माई स्मार्ट मौम: अपनी मां से नफरत क्यों करने लगी थी प्रिया

‘‘वाउ, कितनी स्मार्ट हैं तुम्हारी मौम. उन की स्किन कितनी सौफ्ट और यंग है. रिअली तुम दोनों मांबेटी नहीं, 2 बहनें लगती हो.’’

प्रिया मुझ से मेरी मौम की तारीफ कर रही थी. मुझे तो खुश होना चाहिए, मगर मैं उदास थी. मुझे जलन हो रही थी अपनी मां से. कोई इस बात पर यकीन नहीं करेगा. कहीं किसी बेटी को अपनी मां से जलन हो सकती है, भला? पर मेरी जिंदगी की यही हकीकत थी.

मैं समझती हूं, मेरी मां दूसरों से अलग हैं. 40-42 वर्ष की उम्र में भी उन की खूबसूरती देख सब हतप्रभ रह जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि मैं खूबसूरत नहीं हूं. मैं कालेज की सब से प्यारी और चुलबुली लड़की के रूप में जानी जाती हूं. मगर मौम की खूबसूरती में जो ग्रेस और ठहराव है वह शायद मुझ में नहीं.

इस बात का एहसास मुझे तब हुआ जब मेरा बौयफ्रैंड मेरी मां को दीवानों की तरह चाहने लगा. यह सब अचानक नहीं हुआ था. किसी प्लानिंग के तहत भी नहीं हुआ. मैं मां को दोष नहीं दे सकती, पर अचानक सामने आई इस हकीकत ने मुझे झंझोड़ कर रख दिया. मां की वजह से मेरा बौयफ्रैंड मुझ से दूर हो रहा था. इस बात की कसक मेरे मन में कड़वाहट भरने लगी थी.

2-3 महीने पहले तक कितनी खुश थी मैं. विकास मेरी जिंदगी में एकाएक ही आ गया था. मैं ने फ्रैंच क्लासेज जौइन की थी. कालेज के बाद मैं फ्रैंच क्लासेज के लिए जाती. वहीं मुझे विकास मिला. कूल, हैंडसम और परफैक्ट फिजिक वाले विकास पर मैं पहली नजर में ही फिदा हो गई. उसे भी मैं पसंद आ गई थी. बहुत जल्द हमारे बीच दोस्ती हो गई और फिर हम ने एकदूसरे को जिंदगी के सब से खूबसूरत रिश्ते में बांध लिया.

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उन दिनों मैं बहुत खुश रहा करती थी. एक दिन मौम ने टोका, ‘‘क्या बात है, मेरी बिटिया, आजकल गीत गुनगुनाने लगी है, खोईखोई सी रहती है अपनी दुनिया में गुम. जरा मैं भी तो जानूं, किस राजकुमार ने हमारी बेटी की दुनिया खूबसूरत बना दी है?’’

मैं शरमा गई थी. अपनी मौम के गले लग गई. मौम प्यार से मुझे दुलारने लगीं. मैं ने उन के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘मौम, मेरे बाद आप अकेली हो जाओगी न.’’

‘‘मौम, आप शादी कर लो फिर से,’’ एकाएक बोल गई थी मैं.

मौम ने मुझे फिर से गले लगा लिया. कितने प्यारे लमहे थे वो. तब मुझे कहां पता था कि मौम ही मेरी खुशियों को नजर लगा देंगी. वैसे मैं मौम के बहुत करीब हूं. उन की जिंदगी में मेरे सिवा कोई है भी तो नहीं.

20 साल की उम्र में उन की शादी हुई. एक साल बाद मैं पैदा हो गई. इस के अगले साल पापा इस दुनिया से रुखसत हो गए. तब से आज तक मौम ने ही मुझे पालापोसा, बड़ा किया. अपनी जिंदगी के हादसे से वे बिखरी नहीं, बल्कि और भी मजबूत हो कर उभरीं. उन्हें पापा की जगह जौब मिल गई थी. तब से वे मेरे लिए मम्मीपापा दोनों के दायित्त्व निभा रही थीं.

मेरे मनमस्तिष्क को उद्वेलित करने वाला वह हादसा तब मेरे साथ हुआ जब विकास के प्यार में गुम मैं अपनी दुनिया में मदहोश रहती थी. उस दिन मेरी छुट्टी थी. पर मौम को जिम के लिए निकलना था. वे अभी दरवाजे के पास ही थीं कि पड़ोस की उर्वशी मुझ से मिलने आ गई. उर्वशी की मां भी उसी जिम में जाती थीं जहां मेरी मौम जाया करतीं. दोनों सहेलियां थीं.

मौम के जाते ही उर्वशी मेरे पास बैठती हुई बोली, ‘‘यार, क्या लगती हैं आंटीजी, गोरी, लंबी, छरहरी, लंबेकाले बाल, मुसकराता चेहरा और चमकती त्वचा. सच कहती हूं, जो भी उन को देखे, दीवाना हो जाए.’’

‘‘इट्स ओके, यार. बट, यह मत भूल कि अब उन का नहीं, हमारा समय है. अपनी सुंदरता की चिंता कर.’’ मैं ने उस का ध्यान बांटना चाहा पर वह थोड़ी सीरियस होती हुई बोली, ‘‘यार, मुझे लगता है, समय आ गया है जब तुझे अपनी चिंता करनी चाहिए. तुझे शायद बुरा लगे पर यह सच है कि तेरी मां का अफेयर चल रहा है.’’

‘‘क्या, वाकई?’’ मैं ने आश्चर्य से कहा.

‘‘हां. वह कोई और नहीं, नया जिम ट्रेनर है जो तुम्हारी मौम के पीछे पड़ा है.’’

मैं इस बात से चकित तो थी पर प्रसन्न भी थी. मैं खुद चाहती थी कि मौम मेरे बाद किसी से जुड़ जाएं.

मुझे आघात तब लगा जब उर्वशी ने उस जिम ट्रेनर की फोटो दिखाई. वह कोई और नहीं, मेरा विकास ही था.

खुद को संभालना मुझे मुश्किल हो रहा था. मैं समझ नहीं पाई कि विकास ने मेरे प्यार का तिरस्कार किया है या वाकई मौम के आगे मैं कुछ भी नहीं, एकाएक ही मौम के प्रति मेरा मन घृणा और विद्वेष से भर उठा.

अब मैं मौम पर नजर रखने लगी. वाकई वे आजकल ज्यादा ही स्टाइलिश कपड़े पहन कर निकला करतीं. उन के चेहरे पर सदैव एक रहस्यमयी मुसकान खिली होती. वे गुनगुनाने लगी थीं. अपनी ही दुनिया में खोई रहती थीं.

मुझे यह सब देख कर खुश होना चाहिए पर विकास की वजह से मुझे खीझ होती थी. मैं गुमसुम रहने लगी. विकास की नजरों में मुझे मौम का चेहरा नजर आने लगा. वह भी अब मुझ से बचने की कोशिश करता, जितना हो पाता नजरें चुराने का प्रयास करता.

मैं इन परिस्थितियों में घिरी बहुत ही बेचैन रहने लगी. अकसर लगता कि मुझे सारी बात मौम को बता देनी चाहिए. शायद कोई समाधान निकल आए या असलियत जानने के बाद मौम विकास को अपनी जिंदगी से निकाल दें.

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एक दिन हिम्मत जुटा कर मैं ने मौम को बातों ही बातों में विकास की फोटो दिखाते हुए बताया कि यही विकास है जिस के लिए मेरे दिल में बहुत सारा प्यार है. मौम उस फोटो को देर तक देखती रहीं. उन का चेहरा पीला पड़ गया था. जरूर उन्हें झटका लगा होगा कि वे जिसे अपना प्यार समझ रही थीं, वास्तव में वह तो उन की बेटी का प्यार है. मैं ध्यान से मौम का चेहरा देखती रही. मन में सुकून था कि अब मौम उसे छोड़ देंगी.

पर हुआ मेरी सोच के विपरीत. मौम अब मुझे ही विकास से दूर रहने की सीख देने लगीं. अगले दिन मैं जब कालेज के लिए तैयार हो रही थी तो मौम मेरे करीब आईं और समझाने के अंदाज में कहने लगीं, ‘‘बेटा, प्यार का रिश्ता बहुत ही नाजुक होता है. इस में एकदूसरे के लिए मन में विश्वास और सम्मान की भावना जितनी आवश्यक है उतना ही एकदूसरे के प्रति समर्पण भी. यदि कोई तुम्हें प्यार करे तो सिर्फ तुम से करे और यदि ऐसा नहीं है तो उसे अपनी जिंदगी से निकाल देना ही बेहतर होता है.’’

मैं ने कुछ कहा नहीं, पर मौम का तात्पर्य समझ रही थी. वे मुझे विकास से दूर हो जाने की सलाह दे रही थीं. यह जानते हुए भी कि वे ही हमारे बीच आई थीं, न कि मैं उन के बीच.

उस दिन कालेज जा कर मैं बहुत रोई. मुझे लग रहा था जैसे मेरा सब से कीमती सामान कोई छीन कर भाग गया हो और मैं कुछ भी नहीं कर सकी. सब से ज्यादा दुख मुझे इस बात का था कि मौम ने मेरी खुशी से ज्यादा अपनी खुशी को तवज्जुह दी थी. यह सब मेरे लिए बहुत अप्रत्याशित था. मुझे मौम पर गुस्सा आ रहा था और अकेलापन भी महसूस हो रहा था. एक अजीब सा एहसास था जो न जीने दे रहा था, न मरने. अपनी ही तनहाइयों में कहीं मैं खोने लगी थी.

मैं मौम से कट सी गई जबकि मौम पहले की तरह जिम जाती रहीं. एक दिन मौम के पीछे उर्वशी फिर से मेरे घर आई. मुझे अंदर ले जा धीरे से बोली, ‘‘जानती है, आज तेरी मौम उस विकास के साथ डेट पर जा रही हैं. मेरी मौम ने यह न्यूज दी है मुझे.’’

चौंक गई थी मैं. ‘‘कहां जा रही हैं,’’ मैं ने पूछा.

‘‘मनभावन रैस्टोरैंट. ट्रीट विकास की तरफ से है. कल तेरी मौम का उस जिम में अंतिम दिन है न.’’

‘‘यानी, मौम अब जिम नहीं जाएंगी?’’

‘‘नहीं. मगर आज जब विकास ने डेट पर चलने को कहा तो वे मान गईं. आज वह पक्के तौर पर उन्हें प्रपोज करेगा.’’

मैं ने उसी पल तय कर लिया कि वेश बदल कर मैं उन की बातें सुनने के लिए वहां जरूर जाऊंगी और उसी रैस्टोरैंट में लोगों के सामने मां को उन की इस हरकत के लिए जलीकटी भी सुनाऊंगी.

उर्वशी के बताए समय पर मैं उस रैस्टोरैंट में पहुंच गई. मौम और विकास जहां बैठे थे, उस की बगल वाली टेबल बुक की और बैठ गई. विकास बहुत प्रेम से मौम की तरफ देख रहा था. मेरे तनबदन में आग लग रही थी. थोड़ी इधरउधर की बातों के बाद विकास ने कह ही दिया कि वह उन्हें पसंद करता है. विकास प्रपोज करने के लिए अंगूठी भी साथ ले कर आया था. मैं उठ कर उन के रंग में भंग डालने ही वाली थी कि मौम के शब्दों ने मुझे चौंका दिया.

मौम कह रही थीं, ‘‘विकास, प्रेम समर्पण का दूसरा नाम है. इस में ठहराव जरूरी है. यदि आप किसी से प्यार करते हैं तो बस, आप उसी के हो जाते हैं. मगर तुम्हारे साथ ऐसा नहीं. तुम एकसाथ मुझे और प्रिया को प्यार कैसे कर सकते हो?’’

‘‘प्रिया को आप जानती हैं?’’ वह चौंका.

‘‘हां, वह मेरी बेटी है और मैं ने बहुत करीब से उसे तुम्हारे प्यार में सराबोर देखा है. तुम उस से प्यार नहीं करते थे क्या?’’

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विकास पहले तो हकबकाया, फिर सपाट लहजे में बोला, ‘‘नो, कुसुमजी, वह तो प्रिया ही मेरे पीछे पड़ी थी. उस में बहुत बचपना है. मुझे तो आप जैसी मैच्योर और ग्रेसफुल जीवनसाथी की आवश्यकता है.’’

‘‘जैसे प्रिया में तुम्हें आज बचपना लगने लगा है, क्या पता वैसे ही आज मैं तुम्हें अच्छी लग रही हूं पर कल मेरी बढ़ती उम्र तुम्हें खटकने लगे? मुझे छोड़ कर तुम किसी और के करीब हो जाओ. विकास, प्यार इंसान के गुणदोष या रंगरूप से नहीं, बल्कि दिल व सोच से होता है. प्यार किसी एक के प्रति समर्पण का नाम है, एक से दूसरे के प्रति परिवर्तन का नहीं.’’

‘‘मगर कुसुमजी, आप भी तो मुझे…’’

विकास ने कुछ बोलना चाहा पर मौम ने उसे रोक दिया, ‘‘नो विकास, आई थिंक, तुम मुझे समझ सकोगे. मैं तुम्हें पसंद करती थी, पर अब, इस से आगे कुछ सोचना भी मत. इट्स माई फाइनल डिसीजन.’’

मौम उठ गई थीं और विकास अवाक सा उन्हें जाता देखता रहा. मैं खुशी से उछलती हुई उठी और पीछे से जा कर मौम को चूम लिया.

7 बजे की ट्रेन: कौनसी कमी रेणु को धकेल रही थी उदासी की तरफ

एक उदास शाम थी. स्टेशन के बाहर गुलमोहर के पीले सूखे पत्ते पसरे हुए थे जो हवा के धीमे थपेड़ों से उड़ कर इधरउधर हो रहे थे. स्टेशन पहुंचने के बाद उन्हीं पत्तों के बीच से हो कर रेणू प्लेटफौर्म के अंदर आ चुकी थी. वह धीमेधीमे कदमों से प्लेटफौर्म के एक किनारे पर स्थित महिला वेटिंगरूम की ओर जा रही थी. 7 बजे की ट्रेन थी और अभी 6 ही बजे थे. ट्रेन के आने में देर थी.

शहर में उस की मां का घर स्टेशन से दूर है और ट्रांसपोर्टेशन की भी बहुत अच्छी सुविधा नहीं है. इसलिए वहां से थोड़ा समय हाथ में रख कर ही चलना पड़ता है, लेकिन आज संयोग से तुरंत ही एक खाली आटो मिल गया जिस के कारण रेणू स्टेशन जल्दी पहुंच गई थी.

