फौरगिव मी: भाग 1- क्या मोनिका के प्यार को समझ पाई उसकी सौतेली मां

रात के 12 बजे थे. मैं रोज की तरह अपने कमरे में पढ़ रही थी. तभी डैड मेरे कमरे में आए. मु झे देख कर बोले, ‘‘पढ़ रही हो क्या, प्रिया?’’

मैं ने उन की तरफ बिना देखे कहा, ‘‘आप को जो कहना है कहिए और जाइए.’’

मैं जानती थी कि डैड इस समय मेरे कमरे में सिर्फ तुम पढ़ रही हो क्या, पूछने तो नहीं आए होंगे. जरूर कुछ और कहने आए होंगे और भूमिका बांध रहे हैं. भूमिकाओं से मु झे खासी नफरत है. यह वजह काफी थी मु झे क्रोध दिलाने के लिए.

डैड ने सिर  झुका कर कहा, ‘‘अब उसे माफ कर दो प्रिया… वैसे भी वह हमें छोड़ कर जाने वाली है.’’

‘‘माफ… माई फुट, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकती,’’ मैं ने गुस्से को रोकते हुए कहा.

‘‘आखिर वह तुहारी मौम है.’’

डैड के ये शब्द मु झे अंदर तक तोड़ गए. मैं गुस्से में चीख पड़ी, ‘‘डैड, वह आप की वाइफ हो सकती है. मेरी मौम नहीं है और न ही वह कभी मेरी मौम की जगह ले सकती है. दुनिया की कोई भी ताकत ऐसा नहीं करवा सकती है.’’

‘‘पर प्रिया…’’

डैड का वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं ने अपनी किताब जमीन पर फेंक दी, ‘‘जाइए… जाइए यहां से… जस्ट लीव मी अलोन.’’

डैड मेरा गुस्सा देख कर चले गए और मैं देर तक सुबकती रही. मैं भले ही सिर्फ 15 साल की थी पर परिस्थितियों ने मु झे अपनी उम्र से काफी बड़ा कर दिया था. रोतेरोते अचानक मु झे डैड के शब्द ध्यान आए कि वह हमें छोड़ कर जाने वाली है… और मेरे दिमाग ने इस का सीधासादा मतलब निकाल लिया कि डैड और मोनिका का तलाक होने वाला है. क्या सच? क्या इसीलिए डैड दुखी थे? मेरे चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई. मैं अपने दोनों कानों पर हाथ रख कर चिल्लाई, ‘‘ओह, ग्रेट.’’

दूसरे दिन मैं खुशीखुशी स्कूल गई. मैं ने अपनी सहेलियों को कैंटीन में ले जा कर ट्रीट दी. हालांकि सब खानेपीने में मस्त थीं पर नैन्सी ने पूछ ही लिया, ‘‘प्रिया, आखिर यह ट्रीट किस खुशी में दी जा रही है?’’

मैं ने चहकते हुए कहा, ‘‘फाइनली… फाइनली ऐंड फाइनली मोनिका और मेरे डैड में तलाक होने वाला है और वह हमें छोड़ कर जाने वाली है.’’

अपनी स्टैप मौम मोनिका के लिए मेरे मन में इतनी नफरत थी कि मैं ने उसे कभी मौम नहीं कहा. मैं हमेशा उसे मोनिका ही कहती रही, डैड के लाख सम झाने के बावजूद. वैसे भी खुली संस्कृति वाले अमेरिका में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

तभी रीता ने कोक का घूंट गटकते हुए पूछा, ‘‘प्रिया, क्या तुम्हारे डैड और स्टैप मौम में काफी  झगड़े होते हैं?’’

‘‘नहीं तो?’’

इस बात का उत्तर देने के साथ ही मैं अतीत में पहुंच गई…

जब मैं छोटी थी तब मेरी मौम और डैड में बहुत  झगड़े होते थे. उन को  झगड़ता देख कर मैं रोने लगती. थोड़ी देर के लिए दोनों चुप हो जाते पर फिर  झगड़ना शुरू कर देते. उन के  झगड़े में बारबार मेरा नाम भी शामिल होता. दोनों कहते कि अगले की वजह से मेरा जीवन खराब हो

रहा है. मैं बहुत सहम जाती थी. मैं मौम या डैड में से किसी एक को चुनना नहीं चाहती थी. इसी कारण कई बार नींद खुल जाने के कारण भी मैं आंखें बंद किए पड़ी रहती कि कहीं मु झे रोता देख कर दोनों एकदूसरे पर मु झे रुलाने का कारण न थोपने लगें.

कई बार भय से मेरा टौयलेट बिस्तर पर ही छूट जाता और मौम मु झे बाथरूम में ले जा कर शावर के नीचे बैठा देतीं. रात में ही बैडशीट बदली जाती. मु झे थोड़ा पुचकार कर फिर दोनों  झगड़ने लगते. पर बात संभलते न देख कर दोनों की सहमति से मु झे दूसरे कमरे में सुलाया जाने लगा. अफसोस,  झगड़े की आवाजों ने यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा. मैं कानों पर तकिया रख कर जोर से दबाती पर आवाजें मेरा पीछा न छोड़तीं. मैं रोज कामना करती कि मेरे मौमडैड

के बीच सब ठीक हो जाए. हम भी ‘हैपी फैमिली’ की तरह रहें. मगर मेरी कामना कभी पूरी नहीं हुई.

मु झे आज भी वे दिन अच्छी तरह याद हैं. मैं 6 साल की थी. मौम ने मु झे गुलाबी रंग का फ्रौक पहनाया और खूब प्यार किया. मौम बहुत रोती जा रही थीं. रोतेरोते ही उन्होंने मु झ से कहा, ‘‘प्रिया, मैं केस हार गई हूं, तुम्हारी कस्टडी पापा को मिली है. मैं वापस इंडिया जा रही हूं. तुम्हें यहां अमेरिका में रहना है, अपने पापा के साथ. हो सकता है आगे तुम्हारी कोई स्टैप मौम आए, पर तुम संयत रहना. बड़ा होने पर मैं कैसे भी तुम्हें ले जाऊंगी.’’

मौम चली गईं और मैं रह गई डैड के साथ अकेली. पहले 2 सालों में डैड मु झे इंडिया ले कर गए. मौम से भी मिलाया, पर उस के बाद यह संपर्क टूट गया. हां, कभीकभी मौम से फोन पर बात होती. उन के आंसू मु झे अंदर तक चीर देते थे. मैं इमोशनल सपोर्ट के लिए डैड पर निर्भर होती जा रही थी.

मेरा 8वां बर्थडे था जब मोनिका डैड की जिंदगी में आई. वह पार्टी में इनवाइटेड

गैस्ट्स में थी. डैड उस से बहुत हंसहंस कर बातें कर रहे थे. मु झे उस का डैड के साथ इस तरह घुलमिल कर बातें करना बिलकुल अच्छा नहीं लगा. अलबत्ता उस के बेटे जौन के साथ मेरी अच्छी जमी. हम ने कई खेल साथ खेले. उस के बाद मोनिका अकसर हमारे घर आने लगी. डैड का टाइम जो मेरे लिए था उस पर वह कब्जा जमाने लगी. उसे डैड के साथ देख कर मेरे मन में न जाने कैसे आग सी लग जाती. मु झे लगता डैड के इतने पास कोई नहीं बैठ सकता. वह जगह मेरी मौम की थी, जिसे कोई नहीं ले सकता. मैं तरकीबें सोचती कि कैसे डैड को उस से दूर रखूं. पर डैड और मोनिका के प्रेम के बहाव के आगे मेरी छोटी नादान सारी तरकीबें बह गईं. प्रेम अंधा होता है और स्वार्थी भी. डैड को मोनिका को अपनी प्राथमिकताओं की लिस्ट में पहला स्थान देते समय मेरी बिलकुल याद नहीं आई. कुछ ही महीनों में दोनों ने शादी कर ली.

मोनिका के साथ उस का बेटा जौन भी हमारे घर आ गया. जौन के रूप में मु झे सौतेला ही सही पर छोटा भाई तो मिल ही गया. मगर मोनिका को मैं कभी माफ नहीं कर सकी. न ही कभी अपनी मौम की जगह दे सकी.

वैडिंग गाउन में जब मोनिका ने हमारे घर में प्रवेश किया था तो मेरा गुस्से से भरा चेहरा देख कर उस के पहले शब्द यही निकले थे, ‘‘प्रिया, जिंदगी एक बहाव है. जीवननदी कैसे बहती है कोई नहीं जानता. यह नदी कभी पत्थरों को साथ बहा ले जाती है, तो कभीकभी बड़े पर्वत को काट देती है, तो कभी मन बना लेती है कि उसे पर्वत से नहीं टकराना और फिर चुपचाप अपना रास्ता बदल लेती है. अब यह पता नहीं कि नदी ये सब अपनी इच्छा से करती है या सबकुछ पूर्वनियोजित होता है. फिर भी हम किसी सूरत से नदी को दोष नहीं दे सकते. तुम्हारे जीवन में मैं आ गई हूं. मैं जानती हूं तुम मु झे पसंद नहीं करती हो. सबकुछ अचानक हुआ, यह पूर्व नियोजित नहीं था. फिर भी अगर तुम मु झे गलत सम झती हो तो प्लीज फौरगिव मी. अब हम एक फैमिली हैं और मैं कोशिश करूंगी कि हम एक अच्छी फैमिली के रूप में आगे बढ़ें.’’

मु झे उस की बात में दम लगा था. मैं भी एक अच्छी जिंदगी जीना चाहती थी. शायद मैं उसे माफ कर देती पर मेरी मां के आंसू मु झे ऐसा करने से रोक रहे थे. मैं ने अपनेआप को संयत किया. ‘ओह, कितनी चालाक है, अपना ज्ञान बघार रही है, पर मु झे इंप्रैस नहीं कर सकती,’ सोचते हुए मैं ने उस का हाथ  झटक दिया और अपने कमरे में चली गई.

 

कल्पवृक्ष: भाग 2- विवाह के समय सभी व्यंग्य क्यों कर रहे थे?

सुन कर मां का कलेजा करुणा से भर आया. उन्होंने अपनेअपने कमरों के दरवाजे पर खड़ी दोनों बड़ी बहुओं की ओर देख, फिर छोटी बहू की ओर आकंठ ममत्व में डूबे हुए वे कुछ कहने को होंठ खोल ही रही थीं कि मधु साड़ी के छोर से हाथ पोंछती बोली, ‘‘बाबूजी, एक बात कहनी थी, आज्ञा हो तो कहूं?’’

‘‘हां, हां, कह न बहू,’’ वे आर्द्र कंठ से बोले.

‘‘क्या मेरे मायके से जो रुपया नकद मिला था वह सब खर्च हो गया? यह न सोचें कि मु झे चाहिए. यदि जमा हो तो वह विभा के विवाह में लगा दें.’’

‘‘वह, वह तो निखिल ने आधा शायद तभी अपने खाते में जमा कर लिया था. वह तो…’’

निखिल वाशबेसिन में कुल्ला करते घूम कर खड़ा हो गया. उस ने घूर कर मधु की ओर देखा. मधु ने तुरंत उधर से पीठ घुमा ली. फिर वह बोली, ‘‘वह सब निकाल लें और सब लोग कम से कम 25-25 हजार रुपए दें, भरपाई हो जाएगी.’’

‘‘रुपए हुए तो इतना सामान कहां से आएगा बेटी?’’

‘‘वह मेरा सामान तो अभी नया ही सा है, वही सब दे दें. घर में 2-2 फ्रिजों का क्या करना है. न इतने टीवी ही चाहिए. बिजली का खर्च भी तो बचाना चाहिए. मु झे तो ढेरों सामान मिला था. कुछ आलतूफालतू बेच कर बड़ी चीजें ले लें. रंगीन टीवी, फ्रिज, कपड़े धोने की मशीन के बिना भी तो अब तक काम चल रहा था. वैसे ही फिर चल सकता है. आप को घरवर पसंद है तो यहीं संबंध करिए विभाजी का, यही घरबार ठीक है.’’

सब जैसे चकित रह गए. दोनों जेठजेठानियां मुंहबाए अचरज से देख रहे थे और निखिल तो जैसे पहले उबल रहा था, परंतु फिर लगा वह बिलकुल शांत हो गया पत्नी के सामने. पहले उस के मन में आया कि कहीं मधु उस की ससुराल में मिले नए स्कूटर के लिए न कह दे, परंतु अब वह जैसे पिघल रहा था. उस ने पिता से लड़ झगड़ कर विवाह के बाद ससुराल से मिले आधे रुपए  झटक कर बैंक बैलेंस बना लिया था. यह बात उस ने मधु से कभी नहीं कही थी. आज जैसे वह पूरे परिवार की नजरों में गिर गया था. रुपयों की बात पर वह बौखला कर कुछ कहने के शब्द संजो रहा था कि मधु की दानशीलता ने उसे गहराई तक गौण बना दिया.

‘‘मांजी, मेरे पास जेवर भी कई जोड़ी हैं. मैं सब से छोटी हूं न मायके में. इस से बड़े दोनों भाईभाभी व चाचाचाची तथा दोनों बेटेबहुओं ने भी काफी कुछ दिया है. चाची की तो मैं बहुत दुलारी हूं. उन्होंने अलग से कई जेवर दिए हैं, उन्हें बेच कर समस्या हल हो जाएगी. आप लोग चिंता न करें. बाबूजी रिटायर हो गए हैं तो अब यह भार उन का नहीं, उन के तीनों बेटेबहुओं का है. कोई तानाठेना क्यों देगा. क्या कोई पराया है. बहन उन की ननद हमारी, आप तो कुछ शर्तों पर हेरफेर कर हां कर दो. सब ठीक हो जाएगा. कुछ अच्छा काम हम लोग भी तो कर लें.’’

सुन कर बहुत रोकने पर भी नेत्र बरस पड़े. वे भर्राए कंठ से किसी प्रकार बोले, ‘‘छोटी बहू, क्या कहूं? तेरी जैसी तो कहीं मिसाल नहीं है रे, कहां से पाया तू ने ऐसा ज्ञान, उदारता. तू कहां से आ गई इस घर में.’’

‘‘न, न बाबूजी और कुछ नहीं. मैं सह नहीं सकूंगी,’’ कह कर वह आगे बढ़ी उन के मुख पर हाथ रखने को तो उन्होंने उसे कंधे से लगा लिया और फिर उस के सिर पर हाथ रख कर जैसे मन की सारी ममता लुटाने को आतुर हो उठे.

‘‘पता नहीं कौन से कर्म किए थे हम ने कि इस साधारण घर में बहू बन कर चली आई. अरे, धन्य हैं इस के मातापिता और परिवार वाले जो उन्होंने इस मणि को हमारी  झोली में डाल दिया. अरे, आ तो मधु. मैं तु झे छाती से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं. अरे, ऐसा तो मैं अपनी औलाद को भी न ढाल पाई.’’

मांजी ने उसे खींच कर कलेजे से लगा लिया. मधु ने लज्जा से अपना मुंह मांजी के आंचल में छिपा लिया. मुकेश, अखिलेश अपनी नम आंखें पोंछ कर उठ खड़े हुए. निखिल वहां से चल कर अपने कमरे में दरवाजे पर खड़ा हो कर मुड़ा और बोला, ‘‘बाबूजी, आप विभा के यहां मंजूरी का पत्र लिख दें, और हां, मेरा स्कूटर मेरा बहनोई चलाएगा. अब थोड़ी साफसफाई हो जाएगी, बस,’’ कह कर वह अंदर घुस गया.

पिता ने बड़े ही आश्चर्य से हठीलेजोशीले बेटे की ओर देखा, ‘क्या यही है 6 माह पूर्व का निखिल, जो ससुराल से मिले रुपयों के लिए कई दिन  झगड़ता रहा था और ले कर ही माना था.’

‘‘बाबूजी, जैसे आप की बहू ने आज्ञा दी है, हम सब वहीं विभा की शादी को तैयार हैं. हम दोनों भी जीपीएफ आदि निकाल लेंगे. शादी वहीं होगी,’’ दोनों ने अपना निर्णय सुनाया. तभी दोनों जेठानियां आगे आईं.

‘‘मांजी, हमारे मायके के जो भारी बरतन हों, आप उन्हें साफ कर विभा को दे सकती हैं. कुछ न कुछ हम दोनों के पास भी है.’’

‘‘नहीं, बड़ी दीदी. आप की बेटी शैली बड़ी हो रही है. आप बरतनभांडे कुछ नहीं देंगी. बड़े दादा रुपए भर देंगे. रुपए तो तब तक हम शैली के लिए जोड़ ही लेंगे. अभी जो समय की मांग है वही चाहिए, बस.’’

जो काम पूरे परिवार को पहाड़ काटने सा प्रतीत हो रहा था वह जैसे पलभर में सुल झ गया.

तभी विभा के कमरे से सिसकियों के स्वर बाहर तक गूंजते चले गए. सब उधर दौड़ते चले गए. देखा, विभा पड़ी सिसक रही है. मधु ने घबरा कर उस का सिर गोद में रख लिया. वह अपने पलंग पर पड़ी सिसक रही थी. ‘‘क्या हुआ विभा, क्या हुआ,’’ सब उसे घेर कर खड़े हो गए, विभा थी कि रोए जा रही थी.

‘‘बोल न विभा,’’ मां ने हिला कर पूछा.

‘‘मां, ये भाभियां क्या अभी से वैरागिनी बन जाएंगी? क्या इन का सब सामान संजो कर मैं सुखी हो पाऊंगी?’’ वह रो कर बोली.

‘‘पगली, इतनी सी बात पर ऐसे बिलख रही है, जैसे कुबेर का खजाना लुट गया हो. अरे, यह तो फिर जुड़ जाएगा. मैं नौकरी कर लूं तो क्या फिर न जुड़ पाएगा. फिर अभी कौन कंगाल है, सब चीजें हैं तो घर में, तू सब चिंता छोड़,’’ मधु ने उसे सम झाया.

‘‘मधु ठीक कहती है, विभा. अभी जो है उसे तो स्वीकार करना ही पड़ेगा. सामान तो हम फिर जोड़ लेंगे. छोटी भाभी की तू चिंता मत कर, वह तो जब से आई है वैरागिनी सी ही तो रहती है. इसी से तो वह राजरानी से बढ़ कर है घरभर के लिए,’’ मुकेश ने उसे सम झाया. तब वह बड़ी कठिनाई से शांत हुई.

फिर बाबूजी ने देर नहीं की. उन्होंने रकम कम करने की प्रार्थना के साथ उन की कुछ ऊंची मांग स्वीकार कर ली थी. कुछ के लिए अगली विदा पर देने की प्रार्थना भी की थी. उन्हें जैसे पूरा विश्वास था कि वे लोग कुछ हद तक मान जाएंगे, क्योंकि उन लोगों को भी लड़की सहित उन का मध्यवर्गीय परिवार पसंद था.

