियां बजा कर हम सब का उत्साह बढ़ा रही मम्मी को कतई अंदाजा नहीं था कि वह किसी की प्रेम भरी नजरों का आकर्षण केंद्र बनी हुई थीं.

उसी पल में बहुत सी बातें मेरी समझ में अपनेआप आ गईं, राकेशजी पिछले दिनों मम्मी को पाने के लिए मेरा दिल जीतने की कोशिश कर रहे थे और मैं कमअक्ल इस गलतफहमी का शिकार हो गई कि वह मुझ से इश्क लड़ाने के चक्कर में थे.

‘तो क्या मम्मी भी उन्हें चाहती हैं?’ अपने मन में उभरे इस सवाल का जवाब पाना मेरे लिए एकाएक ही बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया.

‘‘मैं पानी पी कर अभी आई,’’ अपनी सहेलियों से यह बहाना बना कर मैं ने नाचना रोका और सीधे राकेशजी के पास पहुंच गई.

‘‘तो आप मुझ से और ज्यादा गहरे और मजबूत संबंध मेरी मम्मी को अपनी जीवनसंगिनी बना कर कायम करना चाहते हैं?’’ मेरा यह स्पष्ट सवाल सुन कर राकेशजी पहले चौंके और फिर झेंपे से अंदाज में मुसकराते हुए उन्होंने अपना सिर कई बार ऊपरनीचे हिला कर ‘हां’ कहा.

‘‘और मम्मी क्या कहती हैं आप को अपना जीवनसाथी बनाने के बारे में?’’ मैं तनाव से भर उठी.

‘‘पता नहीं,’’ उन्होंने गहरी सांस छोड़ी.

‘‘इस ‘पता नहीं’ का क्या मतलब है, सर?’’

‘‘सारा आफिस जानता है कि तुम उन की जिंदगी में अपने सौतेले पिता की मौजूदगी को स्वीकार करने के हमेशा से खिलाफ रही हो. फिलहाल तो हम बस अच्छे सहयोगी हैं. अब तुम्हारी ‘हां’ हो जाए तो मैं उन का दिल जीतने की कोशिश शुरू करूं,’’ वह मेरी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे थे.

‘‘क्या आप उन का दिल जीतने में सफल होने की उम्मीद रखते हैं?’’ कुछ पलों की खामोशी के बाद मैं ने संजीदा लहजे में पूछा.

‘‘अगर मैं ने बेटी का दिल जीत लिया है तो फिर यह काम भी कर लूंगा.’’

‘मेरा तो बाजा ही बजवा दिया था आप ने,’ मैं मुंह ही मुंह में बड़बड़ा उठी और फिर उन के बारे में अपने मनोभावों को याद कर जोर से शरमा भी गई.

‘‘क्या कहा तुम ने?’’ मेरी बड़बड़ाहट को वह समझ नहीं सके और मेरे शरमाने ने उन्हें उलझन का शिकार बना दिया था.

‘‘मैं ने कहा है कि मैं अभी ही आप के सवाल पर मम्मी का जवाब दिलवा देती हूं. वैसे क्या शिखा को आप के दिल की यह इच्छा मालूम है, अंकल?’’ बहुत दिनों के बाद मैं ने उन्हें उचित ढंग से संबोधित किया था.

‘‘तुम ने हरी झंडी दिखा दी तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा,’’ उन्होंने बड़े अधिकार से मेरा हाथ पकड़ा और मुझे उन के स्पर्श में सिर्फ स्नेह और अपनापन ही महसूस हुआ.

‘‘आप चलो मेरे साथ,’’ उन्हें साथ ले कर मैं मम्मी के पास आ गई.

मैं ने मम्मी से थोड़ा इतराते हुए पूछा, ‘‘मौम, अगर अपने साथ के लिए मैं एक हमउम्र बहन बना लूं तो आप को कोई एतराज होगा?’’

‘‘बिलकुल नहीं होगा,’’ मम्मी ने मुसकराते हुए फौरन जवाब दिया.

‘‘राकेश अंकल रिटर्न गिफ्ट मांग रहे हैं.’’

‘‘तो दे दो.’’

‘‘आप से पूछना जरूरी है, मौम.’’

‘‘समझ ले मैं ने ‘हां’ कर दी है.’’

‘‘बाद में नाराज मत होना.’’

‘‘नहीं होऊंगी, मेरी गुडि़या.’’

‘‘रिटर्न गिफ्ट में अंकल आप की दोस्ती चाहते हैं. आप संभालिए अपने इस दोस्त को और मैं चली अपनी नई बहन को खुशखबरी देने कि उस की जिंदगी में बड़ी प्यारी सी नई मां आ गई हैं,’’ मैं ने अपनी मम्मी का हाथ राकेशजी के हाथ में पकड़ाया और शिखा से मिलने जाने को तैयार हो गई.

‘‘इस रिटर्न गिफ्ट को मैं सारी जिंदगी बड़े प्यार से रखूंगा,’’ राकेशजी के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर मम्मी जिस अंदाज में लजाईंशरमाईं, वह मेरी समझ से उन के दिल में अपने नए दोस्त के लिए कोमल भावनाएं होने का पक्का सुबूत था.

 जब मैं छोटा था: क्या कहना चाहता था केशव

केशव ने घूर कर अपने बेटे अंगद को देखा. वह सहम गया और सोचने लगा कि उस ने ऐसा क्या कह दिया जो उस के पिता को खल गया. अगर उसे कुछ चाहिए तो वह अपने पिता से नहीं मांगेगा तो और किस से मांगेगा. रानी बेटे की बात समझती है पर वह केवल उस की सिफारिश ही तो कर सकती है. निर्णय तो इस परिवार में केशव ही लेता है.

रानी ने मुसकरा कर केशव को हलकी झिड़की दी, ‘‘अब घूरना बंद करो और मुंह से कुछ बोलो.’’

केशव ने रानी को मुंह सिकोड़ कर देखा और फिर सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘क्या समय आ गया है.’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने अपने पिता से कभी कुछ नहीं मांगा?’’ रानी ने हंस कर कहा, ‘‘बेकार में समय को दोष क्यों देते हो?’’

‘‘मांगा?’’ केशव ने तैश खा कर कहा, ‘‘मांगना तो दूर हमारा तो उन के सामने मुंह भी नहीं खुलता था. इतनी इज्जत करते थे उन की.’’

‘‘इज्जत करते थे या डरते थे?’’ रानी ने व्यंग्य से कहा.

केशव ने लापरवाही का नाटक किया, ‘‘एक ही बात है. अब हमारी औलाद हम से डरती कहां है?’’

अवसर का लाभ उठाते हुए अंगद ने शरारत से पूछा, ‘‘पिताजी, क्या आप के समय में आजकल की तरह जन्मदिन मनाया जाता था?’’

केशव ने व्यंग्य से हंस कर कहा, ‘‘जनाब, ऐसी फुजूलखर्ची के बारे में सोचना ही गुनाह था. ये तो आजकल के चोंचले हैं.’’

‘‘फिर भी पिताजी,’’ अंगद ने कहा, ‘‘कभी न कभी तो आप को जन्मदिन पर कुछ तो विशेष मिला होगा.’’

रानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘मिला था, एक पाजामा. क्यों, ठीक है न?’’

केशव भी हंसा, ‘‘ठीक है, तुम्हें तो मेरा राज मालूम है.’’

‘‘पाजामा?’’ अंगद ने चकित हो कर पूछा, ‘‘क्या यह भी कोई उपहार है?’’

‘‘बहुत बड़ा उपहार था, बेटे,’’ केशव ने यादों में खोते हुए कहा, ‘‘पिताजी से तो बात करने का सवाल ही नहीं था. जब मैं ने मां से हठ की तो उन्होंने अपने हाथों से नया पाजामा सिल कर दिया था. मैं बहुत खुश था. रानी, तुम भी अंगद को एक पाजामा सिल

कर दो, पर…पर तुम्हें तो सिलना आता ही नहीं.’’

‘‘सारे दरजी मर गए क्या?’’ रानी ने चिढ़ कर कहा.

‘‘पाजामावाजामा नहीं,’’ अंगद ने जोर दे कर कहा, ‘‘अगर कुछ देना है तो मोपेड दीजिए. मेरे सारे दोस्तों के पास है. सब मोपेड पर ही स्कूल आते हैं. बस, एक मैं ही हूं, खटारा साइकिल वाला.’’

के शव ने तनिक नाराजगी से कहा, ‘‘साइकिल की इज्जत करना सीखो. उस ने 20 साल मेरी सेवा की है.’’

‘‘दहेज में जो मिली थी,’’ रानी ने टांग खींची.

‘‘क्या करता,’’ केशव चिढ़ कर बोला, ‘‘अगर स्कूटर मांगता तो तुम्हारे पिताजी को घर बेचना पड़ जाता.’’

‘‘अरे, जाओ भी,’’ रानी ने चोट खाए स्वर में कहा, ‘‘लेने वाले की हैसियत भी देखी जाती है.’’

अंगद ने महसूस किया कि बातों का रुख बदल रहा है इसीलिए बीच में पड़ कर बोला, ‘‘आप लोग तो

फिर लड़ने लगे. मेरे लिए मोपेड लेंगे या नहीं?’’

‘‘बरखुरदार,’’ केशव ने फिर से घूरते हुए कहा, ‘‘जब हम तुम्हारे बराबर थे तो पैदल स्कूल जाते थे. स्कूल भी कोई पास नहीं था. पूरे 3 मील दूर था. उन दिनों घर में बिजली भी नहीं थी इसलिए सड़क के किनारे लैंपपोस्ट के नीचे बैठ कर पढ़ते थे. जेबखर्च के पैसे भी नहीं मिलते थे. दिन भर कुछ नहीं खाते थे. घर आ कर 5 बजे तक रात का खाना निबट जाता था. समझे जनाब? आप मोपेड की बात करते हैं.’’

रानी इस भाषण को कई बार सुनसुन कर उकता चुकी थी इसलिए ताना मार कर बोली, ‘‘तो यह है आप की सफलता का रहस्य. देखो बेटे, ऐसा करोगे तो पिताजी की तरह एक दिन किसी कारखाने के महाप्रबंधक बन जाओगे.’’

अंगद मूर्खों की तरह मांबाप को देख रहा था. उस के मन में विद्रोह की आग सुलग रही थी. बड़ी बहन मानिनी जब भी कुछ मांगती थी तो उसे तुरंत मिल जाता था. एक वही है इस घर में दलित वर्ग का शोषित प्राणी.

नाश्ता समाप्त होने पर केशव कार्यालय जाने की तैयारी में लग गया और नौकरानी के आ जाने से रानी घर की सफाई कराने में व्यस्त हो गई. अंगद कब स्कूल चला गया किसी को पता ही नहीं चला.

कार निकालते समय केशव ने रोज के मुकाबले कुछ फर्क महसूस किया, पर समझ नहीं पाया. बहुत दूर निकल जाने पर उसे ध्यान आया कि आज अंगद की साइकिल अपनी जगह पर ही खड़ी थी. वैसे अकसर साइकिल खराब होने पर अंगद साइकिल घर छोड़ कर बस से चला जाता था.

घर का काम निबट जाने के बाद रानी ने देखा कि अंगद का लंच बाक्स मेज पर ही पड़ा था. वैसे आमतौर पर वह लंच बाक्स ले जाना भूलता नहीं है क्योंकि रानी हमेशा बेटे का मनपसंद खाना ही रखती थी. खैर, कोई बात नहीं, अंगद की जेब में इतने रुपए तो होते ही हैं कि वह कुछ ले कर खा ले.

शाम को रानी को च्ंिता हुई क्योंकि अंगद हमेशा 3 बजे तक घर आ जाता था, पर आज 5 बज रहे थे. केशव के फोन से वह जान चुकी थी कि आज अंगद साइकिल भी नहीं ले गया था, पर बस से भी इतनी देर नहीं लगती. उस वक्त 6 बज रहे थे जब अंगद ने घर में प्रवेश किया. उस का चेहरा लाल हो रहा था और जूते धूलधूसरित हो गए थे. थकान के लक्षण भी स्पष्ट थे.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी?’’ रानी ने बस्ता संभालते हुए पूछा.

‘‘बस, हो गई देर, मां,’’ अंगद ने टालते हुए कहा, ‘‘जल्दी से खाना दो. बहुत भूख लगी है.’’

‘‘खाना क्यों नहीं ले गया?’’ रानी ने शिकायत की.

‘‘भूल गया था,’’ अंगद का झूठ पता चल रहा था.

‘‘भूल गया या ले नहीं गया?’’ रानी ने तनिक क्रोध से पूछा.

‘‘कहा न, भूल गया,’’ अंगद चिढ़ कर बोला.

रानी ने अधिक जोर नहीं दिया. बोली, ‘‘जा, जल्दी से कपड़े बदल और हाथमुंह धो कर आ. आलू के परांठे और गाजर का हलवा बना है.’’

अंगद के चेहरे पर झलकती प्रसन्नता से रानी को संतोष हुआ. उसे लगा कि वह वाकई बहुत भूखा है. अंगद के आने से पहले ही उस ने खाना मेज पर लगा दिया था.

अंगद ने भरपेट खाया. कुछ देर तक टीवी देखा और फिर पढ़ाई करने अपने कमरे में चला गया.

8 बजे केशव कार्यालय से आया.

आराम से बैठने के बाद केशव ने रानी से पूछा, ‘‘बच्चे कहां हैं? बहुत शांति है घर में.’’

‘‘मन्नू तो शालू के यहां गई है,’’ रानी ने सामने बैठते हुए कहा, ‘‘कोई पार्टी है. देर से आएगी.’’

‘‘अकेली आएगी क्या?’’ केशव ने च्ंिता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ रानी ने उत्तर दिया, ‘‘शालू का भाई छोड़ने आएगा.’’

‘‘उफ, ये बच्चे,’’ केशव ने अप्रसन्नता से कहा, ‘‘इतनी आजादी भी ठीक नहीं. जब मैं छोटा था तो बहन को तो छोड़ो, मुझे भी देर से आने नहीं दिया जाता था. आगे से ध्यान रखना. वैसे मन्नू कब तक आएगी?’’

‘‘अब क्यों च्ंिता करते हो,’’ रानी ने कहा, पर केशव की मुद्रा देख कर बोली, ‘‘ठीक है, फोन कर के पूछ लूंगी.’’

‘‘और साहबजादे कहां हैं?’’ केशव ने पूछा.

‘‘पढ़ रहा है,’’ रानी ने उत्तर दिया.

