एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 2- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

मैं ममा की जिंदगी करीब से भोग रही थी. कहें तो भाई भी. शायद इसलिए उस में पिता की तरह न होने का संकल्प मजबूत हो रहा था.

लेकिन ममा? क्या मैं जानती नहीं रातें उस की कितनी भयावह होती होंगी जब वह अकेली अपनी यातनाओं को पलकों पर उठाए रात का लंबा सफ़र अकेली तय करती होगी.

इकोनौमिक्स में एमए कर के उस की शादी हुई थी. पति के रोबदाब और स्वेच्छाचारी स्वभाव के बावजूद जैसेतैसे उस ने डाक्ट्रेट की, नेट परीक्षा भी पास की जिस से कालेज में लैक्चरर हो सके. और तब. पलपल सब्र बोया है.

दुख मुझे इस बात का है कि इतना भी क्या सब्र बोना कि फसल जिल्लत की काटनी पड़े.

पापा चूंकि बेहद स्वार्थी किस्म के व्यक्ति हैं, ममा पर हमारी जिम्मेदारी पूरी की पूरी थी.

याद आती है सालों पुरानी बात. नानी बीमार थीं, ममा को हमें 2 दिनों के लिए पापा के पास छोड़ कर उन्हें मायके जाना पड़ा. तब भाई 6ठी और मैं 10वीं में थी. हमारी परीक्षाएं थीं, इसलिए हम ममा के साथ जा न पाए.

2 दिन हम भाईबहनों ने ठीक से खाना नहीं खाया. जैसेतैसे ब्रैडबिस्कुट से काम चलाते रहे. ममा को याद कर के हम एकएक मिनट गिना करते और पहाड़ सा समय गुजारते.

पापा होटल से अपनी पसंद का तीखी मसालेदार सब्जियां मंगाते जबकि हम दोनों मासूम बच्चों के होंठ और जीभ भरपेट खाना खाने की आस में जल कर भस्मीभूत हो जाते. आश्चर्य कि मेरे पापा हमारा बचा खाना भी खा लेते, लेकिन कभी पूछते भी नहीं कि हम ने फिर खाया क्या?

ममा हमारे लिए छिपा कर अलग खाना बनाती थी, ताकि पापा के लिए बना तीखा मसालेदार खाना हमें रोते हुए न खाना पड़े. शायद ममा जानती थी, बच्चों को अभी संतुष्ट हो कर भरपेट खाना खाना ज्यादा जरूरी है. और ऐसे भी ममा हमें खाना बनाना भी सिखाती चलती ताकि बाहर जा कर हमें दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े.

मैं बड़ी हो रही थी, मुझ में सहीगलत की परख थी. ताज्जुब होता था पापा के विचारों पर. वे मौकेबेमौके खुल कर कहते थे कि अगर उन के घर में रहना है तो किसी और की पसंद का कुछ भी नहीं चलेगा, सिवा उन की पसंद के.

इंसान एक टुकड़ा जमीन के लिए आधा इंच आसमान को कब तक भुलाए रहे?

उसे जीने को जमीन चाहिए तो सांस लेने को आसमान भी चाहिए.

भले ही हम छोटे थे, ममा के होंठ कई सारी मजबूरियों की वजह से सिले थे. लेकिन हम अपनी पीठ पर लगातार आत्महनन का बोझ महसूस करते. क्या मालूम क्यों पापा को ममा के साथ प्रतियोगिता महसूस होती. ममा की शिक्षा, उन के विचार और भाव से पापा खुद को कमतर आंकते, फिर शुरू होती पापा की चिढ़ और ताने. जब भी वह नौकरी के लिए छटपटाती, पापा उसे दबाते. जब चुप बैठी रहती, उसे अपनी अफसरी दिखा कर कमतर साबित करते. यह जैसे कभी न ख़त्म होने वाला नासूर बन गया था.

भाई अब 10वीं देने वाला था और मैं स्नातक द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने वाली थी. बहुत हुआ, और कितना सब्र करे. आखिर कहीं ममा की भी धार चूक न जाए.

आज जो कुछ हुआ वह एक लंबी उड़ान से पहले होना ही था. ममा को अब खुद की जमीन तलाश करनी ही होगी. तभी हमें भी अपना आसमान मिलेगा. मुझे अब ममा का इस तरह पैरोंतले रौंदा जाना कतई पसंद नहीं आ रहा था.

दूसरे दिन औफिस से आते वक्त पापा के साथ औफिस की एक कलीग थीं.

हम तो यथा संभव उस के साथ औपचारिक भद्रता निभाते रहे, लेकिन वे दोनों अपनी अतिअभद्रता के साथ ममा का मजाक बनाते रहे.

मेरे 48 वर्षीय पिता अचानक ही अब अपने सौंदर्य के प्रति अतियत्नवान हो गए थे. सफेद होती जा रही अपनी मूंछों को कभी रंगते, कभी सिर के बालों को. कुल मिला कर वयस्क होते जा रहे शरीर के साथ युद्ध लड़ रहे थे, ताकि ममा की जिंदगी में तूफान भर सकें.

मुझे और ममा को ले कर उन्हें एक असहनीय कुतूहल होता और हम अयाचित विपत्तियों के डर से बचने के लिए अपनी आंखें ही बंद कर लेते.

हम बच्चे ऐसे भी पापा से कतराने लगे थे, और पढ़ाई हो न हो, अपने कमरे में बंद ही रहते. रह जाती ममा, जिस की आंखों के सामने अब नित्य रासलीला चलती.

भाई मेरा चिंतित था. और मैं भी. यह घर नहीं, एक टूटती दीवार थी. हर कोई इस से दूर भागता है. और हम थे कि इसी टूटती दीवार को पकड़ कर गिरने से बचने का भ्रम पाले थे. करते भी क्या, यही तो अपना था न.

कहना ही पड़ता है, जिस पति के सान्निध्य में प्रेम और भरोसे की जगह गुलामी का एहसास हो, बिस्तर पर सुकून की नींद की जगह रात बीत जाने की छटपटाहट हो, उस स्त्री के जीवन में कितनी उदासी भर चुकी थी, यह कहने भर की बात नहीं थी.

मेरे पापा एक सरकारी मुलाजिम थे. ठीकठाक देखने में, अच्छी तनख्वाह, एक ढंग का पैतृक घर. उच्चशिक्षित सीधी सरल सुंदर पत्नी, 2 आज्ञाकारी बच्चे. इस के बावजूद पापा में क्या कमी थी कि हमेशा ममा को कमतर साबित कर के ही खुद को ऊंचा दिखाने का प्रयास करते रहते. हम सब के अंदर धुंएं की भठ्ठी भर चुकी थी.

पापा घर पर नहीं थे. ममा हमारे कमरे में आई, बोली, ‘मेरा एक दोस्त है भोपाल के कालेज में प्रिंसिपल. मैं उसे अपनी नौकरी के सिलसिले में मेल करना चाहती हूं. अगर तुम दोनों भाईबहन हिम्मत करो, तो मैं नौकरी के लिए कोशिश करूं. हां, हिम्मत तुम्हें ही करनी होगी. मैं इस घर में रह कर नौकरी कर नहीं पाऊंगी, तुम जानते हो. और बाहर गई, तो घर नहीं आ पाऊंगी.

‘क्या तुम दोनों अपनीअपनी परीक्षाएं होने तक यहां किसी तरह रह लोगे? जैसे ही तुम्हारी परीक्षाएं हो जाएंगी, मैं तुम दोनों को अपने पास बुला लूंगी. और कितना सहुं, कहो? यह तुम्हारे व्यक्तित्व पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है. मैं एक अच्छी गृहस्थी चाहती थी, प्यार और समानता से परिपूर्ण. मगर तुम्हारे पापा का मानसिक विकार यह घर तोड़ कर ही रहेगा. तुम दोनों अब बड़े हो चुके हो, विपरीत परिस्थिति की वजह से परिपक्व भी. इसलिए तुम जो कहोगे…?’

ममा ने सारी बातें एकसाथ हमारे सामने रखीं. फिर स्थिर आंखों से हमें देखने लगीं. कोई आग्रह या दबाव नहीं था. ममा की यही बातें उन्हें पापा से अलग ऊंचाई देती थीं.

भाई ने कहा- ‘मुझे तो लगता है हम अपनी जिंदगी में बदलाव खुद ही ला सकते हैं. अगर बैठे रहे तो कुछ भी नहीं बदलेगा. हम हमेशा यों ही दुखी ही रह जाएंगे.’

‘मुझे भी यही लगता है, भाई सही कह रहा है. तुम पापा के अनुसार ही तो चल रही हो, वे तब भी नाखुश हैं. और तो और, अपनी मनमरजी से ऐसी हरकत कर रहे हैं जिस से हम सभी परेशान हैं. भला यही होगा तुम नौकरी ढूंढ कर बाहर चली जाओ.’

 

एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 1- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

19 साल की लड़की 43 साल की स्त्री को भला क्या समझेगी, ऐसा सोच कर मेरी समझ पर आप की कोई शंका पनप रही है तो पहले ही साफ कर दूं कि जिस स्त्री की चर्चा करने जा रही हूं, उस की यात्रा का एक अंश हूं मैं. उसी पूर्णता, उसी उम्मीद की किरण तक बढ़ती हुई, चलती हुई हेमांगी की बेटी हूं मैं.

43 साल की हेमांगी व्यक्तित्व में शांत, समझ की श्रेष्ठता में उज्ज्वल और कोमल है. वह विद्या और सांसारिक कर्तव्य दोनों में पारंगत है. तो, हो न. तब फिर क्यों भला मैं उस की महानता का बखान ले कर बैठी? यही न, इसलिए, कि 19 साल की उस की बेटी अपने जीवनराग में गहरी व अतृप्त आकांक्षाएं देख रही है, एक छटपटाहट देख रही है अपने जाबांज पंख में, जो कसे हैं प्रेम और कर्तव्य की बेजान शिला से. यह बेटी साक्षी है दरवाजे के पीछे खड़े हो कर उस के हजारों सपनों के राख हो कर झरते रहने की.

तो फिर, नहीं खोलूं मैं सांकल? नहीं दूं इस अग्निपंख को उड़ान का रास्ता?

आइए, समय के द्वार से हमारे जीवनदृश्य में प्रवेश करें, और साक्षी बनें मेरे विद्रोह की अग्निवीणा से गूंजते प्रेरणा के सप्तस्वरों के, साक्षी बनें मेरे छोटे भाई कुंदन के पितारूपी पुरुष से अपनी अलग सत्तानिर्माण के अंतर्द्वंद्व के, मां के चुनाव और पिता के असली चेहरे के.

हम मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के रामनगर कालोनी के पैतृक घर में रहते हैं. इस एकमंजिले मकान में 2 कमरे, एक सामान्य आकार का डाइनिंग हौल और एक ड्राइंगरूम है. बाहर छोटा सा बरामदा और 4र सीढ़ी नीचे उतर कर छोटेछोटे कुछ पौंधों के साथ बाहरी दरवाजे पर यह घर पूरा होता है.

48 साल के मेरे पापा अजितेश चौधरी सरकारी नौकरी में हैं. उन का बेटा कुंदन यानी मेरा भाई अभी 10वीं में है. मैं, कंकना, उन की बेटी, स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा. हम दोनों भाईबहनों का शारीरिक गठन, नैननक्श मां की तरह है. सधे हुए बदन पर स्वर्णवर्णी गेहुंएपन के साथ तीखे नैननक्श से छलकता सौम्य सारल्य. यह है हमारी मां हेमांगी. 43 की उम्र में जिस ने नियमित व्यायाम से 32 सा युवा शरीर बरकरार रखा है. हमेशा मृदु मुसकान से परिपूर्ण उस का चेहरा जैसे वे अपनी विद्वत्ता को विनम्रता से छिपाए रहती हो.

मेरी ममा हम दोनों भाईबहनों के लिए हमेशा खास रही. ममा को हम मात्र स्त्री के रूप में ही नहीं समझते बल्कि एक पूर्ण बौद्धिक व्यक्तित्व के रूप में.

सुबह 9 बजे का समय था. कालेज के लिए निकल रही थी मैं. घर में रोज की तरह कोलाहल का माहौल था.

पापा सरकारी कार्यालय में सहायक विकास अधिकारी थे. वे अपने बौस के अन्य 10 मातहतों के साथ उन के अधीन काम करते थे. लेकिन घर पर मेरी ममा पर उन का रोब किसी कलैक्टर से कम न था.

‘हेमा, टिफिन में देर है क्या? यार, घर पर और तो कुछ करती नहीं हो, एक यह भी नहीं हो रहा है, तो बता दो,’ पापा बैडरूम से ही चीख रहे थे.

‘दे दिया है टेबल पर,’ ममा ने बिना प्रतिक्रिया के सूचना दी.

‘दे दिया है, तो जबान पर ताले क्यों पड़े थे?’

‘चाय ला रही थी.’

‘लंचबौक्स भरा बैग में?’

‘रख रही हूं.’

‘सरकारी नौकरी है, समझ नहीं आता तुम्हें? यह कोई चूल्हाचौका नहीं है. मिनटमिनट का हिसाब देना पड़ता है.’

ममा टिफिन और पानी की बोतल औफिस के बैग में रख नियमानुसार पापा की कार भी पोंछ कर आ गई थी. और पापा टिफिन के लिए बैठे रहे थे.

यह रोज की कहानी थी, यह जतलाना कि मां की तुलना में पापा इस परिवार के ज्यादा महत्त्वपूर्ण सदस्य हैं. उन का काम ममा की तुलना में ज्यादा महत्त्व का है. यह दृश्य हमारे ऊपर विपरीत ही असर डालता था. इस बीच भाई और हम अपना टिफिन ले कर चोरों की तरह घर से निकल जाते.

रात को पापा की गालीगलौज से मेरी नींद उचट गई. रात 12 बजे की बात होगी. मैं शोर सुन ममा की चिंता में अपने कमरे के दरवाजे के बाहर आ कर खड़ी हो गई. ममा पापा के साथ बैडरूम में थी. ममा शांत लेकिन कुछ ऊंचे स्वर में कह रही थी- ‘आप के हाथपैर अब से मैं नहीं दबा पाऊंगी.

‘आप की करतूतों ने बरदाश्त की सारी हदें तोड़ दी हैं. आप की जिन किन्हीं लड़कियों और महिलाओं से संपर्क हैं, वे आप की कमजोरियों का फायदा उठा रही हैं. आप अपने औफिस की महिला कलीग को अश्लील वीडियो साझा करते थे, मैं ने सहा. किस स्त्री को क्या गिफ्ट दिया, बदले में आप को क्याक्या मिला, मैं ने अनदेखा किया और चुप रही. लेकिन अब आप सीमा से आगे निकल कर उन्हें घर तक लाने लगे हैं. क्या संदेश दे रहे हैं हमें? घर पर ला कर उन महिलाओं के साथ आप का व्यवहार कितना भौंडा होता है, क्या बच्चों से छिपा है यह?’

आज पहली बार ममा ने हिम्मत कर अपना विरोध दर्ज कराया था. पहली बार उस ने पापा के हुक्म को अमान्य कर के अपनी बात रखी थी. लेकिन यह इतना आसान नहीं था.परिणाम भयंकर होना ही था. मेरे पापा ऐसे व्यक्ति थे जो उन की गलती बताने वाले का बड़ा बुरा हश्र करते थे, और तब जब उन के कमरे में ममा का सोना उन की सेवा के लिए ही था.

झन से जिंदगी कांच की तरह टूट कर बिखर गई. आशा, भरोसा, उम्मीद का दर्पण चकनाचूर हो गया.

पापा ने ममा को जोरदार तमाचे मारे, ममा दर्द से बिलख कर उन्हें देख ही रही थी कि पापा ने ममा के पेट पर जोर का एक पैर जमाया. ममा ‘उफ़’ कह कर जमीन पर बैठ गई.

मैं जानती हूं यह दर्द उस के शरीर से ज्यादा मन पर था. आत्मसम्मान और आत्महनन की चोट वह नहीं सह पाती थी.

‘अब एक भी आवाज निकाली तो जबान खींच लूंगा. मैं कमाता हूं, तुम लोग मेरे पैसे पर ऐश करते हो, औकात है नौकरी कर के पैसे घर लाने की? जिस पर आश्रित हो, उसी को आंख दिखाती हो? जो मरजी होगी वह करूंगा मैं. अफसर हूं मैं. तुम क्या हो, एक नौकरी कर के दिखाओ तो समझूं.’

‘मेरी नौकरी पर पाबंदी तो आप ने ही लगा रखी है?’

‘अच्छा? नौकरी करना क्यों चाहती हो मालूम नहीं है जैसे मुझे. सब बहाने हैं गुलछर्रे उड़ाने के. तुम्हें लगता है नौकरी के बहाने मैं मौज करता हूं, तो तुम भी वही करोगी?’ पापा के पास जबरदस्त तर्क थे, जिसे सौफिस्ट लौजिक कहा जा सकता है. ग्रीक दर्शन में सौफिस्ट तार्किक वाले वे हुआ करते थे, जो निरर्थक और गलत बौद्धिक तर्कजाल से सामने वाले को बुरी तरह बेजबान कर देते थे.

 

आंगन का बिरवा: सहेली मीरा ने नेहा को क्या दी सलाह

पलकें मूंदे मैं आराम की मुद्रा में लेटी थी तभी सौम्या की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘मां, शलभजी आए हैं.’’

उस का यह शलभजी संबोधन मुझे चौंका गया. मैं भीतर तक हिल गई परंतु मैं ने अपने हृदय के भावों को चेहरे पर प्रकट नहीं होने दिया, सहज भाव से सौम्या की तरफ देख कर कहा, ‘‘ड्राइंगरूम में बिठाओ. अभी आ रही हूं.’’