हुआ भी यही. एक माह पश्चात सब शर्तों के साथ शादी तय भी हो गई. रकम भी कम कर दी गई. सामान तो सारा मिल ही रहा था, सब प्रसन्न हो उठे.

तब तक विभा की परीक्षाएं भी हो गईं. फिर सगाई की रस्म हुई. विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई. तब गई लग्न. पूरे 7 थाल भर कर गए. साड़ी, सूट, बच्चों के कपड़े व फल, मेवे, मिठाई, अच्छे बड़ेबड़े थाल देख कर घरभर खुश हो उठा. तभी मुकेश द्वारा हाथ पर थाल रखे जाने पर वर संजय की निगाह थाल पर लिखे नाम पर पड़ी जो मशीन द्वारा लिखा गया था. फिर उस ने सब थालों पर नजर डाली तो मन न जाने कैसा हो गया.

थालों पर नाम किस का लिखा है? वह पूछ बैठा.’’

‘‘छोटी बहू, मधु का. ये सब उसी के मायके के थाल हैं.’’

‘‘परंतु आप की बहन का नाम तो विभा है न?’’

‘‘हां, विभा ही तो है.’’

‘‘तो क्या यह उचित लगा आप लोगों को कि किसी के मायके की भेंट किसी को दी जाए?’’ वह थोड़ी तेज आवाज में बोला.

‘‘प्लीज, धीरे बोलिए, असल बात यह है कि 2 वर्र्ष पूर्व ही हम एक बहन के विवाह से निबटे हैं, फिर छोटे भाई निखिल का विवाह किया. लड़के के विवाह में भी तो पैसा लगता है.

‘‘आप के विवाह में भी लग रहा होगा, हम अभी ऐसी परिस्थिति में नहीं थे कि आप लोगों की सारी मांगें पूरी कर सकते. इसलिए ये सब लाना पड़ा. अब तक जितने भी संबंध आए, हम सब को और विभा को आप व आप का पूरा परिवार ही अच्छा लगा. और एक बात और बतलाऊं, छोटी बहू मधु ने ही खुशी से अपना बहुत सा सामान देने की हठ की है, वरना हम लोग तो यह रिश्ता शायद करने का साहस ही न कर पाते,’’ फिर उन्होंने जो घर पर घटित हुआ था, सारा कह सुनाया.

और आखिर में कहा, ‘‘और आप विश्वास करें तब से यह सब दहेज ऐसे ही रखा है, सिवा टीवी और स्कूटर के, सब नया ही है.’’

लड़का लगन की चौक पर बैठा था. घराती और मेहमान सब एक ओर और मुकेश आदि सहित सब दूसरी ओर. वर के निकट सामान के पास कुछ दबेदबे स्वर सुन कर सब पास आ गए. पिता चिंतित हो उठे, मन में कहा, ‘कुछ गड़बड़ हो गई लगती है,’ वे पास आ कर बैठ गए. अखिल और निखिल भी सरक आए, ‘‘क्या बात है, मुकेश?’’

मुकेश ने दबे शब्दों में सब कह दिया. तब तक वर के पिता, भाई तथा अन्य नातेदार भी आ जुटे.

‘‘क्या बात है, संजय?’’

‘‘पापा, ये देख रहे हैं थाल आदि, ये हैं तो नए परंतु इन की पत्नी मधु का नाम गुदा है इन में,’’ उस ने निखिल की ओर इशारा कर  के कहा.

‘‘तो इस में क्या हुआ, ऐसा तो चलता ही है, इधर का उधर दहेज का आदानप्रदान. तू तो पागल है बिलकुल.’’

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प्रेम ऋण: क्या था पारुल का फैसला

‘‘दी  दी, आप की बात पूरी हो गई हो तो कुछ देर के लिए फोन मुझे दे दो. मुझे तानिया से बात करनी है,’’ घड़ी में 10 बजते देख कर पारुल धैर्य खो बैठी.

‘‘लो, पकड़ो फोन, तुम्हें हमेशा आवश्यक फोन करने होते हैं. यह भी नहीं सोचा कि प्रशांत क्या सोचेंगे,’’ कुछ देर बाद अंशुल पारुल की ओर फोन फेंकते हुए तीखे स्वर में बोली.

‘‘कौन क्या सोचेगा, इस की चिंता तुम कब से करने लगीं, दीदी? वैसे मैं याद दिला दूं कि कल मेरा पहला पेपर है. तानिया को बताना है कि कल मुझे अपने स्कूटर पर साथ ले जाए,’’ पारुल फोन उठा कर तानिया का नंबर मिलाने लगी थी.

‘‘लो, मेरी बात हो गई, अब चाहे जितनी देर बातें करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता,’’ पारुल पुन: अपनी पुस्तक में खो गई.

‘‘पर मुझे फर्क पड़ता है. मैं मम्मी से कह कर नया मोबाइल खरीदूंगी,’’ अंशुल ने फोन लौटाते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गई.

पारुल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. फिर भी अंशुल के क्रोध का कारण उस की समझ में नहीं आ रहा था. पिछले आधे घंटे से वह प्रशांत से बातें कर रही थी. उसे तानिया को फोन नहीं करना होता तो वह कभी उन की बातचीत में खलल नहीं डालती.

अंशुल ने कमरे से बाहर आ कर मां को पुकारा तो पाया कि वह उस के विवाह समारोह के हिसाबकिताब में लगी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे नया फोन चाहिए. मैं अब अपना फोन पारुल और नवीन को नहीं दे सकती,’’ वह अपनी मां सुजाता के पास जा कर बैठ गई थी.

‘‘क्या हुआ? आज फिर झगड़ने लगे तुम लोग? तेरे सामने फोन क्या चीज है. फिर भी बेटी, 1 माह भी नहीं बचा है तेरे विवाह में. क्यों व्यर्थ लड़तेझगड़ते रहते हो तुम लोग? बाद में एकदूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगे,’’ सुजाता ने अंशुल को शांत करने की कोशिश की.

‘‘मां, आप तो मेरा स्वभाव भली प्रकार जानती हैं. मैं तो अपनी ओर से शांत रहने का प्रयत्न करती हूं पर पारुल तो लड़ने के बहाने ढूंढ़ती रहती है,’’ अंशुल रोंआसी हो उठी.

‘‘ऐसा क्या हो गया, अंशुल? मैं तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकती, बेटी.’’

‘‘मां, जब भी देखो पारुल मुझे ताने देती रहती है. मेरा प्रशांत से फोन पर बातें करना तो वह सहन ही नहीं कर सकती. आज प्रशांत ने कह ही दिया कि वह मुझे नया फोन खरीद कर दे देंगे.’’

‘‘क्या कह रही है, अंशुल. लड़के वालों के समाने हमारी नाक कटवाएगी क्या? पारुल, इधर आओ,’’ उन्होंने क्रोधित स्वर में पारुल को पुकारा.

‘‘क्या है, मां? मेरी कल परीक्षा है, आप कृपया मुझे अकेला छोड़ दें,’’ पारुल झुंझला गई थी.

‘‘इतनी ही व्यस्त हो तो बारबार फोन मांग कर अंशुल को क्यों सता रही हो,’’ सुजाताजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मुझे तानिया को जरूरी फोन करना था. मेरा और उस का परीक्षा केंद्र एक ही स्थान पर है. वह जाते समय मुझे अपने स्कूटर पर ले जाएगी,’’ पारुल ने सफाई दी.

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‘‘मैं सब समझती हूं, अंशुल को अच्छा घरवर मिला है यह तुम से सहन नहीं हो रहा. ईर्ष्या से जलभुन गई हो तुम.’’

‘‘मां, यही बात आप के स्थान पर किसी और ने कही होती तो पता नहीं मैं क्या कर बैठती. फिर भी मैं एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मुझे प्रशांत तनिक भी पसंद नहीं आए. पता नहीं अंशुल दीदी को वह कैसे पसंद आ गए.’’

‘‘यह तुम नहीं, तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है. यह तो अंशुल का अप्रतिम सौंदर्य है जिस पर वह रीझ गए, वरना हमारी क्या औकात थी जो उस ओर आंख उठा कर भी देखते. तुम्हें तो वैसा सौंदर्य भी नहीं मिला है. यह साधारण रूपरंग ले कर आई हो तो घरवर भी साधारण ही मिलेगा, शायद इसी विचार ने तुम्हें परेशान कर रखा है.’’

मां का तर्क सुन कर पारुल चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी कि एक मां अपनी बेटी से कैसे कह सकी ये सारी बातें. वह उन की आशा के अनुरूप अनुपम सुंदरी न सही पर है तो वह उन्हीं का अंश, उसे इस प्रकार आहत करने की बात वह सोच भी कैसे सकीं.

किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई वह अपने कमरे में लौटी. वह अपनी ही बहन से ईर्ष्या करेगी यह अंशुल और मां ने सोच भी कैसे लिया. मेज पर सिर टिका कर कुछ क्षण बैठी रही वह. न चाहते हुए भी आंखों में आंसू आ गए. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर चौंक उठी वह.

‘‘नवीन भैया? कब आए आप? आजकल तो आप प्रतिदिन देर से आते हैं. रहते कहां हैं आप?’’

‘‘मैं, अशोक और राजन एकसाथ पढ़ाई करते हैं अशोक के यहां. वैसे भी घर में इतना तनाव रहता है कि घर में घुसने के लिए बड़ा साहस जुटाना पड़ता है,’’ नवीन ने एक सांस में ही पारुल के हर प्रश्न का उत्तर दे दिया.

‘‘भूख लगी होगी, कुछ खाने को लाऊं क्या?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ले लूंगा. तुम्हारी कल परीक्षा है, पढ़ाई करो. पर पहले मेरी एक बात सुन लो. तुम्हारे पास अद्भुत सौंदर्य न सही, पर जो है वह रेगिस्तान की तपती रेत में भी ठंडी हवा के स्पर्श जैसा आभास दे जाता है. इन सब जलीकटी बातों को एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो और सबकुछ भूल कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ,’’ पारुल के सिर पर हाथ फेर कर नवीन कमरे से बाहर निकल गया.

अगले दिन परीक्षा के बाद पारुल तानिया के साथ लौट रही थी तो अंशुल को अशीम के साथ उस की बाइक पर आते देख हैरान रह गई.

‘‘अशीम के पीछे अंशुल ही बैठी थी न,’’ तानिया ने पूछ लिया.

‘‘हां, शायद…’’

‘‘शायद क्या, शतप्रतिशत वही थी. जीवन का आनंद उठाना तो कोई तुम्हारी बहन अंशुल से सीखे. एक से विवाह कर रही है तो दूसरे से प्रेम की पींगें बढ़ा रही है. क्या किस्मत है भौंरे उस के चारों ओर मंडराते ही रहते हैं,’’ तानिया हंसी थी.

‘‘तानिया, वह मेरी बहन है. उस के बारे में यह अनर्गल प्रलाप मैं सह नहीं सकती.’’

‘‘तो फिर समझाती क्यों नहीं अपनी बहन को? कहीं लड़के वालों को भनक लग गई तो पता नहीं क्या कर बैठें,’’ तानिया सपाट स्वर में बोल पारुल को उस के घर पर छोड़ कर फुर्र हो गई थी.

पारुल घर में घुसी तो विचारमग्न थी. तानिया उस की घनिष्ठ मित्र है अत: अंशुल के बारे में अपनी बात उस के मुंह पर कहने का साहस जुटा सकी. पर उस के जैसे न जाने कितने यही बातें पीठ पीछे करते होंगे. चिंता की रेखाएं उस के माथे पर उभर आईं.

सुजाता बैठक में श्रीमती प्रसाद के साथ बातचीत में व्यस्त थीं.

‘‘कैसा हुआ पेपर?’’ उन्होंने पारुल को देखते ही पूछा.

‘‘ठीक ही हुआ, मां,’’ पारुल अनमने स्वर में बोली.

‘‘ठीक मतलब? अच्छा नहीं हुआ क्या?’’

‘‘बहुत अच्छा हुआ, मां. आप तो व्यर्थ ही चिंता करने लगती हैं.’’

‘‘यह मेरी छोटी बेटी है पारुल. इसे भी याद रखिएगा. अंशुल के बाद इस का भी विवाह करना है,’’ सुजाता ने श्रीमती प्रसाद से कहा.

‘‘मैं जानती हूं,’’ श्रीमती प्रसाद मुसकराई थीं.

‘‘पारुल, 2 कप चाय तो बना ला बेटी,’’ सुजाताजी ने आदेश दिया था.

‘‘हां, यह ठीक है. एक बात बताऊं सुजाता?’’ श्रीमती प्रसाद रहस्यमय अंदाज में बोली थीं.

‘‘हां, बताइए न.’’

‘‘मैं तो लड़की के हाथ की चाय पी कर ही उस के गुणों को परख लेती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं, यदि कोई लड़की चाय भी ठीक से न बना सके तो और कोई कार्य ठीक से करने की क्षमता उस में क्या ही होगी,’’ सुजाताजी ने उन की हां में हां मिलाई थी.

‘ओफ, जाने कहां से चले आते हैं यह बिचौलिए. स्वयं को बड़ा गुणों का पारखी समझते हैं,’ पारुल चाय देने के बाद अपने कक्ष में जा कर बड़बड़ा रही थी.

‘‘माना कि लड़के वालों की कोई मांग नहीं है पर आप को तो उन के स्तर के अनुरूप ही विवाह करना पड़ेगा. अंशुल के भविष्य का प्रश्न है यह तो,’’ उधर श्रीमती प्रसाद सुजाताजी से कह रही थीं.

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‘‘कैसी बातें करती हैं आप? हम क्या अपनी तरफ से कोई कोरकसर छोड़ेंगे? आप ने हर वस्तु और व्यक्ति के बारे में सूचना दे ही दी है. सारा कार्य आप की इच्छानुसार ही होगा,’’ सुजाताजी ने आश्वासन दिया.

श्रीमती प्रसाद कुछ देर में चली गई थीं. केवल सुजाताजी अकेली बैठी रह गईं.

‘‘इस विवाह का खर्च तो बढ़ता ही जा रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि इतना पैसा कहां से आएगा,’’ वह मानो स्वयं से ही बात कर रही थीं. तभी उन के पति वीरेन बाबू कार्यालय से लौटे थे.

‘‘घर में बेटी की शादी है पर आप को तो कोई फर्क नहीं पड़ता. आप की दिनचर्या तो ज्यों की त्यों है. सारा भार तो मेरे कंधों पर है,’’ सुजाताजी ने थोड़ा नाराजगी भरे स्वर में कहा.

‘‘क्या कहूं, तुम्हें तो मेरे सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. मेरा किया कार्य तुम्हें पसंद भी तो नहीं आता,’’ वीरेन बाबू बोले थे.

‘‘आप को कार्य करने को कौन कह रहा है. पर कभी साथ बैठ कर विचारविमर्श तो किया कीजिए. हर चीज कितनी महंगी है आजकल. सबकुछ श्रीमती प्रसाद की इच्छानुसार हो रहा है. पर हम कर तो अपनी बेटी के लिए ही रहे हैं न. अब तक 15 लाख से ऊपर खर्च हो चुका है और विवाह संपन्न होने तक इतना ही और लग जाएगा.’’

‘‘पर इतना पैसा आएगा कहां से,’’ वीरेन बाबू चौंक कर बोले, ‘‘जब वर पक्ष की कोई मांग नहीं है तो जितनी चादर है उतने ही पैर फैलाओ,’’ वीरेन बाबू ने सुझाव दिया था.

‘‘मांग हो या न हो, हमें तो उन के स्तर का विवाह करना है कि नहीं. मैं साफ कहे देती हूं, मेरी बेटी का विवाह बड़ी धूमधाम से होगा,’’ सुजाताजी ने घोषणा की थी और वीरेन बाबू चुप रह गए थे. वह नहीं चाहते थे कि बात आगे बढ़े और घर में कोहराम मच जाए. वह शायद कुछ और कहते कि तभी धमाकेदार ढंग से अंशुल ने घर में प्रवेश किया.

‘‘कहां थीं अब तक? मैं ने कहा था न शौपिंग के लिए जाना था. श्रीमती प्रसाद आई थीं. तुम्हारे बारे में पूछ रही थीं.’’

‘‘आज मैं बहुत व्यस्त थी, मां. पुस्तकालय में काफी समय निकल गया. उस के बाद मंजुला के जन्मदिन की पार्टी थी. मैं तो वहां से भी जल्दी ही निकल आई,’’ सुजाताजी के प्रश्न का ऊटपटांग सा उत्तर दे कर अंशुल अपने कमरे में आई थी.

‘‘आइए भगिनीश्री, कौन से पुस्तकालय में थीं आप अब तक?’’ पारुल उसे देखते ही मुसकाई थी.

‘‘क्या कहना चाह रही हो तुम? इस तरह व्यंग्य करने का मतलब क्या है?’’

‘‘मैं व्यंग्य छोड़ कर सीधे मतलब की बात पर आती हूं. आज पूरे दिन अशीम के साथ नहीं थीं आप?’’

‘‘तो? अशीम मेरा मित्र है. उस के साथ एक दिन बिता लिया तो क्या हो गया?’’

‘‘अशीम केवल मित्र है, दीदी? मैं तो सोचती थी कि आप उस के प्रेम में आकंठ डूबी हुई हैं और किसी और के बारे में सोचेंगी भी नहीं. पर आप तो प्रशांत बाबू की मर्सीडीज देख कर सबकुछ भूल गईं.’’

‘‘कालिज का प्रेम समय बिताने के लिए होता है. मैं इस बारे में पूर्णतया व्यावहारिक हूं. अशीम अभी पीएच.डी. कर रहा है. 4-5 वर्ष बाद कहीं नौकरी करेगा. उस की प्रतीक्षा करते हुए मेरी तो आंखें पथरा जाएंगी. घर ढंग से चलाने के लिए मुझे भी 9 से 5 की चक्की में पिसना पड़ेगा. मैं उन भावुक मूर्खों में से नहीं हूं जो प्रेम के नाम पर अपना जीवन बरबाद कर देते हैं.’’

‘‘आप का हर तर्क सिरमाथे पर, लेकिन आप से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि आप अशीम को सब साफसाफ बता दें और उस के साथ प्यार की पींगें बढ़ाना बंद कर दें. फिर प्रशांतजी का परिवार इसी शहर में रहता है. किसी को भनक लग गई तो…’’

‘‘किसी को भनक नहीं लगने वाली. तुम्हीं बताओ, मांपापा को आज तक कुछ पता चला क्या? हां, इस के लिए मैं तुम्हारी आभारी हूं. पर मैं इस उपकार का बदला अवश्य चुकाऊंगी.’’

‘‘अंशुल दीदी, तुम इस सीमा तक गिर जाओगी मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ पारुल बोझिल स्वर में बोली.

‘‘यदि अपने हितों की रक्षा करने को नीचे गिरना कहते हैं तो मैं पाताल तक भी जाने को तैयार हूं. तुम चाहती हो कि मैं अशीम को सब साफसाफ बता दूं, पर जरा सोचो कि जब सारे शहर को मेरे विवाह के संबंध में पता है पर केवल अशीम अनभिज्ञ है तो क्या यह मेरा दोष है?’’