‘‘पर मुझे तो कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही,’’ केशव ने पुकारा, ‘‘अंगद…अंगद?’’

‘‘ओ हो, पढ़ने दो न,’’ रानी ने झिड़का, ‘‘कल परीक्षा है उस की.’’

‘‘तो जवाब नहीं देगा क्या?’’ केशव ने क्रोध से पुकारा, ‘‘अंगद?’’

अंगद का उत्तर नहीं आया. केशव अब अधिक सब्र नहीं कर सका. उठ कर अंगद के कमरे की ओर गया और झटके से अंदर घुसा.

‘‘यहां तो है नहीं,’’ केशव ने क्रोध से कहा.

‘‘नहीं है,’’ रानी को विश्वास नहीं हुआ, ‘‘थोड़ी देर पहले ही तो मैं उस के मांगने पर चाय देने गई थी.’’

केशव ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हां, चाय का प्याला तो है, पर जनाब नहीं हैं. गया कहां?’’

‘‘मुझ से तो कुछ कह कर नहीं गया,’’ रानी ने च्ंिता से कहा, ‘‘मन्नू के कमरे में देखो.’’

‘‘मन्नू के कमरे में भी होता तो जवाब देता न,’’ केशव ने क्रोध से कहा, ‘‘बहरा तो नहीं है.’’

रानी ने तसल्ली के लिए मन्नू के कमरे में  देखा और बोली, ‘‘पता नहीं कहां गया. शायद अखिल के यहां चला गया होगा. उस के साथ ही पढ़ता है न.’’

‘‘कह कर तो जाना था,’’ केशव भी अब च्ंितित था, ‘‘अखिल का घर कहां है?’’

‘‘वह राममनोहरजी का लड़का है,’’ रानी ने कहा, ‘‘309 नंबर में रहता है.’’

‘‘ओह,’’ केशव ने कहा, ‘‘उन के यहां तो फोन भी नहीं है.’’

‘‘थोड़ी देर देख लो,’’ रानी ने अपनी च्ंिता छिपाते हुए कहा, ‘‘आ जाएगा.’’

‘‘और मन्नू…’’

केशव का वाक्य समाप्त होेने से पहले ही रानी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मन्नू के पीछे पड़ गए. कभी तो चैन से बैठा करो.’’

झिड़की खा कर केशव कुरसी पर बैठ कर पत्रिका पढ़ने का नाटक करने लगा.

‘‘खाना लगाऊं क्या?’’ रानी ने कुछ देर बाद पूछा.

‘‘नहीं,’’ केशव ने कहा, ‘‘बच्चों को आने दो.’’

‘‘मन्नू तो खा कर आएगी,’’ रानी ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अंगद बाद में खा लेगा. स्कूल से आ कर कुछ ज्यादा ही खा लिया था.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘2 की जगह पूरे 4 परांठे खा लिए,’’ रानी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘उसे आलू के परांठे अच्छे लगते हैं न.’’

कुछ और समय बीतने पर केशव उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं राममनोहरजी के घर हो कर आता हूं.’’

उसी समय घंटी बजी और मानिनी ने प्रवेश किया. वह बहुत प्रसन्न थी.

‘‘शालू की पार्टी में बहुत मजा आया,’’ मानिनी ने हंसते हुए पूछा, ‘‘यह अंगद सड़क के किनारे क्यों बैठा है? क्या आप ने सजा दी है?’’

‘‘सड़क के किनारे?’’ केशव और रानी ने एकसाथ पूछा, ‘‘कहां?’’

‘‘साधना स्टोर के सामने,’’ मानिनी ने उत्तर दिया, ‘‘क्या मैं उसे बुला कर ले आऊं?’’

इस से पहले कि रानी कुछ कहती केशव ने गंभीरता से कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. शायद पढ़ रहा होगा.’’

‘‘क्या घर में बिजली नहीं है?’’ मानिनी ने पूछा, पर फिर ध्यान आया कि बिजली तो है.

रानी ने खाना लगा दिया. केशव हाथ धो कर बैठने ही वाला था कि अंगद ने आहिस्ताआहिस्ता घर में प्रवेश किया.

केशव ने घूरते हुए पूछा, ‘‘इतनी दूर पढ़ने क्यों गए थे?’’

‘‘क्योंकि पास में कोई लैंपपोस्ट नहीं था,’’ अंगद ने मासूमियत से कहा.

केशव को हंसी भी आई और क्रोध भी. रानी भी हंस कर रह गई.

‘‘चलो, खाने के लिए बैठो,’’ रानी ने कहा.

‘‘स्कूल से आते ही खा तो लिया था,’’ अंगद ने कहा और अपने कमरे में चला गया.

केशव और रानी को अंगद का व्यवहार अब समझ में आ रहा था. लगता था कि नाटक की शुरुआत है.

मानिनी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस ने पूछा, ‘‘बात क्या है? आज अंगद के तेवर क्यों बिगड़े हुए हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ रानी हंसी, ‘‘शीत- युद्ध है.’’

‘‘क्यों?’’ मानिनी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मोपेड चाहिए जनाब को,’’ केशव ने कहा, ‘‘हमारे जमाने में…’’

‘‘ओ हो, पिताजी,’’ मानिनी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मैं समझ गई. न आप कभी बदलेंगे, न आप का जमाना. ठीक है, मैं चंदा इकट्ठा करती हूं.’’

एक मानिनी ही थी जो केशव से बेझिझक हो कर बात कर सकती थी.

केशव ने उसे घूर कर देखा और फिर उठ कर चला गया.

सुबह की चाय हो चुकी थी. जब नाश्ता लगा तो अंगद जा चुका था.

उस की साइकिल पर धूल जम गई थी और हवा भी निकल गई थी.

शाम को थकामांदा अंगद 6 बजे आया.

‘‘क्यों, बस नहीं मिली क्या?’’ रानी ने क्रोध से पूछा.

‘‘बसें तो आतीजाती रहती हैं.’’

‘‘तो फिर?’’ रानी ने पूछा.

‘‘तो फिर क्या? मुझे भूख लगी है. खाना तो मिलेगा न?’’

रानी को अब क्रोध नहीं आया. जानती थी कि वह भूखा होगा. उस के लिए खीर, पूडि़यां और गोभी की

सब्जी बनाई थी. अंगद ने प्रसन्न हो

कर भरपेट खाया और कमरे में चला गया.

केशव जब आया तब अंगद घर में नहीं था. आते वक्त केशव ने लैंपपोस्ट के नीचे निगाह डाली थी. अंगद धुंधली रोशनी में आंखें गड़ाए पढ़ रहा था.

3 दिन तक यह नाटक चलता रहा.

आज अंगद का जन्मदिन था. हर साल इस दिन रौनक छा जाती थी. पार्टी में आने वाले मित्रों की सूची बनती थी. लजीज व्यंजन बनाए जाते थे. मानिनी कुछ दिन पहले ही से उसे छेड़ने लगती थी और इस छेड़छाड़ में लड़ाई भी

हो जाती थी. वैसे अंगद को इस

बात का बहुत मलाल रहता था कि मानिनी का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है.

नींद खुलते ही अंगद की नजर पास पड़े लिफाफे पर पड़ी. लिफाफे को उठाते ही उस में से एक चाबी गिरी. चाबी से लटका एक छोटा सा कार्ड था. उस पर लिखा था, ‘जन्मदिन पर छोटा सा उपहार.’

अंगद की आंखों में चमक आ गई. यह तो मोपेड की चाबी थी. आधी रात को वह एक चिट्ठी खाने की मेज पर छोड़ कर आया जिस में लिखा था :

पूज्य पिताजी और मां,

क्या आप मुझे क्षमा करेंगे? मोपेड के लिए हठ करना मेरी भूल थी. मुझे सिवा आप के आशीर्वाद और प्यार के कुछ नहीं चाहिए.

आप का पुत्र

अंगद.

जब अंगद नीचे पहुंचा तो पत्र मां के हाथ में था और वह पढ़ कर सुना रही थीं. केशव और मानिनी हंस रहे थे.

‘‘पिताजी, आप ने भी जल्दी कर दी. बेकार में मोपेड की चपत पड़ी,’’ मानिनी हंस कर कह रही थी.

अंगद सिर झुकाए शर्मिंदा सा खड़ा था.

‘‘तो आप को मोपेड नहीं चाहिए,’’ केशव ने नकली गंभीरता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ अंगद ने दृढ़ता से उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशव ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्योंकि,’’ अंगद ने गंभीरता से शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब मुझे स्कूटर चाहिए.’’

‘‘क्या?’’ केशव ने मारने के अंदाज में हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘क्या कहा?’’

मानिनी ने बीच में आते हुए कहा, ‘‘पिताजी, छोडि़ए भी. हमारा अंगद अब छोटा नहीं है.’’

‘‘पर जब मैं छोटा था…’’

होहल्ले में केशव अपना वाक्य पूरा न कर सका.

संस्कार: क्या जवान बेटी के साथ सफर करना सही था

जवान बेटी के साथ अकेले सफर करते रेलगाड़ी के कंपार्टमैंट में जवान लड़कों के ग्रुप के कारण वह अपने को असुरक्षित महसूस कर रही थी. लगभग 3 वर्ष बाद मैं लखनऊ जा रही थी. लखनऊ मेरे लिए एक शहर ही नहीं, एक मंजिल है क्योंकि वह मेरा मायका है. उस शहर में पांव रखते ही जैसे मेरा बचपन लौट आता है. 10 दिनों बाद भैया की बड़ी बेटी शुभ्रा की शादी थी. मैं और मेघना दोपहर की गाड़ी से जा रही थीं. मेरे पति राजीव बाद में पहुंचने वाले थे. कुछ तो इन्हें काम की अधिकता थी, दूसरे, इन की तो ससुराल है. ऐनवक्त पर पहुंच कर अपना भाव भी तो बढ़ाना था.

मेरी बात और है. मैं ने सोचा था कुछ दिन वहां चैन से रहूंगी, सब से मिलूंगी, बचपन की यादें ताजा करूंगी और कुछ भैयाभाभी के काम में भी हाथ बंटाऊंगी. शादी वाले घर में सौ तरह के काम होते हैं.

अपनी शादी के बाद पहली बार मैं शादी जैसे अवसर पर मायके जा रही थी. मां का आग्रह था कि मैं पूरी तैयारी के साथ आऊं. मां पूरी बिरादरी को दिखाना चाहती थीं आखिर उन की बेटी कितनी सुखी है, कितनी संपन्न है या शायद दूर के रिश्ते की बूआ को दिखाना चाहती होंगी, जिन का लाया रिश्ता ठुकरा कर मां ने मुझे दिल्ली में ब्याह दिया था. लक्ष्मी बूआ भी तो उस दिन से सीधे मुंह बात नहीं करतीं.

शुभ्रा के विवाह में जाने का मेरा भी चाव कुछ कम नहीं था, उस पर मां का आग्रह. हम दोनों, मांबेटी ने बड़े ही मनोयोग से समारोह में शामिल होने की तैयारी की थी. हर मौके पर पहनने के लिए नई तथा आधुनिक पोशाक, उस से मैचिंग चूडि़यां, गहने, सैंडल और न जाने क्याक्या जुटाया गया.

पूरी उमंग और उत्साह के साथ हम स्टेशन पहुंचे. राजीव हमें विदा करने आए थे. हमारे सहयात्री कालेज के लड़के थे जो किसी कार्यशाला में भाग लेने लखनऊ जा रहे थे. हालांकि गाड़ी चलने से पहले वे सब अपने सामान के यहांवहां रखरखाव में ही लगे थे, फिर भी उन्हें देख कर मैं कुछ परेशान हो उठी. मेरी परेशानी शायद मेरे चेहरे से झलकने लगी थी जिसे राजीव ने भांप लिया था. ऐसे में वे कुछ खुल कर तो कह न पाए लेकिन मुझे होशियार रहने के लिए जरूर कह गए. यही कारण था कि चलतेचलते उन्होंने उन लड़कों से भी कुछ इस तरह से बात की जिस से यात्रा के दौरान माहौल हलकाफुलका बना रहे.

गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी. हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगे. लड़कों में अपनीअपनी जगह तय करने के लिए छीनाझपटी, चुहलबाजी शुरू हो गई.

वैसे, मुझे युवा पीढ़ी से कभी कोई शिकायत नहीं रही. न ही मैं ने कभी अपने और उन में कोई दूरी महसूस की है. मैं तो हमेशा घरपरिवार के बच्चों और नौजवानों की मनपसंद आंटी रही हूं. मेरा तो मानना है कि नौजवानों के बीच रह कर अपनी उम्र के बढ़ने का एहसास ही नहीं होता, लेकिन उस समय मैं लड़कों की शरारतों और नोकझोंक से कुछ परेशान सी हो उठी थी.

ऐसा नहीं कि बच्चे कुछ गलत कर रहे थे. शायद मेरे साथ मेघना का होना मुझे उन के साथ जुड़ने नहीं दे रहा था. कुछ आजकल के हालात भी मुझे परेशान किए हुए थे. देखने में तो सब भले घरों के लग रहे थे फिर भी एकसाथ 6 लड़कों का गु्रप, उस पर किसी बड़े का उन के साथ न होना, उस पर उम्र का ऐसा मोड़ जो उन्हें शांत, सौम्य तथा गंभीर नहीं रहने दे रहा था. मैं भला परेशान कैसे न होती.

मेरा ध्यान शुभ्रा की शादी, मायके जाने की खुशी और रास्ते के बागबगीचों, खेतखलिहानों से हट कर बस, उन लड़कों पर केंद्रित हो गया था. थोड़ी ही देर में हम उन लड़कों के नामों से ही नहीं, आदतों से भी परिचित हो गए.

घुंघराले बालों वाला सांवला सा, नाटे कद का अंकित फिल्मों का शौकीन लगता था. उस के उठनेबैठने में फिल्मी अंदाज था तो बातचीत में फिल्मी डायलौग और गानों का पुट था. एक लड़के को सब सैम कह कर बुला रहे थे. यह उस के मातापिता का रखा नाम तो नहीं लगता था, शायद यह दोस्तों द्वारा किया गया नामकरण था.

चुस्तदुरुस्त सैम चालढाल और पहनावे से खिलाड़ी लगता था. मझली कदकाठी वाला ईश गु्रप का लीडर जान पड़ता था. नेवीकट बाल, लंबी और घनी मूंछें और बड़ीबड़ी आंखों वाले ईश से पूछे बिना लड़के कोई काम नहीं कर रहे थे. बिना मैचिंग की ढीलीढाली टीशर्ट पहने, बिखरे बालों वाला, बेपरवाह तबीयत वाला समीर था जो हर समय चुइंगम चबाता हुआ बोलचाल में इंग्लिश भाषा के शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा कर रहा था.

