अधिकार: मां के प्यार से क्यों वंचित था कुशल?

मां के होते हुए भी बचपन से उस के प्यार को तरसते हुए कुशल का मन कड़वाहट से भर गया था. पर आशा के मिलने के बाद प्रेम और स्नेह के एहसास से उस का दिल भर उठा था. लेकिन परिस्थितियां हर बार उसे आशा के पास आने के बजाय दूर ढकेल रही थीं.

त्योहार पर घर गया तो ताऊजी ने फिर से अपनी जिद दोहरा दी. वे चाहते थे कि मैं शादी कर लूं. जबकि मुझे शादी के नाम से चिढ़ होने लगती थी. हालांकि ताईजी ने मुझे सदा पराया ही समझा, पर ताईजी ने

मेरे लिए अपनी ममता की धारा कभी सूखने नहीं दी. मेरी मां मेरी कड़वाहट की एक बड़ी वजह थी, जिस ने मेरे

भीतर की सभी कोमल भावनाओं को जला दिया था, परंतु ताऊजी कभी भी मेरी मां के खिलाफ कुछ सुनना पसंद नहीं करते थे. वे उस के लिए सुरक्षाकवच जैसे थे. एक बार जब मैं मां के खिलाफ बोला था तो उन्होंने मुझ पर हाथ उठा दिया था.

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छुट्टी के बाद मैं वापस चला आया. अस्पताल में आते ही वार्ड कर्मचारी ने एक महिला से मिलाया, जो कुछ महीने पहले गुजर गई एक अनाथ बच्ची के बारे में पूछताछ कर रही थी. मेरी नजर उस महिला पर टिक गई. 3 साल की उस बच्ची, जो मेरी मरीज थी, से उस औरत की सूरत काफी मिलतीजुलती थी.

जब मैं ने उस महिला से बात की तो पता चला, वह उस बच्ची की मां है. उस की बात सुन मैं हैरान रह गया कि इतनी संभ्रांत महिला और उस की संतान लावारिस मर गई? वह महिला अनाथालय से मेरा पता ले कर आई थी.

‘‘वह बच्ची कैसी थी?’’ उस के भर्राए स्वर पर मेरे अंदर की कड़वाहट जबान पर चली आई.

‘‘अब राख कुरेदने से क्या होगा, जो हो गया, सो हो गया,’’ मैं उसे रोता, सुबकता छोड़़ कर चला आया और सोचने लगा कि जिंदा बच्ची को तो पूछा नही, अब आंसू बहाने यहां चली आई है.

अकसर मेरी शामें घर के पास शांत समुद्रतट पर गुजरती थीं. अपने काम से बचाखुचा समय मैं लहरों से ही बांटता था. गीली रेत का घर बनाना मुझे अच्छा लगता था. उस शाम भी वहां बैठाबैठा मैं कितनी देर मुन्नी के ही विषय में सोचता रहा.

दूसरे दिन भी उस औरत ने मुझ से मिलना चाहा, मगर मैं ने टाल दिया. पता नहीं क्यों, मुझे औरतों से नफरत होती, विशेषकर ऐसी औरतों से जो अपनी संतान को अनाथ कर कहीं दूर चली जाती हैं. हर औरत में अपनी मां की छवि नजर आती, लेकिन हर औरत ममता से शून्य महसूस होती.

कुछ दिनों बाद एकाएक वार्ड में उसी औरत को देख मैं चौंक पड़ा. पता चला, आधी रात को कुछ पुलिसकर्मी उसे यहां पहुंचा गए थे. पूछताछ करने पर पता चला कि 2 दिनों से उसे कोई भी देखने नहीं आया. मैं सोचने लगा, क्या यह औरत इस शहर में अकेली है?

वह रात मैं ने उस की देखभाल में ही बिताई. सुबहसुबह उस ने आंखें खोलीं तो मैं ने पूछा, ‘‘आप कैसी हैं?’’ लेकिन उस ने कोई जवाब न दिया.

दूसरी सुबह पता चला कि वह अस्पताल से चली गई है. शाम को घर गया तो ताऊजी का पत्र खिड़की के पास पड़ा मिला. उन्होंने लिखा कि उन्हें मुझ पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था, मगर मेरा व्यवहार ही अशोभनीय था, जिस पर उन्हें क्रोध आ गया.

मैं यह जानता था कि मेरा व्यवहार अशोभनीय था, परंतु मेरे साथ जो हुआ था उस की शिकायत किस से करता? जब मैं बहुत छोटा था, तभी मां हाथ छुड़ा कर चली गई थी.

मैं चाय बनाने में व्यस्त था कि द्वार की घंटी बजी. दरवाजा खोलने पर देखा कि सामने वही औरत खड़ी है. मैं ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप…आइए…’’

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उसे बिठाने के बाद मैं चाय ले आया. फिर गौर से उस के समूचे व्यक्तित्व को निहारा. साफसुथरा रूप और कानों में छोटेछोटे सफेद मोती. याद आया, मेरी मां के कानों में भी सफेद हीरे दमकते रहते थे. जब भी कभी ताऊजी की उंगली पकड़े उस से मिलने जाता, उन हीरों की चमक से आंखें चौंधिया जातीं. मैं मां के रूप में ममत्व का भाव ढूंढ़ता रहता, पर वह पलभर भी मेरे पास न बैठती.

वह औरत धीरे से बोली, ‘‘मैं ने आप को बहुत परेशान किया. मेरी बेटी की वजह से आप को बहुत तकलीफ हुई.’’

‘‘वह तो मेरा फर्ज था,’’ मैं ने गौर से उस की ओर देखते हुए कहा.

‘‘एक मां होने के नाते यह संतोष व्यक्त करने चली आई कि आप ने उस की मौत आसान कर के मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है. उस दुखियारी को आखिरी वक्त पर किसी का सहारा तो मिला,’’ यह कहने के साथ वह मेज पर फूलों का एक गुलदस्ता रख कर चली गई.

दूसरी शाम मैं सागरतट पर बैठा था, तभी वह औरत एक छाया की तरह सामने चली आई और बोली, ‘‘क्या आप के पास बैठ सकती हूं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. बैठिए.’’

चंद पलों के बाद उस ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘वह मुन्नी देखने में कैसी थी?’’

‘‘जी?’’ मैं उस के प्रश्न पर चौंका कि फिर से वही प्रश्न, जो उस दिन भी किया था.

‘‘आप भी सोचते होंगे, मैं कैसी मां हूं, जिसे यह भी नहीं पता कि उस की बेटी कैसी थी. जब मेरे पति की ऐक्सिडैंट में मौत हुई, उस समय बच्ची का जन्म नहीं हुआ था. मेरे ससुराल वालों ने पति के जाते ही आंखें फेर लीं.

‘‘फिर जब बच्ची का जन्म हुआ तो मेरे ही मांबाप उसे अनाथालय में छोड़ गए. वे मुझे यही बताते रहे कि मृतबच्चा पैदा हुआ था.’’

‘‘उस के बाद क्या हुआ?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘उस के बाद क्या होता. मेरी बसीबसाई गृहस्थी उजड़ गई. खाली हाथ रह गई. पति और बच्ची की कोई भी निशानी नहीं रही मेरे पास.’’

‘‘लेकिन आप के मांबाप ने ऐसा क्यों किया?’’ मैं पूछे बिना रह न सका.

‘‘डाक्टर साहब, एक बच्ची की मां की दूसरी शादी

कैसे होती. इसलिए उन्होंने शायद यही उचित समझा,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.

‘‘तो क्या आप ने शादी की?’’

‘‘नहीं, बहुत चाहा कि अतीत को काट कर फेंक दूं. परंतु ऐसा नहीं हुआ. अतीत कोई वस्त्र तो नहीं है न, जिसे आप जब चाहें बदल लें,’’ अपने आंसू पोंछ वह बोली, ‘‘अभी कुछ दिनों पहले मेरी मां भी चल बसी. पर मरतमरते मुझ पर एक एहसान कर गई. मुझे बताया कि मेरी बेटी जिंदा है. तब मैं ने सोचा कि मांबेटी साथसाथ रहेंगी तो जीना आसान हो जाएगा. लेकिन यहां आ कर पता चला कि वह भी नहीं बची.’’

मेरा मन भर आया था. मैं हमेशा अपनी मां के स्वार्थ को नियति मान कर उस से समझौता करता रहा. मैं सोचने लगा, क्या मेरी मां अकेले रह मुझे पाल नहीं सकती थी? जो औरत मेरे सामने बैठी थी उसे मैं नहीं जानता था, मगर यह सत्य था कि वह जो भी थी, कम से कम रिश्तों के प्रति ईमानदार तो थी. मेरी मां की तरह स्वार्थी और कठोर नहीं थी.

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मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी बहुत मासूम थी, बहुत ही प्यारी.’’

‘‘वह कैसी बातें करती थी?’’

‘‘अभी बहुत छोटी थी न, 3 साल का बच्चा भला कैसी बातें कर सकता है.’’

‘‘मरने से पहले क्या वह बहुत तड़पी थी? क्या उसे बहुत तकलीफ हुई थी?’’

‘‘नहीं, तड़पी तो नहीं थी लेकिन बहुत कमजोर हो गई थी. हमेशा मेरे गले से ही लिपटी रही थी,’’ कहते हुए मैं ने हाथ उठा कर उस का कंधा थपथपा दिया, ‘‘आप जब चाहें, मेरे पास चली आएं. मुन्नी के बारे में मुझे जो भी याद होगा, बताता रहूंगा.’’

बाद में पता चला कि वह बैंक में कार्यरत है. हर शाम वह सागरतट पर मेरे पास आ जाती. अपनी बच्ची का पूरा ब्योरा मुझ से लेती और रोती हुई लौट जाती. वह नईनई कोचीन आई थी, किसी से भी तो उस की जानपहचान न थी.

उस की बातें दिवंगत पति और अनदेखी बच्ची के दायरे से बाहर कभी जाती ही नहीं थीं. मैं चुपचाप उस के अतीत में जीता रहता. कभीकभी विषय बदलने की कोशिश भी करता कि इतने तनाव से कहीं उस की मानसिक हालत ही न बिगड़ जाए.

एक शाम जब मैं घर आया तो ताऊजी को बाहर इंतजार करते पाया. मैं उन की आवभगत में लग गया. मगर मेरे सारे स्नेह को एक तरफ झटक वे नाराजगी से बोले, ‘‘आशा को कब से जानते हो? जानते हो, वह विधवा है? क्या रिश्ता बांधना चाहते हो उस से?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. वह दुखी है. अकसर मेरे पास चली आती है.’’

‘‘अच्छा. क्या तुम उस का इलाज करते हो? देखो कुशल, मैं नहीं चाहता, तुम उस से मेलजोल बढ़ाओ. उस की दिमागी हालत खराब रही है. उस ने बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला है.’’

‘‘उसे पागल बनाने में उस के मांबाप का भी दोष है. क्यों उस की बच्ची को यहां फेंक गए?’’ मैं ने आशा की सुरक्षा में होंठ खोले, मगर ताऊजी ने फिर चुप करा दिया, ‘‘मांबाप सदा संतान का भला सोचते हैं. सत्येन को जो ठीक लगा, उस ने किया. अब कृपया तुम उस का साथ छोड़ दो.’’

यह सुन कर मैं स्तब्ध रह गया कि आशा, ताऊजी के मित्र सत्येन की पुत्री है. वे एक दिन रह कर चले गए, मगर मेरा पूरा अस्तित्व एक प्रश्नचिह्न के घेरे में कैद कर गए, मैं सोचने लगा, क्या आशा से मिल कर मैं कोई अपराध कर रहा हूं? ताऊजी को इस मेलजोल से क्या आपत्ति है?

रात की ड्यूटी थी. सो, 2 दिनों से मैं तट पर नहीं जा पाया था. रात के 11 बजे थे, तभी अचानक आशा को अपने सामने पाया. उस के कपड़े भीगे थे और उन पर रेत चमक रही थी. जाहिर था, अब तक वह अकेली सागरतट पर बैठी रही होगी.

फटीफटी आंखों से उस ने मुझे देखा तो मैं ने साधिकार उस का हाथ पकड़ लिया. फिर अपने कमरे में ला कर उसे कुरसी पर बिठाया.

उस के पैरों के पास साड़ी को रक्तरंजित पाया. झट से उस का पैर साफ कर के मैं ने पट्टी बांधी.

‘‘मैं आप को बहुत तकलीफ देती हूं न. अब कभी आप के पास नहीं आऊंगी,’’ उस की बात सुन मैं चौंक उठा.

वह आगे बोली, ‘‘जो मर गए वे तो छूट गए, पर मैं ही दलदल में फंसी रह गई. मेरा ही दोष था जो आप के पास आती रही. सच, आप को ले कर मैं ने कभी वैसा नहीं सोचा, जैसा आप के ताऊजी ने सोचा. मैं तो अपनी मरी हुई बच्ची के  लिए आती रही, क्योंकि आखिरी समय आप ही उस के पास थे. मैं मुन्नी की कसम खाती हूं, मेरे मन में आप के लिए…’’

‘‘बस, आशा,’’ मैं ने उसे चुप करा दिया. फिर धीरे से उस का कंधा थपथपाया, ‘‘ताऊजी की ओर से मैं तुम से क्षमा मांगता हूं. तुम जब भी चाहे, मेरे पास चली आना.’’

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थोड़ी देर बाद जब वह जाने लगी तो मैं ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया. मैं ने उसे इतनी रात गए जाने नहीं दिया था, सुबह होने तक रोक लिया था. टिटनैस का टीका लगा कर वहीं अपने बिस्तर पर सुला दिया था और खुद पूरी रात बरामदे में बिताई थी. सुबह राउंड से वापस आया तो पाया, मेरा शौल वहीं छोड़ वह जा चुकी थी.

उस के बाद वह मुझ से मिलने नहीं आई. उस के घर का मुझे पता नहीं था और बैंक फोन करता तो वह बात करने से ही इनकार कर देती.

एक सुबह 10 बजे उस के बैंक चला गया. मुझे देखते ही वह भीतर चली गई. उस के पीछे जा कर तमाशा नहीं बनना था, सो हार कर वापस चला आया. परंतु असंतुलित मन ने उस दिन मेरा साथ न दिया, मोटरसाइकिल को बीच सड़क में ला पटका.

ऐक्सिडैंट की बात सुन ताऊजी भागे चले आए. थोड़ी देर बाद मैं ने कहा, ‘‘ताऊजी, आशा को सूचित कर दीजिए. मैं उस से मिलना चाहता हूं.’’

क्षणभर को ताऊजी चौंक गए थे, फिर बोले, ‘‘क्या, बहुत तकलीफ है?’’

जी चाह रहा था, ताऊजी से झगड़ा करूं, मगर लिहाज का मारा मैं चुप था. बारबार मन में आता कि ताऊजी से

पूछूं कि उन्होंने आशा का अपमान

क्यों किया था? क्यों मुझे इस आग में ढकेल दिया?

ताऊजी मेरे जख्मी शरीर को सहलाते हुए बोले, ‘‘कुशल, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

अचानक मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘मैं आशा से मिलना चाहता हूं.’’

‘‘लेकिन उस से तो तुम्हारा कोई रिश्ता ही नहीं है. तुम्हीं ने तो

कहा था.’’

‘‘हां, मैं ने कहा था और अब भी मैं ही कह रहा हूं कि उस से रिश्ता बांधना चाहता हूं.’

‘‘वह तो विधवा है, भला उस से तुम्हारा रिश्ता कैसे?’’

‘‘क्या विधवा का पुनर्विवाह नहीं हो सकता?’’

‘‘हो क्यों नहीं सकता, मैं तो हमेशा इस पक्ष में रहा हूं.’’

‘‘तो फिर आप आशा के खिलाफ क्यों हैं?’’

‘‘क्योंकि तुम इस पक्ष में कभी नहीं रहे. तुम अपनी मां से इतनी नफरत करते हो. जानते हो न उस का कारण क्या है? उस का पुनर्विवाह ही इस घृणा का कारण है. जो इंसान अपनी मां के साथ न्याय नहीं कर पाया, वह अपनी पत्नी से इंसाफ कैसे करेगा?’’

मैं ने हिम्मत कर के कुछ कहना चाहा, मगर तब तक ताऊजी जा चुके थे. मैं सोचने लगा, क्यों ताऊजी आशा को मुझ से दूर करना चाहते हैं? किस अपराध की सजा देना चाहते हैं?

तभी कंधे पर किसी ने हाथ रखा. मुड़ कर देखा, आशा ही तो सामने खड़ी थी.

‘‘यह क्या हो गया?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

मेरा जी चाहा कि उस की गोद में समा कर सारी वेदना से मुक्ति पा लूं. लेकिन वह पास बैठी ही नहीं, थोड़ी देर सामने बैठ कर चली गई.

एक दिन आशा का पीछा करते मैं

ने उस का घर देख लिया. दूसरे

दिन सुबहसवेरे उस का द्वार खटखटा दिया. वह मुझे सामने पा कर हैरान रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘नाराज मत होना. नाश्ता करने आया हूं.’’

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‘‘मैं यहां अकेली रहती हूं, कोई क्या सोचेगा. आप यहां क्यों चले आए?’’

‘‘तुम भी तो मेरे पास चली आती थीं, मैं ने तो कभी मना नहीं किया.’’

‘‘वह मेरी भूल थी. मेरा पागलपन था.’’

‘‘और यह मेरा पागलपन है. मुझे तुम्हारी जरूरत है. मैं तुम्हारे साथ एक रिश्ता बांधना चाहता हूं. चाहता हूं, तुम हमेशा मेरी आंखों के सामने रहो,’’ समीप जा कर मैं ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘तुम से पहले मेरा जीवन आराम से चल रहा था, कहीं कोई हलचल न थी. मुझे ज्यादा नहीं चाहिए. बस, थोड़ा सा ही प्यार दे दो. देखो आशा, मैं तुम्हारे किसी भी अधिकार में हस्तक्षेप नहीं करूंगा. तुम अगर अपने दिवंगत पति के साथ मुझे बांटना न चाहो, तो मत बांटो.’’

‘‘जानते हो, मुझे अभी भी पागलपन के दौरे पड़ते हैं,’’ वह मेरी आंखों में झांकते हुए बोली.

‘‘पागल लोग बैंक में इतनी अच्छी तरह काम नहीं कर सकते. तुम पागल नहीं हो. तुम पागल नहीं…’’

मेरे हाथ से बांह छुड़ा कर वह भीतर चली गई.

मैं भी तेज कदमों से उस के पीछेपीछे गया और तनिक ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मुझे जो कहना था, कह दिया. अब चलता हूं, नाश्ता फिर किसी दिन.’’

‘‘कुशल,’’ आशा ने पुकारा, परंतु मैं रुका नहीं.

मैं शाम तक बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पाया. मुझे फिर सामने पा कर आशा एक बार फिर तनाव से भर उठी. पर खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आइए. बैठिए. मैं चाय ले कर आती हूं…’’

‘‘नहीं, तुम मेरे पास बैठो, चाय की इच्छा नहीं है.’’

आशा मेरे पास बैठ गई. मैं अपने विषय में सबकुछ बताता रहा और वह सुनती रही.

‘‘तुम्हीं कहो, अगर मैं तुम से शादी करना चाहूं तो गलत क्या है? 25 साल पहले अगर ताऊजी मेरी मां का पुनर्विवाह करा सकते थे, तो अब तुम नया जीवन आरंभ क्यों नहीं कर सकतीं?’’

‘‘आप के साथ जो हुआ, वह मां के पुनर्विवाह की वजह से ही हुआ न? आप अपनी मां का सम्मान नहीं कर पाते, उन के पति को अपना पिता स्वीकार नहीं करते. इस अवस्था में आप मेरा सम्मान कैसे करेंगे?

‘‘अगर आप पुनर्विवाह को बुरा नहीं मानते तो पहले अपनी मां का सम्मान कीजिए, उन से नाता जोडि़ए.’’

मैं आशा की दलील पर खामोश था. उस की दलील में दम था और उस का तुरंत कोई तोड़ मेरी समझ में न आया. आशा के मोह में बंधा, बस, इतना ही कह पाया, ‘‘अगर तुम चाहती हो, तो उन लोगों से नाता जोड़ने में मुझे कोई परेशानी नहीं है.’’

‘‘मेरी इच्छा पर ही ऐसा  क्यों…क्या आप अपने मन से ऐसा नहीं चाहते?’’

‘‘मैं ने कहा न कि मैं इतना तरस चुका हूं कि कोई इच्छा अब जिंदा नहीं रही. मां ने जो भी किया, हो सकता है, उस की गृहस्थी के लिए वही अच्छा हो. यह सच ही है कि अतीत के भरोसे जीवन नहीं कटता और न ही मरने वाले के साथ इंसान मर ही सकता है. जो भी हुआ होगा, शायद अच्छे के लिए ही हुआ होगा, मगर इस सारे झमेले में मैं तो कहीं का नहीं रहा.’’

मेरे कंधे पर पड़ा शौल सरक गया था. एकाएक आशा बोली, ‘‘अरे, आप की बांह अभी भी…’’

‘‘हां, 3 हफ्ते का प्लास्टर है न.’’ मुझे ऐसा लगा, जैसे उस ने कुछ नया ही देख लिया, झट पास आ कर उस ने शौल मेरी पीठ से भी सरका दी, ‘‘आप के कपड़ों पर तो खून के धब्बे हैं.’’

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फिर वह डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘इतनी तकलीफ में भी आप मेरे पास चले आते हैं?’’

‘‘दर्द कम करने ही तो आता हूं. तुम छूती हो तो….’’

‘‘ऐसा क्या है मेरे छूने में?’’

‘‘वह सबकुछ है जो मुझ जैसे इंसान को चाहिए. मगर यह सत्य है, इसे वासना नहीं कहा जा सकता, जैसा शायद ताऊजी ने समझा था.’’

बांह का प्लास्टर खुलने को 2 हफ्ते बाकी थे. इस दौरान आशा ने मुझे संभाल लिया था. वह हर शाम मेरे घर आती और भोजन का सारा प्रबंध करती.

जिस दिन मैं ने प्लास्टर कटवाया, उस दिन सीधा आशा के पास ही चला गया. मुझे स्वस्थ पा कर उस की आंखें भर आईं.

