तू तू मैं मैं: क्यों अस्पताल नहीं जाना चाहती थी अनुभा

“जाओ फ्लेट नंबर सी 212 से कार की चाबी मांग कर लाओ. जल्दी आना. रोज इस के चक्कर में लेट हो जाती हूं,”अनुभा अपनी कार के पीछे लगी दूसरी कार को देख कर भुनभुनाई.

गार्ड अपनी हंसी रोकता हुआ चला गया. पिछले 6 महीने से वह इन दोनों का तमाशा देखता चला आ रहा है. एक महीने आगेपीछे ही दोनों ने इस सोसायटी में फ्लैट किराए पर लिया है, तभी से दोनों का हर बात पर झगड़ा मचा रहता है. फ्लैट नंबर 312 में ऊपरी मंजिल पर अनुभा रहती है. सोसायटी मीटिंग में भी दोनों एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप करते दिखाई देते हैं.

सौरभ ने शिकायत की थी कि उस के बाथरूम में लीकेज हो रहा है. इस के लिए उस ने प्लम्बर बुलवाया, छुट्टी भी ली और अनुभा को भी बता दिया था कि प्लम्बर आ कर ऊपरी मंजिल से उस का बाथरूम से लीकेज चेक करेगा, खर्चा भी वह खुद उठाने को तैयार है. पहले तो कुछ नहीं बोली, मगर जब प्लम्बर आ गया तो अपना फ्लैट बंद कर औफिस चली गई. आधा घंटा भी वह रुकने को तैयार नहीं हुई.

सौरभ ने सोसायटी की मीटिंग में इस मुद्दे को उठाया तो अनुभा ने उस पर अकेली महिला के घर अनजान आदमी को भेजने का आरोप लगा दिया.

बात बाथरूम के लीकेज से भटक कर नारीवाद, अस्मिता, बढ़ते बलात्कार पर पहुंच गई. यह देख सौरभ दांत किटकिटा कर रह गया. उस का बाथरूम आज तक ठीक न हो सका.

अब तो दोनों के बीच इतना झगड़ा बढ़ चुका है कि अब सामंजस्य से काम होना नामुमकिन हो चुका है.

इस वसुधा सोसायटी में शुरू में पार्किंग की समस्या नहीं थी. पूरब और पश्चिम दिशा में बने दोनों गेट से गाड़ियां आजा सकती थीं और दोनों तरफ पार्किंग की सुविधा भी थी, मगर पांच वर्ष पूर्व से पश्चिम दिशा में बनी नई सोसायटी वसुंधरा के लोगों ने पिछले गेट की सड़क पर अपना दावा ठोंक कर पश्चिम गेट को बंद कर ताला लगा दिया.

वैसे तो वह सड़क वसुंधरा सोसायटी ने ही अपनी बिल्डिंग तैयार करते समय बनवाई थी. जैसेजैसे वसुंधरा में परिवार बसने लगे, पार्किंग की जगह कम पड़ने लगी, तो उन्होंने वसुधा के पश्चिम गेट को बंद कर उस सड़क का इस्तेमाल पार्किंग के रूप में करना शुरू कर दिया.

वसुधा सोसायटी के नए नियम बन गए, जो ‘पहले आओ पहले पाओ’ पर आधारित थे. किसी की भी पार्किंग की जगह निश्चित न होने पर भी लोगों ने आपसी समझबूझ से एकदूसरे के आगेपीछे गाड़ी खड़ी करना शुरू कर दिया. जो सुबह देर से जाते थे, वे गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देते. जिन्हें जल्दी जाना होता, वे उस के पीछे खड़ी करते. सभी परिवार 15 साल पहले, सालभर के अंतराल में यहां आ कर बसे थे. सभी के परिवार एकदूसरे को अच्छे से पहचानते हैं. अगर किसी की गाड़ी आगेपीछे करनी होती तो गार्ड चाबी मांग कर ले आता. अभी भी कुछ फ्लैट्स खाली पड़े हैं, जिन के मालिक कभी दिखाई नहीं देते. कुछ में किराएदार बदलते रहते हैं. ऐसे किराएदारों के विषय में, पड़ोसियों के अतिरिक्त अन्य किसी का ध्यान नहीं जाता था, मगर सौरभ और अनुभा तो इतने फेमस हो गए हैं कि उन की जोड़ी का नाम “तूतू, मैंमैं ”रख दिया गया.

आंखें मलता हुआ सौरभ जब पार्किंग में आया, तो अनुभा को देखते ही उस का पारा आसमान में चढ़ गया. वह बोला, “जब तुम्हें जल्दी जाना था तो अपनी गाड़ी आगे क्यों खड़ी की? कुछ देर बाहर खड़ी कर, बाद में पीछे खड़ी करती.”

“मुझे औफिस से फोन आया है, इसलिए आज जल्दी निकलना है,” अनुभा ने कहा.

“झूठ बोलना तो कोई तुम से सीखे,” सौरभ ने कहा.

“तुम तो जैसे राजा हरिश्चन्द्र की औलाद हो?” अनुभा की भी त्योरी चढ़ गई.

“आज सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख लिया है. अब तो पूरा दिन बरबाद होने वाला है,” कह कर सौरभ ने गाड़ी निकाल कर बाउंड्रीवाल के बाहर खड़ा कर दी और अनुभा को कोसते हुए अपने फ्लैट की तरफ बढ़ गया.

मोहिनी अपने फ्लैट से नित्य ही यह तमाशा देखती रहती है. उस के बच्चे विदेश में बस गए हैं, अपने पति संग दिनभर कितनी बातें करे? उसे तो फोन पर अपनी सहेलियों के संग नमकमिर्च लगा कर, सोसायटी की खबरें फैलाने में जो मजा आता है, किसी अन्य पदार्थ में नहीं मिल सकता. उस के पति धीरेंद्र को उस की इन हरकतों पर बड़ा गुस्सा आता है. वे मन मसोस कर रह जाते हैं कि अभी मोहिनी से कुछ कहा, तो वह फोन रख कर मेरे संग ही बहसबाजी में जुट जाएगी.

“सुन कविता, आज फिर सुबहसुबह “तूतू, मैंमैं” शुरू हो गए. बस हाथापाई रह गई है, गालीगलौज पर तो उतर ही आए हैं.“

“अरे कुछ दिन रुक, फिर वे तुझे एकदूसरे के बाल नोचते भी नजर आएंगे,” कह कर कविता हंसी.

“मैं तो उसी दिन का इंतजार कर रही हूं,” मोहिनी खिलखिला उठी.

धीरेंद्र चिढ़ कर उस कमरे से उठ कर बाहर चला गया.

महीनेभर के अंदर ही सौरभ ने गार्ड से अनुभा की कार की चाबी मांग कर लाने को कहा, मगर अनुभा खुद आ गई.

“मेरी गाड़ी को गार्ड के हाथों सौंप कर ठुकवाना चाहते हो क्या?” आते ही अनुभा उलझ गई.

“ नहीं, गाड़ी को मैं ही बेक कर लगा देता, तुम ने आने का कष्ट क्यों किया?” सौरभ ने चिढ़ कर कहा.

“मैं अपनी गाड़ी किसी को छूने भी न दूं,” अनुभा इठलाई.

“मुझे भी लोगों की गाड़ियां बैक करने का शौक नहीं है, बस सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख कर अपना दिन खराब नहीं करना चाह रहा था, इसीलिए चाबी मंगाई थी,” सौरभ ने भी अपनी भड़ास निकाली.

“अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में?” कह कर अनुभा कार में सवार हो गई और गाड़ी को बैक करने लगी.

“खुद जैसे हूर की परी होगी,” सौरभ गुस्से से बोला और अपने औफिस को निकल गया.

औफिस में सौरभ का मन न लगा. बहुत सोचविचार कर उस ने प्रिंटर का बटन दबा दिया. अगले दिन पार्किंग में पोस्टर चिपका हुआ था, जिस में सौरभ ने अपने पूरे महीने औफिस से आनेजाने की समयतालिका चिपका दी और फोन नंबर लिख कर अपनी गाड़ी दीवार से लगा दी.

दूसरे दिन अनुभा ने भी एक पोस्टर चिपका दिया, जिस में सौरभ को नसीहत देते हुए लिखा था कि किस दिन वह गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी करे और किस दिन उस की गाड़ी के पीछे.

लोग दोनों की पोस्टरबाजी पर खूब हंसते.

सोसायटी की मीटिंग में सौरभ ने पार्किंग का मुद्दा उठाया, तो सभी ने इसे आपसी सहमति से सुलझाने को कहा.

सौरभ ने अपने बाथरूम के लीकेज की बात जैसे ही उठाई, अनुभा गुस्से से बोल पड़ी, “इतनी ही परेशानी है, तो अपना फ्लैट क्यों नहीं बदल लेते? किराए का घर है… कौन सा तुम ने खरीद लिया है?”

“लगता है, यही करना पड़ेगा, जिस से मेरी बहुत सी परेशानी दूर हो जाएगी.”

फिर से झगड़ा बढ़ता देख लोगों ने बीचबचाव कर उन्हें शांत बैठने को कहा.

अगले दिन एक नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ ने फ्लैट बदलने के लिए लोगों से इसी सोसायटी के अन्य खाली फ्लैट की जानकारी देने का अनुरोध किया था.

अनुभा क्यों पीछे रहती, उस ने भी अपना फ्लैट बदलने के लिए पोस्टर चिपका दिया.

मार्च का महीना अपने साथ लौकडाउन भी ले आया. लोग घरों में दुबक गए. वर्क फ्रॉम होम होने से अनुभा और सौरभ का झगड़ा भी बंद हो गया. वे भी अपने फ्लैट्स में सीमित हो गए. अप्रैल, मई, जून तो यही सोच कर कट गए कि शायद अब कोरोना का प्रकोप कम होगा, मगर जुलाई आतेआते तो शहर में पांव पसारने लगा और अगस्त के महीने से सोसायटी के अंदर भी पहुंच गया. सोसायटी की ए विंग सील हो गई, तो कभी बी विंग सील हुई. सी विंग के रहने वाले दहशत में थे कि उन के विंग का नंबर जल्द लगने वाला है.

अनुभा और सौरभ सब से ज्यादा तनाव में आ गए. इस सोसायटी में सभी संयुक्त या एकल परिवार के साथ मिलजुल कर रह रहे हैं. घर के बुजुर्ग बच्चों के संग नया तालमेल बैठा रहे हैं. मगर, अनुभा और सौरभ नितांत अकेले पड़ गए.

अनुभा तो फिर भी आसपड़ोस के दोचार परिवारों का नंबर अपने पास रखे हुए थी, मगर सौरभ ने कभी इस की जरूरत न समझी, केवल सोसायटी के अध्यक्ष का नंबर ही उस के पास था. घर वालों के फोन दिनरात आते रहते थे. उस की बड़ी बहन समीक्षा दिल्ली के सरकारी अस्पताल में डाक्टर थी. वह लगातार सौरभ को रोज नई दवाओं के प्रयोग और सावधानियों के विषय में चर्चा करती. गुड़गांव में पोस्टेड सौरभ उस की नसीहत एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता. उधर मोहिनी और कविता की गौसिप का मसाला खत्म हो गया था. दोनों को किट्टी पार्टी के बंद होने से ज्यादा सौरभ और अनुभा की “तूतू, मैंमैं” का नजारा बंद हो जाने का अफसोस होता. पार्किंग एरिया शांत पड़ा था.

सौरभ को हलकी खांसी और गले में खराश सी महसूस हुई. उस ने अपनी दीदी समीक्षा को यह बात बताई, तो उस ने उसे तुरंत पेरासिटामोल से ले कर विटामिन सी तक की कई दवाओं को तुरंत ला कर सेवन करने, कुनकुने पानी से गरारा करने जैसी कई हिदायतों के साथ तुरंत कोविड टेस्ट कराने को कहा.

पहले तो सौरभ टालमटोल करता रहा, किंतु वीडियो काल के दौरान उस की बारबार होने वाली खांसी ने समीक्षा को परेशान कर दिया. वह हर एक घंटे बाद उसे फोन कर यही कहे “तुम अभी तक टेस्ट कराने नहीं गए?”

सौरभ को थकान सी महसूस हो रही थी, मगर अपनी दीदी की जिद के आगे उस ने हथियार डाल दिए.

पार्किंग एरिया में अपनी कार के पीछे अनुभा की गाड़ी देख कर सौरभ का मूड उखड़ गया. उस के अंदर अनुभा से बहस करने की बिलकुल भी एनर्जी नहीं बची थी. उस ने गार्ड से चाबी मांग कर लाने को कहा. अंदर ही अंदर वह बहुत डरा हुआ था कि अनुभा झगड़ा शुरू न कर दे, किंतु उस की सोच के विपरीत उस का फोन बजा.

“सौरभ, मेरी गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देना, अपनी गाड़ी पीछे लगा लो. मैं गार्ड के हाथ चाबी भेज रही हूं.”

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि लौकडाउन ने इस के दिमाग के ताले खोल दिए क्या, वरना तो यही कहती थी कि “मैं तो अपनी गाड़ी किसी को हाथ तक लगाने न दूं.“

गार्ड चाबी ले कर आया और उस ने बताया, “लगता है, मैडम की तबियत ज्यादा ही खराब है. कह रही थीं कि चाबी सौरभ को दे देना.”

सौरभ ने अपनी गाड़ी बाहर निकाली. जैसे ही वह सोसायटी के गेट तक पहुंचा, अचानक उसे खयाल आया कि अनुभा
से उस की बीमारी के विषय में पूछा ही नहीं. वह तुरंत लौट कर आया और अनुभा के फ्लैट में पहुंच गया.

“तुम चाबी गार्ड के हाथ भेज देते,“ अनुभा उसे देख कर चौंक गई.

“फीवर आ रहा है क्या?” सौरभ ने पूछा.

“हां, कल रात तेज सिरदर्द हुआ और सुबह होतेहोते इतना तेज फीवर आ गया कि पूरा शरीर दुखने लगा है. इतना तेज दर्द है मानो शरीर के ऊपर से ट्रक गुजर गया हो,” उस की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए. ऐसी दयनीय दशा में, कोरोना काल में, उस का हालचाल वही इनसान ले रहा था, जिस से उस ने सीधे मुंह कभी बात न की, उलटा लड़ाई ही लड़ी थी.

“चलो मेरे साथ, मैं कोविड टेस्ट कराने जा रहा हूं, तुम भी अपना टेस्ट और चेकअप करा लेना.”

“मुझे कोरोना कैसे हो सकता है? मैं तो कहीं आतीजाती भी नहीं हूं?” अनुभा ने कहा.

“मेरी दीदी डाक्टर हैं. उस ने तो मुझे खांसी होने पर ही टेस्ट कराने को कह दिया है. तुम्हें तो फीवर भी है. चलो मेरे साथ,” सौरभ के जोर देने पर अनुभा मना न कर सकी.

अनुभा कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गई. सौरभ ने कार का एसी बंद ही रखा और उस की विंडो खोल दी. अस्पताल से भी वही दवाओं का परचा मिला, जो समीक्षा ने बताया था. दवा, फल, पनीर खरीद कर वे वापस आ गए.

अनुभा तो ब्रेड के सहारे दवा निगल गई. उस के शरीर में देर तक खड़े हो कर खाना बनाने की ताकत नहीं बची थी.

सौरभ ने खिचड़ी बनाई. तभी समीक्षा ने वीडियो काल कर उसे अपने सामने सारी दवाएं खाने को कहा. उस ने अनुभा के विषय में बताया तो दीदी नाराज हो गईं कि उसे अपने साथ क्यों ले गए, टैक्सी करा देते. फिर शांत हो गईं और बोलीं, “चलो जो हो गया, सो हो गया. अब वीडियो काल कर के पूछ लेना, उस के फ्लैट में न जाना.”

दीदी से बात खत्म कर सौरभ सोचने लगा कि दीदी उसे मेरी गर्लफ्रेंड समझ रही हैं शायद, उन्हें नहीं पता कि हम दोनों एकदूसरे के दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन हैं.

सुबह सौरभ ने दलिया बनाया, तो उसे अनुभा की याद आ गई. उस ने वीडियो काल किया.

अनुभा ने कहा, “मेरा बुखार रातभर लगातार चढ़ताउतरता रहा. मैं दूधब्रेड खा कर दवा खा लूंगी. तुम्हारे क्या हाल हैं?“

“मेरी खांसी तो अभी ठीक नहीं हुई, छींकें भी आ रही हैं, गले में खराश भी बनी हुई है. दवा तो मैं भी लगातार खा रहा हूं,” सौरभ ने बताया.

“पता नहीं, क्या हुआ है?रिपोर्ट कब आएगी?” अनुभा ने पूछा.

“ कल शाम तक तो आ ही जाएगी. मैं ने दलिया बनाया है. तुम्हें दे भी नहीं सकता. हो सकता है, मैं पोजीटिव हूं और तुम निगेटिव हो.”

“इस का उलटा भी तो हो सकता है. रातभर इतने घटिया, डरावने सपने आते रहे कि बारबार नींद खुलती रही. एसी नहीं चलाया, तो कभी गरमी, कभी ठंड, तो कभी पसीना आता रहा,” बोलतेबोलते अनुभा की सांस फूल गई.

“अच्छा हुआ, उस दिन दीदी की जिद से औक्सीमीटर और थर्मल स्कैनर भी खरीद लिए थे. मैं तो लगातार चेक कर रहा हूं. तुम औक्सीमीटर में औक्सीजन लेवल चेक करो, नाइंटी थ्री से नीचे का मतलब, कोविड सैंटर में भरती हो जाओ.”

“क्यों डरा रहे हो? हो सकता है, मुझे वायरल फीवर ही हो.”

“ठीक है. रिपोर्ट जल्द आने वाली है, तब तक अपना ध्यान रखो.”

