रूठी रानी उमादे: क्यों संसार में अमर हो गई जैसलमेर की रानी

रेतीले राजस्थान को शूरवीरों की वीरता और प्रेम की कहानियों के लिए जाना जाता है. राजस्थान के इतिहास में प्रेम रस और वीर रस से भरी तमाम ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं, जिन्हें पढ़सुन कर ऐसा लगता है जैसे ये सच्ची कहानियां कल्पनाओं की दुनिया में ढूंढ कर लाई गई हों.

मेड़ता के राव वीरमदेव और राव जयमल के काल में जोधपुर के राव मालदेव शासन करते थे. राव मालदेव अपने समय के राजपूताना के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे. शूरवीर और धुन के पक्के. उन्होंने अपने बल पर  जोधपुर राज्य की सीमाओं का काफी विस्तार किया था. उन की सेना में राव जैता व कूंपा नाम के 2 शूरवीर सेनापति थे.

यदि मालदेव, राव वीरमदेव व उन के पुत्र वीर शिरोमणि जयमल से बैर न रखते और जयमल की प्रस्तावित संधि मान लेते, जिस में राव जयमल ने शांति के लिए अपने पैतृक टिकाई राज्य जोधपुर की अधीनता तक स्वीकार करने की पेशकश की थी, तो स्थिति बदल जाती. जयमल जैसे वीर, जैता कूंपा जैसे सेनापतियों के होते राव मालदेव दिल्ली को फतह करने में समर्थ हो जाते.

राव मालदेव के 31 साल के शासन काल तक पूरे भारत में उन की टक्कर का कोई राजा नहीं था. लेकिन यह परम शूरवीर राजा अपनी एक रूठी रानी को पूरी जिंदगी नहीं मना सका और वह रानी मरते दम तक अपने पति से रूठी रही.

जीवन में 52 युद्ध लड़ने वाले इस शूरवीर राव मालदेव की शादी 24 वर्ष की आयु में वर्ष 1535 में जैसलमेर के रावल लूनकरण की बेटी राजकुमारी उमादे के साथ हुई थी. उमादे अपनी सुंदरता व चतुराई के लिए प्रसिद्ध थीं. राठौड़ राव मालदेव की शादी बारात लवाजमे के साथ जैसलमेर पहुंची. बारात का खूब स्वागतसत्कार हुआ. बारातियों के लिए विशेष ‘जानी डेरे’ की व्यवस्था की गई.

ऊंट, घोड़ों, हाथियों के लिए चारा, दाना, पानी की व्यवस्था की गई. राजकुमारी उमादे राव मालदेव जैसा शूरवीर और महाप्रतापी राजा पति के रूप में पाकर बेहद खुश थीं. पंडितों ने शुभ वेला में राव मालदेव की राजकुमारी उमादे से शादी संपन्न कराई.

चारों तरफ हंसीखुशी का माहौल था. शादी के बाद राव मालदेव अपने सरदारों व सगेसंबंधियों के साथ महफिल में बैठ गए. महफिल काफी रात गए तक चली.

इस के बाद तमाम घराती, बाराती खापी कर सोने चले गए. राव मालदेव ने थोड़ीथोड़ी कर के काफी शराब पी ली थी.

उन्हें नशा हो रहा था. वह महफिल से उठ कर अपने कक्ष में नहीं आए. उमादे सुहाग सेज पर उन की राह देखतीदेखती थक गईं. नईनवेली दुलहन उमादे अपनी खास दासी भारमली जिसे उमादे को दहेज में दिया गया था, को मालदेव को बुलाने भेजने का फैसला किया. उमादे ने भारमली से कहा, ‘‘भारमली, जा कर रावजी को बुला लाओ. बहुत देर कर दी उन्होंने…’’

भारमली ने आज्ञा का पालन किया. वह राव मालदेव को बुलाने उन के कक्ष में चली गई. राव मालदेव शराब के नशे में थे. नशे की वजह से उन की आंखें मुंद रही थीं कि पायल की रुनझुन से राव ने दरवाजे पर देखा तो जैसे होश गुम हो गए. फानूस तो छत में था, पर रोशनी सामने से आ रही थी. मुंह खुला का खुला रह गया.

जैसे 17-18 साल की कोई अप्सरा सामने खड़ी थी. गोरेगोरे भरे गालों से मलाई टपक रही थी. शरीर मछली जैसा नरमनरम. होंठों के ऊपर मौसर पर पसीने की हलकीहलकी बूंदें झिलमिला रही थीं होठों से जैसे रस छलक रहा हो.

भारमली कुछ बोलती, उस से पहले ही राव मालदेव ने यह सोच कर कि उन की नवव्याहता रानी उमादे है, झट से उसे अपने आगोश में ले लिया. भारमली को कुछ बोलने का मौका नहीं मिला या वह जानबूझ कर नहीं बोली, वह ही जाने.

भारमली भी जब काफी देर तक वापस नहीं लौटी तो रानी उमादे ने जिस थाल से रावजी की आरती उतारनी थी, उठाया और उस कक्ष की तरफ चल पड़ीं, जिस कक्ष में राव मालदेव का डेरा था.

उधर राव मालदे ने भारमली को अपनी रानी समझ लिया था और वह शराब के नशे में उस से प्रेम कर रहे थे. रानी उमादे जब रावजी के कक्ष में गई तो भारमली को उन के आगोश में देख रानी ने आरती का थाल यह कह कर ‘अब राव मालदेव मेरे लायक नहीं रहे,’ पटक दिया और वापस चली गईं.

अब तक राव मालदेव के सब कुछ समझ में आ गया था. मगर देर हो चुकी थी. उन्होंने सोचा कि जैसेतैसे रानी को मना लेंगे. भारमली ने राव मालदेव को सारी बात बता दी कि वह उमादे के कहने पर उन्हें बुलाने आई थी. उन्होंने उसे कुछ बोलने नहीं दिया और आगोश में भर लिया. रानी उमादे ने यहां आ कर यह सब देखा तो रूठ कर चली गईं.

सुबह तक राव मालदेव का सारा नशा उतर चुका था. वह बहुत शर्मिंदा हुए. रानी उमादे के पास जा कर शर्मिंदगी जाहिर करते हुए कहा कि वह नशे में भारमली को रानी उमादे समझ बैठे थे.

मगर उमादे रूठी हुई थीं. उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वह बारात के साथ नहीं जाएंगी. वो भारमली को ले जाएं. फलस्वरूप एक शक्तिशाली राजा को बिना दुलहन के एक दासी को ले कर बारात वापस ले जानी पड़ी.

रानी उमादे आजीवन राम मालदेव से रूठी ही रहीं और इतिहास में रूठी रानी के नाम से मशहूर हुईं. जैसलमेर की यह राजकुमारी रूठने के बाद जैसलमेर में ही रह गई थीं. राव मालदेव दहेज में मिली दासी भारमली बारात के साथ बिना दुलहन के जोधपुर आ गए थे. उन्हें इस का बड़ा दुख हुआ था. सब कुछ एक गलतफहमी के कारण हुआ था.

राव मालदेव ने अपनी रूठी रानी उमादे के लिए जोधपुर में किले के पास एक हवेली बनवाई. उन्हें विश्वास था कि कभी न कभी रानी मान जाएगी.

जैसलमेर की यह राजकुमारी बहुत खूबसूरत व चतुर थी. उस समय उमादे जैसी खूबसूरत महिला पूरे राजपूताने में नहीं थी. वही सुंदर राजकुमारी मात्र फेरे ले कर राव मालदेव की रानी बन

गई थी. ऐसी रानी जो पति से आजीवन रूठी रही. जोधपुर के इस शक्तिशाली राजा मालदेव ने उमादे को मनाने की बहुत कोशिशें कीं मगर सब व्यर्थ. वह नहीं मानी तो नहीं मानी. आखिर में राव मालदेव ने एक बार फिर कोशिश की उमादे को मनाने की. इस बार राव मालदव ने अपने चतुर कवि आशानंदजी चारण को उमादे को मना कर लाने के लिए जैसलमेर भेजा.

चारण जाति के लोग बुद्धि से चतुर व वाणी से वाकपटुता व उत्कृष्ट कवि के तौर पर जाने जाते हैं. राव मालदेव के दरबार के कवि आशानंद चारण बड़े भावुक थे. निर्भीक प्रकृति के वाकपटु व्यक्ति.

जैसलमेर जा कर आशानंद चारण ने किसी तरह अपनी वाकपटुता के जरिए रूठी रानी उमादे को मना भी लिया और उन्हें ले कर जोधपुर के लिए रवाना भी हो गए. रास्ते में एक जगह रानी उमादे ने मालदेव व दासी भारमली के बारे में कवि आशानंदजी से एक बात पूछी.

मस्त कवि समय व परिणाम की चिंता नहीं करता. निर्भीक व मस्त कवि आशानंद ने भी बिना परिणाम की चिंता किए रानी को 2 पंक्तियों का एक दोहा बोल कर उत्तर दिया—

माण रखै तो पीव तज, पीव रखै तज माण.

दोदो गयंदनी बंधही, हेको खंभु ठाण.

यानी मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति को रखना है तो मान को त्याग दे. लेकिन दोदो हाथियों को एक ही खंभे से बांधा जाना असंभव है.

आशानंद चारण के इस दोहे की दो पंक्तियों ने रानी उमादे की सोई रोषाग्नि को वापस प्रज्जवलित करने के लिए आग में घी का काम किया. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे ऐसे पति की आवश्यकता नहीं है.’’ रानी उमादे ने उसी पल रथ को वापस जैसलमेर ले चलने का आदेश दे दिया.

आशानंदजी ने मन ही मन अपने कहे गए शब्दों पर विचार किया और बहुत पछताए, लेकिन शब्द वापस कैसे लिए जा सकते थे. उमादे जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है, अपनी रूपवती दासी भारमली के कारण ही अपने पति राजा मालदेव से रूठ गई थीं और आजीवन रूठी ही रहीं.

जैसलमेर आए कवि आशानंद चारण ने फिर रूठी रानी को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन वह नहीं मानीं. तब आशानंदजी चारण ने जैसलमेर के राजा लूणकरणजी से कहा कि अपनी पुत्री का भला चाहते हो तो दासी भारमली को जोधपुर से वापस बुलवा लीजिए. रावल लूणकरणजी ने ऐसा ही किया और भारमली को जोधपुर से जैसलमेर बुलवा लिया.

भारमली जैसलमेर आ गई. लूणकरणजी ने भारमली का यौवन रूप देखा तो वह उस पर मुग्ध हो गए. लूणकरणजी का भारमली से बढ़ता स्नेह उन की दोनों रानियों की आंखों से छिप न सका. लूणकरणजी अब दोनों रानियों के बजाय भारमली पर प्रेम वर्षा कर रहे थे. यह कोई औरत कैसे सहन कर सकती है.

लूणकरणजी की दोनों रानियों ने भारमली को कहीं दूर भिजवाने की सोची. दोनों रानियां भारमली को जैसलमेर से कहीं दूर भेजने की योजना में लग गईं. लूणकरणजी की पहली रानी सोढ़ीजी ने उमरकोट अपने भाइयों से भारमली को ले जाने के लिए कहा लेकिन उमरकोट के सोढ़ों ने रावल लूणकरणजी से शत्रुता लेना ठीक नहीं समझा.

तब लूणकरणजी की दूसरी रानी जो जोधपुर के मालानी परगने के कोटड़े के शासक बाघजी राठौड़ की बहन थी, ने अपने भाई बाघजी को बुलाया. बहन का दुख मिटाने के लिए बाघजी शीघ्र आए और रानियों के कथनानुसार भारमली को ऊंट पर बैठा कर मौका मिलते ही जैसलमेर से छिप कर भाग गए.

लूणकरणजी कोटड़े पर हमला तो कर नहीं सकते थे क्योंकि पहली बात तो ससुराल पर हमला करने में उन की प्रतिष्ठा घटती और दूसरी बात राव मालदेव जैसा शक्तिशाली शासक मालानी का संरक्षक था. अत: रावल लूणकरणजी ने जोधपुर के ही आशानंद कवि को कोटडे़ भेजा कि बाघजी को समझा कर भारमली को वापस जैसलमेर ले आएं.

दोनों रानियों ने बाघजी को पहले ही संदेश भेज कर सूचित कर दिया कि वे बारहठजी आशानंद की बातों में न आएं. जब आशानंदजी कोटड़ा पहुंचे तो बाघजी ने उन का बड़ा स्वागतसत्कार किया और उन की इतनी खातिरदारी की कि वह अपने आने का उद्देश्य ही भूल गए.

एक दिन बाघजी शिकार पर गए. बारहठजी व भारमली भी साथ थे. भारमली व बाघजी में असीम प्रेम था. अत: वह भी बाघजी को छोड़ कर किसी भी हालत में जैसलमेर नहीं जाना चाहती थी.

शिकार के बाद भारमली ने विश्रामस्थल पर सूले सेंक कर खुद आशानंदजी को दिए. शराब भी पिलाई. इस से खुश हो कर बाघजी व भारमली के बीच प्रेम देख कर आशानंद जी चारण का भावुक कवि हृदय बोल उठे—

जहं गिरवर तहं मोरिया, जहं सरवर तहं हंस

जहं बाघा तहं भारमली, जहं दारू तहं मंस.

यानी जहां पहाड़ होते हैं वहां मोर होते हैं, जहां सरोवर होता है वहां हंस होते हैं. इसी प्रकार जहां बाघजी हैं, वहीं भारमली होगी. ठीक उसी तरह से जहां दारू होती है वहां मांस भी होता है.

कवि आशानंद की यह बात सुन बाघजी ने झठ से कह दिया, ‘‘बारहठजी, आप बड़े हैं और बड़े आदमी दी हुई वस्तु को वापस नहीं लेते. अत: अब भारमली को मुझ से न मांगना.’’

आशानंद जी पर जैसे वज्रपात हो गया. लेकिन बाघजी ने बात संभालते हुए कहा कि आप से एक प्रार्थना और है आप भी मेरे यहीं रहिए.

और इस तरह से बाघजी ने कवि आशानंदजी बारहठ को मना कर भारमली को जैसलमेर ले जाने से रोक लिया. आशानंदजी भी कोटड़ा गांव में रहे और उन की व बाघजी की इतनी घनिष्ठ दोस्ती हुई कि वे जिंदगी भर उन्हें भुला नहीं पाए.

एक दिन अचानक बाघजी का निधन हो गया. भारमली ने भी बाघजी के शव के साथ प्राण त्याग दिए. आशानंदजी अपने मित्र बाघजी की याद में जिंदगी भर बेचैन रहे. उन्होंने बाघजी की स्मृति में अपने उद्गारों के पिछोले बनाए.

बाघजी और आशानंदजी के बीच इतनी घनिष्ठ मित्रता हुई कि आशानंद जी उठतेबैठे, सोतेजागते उन्हीं का नाम लेते थे. एक बार उदयपुर के महाराणा ने कवि आशानंदजी की परीक्षा लेने के लिए कहा कि वे सिर्फ एक रात बाघजी का नाम लिए बिना निकाल दें तो वे उन्हें 4 लाख रुपए देंगे. आशानंद के पुत्र ने भी यही आग्रह किया.

कवि आशानंद ने भरपूर कोशिश की कि वह अपने कविपुत्र का कहा मान कर कम से कम एक रात बाघजी का नाम न लें, मगर कवि मन कहां चुप रहने वाला था. आशानंदजी की जुबान पर तो बाघजी का ही नाम आता था.

रूठी रानी उमादे ने प्रण कर लिया था कि वह आजीवन राव मालदेव का मुंह नहीं देखेगी. बहुत समझानेबुझाने के बाद भी रूठी रानी जोधपुर दुर्ग की तलहटी में बने एक महल में कुछ दिन ही रही और फिर उन्होंने अजमेर के तारागढ़ दुर्ग के निकट महल में रहना शुरू किया. बाद में यह इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई.

राव मालदेव ने रूठी रानी के लिए तारागढ़ दुर्ग में पैर से चलने वाली रहट का निर्माण करवाया. जब अजमेर पर अफगान बादशाह शेरशाह सूरी के आक्रमण की संभावना थी, तब रूठी रानी कोसाना चली गई, जहां कुछ समय रुकने के बाद वह गूंदोज चली गई. गूंदोज से काफी समय बाद रूठी रानी ने मेवाड़ में केलवा में निवास किया.

जब शेरशाह सूरी ने मारवाड़ पर आक्रमण किया तो रानी उमादे से बहुत प्रेम करने वाले राव मालदेव ने युद्ध में प्रस्थान करने से पहले एक बार रूठी रानी से मिलने का अनुरोध किया.

एक बार मिलने को तैयार होने के बाद रानी उमादे ने ऐन वक्त पर मिलने से इनकार कर दिया.

रूठी रानी के मिलने से इनकार करने का राव मालदेव पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और वह अपने जीवन में पहली बार कोई युद्ध हारे.

वर्ष 1562 में राव मालदेव के निधन का समाचार मिलने पर रानी उमादे को अपनी भूल का अहसास हुआ और कष्ट भी पहुंचा. उमादे ने प्रायश्चित के रूप में उन की पगड़ी के साथ स्वयं को अग्नि को सौंप दिया.

ऐसी थी जैसलमेर की भटियाणी उमादे रूठी रानी. वह संसार में रूठी रानी के नाम से अमर हो गईं.

तू तू मैं मैं: क्यों अस्पताल नहीं जाना चाहती थी अनुभा

“जाओ फ्लेट नंबर सी 212 से कार की चाबी मांग कर लाओ. जल्दी आना. रोज इस के चक्कर में लेट हो जाती हूं,”अनुभा अपनी कार के पीछे लगी दूसरी कार को देख कर भुनभुनाई.

गार्ड अपनी हंसी रोकता हुआ चला गया. पिछले 6 महीने से वह इन दोनों का तमाशा देखता चला आ रहा है. एक महीने आगेपीछे ही दोनों ने इस सोसायटी में फ्लैट किराए पर लिया है, तभी से दोनों का हर बात पर झगड़ा मचा रहता है. फ्लैट नंबर 312 में ऊपरी मंजिल पर अनुभा रहती है. सोसायटी मीटिंग में भी दोनों एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप करते दिखाई देते हैं.

सौरभ ने शिकायत की थी कि उस के बाथरूम में लीकेज हो रहा है. इस के लिए उस ने प्लम्बर बुलवाया, छुट्टी भी ली और अनुभा को भी बता दिया था कि प्लम्बर आ कर ऊपरी मंजिल से उस का बाथरूम से लीकेज चेक करेगा, खर्चा भी वह खुद उठाने को तैयार है. पहले तो कुछ नहीं बोली, मगर जब प्लम्बर आ गया तो अपना फ्लैट बंद कर औफिस चली गई. आधा घंटा भी वह रुकने को तैयार नहीं हुई.

सौरभ ने सोसायटी की मीटिंग में इस मुद्दे को उठाया तो अनुभा ने उस पर अकेली महिला के घर अनजान आदमी को भेजने का आरोप लगा दिया.

बात बाथरूम के लीकेज से भटक कर नारीवाद, अस्मिता, बढ़ते बलात्कार पर पहुंच गई. यह देख सौरभ दांत किटकिटा कर रह गया. उस का बाथरूम आज तक ठीक न हो सका.

अब तो दोनों के बीच इतना झगड़ा बढ़ चुका है कि अब सामंजस्य से काम होना नामुमकिन हो चुका है.

इस वसुधा सोसायटी में शुरू में पार्किंग की समस्या नहीं थी. पूरब और पश्चिम दिशा में बने दोनों गेट से गाड़ियां आजा सकती थीं और दोनों तरफ पार्किंग की सुविधा भी थी, मगर पांच वर्ष पूर्व से पश्चिम दिशा में बनी नई सोसायटी वसुंधरा के लोगों ने पिछले गेट की सड़क पर अपना दावा ठोंक कर पश्चिम गेट को बंद कर ताला लगा दिया.

वैसे तो वह सड़क वसुंधरा सोसायटी ने ही अपनी बिल्डिंग तैयार करते समय बनवाई थी. जैसेजैसे वसुंधरा में परिवार बसने लगे, पार्किंग की जगह कम पड़ने लगी, तो उन्होंने वसुधा के पश्चिम गेट को बंद कर उस सड़क का इस्तेमाल पार्किंग के रूप में करना शुरू कर दिया.

वसुधा सोसायटी के नए नियम बन गए, जो ‘पहले आओ पहले पाओ’ पर आधारित थे. किसी की भी पार्किंग की जगह निश्चित न होने पर भी लोगों ने आपसी समझबूझ से एकदूसरे के आगेपीछे गाड़ी खड़ी करना शुरू कर दिया. जो सुबह देर से जाते थे, वे गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देते. जिन्हें जल्दी जाना होता, वे उस के पीछे खड़ी करते. सभी परिवार 15 साल पहले, सालभर के अंतराल में यहां आ कर बसे थे. सभी के परिवार एकदूसरे को अच्छे से पहचानते हैं. अगर किसी की गाड़ी आगेपीछे करनी होती तो गार्ड चाबी मांग कर ले आता. अभी भी कुछ फ्लैट्स खाली पड़े हैं, जिन के मालिक कभी दिखाई नहीं देते. कुछ में किराएदार बदलते रहते हैं. ऐसे किराएदारों के विषय में, पड़ोसियों के अतिरिक्त अन्य किसी का ध्यान नहीं जाता था, मगर सौरभ और अनुभा तो इतने फेमस हो गए हैं कि उन की जोड़ी का नाम “तूतू, मैंमैं ”रख दिया गया.

आंखें मलता हुआ सौरभ जब पार्किंग में आया, तो अनुभा को देखते ही उस का पारा आसमान में चढ़ गया. वह बोला, “जब तुम्हें जल्दी जाना था तो अपनी गाड़ी आगे क्यों खड़ी की? कुछ देर बाहर खड़ी कर, बाद में पीछे खड़ी करती.”

