‘दिलक्या करे जब किसी से किसी को प्यार हो जाए…’ एफएम पर यह गाना बज रहा था और पाखी सोच रही थी कि ऐसे गाने आज भी फिट बैठते हैं. लेकिन इस गाने की नायिका का नाम जूली न हो कर पाखी होता, तो और सटीक लगता. रोमांटिक तबीयत वाली व शेरोशायरी की शौकीन पाखी को जब प्यार हुआ तो जनून बन कर सिर पर चढ़ गया. उस ने कसम खा ली और इरादा पक्का कर लिया गड़बड़ी फैलाने, चांदनी की शादी को चौपट करने और उस के सपनों पर पानी फेरने का. लेकिन यह नहीं सोचा था उस ने कि उस की योजना का अंत हौस्पिटल के इमरजैंसी वार्ड में होगा. पर इतना वह अवश्य मानती है कि जो कुछ हुआ वह अच्छा हुआ. इस से बेहतर की उम्मीद भी वह क्या करती?
आज मौसम भी खुशगवार था. लग रहा था जैसे पत्तों और शाखों के बीच अनबन खत्म हो गई है. पत्तों ने गिरना बंद कर दिया था. अपनी जगह चिपके वे ठंडी बयार की कोमल सहलाहट का आनंद ले रहे थे. ऐसे सुहावने मौसम में सूप का घूंट भरती पाखी की नजर पास रखी पत्रिका पर गई. उस में ‘अपना प्यार कैसे पाएं’ लेख पर जैसे ही उस की नजर पड़ी, उस की हंसी छूट गई. मुंह से निकली सूप की फुहार उस के गालों पर छिटक गई. काश, इतना सरल होता यह सब, तो पत्रिका में दिए गए सुझावों को अपनाती और पा लेती अपना प्यार.
पाखी की मोहित पर पहली नजर कालेज की वैलकम पार्टी में पड़ी थी और वह उसे पहली नजर में ही भा गया था. उस पार्टी में सभी युवा एकदूसरे को टटोल रहे थे. आखिर एमबीए करने आए सभी विद्यार्थी परिपक्व जो थे. कई तो नौकरी का अनुभव लेने के पश्चात आए थे. लेकिन पाखी के कदम बढ़ाने से पूर्व चांदनी मोहित को खींच कर ले गई. इस से पहले कि मोहित संभल पाता, वह उस के साथ पूरी पार्टी में नाचती फिर रही थी. पहले गले में बांहें, फिर कमर में. उफ हद हो गई. मोहित बेचारे की क्या गलती? जब चांदनी ही उस आकर्षक नौजवान पर मेहरबान हो उठी तो भला उसे क्या आपत्ति हो सकती थी? चांदनी एक खूबसूरत लड़की थी जिस की अदाएं रहीसही कसर पूरी कर देती थीं.
जल्द ही चांदनी ने यहां भी अपना परचम लहरा दिया था. पूरे कालेज में उस का शोर रहता. हर क्लास उस के बिना अधूरी होती और हर पार्टी में आ कर वह जान डाल देती. चांदनी और मोहित की बढ़ती प्रगाढ़ता पाखी को खिन्न कर जाती. पाखी ठहरी एक आम रंगरूप वाली साधारण लड़की. चांदनी के उजले रूप के आगे उस की क्या बिसात? लेकिन चांदनी को तो कोई भी मिल जाता फिर मोहित ही क्यों? क्या वह पाखी की आंखों में मोहित के लिए कुछ नहीं पढ़ पाई थी? हुंह, बड़ी सहेली बनी फिरती है. विद्यालय के दिनों से ही दोनों साथ थीं. कितनी भावनाएं, कितने अनुभव साझा किए थे. कम से कम उसे तो पाखी के अनकहे प्यार को समझना चाहिए था. पाखी अब इसी उधेड़बुन में डूबी रहती कि क्या करे जिस से मोहित उसे मिल जाए? किंतु वह कुछ सोच पाती इस से पहले वह घट गया जिस का डर उसे खाए जा रहा था.
‘‘मैं और मोहित शादी कर रहे हैं पाखी,’’ चांदनी ने उस की बांहें पकड़, उछल कर बताया था, ‘‘ओह पाखी, मैं कितनी खुश हूं बता नहीं सकती. मैं तो पगला ही गई थी जब कल शाम मोहित ने मेरे समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा. बिलकुल फिल्मों की तरह, डायमंड रिंग हाथ में लिए… ओह, मेरी तो आंखें छलछला गई थीं. ‘‘अपनी शादी के अवसर पर यदि मेरा दिल किसी से अपनी बातें कह सकता है तो वह तुम हो. अब मैं तुम्हारे साथ और समय बिताना चाहती हूं, शादी की सारी खरीदारी करना चाहती हूं,’’ चांदनी सातवें आसमान में उड़ान भर रही थी, ‘‘वैसे भी तुम पीजी में रहती हो तो शादी से 1 हफ्ता पहले तुम्हें मेरे घर में शिफ्ट होना होगा.’’ लेकिन पाखी का दिल चाक हो चुका था. ऊपर से अपने अधरों पर मुसकान का मुखौटा चढ़ाए वह अंदर ही अंदर फूटफूट कर रो रही थी. पहली बार उसे कोई लड़का पसंद आया और उसे अपने दिल की बात कहने से पहले ही वह किसी और का हो गया. और वह भी चांदनी का. उस की अपनी सहेली का. उस का मन यह बात इतनी सरलता से कैसे स्वीकारता भला?
पाखी का मन तैयारियों में जुट गया. वह सोचती रहती थी कि ऐसा क्या करे कि चांदनी की शादी धरी की धरी रह जाए? ऐन शादी वाले दिन उस के लहंगे पर कैंची चला दे या उस के मेकअप का डब्बा गायब कर दे या फिर उस की सैंडल तोड़ दे… पर यह सब तो पहले ही नजर में आ जाएगा और फिर उस के रंगे हाथों पकड़े जाने का खतरा भी तो है. पाखी कभी नहीं चाहेगी कि मोहित की नजरों में वह गिर जाए. नहीं, वह कुछ ऐसा करेगी कि मोहित को उस की भावनाओं के बारे में पता चलेपाखी के ‘क्या करूं, क्या करूं’ की सोच पर दिन बीतने लगे. फिर एक दिन उस ने एक योजना बनाई. मोहित व अपनी एक तसवीर कालेज के अलबम में से निकाली. उस पर एक कागज चिपका कर ‘आई लव यू’ लिखा. फिर चांदनी और मोहित को अपने यहां दावत के लिए निमंत्रण दिया. उस के लिए खूब तैयारी की. मोहित की पसंदीदा डिशेज मंगाईं और अपने पीजी की कुक को पैसे दे कर रोक लिया ताकि वह खाना सर्व करती रहे और पाखी अपनी योजना को कारगर कर सके.
चांदनी व मोहित पाखी के लिए उस की पसंद के सफेद आर्किड फूलों का गुलदस्ता लिए साथ में आए. थोड़ी देर तीनों बैठ कर बातचीत करते रहे फिर खाने के लिए पाखी उन्हें डाइनिंग टेबल पर ले चली, जहां उस ने बड़ी सफाई से वह तसवीर अपनी डायरी से आधी झांकती हुई पहले से ही रखी थी. उस में से ‘आई लव यू’ बाहर दिख रहा था, इसलिए उसे विश्वास था कि मोहित उसे बाहर खींच कर देखने का प्रयास अवश्य करेगा. और तब उस के दिल की बात उस के बिना कुछ कहे ही मोहित तक पहुंच जाएगी. जब चांदनी हाथ धोने गई, पाखी जल्दी से मोहित को डाइनिंग टेबल पर ले आई. उसे वहीं छोड़ वह खाना लाने के बहाने किचन में चली गई. फिर खाना लगाया तो सब ने बड़े स्वाद से खाया. उस दौरान उन के बीच हंसीमजाक चलता रहा, किंतु मोहित के चेहरे पर कोई शिकन, कोई परेशानी नहीं थी.
उन के जाने के बाद पाखी की कुक रसोई समेटने के बाद आई और उस के हाथ में डायरी थमाते हुए कहने लगी, ‘‘ये लो दीदी. आप की डायरी बेतरतीबी से टेबल पर पड़ी थी. कागज बाहर निकल रहे थे. मेहमान देखते तो सोचते कि हमारी दीदी को रहने का सलीका नहीं आता, इसलिए मैं ने उठा कर रसोई में रख ली थी.’’पाखी का मन हुआ कि वह कुक का सिर तोड़ दे. किस ने कहा था उसे जरूरत से ज्यादा सलीका दिखाने के लिए. आमतौर पर उस की जिन बातों से पाखी खुश हो जाती थी, आज उन्हीं बातों ने उस की सारी योजना बिगाड़ दी थी. अगले हफ्ते शौपिंग का कार्यक्रम तय था. पाखी के दिमाग के घोड़े फिर से दौड़ने लगे. फेसबुक पर अपने क्लासमैट्स के ग्रुप में उस ने संचेत को ढूंढ़ निकाला. चाहे कुछ महीनों के लिए ही सही पर चांदनी और संचेत के प्रेम के किस्से पूरे स्कूल में मशहूर हुए थे. लड़कपन की वह चाहत जल्द ही पढ़ाई के बोझ तले दब गई थी. पर पाखी ने सुना था कि औरत अपना पहला प्यार कभी नहीं भूलती. उस ने संचेत को फेसबुक पर मैसेज भेजा. उधर से उस का उत्तर आया, ‘कहां हो आजकल? मिलने का प्रोग्राम बनाते हैं.’ पाखी को और क्या चाहिए था. उस ने संचेत को उसी मौल में, जहां चांदनी और मोहित उस के साथ खरीदारी को जाने वाले थे, आमंत्रित कर डाला, ‘पैसिफिक मौल के फूडकोर्ट में सागररत्ना रेस्तरां में मिलते हैं. करीब 2 बजे.’
दक्षिण भारतीय भोजन चांदनी को पसंद था और पाखी 1 तीर से 2 निशाने करना चाह रही थी. यानी चांदनी का पहला प्यार उस से टकरा जाए और मोहित के मन में शंका का बीज उत्पन्न हो जाए. तब इस के परिणामस्वरूप उस का अपना जैकपौट लग जाए. चांदनी आई तो उस ने मौल में काफी खरीदारी की. मोहित ने भी जी खोल कर उसे खरीदारी करवाई. बड़े मौल में खरीदारी का यही तो फायदा है कि नामी ब्रैंड्स के शोरूम्स से वातानुकूलित वातावरण में चैन से खरीदारी कीजिए, फिर वहीं फूडकोर्ट में अपनी भूखप्यास शांत कीजिए. जैसे ही 2 बजने को हुए पाखी ने शोर मचा दिया, ‘‘बहुत भूख लग रही है. चलो न कुछ खा कर आते हैं. यहां पर सागररत्ना रेस्तरां है, वहीं चलते हैं. वैसे भी चांदनी को तो बहुत भाता है दक्षिण भारतीय खाना.’’ अपनी खरीदारी आगे जारी रखने का मन बना कर तीनों सागररत्ना रैस्तरां की ओर बढ़ गए. मोहित काउंटर पर और्डर देने गया तो पाखी चालाकी से चांदनी को उसी टेबल पर ले गई जहां संचेत बैठा प्रतीक्षा कर रहा था.
‘‘हाय संचेत, इतने दिन बाद?’’ कह पाखी ने संचेत का ध्यान आकर्षित किया. चांदनी और संचेत अचानक एकदूसरे को सामने पा सकपकाए किंतु अगले ही क्षण वे सहज हो गए. लड़कपन की बातों को बचपना समझना ही परिपक्वता की निशानी है. दोनों एकदूसरे के वर्तमान से अवगत हो ही रहे थे कि मोहित आ गया.
‘‘संचेत, ये है मोहित मेरा प्यार और जल्द ही होने वाला मेरा पति,’’ चांदनी मोहित के सीने पर सिर टिका कर बोली.
‘‘और संचेत कौन है यह नहीं बताओगी मोहित को?’’ पाखी को उन दोनों का प्रेम सहन न हुआ. ‘‘मोहित, ये संचेत है. हम एकसाथ स्कूल में पढ़ते थे और ये मेरा पहला क्रश था,’’ कह चांदनी बेफिक्री से हंस दी.
‘‘अरे, फिर चांदनी जैसी लड़की को हाथ से जाने कैसे दिया संचेत तुम ने?’’ मोहित भी उतना ही बेफिक्र था.
‘‘गलतियां सब से हो जाती हैं, यार,’’ संचेत बोला और मोहित हंसा तो दोनों एकदम दोस्त बन गए. यह योजना भी मुंह के बल गिर पड़ी तो पाखी बहुत परेशान हो उठी. मोहित और चांदनी के बीच न केवल प्यार था, बल्कि विश्वास का अटूट रिश्ता भी साफ दिखाई दे रहा था. पाखी का कोई भी पासा ठीक नहीं पड़ रहा था और घड़ी की सूइयों ने रेस लगा कर शादी का हफ्ता ला खड़ा कर दिया था. पाखी चांदनी के घर शिफ्ट हो गई. वहां की तैयारियों में पाखी की उपस्थिति आवश्यक थी. शादी की सजावट, रस्मोरिवाज वगैरह सभी में वह मौजूद रहती थी. घर फूलमालाओं से सज चुका था. बरात के स्वागत की तरकीबें बताई जा रही थीं.
‘‘बरात आते ही हम पटाखे चलाएंगे,’’ चांदनी का छोटा भाई बोला.
‘‘नहीं, कभीकभी घोड़ी बिदक जाती है,’’ पिताजी ने साफ मना कर दिया.
‘‘तो हम गुब्बारों और फीतों से पूरा रास्ता सजाएंगे,’’ चचेरी बहन बोली.
‘‘पागल है? ये कोई जन्मदिन की पार्टी है क्या?’’ अब भाई के मना करने की बारी थी.
‘‘एक सरल व नया उपाय बताऊं,’’ कनाडा से आई चांदनी की मौसेरी बहन ने कहा, ‘‘हम वहां साबुन के पानी के बुलबुले उड़ाएंगे. इस से बरातघर की तेज चमकती रोशनी में सतरंगी समां बंध जाएगा.’’ ‘‘बुलबुले?’’ पाखी चौंकी और बोली, ‘‘मैं जानती हूं साबुन के बुलबुले कैसे बनाए जाते हैं. पर यह तो एक बचकाना सुझाव है.’’
‘‘तो क्या हम कुछ भी न करें?’’ छोटे भाईबहन उदास हो गए.
‘‘भाई साबुन के बुलबुलों से तो बरातघर के फर्श व सीढि़यों पर फिसलन…’’ कहतीकहती पाखी चतुरता से चुप हो गई. फिसलन… वाह. इस से बढि़या और क्या होगा? बरातघर की सीढि़यों से मंडप की ओर आती चांदनी फिसल पड़ेगी. उस के बाल उस के मुंह पर बिखरे होंगे, साड़ी अस्तव्यस्त हो चुकी होगी और वह धड़ाम से अपनी हड्डी तोड़ती हुई नीचे फर्श पर पड़ी होगी.
‘‘हां, बुलबुले ही सब से अच्छे रहेंगे,’’ पाखी ने फौरन इस सुझाव का समर्थन किया. उसे लगा कि यह सुझाव उस के अपने दिमाग की उपज भी नहीं कहलाएगा. तैयारियों और उत्साह से बीतते दिन कब विवाह के दिन तक आ पहुंचे, पता ही न चला. सभी घर वाले काम में व्यस्त थे किंतु पाखी अपनी ही तैयारी में जुटी थी. शाम होतेहोते उस ने सभी बच्चों के हाथों में साबुन के पानी से भरे छोटेछोटे टब थमा दिए थे. यहां तक कि खुद तैयार होने भी वह पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही गई. सारे हंगामे की परिकल्पना से ही वह रोमांचित हो रही थी. अंदर की खुशी बाहर मुसकराहट बन फूट रही थी. फिर भी कुछ पुराना था, जो अंदर बचा हुआ था, पूरी तरह से भस्म नहीं हुआ था. चांदनी की खुशी के लिए पाखी ने उस का पसंदीदा नीला रंग ही पहना. जब चांदनी ब्यूटीपार्लर से सजसंवर कर बरातघर के दुलहन कक्ष में पहुंची तो पाखी उसे देखती रह गई. चांदनी की छटा पूरे माहौल में बिखर रही थी.
