फेसबुक: श्वेता और राशी क्या बच पाई इस जाल से

कालेज में फ्री पीरियड में जैसे ही श्वेता ने अपनी सहेली अमिता और राशी को अपने बौयफ्रैंड रोहन के बारे में बताया तो राशी हैरान होते हुए बोली, ‘‘तू बड़ी छिपीरुस्तम निकली, पिछले 6 महीने से तुम दोनों का चक्कर चल रहा है और हमें तू आज बता रही है.’’

‘‘तो तुम ने कौन सा अपने जयपुर वाले बिजनैसमैन बौयफ्रैंड संचित से हमें अभी तक मिलवाया है,’’ श्वेता ने पलट कर जवाब दिया.

‘‘प्लीज, दोनों लड़ो मत. चलो, कैंटीन चलते हैं, बाकी बातें वहीं कर लेना,’’ अमिता दोनों को चुप कराते हुए बोली.तीनों क्लास रूम से उठ कर कैंटीन की तरफ चल दीं.

राशी ने 3 बर्गर और हौट कौफी और्डर करते हुए श्वेता से पूछा, ‘‘चल छोड़, अब यह बता, तुम मिले कहां? रोहन के परिवार में कौनकौन है? हमें उस से कब मिलवा रही है?’’

‘‘क्या एक के बाद एक सवालों की बौछार कर रही है, आराम से एकएक कर के पूछ,’’ अमिता ने राशी को टोका.

‘‘अभी तो मैं ही रोहन से नहीं मिली तो तुम्हें कैसे मिलवाऊं,’’ श्वेता ने मजबूरी जताई.

‘‘तो पिछले 6 महीने से तुम एक बार भी नहीं मिले,’’ राशी ने हैरानी से पूछा.

‘‘तो तुम कौन सा संचित से मिली हो,’’ श्वेता ने उसी लहजे में राशी से पूछा.

‘‘संचित बिजनैस के सिलसिले में अकसर विदेश जाता है, उस ने तो मुझे अपने साथ सिंगापुर चलने के लिए कहा था, पर मैं ने ही मना कर दिया. शादी के बाद उस के साथ दुनिया घूमूंगी,’’ राशी चहकते हुए बोली.

‘‘चलो, चलो, बर्गर खाओ, ठंडा हो रहा है,’’ अमिता ने कहा.

‘‘अच्छा, यह तो बता रोहन दिखता कैसा है, उस का कोई फोटो तो दिखा,’’ राशी श्वेता का मोबाइल उठाते हुए बोली.

‘‘अभी उस की आर्मी की ट्रेनिंग पूरी नहीं हुई है, इसलिए उस ने कोई फोटो नहीं भेजा,’’ श्वेता ने जवाब दिया, ‘‘सुनो, कल उस का बर्थडे है, मैं तुम सब को ट्रीट दूंगी,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘क्या तू ने रोहन के लिए कोई गिफ्ट नहीं भेजा,’’ अमिता ने श्वेता से पूछा.

‘‘क्यों नहीं, मैं ने उस की मनपसंद घड़ी कोरियर से एक हफ्ते पहले ही भेज दी थी,’’ श्वेता बोली.

‘‘पिछले महीने तेरे बर्थडे पर रोहन ने क्या दिया,’’ राशी ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘उस ने कहा कि वह ट्रेनिंग खत्म होते ही दिल्ली आएगा और मुझे मनपसंद शौपिंग कराएगा,’’ श्वेता चहकते हुए बोली.

‘‘ग्रेट,’’ राशी ने कहा.

‘‘एक मिनट, मुझे तो तुम दोनों के बौयफ्रैंड्स में कुछ गड़बड़ लग रही है,’’ अमिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘तेरा कोई बौयफ्रैंड नहीं है, इसलिए तू हम से जलती है,’’ राशी तुनक कर बोली.

तीनों कैंटीन से आ कर क्लास रूम में बैठ गईं, पर अमिता का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था, वह यही सोचती रही कि जिन लड़कों को इन्होंने देखा नहीं, उन से मिली नहीं, उन के सपनों में खो कर अपना कीमती समय बरबाद कर रही हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन दोनों को एक ही लड़का बेवकूफ बना रहा हो, लेकिन इन्हें समझाना बहुत मुश्किल है. उस ने मन ही मन एक प्लान बनाया और कालेज की छुट्टी के समय दोनों से बोली, ‘‘सुनो, तुम दोनों संडे को मेरे घर आ जाओ, मैं घर पर अकेली हूं, मम्मीपापा कहीं बाहर जा हे हैं.’’

राशी और श्वेता दोनों संडे को 11 बजे अमिता के घर पहुंच गईं. अमिता दोनों के लिए गरमागरम मैगी बना कर लाई. इसी बीच अमिता अपना लैपटौप भी उठा लाई और दोनों से बोली, ‘‘चलो, आज रोहन और संचित से चैटिंग करते हैं.’’

यह सुन कर श्वेता ने जल्दी से अपना फेसबुक अकाउंट ओपेन किया और रोहन से चैटिंग करने लगी.

‘‘सुन, तू उसे यह मत बताना कि मेरी सहेलियां भी साथ हैं. उस से उस के कुछ फोटो मंगा,’’ अमिता ने श्वेता को सलाह दी.

‘‘6 महीने में रोहन को पूरा विश्वास हो गया था कि श्वेता उस के जाल में पूरी तरह फंस चुकी है, इसलिए उस ने अपने कुछ फोटो उसे भेज दिए.’’

फोटो देखते ही राशी चौंक उठी और बोली, ‘‘ये तो संचित के फोटो हैं.’’

अमिता उसे शांत करते हुए बोली, ‘‘चौंक मत, संचित और रोहन अलग न हो कर एक ही शख्स है, यह न तो आर्मी में है और न ही बिजनैसमैन. यह तुम दोनों को अपने अलगअलग नामों से बेवकूफ बना रहा है.’’

‘‘यह तू क्या कह रही है, क्या तू इसे जानती है?’’ राशी ने अमिता से पूछा.

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम ही सोचो, तुम ने अपने बौयफ्रैंड्स को महंगे गिफ्ट भेजे, लेकिन उन्होंने तुम्हें कुछ नहीं दिया, मिलने के मौकों को टाला, यह तो अच्छा है कि तुम दोनों समय रहते बच गईं.’’

‘‘आजकल सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर आएदिन ऐसे किस्से सुनने को मिल रहे हैं. इसलिए इन सब से सावधान रहना चाहिए,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘पर मुझे तो रोहन ने अपना एड्रैस दिया था, जिस पर मैं ने गिफ्ट भेजे हैं,’’ श्वेता ने कहा.

‘‘मेरी भोली सहेली, जब तक तुम उस का पता करने उस के एड्रैस पर पहुंचोगी तब तक वह शातिर वहां से भाग चुका होगा, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं, इसलिए कभी भी वे एक एड्रैस पर लंबे समय तक नहीं ठहरते. बस, अपना उल्लू सीधा किया और नौदो ग्यारह हो गए.’’ अमिता ने कहा.ॉ

ये भी पढ़ें- Short Story: प्यार था या कुछ और

‘‘कम औन, पहले अपनी ग्रैजुएशन पूरी करो फिर बौयफ्रैंड बनाना,’’ उस ने दोनों को सुझाव दिया.

‘‘तू ठीक कहती है अमिता, तू ने हमें हकीकत से परिचित करवा कर समय रहते बचा लिया, न जाने यह हमें कितना बेवकूफ बनाता,’’ राशी बोली.

‘‘चलो, तुम दोनों किसी अनहोनी से बच गईं अन्यथा ताउम्र उन्हें इस का खमियाजा भुगतना पड़ता. आओ, इसी बात पर पकौड़े बनाते हैं,’’ कह कर अमिता दोनों सहेलियों को ले कर किचन की ओर बढ़ गई.

आगाज: क्या ज्योति को मिल पाया उसका सच्चा प्यार?

कहानी- प्रेमलता यादु

‘‘क्यातुम मेरे इस जीवनपथ की हमराही बनना चाहोगी? क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’ प्रकाश के ऐसा कहते ही ज्योति आवाक उसे देखती रही. वह समझ ही नहीं पाई क्या कहे? उस ने कभी सोचा नहीं था कि प्रकाश के मन में उस के लिए ऐसी

कोई भावना होगी. उस के स्वयं के हृदय में प्रकाश के लिए इस प्रकार का खयाल कभी नहीं आया.

कई वर्षों से दोनों एकदूजे को जानते हैं. दोनों ने संग में न जाने कितना ही वक्त बिताया है. जब भी उसे कांधे की जरूरत होती. प्रकाश का कंधा सदैव मौजूद होता. ज्योति अपनी हर छोटी से छोटी खुशी

और बड़े से बड़ा दुख इस अनजान शहर में प्रकाश से ही साझा करती.

उन दोनों की दोस्ती गहरी थी. जबजब ज्योति किसी रिलेशनशिप में आती तो प्रकाश को बताती और जब ब्रेकअप होता तब भी वह प्रकाश से ही दुख जाहिर करती.

उस का यह पहला ब्रेकअप नहीं था. लेकिन दिल तो इस बार भी टूटा था. हां, दर्द जरूर थोड़ा कम था. यह सब जानते हुए प्रकाश का आज इस तरह शादी के लिए प्रपोज करना उसे उलझन में डाल गया. वह अपनी कौफी खत्म किए बिना और प्रकाश से कुछ कहे बगैर औफिस कैंटीन से अपने चैंबर में लौट आई. प्रकाश ने भी उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की. ज्योति विचारों के गिरह में उलझने लगी थी.

मरुस्थल के गरम रेत पर चलते हुए ज्योति के पैरों में फफोले आ चुके थे. मृगतृष्णा की तलाश में न जाने वह कब से अकेली भटक रही थी. जिस अमृतरूपी प्रेम का वह रसपान करना चाहती थी, वह प्रेम उसे हर बार एक विष के रूप में मिला. बचपन में मां को खोने के बाद लाड़प्यार को तरसती रही. सौतेली मां का दुर्व्यवहार और दबाव इतना था कि पिता भी उसे दुलार करने से डरते.

ज्योति का सारा बचपन मातापिता के स्नेह से वंचित रहा. फिर जब उसे जिंदगी को अपने ढंग से जीने का अवसर मिला, वह आंखों में रंगीन सपने लिए इस महानगरी मुंबई में आ पहुंची. यहां उसे लगने लगा उस की सच्चे प्यार और जीवनसाथी की तलाश जरूर पूरी होगी. लेकिन जब भी उसे ऐसा लगा कि उस ने अपना सच्चा प्यार पा लिया है, अगले ही पल वह प्रेम, वासना में तबदील हो गया. यों, आज जब प्रकाश उस के सामने एक सच्चे प्यार के रूप में खड़ा है वह क्यों उसे स्वीकार नहीं करना चाह रही? कारण शायद साफ था कि अब वह टूटना नहीं चाहती.

मन में चल रही उलझनों को सुलझाने के लिए सिगरेट सुलगा वह धुआं उड़ाने लगी. धीरेधीरे पूरा पैकेट खत्म होने लगा लेकिन इस धुएं में गुत्थियां खुलने के बजाय उलझने लगीं तो वह धुआं उड़ाती हुई अतीत की गलियों में मुड़ गई. जब उस ने अपने छोटे शहर पटना से एमबीए कर असिस्टैंट मैनेजिंग डायरैक्टर के पद पर इस जगमगाती कौर्पोरेट दुनिया में अपना पहला कदम रखा था. उस दिन से ही वह प्रकाश को जानती है. लेकिन प्रकाश से प्यार… नहीं. नहीं. प्रकाश उस के दिल के बहुत करीब जरूर है लेकिन वह उस से प्यार नहीं करती. प्रकाश उस का सब से अच्छा और सच्चा मित्र है.

उस का पहला प्यार तो पीयूष है, जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी और वह भी तो उस का दीवाना था. पीयूष के प्यार में वह इस कदर पागल थी कि दुनिया की परवा करना छोड़ चुकी थी. पीयूष जैसे लड़के की ही तमन्ना उसे थी. जब उसे देखती तो उस की आंखों में डूब जाती. हमउम्र थे दोनों. उस की हर बात ज्योति को दीवाना कर देती. इस पागलपन में उस ने कब अपना सबकुछ उसे समर्पित कर दिया, उसे पता ही नहीं चला. जब होश आया तब तक सब लुट चुका था और पीयूष का असली चेहरा सामने था.

पीयूष ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा था, ‘ज्योति, मैं तुम से प्यार तो करता हूं लेकिन मैं अपने मातापिता के विरुद्ध जा कर तुम्हारा साथ नहीं निभा सकता.’ यह सुनते ही ज्योति के जीवन में सैलाब आ गया था. पीयूष उस का पहला प्यार था जिसे वह अब खो चुकी थी. उस वक्त एक प्रकाश ही था जिस ने उसे इस हलाहल में डूबने से बचाया था. यह सब सोच ज्योति को घुटन महसूस होने लगी. वह घबरा कर खुली हवा में सांस लेने टैरेस पर जा खड़ी हुई.

रात गहरी और काली थी. इस से पहले उसे रात इतनी डरावनी कभी नहीं लगी. रोड पर इक्कादुक्का वाहनों की आवाजाही थी. दिन में कोलाहल से भरा यह शहर यामिनी की गोद में सो रहा था, लेकिन ज्योति के नयनों में निद्रा कहां? उस के मन में तो हलचल मची हुई थी.

पीयूष से मिली बेवफाई के बाद उस ने निश्चय कर लिया कि अब वह कभी किसी से प्यार नहीं करेगी, किसी पर विश्वास नहीं करेगी. अपने इन्हीं विचारों के साथ जब वह आगे बढ़ चली तभी उस के दिल के किवाड़ पर आयुष नाम की दस्तक हुई और एक बार फिर उस ने अपने दिल का दरवाजा खुलेमन से खोल दिया. लेकिन इस बार वह पूर्णरूप से सतर्क  थी.

धीरेधीरे उसे लगने लगा आयुष का प्रेम जिस्मानी नहीं. लेकिन यह भी भ्रम मात्र था. असल में आयुष का लक्ष्य भी उस के शरीर को ही पाना था. वह मौके की तलाश में था. ज्योति जब उस की असलियत से रूबरू हुई तो दोनों के रास्ते जुदा हो गए और इस बार फिर दिल ज्योति का ही टूटा.

हलकीहलकी ठंड लगने लगी, परंतु ज्योति टैरेस पर ही खड़ी रही. उसे याद है किस तरह आयुष से ब्रेकअप के बाद अवसाद ने उसे अपनी गिरफ्त में इस प्रकार जकड़ा था कि वह सिगरेट और शराब में अपनेआप को डुबोने लगी. इस वजह से औफिस में उस का परफौर्मैंस ग्राफ गिरने लगा. उस वक्त भी प्रकाश ही था जिस ने उसे इस परिस्थिति से उभारा. तब उस के मन में प्रकाश के लिए सम्मान और बढ़ गया.

साथ ही साथ, मन के एक कोने में प्रेम का बीज भी अंकुरित होने लगा जिसे वह दफना देना चाहती थी क्योंकि वह प्रकाश को खोना नहीं चाहती और न ही वह अपनेआप को उस के काबिल समझती है. यही कारण है कि उस ने अब तक प्रकाश से कुछ नहीं कहा.