पिताजी की मृत्यु के बाद मां घर में अकेली ही रह गई थी. घर के सामने सड़क के दूसरी ओर एक पीपल का पेड़ था और उस के बाद थोड़ी दूरी पर एक बड़ा सा तालाब. दोपहर के समय सड़क एकदम सुनसान हो जाती थी. कम आबादी होने के कारण इधर कम ही लोग आतेजाते थे. सुबह तो थोड़ी चहलपहल रहती भी थी पर दोपहर होतेहोते, जिन्हें काम पर जाना होता वे काम पर चले जाते बाकी अपने घरों में दुबक जाते.

दूर तक सन्नाटा पसरा रहता. यह सूनापन मां के घर के आंगन में भी उतर आता था. घर के आंगन में स्थित हरसिंगार की छाया तब छोटी हो जाती.

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मां कितनी अकेली हो गई थी. आज जब वह घर से निकल रही थी तो मां उस का हाथ पकड़ कर रोने लगी. इतना लाचार और उदास उस ने मां को कभी नहीं देखा था. उस की आंखों में अजीब सी बेचैनी और बेचारगी झलक रही थी.

जब वह छोटी थी तो घर की सारी जिम्मेदारियां मां ही उठाती थी. वह मानसिक रूप से कितनी मजबूत थी. पिताजी तो अपने काम से अकसर बाहर ही रहते थे. बस, वे महीने के आखिर में अपनी सारी कमाई मां के हाथ में रख देते थे.

घरबाहर का सारा काम मां ही किया करती थी. उसे स्कूल, ट्यूशन छोड़ना और लाना सब वही करती थी. उस समय तो वह इलाका जहां आज उन का घर है, और भी उजाड़ था. स्कूल बस के आने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था.

उसे याद है जब एक बार वह बीमार हो गई थी और कोई रिकशा नहीं मिल रहा था तो मां उसे अपनी गोद में ले कर उस सड़क तक ले गई थी जहां आटोरिकशा मिलता था. उस के बाद वहां से शहर के नामी अस्पताल में ले गई थी और उस का इलाज कराया था. तब उसे डाक्टरों ने 3 दिन तक अस्पताल में भरती रखा था.

मां कितनी मुस्तैदी से अकेले ही अस्पताल में रह कर उस की देखभाल करती रही थी. पिताजी तो उस के एक सप्ताह बाद ही आ पाए थे. इस बार मां बता रही थी कि जब वह बीमार हुई तो 3 दिन तक बुखार से घर में अकेले तड़पती रही. कोई उसे डाक्टर के पास ले जाने वाला भी कोई नहीं था. वह तो भला हो दूध वाले का, जिस ने दया कर के एक दिन उसे डाक्टर के यहां पहुंचा दिया था.

यह सब बताते हुए मां कितनी बेबस और कमजोर दिख रही थी. उम्र के इस पड़ाव में अकेले रह जाना एक अभिशाप ही तो है. रेणू यह सब सोच ही रही थी.

रेणू अपने मांबाप की इकलौती संतान थी. उस के मातापिता ने कभी दूसरे संतान की चाहत नहीं की. वे कहते कि एक ही बच्चे को अगर अच्छे से पढ़ायालिखाया जाए तो वह 10 के बराबर होता है. रेणू को याद है कि उस की बड़ी ताई ने जब उस की मां से कहा था कि अनुराधा, तुम्हारे एक बेटा होता तो अच्छा रहता, तो कैसे उस की मां उन पर झुंझला गई थी. वह कहने लगी थी कि आज के जमाने में बेटी और बेटा में भी भला कोई अंतर रह गया है. बेटियां आजकल बेटों से बढ़ कर काम कर रही हैं. हम तो अपनी बेटी को बेटे से बढ़ कर परवरिश देंगे.

प्लेटफौर्म पर कोई ट्रेन आ कर रुकी थी, जिस के यात्री गाड़ी से उतर रहे थे. अचानक प्लेटफौर्म पर भीड़ हो गई थी. लाउडस्पीकर पर ट्रेन के आने और उस के गंतव्य के संबंध में घोषणा हो रही थी. रेणू ने तय किया कि वेटिंगरूम में जाने से पूर्व एक कप चाय पी ली जाए और तब फिर आराम से वेटिंगरूम में कोई पत्रिका पढ़ते हुए समय आसानी से गुजर जाएगा. यही सोच कर वह एक टी स्टौल पर रुक गई.

उस के मांपिताजी ने उसे पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इंजीनियरिंग करने के बाद रेणू आज बेंगलुरु में एक अच्छी कंपनी में कार्य कर रही थी. उस के पति भी वहीं एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे. दोनों की मासिक आय अच्छीखासी थी. किसी चीज की कोई कमी नहीं थी.

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अब तक प्लेटफौर्म पर भीड़ छंट चुकी थी. प्लेटफौर्म पर आई गाड़ी निकल चुकी थी. रेणू ने वेटिंगरूम की ओर जाने का निश्चय किया. बगल के बुक स्टौल से उस ने एक पत्रिका भी खरीद ली थी. रेणू धीरेधीरे वेटिंगरूम की ओर बढ़ रही थी पर उस का मन फिर उड़ कर मां के उदास आंगन की ओर चला गया था. क्या मां ने चाय पी होगी? वह सोचने लगी. मां बता रही थी कि अब वह एक वक्त ही खाना बनाती है. एक बार सुबह कुछ बना लिया, फिर उसे ही रात में भी गरम कर के खा लेती थी. जितनी बार खाना बनाओ, उतनी बार बरतन धोने का झंझट.

इस बार रेणू ने अपनी मां को कुछ ज्यादा ही उदास पाया था. इस बार वह आई भी तो पूरे 1 साल के बाद थी. प्राइवेट कंपनी में वेतन भले ही ज्यादा मिलता हो पर जीने की आजादी खत्म हो जाती है और अभी तो उस का तरक्की करने का समय है. अभी तो जितनी मेहनत करेगी उतनी ही तरक्की पाएगी. इतनी दूर बेंगलुरु से बारबार आना संभव भी तो नहीं था. जब तक पिताजी थे, मां अकसर फोन कर के भी उस का हालचाल लेती रहती थी पर अब वह इस बात से भी उदासीन हो गई थी.

पहले बगल में मेहरा आंटी रहती थीं तो मां को कुछ सहारा था. उन से बोलबतिया लेती थी और एकदूसरे को मदद भी करती रहती थीं. इस बार जब रेणू आई और उस ने मेहरा आंटी के बारे में पूछा तो मां ने बताया कि उस का बेटा विनीत उसे मुंबई ले कर चला गया है अपने पास. हालांकि रेणू ने यह महसूस किया था कि जैसे मां कह रही हो कि उस का तो बेटा था, उसे अपने साथ ले गया.

अपनी इन्हीं विचारों में डूबी रेणू अचानक से किसी चीज से टकराई, नीचे देखा तो वह एक आदमी था, जिस के दोनों पैर कटे थे. वह हाथ फैला कर उस से भीख मांग रहा था. वह आदमी बारबार अपने दोनों पैर दिखा कर उस से कुछ पैसे देने का अनुरोध कर रहा था. उस के चेहरे पर जो भाव थे, उसे देख कर रेणू चौंक गई. उसे लगा वह मानो गहरे पानी में डूबती जा रही है और सांस नहीं ले पा रही है.

ऐसे ही भाव तो उस की मां के चेहरे पर भी थे जब वह अपनी मां से विदा ले रही थी. उसे लगा वह चक्कर खा कर गिर जाएगी. वह बगल में ही पड़ी एक बैंच पर धम्म से बैठ गई. वह आदमी अब भी उस के पैरों के पास उसे आशाभरी नजरों से देख रहा था. उसे उस आदमी की आंखों में अपनी मां की आंखें दिखाई दे रही थीं. ऐसी ही आंखें… बिलकुल ऐसी ही आंखें तो थीं उस की मां की जब वह घर से स्टेशन के लिए निकल रही थी.

रेणू ने अपनी आंखें बंद कर लीं और वहीं बैठी रही. 7 बज गए थे. बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का जोरजोर से अनाउंसमैंट हो रहा था. ट्रेन निकल जाने के बाद प्लेटफौर्म पर शांति छा गई और रेणू के मन में भी. रेणू थोड़ी देर वहीं बैठी रही.

अब उस का मन बहुत हलका हो गया था. आटो में बैठे हुए उस के मोबाइल पर मैसेज प्राप्त होने का रिंगटोन बजा. उस ने देखा कि बेंगलुरु जाने वाली अगले दिन की ट्रेन में 2 लोगों के टिकट कन्फर्म हो गए हैं. उस ने अपने पति को एक थैंक्स का मैसेज भेज दिया.

‘‘मां, आज क्या खाना बना रही हो? बहुत जोरों की भूख लगी है,’’ मां ने जैसे ही दरवाजा खोला, रेणू ने मां से कहा.

‘‘अरे, गई नहीं तुम? क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है? ट्रेन तो नहीं छूट गई?’’ मां के स्वर में बेटी की खैरियत के लिए स्वाभाविक उद्विग्नता थी.

‘‘हां, मां सब ठीक है,’’ कहती हुई रेणू सोफे पर बैठ गई और मां को खींच कर वहीं बिठा लिया और उस की गोद में अपना सिर रख दिया. ऐसी शांति और ऐसा सुख, मां की गोद के अलावा कहां मिल सकता है. रेणू सोच रही थी. उस के गाल पर पानी की 2 गरम बूंदें गिर पड़ीं. ये शायद मां की खुशी के आंसू थे. अगले दिन बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन में 2 औरतें सवार हुई थीं.

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मुहरे: उम्र को ले कर रश्मि पर क्यों तंज कसता था विपिन

मैं शाम की सैर से घर लौटी ही थी. पसीने से तरबतर थी. तभी डोरबैल बजी. विपिन औफिस से आ गए थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘रश्मि, क्या हुआ?’’

मैं ने रूमाल से पसीना पोंछते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं, बस अभीअभी सैर से लौटी हूं.’’ ‘‘हूं,’’ कहते हुए विपिन बैग रख फ्रैश होने चले गए.

मैं 10 मिनट फैन के नीचे खड़ी रही. फिर मैं विपिन के लिए चाय चढ़ा कर थोड़ा लेटी ही थी कि विपिन ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘आज गरमी में हालत खराब हो गई. अजीब सी थकान हो रही है.’’

विपिन छेड़छाड़ के मूड में आ गए थे. मुसकराते हुए बोले, ‘‘हां, उम्र भी तो हो रही है.’’ एक तो गरमी से परेशान ऊपर से विपिन की बात से मैं और तप गई.

तुनक कर बोली, ‘‘कौन सी उम्र हो रही है? अभी 50 की भी नहीं हुई हूं. हर समय उम्र का राग अलापते रहते हो.’’ विपिन ने और छेड़ा, ‘‘सच बहुत कड़वा होता है रश्मि.’’

मैं ने जलतेकुढ़ते उन्हें चाय का कप पकड़ाया. मैं इस समय चाय नहीं पीती हूं. फिर शीशे में जा कर खुद पर नजर डाली, ‘‘हुंह, कहते हैं उम्र हो रही है… सभी कौंप्लिमैंट देते हैं… इतनी फिट हूं… और विपिन कुछ भी हो जाए उम्र की बात करेंगे… सब से बड़ी बात यह कि जब मैं खुद को यंग महसूस करती हूं तो यह जरूरी है क्या कि कभी कुछ हो जाए तो उम्र ही कारण होगी? हुंह, कुछ भी बोलते रहते हैं. इन की बातों पर कौन ध्यान दे. गुस्सा अपनी ही हैल्थ के लिए ठीक नहीं है… बोलने दो इन्हें.

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थोड़ी देर में हमारे बच्चे वान्या और शाश्वत भी कोचिंग से आ गए. सब अपने रूटीन में व्यस्त थे. डिनर करते हुए अचानक मुझे कुछ याद आया, तो मैं अपने माथे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘उफ, गरमी लग रही थी तो सैर से सीधी घर आ गई. कल सुबह के लिए सब्जी लाना ही भूल गई.’’ विपिन को फिर मौका मिला तो फिर अपना तीर छोड़ा, ‘‘होता है, उम्र के साथ याद्दाश्त कमजोर होती ही है.’’

एक तो सुबह क्या बनेगा, इस की टैंशन, ऊपर से फिर उम्र का व्यंग्यबाण, मैं सचमुच नाराज हो गई. मुंह से तो कुछ नहीं बोला पर विपिन को जलती नजरों से घूरा तो बच्चे समझ गए कि मुझे गुस्सा आया है, पर हैं तो ऐसी शरारतों में अपने पापा के चमचे ही न, अत: शाश्वत ने कहा, ‘‘मम्मी, आप सच ऐक्सैप्ट क्यों नहीं कर पा रहीं? कभी भी आप का बैक पेन बढ़ जाता है, कभी भी कुछ भूल जाती हो, मान लो मम्मी उम्र हो रही है.’’ वान्या को लगा कि कहीं मेरा गुस्सा न

बढ़ जाए. अत: फौरन बात संभाली, ‘‘चुप रहो शाश्वत मम्मी, सब्जी नहीं है तो कोई बात नहीं, हम तीनों कैंटीन में खा लेंगे. आप बस अपना खाना बना लेना.’’ मैं ने जल्दी से अपना खाना खत्म किया और फिर पर्स उठा, कर बोली, ‘‘देखती हूं पनीर मिल जाए तो ले आती हूं.’’

विपिन ने भी कहा, ‘‘अरे छोड़ो, कैंटीन में खा लेंगे सब.’’ जानती हूं विपिन को घर का खाना ही ले जाना पसंद है. उम्र बढ़ने की बात से मुझे गुस्सा तो आता है, चिढ़ती भी बहुत हूं पर प्यार भी तो करती हूं न उन्हें. अत: मैं उन्हें देख कर मुंह फुलाए हुए अपनी नाराजगी प्रकट करते घर से निकलने लगी, तो विपिन मुसकरा उठे. वे भी जानते हैं कि मेरा गुस्सा क्षणिक ही होता है.

हम तीसरी मंजिल पर रहते हैं. मैं सीढि़यों से ही उतरती हूं. ज्यादा सामान होता है तभी लिफ्ट में आती हूं. पनीर ले कर लौट रही थी तो देखा लिफ्ट नीचे ही थी. कोई लिफ्ट में जा रहा था. मैं भी यों ही लिफ्ट में आ गई. साथ खड़े लड़के ने लिफ्ट में 7वीं मंजिल का बटन दबाया. मैं पता नहीं किन खयालों में थी कि तीसरी मंजिल का बटन दबाना ही भूल गई. दिमाग में विपिन की उम्र की बातें ही चल रही थीं न. जब अचानक लगा कि ऊपर जा रही हूं तो हड़बड़ा कर स्टौप का बटन दबा दिया. लिफ्ट रुक गई. आजकल कुछ गड़बड़ चल रही थी.