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‘‘पता नहीं दीदी, पर कहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘व्यर्थ की चिंता में नहीं घुला करते मेरी प्यारी बहन, अभी तो तुम्हारे खानेखेलने के दिन हैं. क्यों ऊंचे आदर्शों के चक्कर में उलझती हो. अशीम को मैं सबकुछ बता दूंगी पर जरा सलीके से. अपने प्रेमी को मैं अधर में तो नहीं छोड़ सकती,’’ अंशुल ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

पारुल चुप रह गई थी. वह भली प्रकार जानती थी कि अंशुल से बहस का कोई लाभ नहीं था. उस ने अपने अगले प्रश्नपत्र की तैयारी प्रारंभ कर दी.

परीक्षा और विवाह की तैयारियों के बीच समय पंख लगा कर उड़ चला था. सुजाताजी ने अपनी लाड़ली के विवाह में दिल खोल कर पैसा लुटाया था. वीरेन बाबू को न चाहते हुए भी उन का साथ देना पड़ा था. अंशुल की विदाई के बाद कई माह से चल रहा तूफान मानो थम सा गया था. पारुल ने सहेलियों के साथ नाचनेगाने और फिर रोने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. पर अब सूने घर में कहीं कुछ करने को नहीं बचा था.

धीरेधीरे उस ने स्वयं को व्यवस्थित करना प्रारंभ किया था. पर एक दिन अचानक ही अशीम का संदेश पा कर वह चौंक गई थी. अशीम ने उसे कौफी हाउस में मिलने के लिए बुलाया था.

अशीम से पारुल को सच्ची सहानुभूति थी. अत: वह नियत समय पर उस से मिलने पहुंची थी.

‘‘पता नहीं बात कहां से प्रारंभ करूं,’’ अशीम कौफी और कटलेट्स का आर्डर देने के बाद बोला.

‘‘कहिए न क्या कहना है?’’ पारुल आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘विवाह से 4-5 दिन पहले अंशुल ने मुझे सबकुछ बता दिया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मातापिता का मन रखने के लिए उसे इस विवाह के लिए तैयार होना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, और क्या कहा उस ने?’’

‘‘वह कह रही थी कि उस के विवाह के लिए मातापिता को काफी कर्ज लेना पड़ा. घर तक गिरवी रखना पड़ा. वह मुझ से विनती करने लगी, उस का वह स्वर मैं अभी तक भूला नहीं हूं.’’

‘‘पर ऐसा क्या कहा अंशुल दीदी ने?’’

‘‘वह चाहती है कि मैं तुम से विवाह कर लूं जिस से कि तुम्हारे मातापिता को चिंता से मुक्ति मिल जाए. और भी बहुत कुछ कह रही थी वह,’’ अशीम ने हिचकिचाते हुए बात पूरी की.

कुछ देर तक दोनों के बीच निस्तब्धता पसरी रही. कपप्लेटों पर चम्मचों के स्वर ही उस शांति को भंग कर रहे थे.

‘तो यह उपकार किया है अंशुल ने,’ पारुल सोच रही थी.

‘‘अशीमजी, मैं आप का बहुत सम्मान करती हूं. सच कहूं तो आप मेरे आदर्श रहे हैं. आप की तरह ही पीएच.डी. करने के लिए मैं ने एम.एससी. के प्रथम वर्ष में जीतोड़ परिश्रम किया और विश्वविद्यालय में प्रथम रही. इस वर्ष भी मुझे ऐसी ही आशा है. आप के मन में अंशुल दीदी का क्या स्थान था मैं नहीं जानती पर निश्चय ही आप ‘पैर का जूता’ नहीं हैं कि एक बहन को ठीक नहीं आया तो दूसरी ने पहन लिया,’’ सीधेसपाट स्वर में बोल कर पारुल चुप हो गई थी.

‘‘आज तुम ने मेरे मन का बोझ हलका कर दिया, पारुल. तुम्हारे पास अंशुल जैसा रूपरंग न सही पर तुम्हारे व्यक्तित्व में एक अनोखा तेज है जिस की अंशुल चाह कर भी बराबरी नहीं कर सकती.’’

‘‘यही बात मैं आप के संबंध में भी कह सकती हूं. आप एक सुदृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी हैं. इन छोटीमोटी घटनाओं से आप सहज ही विचलित नहीं होते. आप के लिए एक सुनहरा भविष्य बांहें पसारे खड़ा है,’’ पारुल ने कहा तो अशीम खिलखिला कर हंस पड़ा.

‘‘हम दोनों एकदूसरे के इतने बड़े प्रशंसक हैं यह तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं था. तुम से मिल कर और बातें कर के अच्छा लगा,’’ अशीम बोला और दोनों उठ खड़े हुए.

अपने घर की ओर जाते हुए पारुल देर तक यही सोचती रही कि अशीम को ठुकरा कर अंशुल ने अच्छा किया या बुरा? पर इस प्रश्न का उत्तर तो केवल समय ही दे सकता है.

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रिश्ता: क्या हुआ था शमा के साथ

लेखक- कुंवर गुलाब सिंह

शमा के लिए रफीक का रिश्ता आया. वह उसे पहले से जानती थी. वह ‘रेशमा आटो सर्विस’ में मेकैनिक था और अच्छी तनख्वाह पाता था.

शमा की मां सईदा अपनी बेटी का रिश्ता लेने को तैयार थीं.

शमा बेहद हसीन और दिलकश लड़की थी. अपनी खूबसूरती के मुकाबले वह रफीक को बहुत मामूली इनसान समझती थी. इसलिए रफीक उसे दिल से नापसंद था.

दूसरी ओर शमा की सहेली नाजिमा हमेशा उस की तारीफ करते हुए उकसाया करती थी कि वह मौडलिंग करे, तो उस का रुतबा बढ़ेगा. साथ ही, अच्छी कमाई भी होगी.

एक दिन शमा ख्वाबों में खोई सड़क पर चली जा रही थी.

‘‘अरी ओ ड्रीमगर्ल…’’ पीछे से पुकारते हुए नाजिमा ने जब शमा के कंधे पर हाथ रखा, तो वह चौंक पड़ी.

‘‘किस के खयालों में चली जा रही हो तुम? तुझे रोका न होता, तो वह स्कूटर वाला जानबूझ कर तुझ पर स्कूटर चढ़ा देता. वह तेरा पीछा कर रहा था,’’ नाजिमा ने कहा.

शमा ने नाजिमा के होंठों पर चुप रहने के लिए उंगली रख दी. वह जानती थी कि ऐसा न करने पर नाजिमा बेकार की बातें करने लगेगी.

अपने होंठों पर से उंगली हटाते हुए नाजिमा बोली, ‘‘मालूम पड़ता है कि तेरा दिमाग सातवें आसमान में उड़ने लगा है. तेरी चमड़ी में जरा सफेदी आ गई, तो इतराने लगी.’’

‘‘बसबस, आते ही ऐसी बातें शुरू कर दीं. जबान पर लगाम रख. थोड़ा सुस्ता ले…’’

थोड़ा रुक कर शमा ने कहा, ‘‘चल, मेरे साथ चल.’’

‘‘अभी तो मैं तेरे साथ नहीं चल सकूंगी. थोड़ा रहम कर…’’

‘‘आज तुझे होटल में कौफी पिलाऊंगी और खाना भी खिलाऊंगी.’’

‘‘मेरी मां ने मेरे लिए जो पकवान बनाया होगा, उसे कौन खाएगा?’’

‘‘मैं हूं न,’’ शमा नाजिमा को जबरदस्ती घसीटते हुए पास के एक होटल में ले गई.

‘‘आज तू बड़ी खुश है? क्या तेरे चाहने वाले नौशाद की चिट्ठी आई है?’’ शमा ने पूछा.

यह सुन कर नाजिमा झेंप गई और बोली, ‘‘नहीं, साहिबा का फोटो और चिट्ठी आई है.’’

‘‘साहिबा…’’ शमा के मुंह से निकला.

साहिबा और शमा की कहानी एक ही थी. उस के भी ऊंचे खयालात थे. वह फिल्मी दुनिया की बुलंदियों पर पहुंचना चाहती थी.

साहिबा का रिश्ता उस की मरजी के खिलाफ एक आम शख्स से तय हो गया था, जो किसी दफ्तर में बड़ा बाबू था. उसे वह शख्स पसंद नहीं था.

कुछ महीने पहले साहिबा हीरोइन बनने की लालसा लिए मुंबई भाग गई थी, फिर उस की कोई खबर नहीं मिली थी. आज उस की एक चिट्ठी आई थी.

चिट्ठी की खबर सुनने के बाद शमा ने नाजिमा के सामने साहिबा के तमाम फोटो टेबिल पर रख दिए, जिन्हें वह बड़े ध्यान से देखने लगी. सोचने लगी, ‘फिल्म लाइन में एक औरत पर कितना सितम ढाया जाता है, उसे कितना नीचे गिरना पड़ता है.’

नाजिमा से रहा नहीं गया. वह गुस्से में बोल पड़ी, ‘‘इस बेहया लड़की को देखो… कैसेकैसे अलफाजों में अपनी बेइज्जती का डंका पीटा है. शर्म मानो माने ही नहीं रखती है. क्या यही फिल्म स्टार बनने का सही तरीका है? मैं तो समझती हूं कि उस ने ही तुम्हें झूठी बातों से भड़काया होगा.

‘‘देखो शमा, फिल्म लाइन में जो लड़की जाएगी, उसे पहले कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘फिल्मों में आजकल विदेशी रस्म के मुताबिक खुला बदन, किसिंग सीन वगैरह मामूली बात हो गई है.

‘‘कोई फिल्म गंदे सीन दिखाने पर ही आगे बढ़ेगी, वरना…’’ शमा बोली.

‘‘सच पूछो, तो साहिबा के फिल्मस्टार बनने से मुझे खुशी नहीं हुई, बल्कि मेरे दिल को सदमा पहुंचा है. ख्वाबों की दुनिया में उस ने अपनेआप को बेच कर जो इज्जत कमाई, वह तारीफ की बात नहीं है,’’ नाजिमा ने कहा.

बातोंबातों में उन दोनों ने 3-3 कप कौफी पी डाली, फिर टेबिल पर उन के लिए वेटर खाना सजाने लगा.

‘‘शमा, ऐसे फोटो ले जा कर तुम भी फिल्म वालों से मिलोगी, तो तुझे फौरन कबूल कर लेंगे. तू तो यों भी इतनी हसीन है…’’ हंस कर नाजिमा बोली.

‘‘आजकल मैं इसलिए ज्यादा परेशान हूं कि मां ने मेरी शादी रफीक से करने के लिए जीना मुश्किल कर दिया है. उन्हें डर है कि मैं भी मुंबई न भाग जाऊं.’’

‘‘अगर तुझे रफीक पसंद नहीं है, तो मना कर दे.’’

‘‘वही तो समस्या है. मां समझती हैं कि ऐसे कमाऊ लड़के जल्दी नहीं मिलते.’’

‘‘उस में कमी क्या है? मेहनत की कमाई करता है. तुझे प्यारदुलार और आराम मुहैया कराएगा. और क्या चाहिए तुझे?’’

‘‘तू भी मां की तरह बतियाने लगी कि मैं उस मेकैनिक रफीक से शादी कर लूं और अपने सारे अरमानों में आग लगा दूं.

‘‘रफीक जब घर में घुसे, तो उस के कपड़ों से पैट्रोल, मोबिल औयल और मिट्टी के तेल की महक सूंघने को मिले, जिस की गंध नाक में पहुंचते ही मेरा सिर फटने लगे. न बाबा न. मैं तो एक हसीन जिंदगी गुजारना चाहती हूं.’’

‘‘सच तो यह है कि तू टैलीविजन पर फिल्में देखदेख कर और फिल्मी मसाले पढ़पढ़ कर महलों के ख्वाब देखने लगी है, इसलिए तेरा दिमाग खराब होने लगा है. उन ख्वाबों से हट कर सोच. तेरी उम्र 24 से ऊपर जा रही है. हमारी बिरादरी में यह उम्र ज्यादा मानी जाती है. आगे पूछने वाला न मिलेगा, तो फिर…’’

इसी तरह की बातें होती रहीं. इस के बाद वे दोनों अपनेअपने घर चली गईं.

उस दिन शमा रात को ठीक से सो न सकी. वह बारबार रफीक, नाजिमा और साहिबा के बारे में सोचती रही.

रात के 3 बज रहे थे. शमा ने उठ कर आईने के सामने अपने शरीर को कई बार घुमाफिरा कर देखा, फिर कपड़े उतार कर अपने जिस्म पर निगाहें गड़ाईं और मुसकरा दी. फिर वह खुद से ही बोली, ‘मुझे साहिबा नहीं बनना पड़ेगा. मेरे इस खूबसूरत जिस्म और हुस्न को देखते ही फिल्म वाले खुश हो कर मुझे हीरोइन बना देंगे.’’

जब कोई गलत रास्ते पर जाने का इरादा बना लेता है, तो उस का दिमाग भी वैसा ही हो जाता है. उसे आगेपीछे कुछ सूझता ही नहीं है.

शमा ने सोचा कि अगर वह साहिबा से मिलने गई, तो वह उस की मदद जरूर करेगी. क्योंकि साहिबा भी उस की सहेली थी, जो आज नाम व पैसा कमा रही है.

लोग कहते हैं कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं. वे सच कहते हैं, लेकिन जब मुसीबत आती है, तो वही ढोल कानफाड़ू बन कर परेशान कर देते हैं.

शमा अच्छी तरह जानती थी कि उस की मां उसे मुंबई जाने की इजाजत नहीं देंगी, तो क्या उस के सपने केवल सपने बन कर रह जाएंगे? वह मुंबई जरूर जाएगी, चाहे इस के लिए उसे मां को छोड़ना पड़े.

शमा ने अपने बैंक खाते से रुपए निकाले, ट्रेन का रिजर्वेशन कराया और मां से बहाना कर के एक दिन मुंबई के लिए चली गई.

शमा ने साहिबा को फोन कर दिया था. साहिबा ने उसे दादर रेलवे स्टेशन पर मिलने को कहा और अपने घर ले चलने का भरोसा दिलाया.

जब ट्रेन मुंबई में दादर रेलवे स्टेशन पर पहुंची, उस समय मूसलाधार बारिश हो रही थी. बहुत से लोग स्टेशन पर बारिश के थमने का इंतजार कर रहे थे. प्लेटफार्म पर बैठने की थोड़ी सी जगह मिल गई.

शमा सोचने लगी, ‘घनघोर बारिश के चलते साहिबा कहीं रुक गई होगी.’

उसी बैंच पर एक औरत बैठी थी. शायद, उसे भी किसी के आने का इंतजार था.

शमा उस औरत को गौर से देखने लगी, जो उम्र में 40 साल से ज्यादा की लग रही थी. रंग गोरा, चेहरे पर दिलकशी थी. अच्छी सेहत और उस का सुडौल बदन बड़ा कशिश वाला लग रहा था.

शमा ने सोचा कि वह औरत जब इस उम्र में इतनी खूबसूरत लग रही है, तो जवानी की उम्र में उस पर बहुत से नौजवान फिदा होते रहे होंगे.

उस औरत ने मुड़ कर शमा को देखा और कहा, ‘‘बारिश अभी रुकने वाली नहीं है. कहां जाना है तुम्हें?’’

शमा ने जवाब दिया, ‘‘गोविंदनगर जाना था. कोई मुझे लेने आने वाली थी. शायद बारिश की वजह से वह रुक गई होगी.’’

‘‘जानती हो, गोविंदनगर इलाका इस दादर रेलवे स्टेशन से कितनी दूर है? वह मलाड़ इलाके में पड़ता है. यहां पहली बार आई हो क्या?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस के यहां जाना है?’’

‘‘मेरी एक सहेली है साहिबा. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ती थीं. 2-3 साल पहले वह यहां आ कर बस गई. उस ने मुझे भी शहर देखने के लिए बुलाया था.’’

उस औरत ने शमा की ओर एक खास तरह की मुसकराहट से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे पास सामान तो बहुत कम है. क्या 1-2 दिन के लिए ही आई हो?’’

‘‘अभी कुछ नहीं कह सकती. साहिबा के आने पर ही बता सकूंगी.’’

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने घर से बिना किसी को बताए यहां भाग कर आई हो? अकसर तुम्हारी उम्र की लड़कियों को मुंबई देखने का बड़ा शौक रहता है, इसलिए वे बिना इजाजत लिए इस नगरी की ओर दौड़ पड़ती हैं और यहां पहुंच कर गुमराह हो जाती हैं.’’

शमा के चेहरे की हकीकत उस औरत से छिप न सकी.

‘‘मुझे लगता है कि तुम भी भाग कर आई हो. मुमकिन है कि तुम्हें भी हीरोइन बनने का चसका लगा होगा, क्योंकि तुम्हारी जैसी हसीन लड़कियां बिना सोचे ही गलत रास्ते पर चल पड़ती हैं.’’

‘‘आप ने मुझे एक नजर में ताड़ लिया. लगता है कि आप लड़कियों को पहचानने में माहिर हैं,’’ कह कर शमा हंस दी.

‘‘ठीक कहा तुम ने…’’ कह कर वह औरत भी हंस दी, ‘‘मैं भी किसी जमाने में तुम्हारी उम्र की एक हसीन लड़की गिनी जाती थी. मैं भी मुंबई में उसी इरादे से आई थी, फिर वापस न लौट सकी.

‘‘मैं भी अपने घर से भाग कर आई थी. मुझ से पहले मेरी सहेली भी यहां आ कर बस चुकी थी और उसी के बुलावे पर मैं यहां आई थी, पर जो पेशा उस ने अपना रखा था, सुन कर मेरा दिल कांप उठा…

‘‘वह बड़ी बेगैरत जिंदगी जी रही थी. उस ने मुझे भी शामिल करना चाहा, तो मैं उस के दड़बे से भाग कर अपने घर जाना चाहती थी, लेकिन यहां के दलालों ने मुझे ऐसा वश में किया कि मैं यहीं की हो कर रह गई.

‘‘मुझे कालगर्ल बनना पड़ा. फिर कोठे तक पहुंचाया गया. मैं बेची गई, लेकिन वहां से भाग निकली. अब स्टेशनों पर बैठते ऐसे शख्स को ढूंढ़ती फिरती हूं, जो मेरी कद्र कर सके, लेकिन इस उम्र तक कोई ऐसा नहीं मिला, जिस का दामन पकड़ कर बाकी जिंदगी गुजार दूं,’’ बताते हुए उस औरत की आंखें नम हो गईं.

‘‘कहीं तुम्हारा भी वास्ता साहिबा से पड़ गया, तो जिंदगी नरक बन जाएगी. तुम ने यह नहीं बताया कि तुम्हारी सहेली करती क्या है?’’ उस औरत ने पूछा.