उस के जाने के बाद मैं गहरी चिंता में डूब गई कि कहां चूक हुई मुझ से? यह ‘शलभ अंकल’ से शलभजी के बीच का अंतराल अपने भीतर कितना कुछ रहस्य समेटे हुए है. व्यग्र हो उठी मैं. सच में युवा बेटी की मां होना भी कितना बड़ा उत्तरदायित्व है. जरा सा ध्यान न दीजिए तो बीच चौराहे पर इज्जत नीलाम होते देर नहीं लगती. मुझे धैर्य से काम लेना होगा, शीघ्रता अच्छी नहीं.

प्रारंभ से ही मैं यह समझती आई हूं कि बच्चे अपनी मां की सुघड़ता और फूहड़ता का जीताजागता प्रमाण होते हैं. फिर मैं तो शुरू से ही इस विषय में बहुत सजग, सतर्क रही हूं. मैं ने संदीप और सौम्या के व्यक्तित्व की कमी को दूर कर बड़े सलीके से संवारा है, तभी तो सभी मुक्त कंठ से मेरे बच्चों को सराहते हैं, साथ में मुझे भी, परंतु फिर यह सौम्या…नहीं, इस में सौम्या का भी कोई दोष नहीं. उम्र ही ऐसी है उस की. नहीं, मैं अपने आंगन की सुंदर, सुकोमल बेल को एक बूढ़े, जर्जर, जीर्णशीर्ण दरख्त का सहारा ले, असमय मुरझाने नहीं दूंगी.

अब तक मैं अपने बच्चों के लिए जो करती आई हूं वह तो लगभग अपनी क्षमता और लगन के अनुसार सभी मांएं करती हैं. मेरी परख तो तब होगी जब मैं इस अग्निपरीक्षा में खरी उतरूंगी. मुझे इस कार्य में किसी का सहारा नहीं लेना है, न मायके का और न ससुराल का. मुंह से निकली बात पराई होते देर ही कितनी लगती है. हवा में उड़ती हैं ऐसी बातें. नहीं, किसी पर भरोसा नहीं करना है मुझे,  सिर्फ अपने स्तर पर लड़नी है यह लड़ाई.

बाहर के कमरे से सौम्या और शलभ की सम्मिलित हंसी की गूंज मुझे चौंका गई. मैं धीमे से उठ कर बाहर के कमरे की तरफ चल पड़ी.

‘‘नमस्ते, भाभीजी,’’ शलभ मुसकराए.

‘‘नमस्ते, नमस्ते,’’ मेरे चेहरे पर सहज मीठी मुसकान थी परंतु अंतर में ज्वालामुखी धधक रहा था.

‘‘कैसी तबीयत है आप की,’’ उन्होंने कहा.

‘‘अब ठीक हूं भाईसाहब. बस, आप लोगों की मेहरबानी से उठ खड़ी हुई हूं,’’ कह कर मैं ने सौम्या को कौफी बना लाने के लिए कहा.

‘‘मेहरबानी कैसी भाभीजी. आप जल्दी ठीक न होतीं तो अपने दोस्त को क्या मुंह दिखाता मैं?’’

मुझे वितृष्णा हो रही थी इस दोमुंहे सांप से. थोड़ी देर बाद मैं ने उन्हें विदा किया. मन की उदासी जब वातावरण को बोझिल बनाने लगी तब मैं उठ कर धीमे कदमों से बाहर बरामदे में आ बैठी. कुछ खराब स्वास्थ्य और कुछ इन का दूर होना मुझे बेचैन कर जाता था, विशेषकर शाम के समय. ऊपर  से इस नई चिंता ने तो मुझे जीतेजी अधमरा कर दिया था. मैं ने नहीं सोचा था कि इन के जाने के बाद मैं कई तरह की परेशानियों से घिर जाऊंगी.

उस समय तो सबकुछ सुचारु रूप से चल रहा था, जब इन के लिए अमेरिका के एक विश्वविद्यालय ने उन की कृषि से संबंधित विशेष शोध और विशेष योग्यताओं को देखते हुए, अपने यहां के छात्रों को लाभान्वित करने के लिए 1 साल हेतु आमंत्रित किया था. ये जाने के विषय में तत्काल निर्णय नहीं ले पाए थे. 1 साल का समय कुछ कम नहीं होता. फिर मैं और सौम्या  यहां अकेली पड़ जाएंगी, इस की चिंता भी इन्हें थी.

संदीप का अभियांत्रिकी में चौथा साल था. वह होस्टल में था. ससुराल और पीहर दोनों इतनी दूर थे कि हमेशा किसी की देखरेख संभव नहीं थी. तब मैं ने ही इन्हें पूरी तरह आश्वस्त कर जाने को प्रेरित किया था. ये चिंतित थे, ‘कैसे संभाल पाओगी तुम यह सब अकेले, इतने दिन?’

‘आप को मेरे ऊपर विश्वास नहीं है क्या?’ मैं बोली थी.

‘विश्वास तो पूरा है नेहा. मैं जानता हूं कि तुम घर के लिए पूरी तरह समर्पित पत्नी, मां और सफल शिक्षिका हो. कर्मठ हो, बुद्धिमान हो लेकिन फिर भी…’

‘सब हो जाएगा, इतना अच्छा अवसर आप हाथ से मत जाने दीजिए, बड़ी मुश्किल से मिलता है ऐसा स्वर्णिम अवसर. आप तो ऐसे डर रहे हैं जैसे मैं गांव से पहली बार शहर आई हूं,’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘तुम जानती हो नेहा, तुम व बच्चे मेरी कमजोरी हो,’ ये भावुक हो उठे थे, ‘मेरे लिए 1 साल तुम सब के बिना काटना किसी सजा जैसा ही होगा.’

फिर इन्होंने मुझे अपने से चिपका लिया था. इन के सीने से लगी मैं भी 1 साल की दूरी की कल्पना से थोड़ी देर के लिए विचलित हो उठी थी, परंतु फिर बरबस अपने ऊपर काबू पा लिया था कि यदि मैं ही कमजोर पड़ गई तो ये जाने से साफ इनकार कर देंगे.

‘नहीं, नहीं, पति के उज्ज्वल भविष्य व नाम के लिए मुझे स्वयं को दृढ़ करना होगा,’ यह सोच मैं ने भर आई आंखों के आंसुओं को भीतर ही सोख लिया और मुसकराते हुए इन की तरफ देख कर कहा, ‘1 साल होता ही कितना है? चुटकियों में बीत जाएगा. फिर यह भी तो सोचिए कि यह 1 साल आप के भविष्य को एक नया आयाम देगा और फिर, कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है न?’

‘पर यह कीमत कुछ ज्यादा नहीं है?’ इन्होंने सीधे मेरी आंखों में झांकते हुए कहा था.

वैसे इन का विचलित होना स्वाभाविक ही था. जहां इन के मित्रगण विश्वविद्यालय के बाद का समय राजनीति और बैठकबाजी में बिताते थे, वहीं ये काम के बाद का अधिकांश समय घर में परिवार के साथ बिताते थे. जहां भी जाना होता, हम दोनों साथ ही जाते थे. आखिरकार सोचसमझ कर ये जाने की तैयारी में लग गए थे. सभी मित्रोंपरिचितों ने भी इन्हें आश्वस्त कर जाने को प्रेरित किया था.

इन के जाने के बाद मैं और सौम्या अकेली रह गई थीं. इन के जाने से घर में अजीब सा सूनापन घिर आया था. मैं अपने विद्यालय चली जाती और सौम्या अपने कालेज. सौम्या का इस साल बीए अंतिम वर्ष था. जब कभी उस की सहेलियां आतीं तो घर की उदासी उन की खिलखिलाहटों से कुछ देर को दूर हो जाती थी.

समय जैसेतैसे कट रहा था. इधर, सौम्या कुछ अनमनी सी रहने लगी थी. पिता की दूरी उसे कुछ ज्यादा ही खल रही थी. हां, इस बीच इन के मित्र कभी अकेले, कभी परिवार सहित आ कर हालचाल पूछ लिया करते थे.

मेरी सहयोगी शिक्षिकाएं भी बहुधा आती रहतीं, विशेषकर इन के मित्र शलभजी और मेरी सखी मीरा. शलभ इन के परममित्रों में से थे. इन के विभाग में ही रीडर थे एवं अभी तक कुंआरे ही थे. बड़ा मिलनसार स्वभाव था और बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व. आते तो घंटों बातें करते. सौम्या भी उन से काफी हिलमिल गई थी.

मीरा मेरी सहयोगी प्राध्यापिका और घनिष्ठ मित्र थी. हम दोनों के विचारों में अद्भुत साम्य अंतरंगता स्थापित करने में सहायक हुआ था. मन की बातें, उलझनें, दुखसुख आपस में बता कर हम हलकी हो लेती थीं. उस के पति डाक्टर थे तथा 2 बेटे थे अक्षय और अभय. अक्षय का इसी साल पीसीएस में चयन हुआ था.

सत्र की समाप्ति के बाद संदीप भी आ गया था. उस के आने से घर की रौनक जाग उठी थी. दोनों भाईबहन नितनए कार्यक्रम बनाते और मुझे भी उन का साथ देना ही पड़ता. दोनों के दोस्तों और सहेलियों से घर भर उठता. बच्चों के बीच में मैं भी हंसबोल लेती, पर मन का कोई कोना खालीखाली, उदास रहता. इन की यादों की कसक टीस देती रहती थी.

वैसे भी उम्र के इस तीसरे प्रहर में साथी की दूरी कुछ ज्यादा ही तकलीफदेह होती है. पतिपत्नी एकदूसरे की आदत में शामिल हो जाते हैं. इन के लंबेलंबे पत्र आते. वहां कैसे रहते हैं, क्या करते हैं, सारी बातें लिखी रहतीं. जिस दिन पत्र मिलता, मैं और सौम्या बारबार पढ़ते, कई दिन तक मन तरोताजा, खुश रहता. फिर दूसरे पत्र का इंतजार शुरू हो जाता.

एक दिन विद्यालय में कक्षा लेते समय एकाएक जोर का चक्कर आ जाने से मैं गिर पड़ी. छात्राओं तथा मेरे अन्य सहयोगियों ने मिल कर मुझे तुरंत अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर ने उच्च रक्तचाप बतलाया और कम से कम 1 महीना आराम करने की सलाह दी.

इस बीच, सौम्या बिलकुल अकेली पड़ गई. घर, अपना विद्यालय और फिर मुझे तीनों को संभालना उस अकेली के लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था. तब शलभजी और मीरा ने काफी सहारा दिया.

मेरी तो तबीयत खराब थी, इसलिए जो भी आता उस की सौम्या से ही बातें होतीं. हां, मीरा आती तो विद्यालय के समाचार मिलते रहते. शलभजी भी मुझ से हाल पूछ सौम्या से ही अधिकतर बातें करते रहते.

इधर, शलभजी और सौम्या में काफी पटने लगी. आश्चर्य तब होता जब मेरे सामने आते ही दोनों असहज होने लगते. बस, इसी बात ने मुझे चौकन्ना किया.

शलभजी और सौम्या? बापबेटी का सा अंतर, इन से बस 2-4 साल ही छोटे होंगे वे, कनपटियों पर से सफेद होते बाल, इकहरा शरीर, चुस्तदुरुस्त पोशाक और बातें करने का अपना एक विशिष्ट आकर्षक अंदाज, सब मिला कर मर्दाना खूबसूरती का प्रतीक.

मुझे आश्चर्य होता कि मेरा हाल पूछने आए शलभ, मेरा हाल पूछना भूल, खड़ेखड़े ही सौम्या को आवाज लगाते कि सौम्या, आओ, तुम्हें बाहर घुमा लाऊं, बोर हो रही होगी और सौम्या भी ‘अभी आई’ कह कर झट अपनी खूबसूरत पोशाक पहन, सैंडिल खटखटाती बाहर निकल जाती.

सौम्या तो खैर अभी कच्ची उम्र की नासमझ लड़की थी, पर इस परिपक्व प्रौढ़ की बेहयाई देख मैं दंग थी. सोचती, क्या दैहिक भूख इतनी प्रबल हो उठी है कि सारे समीकरण, सारी परिभाषाएं इस तृष्णा के बीच अपनी पहचान खो, बौनी हो जाती हैं, नैतिकता अतृप्ति की अंधी अंतहीन गलियों में कहीं गुम हो जाती है. शायद, हां. तभी तो जिस वर्जित फल का शलभ अपनी जवानी के दिनों में रसास्वादन न कर सके थे,

इस पकी उम्र में उस के लोभ से स्वयं को बचा पाना उन के लिए कठिन हो रहा था. वैसे भी बुढ़ापे में अगर मन विचलित हो जाए तो उस पर नियंत्रण करना कठिन ही होता है. तिस पर सुकोमल, कमनीय, सुंदर सौम्या. दिग्भ्रमित हो उठे थे शलभजी.

वे आए दिन उस के लिए उपहार लाने लगे थे. कभी सलवारकुरता, कभी स्कर्टब्लाउज तो कभी नाइटी. सौम्या भी उन्हें सहर्ष ग्रहण कर लेती. मैं ने 2-3 बार शलभजी से कहा, ‘भाईसाहब, आप इस की आदत खराब कर रहे हैं, कितनी सारी पोशाकें तो हैं इस के पास.’

‘क्यों, क्या मैं इस को कुछ नहीं दे सकता? इतना अधिकार भी नहीं है मुझे? बहुत स्नेह है मुझे इस से,’ कह कर वे प्यारभरी नजरों से सौम्या की तरफ देखते. उस दृष्टि में किसी बुजुर्ग का निश्छल स्नेह नहीं झलकता था, बल्कि वह किसी उच्छृंखल प्रेमी की वासनामय काकदृष्टि थी.

मुझे लगता कि कपटी पुरुष स्नेह का मुखौटा लगा, सौम्या की इस नादानी और भोलेपन का लाभ उठा, उस का जीवन बरबाद कर सकता है. मेरे सामने यह समस्या एक चुनौती के रूप में सामने खड़ी थी. इन के वापस आने में 7 महीने बाकी थे. संदीप का यह अंतिम वर्ष था. उस से कुछ कहना भी उचित नहीं था.

प्रश्नों और संदेहों के चक्रव्यूह में उलझी मैं इस समस्या के घेरे से निकलने के लिए बुरी तरह से हाथपैर मार रही थी. तभी निराशा के गहन अंधकार में दीपशिखा की ज्योति से चमके थे मीरा के ये शब्द, ‘नेहा, सौम्या को तू मुझे सौंप दे, अक्षय के लिए. तुझे लड़का ढूंढ़ना नहीं पड़ेगा और मुझे सुघड़ बहू.’

‘सोच ले, यह लड़की तेरी खटिया खड़ी कर देगी, फिर बाद में मत कहना कि मैं ने बताया नहीं था.’

‘वह तू मुझ पर छोड़ दे,’ और फिर हम दोनों खुल कर हंस पड़ीं.

मीरा के कहे इन शब्दों ने मुझे डूबते को तिनके का सहारा दिया. मैं ने तुरंत उसे फोन किया, ‘‘मीरा, आज तू सपरिवार मेरे घर खाने पर आ जा. अक्षय, अभय से मिले भी बहुत दिन हो गए. रात का खाना साथ ही खाएंगे.’’

‘‘क्यों, एकाएक तुझे ज्यादा शक्ति आ गई क्या? कहे तो 10-20 लोगों को और अपने साथ ले आऊं?’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, आज मन बहुत ऊब रहा है. सोचा, घर में थोड़ी रौनक हो जाए.’’

‘‘अच्छा जी, तो अब हम नौटंकी के कलाकार हो गए. ठीक है भई, आ जाएंगे सरकार का मनोरंजन करने.’’

मनमस्तिष्क पर छाया तनाव का कुहरा काफी हद तक छंट चुका था और मैं नए उत्साह से शाम की तैयारी में जुट गई. रमिया को निर्देश दे मैं ने कई चीजें बनवा ली थीं. सौम्या ने सारी तैयारियां देख कर कहा था, ‘‘मां, क्या बात है? आज आप बहुत मूड में हैं और यह इतना सारा खाना क्यों बन रहा है?’’

‘‘बस यों…अब तबीयत एकदम ठीक है और शाम को मीरा, अक्षय, अभय और डाक्टर साहब भी आ रहे हैं. खाना यहीं खाएंगे. अक्षय नौकरी मिलने के बाद से पहली बार घर आया है न, मैं ने सोचा एक बार तो खाने पर बुलाना ही चाहिए. हां, तू भी घर पर ही रहना,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर मां, मेरा तो शलभजी के साथ फिल्म देखने का कार्यक्रम था?’’

‘‘देख बेटी, फिल्म तो कल भी देखी जा सकती है, आंटी सब के साथ आ रही हैं. मेरे सिवा एक तू ही तो है घर में. तू भी चली जाएगी तो कितना बुरा लगेगा उन्हें. ऐसा कर, तू शलभ अंकल को फोन कर के बता दे कि तू नहीं जा पाएगी,’’ मैं ने भीतर की चिढ़ को दबाते हुए प्यार से कहा.

‘‘ठीक है, मां,’’ सौम्या ने अनमने ढंगसे कहा. शाम को मीरा, डाक्टर साहब, अक्षय, अभय सभी आ गए. विनोदी स्वभाव के डाक्टर साहब ने आते ही कहा, ‘‘बीमारी से उठने के बाद तो आप और भी तरोताजा व खूबसूरत लग रही हैं, नेहाजी.’’

‘‘क्यों मेरी सहेली पर नीयत खराब करते हो इस बुढ़ापे में?’’ मीरा ने पति को टोका.

‘‘लो, सारी जवानी तो तुम ने दाएंबाएं देखने नहीं दिया, अब इस बुढ़ापे में तो बख्श दो.’’

उन की इस बात पर जोर का ठहाका लगा.