‘‘तुम बहुत सुंदर लग रही हो,’’ कह कर पाखी उस के गले लग गई. और फिर अचानक ही उसे चांदनी में अपनी दुश्मन नहीं अपितु वह सहेली दिखने लगी जो बचपन से उस की अपनी थी. आखिर वर्षों पुरानी दोस्ती थी दोनों की. कितनी खुशियां, कितने गम और कितनी चोरियां बांटी थीं आपस में दोनों ने. चांदनी वही तो थी जिस ने पाखी को मिली सजा में साथ देने हेतु अपना गृहकार्य अपनी अध्यापिका को नहीं दिखाया था. जब पाखी के पिता की आकस्मिक मृत्यु से उस का परिवार डांवाडोल हो गया था, तब चांदनी ने ही तो उस की कालेज फीस भरी थी और फिर आज तक उस ने वे पैसे वापस नहीं लिए थे. आज भी चांदनी ने वही साड़ी पहनी थी, जो पाखी ने उस के लिए पसंद की थी. जबकि सभी जानते थे कि चांदनी को गुलाबी रंग खास पसंद नहीं था. चांदनी और पाखी अच्छे और बुरे दिनों में साथ रही थीं. भावनाएं भी क्याक्या खेल खेलती हैं. पाखी और चांदनी जो अंतरंग सहेलियां थीं, उन के बीच एक अनजान लड़के ने आ कर यह क्या कर दिया? एक ऐसा रिश्ता जो बना ही नहीं, लेकिन बनने की केवल चाहत भर ने पाखी के मन में अपने पुराने रिश्ते के प्रति इतनी खटास ला दी. कैसे भूल गई वह चांदनी से अपनी मित्रता? और फिर आज उसे दुलहन के रूप में अपने समक्ष देख यह कैसी भावना जागी पाखी के मन के कोने में जिस की हिलोर ने उस का पूरा हृदय परिवर्तन कर दिया.
‘‘सिर्फ बुलबुलों में खो कर मत रह जाना,’’ पाखी बच्चों को निर्देश देने लगी. वैसे चिंता की कोई बात नहीं थी, क्योंकि बरातघर के फर्श पर कालीन बिछा था. वैसे भी लगभग सभी बुलबुले हवा में तैर रहे थे. बरातघर की रोशनी में इंद्रधनुषी बुलबुलों के बीच से आ रही चांदनी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. जोश में आ कर पाखी ने भी बुलबुले उड़ाने शुरू कर दिए. उस समय उसे अपनी उम्र या लिपस्टिक का भी खयाल न रहा. मुश्किल तो तब आई जब साबुन का पानी बाहर फूंकने के बजाय वह अंदर गुटक गई जिस से उस के पूरे गले में साबुन फंस गया. घबराहट में उस का पैर अपने ही लहंगे में अटका और वह बरातघर की सीढि़यों से लुढ़क कर नीचे गिर पड़ी.
ऐसा होने पर हौस्पिटल से उस के लिए ऐंबुलैंस मंगाई गई तो चांदनी भी उस के साथ ऐंबुलैंस में चढ़ने लगी. पाखी ने उस का हाथ पकड़ उसे रोक दिया, ‘‘चांदनी, शादी मुबारक हो. तुम्हें सारी खुशियां मिलें. जीवन में तुम दोनों को कभी कोई परेशानी न घेरे, तुम्हारी सारी बलाएं मुझे…’’
‘‘अच्छा, अब चुप हो कर बैठ. क्या वाकई मेरे साथ चलने की जरूरत नहीं?’’ चांदनी ने पूछा.
‘‘नहीं, तू जा कर खुशीखुशी मंडप में बैठ, मोहित प्रतीक्षा कर रहा होगा,’’ पाखी ने उत्तर दिया. चांदनी गई तो ऐंबुलैंस चल पड़ी. मजे की बात तो यह थी कि एड़ी में तेज दर्द होते हुए भी पाखी खुश थी. यदि वह चांदनी की शादी बरबाद कर देती तो शायद ही कभी स्वयं को माफ कर पाती. अंतत: पाखी की अंतिम योजना का अंत हौस्पिटल के इमरजैंसी वार्ड में हुआ. ‘‘डाक्टर कुछ ड्रिप वगैरह देंगे, तुम्हारे पैर में बैंडेज लगेगी, फिर मैं तुम्हें वापस ले चलूंगा,’’ रोहन ने पाखी से कहा. रोहन कोई नया किरदार नहीं था. वह चांदनी का मौसेरा भाई था, जो कनाडा से आया था. जिद कर के वह ऐंबुलैंस के पीछेपीछे आया था यह देखने कि पाखी को किसी चीज की आवश्यकता तो नहीं. पाखी मोहित और चांदनी की शादी में खलल डालने की कोशिश में इस कदर उलझ कर रह गई थी कि रोहन को अपनी तरफ आकर्षित होता भी न देख पाई. उसे यह एहसास हुआ भी तो यहां हौस्पिटल में, जब रोहन की चिंता, उस की भागदौड़ और उस की आंखों में उमड़ रहे भावों ने यह जता दिया कि यह सब कुछ केवल इंसानियत के नाते नहीं हो रहा था. तभी तो वह मानने लगी थी कि जो हुआ, अच्छा हुआ. इस से बेहतर की उम्मीद भी वह क्या करती?
पल्लव जी शायद अपने मन की बात बेतकल्लुफ से कह गए थे और तुरंत वे अपनी कुछ बातें वापस छिपाना चाहते थे. शरमा कर वे चुप से हो गए और अपनी उंगलियों को मरोड़ने लगे.
मुझे ही क्या, भाई को भी लग रहा था कि पल्लव जी ममा के साथ जिंदगी में आगे बढ़ना चाहते हैं. मैं ने जिम्मेदारी समझते हुए कहा- ‘अंकल, ममा की जिंदगी में आप जैसा कोई सीधासच्चा इंसान आ जाए, तो उन की जिंदगी संवर जाए. उन की 21 साल की शादी में…’
‘मैं जानता हूं हेमा का दुख, तुम्हारी ममा का…’
‘अंकल, आप हेमा ही कहिए, हमें अच्छा ही लगेगा.’
पल्लव जी मुसकराए, उन की दुविधा हम ने कम जो कर दी थी.
वे बोले, ‘एक दोस्त की तरह उस ने अपनी जिंदगी मुझ से कुछ हद तक साझा की है. और मैं ने भी. लेकिन बच्चो, यह खेल नहीं है. हेमा का मन मैं अब तक नहीं समझ सका. वह ऐसे विषय से अब तक बचती रही है. क्या वह तुम्हारे पापा को पाना चाहती है? क्या मालूम…’
पल्लव जी कुछ अनजानी उदासी से घिर गए थे.
मैं अचानक उठी और पल्लव जी के पैर छू लिए. भाई को यह अव्वल दर्जे की नाटकीयता लगी. वह मुंह में भोंपू ठूंसे अवाक सा मुझे निहारता रहा. अंकल भी कुछ सकपका से गए. लेकिन मेरे हाथों को अपने हाथों में ले कर मेरे प्रति उन्होंने कृतज्ञता दिखाई.
मैं ने कहा, ‘अंकल, ममा मेरे पापा के पास लौट कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारेगी. सच तो यह भी है कि हम भी अब उस नरक में कभी वापस नहीं जाना चाहेंगे. पापा खुद के सिवा किसी को नहीं जानते, अंकल. और हमें ऐसा स्वभाव फूटी आंख नहीं सुहाता.’
‘वह तो ठीक है बेटा. लेकिन आप की ममा के लिए मैं क्या हूं, जब तक न यह समझूं, कैसे आगे बढ़ें. फिर कुंदन की क्या राय है?’
भाई बेचारे ने सिर झुका लिया. उस के आगे जैसे ढेरों दृश्य एकसाथ भागे जा रहे थे और वह सकपकाया खड़ा ताक रहा था.
मैं ने कहा- ‘अंकल, भाई अभी उतना समझ नहीं सकता. मेरी राय ही उस की राय है. मैं ममा का मन पता करने का दायित्व लेती हूं, आप निश्चिंत रहें. और जैसा मैं कहूं, आप वैसा करें.’
पल्लव जी राजी हो गए. और हम अपने कमरे में आ कर मंसूबों को सच करने की हिम्मत बांधने लगे.
ममा वापस कालेज से आ कर सब की देखभाल में लग गई, जैसा घर पर भी किया करती थी.
मैं एक अवसर की तलाश में थी जब पल्लव जी को ले कर ममा का मन जान सकूं.
रात को डरडर कर छेड़ ही दिया मैं ने. ‘ममा, पल्लव अंकल बहुत अच्छे हैं.’
‘सो जाओ तुम दोनों,’ ममा रोक रही थी मुझे.
‘ममा, तुम अपनी जिंदगी से मुंह मोड़ रही हो. चलो वह भी सही लेकिन यह तो हमारी जिंदगी का भी सवाल है न.’
‘मैं तुम लोगों के साथ एक किराए के कमरे में चली जाऊंगी. तुम लोग चिंतित मत हो. मैं अलग से ट्यूशन भी कर लूंगी.’
‘ममा, तुम ने पल्लव अंकल का मन कभी पढ़ा है?’
‘कंकन, मैं ने एक का पढ़ा, तुम्हारे पापा का,बहुत पढ़ लिया. अब और नहीं. मैं खुश हूं अपनी इस जिंदगी में. मुझे ज्यादा की चाह नहीं.’
ममा तो बड़ी जिद्दी है. जो सोचेगी, वही करेगी. मगर मैं ने तो पल्लव जी को समझा है, फिर मेरी ममा को जिंदगी में कभी पति का प्रेम और सम्मान मिला नहीं, काटने को तो काट लेंगी जिंदगी, लेकिन हम दोनों भाईबहन के अपनी जिंदगी में बस जाने के बाद क्या ममा पीछे नहीं छूट जाएगी? कैसे समझूं ममा के दिल की सच्ची बात?
दूसरे दिन ममा के शाम को कालेज से वापस आने के बाद घर में कुहराम सा मचा था.
पहले तो सबकुछ शांत ही था. अचानक जैसे समंदर में ज्वार सा उठने लगा.
कालेज से आने के बाद ममा नहाधो कर पल्लव जी के कमरे में जाती थी. उन का प्लास्टर चढ़ा हुआ पैर देखती, दोपहर को नर्स या डाक्टर, जो भी आते, से फोन पर पल्लव जी का हाल पूछती, दवाई पूछती, फिर चाय के लिए जाती.
आज भी जब पल्लव जी के कमरे में गई और पलंग पर उन्हें न पा कर सोचा, नौकर कविराज की मदद से जरूर वे बाथरूम गए होंगे.
जब आधा घंटा उन के इंतजार का हो गया और पल्लव जी बाथरूम से निकले नहीं, तो वह परेशान हर ओर ढूंढने लगी.
रसोइए ने अनभिज्ञता जताई. कविराज, शुभा और उसकी मां ने भी. हम दोनों भाईबहन तो पूछने के काबिल भी कहां थे. हमें तो 2 दिन ही हुए थे यहां आए. इस घर का ओरछोर तक हमें मालूम नहीं था. आखिर थकहार कर सब ओर ढूंढ कर ममा हमारे कमरे में आई और हम से पल्लव जी के बारे में पूछा.
मैं ने उलटा पूछा- ‘क्यों, इतनी भी क्या जल्दी है उन के मिलने की? गए होंगे कहीं. बच्चे तो नहीं है न, कोई उन्हें कहीं ले गया होगा.’
‘कोई नहीं है उन का मेरे सिवा. उन की पैर की हड्डी टूटी है, कैसे जाएंगे?’
‘तुम्हारे सिवा कोई नहीं है और उन्हें छोड़ कर तुम किराए के मकान में जाना चाहती हो.’
‘कंकन, तुम नहीं समझोगी. बताओ जल्दी, गए कहां वे?’
‘मैं क्या जानूं?’
ऊपरी मंजिल पर जबकि पल्लव जी का जाना दूभर था, फिर भी ममा उधर भी देख आई. मैं कमरे से अब बाहर आ कर ममा पर नजर रखे थी.
अंत में इतनी दौड़धूप के बाद उन की आंखों में आसूं आ गए. वह निचली मंजिल में अपने कमरे में जा कर दरवाजा भिड़ा कर अंदर हो गई.
मैं ने चुपके से दरवाजे की आड़ से देखा, वह अपने बिस्तर पर बैठी लगातार बह रहे आंसुओं को क्रोध से भरी हुई पोंछ रही थी.
मैं सूचित कर आई और अपना कविराज व्हीलचेयर ठेलता पल्लव जी को ले ममा के कमरे में हाजिर हुआ. मैं अधखुली खिड़की के बाहर खड़ी देख रही थी. पल्लव जी को ममा के सामने छोड़ कविराज निकलने को हुआ ही था कि ममा की नजर पल्लव जी पर पड़ी. वह उठ कर खड़ी हो गई. पहले तो ऐसा लगा कि वह पल्लव जी से लिपट कर रो पड़ेगी लेकिन वह खड़ी की खड़ी रह गई. फिर जैसे उन्हें होश आया और वह कविराज पर बिफर पड़ी.
कविराज को स्वीकारना पड़ा कि इस मकान के पीछे बने कविराज के अपने छोटे से कमरे में पल्लव जी रुके थे. और यह कि पूरा प्लौट कंकन यानी मेरा लिखा गया है.
कविराज मुझ पर पूरा नाटक चढ़ा कर मंच से उतर गया. अभी मैं अपने आगे के किरदार को समझ पाती, मेरे सामने एक अनुपम दृश्य आया. पल्लव जी अपनी हेमा की ओर अग्रसर हुए. उन की हेमा उन्हें निहारती स्थिर चित्र की तरह अपनी जगह खड़ी रही. पल्लव ने हेमा का हाथ अपने हाथ में लिया, कहा, ‘कहो, तुम मेरी फिक्र नहीं करतीं, मेरी चिंता नहीं करतीं. मुझे हमेशा के लिए भुला कर रह पाओगी?’
‘आप क्यों गए पल्लव उधर? मुझे तकलीफ़ देने की इच्छा हुई या मुझे परखना चाहते थे?’
‘नहीं तो, कभी नहीं. बिटिया ने कहा कि ममा समझ नहीं पा रही कि वह आप के बिना एक पल भी नहीं रह सकती. उन्हें यह बात समझाना होगा. और इसलिए बिटिया की बात मुझे माननी पड़ी.’
पल्लव ने अपनी प्रेयसी के गाल पर 2 उंगलियों से छेड़ते हुए कहा, ‘अब समझ रही हो न खुद को? अब मेरे बच्चों को मुझ से दूर तो न करोगी?’
व्हीलचेयर पर बैठे पल्लव की गोद में हेमा ने अपना सिर रख दिया था. पल्लव धीरेधीरे उस के सिर पर हाथ फिराने लगे.
सांकल खुल चुकी थी.
ममा ने बिना कुछ लिएदिए हमारे पापा अजितेश को तलाक दे दिया था. और कानूनी रूप से हेमा और पल्लव एक हो गए थे.
हमें एक मनोरम आज और प्यारा निश्चित कल मिला था.