अनुभा सोच में पड़ गई. अगर रिपोर्ट पोजीटिव आ गई तो क्या होगा? सोसायटी से मदद की उम्मीद बेकार है. किसी कोविड सैंटर में ही चली जाएगी. उस की आंखों में आंसू आ गए. किसी तरह उस ने एक दिन और गुजारा.

अगले दिन उस के पास अनुभा का फोन आ गया, “हैलो सौरभ कैसे हो? तुम्हें फोन आया क्या?”

“हां, मेरा तो ‘इक्विवोकल…’ आया है.”

“इस का क्या मतलब है?” अनुभा ने पूछा.

“मतलब, वायरस तो हैं, पर उस की चेन नहीं मिली कि मुझे पोजीटिव कहा जाए यानी न तो नेगेटिव और न ही पोजीटिव ‘संदिग्ध’,” सौरभ ने बताया.

“मेरा तो पोजीटिव आ गया है. अभी मैं ने किसी को नहीं बताया,” अनुभा ने कहा.

“तुम्हारे नाम का पोस्टर चिपका जाएंगे तो सभी को खुद ही पता चल जाएगा, वैसे, अब तबियत कैसी है तुम्हारी?” सौरभ ने पूछा.

“बुखार नहीं जा रहा,” अनुभा रोआंसी हो उठी.

“रुको, मैं तुम्हारी काल दीदी के साथ लेता हूं, उन से अपनी परेशानी कह सकती हो.”

दीदी से बात कर अनुभा को बड़ी राहत मिली. उन्होंने उस की कुछ दवा भी बदली, जिन्हें सौरभ ला कर दे गया और उसे दिन में 3-4 बार औक्सीलेवल चेक करने और पेट के बल लेटने को भी कहा.

2-3 दिन बाद बुखार तो उतर गया, मगर डायरिया, पेट में दर्द शुरू हो गया. दवा खाते ही पूरा खाना उलटी में निकल जाता.

समीक्षा ने फिर से उसे कुछ दवा बताई. सौरभ उस के दरवाजे पर फल, दवा के साथ कभी खिचड़ी, तो कभी दलिया रख देता.

पहले तो अनुभा को ऐसा लगा मानो वह कभी ठीक न हो पाएगी. वह दिन में कई बार अपना औक्सिजन लेवल चेक करती, मगर सौरभ और समीक्षा के साथ ने उस के अंदर ऊर्जा का संचार किया. उसे अवसाद में जाने से बचा लिया.

2 हफ्ते के अंदर उस की तबियत में सुधार आ गया, वरना बीमारी की दहशत, मरने वालों के आंकड़े, औक्सिजन की कमी के समाचार उस के दिमाग में घूमते रहते थे.

अनुभा को आज कुछ अच्छा महसूस हो रहा है. एक तो उस के दरवाजे पर चिपका पोस्टर हट गया है. दूसरा, आज बड़े दिनों बाद उसे कुछ चटपटा खाने का मन कर रहा है वरना इतने दिनों से जो भी जबरदस्ती खा रही थी, वह उसे भूसा ही लग रहा था.

“सौरभ आलू के परांठे खाने हैं तो आ जाओ, गरमागरम खाने में ही मजा आता है,” अनुभा ने सौरभ को फोन किया.

”अरे वाह, मेरे तो फेवरेट हैं. तुम इतना लोड मत लो. मैं आ कर तुम्हारी मदद करता हूं.“

सौरभ फटाफट तैयार हो कर ऊपर पहुंचा, तो अनुभा परांठा सेंक रही थी. अनुभा के हाथ में वाकई स्वाद है. नाश्ता करने के बाद सौरभ ने कुछ सोचा, फिर बोल ही पड़ा, “अनुभा, तुम कोरोना काल की वजह से इतनी सौफ्ट हो गई हो या कोई और कारण है?”

“सच कहूं तो मैं ने नारियल के खोल का आवरण अपना लिया है. मैं बाहरी दुनिया के लिए झगड़ालू मुंहफट बन कर रह गई हूं. अब तुम ही बताओ कि मैं क्या करूं? अकेले रह कर जौब करना आसान है क्या? इस से पहले जिस सोसायटी में रहती थी, वहां मेरे शांत स्वभाव की वजह से अनेक मित्र बन गए थे, लेकिन सभी अपने काम के वक्त मुझ से मीठामीठा बोल कर काम करवा लेते, मेरे फ्लैट को छुट्टी के दिन अपनी किट्टी पार्टी के लिए भी मांग लेते. मैं संकोचवश मना नहीं कर पाती थी. मेरी सहेली तृष्णा ने जब यह देखा, तो उस ने मुझे समझाया कि ये लोग मदद देना भी जानते हैं या सिर्फ लेना ही जानते हैं? एक बार आजमा भी लेना. और हुआ भी यही, जब मैं वायरल से पीड़ित हुई, तो मैं ने कई लोगों को फोन किया. सभी अपनी हिदायत फोन पर ही दे कर बैठ गए.
मेरे फ्लैट में झांकने भी न आए, तभी मैं ने भी तृष्णा की बात गांठ बांध ली और इस सोसायटी में आ कर एक नया रूप धारण कर लिया. मेरे स्वभाव की वजह से लोग दूरी बना कर ही रखते हैं. वहां तो जवान लड़कों की बात छोड़ो, अधेड़ भी जबरदस्ती चिपकने लगते थे. यहां सब जानते हैं कि इतनी लड़ाका है. इस से दूर ही रहो,” कह कर अनुभा हंसने लगी.

“ओह… तो तुम मुझे भी, उन्हीं छिछोरों में शामिल समझ कर झगड़ा करती थी,” सौरभ ने पूछा.

“नहीं, ऐसी बात नहीं है,” अनुभा मुसकराई.

तभी सौरभ और अनुभा का फोन एकसाथ बज उठा. समीक्षा की काल थी.

“अरे सौरभ, आज तुम कहां हो? अच्छा, अनुभा के फ्लैट में…” समीक्षा चहकी.

“अनुभा ने पोस्ट कोविड पार्टी दी है, आलू के परांठे… खा कर मजा आ गया दीदी.”

“अरे अनुभा, अभी 15 दिन ज्यादा मेहनत न करना, धीरेधीरे कर के, अपनी ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज बढ़ाती जाना. और सौरभ, तुम भी अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना.”

“थैंक्स दीदी, आप के कंसल्टेंट्स और सौरभ की हैल्प ने मुझे बचा लिया, वरना मुझे कोविड सैंटर में भरती होना पड़ता. अपनी बचत पर भी कैंची चलानी पड़ती. लाखों के बिल बने हैं लोगों के, हफ्तादस दिन ही भरती होने के,” अनुभा बोली.

“अरे छोड़ो कोरोना का रोना, तुम दोनों साथ में कितने अच्छे लग रहे हो,” समीक्षा बोली.

“अरे दीदी, वह बात नहीं है, जो आप समझ कर बैठी हैं,” सौरभ ने कहा.

“क्यों…? मैं ने कुछ गलत कहा क्या अनुभा?” समीक्षा पूछ बैठी.

“ नहीं दीदी, आप ने बिलकुल सही कहा है. मैं तो अब नीचे के फ्लोर में सौरभ के पास का, फ्लैट लेने की सोच रही हूं. ऐसा हीरा फिर मुझे कहां मिलेगा?”

“ये हुई न बात, बल्कि अगलबगल के फ्लैट ले लो,” समीक्षा ने सलाह दी.

“ये आइडिया अच्छा है,” दोनों ही एकसाथ बोल पड़े.

अगले दिन पार्किंग में नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ और अनुभा ने एक साथ 2 फ्लैट्स लेने की डिमांड रखी थी.

“अरे कविता, कुछ पता चला तुझे? सारा मजा खत्म हो गया,” कामिनी ने फोन किया.

“क्या हुआ कामिनी?” कविता पूछ बैठी.

“अरे, “तूतू, मैंमैं” तो अब “तोतामैना“ बन गए रे…”

जब हमारे साहबजादे क्रिकेट खेलने गए

हमारे साढ़े 6 वर्षीय बेटे को क्रिकेट खेलने का बहुत शौक है. यद्यपि इस खेल के संबंध में उन का ज्ञान इतना तो नहीं कि किसी खेल संबंधी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता में भाग ले सकें, पर फिर भी उन्हें खिलाडि़यों की पहचान हम से अधिक है और क्रिकेट की फील्ड की रचना कैसे की जाती है, इस बारे में भी वह हम से ज्यादा ही जानते हैं.

जब कभी टेस्ट मैच या एकदिवसीय मैच होता है तो वह बराबर टीवी के सामने बैठे रहते हैं. यदि कभी हमारा बाहर जाने का कार्यक्रम बनता है तो वह तड़ से कह देते हैं, ‘‘मां, मैं क्रिकेट मैच नहीं देख पाऊंगा, इसलिए मैं घर पर ही रहूंगा.’’ इस खेल के प्रति उन की रुचि व लगन पढ़ाई से अधिक है.

उन को इस खेल के प्रति रुचि अचानक ही नहीं हुई बल्कि जब वह मात्र 3 साल के थे तब से ही स्केल और पिंगपांग बाल को वह क्रिकेट की गेंद व बल्ला समझ कर खेला करते थे. अपनी तीसरी वर्षगांठ पर उन्होंने हम से बल्ला व गेंद उपहारस्वरूप झड़वा लिया. इस खेल में विकेट और पैड भी जरूरी होते हैं. इस की जानकारी उन्हें भारत और पाकिस्तान के बीच हुए मैच के दौरान हुई, जिस का सीधा प्रसारण वह टीवी पर देखा करते थे.

उन्होंने खाना छोड़ा होगा, पीना छोड़ा होगा, दोपहर में पढ़ना और सोना भी छोड़ा होगा, पर मैच देखना कभी छोड़ा हो, ऐसा हमें याद नहीं. हमारे देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कौन है वह इस बात को भले ही न जानें, पर कपिलदेव, सुनील गावसकर, लायड, जहीर अब्बास को वह केवल जानते ही नहीं, उन के हर अंदाज से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं.

इस खेल के प्रति उन की रुचि तब और बढ़ गई, जब उन्होंने गावसकर को मारुति व रवि शास्त्री को आउडी कार मिलते देखी. उन्हें कार पाने का इस से सरल तरीका और कोई नहीं दिखा कि सफेद कमीज पहन लो, पैंट न हो तो नेकर पहन लो, ऊनी दस्ताने पहन लो तथा छोटीबड़ी कैसी भी कैप पहन लो और बस, चल दो बल्ला और गेंद उठा कर खेल के मैदान में.

कार के वह पैदाइशी शौकीन हैं. जब उन्होंने अपने जीवन के 4 महीने ही पूरे किए थे तब पहली बार कार का हार्न सुन कर बड़े खुश हुए थे. जब वह 8 महीने के थे तब घर के सदस्यों को पहचानने के बजाय उन्होंने सब से पहले तसवीरों में कार को पहचाना था.

तो जनाब, कार के प्रति उन के मोह ने उन्हें क्रिकेट की तरफ मोड़ दिया. फिर वह हमारे पीछे पड़ गए और बोले, ‘‘हम रोज घर पर खेलते हैं, आज हम स्टेडियम में खेलेंगे.’’

हम ने उन से कहा, ‘‘पहले आसपास के बच्चों के साथ घर के बाहर तो खेलो.’’ तो साहब, उन्होंने हमारी आज्ञा का पालन किया, अगले दिन शाम होते ही आ कर बोले, ‘‘आप लोग लान में खड़े हो कर देखिएगा, हम सड़क पर भैया लोगों के साथ खेलने जा रहे हैं.’’ हम मांबाप दोनों ही उन्हें दरवाजे पर इस तरह शुभकामनाओं के साथ छोड़ने गए जैसे वह विदेश जा रहे हों.

बहुत देर तक हम खेल शुरू होने का इंतजार करते रहे, क्योंकि करीबकरीब सभी बच्चे मय टूटी कुरसी के, जोकि उन की विकेट थी, सड़क पर पहुंच चुके थे. पर खेल शुरू होने के आसार न दिखने से हम अपना काम करने अंदर आ गए. करीब 20 मिनट बाद जब हम बाहर आए तो देखा, खिलाडि़यों में कुछ झगड़ा सा हो रहा है.

हम ने पतिदेव से, जोकि अपने बेटे के पहले छक्के को देखने की उम्मीद में बाहर खड़े थे, पूछा कि माजरा क्या है, अभी तक खेल क्यों नहीं शुरू हुआ तो उन्होंने कहा कि फिलहाल कपिल बनाम गावसकर यानी कप्तान कौन हो, का विवाद छिड़ा हुआ है.

4 बड़े लड़के कप्तान बनने की दलील दे रहे थे. एक कह रहा था, ‘‘विकेट (टूटी कुरसी) मैं लाया हूं, इसलिए कप्तान मैं हूं.’’ दूसरा कह रहा था, ‘‘अरे, वाह, बल्ला और गेंद तो मैं लाया हूं. मेरा असली बल्ला है, तुम्हारा तो टेनिस की गेंद से खेलने लायक है. अत: मैं बनूंगा कप्तान.’’ तीसरा जोकि अच्छी बल्लेबाजी करता था, बोला, ‘‘देखो, कप्तान मुझे ही बनाना चाहिए, क्योंकि सब से ज्यादा रन मैं ही बनाता हूं.’’

चौथा इस बात पर अड़ा हुआ था कि खेल क्योंकि उस के घर के सामने हो रहा था अत: बाल यदि चौकेछक्के में घर के अंदर चली गई तो उसे वापस वह ही ला सकता है, क्योंकि गेट पर उस की मां ने उस भयंकर कुत्ते को खुला छोड़ रखा था, जिस से वे सब डरते थे.

खैर, किसी तरह कप्तान की घोषणा हुई तो देखा बच्चे अब भी खेलने को तैयार नहीं, क्योंकि उन्हें उस की कप्तानी पसंद नहीं थी. यहां भी टीम का चयन करने में समस्या थी, क्योंकि जितने खिलाड़ी चाहिए थे, उस से 10 बच्चे अधिक थे. अब समस्या थी कि किसे खेल में शामिल किया जाए.

यहां कोई चयन समिति तो थी नहीं, जो इन की पहली कारगुजारी के आधार पर इन्हें चुनती. यहां तो हर कोई अपने को हरफनमौला बता रहा था.

खैर, साहब, जो बच्चे बल्ले नहीं लाए थे, उन्हें बजाय वापस घर भेजने के गली के नुक्कड़ पर खड़ा कर दिया गया ताकि अगर भूलेचूके गेंद वहां चली जाए तो वे उसे उठाने में मदद करें. जब टीम का चयन हो गया तो टास हुआ, 2 बार तो टास में अठन्नी पास की नाली में जा गिरी. तीसरी बार के टास से पता चला कि टीम ‘क’ पहले बल्लेबाजी करेगी तथा टीम ‘ख’ फील्डिंग.

हमारे सुपुत्र चूंकि हमें फील्ड में यानी सड़क पर कहीं नजर नहीं आए तो हम ने समझा शायद ‘क’ टीम में होंगे, पर शंका का समाधान थोड़ी देर में हो गया जब वह मुंह लटका कर द्वार में प्रविष्ट हुए.

हम ने उन से पूछा, ‘‘आप वापस कैसे आ गए?’’ इस पर वह बोले, ‘‘हम सब से छोटे हैं, फिर भी सब से पहले हम से बल्लेबाजी नहीं करवाई और बड़े भैया खुद खेले जा रहे हैं.’’

हम ने उन्हें हतोत्साहित नहीं होने दिया और कहा, ‘‘जल्दी ही आप की बारी आ जाएगी, आप वापस चले जाइए.’’

वह अंदर गए, लगे हाथ एक कोल्ड डिं्रक चढ़ाई और जब वह वापस आए तो उन के चेहरे के भाव उसी तरह थे, जैसे ड्रिंक इंटरवल के बाद खिलाडि़यों के चेहरों पर होते हैं. जब वह फील्ड पर पहुंचे तो पता लगा उन की बारी आ चुकी थी, पर वह मौके पर उपस्थित नहीं थे, अत: 12वें नंबर के खिलाड़ी को बल्लेबाजी करने भेज दिया गया यानी बल्लेबाजी तो वह कर ही नहीं पाए.

अब फील्डिंग की बारी थी. वहां भी शायद वह अपनी अच्छी छाप नहीं छोड़ सके, क्योंकि अगले दिन जब हम ने उन्हें शाम को तैयार कर के भेजना चाहा तो वह तैयार नहीं हो रहे थे. हम ने कहा, ‘‘अरे भई, आज हम बिलकुल कहीं नहीं जाएंगे, लान में खड़े हो कर आप का ही मैच देखेंगे.’’ पर वह टस से मस नहीं हुए. उलटे उन के हाथ में क्रिकेट के बल्ले की जगह बैडमिंटन रैकिट था. यानी उन्होंने क्रिकेट से तौबा कर ली थी.

खैर, किसी तरह हम ने उन्हें खेलने भेजा. हम अपनी सब्जी गैस पर बनने रख आए थे. उसे देखने अंदर आ गए. वह तो खैर जलभुन कर राख हो ही चुकी थी, ऊपर से इन्होंने बताया कि हमारे नवाबजादे टीम से निकाल दिए गए हैं, इसीलिए खेलने नहीं जा रहे थे.

हम ने उन से निकाले जाने का कारण पूछा तो पता चला कि फील्डिंग के समय उन्हें जो पोजीशन मिली थी, वह महत्त्व की थी और वहां पर चौकन्ना हो कर खड़े रहने की जरूरत थी. पर हमारे नवाबजादे जहां लपक कर कैच लेना था, वहां पर तो डाइव मार कर एक हाथ से कैच ले रहे थे. जैसा कभी उन्होंने गावसकर को आस्ट्रेलिया में लेते देखा था, और जहां पर डाइव लगानी थी, वहां सीधे हाथ आकाश में लिए खड़े थे. इस तरह वह 3-4 महत्त्वपूर्ण कैच छोड़ चुके थे, अत: कप्तान उन्हें गुस्से में घूरने लगा था.

