अपने अपने रास्ते: सविता ने विवेक को क्यों अपना जिस्म सौंप दिया?

‘‘एक बार अपने फैसले पर दोबारा विचार कर लें.  पतिपत्नी में झगड़ा होता ही रहता है. तलाक ही समस्या का समाधान नहीं होता. आप की एक बच्ची भी है. उस के भविष्य का भी सवाल है,’’ जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने अपने चैंबर में सामने बैठे सोमदत्त और उन की पत्नी सविता को समझाने की गरज से औपचारिक तौर पर कहा. यह औपचारिकता हर जज तलाक की डिगरी देने से पहले पूरी करता है.

सोमदत्त ने आशापूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखा. मगर सविता ने दृढ़तापूर्वक इनकार करते हुए कहा, ‘‘जी नहीं, मेलमिलाप की कोई गुंजाइश नहीं बची है.’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी.’’

अदालत से बाहर आ पतिपत्नी अपनेअपने रास्ते पर चल दिए. उस की पत्नी इतनी निष्ठुर हो जाएगी, सोमदत्त ने सोचा भी नहीं था. मामूली खटपट तो आरंभ से थी. मगर विवाद तब बढ़ा जब सविता ने आयातनिर्यात की कंपनी बनाई. वह एक फैशन डिजाइनर थी. कई फर्मों में नौकरी करती आई थी. बाद में 3 साल पहले उस ने जमापूंजी का इंतजाम कर अपनी फर्म बनाई थी.

सोमदत्त सरकारी नौकरी में था. अच्छे पद पर था सो वेतन काफी ऊंचा था. शुरू में आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उस ने पत्नी को नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया था. धीरेधीरे हालात सुधरते गए. सरकारी मुलाजिमों का वेतन काफी बढ़ गया था.

सविता काफी सुंदर और अच्छे व्यक्तित्व की स्त्री थी. उस की तुलना में सोमदत्त सामान्य व्यक्तित्व और थोड़ा सांवले रंगरूप का था. सरकारी नौकरी का आकर्षण ही था जो सविता के मातापिता ने सोमदत्त से बेटी का रिश्ता किया था. सविता को अपना पति पसंद नहीं था तो नापसंद भी नहीं था. जैसेतैसे जिंदगी गुजारने की मानसिकता से दोनों निबाह रहे थे.

सविता के अपने अरमान थे, उमंगें थीं, महत्त्वाकांक्षाएं थीं. फैशन डिजाइनर की नौकरी से उस को अपनी कुछ उमंगें पूरी करने का मौका तो मिला था मगर फिर भी उस का मन हमेशा खालीखाली सा रहता था.

सोमदत्त अपनी पत्नी के सुंदर व्यक्तित्व से दबता था. इसलिए वह उस को उत्पीडि़त करने में आनंद पाता था. कई बार सविता घर देर से लौटती थी. उस का चालचलन, चरित्र सब बेबाक था. इसलिए उस को अपने पति द्वारा कटाक्ष करना, शक करना अखरता था.

बाद में जब सविता ने अपनी आयातनिर्यात की फर्म बना ली और अच्छी आमदनी होने लगी तो सोमदत्त खुद को काफी हीन समझने लगा. उस की खीज बढ़ गई. रोजरोज क्लेश और झगड़े की परिणति तलाक में हुई. दोनों की एक बच्ची थी, जो 12-13 साल की थी और कान्वैंट में पढ़ रही थी. बच्ची की सरपरस्ती भी सविता को हासिल हुई थी.

तलाक का फैसला होने के बाद सविता अपने आफिस पहुंची तो उस की स्टेनो रेणु ने उस का अभिवादन किया. लगभग 22-23 साल की रेणु पूरी चमकदमक के साथ अपनी सीट पर मौजूद थी.

स्टेनो से लगभग 20 साल बड़ी उस की मैडम यानी मालकिन सविता भी अपने व्यवसाय और चलन के हिसाब से ही बनीठनी रहती थी. वह अपनी फिगर का ध्यान रखती थी. उस का पहनावा भी अवसर के अनुरूप होता था.

सविता को स्टेनो रेणु ने मोबाइल से आफिस में बैठे विजिटर के बारे में बता दिया था. उस ने स्वागतकक्ष में बैठे आगंतुकों की तरफ देखा. कई चेहरे परिचित थे तो कुछ नए भी. सभी का मुसकरा कर मूक अभिवादन करती वह अपने कक्ष में चली गई.

मिलने वालों में कुछ वस्त्र निर्माता थे तो कुछ अन्य सामान के सप्लायर. एकएक कर सभी निबट गए. अंत में एक सुंदर लंबे कद के नौजवान ने अंदर कदम रखा.

उस का विजिटिंग कार्ड ले कर सविता ने उस को बैठने का इशारा किया. विवेक बतरा, एम.बी.ए., आयातनिर्यात प्रतिनिधि. साथ में उस का पता और मोबाइल नंबर दर्ज था.

‘‘मिस्टर बतरा, आप एक्सपोर्ट एजेंट हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘कितने समय से आप इस लाइन में हैं?’’

‘‘2 साल से.’’

‘‘आप के काम का एरिया कौन सा है?’’

‘‘सिंगापुर और अमेरिका.’’

‘‘क्या आप के पास कोई एक्सपोर्ट आर्डर है?’’

‘‘बहुत से हैं,’’ कहने के साथ विवेक बतरा ने अपना ब्रीफकेस खोला और सिलेसिलाए वस्त्रों के नमूने निकाल कर मेज पर फैला दिए. साथ ही उन की डिटेल्स भी समझाने लगा. कुछ परिधान जनाना, कुछ मरदाना और कुछ बच्चों के थे.

‘‘इन सब की प्रोसैसिंग में तो समय लगेगा,’’ सविता ने सभी आर्डरों के वितरण समझने के बाद कहा.

‘‘कोई बात नहीं है. हमारे ग्राहक इंतजार कर सकते हैं.’’

‘‘क्या कमीशन लेते हैं आप?’’

‘‘5 प्रतिशत.’’

‘‘बहुत ज्यादा है. हम तो 3 प्रतिशत तक ही देते हैं.’’

‘‘मैडम, मेरा काम स्थायी और कम समय में लगातार आर्डर लाने का है. दूसरे एजेंटों के मुकाबले में मेरा काम बहुत तेज है,’’ विवेक बतरा के स्वर में आत्मविश्वास था जिस से सविता बहुत प्रभावित हुई.

‘‘ठीक है मिस्टर बतरा, फिलहाल हम प्रोसैसिंग के बेस पर आप के साथ एक्सपोर्ट आर्डर ले लेते हैं, काम का भुगतान होने के बाद आप को 5 प्रतिशत कमीशन दे देंगे.’’

‘‘ठीक है, मैडम.’’

‘‘क्या आप रसीद या लिखित मेें कोई करार करना चाहते हैं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है. मुझे आप पर विश्वास है,’’ कहता हुआ विवेक बतरा उठ खड़ा हुआ. अपना ब्रीफकेस बंद किया और ‘बैस्ट औफ लक’ कहता चला गया.

सविता उस के व्यक्तित्व और बेबाक स्वभाव से प्रभावित हुई. थोड़े दिनों में विवेक बतरा के निर्यात आदेशों में अधिकांश सिरे चढ़ गए. सविता की कंपनी को पहली बार ढेर सारा काम मिला था. विवेक ने भी भारी कमीशन कमाया.

फिर कामयाबी का सिलसिला चल पड़ा. विवेक बतरा नियमित आर्डर लाने लगा. बाहर जाने, विदेशी ग्राहकों से मिलने, बात करने, डील फाइनल करने आदि कामों के सिलसिले में सविता, विवेक के साथ जाने लगी. नियमित मिलनेजुलने से दोनों करीब आने लगे. विवेक बतरा इस बात से काफी प्रभावित था कि सविता एक किशोरवय की बेटी की मां होने के बाद भी काफी जवान नजर आती थी.

एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों में सभी दूरियां मिट गईं. सविता की औरत को एक मर्द की और विवेक के मर्द को एक औरत की जरूरत थी. अपने प्रौढ़ावस्था के पुराने खयालों के पति की तुलना में विवेक बतरा स्वाभाविक रूप से ताजादम और जोशीला था, दूसरी ओर विवेक बतरा के लिए कम उम्र की लड़कियों के मुकाबले एक अनुभवी औरत से सैक्स नया अनुभव था.

एक रोज सहवास के दौरान विवेक बतरा ने कहा, ‘‘मुझ से शादी करोगी?’’

इस सवाल पर सविता सोच में पड़ गई. विवेक उस से काफी छोटा था. उस को हमउम्र या छोटी उम्र की लड़कियां आसानी से मिल जाएंगी. अपने से उम्र में इतनी बड़ी महिला से वह क्या पाएगा?

‘‘क्या सोचने लगीं?’’ सविता को बाहुपाश में कसते हुए विवेक ने कहा.

‘‘कुछ नहीं, जरा तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार कर रही थी. मैं तुम से उम्र में बड़ी हूं. तलाकशुदा हूं. एक किशोर लड़की की मां हूं. तुम्हें तुम्हारी उम्र की लड़की आसानी से मिल जाएगी.’’

‘‘मैं ने सब सोच लिया है.’’

‘‘फिर भी फैसला लेने से पहले सोचना चाहती हूं.’’

इस के बाद विवेक और सविता काफी ज्यादा करीब आ गए. दोनों में व्यावसायिक संबंध काफी प्रगाढ़ हो गए. विवेक अन्य फर्मों को आयातनिर्यात के आर्डर देने से कतराने लगा, उस की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा काम सविता की कंपनी को मिले.

सविता भी उसे पूरी तरजीह देने लगी. उस ने अपने दफ्तर में विवेक के बैठने के लिए एक केबिन बनवा दिया जो उस के केबिन से सटा हुआ था. धीरेधीरे अनेक ग्राहकों को, जो पहले सविता के ग्राहक थे, विवेक अपने केबिन में बुला कर हैंडल करने लगा. आफिस स्टाफ को भी विवेक अधिकार के साथ आदेश देने लगा. मालकिन या मैडम का खास होने के कारण सभी कर्मचारी न चाहते हुए भी उस का आदेश मानने लगे.

अभी तक विवेक, सविता से हर आर्डर पर कमीशन लेता था. सविता ने उस को कभी अपने व्यापार का हिसाबकिताब नहीं दिखाया था. मगर वह कभी कंप्यूटर से और कभी लेजर बुक्स से भी व्यापार के हिसाबकिताब पर नजर रखने लगा.

अभी तक विवेक फर्म का प्रतिनिधि और एजेंट ही था. उस को किसी सौदे या डील को फाइनल करने का अधिकार न था. ऐसा करने के लिए या तो वह फर्म का पार्टनर बनता या फिर उस के पास सविता का दिया अधिकारपत्र होता मगर एकदम से उस को यह सब हासिल नहीं हो सकता था. जो भी था आखिर वह एक एजेंट भर था, जबकि सविता फर्म की मालकिन थी.

वह एकदम से सविता से पावर औफ अटौर्नी देने को या पार्टनर बनाने को नहीं कह सकता था इसलिए वह अब फिर से सविता से विवाह के लिए कहने लगा था.

‘‘शादी किए बिना भी हम इतने करीब हैं फिर शादी की औपचारिकता की क्या जरूरत है?’’ सविता ने हंस कर कहा.

‘‘मैं चाहता हूं कि आप मेरी होममिनिस्टर कहलाएं. आप जैसी इतनी कामयाब और हसीन खातून का खादिम बनना समाज में बड़ी इज्जत की बात है,’’ विवेक ने सिर नवा कर कहा.

इस पर सविता खिलखिला कर हंस पड़ी. आखिर कोई स्त्री अपने रूपयौवन की प्रशंसा सुन कर खुश ही होती है. उस शाम विवेक उसे एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में खाना खिलाने ले गया. वहीं एक ज्वैलरी शोरूम से हीरेजडि़त एक ब्रेसलेट ले कर भेंट किया तो सविता और भी अधिक खुश हो गई.

उस शाम यह तय हुआ कि सविता 3 दिन के बाद अपना पक्का फैसला सुनाएगी.

इन 3 दिनों के बीच में किसी विदेशी फर्म को एक सौदे के लिए भारत आना था जिसे अभी तक सविता खुद ही हैंडल करती आई थी. विवेक भी इस फर्म के प्रतिनिधि के रूप में सविता के साथ उस फर्म के प्रतिनिधि से मिलना चाहता था.

इस बार का सौदा काफी बड़ा था. दोपहर को सविता के दफ्तर में मिस रोज, जो एक अंगरेज महिला थी, ने सविता और विवेक से बातचीत की. सौदा सफल रहा. विवेक ने भी अपने वाक्चातुर्य का भरपूर उपयोग किया. मिस रोज भी विवेक के व्यक्तित्व से खासी प्रभावित हुई.

फिर कांट्रैक्ट साइन हुआ. सविता कंपनी की मालकिन थी. अत: साइन उसी को करने थे. विवेक खामोशी से सब देखता रहा था.

मिस रोज विदा होने लगी तो सविता ने उस को सौदा फाइनल होने की खुशी में रात के खाने पर एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में आमंत्रित किया. मिस रोज ने खुशीखुशी आना स्वीकार किया.

उस शाम सविता ने आफिस जल्दी बंद कर दिया. फ्लैट पर नहा कर अपनी ब्यूटीशियन के यहां गई. नए अंदाज में मेकअप करवाने के बाद अब सविता और भी दिलकश लग रही थी.

ब्यूटीपार्लर से निकल कर सविता अपने लवर के पास गई. आज विवेक को उसे अपना पक्का फैसला सुनाना था. ज्वैलर्स के यहां से विवेक को देने के लिए उस ने एक महंगी हीरेजडि़त अंगूठी खरीदी.

मिस रोज ठीक समय पर आ गई. वह नए स्टाइल के स्कर्ट, टौप में थी. उस ने हाईहील के महंगे सैंडिल पहने थे. गहरे रंग के स्कर्र्ट व टौप उस के सफेद दूधिया शरीर पर काफी फब रहे थे.

विवेक बतरा भी गहरे रंग के नए फैशन के इवनिंग सूट में था. अपने गोरे रंग और लंबे कद के कारण वह ‘शहजादा गुलफाम’ लग रहा था.

तीनों ने हाथ मिलाए. फिर पहले से बुक की गई मेज के इर्दगिर्द बैठ गए. वेटर चांदी के गिलासों में ठंडा पानी सर्व कर गया.

थोड़ी देर बाद वही वेटर उन के पास आया और सिर नवा कर खड़ा हो गया तो सविता ने ड्रिंक लाने का आर्डर दिया.

थोड़ी देर बाद वेटर आर्डर सर्व कर गया. सभी अपनाअपना ड्रिंक पीने लगे. तभी हाल की बत्तियां बुझ गईं. डायस पर धीमाधीमा संगीत बजने लगा. हाल में एक तरफ डांसिंग फ्लोर था. कुछ जोड़े उठ कर डांसिंग फ्लोर पर चले गए.

वहां का माहौल बहुत रोमानी हो चला था. विवेक ने अपना गिलास खत्म किया और उठ खड़ा हुआ. सिर नवाता हुआ मिस रोज की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘लैट अस हैव ए राउंड.’’

मिस रोज मुसकराई. उस ने अपना गिलास खत्म किया और उठ कर अपना बायां हाथ विवेक के हाथ में  थमा दिया. उस की पीठ पर अपनी बांह फिसला विवेक उसे डांसिंग फ्लोर की तरफ ले गया. दोनों साथसाथ थिरकने लगे.

सविता ईर्ष्यालु नहीं थी. उस ने कभी ईर्ष्या नहीं की. मुकाबला नहीं किया था. मगर आज जाने क्यों ईर्ष्या से भर उठी थी. हालांकि वह जानती थी. आयात- निर्यात के धंधे में विदेशी ग्राहकों को ऐंटरटेन करना व्यवसाय सुलभ था, कोई अनोखी बात न थी.

मगर आज वह एक खास मकसद से विवेक के पास आई थी. इस खास अवसर पर उस का किसी अन्य के साथ जाना, चाहे वह ग्राहक ही क्यों न हो, उसे सहन नहीं हो रहा था.

पहला राउंड खत्म हुआ. विवेक बतरा चहकता हुआ मिस रोज को बांहों में पिरोए वापस आया. मिस रोज ने कुरसी पर बैठते हुए कहा, ‘‘सविताजी, आप के साथी बतरा बहुत मंझे हुए डांसर हैं, मेरी तो कमर टूट रही है.’’

‘‘मिस रोज, यह डांसर के साथसाथ और भी बहुत कुछ हैं,’’ सविता ने हंसते हुए कहा.

‘‘बहुत कुछ का क्या मतलब है?’’

‘‘यह मिस्टर बतरा धीरेधीरे समझा देंगे.’’

डांस का दूसरा दौर शुरू हुआ. विवेक उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना हाथ मिस रोज की तरफ बढ़ाया, ‘‘कम अलांग मिस रोज लैट अस हैव अ न्यू राउंड.’’

‘‘आई एम सौरी, मिस्टर बतरा. मैं थक रही हूं. आप अपनी पार्टनर को ले जाएं,’’ मिस रोजी ने अर्थपूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखते हुए कहा.

इस पर विवेक बतरा ने अपना हाथ सविता की तरफ बढ़ा दिया. सविता निर्विकार ढंग से उठी. विवेक बतरा ने अपनी एक बांह उस की कमर में पिरोई और उसे अपने साथ सहारा दे कर डांसिंग फ्लोर पर ले गया.

सविता पहले भी विवेक के साथ डांसिंग फ्लोर पर आई थी. मगर आज उस को विवेक के बाहुपाश में वैसी शिद्दत, वैसा जोश, उमंग और शोखी नहीं महसूस हुई जिन्हें वह हर डांस में महसूस करती थी. दोनों को लग रहा था मानो वे प्रोफेशनल डांसर हों, जो औपचारिक तौर पर डांस कर रहे थे.

विवेक बतरा मुड़मुड़ कर मिस रोज की तरफ देख रहा था. स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. वह न सौत सह सकती है न मुकाबला या तुलना. विवेक बतरा अनजाने में यह सब कर उसे उत्पीडि़त कर रहा था.

आज से पहले सविता ने कभी विवेक बतरा के व्यवहार की समीक्षा न की थी. उस ने अपने दफ्तर और व्यापार में उस  की खामखा की दखलंदाजी और अनावश्यक रौब जमाने की प्रवृत्ति को यह सोच कर सह लिया था कि वह उस से शादी करने वाली था. मगर आज मात्र 1 घंटे में उस की सोच बदल गई थी.

 

उस के पूर्व पति ने अपनी हीन भावनावश उस को हमेशा सताया था. बेवजह शक किया था. विवेक बतरा उस के पूर्व पति की तुलना में प्रभावशाली व्यक्तित्व का था. वह भी कल को शादी के बाद उसे सता सकता है. एक बार पति का दर्जा पाने पर या पार्टनर बन जाने पर कंपनी का सारा नियंत्रण अपने हाथ में ले सकता है.

आज मात्र एक नई उम्र की हसीना के रूबरू होने पर उस का ऐसा व्यवहार था, कल न जाने क्या होगा?

विवेक बतरा को भी मिस रोज, जो आयु में सविता से काफी छोटी थी, ताजे और खिले गुलाब जैसी लगी थी. उस की तुलना में सविता एक पके फल जैसी थी, जिस में मिठास पूरी थी, मगर यह मिठास ज्यादा होने पर उबा देती थी. इस मिठास में जीभ को ताजगी भरने वाली खास मिठास न थी जो पेड़ से तोड़े गए ताजे फल में होती थी.

डांस का दूसरा दौर समाप्त हुआ. कई महीने से जो फैसला न हो पाया था, मात्र 45 मिनट के डांसिंग सेशन में हो गया था.

नई मोमबत्तियां लग गईं. खाना काफी लजीज था. मिस रोज ने खाने की तारीफ के साथ आगे फिर मिलने की बात कहते हुई विदा ली. विवेक बतरा उसे छोड़ने बाहर तक गया. सविता निर्विकार भाव से सब देख रही थी.

मिस रोज को छोड़ कर विवेक वापस आया तो बोला, ‘‘सविता डार्लिंग, आज आप को अपना फैसला सुनाना था?’’

‘‘क्या जरूरत है?’’ लापरवाही से सविता ने कहा.

‘‘आप ने आज ही तो कहा था,’’ विवेक बतरा जैसे याद दिला रहा था.

‘‘हम दोनों में जो है वह शादी के बिना भी चल सकता है.’’

‘‘मगर शादी फिर शादी होती है.’’

‘‘देखिए, मिस्टर बतरा, जब तक फासला होता है तभी तक हर चीज आकर्षक नजर आती है. पहाड़ हम से दूर हैं, हमें सुंदर लगते हैं मगर जब हम उन पर जाते हैं तब हमें पत्थर नजर आते हैं. आज मैं थोड़ी जवान हूं, कल को प्रौढ़, वृद्धा हो जाऊंगी मगर आप तब भी जवान होंगे. तब आप को संतुष्टि के लिए नई कली का रस ही सुहाएगा, इसलिए अच्छा है आप अभी से नई कली ढूंढ़ लें. मैं आप की व्यापार में सहयोगी ही ठीक हूं.’’

विवेक बतरा भौचक्क था. उसे ऐसे रोमानी माहौल में ऐसे विपरीत फैसले की उम्मीद न थी. वेटर को 500 रुपए का नोट टिप के लिए थमा, सविता सधे कदमों से वापस चली गई. ‘रिंग सेरेमनी’ की अंगूठी बंद की बंद ही रह गई थी. डांस फ्लोर पर डांस का नया दौर आरंभ हो रहा था.

पिया बावरी: कौनसी तरकीब निकाली थी आरती ने

अजयऔफिस के लिए निकला तो आरती भी उसे कार तक छोड़ने नीचे उस के साथ ही उतर आई. यह उस का रोज का नियम था. ऐसा दृश्य कहीं और देखने को नहीं मिलता था कि मुंबई की सुबह की भागदौड़ के बीच कोई पत्नी रोज अपने पति को छोड़ने कार तक आए. आरती का बनाया टिफिन और अपना लैपटौप बैग पीछे की सीट पर रख आरती को मुसकरा कर बाय बोलते हुए अजय कार के अंदर बैठ गए.