साथ खड़ा लड़का शालीनता से बोला, ‘‘क्या हुआ मैम?’’ मैं झेंप गई. कहा, ‘‘सौरी, गलती से कर दिया. मुझे तीसरी मंजिल पर जाना था.’’

बटनों से छेड़छाड़ करने पर लिफ्ट 7वीं मंजिल पर बढ़ गई. हमारी लिफ्ट दरवाजों वाली नहीं है, चैनल वाली है, खुली है तो मुझे जरा ठीक लगता है. मैं ने अब उस लड़के पर नजर डाली. 26-27 साल का होगा. वह 7वीं मंजिल पर लिफ्ट से बाहर निकल कर मुसकराया तो आदतन मैं भी मुसकरा दी. मैं ने फिर 3 वाला बटन दबाया और अपने फ्लोर पर पहुंच मुसकराती हुई घर में घुसी. तीनों मेरा ही वेट कर रहे थे.

शाश्वत बोला, ‘‘अरे वाह, पनीर मिल गया?’’ मैं ने हंसते हुए ‘हां’ कहा तो विपिन ने कहा, ‘‘कितनी अच्छी लग रही हो हंसते हुए.’’

मैं मुसकराते हुए ही लिफ्ट में हुई गड़बड़ बताने लगी तो विपिन कुछ गंभीर हो गए. मैं मन ही मन हंसी. मैं ने कहा, ‘‘अच्छा लड़का था.’’

‘‘इतनी जल्दी पता चल गया तुम्हें कि अच्छा लड़का था?’’ विपिन बोले. ‘‘हां, मुझे जल्दी पता चल जाता है,’’ कहते हुए मुझे मजा आया.

वे बोले, ‘‘ध्यान रखा करो, यार… कहां था तुम्हारा ध्यान?’’ मैं मुसकराती रही. 3-4 दिन बाद मैं शाम की सैर से लौट रही थी. वही लड़का फिर मुझे मिल गया. हमारी हायहैलो हुई, बस. 2 दिन बाद मैं फिर सब्जी ले कर लौट रही थी तो वह लिफ्ट में साथ हो गया. उस ने मेरे कुछ कहे बिना लिफ्ट तीसरी मंजिल पर रोक दी. मैं थैंक्स कह बाहर आ गई.

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मैं ने उस रात डिनर करते हुए सब को बताया, ‘‘अरे, आज वह लिफ्ट वाला लड़का भी मेरे साथ ही आया तो उस ने खुद ही तीसरी मंजिल पर लिफ्ट रोक दी.’’

विपिन के चेहरे पर जो भाव आए, उन्हें देख कर मुझे मन ही मन शरारत सूझ गई. मैं ने कई बातें एकसाथ सोच लीं. फिर भोलेपन से पूछा, ‘‘क्या हुआ विपिन? क्या सोचने लगे?’’

वान्या और शाश्वत आराम से खाना खाते हुए हमारी बातें सुन रहे थे. विपिन ने कहा, ‘‘यह फिर कहां से लिफ्ट में मिल गया?’’

‘‘तो क्या हुआ, वह तो मुझे अकसर कहीं न कहीं टकरा ही जाता है… जब एक बिल्डिंग में रहते हैं तो सामना तो होगा ही न.’’ विपिन और मैं डिनर के बाद घूमने जाते हैं. उस दिन भी गए तो वह लड़का किसी से फोन पर बात कर रहा था.. मैं ने उसे देख कर जानबूझ कर हाथ हिला दिया. उस ने भी जवाब दिया.

विपिन ने कहा, ‘‘यह कौन है?’’ ‘‘वही लिफ्ट वाला.’’

बेचारे हायहैलो पर क्या बोलते, उस समय तो चुप ही रहे. घर आ कर जानबूझ कर बच्चों के सामने बोले, ‘‘आज तुम्हारी मम्मी का लिफ्ट वाला दोस्त देखा मैं ने.’’ बच्चे हंसे तो मैं भी मुसकरा दी, ‘‘अरे छोड़ो, कहां से दोस्त होगा वह मेरा, बच्चा है, मेरी उम्र देखो… इस उम्र में उस की उम्र का मेरा क्या दोस्त बनेगा?’’

उन के मुंह से निकल ही गया, ‘‘इतनी उम्र कहां हो गई तुम्हारी?’’ मैं ने चौंकने का अभिनय किया, ‘‘अच्छा? उम्र नहीं हो गई मेरी?’’

विपिन को कुछ न सूझा तो मुझे बहुत मजा आया. उस रात सोने लेटी तो विपिन के आज के चेहरे के भाव पर हंसी आ रही थी. आजकल उम्र की छेड़छाड़ से मुझे कितना परेशान कर रखा है. मुझे तो अब शरारत सूझ ही चुकी थी. जानती हूं मेरी इस शरारत के आगे विपिन टिक नहीं पाएंगे. पर अब सोच रही हूं कि मैं उन के इस मजाक पर इतना चिढ़ती क्यों हूं… स्त्री हूं न… उम्र की बात पर दिल जरा कमजोर पड़ ही जाता है. कौन स्त्री नहीं चाहती हमेशा यंग बने रहना, पर जब मैं मन से स्वयं को यंग और ऐनर्जेटिक महसूस करती हूं तो मैं हर समय यह नहीं सुनना चाहती कि मेरी उम्र हो रही है.

कभी कहीं दर्द हो गया तो उम्र का मजाक, कभी कुछ भूल गई तो उम्र… नहीं सुनना होता मुझे ये सब. अरे, मजाक कुछ और भी तो हो सकते हैं न. उम्र के मजाक और वह भी एक स्त्री से… घोर अपराध. अगले 10-15 दिन मैं ने नोट किया कि अकसर मेरे सैर से लौटने के समय वह लिफ्ट वाला लड़का मुझे नीचे मिलता और मेरे साथ ही लिफ्ट में प्रवेश कर जाता. मेरे दिल ने कहा, यह संयोग नहीं हो सकता. वह जानबूझ कर ऐसा करने लगा है. कभी कोई अन्य व्यक्ति लिफ्ट में होता तो बस मुसकरा देता वरना थोड़ीबहुत बात करता.

मुझे 2-3 बार उस ने यह भी कहा कि मैम, यू आर लुकिंग नाइस. एक दिन उस ने लिफ्ट में मुझ से कहा, ‘‘मैम, मैं प्रशांत, बहुत दिनों से आप का नाम भी जानना चाह रहा था, प्लीज बताएं’’ इतने में तीसरी मंजिल आ गई थी लिफ्ट से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘रश्मि.’’

उस ने ऊपर जाते हुए ‘‘बाय, मैम’’ कहा. मैं जब अपना नाम बता रही थी वान्या अपने घर का दरवाजा खोल कर बाहर आ रही थी, उस ने मेरा अपना नाम बताना सुन लिया था.’’ पूछा, ‘‘मम्मी, किसे अपना नाम बता रही थीं?’’

‘‘लिफ्ट वाले लड़के को.’’ वान्या ने जिस तरह मुझे देखा उस पर मैं खुल कर हंसी.

‘‘पता नहीं किसकिस से बातें करती रहती हैं आप… अच्छा, मैं नोटबुक लेने जा रही हूं. अभी आई.’’ डिनर के समय वान्या ने कहा, ‘‘मम्मी, मैं आप को बताना भूल गई. मेरी शर्ट के बटन लगा देंगी अभी?’’

‘‘हां, पर सूई में धागा डाल दो प्लीज. चश्मा लगा कर भी मुझ से धागा नहीं लगाया जाता है.’’

विपिन को एक और मौका मिल गया. बोले, ‘‘हां अब धीरेधीरे चश्मे का नंबर बढ़ेगा ही.’’ ‘‘क्यों पापा, नंबर क्यों बढ़ेगा?’’ वान्या ने पूछा.

‘‘अरे भई, उम्र के साथ नजर भी कमजोर होती है न.’’ ‘‘पापा अभी इतनी उम्र भी नहीं हुई है मम्मी की… आप ने अभी मम्मी के जलवे नहीं देखे… पड़ोस के लड़के नाम पूछते घूमते हैं.’’

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वान्या के कहने के ढंग पर मैं खुल कर हंसी. हम चारों में बेहद शानदार दोस्ती है. हमारे युवा बच्चे हमारे दोस्त हैं, हम एकदूसरे के साथ हंसीमजाक, छेड़छाड़ करते हैं. बस मैं उम्र के मजाक पर गंभीर हो जाती हूं.

विपिन ने पूछा, ‘‘कौन भई?’’ ‘‘लिफ्ट वाला लड़का आज मम्मी से इन का नाम पूछ रहा था.’’

‘‘क्यों? उसे क्या करना है इन के नाम का?’’ मैं ने बहुत ही भोलेपन से कहा, ‘‘जाने दो, बच्चा है… उम्र देखो मेरी.’’

‘‘इतनी भी उम्र नहीं हो रही तुम्हारी.’’ मैं ने फिर हैरानी से आंखें फाड़ी, ‘‘अच्छा?’’ विपिन झेंप गए तो मुझे बड़ी खुशी हुई.

हमारी सोसायटी में स्वीपर सुबह 8 बजे कूड़ा लेने आ जाते हैं. जब वान्या 8 बजे निकलती है, मैं उसी समय डस्टबिन बाहर रख देती हूं. हमारी बिल्डिंग में 4 फ्लैट हैं. 2 में महाराष्ट्रियन परिवार रहते हैं. दोनों परिवारों में पतिपत्नी कामकाजी हैं. चौथे फ्लैट में बस एक आदमी ही है. उम्र पैंतीस के आसपास होगी. वीकैंड पर उस के दरवाजे पर ताला लगा रहता है. मेरा अंदाजा है शायद अपने घर, आसपास के किसी शहर जाता होगा. इस आदमी की विपिन और हमारे बच्चों से कभी कोई हायहैलो नहीं हुई है. एक दिन मुझ से सामना होने पर उस ने पूछा, ‘‘मैडम, पीने के पानी की एक बौटल मिलेगी प्लीज? मेरा फिल्टर खराब हो गया है.’’

मैं ने ‘श्योर’ कहते हुए उस की बौटल में पानी भर दिया था. जब मैं डस्टबिन रख रही होती हूं तो वह भी अकसर अपने घर से निकल रहा होता है और मुझे गुडमौर्निंग मैम कहता हुआ सीढि़यां उतर जाता है. उस से सामना होने पर अब मेरी हायहैलो हो जाती है. बस, हायहैलो और कभी कोई बात नहीं. एक दिन हम चारों बाहर से आ रहे थे और लिफ्ट का वेट कर रहे थे तो वह आदमी मुझे गुड ईवनिंग मैम कहता हुआ सीढि़यां चढ़ गया. मैं ने भी सिर हिला कर जवाब दे दिया.

विपिन ने पूछा, ‘‘यह कौन है?’’ ‘‘हमारा पड़ोसी.’’

‘‘वह किराएदार?’’ ‘‘हां.’’

‘‘तुम से हायहैला कब शुरू हो गई? तुम्हें कैसे जानता है?’’ ‘‘एक दिन पानी मांगा था, तब से.’’

‘‘तुम से ही क्यों पानी मांगा, भई?’’ ‘‘बाकी दोनों फ्लैट दिन भर बंद रहते हैं. पानी मांगना कोई बहुत बड़ी बात थोड़े ही है.’’

‘‘तमीज देखो महाशय की. सिर्फ तुम्हें विश कर के गया.’’ ‘‘अरे, तुम लोगों को जानता ही नहीं है तो विश क्या करेगा? तुम लोग भी तो अपनी धुन में रहते हो… कहां किसी में इंट्रैस्ट लेते हो.’’

‘‘हां, ठीक है, घर में तुम हो न सब में इंट्रैस्ट लेने के लिए. आजकल बड़ी सोशल हो रही हो… कभी लिफ्ट वाले लड़के को अपना नाम बताती हो, तो कभी पड़ोसी को पानी देती हो.’’ मैं ने नाटकीय ढंग से सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘भई, बढ़ती उम्र में आसपास के लोगों से जानपहचान होनी चाहिए. क्या पता कब किस की जरूरत पड़ जाए.’’

‘‘क्या बुजुर्गों जैसी बातें कर रही हो?’’ ‘‘हां, विपिन, उम्र बढ़ने के साथ आसपास के लोगों से संबंध रखने में ही समझदारी है.’’

विपिन मुझे घूरते रह गए. कहते भी क्या. अब बातें करतेकरते हम घर आ कर चेंज कर रहे थे. कई दिन बाद लिफ्ट वाला प्रशांत मुझे शाम के समय गार्डन में भी दिखा तो मैं चौकन्नी हो गई. वह गार्डन में अब मेरे आनेजाने के समय कुछ बातें भी करने लगा था जैसे ‘आप कैसी हैं, मैम?’ या ‘कल आप सैर करने नहीं आईं’ या ‘यह ड्रैस आप पर बहुत अच्छी लग रही है, मैम.’ उस के हावभाव से, नजरों से मैं सावधान होने लगी थी. यह तो कुछ और ही सोचने लगा है.

विपिन और मेरे डिनर के बाद टहलने के समय प्रशांत रोज नीचे मिलने लगा था और मुझे देख कर मुसकराते हुए आगे बढ़ जाता था. प्रशांत का मेरे आसपास मंडराना तो इरादतन था पर नए पड़ोसी का मुझ से आमनासामना होना शतप्रतिशत संयोग होता था. स्त्री हूं इतना तो समझती ही हूं पर विपिन की बेचैनी देखने लायक थी.

वान्या को बाय कहती हुई मैं अकसर पड़ोसी की भी गुडमौर्निंग का जवाब देती तो ड्राइंगरूम में पेपर पढ़ते विपिन मुझे अंदर आते हुए देख कर यों ही पूछते, ‘‘कौन था?’’

मैं पड़ोसी कह कर किचन में व्यस्त हो जाती. अब अच्छे मूड में विपिन अकसर मुझे ऐसे छेड़ते, ‘‘इतनी वैलड्रैस्ड हो कर सैर पर जाती हो… लगता ही नहीं कि तुम्हारे इतने बड़े बच्चे हैं… बहन लगती हो वान्या की.’’

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मैं हंस कर उन के गले में बांहें डाल देती, ‘‘कितनी भी बहन लगूं पर उम्र तो हो ही रही है न?’’

‘‘अभी तो तुम बहुत स्मार्ट और यंग दिखती हो, फिर उम्र की क्या टैंशन है?’’ ‘‘सच?’’ मैं मन ही मन खुश हो जाती.

‘‘और क्या? देखती नहीं हो? आकर्षक हो तभी तो वह लिफ्ट वाला और यह पड़ोसी तुम से हायहैलो का कोई मौका नहीं छोड़ते.’’ ‘‘अरे, उन की क्या बात करनी… उन की उम्र देखो, दोनों मुझ से छोटे हैं.’’