शमा चुप्पी साध गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, तो ठीक है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. वह हीरोइन बनने आई थी. अभी उस को किसी फिल्म में काम करने को नहीं मिला, पर आगे उम्मीद है.’’

‘‘फिर तो बड़ा लंबा सफर समझो. मुझे भी लोगों ने लालच दे कर बरगलाया था,’’ कह कर औरत अजीब तरह से हंसी, ‘‘तुम जिस का इंतजार कर रही हो, शायद वह तुम्हें लेने नहीं आएगी, क्योंकि जब अभी वह अपना पैर नहीं जमा सकी, तो तुम्हारी खूबसूरती के आगे लोग उसे पीछे छोड़ देंगे, जो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगी.’’

दोनों को बातें करतेकरते 3 घंटे बीत गए. न तो बारिश रुकी, न शाम तक साहिबा उसे लेने आई. वे दोनों उठ कर एक रैस्टोरैंट में खाना खाने चली गईं.

शमा ने वहां खुल कर बताया कि उस की मां उस की शादी जिस से करना चाहती थीं, वह उसे पसंद नहीं करती. वह बहुत दूर के सपने देखने लगी और अपनी तकदीर आजमाने मुंबई चली आई.

‘‘शमा, बेहतर होगा कि तुम अपने घर लौट जाओ. तुम्हें वह आदमी पसंद नहीं, तो तुम किसी दूसरे से शादी कर के इज्जत की जिंदगी बिताओ, इसी में तुम्हारी भलाई है, वरना तुम्हारी इस खूबसूरत जवानी को मुंबई के गुंडे लूट कर दोजख में तुम्हें लावारिस फेंक देंगे, जहां तुम्हारी आवाज सुनने वाला कोई न होगा.’’

शमा उस औरत से प्रभावित हो कर उस के पैरों पर गिर पड़ी और वापस जाने की मंसा जाहिर की.

‘‘अगर तुम इस ग्लैमर की दुनिया में कदम न रखने का फैसला कर घर वापस जाने को राजी हो गई हो, तो मैं यही समझूंगी कि तुम एक जहीन लड़की थी, जो पाप के दलदल में उतरने से बच गई. मैं तुम्हारे वापसी टिकट का इंतजाम करा दूंगी,’’ उस औरत ने कहा.

शमा घर लौट कर अपनी बूढ़ी मां सईदा की बांहों में लिपट कर खूब रोई.

आखिरकार शमा रफीक से शादी करने को राजी हो गई.

मां ने भी शमा की शादी बड़े ही धूमधाम से करा दी.

अब रफीक और शमा खुशहाल जिंदगी के सपने बुन रहे हैं. शमा भी पिछली बातें भूलने की कोशिश कर रही है.

तिनका तिनका घोंसला: क्या हुआ हलीमा के साथ

लेखक- अरशद हाशमी

हलीमा का सिर दर्द से फटा जा रहा था, लेकिन काम पर तो जाना ही था वरना नाजिया मैडम झट से उस की पगार काट लेतीं, और दस बातें सुनातीं अलग से. कल रात फिर से उस का शौहर अकरम आधी रात के बाद शराब पी कर लौटा था और आते ही हलीमा से बिना बात मारपीट करने लगा था. अब तो ये आए दिन की बात हो गई थी.

अकरम दिनभर रिकशा चला कर जो कमाता उस का एक बड़ा हिस्सा जुए में हार आता और कभी कुछ पैसे बच जाते तो अपने दोस्तों के साथ शराब पी लेता.

5 साल पहले वे जब अपने गांव कराल से दिल्ली आए थे तो वह कितनी खुश थी. दिल्ली में ज्यादा कमाई होगी, बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ सकेंगे, और एक बेहतर जिंदगी के सपने देखे, लेकिन दिल्ली आते ही वह मानो आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी हो. रेलवे लाइन के किनारे बसी एक बस्ती में एक बेहद ही छोटी सी झुग्गी में पूरे परिवार को रहना था.

गांव के ही करीम चाचा ने अकरम को एक रिकशा किराए पर दिला दिया था. शुरूशुरू में अकरम बहुत मेहनत करता था. करीम चाचा ने ही उस को बताया था कि जैतपुर में काफी सस्ती जमीन मिल सकती है. हलीमा अपना घर बनाने के सपने देखने लगी और बड़ी मुश्किल से उस ने अकरम को इस बात के लिए मनाया कि वह बराबर वाली कालोनी में 1-2 घरों में काम करने लगे, ताकि वह भी कुछ पैसे जोड़ सके.

दोनों ने खूब मेहनत कर कुछ पैसे जोड़ भी लिए थे, लेकिन कुछ दिनों बाद अकरम का उठनाबैठना कुछ गलत लोगों के साथ हो गया. ज्यादा पैसे कमाने के लालच में अकरम ने उन के साथ जुआ खेलना शुरू कर दिया और इस चक्कर में अपनी सारी जमापूंजी भी लुटा बैठा. इतना ही नहीं, कभीकभी वह शराब भी पी लेता. हलीमा कितना रोई थी, कितना लड़ी थी उस से. शुरूशुरू में अकरम कसमें खाता कि अब जुए और शराब से दूर रहेगा, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वही सब शुरू हो जाता.

सुबहसवेरे निकल कर हलीमा कई घरों में काम करती और शाम को थक कर चूर हो जाने के बाद भी उस को कोई आराम नहीं था. घर आ कर सब के लिए खाना बनाना और बाकी काम भी करने होते थे. अब तो हाल यह था कि घर का खर्चा भी बस हलीमा ही चलाती थी. कभी कुछ पैसे बच जाते तो अकरम छीन कर उन को भी जुए में हार आता.

उस दिन उस का छोटा बेटा माजिद बारिश में भीगने की वजह से बीमार पड़ गया. बस्ती में ही रहने वाले एक झोलाछाप डाक्टर से उस की दवा भी कराई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि बीमारी और बढ़ गई. फिर उस को ओखला में एक डाक्टर को दिखाया गया. इस सब में उस के पास बचे सारे पैसे खत्म हो गए और कितना ही उधार उस के सिर चढ़ गया था.

कितना रोई थी वह अकरम के सामने, लेकिन वह तो करवट बदल कर खर्राटें भरने लगा था.

“सुनो हलीमा, क्या तुम एक और घर में काम करोगी? पड़ोस में ही मेरी एक सहेली रहने आई हैं. अकेली रहती

हैं, बैंक में नौकरी करती हैं,” एक दिन शबाना मैडम ने हलीमा से पूछा.

“मैडमजी, मुझे तो दम लेने की भी फुरसत नहीं है. एक घर और काम करने लगी तो बीमार ही पड़ जाऊंगी… और मुझे तो बीमार पड़ने की भी फुरसत नहीं है,” हलीमा ने बेचारगी से कहा.

“देख लो, वह तुम्हें 1,000 रुपए दे सकती हैं. उन का काम ज्यादा नहीं है, तुम्हें बस आधा घंटा ही लगेगा उन के घर.

“दरअसल, उन को एक अच्छी मेड चाहिए और मैं ने उन को तुम्हारा नाम बता दिया है,” शबाना मैडम ने उस को समझाते हुए कहा, तो हलीमा सोच में पड़ गई.

अगर वह आधा घंटा निकाल पाए तो 1,000 रुपए ज्यादा कमा सकती है. फिर उस ने यह सोच कर हां कर दी कि वह सुबह आधा घंटा पहले उठ जाया करेगी.

शांति मैडम से मिल कर उस को काफी अच्छा लगा. इत्तेफाक से वे भी उस के ही जिला बिजनौर की रहने वाली थीं.

हलीमा उन से मिल कर काफी खुश हो गई. हलीमा काम तो बड़ी साफसफाई से करती ही थी, खाना भी अच्छा बनाती थी. एक बार शांति मैडम ने ही उस को घर पर अचार, चटनी वगैरह बनाने का सुझाव दिया.

हलीमा ने 2-3 तरह के अचार बना कर शांति मैडम को दिए, तो उन्होंने अपने बैंक में ही 1-2 लोगों से हलीमा के लिए और्डर ले लिए. इस से हलीमा को कुछ अतिरिक्त आय भी होने लगी.

“मैं तुम्हारे पैसे बैंक में डाल दूं या तुम्हें कैश चाहिए,” एक महीने बाद शांति मैडम ने उस की पगार देने के लिए पूछा, तो हलीमा की हंसी निकल गई.

“क्या मैडमजी, हम गरीबों के भी कोई बैंक में खाते होते हैं?” हलीमा ने हंसते हुए कहा.

“क्या तुम्हारा किसी बैंक में अकाउंट नहीं है,” शांति ने हैरानी से पूछा.

“नहीं मैडमजी,” हलीमा ने गंभीरता से जवाब दिया.

“अगर तुम चाहो तो मैं अपने बैंक में ही तुम्हारा खाता खुलवा दूं. अगर किसी बैंक में तुम्हारा खाता नहीं है, तो तुम चार पैसे कैसे बचा पाओगी?” शांति ने उस को समझाया.

बात कुछकुछ हलीमा की समझ में आ रही थी. फिर उस ने यह सोच कर शांति से बैंक में खाता खुलवाने के लिए हां कर दी कि वह किसी को भी इन पैसों के बारे में नहीं बताएगी. इन पैसों को वह अपने बच्चों के भविष्य के लिए सुरक्षित रखेगी. और सचमुच उस ने किसी को इन पैसों के बारे में नहीं बताया और न ही इन पैसों को खर्च किए.

फिर एक दिन जब शांति ने उस को बताया कि उस के खाते में 10,000 से भी ज्यादा रुपए हो गए हैं, तो उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

पर, यह खुशी ज्यादा देर तक नहीं टिकी. उस दिन पूरी रात भी जब अकरम घर नहीं आया, तो उस को कुछ फिक्र हुई. वह चाहे कितना भी जुआ या शराब करे, रात में घर जरूर आता था. फिर सुबहसुबह करीम चाचा ने उस को बताया कि कल रात पुलिस अकरम और कुछ लोगों को उठा कर थाने ले गई है.

सुनते ही मानो उस के पैरों के नीचे से जमीन निकल गई. करीम चाचा के साथ वह पुलिस थाने गई. उन को देखते ही अकरम दहाड़ें मार मार कर रोने लगा.

“मुझे बचा ले हलीमा. ये पुलिस वाले मुझे बिना बात पकड़ लाए. अरे, मैं तो राजेंदर और अनीस के साथ ठेके से घर ही आ रहा था, इन्होंने मुझे रास्ते में उठा लिया,” अकरम रोतेरोते बता रहा था.

“कितनी बार कहा तुम से कि ये सब छोड़ दो. न तुम्हें घर वालों की फिक्र है, न अल्लाह का डर, और अब पुलिस थाने भी शुरू हो गए. क्या करूंगी. मैं कहां जाऊंगी बच्चों को ले कर,” हलीमा भी जोरजोर से रो रही थी.

“बस, इस बार मुझे बचा ले. तेरी कसम… आगे से सब बुरे काम छोड़ दूंगा,” अकरम उस के आगे हाथ जोड़ रहा था.

“मैं इंस्पेक्टर साब से बात कर के देखता हूं,” करीम चाचा ने हलीमा से कहा, तो वह भी उन के साथ चल दी.

“साहब, मेरे आदमी को छोड़ दो. आगे से कभी जुआ नहीं खेलेगा,” हलीमा ने इंस्पेक्टर के आगे हाथ जोड़े.

“शराब पी कर ये सारे लोग चौक पर दंगा कर रहे थे और एक दुकान का ताला तोड़ रहे थे. ये तो जाएगा 2-3 साल के लिए अंदर,” इंस्पेक्टर ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा.

“साहब, ये जुआरी और शराबी जरूर है, मगर चोर नहीं है. आप को कोई गलतफहमी हुई है,” हलीमा ने हाथ जोड़ेजोड़े विनती की.

“हम तो उधर से आ रहे थे. चोर तो पहले ही भाग गए थे. कोई नहीं मिला तो मुझे ही पकड़ लाए,” पीछे से अकरम की रोती हुई आवाज आई.

“अरे शहजाद, जरा लगा इस के दो हाथ… हमें हमारा काम सिखाता है,” इंस्पेक्टर ने भद्दी सी गाली देते हुए अपने कांस्टेबल से कहा, तो कांस्टेबल ने दो डंडे अकरम की कमर पर जड़ दिए. अकरम की चीखें पूरे थाने में गूंज गईं.

“अरे साहब, जाने दो न. गरीब आदमी है. आगे से ऐसा नहीं करेगा. कुछ सेवापानी कर देंगे,” करीम चाचा ने इंस्पेक्टर के आगे हाथ जोड़ कर कहा, तो इंस्पेक्टर ने उन को ऐसे घूरा मानो कच्चा ही चबा जाएगा.

“ठीक है, 10,000 रुपयों का इंतजाम कर लो, छोड़ देंगे इसे,” इंस्पेक्टर ने कुछ सोचते हुए कहा.

“10,000 रुपए…? इतने सारे रुपए कहां से लाएंगे सरकार. हम तो रोज कमानेखाने वाले लोग हैं. इतने सारे पैसे तो हम ने कभी एकसाथ देखे भी नहीं,” हलीमा ने रोते हुए इंस्पेक्टर से कहा.

“नहीं देखे तो अब इस को भी मत देखना कई साल. जा… जा कर कोई वकील कर, उस को हजारों रुपए फीस दे, अदालत में रिश्वत खिला, तब शायद ये 10 साल में घर वापस आ जाए,” इंस्पेक्टर दहाड़ा.

इतना सुन कर ही हलीमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. अकरम कैसा भी था, था तो उस का शौहर ही.

“ठीक है, साहब. मैं पैसों का इंतजाम कर के लाती हूं,” हलीमा ने हार कर कहा.

हलीमा ने शांति से कह कर अपने खाते में पड़े 10,000 रुपए निकलवाए और इंस्पेक्टर को ला कर दिए.

रास्तेभर उस ने अकरम से कोई बात नहीं की. आंखों में आंसू भरे वह अपने बच्चों का भविष्य बरबाद होते देख रही थी.

अकरम रोरो कर उस से माफी मांग रहा था, लेकिन हलीमा ने उस से एक लफ्ज भी नहीं बोला. अकरम बच्चों के सिर पर हाथ रख कर कसमें खा रहा था, लेकिन हलीमा को उन कसमों पर जरा भी यकीन नहीं था.

लेकिन इस बार अकरम सचमुच बदल गया था. हवालात में बिताए कुछ घंटों ने उस की आंखें खोल दी थीं. आज वह हलीमा का कर्जदार हो गया था. दिनभर उस ने जीतोड़ मेहनत कर के जितने भी पैसे कमाए, सारे के सारे हलीमा के हाथ पर रख दिए.

“मुझे माफ कर दे हलीमा… मैं बुरी संगत में पड़ कर ये भी भूल गया था कि मेरे ऊपर तुम सब की जिम्मेदारी भी है. मेरा यकीन कर आगे से मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिस से तेरी आंखों में आंसू आएं,” अकरम ने हलीमा के आगे हाथ जोड़ दिए.

“याद करो, हम गांव से दिल्ली किसलिए आए थे. अपने बच्चों के अच्छे कल के लिए, लेकिन हम उन को कैसा कल दे रहे हैं. जरा सोचो,” हलीमा की आंखें डबडबा आईं.

“तू सच कह रही है. मैं तुम सब का गुनाहगार हूं. मुझे एक मौका दे दे, मैं अपने बच्चों के लिए खूब मेहनत करूंगा और उन को एक अच्छी जिंदगी दूंगा,” अकरम ने हलीमा के हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा.

“आ जाओ मेरे बच्चो, अब तुम्हें अपने अब्बा से डरने की कोई जरूरत नहीं है,” अकरम ने बच्चों से कहा, जो दूर कोने में डरेसहमे से खड़े थे.

फिर अकरम ने उन सब को अपने गले लगा लिया. हलीमा को भी उम्मीद की एक नई किरण नजर आ रही थी. मन ही मन वह शांति मैडम की भी शुक्रगुजार थी, जिन की वजह से वह कुछ पैसे बचा पाई थी और आज उस का परिवार फिर से एक हो गया था.

Women’s Day 2024: मर्यादा- क्या हुआ था स्वाति के साथ

रात के 12 बज रहे थे, लेकिन स्वाति की आंखों में नींद नहीं थी. वह करवटें बदल रही थी. उस की बगल में लेटा पति वरुण गहरी नींद में खर्राटे भर रहा था. स्वाति दिन भर की थकान के बाद भी सो नहीं पा रही थी. आज का घटनाक्रम बारबार उस की आंखों में घूम रहा था. आज ऐसा कुछ हुआ कि वह कांप कर रह गई. जिसे वह सिर्फ खेल समझती थी वह कितना गंभीर हो सकता है, उसे इस बात का भान नहीं था. वह मर्दों से हलकाफुलका मजाक और फ्लर्टिंग को सामान्य बात समझती थी. स्वाति अपनी फ्रैंड्स और रिश्तेदारों से कहती थी कि उस की मार्केट में इतनी जानपहचान है कि कोई भी सामान उसे स्पैशल डिस्काउंट पर मिलता है.

स्वाति फोन पर अपने मायके में भाभी से कहती कि आज मैं ने वैस्टर्न ड्रैस खरीदी. इतनी बढि़या और अच्छे डिजाइन में बहुत सस्ती मिल गई. मैं ने साड़ी बिलकुल नए कलर में खरीदी. 1000 की है पर मुझे सिर्फ 500 में मिल गई. डायमंड रिंग अपनी फ्रैंड से और्डर दे कर बनवाई. ऐसी रिंग क्व2 लाख से कम नहीं, परंतु मुझे क्व11/2 लाख में मिल गई. भाभी की नजरों में स्वाति की छवि बहुत ही समझदार और पारखी महिला के रूप में थी. वह जब भी कोई सामान खरीद कर भेजने को कहती, स्वाति खुशीखुशी भिजवा देती. पूरे परिवार में उस के नाम का डंका बजता था.

स्वाति आकर्षक नैननक्श वाली पढ़ीलिखी महिला थी. बचपन से ही उसे खरीदारी का बेहद शौक था. लाखों रुपए की खरीदारी इतने कम दाम और चुटकियों में करती कि हर कोई हैरान रह जाता. स्वाति का मायका मिडल क्लास फैमिली से था. 15 साल पहले एक बड़े उद्योगपति परिवार में उस की शादी हुई. शादी भले ही करोड़पति घर में हो गई, लेकिन संस्कार वही मिडल क्लास फैमिली वाले ही थे. 1-1 पैसे की कीमत वह जानती थी. घर खर्च में पैसा बचाना और उस पैसे से स्वयं के लिए खरीदारी करने में उसे बहुत मजा आता. पति से भी पैसे मारना स्वाति को अच्छा लगता था. अच्छे संस्कार, पढ़ीलिखी और समझदार स्वाति को एक बात बड़ी आसानी से समझ आ गई थी कि पुरुषों की कमजोरी क्या है. कैसे कम रेट पर खरीदारी करनी है. वह उस दुकान या शोरूम में ही खरीदारी करती जहां पुरुष मालिक होते. वह सेल्समैन से बात नहीं करती. सेल्समैन से वह कहती, ‘‘आप तो सामान दिखा दो, रेट मैं अपनेआप भैया से तय कर लूंगी.’’