जब 5वीं बार उन्हें एक खिलाड़ी को रन आउट करने का मौका मिला था तो उन्होंने गेंद बजाय खिलाड़ी को रन आउट करने के लिए विकेट पर मारने के अपने कप्तान के मुंह पर दे मारी, क्योंकि वह गुस्से में थे कि पारी की शुरुआत उन से क्यों नहीं करवाई गई. जब शाम से रात हुई और स्टंप उखाड़े गए, यानी कुरसी सरका ली गई तो उन्हें अगले दिन वहां आने से मना कर दिया गया.

हमारे लाड़ले का कहना था, ‘‘यह भी कोई क्रिकेट मैच है? पास में नाली बह रही है. इतने सारे मच्छर खाते हैं, न कोई ड्रिंक्स ट्राली आती है, न कोई फोटो खींचता है. हम तो विदेश जा कर ही खेलेंगे.’’

हाथी के दांत: क्या हुआ उमा के साथ

कहानी- रामेश्वर कांबोज

स्वामी गणेशानंद खड़ाऊं पहने खटाकखटाक करते आगे बढ़ते जा रहे थे. उन के पीछे उन के भक्तों की भीड़ चल रही थी. दाएंबाएं उन के शिष्य शिवानंद और निगमानंद अपने चिमटे खड़खड़ाते हुए हल में जुते मरियल बैलों की तरह चल रहे थे. उन्हें पता था कि भीड़ स्वामीजी का अनुसरण कर रही है, उन का नहीं.

शिवानंद ने भभूत में अटे अपने बालों को खुजलाया और पीछे मुड़ कर एक बार भीड़ को देखा. उस की खोजपूर्ण आंखें कुछ ढूंढ़ रही थीं. निगमानंद ने आंख मिचका कर शिवा को संकेत किया. वह पीले दांत दिखा कर मुसकरा पड़ा. इस का अर्थ था कि वह उस का आशय समझ गया.

भीड़ जलाशय के निकट पहुंच गई थी. सब स्वामीजी की जयजयकार कर रहे थे. शिवा और निगम दूसरे किनारे की ओर, जहां औरतें नहा रही थीं, आ कर बैठ गए.

शिवा बोला, ‘‘गुरु, ऐसे क्यों बैठे हो? कुछ हो जाए.’’

‘‘क्या हो जाए बे, उल्लू के चरखे? फिल्मी नाच हो जाए या कालिज का रोमांस हो जाए?’’ निगम गुर्राया.

‘‘अरे, कैसी बातें करता है? देखता नहीं, नाचने वाली छोकरी गोता लगा रही है. गोलमटोल चेहरा, बाढ़ की तरह चढ़ती जवानी. क्या खूबसूरती है. खैर, छोड़ो इन बातों को. बूटी तैयार करो. एकएक लोटा चढ़ाएंगे. राम कसम, इस के नशे में हर चीज, हर औरत मुंहजोर घोड़े की तरह हावी हो जाती है.’’

निगम ने आंखों से कीचड़ पोंछ कर स्वामीजी की तरफ ताका. वह मटमैले पानी में एक टांग पर खड़े कुछ गुनगुना रहे थे. वह चिमटे को धरती में ठोंक कर बोला, ‘‘स्वामीजी जब से बूटी चढ़ाने लगे हैं, उसी दिन से भगतिनियों की गिनती बढ़ने लगी है. कहते हैं भंगेड़ी के चक्कर में औरतें ज्यादा आती हैं.’’

एकाएक दोनों चुप हो गए. गुरुजी सब भक्तों को आशीर्वाद दे रहे थे. निगम चुपचाप बूटी तैयार कर रहा था. बारीबारी से दोनों ने एकएक लोटा गटक लिया. भक्तगण पांव छूते, स्वामीजी भभूत का तिलक लगाते और आशीर्वाद देते. फिर उमा की बारी आई. ऐसा सलोना, कुंआरा सौंदर्य सामने देख कर स्वामीजी ठगे से रह गए. उमा ने चरण छुए तो स्वामीजी ने दोनों हाथों से उस का मुखड़ा ऊपर उठा दिया. तिलक लगाते समय उन का हाथ गालों से हो कर फिसलता हुआ उमा के कंधे पर जा टिका.

वह बोले, ‘‘बेटी, तुझ में माधव का वास है. अभीअभी भगवान ने मेरे दिल में आ कर कहा है. तेरी आत्मा माधव की प्यासी है. मुझे सपने में रात जो देवी दिखाई दी उस का रूप तेरी ही तरह था.

‘‘उस ने मुझे नींद से जगा कर कहा, गणेशानंद, यह मेरा गांव है. मैं यहां  प्रकट होना चाहती हूं. मैं अपने गांव को स्वर्ग बनाना चाहती हूं. तुम जहां पर लेटे हुए हो, यहां से सौ कदम पूरब को चलो. ऊपर से मिट्टी हटाओ. वहां तुम मुझे देखोगे. उस जगह एक मंदिर बनवाना. यह काम तुम्हें ही करना है.

‘‘मैं देवी के चरणों पर गिर पड़ा. मंदिर बनवाने का वचन दे दिया. वह स्थान मैं ने तुम सब के सामने खुदवाया है. अगर तुम लोगों ने मिलजुल कर मंदिर न बनवाया तो न जाने गांव पर कैसी विपदा आ पड़े.’’

उमा चुप बैठी थी. उस की मां की आंखों में आनंद के आंसू चमक रहे थे. सब गांव वालों ने स्वामीजी को सहायता देने का पूरा विश्वास दिलाया. उमा की मां स्वामीजी के चरणों को छू कर बोली, ‘‘महात्माजी, मेरे पल्ले कुछ नहीं है. बस, यह छोकरी है, उमा. मैं क्या दे सकूंगी.’’

‘‘चिंता क्यों करती हो उमा की मां, उमा तुम्हारे घर की ही नहीं, पूरे गांव की देवी है. मैं मंदिर की धूपबाती का काम इसे ही सौंपना चाहता हूं. अगर इस ने भगवान को खुश कर लिया तो तुम्हें मनचाही मुराद मिल जाएगी.’’

‘‘स्वामीजी, मुझे कुछ नहीं चाहिए. इस नासपीटी का बापू घर लौट आए, यही बहुत है. मुझे धनदौलत की इच्छा नहीं है,’’ उमा की मां उदास हो कर बोली.

‘‘घबरा मत. तेरी मनसा जल्दी पूरी हो जाएगी. उमा को हरेक काम में हमारे साथ रहना पड़ेगा. कल भंडारा करेंगे और मंदिर की नींव रखेंगे.’’

अगले दिन भंडारा हुआ. गांव के लोगों ने 10 हजार रुपए इकट्ठे कर के गणेशानंद को भेंट कर दिए. आसपास के गांव वाले भी आए. सूर्यास्त तक बहुत गहमागहमी रही. गणेशानंद ऊंची चौकी पर बैठे थे. शिवानंद और निगमानंद भंडारे की देखरेख के लिए खड़े थे. प्रबंध उमा के हाथ में था. गांव वालों की वाहवाही हो उठी.

रात को खापी कर सब स्वामीजी की धूनी के पास इकट्ठे हो गए. उमा पास ही बैठी थी. उस ने चेहरे पर हलकी सी भभूत लगा रखी थी. भभूत के प्रभाव से वह और अधिक प्यारी लग रही थी. दहकते कोयलों की चमक में उस का मुखमंडल पलाश के फूल सा लग रहा था.

कीर्तन शुरू हुआ. शिवानंद ने करताल संभाली, निगमानंद ने चिमटा. स्वामीजी गाते, फिर उमा दोहराती और तब सब के स्वर में स्वर मिला कर दोनों शिष्य गाते. आधी रात बीत गई. लोग जादू में बंधे से बैठे रहे. अंत में मीरा का पद गाया गया. उस पद की ‘तेरे कारण जोगन हूंगी, करवट लूंगी कासी’ पंक्ति वातावरण में काफी देर तक तैरती रही.  पूरी सभा भावविभोर हो उठी. निगम और शिवा उमा के पास बैठने से ही खुश थे.

शांतिपाठ के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए. वहां रह गई उमा और उस की मां, जो गणेशानंद के पांव दबा रही थीं. तनिक हट कर अंधेरे में चुपचाप बैठा एक व्यक्ति सब बातों का जायजा ले रहा था. वह था अमरेश.

‘‘कल मैं तीर्थभ्रमण करने जाऊंगा. उमा, तुम भी साथ चलना. हृदय पवित्र हो जाएगा. आंखें देवीदेवताओं के

दर्शन कर के निहाल हो जाएंगी,’’ स्वामीजी उमा के चेहरे पर दृष्टि गड़ा कर बोले.

शिवा ने सुल्फे पर कोयले रख

कर कश लिया और फिर स्वामीजी की तरफ बढ़ा दिया. गणेशानंद ने पूरा दम लगाया. सुल्फे की लपट निकली, जिस में उमा का चेहरा उसे सुर्ख दिखाई दिया.

अमरेश अधीर हो उठा. उमा उस की सगी बहन नहीं थी, पर वह उसे बेहद चाहता था. किसी भी कार्य से पराएपन का आभास नहीं होने देता था. उसी की कृपा से वह चिट्ठीपत्री पढ़ने लायक हो गई. उसे उमा के कारण गांव वालों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था. वह अपने को संभाल नहीं सका. वहीं बैठेबैठे बोला, ‘‘उमा, इधर आ.’’

उमा इस अप्रत्याशित स्वर से चौंक उठी. वह अमरेश के पास आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है, जो इस तरह पहरा दे रहे हो?’’

‘‘विश्वास था, अब नहीं रहा,’’ अमरेश के स्वर में आक्रोश था.

‘‘क्यों, अब क्या हो गया?’’

‘‘मैं ने कुछ गलत नहीं कहा. इस भंगेड़ी के चक्कर में तेरी अक्ल मारी गई है. गांव वाले सब जा चुके हैं, तू फिर भी यहां डटी हुई है. अगर तेरी आंख में जरा भी शरम है तो यहां से चलती बन,’’ अमरेश अधिकारपूर्वक बोला.

विवाद सुन कर स्वामीजी और उमा की मां भी उन के पास आ पहुंचे. उमा स्वामीजी की नजरों में अपने को बहुत ऊंचा समझ रही थी. इसीलिए उस ने स्वयं को अपमानित महसूस किया.

वह तैश में आ कर बोली, ‘‘भैया, तुम हद से बाहर पांव रख रहे हो. मैं किसी के चक्कर में नहीं आई. तुम ईश्वर को मानते तो इस तरह की बातें न करते. जिस बात को तुम समझते नहीं हो, उस में टांग न अड़ाओ.’’

‘‘तुम मुझे गलत समझ रही हो. अगर तुम्हें अक्ल होती तो इन सुल्फा पीने वालों के ढोंग में न फंसतीं.’’

‘‘क्या भौंकता है बे बदजात,’’ गणेशानंद ने उस की ओर चिमटा घुमाया.

‘‘जरा होश में बातचीत करो. ऐसे पहुंचे हुए महात्मा होते तो घर बैठे पूजे जाते. यहां दरदर मारे न फिरते. ज्यादा चबरचबर किया तो मारतेमारते भुरकस बना दूंगा,’’ अमरेश ने उमा को बांह पकड़ कर खींचा, ‘‘भला इसी में है कि इस समय यहां से चलती बनो.’’

उमा ने उस का हाथ झटक दिया. वह गिरतेगिरते बचा. संभलने पर उस ने उमा के गाल पर थप्पड़ जमा दिया.

उमा की मां भभक पड़ी, ‘‘लुच्चे कहीं के, चला जा इसी वक्त मेरे आगे से, नहीं तो तेरा खून पी जाऊंगी,’’ इतना कह कर वह उमा को ले कर घर चल पड़ी.

उमा ने आग्नेय नेत्रों से अमरेश की ओर देखा. वह गुस्से में होंठ चबा कर बोली, ‘‘अमरेश, मेरे लिए तुम मर गए. तुम ने अपनी औकात पर ध्यान नहीं दिया. भला इसी में है कि मुझे अपनी घिनौनी सूरत न दिखाना.’’

अमरेश का चेहरा लटक गया. वह ठगा सा वहीं खड़ा रहा. सारी धरती उसे आंखों के सामने घूमती प्रतीत हो रही थी. स्वामीजी उस की ओर क्रूरतापूर्ण दृष्टि से घूर रहे थे. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद स्वामीजी कुटिया में चले गए. अमरेश भी ढीले कदमों से घर की ओर मुड़ गया. उमा के व्यवहार से उस का हृदय बिंधा जा रहा था.

वह उस पर क्रुद्ध होते हुए भी उस का अहित नहीं सोच सकता था. उस ने रूठने पर उमा को न जाने कितनी बार मनाया था, कितनी बार उस की गीली आंखें पोंछी थीं. वह भी उस के तनिक से दुख में बेचैन हो जाती थी. जराजरा सी बात पर उसे कसमें दिलाती. दोनों में कभी ठेस पहुंचाने वाली बातें नहीं हुई थीं.

अगले दिन अमरेश को पता चला कि उमा और उस की मां तीर्थयात्रा के लिए स्वामी गणेशानंद के साथ चली गई हैं. सुन कर उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. क्या इस दुनिया के सभी संबंध थोथे हैं? यह प्रश्न उस के मन को मथने लगा. उस जैसे अनाथ के लिए उमा और उस की मां सागर में नौका की तरह थीं. उस का समूचा हार्दिक प्रवाह उन्हीं की ओर था.

रिक्तता से उस का हृदय कराह उठा. उमा जो बचपन में उस के कंधे पर सवार रहती थी, उस की घोर उपेक्षा कर बैठी, यह कम दाहक बात न थी. शत्रु का शत्रुतापूर्ण आचरण क्षमा किया जा सकता है, परंतु मित्र का दुर्व्यवहार क्षमा करने पर भी फांस की तरह चुभता रहता है.

2 दिन बाद उमा की मां लौट आई. उस की सूनीसूनी आंखों को देख कर अमरेश सिहर उठा. उस के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी.

आखिर अमरेश ने ही पूछा, ‘‘मांजी, उमा कहां है?’’

वह उत्तर नहीं दे सकी और प्रत्युत्तर में फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘मांजी, बताओ, उमा को क्या हो गया? मेरी उस लाड़ली को कहां छोड़ आईं?’’ अमरेश व्याकुल हो उठा.

‘‘वह ढोंगी स्वामी उसे न जाने कहां उड़ा ले गया. मेरी बच्ची…’’ वह आगे और कुछ नहीं बोल सकी.

‘‘मैं ने कितना समझाया था कि इन लोगों पर भरोसा करना मूर्खता है, पर तुम दोनों ने मेरी एक न सुनी. मुझे पता था कि इन दुष्टों ने रात के समय देवी की एक मूर्ति अपनी कुटिया के पास धरती में दबा दी थी, लेकिन तुम्हारे ऊपर पागलपन सवार था.’’

उमा की मां ने सिर ऊपर नहीं उठाया. धुंधलका छाने लगा. अमरेश खाट  पर बैठा था और उमा की मां लुटीहारी सी उस के सामने भूमि पर. दोनों चुप थे.

इसी बीच अमरेश का ध्यान दरवाजे की ओर गया. एक पगलाई सी परछाईं वहां जड़वत खड़ी थी. ज्यों ही वह खड़ा हुआ, परछाईं उस की ओर बढ़ी और दौड़ कर उस के गले से लिपट गई. वह उमा थी, उस के वस्त्र चिथेड़ेचिथड़े हो रहे थे.

‘‘अमरेश,’’ कह कर वह अचेत हो कर धरती पर गिर पड़ी.

अमरेश का दिल पसीज गया. उस ने उमा को चारपाई पर लिटा दिया. बहुत देर बाद उस की चेतना लौटी तो वह फफक पड़ी, ‘‘अमरेश, मुझे माफ मत करना. मैं ने तुम्हारी बात नहीं मानी. अपने हाथों से मेरा गला घोंट दो. मुझ पर पागलपन सवार था.

‘‘उस भेडि़ए ने मेरी इज्जत लूटी. उस के चेलों ने भी मुंह काला किया. उस के बाद मुझे 8 हजार रुपए में एक वेश्या के हाथ बेच दिया. मैं कहीं की नहीं रही. किसी तरह चकले से भाग आई, सिर्फ तुम्हारी सूरत देखने के लिए. मेरी तरफ एक बार अपना चेहरा तो घुमाओ.’’

अमरेश ने उस के सिर पर हाथ फेर कर सांत्वना देने की कोशिश की. काफी देर तक वह उस की आंखों की ओर टुकुरटुकुर देखती रही. उस समय अमरेश की आंखों में आंसू भर आए.

कुछ देर चुप रहने के बाद उमा जोर से खिलखिला पड़ी. उस ने अपनी मां को एक तरफ धकेल दिया, ‘‘मां, अब मैं ऐसे स्वामियों का खून करूंगी,’’ उस की क्रूर हंसी से दोनों सहम गए.

‘‘तुम ने मुझ को चौपट किया है, मां. तुम्हारी विषैली श्रद्धा मुझे डस गई. मैं तुम्हारा भी खून करूंगी,’’ वह फिर जोर से अट्टहास कर उठी.

उमा की मां सहम कर एक ओर हट गई. अमरेश ने उमा को पकड़ कर चारपाई पर लिटा दिया, ‘‘चुप रहो, उमा. मैं सब संभाल लूंगा.’’

उमा दोनों हाथों में सिर ले कर सुबकने लगी.

तुम ही चाहिए ममू: क्या राजेश ममू से अलग रह पाया?

कुछ अपने मिजाज और कुछ हालात की वजह से राजेश बचपन से ही गंभीर और शर्मीला था. कालेज के दिनों में जब उस के दोस्त कैंटीन में बैठ कर लड़कियों को पटाने के लिए तरहतरह के पापड़ बेलते थे, तब वह लाइब्रेरी में बैठ कर किताबें खंगालता रहता था.