मुझे खुशी थी कि मैं ने बंद कोठरी की एक सांकल खोलने की जिद की, तो स्वतंत्रता, सम्मान और प्रेम के लिए आगे के सौ पुश्तों के सौ दरवाजे भी खुल गए. आशा की सैकड़ों रश्मियों के लिए दरवाजे खुल गए.
हर्ष से मेरी मुलाकात एक आर्ट गैलरी में हुई थी. 5 मिनट की उस मुलाकात में बिजनैस कार्ड्स का आदानप्रदान भी हो गया.
‘‘मेरी खुद की वैबसाइट भी है, जिस में मैं ने अपनी सारी पेंटिंग्स की तसवीरें डाल रखी हैं, उन के विक्रय मूल्य के साथ,’’ मैं ने अपने बिजनैस कार्ड पर अपनी वैबसाइट के लिंक पर उंगली रखते हुए हर्ष से कहा.
‘‘जी, बिलकुल, मैं जरूर आप की पेंटिंग देखूंगा. फिर आप को टैक्स मैसेज भेज कर फीडबैक भी दे दूंगा. आर्ट गैलरी तो मैं अपनी जिंदगी में बहुत बार गया हूं पर आप के जैसी कलाकार से कभी नहीं मिला. योर ऐवरी पेंटिंग इज सेइंग थाउजैंड वर्ड्स,’’ हर्ष ने मेरी पेंटिंग पर गहरी नजर डालते हुए कहा.
‘‘हर्ष आप से मिल कर बड़ा हर्ष हुआ, स्टे इन टच,’’ मैं ने उस वक्त बड़े हर्ष के साथ हर्ष से कहा था. इस संक्षिप्त मुलाकात में मुझे वह कला का अद्वितीय पुजारी लगा था.
बात तो 5 मिनट ही हुई थी पर मैं आधे घंटे से दूर से उस की गतिविधियां देख रही थी. वह हर पेंटिंग के पास रुकरुक कर समय दे रहा था, साथ ही एक छोटी सी डायरी में कुछ नोट्स भी लेता जा रहा था.
‘लगता है यह कोई बड़ा कलापारखी है,’ उस वक्त उसे देख कर मैं ने सोचा था.
हर्ष से हुई इस मुलाकात को 6 महीने बीत चुके थे. इस दौरान न उस ने मुझ से कौंटैक्ट करने की कोशिश की न ही मैं ने उस से. मेरी वैबसाइट से मेरी पेंटिंग्स की बिक्री न के बराबर हो रही थी. मैं हर तरह से उन के प्रचार की कोशिश कर रही थी. मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी वैबसाइट का लिंक भेज रही थी. मुझे मतलब नहीं था कि वे मुझे ज्यादा जानते हैं या कम. मुझे तो बस एक जनून था कला जगत में एक पहचान बनाने और नाम कमाने का. इस जनून के चलते मैं ने एक टैक्स मैसेज हर्ष को भी भेज दिया.
‘‘क्या आज मेरे साथ कौफी पीने आ सकती हो?’’ तत्काल ही उस का जवाब आया.
मेरी हैरानी का ठिकाना नहीं था. 5 मिनट की संक्षिप्त मुलाकात के बाद कोई 6 महीने तक गायब था और जब किसी वजह से मैं ने उसे एक मैसेज भेजा तो सीधे मेरे साथ कौफी पीना चाहता है.
‘अजीब दुनिया है यह,’ मैं मन ही भुनभुनाई और फिर टैक्स मैसेज का कोई जवाब नहीं दिया. 2 दिन यों ही आने वाली कला प्रदर्शनी की तैयारी में निकल गए और बाद में भी मैं हर्ष के मैसेज को भुला कर अपने स्तर पर अपनी कला को बढ़ावा देने में जुटी रही. कुछ दिनों के बाद अचानक उस का फोन आया फिर से मेरे साथ कौफी पीने के आग्रह के साथ.
‘‘न तुम मुझे जानते हो और न ही मैं तुम्हें, फिर यह बेवजह कौफी पीने का क्या मतलब है? मैं ने तुम्हें किसी वजह से एक मैसेज भेज दिया, इस का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि मैं फालतू में तुम्हारे साथ टाइम पास करने के लिए इच्छुक हूं,’’ मेरा दो टूक जवाब था.
‘‘मैं ने तुम्हारी कला और उस की गहराई को समझा है और उस जरीए से तुम्हें भी जाना है. मैं तुम्हारी उतनी ही इज्जत करता हूं जितनी दुनिया एमएफ हुसैन की करती है. मैं ने जब तुम्हारा नाम पहली बार अपने मोबाइल में डाला था तो उस के आगे पेंटर सफिक्स लिख कर डाला था. अभी भी तुम मानो या न मानो एक दिन तुम कला के क्षेत्र में एमएफ हुसैन को मात दे दोगी. रही बात हमारी जानपहचान की तो वह तो बढ़ाने से ही बढ़ेगी न?’’
अपनी तारीफ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता? हर्ष के शब्दों का मुझ पर असर होने लगा. अपनी तारीफों के सम्मोहन में जकड़ी हुई मैं अब उस से घंटों फोन पर बातें करती. हर बार वह मेरी और मेरी कला की जम कर प्रशंसा करता. उस की बातें मेरे ख्वाबों को पंख दे रही थीं. मन में बरसों से पड़े शोहरत की चाहत के बीज में अंकुर फूटने लगा था.
‘‘मैं तुम्हारी इतनी इज्जत करता हूं, जितनी कि हिंदुस्तान के सवा करोड़ हिंदुस्तानी मिल कर भी नहीं कर सकते. महीनों हो गए तुम्हें कौफी पर आने के लिए कहतेकहते… इतने पर तो कोई पत्थर भी चला आता,’’ एक दिन हर्ष ने कहा.
आखिर किस पत्थरदिल पर ऐसी बातों का असर न होता? मैं उस से अकसर मिलने लगी. अब इन मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो चुका था और परिचय गहरी दोस्ती में बदल चुका था. ऐसी ही एक मुलाकात के दौरान हर्ष ने बताया कि वह विवाहित है और उस की 3 साल की बेटी भी है. उस की पत्नी मीनाक्षी लोकल विश्वविद्यालय में संस्कृत प्रवक्ता थी और वह स्वयं कोई काम नहीं करता था.
‘‘मुझे कुछ करने की क्या जरूरत है? मेरे एमएलए पिता ने काफी कुछ कमा रखा है. अगली बार मुझे भी एमएलए का टिकट मिल ही जाएगा. क्या रखा है दोचार कौड़ी की नौकरी में? हर्ष ने बड़ी अकड़ के साथ कहा.’’
‘‘जब नौकरी से इतना ही परहेज है तो फिर मीनाक्षी जैसी नौकरीशुदा से क्यों शादी कर ली तुम ने?’’ मैं ने दुविधा में पड़ कर पूछा.
‘‘बेवकूफ है वह, अपनी ढपली अपना राग अलापती है. शादी से पहले उस ने और उस के परिवार वालों ने वादा किया था कि वह शादी के बाद नौकरी छोड़ देगी, लेकिन बाद में उस का रंग ही बदल गया और उस ने अपनी बहनजी वाली नौकरी नहीं छोड़ी. वह नहीं जानती कि एमएलए परिवार में किस तरह रहा जाता है,’’ हर्ष का चेहरा अंधे अभिमान से दपदपा रहा था.
उस के जवाब को सुन कर मैं हत्प्रभ रह गई. मेरी चेतना मुझ से कह रही थी कि मेरा मन एक गलत आदमी के साथ जुड़ने लगा है. मगर चाहेअनचाहे मैं इस डगर पर आगे बढ़ती जा रही थी. उस की बातों में मेरी तारीफों के पुल और उस के एमएलए पिता के ताल्लुकात में मुझे अपनी शोहरत में दीए को तेल मिलता सा लगता था. इस दीए की टिमटिमाहट की चमक हर्ष के सच की कालिमा को ठीक से नहीं देखने दे रही थी.
‘‘तुम मेरे लिए मंदिर में रखी एक मूर्ति के समान हो. मैं जो कहूं वह बस सुन लिया करो, मगर उसे ज्यादा दिल से लगाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं एक शादीशुदा आदमी हूं और इस रास्ते पर तुम्हारे साथ ज्यादा लंबा नहीं जा सकता,’’ उस ने साफसाफ कहा.
‘‘मुझे पता है हर्ष तुम शादीशुदा हो. मैं भी तुम से उस तरह की कोई उम्मीद नहीं कर रही हूं. मगर समझ में नहीं आता कि अब हम दोनों जानते हैं कि हम इस रास्ते पर आगे नहीं जा सकते तो ये बेवजह की मुलाकातें किस लिए हैं?’’
‘‘इबादत करता हूं मैं तुम्हारी, मैं तुम्हें सफलता की ऊंचाइयों पर देखना चाहता हूं. मैं अपने लिए तुम से किसी तरह की उम्मीद नहीं करता. बस एक सच्चा दोस्त बन कर तुम्हें आगे बढ़ाना चाहता हूं. अगले साल थाईलैंड में होने वाली प्रदर्शनी के लिए तुम्हें ललित कला ऐकैडमी स्कौलरशिप दिलवाऊंगा. मेरे डैडी के बड़ेबड़े कौंटैक्ट्स हैं, इसलिए ऐसा कर पाना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है. बस तुम्हारी 2-4 इंटरनैशनल प्रदर्शनियां हो गईं तो फिर तुम्हें मशहूर होने में देर नहीं लगेगी.’’
यह सुन कर मैं मन ही मन गद्गद हो रही थी. मैं अकसर सोचा करती कि मैं मशहूर हो पाऊं या न हो पाऊं, पर कम से कम मेरे पास एक इतना बड़ा प्रशंसक तो है. देखा जाए तो क्या कम है. अब हमारी मुलाकात रोज होने लगी थी. हर्ष की मेरे प्रति इबादत अब किसी और भाव में बदलने लगी थी. जो हर्ष पहले मुझे अपने सामने बैठा कर मुझे देखने मात्र की और मेरी पेंटिंग्स के बारे में बातें करने की चाहत रखता था. वह अब कुछ और भी चाहने लगा था.
‘‘एक चीज मांगू तुम से?’’
‘‘क्या?’’
‘‘क्या मैं तुम्हें अपनी बांहों में ले सकता हूं?’’
‘‘बिलकुल नहीं.’’
‘‘सिर्फ 1 बार प्लीज. पता है मुझे क्या लगता है?’’
‘‘क्या?’’
‘‘कि मैं तुम्हें अपनी बांहों में भर लूं और वक्त बस वहीं ठहर जाए. तुम सोच भी नहीं सकतीं कि मैं तुम्हारा कितना सम्मान करता हूं.’’
‘‘और मैं कठपुतली सी उस की बांहों में समा गई.’’
‘‘इबादत करता हूं मैं तुम्हारी और तुम्हें आकाश की बुलंदियों को छूते हुए देखना चाहता हूं,’’ मेरे बालों को सहलाते हुए उस का पुराना एकालाप जारी रहा.
‘‘हर्ष, प्लीज अब घर जाने दो मुझे. 1-2 पेंटिंग्स पूरी करनी हैं कल शाम तक.’’
‘‘ठीक है, जल्दी फिर मिलूंगा. इस हफ्ते मौका मिलते ही डैडी से तुम्हारे लिए ललित कला ऐकैडमी की स्कौलरशिप के बारे में बात करूंगा.’’
कुछ दिनों के बाद हम फिर से अपने पसंदीदा रेस्तरां में आमनेसामने बैठे थे. डिनर खत्म होतेहोते रात की स्याही बढ़ने लगी थी. कई दिनों की लगातार बारिश के बाद आज दिन भर सुनहली धूप रही थी. हर्ष ने रेस्तरां के पास के पार्क में टहलने की इच्छा व्यक्त की. मौसम मनभावन था. पार्क में टहलने के लिए बिलकुल परफैक्ट. इसलिए बिना किसी नानुकुर के मैं ने हामी भर दी.
‘‘जरा उधर तो देखो, क्या चल रहा है,’’ हर्ष ने पार्क के एक कोने में लताओं के झुरमुट पर झूलते हुए कतूबरकतूबरी के जोड़े की तरफ इशारा करते हुए कहा.
‘‘क्या चल रहा है… कुछ भी नहीं,’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनते हुए कहा.
‘‘देखो यह एक प्राकृतिक भावना है. कोई भी जीव इस से अछूता नहीं है, फिर हम ही इस से कैसे अछूते रह सकते हैं?’’
‘‘हर्ष, तुम जो कहना चाहते हो साफसाफ कहो, पहेलियां न बुझाओ.’’
‘‘कहना क्या है, तुम्हें तो पता है कि मैं शादीशुदा हूं और शहर भर में मेरे एमएलए पिता की बड़ी इज्जत है, इसलिए मैं तुम्हारे साथ ज्यादा आगे तो जा ही नहीं पाता. मगर जैसी गहरी दोस्ती तुम्हारे और मेरे बीच में है उस में मेरा इतना हक तो बनता है कि मैं कभीकभार तुम्हारा चुंबन ले लूं और फिर इस में हर्ज ही क्या है. यह भावना तो प्रकृति की देन है और हर जीव में बनाई है.’’
मेरे कोई प्रतिक्रिया करने से पहले ही वह मुझे एक बड़े से पेड़ की आड़ में खींच चुका था और कुछ कहने को खुलते हुए मेरे होंठों को अपने होंठों से सिल चुका था.
‘‘एक दिन तुम दुनिया की सब से अच्छी चित्रकार बनोगी. तुम्हारी पेंटिंग्स दुनिया की हर मशहूर आर्ट गैलरी की शान बढ़ाएंगी. कई महीनों से डैडी बहुत व्यस्त हैं, इसलिए मैं उन से तुम्हारी स्कौलरशिप के बारे में बात नहीं कर पाया. मगर आज घर पहुंचते ही सीधा उन से यही बात करूंगा.’’ चंद पलों की इस अवांछित समीपता के बाद उस ने मुझे अपनी गिरफ्त से आजाद करते हुए अपना एकालाप दोहराया.
‘‘मैं ने बिना कुछ कहे अपना सिर उस कठपुतली की तरह हिलाया जिस की डोर पर हर्ष की पकड़ दिनबदिन मजबूत होती जा रही थी.’’
‘‘रिलैक्स डार्लिंग, जल्द ही तुम एमएफ हुसैन की श्रेणी में खड़ी होगी. चलो, मैं तुम्हें तुम्हारे फ्लैट पर छोड़ता हुआ निकल जाऊंगा.’’ उस ने अपनी कार का दरवाजा मेरे लिए खोलते हुए कहा.
फ्लैट पर आतेआते काफी रात हो चुकी थी. हर्ष बाहर से गुडबाय कह कर चला गया. मेरे मन में अजीब सी ऊहापोह मची थी. जानेअनजाने एक ऐसे रास्ते पर चल रही थी जिस पर चल कर मुझे कुछ भी हासिल नहीं होना था. इस रास्ते पर चलते हुए दूरदूर तक कोई मंजिल नजर नहीं आ रही थी. यह सफर तो शायद एक भूलभुलैया ही सिद्ध होना था, तो फिर क्या हो रहा था मेरे साथ? क्या यह रास्ता मेरी नियति था या फिर मेरी कमजोरी?
ढेरों बातें मनमस्तिष्क में प्रश्नचिह्न अंकित कर रही थीं. हर्ष और मेरी पहचान को अब करीबकरीब 2 साल हो चुके थे. क्या वह वाकई मेरी इबादत करता है? अगर हां तो यह किस तरह की इबादत है? क्या वह सचमुच ऐसा सोचता है कि मैं एक दिन कलाजगत के शिखर पर पहुंचूंगी और मुझे आगे बढ़ाने में सच्चे मित्र की तरह मेरी मदद करना चाहता है? यदि हां तो इन 2 सालों में उस ने मेरी प्रतिभा को आगे बढ़ाने के लिए कौन सा प्रयत्न किया है?