और जब हिसाबकिताब की बारी आती, तो वह सेठ की आंखों में आंखें डाल कर कहती, ‘‘भैया सही रेट बताओ. आज की नहीं 10 सालों से आप की शौप पर आ रही हूं.’’

‘‘भाभी, आप को रेट गलत नहीं लगेगा, क्यों चिंता करती हैं?’’ सेठ कहता.

‘‘नहीं, इस बार ज्यादा लगा रहे हो. मुझे तो स्पैशल डिस्काउंट मिलता है, आप की शौप पर,’’ कहते हुए स्वाति काउंटर पर खड़े सेठ के हाथों को बातोंबातों में स्पर्श करती या फिर कहती, ‘‘भैया, आप तो मेरे देवर की तरह हो. देवरभाभी के बीच रुपएपैसे मत लाओ न.’’

अकसर दुकानदार स्वाति की मीठीमीठी बातों में आ कर उसे 10-20% तक स्पैशल डिस्काउंट दे देते थे. एक ज्वैलर से तो स्वाति ने जीजासाली का रिश्ता ही बना लिया था. ज्वैलरी आमतौर पर औरतों की कमजोरी होती है, स्वाति की भी कमजोरी थी. वह अकसर इस ज्वैलर के यहां पहुंच जाती. क्याक्या नई डिजाइनें आई हैं, देखने जाती तो कुछ न कुछ पसंद आ ही जाता. तब जीजासाली के बीच हंसीमजाक शुरू हो जाता.

स्वाति कहती, ‘‘साली आधी घरवाली होती है जीजाजी, इतने ही दूंगी.’’

ज्वैलर स्वाति का स्पर्शसुख पा कर निहाल हो जाता. उस के मन में स्पर्श को आगे बढ़ाने की प्लानिंग चलती रहती, पर स्वाति थी कि काबू में ही नहीं आती थी. सामान खरीदा और उड़न छू. उस दिन भतीजी की शादी के लिए सामान व ज्वैलरी खरीदने स्वाति ज्वैलर के यहां पहुंच गई. उसे भाभी ने बताया था कि क्याक्या खरीदना है.

स्वाति ने घर से निकलने से पहले ही ज्वैलर को फोन किया, ‘‘भतीजी की शादी के लिए ज्वैलरी खरीदने आ रही हूं. आप अच्छीअच्छी डिजाइनों का चयन करा कर रखना. मेरे पास ज्यादा टाइम नहीं होगा.’’

‘‘आप आइए तो सही साली साहिबा. आप के लिए सब हाजिर है,’’ ज्वैलर ने कहा. ज्वैलरी की यह दुकान कोई बड़ा शोरूम नहीं था, लेकिन वह खुद अच्छा कारीगर था और और्डर पर ज्वैलरी तैयार करता था. शहर की एक कालोनी में उस की दुकान थी जहां कुछ खास लोगों को और्डर पर तैयार ज्वैलरी भी दिखा कर बेच देता था और और्डर देने वाले को कुछ दिन बाद सप्लाई दे देता. स्वाति की एक फ्रैंड रजनी ने उस ज्वैलर्स से उस की मुलाकात कराई थी. लेकिन रजनी कभी यह बात समझ नहीं पाई थी कि आखिर यह ज्वैलर स्वाति पर इतना मेहरबान क्यों रहता है. उसे नईनई डिजाइनें दिखाता है और अतिरिक्त डिस्काउंट भी देता है.

‘‘जीजाजी, कुछ और डिजाइनें दिखाओ. ये तो मैं ने पिछली बार देखी थीं,’’ स्वाति ने ज्वैलर की आंखों में झांकते हुए कहा.

स्वाति को ज्वैलर की आंखों में शरारत नजर आ रही थी. वह बारबार सहज होने की कोशिश कर रहा था. अपनी आदत के मुताबिक स्वाति ने बातोंबातों में ज्वैलर के हाथों पर इधरउधर स्पर्श किया. उस का यह स्पर्श ज्वैलर को बेचैन कर रहा था. उस ने भी स्वाति की हरकतें देख हौसला दिखाना शुरू कर दिया. वह भी बातोंबातों में स्वाति के हाथों पर स्पर्श करने लगा. यह स्पर्श स्वाति को कुछ बेचैन कर रहा था, लेकिन वह सहज रही. उसे कुछ देर की हरकतों से स्पैशल डिस्काउंट जो लेना था. स्वाति ने देखा कि आज दुकान पर सिर्फ एक लड़का ही हैल्पर के तौर पर काम कर रहा था बाकी स्टाफ न था. ज्वैलर ने उसे एक सूची थमाते हुए कहा कि यह सामान मार्केट से ले आओ. और जाने से पहले फ्रिज में रखे 2 कोल्ड ड्रिंक खोल कर दे जाओ.’’

‘‘आप और नई डिजाइनें दिखाइए न,’’ स्वाति ने कहा.

‘‘हां, अभी दिखाता हूं. कल ही आई हैं. आप के लिए ही रखी हुई हैं अलग से.’’

‘‘तो दिखाइए न,’’ स्वाति ने चहकते हुए कहा.

‘‘आप ऐसा करें अंदर वाले कैबिन में आ कर पसंद कर लें. अभी अंदर ही रखी हैं… लड़का भी जा चुका है तो…’’

स्वाति ने देखा लड़का सामान की सूची ले कर जा चुका था. अब दुकान पर सिर्फ ज्वैलर और स्वाति ही थे. स्वाति को एक पल के लिए डर लगा कि अकेली देख ज्वैलर कोई हरकत न कर दे. वह ऐसा कुछ चाहती भी नहीं थी. वह तो सिर्फ कुछ हलकीफुलकी अदाएं दिखा कर दुकानदारों से फायदा उठाती आई थी. आज भी ऐसा कुछ कर के ज्वैलर से स्पैशल डिस्काउंट लेने की फिराक में थी. उस की धड़कनें बढ़ रही थीं. वह चाहती थी कि जल्दी से जल्दी खरीदारी कर के निकल ले. उस का दिमाग तेजी से काम कर रहा था कि क्या करे. वह अपनेआप को संभाल कर कैबिन में ज्वैलरी देखने घुस गई. उस ने अपने शब्दों में मिठास घोलते हुए कहा, ‘‘जीजाजी, आज कुछ सुस्त लग रहे हो क्या बात है?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं है.’’

‘‘कोई तो बात है, मुझ से छिपाओगे क्या?’’

‘‘आप नैकलैस देखिए, साथसाथ बातें करते हैं,’’ ज्वैलर ने कहा. स्वाति गजब की सुंदर लग रही थी. वह बनठन कर निकली थी. ज्वैलर के मन में हलचल थी जो उसे बेचैन कर रही थी. उस ने सोचा कि हिम्मत दिखाई जा सकती है. अत: उस ने स्वाति के हाथ को स्पर्श किया तो वह सहम गई. लेकिन उस ने सोचा कि अगर थोड़ा छू लिया तो उस से क्या फर्क पड़ेगा. स्वाति के रुख को देख ज्वैलर का हौसला बढ़ गया. उस ने स्वाति का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा. ज्वैलर की इस आकस्मिक हरकत से वह हड़बड़ा गई.

‘‘क्या कर रहे हो?’’ स्वाति ने हाथ छुड़ाते हुए कहा.

ज्वैलर ने अपनी हरकत जारी रखी. स्वाति घबरा गई. ज्वैलर की हिम्मत देख दंग रह गई वह. मर्दों की कमजोरी का फायदा उठाने की सोच उसे भारी पड़ती नजर आ रही थी. वह कैसे ज्वैलर के चंगुल से बचे, सोचने लगी. फिर उस ने हिम्मत दिखाई और ज्वैलर के गाल पर थप्पड़ों की बारिश कर दी. स्वाति क्रोध से कांप रही थी. उस का यह रूप देख ज्वैलर हड़बड़ा गया. इसी हड़बड़ी में वह जमीन पर गिर गया. स्वाति के लिए यही मौका था कैबिन से बाहर निकल भागने का. अत: वह फुरती दिखाते हुए तुरंत कैबिन से बाहर निकल अपनी कार में जा बैठी. फिर तुरंत कार स्टार्ट कर वहां से चल दी. उस के अंदर तूफान चल रहा था. उसे आत्मग्लानि हो रही थी. लंबे समय से स्वाति जिसे खेल समझती आ रही थी, वह कितना गंभीर हो सकता है, उस ने यह कभी सोचा भी नहीं था.

घरौंदा : क्यों दोराहे पर खड़ी थी रेखा की जिंदगी

लेखिका- प्रमिला नानिवेडकर

दिल्ली से उस के पति का तबादला जब हैदराबाद की वायुसेना अकादमी में हुआ था तब उस ने उस नई जगह के बारे में उत्सुकतावश पति से कई प्रश्न पूछ डाले थे. उस के पति अरुण ने बताया था कि अकादमी हैदराबाद से करीब 40 किलोमीटर दूर है. वायुसैनिकों के परिवारों के अलावा वहां और कोई नहीं रहता. काफी शांत जगह है. यह सुन कर रेखा काफी प्रसन्न हुई थी. स्वभाव से वह संकोचप्रिय थी. उसे संगीत और पुस्तकों में बहुत रुचि थी. उस ने सोचा, चलो, 3 साल तो मशीनी, शहरी जिंदगी से दूर एकांत में गुजरेंगे. अकादमी में पहुंचते ही घर मिल गया था, यह सब से बड़ी बात थी. बच्चों का स्कूल, पति का दफ्तर सब नजदीक ही थे. बढि़या पुस्तकालय था और मैस, कैंटीन भी अच्छी थी.

पर इसी कैंटीन से उस के हृदय के फफोलों की शुरुआत हुई थी. वहां पहुंचने के दूसरे ही दिन उसे कुछ जरूरी कागजात स्पीड पोस्ट करने थे, इसलिए उन्हें बैग में रख कर कुछ सामान लेने के लिए वह कैंटीन में पहुंची. सामान खरीद चुकने के बाद घड़ी देखी तो एक बजने को था. अभी खाना नहीं बना था. बच्चे और पति डेढ़ बजे खाने के लिए घर आने वाले थे. सुबह से ही नए घर में सामान जमाने में वह इतनी व्यस्त थी कि समय ही न मिला था. कैंटीन के एक कर्मचारी से उस ने पूछा, ‘‘यहां नजदीक कोई पोस्ट औफिस है क्या?’’

‘‘नहीं, पोस्ट औफिस तो….’’

तभी उस के पास खड़े एक व्यक्ति, जो वेशभूषा से अधिकारी ही लगता था, ने उस से अंगरेजी में पूछा था, ‘‘क्या मैं आप की मदद कर सकता हूं? मैं उधर ही जा रहा हूं.’’ थोड़ी सी झिझक के साथ ही उस के साथ चल दी थी और उस के प्रति आभार प्रदर्शित किया था.

रेखा शायद वह बात भूल भी जाती क्योंकि नील के व्यक्तित्व में कोई असाधारण बात नहीं थी लेकिन उसी शाम को नील उस के पति से मिलने आया था और फिर उन लोगों में दोस्ती हो गई थी.

नील देखने में साधारण ही था, पर उस का हंसमुख मिजाज, संगीत में रुचि, किताबीभाषा में रसीली बातें करने की आदत और सब से बढ़ कर लोगों की अच्छाइयों को सराहने की उस की तत्परता, इन सब गुणों से रेखा, पता नहीं कब, दोस्ती कर उस के बहुत करीब पहुंच गई थी.

नील की पत्नी, अपने बच्चों के साथ बेंगलुरु में रहती थी. वह अपने पिता की इकलौती बेटी थी और विशाल संपत्ति की मालकिन. अपनी संपत्ति को वह बड़ी कुशलता से संभालती थी. बच्चे वहीं पढ़ते थे. छुट्टियों में वे नील के पास आ जाते या नील बेंगलुरु चला जाता.

लोगों ने उस के और उस की पत्नी के बारे में अनेक अफवाहें फैला रखी थीं. कोई कहता, ‘बड़ी घमंडी औरत है, नील को तो अपनी जूती के बराबर भी नहीं समझती.’ दूसरा कहता, ‘नहीं भई, नील तो दूसरी लड़की को चाहता था, लेकिन पढ़ाई का खर्चा दे कर उस के ससुर ने उसे खरीद लिया.’ स्त्रियां कहतीं, ‘वह इस के साथ कैसे खुश रह सकती है? उसे तो विविधता पसंद है.’

लेकिन नील इन सब अफवाहों से अलग था. वह जिस तरह सब से मेलजोल रखता था, उसे देख कर यह सोचना भी असंभव लगता कि उस की पत्नी से पटती नहीं होगी.

रेखा को इन अफवाहों की परवा नहीं थी. दूसरों की त्रुटियों में उसे कोई रुचि नहीं थी. जल्दी ही उसे अपने मन की गहराइयों में छिपी बात का पता लग गया था, और तब गहरे पानी में डूबने वाले व्यक्ति की सी घुटन उस ने महसूस की थी. ‘यह क्या हो गया?’ यही वह अपनेआप से पूछती रहती थी.

रेखा को पति से कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि वह उसे प्यार ही करती आई थी. अपने बच्चों से, अपने घर से उसे बेहद लगाव था. शायद इसी को वह प्यार समझती थी. लेकिन अब 40 की उम्र के करीब पहुंच कर उस के मन ने जो विद्रोह कर दिया था, उस से वह परेशान हो गईर् थी.

वह नील से मिलने का बहाना ढूंढ़ती रहती. उसे देखते ही रेखा के शरीर में एक विद्युतलहरी सी दौड़ जाती. नील के साथ बात करने में उसे एक विचित्र आनंद मिलता, और सब से अजीब बात तो यह थी कि नील की भी वैसी ही हालत थी. रेखा उस की आंखों का प्यार, याचना, स्नेह, परवशता-सब समझ लेती थी और नील भी उस की स्थिति समझता था.

वहां के मुक्त वातावरण में लोगों का ध्यान इस तरफ जाना आसान नहीं था. और इसी कारण से दोनों दूसरों से छिप कर मानसिक साहचर्य की खोज में रहते और मौका मिलते ही, उस साहचर्य का आनंद ले लेते.

अजीब हालत थी. जब मन नील की प्रतीक्षा में मग्न रहता, तभी न जाने कौन उसे धिक्कारने लगता. कई बार वह नील से दूर रहने का निर्णय लेती पर दूसरे ही क्षण न जाने कैसे अपने ही निर्णय को भूल जाती और नील की स्मृति में खो जाती. रेखा अरुण से भी लज्जित थी. अरुण की नील से अच्छी दोस्ती थी. वह अकसर उसे खाने पर या पिकनिक के लिए बुला लाता. ऐसे मौकों पर जब वह मुग्ध सी नील की बातों में खो जाती, तब मन का कोई कोना उसे बुरी तरह धिक्कारता.

रेखा के दिमाग पर इन सब का बहुत बुरा असर पड़ रहा था. न तो वह हैदराबाद छोड़ कर कहीं जाने को तैयार थी, न हैदराबाद में वह सुखी थी. कई बार वह छोटी सी बात के लिए जमीनआसमान एक कर देती और किसी के जरा सा कुछ कहने पर रो देती. अरुण ने कईर् बार कहा, ‘‘तुम अपनी बहन सुधा के पास 15-20 दिनों के लिए चली जाओ, रेखा. शायद तुम बहुत थक गई हो, वहां थोड़ा अच्छा महसूस करोगी.’’

रेखा की आंखें, इन प्यारभरी बातों से भरभर आतीं, लेकिन बच्चों के स्कूल का बहाना कर के वह टाल जाती. ऐसे में उस ने नील के तबादले की बात सुनी. उस का हृदय धक से रह गया. इस की कल्पना तो उस ने या नील ने कभी नहीं की थी. हालांकि दोनों में से एक को तो अकादमी छोड़ कर पहले जाना ही था. अब क्या होगा? रेखा सोचती रही, ‘इतनी जल्दी?’

एक दिन नील का मैसेज आया. उस ने स्पष्ट शब्दों में पूछा था, ‘‘क्या तुम अरुण को छोड़ कर मेरे साथ आ सकती हो?’’ बहुत संभव है कि फिर हमें एक साथ, एक जगह, रहने का मौका कभी न मिले. मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा, पता नहीं. पर, मैं तुम्हें मजबूर भी नहीं करूंगा. सोच कर मुझे बताना. सिर्फ हां या न कहने से मैं समझ जाऊंगा. मुझे कभी कोई शिकायत नहीं होगी.’’

रेखा ने मैसेज कई बार पढ़ा. हर शब्द जलते अंगारे की तरह उस के दिल पर फफोले उगा रहा था. आगे के लिए बहुत सपने थे. अरुण से भी बेहतर आदमी के साथ एक सुलझा हुआ जीवन बिताने का निमंत्रण था.

और पीछे…17 साल से तिनकातिनका इकट्ठा कर के बनाया हुआ छोटा सा घरौंदा था. प्यारेप्यारे बच्चे थे, खूबियों और खामियों से भरपूर मगर प्यार करने वाला पति था. सामाजिक प्रतिष्ठा थी, और बच्चों का भविष्य उस पर निर्भर था.

लेकिन उन्हीं के साथ, उसी घरौंदे में विलीन हो चुका उस का अपना निजी व्यक्तित्व था. कितने टूटे हुए सपने थे, कितनी राख हो चुकी उम्मीदें थीं. बहुत से छोटेबड़े घाव थे. अब भी याद आने पर उन में से कभीकभी खून बहता है. चाहे प्रौढ़त्व ने अब उसे उन सब दुखों पर हंसना सिखा दिया हो पर यौवन के कितने अमूल्य क्षणों का इसी पति की जिद के लिए, उस के परिवार के लिए उस ने गला घोंट लिया. शायद नील के साथ का जीवन इन बंधनों से मुक्त होगा. शायद वहां साहचर्य का सच्चा सुख मिलेगा. शायद…

लेकिन पता नहीं. अरुण के साथ कई वर्ष गुजारने के बाद अब वह क्या नील की कमजोरियों से भी प्यार कर सकेगी? क्या बच्चों को भूल सकेगी? नील की पत्नी, उस के बच्चे, अरुण, अपने बच्चे-इन सब की तरफ उठने वाली उंगलियां क्या वह सह सकेगी?

नहीं…नहीं…इतनी शक्ति अब उस के पास नहीं बची है. काश, नील पहले मिलता.

रेखा रोई. खूब रोई. कई दिन उलझनों में फंसी रही.