“मुझे औफिस से फोन आया है, इसलिए आज जल्दी निकलना है,” अनुभा ने कहा.

“झूठ बोलना तो कोई तुम से सीखे,” सौरभ ने कहा.

“तुम तो जैसे राजा हरिश्चन्द्र की औलाद हो?” अनुभा की भी त्योरी चढ़ गई.

“आज सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख लिया है. अब तो पूरा दिन बरबाद होने वाला है,” कह कर सौरभ ने गाड़ी निकाल कर बाउंड्रीवाल के बाहर खड़ा कर दी और अनुभा को कोसते हुए अपने फ्लैट की तरफ बढ़ गया.

मोहिनी अपने फ्लैट से नित्य ही यह तमाशा देखती रहती है. उस के बच्चे विदेश में बस गए हैं, अपने पति संग दिनभर कितनी बातें करे? उसे तो फोन पर अपनी सहेलियों के संग नमकमिर्च लगा कर, सोसायटी की खबरें फैलाने में जो मजा आता है, किसी अन्य पदार्थ में नहीं मिल सकता. उस के पति धीरेंद्र को उस की इन हरकतों पर बड़ा गुस्सा आता है. वे मन मसोस कर रह जाते हैं कि अभी मोहिनी से कुछ कहा, तो वह फोन रख कर मेरे संग ही बहसबाजी में जुट जाएगी.

“सुन कविता, आज फिर सुबहसुबह “तूतू, मैंमैं” शुरू हो गए. बस हाथापाई रह गई है, गालीगलौज पर तो उतर ही आए हैं.“

“अरे कुछ दिन रुक, फिर वे तुझे एकदूसरे के बाल नोचते भी नजर आएंगे,” कह कर कविता हंसी.

“मैं तो उसी दिन का इंतजार कर रही हूं,” मोहिनी खिलखिला उठी.

धीरेंद्र चिढ़ कर उस कमरे से उठ कर बाहर चला गया.

महीनेभर के अंदर ही सौरभ ने गार्ड से अनुभा की कार की चाबी मांग कर लाने को कहा, मगर अनुभा खुद आ गई.

“मेरी गाड़ी को गार्ड के हाथों सौंप कर ठुकवाना चाहते हो क्या?” आते ही अनुभा उलझ गई.

“ नहीं, गाड़ी को मैं ही बेक कर लगा देता, तुम ने आने का कष्ट क्यों किया?” सौरभ ने चिढ़ कर कहा.

“मैं अपनी गाड़ी किसी को छूने भी न दूं,” अनुभा इठलाई.

“मुझे भी लोगों की गाड़ियां बैक करने का शौक नहीं है, बस सुबहसुबह तुम्हारा मुंह देख कर अपना दिन खराब नहीं करना चाह रहा था, इसीलिए चाबी मंगाई थी,” सौरभ ने भी अपनी भड़ास निकाली.

“अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में?” कह कर अनुभा कार में सवार हो गई और गाड़ी को बैक करने लगी.

“खुद जैसे हूर की परी होगी,” सौरभ गुस्से से बोला और अपने औफिस को निकल गया.

औफिस में सौरभ का मन न लगा. बहुत सोचविचार कर उस ने प्रिंटर का बटन दबा दिया. अगले दिन पार्किंग में पोस्टर चिपका हुआ था, जिस में सौरभ ने अपने पूरे महीने औफिस से आनेजाने की समयतालिका चिपका दी और फोन नंबर लिख कर अपनी गाड़ी दीवार से लगा दी.

दूसरे दिन अनुभा ने भी एक पोस्टर चिपका दिया, जिस में सौरभ को नसीहत देते हुए लिखा था कि किस दिन वह गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी करे और किस दिन उस की गाड़ी के पीछे.

लोग दोनों की पोस्टरबाजी पर खूब हंसते.

सोसायटी की मीटिंग में सौरभ ने पार्किंग का मुद्दा उठाया, तो सभी ने इसे आपसी सहमति से सुलझाने को कहा.

सौरभ ने अपने बाथरूम के लीकेज की बात जैसे ही उठाई, अनुभा गुस्से से बोल पड़ी, “इतनी ही परेशानी है, तो अपना फ्लैट क्यों नहीं बदल लेते? किराए का घर है… कौन सा तुम ने खरीद लिया है?”

“लगता है, यही करना पड़ेगा, जिस से मेरी बहुत सी परेशानी दूर हो जाएगी.”

फिर से झगड़ा बढ़ता देख लोगों ने बीचबचाव कर उन्हें शांत बैठने को कहा.

अगले दिन एक नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ ने फ्लैट बदलने के लिए लोगों से इसी सोसायटी के अन्य खाली फ्लैट की जानकारी देने का अनुरोध किया था.

अनुभा क्यों पीछे रहती, उस ने भी अपना फ्लैट बदलने के लिए पोस्टर चिपका दिया.

मार्च का महीना अपने साथ लौकडाउन भी ले आया. लोग घरों में दुबक गए. वर्क फ्रॉम होम होने से अनुभा और सौरभ का झगड़ा भी बंद हो गया. वे भी अपने फ्लैट्स में सीमित हो गए. अप्रैल, मई, जून तो यही सोच कर कट गए कि शायद अब कोरोना का प्रकोप कम होगा, मगर जुलाई आतेआते तो शहर में पांव पसारने लगा और अगस्त के महीने से सोसायटी के अंदर भी पहुंच गया. सोसायटी की ए विंग सील हो गई, तो कभी बी विंग सील हुई. सी विंग के रहने वाले दहशत में थे कि उन के विंग का नंबर जल्द लगने वाला है.

अनुभा और सौरभ सब से ज्यादा तनाव में आ गए. इस सोसायटी में सभी संयुक्त या एकल परिवार के साथ मिलजुल कर रह रहे हैं. घर के बुजुर्ग बच्चों के संग नया तालमेल बैठा रहे हैं. मगर, अनुभा और सौरभ नितांत अकेले पड़ गए.

अनुभा तो फिर भी आसपड़ोस के दोचार परिवारों का नंबर अपने पास रखे हुए थी, मगर सौरभ ने कभी इस की जरूरत न समझी, केवल सोसायटी के अध्यक्ष का नंबर ही उस के पास था. घर वालों के फोन दिनरात आते रहते थे. उस की बड़ी बहन समीक्षा दिल्ली के सरकारी अस्पताल में डाक्टर थी. वह लगातार सौरभ को रोज नई दवाओं के प्रयोग और सावधानियों के विषय में चर्चा करती. गुड़गांव में पोस्टेड सौरभ उस की नसीहत एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता. उधर मोहिनी और कविता की गौसिप का मसाला खत्म हो गया था. दोनों को किट्टी पार्टी के बंद होने से ज्यादा सौरभ और अनुभा की “तूतू, मैंमैं” का नजारा बंद हो जाने का अफसोस होता. पार्किंग एरिया शांत पड़ा था.

सौरभ को हलकी खांसी और गले में खराश सी महसूस हुई. उस ने अपनी दीदी समीक्षा को यह बात बताई, तो उस ने उसे तुरंत पेरासिटामोल से ले कर विटामिन सी तक की कई दवाओं को तुरंत ला कर सेवन करने, कुनकुने पानी से गरारा करने जैसी कई हिदायतों के साथ तुरंत कोविड टेस्ट कराने को कहा.

पहले तो सौरभ टालमटोल करता रहा, किंतु वीडियो काल के दौरान उस की बारबार होने वाली खांसी ने समीक्षा को परेशान कर दिया. वह हर एक घंटे बाद उसे फोन कर यही कहे “तुम अभी तक टेस्ट कराने नहीं गए?”

सौरभ को थकान सी महसूस हो रही थी, मगर अपनी दीदी की जिद के आगे उस ने हथियार डाल दिए.

पार्किंग एरिया में अपनी कार के पीछे अनुभा की गाड़ी देख कर सौरभ का मूड उखड़ गया. उस के अंदर अनुभा से बहस करने की बिलकुल भी एनर्जी नहीं बची थी. उस ने गार्ड से चाबी मांग कर लाने को कहा. अंदर ही अंदर वह बहुत डरा हुआ था कि अनुभा झगड़ा शुरू न कर दे, किंतु उस की सोच के विपरीत उस का फोन बजा.

“सौरभ, मेरी गाड़ी दीवार से लगा कर खड़ी कर देना, अपनी गाड़ी पीछे लगा लो. मैं गार्ड के हाथ चाबी भेज रही हूं.”

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि लौकडाउन ने इस के दिमाग के ताले खोल दिए क्या, वरना तो यही कहती थी कि “मैं तो अपनी गाड़ी किसी को हाथ तक लगाने न दूं.“

गार्ड चाबी ले कर आया और उस ने बताया, “लगता है, मैडम की तबियत ज्यादा ही खराब है. कह रही थीं कि चाबी सौरभ को दे देना.”

सौरभ ने अपनी गाड़ी बाहर निकाली. जैसे ही वह सोसायटी के गेट तक पहुंचा, अचानक उसे खयाल आया कि अनुभा
से उस की बीमारी के विषय में पूछा ही नहीं. वह तुरंत लौट कर आया और अनुभा के फ्लैट में पहुंच गया.

“तुम चाबी गार्ड के हाथ भेज देते,“ अनुभा उसे देख कर चौंक गई.

“फीवर आ रहा है क्या?” सौरभ ने पूछा.

“हां, कल रात तेज सिरदर्द हुआ और सुबह होतेहोते इतना तेज फीवर आ गया कि पूरा शरीर दुखने लगा है. इतना तेज दर्द है मानो शरीर के ऊपर से ट्रक गुजर गया हो,” उस की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए. ऐसी दयनीय दशा में, कोरोना काल में, उस का हालचाल वही इनसान ले रहा था, जिस से उस ने सीधे मुंह कभी बात न की, उलटा लड़ाई ही लड़ी थी.

“चलो मेरे साथ, मैं कोविड टेस्ट कराने जा रहा हूं, तुम भी अपना टेस्ट और चेकअप करा लेना.”

“मुझे कोरोना कैसे हो सकता है? मैं तो कहीं आतीजाती भी नहीं हूं?” अनुभा ने कहा.

“मेरी दीदी डाक्टर हैं. उस ने तो मुझे खांसी होने पर ही टेस्ट कराने को कह दिया है. तुम्हें तो फीवर भी है. चलो मेरे साथ,” सौरभ के जोर देने पर अनुभा मना न कर सकी.

अनुभा कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गई. सौरभ ने कार का एसी बंद ही रखा और उस की विंडो खोल दी. अस्पताल से भी वही दवाओं का परचा मिला, जो समीक्षा ने बताया था. दवा, फल, पनीर खरीद कर वे वापस आ गए.

अनुभा तो ब्रेड के सहारे दवा निगल गई. उस के शरीर में देर तक खड़े हो कर खाना बनाने की ताकत नहीं बची थी.

सौरभ ने खिचड़ी बनाई. तभी समीक्षा ने वीडियो काल कर उसे अपने सामने सारी दवाएं खाने को कहा. उस ने अनुभा के विषय में बताया तो दीदी नाराज हो गईं कि उसे अपने साथ क्यों ले गए, टैक्सी करा देते. फिर शांत हो गईं और बोलीं, “चलो जो हो गया, सो हो गया. अब वीडियो काल कर के पूछ लेना, उस के फ्लैट में न जाना.”

दीदी से बात खत्म कर सौरभ सोचने लगा कि दीदी उसे मेरी गर्लफ्रेंड समझ रही हैं शायद, उन्हें नहीं पता कि हम दोनों एकदूसरे के दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन हैं.

सुबह सौरभ ने दलिया बनाया, तो उसे अनुभा की याद आ गई. उस ने वीडियो काल किया.

अनुभा ने कहा, “मेरा बुखार रातभर लगातार चढ़ताउतरता रहा. मैं दूधब्रेड खा कर दवा खा लूंगी. तुम्हारे क्या हाल हैं?“

“मेरी खांसी तो अभी ठीक नहीं हुई, छींकें भी आ रही हैं, गले में खराश भी बनी हुई है. दवा तो मैं भी लगातार खा रहा हूं,” सौरभ ने बताया.

“पता नहीं, क्या हुआ है?रिपोर्ट कब आएगी?” अनुभा ने पूछा.

“ कल शाम तक तो आ ही जाएगी. मैं ने दलिया बनाया है. तुम्हें दे भी नहीं सकता. हो सकता है, मैं पोजीटिव हूं और तुम निगेटिव हो.”

“इस का उलटा भी तो हो सकता है. रातभर इतने घटिया, डरावने सपने आते रहे कि बारबार नींद खुलती रही. एसी नहीं चलाया, तो कभी गरमी, कभी ठंड, तो कभी पसीना आता रहा,” बोलतेबोलते अनुभा की सांस फूल गई.

“अच्छा हुआ, उस दिन दीदी की जिद से औक्सीमीटर और थर्मल स्कैनर भी खरीद लिए थे. मैं तो लगातार चेक कर रहा हूं. तुम औक्सीमीटर में औक्सीजन लेवल चेक करो, नाइंटी थ्री से नीचे का मतलब, कोविड सैंटर में भरती हो जाओ.”

“क्यों डरा रहे हो? हो सकता है, मुझे वायरल फीवर ही हो.”

“ठीक है. रिपोर्ट जल्द आने वाली है, तब तक अपना ध्यान रखो.”

अनुभा सोच में पड़ गई. अगर रिपोर्ट पोजीटिव आ गई तो क्या होगा? सोसायटी से मदद की उम्मीद बेकार है. किसी कोविड सैंटर में ही चली जाएगी. उस की आंखों में आंसू आ गए. किसी तरह उस ने एक दिन और गुजारा.

अगले दिन उस के पास अनुभा का फोन आ गया, “हैलो सौरभ कैसे हो? तुम्हें फोन आया क्या?”

“हां, मेरा तो ‘इक्विवोकल…’ आया है.”

“इस का क्या मतलब है?” अनुभा ने पूछा.

“मतलब, वायरस तो हैं, पर उस की चेन नहीं मिली कि मुझे पोजीटिव कहा जाए यानी न तो नेगेटिव और न ही पोजीटिव ‘संदिग्ध’,” सौरभ ने बताया.

“मेरा तो पोजीटिव आ गया है. अभी मैं ने किसी को नहीं बताया,” अनुभा ने कहा.

“तुम्हारे नाम का पोस्टर चिपका जाएंगे तो सभी को खुद ही पता चल जाएगा, वैसे, अब तबियत कैसी है तुम्हारी?” सौरभ ने पूछा.

“बुखार नहीं जा रहा,” अनुभा रोआंसी हो उठी.

“रुको, मैं तुम्हारी काल दीदी के साथ लेता हूं, उन से अपनी परेशानी कह सकती हो.”

दीदी से बात कर अनुभा को बड़ी राहत मिली. उन्होंने उस की कुछ दवा भी बदली, जिन्हें सौरभ ला कर दे गया और उसे दिन में 3-4 बार औक्सीलेवल चेक करने और पेट के बल लेटने को भी कहा.

2-3 दिन बाद बुखार तो उतर गया, मगर डायरिया, पेट में दर्द शुरू हो गया. दवा खाते ही पूरा खाना उलटी में निकल जाता.

समीक्षा ने फिर से उसे कुछ दवा बताई. सौरभ उस के दरवाजे पर फल, दवा के साथ कभी खिचड़ी, तो कभी दलिया रख देता.

पहले तो अनुभा को ऐसा लगा मानो वह कभी ठीक न हो पाएगी. वह दिन में कई बार अपना औक्सिजन लेवल चेक करती, मगर सौरभ और समीक्षा के साथ ने उस के अंदर ऊर्जा का संचार किया. उसे अवसाद में जाने से बचा लिया.

2 हफ्ते के अंदर उस की तबियत में सुधार आ गया, वरना बीमारी की दहशत, मरने वालों के आंकड़े, औक्सिजन की कमी के समाचार उस के दिमाग में घूमते रहते थे.

अनुभा को आज कुछ अच्छा महसूस हो रहा है. एक तो उस के दरवाजे पर चिपका पोस्टर हट गया है. दूसरा, आज बड़े दिनों बाद उसे कुछ चटपटा खाने का मन कर रहा है वरना इतने दिनों से जो भी जबरदस्ती खा रही थी, वह उसे भूसा ही लग रहा था.

“सौरभ आलू के परांठे खाने हैं तो आ जाओ, गरमागरम खाने में ही मजा आता है,” अनुभा ने सौरभ को फोन किया.

”अरे वाह, मेरे तो फेवरेट हैं. तुम इतना लोड मत लो. मैं आ कर तुम्हारी मदद करता हूं.“

सौरभ फटाफट तैयार हो कर ऊपर पहुंचा, तो अनुभा परांठा सेंक रही थी. अनुभा के हाथ में वाकई स्वाद है. नाश्ता करने के बाद सौरभ ने कुछ सोचा, फिर बोल ही पड़ा, “अनुभा, तुम कोरोना काल की वजह से इतनी सौफ्ट हो गई हो या कोई और कारण है?”

“सच कहूं तो मैं ने नारियल के खोल का आवरण अपना लिया है. मैं बाहरी दुनिया के लिए झगड़ालू मुंहफट बन कर रह गई हूं. अब तुम ही बताओ कि मैं क्या करूं? अकेले रह कर जौब करना आसान है क्या? इस से पहले जिस सोसायटी में रहती थी, वहां मेरे शांत स्वभाव की वजह से अनेक मित्र बन गए थे, लेकिन सभी अपने काम के वक्त मुझ से मीठामीठा बोल कर काम करवा लेते, मेरे फ्लैट को छुट्टी के दिन अपनी किट्टी पार्टी के लिए भी मांग लेते. मैं संकोचवश मना नहीं कर पाती थी. मेरी सहेली तृष्णा ने जब यह देखा, तो उस ने मुझे समझाया कि ये लोग मदद देना भी जानते हैं या सिर्फ लेना ही जानते हैं? एक बार आजमा भी लेना. और हुआ भी यही, जब मैं वायरल से पीड़ित हुई, तो मैं ने कई लोगों को फोन किया. सभी अपनी हिदायत फोन पर ही दे कर बैठ गए.
मेरे फ्लैट में झांकने भी न आए, तभी मैं ने भी तृष्णा की बात गांठ बांध ली और इस सोसायटी में आ कर एक नया रूप धारण कर लिया. मेरे स्वभाव की वजह से लोग दूरी बना कर ही रखते हैं. वहां तो जवान लड़कों की बात छोड़ो, अधेड़ भी जबरदस्ती चिपकने लगते थे. यहां सब जानते हैं कि इतनी लड़ाका है. इस से दूर ही रहो,” कह कर अनुभा हंसने लगी.

“ओह… तो तुम मुझे भी, उन्हीं छिछोरों में शामिल समझ कर झगड़ा करती थी,” सौरभ ने पूछा.

“नहीं, ऐसी बात नहीं है,” अनुभा मुसकराई.

तभी सौरभ और अनुभा का फोन एकसाथ बज उठा. समीक्षा की काल थी.

“अरे सौरभ, आज तुम कहां हो? अच्छा, अनुभा के फ्लैट में…” समीक्षा चहकी.

“अनुभा ने पोस्ट कोविड पार्टी दी है, आलू के परांठे… खा कर मजा आ गया दीदी.”

“अरे अनुभा, अभी 15 दिन ज्यादा मेहनत न करना, धीरेधीरे कर के, अपनी ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज बढ़ाती जाना. और सौरभ, तुम भी अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना.”

“थैंक्स दीदी, आप के कंसल्टेंट्स और सौरभ की हैल्प ने मुझे बचा लिया, वरना मुझे कोविड सैंटर में भरती होना पड़ता. अपनी बचत पर भी कैंची चलानी पड़ती. लाखों के बिल बने हैं लोगों के, हफ्तादस दिन ही भरती होने के,” अनुभा बोली.

“अरे छोड़ो कोरोना का रोना, तुम दोनों साथ में कितने अच्छे लग रहे हो,” समीक्षा बोली.

“अरे दीदी, वह बात नहीं है, जो आप समझ कर बैठी हैं,” सौरभ ने कहा.

“क्यों…? मैं ने कुछ गलत कहा क्या अनुभा?” समीक्षा पूछ बैठी.

“ नहीं दीदी, आप ने बिलकुल सही कहा है. मैं तो अब नीचे के फ्लोर में सौरभ के पास का, फ्लैट लेने की सोच रही हूं. ऐसा हीरा फिर मुझे कहां मिलेगा?”

“ये हुई न बात, बल्कि अगलबगल के फ्लैट ले लो,” समीक्षा ने सलाह दी.

“ये आइडिया अच्छा है,” दोनों ही एकसाथ बोल पड़े.

अगले दिन पार्किंग में नया पोस्टर चिपका था, जिस में सौरभ और अनुभा ने एक साथ 2 फ्लैट्स लेने की डिमांड रखी थी.

“अरे कविता, कुछ पता चला तुझे? सारा मजा खत्म हो गया,” कामिनी ने फोन किया.

“क्या हुआ कामिनी?” कविता पूछ बैठी.

“अरे, “तूतू, मैंमैं” तो अब “तोतामैना“ बन गए रे…”

जब हमारे साहबजादे क्रिकेट खेलने गए

हमारे साढ़े 6 वर्षीय बेटे को क्रिकेट खेलने का बहुत शौक है. यद्यपि इस खेल के संबंध में उन का ज्ञान इतना तो नहीं कि किसी खेल संबंधी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता में भाग ले सकें, पर फिर भी उन्हें खिलाडि़यों की पहचान हम से अधिक है और क्रिकेट की फील्ड की रचना कैसे की जाती है, इस बारे में भी वह हम से ज्यादा ही जानते हैं.