सौम्या ने भी बड़ी तत्परता और उत्साह से उन सब का स्वागत किया. कौफी, नाश्ता के बाद वह अक्षय और अभय से बातें करने लगी.

मैं ने अक्षय की ओर दृष्टि घुमाई, ‘ऊंचा, लंबा अक्षय, चेहरे पर शालीन मुसकराहट, दंभ का नामोनिशान नहीं, हंसमुख, मिलनसार स्वभाव. सच, सौम्या के साथ कितनी सटीक जोड़ी रहेगी,’ मैं सोचने लगी. डाक्टर साहब और मीरा के साथ बातें करते हुए भी मेरे मन का चोर अक्षय और सौम्या की गतिविधियों पर दृष्टि जमाए बैठा रहा. मैं ने अक्षय की आंखों में सौम्या के लिए प्रशंसा के भाव तैरते देख लिए. मन थोड़ा आश्वस्त तो हुआ, परंतु अभी सौम्या की प्रतिक्रिया देखनी बाकी थी.

बातों के बीच ही सौम्या ने कुशलता से खाना मेज पर लगा दिया. डाक्टर साहब और मीरा तो सौम्या के सलीके से परिचित थे ही, सौम्या के मोहक रूप और दक्षता ने अक्षय पर भी काफी प्रभाव डाला. खुशगवार माहौल में खाना खत्म हुआ तो अक्षय ने कहा, ‘‘आंटी, आप से मिले और आप के हाथ का स्वादिष्ठ खाना खाए बहुत दिन हो गए थे, आज की यह शाम बहुत दिनों तक याद रहेगी.’’

विदा होने तक अक्षय की मुग्ध दृष्टि सौम्या पर टिकी रही. और सौम्या हंसतीबोलती भी बीचबीच में कुछ सोचने सी लगी, मानो बड़ी असमंजस में हो.

चलतेचलते डाक्टर साहब ने मीरा को छेड़ा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ खाना ही जानती हैं या खिलाना भी?’’

मीरा ने उन्हें प्यारभरी आंखों से घूरा और झट से मुझे और सौम्या को दूसरे दिन रात के खाने का न्योता दे डाला.

मेरे लिए तो यह मुंहमांगी मुराद थी, अक्षय और सौम्या को समीप करने के लिए. दूसरे दिन जब शलभजी आए तो सौम्या ने कुछ ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया. फिल्म के लिए जब उन्होंने पूछा तो उस ने कहा, ‘‘आज मीरा आंटी के यहां जाना है, मां के साथ…इसलिए…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.

वे थोड़ी देर बैठने के बाद चले गए. मैं भीतर ही भीतर पुलकित हो उठी. मुझे लगा कि प्रकृति शायद स्वयं सौम्या को समझा रही है और यही मैं चाहती भी थी.

दूसरे दिन शाम को मीरा के यहां जाने के लिए तैयार होने से पहले मैं ने सौम्या से कहा, ‘‘सौम्या, आज तू गुलाबी साड़ी पहन ले.’’

‘‘कौन सी? वह जार्जेट की जरीकिनारे वाली?’’

‘‘हांहां, वही.’’

इस साड़ी के लिए हमेशा ‘नानुकुर’ करने वाली सौम्या ने आज चुपचाप वही साड़ी पहन ली. यह मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. गुलाबी साड़ी में खूबसूरत सौम्या का रूप और भी निखर आया.

न चाहते हुए भी एक बार फिर मेरी दृष्टि उस के ऊपर चली गई. अपलक, ठगी सी कुछ क्षण तक मैं अपनी मोहक, सलोनी बेटी का अप्रतिम, अनुपम, निर्दोष सौंदर्य देखती रह गई.

‘‘चलिए न मां, क्या सोचने लगीं?’’

सौम्या ने ही उबारा था इस स्थिति से मुझे.

मीरा के घर पहुंचतेपहुंचते हलकी सांझ घिर आई थी. डाक्टर साहब, मीरा, अक्षय सभी लौन में ही बैठे थे. अभय शायद अपने किसी दोस्त से मिलने गया था. हम दोनों जब उन के समीप पहुंचे तो सभी की दृष्टि कुछ पल को सौम्या पर स्थिर हो गई.

मैं ने अक्षय की ओर देखा तो पाया कि यंत्रविद्ध सी सम्मोहित उस की आंखें पलक झपकना भूल सौम्या को एकटक निहारे जा रही थीं.

‘‘अरे भई, इन्हें बिठाओगे भी तुम लोग कि खड़ेखड़े ही विदा कर देने का इरादा है?’’ डाक्टर साहब ने सम्मोहन भंग किया.

‘‘अरे हांहां, बैठो नेहा,’’ मीरा ने कहा और फिर हाथ पकड़ अपने पास ही सौम्या को बिठाते हुए मुझ से बोली, ‘‘नेहा, आज मेरी नजर सौम्या को जरूर लगेगी, बहुत ही प्यारी लग रही है.’’

‘‘मेरी भी,’’ डाक्टर साहब ने जोड़ा.

सौम्या शरमा उठी, ‘‘अंकल, क्यों मेरी खिंचाई कर रहे हैं?’’

‘‘इसलिए कि तू और लंबी हो जाए,’’ उन्होंने पट से कहा और जोर से हंस पड़े.

कुछ देर इधरउधर की बातों के बाद मीरा कौफी बनाने उठी थी, पर सौम्या ने तुरंत उन्हें बिठा दिया, ‘‘कौफी मैं बनाती हूं आंटी, आप लोग बातें कीजिए.’’

‘‘हांहां, मैं भी यही चाह रहा था बेटी. इन के हाथ का काढ़ा पीने से बेहतर है, ठंडा पानी पी कर संतोष कर लिया जाए,’’ डाक्टर साहब ने मीरा को तिरछी दृष्टि से देख कर कहा तो हम सभी हंस पड़े. सौम्या उठी तो अक्षय ने तुरंत कहा, ‘‘चलिए, मैं आप की मदद करता हूं.’’

दोनों को साथसाथ जाते देख डाक्टर साहब बोले, ‘‘वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.’’

‘‘सच,’’ मीरा ने समर्थन किया. फिर मुझ से बोली, ‘‘नेहा, सौम्या मुझे और इन्हें बेहद पसंद है और मुझे ऐसा लग रहा है कि अक्षय भी उस से प्रभावित है क्योंकि अभी तक तो शादी के नाम पर छत्तीस बहाने करता था, परंतु कल जब मैं ने सौम्या के लिए पूछा तो मुसकरा कर रह गया. अब अच्छी नौकरी में भी तो आ गया है…मुझे उस की शादी करनी ही है. नेहा, अगर कहे तो अभी मंगनी कर देते हैं. शादी भाईसाहब के आने पर कर देंगे. वैसे तू सौम्या से पूछ ले.’’

हर्ष के अतिरेक से मेरी आंखें भर आईं. मीरा ने मुझे किस मनोस्थिति से उबारा था, इस का रंचमात्र भी आभास नहीं था. भरे गले से मैं उस से बोली, ‘‘मेरी बेटी को इतना अच्छा लड़का मिलेगा मीरा, मैं नहीं जानती थी. उस से क्या पूछूं. अक्षय जैसा लड़का, ऐसे सासससुर और इतना अच्छा परिवार, सच, मुझे तो घरबैठे हीरा मिल गया.’’

‘‘मैं ने भी नहीं सोचा था कि इस बुद्धू अक्षय के हिस्से में ऐसा चांद का टुकड़ा आएगा,’’ मीरा बोली थी.

‘‘और मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझे इतनी हसीन समधिन मिलेगी,’’ डाक्टर साहब ने हंसते हुए कहा तो हम सब एक बार फिर से हंस पड़े.

तभी एकाएक चौंक पड़े थे डाक्टर साहब, ‘‘अरे भई, यह कबूतरों की जोड़ी कौफी उगा रही है

क्या अंदर?’’

तब मैं और मीरा रसोई की तरफ चलीं पर द्वार पर ही ठिठक कर रुक जाना पड़ा. मीरा ने मेरा हाथ धीरे से दबा कर अंदर की ओर इशारा किया तो मैं ने देखा, अंदर गैस पर रखी हुई कौफी उबलउबल कर गिर रही है और सामने अक्षय सौम्या का हाथ थामे हुए धीमे स्वर में कुछ कह रहा है.

सौम्या की बड़ीबड़ी हिरनी की सी आंखें शर्म से झुकी हुई थीं और उस के पतले गुलाबी होंठों पर मीठी प्यारी सी मुसकान थी.

मैं और मीरा धीमे कदमों से बाहर चली आईं. उफनती नदी का चंचल बहाव प्रकृति ने सही दिशा की ओर मोड़ दिया था.

दाग: भाग 3- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

 

बड़े बेटे ने देखा कि पापा और मैडम बातें कर रहे हैं, तो वह फुर्र से बाहर भाग गया.

‘‘अरे…रे…रे… अमृत…’’

माही कप रख हड़बड़ी में उसे पकड़ने के लिए दौड़ी कि अचानक उस का पैर फिसल गया.

वह गिरती उस से पहले ही चंदन ने उसे थाम लिया, ‘‘क्या मुहतरमा, मेरे ही घर में अपने हाथपैर तुड़वाने के इरादे हैं?’’ कह उस ने उसे पलंग पर बैठाया.

जब चंदन ने माही को थामा तो उस के दिल की धड़कनें जोरजोर से चलने लगी थीं. वह मुंह पर हाथ रख अपनेआप को नौर्मल करती हुई उस से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस के पैर की अनामिका उंगली में थोड़ी चोट लग गई थी, जिसे वह सहलाने लगी थी.

‘‘उंगली दर्द कर रही है क्या?’’ चंदन ने पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘लाओ ठीक कर दूं,’’ चंदन ने उंगली पकड़ कर एक झटके में खींची. माही की हलकी चीख निकली और उंगली बजी.

‘‘लो ठीक हो गई. तुम्हारे चेहरे से ज्यादा खूबसूरत तुम्हारे पैर हैं. बिलकुल रुई की तरह नर्म और सफेद,’’ पंजे पर हाथ फेरते हुए चंदन ने कहा.

माही सिहर गई और कुछ बोल भी गई वह, ‘‘आप की भी तो छाती के ये कालेकाले घने बाल आसमान में छाए काले बादलों की तरह सलोने हैं.’’

जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि वह गलत बोल गई तो मारे शर्म के पानीपानी हो गई. बोली, ‘‘सौरीसौरी. मैं ने गलत… गलत…’’

चंदन के लिए यह तारीफ मौन प्रेम निवेदन के लिए काफी थी. उस ने उसे चूम लिया. आग के सामने घी कब तक जमा रहता? पिघल गई माही. दोनों जानसमझ रहे थे कि यह गलत है, मगर दोनों के दिल बेकाबू थे और…

जब प्रेम के बादल छंटे तो दोनों को अपनीअपनी गलती का एहसास हुआ. माही होस्टल चली आई. पर मन में डर बुरी तरह समा गया कि यह उस ने क्या कर दिया.

उस ने बच्चों को पढ़ाना छोड़ दिया. रीता जब मायके से आई तो पूछा. उस ने तबीयत खराब होने का बहाना बना दिया.

चंदन अपनेआप को अपराधी मानने लगा था और माही पश्चात्ताप की आग में जलने लगी थी. रातरात भर जगी रह कर अपनी गलती को याद कर आंसू बहाती. उस ने मम्मीपापा के विश्वास को तोड़ दिया. छोटी बहनों पर इस का क्या असर होगा? यह बात जानने पर उस की कितनी बदनामी होगी.

‘‘मामीजी, प्लीज यह बात मेरे मम्मीडैडी…’’ माही ने रोते हुए मेरे हाथ पकड़ लिए.

‘‘तुम मुझ पर विश्वास रखो. तुम्हारी यह बात मुझ तक ही सीमित रहेगी. इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता. अभी कोई गड़बड़ वाली बात नहीं है न?’’ मैं आशंकित थी.

‘‘नहीं.’’

‘‘अब तुम इस बात को पूरी तरह से दिल से निकाल दो. हां, तुम ने बहुत बड़ी गलती की है, पर आगे से सचेत रहना नहीं तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. तुम जल्दी से अपने 2-4 कपड़े बैग में रख लो. मेरे घर चलो.’’

‘‘पर…’’

‘‘परवर कुछ नहीं. मैं वार्डन से तुम्हारी 4-5 दिन की छुट्टी ले कर आ रही हूं. कल तुम्हें ले कर एक जगह जाना भी है. आज देर हो गई है, इसलिए कल चलेंगे,’’ कह कर मैं नीचे चली आई.

वार्डन ने कोई आपत्ति नहीं की.

रास्ते में मैं ने माही से मना कर दिया कि वह कोई भी बात माधवी पल्लवी से नहीं कहेगी, क्योंकि तीनों बैस्ट फ्रैंड थीं. सारी बातें शेयर करती थीं. हम जैसे ही घर पहुंचे मेरे तीनों बच्चे माही को देख खुशी से उछल पड़े.

सब ने उस की तबीयत के बारे में पूछा. उस ने मेरी तरफ ताकते हुए पढ़ाई की टैंशन का बहाना बनाया.

लेकिन मेरे पति कुछ भांप गए थे. मैं ने झूठ को इतने सच की चाशनी में डाल कर उन के सामने परोसा कि उन्हें विश्वास करना ही पड़ा, ‘‘तुम ने माही को यहां ला कर बहुत अच्छा किया.’’

झूठ बोलने के लिए मैं ने मन ही मन पति से माफी मांगी. क्या करती माही की जिंदगी बचाने के लिए मैं एक क्या हजार झूठ बोलने के लिए तैयार थी.

फोन कर दीदी से उस की पढ़ाई का बोझ बता दिया. मेरा पूरा ध्यान उसी पर था. वह बच्चों से बातें करते हुए उदास हो जाती थी. उस की उदासी गई नहीं थी.

सत्यम उसे खींचते हुए अपने कमरे में ले गया ताकि वह उस के मैथ के सारे प्रश्नों को हल कर दे. उस से बातें करने में तीनों बच्चों को खाने की सुध नहीं थी. फिर वह माधवीपल्लवी के साथ सोने चली गई.

मेरा दिल बहुत भारी हो गया था. नींद की जगह मेरी आंखों में माही ही घूमती रही. उस के और चंदन के बारे में ही सोचती रही. आजकल क्या हो गया है हमारी इस युवा पीढ़ी को? कुछ सोचविचार नहीं और झट से…

कहीं न कहीं हम मांएं भी तो दोषी हैं, जो अपनी बेटियों के साथ खुल कर बात नहीं करतीं और समस्या खड़ी हो जाने पर समाधान ढूंढ़ती हैं.

 

मेरी भी तो 2 बेटियां हैं. उन से खुल कर उन के दोस्तों या दूसरे पुरुषों के बारे में पूछना ही पड़ेगा. शर्म और संकोच करूंगी तो शायद माही से भी बढ़ कर ये दोनों ज्यादा गलत कर बैठेंगी. पहले की अपेक्षा अब मुझे अपने बच्चों से बहुत गहरी दोस्ती रखनी पड़ेगी ताकि वे छोटी से छोटी बात भी मुझ से शेयर करें.

मुझे या दूसरों को माही पर हंसने की क्या जरूरत? यह कोई नहीं जानता कि भविष्य में किस पर कितना बड़ा दाग लगेगा?

सुबह तीनों बच्चे स्कूलकालेज जाने से मना करने लगे कि वे दिन भर माही के साथ मस्ती करेंगे. मगर मैं ने उन्हें समझाबुझा कर भेज दिया.

सब के जाने के बाद मैं ने माही से कहा, ‘‘बेटा, जल्दी से तैयार हो जा. हमें लेडी डाक्टर के पास चलना है.’’

‘‘लेडी डाक्टर… क्यों मामीजी…?’’ लगा कि उसे चक्कर आ जाएगा.

‘‘मैं ने कल तुम से कहीं चलने के लिए कहा था न? मैं तुम्हारी हंसतीखेलती जिंदगी को ले कर कोई रिस्क नहीं लेना चाहती.’’

लेडी डाक्टर ने उस की पूरी जांच कर कहा, ‘‘सविताजी, घबराने वाली कोई बात नहीं है. अकसर युवावस्था में माहवारी अनियमित हो जाती है. मैं दवा लिख देती हूं… सब ठीक हो जाएगा. आप की भानजी कुछ कमजोर भी है. थोड़ा इस के खानेपीने पर ध्यान दीजिए.’’

खुशी के मारे मैं ने उन्हें बारबार धन्यवाद कहा. मेरे मन की सारी कुशंका दूर हो गई थी, इसलिए मैं बहुत खुश थी.

रास्ते में मैं ने माही के पसंद के पर्स और जूते खरीदे. उसे होटल में खाना खिलाया. उस की मनपसंद चौकलेट, आइसक्रीम खिलाई. मैं उस बुरी घटना से उस का पीछा छुड़ाने का प्रयास कर रही थी. वह भी अब खुश लग रही थी. खूब सारी शौपिंग कर हम घर पहुंचे.

अचानक माही मेरे गले से झूल गई, ‘‘थैंक्स मामीजी, आप से कल से बात करने से ले कर अब तक मैं बहुत हलकी लग रही हूं.

‘‘सच अगर आप मुझ से डांटडपट कर बात पूछतीं तो मैं अपने दिल की गहरी बात आप से कभी नहीं बताती. मन ही मन घुटती रहती और पता नहीं खुद को कितना नुकसान पहुंचाती.

‘‘आप ने बहुत अच्छे से मुझे संभाल लिया. आज मैं तनावमुक्त महसूस कर रही हूं.

‘‘मगर कभीकभी मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा है या यों कहिए अभी भी मैं अपनेआप को बहुत बड़ा गुनहगार मान रही हूं…’’ कहतेकहते उस की आंखें नम हो आईं.