उस शाम जब उस ने अरुण के  साथ पार्टी वाले हौल में प्रवेश किया तो उस की आंखें नील को ढूंढ़ रही थीं. उस का मन शांत था, होंठों पर उदास मुसकान थी. डीजे की धूम मची थी. सुंदर कपड़ों में लिपटी कितनी सुंदरियां थिरक रही थीं. पाम के गमले रंगबिरंगे लट्टुओं से चमक रहे थे और खिड़की के पास रखे हुए लैंप स्टैंड के पास नील खड़ा था हाथ में शराब का गिलास लिए, आकर्षक भविष्य के सपनों, आत्मविश्वास और आशंका के मिलेजुले भावों में डूबताउतराता सा.

अरुण के साथ रेखा वहां चली गई. ‘‘आप के लिए क्या लाऊं?’’ नील ने पूछा. रेखा ने उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘नहीं, कुछ नहीं, मैं शराब नहीं पीती.’’

नील कुछ समझा नहीं, हंस कर बोला, ‘‘मैं तो जानता हूं आप शराब नहीं पीतीं, पर और कुछ?’’

‘‘नहीं, मैं फिर एक बार कह रही हूं, नहीं,’’ रेखा ने कहा और वहां से दूर चली गई. अरुण आश्चर्य से देखता रहा लेकिन नील सबकुछ समझ गया था.

मिलन: भाग 3- जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

लेखक- माधव जोशी

एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.

फिर कुछ संयत हो कर जयंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर कहा, ‘‘जयति, वादा करो कि तुम मां को इतनी खुशियां दोगी कि वे पिछले सभी गम भूल जाएं.’’ मैं ने जयंत से वादा तो किया लेकिन पूरी रात सो न पाई, कभी मां का तो कभी जयंत का चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता. लेकिन उसी रात से मेरा दिमाग नई दिशा में घूमने लगा. अब मैं जब भी मांजी के साथ अकेली होती तो अपने ससुर के बारे में ही बातें करती, उन के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती. शुरूशुरू में तो मांजी कुछ कतराती रहीं लेकिन फिर मुझ से खुल गईं. उन्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगीं. एक दिन बातों ही बातों में मैं ने जाना कि लगभग 7 वर्ष पहले वह दूसरी औरत कुछ गहने व नकदी ले कर किसी दूसरे प्रेमी के साथ भाग गई थी. पिताजी कई महीनों तक इस सदमे से उबर नहीं पाए. कुछ संभलने पर उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ. वे पत्नी यानी मांजी के पास आए और उन से लौट चलने को कहा. लेकिन जयंत ने उन का चेहरा देखने से भी इनकार कर दिया. उन के शर्मिंदा होने व बारबार माफी मांगने पर जयंत ने इतना ही कहा कि वह उन के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखेगा. हां, मांजी चाहें तो उन के साथ जा सकती हैं. लेकिन तब पिताजी को खाली लौटना पड़ा था. मैं जान गई कि यदि उस वक्त जयंत अपनी जिद पर न अड़े होते तो मांजी अवश्य ही पति को माफ कर देतीं, क्योंकि वे अकसर कहा करती थीं, ‘इंसान तो गलतियों का पुतला है. यदि वह अपनी गलती सुधार ले तो उसे माफ कर देना चाहिए.’

मैं ने मांजी से यह भी मालूम कर लिया कि पिताजी की मुंबई में ही प्लास्टिक के डब्बे बनाने की फैक्टरी है. अब मैं ने उन से मिलने की ठानी. इस के लिए मैं ने टैलीफोन डायरैक्ट्री में जितने भी उमाकांत नाम से फोन नंबर थे, सभी लिख लिए. अपनी एक सहेली के घर से सभी नंबर मिलामिला कर देखने लगी. आखिरकार मुझे पिताजी का पता मालूम हो ही गया. दूसरे रोज मैं उन से मिलने उन के बंगले पर गई. मुझे उन से मिल कर बहुत अच्छा लगा. लेकिन यह देख कर दुख भी हुआ कि इतने ऐशोआराम के साधन होते हुए भी वे नितांत अकेले हैं. उस के बाद मैं जबतब पिताजी से मिलने चली जाती, घंटों उन से बातें करती. मुझ से बात कर के वे खुद को हलका महसूस करते क्योंकि मैं उन के एकाकी जीवन की नीरसता को कुछ पलों के लिए दूर कर देती. पिताजी मुझे बहुत भोले व भले लगते. उन के चेहरे पर मासूमियत व दर्द था तो आंखों में सूनापन व चिरप्रतीक्षा. वे मां व जयंत के बारे में छोटी से छोटी बात जानना चाहते थे. मैं मानती थी कि पिताजी ने बहुत बड़ी भूल की है और उस भूल की सजा निर्दोष मां व जयंत भुगत रहे हैं. पर अब मुझे लगने लगा था कि उन्हें प्रायश्चित्त का मौका न दे कर जयंत पिताजी, मां व खुद पर अत्याचार कर रहे हैं.

शीघ्र ही मैं ने एक कदम और उठाया. शाम को मैं मां के साथ पार्क में घूमने जाती थी. पार्क के सामने ही एक दुकान थी. एक दिन मैं कुछ जरूरी सामान लेने के बहाने वहां चली गई और मां वहीं बैंच पर बैठी रहीं.

‘‘विजया, विजया, तुम? तुम यहां कैसे?’’ तभी किसी ने मां को पुकारा. अपना नाम सुन कर मांजी एकदम चौंक उठीं. नजरें उठा कर देखा तो सामने पति खड़े थे. कुछ पल तो शायद उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन फिर घबरा कर उठ खड़ी हुईं.

‘‘जयंत की पत्नी जयति के साथ आई हूं. वह सामने कुछ सामान लेने गई है,’’ वे बड़ी कठिनाई से इतना ही कह पाईं.

‘‘कब से यहां हो? तुम खड़ी क्यों हो गईं?’’ उन को जैसे कुछ याद आया, फिर अपनी ही धुन में कहने लगे, ‘‘इस लायक तो नहीं कि तुम मुझ से कुछ पल भी बात करो. मैं ने तुम पर क्याक्या जुल्म नहीं किए. कौन सा ऐसा दर्द है जो मैं ने तुम्हें नहीं दिया. प्रकृति ने तो मुझे नायाब हीरा दिया था, पर मैं ने ही उसे कांच का टुकड़ा जान कर ठुकरा दिया.’’ क्षणभर रुक कर आगे कहने लगे, ‘‘आज मेरे पास सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. नितांत एकाकी हूं. लेकिन यह जाल तो खुद मैं ने ही अपने लिए बुना है.’’ पुराने घाव फिर ताजा हो गए थे. आंखों में दर्द का सागर हिलोरें ले रहा था. दोनों एक ही मंजिल के मुसाफिर थे. तभी मां ने सामने से मुझे आता देख कर उन्हें भेज दिया. उस दिन के बाद मैं किसी न किसी बहाने से पार्क जाना टाल जाती. लेकिन मां को स्वास्थ्य का वास्ता दे कर जरूर भेज देती.

इसी तरह दिन निकलने लगे. मांजी रोज छिपछिप कर पति से मिलतीं. पिताजी ने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वे मुझे जानते हैं. लेकिन मुझे अब आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? जब काफी सोचने पर भी उपाय न सूझा तो मैं ने सबकुछ वक्त पर छोड़ने का निश्चय कर डाला. लेकिन एक दिन पड़ोसिन नेहा ने टोका, ‘‘क्या बात है जयति, तुम आजकल पार्क नहीं आतीं. तुम्हारी सास भी किसी अजनबी के साथ अकसर बैठी रहती हैं.’’

‘‘बस नेहा, आजकल कालेज का काम कुछ ज्यादा है, इसलिए मांजी चाचाजी के साथ चली जाती हैं,’’ मैं ने जल्दी से बात संभाली. लेकिन नेहा की बात मुझे अंदर तक हिला गई. अब इसे टालना संभव नहीं था. इस तरह तो कभी न कभी जयंत के सामने बात आती ही और वे तूफान मचा देते. मैं ने निश्चय किया कि यह खेल मैं ने ही शुरू किया है, इसलिए मुझे ही खत्म भी करना होगा. लेकिन कैसे? यह मुझे समझ नहीं आ रहा था. उस रात मैं ठीक से सो न सकी. सुबह अनमनी सी कालेज चल दी. रास्ते में जयंत ने मेरी सुस्ती का कारण जानना चाहा तो मैं ने ‘कुछ खास नहीं’ कह कर टाल दिया. लेकिन मैं अंदर से विचलित थी. कालेज में पढ़ाने में मन न लगा तो अपने औफिस में चली आई. फिर न जाने मुझे क्या सूझा. मैं ने कागज, कलम उठाया और लिखने लगी…

‘‘प्रिय जय,

‘‘मेरा इस तरह अचानक पत्र लिखना शायद तुम्हें असमंजस में डाल रहा होगा याद है, एक बार पहले भी मैं ने तुम्हें प्रेमपत्र लिखा था, जिस में पहली बार अपने प्यार का इजहार किया था. उस दिन मैं असमंजस में थी कि तुम्हें मेरा प्यार कुबूल होगा या नहीं. ‘‘आज फिर मैं असमंजस में हूं कि तुम मेरे जज्बातों से इंसाफ कर पाओगे या नहीं. ‘‘जय, मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं लेकिन मैं मांजी से भी बहुत प्यार करने लगी हूं. यदि उन से न मिली होती तो शायद मेरे जीवन में कुछ अधूरापन रह जाता. ‘‘मांजी की उदासी मुझ से देखी नहीं गई, इसलिए पिताजी की खोजबीन करनी शुरू कर दी. अपने इस प्रयास में मैं सफल भी रही. मैं पार्क में उन की मुलाकातें करवाने लगी. लेकिन मां को मेरी भूमिका का जरा भी भान नहीं था.

‘‘अब वे दोनों बहुत खुश हैं. मांजी बेसब्री से शाम होने की प्रतीक्षा करती हैं. वे तो शायद उन मुलाकातों के सहारे जिंदगी भी काट देंगी. लेकिन तुम्हें याद है, जब 2 महीने पहले मैं सेमिनार में भाग लेने बेंगलुरु गई थी तब एक सप्ताह बाद लौटने पर तुम ने कितनी बेताबी से कहा था, ‘जयति, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, तुम मुझे फिर कभी इस तरह छोड़ कर मत जाना. तुम्हारी उपस्थिति मेरा संबल है.’ ‘‘तब मैं ने मजाक में कहा था, ‘मांजी तो यहां ही थीं. वे तुम्हारा मुझ से ज्यादा खयाल रखती हैं.’ ‘‘‘वह तो ठीक है जयति, मांजी मेरे लिए पूजनीय हैं, लेकिन तुम मेरी पूजा हो,’ तुम भावुकता से कहते गए थे. ‘‘याद है न सब? फिर तुम यह क्यों भूल जाते हो किमांजी की जिंदगी में हम दोनों में से कोई भी पिताजी की जगह नहीं ले सकता. क्या पिताजी उन की पूजा नहीं, उन की धड़कन नहीं? ‘‘जब मांजी को उन से कोई शिकवा नहीं तो फिर तुम उन्हें माफ करने वाले या न करने वाले कौन होते हो? यह तो किसी समस्या का हल नहीं कि यदि आप के घाव न भरें तो आप दूसरों के घावों को भी हरा रखने की कोशिश करें. ‘‘जय, तुम यदि पिताजी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर सकते हो कि उन से नफरत न करो. मांजी तो सदैव तुम्हारे लिए जीती रहीं, हंसती रहीं, रोती रहीं. तुम सिर्फ एक बार, सिर्फ एक बार अपनी जयति की खातिर उन के साथ हंस लो. फिर देखना, जिंदगी कितनी सरल और हसीन हो जाएगी. ‘‘मेरे दिल की कोई बात तुम से छिपी नहीं. जिंदगी में पहली बार तुम से कुछ छिपाने की गुस्ताखी की. इस के लिए माफी चाहती हूं.

‘‘तुम जो भी फैसला करोगे, जो भी सजा दोगे, मुझे मंजूर होगी.

‘‘तुम्हारी हमदम,

जयति.’’

पत्र को दोबारा पढ़ा और फिर चपरासी के हाथों जयंत के दफ्तर भिजवा दिया. उस दिन मैं कालेज से सीधी अपनी सहेली के घर चली गई. शायद सचाई का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं थी. रात को घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज गए. घर पहुंच कर मैं दंग रह गई, क्योंकि वहां अंधकार छाया हुआ था. मेरा दिल बैठने लगा. मैं समझ गई कि भीतर जाते ही विस्फोट होगा, जो मुझे जला कर खाक कर देगा. मैं ने डरतेडरते भीतर कदम रखा ही था कि सभी बत्तियां एकसाथ जल उठीं. इस से पहले कि मैं कुछ समझ पाती, सामने सोफे पर जयंत को मातापिता के साथ बैठा देख कर चौंक गई. मुझे अपनी निगाहों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही जयंत बोल उठे, ‘‘तो श्रीमती जयतिजी, आप ने हमें व मांजी को अब तक अंधेरे में रखा…इसलिए दंड भुगतने को तैयार हो जाओ.’’

‘‘क्या?’’

‘‘तुम पैकिंग शुरू करो.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘भई, जाना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘हमारे साथ मसूरी,’’ जयंत ने नाटकीय अंदाज से कहा तो सभी हंस पड़े.

एक तीर दो शिकार: आरती ने किसकी अक्कल ठिकाने लगाई

अटैची हाथ में पकड़े आरती ड्राइंगरूम में आईं तो राकेश और सारिका चौंक कर खडे़ हो गए.

‘‘मां, अटैची में क्या है?’’ राकेश ने माथे पर बल डाल कर पूछा.

‘‘फ्रिक मत कर. इस में तेरी बहू के जेवर नहीं. बस, मेरा कुछ जरूरी सामान है,’’ आरती ने उखड़े लहजे में जवाब दिया.

‘‘किस बात पर गुस्सा हो?’’

अपने बेटे के इस प्रश्न का आरती ने कोई जवाब नहीं दिया तो राकेश ने अपनी पत्नी की तरफ प्रश्नसूचक निगाहों से देखा.

‘‘नहीं, मैं ने मम्मी से कोई झगड़ा नहीं किया है,’’ सारिका ने फौरन सफाई दी, लेकिन तभी कुछ याद कर के वह बेचैन नजर आने लगी.

राकेश खामोश रह कर सारिका के आगे बोलने का इंतजार करने लगा.

‘‘बात कुछ खास नहीं थी…मम्मी फ्रिज से कल रात दूध निकाल रही थीं…मैं ने बस, यह कहा था कि सुबह कहीं मोहित के लिए दूध कम न पड़ जाए…कल चाय कई बार बनी…मुझे कतई एहसास नहीं हुआ कि उस छोटी सी बात का मम्मी इतना बुरा मान जाएंगी,’’ अपनी बात खत्म करने तक सारिका चिढ़ का शिकार बन गई.

‘‘मां, क्या सारिका से नाराज हो?’’ राकेश ने आरती को मनाने के लिए अपना लहजा कोमल कर लिया.

‘‘मैं इस वक्त कुछ भी कहनेसुनने के मूड में नहीं हूं. तू मुझे राजनगर तक का रिकशा ला दे, बस,’’ आरती की नाराजगी उन की आवाज में अब साफ झलक उठी.

‘‘क्या आप अंजलि दीदी के घर जा रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘बेटी के घर अटैची ले कर रहने जा रही होे?’’ राकेश ने बड़ी हैरानी जाहिर की.

‘‘जब इकलौते बेटे के घर में विधवा मां को मानसम्मान से जीना नसीब न हो तो वह बेटी के घर रह सकती है,’’ आरती ने जिद्दी लहजे में दलील दी.

‘‘तुम गुस्सा थूक दो, मां. मैं सारिका को डांटूंगा.’’

‘‘नहीं, मेरे सब्र का घड़ा अब भर चुका है. मैं किसी हाल में नहीं रुकूंगी.’’

‘‘कुछ और बातें भी क्या तुम्हें परेशान और दुखी कर रही हैं?’’

‘‘अरे, 1-2 नहीं बल्कि दसियों बातें हैं,’’ आरती अचानक फट पड़ीं, ‘‘मैं तेरे घर की इज्जतदार बुजुर्ग सदस्य नहीं बल्कि आया और महरी बन कर रह गई हूं…मेरा स्वास्थ्य अच्छा है, तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम महरी भी हटा दो…मुझे मोहित की आया बना कर आएदिन पार्टियों में चले जाओ…तुम दोनों के पास ढंग से दो बातें मुझ से करने का वक्त नहीं है…उस शाम मेरी छाती में दर्द था तो तू डाक्टर के पास भी मुझे नहीं ले गया…’’

‘‘मां, तुम्हें बस, एसिडिटी थी जो डाइजीन खा कर ठीक भी हो गई थी.’’

‘‘अरे, अगर दिल का दौरा पड़ने का दर्द होता तो तेरी डाइजीन क्या करती? तुम दोनों के लिए अपना आराम, अपनी मौजमस्ती मेरे सुखदुख का ध्यान रखने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. मेरी तो मेरी तुम दोनों को बेचारे मोहित की फिक्र भी नहीं. अरे, बच्चे की सारी जिम्मेदारियां दादी पर डालने वाले तुम जैसे लापरवाह मातापिता शायद ही दूसरे होंगे,’’ आरती ने बेझिझक उन्हें खरीखरी सुना दीं.

‘‘मम्मी, हम इतने बुरे नहीं हैं जितने आप बता रही हो. मुझे लगता है कि आज आप तिल का ताड़ बनाने पर आमादा हो,’’ सारिका ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छे हो या बुरे, अब अपनी घरगृहस्थी तुम दोनों ही संभालो.’’

‘‘मैं आया का इंतजाम कर लूं, फिर आप चली जाना.’’

‘‘जब तक आया न मिले तुम आफिस से छुट्टी ले लेना. मोहित खेल कर लौट आया तो मुझे जाते देख कर रोएगा. चल, रिकशा करा दे मुझे,’’ आरती ने सूटकेस राकेश को पकड़ाया और अजीब सी अकड़ के साथ बाहर की तरफ चल पड़ीं.

‘पता नहीं मां को अचानक क्या हो गया? यह जिद्दी इतनी हैं कि अब किसी की कोई बात नहीं सुनेंगी,’ बड़बड़ाता हुआ राकेश अटैची उठा कर अपनी मां के पीछे चल पड़ा.

परेशान सारिका को नई आया का इंतजाम करने के लिए अपनी पड़ोसिनों की मदद चाहिए थी. वह उन के घरों के फोन नंबर याद करते हुए फोन की तरफ बढ़ चली.

करीब आधे घंटे के बाद आरती अपने दामाद संजीव के घर में बैठी हुई थीं. अपनी बेटी अंजलि और संजीव के पूछने पर उन्होंने वही सब दुखड़े उन को सुना दिए जो कुछ देर पहले अपने बेटेबहू को सुनाए थे.