ऐसा नहीं था कि राजेश के अंदर जवानी की लहरें हिलोरें नहीं लेती थीं. ख्वाब वह भी देखा करता था. छिपछिप कर लड़कियों को देखने और उन से रसीली बातें करने की ख्वाहिश उसे भी होती थी, मगर वह कभी खुल कर सामने नहीं आया.

कई लड़कियों की खूबसूरती का कायल हो कर राजेश ने प्यारभरी कविताएं लिख डालीं, मगर जब उन्हीं में से कोई सामने आती तो वह सिर झुका कर आगे बढ़ जाता था. शर्मीले मिजाज की वजह से कालेज की दबंग लड़कियों ने उसे ‘ब्रह्मचारी’ नाम दे दिया था.

कालेज से निकलने के बाद जब राजेश नौकरी करने लगा तो वहां भी लड़कियों के बीच काम करने का मौका मिला. उन के लिए भी उस के मन में प्यार पनपता था, लेकिन अपनी चाहत को जाहिर करने के बजाय वह उसे डायरी में दर्ज कर देता था. औफिस में भी राजेश की इमेज कालेज के दिनों वाली ही बनी रही.

शायद औरत से राजेश का सीधा सामना कभी न हो पाता, अगर ममता उस की जिंदगी में न आती. उसे वह प्यार से ममू बुलाता था.

जब से राजेश को नौकरी मिली थी, तब से मां उस की शादी के लिए लगातार कोशिशें कर रही थीं. मां की कोशिश आखिरकार ममू के मिलने के साथ खत्म हो गई. राजेश की शादी हो गई. उस की ममू घर में आ गई.

पहली रात को जब आसपड़ोस की भाभियां चुहल करते हुए ममू को राजेश के कमरे तक लाईं तो वह बेहद शरमाई हुई थी. पलंग के एक कोने पर बैठ कर उस ने राजेश को तिरछी नजरों से देखा, लेकिन उस की तीखी नजर का सामना किए बगैर ही राजेश ने अपनी पलकें झुका लीं.

ममू समझ गई कि उस का पति उस से भी ज्यादा नर्वस है. पलंग के कोने से उचक कर वह राजेश के करीब आ गई और उस के सिर को अपनी कोमल हथेली से सहलाते हुए बोली, ‘‘लगता है, हमारी जोड़ी जमेगी नहीं…’’

‘‘क्यों…?’’ राजेश ने भी घबराते

हुए पूछा.

‘‘हिसाब उलटा हो गया…’’ उस ने कहा तो राजेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने बेचैन हो कर पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो ममू… क्या गड़बड़ हो गई?’’

‘‘यह गड़बड़ नहीं तो और क्या है? कुदरत ने तुम्हारे अंदर लड़कियों वाली शर्म भर दी और मेरे अंदर लड़कों वाली बेशर्मी…’’ कहते हुए ममू ने राजेश का माथा चूम लिया.

ममू के इस मजाक पर राजेश ने उसे अपनी बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

ख्वाबों में राजेश ने औरत को जिस रूप में देखा था, ममू उस से कई गुना बेहतर निकली. अब वह एक पल के लिए भी ममू को अपनी नजरों से ओझल होते नहीं देख सकता था.

हनीमून मना कर जब वे दोनों नैनीताल से घर लौटे तो ममू ने सुझाव दे डाला, ‘‘प्यारमनुहार बहुत हो चुका… अब औफिस जाना शुरू कर दो.’’

उस समय राजेश को ममू की बात हजम नहीं हुई. उस ने ममू की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘नौकरी तो हमेशा करनी है ममू… ये दिन फिर लौट कर नहीं आएंगे. मैं छुट्टियां बढ़वा रहा हूं.’’

‘‘छुट्टियां बढ़ा कर क्या करोगे? हफ्तेभर बाद तो प्रमोशन के लिए तुम्हारा इंटरव्यू होना है,’’ ममू ने त्योरियां चढ़ा कर कहा.

ममू को सचाई बताते हुए राजेश ने कहा, ‘‘इंटरव्यू तो नाम का है डार्लिंग. मुझ से सीनियर कई लोग अभी प्रमोशन की लाइन में खड़े हैं… ऐसे में मेरा नंबर कहां आ पाएगा?’’

‘‘तुम सुधरोगे नहीं…’’ कह कर ममू राजेश का हाथ झिड़क कर चली गई.

अगली सुबह मां ने राजेश को एक अजीब सा फैसला सुना डाला, ‘‘ममता को यहां 20 दिन हो चुके हैं. नई बहू को पहली बार ससुराल में इतने दिन नहीं रखा करते. तू कल ही इसे मायके छोड़ कर आ.’’

मां से तो राजेश कुछ नहीं कह सका, लेकिन ममू को उस ने अपनी हालत बता दी, ‘‘मैं अब एक पल भी तुम से दूर नहीं रह सकता ममू. मेरे लिए कुछ दिन रुक जाओ, प्लीज…’’

‘‘जिस घर में मैं 23 साल बिता चुकी हूं, उस घर को इतनी जल्दी कैसे भूल जाऊं?’’ कहते हुए ममू की आंखें भर आईं.

राजेश को इस बात का काफी दुख हुआ कि ममू ने उस के दिल में उमड़ते प्यार को दरकिनार कर अपने मायके को ज्यादा तरजीह दी, लेकिन मजबूरी में उसे ममू की बात माननी पड़ी और वह उसे उस के मायके छोड़ आया.

ममू के जाते ही राजेश के दिन उदास और रातें सूनी हो गईं. घर में फालतू बैठ कर राजेश क्या करता, इसलिए वह औफिस जाने लगा.

कुछ ही दिन बाद प्रमोशन के लिए राजेश का इंटरव्यू हुआ. वह जानता था कि यह सब नाम का है, फिर भी अपनी तरफ से उस ने इंटरव्यू बोर्ड को खुश करने की पूरी कोशिश की.

2 हफ्ते बाद ममू मायके से लौट आई और तभी नतीजा भी आ गया. लिस्ट में अपना नाम देख कर राजेश खुशी से उछल पड़ा. दफ्तर में उस के सीनियर भी परेशान हो उठे कि उन को छोड़ कर राजेश का प्रमोशन कैसे हो गया.

उन्होंने तहकीकात कराई तो पता चला कि इंटरव्यू में राजेश के नंबर उस के सीनियर सहकर्मियों के बराबर थे. इस हिसाब से राजेश के बजाय उन्हीं में से किसी एक का प्रमोशन होना था, मगर जब छुट्टियों के पैमाने पर परख की गई तो उन्होंने राजेश से ज्यादा छुट्टियां ली थीं. इंटरव्यू में राजेश को इसी बात का फायदा मिला था.

अगर ममू 2 हफ्ते पहले मायके न गई होती तो राजेश छुट्टी पर ही चल रहा होता और इंटरव्यू के लिए तैयारी भी न कर पाता. अचानक मिला यह प्रमोशन राजेश के कैरियर की एक अहम कामयाबी थी. इस बात को ले कर वह बहुत खुश था.

उस शाम घर पहुंच कर राजेश को ममू की गहरी समझ का ठोस सुबूत मिला. मां ने बताया कि मायके की याद तो ममू का बहाना था. उस ने जानबूझ कर मां से मशवरा कर के मायके जाने का मन बनाया था ताकि वह इंटरव्यू के लिए तैयारी कर सके.

सचाई जान कर राजेश ममू से मिलने को बेताब हो उठा. अपने कमरे में दाखिल होते ही वह हैरान रह गया.

ममू दुलहन की तरह सजधज कर बिस्तर पर बैठी थी. राजेश ने लपक कर उसे अपने सीने से लगा लिया. उस की हथेलियां ममू की कोमल पीठ को सहला रही थीं.

ममू कह रही थी, ‘‘माफ करना… मैं ने तुम्हें बहुत तड़पाया. मगर यह जरूरी था, तुम्हारी और मेरी तरक्की के लिए. क्या तुम से दूर रह कर मैं खुश रही? मायके में चौबीसों घंटे मैं तुम्हारी यादों में खोई रही. मैं भी तड़पती रही, लेकिन इस तड़प में भी एक मजा था. मुझे पता था कि अगर मैं तुम्हारे साथ रहती तो तुम जरूर छुट्टी लेते और कभी भी मन लगा कर इंटरव्यू की तैयारी नहीं करते.’’

राजेश कुछ नहीं बोला बस एकटक अपनी ममू को देखता रहा. ममू ने राजेश को अपनी बांहों में लेते हुए चुहल की, ‘‘अब बोलो, मुझ जैसी कठोर बीवी पा कर तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’’

‘‘तुम को पा कर तो मैं निहाल हो गया हूं ममू…’’ राजेश अभी बोल ही रहा था कि ममू ने ट्यूबलाइट का स्विच औफ करते हुए कहा, ‘‘बहुत हो चुकी तारीफ… अब कुछ और…’’

ममू शरारत पर उतर आई. कमरा नाइट लैंप की हलकी रोशनी से भर उठा और ममू राजेश की बांहों में खो गई, एक नई सुबह आने तक.

लड़की: क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

मुंबई स्थित जसलोक अस्पताल के आईसीयू में वीणा बिस्तर पर  निस्पंद पड़ी थी. उसे इस हालत में देख कर उस की मां अहल्या का कलेजा मुंह को आ रहा था. उस के कंठ में रुलाई उमड़ रही थी. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एक दिन ऐसे दुखदायी दृश्य का सामना करना पड़ेगा.

वह वीणा के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ फेरने लगी. ‘मेरी बेटी,’ वह बुदबुदाई, ‘तू एक बार आंखें खोल दे, तू होश में आ जा तो मैं तुझे बता सकूं कि मैं तुझे कितना चाहती हूं, तू मेरे दिल के कितने करीब है. तू मुझे छोड़ कर न जा मेरी लाड़ो. तेरे बिना मेरा संसार सूना हो जाएगा.’

बेटी को खो देने की आशंका से वह परेशान थी. वह व्यग्रता से डाक्टर और नर्सों का आनाजाना ताक रही थी, उन से वीणा की हालत के बारे में जानना चाह रही थी, पर हर कोई उसे किसी तरह का संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ था.

जैसे ही उसे वीणा के बारे में सूचना मिली वह पागलों की तरह बदहवास अस्पताल दौड़ी थी. वीणा को बेसुध देख कर वह चीख पड़ी थी. ‘यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ?’ उस के होंठों पर हजारों सवाल आए थे.

‘‘मैं आप को सारी बात बाद में विस्तार से बताऊंगा,’’ उस के दामाद भास्कर ने कहा था, ‘‘आप को तो पता ही है कि वीणा ड्रग्स की आदी थी. लगता है कि इस बार उस ने ओवरडोज ले ली और बेहोश हो गई. कामवाली बाई की नजर उस पर पड़ी तो उस ने दफ्तर में फोन किया. मैं दौड़ा आया, उसे अस्पताल लाया और आप को खबर कर दी.’’

‘‘हायहाय, वीणा ठीक तो हो जाएगी न?’’ अहल्या ने चिंतित हो कर सवाल किया.

‘‘डाक्टर्स पूरी कोशिश कर रहे हैं,’’  भास्कर ने उम्मीद जताई.

भास्कर से कोई आश्वासन न पा कर अहल्या ने चुप्पी साध ली. और वह कर भी क्या सकती थी? उस ने अपने को इतना लाचार कभी महसूस नहीं किया था. वह जानती थी कि वीणा ड्रग्स लेती थी. ड्रग्स की यह आदत उसे अमेरिका में ही पड़ चुकी थी. मानसिक तनाव के चलते वह कभीकभी गोलियां फांक लेती थी. उस ने ओवरडोज गलती से ली या आत्महत्या करने का प्रयत्न किया था?

उस का मन एकबारगी अतीत में जा पहुंचा. उसे वह दिन याद आया जब वीणा पैदा हुई थी. लड़की के जन्म से घर में किसी प्रकार की हलचल नहीं हुई थी. कोई उत्साहित नहीं हुआ था.

अहल्या व उस का पति सुधाकर ऐसे परिवेश में पलेबढ़े थे जहां लड़कों को प्रश्रय दिया जाता था. लड़कियों की कोई अहमियत नहीं थी. लड़कों के जन्म पर थालियां बजाई जातीं, लड्डू बांटे जाते, खुशियां मनाई जाती थीं. बेटी हुई तो सब के मुंह लटक जाते.

बेटी सिर का बोझ थी. वह घाटे का सौदा थी. एक बड़ी जिम्मेदारी थी. उसे पालपोस कर, बड़ा कर दूसरे को सौंप देना होता था. उस के लिए वर खोज कर, दानदहेज दे कर उस की शादी करने की प्रक्रिया में उस के मांबाप हलकान हो जाते और अकसर आकंठ कर्ज में डूब जाते थे.

अहल्या और सुधाकर भी अपनी संकीर्ण मानसिकता व पिछड़ी विचारधारा को ले कर जी रहे थे. वे समाज के घिसेपिटे नियमों का हूबहू पालन कर रहे थे. वे हद दर्जे के पुरातनपंथी थे, लकीर के फकीर.

देश में बदलाव की बयार आई थी, औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष कर रही थीं, स्त्री सशक्तीकरण की मांग कर रही थीं. पर अहल्या और उस के पति को इस से कोई फर्क नहीं पड़ा था.

अहल्या को याद आया कि बच्ची को देख कर उस की सास ने कहा था, ‘बच्ची जरा दुबलीपतली और मरियल सी है. रंग भी थोड़ा सांवला है, पर कोई बात नहीं.

2-2 बेटों के जन्म के बाद इस परिवार में एक बेटी की कमी थी, सो वह भी पूरी हो गई.’

जब भी अहल्या को उस की सास अपनी बेटी को ममता के वशीभूत हो कर गोद में लेते या उसे प्यार करते देखतीं तो उसे टोके बिना न रहतीं, ‘अरी, लड़कियां पराया धन होती हैं, दूसरे के घर की शोभा. इन से ज्यादा मोह मत बढ़ा. तेरी असली पूंजी तो तेरे बेटे हैं. वही तेरी नैया पार लगाएंगे. तेरे वंश की बेल वही आगे बढ़ाएंगे. तेरे बुढ़ापे का सहारा वही तो बनेंगे.’

सासूमां जबतब हिदायत देती रहतीं, ‘अरी बहू, बेटी को ज्यादा सिर पे मत चढ़ाओ. इस की आदतें न बिगाड़ो. एक दिन इसे पराए घर जाना है. पता नहीं कैसी ससुराल मिलेगी. कैसे लोगों से पाला पड़ेगा. कैसे निभेगी. बेटियों को विनम्र रहना चाहिए. दब कर रहना चाहिए. सहनशील बनना चाहिए. इन्हें अपनी हद में रहना चाहिए.’

देखते ही देखते वीणा बड़ी हो गई. एक दिन अहल्या के पति सुधाकर ने आ कर कहा, ‘वीणा के लिए एक बड़ा अच्छा रिश्ता आया है.’

‘अरे,’ अहल्या अचकचाई, ‘अभी तो वह केवल 18 साल की है.’

‘तो क्या हुआ. शादी की उम्र तो हो गई है उस की, जितनी जल्दी अपने सिर से बोझ उतरे उतना ही अच्छा है. लड़के ने खुद आगे बढ़ कर उस का हाथ मांगा है. लड़का भी ऐसावैसा नहीं है. प्रशासनिक अधिकारी है. ऊंची तनख्वाह पाता है. ठाठ से रहता है हमारी बेटी राज करेगी.’

‘लेकिन उस की पढ़ाई…’

‘ओहो, पढ़ाई का क्या है, उस के पति की मरजी हुई तो बाद में भी प्राइवेट पढ़ सकती है. जरा सोचो, हमारी हैसियत एक आईएएस दामाद पाने की थी क्या? घराना भी अमीर है. यों समझो कि प्रकृति ने छप्पर फाड़ कर धन बरसा दिया हम पर. ‘लेकिन अगर उस के मातापिता ने दहेज के लिए मुंह फाड़ा तो…’

‘तो कह देंगे कि हम आप के द्वारे लड़का मांगने नहीं गए थे. वही हमारी बेटी पर लार टपकाए हुए हैं…’

जब वीणा को पता चला कि उस के ब्याह की बात चल रही है तो वह बहुत रोईधोई. ‘मेरी शादी की इतनी जल्दी क्या है, मां. अभी तो मैं और पढ़ना चाहती हूं. कालेज लाइफ एंजौय करना चाहती हूं. कुछ दिन बेफिक्री से रहना चाहती हूं. फिर थोड़े दिन नौकरी भी करना चाहती हूं.’

पर उस की किसी ने नहीं सुनी. उस का कालेज छुड़ा दिया गया. शादी की जोरशोर से तैयारियां होने लगीं.

वर के मातापिता ने एक अडं़गा लगाया, ‘‘हमारे बेटे के लिए एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे हैं. लाखों का दहेज मिल रहा है. माना कि हमारा बेटा आप की बेटी से ब्याह करने पर तुला हुआ है पर इस का यह मतलब तो नहीं कि आप हमें सस्ते में टरका दें. नकद न सही, उस की हैसियत के अनुसार एक कार, फर्नीचर, फ्रिज, एसी वगैरह देना ही होगा.’’

सुधाकर सिर थाम कर बैठ गए. ‘मैं अपनेआप को बेच दूं तो भी इतना सबकुछ जुटा नहीं सकता,’ वे हताश स्वर में बोले.

‘मैं कहती थी न कि वरपक्ष वाले दहेज के लिए मुंह फाड़ेंगे. आखिर, बात दहेज के मुद्दे पर आ कर अटक गई न,’ अहल्या ने उलाहना दिया.

‘आंटीजी, आप लोग फिक्र न करें,’ उन के भावी दामाद उदय ने उन्हें दिलासा दिया, ‘मैं सब संभाल लूंगा. मैं अपने मांबाप को समझा लूंगा. आखिर मैं उन का इकलौता पुत्र हूं वे मेरी बात टाल नहीं सकेंगे.’ पर उस के मातापिता भी अड़ कर बैठे थे. दोनों में तनातनी थी.