‘‘बेटा, तू ने गलती तो बहुत बड़ी की है, जो माफी के भी काबिल नहीं है, फिर भी तुम्हें उस गलती का एहसास है, पश्चात्ताप हो रहा है, यह बहुत बड़ी बात है.

‘‘हां, एक बात और. ठीक है, तुम्हारी नादानी से संबंध बन गया, मगर उसी बात को ले कर हरदम दुख के सागर में डूबे रहना उदासपरेशान रहना, यह गलत है. भविष्य में ऐसी गलती न हो, बस इतना ध्यान रखना.

‘‘संबंधों का जुड़ाव तन से न हो कर मन से होता है. पतिपत्नी का रिश्ता हो या प्रेमीप्रेमिका का उन का पहला रिश्ता मन की गहराई से होता है, भावनात्मक रूप से होता है.

‘‘तुम्हारा चंदन के साथ ऐसा कोई भी रिश्ता नहीं था, तो फिर उसी बात पर झींकते रहने से क्या फायदा?

‘‘बस, तुम जल्दी से इस मानसिक व्यथा से निकलो और पूरे तनमन से पढ़ाई में जुट जाओ. मुझे इतना तो विश्वास है कि अब आगे तुम से ऐसी गलती नहीं होगी,’’ कह मैं ने उस के गाल थपथपाए.

‘‘एक बार फिर आप को थैंक्स, मामीजी. मुझे इस भंवरजाल से बाहर निकालने के लिए,’’ कहते हुए वह मुझ से लिपट गई.

तभी उस का मोबाइल बजा.

‘‘हाय ममा, मेरी बीमारी तो मामीजी ने चुटकी बजाते ठीक कर दी…’’ प्यार से मेरी तरफ ताकते हुए माही की खनकदार हंसी पूरे घर में गूंज गई.

बेवफा: सरिता ने दीपक से शादी के लिए इंकार क्यों किया था

दीपक और सरिता की शादी होना लगभग तय ही था कि सरिता ने अचानक किसी और से शादी कर ली. 20 साल बाद जब दीपक की बहन रागिनी को इस के पीछे की सचाई का पता चला तो उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. क्या पता चला था उसे…

‘‘मेरीतबीयत ठीक नहीं है रितु, मैं

घर जा रही हूं. जाते समय चाबी पहुंचा देना…’’

यह आवाज तो जैसे जानीपहचानी है. एक बार तो मेरे मन में आया कि आंखों से गीली रुई हटा कर उसे देखूं. मगर तब तक दूर जाती सैंडलों की आहट से मैं समझ गईर् कि बोलने वाली जा चुकी है. उस की आवाज अभी भी मेरे कानों में गूंज रही थी, इसलिए मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाई.

‘‘यही तो हैं इस ब्यूटीपार्लर की मालकिन सरिता राजवंश… ऊपर ही अपने पति के साथ रहती हैं. रुपएपैसों की कोई कमी नहीं है. बस खालीपन से बचने के लिए यह पार्लर चलाती हैं,’’ जितना पूछा उस से कहीं ज्यादा बता दिया रितु ने.

नाम सुनते ही मेरा रोमरोम जैसे झनझना उठा. चेहरे पर फेस पैक लगा था वरना अब तक न जाने कितने रंग आते और जाते. पिछले ही हफ्ते मेरे पति का तबादला यहां हुआ था. मैं घर में सामान अरेंज करतेकरते काफी थक गई थी. चेहरे की थकान मिटाने के लिए यहां फेशियल कराने आई थी. आश्चर्य कि यह पार्लर मेरी सब से प्यारी सहेली सरिता का था. विश्वास नहीं होता… मैडिकल की तैयारी करने वाली सरिता एक मामूली सा पार्लर चला रही है. लेकिन उस ने मुझे पहचाना क्यों नहीं या पहचान गई इसलिए यहां से चली गई? और भी न जाने कितने सवाल जिन के जवाब मैं पिछले 20 सालों से खोज रही हूं.

1-1 कर के वे सब जेहन में गूंजने लगे और साथ ही गूंजने लगा एक मधुर संगीत जो हरदम सरिता के होंठों पर रहता था, ‘क्या करूं हाय… कुछकुछ होता है…’

वे स्कूलकालेज के दिन… मैं, दीपक भैया और सरिता सब एकसाथ एक ही स्कूल में पढ़ते थे. हम पड़ोसी थे. दीपक भैया मुझ से 2 साल बड़े थे, लेकिन पता नहीं क्यों मां ने हम दोनों का नामांकन एक ही क्लास में करवाया था. दोनों परिवारों की एकजैसी हैसियत के कारण ही शायद हमारी दोस्ती बहुत निभती थी. सरिता के पिताजी एक दफ्तर में क्लर्क थे और मेरी मां एक स्कूल में अध्यापिका. मैं छोटी थी तभी पापा चल बसे थे. दीपक भैया और सरिता की बचपन की दोस्ती धीरेधीरे प्यार का रूप लेने लगी थी. दोनों के जवां दिलों में प्यार का अंकुर फूटने लगा था. मुझे आज भी याद है, रविवार की वह शाम जब दोनों परिवारों के सभी सदस्य मिल कर ‘कुछकुछ होता है’ फिल्म देखने गए थे. दीपक भैया ने गुजारिश की और मैं ने अपनी सीट उन से बदल ली ताकि वे सरिता की हथेलियों को अपने हाथों में ले कर इस संगीतमय और रोमांटिक वातावरण में अपने प्यार का इजहार कर सकें.

फिल्म खत्म होने के बाद सरिता की आंखों की चमक देख कर ही मैं समझ गई थी कि मेरी प्यारी सखी अब हमेशा के लिए मेरे घर में आने वाली है.

पापा की मौत के बाद मैं ने अपने जिस भाईर् को एक पिता की तरह गंभीरतापूर्वक जिम्मेदारियों को निभाते हुए देखा था आज उस के मन में अपनी जिंदगी के प्रति उत्साह एवं आत्मविश्वास देख कर मेरा मन सरिता के प्रति अंदर से झुक जाता था. शायद सरिता के निश्छल प्यार की ही ताकत थी कि पहली बार में ही भैया ने एमबीबीएस की परीक्षा पास कर ली. उस दिन सरिता इतनी खुश थी कि उसे अपने फेल होने का भी कोई गम नहीं था.

सबकुछ इतना अच्छा चल रहा था फिर अचानक एक दिन जब हम दोनों भाईबहन मौसी के घर गए हुए थे और

1 हफ्ते बाद लौटे तो पता चला कि सरिता ने दिल्ली के किसी अमीर आदमी से शादी कर ली है. उस के मम्मीपापा ने भी साफसाफ कुछ बताने से इनकार कर दिया.

फिर तो जैसे दीपक भैया के सारे सपने रेत के घरौंदे की तरह सागर में एकसार हो गए. जिन लहरों से कभी उन्होंने बेपनाह मुहब्बत की थी उन्हीं लहरों ने आज उन्हें गम के सागर में डुबो दिया. उस समय कितनी मुश्किल से मैं ने खुद और भैया को संभाला था यह मैं ही जानती हूं.

‘‘सैवन हंड्रेड हुए मैम,’’ रितु की आवाज सुन कर मैं अतीत से वर्तमान में आ गई. 1 घंटे का फेशियल कब पूरा हो गया पता ही नहीं चला. मैं ने पर्स से रुपए निकाल कर उसे दिए और फिर बाहर आ गई. मैं ने देखा कि बगल में ही ऊपर जाने वाली सीढि़यां थीं.

‘तो सरिता यहीं रहती है,’ सोच मेरे कदम स्वत: ही ऊपर की ओर बढ़ने लगे.

सीढि़यों के खत्म होते ही दाहिनी ओर एक दरवाजा था. मैं ने कौलबैल बजाई. मेरे लिए 1-1 पल असहनीय हो रहा था. मैं अपने सारे सवालों के जवाब जानने के लिए उतावली हो रही थी. 20 वर्ष तो बीत गए, मगर ये

20 सैकंड नहीं कट रहे थे. अब तक मैं 4 बार बैल बजा चुकी थी. पुन: बैल बजाने के लिए हाथ उठाया ही था कि दरवाजा खुल गया. मेरे सामने एक अपाहिज, किंतु शानदार व्यक्तित्व का स्वामी व्हील चेयर पर बैठा था.

उस के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक साफ झलक रही थी. मुझे देख कर एक क्षण के लिए वह अवाक रह गया. मगर अगले ही पल उस ने मुसकराते हुए मुझे अंदर आने को कहा. ऐसा लगा जैसे किसी पुराने मित्र ने मुझे पहचान लिया हो. मगर मेरी आंखें तो कुछ और ही खोज रही थीं.

‘‘सरिता तो अभी घर पर नहीं है. आप रागिनीजी हैं न?’’

उस व्यक्ति के मुंह से अपना नाम सुन कर मैं जैसे आसमान से गिरी… आवाज गले में ही अटक कर रह गई.

‘‘मेरा नाम सुमित है. मांजी और दीपक कैसे हैं? आप का इस शहर में कैसे आना हुआ? आप की शादी तो मुंबई में होने वाली थी न?’’

सवाल तो मैं पूछने आई थी, मगर मुझे

नहीं मालूम था कि मुझे ऐसे सवाल सुनने पड़ेंगे… तो क्या सरिता ने अपने पति को सबकुछ बता दिया है?

‘‘आप इतना सबकुछ मेरे बारे में…’’ मेरे हलक से आवाज ही नहीं निकल पा रही थी और फिर मैं बिना कुछ और कहे वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गई.

तभी सामने दिखी वह तसवीर, जो हम ने अपने फेयरवैल वाले दिन खिंचवाई थी. मैं दीपक

भैया और सरिता… एक क्षण में मैं समझ गई कि मैं इस घर के लिए अपरिचित नहीं हूं. मगर यह नहीं समझ में आया कि ‘प्यार दोस्ती है,’ कहने वाली सरिता ने अपने प्यार और दोस्ती दोनों के साथ विश्वासघात क्यों किया? वादे को क्यों तोड़ा उस ने?

‘‘अभी 1 घंटा पहले ही सरिता ने आ कर मुझे बताया कि तुम उस के पार्लर में आई हो… वह समझ गईर् थी कि तुम यहां आओगी जरूर. तभी वह यहां से चली गई है.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं. आखिर वह कौन सा मुंह ले कर मेरा सामना कर पाएगी,’’ मेरे मन की कड़वाहट शब्दों में स्पष्ट घुल गई थी.

‘‘सरिता ने जैसा बताया था आप बिलकुल वैसी ही हैं. इतने वर्षों में न तो आप बदलीं और न ही आप की सहेली,’’ सुमित ने कहा तो मैं ने अपनी नजरें उस पर टिका दीं. आखिर कौन सी खूबी है इस में जिस के लिए सरिता ने दीपक भैया के प्यार को ठुकरा दिया?

‘‘सरिता तो आज भी 20 साल पुरानी उन्हीं गलियों में भटक रही है, जहां दीपक की यादें बसती हैं. हर दिन, हर पल वह उन्हीं यादों के सहारे जीती है. दुनिया के लिए तो वह मेरी सरिता है, मगर सही माने में वह आज भी दीपक की ही सरिता है.

‘‘मैं एक दुर्घटना में अपाहिज हो गया था. तब एक केयर टेकर के लिए दिया गया मेरा इश्तिहार पढ़ कर सरिता मेरे पास आई और मुझ से शादी करने की विनती करने लगी. अंधा क्या चाहे दो आंखें… बस मैं ने हां कर दी… सच कहूं तो सरिता जैसी केयरटेकर पा कर मैं धन्य हो गया… मेरे जीवन की खुशियां उस की ही देन हैं.’’

‘‘हमारे घर की खुशियों में आग लगा कर उस ने आप के जीवन में रोशन की है… चमक तो होगी ही,’’ पता नहीं क्यों मैं सीधेसीधे सरिता को बेवफा नहीं कह पा रही थी.

‘‘आप थोड़ा रुकिए मैं अभी आप की गलतफहमी दूर किए देता हूं,’’ कह कर सुमित अंदर से एक डायरी ले आए.

‘‘यह डायरी तो सरिता की है. भैया ने ही उसे उस के जन्मदिन पर उपहारस्वरूप दी थी,’’ कह मैं ने जैसे ही डायरी खोली मेरी नजर एक पत्र पर पड़ी. उस की लिखावट बिलकुल मेरी मां की लिखावट से मिलती थी. अरे, यह तो सचमुच मेरी मां का ही लिखा पत्र है जो उन्होंने सरिता के लिए लिखा था आज से 20 साल पहले-

‘‘सरिता बेटी,

‘‘मैं जानती हूं कि तुम दीपक से बेहद प्यार करती हो और रागिनी तुम्हारी प्यारी सहेली है. मेरी बहन ने दीपक की शादी के लिए एक लड़की देखी है. उस के मातापिता दीपक को बहुत अधिक दहेज दे रहे हैं. तुम तो जानती हो कि दीपक की डाक्टरी की पढ़ाई में मेरे सारे जेवर बिक गए हैं. ऐसे में रागिनी की शादी और दीपक के अच्छे भविष्य के लिए मुझे उस लड़की को ही घर की बहू बनाना पड़ेगा. दीपक तो मेरी बात मानेगा नहीं. ऐसे में उस का भविष्य और रागिनी की जिंदगी अब तुम्हारे हाथों में है. मैं जिंदगी भर तुम्हारा एहसान मानूंगी.

‘‘तुम्हारी मजबूर आंटी.’’

पत्र पढ़ते ही मैं सुबक उठी… ‘‘यह तुम ने क्या कर दिया सरिता? हमारी खुशियों के लिए अपनी जिंदगी में आग लगा ली? आखिर क्यों सरिता? क्या कोई दूसरा रास्ता नहीं था? आज तुम से पूछे बिना मैं यहां से नहीं जाऊंगी. इतने वर्षों तक मैं और दीपक भैया तुम्हें बेवफा समझ कर तुम से नफरत करते रहे और तुम…’’

‘‘दीपक की नफरत ही तो उस के जीने का साधन है. एक ही क्षेत्र में रह कर शायद कहीं किसी मोड़ पर दीपक से मुलाकात न हो जाए, इसीलिए उस ने वह रास्ता ही छोड़ दिया. सरिता कभी नहीं चाहती थी कि तुम लोग उस की हकीकत जानो. इसलिए अगर तुम सच में सरिता को खुश देखना चाहती हो तो उस से बिना मिले ही चली जाओ वरना वह चैन से जी नहीं पाएगी…’’ सुमित ने कहा.

मुझे सुमित की बात सही लगी. मैं एक बार फिर दीपक भैया के प्रति सरिता के प्यार को देख कर नतमस्तक हो गई. सरिता ने तो प्यार और दोस्ती दोनों शब्दों को सार्थक कर दिया था. बस हम ही उसे नहीं समझ पाए.

26 January Special: कायर- नरेंद्र पर क्यों लगे भ्रष्टाचार के आरोप

लेखक- कर्नल पुरुषोत्तम गुप्त (से.नि.)

‘‘अब क्या होगा?’’ माथे का पसीना पोंछते हुए नरेंद्र ने नंदिता की ओर देखा. फरवरी माह में तापमान इतना नहीं होता कि बैठेठाले व्यक्ति को पसीना आने लगे. अंतर्मन में चल रहे द्वंद्व और विकट मनोस्थिति से गुजर रहे नरेंद्र के पसीने छूट रहे थे. यह केवल एक साधारण सा प्रश्न था या उस अवसाद की पराकाष्ठा जो उस को तब से साल रही थी जब से उसे वह पत्र मिला है.

कुछ पल दोनों के बीच मरुस्थल जैसी शांति पसरी रही. फिर नंदिता बोली, ‘‘इतनी चिंता ठीक नहीं. जो होगा सो होगा. शांत मन से उपाय ढूंढ़ो. अकेले तुम तो हो नहीं. हमाम में तो सारे ही नंगे हैं. और फिर ये ढेर सारे मंत्री, जिन की तोंद मोटी करने में तुम्हारा भी अहम योगदान रहा है, क्या तुम्हारी मदद नहीं करेंगे?’’

अपनी बात नंदिता पूरी कर भी नहीं पाई थी कि नरेंद्र ने कहा, ‘‘डूबते जहाज से चूहे तक भाग जाते हैं. यह एक पुरानी कहावत है. मुझे नेता वर्ग से कतई उम्मीद नहीं है कि वे मुझे इस मुसीबत से निकालेंगे. इस घड़ी में मुझे मित्र के नाम पर कोई भी नजर नहीं आता.’’

नरेंद्र के कथन में निराशा और व्यथा का मिश्रण था. नंदिता, जिस की सोच कुछ अधिक जमीनी थी, कुछ पल सोचने के बाद बोली, ‘‘इस परेशानी के हल के लिए भी पक्के तौर पर वकील होंगे जैसे हर बीमारी के लिए अलगअलग डाक्टर होते हैं. जरूरत है तो थोड़े प्रयास की. विश्वासपात्रों के जरिए पता लगाओ और सब से अच्छे वकील की सहायता लो. थोड़ेबहुत संपर्क मेरे भी हैं. मैं भी भरपूर प्रयास करूंगी कि कोई रास्ता निकले.’’

यह कह कर दोनों अपनेअपने काम में लग गए. इस समस्त चर्चा का कारण था वह पत्र जो नरेंद्र को विभाग से मिला था. उस के विरुद्ध भ्रष्टाचार के अनेक आरोप थे जिन का स्पष्टीकरण 2 सप्ताह के भीतर मांगा गया था. नरेंद्र अतीत में डुबकियां लगाने लगा.

15 साल पहले जब वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में भरती हुआ था, अनेक सपने उस की आंखों में तैर रहे थे.