आरती ने हाथ हिला कर बाय किया और अपने रूटीन के अनुसार सैर के लिए निकलने लगी तो कुछ ही दूर उस की नैक्स्ट डोर पड़ोसिन अंजलि भी औफिस के लिए भागती सी चली जा रही थी. आरती पर नजर डाली और कुछ घमंड भरी आवाज में कहा, ‘‘हैलो आरती, भई सच कहो, सब को औफिस के लिए निकलते देख दिल में कुछ तो होता होगा कि सभी कुछ कर रहे हैं, काश मैं भी कोई जौब करती? मन तो करता होगा सुबह तैयार हो कर निकलने का. यहां तो लगभग सभी जौब करती हैं.’’

आरती खुल कर हंसी, ‘‘न बाबा, तुम लोगों को औफिस जाना मुबारक. अपन तो अभी सैर से आ कर न्यूज पेपर पढ़ेंगे, आराम करेंगे, फिर बच्चों को कालेज भेजने की तैयारी.’’

‘‘सच बताओ आरती, कभी दिल नहीं  करता कामकाजी स्त्री होने का?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं करता. कमाने के लिए पति है मेरे पास,’’ आरती हंस दी, फिर कहा, ‘‘तुम थकती नहीं इस सवाल से? कितनी बार पूछ चुकी हो?’’

‘‘फिर तुम किसलिए हो?’’ कुछ कड़वे से लहजे में अंजलि ने पूछा तो उस के साथ तेज चलती हुई आरती ने कहा, ‘‘अपने पति को प्यार करने के लिए… लो, तुम्हारी बस आ गई,’’ आरती उसे बाय कह कर सैर के लिए निकल गई.

बस में बैठ कर अंजलि ने बाहर झंका. आरती तेज कदमों से सैर कर रही थी.

रोज की तरह 1 घंटे की सैर कर के जब तक आरती आई, पीहू और यश कालेज जाने के लिए तैयार थे. फै्रश हो कर बच्चों के साथ ही उस ने नाश्ता किया, फिर दोनों को भेज न्यूज पेपर पढ़ने लगी. उस के बाद मेड के आने पर रोज के काम शुरू हो गए.

आरती एक पढ़ीलिखी हाउसवाइफ थी. नौकरी न करने का फैसला उस का खुद का था. वह घरपरिवार की जिम्मेदारियां बहुत संतोष और खुशी से निभा कर अपनी लाइफ में बहुत खुश थी. आराम से रहती, खूब हंसमुख स्वभाव था, न किसी से शिकायतें करने की आदत थी, न किसी से फालतू उम्मीदें.

वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती थी, सम?ाती थी कि इस महानगर की भागदौड़ में घर से निकलना आसान काम नहीं होता, पर उसे यह बात हमेशा अजीब लगती कि वह वर्किंग महिलाओं का सम्मान करती है तो आसपास की वर्किंग महिलाएं अंजलि, मीनू और रीता उस के हाउसवाइफ होने का मजाक क्यों बनाती हैं? उसे नीचे क्यों दिखाती हैं?

उसे याद है जब वह शुरूशुरू में इस सोसाइटी में रहने आई तो अंजलि ने पूछा था, ‘‘कुछ काम नहीं करतीं आप? बस घर में रहतीं?’’

उस के पूछने के ढंग पर आरती को हंसी आ गई थीं. उस ने अपने स्वभाव के अनुसार हंस कर जवाब दिया था, ‘‘भई, घर में भी जो काम होते हैं, उन्हें करती हूं, अपना हाउसवाइफ होना ऐंजौय करती हूं.’’

‘‘तुम्हारे पति तुम्हें कहते नहीं कि कुछ काम करो बाहर जा कर?’’

‘‘नहीं, वे इस में खुश रहते हैं कि जब वे औफिस से लौटें तो मैं उन्हें खूब टाइम दूं, उन्हें भी घर लौटने पर मेरे साथ समय बिताना अच्छा लगता है.’’

‘‘कमाल है.’’

आरती हंस दी पर उसे यह समझ आ गया था कि इन लोगों को आसपास की हाउसवाइफ की लाइफ बिलकुल खराब लगती है. यहां तो मेड भी आ कर उत्साह से पहला सवाल यही पूछती है कि मैडम, काम पर जाती हैं क्या?

उस के आसपास वर्किंग महिलाएं ही ज्यादा थीं जो पूरा दिन घर में रहने वाली महिलाओं को किसी काम का न समझतीं. अजय और आरती ने प्रेम विवाह किया था.

आरती के कोई जौब न करने का फैसला अजय को ठीक लगा था. इस में उसे कोई भी परेशानी नहीं थी. अंजलि, मीनू, रीता के पति भी एकदूसरे को अच्छी तरह जानते थे. वह तो किसी पार्टी में किसी के दोस्त के यह पूछने पर कि भाभीजी क्या करती हैं तो आरती को निहारता हुआ हंस कर कह देता कि उस का काम है मुझे प्यार करना और वह बखूबी इस काम को अंजाम देती है.

आसपास खड़ी हो कर यह बात सुन रहीं अंजलि, मीनू और रीता इस बात पर एकदूसरे को देखतीं और इशारे करतीं कि यह देखो यह भी अजीब ही है.

ऐसी ही एक पार्टी में मीनू के पति ने बात छेड़ दी, ‘‘आरतीजी, आप बोर नहीं होतीं घर रह कर? मीनू तो घर में रहने पर बहुत जल्दी बोर हो जाती है. यह तो बहुत ऐंजौय करती है अपने पैरों पर खड़ी होने को. हर काम अपनी मरजी से करने में एक अलग ही खुशी होती है. आप तो काफी ऐजुकेटेड हैं, आप क्यों कोई जौब नहीं करतीं?’’

आरती ने खुशदिली से कहा, ‘‘मुझे तो शांति से घर रहना पसंद है. मैं ने तो शादी से पहले ही अजय से कह दिया था, मैं कोई जौब नहीं करूंगी, मैं बस घर में रह कर अपनी जिम्मेदारियां उठाऊंगी. फिर आरती ने और मस्ती से कहा, ‘‘मैं क्यों करूं कोई काम, मेरा पति है काम करने के लिए, वह कमाता है, मैं खर्च करती हूं मजे से, और मजे की बातें आज बता ही देती हूं, मैं अपने मन में अजय को आज भी पति नहीं, प्रेमी ही  समझती हूं अपना जो मेरे आसपास रहे तो मुझे अच्छा लगता है, मैं नहीं चाहती कि मैं कोई जौब करूं और वह मुझ से पहले आ कर घर में मेरा इंतजार करे.

‘‘किसी भी मेड के हाथ का बना खाना खा कर मेरे पति और मेरे बच्चों की हैल्थ खराब हो, मुझे तो अजय का हर काम अपने हाथों से करना अच्छा लगता है. आप लोगों को पता है कि मैं लाइफ की किन चीजों को आज भी ऐंजौय करती हूं. जब अजय नहा कर निकलें तो मैं उन का टौवेल उन के हाथ से ले कर तार पर टांग दूं, उन का टिफिन कोई बोझ समझ कर नहीं, मुहब्बत से पैक करूं और बदले में पता है मुझे क्या मिलता है, आरती बताते हुए ही शर्मा गई, ‘‘अपने लिए ढेर सी फिक्र और प्यार. असल में आप लोग घर में रहने को जितनी बुरी चीज सम?ाने लगे हैं, उतनी बुरी बात यह है नहीं.

‘‘मैं जब वर्किंग लेडीज की रिस्पैक्ट कर सकती हूं तो आप लोगों को एक हाउसवाइफ के कामों की वैल्यू क्यों समझ नहीं आती. कल हमारी पीहू भी अपने पैरों पर खड़ी होगी, जौब करेगी, यह उस की चौइस ही होगी कि उसे क्या पसंद है. हां, वह किसी हाउसवाइफ का मजाक कभी नहीं उड़ाएगी, यह भी जानती हूं मैं.’’

सब चुप से हो गए थे. आरती के सभ्य शब्दों में कही बात का असर जरूर हुआ था. सब इधरउधर हुए तो रीता ने कहा, ‘‘आरती, मुझे तुम्हें थैंक्स भी बोलना था. उस दिन जब घर पर रिमी अकेली थी, हम दोनों को औफिस से आने में देर हो गई थी तो तुम ने उसे बुला कर पीहू के साथ डिनर करवाया, हमें बहुत अच्छा लगा.’’

‘‘अरे, यह कोई बड़ी बात नहीं है, बच्चे तो बच्चे हैं, पीहू ने बताया कि रिमी अब तक अकेली है तो मैं ने उसे बुला लिया था.’’

मीनू आरती के ऊपर वाले फ्लैट में रहती थी. उस ने पूछ लिया, ‘‘आरती, तुम ने जो अजय को औफिस में कल करेले की सब्जी दी थी, उस की रैसिपी देना. अमित ने भी टेस्ट की थी. बोल रहे थे कि बहुत बढि़या बनी थी. ऐसी सब्जी उन्होंने कभी नहीं खाई थी और पता है अमित बता रहे थे कि अजय तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं.’’

अमित और अजय एक ही औफिस में थे. आरती हंस पड़ी, ‘‘अजय का बस चले तो वे रोज करेले बनवाएं, रैसिपी भी बता दूंगी और जब भी कभी बनाऊंगी, भेज भी दूंगी.’’

थोड़े दिन आराम से बीते. काफी दिन से कोई आपस में मिला नहीं था. कोरोना वायरस का प्रकोप शुरू हो गया था. सब वर्क फ्रौम होम कर रहे थे. अब अंजलि, मीनू, रीता की हालत खराब थी, न घर में रहने का शौक, न आदत. सब घर में बंद. लौकडाउन ने सब की लाइफ ही बदल कर रख दी थी, न कोई मेड आ रही थी, न कोई घर के काम संभाल पा रहा था. अब सब आपस में बस कभीकभी फोन ही करते.

एक आरती थी जिस ने कोई भी शिकायत किसी से नहीं की. जितना काम होता, उस में किसी की थोड़ी हैल्प ले लेती. अजय तो अब और हैरान था कि जहां उस का हर दोस्त फोन करते ही शुरू हो जाता कि यार, कहां फंस गए, औफिस के काम करो. फिर घर में लड़ाई भी होने लगी है ज्यादा. वहीं वह आरती को धैर्य से सब संभालता देखता. वह भी थोड़ेबहुत काम सब से करवा लेती पर ऐसे नहीं कि घर में जैसे कोई तूफान आया है.

आराम से जब बच्चे औनलाइन पढ़ते, वह खुद औफिस के कामों में बिजी होता, आरती सब शांति से करती रहती. इस दौरान तो उस ने आरती के और गुण भी देख लिए. वह उस पर और फिदा था.

अमित परेशान था. घर से काम करने पर तो औफिस के काम ज्यादा रहने लगे थे. ऊपर

से उसे अपने बड़े बालों पर बहुत गुस्सा आता रहता. सारे सैलून बंद थे. कहने लगा, ‘‘एक तो इतनी जरूरी वीडियो कौल है आज, औफिस के कितने लोग होंगे और मेरे बाल देखो, शक्ल ही बदल गई घर में रहतेरहते. क्या हाल हो गया है बालों का.’’

उस की चिकचिक देख मीनू ने कहा, ‘‘चिढ़ क्यों कर रहे हो. सब का यही हाल होगा. बाकियों ने कहां कटवा रखे होंगे बाल. सब ही परेशानी में हैं आजकल.’’

अमित को बहुत देर झंझलाहट होती रही. उस दिन की मीटिंग शुरू हुई तो सभी के बाल बढ़े हुए थे. पहले तो सब कलीग्स इस बात पर हंसे, फिर अचानक अजय के बहुत ही फाइन हेयर कट पर सब की नजर गई तो सब बुरी तरह चौंके.

एक कलीग ने कहा, ‘‘यह तुम्हारा हेयरकट कहां हो गया इतना बढि़या. कहां हम सब जंगली लग रहे हैं और तुम तो जैसे अभीअभी किसी सैलून से निकले हो.’’

अजय ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आरती ने किया है यह और मेरा ही नहीं, बच्चों का भी.’’

सब दोस्त आरती की तारीफ करने लगे थे. अमित अपने लुक पर बहुत ध्यान देता था. जब वह काम से फ्री हुआ, उस ने एक ठंडी सांस ली. उठ कर फ्रैश हुआ और शीशे के सामने खड़ा हो कर खुद को देखने लगा.

मीनू भी वहीं लैपटौप पर कुछ काम कर रही थी. पूछा, ‘‘क्या निहार रहे हो?’’

‘‘अपने बाल.’’

‘‘क्या कोई और काम नहीं है तुम्हें? हो गई न मीटिंग? सब के ऐसे ही बढ़े हुए थे न?’’

‘‘अजय का हेयरकट बहुत जबरदस्त था.’’

‘‘क्या?’’ मीनू चौंकी.

‘‘हां, आरती ने अजय और बच्चों का बहुत शानदार हेयरकट कर दिया है. मुंह चमक रहा था अजय का, यह औरत क्या है.’’

मीनू ने ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘यह पिया बावरी है.’’

अमित को हंसी आ गई, ‘‘डियर, कभी तुम भी बन जाओ पिया बावरी.’’

मीनू ने हाथ जोड़ दिए, मुसकरा कर कहा, ‘‘आसान नहीं है.’’

पान खाए सैयां हमारो

शाम के 6 बजे जब सब 1-1 कर घर जाने के लिए अपनाअपना बैग समेटने लगे तो सिया ने चोरी से एक नजर अनिल पर डाली. औफिस में नया आया सब से हैंडसम, स्मार्ट, खुशमिजाज अनिल उसे देखते ही पसंद आ गया था. वह मन ही मन उस के प्रति आकर्षित थी.

अनिल ने भी एक नजर उस पर डाली तो वह मुसकरा दी. दोनों अपनीअपनी चेयर से लगभग साथ ही उठे. लिफ्ट तक भी साथ ही गए. 2-3 लोग और भी उन के साथ बातें करते लिफ्ट में आए. आम सी बातों के दौरान सिया ने भी नोट किया कि अनिल भी उस पर चोरीचोरी नजर डाल रहा है.

बाहर निकल कर सिया रिकशे की तरफ जाने लगी तो अनिल ने कहा, ‘‘सिया, कहां जाना है आप को मैं छोड़ दूं?’’

‘‘नो थैंक्स, मैं रिकशा ले लूंगी.’’

‘‘अरे, आओ न, साथ चलते हैं.’’

‘‘अच्छा, ठीक है.’’

अनिल ने अपनी बाइक स्टार्ट की, तो सिया उस के पीछे बैठ गई. अनिल से आती परफ्यूम की खुशबू सिया को भा रही थी. दोनों को एकदूसरे का स्पर्श रोमांचित कर गया. बनारस में इस औफिस में दोनों ही नए थे. सिया की नियुक्ति पहले हुई थी.

अचानक सड़क के किनारे होते हुए अनिल ने ब्रेक लगाए तो सिया चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ कहते हुए अनिल ने अपनी पैंट की जेब से गुटका निकाला और बड़े स्टाइल से मुंह में डालते हुए मुसकराया.

‘‘यह क्या?’’ सिया को एक झटका सा लगा.

‘‘मेरा फैवरिट पानमसाला.’’

‘‘तुम्हें इस की आदत है?’’

‘‘हां, और यह मेरी स्टाइलिश आदत है, है न?’’ फिर सिया के माथे पर शिकन देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘तुम्हें इन सब चीजों का शौक है?’’

‘‘हां, पर क्या हुआ?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कह कर वह चुप रही तो अनिल ने फिर बाइक स्टार्ट कर ली.

धीरेधीरे यह रोज का क्रम बन गया. घर से आते हुए सिया रिकशे में आती, औफिस से वापस जाते समय अनिल उसे उस के घर से थोड़ी दूर उतार देता. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे से खुलते गए.

अनिल का सिया के प्रति आकर्षण बढ़ता गया. मौडर्न, सुंदर, स्मार्ट सिया को वह अपने भावी जीवनसाथी के रूप में देखने लगा था. कुछ ऐसा ही सिया भी सोचने लगी थी. दोनों को विश्वास था कि उन के घर वाले उन की पसंद को पसंद करेंगे.

अनिल तो सिया के साथ अपना जीवन आगे बढ़ाने के लिए शतप्रतिशत तय कर चुका था पर सिया एक पौइंट पर आ कर रुक जाती थी. अनिल की लगातार मुंह में गुटका दबाए रखने की आदत पर वह जलभुन जाती थी. कई बार उस ने इस से होने वाली बीमारियों के बारे में चेतावनी भी दी तो अनिल ने बात हंसी में उड़ा दी, ‘‘यह क्या तुम बुजुर्गों की तरह उपदेश देने लगती हो. अरे, मेरे घर में सब खाते हैं, मेरे मम्मीपापा को भी आदत है, तुम खाती नहीं न, इसलिए डरती हो. 2-3 बार खाओगी तो स्वाद अपनेआप अच्छा लगने लगेगा. पहले मेरी मम्मी भी पापा को मना करती थीं. फिर धीरेधीरे वे गुस्से में खुद खाने लगीं और अब तो उन्हें भी मजा आने लगा है, इसलिए अब कोई किसी को नहीं टोकता.’’

सिया के दिल में क्रोध की एक लहर सी उठी पर अपने भावों को नियंत्रण में रखते हुए बोली, ‘‘पर अनिल, तुम इतने पढ़ेलिखे हो, तुम्हें खुद भी यह बुरी आदत छोड़नी चाहिए और अपने मम्मीपापा को भी समझाना चाहिए.’’

‘‘उफ सिया. छोड़ो यार, आजकल तुम घूमफिर कर इसी बात पर आ जाती हो. हमारे मिलने का आधा समय तो तुम इसी बात पर बिता देती हो. अरे, तुम ने वह गाना नहीं सुना, ‘पान खाए सैयां हमारो…’ फिर हंसा, ‘‘तुम्हें तो यह गाना गाना चाहिए, देखा नहीं कभी क्या कि वहीदा रहमान यह गाना गाते हुए कितनी खुश होती हैं.’’

‘‘वे फिल्मों की बातें हैं. उन्हें रहने दो.’’

अनिल उसे फिर हंसाता रहा पर वह उस की इस आदत पर काफी चिंतित थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अनिल की इस आदत को कैसे छुड़ाए.

एक दिन सिया अपने मम्मीपापा और बड़े भाई राहुल से मिलवाने अनिल को घर ले गई. अनिल का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि देखने वाला तुरंत प्रभावित होता था. सब अनिल के साथ घुलमिल गए. बातें करतेकरते जब ऐक्सक्यूज मी कह कर अनिल ने अपनी जेब से पानमसाला निकाल कर अपने मुंह में डाला, तो सब उस की इस आदत पर हैरान से चुप बैठे रह गए.

अनिल के जाने के बाद वही हुआ जिस की उसे आशा थी. सिया की मम्मी सुधा ने कहा, ‘‘अनिल अच्छा लगा पर उस की यह आदत …’’ सिया ने बीच में ही कहा, ‘‘हां मम्मी, मुझे भी उस की यह आदत बिलकुल पसंद नहीं है. क्या करूं समझ नहीं आ रहा है.’’

थोड़े दिन बाद ही अनिल सिया को अपने परिवार से मिलवाने ले गया. अनिल के पापा श्याम और मम्मी मंजू अनिल की छोटी बहन मिनी सब सिया से बहुत प्यार से पेश आए. सिया को भी सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा. मंजू ने तो उसे डिनर के लिए ही रोक लिया. सिया भी सब से घुलमिल गई. फिर वह किचन में ही मंजू का हाथ बंटाने आ गई. सिया ने देखा, फ्रिज में एक शैल्फ पान के बीड़ों से भरी हुई थी.

‘‘आंटी, इतने पान?’’ वह हैरान हुई.

‘‘अरे हां,’’ मंजू मुसकराईं, ‘‘हम सब को आदत है न. तुम तो जानती ही हो, बनारस के पान तो मशहूर हैं.’’

‘‘पर आंटी, हैल्थ के लिए…’’

‘‘अरे छोड़ो, देखा जाएगा,’’ सिया के अपनी बात पूरी करने से पहले ही मंजू बोलीं.

किचन में ही एक तरफ शराब की बोतलों का ढेर था. वह वौशरूम में गई तो वहां उसे जैसे उलटी आने को हो गई. बाहर से घर इतना सुंदर और वौशरूम में खाली गुटके यहांवहां पड़े थे. टाइल्स पर पड़े पान के छींटों के निशान देखते ही उसे उलटी आ गई. सभ्य, सुसंस्कृत दिखने वाले परिवार की असलियत घर के कोनेकोने में दिखाई दे रही थी. ‘अगर वह इस घर में बहू बन कर आ गई तो उस का बाकी जीवन तो इन गुटकों, इन बदरंग निशानों को साफ करते ही बीत जाएगा,’ उस ने इन विचारों में डूबेडूबे ही सब के साथ डिनर किया.

डिनर के बाद अनिल सिया को घर छोड़ आया. घर आने के बाद सिया के मन में कई विचार आ जा रहे थे. अनिल एक अच्छा जीवनसाथी सिद्ध हो सकता है, उस के घर वाले भी उस से प्यार से पेश आए पर सब की ये बुरी आदतें पानमसाला, शराब, सिगरेट के ढेर वह अपनी आंखों से देख आई थी. घर आ कर उस ने अपने मन की बात किसी को नहीं बताई पर बहुत कुछ सोचती रही. 2-3 दिन उस ने अनिल से एक दूरी बनाए रखी. सिया के इस रवैए से परेशान अनिल बहुत कुछ सोचने लगा कि क्या हुआ होगा पर उसे जरा भी अंदाजा नहीं हुआ तो शाम को घर जाने के समय वह सिया का हाथ पकड़ कर जबरदस्ती कैंटीन में ले गया, वहां बैठ कर उदास स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ है, बताओ तो मुझे?’’

सिया को जैसे इसी पल का इंतजार था. अत: उस ने गंभीर, संयत स्वर में कहना शुरू किया, ‘‘अनिल, मैं तुम्हें बहुत पसंद करती हूं, पर हम इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे.’’