आखिर, उदय के मांबाप की ही चली. वे शादी के मंडप से उदय को जबरन उठा कर ले गए और सुधाकर व अहल्या कुछ न कर सके. देखते ही देखते शादी का माहौल मातम में बदल गया. घराती व बराती चुपचाप खिसक लिए. अहल्या और वीणा ने रोरो कर घर में कुहराम मचा दिया.

‘अब इस तरह मातम मनाने से क्या हासिल होगा?’ सुधाकर ने लताड़ा, ‘इतना निराश होने की जरूरत नहीं है. हमारी लायक बेटी के लिए बहुतेरे वर जुट जाएंगे.’

वीणा मन ही मन आहत हुई पर उस ने इस अप्रिय घटना को भूल कर पढ़ाई में अपना मन लगाया. वह पढ़ने में तेज थी. उस ने परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की. इधर, उस के मांबाप भी निठल्ले नहीं बैठे थे. वे जीजान से एक अच्छे वर की तलाश कर रहे थे. तभी वीणा ने एक दिन अपनी मां को बताया कि वह अपने एक सहपाठी से प्यार करती है और उसी से शादी करना चाहती है.

जब अहल्या ने यह बात पति को बताई तो उन्होंने नाकभौं सिकोड़ कर कहा, ‘बहुत खूब. यह लड़की कालेज पढ़ने जाती थी या कुछ और ही गुल खिला रही थी? कौन लड़का है, किस जाति का है, कैसा खानदान है कुछ पता तो चले?’

और जब उन्हें पता चला कि प्रवीण दलित है तो उन की भृकुटी तन गई, ‘यह लड़की जो भी काम करेगी वह अनोखा होगा. अपनी बिरादरी में योग्य लड़कों की कमी है क्या? भई, हम से तो जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाएगी. समाज में क्या मुंह दिखाएंगे? हमें किसी तरह से इस लड़के से पीछा छुड़ाना होगा. तुम वीणा को समझाओ.’

‘मैं उसे समझा कर हार चुकी हूं पर वह जिद पकड़े हुए है. कुछ सुनने को तैयार नहीं है.’

‘पागल है वह, नादान है. हमें कोई तरकीब भिड़ानी होगी.’

सुधाकर ने एक तरीका खोज  निकाला. वे वीणा को एक  ज्योतिषी के पास ले गए.

सुधाकर पहले ही ज्योतिषी से मिल चुके थे और उस की मुट्ठी गरम कर दी थी. ‘महाराज, कन्या एक गलत सोहबत में पड़ गई है और उस से शादी करने का हठ कर रही है. कुछ ऐसा कीजिए कि उस का मन उस लड़के की ओर से फिर जाए.

‘आप चिंता न करें यजमान,’ ज्योतिषाचार्य ने कहा.

ज्योतिषी ने वीणा की जन्मपत्री देख कर बताया कि उस का विदेश जाना अवश्यंभावी है. ‘तुम्हारी कुंडली अति उत्तम है. तुम पढ़लिख कर अच्छा नाम कमाओगी. रही तुम्हारी शादी की बात, सो, कुंडली के अनुसार तुम मांगलिक हो और यह तुम्हारे भावी पति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. तुम्हारी शादी एक मांगलिक लड़के से ही होनी चाहिए वरना जोड़ी फलेगीफूलेगी नहीं. एक  बात और, तुम्हारे ग्रह बताते हैं कि तुम्हारी एक शादी ऐनवक्त पर टूट गई थी?’

‘जी, हां.’

‘भविष्य में इस तरह की बाधा को टालने के लिए एक अनुष्ठान कराना होगा, ग्रहशांति करानी होगी, तभी कुछ बात बनेगी.’ ज्योतिषी ने अपनी गोलमोल बातों से वीणा के मन में ऐसी दुविधा पैदा कर दी कि वह भारी असमंजस में पड़ गई. वह अपनी शादी के बारे में कोई निर्णय न ले सकी.

शीघ्र ही उसे अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी से वजीफे के साथ वहां दाखिला मिल गया. उसे अमेरिका के लिए रवाना कर के उस के मातापिता ने सुकून की सांस ली.

‘अब सब ठीक हो जाएगा,’ सुधाकर ने कहा, ‘लड़की का पढ़ाई में मन लगेगा और उस की प्रवीण से भी दूरी बन जाएगी. बाद की बाद में देखी जाएगी.’

इत्तफाक से वीणा के दोनों भाई भी अपनेअपने परिवार समेत अमेरिका जा बसे थे और वहीं के हो कर रह गए थे. उन का अपने मातापिता के साथ नाममात्र का संपर्क रह गया था. शुरूशुरू में वे हर हफ्ते फोन कर के मांबाप की खोजखबर लेते रहते थे, लेकिन धीरेधीरे उन का फोन आना कम होता गया. वे दोनों अपने कामकाज और घरसंसार में इतने व्यस्त हो गए कि महीनों बीत जाते, उन का फोन न आता. मांबाप ने उन से जो आस लगाई थी वह धूलधूसरित होती जा रही थी.

समय बीतता रहा. वीणा ने पढ़ाई पूरी कर अमेरिका में ही नौकरी कर ली थी. पूरे 8 वर्षों बाद वह भारत लौट कर आई. उस में भारी परिवर्तन हो गया था. उस का बदन भर गया था. आंखों पर चश्मा लग गया था. बालों में दोचार रुपहले तार झांकने लगे थे. उसे देख कर सुधाकर व अहल्या धक से रह गए. पर कुछ बोल न सके.

‘अब तुम्हारा क्या करने का इरादा है, बेटी?’ उन्होंने पूछा.

‘मेरा नौकरी कर के जी भर गया है. मैं अब शादी करना चाहती हूं. यदि मेरे लायक कोई लड़का है तो आप लोग बात चलाइए,’ उस ने कहा.

अहल्या और सुधाकर फिर से वर खोजने के काम में लग गए. पर अब स्थिति बदल चुकी थी. वीणा अब उतनी आकर्षक नहीं थी. समय ने उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी. उस ने समय से पहले ही प्रौढ़ता का जामा ओढ़ लिया था. वह अब नटखट, चुलबुली नहीं, धीरगंभीर हो गई थी.

उस के मातापिता जहां भी बात चलाते, उन्हें मायूसी ही हासिल होती थी. तभी एक दिन एक मित्र ने उन्हें भास्कर के बारे में बताया, ‘है तो वह विधुर. उस की पहली पत्नी की अचानक असमय मृत्यु हो गई. भास्कर नाम है उस का. वह इंजीनियर है. अच्छा कमाता है. खातेपीते घर का है.’

मांबाप ने वीणा पर दबाव डाल कर उसे शादी के लिए मना लिया. नवविवाहिता वीणा की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. उस के दिल में हिलोरें उठने लगीं. वह दिवास्वप्नों में खो गई. वह अपने हिस्से की खुशियां बटोरने के लिए लालायित हो गई.

लेकिन भास्कर से उस का जरा भी तालमेल नहीं बैठा. उन में शुरू से ही पटती नहीं थी. दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर था. भास्कर बहुत ही मितभाषी लेकिन हमेशा गुमसुम रहता. अपने में सीमित रहता.

वीणा ने बहुत कोशिश की कि उन में नजदीकियां बढ़ें पर यह इकतरफा प्रयास था. भास्कर का हृदय मानो एक दुर्भेध्य किला था. वह उस के मन की थाह न पा सकी थी. उसे समझ पाना मुश्किल था. पति और पत्नी में जो अंतरंगता व आत्मीयता होनी चाहिए, वह उन दोनों में नहीं थी. दोनों में दैहिक संबंध भी नाममात्र का था. दोनों एक ही घर में रहते पर अजनबियों की तरह. दोनों अपनीअपनी दुनिया में मस्त रहते, अपनीअपनी राह चलते.

दिनोंदिन वीणा और उस के बीच खाई बढ़ती गई. कभीकभी वीणा भविष्य के बारे में सोच कर चिंतित हो उठती. इस शुष्क स्वभाव वाले मनुष्य के साथ सारी जिंदगी कैसे कटेगी. इस ऊबभरे जीवन से वह कैसे नजात पाएगी, यह सोच निरंतर उस के मन को मथते रहती.

एक दिन वह अपने मातापिता के पास जा पहुंची. ‘मांपिताजी, मुझे इस आदमी से छुटकारा चाहिए,’ उस ने दोटूक कहा. अहल्या और सुधाकर स्तंभित रह गए, ‘यह क्या कह रही है तू? अचानक यह कैसा फैसला ले लिया तू ने? आखिर भास्कर में क्या बुराई है. अच्छे चालचलन का है. अच्छा कमाताधमाता है. तुझ से अच्छी तरह पेश आता है. कोई दहेजवहेज का लफड़ा तो नहीं है न?’

‘नहीं. सौ बात की एक बात है, मेरी उन से नहीं पटती. हमारे विचार नहीं मिलते. मैं अब एक दिन भी उन के साथ नहीं बिताना चाहती. हमारा अलग हो जाना ही बेहतर है.’

‘पागल न बन, बेटी. जराजरा सी बातों के लिए क्या शादी के बंधन को तोड़ना उचित है? बेटी शादी में समझौता करना पड़ता है. तालमेल बिठाना पड़ता है. अपने अहं को त्यागना पड़ता है.’

‘वह सब मैं जानती हूं. मैं ने अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न कर के देख लिया पर हमेशा नाकाम रही. बस, मैं ने फैसला कर लिया है. आप लोगों को बताना जरूरी समझा, सो बता दिया.’

‘जल्दबाजी में कोई निर्णय न ले, वीणा. मैं तो सोचती हूं कि एक बच्चा हो जाएगा तो तेरी मुश्किलें दूर हो जाएंगी,’ मां अहल्या ने कहा.

वीणा विद्रूपता से हंसी. ‘जहां परस्पर चाहत और आकर्षण न हो, जहां मन न मिले वहां एक बच्चा कैसे पतिपत्नी के बीच की कड़ी बन सकता है? वह कैसे उन दोनों को एकदूसरे के करीब ला सकता है?’

अहल्या और सुधाकर गहरी सोच में पड़ गए. ‘इस लड़की ने तो एक भारी समस्या खड़ी कर दी,’ अहल्या बोली, ‘जरा सोचो, इतनी कोशिश से तो लड़की को पार लगाया. अब यह पति को छोड़छाड़ कर वापस घर आ बैठी, तो हम इसे सारा जीवन कैसे संभाल पाएंगे? हमारी भी तो उम्र हो रही है. इस लड़की ने तो बैठेबिठाए एक मुसीबत खड़ी कर दी.’

‘उसे किसी तरह समझाबुझा कर ऐसा पागलपन करने से रोको. हमारे परिवार में कभी किसी का तलाक नहीं हुआ. यह हमारे लिए डूब मरने की बात होगी. शादीब्याह कोई हंसीखेल है क्या. और फिर इसे यह भी तो सोचना चाहिए कि इस उम्र में एक तलाकशुदा लड़की की दोबारा शादी कैसे हो पाएगी. लड़के क्या सड़कों पर पड़े मिलते हैं? और इस में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं जो इसे कोई मांग कर ले जाएगा,’ सुधाकर बोले.

‘देखो, मैं कोशिश कर के देखती हूं. पर मुझे नहीं लगता कि वीणा मानेगी. वह बड़ी जिद्दी होती जा रही है,’ अहल्या ने कहा.

‘‘तभी तो भुगत रही है. हमारा बस चलता तो इस की शादी कभी की हो गई होती. हमारे बेटों ने हमारी पसंद की लड़कियों से शादी की और अपनेअपने घर में खुश हैं, पर इस लड़की के ढंग ही निराले हैं. पहले प्रेमविवाह का खुमार सिर पर सवार हुआ, फिर विदेश जा कर पढ़ने का शौक चर्राया. खैर छोड़ो, जो होना है सो हो कर रहेगा.’’ बूढ़े दंपती ने बेटी को समझाबुझा कर वापस उस के घर भेज दिया.

एक दिन अचानक हृदयगति रुक जाने से सुधाकर की मौत हो गई. दोनों बेटे विदेश से आए और औपचारिक दुख प्रकट कर वापस चले गए. वे मां को साथ ले जाना चाहते थे पर अहल्या इस के लिए तैयार नहीं हुई.

अहल्या किसी तरह अकेली अपने दिन काट रही थी कि सहसा बेटी के हादसे के बारे में सुन कर उस के हाथों के तोते उड़ गए. वह अपना सिर धुनने लगी. इस लड़की को यह क्या सूझी? अरे, शादी से खुश नहीं थी तो पति को तलाक दे देती और अकेले चैन से रहती. भला अपनी जान देने की क्या जरूरत थी? अब देखो, जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है. अपनी मां को इस बुढ़ापे में ऐसा गम दे दिया.

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी?

बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी.

वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’

‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’

‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी.

‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’

‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता.

‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी.

एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं.

वफादारी का सुबूत

तकरीबन 3 महीने बाद दीपक आज अपने घर लौट रहा था, तो उस के सपनों में मुक्ता का खूबसूरत बदन तैर रहा था. उस का मन कर रहा था कि वह पलक झपकते ही अपने घर पहुंच जाए और मुक्ता को अपनी बांहों में भर कर उस पर प्यार की बारिश कर दे. पर अभी भी दीपक को काफी सफर तय करना था. सुबह होने से पहले तो वह हरगिज घर नहीं पहुंच सकता था. और फिर रात होने तक मुक्ता से उस का मिलन होना मुमकिन नहीं था.

‘‘उस्ताद, पेट में चूहे कूद रहे हैं. ‘बाबा का ढाबा’ पर ट्रक रोकना जरा. पहले पेटपूजा हो जाए. किस बात की जल्दी है. अब तो घर चल ही रहे हैं…’’ ट्रक के क्लीनर सुनील ने कहा, फिर मुसकरा कर जुमला कसा, ‘‘भाभी की बहुत याद आ रही है क्या? मैं ने तुम से बहुत बार कहा कि बाहर रह कर कहां तक मन मारोेगे. बहुत सी ऐसी जगहें हैं, जहां जा कर तनमन की भड़ास निकाली जा सकती है. पर तुम तो वाकई भाभी के दीवाने हो.’’ दीपक को पता था कि सुनील हर शहर में ऐसी जगह ढूंढ़ लेता है, जहां देह धंधेवालियां रहती हैं. वहां जा कर उसे अपने तन की भूख मिटाने की आदत सी पड़ गई है. अकसर वह सड़कछाप सैक्स के माहिरों की तलाश में भी रहता है. शायद ऐसी औरतों ने उसे कोई बीमारी दे दी है.

दीपक ने सुनील की बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह मुक्ता के बारे में सोच रहा था. उस की एक साल पहले ही मुक्ता से शादी हुई थी. वह पढ़ीलिखी और सलीकेदार औरत थी. उस का कसा बदन बेहद खूबसूरत था. उस ने आते ही दीपक को अपने प्यार से इतना भर दिया कि वह उस का दीवाना हो कर रह गया. दीपक एमए पास था. वह सालों नौकरी की तलाश में इधरउधर घूमता रहा, पर उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली. दीपक सभी तरह की गाडि़यां चलाने में माहिर था. उस के एक दोस्त ने उसे अपने एक रिश्तेदार की ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी दिलवा दी, तो उस ने मना नहीं किया.

वैसे, ट्रक ड्राइवरी में दीपक को अच्छीखासी आमदनी हो जाती थी. तनख्वाह मिलने के साथ ही वह रास्ते में मुसाफिर ढो कर भी पैसा बना लेता था. ये रुपए वह सुनील के साथ बांट लेता था. सुनील तो ये रुपए देह धंधेवालियों और खानेपीने पर उड़ा देता था, पर घर लौटते समय दीपक की जेब भरी होती थी और घर वालों के लिए बहुत सा सामान भी होता था, जिस से सब उस से खुश रहते थे. दीपक के घर में उस की पत्नी मुक्ता के अलावा मातापिता और 2 छोटे भाईबहन थे. दीपक जब भी ट्रक ले कर घर से बाहर निकलता था, तो कभी 15 दिन तो कभी एक महीने बाद ही वापस आ पाता था. पर इस बार तो हद ही हो गई थी. वह पूरे 3 महीने बाद घर लौट रहा था. उस ने पूरे 10 दिनों की छुट्टियां ली थीं.

‘‘उस्ताद, ‘बाबा का ढाबा’ आने वाला है,’’ सुनील की आवाज सुन कर दीपक ने ट्रक की रफ्तार कम की, तभी सड़क के दाईं तरफ ‘बाबा का ढाबा’ बोर्ड नजर आने लगा. उस ने ट्रक किनारे कर के लगाया. वहां और भी 10-12 ट्रक खड़े थे.

यह ढाबा ट्रक ड्राइवरों और उन के क्लीनरों से ही गुलजार रहता था. इस समय भी वहां कई लोग थे. कुछ लोग आराम कर रहे थे, तो कुछ चारपाई पर पटरा डाले खाना खाने में जुटे थे. वहां के माहौल में दाल फ्राई और देशी शराब की मिलीजुली महक पसरी थी. ट्रक से उतर कर सुनील सीधे ढाबे के काउंटर पर गया, तो वहां बैठे ढाबे के मालिक सरदारजी ने उस का अभिवादन करते हुए कहा, ‘‘आओ बादशाहो, बहुत दिनों बाद नजर आए?’’

सुनील ने कहा, ‘‘हां पाजी, इस बार तो मालिकों ने हमारी जान ही निकाल ली. न जाने कितने चक्कर असम के लगवा दिए.’’

‘‘ओहो… तभी तो मैं कहूं कि अपना सुनील भाई बहुत दिनों से नजर नहीं आया. ये मालिक लोग भी खून चूस कर ही छोड़ते हैं जी,’’ सरदारजी ने हमदर्दी जताते हुए कहा.

