वफादारी का सुबूत

तकरीबन 3 महीने बाद दीपक आज अपने घर लौट रहा था, तो उस के सपनों में मुक्ता का खूबसूरत बदन तैर रहा था. उस का मन कर रहा था कि वह पलक झपकते ही अपने घर पहुंच जाए और मुक्ता को अपनी बांहों में भर कर उस पर प्यार की बारिश कर दे. पर अभी भी दीपक को काफी सफर तय करना था. सुबह होने से पहले तो वह हरगिज घर नहीं पहुंच सकता था. और फिर रात होने तक मुक्ता से उस का मिलन होना मुमकिन नहीं था.

‘‘उस्ताद, पेट में चूहे कूद रहे हैं. ‘बाबा का ढाबा’ पर ट्रक रोकना जरा. पहले पेटपूजा हो जाए. किस बात की जल्दी है. अब तो घर चल ही रहे हैं…’’ ट्रक के क्लीनर सुनील ने कहा, फिर मुसकरा कर जुमला कसा, ‘‘भाभी की बहुत याद आ रही है क्या? मैं ने तुम से बहुत बार कहा कि बाहर रह कर कहां तक मन मारोेगे. बहुत सी ऐसी जगहें हैं, जहां जा कर तनमन की भड़ास निकाली जा सकती है. पर तुम तो वाकई भाभी के दीवाने हो.’’ दीपक को पता था कि सुनील हर शहर में ऐसी जगह ढूंढ़ लेता है, जहां देह धंधेवालियां रहती हैं. वहां जा कर उसे अपने तन की भूख मिटाने की आदत सी पड़ गई है. अकसर वह सड़कछाप सैक्स के माहिरों की तलाश में भी रहता है. शायद ऐसी औरतों ने उसे कोई बीमारी दे दी है.

दीपक ने सुनील की बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह मुक्ता के बारे में सोच रहा था. उस की एक साल पहले ही मुक्ता से शादी हुई थी. वह पढ़ीलिखी और सलीकेदार औरत थी. उस का कसा बदन बेहद खूबसूरत था. उस ने आते ही दीपक को अपने प्यार से इतना भर दिया कि वह उस का दीवाना हो कर रह गया. दीपक एमए पास था. वह सालों नौकरी की तलाश में इधरउधर घूमता रहा, पर उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली. दीपक सभी तरह की गाडि़यां चलाने में माहिर था. उस के एक दोस्त ने उसे अपने एक रिश्तेदार की ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी दिलवा दी, तो उस ने मना नहीं किया.

वैसे, ट्रक ड्राइवरी में दीपक को अच्छीखासी आमदनी हो जाती थी. तनख्वाह मिलने के साथ ही वह रास्ते में मुसाफिर ढो कर भी पैसा बना लेता था. ये रुपए वह सुनील के साथ बांट लेता था. सुनील तो ये रुपए देह धंधेवालियों और खानेपीने पर उड़ा देता था, पर घर लौटते समय दीपक की जेब भरी होती थी और घर वालों के लिए बहुत सा सामान भी होता था, जिस से सब उस से खुश रहते थे. दीपक के घर में उस की पत्नी मुक्ता के अलावा मातापिता और 2 छोटे भाईबहन थे. दीपक जब भी ट्रक ले कर घर से बाहर निकलता था, तो कभी 15 दिन तो कभी एक महीने बाद ही वापस आ पाता था. पर इस बार तो हद ही हो गई थी. वह पूरे 3 महीने बाद घर लौट रहा था. उस ने पूरे 10 दिनों की छुट्टियां ली थीं.

‘‘उस्ताद, ‘बाबा का ढाबा’ आने वाला है,’’ सुनील की आवाज सुन कर दीपक ने ट्रक की रफ्तार कम की, तभी सड़क के दाईं तरफ ‘बाबा का ढाबा’ बोर्ड नजर आने लगा. उस ने ट्रक किनारे कर के लगाया. वहां और भी 10-12 ट्रक खड़े थे.

यह ढाबा ट्रक ड्राइवरों और उन के क्लीनरों से ही गुलजार रहता था. इस समय भी वहां कई लोग थे. कुछ लोग आराम कर रहे थे, तो कुछ चारपाई पर पटरा डाले खाना खाने में जुटे थे. वहां के माहौल में दाल फ्राई और देशी शराब की मिलीजुली महक पसरी थी. ट्रक से उतर कर सुनील सीधे ढाबे के काउंटर पर गया, तो वहां बैठे ढाबे के मालिक सरदारजी ने उस का अभिवादन करते हुए कहा, ‘‘आओ बादशाहो, बहुत दिनों बाद नजर आए?’’

सुनील ने कहा, ‘‘हां पाजी, इस बार तो मालिकों ने हमारी जान ही निकाल ली. न जाने कितने चक्कर असम के लगवा दिए.’’

‘‘ओहो… तभी तो मैं कहूं कि अपना सुनील भाई बहुत दिनों से नजर नहीं आया. ये मालिक लोग भी खून चूस कर ही छोड़ते हैं जी,’’ सरदारजी ने हमदर्दी जताते हुए कहा.

‘‘पेट में चूहे दौड़ रहे हैं, फटाफट

2 दाल फ्राई करवाओ पाजी. मटरपनीर भी भिजवाओ,’’ सुनील ने कहा.

‘‘तुम बैठो चल कर. बस, अभी हुआ जाता है,’’ सरदारजी ने कहा और नौकर को आवाज लगाने लगे.

2 गिलास, एक कोल्ड ड्रिंक और एक नीबू ले कर जब तक सुनील खाने का और्डर दे कर दूसरे ड्राइवरों और क्लीनरों से दुआसलाम करता हुआ दीपक के पास पहुंचा, तब तक वह एक खाली पड़ी चारपाई पर पसर गया था. उसे हलका बुखार था.

‘‘क्या हुआ उस्ताद? सो गए क्या?’’ सुनील ने उसे हिलाया.

‘‘यार, अंगअंग दर्द कर रहा है,’’ दीपक ने आंखें मूंदे जवाब दिया.

‘‘लो उस्ताद, दो घूंट पी लो आज. सारी थकान उतर जाएगी,’’ सुनील ने अपनी जेब से दारू का पाउच निकाला और गिलास में डाल कर उस में कोल्ड ड्रिंक और नीबू मिलाने लगा. तब तक ढाबे का छोकरा उस के सामने आमलेट और सलाद रख गया था.

‘‘नहीं, तू पी,’’ दीपक ने कहा.

‘‘इस धंधे में ऐसा कैसे चलेगा उस्ताद?’’ सुनील बोला.

‘‘तुझे मालूम है कि मैं नहीं पीता. खराब चीज को एक बार मुंह से लगा लो, तो वह जिंदगीभर पीछा नहीं छोड़ती. मेरे लिए तो तू एक चाय बोल दे,’’ दीपक बोला. सुनील ने वहीं से आवाज दे कर एक कड़क चाय लाने को बोला. दीपक ने जेब से सिरदर्द की एक गोली निकाली और उसे पानी के साथ निगल कर धीरेधीरे चाय पीने लगा. बीचबीच में वह आमलेट भी खा लेता. जब तक उस की चाय निबटी. होटल के छोकरे ने आ कर खाना लगा दिया. गरमागरम खाना देख कर उस की भी भूख जाग गई. दोनों खाने में जुट गए. खाना खा कर दोनों कुछ देर तक वहीं चारपाई पर लेटे आराम करते रहे. अब दीपक को भी कोई जल्दी नहीं थी, क्योंकि दिन निकलने से पहले अब वह किसी भी हालत में घर नहीं पहुंच सकता था. एक घंटे बाद जब वह चलने के लिए तैयार हुआ, तो थोड़ी राहत महसूस कर रहा था. कानपुर पहुंच कर दीपक ने ट्रक ट्रांसपोर्ट पर खड़ा किया और मालिक से रुपए और छुट्टी ले कर घर पहुंचा. सब लोग बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. उसे देखते ही खुश हो गए.

मां उस के चेहरे को ध्यान से देखे जा रही थी, ‘‘इस बार तो तू बहुत कमजोर लग रहा है. चेहरा देखो कैसा निकल आया है. क्या बुखार है तुझे?’’

‘‘हां मां, मैं परसों भीग गया था. इस बार पूरे 10 दिन की छुट्टी ले कर आया हूं. जम कर आराम करूंगा, तो फिर से हट्टाकट्टा हो जाऊंगा,’’ कह कर वह अपनी लाई हुई सौगात उन लोगों में बांटने लगा. सब लोग अपनीअपनी मनपसंद चीजें पा कर खुश हो गए. मुक्ता रसोई में खाना बनाते हुए सब की बातें सुन रही थी. उस के लिए दीपक इस बार सोने की खूबसूरत अंगूठी और कीमती साड़ी लाया था. थोड़ी देर बाद एकांत मिलते ही मुक्ता उस के पास आई और बोली, ‘‘आप को बुखार है. आप ने दवा ली?’’

‘‘हां, ली थी.’’

‘‘एक गोली से क्या होता है? आप को किसी अच्छे डाक्टर को दिखा कर दवा लेनी चाहिए.’’

‘‘अरे, डाक्टर को क्या दिखाना? बताया न कि परसों भीग गया था, इसीलिए बुखार आ गया है.’’

‘‘फिर भी लापरवाही करने से क्या फायदा? आजकल वैसे भी डेंगू बहुत फैला हुआ है. मैं डाक्टर मदन को घर पर ही बुला लाती हूं.’’

दीपक नानुकर करने लगा, पर मुक्ता नहीं मानी. वह डाक्टर मदन को बुला लाई. वे उन के फैमिली डाक्टर थे और उन का क्लिनिक पास में ही था. वे फौरन चले आए. उन्होंने दीपक की अच्छी तरह जांच की और जांच के लिए ब्लड का सैंपल भी ले लिया. उन्होंने कुछ दवाएं लिखते हुए कहा, ‘‘ये दवाएं अभी मंगवा लीजिए, बाकी खून की रिपोर्ट आ जाने के बाद देखेंगे.’’ रात में दीपक ने मुक्ता को अपनी बांहों में लेना चाहा, तो उस ने उसे प्यार से मना कर दिया.

‘‘पहले आप ठीक हो जाइए. बीमारी में यह सबकुछ ठीक नहीं है,’’ मुक्ता ने बड़े ही प्यार से समझाया.

दीपक ने बहुत जिद की, लेकिन वह नहीं मानी. बेचारा दीपक मन मसोस कर रह गया. उस को मुक्ता का बरताव समझ में नहीं आ रहा था. दूसरे दिन मुक्ता डाक्टर मदन से दीपक की रिपोर्ट लेने गई, तो उन्होंने बताया कि बुखार मामूली है. दीपक को न तो डेंगू है और न ही एड्स या कोई सैक्स से जुड़ी बीमारी. बस 2 दिन में दीपक बिलकुल ठीक हो जाएगा. दीपक मुक्ता के साथ ही था. उसे डाक्टर मदन की बातें सुन कर हैरानी हुई. उस ने पूछा, ‘‘लेकिन डाक्टर साहब, आप को ये सब जांचें करवाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?’’

‘‘ये सब जांचें कराने के लिए आप की पत्नी ने कहा था. आप 3 महीने से घर से बाहर जो रहे थे. आप की पत्नी वाकई बहुत समझदार हैं,’’ डाक्टर मदन ने मुक्ता की तारीफ करते हुए कहा.

दीपक को बहुत अजीब सा लगा, पर वह कुछ न बोला. दीपक दिनभर अनमना सा रहा. उसे मुक्ता पर बेहद गुस्सा आ रहा. रात में मुक्ता ने कहा, ‘‘आप को हरगिज मेरी यह हरकत पसंद नहीं आई होगी, पर मैं भी क्या करती, मीना रोज मेरे पास आ कर अपना दुखड़ा रोती रहती है. उसे न जाने कैसी गंदी बीमारी हो गई है. ‘‘यह बीमारी उसे अपने पति से मिली है. बेचारी बड़ी तकलीफ में है. उस के पास तो इलाज के लिए पैसे भी नहीं हैं.’’

दीपक को अब सारी बात समझ में आ गई. मीना उस के क्लीनर सुनील की पत्नी थी. सुनील को यह गंदी बीमारी देह धंधेवालियों से लगी थी. वह खुद भी तो हमेशा किसी अच्छे सैक्स माहिर डाक्टर की तलाश में रहता था. सारी बात जान कर दीपक का मन मुक्ता की तरफ से शीशे की तरह साफ हो गया. वह यह भी समझ गया था कि अब वक्त आ गया है, जब मर्द को भी अपनी वफादारी का सुबूत देना होगा.

कौन जिम्मेदार: किशोरीलाल ने कौनसा कदम उठाया

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे. सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे. यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था.

इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई. यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था. यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा. जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा. वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया. यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’ ‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई. किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था. इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई. कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी. बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे. जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे. मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे. कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चलीगई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा.

फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती. जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.  पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं. सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी.

इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

गुनहगार: नीना ने जब कंवल को देखा तो हैरान क्यों हो गई

अपने बैडरूम से आती गाने की आवाज सुन कर कंवल तड़प उठा था. तेज कदमों से चल कर बैडरूम में पहुंचा तो देखा सामने टेबल पर रखे म्यूजिक सिस्टम की तेज आवाज पूरे घर में गूंज रही थी. गाना वही था जिसे सुनते ही उस का रोमरोम जैसे अपराधभाव से भर जाता. उस का मन गुनाह के बोझ से दबने लगता. आंखें नम हो जातीं और दिल बेचैन हो उठता.

‘‘मेरे महबूब कयामत होगी, आज रुसवा तेरी गलियों में मोहब्बत होगी…’’ गाने के स्वर कंवल के कानों में पिघले सीसे के समान फैले जा रहे थे. उस ने दोनों हाथों से कानों को बंद कर लिया. पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो उठा.

तभी गाने की आवाज आनी बंद हो गई. उस ने चौंक कर आंखें खोलीं तो सामने विशाखा खड़ी थी.

‘‘कंवल, यह क्या हो गया तुम्हें?’’

विशाखा उस के चेहरे से पसीना पोंछती घबराए स्वर में बोली.

‘‘तुम जानती हो विशाखा यह गाना मेरे दिल और दिमाग को झंझड़ कर रख देता,’’

‘‘फिर क्यों सुनते हो यह गाना?’’

कंवल अब तक कुछ संयमित हो चुका था.

‘‘मुझे माफ कर दो कंवल, गाना सुन कर मैं बंद करने आ रही थी पर शायद मुझे देर हो गई,’’ विशाखा के चेहरे पर गहरे अवसाद की छाया लहरा रही थी.

‘‘बुरा मान गई विशाखा? दरअसल, गलती मेरी ही है. इस में तुम्हारा क्या दोष है?’’ कह कर कंवल कमरे से बाहर निकल गया.

विशाखा उस के पीछे आई तो देखा वह गाड़ी ले कर जा चुका था. वह जानती थी कि अकसर कंवल ऐसे में लंबी ड्राइव पर निकल जाता है. वह एक गहरी सांस ले कर घर के अंदर चली गई.

दिशाविहीन और उद्देश्यविहीन गाड़ी चलाते हुए कंवल की यादों में एक चेहरा आने लगा. वह चेहरा था शैलजा का. शैलजा, विशाखा की चचेरी बहन. विशाखा के चाचाचाची दूसरे शहर में रहते थे. कंवल और विशाखा की शादी में बहुत चाह कर भी उस के चाचा अपनी नौकरी की वजह से शामिल नहीं हो सके थे और शैलजा के भी इम्तिहान हो रहे थे.

अत: कंवल की मुलाकात शैलजा से दो साल पहले विशाखा के छोटे भाई मुकुल की शादी में हुई थी. शैलजा ने अपने सहज और सरल स्वभाव से पहली ही मुलाकात में कंवल का ध्यान आकृष्ट कर लिया.

शादी का घर, रातदिन चहलपहल. गपशप में ही सारा समय कट जाता था. बरात चलने की तैयारी हो रही थी. दूल्हा सज रहा था. बड़ी बहन विशाखा के उपस्थित रहने पर भी शैलजा ने ही ज्यादातर रस्में निभाई थीं क्योंकि मुकुल का विशेष आग्रह था. मुकुल और शैलजा की शुरू से ही अच्छीखासी जमती थी. विशाखा अपने हठी और रूखे स्वभाव की वजह से हंसीठिठोली वाले माहौल से कुछ अलग ही रहा करती थी.

कंवल मित्रमंडली में बैठा बतिया ही रहा था कि मुकुल की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे जीजाजी वहां क्या कर रहे हैं, जरा यहां आइए और मामला सुलझाइए.’’

दूल्हे को काजल लगाने का प्रश्न था. मुकुल ने कहा था कि जो बारीक लगा सकेगा, वही लगाएगा.

विशाखा ने भी स्पष्ट कर दिया था कि यह तो शैलजा ही बेहतर कर सकती है सो वही करे.

शैलजा ने शर्त रखी, ‘‘काजल लगाने का मेहनताना क्या मिलेगा?’’

कंवल अब इस चुहलबाजी का हिस्सा बन चुका था. बोला, ‘‘मुंहमांगा.’’

शैलजा बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोली, ‘‘आप से नहीं पूछ रही हूं.’’

‘‘अच्छा ठीक है जो चाहो सो ले लेना,’’ मुकुल बोला.

कंवल फिर शैलजा को छेड़ते हुए बोला, ‘‘इन्हें जो चाहिए मैं जानता हूं. अगले साल इन की शादी में भी आना होगा.’’

शैलजा से कुछ कहते न बना. अंत में काजल विशाखा ने लगाया. कंवल का मजाक चलता ही रहता था. शैलजा खीज उठती थी तो वह चुप हो जाता था क्योंकि उस की कोई साली नहीं थी इसलिए वह शैलजा से ही दिल खोल कर मजाक करता.