अनिल हैरानी से चीख ही पड़ा, ‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे परिवार को जो ये कुछ बुरी आदतें हैं, मुझ से सहन नहीं होंगी, तुम एजुकेटेड हो, तुम्हें इन आदतों का भविष्य तो पता ही होगा. भले ही तुम इन आदतों के परिणामों को नजरअंदाज करते रहो पर जानते तो हो ही न? मैं ऐसे परिवार की बहू कैसे बनूं जो इन बुरी आदतों से घिरा है? आई एम सौरी, अनिल, मैं सब जानतेसमझते ऐसे परिवार का हिस्सा नहीं बनना चाहूंगी.’’

अनिल का चेहरा मुरझा चुका था. बड़ी मुश्किल से उस की आवाज निकली, ‘‘सिया, मैं तो तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’

‘‘हां अनिल, मैं भी तुम से दूर नहीं होना चाहती पर क्या करूं, इन व्यसनों का हश्र जानती हूं मैं. सौरी अनिल,’’ कह उठ खड़ी हुई.

अनिल ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘अगर मैं यह सब छोड़ने की कोशिश करूं तो? अपने मम्मीपापा को भी समझांऊ तो?’’

‘‘तो फिर मैं इस कोशिश में तुम्हारे साथ हूं,’’ मुसकराते हुए सिया ने कहा, ‘‘पर इस में काफी समय लगेगा,’’ कह सिया चल दी.

आत्मविश्वास से सधे सिया के कदमों को देखता अनिल बैठा रह गया.

आदतन हाथ जेब तक पहुंचा, फिर सिर पकड़ कर बैठा रह गया.

मेरी पहचान: क्या मां बन पाई अदिति

आज पार्टी में सभी मेरे रंगरूप की तारीफ कर रहे थे. निकिता बोली, ‘‘दीदी, आप की उम्र तो रिवर्स गियर में चल पड़ी है. लगता ही नहीं आप की 4 वर्ष की बेटी भी है.’’

सोनल भी खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘आप की त्वचा से आप की उम्र का पता ही नहीं चलता. यह है संतूर साबुन का कमाल,’’ और फिर एक सम्मिलित ठहाके से अनु दीदी का ड्राइंगरूम गूंज उठा.

मैं भी मंदमंद मुसकान के साथ सारी तारीफों का मजा ले रही थी. 32 वर्षीय औसत रंगरूप की महिला हूं तो जब से नौकरी आरंभ करी है तो हाथ थोड़ा खुल गया है. अपने रखरखाव पर थोड़ा अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया है. नतीजतन 2 वर्षों के भीतर ही खुद की ही छोटी बहन लगने लगी हूं.

मेरा नाम अदिति है और मैं एक प्राईवेट विद्यालय में प्राइमरी कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाती हूं. शादी से पहले मैं डंडे की तरह पतली थी, पार्लर बस बाल कटाने ही जाती थी, क्योंकि उन दिनों लड़कियों का पार्लर अधिक जाना अच्छा नहीं समझा जाता था. घनी जुड़ी हुई भौंहें और होंठों के ऊपर रोयों की एक स्पष्ट छाप थी, फिर भी अच्छी लड़की के तमगे के कारण मैं ने कभी उन मूंछों या भौंहों को छुआ नहीं. कपड़े भी अपने से दोगुना बड़े पहनती थी ताकि मेरा पतलापन ढका रहे. अब ऐसे में 10 बार मेरे रिश्ते के लिए न हो चुकी थी पर फिर न जाने मेरे पति कपिल को इस रिश्ते के गणित में क्या नफा दिखा कि उन्होंने मुझे देखते ही पसंद कर लिया.

न न ऐसे मत सोचिए कि कपिल कोई हीरो थे. वे भी मेरी तरह औसत रंगरूप के ही स्वामी थे, पर इस देश में हर ठीकठाक कमाने वाले लड़के को ऐश्वर्य की दरकार होती है. मैं खुश थी और पहली बार फेशियल, ब्लीच, वैक्सिंग इत्यादि कराई और अपनी नाप के कपड़े भी सिलवाए. गलत नहीं होगा अगर मैं कहूं कि शादी में मैं बेहद खूबसूरत लग रही थी, कम से कम आईना और मेरी सहेलियां तो यही कह रही थीं.

शादी के बाद कपिल और उन के परिवार के प्यार और सम्मान ने मुझे आत्मविश्वास के पंख दे दिए और मैं आकाश में उड़ने लगी. कपिल एक सरकारी विभाग में क्लास टू ग्रेड के इंप्लोई थे पर फिर भी उन्होंने खर्चों पर जरा भी टोकाटाकी नहीं की. हर महीने पार्लर जाती हूं और जो भी नई डिजाइनर ड्रैस आती है उस की कौपी जरूर खरीद लेती हूं.

फिर 2 वर्ष के भीतर दीया ने मुझे मां बनने का सुख प्रदान किया पर सुख के साथ बढ़ गई जिम्मेदारियां और खर्चे भी. तब कपिल के कहने पर मैं ने नौकरी के लिए हाथपैर मारे और जल्द ही मुझे एक नामी विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी मिल गई. घर पर दीया की देखभाल के लिए उस के दादादादी थे.

एक नया अध्याय शुरू हुआ जिंदगी का, खुद को सही माने में आजाद महसूस करने

का, खुद के वजूद से रूबरू होने का. शुरू में हर काम में घबराहट होती थी. यहां स्कूल में हर काम लैपटौप पर करना होता था. बहुत पहले किया हुआ कंप्यूटर कोर्स काम आ गया. तनाव और नईनई चीजों को सीखने की कोशिश करते हुए 1 माह बीत गया और पहली सैलरी हाथ में आते ही तनाव और अनिश्चितता के बादल हट गए. नए लोगों से दोस्ती के साथ जीवन को एक नए नजरिए से देखना भी आरंभ कर दिया. सच पूछो तो सबकुछ एकदम सही चल रहा था. आज कपिल की दीदी के यहां हाउसवार्मिंग पार्टी में इन सब तारीफों का आनंद ले रही हूं और साथ ही कुदरत को धन्यवाद भी दे रही हूं मुझे इतना अच्छा घरपरिवार देने के लिए.

रात को बहुत थक कर जैसे ही सोने की कोशिश कर रही थी, कपिल नजदीक आने की मनुहार करने लगे पर मैं ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘यार मन नहीं है. 10 दिन ऊपर हो गए हैं, अब तक डेट नहीं आई.’’

कपिल चुहल करते हुए बोले, ‘‘मुबारक हो, लगता दीया के लिए छोटा भाई या बहन आने वाली है… मम्मीपापा की भी दिल की इच्छा पूरी हो जाएगी.’’

मैं ने कपिल के हाथ को झटकते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है न अभी मैं दूसरा बच्चा नहीं कर सकती, नहीं तो कन्फर्मेशन रुक जाएगी.’’

कपिल ने प्यार से सिर थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरे बाबा तनाव के कारण ये सब हो रहा है. लाओ सिर पर तेल की मालिश कर दूं.’’

ऐसे ही देखतेदेखते 10 दिन और बीत गए, फिर बाजार में उपलब्ध प्रैगनैंसी किट से टैस्ट किया पर नतीजा नैगेटिव था.

रविवार को कपिल और मैं डाक्टर के पास गए. डाक्टर ने सारी बातें ध्यान से सुनीं और फिर कुछ टैस्ट कराने के लिए कहा. मंगलवार को रिपोर्ट आ गई और फिर से हम डाक्टर के सामने बैठे थे. रिपोर्ट पढ़ते हुए डाक्टर के चेहरे पर चिंता की रेखाएं थीं.

चश्मा निकाल कर डाक्टर बहुत स्नेहिल परंतु गंभीर स्वर में बोली, ‘‘ये सारी रिपोर्ट्स पैरिमेनोपौजल की तरफ इशारा कर रही हैं. आप को प्रीमैच्योर ओवेरियन फेल्योर है.’’

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्यों और कैसे यह तूफान मेरी जिंदगी में आ गया है. मैं अब तक एक पूर्ण स्त्री थी. अभी तक तो मैं ने अपने स्त्रीत्व को पूर्णरूप से भोगा भी नहीं था और मेरा शरीर मेनोपौज की तरफ जा रहा है और वह भी मात्र 32 वर्ष की उम्र में. इस उम्र में तो बहुत बार लड़कियों की शादी होती है.

एक टूटा हुआ मन और अधूरा तन ले कर मैं कपिल के साथ घर आ गई. सासससुर बहुत आशा से कपिल की तरफ देख रहे थे, कोई खुशखबरी सुनने की आस में पर कपिल ने कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

मैं ने कपिल से कहा, ‘‘झूठ क्यों बोला? क्यों नहीं बताया मैं अब कभी चाह कर भी मां नहीं बन पाऊंगी?’’ और यह कहते हुए एक तीव्र दर्द की लहर मुझे भीतर तक हिला गई.

पहले मेरी मां बनने की कोई लालसा नहीं थी पर अब मैं दोबारा मां न बन पाने की लिए बिसूर रही थी. सब से ज्यादा साल रहा था एक खालीपन, मेरे स्त्री होने की पहचान मुझ से छूट रही थी वह भी मात्र 32 वर्ष की उम्र में, मैं जब शाम को भी अपने कमरे से बाहर नहीं निकली तो सासूमां अंदर आईं. उन्हें देख कर मैं सकपका गई. बहुत प्यार से उन्होंने सिर पर हाथ फेर कर पूछा तो मैं अपने को रोक नहीं पाई. रोते हुए उन्हें सब बता दिया. वे बिना कुछ बोले कमरे से बाहर निकल गईं. मुझे उन से ऐसी ही प्रतिक्रिया की उम्मीद थी. अब मैं उन्हें उन का दूसरा पोता या पोती नहीं दे पाऊंगी न, फिर वे क्यों परवाह करेंगी मेरी…ये सब सोचतेसोचते मुझे रोतेरोते सुबकियां आने लगीं.

अब मुझे सब समझ आ रहा था कि क्यों मुझे इतना पसीना आता था. क्यों हर समय मैं चिड़चिड़ी रहती थी. क्यों मुझे कपिल का संग अब थोड़ा तकलीफदेह लगने लगा था. मैं इन सारी चीजों को अपने रोजमर्रा के तनाव से जोड़ रही थी पर असली कारण तो पैरिमेनोपौज था.

अगले दिन मैं ने स्कूल में अपनी सब से अच्छी दोस्त से जब यह बात साझा

करी तो उस की आंखों में अपने लिए चिंता और दया के मिलेजुले भाव दिखे पर फिर वह हंसते हुए बोली, ‘‘चल अच्छा है तेरा हर महीने सैनिटरी पैड्स खरीदने का खर्चा बच जाएगा.’’

हर तरफ से बस सहानुभूति मिल रही थी, ‘‘बेचारी अभी उम्र ही क्या थी, अब पति को कैसे बांध कर रख पाएगी.’’

‘‘सुनो अदिति, जिम आरंभ कर लो… इस चरण में तेजी से वजन बढ़ता है.’’

‘‘देखो कहीं जोड़ों का दर्द अभी से आरंभ

न हो जाए, हारमोंस रिप्लेसमैंट थेरैपी करवा लो.’’

मेरा दिमाग चक्करघिन्नी की तरह घूम रहा था. उधर रोज मेरे करीब आने की चाह रखने वाले मेरे प्यारे पति ने पिछले 15 दिनों से मेरे करीब आने की कोशिश नहीं करी. वजह मुझे पता है. उन्हें भी लगता है अब मैं उन्हें सुख नहीं दे पाऊंगी.

न जाने क्यों खिंचेखिंचे से रहते हैं. अगर कुछ बांटना चाहती हूं तो फौरन बोल देंगे, ‘‘अब रोनेबिसूरने से क्या होगा? जो है जैसा है उसे स्वीकार करो और आगे बढ़ो.’’

कैसे समझाऊं उन्हें अपने दिल की बात, मुझे ऐसा लगता है जैसे हरियाली आने से पहले ही मैं बंजर हो गई हूं. यह स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो रहा था कि मेरा यौवनाकाल कुछ ज्यादा ही तेज गति से चला है और जो गंतव्य 47-48 वर्ष के बाद आता है वह 17-18 वर्ष पहले ही मेरे जीवन में आ गया है.

मुझे लग रहा था शारीरिक से ज्यादा मैं मानसिक रूप से कमजोर हो गई हूं. उधर कपिल ने अपनेआप को एक दायरे में कैद कर लिया था. न जाने सारा दिन लैपटौप पर क्या करते रहते हैं. उधर सासूमां ने कहा तो कुछ नहीं पर ऐसा लगता है जैसे मुझ से खुश नहीं हैं या यह मेरा वहम है.

1 माह होने को आ गया और मैं ने अपने मन को समझा लिया था कि अब ये ही मेरी जिंदगी है. आईने को रोज घूरघूर कर देखती थी कि कहीं झुर्रियों ने अपना जाल तो नहीं बना लिया. तेज चलने से डरने लगी कि कहीं गिर कर हड्डी न टूट जाए. आखिर हड्डियां रजोनिवृत्ति के बाद तेजी से कमजोर होती हैं.

आज पूरे 1 महीने बाद ठीक से तैयार हो कर स्कूल के लिए निकली तो पुरुषों

की निगाहों में अपने लिए प्रशंसा के भाव देखे. खुद को अच्छा भी लगा कि अभी भी मैं सराहनीय हूं. आज कुछ मन ठीक था तो दीया को ले कर पार्क जाने लगी. सासूमां भी मुसकरा कर बोलीं, ‘‘ऐसे ही खुश रहा करो, पूरा घर चुप हो जाता है तुम्हारे चुप रहने से और बेटे उतारचढ़ाव का नाम ही तो जिंदगी है, मन को स्थिर रख कर समस्या का समाधान खोजो.’’

मैं ने बुझे मन से कहा, ‘‘पर मम्मी अगर कोई समाधान ही न हो…’’

वे मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘यानी कोई समस्या ही नहीं है.’’

रात के 10 बज गए थे पर कपिल का कुछ अतापता नहीं था. आज जब वे आए तो मैं ने आते ही आड़े हाथों लिया, ‘‘तुम्हें याद है कि तुम्हारा एक परिवार भी है?’’

कपिल व्यंग्य कसते हुए बोले, ‘‘हां, अच्छी तरह याद है एक परिवार है और एक रोतीबिसूरती कमजोर बीवी.’’

मैं खड़ीखड़ी कपिल को देखती रह गई… कहां गया यह प्यार और दुलार का… क्या औरत और मर्द का रिश्ता बस दैहिक स्तर तक ही सीमित है? खुद के ही शरीर से पसीने की गंध आ रही थी तो नहाने चली गई. आईने में फिर से खुद को पागलों की तरह देखने लगी. अभी तो शरीर में कसावट है पर शायद 2-3 वर्ष में शरीर ढीला पड़ जाएगा, जब ऐस्ट्रोजन हारमोंस बनना बंद हो जाएगा.

बाहर आई तो कपिल गहरी नींद में सोए थे, बहुत मन हुआ कहूं कि मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है, मुझे अकेला मत छोड़ो.

आज फिर कपिल देर से आए पर मैं ने बिना कुछ कहे खाना लगा दिया. खाना खाते हुए कपिल बोले, ‘‘मुझे तुम से कुछ जरूरी बात करनी है. कल का डिनर हम बाहर करेंगे.’’

मेरा दिल धकधक कर रहा था कि कहीं कपिल किसी और से तो नहीं जुड़ गए हैं. यदि हां तो मैं उन्हें रिहाई दे दूंगी, कोई हक नहीं है मुझे उन से कोई सुख छीनने का. पूरी रात इसी उधेड़बुन में बीत गई और सुबह मैं ने काफी हद तक अपनेआप को तैयार कर लिया था.

अगले दिन कपिल टाइम से घर आ गए थे और फिर हमारी कार एक बिल्डिंग के बाहर खड़ी थी. हम लोग लिफ्ट में ऊपर गए तो देखा वह काउंसलर का औफिस था. मैं कपिल को देखने लगी, कपिल मेरा हाथ पकड़ कर अंदर ले गए. एक बेहद ही खूबसूरत और जहीन महिला थी. कपिल ने मेरा परिचय दिया और मुझ से बोले, ‘‘अदिति, तुम बात करो, मैं थोड़ी देर में आता हूं.’’

काउंसलर से मैं ने अपने मन की सारी बात कर दी. वह बिना कुछ बोले बहुत धैर्य से मेरी बात सुनती रही और फिर बोली, ‘‘अदिति, तुम स्त्री होने से भी पहले एक इंसान हो… तुम्हारी पहचान बस तुम्हारे स्त्रीत्व तक सीमित नहीं है.

‘‘यह जरूर है कि तुम्हें इस दौर का सामना थोड़ा जल्दी करना पड़ रहा है. पर खानपान में थोड़ा बदलाव, थोड़ा व्यायाम करने से तुम्हारी जिंदगी सही पटरी पर आ जाएगी… यह जिंदगी का एक नया अध्याय है. इसे समझो, स्वीकार करो और मुसकराते हुए आगे बढ़ो.’’

थोड़ी देर बाद कपिल आ गए और फिर

हम दोनों आज काफी दिनों बाद एकसाथ डिनर कर रहे थे. कपिल वर्षों बाद मुझे प्यार से देख रहे थे.

मैं ने भीगे स्वर में कहा, ‘‘कहो क्या कहना था?’’

कपिल बोले, ‘‘ध्यान से सुनना… बीच में मत टोकना. तुम मेरी जिंदगी का सब से महत्त्वपूर्ण पन्ना हो. तुम स्त्री हो और मैं पुरुष हूं? इसलिए समाज ने हमें विवाह के बंधन में बांध दिया है पर तुम मेरे लिए एक स्त्री नहीं हो मेरा सबल भी हो. अगर मैं किसी समस्या से गुजर रहा हूंगा तो क्या तुम मुझे अकेला कर दोगी या मेरे साथ खड़ी रहोगी?

‘‘मैं तुम्हारे साथ खड़े रहना चाहता हूं पर तुम ने मुझे अपने से बहुत दूर कर दिया है, अपने इर्दगिर्द इतनी नकारात्मक ऊर्जा इकट्ठी कर ली है कि मैं तो क्या कोई और भी चाह कर तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता है.’’

मैं आंखों में आंसू भर कर बोली, ‘‘पर तुम तो खुद मुझ से कटेकटे रहते हो?’’

कपिल हंसते हुए बोले, ‘‘पगली, तुम्हारे रोने की आदत के कारण से कटाकटा रहता हूं, तुम्हारे कारण नहीं? यह जिंदगी में एक मोड़ आया है, थोड़ा सा ज्यादा घुमावदार है तो क्या हुआ हम एकसाथ पार करेंगे… तुम एक शरीर नहीं हो, उस से भी ज्यादा तुम्हारी पहचान है.

‘‘स्पीडब्रेकर पर रुकना पड़ता है न पर संभल कर चलने से पार कर लेते हैं न?’’

कपिल की बातों से यह तो मुझे समझ आ गया था कि क्यों हुआ, कैसे हुआ से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है उस समस्या का समाधान कैसे कर सकते हैं.

आज इस बात को 3 वर्ष हो गए हैं.

अभी भी मैं रजोनिवृत्ति के दौर से गुजर रही हूं पर डाक्टर की सलाह और उचित खानपान से काफी हद तक समस्या सुलझ गई है.

अब मेरा वजन पहले से कम हो गया है और मेरी त्वचा भी दमकने लगी हैं, क्योंकि अपनेआप को मेनोपौज के लिए तैयार करने के लिए मैं ने पूरा खानपान ही बदल दिया है. जो है, जैसा है मैं स्वीकार करती हूं, यह सोच अपनाते ही सबकुछ बदल गया और बदल गई मेरी पहचान.

मेरी पहचान न आंकी जाए मेरे स्त्रीत्व से, यह है बस मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा, जिंदगी का बचा हुआ है अभी भी, एक और नया सकारात्मक किस्सा.

तुम्हें क्या करना है: जया ने उड़ाए सबके होश

जयाको बहुत दिनों से लग रहा था कि उस ने अपने जीवन के कई साल घरगृहस्थी में ही बिता दिए. अब जब दोनों बच्चे यश और स्नेहा बड़े हो गए हैं और समीर पदोन्नति के बाद बढ़ती जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते हैं तो ऐसे में उसे जो समय मिलता है, उस में वह निश्चिंत हो कर अपने लिए कुछ सोच सकती है. लेकिन उस का मूड तब खराब हो गया जब उस ने कुछ नया सीखने की इच्छा समीर से जाहिर की तो उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ सीख कर क्या करना है?’’

‘‘यह कोई जरूरी तो नहीं कि कुछ करना हो तभी कुछ सीखना चाहिए… बहुत सी चीजें हैं जिन्हें मैं नहीं जानती… और अब मु झे लगता है कि मु झे वे आनी चाहिए. आखिर इस में परेशानी क्या है?’’

‘‘क्या सीखोगी जया तुम… घरगृहस्थी संभाल तो रही हो न?’’

जया को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन स्वभाववश चुप रही. लेकिन हमेशा की तरह समीर उस की चुप्पी से सम झ गए कि उसे बुरा लगा है. अत: हंसते हुए बोले, ‘‘चलो, इस बारे में बच्चों से बात करते हैं. स्नेहा, यश, इधर आना.’’

बच्चे उन के पास आ गए तो समीर ने कहा, ‘‘बच्चो, तुम ही बताओ कि मम्मी को

क्या सीखना चाहिए. तुम्हारी मम्मी जोश में हैं.’’

स्नेहा ने कहा, ‘‘पापा, मम्मी जो चाहे सीख सकती हैं.’’

‘‘हां मम्मी, आप को कंप्यूटर, ड्राइविंग के अलावा और भी बहुत कुछ आना चाहिए… मेरे काफी दोस्तों की मदर्स को बहुत कुछ आता है,’’ यश बोला.

समीर को बच्चों से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी. अत: उन के चेहरे पर निराशा सी छा गई. फिर वे बोले, ‘‘अरे जरा सोचो, उन्हें करना क्या है?’’

‘‘मु झे इस बारे में अब किसी से बात नहीं करनी है, जो मेरा मन कहेगा मैं करूंगी,’’ जया

ने कहा.

फिर सब अपनेअपने में व्यस्त हो गए.