‘‘फिर भी उम्र की तो बात छोड़ ही दो, नजर तुम पर उठती ही है. तुम ने अपनेआप को इतना फिट भी तो रखा है.’’ मैं मुसकराती रही. अब मैं ने नोट किया विपिन ने पूरी तरह से उम्र बढ़ने के मजाक बंद कर दिए थे पर अब भी जब प्रशांत और पड़ोसी मुझे विश कर रहे होते, ये मुझे गंभीर होते लगते.

विपिन और मैं एकदूसरे को दिलोजान से चाहते हैं. सालों का प्यार भरा साथ है, जो दिन पर दिन बढ़ ही रहा है. मैं उन्हें इन गैरों के लिए टैंशन में नहीं देख सकती थी. मुझे उम्र के मजाक हर बात में पसंद नहीं थे, वे अब बंद हो चुके थे. यही तो मैं चाहती थी. मुझे स्वयं को ऊर्जावान, फिट रखने का शौक है और मैं स्वयं को कहीं से भी बढ़ती उम्र का शिकार नहीं समझती तो क्यों विपिन उम्र याद दिलाएं. अब ऐसा ही हो रहा था. विपिन को सबक सिखाने के लिए अब प्रशांत और उस पड़ोसी का जानबूझ कर सामना करने की शरारत की जरूरत नहीं थी मुझे. मैं डस्टबिन और पहले बाहर रखने लगी थी. सैर के समय में भी बदलाव कर लिया था. मुझे आते देख कर प्रशांत लिफ्ट की तरफ बढ़ रहा होता तो मैं झट सीडि़यां चढ़ जाती थी. प्रशांत और पड़ोसी मुहरे ही तो थे. इन का काम अब खत्म हो गया था. इन से मेरा अब कोई लेनादेना नहीं था.

मुखौटा: ऐसा क्या हुआ था ट्रक ड्राइवर नईम के साथ

आज का दिन बहुत अच्छा था. सुबहसुबह जल्दी तैयार हो कर दोस्तों के साथ पाल के रास्ते पर हम निकल पड़े थे. इस सफर के लिए आरक्षित मिनी बस तो ठीक 5 बजे आ गई थी लेकिन सफर पर जाने वाले साथी 6 बजे तक ही आ पाए थे. सुबह के समय सब लोग प्रसन्न थे और बातचीत करते हुए हम सफर पर निकल पड़े थे.

रास्ते में एक ऐतिहासिक मंदिर की वास्तुकला देख कर हम सब वहां से आगे पाल जाने के लिए चल पड़े. हम पाल पहुंचे तो शाम के 5 बज रहे थे. हमारी योजना जल्दी घर लौट कर रात का खाना घर पर ही खाने की थी. बस का ड्राइवर जल्दी मचा रहा था क्योंकि उस के घर पर कुछ मेहमान आए हुए थे, अत: उसे घर जा कर उन्हीं के साथ भोजन करना था. मैं ने भी अपने घर बता दिया था कि रात तक अमलनेर पहुंच जाऊंगा.

पाल में हम सब ने काफी मौजमस्ती की. वहां के पार्क में हिरणों के साथ फोटो भी खिंचवाए. एक लैक्चरर साथी ने अलगअलग तरह की वनस्पतियों की जानकारी दी. वहां के फूलों का नजारा देखने के बाद जल्दी से घर लौटने के लिए सब लोग बस में बैठ गए.

ड्राइवर को भी घर पहुंचने की जल्दी थी. अत: उस ने पूरी तेजी के साथ बस दौड़ाई. करीब साढ़े 6 बजे हम सावदा पहुंचे. हमारे कुछ साथी वहां चाय पीना चाहते थे. उन्होंने इस के लिए ड्राइवर से आधे घंटे का समय मांगा. कुछ लोग चाय पीने के लिए निकल पड़े. हम भी ड्राइवर को ले कर चाय पीने लगे.

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चाय पीते 1 घंटा बीत चुका था. घड़ी की ओर देखते हुए ड्राइवर मुझ से बोला, ‘‘मैं ने पहले ही कहा थाकि खानेपीने के शौकीन लोग एक बार बैठ गए तो फिर हिलने का नाम नहीं लेंगे. उन्हें दूसरों के समय की फिक्र ही नहीं है.’’

ड्राइवर बेचैन हो रहा था. हमारी ट्रिप शानदार रही थी, लेकिन खानेपीने वालों की वजह से अब 2 घंटे की देरी हो गई थी.

रात के 9 बजे हम यावल पहुंचे. सब को घर जाने की जल्दी थी अत: वे खामोश बैठे थे.  उसी समय बस के इंजन से काफी मात्रा में धुआं निकलने लगा. ड्राइवर ने बस रोक दी. सब लोग बस से नीचे उतर पड़े.

‘‘क्या हुआ?’’ सब की जबान पर एक ही सवाल था.

‘‘इंजन में कुछ खराबी है,’’ ड्राइवर गुस्से से बोला.

ड्राइवर की बात सुन कर दूसरी गाड़ी ढूंढ़ने के लिए मैं ने बस में से अपना सामान निकाल लिया और दूसरी गाड़ी ढूंढ़ने लगा. मुझे देख कर कुछ साथी हंसीमजाक करने लगे तो कुछ लोग मैकेनिक ढूंढ़ने में ड्राइवर की सहायता करने लगे.

रास्ते पर काफी आवाजाही थी. मुझे अमलनेर पहुंचना था, इसलिए हर जाने वाली गाड़ी को हाथ दिखा कर रोकने का प्रयास कर रहा था. केलों से लदा एक ट्रक कुछ आगे जा कर रुक गया. मैं बड़ी आशा के साथ उस तरफ बढ़ गया. उस ट्रक में पहले से 15-20 मजदूर बैठे थे. उन में से 2 लोग वहां उतर गए. ड्राइवर ने मेरी ओर देख कर पूछा, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘अमलनेर,’’ मैं ने कहा.

‘‘ठीक है, गाड़ी अमलनेर हो कर अहमदाबाद जाएगी. इधर कैसे फंस गए?’’

‘‘भाई साहब, हमारी गाड़ी का इंजन फेल हो गया है. उस में हमारे कुछ और साथी भी थे,’’ मैं अपनी बात पूरी कर ड्राइवर के कैबिन में घुस गया.

पलभर में ही ट्रक पूरी तेजी के साथ सड़क पर दौड़ने लगा. मुझे इस उम्मीद से खुशी हुई कि 11 बजे तक अमलनेर अपने घर पहुंच जाऊंगा. मेरे नजदीक सब मजदूर एकदूसरे से चिपक कर बैठे थे. ड्राइवर ने टेप रिकौर्डर शुरू कर दिया.

ड्राइवर ने अभी बातचीत शुरू की ही थी कि सामने टौर्च का उजाला आया. ड्राइवर ने ट्रक की रफ्तार धीमी कर दी.

‘‘इसे भी अभी ही आना था. किसी के पास 5 रुपए हैं क्या?’’ ड्राइवर ने कैबिन में बैठे यात्रियों से पूछा.

मैं ने अपनी जेब से 5 का नोट निकाल कर उसे दे दिया. ड्राइवर ने अपने बगल की खिड़की से हाथ निकाल कर 5 का नोट हवलदार के हाथ में दिया और ट्रक की स्पीड बढ़ा दी.

‘‘अब देखो साहब, अगले पौइंट पर मैं सिर्फ 2 रुपए का सिक्का दूंगा. ये सब भिखारी लोग हैं. खाकी वरदी वाले डाकू हैं. साहब, असली डाकू तो यही हैं. चोरडाकू तो कभीकभी डाका डालते हैं, लेकिन ये लोग तो हर दिन जनता को लूटते हैं.’’

ड्राइवर मेरी ओर देख कर बोल रहा था. ट्रक में लगे टेप रिकौर्डर पर गाना चालू था. तभी सामने 2 हवलदार खड़े दिखाई दिए. ट्रक एक तरफ रोक कर ड्राइवर नीचे उतरा और एक पुलिस वाले के सामने जा कर खड़ा हो गया.

‘‘क्या साहब, हमारा रोज का आनाजाना है.’’

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‘‘तो दादा, हम कहां ज्यादा मांगते हैं,’’ पुलिस वालों का स्वर धीमा और लाचारी से भरा था.

ड्राइवर ने धीरे से जेब से 2 रुपए का सिक्का निकाल कर उस के हाथ में टिकाया और पल भर में ट्रक चला दिया.

आगे चौक पर ट्रक रुका तो कई मजदूर फटाफट छलांग लगा कर उतर गए.

‘‘उस्मान, सब से भाड़ा बराबर लेना. आगे भी पुलिस वालों की जेबें गरम करनी पड़ेंगी,’’ ड्राइवर ने हिदायत दी, ‘‘और उस्मान, ट्रक का अगलापिछला टायर ठीक से देख लेना.’’

ट्रक स्टार्ट कर ड्राइवर ने स्टेयरिंग   व्हील पर हाथ रखते हुए पूछा,  ‘‘साहब, आप अमलनेर में नौकरी करते हो क्या?’’

‘‘मैं टैलीफोन विभाग में हूं. क्या आप अमलनेर आते रहते हैं?’’

‘‘मैं बचपन में अमलनेर में रहता था. वहां स्कूल में पढ़ता था. नईम नाम है मेरा. क्या आप वहां के कालू मिस्त्री को पहचानते हैं?’’

‘‘हां, वे अच्छे कारीगर हैं और कसाली में रहते हैं,’’ मैं ने बताया.

‘‘अरे, आप तो हमारी पहचान के निकले.’’

हम दोनों की बातचीत का सिलसिला चल पड़ा.

‘‘साहब, 20 साल से मैं ड्राइविंग कर रहा हूं. मुंबई, अहमदाबाद हर रोज केले ले जाने का ट्रिप लगता है. 20 साल से एक ही मालिक के पास काम कर रहा हूं. वे मुझे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.’’

‘‘ईमानदारी से काम करने वाले को कोई आदमी कैसे छोड़ेगा?’’

‘‘अरे साहब, आप ईमानदारी की बात कर रहे हैं… मैं ने 20 साल में पैसा नहीं कमाया लेकिन नाम कमाया है, इज्जत कमाई है. इस रास्ते पर हवलदार भी मुझे सलाम करते हैं.’’

तब तक क्लीनर ने ट्रक पर सवार हो कर कहा, ‘‘चलो, नईम चाचा.’’

ट्रक चल पड़ा. रास्ते में हम दोनों की बातचीत फिर शुरू हो गई.

‘‘आप को क्या बताऊं साहब, अगर सामने से इलाके का विधायक भी आ जाए तो वह गाड़ी खड़ी कर के मुझ से 2 मिनट बात जरूर करेगा. हम ने इतनी इज्जत कमाई है.’’

‘‘हम अमलनेर कितनी देर में पहुंचेंगे?’’

‘‘1 घंटे में.’’

उसी समय एक जीप ने पूरी तेजी से हमारे ट्रक को ओवरटेक किया. सामने से एक मोटरसाइकिल आ गई. जीप का ड्राइवर कंट्रोल खो बैठा और उस ने मोटरसाइकिल सवार को टक्कर मार दी.

ट्रक का ड्राइवर रफ्तार कम करते हुए चिल्ला पड़ा, ‘‘अरे, मारा गया बेचारा.’’

क्लीनर भी आंखें फाड़ कर देखने लगा. टक्कर की तेज आवाज सुन कर मेरी छाती भी धड़कने लगी. मोटर- साइकिल रास्ते के समीप के गड्ढे में जा गिरी. ट्रक कुछ आगे जा कर रुका. जीप वाले को गाली देते हुए नईम ट्रक से उतरा. मैं भी उस के पीछे उतरा. मोटरसाइकिल पर सवार दोनों व्यक्ति काफी दूर जा कर गिरे थे. चालक के सिर पर काफी चोट लगी थी और उस में से खून बह रहा था. उस के पीछे बैठा व्यक्ति दर्द से बिलख रहा था.

‘‘उस्मान, पानी की बोतल ला,’’ नईम चिल्लाया. उस्मान ने पानी की बोतल ला कर दी तो उस ने पानी की धार जख्मी व्यक्ति के मुंह में डाली. तभी एक दूध वाले की मोटरसाइकिल आ कर खड़ी हुई.

‘‘कौन तात्याभाई?’’ वह चिल्लाया.

‘‘किस ने ठोकर मार दी?’’ दूध वाले ने पूछा. पास आ कर उस दूध वाले ने उस जख्मी व्यक्ति को पहचाना. वह उसी के गांव का रहने वाला था. वह ट्रक और ड्राइवर की ओर देख कर चिल्लाया, ‘‘तुम ने टक्कर मारी इस मोटरसाइकिल को?’’

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‘‘अरे भाई, इस को जीप वाले ने ठोकर मारी है. मैं तो इंसानियत के नाते इसे पानी पिला रहा हूं. वरना इस सुनसान रास्ते पर इसे कौन देखेगा? चाहो तो तुम पूछ लो इस जख्मी से.’’

नईम ने अपनी सफाई पेश की. मैं ने भी नईम की बात का समर्थन किया.

उसी समय जख्मी व्यक्ति चिल्लाने लगा, ‘‘उस जीप वाले को पकड़ो, उसी ने टक्कर मारी है.’’

‘‘अब तो आप को यकीन हुआ?’’ नईम ने उस दूध वाले से पूछा.

इसी बीच उस रास्ते पर 2-3 और मोटरसाइकिल वाले भी आ गए. सब अपनीअपनी हांक रहे थे. जख्मी को तुरंत अस्पताल पहुंचाना जरूरी था. पुलिस को खबर करने की जरूरत थी. वहां आया दूध वाला जख्मी मोटरसाइकिल चालक के घर खबर देने चला गया.

‘‘ऐसा करते हैं कि जख्मी को हम ट्रक में डाल कर चोपड़ा ले जाते हैं और वहां सरकारी अस्पताल में भरती करा देते हैं.’’

नईम के इस प्रस्ताव को सब ने मान लिया. जख्मी को उठा कर ट्रक में डाल कर नईम ने तेजी के साथ ट्रक भगाया. 2 लोग हमारे साथ आए और बाकी वहीं रुक गए.

‘बेचारे की जान बचनी चाहिए,’ नईम बड़बड़ाने लगा.

10-15 मिनट में ट्रक सरकारी अस्पताल पहुंच गया. जख्मी को अस्पताल में भरती करवाया गया. तब तक पुलिस भी वहां पहुंच गई. इस चक्कर में मुझे देर होती जा रही थी. नईम को भी जल्दी पहुंचना था क्योंकि उस के ट्रक में केले लदे थे. इस दुर्घटना के चलते अब घंटे भर की और देरी हो गई थी.

ड्राइवर नईम को लग रहा था कि जख्मी को भरती कराने के बाद उसे छुट्टी मिल जाएगी, लेकिन पुलिस ने उसे ट्रक रोकने के लिए कहा.