देश और समाज के प्रति समर्पित एक ऐसा नवयुवक जो कुछ कर दिखाने का संकल्प ले कर देश की सर्वोच्च सेवा प्रणाली में दाखिल हुआ था. जीवन के बीहड़ में अंधेरे कब उजालों पर हावी होते चले गए, कुछ पता ही नहीं चला. गरमी में पिघलती मोमबत्ती की तरह कब सपने साकार होने से पहले ही मटियामेट हो गए, इस का उसे ज्ञान ही नहीं हुआ.  व्यवस्था का शिकार होना जैसे उस की नियति बन गई. शायद कुछ अच्छे संस्कारों और परवरिश का ही प्रभाव था कि वह कीचड़ में धंस तो अवश्य गया था पर उस ने अपना विवेक पूरी तरह से खोया नहीं था.

भ्रष्ट आचरण उसे विकट परिस्थितियों में अपनाना तो पड़ा पर अपनी नैतिकता की धज्जियां उड़ते देख वह अकसर रो पड़ता. इस अवांछित उत्पीड़न से बचने का वह हरसंभव प्रयास करता और अपने उत्तरदायित्व के सेवाभाव को व्यापार भाव से कलंकित होने से बचाने की कोशिश करता. लगभग 12 वर्ष पहले नंदिता ने उस की पत्नी के रूप में उस के जीवन में प्रवेश किया. नंदिता इतनी सुंदर कि कोई भी उस की आंखों की ऊष्मा से पिघल कर बह जाए.

अत्यंत महत्त्वाकांक्षी और भौतिक युग की हर सुंदर वस्तु से अबाध मोह. नातेरिश्तों का केवल इतना महत्त्व कि वे उस के अपने लक्ष्यों की उपलब्धि में सहायक हों, बाधक नहीं. उस के लिए विवाह एक औपचारिक आवरण था सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का.

यों तो सामान्य तौर पर वह एक अच्छी पत्नी और 10 वर्षीय बेटे की मां थी, पर कहीं गहरे में उसे ठहराव से नफरत थी. उसे आंधीतूफान की तरह बहना और उड़ना ही रुचिकर लगता था. पति के सेवाकाल में उस के शीर्षस्थ अधिकारियों और राजनीतिक क्षेत्र में प्रभावशाली व्यक्तियों से सामान्य से अधिक घनिष्ठ संबंध थे. उस की धनलोलुपता के कारण उन के आपसी संबंधों में प्राय: कड़वाहट आ जाती. उस की अनंत इच्छाओं की पूर्ति के लिए उसी अनुपात में धन की भी आवश्यकता रहती. नरेंद्र अकसर इस का तीव्र प्रतिरोध करता और अपनी सीमित आय का हवाला देता पर नंदिता उस पर निरंतर दबाव बनाए रहती.

स्वप्नलोक से जब वापस यथार्थ की धरती पर वह आया तो उस पत्र ने उसे फिर से आतंकित करना शुरू कर दिया. पिछले 2 सालों से वह समाज कल्याण विभाग का निदेशक था. काफी बड़ा विभाग था. इस के अंतर्गत आने वाली विविध गतिविधियों का दायरा बहुत बड़ा था. विभाग का सालाना बजट लगभग 600 करोड़ रुपए का था. यह एक अथाह समुद्र था जिस में अधिकतर काम केवल कागजों पर ही होता और धन का बंटवारा हो जाता. नरेंद्र ने इस संस्कृति को बदलने का पूरा प्रयास किया पर उसे आंशिक रूप से ही सफलता मिल सकी.

उस आवें (भट्ठे) में बैठ कर अपना आचरण अलग कैसे निर्धारित कर सकता था, उसे भी तो उसे जलाते रहने के लिए लकडि़यां जुटानी थीं. और फिर नंदिता का लगातार दबाव और अनंत चाहतें. जिंदगी के अंधेरेउजियारे गलियारों को पार करता वह इस मुकाम पर बेदाग पहुंचा था और अब उस को कसौटी पर कसने का प्रबंध किया जा रहा था.

किसी अच्छे वकील से सलाह करने की नंदिता की राय उसे सही लगी. निदेशक के रूप में उस का संपर्क 1-2 वकीलों से था. रमण बाबू का वकील के रूप में काफी दबदबा था. संयोग से उन का टेलीफोन नंबर उस के मोबाइल में था. तुरंत बात कर मिलने का समय तय किया और अगले दिन पहुंच गया उन के चैंबर में. औपचारिक शिष्टाचार के बाद नरेंद्र ने खुद पर लगे आरोपों को विस्तार से बताया और जांच संबंधी मिला पत्र वकील साहब के सामने रख दिया.

कुछ देर शांत रहने के बाद रमण बाबू बोले, ‘‘देखिए, अभी यह केस प्रारंभिक अवस्था में है. यह पत्र किन्हीं ठोस प्रमाणों या साक्ष्यों की ओर इंगित नहीं करता है पर बिना किसी आधार के यह पत्र जारी नहीं किया जाता, इसलिए इस के पीछे कुछ ठोस प्रमाणों के होने की पूरी संभावना है. इसे नकारना या स्वीकारना बुद्धिमानी नहीं होगी. इसे मेरे पास छोड़ दीजिए. इस का उत्तर सामान्य रूप से ही दिया जाएगा और मैं इस का प्रारूप 1-2 दिन में बना कर आप को सूचित कर दूंगा.’’

चायनाश्ते के बाद यह बातचीत समाप्त हो गई और नरेंद्र वापस आ गए. योजनानुसार पत्र का उत्तर रमण बाबू के माध्यम से दिया गया. शेर अपने बाड़े से बाहर आ चुका था तो केवल एक उत्तर से कैसे शांत होता.

सतर्कता विभाग का अगला पत्र और कठोर था जिस में न नकारे जा सकने वाले तथ्यों का ब्योरा था और शीघ्र ही उत्तर की अपेक्षा थी जिस के अभाव में अगली कार्यवाही की चेतावनी भी थी. रमण बाबू ने अपने अनुभव और ज्ञान से तो उत्तम उत्तर ही देने का प्रयास किया, लेकिन सतर्कता विभाग ने उसे खारिज कर जांच के आदेश दे दिए.

नरेंद्र का आत्मविश्वास डगमगा गया था. सचाई से लड़ने की ताकत नरेंद्र में नहीं थी. नंदिता की सोच जैसी भी रही हो, वह इस घड़ी में अपने को अलग नहीं रख सकती थी. एक घनिष्ठ मित्र रहे मंत्री से फोन पर मिलने का समय ले कर वह खूब सजधज कर उन के यहां जा पहुंची.

‘‘वाह जानेमन, आज तुम ने इस नाचीज को कैसे याद किया,’’ मंत्री महोदय ने उत्साहित हो कर नंदिता को अपनी बांहों में भर लिया. नंदिता ने कोई प्रतिरोध नहीं किया पर शीघ्र ही संयत हो कर अपने पति की व्यथा उन के सामने रखी और उन से मदद की अपेक्षा जाहिर की. एकाएक मंत्रीजी ने पैतरा बदला और कुछ पल पहले का आसक्तपूर्ण व्यवहार अत्यंत नाटकीय हो गया. शब्द चाहे कितने ही विनम्र रहे हों पर आशय यही था कि वे इस मामले में पूरी तरह असमर्थ हैं.

उस ने हार नहीं मानी और अपने प्रयासों को और तेज किया. लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात. इस संकट की घड़ी में किसी ने साथ न दिया. उस ने एक आखिरी प्रयास और करने का विचार किया.

नरेंद्र के एक बैचमेट सुधीर काफी लोकप्रिय अधिकारी थे और उन से दोनों के घनिष्ठ संबंध थे. 2 वर्ष पहले उन की पत्नी का एक कार दुर्घटना में देहांत हो गया था. सारी बात सुन कर सुधीर ने सांत्वना दी और इस विपदा में उन का साथ देने का वादा किया पर ठोस रूप से वे कुछ कर पाएंगे, इस की आशा बहुत कम थी.

समय समाप्त होने पर सतर्कता विभाग के डीएसपी ने नरेंद्र से मिलने की पेशकश की. अब स्थिति साफ हो गई थी. शिकंजा धीरेधीरे कसता जा रहा था. निश्चित समय पर नरेंद्र के कार्यालय में डीएसपी रामपाल पहुंच गए. पहले दौर की बातचीत, कार्यालय की कार्यप्रणाली, उस के विभिन्न उपविभागों की जानकारी आदि तक सीमित रही और रामपाल ने किसी विशिष्ट विवरण और स्पष्टीकरण को नहीं छुआ. अगली मीटिंग 7 दिन बाद निश्चित की गई.

इस अंतराल में रामपाल ने एक लंबी प्रश्नावली तैयार की जिस का परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उन आरोपों से गहन संबंध था जो नरेंद्र पर लगे थे. तहकीकात की कला में प्रशिक्षित और अत्यंत बुद्धिमान पुलिस अफसर के रूप में रामपाल की काफी ख्याति थी और यह बात नरेंद्र को भलीभांति मालूम थी.

उसे इस बात का अब पूरा विश्वास हो गया था कि उस का बच कर निकलना असंभव ही है. उस ने रमण बाबू को फोन किया और सारी स्थिति से अवगत कराया. वे भी रामपाल की योग्यता से थोड़ाबहुत परिचित थे, बोले, ‘‘खरीद लो.’’

‘‘क्या कहा?’’ नरेंद्र ने पूछा.

‘‘जो तुम ने सुना. खरीद लो,’’ यह कह कर रमण बाबू ने फोन काट दिया.

अगली मीटिंग निर्धारित दिन और समय पर हुई. इस से पहले कि रामपाल अपनी प्रश्नावली के आधार पर पूछताछ शुरू करते, नरेंद्र ने पूछा, ‘‘डीएसपी साहब, इस गुत्थी को सुलझाने का कोई और विकल्प है? मुझे मालूम है कि मैं इस समय कहां खड़ा हूं. किन परिस्थितियों में यह सब हुआ, उस की विवेचना से कोई लाभ नहीं. क्या आप मुझे किसी प्रकार इस विपत्ति से बचा सकते हैं?’’

रामपाल ने कोई जवाब नहीं दिया. उसे ऐसी स्थितियों से अकसर दोचार होना पड़ता था. कुछ देर खामोशी के बाद पुन: नरेंद्र ने विनय याचना की जिस का कोई प्रभाव रामपाल पर नहीं पड़ा. अंत में नरेंद्र ने कहा, ‘‘डीएसपी साहब, मुझे यह बताएं कि मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’

पुलिस अफसर और इस भाषा का अर्थ न समझे, इस की संभावना शून्य थी. रामपाल चुप रहा.

‘‘कहिए, ‘2’ ठीक रहेगा,’’ नरेंद्र ने कहा.

कोई उत्तर तो दूर, कहीं किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया भी रामपाल ने नहीं की.

‘‘कम हैं तो 3 सही, अन्यथा आप ही कुछ सुझाएं,’’ नरेंद्र ने पुन: कहा.

रामपाल निर्लिप्त भाव से बैठे रहे, जैसे वे न समझ में आने वाली कोई फिल्म देख रहे हों.

यह मरघट की सी चुप्पी नरेंद्र के लिए जानलेवा साबित हो रही थी. धीरेधीरे उस ने अपना ‘औफर’ 10 लाख रुपए तक कर दिया पर उस विकट पुलिस अफसर ने न इस का कोई प्रतिवाद किया और न ही किसी प्रकार का आक्रोश जताया.

अंत में रामपाल उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘सर, मैं कल इसी समय आऊंगा और तब बात केवल केस से संबंधित विषय पर ही होगी. कृपया इस का ध्यान रखिएगा.’’

नरेंद्र को अब लेशमात्र भी संदेह नहीं रह गया था कि उस के बचाव के सब रास्ते बंद हो चुके हैं. अब संघर्ष की कोई संभावना नहीं बची है. उस की समस्त आशाओं पर पानी फिर चुका था. जीवन में व्यर्थता का बोध बढ़ता जा रहा था. रामपाल से अगली मीटिंग का परिणाम उसे मालूम था. बयान कलमबंद किए गए. अगला कदम कोर्ट में आरोपपत्र दाखिल करना था.

वह पूरी तरह टूट चुका था और काल ने जैसे यह निश्चय कर लिया था कि वह हरसंभव दुख और परेशानी नरेंद्र की झोली में डाल देगा. परिस्थितियों ने उसे पाट दिया था. आत्मदया के पोखर में वह डूबताउतराता रहता. आने वाली निकृष्ट जिंदगी से आतंकित हो अकेले में विलाप करता. ऐसे प्रताडि़त जीवन की कभी उस ने कल्पना भी न की थी.

आखिरकार उस ने निश्चय कर लिया, यह कोई साधारण निर्णय नहीं था. एक पत्र नंदिता के नाम लिखा :

प्रिय नंदिता

पिछले 2-3 माह की घटनाओं से तुम अवगत हो. किन परिस्थितियों में मैं भ्रष्ट आचरण के मोहजाल में फंस गया, उस से तुम अपरिचित नहीं हो. अब उस के बारे में बात करना बेकार है. कभी सोचा तक न था कि जीवन में ऐसा मोड़ भी आएगा. इस कलंकित जीवन को मैं कैसे झेलूं, मेरी सोच थम गई है. इस कलुषित आत्मा के शुद्धीकरण का कोई उपाय तुम्हारे पास होता तो तुम निश्चित रूप से बतातीं. मैं साहसी कभी रहा ही नहीं और मेरा सामर्थ्य लोगों की घूरती आंखों की अग्नि को झेलने का नहीं है. इस प्रताडि़त जीवन को बचाने के लिए हर सांस का प्रयास कष्टदायी होगा. जीने की चाहत खत्म हो गई है. सुख और शांति की खोज में मैं पलायन कर रहा हूं.

बेटे का ध्यान रखना. इतिहास को मत दोहराना. उस की परवरिश में कोई कमी नहीं रखना. तुम अपना जीवन फिर से नए साथी के साथ प्रारंभ कर सकती हो, मुझे खुशी होगी. साथ बिताए मधुर क्षणों को याद करते हुए हर वर्ष एक दीपक जला कर मुझे याद कर लेना.

ढेर सारे प्यार के साथ

तुम्हारा,

नरेंद्र

सधे हाथों और शांत मन से पत्र लिफाफे में डाल कर सील किया. फिर उस पर पत्नी का नाम लिख कर पास रखी टेबल पर रख दिया. अब कुछ करने को शेष नहीं था. अलमारी से अपनी पिस्तौल निकाल कनपटी पर लगा घोड़ा दबा दिया.

एक आवाज और फिर घोर निस्तब्धता.

नंदिता जो अभी बाहर से आई थी, चौंक कर नरेंद्र के कमरे की ओर दौड़ी. वहां का वीभत्स दृश्य देख वह हतप्रभ रह गई. यह उस के जीवन की सब से बड़ी त्रासदी थी. पास जा कर देखा, नरेंद्र की मृत्यु हो चुकी थी. अपने आंसुओं पर वह अपना नियंत्रण खो बैठी. एक घना जंगल और उस से भी अधिक घना अंधकार.

आंखों में जैसे सारा ब्रह्मांड घूम गया और नंदिता को लगा कि उस का अस्तित्व उड़ते हुए परखचों से अधिक कुछ भी नहीं है. यह अपनेआप में एक आश्चर्य था कि वह अपना संतुलन बनाए रख सकी. किसी प्रकार अपने को संभाल उस ने पुलिस और अन्य कई अधिकारियों को सूचित किया. पिस्तौल की आवाज से सड़क पर चलते आदमी भी रुक गए. नंदिता के रुदन की आवाज से उन्होंने अनुमान लगाने शुरू किए और फिर लालनीली बत्तियों वाली गाडि़यों का आगमन हुआ. कई तरह की टिप्पणियां हुईं–

‘नरेंद्र साहब ने खुद को गोली मार ली.’

‘अरे क्यों, पत्नी से पटती नहीं होगी.’

‘जरूर नौकरी की कोई समस्या रही होगी.’

‘पर जान देने वाली इस में क्या बात है?’

‘भाई, कह नहीं सकते. वजह तो कोई बड़ी ही रही होगी.’

‘वह कायर था,’ पोपले मुंह से निकले एक वृद्ध के ये शब्द किसी सांप की फुफकार से लगे.

बहरहाल, पुलिस की छानबीन के बाद केस आत्महत्या का बना और उचित कार्यवाही के बाद बंद कर दिया गया.

दाग: भाग 2- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

पर पता नहीं क्यों आज का माहौल कुछ बदलाबदला था. वह जवाब दे कर चुप हो जाती. लगता कहीं खो गई है. उसे देखने से ही पता चल रहा था कि हो न हो ऐसीवैसी जरूर कोई बात है, पर इस के दिल की बात जानूं कैसे, समझ में नहीं आ रहा था. तभी उस की रूमपार्टनर भारती आ गई.

‘‘मामीजी, इसे साथ ले जाइए. रात भर कमरे में टहलती रहती है. पूछने पर कहती है कि नींद नहीं आती. बेचैनी होती है. मैं ने ही इसे नींद की दवा खाने को कहा. ढंग से खाना नहीं खाती. पढ़नालिखना भी पूरी तरह से ठप कर बैठी है. लग रहा है इसे लवेरिया हो गया है,’’ कह भारती हंसी.

 

‘‘चुप भारती, जो मुंह में आ रहा है, बकती जा रही है,’’ माही का चेहरा तमतमा गया.

‘‘अरे, मुझ से नहीं कम से कम मामीजी से उस लवर का नाम बता दे ताकि इस लगन में ये तेरा बेड़ा पार करवा दें,’’ हंसते हुए भारती बैडमिंटन ले बाहर निकल गई. मैं मुसकरा पड़ी.

‘‘ईडियट कहीं की,’’ माही भुनभुनाई.

शायद यही बात हो. यह सोच कर मैं ने उस के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा, ‘‘कोई लड़का है तो बोलो. मैं दीदी से बात करूंगी.’’