इसी तरह एक दिन दानदहेज पर कोई चर्चा चल रही थी. कंवल बोला, ‘‘कहते हैं पुराने जमाने में दासदासियां भी दहेज में दी जाती थीं.’’

‘‘और सालियां भी,’’ किसी की आवाज आई.

‘‘हां, वे भी देहज में दी जाती थीं,’’ विशाखा की मां ने समर्थन किया.

कंवल को मसाला मिल गया. कहने लगा, ‘‘इस का मतलब अब तो शैलजा पर मेरा पूरा अधिकार है. वह मेरे दहेज की साली जो है.’’

चारों तरफ हंसी के ठहाके गूंज पड़े. शैलजा कुछ नाराज सी हो गई.चूंकि वह दहेज के विरुद्ध बोल रही थी पर कंवल की बात की वजह से उस का भाषण ही बंद हो गया.

कंवल जब कभी मूड में होता तो कहता, ‘‘मुकल, तुम लोग शैलजा से बोलने से पहले मु?ा से पूछ लिया करो.’’

‘‘क्यों जीजाजी, ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘शैलजा मेरी पर्सनल प्रौपर्टी है.’’

‘‘मैं क्यों, विशाखा दीदी है आप की पर्सनल प्रौपर्टी,’’ शैलजा गुस्से में कहती.

‘‘वह तो है ही और तुम भी.’’

सब की हंसी में शैलजा का गुस्सा खत्म हो जाता. 3-4 दिन बाद मुकुल अपनी पत्नी के साथ 2 हफ्ते के लिए बाहर घूमने गया. विशाखा के मातापिता और चाचाचाची ने भी शहर के पास के ही तीर्थ घूमने का मन बना लिया. शैलजा जाना नहीं चाहती थी तो विशाखा ने उसे अपने घर चलने का सु?ाव दिया. थोड़ी नानुकर के बाद शैलजा मान गई.

कंवल के घर में शैलजा काफी खुश रही. विशाखा अपनी सहेलियों, शौपिंग और किट्टी पार्टियों में व्यस्त रहती थी. शैलजा का दिल इन सब में नहीं लगा था इसलिए वह कंवल के साथ शहर घूमने चली जाती.

शैलजा का उन्मुक्त व्यवहार, खुशमिजाज स्वभाव, हर विषय पर खुल कर बोलने और सब से बढ़ कर कंवल के साथ रह कर वह कंवल

को काफी हद तक जानने लगी थी. इन्हीं सब बातों की वजह से कंवल उस में वह मित्र तलाशने लगा था जिस की तलाश विशाखा में कभी पूरी नहीं हुई थी.

एक दिन जब विशाखा घर पर नहीं थी तब शैलजा ने दोपहर का भोजन टेबल पर लगा कर कंवल को आवाज दी.

कंवल आया तो शैलजा को देख कर ठगा सा रह गया.

‘‘क्या हुआ जीजाजी ऐसे क्या देख रहे हो?’’ शैलजा ने उसे यों खुद को देखते हुए पूछा.

‘‘अरे शैलजा तुम तो साड़ी में बहुत अच्छी लगती हो. इस साड़ी में तो तुम बिलकुल विशाखा जैसी दिख रही हो.’’

‘‘छोडि़ए जीजाजी, कहां विशाखा दीदी और कहां मैं… आप खाना खाइए.’’

उस दिन तो बात आईगई हो गई पर बातों ही बातों में कंवल ने शैलजा से वादा ले लिया कि जितने भी दिन शैलजा यहां रहेगी साड़ी ही पहनेगी.

एक दिन सुबह की चाय के समय विशाखा ने बताया कि मुकुल और नीना वापस आ चुके हैं और उस ने उन्हें आज रात के खाने पर बुलाया है पर उसे आज कहीं जरूरी काम से जाना है इसलिए खाना बाहर से मंगा लिया जाए.

इस पर शैलजा बोल उठी कि बाहर से खाना मंगवाने की क्या जरूरत है, उसे सारा दिन काम ही क्या है, खाने का सारा इंतजाम वह कर देगी.

शाम होतेहोते मुकुल और नीना आ गए. विशाखा अभी तक घर नहीं आई थी. मुकुल ने गुलाबजामुन खाने की फरमाइश की तो शैलजा सोच में पड़ गई. उस ने तो गाजर का हलवा बनाया था. नैना मुकुल के साथ घर देखने लगी. इसी बीच किसी को पता ही नहीं लगा कि कब शैलजा गुलाबजामुन लेने बाहर चली गई.

तभी विशाखा आ गई. वह सीधी रसोई में खाने का इंतजाम देखने चली गई. रसोई से बाहर आ कर उस ने ऊपर से सभी की सम्मिलित हंसी सुनी तो समझ गई कि मुकुल और नीना आ चुके हैं और सभी लोग ऊपर के कमरे में हैं. उस ने सोचा पहले कपड़े बदल ले फिर सभी से मिलेगी. यह सोच कर वह बैडरूम में कपड़े बदलने चली गई. इतने में कंवल भी बैडरूम में अपना कुछ पुराना अलबम लेने आ गया.

तभी नीना घूमते हुए उस के बैडरूम के आगे से गुजरी तो उस ने देखा कि कमरे का दरवाजा हलका सा खुला है और कंवल ने किसी को बांहों में घेरे के ले रखा है.

विशाखा दीदी तो घर में है नहीं फिर यह कौन है… अरे… यह तो शैलजा है, उसी ने तो पीली साड़ी पहन रखी है. छि: शैलजा और जीजाजी को तो किसी बात की शर्म ही नहीं है. यह देख और सोच कर नैना का दिल बिलकुल उचाट हो गया.

उस ने मुकुल से कहा कि उस की तबीयत बहुत खराब हो रही है और वह अभी इसी वक्त घर पर जाना चाहती है. मुकुल ने कहा यदि वह ऐसे बिना खाना खाए चले गए तो सभी को बहुत बुरा लगेगा. बेहतर होगा कि वह बाथरूम जा कर हाथमुंह धो ले तो कुछ अच्छा महसूस करेगी.

नीना बेमन से हाथमुंह धोने चली गई. बाहर आई तो उसे सभी दिखाई दिए. उस दिन नीना खाने में कोई स्वाद न महसूस कर सकी.

अगले ही दिन मुकुल के मातापिता और चाचाचाची वापस आ गए. चाचाचाची वापस जाने का कार्यक्रम बनाया तो नीना बोली, ‘‘सही है चाचीजी, वैसे भी जवान लड़की का ज्यादा दिन किसी के घर रहना ठीक नहीं है.’’

चाची अवाक सी हो नीना का मुंह देखने लगी, नीना उठ कर जाने लगी तो उन्होंने उस का हाथ पकड़ कर बैठा लिया और जो उस ने कहा था उस का मतलब जानने की इच्छा जताई.

नीना ने पिछली रात की सारी घटना उन्हें बता दी. चाची सुन कर हैरान हो गईं. कंवल का स्थान उन की नजरों में बहुत ऊंचा था. उन्होंने फौरन शैलजा को वापस आने के लिए फोन कर दिया.

उधर शैलजा अपनी मां की आवाज सुन कर बहुत खुश हुई और जाने की तैयार करने लगी. कंवल उसे छोड़ने जाने के लिए तैयार होता उस से पहले शैलजा ने बताया कि मां ने कहा है कि मुकुल लेने आ रहा है वह छुट्टी न करे और औफिस जाए.

शैलजा को जाने की तैयारी करते देख कर कंवल का मन अचानक भारी हो उठा. शैलजा ने भी कंवल का चेहरा देखा तो उस की आंखें भर आईं. उस ने माहौल को हलका करने के लिए कंवल से कहा, ‘‘चलिए जीजाजी, अब न जाने कब मुलाकात हो इसलिए जाने से पहले वह गाना सुना दीजिए.’’

कंवल की आवाज अच्छी थी, ‘‘मेरे महबूब कयामत होगी…’’

शैलजा का पसंदीदा गाना था और यह गाना वह कंवल से अकसर सुना करती थी.

1 हफ्ते बाद जो हुआ उस पर किसी को भी सहसा विश्वास न हुआ. शैलजा ने आत्महत्या कर ली थी. मरने से पहले वह कंवल के नाम की चिट्ठी छोड़ गई थी जो विशाखा को उस की मृत्यु के बाद उस की अलमारी में मिली थी.

विशाखा ने चिट्ठी पढ़ी तो हैरान रह गई. उस ने कंवल को भी वह चिट्ठी पढ़वाई. चिट्ठी में लिखा था-

‘‘आदरणीय जीजाजी,

‘‘बहुत सोचने पर भी मुझे आप के और मेरे बीच कोई ऐसा संबंध दिखाई नहीं दिया जिस पर मुझे शर्म आए पर न जाने किस ने मेरे मातापिता को आप के और मेरे नाजायज संबंध की झूठी बात बताई है. मैं ने अपने मातापिता को समझने की बहुत कोशिश की परंतु उन्होंने मेरी किसी बात पर विश्वास नहीं किया. मेरे पिताजी ने मुझ से कहा है कि क्या मेरा पालनपोषण उन्होंने इसलिए किया था कि बड़ी हो कर मैं उन के नाम पर कलंक लगाऊं? क्या मैं ने आप से संबंध बनाते वक्त विशाखा दीदी का भी खयाल नहीं किया? जीजाजी आप जानते हैं कि आप के और मेरे संबंध पवित्र हैं फिर यह मुझ किस बात की सजा दी जा रही है… इस ग्लानि के साथ जीना मेरे बस में नहीं है. यदि मुझ से कोई गलती हुई हो तो मैं विशाखा दीदी और आप से माफी मांगती हूं.

शैलजा.’’

चिट्ठी पढ़ कर का कंवल और विशाखा ने शैलजा के मातापिता से बात करने का विचार किया.

शैलजा की मां ने स्पष्ट शब्दों में नीना का नाम लिया और कहा कि उस ने खुद कंवल और शैलजा को आपत्तिजनक अवस्था में देखा था.

‘‘कैसी बात कर रही हो नीना? तुम कंवल पर झूठा इलजाम लगा रही हो. उस दिन कंवल के साथ बैडरूम में मैं थी न कि शैलजा,’’ विशाखा गुस्से में बोली.

‘‘नहीं दीदी, आप तो घर पर ही नहीं थीं और फिर शैलजा ने उस दिन पीली साड़ी पहनी हुई थी और मैं ने उसी को जीजाजी के साथ देखा था,’’ नीना अपनी बात पर अडिग थी.

तब विशाखा सारी बात समझ गई. उस ने नीना को बताया कि वह घर आ चुकी थी और

सब से मिले बिना ही कपड़े बदलने चली गई इसलिए नीना को लगा कि विशाखा घर पर नहीं है और उस दिन विशाखा घर से पीली साड़ी पहन कर ही गई थी और उसे ही बदलने के लिए वह बैडरूम में गई थी. उस वक्त शैलजा घर पर ही नहीं थी, वह तो मुकुल के लिए मिठाई लेने बाहर गई हुई थी.

नीना जैसे अर्श से फर्श पर गिरी हो. वह कंवल के पैरों में गिर पड़ी, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए जीजाजी, यह अनजाने में मुझ से कैसी गलती हो गई जिस का पश्चात्ताप तो मैं अब मर कर भी नहीं कर सकती.’’

कंवल ने उसे पैरों से उठाया. उसे कुछ कहने के लिए कंवल के पास शब्द नहीं थे.

शाम का धुंधलका छाने लगा था. कंवल वापस घर आ गया था पर शैलजा की मौत से ले कर आज तक यही सोचता आया कि उस की मौत का गुनहगार कौन है. क्या नीना, जिस की सिर्फ एक गलतफहमी ने उस के और शैलजा के रिश्ते को अपवित्र किया या फिर शैलजा के मातापिता, जिन्हें अपनी परवरिश पर विश्वास नहीं था या फिर विशाखा, जिस ने सदा कंवल को अपनी मनमरजी से चलाना चाहा जिस के सान्निध्य में कंवल कभी संतुष्ट नहीं हो सका या फिर शैलजा जिस ने बात की गहराई में जाए बिना भावनाओं में बह कर अपना जीवन समाप्त करने का फैसला किया या फिर कंवल खुद जिस ने अपनी खुशी के लिए शैलजा से साड़ी पहनने का वादा लिया था? आखिर कौन था असली गुनहगार?

वक्त का पहिया: सेजल को अपनी सोच क्यों छोटी लगने लगी?

‘‘आज फिर कालेज में सेजल के साथ थी?’’ मां ने तीखी आवाज में निधि से पूछा.

‘‘ओ हो, मां, एक ही क्लास में तो हैं, बातचीत तो हो ही जाती है, अच्छी लड़की है.’’

‘‘बसबस,’’ मां ने वहीं टोक दिया, ‘‘मैं सब जानती हूं कितनी अच्छी है. कल भी एक लड़का उसे घर छोड़ने आया था, उस की मां भी उस लड़के से हंसहंस के बातें कर रही थी.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ निधि बोली.

‘‘अब तू हमें सिखाएगी सही क्या है?’’ मां गुस्से से बोलीं, ’’घर वालों ने इतनी छूट दे रखी है, एक दिन सिर पकड़ कर रोएंगे.’’

निधि चुपचाप अपने कमरे में चली गई. मां से बहस करने का मतलब था घर में छोटेमोटे तूफान का आना. पिताजी के आने का समय भी हो गया था. निधि ने चुप रहना ही ठीक समझा.

सेजल हमारी कालोनी में रहती है. स्मार्ट और कौन्फिडैंट.

‘‘मुझे तो अच्छी लगती है, पता नहीं मां उस के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं,’’ निधि अपनी छोटी बहन निकिता से धीरेधीरे बात कर रही थी. परीक्षाएं सिर पर थीं. सब पढ़ाई में व्यस्त हो गए. कुछ दिनों के लिए सेजल का टौपिक भी बंद हुआ.

घरवालों द्वारा निधि के लिए लड़के की तलाश भी शुरू हो गई थी पर किसी न किसी वजह से बात बन नहीं पा रही थी. वक्त अपनी गति से चलता रहा, रिजल्ट का दिन भी आ गया. निधि 90 प्रतिशत लाई थी. घर में सब खुश थे. निधि के मातापिता सुबह की सैर करते हुए लोगों से बधाइयां बटोर रहे थे.

‘‘मैं ने कहा था न सेजल का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, सिर्फ 70 प्रतिशत लाई है,’’ निधि की मां निधि के पापा को बता रही थीं. निधि के मन में आया कि कह दे ‘मां, 70 प्रतिशत भी अच्छे नंबर हैं’ पर फिर कुछ सोच कर चुप रही.

सेजल और निधि ने एक ही कालेज में एमए में दाखिला ले लिया और दोनों एक बार फिर साथ हो गईं. एक दिन निधि के पिता आलोकनाथ बोले, ‘‘बेटी का फाइनल हो जाए फिर इस की शादी करवा देंगे.’’

‘‘हां, क्यों नहीं, पर सोचनेभर से कुछ न होगा,’’ मां बोलीं.

‘‘कोशिश तो कर ही रहा हूं. अच्छे लड़कों को तो दहेज भी अच्छा चाहिए. कितने भी कानून बन जाएं पर यह दहेज का रिवाज कभी नहीं बदलेगा.’’

निधि फाइनल ईयर में आ गई थी. अब उस के मातापिता को चिंता होने लगी थी कि इस साल निकिता भी बीए में आ जाएगी और अब तो दोनों बराबर की लगने लगी हैं. इस सोचविचार के बीच ही दरवाजे की घंटी घनघना उठी.

दरवाजा खोला तो सामने सेजल की मां खड़ी थीं, बेटी के विवाह का निमंत्रण पत्र ले कर.

निधि की मां ने अनमने ढंग से बधाई दी और घर के भीतर आने को कहा, लेकिन जरा जल्दी में हूं कह कर वे बाहर से ही चली गईं. कार्ड ले कर निधि की मां अंदर आईं और पति को कार्ड दिखाते हुए बोलीं, ‘‘मैं तो कहती ही थी, लड़की के रंगढंग ठीक नहीं, पहले से ही लड़के के साथ घूमतीफिरती थी. लड़का भी घर आताजाता था.’’

‘‘कौन लड़का?’’ निधि के पिता ने पूछा.

‘‘अरे, वही रेहान, उसी से तो हो रही है शादी.’’

निधि भी कालेज से आ गई थी. बोली, ‘‘अच्छा है मां, जोड़ी खूब जंचेगी.’’ मां भुनभुनाती हुई रसोई की तरफ चल पड़ीं.

सेजल का विवाह हो गया. निधि ने आगे पढ़ाई जारी रखी. अब तो निकिता भी कालेज में आ गई थी. ‘निधि के पापा कुछ सोचिए,’ पत्नी आएदिन आलोकनाथजी को उलाहना देतीं.

‘‘चिंता मत करो निधि की मां, कल ही दीनानाथजी से बात हुई है. एक अच्छे घर का रिश्ता बता रहे हैं, आज ही उन से बात करता हूं.’’

लड़के वालों से मिल के उन के आने का दिन तय हुआ. निधि के मातापिता आज खुश नजर आ रहे थे. मेहमानों के स्वागत की तैयारियां चल रही थीं. दीनानाथजी ठीक समय पर लड़के और उस के मातापिता को ले कर पहुंच गए. दोनों परिवारों में अच्छे से बातचीत हुई, उन की कोई डिमांड भी नहीं थी. लड़का भी स्मार्ट था, सब खुश थे. जाते हुए लड़के की मां कहने लगीं, ‘‘हम घर जा कर आपस में विचारविमर्श कर फिर आप को बताते हैं.’’