आयुष के बाद चिराग पतझड़ में वसंत की बहार बन कर आया, जो उस की सारी सचाई जानते हुए उसे अपनाना चाहता था. लेकिन, उस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि चिराग की यह शर्त थी कि उसे अपने अतीत के साथसाथ प्रकाश को भी हमेशा के लिए भुला उस के संग चलना होगा. ज्योति किसी शर्त के साथ रिश्ते में नहीं बंधना चाहती थी, और फिर मोहब्बत में कैसी शर्त?

वह प्रकाश को किसी भी हाल में खोने को तैयार नहीं थी. फिर आज जब प्रकाश सदा के लिए उस का हो जाना चाहता है तो वह क्यों शादी के लिए हां नहीं कह पाई? बेशक, प्रकाश देखने में साधारण था, लेकिन बोलने में ऐसी कशिश थी कि उस के आगे उस का रंगरूप माने नहीं रखता था.

तभी उस के कंधे पर किसी ने हाथ रखा. वह घबरा कर मुड़ी, सामने प्रकाश खड़ा था. प्रकाश उस के हाथों से सिगरेट ले कर फेंकते हुए बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें इन सब से दूर रहने को कहा था न, और तुम…,’’ प्रकाश अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि ज्योति उस से लिपट फफकफफक कर रोने लगी. फिर खुद को प्रकाश से अलग कर उस की ओर पीठ करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां से चले जाओ, प्रकाश. मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे मुझ पर पहले ही बहुत एहसान हैं. पर बस… अब और नहीं. वैसे भी तुम जानते हो, मैं तुम्हारे लायक नहीं.’’

ज्योति की बातें सुन प्रकाश उसे अपनी ओर खींचते हुए बोला, ‘‘तुम ने ऐसा कैसे सोच लिया कि तुम मेरे लायक नहीं. तुम तो उन सब के साथ पाक दिल से चली थीं, नापाक तो उन के इरादे थे जिन्होंने तुम्हें मलिन किया. शादी के लिए जब लड़के का वर्जिन होना अनिवार्य नहीं, तो लड़की का होना जरूरी कैसे हो सकता है? शादी के लिए जरूरी होता है अपने जीवनसाथी के प्रति दिल से समर्पित होना, वफादार होना, जो तुम हो.’’ प्रकाश के ऐसा कहते ही ज्योति प्रकाश की बांहों में सिमट गई. काली अंधेरी रात बीत चुकी थी. ऊषा की पहली सुनहरी किरणें दोनों पर पड़ने लगीं जो नई सुबह का आगाज थीं.

स्वयंवर: मीता ने आखिर पति के रूप में किस को चुना

टेक्सटाइल डिजाइनर मीता रोज की तरह उस दिन भी शाम को अकेली अपने फ्लैट में लौटी, परंतु वह रोज जैसी नहीं थी. दोपहर भोजन के बाद से ही उस के भीतर एक कशमकश, एक उथलपुथल, एक अजीब सा द्वंद्व चल पड़ा था और उस द्वंद्व ने उस का पीछा अब तक नहीं छोड़ा था.

सुलभा ने दीपिका के बारे में अचानक यह घोषणा कर दी थी कि उस के मांबाप को बिना किसी परिश्रम और दानदहेज की शर्त के दीपिका के लिए अच्छाखासा चार्टर्ड अकाउंटैंट वर मिल गया है. दीपिका के तो मजे ही मजे हैं. 10 हजार रुपए वह कमाएगा और 4-5 हजार दीपिका, 15 हजार की आमदनी दिल्ली में पतिपत्नी के ऐशोआराम के लिए बहुत है.

दीपिका के बारे में सुलभा की इस घोषणा ने अचानक ही मीता को अपनी बढ़ती उम्र के प्रति सचेत कर दिया. सब के साथ वह हंसीबोली तो जरूर परंतु वह स्वाभाविक हंसी और चहक अचानक ही गायब हो गई और उस के भीतर एक कशमकश सी जारी हो गई.

जब तक मीता इंस्टिट्यूट में पढ़ रही थी और टेक्सटाइल डिजाइनिंग की डिगरी ले रही थी, मातापिता उस की शादी को ले कर बहुत परेशान थे. लेकिन जब वह दिल्ली की इस फैशन डिजाइनिंग कंपनी में 4 हजार रुपए की नौकरी पा गई और अकेली मजे से यहां एक छोटा सा फ्लैट ले कर रहने लगी, तब से वे लोग भी कुछ निश्ंिचत से हो गए.

मीता जानती है, उस के मातापिता बहुत दकियानूसी नहीं हैं. अगर वह किसी उपयुक्त लड़के का स्वयं चुनाव कर लेगी तो वे उन के बीच बाधा बन कर नहीं खड़े होंगे. परंतु यही तो उस के सामने सब से बड़ा संकट था. नौकरी करते हुए उसे यह तीसरा साल था और उस के साथ की कितनी ही लड़कियां शादी कर चुकी थीं. वे अब अपने पतियों के साथ मजे कर रही थीं या शहर छोड़ कर उन के साथ चली गई थीं. एक मीता ही थी जो अब तक इस पसोपेश में थी कि क्या करे, किसे चुने, किसे न चुने.

ऐसा नहीं था कि कहीं गुड़ रखा हो और चींटों को उस की महक न लगे और वे उस की तरफ लपकें नहीं. अपने इस खयाल पर मीता बरबस ही मुसकरा भी दी, हालांकि आज उस का मुसकराने का कतई मन नहीं हो रहा था.

राखाल बाबू प्राय: रोज ही उसे कंपनी बस से रास्ते में लौटते हुए मिलते हैं. एकदम शालीन, सभ्य, शिष्ट, सतर्क, मीता की परवा करने वाले, उस की तकलीफों के प्रति एक प्रकार से जिम्मेदारी अनुभव करने वाले, बुद्धिजीवी किस्म के, कम बोलने वाले, ज्यादा सुननेगुनने वाले. समाज की हर गतिविधि पर पैनी नजर. आंखों पर मोटे लैंस का चश्मा, गंभीर सा चेहरा, ऊंचा ललाट, कुछ कम होते जा रहे बाल. सदैव सफेद कमीज और सफेद पैंट ही पहनने वाले. जेब में लगा कीमती कलम, हाथ में पोर्टफोलियो के साथ दबे कुछ अखबार, पत्रिकाएं, किताबें.

जब तक मीता आ कर उन की सीट के पास खड़ी न हो जाती, वे बेचैन से बाहर की ओर ताकते रहते हैं. जैसे ही वह आ खड़ी होती है, वे एक ओर को खिसक कर उस के बैठने लायक जगह हमेशा बना देते हैं. वह बैठती है और नरम सी मुसकराहट उस के अधरों पर उभर आती है.

ऐसा नहीं है कि वे हमेशा असामान्य सी बातें करते हैं, परंतु मीता ने पाया है, वे अकसर सामान्य लोगों की तरह लंपटतापूर्ण न व्यवहार करते हैं, न बातें. उन के हर व्यवहार में एक गरिमा रहती है. एक श्रेष्ठता और सलीका रहता है. एक प्रकार की बहुत बारीक सी नफासत.

‘‘कहो, आज का दिन कैसा बीता…?’’ वे बिना उस की ओर देखे पूछ लेते हैं और वह बिना उन की ओर देखे जवाब दे देती है, ‘‘रोज जैसा ही…कुछ खास नहीं.’’

‘‘मीता, कैसी अजीब होती है यह जिंदगी. इस में जब तक रोज कुछ नया न हो, जाने क्यों लगता ही नहीं कि आज हम जिए. क्यों?’’ वे उत्तर के लिए मीता के चेहरे की रगरग पर अपनी पैनी नजरों से टटोलने लगते हैं, ‘‘जानती हो, मैं ने अखबारों से जुड़ी जिंदगी क्यों चुनी…? महज इसी नएपन के लिए. हर जगह बासीपन है, सिवा अखबारों के. यहां रोज नई घटनाएं, नए हादसे, नई समस्याएं, नए लोग, नई बातें, नए विचार…हर वक्त एक हलचल, एक उठापटक, एक संशय, संदेह भरा वातावरण, हर वक्त षड्यंत्र, सत्ता का संघर्ष. अपनेआप को बनाए रखने और टिकाए रखने की जीतोड़ कोशिशें… मित्रों के घातप्रतिघात, आघात और आस्तीनों के सांपों का हर वक्त फुफकारना… तुम अंदाजा नहीं लगा सकतीं मीता, जिंदगी में यहां कितना रोमांच, कितनी नवीनता, कितनी अनिश्चितता होती है…’’

‘‘लेकिन आप के धीरगंभीर स्वभाव से आप का यह कैरियर कतई मेल नहीं खाता…कहां आप चीजों पर विभिन्न कोणों से गंभीरता से सोचने वाले और कहां अखबारों में सिर्फ घटनाएं और घटनाएं…इन के अलावा कुछ नहीं. आप को उन घटनाओं में एक प्रकार की विचारशून्यता महसूस नहीं होती…? आप को नहीं लगता कि जो कुछ तेजी से घट रहा है वह बिना किसी सोच के, बिना किसी प्रयोजन के, बेकार और बेमतलब घटता चला जा रहा है?’’

‘‘यहीं मैं तुम से भिन्न सोचता हूं, मीता…’’

‘‘आजकल की पत्रपत्रिकाओं में तुम क्या देख रही हो…? एक प्रकार की विचारशून्यता…मैं इन घटनाओं के पीछे व्याप्त कारणों को तलाशता हूं. इसीलिए मेरी मांग है और मैं अपनी जगह बनाने में सफल हुआ हूं. मेरे लिए कोई घटना महज घटना नहीं है, उस के पीछे कुछ उपयुक्त कारण हैं. उन कारणों की तलाश में ही मुझे बहुत देर तक सोचते रहना पड़ता है.

‘‘तुम आश्चर्य करोगी, कभीकभी चीजों के ऐसे अनछुए और नए पहलू उभर कर सामने आते हैं कि मैं भी और मेरे पाठक भी एवं मेरे संपादक भी, सब चकित रह जाते हैं. आखिर क्यों…? क्यों होता है ऐसा…?

‘‘इस का मतलब है, हम घटनाओं की भीड़ से इतने आतंकित रहते हैं, इतनी हड़बड़ी और जल्दबाजी में रहते हैं कि इन के पीछे के मूल कारणों को अनदेखा, अनसोचा कर जाते हैं जबकि जरूरत उन्हें भी देखने और उन पर भी सोचने की होती है…’’

राखाल बाबू किसी भी घटना के पक्ष में सोच लेते हैं और विपक्ष में भी. वे आरक्षण के जितने पक्ष में विचार प्रस्तुत कर सकते थे, उस से ज्यादा उस के विपक्ष में भी सोच लेते थे. गजरौला के कानवैंट स्कूल की ननों के साथ घटी बलात्कार और लूट की घटना को उन्होंने महज घटना नहीं माना. उस के पीछे सभ्यता और संस्कृति से संपन्न वर्ग के खिलाफ, उजड्ड, वहशी और बर्बर लोगों का वह आदिम व्यवहार जिम्मेदार माना जो आज भी आदमी को जानवर बनाए हुए है.

मीता राखाल बाबू से नित्य मिलती और प्राय: नित्य ही उन के नए विचारों से प्रभावित होती. वह सोचती रह जाती, यह आदमी चलताफिरता विचारपुंज है. इस के साथ जिंदगी जीना कितना स्तरीय, कितना श्रेष्ठ और कितना अच्छा होगा. कितना अर्थपूर्ण जीवन होगा इस आदमी के साथ. वह महीनों से राखाल बाबू की कल्पनाओं में खोई हुई है. कितना अलग होगा उस का पति, सामान्य सहेलियों के साधारण पतियों की तुलना में. एक सोचनेसमझने वाला, चिंतक, श्रेष्ठ पुरुष, जिसे सिर्फ खानेपीने, मौज करने और बिस्तर पर औरत को पा लेने भर से ही मतलब नहीं होगा, जिस की जिंदगी का कुछ और भी अर्थ होगा.

लेकिन दूसरे क्षण ही मीता को अपनी कंपनी के निर्यात प्रबंधक विजय अच्छे लगने लगते. गोरा रंग, आकर्षक व्यक्तित्व, करीने से रखी गई दाढ़ी. चमकदार, तेज आंखें. हर वक्त आगे और आगे ही बढ़ते जाने का हौसला. व्यापार की प्रगति के लिए दिनरात चिंतित. कंपनी के मालिक के बेहद चहेते और विश्वासपात्र. खुला हुआ हाथ. खूब कमाना, खूब खर्चना. जेब में हर वक्त नोटों की गड्डियां और उन्हें हथियाने के लिए हर वक्त मंडराने वाली लड़कियां, जिन में एक वह खुद…

‘‘मीता, चलो आज 12 से 3 वाला शो देखते हैं.’’

‘‘क्यों साहब, फिल्म में कोई नई बात है?’’

मीता के चेहरे पर मुसकराहट उभरती है. जानती है, विजय जैसा व्यस्त व्यक्ति फिल्म देखने व्यर्थ नहीं जाएगा और लड़कियों के साथ वक्त काटना उस की आदत नहीं.

‘‘और क्या समझती हो, मैं बेकार में 3 घंटे खराब करूंगा…? उस में एक फ्रैंच लड़की है, क्या अनोखी पोशाक पहन रखी है, देखोगी तो उछल पड़ोगी. मैं चाहता हूं कि तुम उस में कुछ और नया प्रभाव पैदा कर उसे डिजाइन करो… देखना, यह एक बहुत बड़ी सफलता होगी.’’

कितना फर्क है राखाल बाबू में और विजय में. एक जिंदगी के हर पहलू पर सोचनेविचारने वाला बुद्धिजीवी और एक अलग किस्म का आदमी, जिस के साथ जीवन जीने का मतलब ही कुछ और होगा. नए से नए फैशन का दीवाना. नई से नई पोशाकों की कल्पना करने वाला, हर वक्त पैसे से खेलने वाला…एक बेहद आकर्षक और निरंतर आगे बढ़ते चले जाने वाला नौजवान, जिसे पीछे मुड़ कर देखना गवारा नहीं. जिसे एक पल ठहर कर सोचने की फुरसत नहीं.

तीसरा राकेश है, राजनीति विज्ञान का विद्वान. पड़ोस की चंद्रा का भाई. अकसर जब यहां आता है तो होते हैं उस के साथ उस के ढेर सारे सपने, तमाम तमन्नाएं. अभी भी उस के चेहरे पर न राखाल बाबू वाली गंभीरता है, न विजय वाली व्यस्तता. बस आंखों में तैरते बादलों से सपने हैं. कल्पनाशील चेहरा एकदम मासूम सा.

‘‘अब क्या इरादा है, राकेश?’’ एक दिन उस ने यों ही हंसी में पूछ लिया था.

‘‘इजाजत दो तो कुछ प्रकट करूं…’’ वह सकुचाया.

‘‘इजाजत है,’’ वह कौफी बना लाई थी.