‘‘ट्रक भगाने की कोशिश मत करो,’’ एक हवलदार ने उसे डांट दिया.

‘‘हम ने इंसानियत के नाते इसे यहां पहुंचाया है,’’ नईम ने हाथ जोड़ कर पुलिस से अपनी सफाई पेश की.

‘‘इसे किसी जीप वाले ने ठोकर मारी है यह हम कैसे मान लें?’’

पुलिस वाले के तर्क के सामने नईम कुछ बोल नहीं पाया, फिर भी अपनी सफाई पेश करने की कोशिश की.

‘‘साहब, हम ने कौन सा बुरा काम किया है?’’

‘‘झूठ मत बोलो, इसे तुम्हारे ट्रक ने ही ठोकर मारी है.’’

एक पुलिस वाला उसे डांटने लगा. मैं खामोशी से उन की बातचीत सुन रहा था.

‘‘साहब, आप चाहें तो इन से पूछ लो, ये हमारे पैसेंजर हैं,’’ नईम गिड़गिड़ाया.

‘‘वह मैं कुछ नहीं जानता. ट्रक में माल भरा जाता है या पैसेंजर. इस मामले की पूरी छानबीन होने तक हम तुम्हें जाने नहीं देंगे. तुम ट्रक को पुलिस थाने में छोड़ दो.’’

हवलदार की बात से नईम घबरा गया. बोला, ‘‘मेरा केले का ट्रक है, जाने दीजिए. और मैं ने कोई बुरा काम नहीं किया है.’’

‘‘अपनी बात तू साहब को बताना, मैं कुछ नहीं जानता. ट्रक को तो पुलिस स्टेशन में ही जमा करवाना पड़ेगा.’’

हवलदार की बात से नईम की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उसे लगा फिर वह क्यों इस झमेले में फंसा. होश आने पर जख्मी मोटरसाइकिल वाला जब तक बयान नहीं देता तब तक उसे छुटकारा मिलने की कोई गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि पुलिस की नजर में नईम ही गुनाहगार था.

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‘‘अगर उस ने होश में आ कर बयान दिया कि जीप वाले ने ही उसे टक्कर मारी है तब तुम जा सकोगे,’’ उसे डांट कर हवलदार डाक्टर के कैबिन में चला गया. नईम और मैं बाहर ही खड़े रहे.

‘‘देखो साहब, मैं ने कौन सा बुरा काम किया है?’’

तब तक दूसरे जख्मी को ऐंबुलैंस में डाल कर अस्पताल में लाया गया. डाक्टर ने उस की जांच कर के उसे ‘ब्राट डैड’ घोषित कर दिया और पोस्टमार्टम के लिए रवाना कर दिया. तब तक रात के 12 बज चुके थे. अस्पताल में रोने और चीखनेचिल्लाने की आवाजें बढ़ने लगीं. डाक्टर और नर्सों की दौड़धूप जारी थी. नईम बेचैनी के साथ इधरउधर चक्कर काट रहा था. जख्मी के रिश्तेदारों ने उस के ट्रक का घेराव कर लिया था. इस से नईम और भी घबरा गया.

‘‘साहब, मैं अपने सेठ को फोन कर के आता हूं,’’ कह कर वह फोन के बूथ की ओर बढ़ा तो मैं उस के पीछेपीछे चल दिया. क्लीनर गाड़ी छोड़ कर पहले ही भाग चुका था.

‘‘हैलो, बाबू सेठ. मैं नईम बोल रहा हूं. मैं अभी चोपड़ा में हूं.’’

‘‘अभी तक तू चोपड़ा में क्या कर रहा है? कब अहमदाबाद पहुंचेगा?’’

‘‘नहीं, बाबू सेठ, यहां रास्ते में एक ऐक्सीडैंट हो गया है.’’

‘‘अपनी गाड़ी का?’’

‘‘अपनी गाड़ी का नहीं. एक जीप वाले ने मोटरसाइकिल सवार को टक्कर मार दी…मैं जख्मी मोटरसाइकिल वाले को अस्पताल में ले आया था इसलिए देर हो रही है.’’

नईम ने अपने मालिक बाबू सेठ को समझाने की कोशिश की लेकिन सेठ को नईम पर बहुत गुस्सा आया.

रात के 2 बजे तक भी उस जख्मी को होश नहीं आया. मैं ने भी घर फोन कर के बता दिया कि मैं देरी से घर लौटूंगा. घर पर सभी चिंतित हो गए.

नईम ने एक पुलिस वाले को 50 रुपए का नोट दे कर ट्रक के सामने की भीड़ कम करने के लिए कहा. पुलिस हवलदार ने नोट जेब में डाल कर हाथ की लाठी पटक कर ट्रक के सामने जमा भीड़ को कम कर दिया.

नईम मेरी ओर देख कर कहने लगा, ‘‘साहब, आप मेरा साथ नहीं छोड़ना, आप तो मेरे गवाह हो. मैं ने कोई बुरा काम नहीं किया है और एक आदमी की जान बचाने से कोई बड़ा काम नहीं हो सकता,’’ फिर वह अपने हाथ में मेरा हाथ ले कर बोला, ‘‘पुलिस का कोई भरोसा नहीं. वे यह आरोप मुझ पर डाल देंगे.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होगा,’’ मैं ने नईम को धीरज बंधाने की कोशिश की.

मैं उस का हाथ पकड़ कर जख्मी के बिस्तर की ओर बढ़ गया. जख्मी व्यक्ति की सांस ठीक चल रही थी.

उसी समय 5-7 औरतें चीखती- चिल्लाती आईं. एक औरत अपना सिर पीटपीट कर रो रही थी और दूसरी 2 औरतें उसे धीरज बंधाने की कोशिश कर रही थीं. कोलाहल बढ़ने लगा तो एक नर्स ने आ कर उन सब को वहां से हटा दिया.

नईम और मैं मुरझाए चेहरे से वहीं खड़े थे. अब 4 बजने वाले थे. हम अस्पताल के मुख्यद्वार की ओर बढ़े तो हवलदार ने हमें वापस बुला लिया. हार कर हम मरीजों के वार्ड में जा कर बैठ गए.

थोड़ी ही देर में घायल मरीज को होश आ गया. नईम के चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ कर दिलासा देने का प्रयास किया. पलभर में हवलदार आ गया और मरीज के रिश्तेदार भी पलंग के चारों ओर जमा हो गए.

‘‘तुम्हारी मोटरसाइकिल को किस ने टक्कर मारी?’’ हवलदार ने पूछा.

घायल मरीज ने बड़ी मुश्किल से अपना मुंह खोला और बताया, ‘‘यावल से आने वाली जीप ने हमें टक्कर मार दी,’’ उस के चेहरे से असहनीय वेदना झलक रही थी.

इधर नईम का चेहरा खिल गया क्योंकि एक बड़ी मुसीबत से उस का छुटकारा होने वाला था.

‘‘देखा साहब, अब तो आप को यकीन आ गया होगा,’’ नईम ने धीरे से अपनी बात हवलदार से कही.

पहली बार हवलदार ने उस की तरफ नरमी से देखा. वह घायल मरीज का बयान ले कर पंचनामा करने लगा.

‘‘देखो साहब, अब हमें बहुत देरी हो गई है. ट्रक में केला भरा है, अब हमें जाने दो,’’ नईम ने दूसरे हवलदार से अपनी बात कही.

‘‘ऐसे कैसे जाने दूं? बड़े साहब आएंगे, उन से पूछ कर फिर जाना.’’

‘‘हवलदार साहब, अब काहे को लफड़े में डाल रहे हो. कहो तो आप के चायपानी का इंतजाम कर दूं.’’

‘‘पूरी रात जागता रहा तो किसी ने हमें चायपानी के लिए नहीं पूछा,’’ हवलदार ने नरमी से मेरी ओर देखा.

नईम ने जेब से 50 रुपए का नोट निकाल उस के हाथ में पकड़ाया.

‘‘तू क्या हम को भीख दे रहा है?’’ हवलदार ने गुस्से का नाटक किया.

‘‘नईम दादा, जाने दो. हिसाब से दे दो. हम यहां कब तक पड़े रहेेंगे?’’

मेरी बात पर हवलदार मुसकराया. नईम ने जेब में हाथ डाल कर 50 रुपए का एक और नोट हवलदार की हथेली पर रखा.

हवलदार ने जरा नाराज हो कर सिर हिला दिया और नोट जेब में ठूंस लिए. मैं ट्रक की ओर बढ़ने लगा. नईम ने उस्मान को आवाज दे कर अपने पास बुलाया तो वह दीवार के पीछे से निकल कर वापस आ गया.

‘‘चल, बैठ गाड़ी में.’’

जब हम सभी ट्रक पर सवार हो कर चलने लगे तब सुबह के 5 बज चुके थे. सड़क पर आवाजाही शुरू हो गई थी. ‘‘साहब, 2 मिनट रुको, मैं अपने बाबू सेठ को फोन कर के आता हूं,’’ कह कर वह फोन बूथ पर गया और जल्दी में नंबर घुमाया.  फोन पर सेठ बिना रुके उसे डांटे जा रहा था. नईम अपने सेठ की बात बड़ी शांति से सुनता रहा. उस की बात खत्म होने के बाद शुरू हुई हमारी बाकी बची यात्रा.

ट्रक पूरी तेजी के साथ अमलनेर की ओर बढ़ा. सुबह की ठंडक में भी नईम का चेहरा पसीने से तरबतर था. वह सावधान हो कर तेजी से ट्रक दौड़ाने लगा. मैं ने घबराते हुए नईम की ओर देखा. ट्रक चलाते हुए बकबक करने वाला ट्रक ड्राइवर अब बड़ी शांति से ट्रक चला रहा था. ट्रक की स्पीड इतनी ज्यादा थी कि पीछे कौन सा गांव जा रहा है इस का भी पता नहीं चल रहा था. सावरखेड़ा का पुल तो कब का पीछे छूट चुका था. आखिर मैं ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘क्या दादा, तुम्हारे सेठ ने क्या बोला?’’

‘‘सेठ बहुत नाराज हो गया है. यार, वह कह रहा था कि आइंदा कभी ऐसा ऐक्सीडैंट हो जाए और मरने वाला प्यास के मारे तड़पता हो तो उस तड़पते आदमी की तरफ देखना भी नहीं.’’

हमारा ट्रक अब रेल फाटक पार कर के आगे बढ़ रहा था. रास्ता खुला था. थोड़ी देर में हम एस.टी. स्टैंड पर पहुंच गए. मैं ने उतरने की तैयारी की.

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‘‘नईम दादा, अब तो हमें वैसे ही काफी देर हो गई है. चलो, थोड़ीथोड़ी चाय पी ली जाए.’’

उस ने एक छोटे से ढाबे पर गाड़ी रोकी. साढ़े 5 बज चुके थे. हम होटल में गए. वहां मैं ने चाय का और्डर दिया. चाय वाले ने हमारे सामने 2 कप चाय ला कर रखी. चाय का कप उठा कर नईम बोला, ‘‘जाने दो साहब, हम ने कोई बुरा काम नहीं किया. एक इंसान मर रहा था, उस को बचाना हमारा फर्ज था. इसी को इंसानियत कहते हैं.’’

‘‘हां भाई, यही नेकी तुम्हारे बालबच्चों के काम आएगी,’’ मैं सिर्फ इतना ही बोल पाया.

चाय पी कर मैं अपने घर की ओर जाने लगा तो वह भी ट्रक की ओर चल दिया. कल की पूरी रात मैं ने जाग कर बिताई थी. इस एक रात में इंसानी स्वभाव के अलगअलग पहलू देखने के अवसर मिले थे.

नईम की इस इंसानियत की कहानी किसी इतिहास में नहीं लिखी जाएगी, लेकिन टिमटिमाते दीए की तरह इंसानियत अब भी जिंदा है यह सोच कर ही मैं उत्साहित था.

वतनपरस्ती: समीक्षा और हफीजा की दोस्ती की कहानी

‘‘नया देश, नए लोग दिल नहीं लगता… जी करता है इंडिया लौट जाऊं,’’ समीक्षा ने रोज का राग अलापा. ‘‘यह आस्ट्रेलिया है. सब से अच्छे विकसित देशों में से एक. यहां आ कर बसने के लिए लोग जमीनआसमान एक कर देते हैं और तुम यहां से वापस जाने की बात करती हो. अब इसे मैं तुम्हारा बचपना न कहूं तो और क्या कहूं?’’

‘‘तो क्या करूं? तुम्हारे पास तो तुम्हारे काम की वजह से अपना सोशल सर्कल है, दोनों बच्चों के पास भी उन के स्कूल के फ्रैंड्स हैं. बस एक मैं ही बचती हूं जिसे दिन भर चारदीवारी में अर्थहीन वक्त गुजारना पड़ता है. अकेले रहरह कर तंग आ गई हूं मैं.’’ ‘‘हां, लंबे समय तक चुप रहने के कारण तुम्हारे मुंह से बदबू भी तो आने लगती होगी,’’ प्रतीक चुटकी लेते हुए बोला.

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है, मगर मैं वास्तव में गंभीर हूं अपनी समस्या को ले कर… मेरी हालत तो कुएं के मेढक जैसी होती जा रही है. शादी से पहले जो पढ़ाईलिखाई की थी उसे भी घरगृहस्थी में फंस कर भूल चुकी हूं अब तक.’’ ‘‘कौन कहता है कि तुम कुएं का मेढक बन कर जियो… मैं तो चाहता हूं कि तुम आसमान की ऊंचाइयां छुओ.’’

‘‘इस चारदीवारी को पार कर के घर के 3 प्राणियों के सिवा किसी चौथे की सूरत देखने तक को तो नसीब नहीं होती… आसमान की ऊंचाइयों तक क्या खाक पहुंचुंगी मैं?’’ ‘‘जिंदगी की दिशा में अमूलचूल परिवर्तन जिंदगी को देखने के नजरिए और जैसेजैसे जिंदगी मिले उस से सर्वोत्तम पल निचोड़ कर जीवन अमृत ग्रहण करने में है,’’ प्रतीक समीक्षा के हाथ से चाय का प्याला ले कर उसे अपने पास बैठाते हुए किसी फिलौसफर के से अंदाज से बोला.

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‘‘मुझे तो इस जीवनअमृत के प्याले को पाने की कोई युक्ति नहीं समझ आती. तुम ही कुछ समाधान ढूंढ़ो मेरे लिए.’’ ‘‘मैं खुद भी कुछ समय से तुम्हारी परेशानी महसूस कर रहा था. जैसेजैसे बच्चे बड़े होते जाएंगे उन की दुनिया हम से अलग होती जाएगी… तब बच्चे अपनी जिंदगी में और भी व्यस्त हो जाएंगे और तुम्हारा एकाकीपन बद से बदतर होता चला जाएगा. अच्छा होगा कि तुम खुद को उस वक्त से मुकाबला करने के लिए अभी से तैयार करना शुरू कर दो और कुछ पढ़लिख लो.’’

