विध्वंस के अवशेष से: क्या हुआ था ईला के साथ

‘‘घरके बाहर का दरवाजा खुला हुआ है पर किसी को इस का ध्यान नहीं, सभी मां के कमरे में बैठ कर गप्पें मार रहे होंगे. आजकल कालोनी में दिनदहाड़े ही कितनी चोरियां हो रही हैं… इन्हें पता हो तब न,’’ औफिस से लौटी ईला बड़बड़ाते हुए अपनी मां के कमरे के दरवाजे को खोलने ही जा रही थी कि अंदर से आती हुई आवाजों ने उस के पैरों को वहीं रोक दिया.

उस का छोटा भाई शिबु गुस्से से मां से कह रहा था ‘‘देखो मां, आगे से मैं यहां आने वाला नहीं हूं, क्योंकि कालोनी में दीदी के बारे में फैली बातों को सुन कर मैं शर्म से गड़ा जा रहा हूं… किसी भी दोस्त से आंख उठा कर बात नहीं कर सकता.

‘‘क्या जरूरत है दीदी को सुरेश साहब के साथ टूर पर जाने की? अपनी नहीं तो हमारी मर्यादा का तो कुछ खयाल हो.’’

मां कुछ देर तक चुपचाप शिबु को निहारती रहीं, फिर अपनी भीगी आंखों को अपने आंचलसे पोंछते हुए बोलीं, ‘‘करूं भी तो क्या करूं? घर की सारी जिम्मेदारियां उठा कर उस ने मेरे मुंह पर ताला ही लगा दिया है… जब भी कुछ कहो तो ज्वालामुखी बन जाती है. मेरा तो इस घर में दम घुट रहा है. आत्महत्या कर लेने की धमकी देती है. इस बार मैं तुम्हारे साथ ही यहां से चल दूंगी. रहे अकेली इस घर में. माना कि बाप की सारी जिम्मेदारियों को उठा लिया तो क्या सिर चढ़ कर इस तरह नाचेगी कि सभी के मुंह पर कालिख पुत जाए? यही सब गुल खिलाने के लिए पैदा हुई थी?

‘‘कितने रिश्ते आए, लेकिन उसे कोई पसंद नहीं आया… अब इतनी उम्र में किसी कुंआरे लड़के का रिश्ता आने से रहा… उस पर बदनामियों का पिटारा साथ है.’’

मां और भाई के वार्त्तालाप से ईला को क्षणभर के लिए ऐसा लगा कि किसी ने उस के कानों में जैसे पिघला सीसा डाल दिया हो. ईला बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई रोकने की कोशिश कर रही थी कि तभी छोटी बहन नीला बोलना शुरू हो गई, ‘‘दीदी और सुरेश के संबंधों की कहानी मेरी ससुराल की देहरी पर भी पहुंच गई है. सास ताना देती है कि कैसी बेशर्म है… देवर सुनील हमेशा मेरी खिंचाई करते कहता रहता है कि अरे भाभी उस फैक्टरी में आप की दीदी की बड़ी चलती है. उस से कहा कि सुरेश साहब से कह कर मेरी नौकरी लगवा दे. अनिल भी चुटकियां लेने से बाज नहीं आता. सच में उन की बातें सुन शर्म से गड़ जाती हूं.’’

‘‘समधियाना में भी कोई इज्जत नहीं रह गई है किसी की… ऐसी बातें तो हजारों पंख लगा कर उड़ती हैं. मजाल है कि कोई उसे कुछ समझ सके,’’ नहले पर दहला जड़ते हुए मां की बातों ने तो जैसे ईला को दहका कर ही रख दिया.

‘‘क्यों हमें बहुत सीख देती थी… ऐसे रहो, ऐसा करो, यह पहनो, वह नहीं पहनो… लड़कों से ज्यादा बात नहीं करते… खुद पर इन बातों को क्यों लागू नहीं करतीं?’’

नीला के शब्द ईला के कलेजे के आरपार हो रहे थे.