‘‘पेट में चूहे दौड़ रहे हैं, फटाफट

2 दाल फ्राई करवाओ पाजी. मटरपनीर भी भिजवाओ,’’ सुनील ने कहा.

‘‘तुम बैठो चल कर. बस, अभी हुआ जाता है,’’ सरदारजी ने कहा और नौकर को आवाज लगाने लगे.

2 गिलास, एक कोल्ड ड्रिंक और एक नीबू ले कर जब तक सुनील खाने का और्डर दे कर दूसरे ड्राइवरों और क्लीनरों से दुआसलाम करता हुआ दीपक के पास पहुंचा, तब तक वह एक खाली पड़ी चारपाई पर पसर गया था. उसे हलका बुखार था.

‘‘क्या हुआ उस्ताद? सो गए क्या?’’ सुनील ने उसे हिलाया.

‘‘यार, अंगअंग दर्द कर रहा है,’’ दीपक ने आंखें मूंदे जवाब दिया.

‘‘लो उस्ताद, दो घूंट पी लो आज. सारी थकान उतर जाएगी,’’ सुनील ने अपनी जेब से दारू का पाउच निकाला और गिलास में डाल कर उस में कोल्ड ड्रिंक और नीबू मिलाने लगा. तब तक ढाबे का छोकरा उस के सामने आमलेट और सलाद रख गया था.

‘‘नहीं, तू पी,’’ दीपक ने कहा.

‘‘इस धंधे में ऐसा कैसे चलेगा उस्ताद?’’ सुनील बोला.

‘‘तुझे मालूम है कि मैं नहीं पीता. खराब चीज को एक बार मुंह से लगा लो, तो वह जिंदगीभर पीछा नहीं छोड़ती. मेरे लिए तो तू एक चाय बोल दे,’’ दीपक बोला. सुनील ने वहीं से आवाज दे कर एक कड़क चाय लाने को बोला. दीपक ने जेब से सिरदर्द की एक गोली निकाली और उसे पानी के साथ निगल कर धीरेधीरे चाय पीने लगा. बीचबीच में वह आमलेट भी खा लेता. जब तक उस की चाय निबटी. होटल के छोकरे ने आ कर खाना लगा दिया. गरमागरम खाना देख कर उस की भी भूख जाग गई. दोनों खाने में जुट गए. खाना खा कर दोनों कुछ देर तक वहीं चारपाई पर लेटे आराम करते रहे. अब दीपक को भी कोई जल्दी नहीं थी, क्योंकि दिन निकलने से पहले अब वह किसी भी हालत में घर नहीं पहुंच सकता था. एक घंटे बाद जब वह चलने के लिए तैयार हुआ, तो थोड़ी राहत महसूस कर रहा था. कानपुर पहुंच कर दीपक ने ट्रक ट्रांसपोर्ट पर खड़ा किया और मालिक से रुपए और छुट्टी ले कर घर पहुंचा. सब लोग बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. उसे देखते ही खुश हो गए.

मां उस के चेहरे को ध्यान से देखे जा रही थी, ‘‘इस बार तो तू बहुत कमजोर लग रहा है. चेहरा देखो कैसा निकल आया है. क्या बुखार है तुझे?’’

‘‘हां मां, मैं परसों भीग गया था. इस बार पूरे 10 दिन की छुट्टी ले कर आया हूं. जम कर आराम करूंगा, तो फिर से हट्टाकट्टा हो जाऊंगा,’’ कह कर वह अपनी लाई हुई सौगात उन लोगों में बांटने लगा. सब लोग अपनीअपनी मनपसंद चीजें पा कर खुश हो गए. मुक्ता रसोई में खाना बनाते हुए सब की बातें सुन रही थी. उस के लिए दीपक इस बार सोने की खूबसूरत अंगूठी और कीमती साड़ी लाया था. थोड़ी देर बाद एकांत मिलते ही मुक्ता उस के पास आई और बोली, ‘‘आप को बुखार है. आप ने दवा ली?’’

‘‘हां, ली थी.’’

‘‘एक गोली से क्या होता है? आप को किसी अच्छे डाक्टर को दिखा कर दवा लेनी चाहिए.’’

‘‘अरे, डाक्टर को क्या दिखाना? बताया न कि परसों भीग गया था, इसीलिए बुखार आ गया है.’’

‘‘फिर भी लापरवाही करने से क्या फायदा? आजकल वैसे भी डेंगू बहुत फैला हुआ है. मैं डाक्टर मदन को घर पर ही बुला लाती हूं.’’

दीपक नानुकर करने लगा, पर मुक्ता नहीं मानी. वह डाक्टर मदन को बुला लाई. वे उन के फैमिली डाक्टर थे और उन का क्लिनिक पास में ही था. वे फौरन चले आए. उन्होंने दीपक की अच्छी तरह जांच की और जांच के लिए ब्लड का सैंपल भी ले लिया. उन्होंने कुछ दवाएं लिखते हुए कहा, ‘‘ये दवाएं अभी मंगवा लीजिए, बाकी खून की रिपोर्ट आ जाने के बाद देखेंगे.’’ रात में दीपक ने मुक्ता को अपनी बांहों में लेना चाहा, तो उस ने उसे प्यार से मना कर दिया.

‘‘पहले आप ठीक हो जाइए. बीमारी में यह सबकुछ ठीक नहीं है,’’ मुक्ता ने बड़े ही प्यार से समझाया.

दीपक ने बहुत जिद की, लेकिन वह नहीं मानी. बेचारा दीपक मन मसोस कर रह गया. उस को मुक्ता का बरताव समझ में नहीं आ रहा था. दूसरे दिन मुक्ता डाक्टर मदन से दीपक की रिपोर्ट लेने गई, तो उन्होंने बताया कि बुखार मामूली है. दीपक को न तो डेंगू है और न ही एड्स या कोई सैक्स से जुड़ी बीमारी. बस 2 दिन में दीपक बिलकुल ठीक हो जाएगा. दीपक मुक्ता के साथ ही था. उसे डाक्टर मदन की बातें सुन कर हैरानी हुई. उस ने पूछा, ‘‘लेकिन डाक्टर साहब, आप को ये सब जांचें करवाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?’’

‘‘ये सब जांचें कराने के लिए आप की पत्नी ने कहा था. आप 3 महीने से घर से बाहर जो रहे थे. आप की पत्नी वाकई बहुत समझदार हैं,’’ डाक्टर मदन ने मुक्ता की तारीफ करते हुए कहा.

दीपक को बहुत अजीब सा लगा, पर वह कुछ न बोला. दीपक दिनभर अनमना सा रहा. उसे मुक्ता पर बेहद गुस्सा आ रहा. रात में मुक्ता ने कहा, ‘‘आप को हरगिज मेरी यह हरकत पसंद नहीं आई होगी, पर मैं भी क्या करती, मीना रोज मेरे पास आ कर अपना दुखड़ा रोती रहती है. उसे न जाने कैसी गंदी बीमारी हो गई है. ‘‘यह बीमारी उसे अपने पति से मिली है. बेचारी बड़ी तकलीफ में है. उस के पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं.’’

दीपक को अब सारी बात समझ में आ गई. मीना उस के क्लीनर सुनील की पत्नी थी. सुनील को यह गंदी बीमारी देह धंधेवालियों से लगी थी. वह खुद भी तो हमेशा किसी अच्छे सैक्स माहिर डाक्टर की तलाश में रहता था. सारी बात जान कर दीपक का मन मुक्ता की तरफ से शीशे की तरह साफ हो गया. वह यह भी समझ गया था कि अब वक्त आ गया है, जब मर्द को भी अपनी वफादारी का सुबूत देना होगा.

कौन जिम्मेदार: किशोरीलाल ने कौनसा कदम उठाया

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे. सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे. यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था.

इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई. यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था. यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा. जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा. वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया. यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’ ‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई. किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था. इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई. कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी. बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे. जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे. मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे. कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चलीगई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा.

फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती. जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.  पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं. सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी.

इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

वक्त का पहिया: सेजल को अपनी सोच क्यों छोटी लगने लगी?

‘‘आज फिर कालेज में सेजल के साथ थी?’’ मां ने तीखी आवाज में निधि से पूछा.

‘‘ओ हो, मां, एक ही क्लास में तो हैं, बातचीत तो हो ही जाती है, अच्छी लड़की है.’’

‘‘बसबस,’’ मां ने वहीं टोक दिया, ‘‘मैं सब जानती हूं कितनी अच्छी है. कल भी एक लड़का उसे घर छोड़ने आया था, उस की मां भी उस लड़के से हंसहंस के बातें कर रही थी.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ निधि बोली.

‘‘अब तू हमें सिखाएगी सही क्या है?’’ मां गुस्से से बोलीं, ’’घर वालों ने इतनी छूट दे रखी है, एक दिन सिर पकड़ कर रोएंगे.’’

निधि चुपचाप अपने कमरे में चली गई. मां से बहस करने का मतलब था घर में छोटेमोटे तूफान का आना. पिताजी के आने का समय भी हो गया था. निधि ने चुप रहना ही ठीक समझा.

सेजल हमारी कालोनी में रहती है. स्मार्ट और कौन्फिडैंट.

‘‘मुझे तो अच्छी लगती है, पता नहीं मां उस के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं,’’ निधि अपनी छोटी बहन निकिता से धीरेधीरे बात कर रही थी. परीक्षाएं सिर पर थीं. सब पढ़ाई में व्यस्त हो गए. कुछ दिनों के लिए सेजल का टौपिक भी बंद हुआ.

घरवालों द्वारा निधि के लिए लड़के की तलाश भी शुरू हो गई थी पर किसी न किसी वजह से बात बन नहीं पा रही थी. वक्त अपनी गति से चलता रहा, रिजल्ट का दिन भी आ गया. निधि 90 प्रतिशत लाई थी. घर में सब खुश थे. निधि के मातापिता सुबह की सैर करते हुए लोगों से बधाइयां बटोर रहे थे.

‘‘मैं ने कहा था न सेजल का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, सिर्फ 70 प्रतिशत लाई है,’’ निधि की मां निधि के पापा को बता रही थीं. निधि के मन में आया कि कह दे ‘मां, 70 प्रतिशत भी अच्छे नंबर हैं’ पर फिर कुछ सोच कर चुप रही.

सेजल और निधि ने एक ही कालेज में एमए में दाखिला ले लिया और दोनों एक बार फिर साथ हो गईं. एक दिन निधि के पिता आलोकनाथ बोले, ‘‘बेटी का फाइनल हो जाए फिर इस की शादी करवा देंगे.’’

‘‘हां, क्यों नहीं, पर सोचनेभर से कुछ न होगा,’’ मां बोलीं.

‘‘कोशिश तो कर ही रहा हूं. अच्छे लड़कों को तो दहेज भी अच्छा चाहिए. कितने भी कानून बन जाएं पर यह दहेज का रिवाज कभी नहीं बदलेगा.’’

निधि फाइनल ईयर में आ गई थी. अब उस के मातापिता को चिंता होने लगी थी कि इस साल निकिता भी बीए में आ जाएगी और अब तो दोनों बराबर की लगने लगी हैं. इस सोचविचार के बीच ही दरवाजे की घंटी घनघना उठी.

दरवाजा खोला तो सामने सेजल की मां खड़ी थीं, बेटी के विवाह का निमंत्रण पत्र ले कर.

निधि की मां ने अनमने ढंग से बधाई दी और घर के भीतर आने को कहा, लेकिन जरा जल्दी में हूं कह कर वे बाहर से ही चली गईं. कार्ड ले कर निधि की मां अंदर आईं और पति को कार्ड दिखाते हुए बोलीं, ‘‘मैं तो कहती ही थी, लड़की के रंगढंग ठीक नहीं, पहले से ही लड़के के साथ घूमतीफिरती थी. लड़का भी घर आताजाता था.’’

‘‘कौन लड़का?’’ निधि के पिता ने पूछा.

‘‘अरे, वही रेहान, उसी से तो हो रही है शादी.’’

निधि भी कालेज से आ गई थी. बोली, ‘‘अच्छा है मां, जोड़ी खूब जंचेगी.’’ मां भुनभुनाती हुई रसोई की तरफ चल पड़ीं.

सेजल का विवाह हो गया. निधि ने आगे पढ़ाई जारी रखी. अब तो निकिता भी कालेज में आ गई थी. ‘निधि के पापा कुछ सोचिए,’ पत्नी आएदिन आलोकनाथजी को उलाहना देतीं.

‘‘चिंता मत करो निधि की मां, कल ही दीनानाथजी से बात हुई है. एक अच्छे घर का रिश्ता बता रहे हैं, आज ही उन से बात करता हूं.’’

लड़के वालों से मिल के उन के आने का दिन तय हुआ. निधि के मातापिता आज खुश नजर आ रहे थे. मेहमानों के स्वागत की तैयारियां चल रही थीं. दीनानाथजी ठीक समय पर लड़के और उस के मातापिता को ले कर पहुंच गए. दोनों परिवारों में अच्छे से बातचीत हुई, उन की कोई डिमांड भी नहीं थी. लड़का भी स्मार्ट था, सब खुश थे. जाते हुए लड़के की मां कहने लगीं, ‘‘हम घर जा कर आपस में विचारविमर्श कर फिर आप को बताते हैं.’’

‘‘ठीक है जी,’’ निधि के मातापिता ने हाथ जोड़ कर कहा. शाम से ही फोन का इंतजार होने लगा. रात करीब 8 बजे फोन की घंटी बजी. आलोकनाथजी ने लपक कर फोन उठाया. उधर से आवाज आई, ‘‘नमस्तेजी, आप की बेटी अच्छी है और समझदार भी लेकिन कौन्फिडैंट नहीं है, हमारा बेटा एक कौन्फिडैंट लड़की चाहता है, इसलिए हम माफी चाहते हैं.’’

आलोकनाथजी के हाथ से फोन का रिसीवर छूट गया.

‘‘क्या कहा जी?’’ पत्नी भागते हुए आईं और इस से पहले कि आलोकनाथजी कुछ बताते दरवाजे की घंटी बज उठी. निधि ने दरवाजा खोला. सामने सेजल की मां हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए खड़ी थीं और बोलीं, ’’मुंह मीठा कीजिए, सेजल के बेटा हुआ है.’’

अब सोचने की बारी निधि के मातापिता की थी. ‘वक्त के साथ हमें भी बदलना चाहिए था शायद.’ दोनों पतिपत्नी एकदूसरे को देखते हुए मन ही मन शायद यही समझा रहे थे. वैसे काफी वक्त हाथ से निकल गया था लेकिन कोशिश तो की जा सकती थी.

एक सफर ऐसा भी: क्या था स्वरुप का प्लान

दिल्ली के प्रेमी युगलों के लिए सब से मुफीद और लोकप्रिय जगह है लोधी गार्डन. स्वरूप और प्रिया हमेशा की तरह कुछ प्यारभरे पल गुजारने यहां आए थे. रविवार की सुबह थी. पार्क में हैल्थ कौंशस लोग मौर्निंग वाक के लिए आए थे. कोई दौड़ लगा रहा था तो कोई ब्रिस्क वाक कर रहा था. कुछ लोग तरहतरह के व्यायाम करने में व्यस्त थे, तो कुछ उन्हें देखने में. झील के सामने लगी लोहे की बैंच पर बैठे प्रिया और स्वरूप एकदूसरे में खोए थे. प्रिया की बड़ीबड़ी शरारतभरी निगाहें स्वरूप पर टिकी थीं. वह उसे लगातार निहारे जा रही थी.

स्वरूप ने उस के हाथों को थामते हुए कहा, ‘‘प्रिया, आज तो तुम्हारे इरादे बड़े खतरनाक लग रहे हैं.’’

वह हंस पड़ी, ‘‘बिलकुल जानेमन. इरादा यह है कि तुम्हें अब हमेशा के लिए मेरा हाथ थामना होगा. अब मैं तुम से दूर नहीं रह सकती. तुम ही मेरे होंठों की हंसी हो. भला हम कब तक ऐसे छिपछिप कर मिलते रहेंगे?’’ और फिर प्रिया गंभीर हो गई.

स्वरूप ने बेबस स्वर में कहा, ‘‘अब मैं क्या कहूं? तुम तो जानती ही हो मेरी मां को… उन्हें तो वैसे ही कोई लड़की पसंद नहीं आती उस पर हमारी जाति भी अलग है.’’

‘‘यदि उन के राजपूती खून वाले इकलौते बेटे को सुनार की गरीब बेटी से इश्क हो गया है तो अब हम दोनों क्या कर सकते हैं? उन को मुझे अपनी बहू स्वीकार करना ही पड़ेगा. पिछले 3 साल से कह रही हूं… एक बार बात कर के तो देखो.’’

‘‘एक बार कहा था तो उन्होंने सिरे से नकार दिया था. तुम तो जानती ही हो कि मां के सिवा मेरा कोई है भी नहीं. कितनी मुश्किलों से पाला है उन्होंने मुझे. बस एक बार वे तुम्हें पसंद कर लें फिर कोई बाधा नहीं. तुम उन से मिलने गईं और उन्होंने नापसंद कर दिया तो फिर तुम तो मुझ से मिलना भी बंद कर दोगी. इसी डर से तुम्हें उन से मिलवाने नहीं ले जाता. बस यही सोचता रहता हूं कि उन्हें कैसे पटाऊं.’’

‘‘देखो अब मैं तुम से तो मिलना बंद नहीं कर सकती. ऐसे में तुम्हारी मां को पटाना ही अंतिम रास्ता है.’’

‘‘पर मेरी मां को पटाना

ऐसी चुनौती है जैसे रेगिस्तान में पानी खोजना.’’

‘‘ओके, तो मैं यह चुनौती स्वीकार करती हूं. वैसे भी मुझे चुनौतियों से खेलना बहुत पसंद है,’’ बड़ी अदा के साथ अपने घुंघराले बालों को पीछे की तरफ झटकते हुए प्रिया ने कहा और फिर उठ खड़ी हुई.