‘‘पढ़नालिखना और इस उम्र में… चलो तुम्हारी बात मान कर मैं कोई कोर्स कर भी लूं तो उस से होगा भी क्या? 1-2 साल में कोर्स पूरा हो जाएगा और मैं जहां से चलूंगी वहीं वापस आ कर खड़ी हो जाऊंगी… इस उम्र में मुझे कोई काम तो मिलने से रहा… वह भी यहां आस्ट्रेलिया में.’’ ‘‘नौकरी मिलने का आयु से संबंध जितना इंडिया में होता है उतना यहां आस्ट्रेलिया में नहीं. यहां तो एक तरह का चलन है कि बच्चों के थोड़ा बड़ा हो जाने के बाद मांएं खुद को रिबिल्ट करती हैं और जो भी कोर्सेज तत्कालीन इंडस्ट्री की जरूरत में होते हैं उन्हें कर के फिर से वर्कफोर्स में लौट आती हैं.’’

‘‘हां, अब तुम्हारा आशय कुछकुछ समझ में आ रहा है मुझे. मैं कल दोपहर में आराम से सभी यूनिवर्सिटीज की वैबसाइट पर जा कर देखूंगी कि मेरे लिए क्या ठीक रहेगा.’’

कई दिनों तक विभिन्न शिक्षण संस्थानों की वैबसाइट्स पर घंटों व्यतीत करने के बाद आखिर समीक्षा को एक कोर्स पसंद आ गया. ‘इवेंट मैनेजमैंट’ का. 15 साल बाद फिर से पढ़ाई शुरू करने की घबराहट मिश्रित उमंग के साथ वह टेफ इंस्टिट्यूट पहुंच गई.

यहीं पर उस की मुलाकात हफीजा से हुई. उस ने भी इवेंट मैनेजमैंट कोर्स में प्रवेश लिया था और अपने अंगरेजी के अल्प ज्ञान के कारण कुछ घबराई, सकुचाई अपनेआप में सिमटी सी रहती थी. हफीजा के हालात पर समीक्षा को बड़ी सहानुभूति होती. उसे लगता कि उसे हफीजा को सीमित दायरे से निकालने में उस की थोड़ी मदद करनी चाहिए. वह बचपन से सुनती आई थी कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है. व्यावहारिक जीवन में इस की सत्यता को परखने की दृष्टि से समीक्षा ने हफीजा की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. अब वह जब भी मौका मिलता हफीजा को अपने साथ अंगरेजी बोलने का अभ्यास कराने लगती.

समीक्षा जैसी बुद्धिजीवी दोस्त पा कर हफीजा भी बेहद प्रफुल्लित जान पड़ती थी. कृतज्ञता से सिर से पांव तक डूबी हुई वह मौकेबेमौके समीक्षा के परिवार को अपने घर बुला कर इराकी खाने की लजीज दावतें देती. समीक्षा भी अपने भारतीय पाककौशल का प्रदर्शन करने में पीछे न रहती और इंस्टिट्यूट जाने के लिए 2 लंच पैक तैयार कर के ले जाती. एक स्वयं के लिए और दूसरा अपनी हफीजा के लिए. वे दोनों क्लासरूम में पासपास बैठतीं, साथसाथ असाइनमैंट्स करतीं. दोनों के बीच की घनिष्ठता दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी. पंजाबी समीक्षा का गोरा रंग, तीखे नैननक्श, इराकी हफीजा से मिलतेजुलते से होने के कारण सभी उन्हें बहनें समझते. उन के बीच का अंतराल तब दृष्टव्य होता जब कोई उन से बात करता. समीक्षा धाराप्रवाह अंगरेजी बोलती तो हफीजा टूटीफूटी और वह भी पक्के इराकी लहजे में.

‘‘तुम्हारी इंग्लिश इतनी अच्छी कैसे है?’’ अपनी टूटीफूटी इंग्लिश से मायूस हफीजा से एक दिन रहा न गया तो उस ने समीक्षा से पूछ

ही लिया. ‘‘इंग्लिश एक तरह से हमारे देश की दूसरी भाषा है. हमारे यहां अच्छे से अच्छे इंग्लिश माध्यम के स्कूल हैं. उच्च शिक्षा का माध्यम ज्यादातर इंग्लिश ही है. इंग्लिश में अनगिनत पत्रपत्रिकाओं का भी प्रकाशन होता है,’’ समीक्षा ने गर्व के साथ कुछ इस अंदाज में ‘इंडिया का हाल ए अंगरेजी’ बयां किया जैसेकि द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने वाला कोई सैनिक किसी को अपने जीते हुए पदकों की गिनती करा रहा हो.

थोड़ी देर हफीजा किंकर्तव्यविमूढ सी समीक्षा की बात सुनती रही, फिर बोली, ‘‘जिंदगी आसान रहती है तुम जैसों के लिए तो इंग्लिश भाषी देशों में आ कर. हमारे जैसों को यहां आ कर सब से पहले तो यहां की जबान सीखने की जंग लड़नी पड़ती है… बाकी चीजें तो बाद की हैं.’’ ‘‘हां हफीजा वह तो ठीक है, लेकिन मैं कई बार सोचती हूं कि ऐसे हालात में तुम यहां आ कैसे गईं, क्योंकि लोकल भाषा का ज्ञान वीजा मिलने की एक जरूरी शर्त है.’’

‘‘मैं… मैं वह क्या है मैं दूसरे तरीके से यहां आई थी,’’ हफीजा उस वक्त तो होशियारी के साथ बात टालने में कामयाब हो गई.

बहरहाल वक्त के साथ धीरेधीरे समीक्षा को पता चल गया कि हफीजा एक विधवा है. उस के पति की मृत्यु उस के बेटे के जन्म के 3-4 महीने पहले ही हो गई थी. अपने कुछ रिश्तेदारों की मदद से वह आस्ट्रेलिया चली आई थी एक रिफ्यूजी बन कर. वे सब रिश्तेदार भी कई साल पहले इसी तरीके से यहां आ कर अब तक आस्ट्रेलियन नागरिक बन चुके थे. पढ़ाई के साथसाथ वह एक रेस्तरां में कुछ घंटे वेटर का काम किया करती थी.

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हफीजा का लाइफस्टाइल देख कर समीक्षा हैरान रहती थी. हफीजा का पहनावा किसी रईस से कम नहीं था. वह अच्छे इलाके में अच्छा घर किराए पर ले कर रहती थी और उस का बेटा भी उस क्षेत्र के सब से अच्छे स्कूल में पढ़ता था. ‘‘मुश्किल होती होगी तुम्हें अकेले संभालने में… कैसे संभव हो पाता है ये सब? कुछ घंटे वेटर का काम कर के तो किसी का भी गुजारा नहीं हो सकता यहां?’’ एक दिन घुमावदार तरीके से समीक्षा ने हफीजा के लाइफस्टाइल का राज जानने की उत्सुकता में पूछा. ‘‘मैं एक सिंगल मौम हूं, इसलिए मुझे ‘सोशल सिक्युरिटी अलाउंस’ मिलता है

सरकार से.’’ हफीजा के सत्य वचन समीक्षा को और भी जिज्ञासु बना गए. सो उस ने तहकीकात जारी रखी, ‘‘और तुम ने बताया था कि तुम जब आस्ट्रेलिया आई थी तो तुम्हें इंग्लिश का एक शब्द भी नहीं आता था, पर अब टूटीफूटी ही सही, मगर तुम्हें कामचलाऊ इंग्लिश आती ही है. कैसे सीखा ये सब तुम ने अपने दम पर?’’

‘‘मुझे यहां आ कर ‘एडल्ट माइग्रेंट इंग्लिश प्रोग्राम’ के तहत सरकार की तरफ से 510 घंटे की मुफ्त ट्यूशन मिली थी… अंगरेजी सीखने के लिए.’’

‘‘अच्छा तभी मैं सोचूं कि तुम्हारे इतने ठाट कैसे हैं… अब पता चला कि तुम्हारे देश से इतने सारे लोग रोजरोज बोट में बैठबैठ कर यहां क्यों चले आते हैं… क्यों कुछ खास देशों से आने वाले शरणार्थियों को ले कर नैशनल न्यूज में इतना होहल्ला होता है,’’ जल्दबाजी में समीक्षा के मुंह से सच्चे, मगर कड़वे शब्द बाहर फिसल गए. ‘‘हम से ज्यादा तो इंडियंस यहां आते हैं,’’ हफीजा ने अपना बचाव करते हुए कहा.

‘‘हां आते तो हैं पर आने का तरीका तुम लोगों वाला नहीं है. हमारे जैसे उच्चशिक्षित लोग स्किल माइग्रेशन वीजा पर आते हैं या फिर स्टूडैंट वीजा पर. दोनों ही स्थितियों में हम इन देशों की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में अपना योगदान देते हैं…’’ हफीजा ने तत्काल समीक्षा की बात बीच में काटी, ‘‘और हां वह क्या फरमाया तुम ने कि नैशनल न्यूज में हम जैसों को ले कर होहल्ला होता रहता है… क्या तुम ने कभी ‘एसबीएस’ टीवी देखा है… कैसीकैसी डौक्यूमैंटरीज आती हैं उस पर तुम्हारे इंडिया के बारे में… उफ वह खुले हुए बदबूदार गटर, गंदी झुग्गीझोंपडि़यां,’’ हफीजा ने नाक सिकोड़ कर हिकारत से कहा, ‘‘कुछ साल पहले एक औस्कर अवार्ड विनर मूवी भी तो बनी थी तुम्हारे देश के बारे में. उस में भी तो ये सब गंद ही दिखाया गया था… क्या नाम था उस का… हां याद आ गया ‘स्लमडौग मिलियनेयर…’ ओएओए हाल तेरे देश का बदहाल है, फिर भी तेरा दिमाग आसमां पर है,’’ हफीजा समीक्षा की बेइज्जती करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी. ‘‘हम स्वाभिमानी लोग हैं… कम से कम तुम्हारी तरह मुफ्त की चीजों के लिए इधरउधर नहीं भागते फिरते. हमारा इंडिया, इंडिया है और तुम्हारा इराक, इराक… है कोई मुकाबला क्या… न ही हो सकता. इन विकसित देशों को हमारे जैसे प्रतिभासंपन्न लोगों की बहुत जरूरत होती है, इसलिए बड़ी कंपनियां हमारे वीजा स्पौंसर कर के हमें यहां बुलाती हैं. दुनिया भर की इनफौरमेशन टैक्नोलौजी हम इंडियंस के बलबूते पर ही चल

रही है. हम, हम हैं… हम बिना जरूरत के शरणार्थी बन कर विकसित देशों का आर्थिक विदोहन करने के लिए नहीं आते,’’ अब तक समीक्षा भी इंडोनेशिया में असमय फटने वाले ज्वालामुखी में तबदील हो चुकी थी. ‘‘बड़े ही फेंकू होते हो तुम लोग… ऐसे ही विद्वान हो तो अपने ही देश में सदियों तक गुलाम क्यों बने रहे… क्यों लुटतेपिटते रहे अपनी ही जमीं पर विदेशियों के हाथों?’’

‘‘लुटेरे तो वहीं आते हैं न जहां धनदौलत के अंबार लगे होते हैं. इतिहास गवाह है कि हमारा इंडिया प्राचीनकाल से ही अकूत संपदा और ज्ञान का केंद्र रहा है. जिसे देखो वही दुनिया भर से हमारा धन और ज्ञान लूटने चला आता था. जब ब्रिटिश लोग आए थे तो हमारी जीडीपी पूरे विश्व की 25% थी… यह हाल तो हमारे देश का तब था जबकि ब्रिटिश लोगों के आने के पहले भी अनगिनत आक्रमणकारी टनों संपदा लूट कर ले जा चुके थे. जगत गुरु है हमारा इंडिया समझीं तुम…?’’ समीक्षा के दिलदिमाग एक हो कर उसे आपे से बाहर कर चुके थे. ‘‘ऐसी ही चाहत है दुनिया को तुम लोगों की तो मेलबौर्न में इंडियन स्टूडैंट्स को ले कर इतने फसाने क्यों हुए थे?’’ जाने कहांकहां से हफीजा भी इंडियंस के बारे में खोदखोद कर नएपुराने तथ्य निकाल रही थी.

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‘‘कुछ एक पागल लोग तो सब जगह होते हैं… थोड़ीबहुत ऊंचनीच तो सब जग हो जाती है… मगर तुम लोग, तुम तो जहां रहते हो वहीं दंगा करते हो. पूरी दुनिया सच जान चुकी है तुम्हारा… शांति से रहना तो तुम लोगों ने सीखा ही नहीं है. सुविधाओं का फायदा उठाने पहुंच जाते हो अच्छे देशों में, मगर सगे किसी के नहीं होते तुम लोग.’’

जवाब में हफीजा ने समीक्षा को खा जाने वाली निगाहों से घूरा. समीक्षा ने बदले में एक विदूप मुसकराहट उस की ओर फेंकी और अपनी किताबें समेटने लगी. हफीजा कुरसी को लात मारते हुए क्लासरूम से बाहर निकल गई. शुक्र है यह नजारा देखने के लिए उस वक्त वहां कोई नहीं था. वे दोनों फुरसत के क्षणों में एक खाली क्लासरूम में अंगरेजी का अभ्यास करने के लिए आई थीं. मगर यह हसीन गुफ्तगू अचानक बेहद संगीन मोड़ ले गई. उस दिन के बाद दोनों पक्की सहेलियां क्लासरूम के ओरछोर पर बैठने लगीं. एकदूसरे को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए. फिर कभी उन्होंने आपस में आंखें नहीं मिलाईं. यह आपसी दुश्मनी थी या फिर अपनीअपनी वतनपरस्ती, कहना मुश्किल है.

Valentine’s Special: नवंबर का महीना- सोनाली से मुलाकात मेरे लिए क्यों था एक हसीन ख्वाब

नवंबर का महीना, सर्द हवा, एक मोटी किताब को सीने से चिपका, हलके हरे ओवरकोट में तुम सीढि़यों से उतर रही थी. इधरउधर नजर दौड़ाई, पर जब कोई नहीं दिखा तो मजबूरन तुम ने पूछा था, ‘कौफी पीने चलें?’

तुम्हें इतना पता था कि मैं तुम्हारी क्लास में ही पढ़ता हूं और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है. तुम बंगाल के एक जानेमाने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो. तुम लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी तुम पर उतने ही मरते हैं, जितने हम जैसे मिडल क्लास के लड़के जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती है. उन का एकमात्र सपना होता है, मांबाप के सपनों को पूरा करना. ये तुम जैसी युवतियों से बात करने से इसलिए हिचकते हैं, क्योंकि हायहैलो के बाद की अंगरेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है.