जया सोचती रही कि यह क्या बात हुई. अगर किसी दूसरी स्त्री को समीर गाड़ी चलाते, बैंक

के काम करते, आत्मनिर्भर होते देखते हैं तो कहते हैं कि वाह, आज की महिलाओं में क्या स्मार्टनैस हैं और अगर वह कुछ सीखने में रुचि दिखाती है तो उत्साह कम करते हैं. यह कैसी दोहरी मानसिकता है समीर की. नहीं, अब वह काफी जिम्मेदारियां पूरी कर चुकी है, वह अब कुछ

नया जरूर सीखेगी. आर्थिक स्थिति भी अच्छी

है. कुछ सीखने के लिए अपने ऊपर आराम से खर्च करेगी.

फिर उस ने सिर्फ स्नेहा को अपने

विश्वास में लिया, क्योंकि यश समीर की स्नेहपूर्ण बातों में आ कर सब उगल सकता है. वह समीर को सरप्राइज देना चाहती थी, इसलिए उस ने यश को कुछ नहीं बताया. सोसायटी की ही एक महिला अपने घर में कंप्यूटर क्लासेज चलाती थी. अत: जया वहां जाने लगी. सब के जाने के बाद वह 1 घंटा आसानी से निकाल लेती थी. वह पहले कंप्यूटर देख कर खुद को अनाड़ी सा महसूस करती थी पर 1 हफ्ते में ही उंगलियां चलाते हुए एक नई ऊर्जा महसूस करने लगी. उसे लगने लगा कि इंसान किसी भी उम्र में क्या नहीं सीख सकता.

जया ने 1 हफ्ते में काफी कुछ बेसिक

सीख लिया तो एक दिन बेटी स्नेहा ने कहा, ‘‘अब आप घर में भी कुछ करती रहेंगी तो बाकी चीजें भी आ जाएंगी.’’

फिर जया घर में ही कंप्यूटर पर कुछ न कुछ करती रहती. पहले उसे घर में सब के कंप्यूटर पर बिजी होने पर बहुत गुस्सा आता

था, पर अब जब खुद सीखने लगी तो पता चला कि हर विषय पर जानकारी का भंडार आंखों

के सामने. फेसबुक पर अपनी बहुत सी भूलीबिसरी सहेलियों को ढूंढ़ लिया तो मन

खुशी से  झूम उठा. अब उसे इंतजार था समीर के टुअर पर जाने का.

जया समीर को सरप्राइज देना चाहती थी.

1 हफ्ते बाद समीर 5 दिनों के लिए हैदराबाद गए. जया को पता था कि समीर रात में 10 मिनट फेसबुक जरूर खोलते हैं. अत: जया ने उन्हें फ्रैंड्स रिक्वैस्ट भेजी. अब समीर के हैरान होने की बारी थी. रात में समीर का फोन आया, ‘‘जया, तुम फेसबुक पर? यह सब कब सीख लिया?’’

‘‘बस, कुछ ही दिन पहले.’’

‘‘मु झे बताया क्यों नहीं?’’

‘‘बस, ऐसे ही,’’ जया को मजा आ रहा था, उस ने अपनेआप को मन ही मन शाबाशी दी. फिर दोनों थोड़ी देर इसी विषय पर बातें करते रहे. समीर की हैरानी का जया ने पूरा आनंद उठाया. लेकिन जब समीर ने पूछा कि वैसे तुम्हें करना क्या है यह सब सीख कर तो जया को गुस्सा तो बहुत आया, मगर रही शांत.

समीर टुअर से वापस आ कर  झेंपते हुए बोले, ‘‘चलो, अब खुश हो? कुछ

सीख लिया न?’’

जया ने कहा, ‘‘नहीं, अभी बहुत कुछ सीखना है.’’

‘‘अब क्या?’’

‘‘मु झे अपने बैंक के अकाउंट्स के बारे

में कुछ नहीं पता. एक दिन बैठ कर बताओ

मु झे सब.’’

‘‘तुम्हें करना क्या है? शौपिंग के लिए कार्ड है ही तुम्हारे पास?’’

‘‘फिर भी सब पता होना चाहिए.’’

‘‘अरे छोड़ो, मैं हूं न.’’

वह अड़ गई, ‘‘आज तक मु झे खुद ही रुचि नहीं थी, अब लगता है यह सब जानकारी होनी चाहिए तो इस में परेशानी क्या है?’’

‘‘जया, तुम्हें क्या हो गया है, तुम आराम से, शांति से नहीं जी सकतीं क्या?’’

फिर भी जया नहीं मानी तो समीर सेविंग्स

अकाउंट्स के बारे में सम झाने लगे. थोड़ी देर बाद उस छेड़ते हुए बोले, ‘‘पता नहीं बैठेबैठे क्या फुतूर आया है दिमाग में… मु झे छोड़ कर भागने का इरादा है क्या?’’

जया ने घूरा तो समीर हंसते हुए बोले, ‘‘अब तो खुश हो? अब कोई दूसरी चीज मत

ढूंढ़ लेना.’’

जया चुप रही तो बोले, ‘‘तुम्हारी चुप्पी

कुछ खतरनाक लग रही है जया, प्लीज अब शांति से बैठना.’’

जया ने कुछ देर बाद कहा, ‘‘ड्राइविंग भी सीखनी है मु झे.’’

इस बार समीर चिढ़ गए. ‘‘दिमाग तो ठीक है न… मुंबई का ट्रैफिक देखा है… कहां जाना है तुम्हें अकेले गाड़ी चला कर? जहां भी जाने को कहती हो तो ले तो जाता हूं.’’

उस समय तो जया चुप रही, लेकिन मन ही मन सोच चुकी थी कि क्या करना है.

इस बार जया ने बच्चों को भी कुछ नहीं बताया. अगले दिन समीर औफिस और बच्चे कालेज चले गए तो वह ड्राइविंग स्कूल पहुंच

गई. फौर्म भर कर फीस जमा कर दी. 11 से

12 बजे का समय लिया. उस समय घर में कोई नहीं रहता था. अगले दिन से ड्राइविंग क्लास शुरू हो गई.

वह ड्राइविंग से हमेशा डरती आई थी. जब स्टेयरिंग पर हाथ रखे तो अंदर ही अंदर

कांप गई. लगा कहीं ऐक्सीडैंट हो गया और चोट लग गई तो समीर तो जान ही खा जाएंगे. लेकिन उसे अपनी सहेलियों की बातों से अंदाजा था कि कोई ऐक्सीडैंट नहीं होता है. असली कंट्रोल तो बराबर में बैठे सिखाने वाले के हाथ में होता है. अत: उस ने अपनेआप को संभाला और सीखना शुरू किया.

घर में किसी को भनक नहीं लगी. 5-6 दिन तो बिलकुल कुछ सम झ नहीं आया कि क्या करना है. सामने आती गाड़ी देख कर पसीने छूट जाते थे. लगता था कहां फंस गई. समीर ठीक ही तो कह रहे थे कि करना क्या है. 1 हफ्ता तो वह मन ही मन निराश रही, फिर जैसेजैसे दिन बीतते गए, खुद पर विश्वास होता गया. अब सामने आती गाड़ी देख कर नर्वस होना बंद हो गया था. 1 महीना खत्म होतेहोते स्टेयरिंग पर फुल कंट्रोल हो गया. शनिवार और रविवार को वह छुट्टी लेती थी, क्योंकि घर में तीनों रहते थे. ड्राइविंग टैस्ट हो गया. उसे लाइसैंस भी मिल गया. अपना लाइसैंस हाथ में देख कर उसे इतनी खुशी हो रही थी जिस का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था.

जया की ड्राइविंग क्लासेज के बारे में उस की 2 खास सहेलियों अंजू और ममता को ही पता था. जया ने उन्हें भी यह बात अपने तक ही रखने के लिए कहा था.

अब प्रैक्टिस जरूरी थी पर क्या करे, गाड़ी तो समीर औफिस ले जाते थे. अत: उस ने ममता से कहा, ‘‘प्रैक्टिस कैसे करूं?’’

ममता ने कहा, ‘‘यह कौन सी बड़ी बात है, मेरी गाड़ी ले जा.’’

‘‘नहीं, अकेले तो अभी नहीं.’’

ममता ने तसल्ली दी, ‘‘मैं तेरे बराबर में बैठी रहा करूंगी.’’

‘‘मैं तेरी गाड़ी को कहीं नुकसान न पहुंचा दूं. नहीं, रहने दे.’’

‘‘जया, तू चला, कुछ नहीं होगा.’’

अगले दिन 11 बजे जया ने ममता की गाड़ी निकाली. ममता उस का

आत्मविश्वास बढ़ाती रही. जया ने आराम से गाड़ी ले जा कर एक रेस्तरां के बाहर रोक दी. वह बहुत खुश थी. बोली, ‘‘चल, तु झे लंच कराती हूं.’’

‘‘वाह, क्या बात है,’’ कह कर ममता भी हंसी और दोनों खापी कर इधरउधर गाड़ी चला कर बच्चों के आने से पहले घर लौट आईं.

ममता ने जाते हुए कहा, ‘‘अब तू कार अच्छी तरह चला लेती है. मेरी कार से ही प्रैक्टिस करती रहना.’’

अपनी इस महान उपलब्धि के बारे में जया ने किसी को कुछ नहीं बताया. ‘तुम्हें क्या करना है,’ सुनसुन कर वह थक चुकी थी. सब को बताने के लिए जया किसी खास मौके का इंतजार कर रही थी. कुछ दिनों बाद उसे यह मौका मिल गया. समीर को पूना जाना था. मुंबई में जुलाई की लगातार होने वाली तेज बारिश के कारण स्टेशन जाने के लिए कोई औटोरिकशा नहीं मिल रहा था. फोन करने पर टैक्सी कब तक आती यह भी पता नहीं था.

समीर की आदत है घर से थोड़ा पहले निकलने की. ट्रैफिक में फंसने का डर जो रहता है. वे छाता और अपना बैग लिए तेज बारिश में रोड पर खड़े थे, जया फ्लैट की बालकनी से उन्हें परेशान देख रही थी. जया ने अपने कपड़ों पर नजर डाली. वह नाइटगाउन में थी. उस ने फटाफट कपड़े बदले. बच्चे सो रहे थे. 5 बजे थे. वह उन्हें 6 बजे तक उठाती थी. अत: जया गाड़ी की चाबी और छाता ले कर समीर के पास पहुंच गई और बोली, ‘‘आओ, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘गाड़ी से.’’

‘‘दिमाग खराब हो गया है क्या सुबहसुबह, ऊपर जाओ,’’ समीर  झुं झलाए.

वह हंसी, ‘‘अरे आओ, डरो मत,’’ और गाड़ी की तरफ बढ़ गई. फिर दरवाजा खोल कर ड्राइविंग सीट पर बैठ कर सीट बैल्ट बांधने लगी. समीर को भी बैठने का इशारा किया.

उन्हें कुछ सम झ नहीं आया. चिढ़ते हुए बोले, ‘‘मजाक का टाइम तो देख लिया करो जया, देख रही हो न मैं कितना परेशान हूं और तुम्हें मजाक सू झ रहा है.’’

‘‘मु झे पागल सम झा है क्या? अरे, मैं ड्राइविंग सीख चुकी हूं.’’

समीर गुर्राए, ‘‘क्या बकवास है… लाइसैंस दिखाना.’’

समीर को अच्छी तरह जानती थी जया. वह लाइसैंस ले कर ही उतरी थी. अत: पर्स से लाइसैंस निकाला और समीर के हाथ पर रखती हुई बोली, ‘‘अच्छी तरह देख लो.’’

समीर का अजीब हाल था. गुस्सा, हैरानी, यानी चेहरे पर मिलेजुले भाव थे.

जया ने प्यार से कहा, ‘‘अब हंस भी दो, यह सरप्राइज ऐसे ही किसी टाइम के लिए संभाल कर रखा था.’’

समीर अपने को सामान्य कर चुके थे. बोले, ‘‘इतनी बारिश में स्टेशन तक चला पाओगी और फिर अकेली आओगी… मु झे चिंता रहेगी.’’

‘‘सामने रोड तक साथ बैठ कर थोड़ी दूर तक देख लो, विश्वास हो जाए तो मु झे ले जाना स्टेशन, ठीक है?’’

समीर ने सहमति में सिर हिलाया और फिर सीटबैल्ट बांध ली. जया ने गाड़ी स्टार्ट की और गाड़ी आगे बढ़ाती गई.

समीर काफी देर बाद बोले, ‘‘कब सीखी?’’

‘‘कुछ ही दिन पहले.’’

‘‘प्रैक्टिस तो हो नहीं पाई होगी?’’

‘‘ममता की गाड़ी चला रही थी,’’ कह कर जया तेज बारिश में ध्यान से धीरेधीरे गाड़ी चलाती हुई स्टेशन पहुंच गई.

गाड़ी से उतरने से पहले समीर ने मुसकराते हुए जया के कंधे पर हाथ रख कर

कहा, ‘‘कमाल हो तुम… घर पहुंच कर मु झे

फोन कर देना, बाय, टेक केयर,’’ और गाड़ी से उतर गए.

जया ने कार मोड़ ली. अब यह बात तय थी कि अगली बार कुछ सीखने की बात करने पर समीर यह कभी नहीं कहने वाले थे कि तुम्हें करना क्या है?

तभी जया को ये पंक्तियां याद आ गईं-

‘हर प्यासे को जो दे डुबो, वह एक

सावन चाहिए.

कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं

मन चाहिए.’

जया ने मन ही मन प्लान बनाया कि आज शाम को बच्चों को भी गाड़ी से आइसक्रीम खिलाने ले जाएगी. अब उन के हैरान चेहरे देखने की बारी थी.

दिल वर्सेस दौलत: क्या पूरा हुआ लाली और अबीर का प्यार

‘‘किस का फोन था, पापा?’’

‘‘लाली की मम्मी का. उन्होंने कहा कि किसी वजह से तेरा और लाली का रिश्ता नहीं हो पाएगा.’’

‘‘रिश्ता नहीं हो पाएगा? यह क्या मजाक है? मैं और लाली अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. नहीं, नहीं, आप को कोई गलतफहमी हुई होगी. लाली मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती है? आप ने ठीक से तो सुना था, पापा?’’

‘‘अरे भाई, मैं गलत क्यों बोलने लगा. लाली की मां ने साफसाफ मु झ से कहा, ‘‘आप अपने बेटे के लिए कोई और लड़की ढूंढ़ लें. हम अबीर से लाली की शादी नहीं करा पाएंगे.’’

पापा की ये बातें सुन अबीर का कलेजा छलनी हो आया. उस का हृदय खून के आंसू रो रहा था. उफ, कितने सपने देखे थे उस ने लाली और अपने रिश्ते को ले कर. कुछ नहीं बचा, एक ही  झटके में सब खत्म हो गया, भरे हृदय के साथ लंबी सांस लेते हुए उस ने यह सोचा.

हृदय में चल रहा भीषण  झं झावात आंखों में आंसू बन उमड़नेघुमड़ने लगा. उस ने अपना लैपटौप खोल लिया कि शायद व्यस्तता उस के इस दर्द का इलाज बन जाए लेकिन लैपटौप की स्क्रीन पर चमक रहे शब्द भी उस की आंखों में घिर आए खारे समंदर में गड्डमड्ड हो आए.  झट से उस ने लैपटौप बंद कर दिया और खुद पलंग पर ढह गया.

लाली उस के कुंआरे मनआंगन में पहले प्यार की प्रथम मधुर अनुभूति बन कर उतरी थी. 30 साल के अपने जीवन में उसे याद नहीं कि किसी लड़की ने उस के हृदय के तारों को इतनी शिद्दत से छुआ हो. लाली उस के जीवन में मात्र 5-6 माह के लिए ही तो आई थी, लेकिन इन चंद महीनों की अवधि में ही उस के संपूर्ण वजूद पर वह अपना कब्जा कर बैठी थी, इस हद तक कि उस के भावुक, संवेदनशील मन ने अपने भावी जीवन के कोरे कैनवास को आद्योपांत उस से सा झा कर लिया. मन ही मन उस ने उसे अपने आगत जीवन के हर क्षण में शामिल कर लिया. लेकिन शायद होनी को यह मंजूर नहीं था. लाली के बारे में सोचतेसोचते कब वह उस के साथ बिताए सुखद दिनों की भूलभुलैया में अटकनेभटकने लगा, उसे तनिक भी एहसास नहीं हुआ.

शुरू से वह एक बेहद पढ़ाकू किस्म का लड़का था जिस की जिंदगी किताबों से शुरू होती और किताबों पर ही खत्म. उस की मां लेखिका थीं. उन की कहानियां विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में छपती रहतीं. पिता को भी पढ़नेलिखने का बेहद शौक था. वे एक सरकारी प्रतिष्ठान में वरिष्ठ वैज्ञानिक थे. घर में हर कदम पर किताबें दिखतीं. पुस्तक प्रेम उसे नैसर्गिक विरासत के रूप में मिला. यह शौक उम्र के बढ़तेबढ़ते परवान चढ़ता गया. किशोरावस्था की उम्र में कदम रखतेरखते जब आम किशोर हार्मोंस के प्रभाव में लड़कियों की ओर आकर्षित होते हैं,  उन्हें उन से बातें करना, चैट करना, दोस्ती करना पसंद आता है, तब वह किताबों की मदमाती दुनिया में डूबा रहता.

बचपन से वह बेहद कुशाग्र था. हर कक्षा में प्रथम आता और यह सिलसिला उस की शिक्षा खत्म होने तक कायम रहा. पीएचडी पूरी करने के बाद एक वर्ष उस ने एक प्राइवेट कालेज में नौकरी की. तभी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर्स की भरती हुई और उस के विलक्षण अकादमिक रिकौर्ड के चलते उसे वहीं लैक्चरर के पद पर नियुक्ति मिल गई. नौकरी लगने के साथसाथ घर में उस के रिश्ते की बात चलने लगी.

वह अपने मातापिता की इकलौती संतान था. सो, मां ने उस से उस की ड्रीमगर्ल के बारे में पूछताछ की. जवाब में उस ने जो कहा वह बेहद चौंकाने वाला था.

मां, मु झे कोई प्रोफैशनल लड़की नहीं चाहिए. बस, सीधीसादी, अच्छी पढ़ीलिखी और सम झदार नौनवर्किंग लड़की चाहिए, जिस का मानसिक स्तर मु झ से मिले. जो जिंदगी का एकएक लमहा मेरे साथ शेयर कर सके. शाम को घर आऊं तो उस से बातें कर मेरी थकान दूर हो सके.

मां उस की चाहत के अनुरूप उस के सपनों की शहजादी की तलाश में कमर कस कर जुट गई. शीघ्र ही किसी जानपहचान वाले के माध्यम से ऐसी लड़की मिल भी गई.

उस का नाम था लाली. मनोविज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन की हुई थी. संदली रंग और बेहद आकर्षक, कंटीले नैननक्श थे उस के. फूलों से लदीफंदी डौलनुमा थी वह. उस की मोहक शख्सियत हर किसी को पहली नजर में भा गई.

उस के मातापिता दोनों शहर के बेहद नामी डाक्टर थे. पूरी जिंदगी अपने काम के चलते बेहद व्यस्त रहे. इकलौती बेटी लाली पर भी पूरा ध्यान नहीं दे पाए. लाली नानी, दादी और आयाओं के भरोसे पलीबढ़ी. ताजिंदगी मातापिता के सान्निध्य के लिए तरसती रही. मां को ताउम्र व्यस्त देखा तो खुद एक गृहिणी के तौर पर पति के साथ अपनी जिंदगी का एकएक लमहा भरपूर एंजौय करना चाहती थी.

विवाह योग्य उम्र होने पर उस के मातापिता उस की इच्छानुसार ऐसे लड़के की तलाश कर रहे थे जो उन की बेटी को अपना पूरापूरा समय दे सके, कंपेनियनशिप दे सके. तभी उन के समक्ष अबीर का प्रस्ताव आया. उसे एक उच्चशिक्षित पर घरेलू लड़की की ख्वाहिश थी. आजकल अधिकतर लड़के वर्किंग गर्ल को प्राथमिकता देने लगे थे. अबीर जैसे नौनवर्किंग गर्ल की चाहत रखने वाले लड़कों की कमी थी. सो, अपने और अबीर के मातापिता के आर्थिक स्तर में बहुत अंतर होने के बावजूद उन्होंने अबीर के साथ लाली के रिश्ते की बात छेड़ दी.

संयोगवश उन्हीं दिनों अबीर के मातापिता और दादी एक घनिष्ठ पारिवारिक मित्र की बेटी के विवाह में शामिल होने लाली के शहर पहुंचे. सो, अबीर और उस के घर वाले एक बार लाली के घर भी हो आए. लाली अबीर और उस के परिवार को बेहद पसंद आई. लाली और उस के परिवार वालों को भी अबीर अच्छा लगा.

दोनों के रिश्ते की बात आगे बढ़ी. अबीर और लाली फोन पर बातचीत करने लगे. फिर कुछ दिन चैटिंग की. अबीर एक बेहद सम झदार, मैच्योर और संवेदनशील लड़का था. लाली को बेहद पसंद आया. दोनों में घनिष्ठता बढ़ी. दोनों को एकदूसरे से बातें करना बेहद अच्छा लगता. फोन पर रात को दोनों घंटों बतियाते. एकदूसरे को अपने अनुकूल पा कर दोनों कभीकभार वीकैंड पर मिलने भी लगे. एकदूसरे को विवाह से पहले अच्छी तरह जाननेसम झने के उद्देश्य से अबीर  शुक्रवार की शाम फ्लाइट से उस के शहर पहुंच जाता. दोनों शहर के टूरिस्ट स्पौट्स की सैर करतेकराते वीकैंड साथसाथ मनाने लगे. एकदूसरे को गिफ्ट्स का आदानप्रदान भी करने लगे.

दिन बीतने के साथ दोनों के मन में एकदूसरे के लिए चाहत का बिरवा फूट चुका था. सो, दोनों की तरफ से ग्रीन सिगनल पा कर लाली के मातापिता अबीर का घरबार देखने व उन के रोके की तारीख तय करने अबीर के घर पहुंचे. अबीर का घर, रहनसहन, जीवनशैली देख कर मानो आसमान से गिरे वे.

