सरकारी मुलाजिम के 60 साल पूरे होने पर उस के दिन पूरे हो जाते हैं. कोईर् दूसरा क्या, वे खुद ही कहते हैं कि सेवानिवृत्ति के समय घूरे समान हो जाते हैं. 60 साल पूरे होने को सेवानिवृत्ति कहते हैं. उस वक्त सब से ज्यादा आश्चर्य सरकारी आदमी को ही होता है कि उस ने सेवा ही कब की थी कि उसे अब सेवानिवृत्त किया जा रहा है. यह सब से बड़ा मजाक है जोकि सरकार व सरकारी कार्यालय के सहकर्मी उस के साथ करते हैं. वह तो अंदर ही अंदर मुसकराता है कि वह पूरे सेवाकाल में मेवा खाने में ही लगा रहा.
इसे सेवाकाल की जगह मेवाकाल कहना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है. सेवा किस चिडि़या का नाम है, वह पूरे सेवाकाल में अनभिज्ञ था. वह तो सेवा की एक ही चिडि़या जानता था, अपने लघु हस्ताक्षर की, जिस के ‘एक दाम, कोई मोलभाव नहीं’ की तर्ज पर दाम तय थे. एक ही दाम, सुबह हो या शाम.
आज लोगों ने जब कहा कि सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो वह बहुत देर तक दिमाग पर जोर देता रहा कि आखिर नौकरी की इस सांध्यबेला में तो याद आ जाए कि आखिरी बार कब उस ने वास्तव में सेवा की थी. जितना वह याद करता, मैमोरी लेन से सेवा की जगह मेवा की ही मैमोरी फिल्टर हो कर कर सामने आती. सो, वह शर्मिंदा हो रहा था सेवानिवृत्ति शब्द बारबार सुन कर.
सरकारी मुलाजिम को शर्म से पानीपानी होने से बचाने के लिए आवश्यक है कि 60 साल का होने पर अब उसे सेवानिवृत्त न कहा जाए? इस के स्थान पर सटीक शब्द वैसे यदि कोई हो सकता है तो वह है ‘मेवानिवृत्त’, क्योंकि वह पूरे कैरियर में मेवा खाने का काम ही तो करता है. यदि उसे यह खाने को नहीं मिलता तो यह उस के मुवक्किल ही जान सकते हैं कि वे अपनी जान भी दे दें तो भी उन के काम होते नहीं. बिना मेवा के ये निर्जीव प्राणी सरीखे दिखते हैं और जैसे ही मेवा चढ़ा, फिर वे सेवादार हो जाते हैं. वैसे, आप के पास इस से अच्छा कोईर् दूसरा शब्द हो तो आप का स्वागत है.
आज आखिरी दिन वह याद करने की कोशिश कर रहा था कि उस ने सेवाकाल में सेवा की, तो कब की? उसे याद आया कि ऐसा कुछ उस की याददाश्त में है ही नहीं जिसे वह सेवा कह सके. वह तो बस नौकरी करता रहा. एक समय तो वह मेवा ले कर भी काम नहीं कर पाने के लिए कुख्यात हो गया था. क्या करें, लोग भी बिना कहे मेवा ले कर टपक जाते थे. चाहे जीवनधारा में कुआं मंजूर करने की बात हो या कि टपक सिंचाई योजना में केस बनाने की बात, सीमांकन हो या बिजली कनैक्शन का केस, वह क्या करे, वह तो जो सामने ले आया, उसे गटक जाता था. और ऐसी आदत घर कर गई थी कि यदि कोई सेवादार बन कर न आए तो ऐसे दागदार को
वह सीधे उसे फाटक का रास्ता दिखा देता था.
दिनभर में वह कौन सी सेवा करता था, उसे याद नहीं आ रहा था? सुबह एक घंटे लेट आता था, यह तो सेवा नहीं हुई. एक घंटे का समयरूपी मेवा ही हो गया. फिर आने के घंटेभर बाद ही उस को चायबिस्कुट सर्व हो जाते थे. यह भी मेवा जैसा ही हुआ. मिलने वाले घंटों बैठे रहते थे, वह अपने कंप्यूटर या मोबाइल में व्यस्त रहता था. काहे की सेवा हुई, यह भी इस का मेवा ही हुआ.
कंप्यूटर व मोबाइल में आंख गड़ाए रहना जबकि बाहर दर्जनों मिलने वाले इस के कक्ष की ओर आंख गड़ाए रहते थे कि अब बुलाएगा, तब बुलाएगा. लेकिन इसे फुरसत हो, तब भी इंतजार तो कराएगा ही कराएगा. फिर भी इसे सरकारी सेवक कहते हैं.