सवालों के बोझ से दबी हुई आखिर मैं नींद के आगोश में खो गई. दूसरे दिन भी मन उन्हीं सवालों के जवाब ढूंढ़ने में लगा रहा. मगर ये सारे सवाल बारबार बिना जवाब के ही रह जाते. पिछले 2 सालों में मैं हर्ष में इतनी मशगूल थी कि मेरे अन्य मित्र भी मुझ से दूर हो चुके थे. आज अकेले बैठेबैठे मुझे उन सब की बड़ी याद आ रही थी. अंत में मैं ने श्रेया के यहां जाने का फैसला किया.
‘‘बहुत दिनों के बाद आई हो बेटी? कहां गुम हो गई थीं इतने दिनों से? कोई खोजखबर ही नहीं थी तुम्हारी,’’ श्रेया के घर में घुसते ही उस की मां ने मुझे अपने गले से लगा कर पूछा. उन का प्यार भरा स्वर मेरी आंखों को नम कर गया.
‘‘बस यों ही आंटी कुछ बड़े पेंटिंग्स प्रोजैक्ट्स पर काम कर रही थी, इसलिए जरा वक्त नहीं मिल पाया, पर विश्वास करिए ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं ने आप को याद न किया हो,’’ मैं ने आंखों के कोरों को रूमाल से पोंछते हुए कहा.
‘‘चलो, यह सब छोड़ो और बताओ चाय लोगी या कौफी?’’आंटी ने मेरे दोनों कंधे पकड़ कर मुझे सोफे पर बैठाते हुए पूछा.
‘‘चायकौफी छोडि़ए आंटी, यह बताइए श्रेया कहां है… कहीं दिखाई नहीं दे रही.’’
‘‘इतने दिन बाद आई हो कुछ खाओपीओ तो सही तब तक श्रेया भी आ जाएगी. आज उस का सितारवादन का बहुत बड़ा मंच प्रदर्शन है. बड़ी उम्मीदें हैं उसे अपने प्रदर्शन से. कई महीनों से तैयारी में जुटी थी,’’ अपनी बेटी के बारे में बतातेबताते आंटी भावुक हो गई थीं.
‘मेरी सब से प्रिय मित्र का इतना बड़ा मौका है और मुझे इस बात की कोई खबर ही नहीं,’ सोचते हुए मन ही मन ग्लानि महसूस हो रही थी.
आंटी से गपशप करने में 1 घंटा पास हो चुका था. तभी घंटी बजी, आंटी के दरवाजा खोलते ही श्रेया आंधीतूफान की तरह घर में घुसती हुई अपनी मां से लिपट गई. उस का चेहरा उत्साह से दमक रहा था.
‘‘मम्मीमम्मी पता है आज मेरे मंच प्रदर्शन के दौरान क्या हुआ?’’ श्रेया खुशी से चहक रही थी. मां के कुछ कहने के पहले ही वह फिर से चहकने लगी, ‘‘अपने शहर के एमएलए साहब अपने परिवार के साथ आए थे, वहां प्रमुख अतिथि बन कर. पता है उन का बेटा तो प्रदर्शन खत्म होने के बाद अलग से मुझ से मिलने आया था. हर्ष नाम है उस का. उस ने कहा मेरे सितारवादन में बहुत दम है, योर म्यूजिक इज द फूड औफ द सोल. इतना ही नहीं, उस ने यह भी कहा कि मैं एक दिन पंडित रविशंकर की तरह हिंदुस्तान की सब से मशहूर सितारवादक होऊंगी. वह अपने डैडी से भी बात करेगा मुझे कोई अच्छी स्कौलरशिप दिलवाने के लिए.’’
अचानक श्रेया की नजर मुझ पर पड़ी और वह खुशी से मेरी तरफ लपकी. मैं दूर बैठी अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयास कर रही थी. श्रेया कुछ कह पाती. उस के पहले ही मैं खड़ी हो चुकी थी. मैं किसी से कुछ नहीं कहना चाहती थी, बस जल्दी से जल्दी अपने फ्लैट पर वापस जाना चाहती थी. अब मैं सिर्फ और सिर्फ, 2 साल से चल रही हर्ष और अपनी कहानी का सही अंत ढूंढ़ना चाहती थी.
‘‘श्रेया, प्लीज मुझे अभी अपने घर जाने दो. तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है. घर जा कर पूरी तरह से आराम करना चाहती हूं. जल्दी ही फिर किसी और दिन तुम से मिलने आऊंगी. तब जम कर गपशप करेंगी हम दोनों. मैं ने श्रेया के चेहरे को दोनों हाथों में लेते हुए कहा.’’
‘‘हां तुम्हारा चेहरा कुछ पीला सा लग रहा है. बेहतर होगा तुम अपने घर जा कर आराम करो. मैं तुम्हें जबरदस्ती नहीं रोकूंगी. अब श्रेया की आंखों में मेरे लिए चिंता साफ झलक रही थी.’’
सुरमुई शाम अब तक अंधेरे की चादर ओढ़ चुकी थी. मगर मेरे मन पर 2 बरसों से छाया अंधेरा खत्म हो चुका था. मैं अब हर्ष के व्यक्तित्व में छिपे बहुरुपिए को साफसाफ देख पा रही थी, जो व्यक्ति अपने घर में बैठी कालेज प्रवक्ता ब्याहता को बेवकूफ समझता हो, तो उस से किसी और स्त्री के सम्मान की उम्मीद कैसे की जा सकती है. कैसे कद्र कर सकता है वह किसी दूसरे की कला की? मैं ने अब तक जो भी थोड़ाबहुत नाम कमाया था वह अपनी खुद की मेहनत और प्रतिभा के बूते कमाया था. किसी अनपढ़ एमएलए के बिगड़ैल बेटे की सिफारिश से नहीं.
मेरी और हर्ष की कहानी की शुरुआत ही गलत थी. वक्त के साथसाथ इस में जितने ज्यादा अध्याय जुड़ते जा रहे थे वह उतनी ही घटिया होती जा रही?थी. मेरे मन के दर्पण पर छाई धुंध साफ हो चुकी थी और इस में बसे हुए हर्ष के चेहरे की हकीकत खुल कर नजर आने लगी थी. वह मेरी जिंदगी में आया था मुझे पतन की फिसलन पर ले जाने के लिए, शोहरत की बुलंदियों पर ले जाने नहीं. इस से पहले कि यह कहानी घटिया से घिनौनी हो जाए इसे तुरंत खत्म कर देना जरूरी है. अत: मैं ने उसी समय उस से कभी न मिलने का पक्का फैसला कर लिया और फिर इसी निश्चय के साथ मैं ने हैंडबैग से अपना मोबाइल निकाला और हर्ष का फोन नंबर हमेशा के लिए ब्लौक कर दिया.
‘समय के साथ हम में एक सहज सी दोस्ती हो गई थी. हम दोनों एकदूसरे के साथ जब कभी बैठते या 2 कप कौफी के लिए कैंटीन ही जाते, हम अच्छा सा महसूस करते, जैसे एकदूसरे के लिए हम कोई टौनिक थे.
‘कालेज से निकलते वक्त पल्लव मुझे अपना फोन नंबर और पता दे गए थे.
यह छोटा सा आदानप्रदान लगातार जारी रहा. और हम जैसेतैसे इस महीने से संपर्कसूत्र को बनाए रखने में सफल हुए. कह लो, एक सीधीसादी, अच्छी दोस्ती जहां कुछ न हो कर भी बहुतकुछ… चलो छोड़ो, तुम लोग अपनी खबर सुनाओ.’
मेरा दिल धुकपुक कर रहा था. भाई के चेहरे पर डर, कुंठा, असमंजस सब झलक आया था.
आखिर ममा हमें क्या कहते रुक गई थी.
हम दोनों मां की खुशियां चाहते थे. लेकिन कहीं यह खुशी परिवार टूटने से ही जुड़ी हो, तो?
परिवार टूटने का ग़म कम तो नहीं होता.
ममा इस बीच पल्लव जी के पास गई और रसोइए ने जो खाना पहुंचाया, उसे उन्हें खिला कर हमारे पास आ गई.
हम तीनों आज बड़े दिनों बाद साथ खाना खा रहे थे और पुराने दिनों से कहीं बेहतर मनोदशा में.
तब तो खाने पर मां के बैठते ही पापा की कटूक्ति और ताने शुरू हो जाते.
आज हमारा खाना हम दोनों भाईबहनों की अपनी पसंद का था. भाई की पसंद का छोलेभटूरे, मेरी पसंद की वेज बिरयानी, पनीर दोप्याजा.
‘ममा, यह मकान तो पल्लव जी का होगा, है न?’ मेरे इतना पूछते ही ममा ने कहना शुरू किया-
‘मेरे बच्चे, मैं अभी यहां फिलहाल 25 हजार रुपए प्रतिमाह की नौकरी करती हूं. तुम्हें लगता है कि सालभर में मैं 2 करोड़ रुपए का यह दोमंजिला मकान खरीद पाऊंगी? बच्चे, यह पल्लव जी का ही मकान है.’
‘ममा, इन की पत्नी? परिवार…?’
‘इन की कोई संतान नहीं. पत्नी है, लेकिन…’
‘लेकिन, क्या ममा?’
‘शायद इन की पत्नी के बारे में मेरा कुछ भी कहना सही नहीं होगा.’
एक कशमकश सी भर रही थी मेरी सांसों में.
आखिर पल्लव जी और मेरी मां का रिश्ता कैसा था? हमारा भविष्य क्या था? क्या हमें पापा के पास लौट कर फिर से उन्हीं जिल्लतों में जीना होगा? पल्लव जी और ममा साथ हों, तो क्या यह सही निर्णय होगा?
मैं यही सब सोच रही थी. ममा हमारे पास वाले कमरे में सोने चली गई. कुंदन ने पूछा धीरे से- ‘दीदी, ममा अगर पल्लव जी से शादी कर लें तो तुम्हें कैसा लगेगा?’
‘देख भाई, ममा को कभी वह प्यार व सम्मान मिला नहीं, जिन की वह हकदार थी. आज अगर पल्लव जी से मां को वह सब मिल सकता है जिस से उस की बाकी जिंदगी सुख से बीते, तो इस में हमें भी खुश ही होना चाहिए. हमारी ममा ऐसी नहीं कि वह हमारी फिक्र न करे.’
‘ममा तो कुछ बताएंगी नहीं. क्या कल जब ममा कालेज चली जाएं तो हम पल्लव जी से बात करें?’
सुबह ममा के कालेज जाने के बाद हम दोनों को पल्लव जी ने अपने साथ नाश्ते पर बुलाया. उन की देखभाल में शुभा और रसोइए के साथ एक और लड़का था जो शायद रात को उन के कमरे में देखभाल के लिए रहता था.
पल्लव जी उसे कविराज बुला रहे थे. मैं ने पूछा- ‘अंकल, यह कैसा नाम है?’
‘यह नाम मैं ने दिया है बेटा. वह, दरअसल, बहुत बढ़िया कविता लिखता है. मैं ने सोचा है यह मन भर कर लिख ले, फिर इस की कविताओं की किताब छपवा दूंगा. इस का नाम तो वैसे रतन है.’
‘वाकई, आप सभी का बहुत ख़याल रखते हैं अंकल. ममा आप की बहुत तारीफ कर रही थी.’
‘अच्छा, किस बारे में?’ पल्लव जी के चेहरे पर सौ दीए एकसाथ जल उठे जैसे.
‘वही, शुभा और उन की मां के बारे में,’ मैं ने अपनी झिझक संभाली.
पल्लव जी ने कुछ और सुनने की उम्मीद रखी थी शायद. उन्होंने ‘अच्छा’ कह कर अपने नाश्ते की प्लेट पर खुद को केंद्रित किया.
भाई ने अपनी कुहनी से मुझ पर दबाव बनाते हुए मुझे संकेत देना चाहा कि मैं इस मौके का जल्द सदुपयोग करूं.
‘अंकल, दरअसल, मैं आप से कुछ कहना चाहती हूं. समझ नहीं आता इतनी सारी बातें आप से…’
‘अरे बेटा, आप लोग मुझे अपने पापा की जगह पर रख कर कहो. मतलब, अंकल हूं न?’ पल्लव जी अपनी बात का मर्मार्थ समझ कर झेंपते हुए संभल से गए.
भाई का सब्र जाता रहा था. वह बिना देर किए तुरंत कह पड़ा- ‘अंकल, हमें कुछ समझ नहीं आ रहा. हम तो पापा से बिना कुछ कहे ही यहां आ गए. बाद में पापा के दीदी को संदेश भेजने पर दीदी ने कहा कि हम ममा के पास चले आए हैं. पापा ने हमें दोबारा न लौटने की धमकी दी. इधर ममा ठीक से कुछ बता नहीं रही हैं. हम बहुत परेशान हैं.’
पल्लव जी अत्यंत कुशाग्र थे. वे समझ रहे थे हम कहना क्या चाहते हैं, जानना क्या चाहते हैं.
उन्होंने शांत स्वर में कहना शुरू किया और हम उन की कहानी में डूबते चले गए.
‘मैं कई सारी बातें आप को साफ ही कहूंगा. आप अब बड़े हो गए हो, चिंतित होना वाजिब है. जिंदगी को आप समझते हो.
‘मैं अकेला अब भी हूं, तब भी था जब मेरी शादी हुई थी.’
हम दोनों की चौड़ी हुई आंखों को देख पल्लव जी कुछ पल को रुक गए. वे समझ गए थे कि हम क्यों उत्सुक हैं.
उन्होंने फिर बोलना शुरू किया- ‘मेरी पूर्व पत्नी ने मेरी खानदानी धनसंपत्ति देख मुझ से शादी की और मेरे मातापिता की मृत्यु के बाद मेरा ही अकेला वारिस रह जाना उसे बड़ा आल्हादित किया.
‘लेकिन कुछ समय बाद से ही उसे महसूस होने लगा कि उस ने अपने क्लर्क प्रेमी को छोड़ मुझ से शादी कर के बड़ी गलती कर दी है. उस का क्लर्क प्रेमी भले ही उस की शादी से पहले छोटी सी नौकरी की वजह से वर की लिस्ट से निकाला गया था, लेकिन उस की मेरे साथ 4 साल की शादी में जब मैं दुनियाभर के लोगों की मदद में उस की समझ से पैसे उड़ा रहा था, उस के प्रेमी ने अपनी नौकरी के सदुपयोग द्वारा लोगों के काम कर देने के बदले यानी पब्लिक सर्विस के एवज में उलटे हाथ से न सिर्फ दोगुने पैसे कमाए, बल्कि खुद का फ्लैट और गाड़ी भी ले ली.
‘मेरी पत्नी को खुद के ठगे जाने का ज्ञान हुआ और अपनी ग़लती सुधारने के लिए उस ने अपने पूर्व प्रेमी से धीरेधीरे संपर्क बढ़ाया. उस का प्रेमी क्लर्क कह कर दुत्कारे जाने से अब गजब की इच्छाशक्ति से भर गया था. और जब उस की पूर्व प्रेमिका ने उस के आगे नाक रगड़ी, तो मेरी पत्नी को दोबारा जीत ले जाने का लोभ वह न संभाल सका. जबकि, मैं ऐसी प्रतियोगिता वाले दृश्य में कभी था ही नहीं. मेरी पूर्व पत्नी और उस के प्रेमी को एक बार फिर से साथ हो कर मुझे सबक सिखाने का बराबर का आंनद आया. प्रेमी ने अपने चोट खाए अहं पर मलहम लगा सा लिया. और पत्नी ने मेरे पैसे उड़ाने जैसी गलत आदत के एवज में मुझे सबक सिखाया. वैसे, मैं ने सीखा नहीं सबक, मेरे लिए मेरे पैसे मेरे अकेले के सुखभोग के लिए नहीं हैं. जब भी मैं ऐसे किन्हीं को देखूंगा जिन्हें मेरी या मेरे पैसों की जरूरत होगी, मैं नहीं रुकूंगा.