अबीर का घर, जीवनस्तर उस के पिता की सरकारी नौकरी के अनुरूप था. लाली के रईस और अतिसंपन्न मातापिता की अमीरी की बू मारते रहनसहन से कहीं बहुत कमतर था. उन के 2 बैडरूम के फ्लैट में ससुराल आने पर उन की बेटी शादी के बाद कहां रहेगी, वे दोनों इस सोच में पड़ गए. एक बैडरूम अबीर के मातापिता का था, दूसरा बैडरूम उस की दादी का था.

अबीर की दादी की घरभर में तूती बोलती. वे काफी दबंग व्यक्तित्व की थीं. बेटाबहू उन को बेहद मान देते. उन की तुलना में अबीर की मां का व्यक्तित्व उन्हें तनिक दबा हुआ प्रतीत हुआ.

अबीर के घर सुबह से शाम तक एक पूरा दिन बिता कर उन्होंने पाया कि उन के घर में दादी की मरजी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता. उन की सीमित आय वाले घर में उन्हें बातबात पर अबीर के मातापिता के मितव्ययी रवैए का परिचय मिला.

अगले दिन लाली के मातापिता ने बेटी को सामने बैठा उस से अबीर के रिश्ते को ले कर अपने खयालात शेयर किए.

लाली के पिता ने लाली से कहा, ‘सब से पहले तो तुम मु झे यह बताओ, अबीर के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’

‘पापा, वह एक सीधासादा, बेहद सैंटीमैंटल और सुल झा हुआ लड़का लगा मु झे. यह निश्चित मानिए, वह कभी दुख नहीं देगा मु झे. मेरी हर बात मानता है. बेहद केयरिंग है. दादागीरी, ईगो, गुस्से जैसी कोई नैगेटिव बात मु झे उस में नजर नहीं आई. मु झे यकीन है, उस के साथ हंसीखुशी जिंदगी बीत जाएगी. सो, मु झे इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं.’

तभी लाली की मां बोल पड़ीं, ‘लेकिन, मु झे औब्जेक्शन है.’

‘यह क्या कह रही हैं मम्मा? हम दोनों अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. अब मैं इस रिश्ते से अपने कदम वापस नहीं खींच सकती. आखिर बात क्या है? आप ने ही तो कहा था, मु झे अपना लाइफपार्टनर चुनने की पूरीपूरी आजादी होगी. फिर, अब आप यह क्या कह रही हैं?’

‘लाली, मैं तुम्हारी मां हूं. तुम्हारा भला ही सोचूंगी. मेरे खयाल से तुम्हें यह शादी कतई नहीं करनी चाहिए.’

‘मौम, सीधेसीधे मुद्दे पर आएं, पहेलियां न बु झाएं.’

‘तो सुनो, एक तो उन का स्टेटस, स्टैंडर्ड हम से बहुत कमतर है. पैसे की बहुत खींचातानी लगी मु झे उन के घर में. क्यों जी, आप ने देखा नहीं, शाम को दादी ने अबीर से कहा, एसी बंद कर दे. सुबह से चल रहा है. आज तो सुबह से मीटर भाग रहा होगा. तौबा उन के यहां तो एसी चलाने पर भी रोकटोक है.

‘फिर दूसरी बात, मु झे अबीर की दादी बहुत डौमिनेटिंग लगीं. बातबात पर अपनी बहू पर रोब जमा रही थीं. अबीर की मां बेचारी चुपचाप मुंह सीए हुए उन के हुक्म की तामील में जुटी हुई थी. दादी मेरे सामने ही बहू से फुसफुसाने लगी थीं, बहू मीठे में गाजर का हलवा ही बना लेती. नाहक इतनी महंगी दुकान से इतना महंगी मूंग की दाल का हलवा और काजू की बर्फी मंगवाई. शायद कल हमारे सामने हमें इंप्रैस करने के लिए ही इतनी वैराइटी का खानापीना परोसा था. मु झे नहीं लगता यह उन का असली चेहरा है.’

‘अरे मां, आप भी न, राई का पहाड़ बना देती हैं. ऐसा कुछ नहीं है. खातेपीते लोग हैं. अबीर के पापा ऐसे कोई गएगुजरे भी नहीं. क्लास वन सरकारी अफसर हैं. हां, हम जैसे पैसेवाले नहीं हैं. इस से क्या फर्क पड़ता है?’

‘लेकिन मैं सोच रही हूं अगर अबीर भी दादी की तरह हुआ तो क्या तू खर्चे को ले कर उस की तरफ से किसी भी तरह की टोकाटाकी सह पाएगी? खुद कमाएगी नहीं, खर्चे के लिए अबीर का मुंह देखेगी. याद रख लड़की, बच्चे अपने बड़ेबुजुर्गों से ही आदतें विरासत में पाते हैं. अबीर ने भी अगर तेरे खर्चे पर बंदिशें लगाईं तो क्या करेगी? सोच जरा.’

‘अरे मां, क्या फुजूल की हाइपोथेटिकल बातें कर रही हैं? क्यों लगाएगा वह मु झ पर इतनी बंदिशें? इतना बढि़या पैकेज है उस का. फिर अबीर मु झे अपनी दादी के बारे में बताता रहता है. कहता है, वे बहुत स्नेही हैं. पहली बार जब वे लोग हमारे घर आए थे, दादी ने मु झे कितनी गर्माहट से अपने सीने से चिपकाया था. मेरे हाथों को चूमा था.’

‘तो लाली बेटा, तुम ने पूरापूरा मन बना लिया है कि तुम अबीर से ही शादी करना चाहती हो. सोच लो बेटा, तुम्हारी मम्मा की बातों में भी वजन है. ये पूरी तरह से गलत नहीं. उन के और हमारे घर के रहनसहन में मु झे भी बहुत अंतर लगा. तुम कैसे ऐडजस्ट करोगी?’’ पापा ने कहा था.

‘अरे पापा, मैं सब ऐडजस्ट कर लूंगी. जिंदगी तो मु झे अबीर के साथ काटनी है न. और वह बेहद अच्छा व जैनुइन लड़का है. कोई नशा नहीं है उस में. मैं ने सोच लिया है, मैं अबीर से ही शादी करूंगी.’

‘लाली बेटा, यह क्या कह रही हो? मैं ने दुनिया देखी है. तुम तो अभी बच्ची हो. यह सीने से चिपकाना, आशीष देना, चुम्माचाटी थोड़े दिनों के शादी से पहले के चोंचले हैं. बाद में तो, बस, उन की रोकटोक, हेकड़ी और बंधन रह जाएंगे. फिर रोती झींकती मत आना मेरे पास कि आज सास ने यह कह दिया और दादी सास ने यह कह दिया.

‘और एक बात जो मु झे खाए जा रही है वह है उन का टू बैडरूम का दड़बेनुमा फ्लैट. हर बार त्योहार के मौके पर तु झे ससुराल तो जाना ही पड़ेगा. एक बैडरूम में अबीर के पेरैंट्स रहते हैं, दूसरे में उस की दादी. फिर तू कहां रहेगी? तेरे हिस्से में ड्राइंगरूम ही आएगा? न न न, शादी के बाद मेरी नईनवेली लाडो को अपना अलग एक कमरा भी नसीब न हो, यह मु झे बिलकुल बरदाश्त नहीं होगा.

‘सम झा कर बेटा, हमारे सामने यह खानदान एक चिंदी खानदान है. कदमकदम पर तु झे इस वजह से बहू के तौर पर बहुत स्ट्रगल करनी पड़ेगी. न न, कोई और लड़का देखते हैं तेरे लिए. गलती कर दी हम ने, तु झे अबीर से मिलाने से पहले हमें उन का घरबार देख कर आना चाहिए था. खैर, अभी भी देर नहीं हुई है. मेरी बिट्टो के लिए लड़कों की कोई कमी है क्या?’

‘अरे मम्मा, आप मेरी बात नहीं सम झ रहीं हैं. इन कुछ दिनों में मैं अबीर को पसंद करने लगी हूं. उसे अब मैं अपनी जिंदगी में वह जगह दे चुकी हूं जो किसी और को दे पाना मेरी लिए नामुमकिन होगा. अब मैं अबीर के बिना नहीं रह सकती. मैं उस से इमोशनली अटैच्ड हो गई हूं.’

‘यह क्या नासम झी की बातें कर रही है, लाली? तू तो मेरी इतनी सम झदार बेटी है. मु झे तु झ से यह उम्मीद न थी. जिंदगी में सक्सैसफुल होने के लिए प्रैक्टिकल बनना पड़ता है. कोरी भावनाओं से जिंदगी नहीं चला करती, बेटा. बात सम झ. इमोशंस में बह कर आज अगर तू ने यह शादी कर ली तो भविष्य में बहुत दुख पाएगी. तु झे खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारने दूंगी. मैं ने बहुत सोचा इस बारे में, लेकिन इस रिश्ते के लिए मेरा मन हरगिज नहीं मान रहा.’

‘मम्मा, यह आप क्या कह रही हैं? मैं अब इस रिश्ते में पीछे नहीं मुड़ सकती. मैं अबीर के साथ पूरी जिंदगी बिताने का वादा कर चुकी हूं. उस से प्यार करने लगी हूं. पापा, आप चुप क्यों बैठे हैं? सम झाएं न मां को. फिर मैं पक्का डिसाइड कर चुकी हूं कि मु झे अबीर से ही शादी करनी है.’

‘अरे भई, क्यों जिद कर रही हो जब यह कह रही है कि इसे अबीर से ही शादी करनी है तो क्यों बेबात अड़ंगा लगा रही हो? अबीर के साथ जिंदगी इसे बितानी है या तुम्हें?’ लाली के पिता ने कहा.

‘आप तो चुप ही रहिए इस मामले में. आप को तो दुनियादारी की सम झ है नहीं. चले हैं बेटी की हिमायत करने. मैं अच्छी तरह से सोच चुकी हूं. उस घर में शादी कर मेरी बेटी कोई सुख नहीं पाएगी. सास और ददिया सास के राज में 2 दिन में ही टेसू बहाते आ जाएगी. जाइए, आप के औफिस का टाइम हो गया. मु झे हैंडल कर लेने दीजिए यह मसला.’

इस के साथ लाली की मां ने पति को वहां से जबरन उठने के लिए विवश कर दिया और फिर बेटी से बोलीं, ‘यह क्या बेवकूफी है, लाली? यह तेरा प्यार पप्पी लव से ज्यादा और कुछ नहीं. अगर तू ने मेरी बात नहीं मानी तो सच कह रही हूं, मैं तु झ से सारे रिश्ते तोड़ लूंगी. न मैं तेरी मां, न तू मेरी बेटी. जिंदगीभर तेरी शक्ल नहीं देखूंगी. सम झ लेना, मैं तेरे लिए मर गई.’ यह कह कर लाली की मां अतीव क्रोध में पांव पटकते हुए कमरे से बाहर चली गईं.

मां का यह विकट क्रोध देख लाली सम झ गई थी कि अब अगर कुदरत भी साक्षात आ जाए तो उन्हें इस रिश्ते के लिए मनाना टेढ़ी खीर होगा. मां के इस हठ से वह बेहद परेशान हो उठी. उस का अंतर्मन कह रहा था कि उसे अबीर जैसा सुल झा हुआ, सम झदार लड़का इस जिंदगी में दोबारा मिलना असंभव होगा. आज के समय में उस जैसे सैंसिबल, डीसैंट लड़के बिरले ही मिलते हैं. अबीर जैसे लड़के को खोना उस की जिंदगी की सब से बड़ी भूल होगी.

लेकिन मां का क्या करे वह? वे एक बार जो ठान लेती हैं वह उसे कर के ही रहती हैं. वह बचपन से देखती आई है, उन की जिद के सामने आज तक कोई नहीं जीत पाया. तो ऐसी हालत में वह क्या करे? पिछली मुलाकात में ही तो अबीर के साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं उस ने. दोनों ने एकदूसरे के प्रति अपनी प्रेमिल भावनाएं व्यक्त की थीं.

पिछली बार अबीर के उस के कहे गए प्रेमसिक्त स्वर उस के कानों में गूंजने लगे, ‘लाली माय लव, तुम ने मेरी आधीअधूरी जिंदगी को कंप्लीट कर दिया. दुलहन बन जल्दी से मेरे घर आ जाओ. अब तुम्हारे बिना रहना शीयर टौर्चर लग रहा है.’

क्या करूं क्या न करूं, यह सोचतेसोचते अतीव तनाव से उस के स्नायु तन आए और आंखें सावनभादों के बादलों जैसे बरसने लगीं. अनायास वह अपने मोबाइल स्क्रीन पर अबीर की फोटो देखने लगी और उसे चूम कर अपने सीने से लगा उस ने अपनी आंखें मूंद लीं.

तभी मम्मा उस का दरवाजा पीटने लगीं… ‘‘लाली, दरवाजा खोल बेटा.’’

उस ने दरवाजा खोला. मम्मा कमरे में धड़धड़ाती हुई आईं और उस से बोलीं, ‘‘मैं ने अबीर के पापा को इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. सारा टंटा ही खत्म. हां, अब अबीर का फोनवोन आए, तो उस से तु झे कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं. वह कुछ कहे, तो उसे रिश्ते के लिए साफ इनकार कर देना और कुछ ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं. ले देख, यह एक और लड़के का बायोडाटा आया है तेरे लिए. लड़का खूब हैंडसम है. नामी एमएनसी में सीनियर कंसल्टैंट है. 40 लाख रुपए से ऊपर का ऐनुअल पैकेज है लड़के का. मेरी बिट्टो राज करेगी राज. लड़के वालों की दिल्ली में कई प्रौपर्टीज हैं. रुतबे, दौलत, स्टेटस में हमारी टक्कर का परिवार है. बता, इस लड़के से फोन पर कब बात करेगी?’’

‘‘मम्मा, फिलहाल मेरे सामने किसी लड़के का नाम भी मत लेना. अगर आप ने मेरे साथ जबरदस्ती की तो मैं दीदी के यहां लंदन चली जाऊंगी. याद रखिएगा, मैं भी आप की बेटी हूं.’’ यह कहते हुए लाली ने मां के कमरे से निकलते ही दरवाजा धड़ाक से बंद कर लिया.

मन में विचारों की उठापटक चल रही थी. अबीर उसे आसमान का चांद लग रहा था जो अब उस की पहुंच से बेहद दूर जा चुका था. क्या करे क्या न करे, कुछ सम झ नहीं आ रहा था.

सारा दिन उस ने खुद से जू झते हुए बेपनाह मायूसी के गहरे कुएं में बिताया. सां झ का धुंधलका होने को आया. वह मन ही मन मना रही थी, काश, कुछ चमत्कार हो जाए और मां किसी तरह इस रिश्ते के लिए मान जाएं. तभी व्हाट्सऐप पर अबीर का मैसेज आया, ‘‘तुम से मिलना चाहता हूं. कब आऊं?’’

उस ने जवाब में लिखा, ‘जल्दी’ और एक आंसू बहाती इमोजी भी मैसेज के साथ उसे पोस्ट कर दी. अबीर का अगला मैसेज एक लाल धड़कते दिल के साथ आया, ‘‘कल सुबह पहुंच रहा हूं. एयरपोर्ट पर मिलना.’’

लाली की वह रात आंखों ही आंखों में कटी. अगली सुबह वह मां को एक बहाना बना एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई.

क्यूपिड के तीर से बंधे दोनों प्रेमी एकदूसरे को देख खुद पर काबू न रख पाए और दोनों की आंखों से आंसू बहने लगे. कुछ ही क्षणों में दोनों संयत हो गए और लाली ने उन दोनों के रिश्ते को ले कर मां के औब्जेक्शंस को विस्तार से अबीर को बताया.

अबीर और लाली दोनों ने इस मुद्दे को ले कर तसल्ली से, संजीदगी से विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब जो कुछ करना है उन दोनों को ही करना होगा.

‘‘लाली, इन परिस्थितियों में अब तुम बताओ कि क्या करना है? तुम्हारी मां हमारी शादी के खिलाफ मोरचाबंदी कर के बैठी हैं. उन्होंने साफसाफ लफ्जों में इस के लिए मेरे पापा से इनकार कर दिया है. तो इस स्थिति में अब मैं किस मुंह से उन से अपनी शादी के लिए कहूं?’’ अबीर ने कहा.

‘‘हां, यह तो तुम सही कह रहे हो. चलो, मैं अपने पापा से इस बारे में बात करती हूं. फिर मैं तुम्हें बताती हूं.’’

‘‘ठीक है, ओके, चलता हूं. बस, यह याद रखना मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं. शायद खुद से भी ज्यादा. अब तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं.’’

लाली ने अपनी पनीली हो आई आंखों से अबीर की तरफ एक फ्लाइंग किस उछाल दिया और फुसफुसाई, ‘हैप्पी एंड सेफ जर्नी माय लव, टेक केयर.’’

लाली एयरपोर्ट से सीधे अपने पापा के औफिस जा पहुंची और उस ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया. उस की बातें सुन पापा ने कहा, ‘‘अगर तुम और अबीर इस विषय में निर्णय ले ही चुके हो तो मैं तुम दोनों के साथ हूं. मैं कल ही अबीर के घर जा कर तुम्हारी मां के इनकार के लिए उन से माफी मांगता हूं और तुम दोनों की शादी की बात पक्की कर देता हूं. इस के बाद ही मैं तुम्हारी मां को अपने ढंग से सम झा लूंगा. निश्चिंत रहो लाली, इस बार तुम्हारी मां को तुम्हारी बात माननी ही पड़ेगी.’’

लाली के पिता ने लाली से किए वादे को पूरा किया. अबीर के घर जा कर उन्होंने अपनी पत्नी के इनकार के लिए उन से हाथ जोड़ कर बच्चों की खुशी का हवाला देते हुए काफी मिन्नतें कर माफी मांगी और उन दोनों की शादी पक्की करने के लिए मिन्नतें कीं.

इस पर अबीर के पिता ने उन से कहा, ‘‘भाईसाहब, अबीर के ही मुंह से सुना कि आप लोगों को हमारे इस 2 बैडरूम के फ्लैट को ले कर कुछ उल झन है कि शादी के बाद आप की बेटी इस में कहां रहेगी? आप की परेशानी जायज है, भाईसाहब. तो, मेरा खयाल है कि शादी के बाद दोनों एक अलग फ्लैट में रहें. आखिर बच्चों को भी प्राइवेसी चाहिए होगी. यही उन के लिए सब से अच्छा और व्यावहारिक रहेगा. क्या कहते हैं आप?’’

‘‘बिलकुल ठीक है, जैसा आप उचित सम झें.’’

‘‘तो फिर, दोनों की बात पक्की?’’

‘‘जी बिलकुल,’’ अबीर के पिता ने लाली के पिता को मिठाई खिलाते हुए कहा.

बेटी की शादी उस की इच्छा के अनुरूप तय कर, घर आ कर लाली के पिता ने पत्नी को लाली और अबीर की खुशी के लिए उन की शादी के लिए मान जाने के लिए कहा. लाली ने तो साफसाफ लफ्जों में उन से कह दिया, ‘‘इस बार अगर आप हम दोनों की शादी के लिए नहीं माने तो मैं और अबीर कोर्ट मैरिज कर लेंगे.’’ और लाली की यह धमकी इस बार काम कर गई. विवश लाली की मां को बेटी और पति के सामने घुटने टेकने पड़े.

आखिरकार, दिल वर्सेस दौलत की जंग में दिल जीत गया और दौलत को मुंह की खानी पड़ी.

सिसकता शैशव: मातापिता के झगड़े में पिसा अमान का बचपन

लेखिका- विनोदिनी गोयनका

जिस उम्र में बच्चे मां की गोद में लोरियां सुनसुन कर मधुर नींद में सोते हैं, कहानीकिस्से सुनते हैं, सुबहशाम पिता के साथ आंखमिचौली खेलते हैं, दादादादी के स्नेह में बड़ी मस्ती से मचलते रहते हैं, उसी नन्हीं सी उम्र में अमान ने जब होश संभाला, तो हमेशा अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते हुए ही देखा. वह सदा सहमासहमा रहता, इसलिए खाना खाना बंद कर देता. ऐसे में उसे मार पड़ती. मांबाप दोनों का गुस्सा उसी पर उतरता. जब दादी अमान को बचाने आतीं तो उन्हें भी झिड़क कर भगा दिया जाता. मां डपट कर कहतीं, ‘‘आप हमारे बीच में मत बोला कीजिए, इस से तो बच्चा और भी बिगड़ जाएगा. आप ही के लाड़ ने तो इस का यह हाल किया है.’’

फिर उसे आया के भरोसे छोड़ कर मातापिता अपनेअपने काम पर निकल जाते. अमान अपने को असुरक्षित महसूस करता. मन ही मन वह सुबकता रहता और जब वे सामने रहते तो डराडरा रहता. परंतु उन के जाते ही अमान को चैन की सांस आती, ‘चलो, दिनभर की तो छुट्टी मिली.’

आया घर के कामों में लगी रहती या फिर गपशप मारने बाहर गेट पर जा बैठती. अमान चुपचाप जा कर दादी की गोद में घुस कर बैठ जाता. तब कहीं जा कर उस का धड़कता दिल शांत होता. दादी के साथ उन की थाली में से खाना उसे बहुत भाता था. वह शेर, भालू और राजारानी के किस्से सुनाती रहतीं और वह ढेर सारा खाना खाता चला जाता.बीचबीच में अपनी जान बचाने को आया बुलाती, ‘‘बाबा, तुम्हारा खाना रखा है, खा लो और सो जाओ, नहीं तो मेमसाहब आ कर तुम्हें मारेंगी और मुझे डांटेंगी.’’

अमान को उस की उबली हुई सब्जियां तथा लुगदी जैसे चावल जहर समान लगते. वह आया की बात बिलकुल न सुनता और दादी से लिपट कर सो जाता. परंतु जैसेजैसे शाम निकट आने लगती, उस की घबराहट बढ़ने लगती. वह चुपचाप आया के साथ आ कर अपने कमरे में सहम कर बैठ जाता. घर में घुसते ही मां उसे देख कर जलभुन जातीं, ‘‘अरे, इतना गंदा बैठा है, इतना इस पर खर्च करते हैं, नित नए कपड़े लाला कर देते हैं, पर हमेशा गंदा रहना ही इसे अच्छा लगता है. ऐसे हाल में मेरी सहेलियां इसे देखेंगी तो मेरी तो नाक ही कट जाएग.’’ फिर आया को डांट पड़ती तो वह कहती, ‘‘मैं क्या करूं, अमान मानता ही नहीं.’’