‘‘ठीक है जी,’’ निधि के मातापिता ने हाथ जोड़ कर कहा. शाम से ही फोन का इंतजार होने लगा. रात करीब 8 बजे फोन की घंटी बजी. आलोकनाथजी ने लपक कर फोन उठाया. उधर से आवाज आई, ‘‘नमस्तेजी, आप की बेटी अच्छी है और समझदार भी लेकिन कौन्फिडैंट नहीं है, हमारा बेटा एक कौन्फिडैंट लड़की चाहता है, इसलिए हम माफी चाहते हैं.’’

आलोकनाथजी के हाथ से फोन का रिसीवर छूट गया.

‘‘क्या कहा जी?’’ पत्नी भागते हुए आईं और इस से पहले कि आलोकनाथजी कुछ बताते दरवाजे की घंटी बज उठी. निधि ने दरवाजा खोला. सामने सेजल की मां हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए खड़ी थीं और बोलीं, ’’मुंह मीठा कीजिए, सेजल के बेटा हुआ है.’’

अब सोचने की बारी निधि के मातापिता की थी. ‘वक्त के साथ हमें भी बदलना चाहिए था शायद.’ दोनों पतिपत्नी एकदूसरे को देखते हुए मन ही मन शायद यही समझा रहे थे. वैसे काफी वक्त हाथ से निकल गया था लेकिन कोशिश तो की जा सकती थी.

मेरा प्यार था वह: प्रेमी को भूल जब मेघा ने की शादी

मुझे ऐसा लगा कि नीरज वहीं उस खिड़की पर खड़ा है. अभी अपना हाथ हिला कर मेरा ध्यान आकर्षित करेगा. तभी पीछे से किसी का स्पर्श पा कर मैं चौंकी.

‘‘मेघा, आप यहां क्या कर रही हैं? सब लोग नाश्ते पर आप का इंतजार कर रहे हैं और जमाईजी की नजरें तो आप ही को ढूंढ़ रही हैं,’’ छेड़ने के अंदाज में भाभी ने कहा.

सब हंसतेबोलते नाश्ते का मजा ले रहे थे, पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. मैं एक ही पूरी को तोड़े जा रही थी.

‘‘अरे मेघा, खा क्यों नहीं रही हो? बहू, मेघा की प्लेट में गरम पूरियां डालो,’’ मां ने भाभी से कहा.

‘‘नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरा नाश्ता हो गया,’’ कह कर मैं उठ गई.

प्रदीप भैया मुझे ही घूर रहे थे. मुझे भी उन पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि आखिर उन्होंने मेरी खुशी क्यों छीन ली? पर वक्त की नजाकत को समझ कर मैं चुप ही रही. मां पापा भी समझ रहे थे कि मेरे मन में क्या चल रहा है. मैं नीरज से बहुत प्यार करती थी. उस के साथ शादी के सपने संजो रही थी. पर सब ने जबरदस्ती मेरी शादी एक ऐसे इनसान से करवा दी, जिसे मैं जानती तक नहीं थी.

‘‘मां, मैं आराम करने जा रही हूं,’’ कह कर मैं जाने ही लगी तो मां ने कहा, ‘‘मेघा, तुम ने तो कुछ खाया ही नहीं… जूस पी लो.’’

‘‘मुझे भूख नहीं है,’’ मैं ने मां से रुखे स्वर में कहा.

‘‘मेघा, ससुराल में सब का व्यवहार कैसा है और तुम्हारा पति सार्थक, तुम्हें प्यार करता है कि नहीं?’’ मां ने पूछा.

‘‘सब ठीक है मां,’’ मन हुआ कि कह दूं कि आप लोगों से तो सब अच्छे ही हैं. फिर मां कहने लगी, ‘‘सब का मन जीत लेना बेटा, अब वही तुम्हारा घर है.’’

‘‘मांबेटी में क्या बातें हो रही हैं?’’ तभी मेरे पति सार्थक ने कमरे में आते ही कहा.

‘‘मैं इसे समझा रही थी कि अब वही तुम्हारा घर है. सब की बात मानना और प्यार

से रहना.’’

‘‘मां, आप की बेटी बहुत समझदार है. थोड़े ही दिनों में मेघा ने सब का मन जीत लिया,’’ सार्थक ने मेरी तरफ देखते हुए कहा.

मेरी शादी को अभी 3 ही महीने हुए थे, मैं शादी के बाद पहली बार मां के घर आई

थी. हमारे यहां आने से सब खुश थे, पर मेरी नजर तो अभी भी अपने प्यार को ढूंढ़ रही थी.

सार्थक ने रात में कमरे में आ कर कहा, ‘‘मेघा क्या हुआ? अगर कोई बात है तो मुझे बताओ. जब से यहां आई हो, बहुत उदास लग रही हो.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है,’’ मैं ने अनमने ढंग से जवाब दिया. सार्थक मुझे एकदम पसंद नहीं. मेरे लिए यह जबरदस्ती और मजबूरी का रिश्ता है, जिसे मैं पलभर में तोड़ देना चाहती हूं पर ऐसा कर नहीं सकती हूं.

‘‘अच्छा ठीक है,’’ सार्थक ने बड़े प्यार से कहा.

‘‘आज मेरे सिर में दर्द है,’’ मैं ने अपना मुंह फेर कर कहा.

रात करीब 3 बजे मेरी नींद खुल गई. सोने की कोशिश की, पर नींद नहीं आ रही थी. फिर पुरानी यादें सामने आने लगीं…

हमारे घर में सब से पहले मैं ही उठती थी. मेरे पापा सुबह 6 बजे ही औफिस के लिए निकल जाते थे. मैं ही उन के लिए चायनाश्ता बनाती थी. बाकी सब बाद में उठते थे.

मेरे पापा रेलवे में कर्मचारी थे, इसलिए हम शुरू से ही रेलवे क्वार्टर में रहे. रेलवे क्वार्टर्स के घर भले ही छोटे होते थे, पर आगे पीछे इतनी जमीन होती थी कि एक अच्छा सा लौन बनाया जा सकता था. हम ने भी लौन बना कर बहुत सारे फूलों के पौधे लगा रखे थे, शाम को हम सब कुरसियां लगा कर वहीं बैठते थे.

मेरे घर के सामने ही मेरी दोस्त नम्रता का घर था, उस के पापा भी रेलवे में एक छोटी पोस्ट पर काम करते थे. मैं और नम्रता एक ही स्कूल और एक ही क्लास में पढ़ती थीं. हम दोनों पक्की सहेलियां थीं. बेझिझक एकदूसरे के घर आतीजाती रहती थीं. एक रोज मैं और नम्रता बाहर खड़ी हो कर बातें कर रही थीं, तभी मेरी नजर उस के घर की खिड़की पर पड़ी तो देखा कि नीरज यानी नम्रता का बड़ा भाई मुझे एकटक देख रहा है. मुझे थोड़ा अजीब लगा. नीरज भी सकपका गया. मैं अपने घर के अंदर चली गई, पर बारबार मेरे दिमाग में उलझन हो रही थी कि आखिर वह मुझे ऐसे क्यों देख रहा था.

मैं ने महसूस किया कि वह अकसर मुझे देखता रहता है. नीरज का मुझे देखना मेरे दिल को धड़का जाता था. शायद नीरज मुझे पसंद करने लगा था. धीरेधीरे मुझे भी नीरज से प्यार होने लगा. हमारी आखें चार होने लगीं. उस की आंखों ने मेरी आंखों को बताया कि हमें एकदूसरे से प्यार हो गया है. अब तो हमेशा मैं उस खिड़की के सामने जा कर खड़ी हो जाती थी. नीरज की भूरी आंखें और सुनहरे बाल मुझे पागल कर देते थे. अब हम छिपछिप कर मिलने भी लगे थे.

सुबह मैं फिर उसी खिड़की के पास जा कर बैठ गई. तभी पीछे से किसी का स्पर्श पा

कर मैं हड़बड़ा गई और मेरी सोच पर पूर्णविराम लग गया.

‘‘मेघा, तुम कब से यहां बाहर बैठी हो? चलो अंदर चाय बनाती हूं,’’  मां ने कहा.

‘‘मैं यहीं ठीक हूं मां, आप जाओ, मैं थोड़ी देर में आती हूं.’’

मां ने मुझे शंका भरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘तुम अभी तक उस लफंगे को नहीं भूली हो? अरे, सब कुछ एक बुरा सपना समझ कर क्यों नहीं भूल जाती हो? उसी में सब की भलाई है. बेटा, अब तुम्हारी शादी हो चुकी है, अपनी घरगृहस्थी संभालो. अपने पति को प्यार करो. इतना अच्छा जीवनसाथी और ससुराल मिली है. एक लड़की को और क्या चाहिए?’’

मां की बातों से मुझे रोना आ गया. मेरी गलती क्या थी? यही न कि मैं ने प्यार किया और प्यार करना कोई गुनाह तो नहीं है? अपने पति से कैसे प्यार करूं. जब मुझे उन से प्यार ही नहीं है?

‘‘अब क्यों रो रही हो? अगर तेरी करतूतों के बारे में जमाई राजा को पता चल गया, तो क्या होगा? अरे बेवकूफ लड़की, क्यों अपना सुखी संसार बरबाद करने पर तुली हो,’’ मां ने गुस्से में कहा.

‘‘कौन क्या बरबाद कर देगा मांजी?’’ सार्थक ने पूछा? जैसे उन्होंने हमारी सारी बातें सुन ली हों.

मां हड़बड़ा कर कहने लगी, ‘‘कुछ नहीं जमाईजी, मैं तो मेघा को यह समझाने की कोशिश कर रही थी कि अब पिछली बातें भूल जाओ… यह अपनी सब सहेलियों को याद कर के रो रही हैं.’’

‘‘ऐसे कैसे भूल जाएगी अपनी सहेलियों को… स्कूलकालेज अपने दोस्तों के साथ बिताया वह पल ही तो हम कभी भी याद कर के मुसकरा लेते हैं,’’ सार्थक ने कहा, ‘‘मेघा, दुनिया अब बहुत ही छोटी हो गई है. हम इंटरनैट के जरीए कभी भी, किसी से भी जुड़ सकते हैं.’’

हम मां के घर 3-4 दिन रह कर अपने घर रांची चल दिए. पटना से रांची करीब 1

दिन का रास्ता है. सार्थक तो सो गए पर ट्रेन की आवाज से मुझे नींद नहीं आ रही थी. मैं फिर वही सब सोचने लगी कि कैसे मेरे परिवार वालों ने हमारे प्यार को पनपने नहीं दिया.

प्रदीप भैया को कैसे भूल सकती हूं. उन की वजह से ही मेरा प्यार अधूरा रह गया था. मेरी आंखों के सामने ही उन्होंने नीरज को कितना मारा था. अगर तब नीरज की मां आ कर प्रदीप भैया के पैर न पकड़ती, तो शायद वे नीरज को मार ही डालते. उस दिन के बाद हम दोनों कभी एकदूसरे से नहीं मिले.

भैया ने तो यहां तक कह दिया था नीरज को कि आइंदा कभी यहां नजर आया या  मेरी बहन को नजर उठा कर भी देखने की कोशिश की, तो मार कर ऐसी जगह फेंकूंगा कि कोई ढूंढ़ नहीं पाएगा.

प्रदीप भैया की धमकी से डर कर नीरज और उस के परिवार वाले यहां से कहीं और

चले गए.

नम्रता को हमारे प्यार के बारे में सब पता था. एक दिन नम्रता मेरी मां से यह कह कर मुझे अपने घर ले गई कि हम साथ बैठ कर पढ़ाई करेंगी. हमारी 12वीं कक्षा की परीक्षा अगले महीने शुरू होने वाली थी. अत: मां ने हां कर दी. अब तो हमारा मिलना रोज होने लगा.

एक रोज जब मैं नम्रता के घर गई तो कोई नहीं दिखा सिर्फ नीरज था. उस ने बताया कि नम्रता और मां बाहर गई हैं. मैं वापस अपने घर आने लगी तभी नीरज ने मेरा हाथ अपनी ओर खींचा.

‘‘नीरज, छोड़ो मेरा हाथ कोई देख लेगा,’’ मैं ने नीरज से कहा.

‘‘कोई नहीं देखेगा, क्योंकि घर में मेरे अलावा कोई है ही नहीं,’’ उस ने शरारत भरी नजरों से देखते हुए कहा. उस की नजदीकियां देख कर मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. मैं अपनेआप को नीरज से छुड़ाने की कोशिश कर भी रही थी और नहीं भी. मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं. तभी उस ने मेरे अधरों पर अपना होंठ रख दिया.

‘‘नीरज, यह क्या किया तुम ने? यह तो गलत है.’’

‘‘इस में गलत क्या है? हम एकदूसरे से प्यार करते हैं,’’ कह कर उस ने मेरे गालों को

चूम लिया.

किसी को हमारे प्यार के बारे में अब तक कुछ भी पता नहीं था, सिर्फ नम्रता को छोड़ कर सुनहरे सपनों की तरह हमारे दिन बीत रहे थे. हमारे प्यार को 3 साल हो गए.

नीरज की भी नौकरी लग गई, और मेरी भी स्नातक की पढ़ाई पूरी हो गई. अब तो हम अपनी शादी के सपने भी संजोने लगे.

मैं ने नीरज को अपने मन का डर बताते हुए कहा, ‘‘नीरज, अगर हमारे घर वाले हमारे शादी नहीं होने देंगे तो?’’

‘‘तो हम भाग कर शादी कर लेंगे और अगर वह भी न कर पाए तो साथ मर सकते हैं न? बोलो दोगी मेरा साथ?’’

‘‘हां नीरज, मैं अब तुम्हारे बिना एक दिन भी नहीं सकती हूं,’’ मैं ने उस के कंधे पर अपना सिर रखते हुए कहा.

हमें पता ही नहीं चला कि कब प्रदीप भैया ने हमें एकदूसरे के साथ देख लिया था.

मेरे और नीरज के रिश्ते को ले कर घर में बहुत हंगामा हुआ. मुझे भैया से बहुत मार भी पड़ी. अगर भाभी बीच में न आतीं, तो शायद मुझे मार ही डालते. उस वक्त मांपापा ने भी मेरा साथ नहीं दिया था.

जल्दीजल्दी में मेरी शादी तय कर दी गई. इन जालिमों की वजह से मेरा प्यार अधूरा रह गया. कभी माफ नहीं करूंगी इन प्यार के दुश्मनों को.

‘‘हैलो मैडम, जरा जगह दो… मुझे भी बैठना है,’’ किसी अनजान आदमी ने मुझे छूते हुए कहा, तो मैं चौंक उठी.

मैं ने कहा, ‘‘यह तो आरक्षित सीट है.’’ तभी 2 लोग और आ गए और मेरे साथ बदतमीजी करने लगे. मैं चिल्लाई, ‘‘सार्थक.’’

सार्थक हड़बड़ा कर उठ गए. जब उन्होंने देखा कि कुछ लड़के मेरे साथ छेड़खानी करने लगे हैं, तो वे सब पर टूट पड़े. रात थी, इसलिए सारे पैसेंजर सोए हुए थे. मैं तो डर गई कि कहीं चाकूवाकू न चला दें.

अत: मैं जोरजोर से रोने लगी. तब तक डिब्बे की लाइट जल गई और पैसेंजर उन बदमाशों को पकड़ कर मारने लगे. कुछ ही देर में पुलिस भी आ गई.

‘‘मेघा, तुम ठीक हो न, तुम्हें कहीं लगी तो नहीं?’’ सार्थक ने मुझे अपने सीने से लगा लिया. उन के सीने से लगते ही लगा जैसे मैं ठहर गई. अब तक तो बेवजह भावनाओं में बहे जा रही थी, जिन की कोई मंजिल ही न थी.

‘‘मैं ठीक हूं, मैं ने कहा.’’ सार्थक के हाथ से खून निकल रहा था, फिर भी उन्हें मेरी ही चिंता थी.

तभी किसी पैसेंजर ने कहा, ‘‘आप चिंता न करें भाई साहब इन्हें कुछ नहीं हुआ है. पर थोड़ा डर गई हैं. खून तो आप के हाथ से निकल रहा है.’’

तभी किसी ने आ कर सार्थक के हाथों पर पट्टी बांध दी. तब जा कर खून का बहना रुका.

मैं यह क्या कर रही थी? इतने अच्छे इनसान के साथ इतनी बेरुखी. सार्थक को अपने से ज्यादा मेरी चिंता हो रही थी… मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हूं?

अब सार्थक ही मेरी दुनिया है, मेरे लिए सब कुछ है. नीरज तो मेरा प्यार था. सार्थक तो मेरा जीवनसाथी है.

दिल की आवाज: क्या थी अविनाश के कंपनी की शर्तें

आज सुबह से ही अविनाश बेहद व्यस्त था. कभी ईमेल पर, कभी फोन पर, तो कभी फेसबुक पर.

‘‘अवि, नाश्ता ठंडा हो रहा है. कब से लगा कर रखा है. क्या कर रहे हो सुबह से?’’

‘‘कमिंग मम्मा, जस्ट गिव मी फाइव मिनट्स,’’ अविनाश अपने कमरे से ही चिल्लाया.

‘‘इतने बिजी तो तुम तब भी नहीं थे जब सीए की तैयारी कर रहे थे. हफ्ता हो गया है सीए कंप्लीट हुए, पर तब से तो तुम्हारे दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं या तो नैट से चिपके रहते हो या यारदोस्तों से, अपने मांबाप के लिए तो तुम्हारे पास समय ही नहीं बचा है,’’ अनुराधा लगातार बड़बड़ किए जा रही थी. उस की बड़बड़ तब बंद हुई जब अविनाश ने पीछे से आ कर उस के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘कैसी बात कर रही हो मम्मा, तुम्हारे लिए तो टाइम ही टाइम है. चलो, आज तुम्हें कहीं घुमा लाऊं,’’ अविनाश ने मस्ती की.