‘‘अपने इरादे हमेशा नेक और स्पष्ट रहे हैं, मीताजी,’’ राकेश ने कौफी पीते हुए कहा, ‘‘पहला इरादा तो आईएएस हो जाना है और वह हो कर रहूंगा, इस बार या अगली बार. दूसरा इरादा आप जैसी लड़की से शादी कर लेने का है…’’

राकेश एकदम ऐसे कह देगा इस की मीता को कतई उम्मीद नहीं थी. एक क्षण को वह अचकचा ही गई, पर दूसरे क्षण ही संभल गई, ‘‘पहले इरादे में तो पूरे उतर जाओगे राकेश, लेकिन दूसरे इरादे में तुम मुझे कच्चे लगते हो. जब आईएएस हो जाओगे और कोरा चैक लिए लड़की वाले जब तुम्हें तलाशते डोलेंगे तो देखने लगोगे कि किस चैक पर कितनी रकम भरी जा सकती है. तब यह 4 हजार रुपल्ली कमाने वाली मीता तुम्हें याद नहीं रहेगी.’’

‘‘आजमा लेना,’’ राकेश कह उठा, ‘‘पहले अपने प्रथम इरादे में पूरा हो लूं, तब बात करूंगा आप से. अभी से खयाली पुलाव पकाने से क्या फायदा?’’

एक दिन दिल्ली में आरक्षण विरोध को ले कर छात्रों का उग्र प्रदर्शन चल रहा था और बसों का आनाजाना रुक गया था. बस स्टाप पर बेतहाशा भीड़ देख कर मीता सकुचाई, पर दूसरे ही क्षण उसे अपनी ओर आते हुए राखाल बाबू दिखाई दिए, ‘‘आ गईं आप…? चलिए, पैदल चलते हैं कुछ दूर…फिर कहीं बैठ कर कौफी पीएंगे तब चलेंगे…’’

एक अच्छे रेस्तरां में कोने की एक मेज पर जा बैठे थे दोनों.

‘‘जीवन में क्या महत्त्वपूर्ण है राखाल बाबू…?’’ उस ने अचानक कौफी का घूंट भर कर प्याले की तरफ देखते हुए उन पर सवाल दागा था, ‘‘एक खूब कमाने वाला आकर्षक पति या एक आला दर्जे का रुतबेदार अफसर अथवा जीवन पर विभिन्न कोणों से हर वक्त विचार करते रहने वाला एक चिंतक…एक औरत इन में से किस के साथ जीवन सुख से बिता सकती है, बताएंगे आप…?’’

एक बहुत ही अहम सवाल मीता ने

राखाल बाबू से पूछ लिया था जिस

सवाल का उत्तर वह स्वयं अपनेआप को कई दिनों से नहीं दे पा रही थी. वह पसोपेश में थी, क्या सही है, क्या गलत? किसे चुने? किसे न चुने?

राखाल बाबू को वह बहुत अच्छी तरह समझ गई थी. जानती थी, अगर वह उन की ओर बढ़ेगी तो वे इनकार नहीं करेंगे बल्कि खुश ही होेंगे. विजय ने तो उस दिन सिनेमा हौल में लगभग स्पष्ट ही कर दिया था कि मीता जैसी प्रतिभाशाली फैशन डिजाइनर उसे मिल जाए तो वह अपनी निजी फैक्टरी डाल सकता है और जो काम वह दूसरों के लिए करता है वह अपने लिए कर के लाखों कमा सकता है. और राकेश…? वह लिखित परीक्षा में आ गया है, साक्षात्कार में भी चुन लिया जाएगा, मीता जानती है. लेकिन इन तीनों को ले कर उस के भीतर एक सतत द्वंद्व जारी है. वह तय नहीं कर पा रही, किस के साथ वह सुखी रह सकती है, किस के साथ नहीं…?

बहुत देर तक चुपचाप सोचते रहे राखाल बाबू. अपनी आदत के अनुसार गरम कौफी से उठती भाप ताकते हुए अपने भीतर कहीं डूबे रहे देर तक. जैसे भीतर कहीं शब्द ढूंढ़ रहे हों…

‘‘मीता…महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि इन में से औरत किस के साथ सुखी रह सकती है…महत्त्वपूर्ण यह है कि इन में से कौन है जो औरत को सचमुच प्यार करता है और करता रहेगा. औरत सिर्फ एक उपभोग की वस्तु नहीं है मीता. वह कोई व्यापारिक उत्पादन नहीं है…न वह दफ्तर की महज एक फाइल है, जिसे सरसरी नजर से देख कर आवश्यक कार्रवाई के लिए आगे बढ़ा दिया जाए. जीवन में हर किसी को सबकुछ तो नहीं मिल सकता मीता…अभाव तो बने ही रहेंगे जीवन में…जरूरी नहीं है कि अभाव सिर्फ पैसे का ही हो. दूसरों की थाली में अपनी थाली से हमेशा ज्यादा घी किसी न किसी कोण से आदमी को लगता ही रहेगा…ऐसी मृगतृष्णा के पीछे भागना मेरी समझ से पागलपन है. सब को सब कुछ तो नहीं लेकिन बहुत कुछ अगर मिल जाए तो हमें संतोष करना सीखना चाहिए.

‘‘जहां तक मैं समझता हूं, आदमी के लिए सिर्फ बेतहाशा भागते जाना ही सब कुछ नहीं है…दिशाहीन दौड़ का कोई मतलब नहीं होता. अगर हमारी दौड़ की दिशा सही है तो हम देरसवेर मंजिल तक भी पहुंचेंगे और सहीसलामत व संतुष्ट होते हुए पहुंचेंगे. वरना एक अतृप्ति, एक प्यास, एक छटपटाहट, एक बेचैनी जीवन भर हमारे इर्दगिर्द मंडराती रहेगी और हम सतत तनाव में जीते हुए बेचैन मौत मर जाएंगे.

‘‘मैं नहीं जानता कि तुम मेरी इन बातों से किस सीमा तक सहमत होगी, पर मैं जीवन के बारे में कुछ ऐसे ही सोचता हूं…’’

और मीता को लगा कि वह जीवन के सब से आसन्न संकट से उबर गई है. उसे वह महत्त्वपूर्ण निर्णय मिल गया है जिस की उसे तलाश थी. एक सतत द्वंद्व के बाद उस का मन एक निश्छल झील की तरह शांत हो गया और जब वह रेस्तरां से बाहर निकली तो अनायास ही उस ने अपना हाथ राखाल बाबू के हाथ में पाया. उस ने देखा, वे उसे एक स्कूटर की तरफ खींच रहे हैं, ‘‘चलो, बस तो मिलेगी नहीं, तुम्हें घर छोड़ दूं.’’

खोखली होती जड़ें: किस चीज ने सत्यम को आसमान पर चढ़ा दिया

New Year Special: मुसकुराता नववर्ष- क्या हुआ था कावेरी के साथ

family story in hindi

New Year Special: हैप्पी न्यू ईयर- निया को ले कर माधवी की सोच उस रात क्यों बदल गई

निया औफिस के लिए तैयार हो रही थी. माधवी वैसे तो ड्राइंगरूम में पेपर पढ़ रही थीं पर उन का पूरा ध्यान अपनी बहू निया की ओर ही था. लंबी, सुडौल देहयष्टि, कंधों तक कटे बाल, अच्छे पद पर कार्यरत अत्याधुनिक निया उन के बेटे विवेक की पसंद थी. माधवी को भी इस प्रेमविवाह में आपत्ति करने का कोई कारण नहीं मिला था. इतनी समझ तो वे भी रखती हैं कि इकलौते योग्य बेटे ने यों ही कोई लड़की पसंद नहीं की होगी. उन्होंने मूक सहमति दे दी थी पर पता नहीं क्यों उन्हें निया से दिल से एक दूरी महसूस होती थी. वे स्वयं उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में अकेली रहती थीं. पति श्याम सालों पहले साथ छोड़ गए थे.

विवेक की नौकरी मुंबई में थी. उस ने जब भी साथ रहने के लिए कहा था, माधवी ने यह कह कर टाल दिया था, ‘‘सारा जीवन यहीं तो बिताया है, पासपड़ोस है, संगीसाथी हैं. वहां

मुंबई में शायद मेरा मन न लगे. तुम दोनों तो औफिस में रहोगे दिन भर. अभी ऐसे ही चलने दो, जरूरत हुई तो तुम्हारे पास ही आऊंगी. और कौन है मेरा.’’

साल में एकाध बार वे मुंबई आ जाती हैं पर यहां उन का मन सचमुच नहीं लगता. दोनों दिन भर औफिस रहते, घर पर भी लैपटौप या फोन पर व्यस्त दिखते. साथ बैठ कर बातें करने का समय दोनों के पास अकसर नहीं होता. ऊपर से निया का मायका भी मुंबई में ही था. कभी वह मायके चली जाती तो घर उन्हें और भी खाली लगता.

नया साल आने वाला था. इस बार वे मुंबई आई हुई थीं. निया ने भी फोन पर कहा था, ‘‘यहां आना ही आप के लिए ठीक होगा. मेरठ की ठंड से भी आप बच जाएंगी.’’

निया से उन के संबंध कटु तो बिलकुल भी नहीं थे पर निया उन से बहुत कम बात करती थी. माधवी को लगता था कि शायद विवेक उन्हें जबरदस्ती मुंबई बुला लेता है और निया को शायद उन का आना पसंद न हो. निया की सोच बहुत आधुनिक थी.

‘‘पतिपत्नी दोनों कामकाजी हों तो घरबाहर दोनों के काम दोनों मिल कर ही संभालते हैं,’’ यह माधवी ने निया के मुंह से सुना था तो उस की स्पष्टवादिता पर बड़ी हैरान हुई थीं.

निया को वे मन ही मन खूब जांचतीपरखती और उस की बातों पर मन ही मन हैरान सी रह जातीं. सोचतीं, अजीब मुंहफट लड़की है. आधुनिकता और आत्मनिर्भरता ने इन लड़कियों का दिमाग खराब कर दिया है.

कल ही कह रही थी, ‘‘विवेक, मैं बहुत थक गई हूं. तुम ही सब का खाना लगा लो.’’

उन्हें तो थकेहारे बेटे पर तरस ही आ गया. फौरन कहा, ‘‘अरे, तुम दोनों आराम से फ्रैश हो लो. मैं खाना लगा लूंगी. श्यामा सब बना कर तो रख ही गई है. बस, लगाना ही तो है,’’ और फिर उन्होंने सब का खाना टेबल पर लगाया.

पिछले संडे को सुबह उठते ही कह रही थी, ‘‘विवेक, आज पूरा दिन रैस्ट का मूड है, श्यामा के हाथ के खाने का मूड नहीं है. नाश्ता बाहर से ले आओ और लंच भी और्डर कर देना.’’

माधवी ने पूछ लिया, ‘‘निया, मैं बना दूं कुछ?’’

निया ने हमेशा की तरह संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘नहीं मां, आप रैस्ट कीजिए.’’

मुझ से तो पता नहीं क्यों इतना कम बोलती है यह लड़की. अभी 2 साल ही तो हुए हैं विवाह को. सासबहू वाला कोई झगड़ा भी कभी नहीं हुआ, फिर इतनी गंभीर क्यों रहती है. ऐसा भी क्या सोचसमझ कर बात करना, माधवी अपनी सोच के दायरे में उलझी सी रहतीं.

माधवी को मुंबई आए 10 दिन हो रहे थे. निया नए साल पर सब दोस्तों को घर पर बुला कर पार्टी करने के मूड में थी. विवेक भी खूब उत्साहित था. पर अगले ही पल क्या हो जाए, किसे पता होता है. शाम को अचानक बाथरूम में माधवी का पैर फिसला तो वे चीख पड़ीं. विवेक और निया भागे आए. दर्द की अधिकता से माधवी के आंसू बह निकले थे. उन्हें फौरन हौस्पिटल ले जाया गया. पैर में फ्रैक्चर हो गया था. प्लास्टर चढ़ाया गया.

माधवी को इस बेबसी में रोना आ रहा था. घर आ कर भी 2-3 दिन सो न सकीं. बड़ी बेचैन थीं. डाक्टर को घर पर ही बुलाया गया. उन का ब्लडप्रैशर हाई था, पूर्ण आराम और दवा के लिए निर्देश दे डाक्टर चला गया. विवेक उन्हें आराम करने के लिए कह लैपटौप पर व्यस्त हो गया. माधवी को इस तकलीफ में जीने की आदत डालने में कुछ दिन लग गए. पहले निया के मना करने पर भी कुछ न कुछ इधरउधर करते हुए अपना समय बिता लेती थीं, अब तो अकेलापन और बढ़ता लग रहा था.

एक संडे को वे चुपचाप अपने रूम में लेटी थीं. अचानक उन का मन हुआ कि वाकर की सहायता से ड्राइंगरूम तक जा कर देखें. यह टू बैडरूम फ्लैट था. वे बड़ी हिम्मत से वाकर के सहारे अपने रूम से बाहर निकलीं तो उन्हें बच्चों के रूम से निया का तेज स्वर सुनाई दिया. उन का दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं था. न चाहते हुए भी उन्होंने निया की बात पर ध्यान दिया.

निया तेज स्वर में कह रही थी, ‘‘मां तुम्हारी है, तुम्हें सोचना चाहिए.’’

माधवी को तेज झटका लगा, मन आहत हुआ कि इस का मतलब मेरा अंदाजा सही था कि निया को मेरा यहां आना पसंद नहीं. अब? इतना स्वाभिमान तो मुझ में भी है कि बेटेबहू के घर अवांछित सी नहीं रहूंगी. फिर फैसला कर लिया कि जल्द ही वापस चली जाएगी. अकेली रह लेंगी पर यहां नहीं आएंगी. इसलिए निया इतनी गंभीर रहती है.

उन की आंखों से मजबूरी और अपमान से आंसू बहने लगे. चुपचाप अपने रूम में आ कर लेट गईं. थोड़ी देर बाद निया उन के लिए शाम की चाय ले कर आई तो उन्होंने उस के चेहरे पर नजर भी नहीं डाली.

निया ने कहा, ‘‘मां, उठिए, चाय लाई हूं.’’

‘‘ले लूंगी, तुम रख दो.’’

निया चाय रख कर चली गई. माधवी का दिल भर आया, कोई उन से पूछने वाला भी नहीं कि वे क्यों उदास, दुखी हैं. थोड़ी देर में उन्होंने ठंडी होती चाय पी ली और विवेक को आवाज दी. विवेक आ कर गंभीर मुद्रा में बैठ गया. उन्हें बेटे पर बड़ा तरस आया. सोचा,पिसते हैं बेटे मां और पत्नी के बीच.बेटा भी क्या करे. नहीं वह बेटे की गृहस्थी में तनाव का कारण नहीं बनेगी, सोच माधवी बोलीं, ‘‘विवेक प्लास्टर कटते ही मेरा टिकट करवा देना.’’

विवेक चौंका, ‘‘क्या हुआ, मां?’’

‘‘बस, जाने का मन कर रहा है.’’

‘‘ठीक हो जाओ, चली जाना. अभी तो टाइम लगेगा,’’ कह कर विवेक चला गया.

ठंडी सांस भर कर माधवी अपने विचारों में डूबतीउतरती रहीं. 27 दिसंबर की शाम को तीनों साथ ही डिनर कर रहे थे. माधवी ने यों ही पूछ लिया, ‘‘बेटा, तुम्हारी न्यू ईयर पार्टी का क्या हुआ?’’

‘‘निया ने कैंसिल कर दी, मां.’’