‘‘आप वहां खुश नहीं हैं, इस का कभी एहसास नहीं हुआ मुझे,’’ सारी बातें सुन कर संजीव ने आश्चर्य व्यक्त किया.

‘‘अपने दिल के जख्म जल्दी से किसी को दिखाना मेरी आदत नहीं है, संजीव. जब पानी सिर के ऊपर हो गया, तभी अटैची ले कर निकली हूं,’’ आरती का गला रुंध गया.

‘‘मम्मी, यह भी आप का ही घर है. आप जब तक दिल करे, यहां रहें. सोनू और प्रिया नानी का साथ पा कर बहुत खुश होंगे,’’ संजीव ने मुसकराते हुए उन्हें अपने घर में रुकने का निमंत्रण दे दिया.

‘‘यहां बेटी के घर में रुकना मुझे अच्छा…’’

‘‘मां, बेकार की बातें मत करो,’’ अंजलि ने प्यार से आरती को डपट दिया, ‘‘बेटाबेटी में यों अंतर करने का समय अब नहीं रहा है. जब तक मैं उस नालायक राकेश की अक्ल ठिकाने न लगा दूं, तब तक तुम आराम से यहां रहो.’’

‘‘बेटी, आराम करने के चक्कर में फंस कर ही तो मैं ने अपनी यह दुर्गति कराई है. अब आराम नहीं, मैं काम करूंगी,’’ आरती ने दृढ़ स्वर में मन की इच्छा जाहिर की.

‘‘मम्मी, इस उम्र में क्या काम करोगी आप? और काम करने के झंझट में क्यों फंसना चाहती हो?’’ संजीव परेशान नजर आने लगा.

‘‘काम मैं वही करूंगी जो मुझे आता है,’’ आरती बेहद गंभीर हो उठीं, ‘‘जब अंजलि के पापा इस दुनिया से अकस्मात चले गए तब यह 8 और राकेश 6 साल के थे. मैं ससुराल में नहीं रही क्योेंकि मुझ विधवा की उस संयुक्त परिवार में नौकरानी की सी हैसियत थी.

‘‘अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने के लिए मैं ने ससुराल को छोड़ा. दिन में बडि़यांपापड़ बनाती और रात को कपड़े सिलती. आज फिर मैं सम्मान से जीना चाहती हूं. अपने बेटेबहू के सामने हाथ नहीं फैलाऊंगी. कल सुबह अंजलि मुझे ले कर शीला के पास चलेगी.’’

‘‘यह शीला कौन है?’’ संजीव ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘मेरी बहुत पुरानी सहेली है. उस नेबडि़यांपापड़ बनाने का लघुउद्योग कायम कर रखा है. वह मुझे भी काम देगी. अगर रहने का इंतजाम भी उस ने कर दिया तो मैं यहां नहीं…’’

‘‘नहीं, मां, तुम यहीं रहोगी,’’ अंजलि ने उन्हें अपनी बात पूरी नहीं करने दी और आवेश भरे लहजे में बोली,  ‘‘जिस घर में तुम्हारे बेटाबहू ठाट से रह रहे हैं, वह घर आज भी तुम्हारे नाम है. अगर बेघर हो कर किसी को धक्के खाने ही हैं तो वह तुम नहीं वे होंगे.’’

‘‘तू इतना गुस्सा मत कर, बेटी.’’

‘‘मां, तुम ने कभी अपने दुखदर्द की तरफ पहले जरा सा इशारा किया होता तो अब तक मैं ने राकेश और सारिका के होश ठिकाने लगा दिए होते.’’

‘‘अब मैं काम करना शुरू कर के आत्मनिर्भर हो जाऊंगी तो सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘मुझे तुम पर गर्व है, मां,’’ आरती के गले लग कर अंजलि ने अपने पति को बताया, ‘‘मुझे वह समय याद है जब मां अपना सुखचैन भुला कर दिनरात मेहनत करती थीं. हमें ढंग से पालपोस कर काबिल बनाने की धुन हमेशा इन के सिर पर सवार रहती थी.

‘‘आज राकेश बैंक आफिसर और मैं पोस्टग्रेजुएट हूं तो यह मां की मेहनत का ही फल है. लानत है राकेश पर जो आज वह मां की उचित देखभाल नहीं कर रहा है.’’

‘‘मेरी यह बेटी भी कम हिम्मती नहीं है, संजीव,’’ आरती ने स्नेह से अंजलि का सिर सहलाया, ‘‘पापड़बडि़यां बनाने में यह मेरा पूरा हाथ बटाती थी. पढ़ने में हमेशा अच्छी रही. मेरा बुरा वक्त न होता तो जरूर डाक्टर बनती मेरी गुडि़या.’’

‘‘आप दोनों बैठ कर बातें करो. मैं जरा एक बीमार दोस्त का हालचाल पूछने जा रहा हूं. मम्मी, आप यहां रुकने में जरा सी भी हिचक महसूस न करें. राकेश और सारिका को मैं समझाऊंगा तो सब ठीक हो जाएगा,’’ संजीव उन के बीच से उठ कर अपने कमरे में चला गया.

कुछ देर बाद वह तैयार हो कर बाहर चला गया. उस के बदन से आ रही इत्र की खुशबू को अंजलि ने तो नहीं, पर आरती ने जरूर नोट किया.

‘‘कौन सा दोस्त बीमार है संजीव का?’’ आरती ने अपने स्वर को सामान्य रखते हुए अंजलि से पूछा.

‘‘मुझे पता नहीं,’’ अंजलि ने लापरवाह स्वर में जवाब दिया.

‘‘बेटी, पति के दोस्तों की…उस के आफिस की गतिविधियों की जानकारी हर समझदार पत्नी को रखनी चाहिए.’’

‘‘मां, 2 बच्चों को संभालने में मैं इतनी व्यस्त रहती हूं कि इन बातों के लिए फुर्सत ही नहीं बचती.’’

‘‘अपने लिए वक्त निकाला कर, बनसंवर कर रहा कर…कुछ समय वहां से बचा कर संजीव को खुश करने के लिए लगाएगी तो उसे अच्छा लगेगा.’’

‘‘मैं जैसी हूं, उन्हें बेहद पसंद हूं, मां. तुम मेरी फिक्र न करो और यह बताओ कि क्या कल सुबह तुम सचमुच शीला आंटी के पास काम मांगने जाओगी?’’ अपनी आंखों में चिंता के भाव ला कर अंजलि ने विषय परिवर्तन कर दिया था.

आरती काम पर जाने के लिए अपने फैसले पर जमी रहीं. उन के इस फैसले का अंजलि ने स्वागत किया.

रात को राकेश और सारिका ने आरती से फोन पर बात करनी चाही, पर वह तैयार नहीं हुईं.

अंजलि ने दोनों को खूब डांटा. सारिका ने उस की डांट खामोश रह कर सुनी, पर राकेश ने इतना जरूर कहा, ‘‘मां ने कभी पहले शिकायत का एक शब्द भी मुंह से निकाला होता तो मैं जरूर काररवाई करता. मुझे सपना तो नहीं आने वाला था कि वह घर में दुख और परेशानी के साथ रह रही हैं. उन्हें घर छोड़ने से पहले हम से बात करनी चाहिए थी.’’

अंजलि ने जब इस बारे में मां से सवाल किया तो वह नींद आने की बात कह सोने चली गईं. उन के सोने का इंतजाम सोनू और प्रिया के कमरे में किया गया था.

उन दोनों बच्चों ने नानी से पहले एक कहानी सुनी और फिर लिपट कर सो गए. आरती को मोहित बहुत याद आ रहा था. इस कारण वह काफी देर से सो सकी थीं.

अगले दिन बच्चों को स्कूल और संजीव को आफिस भेजने के बाद अंजलि मां के साथ शीला से मिलने जाने के लिए घर से निकली थी.

शीला का कुटीर उद्योग बड़ा बढि़या चल रहा था. घर की पहली मंजिल पर बने बडे़ हाल में 15-20 औरतें बडि़यांपापड़ बनाने के काम में व्यस्त थीं.

वह आरती के साथ बड़े प्यार से मिलीं. पहले उन्होंने पुराने वक्त की यादें ताजा कीं. चायनाश्ते के बाद आरती ने उन्हें अपने आने का मकसद बताया तो वह पहले तो चौंकीं और फिर गहरी सांस छोड़ कर मुसकराने लगीं.

‘‘अगर दिल करे तो अपनी परेशानियों की चर्चा कर के अपना मन जरूर हलका कर लेना, आरती. कभी तुम मेरा सहारा बनी थीं और आज फिर तुम्हारा साथ पा कर मैं खुश हूं. मेरा दायां हाथ बन कर तुम चाहो तो आज से ही काम की देखभाल में हाथ बटाओ.’’

अपनी सहेली की यह बात सुन कर आरती की पलकें नम हो उठी थीं.

आरती और अंजलि ने वर्षों बाद पापड़बडि़यां बनाने का काम किया. उन दोनों की कुशलता जल्दी ही लौट आई. बहुत मजा आ रहा था दोनों को काम करने में.

कब लंच का समय हो गया उन्हें पता ही नहीं चला. अंजलि घर लौट गई क्योंकि बच्चों के स्कूल से लौटने का समय हो रहा था. आरती को शीला ने अपने साथ खाना खिलाया.

आरती शाम को घर लौटीं तो बहुत प्रसन्न थीं. संजीव को उन्होंने अपने उस दिन के अनुभव बडे़ जोश के साथ सुनाए.

रात को 8 बजे के करीब राकेश और सारिका मोहित को साथ ले कर वहां आ पहुंचे. उन को देख कर अंजलि का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

बड़ी कठिनाई से संजीव और आरती उस के गुस्से को शांत कर पाए. चुप होतेहोते भी अंजलि ने अपने भाई व भाभी को खूब खरीखोटी सुना दी थीं.

‘‘मां, अब घर चलो. इस उम्र में और हमारे होते हुए तुम्हें काम पर जाने की कोई जरूरत नहीं है. दुनिया की नजरों में हमें शर्मिंदा करा कर तुम्हें क्या मिलेगा?’’ राकेश ने आहत स्वर में प्रश्न किया.

‘‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहनासुनना चाहती हूं. तुम लोग चाय पिओ, तब तक मैं मोहित से बातें कर लूं,’’ आरती ने अपने 5 वर्षीय पोते को गोद में उठाया और ड्राइंगरूम से उठ कर बच्चों के कमरे में चली आईं.

उस रात राकेश और सारिका आरती को साथ वापस ले जाने में असफल रहे. लौटते समय दोनों का मूड बहुत खराब हो रहा था.

‘‘मम्मी अभी गुस्से में हैं. कुछ दिनों के बाद उन्हें समझाबुझा कर हम भेज देंगे,’’ संजीव ने उन्हें आश्वासन दिया.

‘‘उन्हें पापड़बडि़यां बनाने के काम पर जाने से भी रोको, जीजाजी,’’ राकेश ने प्रार्थना की, ‘‘जो भी इस बात को सुनेगा, हम पर हंसेगा.’’

‘‘राकेश, मेहनत व ईमानदारी से किए जाने वाले काम पर मूर्ख लोग ही हंसते हैं. मां ने यही काम कर के हमें पाला था. कभी जा कर देखना कि शीला आंटी के यहां काम करने वाली औरतों के चेहरों पर स्वाभिमान और खुशी की कैसी चमक मौजूद रहती है. थोड़े से समय के लिए मैं भी वहां रोज जाया करूंगी मां के साथ,’’ अपना फैसला बताते हुए अंजलि बिलकुल भी नहीं झिझकी थी.

बाद में संजीव ने उसे काम पर न जाने के लिए कुछ देर तक समझाया भी, पर अंजलि ने अपना फैसला नहीं बदला.

‘‘मेरी बेटी कुछ मामलों में मेरी तरह से ही जिद्दी और धुन की पक्की है, संजीव. यह किसी पर अन्याय होते भी नहीं देख सकती. तुम नाराज मत हो और कुछ दिनों के लिए इसे अपनी इच्छा पूरी कर लेने दो. घर के काम का हर्जा, इस का हाथ बटा कर मैं नहीं होने दूंगी. तुम बताओ, तुम्हारे दोस्त की तबीयत कैसी है?’’ आरती ने अचानक विषय परिवर्तन कर दिया.

‘‘मेरे दोस्त की तबीयत को क्या हुआ है?’’ संजीव चौंका.

‘‘अरे, कल तुम अपने एक बीमार दोस्त का हालचाल पूछने गए थे न.’’

‘‘हां, हां…वह…अब ठीक है…बेहतर है…’’ अचानक बेचैन नजर आ रहे संजीव ने अखबार उठा कर उसे आंखों के सामने यों किया मानो आरती की नजरों से अपने चेहरे के भावों को छिपा रहा हो.

आरती ने अंजलि की तरफ देखा पर उस का ध्यान उन दोनों की तरफ न हो कर प्रिया की चोटी खोलने की तरफ लगा हुआ था.

आरती के साथ अंजलि भी रोज पापड़बडि़यां बनाने के काम पर जाती. मां शाम को लौटती पर बेटी 12 बजे तक लौट आती. दोनों इस दिनचर्या से बेहद खुश थीं. मोहित को याद कर के आरती कभीकभी उदास हो जातीं, नहीं तो बेटी के घर उन का समय बहुत अच्छा बीत रहा था.

आरती को वापस ले जाने में राकेश और सारिका पूरे 2 हफ्ते के बाद सफल हुए.

‘‘आया की देखभाल मोहित के लिए अच्छी नहीं है, मम्मी. वह चिड़चिड़ा और कमजोर होता जा रहा है. सारा घर आप की गैरमौजूदगी में बिखर सा गया है. मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती हूं…अपनी सारी गलतियां सुधारने का वादा करती हूं…बस, अब आप घर चलिए, प्लीज,’’ हाथ जोड़ कर यों विनती कर रही बहू को आरती ने अपनी छाती से लगाया और घर लौटने को राजी हो गईं.

अंजलि ने पहले ही यह सुनिश्चित करवा लिया कि घर में झाड़ूपोछा करने व बरतन मांजने वाली बाई आती रहेगी. वह तो आया को भी आगे के लिए रखवाना चाहती थी पर इस के लिए आरती ही तैयार नहीं हुईं.

‘‘मैं जानती थी कि आज मुझे लौटना पडे़गा. इसीलिए मैं शीला से 15 दिन की अपनी पगार ले आई थी. अब हम सब पहले बाजार चलेंगे. तुम सब को अपने पैसों से मैं दावत दूंगी…और उपहार भी,’’ आरती की इस घोषणा को सुन कर बच्चों ने तालियां बजाईं और खुशी से मुसकरा उठे.

आरती ने हर एक को उस की मनपसंद चीज बाजार में खिलवाई. संजीव और राकेश को कमीज मिली. अंजलि और सारिका ने अपनी पसंद की साडि़यां पाईं. प्रिया ने ड्रेस खरीदी. सोनू को बैट मिला और मोहित को बैटरी से चलने वाली कार.

वापस लौटने से पहले आरती ने अकेले संजीव को साथ लिया और उस आलीशान दुकान में घुस गइ्रं जहां औरतों की हर प्रसाधन सामग्री बिकती थी.

‘‘क्या आप यहां अपने लिए कुछ खरीदने आई हैं, मम्मी?’’ संजीव ने उत्सुकता जताई.

‘‘नहीं, यहां से मैं कुछ बरखा के लिए खरीदना चाहती हूं,’’ आरती ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘बरखा कौन?’’ एकाएक ही संजीव के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘तुम्हारी दोस्त जो मेरी सहेली उर्मिला के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में रहती है…वही बरखा जिस से मिलने तुम अकसर उस के फ्लैट पर जाते हो..जिस के साथ तुम ने गलत तरह का रिश्ता जोड़ रखा है.’’

‘‘मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं…’’

‘‘संजीव, प्लीज. झूठ बोलने की कोशिश मत करो और मेरी यह चेतावनी ध्यान से सुनो,’’ आरती ने उस की आंखों में आंखें डाल कर सख्त स्वर में बोलना शुरू किया, ‘‘अंजलि तुम्हारे प्रति…घर व बच्चों के प्रति पूरी तरह से समर्पित है. पिछले दिनों में तुम्हें इस बात का अंदाजा हो गया होगा कि वह अन्याय के सामने चुप नहीं रह सकती…मेरी बेटी मानसम्मान से जीने को सब से महत्त्वपूर्ण मानती है.

‘‘उसे बरखा  की भनक भी लग गई तो तुम्हें छोड़ देगी. मेरी बेटी सूखी रोटी खा लेगी, पर जिएगी इज्जत से. जैसे मैं ने बनाया, वैसे ही वह भी पापड़बडि़यां बना कर अपने बच्चों को काबिल बना लेगी.

‘‘आज के बाद तुम कभी बरखा के फ्लैट पर गए तो मैं खुद तुम्हारा कच्चा चिट्ठा अंजलि के सामने खोलूंगी. तुम्हें मुझे अभी वचन देना होगा कि तुम उस से संबंध हमेशा के लिए समाप्त कर लोगे. अगर तुम ऐसा नहीं करते हो, तो अपनी पत्नी व बच्चों से दूर होने को तैयार हो जाओ. अपनी गृहस्थी उजाड़ कर फिर खूब मजे से बरखा के साथ मौजमस्ती करना.’’

संजीव ने कांपती आवाज में अपना फैसला सुनाने में ज्यादा वक्त नहीं लिया, ‘‘मम्मी, आप अंजलि से कुछ मत कहना. वह खुद्दार औरत मुझे कभी माफ नहीं करेगी.’’

‘‘गुड, मुझे तुम से ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी. आओ, बाहर चलें.’’

आरती एक तीर से दो शिकार कर के बहुत संतुष्ट थीं. उन्होंने घर छोड़ कर राकेश व सारिका को अपना महत्त्व व उन की जिम्मेदारियों का एहसास कराया था. साथ ही अंजलि के व्यक्तित्व की कुछ विशेषताओं से संजीव को परिचित करा कर उसे सही राह पर लाई थीं. उन का मिशन पूरी तरह सफल रहा था.

एक बार तो पूछा होता: किस बात का था राघव को मलाल

‘‘पता नहीं क्यों किसीकिसी के साथ दम घुटता सा लगता है. जैसे आप की हर सांस पर किसी का पहरा हो या कोई हर पल आप पर नजर रख रहा हो. क्या ऐसे में दम घुटता सा नहीं लगता?’’ सीमा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखा.

‘‘कहीं तुम्हें दमा का रोग तो नहीं हो गया?’’ मैं ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया.

मेरा मजाक उस के गले में फांस जैसा अटक जाएगा, मुझे नहीं पता था.