तुम रास्ते भर बोलती रही और मैं सुनता रहा. तुम ने मौका ही नहीं दिया मुझे बोलने का. तुम मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम के समाचार पढ़ने जैसा लैक्चर और न जाने कितनी कहानियां तेजी से सुना गई थीं और मैं बस मुसकराते हुए तुम्हारे चेहरे पर आए हर भाव को पढ़ रहा था. तुम्हारे होंठों के ऊपर काला तिल था, जिस पर मैं कुछ कविताएं सोच रहा था, तब तक तुम्हारी कौफी और मेरी चाय आ गई.

तुम ने पूछा था, ‘तुम कौफी क्यों नहीं पीते?’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘चाय की आदत कभी छूटी नहीं.’

तुम यह सुन कर काफी जोर से हंसी थी. ‘शायरी भी करते हो.’ मैं झेप गया.

तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुम ने तब भी नहीं पूछा था.

हम दोनों उठ कर चल दिए थे, कैंपस से विश्वविद्यालय मैट्रो स्टेशन की ओर…

बात करते हुए तुम ने कहा था, ‘सज्जाद, पता है, मैं अकसर सपना देखती थी कि मैं फोटोग्राफर बनूंगी. पूरी दुनिया का चक्कर लगाऊंगी और सारे खूबसूरत नजारे अपने कैमरे में कैद करूंगी, लेकिन आज मैं मील, मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूं. कभी जी करता है तो ब्रेख्त पढ़ लेती हूं, तो कभी कामू को…’

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हम अकसर जो चाहते हैं, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अकसर सबकुछ पहले से तय हो तो जिंदगी से रोमांच खत्म हो जाएगा. हम उम्र से पहले बूढ़े हो जाएंगे, जो बस यही सोचते हैं, उन के लिए मरना ही एकमात्र लक्ष्य है.

‘सज्जाद, तुम ने क्या पौलिटिकल साइंस अपनी मरजी से चुना,’ तुम ने पूछा था.

‘हां,’ मैं ने कहा. नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय. मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था.

‘और हां, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव,’ मैं ने जोर देते हुए कहा.

‘ओह, तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं हो?’

‘बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को.’

कुछ पल के लिए दोनों चुप हो गए. कई कदम चल चुके थे. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, ‘वैसे यह सज्जाद है कौन?’

‘कोई नहीं, बस गलती से बोल गई थी.’ तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे.

‘कहां रहते हो तुम?’

हम बात करतेकरते मानसरोवर होस्टल आ गए थे, मैं ने इशारा किया, ‘यहीं.’

मैट्रो स्टेशन पास ही था, तुम से विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया.

मैं ने पूछा, ‘यह निशान कैसा?’

‘अरे, वह कल खाना बनाने वाली नहीं आई तो खुद रोटी बनाते समय हाथ जल गया. अभी आदत नहीं है न.’

मैं ने हाथ मिलाया. ओवरकोट की गरमी अब भी उस के हाथों में थी. इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी उठ कर तुम से ढेर सारी बातें करनी थी.

मैं कालेज गया था अगले दिन. कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते क्लास के लड़केलड़कियों ने देख लिया था.

उस दिन तुम नहीं आई थी. मुझे हर सैकंड बोझिल लग रहा था. तुम ने कालेज छोड़ दिया था.

2 वर्षों बाद दिखी थी, उसी नवंबर महीने में कनाट प्लेस के इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों से उतरते हुए.

मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कौफी हाउस. दिल्ली की शोरभरी जगहों में एक यही जगह थी जहां मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था और कल्पनाओं को नई उड़ान देता.

हलकी मुसकराहट के साथ तुम मिली थीं उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था. तुम पहले जैसे चहक नहीं रही थीं. एक चुप्पी थी तुम्हारे चेहरे पर.

तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था. तुम बस, उदास मुसकराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किए सीढि़यों से उतर जाओगी, यह बात मुझे अंदर तक कचोट रही थी. इसी उधेड़बुन में सीढि़यां चढ़ते मुझे एक पर्स मिला. खोल कर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सैंटर, साउथ ऐक्सटेंशन का पता था, दिए हुए नंबर पर कौल किया तो स्विच औफ था.

तुम्हारे बारे में सोचतेसोचते रात के 8 बज गए थे. अचानक याद आया कि किसी का पर्स मेरे पास है, जिस में 12 सौ रुपए और डैबिट कार्ड है. मैं ने फिर एक बार कौल लगाई, इस बार रिंग जा रही थी.

‘हैलो,’ एक खूबसूरत आवाज सुनाई दी.

‘जी, आप का पर्स मुझे इंडियन कौफी हाउस की सीढि़यों पर गिरा मिला. आप बताएं इसे कहां आ कर लौटा दूं.’

‘आदित्य बोल रहे हो,’ उधर से आवाज आई.

‘सोनाली तुम,’ मैं आश्चर्यचकित था.

‘कैसी हो तुम और यह अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहां? तुम ने कालेज क्यों छोड़ दिया?’ मैं उस से सारे सवालों का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था.

तुम ने बस इतना कहा था, ‘कल कौफी हाउस में मिलो 11 बजे.’

अगले दिन मैं ने कौफी हाउस में तुम्हें आते हुए देखा. 2 वर्ष पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों की दुनिया में जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली. पर 2 वर्षों में तुम बदल गई थीं, तुम सोनाली नहीं थी. तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी, जिस ने 2 वर्षों पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी. वही सज्जाद जिस के बारे में तुम ने मुझ से छिपाया था.

जिस से प्रेम करो, उस के साथ यदि जिंदगी का हर पल जीने को मिले, तो इस से खूबसूरत और क्या हो सकता है. इस गैरमजहबी प्रेमविवाह में निश्चित ही तुम ने बहुतकुछ झेला होगा पर प्रेम सारे जख्मों को भर देता है, लेकिन तुम्हारे और सज्जाद के बीच आए रिश्तों की कड़वाहट वक्त के साथ बदतर हो रही थी.

शादी के बाद प्रेम ने बंधन का रूप ले लिया था. आधिपत्य के बोझ तले रिश्ते बोझिल हो रहे थे. तुम तो दुनिया का चक्कर लगाने वाली युवती थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी. उन्हें ढोना नहीं चाहती थी. जिसे तुम प्रेम समझ रही थी, वह घुटन बन गया था.

तुम सबकुछ कहती चली गई थीं और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली बार पढ़ा था.

तुम ने सज्जाद के लिए अपना नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदलीं. तुम ने खुद को बदल दिया था. प्रेम में खुद को बदलना सही है या गलत, नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुम ने प्रेम भी तो नहीं पाया था.

वक्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, ‘सज्जाद घर पहुंचने वाला होगा, तुम ने कहा था.’ तुम ने पर्स लिया और हाथ आगे बढ़ा कर बाय कहा.

मैं ने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही 2 वर्षों पुराने ओवरकोट की गरमी महसूस करने को. तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म तो भर गए थे, लेकिन नए जख्मों ने जगह ले ली थी.

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इस बीच, हमारी फोन पर बातें होती रहीं, राजीव चौक और नेहरू प्लेस पर 2 बार मुलाकातें हुईं.

सबकुछ सहज था तुम्हारी जिंदगी में, लेकिन मैं असहज था. इस बीच मैं लिखता भी रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़ कर तुम रोती थीं, कभी हंसती भी थीं.

एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था, ‘मुझ से बात नहीं हो पाएगी अब.’

मैं ने एकदम कौलबैक किया, मेरा नंबर ब्लौक हो चुका था. तुम्हारा फेसबुक एकाउंट चैक किया तो वह डिलीट हो चुका था. मैं घबरा गया था, तुम्हारे साउथ ऐक्स वाले बुटीक पर फोन किया तो पता चला कि तुम एक हफ्ते से वहां नहीं गई हो. इसी बीच मेरा नया उपन्यास ‘नवंबर की डायरी’ बाजार में छप कर आ चुका था. मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा खयाल मन में हमेशा बना रहा.

समय करवटें ले रहा था. सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था. धीरेधीरे 1 साल गुजर गया. शाम के 7 बज रहे थे. मैं कमरे में अपनी नई कहानी ‘सोना’ के बारे में सोच रहा था. तब तक दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो देखा कोई युवती मेरी ओर पीठ किए खड़ी है. मैं ने कहा, ‘जी…’

वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित रह गया. वह सोनाली थी. हम दोनों गले लग गए. मैं ने सीने से लगाए हुए पूछा, ‘तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?’

‘तुम्हारा उपन्यास पढ़ा, ‘नवंबर की डायरी’ उस के पीछे तुम्हारा नंबर और पता भी था.’

आदित्य तुम ने सही लिखा है इस उपन्यास में, ‘जिन रिश्तों में विश्वास की जगह  हो, उन का टूट जाना ही बेहतर है. मैं ने सज्जाद को तलाक दे दिया था. हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ ली थी. फिर यहीं से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे.

तुम मेरे अस्तव्यस्त घर को देख रही थी, अस्तव्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था. जिसे तुम्हें सजाना और संवारना था, पता नहीं तुम इस के लिए तैयार थीं या नहीं.

तभी तुम ने कहा, ‘ये किताबें इतनी बिखरी हुई क्यों हैं? मैं सजा दूं?’ मुसकरा दिया था मैं.

रात के 9 बज गए थे. हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे. तुम ने कहा कि खिड़की बंद कर दो, सर्द हवा आ रही है. मैं ने महसूस किया नवंबर का महीना आ चुका था.

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गुरुजी: बहुरुपिए गुरुजी की असलियत से सभी क्यों दंग रह गए

विधि के गुरुजी को देख कर धक्का सा लगा. जरा भी तो नहीं बदला था विजय. बस, पहले अमीरी का रोब नहीं था. अब वह तो है ही. हम जैसे मूर्ख भक्त भी हैं.

‘‘देखो, तुम्हारी ही उम्र के होंगे पर किसी भी समस्या का सिद्धि के बल पर चुटकियों में निदान ढूंढ़ लेते हैं,’’ विधि मेरे कानों में फुसफुसाई.

अब तक मैं ‘गुरुजी’ के किसी भी काम में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था, पर गुरुजी को देखने के बाद तो जैसे मैं उतावला ही हो गया था.

‘‘देखा, गुरुजी के दर्शन मात्र से मन का मैल दूर हो गया,’’ विधि ने विजयी भाव से मम्मी की तरफ देखा.मम्मी जो विधि की हर बात काटती थीं,

भी संतुष्टि से गरदन हिला कर मुसकराईं, ‘‘बेटी, मुझे पहले ही पता था कि बस गुरुजी के घर आने की देरी है. सब मंगलमय हो जाएगा.’’

मेरी तरफ से किसी तरह की कोई समस्या उत्पन्न नहीं होगी, यह दोनों को अच्छी तरह समझ में आ गया था. मुझ से छिपा कर गुरुजी के लिए उपहार और स्वागत के लिए पकवान इत्यादि बाहर आने लगे.

विजय मेरे रघु भैया की क्लास में था. हम दोनों भाई शहर में एक कमरा ले कर पढ़ा करते थे. कालेज के पास ही कमरा लिया था, तो कुछ यारदोस्त आ ही जाते थे.

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मगर विजय से हम दोनों भाई परेशान हो गए थे. उस के पिताजी कालेज के गेट पर उसे छोड़ते तो सीधा हमारे कमरे पर आ जाता. हम दोनों भाई क्लास से वापस आते तो वह सोया होता.

कामचोरी और काहिली का ऐसा अनूठा मिश्रण हम दोनों भाइयों ने पहली बार देखा था. किसी तरह गिरतेपड़ते थर्ड डिविजन में बीकौम किया और फिर दुकान खोल ली.

कहने की जरूरत नहीं कि दुकान का क्या हश्र हुआ. फिर न जाने किस के कहने पर उस की शादी कर दी गई. हम दोनों भाई एमबीए कर रहे थे. उस की शादी में तो नहीं गए परंतु डाक इत्यादि लेने आखिरी बार कमरे पर गए तो मिला था विजय. 2 बच्चों का बाप बन गया था. 3 बिजनैस 2 साल में कर चुका था. आज फिर से इस निकम्मे विजय पर इतना खर्चा.

‘इस निकम्मे विजय के लिए मेरी मेहनत की कमाई के क्व10-12 हजार अवश्य भेंट चढ़ा दिए हैं दोनों ने,’ मन ही मन सिर धुनता हुआ मैं विजय से मिलने पहुंचा.

‘‘कैसे हो विजय भैया, पहचाना मुझे? मैं रघु का छोटा भाई रोहन,’’ मैं ने हाथ जोड़ते हुए स्वागत किया.

‘‘गुरुजी, हर नातेरिश्ते का परित्याग कर चुके हैं,’’ उन के शिष्य ने ऊंची आवाज में कहा.

‘‘कैसे हो रोहन?’’

मैं ने महसूस किया कि विजय असहज महसूस कर रहा है.

‘‘मुझे अकेले में रोहन से कुछ बातें करनी हैं,’’ गुरुजी के इतना कहते ही मुझे एकांत मिल गया.

‘‘यह क्या, आप ने तो बिजनैस शुरू किया था न?’’

मैं ने चाय का कप पकड़ाते हुए पूछा.

‘‘नहीं चला, जिस काम में भी हाथ डाला नहीं चला. थकहार कर मैं घर बैठ गया था. इसी बीच एक दिन पड़ोस के रमाकांत की पत्नी अपने गुरुजी के पास ले कर गईं. और फिर धीरेधीरे मुझे उन की पदवी मिल गई. चढ़ावा वगैरह सब कुछ आपस में बराबर बंटता है. बस नाम की पदवी है.

‘‘इत्तेफाक से कुछ लोगों की समस्याएं इतनी तुच्छ होती हैं कि व्यावहारिक टोटके ही सुलझा देते हैं. खैर, अब पैसा, पदवी, नौकरचाकर सबकुछ है. राहुल और बंटी लंदन में पढ़ाई कर रहे हैं,’’ गुरुजी उर्फ विजय ने कुछ भी नहीं छिपाया उस से.

‘‘पर अगर किसी दिन भक्तों को पता चल गया कि आप की गृहस्थी है तब क्या होगा?’’ कामचोरी और काहिली से मजबूर विजय आज भी वैसा ही था.

मैं सोच रहा था कि अगर विजय ने थोड़ी मेहनत और कर ली होती तो शायद अच्छी नौकरी मिल जाती. मेहनत की कमाई का नशा कुछ और ही होता है. कुछ भी हो चोर चोर ही होता है, चाहे अंधेरे का चोर हो या फिर सफेदपोश चोर.