‘‘रहने दे, रहने दे. घुमाना अपनी गर्लफ्रैंड को, मुझे घुमाने को तो तेरे पापा ही बहुत हैं, देख न कब से घुमा रहे हैं. अब मेरे साथ 2-3 दिन के लिए भैया के पास चलेंगे. वे लोग कब से बुला रहे हैं, कह रहे थे पिताजी क्या गए कि तुम लोग तो हमें बिलकुल ही भूल बैठे हो. आनाजाना भी बिलकुल बंद कर दिया,’’ अनुराधा ने नाश्ता परोसते हुए शिकायती लहजे में कहा. उसे अच्छे से पता था कि पीछे खड़े पतिदेव मनोज सब सुन रहे हैं.

‘‘बेटे से क्या शिकायतें हो रही हैं मेरी. कहा तो है दिसंबर में जरूर वक्त निकाल लूंगा, मगर तुम्हें तो मेरी किसी बात का भरोसा ही नहीं होता,’’ मनोज मुंह में टोस्ट डालते हुए बोले. टोस्ट के साथ उन के वाक्य के आखिरी शब्द भी पिस गए.

‘‘तो अब आगे क्या प्लान है अवि?’’ डायनिंग टेबल पर मनोज ने अविनाश से पूछा.

‘‘इस के प्लान पूछने हों तो इसे ट्विट करो. यह अपने दोस्तों के संग न जाने क्याक्या खिचड़ी पकाता रहता है. हमें यों कहां कुछ बताएगा.’’ अनुराधा का व्यंग्य सुन कर अविनाश झल्ला गया. उसे झल्लाया देख मनोज ने बात संभाली.

‘‘तुम चुप भी करो जी, जब देखो, मेरे बेटे के पीछे पड़ी रहती हो. कितना होनहार बेटा है हमारा,’’ मनोज ने मस्का मारा तो अविनाश के चेहरे पर मुसकान दौड़ आई.

‘‘हां, तो बेटा मैं पूछ रहा था कि आगे क्या करोगे?’’

‘‘वो पापा… सीए कंप्लीट होने के बाद दोस्त लोग कब से पार्टी के लिए पीछे पड़े हैं, सोच रहा हूं आज उन्हें पार्टी…’’ अविनाश की सवालिया नजरें मनोज से पार्टी के लिए फंड की रिक्वैस्ट कर रही थीं. अविनाश की शौर्टटर्म फ्यूचर प्लानिंग सुन मनोज ने अपना सिर पीट लिया.

‘‘मेरा मतलब है आगे… पार्टी, मौजमस्ती से आगे… कुछ सोचा है… नौकरी के बारे में,’’ मनोज ने जोर दे कर पूछा.

‘‘अ…हां…सौरी…वो… पापा दरअसल… एक कंसलटेंसी फर्म में अप्लाई किया है.

2-3 दिन में इंटरव्यू के लिए काल करेंगे. होपफुली काम बन जाएगा.’’

‘‘गुड.’’

‘‘पापा, वह पार्टी…’’

‘‘ठीक है, प्लान बना लो.’’

‘‘प्लान क्या करना पापा… सब फिक्स्ड है,’’ अविनाश ने खुशी से उछलते हुए कहा तो अनुराधा और मनोज एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

24 साल का स्मार्ट, चुलबुला अविनाश पढ़ाई में जितना तेज था शरारतों में भी उतना ही उस्ताद था. उस के दोस्तों का बड़ा ग्रुप था, जिस की वह जान था. अपने मातापिता की आंखों का इकलौता तारा जिसे उन्होंने बेहद लाडप्यार से पाला था. वह अपने भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियां बखूबी समझता था इसलिए अनुराधा और मनोज उस की मौजमस्ती में बेवजह रोकटोक नहीं करते थे. उस के 2 ही शौक थे, दोस्तों के साथ मौजमस्ती करना और तेज रफ्तार बाइक चलाना. कभीकभी तो वह बाइक पर स्टंट दिखा कर लड़कियों को प्रभावित करने की कोशिश भी करता था.

आज अविनाश के लिए बहुत बड़ा दिन था. उस ने एक प्रतिष्ठित एकाउंटेंसी फर्म में इंटरव्यू क्लीयर कर लिया था. कैरियर की शुरुआत के लिए यह उस की ड्रीम जौब थी. स्वागत कक्ष में बैठे अविनाश को अब एचआर की काल का इंतजार था.

‘‘मि. अविनाश, प्लीज एचआर राउंड के लिए जाइए.’’ काल आ गई थी. एचआर मैनेजर ने अविनाश को उस के जौब प्रोफाइल, सैलरी स्ट्रैक्चर, कंपनी की टर्म और पौलिसी के बारे में समझाया और एक स्पैशल बांड पढ़ने के लिए आगे बढ़ाया, जिसे कंपनी जौइन करने से पहले साइन करना जरूरी था.

‘‘यह कैसा अजीब सा बांड है सर, ऐसा तो किसी भी कंपनी में नहीं होता.’’ बांड पढ़ कर अविनाश सकते में आ गया.

‘‘मगर इस कंपनी में होता है,’’ एचआर मैनेजर ने मुसकराते हुए जवाब दिया. बांड वाकई अजीब था. कंपनी की पौलिसी के अनुसार कंपनी के प्रत्येक कर्मचारी को कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक था. मसलन, अगर कर्मचारी कार चलाता है तो उसे सेफ्टी बैल्ट लगानी अनिवार्य होगी, अगर कर्मचारी टू व्हीलर चलाता है तो उसे हेलमेट पहनना और नियमित स्पीड पर चलना अनिवार्य होगा. जो कर्मचारी इन नियमों का उल्लंघन करता पाया गया उसे न सिर्फ अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, बल्कि जुर्माना भी भरना पड़ेगा.

अविनाश के भीतर उबल रहा गुस्सा उस के चेहरे और माथे की रेखाओं से स्पष्ट दिख रहा था. वह बेचैन हो उठा. यह क्या जबरदस्ती है. अव्वल दरजे की बदतमीजी है. सरासर तानाशाही है. क्यों पहनूं मैं हेलमेट? हेलमेट वे पहनते हैं जिन्हें अपनी ड्राइविंग पर भरोसा नहीं होता, जिन के विचार नकारात्मक होते हैं, जिन्हें सफर शुरू करने से पहले ही दुर्घटना के बारे में सोचने की आदत होती है.

मैं ऐसा नहीं हूं और मेरे बालों का क्या होगा, कितनी मुश्किल से मैं इन्हें सैट कर के रखता हूं, हेलमेट सारी की सारी सैटिंग बिगाड़ कर रख देगा. कितना कूल लगता हूं मैं बाइक राइडिंग करते हुए. हेलमेट तो सारी पर्सनैलिटी का ही कबाड़ा कर देता है और फिर मेरे इंपोर्टेड गौगल्स… उन्हें मैं कैसे पहनूंगा, क्या दिखता हूं मैं उन में.

‘‘कहां खो गए अविनाश साहब… ’’ मैनेजर के टोकने पर अविनाश दिमागी उधेड़बुन से बाहर निकला.

‘‘सर, मैं इस बांड से कनविंस नहीं हूं. ऐसे तो हमारे देश का ट्रैफिक सिस्टम भी हेलमेट पहनने को ऐनफोर्स नहीं करता, जैसे आप की कंपनी कर रही है.’’

‘‘तभी तो हमें करना पड़ रहा है. खैर, यह तो कंपनी के मालिक का निर्णय है, हम कुछ नहीं कर सकते. यह सरकारी कंपनी तो है नहीं, प्राइवेट कंपनी है सो मालिक की तो सुननी ही पड़ेगी. अगर जौब चाहिए तो इस पर साइन करना ही पड़ेगा.’’

अविनाश कुछ नहीं बोला तो उस का बिगड़ा मिजाज देख कर मैनेजर ने उसे फिर कनविंस करने की कोशिश की, ‘‘वैसे आप को इस में क्या समस्या है. यह तो मैं ने भी साइन किया था और यह आप की भलाई के लिए ही है.’’

‘‘मुझे फर्क पड़ता है सर, मैं एक पढ़ालिखा इंसान हूं. अपना बुराभला समझता हूं. भलाई के नाम पर ही सही, आप मुझे किसी चीज के लिए फोर्स नहीं कर सकते.’’

‘‘देखो भई, इस कंपनी में नौकरी करनी है तो बांड साइन करना ही पड़ेगा. आगे तुम्हारी मर्जी,’’ मैनेजर हाथ खड़े करते हुए बोला.

‘‘ठीक है सर, मैं सोच कर जवाब दूंगा,’’ कह कर अविनाश वहां से चला आया, मगर मन ही मन वह निश्चय कर चुका था कि अपनी आजादी की कीमत पर वह यहां नौकरी नहीं करेगा.

‘‘कैसा रहा इंटरव्यू, क्या हुआ,’’ अविनाश का उदास रुख देख कर मनोज ने धीमे से पूछा.

‘‘इंटरव्यू अच्छा हुआ था, एचआर राउंड भी हुआ मगर…’’

‘‘मगर क्या…’’ फिर अविनाश ने पूरी रामकहानी सुना डाली.

‘‘अरे, तो क्या हुआ, तुम्हें बांड साइन करना चाहिए था. इतनी सी बात पर तुम इतनी अच्छी नौकरी नहीं छोड़ सकते.’’

‘‘पर पापा, मुझे नहीं जम रहा. मुझे हेलमेट पहनना बिलकुल पसंद नहीं है और बांड के अनुसार अगर मैं कभी भी बिदआउट हेलमेट टू व्हीलर ड्राइव करता पकड़ा गया तो न सिर्फ मेरी नौकरी जाएगी बल्कि मुझे भारी जुर्माना भी अदा करना पड़ेगा.’’

‘‘देखो, अवि, अब तुम बड़े हो गए, अत: बचपना छोड़ो. तुम्हारी मां और मैं पहले से ही तुम्हारी ड्राइविंग की लापरवाही से काफी परेशान हैं. इस नौकरी को जौइन करने से तुम्हारा कैरियर भी अच्छे से शुरू होगा और हमारी चिंताएं भी मिट जाएंगी,’’ पापा का सख्त सुर सुन कर अविनाश ने बात टालनी ही बेहतर समझी.

‘‘देखूंगा पापा.’’ वह उठ कर अपने कमरे में चला गया, मगर मन ही मन बांड  पर किसी भी कीमत पर साइन न करने की ही बात चल रही थी. विचारों में डूबे अविनाश को फोन की घंटी ने सजग किया.

‘‘हाय अवि, रितेश बोल रहा हूं, कैसा है,’’ उस के दोस्त रितेश का फोन था.

‘‘ठीक हूं, तू सुना क्या चल रहा है.’’

‘‘कल सुबह क्या कर रहा है.’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

‘‘तो सुन, कल नोएडा ऐक्सप्रैस हाईवे पर बाइक रेसिंग रखी है. पूरे ग्रुप को सूचित कर दिया है. तू भी जरूर आना. सुबह 6 बजे पहुंच जाना.’’

‘‘ठीक है.’’

बाइक रेसिंग की बात सुन कर अविनाश का बुझा दिल खिल उठा. यही तो उस का प्रिय शौक था. अकसर जिम जाने का बहाना कर वह और उस के कुछ दोस्त बाइक रेसिंग किया करते थे और अधिकतर वह ही जीतता था. हारने वाले जीतने वाले को मिल कर पार्टी देते, साथ ही कोई न कोई प्राइज आइटम भी रखा जाता. अपना नया टचस्क्रीन मोबाइल उस ने पिछली रेस में ही जीता था.

रात को अविनाश ने ठीकठाक सोचा, मगर रात को उसे बुखार ने जकड़ लिया. वह सुबह चाह कर भी नहीं उठ पाया. फलस्वरूप उस की रेस मिस हो गई. सुबह जब वह देर तक बिस्तर पर निढाल पड़ा रहा तो मनोज ने उसे क्रोसीन की गोली दे कर लिटा दिया. थोड़ी देर बाद जब बुखार कम हुआ तो वह थोड़ा फ्रेश फील कर रहा था, मगर सुबह का प्रोग्राम खराब होने की वजह से उस का मूड ठीक नहीं था.

‘‘अरे अवि, जरा इधर आओ, देखो तो अपने शहर की न्यूज आ रही है,’’ ड्राइंगरूम से पापा की तेज आवाज आई तो वह उठ कर ड्राइंगरूम में गया.

टीवी पर बारबार ब्रैकिंग न्यूज प्रसारित हो रही थी. आज सुबह नोएडा ऐक्सप्रैस हाईवे पर बाइक रेसिंग करते हुए कुछ नवयुवकों की एक ट्रक से भीषण टक्कर हो गई. उन में से 2 ने मौके पर ही दम तोड़ दिया तथा 3 गंभीर रूप से घायल हैं. उन की हालत भी नाजुक बताई जा रही थी. घटना की वजह बाइक सवारों की तेज रफ्तार और हेलमेट न पहनना बताई जा रही थी. टीवी पर नीचे नवयुवकों के नाम प्रसारित हो रहे थे. अनिल, रितेश, सुधांशु, एकएक नाम अविनाश के दिलोदिमाग पर गाज बन कर गिर रहा था. ये सब उसी के दोस्त थे. आज उसे अगर बुखार न आया होता तो इस लिस्ट में उस का नाम भी जुड़ा होता. अविनाश जड़ बना टीवी स्क्रीन ताक रहा था.

दिमाग कुछ सोचनेसमझने के दायरे से बाहर जा चुका था. मनोज आजकल की पीढ़ी के लापरवाह रवैए को कोस रहे थे. मां दुर्घटना के शिकार युवकों के मातापिता के हाल की दुहाई दे रही थी और अविनाश… वह तो जैसे शून्य में खोया था. उसे तो जैसे आज  एक नई जिंदगी मिली थी.

‘‘अवि, तुम बांड साइन कर कब से नौकरी जौइन कर रहे हो,’’ मनोज ने अविनाश की तरफ घूरते हुए सख्ती से पूछा.

‘‘जी पापा, आज जाऊंगा,’’ नजरें नीची कर अविनाश अपने कमरे में चला गया. आवाज उस की स्वीकृति में जबरदस्ती नहीं, बल्कि उस के अपने दिल की आवाज थी.

 

ओए पुत्तर: सरदारजी की जिंदगी में किस चीज की थी कमी?

सुबह के 10 बजे अपनी पूरी यूनिट के साथ राउंड के लिए वार्ड में था. वार्ड ठसाठस भरा था, जूनियर डाक्टर हिस्ट्री सुनाते जा रहे थे, मैं जल्दीजल्दी कुछ मुख्य बिंदुओं का मुआयना कर इलाज, जांचें बताता जा रहा था. अगले मरीज के पास पहुंच कर जूनियर डाक्टर ने बोलना शुरू किया, ‘‘सर, ही इज 65 इयर ओल्ड मैन, अ नोन केस औफ लेफ्ट साइडेड हेमिप्लेजिया.’’

तभी बगल वाले बैड पर लेटा एक वृद्ध मरीज (सरदारजी) बोल पड़ा, ‘‘ओए पुत्तर, तू मुझे भूल गया क्या?’’

बड़ा बुरा लगा मुझे. न जाने यह कौन है. नमस्कार वगैरह करने के बजाय, मुझ जैसे सीनियर व मशहूर चिकित्सक को पुत्तर कह कर पुकार रहा है. मेरे चेहरे के बदलते भाव देख कर जूनियर डाक्टर भी चुप हो गया था.

‘‘डोंट लुक एट मी लाइक ए फूल, यू कंटीन्यू विद योअर हिस्ट्री,’’ उस मरीज पर एक सरसरी निगाह डालते हुए मैं जूनियर डाक्टर से बोला.

‘‘क्या बात है बेटे, तुम भी बदल गए. तुम हो यहां, यह सोच कर मैं इस अस्पताल में आया और…’’

मुझे उस का बारबार ‘तुम’ कह कर बुलाना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. मेरे कान ‘आप’, ‘सर’, ‘ग्रेट’ सुनने के इतने आदी हो गए थे कि कोई इस अस्पताल में मुझे ‘तुम’ कह कर संबोधित करेगा यह मेरी कल्पना के बाहर था. वह भी भरे वार्ड में और लेटेलेटे. चलो मान लिया कि इसे लकवा है, एकदम बैठ नहीं सकता है लेकिन बैठने का उपक्रम तो कर सकता है. शहर ही क्या, आसपास के प्रदेशों से लोग आते हैं, चारचार दिन शहर में पड़े रहते हैं कि मैं एक बार उन से बात कर लूं, देख लूं.

मैं अस्पताल में जहां से गुजरता हूं, लोग गलियारे की दीवारों से चिपक कर खड़े हो जाते हैं मुझे रास्ता देने के लिए. बाजार में किसी दुकान में जाऊं तो दुकान वाला अपने को धन्य समझता है, और यह बुड्ढा…मेरे दांत भिंच रहे थे. मैं बहुत मुश्किल से अपने जज्बातों पर काबू रखने की कोशिश कर रहा था. कौन है यह बंदा?

न जाने आगे क्याक्या बोलने लगे, यह सोच कर मैं ने अपने जूनियर डाक्टर से कहा, ‘‘इसे साइड रूम में लाओ.’’

