आधी अधूरी प्रेम कहानी

लौक डाउन का दूसरा चरण देश में चल रहा था. नर्मदा नदी पुल पर बने जिस चैक पोस्ट पर मेरी ड्यूटी जिला प्रशासन ने लगाई थी,वह दो जिलों की सीमाओं को जोड़ती थी. मेरे साथ ड्यूटी पर पुलिस के हबलदार,एक पटवारी ,गाव का कोटवार और मैं निरीह मास्टर.आठ आठ घण्टे की तीन शिफ्ट में लगी ड्यूटी में हमारा समय सुबह 6 बजे से लेकर दोपहर के 2 बजे तक रहता.आठ घंटे की इस ड्यूटी में जिले से बाहर आने जाने वाले लोगों की एंट्री करनी पड़ती थी. यदि कोई कोरोना संक्रमण से प्रभावित क्षेत्रों से जिले की सीमा में प्रवेश करता,तो तहसीलदार को इसकी सूचना दी जाती और यैसे लोगों की जांच कर उन्हें कोरेन्टाईन में रखा जाता. म‌ई महिने की पहली तारीख को मैं ड्यूटी के लिए सुबह 6 बजे ककरा घाट पर बनी चैक पोस्ट पर पहुंच गया था.
नर्मदा नदी के किनारे एक खेत पर एक किसानअपनी मूंग की फसल में पानी दे रहा था . काम करते हुए उसकी नजर नदी की ओर ग‌ई ,तो उसे नदी में कोई भारी सी चीज बहती हुई किनारे की तरफ आती दिखाई दी. थोड़ा करीब जाने पर किसान ने एक दूसरे से लिपटे युवक युवतियों को देखा तो चैक पोस्ट की ओर जोर से आवाज लगाई
” मुंशी जी दौड़ कर आइए ,ये नदी में देखिए लड़का लड़की बहते हुये किनारे लग गये हैं”
मेरे साथ ड्यूटी कर रहे पुलिस थाना के हबलदार बैनीसिंह ने आवाज सुनकर पुल से नीचे की तरफ दौड़ लगा दी. सूचना मिलने पर पुलिस टीम भी मौक़े पर आ ग‌ई . आस पास के लोगों की भीड़ नदी किनारे इकट्ठी हो गई, मुझसे भी रह नहीं गया . तो मैं भी नदी के घाट परपहुंच गया . सबने मिलकर आपस में एक दूसरे से लिपटे दोनों लड़का-लड़की के शव को नदी से निकाल कर किनारे पर कर दिया . जैसे ही उनके चेहरे  पर मेरी नजर गई तो मैं दंग रह ग‌या.

दरअसल नर्मदा नदी में मिले ये दोनों शव दो साल पहले मेरे स्कूल में पढ़ने वाले सौरभ और नेहा के ही थे ,जो दिन पहले ही रात में घर से भागे थे. गाव में जवान लड़का, लड़की के भागने की खबर फैलते ही लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे. नेहा के मां वाप का तो‌‌ रो रोकर बुरा हाल था. गांव में जाति बिरादरी में उनकी इज्जत मुंह दिखाने लायक नहीं बची थी. हालांकि दो साल से चल रहे दोनों के प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन गये थे.पुलिस लाशों के पंचनामा और अन्य कागजी कार्रवाई में जुटी थी और मेरे स्मृति पटल पर स्कूल के दिनों की यादें के एक एक पन्ने खुलते जा रहे थे.

सौरभ और नेहा स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही एक दूसरे को पसंद करने लगे थे. सौरभ बारहवीं जमात में और नेहा दसवीं जमात में पढते थे. स्कूल में शनिवार के दिन बालसभा में जीवन कौशल शिक्षा के अंतर्गत किशोर अवस्था पर डिस्कशन चल रहा था. जब सौरभ ने विंदास अंदाज़ में बोलना शुरू किया तो सब देखते ही रह गये.  सौरभ ने जब बताया कि किशोर अवस्था में लड़के लड़कियों में जो शारीरिक परिवर्तन होते हैं, उसमें गुप्तांगों के आकार बढ़ने के साथ बाल उग आते हैं.लड़को के लिंग में कड़ा पन आने लगता हैऔर लड़कियों के वक्ष में उभार आने लगते हैं .लड़का-लड़की एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते हैं.  हमारे बुजुर्ग शिक्षक जो दसवीं जमात के विज्ञान का जनन वाला पाठ पढ़ाने में संकोच करते हैं ,वे बालसभा छोड़ कर चले गये. लड़को को सौरभ के द्वारा बताई जा रही बातों में मजा आ रहा था, तो क्लास की लड़कियों के शर्म के मारे सिर झुके जा रहे थे.  17साल की  नेहा को सौरभ की बातें सुनकर गुदगुदी हो रही थी, लेकिन जब उसका बोलने का नंबर आया तो उसने भी खडे होकर बता दिया-
“लड़कियों को भी किशोरावस्था में पीरियड आने लगते है”
सौरभ और नेहा के इन विंदास बोल ने उन्हें स्कूल का आयडियल बना दिया था.

सौरभ स्कूल की पढ़ाई के साथ ही सभी प्रकार के फंक्शन में भाग लेता और नेहा उसके अंदाज की दीवानी हो गई.स्कूल में पढ़ाई के दौरान नेहा और सौरभ एक दूसरे से मन ही मन प्यार कर बैठे. दोनों के बीच का यह प्यार इजहार के साथ जब परवान चढ़ा तो मेल मुलाकातें बढ़ने लगी और दोनों ने एक दूजे के साथ जीने मरने की कसमें खा ली . इसी साल सौरभ कालेज की पढ़ाई के लिए सागर चला गया तो नेहा का  स्कूल में मन ही नहीं लगता.मोबाइल फोन के जरिए सौरभ और नेहा  आपस में बात करने लगे. सौरभ जब भी गांव आता तो लुक छिपकर नेहा से मिलता और पढ़ाई पूरी होते ही शादी करने का बादा करता  .

कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिये लगे लौक डाउन के तीन दिन पहले कालेज की छुट्टियां होने पर सौरभ सागर से गांव आ गया था . गांव वालों की नजरों से बचकर नेहा और सौरभ जब आपस में मिलते तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता. नेहा सौरभ से कहती-” अब तुम्हारे बिना गांव में मेरा दिल नहीं लगता”
सौरभ नेहा को अपनी बाहों में भरकर दिलासा देता,” सब्र करो नेहा , मेरी पढ़ाई खत्म होते ही हम शादी कर लेंगे”. नेहा सौरभ के बालों में हाथ घुमाते हुए कहती-
” लेकिन सौरभ घर वालों को कैसे मनायेंगे” .
सौरभ नेहा के माथे पर चुंबन देते हुए कहता-
“नेहा घर वालों को भी मना लेंगे,आखिर हम एक ही जाति बिरादरी के हैं”
सौरभ के सीने से लिपटते हुए नेहा कहती

” सौरभ यदि हमारी शादी नहीं हुई तो मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगी”.
सौरभ ने उसके ओंठों को चूमते हुए आश्वस्त किया
“नेहा हमार प्यार सच्चा है हम साथ जियेंगे, साथ मरेंगे”
साथ जीने मरने की कसमें खाने वाले नेहा और सौरभ को एक दिन आपस में बात करते नेहा के पिता  ने देख लिया तो परिवार में बबाल मच गया .घर वालों ने समाज में अपनी इज्जत का वास्ता देकर नेहा को डरा धमकाकर समझाने की कोशिश की. नेहा ने घर वालों से साफ कह दिया कि वह तो सौरभ से ही शादी करेंगी.सौरभ के दादाजी को जब इसका पता चला तो दादाजी आग बबूला हो गये.कहने लगे” आज के लडंका लड़कियों में शर्म नाम की कोई चीज ही नहीं है.ये शादी हरगिज नहीं होगी.जिस लड़की में लाज शरम ही नहीं है, उसे हम घर की बहू नहीं बना सकते.”
सौरभ को जब दादाजी के इस निर्णय का पता चला तो वह भी ‌तिलमिला कर‌रह गया.

अब घर परिवार का पहरा  नेहा और सौरभ पर गहराने लगा था. एक दूजे के प्यार में पागल दोनों प्रेमी घर पर रहकर तड़पने लगे .और एक रात उन्होंने बिना सोचे समझे घर से भाग जाने का फैसला कर लिया.  योजना के मुताबिक वे अपने घरों से रात के दो बजे  मोटर साइकिल पर सवार होकर गांव से निकल तो गये, लेकिन लौक डाउन में जगह-जगह पुलिस की निगरानी से इलाके से दूर न जा सके.

दूसरे दिन सुबह  जब नेहा घर के कमरे में नहीं मिली तो घर वालों के होश उड़ गए .  सौरभ के वारे में जानकारी मिलने पर पता चला कि वह भी घर से गायब है,तो उन्हें यह समझ आ गया कि दोनों एक साथ घर से गायब हुए हैं. गांव में समाज के मुखिया और पंचो ने बैठक कर यह तय किया कि पहले आस पास के रिश्तेदारों के यहां उनकी खोज बीन कर ली जाए , फिर पुलिस को सूचना दी जाए. शाम तक जब दोनों का कोई पता नहीं चला ,तो घर वालों ने पुलिस थाना मे गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

अपने वेटे की तलाश में जुटे सौरभ के पिता ने तीसरे दिन की सुबह अपने मोबाइल  पर आये सौरभ के मेसेज को देखा तो उन्हें कुछ आशा की किरण दिखाई दी. मैसेज बाक्स को खोलकर वे मैसेज पढ़ने लगे . मैसेज में सौरभ ने लिखा था
” मेरे प्यारे मम्मी पापा,
हमारी वजह से आपको बहुत दुःख हुआ है, इसलिए हम हमेशा के लिए आपसे दूर जा रहे हैं.   नर्मदा नदी के ककरा घाट के किनारे मोटर साइकिल ,और मोबाइल रखे हैं.इन्हे ले जाना अलविदा”.

तुम्हारा अभागा वेटा
सौरभ

उधर नेहा के भाई के मोबाइल के वाट्स ऐप पर नेहा ने गुड बाय का मैसेज  सेंड किया था. जब दोनों के घर वाले मैसेज में बताई गई जगह पर पहुंचे तो वहां  मोटरसाइकिल खड़ी थी . उसके पास दो मोबाइल, गमछा, चुनरी और जूते चप्पल रखे थे. पुलिस की मौजूदगी में वह सामान जप्त कर नदी के किनारे और नदी में भी तलाशी की गई, लेकिन नेहा और सौरभ का दूर दूर तक कोई पता नहीं था.
घर वाले और पुलिस टीम दोनों की तलाशी में रात दिन जुटे हुए थे ,तभी म‌ई की एक तारीख को सुबह सुबह दोनों के शव नदी में उतराते मिले थे.

” मास्साब यै लोग इंदौर से आ रहे हैं ,इनकी एंट्री करो” पटवारी की आवाज सुनकर मैने देखा एक कार चैक पोस्ट पर जांच के लिए खड़ी थी . यादों के सफर से मैं वापस आ गया था . झटपट कार का नंबर नोट कर मुंह और नाक पर मास्क चढाकर उसमें सवार लोगों के नाम पता नोट कर लिए थे . कार के जाते ही हाथों पर सेनेटाइजर छिड़क कर हाथों को अच्छी तरह रगड़ कर अपने काम में लग गया.
उधर पोस्ट मार्टम के बाद सौरभ और‌ नेहा के शव को गांव में अपने अपने घर लाया गया और उनके अंतिम संस्कार में पूरा गांव उमड़ पड़ा था.  अस्सी साल की उमर पार कर चुके सौरभ के दादाजी पश्चाताप की आग में जल रहे थे.अपनी झूठी शान की खातिर युवाओं के सपनों को चूर चूर कर जबरदस्ती समाज के कायदे कानून थोपने के अपने निर्णय से दुःख भी हो रहा था.

मुझे भी सौरभ और नेहा की इस अधूरी प्रेम कहानी ने दुखी कर दिया था.  स्कूल की बालसभा में बच्चों को किशोरावस्था में समझ और धैर्य से काम ‌लेने और सोच समझकर निर्णय लेने की शिक्षा देने के बावजूद भी जवानी के‌ जोश में होश खो देकर अपनी जीवन लीला खत्म करने वाले इस प्रेमी जोड़े के निर्णय पर वार अफसोस भी हो रहा था. मुझे लग रहा था कि  काम धंधा जमाकर पहले सौरभ अपने पैरों पर खड़ा होता  और‌ लौक डाउन खत्म होते ही नेहा के साथ  कानूनी तौर पर शादी करता तो शायद ये प्रेम कहानी आधी अधूरी न रहती.

बहू- जब दीपक के स्वार्थ को हराया उसकी पत्नी ने

बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा  मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं ’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा ’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं  इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग

दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी  हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे  अब क्या जान लेगी हमारी  मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे  आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे  मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो  घर पर सब ठीक है ’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को ’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने ’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा  बाबूजी मकान बेच दें  भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे  आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए ’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए. भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

विकराल शून्य- निशा की कौनसी बीमारी से बेखबर था सोम?

‘‘कैसी विडंबना है, हम पराए लोगों को तो धन्यवाद कहते हैं लेकिन उन को नहीं, जो करीब होते हैं, मांबाप, भाईबहन, पत्नी या पति,’’ अजय ने कहा.

‘‘उस की जरूरत भी क्या है? अपनों में इन औपचारिक शब्दों का क्या मतलब? अपनों में धन्यवाद की तलवार अपनत्व को काटती है, पराया बना देती है,’’ मैं ने अजय को जवाब दिया.

‘‘यहीं तो हम भूल कर जाते हैं, सोम. अपनों के बीच भी एक बारीक सी रेखा होती है, जिस के पार नहीं जाना चाहिए, न किसी को आने देना चाहिए. माना अपना इनसान जो भी हमारे लिए करता है वह हमारे अधिकार या उस के कर्तव्य की श्रेणी में आता है, फिर भी उस ने किया तो है न. जो मांबाप ने कर दिया उसी को अगर वे न करते या न कर पाते तो सोचो हमारा क्या होता?’’ अजय बोला.

अजय की गहरी बातें वास्तव में अपने में बहुत कुछ समाए रखती हैं. जब भी उस के पास बैठता हूं, बहुत कुछ नया ही सीख कर जाता हूं.

बड़े गौर से मैं अजय की बातें सुनता था जो अजय कहता था, गलत या फिजूल उस में तो कुछ भी नहीं होता था. सत्य है हमारा तो रोमरोम किसी न किसी का आभारी है. अकेला इनसान संपूर्ण कहां है? क्या पहचान है एक अकेले इनसान की? जन्म से ले कर बुढ़ापे तक मनुष्य किसी न किसी पर आश्रित ही तो रहता है न.

‘‘मेरी पत्नी सुबह से शाम तक बहुत कुछ करती है मेरे लिए, सुबह की चाय से ले कर रात के खाने तक, मेरे कपड़े, मेरा कमरा, मेरी व्यक्तिगत चीजों का खयाल, यहां तक कि मेरा मूड जरा सा भी खराब हो तो बारबार मनाना या किसी तरह मुझे हंसाना,’’ मैं अजय से बोला.

‘‘वही सब अगर वह न करे तो जीवन कैसा हो जाए, समझ सकते हो न. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन की बीवियां तिनका भी उठा कर इधरउधर नहीं करतीं. पति ही घर भी संभालता है और दफ्तर भी. पत्नी को धन्यवाद कहने में कैसी शर्म, यदि उस से कुछ मिला है तुम्हें? इस से आपस का स्नेह, आपस की ऊष्मा बढ़ती है, घटती नहीं,’’ अजय ने कहा.

सच ही कहा अजय ने. इनसान इतना तो समझदार है ही कि बेमन से किया कोई भी प्रयास झट से पहचान जाता है. हम भी तो पहचान जाते हैं न, जब कोई भावहीन शब्द हम पर बरसाता है.

उस दिन देर तक हम साथसाथ बैठे रहे. अपनी जीवनशैली और उस के तामझाम को निभाने के लिए ही मैं इस पार्टी में आया था, जहां सहसा अजय से मुलाकात हो गई थी. हमारी कंपनी के ही एक डाइरेक्टर ने पार्टी दी थी, जिस में मैं हाजिर हुए बिना नहीं रह सकता था. इसे व्यावसायिक मजबूरी कह लो या तहजीब का तकाजा, निभाना जरूरी था.

12 घंटे की नौकरी और छुट्टी पर भी कोई न कोई आयोजन, कैसे घर के लिए जरा सा समय निकालूं? निशा पहले तो शिकायत करती रही लेकिन अब उस ने कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया है. समूल सुखसुविधाओं के बावजूद वह खुश नजर नहीं आती. सुबह की चाय और रात की रोटी बस यही उस की जिम्मेदारी है. मेरा नाश्ता और दोपहर का खाना कंपनी के मैस में ही होता है. आखिर क्या कमी है हमारे घर में जो वह खुश नजर नहीं आती? दिन भर वह अकेली होती है, न कोई रोकटोक, न सासससुर का मुंह देखना, पूरी आजादी है निशा को. फिर भी हमारे बीच कुछ है, जो कम होता जा रहा है. कुछ ऐसा है जो पहले था अब नहीं है.

सुबह की चाय और अखबार वह मेरे पास छोड़ जाती है. जब नहा कर आता हूं, मेरे कपड़े पलंग पर मिलते हैं. उस के बाद यंत्रवत सा मेरा तैयार होना और चले जाना. जातेजाते एक मशीनी सा हाथ हिला कर बायबाय कर देना.

मैं पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा हूं, अब निशा चुप रहती है. हां, कभी माथे पर शिकन हो तो पूछ लेती है, ‘‘क्या हुआ? क्या आफिस में कोई समस्या है?’’

‘‘नहीं,’’ जरा सा उत्तर होता है मेरा.

आज शनिवार की छुट्टी थी लेकिन पार्टी थी, सो यहां आना पड़ा. निशा साथ नहीं आती, उसे पसंद नहीं. एक छत के नीचे रहते हैं हम, फिर भी लगता है कोसों की दूरी है.

मैं पार्टी से लौट कर घर आया, चाबी लगा कर घर खोला. चुप्पी थी घर में. शायद निशा कहीं गई होगी. पानी अपने हाथ से पीना खला. चाय की इच्छा नहीं थी. बीच वाले कमरे में टीवी देखने बैठ गया. नजर बारबार मुख्य

द्वार की ओर उठने लगी. कहां रह गई यह लड़की? चिंता होने लगी मुझे. उठ कर बैडरूम में आया और निशा की अलमारी खोली. ऊपर वाले खाने में कुछ उपहार पड़े थे. जिज्ञासावश उठा लिए. समयसमय पर मैं ने ही उसे दिए थे. मेरा ही नाम लिखा था उन पर. स्तब्ध रह गया मैं. निशा ने उन्हें खोला तक नहीं था. महंगी साडि़यां, कुछ गहने. हजारों का सामान अनछुआ पड़ा था. क्षण भर को तो अपना अपमान लगा यह मुझे, लेकिन दूसरे ही क्षण लगा मेरी बेरुखी का इस से बड़ा प्रमाण और क्या होगा?

उपहार देने के बाद मैं ने उन्हें कब याद रखा. साड़ी सिर्फ दुकान में देखी थी, उसे निशा के तन पर देखना याद ही नहीं रहा. कान के बुंदे और गले का जड़ाऊ हार मैं ने निशा के तन पर सजा देखने की इच्छा कब जाहिर की? वक्त ही नहीं दे पाता हूं पत्नी को, जिस की भरपाई गहनों और कपड़ों से करता रहा था. जरा भी प्यार समाया होता इस सामान में तो मेरे मन में भी सजीसंवरी निशा देखने की इच्छा होती. मेरा प्यार और स्नेह ऊष्मारहित है. तभी तो न मुझे याद रहा और न ही निशा ने इन्हें खोल कर देखने की इच्छा महसूस की होगी. सब से पुराना तोहफा 4 महीनों पुराना है, जो निशा के जन्मदिन का उपहार था. मतलब यह कि पिछले 4 महीनों से यह सामान लावारिस की तरह उस की अलमारी में पड़ा है, जिसे खोल कर देखने तक की जरूरत निशा ने नहीं समझी.

यह तो मुझे समझ में आ गया कि निशा को गहनों और कपड़ों की भूख नहीं है और न ही वह मुझ से कोई उम्मीद करती है.

2 साल का वैवाहिक जीवन और साथ बिताया समय इतना कम, इतना गिनाचुना कि कुछ भी संजो नहीं पा रहा हूं, जिसे याद कर मैं यह विश्वास कर पाऊं कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय है.

निशा की पूरी अलमारी देखी मैं ने. लाकर में वे सभी रुपए भी वैसे के वैसे ही पड़े थे. उस ने उन्हें भी हाथ नहीं लगाया था.

शाम के 6 बज गए. निशा लौटी नहीं थी. 3 घंटे से मैं घर पर बैठा उस का इंतजार कर रहा हूं. कहां ढूंढू उसे? इस अजनबी शहर में उस की जानपहचान भी तो कहीं नहीं है. कुछ समय पहले ही तो इस शहर में ट्रांसफर हुआ है.

करीब 7 बजे बाहर का दरवाजा खुला.

बैडरूम के दरवाजे की ओट से ही मैं ने देखा, निशा ही थी. साथ था कोई पुरुष, जो सहारा दे रहा था निशा को.

‘‘बस, अब आप आराम कीजिए,’’

सोफे पर बैठा कर उस ने कुछ दवाइयां मेज पर रख दी थीं. वह दरवाजा बंद कर के चला गया और मैं जड़वत सा वहीं खड़ा रह गया. तो क्या निशा बीमार है? इतनी बीमार कि कोई पड़ोसी उस की सहायता कर रहा है और मुझे पता तक नहीं. शर्म आने लगी मुझे.

आंखें बंद कर चुपचाप सोफे से टेक लगाए बैठी थी निशा. उस की सांस बहुत तेज चल रही थी. मानो कहीं से भाग कर आई हो. मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी पास जाने की. शब्द कहां हैं मेरे पास जिन से बात शुरू करूंगा. पैसों का ढेर लगाता रहा निशा के सामने, लेकिन यह नहीं समझ पाया, रुपयापैसा किसी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता.

‘‘क्या हुआ निशा?’’ पास आ कर मैं ने उस के माथे पर हाथ रखा. तेज बुखार था, जिस वजह से उस की आंखों से पानी भी बह रहा था. जबान खिंच गई मेरी. आत्मग्लानि का बोझ इतना था कि लग रहा था कि आजीवन आंखें न उठा पाऊंगा.

किसी गहरी खाई में जैसे मेरी चेतना धंसने लगी. अच्छी नौकरी, अच्छी तनख्वाह के साथ मेरा घर, मेरी गृहस्थी कहीं उजड़ने तो नहीं लगी? हंसतीखेलती यह लड़की ऐसी कब थी, जब मेरे साथ नहीं जुड़ी थी. मेरी ही इच्छा थी कि मुझे नौकरी वाली लड़की नहीं चाहिए. वैसी हो जो घर संभाले और मुझे संभाले. इस ने तो मुझे संभाला लेकिन क्या मैं इसे संभाल पाया?

‘‘आप कब आए?’’ कमजोर स्वर ने मुझे चौंकाया. अधखुली आंखों से मुझे देख रही थी निशा.

निशा का हाथ कस कर अपने हाथ में पकड़ लिया मैं ने. क्या उत्तर दूं, मैं कब आया.

‘‘चाय पिएंगे?’’ उठने का प्रयास किया निशा ने.

‘‘कब से बीमार हो?’’ मैं ने उठने से उसे रोक लिया.

‘‘कुछ दिन हो गए.’’

‘‘तुम्हारी सांस क्यों फूल रही है?’’

‘‘ऐसी हालत में कुछ औरतों को सांस की तकलीफ हो जाती है.’’

‘‘कैसी हालत?’’ मेरा प्रश्न विचित्र सा भाव ले आया निशा के चेहरे पर. वह मुसकराने लगी. ऐसी मुसकराहट, जो मुझे आरपार तक चीरती गई.

फिर रो पड़ी निशा. रोना और मुसकराना साथसाथ ऐसा दयनीय चित्र प्रस्तुत करने लगा मानो निशा पूर्णत: हार गई हो. जीवन में कुछ भी शेष नहीं बचा. डर लगने लगा मुझे. हांफतेहांफते निशा का रोना और हंसना ऐसा चित्र उभार रहा था मानो उसे अब मुझ से

कोई भी आशा नहीं रही. अपना हाथ खींच लिया निशा ने.

तभी द्वार घंटी बजी और विषय वहीं थम गया. मैं ही दरवाजा खोलने गया. सामने वही पुरुष खड़ा था, मेरी तरफ कुछ कागज बढ़ाता हुआ.

‘‘अच्छा हुआ, आप आ गए. आप की पत्नी की रिपोर्ट्स मेरी गाड़ी में ही छूट गई थीं. दवा समय से देते रहिए. इन की सांस बहुत फूल रही थी इसलिए मैं ही छोड़ने चला आया था.’’

अवाक था मैं. निशा को 4 महीने का गर्भ था और मुझे पता तक नहीं. कुछ घर छोड़ कर एक क्लीनिक था, जिस के डाक्टर साहब मेरे सामने खड़े थे. उन्होंने 1-2 कुशल स्त्री विशेषज्ञ डाक्टरों का पता मुझे दिया और जल्दी ही जरूरी टैस्ट करवा लेने को कह कर चले गए. जमीन निकल गई मेरे पैरों तले से. कैसा नाता है मेरा निशा से? वह कुछ सुनाना चाहती है तो मेरे पास सुनने का समय नहीं. तो फिर शादी क्यों की मैं ने, अगर पत्नी का सुखदुख भी नहीं पूछ सकता मैं.

चुपचाप आ कर बैठ गया मैं निशा के पास. मैं पिता बनने जा रहा हूं, यह सत्य अभीअभी पता चला है मुझे और मैं खुश भी नहीं हो पा रहा. कैसे आंखें मिलाऊं मैं निशा से? पिछले कुछ महीनों से कंपनी में इतना ज्यादा काम है कि सांस भी लेने की फुरसत नहीं है मुझे. निशा दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी और मैं ने एक बार भी पूछा नहीं, उसे क्या तकलीफ है.

निशा के विरोध के बावजूद मैं उसे उठा कर बिस्तर पर ले आया. देर तक ठंडे पानी की पट्टियां रखता रहा. करीब आधी रात को उस का बुखार उतरा. दूध और डबलरोटी ही खा कर गुजारा करना पड़ा उस रात, जबकि यह सत्य है, 2 साल के साथ में निशा ने कभी मुझे अच्छा खाना खिलाए बिना नहीं सुलाया.

सुबह मैं उठा तो निशा रसोई में व्यस्त थी. मैं लपक कर उस के पास गया. कुछ कह पाता, तब तक तटस्थ सी निशा ने सामने इशारा किया. चाय ट्रे में सजी थी.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम? तुम तो बीमार हो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बीमार तो मैं पिछले कई दिनों से हूं. आज नई बात क्या है?’’

‘‘देखो निशा, तुम ने एक बार भी मुझे नहीं बताया,’’ मैं ने कहा.

‘‘बताया था मैं ने लेकिन आप ने सुना ही नहीं. सोम, आप ने कहा था, मुझे इस घर में रोटीकपड़ा मिलता है न, क्या कमी है, जो बहाने बना कर आप को घर पर रोकना चाहती हूं. आप इतनी बड़ी कंपनी में काम करते हैं. क्या आप को और कोई काम नहीं है, जो हर पल पत्नी के बिस्तर में घुसे रहें? क्या मुझे आप की जरूरत सिर्फ बिस्तर में होती है? क्या मेरी वासना इतनी तीव्र है कि मैं चाहती हूं, आप दिनरात मेरे साथ वही सब करते रहें?’’ निशा बोलती चली गई.

काटो तो खून नहीं रहा मेरे शरीर में.

‘‘आप मुझे रोटीकपड़ा देते हैं, यह सच

है. लेकिन बदले में इतना बड़ा अपमान भी करें, क्या जरूरी है? सोम, आप भूल गए, पत्नी का भी मानसम्मान होता है. रोटीकपड़ा तो मेरे पिता के घर पर भी मिलता था मुझे. 2 रोटी तो कमा भी सकती हूं. क्या शादी का मतलब यह होता है कि पति को पत्नी का अपमान करने का अधिकार मिल जाता है?’’ निशा बिफर पड़ी.

याद आया, ऐसा ही हुआ था एक दिन. मैं ने ऐसा ही कहा था. इतनी ओछी बात पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गई थी. सच है, उस के बाद निशा ने मुझ से कुछ भी कहना छोड़ दिया था. जिस खबर पर मुझे खुश होना चाहिए था उसे बिना सुने ही मैं ने इतना सब कह दिया था, जो एक पत्नी की गरिमा पर प्रहार का ही काम करता.

निशा को बांहों में ले कर मैं रो पड़ा. कितनी कमजोर हो गई है निशा, मैं देख ही नहीं पाया. कैसे माफी मांगूं अपने कहे की. लाखों रुपए हर महीने कमाने वाला मैं इतना कंगाल हूं कि न अपने बच्चे के आने की खबर का स्वागत कर पाया और न ही शब्द ही जुटा पा रहा हूं कि पत्नी से माफी मांग सकूं.

पत्नी के मन में पति के लिए एक सम्मानजनक स्थान होता है, जिसे शायद मैं खो चुका हूं. लाख हवा में उड़ता रहूं, आना तो जमीन पर ही था मुझे, जहां निशा ने सदा शीतल छाया सा सुख दिया है मुझे.

मेरे हाथ हटा दिए निशा ने. उस के होंठों पर एक कड़वी सी मुसकराहट थी.

‘‘ऐसा क्या हुआ है मुझे, जो आप को रोना आ गया. आप रोटीकपड़ा देते हैं मुझे, बदले में संतान पाना तो आप का अधिकार है न. डाक्टर ने कहा है, कुछ औरतों को गर्भावस्था में सांस की तकलीफ हो जाती है. ठीक हो जाऊंगी मैं. आप की और घर की देखभाल में कोई कमी नहीं आएगी,’’ निशा ने कहा.

‘‘निशा, मुझ से गलती हो गई. मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्यों मेरे मुंह से

वह सब निकल गया,’’ मैं निशा के आगे गिड़गिड़ाया.

‘‘सच ही आया होगा न जबान पर, इस में माफी मांगने की क्या जरूरत है? मैं जैसी हूं वैसी ही बताया आप ने.’’

‘‘तुम वैसी नहीं हो, निशा. तुम तो संसार की सब से अच्छी पत्नी हो. तुम्हारे बिना मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा. अगर मैं अपनी कंपनी का सब से अच्छा अधिकारी हूं तो उस के पीछे तुम्हारी ही मेहनत और देखभाल है. यह सच है, मैं तुम्हें समय नहीं दे पाता लेकिन यह सच नहीं कि मैं तुम से प्यार नहीं करता. तुम्हें गहनों, कपड़ों की चाह होती तो मेरे दिए तोहफे यों ही नहीं पड़े होते अलमारी में. तुम मुझ से सिर्फ जरा सा समय, जरा सा प्यार चाहती हो, जो मैं नहीं दे पाता. मैं क्या करूं, निशा, शायद आज संसार का सब से बड़ा कंगाल भी मैं ही हूं, जिस की पत्नी खाली हाथ है, कुछ नहीं है जिस के पास. क्षमा कर दो मुझे. मैं तुम्हारी देखभाल नहीं कर पाया.’’ मैं रोने लगा था.

मुझे रोते देख कर निशा भी रोने लगी थी. रोने से उस की सांस फूलने लगी थी. निशा को कस कर छाती से लगा लिया मैं ने. इस पल निशा ने विरोध नहीं किया. मैं जानता हूं, मेरी निशा मुझ से ज्यादा नाराज नहीं रह पाएगी. मुझे अपना घर बचाने के लिए कुछ करना होगा. घर और बाहर में एक उचित तालमेल बनाना होगा, हर रिश्ते को उचित सम्मान देना होगा, वरना वह दिन दूर नहीं जब मेरे बैंक खातों में तो हर पल शून्य का इजाफा होगा ही, वहीं शून्य अपने विकराल रूप में मेरे जीवन में भी स्थापित हो जाएगा.

थोड़ी सी बेवफाई: ऐसा क्या देखा था सरोज ने प्रिया के घर

कपड़ेसुखातेसुखाते सरोज ने एक नजर सामने वाले घर की छत पर भी डाली. उस घर में भी अकसर उसी वक्त कपड़े सुखाए जाते थे. हालांकि उस घर में रहने वाली महिला से सरोज की अधिक जानपहचान नहीं थी, फिर भी कपड़े सुखातेसुखाते रोजाना होने वाले वार्त्तालाप से ही आपसी दुखसुख की बातें हो जाती थीं. बातों ही बातों में सरोज को पता चला कि उस महिला का नाम प्रिया है और उस के पति का नाम प्रकाश. प्रकाशजी एक बैंक औफिसर थे तथा घर के पास ही एक बैंक में कार्यरत थे. प्रकाश एवं प्रिया की एक छोटी बेटी थी- पाखी. छोटा सा खुशहाल परिवार था. छुट्टी के दिन वे अकसर घूमने जाते थे.

प्रकाशजी बहुत ही सुंदर एवं हंसमुख स्वभाव के थे, यह सरोज को भी नजर आता था पर प्रिया स्वयं भी सदा उन की तारीफों के पुल बांधा करती थी. ‘‘देखिए न भाभीजी, आज ये फिर मेरे लिए नई साड़ी ले आए. मैं ने तो मना किया था, पर माने ही नहीं. मेरा बहुत खयाल रखते हैं ये,’’ एक दिन प्रिया ने बड़े ही गर्व से बताया.

‘‘अच्छी बात है… सच में तुम्हें इतना हैंडसम, काबिल और प्यार करने वाला पति मिला है,’’ कह सरोज ने मन ही मन सोचा, काश दुनिया में सभी विवाहित जोड़े इसी प्रकार खुश रहते तो कितना अच्छा होता. एक आदर्श पतिपत्नी हैं दोनों. सरोज और प्रिया की बातचीत का मुद्दा अकसर उन का घरपरिवार ही हुआ करता था, जिस में भी प्रिया की 80 फीसदी बातें प्रकाशजी की प्रशंसा और प्यार से जुड़ी होती थीं.

एक दिन प्रिया ने सरोज से कहा, ‘‘भाभीजी, मेरे पापा की तबीयत बहुत खराब है. अब मुझे कुछ दिन उन के पास जाना होगा. मन तो नहीं मानता कि प्रकाश को अकेले छोड़ कर जाऊं, पर क्या करूं मजबूरी है. प्लीज, आप थोड़ा इन का ध्यान रखिएगा. खानेपीने की व्यवस्था तो बैंक में ही हो जाएगी… उस की मुझे कोई चिंता नहीं है, पर हमारा घर सारा दिन सूना रहेगा… आप आतेजाते एक नजर इधर भी डाल लिया करना.’’ ‘‘ठीक है, तुम बेफिक्र हो कर जाओ,’’ सरोज ने कहा और फिर प्रिया के जाने के बाद वह एक पड़ोसिन की जिम्मेदारी निभाते हुए आतेजाते एक नजर उन के घर पर भी डाल लेती थी.

इन दिनों प्रकाशजी को बैंक में वर्कलोड ज्यादा था, इसलिए वे काम में काफी व्यस्त रहते थे. सरोज से उन की मुलाकात नहीं हो पाती थी. प्रिया को गए 15 दिन से ऊपर हो गए थे, परंतु वह अभी तक लौटी नहीं थी. प्रकाशजी भी दिखाई नहीं देते थे. सरोज को चिंता होने लगी थी कि कहीं उस के पिताजी की तबीयत ज्यादा खराब तो नहीं हो गई… पूछे तो किस से… रात के 11 बजे थे. सरोज अपने घर के मेन गेट पर ताला लगाने के लिए बाहर आई तो

सामने वाले घर के आगे प्रकाशजी की गाड़ी रुकती दिखी. गाड़ी का दरवाजा खुला और उस में से एक महिला भी प्रकाशजी के साथ उतरी.

‘‘अरे लगता है प्रिया आ गई,’’ सरोज चहकी और आवाज देने ही वाली थी कि उस महिला की वेशभूषा और शारीरिक गठन देख कर रुक गई.

‘नहींनहीं यह प्रिया नहीं लगती. प्रिया कभी जींसटौप नहीं पहनती और न ही वह इतनी दुबलीपतली है. बालों का स्टाइल भी प्रिया से बिलकुल अलग है. यह प्रिया नहीं कोई और है,’ सोच कर सरोज दरवाजे की ओट में

छिप कर खड़ी हो गई. उस ने देखा कि प्रकाशजी ने उस महिला को घर के अंदर चलने का इशारा किया और फिर दोनों घर के अंदर चले गए.

हो सकता है यह प्रकाशजी के बैंक की सहकर्मचारी हो. किसी काम की वजह से आई हो, सरोज ने सोचा, ‘पर रात के 11 बजे ऐसा क्या काम है. कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं,’ सरोज को बड़ा अटपटा सा लग रहा था. इसी सोच में उसे सारी रात नींद नहीं आई. सिर भारी होने के कारण वह अगले दिन सुबह जल्दी उठ गई ताकि चाय बना कर पी सके. ‘बाहर से अखबार ले आती हूं. 6 बजे तक आ ही जाता है,’ सोच कर सरोज बाहर बरामदे में निकली तो प्रकाशजी को उसी महिला के साथ घर से बाहर निकल गाड़ी की ओर बढ़ते देखा.

अचानक प्रकाशजी की नजरें सरोज की नजरों से मिली और तत्क्षण ही झुक भी गईं मानो उन की कोई चोरी पकड़ी गई हो. वे चुपचाप गाड़ी में बैठ गए, साथ में वह महिला भी. शायद वे उसे छोड़ने जा रहे थे. सरोज का भ्रम सही था.

‘बाप रे, कितना बहुरुपिया है यह आदमी… दिखाने को तो अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता है और उस के पीछे से यह गुल खिला रहा है,’ सरोज मन ही मन बुदबुदाई.

सरोज मन ही मन सोचने लगी कि पूरी रात यह औरत प्रकाशजी के साथ घर में अकेली थी… सच इस दुनिया में किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता. अरे, इस से अच्छे तो वे पति हैं, जो भले ही अपनी बीवियों से रातदिन लड़ते रहते हों, पर दिल से प्रेम करते हैं. ये सब सोचतेसोचते सरोज अंदर आ गई. अखबार ला कर मेज पर पटक दिया. अब न तो उस की रुचि अखबार पढ़ने में रही थी और न ही चाय पीने की इच्छा रही थी. वह चादर ओढ़ कर पलंग पर लेट गई और फिर प्रिया के बारे में सोचने लगी…

कितनी मासूम है प्रिया. बेचारी जातेजाते भी अपने पति की चिंता कर रही थी कि इतने दिन अकेले कैसे रहेंगे… पर यहां तो अलग ही मंजर है. लगता है प्रकाशजी तो इसी दिन का इंतजार कर रहे थे. आने दो प्रिया को… यदि इन बाबूजी की पोल न खोली तो मेरा नाम भी सरोज नहीं. जब प्रिया इन्हें आड़े हाथों लेगी तब पता चलेगा बच्चू को. सारी मौजमस्ती भूल जाएंगे जनाब. ऐसे पतियों को तो सबक सिखाना ही चाहिए. पत्नियों की तो जरा सी भी गलती इन्हें बरदाश्त नहीं होती. स्वयं चाहे कुछ भी करें… अरे वाह, यह भी कोई

बात हुई मर्द जात की… यह तो सरासर अन्याय है पत्नियों के साथ. यह विश्वासघात है. उन्हें इस का फल मिलना ही चाहिए, सोचतेसोचते सरोज को फिर नींद आ गई.

रविवार का दिन था. सरोज ने बालों में शैंपू किया था तथा साथ ही कुछ कपड़े भी धो लिए थे. वह बाल खुले छोड़ कर छत पर गई ताकि धूप में बाल भी सूख जाएं तथा कपड़े भी. आदतन उस की नजर फिर सामने वाली छत पर पड़ी. आज वहां भी कपड़े सूख रहे थे, ‘यानी प्रिया आ गई है. मुझे उस से मिल कर आना चाहिए. जा कर उस के पिताजी का हालचाल भी पूछ लूं तथा उस के पीछे से उस के पति ने जो कारनामा किया है उस की भी जानकारी बातों ही बातों में उसे दे दूं ताकि वह आगे से सतर्क रहे,’ यह सोच कर सरोज प्रिया के घर चल दी.

सरोज को प्रिया बाहर ही मिल गई. नया सलवारकुरता पहन रखा था तथा हाथ में हैंडबैग था. लगता था कहीं जाने की तैयारी है. ‘‘प्रिया कब आई तुम?

कैसे हैं तुम्हारे पापा?’’ सरोज ने पूछा.

‘‘आज सुबह ही. पापा की तबीयत ठीक है, इसलिए चली आई. स्कूल भी तो मिस हो रहा था पाखी का. इधर इन के फोन पर फोन आ रहे थे कि जल्दी आओ… जल्दी आओ… तुम्हारे बिना मन नहीं लग रहा. सच भाभीजी, ये तो मेरे बिना रह ही नहीं सकते. इसीलिए तो चली आई वरना कुछ दिन और रह लेती.’’

तभी प्रकाशजी भी आ गए. पाखी उन की गोद में थी और प्रकाशजी उसे बारबार चूम रहे थे. पाखी भी पापापापा कह कर उन से लिपट रही थी. ‘‘हैलो पाखी, कैसी हो? जानती हो मैं ने तुम्हें बहुत मिस किया,’’ सरोज ने प्रकाशजी की ओर देखते हुए पाखी से कहा तो प्रकाशजी ने नजरें झुका लीं और फिर संकोचवश नजरें उठा कर सरोज की ओर देखा मानो अपना अपराध स्वीकार कर रहे हों.

‘‘अरे प्रिया, तुम्हारे प्रकाशजी तो तुम्हारे दीवाने हैं… तुम्हारे बिना ऐसे हो गए थे जैसे प्राण बिना तन. एक दिन तो मुझ से कहने लगे ‘‘भाभीजी, जब बैंक से घर आता हूं तो सूनासूना घर काटने को दौड़ता है. सच, पत्नी, बच्चों के बिना घर घर नहीं लगता.’’ प्रिया के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ गई. उस ने शरमा कर प्रकाशजी की ओर देखा.

सरोज फिर बोली, ‘‘अरे, मैं ने भी बेवक्त तुम लोगों को किन बातों में उलझा दिया… शायद तुम लोग कहीं जा रहे हो… बहुत दिन हो गए प्रकाशजी को अकेले बोर होते हुए.’’ ‘‘हां मूवी देखने जा रहे हैं… लौटते समय किसी रैस्टोरैंट में पिज्जा खाएंगे. प्रिया और पाखी को बहुत पसंद है,’’ प्रकाशजी ने गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए कहा. उन की आंखों में सरोज के प्रति कृतज्ञता झलक रही थी.

प्रिया और पाखी गाड़ी में बैठ गईं तथा प्रकाशजी ने गाड़ी स्टार्ट कर दी. आज तो सरोज प्रिया को बिना कुछ कहे घर लौट आई थी, पर अब उस ने यह निर्णय भी ले लिया था कि वह प्रिया को उस दिन के बारे में कभी कुछ नहीं बताएगी, क्योंकि उस ने महसूस किया कि यदि वह ऐसा करेगी तो यह प्रकाशजी के लिए तो अपमानजनक होगा ही, प्रिया को भी उस से आघात ही पहुंचेगा.

सरोज को लगा कि यदि प्रकाशजी की इस तनिक सी बेवफाई पर परदा ही पड़ा रहने दिया जाए तो उचित होगा. इस तरह कम से कम पतिपत्नी में प्यार का भ्रम बना रहने से एक खुशहाल परिवार तो आबाद रहेगा और शायद भविष्य में प्रकाशजी को भी अपनी भूल व नादानी समझ आ जाए और वे फिर कभी ऐसा न करें, क्योंकि कई बार अपराधी को दंड देने के बजाय माफ करना ज्यादा लाभकारी सिद्ध होता है.

सीलन: उमा बचपन की सहेली से क्यों अलग हो गई?

बचपन से ही वह हमेशा नकाब में रहती थी. स्कूल के किसी बच्चे ने कभी उस का चेहरा नहीं देखा था. हां, मछलियों सी उस की आंखें अकसर चमकती रहती थीं. कभी शरारत से भरी हुई, तो कभी एकदम शांत और मासूम. लेकिन कभीकभी उन आंखों में एक डर भी दिखाई देता था. हम दोनों साथसाथ पढ़ते थे. पढ़ाई में वह बेहद अव्वल थी. जोड़घटाव तो जैसे उस की जबां पर रहता था. मुझे अक्षर ज्ञान में मजा आता था. कहानियां, कविताएं पसंद आती थीं, जबकि गणित के समीकरण, विज्ञान, ये सब उस के पसंदीदा सब्जैक्ट थे.

वह थोड़ी संकोची, किसी नदी सी शांत और मैं एकदम बातूनी. दूर से ही मेरी आवाज उसे सुनाई दे जाती थी, बिलकुल किसी समुद्र की तरह. स्कूल में अकसर ही उसे ले कर कानाफूसी होती थी. हालांकि उस कानाफूसी का हिस्सा मैं कभी नहीं बनता था, लेकिन दोस्तों के मजाक का पात्र जरूर बन जाता था. मैं रिया के परिवार के बारे में कुछ नहीं जानता था. वैसे भी बचपन की दोस्ती घरपरिवार सब से परे होती है. बचपन से ही मुझे उस का नकाब बेहद पसंद था, तब तो मैं नकाब का मतलब भी नहीं जानता था. शक्लसूरत उस की अच्छी थी, फिर भी मुझे वह नकाब में ज्यादा अच्छी लगती थी.

बड़ी क्लास में पहुंचते ही हम दोनों के स्कूल अलग हो गए. उस का दाखिला शहर के एक गर्ल्स स्कूल में हो गया, जबकि मेरा दाखिला लड़कों के स्कूल में करवा दिया गया. अब हम धीरेधीरे अपनीअपनी दिलचस्पी के काम के साथ ही पढ़ाई में भी बिजी हो गए थे, लेकिन हमारी दोस्ती बरकरार रही. पढ़ाईलिखाई से वक्त निकाल कर हम अब भी मिलते थे. वह जब तक मेरे साथ रहती, खुश रहती, खिली रहती. लेकिन उस की आंखों में हर वक्त एक डर दिखता था. मुझे कभी उस डर की वजह समझ नहीं आई. अकसर मुझे उस के परिवार के बारे में जानने की इच्छा होती. मैं उस से पूछता भी, लेकिन वह हंस कर टाल जाती.

हालांकि अब मुझे समझ आने लगा था कि नकाब की वजह कोई धर्म नहीं था, फिर ऐसा क्या था, जो उसे अपना चेहरा छिपाने को मजबूर करता था? मैं अकसर ऐसे सवालों में उलझ जाता. कालेज में भी मेरे अलावा उस की सिर्फ एक ही सहेली थी उमा, जो बचपन से उस के साथ थी. मेरे मन में उसे और उस के परिवार को करीब से जानने के कीड़े ने कुलबुलाना शुरू कर दिया था. शायद दिल के किसी कोने में प्यार के बीज ने भी जन्म ले लिया था. मैं हर मुलाकात में उस के परिवार के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन उस की खिलखिलाहट में सब भूल जाता था. अकसर मैं अपनी कहानियों और कविताओं की काल्पनिक दुनिया उस के साथ ही बनाता और सजाता गया.

बड़े होने के साथ ही हम दोनों की मुलाकात में भी कमी आने लगी. वहीं मेरी दोस्ती का दायरा भी बढ़ा. कई नए दोस्त जिंदगी में आए. उन्हें मेरी और रिया की दोस्ती की खबर हुई. एक दिन उन्होंने मुझे उस से दूर रहने की नसीहत दे डाली. मैं ने उन्हें बहुत फटकारा. लेकिन उन के लांछन ने मुझे सकते में डाल दिया था. वे चिल्ला रहे थे, ‘जिस के लिए तू हम से लड़ रहा है. देखना, एक दिन वह तुझे ही दुत्कार कर चली जाएगी. गंदी नाली का कीड़ा है वह.’ मैं कसमसाया सा उन्हें अपने तरीके से लताड़ रहा था. पहली बार उस के लिए दोस्तों से लड़ाई की थी. मैं बचपन से ही अकेला रहा था. मातापिता के पास समय नहीं होता था, जो मेरे साथ बिता सकें. उमा और रिया के अलावा किसी से कोई दोस्ती नहीं. पहली बार किसी से दोस्ती हुई और

वह भी टूट गई. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह एक सर्द दोपहर थी. सूरज की गरमाहट कम पड़ रही थी. कई महीनों बाद हमारी मुलाकात हुई थी. उस दोपहर रिया के घर जाने की जिद मेरे सिर पर सवार थी. कहीं न कहीं दोस्तों की बातें दिल में चुभी हुई थीं.

मैं ने उस से कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे मातापिता से मिलना है.’’

‘‘पिता का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरी बहुत सी मांएं हैं. उन से मिलना है, तो चलो.’’ मैं ने हैरानी से उस के चेहरे की ओर देखा. वह मुसकराते हुए स्कूटी की ओर बढ़ी. मैं भी उस के साथ बढ़ा. उस ने फिर से अपने खूबसूरत चेहरे को बुरके से ढक लिया. शाम ढलने लगी थी. अंधेरा फैल रहा था. मैं स्कूटी पर उस के पीछे बैठ गया. मेन सड़क से होती हुई स्कूटी आगे बढ़ने लगी. उस रोज मेरे दिल की रफ्तार स्कूटी से भी ज्यादा तेज थी. अब स्कूटी बदनाम बस्ती की गलियों में हिचकोले खा रही थी.

मैं ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘रास्ता भूल गई हो क्या?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल सही रास्ते पर हूं.’’ उस ने वहीं एक घर के किनारे स्कूटी खड़ी कर दी. मेरे लिए वह एक बड़ा झटका था. रिया मेरा हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए एक घर के अंदर ले गई. अब मैं सीढि़यां चढ़ रहा था. हर मंजिल पर औरतें भरी पड़ी थीं, वे भी भद्दे से मेकअप और कपड़ों में सजीधजी. अब तक फिल्मों में जैसा देखता आया था, उस से एकदम अलग… बिना किसी चकाचौंध के… हर तरफ अंधेरा, सीलन और बेहद संकरी सीढि़यां. हर मंजिल से अजीब सी बदबू आ रही थी. जाने कितनी मंजिल पार कर हम लोग सब से ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचे. वहां भी कमोबेश वही हालत थी. हर तरफ सीलन और बदबू. बाहर से देखने पर एकदम छोटा सा कमरा, जहां लोगों के होने का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था. ज्यों ही मैं कमरे के अंदर पहुंचा, वहां ढेर सारी औरतें थीं. ऐसा लग रहा था, मानो वे सब एक ही परिवार की हों.

मुझे रिया के साथ देख कर उन में से कुछ की त्योरियां चढ़ गईं, लेकिन साथ वालियों को शायद रिया ने मेरे बारे में बता रखा था, उन्होंने उन के कान में कुछ कहा और फिर सब सामान्य हो गईं.

एकसाथ हंसनाबोलना, रहना… उन्हें देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि मैं किसी ऐसी जगह पर आ गया हूं, जो अच्छे घर के लोगों के लिए बैन है. वहां छोटेछोटे बच्चे भी थे. वे अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं, उन से तोतली बोली में बातें कर रही थीं. घर का माहौल देख कर घबराहट और डर थोड़ा कम हुआ और मैं सहज हो गया. मेरे अंदर का लेखक जागा. उन्हें और जानने की जिज्ञासा से धीरेधीरे मैं ने उन से बातें करना शुरू कीं.

‘‘यहां कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस आ गई… मजबूरी थी.’’

‘‘क्या मजबूरी थी?’’

‘‘घर की मजबूरी थी. अपना, अपने बच्चों का, परिवार का पेट पालना था.’’

‘‘क्या घर पर सभी जानते हैं?’’

‘‘नहीं, घर पर तो कोई नहीं जानता. सब यह जानते हैं कि मैं दिल्ली में रहती हूं, नौकरी करती हूं. कहां रहती हूं, क्या करती हूं, ये कोई भी नहीं जानता.’’

मैं ने एक और औरत को बुलाया, जिस की उम्र 45 साल के आसपास रही होगी.

मेरा पहला सवाल वही था, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘मजबूरी.’’

‘‘कैसी?’’

‘‘घर में ससुर नहीं, पति नहीं, सिर्फ बच्चे और सास. तो रोजीरोटी के लिए किसी न किसी को तो घर से बाहर निकलना ही होता.’’

‘‘अब?’’

‘‘अब तो मैं बहुत बीमार रहती हूं. बच्चेदानी खराब हो गई है. सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए गई. डाक्टर का कहना है कि खून चाहिए, वह भी परिवार के किसी सदस्य का. अब कहां से लाएं खून?’’

‘‘क्या परिवार में वापस जाने का मन नहीं करता?’’

‘‘परिवार वाले अब मुझे अपनाएंगे नहीं. वैसे भी जब जिंदगीभर यहां कमायाखाया, तो अब क्यों जाएं वापस?’’

यह सुन कर मैं चुप हो गया… अकसर बाहर से चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं. उन लोगों से बातें कर के एहसास हो रहा था कि उन का यहां होना उन की कितनी बड़ी मजबूरी है. रिया दूर से ये सब देख रही थी. मेरे चेहरे के हर भावों से वह वाकिफ थी. उस के चेहरे पर मुसकान तैर रही थी. मैं ने एक और औरत को बुलाया, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर थी. मैं ने कहा, ‘‘आप को यहां कोई परेशानी तो नहीं है?’’

उस ने मेरी ओर देखा और फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘जब तक जवान थी, यहां भीड़ हुआ करती थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी. लेकिन अब कोई पूछने वाला नहीं है. अब तो ऐसा होता है कि नीचे से ही दलाल ग्राहकों को भड़का कर, डराधमका कर दूसरी जगह ले जाते हैं. बस ऐसे ही गुजरबसर चल रही है. ‘‘आएदिन यहां किसी न किसी की हत्या हो जाती है या फिर किसी औरत के चेहरे पर ब्लेड मार दिया जाता है. ‘‘अब लगता है कि काश, हमारा भी घर होता. अपना परिवार होता. कम से कम जिंदगी के आखिरी दिन सुकून से तो गुजर पाते,’’ छलछलाई आंखों से चंद बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं और वह न जाने किस सोच में खो गई.मुझे अचानक वह ककनू पक्षी सी लगने लगी. ऐसा लगने लगा कि मैं ककनू पक्षियों की दुनिया में आ गया हूं. मुझे घबराहट सी होने लगी. धीरेधीरे उस के हाथों की जगह बड़ेबड़े पंख उग आए. ऐसा लगा, मानो इन पंखों से थोड़ी ही देर में आग की लपटें निकलेंगी और वह उसी में जल कर राख हो जाएंगी. क्या मैं ऐसी जगह से आने वाली लड़की को अपना हमसफर बना सकता हूं? दिमाग ऐसे ही सवालों के जाल में फंस गया था.

अचानक ही मुझे बुरके में से झांकतीचमकती सी रिया की उदास डरी हुई आंखें दिखीं. मुझे अपने मातापिता  की भागदौड़ भरी जिंदगी दिख रही थी, जिन के पास मुझ से बात करने का वक्त नहीं था और साथ ही, वे दोस्त भी दिखे, जो अब भी कह रहे थे, ‘निकल जा इस दलदल से, वह तुम्हारी कभी नहीं होगी.’ मेरा वहां दम घुटने लगा. मैं वहां से बाहर भागा. बाहर आते ही रिया की अलमस्त सुबह सी चमकती हंसी ने हर सोच पर ब्रेक लगा दिया. मैं दूर से ही उसे खिलखिलाते देख रहा था. उफ, इतने दमघोंटू माहौल में भी कोई खुश रह सकता है भला क्या?

ठीक हो गए समीकरण

‘‘प्रैक्टिकल होने का क्या फायदा? लौजिक बेकार की बात है. प्रिंसिपल जीवन में क्या दे पाते हैं? सिद्धांत केवल खोखले लोगों की डिक्शनरी के शब्द होते हैं, जो हमेशा डरडर कर जीवन जीते हैं. सचाई, ईमानदारी सब किताबी बातें हैं. आखिर इन का पालन कर के तुम ने कौन से झंडे गाड़ लिए,’’ सुकांत लगातार बोले जा रहा था और उसे लगा जैसे वह किसी कठघरे में खड़ी है. उस के जीवन यहां तक कि उस के वजूद की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. सारे समीकरण गलत व बेमानी साबित करने की कोशिश की जा रही है.

‘‘जो तुम कमिटमैंट की बात करती हो वह किस चिडि़या का नाम है… आज के जमाने में कमिटमैंट मात्र एक खोखले शब्द से ज्यादा और कुछ नहीं है. कौन टिकता है अपनी बात पर? अपने हित की न सोचो तो अपने सगे भी धोखा देते हैं और तुम हो कि सारी जिंदगी यही राग अलापती रहीं कि जो कहो, उसे पूरा करो.’’

‘‘तुम कहना चाहते हो कि झूठ और बेईमान ही केवल सफल होते हैं,’’ सुकांत की

इतनी कड़वी बातें सुनने के बावजूद वह उस की संकीर्ण मानसिकता के आगे झुकने को तैयार नहीं थी. आखिर कैसे वह उस की जिंदगी के सारे फलसफे को झुठला सकता है? जिस आदमी को उस ने अपनी जिंदगी के 25 साल दिए हैं, वही आज उस का मजाक उड़ा रहा है, उस की मेहनत, उस के काम और कबिलीयत सब को इस तरह से जोड़घटा रहा है मानो इन सब चीजों का आकलन कैलकुलेटर पर किया जाता हो. हालांकि जिस तरह से सुकांत की कनविंस व मैनीपुलेट करने की क्षमता है, उस के सामने कुछ पल के लिए तो उस ने भी स्वयं को एक फेल्योर के दर्जे में ला खड़ा किया था.

‘‘अगर तुम ने यह ईमानदारी और मेहनत का जामा पहनने के बजाय चापलूसी और डिप्लोमैसी से काम लिया होता तो आज अपने कैरियर की बुलंदियों को छू रही होती. सोचो तो उम्र के इस पड़ाव पर तुम कहां हो और तुम से जूनियर कहां निकल गए हैं. अचार डालोगी अपनी काबिलीयत का जब कोई पूछने वाला ही नहीं होगा,’’ सुकांत के चेहरे पर एक बीभत्सता छा गई थी. लग रहा था कि आज वह उस का अपमान करने को पूरी तरह से तैयार था. अपनी हीनता को छिपाने का इस से अच्छा तरीका और हो भी क्या सकता था उस के लिए कि वह उस के सम्मान के चीथड़े कर दे.

‘‘फिर तो तुम्हारे हिसाब से मैं ने जो ईमानदारी और पूर्ण समर्पण के साथ तुम्हारे साथ अपना रिश्ता निभाया, वह भी बेमानी है. मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था,’’ उस ने थोड़ी तलखी से कहा.

‘‘मैं रिश्ते की बात नहीं कर रहा. दोनों चीजों को साथ न जोड़ो. मैं तुम्हारे कैरियर के बारे में बात कर रहा हूं,’’ सुकांत जैसे हर तरह से मोरचा संभाले था.

‘‘क्यों, यह बात तो हर चीज पर लागू होनी चाहिए. तुम अपने हिसाब से जब चाहो मानदंड तय नहीं कर सकते… और जहां तक मेरी बात है तो मैं अपने से संतुष्ट हूं खासकर अपने कैरियर से. तुम ने कभी न तो मुझे मान दिया है और न ही दे सकते हो, क्योंकि तुम्हारी मानसिकता में ऐसा करना है ही नहीं. किसे बरदाश्त कर सकते हो तुम,’’ न जाने कब का दबा आक्रोश मानो उस समय फूट पड़ा था. वह खुद हैरान थी कि आखिर उस में इतनी हिम्मत आ कहां से गई.

‘‘ज्यादा बकवास मत करो नीला, कहीं मेरा धैर्य न चुक जाए,’’ बौखला गया था सुकांत. इतना सीधा प्रहार इस से पहले नीला ने उस पर कभी नहीं किया था.

‘‘तुम्हारा धैर्य तो हमेशा बुलबुलों की तरह धधकता रहा है… मारोगे? गालियां दोगे? इस के सिवा तुम कर भी क्या सकते हो? अच्छा यही होगा हम इस बारे में और बात न करें,’’ नीला बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी. फायदा भी कुछ नहीं था. सुकांत जब पिछले 24 सालों में नहीं बदला तो अब क्या बदलेगा. जो अपनी पत्नी की इज्जत करना न जानता हो, उस से बहस करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला था.

नीला को बस इसी बात का अफसोस था कि वह अपने बेटे को सुकांत के इन्फलुएंस से बचा नहीं पाई थी. पता नहीं क्यों नीरव को हमेशा लगता था कि पापा ही ठीक हैं. संस्कारों की जो पोटली उस ने बचपन में नीरव को सौंपी थी वह उस ने बड़े होने के साथ ही कहीं दुछती पर पटक दी थी. उस के बाद उसे कभी खोलने की कोशिश नहीं की. वह बहुत समझाती कि नीरव खुद अपनी आंखों से दुनिया देखो, पापा के चश्मे से नहीं. पर वह भी उस की बेइज्जती कर देता. उस की बात अनसुनी कर पापा के खेमे में शामिल हो जाता. वह मनमसोस कर रह जाती. स्कूलकालेज और उस के बाद अब नौकरी में भी वह पापा के बताए रास्ते पर ही चल रहा है.

अपने बेटे को गलत रास्ते पर जाते देखने के बावजूद वह कुछ नहीं कर पा रही थी.

उस पीड़ा को वह दिनरात सह रही थी और नीरव की जिंदगी को ले कर ही वह उस समय सुकांत से लड़ पड़ी थी. विडंबना तो यह थी कि नीरव की बात करने के बजाय सुकांत उस की जिंदगी के पन्नों को ही उलटनेपलटने लगा था. यह सच था कि वह डिप्लोमैसी से सदा दूर रही और सिर्फ काम पर ही उस ने ध्यान दिया और इस वजह से वह बहुत तेजी से उन लोगों की तुलना में कामयाबी की सीढि़यां नहीं चढ़ पाई जो खुशामद और चालाकी की फास्ट स्पीड ट्रेन में बैठ आगे निकल गए थे. लेकिन उसे अफसोस नहीं था, क्योंकि उस की ईमानदारी ने उसे सम्मान दिलाया था.

कई बार सुकांत के रवैए को देख कर उस का भी विश्वास डगमगा जाता था पर वह संभल जाती थी या शायद उस की प्रवृत्ति में ही नहीं था किसी को धोखा देना.

‘‘और जो तुम नीरव को ले कर मुझे हमेशा ताना मारती रहती हो न, देखना एक दिन वह बहुत तरक्की करेगा. सही राह पर चल रहा है वह. बिलकुल वैसे ही जैसे आज के जमाने की जरूरत है. लोगों को धक्का न दो तो वे आप को धकेल कर आगे निकल जाते हैं.’’

नीला का मन कर रहा था कि वह जोरजोर से रोए और उस से कहे कि वह नीरव को मुहरा न बनाए. नीला को परास्त करने का मुहरा. सुकांत उसे देख रहा था मानो उस का उपहास उड़ा रहा हो.

कितनी देर हो गई है, नीरव क्यों नहीं आया अब तक. परेशान सी नीला बरामदे के चक्कर लगाने लगी. रात के 10 बज रहे थे. मोबाइल भी कनैक्ट नहीं हो रहा था उस का. मन में अनगिनत बुरे विचार चक्कर काटने लगे. कहीं कुछ हो तो नहीं गया… औफिस में भी कोई फोन नहीं उठा रहा था. सुकांत को तो शराब पीने के बाद होश ही नहीं रहता था. वह सो चुका था.

अचानक नीला का मोबाइल बजा. कोई अंजान नंबर था. फोन रिसीव करते हुए उस के हाथ थरथराए.

‘‘नीरव के घर से बोल रहे हैं?’’

नीला के मन की बुरी आशंकाएं फिर से सिर उठाने लगीं, ‘‘क्या हुआ उसे, वह ठीक तो है न? आप कौन बोल रहे हैं?’’ उस का स्वर कांप रहा था.

‘‘वैसे तो वे ठीक हैं, पर फिलहाल जेल में हैं, उन्हें अरैस्ट किया गया है. अपनी कंपनी में कोई घोटाला किया है उन्होंने. कंपनी के मालिक के कहने पर उन्हें हिरासत में ले लिया गया है.’’

तभी लाइन पर नीरव के दोस्त समर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आंटी मैं हूं नीरव के साथ. बस आप अंकल को भेज दीजिए. उस की जमानत हो जाएगी.’’

पूरी रात जेल में बीती उन तीनों की. नीला को नीरव को सलाखों के पीछे खड़ा देख लग रहा था कि वह सचमुच एक फेल्योर है. हैरानी की बात थी कि सुकांत एकदम चुप थे. न नीरव से, न ही नीला से कुछ कहा, बस उस की जमानत कराने की कोशिश में लगे रहे.

नीला को लगा नीरव को कुछ भलाबुरा कहना ठीक नहीं होगा. उस के चेहरे पर पछतावा और शर्मिंदगी साफ झलक रही थी. शायद मां ने उसे जो ईमानदारी का पाठ बचपन में सिखाया था, उसे ही वह आज मन ही मन दोहरा रहा था.

शाम हो गई थी उन्हें लौटतेलौटते. अपने को घसीटते हुए, अपनी सोच के दायरों में चक्कर काटते हुए तीनों ही इतने थक चुके थे कि उन के शब्द भी मौन हो गए थे या शायद कभीकभी चुप्पी ही सब से बड़ा मरहम बन जाती है.

‘‘मुझे माफ कर दो मां,’’ नीरव उस की गोद में सिर रख कर सुबक उठा.

‘‘तू क्यों माफी मांग रहा है? गलती तो मेरी है. मैं ने ही तेरे मन में बेईमानी के बीज बोए, तुझे तरक्की करने के गलत रास्ते पर डाला. आज जो भी कुछ हुआ उस का जिम्मेदार मैं ही हूं और नीला मैं तुम्हारा भी गुनहगार हूं. सारी उम्र तुम्हें तिरस्कृत करता रहा, तुम्हारा उपहास उड़ाता रहा. सारे समीकरण गलत साबित कर दिए थे मैं ने. प्रिंसिपल ही जीवन में सब कुछ होते हैं, सिद्धांत खोखले लोगों की डिक्शनरी के शब्द नहीं वरन जीवन जीने का तरीका है. सचाई, ईमानदारी किताबी बातें नहीं हैं,’’ सुकांत लगातार बोले जा रहा था और नीला की आंखों से आंसू बहते जा रहे थे.

नीरव को जब उस ने सीने से लगाया तो लगा सच में आज उस की ममता जीत गई है. उस का खोया बेटा उसे मिल गया है. सारे समीकरण ठीक हो गए थे उस की जिंदगी के.

चल रही है मिसाइल

मोबाइल फोन लगातार बज रहा था. गहरी नींद सोई मीरा आवाज सुन घबराते हुए उठी. इतनी सुबह सुबह कौन हो सकता है? कहीं कोई बुरी खबर तो नहीं? भय की एक लहर उस के अंदर दौड़ गई. उस ने सामने लगी घड़ी पर नजर डाली. 6 बजे थे. अभी तो बाहर रोशनी भी नहीं हुई थी. वैसे भी सर्दियों की सुबह में 6 बजे अंधेरा ही होता है. इस से पहले कि वह फोन उठाती, फोन कट गया.

झुंझलाते हुए उस ने टेबल लैंप औन किया. मिस्ड कौल चैक करने पर पाया सासूमां का फोन था. उस के मन में अनेक तरह की शंकाएं उठने लगीं. जरूर कोई गंभीर बात है तभी तो इतनी सुबहसुबह फोन किया है मां ने सोच उस ने पराग को उठाना चाहा. तभी फिर से मोबाइल बजा.

‘‘हैलो मां, नमस्ते. आप कैसी हैं? सब ठीक है न?’’ मीरा के स्वर में घबराहट थी. देर रात तक जगे रहने के बावजूद उस की नींद पूरी तरह खुल गई थी. ‘‘सदा खुश रहो,’’ मीरा के नमस्ते के जवाब में अनुराधा ने उसे आशीर्वाद दिया, ‘‘यहां सब ठीक है. मैं ने तो यह जानने के लिए फोन किया था कि तुम उठीं कि नहीं. आज तुम दोनों की ही छुट्टियां खत्म हो रही हैं. औफिस जाने की तैयारी करनी होगी. अच्छा पराग को भी समय से उठा देना. मेड को टाइम से आने के लिए कह दिया था न? नई नई गृहस्थी है. मुझे पूरी उम्मीद है कि धीरेधीरे तुम सब संभाल लोगी. अब तक चाय तो पी ही ली होगी. पराग से भी बात करा दे. उसे भी समझा दूं कि वह काम में तेरा हाथ बंटाए. अब वह अकेला नहीं है. तेरी जिम्मेदारी भी उस पर है. दोनों मिल कर ही तो गृहस्थी जमाओगे. वैसे बेटा, आदमियों को कहां इतनी समझ होती है. घर तो औरत को ही संभालना होता है. तुम्हारे ससुर तो खुद एक गिलास पानी भी नहीं ले कर पीते. मैं ही करती हूं उन के सब काम. हालांकि पराग तो नए जमाने का लड़का है और इतने समय से अकेले रहतेरहते घर के कामकाज भी सीख गया है. फिर भी. घर तो तुम्हें ही संभालना होगा,’’

अनुराधा लगातार हिदायतें दे रही थीं. मीरा को उन की बातें और लगातार दी जाने वाली हिदायतें सुन बड़ी हैरानी हुई पर वह उन की बातों की अवहेलना नहीं कर सकती थी अत: बोली, ‘‘आप चिंता न करें मां, मैं सब संभाल लूंगी. पराग अभी सो रहे हैं, उठते हैं तो बात कराती हूं,’’ मीरा ने बहुत ही ठहरे हुए स्वर में कहा. कहीं सासूमां को बुरा न लग जाए, इस बात का भी उसे ध्यान रखना था. पराग की नींद डिस्टर्ब न हो, इसलिए वह बाहर ड्राइंगरूम में आ गई थी. फोन कट गया तो मीरा ने चैन की सांस ली.

उन की शादी हुए अभी 1 महीना ही हुआ था. दोनों ही दिल्ली में नौकरी करते थे और यहीं रहते थे. इसलिए शादी के बाद वे यहीं रहेंगे, यह तो पहले से ही तय था. पराग के मम्मीपापा और बाकी रिश्तेदार लखनऊ में रहते थे. पराग की बहन सुधा की शादी हो चुकी थी और वह देहरादून में रहती थी. पराग और मीरा की वैसे तो यह लव मैरिज नहीं थी, पर उन के कुछ दोस्त कौमन थे जिन के कारण उन का परिचय हुआ था. संयोग की बात है जब मीरा के पापा उस की जौब लग जाने के बाद उस के लिए लड़के की तलाश कर रहे थे तो मम्मी की एक सहेली ने जो लखनऊ में रहती थीं और पराग के परिवार से परिचित थीं, पराग का रिश्ता सुझाया था. दोनों परिवारों को एकदूसरे का परिवार भी पसंद आया और पराग व मीरा भी. वे दोनों तो इस तरह खुद को आमनेसामने खड़े देख हंसे बिना न रह सके थे. उन्हें क्या पता था कि एक दिन वे दोनों पतिपत्नी बन जाएंगे. हालांकि उन के दोस्तों ने तो यही कहा कि ये अवश्य ही प्यार करते होंगे और इस तरह चक्कर चला कर अपने परिवार वालों करे मना लिया होगा. शादी बेशक संयोग से हुई थी, पर इस समय तो दोनों ही एकदूसरे का साथ पा कर बेहद खुश थे.

कुछ दिन लखनऊ अपने ससुराल व कुछ दिन हनीमून में बिता कर वे दिल्ली वापस आ गए थे. उन्हें काम पर वापस जाने से पहले घर भी सैट करना था. पर जब से उन की शादी हुई थी, मीरा की सास दूर बैठ कर भी हर बात में दखलंदाजी करती थीं. जैसे कि टाइम से सोते हो कि नहीं, खाना बनाती हो या होटल में खाते हो, घर के लिए कैसा और क्याक्या सामान लेना चाहिए, पराग को क्या पसंद है क्या नहीं… कई बार मीरा को लगता कि साथ न रहते हुए भी उस की सास उन के बीच हमेशा रहती है.

सुबहशाम न जाने कितनी बार फोन करतीं. कुछ दिन तो उन का इस तरह चिंता दिखाना उसे अच्छा लगा था, पर फिर जब वे हर बात खोदखोद कर पूछने लगीं तो उसे बहुत अटपटा लगा. ठीक है कि वे अपने बेटे और बहू की खुशी चाहती हैं, उन्हें कोई तकलीफ न हो, इसलिए हिदायतें देती रहती हैं, पर वह भी तो अपनी तरह से कुछ करने की आजादी चाहती है, वह भी निर्णय लेने में सक्षम है. उन का बातबात पर टोकना उसे खलने लगा था. लेकिन वह यह सोच कर अपने मन को समझा लेती कि अभी उन की शादी हुए दिन ही कितने हुए हैं. शुरूशुरू की बात है, फिर सासूमां खुद ही ज्यादा टोकना छोड़ देंगी.

‘‘जल्दी कैसे उठ गईं?’’ पराग ने सोफे पर बैठते हुए उबासी लेते हुए पूछा. उसे अभी भी नींद आ रही थी. ‘‘नहीं, मां का फोन आ गया था. तुम बात कर लेना,’’ और फिर चाय बनाने के लिए किचन में चली गई. ‘‘इतनी सुबह? मां को भी चैन नहीं,’’ किचन में उस के पीछे आ खड़े हुए पराग ने मीरा की झूलती लटों से खेलते हुए कहा. ‘‘हां, दूर बैठी भी मिसाइल छोड़ती रहती हैं. बेटे की चिंता में परेशान रहती हैं. क्या पता मैं तुम्हारा ठीक से खयाल रख पा रही हूं या नहीं,’’ मीरा के स्वर में थोड़ा व्यंग्य का पुट था.

‘‘मैं अपना खयाल खुद रख सकता हूं मां यह बात अच्छी तरह जानती हैं. पिछले 2 सालों से अकेला रह रहा हूं. सब मैनेज कर ही रहा था. मैडम, हम तो खाना भी बनाना जानते हैं, यह बात तो आप को भी पता है. तो बताइए नाश्ते और लंच के लिए क्या बनाया जाए? पराग का यों हर चीज को लाइटली लेना उसे बहुत रिलैक्स फील कराता. किसी भी बात को प्रौब्लम बनाने के बजाय तुरंत हल करने में यकीन रखता है. दोनों मिल कर किचन का काम खत्म कर तैयार हो औफिस के लिए निकल गए.

मीरा का औफिस पहले पड़ता था, इसलिए पराग उसे छोड़ कर गया. वह इस बात से खुश थी कि औफिस आनेजाने में उसे अब कोई परेशानी नहीं होगी. पहले वह चाटर्ड बस पर निर्भर थी, पर अब आराम से पराग के साथ कार में जा सकती थी. दिल्ली में ट्रांसपोर्ट और ट्रैफिक की समस्या इतनी भीषण है कि इंसान की आधी जिंदगी तो इसी आपाधापी में निकल जाती है. इन दोनों की जिंदगी मजे से गुजर रही थी. औफिस हो या फ्रैंड सर्कल, सब मीरा से यही कहते, ‘‘यार तुम कितनी खुशहाल हो. सास दूर रहती हैं, ननद की शादी हो चुकी है. तुम ही घर की बौस हो वरना हम तो सास-ननद की टोकाटाकी में ही उलझे रहते हैं.’’

‘‘ट्रैजेडी तो यह है कि आजकल की सासें हैं तो बहुत मौर्डन, एजुकेटेड भी हैं, नौकरी भी करती हैं, पर जब बात बहू की आती है तो अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उस के हर काम में कमियां निकालने में पीछे नहीं रहती हैं. मेरी ही सांस को देख लो. टीचर हैं, पर बहू से कैसे व्यवहार करना चाहिए, इस की ट्रेनिंग कभी नहीं ली है,’’ बहुत ही नाटकीय अंदाज में बेला ने एक सांस लेते हुए जब कहा तो सब हंस पड़े. औफिस में बेला का बिंदासपन और हाजिरजवाबी सभी को पसंद थी. हमेशा खिलखिलाती रहती थी, लेकिन केवल औफिस में या घर से बाहर निकलने पर.

‘‘सास के सामने ज्यादा खुश रहो तो उन्हें एक तरह की जलन होती है, मेरा तो ऐक्सपीरियंस यही कहता है. इसीलिए यार घर पहुंचते ही मैं दुखी सा चेहरा बना लेती हूं. अब तो मेरा पति भी इस ट्रिक को समझ गया है, इसलिए इस सिचुएशन को हम ऐंजौय करते है,’’ बेला की बात सुन सब दांतों तले उंगली दबा लेते. उस की फिलौसफी से सब सहमत थे, पर हरकोई ऐसा करने की हिम्मत नहीं रखता, इसलिए सह रही थीं सास की दखलंदाजी.

‘‘अरे यार, मैं कोई खुशहाल नहीं हूं. बेशक मेरी सास यहां नहीं रहतीं, लेकिन वे तो दूर बैठे भी मिसाइलें चलाती रहती हैं. दिन में कईकई बार फोन कर डिटेल में सबकुछ पूछती हैं, राय देती हैं और हिदायतों का पुलिंदा भी फोन पर ही पकड़ा देती हैं’’ मीरा ने मेज पर रखी फाइलों को समेटते हुए कहा. उस के चेहरे पर शिकन साफ दिखाई दे रही थी, ‘‘औफिस में कई बार जब मैं फोन नहीं उठा पाती तो व्हाट्सऐप मैसेज की झड़ी लग जाती है. म्यूट कर के रखा है उन का नंबर वरना सारा दिन मैसेजों की आवाज ही सुननी पड़ती.’’ मीरा की बात सुन सब चौंक गए. ‘‘सच?’’ रमा ने माथे पर हाथ मारते हुए पूछा. ‘‘क्या वे यह भी पूछती हैं कि तुम लव कैसे करते हो आई मीन सैक्स..’’ बेला ने मीरा को कुहनी मारते हुए कहा. ‘‘यार कभी तो सीरियस हो जाया करो,’’ मीरा ने उस के गालों पर चिकोटी काटी,

‘‘जब भी वे वीडियो कौल करती हैं तो मुझे नाइटी बदल सूट या साड़ी पहननी पड़ती है. कई बार पराग उन्हें टालना भी चाहते हैं तो कहती हैं बहू से बात किए बगैर, उस की शक्ल देखे बगैर चैन नहीं पड़ता, मीरा ने सास की नकल उतारी. औफिस से निकलते हुए मीरा सोच रही थी कि शुक्र है पराग इस बात को समझ रहे हैं कि मां जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप करती हैं. अक्सर कहते भी हैं, ‘‘मां अगर हमारे साथ रह रही होतीं तो न जाने क्या होता. मैं तो तुम दोनों के बीच सैंडविच ही बन जाता. दूर बैठ कर भी पलपल की खबर रखना चाहती हैं तो मैं तो उस स्थिति के बारे में सोच कर ही सहम जाता हूं.’’ ‘‘तुम्हें ले कर शायद मां बहुत ज्यादा पजैसिव हैं.’’ मीरा की बात सुन पराग खिलखिला कर हंस पड़ा. ‘‘इकलौता होने का परिणाम है. पजैसिव तो वे सुधा को ले कर भी हैं.’’

‘‘फिर तो उस की लाइफ में भी दखल देती होंगी…’’ मीरा की बात सुन पराग फिर हंसा, ‘‘वहां मुमकिन नहीं है, क्योंकि सुधा की सास बैलिस्टिक मिसाइल हैं, सीधे टारगेट पर गिरती हैं, मां की साधारण मिसाइलें वहां नहीं चल पातीं. उस की सास के सामने तो मां के होंठ ही सिल जाते हैं.’’ ‘‘फिर तो सुधा की सास से ट्रेनिंग लेनी पड़ेगी, ताकि तुम्हारी मां के वारों से बचा जा सके,’’ मीरा ने भी हंसतेहंसते जवाब दिया. ‘‘अरे चलने दो न मिसाइलें, अगर उन्हें खुशी मिलती है तो… कब तक चलाएंगी… शुरुआती दिनों की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा,’’ पराग ने समझाया. ‘‘तो फिर चलने दो,’’ मीरा ने पराग की बांहों में झूलते हुए कहा. लौटते वक्त अक्सर पराग उसे तब नहीं ले पाता था, जब वह फील्ड में होता था. उस दिन भी ऐसा ही हुआ. इसलिए उस दिन उसे घर पहुंचते-पहुंचते 7 बज गए. पराग भी तभी लौटा. कपड़े चेंज कर मीरा कोल्ड कौफी बनाने जैसे ही किचन में घुसी कि तभी उस का मोबाइल बज उठा.

जब सासूमां को पता चला कि वह अभी आई है तो बोली, ‘‘इतनी देर घर से बाहर रहोगी तो घर की व्यवस्था बिगड़ जाएगी. टाइम से आ जाया करो. अब खाना घर पर बनाओगी या बाहर से और्डर करोगी… आजकल तो यह फैशन ही बन गया है कि रेस्तरां से खाना मंगवा लो.’’ मीरा की सास उसे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दे रही थीं. उस ने स्पीकर औन कर दिया कि पराग भी बात कर सके, पर वह तो कौफी पीते-पीते उन की बातों का जैसे मजा ले रहा था.

‘‘मैं इतनी दूर बैठी हूं वरना आ जाती. तुम्हें थोड़ी मदद हो जाती. फिर तुम्हारे ससुर भी तो ज्यादा ट्रैवल नहीं कर सकते. उन्हें छोड़ कर मैं कहीं नहीं जाती. इधर सुधा की भी डिलीवरी होने वाली है. उस की सास का कहना है कि पहला बच्चा है, इसलिए परंपरा के अनुसार वह मायके में ही होना चाहिए… अब तुम लोग भी प्लान करो… 6 महीने हो गए हैं… लेकिन तब नौकरी छोड़ देना… बच्चे पालना कोई हंसीखेल नहीं है. मैं तुम्हें सब समझा दूंगी कि बच्चे की परवरिश कैसे की जाती है…’’

मीरा की सास लगातार मिसाइल छोड़ रही थीं और वह चुपचाप बैठी धीरेधीरे कौफी के सिप लेते हुए सोच रही थी कि कहां से लाए वह बैलिस्टिक मिसाइल.

बदली परिपाटी: मयंक को आखिर कैसी सजा मिली

लगता है रात में जतिन ने फिर बहू पर हाथ उठाया. मुझ से यह बात बरदाश्त नहीं होती. बहू की सूजी आंखें और शरीर पर पड़े नीले निशान देख कर मेरा दिल कराह उठता है. मैं कसमसा उठता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. काश, पूजा होती और अपने बेटे को समझाती पर पूजा को तो मैं ने अपनी ही गलतियों से खो दिया है.

यह सोचतेसोचते मेरे दिमाग की नसें फटने लगी हैं. मैं अपनेआप से भाग जाना चाहता हूं. लेकिन नहीं भाग सकता, क्योंकि नियति द्वारा मेरे लिए सजा तय की गई है कि मैं पछतावे की आग में धीरेधीरे जलूं.

‘‘अंतरा, मैं बाजार की तरफ जा रहा हूं, कुछ मंगाना तो नहीं.’’

‘‘नहीं पापाजी, आप हो आइए.’’ मैं चल पड़ा यह सोच कर कि कुछ देर बाहर निकलने से शायद मेरा मन थोड़ा बहल जाए. लेकिन बाहर निकलते ही मेरा मन अतीत के गलियारों में भटकने लगा…

‘मुझ से जबान लड़ाती है,’ एक भद्दी सी गाली दे कर मैं ने उस पर अपना क्रोध बरसा दिया.

‘आह…प्लीज मत मारो मुझे, मेरे बच्चे को लग जाएगी, दया करो. मैं ने आखिर किया क्या है?’ उस ने झुक कर अपनी पीठ पर मेरा वार सहन करते हुए कहा.

कोख में पल रहे बच्चे पर वह आंच नहीं आने देना चाहती थी. लेकिन मैं कम क्रूर नहीं था. बालों से पकड़ते हुए उसे घसीट कर हौल में ले आया और अपनी बैल्ट निकाल ली. बैल्ट का पहला वार होते ही जोरों की चीख खामोशी में तबदील होती चली गई. वह बेहोश हो चुकी थी.

‘पागल हो गया क्या, अरे, उस के पेट में तेरी औलाद है. अगर उसे कुछ हो गया तो?’ मां किसी बहाने से उसे मेरे गुस्से से बचाना चाहती थीं.

‘कह देना इस से, भाड़े पर लड़कियां लाऊं या बियर बार जाऊं, यह मेरी अम्मा बनने की कोशिश न करे वरना अगली बार जान से मार दूंगा,’ कहते हुए मैं ने 2 साल के नन्हे जतिन को धक्का दिया, जो अपनी मां को मार खाते देख सहमा हुआ सा एक तरफ खड़ा था. फिर गाड़ी उठाई और निकल पड़ा अपनी आवारगी की राह.

उस पूरी रात मैं नशे में चूर रहा. सुबह के 6 बज रहे होंगे कि पापा के एक कौल ने मेरी शराब का सारा नशा उतार दिया. ‘कहां है तू, कब से फोन लगा रहा हूं. पूजा ने फांसी लगा ली है. तुरंत आ.’ जैसेतैसे घर पहुंचा तो हताश पापा सिर पर हाथ धरे अंदर सीढि़यों पर बैठे थे और मां नन्हे जतिन को चुप कराने की बेहिसाब कोशिशें कर रही थीं.

अपने बैडरूम का नजारा देख मेरी सांसें रुक सी गईं. बेजान पूजा पंखे से लटकी हुई थी. मुझे काटो तो खून नहीं. मांपापा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. पूजा ने अपने साथ अपनी कोख में पल रहे मेरे अंश को भी खत्म कर लिया था. पर इतने खौफनाक माहौल में भी मेरा शातिर दिमाग काम कर रहा था. इधरउधर खूब ढूंढ़ने के बाद भी पूजा की लिखी कोई आखिरी चिट्ठी मुझे नहीं मिली.

पुलिस को देने के लिए हम ने एक ही बयान को बारबार दोहराया कि मां की बीमारी के चलते उसे मायके जाने से मना किया तो जिद व गुस्से में आ कर उस ने आत्महत्या कर ली. वैसे भी मेरी मां का सीधापन पूरी कालोनी में मशहूर था, जिस का फायदा मुझे इस केस में बहुत मिला. कुछ दिन मुझे जरूर लौकअप में रहना पड़ा, लेकिन बाद में सब को देदिला कर इस मामले को खत्म करने में हम ने सफलता पाई, क्योंकि पूजा के मायके में उस की खैरखबर लेने वाला एक शराबी भाई ही था जिसे अपनी बहन को इंसाफ दिलाने में कोई खास रुचि न थी.

थोड़ी परेशानी से ही सही, लेकिन 8-10 महीने में केस रफादफा हो गया पर मेरे जैसा आशिकमिजाज व्यक्ति ऐसे समय में भी कहां चुप बैठने वाला था. इस बीच मेरी रासलीला मेरे एक दोस्त की बहन लिली से शुरू हो गई. लिली का साथ मुझे खूब भाने लगा, क्योंकि वह भी मेरी तरह बिंदास थी. पूजा की मौत के डेढ़ साल के भीतर ही हम ने शादी कर ली. वह तो शादी के बाद पता चला कि मैं सेर, तो वह सवा सेर है. शादी होते ही उस ने मुझे सीधे अपनी अंटी में ले लिया.

बदतमीजी, आवारगी, बदचलनी आदि गुणों में वह मुझ से कहीं बढ़ कर निकली. मेरी परेशानियों की शुरुआत उसी दिन हो गई जिस दिन मैं ने पूजा समझ कर उस पर पहली बार हाथ उठाया. मेरे उठे हाथ को हवा में ही थाम उस ने ऐसा मरोड़ा कि मेरे मुंह से आह निकल गई. उस के बाद मैं कभी उस पर हाथ उठाने की हिम्मत न कर पाया.

घर के बाहर बनी पुलिया पर आसपास के आवारा लड़कों के साथ बैठी वह सिगरेट के कश लगाती जबतब कालोनी के लोगों को नजर आती. अपने दोस्तों के साथ कार में बाहर घूमने जाना उस का प्रिय शगल था. रात को वह शराब के नशे में धुत हो घर आती और सो जाती. मैं ने उसे अपने झांसे में लेने की कई नाकाम कोशिशें कीं, लेकिन हर बार उस ने मेरे वार का ऐसा प्रतिवार किया कि मैं बौखला गया. उस ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दी कि अगर मैं ने उस से उलझने की कोशिश की तो वह मुझे मरवा देगी या ऐसा फंसाएगी कि मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं उस के गदर से तभी तक बचा रहता जब तक कि उस के कामों में हस्तक्षेप न करता.

तो इस तरह प्रकृति के न्याय के तहत मैं ने जल्द ही वह काटा, जो बोया था. घर की पूरी सत्ता पर मेरी जगह वह काबिज हो चुकी थी. शादी के सालभर बाद ही मुझ पर दबाव बना कर उस ने पापा से हमारे घर को भी अपने नाम करवा लिया. और फिर हमारा मकान बेच कर उस ने पौश कालोनी में एक फ्लैट खरीदा और मुझे व जतिन को अपने साथ ले गई. मेरे मम्मीपापा मेरी बहन यानी अपनी बेटी के घर में रहने को मजबूर थे. यह सब मेरी ही कारगुजारियों की अति थी जो आज सबकुछ मेरे हाथ से मुट्ठी से निकली रेत की भांति फिसल चुका था.

अपना मकान बिकने से हैरानपरेशान पापा इस सदमे को न सह पाने के कारण हार्टअटैक के शिकार हो महीनेभर में ही चल बसे. उन के जाने के बाद मेरी मां बिलकुल अकेली हो गईं. प्रकृति मेरे कर्मों की इतनी जल्दी और ऐसी सजा देगी, मुझे मालूम न था.

नए घर में शिफ्ट होने के बाद भी उस के क्रियाकलाप में कोई खास अंतर नहीं आया. इस बीच 5 साल के हो चुके जतिन को उस ने पूरी तरह अपने अधिकार में ले लिया. उस के सान्निध्य में पलताबढ़ता जतिन भी उस के नक्शेकदम पर चल पड़ा. पढ़ाईलिखाई से उस का खास वास्ता था नहीं. जैसेतैसे 12वीं कर उस ने छोटामोटा बिजनैस कर लिया और अपनी जिंदगी पूरी तरह से उसी के हवाले कर दी. उन दोनों के सामने मेरी हैसियत वैसे भी कुछ नहीं थी. किसी समय अपनी मनमरजी का मालिक मैं आजकल उन के हाथ की कठपुतली बन, बस, उन के रहमोकरम पर जिंदा था.

इसी रफ्तार से जिंदगी के कुछ और वर्ष बीत गए. इस बीच लिली एक भयानक बीमारी एड्स की चपेट में आ गई और अपनेआप में गुमसुम पड़ी रहने लगी. अब घर की सत्ता मेरे बेटे जतिन के हाथों में आ गई. हालांकि इस बदलाव का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं था. हां, जतिन की शादी होने पर उस की पत्नी अंतरा के आने से अलबत्ता मुझे कुछ राहत जरूर हो गई, क्योंकि मेरी बहू भी पूजा जैसी ही एक नेकदिल इंसान थी.

वह लिली की सेवा जीजान से करती और जतिन को खुश करने की पूरी कोशिश भी. पर जिस की रगों में मेरे जैसे गिरे इंसान का लहू बह रहा हो, उसे भला किसी की अच्छाई की कीमत का क्या पता चलता. सालभर पहले लिली ने अपनी आखिरी सांस ली. उस वक्त सच में मन से जैसे एक बोझ उतर गया और मेरा जीवन थोड़ा आसान हो गया.

इस बीच, जतिन के अत्याचार अंतरा के प्रति बढ़ते जा रहे थे. लगभग रोज रात में जतिन उसे पीटता और हर सुबह अपने चेहरे व शरीर की सूजन छिपाने की भरसक कोशिश करते हुए वह फिर से अपने काम पर लग जाती. कल रात भी जतिन ने उस पर अपना गुस्सा निकाला था.

मुझे समझ नहीं आता था कि आखिर वह ये सब क्यों सहती है, क्यों नहीं वह जतिन को मुंहतोड़ जवाब देती, आखिर उस की क्या मजबूरी है? तमाम बातें मेरे दिमाग में लगातार चलतीं. मेरा मन उस के लिए इसलिए भी परेशान रहता क्योंकि इतना सबकुछ सह कर भी वह मेरा बहुत ध्यान रखती थी. कभीकभी मैं सोच में पड़ जाता कि आखिर औरत एक ही समय में इतनी मजबूत और मजबूर कैसे हो सकती है?

ऐसे वक्त पर मुझे पूजा की बहुत याद आती. अपने 4 वर्षों के वैवाहिक जीवन में मैं ने एक पल भी उसे सुकून का नहीं दिया. शादी की पहली रात जब सजी हुई वह छुईमुई सी मेरे कमरे में दाखिल हुई थी, तो मैं ने पलभर में उसे बिस्तर पर घसीट कर उस के शरीर से खेलते हुए अपनी कामवासना शांत की थी.

काश, उस वक्त उस के रूपसौंदर्य को प्यारभरी नजरों से कुछ देर निहारा होता, तारीफ के दो बोल बोले होते तो वह खुशी से अपना सर्वस्व मुझे सौंप देती. उस घर में आखिर वह मेरे लिए ही तो आई थी. पर मेरे लिए तो प्यार की परिभाषा शारीरिक भूख से ही हो कर गुजरती थी. उस दौरान निकली उस की दर्दभरी चीखों को मैं ने अपनी जीत समझ कर उस का मुंह अपने हाथों से दबा कर अपनी मनमानी की थी. वह रातों में मेरे दिल बहलाने का साधनमात्र थी. और फिर जब वह गर्भवती हुई तो मैं दूसरों के साथ इश्क लड़ाने लगा, क्योंकि वह मुझे वह सुख नहीं दे पा रही थी. वह मेरे लिए बेकार हो चुकी थी. इसलिए मुझे ऐसा करने का हक था, आखिर मैं मर्द जो था. मेरी इस सोच ने मुझे कभी इंसान नहीं बनने दिया.

हे प्रकृति, मुझे थोड़ी सी तो सद्बुद्धि देती. मैं ने उसे चैन से एक सांस न लेने दी. अपनी गंदी हरकतों से सदा उस का दिल दुखाया. उस की जिंदगी को मैं ने वक्त से पहले खत्म कर दिया.

उस दिन उस ने आत्महत्या भी तो मेरे कारण ही की थी, क्योंकि उसे मेरे नाजायज संबंधों के बारे में पता चल गया था और उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि इस बारे में मुझ से पूछ बैठी थी. बदले में मैं ने जीभर कर उस की धुनाई की थी. ये सब पुरानी यादें दिमाग में घूमती रहीं और कब मैं घर लौट आया पता ही नहीं चला.

‘‘पापा, जब आप मार्केट गए थे. उस वक्त बूआजी आई थीं. थोड़ी देर बैठीं, फिर आप के लिए यह लिफाफा दे कर चली गईं.’’ बाजार से आते ही अंतरा ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘ठीक है बेटा,’’ मैं ने लिफाफा खोला. उस में एक छोटी सी चिट और करीने से तह किया हुआ एक पन्ना रखा था. चिट पर लिखा था, ‘‘मां के जाने के सालों बाद आज उन की पुरानी संदूकची खोली तो यह खत उस में मिला. तुम्हारे नाम का है, सो तुम्हें देने आई थी.’’ बहन की लिखावट थी. सालों पहले मुझे यह खत किस ने लिखा होगा, यह सोचते हुए कांपते हाथों से मैं ने खत पढ़ना शुरू किया.

‘‘प्रिय मयंक,

‘‘वैसे तो तुम ने मुझे कई बार मारा है, पर मैं हमेशा यह सोच कर सब सहती चली गई कि जैसे भी हो, तुम मेरे तो हो. पर कल जब तुम्हारे इतने सारे नाजायज संबंधों का पता चला तो मेरे धैर्य का बांध टूट गया. हर रात तुम मेरे शरीर से खेलते रहे, हर दिन मुझ पर हाथ उठाते रहे. लेकिन मन में एक संतोष था कि इस दुखभरी जिंदगी में भी एक रिश्ता तो कम से कम मेरे पास है. लेकिन जब पता चला कि यह रिश्ता, रिश्ता न हो कर एक कलंक है, तो इस कलंक के साथ मैं नहीं जी सकती. सोचती थी, कभी तो तुम्हारे दिल में अपने लिए प्यार जगा लूंगी. लेकिन अब सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं. मायके में भी तो कोई नहीं है, जिसे मेरे जीनेमरने से कोई सरोकार हो. मैं अपनी व्यथा न ही किसी से बांट सकती हूं और न ही उसे सह पा रही हूं. तुम्हीं बताओ फिर कैसे जिऊं. मेरे बाद मेरे बच्चों की दुर्दशा न हो, इसलिए अपनी कोख का अंश अपने साथ लिए जा रही हूं. मासूम जतिन को मारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुश रहो तुम, कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना. जाने से पहले एक बात तुम से जरूर कहना चाहूंगी. ‘मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.’

‘‘तुम्हारी चाहत के इंतजार में पलपल मरती…

तुम्हारी पूजा.’’

पूरा पत्र आंसुओं से गीला हो चुका था, जी चाह रहा था कि मैं चिल्लाचिल्ला कर रो पड़ूं. ओह, पूजा माफ कर दे मुझे. मैं इंसान कहलाने के काबिल नहीं, तेरे प्यार के काबिल भला क्या बनूंगा. हे प्रकृति, मेरी पूजा को लौटा दे मुझे, मैं उस के पैर पकड़ कर अपने गुनाहों की माफी तो मांग लूं उस से. लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़या चुग गई खेत.

भावनाओं का ज्वार थमा तो कुछ हलका महसूस हुआ. शायद मां को पूजा का यह सुसाइड लैटर मिला हो और मुझे बचाने की खातिर यह पत्र उन्होंने अपने पास छिपा कर रख लिया हो. यह उन्हीं के प्यार का साया तो था कि इतना घिनौना जुर्म करने के बाद भी मैं बच गया. उन्होंने मुझे कालकोठरी की सजा से तो बचा लिया, परंतु मेरे कर्मों की सजा तो नियति से मुझे मिलनी ही थी और वह किसी भी बहाने से मुझे मिल कर रही.

पर अब सबकुछ भुला कर पूजा की वही पंक्ति मेरे मन में बारबार आ रही थी, ‘‘कम से कम जतिन को एक बेहतर इंसान बनाना.’’ अंतरा के मायके में भी तो उस की बुजुर्ग मां के अलावा कोई नहीं है. हो सकता है इसलिए वह भी पूजा की तरह मजबूर हो. पर अब मैं मजबूर नहीं बनूंगा…कुछ सोच कर मैं उठ खड़ा हुआ. अंतरा को आवाज दी.

‘‘जी पापा,’’ कहते हुए अंतरा मेरे सामने मौजूद थी. बहुत देर तक मैं उसे सबकुछ समझाता रहा और वह आंखें फाड़फाड़ कर मुझे हैरत से देखती रही. शायद उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जतिन का पिता होने के बावजूद मैं उस का दर्द कैसे महसूस कर रहा हूं या उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि अचानक मैं यह क्या और क्यों कर रहा हूं, क्योंकि वह मासूम तो मेरी हकीकत से हमेशा अनजान थी.

पास के पुलिसस्टेशन पहुंच कर मैं ने अपनी बहू पर हो रहे अत्याचार की धारा के अंतर्गत बेटे जतिन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. मेरे कहने पर अंतरा ने अपने शरीर पर जख्मों के निशान उन्हें दिखाए, जिस से केस पुख्ता हो गया. थोड़ा वक्त लगा, लेकिन हम ने अपना काम कर दिया था. आगे का काम पुलिस करेगी. जतिन को सही राह पर लाने का एक यही तरीका मुझे कारगर लगा, क्योंकि सिर्फ मेरे समझानेभर से बात उस के पल्ले नहीं पड़ेगी. पुलिस, कानून और सजा का खौफ ही अब उसे सही रास्ते पर ला सकता है.

पूजा के चिट्ठी में कहे शब्दों के अनुसार, मैं उसे रिश्तों की इज्जत करना सिखाऊंगा और एक अच्छा इंसान बनाऊंगा, ताकि फिर कोई पूजा किसी मयंक के अत्याचारों से त्रस्त हो कर आत्महत्या करने को मजबूर न हो. औटो में वापसी के समय अंतरा के सिर पर मैं ने स्नेह से हाथ फेरा. उस की आंखों में खौफ की जगह अब सुकून नजर आ रहा था. यह देख मैं ने राहत की सांस ली.

पन्नों पर फैली पीड़ा

रात थी कि बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी. सफलता और असफलता की आशानिराशा के बीच सब के मन में एक तूफान चल रहा था. औपरेशन थिएटर का टिमटिम करता बल्ब कभी आशंकाओं को बढ़ा देता तो कभी दिलासा देता प्रतीत होता. नर्सों के पैरों की आहट दिल की धड़कनें तेज करने लगती. नवीन बेचैनी से इधर से उधर टहल रहा था. हौस्पिटल के इस तल पर सन्नाटा था. नवीन कुछ गंभीर मरीजों के रिश्तेदारों के उदास चेहरों पर नजर दौड़ाता, फिर सामने बैठी अपनी मां को ध्यान से देखता और अंदाजा लगाता कि क्या मां वास्तव में परेशान हैं.

अंदर आई.सी.यू. में नवीन की पत्नी सुजाता जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रही थी. नवीन पूरे यकीन के साथ सोच रहा था कि अभी डाक्टर आ कर कहेगा, सुजाता ठीक है.

कल कितनी चोटें आई थीं सुजाता को. नवीन, सुजाता और उन के दोनों बच्चे दिव्यांशु और दिव्या पिकनिक से लौट रहे थे. कार नवीन ही चला रहा था. सामने से आ रहे ट्रक ने सुजाता की तरफ की खिड़की में जोरदार टक्कर मारी. नवीन और पीछे बैठे बच्चे तो बच गए, लेकिन सुजाता को गंभीर चोटें आईं. उस का सिर भी फट गया था. कार भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. नवीन किसी से लिफ्ट ले कर घायल सुजाता और बच्चों को ले कर यहां पहुंच गया था.

नवीन ने फोन पर अपने दोनों भाइयों विनय और नीरज को खबर दे दी थी. वे उस के यहां पहुंचने से पहले ही मां के साथ पहुंच चुके थे. विनय की यहां कुछ डाक्टरों से जानपहचान थी, इसलिए इलाज शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी.

नवीन ने सुजाता के लिए अपने दोनों भाइयों की बेचैनी भी देखी. उसे लगा, बस मां को ही इतने सालों में सुजाता से लगाव नहीं हो पाया. वह अपनी जीवनसंगिनी को याद करते हुए थका सा जैसे ही कुरसी पर बैठा तो लगा जैसे सुजाता उस के सामने मुसकराती हुई साकार खड़ी हो गई है. झट से आंखें बंद कर लीं ताकि कहीं उस का चेहरा आंखों के आगे से गायब न हो जाए. नवीन ने आंखें बंद कीं तो पिछली स्मृतियां दृष्टिपटल पर उभर आईं…

20 साल पहले नवीन और सुजाता एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. पढ़ाई खत्म करने के बाद जब दोनों की अच्छी नौकरी भी लग गई तो उन्होंने विवाह करने का फैसला किया.

सुजाता के मातापिता से मिल कर नवीन को बहुत अच्छा लगा था. वे इस विवाह के लिए तैयार थे, लेकिन असली समस्या नवीन को अपनी मां वसुधा से होने वाली थी. वह जानता था कि उस की पुरातनपंथी मां एक विजातीय लड़की से उस का विवाह कभी नहीं होने देंगी. उस के दोनों भाई सुजाता से मिल चुके थे और दोनों से सुजाता की अच्छी दोस्ती भी हो गई थी. जब नवीन ने घर में सुजाता के बारे में बताया तो वसुधा ने तूफान खड़ा कर दिया. नवीन के पिताजी नहीं थे.

वसुधा चिल्लाने लगीं, ‘क्या इतने मेहनत से तुम तीनों को पालपोस कर इसी दिन के लिए बड़ा किया है कि एक विजातीय लड़की बहू बन कर इस घर में आए? यह कभी नहीं हो सकता.’

कुछ दिनों तक घर में सन्नाटा छाया रहा. नवीन मां को मनाने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वे तैयार नहीं हुईं, तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली.

नवीन को याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार सुजाता को ले कर घर पहुंचा तो मां ने कितनी क्रोधित नजरों से उसे देखा था और अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया था. घंटों बाद निकली थीं और जब वे निकलीं, सुजाता अपने दोनों देवरों से पूछपूछ कर खाना तैयार कर चुकी थी. यह था ससुराल में सुजाता का पहला दिन.

नीरज ने जबरदस्ती वसुधा को खाना खिलाया था. नवीन मूकदर्शक बना रहा था. रात को सुजाता सोने आई तो उस के चेहरे पर अपमान और थकान के मिलेजुले भाव देख कर नवीन का दिल भर आया था और फिर उस ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया था.

नवीन और सुजाता दोनों ने वसुधा के साथ समय बिताने के लिए औफिस से छुट्टियां ले ली थीं. वे दिन भर वसुधा का मूड ठीक करने की कोशिश करते, मगर कामयाब न हो पाते.

जब सुजाता गर्भवती हुई तो वसुधा ने एलान कर दिया, ‘मुझ से कोई उम्मीद न करना, नौकरी छोड़ो और अपनी घरगृहस्थी संभालो.’

यह सुजाता ही थी, जिस ने सिर्फ मां को खुश करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी. माथे की त्योरियां कम तो हुईं, लेकिन खत्म नहीं.

दिव्यांशु का जन्म हुआ तो विनय की नौकरी भी लग गई. वसुधा दिनरात कहती, ‘इस बर अपनी जाति की बहू लाऊंगी तो मन को कुछ ठंडक मिलेगी.’

सुजाता अपमानित सा महसूस करती. नवीन देखता, सुजाता मां को एक भी अपशब्द न कहती. वसुधा ने खूब खोजबीन कर के अपने मन की नीता से विनय का विवाह कर दिया. नीता को वसुधा ने पहले दिन से ही सिर पर बैठा लिया. सुजाता शांत देखती रहती. नीता भी नौकरीपेशा थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह औफिस के लिए तैयार होने लगी तो वसुधा ने उस की भरपूर मदद की. सुजाता इस भेदभाव को देख कर हैरान खड़ी रह जाती.

कुछ दिनों बाद नीरज ने भी नौकरी लगते ही सुधा से प्रेमविवाह कर लिया. लेकिन सुधा भी वसुधा की जातिधर्म की कसौटी पर खरी उतरती थी, इसलिए वे सुधा से भी खुश थीं. इतने सालों में नवीन ने कभी मां को सुजाता से ठीक तरह से बात करते नहीं देखा था.

दिव्या हुई तो नवीन ने सुजाता को यह सोच कर उस के मायके रहने भेज दिया कि कम से कम उसे वहां शांति और आराम तो मिलेगा. नवीन रोज औफिस से सुजाता और बच्चों को देखने चला जाता और डिनर कर के ही लौटता था.

घर आ कर देखता मां रसोई में व्यस्त होतीं. वसुधा जोड़ों के दर्द की मरीज थीं, काम अब उन से होता नहीं था. नीता और सुधा शाम को ही लौटती थीं, आ कर कहतीं, ‘सुजाता भाभी के बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’

सुन कर नवीन खुश हो जाता कि कोई तो उस की कद्र करता है.

फिर विनय और नीरज अलग अलग मकान ले लिए, क्योंकि यह मकान अब सब के बढ़ते परिवार के लिए छोटा पड़ने लगा था. वसुधा ने बहुत कहा कि दूसरी मंजिल बनवा लेते हैं, लेकिन सब अलग घर बसाना चाहते थे.

विनय और नीरज चले गए तो वसुधा कुछ दिन बहुत उदास रहीं. दिव्यांशु और दिव्या को वसुधा प्यार करतीं, लेकिन सुजाता से तब भी एक दूरी बनाए रखतीं. सुजाता उन से बात करने के सौ बहाने ढूंढ़ती, मगर वसुधा हां, हूं में ही जवाब देतीं.

बच्चे स्कूल चले जाते तो घर में सन्नाटा फैल जाता. बच्चों को स्कूल भेज कर पार्क में सुबह की सैर करना सुजाता का नियम बन गया. पदोन्नति के साथसाथ नवीन की व्यस्तता बढ़ गई थी. सुजाता को हमेशा ही पढ़नेलिखने का शौक रहा. फुरसत मिलते ही वह अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहने लगी. उस के विचार, उस के सपने उसे लेखन की दुनिया में ले आए और दुख में तो कल्पना ही इंसान के लिए मां की गोद है. सुबह की सैर करतेकरते वह पता नहीं क्याक्या सोच कर लेखन सामग्री जुटा लेती.

पार्क से लौटते हुए कितने विचार, कितने शब्द सुजाता के दिमाग में आते, लेकिन अकसर वह जिस तरह सोचती, एकाग्रता के अभाव में उस तरह लिख न पाती, पन्ने फाड़ती जाती, वसुधा कभी उस के कमरे में न झांकतीं, बस उन्हें कूड़े की टोकरी में फटे हुए पन्नों का ढेर दिखता तो शुरू हो जातीं, ‘पता नहीं, क्या बकवास किस्म का काम करती रहती है. बस, पन्ने फाड़ती रहती है, कोई ढंग का काम तो आता नहीं.’

सुजाता कोई तर्क नहीं दे पाती, मगर उस का लेखन कार्य चलता रहा.

अब सुजाता ने गंभीरता से लिखना शुरू कर दिया था. इस समय उस के सामने था, सालों से मिलता आ रहा वसुधा से तानों का सिलसिला, अविश्वास और टूटता हौसला, क्योंकि वह खेदसहित रचनाओं के लौटने का दौर था. लौटी हुई कहानी उसे बेचैन कर देती.

उस की लौटी हुई रचनाओं को देख कर वसुधा के ताने बढ़ जाते, ‘समय भी खराब किया और लो अब रख लो अपने पास, लिखने में नहीं, बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दो.’

सुजाता को रोना आ जाता. सोचती, अब वह नहीं लिखेगी, तभी दिल कहता कि न घबराना है, न हारना है. मेहनत का फल जरूर मिलता है और वह फिर लिखने बैठ जाती. धीरेधीरे उस की कहानियां छपने लगीं.

सुजाता को नवीन का पूरा सहयोग था. वह लिख रही होती तो नवीन कभी उसे डिस्टर्ब न करता, बच्चे भी शांति से अपना काम करते रहते. अब सुजाता को नाम, यश, महत्त्व, पैसा मिलने लगा. उसे कुछ पुरस्कार भी मिले, वह वसुधा के पैर छूती तो वे तुनक कर चली जातीं. सुजाता अपने शहर के लिए सम्मानित हस्ती हो चुकी थी. उसे कई शैक्षणिक, सांस्कृतिक समारोहों में विशेष अतिथि की हैसियत से बुलाया जाने लगा. वसुधा की सहेलियां, पड़ोसिनें सब उन से सुजाता के गुणों की वाहवाह करतीं.

‘‘नवीनजी, आप की पत्नी अब खतरे से बाहर हैं,’’ डाक्टर की आवाज नवीन को वर्तमान में खींच लाई.

वह खड़ा हो गया, ‘‘कैसी है सुजाता?’’

‘‘चोटें बहुत हैं, बहुत ध्यान रखना पड़ेगा, थोड़ी देर में उन्हें होश आ जाएगा, तब आप चाहें तो उन से मिल सकते हैं.’’

मां के साथ सुजाता को देखने नवीन आई.सी.यू. में गया. सुजाता अभी बेहोश थी. नवीन ने थोड़ी देर बाद मां से कहा, ‘‘मां, आप थक गई होंगी, घर जा कर थोड़ा आराम कर लो, बाद में जब नीरज घर आए तो उस के साथ आ जाना.’’

वसुधा घर आ गईं, नहाने के बाद सब के लिए खाना बनाया, बच्चे नीता के पास थे. वे सब हौस्पिटल आ गए. विनय और नीरज तो नवीन के पास ही थे. सारा काम हो गया तो वसुधा को खाली घर काटने को दौड़ने लगा. पहले वे इधरउधर देखती घूमती रहीं, फिर पता नहीं उन के मन में क्या आया कि ऊपर सुजाता के कमरे की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

साफसुथरे कमरे में एक ओर सुजाता के पढ़नेलिखने की मेज पर रखे सामान को वे ध्यान से देखने लगीं. अब तक प्रकाशित 2 कहानी संग्रह, 4 उपन्यास और बहुत सारे लेख जैसे सुजाता के अस्तित्व का बखान कर रहे थे. सुजाता की डायरी के पन्ने पलटे तो बैड पर बैठ कर पढ़ती चली गईं.

एक जगह लिखा था, ‘‘मांजी के साथ 2 बातें करने के लिए तरस जाती हूं मैं. कोमल, कांतिमय देहयष्टि, मांजी के माथे पर चंदन का टीका बहुत अच्छा लगता है मुझे. मम्मीपापा तो अब रहे नहीं, मन करता है मांजी की गोद में सिर रख कर लेट जाऊं और वे मेरे सिर पर अपना हाथ रख दें, क्या ऐसा कभी होगा?’’

एक पन्ने पर लिखा था, ‘‘आज फिर कहानी वापस आ गई. नवीन और बच्चे तो व्यस्त रहते हैं, काश, मैं मांजी से अपने मन की उधेड़बुन बांट पाती, मांजी इस समय मेरे खत्म हो चले नैतिक बल को सहारा देतीं, मुझे उन के स्नेह के 2 बोलों की जरूरत है, लेकिन मिल रहे हैं ताने.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘अगर मांजी समझ जातीं कि लेखन थोड़ा कठिन और विचित्र होता है, तो मेरे मन को थोड़ी शांति मिल जाती और मैं और अच्छा लिख पाती.’’

आगे लिखा था, ‘‘कभीकभी मेरा दिल मांजी के व्यंग्यबाणों की चोट सह नहीं पाता,

मैं घायल हो जाती हूं, जी में आता है उन से पूछूं, मेरा विजातीय होना क्यों खलता है कि मेरे द्वारा दिए गए आदरसम्मान व सेवा तक को नकार दिया जाता है? नवीन भी अपनी मां के स्वभाव से दुखी हो जाते हैं, पर कुछ कह नहीं सकते. उन का कहना है कि मां ने तीनों को बहुत मेहनत से पढ़ायालिखाया है, बहुत संघर्ष किया है पिताजी के बाद. कहते हैं, मां से कुछ नहीं कह सकता. बस तुम ही समझौता कर लो. मैं उन के स्वभाव पर सिर्फ शर्मिंदा हो सकता हूं, अपमान की पीड़ा का अथाह सागर कभीकभी मेरी आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकलता है.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘मेरी एक भी कहानी मांजी ने नहीं पढ़ी, कितना अच्छा होता जिस कहानी के लिए मुझे पहला पुरस्कार मिला, वह मांजी ने भी पढ़ी होती.’’

वसुधा के स्वभाव से दुखी सुजाता के इतने सालों के मन की व्यथा जैसे पन्नों पर बिखरी पड़ी थी.

वसुधा ने कुछ और पन्ने पलटे, लिखा था, ‘‘हर त्योहार पर नीता और सुधा के साथ मांजी का अलग व्यवहार होता है, मेरे साथ अलग, कई रस्मों में, कई आयोजनों में मैं कोने में खड़ी रह जाती हूं आज भी. मां की दृष्टि में तो क्षमा होती है और मन में वात्सल्य.’’

पढ़तेपढ़ते वसुधा की आंखें झमाझम बरसने लगीं, उन का मन आत्मग्लानि से भर उठा. फिर सोचने लगीं कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? कैसे वे इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठीं? यह क्या कर बैठीं वे? अपने बेटेबहू के जीवन में अशांति का कारण वे स्वयं बनीं? नहीं, वे अपनी बहू की प्रतिभा को बिखरने नहीं देंगी. आज यह मुकदमा उन के

मन की अदालत में आया और उन्हें फैसला सुनाना है. भूल जाएंगी वे जातपांत को, याद रखेंगी सिर्फ अपनी होनहार बहू के गुणों और मधुर स्वभाव को.

वसुधा के दिल में स्नेह, उदारता का सैलाब सा उमड़ पड़ा. बरसों से जमे जातिधर्म, के भेदभाव का कुहासा स्नेह की गरमी से छंटने लगा.

हम तुम कुछ और बनेंगे

बगल के कमरे से अब फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी. कुछ देर पहले तक उन की आवाजें लगभग स्पष्ट आ रही थीं. बात कुछ ऐसी भी नहीं थी. फिर दोनों इतने ठहाके क्योंकर लगा रहे? जाने क्या चल रहा है दोनों के बीच. वार्त्तालाप और ठहाकों का सामंजस्य उस की सोच के परे जा रहा था. उफ, तीर से चुभ रहे हैं, बिलकुल निशाना बैठा कर नश्तर चुभो रही है उन की हंसी. रमण का मन किया कि वह कोने वाले कमरे में चला जाए और दरवाजा बंद कर तेज संगीत चला दुनिया की सारी आवाजों से खुद को काट ले. परंतु एक कीड़ा था जो कुलबुला रहा था, काट रहा था, हृदय क्षतविक्षत कर भेद रहा था, पर कदमों में बेडि़यां भी उसी ने डाल रखी थीं. वह कीड़ा बारबार विवश कर रहा था कि वह ध्यान से सुने कि बगल के कमरे से क्या आवाजें आ रही हैं:

‘‘जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी,

खुशियों की कलियां झूमेंगी,

झूलेंगी, फूलेंगी,

जीवन की बगिया…’’ काजल इन पंक्तियों को गुनगुना रही थी.

‘रोहन को अब सीटियां बजाने की क्या जरूरत है इस पर? बेशर्म कहीं का,’ सोफे पर अधलेटे रमण ने सोचा. उस का सर्वांग सुलग रहा था. अब जाने उस ने क्या कहा जो काजल को इतनी हंसी आ रही है. रमण अनुमान लगाने की कोशिश कर ही रहा था कि रोहन के ठहाकों ने उस के सब्र के पैमाने को छलका ही दिया. रमण ने कुशन को गुस्से से पटका और सोफे से उठ खड़ा हुआ.

‘‘क्या हो रहा है ये सब? कितनी देर से तुम दोनों की खीखी सुन रहा हूं. आदमी अपने घर में भी कुछ पल चैनसुकून से नहीं रह सकता है,’’ रमण के गुस्से ने मानो खौलते दूध में नीबू निचोड़ दिया.

रोहन, सौरीसौरी बोलता हुआ उठ कर चला गया. पर काजल अभी भी कुछ गुनगुना रही थी. रोहन के जाने के बाद काजल का गुनगुनाना उस की रूह को मानो ठंडक पहुंचाने लगा. उस ने भरपूर नजरों से काजल को देखा. 7वां महीना लग गया है. इतनी खूबसूरत उस ने अपनी ब्याहता को पहले कभी नहीं देखा था. गालों पर एक हलकी सी ललाई और गोलाई प्रत्यक्ष परिलक्षित थी. रंगत निखर कर एक सुनहरी आभा से मानो आलोकित हो दिल को रूहानी सुकून पहुंचा रही थी. सदा की दुबलीपतली छरहरी काजल आज अंग भर जाने के पश्चात अपूर्व व्यक्तित्व की स्वामिनी लग रही थी.

कोई स्त्री गर्भावस्था में ही शायद सर्वाधिक रूपवती होती है. रोमरोम से छलकती मातृत्व से परिपूर्ण सुंदरता अतुलनीय है. रमण अपने दोनों चक्षुओं सहित सभी ज्ञानेंद्रियों से अपनी ही बीवी के इस अद्भुत नवरूप का रसास्वादन कर ही रहा था कि रोहन फिर आ गया और रमण हकीकत की विकृत सचाई से आंखें चुराता हुआ झट कमरे से निकल गया.

रोहन के हाथ में विभिन्न फलों को काट कर बनाया गया फ्रूट सलाद था.

इस बार रमण सच में कोने वाले कमरे में चला गया और तेज संगीत बजा वहीं पलंग पर लेट गया. म्यूजिक भले ही कानफोड़ू हो गया, परंतु उस कमरे से आती फुसफुसाहट को रोकने में अभी भी असमर्थ ही था. रोहन की 1-1 सीटी इस संगीत को मध्यम किए जा रही थी, साथ ही साथ बीचबीच में काजल की दबीदबी खिलखिलाहट भी. ऐसा लग रहा था कि दोनों कर्ण मार्ग से प्रवेश कर उस के मानस को क्षतविक्षत कर के ही दम लेंगे.

इसी बीच स्मृति कपाट पर विगत की दस्तक शुरू हो गई. इस नवआगंतुक ने मानो उस की सुधबुध को ही हर लिया. बगल के कमरे की फुसफुसाहट, तेज संगीत और अब स्मृतियों की थाप. इस स्वर मिश्रण ने उसे आभास दिला दिया कि शायद जहन्नुम यही है.

सच इन दिनों उसे आभास होने लगा है कि वह मानो जहन्नुम की अग्नि में झुलस रहा हो. जिस उत्कंठा से उस ने इस खुशी को पाने की तमन्ना की थी, वह इस अग्नि कुंड से हो कर निकलेगी, यह उस के लिए कल्पनातीत थी.

‘कुछ महीने पहले तक सब कितना मधुर था,’ रमण ने सोचा, ‘पर कैसे कहा जाए कि मधुर था तब तो कुछ और ही शूल चुभ रहे थे,’ चेतना की बखिया उधड़ने लगीं.

विवाह के 10 वर्ष होने को थे. शुरू के वर्षों में नौकरी, कैरियर, पदोन्नति और घर की जिम्मेदारियों के चलते रमण और काजल परिवार बढ़ाने की अपनी योजना को टालते रहे. आदर्श जोड़ी रही है दोनों की. कितना दबाव था सब का कि उन के बच्चे होने चाहिए. काजल के मातापिता, रमण के मातापिता, नातेरिश्तेदार यहां तक कि दोस्त भी टोकने लगे थे. रमण के सासससुर उस की शादी की 7वीं वर्षगांठ परआए थे.

‘‘तुम लोगों ने बड़ा ही अच्छा आयोजन किया अपनी 7वीं वर्षगांठ पर. इस से पहले तो तुम लोग वर्षगांठ मनाने के ही विरुद्ध होते थे. बहुत खुशी हो रही है.’’

रमण के ससुरजी ने ऐसा कहा तो काजल झट से बोल पड़ी, ‘‘हां पापा, इस बार बात ही कुछ ऐसी थी. मेरे देवर ने अपनी पढ़ाई बहुत हद तक पूरी कर ली है. अपने आगे की पढ़ाई का खर्च अब वह खुद वहन कर सकता है. मेरा देवर डाक्टर बन गया, हमारी तपस्या सफल हुई. वर्षगांठ तो बस एक बहाना है अपनी खुशियों को सैलिब्रेट करने का.’’

‘‘बहनजी, अब आप ही रमण और काजल को समझाएं कि ये जल्दी से हमें खुशखबरी सुनाएं. मेरी तो आंखें तरस गई हैं कि कोई शिशु मेरे आंगन में खेले. ऐसा न हो कि कहीं देर हो जाए,’’ रमण की मां ने अपनी समधिन से कहा.

‘‘हां बहनजी, आप सही कह रही हैं. हर चीज का एक वक्त होता है, जो सही वक्त पर पूरी हो जानी चाहिए. हम भी तो बूढ़े हो चले हैं,’’ रमण की सास ने कहा.

कुछ ही महीनों में काजल को यह भान होने लगा कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. फिर शुरू हुआ जांचरिपोर्ट का अंतहीन सिलसिला. जब तक चाह नहीं थी तब तक इतनी बेसब्री और संवेदनाएं भी जाग्रत नहीं थीं. अब जब असफलता और अनचाहे परिणाम मिलने लगे तो दोनों की बच्चे के प्रति उत्कंठा भी उतनी ही तीव्र हो गई. घर के बुजुर्गों की आशंकाएं मूर्त हो रही थीं. रमण की प्रजनन क्षमता ही संदेह के दायरे में आ गई थी. किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि हर तरह से स्वस्थ दिखने वाले और स्वस्थ जीवनशैली जीने वाले रमण को यह समस्या होगी.

‘‘अब जब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, तो हर चीज का समाधान है. हम किसी अच्छे क्लिनिक या अस्पताल से बात करने की सोच रहे हैं, जहां से शुक्राणु ले कर मेरे गर्भ में निषेचित किया जाएगा,’’ पूरे परिवार के सामने काजल ने रमण के हाथ को थामे हुए रहस्योद्घाटन किया.

‘‘आप कहीं और जाने की क्यों सोच रहे हैं? मेरे ही हौस्पिटल में कृत्रिम शुक्राणु निषेचन का अच्छा डिपार्टमैंट है. मैं संबंधित डाक्टर से बात कर लूंगा. सब अच्छी तरह निष्पादित हो जाएगा,’’ रोहन ने कहा.

फिर तो दोनों के मातापिता सिर जोड़े इस समस्या के निदान में जुट गए. वहीं काजल और रमण ने बालकनी से नीचे पार्क में खेलते छोटे बच्चों को देख ख्वाबों का एक लिहाफ बुन लिया.

उन दिनों काजल उस का हाथ मानो एक क्षण को भी नहीं छोड़ती थी. रमण को उस ने यह एहसास ही नहीं होने दिया कि कमी उस में है. दोनों ने इस आती रुकावट को पार करने हेतु जमीनआसमान एक कर दिया. दोनों दो शरीर एक जान हो गए थे.

‘‘लेकिन…पर…’’ अपनी सास की बनतीबिगड़ती माथे की लकीरों को काजल भांप रही थी.

‘‘उस तरीके से जन्मा बच्चा क्या पूरी तरह स्वस्थ होगा?’’ रमण के पिताजी ने पूछा था.

‘‘फिर जाने किस कुल या गोत्र का होगा वह?’’ रमण की सास ने बुझी वाणी में कहा.

‘‘देर तक एक लंबी चुप्पी छाई रही. जब चुप्पी के नुकीले नख रक्तवाहिनियों से खून टपकाने की हद तक पहुंच गए तो रमण ने ही चुप्पी तोड़ी, हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. हम चाहते तो किसी को कुछ नहीं बताते पर आप सब को जानने का हक है.’’

‘‘एक रास्ता है. यदि घर का ही कोई स्वस्थ पुरुष अपने शुक्राणु दान करे इस हेतु तो वह अनजाना कुलपरिवार की भांति नहीं रहेगा,’’ काजल के पिताजी ने कहा.

‘‘आप सब निश्चिंत रहें, बहुत लोग इस विधि से बच्चे प्राप्त कर रहे हैं. हर नए आविष्कार को संशय और अविश्वास की दृष्टि से देखा ही जाता है. मैं खुद ध्यान रखूंगा कि सब अच्छे से संपन्न हो,’’ रोहन के इस आश्वासन ने उन्हें फौरी तौर पर थोड़ी राहत दे दी.

आखिर वर्षों बाद वह दिन आया जब काजल के गर्भवती होने की डाक्टर ने पुष्टि की. काजल ने अपनी नौकरी से अनिश्चितकालीन छुट्टी ले ली. एक बच्चे की आहट से परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई. आंगन में घुटनों के बल चलते शिशु की कल्पना से ओतप्रोत हरेक सदस्य अपनी तरह से खुशियां जाहिर कर रहा था. अचानक घर में काजल सब से महत्त्वपूर्ण हो गई. आखिर क्यों न होती? आती खुशियों को तो उसी ने अपने में सहेज रखा था.

रमण देखता उस की प्रिया उस से ज्यादा उस के मातापिता के साथ वक्त गुजार रही है. आजकल उस के सासससुर भी जल्दीजल्दी आते. रमण भी एक विजयी भाव से हर जाते पल को महसूस कर रहा था. पापापापा सुनने को बेचैन उस के दिल को कुछ ही दिनों में सुकून जो मिलने वाला था.

सब ठीक चल रहा था. डाक्टर हर चैकअप के बाद संतुष्टि जाहिर करते. माह दर माह बीत रहे थे. इस दौरान रमण महसूस कर रहा था कि आजकल रोहन भी कुछ ज्यादा ही जल्दीजल्दी आने लगा है. जल्दी आना तो तब भी चलता, आखिर उस का भी घर है, ऊपर से डाक्टर. सब को उस की जरूरत रहती. कभी मां को, कभी पिताजी को. बूढ़े जो हो चले थे. पर देखता जब रोहन आता, वह काजल की कुछ अधिक ही देखभाल करता. यह बात रमण को अब चुभने लगी थी. शक का बुलबुला उस के मानस में आकार पाने लगा था कि कहीं यह वीर्यदान रोहन ने तो नहीं किया है?

हालांकि उस के पास इस बात का कोई सुबूत नहीं था पर जब कमी खुद में होती है तो शायद ऐसे विचार उठने स्वाभाविक हैं.

रोहन को देखते ही उसे अपनी कमी और बड़ेबड़े स्पष्ट अक्षरों में परिलक्षित होने लगती. रोहन का काजल के साथ वक्त गुजारना उसे बड़ा ही नागवार गुजरता. धीरेधीरे उसे महसूस हो रहा था कि जब तक वह कुछ करने की सोचता है काजल के लिए, रोहन तब तक वह कर गुजरता है. रोहन सहित घर के सभी सदस्य जब आपस में हंसीमजाक कर रहे होते, रमण कोई न कोई बहाना बना वहां से खिसक लेता. धीरेधीरे रमण अपने पलकपांवड़े समेटने लगा जो बिछा रखे थे नव अंकुरण के लिए. एक अजीब सी विरक्ति हो चली उसे जिंदगी से. रमण खुद को बिलकुल अनचाहा सा महसूस कर रहा था. काजल बुलाती रह जाती. वह उस के पास नहीं जाता.

रोहन और काजल की घनिष्ठता उसे बेहद नागवार गुजर रही थी. रमण सोचता, ‘यदि बच्चे का पिता रोहन ही है तो मैं क्यों दालभात में मूसलचंद बनूं?’

इस सोच ने उस की दुनिया पलट दी थी. वह अपना ज्यादा वक्त दफ्तर में गुजारता. कभीकभी तो टूअर का बहाना कर कईकई दिनों तक घर भी नहीं आता था. गर्भावस्था के आखिर के दिन बड़े ही तकलीफदेह थे. काजल को बैठानाउठाना सब रोहन करता. रिश्ते बेहद उलझ गए थे. सिरा अदृश्य था और उलझनों का मकड़जाल पूरे शबाब पर. रमण को याद आता, जब उस की शादी हुई थी तब रोहन छोटा ही था. काजल को भाभी मां कहता था. काजल कितनी फिक्रमंद रहती थी उस की पढ़ाई के लिए.

‘छि: सब गडमड हो गया… इस से अच्छा बेऔलाद रहता.’ बेसिरपैर के खयालात रमण के सहभागी बन उस की मतिभ्रष्ट किए जा रहे थे. तभी रोहन की आवाज आई, ‘‘भैया जल्दी आइए भाभी की तबीयत खराब हो रही है. हौस्पिटल ले जाना होगा तुरंत.’’

‘‘तुम ले जाओ… मैं भला जा कर क्या करूंगा. कोई डाक्टर तो हूं नहीं. मुझे आज ही 15 दिनों के लिए हैदराबाद जाना है,’’ रमण ने उचटती हुई आवाज में कहा.

काजल को लग रहा था कि रमण की यह उदासीनता उस के अपराधभाव के कारण है कि वह होने वाले बच्चे का जैविक पिता नहीं है. डाक्टर ने पहले ही काजल को सचेत कर दिया था कि बहुत से पिता इस तरह का व्यवहार करते हैं और नकारात्मक रवैया अपनाते हैं. उस ने जानबूझ कर बखेड़ा नहीं खड़ा किया.

करीब 10 दिनों के बाद काजल भरी गोद वापस आई. इस बीच रमण एक बार भी हौस्पिटल नहीं गया. 15वें दिन वापस आया था.

मां से उसे पता चला. पहले दिन तो बच्चे को छुआ भी नहीं. काजल से बेहतर उस के मनोभावों को कौन समझता पर उस ने भी शायद अब वही रुख इख्तियार कर लिया था जो रमण ने. उस दिन उसी कोने वाले कमरे में तेज संगीत को चीरती एक मधुर सी रुनझुन संगीतमय लहरी रमण को बेचैन किए जा रही थी.

‘हां, यह तो बच्चे की आवाज है,’ रमण ने कानफोड़ू म्यूजिक औफ किया और ध्यानमग्न हो शिशु की स्वरलहरियों को सुनने लगा. जाने लड़का है या लड़की? उफ कोई चुप क्यों नहीं करा रहा. मन उद्वेलित होने लगा. एक क्षण को चुप्पी छाई फिर रुदन…

रमण कमरे में चहलकदमी करने लगा. अब तो लग रहा था जैसे बच्चे का कंठ सूख रहा हो. इस आरोहअवरोह ने शीत शिला को धीमी आंच पर पिघलाना आरंभ कर दिया. मां भी न जाने क्यों उन्हें छोड़ कर चली गईं. अभी कुछ दिन तो रहना चाहिए था.

इसी बीच उस का मोबाइल बजने लगा. जाने कौन है. नया नंबर है… सोचते उस ने कान से लगाया.

‘‘भैया, मैं रोहन बोल रहा हूं, प्लीज, फोन मत काटिएगा. मैं आज सुबह ही सिडनी, आस्ट्रेलिया आ गया हूं. यहां के एक अस्पताल में मुझे काम मिल गया है. साथ ही मैं कुछ कोर्स भी करूंगा. आप और भाभी मां ने जीवन में मेरे लिए बहुत कुछ किया है. भैया, पिछले कुछ महीनों में भाभी मां बेहद मानसिक संत्रास से गुजरी हैं. आप की बेरुखी उन्हें जीने नहीं दे रही. छोटा मुंह बड़ी बात हो जाएगी पर मैं कहना चाहूंगा कि आप ने भाभी मां को उस वक्त छोड़ दिया जब उन को सर्वाधिक आप की जरूरत थी,’’ इतना कह रोहन फूटफूट कर रोने लगा. एक लंबी सी चुप्पी पसरी रही कुछ क्षण रिसीवर के दोनों तरफ…

‘‘कितना बड़ा और समझदार हो गया है रोहन. मैं ने ही खुद को अदृश्य उलझनों और विकारों में कैद कर लिया था.’’

रमण शायद कुछ और भी कहता कि तभी रोहन बोल पड़ा, ‘‘भैया बच्चे क्यों रो रहे हैं? मुझे उन के रोने की आवाजें आ रही हैं.’’

‘‘बच्चे क्या जुड़वा हैं?’’ रमण उछल पड़ा और दौड़ पड़ा उन की तरफ. 2 नर्मनर्म गुलाबी रुई के फाहे हाथपैर फेंकते समवेत स्वर में आसमान सिर पर उठाए थे.

‘‘धन्यवाद रोहन, धन्यवाद भाई. घर जल्दीजल्दी आते रहना,’’ कह उस ने यह सोचते हुए बच्चों को छाती से लगा लिया कि क्या फर्क पड़ता है कि बच्चे रोहन के स्पर्म से पैदा हुए हैं या किसी और के. अब ये बच्चे उस के हैं. वही उन का पिता है. रोहन के होते तो शायद वह उन्हें छोड़ कर नहीं जाता. यह तसल्ली कम नही है.

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