मैं खुश हूं कि हेमा, माफ़ करना तुम्हारी ममा, मुझे समझती है. और वह खुद भी वैसी ही स्त्री है जिसे मैं चाह सकता हूं. मतलब…’
‘कहीं तुम्हारी पढ़ाई की फीस पर रोक लगाई तो?’ ममा चिंतित थी.
‘इतना भी न डरो. नानाजी का दिया 10 लाख रुपए तुम्हारे और मेरे नाम से जौइंट अकाउंट में है न ममा.’
‘हां, बस. अब डर की नहीं, हिम्मत की बात करूंगी,’ ममा की आंखों में विश्वास की ज्योति दिख रही थी मुझे.
जब उपयोगी शिक्षा हो, चाह हो, चेष्टा हो, प्रकृति की शक्ति साथ हो लेती है.
ममा को उस के दोस्त पल्लव ने अपने ही कालेज में इकोनौमिक्स के लैक्चरर के लिए बुला लिया.
रातोंरात ममा ने पैकिंग की, हमें खूब प्यार किया और भोपाल के लिए ट्रेन पकड़ने खंडवा स्टेशन जाने से पहले शायद आखरी बार के लिए पापा के पास गई.
घर में होते, तो पापा को इंटरनैट का एक ही प्रयोग आता था- चैटिंग और पोर्न फिल्मों का आदानप्रदान.
ममा के सामने खड़े होने के बावजूद उन्होंने फोन में अतिव्यस्तता दिखाते हुए लापरवाही से कहा, ‘कहो?’
सोचा ही नहीं था ममा कहेगी. लेकिन उस ने कहा, ‘मैं ने नौकरी ढूंढ ली है. इकोनौमिक्स में लैक्चरर का पद है. बाहर जाना है. अगर आप चाहें तो छुट्टी मिलने पर आ जाया करूंगी.’
पापा फोन छोड़ उठ बैठे थे, ‘मेरी नाक के नीचे यह क्या हो रहा है?’
‘यह नाक के ऊपर की बात है. आप नहीं समझेंगे. आप ने जितना समझा, या नहीं भी समझा, काफी है. आप ने जो इज्जत और प्यार दिया उस के तो क्या ही कहने. अब नौकरी करना ही आखरी विकल्प है.’
‘ऐसा? तुम कभी लौट कर आ नहीं पाओगी, समझ रही हो न? बच्चों से मिलना तो आसमानी ख्वाब ही समझ लो.’ शायद पापा को गुलामी करवाना पसंद था, इसलिए एक गुलाम को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते थे, पूरी ठसक के साथ.
‘सब जानती हूं. आप को समझना बाकी नहीं रहा.’
‘कहां चली? जगह कौन सी है?’
खोजखबर रखने की मंशा साफ झलक रही थी. हम दोनों मांबेटी पापा की रगरग पहचानते थे.
‘क्यों, क्या करेंगे जान कर जब कोई मतलब रखना ही नहीं है,’
‘घटिया स्वार्थी औरत, तुम्हें अपने बच्चों की भी फिक्र नहीं.’
‘क्यों? बच्चे अपने पापा के पास हैं, अपने दादा के घर में, जिन पर उन का भी पूरा हक है. आप कहना क्या चाहते हैं कि मेरे जाते ही आप उन पर अत्याचार करेंगे? उन्हें खाना नहीं देंगे? उन की पढ़ाई की फीस नहीं भरेंगे? पलपल पर नजर रखूंगी मैं. उन्हें जरा भी तकलीफ़ हुई, तो आप की भली प्रकार खबर लूंगी.’
पापा क्रोध से लाल हो गए थे. अब तक उन की जूती में दबी पत्नी उन की तौहीन कर रही थी और वे चाह कर भी अपना राक्षसी रूप नहीं दिखा पा रहे थे. खूंखार आदमी तब डराता है जब सामने वाला डरने के लिए तैयार हो या मजबूरी में बंधा हो.
हम भाईबहनों को आज पहली बार अपनी इज्जत वापस मिली महसूस हो रही थी.
ममा निकल गई.
भोपाल जा कर ममा अच्छी तरह व्यवस्थित हो गई थी. पल्लव जी ने ममा को कालेज होस्टल में ही रहने का इंतजाम कर दिया था.
ममा रोज रात को हमारी खबर लेती, वीडियो कौल करती. उस ने अपने कालेज और होस्टल का पता दे दिया था और हम हमारी परीक्षाएं समाप्त होने तक दोगुनी गति से पढ़ाई कर रहे थे.
पापा अपनी ही रौ में थे. वही, ममा को ले कर हमें खिझाना, व्यंग्य कसना, घर में कई तरह की औरतों को ला कर मौजमस्ती करना, देररात घर आना. यह अध्याय हमारे लिए बहुत दुखदाई था. बेसब्री से अपनी परीक्षाएं ख़त्म होने का हम इंतजार कर रहे थे.
आखिर इंतजार ख़त्म हुआ. अगर इस बारे में हम पापा से बात करते तो वे हम से ऐसी सख्ती करते कि शायद दोनों भाईबहन ही अलग कर दिए जाते. बिना मुरव्वत के हमारे साथ कुछ भी हो सकता था अगर उन्हें हमारी मंशा पता चलती.
तो, पापा के औफिस जाते ही हम भोपाल की उपलब्ध ट्रेन में बैठ गए. इस के लिए हमें बड़ी जुगत लगानी पड़ी. हम ने अपने साथ वे सामान रख लिए थे जिन से इस घर में जल्द वापस आए बिना हमारा काम चल जाए. ममा को हम ने इत्तला कर दिया था.
शाम 5 बजे हम ममा के होस्टल के दरवाजे पर थे. पर यहां, यह क्या, दरवाजे पर बड़ा सा ताला? नसों में हमारा खून जम सा गया. भाई घबरा गया था. उस की रोनी सूरत देख मेरा भी दिल बैठ गया. हम तो पापा को बिना बताए आ गए थे. कहीं ममा नहीं मिली तो? इतने बड़े शहर में हम दोनों रात कैसे बिताएंगे? फिर पापा के पास वापस जाना… मैं ने ममा को फोन लगाया. दो बार, तीन बार… लगातार बजती रही घंटी. शाम का डूबता सा सूरज हमें डराने लगा. भाई और हम एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे. दिमाग को डर के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था.
अचानक सामने से एक लड़की को आते देखा. होगी कोई 16-17 साल की.
रेगिस्तान में जैसे जल का सोता. काश, इसे ही कुछ मालूम हो. पर ऐसा क्यों होगा भला. दुखी और निराश मन से हम उस लड़की को देख रहे थे और वह हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.
‘मुझे आप की मां ने भेजा है. उधर औटो खड़ा है, आप लोग मेरे साथ चलिए.’
हमारे हाथों में चांदतारे आ गए थे.
मैं ने फिर भी उस से कुछ पूछना चाहा, तब तक लड़की ने कहा- ‘मैडम से यह लीजिए बात कर लीजिए,’ उस ने फोन लगा कर मुझे दिया.
‘ममा,’ मेरी टूटी हुई आवाज के बावजूद ममा ने जल्दीबाजी में कहा- ‘तुम लोग आओ पहले, फिर सब बताती हूं. तुम्हें जो ला रही है वह शुभा है, बहुत अच्छी है, बेटी जैसी. मिलते हैं.’
यह दोमंजिला बंगलानुमा बड़ा सा मकान था. अगलबगल 2 दरवाजे थे. बड़ा दरवाजा गैरेज के सामने खुलता था. मध्यम आकार का यह दरवाजा, जिस से हम अपने 2 सूटकेस के साथ अंदर आए थे, मकान के बरामदे के सामने था. गेट की सीध में पत्थर की बंधी सड़क थी, दोनों ओर फूलों के पेड़पौधे थे. हम इन्हें बाजू में छोड़ते हुए मकान के बरामदे पर स्थित दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे.
ममा से मिलने की अथाह उछाह में डूबते सूरज की सुरमई शाम ने अनिश्चित का जराजरा सा कंपन भर दिया था. मगर विश्वास का संबल भी साथ ही था.
आगे पढें- अब तक ममा बाहर आ गई थी. पूरे…
मैं ममा की जिंदगी करीब से भोग रही थी. कहें तो भाई भी. शायद इसलिए उस में पिता की तरह न होने का संकल्प मजबूत हो रहा था.
लेकिन ममा? क्या मैं जानती नहीं रातें उस की कितनी भयावह होती होंगी जब वह अकेली अपनी यातनाओं को पलकों पर उठाए रात का लंबा सफ़र अकेली तय करती होगी.
इकोनौमिक्स में एमए कर के उस की शादी हुई थी. पति के रोबदाब और स्वेच्छाचारी स्वभाव के बावजूद जैसेतैसे उस ने डाक्ट्रेट की, नेट परीक्षा भी पास की जिस से कालेज में लैक्चरर हो सके. और तब. पलपल सब्र बोया है.
दुख मुझे इस बात का है कि इतना भी क्या सब्र बोना कि फसल जिल्लत की काटनी पड़े.
पापा चूंकि बेहद स्वार्थी किस्म के व्यक्ति हैं, ममा पर हमारी जिम्मेदारी पूरी की पूरी थी.
याद आती है सालों पुरानी बात. नानी बीमार थीं, ममा को हमें 2 दिनों के लिए पापा के पास छोड़ कर उन्हें मायके जाना पड़ा. तब भाई 6ठी और मैं 10वीं में थी. हमारी परीक्षाएं थीं, इसलिए हम ममा के साथ जा न पाए.
2 दिन हम भाईबहनों ने ठीक से खाना नहीं खाया. जैसेतैसे ब्रैडबिस्कुट से काम चलाते रहे. ममा को याद कर के हम एकएक मिनट गिना करते और पहाड़ सा समय गुजारते.
पापा होटल से अपनी पसंद का तीखी मसालेदार सब्जियां मंगाते जबकि हम दोनों मासूम बच्चों के होंठ और जीभ भरपेट खाना खाने की आस में जल कर भस्मीभूत हो जाते. आश्चर्य कि मेरे पापा हमारा बचा खाना भी खा लेते, लेकिन कभी पूछते भी नहीं कि हम ने फिर खाया क्या?
ममा हमारे लिए छिपा कर अलग खाना बनाती थी, ताकि पापा के लिए बना तीखा मसालेदार खाना हमें रोते हुए न खाना पड़े. शायद ममा जानती थी, बच्चों को अभी संतुष्ट हो कर भरपेट खाना खाना ज्यादा जरूरी है. और ऐसे भी ममा हमें खाना बनाना भी सिखाती चलती ताकि बाहर जा कर हमें दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े.
मैं बड़ी हो रही थी, मुझ में सहीगलत की परख थी. ताज्जुब होता था पापा के विचारों पर. वे मौकेबेमौके खुल कर कहते थे कि अगर उन के घर में रहना है तो किसी और की पसंद का कुछ भी नहीं चलेगा, सिवा उन की पसंद के.
इंसान एक टुकड़ा जमीन के लिए आधा इंच आसमान को कब तक भुलाए रहे?
उसे जीने को जमीन चाहिए तो सांस लेने को आसमान भी चाहिए.
भले ही हम छोटे थे, ममा के होंठ कई सारी मजबूरियों की वजह से सिले थे. लेकिन हम अपनी पीठ पर लगातार आत्महनन का बोझ महसूस करते. क्या मालूम क्यों पापा को ममा के साथ प्रतियोगिता महसूस होती. ममा की शिक्षा, उन के विचार और भाव से पापा खुद को कमतर आंकते, फिर शुरू होती पापा की चिढ़ और ताने. जब भी वह नौकरी के लिए छटपटाती, पापा उसे दबाते. जब चुप बैठी रहती, उसे अपनी अफसरी दिखा कर कमतर साबित करते. यह जैसे कभी न ख़त्म होने वाला नासूर बन गया था.
भाई अब 10वीं देने वाला था और मैं स्नातक द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने वाली थी. बहुत हुआ, और कितना सब्र करे. आखिर कहीं ममा की भी धार चूक न जाए.
आज जो कुछ हुआ वह एक लंबी उड़ान से पहले होना ही था. ममा को अब खुद की जमीन तलाश करनी ही होगी. तभी हमें भी अपना आसमान मिलेगा. मुझे अब ममा का इस तरह पैरोंतले रौंदा जाना कतई पसंद नहीं आ रहा था.
दूसरे दिन औफिस से आते वक्त पापा के साथ औफिस की एक कलीग थीं.
हम तो यथा संभव उस के साथ औपचारिक भद्रता निभाते रहे, लेकिन वे दोनों अपनी अतिअभद्रता के साथ ममा का मजाक बनाते रहे.
मेरे 48 वर्षीय पिता अचानक ही अब अपने सौंदर्य के प्रति अतियत्नवान हो गए थे. सफेद होती जा रही अपनी मूंछों को कभी रंगते, कभी सिर के बालों को. कुल मिला कर वयस्क होते जा रहे शरीर के साथ युद्ध लड़ रहे थे, ताकि ममा की जिंदगी में तूफान भर सकें.
मुझे और ममा को ले कर उन्हें एक असहनीय कुतूहल होता और हम अयाचित विपत्तियों के डर से बचने के लिए अपनी आंखें ही बंद कर लेते.
हम बच्चे ऐसे भी पापा से कतराने लगे थे, और पढ़ाई हो न हो, अपने कमरे में बंद ही रहते. रह जाती ममा, जिस की आंखों के सामने अब नित्य रासलीला चलती.
भाई मेरा चिंतित था. और मैं भी. यह घर नहीं, एक टूटती दीवार थी. हर कोई इस से दूर भागता है. और हम थे कि इसी टूटती दीवार को पकड़ कर गिरने से बचने का भ्रम पाले थे. करते भी क्या, यही तो अपना था न.
कहना ही पड़ता है, जिस पति के सान्निध्य में प्रेम और भरोसे की जगह गुलामी का एहसास हो, बिस्तर पर सुकून की नींद की जगह रात बीत जाने की छटपटाहट हो, उस स्त्री के जीवन में कितनी उदासी भर चुकी थी, यह कहने भर की बात नहीं थी.
मेरे पापा एक सरकारी मुलाजिम थे. ठीकठाक देखने में, अच्छी तनख्वाह, एक ढंग का पैतृक घर. उच्चशिक्षित सीधी सरल सुंदर पत्नी, 2 आज्ञाकारी बच्चे. इस के बावजूद पापा में क्या कमी थी कि हमेशा ममा को कमतर साबित कर के ही खुद को ऊंचा दिखाने का प्रयास करते रहते. हम सब के अंदर धुंएं की भठ्ठी भर चुकी थी.
पापा घर पर नहीं थे. ममा हमारे कमरे में आई, बोली, ‘मेरा एक दोस्त है भोपाल के कालेज में प्रिंसिपल. मैं उसे अपनी नौकरी के सिलसिले में मेल करना चाहती हूं. अगर तुम दोनों भाईबहन हिम्मत करो, तो मैं नौकरी के लिए कोशिश करूं. हां, हिम्मत तुम्हें ही करनी होगी. मैं इस घर में रह कर नौकरी कर नहीं पाऊंगी, तुम जानते हो. और बाहर गई, तो घर नहीं आ पाऊंगी.
‘क्या तुम दोनों अपनीअपनी परीक्षाएं होने तक यहां किसी तरह रह लोगे? जैसे ही तुम्हारी परीक्षाएं हो जाएंगी, मैं तुम दोनों को अपने पास बुला लूंगी. और कितना सहुं, कहो? यह तुम्हारे व्यक्तित्व पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है. मैं एक अच्छी गृहस्थी चाहती थी, प्यार और समानता से परिपूर्ण. मगर तुम्हारे पापा का मानसिक विकार यह घर तोड़ कर ही रहेगा. तुम दोनों अब बड़े हो चुके हो, विपरीत परिस्थिति की वजह से परिपक्व भी. इसलिए तुम जो कहोगे…?’