मेरे पास बैठे लड़के का नाम मनीष था. लंबा, गोराचिट्टा, नजर का चश्मा पहने वह नीली जींस और कीमती टीशर्ट में बड़ा स्मार्ट लग रहा था. कुछ शरमीले स्वभाव का पढ़ाकू सा लगने वाला मनीष कान में ईयर फोन और एक हाथ में मोबाइल व दूसरे हाथ में एक इंग्लिश नौवेल ले कर बैठा ही था कि आगे बढ़ कर रजत ने उस का नौवेल छीन लिया. रजत बड़ा ही चुलबुला, गोलमटोल हंसमुख लड़का था. हंसते हुए उस के दोनों गालों पर गड्ढे पड़ते थे. रजत पूरे रास्ते हंसताहंसाता रहा. पता नहीं क्यों, मुझे लगा उस की हंसी, उस की शरारतें सब मेघना के कारण हैं. इसलिए हंसना तो दूर, मेरी नजरों का पहरा हरदम मेघना पर बैठा रहा.

मेरे ही कारण मेघना बेचारी भी दबीघुटी सी या तो खिड़की से बाहर झांकती रही या आंखें बंद कर के सोने का नाटक करती रही. अपने हमउम्र उन लड़कों के साथ न खुल कर हंस पाई न ही उन की बातचीत में शामिल हो सकी. वैसे, न मैं ही ऐसी मां और न मेघना ही इतनी पुरातनपंथी लड़की है. वह तो हमेशा सहशिक्षा में ही पढ़ी है. वह क्या कालेज में लड़कों के साथ बातचीत, हंसीमजाक नहीं करती होगी. फिर भी न जाने क्यों, शायद घर से दूरी या अकेलापन मेने मन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे गया था.

उन से परिचय के आदानप्रदान और बातचीत में मैं ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. मुझे लगा वे मेघना तक पहुंचने के लिए मुझे सीढ़ी बनाएंगे. उन लड़कों की बहानों से उठी नजरें जब मेघना से टकरातीं तो मैं बेचैन हो उठती. उस दिन पहली बार मेघना मुझे बहुत ही खूबसूरत नजर आई और पहली बार मुझे बेटी की खूबसूरती पर गर्व नहीं, भय हुआ. मुझे शादी में इतने दिन पहले इस तरह जाने के अपने फैसले पर भी झुंझलाहट होने लगी थी. वास्तव में मायके जाने की खुशी में मैं भूल ही गई थी कि आजकल औरतों का अकेले सफर करना कितना जोखिम का काम है. वे सभी खबरें जो पिछले दिनों मैं ने अखबारों में पढ़ी थीं, एकएक कर के मेरे दिमाग पर दस्तक देने लगीं.

कई घंटों के सफर में आमनेसामने बैठे यात्री भला कब तक अपने आसपास से बेखबर रह सकते हैं. काफी देर तक तो हम दोनों मुंह सी कर बैठी रहीं लेकिन धीरेधीरे दूसरी तरफ से परिचय पाने की उत्सुकता बढ़ने लगी. शायद यात्रा के दौरान यह स्वाभाविक भी था. यदि सामने कोई परिवार बैठा होता तो क्या खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान किए बिना हम रहतीं और अगर सफर में कुछ महिलाओं का साथ होता तो क्या वे ऐसे ही अजनबी बनी रहतीं. उन कुछ घंटों के सफर में तो हम एकदूसरे के जीवन का भूगोल, इतिहास, भूत, वर्तमान सब बांच लेतीं.

चूंकि वे जवान लड़के थे और मेरे साथ मेरी जवान बेटी थी इसलिए उन की उठी हर नजर मुझे अपनी बेटी से टकराती लगती. उन की कही हर बात उसी को ध्यान में रख कर कही हुई लगती. उन की हंसीमजाक में मुझे छींटाकशी और ओछापन नजर आ रहा था. कुछ घंटों का सफर जैसे सदियों में फैल गया था. दोपहर कब शाम में बदली और शाम कब रात में बदल गई मुझे खबर ही न हुई क्योंकि मेरे अंदर भय का अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा घना था.

हालांकि जब भी कोई स्टेशन आता, लड़के हम से पूछते कि हमें चायपानी या किसी अन्य चीज की जरूरत तो नहीं. उन्होंने मेघना को गुमसुम बैठे बोर होते देखा तो अपनी पत्रपत्रिकाएं भी पेश कर दीं और वे अपनेअपने मोबाइल में व्यस्त हो गए. जबजब उन्होंने कुछ खाने के लिए पैकेट खोले तो बड़े आदर से पहले हमें औफर किया, हालांकि, हम हमेशा मना करती रहीं.

मैं ने अपनेआप को बहुत समझाया कि जब आपत्ति करने लायक कोई बात नहीं, तो मैं क्यों परेशान हो रही हूं, मैं क्यों सहज नहीं हो जाती. लेकिन तभी मन के किसी कोने में बैठा भय फन फैला देता. कहीं मेरी जरा सी ढील, बात को इतनी दूर न ले जाए कि मैं उसे समेट ही न सकूं. मैं तो पलपल यही मना रही थी कि यह सफर खत्म हो और मैं खुली हवा में सांस ले सकूं.

कानपुर स्टेशन आने वाला था. गाड़ी वहां कुछ ज्यादा देर के लिए रुकती है. डब्बे में स्वाभाविक हलचल शुरू हो गई थी. तभी एक अजीब सा शोर कानों में टकराने लगा. गाड़ी की रफ्तार धीमी हो गई थी. स्टेशन आतेआते बाहर का कोलाहल कर्णभेदी हो गया था. हर कोई खिड़कियों से बाहर झांकने की कोशिश कर ही रहा था कि गाड़ी प्लेटफौर्म पर आ लगी. बाहर का दृश्य सन्न कर देने वाला था. हजारों लोग गाड़ी के पूरी तरह रुकने से पहले ही उस पर टूट पड़े थे. जैसे, शेर शिकार पर झपटता है. स्टेशन पर चीखपुकार, लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज, हर तरफ आतंक का वातावरण था.

इस से पहले कि हम कुछ समझते, बीसियों लोग डब्बे में चढ़ कर हमारी सीटों के आसपास, यहांवहां जुटने लगे, जैसे गुड़ की डली पर मक्खियां चिपकती चली जाती हैं. वह स्टेशन नहीं, मानो मनुष्यों का समुद्र पर बंधा हुआ बांध था जो गाड़ी के आते ही टूट गया था. प्लेटफौर्म पर सिर ही नजर आ रहे थे. तिल रखने को भी जगह नहीं थी.

कई सिर खिड़कियों से अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे. मेघना ने घबरा कर खिड़की बंद करनी चाही तो कई हाथ अंदर आ गए जो सबकुछ झपट लेना चाहते थे. मेघना को पीछे हटा कर सैम और अंकित ने खिड़कियां बंद कर दीं. पलट कर देखा तो मनीष, रजत और ईश, तीनों अंदर घुस आए आदमियों के रेवड़ को खदेड़ने में लगे थे. किसी को धकिया रहे थे तो किसी से हाथापाई हो रही थी. समीर ने सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जल्दीजल्दी सारा सामान बंद खिड़कियों के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया.

लड़कों को उन धोतीकुरताधारी, निपट देहातियों से उलझते देख कर जैसे ही मैं ने हस्तक्षेप करना चाहा तो ईश और सैम एकसाथ बोल उठे, ‘‘आंटीजी, आप दोनों निश्चिंत हो कर बैठिए. बस, जरा सामान पर नजर रखिएगा. इन से तो हम निबट लेंगे.’’

तब याद आया कि सुबह लखनऊ में एक विशाल राजनीतिक रैली होने वाली थी, जिस में भाग लेने यह सारी भीड़ लखनऊ जा रही थी. लगता था जैसे रैली के उद्देश्य और उस की जरूरत से उस में भाग लेने वाले अनभिज्ञ थे. ठीक वैसे ही उस रैली के परिणाम और इस से आम आदमी को होने वाली परेशानी से रैली के आयोजक भी अनभिज्ञ थे.

पूरी गाड़ी में लूटपाट और जंग छिड़ी थी. जैसे वह गाड़ी न हो कर शोर और दहशत का बवंडर था जो पटरियों पर दौड़ता चला जा रहा था. लड़कों का पूरा ग्रुप हम दोनों मांबेटी की हिफाजत के लिए डट गया था. एक मजबूत दीवार खड़ी थी हमारे और अनचाही भीड़ के बीच. उन छहों की तत्परता, लगन, और निष्ठा को देख कर मैं मन ही मन नतमस्तक थी. उस पल शायद मेरा अपना बेटा भी होता तो क्या इस तरह अपनी मां और बहन की रक्षा कर पाता?

कानपुर से लखनऊ तक के उस कठिन सफर में वे न बैठे न उन्होंने कुछ खायापिया. इस बीच वे अपनी शरारतें, चुहलबाजी, फिल्मी अंदाज, सबकुछ भूल गए थे. उन के सामने जैसे एक ही उद्देश्य था, हमारी और सामान की हिफाजत.

मैं आत्मग्लानि की दलदल में धंसती जा रही थी. इन बच्चों के लिए मैं ने क्या धारणा बना ली थी, जिस के कारण मैं ने एक बार भी इन से ठीक व्यवहार नहीं किया. एक बार भी इन से प्यार से नहीं बोली, न ही इन के हासपरिहास या बातचीत में शामिल हुई. क्या परिचय दिया मैं ने अपनी शिक्षा, अनुभव, सभ्यता तथा संस्कारों का? और बदले में इन्होंने इतना दिया, इतना शिष्ट सम्मान तथा सुरक्षा.

उस दिन पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में महिलाओं का अकेले यात्रा करना कितना असुरक्षित है. साथ ही, एक सीख भी मिली कि कम से कम शादीब्याह तय करते हुए या यात्रा पर निकलने से पहले हमें शहर में होने वाली राजनीतिक रैलियों, जलसे, जुलूसों की जानकारी भी ले लेनी चाहिए. उस दिन महिलाओं के साथ घटी दुर्घटनाएं अखबारों के मुखपृष्ठ व टैलीविजन चैनलों की सुर्खियां बन कर रह गईं. कुछ घटनाओं को तो वहां भी जगह नहीं मिल पाई.

लखनऊ स्टेशन का हाल तो उस से भी बुरा था. प्लेटफौर्म तो जैसे कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया था. सामान, बच्चे, महिलाओं को ले कर यात्री उस भीड़ से निबट रहे थे. चीखपुकार मची थी. भीड़ स्टेशन की दुकानें लूट रही थी. दुकानदार अपना सामान बचाने में लगे थे. प्रलय का सा आतंक हर यात्री के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था. मेरी तो आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा था. इतना सारा कीमती सामान और साथ में खूबसूरत जवान बेटी. उस पर ऐसी भीड़ जिस की कोई नैतिकता, न सोच, बस, एक उन्माद होता है.

वैसे तो भैया हमें लेने स्टेशन आए हुए थे लेकिन उस भीड़ में हम उन्हें कहां मिलते. उस भीड़ में तो सामान उठाने के लिए कुली भी न मिल सका. उन लड़कों के पास अपना तो मात्र एकएक बैग था. अपने बैग के साथ सैम ने हमारी बड़ी अटैची ले ली. छोटी अटैची मेरे मना करने पर भी मनीष ने ले ली. हालांकि उस में पहिए लगे हुए थे तो परेशानी की बात नहीं थी. मेघना के पास की बोतल तथा मेरे पास मात्र मेरा पर्स रह गया. हमारे दोनों बैग भी ईश और अंकित के कंधों पर लटक गए थे. उन सब ने भीड़ में एकदूसरे के हाथ पकड़ कर एक घेरा सा बना लिया जिस के बीच हम दोनों चल रही थीं. उन्होंने हमें स्टेशन से बाहर ऐसे सुरक्षित निकाल लिया जैसे आग से बचा कर निकाल लाए हों.

मेरे पास उन का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं थे. उस दिन अगर वे नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता, इतना सोचने मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ने जब उन का आभार प्रकट किया तो उन्होंने बड़े ही सहज भाव से मुसकराते हुए कहा था, ‘‘क्या बात करती हैं आप, यह तो हमारा फर्ज था.’’

दिल से मैं ने उन्हें शुभ्रा की शादी में शामिल होने की दावत दी लेकिन उन का आना संभव नहीं था क्योंकि वे मात्र 4 दिनों के लिए लखनऊ एक कार्यशाला में शामिल होने आए थे. उन के लिए 10 दिन रुकना असंभव था. फिर भी एक शाम हम ने उन्हें खाने पर बुलाया. सब से उन का परिचय करवाया. वह मुलाकात बहुत ही सहज, रोचक और यादगार रही. सभी लड़के सुशिक्षित, सभ्य तथा मिलनसार थे.

हम लोग अकसर युवा पीढ़ी को गैरजिम्मेदार, संस्कारविहीन तथा दिशाविहीन कहते हैं लेकिन हमारा ही अंश और हमारे ही दिए संस्कारों को ले कर बड़ी हुई यह युवा पीढ़ी भला हम से अलग सोच वाली कैसे हो सकती है. जरूर उन्हें समझने में कहीं न कहीं हम से ही चूक हो जाती है.

फर्स्ट ईयर: दोस्ती के पीछे छिपी थी प्यार की लहर

कालेज शुरू हुए कुछ दिन बीते थे मगर फिर भी पहले साल के विद्यार्थियों में हलचल कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी. युवा उत्साह का तकाजा था और कुछ कालेजलाइफ का शुरुआती रोमांच भी था. एक अजीब सी लहर चल रही थी क्लास में, दोस्ती की शुरुआत की. हालांकि दोस्ती की लहर तो ऊपरी तौर पर थी, लेकिन सतह के नीचे कहीं न कहीं प्यार वाली लहरों की भी हलचल जारी थी. दोस्ती की लहर तो आप ऊपरी तौर पर हर जगह देख सकते थे, लेकिन प्यार की लहर देखने के लिए आप को किसी सूक्ष्मदर्शी की जरूरत पड़ सकती थी. कनखियों से देखना, इक पल को एकदूसरे को देख कर मुसकराना, ये सब आप खुली आंखों से कहां देख सकते हैं. जरा ध्यान देना पड़ता है, हुजूर. मैं खुद कुछ उलझन में था कि वह मुझे देख कर मुसकराती है या फिर मुझे कनखियों से देखती है. खैर, मैं ठहरा कवि, कहानीकार. मेरे अतिगंभीर स्वभाव के कारण जो युवतियां मुझ में शुरू में रुचि लेती थीं वे अब दूसरे ठिठोलीबाज युवकों के साथ घूमनेफिरने लगी थीं. यहां मेरी रुचि का तो कोई सवाल ही नहीं था, भाई, मेरे लिए भागते चोर की लंगोटी ही काफी थी, लेकिन मेरे पास तो उस लंगोटी का भी विकल्प नहीं छूटा था.