साइड रूम, वार्ड का वह कमरा था जहां मैं मैडिकल छात्रों की क्लीनिकल क्लास लेता हूं. मैं एक कुरसी पर बैठ गया. मेरे जूनियर्स मेरे पीछे खड़े हो गए. व्हीलचेयर पर बैठा कर उसे कमरे में लाया गया. उस की आंखें मुझ से मिलीं. इस बार वह कुछ नहीं बोला. उस ने अपनी आंखें फेर लीं लेकिन इस के पहले ही मैं उस की आंखें पढ़ चुका था. उन में डर था कि अगर कुछ गड़बड़ की तो मैं उसे देखे बगैर ही न चला जाऊं. मेरे मन की तपिश कुछ ठंडी हुई.

सामने वाले की आंखें आप के सामने आने से डर से फैल जाती हैं तो आप को अपनी फैलती सत्ता का एहसास होता है. आप के बड़े होने का, शक्तिमान होने का सब से बड़ा सबूत होता है आप को देख सामने वाले की आंखों में आने वाला डर. इस ने मेरी सत्ता स्वीकार कर ली. यह देख मेरे तेवर कुछ नरम पड़े होंगे शायद.

तभी तो उस ने फिर आंखें उठाईं, मेरी ओर एक दृष्टि डाली, एक विचित्र सी शून्यता थी उस में, मानो वह मुझे नहीं मुझ से परे कहीं देख रही हो और अचानक मैं उसे पहचान गया. वे तो मेरे एक सीनियर के पिता थे. लेकिन ऐसा कैसे हो गया? इतने सक्षम होते हुए भी यहां इस अस्पताल के जनरल वार्ड में.

आज से 15 वर्ष पूर्व जब मैं इस शहर में आया था तो मेरे इस मित्र के परिवार ने मेरी बहुत सहायता की. यों कहें कि इन्होंने ही मेरे नाम का ढिंढोरा पीटपीट कर मेरी प्रैक्टिस शहर में जमाई थी. उस दौरान कई बार मैं इन के बंगले पर भी गया. बीतते समय के साथ मिलनाजुलना कम हो गया, लेकिन इन के पुत्र से, मेरे सीनियर से तो मुलाकात होती रहती है. उन की प्रैक्टिस तो बढि़या चल रही थी. फिर ये यहां इस फटेहाल में जनरल वार्ड में, अचानक मेरे अंदर कुछ भरभरा कर टूट गया. मैं बोला, ‘‘पापाजी, आप?’’

‘‘आहो.’’

‘‘माफ करना, मैं आप को पहचान नहीं पाया था.’’

‘‘ओए, कोई गल नहीं पुत्तर.’’

‘‘यह कब हुआ, पापाजी?’’ उन के लकवाग्रस्त अंग को इंगित करते हुए मैं बोला.

‘‘सर…’’ मेरा जूनियर मुझे उन की हिस्ट्री सुनाने लगा. मैं ने उसे रोका और पापाजी की ओर इशारा कर के फिर पूछा, ‘‘यह कब हुआ, पापाजी?’’

‘‘3 साल हो गए, पुत्तर.’’

‘‘आप ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘कहा तो मैं ने कई बार, लेकिन कोई मुझे लाया ही नहीं. अब मैं आजाद हो गया तो खुद तुझे ढूंढ़ता हुआ आ गया यहां.’’

‘‘आजाद हो गया का क्या मतलब?’’ मेरा मन व्याकुल हो गया था. सफेद कोट के वजन से दबा आदमी बेचैन हो कर खड़ा होना चाहता था.

‘‘पुत्तर, तुम तो इतने सालों में कभी घर आ नहीं पाए. जब तक सरदारनी थी उस ने घर जोड़ रखा था. वह गई और सब बच्चों का असली चेहरा सामने आ गया. मेरे पास 6 ट्रक थे, एक स्पेयर पार्ट्स की दुकान, इतना बड़ा बंगला.

‘‘पुत्तर, तुम को मालूम है, मैं तो था ट्रक ड्राइवर. खुद ट्रक चलाचला कर दिनरात एक कर मैं ने अपना काम जमाया, पंजाब में जमीन भी खरीदी कि अपने बुढ़ापे में वापस अपनी जमीन पर चला जाऊंगा. मैं तो रहा अंगूठाछाप, पर मैं ने ठान लिया था कि बच्चों को अच्छा पढ़ाऊंगा. बड़े वाले ने तो जल्दी पढ़ना छोड़ कर दुकान पर बैठना शुरू कर दिया, मैं ने कहा कोई गल नहीं, दूजे को डाक्टर बनाऊंगा. वह पढ़ने में अच्छा था. बोलने में भी बहुत अच्छा. उस को ट्रक, दुकान से दूर, मैं ने अपनी हैसियत से ज्यादा खर्चा कर पढ़ाया.

‘‘हमारे पास खाने को नहीं होता था. उस समय मैं ने उसे पढ़ने बाहर भेजा. ट्रक का क्या है, उस के आगे की 5 साल की पढ़ाई में मैं ने 2 ट्रक बेच दिए. वह वापस आया, अच्छा काम भी करने लगा. लेकिन इन की मां गई कि जाने क्या हो गया, शायद मेरी पंजाब की जमीन के कारण.’’

‘‘पंजाब की जमीन के कारण, पापाजी?’’

‘‘हां पुत्तर, मैं ने सोचा कि अब सब यहीं रह रहे हैं तो पंजाब की जमीन पड़ी रहने का क्या फायदा, सो मैं ने वह दान कर दी.’’

‘‘आप ने जमीन दान कर दी?’’

‘‘हां, एक अस्पताल बनाने के लिए 10 एकड़ जमीन.’’

‘‘लेकिन आप के पास तो रुपयों की कमी थी, आप ट्रक बेच कर बच्चों को पढ़ा रहे थे. दान करने के बजाय बेच देते जमीन, तो ठीक नहीं रहता?’’

‘‘अरे, नहीं पुत्तर. मेरे लिए तो मेरे बच्चे ही मेरी जमीनजायदाद थे. वह जमीन गांव वालों के काम आए, ऐसी इच्छा थी मेरी. मैं ने तो कई बार डाक्टर बेटे से कहा भी कि चल, गांव चल, वहीं अपनी जमीन पर बने अस्पताल पर काम कर लेकिन…’’

आजकल की ऊंची पढ़ाई की यह खासीयत है कि जितना आप ज्यादा पढ़ते जाते हैं. उतना आप अपनी जमीन से दूर और विदेशी जमीन के पास होते जाते हैं. बाहर पढ़ कर इन का लड़का, मेरा सीनियर, वापस इंदौर लौट आया था यही बहुत आश्चर्य की बात थी. उस ने गांव जाने की बात पर क्या कहा होगा, मैं सुनना नहीं चाहता था, शायद मेरी कोई रग दुखने लगे, इसलिए मैं ने उन की बात काट दी.

‘‘क्या आप ने सब से पूछ कर, सलाह कर के जमीन दान करने का निर्णय लिया था?’’ मैं ने प्रश्न दागा.

‘‘पूछना क्यों? मेरी कमाई की जमीन थी. उन की मां और मैं कई बार मुंबई, दिल्ली के अस्पतालों में गए, अपने इसी लड़के से मिलने. वहां हम ने देखा कि गांव से आए लोग किस कदर परेशान होते हैं. शहर के लोग उन्हें कितनी हीन निगाह से देखते हैं, मानो वे कोई पिस्सू हों जो गांव से आ गए शहरी अस्पतालों को चूसने. मजबूर गांव वाले, पूरा पैसा दे कर भी, कई बार ज्यादा पैसा दे कर भी भिखारियों की तरह बड़ेबड़े अस्पतालों के सामने फुटपाथों पर कईकई रात पड़े रहते हैं. तभी उन की मां ने कह दिया था, अपनी गांव की जमीन पर अस्पताल बनेगा. यह बात उस ने कई बार परिवार वालों के सामने भी कही थी. वह चली गई. लड़कों को लगा उस के साथ उस की बात भी चली गई. पर तू कह पुत्तर, मैं अपना कौल तोड़ देता तो क्या ठीक होता?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘मैं ने बोला भी डाक्टर बेटे को कि चल, गांव की जमीन पर अस्पताल बना कर वहीं रह, पर वह नहीं माना.’’

पापाजी की आंखों में तेज चमक आ गई थी. वे आगे बोले, ‘‘मुझे अपना कौल पूरा करना था पुत्तर, सो मैं ने जमीन दान कर दी, एक ट्रस्ट को और उस ने वहां एक अस्पताल भी बना दिया है.’’

इस दौरान पापाजी कुछ देर को अपना लकवा भी भूल गए थे, उत्तेजना में वे अपना लकवाग्रस्त हाथ भी उठाए जा रहे थे.

‘‘सर, हिज वीकनैस इस फेक,’’ उन को अपना हाथ उठाते देख एक जूनियर डाक्टर बोला.

‘‘ओ नो,’’ मैं बोला, ‘‘इस तरह की हरकत लकवाग्रस्त अंग में कई बार दिखती है. इसे असोसिएट मूवमैंट कहते हैं. ये रिफ्लेक्सली हो जाती है. ब्रेन में इस तरह की क्रिया को करने वाली तंत्रिकाएं लकवे में भी अक्षुण्ण रहती हैं.’’

‘‘हां, फिर क्या हुआ?’’ पापाजी को देखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘होना क्या था पुत्तर, सब लोग मिल कर मुझे सताने लगे. जो बहुएं मेरी दिनरात सेवा करती थीं वे मुझे एक गिलास पानी देने में आनाकानी करने लगीं. परिवार वालों ने अफवाह फैला दी कि पापाजी तो पागल हो गए हैं, शराबी हो गए हैं.’’

‘‘सब भाई एक हो कर मेरे पीछे पड़ गए बंटवारे के वास्ते. परेशान हो कर मैं ने बंटवारा कर दिया. दुकान, ट्रक बड़े वाले को, घर की जायदाद बाकी लोगों को. बंटवारे के तुरंत बाद डाक्टर बेटा घर छोड़ कर अलग चला गया. इसी दौरान मुझे लकवा हो गया. डाक्टर बेटा एक दिन भी मुझे देखने नहीं आया. मेरी दवा ला कर देने में सब को मौत आती थी. मैं कसरत करने के लिए जिस जगह जाता था वहां मुझे एक वृद्धाश्रम का पता चला.’’

‘‘आप वृद्धाश्रम चले गए?’’ मैं लगभग चीखते हुए बोला.

‘‘हां पुत्तर, अब 1 साल से मैं आश्रम में रह रहा हूं. सरदारनी को शायद मालूम था, मां अपने बच्चों को अंदर से पहचानती है, एक ट्रक बेच कर उस के 3 लाख रुपए उस ने मुझ से ब्याज पर चढ़वा दिए थे कि बुढ़ापे में काम आएंगे. आज उसी ब्याज से साड्डा काम चल रहा है.’’

‘‘आप के बच्चे आप को लेने नहीं आए,’’ मैं उन का ‘आजाद हो गया’ का मतलब कुछकुछ समझ रहा था.

‘‘लेने तो दूर, हाल पूछने को फोन भी नहीं आता. उन से मेरा मोबाइल नंबर गुम हो गया होगा, यह सोच मैं चुप पड़ा रहता हूं.’’

जिस दिन पापाजी से बात हुई उसी शाम को मैं ने उन के लड़के से बात की. उन को पापाजी का हाल बताया और समझाया कि कुछ भी हो उन्हें पापाजी को वापस घर लाना चाहिए. एक ने तो इस बारे में बात करने से मना कर दिया जबकि दूसरा लड़का भड़क उठा. उस का कहना था, ‘‘पापाजी को हम हमेशा अपने साथ रखना चाहते थे, लेकिन वे ही पागल हो गए. आखिर आप ही बताओ डाक्टर साहब, इतने बड़े लड़के पर हाथ उठाएं या बुरीबुरी गालियां दें तो वह लड़का क्या करे?’’

दवाओं व उपचार से पापाजी कुछ ठीक हुए, थोड़ा चलने लगे. काफी समय तक हर 1-2 महीने में मुझे दिखाने आते रहे, फिर उन का आना बंद हो गया.

समय बीतता गया, पापाजी नहीं आए तो मैं समझा, सब ठीक हो गया. 1-2 बार फोन किया तो बहुत खुशी हुई यह जान कर कि वे अपने घर चले गए हैं.

कई माह बाद पापाजी वापस आए, इस बार उन का एक लड़का साथ था. पापाजी अपना बायां पैर घसीटते हुए अंदर घुसे. न तो उन्होंने चहक कर पुत्तर कहा और न ही मुझ से नजरें मिलाईं. वे चुपचाप कुरसी पर बैठ गए. एकदम शांत.

शांति के भी कई प्रकार होते हैं, कई बार शांति आसपास के वातावरण में कुछ ऐसी अशांति बिखेर देती है कि उस वातावरण से लिपटी प्राणवान ही क्या प्राणहीन चीजें भी बेचैनी महसूस करने लगती हैं. पापाजी को स्वयं के बूते पर चलता देखने की खुशी उस अशांत शांति में क्षणभर भी नहीं ठहर पाई.

‘पापाजी, चंगे हो गए अब तो,’’ वातावरण सहज करने की गरज से मैं हलका ठहाका लगाते हुए बोला.

‘‘आहो,’’ संक्षिप्त सा जवाब आया मुरझाए होंठों के बीच से.

गरदन पापाजी की तरफ झुकाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘पापाजी, सब ठीक तो है?’’

पतझड़ के झड़े पत्ते हवा से हिलते तो खूब हैं पर हमेशा एक घुटीघुटी आवाज निकाल पाते हैं : खड़खड़. वैसे ही पापाजी के मुरझाए होंठ तेजी से हिले पर आवाज निकली सिर्फ, ‘‘आहो.’’

पापाजी लड़के के सामने बात नहीं कर रहे थे, सो मेरे कहने पर वह भारी पांव से बाहर चला गया.

‘‘चलो पापाजी, अच्छा हुआ, मेरे फोन करने से वह आप को घर तो ले आया. लेकिन आप पहले से ज्यादा परेशान दिख रहे हैं?’’

पापाजी कुछ बोले नहीं, उन की आंख में फिर एक डर था. पर इस डर को देख कर मैं पहली बार की तरह गौरवान्वित महसूस नहीं कर रहा था. एक अनजान भय से मेरी धड़कन रुकने लगी थी. पापाजी रो रहे थे, पानी की बूंदों से नम दो पत्ते अब हिल नहीं पा रहे थे. बोलना शायद पापाजी के लिए संभव न था. वे मुड़े और पीठ मेरी तरफ कर दी. कुरता उठा तो मैं एकदम सकपका गया. उन की खाल जगहजगह से उधड़ी हुई थी. कुछ निशान पुराने थे और कुछ एकदम ताजे, शायद यहां लाने के ठीक पहले लगे हों.

‘‘यह क्या है, पापाजी?’’

‘पुत्तर, तू ने फोन किया, ठीक किया, लेकिन यह क्यों बता दिया कि मेरे पास 3 लाख रुपए हैं?’’

‘‘फिर आज आप को यहां कैसे लाया गया?’’

‘‘मैं ने कहा कि रुपए कहां हैं, यह मैं तुझे ही बताऊंगा… पुत्तर जी, पुत्तर मुझे बचा लो, ओए पुत्तर जी, मुझे…’’ पापाजी फूटफूट कर रो रहे थे.

मेरे कान के परदे सुन्न हो गए थे. आगे मैं कुछ सुन नहीं पा रहा था, कुछ भी नहीं.

एक सफर ऐसा भी: क्या था स्वरुप का प्लान

दिल्ली के प्रेमी युगलों के लिए सब से मुफीद और लोकप्रिय जगह है लोधी गार्डन. स्वरूप और प्रिया हमेशा की तरह कुछ प्यारभरे पल गुजारने यहां आए थे. रविवार की सुबह थी. पार्क में हैल्थ कौंशस लोग मौर्निंग वाक के लिए आए थे. कोई दौड़ लगा रहा था तो कोई ब्रिस्क वाक कर रहा था. कुछ लोग तरहतरह के व्यायाम करने में व्यस्त थे, तो कुछ उन्हें देखने में. झील के सामने लगी लोहे की बैंच पर बैठे प्रिया और स्वरूप एकदूसरे में खोए थे. प्रिया की बड़ीबड़ी शरारतभरी निगाहें स्वरूप पर टिकी थीं. वह उसे लगातार निहारे जा रही थी.

स्वरूप ने उस के हाथों को थामते हुए कहा, ‘‘प्रिया, आज तो तुम्हारे इरादे बड़े खतरनाक लग रहे हैं.’’

वह हंस पड़ी, ‘‘बिलकुल जानेमन. इरादा यह है कि तुम्हें अब हमेशा के लिए मेरा हाथ थामना होगा. अब मैं तुम से दूर नहीं रह सकती. तुम ही मेरे होंठों की हंसी हो. भला हम कब तक ऐसे छिपछिप कर मिलते रहेंगे?’’ और फिर प्रिया गंभीर हो गई.

स्वरूप ने बेबस स्वर में कहा, ‘‘अब मैं क्या कहूं? तुम तो जानती ही हो मेरी मां को… उन्हें तो वैसे ही कोई लड़की पसंद नहीं आती उस पर हमारी जाति भी अलग है.’’

‘‘यदि उन के राजपूती खून वाले इकलौते बेटे को सुनार की गरीब बेटी से इश्क हो गया है तो अब हम दोनों क्या कर सकते हैं? उन को मुझे अपनी बहू स्वीकार करना ही पड़ेगा. पिछले 3 साल से कह रही हूं… एक बार बात कर के तो देखो.’’

‘‘एक बार कहा था तो उन्होंने सिरे से नकार दिया था. तुम तो जानती ही हो कि मां के सिवा मेरा कोई है भी नहीं. कितनी मुश्किलों से पाला है उन्होंने मुझे. बस एक बार वे तुम्हें पसंद कर लें फिर कोई बाधा नहीं. तुम उन से मिलने गईं और उन्होंने नापसंद कर दिया तो फिर तुम तो मुझ से मिलना भी बंद कर दोगी. इसी डर से तुम्हें उन से मिलवाने नहीं ले जाता. बस यही सोचता रहता हूं कि उन्हें कैसे पटाऊं.’’