सहसा आशा को छाती से लगा कर मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए. वह मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. आशा के स्पर्श में एक अपनापन था, एक विश्वास था.

प्लास्टर के खुलते ही मैं अस्पताल जाने लगा, मेरी दिनचर्या फिर से शुरू हो गई. एक दिन ताऊजी मिलने चले आए. उन्होंने ही बताया कि मेरी मां के दूसरे पति को दिल का दौरा पड़ा है. तीनों बच्चे अमेरिका में हैं और ऐसी हालत में वह अकेली है. वे सोचते हुए से बोले, ‘‘कुशल, तुम्हें अपने पिता से मिलना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, भला वह इंसान मेरा पिता कैसे हो सकता है जिस ने कभी मुझे मेरी मां से जोड़ने का प्रयास नहीं किया? फिर भी मैं उन से मिलने चला गया. मेरे पहुंचने पर वे बस, मेरा हाथ पकड़े लेटे रहे और फिर सब समाप्त हो गया. अमेरिका से उन के बच्चे भला इतनी जल्दी कैसे आ सकते थे? ताऊजी ने मेरे हाथों ही उन का दाहसंस्कार करवाया. जब मैं लौटने लगा तो ताऊजी ने ही टोक दिया, ‘‘कुछ दिन अपनी मां के पास रह ले, वह अकेली है.’’

मैं 7 दिनों से उस घर में था, पर एक बार भी मां ने मुझे पुकारा नहीं था. उस ने अपने विदेशी बच्चों का नाम लेले कर मृतपति का विलाप तो किया था, मगर मुझ से लिपट कर तो एक बार भी नहीं रोई थी. फिर ऐसी कौन सी डोर थी, जिसे ताऊजी अभी भी गांठ पर गांठ डाल कर जोड़़े रखने का प्रयास कर रहे थे? जब मैं बैग उठा कर चलने लगा, तब मां की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘कुशल से कह दीजिए, आशा से मिले तो बता दे कि उस का काम हो जाएगा. शारदा उस का अधिकार उसे देने को तैयार है.’’

तब जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गईर् थी. ताऊजी की तरफ प्रश्नसूचक भाव से देखा. पता चला, शारदा आशा की सास का नाम है और आशा अपनी ससुराल में अपना स्थान पाने के लिए अकसर मां को फोन करती है.

मैं वापस तो चला आया, परंतु पूरे रास्ते आशा के व्यवहार का अर्थ खोजता रहा. उस ने तो कभी नहीं बताया था कि वह मेरी मां को जानती है और अकसर उन से फोन पर बातचीत करती है.

शाम को मैं अस्पताल में ही था कि आशा चली आई. इतने दिनों बाद उसे देख खून में एक लहर सी उठी. उसे पास तो बिठा लिया, परंतु अविश्वास ने अपना फन न झुकाया.

चंद पलों के बाद वह बोली, ‘‘आप की मां अब अकेली रह गई हैं न. आप उन्हें भी साथ ही ले आते. उन के बच्चे भी तो उन के पास नहीं हैं. आप को उन का सहारा बनना चाहिए.’’

मैं हैरान रह गया और सोचने लगा कि कोई बताए मुझे, तब मुझे किस का सहारा था, जब मां ने 6 साल के बच्चे को ताऊजी की चौखट पर पटका था? क्या उस ने सोचा था कि अनाथ बच्चा कैसे पलेगा? सारे के सारे भाषण मेरे लिए ही क्यों भला? सहसा मुझे याद आया, आशा तो मेरी मां को जानती है. कहीं अपनी ससुराल में अपना अधिकार पाने के लिए मां की वकालत का जिम्मा तो नहीं ले लिया इस ने?

मेरे मन में शक और क्रोध का एक ज्वार सा उठा और आशा को वहीं बैठा छोड़ मैं बाहर निकल गया.

उसी रात मां का फोन आ गया. लेकिन ‘हूं…हां’ में ही बात हुई. मां ने मुझे बुलाया था.

सुबह ही त्रिचूर के लिए गाड़ी पकड़ ली. सोचा था मां की गोद में सिर छिपा कर ढेर सारा ममत्व पा लूंगा, मगर वहां तो उन्होंने एक बलिवेदी सजा रखी थी. ताऊजी भी वहीं थे. पता चला कि मां ने आशा की ननद को मेरे लिए चुन रखा है. उस की तसवीर भी उन्होंने मेरे सामने रख दी, ‘‘नीरा पसंद आएगी तुम्हें…’’

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‘‘नीरा कौन?’’ मैं अवाक रह गया.

‘‘आशा ने तुम्हें सब समझा कर नहीं भेजा? मैं ने उस से कहा था कि तुम्हें अच्छी तरह समझाबुझा कर भेजे. देखो कुशल, मेरी सारी जायदाद तुम्हारी है. मेरे बच्चों ने वापस आने से इनकार कर दिया है. सब तुम्हें दे दूंगी. बस, नीरा के लिए हां कर दो.’’

मैं हक्काबक्का रह गया. हताश नजरों से ताऊजी को देखा और सोचा कि मेरी मां और आशा दोनों ही सौदेबाज निकलीं. आशा को ससुराल में अपना अधिकार चाहिए और उस के लिए उस ने मुझे मेरी मां के हाथों बेच दिया.

शाम को कोचीन पहुंच कर अपना सारा गुस्सा आशा पर उतारा. वह मेरे उठे हुए हाथ को देख सन्न रह गई. उस के आंसू से भरे चेहरे पर कईर् भाव जागे थे. मानो कुछ कहना चाहती हो, मगर मैं रुका ही नहीं. मेरे लिए सब फिर समाप्त हो गया.

एक दिन सुबहसुबह ताऊजी आ पहुंचे. मेरी अस्तव्यस्त दशा पर वे भीग से गए, ‘‘मुन्ना, तुझे क्या हुआ है?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं,’’ जी चाह रहा था, चीखचीख कर आसमान सिर पर उठा लूं.

तभी ताऊजी बोले, ‘‘आशा की सास ने उस का सामान भेजा है, उसे दे आना.’’ उन्होंने एक अटैची की तरफ इशारा किया.

मैं क्रोध से भर उठा कि यही वह सामान है, जिस के लिए आशा मुझे छलती रही. आक्रोश की पराकाष्ठा ही थी जो उठ कर अटैची खोल दी और उस का सारा सामान उलटपलट कर पैरों से रौंद डाला.

तभी एक झन्नाटेदार हाथ मेरे गाल पर पड़ा, ‘‘मुन्ना,’’ ताऊजी चीखे थे, ‘‘एक विधवा से शादी करना चाहते हो, क्या यही सम्मान करोगे उस के पूर्व पति का? अरे, जब तुम उस का सम्मान ही नहीं कर पाओगे तो उस के साथ न्याय क्या करोगे? अतीत की यादों से लिपटी किसी विधवा से शादी करने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए. उस के पति का अपमान कर रहे हो और दावा करते हो कि उस से प्यार करते हो?’’

मेरे पैरों के नीचे शायद आशा के पति की चंद तसवीरें थीं. एक पुरुष के कुछ कपड़े इधरउधर बिखरे पड़े थे. ताऊजी की आंखें आग उगल रही थीं. ऐसा लगा, एक तूफान आ कर चला गया.

थोड़ी देर बाद खुद ही आशा का सामान सहेज कर मैं ने अटैची में रखा और तसवीरें इकट्ठी कर एक तरफ रखीं. फिर अपराधभाव लिए ताऊजी के पास बैठा.

वे गंभीर स्वर में बोले, ‘‘तुम आशा के लायक नहीं हो.’’

‘‘मैं ने सोचा था, उस ने मुझे छला है,’’ मैं धीरे से बोला.

‘‘क्या छला है, उस ने? तुम्हारी मां से यह जरा सामान मंगवाया, पर बदले में क्याक्या दिला दिया तुम्हें. क्या इसी विश्वास के बल पर उस का हाथ पकड़ोगे?’’

मैं चुपचाप रहा था.

‘‘देखो कुशल, आशा मेरी बेटी जैसी है. अगर 25 साल पहले मैं अपनी विधवा भाभी का पुनर्विवाह किसी योग्य पुरुष से करवा सकता था तो अब 25 साल बाद आशा को तुम्हारे जैसे खुदगर्ज से बचा भी सकता हूं. इतना दम है अभी इन बूढ़ी हड्डियों में.’’

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‘‘मैं खुदगर्ज नहीं,’’ बड़ी मुश्किल से मैं ने अपने होंठ खोले. फिर उसी पल आशा का सामान उसे देने गया.

वह मेरे हाथों में विजय का सामान देख कर हतप्रभ थी. अपने पति की तसवीरें देख कर वह हैरान रह गई.

मैं ने धीरे से कहा, ‘‘यह सामान तुम्हारे लिए अमूल्य था. मैं तुम्हारी भावनाओं का बहुत सम्मान करता हूं. पर कम से कम मुझे सच तो बतातीं. लेकिन मेरी मां से क्यों मांगा यह सब? सौदेबाजी क्यों की आशा? क्या मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा?

‘‘तुम ने सोचा, वह औरत जमीन, जायदाद के लोभ से मुझे खरीद लेगी. लेकिन मैं तो पहले से ही तुम्हारे हाथों बेमोल बिक चुका था. क्या कोई बारबार बिक सकता है? फिर यह सामान मंगा कर तुम ने कोई चोरी तो नहीं की? तुम रिश्तों के प्रति ईमानदार हो, तभी तो मैं भी तुम से प्यार करता हूं.’’

आशा मुझे एकटक देख रही थी. मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं रो पड़ा.

आशा ने अटैची खोल कर उस में से विजय के कपड़े निकाले. एकएक कपड़े के साथ उस की एकएक याद जुड़ी थी. फिर वह फफकफफक कर रो पड़ी.

मैं ने आशा को अपनी बांहों में ले लिया. फिर आंसू पोंछ उस का माथा चूम लिया. वह मेरी छाती में समाई बिलखने लगी.

‘‘बस आशा, अब मेरे साथ चलो, ताऊजी आए हुए हैं. आज सारी बात तय हो जाएगी,’’ कहते हुए मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए.

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Short Story: जब मेरे पति को कोरोना वायरस इंफेक्शन हुआ

भारत में अब तक कोरोना घरघर नहीं फैला है, पर जिन देशों में फैल चुका है, वहां से पता चलता है कि यदि घर के एक जने को हो जाए तो बाकी के लिए उसे घर में झेलना एक चुनौती होता है.

न्यूयार्क के क्वींस इलाके में रहने वाली जैशन इस समस्या को हर पल महसूस कर रही है. उस का 56 साल का पति कई दिन पुराने कपड़ों में कई दिनों से बदली नहीं गई चादर पर सिमटा दोमंजिला मकान की ऊपरी मंजिल पर अकेला पड़ा है…

जैशन… यानी कि मैं अपनी बैठक में ही फोम का गद्दा डाल कर सो रही हूं ताकि अपने पति पर नजर रख सकूं. वह मदद के लिए बुदबुदा रहा है…उस की आवाज कर्कश है… ऊनी शर्ट और ऊपर से स्वेटर पहने होने के बावजूद वह कंपकंपा रहा है.

मैं उसे जगाना नहीं चाहती थी, लेकिन उस के बाथरूम में दवा रखना भूल गई थी मैं…
जिस बोतल से उस की डिश में कैप्सूल डालती हूं, उसे यहां नहीं छोड़ सकती. इसे दूसरे बाथरूम में बिल्कुल अलग रखना है.

‘‘कुछ और चाहिए?’’ मैं उस से पूछती हूं… जो भी उस का छुआ हुआ है, उसे बड़ी सावधानी से किचन तक ले जाती हूं, जहां मेरी 16 साल की बेटी एम्मा खड़ी है.

मैं तब तक बाहर ही खड़ी रहती हूं, जब तक कि वह डिशवाशर नहीं खोल देती… और रेक्स को खींच नहीं देती, ताकि मुझे कुछ भी छूना न पड़े और वह फिर से उन्हें बंद कर दे…
वह मेरे लिए नल खोल देती है और मैं डिस्पोजेबल साबुन को अपनी कोहनी से अपनी ओर खींच कर हाथ धोती हूं.

मेरा पति जेम्स अच्छी कदकाठी का है. वह अकसर ही हमारे ब्रोकलिन एरिया से क्वींस में जमैका घाटी तक 5 घंटे की बाइक चला कर आताजाता रहता है…

आज वह छत को घूरते हुए पीठ के बल लेटा है… कभी करवट बदल लेता है. कई दिनों से वह एक ही पाजामा पहने हुए है… देर तक उस के पास रुक कर कपड़े बदलना एक बहुत ही कठिन काम है… कंबल और चादर की वह अपने नीचे गठरी सी बना लेता है. बाहर बहुत ही ठंड है…

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यह 12 मार्च… यानी 12 दिन पहले की बात है, जब जेम्स सो कर उठा तो उसे बहुत जोर की ठंड लगी.
अगले दिन जब अमेरिका में कोरोना वायरस की खबरें फैल रही थीं… उसे लगा कि वह कुछ अच्छा महसूस कर रहा है, तभी उसे फिर से ठंड लगने लगी… उसे 100 डिगरी बुखार था.

तभी से जेम्स को हमारे बैडरूम तक सीमित कर दिया गया. यहां वह अपार्टमेंट के सामने चैराहे पर निरंतर आते ट्रकों की आवाजों की शिकायत करता है. कुछ ब्लौक्स (रिहायशी क्षेत्र) दूर पश्चिम में स्थित न्यूयार्क बंदरगाह से आने वाली धमाकेदार आवाजों से भी वह परेशान रहता है.बैडरूम का दरवाजा कस कर बंद रखा जाता है, क्योंकि हर समय भीतर जाने की कोशिश करते रहने वाली बिल्ली को फिर रात में बाहर कौन लाएगा…

बीमारी के लक्षण दिखने के 2 दिन बाद जेम्स को हमें सौंपते हुए क्लिनिक से हमें हिदायत देते हुए कहा गया, ‘‘क्या करोगे अगर तुम कोरोना की चपेट में आ गए? निर्देशों को पढ़ो और अपनेआप को घर के अन्य लोगों और जानवरों से अलग कर लो…’’ उस के बाद उसे 101.5 डिगरी बुखार आया और फ्लू का उस का टेस्ट नेगेटिव आया.

कुछ महीने पहले उसे गंभीर अस्थमा का अटैक आया था और उसे एडमिट कराना पड़ा था. इसी वजह से उस का कोरोना वायरस की फैल रही महामारी कोविड 19 का टेस्ट कराया गया. उस के एक दिन बाद ही टेस्ट किट की कमी हो गई थी, साथ ही सख्ती भी और बढ़ा दी गई थी…

तब से हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो बस जेम्स के चारों ओर घूमती है. डाक्टर से मिल कर हम ने तय किया कि यदि उस की हालत और खराब हो जाती है, तो कौन सा रूम उसे देना चाहिए… बहुत सारे काम थे… उस की दवाएं, जो बारबार स्टाक से बाहर हो जाती थीं… उन्हें वैबसाइट पर ढूंढ़ना… हमारे पास वे सामान भी नहीं थे, जो बहुत बुखार या बहुत पसीना आने पर चाहिए होते हैं.

हम एक उस दुनिया में थे, जहां समाचारों में बस ‘टेस्टिंग, क्वारंटीन, दवाओं की कमी और महामारी के फैलाव की कहानियां थीं और डर भरी रातें तो अभी आने को थीं.

ऐसे में जेम्स के दोस्तों ने दवाएं और वाइन ला कर दे कर मेरी बड़ी मदद की… एक दोस्त पैरासिटामोल छोड़ गया था और एक दूसरा दोस्त पास की ही फार्मेसी से वाइन की बोतल छोड़ गया, जो आगे आने वाली डरावनी रातों में मेरे बड़े काम आई…

3 दिन बाद उस के डाक्टर ने बताया कि टेस्ट पौजिटिव आया है. उस समय जेम्स करवट से लेट कर न्यूयार्क स्टेट में कन्फर्म हुए केसों के बारे में एक लेख पढ़ रहा था. वह उसी वायरस की कहानियां पढ़ रहा था, जिस ने इस समय स्वयं उसी पर हमला कर दिया था. वह लोगों को अस्पताल में भरती करने, उन्हें सांस लेने के लिए वेंटिलेटर पर रखने और उन की मृत्यु की कहानियां पढ़ रहा था.

जिस दिन जेम्स ने पहली बार खुद को बीमार महसूस किया था, उसी दिन मैं ने और एम्मा ने एचबीओ टीवी पर चेरनेबिल सीरीज देखना शुरू किया था. यह सीरीज 1986 में रूस में हुई परमाणु दुर्घटना से संबंधित थी. 3 एपिसोड देखने के बाद ही हम ने उसे देखना बंद कर दिया.

अब वह समय पीछे छूट गया है, जब हम साथ बैठ कर कुछ देखते थे. अब तो बस भागदौड़ रह गई है… उस ने एकाध कटोरी सूप पी लिया है या नहीं, वह सूंघने में असमर्थ है, क्योंकि उस की नाक चोक हो गई है.

अब मेरा सारा समय… उस का बौडी टेंपरेचर लेने, औक्सीटोमीटर से औक्सीजन का स्तर मापने इत्यादि में गुजरता है. एक दोस्त ने डाक्टर की सलाह पर खून में औक्सीजन का स्तर मापने के लिए मौनिटर ला दिया था, जो मेरे बहुत काम आया…
जेम्स को दवा देना, चाय देना, डाक्टर को उस की गिरती हालत के बारे में मैसेज करना… और बारबार हाथ धोना… और जब वह अपने बिस्तर में खांस रहा और पैरों को रगड़ रहा होता तो उस से कुछ दूर खड़े हो कर उसे देखना…
‘‘तुम यहां मत खड़ी हो… मौत मुझे बुला रही है,’’ वह कहता.
‘‘जी.’’
फिर जैसेजैसे रात गहराती जाती, वह डरने लगता.
‘‘बुखार, पसीना, सिरदर्द, बदन दर्द और रात का लंबा समय उसे घबरा देता. यह एक पत्थर कूटने वाली मशीन की तरह मुझे कूट कर रख देता है,’’ वह कहता.
एम्मा का हाईस्कूल 13 मार्च से बंद हो गया था और न्यूयार्क के अन्य स्कूलों की तरह औनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई थी. एम्मा और क्लास के अन्य बच्चों को शिक्षकों ने कड़े निर्देश दिए थे.
‘‘यह छुट्टियां नहीं रेगुलर स्कूल है,’’ उन से कहा गया था. मैं ने प्रिंसिपल और स्कूल को एक मेल लिखा और बताया कि घर में एम्मा किन हालात से गुजर रही है.’’
पूरे समय कभी मैं डाक्टर को मैसेज लिखती, कभी जेम्स के भाईबहनों को…अपने मातापिता, भाई, जेम्स के बिजनेस पार्टनर को… उस के दोस्तों, कर्मचारियों को मैसेज लिखलिख कर जेम्स की हालत के बारे में बताती.

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जेम्स बहुत थका हुआ और कमजोर है और सारा समय इन मैसेज के जवाब नहीं दे सकता है.
‘‘मेरे परिवार से कुछ भी मत छिपाना,’’ जेम्स कहता.
‘‘वह उस ग्रे स्वेटर को मांग रहा है, जो उस के पिता पहनते थे, जब वे जिंदा थे.’’
हमारे चारों ओर जो लोग थे, वे सामान्य जीवन जी रहे थे. हर कोई हमारा सलाहकार बन गया था और अपनेअपने अनुभवों के अनुसार इस महामारी से जुड़े मीम्स शेयर कर रहा था.
‘‘घर से स्कूलिंग कैसे करें… सोशल डिस्टेंस कैसे बनाएं वगैरह…’’ वे नहीं जानते थे कि हमारा घर एक अस्थायी अस्पताल में तबदील हो चुका था. हर आने वाला पल कैसा होगा, हमारे लिए यही महत्वपूर्ण था.
‘‘मैं ने बिल्ली की गंदगी साफ कर दी है,’’ एम्मा कह रही थी.
बाहर कोने में कुछ लोग खड़े थे. मैं उन से बात करना चाहती थी…
‘‘ये परिवार से जुड़ने के लिए एक अच्छा समय है.‘‘ वे कह रहे थे. मैं वापस आ गई… अब मैं उन्हें नहीं देखना चाहती थी.
इस समय एम्मा मेरी मददगार बन गई थी. बाथरूम का आधा हिस्सा हम ने ले लिया था और आधा जेम्स के सामान… उस की गंदगी के लिए था.
‘‘ये गंदे, बुरे सपने भरे जैसे दिन थे…’’
एम्मा हर काम में मेरी मदद कर रही थी. नर्सिंग के काम के अलावा घर को व्यवस्थित करने, रसोई का काम करने, बिल्ली को खाना खिलाने, उस की गंदगी साफ करने, कपड़े तह करने के साथ ही जेम्स के लिए बीचबीच में हलका खाना पकाने, बरतन साफ करने, हर काम में मेरी मदद करती…
इन मुश्किल दिनों में जब मैं जेम्स के कमरे से बिना छुए डिशवाशर में डालने को बरतन लाती और बारबार धोने से रुखे हो गए अपने हाथों को धोती, तब भी वह मेरी मदद करती.
‘‘हम ऐसे बात करते जैसे हम बराबर के हो गए हैं,’’ वह सही ही तो कहती है…
मेरा सारा समय हमें सेफ रखने में बीत रहा था. दरवाजों के हेंडल्स को पोंछना, बिजली के स्विचों, नलों को कीटाणुनाशक से साफ करना मेरा रोज का काम हो गया था. हर रोज अल्कोहल से अपने फोन को साफ करती. रात होते ही दिनभर के इस्तेमाल हुए कपड़ों को धुलने फेंक देती.
जब एम्मा नहाने जाती, तो मैं सारे बाथरूम को अच्छे से साफ करती. हर उस चीज को हटा देती, जो जेम्स ने इस्तेमाल की होती. साथ ही, एम्मा को निर्देश देती कि किसी भी चीज को छुए नहीं और शावर ले कर सीधे अपने कमरे में जाए.
मेरे मन में डर बैठ गया था, उस की सुरक्षा को ले कर…
‘‘अगर एम्मा को भी कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा…’’ यह सोच कर मैं बेहद डर गई थी.
अगर जेम्स कभी हमारे नहाने से पहले बाथरूम इस्तेमाल कर लेता, तो मैं फिर से उसे साफ करती तब हम बाथरूम में जाते.