60 साल पूरे होने पर सेवानिवृत्त हो रहे हैं. कहते हैं, इस सदी का सब से बड़ा झूठ यही है, कम से कम
भारत जैसे देश के लिए जहां कि सेवा नहीं मेवा उद्देश्य है. सरकारीकर्मी आपस में कहते भी हैं कि ‘सेवा देवई मेवा खूबई.’
वह बिलकुल डेढ़ बजे लंच पर निकल जाता था. चाहे दूरदराज से आए किसी व्यक्ति की बस या ट्रेन छूट रही हो, उसे उस से कोई मतलब नहीं रहता था. उसे तो अपने टाइमटेबल से मतलब रहता था. उस के लिए क्लब में सारा इंतजाम हो जाए. यही उस की सेवा थी जनता के प्रति.
सेवानिवृत्त वह नहीं हो रहा था बल्कि वह जनता हो रही थी, मातहत हो रहे थे जो उस की देखभाल में लगे रहते थे. अब उस के 60 साल के हो जाने से उन्हें निवृत्ति मिल रही थी बेगारी से. लेकिन असली सेवानिवृत्त को कोई माला नहीं पहनाता.
हर साल उसे वेतनवृद्धि चाहिए, अवकाश, नकदीकरण चाहिए, मैडिकल बैनिफिट चाहिए, एलटीसी चाहिए, नाना प्रकार के लोन चाहिए. यह उस की सेवा है
कि बीचबीच में मेवा का इंतजाम है?
सरकार को गंभीरता से विचार कर के सेवानिवृत्ति की जगह मेवानिवृत्ति शब्द को मान्यता दे देनी चाहिए. वैसे, गंगू कहता भी है कि सेवानिवृत्ति से कहीं सटीक व ठीक शब्द मेवानिवृत्ति है.
ऐसा भी होता है हमारे आसपास रिश्तेनाते में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो भावनाहीन तथा रुखे स्वभाव के होते हैं.
हम एक रिश्तेदार के यहां उन्हें दावत के लिए निमंत्रण देने गए. हमें खुशी थी कि इसी निमंत्रण के बहाने हम उन के घर भी हो आएंगे तथा वे खुश होंगे. लेकिन जब उन के घर पहुंच कर हम ने उन्हें जोर दे कर आने के लिए कहा तो वे बोले, ‘‘अरे, इतनी सी बात के लिए आने का कष्ट क्यों किया आप लोगों ने. यह तो फोन से भी बता सकती थीं.’’
इतना सुनते ही हम हतप्रभ रह गए और हम ने कहा, ‘‘क्या आप को हमारे आने से तकलीफ हुई?’’
हमारी बात सुन कर वे सफाई देने लगे कि नहीं, ऐसी बात बिलकुल भी नहीं है. हम तो आप को तकलीफ नहीं देना चाहते थे.
हम सब मन ही मन उन के अमानवीय व्यवहार से आहत हुए. उस दिन हमें प्रेरणा मिली कि दुनिया में हर तरह के लोगों से मिलना होता है. इन्हें कौन समझाए कि किसी की भावना का सम्मान करते हुए ही शब्द निकालने चाहिए. मायारानी श्रीवास्तव मेरे पड़ोस में मीराजी रहती हैं. वे एक विद्यालय में सहायक अध्यापिका हैं. एक बार रविवार को वे खाना बना रही थीं कि उन के मायके से कुछ लोग आ गए. दाल वे बना चुकी थीं. लेकिन सब लोगों ने मिल कर बाहर खाने का प्रोग्राम बनाया.
मीराजी ने दाल फ्रिज में रख दी और सब के साथ होटल में खाने चली गईं. इस तरह उन के मायके वाले उन के घर 2 दिनों तक रहे और वे उन की खातिरदारी में लगी रहीं.
सब के जाने के बाद मीराजी के पति बोले, ‘‘मीरा देखो, यह दाल फ्रिज में रखी है, खा कर क्यों नहीं खत्म कर देती हो?’’
मीराजी बोलीं, ‘‘अब यह 2 दिन पुरानी बासी दाल हम लोगों के खाने लायक नहीं है, पर फेंकना मत, 220 रुपए किलो खरीदी हुई दाल है.’’
शाम को कामवाली आई तो मीराजी उस को दाल देते हुए बोलीं, ‘‘आज दाल बहुत बच गई है, तुम और बच्चे खा लेना.’’
बात सोचने की है कि जो दाल उन के
खाने लायक नहीं, क्या कामवाली के लिए ठीक थी?