‘‘देखो अब मैं तुम से तो मिलना बंद नहीं कर सकती. ऐसे में तुम्हारी मां को पटाना ही अंतिम रास्ता है.’’

‘‘पर मेरी मां को पटाना

ऐसी चुनौती है जैसे रेगिस्तान में पानी खोजना.’’

‘‘ओके, तो मैं यह चुनौती स्वीकार करती हूं. वैसे भी मुझे चुनौतियों से खेलना बहुत पसंद है,’’ बड़ी अदा के साथ अपने घुंघराले बालों को पीछे की तरफ झटकते हुए प्रिया ने कहा और फिर उठ खड़ी हुई.

‘‘मगर तुम यह सब करोगी कैसे?’’ स्वरूप ने उठते हुए पूछा.

‘‘एक बात बताओ. तुम्हारी मां इसी वीक मुंबई जाने वाली हैं न किसी औफिशियल मीटिंग के लिए… तुम ने कहा था उस दिन.’’

‘‘हां, वे अगले मंगल को निकल रही हैं. आजकल में रिजर्वेशन भी करानी है मुझे.’’

‘‘तो ऐसा करो, एक के बजाय 2 टिकट करा लो. इस सफर में मैं उन की हमसफर बनूंगी, पर उन्हें बताना नहीं,’’ आंखें नचाते हुए प्रिया ने कहा तो स्वरूप की प्रश्नवाचक निगाहें उस पर टिक गईं.

प्रिया को भरोसा था अपने पर. वह जानती थी कि सफर के दौरान आप सामने वाले को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं. जब हम इतने घंटे साथ बिताएंगे तो हर तरह की बातें होंगी. एकदूसरे को इंप्रैस करने का मौका मिलेगा. यह तय हो जाएगा कि वह स्वरूप की बहू बन सकती है. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया था कि यह उस की आखिरी परीक्षा है.

स्वरूप ने मुसकराते हुए सिर तो हिला दिया था पर उसे भरोसा नहीं था. उसे प्रिया का आइडिया बहुत पसंद आया था. पर वह मां के जिद्दी धार्मिक व्यवहार को जानता था. फिर भी उस ने हां कर दी. उसी दिन शाम उस ने मुंबई राजधानी ऐक्सप्रैस के एसी 2 टियर श्रेणी में

2 टिकट (एक लोअर और दूसरा अपर बर्थ) रिजर्व करा दिए. जानबूझ कर मां को अपर बर्थ दिलाई और प्रिया को लोअर.

जिस दिन प्रिया को मुंबई के लिए निकलना था, उस से 2 दिन पहले से वह अपनी तैयारी में लगी थी. यह उस की जिंदगी का बहुत अहम सफर था. उस की खुशियों की चाबी यानी स्वरूप का मिलना या न मिलना इसी पर टिका था. प्रिया ने वे सारी चीजें रख लीं, जिन के जरीए उसे स्वरूप की मां पर इंप्रैशन जमाने का मौका मिल सकता था.

ट्रेन शाम 4.35 पर नई दिल्ली स्टेशन से छूटनी थी. अगले दिन सुबह 8.35 ट्रेन का मुंबई अराइवल था. कुल 16 घंटों का सफर था. इन

16 घंटों में उसे स्वरूप की मां को जानना था और अपना सही और पूरा परिचय देना था.

वह समय से पहले ही स्टेशन पहुंच गई और बहुत बेसब्री से स्वरूप और उस की मां के आने का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में उसे स्वरूप आता दिखा, साथ में मां भी थी. दोनों ने दूर से ही एकदूसरे को आल द बैस्ट कहा.

ट्रेन के आते ही प्रिया सामान ले कर अपनी बर्थ की तरफ

बढ़ गई. सही समय पर ट्रेन चल पड़ी. आरंभिक बातचीत के साथ ही प्रिया ने अपनी लोअर बर्थ मां को औफर कर दी. उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया, क्योंकि उन्हें घुटनों में दर्द रहने लगा था. वैसे भी बारबार ऊपर चढ़ना उन्हें पसंद नहीं था. उन की नजरों में प्रिया के प्रति स्नेह के भाव झलक उठे. प्रिया एक नजर में उन्हें काफी शालीन लगी. दोनों बैठ कर दुनियाजहान की बातें करने लगीं. मौका देख कर प्रिया ने उन्हें अपने बारे में सारी बेसिक जानकारी दे दी कि कैसे वह दिल्ली में रह कर जौब कर अपने मांबाप का सपना पूरा कर रही है. दोनों ने साथ ही खाना खाया.

प्रिया का खाना चखते हुए मां ने पूछा, ‘‘किस ने बनाया तुम ने या कामवाली रखी है?’’

‘‘कामवाली तो है आंटी पर खाना मैं खुद ही बनाती हूं. मेरी मां ने मुझे सिखाया है कि जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन. अपने हाथों से बनाए खाने की बात ही अलग होती है… इस में सेहत और स्वाद के साथ प्यार जो मिला होता है.’’

उस की बात सुन कर मां मुसकरा उठीं, ‘‘तुम्हारी मां ने तो बहुत अच्छी बातें सिखाई हैं. जरा बताओ और क्या सिखाया है उन्होंने?’’

‘‘कभी किसी का दिल न दुखाओ, जितना हो सके दूसरों की मदद करो. आगे बढ़ने के लिए दूसरे की मदद पर नहीं, बल्कि अपनी काबिलीयत और परिश्रम पर विश्वास करो. प्यार से सब का दिल जीतो.’’

प्रिया कहे जा रही थी और मां गौर से सुन रही थीं. उन्हें प्रिया की बातें बहुत पसंद आ रही थीं. इसी बीच मां बाथरूम के लिए उठीं कि अचानक झटका लगने से डगमगा गईं और किनारे रखे ब्रीफकेस के कोने से पैर में चोट लग गई. चोट ज्यादा नहीं लगी थी, मगर खून निकल आया. मां को बैठाया और फिर अपने बैग में रखे फर्स्ट ऐड बौक्स को खोलने लगी.

मां ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तुम हमेशा यह डब्बा ले कर निकलती हो?’’

‘‘हां आंटी, चोट मुझे लगे या दूसरों को मुझे अच्छा नहीं लगता. तुरंत मरहम लगा दूं तो दिल को सुकून मिल जाता है. वैसे भी जिंदगी में हमेशा किसी भी तरह की परेशानी से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए,’’ कहते हुए प्रिया ने तुरंत चोट वाली जगह पर मरहम लगा दिया और इस बहाने उस ने मां के पैर भी छू लिए.

मां ने प्यार से उस का गाल थपथपाया और पूछने लगीं, ‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं? तुम्हारी मां हाउसवाइफ  हैं या जौब करती हैं?’’

प्रिया ने बिना किसी लागलपेट के साफ स्वर में जवाब दिया, ‘‘मेरे पापा सुनार हैं और वे ज्वैलरी शौप में काम करते हैं. मेरी मां हाउसवाइफ हैं. हम 2 भाईबहन हैं. छोटा भाई इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा है और मैं यहां एक एमएनसी कंपनी में काम करती हूं. मेरी सैलरी अभी

80 हजार प्रति महीना है. उम्मीद करती हूं कि कुछ सालों में अच्छा मुकाम हासिल कर लूंगी.’’

‘‘बहुत खूब,’’ मां के मुंह से निकला. उन की प्रशंसाभरी नजरें प्रिया पर टिकी थीं, ‘‘बेटा और क्या शौक हैं तुम्हारे?’’

‘‘मेरी मम्मी बहुत अच्छी डांसर हैं. उन्होंने मुझे भी इस कला में निपुण किया है. डांस के अलावा मुझे कविताएं लिखने और फोटोग्राफी करने का भी शौक है. तरहतरह की डिशेज तैयार करना और सब को खिला कर वाहवाही लूटना भी बहुत पसंद है.’’

ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और इधर प्रिया और मां की बातें भी बिना किसी रुकावट जारी थीं.

कोटा और रतलाम स्टेशनों के बीच ट्रेन 140 किलोमीटर प्रति घंटे की तेज रफ्तार से चल रही थी कि अचानक एक झटके से रुक गई. दूरदूर तक जंगली सूना इलाका था. आसपास न तो आवागमन के साधन थे और न खानेपीने की चीजें थीं. पता चला कि ट्रेन करीब 8-9 घंटे वहीं खड़ी रहनी है. दरअसल, पटरी में क्रैक की वजह से ट्रेन के आगे वाला डब्बा उलट गया था. यात्री घायल तो नहीं हुए, मगर अफरातफरी जरूर मच गई थी. क्रेन आने और पलटे डब्बे को हटाने में काफी समय लगना था.

ऐक्सीडैंट 11 बजे रात में हुआ था और अब सुबह हो चुकी थी. यह

इलाका ऐसा था कि दूरदूर तक चायपानी तक की दुकान नजर नहीं आ रही थी. ट्रेन के पैंट्री कार में भी अब खाने की चीजें खत्म हो चुकी थीं. 12 बज चुके थे. मां सोच रही थीं कि चाय का इंतजाम हो जाता तो चैन आता. तब तक प्रिया पैंट्री कार से गरम पानी ले आई. अपने पास रखा टीबैग, चीनी और मिल्क पाउडर से उस ने फटाफट चाय तैयार की और फिर टिफिन बौक्स निकाल कर उस में से दाल की कचौडि़यां और मठरी आदि कागज की प्लेट में रख कर नाश्ता सजा दिया. टिफिन बौक्स निकालते समय मां ने गौर किया था कि प्रिया के बैग में डियो के अलावा भी कोई स्प्रे है.

‘‘यह क्या है प्रिया?’’ मां ने उत्सुकता से पूछा.

प्रिया बोली, ‘‘आंटी, यह पैपर स्प्रे है ताकि किसी बदमाश से सामना हो जाए तो उस के गलत इरादों को सफल न होने दूं. सिर्फ  यही नहीं अपने बचाव के लिए मैं हमेशा एक चाकू भी रखती हूं. मैं खुद कराटे में ब्लैक बैल्ट होल्डर हूं. खुद की सुरक्षा का पूरा खयाल रखती हूं.’’

‘‘बहुत अच्छा,’’ मां की खुशी चेहरे पर झलक रही थी, ‘‘अच्छा प्रिया यह बताओ कि तुम अपनी सैलरी का क्या करती हो? खुद तुम्हारे खर्चे भी काफी होंगे. आखिर अकेली रहती हो मैट्रो सिटी में और फिर औफिस में प्रेजैंटेबल दिखना भी जरूरी होता है. आधी सैलरी तो उसी में चली जाती होगी.’’

‘‘अरे नहीं आंटी ऐसा कुछ नहीं है. मैं

अपनी सैलरी के 4 हिस्से करती हूं. 2 हिस्से यानी 40 हजार भाई की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पापा को देती हूं. एक हिस्सा खुद पर खर्च करती हूं और बाकी के एक हिस्से से फ्लैट का किराया देने के साथ कुछ पैसे सोशल वर्क में लगाती हूं.’’

‘‘सोशल वर्क?’’ मां ने हैरानी से पुछा.

‘‘हां आंटी, जो भी मेरे पास अपनी समस्या ले कर आता है उस का समाधान ढूंढ़ने का प्रयास करती हूं. कोई नहीं आया तो खुद ही गरीबों के लिए कपड़े, खाना वगैरह खरीद कर बांट देती हूं.’’

तभी ट्रेन फिर चल पड़ी. दोनों की बातें भी चल रही थीं. मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘मेरा भी एक बेटा है स्वरूप. वह भी दिल्ली में जौब करता है.’’

स्वरूप का नाम सुनते ही प्रिया की आंखों में चमक उभर आई. अचानक मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘अच्छा, यह बताओ बेटे कि आप का कोई बौयफ्रैंड है या नहीं? सचसच बताना.’’

प्रिया ने 2 पल मां की आंखों में झांका और फिर नजरें झुका कर बोली, ‘‘जी है.’’

‘‘उफ…’’ मां थोड़ी गंभीर हो गईं, ‘‘बहुत प्यार करती हो उस से? शादी करने वाले हो तुम दोनों?’’

प्रिया को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे. इस तरह की बातों का हां में जवाब देने का अर्थ है खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना. फिर भी जवाब तो देना ही था. सो वह हंस कर बोली, ‘‘आंटी, शादी करना तो चाहते हैं, मगर क्या पता आगे क्या लिखा है. वैसे आप अपने बेटे के लिए कैसी लड़की ढूंढ़ रही हैं?’’

‘‘ईमानदार, बुद्धिमान और दिल से खूबसूरत.’’

दोनों एकदूसरे की तरफ  कुछ पल देखती रहीं. फिर प्रिया ने पलकें झुका लीं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां से क्या कहे और कैसे कहे. दोनों ने ही इस मसले पर फिर बात नहीं की. प्रिया के दिमाग में बड़ी उधेड़बुन चलने लगी थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां ने उसे पसंद किया या नहीं. उस ने स्वरूप को वे सारी बातें मैसेज कर के बताईं. मां भी खामोश बैठी रहीं. प्रिया कुछ देर के लिए आंखें बंद कर लेट गई. उसे पता ही नहीं चला कि कब उसे नींद आ गई. मां के आवाज लगाने पर वह हड़बड़ा कर उठी तो देखा मुंबई आ चुका था और अब उसे मां से विदा लेनी थी.

स्टेशन पर उतर कर वह खुद ही बढ़ कर मां के गले लग गई. मन में एक अजीब सी घबराहट थी. वह चाहती थी कि मां कुछ कहें पर ऐसा नहीं हुआ. मां से विदा ले कर वह अपने रास्ते निकल आई. अगले दिन ही फ्लाइट पकड़ कर दिल्ली लौट आई.

फिर वह स्वरूप से मिली और सारी बातें विस्तार से बताईं. बौयफ्रैंड वाली बात भी. स्वरूप भी कुछ समझ नहीं सका कि मां को प्रिया कैसी लगी. मां 2 दिन बाद लौटने वाली थीं. दोनों ने 2 दिन बड़ी उलझन में गुजारे. उन की जिंदगी का फैसला जो होना था.

नियत समय पर मां लौटीं. स्वरूप बहुत बेचैन था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां से कैसे पूछे. वह चाहता था कि मां खुद ही उस से प्रिया की बात छेड़े, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. एक दिन और बीत गया. अब तो स्वरूप की हालत खराब होने लगी. अंतत: उस ने खुद ही मां से पूछ लिया, ‘‘मां आप का सफर कैसा रहा? सह यात्री कैसे थे?’’

‘‘सब अच्छा था,’’ मां ने छोटा सा जवाब दिया.

स्वरूप और भी ज्यादा बेचैन हो उठा. उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे पूछे मां से. उस से रहा नहीं गया तो उस ने सीधा पूछ लिया, ‘‘और वह जो लड़की थी जाते समय साथ… उस ने आप का खयाल तो रखा?’’

‘‘क्यों पूछ रहे हो? जानते हो क्या उसे?’’ मां ने प्रश्नवाचक नजरें उस पर टिका दीं.

स्वरूप घबरा गया जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो, ‘‘जी ऐसा कुछ नहीं. मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा था.’’

‘‘ओके, सब अच्छा रहा. अच्छी थी लड़की,’’ मां फिर छोटा सा जवाब दे कर बाहर निकलने लगीं. लेकिन फिर ठहर गईं. बोलीं, ‘‘हां एक बात बता दूं कि मेरे साथ जो लड़की थी न उस की कई बातों ने मुझे अचरज में डाल दिया. जानते हो मेरे दाहिने पैर में चोट लगी तो उस ने क्या किया?’’

‘‘क्या किया मां?’’ अनजान बनते हुए स्वरूप ने पूछा.

‘‘मेरे दाहिने पैर में मरहम लगाने के बहाने उस ने मेरे दोनों पैरों को छू लिया. फिर जब मैं ने उस से यह पूछा कि क्या उस का कोई बौयफ्रैंड है तो 2 पलों के लिए उस के दिमाग में एक जंग सी छिड़ गई. लग रहा था जैसे वह सोच रही हो कि अब मुझे क्या जवाब दे. एक बात और जानते हो, तेरा नाम लेते ही उस की नजरों में अजीब सी चमक आई और पलकें झुक गईं. मैं समझ नहीं सकी कि ऐसा क्यों है?’’

मां की बातें सुन कर स्वरूप के चेहरे पर घबराहट की रेखाएं खिंच गईं. वह एकटक मां की तरफ देखे जा रहा था जैसे मां उस के ऐग्जाम का रिजल्ट सुनाने वाली हैं.

मां ने फिर कहा, ‘‘एक बात और बताऊं स्वरूप, जब वह सो

रही थी तो उस की मोबाइल स्क्रीन पर मुझे तुम्हारे कई सारे व्हाट्सऐप मैसेज आते दिखे, क्योंकि उस ने तुम्हारे मैसेज पौप अप मोड में रखे थे. मैसेज कुछ इस तरह के थे, ‘‘डोंट वरी प्रिया. मां के साथ तुम्हारा यह सफर हम दोनों की जिंदगी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण

है. मां बस एक बार तुम्हें पसंद

कर लें फिर हम हमेशा के लिए एक हो जाएंगे.

‘‘फिर तो मेरा शक यकीन में बदल गया कि तुम दोनों मिल कर मुझे बेवकूफ बना रहे हो,’’ कहतेकहते मां थोड़ी गंभीर हो गईं.

‘‘नहीं मां ऐसा नहीं है,’’ उस ने मां के कंधे पकड़ कर कहा.