ममा ने सारी बातें एकसाथ हमारे सामने रखीं. फिर स्थिर आंखों से हमें देखने लगीं. कोई आग्रह या दबाव नहीं था. ममा की यही बातें उन्हें पापा से अलग ऊंचाई देती थीं.
भाई ने कहा- ‘मुझे तो लगता है हम अपनी जिंदगी में बदलाव खुद ही ला सकते हैं. अगर बैठे रहे तो कुछ भी नहीं बदलेगा. हम हमेशा यों ही दुखी ही रह जाएंगे.’
‘मुझे भी यही लगता है, भाई सही कह रहा है. तुम पापा के अनुसार ही तो चल रही हो, वे तब भी नाखुश हैं. और तो और, अपनी मनमरजी से ऐसी हरकत कर रहे हैं जिस से हम सभी परेशान हैं. भला यही होगा तुम नौकरी ढूंढ कर बाहर चली जाओ.’
19 साल की लड़की 43 साल की स्त्री को भला क्या समझेगी, ऐसा सोच कर मेरी समझ पर आप की कोई शंका पनप रही है तो पहले ही साफ कर दूं कि जिस स्त्री की चर्चा करने जा रही हूं, उस की यात्रा का एक अंश हूं मैं. उसी पूर्णता, उसी उम्मीद की किरण तक बढ़ती हुई, चलती हुई हेमांगी की बेटी हूं मैं.
43 साल की हेमांगी व्यक्तित्व में शांत, समझ की श्रेष्ठता में उज्ज्वल और कोमल है. वह विद्या और सांसारिक कर्तव्य दोनों में पारंगत है. तो, हो न. तब फिर क्यों भला मैं उस की महानता का बखान ले कर बैठी? यही न, इसलिए, कि 19 साल की उस की बेटी अपने जीवनराग में गहरी व अतृप्त आकांक्षाएं देख रही है, एक छटपटाहट देख रही है अपने जाबांज पंख में, जो कसे हैं प्रेम और कर्तव्य की बेजान शिला से. यह बेटी साक्षी है दरवाजे के पीछे खड़े हो कर उस के हजारों सपनों के राख हो कर झरते रहने की.
तो फिर, नहीं खोलूं मैं सांकल? नहीं दूं इस अग्निपंख को उड़ान का रास्ता?
आइए, समय के द्वार से हमारे जीवनदृश्य में प्रवेश करें, और साक्षी बनें मेरे विद्रोह की अग्निवीणा से गूंजते प्रेरणा के सप्तस्वरों के, साक्षी बनें मेरे छोटे भाई कुंदन के पितारूपी पुरुष से अपनी अलग सत्तानिर्माण के अंतर्द्वंद्व के, मां के चुनाव और पिता के असली चेहरे के.
हम मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के रामनगर कालोनी के पैतृक घर में रहते हैं. इस एकमंजिले मकान में 2 कमरे, एक सामान्य आकार का डाइनिंग हौल और एक ड्राइंगरूम है. बाहर छोटा सा बरामदा और 4र सीढ़ी नीचे उतर कर छोटेछोटे कुछ पौंधों के साथ बाहरी दरवाजे पर यह घर पूरा होता है.
48 साल के मेरे पापा अजितेश चौधरी सरकारी नौकरी में हैं. उन का बेटा कुंदन यानी मेरा भाई अभी 10वीं में है. मैं, कंकना, उन की बेटी, स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा. हम दोनों भाईबहनों का शारीरिक गठन, नैननक्श मां की तरह है. सधे हुए बदन पर स्वर्णवर्णी गेहुंएपन के साथ तीखे नैननक्श से छलकता सौम्य सारल्य. यह है हमारी मां हेमांगी. 43 की उम्र में जिस ने नियमित व्यायाम से 32 सा युवा शरीर बरकरार रखा है. हमेशा मृदु मुसकान से परिपूर्ण उस का चेहरा जैसे वे अपनी विद्वत्ता को विनम्रता से छिपाए रहती हो.
मेरी ममा हम दोनों भाईबहनों के लिए हमेशा खास रही. ममा को हम मात्र स्त्री के रूप में ही नहीं समझते बल्कि एक पूर्ण बौद्धिक व्यक्तित्व के रूप में.
सुबह 9 बजे का समय था. कालेज के लिए निकल रही थी मैं. घर में रोज की तरह कोलाहल का माहौल था.
पापा सरकारी कार्यालय में सहायक विकास अधिकारी थे. वे अपने बौस के अन्य 10 मातहतों के साथ उन के अधीन काम करते थे. लेकिन घर पर मेरी ममा पर उन का रोब किसी कलैक्टर से कम न था.
‘हेमा, टिफिन में देर है क्या? यार, घर पर और तो कुछ करती नहीं हो, एक यह भी नहीं हो रहा है, तो बता दो,’ पापा बैडरूम से ही चीख रहे थे.
‘दे दिया है टेबल पर,’ ममा ने बिना प्रतिक्रिया के सूचना दी.
‘दे दिया है, तो जबान पर ताले क्यों पड़े थे?’
‘चाय ला रही थी.’
‘लंचबौक्स भरा बैग में?’
‘रख रही हूं.’
‘सरकारी नौकरी है, समझ नहीं आता तुम्हें? यह कोई चूल्हाचौका नहीं है. मिनटमिनट का हिसाब देना पड़ता है.’
ममा टिफिन और पानी की बोतल औफिस के बैग में रख नियमानुसार पापा की कार भी पोंछ कर आ गई थी. और पापा टिफिन के लिए बैठे रहे थे.
यह रोज की कहानी थी, यह जतलाना कि मां की तुलना में पापा इस परिवार के ज्यादा महत्त्वपूर्ण सदस्य हैं. उन का काम ममा की तुलना में ज्यादा महत्त्व का है. यह दृश्य हमारे ऊपर विपरीत ही असर डालता था. इस बीच भाई और हम अपना टिफिन ले कर चोरों की तरह घर से निकल जाते.
रात को पापा की गालीगलौज से मेरी नींद उचट गई. रात 12 बजे की बात होगी. मैं शोर सुन ममा की चिंता में अपने कमरे के दरवाजे के बाहर आ कर खड़ी हो गई. ममा पापा के साथ बैडरूम में थी. ममा शांत लेकिन कुछ ऊंचे स्वर में कह रही थी- ‘आप के हाथपैर अब से मैं नहीं दबा पाऊंगी.
‘आप की करतूतों ने बरदाश्त की सारी हदें तोड़ दी हैं. आप की जिन किन्हीं लड़कियों और महिलाओं से संपर्क हैं, वे आप की कमजोरियों का फायदा उठा रही हैं. आप अपने औफिस की महिला कलीग को अश्लील वीडियो साझा करते थे, मैं ने सहा. किस स्त्री को क्या गिफ्ट दिया, बदले में आप को क्याक्या मिला, मैं ने अनदेखा किया और चुप रही. लेकिन अब आप सीमा से आगे निकल कर उन्हें घर तक लाने लगे हैं. क्या संदेश दे रहे हैं हमें? घर पर ला कर उन महिलाओं के साथ आप का व्यवहार कितना भौंडा होता है, क्या बच्चों से छिपा है यह?’
आज पहली बार ममा ने हिम्मत कर अपना विरोध दर्ज कराया था. पहली बार उस ने पापा के हुक्म को अमान्य कर के अपनी बात रखी थी. लेकिन यह इतना आसान नहीं था.परिणाम भयंकर होना ही था. मेरे पापा ऐसे व्यक्ति थे जो उन की गलती बताने वाले का बड़ा बुरा हश्र करते थे, और तब जब उन के कमरे में ममा का सोना उन की सेवा के लिए ही था.
झन से जिंदगी कांच की तरह टूट कर बिखर गई. आशा, भरोसा, उम्मीद का दर्पण चकनाचूर हो गया.
पापा ने ममा को जोरदार तमाचे मारे, ममा दर्द से बिलख कर उन्हें देख ही रही थी कि पापा ने ममा के पेट पर जोर का एक पैर जमाया. ममा ‘उफ़’ कह कर जमीन पर बैठ गई.
मैं जानती हूं यह दर्द उस के शरीर से ज्यादा मन पर था. आत्मसम्मान और आत्महनन की चोट वह नहीं सह पाती थी.
‘अब एक भी आवाज निकाली तो जबान खींच लूंगा. मैं कमाता हूं, तुम लोग मेरे पैसे पर ऐश करते हो, औकात है नौकरी कर के पैसे घर लाने की? जिस पर आश्रित हो, उसी को आंख दिखाती हो? जो मरजी होगी वह करूंगा मैं. अफसर हूं मैं. तुम क्या हो, एक नौकरी कर के दिखाओ तो समझूं.’
‘मेरी नौकरी पर पाबंदी तो आप ने ही लगा रखी है?’
‘अच्छा? नौकरी करना क्यों चाहती हो मालूम नहीं है जैसे मुझे. सब बहाने हैं गुलछर्रे उड़ाने के. तुम्हें लगता है नौकरी के बहाने मैं मौज करता हूं, तो तुम भी वही करोगी?’ पापा के पास जबरदस्त तर्क थे, जिसे सौफिस्ट लौजिक कहा जा सकता है. ग्रीक दर्शन में सौफिस्ट तार्किक वाले वे हुआ करते थे, जो निरर्थक और गलत बौद्धिक तर्कजाल से सामने वाले को बुरी तरह बेजबान कर देते थे.
पलकें मूंदे मैं आराम की मुद्रा में लेटी थी तभी सौम्या की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘मां, शलभजी आए हैं.’’
उस का यह शलभजी संबोधन मुझे चौंका गया. मैं भीतर तक हिल गई परंतु मैं ने अपने हृदय के भावों को चेहरे पर प्रकट नहीं होने दिया, सहज भाव से सौम्या की तरफ देख कर कहा, ‘‘ड्राइंगरूम में बिठाओ. अभी आ रही हूं.’’
उस के जाने के बाद मैं गहरी चिंता में डूब गई कि कहां चूक हुई मुझ से? यह ‘शलभ अंकल’ से शलभजी के बीच का अंतराल अपने भीतर कितना कुछ रहस्य समेटे हुए है. व्यग्र हो उठी मैं. सच में युवा बेटी की मां होना भी कितना बड़ा उत्तरदायित्व है. जरा सा ध्यान न दीजिए तो बीच चौराहे पर इज्जत नीलाम होते देर नहीं लगती. मुझे धैर्य से काम लेना होगा, शीघ्रता अच्छी नहीं.
प्रारंभ से ही मैं यह समझती आई हूं कि बच्चे अपनी मां की सुघड़ता और फूहड़ता का जीताजागता प्रमाण होते हैं. फिर मैं तो शुरू से ही इस विषय में बहुत सजग, सतर्क रही हूं. मैं ने संदीप और सौम्या के व्यक्तित्व की कमी को दूर कर बड़े सलीके से संवारा है, तभी तो सभी मुक्त कंठ से मेरे बच्चों को सराहते हैं, साथ में मुझे भी, परंतु फिर यह सौम्या…नहीं, इस में सौम्या का भी कोई दोष नहीं. उम्र ही ऐसी है उस की. नहीं, मैं अपने आंगन की सुंदर, सुकोमल बेल को एक बूढ़े, जर्जर, जीर्णशीर्ण दरख्त का सहारा ले, असमय मुरझाने नहीं दूंगी.
अब तक मैं अपने बच्चों के लिए जो करती आई हूं वह तो लगभग अपनी क्षमता और लगन के अनुसार सभी मांएं करती हैं. मेरी परख तो तब होगी जब मैं इस अग्निपरीक्षा में खरी उतरूंगी. मुझे इस कार्य में किसी का सहारा नहीं लेना है, न मायके का और न ससुराल का. मुंह से निकली बात पराई होते देर ही कितनी लगती है. हवा में उड़ती हैं ऐसी बातें. नहीं, किसी पर भरोसा नहीं करना है मुझे, सिर्फ अपने स्तर पर लड़नी है यह लड़ाई.
बाहर के कमरे से सौम्या और शलभ की सम्मिलित हंसी की गूंज मुझे चौंका गई. मैं धीमे से उठ कर बाहर के कमरे की तरफ चल पड़ी.
‘‘नमस्ते, भाभीजी,’’ शलभ मुसकराए.
‘‘नमस्ते, नमस्ते,’’ मेरे चेहरे पर सहज मीठी मुसकान थी परंतु अंतर में ज्वालामुखी धधक रहा था.
‘‘कैसी तबीयत है आप की,’’ उन्होंने कहा.
‘‘अब ठीक हूं भाईसाहब. बस, आप लोगों की मेहरबानी से उठ खड़ी हुई हूं,’’ कह कर मैं ने सौम्या को कौफी बना लाने के लिए कहा.
‘‘मेहरबानी कैसी भाभीजी. आप जल्दी ठीक न होतीं तो अपने दोस्त को क्या मुंह दिखाता मैं?’’
मुझे वितृष्णा हो रही थी इस दोमुंहे सांप से. थोड़ी देर बाद मैं ने उन्हें विदा किया. मन की उदासी जब वातावरण को बोझिल बनाने लगी तब मैं उठ कर धीमे कदमों से बाहर बरामदे में आ बैठी. कुछ खराब स्वास्थ्य और कुछ इन का दूर होना मुझे बेचैन कर जाता था, विशेषकर शाम के समय. ऊपर से इस नई चिंता ने तो मुझे जीतेजी अधमरा कर दिया था. मैं ने नहीं सोचा था कि इन के जाने के बाद मैं कई तरह की परेशानियों से घिर जाऊंगी.
उस समय तो सबकुछ सुचारु रूप से चल रहा था, जब इन के लिए अमेरिका के एक विश्वविद्यालय ने उन की कृषि से संबंधित विशेष शोध और विशेष योग्यताओं को देखते हुए, अपने यहां के छात्रों को लाभान्वित करने के लिए 1 साल हेतु आमंत्रित किया था. ये जाने के विषय में तत्काल निर्णय नहीं ले पाए थे. 1 साल का समय कुछ कम नहीं होता. फिर मैं और सौम्या यहां अकेली पड़ जाएंगी, इस की चिंता भी इन्हें थी.
संदीप का अभियांत्रिकी में चौथा साल था. वह होस्टल में था. ससुराल और पीहर दोनों इतनी दूर थे कि हमेशा किसी की देखरेख संभव नहीं थी. तब मैं ने ही इन्हें पूरी तरह आश्वस्त कर जाने को प्रेरित किया था. ये चिंतित थे, ‘कैसे संभाल पाओगी तुम यह सब अकेले, इतने दिन?’
‘आप को मेरे ऊपर विश्वास नहीं है क्या?’ मैं बोली थी.
‘विश्वास तो पूरा है नेहा. मैं जानता हूं कि तुम घर के लिए पूरी तरह समर्पित पत्नी, मां और सफल शिक्षिका हो. कर्मठ हो, बुद्धिमान हो लेकिन फिर भी…’
‘सब हो जाएगा, इतना अच्छा अवसर आप हाथ से मत जाने दीजिए, बड़ी मुश्किल से मिलता है ऐसा स्वर्णिम अवसर. आप तो ऐसे डर रहे हैं जैसे मैं गांव से पहली बार शहर आई हूं,’ मैं ने हंसते हुए कहा था.
‘तुम जानती हो नेहा, तुम व बच्चे मेरी कमजोरी हो,’ ये भावुक हो उठे थे, ‘मेरे लिए 1 साल तुम सब के बिना काटना किसी सजा जैसा ही होगा.’
फिर इन्होंने मुझे अपने से चिपका लिया था. इन के सीने से लगी मैं भी 1 साल की दूरी की कल्पना से थोड़ी देर के लिए विचलित हो उठी थी, परंतु फिर बरबस अपने ऊपर काबू पा लिया था कि यदि मैं ही कमजोर पड़ गई तो ये जाने से साफ इनकार कर देंगे.