‘कृतघ्नों की दुनिया संवारने में सच में मैं ने अपने जीवन के सुनहरे पलों को गंवा दिया,’ सोच ईला रो पड़ी. फिर सभी के प्रत्यारोपों के उत्तर देने के लिए कमरे में जाने लगी ही थी कि सब से छोटी बहन मिली की बातों ने उस के बढ़ते कदम रोक दिए.

‘‘मेरी ससुराल वाले भी इन बातों से अनजान नहीं हैं… प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं कहते, लेकिन पीठ पीछे छिछले जुमले उछाल ही देते हैं.

‘‘अमित कह रहे थे कि अब तुम सभी को मिल कर अपनी दीदी का घर बसा देना चाहिए… तुम लोगों के लिए उन्होंने जो किया उस के समक्ष इन सब बेकार बातों का कोई अर्थ नहीं है… शिबु को बोलो कि बहन की शादी करे और मां को अपने पास ले जाए. अब हम सभी को मिल कर जल्द से जल्द कुछ कर लेना चाहिए अन्यथा यह समय भी रेत की तरह हाथों से फिसल जाएगा.’’

‘‘तो कहो न अमित से कि वही कोई अच्छा रिश्ता ढूंढ़ दे… बड़ा लैक्चर देता है,’’ शिबु और नीला की गरजना से पूरा कमरा गूंज उठा.

‘चलो कोई तो ऐसा है जो उस के त्याग, उस की तपस्या को समझ सका,’ सोच ईला दरवाजा खोल अंदर चली गई.

अचानक ईला को सामने देख कर सब अचंभित हो गए… सब की बोलती बंद हो गई.

अपनेआप पर किसी तरह काबू पाते हुए मां ने कहा, ‘‘अरे ईला

तुम अंदर कैसे आई? बाहर का दरवाजा किस ने खोला? क्यों रे नीला बाहर का दरवाजा खुला ही छोड़ दिया था क्या?’’

‘‘शायद नियति को मुझ पर तरस आ गया हो… उसी ने दरवाजा खोल कर मेरे सभी अपनों के चेहरों पर पड़े नकाब को नोच कर मुझे उन की वास्तविकता को दिखा दिया… इतना जहर भरा है मेरे अपनों में मेरे लिए… तुम सभी को मेरे कारण शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है… अच्छा ही हुआ जो आज सबकुछ अपने कानों से सुन लिया,’’ अपनी रुलाई पर काबू पाते हुए उस ने कहा, ‘‘तो क्यों न मैं पहले अपनी मां के आरोपों के उत्तर दूं… तो हां मां आप ने उस विगत को कैसी भुला दिया जब पापा की मृत्यु के बाद आप के सभी सगेसंबंधियों ने रिश्ता तोड़ लिया था? अनेकानेक जिम्मेदारियां आप के समक्ष खड़ी हुई थीं… आप ही हैं न मां वे जो अपने 4 बच्चों सहित मरने के लिए नदीनाले तलाश कर रही थीं… तब आप चारों की चीख ने न जाने मेरी कितनी रातों की नींद छीन ली थी.

‘‘तीनों छोटे भाईबहनों के भविष्य का प्रश्न मेरे समक्ष आ कर खड़ा हो गया तो मैं ने अपने सभी सपनों का गला घोट दिया… अपनी पढ़ाई को बीच में छोड़ कर पापा की जगह अनुकंपा बहाली को स्वीकार कर चल पड़ी अंगारों पर कर्तव्यपूर्ति के लिए… आईएएस बनने का मेरा सपना टूट गया… सारी जिम्मेदारियों को निभाने में मेरा जीवन बदरंग हो गया… मेरे कुंआरे सपनों के वसंत मुझे आवाज देते गुजर गए…

‘‘मेरे जीवन में भी कोई रंग बिखेरे… मेरा अपना घरपरिवार हो… आम लड़कियों की तरह मेरी आंखों में भी ढेर सारे सपने तैर रहे थे. मेरे वे इंद्रधनुषी सपने आप को दिखे नहीं? अपने पति की सारी जिम्मेदारियां मुझे सौंप कर आप चैन की नींद सोती रहीं. आप का बेटा शिबु, नीला और मिली आप की बेटियां सभी अपने जीवन में बस कर सुरक्षित हो गए तो आप को मुझ में बुराइयां ही नजर आ रही हैं… क्या मैं आप की बेटी नहीं हूं? कैसी मां हैं आप जिस ने अपने 3 बच्चों का जीवन सुंदर बनाने के लिए अपनी बड़ी बेटी को जीतेजी शूली पर चढ़ा दिया?’’