जब कभी टेस्ट मैच या एकदिवसीय मैच होता है तो वह बराबर टीवी के सामने बैठे रहते हैं. यदि कभी हमारा बाहर जाने का कार्यक्रम बनता है तो वह तड़ से कह देते हैं, ‘‘मां, मैं क्रिकेट मैच नहीं देख पाऊंगा, इसलिए मैं घर पर ही रहूंगा.’’ इस खेल के प्रति उन की रुचि व लगन पढ़ाई से अधिक है.

उन को इस खेल के प्रति रुचि अचानक ही नहीं हुई बल्कि जब वह मात्र 3 साल के थे तब से ही स्केल और पिंगपांग बाल को वह क्रिकेट की गेंद व बल्ला समझ कर खेला करते थे. अपनी तीसरी वर्षगांठ पर उन्होंने हम से बल्ला व गेंद उपहारस्वरूप झड़वा लिया. इस खेल में विकेट और पैड भी जरूरी होते हैं. इस की जानकारी उन्हें भारत और पाकिस्तान के बीच हुए मैच के दौरान हुई, जिस का सीधा प्रसारण वह टीवी पर देखा करते थे.

उन्होंने खाना छोड़ा होगा, पीना छोड़ा होगा, दोपहर में पढ़ना और सोना भी छोड़ा होगा, पर मैच देखना कभी छोड़ा हो, ऐसा हमें याद नहीं. हमारे देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कौन है वह इस बात को भले ही न जानें, पर कपिलदेव, सुनील गावसकर, लायड, जहीर अब्बास को वह केवल जानते ही नहीं, उन के हर अंदाज से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं.

इस खेल के प्रति उन की रुचि तब और बढ़ गई, जब उन्होंने गावसकर को मारुति व रवि शास्त्री को आउडी कार मिलते देखी. उन्हें कार पाने का इस से सरल तरीका और कोई नहीं दिखा कि सफेद कमीज पहन लो, पैंट न हो तो नेकर पहन लो, ऊनी दस्ताने पहन लो तथा छोटीबड़ी कैसी भी कैप पहन लो और बस, चल दो बल्ला और गेंद उठा कर खेल के मैदान में.

कार के वह पैदाइशी शौकीन हैं. जब उन्होंने अपने जीवन के 4 महीने ही पूरे किए थे तब पहली बार कार का हार्न सुन कर बड़े खुश हुए थे. जब वह 8 महीने के थे तब घर के सदस्यों को पहचानने के बजाय उन्होंने सब से पहले तसवीरों में कार को पहचाना था.

तो जनाब, कार के प्रति उन के मोह ने उन्हें क्रिकेट की तरफ मोड़ दिया. फिर वह हमारे पीछे पड़ गए और बोले, ‘‘हम रोज घर पर खेलते हैं, आज हम स्टेडियम में खेलेंगे.’’

हम ने उन से कहा, ‘‘पहले आसपास के बच्चों के साथ घर के बाहर तो खेलो.’’ तो साहब, उन्होंने हमारी आज्ञा का पालन किया, अगले दिन शाम होते ही आ कर बोले, ‘‘आप लोग लान में खड़े हो कर देखिएगा, हम सड़क पर भैया लोगों के साथ खेलने जा रहे हैं.’’ हम मांबाप दोनों ही उन्हें दरवाजे पर इस तरह शुभकामनाओं के साथ छोड़ने गए जैसे वह विदेश जा रहे हों.

बहुत देर तक हम खेल शुरू होने का इंतजार करते रहे, क्योंकि करीबकरीब सभी बच्चे मय टूटी कुरसी के, जोकि उन की विकेट थी, सड़क पर पहुंच चुके थे. पर खेल शुरू होने के आसार न दिखने से हम अपना काम करने अंदर आ गए. करीब 20 मिनट बाद जब हम बाहर आए तो देखा, खिलाडि़यों में कुछ झगड़ा सा हो रहा है.

हम ने पतिदेव से, जोकि अपने बेटे के पहले छक्के को देखने की उम्मीद में बाहर खड़े थे, पूछा कि माजरा क्या है, अभी तक खेल क्यों नहीं शुरू हुआ तो उन्होंने कहा कि फिलहाल कपिल बनाम गावसकर यानी कप्तान कौन हो, का विवाद छिड़ा हुआ है.

4 बड़े लड़के कप्तान बनने की दलील दे रहे थे. एक कह रहा था, ‘‘विकेट (टूटी कुरसी) मैं लाया हूं, इसलिए कप्तान मैं हूं.’’ दूसरा कह रहा था, ‘‘अरे, वाह, बल्ला और गेंद तो मैं लाया हूं. मेरा असली बल्ला है, तुम्हारा तो टेनिस की गेंद से खेलने लायक है. अत: मैं बनूंगा कप्तान.’’ तीसरा जोकि अच्छी बल्लेबाजी करता था, बोला, ‘‘देखो, कप्तान मुझे ही बनाना चाहिए, क्योंकि सब से ज्यादा रन मैं ही बनाता हूं.’’

चौथा इस बात पर अड़ा हुआ था कि खेल क्योंकि उस के घर के सामने हो रहा था अत: बाल यदि चौकेछक्के में घर के अंदर चली गई तो उसे वापस वह ही ला सकता है, क्योंकि गेट पर उस की मां ने उस भयंकर कुत्ते को खुला छोड़ रखा था, जिस से वे सब डरते थे.

खैर, किसी तरह कप्तान की घोषणा हुई तो देखा बच्चे अब भी खेलने को तैयार नहीं, क्योंकि उन्हें उस की कप्तानी पसंद नहीं थी. यहां भी टीम का चयन करने में समस्या थी, क्योंकि जितने खिलाड़ी चाहिए थे, उस से 10 बच्चे अधिक थे. अब समस्या थी कि किसे खेल में शामिल किया जाए.

यहां कोई चयन समिति तो थी नहीं, जो इन की पहली कारगुजारी के आधार पर इन्हें चुनती. यहां तो हर कोई अपने को हरफनमौला बता रहा था.

खैर, साहब, जो बच्चे बल्ले नहीं लाए थे, उन्हें बजाय वापस घर भेजने के गली के नुक्कड़ पर खड़ा कर दिया गया ताकि अगर भूलेचूके गेंद वहां चली जाए तो वे उसे उठाने में मदद करें. जब टीम का चयन हो गया तो टास हुआ, 2 बार तो टास में अठन्नी पास की नाली में जा गिरी. तीसरी बार के टास से पता चला कि टीम ‘क’ पहले बल्लेबाजी करेगी तथा टीम ‘ख’ फील्डिंग.

हमारे सुपुत्र चूंकि हमें फील्ड में यानी सड़क पर कहीं नजर नहीं आए तो हम ने समझा शायद ‘क’ टीम में होंगे, पर शंका का समाधान थोड़ी देर में हो गया जब वह मुंह लटका कर द्वार में प्रविष्ट हुए.

हम ने उन से पूछा, ‘‘आप वापस कैसे आ गए?’’ इस पर वह बोले, ‘‘हम सब से छोटे हैं, फिर भी सब से पहले हम से बल्लेबाजी नहीं करवाई और बड़े भैया खुद खेले जा रहे हैं.’’

हम ने उन्हें हतोत्साहित नहीं होने दिया और कहा, ‘‘जल्दी ही आप की बारी आ जाएगी, आप वापस चले जाइए.’’

वह अंदर गए, लगे हाथ एक कोल्ड डिं्रक चढ़ाई और जब वह वापस आए तो उन के चेहरे के भाव उसी तरह थे, जैसे ड्रिंक इंटरवल के बाद खिलाडि़यों के चेहरों पर होते हैं. जब वह फील्ड पर पहुंचे तो पता लगा उन की बारी आ चुकी थी, पर वह मौके पर उपस्थित नहीं थे, अत: 12वें नंबर के खिलाड़ी को बल्लेबाजी करने भेज दिया गया यानी बल्लेबाजी तो वह कर ही नहीं पाए.

अब फील्डिंग की बारी थी. वहां भी शायद वह अपनी अच्छी छाप नहीं छोड़ सके, क्योंकि अगले दिन जब हम ने उन्हें शाम को तैयार कर के भेजना चाहा तो वह तैयार नहीं हो रहे थे. हम ने कहा, ‘‘अरे भई, आज हम बिलकुल कहीं नहीं जाएंगे, लान में खड़े हो कर आप का ही मैच देखेंगे.’’ पर वह टस से मस नहीं हुए. उलटे उन के हाथ में क्रिकेट के बल्ले की जगह बैडमिंटन रैकिट था. यानी उन्होंने क्रिकेट से तौबा कर ली थी.

खैर, किसी तरह हम ने उन्हें खेलने भेजा. हम अपनी सब्जी गैस पर बनने रख आए थे. उसे देखने अंदर आ गए. वह तो खैर जलभुन कर राख हो ही चुकी थी, ऊपर से इन्होंने बताया कि हमारे नवाबजादे टीम से निकाल दिए गए हैं, इसीलिए खेलने नहीं जा रहे थे.

हम ने उन से निकाले जाने का कारण पूछा तो पता चला कि फील्डिंग के समय उन्हें जो पोजीशन मिली थी, वह महत्त्व की थी और वहां पर चौकन्ना हो कर खड़े रहने की जरूरत थी. पर हमारे नवाबजादे जहां लपक कर कैच लेना था, वहां पर तो डाइव मार कर एक हाथ से कैच ले रहे थे. जैसा कभी उन्होंने गावसकर को आस्ट्रेलिया में लेते देखा था, और जहां पर डाइव लगानी थी, वहां सीधे हाथ आकाश में लिए खड़े थे. इस तरह वह 3-4 महत्त्वपूर्ण कैच छोड़ चुके थे, अत: कप्तान उन्हें गुस्से में घूरने लगा था.

जब 5वीं बार उन्हें एक खिलाड़ी को रन आउट करने का मौका मिला था तो उन्होंने गेंद बजाय खिलाड़ी को रन आउट करने के लिए विकेट पर मारने के अपने कप्तान के मुंह पर दे मारी, क्योंकि वह गुस्से में थे कि पारी की शुरुआत उन से क्यों नहीं करवाई गई. जब शाम से रात हुई और स्टंप उखाड़े गए, यानी कुरसी सरका ली गई तो उन्हें अगले दिन वहां आने से मना कर दिया गया.

हमारे लाड़ले का कहना था, ‘‘यह भी कोई क्रिकेट मैच है? पास में नाली बह रही है. इतने सारे मच्छर खाते हैं, न कोई ड्रिंक्स ट्राली आती है, न कोई फोटो खींचता है. हम तो विदेश जा कर ही खेलेंगे.’’

अंधेरे में घिरी एक और दीवाली

लेखक- शशि अरुण

सर्र… की आवाजें निरंतर गूंज रही थीं. हर ओर से आ रही पटाखों की आवाजों से लगता था जैसे कान के परदे फट जाएंगे. सुबह से सुंदर ने न तो कुछ खाया था और न ही उस का बिस्तर से उठने का ही मन हुआ था. हर पल वह एक अथाह समंदर में गहरे और गहरे पैठता ही गया. यादों का यह समंदर कितना गहरा है, कितनी लहरें उठती हैं इस में कोई थाह नहीं पा रहा था सुंदर.

मगर अब तो लेटे रहना भी असहनीय हो गया था. खिड़कियों से आसमानी गोलों की हरीलाल चमकभरी रोशनी जैसे बरबस ही आंखों में घुस जाना चाहती थी. सुंदर ने खीज कर आंखें बंद कर लीं. खूब कस कर पूरी शक्ति से आंखें बंद रखने की कोशिश करने लगा. मगर दूसरे ही क्षण तेज रोशनी की चमक से पलकें अपनेआप ही खुल जातीं. ठीक उसी तरह जैसे रजनी जबरदस्ती अपनी कोमल उंगलियों से उस की पलकें खोल देती थी.

उन दिनों खीज उठता था सुंदर लेकिन आज मन चाहता है चूम ले उन प्यारी सी कचनार की कलियों को. अनायास ही उस का अपना हाथ होंठों तक आ गया. होंठ एक खास अंदाज में सिकुड़े भी. लेकिन यह क्या. न वह गरमी और न वह सिहरन. घबरा कर सुंदर ने आंखें खोल दीं.

हां, यही तो होता था तब जब वह इस बंदायू में तैनात था. मकान उसे एक पुराना 3 कमेरे का मिला था. यह मकान शहर से बाहर था और थोड़ा हराभरा था. एक दिन सुबह जब वह सो कर उठा तो आदत के अनुसार बरामदे में पड़ी कुरसी पर आ कर बैठ गया. चाय बना कर सामने रखी और मोबाइल देखने लगा. सुंदर ने चाय का कप उठा कर अभी चुसकी ली ही थी कि चौंक गया. घर के लौन में बने पत्थर के फुहारे पर बहते पानी पर एक परी अपने गुलाबी पंख फड़फड़ा रही थी. सुंदर एकटक उसे देखता रह गया. वह हाथ का कप हाथ में ही पकड़े रहता कि तभी घर में सफाई करने आने वाली बाई की आवाज से चौंक गया.

‘‘यहां के पलंबर की भानजी है साहब, कल रात ही पौड़ी से आई है. बचपन से ही इस फुहारे पर नहाती है और अब इतनी बड़ी हो कर भी शरारत से बाज नहीं आती. इस का पिता ही इस फुहारे का पंप ठीक करता है.’’

बाई की आवाज से सिर्फ सुंदर ही नहीं वह परी भी चौंक गई. उस ने पैर हिलाना बंद कर दिया और इधर ही एकटक देखने लगी. सुंदर तो हक्काबक्का ही रह गया. कोई नारी

मूर्ति इतनी सुंदर भी हो सकती है, इस की तो उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. चेहरा गुलाबी रंग की कमीज के गुलाबी रंग से और भी खिल उठा था. पानी से भीगा सारा बदन दिख रहा था. क्या पहाड़ी औरतें भी इतने तीखे नैननक्श वाली होती हैं.

वह अभी सोच ही रहा था कि बाई की आवाज पुन: गूंजी, ‘‘रजनी, अब तो तुम बड़ी हो गई हो. क्या अभी तक फव्वारे में नहाने का शौक नहीं गया,’’ और फिर बाई उस की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘आप चाय पीजिए. मैं इसे आज ही मना कर दूंगी कि फुहारे में न आया करे.’’

‘‘नहीं मालती इस लड़की से कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ कहते हुए सुंदर ने चाय पीनी शुरू कर दी क्योंकि अब तक परी उड़ चुकी थी और फुहारे में लगता है अब पानी सूख गया वैसा ही सांवला रंग लिए खड़ा था. ‘कितना सुंदर है यह फुहारा जैसे सचमुच किसी पहाड़ का ?ारना हो,’ सुंदर मन ही मन बोला.

इस के बाद के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ने लगे. सुंदर ने मालती से पता लगा लिया कि रजनी की अभी कहीं शादी तय नहीं हुई है. रजनी थी तो शैड्यूल कास्ट पर हमेशा पढ़ने में तेज थी. उस के पिता ने पलंबर का काम सीख लिया था जिस से अच्छी कमाई हो जाती थी. रजनी ही ठेकों के हिसाबकिताब रखती थी. वह रजनी के मातापिता से मिला और उन के आगे रजनी से अपने विवाह का प्रस्ताव रखा.

सुंदर जैसे स्वस्थ और आकर्षक व्यक्तित्व वाले ऊंची जाति के डाक्टर को अपना दामाद बनाने में रजनी के मातापिता को भला क्या एतराज हो सकता था. सुंदर की मां भी रजनी की सुंदरता देख कर तुरंत उसे अपनी बहू बनाने को तैयार हो गईं. हालांकि उन को उस की जाति खल रही थी. पर सुंदर की मां जवानी में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ी थीं और जीवनभर उन्होंने स्कूलों में पढ़ाया है जहां हर तरह की लड़कियां आती रही हैं.

कुछ दिन रुक कर पट ब्याह वाली बात हुई. सुंदर रजनी को ब्याह कर अपने घर में ले आया. उस को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई थी. वह रातदिन रजनी के प्यार में ही डूबा रहता. नशा इतना गहरा था कि कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिला. उस के दोस्तों ने उस से वास्ता रखना बंद कर दिया पर इस से उसे कुछ असर नहीं पड़ता था. उसे तो रजनी में ही जिंदगी दिख रही थी.

सुंदर की रविवार को दिन में सोने की आदत थी. अभी शादी को 1 साल भी पूरा नहीं हुआ था. एक दिन अचानक ही सोते समय किसी ने अपनी उंगलियों से सुंदर की पलकें खोल दीं. सुंदर ने हड़बड़ा कर देखा, पास ही रजनी खड़ी मुसकरा रही थी. अभी सुंदर खीजते हुए यह कहना ही चाहता था कि सोने क्यों नहीं देतीं कि रजनी बोल पड़ी, ‘‘मुबारक हो.’’

‘‘क्या कह रही हो. इतनी जल्दी यह कैसे हो गया? अभी तो मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ सुंदर का चेहरा बु?ा गया.

‘‘तो क्या हर चीज जनाब के सोचने से ही होगी? अरे, मैं तो सोच रही थी आप सुन कर खुशी से उछल पड़ेंगे. मगर आप तो ऐसे डर रहे हैं जैसे कोई बहुत गलत काम हो गया हो. आखिर इस में डरने की क्या बात है? कोई चोरी तो नहीं है. आखिर हम पतिपत्नी हैं.’’

‘‘नहीं रजनी, यह ठीक नहीं. हमें अभी इतनी जल्दी बच्चा नहीं चाहिए,’’ सुंदर ने दृढ़ स्वर में कहा और फिर इस के बाद सबकुछ समाप्त हो गया. रजनी का क्रोध, उस के आंसू कुछ काम न आए. सुंदर ने इंजैक्शन दिलवा कर रजनी को मां बनने से रोक दिया. रजनी खोईखोई सी रहने लगी.

मगर कुछ दिन बाद फिर से सबकुछ सामान्य हो गया. रजनी भी सबकुछ भूल कर पति के सुख में सुखी रहने की कोशिश करने लगी और फिर 3 साल जैसे पलक झपकते गुजर गए.

3 साल बाद जैसे फिर से विस्फोट हो गया.

एक दिन अचानक सुंदर पूछ बैठा, ‘‘क्यों, सबकुछ ठीक है?’’ उसी दिन रजनी 1 महीने बाद अपने मायके से लौटी थी.

रजनी स्वयं ही बताना चाहती थी लेकिन सोच रही थी कि रात को बताएगी. जब उस ने देखा कि सुंदर ने खुद ही पूछ लिया है तो वह एक रहस्यमयी मुसकराहट के साथ बोली, ‘‘हां, सबकुछ ठीक है. इस बार तो जल्दी नहीं है न? अब तो आप को बातें बनने में शर्म नहीं आएगी न?’’

‘‘क्या कह रही हो? क्या फिर गड़बड़ हो गई. इसीलिए मैं मना कर रहा था कि ज्यादा दिन के लिए मत जाओ. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अभी तोे सिर्फ 7 सप्ताह ही हुए हैं. मु?ो तुम्हारी तारीख अच्छी तरह से याद है,’’ सुंदर आश्वस्त स्वर में बोला.

‘‘क्या कह रहे हैं आप? क्या फिर से…’’ रजनी अभी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि सुंदर बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘हां, अभी नहीं 5 साल से पहले हमें बच्चा नहीं चाहिए.’’

‘‘नहीं… नहीं. अब मैं यह नहीं कर सकूंगी,’’ रजनी डर से कांपने लगी. एक तो पहले ही की तकलीफ याद कर के उस के रोंगटे खड़े हो रहे थे दूसरे हर बार अपनी ममता का गला घोटा जाना वह सह नहीं पा रही थी.

‘‘अरे, तुम अभी बहुत छोटी हो. इतनी जल्दी बच्चे हो गए तो जानती हो क्या होगा? तुम्हारी सारी सुंदरता नष्ट हो जाएगी,’’ सुंदर समझते हुए बोला, ‘‘जिद मत करो. अपनी जाति के खोल से निकलो कि बच्चे पैदा करने में ही सुख है. देखा नहीं क्लीनिक में कितनी सुंदर लड़कियां 30 साल तक ऐनीमिया की शिकार हो जाती हैं.’’

मगर रजनी न मानी. उस ने सास को भी सारी बात बता दी. मां ने बेटे को बहुत

समझाया लेकिन बेटा टस से मस न हुआ और एक दिन अचानक लखनऊ मैडिकल कालेज में जा कर रजनी के गर्भाशय की सफाई करवा दी.

रजनी का मन रो उठा. वह बरदाश्त न कर सकी इस क्रूरता को. वह बिस्तर से लग गई और फिर ठीक होने में महीनों लग गए.

समय हर घाव को भर देता है. रजनी भी पिछला सबकुछ भूल कर पति के साथ सहयोग करने लगी. लेकिन अब उस में न पहले जैसा उत्साह रहा था, न अल्हड़ता और न सुंदरता ही. इधर सुंदर ने भी सरकारी अस्पताल की नौकरी छोड़ कर अपना निजी नर्सिंगहोम खोल लिया था. उस का नर्सिंगहोम जल्द ही खूब चलने लगा क्योंकि उस का असली काम तो अनचाही ममता का गला घोटना था. उस ने अपने यहां कई नर्सें और एक महिला डाक्टर भी रखी हुई थी.

सुंदर का अपने माली को सख्त आदेश था कि नर्सिंगहोम के बगीचे में कोई भी सूखा, मुर?ाया हुआ फूल न रहे. उसे हमेशा ताजे, खिले हुए फूल ही पसंद थे. हां, फूल चाहे जो हों बेला, गुलाब, चमेली, गेंदा बस ताजे होने चाहिए.

यही स्थिति उस के अपने नर्सिंगहोम की भी थी. कोई भी ऐसी नर्स या डाक्टर उसे पसंद नहीं थी जो उस की इच्छा के आगे सिर न ?ाका दे. अत: वह हमेशा ताजे फूल की तलाश में रहता और भयंकर बेकारी के कारण उसे एक से एक नायाब खुशबूदार फूल मिलता रहता.