लेकिन कुछ लड़कों का कनखियों से देखने व मुसकराने का सिलसिला जरा लंबा खिंच गया था और प्यार का धीमाधीमा धुआं उठने लगा था, अब वह धुआं कच्चा था या पक्का, यह तो आग सुलगने के बाद ही पता चलना था. खैर, उन सहपाठियों में मेरा दोस्त भी शामिल था. गगन नाम था उस का. वह उस समय किसी विनीशा नाम की लड़की पर फिदा हो चुका था. दोनों का एकदूसरे को कनखियों से देखने का सिलसिला अब मुसकराहटों पर जा कर अटक चुका था. मैं इतना बोरिंग और पढ़ाकू था कि मुझे अपने उस मित्र के बारे में कुछ पता ही नहीं चल सकता था. खैर, उस ने एक दिन मुझे बता ही दिया.

’’यार कवि, तुझे पता है विनीशा और मेरा कुछ चल रहा है,’’ गगन ने हलका सा मुसकराते हुए मुझे बताया था. ’’कौन विनीशा?’’ मेरा यह सवाल था, क्योंकि मैं अपने संकोची व्यवहार के कारण क्लास की सभी लड़कियों का नाम तक नहीं जानता था.

पास ही हामिद भी खड़ा था, जो मेरे बाद गगन का क्लास में सब से अच्छा दोस्त था. उस ने बताया, ’’अरे, वह जो आगे की बैंच पर बैठती है,’’ हामिद ने मुझे इशारा किया. ’’कौन निशा?’’ मैं ने अंदाजा लगाया, क्योंकि मैं खुद शुरू में उस लड़की में रुचि लेता था, इसलिए उस का नाम मुझे मालूम था.

’’नहीं यार, निशा के पास जो बैठती है,’’ गगन ने फिर मुसकराते हुए बताया था. ’’अच्छा वह,’’ अब मैं मुसकरा रहा था, मैं अब उस लड़की को चेहरे से पहचान गया था. ’’उस का नाम विनीशा है,’’ मैं ने हलका सा आश्चर्य व्यक्त किया था.

’’हां यार, वही,’’ गगन ने हलका भावुक हो कर कहा था. ’’अच्छा, तो मेरे लायक कोई काम इस मामले में, मैं ने हंसते हुए पूछा था.

’’नहीं यार, तू तो मेरा दोस्त है. तुझे तो मैं अपनी पर्सनल फीलिंग बताऊंगा ही,’’ गगन ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था. वह पल ऐसा था, जिस में भले ही विनीशा का जिक्र था, लेकिन मुझे हमेशा वह पल मेरा अपना ही लगा. वह एहसास था एक अच्छी और सच्ची दोस्ती की शुरुआत का. मैं मुसकराया और धीमे से बोला, ’’मेरी विशेज हमेशा तुम्हारे साथ हैं, तो मैं चलूं. मुझे लाइब्रेरी जाना है.’’

’’हां, चल ठीक है,’’ गगन के इतना कहते ही मैं लाइब्रेरी की ओर चल दिया. मुझे किसी विनीशा की फिक्र नहीं थी लेकिन एक ताजा सा खयाल था नई दोस्ती की शुरुआत का. वह क्लास की लहर कहीं न कहीं मुझ में भी दौड़ रही थी.

अगले दिन जब मैं कालेज के हाफटाइम में कुछ समय के लिए कालेज की सीढि़यों पर बैठा था, तो राजन मिला. ’’हाय राजन,’’ मैं इतना कह कर कालेज के गेट के बाहर वाली सड़क के पार मैदान में देखने लगा.

तभी मेरी नजरें मैदान में जाने से पहले उस सड़क पर ठहर गईं जहां गगन निशा के साथ टहल रहा था. मेरे मन में कई सवाल उठे कि गगन तो विनीशा को पसंद करता है तो फिर निशा के साथ क्या कर रहा है. खैर, मैं ने हाफटाइम के बाद गगन के क्लास में आने पर उस से पूछा, ’’यार गगन, तू तो कह रहा था कि तू विनीशा को पसंद करता है, फिर निशा?’’

’’अरे, मैं विनीशा के बारे में ही उस से बात कर रहा था,’’ गगन ने गंभीरता से बताया. ’’फिर,’’ मैं ने पूछा था.

’’वह बता रही थी कि विनीशा का पहले से ही कोई बौयफ्रैंड है,’’ उस ने उतनी ही गंभीरता से बताया. ’’हूं… अभी,’’ मैं ने भी गंभीरता व्यक्त की थी.

’’मैं यार, फिर भी उस से एक बार मिलना चाहता हूं,’’ गगन में कहीं न कहीं उम्मीद अभी भी दबी नहीं थी. ’’ठीक है, फिर बताना. अच्छा हो कि निशा की बात गलत हो,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा, फिर पूरी क्लास पढ़ाई में लग गई, क्योंकि हमारे टीचर अब थोड़े सख्ती बरत रहे थे.

अगले दिन तक गगन विनीशा से मिल चुका था और मुझे बता रहा था, ’’यार, वह तो मुझे कन्फ्यूज कर रही है, उस का बौयफ्रैंड है तो वह सीधीसीधी बात क्यों नहीं कहती?’’ ’’हो सकता है वह अपने बौयफ्रैंड से छुटकारा पाना चाहती हो, ब्रेकअप करना चाहती हो,’’ मैं ने उसे समझाया, जबकि मैं खुद इन मामलों में अनाड़ी था.

’’हां यार, देखते हैं. मैं खुद समझ नहीं पा रहा हूं,’’ गगन गंभीर था. खैर, फिर यों ही चलता रहा और आखिर में पहले सैमेस्टर की परीक्षाएं करीब आ गईं. तब तक मैं विनीशा और गगन के चक्कर को भूल ही गया था.

रिजल्ट आया, गगन पास तो हो गया था, लेकिन पूरी क्लास की अपेक्षा उसे कम नंबर मिले थे. गगन उन दिनों हामिद के साथ ज्यादा रहने लगा था. दूसरे सैमेस्टर में तो वह मेरे साथ ज्यादा रहा ही नहीं, लेकिन दूसरे साल में वह अब फिर मेरे साथ रहने लगा था. मैं ने एक दिन उस से विनीशा का जिक्र किया, तो वह बताने लगा, ’’यार, मैं ने उस लड़की की खूबियां देखी थीं, लेकिन कमियां नहीं देखी थीं. वह मुझे उलझाए बैठी थी. उस का बौयफै्रंड था तो भी वह मुझ से क्या चाह रही थी, मैं समझ नहीं पा रहा था. एक दिन वह मेरा इंतजार करती रही और मैं उस से मिलने नहीं गया.’’

’’हूं… मतलब सब ओवर,’’ मैं ने मुसकरा कर पूछा. ’’देखो कवि, एक बात बताऊं,’’ वह मुझे अकसर कवि ही कहता था, ’’तेरे और मेरे जैसे लोग इस कालेज में लाखों रुपए फीस दे कर कोई लक्ष्य ले कर आए हैं और ये सब फालतू चीजें हमें अपने लक्ष्य से भटका देती हैं.’’

मैं उसे ध्यान से सुन रहा था और गौर भी कर रहा था. ’’यार, तू ने देखा न, पिछले सैमेस्टरों में मेरा क्या रिजल्ट रहा,’’ वह मेरी तरफ देख रहा था.

’’अब तू ही बता. एक लड़की के प्यार के पीछे मैं ने कितना कुछ खो दिया,’’ वह गंभीर था. ’’हां यार, मैं तुझे पहले ही कहने वाला था, पर मुझे लगा कि तू बुरा मान जाएगा,’’ मैं ने आज अपने दिल की बात कह दी.

’’नहीं यार, तू तो मेरा दोस्त है. अब तो मैं ने तय कर लिया है कि फालतू यारीदोस्ती व प्यारमुहब्बत में पड़ूंगा ही नहीं और बस, तेरे और दोचार लोगों के साथ ही रहूंगा,’’ उस ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा, ’’दोस्त, तुम मिडिल क्लास पर्सन हो, और तुम आज को ऐंजौय करने की नहीं बल्कि भविष्य संवारने की सोचते हो.’’ ’’वह तो है,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.

’’और मैं भी फालतू बातों से ध्यान हटा कर अपना भविष्य संवारना चाहता हूं,’’ उस का हाथ मेरे कंधे पर ही था. वह भावुक हो गया था. हमारी दोस्ती की यह लहर मुझे अभी भी ताजी महसूस हो रही थी. उस के बाद से अब तक वह मेरे साथ ही रहता है. कालेज में विनीशा की तरफ देखता भी नहीं है. क्लास में खाली समय में भी पढ़ता रहता है.

वह समय पर एनसीसी जौइन नहीं कर पाया था, लेकिन अपनी मेहनत के बलबूते पर अब वह एनसीसी में न सिर्फ सिलैक्ट हो गया, बल्कि एक कैंप भी अटैंड कर के आया है. कैंप में फायरिंग सीखने के बाद अब वह एक और कैंप में एयर फ्लाइंग के लिए भी जाने वाला है. उस का लक्ष्य आर्मी या पुलिस में जाना है और वह उस के करीब भी नजर आने लगा है. गगन एक विशालकाय समुद्र की लहरों को चीरते हुए सतह पर आने लगा है, जिस में कई नौजवान गोते खाते रहते हैं. फर्स्ट ईयर के बाद अब सैकंड ईयर उस का ज्यादा मजे में व उद्देश्यपूर्ण ढंग से बीत रहा है.

अब की न जाएगी बहार

Writer – Nidhi Mathur

‘‘अनन्या, चल न, घर जा कर फोन पर बात कर लेना,’’ नंदिनी ने अपनी सखी अनन्या का हाथ खींचते हुए कहा.

‘‘अरे, बस एक मिनट. मेरी होने वाली भाभी का फोन है,’’ अनन्या बोली.

तीसरी सहेली वत्सला कुछ नाराज होते हुए बोली, ‘‘तू तो अब हमारे साथ शौपिंग करेगी नहीं. दुनिया में सिर्फ तेरे भाई की शादी नहीं हो रही है जो तू घंटों फोन पर अपनी होने वाली भाभी से चिपकी रहती है. आज इतनी मुश्किल से हम तीनों ने अपना शौपिंग का प्रोग्राम बनाया था. तू फिर से फोन पर चिपक गई.’’

नंदिनी बोली, ‘‘तुम दोनों को भूख लगी है या नहीं? मुझे तो जोर की भूख लगी है.’’

शौपिंग करते हुए अनन्या बोली, ‘‘न बाबा मेरी भाभी एम.जी. रोड के एक रैस्टोरैंट में मुझे लंच के लिए बुला रही है, तो आज तुम दोनों मुझे माफ करो. मैं तो अपनी भाभी के साथ ही लंच करने वाली हूं. अपना प्रोग्राम हम लोग फिर किसी दिन बना लेंगे.’’

वत्सला और नंदिनी के कुछ कहने के पहले ही अनन्या ने एक औटो एम.जी. रोड के लिए किया और फिर वह फुर्र हो गई.

‘‘नंदिनी, इस की भाभी को वाकई गर्व होना चाहिए कि उसे अनन्या जैसी ननद मिल रही है,’’ वत्सला बोली, ‘‘अरे तू उस की दीदी को क्यों भूल गई? वान्या दीदी भी तो अपनी भाभी को उतना ही प्यार करती है.’’

‘‘हां भई,’’ नंदिनी ने कहा, ‘‘फैमिली हो तो इस अनन्या के जैसी, इतना प्यार करते हैं सभी घर में एकदूसरे को. वह तो भैया ने थोड़ी सी शादी में लापरवाही कर दी.’’

वत्सला बोली, ‘‘ठीक है न, जब उन का मन किया तभी तो शादी के लिए हां की. इस की भाभी को तो कोई भी कष्ट नहीं होगा ससुराल में. चलो हम लोग तो लंच करें.’’

अनन्या, वान्या और जलज अपनी मां के साथ बैंगलुरु में रहते थे. जलज सब से बड़ा था, उस के बाद वान्या और सब से छोटी थी अनन्या. जलज और वान्या में तो 2 साल का फर्क था पर अनन्या जलज से 5 साल और वान्या से 3 साल छोटी थी. उन के पिताजी की कुछ वर्ष पहले मृत्यु हो गई थी और तब से ये चारों ही बैंगलुरु में रहते थे. जलज एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था और उस की कैरियर ग्रोथ बहुत अच्छी थी. बस उस ने अभी तक कोई लड़की पसंद नहीं की थी. वान्या और अनन्या की शादी हो चुकी थी और दोनों के 1-1 बेटा था. अब इतने सालों बाद जलज को अपनी कम्युनिटी में ही एक लड़की पसंद आई तो मां ने चट मंगनी और पट शादी करने का फैसला कर लिया.

वान्या और अनन्या तो खुशी से उछल ही पड़ीं. उन की होने वाली भाभी का नाम समृद्धि था. अब तो आए दिन उन के भाभी के साथ प्रोग्राम बनने लगे. जलज कभी उन के साथ चला जाता था पर ज्यादातर तो वान्या और अनन्या ही समृद्धि को घेरे रहती थीं.

इतने सालों बाद यह खुशी उन के जीवन में आई थी तो वे अपने होने वाली भाभी पर ढेरों प्यार लुटा रही थीं. करीब 1 महीने बाद जलज और समृद्धि की धूमधाम से शादी हो गई. नंदिनी और वत्सला तो खासतौर से समृद्धि के पास अनन्या की शिकायत ले कर पहुंचीं, ‘‘पता है भाभी, आप के साथ टाइम स्पैंड करने के लिए यह अनन्या तो अपनी सखियों को भूल ही गई.’’

अनन्या चहकते हुए बोली, ‘‘तुम लोग भी देख लो. मेरी भाभी है ही ऐसी.’’

समृद्धि भी यह छेड़छाड़ सुन कर धीमेधीमे मुसकराती रही. समय अपनी गति से चल रहा था.