मैं ने उसे एप्सोम साल्ट से स्नान करवाया. फिर तो वह इतना कमजोर हो गया था कि बाथरूम तक भी नहीं जा पा रहा था और बीच में ही गिर जा रहा था… फिर बस मुंह धुला कर ही काम चलाया जाने लगा.
मैं आगे की संभावनाओं के बारे में विचार करती, ‘‘अगर एम्मा बीमार हो गई तो…’’
‘‘मैं उस की भी देखभाल कर लूंगी.’’ बात तो यह थी कि, ‘‘अगर मैं खुद बीमार हो गई तो…’’
मैं अपनी बेटी को समझा देना चाहती थी कि अगर ऐसी कोई परिस्थिति आ जाए तो वह क्या करेगी.
‘‘क्या होगा, अगर जेम्स को अस्पताल में एडमिट करना पड़ा तो….?’’ और अगर मैं…‘‘
‘‘क्या एक 16 वर्ष की बच्ची को घर में अकेले छोड़ा जा सकता है…..?’’

पर, एक बात मैं अच्छे से जानती हूं कि मैं उसे अपने मातापिता के पास नहीं भेज सकती. वे 78 वर्ष के थे और पास ही लौंग आईलैंड में रहते थे.
हालांकि, वे तो उसे अपने पास बुलाना चाहते थे, पर इस में खतरा था. उन की पोती उन्हें एक अदृश्य, खतरनाक वायरस की चपेट में ले सकती थी.
‘‘नहीं, उसे किसी और के पास भेजना होगा… कोई ऐसा जिस के पास उसे अलग से रखने और देखभाल के लिए एक बाथरूम और बैडरूम हो…’’
रात के 4-4 बजे तक मैं फर्श पर लेटी अवाक सी सोचती, सुनती, जागती रहती.
बुखार में जेम्स बुरी तरह बड़बड़ाता… एम्मा को अपनी 20 साल पुरानी गर्लफ्रैंड के नाम से बुलाता… 3 बार हम ने उसे अस्पताल में भरती कराने की सोचा. एक बार तो डाक्टर से बात करते ही मेरी हिचकी बंध गई और मैं रोने के लिए बाथरूम की तरफ भागी.
हर बार हम ने घर पर ही रहने का निर्णय लिया, क्योंकि उसे सांस लेने में तकलीफ नहीं थी. यदि होती तो उसे अस्पताल में भरती कराना ही पड़ता.
न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के इमर्जैंसी रूम की एक डाक्टर से हम ने वीडियो फोन से बात की. डाक्टर 250 से ज्यादा ऐसे मरोजों को देख चुकी थी, जिन्हें फ्लू जैसे लक्षण थे. उन्होंने हम से कहा कि जेम्स को हम घर पर ही रख सकते हैं, बशर्ते उस की औक्सीटोमीटर में औक्सीजन की माप सही बनी रहे और उसे सांस लेने में कोई तकलीफ न हो.

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मैं हलके से बेडरूम का दरवाजा खोलती तो पाती कि जेम्स सो रहा है…उस के पास जा कर देखती कि उस की सांसें चल रही हैं या नहीं. वैसे ही जैसे कभी एम्मा को देखती थी, जब वह छोटी थी और अपने पालने में सोती थी.
ऐसी ही उन बुरी रातों में मैं जेम्स से कुछ दूरी बना कर कंबल में मुड़े हुए उस के पैरों को रगड़ रही थी… दुख के उन पलों में एक क्षण ऐसा आया था, जब मेरे होंठों से वही गीत फूट पड़ा, जो मेरी मां और मेरी दादी मुझे गा कर सुनाया करती थीं. वह एक आयरिश बाल गीत था, जो छोटे बच्चों को सुलाने के लिए गाया जाता था.
मेरी दादी उसे रशियन में गाती थीं. वह मेरे बचपन का गीत था, जो लगभग 40 साल बाद मेरे होठों पर फूटा था, जिसे मैं अपने मृतप्रायः, बीमार पति के समक्ष गुनगुना रही थी.
‘‘हम कितने मनहूस माहौल में रह रहे हैं,’’ मैं रसोई में एम्मा से कह रही थी.
‘‘हमारे जैसे और भी बहुत लोग हैं,’’ एम्मा ने कहा..
दूर से देखने पर जेम्स और भी कमजोर नजर आता. उस की 6 फुट 1 इंच की काया बड़ी ही दीनहीन सी लगती. उस का कमजोर शरीर ढेर सारे कपड़ों में लिपटा हुआ था… जिन में वह अपनी विंटर जैकेट के नीचे एक और जैकेट, जिस के नीचे उस के पापा का ग्रे ऊनी स्वेटर था, जिस के नीचे एक डबल फोल्ड शर्ट थी, जिस के नीचे एक धारीदार बनियान पहने था. उस पर भी वह कहता था कि उसे ठंड लग रही है.
मार्च के चमकते हुए सूरज में भी उस के मुंह पर वही मास्क चढ़ा रहता, जो कि टेस्ट के लिए क्लिनिक जाते समय उसे पहनाया गया था…
हम लोग क्लिनिक जा रहे थे. हम दोनों ने ही ‘डिस्पोजेबल ग्लव्स’ पहन रखे थे. उस से पहले वाला दिन बड़ा ही कठिन था, जब जेम्स को सारा दिन चक्कर और उलटी आती रही. वह अपनेआप खा भी नहीं पा रहा था.चम्मच से खिलाने पर ही थोड़ाबहुत खा पा रहा था. इन्हेलर का इस्तेमाल करने पर भी उसे खांसी आ रही थी.
सुबह पसीने से वह नहाया हुआ था और शाम को लुढ़का पड़ा था. वह डरा हुआ था. उस ने मुझ से कहा, ‘‘उसे खांसी के साथ खून आया था.’’
हम ने उस के डाक्टर से बात की.
‘‘हम सब अंधे के समान काम कर रहे हैं.’’ उन्होंने कहा, ‘‘कई मरीज एक सप्ताह के भीतर ही अच्छा महसूस करने लगते हैं, जबकि अन्य ज्यादा गंभीर केसों में उलटा हो जाता है…
‘‘वायरस फेफड़ों पर हमला कर देता है और खतरा और ज्यादा बढ़ जाता है,’’ डाक्टर ने बताया.
‘‘अगर मरीज की स्थिति नहीं सुधरती है, तो अगली अवस्था निमोनिया की होती है… ऐसा अन्य मरीजों में देखा गया है,’’ डाक्टर ने यह भी बताया.
डाक्टर ने एक फार्मेसी से एंटीबायोटिक लेने को कहा, जो एक घंटे में ही बंद होने वाली थी. मैं ने जेम्स के दोस्त को मैसेज किया. उस ने कहा कि वह दवा ले लेगा…
मैं ने उसे संतरे भी लाने को कहा. जेम्स को संतरे का जूस और उस की फांकें पसंद थीं और हमारे पास घर पर बस एक संतरा बचा था. इस समय संतरे जैसी कई चीजें महंगी हो गई थीं.
डाक्टर ने सुबह हमें सब से पहले आने और आ कर सीने का एक्सरे कराने को कहा. हम धीरेधीरे चल कर आ रहे थे. जेम्स धीरेधीरे खांसते हुए चल रहा था. कुछ और लोग दिखाई दे रहे थे. हालांकि उन की संख्या पहले से काफी कम थी, जबकि न्यूयार्क के गवर्नर एंड्रयू क्योमो ने लोगों से जहां तक हो सके, घरों में ही रहने को कहा था.
कुछ जौगिंग करने वाले भी थे, जैसे कि एक हफ्ते पहले मैं भी उन में से एक होती थी.
मैं ने जेम्स का ध्यान उन की तरफ से हटाने का प्रयास किया और उसे डालियों पर खिलती हुई कलियां दिखाने लगी.
‘‘मुझे महसूस हो रहा था कि वे हमारी तरफ मुड़ कर देखेंगे, तो शायद जेम्स को अच्छा न लगे.’’ पर वे खुद बड़े सावधान थे, ‘‘अपने मास्क पहने हुए वे लोग खुद को हम से बचाते हुए सीधे निकल गए…’’
क्लिनिक पर एक और जोड़ा था, जो मास्क पहने था, और अंदर चला गया.एक आदमी मास्क पहन कर वहीं इंतजार कर रहा था.
जेम्स एक कुरसी पर आंखें बंद कर बैठ गया था. मैं ने परिचारिका से कहा, ‘‘मेरे पति का कोविड 19 टैस्ट पौजिटिव आया है.’’
परिचारिका की आंखें मास्क में से ही हठात एक क्षण को मुझ से मिलीं. उस ने मुझे भी एक मास्क दिया.
आज जेम्स का डाक्टर किसी अन्य क्लीनिक पर था, इसलिए हमें दूसरे डाक्टर को दिखाना था. हमें पूरी जानकारी उसे फिर से देनी थी.
मास्क पहने हम इंतजार कर रहे थे. जेम्स की आंखें अभी भी बंद थीं. मैं अपने पीछे की खिड़की से बाहर देखने लगी…
‘‘गली में लोग और दिनों की तरह ही चल रहे थे, तभी एक आदमी आया, अपने गंजे सिर पर हाथ फेरता हुआ एक छोटे से कैफे में घुस गया.
एक अन्य परिचारिका आई. पहली वाली ने उस के कान में कुछ फुसफुसाया… और उस ने अपना मास्क पहन लिया.
हमें अंदर बुलाया गया. मास्क पहनी हुई एक नर्स ने जेम्स की नब्ज देखी.उसे हलका बुखार था. लगभग 99 डिगरी… शायद उस ने इबुप्रोफेन दवा ली थी, इसलिए बुखार हलका हो गया था. उस का ब्लड प्रेशर ठीक था.नब्ज भी सही थी और औक्सीजन का स्तर भी ठीक था.
हम ने डाक्टर को उस के बुखार, पसीने, मितली, खांसी और खांसी के साथ आए खून के बारे में बताया.
एक बार फिर जेम्स का परीक्षण किया गया. उसे आंखें बंद कर कुरसी पर सिर टिका कर बैठने को कहा गया, वहीं कोई किसी मरीज से कह रहा था, ‘‘वह बहुत बीमार है. उसे 5 ब्लौक्स (रिहाइशी क्षेत्र) दूर अस्पताल में भरती हो जाना चाहिए.’’
डाक्टर अंदर आता है. उस ने चेहरे पर मास्क और हाथों में प्लास्टिक का कवर पहन रखा है. एक पतले से गाउन में जेम्स को एक्सरे के लिए ले जाया जाता है.
‘‘यह बहुत ही कठिन और अजीब था.’’ लौट के आने पर उस ने कहा, ’’अपने सिर के नीचे हाथों को रखे रखना…’’
‘‘यह एक्सरे एक हफ्ते पहले वाले से अलग है,’’ रेडियोलौजिस्ट से सलाह कर डाक्टर ने हम से कहा.
‘‘अब यह बाएं फेफड़े में निमोनिया दिखा रहा है.’’
‘‘पिछली रात डाक्टर ने ठीक ही एंटीबायोटिक लिखी थी.’’

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डाक्टर ने स्टैथोस्कोप से सुना, ‘‘जेम्स के फेफड़े ठीक लग रहे थे, घरघरा नहीं रहे थे. उसे सांस लेने में भी परेशानी नहीं हो रही थी.’’ उस की घर पर रख कर ही देखभाल की जा सकती थी.
‘‘लेकिन, अब तुम्हें और जल्दीजल्दी दिखाने आना होगा,’’ डाक्टर ने कहा. हम क्लिनिक के दरवाजे पर खड़े बाहर की ओर देख रहे थे… 2 बुजुर्ग औरतें दरवाजे के बाहर बातें कर रहीं थी. क्या मैं उन से कहूं कि, ‘‘वे बाहर हैं… घर जाएं… अपने हाथ धोएं और भीतर ही रहें…’’ या फिर, ‘‘जब तक वे चली न जाएं, हम यों ही यहीं खड़े रहें. और जब वे चली जाएं, तब हम यहां सब 3 ब्लौक्स दूर अपने घर को निकलें.’’
मैं ने मैग्नोलिया, फोरसाथिया के खिले हुए फूलों को देखा… जेम्स कह रहा था कि, ‘‘उसे ठंड लग रही थी.’’
‘‘उस की गरदन पर बाल बढ़ गए थे… बड़ी हुई दाढ़ी में से सफेद बाल दिख रहे थे…’’
फुटपाथ पर कुछ लोग हम से आगे निकल रहे थे. वे नहीं जानते कि हम उन के भविष्य के दृष्टा हैं.
एक स्वप्न, एक पूर्वाभास मुझे हो रहा है कि, ‘‘कल वो भी हम जैसे ही होंगे या तो जेम्स की तरह, मास्क पहने हुए, या फिर यदि भाग्यशाली हुए तो मुझ जैसे – उस की सेवा करते हुए.’’

कबाड़: क्या यादों को कभी भुलाया जा सकता है?

‘‘सुनिए, पुताई वाले को कब बुला रहे हो? जल्दी कर लो, वरना सारे काम एकसाथ सिर पर आ जाएंगे.’’

‘‘करता हूं. आज निमंत्रणपत्र छपने के लिए दे कर आया हूं, रंग वाले के पास जाना नहीं हो पाया.’’

‘‘देखिए, शादी के लिए सिर्फ 1 महीना बचा है. एक बार घर की पुताई हो जाए और घर के सामान सही जगह व्यवस्थित हो जाए तो बहुत सहूलियत होगी.’’

‘‘जानता हूं तुम्हारी परेशानी. कल ही पुताई वाले से बात कर के आऊंगा.’’

‘‘2 दिन बाद बुला ही लीजिए. तब तक मैं घर का सारा कबाड़ निकाल कर रखती हूं जिस से उस का काम भी फटाफट हो जाएगा और घर में थोड़ी जगह भी हो जाएगी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. वैसे भी वह छोटा कमरा बेकार की चीजों से भरा पड़ा है. खाली हो जाएगा तो अच्छा है.’

जब से अविनाश की बेटी सपना की शादी तय हुई थी उन की अपनी पत्नी कंचन से ऐसी बातचीत चलती रहती थी. जैसेजैसे शादी का दिन नजदीक आ रहा था, काम का बोझ और हड़बड़ाहट बढ़ती जा रही थी.

घर की पुताई कई सालों से टलती चली आ रही थी. दीपक और सपना की पढ़ाई का खर्चा, रिश्तेदारी में शादीब्याह, बाबूजी का औपरेशन वगैरह ऐसी कई वजहों से घर की सफाईपुताई नहीं हुई थी. मगर अब इसे टाला नहीं जा सकता था. बेटी की शादी है, दोस्त, रिश्तेदार सभी आएंगे. और तो और लड़के वालों की तरफ से सारे बराती घर देखने जरूर आएंगे. अब कोई बहाना नहीं चलने वाला. घर अच्छी तरह से साफसुथरा करना ही पड़ेगा.

दूसरे ही दिन कंचन ने छोटा कमरा खाली करना शुरू किया. काफी ऐसा सामान था जो कई सालों से इस्तेमाल नहीं हुआ था. बस, घर में जगह घेरे पड़ा था. उस पर पिछले कई सालों से धूल की मोटी परत जमी हुई थी. सारा  कबाड़ एकएक कर के बाहर आने लगा.

‘‘कल ही कबाड़ी को बुलाऊंगी. थक गई इस कबाड़ को संभालतेसंभालते,’’ कमरा खाली करते हुए कंचन बोल पड़ीं.

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आंगन में पुरानी चीजों का एक छोटा सा ढेर लग गया. शाम को अविनाश बाहर से लौटे तो उन्हें आंगन में फेंके हुए सामान का ढेर दिखाई दिया. उस में एक पुराना आईना भी था. 5 फुट ऊंचा और करीब 2 फुट चौड़ा. काफी बड़ा, भारीभरकम, शीशम की लकड़ी का मजबूत फ्रेम वाला आईना. अविनाश की नजर उस आईने पर पड़ी. उस में उन्होंने अपनी छवि देखी. धुंधली सी, मकड़ी के जाले में जकड़ी हुई. शीशे को देख कर उन्हें कुछ याद आया. धीरेधीरे यादों पर से धूल की परतें हटती गईं. बहुत सी यादें जेहन में उजागर हुईं. आईने में एक छवि निखर आई…बिलकुल साफ छवि, कंचन की. 29-30 साल पहले की बात है. नईनवेली दुलहन कंचन, हाथों में मेहंदी, लाल रंग की चूडि़यां, घूंघट में शर्मीली सी…अविनाश को अपने शादी के दिन याद आए.

संयुक्त परिवार में बहू बन कर आई कंचन, दिनभर सास, चाची सास, दादी सास, न जाने कितनी सारी सासों से घिरी रहती थी. उन से अगर फुरसत मिलती तो छोटे ननददेवर अपना हक जमाते. अविनाश बेचारा अपनी पत्नी का इंतजार करतेकरते थक जाता. जब कंचन कमरे में लौटती तो बुरी तरह से थक चुकी होती थी. नौजवान अविनाश पत्नी का साथ पाने के लिए तड़पता रह जाता. पत्नी को एक नजर देख पाना भी उस के लिए मुश्किल था. आखिर उसे एक तरकीब सूझी. उन का कमरा रसोईघर से थोड़ी ऊंचाई पर तिरछे कोण में था. अविनाश ने यह बड़ा सा आईना बाजार से खरीदा और अपने कमरे में ऐसे एंगल (कोण) में लगाया कि कमरे में बैठेबैठे रसोई में काम करती अपनी पत्नी को निहार सके.

इसी आईने ने पतिपत्नी के बीच नजदीकियां बढ़ा दीं. वे दोनों दिल से एकदूसरे के और भी करीब आ गए. उन के इंतजार के लमहों का गवाह था यह आईना. इसी आईने के जरिए वे दोनों एकदूसरे की आंखों में झांका करते थे, एकदूसरे के दिल की पुकार समझा करते थे. यही आईना उन की नजर की जबां बोलता रहा. उन की जवानी के हर पल का गवाह था यह आईना.

आंगन में खड़ेखड़े, अपनेआप में खोए से, अविनाश उन दिनों की सैर कर आए. अपनी नौजवानी के दिनों को, यादों में ही, एक बार फिर से जी लिया. अविनाश ने दीपक को बुलाया और वह आईना उठा कर अपने कमरे में करीने से रखवाया. दीपक अचरज में पड़ गया. ऐसा क्या है इस पुराने आईने में? इतना बड़ा, भारी सा, काफी जगह घेरने वाला, कबाड़ उठवा कर पापा ने अपने कमरे में क्यों लगवाया? वह कुछ समझ नहीं पा रहा था. वह अपनी दादी के पास चला गया.

‘‘दादी, पापा ने वह बड़ा सा आईना कबाड़ से उठवा कर अपने कमरे में लगा दिया.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘दादी, वह कितनी जगह घेरता है? कमरे से बड़ा तो आईना है.’’

दादी अपना मुंह आंचल में छिपाए धीरेधीरे मुसकरा रही थीं. दादी को अपने बेटे की यह तरकीब पता थी. उन्होंने अपने बेटे को आईने में झांकते हुए बहू को निहारते पकड़ा भी था.

दादी की वह नटखट हंसी… हंसतेहंसते शरमाने के पीछे क्या माजरा है, दीपक समझ नहीं सका. पापा भी मुसकरा रहे थे. जाने दो, सोच कर दीपक दादी के कमरे से बाहर निकला.

इतने में मां ने दीपक को आवाज दी. कुछ और सामान बाहर आंगन में रखने के लिए कहा. दीपक ने सारा सामान उठा कर कबाड़ के ढेर में ला पटका, सिवा एक क्रिकेट बैट के. यह वही क्रिकेट बैट था जो 20 साल पहले दादाजी ने उसे खरीदवाया था. वह दादाजी के साथ गांव से शहर आया था. दादाजी का कुछ काम था शहर में, उन के साथ शहर देखने और बाजार घूमने दीपू चल पड़ा था. चलतेचलते दादाजी की चप्पल का अंगूठा टूट गया था. वैसे भी दादाजी कई महीनों से नई चप्पल खरीदने की सोच रहे थे. बाजार घूमतेघूमते दीपू की नजर खिलौने की दुकान पर पड़ी. ऐसी खिलौने वाली दुकान तो उस ने कभी नहीं देखी थी. उस का मन कांच की अलमारी में रखे क्रिकेट के बैट पर आ गया.

उस ने दादाजी से जिद की कि वह बैट उसे चाहिए. दीपू के दादाजी व पिताजी की माली हालत उन दिनों अच्छी नहीं थी. जरूरतें पूरी करना ही मुश्किल होता था. बैट जैसी चीजें तो ऐश में गिनी जाती थीं. दीपू के पास खेल का कोई भी सामान न होने के कारण गली के लड़के उसे अपने साथ खेलने नहीं देते थे. श्याम तो उसे अपने बैट को हाथ लगाने ही नहीं देता था. दीपू मन मसोस कर रह जाता था.

दादाजी इन परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ थे. उन से अपने पोते का दिल नहीं तोड़ा गया. उन्होंने दीपू के लिए वह बैट खरीद लिया. बैट काफी महंगा था. चप्पल के लिए पैसे ही नहीं बचे, तो दोनों बसअड्डे के लिए चल पड़े. रास्ते में चप्पल का पट्टा भी टूट गया. सड़क किनारे बैठे मोची के पास चप्पल सिलवाने पहुंचे तो मोची ने कहा, ‘‘दादाजी, यह चप्पल इतनी फट चुकी है कि इस में सिलाई लगने की कोई गुंजाइश नहीं.’’

दादाजी ने चप्पल वहीं फेंक दीं और नंगे पांव ही चल पड़े. घर पहुंचतेपहुंचते उन के तलवों में फफोले पड़ चुके थे. दीपू अपने नए बैट में मस्त था. अपने पोते का गली के बच्चों में अब रोब होगा, इसी सोच से दादाजी के चेहरे पर रौनक थी. पैरों की जलन का शिकवा न था. चेहरे पर जरा सी भी शिकन नहीं थी.