मां के पथराए चेहरे को देख कर ईला कुछ क्षणों के लिए चुप तो हो गई, लेकिन क्रोध के मारे कांपती रही. फिर भाई को आग्नेय दृष्टि से निहारते हुए बोली, ‘‘हां तो शिबु आज तुम्हें शर्मिंदगी महसूस हो रही है… उस समय शर्म नाम की यह चीज कहां थी जब मैडिकल का ऐंट्रैंस ऐग्जाम एक बार नहीं 3 बार क्लियर नहीं कर पाए थे. डोनेशन दे कर नाम लिखाने के लिएक्व50 लाख कहां से आए थे? इस के लिए मुझे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी… तुम्हें डाक्टर बनाने के लिए मुझे अपने कुंआरे सपनों को बेचना पड़ा था. तब तुम सब इतने नादान भी नहीं थे कि समझ नहीं सको कि मैं ने अपने कौमार्य का सौदा कर के इतने रुपयों का इंतजाम किया था… तो आज मैं तुम लोगों के लिए इतनी पतित कैसे हो गई?’’

सिर झकाए शिबु के मुंह में जबान ही कहां थी कि वह ईला के प्रश्नों के उत्तर दे सके. फिर भी किसी तरह हकलाते हुए बोला, ‘‘तुम गलत समझ रही हो दीदी… मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’

जवाब में ईला किसी घायल शेरनी की तरह दहाड़ उठी, ‘‘चुप हो जाओ… तुम सब ने अपनी आंखों को लज्जाहीन कर लिया है… मैं ने सारे आक्षेप सुन लिए हैं… और तुम नीला भूल गई उस दिन को जब कालोनी के सब से बदनाम व्यक्ति रमेश के साथ तुम भाग रही थी तो सुरेश साहब के ड्राइवर ने तुम्हें उस के साथ जाते देख लिया था और तत्काल उन्हें खबर कर दी थी. साहब ने ही तुम्हें बचाया था… सुरेश साहब ने मुझे बताने के साथसाथ आधी रात को पुलिस स्टेशन जाने के लिए अपनी गाड़ी तक भेज दी थी…

‘‘जीवन में तुम्हें व्यवस्थित करने के लिए मुझे न जाने कितनी जहमत उठानी पड़ी थी… तुम्हारी शादी का दहेज जुटाने के लिए, तुम्हारे होने वाले पति की डिमांड को पूरा करने के लिए अपनी कौन सी धरोहर को गिरवी रखना पड़ा था मुझे… तुम लोगों ने कभी पूछा था कि एकसाथ इतने रुपयों का इंतजाम मैं ने कैसे

किया? आज ससुराल में तुम्हें मेरे कारण लज्जित और अपमानित होना पड़ रहा है… भेज देना अपने देवर को कुछ न कुछ उस के लिए भी कर ही दूंगी.’’

ईला ने उस की बातें सुन ली थीं. इस पर नीला को बड़ा क्षोभ हुआ… 1-1 कर के स्मृतियों के सारे पन्ने खुल गए. असहनीय वेदना की ऊंची लहरों को उछालते हुए विगत का समंदर उस के समक्ष लहरा उठा तो वह अपनी दीनहीन प्रौढ़ बहन के लिए तड़प उठी और फिर रोते हुए बोली, ‘‘भाग जाने देतीं मुझे उस बदनाम रमेश के साथ… कोई जरूरत नहीं थी मेरी शादी के लिए तुम्हें इतनी बड़ी कीमत चुकाने की… पढ़ालिखा कर मुझे सब तरह से योग्य बनाया. दोनों बहनें मिल कर घर की जिम्मेदारियां बांट लेतीं. हम सभी को अमृत पिला कर खुद विषपान करती रहीं… दीदी, तुम्हारे स्वार्थरहित प्यार को यह कैसा प्रतिदान मिला हम सभी से? क्यों मिटती रहीं हम सब के लिए? जलती रहीं तिलतिल कर. लेकिन हम सब पर कोई आंच नहीं आने दी,’’ और फिर नीला जोरजोर से रो पड़ी.