नंदिनी और वत्सला अनन्या से उस की भाभी के बारे में बात करती रहती थीं. अनन्या अपनी भाभी को ले कर शौपिंग पर जाती थी तो सहेलियों का मिलनाजुलना कुछ कम हो चला था. हां, फोन पर अकसर बातें हो जाया करती थीं.

अभी जलज की शादी को 1 साल ही हुआ था कि एक दिन अनन्या बड़े दुखी मन से अपनी सहेलियों नंदिनी व वत्सला से मिली.

नंदिनी बोली, ‘‘क्या हुआ मैडम? आज मुंह क्यों लटका रखा है?’’

वत्सला ने कहा, ‘‘चल पहले चाट खाते हैं, फिर आगे की बातें करेंगे.’’

मगर अनन्या बोली, ‘‘नहीं यार. मुझे तुम दोनों को कुछ बताना है. चाट आज रहने दो.’’

नंदिनी बोली, ‘‘क्या हुआ? कुछ सीरियस है क्या? तू ऐसे क्यों बैठी हुई है?’’

इस पर अनन्या सिर झुका कर बोली, ‘‘मेरे भैया का डिवोर्स फाइल हो रहा है.’’

वत्सला चौंक कर बोली, ‘‘यह तू क्या बोल रही है? तू तो अपनी भाभी की इतनी तारीफ करती थी? तेरी उस के साथ इतनी पटती थी? अचानक से डिवोर्स कैसे?’’

फिर जो अनन्या ने बताया उसे सुन कर तो नंदिनी और वत्सला दोनों हक्कीबक्की रह गईं.

जलज की शादी के बाद मां ने गांव जाने की इच्छा प्रकट की. अब उन के मन को तसल्ली हो गई थी और वह अपना समय अपने रिश्तेदारों के साथ बिताना चाहती थीं. जलज को ले कर उन के मन में जो चिंता थी वह अब दूर हो गई थी.

अपनी बहू समृद्धि का उन्होंने खूब दुलार किया. उसे गहनों और कपड़ों से लाद दिया और फिर मां मन की शांति के लिए अपने गांव चली गईं. उन का मन वहीं लगता था क्योंकि उन के सारे रिश्तेदार वहीं थे.

जलज और समृद्धि अपना जीवन अपने हिसाब से जी रहे थे. न कोई टोकाटाकी, न कोई हिसाबकिताब और न ही कोई रिश्तेदारी का ?ां?ाट. हां, वान्या और अनन्या जरूर समृद्धि के साथ अपने कार्यक्रम बनाती रहती थीं. फिर अचानक समृद्धि का व्यवहार बदलने लगा. वह अपनी ननदों के साथ कुछ रूखेपन से पेश आने लगी.

पहले तो ननदों को समझ नहीं आया कि समृद्धि अब हर बार मिलने से मना क्यों कर देती. मगर वान्या सम?ादार थी तो उस ने अनन्या को भी समझाया कि जलज और समृद्धि को एकदूसरे के साथ समय देना ही बेहतर होगा. अनन्या और वान्या ने भाईभाभी के साथ अपने प्रोग्राम बनाने बिलकुल बंद कर दिए. वे दोनों तो वैसे भी नई भाभी का अकेलापन मिटाने का प्रयास कर रही थीं.

जलज और समृद्धि अब ज्यादातर समय एकदूसरे के साथ बिताने लगे थे. समृद्धि क्योंकि पूरा दिन घर पर रहती थी तो जलज ने उसे औनलाइन योगा क्लास जौइन करने की सलाह दी.

शादी के बाद वैसे भी पकवान खाखा कर समृद्धि का वेट थोड़ा सा बढ़ गया था. वैसे समृद्धि को दिनभर में कोई काम नहीं होता था क्योंकि वह जौब नहीं कर रही थी और जलज को काफी अच्छी सैलरी मिल रही थी.

समृद्धि के परिवार में 1 भाई और 1 बहन ही थी. उस के भाई की भी शादी नहीं हुई थी. समृद्धि की शादी हो जाने की वजह से उस के भाई को घर का काम संभालने में बहुत परेशानी आने लगी. जब तक समृद्धि थी उस का खानापीना नियमपूर्वक चल रहा था पर अब उसे औफिस के साथसाथ घर भी देखना पड़ता था तो वह खीज जाता था.

एक दिन वह समृद्धि के घर आया तो समृद्धि खुशीखुशी उसे अपनी शादीशुदा जिंदगी के बारे में बताने लगी, ‘‘पता है भैया, अब तो मैं नीचे बाजार जा कर घर का सारा सामान ले आती हूं और घर के छोटीमोटी रिपेयर भी कर देती हूं, साथ ही मैं ने एक औनलाइन योगा क्लास भी जौइन कर ली है.’’

समृद्धि का भाई समीर थोड़े खुराफाती दिमाग का था. बहन की बातों से उस के दिमाग का बल्ब जला. ऊपर से तो उस ने अपनी खुशी जताई पर अंदर से वह अपनी बहन की खुशी से जलभुन गया.

इस का एक कारण शायद यह भी था कि वह सम?ाता था उस का आराम समृद्धि की शादी की वजह से खत्म हो गया है. अब उस ने अपना पासा फेंका. बोला, ‘‘अरे तू जब मेरे पास थी तो तु?ो घर की कोई रिपेयरिंग नहीं करने देता था मैं. औनलाइन किसी को बुला क्यों नहीं लेती है? रिपेयरिंग वगैरह के काम क्या लड़कियां करती हैं? जलज पूरा दिन क्या करता है? घर में तेरा हाथ नहीं बंटाता?’’

‘‘अरे नहीं भैया. जलज तो रात को आते हैं तो उन्हें इन सब की फुरसत नहीं होती. मैं पूरा दिन घर में रहती हूं इसलिए ये सब अपनेआप ही कर लेती हूं.’’

‘‘अच्छा, पहले तो तू कभी ऐक्सरसाइज वगैरह नहीं करती थी. अब यह योगा क्लास क्यों जौइन की है?’’

‘‘वह जलज ने कहा कि मेरा शादी के बाद डिनर पार्टीज अटैंड करकर के थोड़ा सा वेट बढ़ गया है, बस इसीलिए.’’

‘‘अच्छा तो अब जलज मेरी बहन को खाने पर ताने भी देगा?’’

‘‘नहीं भैया क्या बात कर रहे हैं? उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा.’’

‘‘मैं सब समझ गया हूं, जलज को भी आजकल की लड़कियों की तरह एक सुंदर, स्लिम लड़की चाहिए. इसीलिए वह तुझे ऐसी सलाह दे रहा है. पर मुझे तो मेरी बहन बिलकुल मोटी नहीं लगती. आगे से अगर तुझे कुछ रिपेयरिंग का काम कराना हो तो मुझे फोन कर देना. तेरी ननदें भी बस घूमनेफिरने की ही शौकीन हैं. काम में तेरी मदद क्यों नहीं करतीं?’’

थोड़ी देर बाद समीर चला गया पर उस के हाथ एक मौका लग गया. अब वह जलज के पीछे घर जाजा कर समृद्धि के कान भरता रहता. उसी ने सब से पहले समृद्धि को अनन्या और वान्या से मुंह मोड़ने को कहा, जिस की वजह से वह उन से बेरुखी जता रही थी.

एक दिन उस ने समृद्धि के जेवर देख कर कहा, ‘‘तेरी ननदें यहां आतीजाती रहती हैं. तू अपने सारे गहने उन से छिपा कर हमारे घर में रख दे. क्या भरोसा किसी त्योहार के बहाने तुझ से कुछ मांग लें और फिर वापस न करें. उन्हें बोल देना तेरे सारे जेवर बैंक में हैं.’’

‘‘पर भैया, वे तो अब यहां नहीं आतीं. उन्होंने कहा है कि जलज और मैं अपना वक्त एकदूसरे के साथ बिताएं.’’

‘‘तू बहुत भोली है समृद्धि पर इन ननदों से जरा बच कर रहना,’’ कह कर समीर चला गया. मगर समृद्धि के मन में जहर का बीज बो गया.

समीर अब समृद्धि को जलज और उस के पूरे परिवार के खिलाफ भड़काता रहता, ‘‘तेरी सास को अभी गांव नहीं जाना चाहिए था. तेरा काम में हाथ बंटाती, तुझे अपने साथ रखती, घर संभालना सिखाती.

‘‘ मेरी छोटी बहन के ऊपर कितनी जिम्मेदारी आ गई है. तेरी ननदें शादी के पहले तो बहुत आती थीं, अब उन्होंने भी तुम दोनों से मुंह मोड़ लिया है. तू कैसे इन सब के साथ निभा रही है? मुझे तो तुझे देख कर बहुत दुख होता है.’’

समीर से आए दिन यह सब सुनसुन कर समृद्धि का भी मन बदलने लगा. अब वह अपने भाई की बातों में सचाई ढूंढ़ने लगी. हालांकि भाई का सच उसे नजर नहीं आया.

समीर चाह रहा था कि समृद्धि किसी तरह वापस घर आ कर उस का खानापीना संभाल ले. वह स्वार्थ में इतना अंधा हो गया कि उसे अपनी बहन के सुखदुख की कोई परवाह नहीं थी.

धीरेधीरे समृद्धि के सारे अच्छे जेवर और कपड़े समीर ने मंगवा कर अपने घर रख लिए. एक दिन जलज जब घर आया तो खाना नहीं बना था. जलज का दिन काफी व्यस्त रहा था और वह जल्दी खाना खा कर सोना चाहता था पर समृद्धि ने जानबूझ कर देर करी.

समीर ने समृद्धि के दिमाग में बैठा दिया था कि जलज उसे बाई का दर्जा दे रहा. जलज ने जब खाने के बारे में पूछा तो समृद्धि ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे घर की बाई नहीं हूं. कल से घर में खाना बनाने वाली लगा लो, मैं ये सब काम नहीं करूंगी.’’

जलज समृद्धि की बातें सुन कर हैरान हुआ पर वह बहस नहीं करना चाहता था

इसलिए मैगी खा कर सोने चला गया. अब समृद्धि समीर के उकसाने से न तो वान्या और अनन्या के फोन उठाती, न ही अपनी सास से बात करती तथा न ही घर का कोई काम करती. उस ने बातबेबात जलज से भी उल?ाना शुरू कर दिया था. जलज वैसे ही थका हुआ देर से घर आता था तो वह पहले तो समृद्धि को मनाता था. फिर उस के तानों को अनसुना करने लगा.

उधर समीर अपनी योजना सफल होते देख खुश था. वह तो चाह ही रहा था कि समृद्धि का घर टूटे और वह वापस आए. एक दिन समृद्धि ने जलज से बिना बात के ?ागड़ा किया और समीर के घर चली गई. वहां पर समीर ने उसे इतना भड़काया कि 1 महीने बाद ही उस ने डिवोर्स के पेपर्स भेज दिए.

जलज को इस में समीर का हाथ साफ नजर आया पर उसे यह नहीं पता था कि उस ने समृद्धि को कितना भड़का रखा है. उसे सिर्फ समीर पर शक हुआ क्योंकि वही उस की पीठपीछे घर आता था. अनन्या ने भी वही कहा कि उसे अंदर की बात तो पता नहीं पर इस में समीर का हाथ हो सकता है.

केवल डिवोर्स तक ही मामला रहता तो ठीक भी था पर समीर के उकसाने पर समृद्धि ने वान्या और अनन्या पर भी दहेज के आरोप में केस कर दिया. यही नहीं, गांव में रह रही उन की मां का नाम भी उस में शामिल कर लिया. अनन्या, वान्या ने जब अपने ऊपर केस के बारे में सुना तो वे सन्न रह गईं. दोनों बहनों का प्यारा बड़ा भाई जिस की शादी उन्होंने इतने चाव से की थी, आज एक टूटे रिश्ते का दर्द सह रहा था. ये सब बातें अनन्या ने अपनी सहेलियों के साथ एक दिन चाय पर डिस्कस कीं. कोर्ट केस म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग पर सुल?ाने के समीर ने क्व25 लाख मांगे.

अनन्या ने कहा, ‘‘जब हम लोग गलत नहीं हैं तो एक भी पैसा नहीं देंगे. कोर्ट में केस चलने दो, हम भी देख लेंगे.’’

वान्या ने सम?ाया भी कि कोर्टकचहरी अपने देश में सालोंसाल लगा देते हैं, हम लोग पैसा दे कर ही छूट जाते हैं. समीर और समृद्धि क्व25 लाख से कम में केस बंद करने को तैयार नहीं थे.

हमेशा हंसनेखिलखिलाने वाली अनन्या अब अकसर परेशान रहने लगी. उन सब को कोर्ट में तारीख आने पर बुलाया जाता और जज हर बार अगली तारीख दे देता. जलज भी चुपचुप रहने लगा था.

एक दिन अचानक जलज अनन्या के घर आया और बोला कि वह जौब छोड़ रहा है. अनन्या ने फोन कर के वान्या को भी वहीं बुला लिया, ‘‘देखो न दीदी, भैया क्या कह रहे हैं, अच्छीखासी जौब छोड़ रहे हैं.’’

वान्या ने पूछा, ‘‘भैया आप जौब क्यों छोड़ रहे हैं?’’

जलज बोला, ‘‘क्या करूंगा जौब कर के? रोज सुबह जाओ, रात को घर आ कर खाना खा कर सो जाओ. किस के लिए पैसे कमाऊं?’’

यह सुन कर अनन्या और वान्या शौकड हो गईं. जलज से ऐसे व्यवहार की उन्हें बिलकुल उम्मीद नहीं थी. उधर जलज अब हर चीज से उदासीन होने लगा था. जिंदगी ने उस के साथ जो मजाक किया था उसे उस ने कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया था. वह घर में बंद हो गया. मां उस के पास वापस आ गई थीं. वे उसे बहुत सम?ातीं, मगर जलज ने चुप्पी ओढ़ ली थी. न तो वह दोस्तों से मिलने को तैयार था, न दूसरी जौब ढूंढ़ने को और न ही बहनों के साथ समय बिताने को.

अगली केस डेट पर समीर समृद्धि के साथ आया था. सब ने उसे और समृद्धि को देख कर मुंह फेर लिया. समीर अंदर से जलभुन गया और ऊपर से जलज को धमकी भरे स्वर में बोला, ‘‘तूने जौब छोड़ दी न? अच्छा किया. अब मैं देखता हूं तू कहां नौकरी करता है. तू जहां भी जाएगा मैं वहां जा कर तेरी ऐसी बदनामी करूंगा कि तू भी सोचेगा तूने मेरी बहन के साथ इतना गलत व्यवहार क्यों किया.’’