हाथ में बैट लिए दीपक उस दिन को याद कर रहा था. उस की आंखों से आंसू ढलक कर बैट पर टपक पड़े. आज दीपू के दिल ने दादाजी के पैरों की जलन महसूस की जिसे वह अपने आंसुओं से ठंडक पहुंचा रहा था.

तभी, शाम की सैर कर के दादाजी घर लौट आए. उन की नजर उस बैट पर गई जो दीपू ने अपने हाथ में पकड़ रखा था. हंसते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों बेटा दीपू, याद आया बैट का किस्सा?’’

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‘‘हां, दादाजी,’’ दीपू बोला. उस की आंखें भर आईं और वह दादाजी के गले लग गया. दादाजी ने देखा कि दीपू की आंखें नम हो गई थीं. दीपू बैट को प्यार से सहलाते, चूमते अपने कमरे में आया और उसे झाड़पोंछ कर कमरे में ऐसे रख दिया मानो वह उस बैट को हमेशा अपने सीने से लगा कर रखना चाहता है. दादाजी अपने कमरे में पहुंचे तो देखा कि दीपू की दादी पलंग पर बैठी हैं और इर्दगिर्द छोटेछोटे बरतनों का भंडार फैला है.

‘‘इधर तो आइए… देखिए, इन्हें देख कर कुछ याद आया?’’ वे बोलीं.

‘‘अरे, ये तुम्हें कहां से मिले?’’

‘‘बहू ने घर का कबाड़ निकाला है न, उस में से मिल गए.’’

अब वे दोनों पासपास बैठ गए. कभी उन छोटेछोटे बरतनों को देखते तो कभी दोनों दबेदबे से मुसकरा देते. फिर वे पुरानी यादों में खो गए.

यह वही पानदान था जो दादी ने अपनी सास से छिपा कर, चुपके से खरीदा था. दादाजी को पान का बड़ा शौक था, मगर उन दिनों पान खाना अच्छी आदत नहीं मानी जाती थी. दादाजी के शौक के लिए दादीजी का जी बड़ा तड़पता था. अपनी सास से छिपा कर उन्होंने पैसे जोड़ने शुरू किए, कुछ दादाजी से मांगे और फिर यह पानदान दादाजी के लिए खरीद लिया. चोरीछिपे घर में लाईं कि कहीं सास देख न लें. बड़ा सुंदर था पानदान. पानदान के अंदर छोटीछोटी डब्बियां लौंग, इलायची, सुपारी आदि रखने के लिए, छोटी सी हंडिया, चूने और कत्थे के लिए, हंडियों में तिल्लीनुमा कांटे और हंडियों के छोटे से ढक्कन. सारे बरतन पीतल के थे. उस के बाद हर रात पान बनता रहा और हर पान के साथ दादादादी के प्यार का रंग गहरा होता गया.

दादाजी जब बूढ़े हो चले और उन के नकली दांत लग गए तो सुपारी खाना मुश्किल हो गया. दादीजी के हाथों में भी पानदान चमकाने की आदत नहीं रही. बहू को पानदान रखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अत: पानदान स्टोर में डाल दिया गया. आज घर का कबाड़ निकाला तो दादी को यह पानदान मिल गया, दादी ने पानदान उठाया और अपने कमरे में ले आईं. इस बार सास से नहीं अपनी बहू से छिपा कर.

थरथराती हथेलियों से वे पानदान संवार रही थीं. उन छोटी डब्बियों में जो अनकहे भाव छिपे थे, आज फिर से उजागर हो गए. घर के सभी सदस्य रात के समय अपनेअपने कमरों में आराम कर रहे थे. कंचन, अविनाश उसी आईने के सामने एकदूसरे की आंखों में झांक रहे थे. दादादादी पान के डब्बे को देख कर पुरानी बातों को ताजा कर रहे थे. दीपक बैट को सीने से लगाए दादाजी के प्यार को अनुभव कर रहा था जब उन्होंने स्वयं चप्पल न खरीद कर उन पैसों से उसे यह बैट खरीद कर दिया था. नंगे पांव चलने के कारण उन के पांवों में छाले हो गए थे.

सपना भी कबाड़ के ढेर में पड़ा अपने खिलौनों का सैट उठा लाई थी जिस से वह बचपन में घरघर खेला करती थी. यह सैट उसे मां ने दिया था.

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छोटा सा चूल्हा, छोटेछोटे बरतन, चम्मच, कलछी, कड़ाही, चिमटा, नन्हा सा चकलाबेलन, प्यारा सा हैंडपंप और उस के साथ एक छोटी सी बालटी. बचपन की यादें ताजा हो गईं. राखी के पैसे जो मामाजी ने मां को दिए थे, उन्हीं से वे सपना के लिए ये खिलौने लाई थीं. तब सपना ने बड़े प्यार से सहलाते हुए सारे खिलौनों को पोटली में बांध लिया था. उस पोटली ने उस का बचपन समेट लिया था. आज उन्हीं खिलौनों को देख कर बचपन की एकएक घटना उस की आंखों के सामने घूमने लगी थी. दीपू भैया से लड़ाई, मां का प्यार और दादादादी का दुलार…

जिंदगी में कुछ यादें ऐसी होती हैं, जिन्हें दोबारा जीने को दिल चाहता है, कुछ पल ऐसे होते हैं जिन में खोने को जी चाहता है. हर कोई अपनी जिंदगी से ऐसे पलों को चुन रहा था. यही पल जिंदगी की भागदौड़ में कहीं छूट गए थे. ऐसे पल, ये यादें जिन चीजों से जुड़ी होती हैं वे चीजें कभी कबाड़ नहीं होतीं.

Latest Hindi Stories : दीवार – क्या आनंद अंकल सच में जया और राहुल के अपने थे?

Latest Hindi Stories : आस्ट्रेलिया में 6 सप्ताह बिताने के बाद जया और राहुल जब वापस आए तो घर खोलते ही उन्हें हलकी सी गंध महसूस हुई. यह गंध इतने दिनों तक घर बंद होने के कारण थी.  सफर की थकान के कारण राहुल और जया का मन चाय पीने को कर रहा था, जया बोली, ‘‘जानकी कल शाम पूजा के फ्रिज में दूध रख गई होगी, तुम खिड़कियां व दरवाजे खोलो राहुल, मैं तब तक दूध ले कर आती हूं.’’

‘‘दूध ले कर या चाय का और्डर कर के?’’ राहुल हंसा.

‘‘आस तो नाश्ते की भी है,’’ कह कर जया बाहर निकल गई.  बराबर के फ्लैट में रहने वाले कपिल और पूजा से उन की अच्छी दोस्ती थी.  कुछ देर बाद जया सकपकाई सी वापस आई और बोली, ‘‘कपिल और पूजा ने यह फ्लैट किसी और को बेच दिया है. मैं ने घंटी बजाई तो दरवाजा एक नेपाली लड़के ने खोला और पूजा के बारे में पूछा तो बोला कि वे तो अब यहां नहीं रहतीं, यह फ्लैट हमारे साहब ने खरीद लिया है.’’

जया अभी राहुल को नए पड़ोसी के बारे में बता ही रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. जया ने जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा कि जानकी दूध के पैकेट लिए खड़ी थी.

‘‘माफ करना मैडम, आने में थोड़ी देर हो गई, पूजा मैडम का नया फ्लैट…’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ जया ने बात काटी, ‘‘यह बता, पूजा मैडम कहां गईं?’’

‘‘7वें माले पर, मगर क्यों, यह नहीं मालूम,’’ जानकी ने रसोई में जाते हुए कहा.

‘‘चलो, है तो सोसायटी में ही, मिलने पर पूछेंगे कि तीसरे माले से 7वें माले पर क्यों चढ़ गई? चाय तो जानकी पिला देगी मगर नाश्ता तो खुद ही बनाना पड़ेगा,’’ जया ने राहुल से कहा.

‘‘नाश्ते के लिए इडलीसांभर और फल ला दूंगा.’’

राहुल के बाजार जाने के बाद दरवाजा बंद कर के जया मुड़ी ही थी कि फिर घंटी बजी. जया ने दरवाजा खोला. बराबर वाले फ्लैट का वही नेपाली लड़का एक ढकी हुई टे्र लिए खड़ा था.  ‘‘साहब ने नाश्ता भिजवाया है,’’ कह कर उस ने बराबर वाले फ्लैट की ओर इशारा किया जहां एक संभ्रांत प्रौढ़ सज्जन दरवाजे पर ताला लगा रहे थे. ताला लगा कर वे जया की ओर मुड़े और मुसकरा कर बोले, ‘‘मैं आप का नया पड़ोसी आनंद हूं. मुझे पूजा और कपिल से आप के बारे में सब मालूम हो चुका है. आस्टे्रलिया की लंबी यात्रा के बाद आप थकी हुई होंगी इसलिए पूजा की जगह मैं ने आप के लिए नाश्ता बनवा दिया है.’’

‘‘आप ने तकलीफ क्यों की? राहुल गए हैं न नाश्ता लाने…’’

‘‘तो यह आप लंच में खा लेना,’’ आनंद नौकर की ओर मुड़े. ‘‘मुरली, टे्र अंदर टेबल पर रख दो.’’

मुरली ने लपक कर टे्र अंदर टेबल पर रख दी और फिर आनंद का ब्रीफकेस उठा कर लिफ्ट की ओर चला गया.  ‘‘इतना संकोच करने की जरूरत नहीं है, बेटी,’’ आनंद ने प्यारभरे स्वर में कहा, ‘‘अब हम पड़ोसी हैं, एकदूसरे का सुखदुख बांटने वाले.’’

जया भावविह्वल हो गई, ‘‘थैंक यू, अंकल…’’

‘‘साहब, लिफ्ट आ गई,’’ मुरली ने पुकारा.

‘‘शाम को मिलते हैं, टेक केयर,’’ आनंद ने लिफ्ट की ओर जाते हुए कहा.

तभी राहुल आ गया और खुशबू सूंघते हुए बोला, ‘‘मैं गया तो था न नाश्ता लाने फिर तुम ने क्यों बना लिया?’’  ‘‘मैं ने नहीं बनाया, हमारे नए पड़ोस से आया है,’’ जया ने राहुल के मुंह में परांठे का टुकड़ा रखते हुए कहा, ‘‘खा कर देखो, क्या लाजवाब स्वाद है.’’

‘‘सच में मजा आ गया,’’ राहुल बैठते हुए बोला, ‘‘अब तो यही खाएंगे. परांठे तो बढि़या हैं, आनंद साहब कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हें उन का नाम कैसे मालूम?’’ जया ने चौंक कर पूछा.

‘‘नीचे सोसायटी का सेके्रटरी श्रीनिवास मिल गया था. उसी ने बताया कि अमेरिकन बैंक के उच्चाधिकारी आनंद विधुर हैं, बच्चे भी कहीं और हैं. बस एक नौकर है जो उन की गाड़ी भी चलाता है इसलिए अकेलापन काटने के लिए ऐसा फ्लैट चाहते थे जिस की बालकनी से वे मेन रोड की रौनक देख सकें. अपनी बिल्ंिडग में जो फ्लैट बिकाऊ हैं उन से मेन रोड नजर नहीं आती. श्रीनिवास के कहने पर उन्होंने 7वें माले का फ्लैट ले तो लिया पर उस में रहने नहीं आए. बाद में श्रीनिवास को बगैर बताए उन्होंने कपिल से अपना फ्लैट बदल लिया. इस अदलाबदली का कमीशन न मिलने से श्रीनिवास बहुत चिढ़ा हुआ है.’’

जया हंसने लगी, ‘‘कपिल से या आनंद अंकल से?’’

‘‘अरे वाह, तुम ने उन्हें अंकल भी बना लिया?’’

‘‘जब उन्होंने मुझे बेटी कहा तो मुझे भी उन्हें अंकल कहना पड़ा. वैसे भी उन की उम्र के व्यक्ति को तो अंकल ही कहना चाहिए.’’  पेट भर नाश्ता करने के बाद दोनों आराम करने लगे. अगले रोज से काम पर जाना था इसलिए दोनों कुछ देर बाद उठे और घर का सामान लाने बाजार चले गए. लौटते समय लिफ्ट में आनंद मिल गए. अपने फ्लैट का ताला खोलने से पहले राहुल ने कहा, ‘‘अंकल, आज हमारे साथ चाय पीजिए.’’

‘‘जरूर पीऊंगा बेटा, मगर फिर कभी.’’

‘‘वह फिर कभी न जाने कब आए, अंकल,’’ जया बोली, ‘‘कल से काम पर जाने के बाद घर लौटने का कोई सही वक्त नहीं रहेगा.’’  आनंद अपने फ्लैट की चाबी मुरली को पकड़ा कर राहुल और जया के साथ अंदर आ गए. उन के चेहरे से लगा कि वे घर की सजावट से बहुत प्रभावित लग रहे हैं.

‘‘आस्ट्रेलिया का ट्रिप कैसा रहा?’’ आनंद ने बातचीत के दौरान पूछा.

‘‘बहुत बढि़या. मेरे छोटे भाई साहिल ने हमें खूब घुमाया. बहुत मजा आया. वैसे भी आस्टे्रलिया बहुत सुंदर है,’’ राहुल ने कहा.

‘‘वहां जा कर बसने का इरादा तो नहीं है?’’

‘‘अरे नहीं अंकल, रहने के लिए अपना देश ही सब से बढि़या है.’’

‘‘यह बात छोटे भाई को नहीं समझाई?’’

‘‘ऐसी बातें किसी के समझाने से नहीं, अपनेआप ही समझ आती हैं, अंकल.’’

‘‘यह बात तो है. मुझे भी औरों की बात समझ नहीं आई थी और जब आई तो बहुत देर हो चुकी थी,’’ आनंद ने लंबी सांस ले कर कहा.

‘‘कौन सी बात, अंकल?’’ जया ने पूछा.

‘‘यही कि अपना देश विदेशों से अच्छा है,’’ आनंद ने सफाई से बात बदली, ‘‘लंबे औफिस आवर्स हैं आप दोनों के?’’

‘‘मेरे तो फिर भी ठीक हैं लेकिन जया रायजादा गु्रप के चेयरमैन की पर्सनल सेके्रटरी है इसलिए यह अकसर देर से आती है,’’ राहुल ने बताया.

‘‘खानेवाने का कैसे चलता है फिर?’’

‘‘जानकी रात का खाना बना कर रख जाती है, सवेरे मैं देर से जाती हूं इसलिए आसानी से कुछ बना लेती हूं.’’

‘‘फिर भी कभी कुछ काम हो तो मुरली से कह देना, कर देगा.’’

‘‘थैंक्यू, अंकल. आप को भी जब फुरसत हो यहां आ जाइएगा. मैं तो 7 बजे तक आ जाता हूं,’’ राहुल ने कहा.  आनंद के जाने के कुछ देर बाद कपिल आया. बोला, ‘‘माफ करना भाई, फ्लैट बदलने के चक्कर में तुम्हारे आने की तारीख याद…’’

‘‘लेकिन बैठेबिठाए अच्छाभला फ्लैट बदलने की क्या जरूरत थी यार?’’ राहुल ने बात काटी.

‘‘जब उस बालकनी की वजह से जिसे इस्तेमाल करने की हमें फुरसत ही नहीं थी, आनंद साहब मुझे उस फ्लैट की मार्केट वैल्यू से कहीं ज्यादा दे रहे थे तो मैं फ्लैट क्यों न बदलता?’’  राहुल ने खुद को कहने से रोका कि हमें तो अभी तुम्हारी कमी महसूस नहीं हुई और शायद होगी भी नहीं. उसे न जाने क्यों आनंद अंकल अच्छे या यह कहो अपने से लगे थे. सब से अच्छी बात यह थी कि उन का व्यवहार बड़ा आत्मीय था.

अगली सुबह जया ने कहा, ‘‘आनंद अंकल के नाश्ते के बरतन मैं जानकी से भिजवाना भूल गई. तुम शाम को जानकी से कहना, दे आएगी.’’

लेकिन शाम को राहुल खुद ही बरतन लौटाने के बहाने आनंद के घर चला गया. आनंद बालकनी में बैठे थे, उन्होंने राहुल को भी वहीं बुला लिया.  ‘‘स्वच्छ तो खैर नहीं कह सकते लेकिन खुली हवा यहीं बैठ कर मिलती है और चलतीफिरती दुनिया भी नजर आ जाती है वरना तो वही औफिस के वातानुकूलित कमरे या घर के बैडरूम, ड्राइंगरूम और टैलीविजन की दुनिया, कुछ अलग सा महसूस होता है यहां बैठ कर,’’ आनंद ने कहा, ‘‘सुबह का तो खैर कोई मुकाबला ही नहीं है. यहां की ताजी हवा में कुछ देर बैठ जाओ तो दिनभर स्फूर्ति और चुस्ती बनी रहती है.’’  ‘‘तभी आप ने बहुत ऊंचे दामों में कपिल से यह फ्लैट बदला है,’’ राहुल बोला.  आनंद ने उसे गहरी नजरों से देखा और बोले, ‘‘कह सकते हो वैसे बालकनी के सुख देखते हुए यह कीमत कोई ज्यादा नहीं है. चाहो तो आजमा कर देख लो. सुबह अखबार तो पढ़ते ही होगे?’’

‘‘जी हां, चाय भी पीता हूं.’’

‘‘तो कल यह सब बालकनी में बैठ कर करो, सारा दिन ताजगी महसूस करोगे.’’

अगले दिन जया और राहुल सवेरे ही आनंद अंकल की बालकनी में आ कर बैठ गए. आनंद की बात ठीक थी, राहुल और जया अन्य दिनों की अपेक्षा दिन भर खुश रहे इसलिए रोज सुबह बालकनी में बैठने और आनंद के साथ खबरों पर टिप्पणियां करने का सिलसिला शुरू हो गया.  एक रविवार की सुबह आनंद ने जया  को आराम से अखबार पढ़ते देख कर पूछा, ‘‘आज संडे स्पैशल बे्रकफास्ट बनाने का मूड नहीं है क्या?’’

जया ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘संडे को हम ब्रेकफास्ट करते ही नहीं अंकल, चलतेफिरते फल, नट्स आदि खाते रहते हैं.’’

‘‘मैं तो भई संडे को हैवी ब्रेकफास्ट करता हूं, भरवां परांठे या पूरीभाजी का और फिर उसे पचाने के लिए जी भर कर गोल्फ खेलता हूं. तुम्हें गोल्फ का शौक नहीं है, राहुल?’’  राहुल ने उन की ओर हसरत से देखा और कहा, ‘‘है तो अंकल, लेकिन कभी खेलने का या यह कहिए देखने का मौका भी नहीं मिला.’’

‘‘समझो मौका मिल गया. चलो मेरे साथ.’’ और आनंद ने मुरली को आवाज दे कर राहुल और जया के लिए भी नाश्ता बनाने को कहा. नाश्ता कर आनंद और राहुल गोल्फ क्लब पहुंचे.  राहुल और आनंद के जाने के बाद मुरली गाड़ी में जया को ब्यूटी पार्लर ले गया. आज उस ने रिलैक्स हो कर पार्लर में आने का मजा लिया.  राहुल की तो बरसों पुरानी गोल्फ क्लब जाने की तमन्ना पूरी हो गई. खेलने के बाद अंकल के दोस्तों के साथ बैठ कर बीयर पीना और लंच लेना, फिर घर आ कर कुछ देर इतमीनान से सोना.  यह प्रत्येक रविवार का सिलसिला बन गया. जया भी इस सब से बहुत खुश थी, मुरली बगैर कहे सफाई के अलावा भी कई और काम कर देता था. मुरली के साथ जा कर वह अपने उन रिश्तेदारों या परिचितों से भी मिल लेती थी जिन से मिलने में राहुल को दिलचस्पी नहीं थी. शाम वह और राहुल इकट्ठे गुजारते थे. संक्षेप में आनंद अंकल के पड़ोस में आने से उन की जिंदगी में बहार आ गई थी. जया अकसर उन की पसंद का गाजर का हलवा या नाश्ता बना कर उन्हें भिजवाती रहती थी, कभी पिक्चर या सांस्कृतिक कार्यक्रम में जाने के लिए बगैर पूछे अंकल का टिकट भी ले आती थी.

कुछ अरसे तक तो सब ठीक चला फिर राहुल को लगने लगा कि जया का झुकाव अंकल की तरफ बढ़ता ही जा रहा है. औफिस से जल्दी लौटने पर वह अंकल को जबरदस्ती घर पर बुला लेती थी, कभी उन्हें अपनी शादी का वीडियो दिखाती थी, कभी साहिल की शादी का या राहुल के बचपन की तसवीरें.  अंकल भी उसे खुश करने के लिए दिलचस्पी से सब देखते रहते थे. तभी राहुल को प्रमोशन मिल गया. जाहिर है, जया ने सब से पहले यह खबर आनंद अंकल को सुनाई और उन्होंने उसी रात इस खुशी में क्लब में पार्टी दी जिस में कपिल, पूजा और अपार्टमैंट में रहने वाले कुछ और लोगों को भी बुलाया. जब राहुल के औफिस वालों ने दावत मांगी तो राहुल ने किसी रेस्तरां में दावत देने की सोची लेकिन खर्च बहुत आ रहा था. जया ने कहा कि दावत घर पर ही करेंगे. मुरली भी साथ रहेगा.  ‘‘लेकिन अंकल शाम को गाड़ी नहीं चलाते. अगर मुरली यहां रहेगा तो वे क्लब कैसे जाएंगे, शनिवार की शाम उन्हें घर में गुजारनी पड़ेगी,’’ राहुल ने कहा.

‘‘कमाल करते हो, राहुल. हमारी पार्टी छोड़ कर अंकल क्लब जाएंगे या अपने घर में शाम गुजारेंगे, यह तुम ने सोच भी कैसे लिया?’’

‘‘यानी अंकल पार्टी में आएंगे?’’ राहुल ने हैरानी से पूछा, ‘‘तुम ने यह भी सोचा है जया कि यह जवान लोगों की पार्टी है. उस में अंकल को बुलाने से हमारा मजा किरकिरा हो जाएगा.’’