‘‘तुम्हें लग रहा है कि मैं तमाशा कर रही हूं, मैं अपने मन की बात समझाना चाह रही हूं और तुम समझ रहे हो…’’

सीमा का स्वर रुंध जाएगा मुझे पता नहीं

था. सहसा मुझे रुकना पड़ा. हंसतीखेलती सीमा इतनी परेशान भी हो सकती है मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

सीमा मेरे पापा के दोस्त की बेटी है और मेरे बचपन की साथी है. हम ने साथसाथ अपनी पढ़ाई पूरी की और जीवन के कई उतारचढ़ाव भी साथसाथ पार किए हैं. ऐसा क्या हो गया उस के साथ. हो सकता है उस के पापा ने कुछ कहा हो, लेकिन पापा के साथ पूरी उम्र दम नहीं घुटा तो अब क्यों दम घुटने लगा.

2 दिन बाद मैं फिर सीमा से मिला तो क्षमायाचना कर कुछ जानने का प्रयास किया.

‘‘ऐसा क्या है, सीमा…मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं. अब क्या मुझे भी रुलाओगी तुम?’’

‘‘मेरी वजह से तुम क्यों रोओगे?’’

तनिक रुकना पड़ा मुझे. सवाल गंभीर और जायज भी था. भला मैं क्यों रोऊंगा? मेरा क्या रिश्ता है सीमा से? सीमा की मां का एक्सीडेंट, उन का देर तक अस्पताल में इलाज और फिर उन की मौत, सीमा का अकेलापन, सीमा के पापा का पुनर्विवाह और फिर उन का भी अलगाव. कोई नाता नहीं है मेरा सीमा से, फिर भी कुछ तो है जो मुझे सीमा से बांधता है.

‘‘तुम मेरे कौन हो, राघव?’’

‘‘पता नहीं, तुम्हारे सवाल से तो मुझे दुविधा होने लगी है और विचार करना पड़ेगा कि मैं कौन हूं तुम्हारा.’’

तनिक क्रोध आ गया मुझे. यह सोच कर कि कौन है जो हमारे रिश्ते पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है?

‘‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं घूम गया. अच्छी बात है, नहीं मिलूंगा मैं तुम से. पता नहीं कैसे लोगों में उठतीबैठती हो आजकल, लगता है किसी मानसिक रोगी की संगत में हो जो खुद तो बीमार होगा ही तुम्हारा भी दिमाग खराब कर रहा है,’’ और इतना कह कर मैं ने हाथ में पकड़ी किताब पटक दी.

‘‘यह लाया था तुम्हारे लिए. पढ़ लो और अपनी सोच को जरा स्वस्थ बनाओ.’’

मैं तैश में उठ कर चला तो आया पर पूरी रात सो नहीं सका. भैयाभाभी और पिताजी पर भी मेरी बेचैनी खुल गई. बातोंबातों में उन के होंठों से निकल गया, ‘‘सीमा के रिश्ते की बात चल रही थी, क्या हुआ उस का? उस दिन भाई साहब बात कर रहे थे कि जन्मपत्री मिल गई है. लड़के को लड़की भी पसंद है. दोनों अच्छी कंपनी में काम करते हैं, क्या हुआ बात आगे बढ़ी कि नहीं…’’

‘‘मुझे तो पता नहीं कि सीमा के रिश्ते की बात चल रही है?’’

‘‘क्या सीमा ने भी नहीं बताया? भाई साहब तो बहुत उतावले हैं इस रिश्ते को ले कर कि लड़का उसी के साथ काम करता है. मनीष नाम है उस का, जाति भी एक है.’’

‘‘अरे, भाभी, आप को इतना सब पता है और मुझे इस का क ख ग भी पता नहीं,’’ इतना कह कर मैं भाभी का चेहरा देखने लगा और भौचक्का सा अपने कमरे में चला आया. पता नहीं चला कब भाभी भी मेरे पीछे कमरे में चली आईं.

‘‘राघव, क्या सचमुच तुम कुछ नहीं जानते?’’

‘‘हां, भाभी, बिलकुल सच कह रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता.’’

‘‘क्यों, सीमा ने नहीं बताया. तुम से तो उस की अच्छी दोस्ती है. जराजरा सी बात भी एकदूसरे के साथ तुम बांटते हो.’’

‘‘भाभी, यही तो मैं भी सोच रहा हूं मगर यह सच है. आजकल सीमा परेशान बहुत है. पिछले 3-4 दिनों में हम जब भी मिले हैं बस, हम में झगड़ा ही हुआ है. मैं पूछता हूं तो कुछ बताती भी नहीं है. हो सकता है वह लड़का मनीष ही उसे परेशान कर रहा हो…उस ने कहा भी था कुछ…’’

सहसा याद आया मुझे. दम घुटने जैसा कुछ कहा था. उसी बात पर तो झगड़ा हुआ था. सब समझ आने लगा मुझे. हो सकता है वह लड़का सीमा को पसंद न हो. वह सीमा की हर सांस पर पहरा लगा रहा हो. बचपन से जानता हूं न सीमा को, जरा सा भी तनाव हो तो उस की सांस ही रुकने लगती है.

‘‘तुम से कुछ पूछना चाहती हूं, राघव,’’ भाभी बड़ी बहन का रूप ले कर बोलीं, ‘‘सीमा तुम्हारी अच्छी दोस्त है या उस से ज्यादा भी है कुछ?’’

‘‘अच्छी मित्र है, यह कैसी बातें कर रही हैं आप? कल सीमा भी पूछ रही थी कि मैं उस का क्या लगता हूं… जैसे वह जानती नहीं कि मैं उस का क्या हूं.’’

‘‘तुम तो पढ़ेलिखे हो न,’’ भाभी बोलीं, ‘‘एमबीए हो, बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हो. सब को समझा कर चलते हो, क्या मुझे समझा सकते हो कि तुम सीमा के क्या हो?’’

‘‘हम दोनों बचपन के साथी हैं. बहुत कुछ साथसाथ सहा भी है…’’

भाभी बात को बीच में काट कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या 2 पल भी बिना सीमा को सोचे कभी रहे हो?’’

‘‘न, नहीं रहा.’’

‘‘तो क्या उस के बिना पूरा जीवन जी लोगे? उस की शादी कहीं और हो गई तो…’’

‘‘भाभी, मैं सीमा को किसी धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता था इसीलिए ऐसा सपना ही नहीं देखा. उस का सुख ही मेंरे लिए सबकुछ है. वह जहां रहे सुखी रहे, बस.’’

‘‘तुम ने उस से पूछा, वह मनीष को पसंद करती है? नहीं न, तुम्हें कुछ पता ही नहीं है. जिस के साथ उस के पिता ने जन्मकुंडली मिलाई है क्या उस के साथ उस के विचार भी मिलते हैं. नहीं जानते न तुम…तुम उस का सुखदुख जानते ही नहीं तो उसे सुखी रखने की कल्पना भी कैसे कर सकते हो. एक बार तो उस से खुल कर बात कर लो. बहुत देर न हो जाए, मुन्ना.’’

भाभी का हाथ मेरे सिर पर आया तो लगा एक ममतामई सुरक्षा कवच उभर आया मन के आसपास. क्या भाभी मेरा मन पहचानती हैं. लगा चेतना पर से कुछ हट सा रहा है.

‘‘ज्यादा से ज्यादा सीमा ना कर देगी,’’ भाभी बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, हम बुरा नहीं मानेंगे. कम से कम दिल की बात कहो तो सही. तुम डरते हो तो मैं अपनी तरफ से बात छेड़ं ू.’’

‘‘मुझे डर है राघव कहीं ऐसा न हो कि वह इतनी दूर चली जाए कि तुम उसे देख भी न पाओ. सवाल अनपढ़ या पढ़ेलिखे होने का नहीं है, कुछ सवाल इतने भी आसान नहीं होते जितना तुम सोचते हो. क्योंकि बड़ेबड़े पढ़ेलिखे भी अकसर कुछ प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते. सीमा को तो अनपढ़ कह दिया, तुम्हीं कौन से पढ़ेलिखे हो, जरा समझाओ मुझे.’’

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं भाभी को देखता रहा. मेरा मन भर आया. अपने भाव छिपाने चाहे लेकिन प्रयास असफल रहा. भाभी से क्या छिपाऊं. शायद भाभी मुझ से ज्यादा मुझे जानती हैं और सीमा को भी.

‘‘मुन्ना, तुम आज ही सीमा से बात करो. मैं शाम तक का समय तुम्हें देती हूं, वरना कल सुबह मैं सीमा से बात करने चली जाऊंगी. अरे, जाति नहीं मिलती न सही, दिल तो मिलता है. वह ब्राह्मण है हम ठाकुर हैं, इस से क्या फर्क पड़ता है? जब उसे साथ ही लेना है तो उस के  लायक बनने की जरूरत ही क्या है?

‘‘जिंदगी इतनी सस्ती नहीं होती बच्चे कि तुम इसे यों ही गंवा दो और इतनी छोटी भी नहीं कि सोचो बस, खत्म हुई ही समझो. पलपल भारी पड़ता है जब कुछ हाथ से निकल जाए. मुन्ना, तुम मेरी बात सुन रहे हो न.’’

मैं भाभी की गोद में समा कर रो पड़ा. पिछले 10 सालों में मां बन कर भाभी ने कई बार दुलारा है. जब भाभी इस घर में आई थीं तब मैं 16-17 साल का था. डरता भी था, पता नहीं कैसी लड़की घर में आएगी, घर को घर ही रहने देगी या श्मशान बना देगी. और अब सोचता हूं कि मेरी यह नन्ही सी मां न होती तो मैं क्या करता.

‘‘तुम बडे़ कब होगे, राघव?’’ चीखी थीं भाभी.

‘‘मुझे बड़े होने की जरूरत ही नहीं है, आप हैं न. अगर आप को लगता है बात करनी चाहिए तो आप बात कर लीजिए, मुझ में हिम्मत नहीं है. उन की ‘न’ उन की ‘हां’ आप ही पूछ कर बता दें. डरता हूं, कहीं दोस्ती का यह रिश्ता हाथ से ही न फिसल जाए.’’

‘‘इस रिश्ते को तो यों भी तुम्हारे हाथ से फिसलना ही है. जितनी पीड़ा तुम्हें सीमा की वजह से होती है वह तब तक कोई अर्थ रखती है जब तक उस की शादी नहीं हो जाती. उस के बाद यह पीड़ा तुम्हारे लिए अभिशाप बन जाएगी और सीमा के लिए भी. राघव, तुम एक बार तो सीमा से खुद बात कर लो. अपने मन की कहो तो सही.’’

‘‘भाभी, आप सोचिए तो, उस के पापा नहीं मानेंगे तो क्या सीमा उन के खिलाफ जाएगी? नहीं जाएगी. इसलिए कि अपने पापा का कहना वह मर कर भी निभाएगी. मेरे प्रति अगर उस के मन में कुछ है भी तो उसे हवा देने की क्या जरूरत?’’

‘‘क्या सीमा यह सबकुछ सह लेगी? इतना आसान होगा नहीं, जितना तुम मान बैठे हो.’’

भाभी गुस्से से मेरे हाथ झटक कर चली गईं और सामने चुपचाप कुरसी पर बैठे अपने भाई पर मेरी नजर पड़ी, जो न जाने कब से हमारी बातें सुन रहे थे.

‘‘क्या लड़के हो तुम? भाभी का पल्ला पकड़ कर रो तो सकते हो पर सीमा का हाथ पकड़ एक जरा सा सवाल नहीं पूछ सकते. आदमी बनो राघव, हिम्मत करो बच्चे, चलो, उठो, नहाधो कर नाश्ता करो और निकलो घर से. आज इतवार है और सीमा भी घर पर ही होगी. हाथ पकड़ कर सीमा को घर ले आओगे तो भी हमें मंजूर है.’’

भैयाभाभी के शब्दों का आधार मेरे लिए एक बड़ा प्रोत्साहन था, लेकिन एक पतली सी रेखा संकोच और डर की मैं पार नहीं कर पा रहा था. किसी तरह सीमा के घर पहुंचा. बाहर ही उस के पापा मिल गए. पता चला सीमा की तबीयत अच्छी नहीं है.

‘‘कभी ऐसा नहीं हुआ उसे. कहती है सांस ही नहीं आती. रात भर फैमिली डाक्टर पास बैठे रहे. क्या करूं मैं, अच्छीभली थी, पता नहीं क्या होता जा रहा है इसे.’’

‘‘अंकल, आप को पता तो है कि घबराहट में सीमा को दम घुटने जैसा अनुभव होता है. उस दिन मुझ से बात करनी भी चाही थी पर मैं ने ही मजाक में टाल दिया था.’’

‘‘तो तुम उस से पूछो, बात करो.’’

मैं सीमा के पास चला आया और उस की हालत देख घबरा गया. 3-3 तकिए पीठ के पीछे रखे वह किसी तरह शरीर को सीधा रख सांस खींचने का प्रयास कर रही थी. एकएक सांस को तरसता इनसान कैसा दयनीय लगता है, मैं ने पहली बार जाना था. आंखें बाहर को फट रही थीं मानो अभी पथरा जाएंगी.

उस की यह हालत देख कर मैं रो पड़ा था. सच ही कहा था भाभी ने कि मेरा सीमा के प्रति स्नेह और ममता इतनी भी सतही नहीं जिसे नकारा जा सके. दोनों हाथ बढ़ा कर किसी तरह हांफते शरीर को सहारा देना चाहा. क्या करूं मैं जो सीमा को जरा सा आराम दे पाऊं. माथा सहला कर पसीना पोंछा. ऐसा लग रहा था मानो अभी सीमा के प्राणपखेरू उड़ जाएंगे. दम घुट जो रहा था.

‘‘सीमा, सीमा क्या हो रहा है तुम्हें, बात करो न मुझ से.’’

दोनों हाथों में उस का चेहरा ले कर सामने किया. आत्मग्लानि से मेरा ही दम घुटने लगा था. उस दिन सीमा कुछ बताना चाह रही थी तो क्यों नहीं सुना मैं ने. अचानक ही भीतर आते पापा की आवाज सुनाई दी.

‘‘सीमा, देखो, तुम से मिलने मनीष आया है.’’

पापा के स्वर में उत्साह था. शायद भावी पति को देख सीमा को चैन आएगा.

एक नौजवान पास चला आया और उस का अधिकारपूर्ण व्यवहार ऐसा मानो बरसों पुराना नाता हो. मेरे मन में एक विचित्र भाव जाग उठा, जैसे मैं सीमा के आसपास कोई अवांछित प्राणी था.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ कल अच्छीभली तो थीं तुम. अचानक ऐसा कैसे हो गया?’’

सवाल पर सवाल, उत्तर न मिलने पर भी एक और सवाल.

‘‘कल शाम तुम्हारा इंतजार करता रहा. नहीं आना था तो एक फोन तो कर देतीं. दीदी और जीजाजी तुम्हारी वजह से नाराज हो गए हैं. उन्हें फोन कर के ‘सौरी’ बोल देना. जीजाजी को कह कर न आने वालों से बहुत चिढ़ है.’’

मुझे मनीष एक संवेदनहीन इनसान लगा. सीमा पर पड़ती उस की नजरों में अधिकार- भावना अधिक थी और चिंता कम. यह इनसान सीमा से प्यार ही कहां कर पाएगा जिसे उस की तकलीफ पर जरा भी चिंता नहीं हो रही. सीमा रो पड़ी थी और अगले पल उस का समूचा अस्तित्व मेरी बांहों में आ समाया और मेरी छाती में चेहरा छिपा कर वह चीखचीख कर रोने लगी.

सीमा के पापा अवाक्थे. मनीष की पीड़ा को मैं नकार नहीं सकता…जिस की होने वाली बीवी उसी की ही नजरों के सामने किसी और की बांहों में समा जाए.

कुछ प्रश्न और कुछ उत्तर शायद इसी एक पल का इंतजार कर रहे थे. सीमा ने पीड़ा की स्थिति में अपना समूल मुझे सौंप दिया था और मेरे शरीर पर उस के हाथों की पकड़ इतनी मजबूत थी कि मेरे लिए विश्वास करना मुश्किल था. स्पर्श की भाषा कभीकभी इतनी प्रभावी होती है कि शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाता है.

मेरे हाथों में क्या था, मैं नहीं जानता. लेकिन कुछ ऐसा अवश्य था जिस ने सीमा की उखड़ी सांसों को आसान बना दिया था. मेरे दोनों हाथों को कस कर पकड़ना उस का एक उत्तर था जिस की मुझे भी उम्मीद थी.

मुझे पता ही नहीं चला कब मनीष और पापा कमरे से बाहर चले गए. गले में ढेर सारा आवेग पीते हुए मैं ने सीमा के बालों में उंगलियां डाल सहला दिया. देर तक सीमा मेरी छाती में समाई रही. सांस पूरी तरह सामान्य हो गई थी, जिस पर मैं भी हैरान था और सीमा के पापा भी.

‘‘तुम ने पूछा था न, मैं तुम्हारा कौन हूं? कल तक पता नहीं था. आज बता सकता हूं.’’

चुप थी सीमा, और उस के पापा भी चुप थे. मुझे वे प्रकृति के आगे नतमस्तक से लगे. सीमा की सांसें अगर मेरी नजदीकियों की मोहताज थीं तो इस सच से वे आंखें कैसे मोड़ लेते.

‘‘मुझे बताया क्यों नहीं तुम दोनों ने? बचपन से साथसाथ हो और एकदूसरे पर इतना अधिकार है तो…’’

‘‘अंकल, मुझे भी पता नहीं था. आज ही जान पाया,’’ और इसी के साथ मेरा गला रुंध गया था.

मुझे अच्छी तरह याद है जब सीमा की मां की मौत के कुछ साल बाद उस के पापा ने अपनी बहन के दबाव में आ कर पुनर्विवाह कर लिया था तब वह कितने परेशान थे. सीमा और उस की नई मां के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे. तब अकसर मेरे सामने रो दिया करते थे.

‘‘अपनी जाति अपनी ही जाति होती है. यह औरत हमारी जाति की नहीं है, इसीलिए हम में घुलमिल नहीं पाती.’’

‘‘अंकल, आप अपनी जाति से बाहर भी तो जाना नहीं चाहते थे न. और मैं भी नहीं चाहता था मेरी वजह से सीमा आप से दूर हो जाए. क्योंकि आप ने सीमा के लिए अपने सारे सुख भुला दिए थे.’’

‘‘तो क्या उस का बदला मैं सीमा के जीवन में जहर घोल कर  लूंगा. मैं उस का बाप हूं. जो मैं ने किया वह कोई एहसान नहीं था. कैसे नादान हो, तुम दोनों.’’

सीमा को गले लगा कर अंकल रो पड़े थे. हम तीनों ही अंधेरे में थे. कहीं कोई परदा नहीं था फिर भी एक काल्पनिक आवरण खुद पर डाले बस, जिए जा रहे थे हम.

डरने लगा हूं अब वह पल सोच कर, जब सीमा सदासदा के लिए जीवन से चली जाती. तब शायद यही सोचसोच कर जीवन नरक बन जाता कि एक बार मैं ने बात तो की होती, एक बार तो पूछा होता, एक बार तो पूछा होता.

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