वान्या चिल्लाई, ‘‘एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी. भैया ने तुम्हारे साथ क्या गलत किया है?’’

अनन्या ने वान्या को समझाया कि कोर्ट में कुछ भी उलटासीधा न बोले. वह सब उन के खिलाफ जा सकता है. तीनों भाईबहन चुपचाप कोर्ट की प्रोसीडिंग के लिए अंदर चले गए.

इसी तरह 2-3 साल और गुजर गए. जलज के दोनों केसों का कोई भी निर्णय नहीं हुआ. आखिर वान्या, अनन्या और उन की मां ने फैसला किया कि एक बार फिर आउट औफ कोर्ट सैटलमेंट की बात की जाए. समीर भी हाथ में पैसा न आता देख कर फ्रस्ट्रेटेड हो रहा था. 8 लाख में 3 साल बाद म्यूचुअल सैटलमैंट से दोनों केस डिसाइड हो गए. अब समृद्धि और जलज के रास्ते कानूनी तौर पर अलग थे. कहने के लिए तो यह मुसीबत का अंत था मगर जलज के लिए एक और कुआं. सब रिश्तेदारों ने अनन्या और वान्या को सलाह दी कि जलज के लिए दूसरा रिश्ता देख कर उस की नई जिंदगी की शुरुआत करें. जलज इधर किसी और ही रास्ते पर चल पड़ा था, जहां सिर्फ अंधेरा ही था. वह सीवियर डिप्रैशन में चला गया था. वह कुछ दिन बैंगलुरु रहता और कुछ दिन गांव में पर अब उस की नौकरी करने की बिलकुल इच्छा नहीं थी. अनन्या और वान्या ने प्यार से बहुत सम?ाने की कोशिश की, मगर सब बेकार. जलज को लगता था कि जिंदगी ने उस के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी की है.

एक दिन अनन्या बोली, ‘‘भैया शुक्र है कि मुसीबत से जल्दी पीछा छूट गया. आप पीछे न देख कर आगे का जीवन बनाएं.’’

उस दिन पहली बार जलज अपनी छोटी बहन पर बरस पड़ा, ‘‘तेरे पास सबकुछ है न,

परिवार, पैसा, प्यार इसीलिए तू मुझे भाषण देती रहती है. मुझे तेरी कोई नसीहत नहीं चाहिए, न ही किसी और का लैक्चर मुझे सुनना है. वान्या से भी कह दे कि मुझे कुछ सिखाने की कोशिश न करे.’’

मां दूसरे कमरे में सो रही थीं. जलज का चिल्लाना सुन कर जब वे आईं तो देखा कि अनन्या रो रही थी और जलज फिर भी चिल्लाए जा रहा था. मां ने उसे जब शांत करने की कोशिश की तो वह बोला, ‘‘तुम अपनी प्यारी बेटियों के पास जा कर रहो. यहां रहोगी तो इन की तरह तुम भी मुझे सीख देती रहोगी.’’

अनन्या को लगा कि यह कुछ भी कहने या करने का वक्त नहीं. उस ने चुपचाप मां के कपड़े एक बैग में डाले और उसे जबरन अपने साथ ले गई. उसे लगा कि जलज को कुछ दिन अकेला छोड़ देंगे तो शायद वह संभल जाएगा. मगर जलज संभलने की राह पर नहीं चल रहा था. उस ने अपनी जिंदगी और भी बदतर कर ली. उसे जो मन में आता वह खा लेता, नहीं तो भूखा ही रह जाता. स्ट्रैस की वजह से उस की आंखों के नीचे काले घेरे पड़ गए थे और उस को स्किन प्रौब्लम भी हो गई थी. वह घर में हर समय परदे बंद रखता और कोई भी लाइट नहीं जलाता.

एक बार वान्या उसे डाक्टर के पास ले गई. डाक्टर ने कहा कि उसे बहुत स्ट्रैस है. जब तक वह कम नहीं होता तब तक जलज की स्किन प्रौब्लम ठीक नहीं होगी.

अनन्या जलज से अब बात नहीं करती थी. फिर एक दिन जलज ने उसे सौरी बोलने के लिए फोन किया और कहा कि वह मां को घर छोड़ जाए. अनन्या को लगा कि शायद जलज को पछतावा हो रहा है. मगर जलज अब किसी के बारे में सोचनासम?ाना ही नहीं चाहता था. वह जिंदगी से पूरी तरह उखड़ चुका था. अलबत्ता बहनों से वह वापस मिलने लगा था. पर वह पहले जैसा लाड़ करने वाला भाई न हो कर एक चिड़चिड़ा और बददिमाग इंसान बन गया था.

एक दिन शाम को जलज अनन्या के घर गया तो उस ने एक नई सूरत देखी. तभी अनन्या ने उस का इंट्रोडक्शन कराया, ‘‘भैया, यह है हमारी नई पड़ोसिन कमल. यह अभी 2 हफ्ते पहले ही हमारे पड़ोस में शिफ्ट हुई है.’’

जलज ने निर्विकार भाव से अभिवादन किया और दूसरे कमरे में जा कर टीवी देखने लगा. थोड़ी देर में उसे बाहर से हंसने की आवाजें सुनाई देने लगीं. वह थोड़ा इरिटेट तो हुआ पर उस ने अपने पर काबू रखा. फिर उसे लगा कि अनन्या और कमल शायद कुछ गुनगुना रही हैं. करीब 1 घंटे बाद बाहर से आवाजें आनी बंद हुईं तो जलज उठ कर उस रूम में गया. वहां पर अनन्या अकेली बैठी हुई थी. अनन्या ने जलज को कमल के बारे में बताना शुरू किया. असल में कमल के पति ने किसी और लड़की के प्यार में फंस कर उसे छोड़ दिया था. पर कमल ने परिस्थितियों से हार नहीं मानी. वह बहुत अच्छा गाती थी तो उस ने सिंगिंग कंपीटिशंस में पार्ट लेना शुरू कर दिया था और बाद में गाने को ही अपना प्रोफैशन और जिंदगी दोनों बना लिया था. उस के साथ भी जीवन में काफी कुछ घटा था पर वह बिलकुल निराश या दुखी नहीं थी. यह सब अनन्या ने जानबू?ा कर जलज को बताया ताकि वह थोड़ा मोटिवेट हो सके.

अनन्या अब कोशिश करती थी कि जब जलज उस के घर आए तो वह वान्या और कमल को भी बुला ले. कमल आते ही महफिल में चार चांद लगा देती. उस का दिल बड़ा साफ था और उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी. एकाध बार अनन्या ने जलज और कमल को अकेले भी छोड़ दिया. जलज को कमल में एक हमदर्द दिखाई देने लगा. वह अपने दिल की बात मां व बहनों से नहीं करता था पर उसे लगा कि कमल शायद उसे समझा कर उस के साथ सिंपैथाइज करेगी. जलज ने बिलकुल गलत सोचा था.

कमल ने न तो कोई अफसोस जताया और न ही सिंपैथाइज किया. उस ने जलज को कहा कि जो बीत गया उस को अपना आज बना कर बैठने में कोई बुद्धिमानी नहीं. कमल ने कहा, ‘‘मूव

औन जलज. सब की लाइफ में कोई न कोई प्रौब्लम आती है. अगर हम प्रौब्लम को पकड़ कर बैठ जाएंगे तो जिंदगी की असली ख़ूबसूरती नहीं देख पाएंगे.’’

जलज को अभी तक कोई ऐसा नहीं मिला था जिस ने उस के साथ सिंपैथाइज न किया हो. मगर कमल तो शायद किसी दूसरी मिट्टी की ही बनी थी. दूसरी बार जलज ने जब फिर अपने लिए कमल से सिंंपैथी चाही तो कमल ने उसे जवाब दिया, ‘‘मैं जीवन को भरपूर जीने में विश्वास रखती हूं. मेरे सामने प्लीज अपना दुखड़ा मत रोइए. हो सके तो जीवन के सारे रंगों को ऐंजौय करना सीखिए.’’

यह जलज के लिए एक बहुत बड़ा झटका था पर कहते हैं न अपोजिट्स अट्रैक्ट. शायद जलज को कहीं पर कमल की बात सही लगी. अब अगर वह कमल से मिलता तो उस की बातों को सम?ाने की कोशिश करता. बोलता वह अभी भी कम ही था पर वान्या, अनन्या और उन की मां के लिए यह एक बहुत बड़ा पौजिटिव साइन था. अब वे लोग पिकनिक, शौपिंग के प्रोग्राम बनाते और जलज को भी जबरदस्ती ले जाते.

फिर एक दिन कमल ने उसे अपने सिंगिंग प्रोग्राम के लिए इनवाइट किया. उस प्रोग्राम में कमल ने इतने अच्छे गाने गाए कि जलज भी मुग्ध हो गया. आखिर एक दिन जलज ने अपनी दोनों बहनों और मां को बुला कर कहा कि वह कमल के साथ आगे की जिंदगी गुजारना चाहेगा.

अनन्या तो यही चाहती थी, मगर उस ने फिर भी कहा कि उन सब को कमल से बात करनी चाहिए. कमल जब अगली बार मिली तो अनन्या ने ही अपने भाई का प्रपोजल उस के सामने रखा. कमल को इस बात की बिलकुल आशा नहीं थी. बोली, ‘‘जलज मैं तुम्हारा साउंडिंग बोर्ड नहीं बनना चाहती. मैं बेचारी भी नहीं हूं. न ही मैं तुम्हारी तरह हूं. जो बीत गया वह मेरे जीवन का एक हिस्सा था लेकिन उसे पकड़ कर मैं रोती नहीं हूं. तुम आगे बढ़ने में विश्वास नहीं करते हो. हमारा कोई मेल ही नहीं है.’’

जलज को कुछ ऐसे ही जवाब की अपेक्षा थी इसलिए उस ने थोड़ा समय मांगा. उस ने कमल का दोस्त बनने की इच्छा जाहिर की. कमल ने उसे एक ही शर्त पर अलौ किया कि वह पुरानी या कोई भी नैगेटिव बात नहीं करेगा और सब से पहले काउंसलर को मिल कर अपने डिप्रैशन का इलाज कराएगा. जलज इस के लिए भी तैयार हो गया.

काउंसलिंग सैशंस में जलज कमल के साथ जाने लगा. इस चीज के लिए वह कमल को मना पाने में कामयाब हो गया था. डाक्टर ने उसे बताया कि उसे दवाई की जरूरत नहीं है मगर अपना आउटलुक चेंज करना होगा. दुनिया कितनी खूबसूरत है, यह सम?ाना था और बीती हुई जिंदगी को भी ऐक्सैप्ट करना था. धीरेधीरे ही सही मगर जलज भी यह सब सम?ाने लगा. कमल ने उसे एक पौजिटिव दोस्त की तरह बहुत हिम्मत दी. अनन्या, वान्या और मां तो उस के सपोर्ट सिस्टम थे ही. इस सब में लगभग सालभर लग गया.

नए साल के दिन जलज कमल को ले कर अनन्या के घर गया और उस ने बताया कि उस ने फिर से एक आईटी कंपनी में इंटरव्यू दिया था और उस का चयन भी हो गया है. फिर उसने सब के सामने कमल से कहा, ‘‘क्या अब मैं तुम्हारे साथ आगे का जीवन प्लान कर सकता हूं?’’

कमल ने मुसकराते हुए हां कह दी. घर में जैसे एक बार फिर उत्सव का सा माहौल हो गया. गाड़ी कुछ समय के लिए पटरी से उतर जरूर गई थी मगर अब फिर से वापस नई राह पर चलने वाली थी. हां, इस सफर में एक नया और बेहतरीन साथी भी अब जुड़ गया था. खुशियां फिर से लौट आई थीं.

जरूरत : उस दिन कौनसी घटना घटी?

औफिस से लौट कर ऊर्जा की नजर लगातार घड़ी पर थी. उसे लग रहा था जैसे आज उस की गति बहुत धीमी है. वह चाहती थी समय जल्दी कट जाए लेकिन इस के विपरीत आज विचारों के घोड़े तेज गति से दौड़ रहे थे और घड़ी की सुइयां आगे सरकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. उस ने जल्दी से खाना बनाया और जय का इंतजार करने लगी. उस ने आज आने में देर कर दी थी. इंतजार का समय लंबा होता जा रहा था और उस के साथ ऊर्जा की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी.

9 बजे जय औफिस से आ कर सीधे बाथरूम में घुस गया. इतनी देर में उस ने खाना लगा दिया.

फ्रैश हो कर जय सीधे खाने की मेज पर आ गया और बोला, ‘‘खाने की बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. लगता जल्दी घर आ कर मेरे लिए फुरसत से खाना बनाया है.’’

‘‘घर तो जल्दी आ गई थी लेकिन खाना बनाने के लिए नहीं किसी और परेशानी की वजह से आई थी.’’

‘‘क्या हुआ औफिस में सब ठीक तो है?’’

‘‘वहां ठीक है लेकिन यहां कुछ ठीक

नहीं है.’’

‘‘पहेलियां मत बु?ाओ. सीधे और साफ लफ्जों में बताओ बात क्या है ऊर्जा?’’

‘‘मैं प्रैगनैंट हूं जय.’’

ऊर्जा सोच रही थी यह सुनते ही उस के

हाथ खाना छोड़ कर रुक जाएंगे लेकिन ऐसा

कुछ भी नहीं हुआ और वह इत्मीनान से खाना खाता रहा.

‘‘कोई नई बात नहीं है ऊर्जा. डाक्टर से मिल कर इस मुसीबत से छुटकारा पा लेना.’’

जय की बात से ऊर्जा अंदर तक तिलमिला गई लेकिन इस समय कुछ कह कर माहौल खराब नहीं करना चाहते थी. वह सधे हुए शब्दों में बोली, ‘‘हम शादी कब कर रहे हैं जय?’’

यह सुन कर उस का हाथ मुंह तक जातेजाते रुक गया. उस ने एक गहरी नजर ऊर्जा पर डाली और बोला, ‘‘हमारे बीच में यह झंझट कहां से आ गया ऊर्जा?’’

‘‘सम?ाने की कोशिश करो जय. हम 3 साल से एकदूसरे के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं. हम दोनों एकदूसरे को अच्छे से समझते  हैं. तो फिर शादी करने में क्या परेशानी है?’’

‘‘मुझे शादी का कोई शौक नहीं है. यह बात मैं ने तुम्हें साथ रहने से पहले भी बता दी थी.’’