‘‘कोई नहीं है,’’ उस ने हाथ खींच लिए.

मैं ने उस की ठुड्डी ऊपर उठाई, ‘‘सचसच बता आखिर बात क्या है? मैं तुम्हारी मामी हूं. कोई बात तेरे दिल में घर कर गई है, इसलिए तू नींद की गोलियां खाती है. बता क्या बात है? मुझ पर विश्वास कर मैं तेरी हर बात अपने दिल में दफन कर लूंगी. तू मुझे दोस्त मानती है न… बता मेरी बेटी, तू ने कोई गलती की है, जो आज तेरी यह हालत हो गई है? देख, कहने से दुख हलका होता है. शायद मैं तेरी कुछ मदद करूं. बता न प्यारव्यार का चक्कर है या कोई होस्टल की प्रौब्लम…’’ मैं 10-15 मिनट तक यही दोहराती रही ताकि वह अपने दिल की बात बता दे.

फिर भी माही कुछ नहीं बोली तो मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया, ‘‘जब तू मुझे कुछ बताएगी नहीं तो ठीक है मैं जा रही हूं. तुम्हें मुझ पर विश्वास ही नहीं, तो मैं चली,’’ कह कर मैं उठ गई.

‘‘मामी…’’ माही ने सिर उठा कर कहा. उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे. आंसू देख मैं घबरा गई. मगर उस की जबान खुलवाने के लिए बोली, ‘‘मैं जा रही हूं…’’ कह फिर आगे बढ़ी.

वह उठ कर मुझ से लिपट गई और बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘‘मुझ से एक गलती हो गई है…’’

‘‘कैसी गलती?’’

‘‘एक आदमी से संबंध…’’

लगा कि मैं चक्कर खा कर गिर पड़ूंगी. मेरा दिमाग एक क्षण के लिए सन्न हो गया. हाथपांव कांपने लगे कि यह इस ने क्या कर दिया. मैं ने सोचा था किसी लड़के से प्यार होगा, पर यहां तो… मैं खुद अपनेआप को संभाल नहीं पा रही थी. मुझे माही पर हद से ज्यादा गुस्सा आ रहा था, पर उसे काबू में कर उस से सारी सचाई जानना मैं ने जरूरी समझा.

उसे पलंग पर बैठा मैं खुद भी बैठ गई. वह फूटफूट कर रो रही थी. मैं ने सोचा अगर मैं अभी इसे बुराभला कहूंगी तो हो सके मेरे जाने के बाद यह कहीं गले में फंदा डाल फांसी पर न लटक जाए या होस्टल की छत से ही कूछ जाए. अत: मैं ने उस से सारी बातें कोमलता से पूछीं.

माही ने बताया कि वह अकसर होस्टल की बगल में चंदन स्टेशनरी में फोटो कौपी कराने जाती थी. नोट्स या सर्टिफिकेट को हमेशा फोटोस्टेट कराने की जरूरत पड़ती ही रहती. होस्टल की सारी लड़कियां उसी दुकान पर जातीं. स्टेशनरी और फोटोस्टेट के साथसाथ मेल, कुरियर, बूथ और स्टूडियो को मिला कर 4-5 बिजनैस एक ही में थे.

मालिक चंदन के घर में ही दुकान थी. उस ने एक नौकर रखा था. चंदन की पत्नी रीता भी दुकान देखती.

रोज आतेजाते सभी लड़कियों के साथ माही की भी दोस्ती रीता और चंदन से हो गई थी. कभीकभी रीता उसे चायनाश्ता भी करा देती. उस के 4 और 6 साल के 2 बेटे थे. जिन्हें ट्यूशन पढ़ाने के लिए वह एक अच्छा टीचर ढूंढ़ रही थी.

रीता ने भारती से बात की. पढ़ाई से शाम को जो भी 1-2 घंटे फुरसत के मिलते थे उन्हें भारती बच्चों को पढ़ा कर अपनी उछलकूद बंद नहीं करना चाहती थी. अत: उस ने माही को राजी किया. उसे बच्चों को पढ़ाने का शौक था. वह पढ़ाने लगी. रीता और चंदन से हंसीमजाक होता. बच्चों को पढ़ाने के कारण उस में और इजाफा हुआ.

चंदन था तो 2 बच्चों का पिता, मगर वह बिलकुल नौजवान और हैंडसम लगता था. माही भी 20-21 साल की यौवन की दहलीज पर खड़ी छरहरे बदन की खूबसूरत लड़की थी. माही जब बच्चों को पढ़ाती या चंदन ग्राहकों के बीच रहता तो दोनों एकदूसरे को चोर निगाहों से देख लेते.

दोनों अपनी उम्र और स्थितियों से अवगत थे, मगर फिर भी विपरीत लिंगी आकर्षण की तरफ बढ़ चुके थे.

एक दिन अचानक रीता के पास फोन आया कि उस की मां की तबीयत बहुत खराब है. हौस्पिटल में ऐडमिट हैं. वह घबराई सी छोटे बेटे को ले कर अकेले ही मायके चली गई.

शहर के एक विधायक के बच्चे का किसी ने अपहरण कर लिया था. फिर क्या था? उस के चमचों ने शहर की सभी दुकानों को बंद करवा दिया और जलूस निकाल कर अपहरणकर्ताओं को पकड़ने के लिए पुलिस से उलझ पड़े.

चंदन अपनी दुकान बंद कर घर के कामों में जुट गया. रीता रसोई और कपड़ेलत्ते बिखेर गई थी. वह उन्हें समेटने लगा.

शाम को माही बच्चों को पढ़ाने आई. उस ने दुकान बंद होने का कारण पूछा. छोटे भाई के नानी गांव जाने पर बड़ा भाई पढ़ना नहीं चाहता था. माही किसी तरह उसे पढ़ा रही थी.

बनियान और लुंगी पहने चंदन चाय ले कर आया, ‘‘लो माही, चाय पीयो.’’

‘‘दीदी कब आएंगी?’’ कप लेते हुए माही की उंगलियां चंदन से छू गईं. दिल धड़क गया उस का.

‘‘कलपरसों तक आ जाएगी,’’ चंदन वहीं बैठ कर खुद भी चाय पीने लगा.

‘‘चाय बहुत अच्छी है,’’ माही मुसकराई.

‘‘शुक्र है आप जैसी मैडम को मेरी बनाई चाय अच्छी लगी, नहीं तो…’’ चंदन हंसा.

दाग: भाग 1- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

सुबह सुबह मेरा 2 कमरों वाला घर कचरे का ढेर दिखता है. पति को औफिस, बेटे को स्कूल और दोनों बेटियों को कालेज जाने की हड़बड़ी रहती है, इसलिए वे सारे सामान को जैसेतैसे फेंक कर चले जाते हैं. उन के जाने के बाद मैं घर की साफसफाई करती हूं. रात में खाई मूंगफली के छिलकों को उठा कर डस्टबिन में डालने जा ही रही थी कि मेरा मोबाइल बज उठा. सुबहसुबह घर के इतने सारे काम ऊपर से ये मोबाइल कंपनी वाले लेटैस्ट गानों की सुविधाओं के साथ फोन करकर के परेशान कर देते हैं. मैं ने थोड़े गुस्से से फोन पर नजर डाली, तो गुस्सा जले कपूर की तरह उड़ गया. फोन बड़ी ननद का था. मन में थोड़ा डर समा गया कि क्या बात हो गई, जो दीदी ने इतनी सुबह फोन किया? वे ज्यादातर फोन दोपहर में करतीं.

‘‘हां, प्रणाम दीदी, सब ठीक तो है?’’

‘‘नहीं कविता, कुछ ठीक नहीं है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ मैं घबरा गई कि कोई बुरी खबर न सुनने को मिले, क्योंकि ज्यादातर दिल दहला देने वाली खबरें सुबह ही मालूम पड़ती हैं.

खैर, दीदी बताने लगीं, ‘‘देखो न कविता, माही की तबीयत खराब है. उस की सहेली बता रही थी कि वह रातरात भर जगी रहती है. पूछने पर कहती है कि उसे नींद नहीं आती. बेचैनी होती है.’’

‘‘उसे कब से ऐसा हो रहा है?’’

‘‘2-3 महीनों से,’’ दीदी सुबक पड़ीं.

‘‘अरे दीदी, आप रोती क्यों हैं? मैं हूं न. मैं आज उस से मिल लूंगी,’’ कह मैं ने घड़ी देखी. 9 बज रहे थे, ‘‘अब तो वह कालेज चली गई होगी. आप चिंता न कीजिए. शाम को उस से मिल कर मैं आप को फोन करूंगी. चायनाश्ता किया आप ने?’’

‘‘नहीं…’’

‘‘अभी तक आप भूखी हैं? जाइए, नाश्ता कीजिए. मैं भी सारे काम कर के नहाने जा रही हूं. टैंशन न लीजिए,’’ कह मैं ने फोन बंद कर दिया.

घर के काम करने के साथ माही मेरे दिमाग में घूमने लगी. अच्छीभली लड़की को यह क्या हो गया? हमारे सभी रिश्तेदारों के बच्चों में वह सब से तेजतर्रार है. पढ़नेलिखने, खेलकूद सब में अव्वल. अभी वह इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में है. हमेशा अपने बेटे और दोनों बेटियों को उस से कुछ सीख लेने की बात कहती हूं, पर वे तीनों बहरे हो जाते हैं. मैं फालतू में उन पर हर महीने 8-10 हजार रुपए खर्च करती हूं.

दोपहर में चावलदाल बना कर सत्तू की पूरियां और चने की सब्जी बनाई ताकि माही भी खा ले. उसे सत्तू की पूरियां बहुत पसंद हैं. होस्टल में ये सब कहां मिलता है. मैं ने फोन कर के उसे अपने आने का प्रोग्राम नहीं बताया. एक तरह से उसे सरप्राइज देना था. घर बंद कर के चाबी बगल वाली आंटी को दे दी. पति और बच्चों के पास फोन कर दिया.

होस्टल शहर से 27-28 किलोमीटर दूर है. वहां जाने में 2 बसें बदलनी पड़ती

हैं. बस के भरने में घंटों लग जाते हैं. यही कारण था कि मैं माही से मिलने जल्दी नहीं जाती थी.

करीब 4 बजे मैं होस्टल पहुंची. लड़कियां ट्यूशन के लिए जा रही थीं.

‘‘नमस्ते मामीजी,’’ माही की सहेली भारती मुसकराई.

‘‘खुश रहो बेटा, माही कहां है?’’

‘‘अपने कमरे में.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं वार्डन रमा के कैबिन में चली गई.

रजिस्टर में साइन कर सीढि़यां चढ़ माही के कमरे में दाखिल हुई. देखा लाइट बंद थी. वह छत पर टकटकी लगाए पलंग पर लेटी थी. मैं दबे पांव पीछे से उस के पास गई और उस की आंखों को अपने हाथों से ढक दिया.

‘‘कौन है?’’ वह हड़बड़ाई.

‘‘पहचानो…’’

‘‘अरे, मामीजी आप…’’ आवाज पहचान कर उस के सूखे अधरों पर मुसकान फैल गई. उस ने लाइट जलाई.

मैं पलंग पर बैठ गई. मेरे हाथों में उस के आंसू लग गए थे, ‘‘रो रही थी क्या?’’

‘‘नहीं तो?’’ उस ने आंखें पोंछ लीं.

मैं ने उसे ध्यान से देखा. सूखे फूल की तरह मुरझा गई थी वह. आंखें लाल थीं. बाल भी बिखरे थे.

‘‘क्या हो गया है तुम्हें? बिलकुल मरियल दिख रही हो. सुबह में दीदी मतलब तुम्हारी मम्मी का फोन आया कि तुम्हारी तबीयत खराब है. तुम मेरे पास चली आती या अपने घर चली जाती. डाक्टर को दिखाया? क्या बोला? दवा ले रही हो?’’ एक ही बार में मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘अरे मामी, मैं ठीक हूं. आप परेशान न होइए. रुकिए, आप के लिए चाय लाती हूं,’’ माही अपने हलके भूरे बालों को समेटते हुए पलंग से उतरने लगी.

‘‘मैं चाय पी कर आई हूं. कहीं मत जा. तुम्हारे लिए सत्तू की पूरियां लाई हूं. खा लो,’’ मैं ने उसे लंचबौक्स पकड़ाया. यह सोच कर कि अभी वह खा लेगी. जैसे पहले मेरे सामने ही निकाल कर खाती और मेरी तारीफ करती कि मामीजी, आप कितना अच्छा खाना बनाती हैं. साथ में यह फरमाइश भी करती कि अगली बार गुझिया लाना. मैं भी उस की फरमाइश पूरी करती.

पर यह क्या, बाद में खा लूंगी कह कर उस ने लंचबौक्स बगल के स्टूल पर रख दिया. लंचबौक्स रखते हुए एक किताब नीचे गिर गई. किताब के अंदर रखी दवा फर्श पर बिखर गई. मैं ने उसे झट से उठा लिया, ‘‘यह तो नींद की दवा है. क्या तुम्हें नींद नहीं आती?’’ मैं ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

वह नजरें नहीं मिला पाई, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप बैठिए न. मैं चाय ले कर आ रही हूं.’’

‘‘तुम पीओगी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो बस, मेरे पास बैठो. मुझे जल्दी निकलना होगा. पढ़ाईलिखाई कैसी चल रही है?’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

पता नहीं क्यों माही मुझ से नजरें मिला कर बातें नहीं कर रही थी. मैं जब इस से पहले मिलने आती थी, तो चहक कर मुझ से मिलती. एक दोस्त की तरह होस्टल और सहेलियों की हर छोटीबड़ी बातें मुझ से शेयर करती. शुरू से ही यह मेरे करीब रही है और मैं भी इसे उतना ही प्यार करती हूं.

बात एक रात की: क्या चित्रा और तपन की शादी हुई?

तपन रहने वाला तो झारखंड के बोकारो शहर का था, पर किसी काम से कोलकाता गया हुआ था. वह बस से बोकारो आ रहा था. उस की बगल की सीट पर एक हसीन लड़की बैठी थी. उसे भी बोकारो ही आना था. उस की उम्र 25 के आसपास रही होगी. इस हसीना के गोरे रंग, गोल आकर्षक चेहरे पर जिस की भी नजर पड़ती, तारीफ किए बिना नहीं रह सकता था. दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठे मैगजीन पढ़ रहे थे. जब उन की बस कोलकाता शहर से बाहर निकल कर हाईवे पर आई तो यात्रियों को अल्पाहार दिया गया. दोनों ने अपनीअपनी मैगजीन रख कर एकदूसरे की ओर मुसकराते हुए देखा.

‘‘हाय, मैं तपन,’’ तपन ने पहल करते हुए कहा, ‘

‘‘और मैं चित्रा,’’ उस लड़की ने कहा.

खाते हुए दोनों कुछ बातें करने लगे.

फिर अपनीअपनी मैगजीन पढ़ने लगे. थोड़ी देर बाद दुर्गापुर आया तो बस 10 मिनट के लिए रुकी. तपन ने उतर कर चाय पी और एक कप चाय चित्रा के लिए ले कर बस में चढ़ गया. चित्रा ने ‘थैंक्स’ कहते हुए चाय ले कर पीना शुरू की.

कुछ देर बाद जब बस आसनसोल के पास पहुंचने वाली थी तभी अचानक बस रुक गई. कुछ यात्री सो रहे थे तो कुछ जगे थे. पर बस के अचानक रुकते ही सोने वाले यात्री भी जग गए. यात्रियों ने पहले तो आपस में एकदूसरे से बस रुकने का कारण जानना चाहा, पर सही कारण किसी को पता नहीं था. तभी कंडक्टर ने यात्रियों को बताया कि किसी बड़ी दुर्घटना के कारण रोड जाम है और यह जाम खत्म होने में काफी समय लग सकता है. यात्री बस के अंदर ही आराम करें. थोड़ी देर में बस का एसी बंद कर दिया गया. गरमी के दिन थे. ज्यादातर लोग बस से नीचे उतर गए.

तपन भी नीचे आ चुका था. पर चित्रा बस में ही बैठी रही. उस ने खिड़की खोल रखी थी. तपन ने उस की ओर देखा तो उसे महसूस हुआ कि वह चिंतित है. तपन ने उस से नीचे आने को कहा, क्योंकि बस में गरमी बहुत थी पर बाहर अच्छा लग रहा था.

चित्रा बस से नीचे आ गई पर काफी बेचैन लग रही थी. उसे देख कर कोई भी कह सकता था कि वह चिंतित और सहमी थी. तपन ने उस की चिंता का कारण जानना चाहा तो वह बोली, ‘‘मुझे बोकारो बस स्टैंड पर लेने एक दूर के रिश्तेदार आने वाले हैं. अब पता नहीं बस कब पहुंचे. रात भर तो वे बस स्टैंड पर वेट नहीं कर सकते हैं पर आज रात मेरा बोकारो पहुंचना भी बहुत जरूरी है.’’

‘‘इस आपदा के बारे में तो किसी ने नहीं सोचा था. पर तुम चिंता न करो, अपने रिश्तेदार को फोन कर मना कर दो कि वे तुम्हारा वेट न करें. जाम के सुबह के बाद ही खत्म होने की उम्मीद लगती है. वह भी श्योर नहीं है. सुबह होने के बाद ही कोई विकल्प सोचा जा सकता है.’’

चित्रा ने फोन कर अपने रिश्तेदार को बस स्टैंड आने से मना तो कर दिया, पर उस की आंखें भर आई थीं जिसे तपन ने आसानी से देख लिया था. उस की परेशानी वैसी ही बनी थी.

तपन ने पूछा, ‘‘क्या बात है तुम कुछ ज्यादा ही परेशान लग रही हो? सभी यात्री फंसे हैं, सब को बोकारो ही जाना है… हम सब मजबूर हैं… तुम्हारी कोई खास वजह हो तो चाहो तो बता सकती हो. शायद मैं कुछ मदद कर सकूं?’’