मां झटके से अलग होती हुई बोलीं, ‘‘देखो स्वरूप एक बात अच्छी तरह समझ लो…’’

‘‘क्या मां?’’ स्वरूप डरासहमा सा बोला.

‘‘यही कि तुम्हारी पसंद…’’ कहतेकहते मां रुक गईं.

स्वरूप को लगा जैसे उस की धड़कनें रुक जाएंगी.

तभी मां खिलखिला कर हंस पड़ीं, ‘‘जरा अपनी सूरत तो देखो. ऐसे लग रहे हो जैसे ऐग्जाम में फेल होने के बाद चेहरा बन गया हो तुम्हारा. मैं तो कह रही थी कि तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है. मुझे बस ऐसी ही लड़की चाहिए थी बहू के रूप में… सर्वगुणसंपन्न… रियली आई लाइक योर चौइस.’’

मां के शब्द सुन कर स्वरूप अपनी खुशी रोक नहीं पाया और मां के गले से लग गया, ‘‘आई लव यू मां.’’

मां प्यार से बेटे की पीठ थपथपाने लगीं.

भोर की सुनहरी किरण : नंदिता की क्या थी सच्चाई

राइटर- रेखा शाह आरबी

22 वर्षीय नंदिता बहुत सुंदर थी. मगर उस के सुंदर चेहरे पर आज सुबह से ही ?ां?ालाहट और परेशानी नजर आ रही थी. वह आज बहुत परेशान थी. सुबह से बहुत सारा काम कर चुकी थीं. फिर भी बहुत सारा निबटाना था. कंप्यूटर पर बिल अपलोड करते हुए जब सुरेश जो इस बड़ी सी शौप में चपरासी था सब की देखभाल करना उसी की जिम्मेदारी थी. सब को पानी देना, कस्टमर को चायपानी पिलाना सब उस की जिम्मेदारी थी. सुरेश ने जब आ कर कहा कि नंदिताजी आप को बौस बुला रहे हैं तो नंदिता का मन किया कि सिर दीवार से टकरा कर अपना सिर फोड़ दे.

मन में एक भददी गाली देते हुए सोचने लगी कि कमीना जब तक 4 बार देख न ले उसे चैन नहीं पड़ता है. एक तो जब उस के कैबिन में जाओ लगता है नजर से ही खा जाएगा. उस की नजर, नजर न हो कर इंचीटेप बन जाती है और इंचइंच नापने लगता है… खूसट बुड्ढे को अपनी बीवी अच्छी नहीं लगती. सारी दुनिया की औरतें अच्छी लगती हैं और लड़कियां अच्छी लगती है… हां कुदरत ने दिल खोल कर दौलत दी है तो ऐयाशी सू?ोगी ही… एक को छोड़ो 4 भी रख सकता है… पैसे की कौन सी कमी है.

लेकिन भला हो इस की बीवी का जिस ने इस की चाबुक खींच कर रखी है… और उस के आगे इस की चूं नहीं निकलती है. नहीं तो अब तक न जाने कितनी लड़कियों की जिंदगी बरबाद कर चुका होता.’’

नंदिता यह सब सिर्फ सोच सकती थी. बोल नहीं सकती थी अत: उस ने सुरेश से कहा, ‘‘भैया, आप चलिए मैं आती हूं.’’

इस बड़ी से मौलरूपी दुकान की असली मालिक तो थी. औफिस में सभी जानते थे कि गौतम और सुनिधि की लवमैरिज थी.

घर वालों ने बेटी को गंवाने के डर से गरीब गौतम को तो स्वीकार कर लिया लेकिन उस की गरीबी को नहीं स्वीकार कर सके. अमीर मांबाप सुनिधि को इतनी धनसंपत्ति दे गए कि उस की भी गिनती शहर के अमीरों में होने लगी थी.

आकर्षण की एक अवधि होती है. उस के बाद हकीकत सामने आने ही लगती है. सुनिधि को बहुत जल्दी गौतम की रंगीनमिजाजी का पता चल गया. सुनिधि खानदानी लड़की थी. गौतम की लाख छिछोरी हरकतें जानती थी लेकिन फिर भी पति के रूप में उसे मानती थी. वह उस के बच्चों का पिता था.

मगर अपनी अमीरी की धौंस जमाने से भी बाज नहीं आती थी और यह सारी कहानी पूरा औफिस जानता था. मुंह पर कोई भले ही कुछ नहीं कहता था लेकिन पीठ पीछे खूब सब बातें करते थे.

वैसे गौतम कोई बुड्ढा इंसान नहीं था. वह तो नंदिता बस खुन्नस में उसे बूढ़ा कहा करती थी और वह भी अपने मन में. गौतम 50 के आसपास हैंडसम इंसान था. कम से कम अपनी बीवी से तो ज्यादा सुंदर था. उस की सुंदरता और बात करने की कला से ही तो सुनिधि ने उस से प्रभावित हो कर उस से शादी की थी और गौतम ने उस की रईसी से प्रभावित हो कर उस से शादी की थी, जिस के मजे वह अब ले रहा था.

नंदिता को आज चौथी बार बुलावा था. मन तो कर रहा था कि सीधे उस के कैबिन में जा कर उस के मुंह पर बोल आए कि कमीने बुड्ढे मु?ो नहीं करनी है तेरी नौकरी, रख अपनी नौकरी अपने पास. लेकिन वह जानती थी चाचा ने बड़ी मुश्किल से यहां पर रखवाया था और सैलरी भी अच्छीखासी मिल रही थी. बुड्ढे को बरदाश्त करना उस की मजबूरी थी. नंदिता को यहां पर काम करने में कोई दिक्कत नहीं थी बल्कि नौकरी भी काफी ऐशोआराम वाली थी. दिनभर दुकान की खरीदबिक्री के बिल कंप्यूटर पर अपलोड करते रहना. दुकान इलैक्ट्रौनिक उपकरणों की थी.

वैसे भी नंदिता का गणित बहुत अच्छा था. हिसाबकिताब रखते रखना जिस में उसे कोई दिक्कत नहीं आती थी. बस दिक्कत उस का बौस खड़ूस गौतम ही था, जिस की हर महिला पर गंदी नजर रहती थी. नंदिता तो फिर भी जवान थी, खूबसूरत थी.

खैर, उस ने लंबी सांस छोड़ कर अपने चेहरे का जियोग्राफी सही किया और स्माइल सजा कर उस ने कैबिन का दरवाजा नोक किया.

गौतम तो जैसे इंतजार में बैठा था. बत्तीसी दिखाते हुए बोला, ‘‘आओआओ नंदिता कुरसी पर बैठो.’’

नंदिता ने स्माइल पास करते हुए पूछा, ‘‘सर आप ने किस लिए बुलाया?’’

‘‘नंदिता तुम तो आते ही बस काम के पीछे पड़ जाती हो. काम तो होता ही रहेगा. अरे कभी हम काम के अलावा भी तो बातें कर सकते हैं… एकदूसरे के दोस्त बन सकते हैं… जिंदगी जीने के लिए होती है.’’

नंदिता उस के मन के भाव खूब सम?ा रही थी पर बिलकुल अनजान बनते हुए मासूम बन कर कहा, ‘‘हां सर लेकिन वह काम पैंडिंग पड़ा है उसे पूरा करना है.’’

‘‘अरे यार… कल पूरा कर लेना. आज कोई दुनिया खत्म होने नहीं जा रही.’’

गौतम को बहुत दिनों के बाद आज नंदिता अकेले मिली थी वरना जब भी आती तो कभी अपने साथ कलीग तो कभी कोई न कोई और आ ही जाता. इसलिए वह मौके का पूरा इस्तेमाल कर लेना चाहता था.

वह अपनी कुरसी से उठ कर नंदिता की कुरसी के पास आ गया और उस के कंधों पर अपने हाथ रख कर बोला, ‘‘नंदिता बहुत दिनों से मैं ने कोई फिल्म नहीं देखी. चलो किसी दिन फिल्म देखने चला जाए अकेले फिल्म देखने को जाने को मन ही नहीं करता है.’’

नंदिता ने अपने मन में गाली देते हुए कहा कि हरामखोर मैं तेरी बेटी की उम्र की हूं और तुझे मेरे साथ फिल्म देखनी है. अपनी बेटी के साथ चला जा या अपनी बीवी के साथ क्यों नहीं जाता है?

स्माइल पास करते हुए नंदिता बोली, ‘‘सर औफिस के बाद घर पर मुझे बहुत सारा काम रहता है. मुझे अपने भाई नवीन को पढ़ाना भी होता है. उस के ऐग्जाम आने वाले हैं इसलिए मैं नहीं जा सकती कृपया मुझे माफ करें.’’

नंदिता महसूस कर रही थी कि गौतम को स्माइल से ही चारों धाम प्राप्त हो गए हैं. लेकिन आखिर क्या करती रोजीरोटी का सवाल था वरना जवाब तो वह भी अपने तमाचे के द्वारा बहुत अच्छे से दे सकती थी अपने कंधों पर हाथ रखने के बदले पर नहीं दे सकती थी.

तब तक अचानक नंदिता की नजर  गौतम के सिर के ऊपर लगी हुई एलईडी पर चली गई, जिस में पूरे औफिस का सीसीटीवी कैमरा चलता था. नंदिता ने देखा बौस की बीवी सुनिधि आ रही है.

नंदिता की तो बांछें ही खिल गईं. मगर गौतम ने अभी तक अपनी बीवी को नहीं देखा था. इसीलिए बहुत तरंग में बात कर रहा था. उस की बीवी तो बीवी थी उसे नोक कर के आने की कोई जरूरत नहीं थी.

डाइरैक्ट वह औफिस के अंदर चली आई और नंदिता को वहां बैठा देख कर और उस के आगेपीछे चक्कर काटते गौतम को देख कर वह लालपीली हो गई. लेकिन उस ने नंदिता से कुछ नहीं कहा. इधर नंदिता का दिल कर रहा था कि उस को गले लगा कर उस के गाल चूम ले गौतम की बकवास से मुक्त दिलाने के लिए.

नंदिता बौस से इजाजत ले कर अपनी टेबल पर चली आई. लेकिन अंदर जो कुछ भी हो रहा था वह कुछ अच्छा नहीं हो रहा था. वह दूर बैठी टेबल से हावभाव देख कर बखूबी अंदाजा लगा रही थी और उस को मजा आ रहा था. जैसी करनी वैसी भरनी.

कुछ देर बाद उस की बीवी उस के कैबिन से निकली और उस की टेबल के पास से गुजरते हुए अपनी आंखों से अंगारे बरसाते हुए निकल गई. नंदिता अपने कंधे उचकाते हुए अपने मन में सोच रही थी कि मु?ो आप के इस बुड्ढे में मेरी कोई रुचि नहीं है. यह तो खुद ही कमीना है. मेरे पीछे पड़ा रहता है. अगर मजबूरी नहीं होती तो कब का इसे लात मार कर यहां से चली गई होती.’’

इन सब के बीच यह बात तो भूल हो गई कि आखिर गौतम ने बुलाया किसलिए था. चाहे गौतम लाख रंगीनमिजाज सही लेकिन कर्मचारियों से काम लेने के मामले में बहुत टाइट इंसान था और इस में कोई भेदभाव नहीं करता था चाहे लड़का हो या लड़की और यही उस की सफलता का भी राज था.

वैसे भी शाम के 4 बजने वाले थे और उस की शिफ्ट पूरी हो रही थी. उस ने सोच लिया कल जा कर गौतम  से जानकारी ले लूंगी.

उधर गौतम जब शाम को घर पहुंचा तो सुनिधि भरी हुई पड़ी थी. देखते ही गौतम पर भड़क उठी और चिल्लाने लगी, ‘‘गौतम अपनी हरकतों से बाज आ जाओ. बच्चे बड़े हो रहे हैं. क्यों चाहते हो कि मैं उन के सामने तुम्हें जलील करूं. अभी तक तो मैं तुम्हारी सारी हरकतों पर परदा डालती आ रही लेकिन ऐसा ही रहा तो

तुम न घर के रहोगे न घाट के. मुझे और मेरी जायदाद को संभालने के लिए मेरे पास मेरे बच्चे हैं. मु?ो तुम्हारी इतनी भी जरूरत नहीं है कि तुम्हारी छिछोरी हरकतें बरदाश्त करती फिरूं,’’ कहते हुए कमरे का दरवाजा जोर से बंद करते हुए वह चली गई.

इधर नंदिता घर पहुंची तो उसे बहुत भूख लग आई थी. अपनी मां सुमित्रा को कुछ बनाने के लिए कहने के बजाय खुद ही बनाने के लिए किचन में चली गई. किचन क्या थी रूम के ही एक पार्ट को डिवाइड कर के एक तरफ किचन और एक तरफ नंदिता का बिस्तर लगा था.

कुछ भारी बनाने का मन नहीं था. इसलिए उसने अपने लिए थोड़ा सा पोहे बना लिया और बना कर ज्यों ही खाने के लिए बैठी तब तक उस का छोटा भाई नवीन आ गया.

हाथमुंह धो कर नवीन नंदिता के पास ही आ कर बैठ गया और उसे पोहा खाते हुए देख कर बोला, ‘‘दीदी क्या बना कर खा रही हो? मुझे भी खिलाओ. मुझे भी भूख लगी है.’’

‘‘खाना है तुझे तो उधर से चम्मच ले कर आओ और इसी में बैठ कर खा लो. बेकार में और बरतन गंदे करने की जरूरत नहीं है,’’ नंदिता खातेखाते बोली.

दोनों भाईबहन एक ही प्लेट से खाने लगे. जब भी नंदिता नवीन को देखती थी उस के अंदर वात्सल्य उमड़ पड़ता था.

दिनभर लोगों की गंदी नजरों का सामना करते हुए दुनिया में एक यही मर्द जात थी जिस पर वह आंख मूंद कर भरोसा कर सकती थी वरना दुनिया तो अकेली लड़की के लिए भेडि़या बन जाती है.

आंखों से ही बलात्कार कर लेती है, जिसे नंदिता बहुत आसानी से महसूस कर लेती थी. नंदिता क्या दुनिया की सारी लड़कियां इस बात को महसूस कर लेती हैं कि कौन किस नजर से उन्हें देख रहा है. मगर कई बार देख कर भी अनजान बनना पड़ता है.

नंदिता को सोच में डूबा हुआ और चुपचाप खाते देख कर नवीन बोला, ‘‘क्या हुआ दीदी?’’

नंदिता बोली, ‘‘कुछ नहीं हुआ चुपचाप खा.’’

‘‘लेकिन दीदी मु?ो आप को कुछ बताना है.’’

‘‘हां तो बता क्या बात है?’’

‘‘दीदी मैं और मेरे दोस्त साहिल और समर तीनों लोग सोच रहे हैं की नौकरी लगना इतना आसान नहीं है… परीक्षा के बाद हम लोग मिल कर अपनी बड़ापाव और चाइनीज फूड वैन लगाएंगे. आजकल इस बिजनैस में बहुत कमाई है. पूरे परिवार का खर्च आराम के साथ चला लूंगा. सारी तैयारी हो चुकी है. बस आप से पूछना बाकी था.’’

‘‘और यह सब तुम ने कब सोचा?’’ नंदिता आश्चर्य मिश्रित स्वर में बोली.

‘‘यह तो हम लोगों ने बहुत पहले से सोचा था बस परीक्षा खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं,’’ नवीन खातेखाते बोला.

‘‘और पिकअप वैन कहां से लाओगे? वह तो बहुत महंगी मिलती है?’’

‘‘अरे दीदी उस की चिंता मत करो. हम लोग नई पिकअप नहीं लेंगे. साहिल के पापा पहले पिकअप चलाते थे जो अब जर्जर अवस्था में है लेकिन मरम्मत के बाद वह फूड वैन बनाने के काबिल हो जाएगी.’’

‘‘फिर भी कुछ तो खर्च आएगा. बरतन आदि की भी तो जरूरत पड़ेगी?’’

‘‘उन सब का इंतजाम हो चुका है. आप चिंता मत कीजिए. मैं तो बस इतना चाहता हूं कि जल्द से जल्द यह फूड वैन चालू हो जाए ताकि मैं आप और मां की जिम्मेदारी अच्छे से उठा लूं. उस के बाद आप के पास नौकरी करने की विवशता भी नहीं रहेगी.आपका मन करेगा तो कीजिएगा नहीं तो नहीं कीजिएगा.’’

‘‘तू ऐसा क्यों बोल रहा है?’’

तो नवीन रोष में आते हुए बोला, ‘‘दीदी, क्या मुझे पता नहीं है आप का मालिक कितना

घटिया आदमी है. जब मैं उस दिन आप के औफिस गया था तो वह आप को काफी गंदी नजरों से देख रहा था.’’

नंदिता नवीन के आगे निरुत्तर थी. वह उसे क्या बताती कि दुनिया के सारे मर्द गैरलड़की के लिए जानवर ही होते हैं. बहुत कम किसी की बहनबेटी को बहनबेटी सम?ाते हैं.

‘‘ठीक है तुम्हारा काम शुरू हो जाएगा

तो मैं अपनी नौकरी के बारे में फिर से विचार करूंगी.’’

नवीन मुसकराते हुए चला गया.

नंदिता के मन में कहीं गहरे संतोष उतरने लगा. अब वह ज्यादा दिन मजबूर नहीं रहेगी और न किसी की गलत हरकतों को बरदाश्त करना पड़ेगा. इस सोच ने ही उस के चेहरे पर ढेर सारी मुसकराहट बिखेर दी. जैसे सवेरा होते ही आसमान में सूरज की सुनहरी किरणें फैल जाती हैं जैसे बादलों को चीर कर सूरज निकल आया हो.