रजनी को वह लगभग भूल ही चुका था. अपने पौरुष और संपत्ति के नशे में रजनी उसे एक मुर?ाया हुआ फूल ही दिखाई देती. लेकिन वह उसे तोड़ कर नहीं फेंक सकता था क्योंकि वह एक स्थायी बंधन, एक मजबूत जंजीर बन कर उस के गले में पड़ गई थी.

मगर शीघ्र ही इस बंधन से छुटकारा पाने का बहाना मिल गया. शादी को हुए 5 साल पूरे हो चुके थे. रजनी करीब 4 महीनों से अपने मायके में थी. सुंदर के बारबार कहने पर भी नहीं आ रही थी. सुंदर को कुछ खटका हुआ. वह स्वयं जा कर रजनी को लाना चाहता था लेकिन उसे वक्त ही नहीं मिल पा रहा था.

उस ने अपने नौकर को लाने भेजा तो रजनी ने कहलवा दिया कि वह अभी नहीं आ सकेगी. अब तो उस का संदेह विश्वास में बदलने लगा. उस ने फोन किया कि वह गंभीर रूप से बीमार है. यह सुनते ही रजनी के हाथपैर फूल गए. वह घबराई हुई फौरन लखनऊ के लिए चल दी.

रजनी ने आ कर देखा कि सुंदर तो पूरी तरह ठीक है. हां, रजनी को देख कर उस का पारा अवश्य चढ़ गया क्योंकि उसे समझते देर न लगी कि रजनी फिर से मां बनने वाली है. उस की तारीख तो वह हमेशा ही याद रखता था. अत: उसे पक्का विश्वास था कि 4 महीने का गर्भ होगा. इस बार उस ने रजनी से कुछ न पूछा. जब वह रात को सोई तो चुपचाप बेहोश कर के सब काम बड़ी तसल्ली से

पूरा कर के आराम से सो गया. सुबह जब रजनी की आंख खुली तो उस का गला बुरी तरह से सूख रहा था. सारे शरीर में जैसे जान ही नहीं थी. उस ने सिर उठाने की कोशिश की तो उसे लगा जैसे वह भारी बो?ा तले दबी हुई है. अभी वह कुछ सम?ा पाती कि किसी ने उस के मुंह में कोई गरमगरम चीज डाल दी. मुश्किल से निगल कर दोबारा आंख खोल कर देखने की कोशिश की तो एक धुंधला सा चेहरा दिखाई दिया लेकिन कुछ सम?ा न सकी. पता नहीं कितनी देर इसी हालत में पड़ी रही कि किसी ने एक इंजैक्शन लगा कर दोबारा मुंह में गरम चीज डाली. इस बार उसे आभास हुआ कि वह गरम चीज दूध है. हिम्मत कर के उस ने आंखें खोलीं. देखा पास ही नर्स और उस का पति सुंदर खड़ा है.

रजनी कांप गई. अनायास ही हाथ पेट पर गया. तीव्र पीड़ा हुई और वह चीख पड़ी, ‘‘नहीं…’’ इस के बाद फिर बेहोश हो गई.

सुंदर चौंक उठा. इस के बाद की सारी घटनाएं जैसे एक आंधी की तरह आईं. रजनी लगातार 1 महीने तक होश में आ कर चीखती और फिर डर कर बेहोश हो जाती. सुंदर परेशान हो गया. रजनी सूख कर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थी. मजबूरन सुंदर ने रजनी के मांबाप और भाई को बुलवा लिया. मैडिकल कालेज के डाक्टरों ने एक राय से कहा कि रजनी को कोई भारी मानसिक आघात लगा है.

सुदंर ने सोचा भी नहीं था कि परिणाम इतना भयानक होगा. बड़ी मुशकिल से  रजनी 6 महीने में ठीक हो पाई. लेकिन अब उस ने सुंदर के साथ रहने से साफ मना कर दिया. वह अपने मांबाप के पास चली गई. कुछ दिन बाद सुंदर को अदालत का पत्र मिला कि रजनी तलाक चाहती है और जितनी जल्दी उन का विवाह हुआ था, उतनी ही जल्दी उन का तलाक भी हो गया क्योंकि दोनों ही पक्ष इस के लिए इच्छुक थे.

सुंदर ने रजनी से छुटकारा मिलने पर सांस ली. वह पहले ही इस सूखे, मुरझाए हुए फूल को तोड़ फेंकना चाहता था. अब वह मनमाने तरीके से रहने लगा. मां तो पहले ही मर चुकी थीं. अब पत्नी के भी न रहने से किसी तरह का बंधन नहीं रहा. नित नए स्वाद और नित नए शौक. वह शान से कहता, ‘‘अकेले की जिंदगी कितनी सुखदायी होती है. जब चाहा खाया, जब चाहा सोए, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं.’’

जब भी कोई दोबारा शादी करने को कहता तो वह झिड़क देता, ‘‘अरे, छोड़ो भी. जब बाजार में तरहतरह के स्वादिष्ठ व्यंजन सहज ही मिल जाते हैं तो घर में सूखी रोटी खाने के लिए बीवी का ?ामेला करना बेवकूफी के सिवा और क्या है.’’

लोगों ने कुछ दिन तो कहा, फिर धीरेधीरे सब चुप हो गए. इसी तरह 15 वर्ष गुजर गए.

एक जगह रहतेरहते सुंदर का मन भी ऊब गया. अब उस की प्रैक्टिस भी पहले जैसी नहीं रही क्योंकि वह डाक्टर के रूप में काफी बदनाम हो चुका था. अत: तंग आ कर उस ने दिल्ली के एक नर्सिंगहोम में सर्विस कर ली. मकान भी उसे नर्सिंगहोम के पास मिल गया.

आने के दूसरे दिन ही वह कमरे में खड़ा खिड़की से बाहर देख रहा था कि  सामने के घर की बालकनी पर नजर पड़ते ही चौंक गया. सामने रजनी गुलाबी रंग की साड़ी में खड़ी बाल सुखा रही थी. रजनी पहले से कुछ मोटी हो गई थी. फिर भी उस के चेहरे की चमकदमक वैसे ही थी. सुंदर देखता ही रह गया.

अभी वह कुछ सोचता कि 2 प्यारेप्यारे बच्चे दौड़ते हुए आए और रजनी से लिपट गए. सुंदर का मन अजीब सा होने लगा. कितनी प्यारी गुडि़या सी लड़की जैसे नन्हीमुन्नी रजनी ही खड़ी हो और वह लड़का… उस की शक्ल उस लड़की से बिलकुल भिन्न थी. लड़की बिलकुल गोरी थी तो लड़का गेहुएं रंग का था. सुंदर का मन हुआ कि वह जा कर उन बच्चों के साथ खेलने लगे.

अभी वह उन्हें देख ही रहा था कि अंदर से एक लंबा हट्टाकट्टा खूबसूरत सा व्यक्ति स्टैथेस्कोप लिए निकला, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं,’’ कह कर उस ने रजनी को मुसकराते हुए भरपूर नजरों से देखा.

दोनोें बच्चे पिता से लिपट गए. जब पिता चलने को हुआ तो दोनों बच्चे जोरजोर से बोले, ‘‘पापा, जल्दी आना. आज इंडिया गेट चलेंगे.’’

‘‘ठीक है, तुम सब तैयार रहना और ए मेम साहब, तुम बढि़या सा मेकअप कर के वह नई साड़ी पहनना जो मैं कल लाया था,’’

वह बोला.

‘‘अच्छा बाबा, वही पहनूंगी,’’ रजनी भी चहकती हुई बोली.

सुंदर के दिल पर जैसे आरा चल गया. कितनी खुश है रजनी. कितने प्यार हैं उस के बच्चे और वह कितना हंस रहा था. मैं तो कभी इतना खुल कर नहीं हंस सका. सुंदर कमरे में जा कर धम्म से बिस्तर पर गिर गया. कोई भी तो नहीं है जो उस से जल्दी आने का आग्रह करे. किस से साथ चलने को कहे, सुंदर. किस से बातें करे. उठ कर चलने को हुआ तो ड्रैसिंग टेबल के सामने बाल संवारने लगा.

आधे से ज्यादा बाल पक चुके थे. चेहरे पर भी ?ार्रियां पड़ गई थीं. आंखों के नीचे का भाग कितना ज्यादा फूल गया था. क्या उम्र है अभी. कुल 45 वर्ष ही तो. लेकिन देखने में तो 60 से कम नहीं लगता.

और रजनी वह भी 35 से ज्यादा की हो गई होगी. लेकिन देखने में तो मुश्किल से 25-26 की लगती है. वह तो सम?ाता था बच्चे होने से स्त्री जल्दी बूढ़ी हो जाती है लेकिन यहां तो ज्यादा ही दिखाई दे रहा है. कहां रोक पाया वह उम्र को आगे बढ़ने से बल्कि उस का अपना चेहरा हमेशा तनावग्रस्त ही दिखाई देता है.

सुंदर रोज छिपछिप कर रजनी और उस के परिवार को देखता रहा. उस दिन जब बेचैनी बहुत बढ़ गई तो खिड़की पर जा खड़़ा हुआ. रजनी, उस का पति और दोनों बच्चे फुलझड़ी और पटाखे चला रहे थे.

उन का घर मोमबत्तियों की रोशनी से जगमगा रहा था. पूरा महल्ला ही नहीं पूरा शहर भी रोशनी से नहा गया था. धरती पर चरखी और आसमान में रंगबिरंगे सितारे बिखरे पड़े थे. यदि कहीं सूनापन या अंधेरा था तो सुंदर के घर में. रजनी, उस का पति और बच्चे अंदर जा चुके थे.

अचानक खिलखिलाहट की आवाज से सुंदर चौंक गया. रजनी का पति अपने दोनों बच्चों के साथ उस के फ्लैट की सीढि़यों की ओर वाली बालकनी में मोमबत्तियां लगा रहा था. वह बाहर निकल आया तो वह हंस कर बोला, ‘‘मुझे डाक्टर राकेश कहते हैं. आप के घर में अंधेरा देखा तो सोचा शायद आप कहीं गए हैं या बीमार है. हमारा रिवाज है कि दीवाली पर पड़ोसी के घर में दीया जरूर जलाते हैं. इसीलिए चले आए. क्या वास्तव में आप की तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, आप आए उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद,’’ कह कर वह कमरे में घुसा ही था कि रजनी की बेटी ने उछल कर स्विच औन कर दिया, जिस से कमरा रोशनी से भर गया. वह खिलखिला कर बोली, ‘‘आप को अंधेरे में रहना अच्छा लगता है क्या? मां कहती

हैं आज के दिन घर में अंधेरा रहना ठीक नहीं होता है.’’

सुंदर कैसे कहता कि उस की जिंदगी का यह अंधेरा उस का अपना ही किया हुआ है. सिर्फ एक दीवाली से क्या होगा, उस का तो सारा जीवन ही अंधेरे में घिरा हुआ है.

ढाई अक्षर प्रेम के : धर्म के नशे में चूर तरन्नुम के साथ क्या हुआ

मुंबई की मल्टीकल्चरल कही जाने वाली किनारा हाउसिंग सोसाइटी आज अचानक कुछ दबंग टाइप लड़कों के चीखनेचिल्लाने से दहल उठी थी. आमतौर पर एकदूसरे की निजी जिंदगी में न झांकने वाले यहां के लोग आज अपनेअपने घर की बालकनियों से ?ांकने पर मजबूर हो गए थे.

लगभग 10-15 लड़कों की भीड़ एक युवक को जिस की उम्र शायद 25 साल रही होगी, को जबरदस्ती उस के कमरे से खींचते हुए बाहर ले आए थे. उस युवक के पीछेपीछे दौड़ती हुई एक लड़की जिस की उम्र भी शायद उस युवक की उम्र जितनी ही रही होगी, भीड़ से उस लड़के को छोड़ देने की याचना कर रही थी.

लड़के को भीड़ से छुड़ाने की गुहार लगाती हुई लड़की की तरफ इशारा करते हुए भीड़ में से एक लड़का जिस का नाम प्रताप था चिल्लाते हुए कहता है, ‘‘यह लड़की तुम्हें मुसलमान बना देगी. अरे तुम्हारा खतना करवा देगी. हम यह नहीं होने देंगे. अरे इस लड़के की तो मति मारी गई है जो एक मुसलिम लड़की के बहकावे में आ कर अपना धर्म भ्रष्ट करने चला है.’’

‘‘बिल्कुल सही कह रहे हो. यह तो अच्छा हुआ कि हमें वक्त रहते मालूम हो गया और तुम लोगों को खबर कर दी वरना अनर्थ हो जाता,’’ पुनीत ने भी उन सबों की हां में हां मिलाई.

‘‘मैं किस के साथ रहता हूं. किस से शादी करता हूं, यह मेरी मरजी है, मेरी निजी जिंदगी है. धर्म के नाम पर तुम लोगों को दखल देने का हक किस ने दे दिया?’’ वह युवक जिस का नाम जीवन था, उन लड़कों की पकड़ से खुद को छुड़ाने की भरपूर कोशिश करते हुए बोला.

‘‘कल को यह लड़की तुम्हें गाय का मांस खिलाएगी, तुम्हारा खतना कराएगी इस से क्या

हमें फर्क नहीं पड़ेगा? प्रताप ने एक जोरदार थप्पड़ जीवन के गाल पर लगाते हुए कहा, ‘‘इस से तो अच्छा है कि मैं तुम्हारी जीवनलीला ही खत्म कर दू,’’ कहते हुए प्रताप ने क्रोध में तलवार निकाल ली.

क्रोध ने इन लड़कों को पागल कर दिया था. क्रोध और आवेश में ये लड़के कुछ भी अनर्गल अपशब्द कहे जा रहे थे.

क्रोध और उन्माद में डूबी भीड़ से शांति की अपेक्षा करना व्यर्थ है. मगर क्रोध और उन्माद की यह अवस्था जब किसी धार्मिक अहंकार के वशीभूत हो तो व्यक्ति और भी विवेकहीन हो जाता है.

प्रताप के हाथ में तलवार देख कर तरन्नुम बुरी तरह से घबरा गई. वह जीवन की जिंदगी की भीख मांगते हुए उन के आगे विनती करने लगती है, ‘‘प्लीज. इसे छोड़ दो… अगर किसी की जान लेने से आप लोगों का सिर ऊंचा होता है तो इस की जगह मेरी जान ले लो, मु?ो मार दो लेकिन इसे छोड़ दो, प्लीज.’’

मगर धर्म के नशे में चूर उन्माद में डूबी भीड़ के पास हृदय कहां होता है जो तरन्नुम की इस करुण पुकार को सुन पाती.

‘‘ऐ लड़की, तुम बीच में मत आओ, मैं लड़कियों पर हाथ नहीं उठाता,’’ कहते हुए प्रताप ने उसे धक्का दे दिया. तरन्नुम कुछ दूर जा गिरी.

तरन्नुम को जमीन पर गिरता देख जीवन गुस्से से कांप उठा. वह भीड़ को धक्का देते हुए तरन्नुम की ओर जाने की कोशिश करता है. लेकिन जीवन को ऐसा करता देख प्रताप और भी गुस्से से लाल हो जाता है और वह अपनी तलवार जीवन की ओर लक्ष्य कर देता है. तभी दौड़ती हुई तरन्नुम अचानक वहां पहुंच जाती है. वह भीड़ को चीरती हुई जीवन से जा कर लिपट जाती है. जीवन को लक्ष्य कर के उठी तलवार तरन्नुम को लग जाती है और वह जख्मी हो जाती है. बेहोश हो कर जमीन पर गिर जाती है.

उन्मादी लड़कों की भीड़ तरन्नुम को घायल देख कर घबरा जाती है और 1-1 कर के वे लड़के वहां से खिसकने लगते हैं.

‘‘यह क्या अनर्थ हो गया मुझसे? मैं तो सिर्फ…’’ प्रताप जैसे खुद से ही बातें कर रहा था.

‘‘तरन्नुम को घायल देख कर जीवन अपना आपा खो देता है. वह क्रोध में चिल्लाते हुए कहता है, ‘‘जो भी कहना चाहते हैं स्पष्ट कहिए.’’

‘‘अ… अ… मेरा मतलब है हम बस तुम लोगों को ड… डरा…’’ पुनीत हकलाने लगा.

‘‘तुम तो चुप ही रहो पुनीत… यह मु?ो मुसलमान बनाती या नहीं या मेरा खतना करवाती या नहीं लेकिन फिर भी मैं इंसान ही रहता, इंसान ही कहलाता. मगर तुम दोनों खुद को देखो धर्म ने तुम्हें किस तरह जानवर बना दिया है. धिक्कार है तुम लोगों पर, धर्म के नशे ने तुम लोगों को जानवर बना दिया है.’’

जीवन और तरन्नुम मुंबई की एक मल्टीनैशनल कंपनी मे करीब 2 साल से साथ काम कर रहे थे. साथसाथ काम करते हुए दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी लेकिन इस सामान्य सी दिखने वाली जानपहचान और दोस्ती की मखमली जमीन पर प्रेमरूपी बीज कब अंकुरित हो गया इस का एहसास उन्हें बहुत बाद में हुआ. प्रेम की इस निर्मल धारा में बहते हुए उन दोनों को एक पल के लिए भी कभी यह एहसास न हुआ कि वे दोनों 2 अलगअलग धर्मों के जत्थेबंदी के कैदी हैं. यह धार्मिक जत्थेबंदी अलगअलग धर्मों में शादी करने की इजाजत नहीं देती लेकिन एकदूसरे के लिए प्रेम तो जीवन और तरन्नुम के रोमरोम में समा चुका था और उन के अगाड़  प्रेम के इस प्रवाह के सामने इन धार्मिक गुटबंदियों के कोई माने नहीं थे. उन दोनों के लिए प्रेम ही उन का सब से बड़ा धर्म था.

दोनों अकसर औफिस से छुट्टी के बाद मरीन ड्राइव पर पहुंच जाते, एकदूसरे के बांहों में बांहें डाले हुए घंटों समुद्र की लहरों को निहारा करते, भविष्य के लिए सुनहरे सपने बुनते हुए उन्हें वक्त का भी अंदाजा न होता. तरन्नुम को मरीन ड्राइव के क्वीन नैकलैस कही जाने वाली उस रंगबिरंगी आकृति को देर तक निहारना काफी अच्छा लगता था. रात के अंधेरे में ?िलमिलाती आकृति रंगबिरंगे प्रकाश में छोटेछोटे रंगीन मोतियों सी प्रतीत होती, जिसे देख न जाने क्यों उस के मन को एक सुखद सी अनुभूति होती. जीवन का साथ पा कर उस की जिंदगी भी तो इन्हीं रंगबिरंगे मोतियों सी चमक उठी थी.

 

जब 2 साल पहले जीवन पुणे से मुंबई आया था तो उसे मुंबई जैसे शहर में अपने लिए

फ्लैट ढूंढ़ने में काफी मुश्किलें हुई थीं. पुणे में तो उस ने अपने चाचा के घर रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर ली थी. जौब लगने के बाद वह मुंबई आ गया था. लेकिन मुंबई जैसी जगह पर अपने रहने के लिए फ्लैट ढूंढ़ पाना उस के लिए टेड़ी खीर साबित हो रहा था. अत: कुछ दिनों तक तो वह होटल के कमरे में रहा. लेकिन होटल में रहना जब उस की जेब पर भारी पड़ने लगा तब उसी के औफिस में साथ काम करने वाली तरन्नुम ने जब उस की इस समस्या को जाना तो फौरन अपनी फूफी का फ्लैट उसे किराए पर दिलवा दिया. तरन्नुम द्वारा उस के लिए की गई यह निस्वार्थ सहायता उन दोनों की दोस्ती की आधारशिला बनी थी. माहिम में तरन्नुम की फूफी का वह फ्लैट खाली पड़ा था.

‘‘जानते हो जीवन मेरी फूफी जान मु?ो अपनी सगी औलाद से भी बढ़ कर मानती हैं. शादी के कुछ ही साल बाद जब अब्बू मेरी अम्मी को छोड़ कर सऊदी अरब चले गए थे तो वह मेरी फूफी जान ही थीं, जिस ने मु?ो और मेरी अम्मी को सहारा दिया था,’’ बातोंबातों में ही एक दिन तरन्नुम ने जीवन को यह बात बताई, ‘‘अब्बू के जाने के बाद से ही अम्मी काफी बीमार रहने लगी थीं. उन की बीमारी की खबर सुन कर भी अब्बू एक बार भी उन्हें देखने नहीं आए और फिर एक दिन अम्मी हमें हमेशा के लिए अलविदा कह गईं. उन के इंतकाल के बाद मेरी फूफी जान ने ही मेरी परवरिश की, उन की अपनी कोई औलाद नहीं है. फूफी को तो मरे हुए कितने साल हो गए,  मु?ो तो उन का चेहरा भी याद नहीं. मैं और मेरी फूफी जान, यही मेरा छोटा सा संसार और मेरा छोटे से संसार में जीवन आप का स्वागत है,’’ यह कह कर तरन्नुम खिलखिला पड़ी और अपनी हंसी के पीछे अपने बड़े गम को भी छिपा लिया.

तब जीवन चुपचाप तरन्नुम के चेहरे को देखता रह गया और उस के मस्तिष्क में न जाने क्यों किसी शायर की ये पंक्तियां गूंज उठीं, ‘‘गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां जिंदगी को उस मुकाम पर लाता चला गया. हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.’’

ऐसी ही है उस की तरन्नुम बिंदास, जिंदादिल, बड़े से बड़े गम को भी हंसी में उड़ा देने वाली. उस की आवाज में तो ऐसी जादूगरी कि किसी भी सुनने वाले को सम्मोहित कर दे. तरन्नुम के इसी बिंदास अंदाज और जिंदादिली ने जीवन को उस का दीवाना बना दिया था. धीरेधीरे जीवन उस के प्रेम में गिरफ्तार होता चला गया. वह रातदिन, उठतेबैठते, सोतेजागते, बस तरन्नुम के खयालों में ही खोया रहता.