जया चौंक गई. उस ने आहत स्वर में पूछा, ‘‘हर रविवार को अंकल के साथ गोल्फ क्लब जाने या कभी शाम को जिमखाना क्लब जाने में तुम्हारा मजा किरकिरा नहीं होता?’’  खैर, पार्टी बढि़या रही, अंकल ने पार्टी के मजे में खलल डालने के बजाय जान ही डाली और औफिस के लोग राहुल के उच्चकुलीन वर्ग के लोगों से संपर्क देख कर प्रभावित भी हुए. लेकिन राहुल को जया का अंकल से इतना लगाव चिढ़ की हद तक कचोटने लगा था.

एक शाम वह औफिस से लौटा तो जया को देख कर हैरान रह गया.

‘‘तुम आज औफिस से जल्दी कैसे आ गईं, जया?’’

‘‘मैं आज औफिस गई ही नहीं,’’ जया ने बताया, ‘‘जा ही रही थी कि मुरली हड़बड़ाया हुआ आया कि अंकल अपने औफिस की लिफ्ट में फंस गए हैं. केबल टूटने की वजह से 9वीं मंजिल से लिफ्ट नीचे गड्ढे में जा कर गिरी है…’’

‘‘ओह नो, अब अंकल कैसे हैं, जया?’’ राहुल ने घबरा कर पूछा.

‘‘खतरे से बाहर हैं, आईसीयू से निजी कमरे में शिफ्ट कर दिए गए हैं लेकिन  1-2 रोज अभी औब्जरवेशन में रखेंगे.’’

‘‘और मुरली भी रहेगा ही…’’

‘‘मुरली नहीं, रात को अंकल के पास तुम रहोगे राहुल. अंकल को नौकर की नहीं किसी अपने की जरूरत है.’’

‘‘मुझे दूसरी जगह सोना अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं तो जाने से रहा,’’ राहुल ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘तो फिर मैं चली जाती हूं. अंकल को किराए के लोगों के भरोसे तो छोड़ने से रही. वैसे भी औफिस से तो मैं ने छुट्टी ले ही ली है इसलिए जब तक अंकल अस्पताल में हैं मैं वहीं रहूंगी,’’ जया ने अंदर जाते हुए कहा, ‘‘मुरली आए तो उसे रुकने को कहना है, मैं अपने कपड़े ले कर आती हूं.’’

राहुल ने लपक कर उस का रास्ता रोक लिया.  ‘‘मगर क्यों? क्यों जया, उन के लिए इतना दर्द क्यों?’’ राहुल ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘क्या लगते हैं वह तुम्हारे?’’

‘‘मेरे ससुर लगते हैं क्योंकि वह तुम्हारे बाप हैं,’’ जया के स्वर में भी व्यंग्य था, ‘‘आनंद उन की जाति नहीं नाम है और डीए आनंद का पूरा नाम असीम आनंद धूत है.’’  राहुल हतप्रभ रह गया. हलके से दिया गया झटका भी जोर से लगा था.

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘अचानक ही पता चल गया. 7-8 सप्ताह पहले अहमदाबाद से लौटते हुए प्लेन में मेरी बराबर की सीट पर एक प्रौढ़ दंपती बैठे थे, वार्तालाप तो होना ही था. यह सुन कर मैं स्टार टावर्स में रहती हूं, महिला ने अपने पति से कहा, ‘तुम्हारे धूर्तानंद भी तो अब वहीं रहते हैं.’

‘‘पति रूठे अंदाज में बोला, ‘तुम सब की इस धूर्तानंद कहने की आदत से चिढ़ कर असीम डीए आनंद बन गया मगर तुम ने अपनी आदत नहीं बदली.’  ‘‘‘वह तो उन्होंने विदेश जा कर उपनाम पहले लिखने का चलन अपनाया था और यहां लौट कर गुस्साए ससुराल वालों और बीवीबच्चों से छिपने के लिए वही अपनाए रखा लेकिन एक बात समझ नहीं आई, मेफेयर गार्डन में बैंक से मिली बढि़या कोठी छोड़ कर वे स्टार टावर्स के फ्लैट में रहने क्यों चले गए?’ पत्नी ने पूछा.

‘‘‘जिन बीवीबच्चों से बचने को नाम बदला था अब जीवन की सांध्य बेला में उन की कमी महसूस हो रही है इसलिए यह पता चलते ही कि एक बेटा स्टार टावर्स में रहता है, ये भी वहीं रहने चला गया, कहता है कि अपनी असलियत उसे नहीं बताएगा, दूर से ही उसे आतेजाते देख कर खुश हो लिया करेगा.’

‘‘‘खुशी मिल रही है कि नहीं?’

‘‘‘क्या पता, मेफेयर गार्डन में रहता था तो गाहेबगाहे मुलाकात हो जाती थी. स्टार टावर्स से न उसे आने की और न हमें जाने की फुरसत है.’

‘‘मेरे लिए इतना जानना ही काफी था और तब से मैं उन का यथोचित खयाल रखने लगी हूं.’’

‘‘लेकिन तुम ने मुझ से यह क्यों छिपाया?’’

‘‘क्योंकि सुनते ही तुम अंकल की खुशी को नष्ट कर देते. अभी भी मजबूरी में बताया है. एकदम असहाय और असमर्थ से लग रहे अंकल के चेहरे पर मुझे देख कर जो राहत और खुशी आई थी, वह मैं उन से कदापि नहीं छीनूंगी और न ही अपने और तुम्हारे बीच में शक या नफरत की दीवार को आने दूंगी,’’ जया ने दृढ़ स्वर में कहा.  ‘‘अब तुम्हारेमेरे बीच शक की कोई दीवार नहीं रहेगी जया और न ही बापबेटे के बीच नफरत की…’’

‘‘और न इन दोनों फ्लैट को अलग करने वाली यह दीवार,’’ जया ने बात काटी.  ‘‘हां, यह भी नहीं रहेगी, बिलकुल, पर अभी तो मैं पापा के साथ अस्पताल में रहूंगा और वहां से आने के बाद पापा हमारे साथ ही रहेंगे,’’ राहुल का स्वर भी दृढ़ था.

आईना: क्यों नही होता छात्रों की नजर में टीचर का सम्मान?

आईने के सामने खड़े हो कर गाना गुनगुनाते हुए डा. रत्नाकर ने अपने बालों को संवारा, फिर अपनेआप को पूर्ण संतुष्टि के साथ निहारते हुए बड़े मोहक अंदाज में अपनी पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘सोनू, अरे सोना, मैं तो रेडी हो गया, अब तुम जरा गाड़ी में दोनों पैकेट रखवा दो…प्रिंसिपल साहब का स्पैशल वाला और स्टाफरूम के लिए बड़ा वाला मिठाई का डब्बा. मेरे सारे दोस्त मिठाई के इंतजार में होंगे, सभी के बधाई के फोन आ रहे हैं. आखिर मेरी ड्रीम कार आ ही गई.’’

‘‘पैकेट कार में पहले ही रखवा दिए, प्रिंसिपल साहब की मैडम के लिए कांजीवरम सिल्क की साड़ी भी रख दी है. चाहे कुछ कहो, प्रिंसिपल साहब साथ न दें तो हमारे सपने कैसे पूरे हों. अगर मैडम को भी खुश कर दो तो सबकुछ आसान हो जाता है. ठीक है न,’’ सोनू ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘यू आर ग्रेट,’’ परफ्यूम स्प्रे करतेकरते डा. रत्नाकर ने अपनी पत्नी की दूरदर्शिता की दाद देते हुए कहा, ‘‘जानती हो, स्टाफ में एक शख्स ऐसा भी है जिस ने न तो अभी तक मुझे बधाई नहीं दी. उस का नाम शैलेंद्र है. जलता है वह मेरी तरक्की से और कुछ कहो तो आदर्श शिक्षक की विशेषताएं बता कर सारा मजा किरकिरा कर देता है…सोच रहा हूं, आज उसे इग्नोर ही कर दूं वरना मूड खराब हो जाएगा.’’

सोनू ने भी इस बात पर पूर्ण सहमति जताते हुए सिर हिलाया. डा. रत्नाकर और सोनू गेट की ओर बढ़े. ड्राइवर ने दौड़ कर गाड़ी का दरवाजा खोला.

‘‘बाय,’’ हाथ हिलाते हुए डा. रत्नाकर ने सोनू से विदा ली और कार कालेज की ओर चली. आज उन्हें अपनेआप पर बहुत गर्व हो रहा था. हो भी क्यों न? मात्र 3-4 साल में पहले निजी फ्लैट और अब गाड़ी खरीद ली थी. कहां खटारा स्कूटर…किराए का मकान…मकानमालिक की किचकिच… सब से मुक्ति. जब से अपना कोचिंग सैंटर खोला है तब से रुपयों की बरसात ही तो हो रही है. सोनू भी पढ़ीलिखी है. वह कोचिंग का पूरा मैनेजमैंट देख लेती है और डा. रत्नाकर शिफ्ट में व्यावसायिक कोर्स की कोचिंग करते हैं. प्रिंसिपल साहब को भी किसी न किसी बहाने कीमती गिफ्ट पहुंच जाते हैं तो कालेज का समय भी कोचिंग में लगाने की सुविधा हो जाती है. एक बेटा है जो दिल्ली के एक महंगे स्कूल से 12वीं कर रहा है.

‘ट्रिन…ट्रिन,’ मोबाइल की घंटी से डा. रत्नाकर अपने सुखद विचारों से बाहर निकले. शौर्य का फोन था.

‘‘क्या बात है?’’ रत्नाकर ने पूछा.

‘‘पापा, आप अपनी किताबें व रजिस्टर घर पर ही भूल गए,’’ शौर्य ने कहा, ‘‘सोचा, आप को बता दूं. आप परेशान हो रहे होंगे.’’

‘‘अरे,’’ रत्नाकर सोच ही नहीं पाए कि क्या जवाब दें. फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘बेटा, असल में आज एक मीटिंग है, इसलिए कालेज में पढ़ाई नहीं होगी,’’ इतना कहते ही उन्होंने फोन रख दिया.

गाड़ी से उतर कर रत्नाकर तेज चाल से सीधे प्रिंसिपल के कमरे की ओर बढ़े. प्रिंसिपल साहब गाड़ी की आवाज सुन कर पहले ही खिड़की से डा. रत्नाकर की ड्रीम कार की झलक देख चुके थे, जिसे देख कर उन का मूड औफ हो गया था. अत: डा. रत्नाकर के कमरे में घुसने पर वे चाह कर भी मुसकरा न सके.

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‘‘सर, आप के आशीर्वाद से नई गाड़ी ले ली है…और इस खुशी में यह छोटी सी भेंट आप के लिए लाया था. सोनू ने भाभीजी के लिए कांजीवरम की साड़ी भी भेजी है,’’ कह कर डा. रत्नाकर ने बोझिल वातावरण को महसूस करते हुए उसे हलका करने के उद्देश्य से प्रिंसिपल साहब के पैर छूने का उपक्रम किया.

‘‘रहने दो. इस सब की जरूरत नहीं. वैसे भी मैं तुम को फोन करने वाला था क्योंकि आजकल कई अभिभावक तुम्हारे विरुद्ध शिकायतें ले कर आ रहे हैं कि लंबे समय से क्लास नहीं हुई. मेरे लिए भी संभालना मुश्किल हो रहा है,’’ प्रिंसिपल साहब ने थोड़ी बेरुखी दिखाते हुए कहा.

‘‘सर, मुझे पूरा विश्वास है कि आप तो संभाल ही लेंगे. वैसे भी भाभीजी की कुछ और खास पसंद हो तो बताइएगा,’’

डा. रत्नाकर ने ढिठाई से मुसकराते हुए कहा.

प्रिंसिपल साहब भी मुसकरा दिए.

अब दोनों खुश थे क्योंकि दोनों का दांव सही जगह लगा था.

 

प्रिंसिपल साहब से आज्ञा ले कर रत्नाकर खुशी से उतावले हो कर स्टाफरूम की ओर बढ़े. ‘अब असली मजा आएगा…गाड़ी खरीदने का. सब के चेहरे देखने में एक अजब ही सुख मिलेगा, जिस की प्रतीक्षा मुझे न जाने कब से थी,’ रत्नाकर मन में सोच कर प्रसन्न हो रहे थे.

‘‘बधाई हो,’’ कई स्वर एकसाथ उभरे. रत्नाकर भी खुशी से फूल गए. चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखा तो कोने की टेबल पर डा. शैलेंद्र एक किताब पढ़ने में लीन थे. चाह कर भी रत्नाकर अपनेआप को रोक न सके. अत: शैलेंद्र की प्रतिक्रिया जानने के लिए मिठाई खिलाने के बहाने उन के पास पहुंचे.

‘‘शैलेंद्र, लो, मिठाई खाओ भई. कभीकभी दूसरों की खुशी में भी अपनी खुशी महसूस कर के देखो, अच्छा लगेगा,’’ थोड़े तीखे व ऊंचे स्वर में रत्नाकर ने कहा.

‘‘जरूरी नहीं कि मिठाई बांट कर या शोर मचा कर ही खुशी प्रकट की जाए. मुझे किताब पढ़ने में खुशी मिलती है तो मैं वही कर रहा हूं और खुश हो रहा हूं,’’ शांत भाव से शैलेंद्र ने जवाब दिया.

‘‘वही तो, कई लोगों को हमेशा पुराने ढोल की आवाज ही अच्छी लगती है तो वे बेचारे क्या तरक्की करेंगे. मैं ने अपनी सोच बदली, नए जमाने की दौड़ के साथ दौड़ा तो आज तुम जैसे लोगों को पीछे छोड़ दिया. असल में मुझे बहुत जल्दी ही इस सच का एहसास हो गया कि पहले जैसे विद्यार्थी रहे ही नहीं तो उन के साथ माथापच्ची क्यों करूं? इसलिए जो वास्तव में पढ़ना चाहते हैं उन्हें अलग से पढ़ाऊं…अलग पढ़ाने की फीस लूं…वे भी खुश हम भी खुश,’’ रत्नाकर ने तीखे स्वर में तर्क देते हुए कहा. क्योंकि वे अपनी उपलब्धि सभी पर प्रकट कर अपनेआप को सब से ऊंचा साबित करना चाह रहे थे.

‘‘गलत, एकदम गलत. अगर इसी बात को सही शब्दों में कहें तो हम शिक्षक अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए शिक्षा को व्यवसाय बना रहे हैं तथा ऐसा करने में जो अपराधबोध है उसे विद्यार्थियों के सिर मढ़ रहे हैं,’’ दोटूक उत्तर दे कर शैलेंद्र खड़े हुए और बिना मिठाई खाए स्टाफरूम से बाहर जाते हुए बोले, ‘‘आज भी अच्छे अध्यापक के सभी विद्यार्थी बहुत अच्छे होते हैं और वे ऐसे अध्यापक को वैसे ही सम्मान देते हैं जैसे अपने मातापिता को.’’

स्टाफरूम में सन्नाटा छा गया.

डा. रत्नाकर भी निरुत्तर हो कर बैठ गए.

‘‘दिन कैसा रहा?’’ दरवाजा खोलते हुए खुश हो कर सोनू ने उत्सुकता प्रकट करते हुए रत्नाकर से पूछा.

‘‘बहुत अच्छा, बस शैलेंद्र ने ही थोड़ा बोर कर दिया पर सोनू, सच कहूं तो उस की बात का बिलकुल बुरा नहीं लगा क्योंकि मुझे अपनी उपलब्धि पर भरपूर सुख का एहसास हो रहा था,’’ डा. रत्नाकर बोले.

‘‘अरे पापा, आप कब आए?’’ कहते हुए शौर्य उन के पास आ कर बैठ गया.

‘‘अभीअभी, बड़ी जरूरी मीटिंग थी, इसीलिए थोड़ा थक गया पर कल तुम को वापस जाना है इसलिए आज हम सब लोग डिनर करने बाहर चलेंगे. शौर्य, तुम अपने टीचर्स के लिए मिठाई और गिफ्ट्स ले जाना, वे खुश हो जाएंगे,’’ रत्नाकर ने शौर्य से कहा.

‘‘पापा, कोई टीचर इस लायक है ही नहीं कि उन को कुछ देने का मन करे, सब पैसे के पीछे भागते हैं, ‘डाउट्स क्लीयर’ करने के बहाने घर बुला कर अच्छीखासी फीस लेते हैं…कुछ तो न जाने कब से कालेज ही नहीं आए… केवल एक राजन सर ऐसे हैं जिन के मैं हमेशा पैर छूता हूं और उन के लिए सच्चे मन से कुछ ले जाना चाहता हूं पर वे लेंगे ही नहीं. उन का कहना है कि हमारा अच्छा रिजल्ट ही उन की उपलब्धि है,’’ कहतेकहते शौर्य भावुक हो उठा.

डा. रत्नाकर की निगाहें झुक गईं. उन का बेटा उन्हीं को ऐसा आईना दिखा रहा था जिस में वे अपना अक्स देखने की स्थिति में ही नहीं थे.

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Short Story: हिम्मत वाली लड़की

‘‘अरे राशिद, आज तो चांद जमीन पर उतर आया है,’’ मीना को सफेद कपड़ों में देख कर आफताब ने फबती कसी.

मीना सिर झुका कर आगे बढ़ गई. उस पर फबतियां कसना और इस प्रकार से छेड़ना, आफताब और उस के साथियों का रोज का काम हो गया था. लेकिन मीना सिर झुका कर उन के सामने से यों ही निकल जाया करती. उसे समझ नहीं आता कि वह क्या करे? आफताब के साथ हमेशा 5-6 मुस्टंडे होते, जिन्हें देख कर मीना मन ही मन घबरा जाती थी.

मीना जब सुबह 7 बजे ट्यूशन पढ़ने जाती तो आफताब उसे अपने साथियों के साथ वहीं खड़ा मिलता और जब वह 8 बजे वापस आती तब भी आफताब और उस के मुस्टंडे दोस्त वहीं खड़े मिलते. दिनोदिन आफताब की हरकतें बढ़ती ही जा रही थीं.

एक दिन हिम्मत कर के मीना ने आफताब की शिकायत अपने पापा से की. मीना की शिकायत सुन कर उस के पापा खुद उसे ट्यूशन छोड़ने जाने लगे. उस के पापा को इन गुंडों की पुलिस में शिकायत करने या उन से उलझने के बजाय यही रास्ता बेहतर लगा.

एक दिन मीना के पापा को सवेरे कहीं जाना था इसलिए उन्होंने उस के छोटे भाई मोहन को साथ भेज दिया. जैसे ही मीना और मोहन आफताब की आवारा टोली के सामने से गुजरे तो आफताब ने फबती कसी, ‘‘अरे, यार अब्दुल्ला, आज तो बेगम साले साहब को साथ ले कर आई हैं.’’

यह सुन कर मोहन का खून खौल गया. वह आफताब और उस के साथियों से भिड़ गया, पर वह अकेला 5 गुंडों से कैसे लड़ता. उन्होंने उस की जम कर पिटाई कर दी. महल्ले वाले भी चुपचाप खड़े तमाशा देखते रहे, क्योंकि कोई भी आफताब की आवारा मित्रमंडली से पंगा नहीं लेना चाहता था.

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शाम को जब मीना के पापा को इस घटना का पता चला तो उन्होंने भी चुप रहना ही बेहतर समझा. मोहन ने अपने पापा से कहा, ‘‘पापा, यह जो हमारी बदनामी और बेइज्जती हुई है इस की वजह मीना दीदी हैं. आप इन की ट्यूशन छुड़वा दीजिए.’’

मोहन के मुंह से यह बात सुन मीना हतप्रभ रह गई. उसे यह बात चुभ गई कि इस बेइज्जती की वजह वह खुद है. उसे उन गुंडों के हाथों भाई के पिटने का बहुत दुख था. लेकिन भाई के मुंह से ऐसी बातें सुन कर उस का कलेजा धक रह गया. वह सोच में पड़ गई कि वह क्या करे? सोचतेसोचते उसे लगा कि जैसे उस में हिम्मत आती जा रही है. सो, उस ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब उसे क्या करना है? उस ने उन आवारा टोली से निबटने की सारी तैयारी कर ली.

अगले दिन सवेरे अकेले ही मीना ट्यूशन के लिए निकली. उस ने न अपने भाई को साथ लिया और न ही पापा को. जैसे ही मीना आफताब की आवरा टोली के सामने से गुजरी उन्होंने अपनी आदत के अनुसार फबती कसते हुए कहा, ‘‘अरे, आज तो लाल गुलाब अंगारे बरसाता हुआ आ रहा है.’’

इतना सुनते ही मीना ने पूरी ताकत से एक तमाचा आफताब के गाल पर जड़ दिया. इस झन्नाटेदार तमाचे से आफताब के होश उड़ गए. उस के साथी भी एकाएक घटी इस घटना से ठगे रह गए. इस से पहले कि आफताब संभलता मीना ने दूसरा तमाचा उस की कनपटी पर जड़ दिया. तमाचा खा कर आफताब हक्काबक्का रह गया. वह उस पर हाथ उठाने ही वाला था कि तभी पास खड़े एक आदमी ने उस का हाथ पकड़ते हुए रोबीली आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, अगर लड़की पर हाथ उठाया.’’

यह देख आफताब के साथी वहां से भागने की तैयारी करने लगे, तभी उन सभी को उस आदमी के इशारे पर उस के साथियों ने दबोच लिया.

आफताब इन लोगों से जोरआजमाइश करना चाहता था. तभी वह आदमी बोला, ‘‘अगर तुम में से किसी ने भी जोरआजमाइश करने की कोशिश की तो तुम सब की हवालात में खबर लूंगा. इस समय तुम सब पुलिस की गिरफ्त में हो और मैं हूं इंस्पेक्टर जतिन.’’

यह सुन कर उन आवारा लड़कों की पांव तले जमीन खिसक गई. उन के हाथपैर ढीले पड़ गए. इंस्पेक्टर जतिन ने मोबाइल से फोन कर मोड़ पर जीप लिए खड़े ड्राइवर को बुला लिया. फिर उन्हें पुलिस जीप में बैठा कर थाने लाया गया.

तब तक मीना के मम्मीपापा और भाई भी थाने पहुंच गए. इंस्पेक्टर जतिन उन्हें वहां ले गए जहां मीना अपनी सहेली सरिता के साथ बैठी हंसहंस कर बातें करती हुई नाश्ता कर रही थी.