‘‘शौक मुझे भी नहीं है लेकिन अब जरूरत बन गई है. मैं बारबार इस तरह अर्बोशन नहीं करा सकती. तकलीफ होती है मुझे अपने शरीर का एक हिस्सा काट कर फेंकने में. जो बीतती है उसे वही बता सकता है जो भुक्तभोगी होता है.’’

‘‘यह मेरी गलती से नहीं तुम्हारी लापरवाही से हुआ है.’’

‘‘अच्छा यह जिम्मेदारी भी केवल मेरी

ही है.’’

‘‘इस बार गलती तुम्हारी थी ऊर्जा. याद करो अपने जन्मदिन पर तुम इतनी खुश थीं कि सबकुछ भूल गईं.’’

जय तीखे लहजे में बोला तो अजय चुप हो गई. जय की बात अपनी जगह सही थी. बर्थडे वाले दिन उस ने कुछ ज्यादा ही पी ली थी.

जय उसे किसी तरह होटल से घर ले आया. नशे की हालत में उसे कुछ होश नहीं रहा. उस का परिणाम आज उसे भुगतना पड़ रहा था.

‘‘जो हो गया उसे छोड़ो और आने वाली समस्या के बारे में सोचो. समझने की कोशिश करो मैं बारबार ऐसा नहीं कर सकती. सच पूछो मुझे बच्चा चाहिए. मैं उस की परवरिश करना चाहती हूं.’’

‘‘यह तुम कह रही हो ऊर्जा? जब हम ने एकसाथ रहना शुरू किया था तब हमारे बीच में शादी और बच्चा जैसे लफ्ज नहीं थे. बस हमतुम और हमारी जरूरत थी. यही सोच कर मैं ने तुम्हारे साथ रहना शुरू किया था.’’

‘‘बीती बातें भूल जाओ प्लीज. 3 साल का समय गुजर गया है. अब हम एकदूसरे को इतना समझने लगे हैं कि एकदूसरे के बगैर रहने की कल्पना भी नहीं कर सकते.’’

‘‘यह तुम समझती होंगी ऊर्जा मैं नहीं. तुम अब दिल से काम ले रही हो और मैं दिमाग से. ऐसे रिश्तों में दिल को बहुत दूर रखना चाहिए वरना यह जी का जंजाल बन जाता है.’’

‘‘कभी न कभी तुम शादी का फैसला करोगे ही जय. मुझ में क्या कमी है जो तुम मुझे अपना लाइफपार्टनर नहीं बना सकते?’’

ऊर्जा ने तीखे शब्दों में पूछा.

‘‘एक कमी हो तो बताऊं. हमारे इस रिश्ते में जवानी की उमंग और इच्छाएं हैं जिन्हें हम मिल कर ऐंजौय करते हैं अपेक्षाएं नहीं कि दूसरा हमारे लिए क्या करेगा. हम दोनों ने साथ रहने का निर्णय सोचसम?ा कर लिया था. मैं शादी का फंदा जीवनभर के लिए अपने गले नहीं डाल सकता. यह तुम पहले दिन से जानती थीं और आज भी मेरा फैसला अटल है.’’

‘‘यह तुम्हारा आखिरी निर्णय है?’’

‘‘यही समझ लो. तुम मुझे अच्छी लगती हो लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन पर न तुम समझौता करती हो और न मैं.अच्छा होगा कि हम इसी तरह अपनी जिंदगी गुजारें और एकदूसरे से कोई अपेक्षा न रखें.’’

‘‘मेरा निर्णय भी सुन लो. इस बार में कोई गलत काम नहीं करूंगी और इस बच्चे को जन्म दूंगी.’’

‘‘यह तुम्हारा फैसला है मेरा नहीं. मेरी सलाह मानो और इस परेशानी से जल्दी छुटकारा पा लो. इस के कारण हमें अपना रिश्ता खराब नहीं करना चाहिए.’’

‘‘अगर तुम ठंडे दिमाग से सोचो तो यही बच्चा हमारे रिश्ते को और मजबूत बना सकता है जय,’’ ऊर्जा बोली.

ऊर्जा तर्क कर के थकने लगी थी और जय रुकने का नाम नहीं ले रहा था. ऊर्जा उसे किसी तरह मना नहीं पाई थी.बहस की समाप्ति ऊर्जा के आंसुओं पर हुई  लेकिन जय पर उस का भी कोई असर नहीं पड़ा. खाना खा कर वह चुपचाप बैड पर आ गया और लैपटौप खोल कर अपने काम पर लग गया. उस ने इस बारे में आगे उस से कोई बात नहीं की. ऊर्जा ने भी ठान लिया था कि इस बार वह कमजोर नहीं पड़ेगी और अपनी बात मनवा कर रहेगी.

जय शादी के लिए तैयार नहीं तो क्या हुआ? बहुत सी ऐसी औरतें हैं जिन्होंने अविवाहित रह कर बच्चे को जन्म दिया है.

वह भी ऐसा कर के दिखाएगी. आज आंखों से उस की नींद गायब थी. वह सोच रही थी शायद रात के अंधेरे में अपनी जरूरत पूरा करने के लिए जय उस की ओर रुख करेगा लेकिन

ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और सारी रात आंखों में कट गई.

सुबह ऊर्जा देर से उठी. जय बोला, ‘‘उठो ऊर्जा टाइम काफी हो गया है. तुम्हें औफिस के लिए देर हो जाएगी.’’

‘‘मैं आज औफिस नहीं जा रही हूं.’’

‘‘छोटी सी बात के लिए तुम इतनी सीरियस कैसे हो सकती हो? तुम एक आजाद ख्यालात महिला हो. इन सब बातों में तुम्हारा कभी

विश्वास नहीं था. अचानक तुम्हारा दिमाग कैसे पलट गया?’’

जय की बात का उस ने कोई उत्तर नहीं दिया. उस ने अपने लिए ब्रैड सेंकी और मक्खन के साथ खा कर निकल गया. उस के चेहरे पर उस की परेशानी का लेस मात्र भी असर नहीं था. वह सोचने लगी कि कोई व्यक्ति इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है?

हकीकत सामने थी उस से मुंह भी नहीं मोड़ा जा सकता था. वह जानती थी जय जो कुछ सोच रहा है वह अपनी जगह ठीक है.

उन दोनों की दोस्ती इसी वजह से हुई थी. ऊर्जा को दुनिया की कोई परवाह नहीं थी. जय को उस की यह बात बहुत अच्छी लगी थी. वह खुद भी रिश्तों में विश्वास नहीं करता था. वे दोनों साथ उठते, बैठते और इधरउधर घूमते. दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता था.

एक दिन जय ने हंसीमजाक में यों ही कह दिया था, ‘‘सड़कों पर घूमने से अच्छा है ऊर्जा

हम दोनों एकसाथ एक ही छत के नीचे रहें. इस से खर्चे भी बचेंगे और अपने लिए अधिक समय भी मिलेगा.’’

जय की मजाक में कही बात ऊर्जा को जंच गई. वह झट से उस के साथ रहने के लिए तैयार हो गई और बोली, ‘‘मु?ा से कोई उम्मीद मत रखना जय. मैं तुम्हारे साथ एक ही घर में लिव इन रिलेशनशिप में रह सकती हूं. मु?ो पत्नी सम?ाने की भूल मत करना.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. ऐसे रिश्तों में

आपसी विश्वास ही सब से बड़ा होता है. अगर तुम्हें मु?ा पर विश्वास न रहे तो कभी भी छोड़ कर जा सकती हो और यही बात मुझ पर भी लागू होती है.’’

खुले विचारों के ऊर्जा और जय जल्द ही एकसाथ रहने लगे. ऊर्जा के इस निर्णय पर औफिस में बहुत कानाफूसी हुई लेकिन उस ने उन की बातों को हवा में उड़ा दिया. दोनों के औफिस अलगअलग थे इसीलिए उन के बीच का आकर्षण ज्यादा था. एक छत के नीचे दोनों की बहुत अच्छी निभ रही थी. 6 महीने की दोस्ती में ही वे एकदूसरे की पसंदनापसंद को अच्छी तरह समझने लगे. अब बाहर इधरउधर भटकने की ज्यादा जरूरत न थी. छुट्टी के दिन वे लौंग ड्राइव पर निकल जाते और सारा दिन बाहर बिता कर रात में घर लौट आते.

जिंदगी का मजा साथ रहने में था यह बात उन दोनों को अच्छे से सम?ा में आ गई थी. जब पहली बार ऊर्जा के प्रैगनैंट होने का जय को पता लगा तो बहुत चौंक गया था.

बात संभालते हुए ऊर्जा बोली, ‘‘पता नहीं कैसे यह सब हो गया? अगली बार से तुम भी इस बात का खयाल रखना.’’

ऊर्जा ने डाक्टर को अपनी समस्या बता कर उस से छुटकारा पा लिया. 2 दिन की परेशानी के बाद सबकुछ सामान्य हो गया. उन का जीवन पहले की तरह बंधनमुक्त हो कर बहुत अच्छे से कट रहा था. जय के साथ रहते हुए उसे कभी घर की याद तक न आती. वैसे भी ऊर्जा को अपने घर से कोई लगाव न था. होता भी कैसे उस की अपनी मम्मी छुटपन मैं गुजर गई थी जब वह 8 साल की थी. पापा ने घर की जरूरत को देखते हुए अपनी सहकर्मी वीरा से शादी कर ली थी. उस का पहले से घर में आनाजाना था.

ऊर्जा ने उसे मम्मी के रूप में कभी नहीं अपनाया. वीरा ने अपनी ओर से बहुत कोशिश लेकिन उसे देख कर ऊर्जा का खून खौल उठता. सबकुछ जान कर ओजस ने उसे होस्टल भेज दिया. घर पर पैसे की कमी नहीं थी. उसे भी होस्टल रास आने लगा था.

स्वभाव से उग्र होने के कारण उस के फ्रैंड्स की लिस्ट भी छोटी ही थी. देखते ही देखते उस ने इंटर पास कर लिया और इंजीनियरिंग कालेज में आ गई. छुट्टियों में घर आने के बजाय वह इधरउधर घूमना ज्यादा पसंद करती. उसे अकेले घूमने में भी कोई एतराज न था.

बीटैक करते ही उस ने एक कंपनी जौइन कर ली. औफिस के काम से उसे इधरउधर जाना पड़ता. उस के कई पुरुष मित्र थे लेकिन उस ने कभी किसी को अपने इतने नजदीक नहीं आने दिया कि वह उस के लिए अपने दिल में कुछ महसूस कर सके.

जय में कुछ बात थी. वह उस के व्यक्तित्व से ज्यादा बातों और खुलेपन से प्रभावित हो गई थी और उस के मजाक में दिए एक प्रस्ताव पर उस के साथ रहने लगी थी. ओजस यह बात जानते थे. ऊर्जा ने फोन पर पापा को यह बात बता दी थी. सुन कर उन्हें अच्छा नहीं लगा था. उन्होंने उसे समाज की दुहाइयां दीं और इस रिश्ते को शादी में बदलने के लिए दबाव डाला था लेकिन वह नहीं मानी.

पापा को दुखी देख कर दिल के किसी कोने में उसे सुकून मिल रहा था. जिस ने उस की परवाह नहीं की वह उन की भावनाओं की परवाह क्यों करे? यह बात उस का रोमरोम

चीख कर कह रहा था. पिछले साल पापा चले गए. उन के गुजरने पर वह घर आई थी. वीरा को विधवा के भेष में देख कर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा. उसे मम्मी से पहले भी कोई उम्मीद नहीं थी. अब बीच का वह पुल भी टूट गया था जिस से वे दोनों जुड़े थे. तब से उस ने घर आना लगभग बंद ही कर दिया था. वीरा अकसर फोन करती लेकिन वह उसे उठाना तक भी जरूरी न समझती. कभी मन आया तो हैलोहाय कर देती वरना फोन पर वीरा का चेहरा देख कर उस की नफरत भड़क जाती.

आज जय के रूखे व्यवहार ने उसे अंदर तक हिला दिया था. उसे समझ नहीं आ रहा था ऐसी हालत में वह कहां जाए? खून के रिश्तों से उस ने पहले ही किनारा कर लिया था. अपना कहने के लिए उस के पास कोई भी नहीं था. दोस्त भी ऐसे थे जिन से यह बात शेयर कर वह उपहास का पात्र नहीं बनना चाहती थी. बहुत सोच कर उस ने घर जाने का मन बना लिया. दोपहर में जय के नाम एक नोट छोड़ कर वह अपना सामान समेट  घर चली आई. औफिस में भी उस ने मेल से सिक लीव ले ली थी. सामान के साथ निकलते हुए उस ने एक नजर घर पर डाली और उसे अलविदा कह चली गई.

अचानक ऊर्जा को घर आया देख कर वीरा चौंक गई. उस की शक्ल से लग रहा था कुछ तो हुआ है जिस से ऊर्जा ने घर का रुख कर लिया वरना उस ने इस घर को कभी अपना समझ ही नहीं था. वीरा ने खुले दिल से उस का स्वागत किया. बदले में ऊर्जा ने भी एक फीकी मुसकान दे दी.

वीरा ने आते ही उस से कुछ पूछना ठीक नहीं सम?ा. बड़ी मुश्किल से वह लंबे अरसे बाद घर आई थी. कुछ पूछ कर वह उस का मूड खराब नहीं करना चाहती थी.

वीरा उस की हर जरूरत का खयाल रख रही थी. उस की अपनी कोई औलाद नहीं थी. लेदे कर उस के दिवंगत पति ओजस की एकमात्र निशानी ऊर्जा ही थी. 2 दिन तक उन के बीच मौन पसरा रहा. आखिर ऊर्जा की हालत देख कर वीरा ने चुप्पी तोड़ कर बात आगे बढ़ाई, ‘‘कितने दिन की छुट्टी ली है ऊर्जा?’’

‘‘अभी सोचा नहीं. जब तक मन लगेगा तब तक रहूंगी. उस के बाद चली जाऊंगी.’’

‘‘यह तुम्हारा अपना घर है. मैं कब से तुम्हारे आने का इंतजार कर रही थी ऊर्जा. मेरा भी तुम्हारे अलावा कोई नहीं है,’’ वीरा बोली तो ऊर्जा ने पलट कर कोई जवाब नहीं दिया. पहली बार उस की बात सुन कर वह ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में नहीं गई. वरना ओजस के रहते  मम्मीपापा के कुछ कहते ही वह उठ कर वहां से चली जाती थी.

इस से वीरा का हौसला कुछ और बढ़ गया. उसी ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘कोई परेशानी हो तो कह दो. बता देने से मन हलका हो जाता है.’’

‘‘मैं प्रैगनैंट हूं,’’ ऊर्जा निर्विकार भाव से बोली.