 

ठीक यही हाल तरन्नुम का भी था. तरन्नुम के

लिए जीवन उस के सपनों के राजकुमार से भी कहीं ज्यादा बढ़ कर था. एक जीवनसाथी को ले कर उस ने अपने दिलोदिमाग में जो रेखाएं खींची थीं जीवन बिलकुल उन के अनुकूल था. जीवन की स्पष्टवादिता उस की ईमानदारी तरन्नुम को अपनी ओर खींचने के लिए काफी थी और एक दिन दोनों ने अपने दिल की बात एकदूसरे से कह दी. एकदूसरे के प्रति प्यार का इजहार किया, साथ जीनेमरने के वादे किए.

‘‘तरन्नुम, महीनाभर पहले हम ने शादी के लिए कोर्ट में जो अर्जी दी थी, कोर्ट ने हमारी शादी की डेट दे दी है. हमें इसी हफ्ते बुधवार को मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस जाना है,’’ तरन्नुम को यह खबर सुनाते हुए जीवन की खुशी का कोई ठिकाना न था.

‘‘हमारे सपने जो हम दोनों ने साथ मिल

कर देखे थे वे सच होने जा रहे हैं. सच में मैं

बहुत खुश हूं. हमारी अपनी छोटी सी दुनिया

होगी. ऐसी दुनिया जहां इस ?ाठमूठ के धर्म, जातपात, रीतिरिवाजों के लिए कोई जगह नहीं होगी. कोई दीवाली नहीं, कोई ईद नहीं, कोई जातधर्म का दिखावा नहीं, हम खुशियां मनाएंगे लेकिन अपनी तरह से,’’ तरन्नुम ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा.

‘‘हां सही कह रही हो हम ईददीवाली की जगह सिर्फ राष्ट्रीय त्योहार मनाएंगे और अपने बच्चों के नाम भी कुछ ऐसे रखेंगे जिन में उन के हिंदू या मुसलिम होने की पहचान न छिपी हो, उन के नाम के साथ किसी भी धर्म की पहचान न जुड़ी हो,’’ जीवन ने भी खुश होते हुए तरन्नुम के इन खयालातों का समर्थन किया.

आज वे दोनों आने वाली इस मुसीबत से बेखबर अपनी शादी के सपने को साकार करने की तैयारी में सुबह से ही जुटे हुए थे. कोर्ट ने उन्हें आज का ही दिन दिया था. वे दोनों मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस जाने के लिए उत्साहित थे. खुशी ने तो जैसे उन के रोमरोम को पुलकित कर दिया था.

तरन्नुम ने तो अपनी दोनों सहेलियां रवीना और फिजा को सुबह से न जाने कितनी बार कौल कर के उन्हें रजिस्ट्रार के औफिस वक्त पर पहुंच जाने की याद दिलाई थी.

जीवन काफी देर से किसी को कौल करने की कोशिश कर रहा था लेकिन जिसे वह फोन लगा रहा था उस का मोबाइल शायद स्विच्ड औफ आ रहा था, जिस के कारण वह थोड़ा चिंतित हो उठा था, ‘‘पुनीत का डाउट है, कब से फोन ट्राई कर रहा हूं, स्विच्ड औफ बता रहा है, न जाने कल से कहां गायब है,’’ जीवन ने अपनी चिंता व्यक्त की, ‘‘अगर वह नहीं पहुंच सका तो विटनेस के लिए तीसरा व्यक्ति इतनी जल्दी कहां से लाएंगे?’’

‘‘तुम परेशान मत हो मैं अपनी फूफी जान को कह दूंगी विटनैस के लिए वे आ जाएंगी.’’

‘‘मगर हां तुम उन्हें हमारे यहां से निकलने के 1 घंटा पहले बुला लेना, उन्हें इतना वक्त तो लग ही जाएगा यहां आने में.’’

‘‘चिंता मत करो अभी तो सुबह के सिर्फ 9 ही बजे हैं, हमारे पास काफी वक्त है,’’ तरन्नुम अपनी ड्रैस की मैचिंग ज्वैलरी सैट करने में व्यस्त हो गई.

‘‘इतनी तेजतेज डोरबैल कौन बजा रहा है?’’

‘‘मैं देखती हूं,’’ तरन्नुम दरवाजा खोलने चली.

‘‘नहीं तुम रहने दो, मैं देखता हूं, न जाने कौन है जिसे सब्र नहीं.’’

जीवन के दरवाजा खोलते ही लड़कों का एक ?ांड दनदनाता हुआ घर के अंदर घुस आया.

‘‘पुनीत, प्रताप भाई आप दोनों?’’ भीड़ के साथ खड़े उन दोनों लड़कों को देख कर जीवन चौंक उठा.

‘‘हां हम दोनों, तुम जो करने जा रहे हो उसे रोकने आए है. यह तो अच्छा हुआ कि पुनीत ने हमें वक्त पर आ कर सब कुछ बता दिया. अगर सीधेसीधे हम लोगों के साथ नहीं चलोगे तो जबरदस्ती यहां से उठा कर ले जाएंगे भले तुम्हारी टांगें ही क्यों न तोड़नी पड़ें,’’ प्रताप ने क्रोध में फुफकारते हुए कहा.

‘‘किसी से शादी करना अपराध है क्या जो आप इसे रोकने के लिए अपने दलबल के साथ आ गए. आप अपने बजरंग दल की धौंस कहीं और दिखाइए. मैं आप लोगों से डरने वाला नहीं.’’

‘‘लगता है ऐसे नहीं मानेगा, चलो आ

जाओ सब,’’ और तभी अचानक जय श्रीराम के नारे से पूरी सोसाइटी गूंजने और देखते ही देखते लड़कों का वह ?ांड जीवन को जबरदस्ती उस के घर से खींचता हुआ बाहर ले गया. उन के पीछेपीछे बदहवास सी भागती हुई तरन्नुम भी बाहर आ गई.

धर्म के नशे में चूर, जो लड़के कुछ देर पहले दहाड़ रहे थे, तरन्नुम को जख्मी और

बेहोश हो कर जमीन पर गिरता देख उन की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. सारे लड़के वहां से धीरेधीरे खिसक लिए, रह गए सिर्फ पुनीत और प्रताप जो अब अपने कृत्य पर पश्चाताप कर रहे थे.

प्रताप के मन में जीवन द्वारा कही गई ये बाते कि धर्म के नशे ने उसे जानवर बना दिया है, रहरह कर उस के मन को झकझोर रही थीं. आज अगर तरन्नुम बीच में नहीं आई होती तो उस के हाथों कितना बड़ा अनर्थ हो जाता. तरन्नुम के बीच में आ जाने से उस के हाथों से तलवार की पकड़ ढीली पड़ गई. जख्म ज्यादा गहरा नहीं था, घबराहट के कारण तरन्नुम बेहोश हो गई थी. डाक्टर ने हलकी मरहमपट्टी करने के बाद उसे डिस्चार्ज कर दिया.

प्रताप और पुनीत अपने किए पर बेहद शर्मिंदा थे. दोनों बारबार हाथ जोड़ कर जीवन और तरन्नुम से माफी मांग रहे थे.

कुछ घंटों बाद जब जीवन और तरन्नुम मैरिज रजिस्ट्रार औफिस जाने के लिए निकले तो रवीना और फिजा के साथसाथ प्रताप और पुनीत भी विटनैस के लिए वहां पहुंच गए और वापस आ कर नए जोड़े के स्वागत के लिए पूरे घर की सजावट फूलों से इन्हीं दोनों ने की.

यह बात सच है प्रेम से बढ़ कर कुछ भी नहीं. संसार में जितने भी धर्म हैं उन सब का उद्देश्य किसी न किसी स्वार्थसिद्धि के लिए होता है किंतु प्रेम कभी किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिए नहीं होता. मात्र प्रेम ही एक ऐसी चीज है जहां स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं. संसार में जब तक प्रेम कायम रहेगा, जब तक इस का विस्तार होता रहेगा और तब तक मानव का जीवन भी सुख और शांति से परिपूर्ण रहेगा.

हाथी के दांत: क्या हुआ उमा के साथ

कहानी- रामेश्वर कांबोज

स्वामी गणेशानंद खड़ाऊं पहने खटाकखटाक करते आगे बढ़ते जा रहे थे. उन के पीछे उन के भक्तों की भीड़ चल रही थी. दाएंबाएं उन के शिष्य शिवानंद और निगमानंद अपने चिमटे खड़खड़ाते हुए हल में जुते मरियल बैलों की तरह चल रहे थे. उन्हें पता था कि भीड़ स्वामीजी का अनुसरण कर रही है, उन का नहीं.

शिवानंद ने भभूत में अटे अपने बालों को खुजलाया और पीछे मुड़ कर एक बार भीड़ को देखा. उस की खोजपूर्ण आंखें कुछ ढूंढ़ रही थीं. निगमानंद ने आंख मिचका कर शिवा को संकेत किया. वह पीले दांत दिखा कर मुसकरा पड़ा. इस का अर्थ था कि वह उस का आशय समझ गया.

भीड़ जलाशय के निकट पहुंच गई थी. सब स्वामीजी की जयजयकार कर रहे थे. शिवा और निगम दूसरे किनारे की ओर, जहां औरतें नहा रही थीं, आ कर बैठ गए.

शिवा बोला, ‘‘गुरु, ऐसे क्यों बैठे हो? कुछ हो जाए.’’

‘‘क्या हो जाए बे, उल्लू के चरखे? फिल्मी नाच हो जाए या कालिज का रोमांस हो जाए?’’ निगम गुर्राया.

‘‘अरे, कैसी बातें करता है? देखता नहीं, नाचने वाली छोकरी गोता लगा रही है. गोलमटोल चेहरा, बाढ़ की तरह चढ़ती जवानी. क्या खूबसूरती है. खैर, छोड़ो इन बातों को. बूटी तैयार करो. एकएक लोटा चढ़ाएंगे. राम कसम, इस के नशे में हर चीज, हर औरत मुंहजोर घोड़े की तरह हावी हो जाती है.’’

निगम ने आंखों से कीचड़ पोंछ कर स्वामीजी की तरफ ताका. वह मटमैले पानी में एक टांग पर खड़े कुछ गुनगुना रहे थे. वह चिमटे को धरती में ठोंक कर बोला, ‘‘स्वामीजी जब से बूटी चढ़ाने लगे हैं, उसी दिन से भगतिनियों की गिनती बढ़ने लगी है. कहते हैं भंगेड़ी के चक्कर में औरतें ज्यादा आती हैं.’’

एकाएक दोनों चुप हो गए. गुरुजी सब भक्तों को आशीर्वाद दे रहे थे. निगम चुपचाप बूटी तैयार कर रहा था. बारीबारी से दोनों ने एकएक लोटा गटक लिया. भक्तगण पांव छूते, स्वामीजी भभूत का तिलक लगाते और आशीर्वाद देते. फिर उमा की बारी आई. ऐसा सलोना, कुंआरा सौंदर्य सामने देख कर स्वामीजी ठगे से रह गए. उमा ने चरण छुए तो स्वामीजी ने दोनों हाथों से उस का मुखड़ा ऊपर उठा दिया. तिलक लगाते समय उन का हाथ गालों से हो कर फिसलता हुआ उमा के कंधे पर जा टिका.

वह बोले, ‘‘बेटी, तुझ में माधव का वास है. अभीअभी भगवान ने मेरे दिल में आ कर कहा है. तेरी आत्मा माधव की प्यासी है. मुझे सपने में रात जो देवी दिखाई दी उस का रूप तेरी ही तरह था.

‘‘उस ने मुझे नींद से जगा कर कहा, गणेशानंद, यह मेरा गांव है. मैं यहां  प्रकट होना चाहती हूं. मैं अपने गांव को स्वर्ग बनाना चाहती हूं. तुम जहां पर लेटे हुए हो, यहां से सौ कदम पूरब को चलो. ऊपर से मिट्टी हटाओ. वहां तुम मुझे देखोगे. उस जगह एक मंदिर बनवाना. यह काम तुम्हें ही करना है.

‘‘मैं देवी के चरणों पर गिर पड़ा. मंदिर बनवाने का वचन दे दिया. वह स्थान मैं ने तुम सब के सामने खुदवाया है. अगर तुम लोगों ने मिलजुल कर मंदिर न बनवाया तो न जाने गांव पर कैसी विपदा आ पड़े.’’

उमा चुप बैठी थी. उस की मां की आंखों में आनंद के आंसू चमक रहे थे. सब गांव वालों ने स्वामीजी को सहायता देने का पूरा विश्वास दिलाया. उमा की मां स्वामीजी के चरणों को छू कर बोली, ‘‘महात्माजी, मेरे पल्ले कुछ नहीं है. बस, यह छोकरी है, उमा. मैं क्या दे सकूंगी.’’

‘‘चिंता क्यों करती हो उमा की मां, उमा तुम्हारे घर की ही नहीं, पूरे गांव की देवी है. मैं मंदिर की धूपबाती का काम इसे ही सौंपना चाहता हूं. अगर इस ने भगवान को खुश कर लिया तो तुम्हें मनचाही मुराद मिल जाएगी.’’

‘‘स्वामीजी, मुझे कुछ नहीं चाहिए. इस नासपीटी का बापू घर लौट आए, यही बहुत है. मुझे धनदौलत की इच्छा नहीं है,’’ उमा की मां उदास हो कर बोली.

‘‘घबरा मत. तेरी मनसा जल्दी पूरी हो जाएगी. उमा को हरेक काम में हमारे साथ रहना पड़ेगा. कल भंडारा करेंगे और मंदिर की नींव रखेंगे.’’

अगले दिन भंडारा हुआ. गांव के लोगों ने 10 हजार रुपए इकट्ठे कर के गणेशानंद को भेंट कर दिए. आसपास के गांव वाले भी आए. सूर्यास्त तक बहुत गहमागहमी रही. गणेशानंद ऊंची चौकी पर बैठे थे. शिवानंद और निगमानंद भंडारे की देखरेख के लिए खड़े थे. प्रबंध उमा के हाथ में था. गांव वालों की वाहवाही हो उठी.

रात को खापी कर सब स्वामीजी की धूनी के पास इकट्ठे हो गए. उमा पास ही बैठी थी. उस ने चेहरे पर हलकी सी भभूत लगा रखी थी. भभूत के प्रभाव से वह और अधिक प्यारी लग रही थी. दहकते कोयलों की चमक में उस का मुखमंडल पलाश के फूल सा लग रहा था.

कीर्तन शुरू हुआ. शिवानंद ने करताल संभाली, निगमानंद ने चिमटा. स्वामीजी गाते, फिर उमा दोहराती और तब सब के स्वर में स्वर मिला कर दोनों शिष्य गाते. आधी रात बीत गई. लोग जादू में बंधे से बैठे रहे. अंत में मीरा का पद गाया गया. उस पद की ‘तेरे कारण जोगन हूंगी, करवट लूंगी कासी’ पंक्ति वातावरण में काफी देर तक तैरती रही.  पूरी सभा भावविभोर हो उठी. निगम और शिवा उमा के पास बैठने से ही खुश थे.

शांतिपाठ के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए. वहां रह गई उमा और उस की मां, जो गणेशानंद के पांव दबा रही थीं. तनिक हट कर अंधेरे में चुपचाप बैठा एक व्यक्ति सब बातों का जायजा ले रहा था. वह था अमरेश.

‘‘कल मैं तीर्थभ्रमण करने जाऊंगा. उमा, तुम भी साथ चलना. हृदय पवित्र हो जाएगा. आंखें देवीदेवताओं के

दर्शन कर के निहाल हो जाएंगी,’’ स्वामीजी उमा के चेहरे पर दृष्टि गड़ा कर बोले.

शिवा ने सुल्फे पर कोयले रख

कर कश लिया और फिर स्वामीजी की तरफ बढ़ा दिया. गणेशानंद ने पूरा दम लगाया. सुल्फे की लपट निकली, जिस में उमा का चेहरा उसे सुर्ख दिखाई दिया.

अमरेश अधीर हो उठा. उमा उस की सगी बहन नहीं थी, पर वह उसे बेहद चाहता था. किसी भी कार्य से पराएपन का आभास नहीं होने देता था. उसी की कृपा से वह चिट्ठीपत्री पढ़ने लायक हो गई. उसे उमा के कारण गांव वालों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था. वह अपने को संभाल नहीं सका. वहीं बैठेबैठे बोला, ‘‘उमा, इधर आ.’’

उमा इस अप्रत्याशित स्वर से चौंक उठी. वह अमरेश के पास आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है, जो इस तरह पहरा दे रहे हो?’’

‘‘विश्वास था, अब नहीं रहा,’’ अमरेश के स्वर में आक्रोश था.

‘‘क्यों, अब क्या हो गया?’’

‘‘मैं ने कुछ गलत नहीं कहा. इस भंगेड़ी के चक्कर में तेरी अक्ल मारी गई है. गांव वाले सब जा चुके हैं, तू फिर भी यहां डटी हुई है. अगर तेरी आंख में जरा भी शरम है तो यहां से चलती बन,’’ अमरेश अधिकारपूर्वक बोला.

विवाद सुन कर स्वामीजी और उमा की मां भी उन के पास आ पहुंचे. उमा स्वामीजी की नजरों में अपने को बहुत ऊंचा समझ रही थी. इसीलिए उस ने स्वयं को अपमानित महसूस किया.

वह तैश में आ कर बोली, ‘‘भैया, तुम हद से बाहर पांव रख रहे हो. मैं किसी के चक्कर में नहीं आई. तुम ईश्वर को मानते तो इस तरह की बातें न करते. जिस बात को तुम समझते नहीं हो, उस में टांग न अड़ाओ.’’

‘‘तुम मुझे गलत समझ रही हो. अगर तुम्हें अक्ल होती तो इन सुल्फा पीने वालों के ढोंग में न फंसतीं.’’

‘‘क्या भौंकता है बे बदजात,’’ गणेशानंद ने उस की ओर चिमटा घुमाया.

‘‘जरा होश में बातचीत करो. ऐसे पहुंचे हुए महात्मा होते तो घर बैठे पूजे जाते. यहां दरदर मारे न फिरते. ज्यादा चबरचबर किया तो मारतेमारते भुरकस बना दूंगा,’’ अमरेश ने उमा को बांह पकड़ कर खींचा, ‘‘भला इसी में है कि इस समय यहां से चलती बनो.’’

उमा ने उस का हाथ झटक दिया. वह गिरतेगिरते बचा. संभलने पर उस ने उमा के गाल पर थप्पड़ जमा दिया.

उमा की मां भभक पड़ी, ‘‘लुच्चे कहीं के, चला जा इसी वक्त मेरे आगे से, नहीं तो तेरा खून पी जाऊंगी,’’ इतना कह कर वह उमा को ले कर घर चल पड़ी.

उमा ने आग्नेय नेत्रों से अमरेश की ओर देखा. वह गुस्से में होंठ चबा कर बोली, ‘‘अमरेश, मेरे लिए तुम मर गए. तुम ने अपनी औकात पर ध्यान नहीं दिया. भला इसी में है कि मुझे अपनी घिनौनी सूरत न दिखाना.’’

अमरेश का चेहरा लटक गया. वह ठगा सा वहीं खड़ा रहा. सारी धरती उसे आंखों के सामने घूमती प्रतीत हो रही थी. स्वामीजी उस की ओर क्रूरतापूर्ण दृष्टि से घूर रहे थे. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद स्वामीजी कुटिया में चले गए. अमरेश भी ढीले कदमों से घर की ओर मुड़ गया. उमा के व्यवहार से उस का हृदय बिंधा जा रहा था.

वह उस पर क्रुद्ध होते हुए भी उस का अहित नहीं सोच सकता था. उस ने रूठने पर उमा को न जाने कितनी बार मनाया था, कितनी बार उस की गीली आंखें पोंछी थीं. वह भी उस के तनिक से दुख में बेचैन हो जाती थी. जराजरा सी बात पर उसे कसमें दिलाती. दोनों में कभी ठेस पहुंचाने वाली बातें नहीं हुई थीं.

अगले दिन अमरेश को पता चला कि उमा और उस की मां तीर्थयात्रा के लिए स्वामी गणेशानंद के साथ चली गई हैं. सुन कर उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. क्या इस दुनिया के सभी संबंध थोथे हैं? यह प्रश्न उस के मन को मथने लगा. उस जैसे अनाथ के लिए उमा और उस की मां सागर में नौका की तरह थीं. उस का समूचा हार्दिक प्रवाह उन्हीं की ओर था.

रिक्तता से उस का हृदय कराह उठा. उमा जो बचपन में उस के कंधे पर सवार रहती थी, उस की घोर उपेक्षा कर बैठी, यह कम दाहक बात न थी. शत्रु का शत्रुतापूर्ण आचरण क्षमा किया जा सकता है, परंतु मित्र का दुर्व्यवहार क्षमा करने पर भी फांस की तरह चुभता रहता है.

2 दिन बाद उमा की मां लौट आई. उस की सूनीसूनी आंखों को देख कर अमरेश सिहर उठा. उस के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी.

आखिर अमरेश ने ही पूछा, ‘‘मांजी, उमा कहां है?’’

वह उत्तर नहीं दे सकी और प्रत्युत्तर में फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘मांजी, बताओ, उमा को क्या हो गया? मेरी उस लाड़ली को कहां छोड़ आईं?’’ अमरेश व्याकुल हो उठा.

‘‘वह ढोंगी स्वामी उसे न जाने कहां उड़ा ले गया. मेरी बच्ची…’’ वह आगे और कुछ नहीं बोल सकी.

‘‘मैं ने कितना समझाया था कि इन लोगों पर भरोसा करना मूर्खता है, पर तुम दोनों ने मेरी एक न सुनी. मुझे पता था कि इन दुष्टों ने रात के समय देवी की एक मूर्ति अपनी कुटिया के पास धरती में दबा दी थी, लेकिन तुम्हारे ऊपर पागलपन सवार था.’’