इतनी देर से चुप मां ने कहा, ‘‘कैसे निर्दयी बन गए थे हम. बेटी के त्याग को मान देने के बदले इतनी ओछी मानसिकता पर उतर आए हैं हम…

जा मिली अपनी दीदी के लिए चाय बना ला.’’

सकुचाते, लजाते मिली को उठते देख ईला ने

कहा, ‘‘मिली चायवाय बनाने की कोई जरूरत नहीं है… तुम्हें अपनी सहेलियों से आंखें मिलाने में शर्म आ रही है तो तुम लौट जाओ अपनी ससुराल… उन दिनों को भूल गई जब 1-1 जरूरत की पूर्ति के लिए मुझे निहारा करती थी. अरे, तुम से अच्छा और समझदार तुम्हारा पति है जिस से मेरा खून का कोई रिश्ता नहीं है, फिर भी मेरे लिए कुछ सोचता तो है. यही मेरे अपने हैं जिन की इच्छाओं को पूरा करने के लिए कुरबान होती रही… तमाम जिंदगी भागती रही,’’ कह ईला अपने कमरे में घुस गई और दरवाजा बंद कर लिया.

बिस्तर पर लेटते ही आंखों के समक्ष विस्मृत अतीत की स्मृतियों के पृष्ठ खुलने लगे. इन्हीं अपनों की खुशी के लिए क्या नहीं किया उस ने… माना कि सुरेश साहब की मुझ पर बेशुमार मेहरबानियां रही हैं, पर क्या उन्होंने भी उस की भरपूर कीमत उस की देह से नहीं वसूली है? उस के हिस्से की सारी धूप ही को परिवार ने ताप लिया है. फिर भी उसे उस का कभी कोई गम नहीं हुआ था. सपनों को ही चुरा लिया…

परिवार की खुशियों में सबकुछ भूल कर जीती रही… सारी जिल्लतों को सहती रही. मगर यह कोई नई बात थोड़े थी. पारिवारिक बोझ को झेलने के लिए, दायित्वों को निभाने के लिए जब भी बड़ी बेटियां सामने आती हैं तो उन्हें इन बेशुमार मेहरबानियों के लिए, कर्तव्यों के लिए अपने कौमार्य की कीमत देनी ही पड़ती है… जालिम मर्द समाज ऐसे ही किसी असहाय लड़की की मदद तो करने से रहा.

कितने रंगीन सपने भरे थे उस की आंखों में, पर सभी के सपनों को साकार करने में उस ने अपने सारे इंद्रधनुषी सपनों को खो दिया. मगर सिवा रुसवाई के कुछ भी तो नहीं मिला उसे.

अतीत के उमड़ते घने काले बादलों के बीच चमकती बिजली में ईला के समक्ष अचानक शिखर का चेहरा उभर गया जो उसे दीवानगी की हद तक प्यार करता था.

कितना प्यार था, कितना मान… सबकुछ भूल कर उस की बांहों में सिमटना चाहा था उस ने. कितना सम्मान था शिखर की आंखों में उस के लिए… पारिवारिक जिम्मेदारियों के दावानल ने उस की चाहतों को जला कर रख दिया, उसे यों मिटते वह देख नहीं सका.

शिखर के प्रति छलकते अथाह सागर को ही उदरस्त कर लिया. मायूस हो

कर उस ने सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि दुनिया को ही हमेशा के लिए छोड़ दिया. शिखर को याद कर वह देर तक रोती रही.