वह कुछ देर चुप रही, फिर बोली, ‘‘मेरा आज रात बोकारो पहुंचना बहुत जरूरी है. कल सुबह मेरा एक बहुत ही जरूरी काम है…समय पर न पहुंचने से बहुत नुकसान हो सकता है.’’

‘‘वैसे तो मुझे जानने का कोई हक नहीं है, पर अगर कुछ खुल कर कहो तो कोई हल खोजने की कोशिश जरूर करूंगा.’’

अपने को थोड़ा संभालते हुए कहा, ‘‘कल सुबह 7 बजे मुझे कोर्ट में हाजिर होना है और यह दिन कोर्ट का आखिरी वर्किंग डे है. उस के बाद कोर्ट लगभग 2 महीनों के लिए समर वेकेशन के चलते बंद हो जाएंगे.’’

‘‘अगर आज रात तक ही पहुंचना है तो मैं कोई विकल्प देखूं क्या?’’

‘‘मैं आजीवन आप की आभारी रहूंगी. कुछ हो सके तो करें प्लीज.’’

तपन ने बस के कंडक्टर से पूछा कि आखिर जाम क्यों लगा है तो उस ने बताया कि आगे पुलिया पर एक ट्रक खराब हो गया है. वहां बस इतनी जगह बची है कि एक टू व्हीलर ही निकल सकता है… दोनों तरफ से बड़ी गाडि़यों का जाम लगा है. तपन ने जब उस से आगे कहा कि उस का जल्दी आगे जाना बहुत जरूरी है. कोई उपाय सुझाओ तो कंडक्टर ने कहा कि अगर आप के पास सामान ज्यादा नहीं है तो पैदल पुलिया पार कर रिकशे से टैक्सी स्टैंड तक जा कर बोकारो की टैक्सी पकड़ लो पर बस का भाड़ा वह नहीं लौटा सकता.

‘‘नहीं, भाड़े कि कोई चिंता नहीं है,’’ बोल कर वह चित्रा के पास गया और बोला, ‘‘चलो, आगे जाने का उपाय हो गया है. तुम्हारे पास कोई हैवी सामान तो नहीं?’’

‘‘नहीं, बस एक बैग ही है.’’

फिर दोनों ने अपना सामान उठाया और पैदल चल कर पुलिया पार कर रिकशा ले कर टैक्सी स्टैंड की ओर चल पड़े. रास्ता ऊबड़खाबड़ था. रिकशे के बारबार हिचकोले खाने से चित्रा की बाहों का स्पर्श पा कर उसे मीरा की याद आ गई. उसे 5 साल पहले की बात याद आ गई जब वह अपनी पत्नी मीरा के साथ रिकशे पर होता था और रिकशे के हिचकोले खाने से उस का शरीर मीरा के स्पर्श का आनंद लिया करता था. पर अब मीरा उस की जिंदगी से जा चुकी थी.

खैर दोनों टैक्सी स्टैंड पहुंचे. उन्होंने बोकारो के लिए एक टैक्सी ली. पर बोकारो पहुंचतेपहुंचते रात के 2 बज गए.

तपन ने चित्रा से पूछा कि बोकारो में उसे किस सैक्टर में जाना है तो उस ने कहा, ‘‘मुझे जाना तो सैक्टर 1 में है जो कोर्ट के समीप ही है, पर मुझे उन का फ्लैट नंबर याद नहीं है. दरअसल, मेरे पिताजी एक जरूरी टैंडर के सिलसिले में नेपाल गए हैं. मैं मातापिता की इकलौती संतान हूं,’’ इसलिए अकेले आना पड़ा… काम ही कुछ ऐसा है.

‘‘इतनी देर रात में बिना फ्लैट नंबर तो उन्हें ढूंढ़ना संभव नहीं है. बस कुछ घंटों की तो बात है, मेरे घर चलो. अपने रिश्तेदार को इतनी रात में क्यों तंग करोगी?’’

‘‘नहीं, यह ठीक नहीं होगा. मैं टैक्सी स्टैंड में रुक जाऊंगी. सुबह उन्हें फोन कर बुला लूंगी.’’

‘‘नहीं, स्टैंड पर रुकना सेफ नहीं है,’’ कह कर तपन ने अपने घर फोन किया और बोला, ‘‘मां, तुम अभी तक सोई नहीं थीं. एक ही रिंग पर फोन उठा लिया. मां, मैं 10 मिनट के अंदर घर पहुंच रहा हूं,’’ कह कर चित्रा से बोला, ‘‘मेरी बूढ़ी मां अभी तक मेरे लिए जाग रही हैं. तुम्हें कोई प्रौब्लम नहीं होगी. तुम मेरे घर चलो.’’

चित्रा ने सिर हिला कर अपनी सहमति

जाता दी. थोड़ी देर में दोनों घर पहुंचे, तो चित्रा को देख उस की मां बोलीं, ‘‘क्यों, मीरा को मना लाया है क्या?’’

दरअसल, उस की मां की आंखों की रोशनी बहुत कमजोर थी और फिर रात की वजह से और परेशानी होती थी, इसलिए ठीक से नहीं देख पा रही थीं.

तपन बोला, ‘‘मां, आप समझती क्यों नहीं? अब वह यहां क्यों आएगी? आप जा कर सो जाओ.’’

पर मां ने जब उस से चित्रा के बारे में पूछा तो तपन ने संक्षेप में उस के बारे में बता कर मां को सोने के लिए भेज दिया.

फिर उस ने चित्रा को गैस्टरूम में आराम करने को कहा.

चित्रा ने तपन से पूछा, ‘‘बुरा न मानें तो एक बात पूछूं?’’

फिर तपन के हां कहने पर वह बोली, ‘‘मीरा आप की पत्नी है?’’

‘‘है नहीं थी. हमारा तलाक हो चुका है.’’

‘‘सौरी. क्या इत्तफाक है. कल कोर्ट में मेरे तलाक पर फाइनल फैसला होना है. फैसला क्या बस तलाक पर मुहर लगनी है. मेरा और चेतन का आपसी सहमति से तलाक हो रहा है.’’

कुछ देर तक दोनों खामोश एकदूसरे को हैरानी से देखते रहे. फिर तपन ने कहा, ‘‘तुम तो पढ़ीलिखी हो, काफी खूबसूरत भी हो. तुम्हारे पति को तो तुम पर गर्व होना चाहिए.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था. मेरी ससुराल यहीं है, पर अब हमारा तलाक हो रहा है, इसलिए मैं वहां नहीं जा सकती हूं. मेरे पति कोलकाता में बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करते हैं. मेरा मायके तो पटना में है. मैं भी सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं. मैं ने अपने कालेज के 3 सीनियर लड़कों के साथ मिल कर एक स्टार्टअप कंपनी खोली है. शुरू में तो यह कंपनी मेरे पति के गैराज में ही थी. लगभग 1 साल तक ठीकठाक रहा था. हम एक अमेरिकन कंपनी के लिए प्रोडक्ट बना रहे हैं. अकसर देर रात तक गैराज में ही हम चारों काम किया करते थे. बीचबीच में मैं चायकौफी भी बना लाती थी. कभी हम चारों होते तो कभी मैं किसी एक के साथ अकेले भी होती थी. अपना मूड ठीक करने के लिए कभी हंसीमजाक भी कर लेते थे. यह सब मेरे पति चेतन को ठीक नहीं लगा. अकसर झगड़ा होने लगा. इसी बीच हमें अमेरिकन कंपनी से कुछ फंड भी मिला, तो अपने घर की बगल में ही एक छोटा फ्लैट किराए पर ले लिया और कंपनी को वहां शिफ्ट करा लिया, पर अकसर रात में देर हो जाती थी. हालांकि यह नितांत आवश्यक था, क्योंकि प्रोडक्ट को समय पर देना होता है. इस से हम लोगों को लाखों रुपए का लाभ होता.’’

चित्रा ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘पर चेतन हमारी मजबूरी समझने को तैयार नहीं था. एक दिन तो हद हो गई जब उस ने कहा कि काम के साथसाथ वहां रंगरलियां भी मनाते हो तुम लोग… या तो मैं कंपनी छोड़ दूं या हम दोनों को तलाक लेना होगा. मैं ने उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की पर वह नहीं माना, उलटे उस ने मेरे चरित्र पर ऊंगली उठाई थी. फिर हम दोनों आपसी सहमति से तलाक के लिए तैयार हो गए.’’

अब तक सुबह के 5 बज गए थे. तपन चाय ले कर चित्रा के पास गया और बोला, ‘‘अभी चाय के साथ कुछ बिस्कुट या स्नैक्स लोगी? नाश्ते में थोड़ा वक्त लगेगा.’’

चित्रा ने कहा कि फिलहाल सिर्फ चाय ही लेगी. फिर दोनों वहीं बैठ कर चाय पीने लगे. चित्रा ने अपने रिश्तेदार को फोन किया तो पता चला कि उन की ए शिफ्ट ड्यूटी है. प्लांट चले गए हैं. दोपहर 3 बजे तक लौटेंगे. चित्रा ने उन्हें फोन पर बता दिया कि वह थोड़ी देर में कोर्ट जाएगी और फिर वहां का काम कर सीधे कोलकाता लौट जाएगी.

चित्रा ने फिर तपन से कहा, ‘‘अगर उचित समझें तो बताएं कि आप और मीरा क्यों अलग हुए थे?’’

‘‘मैं यहां के प्लांट में इंजीनियर हूं, परचेज डिपार्टमैंट में हूं. मशीनों के पार्ट्स खरीदने के लिए बीचबीच में कोलकाता जाना पड़ता है. मैं मध्यवर्गीय परिवार से हूं. मीरा के पिता का अपना अच्छाखासा बिजनैस है, पर मीरा भी इसी प्लांट में अकाउंट औफिस में काम करती थी. हम दोनों में जानपहचान हुई. आगे चल कर प्यार हुआ और हम ने शादी कर ली. शुरू में 6 महीने काफी अच्छे बीते. उस के बाद उस ने जिद पकड़ ली अलग घर लेने की. उस ने कहा कि मां को किसी अच्छे वृद्धाश्रम में छोड़ देंगे. मैं इस के लिए तैयार नहीं?था. रोज खिचखिच होने लगी. अंत में उस ने कहा कि मुझे मां या मीरा में से किसी एक को चुनना होगा. मैं ने जब कहा कि मैं मां को अकेली नहीं छोड़ सकता तो उस ने कहा कि फिर मुझे छोड़ दो. मैं ने इस रिश्ते को बचाने की बहुत कोशिश की, पर वह नहीं मानी और उस ने तलाक के विकल्प को ही बेहतर समझा.’’

‘‘आजकल हमारे देश में भी तलाक लेने वालों की संख्या काफी बढ़ गई है. यह दुख की बात है न? लड़कियां भी पढ़लिख कर कमाने लगी हैं मर्दों की तरह तो उन को भी घर में उतनी इज्जत देनी होगी जितना मर्द अपने लिए चाहते हैं. उन्हें भी अपना कैरियर बनाने का हक है न? क्या मैं गलत बोल रही हूं?’’

‘‘नहीं, पर लड़के क्या अपने मातापिता के भले के लिए कुछ करना चाहें तो यह गलत है?’’

आखिर चित्रा और चेतन के तलाक पर कोर्ट ने मुहर लगा दी. तपन ने कहा कि यह एक ऐसा फैसला है जिस पर खुशी भी जाहिर नहीं की जा सकती है. चित्रा और चेतन अब सदा के लिए अलग हो चुके थे.

इस के बाद तपन चित्रा को अपने घर ले कर आया. उस ने उस दिन छुट्टी ले ली थी. मां ने दोनों को भोजन परोसा. मां ने पूछा, ‘‘बेटी, तुम ने भविष्य के बारे में क्या सोचा है? अभी तुम्हारे आगे लंबी जिंदगी है.’’

‘‘मैं ने अभी कुछ नहीं सोचा है. अभी मैं कंपनी के जरूरी काम में कुछ महीने इतनी व्यस्त रहूंगी कि कुछ और सोचने की फुरसत ही नहीं है,’’ चित्रा ने कहा.

‘‘चिंता नहीं करना, एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है…’’

तपन चित्रा को विदा करने स्टेशन गया. चलते समय चित्रा ने कहा, ‘‘आगे जब कोलकाता आएं तो मुझ से जरूर मिलना. फिलहाल मेरे साल्ट लेक फ्लैट में ही मेरी कंपनी है,’’ और फिर अपना कार्ड तपन को दे दिया.

‘‘श्योर,’’ कह तपन ने भी अपना कार्ड चित्रा को दे दिया.

चित्रा कोलकाता लौट गई. अब वे अकसर फोन पर बातें करते थे. तपन ज्यादातर चित्रा के काम और स्वास्थ्य के बारे में पूछता, तो चित्रा तपन और उस की मां के बारे में. कभी चित्रा मां से बात करती तो हर बार मां यही पूछतीं कि उस ने अपने भविष्य के बारे में क्या फैसला लिया है? चित्रा भी हर बार यही कहती कि अभी कोई फैसला नहीं लिया.

एक बार जब चित्रा का फोन आया तो मां ने उस से पूछा, ‘‘मेरा तपन तुम्हें कैसा लगता है?’’

चित्रा इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी, फिर भी उस ने कहा, ‘‘तपन तो बहुत ही अच्छे इनसान हैं.’’

‘‘वह हमेशा तुम्हारी तारीफ करता रहता है. कहता है कि बहुत मेहनती लड़की है. खूब तरक्की करेगी,’’ मां बोलीं.

‘‘यही तो उन का बड़प्पन है.’’

कुछ दिनों के बाद तपन को कोलकाता जाना पड़ा. वह चित्रा से मिला. चित्रा ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया. दोनों ने काफी देर तक बातें कीं, पर केवल काम से संबंधित. चलते समय चित्रा ने उसे फिर आने को कहा और हाथ मिला कर विदा किया. यह तपन और चित्रा का दूसरा दैहिक स्पर्श था. पहला स्पर्श रिकशे पर हुआ था. इधर चित्रा का प्रोजैक्ट पूरा होने जा रहा था. उस का टैस्ट चल रहा था, जिस के बाद प्रोजैक्ट को अमेरिकन कंपनी को बेचा जाना था. इधर तपन की मां की तबीयत काफी खराब थी. चित्रा भी सुन कर आई थी. बोकारो में बड़े अस्पताल नहीं थे, तो चित्रा ने तपन को उन्हें कोलकाता ले चलने को कहा. वह स्वयं टैक्सी बुक कर मां और तपन के साथ कोलकाता आई. मां को बड़े अस्पताल में भरती कराया गया. 2 हफ्ते में तपन की मां को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. इस बीच तपन चित्रा के फ्लैट में रहा. चित्रा और तपन अब थोड़ा करीब आ चुके थे. दोनों एकदूसरे को बेहतर समझ रहे थे.

तपन की मां को अस्पताल से छुट्टी मिली तो चित्रा उन्हें भी अपने घर ले आई थी और कहा था कि यहां कुछ दिन आराम करने के बाद ही लौटना. 1 हफ्ते तक वे चित्रा के फ्लैट में ही रहे.

1 सप्ताह बाद तपन मां के साथ बोकारो लौट रहा था. पर चलते समय मां ने चित्रा से फिर कहा, ‘‘बेटी, तुम ने तो अपनी बेटी से भी बढ़ कर मेरा खयाल रखा है. कुदरत तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करे… पर मेरी बात पर भी सोचना.’’

‘‘कौन सी बात मां?’’ चित्रा ने पूछा.

‘‘अपने और तपन के बारे में.’’

आप के आशीर्वाद से मेरा प्रोजैक्ट पूरा हो गया है. 2 हफ्तों के अंदर ही इस के

अच्छे परिणाम मिलने की आशा है. फिर आप की बात भी मान लूंगी.

तपन और मां दोनों चित्रा की ओर देखने लगे. चित्रा की तरफ से पहला पौजिटिव संकेत मिला था.

इधर चित्रा के मातापिता भी उस के लिए चिंतित रहते थे. चित्रा ने तपन की चर्चा उन से कर रखी थी. उस ने कहा था कि बोकारो जाने वाली एक रात की बात ने चित्रा को काफी इंप्रैस किया है. इतना ही नहीं, चित्रा के पिता ने एक बार चुपके से बोकारो आ कर तपन के बारे में जानकारी भी ले ली थी. वे तपन से संतुष्ट थे. उन्होंने अपनी सहमति चित्रा को बता दी थी.

इस के 1 महीने के अंदर ही चित्रा ने तपन को फोन पर बताया कि उस का प्रोडक्ट अमेरिका की कंपनी ने अच्छी कीमत दे कर खरीद लिया है. उस की कंपनी के चारों पार्टनर्स को 5-5 करोड़ रुपए का फायदा हुआ है.

तपन की मां ने चित्रा से फोन पर कहा, ‘‘तुम्हारी सफलता पर बहुतबहुत बधाई. देखा तपन ने ठीक ही कहा था कि तुम बहुत मेहनती लड़की हो और जल्द ही तुम्हें तरक्की मिलेगी.’’

‘‘सब आप लोगों के आशीर्वाद से है.’’

‘‘अब तो तेरा प्रोजैक्ट भी पूरा हो गया तो बता तपन के बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘मैं ने कहा था न कि तपन बहुत अच्छे इनसान हैं. मुझे भी अच्छे लगते हैं. इस के आगे मैं क्या बोलूं? हां, एक और सरप्राइज है, मेरी कंपनी को अमेरिका से बहुत बड़ा और्डर मिला है.’’