‘‘क्यों? तुम लोग तो इतने खुश थे?’’

‘‘बस, निया ने मना कर दिया.’’

‘‘पर क्यों, बेटा?’’

‘‘सब आएंगे, शोरशराबा होगा, आप डिस्टर्ब होंगी, आप को आराम की जरूरत है.’’ निया ने जवाब दिया.

‘‘अरे नहीं, मुझे तो अच्छा लगेगा, घर में रौनक होगी, बहुत बोर हो रही हूं मैं तो, तुम लोग आराम से नए साल का स्वागत करो, मजा आएगा.’’

निया बहुत हैरान हुई, ‘‘सच? मां? आप डिस्टर्ब नहीं होंगी?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं.’’

निया ने मुसकरा कर थैंक्स मां कहा तो माधवी को अच्छा लगा.

फिर कहा, ‘‘बस, मेरे जाने का टिकट भी करवा दो अब.’’

निया ने कहा, ‘‘नहीं, अभी तो आप की फिजियोथेरैपी भी होगी कुछ दिन.’’

माधवी उफ, कह कर चुप हो गईं. प्रत्यक्षतया तो सब सामान्य था पर माधवी अनमनी थीं. अब माधवी से दिन नहीं कट रहे थे. कभीकभी बेबस, बेचैन सी हो जातीं. मन रहा था अब. बहू उन्हें रखना नहीं चाहती, बेटा मजबूर है, यह बात दिल को कचोटती रहती थी.

31 दिसंबर की पार्टी की तैयारी में निया व्यस्त हो गई. विवेक भी हर बात, हर काम में यथासंभव साथ दे रहा था. दोनों के करीब 15 दोस्त आने वाले थे. बैठेबैठे जितना संभव था माधवी भी हाथ बंटा रही थीं. खाने की कुछ चीजें बना ली थीं, कुछ और्डर कर दी थीं. दोपहर तक सारी तैयारी के बाद लंच कर के माधवी थोड़ी देर अपने रूम में आ कर लेट गईं. अभी 3 बजे थे. 20 मिनट के लिए उन की आंख भी लग गई. उठी तो चाय की इच्छा हुई. पर फिर सोचा कि बेटाबहू आराम कर रहे होंगे, वे थक गए होंगे. अत: वह खुद ही चाय बना लेंगी.

अपने वाकर के साथ वे धीरे से उठीं तो बेटेबहू के कमरे से तेज आवाजें सुन कर ठिठक गईं, वे सुनने की कोशिश करने लगीं कि क्या फिर मेरी उपस्थिति को ले कर दोनों में झगड़ा हो रहा है? रात को तो पार्टी है और अब यह झगड़ा, वह भी उस के कारण? आंसू बह निकले.

निया की आवाज बहुत स्पष्ट थी, ‘‘मां को कहने दो, तुम कैसे मां को वापस भेजने के लिए तैयार हो? मां इतनी शांत, स्नेहिल हैं, उन से किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? वे दिन भर अकेली रहती हैं, उन का मन नहीं लगता होगा. तभी उस दिन अपना टिकट करवाने के लिए कहा होगा. मैं ने अपने औफिस में बात कर ली है. जब तक उन का प्लास्टर नहीं उतरता मैं वर्क फ्रौम होम कर रही हूं. बहुत ही जरूरी होगा किसी दिन तब चली जाऊंगी. तुम बेटे हो कर भी उन्हें भेजने की बात कैसे मान जाते हो? और कौन है उन का? वे अब कहीं नहीं जाएंगी, यहीं रहेंगी हमारे साथ.’’

मन में उठे भावों के उतारचढ़ाव से वाकर पकड़े माधवी के तो हाथ ही कांप गए, चुपचाप आ कर अपने बैड पर धम्म से बैठ गईं कि वह क्या सोच रही थी और सच क्या था.

वह कितना गलत सोच रही थी. क्या उस ने अपने मन के दायरे इतने सीमित कर लिए थे कि निया के गंभीर स्वभाव, उस की आधुनिकता को ही जांचनेपरखने में लगी रही. उस के मन की गहराई तक तो वह पहुंच ही नहीं पाई.

उफ, उस दिन भी तो निया यही कह रही थी कि मां तुम्हारी है, तुम्हें सोचना चाहिए.

सच ही तो है कि कई बार आंखें जो देखती हैं, कान जो सुनते हैं वही सच नहीं होता. वह तो निया के कम बोलने, गंभीर स्वभाव को अपनी उपेक्षा समझती रही पर यह तो निया का स्वभाव है, क्या बुराई है इस में?

उस के दिल में तो उस के लिए इतना अपनापन और प्यार है, आज निया जैसी बहू पा कर तो वह धन्य हो गई. आंखों से अब कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था, सब कुछ धुंधला सा गया था. खुशी और संतोष के आंसू जो भरे थे आंखों में.

तभी निया चाय ले कर अंदर आ गई. माधवी को विचारमग्न देखा, पूछा, ‘‘क्या सोच रही हैं, मां?’’

माधवी को कुछ समझ नहीं आया तो ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कहते हुए मुसकरा कर अपनी बांहें फैला दीं.

कुछ न समझते हुए भी उन की बांहों में समाते हुए कहा, ‘‘यह क्या मां, अभी से?’’

माधवी खुल कर हंस दीं, ‘‘हां, अचानक अपने दिल में अभी से नववर्ष का उल्लास, उत्साह अनुभव कर रही हूं.’’

नए साल का स्वागत नई उमंग से करने के लिए माधवी अब पूरी तरह से तैयार थीं. निया के सिर पर अपना स्नेहभरा हाथ फिरा कर मुसकराते हुए चाय का आनंद लेने लगीं.

सही पकड़े हैं: भाग 3- कामवाली रत्ना पर क्यों सुशीला की आंखें लगी थीं

रत्ना उन की हालत देख कर हंसने लगी, ‘‘ठीक है, नहीं कहूंगी बाबूजी, पर एक शर्त है, अम्माजी को तो आप समझाओ कैसे भी कर के, हर वक्त वे मेरे पीछे पड़ी रहती हैं.’’ ‘‘तू चिंता मत कर उस का बंदोबस्त हो जाएगा.’’

उन के दिमाग में शरारती योजना घूम ही रही थी पर अब बच्चों को नहीं शामिल कर सकते, बच्चे तो सब को ही बता देंगे. फिर मैं सुशीला बहन को ब्लैकमेल कैसे कर पाऊंगा कि रत्ना को इन से बचा सकूं और रत्ना से अपने को. वरना तरुण, अदिति, तारा सब तक मेरी बात पहुंच गई तो मेरा जीना मुहाल हो जाएगा. सिर्फ परहेजी खाना, उफ्फ… क्यों बढि़याबढि़या मिठाईरबड़ी न खाऊं, मरे हुए सा सौ साल जियूं इसलिए… तो जीने का फायदा क्या?’ मनपसंद चीजों का दिमाग में खुला इंसायक्लोपीडिया देशी घी के बेसन के लड्डू, चमचम, रसमलाई… उन्हें बेचैन किए जा रहा था.

‘कुछ भी हो, सुशीला बहन को मुझे जल्दी, अकेले ही रंगेहाथ पकड़ना होगा. वरना रत्ना, बहनजी से तंग आ कर सब को मेरा सच बता देगी और मैं सूक्ष्म फलाहारी, परहेजी बाबा बन कर कहीं का नहीं रहूंगा.’ दिन में खाने के बाद एक घंटे बच्चों का सोने का टाइम और रात के खाने के बाद 9 बजे के बाद का समय, जब सुशीला बहन सब से नजरें बचा, अपना मिर्चखटाईर् का शौक पूरा करती होंगी क्योंकि नाश्ता भले ही साथ कर लेती हैं पर आदत का बहाना बता कर रात के खाने का अपना अलग ही टाइम बना रखा है, तभी पकड़ता हूं. अपने को बचाने का यही एक चारा है,’ तेजप्रकाश दिमाग की धार तेज किए जा रहे थे. आखिरकार दूसरे दिन ही सुशीला जैसे ही अपना खाना परोस कर कमरे में ले गईं, तेजप्रकाश दबेपांव उन के पीछे हो लिए. सुशीला ने पास पड़े स्टूल पर अपना खाना, पानी रखा, दरवाजा भेड़ा और परदा खींच कर तसल्ली से बैग का लौक खोल कर पसंदीदा लालमिर्च का अचार बड़े प्रेम से निकाला और साथ में चटपटी पकी इमली भी. प्लेट में नमक के ऊपर सजी बड़ीबड़ी 2 हरीमिर्चें देख परदे के पीछे खड़े तेजप्रकाश के मुंह से सीसी निकल रही थी, उस पर से यह और कि कैसे खा पाती हैं ये सब.’

सुशीला के खाना शुरू करते ही तेजप्रकाश सामने आ गए, ‘‘सही पकड़े हैं बहनजी, इतना सारा मिर्चखटाई. अदिति सही कहती है इतना मना है आप को पर चुपकेचुपके… बहुत गलत बात है.’’ वे उन का तकियाकलाम बोल कर उन्हीं के अंदाज में आंखें नचा रहे थे. सुशीला उन्हें सामने पा घबरा कर कातर हो उठीं. लिहाजन, तेजप्रकाश उन के कमरे में कभी वैसे आते न थे.

‘‘अअआप भाईसाहब, यहां, कैसे, बब…बैठिए. प्लीज, अदिति को कुछ मत कहिएगा,’’ वे खिसियाई सी बोलीं. ‘‘सही तो नहीं, पर इस उम्र में मन का खाएगा नहीं, तो आदमी करे क्या?’’

इस बात पर सुशीला थोड़ी हैरान हुईं, फिर सहज हो कर मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘आप भी ऐसा ही मानते हैं. मैं तो घबरा ही गई थी. आप प्लीज, बताना नहीं किसी को.’’ ‘‘ठीक है, नहीं बोलूंगा, पर एक शर्त है. आप भी मेरे बारे में नहीं कहेंगी किसी से.’’

‘‘पर क्या?’’ वे सोच में पड़ गईं, ऐसा क्या है जो… ‘‘दरअसल, वह जो आप मलाई, मिठाई, चाय, चीनी सब के गायब होने के पीछे रत्ना को कारण समझती हैं, वह रत्ना नहीं, बल्कि मैं हूं.’’

‘‘क्या?’’ सुशीला का मुंह खुला रह गया. फिर वे मुंह दबा कर हंसने लगीं. ‘‘तारा, तरुण, अदिति सब मेरी जान खा जाएंगे, प्लीज.’’

‘‘फिर ठीक.’’ वे चटखारे ले कर अपना खाना खाने लगीं. ‘‘आप खाओगे?’’

‘‘नहीं बहनजी, आप मजे लो, मैं रसोई में जा कर अपनी तलब पूरी करता हूं, खौला कर स्ट्रौंग चाय बनाता हूं.’’ ‘‘इस समय?’’

‘‘आप पियोगी, बहुत बढि़या पकाने वाली मसालेदार मीठी कड़क?’’ उन के चेहरे पर राहत की मुसकान थी. ‘‘अरे नहीं, आप ही मजे लो,’’ कहती हुई उन्होंने लालमिर्च, अचार मुंह में भर लिया और हंसने लगीं.

‘‘यह भी खूब रही. और हां, बच्चों को जो चोर पकड़ने के लिए लगाया है, मना कर देना.’’ मुसकराते हुए तेजप्रकाश राहत से रसोई की ओर बढ़ गए. सोचते जा रहे थे कि ‘मैं भी कल बच्चों को कोई कहानी बना कर बहनजी को पकड़ने से मना कर दूंगा.’

इधर आंखें बंद किए बंटू और मिंकू दादू की स्टोरी से आज सो नहीं पाए थे. दादू उन्हें सोया जान कर अपने रूम में चले गए. काफी देर तक यों ही पड़े रहे. खट से हलकी सी आवाज क्या हुई, आंखें खोल कर दोनों ने एकदूसरे को कोहनी मारी. ‘‘उठ न, नींद नहीं आ रही. कोई है, लगता है.’’

‘‘हां, दादू की कहानी आज बहुत शौर्ट थी.’’ ‘‘दादू तो सोने गए, अब क्या करें?’’

‘‘सब सो गए हैं लगता है, रसोई में छोटी लाइट जल रही है. चल चोर को पकड़ते हैं.’’ दोनों पलंग से उतर कर अपनीअपनी टौयगन थाम लीं और सधे कदमों से कहतेफुसफुसाते हुए नन्हे जासूस मिशन पर चल पड़े. ‘‘तू इधर से जा बंटू, मैं उधर से, अकेला डरेगा तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं.’’ ‘‘अच्छा, तो यह मम्मी का स्टौल पकड़, अगर चोरी करते कोई दिखे, पीठ पर गन लगाना और झट से स्टौल में फंसा कर चिल्लाना. सही पकड़े हैं नानी के जैसे. खूब मजा आएगा.’’

‘‘रात के एक बज रहे थे. ताली मार कर दोनों अलगअलग दिशाओं में चल पड़े.

तेजप्रकाश और सुशीला स्वाद व खुशबू का पूरा मजा ले भी न पाए कि बच्चों ने अलगअलग पर लगभग एकसाथ उन्हें धर पकड़ा और खुशी से चिल्लाए, ‘‘सही पकड़े हैं दादू…, पापा…, मम्मी…सही पकड़े हैं नानी…, मम्मी… पापा…, सब जल्दी आओ.’’

घबराए से तेजप्रकाश किचन में मलाई की चोरी बयान करती अपनी मूंछों के साथ खौलती मसालेदार कड़क चाय को देख रहे थे तो कभी सामने गुस्से में खड़े तरुण को और सुशीला अपने खुले हुए बैग से झांकती लालमिर्च, अचार और मसालेदार इमली की खुली शीशियों को, तो कभी आगबबूला हुई नजरों से उन्हें देखती अदिति को देख कर नजरें चुरा रही थीं. ‘‘अदिति, देखो अपने लाड़ले पापाजी क्या कर रहे हैं, बड़ा विश्वास है न तुम्हें इन पर?’’

‘‘शांत हो जाओ तरु, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’ ‘‘और तुम अपनी चहेती मम्मीजी को देखो, डाक्टर ने सख्त मना किया है पर मानना ही नहीं, बच्ची बनी हुई हैं, मुझ से छिपा कर रखा था, छिपा कर, देखो ये…’’ वह एक हाथ में शीशी दूसरे से मम्मीजी को थामे रसोई में आ गई.

‘‘अदिति, सुन तो, अब ऐसा नहीं होगा.’’ तेजप्रकाश और सुशीला के हाथ बरबस अपनेअपने कानों तक चले गए, ‘‘देखो, इस बार हम सही पकड़े हैं… पर अपनेअपने कान…’’ सुशीला ने गोलगोल आंखें नचा कर कुछ यों कहा कि तरुण, अदिति की हंसी छूट गई.

‘‘कोई हमें भी तो बताए क्या हुआ,’’ दादी तारा की आवाज सुन बंटू, मिंकू भागे कि उन्हें कौन पहले बताएगा कि आज वे कैसे दादू, नानी की चोरी सही पकड़े हैं.

डर: सेना में सेवा करने के प्रति आखिर कैसा था डर

मैं सुबह की सैर पर था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. इस समय कौन हो सकता है, मैं ने खुद से ही प्रश्न किया. देखा, यह तो अमृतसर से कौल आई है.

‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो फूफाजी, प्रणाम, मैं सुरेश

बोल रहा हूं?’’

‘‘जीते रहो बेटा. आज कैसे याद किया?’’

‘‘पिछली बार आप आए थे न. आप ने सेना में जाने की प्रेरणा दी थी. कहा था, जिंदगी बन जाएगी. सेना को अपना कैरियर बना लो. तो फूफाजी, मैं ने अपना मन बना लिया है.’’

‘‘वैरी गुड’’

‘‘यूपीएससी ने सेना के लिए इन्वैंट्री कंट्रोल अफसरों की वेकैंसी निकाली है. कौमर्स ग्रैजुएट मांगे हैं, 50 प्रतिशत अंकों वाले भी आवेदन कर सकते हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है.’’

‘‘फूफाजी, पापा तो मान गए हैं पर मम्मी नहीं मानतीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहती हैं, फौज से डर लगता है. मैं ने उन को समझाया भी कि सिविल में पहले तो कम नंबर वाले अप्लाई ही नहीं कर सकते. अगर किसी के ज्यादा नंबर हैं भी और वह अप्लाई करता भी है तो बड़ीबड़ी डिगरी वाले भी सिलैक्ट नहीं हो पाते. आरक्षण वाले आड़े आते हैं. कम पढ़ेलिखे और अयोग्य होने पर भी सारी सरकारी नौकरियां आरक्षण वाले पा जाते हैं. जो देश की असली क्रीम है, वे विदेशी कंपनियां मोटे पैसों का लालच दे कर कैंपस से ही उठा लेती हैं. बाकियों को आरक्षण मार जाता है.’’

‘‘तुम अपनी मम्मी से मेरी बात करवाओ.’’

थोड़ी देर बाद शकुन लाइन पर आई, ‘‘पैरी पैनाजी.’’

‘‘जीती रहो,’’ वह हमेशा फोन पर मुझे पैरी पैना ही कहती है.

‘‘क्या है शकुन, जाने दो न इसे

फौज में.’’

‘‘मुझे डर लगता है.’’

‘‘किस बात से?’’

‘‘लड़ाई में मारे जाने का.’’

‘‘क्या सिविल में लोग नहीं मरते? कीड़ेमकोड़ों की तरह मर जाते हैं. लड़ाई में तो शहीद होते हैं, तिरंगे में लिपट कर आते हैं. उन को मर जाना कह कर अपमानित मत करो, शकुन. फौज में तो मैं भी था. मैं तो अभी तक जिंदा हूं. 35 वर्ष सेना में नौकरी कर के आया हूं. जिस को मरना होता है, वह मरता है. अभी परसों की बात है, हिमाचल में एक स्कूल बस खाई में गिर गई. 35 बच्चों की मौत हो गई. क्या वे फौज में थे? वे तो स्कूल से घर जा रहे थे. मौत कहीं भी किसी को भी आ सकती है. दूसरे, तुम पढ़ीलिखी हो. तुम्हें पता है, पिछली लड़ाई कब हुई थी?’’

‘‘जी, कारगिल की लड़ाई.’’

‘‘वह 1999 में हुई थी. आज 2018 है. तब से अभी तक कोई लड़ाई नहीं हुई है.’’

‘‘जी, पर जम्मूकश्मीर में हर रोज जो जवान शहीद हो रहे हैं, उन का क्या?’’

‘‘बौर्डर पर तो छिटपुट घटनाएं होती  ही रहती हैं. इस डर से कोईर् फौज में ही नहीं जाएगा. यह सोच गलत है. अगर सेना और सुरक्षाबल न हों तो रातोंरात चीन और पाकिस्तान हमारे देश को खा जाएंगे. हम सब जो आराम से चैन की नींद सोते हैं या सो रहे हैं वह सेना और सुरक्षाबलों की वजह से है, वे दिनरात अपनी ड्यूटी पर डटे रहते हैं.’’

मैं थोड़ी देर के लिए रुका. ‘‘दूसरे, सुरेश इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के रूप में जाएगा. इन्वैंट्री का मतलब है, स्टोर यानी ऐसे अधिकारी जो स्टोर को कंट्रोल करेंगे. वह सेना की किसी सप्लाई कोर में जाएगा. ये विभाग सेना के मजबूत अंग होते हैं, जो लड़ने वाले जवानों के लिए हर तरह का सामान उपलब्ध करवाते हैं. लड़ाई में भी ये पीछे रह कर काम करते हैं. और फिर तुम जानती हो, जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु तक का रास्ता तय हो जाता है. जीवन उसी के अनुसार चलता है.

‘‘तो कोई डर नहीं है?

‘‘मौत से सब को डर लगता है, लेकिन इस डर से कोईर् फौज में न जाए यह एकदम गलत है. दूसरे, सुरेश के इतने नंबर नहीं हैं कि  वह हर जगह अप्लाई कर सके. कंपीटिशन इतना है कि अगर किसी को एमबीए मिल रहे हैं तो एमए पास को कोई नहीं पूछेगा. एकएक नंबर के चलते नौकरियां नहीं मिलती हैं. बीकौम 54 प्रतिशत नंबर वाले को तो बिलकुल नहीं. सुरेश अच्छी जगहों के लिए अप्लाई कर ही नहीं सकता. तुम्हें अब तक इस का अनुभव हो गया होगा शकुन, इसलिए उसे जाने दो.’’

‘‘जी, वहां नंबरों का चक्कर तो

नहीं पड़ेगा.’’

‘‘अच्छा एकेडैमिक कैरियर हर जगह देखा जाता है. परंतु सेना के अपने मापदंड हैं. उसी के अनुसार सिलैक्शन किया जाता है. वहां कोईर् आरक्षण का चक्कर नहीं होता. वहां उन को औलराउंडर चाहिए जो आत्मविश्वास से भरा हो, तुरंत निर्णय लेने की क्षमता रखता हो, दिमाग और शरीर से स्वस्थ हो. और हर तरह का काम करने में समर्थ हो. फिर वे उन को अपनी ट्रेनिंग से सेना के अनुसार ढाल लेते हैं. मेरी सुरेश से बात करवाओ. मैं उसे बताऊंगा कि कैसे करना है,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, जी.’’

‘‘दिल्ली के एस एन दासगुप्ता कालेज ने अमृतसर में कोचिंग ब्रांच खोली है जो आईएएस, आईपीएस, सेना में अफसर बनने के लिए इच्छुक नौजवानों को कोचिंग देता है. वह यूपीएससी की अन्य परीक्षाओं की भी तैयारी करवाता है. तुम्हें पता है, आजकल सब औनलाइन होता है. वहां चले जाओ. वे इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के लिए औनलाइन अप्लाई करवा देंगे. वहीं तुम्हें इस की लिखित परीक्षा के लिए कोचिंग लेनी है. अगर लिखित परीक्षा पास कर लेते हो तो वहीं इंटरव्यू की तैयारी की कोचिंग भी लेनी है. वे तुम्हें इस प्रकार तैयारी करवाएंगे कि तुम्हारे 99 प्रतिशत सफल होने के चांस रहेंगे.’’

‘‘पर फूफाजी, मेरे पास उन का पता नहीं है.’’

‘‘यार, आजकल सारी सूचनाएं गूगल पर मिल जाती हैं. गूगल पर सर्च मारो, सब पता चल जाएगा. फिर मुझे बताना कि क्या हुआ.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

कुछ दिनों बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘फूफाजी, मुझे पता चल गया था. मैं ने औनलाइन अप्लाई कर दिया है. कोचिंग सैंटर ने अप्लाई और लिखित परीक्षा की तैयारी के लिए 10 हजार रुपए लिए हैं और साथ में यह गारंटी भी दी है कि लिखित परीक्षा वह अवश्य क्लीयर कर ले.’’

‘‘सुरेश, यह उन का व्यापार है. ऐसा वे सब से कहते होंगे जो उन के पास परीक्षा की तैयारी के लिए जाते हैं. यह औल इंडिया बेस की परीक्षा है. इस में सब से अधिक तुम्हारी खुद की मेहनत रंग लाएगी. तुम से अच्छे भी होंगे और खराब भी. बस, रातदिन तुम्हें मेहनत करनी है बिना यह सोचे कि तुम्हारा एकेडैमिक कैरियर कैसा था. यदि तुम ने लिखित परीक्षा पास कर ली तो समझो 50 प्रतिशत मोरचा फतेह कर लिया.’’

‘‘जी, फूफाजी. मैं ईमानदारी से मेहनत करूंगा. लो एक सैकंड पापा से बात करें.’’

‘‘नमस्कार, जीजाजी.’’

‘‘नमस्कार, कैसे हो विपिन?’’

‘‘ठीक हूं, जीजाजी. यह जो सुरेश के लिए सोचा गया है, क्या वह ठीक रहेगा.’’

‘‘बिलकुल ठीक रहेगा. अगर सुरेश सिलैक्ट हो जाता है तो उस की जिंदगी बन जाएगी. वह लैफ्टिनैंट बन कर निकलेगा. क्लास वन गैजेटेड अफसर. सेना की सारी सुविधाएं उसे प्राप्त होगी. उन सुविधाओं के प्रति आम आदमी सोच भी नहीं सकता. ट्रेनिंग के दौरान ही उसे 20 हजार रुपए भत्ता मिलेगा, रहनाखाना फ्री. पासिंगआटट के बाद इस की

55 हजार रुपए से ऊपर सैलरी होगी. वहीं साथ में कई तरह के भत्ते भी मिलेंगे. सारी उम्र न केवल आप को बल्कि पूरे परिवार के रहनेखाने की चिंता नहीं रहेगी, यानी रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता नहीं रहेगी.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, जीजाजी, बस एक ही डर है, बेमौत मारे जाने का.’’

‘‘मैं शकुन को सबकुछ समझा चुका हूं, मानता हूं, यह डर उस समय भी था जब मैं सेना में गया था. सेना की इस सेवा के दौरान मैं ने 2 लड़ाइयां भी लड़ीं. मुझे  कुछ नहीं हुआ. जिस की आई होती है, वही मरता है. मैं आप को अपने जीवन की एक घटना बताना चाहता हूं. 65 की लड़ाई में हम सियालकोट सैक्टर से पाकिस्तान में घुसे थे. सारा स्टोर 2 गाडि़यों में ले कर चल रहे थे. एक गाड़ी में मैं और मेरा ड्राइवर था. दूसरी गाड़ी में एक बंगाली लड़का और उस का ड्राइवर था. पाकिस्तान में हम आसानी से घुसते चले गए. लड़ाई हम से कोई 10 किलोमीटर आगे चल रही थी. हम लोगों को केवल हवाई हमलों का डर था और वही हुआ.

‘‘जैसे ही हम ने पाकिस्तान के चारवा गांव को क्रौस किया, हम पर हवाई हमला हुआ. गाडि़यों से निकल कर जिस को जहां जगह मिली लेट गया. मेरे बराबर में मेरा ड्राइवर और उस के बराबर में वह बंगाली लड़का लेटा था. ऊपर से गन का ब्रस्ट आया और गोलियां ड्राइवर के शरीर से इस प्रकार निकल गईं जैसे कपड़े की सिलाई की गई हो. उस ने चूं भी नहीं की. उसी वह मर गया. हम लोगों पर भी खून और मिट्टी पड़ी थी.

‘‘मैं ने आप को डराने के लिए यह घटना नहीं सुनाई है बल्कि यह बताने के लिए कि जिस की मौत आनी होती है, वही शहीद होता है और यह रिस्क हर जगह रहता है. आप यहां सिविल में भी घर से निकलो तो जिंदगी का कोई भरोसा नहीं होता. फिर भी सब अपनेअपने कामों पर घरों से निकलते हैं. इसलिए उसे जाने दो.’’

‘‘ठीक है जीजाजी, पर सुना है, सेना में वही लोग जाते हैं जो भूखे और गरीब हैं, जिन के पास सेना में जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता.’’

‘‘यह बात सही है विपिन. जिन के घरों में गरीबी है, दालरोटी के लाले पड़े हैं, अकसर वही लोग सेना में जाते हैं और जब तक यह गरीबी रहेगी, दालरोटी के लाले रहेंगे, देश को सैनिकों की कमी नहीं रहेगी.

‘‘किसी नेता या अभिनेता के बच्चे कभी सेना में नहीं जाते हैं. यहां तक कि जम्मूकश्मीर के अलगांववादी नेताओं के बच्चे भी सेना में नहीं जाते. वे भी विदेशों में पढ़ते हैं. यह देश के लिए दुख की बात है. आज की ही खबर है कि 8वीं पास सिपाही चाहिए और उस के लिए दौड़ रहे हैं डाक्टर, इंजीनियर और एमबीए. पर तुम्हें सुरेश को ले कर यह बात नहीं सोचनी है. उस का भविष्य बनने दो. कुछ देर के लिए समझ लो, तुम भी गरीब हो. इस से अधिक और मैं कुछ नहीं कह सकता.’’

‘‘ठीक है, जीजाजी. अब मैं उसे नहीं रोकूंगा.’’

मैं भूल चुका था कि सुरेश किसी परीक्षा की तैयारी कर रहा है. मुझे कुछ देर पहले ही पता चला कि उस ने परीक्षा दे दी है. उस के भी कोई 4 महीने बाद सुरेश का फोन आया कि उस ने इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर की लिखित परीक्षा पास कर ली है. इस की  सूचना मुझे ईमेल और डाक द्वारा दी गई है. अब उसे एसएसबी क्लीयर करनी है.

‘‘बधाई हो, सुरेश, एसएसबी के लिए तुम्हें 2-3 महीने मिलेंगे. कोचिंग सैंटर में ऐडमिशन लो और तैयारी में जुट जाओ. उसे पूरा विश्वास है कि तुम एसएसबी भी क्लीयर कर लोगे.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

फिर 3 महीने बाद उस का फोन आया. वह बहुत खुश था. उस की आवाज में खुशी थी. ‘‘मैं ने एसएसबी क्लीयर कर ली है, फूफाजी. 25 में से 4 लड़के सिलैक्ट हुए थे. वहां भी सभी का मैडिकल हुआ था. सभी ने क्लीयर कर लिया था. अब क्या होगा, फूफाजी?’’

‘‘कुछ नहीं. मार्च में शुरू होगा यह कोर्स.’’

‘‘जी, मार्च के पहले सोमवार से.’’