मुझे यों तड़पता छोड़ कर तुम क्यों चले गए शिखर? तुम्हें क्या पता कि अपने दिल की गहराइयों से तुम्हारे प्यार को… तुम्हारी यादों को निकालने के लिए मुझे अपने मन को कितना मथना पड़ा था? रातों की तनहाइयों में मैं तुम्हें टूट कर पुकारती रही, लेकिन तुम 7 समंदर का फासला तय नहीं कर पाए? तुम्हारा भी क्या दोष. तुम ने तो मेरे साथ मिल कर मेरे कंधों पर पड़ी जिम्मेदारियों को भी बांट लेना चाहा था… मैं ही विचारों के कठोर कवच में कैद हो कर रह गई थी.

आवेश में आ कर ईला कुछ उलटासीधा कदम न उठा ले, सोच कर सभी घबराए से उस के कमरे के सामने खड़े हो कर पश्चात्ताप की अग्नि में झलसते हुए आवाजें दे रहे थे…

ईला से दरवाजा खोलने की विनती कर रहे थे पर उस ने दरवाजा नहीं खोला. सब की निर्मम सोच ने उसे पत्थर सा बना दिया था.

घबरा कर ईला का भाई उस के साथ कार्यरत जावेद के घर की ओर दौड़ पड़ा. बिना देर किए वह दौड़ा चला आया और ईला से दरवाजा खोलने की गुहार करने लगा. फिर ‘कहीं ईला ने ऐसावैसा तो नहीं कर लिया,’ सोच वह दरवाजा तोड़ने के लिए व्याकुल हो उठा.

वर्षों दौड़तीभागती ईला को आज बड़ी थकान महसूस हो रही थी. नींद से बो?िल पलकें मुंदने ही वाली थीं कि कहीं दूर से आती पहचानी सी आवाज ने उसे झकझेर कर उठा दिया. किसी दीवानी की तरह दौड़ कर उस ने दरवाजा खोल दिया. बाहर जिसे प्रतीक्षा करते पाया उस पर यकीन नहीं कर सकी. अपलक कुछ पलों तक उसे निहारती रही. फिर थरथराते कदमों से आगे बढ़ी तो जावेद ने उसे अपनी बांहों में थाम लिया.

वह उस की आंखों में असीम प्यार के लहराते सागर में डूब गई. विध्वंस के अवशेष से ही जीवन की नई इबारत लिखने को वह तत्पर हो उठी. सारे गिलेशिकवे जाते रहे. फिर महीने के भीतर ही ईला ने जावेद से कोर्ट मैरिज कर ली, जिस की पत्नी अपने दूसरे बच्चे के प्रसव के दौरान चल बसी थी. उस की मां फातिमा बेगम की बूढ़ी, कमजोर बांहें घर और जावेद के

2 बच्चों की जिम्मेदारियों को उठाने में असमर्थ सिद्ध हो रही थीं. कालेज के दिनों से ही जावेद की पलकों पर ईला छाई हुई थी.

जाहिदा से शादी कर लेने के उपरांत भी जावेद ईला को अपने मन से नहीं निकाल सका था. जाहिदा के गुजर जाने के बाद ईला के प्रति उस की चाहत नए सिरे से उभर आई थी. ईला ने भी उस की आंखों में अपने प्रति प्यार की लौ पहचान ली थी. जबतब उस के कदम जावेद के क्वार्टर की ओर उठ जाते थे. वहां जा कर वह उस के बच्चों से खेल कर अपने अतृप्त मातृत्व का सुखद आनंद लिया करती थी. जावेद के साथ फातिमा बेगम भी उस के आने की राह में आंखें बिछाए रहती थीं. कितनी बार ईला ने उन से जावेद की दूसरी शादी के लिए कहा, पर वे बच्चों के लिए सौतेली मां की कल्पना करते ही सिहर जाती थीं.