‘‘मगर तुम यह सब करोगी कैसे?’’ स्वरूप ने उठते हुए पूछा.

‘‘एक बात बताओ. तुम्हारी मां इसी वीक मुंबई जाने वाली हैं न किसी औफिशियल मीटिंग के लिए… तुम ने कहा था उस दिन.’’

‘‘हां, वे अगले मंगल को निकल रही हैं. आजकल में रिजर्वेशन भी करानी है मुझे.’’

‘‘तो ऐसा करो, एक के बजाय 2 टिकट करा लो. इस सफर में मैं उन की हमसफर बनूंगी, पर उन्हें बताना नहीं,’’ आंखें नचाते हुए प्रिया ने कहा तो स्वरूप की प्रश्नवाचक निगाहें उस पर टिक गईं.

प्रिया को भरोसा था अपने पर. वह जानती थी कि सफर के दौरान आप सामने वाले को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं. जब हम इतने घंटे साथ बिताएंगे तो हर तरह की बातें होंगी. एकदूसरे को इंप्रैस करने का मौका मिलेगा. यह तय हो जाएगा कि वह स्वरूप की बहू बन सकती है. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया था कि यह उस की आखिरी परीक्षा है.

स्वरूप ने मुसकराते हुए सिर तो हिला दिया था पर उसे भरोसा नहीं था. उसे प्रिया का आइडिया बहुत पसंद आया था. पर वह मां के जिद्दी धार्मिक व्यवहार को जानता था. फिर भी उस ने हां कर दी. उसी दिन शाम उस ने मुंबई राजधानी ऐक्सप्रैस के एसी 2 टियर श्रेणी में

2 टिकट (एक लोअर और दूसरा अपर बर्थ) रिजर्व करा दिए. जानबूझ कर मां को अपर बर्थ दिलाई और प्रिया को लोअर.

जिस दिन प्रिया को मुंबई के लिए निकलना था, उस से 2 दिन पहले से वह अपनी तैयारी में लगी थी. यह उस की जिंदगी का बहुत अहम सफर था. उस की खुशियों की चाबी यानी स्वरूप का मिलना या न मिलना इसी पर टिका था. प्रिया ने वे सारी चीजें रख लीं, जिन के जरीए उसे स्वरूप की मां पर इंप्रैशन जमाने का मौका मिल सकता था.

ट्रेन शाम 4.35 पर नई दिल्ली स्टेशन से छूटनी थी. अगले दिन सुबह 8.35 ट्रेन का मुंबई अराइवल था. कुल 16 घंटों का सफर था. इन

16 घंटों में उसे स्वरूप की मां को जानना था और अपना सही और पूरा परिचय देना था.

वह समय से पहले ही स्टेशन पहुंच गई और बहुत बेसब्री से स्वरूप और उस की मां के आने का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में उसे स्वरूप आता दिखा, साथ में मां भी थी. दोनों ने दूर से ही एकदूसरे को आल द बैस्ट कहा.

ट्रेन के आते ही प्रिया सामान ले कर अपनी बर्थ की तरफ

बढ़ गई. सही समय पर ट्रेन चल पड़ी. आरंभिक बातचीत के साथ ही प्रिया ने अपनी लोअर बर्थ मां को औफर कर दी. उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन्हें घुटनों में दर्द रहने लगा था. वैसे भी बारबार ऊपर चढ़ना उन्हें पसंद नहीं था. उन की नजरों में प्रिया के प्रति स्नेह के भाव झलक उठे. प्रिया एक नजर में उन्हें काफी शालीन लगी. दोनों बैठ कर दुनियाजहान की बातें करने लगीं. मौका देख कर प्रिया ने उन्हें अपने बारे में सारी बेसिक जानकारी दे दी कि कैसे वह दिल्ली में रह कर जौब कर अपने मांबाप का सपना पूरा कर रही है. दोनों ने साथ ही खाना खाया.

प्रिया का खाना चखते हुए मां ने पूछा, ‘‘किस ने बनाया तुम ने या कामवाली रखी है?’’

‘‘कामवाली तो है आंटी पर खाना मैं खुद ही बनाती हूं. मेरी मां ने मुझे सिखाया है कि जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन. अपने हाथों से बनाए खाने की बात ही अलग होती है… इस में सेहत और स्वाद के साथ प्यार जो मिला होता है.’’

उस की बात सुन कर मां मुसकरा उठीं, ‘‘तुम्हारी मां ने तो बहुत अच्छी बातें सिखाई हैं. जरा बताओ और क्या सिखाया है उन्होंने?’’

‘‘कभी किसी का दिल न दुखाओ, जितना हो सके दूसरों की मदद करो. आगे बढ़ने के लिए दूसरे की मदद पर नहीं, बल्कि अपनी काबिलीयत और परिश्रम पर विश्वास करो. प्यार से सब का दिल जीतो.’’

प्रिया कहे जा रही थी और मां गौर से सुन रही थीं. उन्हें प्रिया की बातें बहुत पसंद आ रही थीं. इसी बीच मां बाथरूम के लिए उठीं कि अचानक झटका लगने से डगमगा गईं और किनारे रखे ब्रीफकेस के कोने से पैर में चोट लग गई. चोट ज्यादा नहीं लगी थी, मगर खून निकल आया. मां को बैठाया और फिर अपने बैग में रखे फर्स्ट ऐड बौक्स को खोलने लगी.

मां ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तुम हमेशा यह डब्बा ले कर निकलती हो?’’

‘‘हां आंटी, चोट मुझे लगे या दूसरों को मुझे अच्छा नहीं लगता. तुरंत मरहम लगा दूं तो दिल को सुकून मिल जाता है. वैसे भी जिंदगी में हमेशा किसी भी तरह की परेशानी से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए,’’ कहते हुए प्रिया ने तुरंत चोट वाली जगह पर मरहम लगा दिया और इस बहाने उस ने मां के पैर भी छू लिए.

मां ने प्यार से उस का गाल थपथपाया और पूछने लगीं, ‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं? तुम्हारी मां हाउसवाइफ  हैं या जौब करती हैं?’’

प्रिया ने बिना किसी लागलपेट के साफ स्वर में जवाब दिया, ‘‘मेरे पापा सुनार हैं और वे ज्वैलरी शौप में काम करते हैं. मेरी मां हाउसवाइफ हैं. हम 2 भाईबहन हैं. छोटा भाई इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा है और मैं यहां एक एमएनसी कंपनी में काम करती हूं. मेरी सैलरी अभी

80 हजार प्रति महीना है. उम्मीद करती हूं कि कुछ सालों में अच्छा मुकाम हासिल कर लूंगी.’’

‘‘बहुत खूब,’’ मां के मुंह से निकला. उन की प्रशंसाभरी नजरें प्रिया पर टिकी थीं, ‘‘बेटा और क्या शौक हैं तुम्हारे?’’

‘‘मेरी मम्मी बहुत अच्छी डांसर हैं. उन्होंने मुझे भी इस कला में निपुण किया है. डांस के अलावा मुझे कविताएं लिखने और फोटोग्राफी करने का भी शौक है. तरहतरह की डिशेज तैयार करना और सब को खिला कर वाहवाही लूटना भी बहुत पसंद है.’’

ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और इधर प्रिया और मां की बातें भी बिना किसी रुकावट जारी थीं.

कोटा और रतलाम स्टेशनों के बीच ट्रेन 140 किलोमीटर प्रति घंटे की तेज रफ्तार से चल रही थी कि अचानक एक झटके से रुक गई. दूरदूर तक जंगली सूना इलाका था. आसपास न तो आवागमन के साधन थे और न खानेपीने की चीजें थीं. पता चला कि ट्रेन करीब 8-9 घंटे वहीं खड़ी रहनी है. दरअसल, पटरी में क्रैक की वजह से ट्रेन के आगे वाला डब्बा उलट गया था. यात्री घायल तो नहीं हुए, मगर अफरातफरी जरूर मच गई थी. क्रेन आने और पलटे डब्बे को हटाने में काफी समय लगना था.

ऐक्सीडैंट 11 बजे रात में हुआ था और अब सुबह हो चुकी थी. यह

इलाका ऐसा था कि दूरदूर तक चायपानी तक की दुकान नजर नहीं आ रही थी. ट्रेन के पैंट्री कार में भी अब खाने की चीजें खत्म हो चुकी थीं. 12 बज चुके थे. मां सोच रही थीं कि चाय का इंतजाम हो जाता तो चैन आता. तब तक प्रिया पैंट्री कार से गरम पानी ले आई. अपने पास रखा टीबैग, चीनी और मिल्क पाउडर से उस ने फटाफट चाय तैयार की और फिर टिफिन बौक्स निकाल कर उस में से दाल की कचौडि़यां और मठरी आदि कागज की प्लेट में रख कर नाश्ता सजा दिया. टिफिन बौक्स निकालते समय मां ने गौर किया था कि प्रिया के बैग में डियो के अलावा भी कोई स्प्रे है.

‘‘यह क्या है प्रिया?’’ मां ने उत्सुकता से पूछा.

प्रिया बोली, ‘‘आंटी, यह पैपर स्प्रे है ताकि किसी बदमाश से सामना हो जाए तो उस के गलत इरादों को सफल न होने दूं. सिर्फ  यही नहीं अपने बचाव के लिए मैं हमेशा एक चाकू भी रखती हूं. मैं खुद कराटे में ब्लैक बैल्ट होल्डर हूं. खुद की सुरक्षा का पूरा खयाल रखती हूं.’’

‘‘बहुत अच्छा,’’ मां की खुशी चेहरे पर झलक रही थी, ‘‘अच्छा प्रिया यह बताओ कि तुम अपनी सैलरी का क्या करती हो? खुद तुम्हारे खर्चे भी काफी होंगे. आखिर अकेली रहती हो मैट्रो सिटी में और फिर औफिस में प्रेजैंटेबल दिखना भी जरूरी होता है. आधी सैलरी तो उसी में चली जाती होगी.’’

‘‘अरे नहीं आंटी ऐसा कुछ नहीं है. मैं

अपनी सैलरी के 4 हिस्से करती हूं. 2 हिस्से यानी 40 हजार भाई की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पापा को देती हूं. एक हिस्सा खुद पर खर्च करती हूं और बाकी के एक हिस्से से फ्लैट का किराया देने के साथ कुछ पैसे सोशल वर्क में लगाती हूं.’’

‘‘सोशल वर्क?’’ मां ने हैरानी से पुछा.

‘‘हां आंटी, जो भी मेरे पास अपनी समस्या ले कर आता है उस का समाधान ढूंढ़ने का प्रयास करती हूं. कोई नहीं आया तो खुद ही गरीबों के लिए कपड़े, खाना वगैरह खरीद कर बांट देती हूं.’’

तभी ट्रेन फिर चल पड़ी. दोनों की बातें भी चल रही थीं. मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘मेरा भी एक बेटा है स्वरूप. वह भी दिल्ली में जौब करता है.’’

स्वरूप का नाम सुनते ही प्रिया की आंखों में चमक उभर आई. अचानक मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘अच्छा, यह बताओ बेटे कि आप का कोई बौयफ्रैंड है या नहीं? सचसच बताना.’’

प्रिया ने 2 पल मां की आंखों में झांका और फिर नजरें झुका कर बोली, ‘‘जी है.’’

‘‘उफ…’’ मां थोड़ी गंभीर हो गईं, ‘‘बहुत प्यार करती हो उस से? शादी करने वाले हो तुम दोनों?’’

प्रिया को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे. इस तरह की बातों का हां में जवाब देने का अर्थ है खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना. फिर भी जवाब तो देना ही था. सो वह हंस कर बोली, ‘‘आंटी, शादी करना तो चाहते हैं, मगर क्या पता आगे क्या लिखा है. वैसे आप अपने बेटे के लिए कैसी लड़की ढूंढ़ रही हैं?’’

‘‘ईमानदार, बुद्धिमान और दिल से खूबसूरत.’’

दोनों एकदूसरे की तरफ  कुछ पल देखती रहीं. फिर प्रिया ने पलकें झुका लीं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां से क्या कहे और कैसे कहे. दोनों ने ही इस मसले पर फिर बात नहीं की. प्रिया के दिमाग में बड़ी उधेड़बुन चलने लगी थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां ने उसे पसंद किया या नहीं. उस ने स्वरूप को वे सारी बातें मैसेज कर के बताईं. मां भी खामोश बैठी रहीं. प्रिया कुछ देर के लिए आंखें बंद कर लेट गई. उसे पता ही नहीं चला कि कब उसे नींद आ गई. मां के आवाज लगाने पर वह हड़बड़ा कर उठी तो देखा मुंबई आ चुका था और अब उसे मां से विदा लेनी थी.

स्टेशन पर उतर कर वह खुद ही बढ़ कर मां के गले लग गई. मन में एक अजीब सी घबराहट थी. वह चाहती थी कि मां कुछ कहें पर ऐसा नहीं हुआ. मां से विदा ले कर वह अपने रास्ते निकल आई. अगले दिन ही फ्लाइट पकड़ कर दिल्ली लौट आई.

फिर वह स्वरूप से मिली और सारी बातें विस्तार से बताईं. बौयफ्रैंड वाली बात भी. स्वरूप भी कुछ समझ नहीं सका कि मां को प्रिया कैसी लगी. मां 2 दिन बाद लौटने वाली थीं. दोनों ने 2 दिन बड़ी उलझन में गुजारे. उन की जिंदगी का फैसला जो होना था.

नियत समय पर मां लौटीं. स्वरूप बहुत बेचैन था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां से कैसे पूछे. वह चाहता था कि मां खुद ही उस से प्रिया की बात छेड़े, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. एक दिन और बीत गया. अब तो स्वरूप की हालत खराब होने लगी. अंतत: उस ने खुद ही मां से पूछ लिया, ‘‘मां आप का सफर कैसा रहा? सह यात्री कैसे थे?’’

‘‘सब अच्छा था,’’ मां ने छोटा सा जवाब दिया.

स्वरूप और भी ज्यादा बेचैन हो उठा. उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे पूछे मां से. उस से रहा नहीं गया तो उस ने सीधा पूछ लिया, ‘‘और वह जो लड़की थी जाते समय साथ… उस ने आप का खयाल तो रखा?’’

‘‘क्यों पूछ रहे हो? जानते हो क्या उसे?’’ मां ने प्रश्नवाचक नजरें उस पर टिका दीं.

स्वरूप घबरा गया जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो, ‘‘जी ऐसा कुछ नहीं. मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा था.’’

‘‘ओके, सब अच्छा रहा. अच्छी थी लड़की,’’ मां फिर छोटा सा जवाब दे कर बाहर निकलने लगीं. लेकिन फिर ठहर गईं. बोलीं, ‘‘हां एक बात बता दूं कि मेरे साथ जो लड़की थी न उस की कई बातों ने मुझे अचरज में डाल दिया. जानते हो मेरे दाहिने पैर में चोट लगी तो उस ने क्या किया?’’

‘‘क्या किया मां?’’ अनजान बनते हुए स्वरूप ने पूछा.

‘‘मेरे दाहिने पैर में मरहम लगाने के बहाने उस ने मेरे दोनों पैरों को छू लिया. फिर जब मैं ने उस से यह पूछा कि क्या उस का कोई बौयफ्रैंड है तो 2 पलों के लिए उस के दिमाग में एक जंग सी छिड़ गई. लग रहा था जैसे वह सोच रही हो कि अब मुझे क्या जवाब दे. एक बात और जानते हो, तेरा नाम लेते ही उस की नजरों में अजीब सी चमक आई और पलकें झुक गईं. मैं समझ नहीं सकी कि ऐसा क्यों है?’’

मां की बातें सुन कर स्वरूप के चेहरे पर घबराहट की रेखाएं खिंच गईं. वह एकटक मां की तरफ देखे जा रहा था जैसे मां उस के ऐग्जाम का रिजल्ट सुनाने वाली हैं.

मां ने फिर कहा, ‘‘एक बात और बताऊं स्वरूप, जब वह सो

रही थी तो उस की मोबाइल स्क्रीन पर मुझे तुम्हारे कई सारे व्हाट्सऐप मैसेज आते दिखे, क्योंकि उस ने तुम्हारे मैसेज पौप अप मोड में रखे थे. मैसेज कुछ इस तरह के थे, ‘‘डोंट वरी प्रिया. मां के साथ तुम्हारा यह सफर हम दोनों की जिंदगी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण

है. मां बस एक बार तुम्हें पसंद

कर लें फिर हम हमेशा के लिए एक हो जाएंगे.

‘‘फिर तो मेरा शक यकीन में बदल गया कि तुम दोनों मिल कर मुझे बेवकूफ बना रहे हो,’’ कहतेकहते मां थोड़ी गंभीर हो गईं.

‘‘नहीं मां ऐसा नहीं है,’’ उस ने मां के कंधे पकड़ कर कहा.

मां झटके से अलग होती हुई बोलीं, ‘‘देखो स्वरूप एक बात अच्छी तरह समझ लो…’’

‘‘क्या मां?’’ स्वरूप डरासहमा सा बोला.

‘‘यही कि तुम्हारी पसंद…’’ कहतेकहते मां रुक गईं.

स्वरूप को लगा जैसे उस की धड़कनें रुक जाएंगी.

तभी मां खिलखिला कर हंस पड़ीं, ‘‘जरा अपनी सूरत तो देखो. ऐसे लग रहे हो जैसे ऐग्जाम में फेल होने के बाद चेहरा बन गया हो तुम्हारा. मैं तो कह रही थी कि तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है. मुझे बस ऐसी ही लड़की चाहिए थी बहू के रूप में… सर्वगुणसंपन्न… रियली आई लाइक योर चौइस.’’

मां के शब्द सुन कर स्वरूप अपनी खुशी रोक नहीं पाया और मां के गले से लग गया, ‘‘आई लव यू मां.’’

मां प्यार से बेटे की पीठ थपथपाने लगीं.