‘‘विजय भैया, आप यहां आए अच्छा लगा. जब जी चाहे आप यहां आ सकते हैं. मेरी पत्नी और मां को पता नहीं था कि विजय भैया यहां आ रहे हैं. सारे आयोजन पर कम से कम क्व10-12 हजार का खर्च तो हुआ ही होगा…’’

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मैं अपनी बात पूरी कर पाता उस से पहले ही विजय ने एक शिष्य को आवाज दी. कान में कुछ गिटपिट हुई और क्व6 हजार उन के शिष्य ने उन्हें पकड़ा दिए.

विजय ने मुझे रुपए देते हुए इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारा परिवार मेरी इज्जत करता है, इन बातों को अपने तक ही सीमित रखना.’’

विजय तो चला गया. मेरी पत्नी और मम्मी का गुरुजी का भूत भी साथ ही ले गया. विजय के बारे में मम्मी ने बहुत कुछ सुन रखा था. जितना भी सुना पर उस के बाद वे हम से इतना जरूर कहती थीं कि उस विजय से तुम दोनों दूर ही रहना. अपना कमरा भी उस से दूर ले लो. अब जब वह गुरुजी के रूप में पहली बार दिखा तो जान कर चढ़ी भक्ति का पानी अपनेआप उतर गया.

Valentine’s Special: वो धोखेबाज प्रेमिका- अनीता के प्यार में दीवाना हुआ नीलेश

अनीता की खूबसूरती के किस्से कालेज में हरेक की जबान पर थे. वह जब कालेज आती तो हर ओर एक समा सा बंध जाता था. वह हरियाणा के एक छोटे से शहर सिरसा के नामी वकील की बेटी थी तथा बेहद खूबसूरत व प्रतिभाशाली थी. चालाक इतनी कि अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती थी.

अभिजात्य व आत्मविश्वास से उस का नूरानी चेहरा हरदम चमकता रहता. वह मुसकराती भी तो ऐसे जैसे सामने वाले पर एहसान कर रही हो. कालेज में एक रसूख वाले नामी वकील की बेटी यदि होशियार और सुंदर हो, तो उस के आगेपीछे घूमने वालों की फेहरिस्त भी लंबी ही होगी.

लेकिन अनीता ने सब युवकों में से नीलेश को चुना जो गरीब और हर वक्त किताबों में खोया रहता था. वह अनीता का ही सहपाठी था, और गांव के एक गरीब किसान का बेटा था. उस के पिता का असमय निधन हो गया था, इसलिए बड़ी मुश्किल से विधवा मां नीलेश को पढ़ा रही थीं व नीलेश हर समय अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहता था.

अनीता को तो नीलेश ही पसंद आया, क्योंकि वह लंबा, हैंडसम और मेहनती नौजवान था. अनीता जबतब कुछ पूछने के बहाने उसे अपने नजदीक लाती गई और देखतेदेखते उन की दोस्ती की चर्चा अब पूरे कालेज में होने लगी. नीलेश खोयाखोया रहने लगा. धीरेधीरे इस मेधावी छात्र की पढ़ाई जहां ठप सी हो गई, वहीं अनीता जो पढ़ाई में औसत दर्जे की थी अब वह उस के बनाए नोट्स पढ़ कर फर्स्ट आने लगी.

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स सब में नीलेश की मेहनत होती. वह रातभर उस के लिए नोट्स बनाता, उस की प्रैक्टिकल की फाइल्स तैयार करता, लैब में ऐक्सपैरिमैंट्स वह करता, लेकिन उस की मेहनत का सारा फल अनीता को मिलता.

नीलेश तो बस, अपनी प्रेमिका के प्रेम में ही डूबा रहता. वह उस के अलावा कुछ सोच भी नहीं पाता. यहां तक कि छुट्टी में वह अपनी मां से मिलने गांव भी नहीं जाता. ये सब देख मां भी बीमार रहने लगीं.

नीलेश प्यार के छलावे में इस कदर खो गया कि उसे याद ही नहीं रहता कि गांव में उस की मां भी हैं, जो आठों पहर उस की राह देखती रहती हैं. मां ने अपने जेवर बेच कर उस के कालेज की फीस भरी. मां बड़े किसानों के यहां धान साफ कर के उस की पढ़ाई का खर्च पूरा कर रही थीं. उन के प्रति चाह कर भी नीलेश नहीं सोच पाता, क्योंकि अनीता के साथ उस के प्रश्नोत्तर बनाना, फिर उस के घर जाना, वह कहीं जा रही हो, तो उसे साथ ले जाना, उस के संग पिक्चर व पार्टी अटैंड करना, ये सब काम वह करता. वह इन सब में इतना थक जाता  कि उसे अपना भी होश न रहता. कालेज की गैदरिंग में उस ने अनीता को देख कर ही यह गीत गाया था, ‘एक शेर सुनाता हूं मैं, जो तुझ को मुखातिब है,

इक हुस्नपरी दिल में है, जो तुझ को मुखातिब है…’

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इस गीत को गाने में वह इतना तन्मय हो गया था कि बड़ी देर तक तालियां बजती रही थीं, पर वह सामने कुरसी पर बैठी अनीता को ही ताकता रहा और उस के कान में तालियों की आवाज भी जैसे नहीं पड़ रही थी. अनीता का सिर गर्व से ऊंचा हो गया था. सारे कालेज में वह जूलियट के नाम से जानी जाने लगी थी. हालांकि उस ने इस प्यार में अपना कुछ नहीं खोया. नीलेश ने उसे कभी उंगली से भी नहीं छुआ था.

इधर ऐग्जाम होतेहोते अनीता का मुंबई में रिश्ता तय हो गया. अनीता को क्या फर्क पड़ना था. वह तो मस्त थी. कभी प्रेम में पड़ी ही नहीं थी. वह तो मात्र मनोरंजन और मतलब के लिए नीलेश को इस्तेमाल कर रही थी. आखिर रिजल्ट आया, अनीता अव्वल आई पर नीलेश 2 विषयों में लटक गया. उस का 1 वर्ष बरबाद हो गया. इधर अनीता विवाह कर मुंबई रहने चली गई, जबकि नीलेश को प्यार में नाकामी और अवसाद हाथ लगा.

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उस का साल बरबाद हो गया इस का तो उसे गम नहीं हुआ लेकिन जिसे वह दिल ही दिल में चाहने लगा था, उस अनीता के एकाएक चले जाने से वह इतना निराश हो गया कि उस ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या का प्रयास किया.

जब अनीता की बरात आ रही थी, तब नीलेश अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहा था. उस की गरीब मां का रोरो कर बुला हाल था. वह नहीं समझ पा रही थीं कि हर कक्षा में प्रथम आने वाला उस का बेटा आज कैसे फेल हो गया.

वह इतना होशियार, सच्चा, ईमानदार, व मेहनती था कि मां ने उस के लिए असंख्य सपने संजोए थे, किंतु एक बेवफा के प्यार ने उसे इतना नाकाम बना दिया कि वह शराब पीने लगा. उस का भराभरा चेहरा व शरीर हड्डियों का ढांचा नजर आने लगा.

Short Story: बैंगन नहीं टैंगन

लेखिका- रीता गुप्ता

मधु को देख इशिता चौंक गई. अभी बमुश्किल 6 महीने ही हुए होंगे, जब वह पहली बार उस से मिली थी.

झारखंड के एक छोटी सी जगह गुमला से सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वह जिद कर के घर से आई थी. चेहरे से टपकते भोलेपन ने उस का मन मोह लिया था. पढ़ाई के प्रति उस की लगन और जज्बे ने सोने पर सुहागे का काम किया था, उस की इमेज को इशिता के दिल में जगह बनाने में.

काश, ये भोलापन और मासूमियत महानगर की भीड़ में अपना चेहरा न बदल ले. पर, उस की शंका निर्मूल साबित नहीं हुई. मधु की बदली वेशभूषा और नई बोली उस का नया परिचय दे रही थी.

इशिता को आज उस के बैच की कक्षा लेनी थी. उन्होंने देखा कि पढ़ाई के मामले में वह अब भी गंभीर ही थी… और यह बात उसे सुकून दे रही थी.

वर्षों से वह कोचिंग सैंटर में पढ़ा रही थी और उसे दुख होता था उन लड़कियों को देख कर, जो अपनेअपने गांवकसबे या शहरों से यहां आ कर यहां की चकाचौंध में खो जाती थीं.

ऊंचे ख्वाबों की गठरी कुछ ही दिनों के बाद, यहां की जिंदगी को अपनाने के चक्कर में बिखर जाते थे, अपनी हीनभावना से लड़ते हुए, अपने को पिछड़ेपन की तथाकथित गर्त से निकालने के फेर में वे और गहरी डूबती चली जातीं.
नकल में अक्ल पर बेअक्ल का परदा डाल ये कसबाई लड़कियां वो सब करने को तैयार हो जाती थीं, जो उन्हें गंवार के टैग से आजादी दे.

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इशिता ने मधु को अपने पास बुलाया और उस का हालचाल लेने लगी. बातों ही बातों में पता चला कि अब वह अपने गर्ल्स पीजी से आजाद हो कर एक फ्लैट में किसी लड़के के साथ रहने लगी है, जो उस की तरह ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है.

“मैडम अपूर्व बहुत तेज है पढ़ने में, उस के साथ रही तो जरूर कंपीटिशन निकाल लूंगी. फिर इस महानगर में कोई तो ऐसा हो, जिस के साथ सुरक्षित महसूस हो.”

मधु की बातों से उस का नवजागृत आत्मविश्वास छलका जा रहा था.

‘सचमुच बहुत तरक्की कर ली है इस ने,‘ मैडम इशिता ने समझ लिया. उन्हें याद आया, उन की नानी कहती थीं कि गरीब घर की लड़की की जब बड़े घरों में शादी हो जाती है, तो उन में एक ऐंठन आ जाती है और हर चीज में अपनी अधजल गगरी छलकाएंगी.

“ओह, आप इसे बैंगन कहती हैं. हमारे यहां इसे टैंगन कहते हैं.‘‘

मधु की बातें इशिता मैडम को कुछ ऐसी ही लग रही थीं, जो अब बेशर्मी से लिव इन की वकालत कर रही थी यानी बैंगन टैंगन हो ही चुका था.

देश के दूरदराज के गांवकसबों से कभी पढ़ाई तो कभी अच्छे मौकों की तलाश में युवा महानगरों का रुख करते हैं. इस में कई बार सिर्फ कसबाई माहौल से पलायन भी कारण होता है. बड़े शहरों में भले अब तक नहीं रही हों, पर उन्हें अपनी इच्छाओं और हकों की पूरी जानकारी होती है. वहां की बंदिशों से आजाद होने की कसमसाहट उन्हें महानगरों की तरफ उन्मुख करती है.

विभिन्न संस्थानों से पढ़ाई के पश्चात भी युवाओं की एक बड़ी तादाद शहरों में नौकरी करने आती है, जो शुरुआती संकोच के बाद बेहिचक यहां के रंगढंग में ढल जाती है. घरपरिवार, कालेजों की हजारों बंदिशों के बाद यहां की आजादी में वे कुछ ज्यादा ही रम जाते हैं. छोटी जगहों के विपरीत महानगरों में कोई किसी की निजी जिंदगी में टोकाटोकी नहीं करता है और न ही कोई जानपहचान या खास रिश्तेदारी की कोई जासूसी.

सो, शहर की ओर उन्मुख करते वो सारी वर्जनाएं टूटने लगती हैं, जो अब तक संकुचन में जी रहे थे. यों भी भोलेपन या सीधेपन पर गांवदेहात या कसबे का अब एकाधिकार नहीं रहा है. इस इंटरनेट और ओटीटी के युग
में सभी समय पूर्व ही परिपक्व हो रहे हैं, फिर वह गांव हो या शहर.

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मधुरा पढ़ने में अच्छी थी, उस ने कैम्पस में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. उस की पहली पोस्टिंग बेंगलुरू हुई. बिहार के एक छोटे से शहर सिवान से उस के पिता उसे बेंगलुरू में कुछ दिन रह कर उस की अन्य सहेलियों के साथ रहने का इंतजाम कर वापस चले आए. पर, पिता के वापस लौटते ही मधुरा अपने कैम्पस के एक दोस्त अंगद के साथ रहने लगी. दोनों के दोस्तों को उन के लिव इन रिलेशन का हमेशा पता रहा. दिखावे के लिए शेयरिंग फ्लैट को उस ने हमेशा रखा, पर रहती रही अंगद के संग. दोस्तों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही थी, जब 5 साल के बाद एक दिन मधुरा ने बताया कि उस की शादी एक सजातीय एनआरआई से हो रही है. मेरे पिता बहुत ही संकीर्ण हैं. वे अंगद से मेरी शादी कभी नहीं करेंगे.

यह सुन कर अंगद के पैरों तले जमीन खिसक गई उस की इस बेवफाई से. हद तो तब हो गई, जब उस ने अपनी शादी में अंगद को स्पेशल न्योता दे कर बुलाया और अपने पति से बेहद सहजता से परिचय भी कराया. शायद उसे ये हमेशा से पता था, पर वह अंगद के संग प्रेम कर जीवन को एक अलग अंदाज में जीती रही.

गांवदेहात की सारी लड़कियां पाबंदी या बंदिशों में नहीं जीती हैं अब, बल्कि वे भी शहरी लड़कियों की ही तरह अपने खास अंदाज में अपनी आजादी का लुत्फ उठाती हैं. शहरी उच्छृंखलता सिर्फ महानगरों तक अब सीमित
नहीं हैं, उन की पैठ अंदरूनी दूरदराज जगहों तक हो गई है. विचारों, संस्कारों की बेड़ियां टूटती दिख रहीं हैं. बदलाव ही एकमात्र स्थायी चरित्र होता है, पर ध्यान रहे कि ये बदलाव देश, समाज और परिवार के हित में ही रहे.

स्त्री आजादी आर्थिक स्वावलंबन पर ही टिकी होती है, ये भान रहे. आधुनिक होने का मतलब सिर्फ स्थापित धारणाओं का खंडन ही नहीं होता है, अपितु समाज, परिवार में संतुलन बना रहे और विचारों का उन्नयन होता रहे, ये आवश्यक है.

ऊपर वर्णित उदाहरण सिर्फ खुदगर्जी ही प्रस्तुत कर रहे हैं, जहां अपनी जड़ों से कटने की बेताबी झलक रही है. ये चंद उदाहरण ये भी इंगित कर रहे हैं कि वो जमाना बीत गया, जब सिर्फ लड़कियां ही शोषित होती थीं. हां, अब भी ऐसे उदाहरण कम ही हैं और 90 फीसदी केस में अब भी लड़कियां ही शिकार बनती हैं.

विदेशी संस्कृति की अच्छी बातों को अपनाते हुए अपनी संस्कृति की उच्च परंपरागत सोच की निरंतरता को भी बनाए रखना जरूरी है.

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पार्टनर: कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है

आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

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अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है. वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

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सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

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