ईला भी बच्चों से जुड़ तो गई थी परधर्म की ऊंची दीवार को फांदने की हिम्मतनहीं जुटा पाती थी. लेकिन अब उस ने धर्म

की कंटीली बाड़ को पार कर ही लिया. कौन क्या कहेगा, पारिवारिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएं क्या होंगी, उस ने रत्तीभर भी परवाह नहीं की. जावेद की सबल बांहों में अपने थके, बुझे शरीर को सौंप दिया. इधर जावेद ने भी वर्षों से छिपी चाहत को हजारों हाथों से थाम लिया. फातिमा बेगम ने सलमासितारों से जड़ी अपनी शादी की ?िलमिलाती चुन्नी ईला को ओढ़ा कर अपने कलेजे से लगा लिया. फिर तो जैसे खुशियों का आकाश धरती पर उतर आया.

औफिस की ओर से ईला और जावेद के उठाए गए इस कदम की आलोचना कम सराहना ज्यादा हुई. फिर एक पार्टी का आयोजन किया गया, जिसे आयोजित करने में सुरेश साहब ने भी बढ़चढ़ कर भाग लिया. सितारों से जड़े सुर्ख जोड़े एवं बड़ी नथ व जड़ाऊ झमर में सजी ईला और सिल्क के कुरते और धोती में सजे जावेद ने विध्वंस के अवशेष से नए जीवन की शुरुआत कर ली जहां नई रोशनी, नई खुशियां उन का स्वागत कर रही थीं.

‘‘जाहिदा से शादी हो जाने के बाद भी जावेद ईला को अपने मन से निकाल नहीं सका था. ईला ने भी उस की आंखों में अपने लिए प्यार महसूस कर लिया था…’’

नए मोड़ पर: कुमुदिनी के मन में शंका के बीज

कुमुदिनी चौकाबरतन निबटा कर बरामदे में खड़ी आंचल से हाथ पोंछ ही रही थी कि अपने बड़े भाई कपूरचंद को आंगन में प्रवेश करते देख वहीं ठगी सी खड़ी रह गई. अर्चना स्कूल गई हुई थी और अतुल प्रैस नौकरी पर गया हुआ था.

कपूरचंद ने बरामदे में पड़ी खाट पर बैठते हुए कहा, ‘‘अतुल के लिए लड़की देख आया हूं. लाखों में एक है. सीधासच्चा परिवार है. पिता अध्यापक हैं. इटावा के रहने वाले हैं. वहीं उन का अपना मकान है. दहेज तो ज्यादा नहीं मिलेगा, पर लड़की, बस यों समझ लो चांद का टुकड़ा है. शक्लसूरत में ही नहीं, पढ़ाई में भी फर्स्ट क्लास है. अंगरेजी में एमए पास है. तू बहुत दिनों से कह रही थी न कि अतुल की शादी करा दो. बस, अब चारपाई पर बैठीबैठी हुक्म चलाया करना.’’

कुमुदिनी ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ा. 6 साल हो गए उसे विधवा हुए. 45 साल की उम्र में ही वह 60 साल की बुढि़या दिखाई पड़ने लगी. कौन जानता था कि कमलकांत अकस्मात यों चल बसेंगे. वे एक प्रैस में प्रूफरीडर थे.

10 हजार रुपए पगार मिलती थी. मकान अपना होने के कारण घर का खर्च किसी तरह चल जाता था. अतुल पढ़ाई में शुरू से ही होशियार न था. 12वीं क्लास में 2 बार फेल हो चुका था. पिता की मृत्यु के समय वह 18 वर्ष का था. प्रैस के प्रबंधकों ने दया कर के अतुल को 8 हजार रुपए वेतन पर क्लर्क की नौकरी दे दी.

पिछले 3 सालों से कुमुदिनी चाह रही थी कि कहीं अतुल का रिश्ता तय हो जाए. घर का कामकाज उस से ढंग से संभलता नहीं था. कहीं बातचीत चलती भी तो रिश्तेदार अड़ंगा डाल देते या पासपड़ोसी रहीसही कसर पूरी कर देते. कमलकांत की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों का आनाजाना बहुत कम हो गया था.