इस से पहले कि मीना के मम्मीपापा उस से कुछ पूछते, इंस्पेक्टर जतिन खुद ही बोल पड़े, ‘‘देवेश बाबू, इस के पीछे मीना की हिम्मत और समझदारी है. कल मीना ने सरिता को फोन पर सारी घटना बताई. तब मैं ने मीना को यहां बुला कर योजना बनाई और बस, आफताब की आवारा टोली पकड़ में आ गई.

‘‘देवेश बाबू, एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगा कि इस प्रकार के मामलों में कभी चुप नहीं बैठना चाहिए. इस की शिकायत आप को पहले ही दिन थाने में करनी चाहिए थी. लेकिन आप तो मोहन की पिटाई के बाद भी बुजदिल बने खामोश बैठे रहे. तभी तो इन गुंडों और समाज विरोधी तत्त्वों की हिम्मत बढ़ती है.’’

यह सुन कर मीना के मम्मीपापा को अफसोस हुआ. मोहन धीरे से बोला, ‘‘अंकल, सौरी.’’

‘‘मोहन बेटा, तुम भी उस दिन झगड़े के बाद सीधे पुलिस थाने आ जाते तो हम तुरंत कार्यवाही करते. पुलिस तो होती ही जनता की सुरक्षा के लिए है. उसे अपना मित्र समझना चाहिए.’’

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इंस्पेक्टर जतिन की बातें सुन कर मीना के मम्मीपापा व भाई की उन की आंखें खुल गईं. वे मीना को ले कर घर आ गए. इस हिम्मतपूर्ण कार्य से मीना का मानसम्मान सब की नजरों में बढ़ गया. लोग कहते, ‘‘देखो भई, यही है वह हिम्मत वाली लड़की जिस ने गुंडों की पिटाई की.’’

अब मीना को छेड़ना तो दूर, आवारा लड़के उसे देख कर भाग खड़े होते. मीना के हौसले की चर्चा सारे शहर में थी अब वह सब के लिए एक उदाहरण बन गई थी.

दूरबीन: नंदिनी ने सामने वाले घर में क्या देख लिया था?

सुबह 9 बजे नंदिनी ने खाने की मेज पर अपने पति विपिन और युवा बच्चों सोनी और राहुल को आवाज दी, ‘‘जल्दी आ जाओ सब, नाश्ता लग गया है.’’

नंदिनी तीनों के टिफिन भी पैक करती जा रही थी. तीनों लंच ले जाते थे. सुबह निकल कर शाम को ही लौटते थे. विपिन ने नाश्ता शुरू किया. साथ ही न्यूजपेपर पर भी नजर डालते जा रहे थे. सोनी और राहुल अपनेअपने मोबाइल पर नजरें गड़ाए नाश्ता करने लगे. नंदिनी तीनों के जाने के बाद ही आराम से बैठ कर नाश्ता करना पसंद करती थी.

सोनी और राहुल को फोन में व्यस्त देख कर नंदिनी झुंझला गई, ‘‘क्या आराम से नाश्ता नहीं कर सकते? पूरा दिन बाहर ही रहना है न, आराम से फोन का शौक पूरा करते रहना.’’

विपिन शायद डिस्टर्ब हुए. माथे पर त्योरियां डाल कर बोले, ‘‘क्यों सुबहसुबह गुस्सा करने लगती हो? कर रहे होंगे फोन पर कुछ.’’

नंदिनी चिढ़ गई, ‘‘तीनों अब शाम को ही आएंगे… क्या शांति से नाश्ता नहीं कर सकते?’’

विपिन ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हम तो शांति से ही नाश्ता कर रहे हें. शोर तो तुम मचा रही हो.’’

बच्चों को पिता की यह बात बहुत पसंद आई. दोनों एकसाथ बोले, ‘‘वाह पापा, क्या बात कही है.’’

नंदिनी ने तीनों के टिफिन टेबल पर रखे और चुपचाप उदास मन से वहां से हट गई. सोचने लगी कि पूरा दिन अब अकेले ही रहना है… इन तीनों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि कुछ देर हंसबोल लें. शाम को सब थके आएंगे और फिर बस टीवी और फोन. किसी के पास क्यों आजकल कोई बात नहीं रहती करने के लिए?

बच्चों के हर समय फोन पर रहने ने तो घर में ऐसी नीरसता भर दी है कि खत्म होने को नाम ही नहीं लेती है. अगर मैं तीनों से अपना मोबाइल, टीवी, लैपटौप बंद कर के थोड़ा सा समय अपने लिए चाहती हूं, तो तीनों को लगता है पता नहीं मुझे क्या हो गया है.

जबरदस्ती दोस्त बनाने में, सोशल नैटवर्किंग के पागलपन में समय बिताने में, पड़ोसिनों से निरर्थक गप्पें मारने में अगर मेरा मन नहीं लगता तो क्या यह मेरी गलती है? ये तीनों अपने फेसबुक मित्रों की तो छोटी से छोटी जानकारी भी रखते हैं पर इन के पास मेरे लिए कोई समय नहीं.

तीनों चले गए. घर में फिर अजीब सी खामोशी फैल गई, मन फिर उदास सा था. नाश्ता करते हुए नंदिनी को जीवन बहुत नीरस और बोझिल सा लगा. थोड़ी देर में काम करने वाली मेड श्यामा आ गई. नंदिनी फिर रूटीन में व्यस्त हो गई.

उस के जाने के बाद नंदिनी इधरउधर घूमती हुई घर ठीक करती रही. सोचती रही कि वह कितनी खुशमिजाज हुआ करती थी, कहेकहे लगाती रोमानी सपनों में रहती थी और अब रोज शाम को टीवी, फोन और लैपटौप के बीच घुटघुट कर जीने की कोशिश करती रह जाती है.

पता नहीं क्याक्या सोचती वह अपने फ्लैट की अपनी प्रिय जगह बालकनी में आ खड़ी हुई. उसे लखनऊ से यहां मुंबई आए 1 ही साल हुआ था. यहां दादर में ही विपिन का औफिस और बच्चों का कालेज है, इसलिए यह फ्लैट उन्होंने दादर में ही लिया था.

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रजनीगंधा की बेलों से ढकी हुई बालकनी में वह कल्पनाओं में विचरती रहती. यहां इन तीनों में से कोई नहीं आता. यह उस का अपना कोना था. फिर वह यों ही अपने छोटे से स्टोररूम में जा कर सामान ठीक करने लगी. काफी दिन हो गए थे यहां का सामान संभाले. वह सब कुछ ठीक से रखने लगी. अचानक उस ने बच्चों के खिलौनों का एक बड़ा डब्बा यों ही खोल लिया. ऐसे ही हाथ डाल कर खिलौने इधरउधर कर देखने लगी. 3 साल पहले चारों नैनीताल घूमने गए थे, वहीं बच्चों ने यह दूरबीन खरीदी थी.

वह दूरबीन ले कर डब्बा वापस रख कर अपनी बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. सोचा ऐसे खड़े हो कर देखना अच्छा नहीं लगेगा. कोई देखेगा तो गड़बड़ हो जाएगी. अत: फूलों की बेलों के पीछे स्टूल रख कर अपनी दूरबीन संभाले आराम से बैठ गई.

आंखों पर दूरबीन रख कर देखा. थोड़ी दूर स्थित बिल्डिंग बने ज्यादा समय नहीं हुआ था, यह वह जानती ही थी. अभी काफी फ्लैट्स में काम हो रहा था. एक फ्लैट की बालकनी और ड्राइंगरूम उसे साफ दिखाई दे रहा था. उस की उम्र की एक महिला ड्राइंगरूम में दिखाई दी.

उस घर में शायद म्यूजिक चल रहा था. वह महिला काम करतेकरते सिर को जोरजोर से हिला रही थी.

अचानक उस की बेटी भी आ गई. दोनों मिल कर किसी गाने पर थिरकीं और फिर खिलखिलाईं. नंदिनी भी मुसकरा उठी. मांबेटी के स्टैप से नंदिनी को लगा शायद ‘बेबी डौल’ गाना चल रहा है. नंदिनी अकेली ही खिलखिला दी. अचानक उस ने मन में ताजगी सी महसूस हुई. आसपास फूलों की खुशबू और सामने मांबेटी के क्रियाकलाप देख कर नंदिनी बिलकुल मस्ती के मूड में आ गई और गुनगुनाने लगी. फिर मांबेटी शायद घर के दूसरे हिस्से में चली गईं.

नंदिनी ने अंदर जा कर घड़ी देखी. 12 बज रहे थे. आज टाइम का पता ही नहीं चला. वह वापस स्टूल पर आ बैठी. दूरबीन से इधरउधर देखती रही. कहीं कुछ खास नहीं दिखा. ज्यादातर फ्लैट्स बंद थे या फिर परदे खिंचे थे.

फिर अचानक उस की नजर एक फ्लैट की बालकनी पर अटक गई. झटका सा लगा. दूरबीन उस के हाथों से गिरतेगिरते बची.

एक लंबाचौड़ा, जिम में तराशी सुगठित देह वाला हैंडसम लड़का तौलिए से अपने बाल पोंछ रहा था. शायद नहा कर निकला था. बस शौर्ट्स पहले तौलिया तार पर टांग ही रहा था कि उस की खूबसूरत नवविवाहिता पत्नी उस लड़के की कमर में पीछे से हाथ डाल दिया. लड़के ने पलट कर उसे वहीं किस कर लिया और फिर उस की कमर में हाथ डाल कर अंदर जा कर ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट सा गया.

एकदूसरे का भरपूर चुंबन लेते दोनों साफ दिख रहे थे. नंदिनी की कनपटियां तक लाल हो गईं. उस का दिल तेज धड़कने लगा. ठंडे पसीने से पूरा शरीर भीग गया. बहुत दिनों बाद तनमन की यह हालत हुई थी. नंदिनी ने देखा फिर वह जोड़ा सोफे से उठ कर घर के किसी और हिस्से में चला गया. शायद बैडरूम में. नंदिनी यह सोच कर हंस पड़ी.

अब 1 बज रहा था. नंदिनी ने लंच किया. आज लंच करतेकरते वह अकेली मुसकराती रही. आज अचानक उसे पता नहीं क्याक्या याद आने लगा. सालों पुरानी अपनी लाल चूडि़यां याद आने लगीं. मन हुआ शुरुआती दिनों की तरह खूब सजधज कर विपिन के साथ कुछ समय बिताए. लंच कर के उस ने फिर दूरबीन उठा ली. फिर कुछ नहीं दिखा. वह भी जा कर सो गई. फिर उठ कर घर के कुछ काम निबटाए.

4 बजे चाय का कप ले कर फिर दूरबीन उठा कर स्टूल पर बैठ गई. मांबेटी वाले घर में तो कोई हलचल नहीं दिखी, पर नवविवाहित जोड़ा घर की सैटिंग में व्यस्त था. दोनों मिल कर सामान ठीक कर रहे थे. शायद नएनए आए थे फ्लैट में. बीचबीच में दोनों का रोमांस भी चल रहा था. लड़के ने पत्नी को गोद में उठा कर घुमा दिया. आकर्षक जोड़ा था.

नंदिनी ने हंस कर अपनी दूरबीन को चूम लिया. आज उसे एक नया रोमांच महसूस हो रहा था. पूरा दिन कब बीत गया, पता ही नहीं चला. सब से बड़ी बात उसे पति और बच्चों की कोई बात याद कर के गुस्सा नहीं आया. आज कोई झुंझलाहट नहीं थी मन में. एकदम खिलाखिला था मन.

5 बज रहे थे. नंदिता अपनी शाम की सैर पर जाने के लिए तैयार होने लगी. वह शाम को रोज 1 घंटा सोसायटी के पार्क में सैर करती थी. आज उस के कदमों में गजब की तेजी थी. मन में स्फूर्ति थी. सैर करते हुए सोच रही  थी कि इस दूरबीन का किस्सा घर में किसी को नहीं बताऊंगी.

वह जानती है यह हरकत अच्छी नहीं है पर उसे तो आज पूरा दिन मजा आया, सहीगलत के चक्कर में नहीं पड़ेगी वह. 6 बजे आ कर वह किचन में व्यस्त हो गई. शाम को सब के आने के समय नंदिनी ने दूरबीन अपनी साडि़यों की तह में छिपा दी.

विपिन राहुल और सोनी के आने के बाद नंदिनी नाश्ते के बाद डिनर की तैयारी में व्यस्त हो गई. वह बच्चों से बीचबीच में दिन भर की बातें पूछती रही. कालेज के कुछ और सवाल पूछने पर फोन में व्यस्त राहुल झुंझला गया, ‘‘मां, कितने सवाल करती हो?’’

आज नंदिनी खुद ही अपने ऊपर हैरान रह गई. उसे राहुल की इस बात पर जरा भी गुस्सा नहीं आया. वह गुनगुनाती हुई अपने काम करती रही. डिनर के बाद विपिन न्यूज देखने लगे. बच्चे अपने रूम में चले गए. नंदिनी का मन हुआ अपनी दूरबीन उठा ले पर नहीं, यह तो असंभव था. वह घर में किसी को भनक नहीं लगने देगी. उस ने फिर बड़े ही रोमांटिक अंदाज में विपिन के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘चलो, बाहर टहल कर आते हैं.’’

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विपिन को हैरत का एक तेज झटका लगा. नंदिनी को ध्यान से देख कर पूछा, ‘‘तुम्हें क्या हुआ है?’’

नंदिनी हंस पड़ी, ‘‘बस यही पूछते रहते हो तुम्हें क्या हुआ है, कभी कुछ और भी तो कहो.’’

विपिन ने मुसकराते हुए टीवी बंद कर दिया.

दोनों टहल आए. नंदिनी का मूड बहुत अच्छा था1 उस नवविवाहित जोड़े की प्रणयलीला याद कर एक भूलीभटकी सी रोमानियत उस के मन में भी उतरती जा रही थी. उस रात उस ने अपने और विपिन के प्रणयपलों को बड़ी उमंग से जीया.

सुबह नंदिनी तीनों के जाते ही जल्दी से दूरबीन उठा कर स्टूल पर बैठ गई. मांबेटी वाले फ्लैट में मां शायद कामकाजी थी, वह साड़ी पहने तैयार थी. बेटी शायद कालेज में होगी. दोनों साथ ही निकलती थीं. घर में कोई और नहीं था. कल शायद लेट गई थीं. तभी तो नाचगा रही थीं. दोनों बहुत फ्रैश और खुश लग रही थीं.

फिर नंदिनी ने दूरबीन दूसरे फ्लैट की ओर घुमाई कि क्या कर रहे होंगे ये हीरोहीरोइन. वह खुद ही जोर से हंस दी. देखा, शायद हीरो औफिस के लिए तैयार था. हीरोइन अपने हाथ से उसे नाश्ता करा रही थी. वाह, रोमांस चल रहा है. हां, यही तो दिन हैं भई… चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात. वह खुद ही सब सोच कर मुसकराती रही. तभी श्यामा आ गई तो नंदिनी ने दूरबीन छिपा दी.

आज एक अरसे बाद नंदिनी ने विपिन को व्हाट्सऐप पर मैसेज किया, ‘आई लव यू.’

विपिन की हैरानी वाली बात स्माइली आई और ‘सेम टू ये, डियर’ का जवाब. नंदिनी विचित्र सी अनुभूतियों में घिरी घर के काम निबटाती रही. फिर वह दोपहर में ब्यूटीपार्लर गई. बढि़या फेशियल, मैनीक्योर, पैडीक्योर, एक मौडर्न हेयरकट करवाया, खुद को आईने में देख कर खुश हुई. फिर अपने लिए नई कुरती खरीदी.

घर आते ही दूरबीन उठाई पर कुछ नहीं दिखा. मांबेटी शायद शाम को ही वापस आती थीं. हीरोइन एकाधबार बालकनी में दिखाई दी. फिर शाम के समय एकदम सजीसंवरी हीरो का इंतजार करती. नंदिनी भी शाम के समय आज कुछ अलग ढंग से तैयार हुई.

शाम को सोनीराहुल आए तो नंदिनी को देखते ही सोनी बोली, ‘‘वाह, मां, कितनी अच्छी लग रही हो. वाह, नया हेयरकट, बहुत अच्छा है.’’

राहुल ने भी कहा, ‘‘ऐसे ही रहा करो मां, लुकिंग गुड.’’

विपिन तो कल से ही नंदिनी में आए परिवर्तन पर हैरान थे. नंदिनी को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोले, ‘‘वाह, क्या बात है. भई, क्या इरादा है?’’

नंदिनी हंसतेह हुए बोली, ‘‘अच्छा ही है.’’

‘‘तो चलो, आज इस मेकओवर पर आइसक्रीम तो बनती है, डिनर के बाद सब ‘कूल कैंप’ चलेंगे.’’

‘‘वाह पापा, वैरी गुड.’’

चारों हंसीखुशी आइसक्रीम खा कर घर लौटे. नंदिनी हैरान थी. अपने मन के बदलाव

पर, पहले वह तीनों की हर बात पर चिढ़ती, झुंझलाती रहती थी. पर अब कल से उसे सब कुछ कितना अच्छा लग रहा था. यह क्या हो गया? उस के खुश रहते ही घर में भी एक अलग माहौल था. तो क्या सिर्फ उस के कुढ़ते रहने से, शिकायत करते रहने से माहौल में उदासीनता आती जा रही थी? अपने मन की उदासी, जीवन में आई नीरसता के लिए वह स्वयं दोषी थी?

अपने जीवन में फैली बोझिलता के लिए उस का मन उसे ही जिम्मेदार ठहरा रहा था. वह क्यों इन तीनों से शिकायतों में ही अपनी ऊर्जा नष्ट करती रहती? वह खुश रहने के लिए किसी पर निर्भर क्यों है? पता नहीं क्याक्या सोचते हुए घर आ गया.

अब नंदिनी का यही रूटीन रहने लगा. मौका मिलते ही वह दूरबीन उठा लेती. फूलों की मोहक खुशबू की आड़ में दूरबीन की आंखों से देखती. उस हीरोहीरोइन के नएनए मादक रोमांस की साक्षी थी वह. उन का नयानया प्यार उसे भी पुराने दिनों में ले गया था, जब उस ने विपिन के साथ नया जीवन शुरू किया था. वह उन के वर्तमान को देख कर अपना अतीत फिर जीने लगी थी.

वह अचानक अपने दिल में वही उत्साह, वही रोमांच, वही रोमांस महसूस करने लगी थी. विपिन के टूर पर जाने पर अब वह कलपती नहीं थी, विपिन के टूर पर जाने पर कभी सोनी के साथ मूवी देख आती, कभी दोनों बच्चों के साथ लंच पर चली जाती थी.

मांबेटी वाले फ्लैट में मांबेटी को खुश देख उसे बहुत अच्छा लगता. अंदाजा लगाती पता नहीं दोनों का कोई भी या नहीं. क्यों अकेली हैं दोनों? इन के साथ क्या हुआ होगा? उन के बारे में बहुत कुछ सोचती नंदिनी. अब उस का दिन कब बीत जाता था उसे पता ही नहीं चलता था.

अब सामने वाली बिल्डिंग में और लोग भी आ रहे थे. खाली फ्लैट्स धीरेधीरे भर रहे थे. दूरबीन आंखों पर लगाए अब टाइमपास करते नंदिनी को 4 महीने हो रहे थे. हीरोहीरोइन के रोमांस में तो उसे जीवन का सारा थ्रिल लगता, उन्हें देखदेख कर ही तो वह बदलती चली गई.

मगर एक दिन सुबह 11 बजे ही उसे बहुत बड़ा झटका लगा. वह जैसे अपने सपनों की दुनिया से यथार्थ के कठोर धरातल पर आ गिरी. दूरबीन पकड़े हाथ कांप से गए. हीरोहीरोइन फ्लैट खाली कर रहे थे. नीचे रोड पर खड़ा ट्रक भी उसे दिखाई दे गया. सामान पैक करने वालों की ड्राइंगरूम में बहुत हलचल थी, जो साफ दिख रही थी.

यह क्या? नंदिनी को अपनी आंखों की नमी दिल में उतरती महसूस हुई. वह कितना जुड़ गई थी उन से. वे दोनों तो कभी जान भी नहीं जाएंगे कि कोई उन्हें खुश देख कर खुश रहने लगा था. उफ अब ये जा रहे हैं. फिर वही उदासी, वही बोरिंग रूटीन. नंदिनी को पूरा दिन चैन नहीं आया. वह दूरबीन लिए अंदरबाहर बेचैन सी चक्कर काटती रही.

शाम होतेहोते ट्रक सामान भर कर चला गया. उस के हीरोहीरोइन भी कार से चले गए. नंदिनी दूरबीन अपनी गोद में रख कर सिर दीवार से टिका कर गुमसुम बैठी रह गई.

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शाम को नंदिनी का उतरा चेहरा घर में सब ने नोट किया. वह खराब तबीयत का बहाना बन कर बिस्तर में जल्दी लेट गई. उस के 3-4 दिन बेहद उदास बीते. सामने वाली मांबेटी सुबह की गईं शाम को ही आती थीं. प्रणयलीला में डूबे हीरोहीरोइन याद आते. अब उस के जीवन में फिर वही नीरसता थी, फिर वही बोझिलता. 15 दिन उस ने दूरबीन को हाथ भी नहीं लगाया.

फिर एक दिन नंदिनी स्टूल पर बैठी सामने वाले फ्लैट्स पर अपनी दूरबीन दौड़ा रही थी. अधिकतर घरों के परदे खिंचे थे. अचानक उस का मन झूम उठा. हीरोहीरोइन वाला फ्लैट शायद 2-3 लड़कों ने शेयर कर के ले लिया था.

3 हैंडसम लड़के घर ठीक करने में व्यस्त थे. एक परदे टांग रहा था. एक के हाथ में शायद कोई कपड़ा था. वह शायद डस्टिंग कर रहा था. तीसरा सफेद टीशर्ट और ब्लैक शौर्ट्स पहने बालकनी में कपड़े सुखा रहा था और उस के बराबर वाले फ्लैट की बालकनी में एक युवा लड़की पौधों में पानी डाल रही थी. वह बारबार उस कपड़े सुखाते लड़के को देख रही थी.

नंदिनी मुसकरा उठी. उस ने लड़के को ध्यान से देखा. वह भी उस लड़की को देख कर मुसकरा उठा था. वाह, यहां तो एक लवस्टोरी भी शुरू हो गई. अब तो मजा आएगा, वाह, दोनों एकदूसरे को देख रहे हैं. मतलब शिफ्ट करते ही रोमांस शुरू.