लिफाफाबंद चिट्ठी : ट्रेन में चढ़ी वह महिला क्यों मदद की गुहार लगा रही थी

मैंने घड़ी देखी. अभी लगभग 1 घंटा तो स्टेशन पर इंतजार करना ही पड़ेगा. कुछ मैं जल्दी आ गया था और कुछ ट्रेन देरी से आ रही थी. इधरउधर नजरें दौड़ाईं तो एक बैंच खाली नजर आ गई. मैं ने तुरंत उस पर कब्जा कर लिया. सामान के नाम पर इकलौता बैग सिरहाने रख कर मैं पांव पसार कर लेट गया. अकेले यात्रा का भी अपना ही आनंद है. सामान और बच्चों को संभालने की टैंशन नहीं. आराम से इधरउधर ताकाझांकी भी कर लो.

स्टेशन पर बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी. पर जैसे ही कोई ट्रेन आने को होती, एकदम हलचल मच जाती. कुली, ठेले वाले एकदम चौकन्ने हो जाते. ऊंघते यात्री सामान संभालने लगते. ट्रेन के रुकते ही यात्रियों के चढ़नेउतरने का सिलसिला शुरू हो जाता. उस समय यह निश्चित करना मुश्किल हो जाता था कि ट्रेन के अंदर ज्यादा भीड़ है या बाहर? इतने इतमीनान से यात्रियों को निहारने का यह मेरा पहला अवसर था. किसी को चढ़ने की जल्दी थी, तो किसी को उतरने की. इस दौरान कौन खुश है, कौन उदास, कौन चिंतित है और कौन पीडि़त यह देखनेसमझने का वक्त किसी के पास नहीं था.

किसी का पांव दब गया, वह दर्द से कराह रहा है, पर रौंदने वाला एक सौरी कह चलता बना. ‘‘भैया जरा साइड में हो कर सहला लीजिए,’’ कह कर आसपास वाले रास्ता बना कर चढ़नेउतरने लगे. किसी को उसे या उस के सामान को चढ़ाने की सुध नहीं थी. चढ़ते वक्त एक महिला की चप्पलें प्लेटफार्म पर ही छूट गईं. वह चप्पलें पकड़ाने की गुहार करती रही. आखिर खुद ही भीड़ में रास्ता बना कर उतरी और चप्पलें पहन कर चढ़ी.

मैं लोगों की स्वार्थपरता देख हैरान था. क्या हो गया है हमारी महानगरीय संस्कृति को? प्रेम, सौहार्द और अपनेपन की जगह हर किसी की आंखों में अविश्वास, आशंका और अजनबीपन के साए मंडराते नजर आ रहे थे. मात्र शरीर एकदूसरे को छूते हुए निकल रहे थे, उन के मन के बीच का फासला अपरिमित था. मुझे सहसा कवि रामदरश मिश्र की वह उपमा याद आ गई, ‘कैसा है यह एकसाथ होना, दूसरे के साथ हंसना न रोना. क्या हम भी लैटरबौक्स की चिट्ठियां बन गए हैं?’

इस कल्पना के साथ ही स्टेशन का परिदृश्य मेरे लिए सहसा बदल गया. शोरशराबे वाला माहौल निस्तब्ध शांति में तबदील हो गया. अब वहां इंसान नहीं सुखदुख वाली अनंत चिट्ठियां अपनीअपनी मंजिल की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थीं. लेकिन कोई किसी से नहीं बोल रही थी. मैं मानो सपनों की दुनिया में विचरण करने लगा था.

‘‘हां, यहीं रख दो,’’ एक नारी स्वर उभरा और फिर ठकठक सामान रखने की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. गोद में छोटे बच्चे को पकड़े एक संभ्रांत सी महिला कुली से सामान रखवा रही थी. बैंच पर बैठने का उस का मंतव्य समझ मैं ने पांव समेट लिए और जगह बना दी. वह धन्यवाद दे कर मुसकान बिखेरती हुई बच्चे को ले कर बैठ गई. एक बार उस ने अपने सामान का अवलोकन किया. शायद गिन रही थी पूरा आ गया है या नहीं? फिर इतमीनान से बच्चे को बिस्कुट खिलाने लगी.

यकायक उस महिला को कुछ खयाल आया. उस ने अपनी पानी की बोतल उठा कर हिलाई. फिर इधरउधर नजरें दौड़ाईं. दूर पीने के पानी का नल और कतार नजर आ रहें थे. उस की नजरें मुड़ीं और आ कर मुझ पर ठहर गईं. मैं उस का मंतव्य समझ नजरें चुराने लगा. पर उस ने मुझे पकड़ लिया, ‘‘भाई साहब, बहुत जल्दी में घर से निकलना हुआ तो बोतल नहीं भर सकी. प्लीज, आप भर लाएंगे?’’

एक तो अपने आराम में खलल की वजह से मैं वैसे ही खुंदक में था और फिर ऊपर से यह बेगार. मेरे मन के भाव शायद मेरे चेहरे पर लक्षित हो गए थे. इसलिए वह तुरंत बोल पड़ी, ‘‘अच्छा रहने दीजिए. मैं ही ले आती हूं. आप थोड़ा टिंकू को पकड़ लेंगे?’’

वह बच्चे को मेरी गोद में पकड़ाने लगी, तो मैं झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं ही ले आता हूं,’’ कह कर बोतल ले कर रवाना हुआ तो मन में एक शक का कीड़ा बुलबुलाया कि कहीं यह कोई चोरउचक्की तो नहीं? आजकल तो चोर किसी भी वेश में आ जाते हैं. पीछे से मेरा बैग ही ले कर चंपत न हो जाए? अरे नहीं, गोद में बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कहां भाग सकती है? लो, बन गए न बेवकूफ? अरे, ऐसों का पूरा गिरोह होता है. महिलाएं तो ग्राहक फंसाती हैं और मर्द सामान ले कर चंपत. मैं ठिठक कर मुड़ कर अपना सामान देखने लगा.

‘‘मैं ध्यान रख रही हूं, आप के सामान का,’’ उस ने जोर से कहा.

मैं मन ही मन बुदबुदाया कि इसी बात का तो डर है. कतार में खड़े और बोतल भरते हुए भी मेरी नजरें अपने बैग पर ही टिकी रहीं. लौट कर बोतल पकड़ाई, तो उस ने धन्यवाद कहा. फिर हंस कर बोली, ‘‘आप से कहा तो था कि मैं ध्यान रख रही हूं. फिर भी सारा वक्त आप की नजरें इसी पर टिकी रहीं.’’

अब मैं क्या कहता? ‘खैर, कर दी एक बार मदद, अब दूर रहना ही ठीक है,’ सोच कर मैं मोबाइल में मैसेज पढ़ने लगा. यह अच्छा जरिया है आजकल, भीड़ में रहते हुए भी निस्पृह बने रहने का.

‘‘आप बता सकते हैं कोच नंबर 3 कहां लगेगा?’’ उस ने मुझ से फिर संपर्कसूत्र जोड़ने की कोशिश की.

‘‘यहीं या फिर थोड़ा आगे,’’ सूखा सा जवाब देते वक्त अचानक मेरे दिमाग में कुछ चटका कि ओह, यह भी मेरे ही डब्बे में है? मेरी नजरें उस के ढेर सारे सामान पर से फिसलती हुईं अपने इकलौते बैग पर आ कर टिक गईं. अब यदि इस ने अपना सामान चढ़वाने में मदद मांगी या बच्चे को पकड़ाया तो? बच्चू, फूट ले यहां से. हालांकि ट्रेन आने में अभी 10 मिनट की देर थी. पर मैं ने अपना बैग उठाया और प्लेटफार्म पर टहलने लगा.

कुछ ही देर में ट्रेन आ पहुंची. मैं लपक कर डब्बे में चढ़ा और अपनी सीट पर जा कर पसर गया. अभी मैं पूरी तरह जम भी नहीं पाया था कि उसी महिला का स्वर सुनाई दिया, ‘‘संभाल कर चढ़ाना भैया. हां, यह सूटकेस इधर नीचे डाल दो और उसे ऊपर चढ़ा दो… अरे भाई साहब, आप की भी सीट यहीं है? चलो, अच्छा है… लो भैया, ये लो अपने पूरे 70 रुपए.’’

मैं ने देखा वही कुली था. पैसे ले कर वह चला गया. महिला मेरे सामने वाली सीट पर बच्चे को बैठा कर खुद भी बैठ गई और सुस्ताने लगी. मुझे उस से सहानुभूति हो आई कि बेचारी छोटे से बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कैसे अकेले सफर कर रही है? पर यह सहानुभूति कुछ पलों के लिए ही थी. परिस्थितियां बदलते ही मेरा रुख भी बदल गया. हुआ यों कि टी.टी. आया तो वह उस की ओर लपकी. बोली, ‘‘मेरी ऊपर वाली बर्थ है. तत्काल कोटे में यही बची थी. छोटा बच्चा साथ है, कोई नीचे वाली सीट मिल जाती तो…’’

मेरी नीचे वाली बर्थ थी. कहीं मुझे ही बलि का बकरा न बनना पड़े, सोच कर मैं ने तुरंत मोबाइल निकाला और बात करने लगा. टी.टी. ने मुझे व्यस्त देख पास बैठे दूसरे सज्जन से पूछताछ आरंभ कर दी. उन की भी नीचे की बर्थ थी. वे सीटों की अदलाबदली के लिए राजी हो गए, तो मैं ने राहत की सांस ले कर मोबाइल पर बात समाप्त की. वे सज्जन एक उपन्यास ले कर ऊपर की बर्थ पर जा कर आराम से लेट गए. महिला ने भी राहत की सांस ली.

‘‘चलो, यह समस्या तो हल हुई… मैं जरा टौयलेट हो कर आती हूं. आप टिंकू को देख लेंगे?’’ बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह उठ कर चल दी. मुझ जैसे सज्जन व्यक्ति से मानो इनकार की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी.

मैं ने सिर थाम लिया कि इस से तो मैं सीट बदल लेता तो बेहतर था. मुझे आराम से उपन्यास पढ़ते उन सज्जन से ईर्ष्या होने लगी. उस महिला पर मुझे बेइंतहा गुस्सा आ रहा था कि क्या जरूरत थी उसे एक छोटे बच्चे के संग अकेले सफर करने की? मेरे सफर का सारा मजा किरकिरा कर दिया. मैं बैग से

अखबार निकाल कर पढ़े हुए अखबार को दोबारा पढ़ने लगा. वह महिला तब तक लौट आई थी.

‘‘मैं जरा टिंकू को भी टौयलेट करा लाती हूं. सामान का ध्यान तो आप रख ही रहे हैं,’’ कहते हुए वह बच्चे को ले कर चली गई. मैं ने अखबार पटक दिया और बड़बड़ाया कि हां बिलकुल. स्टेशन से बिना पगार का नौकर साथ ले कर चढ़ी हैं मैडमजी, जो कभी इन के बच्चे का ध्यान रखेगा, कभी सामान का, तो कभी पानी भर कर लाएगा…हुंह.

तभी पैंट्रीमैन आ गया, ‘‘सर, आप खाना लेंगे?’’

‘‘हां, एक वैज थाली.’’

वह सब से पूछ कर और्डर लेने लगा. अचानक मुझे उस महिला का खयाल आया कि यदि उस ने खाना और्डर नहीं किया तो फिर स्टेशन से मुझे ही कुछ ला कर देना पड़ेगा या शायद शेयर ही करना पड़ जाए. अत: बोला, ‘‘सुनो भैया, उधर टौयलेट में एक महिला बच्चे के साथ है. उस से भी पूछ लेना.’’

कुछ ही देर में बच्चे को गोद में उठाए वह प्रकट हो गई, ‘‘धन्यवाद, आप ने हमारे खाने का ध्यान रखा. पर हमें नहीं चाहिए. हम तो घर से काफी सारा खाना ले कर चले हैं. वह रामधन है न, हमारे बाबा का रसोइया उस ने ढेर सारी सब्जी व पूरियां साथ रख दी हैं. बस, जल्दीजल्दी में पानी भरना भूल गया, बल्कि हम तो कह रहे हैं आप भी मत मंगाइए. हमारे साथ ही खा लेना.’’

मैं ने कोई जवाब न दे कर फिर से अखबार आंखों के आगे कर लिया और सोचने लगा कि या तो यह महिला निहायत भोली है या फिर जरूरत से ज्यादा शातिर. हो सकता है खाने में कुछ मिला कर लाई हो. पहले भाईचारा गांठ रही है और फिर… मुझे सावधान रहना होगा. इस का आज का शिकार निश्चितरूप से मैं ही हूं.

जबलपुर स्टेशन आने पर खाना आ गया था. मैं कनखियों से उस महिला को खाना निकालते और साथ ही बच्चे को संभालते देख रहा था. पर मैं जानबूझ कर अनजान बना अपना खाना खाता रहा.

‘‘थोड़ी सब्जीपूरी चखिए न. घर का बना खाना है,’’ उस ने इसरार किया.

‘‘बस, मेरा पेट भर गया है. मैं तो नीचे स्टेशन पर चाय पीने जा रहा हूं,’’ कह मैं फटाफट खाना खत्म करते हुए वहां से खिसक लिया कि कहीं फिर पानी या और कुछ न मंगा ले.

‘‘हांहां, आराम से जाइए. मैं आप के सामान का खयाल रख लूंगी.’’

‘ओह, बैग के बारे में तो भूल ही गया था. इस की नजर जरूर मेरे बैग पर है. पर क्या ले लेगी? 4 जोड़ी कपड़े ही तो हैं. यह अलग बात है कि सब अच्छे नए जोड़े हैं और आज के जमाने में तो वे ही बहुत महंगे पड़ते हैं. पर छोड़ो, बाहर थोड़ी आजादी तो मिलेगी. इधर तो दम घुटने लगा है,’ सोचते हुए मैं नीचे उतर गया. चाय पी तो दिमाग कुछ शांत हुआ. तभी मुझे अपना एक दोस्त नजर आ गया. वह भी उसी गाड़ी में सफर कर रहा था और चाय पीने उतरा था. बातें करते हुए मैं ने उस के संग दोबारा चाय पी. मेरा मूड अब एकदम ताजा हो गया था. हम बातों में इतना खो गए कि गाड़ी कब खिसकने लगी, हमें ध्यान ही न रहा. दोस्त की नजर गई तो हम भागते हुए जो डब्बा सामने दिखा, उसी में चढ़ गए. शुक्र है, सब डब्बे अंदर से जुड़े हुए थे. दोस्त से विदा ले कर मैं अपने डब्बे की ओर बढ़ने लगा. अभी अपने डब्बे में घुसा ही था कि एक आदमी ने टोक दिया, ‘‘क्या भाई साहब, कहां चले गए थे? आप की फैमिली परेशान हो रही है.’’

आगे बढ़ा तो एक वृद्ध ने टोक दिया, ‘‘जल्दी जाओ बेटा. बेचारी के आंसू निकलने को हैं,’’ अपनी सीट तक पहुंचतेपहुंचते लोगों की नसीहतों ने मुझे बुरी तरह खिझा दिया था.

मैं बरस पड़ा, ‘‘नहीं है वह मेरी फैमिली. हर किसी राह चलते को मेरी फैमिली बना देंगे आप?’’

‘‘भैया, वह सब से आप का हुलिया बताबता कर पूछ रही थी, चेन खींचने की बात कर रही थी. तब किसी ने बताया कि आप जल्दी में दूसरे डब्बे में चढ़ गए हैं. चेन खींचने की जरूरत नहीं है, अभी आ जाएंगे तब कहीं जा कर मानीं,’’ एक ने सफाई पेश की.

‘‘क्या चाहती हैं आप? क्यों तमाशा बना रही हैं? मैं अपना ध्यान खुद रख सकता हूं. आप अपना और अपने बच्चे का ध्यान रखिए. बहुत मेहरबानी होगी,’’ मैं ने गुस्से में उस के आगे हाथ जोड़ दिए.

इस के बाद पूरे रास्ते कोई कुछ नहीं बोला. एक दमघोंटू सी चुप्पी हमारे बीच पसरी रही. मुझे लग रहा था मैं अनावश्यक ही उत्तेजित हो गया था. पर मैं चुप रहा. मेरा स्टेशन आ गया था. मैं उस पर फटाफट एक नजर भी डाले बिना अपना बैग उठा कर नीचे उतर गया. अपना वही दोस्त मुझे फिर नजर आ गया तो मैं उस से बतियाने रुक गया. हम वहीं खड़े बातें कर रहे थे कि एक अपरिचित सज्जन मेरी ओर बढ़े. उन की गोद में उसी बच्चे को देख मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे उस महिला के पति होंगे.

‘‘किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं? संजना बता रही है, आप ने पूरे रास्ते उस का और टिंकू का बहुत खयाल रखा. वह दरअसल अपने बीमार बाबा के पास पीहर गई हुई थी. मैं खुद उसे छोड़ कर आया था. यहां अचानक मेरे पापा को हार्टअटैक आ गया. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. संजना को पता चला तो आने की जिद पकड़ बैठी. मैं ने मना किया कि कुछ दिनों बाद मैं खुद लेने आ जाऊंगा पर उस से रहा नहीं गया. बस, अकेले ही चल पड़ी. मैं कितना फिक्रमंद हो रहा था…’’

‘‘मैं ने कहा था न आप को फिक्र की कोई बात नहीं है. हमें कोई परेशानी नहीं होगी. और देखो ये भाई साहब मिल ही गए. इन के संग लगा ही नहीं कि मैं अकेली सफर कर रही हूं.’’

मैं असहज सा महसूस करने लगा. मैं ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओह, 5 बज गए. मैं चलता हूं… क्लाइंट निकल जाएगा,’’ कहते हुए मैं आगे बढ़ते यात्रियों में शामिल हो गया. लिफाफाबंद चिट्ठियों की भीड़ में एक और चिट्ठी शुमार हो गई थी.

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