कुमुदिनी के बड़े भाई कपूरचंद साल में एकाध बार आ कर उस का कुशलक्षेम पूछ जाते. पिछली बार जब वे आए तो कुमुदिनी ने रोंआसे गले से कहा था, ‘अतुल की शादी में इतनी देर हो रही है तो अर्चना को तो शायद कुंआरी ही बिठाए रखना पड़ेगा.’

कपूरचंद ने तभी से गांठ बांध ली थी. जहां भी जाते, ध्यान रखते. इटावा में मास्टर रामप्रकाश ने जब दहेज के अभाव में अपनी कन्या के लिए वर न मिल पाने की बात कही तो कपूरचंद ने अतुल की बात छेड़ दी. छेड़ क्या दी, अपनी ओर से वे लगभग तय ही कर आए थे. कुमुदिनी बोली, ‘‘भाई, दहेज की तो कोई बात नहीं. अतुल के पिता तो दहेज के सदा खिलाफ थे, पर अपना अतुल तो कुल मैट्रिक पास है.’’

कपूरचंद ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया था, पर अब अपनी बात रखते हुए बोले, ‘‘पढ़ाई का क्या है? नौकरी आजकल किसे मिलती है? अच्छेअच्छे डबल एमए जूते चटकाते फिरते हैं, फिर शक्लसूरत में हमारा अतुल कौन सा बेपढ़ा लगता है?’’

रविवार को कुमुदिनी कपूरचंद के साथ अतुल और अर्चना को ले कर लड़की देखने इटावा पहुंची. लड़की वास्तव में हीरा थी. कुमुदिनी की तो उस पर नजर ही नहीं ठहरती थी. बड़ीबड़ी आंखें, लंबे बाल, गोरा रंग, छरहरा शरीर, सरल स्वभाव और मृदुभाषी.

जलपान और इधरउधर की बातों के बाद लड़की वाले अतुल के परिवार वालों को आपस में सलाहमशवरे का मौका देने के लिए एकएक कर के खिसक गए. अतुल घर से सोच कर चला था कि लड़की में कोई न कोई कमी निकाल कर मना कर दूंगा. एमए पास लड़की से विवाह करने में वह हिचकिचा रहा था, पर निवेदिता को देख कर तो उसे स्वयं से ईर्ष्या होने लगी.

अर्चना का मन कर रहा था कि चट मंगनी पट ब्याह करा के भाभी को अभी अपने साथ आगरा लेती चले. कुमुदिनी को भी कहीं कोई कसर दिखाई नहीं दी, पर वह सोच रही थी कि यह लड़की घर के कामकाज में उस का हाथ क्या बंटा पाएगी?

कपूरचंद ने जब प्रश्नवाचक दृष्टि से कुमुदिनी की ओर देखा तो वह सहज होती हुई बोली, ‘‘भाई, इन लोगों से भी तो पूछ लो कि उन्हें लड़का भी पसंद है या नहीं. अतुल की पढ़ाई के बारे में भी बता दो. बाद में कोई यह न कहे कि हमें धोखे में रखा.’’

कपूरचंद उठ कर भीतर गए. वहां लड़के के संबंध में ही बात हो रही थी. लड़का सब को पसंद था. निवेदिता की भी मौन स्वीकृति थी. कपूरचंद ने जब अतुल की पढ़ाई का उल्लेख किया तो रामप्रकाश के मुख से एकदम निकला, ‘‘ऐसा लगता तो नहीं है.’’ फिर अपना निर्णय देते हुए बोले, ‘‘मेरे कितने ही एमए पास विद्यार्थी कईकई साल से बेकार हैं. चपरासी तक की नौकरी के लिए अप्लाई कर चुके हैं पर अधिक पढ़ेलिखे होने के कारण वहां से भी कोई इंटरव्यू के लिए नहीं बुलाता.’’

निवेदिता की मां को भी कोई आपत्ति नहीं थी. हां, निवेदिता के मुख पर पलभर को शिकन अवश्य आई, पर फिर तत्काल ही वह बोल उठी, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो, मां.’’ शायद उसे अपने परिवार की सीमाएं ज्ञात थीं और वह हल होती हुई समस्या को फिर से मुश्किल पहेली नहीं बनाना चाहती थी.