तभी अचानक एक वृद्ध महिला ने बालकनी में आ कर लड़की से कुछ कहा. यह शायद उस की नानी, या दादी होंगी. लड़की ने फौरन लड़के की तरफ पीठ कर ली. लड़का भी फौरन अंदर चला गया. महिला कुछ देर पौधों को देखती रही, फिर वे भी अंदर चली गईं. काफी दिनों बाद दूरबीन अपनी अलमारी में रखते हुए नंदिनी फिर गुनगुना रही थी.

अग्निपरीक्षा: क्या तूफान आया श्रेष्ठा की जिंदगी में?

जीवन प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत, मनोरम पहाड़ी रास्ता नहीं है क्या, जहां मानव सुख से अपनों के साथ प्रकृति के दिए उपहारों का आनंद उठाते हुए आगे बढ़ता रहता है.

फिर अचानक किसी घुमावदार मोड़ पर अतीत को जाती कोई संकरी पगडंडी उस की खुशियों को हरने के लिए प्रकट हो जाती है. चिंतित कर, दुविधा में डाल उस की हृदय गति बढ़ाती. उसे बीते हुए कुछ कड़वे अनुभवों को याद करने के लिए मजबूर करती.

श्रेष्ठा भी आज अचानक ऐसी ही एक पगडंडी पर आ खड़ी हुई थी, जहां कोई जबरदस्ती उसे बीते लमहों के अंधेरे में खींचने का प्रयास कर रहा था. जानबूझ कर उस के वर्तमान को उजाड़ने के उद्देश्य से.

श्रेष्ठा एक खूबसूरत नवविवाहिता, जिस ने संयम से विवाह के समय अपने अतीत के दुखदायी पन्ने स्वयं अपने हाथों से जला दिए थे. 6 माह पहले दोनों परिणय सूत्र में बंधे थे और पूरी निष्ठा से एकदूसरे को समझते हुए, एकदूसरे को सम्मान देते हुए गृहस्थी की गाड़ी उस खूबसूरत पहाड़ी रास्ते पर दौड़ा रहे थे. श्रेष्ठा पूरी ईमानदारी से अपने अतीत से बाहर निकल संयम व उस के मातापिता को अपनाने लगी थी.

जीवन की राह सुखद थी, जिस पर वे दोनों हंसतेमुसकराते आगे बढ़ रहे थे कि अचानक रविवार की एक शाम आदेश को अपनी ससुराल आया देख उस के हृदय को संदेह के बिच्छु डसने लगे.

श्रेष्ठा के बचपन के मित्र के रूप में अपना परिचय देने के कारण आदेश को घर में प्रवेश व सम्मान तुरंत ही मिल गया, सासससुर ने उसे बड़े ही आदर से बैठक में बैठाया व श्रेष्ठा को चायनाश्ता लाने को कहा.

श्रेष्ठा तुरंत रसोई की ओर चल पड़ी पर उस की आंखों में एक अजीब सा भय तैरने लगा. यों तो श्रेष्ठा और आदेश की दोस्ती काफी पुरानी थी पर अब श्रेष्ठा उस से नफरत करती थी. उस के वश में होता तो वह उसे अपनी ससुराल में प्रवेश ही न करने देती. परंतु वह अपने पति व ससुराल वालों के सामने कोई तमाशा नहीं चाहती थी, इसीलिए चुपचाप चाय बनाने भीतर चली गई. चाय बनाते हुए अतीत के स्मृति चिह्न चलचित्र की भांति मस्तिष्क में पुन: जीवित होने लगे…

वषों पुरानी जानपहचान थी उन की जो न जाने कब आदेश की ओर से एकतरफा प्रेम में बदल गई. दोनों साथ पढ़ते थे, सहपाठी की तरह बातें भी होती थीं और मजाक भी. पर समय के साथ श्रेष्ठा के लिए आदेश के मन में प्यार के अंकुर फूट पड़े, जिस की भनक उस ने श्रेष्ठा को कभी नहीं होने दी.

यों तो लड़कियों को लड़कों मित्रों के व्यवहार व भावनाओं में आए परिवर्तन का आभास तुरंत हो जाता है, परंतु श्रेष्ठा कभी आदेश के मन की थाह न पा सकी या शायद उस ने कभी कोशिश ही नहीं की, क्योंकि वह तो किसी और का ही हाथ थामने के सपने देख, उसे अपना जीवनसाथी बनाने का वचन दे चुकी थी.

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हरजीत और वह 4 सालों से एकदूजे संग प्रेम की डोर से बंधे थे. दोनों एकदूसरे के प्रति पूर्णतया समर्पित थे और विवाह करने के निश्चय पर अडिग. अलगअलग धर्मों के होने के कारण उन के परिवार इस विवाह के विरुद्घ थे, पर उन्हें राजी करने के लिए दोनों के प्रयास महीनों से जारी थे. बच्चों की जिद और सुखद भविष्य के नाम पर बड़े झुकने तो लगे थे, पर मन की कड़वाहट मिटने का नाम नहीं ले रही थी.

किसी तरह दोनों घरों में उठा तूफान शांत होने ही लगा था कि कुदरत ने श्रेष्ठा के मुंह पर करारा तमाचा मार उस के सपनों को छिन्नभिन्न कर डाला.

हरजीत की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. श्रेष्ठा के उजियारे जीवन को दुख के बादलों ने पूरी तरह ढक लिया. लगा कि श्रेष्ठा की जीवननैया भी डूब गई काल के भंवर में. सब तहसनहस हो गया था. उन के भविष्य का घर बसने से पहले ही कुदरत ने उस की नींव उखाड़ दी थी.

इस हादसे से श्रेष्ठा बूरी तरह टूट गई  पर सच कहा गया है समय से बड़ा चिकित्सक कोई नहीं. हर बीतते दिन और मातापिता के सहयोग, समझ व प्रेमपूर्ण अथक प्रयासों से श्रेष्ठा अपनी दिनचर्या में लौटने लगी.

यह कहना तो उचित न होगा कि उस के जख्म भर गए पर हां, उस ने कुदरत के इस दुखदाई निर्णय पर यह प्रश्न पूछना अवश्य छोड़ दिया था कि उस ने ऐसा अन्याय क्यों किया?

सालभर बाद श्रेष्ठा के लिए संयम का रिश्ता आया तो उस ने मातापिता की इच्छापूर्ति के लिए तथा उन्हें चिंतामुक्त करने के उद्देश्य से बिना किसी उत्साह या भाव के, विवाह के लिए हां कह दी. वैसे भी समय की धारा को रोकना जब वश में न हो तो उस के साथ बहने में ही समझदारी होती है. अत: श्रेष्ठा ने भी बहना ही उचित समझा, उस प्रवाह को रोकने और मोड़ने के प्रयास किए बिना.

विवाह को केवल 5 दिन बचे थे कि अचानक एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई. आदेश जो श्रेष्ठा के लिए कोई माने नहीं रखता था, जिस का श्रेष्ठा के लिए कोई वजूद नहीं था एक शाम घर आया और उस से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की. श्रेष्ठा व उस के पिता ने जब उसे इनकार कर स्थिति समझाने का प्रयत्न किया तो उस का हिंसक रूप देख दंग रह गए.

एकतरफा प्यार में वह सोचने समझने की शक्ति तथा आदरभाव गंवा चुका था. उस ने काफी हंगामा किया. उस की श्रेष्ठा के भावी पति व ससुराल वालों को भड़का कर उस का जीवन बरबाद करने की धमकी सुन श्रेष्ठा के पिता ने पुलिस व रिश्तेदारों की सहायता से किसी तरह मामला संभाला.

काफी देर बाद वातावरण में बढ़ी गरमी शांत हुई थी. विवाह संपन्न होने तक सब के मन में संदेह के नाग अनहोनी की आशंका में डसते रहे थे. परंतु सभी कार्य शांतिपूर्वक पूर्ण हो गए.

बैठक से तेज आवाजें आने के कारण श्रेष्ठा की अतीत यात्रा भंग हुई और वह बाहर की तरफ दौड़ी. बैठक का माहौल गरम था. सासससुर व संयम तीनों के चेहरों पर विस्मय व क्रोध साफ झलक रहा था. श्रेष्ठा चुपचाप दरवाजे पर खड़ी उन की बातें सुनने लगी.

‘‘आंटीजी, मेरा यकीन कीजिए मैं ने जो भी कहा उस में रत्तीभर भी झूठ नहीं है,’’ आदेश तेज व गंभीर आवाज में बोल रहा था. बाकी सब गुस्से से उसे सुन रहे थे.

‘‘मेरे और श्रेष्ठा के संबंध कई वर्ष पुराने हैं. एक समय था जब हम ने साथसाथ जीनेमरने के वादे किए थे. पर जैसे ही मुझे इस के गिरे चरित्र का ज्ञान हुआ मैं ने खुद को इस से दूर कर लिया.’’

आदेश बेखौफ श्रेष्ठा के चरित्र पर कीचड़ फेंक रहा था. उस के शब्द श्रेष्ठा के कानों में पिघलता शीशी उड़ेल रहे थे.

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आदेश ने हरजीत के साथ रहे श्रेष्ठा के पवित्र रिश्ते को भी एक नया ही

रूप दे दिया जब उस ने उन के घर से भागने व अनैतिक संबंध रखने की झूठी बात की. साथ ही साथ अन्य पुरुषों से भी संबंध रखने का अपमानजनक लांछन लगाया. वह खुद को सच्चा साबित करने के लिए न जाने उन्हें क्याक्या बता रहा था.

आदेश एक ज्वालामुखी की भांति झूठ का लावा उगल रहा था, जो श्रेष्ठा के वर्तमान को क्षणभर में भस्म करने के लिए पर्याप्त था, क्योंकि हमारे समाज में स्त्री का चरित्र तो एक कोमल पुष्प के समान है, जिसे यदि कोई अकारण ही चाहेअनचाहे मसल दे तो उस की सुंदरता, उस की पवित्रता जीवन भर के लिए समाप्त हो जाती है. फिर कोई भी उसे मस्तक से लगा केशों में सुशोभित नहीं करता है.

श्रेष्ठा की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. क्रोध, भय व चिंता के मिश्रित भावों में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हृदय की धड़कन तेज दौड़तेदौड़ते अचानक रुक जाएगी.

‘‘उफ, मैं क्या करूं?’’

उस पल श्रेष्ठा के क्रोध के भाव 7वें आसमान को कुछ यों छू रहे थे कि यदि कोई उस समय उसे तलवार ला कर दे देता तो वह अवश्य ही आदेश का सिर धड़ से अलग कर देती. परंतु उस की हत्या से अब क्या होगा? वह जिस उद्देश्य से यहां आया था वह तो शायद पूरा हो चुका था.

श्रेष्ठा के चरित्र को ले कर संदेह के बीज तो बोए जा चुके थे. अगले ही पल श्रेष्ठा को लगा कि काश, यह धरती फट जाए और वह इस में समा जाए. इतना बड़ा कलंक, अपमान वह कैसे सह पाएगी?

आदेश ने जो कुछ भी कहा वह कोरा झूठ था. पर वह यह सिद्घ कैसे करेगी? उस की और उस के मातापिता की समाज में प्रतिष्ठा का क्या होगा? संयम ने यदि उस से अग्निपरीक्षा मांगी तो?

 

कहीं इस पापी की बातों में आ कर उन का विश्वास डोल गया और उन्होंने उसे अपने जीवन से बाहर कर दिया तो वह किसकिस को अपनी पवित्रता की दुहाई देगी और वह भी कैसे? वैसे भी अभी शादी को समय ही कितना हुआ था.

अभी तो वह ससुराल में अपना कोई विशेष स्थान भी नहीं बना पाई थी. विश्वास की डोर इतनी मजबूत नहीं हुई थी अभी, जो इस तूफान के थपेड़े सह जाती. सफेद वस्त्र पर दाग लगाना आसान है, परंतु उस के निशान मिटाना कठिन. कोईर् स्त्री कैसे यह सिद्घ कर सकती है कि वह पवित्र है. उस के दामन में लगे दाग झूठे हैं.

जब श्रेष्ठा ने सब को अपनी ओर देखते हुए पाया तो उस की रूह कांप उठी. उसे लगा सब की क्रोधित आंखें अनेक प्रश्न पूछती हुई उसे जला रही हैं. अश्रुपूर्ण नयनों से उस ने संयम की ओर देखा. उस का चेहरा भी क्रोध से दहक रहा था. उसे आशंका हुई कि शायद आज की शाम उस की इस घर में आखिरी शाम होगी.

अब आदेश के साथ उसे भी धक्के दे घर से बाहर कर दिया जाएगा. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि ये सब झूठ है. वह पवित्र है. उस के चरित्र में कोई खोट नहीं कि तभी उस के ससुरजी अपनी जगह से उठ खड़े हुए.

स्थिति अधिक गंभीर थी. सबकुछ समझ और कल्पना से परे. श्रेष्ठा घबरा गई कि अब क्या होगा? क्या आज एक बार फिर उस के सुखों का अंत हो जाएगा? परंतु उस के बाद जो हुआ वह तो वास्तव में ही कल्पना से परे था. श्रेष्ठा ने ऐसा दृश्य न कभी देखा था और न ही सुना.

श्रेष्ठा के ससुरजी गुस्से से तिलमिलाते हुए खड़े हुए और बेकाबू हो उन्होंने आदेश को कस कर गले से पकड़ लिया, बोले, ‘‘खबरदार जो तुमने मेरी बेटी के चरित्र पर लांछन लगाने की कोशिश भी की तो… तुम जैसे मानसिक रोगी से हमें अपनी बेटी का चरित्र प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. निकल जाओ यहां से… अगर दोबारा हमारे घर या महल्ले की तरफ मुंह भी किया तो आगे की जिंदगी हवालात में काटोगे.’’

फिर संयम और ससुर ने आदेश को धक्के दे कर घर से बाहर निकाल दिया. ससुरजी ने श्रेष्ठा के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘घबराओ नहीं बेटी. तुम सुरक्षित हो. हमें तुम पर विश्वास है. अगर यह पागल आदमी तुम्हें मिलने या फोन कर परेशान करने की कोशिश करे तो बिना संकोच तुरंत हमें बता देना.’’

सासूमां प्यार से श्रेष्ठा को गले लगा चुप करवाने लगीं. सब गुस्से में थे पर किसी ने एक बार भी श्रेष्ठा से कोई सफाई नहीं मांगी.

घबराई और अचंभित श्रेष्ठा ने संयम की ओर देखा तो उस की आंखें जैसे कह रही थीं कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. मेरा विश्वास और प्रेम इतना कमजोर नहीं जो ऐसे किसी झटके से टूट जाए. तुम्हें केवल नाम के लिए ही अर्धांगिनी थोड़े माना है जिसे किसी अनजान के कहने से वनवास दे दूं.

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तुम्हें कोई अग्निपरीक्षा देने की आवश्यकता नहीं. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं और रहूंगा. औरत को अग्निपरीक्षा देने की जरूरत नहीं. यह संबंध प्यार का है, इतिहास का नहीं.

श्रेष्ठा घंटों रोती रही और आज इन आंसुओं में अतीत की बचीखुची खुरचन भी बह गई. हरजीत की मृत्यु के समय खड़े हुए प्रश्न कि यह अन्याय क्यों हुआ, का उत्तर मिल गया था उसे.

पति सदासदा के लिए अपना होता है. उस पर भरोसा करा जा सकता है. पहले क्या हुआ पति उस की चिंता नहीं करते उस का जीवन सफल हो गया था.

पुराणों के देवताओं से कहीं ज्यादा श्रेष्ठकर संयम की संगिनी बन कर सासससुर के रूप में उच्च विचारों वाले मातापिता पा कर स्त्री का सम्मान करने वाले कुल की बहू बन कर नहीं, बेटी बन कर उस रात श्रेष्ठा तन से ही नहीं मन से भी संयम की बांहों में सोई. उसे लगा कि उस की असल सुहागरात तो आज है.

बंद मुट्ठी: जब दो भाईयों के बीच लड़ाई बनी परिवार के मनमुटाव का कारण

रविवार का दिन था. पूरा परिवार साथ बैठा नाश्ता कर रहा था. एक खुशनुमा माहौल बना हुआ था. छुट्टी होने के कारण नाश्ता भी खास बना था. पूरे परिवार को इस तरह हंसतेबोलते देख रंजन मन ही मन सोच रहे थे कि उन्हें इतनी अच्छी पत्नी मिली और बच्चे भी खूब लायक निकले. उन का बेटा स्कूल में था और बेटी कालेज में पढ़ रही थी. खुद का उन का कपड़ों का व्यापार था जो बढि़या चल रहा था.

पहले उन का व्यापार छोटे भाई के साथ साझे में था, पर जब दोनों की जिम्मेदारियां बढ़ीं तो बिना किसी मनमुटाव के दोनों भाई अलग हो गए. उन का छोटा भाई राजीव पास ही की कालोनी में रहता था और दोनों परिवारों में खासा मेलजोल था. उन की पत्नी नीता और राजीव की पत्नी रिचा में बहनापा था.

रंजन नाश्ता कर के बैठे ही थे कि रमाशंकर पंडित आ पहुंचे.

‘‘यहां से गुजर रहा था तो सोचा यजमान से मिलता चलूं,’’ अपने थैले को कंधे से उतारते हुए पंडितजी आराम से सोफे पर बैठ गए. रमाशंकर वर्षों से घर में आ रहे थे. अंधविश्वासी परिवार उन की खूब सेवा करता था.

‘‘हमारे अहोभाग्य पंडितजी, जो आप पधारे.’’

कुछ ही पल में पंडितजी के आगे नीता ने कई चीजें परोस दीं. चाय का कप हाथ में लेते हुए वे बोले, ‘‘बहू, तुम्हारा भी जवाब नहीं, खातिरदारी और आदर- सत्कार करना तो कोई तुम से सीखे. हां, तो मैं कह रहा था यजमान, इन दिनों ग्रह जरा उलटी दिशा में हैं. राहुकेतु ने भी अपनी दिशा बदली है, ऐसे में अगर ग्रह शांति के लिए हवन कराया जाए तो बहुत फलदायी होता है,’’ बर्फी के टुकड़े को मुंह में रखते हुए पंडितजी बोले.

‘‘आप बस आदेश दें पंडितजी. आप तो हमारे शुभचिंतक हैं. आप की बात क्या हम ने कभी टाली है  अगले रविवार करवा लेते हैं. जो सामान व खर्चा आएगा, वह आप बता दें.’’

रंजन की बात सुन पंडितजी की आंखों में चमक आ गई. लंबीचौड़ी लिस्ट दे कर और कुल 10 हजार का खर्चा बता वे निकल गए.

इस के 2 दिन बाद दोपहर में पंडितजी राजीव के घर बैठे कोल्ड डिं्रक पी रहे थे, ‘‘आप को आप के भाई ने तो बताया होगा कि वे अगले रविवार को हवन करवा रहे हैं ’’

पंडितजी की बात सुन कर राजीव हैरान रह गया, ‘‘नहीं तो पंडितजी, मुझे नहीं पता. क्यों रिचा, क्या भाभी ने तुम्हें कुछ बताया है इस बारे में ’’ अपनी पत्नी की ओर उन्होंने सवालिया नजरों से देखा.

‘‘नहीं तो, कल ही तो भाभी से मेरी फोन पर बात हुई थी, पर उन्होंने इस बारे में तो कोई जिक्र नहीं किया. कुछ खास हवन है क्या पंडितजी ’’ रिचा ने उत्सुकता से पूछा.

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‘‘दरअसल वे इसलिए हवन कराने के लिए कह रहे थे ताकि कामकाज में और तरक्की हो. छोटी बहू, तुम तो जानती हो, हर कोई अपना व्यापार बढ़ाना चाहता है. आप लोगों का व्यापार क्या कम फैला हुआ है उन से, पर आप लोग जरा ठहरे हुए लोग हैं. इसलिए जितना है उस में खुश रहते हैं. बड़ी बहू का बस चले तो हर दूसरे दिन पूजापाठ करवा लें. उन्हें तो बस यही डर लगा रहता है कि किसी की बुरी नजर न पड़ जाए उन के परिवार पर.’’

अपनी बात को चाशनी में भिगोभिगो कर पंडितजी ने उन के सामने परोस दिया. उन के कहने का अंदाज इस तरह का था कि राजीव और रिचा को लगे कि शायद यह बात उन्हीं के संदर्भ में कही गई है.

‘‘हुंह, हमें क्या पड़ी है नजर लगाने की. हम क्या किसी से कम हैं,’’ रिचा को गुस्से के साथ हैरानी भी हो रही थी कि जिस जेठानी को वह बड़ी बहन का दर्जा देती है और जिस से दिन में 1-2 बार बात न कर ले, उसे चैन नहीं पड़ता, वह उन के बारे में ऐसा सोचती है.

‘‘पंडितजी, आप की कृपा से हमें तो किसी चीज की कमी नहीं है, पर आप कहते हैं तो हम भी पूजा करवा लेते हैं,’’ एक मिठाई का डब्बा और 501 रुपए उन्हें देते हुए राजीव ने कहा. उन्हें 15 हजार रुपए का खर्चा बता और उन के गुणगान करते पंडितजी तो वहां से चले गए पर राजीव और रिचा के मन में भाईभाभी के प्रति एक कड़वाहट भर गए. मन ही मन पंडितजी सोच रहे थे कि इन दोनों भाइयों को मूर्ख बनाना आसान है, बस कुनैन की गोली खिलाते रहना होगा.

अगले रविवार जब रंजन के घर वे हवन करा रहे थे तो नीता से बोले, ‘‘बड़ी बहू, मुझे जल्दी ही यहां से जाना होगा. देखो न, क्या जमाना आ गया है. तुम लोगों ने हवन कराने की बात की तो राजीव भैया मेरे पीछे पड़ गए कि हम भी आज ही पूजा करवाएंगे. बताया तो होगा, तुम्हें छोटी बहू ने इस बारे में ’’

‘‘नहीं, पंडितजी, रिचा ने तो कुछ नहीं बताया.’’

नीता उस के बाद काम में लग गई पर उसे बहुत बुरा लग रहा था कि रिचा उस से यह बात छिपा गई. जब उस ने उन्हें हवन पर आने का न्योता दिया था तो उस ने यह कह कर मना कर दिया था कि रविवार को तो उस के मायके में एक समारोह है और वहां जाना टाला नहीं जा सकता.