फिर अमान को 2-4 थप्पड़ पड़ जाते. आया गुस्से में उसे घसीट कर स्नानघर ले जाती और गुस्से में नहलातीधुलाती. नन्हा सा अमान भी अब इन सब बातों का अभ्यस्त हो गया था. उस पर अब मारपीट का असर नहीं होता था. वह चुपचाप सब सहता रहता. बातबात में जिद करता, रोता, फिर चुपचाप अपने कमरे में जा कर बैठ जाता क्योंकि बैठक में जाने की उस को इजाजत नहीं थी. पहली बात तो यह थी कि वहां सजावट की इतनी वस्तुएं थीं कि उन के टूटनेफूटने का डर रहता और दूसरे, मेहमान भी आते ही रहते थे. उन के सामने जाने की उसे मनाही थी.

जब मां को पता चलता कि अमान दादी के पास चला गया है तो वे उन के पास लड़ने पहुंच जातीं, ‘‘मांजी, आप के लाड़प्यार ने ही इसे बिगाड़ रखा है, जिद्दी हो गया है, किसी की बात नहीं सुनता. इस का खाना पड़ा रहता है, खाता नहीं. आप इस से दूर ही रहें, तो अच्छा है.’’

सास समझाने की कोशिश करतीं, ‘‘बहू, बच्चे तो फूल होते हैं, इन्हें तो जितने प्यार से सींचोगी उतने ही पनपेंगे, मारनेपीटने से तो इन का विकास ही रुक जाएगा. तुम दिनभर कामकाज में बाहर रहती हो तो मैं ही संभाल लेती हूं. आखिर हमारा ही तो खून है, इकलौता पोता है, हमारा भी तो इस पर कुछ अधिकार है.’’ कभी तो मां चुप  हो जातीं और कभी दादी चुपचाप सब सुन लेतीं. पिताजी रात को देर से लड़खड़ाते हुए घर लौटते और फिर वही पतिपत्नी की झड़प हो जाती. अमान डर के मारे बिस्तर में आंख बंद किए पड़ा रहता कि कहीं मातापिता के गुस्से की चपेट में वह भी न आ जाए. उस का मन होता कि मातापिता से कहे कि वे दोनों प्यार से रहें और उसे भी खूब प्यार करें तो कितना मजा आए. वह हमेशा लाड़प्यार को तरसता रहता.

इसी प्रकार एक वर्र्ष बीत गया और अमान का स्कूल में ऐडमिशन करा दिया गया. पहले तो वह स्कूल के नाम से ही बहुत डरा, मानो किसी जेलखाने में पकड़ कर ले जाया जा रहा हो. परंतु 1-2 दिन जाने के बाद ही उसे वहां बहुत आनंद आने लगा. घर से तैयार कर, टिफिन ले कर, पिताजी उसे स्कूटर से स्कूल छोड़ने जाते. यह अमान के लिए नया अनुभव था. स्कूल में उसे हमउम्र बच्चों के साथ खेलने में आनंद आता. क्लास में तरहतरह के खिलौने खेलने को मिलते. टीचर भी कविता, गाना सिखातीं, उस में भी अमान को आनंद आने लगा. दोपहर को आया लेने आ जाती और उस के मचलने पर टौफी, बिस्कुट इत्यादि दिला देती. घर जा कर खूब भूख लगती तो दादी के हाथ से खाना खा कर सो जाता. दिन आराम से कटने लगे. परंतु मातापिता की लड़ाई, मारपीट बढ़ने लगी, एक दिन रात में उन की खूब जोर से लड़ाई होती रही. जब सुबह अमान उठा तो उसे आया से पता चला कि मां नहीं हैं, आधी रात में ही घर छोड़ कर कहीं चली गई हैं.

पहले तो अमान ने राहत सी महसूस की कि चलो, रोज की मारपीट  और उन के कड़े अनुशासन से तो छुट्टी मिली, परंतु फिर उसे मां की याद आने लगी और उस ने रोना शुरू कर दिया. तभी पिताजी उठे और प्यार से उसे गोदी में बैठा कर धीरेधीरे फुसलाने लगे, ‘‘हम अपने बेटे को चिडि़याघर घुमाने ले जाएंगे, खूब सारी टौफी, आइसक्रीम और खिलौने दिलाएंगे.’’  पिता की कमजोरी का लाभ उठा कर अमान ने और जोरों से ‘मां, मां,’ कह कर रोना शुरू कर दिया. उसे खातिर करवाने में बहुत मजा आ रहा था, सब उसे प्यार से समझाबुझा रहे थे. तब पिताजी उसे दादी के पास ले गए. बोले, ‘‘मांजी, अब इस बिन मां के बच्चे को आप ही संभालिए. सुबहशाम तो मैं घर में रहूंगा ही, दिन में आया आप की मदद करेगी.’’ अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें, दादी, पोता दोनों प्रसन्न हो गए.

नए प्रबंध से अमान बहुत ही खुश था. वह खूब खेलता, खाता, मस्ती करता, कोई बोलने, टोकने वाला तो था नहीं, पिताजी रोज नएनए खिलौने ला कर देते, कभीकभी छुट्टी के दिन घुमानेफिराने भी ले जाते. अब कोई उसे डांटता भी नहीं था. स्कूल में एक दिन छुट्टी के समय उस की मां आ गईं. उन्होंने अमान को बहुत प्यार किया और बोलीं, ‘‘बेटा, आज तेरा जन्मदिन है.’’ फिर प्रिंसिपल से इजाजत ले कर उसे अपने साथ घुमाने ले गईं. उसे आइसक्रीम और केक खिलाया, टैडीबियर खिलौना भी दिया. फिर घर के बाहर छोड़ गईं. जब अमान दोनों हाथभरे हुए हंसताकूदता घर में घुसा तो वहां कुहराम मचा हुआ था. आया को खूब डांट पड़ रही थी. पिताजी भी औफिस से आ गए थे, पुलिस में जाने की बात हो रही थी. यह सब देख अमान एकदम डर गया कि क्या हो गया.

पिताजी ने गुस्से में आगे बढ़ कर उसे 2-4 थप्पड़ जड़ दिए और गरज कर बोले, ‘‘बोल बदमाश, कहां गया था? बिना हम से पूछे उस डायन के साथ क्यों गया? वह ले कर तुझे उड़ जाती तो क्या होता?’’ दादी ने उसे छुड़ाया और गोद में छिपा लिया. हाथ का सारा सामान गिर कर बिखर गया. जब खिलौना उठाने को वह बढ़ा तो पिता फिर गरजे, ‘‘फेंक दो कूड़े में सब सामान. खबरदार, जो इसे हाथ लगाया तो…’’  वह भौचक्का सा खड़ा था. उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या? क्यों पिताजी इतने नाराज हैं?

2 दिनों बाद दादी ने रोतरोते उस का सामान और नए कपड़े अटैची में रखे. अमान ने सुना कि पिताजी के साथ वह दार्जिलिंग जा रहा है. वह रेल में बैठ कर घूमने जा रहा था, इसलिए खूब खुश था. उस ने दादी को समझाया, ‘‘क्यों रोती हो, घूमने ही तो जा रहा हूं. 3-4 दिनों में लौट आऊंगा.’’ दार्जिलिंग पहुंच कर अमान के पिता अपने मित्र रमेश के घर गए. दूसरे दिन उन्हीं के साथ वे एक स्कूल में गए. वहां अमान से कुछ सवाल पूछे गए और टैस्ट लिया गया. वह सब तो उसे आता ही था, झटझट सब बता दिया. तब वहां के एक रोबीले अंगरेज ने उस की पीठ थपथपाई और कहा, ‘‘बहुत अच्छे.’’ और टौफी खाने को दी. परंतु अमान को वहां कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. वह घर चलने की जिद करने लगा. उसे महसूस हुआ कि यहां जरूर कुछ साजिश चल रही है. उस के पिताजी कितनी देर तक न जाने क्याक्या कागजों पर लिखते रहे, फिर उन्होंने ढेर सारे रुपए निकाल कर दिए. तब एक व्यक्ति ने उन्हें स्कूल और होस्टल घुमा कर दिखाया. पर अमान का दिल वहां घबरा रहा था. उस का मन आशंकित हो उठा कि जरूर कोई गड़बड़ है. उस ने अपने पिता का हाथ जोर से पकड़ लिया और घर चलने के लिए रोने लगा.

शाम को पिताजी उसे माल रोड पर घुमाने ले गए. छोटे घोड़े पर चढ़ा कर घुमाया और बहुत प्यार किया, फिर वहीं बैंच पर बैठ कर उसे खूब समझाते रहे, ‘‘बेटा, तुम्हारी मां वही कहानी वाली राक्षसी है जो बच्चों का खून पी जाती है, हाथपैर तोड़ कर मार डालती है, इसलिए तो हम लोगों ने उसे घर से निकाल दिया है. उस दिन वह स्कूल से जब तुम्हें उड़ा कर ले गई थी, तब हम सब परेशान हो गए थे. इसलिए वह यदि आए भी तो कभी भूल कर भी उस के साथ मत जाना. ऊपर से देखने में वह सुंदर लगती है, पर अकेले में राक्षसी बन जाती है.’’ अमान डर से कांपने लगा. बोला, ‘‘पिताजी, मैं अब कभी उन के साथ नहीं जाऊंगा.’’ दूसरे दिन सवेरे 8 बजे ही पिताजी उसे बड़े से गेट वाले जेलखाने जैसे होस्टल में छोड़ कर चले गए. वह रोता, चिल्लाता हुआ उन के पीछेपीछे भागा. परंतु एक मोटे दरबान ने उसे जोर से पकड़ लिया और अंदर खींच कर ले गया. वहां एक बूढ़ी औरत बैठी थी. उस ने उसे गोदी में बैठा कर प्यार से चुप कराया, बहुत सारे बच्चों को बुला कर मिलाया, ‘‘देखो, तुम्हारे इतने सारे साथी हैं. इन के साथ रहो, अब इसी को अपना घर समझो, मातापिता नहीं हैं तो क्या हुआ, हम यहां तुम्हारी देखभाल करने को हैं न.’’ अमान चुप हो गया. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. फिर उसे उस का बिस्तर दिखाया गया, सारा सामान अटैची से निकाल कर एक छोटी सी अलमारी में रख दिया गया. उसी कमरे में और बहुत सारे बैड पासपास लगे थे. बहुत सारे उसी की उम्र के बच्चे स्कूल जाने को तैयार हो रहे थे. उसे भी एक आया ने मदद कर तैयार कर दिया.

फिर घंटी बजी तो सभी बच्चे एक तरफ जाने लगे. एक बच्चे ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो, नाश्ते की घंटी बजी है.’’ अमान यंत्रवत चला गया, पर उस से एक कौर भी न निगला गया. उसे दादी का प्यार से कहानी सुनाना, खाना खिलाना याद आ रहा था. उसे पिता से घृणा हो गई क्योंकि वे उसे जबरदस्ती, धोखे से यहां छोड़ कर चले गए. वह सोचने लगा कि कोई उसे प्यार नहीं करता. दादी ने भी न तो रोका और न ही पिताजी को समझाया. वह ऊपर से मशीन की तरह सब काम समय से कर रहा था पर उस के दिल पर तो मानो पहाड़ जैसा बोझ पड़ा हुआ था. लाचार था वह, कई दिनों तक गुमसुम रहा. चुपचाप रात में सुबकता रहा. फिर धीरेधीरे इस जीवन की आदत सी पड़ गई. कई बच्चों से जानपहचान और कइयों से दोस्ती भी हो गई. वह भी उन्हीं की तरह खाने और पढ़ने लग गया. धीरेधीरे उसे वहां अच्छा लगने लगा. वह कुछ अधिक समझदार भी होने लगा. इसी प्रकार 1 वर्ष बीत गया. वह अब घर को भूलने सा लगा था. पिता की याद भी धुंधली पड़ रही थी कि एक दिन अचानक ही पिं्रसिपल साहब ने उसे अपने औफिस में बुलाया. वहां 2 पुलिस वाले बैठे थे, एक महिला पुलिस वाली तथा दूसरा बड़ी मूंछों वाला मोटा सा पुलिस का आदमी. उन्हें देखते ही अमान भय से कांपने लगा कि उस ने तो कोई चोरी नहीं की, फिर क्यों पुलिस पकड़ने आ गई है.

वह वहां से भागने ही जा रहा था कि प्रिंसिपल साहब ने प्यार से उस की पीठ सहलाई और कहा, ‘‘बेटा, डरो नहीं, ये लोग तुम्हें तुम्हारे मातापिता के  पास ले जाएंगे. तुम्हें कुछ भी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. इन के पास कोर्ट का और्डर है. हम अब कुछ भी नहीं कर सकते, तुम्हें जाना ही पड़ेगा.’’ अमान ने रोतेरोते कहा, ‘‘मेरे पिताजी को बुलाइए, मैं इन के साथ नहीं जाऊंगा.’’ तब उस पुलिस वाली महिला ने उसे प्यार से गोदी में बैठा कर कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे पिताजी की तबीयत ठीक नहीं है, तभी तो उन्होंने हमें लेने भेजा है. तुम बिलकुल भी डरो मत, हम तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे. पर यदि नहीं जाओगे तो हम तुम्हें जबरदस्ती ले जाएंगे.’’ उस ने बचाव के लिए चारों तरफ देखा, पर कहीं से सहारा न पा, चुपचाप उन के साथ जाने को तैयार हो गया. होस्टल की आंटी उस का सामान ले आई थी.  कलकत्ता पहुंच कर पुलिस वाली आंटी अमान के बारबार कहने पर भी उसे पिता और दादी के पास नहीं ले गई. उस का मन भयभीत था कि क्या मामला है? रात को उन्होंने अपने घर पर ही उसे प्यार से रखा. दूसरे दिन पुलिस की जीप में बैठा कर एक बड़ी सी इमारत, जिस को लोग कोर्ट कह रहे थे, वहां ले गई. वहां उस के मातापिता दोनों दूरदूर बैठे थे और काले चोगे पहने बहुत से आदमी चारों तरफ घूम रहे थे. अमान सहमासहमा बैठा रहा. वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या हो रहा है? फिर ऊंची कुरसी पर सफेद बालों वाले बड़ी उम्र के अंकल, जिन को लोग जज कह रहे थे, ने रोबदार आवाज में हुक्म दिया, ‘‘इस बच्चे यानी अमान को इस की मां को सौंप दिया जाए.’’

पुलिस वाली आंटी, जो उसे दार्जिलिंग से साथ लाई थी, उस का हाथ पकड़ कर ले गई और उसे मां को दे दिया. मां ने तुरंत उसे गोद में उठाया और प्यार करने लगीं. पहले तो उन का प्यारभरा स्पर्श अमान को बहुत ही भाया. परंतु तुरंत ही उसे पिता की राक्षसी वाली बात याद आ गई. तब उसे सचमुच ही लगने लगा कि मां जरूर ही एक राक्षसी है, अभी तो चख रही है, फिर अकेले में उसे खा जाएगी. वह घबरा कर चीखचीख कर रोने लगा, ‘‘मैं इस के साथ नहीं रहूंगा, यह मुझे मार डालेगी. मुझे पिताजी और दादी के साथ अपने घर जाना है. छोड़ दो मुझे, छोड़ो.’’ यह कहतेकहते डर से वह बेहोश हो गया. जब उस के पिता उसे लेने को आगे बढ़े तो उन्हें पुलिस ने रोक दिया, ‘‘कोर्ट के फैसले के विरुद्ध आप बच्चे को नहीं ले जा सकते, इसे हाथ भी न लगाएं.’’तब पिता ने गरज कर कहा, ‘‘यह अन्याय है, बच्चे पर अत्याचार है, आप लोग देख रहे हैं कि बच्चा अपनी मां के पास नहीं जाना चाहता. रोरो कर बेचारा अचेत हो गया है. आप लोग ऐसे नहीं मानेंगे तो मैं उच्च न्यायालय में याचिका दायर करूंगा. बच्चा मुझे ही मिलना चाहिए.’’ जज साहब ने नया फैसला सुनाया, ‘‘जब तक उच्च न्यायालय का फैसला नहीं होता है, तब तक बच्चा पुलिस की संरक्षण में ही रहेगा.’’

4 वर्ष का बेचारा अमान अकेला घर वालों से दूर अलग एक नए वातावरण में चारों तरफ पुलिस वालों के बीच भयभीत सहमासहमा रह रहा था. उसे वहां किसी प्रकार की तकलीफ नहीं थी. खाने को मिलता, पर कुछ खाया ही न जाता. टीवी, जिसे देखने को पहले वह सदा तरसता रहता था, वहां देखने को मिलता, पर कुछ भी देखने का जी ही न चाहता. उसे दुनिया में सब से घृणा हो गई. वह जीना नहीं चाहता था. उस ने कई बार वहां से भागने का प्रयत्न भी किया, पर बारबार पकड़ लिया गया. उस का चेहरा मुरझाता जा रहा था, हालत दयनीय हो गई थी. पर अब कुछकुछ बातें उस की समझ में आने लगी थीं. करीब महीनेभर बाद अमान को नहलाधुला कर अच्छे कपड़े पहना कर जीप में बैठा कर एक नए बड़े न्यायालय में ले जाया गया. वहां उस के मातापिता पहले की तरह ही दूरदूर बैठे हुए थे. चारों तरफ पुलिस वाले और काले कोट वाले वकील घूम रहे थे. पहले के समान ही ऊंची कुरसी पर जज साहब बैठे हुए थे.

पहले पिता के वकील ने खड़े हो कर लंबा किस्सा सुनाया. अमान के मातापिता, जो अलगअलग कठघरे में खड़े थे, से भी बहुत सारे सवाल पूछे. फिर दूसरे वकील ने भी, जो मां की तरफ से बहस कर रहा था, उस का नाम ‘अमान, अमान’ लेले कर उसे मां को देने की बात कही. अमान को समझ ही नहीं आ रहा था कि मातापिता के झगड़े में उस का क्या दोष है. आखिर में जज साहब ने अमान को कठघरे में बुलाया. वह भयभीत था कि न जाने अब उस के साथ क्या होने वाला है. उसे भी मातापिता की तरह गीता छू कर कसम खानी पड़ी कि वह सच बोलेगा, सच के सिवा कुछ भी नहीं बोलेगा. जज साहब ने उस से प्यार से पूछा, ‘‘बेटा, सोचसमझ कर सचसच बताना कि तुम किस के पास रहना चाहते हो… अपने पिता के या मां?’’ सब की नजरें उस के मुख पर ही लगी थीं. पर वह चुपचाप सोच रहा था. उस ने किसी की तरफ नहीं देखा, सिर झुकाए खड़ा रहा. तब यही प्रश्न 2-3 बार उस से पूछा गया तो उस ने रोष से चिल्ला कर उत्तर दिया, ‘‘मुझे किसी के भी साथ नहीं रहना, कोई मेरा अपना नहीं है, मुझे अकेला छोड़ दो, मुझे सब से नफरत है.’’

मैं पापी हूं : 40 साल बाद जब हुआ एक पाप का कबूलनामा

लेखिका- परबंत सिंह मैहरी

बात उन दिनों की है, जब मेरी जवानी उछाल मार रही थी. मैं ने ‘शहर के मशहूर समाजसेवी श्रीश्री डालरिया मल ने सभा की अध्यक्षता की…’ जैसी रिपोर्टिंग करतेकरते आगरा से निकलने वाली एडल्ट मैगजीन ‘मचलती जवानी’ के लिए भी लिखना शुरू कर दिया था. यह ‘मचलती जवानी’ ही मेरे पाप की जड़ है. एक दिन ‘मचलती जवानी’ के संपादक रसीले लाल राजदार की एक ऐसी चिट्ठी आई, जिस ने मेरी दुनिया ही बदल डाली.

उस चिट्ठी में उन्होंने लिखा था, ‘रहते हैं ऐसे महानगर में, जो सोनागाछी और बहू बाजार के लिए सारे देश मशहूर हैं, और आप हैं कि दमदार तसवीरें तक नहीं भिजवा सकते. भेजिए, भेजिए… अच्छी रकम दिलवा दूंगा प्रकाशक से.’

कैमरा खरीदने के लिए मैं ने सेठजी  से कहा कि कुछ पैसे दे दें. यह सुन कर सेठ डालरिया मल ‘होहो’ कर हंसे थे और शाम तक मैं एक अच्छे से कैमरे का मालिक बन गया था.

बहू बाजार की खोली नंबर 34 में एक नई लड़की सीमा आई थी. चेहरा  किसी बंबइया हीरोइन से कम न था. एक दिन सीमा नहाधो कर मुंह में पान रख अपने अधसूखे बालों को धीरेधीरे सुलझा रही थी, तभी मैं उस की खोली में जा धमका.

सीमा ने तुरंत दरवाजा बंद कर सिटकिनी लगा दी और बोली, ‘‘मेरा नाम सीमा है. आप अंदर आइए, बैठिए.’’ मैं पलंग पर बैठते हुए बोला, ‘‘देखो, मैं कुछ करनेधरने नहीं आया हूं. बात यह है कि…’’ ‘‘बेवकूफकहीं के… आज मेरी बोहनी खराब कर दी. चल, निकल यहां से,’’ सीमा चीखते हुए बोली थी.

मैं हकबका गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी. मैं बोला, ‘‘मैं तुम्हारी बोहनी कहां खराब कर रहा हूं? लो ये रुपए.’’

यह सुनते ही सीमा चौंकी. वह बोली, ‘‘मैं मुफ्त के पैसे नहीं लेती.’’’

‘‘मैं मुफ्त के पैसे कहां दे रहा हूं? इस के बदले मुझे दूसरा काम है.’’

‘‘दूसरा काम…? क्या काम है?’’

‘‘मैं तुम्हारी कुछ तसवीरें खींचना चाहता हूं…’’

यह सुनना था कि सीमा मेरी बात बीच में ही काट कर ठहाका मार कर हंसी, ‘‘अरे, मां रे. ऐसेऐसे मर्द भी हैं दुनिया में?’’