उमा की मां ने सिर ऊपर नहीं उठाया. धुंधलका छाने लगा. अमरेश खाट  पर बैठा था और उमा की मां लुटीहारी सी उस के सामने भूमि पर. दोनों चुप थे.

इसी बीच अमरेश का ध्यान दरवाजे की ओर गया. एक पगलाई सी परछाईं वहां जड़वत खड़ी थी. ज्यों ही वह खड़ा हुआ, परछाईं उस की ओर बढ़ी और दौड़ कर उस के गले से लिपट गई. वह उमा थी, उस के वस्त्र चिथेड़ेचिथड़े हो रहे थे.

‘‘अमरेश,’’ कह कर वह अचेत हो कर धरती पर गिर पड़ी.

अमरेश का दिल पसीज गया. उस ने उमा को चारपाई पर लिटा दिया. बहुत देर बाद उस की चेतना लौटी तो वह फफक पड़ी, ‘‘अमरेश, मुझे माफ मत करना. मैं ने तुम्हारी बात नहीं मानी. अपने हाथों से मेरा गला घोंट दो. मुझ पर पागलपन सवार था.

‘‘उस भेडि़ए ने मेरी इज्जत लूटी. उस के चेलों ने भी मुंह काला किया. उस के बाद मुझे 8 हजार रुपए में एक वेश्या के हाथ बेच दिया. मैं कहीं की नहीं रही. किसी तरह चकले से भाग आई, सिर्फ तुम्हारी सूरत देखने के लिए. मेरी तरफ एक बार अपना चेहरा तो घुमाओ.’’

अमरेश ने उस के सिर पर हाथ फेर कर सांत्वना देने की कोशिश की. काफी देर तक वह उस की आंखों की ओर टुकुरटुकुर देखती रही. उस समय अमरेश की आंखों में आंसू भर आए.

कुछ देर चुप रहने के बाद उमा जोर से खिलखिला पड़ी. उस ने अपनी मां को एक तरफ धकेल दिया, ‘‘मां, अब मैं ऐसे स्वामियों का खून करूंगी,’’ उस की क्रूर हंसी से दोनों सहम गए.

‘‘तुम ने मुझ को चौपट किया है, मां. तुम्हारी विषैली श्रद्धा मुझे डस गई. मैं तुम्हारा भी खून करूंगी,’’ वह फिर जोर से अट्टहास कर उठी.

उमा की मां सहम कर एक ओर हट गई. अमरेश ने उमा को पकड़ कर चारपाई पर लिटा दिया, ‘‘चुप रहो, उमा. मैं सब संभाल लूंगा.’’

उमा दोनों हाथों में सिर ले कर सुबकने लगी.

घरौंदा: अचला को विमी के फ्लैट इतना क्यों पसंद आ गया?

विमी के यहां से लौटते ही अचला ने अपने 2 कमरों के फ्लैट का हर कोने से निरीक्षण कर डाला था. विमी का फ्लैट भी तो इतना ही बड़ा है पर कितना खूबसूरत और करीने का लगता है. छोटी सी डाइनिंग टेबल, बेडरूम में सजा हुआ सनमाइका का डबलबेड, खिड़कियों पर झूलते भारी परदे कितने अच्छे लगते हैं. उसे भी अपने घर में कुछ तबदीली तो करनी ही होगी. फर्नीचर के नाम पर घर में पड़ी मामूली कुरसियां और खाने के लिए बरामदे में रखी तिपाई को देखते हुए उस ने निश्चय कर ही डाला था. चाहे अशोक कुछ भी कहे पर घर की आवश्यक वस्तुएं वह खुद खरीदेगी. लेकिन कैसे? यहीं पर उस के सारे मनसूबे टूट जाते थे.

तनख्वाह कटपिट कर मिली 1 हजार रुपए. उस में से 400 रुपए फ्लैट का किराया, दूध, राशन. सबकुछ इतना नपातुला कि 10-20 रुपए बचाना भी मुश्किल. क्या छोड़े, क्या जोड़े? अचला का सिर भारी हो चला था. कालेज में गृह विज्ञान उस का प्रिय विषय था. गृहसज्जा में तो उस की विशेष रुचि थी. तब कितनी कल्पनाएं थीं उस के मन में. जब अपना एक घर होगा, तब वह उसे हर कोने से निखारेगी. पर अब…

उस दिन उस ने सजावट के लिए 2 मूर्तियां लेनी चाही थीं, पर कीमत सुनते ही हैरान रह गई, 500 रुपए. अशोक धीमे से मुसकरा कर बोला था, ‘‘चलो, आगे बढ़ते हैं, यह तो महानगर है. यहां पानी के गिलास पर भी पैसे खर्च होते हैं, समझीं?’’

तब वह कुछ लजा गई थी. हंसी खुद पर भी आई थी. उसे याद है, शादी से पहले यह सुन कर कि पति एक बड़ी फर्म में है, हजार रुपए तनख्वाह है, बढि़या फ्लैट है. सबकुछ मन को कितना गुदगुदा गया था. महानगर की वैभवशाली जिंदगी के स्वप्न आंखों में झिलमिला गए थे.

‘तू बड़ी भाग्यवान है, अची,’ सखियों ने छेड़ा था और वह मधुर कल्पनाओं में डूबती चली गई थी. शादी में जो कुछ भारी सामान मिला था, उसे अशोक ने जिद कर के घर पर ही रखवा दिया था. उस ने बड़े शालीन भाव से कहा था, ‘‘इतना सब कहां ढोते रहेंगे, यहीं रहने दो. अंजु के विवाह में काम आ जाएगा. मां कहां तक खरीदेंगी. यही मदद सही.’’

सास की कृतज्ञ दृष्टि तब कुछ सजल हो आई थी. अचला को भी यही ठीक लगा था. वहां उसे कमी ही क्या है? सब नए सिरे से खरीद लेगी. पर पति के घर आने के बाद उस के कोमल स्वप्न यथार्थ के कठोर धरातल से टकरा कर बिखरने लगे थे.

अशोक की व्यस्त दिनचर्या थी. सुबह 8 बजे निकलता तो शाम को 7 बजे ही घर लौटता. 2 कमरों में इधरउधर चहलकदमी करते हुए अचला को पूरा दिन बिताना पड़ता था. उस पूरे दिन में वह अनेक नईनई कल्पनाओं में डूबी रहती. इच्छाएं उमड़ पड़तीं. इस मामूली चारपाई के बदले यहां आधुनिक डिजाइन का डबलबेड हो, डनलप का गद्दा, ड्राइंगरूम में एक छोटा सा दीवान, जिस पर मखमली कुशन हो. रसोईघर के लिए गैस का चूल्हा तो अति आवश्यक है, स्टोव कितना असुविधा- जनक है. फिर वह बजट भी जोड़ने लगती थी, ‘कम से कम 5 हजार तो चाहिए ही इन सब के लिए, कहां से आएंगे?’

अपनी इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए उस ने मन ही मन बहुत कुछ सोचा. फिर एक दिन अशोक से बोली, ‘‘सुनो, दिन भर घर पर बैठीबैठी बोर होती रहती हूं. कहीं नौकरी कर लूं तो कैसा रहे? दोचार महीने में ही हम अपना फ्लैट सारी सुखसुविधाओं से सज्जित कर लेंगे.’’ पर अशोक उसी प्रकार अविचलित भाव से अखबार पर नजर गड़ाए रहा. बोला कुछ नहीं.

‘‘तुम ने सुना नहीं क्या? मैं क्या दीवार से बोल रही हूं?’’ अचला का स्वर तिक्त हो गया था. ‘‘सब सुन लिया. पर क्या नौकरी मिलनी इतनी आसान है? 300-400 रुपए की मिल भी गई तो 100-50 तो आनेजाने में ही खर्च हो जाएंगे. फिर जब पस्त हो कर शाम को घर लौटोगी तो यह ताजे फूल सा खिला चेहरा चार दिन में ही कुम्हलाया नजर आने लगेगा.’’

अशोक ने अखबार हटा कर एक भाषण झाड़ डाला. सुन कर अचला का चेहरा बुझ गया. वह चुपचाप सब्जी काटती रही. अशोक ने ही उसे मनाने के खयाल से फिर कहा, ‘‘फिर ऐसी जरूरत भी क्या है तुम्हें नौकरी की? छोटी सी हमारी गृहस्थी, उस के लिए जीतोड़ मेहनत करने को मैं तो हूं ही. फिर कम से कम कुछ दिन तो सुखचैन से रहो. अभी इतना तो सुकून है मुझे कि 8-10 घंटे की मशक्कत के बाद घर लौटता हूं तो तुम सजीसंवरी इंतजार करती मिलती हो. तुम्हें देख कर सारी थकान मिट जाती है. क्या इतनी खुशी भी तुम अब छीन लेना चाहती हो?’’

?अशोक ने धीरे से अचला का हाथ थाम कर आगे फिर कहा, ‘‘बोलो, क्या झूठ कहा है मैं ने?’’ तब अचला को लगा कि उस के मन में कुछ पिघलने लगा है. वह अपना सिर अशोक के कंधों पर रख कर मधुर स्वर में बोली, ‘‘पर तुम यह क्यों नहीं सोचते कि मैं दिन भर कितनी बोर हो जाती हूं? 6 दिन तुम अपने काम में व्यस्त रहते हो, रविवार को कह देते हो कि आज तो आराम का दिन है. मेरा क्या जी नहीं होता कहीं घूमनेफिरने का?’’

‘‘अच्छा, तो वादा रहा, इस बार तुम्हें इतना घुमाऊंगा कि तुम घूमघूम कर थक जाओ. बस, अब तो खुश?’’ अचला हंस पड़ी. उस के कदम तेजी से रसोईघर की तरफ मुड़ गए. बातचीत में वह भूल गई थी कि स्टोव पर दूध रखा है.

‘ठीक है, न सही नौकरी. जब अशोक को बोनस के रुपए मिलेंगे तब वह एक ही झोंक में सब खरीद लेगी,’ यह सोच कर उस ने अपने मन को समझा लिया था. तभी अशोक ने उसे आश्चर्य में डालते हुए कहा, ‘‘जानती हो, इस बार हम शादी की पहली वर्षगांठ कहां मनाएंगे?’’

‘‘कहां?’’ उस ने जिज्ञासा प्रकट की. ‘‘मसूरी में,’’ जवाब देते हुए अशोक ने कहा.

‘‘क्या सच कह रहे हो?’’ अचला ने कौतूहल भरे स्वर में पूछा. ‘‘और क्या झूठ कह रहा हूं? मुझे अब तक याद है कि हनीमून के लिए जब हम मसूरी नहीं जा पाए थे तो तुम्हारा मन उखड़ गया था. यद्यपि तुम ने मुंह से कुछ कहा नहीं था, तो भी मैं ने समझ लिया था. पर अब हम शादी के उन दिनों की याद फिर से ताजा करेंगे.’’

कह कर अशोक शरारत से मुसकरा दिया. अचला नईनवेली वधू की तरह लाज की लालिमा में डूब गई. ‘‘पर खर्चा?’’ वह कुछ क्षणों बाद बोली.

‘‘बस, शर्त यही है कि तुम खर्चे की बात नहीं करोगी. यह खर्चा, वह खर्चा… साल भर यही सब सुनतेसुनते मैं तंग आ गया हूं. अब कुछ क्षण तो ऐसे आएं जब हम रुपएपैसों की चिंता न कर बस एकदूसरे को देखें, जिंदगी के अन्य पहलुओं पर विचार करें.’’ ‘‘ठीक है, पर तुम तनख्वाह के रुपए मत…’’

‘‘हां, बाबा, सारी तनख्वाह तुम्हें मिल जाएगी,’’ अशोक ने दोटूक निर्णय दिया. अचला का मन एकदम हलका हो गया. अब इस बंधीबंधाई जिंदगी में बदलाव आएगा. बर्फ…पहाड़…एकदूसरे की बांहों में बांहें डाले वे जिंदगी की सारी परेशानियों से दूर कहीं अनोखी दुनिया में खो जाएंगे. स्वप्न फिर सजने लगे थे.

रेलगाड़ी का आरक्षण अशोक ने पहले से ही करा लिया था. सफर सुखद रहा. अचला को लगा, जैसे शादी अभी हुई है. पहली बार वे लोग हनीमून के लिए जा रहे हैं. रास्ते के मनोरम दृश्य, ऊंचे पहाड़, झरने…सबकुछ कितना रोमांचक था.

उन्होंने देहरादून से टैक्सी ले ली थी. होटल में कमरा पहले से ही बुक था. इसलिए उन्हें मालूम ही नहीं हुआ कि वे इतना लंबा सफर कर के आए हैं. कमरे में पहुंचते ही अचला ने खिड़की के शीशों से झांका. घाटी में सिमटा शहर, नीलीश्वेत पहाडि़यां, घने वृक्ष बड़े सुहावने दिख रहे थे. तब तक बैरा चाय की ट्रे रख गया. ‘‘खाना खा लो, फिर घूमने चलेंगे,’’ अशोक ने कहा और चाय खत्म कर के वह भी उस पहाड़ी सौंदर्य को मुग्ध दृष्टि से देखने लगा.

खाना भी कितना स्वादिष्ठ था. अचला हर व्यंजन की जी खोल कर तारीफ करती रही. फिर वे दोनों ऊंचीनीची पहाडि़यां चढ़ते, हंसी और ठिठोली के बीच एकदूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ते, कलकल करते झरने और सुखद रमणीय दृश्य देखते हुए काफी दूर चले गए. फिर थोड़ी देर दम लेने के लिए एक ऊंची चट्टान पर कुछ क्षणों के लिए बैठ गए. ‘‘सच, मैं बहुत खुश हूं, बहुत…’’

‘‘हूं,’’ अशोक उस की बिखरी लटों को संवारता रहा. ‘‘पर, एक बात तो तुम ने बताई ही नहीं,’’ अचला को कुछ याद आया.

‘‘क्या?’’ अशोक ने पूछा. ‘‘खर्चने को इतना पैसा कहां से आया? होटल भी काफी महंगा लगता है. किराया, खानापीना और घूमना, यह सब…’’

‘‘तुम्हें पसंद तो आया. खर्च की चिंता क्यों है?’’ ‘‘बताओ न. क्यों छिपा रहे हो?’’

‘‘तुम्हें मैं ने बताया नहीं था. असल में बोनस के रुपए मिले थे.’’ ‘‘क्या? बोनस के रुपए?’’ अचला बुरी तरह चौंक गई, ‘‘पर तुम तो कह रहे थे…’’ कहतेकहते उस का स्वर लड़खड़ा गया.

‘‘हां, 2 महीने पहले ही मिल गए थे. पर तुम इतना क्यों सोच रही हो? आराम से घूमोफिरो. बोनस के रुपए तो होते ही इसलिए हैं.’’ अचला चुप थी. उस के कदम तो अशोक के साथ चल रहे थे, पर मन कहीं दूर, बहुत दूर उड़ गया था. उस की आंखों में घूम रहा था वही 2 कमरों का फ्लैट. उस में पड़ी साधारण सी कुरसियां, मामूली फर्नीचर. ओफ, कितना सोचा था उस ने…बोनस के रुपए आएंगे तो वह घर की साजसज्जा का सब सामान खरीदेगी. दोढाई हजार में तो आसानी से पूरा घर सज्जित हो सकता था. पर अशोक ने सब यों ही उड़ा डाला. उसे खीज आने लगी अशोक पर.

अशोक ने कई बार टोका, ‘‘क्या सोच रही हो? यह देखो, बर्फ से ढकी पहाडि़यां. यही तो यहां की खासीयत है. जानती हो, इसीलिए मसूरी को पहाड़ों की रानी कहा जाता है.’’ पर अचला कुछ भी नहीं सुन पा रही थी. वह विचारों में डूबी थी, ‘अशोक ने उस के साथ यह धोखा क्यों किया? यदि वहीं कह देता कि बोनस के रुपयों से घूमने जा रहे हैं तो वह वहीं मना कर देती.’ उस का मन उखड़ता जा रहा था.

रात को भी वही खाना था, दिन में जिस की उस ने जी खोल कर तारीफ की थी. पर अब सब एकदम बेस्वाद लग रहा था. वह सोचने लगी, ‘बेमतलब कितना खर्च कर दिया. 100 रुपए रोज का कमरा, 40 रुपए में एक समय का खाना. इस से अच्छा तो वह घर पर ही बना लेती है. इस में है क्या. ढंग के मसाले तक तो सब्जी में पड़े नहीं हैं.’ उसे अब हर चीज में नुक्स नजर आने लगा था. ‘‘देखो, अब खर्च तो हो ही गया, क्यों इतना सोचती हो? रुपए और कमा लेंगे. अब जब घूमने निकले हैं तो पूरा आनंद लो.’’

रात देर तक अशोक उसे मनाता रहा था. पर वह मुंह फेरे लेटी रही. मन उखड़ गया था. उस का बस चलता तो उसी क्षण उड़ कर वापस चली जाती. गुदगुदे बिस्तर पर पासपास लेटे हुए भी वे एकदूसरे से कितनी दूर थे. क्षण भर में ही सारा माहौल बदल गया. सुबह भी अशोक ने उसे मनाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘चलो, घूम आएं. तुम्हारी तबीयत बहल जाएगी.’’

‘‘कह दिया न, मुझे अब यहां नहीं रहना है. तुम जो भी रुपए वापस मिल सकें ले लो और चलो.’’ ‘‘क्या बेवकूफों की तरह बातें कर रही हो. कमरा पहले से ही बुक हो गया है. किराया अग्रिम दिया जा चुका है. अब बहुत किफायत होगी भी तो खानेपीने की होगी. क्यों सारा मूड चौपट करने पर तुली हो?’’ अशोक के सब्र का बांध टूटने लगा था.

पर अचला चाह कर भी अब सहज नहीं हो पा रही थी. वे पहाडि़यां, बर्फ, झरने, जिन्हें देखते ही वह उमंगों से भर उठी थी, अब सब निरर्थक लग रहे थे. क्यों हो गया ऐसा? शायद उस के सोचने- समझने की दृष्टि ही बदल गई थी. ‘‘ठीक है, तुम यही चाहती हो तो रात की बस से लौट चलेंगे. अब आइंदा कभी तुम्हें यह कहने की जरूरत नहीं है कि घूमने चलो. सारा मूड बिगाड़ कर रख दिया.’’

दिन भर में अशोक भी चिड़चिड़ा गया. अचला उसी तरह अनमनी सी सामान समेटती रही.

‘‘अरे, इतनी जल्दी चल दिए आप लोग?’’ पास वाले कमरे के दंपती विस्मित हो कर बोले. पर बिना कोई जवाब दिए, अपना हैंडबैग कंधे पर लटकाए अचला आगे बढ़ती चली गई. अटैची थामे अशोक उस के पीछे था. बस तैयार खड़ी मिली. अटैची सीट पर रख अशोक धम से बैठ गया.

देहरादून पहुंच कर वे दूसरी बस में बैठ गए. अशोक को काफी देर से खयाल आया कि गुस्से में उस ने शाम का खाना भी नहीं खाया था. उस ने घड़ी देखी, 1 बज रहा था. नींद में आंखें जल रही थीं. पर सोने की इच्छा नहीं थी, वह खिड़की पर बांह रख सिर हथेलियों पर टिकाए या तो सो गया था या सोने का बहाना कर रहा था. आते समय कितना चाव था. पर अब पूरी रात क्षण भर के लिए भी वे सो नहीं पाए थे. दोनों ही सबकुछ भूल कर अपनेअपने खयालों में गमगीन थे. इस तरह वे परस्पर कटेकटे से घर पहुंचे.

सुबह अशोक का उतरा हुआ पीला चेहरा देख कर अचला सहम गई थी. शायद वह बहुत गुस्से में था. उसे अब अपने किए पर कुछ ग्लानि अनुभव हुई. उस समय तो गुस्से में उस की सोचनेसमझने की शक्ति ही लुप्त हो गई थी. पर अब लग रहा था कि जो कुछ हुआ, ठीक नहीं हुआ. कम से कम अशोक का ही खयाल रख कर उसे सहज हो जाना चाहिए था. कितने उत्साह से उस ने घूमने का प्रोग्राम बनाया था. कमरे में घुसते ही थकान ने शरीर को तोड़ डाला था, कुरसी पर धम से गिर कर वह कुछ भूल गई थी. कुछ देर बाद ही खयाल आया कि अशोक ने रात भर से बात नहीं की है. कहीं बिना कुछ खाए आफिस न चला गया हो, फिर उठी ही थी कि देखा अशोक चाय बना लाया है.

‘‘उठो, चाय पियोगी तो थकान दूर हो जाएगी,’’ कहते हुए अशोक ने धीरे से उस की ठुड्डी उठाई. अपने प्रति अशोक के इस विनम्र प्यार को देख वह सबकुछ भूल कर उस के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ी, ‘‘मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्या हो जाता है.’’

‘‘अरे, यह क्या, गलती तो मेरी ही थी. यदि मुझे पता होता कि तुम्हें घर की चीजों का इतना अधिक शौक है तो घूमने का प्रोग्राम ही नहीं बनाते. अब ध्यान रखूंगा.’’ अशोक का स्नेह भरा स्वर उसे नहलाता चला गया. अपने 2 कमरों का घर आज उसे सारे सुखसाधनों से भरापूरा प्रतीत हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘सबकुछ तो है उस के पास. इतना अधिक प्यार करने वाला, उस के सारे गुनाहों को भुला कर इतने स्नेह से मनाने वाला विशाल हृदय का पति पा कर भी वह अब तक बेकार दुखी होती रही है.’

‘‘नहीं, अब कुछ नहीं चाहिए मुझे. कुछ भी नहीं…’’ उस के होंठ बुदबुदा उठे. फिर अशोक के कंधे पर सिर रखे वह सुखद अनुभूति में खो गई.