हालांकि तब नीता को इस बात पर भी हैरानी हुई थी कि आज तक रिचा बिना उसे साथ लिए मायके के किसी समारोह तक में नहीं गई थी तो इस बार अकेली कैसे जा रही है, पर यह सोच कर कुछ नहीं बोली थी कि हर बार हो सकता है साथ ले जाना मुमकिन न हो.

रिचा के झूठ से नीता के मन में एक फांस सी चुभ गई थी.

2 दिन बाद नीता मंदिर गई तो आशीष देते हुए पंडितजी बोले, ‘‘आओ बड़ी बहू. भक्तन हो तो तुम्हारे जैसी. कैसे सेवाभाव से उस दिन भोजन खिलाया था और दक्षिणा देने में भी कोई कमी नहीं छोड़ी थी. छोटी बहू ने तो 2 चीजें बना कर ही निबटारा कर दिया और दक्षिणा में भी सिर्फ 251 रुपए दिए. मैं तो कहता हूं कि पैसा होने से क्या होता है, दिल होना चाहिए. तुम्हारा दिल तो सोने जैसा है, बड़ी बहू. तुम तो साक्षात अन्नपूर्णा हो.’’

उस के बाद नीता ने तुरंत 501 रुपए निकाल कर पंडितजी की पूजा की थाली में रख दिए.

कुछ दिनों बाद जब रिचा मंदिर आई तो वे उस की प्रशंसा करने लगे, ‘‘छोटी बहू, तुम आती हो तो लगता है कि जैसे साक्षात लक्ष्मी के दर्शन हो गए हैं. कितने प्रेमभाव से तुम सब काम करती हो. तुम्हारे घर पूजा करवाई तो मन प्रसन्न हो गया. कहीं कोई कमी नहीं थी और बड़ी बहू के हाथ से तो पैसा निकलने का नाम ही नहीं लेता. हर सामग्री तोलतोल कर रखती हैं. तुम दोनों बहुओं के बीच क्या कोई कहासुनी हुई है  बड़ी बहू तुम से काफी नाराज लग रही थीं. काफी कुछ उलटासीधा भी बोल रही थीं तुम लोगों के बारे में.’’

रिचा ने तब तो कोई जवाब नहीं दिया, पर उस दिन के बाद से दोनों परिवारों में बातचीत कम हो गई. कहां दोनों परिवारों में इतना अपनापन और प्रेम था कि दोनों भाई और देवरानीजेठानी जब तक एकदो दिन में एकदूसरे से मिल न लें, उन्हें चैन नहीं पड़ता था. यहां तक कि बच्चे भी एकदूसरे से कटने लगे थे.

पंडितजी इस मनमुटाव का फायदा उठा जबतब किसी न किसी भाई के घर पहुंच जाते और कोई न कोई पूजा करवाने के बहाने पैसे ऐंठ लेते. साथ में कभी खाना तो कभी मिठाई, वस्त्र अपने साथ बांध कर ले जाते.

नीता ने एक दिन उन्हें हलवा परोसा तो वे बोले, ‘‘वाह, क्या हलवा बनाती हो बहू. छोटी बहू ने भी कुछ दिन पहले हलवा खिलाया था, पर उस में शक्कर कम थी और मेवा का तो नाम तक नहीं था. जब भी उस से तुम्हारी बात या प्रशंसा करता हूं तो मुंह बना लेती है. क्या कुछ झगड़ा चल रहा है आपस में  यह तो बहू सब संस्कारों की बात है जो गुरु और ब्राह्मणों की सेवा से ही आते हैं. अच्छा, चलता हूं. आज रंजन भैया ने दुकान पर बुलाया है. कह रहे थे कि कहीं पैसा फंस गया है, उस का उपाय करना है.’’

धीरेधीरे पंडितजी दोनों भाइयों के बीच कड़वाहट पैदा करने में तो कामयाब हो ही गए साथ ही उन्हें भ्रमित कर मनचाहे पैसे भी ऐंठ लेते. एकदूसरे की सलाह पर काम करने वाले भाई जब अपनीअपनी दिशा चलने लगे तो व्यापार पर भी इस का असर पड़ा और कमाई का एक बड़ा हिस्सा पंडित द्वारा बताए उपाय और पूजापाठ पर खर्च होने लगा.

नीता और रिचा, जो अपने सुखदुख बांट गृहस्थी और दुनियादारी कुशलता से निभा लेती थीं, अब अपनेअपने ढंग से जीने का रास्ता ढूंढ़ने लगीं जिस के कारण उन की गृहस्थी में भी छेद होने लगे.

पहले कभी पतिपत्नी के बीच शिकवेशिकायत होते थे तो दोनों आपसी सलाह से उसे सुलझा लेती थीं. अकसर नीता राजीव को समझा देती थी कि वह रिचा से गलत व्यवहार न किया करे या फिर रिचा को ही सही सलाह दे दिया करती थी.

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बंद मुट्ठी के खुलते ही रिश्तों के साथसाथ धन का रिसाव भी बहुत शीघ्रता से होने लगता है. बेशक दोनों परिवार अलग रहते थे, पर मन से वे कभी दूर नहीं थे. अब उन के बीच इतनी दूरियां आ गई थीं कि एक की बरबादी की खबर दूसरे को आनंदित कर देती. वे सोचते, उन के साथ ऐसा ही होना चाहिए था.

धीरेधीरे उन दोनों का ही व्यापार ठप होने लगा और आपसी प्यार व विश्वास की दीवारें गिरने लगीं. उन के बीच दरारें पैदा कर और पैसे ऐंठ कर पंडितजी ने एक फ्लैट खरीद लिया और घर में हर तरह की सुविधाएं जुटा लीं. उन के बच्चे अंगरेजी स्कूल में जाने लगे.

जब पंडितजी ने देखा कि अब दोनों परिवार खोखले हो गए हैं और उन्हें देने के लिए उन के पास धन नहीं है तो उन का आनाजाना कम होने लगा. अब राजीव और रंजन उन्हें सलाह लेने के लिए बुलाते तो वे काम का बहाना बना टाल जाते. आखिर, उन्हें तो अपनी कमाई का और कोई जरिया ढूंढ़ना था, इसलिए बहुत जल्दी ही उन्होंने दवाइयों के व्यापारी मनक अग्रवाल के घर आनाजाना आरंभ कर दिया.

‘‘क्या बताऊं यजमान, कैसा जमाना आ गया है. आप कपड़ा व्यापारी भाई रंजन और राजीव भैया को तो जानते ही होंगे, कितना अच्छा व्यापार था दोनों का. पैसों में खेलते थे, पर विडंबना तो देखो, दोनों भाइयों की आपस में बिलकुल नहीं बनती. आपसी लड़ाईझगड़ों के चलते व्यापार तो लगभग ठप ही समझो.

‘‘आप भी तो हैं, कितना स्नेह है तीनों भाइयों में. अगलबगल 3 कोठियों में आप लोग रहते हो, पर मजाल है कि आप के दोनों छोटे भाई आप की कोई बात टाल जाएं. यहां आ कर तो मन प्रसन्न हो जाता है. मैं तो कहता हूं कि मां लक्ष्मी की कृपा आप पर इसी तरह बनी रहे,’’ काजू की बर्फी के 2-3 पीस एकसाथ मुंह में रखते हुए पंडितजी ने कहा.

‘‘बस, आप का आशीर्वाद चाहिए पंडितजी,’’ सेठ मनक अग्रवाल ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा.

‘‘वह तो हमेशा आप के साथ है. मेरी मानो तो इस रविवार लक्ष्मीपूजन करवा लो.’’

‘‘जैसी आप की इच्छा,’’ कह मनक अग्रवाल ने उन के सामने हाथ जोड़ लिए. वहां से कुछ देर बाद जब पंडितजी निकले तो उन के हाथ में काजू की बर्फी का डब्बा और 2100 रुपए का एक लिफाफा था.

आने वाले रविवार को तो तगड़ी दक्षिणा मिलेगी, इसी का हिसाबकिताब लगाते पंडितजी अपने घर की ओर बढ़ गए.

उन के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान खेल रही थी और आंखों से धूर्तता टपक रही थी. बस, उन्हें तो अब तीनों भाइयों की बंद मुट्ठी को खोलना था. उन का हाथ जेब में रखे लिफाफे पर गया. लिफाफे की गरमाहट उन्हें एक सुकून दे रही थी.

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शापित: बेटे के साथ क्यों रहना नही चाहती थी रश्मि?

‘‘रश्मिकहां हो तुम?

‘‘भई यह करेलों का मसाला तो कच्चा ही रह गया है.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर भूपिंदर हंसते हुए बोला, ‘‘सतीशजी जिस दिन कुक नहीं आती हैं, ऐसा ही कच्चापक्का खाना बनता है.’’

ये सब बातें करतेकरते भूपिंदर यह भी भूल गया था कि आज रश्मि कोई नईनवेली दुलहन नहीं है, बल्कि सास बनने वाली है और आज जो खाने की मेज पर मेहमान बैठे हैं वे उस की होने वाली बहू के मातापिता हैं.

मम्मी के हाथों में करेले पकड़ाते हुए आदित्य बोला, ‘‘क्या जरूरत थी सोनाक्षी के मम्मीपापा को घर पर बुलाने की? ‘‘आप को पता है न वे कैसे हैं?’’

जैसे ही आदित्य बाहर आया तो भूपिंदर बोला, ‘‘भई, यह आदित्य तो अब तक मम्मा बौय है, सोनाक्षी को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.’’

आदित्य भी बिना लिहाज करे बोला, ‘‘मैं ही नहीं पापा, सोनाक्षी भी मम्मा गर्ल ही बनेगी.’’

तभी रश्मि खिसियाते हुए डाइनिंगटेबल पर फिर से करेलों की प्लेट ले कर आ गई. नारंगी और हरी तात कौटन की साड़ी में रश्मि बहुत ही सौम्य और सलीकेदार लग रही थी. खाना अच्छा ही बना हुआ था और डाइनिंगटेबल पर बहुत सलीके से लगा भी हुआ था, परंतु भूपिंदर फिर भी कभी नैपकिन के लिए तो कभी नमकदानी के लिए रश्मि को टोकता ही रहा.

माहौल में इतना अधिक तनाव था कि अच्छेखासे खाने का जायका खराब हो गया था. खाने के बाद भूपिंदर सतीश को ले कर ड्राइंगरूम में चला गया तो पूनम मीठे स्वर में रश्मि से बोली, ‘‘खाना बहुत अच्छा बना था और लगा भी बहुत सलीके से था.’’

‘‘परंतु लगता है भाईसाहब कुछ ज्यादा ही परफैक्शनिस्ट हैं.’’

रश्मि की बड़ीबड़ी शरबती आंखों में आंसू दरवाजे पर ही अटके हुए थे, उन्हें पीते हुए धीरे से बोली, ‘‘पूनमजी पर मेरा आदित्य अपने पापा से एकदम अलग हैं… हम आप की सोनाक्षी को कोई तकलीफ नहीं होने देंगे.’’

पूनम अच्छी तरह सम?ा सकती थी कि रश्मि के मन पर क्या बीत रही होगी.

आदित्य और सोनाक्षी दोनों रोहिणी के जयपुर गोल्डन हौस्पिटल में डाक्टर हैं. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं और जैसेकि आजकल होता है परिवार ने उन की पसंद पर सहमति की मुहर लगा दी थी. आज विवाह की आगे की बातचीत के लिए पूनम और सतीश आदित्य के घर खाने पर आए थे. भूपिंदर का यह रूप उन्हें अंदर तक हिला गया था. आदित्य का गुस्सा भी उन से छिपा नही था.

रास्ते में पूनम से रहा न गया, तो सतीश से बोली, ‘‘सबकुछ ठीक है, पर क्या तुम्हें लगता है कि आदित्य ठीक रहेगा अपनी सोनाक्षी के लिए?’’

‘‘उस के पापा उस की मम्मी को कितना बेइज्जत करते हैं. लड़का वही देख कर बड़ा हुआ है. मु?ो तो डर है कि कहीं आदित्य भी सोनाक्षी के साथ ऐसा ही व्यवहार न करे.’’

सतीश बोला, ‘‘देखो हम सोनाक्षी को सब बता देंगे, उस की जिंदगी है, फैसला भी उसी का होगा.’’

उधर रश्मि को लग रहा था कि कहीं भूपिंदर के व्यवहार के कारण सोनाक्षी और आदित्य के विवाह में रुकावट न आ जाए.

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आदित्य सोनाक्षी के मम्मीपापा के जाते ही भूपिंदर पर उबल पड़ा, ‘‘क्या जरूरत थी आप को सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने ऐसा व्यवहार करने की?’’

भूपिंदर बोला, ‘‘घर मेरा है, मैं जो चाहूं करूं. इतनी ही दिक्कत है तो अलग रह सकते हो.’’

तभी आदित्य ने दरवाजे पर खटखट की, तो रश्मि मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आ

जा, खटखट क्यों कर रहा है.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, पापा का यह व्यवहार और तुम्हारा चुपचाप सब सहन करना मु?ो अंदर तक आहत कर जाता है. आज मैं सोनाक्षी के मम्मीपापा के सामने आंख भी नहीं उठा पाया हूं. गुलाम बना कर रखा हुआ है इन्होंने हमें.’’

रश्मि आदित्य के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘आदित्य शिखा तेरी छोटी बहन तो गोवा में मैडिकल की पढ़ाई कर रही है और तू बेटा शादी के बाद अलग घर ले लेना.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी और आप? मैं क्या इतना स्वार्थी हूं कि आप को अकेला छोड़ कर चला जाऊंगा?’’

रश्मि उदासी से बोली, ‘‘मैं तो शापित हूं, इस साथ के लिए बेटा. पर मैं बिलकुल नहीं चाहती कि तुम या सोनाक्षी ऐसे डर के साथ जिंदगी व्यतीत करो.’’

आदित्य का हौस्पिटल जाने का समय हो गया था. आज उस की नाइट शिफ्ट थी. फिर रश्मि आंखें बंद कर के सोने का प्रयास करने लगी पर नींद थी कि आंखों से कोसों दूर. आदित्य की शादी की उस के मन में कितनी उमंगें थीं. मगर वो अच्छी तरह जानती थी. हर बार गहनेकपड़ों के लिए उसे भूपिंदर

के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा. भूपिंदर कितनी लानत भेजेगा और साथ ही साथ वह यह भी जोड़ेगा कि उस ने आदित्य की मैडिकल की पढ़ाई में क्व25 लाख खर्च किए हैं.

रश्मि का कितना मन करता था कि वह अपनी पसंद के कपड़े ले, परंतु भूपिंदर ही उस के लिए कपड़े खरीदता था, क्योंकि उस के हिसाब से रश्मि को तमीज ही नहीं है अच्छे कपड़े खरीदने की.

रश्मि के वेतन की पाईपाई का हिसाब भूपिंदर ही रखता था. जब कोई भी रश्मि के कपड़ों की तारीफ करता तो भूपिंदर छूटते ही बोलता, ‘‘मैं जो खरीदता हूं अन्यथा यह तो दलिद्र ही खरीदती और पहनती है.’’

रिश्तेदारों और पड़ोसियों को लगता था कि भूपिंदर जैसा शाहखर्च

कौन हो सकता है, जो अपनी बीवी का वेतन उस के गहनेकपड़ों पर ही खर्च करता है. आजकल के जमाने में ऐसे पतियों की कमी नहीं है जो अपनी पत्नी के वेतन से घर खर्च चलाते हैं. रश्मि कैसे सम?ाए किसी को, गहने, कपड़ों से अधिक महत्त्व सम्मान का होता है. यह जरूर था कि भूपिंदर अपने काम का पक्का था, इसलिए दिनदूनी और रात चौगुनी तरक्की कर रहा था. इस तरक्की के साथसाथ उस का अहम भी सांप के फन की तरह फुफकारने लगा था. शादी के कुछ वर्षों के बाद ही रश्मि के कानों में भूपिंदर के अफेयर की बातें पड़ने लगी थीं. पर जब भी अलग होने की सोचती तो आदित्य और शिखा का भविष्य दिखने लगता. कैसे पढ़ा पाएगी वह दोनों बच्चों को दिल्ली जैसे शहर की इस विकराल महंगाई में. नालायक ही सही पर सिर पर बाप का साया तो रहेगा.

रश्मि के हथियार डालते ही भूपिंदर उस पर और हावी हो गया था. रातदिन वह रश्मि को कोंचता रहता था पर अब उस हिमशिला पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

घर 3 कोणों में बंट गया था, एक पाले में रश्मि, आदित्य और दूसरे पाले में था भूपिंदर. शिखा आज के दौर की स्मार्ट लड़की थी इसलिए वह किसी भी पाले में नहीं थी, वह अपने हिसाब से पाला बदलती रहती थी. आदित्य बेहद ही संवेदनशील युवक था. रातदिन के तनाव का प्र्रभाव आदित्य पर पड़ रहा है. 30 वर्ष की कम उम्र में ही उसे पाइपर टैंशन रहने लगी थी.

आदित्य जैसे ही अस्पताल पहुंचा, सोनाक्षी वहीं खड़ी थी. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘आदित्य, कल ड्यूटी के बाद मु?ो तुम से जरूरी बात करनी है.

आदित्य को पता था कि सोनाक्षी क्या कहना चाहती है.

सुबह आदित्य और सोनाक्षी जब कैंटीन में आमनेसामने थे तो सोनाक्षी बोली, ‘‘आदित्य देखो मु?ो गलत मत सम?ाना पर मैं  ऐसे माहौल में ऐडजस्ट नहीं कर सकती हूं. क्या हम विवाह के बाद अलग फ्लैट ले कर रह सकते हैं?’’

आदित्य बोला, ‘‘सोना, मु?ो मालूम है तुम अपनी जगह सही हो, पर मैं अपनी मम्मी को अकेले उस घर में नहीं छोड़ सकता हूं.’’

सोनाक्षी बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मम्मी हमारे साथ रहना चाहें, तो मु?ो कोई प्रौब्लम नहीं है.’’

जब आदित्य ने यह बात घर पर बताई तो भूपिंदर गुस्से से आगबबूला हो उठा. गुस्से में बोला, ‘‘तुम्हारा तो यही होना था गोबर गणेश. जो लड़का मां का पल्लू पकड़ कर चलता है वह बीवी के इशारों पर ही नाचेगा.’’

आदित्य बोला, ‘‘पापा आप चिंता न करो. आप को मु?ा से और मम्मी से बहुत प्रौब्लम है न तो मैं मम्मी को भी अपने साथ ले जाऊंगा. ऐसा लगता है, घर घर नहीं है एक जेल है और हम सब कैदी.’’

भूपिंदर दहाड़ उठा, ‘‘हां यह जेल है न तो

रिहाई की भी कीमत है. अपनी मम्मी को क्या ऐसे ही ले कर चला जाएगा वह मेरी पत्नी है और सुन लड़के, तेरी पढ़ाई पर क्व25 लाख खर्च हुए हैं, पहले वे वापस दे देना और फिर अपनी मम्मी को रिहा कर ले जाना.’’

आदित्य के विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी और भूपिंदर न चाहते हुए भी जोरशोर से तैयारी में जुटा था.

जब नवयुगल हनीमून से वापस आ जाएंगे तो वह अलग फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे. आदित्य किसी भी कीमत पर अपनी मम्मी को अकेले उस यातनागृह में नहीं छोड़ना चाहता था. इसलिए आदित्य ने किसी तरह से क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया था.

विवाह बहुत धूमधाम से संपन्न हो गया. 14 दिन बाद आदित्य और सोनाक्षी सिंगापुर से घूम कर लौट आए थे. आदित्य ने मां को सूचित कर दिया था कि वह अपना सारा सामान ले कर उन के पास आ जाए.

मगर रश्मि का फोन आया कि आदित्य रविवार को एक बार घर आ जाए. उस के बाद ही वह आदित्य के पास रहने आ जाएगी. आदित्य को लग रहा था कि शायद मम्मी को निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है या फिर पापा उन्हें ताने मार रहे होंगे.

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जब आदित्य और सोनाक्षी घर पहुंचे तो देखा घर पर मरघट सी शांति छाई हुई थी. आदित्य ने देखा मां बहुत थकीथकी लग रही थीं.

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कमाल करती हो, तुम आज भी पापा के कारण निर्णय नहीं ले पा रही हो. आप चिंता मत करो, मैं ने क्व20 लाख का बंदोबस्त कर लिया है.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटे तेरे पापा को 5 दिन पहले लकवा मार गया था.

‘‘रातदिन वह बिस्तर पर ही रहते हैं, अब बता उन्हें ऐसी स्थिति में छोड़ कर कैसे आ सकती हूं और तुम लोगों से बात करे बिना मैं भूपिंदर को ले कर तुम्हारे घर कैसे आ सकती थी?’’

इस से पहले आदित्य कुछ कहता सोनाक्षी बोल उठी, ‘‘मम्मी, आप यहीं रहिए, हमारा फ्लैट तो बहुत छोटा है.’’

‘‘पापा की अच्छी तरह देखभाल नहीं हो पाएगी, हम एक के बजाय 2 नर्स ड्यूटी पर लगा देंगे. फिर मम्मी मैं घर पर भी हौस्पिटल जैसा माहौल नहीं चाहती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी, नर्स का इंतजाम मैं कर दूंगा. आप चलो यहां से, बहुत कर लिया आप ने पापा के लिए.’’

रश्मि बोली, ‘‘आदित्य बेटा तू मेरी चिंता मत कर… पर मैं भूपिंदर को इस हाल

में छोड़ कर नहीं जा सकती हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी कब तक तुम पापा के कारण जिंदगी से दूर रहोगी.’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, तू खुश रह, मैं तो इस साथ के लिए शापित हूं, पहले मानसिक यातना भोगती थी अब अकेलापन भोगने के लिए शापित हूं.’’

आदित्य बोला, ‘‘मम्मी यह शापित जीवन आप ने खुद ही चुना है, अपने लिए. सामने खुला आकाश है पर आप को इस पिंजरे में रहना ही पसंद है,’’ कह कर आदित्य क्व20 लाख मेज पर रख कर तीर की तरह निकल गया.

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