फिर सीमा मेरी ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘मेरे तसवीर देखदेख कर ही मजे लेगा… चल, ले खींच. तू भी क्या याद करेगा…

‘‘और पैसे भी रख अपने पास. जरूरत है, तो मुझ से ले जा 10-20.’’ सीमा ने अंगरेजी हीरोइनों को भी मात देने वाले पोजों में तसवीरें खिंचवाईं. वे छपीं तो अच्छे पैसे भी मिले. जब पहला मनीऔर्डर आया, तो उन पैसों से मैं ने उस के लिए साड़ी और ब्लाउज खरीदा.

जब मैं उसे देने गया, तो यह सब देख कर उस की आंखें भर आईं. वह बोली, ‘‘तुम आया करो न.’’ और मैं सीमा के पास आनेजाने लगा. यही मेरा पाप था. उस के लिए कुछ साल पीछे जाना होगा. बात शायद साल 1946 की है. मेरे मातापिता ढाका के धान मंडी इलाके में रहा करते थे, तब मैं प्राइमरी स्कूल की पहली क्लास में भरती हुआ था.

स्कूल घर से एक मील दूर था, लेकिन मैं ने जो रास्ता दोस्तों के साथ कंचे खेलते हुए पता कर लिया था, वह चौथाई मील से भी कम था. मेरे पिता लंबे रास्ते से ले जा कर मुझे स्कूल में भरती करा कर आए. लेकिन अगले दिन से मुझे अकेले ही आनाजाना था और इस के लिए मुझे शौर्टकट रास्ता ही पसंद आया.

बहुत दिनों के बाद देश के बंटवारे के बाद जब मैं कलकत्ता आ गया, तो मुझे पता चला कि उस शौर्टकट रास्ते का नाम गली चांद रहमान था. एक दिन मैं ने जब मां से पूछा, ‘‘मांमां, उस रास्ते में बहुत सारी दीदियां और मौसियां अपनेअपने घरों के सामने बैठी रहती हैं. वे कौन हैं?’’

यह सुन कर मां ने मुझे डपटा था, ‘‘खबरदार, जो दोबारा उस रास्ते से गया तो…’’ इस के बाद 2-3 दिनों तक मैं मेन रोड से आयागया, लेकिन फिर वही गली पकड़ ली.

एक दिन मैं ने मां को जब अच्छे मूड में देखा, तो अपना सवाल दोहरा दिया. वे बोलीं, ‘‘जा, उन्हीं से पूछ लेना.’’

एक मौसी मुझ से हर रोज बोला करती थीं, ‘‘ऐ लड़के, बदरू चाय वाले को बोल देना तो, लिली 4 कप चाय मांग रही है.’’ वे कभी मुझे एक पैसा देतीं, तो कभी 2 पैसे दिया करती थीं.

अगले दिन मैं ने हिम्मत कर के लिली से ही पूछ लिया, ‘‘मेरी मां ने पूछा है कि आप लोग कौन हैं?’’

मेरा यह सवाल सुन कर लिली के अलावा और भी मौसियां और दीदियां हंस पड़ीं. उन में से एक बोली थी, ‘‘बता देना, हम लोग धंधेवालियां हैं.’’

मां को जब एक दिन फिर अच्छे मूड में देखा, तो उन को बताया, ‘‘मां, वे कह रही हैं कि धंधेवालियां हैं.’’ लेकिन मां शायद अंदर से जलभुनी बैठी थीं. वे बोलीं, ‘‘जा, उन से यह भी पूछना कि कैसा चल रहा है धंधा?’’

मैं ने वाकई यह बात पूछ डाली थी. इस के जवाब में लिली ने हंस कर कहा था, ‘‘जा कर कह देना उन से कि बड़ा अच्छा चल रहा है. इतना अच्छा चल रहा है कि सलवार पहनने की भी फुरसत नहीं मिलती.’’ यह जवाब सुन कर मां ने इतनी जोर से तमाचा मारा था कि गाल सूज जाने की वजह से मैं कई दिनों तक स्कूल नहीं जा पाया था.

एक दिन पता नहीं क्या बात हुई कि लंच टाइम में ही छुट्टी हो गई. मास्टर ने कहा, ‘‘सभी सीधे घर जाना. संभल कर जाना.’’

जब मैं गली चांद रहमान से निकल रहा था, तो पाया कि सारी गली में सन्नाटा पसरा था. सिर्फ लिली मौसी ही दरवाजे पर खड़ी थीं और काफी परेशान दिख रही थीं. मुझे देखते ही वे बोलीं,  ‘‘तू हिंदू है?’’ हिंदू क्या होता है, तब मैं यह नहीं जानता था, इसलिए चुप रहा.

वे फिर बोलीं, ‘‘सब्जी वाले महल्ले में रहता है न. वहां दंगा फैल गया है. जब तक सब ठीक न हो जाए, तू यहीं छिपा रह.’’ कर्फ्यू लग गया था. 3 दिनों के बाद हालत सुधरी और कर्फ्यू में ढील हुई, तो लिली ने बताया, ‘‘सब्जी वाले महल्ले में एक भी हिंदू नहीं है. लगता है, जो मारे जाने से बच गए हैं, वे कहीं और चले गए हैं.’’

अगले दिन वे मुझे ले कर मेरे टोले में गईं, लेकिन वहां कुछ भी नहीं था, सिर्फ जले हुए मकान थे. यह देख कर मैं रोने लगा. वे मुझे अपने साथ ले आईं और अपने बेटे की तरह पालने लगीं.

तकरीबन सालभर बाद की बात है. मैं गली में गुल्लीडंडी खेल रहा था, तभी कानों में आवाज आई, ‘‘अरे सोनू, तू यहां है? ठीक तो है न? तुझे कहांकहां नहीं ढूंढ़ा.’’ देखा कि मेरी मां और पिता थे. पिता बोले, ‘‘चल, देश आजाद हो गया है. हम लोगों को उस पार के बंगाल जाना है.’’

तब तक लिली भी बाहर आ गई थीं.  उन की आंखों में छिपे आंसुओं को सिर्फ मैं ने ही महसूस किया था. अब आज में लौट आते हैं. सीमा ने पहले दिन के बाद मुझ से कभी कोई पैसा नहीं लिया, बल्कि हर बार देने की कोशिश की.

मैं उस के जरीए एक बच्चे का बाप भी बन गया और देखते ही देखते वह लड़का एक साल का हो गया. एक दिन दोपहर को उस के पास गया, तो वह बोली, ‘‘ऊपर से पेटी उतारना तो… मेरी मां ने मुझे चांदी के कंगन दिए थे. कहा था, तेरा बच्चा होगा तो मेरी तरफ से उसे पहना देना.’’

पेटी उतारी गई. कई तरह के पुराने कपड़े भरे हुए थे. उस ने सारी पेटी फर्श पर उलट दी और कहा, ‘‘लगे हाथ सफाई भी हो जाएगी.’’ ट्रंक के नीचे बिछाया गया अखबार उलट कर मैं पढ़ने लगा. तभी उस में से एक तसवीर निकल कर नीचे गिरी. मैं ने उठाई. चेहरा पहचाना हुआ लगा.

मैं ने पूछा, ‘‘ये कौन हैं?’’

‘‘मेरी मां है.’’

‘‘क्या तुम्हारी मां धान मंडी में रहती थीं?’’ मैं ने चौंक कर पूछा.

‘‘हां, तुम को कैसे मालूम?’’ सीमा ताज्जुब से मुझे देखने लगी.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या तुम्हारी मां का नाम लिली है?’’

‘‘हां, लेकिन यह सब तुम को कैसे मालूम?’’ सीमा की हैरानी बढ़ती जा रही थी.

लेकिन उस के सवाल के जवाब में मैं ने बहुत बड़ी बेवकूफी कर दी. मैं ने जोश में आ कर बता दिया, ‘‘मैं भी धान मंडी का हूं. बचपन में तुम्हारी मां ने मुझे अपने बेटे की तरह पाला था.’’

यह सुनना था कि सीमा का चेहरा सफेद हो गया. उस दिन के बाद से सीमा गुमसुम सी रहने लगी थी. एक दिन वह बोली, ‘‘भाईबहन हो कर हम लोगों ने यह क्या कर डाला? कैसे होगा प्रायश्चित्त?’’ पर इस का कोई जवाब होता, तब न मैं उस को देता.

कुछ दिनों बाद मुझे बिहार में अपने गांव जाना पड़ गया. तकरीबन एक महीने बाद मैं लौटा, तो पता चला कि सीमा ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली थी. हमारा बेटा कहां गया, इस का पता नहीं चल पाया. अनजाने में हो गए पाप का सीमा ने तो जान दे कर प्रायश्चित्त कर लिया था, लेकिन मैं बुजदिल उस पाप को आज तक ढो रहा हूं. मेरे घर के पास ही फकीरचंद रहता था. वह टैक्सी ड्राइवर था. वह एक अच्छा शायर भी था. मेरी तरह उस का भी आगेपीछे कोई नहीं था. सो, हम दोनों में अच्छी पट रही थी.

मैं जोकुछ लिखता था, उस का पहला पाठक वही होता था. एक दिन वह मेरे लिखे को पढ़ने लगा. वह ज्योंज्यों मेरा लिखा पढ़ता गया, उस की आंखें आंसुओं से भरती जा रही थीं और जब पढ़ना पूरा हुआ, तो देखा कि वह फफकफफक कर रो रहा था.  मैं ने हैरान होते हुए पूछा, ‘‘अरे, तुम को क्या हो गया फकीरचंद?’’

वह भर्राए गले से बोला, ‘‘हुआ कुछ नहीं. सीमा का बेटा मैं ही हूं.’’

मेरे चाचाजी: आखिर किस बीमारी से जूझ रहे थे चाचाजी

फोन की घंटी बजने पर मैं ने फोन उठाया तो उधर से मेरी बड़ी जेठानी का हड़बड़ाया सा स्वर सुनाई दिया, ‘‘शची, ललित है क्या घर में…चाचाजी का एक्सीडेंट हो गया है…तुम लोग जल्दी से अस्पताल पहुंचो…हम भी अस्पताल जा रहे हैं.’’

यह सुन कर घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल हो गया. मैं ने जल्दी से ललित को बताया और हम अस्पताल की तरफ भागे. अस्पताल पहुंचे तो बाहर ही परिवार के बाकी लोग मिल गए.

‘‘कैसे हैं चाचाजी?’’ मैं ने छोटी जेठानी से पूछा.

‘‘उन की हालत ठीक नहीं है, शची… एक पैर कुचल गया है और सिर पर बहुत अधिक चोट लगी है…खून बहुत बह गया है,’’ वह रोंआसी हो कर बोलीं.

मेरा मन रोने को हो आया. हम अंदर गए तो डाक्टर पट्टियां कर रहा था. चाचाजी होश में थे या नहीं, पर उन की आंखें खुली हुई थीं. ‘चाचाजी’ कहने पर वह बस अपनी निगाहें घुमा पा रहे थे. चोट के कारण चाचाजी का मुंह बंद नहीं हो पा रहा था. उन्हें देख लग रहा था जैसे वह कुछ बोलना चाह रहे हैं पर बोलने में असमर्थता महसूस कर रहे थे.

सारा परिवार परेशान था. विनय दादाजी के पास खड़ा हो कर उन का हाथ सहलाने लगा. उन्होंने उस की हथेली कस कर पकड़ ली तो उस के बाद छोड़ी ही नहीं.

‘‘आप अच्छे हो जाएंगे, चाचाजी,’’ मैं ने रोतेरोते उन का चेहरा सहलाया.

उस के बाद शुरू हुआ चाचाजी के तमाम टैस्ट और एक्सरे का दौर…अंदर चाचाजी का सीटी स्कैन हो रहा था और बाहर हमारा पूरा परिवार अस्पताल के बरामदे में असहाय खड़ा, जीवन व मृत्यु से जूझ रहे अपने प्रिय चाचाजी की सलामती की कामना कर रहा था. उस पल लग रहा था कि कोई हमारी सारी दौलत लेले और हमारे चाचाजी को अच्छा कर दे. रहरह कर परिवार का कोई न कोई सदस्य सुबक पड़ता. उन की हालत बहुत खराब थी तब भी मन में अटूट विश्वास था कि इतने संत पुरुष की मृत्यु ऐसे नहीं हो सकती.

78 साल के चाचाजी यानी मेरे चचिया ससुर वैसे हर प्रकार से स्वस्थ थे. उन को देख कर लगता था कि वह अभी बहुत दिनों तक हमारे बीच बने रहेंगे लेकिन इस दुखद घटना ने सब के दिलों को झकझोर दिया, क्योंकि चाचाजी के साथ परिवार के हर सदस्य का रिश्ता ही कुछ इस तरह का था. वह जैसे हर एक के बिलकुल अपने थे, जिन से हर सदस्य अपनी निजी से निजी समस्या कह देता था. वह हर एक के दोस्त थे, राजदार थे और मांजी के संरक्षक थे. देवरभाभी का ऐसा पवित्र व प्यारा रिश्ता भी मैं ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा था.

चाचाजी को गहन चिकित्सा कक्ष में रखा गया था. उन की हालत चिंताजनक तो थी पर नियंत्रण में थी. डाक्टरों के अनुसार चाचाजी का सुबह आपरेशन होना था. आपरेशन के लिए सभी जरूरी चीजों का इंतजाम हम ने रात को ही कर दिया. रात का 1 बज चुका था. परिवार के 1-2 सदस्यों को छोड़ कर बाकी सदस्य घर चले गए. अभी हम घर पहुंचे ही थे कि अस्पताल से फोन आ गया कि चाचाजी की हालत बिगड़ रही है. सभी लोग दोबारा अस्पताल पहुंचे…लेकिन तब तक सबकुछ समाप्त हो चुका था. हमारे प्यारे चाचाजी हम सब को रोताबिलखता छोड़ कर इस दुनिया से जा चुके थे.

हम चाचाजी का पार्थिव शरीर घर ले आए. रिश्तेदारों और जानने वालों का हुजूम उन के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़ा. यह देख कर हमारा सारा परिवार चकित व हतप्रभ था. दरअसल, चाचाजी के पास सब की परेशानियों का निदान था, जिन्हें वह अपनी तरह से हल करते थे.

चाचाजी के संसार छोड़ कर जाने के सदमे को परिवार सहज नहीं ले पा रहा था. बच्चे अपने प्रिय दादाजी का जाना सहन नहीं कर पा रहे थे. परिवार का कभी कोई तो कभी कोई सदस्य फूटफूट कर रोने लगता. चाचाजी ने परिवार में रह कर सारे कर्तव्य पूरे किए लेकिन खुद एक वैरागी की तरह रहे. वह छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष, लालच आदि सांसारिक रागद्वेषों से बहुत दूर थे…सही अर्थों में वह संत थे. एक ऐसे संत जिन्होंने सांसारिक कर्तव्यों से कभी पलायन नहीं किया.

चाचाजी के कई रूप दिमाग में आजा रहे थे. जोरजोर से हंसते हुए, रूठते हुए, गुस्से से चिल्लाते हुए, बच्चों के साथ डांस करते हुए, अपनी लापरवाही से कई काम बिगाड़ते हुए, परिवार पर गर्व करते हुए. सब की सहायता को तत्पर…एक चाचाजी के अनेक रूप थे. आज चाचाजी की विदा की बेला पर उन से संबंधित सभी पुरानी बातें मुझे बहुत याद आ रही थीं.

चाचाजी से मेरा पहला परिचय विवाह के समय हुआ था. तब वह लखनऊ में कार्यरत थे और मेरी ससुराल व मायका देहरादून में था.

‘पैर छुओ शची…ये हमारे चाचाजी हैं,’ ललित ने कहा, तो मैं ने सामने देखा. दुबलेपतले, हंसमुख चेहरे वाले चाचाजी मेरे सामने खड़े थे. ललित के ‘हमारे चाचाजी’ कहने भर से ही परिवार के साथ उन के अटूट रिश्ते का एहसास मुझे मन ही मन हो गया था.

‘चाचाजी, प्रणाम,’ मैं उन के पैरों में झुक गई.

‘चिरंजीवी हो…खुश रहो,’ कह कर चाचाजी ने मेरी झुकी पीठ पर आशीर्वाद- स्वरूप दोचार हाथ मार दिए. मुझे यह आशीर्वाद कुछ अजीब सा लगा, पर चाचाजी के चेहरे के वात्सल्य भाव ने मुझे मन ही मन अभिभूत कर दिया. फिर भी मैं ने उन्हें आम चाचाजी की तरह ही लिया, जैसे सभी के चाचाजी होते हैं वैसे ललित के भी हैं.

मेरी नईनई शादी हुई थी. मुझे बस, इतना पता था कि ललित के एक ही चाचाजी हैं और वह भी अविवाहित हैं. पति 6 भाई व 1 बहन थे, 2 जेठानियां थीं. परिवार के लोगों के बीच गजब का तालमेल था, जो मैं ने इस से पहले किसी परिवार में नहीं देखा था.

‘मुझे तो यह परिवार फिल्मी सा लगता है,’ एक दिन मैं ननद से बोली तो उन्होंने यह बात हंसतेहंसते सब को बता दी. मैं नईनई बहू, संकोच से गड़ गई थी.

छुट्टियों में हमारा सारा परिवार देहरादून के अपने पुश्तैनी मकान में जमा हो जाता था. एक दिन सुबहसुबह घर में कोहराम मचा हुआ था. बड़ी जेठानी गुस्से में बड़बड़ाती हुई इधर से उधर, उधर से इधर घूम रही थीं.

‘क्या हुआ, भाभी?’ मैं ने पूछा.

‘चाचाजी ने रात में बाथरूम का नल खुला छोड़ दिया, सारी टंकी खाली हो गई… पता नहीं ऐसी लापरवाही क्यों करते हैं चाचाजी. मैं रोज रात में चाचाजी के बाथरूम जाने के बाद नल चेक करती थी, कल भूल गई और आज ही यह हो गया. अब इतने लोगों के लिए पानी का काम कैसे चलेगा?’

‘आदमी को शादी जरूर करनी चाहिए,’ मांजी अकसर चाचाजी की लापरवाही के लिए उन के अविवाहित होने को जिम्मेदार ठहरा देती थीं. सुन कर अजीब सा लगा कि इतने बुजुर्ग इनसान ने ऐसी बच्चों जैसी लापरवाही क्यों की और सब लोग उन पर क्यों बड़बड़ा रहे हैं. इन सब बातों से अलगथलग चाचाजी सुबह की सैर पर गए हुए थे.

‘चाचाजी ने शादी क्यों नहीं की?’ एक दिन मैं ननद से पूछ बैठी.

‘भाभी, सुनोगी तो हैरान रह जाओगी,’ ननद बोलीं, ‘मैं तब बहुत छोटी थी, मां बताती हैं कि पिताजी की अचानक मौत के कारण परिवार मझधार में फंस गया था, परिवार को संभालने के लिए चाचाजी ने विवाह न करने की कसम खा ली. तब से आज तक अपने बड़े भाई के परिवार की देखभाल करना ही उन के जीवन का मुख्य लक्ष्य बन गया.’

मैं हैरान हो ननद का चेहरा देखती रह गई. इतनी बड़ी कुर्बानी भी कहीं कोई देता है… पूरा जीवन ही ऐसे गुजार दिया. ऐसे संत पुरुष के प्रति उसी पल से मेरे हृदय में अथाह श्रद्धा का सागर लहराने लगा. तब मेरे पति की पोस्ंिटग कानपुर में थी और चाचाजी लखनऊ में नौकरी करते थे. हम दोनों उन को अपने पास आने के लिए जिद करते थे. मेरे पति मुझे उकसाते कि मैं उन्हें आने के लिए कहूं…पर डेढ़दो घंटे की दूरी तय कर के चाचाजी साल भर तक कानपुर नहीं आए.

मैं भी हताश हो कर चुप हो गई. सोचा, शायद वह आना ही नहीं चाहते हैं. परिवार के सदस्य, उन की आदतें जैसी थीं वैसी ही स्वीकार करते थे.

एक दिन सुबहसुबह डोरबेल बजी और मैं ने दरवाजा खोला तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. हाथ में अटैची और कंधे पर बैग लटकाए चाचाजी को सामने खड़ा पाया.

‘चाचाजी, आप…’ मैं अपनी खुशी को संभालते हुए उन के पैरों में झुक गई. मेरे चेहरे पर अपने आने की सच्ची खुशी देख कर उन्हें शायद संतोष हो गया था कि उन्होंने आ कर कोई गलती नहीं की.

‘हां, तुम लोगों को परेशान करने आ गया,’ वह हंसते हुए बोले थे.

‘आप कैसी बात कर रहे हैं चाचाजी, आप का आना हमारे सिरआंखों पर,’ मैं नाराज होती हुई बोली.

चाचाजी का हमारे पास आना तब से शुरू हुआ तो फिर बदस्तूर जारी रहा. जब भी कोई छुट्टी पड़ती या शनिवार, रविवार, वह हमारे पास आ जाते. विनय का जन्म हुआ तो उन की खुशी की जैसे कोई सीमा ही नहीं थी. बच्चे के लिए कपड़े…मेरे लिए साड़ी…उन का दिल करता था कि वह क्याक्या कर दें. नन्हा सा विनय तो जैसे उन की जान ही बन गया था. अब तो वह नहीं भी आना चाहते तो विनय का आकर्षण उन्हें कानपुर खींच लाता. हम तीनों हर शनिवार की शाम चाचाजी का बेसब्री से इंतजार करते और वह ढेर सारा सामान ले कर पहुंच जाते.

इस समय चाचाजी की जाने कितनी यादें दिमाग में आ कर शोर मचा रही थीं. वह परिवार के हर सदस्य पर तो खूब खर्च करना चाहते पर किसी का खुद पर खर्च करना वह जरा भी पसंद नहीं करते थे. कोई उन के लिए गिफ्ट खरीदता तो वह बहुत नाराज हो जाते. यहां तक कि चिल्ला भी पड़ते.

विवाह के शुरू के समय की एक घटना याद आती है. मैं ने चाचाजी के लिए नए साल पर खूबसूरत सा कुरता- पाजामा खरीदा और जब उन को दिया तो उन्होंने गुस्से में उठा कर फेंक दिया. मैं रोंआसी हो गई. चाचाजी यह कहते हुए चिल्ला रहे थे :

‘तुम लोग समझते नहीं हो…कर्जा चढ़ाते हो मेरे ऊपर. मैं यह सब पसंद नहीं करता.’