‘‘ठीक है. देश के सभी एसएसबी केंद्रों से इस कोर्स के लिए चुने गए उम्मीदवारों की लिस्ट सेना मुख्यालय को भेजी जाएगी. वह इसे कंसौलिडेट करेगा. फिर सभी को दिसंबर के पहले हफ्ते तक इस की सूचना ईमेल और डाक द्वारा दी जाएगी. उस सूचना के अनुसार जो प्रमाणपत्र और डौक्युमैंट्स उन को चाहिए होंगे उन की फोटोकौपी अटैस्ट करवा कर जिस पते पर उन्होंने भेजने के लिए लिखा होगा, उस पर भेजनी होगी. ईमेल और डाक द्वारा फिर सारे डौक्युमैंट्स चैक करने के बाद आप का मिलिटरी अस्पताल में डिटेल्ड मैडिकल होगा, इस की सूचना समय रहते आ जाएगी. एक बात बताओ सुरेश, तुम ने अभी दाढ़ीमूंछ रखी हुई है?’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

‘‘मैं तुम्हें बता दूं, सेना के लोग, चाहे वे किसी भी विभाग के हों, मूंछें तो पसंद करते हैं परंतु दाढ़ी बिलकुल नहीं. इसलिए मैडिकल के लिए सेना अस्पताल जाओ तो मूंछें ट्रिम करवा कर जाना और दाढ़ी बिलकुल साफ होनी चाहिए. चिकना बन कर जाना. कटिंग करवा कर जाना. छोटेछोटे बाल होने चाहिए. ऊपर से ले कर नीचे तक साफसुथरा. तुम्हारे शरीर के एकएक अंग का निरीक्षण होगा. मेरे कहे अनुसार चलोगे तो मैडिकल में फेल होने के कम चांस रहेंगे. मैडिकल करने वाले डाक्टरों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा. वे समझेंगे, लड़का सच में अफसर बनने लायक है.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया. ‘‘फूफाजी, आज मैं मिलिटरी अस्पताल, अमृतसर मैडिकल के लिए जा रहा हूं. आप के कहे अनुसार चिकना बन गया हूं. वहां से आ कर मैं आप को बताऊंगा.’’

रात को उस का फोन आया, ‘‘फूफाजी, सब ठीक हो गया है. एक अलग से मैडिकल प्रमाणपत्र दिया है जो सेना मुख्यालय के अनुसार है. पूरा दिन लग गया. शाम को 6 बजे तक सारा चैकअप पूरा हुआ. फिर कहीं जा कर उन्होंने प्रमाणपत्र दिया. मैं ने सब की फोटोकौपी ले कर फाइल बना ली है. केवल बीकौम के प्रमाणपत्र अटैस्ट होने बाकी हैं. पर फूफाजी, एक दिक्कत आ रही है. सारे प्रमाणपत्र सर्विंग मिलिटरी अफसर से अटैस्ट होने हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसे होगा?’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘तुम्हारे कालेज में एनसीसी है?’’

‘‘है, फूफाजी.’’

‘‘फिर क्या दिक्कत है. अपने कालेज जाओ. एनसीसी के प्रोफैसर को पकड़ो, साथ लो और एनसीसी मुख्यालय पहुंच जाओ. वहां सारे सेना के सर्विंग अफसर मिल जाएंगे. अपने साथ सारी फाइल ले जाना. तुम्हारा काम एक मिनट में हो जाएगा.’’

‘‘यह सही कहा आप ने, एनसीसी के प्रोफैसर रमाकांतजी मेरे अच्छे जानकार भी हैं.’’

‘‘ठीक है फिर, शुभकामनाएं.’’

सुरेश ने फोन बंद कर दिया. 2 दिन बाद फोन आया, ‘‘फूफाजी, सारे प्रमाणपत्र अटैस्ट हो गए हैं. अब सेना मुख्यालय में डौक्युमैंट्स भेजने हैं.’’

‘‘सारे इंस्ट्रक्शन ध्यान से पढ़ना. जिस प्रकार उन्होंने कहा है या लिखा है, उसी के अनुसार भेजना. कोई डौक्युमैंट छूटना नहीं चाहिए और सब की फोटोकौपी लेना न भूलना. वहां स्पीडपोस्ट या कूरियर से आप डौक्युमैंट्स नहीं भेज सकते हैं. आप को रजिस्टर्ड डाक से ही भेजने होंगे और एक कौपी ईमेल से. आप सेना मुख्यालय के इंस्ट्रक्शन फौलो करना.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘मुझे ट्रेनिंग के लिए आईएमए देहरादून में 5 मार्च को रिपोर्ट करनी है. लिफाफे में मेरा मूवमैंट और्डर और द्वितीय श्रेणी का रेलवे वारंट है और साथ में सामान की लिस्ट है जो साथ ले कर जाना है.’’

‘‘मुबारक हो. तुम्हारी जिंदगी बन गई. सेना में अफसर बनना गर्व की बात है.’’ थोड़ा रुक कर मैं ने कहा, ‘‘रेलवे वारंट और मूवमैंट और्डर के साथ रेलवे स्टेशन पर एमसीओ, मिलिटरी मूवमैंट कंट्रोल औफिस चले जाना. एक नंबर प्लेटफौर्म पर यह औफिस है, वह मिलिटरी कोटे से तुम्हारे रिजर्वेशन का प्रबंध करेगा. बाकी रही तुम्हारी सामान साथ ले जाने वाली बात, अमृतसर कैंट में मस्कटरी की दुकानें हैं. वहां तुम्हें सारा सामान मिल जाएगा. अगर कुछ रह भी जाता है तो वह आईएमए से मिल जाएगा.’’

‘‘जी, फूफाजी. लेकिन देहरादून पहुंच कर आईएमए तक कैसे पहुंचा जाएगा?’’

‘‘सेना का कोई काम पैंडिंग नहीं होता. उन को पहले ही इस की सूचना होगी. वे सुबह शनिवार से रेलवे स्टेशन पर एमसीओ के बाहर टेबलकुरसी ले कर बैठे होंगे और साथ में लिखा होगा कि इस कोर्स के कैंडिडेट यहां रिपोर्ट करें. और यह सिलसिला रविवार शाम तक चलता रहेगा.

‘‘गाडि़यां बाहर खड़ी रहेंगी जिन में बैठा कर वह सब को आईएमए पहुंचाती रहेगी. वहां सिर्फ तुम्हारा कोर्स ही नहीं चल रहा होगा, सभी के लिए अलगअलग टेबल लगी होंगी. तुम्हें अपने मूवमैंट और्डर लिखे कोर्स नंबर की टेबल पर रिपोर्ट करनी है. फिर उन का काम है कि कैसे करना है. तुम्हें उन के अनुसार करते रहना है.’’

4 मार्च की शाम को सुरेश का फोन आया. ‘‘आज रात मैं ट्रेन से आईएमए देहरादून जा रहा हूं. एमसीओ अमृतसर ने इस का रिजर्वेशन किया था. सुबह 10 बजे तक मैं वहां पहुंच जाऊंगा. शाम को 6 बजे तक वहां रिपोर्ट करनी है. मैं तो वहां 10 बजे ही पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. वहां आप को सैटल होने का समय मिल जाएगा. जिस में हेयरकट से ले कर वरदी लेने तक और सोमवार को शुरू होने वाली टे्रनिंग की तैयारी में सुविधा रहेगी. ट्रेनिंग काफी सख्त रहेगी.

‘‘आईएमए विश्व का सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग संस्थान है. अन्य देशों से भी अफसर यहां टे्रनिंग लेने आते हैं. सबकुछ व्यवस्थित ढंग से चलेगा. जब तुम वहां से पासआउट हो कर निकलोगे तो तुम भारतीय सशस्त्र सेना के अफसर होगे.

‘‘प्रथम श्रेणी के अफसर, जैसे आईएएस, आईपीएस अफसर होते हैं. तुम्हें लगेगा कि तुम औरों से बिलकुल अलग हो. तुम्हारे शरीर पर सेना की सुंदर वरदी होगी. दोनों कंधों पर 2-2 चमकते स्टार होंगे. हवाईजहाज या ट्रेन में प्रथम श्रेणी में सफर करोगे. तुम्हारे नाम के साथ लैफ्टिनैंट जुड़ जाएगा. तुम अपना परिचय लैफ्टिनैंट सुरेश कुमार के रूप में दोगे. उस समय जो तुम्हें गर्व महसूस होगा वह अनुभव जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव होगा. मेरी शुभकामनाएं हैं तुम्हें.’’

सपना: कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

लेखिका- डा. प्रिया सूफी

सरपट दौड़ती बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी. बस में सवार नेहा का सिर अनायास ही खिड़की से सट गया. उस का अंतर्मन सोचविचार में डूबा था. खूबसूरत शाम धीरेधीरे अंधेरी रात में तबदील होती जा रही थी. विचारमंथन में डूबी नेहा सोच रही थी कि जिंदगी भी कितनी अजीब पहेली है. यह कितने रंग दिखाती है? कुछ समझ आते हैं तो कुछ को समझ ही नहीं पाते? वक्त के हाथों से एक लमहा भी छिटके तो कहानी बन जाती है. बस, कुछ ऐसी ही कहानी थी उस की भी… नेहा ने एक नजर सहयात्रियों पर डाली. सब अपनी दुनिया में खोए थे. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें अपने साथ के लोगों से कोई लेनादेना ही नहीं था. सच ही तो है, आजकल जिंदगी की कहानी में मतलब के सिवा और बचा ही क्या है.

वह फिर से विचारों में खो गई… मुहब्बत… कैसा विचित्र शब्द है न मुहब्बत, एक ही पल में न जाने कितने सपने, कितने नाम, कितने वादे, कितनी खुशियां, कितने गम, कितने मिलन, कितनी जुदाइयां आंखों के सामने साकार होने लगती हैं इस शब्द के मन में आते ही. कितना अधूरापन… कितनी ललक, कितनी तड़प, कितनी आहें, कितनी अंधेरी रातें सीने में तीर की तरह चुभने लगती हैं और न जाने कितनी अकेली रातों का सूनापन शूल सा बन कर नसनस में चुभने लगता है. पता नहीं क्यों… यह शाम की गहराई उस के दिल को डराने लगती है…

एसी बस के अंदर शाम का धुंधलका पसरने लगा था. बस में सवार सभी यात्री मौन व निस्तब्ध थे. उस ने लंबी सांस छोड़ते हुए सहयात्रियों पर दोबारा नजर डाली. अधिकांश यात्री या तो सो रहे थे या फिर सोने का बहाना कर रहे थे. वह शायद समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर नेहा यों ही बेचैन सी बैठी रही. उस का मन अशांत था. न जाने क्यों इस शांतनीरव माहौल में वह अपनी जिंदगी की अंधेरी गलियों में गुम होती जा रही थी. कुछ ऐसी ही तो थी उस की जिंदगी, अथाह अंधकार लिए दिग्भ्रमित सी, जहां उस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं था. आत्मसाक्षात्कार भी अकसर कितना भयावह होता है? इंसान जिन बातों को याद नहीं करना चाहता, वे रहरह कर उस के अंतर्मन में जबरदस्ती उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकतीं. जिंदगी की कमियां, अधूरापन अकसर बहुत तकलीफ देते हैं. नेहा इन से भागती आई थी लेकिन कुछ चीजें उस का पीछा नहीं छोड़ती थीं. वह अपना ध्यान बरबस उन से हटा कर कल्पनाओं की तरफ मोड़ने लगी.

उन यादों की सुखद कल्पनाएं थीं, उस की मुहब्बत थी और उसे चाहने वाला वह राजकुमार, जो उस पर जान छिड़कता था और उस से अटूट प्यार करता था.

नेहा पुन: हकीकत की दुनिया में लौटी. बस की तेज रफ्तार से पीछे छूटती रोशनी अब गुम होने लगी थी. अकेलेपन से उकता कर उस का मन हुआ कि किसी से बात करे, लेकिन यहां बस में उस की सीट के आसपास जानपहचान वाला कोई नहीं था. उस की सहेली पीछे वाली सीट पर सो रही थी. बस में भीड़ भी नहीं थी. यों तो उसे रात का सफर पसंद नहीं था, लेकिन कुछ मजबूरी थी. बस की रफ्तार से कदमताल करती वह अपनी जिंदगी का सफर पुन: तय करने लगी.

नेहा दोबारा सोचने लगी, ‘रात में इस तरह अकेले सफर करने पर उस की चिंता करने वाला कौन था? मां उसे मंझधार में छोड़ कर जा चुकी थीं. भाइयों के पास इतना समय ही कहां था कि पूछते उसे कहां जाना है और क्यों?’

रात गहरा चुकी थी. उस ने समय देखा तो रात के 12 बज रहे थे. उस ने सोने का प्रयास किया, लेकिन उस का मनमस्तिष्क तो जीवनमंथन की प्रक्रिया से मुक्त होने को तैयार ही नहीं था. सोचतेसोचते उसे कब नींद आई उसे कुछ याद नहीं. नींद के साथ सपने जुड़े होते हैं और नेहा भी सपनों से दूर कैसे रह सकती थी? एक खूबसूरत सपना जो अकसर उस की तनहाइयों का हमसफर था. उस का सिर नींद के झोंके में बस की खिड़की से टकरातेटकराते बचा. बस हिचकोले खाती हुई झटके के साथ रुकी.

नेहा को कोई चोट नहीं लगी, लेकिन एक हाथ पीछे से उस के सिर और गरदन से होता हुआ उस के चेहरे और खिड़की के बीच सट गया था. नेहा ने अपने सिर को हिलाडुला कर उस हाथ को अपने गालों तक आने दिया. कोई सर्द सी चीज उस के होंठों को छू रही थी, शायद यह वही हाथ था जो नेहा को सुखद स्पर्श प्रदान कर रहा  था. उंगलियां बड़ी कोमलता से कभी उस के गालों पर तो कभी उस के होंठों पर महसूस हो रही थीं. उंगलियों के पोरों का स्पर्श उसे अपने बालों पर भी महसूस हो रहा था. ऐसा स्पर्श जो सिर्फ प्रेमानुभूति प्रदान करता है. नेहा इस सुकून को अपने मनमस्तिष्क में कैद कर लेना चाहती थी. इस स्पर्श के प्रति वह सम्मोहित सी खिंची चली जा रही थी.

नेहा को पता नहीं था कि यह सपना था या हकीकत, लेकिन यह उस का अभीष्ट सपना था, वही सपना… उस का अपना स्वप्न… हां, वही सपनों का राजकुमार… पता नहीं क्यों उस को अकेला देख कर बरबस चला आता था. उस के गालों को छू लेता, उस की नींद से बोझिल पलकों को हौले से सहलाता, उस के चेहरे को थाम कर धीरे से अपने चेहरे के करीब ले आता. उस की सांसों की गर्माहट उसे जैसे सपने में महसूस होती. उस का सिर उस के कंधे पर टिक जाता, उस के दिल की धड़कन को वह बड़ी शिद्दत से महसूस करती, दिल की धड़कन की गूंज उसे सपने की हकीकत का स्पष्ट एहसास कराती. एक हाथ उस के चेहरे को ठुड्डी से ऊपर उठाता… वह सुकून से मुसकराने लगती.

नींद से ज्यादा वह कोई और सुखद नशा सा महसूस करने लगती. उस का बदन लरजने लगता. वह लहरा कर उस की बांहों में समा जाती. उस के होंठ भी अपने राजकुमार के होंठों से स्पर्श करने लगते. बदन में होती सनसनाहट उसे इस दुनिया से दूर ले जाती, जहां न तनहाई होती न एकाकीपन, बस एक संबल, एक पूर्णता का एहसास होता, जिस की तलाश उसे हमेशा रहती.