मां ने जब यह बात तपन को बताई तो उस ने फोन मां के हाथ से ले कर चित्रा से कहा, ‘‘बहुतबहुत बधाई इस दूसरी कामयाबी पर और एक सरप्राइज मेरी ओर से भी है. मुझे प्रमोशन दे कर कंपनी ने कोलकाता औफिस में पोस्टिंग की है. 1 हफ्ते के अंदर जौइन करना होगा.’’

फिर मां ने चित्रा से कहा, ‘‘अब तो और इंतजार नहीं कराना है?’’

‘‘नो मोर इंतजार मांजी. अब आगे आप की मरजी का इंतजार है. आप जो कहेंगी वैसा ही करूंगी,’’ और हंसते हुए फोन काट दिया.

इधर मां की आंखों में भी खुशी के आंसू छलक आए थे.

सामंजस्य: क्या रमोला औफिस और घर में सामंजस्य बिठा पाई?

रमोला के हाथ जल्दीजल्दी काम निबटा रहे थे, पर नजरें रसोई की खिड़की से बाहर गेट की तरफ ही थीं. चाय के घूंट लेते हुए वह सैंडविच टोस्टर में ब्रैड लगाने लगी.

‘‘श्रेयांश जल्दी नहा कर निकलो वरना देर हो जाएगी,’’ उस ने बेटे को आवाज दी.

‘‘मम्मा, मेरे मोजे नहीं मिल रहे.’’

मोजे खोजने के चक्कर में चाय ठंडी हो रही थी. अत: रमोला उस के कमरे की तरफ भागी. मोजे दे कर उस का बस्ता चैक किया और फिर पानी की बोतल भरने लगी.

‘‘चलो बेटा दूध, कौर्नफ्लैक्स जल्दी खत्म करो. यह केला भी खाना है.’’

‘‘मम्मा, आज लंचबौक्स में क्या दिया है?’’

श्रेयांश के इस सवाल से वह घबराती थी. अत: धीरे से बोली, ‘‘सैंडविच.’’

‘‘उफ, आप ने कल भी यही दिया था. मैं नहीं ले जाऊंगा. रेहान की मम्मी हर दिन उसे बदलबदल कर चीजें देती हैं लंचबौक्स में,’’ श्रेयांश पैर पटकते हुए बोला.

‘‘मालती दीदी 2 दिनों से नहीं आ रही है. जिस दिन वह आ जाएगी मैं अपने राजा बेटे को रोज नईनई चीजें दिया करूंगी उस से बनवा कर. अब मान जा बेटा. अच्छा ये लो रुपए कैंटीन में मनपसंद का कुछ खा लेना.’’

रेहान की गृहिणी मां से मात खाने से बचने का अब यही एक उपाय शेष था. सोचा तो था कि रात में ही कुछ नया सोच श्रेयांश के लंचबौक्स की तैयारी कर के सोएगी पर कल दफ्तर से लौटतेलौटते इतनी देर हो गई कि खाना बाहर से ही पैक करा कर लेती आई.

खिड़की के बाहर देखा. गेट पर कोई आहट नहीं थी. घड़ी देखी 7 बज रहे थे. स्कूल बस आती ही होगी. बेटे को पुचकारते हुए जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी.

ये बाइयां भी अपनी अहमियत खूब समझती हैं. अत: मनमानी करने से बाज नहीं आती हैं. मालती पिछले 3 सालों से उस के यहां काम कर रही थी. सुबह 6 बजे ही हाजिर हो जाती और फिर रमोला के जाने के वक्त 9 बजे तक लगभग सारे काम निबटा लेती. वह खाना भी काफी अच्छा बनाती थी. उसी की बदौलत लंचबौक्स में रोज नएनए स्वादिष्ठ व्यंजन रहते थे. शाम 6 बजे उस के दफ्तर से लौटते वह फिर हाजिर हो जाती. चाय के साथ मालती कुछ स्नैक्स भी जरूर थमाती.

मालती की बदौलत ही रमोला घर के कामों से बेफिक्र रहती थी और दफ्तर में अच्छा काम कर पाती. नतीजा 3 सालों में 2 प्रमोशन. अब तो वह रोहन से दोगुनी सैलरी पाती थी. परंतु अब मालती के न होने पर काम के बोझ तले उस का दम निकले जा रहा था. बढ़ती सैलरी अपने साथ बेहिसाब जिम्मेदारियां ले कर आ गई थी. हां, साथ ही साथ घर में सुखसुविधाएं भी बढ़ गई थीं. तभी रोहन और रमोला इस पौश इलाके में इतने बड़े फ्लैट को खरीद पाने में सक्षम हुए थे.

मालती के रहते उसे कभी किसी और नौकर या दूसरी कामवाली की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. लगभग उसी की उम्र की औरत होगी मालती और काम बिलकुल उसी लगन से करती जैसे वह अपनी कंपनी के लिए करती थी. इसी से रमोला हमेशा उस का खास ध्यान रखती और घर के सदस्य जैसा ही सम्मान देती. परंतु इधर कुछ महीनों से मालती का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सुबह अकसर देर से आती या न भी आती. बिना बताए 2-2, 3-3 दिनों तक गायब रहती. अचानक उस के न आने से रमोला परेशान हो जाती. पर समयाभाव के चलते रमोला ज्यादा इस मामले में पड़ नहीं रही थी. मालती की गैरमौजूदगी में किसी तरह काम हो ही जाता और फिर जब वह आती तो सब संभाल लेती.

श्रेयांश को बस में बैठा रमोला तेजी से सीढि़यां चढ़ते हुए घर में घुसी. बिखरी हुई बैठक को अनदेखा कर वह एक बार फिर रसोई में घुस गई. वह कम से कम 2 सब्जियां बना लेना चाहती थी, क्योंकि आज रात उसे लौटने में फिर देर जो होनी थी.

हाथ भले छुरी से सब्जी काट रहे थे पर उस का ध्यान आज दफ्तर में होने वाली मीटिंग पर अटका था. देर रात एक विदेशी क्लाइंट के साथ एक बड़ी डील के लिए वीडियो कौन्फ्रैंसिंग भी करनी थी. उस के पहले मीटिंग में सारी बातें तय करनी थीं. आधेपौने घंटे में उस ने काफी कुछ बना लिया. अब रोहन को उठाना जरूरी था वरना उसे भी देर हो जाएगी.

रोहन कभी घर के कामों में उस का हाथ नहीं बंटाता था उलटे हजार नखरे करता. कल रात भी वह बड़ी देर से आया था. उलझ कर वक्त जाया न हो, इसलिए रमोला ने ज्यादा सवालजवाब नहीं किए. जबकि रोहन का बैंक 6 बजे तक बंद हो जाता था. वह महसूस कर रही थी कि इन दिनों रोहन के खर्चों में बेहिसाब वृद्धि हो रही है. शौक भी उस के महंगे हो गए थे. आएदिन महंगे होटलों की पार्टियां रमोला को नहीं भातीं. फिर सोचती आखिर कमा किस लिए रहे हैं. घर और दोनों गाडि़यों की मासिक किश्तों और उस पर बढ़ रहे ब्याज के विषय में सोचती तो उस के काम की गति बढ़ जाती.

‘‘आज तुम श्रेयांश को मम्मी के घर से लाने ही नहीं गए, बेचारा इंतजार करता वहीं सो गया था. तुम तो जानते ही हो मम्मी के हार्ट का औपरेशन हुआ है. वह श्रेयांश की देखभाल करने में असमर्थ हैं,’’ रमोला ने बेहद नर्म लहजे में कहा पर मन तो हो रहा था कि पूछे इस बार क्रैडिट कार्ड का बिल इतना अधिक क्यों आया?

मगर रोहन फट पड़ा, ‘‘हां मैं तो बेकार बैठा हूं. मैडम खुद देर रात तक बाहर गुलछर्रे उड़ा कर घर आएं. मैं जल्दी घर आ कर करूंगा क्या? बच्चे की देखभाल?’’

रोहन के इस जवाब से रमोला हैरान रह गई. उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा. सिर झुकाए लैपटौप पर काम करती रही. क्लाइंट से मीटिंग  के पहले यह प्रेजैंटेशन तैयार कर उसे कल अपने मातहतों को दिखानी जरूरी थी. कनखियों से उस ने देखा रोहन सीधे बिस्तर पर ही पसर गया. खून का घूंट पी वह लैपटौप पर तेजी से उंगलियां चलाने लगी.

चाय बन चुकी थी पर रोहन अभी तक उठा नहीं था. अपनी चाय पी वह दफ्तर जाने के लिए तैयार होने लगी. अपने बिखरे पेपर्स समेटे, लैपटौप बंद किया. साथसाथ वह नाश्ता भी करती जा रही थी. हलकी गुलाबी फौर्मल शर्ट के साथ किस रंग की पतलून पहने वह सोच रही थी. आज खास दिन जो था.

तभी रोहन की खटरपटर सुनाई देने लगी. लगता है जाग गया है. यह सोच रमोला उस की चाय वहीं देने चली गई.

‘‘गुड मौर्निंग डार्लिंग… अब जल्दी चाय पी लो. मैं बस निकलने वाली हूं,’’ परदे को सरकाते हुए रमोला ने कहा.

‘‘क्या यार जब देखो हड़बड़ी में ही रहती हो. कभी मेरे पास भी बैठ जाया करो,’’ रोहन लेटेलेटे ही उस के हाथ को खींचने लगा.

‘‘मुझे चाय नहीं पीनी, मुझे तो रात से ही भूख लगी है. पहले मैं खाऊंगा,’’ कहते हुए रोहन ने उसे बिस्तर पर खींच लिया.

‘‘रोहन, अब ज्यादा रोमांटिक न बनो, मेरी कमीज पर सलवटें पड़ जाएंगी. छोड़ो मुझे. नाश्ता और लंचबौक्स मैं ने तैयार कर दिया है. खा लेना, 9 बजने को हैं. तुम भी तैयार हो जाओ,’’ कह रमोला हाथ छुड़ा चल दी.

‘‘रोहन, दरवाजा बंद कर लो मैं निकल रही हूं,’’ रमोला ने कहा और फिर सीढि़यां उतर गैराज से कार निकाल दफ्तर चल दी. रमोला मन ही मन मीटिंग का प्लान बनाती जा रही थी.

‘उमेश को वह वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के वक्त अपने साथ रखेगी. बंदा स्मार्ट है और उसे इस प्रोजैक्ट का पूरा ज्ञान भी है. जितेश को मार्केटिंग डिटेल्स लाने को कहा ही है. एक बार सब को अपना प्रेजैंटेशन दिखा, उन के विचार जान ले तो फिर फाइनल प्रेजैंटेशन रचना तैयार कर ही लेगी. सब सहीसही सोचे अनुसार हो जाए तो एक प्रमोशन और पक्की,’ यह सोचते रमोला के अधरों पर मुसकान फैल गई.

दफ्तर के गेट के पास पहुंच उसे ध्यान आया कि लैपटौप, लंचबौक्स सहित जरूरी कागजात वह सब घर भूल आई है. आज इतनी दौड़भाग थी सुबह से कि निकलते वक्त तक मन थक चुका था. रमोला ने कार को घर की तरफ घुमा दिया. कार को सड़क पर ही छोड़ वह तेजी से सीढि़यां चढ़ने लगी. दरवाजा अंदर से बंद न था. हलकी थपकी से ही खुल गया. बैठक में कदम रखते ही उसे जोरजोर से हंसने की आवाजें सुनाई दीं.

‘‘ओह मीतू रानी तुम ने आज मन खुश कर दिया… सारी भूख मिट गई… मीतू यू आर ग्रेट,’’ रोहन की आवाज थी.

‘‘साहबजी आप भी न…’’

‘तो मालती आ चुकी है… रोहन उसे ही मीतू बोल रहा है. पर इस तरह…’ सोच रमोला का सिर मानो घूमने लगा, पैर जड़ हो गए.

जबान तालू से चिपक गई. उस की बचीखुची होश की हवा चूडि़यों की खनखनाहट और रोहन के ठहाकों ने निकाल दी. वह उलटे पांव लौट गई. बिना लैपटौप लिए ही जा कर कार में बैठ गई. उस के तो पांव तले से जमीन खिसक गई थी.

‘मेरी पीठ पीछे ऐसा कब से चल रहा है… मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला. रोहन मेरे साथ ऐसी बेवफाई करेगा, मैं सोच भी नहीं सकती. घर संभालतेसंभालते महरी उस के पति को भी संभालने लगी,’ मालती की जुरअत पर वह तड़प उठी कि कब रोहन उस से इतनी दूर हो गया. वह तो हमेशा हाथ बढ़ाता था. मैं ही छिटक देती थी. उस के प्यारइजहार की भाषा को मैं ने खूब अनदेखा किया.

‘रोहन को इस गुनाह के रास्ते पर धकेलने वाली मैं ही हूं. साथसाथ तो चल रहे थे हम… अचानक यह क्या हो गया. शायद साथ नहीं, मैं कुछ ज्यादा तेज चल रही थी, पर मैं तो घर, पति और बच्चे के लिए ही काम कर रही हूं, उन की जरूरतें और शौक पूरा हो इस के लिए दिनरात घरबाहर मेहनत करती हूं. क्या रोहन का कोई फर्ज नहीं? वह अपनी ऐयाशी के लिए बेवफाई करने की छूट रखता है?’ विचारों की अंधड़ में घिरी कार चला वह किधर जा रही थी, उसे होश नहीं था. बगल की सीट पर रखे मोबाइल पर दफ्तर से लगातार फोन आ रहे थे. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की बेहद उच्च पदासीन रमोला अचानक खुद को हारी हुई, लुटीपिटी, असहाय महसूस करने लगी. उसे सब कुछ बेमानी लगने लगा कि कैसी तरक्की के पीछे वह भागी जा रही है. उसे होश ही न रहा कि वह कार चला रही है.

जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. सिरहाने रोहन और श्रेयांश बैठे थे. डाक्टर बता रहे थे कि अचानक रक्तचाप काफी बढ़ जाने से ये बेहोश हो गई थीं. कुछ दिनों के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई. उमेश और जितेश दफ्तर से उस से मिलने आए थे. उन की बातों से लगा कि उस की अनुपस्थिति में दफ्तर में काफी मुश्किलें आ रही हैं. रमोला ने उन्हें आश्वासन दिया कि बेहतर महसूस करते ही वह दफ्तर आने लगेगी, तब तक घर से स्काइप के जरीए वर्क ऐट होम करेगी.

रोहन को देख उसे घृणा हो जाती. उस दिन की हंसी और चूडि़यों की खनखनाहट की गूंज उसे बेचैन किए रहती. रोहन को छोड़ने यानी तलाक की बात भी उस के दिमाग में आ रही थी. पर फिर मासूम श्रेयांश का चेहरा सामने आ जाता कि क्यों उस का जीवन बरबाद किया जाए. उस के उच्च शिक्षित होने का क्या फायदा यदि वह अपनी जिंदगी की उलझनों को न सुलझा सके.

‘हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा’ एक कवि की ये पंक्ति उसे हमेशा उत्साहित करती थी, विपरीत परिस्थितियों में शांतिपूर्वक जूझने के लिए प्रेरणा देती थी. आज भी वह हार नहीं मानेगी और अपने घर को टूटने से बचा लेगी, ऐसा उसे विश्वास था.

रमोला से उस की कालेज की एक सहेली मिलने आई. वह यूएस में रहती थी. बातोंबातों में उस ने बताया कि वहां तो नौकर, दाई मिलते नहीं. अत: सारा काम पतिपत्नी मिल कर करते हैं. रमोला को उस की बात जंच गई कि अपने घर का काम करने में शर्म कैसी.

उस के जाने के बाद कुछ सोचते हुए रमोला ने रोहन से कहा, ‘‘रोहन मैं सोचती हूं कि मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूं. घर पर रह कर तुम्हारी तथा श्रेयांश की देखभाल करूं. तुम्हारी शिकायत भी दूर हो जाएगी कि मैं बहुत व्यस्त रहती हूं, घर पर ध्यान नहीं देती हूं.’’

यह सुनना था कि रोहन मानो हड़बड़ा गया. उसे अपनी औकात का पल भर में भान हो गया. श्रेयांश के महंगे स्कूल की फीस, फ्लैट और गाडि़यों की मोटी किस्त ये सब तो उस के बूते पूरा होने से रहा. कुछ ही पलों में उसे अपनी सारी ऐयाशियां याद आ गईं.

‘‘नहीं डियर, नौकरी छोड़ने की बात क्यों कर रही हो? मैं हूं न,’’ हकलाते हुए रोहन ने कहा.

‘‘ताकि तुम अपनी मीतू के साथ गुलछर्रे उड़ा सको… नहीं मुझे अब घर पर रहना है और किसी महरी को नहीं रखना है,’’ रमोला ने सख्त लहजे में तंज कसा.

रोहन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह घुटनों के बल वहीं जमीन पर बैठ गया और रमोला से माफी मांगने लगा. भारतीय नारी की यही खासीयत है, चाहे वह कम पढ़ीलिखी हो या ज्यादा घर हमेशा बचाए रखना चाहती है. रमोला ने भी रोहन को एक मौका और दिया वरना दूसरे रास्ते तो हमेशा खुले हैं उस के पास.

रमोला ठीक हो दफ्तर जाने लगी. गाड़ी के पहियों की तरह दोनों अपनी गृहस्थी की गाड़ी आगे खींचने लगे. अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए रमोला ने भी तय कर लिया था कि वह घर और दफ्तर दोनों में सामंजस्य बैठा कर चलेगी, भले ही एकाध तरक्की कम हो. नौकरी छोड़ने की उस की धमकी के बाद से रोहन अब घर के कामों में उस का हाथ बंटाने लगा था. इन सब बदलावों के बाद श्रेयांश पहले से ज्यादा खुश रहने लगा था, क्योंकि लंचबौक्स उस की मम्मी खुद तैयार करती और रोज नईनई डिश देती.

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