‘नहीं, नहीं, पति के उज्ज्वल भविष्य व नाम के लिए मुझे स्वयं को दृढ़ करना होगा,’ यह सोच मैं ने भर आई आंखों के आंसुओं को भीतर ही सोख लिया और मुसकराते हुए इन की तरफ देख कर कहा, ‘1 साल होता ही कितना है? चुटकियों में बीत जाएगा. फिर यह भी तो सोचिए कि यह 1 साल आप के भविष्य को एक नया आयाम देगा और फिर, कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है न?’
‘पर यह कीमत कुछ ज्यादा नहीं है?’ इन्होंने सीधे मेरी आंखों में झांकते हुए कहा था.
वैसे इन का विचलित होना स्वाभाविक ही था. जहां इन के मित्रगण विश्वविद्यालय के बाद का समय राजनीति और बैठकबाजी में बिताते थे, वहीं ये काम के बाद का अधिकांश समय घर में परिवार के साथ बिताते थे. जहां भी जाना होता, हम दोनों साथ ही जाते थे. आखिरकार सोचसमझ कर ये जाने की तैयारी में लग गए थे. सभी मित्रोंपरिचितों ने भी इन्हें आश्वस्त कर जाने को प्रेरित किया था.
इन के जाने के बाद मैं और सौम्या अकेली रह गई थीं. इन के जाने से घर में अजीब सा सूनापन घिर आया था. मैं अपने विद्यालय चली जाती और सौम्या अपने कालेज. सौम्या का इस साल बीए अंतिम वर्ष था. जब कभी उस की सहेलियां आतीं तो घर की उदासी उन की खिलखिलाहटों से कुछ देर को दूर हो जाती थी.
समय जैसेतैसे कट रहा था. इधर, सौम्या कुछ अनमनी सी रहने लगी थी. पिता की दूरी उसे कुछ ज्यादा ही खल रही थी. हां, इस बीच इन के मित्र कभी अकेले, कभी परिवार सहित आ कर हालचाल पूछ लिया करते थे.
मेरी सहयोगी शिक्षिकाएं भी बहुधा आती रहतीं, विशेषकर इन के मित्र शलभजी और मेरी सखी मीरा. शलभ इन के परममित्रों में से थे. इन के विभाग में ही रीडर थे एवं अभी तक कुंआरे ही थे. बड़ा मिलनसार स्वभाव था और बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व. आते तो घंटों बातें करते. सौम्या भी उन से काफी हिलमिल गई थी.
मीरा मेरी सहयोगी प्राध्यापिका और घनिष्ठ मित्र थी. हम दोनों के विचारों में अद्भुत साम्य अंतरंगता स्थापित करने में सहायक हुआ था. मन की बातें, उलझनें, दुखसुख आपस में बता कर हम हलकी हो लेती थीं. उस के पति डाक्टर थे तथा 2 बेटे थे अक्षय और अभय. अक्षय का इसी साल पीसीएस में चयन हुआ था.
सत्र की समाप्ति के बाद संदीप भी आ गया था. उस के आने से घर की रौनक जाग उठी थी. दोनों भाईबहन नितनए कार्यक्रम बनाते और मुझे भी उन का साथ देना ही पड़ता. दोनों के दोस्तों और सहेलियों से घर भर उठता. बच्चों के बीच में मैं भी हंसबोल लेती, पर मन का कोई कोना खालीखाली, उदास रहता. इन की यादों की कसक टीस देती रहती थी.
वैसे भी उम्र के इस तीसरे प्रहर में साथी की दूरी कुछ ज्यादा ही तकलीफदेह होती है. पतिपत्नी एकदूसरे की आदत में शामिल हो जाते हैं. इन के लंबेलंबे पत्र आते. वहां कैसे रहते हैं, क्या करते हैं, सारी बातें लिखी रहतीं. जिस दिन पत्र मिलता, मैं और सौम्या बारबार पढ़ते, कई दिन तक मन तरोताजा, खुश रहता. फिर दूसरे पत्र का इंतजार शुरू हो जाता.
एक दिन विद्यालय में कक्षा लेते समय एकाएक जोर का चक्कर आ जाने से मैं गिर पड़ी. छात्राओं तथा मेरे अन्य सहयोगियों ने मिल कर मुझे तुरंत अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर ने उच्च रक्तचाप बतलाया और कम से कम 1 महीना आराम करने की सलाह दी.
इस बीच, सौम्या बिलकुल अकेली पड़ गई. घर, अपना विद्यालय और फिर मुझे तीनों को संभालना उस अकेली के लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था. तब शलभजी और मीरा ने काफी सहारा दिया.
मेरी तो तबीयत खराब थी, इसलिए जो भी आता उस की सौम्या से ही बातें होतीं. हां, मीरा आती तो विद्यालय के समाचार मिलते रहते. शलभजी भी मुझ से हाल पूछ सौम्या से ही अधिकतर बातें करते रहते.
इधर, शलभजी और सौम्या में काफी पटने लगी. आश्चर्य तब होता जब मेरे सामने आते ही दोनों असहज होने लगते. बस, इसी बात ने मुझे चौकन्ना किया.
शलभजी और सौम्या? बापबेटी का सा अंतर, इन से बस 2-4 साल ही छोटे होंगे वे, कनपटियों पर से सफेद होते बाल, इकहरा शरीर, चुस्तदुरुस्त पोशाक और बातें करने का अपना एक विशिष्ट आकर्षक अंदाज, सब मिला कर मर्दाना खूबसूरती का प्रतीक.
मुझे आश्चर्य होता कि मेरा हाल पूछने आए शलभ, मेरा हाल पूछना भूल, खड़ेखड़े ही सौम्या को आवाज लगाते कि सौम्या, आओ, तुम्हें बाहर घुमा लाऊं, बोर हो रही होगी और सौम्या भी ‘अभी आई’ कह कर झट अपनी खूबसूरत पोशाक पहन, सैंडिल खटखटाती बाहर निकल जाती.
सौम्या तो खैर अभी कच्ची उम्र की नासमझ लड़की थी, पर इस परिपक्व प्रौढ़ की बेहयाई देख मैं दंग थी. सोचती, क्या दैहिक भूख इतनी प्रबल हो उठी है कि सारे समीकरण, सारी परिभाषाएं इस तृष्णा के बीच अपनी पहचान खो, बौनी हो जाती हैं, नैतिकता अतृप्ति की अंधी अंतहीन गलियों में कहीं गुम हो जाती है. शायद, हां. तभी तो जिस वर्जित फल का शलभ अपनी जवानी के दिनों में रसास्वादन न कर सके थे,
इस पकी उम्र में उस के लोभ से स्वयं को बचा पाना उन के लिए कठिन हो रहा था. वैसे भी बुढ़ापे में अगर मन विचलित हो जाए तो उस पर नियंत्रण करना कठिन ही होता है. तिस पर सुकोमल, कमनीय, सुंदर सौम्या. दिग्भ्रमित हो उठे थे शलभजी.
वे आए दिन उस के लिए उपहार लाने लगे थे. कभी सलवारकुरता, कभी स्कर्टब्लाउज तो कभी नाइटी. सौम्या भी उन्हें सहर्ष ग्रहण कर लेती. मैं ने 2-3 बार शलभजी से कहा, ‘भाईसाहब, आप इस की आदत खराब कर रहे हैं, कितनी सारी पोशाकें तो हैं इस के पास.’
‘क्यों, क्या मैं इस को कुछ नहीं दे सकता? इतना अधिकार भी नहीं है मुझे? बहुत स्नेह है मुझे इस से,’ कह कर वे प्यारभरी नजरों से सौम्या की तरफ देखते. उस दृष्टि में किसी बुजुर्ग का निश्छल स्नेह नहीं झलकता था, बल्कि वह किसी उच्छृंखल प्रेमी की वासनामय काकदृष्टि थी.
मुझे लगता कि कपटी पुरुष स्नेह का मुखौटा लगा, सौम्या की इस नादानी और भोलेपन का लाभ उठा, उस का जीवन बरबाद कर सकता है. मेरे सामने यह समस्या एक चुनौती के रूप में सामने खड़ी थी. इन के वापस आने में 7 महीने बाकी थे. संदीप का यह अंतिम वर्ष था. उस से कुछ कहना भी उचित नहीं था.
प्रश्नों और संदेहों के चक्रव्यूह में उलझी मैं इस समस्या के घेरे से निकलने के लिए बुरी तरह से हाथपैर मार रही थी. तभी निराशा के गहन अंधकार में दीपशिखा की ज्योति से चमके थे मीरा के ये शब्द, ‘नेहा, सौम्या को तू मुझे सौंप दे, अक्षय के लिए. तुझे लड़का ढूंढ़ना नहीं पड़ेगा और मुझे सुघड़ बहू.’
‘सोच ले, यह लड़की तेरी खटिया खड़ी कर देगी, फिर बाद में मत कहना कि मैं ने बताया नहीं था.’
‘वह तू मुझ पर छोड़ दे,’ और फिर हम दोनों खुल कर हंस पड़ीं.
मीरा के कहे इन शब्दों ने मुझे डूबते को तिनके का सहारा दिया. मैं ने तुरंत उसे फोन किया, ‘‘मीरा, आज तू सपरिवार मेरे घर खाने पर आ जा. अक्षय, अभय से मिले भी बहुत दिन हो गए. रात का खाना साथ ही खाएंगे.’’
‘‘क्यों, एकाएक तुझे ज्यादा शक्ति आ गई क्या? कहे तो 10-20 लोगों को और अपने साथ ले आऊं?’’ उस ने हंसते हुए कहा.
‘‘नहींनहीं, आज मन बहुत ऊब रहा है. सोचा, घर में थोड़ी रौनक हो जाए.’’
‘‘अच्छा जी, तो अब हम नौटंकी के कलाकार हो गए. ठीक है भई, आ जाएंगे सरकार का मनोरंजन करने.’’
मनमस्तिष्क पर छाया तनाव का कुहरा काफी हद तक छंट चुका था और मैं नए उत्साह से शाम की तैयारी में जुट गई. रमिया को निर्देश दे मैं ने कई चीजें बनवा ली थीं. सौम्या ने सारी तैयारियां देख कर कहा था, ‘‘मां, क्या बात है? आज आप बहुत मूड में हैं और यह इतना सारा खाना क्यों बन रहा है?’’
‘‘बस यों…अब तबीयत एकदम ठीक है और शाम को मीरा, अक्षय, अभय और डाक्टर साहब भी आ रहे हैं. खाना यहीं खाएंगे. अक्षय नौकरी मिलने के बाद से पहली बार घर आया है न, मैं ने सोचा एक बार तो खाने पर बुलाना ही चाहिए. हां, तू भी घर पर ही रहना,’’ मैं ने कहा.
‘‘पर मां, मेरा तो शलभजी के साथ फिल्म देखने का कार्यक्रम था?’’
‘‘देख बेटी, फिल्म तो कल भी देखी जा सकती है, आंटी सब के साथ आ रही हैं. मेरे सिवा एक तू ही तो है घर में. तू भी चली जाएगी तो कितना बुरा लगेगा उन्हें. ऐसा कर, तू शलभ अंकल को फोन कर के बता दे कि तू नहीं जा पाएगी,’’ मैं ने भीतर की चिढ़ को दबाते हुए प्यार से कहा.
‘‘ठीक है, मां,’’ सौम्या ने अनमने ढंगसे कहा. शाम को मीरा, डाक्टर साहब, अक्षय, अभय सभी आ गए. विनोदी स्वभाव के डाक्टर साहब ने आते ही कहा, ‘‘बीमारी से उठने के बाद तो आप और भी तरोताजा व खूबसूरत लग रही हैं, नेहाजी.’’
‘‘क्यों मेरी सहेली पर नीयत खराब करते हो इस बुढ़ापे में?’’ मीरा ने पति को टोका.
‘‘लो, सारी जवानी तो तुम ने दाएंबाएं देखने नहीं दिया, अब इस बुढ़ापे में तो बख्श दो.’’
उन की इस बात पर जोर का ठहाका लगा.
सौम्या ने भी बड़ी तत्परता और उत्साह से उन सब का स्वागत किया. कौफी, नाश्ता के बाद वह अक्षय और अभय से बातें करने लगी.
मैं ने अक्षय की ओर दृष्टि घुमाई, ‘ऊंचा, लंबा अक्षय, चेहरे पर शालीन मुसकराहट, दंभ का नामोनिशान नहीं, हंसमुख, मिलनसार स्वभाव. सच, सौम्या के साथ कितनी सटीक जोड़ी रहेगी,’ मैं सोचने लगी. डाक्टर साहब और मीरा के साथ बातें करते हुए भी मेरे मन का चोर अक्षय और सौम्या की गतिविधियों पर दृष्टि जमाए बैठा रहा. मैं ने अक्षय की आंखों में सौम्या के लिए प्रशंसा के भाव तैरते देख लिए. मन थोड़ा आश्वस्त तो हुआ, परंतु अभी सौम्या की प्रतिक्रिया देखनी बाकी थी.
बातों के बीच ही सौम्या ने कुशलता से खाना मेज पर लगा दिया. डाक्टर साहब और मीरा तो सौम्या के सलीके से परिचित थे ही, सौम्या के मोहक रूप और दक्षता ने अक्षय पर भी काफी प्रभाव डाला. खुशगवार माहौल में खाना खत्म हुआ तो अक्षय ने कहा, ‘‘आंटी, आप से मिले और आप के हाथ का स्वादिष्ठ खाना खाए बहुत दिन हो गए थे, आज की यह शाम बहुत दिनों तक याद रहेगी.’’
विदा होने तक अक्षय की मुग्ध दृष्टि सौम्या पर टिकी रही. और सौम्या हंसतीबोलती भी बीचबीच में कुछ सोचने सी लगी, मानो बड़ी असमंजस में हो.
चलतेचलते डाक्टर साहब ने मीरा को छेड़ा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ खाना ही जानती हैं या खिलाना भी?’’
मीरा ने उन्हें प्यारभरी आंखों से घूरा और झट से मुझे और सौम्या को दूसरे दिन रात के खाने का न्योता दे डाला.
मेरे लिए तो यह मुंहमांगी मुराद थी, अक्षय और सौम्या को समीप करने के लिए. दूसरे दिन जब शलभजी आए तो सौम्या ने कुछ ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया. फिल्म के लिए जब उन्होंने पूछा तो उस ने कहा, ‘‘आज मीरा आंटी के यहां जाना है, मां के साथ…इसलिए…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.
वे थोड़ी देर बैठने के बाद चले गए. मैं भीतर ही भीतर पुलकित हो उठी. मुझे लगा कि प्रकृति शायद स्वयं सौम्या को समझा रही है और यही मैं चाहती भी थी.
दूसरे दिन शाम को मीरा के यहां जाने के लिए तैयार होने से पहले मैं ने सौम्या से कहा, ‘‘सौम्या, आज तू गुलाबी साड़ी पहन ले.’’
‘‘कौन सी? वह जार्जेट की जरीकिनारे वाली?’’
‘‘हांहां, वही.’’
इस साड़ी के लिए हमेशा ‘नानुकुर’ करने वाली सौम्या ने आज चुपचाप वही साड़ी पहन ली. यह मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. गुलाबी साड़ी में खूबसूरत सौम्या का रूप और भी निखर आया.
न चाहते हुए भी एक बार फिर मेरी दृष्टि उस के ऊपर चली गई. अपलक, ठगी सी कुछ क्षण तक मैं अपनी मोहक, सलोनी बेटी का अप्रतिम, अनुपम, निर्दोष सौंदर्य देखती रह गई.
‘‘चलिए न मां, क्या सोचने लगीं?’’
सौम्या ने ही उबारा था इस स्थिति से मुझे.