बस ने एक झटका लिया. उस की तंद्रा उसे मदहोशी में घेरे हुए थी. उसे अपने आसपास तूफानी सांसों की आवाज सुनाई दी. वह फिर से मुसकराने लगी, तभी पता नहीं कैसे 2 अंगारे उसी के होंठों से हट गए. वह झटके से उठी… आसपास अब भी अंधियारा फैला था. बस की खिड़की का परदा पूरी तरह तना था. उस की सीट ड्राइवर की तरफ पहले वाली थी, इसलिए जब भी सामने वाला परदा हवा से हिलता तो ड्राइवर के सामने वाले शीशे से बाहर सड़क का ट्रैफिक और बाहरी नजारा उसे वास्तविकता की दुनिया से रूबरू कराता. वह धीरे से अपनी रुकी सांस छोड़ती व प्यास से सूखे होंठों को अपनी जबान से तर करती. उस ने उड़ती नजर अपनी सहेली पर डाली, लेकिन वह अभी भी गहन निद्रा में अलमस्त और सपनों में खोई सी बेसुध दिखी.

उस की नजर अचानक अपनी साथ वाली सीट पर पड़ी. वहां एक पुरुष साया बैठा था. उस ने घबरा कर सामने हिल रहे परदे को देखा. उस की हथेलियां पसीने से लथपथ हो उठीं. डर और घबराहट में नेहा ने अपनी जैकेट को कस कर पकड़ लिया. थोड़ी हिम्मत जुटा कर, थूक सटकते हुए उस ने अपनी साथ वाली सीट को फिर देखा. वह साया अभी तक वहीं बैठा नजर आ रहा था. उसे अपनी सांस गले में अटकी महसूस हुई. अब चौकन्नी हो कर वह सीधी बैठ गई और कनखियों से उस साए को दोबारा घूरने लगी. साया अब साफ दिखाई पड़ने लगा था. बंद आंखों के बावजूद जैसे वह नेहा को ही देख रहा था. सुंदरसजीले, नौजवान के चेहरे की कशिश सामान्य नहीं थी. नेहा को यह कुछ जानापहचाना सा चेहरा लगा. नेहा भ्रमित हो गई. अभी जो स्वप्न देखा वह हकीकत था या… कहीं सच में यह हकीकत तो नहीं? क्या इसी ने उसे सोया हुआ समझ कर चुंबन किया था? उस के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं.

‘क्या हुआ तुम्हें?’ यह उस साए की आवाज थी. वह फिर से अपने करीब बैठे युवक को घूरने लगी. युवक उस की ओर देखता हुआ मुसकरा रहा था.

‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो?’ युवक पूछने लगा, लेकिन इस बार उस के चेहरे पर हलकी सी घबराहट नजर आ रही थी. नेहा के चेहरे की उड़ी हवाइयों को देख वह युवक और घबरा गया. ‘लीजिए, पानी पी लीजिए…’ युवक ने जल्दी से अपनी पानी की बोतल नेहा को थमाते हुए कहा. नेहा मौननिस्तब्ध उसे घूरे जा रही थी. ‘पी लीजिए न प्लीज,’ युवक जिद करने लगा.

नेहा ने एक अजीब सा सम्मोहन महसूस किया और वह पानी के 2-3 घूंट पी गई.

‘अब ठीक हो न तुम?’ उस ने कहा.

नेहा के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला. पता नहीं क्यों युवक की बेचैनी देख कर उसे हंसी आने लगी. नेहा को हंसते देख वह युवक सकपकाने लगा. तनाव से कसे उस के कंधे अब रिलैक्स की मुद्रा में थे. अब वह आराम से बैठा था और नेहा की आंखों में आंखें डाल उसे निहारने लगा था. उस युवक की तीक्ष्ण नजरें नेहा को बेचैन करने लगीं, लेकिन युवक की कशिश नेहा को असीम सुख देती महसूस हुई.

‘आप का नाम पूछ सकती हूं?’ नेहा ने बात शुरू करते हुए पूछा.

‘आकाश,’ युवक अभी भी कुछ सकपकाया सा था.

‘मेरा नाम नहीं पूछोगे?’ नेहा खनकते स्वर में बोली.

‘जी, बताइए न, आप का नाम क्या है?’ आकाश ने व्यग्र हो कर पूछा.

‘नेहा,’ वह मुसकरा कर बोली.

‘नेहा,’ आकाश उस का नाम दोहराने लगा. नेहा को लगा जैसे आकाश कुछ खोज रहा है.

‘वैसे अभी ये सब क्या था मिस्टर?’ अचानक नेहा की आवाज में सख्ती दिखी. नेहा के ऐसे सवाल से आकाश का दिल बैठने लगा.

‘जी, क्या?’ आकाश अनजान बनते हुए पूछने लगा.

‘वही जो अभीअभी आप ने मेरे साथ किया.’

‘देखिए नेहाजी, प्लीज…’ आकाश वाक्य अधूरा छोड़ थूक सटकने लगा.

‘ओह हो, नेहाजी? अभीअभी तो मैं तुम थी?’ नेहा अब पूरी तरह आकाश पर रोब झाड़ने लगी.

‘नहीं… नहीं, नेहाजी… मैं…’ आकाश को समझ नहीं आ रहा था कि वह अब क्या कहे. उधर नेहा उस की घबराहट पर मन ही मन मुसकरा रही थी. तभी आकाश ने पलटा खाया, ‘प्लीज, नेहा,’ अचानक आकाश ने उस का हाथ थामा और तड़प के साथ इसरार भरे लहजे में कहने लगा, ‘मत सताओ न मुझे,’ आकाश नेहा का हाथ अपने होंठों के पास ले जा रहा था.

‘क्या?’ उस ने चौंकते हुए अपना हाथ पीछे झटका. अब घबराने की बारी नेहा की थी. उस ने सकुचाते हुए आकाश की आंखों में झांका. आकाश की आंखों में अब शरारत ही शरारत महसूस हो रही थी. ऐसी शरारत जो दैहिक नहीं बल्कि आत्मिक प्रेम में नजर आती है. दोनों अब खिलखिला कर हंस पड़े.

बाहर ठंड बढ़ती जा रही थी. बस का कंडक्टर शीशे के साथ की सीट पर पसरा पड़ा था. ड्राइवर बेहद धीमी आवाज में पंजाबी गाने बजा रहा था. पंजाबी गीतों की मस्ती उस पर स्पष्ट झलक रही थी. थोड़ीथोड़ी देर बाद वह अपनी सीट पर नाचने लगता. पहले तो उसे देख कर लगा शायद बस ने झटका खाया, लेकिन एकदम सीधी सड़क पर भी वह सीट पर बारबार उछलता और एक हाथ ऊपर उठा कर भांगड़ा करता, इस से समझ आया कि वह नाच रहा है. पहले तो नेहा ने समझा कि उस के हाथ स्टेयरिंग पकड़ेपकड़े थक गए हैं, तभी वह कभी दायां तो कभी बायां हाथ ऊपर उठा लेता. उस के और ड्राइवर के बीच कैबिन का शीशा होने के कारण उस तरफ की आवाज नेहा तक नहीं आ रही थी, लेकिन बिना म्यूजिक के ड्राइवर का डांस बहुत मजेदार लग रहा था. आकाश भी ड्राइवर का डांस देख कर नेहा की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. शायद 2 प्रेमियों के मिलन की खुशी से उत्सर्जित तरंगें ड्राइवर को भी खुशी से सराबोर कर रही थीं. मन कर रहा था कि वह भी ड्राइवर के कैबिन में जा कर उस के साथ डांस करे. नेहा के सामीप्य और संवाद से बड़ी खुशी क्या हो सकती थी? आकाश को लग रहा था कि शायद ड्राइवर उस के मन की खुशी का ही इजहार कर रहा है.

‘बाहर चलोगी?’ बस एक जगह 20 मिनट के लिए रुकी थी.

‘बाहर… किसलिए… ठंड है बाहर,’ नेहा ने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा.

‘चलो न प्लीज, बस दो मिनट के लिए.’

‘अरे?’ नेहा अचंभित हो कर बोली. लेकिन आकाश नेहा का हाथ थामे सीट से उठने लगा.

‘अरे…रे… रुको तो, क्या करते हो यार?’ नेहा ने बनावटी गुस्से में कहा.

‘बाहर कितनी धुंध है, पता भी है तुम्हें?’ नेहा ने आंखें दिखाते हुए कहा.

‘वही तो…’ आकाश ने लंबी सांस ली और कुछ देर बाद बोला, ‘नेहा तुम जानती हो न… मुझे धुंध की खुशबू बहुत अच्छी लगती है. सोचो, गहरी धुंध में हम दोनों बाइक पर 80-100 की स्पीड में जा रहे होते और तुम ठंड से कांपती हुई मुझ से लिपटतीं…’

‘आकाश…’ नेहा के चेहरे पर लाज, हैरानी की मुसकराहट एकसाथ फैल गई.

‘नेहा…’ आकाश ने पुकारा… ‘मैं आज तुम्हें उस आकाश को दिखाना चाहता हूं… देखो यह… आकाश आज अकेला नहीं है… देखो… उसे जिस की तलाश थी वह आज उस के साथ है.’

नेहा की मुसकराहट गायब हो चुकी थी. उस ने आकाश में चांद को देखा. न जाने उस ने कितनी रातें चांद से यह कहते हुए बिताई थीं कि तुम देखना चांद, वह रात भी आएगी जब वह अकेली नहीं होगी. इन तमाम सूनी रातों की कसम… वह रात जरूर आएगी जब उस का चांद उस के साथ होगा. तुम देखना चांद, वह आएगा… जरूर आएगा…

‘अरे, कहां खो गई? बस चली जाएगी,’ आकाश उस के कानों के पास फुसफुसाते हुए बोला. वह चुपचाप बस के भीतर चली आई. आकाश बहुत खुश था. इन चंद घंटों में वह नेहा को न जाने क्याक्या बता चुका था. पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना और जाने से पहले पिता की जिद पूरी करने के लिए शादी करना उस की विवशता थी. अचानक मातापिता की एक कार ऐक्सिडैंट में मृत्यु हो गई. उसे वापस इंडिया लौटना पड़ा, लेकिन अपनी पत्नी को किसी और के साथ प्रेमालाप करते देख उस ने उसे तलाक दे दिया और मुक्त हो गया.

रात्रि धीरेधीरे खत्म हो रही थी. सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. नेहा ने समय देखा और दोबारा अपनी अमूर्त दुनिया में खो गई. जिंदगी भी कितनी अजीब है. पलपल खत्म होती जाती है. न हम समय को रोक पाते हैं और न ही जिंदगी को, खासकर तब जब सब निरर्थक सा हो जाए. बस, अब अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए आधे घंटे का सफर और था. बस की सवारियां अपनी मंजिल तक पहुंचेंगी या नहीं यह तो कहना आसान नहीं था, लेकिन आकाश की फ्लाइट है, वह वापस अमेरिका चला जाएगा और वह अपनी सहेली के घर शादी अटैंड कर 2 दिन बाद लौट जाएगी, अपने घर. फिर से वही… पुरानी एकाकी जिंदगी.

‘‘क्यों सोच रही हो?’’ आकाश ने ‘क्या’ के बजाय ‘क्यों’ कहा तो उस ने सिर उठा कर आकाश की तरफ देखा. उस की आंखों में प्रकाश की नई उम्मीद बिखरी नजर आ रही थी.

‘तुम जानते हो आकाश, दिल्ली बाईपास पर राधाकृष्ण की बड़ी सी मूर्ति हाल ही में स्थापित हुई है, रजत के कृष्ण और ताम्र की राधा.’

‘क्या कहना चाहती हो?’ आकाश ने असमंजस भाव से पूछा.

‘बस, यही कि कई बार कुछ चीजें दूर से कितनी सुंदर लगती हैं, पर करीब से… आकाश छूने की इच्छा धरती के हर कण की होती है लेकिन हवा के सहारे ताम्र रंजित धूल आकाश की तरफ उड़ती हुई प्रतीत तो होती है, पर कभी आकाश तक पहुंच नहीं पाती. उस की नियति यथार्थ की धरा पर गिरना और वहीं दम तोड़ना है वह कभी…’

‘राधा और कृष्ण कभी अलग नहीं हुए,’ आकाश ने भारी स्वर में कहा.

‘हां, लेकिन मरने के बाद,’ नेहा की आवाज में निराशा झलक रही थी.

‘ऐसा नहीं है नेहा, असल में राधा और कृष्ण के दिव्य प्रेम को समझना सहज नहीं,’ आकाश गंभीर स्वर में बोला.

‘क्या?’ नेहा पूछने लगी, ‘राधा और कान्हा को देख कर तुम यह सोचती हो?’ आकाश की आवाज की खनक शायद नेहा को समझ नहीं आ रही थी. वह मौन बैठी रही. आकाश पुन: बोला, ‘ऐसा नहीं है नेहा, प्रेम की अनुभूति यथार्थ है, प्रेम की तार्किकता नहीं.’

‘क्या कह रहे हो आकाश? मुझे सिर्फ प्रेम चाहिए, शाब्दिक जाल नहीं,’ नेहा जैसे अपनी नियति प्रकट कर उठी.

‘वही तो नेहा, मेरा प्यार सिर्फ नेहा के लिए है, शाश्वत प्रेम जो जन्मजन्मांतरों से है, न तुम मुझ से कभी दूर थीं और न कभी होंगी.’

‘आकाश प्लीज, मुझे बहलाओ मत, मैं इंसान हूं, मुझे इंसानी प्यार की जरूरत है तुम्हारे सहारे की, जिस में खो कर मैं अपूर्ण से पूर्ण हो जाऊं.’’

‘‘तुम्हें पता है नेहा, एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा मैं कहां हूं? कृष्ण ने मुसकरा कर कहा, ‘सब जगह, मेरे मनमस्तिष्क, तन के रोमरोम में,’ फिर राधा ने दूसरा प्रश्न किया, ‘मैं कहां नहीं हूं?’ कृष्ण ने फिर से मुसकरा कर कहा, ‘मेरी नियति में,’ राधा पुन: बोली, ‘प्रेम मुझ से करते हो और विवाह रुक्मिणी से?’

कृष्ण ने फिर कहा, ‘राधा, विवाह 2 में होता है जो पृथकपृथक हों, तुम और मैं तो एक हैं. हम कभी अलग हुए ही नहीं, फिर विवाह की क्या आवश्यकता है?’

‘आकाश, तुम मुझे क्या समझते हो? मैं अमूर्त हूं, मेरी कामनाएं निष्ठुर हैं.’

‘तुम रुको, मैं बताता हूं तुम्हें, रुको तुम,’ आकाश उठा, इस से पहले कि नेहा कुछ समझ पाती वह जोर से पुकारने लगा. ‘खड़ी हो जाओ तुम,’ आकाश ने जैसे आदेश दिया.

‘अरे, लेकिन तुम कर क्या रहे हो?’ नेहा ने अचरज भरे स्वर में पूछा.

‘खड़ी हो जाओ, आज के बाद तुम कृष्णराधा की तरह केवल प्रेम के प्रतीक के रूप में याद रखी जाओगी, जो कभी अलग नहीं होते, जो सिर्फ नाम से अलग हैं, लेकिन वे यथार्थ में एक हैं, शाश्वत रूप से एक…’

नेहा ने देखा आकाश के हाथ में एक लिपस्टिक थी जो शायद उस ने उसी के हैंडबैग से निकाली थी, उस से आकाश ने अपनी उंगलियां लाल कर ली थीं.

‘अब सब गवाह रहना,’ आकाश ने बुलंद आवाज में कहा.