यह सुन कर वीरा के मन में कई सवाल उठ रहे थे लेकिन उस ने कुछ पूछना उचित नहीं सम?ा. उसे अच्छा लगा कि ऊर्जा ने उसे इस लायक तो सम?ा और अपनी स्थिति बता दी.

‘‘तुम्हें आराम करना चाहिए. तनाव बच्चे के लिए अच्छा नहीं होता.’’

‘‘इसी वजह से घर आई हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारा पूरा खयाल रखूंगी ऊर्जा. तुम्हें पता भी नहीं लगेगा यह समय कब बीत गया.’’

ऊर्जा को यह सुन कर तसल्ली हुई कि उस के यहां आने से वीरा को कोई परेशानी नहीं है. थोड़ा साहस कर वह बोली, ‘‘मैं ने अभी तक शादी नहीं की है.’’

यह सुन कर वीरा को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. ओजस ने उसे बता दिया था कि ऊर्जा किसी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहती है. वह सम?ा गई यह बच्चा उसी का होगा. वह बोली, ‘‘कोई बात नहीं है. जब मरजी हो तब शादी कर लेना. अभी अपना ध्यान सेहत पर दो. अब पहले वाले जमाने नहीं रह गए पहले शादी फिर बच्चा.’’

‘‘जानती हूं तभी इतना बड़ा फैसला ले सकी वरना…’’ कहतेकहते वह रुक गई.

वीरा ने उसे कुरेद कर कुछ नहीं पूछा. इतना वह सम?ा गई कि अपने मन की बात वह धीरेधीरे उसे बता देगी. उसे बस ऊर्जा का विश्वास जीतना था. वीरा के बरताव ने ऊर्जा का दिल काफी हद तक जीत लिया था और उस ने थोड़ाथोड़ा कर सारी बात उसे बता दी.

‘‘तुझे नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी.’’

‘‘मैं अभी छुट्टी पर हूं.’’

‘‘परिस्थितियों से भाग कर समस्या का समाधान नहीं निकलता ऊर्जा. 10 तरह की नकारात्मक बातें मन में आती हैं.’’

‘‘आप जानती हैं मैं ने कभी किसी के जज्बातों की परवाह नहीं की न ही मेरा रिश्तों

में कोई विश्वास रहा. मैं इतना ही सम?ा पाई हूं अपने  शरीर के किसी हिस्से को बारबार काट

कर फेंकना कहां की बुद्धिमानी है? विचारों की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता तभी तक सुकून देती है जब तक वह दिल पर असर न डाले. एक ही घटना के बारबार होने से मुझे सोचने पर मजबूर होना पड़ा है. मैं अब यह काम नहीं करना चाहती.’’

‘‘तुम ने जो सोचा वह अपने हिसाब से बिलकुल ठीक है. इस समय ऐसी बातें सोचने से तुम्हारी सेहत पर बुरा असर पड़ेगा. तुम खुश रहो मैं इतना ही चाहती हूं,’’ वीरा ने उसे सांत्वना दी तो ऊर्जा को अच्छा लगा.

जब वह छोटी थी तब भी वीरा ने उस के पास आने की बहुत कोशिश की लेकिन उस ने उस की भावनाओं को कभी कोई महत्त्व नहीं दिया था. पापा के साथ किसी और औरत को देखने की वह कल्पना भी नहीं करना चाहती थी. वीरा को देख कर उसे बड़ा अटपटा लगता था. वह पापा की पत्नी जरूर थी लेकिन उस की मम्मी नहीं. उस ने अपने व्यवहार से कभी उसे मम्मी बनने का मौका ही नहीं दिया.

पापा के चले जाने के बाद ऊर्जा पहली बार वीरा के इतने नजदीक आई थी. उसे लगा वह एक भली औरत है. उसी की भूल थी जो वह उसे गलत सम?ाती रही. ऊर्जा के फैसले के खिलाफ उस ने एक शब्द भी नहीं कहा और उस की हर बात को जायज ठहराते हुए ऐसी हालत में उस का साथ दे रही थी.

घर पर ऊर्जा को पापा की बहुत याद आ रही थी. वह एक अच्छे इंसान थे. अपना अकेलापन दूर करने के लिए वीरा को उन्होंने अपना जीवनसाथी बनाया था. इस में कोई बुराई भी नहीं थी. वे चाहते तो किसी से भी अपनी शारीरिक जरूरत पूरी कर सकते थे. उन के मन में स्त्री

के लिए सम्मान था इसीलिए उन्होंने अपनी सहकर्मी वीरा को घर की इज्जत बना कर उसे अपनाया था. दोनों खुश थे. ऊर्जा को ही यह सब पसंद नहीं था और यहीं से उस के विचारों में बगावत शुरू हो गई. तब उसे लग रहा था शायद पापा को दुखी करने के लिए उस ने यह कदम उठाया था.

ऊर्जा बड़ी देर से पापा की तसवीर देख रही थी. वीरा उसे सम?ाते हुए बोली, ‘‘बीती बातें याद करने से कोई फायदा नहीं. आने वाले भविष्य की ओर देखो ऊर्जा. जो बीत गया उसे लौटाया नहीं जा सकता. ओजस तुम्हें बहुत याद करते थे. वे हर समय तुम्हारी चिंता करते थे और तुम्हें अपने पास रखना चाहते थे.’’

उस के पास कहने के लिए कुछ बचा भी नहीं था. वीरा उसे हर समय चिंता में डूबे देखती. एक दिन उस ने साहस कर के पूछ लिया, ‘‘तुम अपने इस फैसले से खुश तो हो ऊर्जा? अभी भी समय है तुम इस बारे में एक बार फिर सोच सकती हो.’’

‘‘मैं ने बहुत सोचसमझ कर ही यह फैसला लिया है. मैं सिंगल मदर बनूंगी और बच्चे को पालपोस कर बड़ा करूंगी.’’

‘‘तुम्हारे विचार बहुत अच्छे हैं लेकिन कभी उस बच्चे की नजरिए से भी सोचना जिस के मन में दुनिया देखने के बाद कई प्रश्न खड़े होंगे,’’ वीरा बोली.

उस की बात सुन कर ऊर्जा चौंक गई. उस ने अभी इस दृष्टिकोण से कुछ सोचा ही नहीं था. वीरा ने यह कह कर उसे ?ाक?ार दिया.

ऊर्जा सोचने लगी अपनी मम्मी के चले जाने के बाद वह पापा के साथ वीरा को देख तक न सकी थी. कितना बुरा लगता था पापा के साथ उन्हें हंसतेबोलते देख कर. भविष्य में अगर कभी उस ने शादी करने का फैसला लिया तो क्या आने वाला मेहमान उस के नए जीवनसाथी को स्वीकार कर पाएगा. यह यक्ष प्रश्न उस के सामने खड़ा था जिसे चाह कर भी अपने दिमाग से निकाल नहीं पा रही थी.

3 महीने पूरे होने में अभी 1 हफ्ता बाकी था और वह अपनेआप से लड़ रही थी कि अपने या बच्चे में से किस के दृष्टिकोण से जिंदगी को देखे.

ऊर्जा के इस तरह घर से चले जाने पर जय को घर में खालीपन लगने लगा था. वह मानसिक रूप से पहले से ही तैयार था कि एक न एक दिन ऊर्जा उसे छोड़ कर चली जाएगी. वह अपनेआप को ऊर्जा के बगैर रहने के लिए तैयार करने लगा. जीवन का जो सुख उसे चाहिए था वह उस ने ऊर्जा के साथ भरपूर भोगा था. वह किसी नए रिश्ते में बंध कर अपनी आजादी खत्म नहीं करना चाहता था. उस ने 1-2 बार ऊर्जा से बात करने की कोशिश की लेकिन उस ने उस का नंबर ब्लौक कर दिया था .वह स्क्रीन पर भी उस के संपर्क में नहीं आना चाहती थी.

3 साल में क्या कुछ नहीं किया था उसने जय के लिए. उस की हर इच्छा का मान किया लेकिन उस ने उसे एक मशीन समझ लिया था जिस में आधुनिकता और खुलेपन के नाम पर भावनाएं नहीं रह गई थीं. यह चौथी बार था जब जय उसे अबौर्शन कराने के लिए कह रहा था. ऐसी परिस्थिति आने पर हर बार वह उसे दोषी करार कर देता और खुद जिम्मेदारी लेने से बच जाता.

कुछ हफ्तों बाद जय को उस की कमी खलने लगी.

वह कई मामलों में जिद्दी थी लेकिन उस की हर इच्छा का बहुत खयाल रखती थी. वह अब उस के बारे में सोचने पर मजबूर हो गया था. उसे घर के हर हिस्से में ऊर्जा की उपस्थिति महसूस होती. उसे लगने लगा कि ऊर्जा ही नहीं वह भी दिल की गहराइयों से उसे चाहने लगा.

यह बात उस का दिमाग उस वक्त स्वीकार नहीं कर सका था. आंखों के आगे से भौतिकवाद और आधुनिकता का परदा हटते ही जय को बहुत कुछ दिखाई देने लगा. वह उस से मिलने के लिए बेचैन था.

एक दिन वह हिम्मत कर ऊर्जा से मिलने उस के घर आ गया. उस समय ऊर्जा डाक्टर के पास अपनी दुविधा ले कर गई हुई थी. अचानक जय को घर पर देख कर वीरा चौंक गई. ऊर्जा ने उसे काफी कुछ उस के बारे में बता दिया था.

‘‘ऊर्जा कहां है आंटी? मैं उस से मिलना चाहता हूं.’’

‘‘वह घर पर नहीं है कुछ देर बाद आ जाएगी,’’ सही बात छिपा कर वीरा बोली.

‘‘मैं ने ऊर्जा को बहुत हर्ट किया है. उसी की माफी मांगने आया हूं.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो? आजकल के नौजवान इसी तरह के रिश्तों को तवज्जो दे रहे

हैं. इस में माफी जैसे शब्दों की कोई जगह नहीं होती.’’

‘‘मानता हूं हम ने नए रिश्ते की शुरुआत अपनी शारीरिक जरूरत को पूरा करने के लिए

की थी. ऊर्जा कब मु?ा से प्यार करने लगी कह नहीं सकता. वह अब इस जरूरत को एक पवित्र रिश्ते का नाम देना चाहती थी. मैं ही इस के लिए तैयार नहीं था.

‘‘मेरा मन इसे स्वीकार नहीं कर रहा था. रिश्ते में हम बड़ी उम्र में भी बंध सकते हैं. अगर हमें जवानी अपनी शर्तों पर खुशीखुशी

जीने के लिए मिलती है तो हम बेकार के पचड़े

में क्यों पड़े? यही सोच कर मैं ने उस की बात नहीं मानी.’’

‘‘नए जमाने की हवा ही कुछ ऐसी है. उस में जज्बातों के लिए जगह ही नहीं रही. तुम दोनों  अपनीअपनी जगह सही हो. जिसे जो ठीक लगे वही करो. इस में बड़ों की रजामंदी कोई माने नहीं रखती,’’ वीरा बोली.

तभी ऊर्जा घर लौट आई. जय को ड्राइंगरूम में देख कर उस से कुछ पूछते नहीं बना.

‘‘कैसी हो ऊर्जा?’’

‘‘अच्छीभली हूं. तुम कैसे हो जय?’’

‘‘तुम्हारे बिना कैसा हो सकता हूं?’’ जय बोला तो ऊर्जा चौंक गई. वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि शरीर के स्तर पर जीने वाला इंसान कभी दिल की बात भी सुन सकता है.

‘‘मैं ने तुम से कई बार बात करने की कोशिश की. तुम ने मुझे मोबाइल के साथसाथ अपनी जिंदगी से भी डिलीट कर दिया.’’

‘‘जब तुम्हें मेरी जरूरत ही नहीं रही तो फोन पर नंबर रख कर क्या करती. तुम्हारे लिए मैं एक औरत होने के अलावा और कोई माने नहीं रखती जो तुम्हारी शारीरिक जरूरत पूरी कर सके.’’

‘‘ऐसा कह कर मुझे शर्मिंदा मत करो.

मुझे अपनी गलती का एहसास है. जानता हूं हमारे रिश्ते की शुरुआत चाहे जैसे भी हुई लेकिन अब हम एकदूसरे को प्यार करते हैं और एकदूसरे के बगैर नहीं रह सकते,’’ जय बोला तो ऊर्जा की आंखों की कोरों पर आंसू की 2 बूंदें आ कर टिक गईं.

जय ने बड़ी सावधानी से अपनी उंगलियों की पोरों से उन्हें पोंछ कर उसे अपने आलिंगन में ले लिया. ऊर्जा ने भी उस का विरोध नहीं किया. उन्हें बातें करते देख वीरा रसोई में आ गई थी. आवाज की तीव्रता धीरेधीरे कम हो कर मौन में बदल गई थी. वह समझ गई दोनों के बीच समझौता हो गया है. वे बड़ी देर तक एकदूसरे के आगोश में खोए रहे. दिल की बात आंखों से बहते आंसू बयां कर रहे थे.

तभी वीरा के आने की आहट पा कर वे दोनों एकदूसरे से अलग हो गए.

जय बोला, ‘‘आंटी मैं ऊर्जा से शादी करना चाहता हूं. आप को कोई आपत्ति तो नहीं है?’’

‘‘यह कह कर तुम ने मु?ो जो खुशी दी है उसे मैं बयां नहीं कर सकती लेकिन इस के लिए तुम्हें ऊर्जा से अनुमति लेनी होगी.’’

‘‘ऊर्जा तुम मुझ से शादी के लिए तैयार हो?’’ घुटने के बल जमीन पर बैठ कर जय उसे प्रपोज करते हुए बोला.

उस ने सिर झुका कर अपनी सहमति दे दी.

‘‘मैं आज ही कोर्ट में शादी के लिए ऐप्लिकेशन दे दूंगा. तुम मेरे साथ चलने की तैयारी करो ऊर्जा.’’

ऊर्जा ने यह सुन कर वीरा की ओर देखा.

‘‘अब तो दुलहन की विदाई शादी के बाद ही होगी जय. तब तक तुम्हें इंतजार करना होगा.’’

यह सुन कर ऊर्जा के चेहरे पर मुसकान खिल गई और गाल शर्म से लाल हो गए.

खुशी के इस मौके पर आज पहली बार ऊर्जा अपनत्व से भर कर वीरा के गले लग गई. यह देख कर उस की आंखें भर आईं. वीरा को इतने वर्षों बाद आज बेटी के साथ दामाद भी मिल गया था.

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