तुम ही चाहिए ममू: क्या राजेश ममू से अलग रह पाया?

कुछ अपने मिजाज और कुछ हालात की वजह से राजेश बचपन से ही गंभीर और शर्मीला था. कालेज के दिनों में जब उस के दोस्त कैंटीन में बैठ कर लड़कियों को पटाने के लिए तरहतरह के पापड़ बेलते थे, तब वह लाइब्रेरी में बैठ कर किताबें खंगालता रहता था.

ऐसा नहीं था कि राजेश के अंदर जवानी की लहरें हिलोरें नहीं लेती थीं. ख्वाब वह भी देखा करता था. छिपछिप कर लड़कियों को देखने और उन से रसीली बातें करने की ख्वाहिश उसे भी होती थी, मगर वह कभी खुल कर सामने नहीं आया.

कई लड़कियों की खूबसूरती का कायल हो कर राजेश ने प्यारभरी कविताएं लिख डालीं, मगर जब उन्हीं में से कोई सामने आती तो वह सिर झुका कर आगे बढ़ जाता था. शर्मीले मिजाज की वजह से कालेज की दबंग लड़कियों ने उसे ‘ब्रह्मचारी’ नाम दे दिया था.

कालेज से निकलने के बाद जब राजेश नौकरी करने लगा तो वहां भी लड़कियों के बीच काम करने का मौका मिला. उन के लिए भी उस के मन में प्यार पनपता था, लेकिन अपनी चाहत को जाहिर करने के बजाय वह उसे डायरी में दर्ज कर देता था. औफिस में भी राजेश की इमेज कालेज के दिनों वाली ही बनी रही.

शायद औरत से राजेश का सीधा सामना कभी न हो पाता, अगर ममता उस की जिंदगी में न आती. उसे वह प्यार से ममू बुलाता था.

जब से राजेश को नौकरी मिली थी, तब से मां उस की शादी के लिए लगातार कोशिशें कर रही थीं. मां की कोशिश आखिरकार ममू के मिलने के साथ खत्म हो गई. राजेश की शादी हो गई. उस की ममू घर में आ गई.

पहली रात को जब आसपड़ोस की भाभियां चुहल करते हुए ममू को राजेश के कमरे तक लाईं तो वह बेहद शरमाई हुई थी. पलंग के एक कोने पर बैठ कर उस ने राजेश को तिरछी नजरों से देखा, लेकिन उस की तीखी नजर का सामना किए बगैर ही राजेश ने अपनी पलकें झुका लीं.

ममू समझ गई कि उस का पति उस से भी ज्यादा नर्वस है. पलंग के कोने से उचक कर वह राजेश के करीब आ गई और उस के सिर को अपनी कोमल हथेली से सहलाते हुए बोली, ‘‘लगता है, हमारी जोड़ी जमेगी नहीं…’’

‘‘क्यों…?’’ राजेश ने भी घबराते

हुए पूछा.

‘‘हिसाब उलटा हो गया…’’ उस ने कहा तो राजेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने बेचैन हो कर पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो ममू… क्या गड़बड़ हो गई?’’

‘‘यह गड़बड़ नहीं तो और क्या है? कुदरत ने तुम्हारे अंदर लड़कियों वाली शर्म भर दी और मेरे अंदर लड़कों वाली बेशर्मी…’’ कहते हुए ममू ने राजेश का माथा चूम लिया.

ममू के इस मजाक पर राजेश ने उसे अपनी बांहों में भर कर सीने से लगा लिया.

ख्वाबों में राजेश ने औरत को जिस रूप में देखा था, ममू उस से कई गुना बेहतर निकली. अब वह एक पल के लिए भी ममू को अपनी नजरों से ओझल होते नहीं देख सकता था.

हनीमून मना कर जब वे दोनों नैनीताल से घर लौटे तो ममू ने सुझाव दे डाला, ‘‘प्यारमनुहार बहुत हो चुका… अब औफिस जाना शुरू कर दो.’’

उस समय राजेश को ममू की बात हजम नहीं हुई. उस ने ममू की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘नौकरी तो हमेशा करनी है ममू… ये दिन फिर लौट कर नहीं आएंगे. मैं छुट्टियां बढ़वा रहा हूं.’’

‘‘छुट्टियां बढ़ा कर क्या करोगे? हफ्तेभर बाद तो प्रमोशन के लिए तुम्हारा इंटरव्यू होना है,’’ ममू ने त्योरियां चढ़ा कर कहा.

ममू को सचाई बताते हुए राजेश ने कहा, ‘‘इंटरव्यू तो नाम का है डार्लिंग. मुझ से सीनियर कई लोग अभी प्रमोशन की लाइन में खड़े हैं… ऐसे में मेरा नंबर कहां आ पाएगा?’’

‘‘तुम सुधरोगे नहीं…’’ कह कर ममू राजेश का हाथ झिड़क कर चली गई.

अगली सुबह मां ने राजेश को एक अजीब सा फैसला सुना डाला, ‘‘ममता को यहां 20 दिन हो चुके हैं. नई बहू को पहली बार ससुराल में इतने दिन नहीं रखा करते. तू कल ही इसे मायके छोड़ कर आ.’’

मां से तो राजेश कुछ नहीं कह सका, लेकिन ममू को उस ने अपनी हालत बता दी, ‘‘मैं अब एक पल भी तुम से दूर नहीं रह सकता ममू. मेरे लिए कुछ दिन रुक जाओ, प्लीज…’’

‘‘जिस घर में मैं 23 साल बिता चुकी हूं, उस घर को इतनी जल्दी कैसे भूल जाऊं?’’ कहते हुए ममू की आंखें भर आईं.

राजेश को इस बात का काफी दुख हुआ कि ममू ने उस के दिल में उमड़ते प्यार को दरकिनार कर अपने मायके को ज्यादा तरजीह दी, लेकिन मजबूरी में उसे ममू की बात माननी पड़ी और वह उसे उस के मायके छोड़ आया.

ममू के जाते ही राजेश के दिन उदास और रातें सूनी हो गईं. घर में फालतू बैठ कर राजेश क्या करता, इसलिए वह औफिस जाने लगा.

कुछ ही दिन बाद प्रमोशन के लिए राजेश का इंटरव्यू हुआ. वह जानता था कि यह सब नाम का है, फिर भी अपनी तरफ से उस ने इंटरव्यू बोर्ड को खुश करने की पूरी कोशिश की.

2 हफ्ते बाद ममू मायके से लौट आई और तभी नतीजा भी आ गया. लिस्ट में अपना नाम देख कर राजेश खुशी से उछल पड़ा. दफ्तर में उस के सीनियर भी परेशान हो उठे कि उन को छोड़ कर राजेश का प्रमोशन कैसे हो गया.

उन्होंने तहकीकात कराई तो पता चला कि इंटरव्यू में राजेश के नंबर उस के सीनियर सहकर्मियों के बराबर थे. इस हिसाब से राजेश के बजाय उन्हीं में से किसी एक का प्रमोशन होना था, मगर जब छुट्टियों के पैमाने पर परख की गई तो उन्होंने राजेश से ज्यादा छुट्टियां ली थीं. इंटरव्यू में राजेश को इसी बात का फायदा मिला था.

अगर ममू 2 हफ्ते पहले मायके न गई होती तो राजेश छुट्टी पर ही चल रहा होता और इंटरव्यू के लिए तैयारी भी न कर पाता. अचानक मिला यह प्रमोशन राजेश के कैरियर की एक अहम कामयाबी थी. इस बात को ले कर वह बहुत खुश था.

उस शाम घर पहुंच कर राजेश को ममू की गहरी समझ का ठोस सुबूत मिला. मां ने बताया कि मायके की याद तो ममू का बहाना था. उस ने जानबूझ कर मां से मशवरा कर के मायके जाने का मन बनाया था ताकि वह इंटरव्यू के लिए तैयारी कर सके.

सचाई जान कर राजेश ममू से मिलने को बेताब हो उठा. अपने कमरे में दाखिल होते ही वह हैरान रह गया.

ममू दुलहन की तरह सजधज कर बिस्तर पर बैठी थी. राजेश ने लपक कर उसे अपने सीने से लगा लिया. उस की हथेलियां ममू की कोमल पीठ को सहला रही थीं.

ममू कह रही थी, ‘‘माफ करना… मैं ने तुम्हें बहुत तड़पाया. मगर यह जरूरी था, तुम्हारी और मेरी तरक्की के लिए. क्या तुम से दूर रह कर मैं खुश रही? मायके में चौबीसों घंटे मैं तुम्हारी यादों में खोई रही. मैं भी तड़पती रही, लेकिन इस तड़प में भी एक मजा था. मुझे पता था कि अगर मैं तुम्हारे साथ रहती तो तुम जरूर छुट्टी लेते और कभी भी मन लगा कर इंटरव्यू की तैयारी नहीं करते.’’

राजेश कुछ नहीं बोला बस एकटक अपनी ममू को देखता रहा. ममू ने राजेश को अपनी बांहों में लेते हुए चुहल की, ‘‘अब बोलो, मुझ जैसी कठोर बीवी पा कर तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’’

‘‘तुम को पा कर तो मैं निहाल हो गया हूं ममू…’’ राजेश अभी बोल ही रहा था कि ममू ने ट्यूबलाइट का स्विच औफ करते हुए कहा, ‘‘बहुत हो चुकी तारीफ… अब कुछ और…’’

ममू शरारत पर उतर आई. कमरा नाइट लैंप की हलकी रोशनी से भर उठा और ममू राजेश की बांहों में खो गई, एक नई सुबह आने तक.

लड़की: क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

मुंबई स्थित जसलोक अस्पताल के आईसीयू में वीणा बिस्तर पर  निस्पंद पड़ी थी. उसे इस हालत में देख कर उस की मां अहल्या का कलेजा मुंह को आ रहा था. उस के कंठ में रुलाई उमड़ रही थी. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एक दिन ऐसे दुखदायी दृश्य का सामना करना पड़ेगा.

वह वीणा के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ फेरने लगी. ‘मेरी बेटी,’ वह बुदबुदाई, ‘तू एक बार आंखें खोल दे, तू होश में आ जा तो मैं तुझे बता सकूं कि मैं तुझे कितना चाहती हूं, तू मेरे दिल के कितने करीब है. तू मुझे छोड़ कर न जा मेरी लाड़ो. तेरे बिना मेरा संसार सूना हो जाएगा.’

बेटी को खो देने की आशंका से वह परेशान थी. वह व्यग्रता से डाक्टर और नर्सों का आनाजाना ताक रही थी, उन से वीणा की हालत के बारे में जानना चाह रही थी, पर हर कोई उसे किसी तरह का संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ था.

जैसे ही उसे वीणा के बारे में सूचना मिली वह पागलों की तरह बदहवास अस्पताल दौड़ी थी. वीणा को बेसुध देख कर वह चीख पड़ी थी. ‘यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ?’ उस के होंठों पर हजारों सवाल आए थे.

‘‘मैं आप को सारी बात बाद में विस्तार से बताऊंगा,’’ उस के दामाद भास्कर ने कहा था, ‘‘आप को तो पता ही है कि वीणा ड्रग्स की आदी थी. लगता है कि इस बार उस ने ओवरडोज ले ली और बेहोश हो गई. कामवाली बाई की नजर उस पर पड़ी तो उस ने दफ्तर में फोन किया. मैं दौड़ा आया, उसे अस्पताल लाया और आप को खबर कर दी.’’

‘‘हायहाय, वीणा ठीक तो हो जाएगी न?’’ अहल्या ने चिंतित हो कर सवाल किया.

‘‘डाक्टर्स पूरी कोशिश कर रहे हैं,’’  भास्कर ने उम्मीद जताई.

भास्कर से कोई आश्वासन न पा कर अहल्या ने चुप्पी साध ली. और वह कर भी क्या सकती थी? उस ने अपने को इतना लाचार कभी महसूस नहीं किया था. वह जानती थी कि वीणा ड्रग्स लेती थी. ड्रग्स की यह आदत उसे अमेरिका में ही पड़ चुकी थी. मानसिक तनाव के चलते वह कभीकभी गोलियां फांक लेती थी. उस ने ओवरडोज गलती से ली या आत्महत्या करने का प्रयत्न किया था?

उस का मन एकबारगी अतीत में जा पहुंचा. उसे वह दिन याद आया जब वीणा पैदा हुई थी. लड़की के जन्म से घर में किसी प्रकार की हलचल नहीं हुई थी. कोई उत्साहित नहीं हुआ था.

अहल्या व उस का पति सुधाकर ऐसे परिवेश में पलेबढ़े थे जहां लड़कों को प्रश्रय दिया जाता था. लड़कियों की कोई अहमियत नहीं थी. लड़कों के जन्म पर थालियां बजाई जातीं, लड्डू बांटे जाते, खुशियां मनाई जाती थीं. बेटी हुई तो सब के मुंह लटक जाते.

बेटी सिर का बोझ थी. वह घाटे का सौदा थी. एक बड़ी जिम्मेदारी थी. उसे पालपोस कर, बड़ा कर दूसरे को सौंप देना होता था. उस के लिए वर खोज कर, दानदहेज दे कर उस की शादी करने की प्रक्रिया में उस के मांबाप हलकान हो जाते और अकसर आकंठ कर्ज में डूब जाते थे.

अहल्या और सुधाकर भी अपनी संकीर्ण मानसिकता व पिछड़ी विचारधारा को ले कर जी रहे थे. वे समाज के घिसेपिटे नियमों का हूबहू पालन कर रहे थे. वे हद दर्जे के पुरातनपंथी थे, लकीर के फकीर.

देश में बदलाव की बयार आई थी, औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष कर रही थीं, स्त्री सशक्तीकरण की मांग कर रही थीं. पर अहल्या और उस के पति को इस से कोई फर्क नहीं पड़ा था.

अहल्या को याद आया कि बच्ची को देख कर उस की सास ने कहा था, ‘बच्ची जरा दुबलीपतली और मरियल सी है. रंग भी थोड़ा सांवला है, पर कोई बात नहीं.

2-2 बेटों के जन्म के बाद इस परिवार में एक बेटी की कमी थी, सो वह भी पूरी हो गई.’

जब भी अहल्या को उस की सास अपनी बेटी को ममता के वशीभूत हो कर गोद में लेते या उसे प्यार करते देखतीं तो उसे टोके बिना न रहतीं, ‘अरी, लड़कियां पराया धन होती हैं, दूसरे के घर की शोभा. इन से ज्यादा मोह मत बढ़ा. तेरी असली पूंजी तो तेरे बेटे हैं. वही तेरी नैया पार लगाएंगे. तेरे वंश की बेल वही आगे बढ़ाएंगे. तेरे बुढ़ापे का सहारा वही तो बनेंगे.’

सासूमां जबतब हिदायत देती रहतीं, ‘अरी बहू, बेटी को ज्यादा सिर पे मत चढ़ाओ. इस की आदतें न बिगाड़ो. एक दिन इसे पराए घर जाना है. पता नहीं कैसी ससुराल मिलेगी. कैसे लोगों से पाला पड़ेगा. कैसे निभेगी. बेटियों को विनम्र रहना चाहिए. दब कर रहना चाहिए. सहनशील बनना चाहिए. इन्हें अपनी हद में रहना चाहिए.’

देखते ही देखते वीणा बड़ी हो गई. एक दिन अहल्या के पति सुधाकर ने आ कर कहा, ‘वीणा के लिए एक बड़ा अच्छा रिश्ता आया है.’

‘अरे,’ अहल्या अचकचाई, ‘अभी तो वह केवल 18 साल की है.’

‘तो क्या हुआ. शादी की उम्र तो हो गई है उस की, जितनी जल्दी अपने सिर से बोझ उतरे उतना ही अच्छा है. लड़के ने खुद आगे बढ़ कर उस का हाथ मांगा है. लड़का भी ऐसावैसा नहीं है. प्रशासनिक अधिकारी है. ऊंची तनख्वाह पाता है. ठाठ से रहता है हमारी बेटी राज करेगी.’

‘लेकिन उस की पढ़ाई…’

‘ओहो, पढ़ाई का क्या है, उस के पति की मरजी हुई तो बाद में भी प्राइवेट पढ़ सकती है. जरा सोचो, हमारी हैसियत एक आईएएस दामाद पाने की थी क्या? घराना भी अमीर है. यों समझो कि प्रकृति ने छप्पर फाड़ कर धन बरसा दिया हम पर. ‘लेकिन अगर उस के मातापिता ने दहेज के लिए मुंह फाड़ा तो…’

‘तो कह देंगे कि हम आप के द्वारे लड़का मांगने नहीं गए थे. वही हमारी बेटी पर लार टपकाए हुए हैं…’

जब वीणा को पता चला कि उस के ब्याह की बात चल रही है तो वह बहुत रोईधोई. ‘मेरी शादी की इतनी जल्दी क्या है, मां. अभी तो मैं और पढ़ना चाहती हूं. कालेज लाइफ एंजौय करना चाहती हूं. कुछ दिन बेफिक्री से रहना चाहती हूं. फिर थोड़े दिन नौकरी भी करना चाहती हूं.’

पर उस की किसी ने नहीं सुनी. उस का कालेज छुड़ा दिया गया. शादी की जोरशोर से तैयारियां होने लगीं.

वर के मातापिता ने एक अडं़गा लगाया, ‘‘हमारे बेटे के लिए एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे हैं. लाखों का दहेज मिल रहा है. माना कि हमारा बेटा आप की बेटी से ब्याह करने पर तुला हुआ है पर इस का यह मतलब तो नहीं कि आप हमें सस्ते में टरका दें. नकद न सही, उस की हैसियत के अनुसार एक कार, फर्नीचर, फ्रिज, एसी वगैरह देना ही होगा.’’

सुधाकर सिर थाम कर बैठ गए. ‘मैं अपनेआप को बेच दूं तो भी इतना सबकुछ जुटा नहीं सकता,’ वे हताश स्वर में बोले.

‘मैं कहती थी न कि वरपक्ष वाले दहेज के लिए मुंह फाड़ेंगे. आखिर, बात दहेज के मुद्दे पर आ कर अटक गई न,’ अहल्या ने उलाहना दिया.

‘आंटीजी, आप लोग फिक्र न करें,’ उन के भावी दामाद उदय ने उन्हें दिलासा दिया, ‘मैं सब संभाल लूंगा. मैं अपने मांबाप को समझा लूंगा. आखिर मैं उन का इकलौता पुत्र हूं वे मेरी बात टाल नहीं सकेंगे.’ पर उस के मातापिता भी अड़ कर बैठे थे. दोनों में तनातनी थी.

आखिर, उदय के मांबाप की ही चली. वे शादी के मंडप से उदय को जबरन उठा कर ले गए और सुधाकर व अहल्या कुछ न कर सके. देखते ही देखते शादी का माहौल मातम में बदल गया. घराती व बराती चुपचाप खिसक लिए. अहल्या और वीणा ने रोरो कर घर में कुहराम मचा दिया.

‘अब इस तरह मातम मनाने से क्या हासिल होगा?’ सुधाकर ने लताड़ा, ‘इतना निराश होने की जरूरत नहीं है. हमारी लायक बेटी के लिए बहुतेरे वर जुट जाएंगे.’

वीणा मन ही मन आहत हुई पर उस ने इस अप्रिय घटना को भूल कर पढ़ाई में अपना मन लगाया. वह पढ़ने में तेज थी. उस ने परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की. इधर, उस के मांबाप भी निठल्ले नहीं बैठे थे. वे जीजान से एक अच्छे वर की तलाश कर रहे थे. तभी वीणा ने एक दिन अपनी मां को बताया कि वह अपने एक सहपाठी से प्यार करती है और उसी से शादी करना चाहती है.

जब अहल्या ने यह बात पति को बताई तो उन्होंने नाकभौं सिकोड़ कर कहा, ‘बहुत खूब. यह लड़की कालेज पढ़ने जाती थी या कुछ और ही गुल खिला रही थी? कौन लड़का है, किस जाति का है, कैसा खानदान है कुछ पता तो चले?’

और जब उन्हें पता चला कि प्रवीण दलित है तो उन की भृकुटी तन गई, ‘यह लड़की जो भी काम करेगी वह अनोखा होगा. अपनी बिरादरी में योग्य लड़कों की कमी है क्या? भई, हम से तो जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाएगी. समाज में क्या मुंह दिखाएंगे? हमें किसी तरह से इस लड़के से पीछा छुड़ाना होगा. तुम वीणा को समझाओ.’

‘मैं उसे समझा कर हार चुकी हूं पर वह जिद पकड़े हुए है. कुछ सुनने को तैयार नहीं है.’

‘पागल है वह, नादान है. हमें कोई तरकीब भिड़ानी होगी.’

सुधाकर ने एक तरीका खोज  निकाला. वे वीणा को एक  ज्योतिषी के पास ले गए.

सुधाकर पहले ही ज्योतिषी से मिल चुके थे और उस की मुट्ठी गरम कर दी थी. ‘महाराज, कन्या एक गलत सोहबत में पड़ गई है और उस से शादी करने का हठ कर रही है. कुछ ऐसा कीजिए कि उस का मन उस लड़के की ओर से फिर जाए.

‘आप चिंता न करें यजमान,’ ज्योतिषाचार्य ने कहा.

ज्योतिषी ने वीणा की जन्मपत्री देख कर बताया कि उस का विदेश जाना अवश्यंभावी है. ‘तुम्हारी कुंडली अति उत्तम है. तुम पढ़लिख कर अच्छा नाम कमाओगी. रही तुम्हारी शादी की बात, सो, कुंडली के अनुसार तुम मांगलिक हो और यह तुम्हारे भावी पति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. तुम्हारी शादी एक मांगलिक लड़के से ही होनी चाहिए वरना जोड़ी फलेगीफूलेगी नहीं. एक  बात और, तुम्हारे ग्रह बताते हैं कि तुम्हारी एक शादी ऐनवक्त पर टूट गई थी?’

‘जी, हां.’