नेहा ने देखा बस का सन्नाटा टूट चुका था. सभी यात्री खड़े हो कर इस अद्भुत नजारे को देख रहे थे. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती आकाश की उंगलियां उस के माथे पर लाल रंग सजा चुकी थीं. लोगों ने तालियां बजा कर उन्हें आशीर्वाद दिया. उन के चेहरों पर दिव्य संतुष्टि प्रसन्नता बिखेर रही थी और मुबारकबाद, शुभकामनाओं और करतल ध्वनि के बीच अलौकिक नजारा बन गया था.

आकाश नतमस्तक हुआ और उस ने सब का आशीर्वाद लिया.

बाहर खिड़की से राधाकृष्ण की मूर्ति दिख रही थी जो अब लगातार उन के नजदीक आ रही थी… पास… और पास… जैसे आकाश और नेहा उस में समा रहे हों.

‘‘नेहा… नेहा… उठो… दिल्ली आ गया. कब तक सोई रहोगी?’’ नेहा की सहेली बेसुध पड़ी नेहा को झिंझोड़ कर उठाने का प्रयास करने लगी. कुछ देर बाद नेहा आंखें मलती हुई उठने का प्रयास करने लगी.

सफर खत्म हो गया था… मंजिल आ चुकी थी. लेकिन नेहा अब भी शायद जागना नहीं चाह रही थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था… वे सब क्या था? काश, जिंदगी का सफर भी कुछ इसी तरह चलता रहे… वह पुन: सपने में खो जाना चाहती थी.

मेरा वसंत: क्या निधि को समझ पाया वसंत

मैं ने तुम से पूछा, ‘बुरा लगा?’
‘नहीं,’ तुम्हारा यह जवाब सुन मैं स्तब्ध रह गई कि क्या मेरे बात करने न करने से तुम को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता? पर मैं जब भी तुम से नाराज़ हो कर बात करना बंद करती हूं, दिल धड़कना भूल जाता है और दिमाग सोचना. मन करता है कि तुम मुझे आवाज़ दो और मैं उस आवाज़ में खो दूं अपनेआप को. कभी लगता, क्यों न कौल कर के सुन लूं तुम्हारी आवाज़, पर है न मेरे पास भी अहं की भावना कि क्यों करूं जब तुम्हें चाहत ही नहीं मुझे सुनने की.

मैं ने कहीं सुना था- ‘ज़िंदगी को लाइटली लेने का’. लेकिन ज़िदंगी का हरेक पन्ना जब तुम से जुड़ा हो तो कैसे इस को हलके में ले लूं.

कुछ लोग कहते हैं कि प्यारव्यार कुछ नहीं होता. बस, रासायनिक क्रिया है जो दिल और दिमाग़ को बंद कर देती है और सोचनेसमझने की क्रिया समाप्त कर देती है. पर अगर ऐसा है तो किसी एक के लिए ही दिल क्यों धड़कता है. समझ के बाहर है न, यह ये प्यारव्यार…

कितना अच्छा होता न, मेरी तरह तुम्हारा भी दिल सिर्फ़ मेरे लिए धड़कता और मेरा ही नाम तुम्हारी ज़बान पर होता. पर तुम्हारे लिए तो मेरे सिवा सभी लोग ख़ास हैं और हां, काम की अधिकता भी तो कारण है न मुझ से दूर जाने का.

कुछ प्यार अधूरा ही रहता है, क्या मेरे प्यार को भी अधूरापन ही मिलेगा. पर, मैं तो तुम्हारे ही रंगों में रंगी हूं, सो, तुम्हारा द्वारा दिया हुआ अधूरापन भी स्वीकार है मुझे.

तुम खुश रहो. जानते हो, चाहती हूं कि अपनी खुशी भी तुम्हें दे दूं, पर अपनी खुशी तुम्हें नहीं दे सकती क्योंकि मैं अधूरी हो कर कभी खुश नहीं रह सकती.

जा रही हूं तुम से दूर, कुछ दूर जहां से मैं तुम्हें तो देख सकूं पर तुम मुझे न देख सकोगे. जब मुझे लगेगा कि जितनी बेक़रारी मेरे दिल में है उतनी ही तुम्हारे दिल में पनपने लगी, तब मैं वापस आ जाऊंगी. तुम्हारी बांहों की गरमाहट मुझे बेचैन करेगी. पर इस बेचैनी में भी बहुत प्यारा एहसास कैद रहेगा.

फिर से आतुर मन मिलन के लिए.

तुम्हारी,

निधि.

यह पत्र पढ़ कर मैं कुछ देर सन्न रह गया. काठ बना खड़ा चुपचाप इस खत को बारबार पढ़ता रहा. परसों रात ही तो आया था एक सप्ताह के बाद. नाराज़ निधि को मनाने में एक घंटा लग गया. उस की नाराज़गी दूर नहीं हुई. अबोलापन 2 दिन रहा घर में. आज रात ही तो इस घुटनभरे अबोलापन से छुटकारा मिला था. फिर उस ने पूछा तो था, ‘मेरे नाराज़ होने से तुम को बुरा लगता है न?’ और मैं ने सहजता से कह दिया था, ‘नहीं.’

ओह, निधि, तुम बात नहीं करती हो, तो मैं भी परेशान हो जाता हूं. लेकिन मैं दर्शाना नहीं चाहता. मुझे लगता, अगर इस बात को तुम्हारे सामने कहूंगा तो तुम और ज़्यादा रूठने लगोगी और अगर मैं कह दूं कि नहीं बुरा लगता तुम बात करो या न करो तो तुम रूठना कम कर दोगी. मैं ने अपना फ़ायदा देखा, तुम्हारी भावनाओं को नजरअंदाज किया. मुझे माफ़ कर दो, निधि. तुम आ जाओ वापस. अब मैं सबकुछ तुम्हारे हिसाब से करूंगा. मैं चाहता हूं कि तुम्हें समय दूं, पर…

मुझे पता है, तुम मुझे बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतना गुस्सा करती हो. गुस्सा भी प्यार का ही एक रूप है. पर मैं उस समय इसलिए नहीं मनाता क्योंकि तुम उस समय मेरी बात बिलकुल नहीं समझ पातीं. इंसान जब किसी से नाराज़ होता है तो वह उस समय हर हाल में गलत लगता है. तब समझाना गुस्से को बढ़ाना ही होता है. तुम समझती हो कि उन लमहों में मैं बहुत आराम से रहता हूं, तुम्हें क्या पता कि मैं हर रात जागता हूं सिर्फ तुम्हारी याद में, शायद कौल आ जाए और मैं सुन न पाऊं. लमहालमहा बेचैनी और बेक़रारी छाई रहती है. तब सिर्फ तुम खयालों में मेरे रहती हो. वक्त का पता नहीं चलता और खानापीना सब भूला रहता.

तुम सोचती हो कि मैं तुम्हें अनदेखा करता हूं पर कभी तुम खुद को मेरी जगह रख कर देखो तब समझ आएगा कि काम का कितना प्रैशर रहता है मेरे ऊपर. तब तुम कहोगी कि क्यों करते हो इतना काम. तो मेरी जान, काम नहीं करूंगा तो तुम्हारी ज़रूरतें और रोज की फ़रमाइश कौन पूरा करेगा.

ऐसा क्यों किया निधि? तुम जानती हो मैं तुम्हारे बगैर एक पल नहीं रह सकता. थोड़ी व्यस्तता थी और कभीकभी दोस्तों के पास बैठ जाता था, लेकिन मैं फिर भी समय निकालता था तुम्हारे लिए. हां, इधर कुछ ज़्यादा झगड़ा होने लगा था. लेकिन वज़ह मैं या तुम नहीं थीं. वज़ह थीं परिस्थितियां. पर क्या करता, नौकरी ही ऐसी है कि उस के लिए चौबीस घंटे भी कम ही हैं. तुम को कितनी बार समझाया- तुम नहीं समझोगी तो और कौन समझेगा, बताओ.

रोने का मन हुआ मेरा. दिल किया नौकरी छोड़ वहां भाग जाऊं जहां निधि मेरी प्रतीक्षा कर रही है. पर उस ने बताया ही नहीं कि कहां गई है. वसंत के मौसम में मेरी वसंत पता नहीं कहां चली गई? दिल ने जैसे धड़कना ही बंद कर दिया. कुछ पलों की जुदाई इतनी तकलीफदेह. अब समझ आ रहा है कि क्यों निधि मेरे कईकई दिनों बाद घर आने पर रूठ जाती थी. सच, अकेलापन बहुत उबाऊ होता है.

खिड़की के खुली रहने के बावजूद दम घुट रहा था. हवा ने भी जैसे मुंह मोड़ लिया हो. बाहर निकला. बागबानी की शौकीन निधि क्यारियों में एक से बढ़ कर एक पौधे लगाए हुए थी. इस पर पहले कभी ध्यान नहीं गया था मेरा. मन वहां भी नहीं लगा.

आज फिर लखनऊ जाना था. मन नहीं कर रहा था. फिर भी जाना तो था ही. और फिर इस अकेलेपन से दूर भी जाना चाहता था.

चाय पीने की इच्छा हुई. किचेन में जाते ही निधि की याद आई और मैं लौट आया. आंसुओं को पोंछते हुए तैयार हुआ और निकल गया घर से. महसूस हुआ, पीठ पर किसी की आंखों का स्पर्श. पलट कर देखा, कोई न था.

लखनऊ जाने के बाद मेरा मन वापस अपने घर जाने के लिए बेचैन होने लगा. ऐसा लगता, निधि मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी.

वापस आ गया इलाहाबाद.

घर पहुंच कर जब देखा नहीं है निधि, मन झुंझलाया और निधि पर गुस्सा भी आया. क्या वह नहीं जानती कि नौकरी उसी के सुखसुविधा के लिए करता हूं. सोचता हूं कि उसे दुनिया की सारी खुशियां मिलें. मेरा मन भी करता कि उस के साथ बैठ सारी ज़िंदगी गुजार दूं. पर बैठने से सबकुछ नहीं मिल जाता- वह यह क्यों नहीं समझती है. मन खीझ आया अपनेआप पर. निकल गया घर से. निरुद्देश्य घूमता रहा सड़कों पर. बनारस जाने वाली बस दिखी. और मैं जा बैठा उसी में.

भूख से पेट में जलन उठी. प्यास भी महसूस हुई. 2 दिनों से भूखेप्यासे बेवजह चलते जा रहा था मैं.

एक जगह बस रुकी. पारले जी बिस्कुट के साथ एक कप चाय गटक लिया. दुख हो या सुख, पेट कब शांत रहा है.

गंगाघाट पर घंटों बैठा रहा. पानी को रौंदते हुए नाव, स्टीमर की आवाज़, पंक्षियों की चहचहाहट, मछलियों का बारबार उछल कर पानी की सतह पर आना, बच्चों की हंसी, प्रेमीप्रेमिकाओं की प्यारभरी बातें, प्यारेप्यारे जोड़ों की मदमस्त हंसी, बुजुर्ग की आस्थाभरी निगाह- उदासी के गर्त में मुझे धकेलने लगीं.

सब खुश है, सिवा मेरे. मेरे हिस्से दुख क्यों दे गई निधि? गंगाआरती की तैयारी शुरू हो गई. भीड़ का बढ़ता रेला और मेरा मन इस भीड़ से मुक्ति के लिए छटपटाने लगा. मन किया कि आरती देख लूं, पर आस्था-अनास्था के बीच त्रिशंकु जैसा मन डोलने लगा और मैं चुपचाप वहां से निकल गया.

मन किया एक बार निधि को फोन करूं, शायद वह मान जाए और आ जाए फिर से मेरी बांहों में. पौकेट में हाथ डाला, मोबाइल नहीं था. बेचैन मन ने सोचा, कहां छोड़ दिया मोबाइल. फिर मन ने ही समझाया कि शायद हड़बड़ी में छोड़ आया हूं घर पर.

ठंडी हवा का झोंका आया, चला गया. आसमान की ओर देखा- साफ और सफेद बादल तैर रहे थे. कुछेक तारे भी दिख रहे थे. चांद बादलों में छिप शरारत कर रहा था. यही चांद कई बार हमारे प्यार को देखा करता था जब खुले छत पर, आसमान के नीचे मैं और निधि एकदूसरे की बांहों में खोए रहते थे. निधि कभीकभी शरमा कर कहती, ‘धत, चांद मुझे देख रहा है.’

मैं हंसते हुए कहता, ‘चांद भी तुम्हारी तरह शरमा कर छिप रहा है.’

‘कहां हो गुड़िया?’ मैं यह कहता और हंसी आ जाती. जब भी उसे गुड़िया कहता, वह आंखों को गोलगोल घुमा कर कहती, ‘मैं निधि हूं, छोटी सी गुड़िया नहीं. जिसे जब चाहो, चाबी से चला लो. यहां मेरी मरजी चलती है, समझे.’

तुम्हारी मरजी ही तो चलती थी सोना. सोना कहने पर वह मूर्ति जैसी खड़ी हो जाती और कहती, ‘सोना में सजीव का लक्षण कहां से लाओगे.’

पलकों पर आंसू आ गए. क्या कभी लौट कर नहीं आएगी निधि…

रात एक ढाबे पर सो कर गुजारा. सुबह हुई. समझ नहीं आ रहा था कि कहां जाऊं. आखिरकार घर जाने के लिए बस में बैठ गया. तभी ‘मूंगफली ले लो मूंगफली’ की आवाज़ आई. 9 या 10 साल के बच्चे की आवाज़ थी. मैं ने उस के चेहरे पर भोली मुसकान देखी. खरीद लिया एक पाव मूंगफली. निधि को बहुत पसंद है. जब भी हम सफ़र पर होते, वह जरूर खरीदती.

बस चलने लगी. कुछ यात्री ऊंघने लगे, कुछ बातों में मशगूल और कुछ खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने में. ऊब कर मैं भी बाहर की ओर देखने लगा. मन कहीं भी नहीं लग रहा था.

वापस घर ही जाने का मन हुआ. सोचा, वहां निधि की यादों के साथ रह लूंगा.

घर पहुंचा, लौन में लगे पौधे मुरझा रहे थे. निधि की याद इन को भी आती होगी. सुना था कि पेड़पौधे भी उस के लिए उदास होते हैं जो उन्हें प्यार से सींचते व उन की देखभाल करते हैं. प्यारभरी नजरों से उन्हें देख, मुख्य दरवाजे का ताला खोल अंदर गया. अंदर किचेन से बरतन की आवाज़ आ रही थी. देखा, निधि चाय बना रही थी. मैं पागलों की तरह उस से लिपट गया, “मेरी जान, कहां चली गई थीं, तुम जानती हो कि तुम्हारे बगैर मैं नहीं रह सकता. एकएक पल एकएक बरस जैसा लग रहा था.”

निधि मुसकराई, “एहसास होना जरूरी है मेरी जान. किसी ने सच कहा है, ‘दूरियां प्यार को बढ़ाती हैं.’ मैं देख रही थी तुम्हारी बेचैनी, दिल कर रहा था, आ जाऊं तुम्हारे पास. पर कुछ देर और परेशान हाल देखने की चाहत के कारण मैं छिपी रही. तुम मुझे बहुत प्यार करते हो, राज. मैं तुम्हें छोड़ कर कभी नहीं जाऊंगी.”

“आज का दिन मेरे लिए खुशियोंभरा है. आज ही मेरा वसंत है और तुम मेरी बसंती,” मैं ने उसे चूमते हुए कहा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें