मेवानिवृत्ति: मीराजी की क्या था कहानी

सरकारी मुलाजिम के 60 साल पूरे होने पर उस के दिन पूरे हो जाते हैं. कोईर् दूसरा क्या, वे खुद ही कहते हैं कि सेवानिवृत्ति के समय घूरे समान हो जाते हैं. 60 साल पूरे होने को सेवानिवृत्ति कहते हैं. उस वक्त सब से ज्यादा आश्चर्य सरकारी आदमी को ही होता है कि उस ने सेवा ही कब की थी कि उसे अब सेवानिवृत्त किया जा रहा है. यह सब से बड़ा मजाक है जोकि सरकार व सरकारी कार्यालय के सहकर्मी उस के साथ करते हैं. वह तो अंदर ही अंदर मुसकराता है कि वह पूरे सेवाकाल में मेवा खाने में ही लगा रहा.

इसे सेवाकाल की जगह मेवाकाल कहना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है. सेवा किस चिडि़या का नाम है, वह पूरे सेवाकाल में अनभिज्ञ था. वह तो सेवा की एक ही चिडि़या जानता था, अपने लघु हस्ताक्षर की, जिस के ‘एक दाम, कोई मोलभाव नहीं’ की तर्ज पर दाम तय थे. एक ही दाम, सुबह हो या शाम.

आज लोगों ने जब कहा कि सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो वह बहुत देर तक दिमाग पर जोर देता रहा कि आखिर नौकरी की इस सांध्यबेला में तो याद आ जाए कि आखिरी बार कब उस ने वास्तव में सेवा की थी. जितना वह याद करता, मैमोरी लेन से सेवा की जगह मेवा की ही मैमोरी फिल्टर हो कर कर सामने आती. सो, वह शर्मिंदा हो रहा था सेवानिवृत्ति शब्द बारबार सुन कर.

सरकारी मुलाजिम को शर्म से पानीपानी होने से बचाने के लिए आवश्यक है कि 60 साल का होने पर अब उसे सेवानिवृत्त न कहा जाए? इस के स्थान पर सटीक शब्द वैसे यदि कोई हो सकता है तो वह है ‘मेवानिवृत्त’, क्योंकि वह पूरे कैरियर में मेवा खाने का काम ही तो करता है. यदि उसे यह खाने को नहीं मिलता तो यह उस के मुवक्किल ही जान सकते हैं कि वे अपनी जान भी दे दें तो भी उन के काम होते नहीं. बिना मेवा के ये निर्जीव प्राणी सरीखे दिखते हैं और जैसे ही मेवा चढ़ा, फिर वे सेवादार हो जाते हैं. वैसे, आप के पास इस से अच्छा कोईर् दूसरा शब्द हो तो आप का स्वागत है.

आज आखिरी दिन वह याद करने की कोशिश कर रहा था कि उस ने सेवाकाल में सेवा की, तो कब की? उसे याद आया कि ऐसा कुछ उस की याददाश्त में है ही नहीं जिसे वह सेवा कह सके. वह तो बस नौकरी करता रहा. एक समय तो वह मेवा ले कर भी काम नहीं कर पाने के लिए कुख्यात हो गया था. क्या करें, लोग भी बिना कहे मेवा ले कर टपक जाते थे. चाहे जीवनधारा में कुआं मंजूर करने की बात हो या कि टपक सिंचाई योजना में केस बनाने की बात, सीमांकन हो या बिजली कनैक्शन का केस, वह क्या करे, वह तो जो सामने ले आया, उसे गटक जाता था. और ऐसी आदत घर कर गई थी कि यदि कोई सेवादार बन कर न आए तो ऐसे दागदार को

वह सीधे उसे फाटक का रास्ता दिखा देता था.

दिनभर में वह कौन सी सेवा करता था, उसे याद नहीं आ रहा था? सुबह एक घंटे लेट आता था, यह तो सेवा नहीं हुई. एक घंटे का समयरूपी मेवा ही हो गया. फिर आने के घंटेभर बाद ही उस को चायबिस्कुट सर्व हो जाते थे. यह भी मेवा जैसा ही हुआ. मिलने वाले घंटों बैठे रहते थे, वह अपने कंप्यूटर या मोबाइल में व्यस्त रहता था. काहे की सेवा हुई, यह भी इस का मेवा ही हुआ.

कंप्यूटर व मोबाइल में आंख गड़ाए रहना जबकि बाहर दर्जनों मिलने वाले इस के कक्ष की ओर आंख गड़ाए रहते थे कि अब बुलाएगा, तब बुलाएगा. लेकिन इसे फुरसत हो, तब भी इंतजार तो कराएगा ही कराएगा. फिर भी इसे सरकारी सेवक कहते हैं.

60 साल पूरे होने पर सेवानिवृत्त हो रहे हैं. कहते हैं, इस सदी का सब से बड़ा झूठ यही है, कम से कम

भारत जैसे देश के लिए जहां कि सेवा नहीं मेवा उद्देश्य है. सरकारीकर्मी आपस में कहते भी हैं कि ‘सेवा देवई मेवा खूबई.’

वह बिलकुल डेढ़ बजे लंच पर निकल जाता था. चाहे दूरदराज से आए किसी व्यक्ति की बस या ट्रेन छूट रही हो, उसे उस से कोई मतलब नहीं रहता था. उसे तो अपने टाइमटेबल से मतलब रहता था. उस के लिए क्लब में सारा इंतजाम हो जाए. यही उस की सेवा थी जनता के प्रति.

सेवानिवृत्त वह नहीं हो रहा था बल्कि वह जनता हो रही थी, मातहत हो रहे थे जो उस की देखभाल में लगे रहते थे. अब उस के 60 साल के हो जाने से उन्हें निवृत्ति मिल रही थी बेगारी से. लेकिन असली सेवानिवृत्त को कोई माला नहीं पहनाता.

हर साल उसे वेतनवृद्धि चाहिए, अवकाश, नकदीकरण चाहिए, मैडिकल बैनिफिट चाहिए, एलटीसी चाहिए, नाना प्रकार के लोन चाहिए. यह उस की सेवा है

कि बीचबीच में मेवा का इंतजाम है?

सरकार को गंभीरता से विचार कर के सेवानिवृत्ति की जगह मेवानिवृत्ति शब्द को मान्यता दे देनी चाहिए. वैसे, गंगू कहता भी है कि सेवानिवृत्ति से कहीं सटीक व ठीक शब्द मेवानिवृत्ति है.

ऐसा भी होता है हमारे आसपास रिश्तेनाते में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो भावनाहीन तथा रुखे स्वभाव के होते हैं.

हम एक रिश्तेदार के यहां उन्हें दावत के लिए निमंत्रण देने गए. हमें खुशी थी कि इसी निमंत्रण के बहाने हम उन के घर भी हो आएंगे तथा वे खुश होंगे. लेकिन जब उन के घर पहुंच कर हम ने उन्हें जोर दे कर आने के लिए कहा तो वे बोले, ‘‘अरे, इतनी सी बात के लिए आने का कष्ट क्यों किया आप लोगों ने. यह तो फोन से भी बता सकती थीं.’’

इतना सुनते ही हम हतप्रभ रह गए और हम ने कहा, ‘‘क्या आप को हमारे आने से तकलीफ हुई?’’

हमारी बात सुन कर वे सफाई देने लगे कि नहीं, ऐसी बात बिलकुल भी नहीं है. हम तो आप को तकलीफ नहीं देना चाहते थे.

हम सब मन ही मन उन के अमानवीय व्यवहार से आहत हुए. उस दिन हमें प्रेरणा मिली कि दुनिया में हर तरह के लोगों से मिलना होता है. इन्हें कौन समझाए कि किसी की भावना का सम्मान करते हुए ही शब्द निकालने चाहिए. मायारानी श्रीवास्तव मेरे पड़ोस में मीराजी रहती हैं. वे एक विद्यालय में सहायक अध्यापिका हैं. एक बार रविवार को वे खाना बना रही थीं कि उन के मायके से कुछ लोग आ गए. दाल वे बना चुकी थीं. लेकिन सब लोगों ने मिल कर बाहर खाने का प्रोग्राम बनाया.

मीराजी ने दाल फ्रिज में रख दी और सब के साथ होटल में खाने चली गईं. इस तरह उन के मायके वाले उन के घर 2 दिनों तक रहे और वे उन की खातिरदारी में लगी रहीं.

सब के जाने के बाद मीराजी के पति बोले, ‘‘मीरा देखो, यह दाल फ्रिज में रखी है, खा कर क्यों नहीं खत्म कर देती हो?’’

मीराजी बोलीं, ‘‘अब यह 2 दिन पुरानी बासी दाल हम लोगों के खाने लायक नहीं है, पर फेंकना मत, 220 रुपए किलो खरीदी हुई दाल है.’’

शाम को कामवाली आई तो मीराजी उस को दाल देते हुए बोलीं, ‘‘आज दाल बहुत बच गई है, तुम और बच्चे खा लेना.’’

बात सोचने की है कि जो दाल उन के

खाने लायक नहीं, क्या कामवाली के लिए ठीक थी?

पछतावा : आखिर दीनानाथ की क्या थी गलती

दीनानाथ नगरनिगम में चपरासी था. वह स्वभाव से गुस्सैल था. दफ्तर में वह सब से झगड़ा करता रहता था. उस की इस आदत से सभी दफ्तर वाले परेशान थे, मगर यह सोच कर सहन कर जाते थे कि गरीब है, नौकरी से हटा दिया गया, तो उस का परिवार मुश्किल में आ जाएगा.

दीनानाथ काम पर भी कई बार शराब पी कर आ जाता था. उस के इस रवैए से भी लोग परेशान रहते थे. उस के परिवार में पत्नी शांति और 7 साल का बेटा रजनीश थे. शांति अपने नाम के मुताबिक शांत रहती थी. कई बार उसे दीनानाथ गालियां देता था, उस के साथ मारपीट करता था, मगर वह सबकुछ सहन कर लेती थी.

दीनानाथ का बेटा रजनीश तीसरी जमात में पढ़ता था. वह पढ़ने में होशियार था, मगर अपने एकलौते बेटे के साथ भी पिता का रवैया ठीक नहीं था. उस का गुस्सा जबतब बेटे पर उतरता रहता था.

‘‘रजनीश, क्या कर रहा है? इधर आ,’’ दीनानाथ चिल्लाया.

‘‘मैं पढ़ रहा हूं बापू,’’ रजनीश ने जवाब दिया.

‘‘तेरा बाप भी कभी पढ़ा है, जो तू पढ़ेगा. जल्दी से इधर आ.’’

‘‘जी, बापू, आया. हां, बापू बोलो, क्या काम है?’’

‘‘ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ.’’

‘‘आप का दफ्तर जाने का समय हो रहा है, जाओगे नहीं बापू?’’

‘‘तुझ से पूछ कर जाऊंगा क्या?’’ इतना कह कर दीनानाथ ने रजनीश के चांटा जड़ दिया.

रजनीश रोता हुआ 20 रुपए ले कर सोडा लेने चला गया. दीनानाथ सोडा ले कर शराब पीने बैठ गया.

‘‘अरे रजनीश, इधर आ.’’

‘‘अब क्या बापू?’’

‘‘अबे आएगा, तब बताऊंगा न?’’

‘‘हां बापू.’’

‘‘जल्दी से मां को बोल कि एक प्याज काट कर देगी.’’

‘‘मां मंदिर गई हैं… बापू.’’

‘‘तो तू ही काट ला.’’

रजनीश प्याज काट कर लाया. प्याज काटते समय उस की आंखों में आंसू आ गए, पर पिता के डर से वह मना भी नहीं कर पाया. दीनानाथ प्याज चबाता हुआ साथ में शराब के घूंट लगाने लगा. शाम के 4 बज रहे थे. दीनानाथ की शाम की शिफ्ट में ड्यूटी थी. वह लड़खड़ाता हुआ दफ्तर चला गया.

यह रोज की बात थी. दीनानाथ अपने बेटे के साथ बुरा बरताव करता था. वह बातबात पर रजनीश को बाजार भेजता था. डांटना तो आम बात थी. शांति अगर कुछ कहती थी, तो वह उस के साथ भी गालीगलौज करता था. बेटे रजनीश के मन में पिता का खौफ भीतर तक था. कई बार वह रात में नींद में भी चीखता था, ‘बापू मुझे मत मारो.’

‘‘मां, बापू से कह कर अंगरेजी की कौपी मंगवा दो न,’’ एक दिन रजनीश अपनी मां से बोला.

‘‘तू खुद क्यों नहीं कहता बेटा?’’ मां बोलीं.

‘‘मां, मुझे बापू से डर लगता है. कौपी मांगने पर वे पिटाई करेंगे,’’ रजनीश सहमते हुए बोला.

‘‘अच्छा बेटा, मैं बात करती हूं,’’ मां ने कहा.

‘‘सुनो, रजनीश के लिए कल अंगरेजी की कौपी ले आना.’’

‘‘तेरे बाप ने पैसे दिए हैं, जो कौपी लाऊं? अपने लाड़ले को इधर भेज.’’

रजनीश डरताडरता पिता के पास गया. दीनानाथ ने रजनीश का कान पकड़ा और थप्पड़ लगाते हुए चिल्लाया, ‘‘क्यों, तेरी मां कमाती है, जो कौपी लाऊं? पैसे पेड़ पर नहीं उगते. जब तू खुद कमाएगा न, तब पता चलेगा कि कौपी कैसे आती है? चल, ये ले 20 रुपए, रामू की दुकान से सोडा ले कर आ…’’

‘‘बापू, आज आप शराब बिना सोडे के पी लो, इन रुपयों से मेरी कौपी आ जाएगी…’’

‘‘बाप को नसीहत देता है. तेरी कौपी नहीं आई तो चल जाएगा, लेकिन मेरी खुराक नहीं आई, तो कमाएगा कौन? अगर मैं कमाऊंगा नहीं, तो फिर तेरी कौपी नहीं आएगी…’’ दीनानाथ गंदी हंसी हंसा और बेटे को धक्का देते हुए बोला, ‘‘अबे, मेरा मुंह क्या देखता है. जा, सोडा ले कर आ.’’

दीनानाथ की यह रोज की आदत थी. कभी वह बेटे को कौपीकिताब के लिए सताता, तो कभी वह उस से बाजार के काम करवाता. बेटा पढ़ने बैठता, तो उसे तंग करता. घर का माहौल ऐसा ही था. इस बीच रात में शांति अपने बेटे रजनीश को आंचल में छिपा लेती और खुद भी रोती.

दीनानाथ ने बेटे को कभी वह प्यार नहीं दिया, जिस का वह हकदार था. बेटा हमेशा डराडरा सा रहता था. ऐसे माहौल में भी वह पढ़ता और अपनी जमात में हमेशा अव्वल आता. मां रजनीश से कहती, ‘‘बेटा, तेरे बापू तो ऐसे ही हैं. तुझे अपने दम पर ही कुछ बन कर दिखाना होगा.’’

मां कभीकभार पैसे बचा कर रखती और बेटे की जरूरत पूरी करती. बाप दीनानाथ के खौफ से बेटे रजनीश के बाल मन पर ऐसा डर बैठा कि वह सहमासहमा ही रहता. समय बीतता गया. अब रजनीश 21 साल का हो गया था. उस ने बैंक का इम्तिहान दिया. नतीजा आया, तो वह फिर अव्वल रहा. इंटरव्यू के बाद उसे जयपुर में पोस्टिंग मिल गई. उधर दीनानाथ की झगड़ा करने की आदत से नगरनिगम दफ्तर से उसे निकाल दिया गया था.

घर में खुशी का माहौल था. बेटे ने मां के पैर छुए और उन से आशीर्वाद लिया. पिता घर के किसी कोने में बैठा रो रहा था. उस के मन में एक तरफ नौकरी छूटने का दुख था, तो दूसरी ओर यह चिंता सताने लगी थी कि बेटा अब उस से बदला लेगा, क्योंकि उस ने उसे कोई सुख नहीं दिया था.

मां रजनीश से बोलीं, ‘‘बेटा, अब हम दोनों जयपुर रहेंगे. तेरे बापू के साथ नहीं रहेंगे. तेरे बापू ने तुझे और मुझे जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझा…

‘‘अब तू अपने पैरों पर खड़ा हो गया है. तेरी जिंदगी में तेरे बापू का अब मैं साया भी नहीं पड़ने दूंगी.’’

रजनीश कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मां, मैं बापू से बदला नहीं लूंगा. उन्होंने जो मेरे साथ बरताव किया, वैसा बरताव मैं नहीं करूंगा. मैं अपने बेटे को ऐसी तालीम नहीं देना चाहता, जो मेरे पिता ने मुझे दी.’’

रजनीश उठा और बापू के पैर छू कर बोला, ‘‘बापू, मैं अफसर बन गया हूं, मुझे आशीर्वाद दें. आप की नौकरी छूट गई तो कोई बात नहीं, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा हो गया हूं. चलो, आप अब जयपुर में मेरे साथ रहो, हम मिल कर रहेंगे.‘‘

यह सुन कर दीनानाथ की आंखों में आंसू आ गए. वह बोला, ‘‘बेटा, मैं ने तुझे बहुत सताया है, लेकिन तू ने मेरा साथ नहीं छोड़ा. मुझे तुझ पर गर्व है.’’

दीनानाथ को अपने किए पर खूब पछतावा हो रहा था. रजनीश ने बापू की आंखों से आंसू पोंछे, तो दीनानाथ ने खुश हो कर उसे गले लगा लिया.

व्रत: क्या वर्षा समझ पाई पति की अहमियत

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अटूट प्यार: यामिनी से क्यों दूर हो गया था रोहित

बाबा का भूत: क्या था बाबा की मौत का रहस्य

परदा उठता है. मंच पर अंधेरा है. दाएं पार्श्व पर धीमी रोशनी गिरती है. वहां 2 कुरसियां रखी हैं. एक अधेड़ सा व्यक्ति जोगिया कपड़ों में और एक युवक वहां बैठा है.

परदे के पीछे से आवाजें आती हैं :

‘‘बाबा बीमार है, अब तो चलाचली है, बैंड वालों को बता दिया है. विमान निकलेगा. आसपास के संतों को भी सूचना दी जा चुकी है. उदयपुर से भाई साहब रवाना हो चुके हैं. महामंडलेश्वर श्यामपुरीजी भी आने वाले हैं, पर बाबाओं में झगड़ा है, रामानंदी मंजूनाथ कह रहे हैं, अंतिम संस्कार हमारे ही अखाड़े के तरीके से होगा.’’

आवाजें धीरेधीरे शोर में बढ़ती जाती हैं फिर अचानक परदे के पीछे की आवाजें धीमी पड़ती जाती हैं.

शास्त्रीजी- भैया, अपना आश्रम तो बन गया है, अब पिंकीजी आगे का प्रबंध आप को करना है.

पिंकी- जी वह, बिजली का बिल.

शास्त्रीजी-(इशारा करते हुए) आश्रम का लगा दो.

पिंकी- पर वह तो बाबा के नाम है.

शास्त्रीजी- तो क्या हुआ, अभी तो पूरा आश्रम एक ही है.

पिंकी- यह आश्रम तो अलग बना है.

शास्त्रीजी- (हंसता है) पर बाबा का कोई भरोसा नहीं. मेरा पूरा जीवन यहां निकल गया. (दांत भींचता है) आज क्या कह रहा है, कल क्या कहेगा, मरता भी नहीं है, और मर गया तो ट्रस्ट वाले अलग ऊधम मचाएंगे. जहां गुड़ होता है, हजार चींटे चले आते हैं.

पिंकी- पर आप तो ट्रस्टी हैं और महामंत्री भी.

शास्त्रीजी- अरे, यह तो बाबाओं का मामला है. मैं ने तो बाबा से वसीयत पर दस्तखत भी ले रखे हैं. बात अपने तक रखना…पर वह शिवा है न, बाबा की चेली. सुना है, उस के पास भी वसीयत है. पता नहीं, इस बाबा ने क्याक्या कर रखा है. वह चेली चालाक है, ऊधम मचा देगी.

पिंकी- महाराज, आप तो वर्षों से यहां हैं?

(तभी मोबाइल की घंटी बजती है.)

शास्त्रीजी- हांहां, मैं बोल रहा हूं. क्या खबर है?

उधर से आवाज- हालत गंभीर है.

शास्त्रीजी- (बनावटी) अरे, बहुत बुरी खबर है. मैं कामेसर से कहता हूं, वह प्रेस रिलीज बना देगा, महाराज हमारे पूज्य हैं.

(तभी फोन कट जाता है.)

(पिंकी अवाक् शास्त्रीजी की ओर देख रहा है.)

शास्त्रीजी- यार, तुम भी क्या सुन रहे हो, अपना काम करो. लाइटें लगवा दो. पैसे की फिक्र नहीं. ऐडवांस चैक दे देता हूं. बाद में खातों पर पाबंदी लग सकती है. अभी मैं सचिव हूं. ए.सी., गीजर, फैन सब लगवा लो. फिर दूसरे खर्चे आएंगे. 13 दिन तक धमाका होगा. सारे बिल आज की तारीख में काट दो. यह बाबा… (दांत भींचता है.)

(तभी जानकी का प्रवेश, वह एक प्रौढ़ सुंदर महिला है, बड़ी सी बिंदी लगा रखी है, वह घबराई सी आती है और शास्त्रीजी के पास पिंकी को बैठा देख कर जाने लगती है.)

शास्त्रीजी- तुम कहां चलीं?

जानकी- (रोते हुए) आप ने सुना नहीं, बाबा की तबीयत बहुत खराब है… जा रहे हैं.

शास्त्रीजी- बाबा जा रहे हैं तो तुझे क्या उन के साथ सती होना है?

जानकी- क्या? (उस की त्योरियां चढ़ जाती हैं, वह पिंकी की ओर देखती है. पिंकी घबरा कर चल देता है. उस के जाते ही वह गुर्रा कर कहती है,) वे दिन भूल गए जब तुम भूखे मर रहे थे. टके का तीन कोई पूछता ही नहीं था. मुझे भी क्या काम सौंपा था. यजमानों को ठंडा पानी पिलाना. यहां ठाट किए, मकान बन गए. शास्त्रीजी कहलाते हो. (हंसती है)

शास्त्रीजी- जा, चली जा, उस की आंखें तेरे लिए तरस रही होंगी. उस ढोंगी बाबा के प्राण भी नहीं निकलते.

जानकी- बहुरूपिए तो तुम पूरे हो. बाबा के सामने आए तो ढोक लगाते हो, चमचे की तरह आगेपीछे घूमते हो, पीठ पीछे गाली.

शास्त्रीजी- तुझे क्यों आग लग गई?

जानकी- आग क्यों लगेगी, तुम तो लगा नहीं पाए, सुनोगे, बस तुम क्या सुनोगे? बरसाने की हूं, लट्ठमार होली खेली है.

शास्त्रीजी- चुप कर…जैसा समझाया है, वैसा करना. बाबा के दस्तखत तो कामेसर की जमीन के लिए ले ले. उधर की जमीन तो बाबा शिवा को दे चुका है. वह वहां अपना योग केंद्र बना रही है. इधरउधर के स्वामी उस के ही साथ हैं, कामेसर से कहना…

जानकी- क्या?

शास्त्रीजी- रहने दे, वहां जाने की जरूरत ही नहीं है, मरता है, मरने दे.

(जानकी अवाक् सी शास्त्री की ओर देखती है. तभी मोबाइल की घंटी बजती है.)

शास्त्रीजी- हैलो, हैलो बोल रहा हूं.

उधर से आवाज- बाबा की हालत गंभीर है. स्वामी शिवपुरी उन से मिलना चाहते हैं.

शास्त्रीजी- क्या कहा… आईसीयू में, नहीं, उन से मना कर दो. आप किस लिए वहां हैं, वहां चिडि़या भी न जाने पाए, ध्यान रखो.

(फोन कट जाता है)

(तभी शिवा का प्रवेश, तेजतर्रार साध्वी, माथे पर लंबा टीका है, आंखों में आंसू हैं.)

शिवा- (रोते हुए) शास्त्रीजी.

शास्त्रीजी- क्या हुआ?

शिवा- बाबा जा रहे हैं, मैं गई थी. आईसीयू में. अंदर जाने नहीं दिया. यही कहा जाता रहा, वे समाधि में हैं.

शास्त्रीजी- हां, (सुबकता है. धोती के छोर से आंसू पोंछता है.) शिवा, अब सारी जिम्मेदारी तुम पर है.

शिवा- नहीं शास्त्रीजी, आप महंत हैं, यह आश्रम आप ने ही अपने खूनपसीने की कमाई से सींचा है.

(फिर इधरउधर देखती है. घूमती है, कोने में रखे बोर्ड को देख कर चौंक जाती

है – ‘पुनीत आश्रम.’)

शिवा- यह क्या, शास्त्रीजी. क्या कोई नया पुनीत आश्रम इधर आ गया है?

शास्त्रीजी- नया नहीं पुराना ही है.

शिवा- (चौंकती है) क्या आप अपना नया आश्रम बनवा रहे हैं. अभी तो बाबा जीवित हैं फिर भी…

शास्त्रीजी- हां, तो क्या हुआ? तू ने भी तो अपना हिस्सा ले कर पंचवटी बनवा ली है. क्या वह अलग आश्रम नहीं है? कल की लड़की क्या सारा ही हड़प जाएगी?

शिवा- बाबा के साथ यह धोखा.

शास्त्रीजी (कड़वाहट से)- बाबा से तेरा बहुत पे्रम है.

शिवा (दांत भींचती है)- और तेरा.

शास्त्रीजी- सब के सामने तू मेरे पांव पर पड़ती है, गुरुजी कहती है, और यहां…

शिवा- जाजा. कम से कम अतिक्रमण कर के तो मैं ने कोई काम नहीं किया. सब हटवा दूंगी… (हंसती है) 10-15 दिन की बात है. सारे स्वामी मेरे साथ हैं.

(वह तेजी से चली जाती है. शास्त्री अवाक् उसे जाते देखता है.)

(मंच पर अंधेरा है. सारंगी बजती है. करुण संगीत की धुन. मंच पर प्रकाश, पलंग बिछा है. वहां बाबा सोए हुए हैं. अस्पताल का कोई कमरा. 2 व्यक्ति डाक्टर की वेशभूषा में खड़े हैं.)

पहला- इस की हालत गंभीर है.

दूसरा- पर है कड़कू.

पहला- इस के आश्रम में नेता बहुत आते हैं.

दूसरा- हां, मेरा तबादला इसी ने करवाया था.

पहला- पर यार, इस का सचिव तो…

दूसरा- मुझे भी पता है.

पहला- बात सही है.

दूसरा- यह तो गलत है.

पहला- पर वह 1 लाख रुपए देने को राजी है.

दूसरा- उस की चेली.

पहला- वह भी राजी है, वह भी आई थी.

दूसरा- क्या वह भी यही चाहती है?

पहला- बाबा को अपनी मौत मरने दो, हम क्यों मारें.

दूसरा- चलें.

(तभी दूसरे कोने से कामेसर का प्रवेश. सीधासादा लड़का है. बाबा के प्रति अत्यधिक आदर रखता है.)

कामेसर- (रोता हुआ) बाबा सा, बाबा सा.

बाबा- (कोई आवाज नहीं. कामेसर बाबा को हिलाता है, फिर चिकोटी काटता है.) हाय. (धीमी आवाज आती है.)

कामेसर- बाबा, कैसे हैं?

बाबा- कौन, कामेसर?

कामेसर- हां.

बाबा- कामेसर, मुझे ले चल. ये यहां मुझे जरूर मार डालेंगे, मरूं तो वहीं मरूं, यहां नहीं.

कामेसर- बाबा कैसे? मैं तो यहां आईसीयू में ही बड़ी मुश्किल से आया हूं. 2 डाक्टर वहां बैठे हैं. अंदर आने नहीं देते हैं. वे पास वाले मौलाना बहुत गंभीर हैं. उन से लोग मिलने आए थे. मैं साथ हो लिया.

बाबा- कुछ कर कामेसर. पता नहीं कौन सी दवा दी है, नींद ही नींद आती है.

कामेसर- वहां सब यही कहते हैं कि आप समाधि मेें हैं, वहां तो विमान की तैयारी की जा रही है. बैंड वालों को भी बुक कर लिया गया है.

बाबा- (कुछ सोचता है) हूं, जानकी मिली?

कामेसर- कौन, मां? वे तो आई थीं, पर बापू ने ही रोक लिया.

बाबा- (गंभीर स्वर में) ठीक ही किया.

(बाबा की आंखें मुंदने लगती हैं और वे लुढ़क जाते हैं.)

(पास के कमरे से रोने की आवाज. कामेसर उधर जाता है. 2 व्यक्ति स्ट्रैचर लिए हुए, जिस पर सफेद कपड़े से ढका कोई शव है, उधर से जा रहे हैं.)

कामेसर- रुको यार.

पहला व दूसरा- क्या बात है?

कामेसर- इसे कहां ले जा रहे हो?

पहला व दूसरा- यह लावारिस है, इसे शवगृह ले जा रहे हैं.

कामेसर- कौन था यह?

पहला- कोई फकीर था, भीख मांगता होगा, मर गया.

कामेसर- वहां क्या होगा?

दूसरा- वहां रख देंगे, और क्या. लावारिस है.

(कामेसर पहले वाले के कान में धीरेधीरे फुसफुसा कर कुछ कहता है.)

पहला- नहीं.

दूसरा- क्या?

(पहला दूसरे के कान में फुसफुसाता है. सौदा 50 में तय होता है. वे दोनों रुक जाते हैं, बाबा को स्ट्रैचर पर लिटा कर उस व्यक्ति को बाबा के बिस्तर पर लिटा कर उसे चादर से ढक देते हैं. कामेसर दूसरे दरवाजे से बाबा को ले कर बाहर हो जाता है.)

(मंच पर अंधेरा, पार्श्व संगीत में सितार बज रहा है. अचानक प्रकाश, मोबाइल की घंटी बज रही है.)

शास्त्रीजी- हां, हां क्या खबर है?

उधर से आवाज आ रही है- पंडितजी, बाबा नहीं रहे, कब गए पता नहीं, पर उन के बिस्तर पर बाबा का शरीर सफेद चादर से ढका हुआ है, उन की ड्यूटी पर आया हूं, कुछ कह नहीं सकता. बाबा कब शांत हुए, पर बाबा अब नहीं रहे.

(इधरउधर से लोग दौड़ रहे हैं, मंच पर कुछ लोग शास्त्री के पास ठहर जाते हैं. शिवा रोती हुई आती है और मंच पर धड़ाम से गिर जाती है.)

शिवा- बाबा नहीं रहे, मुझे भी साथ ले जाते. (करुण विलाप)

शास्त्रीजी- (रोते हुए) जानकी… बाबा नहीं रहे.

(रोती हुई जानकी आती है. मंच पर अफरातफरी मच गई है.)

शास्त्रीजी- हांहां, तैयारी करो, कामेसर कहां है? प्रेस वालों को बुलाओ, विमान निकलेगा, बैंड बाजे बुलाओ, सभी अखाड़े वालों को फोन करो, बाबा नहीं रहे, चादर तो संप्रदाय वाले ही पहनाएंगे.

(स्वामी चेतनपुरी, जो कोने में खड़ा है, आगे बढ़ता है.)

चेतनपुरी- क्या कहा? बाबा पुरी थे. हमारे दशनामी संप्रदाय के थे. सारी रस्में उसी तरह से होंगी. दशनामी अखाड़े को मैं ने खबर दे दी है. श्यामपुरीजी आने वाले हैं. जब तक वे नहीं आते, आप यहां की किसी चीज को हाथ न लगावें. यह आश्रम हमारे पुरी अखाड़े का है.

शिवा- (दहाड़ती है) तू कौन है मालिक बनने वाला?

चेतनपुरी- (गुर्राता है) जबान संभाल कर बात कर. इतने दिनों तक हम ने मुंह नहीं खोला, इस का यह मतलब नहीं कि हम कायर हैं. हम तुझ जैसी गंदी औरत के मुंह नहीं लगते.

शिवा- (गरजती है) तू यहां हमारा अपमान करता है अधर्मी, तेरा खून पी जाऊंगी.

शास्त्रीजी- आप संन्यासी हैं, आप लडि़ए मत, यह दुख की घड़ी है, लोग क्या कहेंगे?

चेतनपुरी- (हंसता है) लोग क्या कहेंगे…तू ने अपने परिवार का घर भर लिया. यहां की सारी संपत्ति लील गया. क्या हमें नहीं पता. बरसाने में कथा बांचने वाला यहां का मठाधीश बन गया.

शास्त्री- चुप कर, नहीं तो…

(मंच पर तेज शोर मच जाता है. धीरेधीरे अंधेरा हलका होता है. दाएं पार्श्व से किसी का चेहरा मंच पर झांकता हुआ दिखाई पड़ता है. दूसरी तरफ धीमी रोशनी हो रही है.)

(शिवा डरते हुए, तेज आवाज में हनुमान चालीसा गाती है. सब लोग उस के साथ धीरेधीरे गाते हैं.)

शास्त्रीजी- कोई था.

चेतनपुरी- हां, एक चेहरा तो मैं ने भी देखा था.

शास्त्रीजी- कितना डरावना चेहरा था.

(पीछे से थपथपथप की आवाज आ रही है जैसे कोई चल रहा हो…कोई इधर ही आ रहा है. मंच पर फिर अंधेरा हो जाता है, दाएं पार्श्व में बाबा का प्रवेश. थका हुआ, धीरेधीरे चल रहा है.)

बाबा- क्या हो गया यहां? पहले कैसी खुशहाली थी. सब उजड़ गया. अरे, सब चुप क्यों हैं?

नेपथ्य से आवाजें आ रही हैं –

‘शास्त्रीजी, बैंड वाले आ गए हैं.’

‘अभी विमान भी आ गया है.’ (पोंपोंपों वाहनों की आवाजें.)

‘बाबा श्यामपुरी पधारे हैं.’

बाबा- इतने लोग यहां आए हैं. यहां क्या हो रहा है?

शास्त्रीजी- (उठ कर खड़ा हो जाता है… घबराते हुए) आप… आप, आप…

बाबा- नहीं पहचाना, शास्त्री, मैं बाबा हूं, बाबा.

शास्त्रीजी- बाबा…बाबा (उस का गला भर्रा जाता है, वह बेहोश हो कर नीचे गिर जाता है.)

(शिवा खड़ी होती है, बाबा को देखती है और चीखती हुई भाग जाती है.)

बाबा- अरे, सब डर गए. मैं बाबा हूं, बाबा.

(तभी कामेसर का प्रवेश)

कामेसर- बाबा, आप आ गए, मैं तो वहां आप की तलाश कर रहा था. वे सफाई वाले आ गए हैं, उन्हें 50 हजार रुपए देने हैं.

शास्त्रीजी- कामेसर.

बाबा- शास्त्री, मैं मर कर भूत हो गया हूं. मुझ से डरो…डरो…डरो…डरो.

कामेसर- बाबा, आप बैठ जाओ, गिर पड़ोगे. (और वह दौड़ कर कुरसी लाता है.)

बाबा- मैं भूत हूं… डरो मुझ से. भूत मर कर भी जिंदा है. (बाबा जोर से हंसता है.) बजाओ, बैंड बजाओ, नाचो. कामेसर, मिठाई बांट, देख तेरा बाबा मर कर भूत बन गया है. भूत, भूत..

स्वीकृति: नीरा ने कैसे संभाला घर

मोबाइल पर नीरा से विभू ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें लेने आ रहा हूं.’’ बिना किसी पूर्व सूचना के कैसे आ रहे हैं? जरूर कोई खास बात होगी. यह सोच कर नीरा ने डा. स्वाति को अपने केबिन में बुला कर बाकी मरीजों को उस के हवाले किया और खुद नीचे कारिडोर में पहुंच गई. विभू नीचे गाड़ी में बैठे उस की प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘भैया का फोन आया था अस्पताल से, अम्मां को हार्ट अटैक हुआ है. तुरंत पहुंचने को कहा है,’’ वह बोले.

विभू की आवाज के भारीपन से ही नीरा ने अंदाजा लगाया कि अपने घर से अलगाव के 3 सालों के लंबे अंतराल से मन में दबी उन की भावनाएं इस पल  जीवंत हो उठी हैं.

पति के बगल में बैठी नीरा की आंखों की पलकें बारबार गीली होने लगीं. पलकों की ओट में दुबकी तमाम यादें उभर आईं.

आंखों के सामने वह मंजर सजीव  हो उठा, जब शादी के अगले ही दिन अपने खानदानी पलंग पर परिजनों के बीच बैठी अम्मां ने नीरा के पीहर से आए दहेज की बेहूदा नुमाइश की थी.

बड़ी भाभी के पिता का सूरत में  कपड़े का बड़ा व्यापार था. दहेज में हीरेजवाहरात के साथ लाखों की नगदी  भी लाई थीं.

‘दानदहेज चाहे न देते, बरात की आवभागत तो सही तरीके से करते,’ मझली भाभी अपने पीहर का गुणगान ऊंचे स्वर में करने लगी थीं.

विभू ने उसे बताया था कि मझली भाभी इकलौती बेटी हैं, सिरचढ़ी भी हैं. आजकल अपने भाई के साथ साझेदारी में मझले भैया को ठेकेदारी का काम खुलवाने की फिराक में हैं.

‘बेशक शिक्षा और स्वास्थ्य के आधार पर भैया का चयन अच्छा है. बस, डर इस बात का है कि पढ़ीलिखी ज्यादा है. ऊपर से है भी छोटे घर की. पता  नहीं, हमारे घर से तालमेल बना पाएगी या नहीं,’ उमा दीदी ने लंबी सांस खींचते हुए कहा था.

इस घर के तीनों बेटों में से विभू ही ऐसे थे जिन्होंने इंजीनियरिंग तक शिक्षा प्राप्त की थी. दोनों बड़े भाइयों ने जैसेतैसे ग्रेजुएशन किया. पापा ने उन्हें गद्दी पर बिठा दिया और धनाढ्य परिवारों की 8वीं और 10वीं पास लड़कियों से छोटी उम्र में उन का ब्याह  भी करवा दिया.

दोनों बहुओं के यहां से अम्मां को दानदहेज मिलता रहता. लेकिन जब तीसरी के समय उन की उम्मीदों पर पानी फिरा तो अलाव सी वह सुलग उठी थीं.

अम्मां ने ढेरों उदाहरण पेश किए तो विभू भी अपना आपा खो बैठे थे.

‘अम्मां, नीरा के पिता सरकारी दफ्तर में अफसर हैं. सीमित आमदनी में से नीरा को डाक्टर बनाया. फिर भी जो कुछ उन से बन पड़ा, दिया तो है. खाली हाथ तो विदा किया नहीं है.’

‘जुम्माजुम्मा 2 दिन की पहचान नहीं और लगा बीवी की तरफदारी करने. थोड़े दिनों बाद तेरे ही सिर पर चढ़ कर बोलेगी.’

अम्मांजी की गंभीर आवाज और अभिजात दर्प से भरे व्यक्तित्व की छाप नीरा आज तक कहां मिटा पाई?

सुहागरात को फूलों से महक रहे कमरे में रेशमी, मखमली चादर पर पति के आगोश में लेटी नीरा गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही थी. यह सच है कि विभू ने नीरा से और नीरा ने विभू से प्रेम किया था, पर विवाह का प्रस्ताव विभू की ओर से ही आया था.

बड़ी ही विचित्र परिस्थिति में दोनों की भेंट हुई थी. नीरा उन दिनों सरदार पटेल अस्पताल में इंटर्नशिप कर  रही थी. विभू को इसी अस्पताल में मेंटेनेंस का चार्ज मिला हुआ था. दोनों की भेंट कौफी हाउस में ही होती थी.

धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षित हुए और कब प्रेम का पौधा  अंकुरित हुआ, पुष्पित हुआ, पता ही नहीं चला.

अम्मां को जिस दिन इस प्रेम कहानी के बारे में पता चला, उन्होंने हंगामा ही खड़ा कर दिया था. शानशौकत, धनदौलत, मोटरगाड़ी के रंग में रंगी अम्मां को नीरा जरा नहीं भाई थी. एक तो विजातीय, दूसरे, डाक्टर और घराना भी कोई खास नहीं.

नीरा भी बारबार विभू से यही दोहराती रही थी, ‘मैं, एक मध्यवर्गीय  परिवार की साधारण सी कन्या हूं. तुम्हारे संभ्रांत परिवार की कसौटी पर, कहीं भी खरी नहीं उतरती.’

पर विभू हर बार यही कहते, ‘‘तुम से लगाव मानसिक स्तर पर है. दानदहेज, रुपएपैसे तो हाथ का मैल है, नीरा. मैं ने तुम्हारे रूपलावण्य से नहीं, शिक्षा, संस्कार और गुणों से प्रेम किया है. तुम सही मानों में मेरी जीवनसंगिनी साबित होगी, ऐसा मेरा विश्वास है.’

अम्मां ने लाख पटकनी दी पर विभू टस से मस नहीं हुए थे. नीरा से विवाह नहीं तो आजन्म कुंआरे रहने की बात उन्होंने जैसे ही मां से कही, अम्मां ने बेमन से हथियार डाल दिए थे.

ब्याह का दूसरा दिन था. फेरा डालने की रस्म पूरी करने के लिए भाई रोहित उसे लेने आया. अम्मां ने एक नजर फल और मिठाई के टोकरों पर डाल कर मुंह दूसरी ओर फेर लिया था.

‘यह सब क्यों भिजवा दिया समधिनजी ने?’ वह उफनती हुई बोलीं, और फिर उसी टोकरी में से कुछ फल, थोड़ी सी मिठाई और एक सस्ती सी कमीज अलमारी में से निकाल कर उन्होंंने रोहित की गोद में रखी. तभी रसोई के दरवाजे पर खड़ी मझली भाभी की कुटिल हंसी में डूबी आवाज आई, ‘बहन की ससुराल से मिली चीज का चाव तो होता ही है, भाई को. कहीं आनाजाना हो तो पहनना.’

संभ्रांत परिवार से आई इन औरतों का दर्प, कहीं भीतर तक नीरा को साल गया था. अपमान की यह पहली किरच थी. फिर तो दिनरात, जानेअनजाने, कई किरचें छलनी करती गई थीं उसे.

ब्याह को कुछ ही दिन हुए थे. विभू और नीरा देर रात गए हनीमून से लौटे थे. सफर की थकान और एकदूसरे के प्रेम में पगे जोड़े की सुबह कब हुई, पता ही नहीं चला. दूर किसी मिल का भोंपू चीखा तो नीरा की नींद भंग हुई. अस्तव्यस्त सी उठी तो किसी ने जोर से दरवाजा खटखटा दिया. सामने अम्मां खड़ी थीं. उन की आंखें क्रोध बरसा रही थीं. कमरे में आते ही विभू पर बरसीं.

‘पूरा दिन बहू की ही गोद में बैठा रहेगा. अब यह यहीं रहेगी, कहीं नहीं जाएगी. जब जी चाहे इस की गोद में बैठ लेना. पर इस से यह कह कि थोड़ाबहुत घरगृहस्थी का भी बोझ संभाले.’

अम्मां आंधी की तरह आई थीं, तूफान की तरह निकल गईं. नीरा संकोच से घिर गई. इस घर की सभी महिलाएं 8 बजे से पहले उठती ही कब हैं?

पत्नी की उदासी पोंछने का प्रयास करते हुए विभू बोले, ‘कई बार एक बात की चिढ़ दूसरी बात पर निकलती है. देखना, देरसबेर तुम्हें अम्मां जरूर अपना लेंगी. मां का दिल है, कोई संकरी गली नहीं.’

सुबहसुबह नीरा चौके में चली तो  गई, पर कभी दूध का गिलास, कभी फू्रट जूस, कभी शहदबादाम कटोरी में लिए उस के आगेपीछे घूमती अपनी मां का चेहरा आंखों के सामने घूम गया था. कोई सब्जी कटवाने भी पास नहीं फटका था. विभू ने उसे पहले ही बता दिया था  कि बहाने बनाने में दोनों भाभियों को महारत हासिल है.

नीरा ने पूरी टेबिल पकवानों से सजा दी थी.

शाम को घर लौटते समय उमा दीदी के मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘नीरा, बहुत अच्छा पकाती हो. पहली बार  पीहर में छक कर खाया. दोनों भाभियों ने तो कभी पानी का गिलास भी ढंग से नहीं दिया.’

उस पल नीरा ने कनखियों से अम्मां के चेहरे के उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ने का प्रयास किया. शायद प्रशंसा के दो बोल उन के मुंह से भी फूटें पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.

एक दिन फोन पर पापा बोले, ‘नीरा, बेटी, कब से ज्वाइन कर रही हो? कल ही डा. अस्थाना मिली थीं. तुम्हारे बारे में पूछ रही थीं.’

‘सोच रही हूं पा…पा…’ उस ने धीरे से कहा. बाकी के शब्द उस के गले में ही अटक कर रह गए थे.

‘डाक्टर हो. इस तरह घर बैठने से प्रैक्टिस छूट जाएगी,’ इतना कह कर उन्होंने फोन काट दिया था. इतने में विभू  कमरे में आ गए थे. साथ में बड़े भैया भी थे. बोले, ‘किस का फोन था?’

‘समधीजी का,’ अम्मां बोलीं, ‘बेटी को नौकरी पर जाने के लिए भड़का रहे थे.’

नीरा सोचती रह गई थी कि इन्हें कैसे पता चला पापा का फोन था?

‘वैसे विभू की बहू को नौकरी करने की क्या सूझी?’ बड़े भैया ने अम्मां से ऐसे पूछा मानों कोई अनहोनी होने जा रही हो.

‘बेटा, मध्यवर्गीय परिवार की बेटी है. समधीजी की आमदनी से तो घर भर ही चलता होगा. अगर परिवार के सभी सदस्य न कमाएं तो गुजारा कैसे हो? जिन्हें घर से बाहर निकलने की आदत होती है, उन्हें घर तो काटने को दौड़ेगा ही.’

रात को खाने की मेज पर नीरा की पेशी हुई. परिवार के सभी सदस्यों के बीच सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया गया कि नीरा नौकरी कर सकती है पर घर की व्यवस्था चरमरानी नहीं चाहिए.

उस दिन विभू को घर में अपना कद छोटा दिखाई दिया था. इस घर के सभी लोग क्यों उस की पत्नी को नीचा दिखाने पर तुले हैं. महज इसलिए क्योंकि वह पढ़ीलिखी है और दहेज में तगड़ी रकम नहीं लाई है? और फिर कौन सी व्यवस्था की बात की जा रही है? सुबह देर से उठना, देर रात तक जागना, 24 घंटे टीवी पर बेसिरपैर के चैनल बदलना, अंगरेजी धुन पर बच्चों का नाचना और घर से बाहर निकल कर ट्यूशन पढ़ना, चौका महाराजिन के सुपुर्द कर गहने बनवाना, गहने तुड़वाना, क्या यही सब?

उस के बाद पाबंदियों की लंबीचौड़ी फेहरिस्त पकड़ा दी गई.

अगली सुबह 5 बजे उठ कर नीरा  ने दौड़भाग कर काम निबटाया. सासजी रक्तचाप और आर्थराइटिस की मरीज थीं. ऐसे समय में काम वाली की भी छुट्टी  कर दी जाएगी यह उम्मीद नहीं थी उसे.

शाम को पसीने से तरबतर वह जैसे ही अस्पताल से घर में घुसी, चाय का पानी चढ़ा कर सीधे अम्मां के कमरे में पहुंची. अस्पताल में क्याक्या हुआ, वह खुद ही हंसहंस कर बताती रही. पर अम्मां ने उस की बातों में किसी प्रकार की कोई दिलचस्पी नहीं ली.

मानव स्वभाव ही ऐसा है कि वह प्यार के बदले प्यार और आदर के बदले आदर चाहता है. नीरा भी घरबाहर, दोनों जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रही थी. फिर भी घर के सभी सदस्य उस से दूरी बनाए हुए थे.

एक बरस में वह गर्भवती हो चुकी थी. उन्हीं दिनों, डाक्टरों की कानफे्रंस में सुबह 8 से शाम 5 बजे तक उपस्थित रह कर जब लौटती तो थकावट से उस का बुरा हाल हो जाता. धीरेधीरे उस का स्वास्थ्य गिरने लगा. आंखों के नीचे काले गड्ढे पड़ने लगे.

एक दिन विभू ने अम्मां से काम वाली के बारे में पूछताछ की तो वह बोलीं, ‘वह तो गांव लौट गई. क्यों?’

असल में अम्मां, इतनी मीनमेख निकालती थीं कि कोई कामवाली 2-3 महीनों से ज्यादा उन के घर टिकती ही नहीं थी. और जब से नीरा ने चौका संभाला है तब से तो वह पूरी तरह से बेपरवाह हो गई थीं.

कल्पवृक्ष: भाग 3- विवाह के समय सभी व्यंग क्यों कर रहे थे?

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

‘‘यह तो ठीक है पापा. परंतु आप मुकेश भैया से सब हाल तो सुन लो,’’ वह संकोच से बोला.

‘‘नहींनहीं, रहने दें. हम यहीं से दूसरे खरीद कर रख देंगे. आप अभी रस्म तो पूरी होने दें, यह जरूर है कि इतने भारी न ले पाएंगे, क्षमा चाहते हैं हम इस के लिए.’’

‘‘परंतु मैं चाहता हूं कि आप वह सब इन सब को भी सुना दें, जो मधु भाभी के बारे में मु झे बतलाया है. आप लोगों ने जानबू झ कर तो नहीं बताया, मेरे खुद पूछने पर ही तो बताया है,’’ संजय बोला.

सहसा निखिल का मुंह अपमान की भावना से तमतमा गया. उसे मन ही मन मधु की दानशीलता पर क्रोध आ रहा था. क्यों मान ली सब ने उस की बात? यदि सारा सामान इन लोगों ने लेने से इनकार कर दिया तो कितनी थूथू होगी. यही अखिल, मुकेश, पिताजी व साथ आए लोग सोच रहे थे. फिर संजय के बहुत जोर डालने पर मुकेश ने पिछली घटना सुना दी, जो सच थी कि कैसे वह इस संबंध को टाल रहे थे और कैसे मधु ने अपना सारा दहेज ननद विभा को दे कर रिश्ता पक्का कराया, आदि.

‘‘तो क्या हुआ, दे तो रहे हैं सब सामान. किस का है, इस से हमें क्या. हम ने भी तो तेरी बड़ी बहन को कुछ सामान तेरे बड़े भाई के दहेज का दिया था. नाम से क्या, कौन देखेगा नाम? थाल तो आए और रखे गए. कौन रोजरोज इस्तेमाल करता है, इतने बड़े बरतन,’’ पिताजी बोले तथा अन्य व्यक्तियों ने भी इस का अनुमोदन किया.

‘‘परंतु मु झे नहीं चाहिए यह सब,’’ ये शब्द संजय के मुंह से सुन कर सब के मुंह सफेद पड़ गए.

‘‘बेवकूफ है क्या?’’ बड़ा भाई अजय चिल्ला कर बोला.

‘‘तू सब हंसीखेल सम झता है. सामान लाना, खरीदना, ये लोग क्या इतना ले कर चले होंगे? चुपचाप बैठ कर दस्तूर होने दे. आप लोग चिंता न करें, यह तो ऐसा ही हठी है. पंडितजी, दस्तूर कराइए.’’

‘‘नहीं भैया, जब तक ये थाल नहीं चले जाएंगे, मैं कुछ नहीं कराऊंगा. आप अपने भीतर से थाल मंगाइए न,’’ वह अड़ गया.

‘‘तो ठहरिए साहब, हम बाजार से दूसरे ले कर आते हैं, तब तक ठहरना होगा,’’ मुकेश उठता हुआ बोला.

‘‘नहीं, भाईसाहब. आप बैठिए, अंदर से तो आ रहे हैं थाल.’’

‘‘अरे, ये सब तो शगुन के थाल आदि लड़की वाले के यहां से ही आते हैं, थोड़ा रुक लेते हैं.’’

“नहीं भैया, मैं यह सब अब न ले सकूंगा. जो लिस्ट आप लोगों ने बना कर भेजी थी और जो ये लोग देने वाले हैं. आप जानते ही हैं कि लड़कियों को अपने मायके की एकएक चीज कितनी प्यारी होती है, परंतु जिस घर में ऐसी उदारमना स्त्री हो जो खुशी से अपना सारा दहेज खुद दान कर रही हो उसे ले कर मैं उस उदार स्त्री से छोटा नहीं बन सकता. इस से मैं इन कपड़ों आदि के अलावा अब कोई कोई चीज स्वीकार नहीं करूंगा. मैं अब इस के अलावा आगे कुछ नहीं लूंगा. बिना दहेज के ही उस घर की बेटी ब्याह कर लाऊंगा.

‘‘मैं तो पहले ही भैया, जीजाजी से अनुरोध कर रहा था कि इतना लंबाचौड़ा दहेज मांग कर कन्यापक्ष को आफत में न डालें. अब जो हुआ सो हुआ, आगे कोई मु झे विवश न करे. बस, ये लोग साथ गए बरातियों का अच्छा स्वागत कर दें, वही काफी होगा.’’ पिताजी, बड़े भाई और बहनोई ने यह सुना तो सन्न रह गए. परिवार के अन्य सदस्य भी दौड़े आए. हर प्रकार सम झाया, परंतु संजय अपनी प्रतिज्ञा से नहीं डिगा. घर वालों को कोपभाजन बनने पर उस ने धमकी दे दी कि वे यदि तंग करेंगे तो वह कोर्टमैरिज कर सब की छुट्टी कर देगा. विवशता में उन सब को पीछे हट कर अपनी स्वीकृति देनी पड़ी.

‘‘क्यों निखिल भैया, आप की कोई साली कुंआरी है,’’ संजय के इस प्रश्न पर निखिल सहित सब चौंक गए. निखिल हंस कर बोला, ‘‘भई, क्या इरादे हैं?’’

‘‘इरादे तो नेक हैं, यदि हो तो मेरी बूआ के एकमात्र बेटे हैं ये, सुधीर, सबइंजीनियर, इन के लिए मधु भाभी सी लड़की चाहिए,’’ निखिल का चेहरा खुशी से दमक उठा.

‘‘है तो पर सगी नहीं, चचेरी है.’’

‘‘चचेरी. पता नहीं कैसी हो.’’

‘‘मधु से बढ़ कर. मधु अपनी मां से अधिक चाची को मानती है. संयुक्त परिवार होते हुए भी सब एक थाल में खाने वाले हैं. दोनों परिवारों में बहू व दामाद आ गए हैं, परंतु जैसे उस चोखे रंग में रंग कर एकाकार हो गए हैं. पता नहीं कौन सी ममता और अपनेपन की बूटी खाते हैं उस घर के लोग और वही मधु के साथ अपनेपन की बूटी हमारे घर चली आई है,’’ वह हंस कर बोला.

‘‘ठीक है. यदि लड़की पसंद आ गई तो वह अपनेपन की बूटी हमारी बूआ के घर भी आ जाएगी, शादी में तो आएगी ही वह.’’

‘‘हां, क्यों नहीं? पूरा परिवार आएगा. लड़की स्नातक, गोरीचिट्टी, सुंदर है. नापसंद का तो सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘तब सब से पहली पसंद मेरी होगी वह, है न सुधीर.’’

सुधीर  झेंप कर मुसकरा दिया.पहले निखिल मधु की अक्ल पर मन ही मन भरा बैठा था, परंतु उसे अब लग रहा था कि कब वह उड़ कर अपने घर पहुंचे और मधु को बांहों में भर कर नचा डाले और कहे कि बता तो, कौन सी बूटी की घुट्टी पी कर आई है कि सब को इतनी सरलता से उंगलियों पर नचा देती है. यदि वह कल्पवृक्ष उस के मायके के आंगन में लगा है तो वह उसे तोड़ कर पूरे परिवार को घोट कर पिला दे.

उस ने अपने भाइयों और पिताजी की ओर निहार कर देखा जो सभी प्रशंसक नजरों से उसे देख कर मुसकरा रहे थे. उस ने शरम से मुंह घुमा लिया.

दूसरे दिन जब वे गृहनगर पहुंचे तो सुबह हो गई थी. पूरा घर जाग उठा था. सब उन के आसपास एकत्र हो गए. सभी यह जानने को आतुर थे कि तिलक समारोह कैसा रहा.

‘‘मधु कहां है?’’ पिताजी ने उसे न देख कर पूछा.

‘‘होगी कहां, चायनाश्ते की तैयारी में जुटी होगी,’’ मांजी बोलीं. अभी बात भी पूरी नहीं कर पाईं कि वह चाय की ट्रे ले कर बैठक में चली आई. ट्रे मेज पर रख कर उस ने सब के चरण छुए, फिर उन के शब्द सुन कर मूर्ति की तरह खड़ी हो गई.

‘‘बाबूजी, मु झ से कुछ बड़ी गलती हो गई क्या. क्या हुआ मेरे कारण? कृपया बतलाइए न?’’

‘‘हां, बहुत बड़ी गलती हो गई रे. तू ने जो अपने मायके के थाल दिए थे न उन के कारण. ले उठा यहां से अपने थाल और रख आ उन्हें जहां से उठा लाई थी.’’

‘‘हे दाता, क्या उन्हें ये थाल पसंद नहीं आए थे?’’ वह भय से बोली.

‘‘नहीं लिए, क्योंकि तुम उन में विराजी जो थीं,’’ पिताजी गंभीरता से बोले.

‘‘मैं विराजी थी. क्या कह रहे हैं आप?’’ वह आंखें फाड़ कर बोली.

‘‘यह देख, तेरे हर थाल में यह रही मधु, है न?’’

‘‘ओह, मैं तो डर ही गई. तो क्या हुआ, नाम ही तो है, इस से क्या.’’

‘‘इसी से तो नहीं लिए, और वह सब भी नहीं लेंगे जिस में तेरा नाम है.’’

‘‘सब में नाम थोड़े लिखा है,’’ वह रोंआसी हो गई.

‘‘अब क्या होगा? क्या शादी रद्द हो गई?’’

‘‘अरे पगली, अब वे दहेज लेंगे ही नहीं. तेरा गुणगान सुन कर संजय ने दहेज न लेने की सौगंध खाई है. कह रहा था जिस घर में ऐसी ममतामयी बहू हो, उस घर से दानदहेज लेना पाप है. हम ने तेरी सब बातें बतलाईं, तो लड़का द्रवित होता चला गया.’’

‘‘आप बना रहे हैं, बाबूजी,’’ उस की आंखें भर आईं.

‘‘बैठ बेटी. तुम सब भी बैठो,’’ फिर उन्होंने शुरू से अंत तक सारा हाल बता दिया और मधु के सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘‘मधु, तु झे पा कर हम धन्य हुए. तेरी चचेरी बहन की शादी भी संजय की बूआ के लड़के से तय कर आए हैं. ऐसे परिवार की लड़की कौन पसंद नहीं करेगा जिस परिवार की हमारी मधु जैसी बहू हो. तेरे दोनों जेठ तेरी बड़ाई करते आए हैं, और निखिल तो वहां थालों के विवाद पर तमतमाया मुंह लिए खार खाए बैठा था. अब अपनेआप पानीपानी हो गया है. जा, वह कमरे में तेरी प्रतीक्षा कर रहा है.’’

मधु शरम से दोनों हाथों से मुंह छिपाए कमरे की ओर दौड़ती चली गई. सब ने उसे प्यारभरी नजरों से देख कर मुसकान बिखेर दी, मां तो जैसे धन्य हो गईं. मधु पास होती तो अवश्य उसे छाती से लगा कर रो पड़तीं.

जीवन लीला: भाग 3- क्या हुआ था अनिता के साथ

लेखकसंतोष सचदेव

नवीन का ट्रांसफर देहरादून हुआ तो उस के घर को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से 15-20 दिन के लिए मैं उस के साथ देहरादून चली गई. लौट कर आई तो सीढि़यों पर लगे लैटर बौक्स से अपने पत्र, पानी, बिजली और टेलीफोन के बिल निकाल कर लेती आई. उसी में एक लिफाफा था, जिस पर मेरा नामपता लिखा था. उस में डाक टिकट नहीं लगा था, इस का मतलब वह डाक से नहीं आया था. उस में उसी बीच की तारीख पड़ी थी, जिन दिनों मैं देहरादून में थी.

मैं ने लिफाफा खोला, तो उस में से एक पत्र निकला. उस में लिखा था, ‘मां, मैं न्यूयार्क से सिर्फ आप से मिलने आया था. मेरा नाम रोहित है. मिसेज एंटनी ने बताया था कि मेरा यह नाम आप ने ही रखा था. वैसे मुझे सब रौबर्ट कहते हैं. स्कूल में मेरा यही नाम है. मुझे पता नहीं, मैं कब पैदा हुआ, पर स्कूल रिकौर्ड के अनुसार मैं अब 16 साल का हो गया हूं. मैं मिसेज एंटनी को ही अपनी मां समझता रहा. मैं ने उन से कभी उन के पति (अपने पिता) के बारे में नहीं पूछा. सोचता था कि कहीं उन का दिल न दुखे. पर अचानक एक महीने पहले मृत्यु शैय्या पर पड़ी मिसेज एंटनी ने मुझे बताया कि वह मेरी मां नहीं हैं.

‘उन्होंने तो शादी ही नहीं की थी. उन का कहना था कि वह कई सालों पहले कैलीफोर्निया में मेरे पिता वरुण अरोड़ा के साथ नर्स के रूप में काम करती थीं. स्वास्थ्य खराब होने की वजह से वह नौकरी छोड़ कर अपने भाई के पास न्यूयार्क आ कर रहने लगी थीं. अपने एक मित्र से उन्हें पता चला कि डा. वरुण अरोड़ा ने भारत की एक महिला से शादी की थी और उन का एक बेटा है. उन की पत्नी ने अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने बेटे का नाम रोहित रखा था. कभी साल में एकाध बार डा. साहब से उन की बात हो जाती थी. वह कैलीफोर्निया से वाशिंगटन चले गए थे.

‘एक दिन अचानक डा. वरुण मुझे ले कर उन के घर आ पहुंचे और कहा कि रोहित की मां उसे छोड़ कर भारत चली गई है. इस की देखभाल के लिए कोई नहीं है, इसलिए मैं चाहता हूं कि इस की गवर्नेस बन कर वह इसे संभालें. डा. वरुण मेरे पालनपोषण का खर्च भेजते रहे, लेकिन कुछ महीनों बाद खर्च आना बंद हो गया. मिसेज एंटनी ने कैलीफोर्निया में अपने पुराने मित्रों से डा. वरुण के बारे में पता किया तो पता चला कि उन्होंने डा. मारिया नाम की एक अमेरिकी महिला से शादी कर ली है और उस के साथ नाइजीरिया चले गए हैं.

‘डा. वरुण और मेरी भारतीय मां का पता लगाने की उन्होंने बहुत कोशिश की, लेकिन कुछ पता नहीं चला. थकहार कर वह मुझे अपना बेटा मान कर मेरा पालनपोषण करने लगी. पर मरने से पहले उन का यह रहस्योद्घाटन मेरे लिए एक बड़ी पहेली बन गया. मेरे पिता हैं तो कहां हैं? मेरी मां भारत में हैं तो कहां हैं?

‘दिनरात मैं इसी उधेड़बुन में पड़ा रहता. मेरी पढ़ाई छूट रही थी. मैं मिसेज एंटनी के पुराने सामान को खंगालता रहता. अचानक उन के भाई डेविड के साथ उन के पत्राचार में एक जगह लिखा मिला कि जर्मनी में कोई सरदार नानक सिंह हैं, जो मेरी भारतीय मां के बारे में जानते हैं. बस मैं ने उन्हें खोज निकाला और आप का पता पा लिया.

‘अब समस्या थी कि भारत में आप से कैसे संपर्क करूं? तभी मेरे एक मित्र स्टीफन के बड़े भाई की शादी दिल्ली में तय हो गई. वे लोग एक सप्ताह के लिए दिल्ली आ रहे थे. मेरे अनुरोध पर वे एक सप्ताह के लिए मुझे अपने साथ दिल्ली ले आए. मैं पहले ही दिन से आप के घर के चक्कर लगाने लगा, पर वहां ताला लगा था. पड़ोसियों से पता चला कि आप किसी दूसरे शहर देहरादून गई हैं, 15-20 दिनों में लौटेंगी.

‘मैं इतने दिनों तक नहीं रुक सकता था. मेरे लिए दिल्ली और यहां के लोग बिलकुल अजनबी थे. मुझे कल अपने मित्र के परिवार के साथ न्यूयार्क जाना है, अपने भीतर एक गहरी पीड़ा लिए मैं वापस जा रहा हूं, लेकिन आशा की डोर थामे हुए. नीचे मेरा पता और फोन नंबर लिखा है. मेरे मित्र का फोन नंबर और पता भी लिखा है. आप मेरा यह पत्र पढ़ते ही मुझे फोन करना. अब दुनिया में सिवाय आप के मेरा कोई नहीं है. आशा है, आप से जल्दी ही मिल पाऊंगा.

आप का रोहित.’

पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा बदरंग हो गया. सहमी और अधमरी सी हो गई मैं. मेरे भीतर का गहरा घाव फिर हरा हो गया. मैं कैसी मां हूं, अपने ही बेटे को भूल गई. बेटा तड़प रहा है और मैं? मेरे पति प्रेमकुमारजी ने मेरा अवाक चेहरा देखा तो मेरे हाथ से पत्र ले कर एक सांस में पढ़ गए. उन्होंने कहा, ‘‘इतनी बड़ी खुशी, चलो अभी फोन करो.’’

मोबाइल, इंटरनेट का जमाना नहीं था. एसटीडी पर फोन बुक किया. कई घंटे बाद फोन मिला. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. समय काटे नहीं कट रहा था. हम ने रोहित के मित्र स्टीफन को फोन बुक किया. फोन मिला, पर जो सुनने को मिला, लगा जैसे किसी ने कोई विषैला तीर सीधा मेरे सीने में उतार दिया है. उस ने बताया, ‘‘रोहित ने एक सप्ताह पहले आत्महत्या कर ली थी. मरने से पहले उस ने अपनी स्कूल की कौपी के आखिरी पन्ने पर लिखा था, ‘मेरा इस दुनिया में कोई नहीं. काश, मिसेज एंटनी मरने से पहले मुझे यह न बतातीं कि वह मेरी मां नहीं थी. मैं अन्य अनाथ बच्चों की तरह मनमसोस कर रह जाता. पर मांबाप के होते हुए भी मैं अनाथ हूं. पिता का तो पता नहीं, उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी पर मेरी भारतीय मां, वह भी मुझे भूल गई. दोनों ने मुझे बस पैदा किया और छोड़ दिया. कितने उत्साह और कितनी कोशिशों के बाद मैं ने अपनी भारतीय मां को ढूंढ़ निकाला था.

पिछले 15 दिनों से मेरे फोन की हर घंटी मुझे मां के फोन की लगती थी. सुना था कि मां में अपने बच्चे के लिए बड़ी तड़प होती है, लेकिन मेरी मां तो अपने में ही मस्त है. क्या मां ऐसी ही होती हैं? जब मेरा कोई नहीं तो मैं किस के लिए जिऊं. हर एक का कोई बाप, मां, भाई बहन है, मेरा कोई नहीं तो मैं क्यों हूं? बस, अब और नहीं… बस.’’

फोन पर जो सुनाई दिया, मैं जड़वत सुनती रही. फिर क्या हुआ पता नहीं. मैं ने बिस्तर पकड़ लिया. 3-4 महीने तक मैं बिस्तर पर मरणासन्न पड़ी रही. प्रेमकुमार मेरी सेवा में लगे रहे. मैं अभागी मां, सिर्फ अपने को कोसती छत की कडि़यों में 3 साल के अपने बच्चे के बड़े हुए रूप के काल्पनिक चित्र को निहारती रहती. सुना था, वक्त वह मरहम है, जो हर घाव को भर देता है. घाव यदि गहरा हो तो निशान छोड़ जाता है, पर मेरा घाव तो फिर से हरा हो गया था. मन करता, मैं भी आत्महत्या कर लूं. पर आत्महत्या के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए, यह कायरों का काम नहीं है.

कहते हैं, कि जब मनुष्य जन्म लेता है तो उस की मौत तभी तय हो जाती है. पैदा होते ही मरने वालों की लाइन में लग जाती है. कब बुलावा आ जाए, पता नहीं. मैं तो नहीं मरी, पर प्रेमकुमारजी चले गए. मैं फिर अकेली रह गई. अब क्या करूं, किस का आश्रय ढूंढू? जानती थी, पर आश्रित होने से तो अच्छा है मृत्यु की आश्रित हो जाऊं.

बुढ़ापे में परआश्रित होने पर तो असहनीय पीड़ा, घुटन भरा जीवन, अपमानित होने का डर, रहीसही जीवन की आकांक्षाओं को डस लेता है. मैं सुबहशाम एक वृद्धाश्रम में अपना समय बिताने लगी.

जीवन का 85वां सोपान चढ़ चुकी हूं. जब इतना कुछ सहने पर भी मैं पाषाण की तरह अडिग हूं तो आने वाला कल मेरा क्या बिगाड़ लेगा? कहीं पढ़ा था, ‘‘चलते रहो, चलते रहो.’’ और मैं चल रही हूं. अंतिम क्षण तक चलती रहूंगी.

निष्कलंक चांद: क्या था सीमा की असलियत

‘‘मुझे ये लड़की पसंद है.’’

राकेश के ये शब्द सुनते ही पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गई. रामस्वरूप को ऐसा भान हुआ जैसे उन के तपते जीवन पर वर्षा की पहली फुहार पड़ गई हो. वह राकेश के दोनों हाथ थाम गदगद कंठ से बोले, ‘‘यकीन रखो बेटा, तुम्हें अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं होगा. मेरी सीमा एक गरीब बाप की बेटी जरूर है लेकिन तन और मन की बड़ी भली है. हम ने खुद आधा पेट खाया है पर उसे इंटर तक पढ़ाया है. घर के सारे कामकाज जानती है. तुम्हारे घर को सुखमय बना देगी.’’

राकेश मुसकरा दिया. वह खुद जानता था कि सीमा का चांदनी सा झरता रूप उस के घर को उजाले से भर देगा. यहां उसे दहेज चाहे न मिल रहा हो लेकिन सोने की मूरत जैसी जीवनसंगिनी तो मिल रही थी.

गरीब घर की बेटी होना राकेश की नजरों में कोई दोष न था. वह जानता था कि गरीब बाप की बेटी खातीपीती ससुराल में पहुंच कर हमेशा सुखी रहेगी. बड़े बाप की घमंडी बेटी के नखरे उठाना उस जैसे स्वाभिमानी युवक के बस के बाहर था. इसीलिए उस ने विवाह के लिए यहां निस्संकोच हां कर दी थी.

इधर विवाह तय हुआ, उधर शहनाई बज उठी. आंखों में सतरंगी सपनों का इंद्रधनुष सजाए सीमा ससुराल पहुंची. ससुराल में सासससुर ने उसे हाथोंहाथ लिया. तीनों ब्याहता ननदें भी उसे देख कर खुशी से फूली न समाईं. आसपड़ोस में धूम मच गई, ‘‘बहू क्या है, चांद का टुकड़ा है. लगता है, कोई अप्सरा धरती पर उतर आई हो.’’

सीमा के कानों तक यह प्रशंसा पहुंची तो वह इठलाते हुए बड़ी ननद से बोली, ‘‘लोग न जाने क्यों मेरे रूप की तारीफ करते हैं. कुछ भी तो खास नहीं है मुझ में. अपने परिवार में सब से गईगुजरी हूं. मेरी मां तक अभी ऐसी खूबसूरत हैं कि हाथ लगाते मैली होती हैं. चारों बहनें ऐसी हैं जिन्हें देख लोग पलक झपकना तक भूल जाते हैं.’’

विस्मय से बड़ी ननद रश्मि की आंखें फैल गईं. रहा न गया तो राकेश से पूछा उस ने, ‘‘क्या सचमुच सीमा का मायका इंद्रलोक की परियों का अखाड़ा है?’’

‘‘मैं समझा नहीं.’’

‘‘वह कहती है कि अपने घर में सब से गईगुजरी वही है. यदि यह सच है तो उस की मां और बहनें कितनी खूबसूरत होंगी, मैं सोच नहीं पा रही हूं.’’

राकेश हंस दिया. अल्हड़ प्रिया की यह अदा उसे बड़ी भायी.

‘पगली कहीं की,’ उस ने सोचा, जानबूझ कर अपनेआप को तुच्छ बता रही है. ऐसा रूप क्या कदमकदम पर बिखरा मिलता है? असाधारण सुंदरी न होती तो क्या मेरे यायावर चित्त को बांध सकती थी? उस घर में ही क्या, पूरे नगर में ऐसा रूप दीया ले कर ढूंढ़ने से नहीं मिलेगा.’

पर 2-4 दिन में ही राकेश समझ गया कि जिसे वह नवेली प्रिया की अल्हड़ अदा समझ रहा था, वह उस का मायके के प्रति अतिशय मोह है. रूप ही क्या, धन, वैभव किसी भी क्षेत्र में वह अपने मायके को छोटा नहीं बताना चाहती थी. लड़कियों में पिता के घर के प्रति कैसा उत्कट मोह होता है, इसे 3 बहनों का भाई राकेश अच्छी तरह जानता था. परंतु इस मोह का यह मतलब तो नहीं कि रात को दिन और स्याह को सफेद घोषित कर दिया जाए?

जल्दी ही सीमा की बढ़चढ़ कर कही जाने वाली बातें उस में खीज उत्पन्न करने लगीं. रिश्तेदारों की भीड़ खत्म होते ही एक दिन वह मां के कहने से सीमा को सिनेमा दिखाने ले गया.

फिल्म अच्छी थी. देख कर पैसे वसूल हो गए. लौटते समय एक रेस्तरां में उस ने सीमा को शीतल पेय भी पिलाया.

उमंग और उत्साह से भरे वे दोनों गली में घुसे ही थे कि पड़ोस की नीता सामने पड़ गई. सजीधजी सीमा को देख, उत्सुक स्वरों में पूछने लगी, ‘‘कहां से आ रही हो, भाभी? शायद सिनेमा देखने गई थीं.’’

उत्तर में स्वीकृति सूचक ‘हां’ कह कर भी काम चलाया जा सकता था लेकिन सीमा बीच रास्ते में ठहर कर कहने लगी, ‘‘सिनेमा देखने ही गए थे, लेकिन भीड़भाड़ में मजा किरकिरा हो गया. हमारे मायके में तो बाबूजी नई फिल्म लगते ही पहले से आरक्षण करवा देते थे. बस, ठाट से गए और फिल्म देख आए. लाइन में लग कर भीड़ के धक्के खाने की कोई मुसीबत नहीं उठानी पड़ती थी.’’

राकेश कोई चुभती बात कहने ही वाला था पर चुप रह गया. इतना ही बोला, ‘‘रास्ते में ही सारी बातें कर लोगी क्या? कुछ घर के लिए भी छोड़ दो.’’

सीमा हंस दी तो स्वर की मधुरता ने राकेश का क्रोध उतार दिया.

पर यह तो रोज की बात बन चुकी थी. दूसरे दिन राकेश दफ्तर जाने की हड़बड़ी में था. वह नहाते ही चीखपुकार मचाने लगा, ‘‘मेरा खाना परोस दो, मां. सवा 9 बज चुके हैं.’’

मां ने रसोई में जा कर खाना बनाती सीमा से पूछा, ‘‘दाल और सब्जी बन चुकी है क्या? तवा चढ़ा कर रोटी सेंक दो.’’

‘‘अभी केवल सब्जी बनी है,’’ सिर उठा कर सीमा ने उत्तर दिया.

मां बाहर निकल कर अपराधी स्वर में बोलीं, ‘‘जाड़े के दिन भी कितने छोटे होते हैं. चायपानी निबटता नहीं कि दफ्तर का समय हो जाता है. इस समय सिर्फ सब्जी तैयार हो पाई है.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ बाल काढ़ते हुए राकेश सहज भाव से बोला.

मां निश्चिंत हो कर थाली लगाने चल दीं. सीमा रोटी बेलतेबेलते हाथ रोक कर कहने लगी, ‘‘हमारे घर में तो कोई एक सब्जी से नहीं खा सकता. जब तक थाली में 4-5 चीजें न हों. खाने वालों के मुंह ही सीधे नहीं होते हैं.’’

राकेश कब आ कर मां के पीछे खड़ा हो गया था, सीमा नहीं जान पाई थी. वह कुछ और बोलने ही जा रही थी कि किंचित रूखे स्वर में राकेश ने डांट दिया, ‘‘तुम्हारे पीहर में छप्पन व्यंजनों का थाल रहता होगा. हम गरीब आदमी एक ही सब्जी से रोटी खा लेते हैं. बातें बंद करो, रोटी सेंको.’’

सीमा संकुचित हो उठी. चुपचाप रोटी बेलने लगी.

पर शाम को दफ्तर से लौटने पर राकेश ने उसे बड़े मनोयोग से बातें करते पाया. वह मां के सिर में तेल डालते हुए बोलती जा रही थी, ‘‘मेरी यह साड़ी ढाई सौ रुपए की है. असल में बाबूजी को साधारण कपड़ा पसंद नहीं आता. घर के कामकाज में भी मां 200 से कम की साड़ी नहीं पहनतीं.’’

‘‘भले ही उस में पचास पैबंद लगे हों,’’ जबान को रोकतेरोकते भी भीतर आते हुए राकेश के मुंह से निकल पड़ा.

सीमा सन्न रह गई. उस की सीप जैसी आंखों में मोती डबडबा आए.

मां ने झिड़का, ‘‘तू कमरे में जा. तुझ से तो कुछ नहीं कह रही है वह. बेकार में सारा दिन बेचारी को रुलाता रहता है.’’

राकेश को भी पछतावा हुआ. सुबह तो डांट कर गया ही था, आते ही फिर ताना दे दिया.

लेकिन मन ने कहा, ‘वह भी इतना झूठ क्यों बोलती है? उसे भी तो सोचसमझ कर बात करनी चाहिए.’

लेकिन सोचसमझ कर बात करना शायद सीमा से हो ही नहीं सकता था. हर बात में वह अपने मायके की श्रेष्ठता सिद्ध करने पर तुल जाती थी. उस की ये बातें राकेश को जहर बुझे तीर जैसी लगती थीं.

उस दिन फिर ऐसा ही मौका उपस्थित हो गया.

मां बेसन के लड्डू बना रही थीं. राकेश को बेसन के लड्डू बड़े पसंद थे, इसलिए मां अकसर इन्हें घर पर बनाती थीं.

सीमा पास बैठी काम में हांथ बंटा रही थी. अचानक मां के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘क्यों बहू, लड्डूओं में घी तो कम नहीं है? तुम्हें लड्डू बांधने में दिक्कत तो नहीं हो रही है?’’

सीमा ने माथे पर बिखर आई एक नटखट लट को पीछे झटकते हुए जवाब दिया, ‘‘नहीं, घी तो ठीक है. वैसे घी खाने का भी कुछ लोगों को बेहद शौक होता है. मेरे पिताजी दाल, साग, रोटी सब में इतना घी इस्तेमाल करते हैं कि खाने के बाद थाली, कटोरी में घी ही घी नजर आता है. असल में यह हर एक आदमी के बस की बात नहीं है. खाने को मिल भी जाए तो पचा कितने पाते हैं?’’

राकेश कब कमरे से निकल कर आंगन में आ गया है और इस बात को सुन रहा है, सीमा जान नहीं पाई थी.

परंतु अचानक भूचाल आ गया.

शायद कई महीनों से सुनतेसुनते सब्र का बांध टूट चुका था. शायद कई बार इशारोंइशारों में रोकने पर भी सीमा नहीं मानी थी. शायद इतना बड़ा झूठ सहन करना राकेश के लिए असंभव था.

अचानक न जाने क्या हुआ, वह गरज कर बोला, ‘‘तुम्हारे पीहर में घीदूध की नदियां बह रही हैं न, इस गरीब आदमी के घर में तुम्हारा गुजारा नहीं हो सकता, जाओ, अपने बाप के घर रहो जा कर.’’

मां घबरा उठीं. सीमा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. उस की आंखें भीग आई थीं. लेकिन क्रोध से कांपते राकेश ने हुक्म दिया, ‘‘अभी और इसी समय तुम्हें अपने मायके जाना है. उठो, अपनी अटैची ले कर मेरे साथ चलो.’’

सीमा रो पड़ी. मां की हिम्मत न पड़ी कि बीचबचाव कर सकें.

गुस्से से उफनता राकेश घर से निकला और 10 मिनट में रिकशा ले कर आ पहुंचा, ‘‘तुम उठीं नहीं?’’ आग्नेय दृष्टि से सीमा को घूरते हुए कुछ इस  प्रकार कहा उस ने कि सीमा थरथरा उठी.

यह जलती हुई निगाह तब तक सीमा पर टिकी रही, जब तक वह अटैची में कुछ कपड़े रख कर उस के साथ नहीं चल दी.

6 महीने बीत गए. न राकेश सीमा को लिवाने गया, न उस की खुद आने की हिम्मत पड़ी.

किंतु जैसेजैसे दिन बीत रहे थे, राकेश उद्विग्न होता जा रहा था. भोली प्रिया की चंपई देह उस की रातों की नींद चुराने लगी थी. उसे अपने क्रोध पर क्रोध आता? क्यों इस तरह वह एकदम उसे मायके छोड़ आया? पिता के बंद दरवाजे पर खड़े हो कर अंतिम बार जिस करुण दृष्टि से सीमा ने देखा था उसे वह चाह कर भी भूल नहीं पा रहा था. किंतु अब खुद ही जा कर सीमा को लिवा लाना भी स्वाभिमान के खिलाफ महसूस हो रहा था.

राकेश की मुश्किल आखिर एक दिन मां ने ही हल कर दी.

उसे हुक्म देते हुए वह बोलीं, ‘‘सुनो, राकेश, आज ही जा कर बहू को लिवा लाओ. बेचारी सारा दिन इतनी मीठीमीठी बातें किया करती थी.’’

राकेश ने ऐसा जतलाया जैसे अनिच्छा होते हुए भी वह केवल मां के आदेश का पालन करने के लिए सीमा को लिवाने जा रहा है. उसे अचानक आया देख कर ससुराल में चहलपहल मच गई. 4 छोटी सालियां इर्दगिर्द मंडराने लगीं. मीठी लाजभरी मुसकान लिए सीमा देहरी पर खड़े हो कर अपने पांव के अंगूठे से धरती कुरेदने लगी.

रामस्वरूप घर पर न थे. सीमा की मां चाय का प्याला ला कर थमाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी ट्रेनिंग पूरी हो गई, बेटा?’’

राकेश ने अबूझ भाव से निगाह उठाई.

सीमा तुरंत बोल पड़ी, ‘‘तुम्हें 6 महीने के लिए टे्रनिंग पर जाना था न इसीलिए तुम मुझे जल्दीजल्दी में यहां छोड़ गए. रुके तक नहीं थे.’’

‘‘अरे, हां, वह हो गई है,’’ राकेश मुसकरा दिया.

सास हाथ का पंखा ले कर पास बैठते हुए बोलीं, ‘‘तुम ने इस लड़की का दिमाग बिगाड़ दिया है, बेटा. यहां हम गरीब आदमी ठहरे. तुम ने इस में कुछ ही महीनों में शहजादियों जैसी नजाकत भर दी है. अब इसे फ्रिज और कूलर के बिना चैन नहीं पड़ता है.’’

‘‘पर कूलर और फ्रिज तो…’’ राकेश ने कहना चाहा कि सीमा बीच में ही बोल  पड़ी, मां और बाबूजी ने गरमियों की मेरी परेशानी का विचार कर के जाड़े में ही फ्रिज और कूलर खरीद लिया था, वही बात मैं ने इन लोगों को बतला दी है.’’

राकेश के मन में अपनी मासूम दुलहन के लिए ढेर सा प्यार उमड़ आया. मायके की तारीफ यह हमें छोटा दिखाने के लिए नहीं करती थी. ससुराल की प्रशंसा में भी जमीनआसमान एक किए रही है.

उसी दिन सीमा को ले कर राकेश लौट आया. रात के एकांत में कमरे में प्रिया के चिबुक को उठाते हुए हंस कर उस ने पूछा, ‘‘क्यों जी, कहां है तुम्हारा कूलर और फ्रिज? मुझे तो इस कमरे में बिजली का पंखा ही नजर आ रहा है.’’

सीमा की कमजोर आंखों में मोती झिलमिला उठे.

राकेश ने लाड़ से उस का सिर अपने कंधे से टिकाते हुए कहा, ‘‘बस, अब बहुत हो चुकी मायके और ससुराल की तारीफ. ठीक है, दोनों जगह की इज्जत रखना तुम्हें अच्छा लगता है पर इतना बढ़चढ़ कर भी न बोलो जो यदि जाहिर हो जाए तो जगहंसाई हो.’’

सीमा की आंखों से आंसू पोंछ दिए उस ने, ‘‘बस, रोना बंद. अब हंस दो.’’

सीमा मुसकराई, उस के गालों के गड्ढे में राकेश का चित्त जा फंसा.

सुबह सासबहू चाय की तैयारी कर रही थीं. राकेश ने मां को कहते सुना, ‘‘आज चाय के साथ कोई नाश्ता नहीं है. खाली चाय सब को कैसे दी जाए?’’

पहले की सीमा होती तो टेप रिकार्डर की तरह बजने लगती, ‘‘हमारे यहां तो…’’

पर आज वह मधुर स्वर में बोल पड़ी, ‘‘रात की रोटियां बची हैं, मां. उन्हें ही महीन कर के कड़ाही में तले देती हूं. नमक मिलाने से बढि़या सी दालमोठ तैयार हो जाएगी. बासी रोटियों का सदुपयोग भी हो जाएगा.’’

राकेश गुसलखाने में मुंह धोते हुए मुसकरा पड़ा. वह मन ही मन बोला, ‘कल तक तुम चांद थीं, आज निष्कलंक चांद हो’

दिल में लगा न कर्फ्यू: क्या हुआ निकहत की मां के साथ

दुनियाभरमें तहलका मचा था. कोरोना नाम की महामारी की वजह से दुनिया का हर शहर, हर गली, हर घर लौक डाउन हो रहा था. उधर मासूम निकहत के घर में लगातार टीवी चालू था और उस की मां टीवी स्क्रीन पर ऐसे नजरें गड़ाए थी जैसे कि उस के परिवार को टीवी ही इस मुसीबत से बाहर निकालेगा.

निकहत 5वीं कक्षा में थी. स्कूल बंद था. अब्बा पुलिस में थे तो ‘वर्क फ्रौम होम’ का सवाल ही नहीं था, जैसा कि अन्य विभागों में सरकार की ओर से लागू किया गया था. आसपास के सारे माहौल पर बंद का सन्नाटा छाया था. निकहत की मां बीचबीच में अपना फोन चैक कर रही थी और बीचबीच में किसी को काल भी करती थी. एक कौल आया, निकहत की मां ने दौड़ कर फोन उठाया. शायद वह इस फोन के इंतजार में थी.  ‘‘क्या हुआ भैया? कुछ इंतजाम हुआ? चार दिन से लगातार कोशिश कर रही हूं कि कहीं से ब्लड मिल जाए, लेकिन कहीं कोई राह नहीं. ब्लड कहीं उपलब्ध ही नहीं है, कोई डोनर नहीं मिला क्या भैया?’’

अनिश्चित आशंका से आखरी शब्द गले में ही लड़खड़ा गए थे निकहत की मां के. ‘‘दीदी हम ने भी बहुतों से पूछने की कोशिश की, कई परिचितों से तो संपर्क ही नहीं हो पा रहा है. अपने ही शहर में अकेले ऐसे बच्चों के ही केस डेढ़ सौ से ऊपर हैं, और आप तो जानती हैं उन्हें खून की कितनी जरूरत पड़ती है.’’

‘‘भैया पिछली ही बार मैं ने अपने पति को अपना ब्लड दिया था जब वे सरकारी काम में भीड़ के साथ मुठभेड़ में जख्मी हुए थे. मुझ में अभी प्लेटलेट्स और हीमोग्लोबिन की कमी है, मेरा खून अभी काम न आ सकेगा, कोई उपाय देखो भैया.’’ उस के करुण स्वर ने उस तरफ के व्यक्ति को भी आद्र कर दिया. ‘‘देखता हूं दीदी. कर्फ्यू और कोरोना के डर से तो कोई किसी काम में हाथ डालने को तैयार नहीं. कोशिश करता हूं.’’ बातचीत खत्म होने पर निकहत की मां पहले से ज्यादा परेशान हो गई. निकहत जब छोटी सी थी अचानक एक बार बुखार आया था. फिर तो वह ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी.

टैस्ट पर टैस्ट के बाद आखिर उस की बीमारी का पता चला तो नन्हीं निकहत को ले कर सारे घर वाले परेशान हो गए. नन्हीं निकहत को थैलेसीमिया था यानी ब्लड कैंसर. हर पंद्रह दिन में उस के शरीर में खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है, क्योंकि इस बीमारी में खून बनना बंद हो जाता है. यदि मरीज को निश्चित अंतराल पर खून न चढ़ाया जाए तो उस की लाख जीने की इच्छा भी उस का जीवन नहीं बचा सकती. निकहत की मां का यह अंतहीन सिलसिला शुरू हो चुका था. और ऐसे में आया था यह कोरोना का कहर. शहरों की तालाबंदी से रोजमर्रा की जिंदगी जहां बाधित होने लगी है, जहां जीने की होड़ में लोग मृत्यु से रोजाना भिड़ रहे हैं, वहां पहले से ही जीवन पर काल बनी बीमारियों का सामना कैसे करें. जिन के घर के बच्चे पहले से ही असाध्य बीमारियों से जूझ रहे, उन का उपाय इस लौक डाउन शहर की कानीगूंगी गलियों में कैसे होगा?

जब देश में अचानक फैली इस महामारी से लड़ कर जीतने के लिए न तो पर्याप्त मैडिकल स्टाफ हैं, न वैंटिलेटर, न हाइजीन के लिए पर्याप्त सामान और न इस रोग की जांच के लिए अधिक हौस्पिटल. खून की बीमारी से जूझते बच्चों की तो ऐसे भी इम्यून शक्ति कमजोर होती है. कैसे बचाए प्यारी सी निकहत को उस की मां. अचानक पड़ोस के कल्याण ने निकहत के घर का दरवाजा खटखटाया. अब कोई भी घटना निकहत की मां को अच्छी नहीं लग रही है. खास कर लोगों से बोलनाबतियाना. 30 साल की उम्र में ही उस ने अपने मन को बांध कर रखना सीख लिया है और अभी तो निकहत को ले कर उस का मन बहुत ही आशंकित है. बाहर आ कर देखा बाजू में रहने वाला कल्याण है, एमटैक की स्टूडैंट.

वह और भी घबरा गई. अभीअभी इस का इस के पिता से जोरदार कहासुनी हो रही थी, पता नहीं क्या हुआ था और अब यह यहां. निकहत में खून की जबरदस्त कमी हो रही है, उस का किसी बाहरी से मिलनाजुलना ठीक नहीं. कोरोना वायरस की वजह से चेतावनी है कि लोग दूसरे के घरों में न जाएं. सभी ओर कर्फ्यू तो इसी वजह लगा है, फिर यह यहां क्यों? परेशान सी निकहत की अम्मी ने कल्याण पर प्रश्नसूचक निगाहें डाली. भाभी, अभी न्यूज पेपर में पढ़ा थैलेसीमिया के बच्चों को समय पर खून नहीं मिल पा रहा है, इस से उन की जिंदगी पर खतरा बढ़ गया है. लौकडाउन की वजह से कोई खून देने वाला नहीं मिल पा रहा है, ऊपर से रक्त कालाबाजारी भी तो होने लगती है, ऐसी आपदा में. क्या निकहत का इंतजाम हो गया है?

‘‘नहीं भाई, शुक्रिया तुम्हें याद रहा निकहत का.’’ ‘‘इस में शुक्रिया कहने की कोई बात नहीं. यदि आप को कोई ऐतराज न हो तो आप निकहत को ले कर अभी मेरे साथ कालोनी के ब्लड बैंक चल सकती हैं. कालोनी के बाहर जो ब्लड बैंक है वहां मैं ने फोन से पूछ रखा है, वे चढ़ा देंगे मेरा खून निकहत को.’’ निकहत की अम्मी को लगा जैसे कल्याण को वह दौड़ कर गले लगा ले. 23 वर्ष का यह नौजवान कितना संवेदनशील और समझदार है. बात तो सभी कर लेते हैं, लेकिन विपत्ति में पूछने वाले मिल जाएं तो दूर रह कर भी यह दुख झेला जा सकता है. ‘‘भाई बड़े मुसीबत में थी, इस के अब्बू ड्यूटी में हैं, कौन इंतजाम करे. इस करम का शुक्रिया अदा कर दूं. इतनी औकात नहीं मेरी, हां दुआ करती हूं परवरदिगार तुम्हें हजार नियामत बख्शे. भाई बुरा न मानो, एक बात पूछना चाहती हूं, अभी कुछ देर पहले तुम्हारे घर से तुम्हारे पिताजी के चीखने की आवाजें आ रही थीं, सब खैरियत तो है?’’

‘‘अरे बाबूजी को डर था कि खून देने गया तो मुझे कोरोना हो जाएगा. बिना समझे न डरें वही बता रहा था जब पूरे हाइजीन का खयाल रखा जाएगा, तो यह क्यों होगा. और बच्चों की जिंदगी भी तो बचानी है.’’ निकहत की मां कल्याण के साथ ब्लड बैंक जाती है, और औपचारिकताएं पूरी कर निकहत को खून चढ़ा दिया जाता है. खून के कतरों के साथ प्यार, विश्वास और कोरोना नहीं, करुणा की धार स्थानांतरित होती रही बच्ची में. निकहत की मां सोच रही थी, शहर में लाख कर्फ्यू लगा हो, मगर यदि दिल में कर्फ्यू नहीं लगा तो मुश्किल की घड़ी में एकदूसरे के काम आया जा सकता है.

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