मैं आंसुओं से सराबोर, अपमानित सी कपड़े उठा कर वहां से चल दी. मैं ने मन ही मन प्रण किया कि भविष्य में उन को कभी कोई गिफ्ट नहीं दूंगी. यह बात मैं ने जब घर के लोगों को बताई तो सब हंसतेहंसते लोटपोट हो गए थे. बाद में मुझे पता चला कि उन के अनुभवों में तो ऐसी अनगिनत घटनाएं थीं और डांट खाने के बाद भी सब चाचाजी को गिफ्ट देते थे.

समय के साथ मुझे भी उन के स्वभाव की आदत पड़ गई. उन की डांट में, उन की नाराजगी में, उन के अथाह स्नेह को मैं ने भी महसूस करना सीख लिया. कुछ सालों बाद ललित का तबादला देहरादून हो गया और चाचाजी भी रिटायर हो कर देहरादून आ गए. बच्चे बड़े होने लगे तो सभी भाइयों के परिवार अलगअलग रहने लगे.

ससुराल के पुश्तैनी मकान में बस बड़े भाई का परिवार, मांजी व चाचाजी थे. लेकिन उस घर में हमारा सब का आनाजाना लगा रहता था. एक दिन मैं मांजी से मिलने गई थी. टीवी पर नए साल का बजट पेश हो रहा था. चाचाजी बड़े ध्यान से समाचार सुन रहे थे.

‘देखना शची, चाचाजी कितने ध्यान से बजट का समाचार सुन रहे हैं, पर इन का अपना बजट हमेशा गड़बड़ाया रहता है.’

बड़े होने के नाते चाचाजी घर में हर खर्च खुद ही करना चाहते थे. कोई दूसरा खर्च करने की पेशकश करता तो वह नाराज हो जाते. कोई सामान घर में खत्म हो जाए तो वह तुरंत यह कह कर चल देते कि मैं अभी ले कर आता हूं.

भतीजों के परिवार अलगअलग जगहों पर रहने के बावजूद वह परिवार के हर सदस्य के जन्मदिन पर ढेर सारी मिठाइयां, केक, पेस्ट्री ले कर पहुंच जाते. वह हर त्योहार पर सभी भतीजों के परिवारों को अपने पुश्तैनी घर में आमंत्रित करते. इस तरह सारे परिवार को उन्होंने एक डोर में बांधा हुआ था.

समय अपनी गति से खिसकता रहा. बच्चे बड़े और बड़े बूढ़े होने लगे. फिर परिवार में एक दुर्घटना घटी. मेरे सब से बड़े जेठजी का देहांत हो गया. इस से सारा परिवार दुख के सागर में डूब गया. जेठजी के जाने से चाचाजी अत्यधिक व्यथित हो गए. धीरेधीरे उन के चेहरे पर भी उम्र की थकान नजर आने लगी थी. फिर भी वह उम्र के हिसाब से बहुत चुस्तदुरुस्त थे. वह मांजी की तरफ से काफी चिंतित रहते थे कि अगर उन को कुछ हो गया तो उन का क्या होगा. वह बुढ़ापे में अकेले रह जाएंगे क्योंकि बड़ी भाभी का देरसवेर अपने बहूबेटे के पास जाना तय था.

हो सकता है यह मेरी खुशफहमी हो पर मैं उन का अपने प्रति विशेष अनुराग महसूस करती थी. एक दिन जब मैं ससुराल गई हुई थी तो चाचाजी काफी अलग से मूड में थे. मेरे पहुंचते ही मुझ से बोले, ‘शची, मैं ने भाभी से कह दिया है कि उन के बाद मैं तुम्हारे साथ रहूंगा.’

‘जी चाचाजी…’ इतना कह कर मैं धीरेधीरे मुसकराने लगी.

‘इस में हंसने की क्या बात है,’ उन्होंने मुझे जोर से डपटा, ‘मैं मजाक नहीं कर रहा हूं… मैं बिलकुल सच कह रहा हूं. मैं तुम्हारे साथ रहूंगा.’

मैं गंभीर हो कर बोली, ‘यह भी कोई कहने की बात है चाचाजी…आप का घर है. हमारी खुशकिस्मती है कि आप हमारे साथ रहेंगे,’ मेरे जवाब से चाचाजी संतुष्ट हो गए.

पर कौन जानता था कि मांजी से पहले चाचाजी इस दुनिया से चले जाएंगे.

‘‘चलिए भाभी, पंडितजी बुला रहे हैं चाचाजी को अंतिम प्रणाम करने के लिए,’’ मेरी देवरानी बोली तो मैं चौंक कर अतीत की यादों से वर्तमान में लौट आई.

चाचाजी का पार्थिव शरीर अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर दिया गया था. सभी रो रहे थे. मेरे कंठ में रुलाई जैसे आ कर अटक गई. कैसे देखेंगे इस संसार को चाचाजी के बिना… कैसा लगेगा हमारा परिवार इस आधारशक्ति के बिना…सभी ने रोतेरोते चाचाजी को अंतिम प्रणाम किया. भतीजों ने अपने कंधों पर चाचाजी की अरथी उठाई और चाचाजी अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़े.

रूठी रानी उमादे: क्यों संसार में अमर हो गई जैसलमेर की रानी

रेतीले राजस्थान को शूरवीरों की वीरता और प्रेम की कहानियों के लिए जाना जाता है. राजस्थान के इतिहास में प्रेम रस और वीर रस से भरी तमाम ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं, जिन्हें पढ़सुन कर ऐसा लगता है जैसे ये सच्ची कहानियां कल्पनाओं की दुनिया में ढूंढ कर लाई गई हों.

मेड़ता के राव वीरमदेव और राव जयमल के काल में जोधपुर के राव मालदेव शासन करते थे. राव मालदेव अपने समय के राजपूताना के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे. शूरवीर और धुन के पक्के. उन्होंने अपने बल पर  जोधपुर राज्य की सीमाओं का काफी विस्तार किया था. उन की सेना में राव जैता व कूंपा नाम के 2 शूरवीर सेनापति थे.

यदि मालदेव, राव वीरमदेव व उन के पुत्र वीर शिरोमणि जयमल से बैर न रखते और जयमल की प्रस्तावित संधि मान लेते, जिस में राव जयमल ने शांति के लिए अपने पैतृक टिकाई राज्य जोधपुर की अधीनता तक स्वीकार करने की पेशकश की थी, तो स्थिति बदल जाती. जयमल जैसे वीर, जैता कूंपा जैसे सेनापतियों के होते राव मालदेव दिल्ली को फतह करने में समर्थ हो जाते.

राव मालदेव के 31 साल के शासन काल तक पूरे भारत में उन की टक्कर का कोई राजा नहीं था. लेकिन यह परम शूरवीर राजा अपनी एक रूठी रानी को पूरी जिंदगी नहीं मना सका और वह रानी मरते दम तक अपने पति से रूठी रही.

जीवन में 52 युद्ध लड़ने वाले इस शूरवीर राव मालदेव की शादी 24 वर्ष की आयु में वर्ष 1535 में जैसलमेर के रावल लूनकरण की बेटी राजकुमारी उमादे के साथ हुई थी. उमादे अपनी सुंदरता व चतुराई के लिए प्रसिद्ध थीं. राठौड़ राव मालदेव की शादी बारात लवाजमे के साथ जैसलमेर पहुंची. बारात का खूब स्वागतसत्कार हुआ. बारातियों के लिए विशेष ‘जानी डेरे’ की व्यवस्था की गई.

ऊंट, घोड़ों, हाथियों के लिए चारा, दाना, पानी की व्यवस्था की गई. राजकुमारी उमादे राव मालदेव जैसा शूरवीर और महाप्रतापी राजा पति के रूप में पाकर बेहद खुश थीं. पंडितों ने शुभ वेला में राव मालदेव की राजकुमारी उमादे से शादी संपन्न कराई.

चारों तरफ हंसीखुशी का माहौल था. शादी के बाद राव मालदेव अपने सरदारों व सगेसंबंधियों के साथ महफिल में बैठ गए. महफिल काफी रात गए तक चली.

इस के बाद तमाम घराती, बाराती खापी कर सोने चले गए. राव मालदेव ने थोड़ीथोड़ी कर के काफी शराब पी ली थी.

उन्हें नशा हो रहा था. वह महफिल से उठ कर अपने कक्ष में नहीं आए. उमादे सुहाग सेज पर उन की राह देखतीदेखती थक गईं. नईनवेली दुलहन उमादे अपनी खास दासी भारमली जिसे उमादे को दहेज में दिया गया था, को मालदेव को बुलाने भेजने का फैसला किया. उमादे ने भारमली से कहा, ‘‘भारमली, जा कर रावजी को बुला लाओ. बहुत देर कर दी उन्होंने…’’

भारमली ने आज्ञा का पालन किया. वह राव मालदेव को बुलाने उन के कक्ष में चली गई. राव मालदेव शराब के नशे में थे. नशे की वजह से उन की आंखें मुंद रही थीं कि पायल की रुनझुन से राव ने दरवाजे पर देखा तो जैसे होश गुम हो गए. फानूस तो छत में था, पर रोशनी सामने से आ रही थी. मुंह खुला का खुला रह गया.

जैसे 17-18 साल की कोई अप्सरा सामने खड़ी थी. गोरेगोरे भरे गालों से मलाई टपक रही थी. शरीर मछली जैसा नरमनरम. होंठों के ऊपर मौसर पर पसीने की हलकीहलकी बूंदें झिलमिला रही थीं होठों से जैसे रस छलक रहा हो.

भारमली कुछ बोलती, उस से पहले ही राव मालदेव ने यह सोच कर कि उन की नवव्याहता रानी उमादे है, झट से उसे अपने आगोश में ले लिया. भारमली को कुछ बोलने का मौका नहीं मिला या वह जानबूझ कर नहीं बोली, वह ही जाने.

भारमली भी जब काफी देर तक वापस नहीं लौटी तो रानी उमादे ने जिस थाल से रावजी की आरती उतारनी थी, उठाया और उस कक्ष की तरफ चल पड़ीं, जिस कक्ष में राव मालदेव का डेरा था.

उधर राव मालदे ने भारमली को अपनी रानी समझ लिया था और वह शराब के नशे में उस से प्रेम कर रहे थे. रानी उमादे जब रावजी के कक्ष में गई तो भारमली को उन के आगोश में देख रानी ने आरती का थाल यह कह कर ‘अब राव मालदेव मेरे लायक नहीं रहे,’ पटक दिया और वापस चली गईं.

अब तक राव मालदेव के सब कुछ समझ में आ गया था. मगर देर हो चुकी थी. उन्होंने सोचा कि जैसेतैसे रानी को मना लेंगे. भारमली ने राव मालदेव को सारी बात बता दी कि वह उमादे के कहने पर उन्हें बुलाने आई थी. उन्होंने उसे कुछ बोलने नहीं दिया और आगोश में भर लिया. रानी उमादे ने यहां आ कर यह सब देखा तो रूठ कर चली गईं.

सुबह तक राव मालदेव का सारा नशा उतर चुका था. वह बहुत शर्मिंदा हुए. रानी उमादे के पास जा कर शर्मिंदगी जाहिर करते हुए कहा कि वह नशे में भारमली को रानी उमादे समझ बैठे थे.

मगर उमादे रूठी हुई थीं. उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वह बारात के साथ नहीं जाएंगी. वो भारमली को ले जाएं. फलस्वरूप एक शक्तिशाली राजा को बिना दुलहन के एक दासी को ले कर बारात वापस ले जानी पड़ी.

रानी उमादे आजीवन राम मालदेव से रूठी ही रहीं और इतिहास में रूठी रानी के नाम से मशहूर हुईं. जैसलमेर की यह राजकुमारी रूठने के बाद जैसलमेर में ही रह गई थीं. राव मालदेव दहेज में मिली दासी भारमली बारात के साथ बिना दुलहन के जोधपुर आ गए थे. उन्हें इस का बड़ा दुख हुआ था. सब कुछ एक गलतफहमी के कारण हुआ था.

राव मालदेव ने अपनी रूठी रानी उमादे के लिए जोधपुर में किले के पास एक हवेली बनवाई. उन्हें विश्वास था कि कभी न कभी रानी मान जाएगी.

जैसलमेर की यह राजकुमारी बहुत खूबसूरत व चतुर थी. उस समय उमादे जैसी खूबसूरत महिला पूरे राजपूताने में नहीं थी. वही सुंदर राजकुमारी मात्र फेरे ले कर राव मालदेव की रानी बन

गई थी. ऐसी रानी जो पति से आजीवन रूठी रही. जोधपुर के इस शक्तिशाली राजा मालदेव ने उमादे को मनाने की बहुत कोशिशें कीं मगर सब व्यर्थ. वह नहीं मानी तो नहीं मानी. आखिर में राव मालदेव ने एक बार फिर कोशिश की उमादे को मनाने की. इस बार राव मालदव ने अपने चतुर कवि आशानंदजी चारण को उमादे को मना कर लाने के लिए जैसलमेर भेजा.

चारण जाति के लोग बुद्धि से चतुर व वाणी से वाकपटुता व उत्कृष्ट कवि के तौर पर जाने जाते हैं. राव मालदेव के दरबार के कवि आशानंद चारण बड़े भावुक थे. निर्भीक प्रकृति के वाकपटु व्यक्ति.

जैसलमेर जा कर आशानंद चारण ने किसी तरह अपनी वाकपटुता के जरिए रूठी रानी उमादे को मना भी लिया और उन्हें ले कर जोधपुर के लिए रवाना भी हो गए. रास्ते में एक जगह रानी उमादे ने मालदेव व दासी भारमली के बारे में कवि आशानंदजी से एक बात पूछी.

मस्त कवि समय व परिणाम की चिंता नहीं करता. निर्भीक व मस्त कवि आशानंद ने भी बिना परिणाम की चिंता किए रानी को 2 पंक्तियों का एक दोहा बोल कर उत्तर दिया—

माण रखै तो पीव तज, पीव रखै तज माण.

दोदो गयंदनी बंधही, हेको खंभु ठाण.

यानी मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति को रखना है तो मान को त्याग दे. लेकिन दोदो हाथियों को एक ही खंभे से बांधा जाना असंभव है.

आशानंद चारण के इस दोहे की दो पंक्तियों ने रानी उमादे की सोई रोषाग्नि को वापस प्रज्जवलित करने के लिए आग में घी का काम किया. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे ऐसे पति की आवश्यकता नहीं है.’’ रानी उमादे ने उसी पल रथ को वापस जैसलमेर ले चलने का आदेश दे दिया.

आशानंदजी ने मन ही मन अपने कहे गए शब्दों पर विचार किया और बहुत पछताए, लेकिन शब्द वापस कैसे लिए जा सकते थे. उमादे जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है, अपनी रूपवती दासी भारमली के कारण ही अपने पति राजा मालदेव से रूठ गई थीं और आजीवन रूठी ही रहीं.

जैसलमेर आए कवि आशानंद चारण ने फिर रूठी रानी को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन वह नहीं मानीं. तब आशानंदजी चारण ने जैसलमेर के राजा लूणकरणजी से कहा कि अपनी पुत्री का भला चाहते हो तो दासी भारमली को जोधपुर से वापस बुलवा लीजिए. रावल लूणकरणजी ने ऐसा ही किया और भारमली को जोधपुर से जैसलमेर बुलवा लिया.

भारमली जैसलमेर आ गई. लूणकरणजी ने भारमली का यौवन रूप देखा तो वह उस पर मुग्ध हो गए. लूणकरणजी का भारमली से बढ़ता स्नेह उन की दोनों रानियों की आंखों से छिप न सका. लूणकरणजी अब दोनों रानियों के बजाय भारमली पर प्रेम वर्षा कर रहे थे. यह कोई औरत कैसे सहन कर सकती है.

लूणकरणजी की दोनों रानियों ने भारमली को कहीं दूर भिजवाने की सोची. दोनों रानियां भारमली को जैसलमेर से कहीं दूर भेजने की योजना में लग गईं. लूणकरणजी की पहली रानी सोढ़ीजी ने उमरकोट अपने भाइयों से भारमली को ले जाने के लिए कहा लेकिन उमरकोट के सोढ़ों ने रावल लूणकरणजी से शत्रुता लेना ठीक नहीं समझा.

तब लूणकरणजी की दूसरी रानी जो जोधपुर के मालानी परगने के कोटड़े के शासक बाघजी राठौड़ की बहन थी, ने अपने भाई बाघजी को बुलाया. बहन का दुख मिटाने के लिए बाघजी शीघ्र आए और रानियों के कथनानुसार भारमली को ऊंट पर बैठा कर मौका मिलते ही जैसलमेर से छिप कर भाग गए.

लूणकरणजी कोटड़े पर हमला तो कर नहीं सकते थे क्योंकि पहली बात तो ससुराल पर हमला करने में उन की प्रतिष्ठा घटती और दूसरी बात राव मालदेव जैसा शक्तिशाली शासक मालानी का संरक्षक था. अत: रावल लूणकरणजी ने जोधपुर के ही आशानंद कवि को कोटडे़ भेजा कि बाघजी को समझा कर भारमली को वापस जैसलमेर ले आएं.

दोनों रानियों ने बाघजी को पहले ही संदेश भेज कर सूचित कर दिया कि वे बारहठजी आशानंद की बातों में न आएं. जब आशानंदजी कोटड़ा पहुंचे तो बाघजी ने उन का बड़ा स्वागतसत्कार किया और उन की इतनी खातिरदारी की कि वह अपने आने का उद्देश्य ही भूल गए.

एक दिन बाघजी शिकार पर गए. बारहठजी व भारमली भी साथ थे. भारमली व बाघजी में असीम प्रेम था. अत: वह भी बाघजी को छोड़ कर किसी भी हालत में जैसलमेर नहीं जाना चाहती थी.

शिकार के बाद भारमली ने विश्रामस्थल पर सूले सेंक कर खुद आशानंदजी को दिए. शराब भी पिलाई. इस से खुश हो कर बाघजी व भारमली के बीच प्रेम देख कर आशानंद जी चारण का भावुक कवि हृदय बोल उठे—

जहं गिरवर तहं मोरिया, जहं सरवर तहं हंस

जहं बाघा तहं भारमली, जहं दारू तहं मंस.

यानी जहां पहाड़ होते हैं वहां मोर होते हैं, जहां सरोवर होता है वहां हंस होते हैं. इसी प्रकार जहां बाघजी हैं, वहीं भारमली होगी. ठीक उसी तरह से जहां दारू होती है वहां मांस भी होता है.

कवि आशानंद की यह बात सुन बाघजी ने झठ से कह दिया, ‘‘बारहठजी, आप बड़े हैं और बड़े आदमी दी हुई वस्तु को वापस नहीं लेते. अत: अब भारमली को मुझ से न मांगना.’’

आशानंद जी पर जैसे वज्रपात हो गया. लेकिन बाघजी ने बात संभालते हुए कहा कि आप से एक प्रार्थना और है आप भी मेरे यहीं रहिए.

और इस तरह से बाघजी ने कवि आशानंदजी बारहठ को मना कर भारमली को जैसलमेर ले जाने से रोक लिया. आशानंदजी भी कोटड़ा गांव में रहे और उन की व बाघजी की इतनी घनिष्ठ दोस्ती हुई कि वे जिंदगी भर उन्हें भुला नहीं पाए.

एक दिन अचानक बाघजी का निधन हो गया. भारमली ने भी बाघजी के शव के साथ प्राण त्याग दिए. आशानंदजी अपने मित्र बाघजी की याद में जिंदगी भर बेचैन रहे. उन्होंने बाघजी की स्मृति में अपने उद्गारों के पिछोले बनाए.

बाघजी और आशानंदजी के बीच इतनी घनिष्ठ मित्रता हुई कि आशानंद जी उठतेबैठे, सोतेजागते उन्हीं का नाम लेते थे. एक बार उदयपुर के महाराणा ने कवि आशानंदजी की परीक्षा लेने के लिए कहा कि वे सिर्फ एक रात बाघजी का नाम लिए बिना निकाल दें तो वे उन्हें 4 लाख रुपए देंगे. आशानंद के पुत्र ने भी यही आग्रह किया.

कवि आशानंद ने भरपूर कोशिश की कि वह अपने कविपुत्र का कहा मान कर कम से कम एक रात बाघजी का नाम न लें, मगर कवि मन कहां चुप रहने वाला था. आशानंदजी की जुबान पर तो बाघजी का ही नाम आता था.

रूठी रानी उमादे ने प्रण कर लिया था कि वह आजीवन राव मालदेव का मुंह नहीं देखेगी. बहुत समझानेबुझाने के बाद भी रूठी रानी जोधपुर दुर्ग की तलहटी में बने एक महल में कुछ दिन ही रही और फिर उन्होंने अजमेर के तारागढ़ दुर्ग के निकट महल में रहना शुरू किया. बाद में यह इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई.

राव मालदेव ने रूठी रानी के लिए तारागढ़ दुर्ग में पैर से चलने वाली रहट का निर्माण करवाया. जब अजमेर पर अफगान बादशाह शेरशाह सूरी के आक्रमण की संभावना थी, तब रूठी रानी कोसाना चली गई, जहां कुछ समय रुकने के बाद वह गूंदोज चली गई. गूंदोज से काफी समय बाद रूठी रानी ने मेवाड़ में केलवा में निवास किया.

जब शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर आक्रमण किया तो रानी उमादे से बहुत प्रेम करने वाले राव मालदेव ने युद्ध में प्रस्थान करने से पहले एक बार रूठी रानी से मिलने का अनुरोध किया.

एक बार मिलने को तैयार होने के बाद रानी उमादे ने ऐन वक्त पर मिलने से इनकार कर दिया.

रूठी रानी के मिलने से इनकार करने का राव मालदेव पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और वह अपने जीवन में पहली बार कोई युद्ध हारे.

वर्ष 1562 में राव मालदेव के निधन का समाचार मिलने पर रानी उमादे को अपनी भूल का अहसास हुआ और कष्ट भी पहुंचा. उमादे ने प्रायश्चित के रूप में उन की पगड़ी के साथ स्वयं को अग्नि को सौंप दिया.

ऐसी थी जैसलमेर की भटियाणी उमादे रूठी रानी. वह संसार में रूठी रानी के नाम से अमर हो गईं.

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