लिफाफाबंद चिट्ठी : ट्रेन में चढ़ी वह महिला क्यों मदद की गुहार लगा रही थी

मैंने घड़ी देखी. अभी लगभग 1 घंटा तो स्टेशन पर इंतजार करना ही पड़ेगा. कुछ मैं जल्दी आ गया था और कुछ ट्रेन देरी से आ रही थी. इधरउधर नजरें दौड़ाईं तो एक बैंच खाली नजर आ गई. मैं ने तुरंत उस पर कब्जा कर लिया. सामान के नाम पर इकलौता बैग सिरहाने रख कर मैं पांव पसार कर लेट गया. अकेले यात्रा का भी अपना ही आनंद है. सामान और बच्चों को संभालने की टैंशन नहीं. आराम से इधरउधर ताकाझांकी भी कर लो.

स्टेशन पर बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी. पर जैसे ही कोई ट्रेन आने को होती, एकदम हलचल मच जाती. कुली, ठेले वाले एकदम चौकन्ने हो जाते. ऊंघते यात्री सामान संभालने लगते. ट्रेन के रुकते ही यात्रियों के चढ़नेउतरने का सिलसिला शुरू हो जाता. उस समय यह निश्चित करना मुश्किल हो जाता था कि ट्रेन के अंदर ज्यादा भीड़ है या बाहर? इतने इतमीनान से यात्रियों को निहारने का यह मेरा पहला अवसर था. किसी को चढ़ने की जल्दी थी, तो किसी को उतरने की. इस दौरान कौन खुश है, कौन उदास, कौन चिंतित है और कौन पीडि़त यह देखनेसमझने का वक्त किसी के पास नहीं था.

किसी का पांव दब गया, वह दर्द से कराह रहा है, पर रौंदने वाला एक सौरी कह चलता बना. ‘‘भैया जरा साइड में हो कर सहला लीजिए,’’ कह कर आसपास वाले रास्ता बना कर चढ़नेउतरने लगे. किसी को उसे या उस के सामान को चढ़ाने की सुध नहीं थी. चढ़ते वक्त एक महिला की चप्पलें प्लेटफार्म पर ही छूट गईं. वह चप्पलें पकड़ाने की गुहार करती रही. आखिर खुद ही भीड़ में रास्ता बना कर उतरी और चप्पलें पहन कर चढ़ी.

मैं लोगों की स्वार्थपरता देख हैरान था. क्या हो गया है हमारी महानगरीय संस्कृति को? प्रेम, सौहार्द और अपनेपन की जगह हर किसी की आंखों में अविश्वास, आशंका और अजनबीपन के साए मंडराते नजर आ रहे थे. मात्र शरीर एकदूसरे को छूते हुए निकल रहे थे, उन के मन के बीच का फासला अपरिमित था. मुझे सहसा कवि रामदरश मिश्र की वह उपमा याद आ गई, ‘कैसा है यह एकसाथ होना, दूसरे के साथ हंसना न रोना. क्या हम भी लैटरबौक्स की चिट्ठियां बन गए हैं?’

इस कल्पना के साथ ही स्टेशन का परिदृश्य मेरे लिए सहसा बदल गया. शोरशराबे वाला माहौल निस्तब्ध शांति में तबदील हो गया. अब वहां इंसान नहीं सुखदुख वाली अनंत चिट्ठियां अपनीअपनी मंजिल की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थीं. लेकिन कोई किसी से नहीं बोल रही थी. मैं मानो सपनों की दुनिया में विचरण करने लगा था.

‘‘हां, यहीं रख दो,’’ एक नारी स्वर उभरा और फिर ठकठक सामान रखने की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. गोद में छोटे बच्चे को पकड़े एक संभ्रांत सी महिला कुली से सामान रखवा रही थी. बैंच पर बैठने का उस का मंतव्य समझ मैं ने पांव समेट लिए और जगह बना दी. वह धन्यवाद दे कर मुसकान बिखेरती हुई बच्चे को ले कर बैठ गई. एक बार उस ने अपने सामान का अवलोकन किया. शायद गिन रही थी पूरा आ गया है या नहीं? फिर इतमीनान से बच्चे को बिस्कुट खिलाने लगी.

यकायक उस महिला को कुछ खयाल आया. उस ने अपनी पानी की बोतल उठा कर हिलाई. फिर इधरउधर नजरें दौड़ाईं. दूर पीने के पानी का नल और कतार नजर आ रहें थे. उस की नजरें मुड़ीं और आ कर मुझ पर ठहर गईं. मैं उस का मंतव्य समझ नजरें चुराने लगा. पर उस ने मुझे पकड़ लिया, ‘‘भाई साहब, बहुत जल्दी में घर से निकलना हुआ तो बोतल नहीं भर सकी. प्लीज, आप भर लाएंगे?’’

एक तो अपने आराम में खलल की वजह से मैं वैसे ही खुंदक में था और फिर ऊपर से यह बेगार. मेरे मन के भाव शायद मेरे चेहरे पर लक्षित हो गए थे. इसलिए वह तुरंत बोल पड़ी, ‘‘अच्छा रहने दीजिए. मैं ही ले आती हूं. आप थोड़ा टिंकू को पकड़ लेंगे?’’

वह बच्चे को मेरी गोद में पकड़ाने लगी, तो मैं झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं ही ले आता हूं,’’ कह कर बोतल ले कर रवाना हुआ तो मन में एक शक का कीड़ा बुलबुलाया कि कहीं यह कोई चोरउचक्की तो नहीं? आजकल तो चोर किसी भी वेश में आ जाते हैं. पीछे से मेरा बैग ही ले कर चंपत न हो जाए? अरे नहीं, गोद में बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कहां भाग सकती है? लो, बन गए न बेवकूफ? अरे, ऐसों का पूरा गिरोह होता है. महिलाएं तो ग्राहक फंसाती हैं और मर्द सामान ले कर चंपत. मैं ठिठक कर मुड़ कर अपना सामान देखने लगा.

‘‘मैं ध्यान रख रही हूं, आप के सामान का,’’ उस ने जोर से कहा.

मैं मन ही मन बुदबुदाया कि इसी बात का तो डर है. कतार में खड़े और बोतल भरते हुए भी मेरी नजरें अपने बैग पर ही टिकी रहीं. लौट कर बोतल पकड़ाई, तो उस ने धन्यवाद कहा. फिर हंस कर बोली, ‘‘आप से कहा तो था कि मैं ध्यान रख रही हूं. फिर भी सारा वक्त आप की नजरें इसी पर टिकी रहीं.’’

अब मैं क्या कहता? ‘खैर, कर दी एक बार मदद, अब दूर रहना ही ठीक है,’ सोच कर मैं मोबाइल में मैसेज पढ़ने लगा. यह अच्छा जरिया है आजकल, भीड़ में रहते हुए भी निस्पृह बने रहने का.

‘‘आप बता सकते हैं कोच नंबर 3 कहां लगेगा?’’ उस ने मुझ से फिर संपर्कसूत्र जोड़ने की कोशिश की.

‘‘यहीं या फिर थोड़ा आगे,’’ सूखा सा जवाब देते वक्त अचानक मेरे दिमाग में कुछ चटका कि ओह, यह भी मेरे ही डब्बे में है? मेरी नजरें उस के ढेर सारे सामान पर से फिसलती हुईं अपने इकलौते बैग पर आ कर टिक गईं. अब यदि इस ने अपना सामान चढ़वाने में मदद मांगी या बच्चे को पकड़ाया तो? बच्चू, फूट ले यहां से. हालांकि ट्रेन आने में अभी 10 मिनट की देर थी. पर मैं ने अपना बैग उठाया और प्लेटफार्म पर टहलने लगा.

कुछ ही देर में ट्रेन आ पहुंची. मैं लपक कर डब्बे में चढ़ा और अपनी सीट पर जा कर पसर गया. अभी मैं पूरी तरह जम भी नहीं पाया था कि उसी महिला का स्वर सुनाई दिया, ‘‘संभाल कर चढ़ाना भैया. हां, यह सूटकेस इधर नीचे डाल दो और उसे ऊपर चढ़ा दो… अरे भाई साहब, आप की भी सीट यहीं है? चलो, अच्छा है… लो भैया, ये लो अपने पूरे 70 रुपए.’’

मैं ने देखा वही कुली था. पैसे ले कर वह चला गया. महिला मेरे सामने वाली सीट पर बच्चे को बैठा कर खुद भी बैठ गई और सुस्ताने लगी. मुझे उस से सहानुभूति हो आई कि बेचारी छोटे से बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कैसे अकेले सफर कर रही है? पर यह सहानुभूति कुछ पलों के लिए ही थी. परिस्थितियां बदलते ही मेरा रुख भी बदल गया. हुआ यों कि टी.टी. आया तो वह उस की ओर लपकी. बोली, ‘‘मेरी ऊपर वाली बर्थ है. तत्काल कोटे में यही बची थी. छोटा बच्चा साथ है, कोई नीचे वाली सीट मिल जाती तो…’’

मेरी नीचे वाली बर्थ थी. कहीं मुझे ही बलि का बकरा न बनना पड़े, सोच कर मैं ने तुरंत मोबाइल निकाला और बात करने लगा. टी.टी. ने मुझे व्यस्त देख पास बैठे दूसरे सज्जन से पूछताछ आरंभ कर दी. उन की भी नीचे की बर्थ थी. वे सीटों की अदलाबदली के लिए राजी हो गए, तो मैं ने राहत की सांस ले कर मोबाइल पर बात समाप्त की. वे सज्जन एक उपन्यास ले कर ऊपर की बर्थ पर जा कर आराम से लेट गए. महिला ने भी राहत की सांस ली.

‘‘चलो, यह समस्या तो हल हुई… मैं जरा टौयलेट हो कर आती हूं. आप टिंकू को देख लेंगे?’’ बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह उठ कर चल दी. मुझ जैसे सज्जन व्यक्ति से मानो इनकार की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी.

मैं ने सिर थाम लिया कि इस से तो मैं सीट बदल लेता तो बेहतर था. मुझे आराम से उपन्यास पढ़ते उन सज्जन से ईर्ष्या होने लगी. उस महिला पर मुझे बेइंतहा गुस्सा आ रहा था कि क्या जरूरत थी उसे एक छोटे बच्चे के संग अकेले सफर करने की? मेरे सफर का सारा मजा किरकिरा कर दिया. मैं बैग से

अखबार निकाल कर पढ़े हुए अखबार को दोबारा पढ़ने लगा. वह महिला तब तक लौट आई थी.

‘‘मैं जरा टिंकू को भी टौयलेट करा लाती हूं. सामान का ध्यान तो आप रख ही रहे हैं,’’ कहते हुए वह बच्चे को ले कर चली गई. मैं ने अखबार पटक दिया और बड़बड़ाया कि हां बिलकुल. स्टेशन से बिना पगार का नौकर साथ ले कर चढ़ी हैं मैडमजी, जो कभी इन के बच्चे का ध्यान रखेगा, कभी सामान का, तो कभी पानी भर कर लाएगा…हुंह.

तभी पैंट्रीमैन आ गया, ‘‘सर, आप खाना लेंगे?’’

‘‘हां, एक वैज थाली.’’

वह सब से पूछ कर और्डर लेने लगा. अचानक मुझे उस महिला का खयाल आया कि यदि उस ने खाना और्डर नहीं किया तो फिर स्टेशन से मुझे ही कुछ ला कर देना पड़ेगा या शायद शेयर ही करना पड़ जाए. अत: बोला, ‘‘सुनो भैया, उधर टौयलेट में एक महिला बच्चे के साथ है. उस से भी पूछ लेना.’’

कुछ ही देर में बच्चे को गोद में उठाए वह प्रकट हो गई, ‘‘धन्यवाद, आप ने हमारे खाने का ध्यान रखा. पर हमें नहीं चाहिए. हम तो घर से काफी सारा खाना ले कर चले हैं. वह रामधन है न, हमारे बाबा का रसोइया उस ने ढेर सारी सब्जी व पूरियां साथ रख दी हैं. बस, जल्दीजल्दी में पानी भरना भूल गया, बल्कि हम तो कह रहे हैं आप भी मत मंगाइए. हमारे साथ ही खा लेना.’’

मैं ने कोई जवाब न दे कर फिर से अखबार आंखों के आगे कर लिया और सोचने लगा कि या तो यह महिला निहायत भोली है या फिर जरूरत से ज्यादा शातिर. हो सकता है खाने में कुछ मिला कर लाई हो. पहले भाईचारा गांठ रही है और फिर… मुझे सावधान रहना होगा. इस का आज का शिकार निश्चितरूप से मैं ही हूं.

जबलपुर स्टेशन आने पर खाना आ गया था. मैं कनखियों से उस महिला को खाना निकालते और साथ ही बच्चे को संभालते देख रहा था. पर मैं जानबूझ कर अनजान बना अपना खाना खाता रहा.

‘‘थोड़ी सब्जीपूरी चखिए न. घर का बना खाना है,’’ उस ने इसरार किया.

‘‘बस, मेरा पेट भर गया है. मैं तो नीचे स्टेशन पर चाय पीने जा रहा हूं,’’ कह मैं फटाफट खाना खत्म करते हुए वहां से खिसक लिया कि कहीं फिर पानी या और कुछ न मंगा ले.

‘‘हांहां, आराम से जाइए. मैं आप के सामान का खयाल रख लूंगी.’’

‘ओह, बैग के बारे में तो भूल ही गया था. इस की नजर जरूर मेरे बैग पर है. पर क्या ले लेगी? 4 जोड़ी कपड़े ही तो हैं. यह अलग बात है कि सब अच्छे नए जोड़े हैं और आज के जमाने में तो वे ही बहुत महंगे पड़ते हैं. पर छोड़ो, बाहर थोड़ी आजादी तो मिलेगी. इधर तो दम घुटने लगा है,’ सोचते हुए मैं नीचे उतर गया. चाय पी तो दिमाग कुछ शांत हुआ. तभी मुझे अपना एक दोस्त नजर आ गया. वह भी उसी गाड़ी में सफर कर रहा था और चाय पीने उतरा था. बातें करते हुए मैं ने उस के संग दोबारा चाय पी. मेरा मूड अब एकदम ताजा हो गया था. हम बातों में इतना खो गए कि गाड़ी कब खिसकने लगी, हमें ध्यान ही न रहा. दोस्त की नजर गई तो हम भागते हुए जो डब्बा सामने दिखा, उसी में चढ़ गए. शुक्र है, सब डब्बे अंदर से जुड़े हुए थे. दोस्त से विदा ले कर मैं अपने डब्बे की ओर बढ़ने लगा. अभी अपने डब्बे में घुसा ही था कि एक आदमी ने टोक दिया, ‘‘क्या भाई साहब, कहां चले गए थे? आप की फैमिली परेशान हो रही है.’’

आगे बढ़ा तो एक वृद्ध ने टोक दिया, ‘‘जल्दी जाओ बेटा. बेचारी के आंसू निकलने को हैं,’’ अपनी सीट तक पहुंचतेपहुंचते लोगों की नसीहतों ने मुझे बुरी तरह खिझा दिया था.

मैं बरस पड़ा, ‘‘नहीं है वह मेरी फैमिली. हर किसी राह चलते को मेरी फैमिली बना देंगे आप?’’

‘‘भैया, वह सब से आप का हुलिया बताबता कर पूछ रही थी, चेन खींचने की बात कर रही थी. तब किसी ने बताया कि आप जल्दी में दूसरे डब्बे में चढ़ गए हैं. चेन खींचने की जरूरत नहीं है, अभी आ जाएंगे तब कहीं जा कर मानीं,’’ एक ने सफाई पेश की.

‘‘क्या चाहती हैं आप? क्यों तमाशा बना रही हैं? मैं अपना ध्यान खुद रख सकता हूं. आप अपना और अपने बच्चे का ध्यान रखिए. बहुत मेहरबानी होगी,’’ मैं ने गुस्से में उस के आगे हाथ जोड़ दिए.

इस के बाद पूरे रास्ते कोई कुछ नहीं बोला. एक दमघोंटू सी चुप्पी हमारे बीच पसरी रही. मुझे लग रहा था मैं अनावश्यक ही उत्तेजित हो गया था. पर मैं चुप रहा. मेरा स्टेशन आ गया था. मैं उस पर फटाफट एक नजर भी डाले बिना अपना बैग उठा कर नीचे उतर गया. अपना वही दोस्त मुझे फिर नजर आ गया तो मैं उस से बतियाने रुक गया. हम वहीं खड़े बातें कर रहे थे कि एक अपरिचित सज्जन मेरी ओर बढ़े. उन की गोद में उसी बच्चे को देख मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे उस महिला के पति होंगे.

‘‘किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं? संजना बता रही है, आप ने पूरे रास्ते उस का और टिंकू का बहुत खयाल रखा. वह दरअसल अपने बीमार बाबा के पास पीहर गई हुई थी. मैं खुद उसे छोड़ कर आया था. यहां अचानक मेरे पापा को हार्टअटैक आ गया. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. संजना को पता चला तो आने की जिद पकड़ बैठी. मैं ने मना किया कि कुछ दिनों बाद मैं खुद लेने आ जाऊंगा पर उस से रहा नहीं गया. बस, अकेले ही चल पड़ी. मैं कितना फिक्रमंद हो रहा था…’’

‘‘मैं ने कहा था न आप को फिक्र की कोई बात नहीं है. हमें कोई परेशानी नहीं होगी. और देखो ये भाई साहब मिल ही गए. इन के संग लगा ही नहीं कि मैं अकेली सफर कर रही हूं.’’

मैं असहज सा महसूस करने लगा. मैं ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओह, 5 बज गए. मैं चलता हूं… क्लाइंट निकल जाएगा,’’ कहते हुए मैं आगे बढ़ते यात्रियों में शामिल हो गया. लिफाफाबंद चिट्ठियों की भीड़ में एक और चिट्ठी शुमार हो गई थी.

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