मीरा के घर पहुंचतेपहुंचते हलकी सांझ घिर आई थी. डाक्टर साहब, मीरा, अक्षय सभी लौन में ही बैठे थे. अभय शायद अपने किसी दोस्त से मिलने गया था. हम दोनों जब उन के समीप पहुंचे तो सभी की दृष्टि कुछ पल को सौम्या पर स्थिर हो गई.
मैं ने अक्षय की ओर देखा तो पाया कि यंत्रविद्ध सी सम्मोहित उस की आंखें पलक झपकना भूल सौम्या को एकटक निहारे जा रही थीं.
‘‘अरे भई, इन्हें बिठाओगे भी तुम लोग कि खड़ेखड़े ही विदा कर देने का इरादा है?’’ डाक्टर साहब ने सम्मोहन भंग किया.
‘‘अरे हांहां, बैठो नेहा,’’ मीरा ने कहा और फिर हाथ पकड़ अपने पास ही सौम्या को बिठाते हुए मुझ से बोली, ‘‘नेहा, आज मेरी नजर सौम्या को जरूर लगेगी, बहुत ही प्यारी लग रही है.’’
‘‘मेरी भी,’’ डाक्टर साहब ने जोड़ा.
सौम्या शरमा उठी, ‘‘अंकल, क्यों मेरी खिंचाई कर रहे हैं?’’
‘‘इसलिए कि तू और लंबी हो जाए,’’ उन्होंने पट से कहा और जोर से हंस पड़े.
कुछ देर इधरउधर की बातों के बाद मीरा कौफी बनाने उठी थी, पर सौम्या ने तुरंत उन्हें बिठा दिया, ‘‘कौफी मैं बनाती हूं आंटी, आप लोग बातें कीजिए.’’
‘‘हांहां, मैं भी यही चाह रहा था बेटी. इन के हाथ का काढ़ा पीने से बेहतर है, ठंडा पानी पी कर संतोष कर लिया जाए,’’ डाक्टर साहब ने मीरा को तिरछी दृष्टि से देख कर कहा तो हम सभी हंस पड़े. सौम्या उठी तो अक्षय ने तुरंत कहा, ‘‘चलिए, मैं आप की मदद करता हूं.’’
दोनों को साथसाथ जाते देख डाक्टर साहब बोले, ‘‘वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.’’
‘‘सच,’’ मीरा ने समर्थन किया. फिर मुझ से बोली, ‘‘नेहा, सौम्या मुझे और इन्हें बेहद पसंद है और मुझे ऐसा लग रहा है कि अक्षय भी उस से प्रभावित है क्योंकि अभी तक तो शादी के नाम पर छत्तीस बहाने करता था, परंतु कल जब मैं ने सौम्या के लिए पूछा तो मुसकरा कर रह गया. अब अच्छी नौकरी में भी तो आ गया है…मुझे उस की शादी करनी ही है. नेहा, अगर कहे तो अभी मंगनी कर देते हैं. शादी भाईसाहब के आने पर कर देंगे. वैसे तू सौम्या से पूछ ले.’’
हर्ष के अतिरेक से मेरी आंखें भर आईं. मीरा ने मुझे किस मनोस्थिति से उबारा था, इस का रंचमात्र भी आभास नहीं था. भरे गले से मैं उस से बोली, ‘‘मेरी बेटी को इतना अच्छा लड़का मिलेगा मीरा, मैं नहीं जानती थी. उस से क्या पूछूं. अक्षय जैसा लड़का, ऐसे सासससुर और इतना अच्छा परिवार, सच, मुझे तो घरबैठे हीरा मिल गया.’’
‘‘मैं ने भी नहीं सोचा था कि इस बुद्धू अक्षय के हिस्से में ऐसा चांद का टुकड़ा आएगा,’’ मीरा बोली थी.
‘‘और मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझे इतनी हसीन समधिन मिलेगी,’’ डाक्टर साहब ने हंसते हुए कहा तो हम सब एक बार फिर से हंस पड़े.
तभी एकाएक चौंक पड़े थे डाक्टर साहब, ‘‘अरे भई, यह कबूतरों की जोड़ी कौफी उगा रही है
क्या अंदर?’’
तब मैं और मीरा रसोई की तरफ चलीं पर द्वार पर ही ठिठक कर रुक जाना पड़ा. मीरा ने मेरा हाथ धीरे से दबा कर अंदर की ओर इशारा किया तो मैं ने देखा, अंदर गैस पर रखी हुई कौफी उबलउबल कर गिर रही है और सामने अक्षय सौम्या का हाथ थामे हुए धीमे स्वर में कुछ कह रहा है.
सौम्या की बड़ीबड़ी हिरनी की सी आंखें शर्म से झुकी हुई थीं और उस के पतले गुलाबी होंठों पर मीठी प्यारी सी मुसकान थी.
मैं और मीरा धीमे कदमों से बाहर चली आईं. उफनती नदी का चंचल बहाव प्रकृति ने सही दिशा की ओर मोड़ दिया था.
बड़े बेटे ने देखा कि पापा और मैडम बातें कर रहे हैं, तो वह फुर्र से बाहर भाग गया.
‘‘अरे…रे…रे… अमृत…’’
माही कप रख हड़बड़ी में उसे पकड़ने के लिए दौड़ी कि अचानक उस का पैर फिसल गया.
वह गिरती उस से पहले ही चंदन ने उसे थाम लिया, ‘‘क्या मुहतरमा, मेरे ही घर में अपने हाथपैर तुड़वाने के इरादे हैं?’’ कह उस ने उसे पलंग पर बैठाया.
जब चंदन ने माही को थामा तो उस के दिल की धड़कनें जोरजोर से चलने लगी थीं. वह मुंह पर हाथ रख अपनेआप को नौर्मल करती हुई उस से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस के पैर की अनामिका उंगली में थोड़ी चोट लग गई थी, जिसे वह सहलाने लगी थी.
‘‘उंगली दर्द कर रही है क्या?’’ चंदन ने पूछा.
‘‘हां.’’
‘‘लाओ ठीक कर दूं,’’ चंदन ने उंगली पकड़ कर एक झटके में खींची. माही की हलकी चीख निकली और उंगली बजी.
‘‘लो ठीक हो गई. तुम्हारे चेहरे से ज्यादा खूबसूरत तुम्हारे पैर हैं. बिलकुल रुई की तरह नर्म और सफेद,’’ पंजे पर हाथ फेरते हुए चंदन ने कहा.
माही सिहर गई और कुछ बोल भी गई वह, ‘‘आप की भी तो छाती के ये कालेकाले घने बाल आसमान में छाए काले बादलों की तरह सलोने हैं.’’
जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि वह गलत बोल गई तो मारे शर्म के पानीपानी हो गई. बोली, ‘‘सौरीसौरी. मैं ने गलत… गलत…’’
चंदन के लिए यह तारीफ मौन प्रेम निवेदन के लिए काफी थी. उस ने उसे चूम लिया. आग के सामने घी कब तक जमा रहता? पिघल गई माही. दोनों जानसमझ रहे थे कि यह गलत है, मगर दोनों के दिल बेकाबू थे और…
जब प्रेम के बादल छंटे तो दोनों को अपनीअपनी गलती का एहसास हुआ. माही होस्टल चली आई. पर मन में डर बुरी तरह समा गया कि यह उस ने क्या कर दिया.
उस ने बच्चों को पढ़ाना छोड़ दिया. रीता जब मायके से आई तो पूछा. उस ने तबीयत खराब होने का बहाना बना दिया.
चंदन अपनेआप को अपराधी मानने लगा था और माही पश्चात्ताप की आग में जलने लगी थी. रातरात भर जगी रह कर अपनी गलती को याद कर आंसू बहाती. उस ने मम्मीपापा के विश्वास को तोड़ दिया. छोटी बहनों पर इस का क्या असर होगा? यह बात जानने पर उस की कितनी बदनामी होगी.
‘‘मामीजी, प्लीज यह बात मेरे मम्मीडैडी…’’ माही ने रोते हुए मेरे हाथ पकड़ लिए.
‘‘तुम मुझ पर विश्वास रखो. तुम्हारी यह बात मुझ तक ही सीमित रहेगी. इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता. अभी कोई गड़बड़ वाली बात नहीं है न?’’ मैं आशंकित थी.
‘‘नहीं.’’
‘‘अब तुम इस बात को पूरी तरह से दिल से निकाल दो. हां, तुम ने बहुत बड़ी गलती की है, पर आगे से सचेत रहना नहीं तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. तुम जल्दी से अपने 2-4 कपड़े बैग में रख लो. मेरे घर चलो.’’
‘‘पर…’’
‘‘परवर कुछ नहीं. मैं वार्डन से तुम्हारी 4-5 दिन की छुट्टी ले कर आ रही हूं. कल तुम्हें ले कर एक जगह जाना भी है. आज देर हो गई है, इसलिए कल चलेंगे,’’ कह कर मैं नीचे चली आई.
वार्डन ने कोई आपत्ति नहीं की.
रास्ते में मैं ने माही से मना कर दिया कि वह कोई भी बात माधवी पल्लवी से नहीं कहेगी, क्योंकि तीनों बैस्ट फ्रैंड थीं. सारी बातें शेयर करती थीं. हम जैसे ही घर पहुंचे मेरे तीनों बच्चे माही को देख खुशी से उछल पड़े.
सब ने उस की तबीयत के बारे में पूछा. उस ने मेरी तरफ ताकते हुए पढ़ाई की टैंशन का बहाना बनाया.
लेकिन मेरे पति कुछ भांप गए थे. मैं ने झूठ को इतने सच की चाशनी में डाल कर उन के सामने परोसा कि उन्हें विश्वास करना ही पड़ा, ‘‘तुम ने माही को यहां ला कर बहुत अच्छा किया.’’
झूठ बोलने के लिए मैं ने मन ही मन पति से माफी मांगी. क्या करती माही की जिंदगी बचाने के लिए मैं एक क्या हजार झूठ बोलने के लिए तैयार थी.
फोन कर दीदी से उस की पढ़ाई का बोझ बता दिया. मेरा पूरा ध्यान उसी पर था. वह बच्चों से बातें करते हुए उदास हो जाती थी. उस की उदासी गई नहीं थी.
सत्यम उसे खींचते हुए अपने कमरे में ले गया ताकि वह उस के मैथ के सारे प्रश्नों को हल कर दे. उस से बातें करने में तीनों बच्चों को खाने की सुध नहीं थी. फिर वह माधवीपल्लवी के साथ सोने चली गई.
मेरा दिल बहुत भारी हो गया था. नींद की जगह मेरी आंखों में माही ही घूमती रही. उस के और चंदन के बारे में ही सोचती रही. आजकल क्या हो गया है हमारी इस युवा पीढ़ी को? कुछ सोचविचार नहीं और झट से…
कहीं न कहीं हम मांएं भी तो दोषी हैं, जो अपनी बेटियों के साथ खुल कर बात नहीं करतीं और समस्या खड़ी हो जाने पर समाधान ढूंढ़ती हैं.
मेरी भी तो 2 बेटियां हैं. उन से खुल कर उन के दोस्तों या दूसरे पुरुषों के बारे में पूछना ही पड़ेगा. शर्म और संकोच करूंगी तो शायद माही से भी बढ़ कर ये दोनों ज्यादा गलत कर बैठेंगी. पहले की अपेक्षा अब मुझे अपने बच्चों से बहुत गहरी दोस्ती रखनी पड़ेगी ताकि वे छोटी से छोटी बात भी मुझ से शेयर करें.
मुझे या दूसरों को माही पर हंसने की क्या जरूरत? यह कोई नहीं जानता कि भविष्य में किस पर कितना बड़ा दाग लगेगा?
सुबह तीनों बच्चे स्कूलकालेज जाने से मना करने लगे कि वे दिन भर माही के साथ मस्ती करेंगे. मगर मैं ने उन्हें समझाबुझा कर भेज दिया.
सब के जाने के बाद मैं ने माही से कहा, ‘‘बेटा, जल्दी से तैयार हो जा. हमें लेडी डाक्टर के पास चलना है.’’
‘‘लेडी डाक्टर… क्यों मामीजी…?’’ लगा कि उसे चक्कर आ जाएगा.
‘‘मैं ने कल तुम से कहीं चलने के लिए कहा था न? मैं तुम्हारी हंसतीखेलती जिंदगी को ले कर कोई रिस्क नहीं लेना चाहती.’’
लेडी डाक्टर ने उस की पूरी जांच कर कहा, ‘‘सविताजी, घबराने वाली कोई बात नहीं है. अकसर युवावस्था में माहवारी अनियमित हो जाती है. मैं दवा लिख देती हूं… सब ठीक हो जाएगा. आप की भानजी कुछ कमजोर भी है. थोड़ा इस के खानेपीने पर ध्यान दीजिए.’’
खुशी के मारे मैं ने उन्हें बारबार धन्यवाद कहा. मेरे मन की सारी कुशंका दूर हो गई थी, इसलिए मैं बहुत खुश थी.
रास्ते में मैं ने माही के पसंद के पर्स और जूते खरीदे. उसे होटल में खाना खिलाया. उस की मनपसंद चौकलेट, आइसक्रीम खिलाई. मैं उस बुरी घटना से उस का पीछा छुड़ाने का प्रयास कर रही थी. वह भी अब खुश लग रही थी. खूब सारी शौपिंग कर हम घर पहुंचे.
अचानक माही मेरे गले से झूल गई, ‘‘थैंक्स मामीजी, आप से कल से बात करने से ले कर अब तक मैं बहुत हलकी लग रही हूं.
‘‘सच अगर आप मुझ से डांटडपट कर बात पूछतीं तो मैं अपने दिल की गहरी बात आप से कभी नहीं बताती. मन ही मन घुटती रहती और पता नहीं खुद को कितना नुकसान पहुंचाती.
‘‘आप ने बहुत अच्छे से मुझे संभाल लिया. आज मैं तनावमुक्त महसूस कर रही हूं.
‘‘मगर कभीकभी मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा है या यों कहिए अभी भी मैं अपनेआप को बहुत बड़ा गुनहगार मान रही हूं…’’ कहतेकहते उस की आंखें नम हो आईं.
‘‘बेटा, तू ने गलती तो बहुत बड़ी की है, जो माफी के भी काबिल नहीं है, फिर भी तुम्हें उस गलती का एहसास है, पश्चात्ताप हो रहा है, यह बहुत बड़ी बात है.
‘‘हां, एक बात और. ठीक है, तुम्हारी नादानी से संबंध बन गया, मगर उसी बात को ले कर हरदम दुख के सागर में डूबे रहना उदासपरेशान रहना, यह गलत है. भविष्य में ऐसी गलती न हो, बस इतना ध्यान रखना.
‘‘संबंधों का जुड़ाव तन से न हो कर मन से होता है. पतिपत्नी का रिश्ता हो या प्रेमीप्रेमिका का उन का पहला रिश्ता मन की गहराई से होता है, भावनात्मक रूप से होता है.
‘‘तुम्हारा चंदन के साथ ऐसा कोई भी रिश्ता नहीं था, तो फिर उसी बात पर झींकते रहने से क्या फायदा?
‘‘बस, तुम जल्दी से इस मानसिक व्यथा से निकलो और पूरे तनमन से पढ़ाई में जुट जाओ. मुझे इतना तो विश्वास है कि अब आगे तुम से ऐसी गलती नहीं होगी,’’ कह मैं ने उस के गाल थपथपाए.
‘‘एक बार फिर आप को थैंक्स, मामीजी. मुझे इस भंवरजाल से बाहर निकालने के लिए,’’ कहते हुए वह मुझ से लिपट गई.
तभी उस का मोबाइल बजा.
‘‘हाय ममा, मेरी बीमारी तो मामीजी ने चुटकी बजाते ठीक कर दी…’’ प्यार से मेरी तरफ ताकते हुए माही की खनकदार हंसी पूरे घर में गूंज गई.