‘भविष्य में इस तरह की बाधा को टालने के लिए एक अनुष्ठान कराना होगा, ग्रहशांति करानी होगी, तभी कुछ बात बनेगी.’ ज्योतिषी ने अपनी गोलमोल बातों से वीणा के मन में ऐसी दुविधा पैदा कर दी कि वह भारी असमंजस में पड़ गई. वह अपनी शादी के बारे में कोई निर्णय न ले सकी.

शीघ्र ही उसे अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी से वजीफे के साथ वहां दाखिला मिल गया. उसे अमेरिका के लिए रवाना कर के उस के मातापिता ने सुकून की सांस ली.

‘अब सब ठीक हो जाएगा,’ सुधाकर ने कहा, ‘लड़की का पढ़ाई में मन लगेगा और उस की प्रवीण से भी दूरी बन जाएगी. बाद की बाद में देखी जाएगी.’

इत्तफाक से वीणा के दोनों भाई भी अपनेअपने परिवार समेत अमेरिका जा बसे थे और वहीं के हो कर रह गए थे. उन का अपने मातापिता के साथ नाममात्र का संपर्क रह गया था. शुरूशुरू में वे हर हफ्ते फोन कर के मांबाप की खोजखबर लेते रहते थे, लेकिन धीरेधीरे उन का फोन आना कम होता गया. वे दोनों अपने कामकाज और घरसंसार में इतने व्यस्त हो गए कि महीनों बीत जाते, उन का फोन न आता. मांबाप ने उन से जो आस लगाई थी वह धूलधूसरित होती जा रही थी.

समय बीतता रहा. वीणा ने पढ़ाई पूरी कर अमेरिका में ही नौकरी कर ली थी. पूरे 8 वर्षों बाद वह भारत लौट कर आई. उस में भारी परिवर्तन हो गया था. उस का बदन भर गया था. आंखों पर चश्मा लग गया था. बालों में दोचार रुपहले तार झांकने लगे थे. उसे देख कर सुधाकर व अहल्या धक से रह गए. पर कुछ बोल न सके.

‘अब तुम्हारा क्या करने का इरादा है, बेटी?’ उन्होंने पूछा.

‘मेरा नौकरी कर के जी भर गया है. मैं अब शादी करना चाहती हूं. यदि मेरे लायक कोई लड़का है तो आप लोग बात चलाइए,’ उस ने कहा.

अहल्या और सुधाकर फिर से वर खोजने के काम में लग गए. पर अब स्थिति बदल चुकी थी. वीणा अब उतनी आकर्षक नहीं थी. समय ने उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी. उस ने समय से पहले ही प्रौढ़ता का जामा ओढ़ लिया था. वह अब नटखट, चुलबुली नहीं, धीरगंभीर हो गई थी.

उस के मातापिता जहां भी बात चलाते, उन्हें मायूसी ही हासिल होती थी. तभी एक दिन एक मित्र ने उन्हें भास्कर के बारे में बताया, ‘है तो वह विधुर. उस की पहली पत्नी की अचानक असमय मृत्यु हो गई. भास्कर नाम है उस का. वह इंजीनियर है. अच्छा कमाता है. खातेपीते घर का है.’

मांबाप ने वीणा पर दबाव डाल कर उसे शादी के लिए मना लिया. नवविवाहिता वीणा की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. उस के दिल में हिलोरें उठने लगीं. वह दिवास्वप्नों में खो गई. वह अपने हिस्से की खुशियां बटोरने के लिए लालायित हो गई.

लेकिन भास्कर से उस का जरा भी तालमेल नहीं बैठा. उन में शुरू से ही पटती नहीं थी. दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर था. भास्कर बहुत ही मितभाषी लेकिन हमेशा गुमसुम रहता. अपने में सीमित रहता.

वीणा ने बहुत कोशिश की कि उन में नजदीकियां बढ़ें पर यह इकतरफा प्रयास था. भास्कर का हृदय मानो एक दुर्भेध्य किला था. वह उस के मन की थाह न पा सकी थी. उसे समझ पाना मुश्किल था. पति और पत्नी में जो अंतरंगता व आत्मीयता होनी चाहिए, वह उन दोनों में नहीं थी. दोनों में दैहिक संबंध भी नाममात्र का था. दोनों एक ही घर में रहते पर अजनबियों की तरह. दोनों अपनीअपनी दुनिया में मस्त रहते, अपनीअपनी राह चलते.

दिनोंदिन वीणा और उस के बीच खाई बढ़ती गई. कभीकभी वीणा भविष्य के बारे में सोच कर चिंतित हो उठती. इस शुष्क स्वभाव वाले मनुष्य के साथ सारी जिंदगी कैसे कटेगी. इस ऊबभरे जीवन से वह कैसे नजात पाएगी, यह सोच निरंतर उस के मन को मथते रहती.

एक दिन वह अपने मातापिता के पास जा पहुंची. ‘मांपिताजी, मुझे इस आदमी से छुटकारा चाहिए,’ उस ने दोटूक कहा. अहल्या और सुधाकर स्तंभित रह गए, ‘यह क्या कह रही है तू? अचानक यह कैसा फैसला ले लिया तू ने? आखिर भास्कर में क्या बुराई है. अच्छे चालचलन का है. अच्छा कमाताधमाता है. तुझ से अच्छी तरह पेश आता है. कोई दहेजवहेज का लफड़ा तो नहीं है न?’

‘नहीं. सौ बात की एक बात है, मेरी उन से नहीं पटती. हमारे विचार नहीं मिलते. मैं अब एक दिन भी उन के साथ नहीं बिताना चाहती. हमारा अलग हो जाना ही बेहतर है.’

‘पागल न बन, बेटी. जराजरा सी बातों के लिए क्या शादी के बंधन को तोड़ना उचित है? बेटी शादी में समझौता करना पड़ता है. तालमेल बिठाना पड़ता है. अपने अहं को त्यागना पड़ता है.’

‘वह सब मैं जानती हूं. मैं ने अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न कर के देख लिया पर हमेशा नाकाम रही. बस, मैं ने फैसला कर लिया है. आप लोगों को बताना जरूरी समझा, सो बता दिया.’

‘जल्दबाजी में कोई निर्णय न ले, वीणा. मैं तो सोचती हूं कि एक बच्चा हो जाएगा तो तेरी मुश्किलें दूर हो जाएंगी,’ मां अहल्या ने कहा.

वीणा विद्रूपता से हंसी. ‘जहां परस्पर चाहत और आकर्षण न हो, जहां मन न मिले वहां एक बच्चा कैसे पतिपत्नी के बीच की कड़ी बन सकता है? वह कैसे उन दोनों को एकदूसरे के करीब ला सकता है?’

अहल्या और सुधाकर गहरी सोच में पड़ गए. ‘इस लड़की ने तो एक भारी समस्या खड़ी कर दी,’ अहल्या बोली, ‘जरा सोचो, इतनी कोशिश से तो लड़की को पार लगाया. अब यह पति को छोड़छाड़ कर वापस घर आ बैठी, तो हम इसे सारा जीवन कैसे संभाल पाएंगे? हमारी भी तो उम्र हो रही है. इस लड़की ने तो बैठेबिठाए एक मुसीबत खड़ी कर दी.’

‘उसे किसी तरह समझाबुझा कर ऐसा पागलपन करने से रोको. हमारे परिवार में कभी किसी का तलाक नहीं हुआ. यह हमारे लिए डूब मरने की बात होगी. शादीब्याह कोई हंसीखेल है क्या. और फिर इसे यह भी तो सोचना चाहिए कि इस उम्र में एक तलाकशुदा लड़की की दोबारा शादी कैसे हो पाएगी. लड़के क्या सड़कों पर पड़े मिलते हैं? और इस में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं जो इसे कोई मांग कर ले जाएगा,’ सुधाकर बोले.

‘देखो, मैं कोशिश कर के देखती हूं. पर मुझे नहीं लगता कि वीणा मानेगी. वह बड़ी जिद्दी होती जा रही है,’ अहल्या ने कहा.

‘‘तभी तो भुगत रही है. हमारा बस चलता तो इस की शादी कभी की हो गई होती. हमारे बेटों ने हमारी पसंद की लड़कियों से शादी की और अपनेअपने घर में खुश हैं, पर इस लड़की के ढंग ही निराले हैं. पहले प्रेमविवाह का खुमार सिर पर सवार हुआ, फिर विदेश जा कर पढ़ने का शौक चर्राया. खैर छोड़ो, जो होना है सो हो कर रहेगा.’’ बूढ़े दंपती ने बेटी को समझाबुझा कर वापस उस के घर भेज दिया.

एक दिन अचानक हृदयगति रुक जाने से सुधाकर की मौत हो गई. दोनों बेटे विदेश से आए और औपचारिक दुख प्रकट कर वापस चले गए. वे मां को साथ ले जाना चाहते थे पर अहल्या इस के लिए तैयार नहीं हुई.

अहल्या किसी तरह अकेली अपने दिन काट रही थी कि सहसा बेटी के हादसे के बारे में सुन कर उस के हाथों के तोते उड़ गए. वह अपना सिर धुनने लगी. इस लड़की को यह क्या सूझी? अरे, शादी से खुश नहीं थी तो पति को तलाक दे देती और अकेले चैन से रहती. भला अपनी जान देने की क्या जरूरत थी? अब देखो, जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है. अपनी मां को इस बुढ़ापे में ऐसा गम दे दिया.

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी?

बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी.

वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’

‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’

‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी.

‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’

‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता.

‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी.

एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं.

वफादारी का सुबूत

तकरीबन 3 महीने बाद दीपक आज अपने घर लौट रहा था, तो उस के सपनों में मुक्ता का खूबसूरत बदन तैर रहा था. उस का मन कर रहा था कि वह पलक झपकते ही अपने घर पहुंच जाए और मुक्ता को अपनी बांहों में भर कर उस पर प्यार की बारिश कर दे. पर अभी भी दीपक को काफी सफर तय करना था. सुबह होने से पहले तो वह हरगिज घर नहीं पहुंच सकता था. और फिर रात होने तक मुक्ता से उस का मिलन होना मुमकिन नहीं था.

‘‘उस्ताद, पेट में चूहे कूद रहे हैं. ‘बाबा का ढाबा’ पर ट्रक रोकना जरा. पहले पेटपूजा हो जाए. किस बात की जल्दी है. अब तो घर चल ही रहे हैं…’’ ट्रक के क्लीनर सुनील ने कहा, फिर मुसकरा कर जुमला कसा, ‘‘भाभी की बहुत याद आ रही है क्या? मैं ने तुम से बहुत बार कहा कि बाहर रह कर कहां तक मन मारोेगे. बहुत सी ऐसी जगहें हैं, जहां जा कर तनमन की भड़ास निकाली जा सकती है. पर तुम तो वाकई भाभी के दीवाने हो.’’ दीपक को पता था कि सुनील हर शहर में ऐसी जगह ढूंढ़ लेता है, जहां देह धंधेवालियां रहती हैं. वहां जा कर उसे अपने तन की भूख मिटाने की आदत सी पड़ गई है. अकसर वह सड़कछाप सैक्स के माहिरों की तलाश में भी रहता है. शायद ऐसी औरतों ने उसे कोई बीमारी दे दी है.

दीपक ने सुनील की बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह मुक्ता के बारे में सोच रहा था. उस की एक साल पहले ही मुक्ता से शादी हुई थी. वह पढ़ीलिखी और सलीकेदार औरत थी. उस का कसा बदन बेहद खूबसूरत था. उस ने आते ही दीपक को अपने प्यार से इतना भर दिया कि वह उस का दीवाना हो कर रह गया. दीपक एमए पास था. वह सालों नौकरी की तलाश में इधरउधर घूमता रहा, पर उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली. दीपक सभी तरह की गाडि़यां चलाने में माहिर था. उस के एक दोस्त ने उसे अपने एक रिश्तेदार की ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी दिलवा दी, तो उस ने मना नहीं किया.

वैसे, ट्रक ड्राइवरी में दीपक को अच्छीखासी आमदनी हो जाती थी. तनख्वाह मिलने के साथ ही वह रास्ते में मुसाफिर ढो कर भी पैसा बना लेता था. ये रुपए वह सुनील के साथ बांट लेता था. सुनील तो ये रुपए देह धंधेवालियों और खानेपीने पर उड़ा देता था, पर घर लौटते समय दीपक की जेब भरी होती थी और घर वालों के लिए बहुत सा सामान भी होता था, जिस से सब उस से खुश रहते थे. दीपक के घर में उस की पत्नी मुक्ता के अलावा मातापिता और 2 छोटे भाईबहन थे. दीपक जब भी ट्रक ले कर घर से बाहर निकलता था, तो कभी 15 दिन तो कभी एक महीने बाद ही वापस आ पाता था. पर इस बार तो हद ही हो गई थी. वह पूरे 3 महीने बाद घर लौट रहा था. उस ने पूरे 10 दिनों की छुट्टियां ली थीं.

‘‘उस्ताद, ‘बाबा का ढाबा’ आने वाला है,’’ सुनील की आवाज सुन कर दीपक ने ट्रक की रफ्तार कम की, तभी सड़क के दाईं तरफ ‘बाबा का ढाबा’ बोर्ड नजर आने लगा. उस ने ट्रक किनारे कर के लगाया. वहां और भी 10-12 ट्रक खड़े थे.

यह ढाबा ट्रक ड्राइवरों और उन के क्लीनरों से ही गुलजार रहता था. इस समय भी वहां कई लोग थे. कुछ लोग आराम कर रहे थे, तो कुछ चारपाई पर पटरा डाले खाना खाने में जुटे थे. वहां के माहौल में दाल फ्राई और देशी शराब की मिलीजुली महक पसरी थी. ट्रक से उतर कर सुनील सीधे ढाबे के काउंटर पर गया, तो वहां बैठे ढाबे के मालिक सरदारजी ने उस का अभिवादन करते हुए कहा, ‘‘आओ बादशाहो, बहुत दिनों बाद नजर आए?’’

सुनील ने कहा, ‘‘हां पाजी, इस बार तो मालिकों ने हमारी जान ही निकाल ली. न जाने कितने चक्कर असम के लगवा दिए.’’

‘‘ओहो… तभी तो मैं कहूं कि अपना सुनील भाई बहुत दिनों से नजर नहीं आया. ये मालिक लोग भी खून चूस कर ही छोड़ते हैं जी,’’ सरदारजी ने हमदर्दी जताते हुए कहा.

‘‘पेट में चूहे दौड़ रहे हैं, फटाफट

2 दाल फ्राई करवाओ पाजी. मटरपनीर भी भिजवाओ,’’ सुनील ने कहा.

‘‘तुम बैठो चल कर. बस, अभी हुआ जाता है,’’ सरदारजी ने कहा और नौकर को आवाज लगाने लगे.

2 गिलास, एक कोल्ड ड्रिंक और एक नीबू ले कर जब तक सुनील खाने का और्डर दे कर दूसरे ड्राइवरों और क्लीनरों से दुआसलाम करता हुआ दीपक के पास पहुंचा, तब तक वह एक खाली पड़ी चारपाई पर पसर गया था. उसे हलका बुखार था.

‘‘क्या हुआ उस्ताद? सो गए क्या?’’ सुनील ने उसे हिलाया.

‘‘यार, अंगअंग दर्द कर रहा है,’’ दीपक ने आंखें मूंदे जवाब दिया.

‘‘लो उस्ताद, दो घूंट पी लो आज. सारी थकान उतर जाएगी,’’ सुनील ने अपनी जेब से दारू का पाउच निकाला और गिलास में डाल कर उस में कोल्ड ड्रिंक और नीबू मिलाने लगा. तब तक ढाबे का छोकरा उस के सामने आमलेट और सलाद रख गया था.

‘‘नहीं, तू पी,’’ दीपक ने कहा.

‘‘इस धंधे में ऐसा कैसे चलेगा उस्ताद?’’ सुनील बोला.

‘‘तुझे मालूम है कि मैं नहीं पीता. खराब चीज को एक बार मुंह से लगा लो, तो वह जिंदगीभर पीछा नहीं छोड़ती. मेरे लिए तो तू एक चाय बोल दे,’’ दीपक बोला. सुनील ने वहीं से आवाज दे कर एक कड़क चाय लाने को बोला. दीपक ने जेब से सिरदर्द की एक गोली निकाली और उसे पानी के साथ निगल कर धीरेधीरे चाय पीने लगा. बीचबीच में वह आमलेट भी खा लेता. जब तक उस की चाय निबटी. होटल के छोकरे ने आ कर खाना लगा दिया. गरमागरम खाना देख कर उस की भी भूख जाग गई. दोनों खाने में जुट गए. खाना खा कर दोनों कुछ देर तक वहीं चारपाई पर लेटे आराम करते रहे. अब दीपक को भी कोई जल्दी नहीं थी, क्योंकि दिन निकलने से पहले अब वह किसी भी हालत में घर नहीं पहुंच सकता था. एक घंटे बाद जब वह चलने के लिए तैयार हुआ, तो थोड़ी राहत महसूस कर रहा था. कानपुर पहुंच कर दीपक ने ट्रक ट्रांसपोर्ट पर खड़ा किया और मालिक से रुपए और छुट्टी ले कर घर पहुंचा. सब लोग बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. उसे देखते ही खुश हो गए.

मां उस के चेहरे को ध्यान से देखे जा रही थी, ‘‘इस बार तो तू बहुत कमजोर लग रहा है. चेहरा देखो कैसा निकल आया है. क्या बुखार है तुझे?’’

‘‘हां मां, मैं परसों भीग गया था. इस बार पूरे 10 दिन की छुट्टी ले कर आया हूं. जम कर आराम करूंगा, तो फिर से हट्टाकट्टा हो जाऊंगा,’’ कह कर वह अपनी लाई हुई सौगात उन लोगों में बांटने लगा. सब लोग अपनीअपनी मनपसंद चीजें पा कर खुश हो गए. मुक्ता रसोई में खाना बनाते हुए सब की बातें सुन रही थी. उस के लिए दीपक इस बार सोने की खूबसूरत अंगूठी और कीमती साड़ी लाया था. थोड़ी देर बाद एकांत मिलते ही मुक्ता उस के पास आई और बोली, ‘‘आप को बुखार है. आप ने दवा ली?’’

‘‘हां, ली थी.’’

‘‘एक गोली से क्या होता है? आप को किसी अच्छे डाक्टर को दिखा कर दवा लेनी चाहिए.’’

‘‘अरे, डाक्टर को क्या दिखाना? बताया न कि परसों भीग गया था, इसीलिए बुखार आ गया है.’’

‘‘फिर भी लापरवाही करने से क्या फायदा? आजकल वैसे भी डेंगू बहुत फैला हुआ है. मैं डाक्टर मदन को घर पर ही बुला लाती हूं.’’

दीपक नानुकर करने लगा, पर मुक्ता नहीं मानी. वह डाक्टर मदन को बुला लाई. वे उन के फैमिली डाक्टर थे और उन का क्लिनिक पास में ही था. वे फौरन चले आए. उन्होंने दीपक की अच्छी तरह जांच की और जांच के लिए ब्लड का सैंपल भी ले लिया. उन्होंने कुछ दवाएं लिखते हुए कहा, ‘‘ये दवाएं अभी मंगवा लीजिए, बाकी खून की रिपोर्ट आ जाने के बाद देखेंगे.’’ रात में दीपक ने मुक्ता को अपनी बांहों में लेना चाहा, तो उस ने उसे प्यार से मना कर दिया.

‘‘पहले आप ठीक हो जाइए. बीमारी में यह सबकुछ ठीक नहीं है,’’ मुक्ता ने बड़े ही प्यार से समझाया.

दीपक ने बहुत जिद की, लेकिन वह नहीं मानी. बेचारा दीपक मन मसोस कर रह गया. उस को मुक्ता का बरताव समझ में नहीं आ रहा था. दूसरे दिन मुक्ता डाक्टर मदन से दीपक की रिपोर्ट लेने गई, तो उन्होंने बताया कि बुखार मामूली है. दीपक को न तो डेंगू है और न ही एड्स या कोई सैक्स से जुड़ी बीमारी. बस 2 दिन में दीपक बिलकुल ठीक हो जाएगा. दीपक मुक्ता के साथ ही था. उसे डाक्टर मदन की बातें सुन कर हैरानी हुई. उस ने पूछा, ‘‘लेकिन डाक्टर साहब, आप को ये सब जांचें करवाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?’’

‘‘ये सब जांचें कराने के लिए आप की पत्नी ने कहा था. आप 3 महीने से घर से बाहर जो रहे थे. आप की पत्नी वाकई बहुत समझदार हैं,’’ डाक्टर मदन ने मुक्ता की तारीफ करते हुए कहा.

दीपक को बहुत अजीब सा लगा, पर वह कुछ न बोला. दीपक दिनभर अनमना सा रहा. उसे मुक्ता पर बेहद गुस्सा आ रहा. रात में मुक्ता ने कहा, ‘‘आप को हरगिज मेरी यह हरकत पसंद नहीं आई होगी, पर मैं भी क्या करती, मीना रोज मेरे पास आ कर अपना दुखड़ा रोती रहती है. उसे न जाने कैसी गंदी बीमारी हो गई है. ‘‘यह बीमारी उसे अपने पति से मिली है. बेचारी बड़ी तकलीफ में है. उस के पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं.’’

दीपक को अब सारी बात समझ में आ गई. मीना उस के क्लीनर सुनील की पत्नी थी. सुनील को यह गंदी बीमारी देह धंधेवालियों से लगी थी. वह खुद भी तो हमेशा किसी अच्छे सैक्स माहिर डाक्टर की तलाश में रहता था. सारी बात जान कर दीपक का मन मुक्ता की तरफ से शीशे की तरह साफ हो गया. वह यह भी समझ गया था कि अब वक्त आ गया है, जब मर्द को भी अपनी वफादारी का सुबूत देना होगा.

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