कपूरचंद के साथ रामप्रकाश भी बाहर आ गए. समधिन से बोले, ‘‘आप ने क्या फैसला किया?’’

कुमुदिनी बोली, ‘‘लड़की तो आप की हीरा है पर उस के योग्य राजमुकुट तो हमारे पास है नहीं.’’

रामप्रकाश गदगद होते हुए बोले, ‘‘गुदड़ी में ही लाल सुरक्षित रहता है.’’

कुमुदिनी ने बाजार से मिठाई और नारियल मंगा कर निवेदिता की गोद भर दी. अपनी उंगली में से एक नई अंगूठी निकाल कर निवेदिता की उंगली में पहना दी. रिश्ता पक्का हो गया.

3 महीने के बाद उन का विवाह हो गया. मास्टरजी ने बरातियों की खातिरदारी बहुत अच्छी की थी. निवेदिता को भी उन्होंने गृहस्थी की सभी आवश्यक वस्तुएं दी थीं.

शादी के बाद निवेदिता एक सप्ताह ससुराल में रही. बड़े आनंद में समय बीता. सब ने उसे हाथोंहाथ लिया. जो देखता, प्रभावित हो जाता. अपनी इतनी प्रशंसा निवेदिता ने पूरे जीवन में नहीं सुनी थी पर एक ही बात उसे अखरी थी- अतुल का उस के सम्मुख निरीह बने रहना, हर बात में संकोच करना और सकुचाना. अधिकारपूर्वक वह कुछ कहता ही नहीं था. समर्पण की बेला में उस ने ही जैसे स्वयं को लुटा दिया था. अतुल तो हर बात में आज्ञा की प्रतीक्षा करता रहता था.

पत्नी से कम पढ़ा होने से अतुल में इन दिनों एक हीनभावना घर कर गई थी. हर बात में उसे लगता कि कहीं यह उस का गंवारपन न समझा जाए. वह बहुत कम बोलता और खोयाखोया रहता. 1 महीने बाद जब निवेदिता दोबारा ससुराल आई तो विवाह की धूमधाम समाप्त हो चुकी थी.

इस बीच तमाशा देखने के शौकीन कुमुदिनी और अतुल के कानों में सैकड़ों तरह की बातें फूंक चुके थे. कुमुदिनी से किसी ने कहा, ‘‘बहू की सुंदरता को चाटोगी क्या? पढ़ीलिखी तो है पर फली भी नहीं फोड़ने की.’’ कोई बोला, ‘‘कल ही पति को ले कर अलग हो जाएगी. वह क्या तेरी चाकरी करेगी?’’

किसी ने कहा, ‘‘पढ़ीलिखी लड़कियां घर के काम से मतलब नहीं रखतीं. इन से तो बस फैशन और सिनेमा की बातें करा लो. तुम मांबेटी खटा करना.’’

किसी ने टिप्पणी की, ‘‘तुम तो बस रूप पर रीझ गईं. नकदी के नाम क्या मिला? ठेंगा. कल को तुम्हें भी तो अर्चना के हाथ पीले करने हैं.’’

किसी ने कहा, ‘‘अतुल को समझा देना. तनख्वाह तुम्हारे ही हाथ पर ला कर रखे.’’

किसी ने सलाह दी, ‘‘बहू को शुरू से ही रोब में रखना. हमारीतुम्हारी जैसी बहुएं अब नहीं आती हैं, खेलीखाई होती हैं.’’

गरज यह कि जितने मुंह उतनी ही बातें, पड़ोसिनों और सहेलियों ने न जाने कहांकहां के झूठेसच्चे किस्से सुना कर कुमुदिनी को जैसे महाभारत के लिए तैयार कर दिया. वह भी सोचने लगी, ‘इतनी पढ़ीलिखी लड़की नहीं लेनी चाहिए थी.’ उधर अतुल कुछ तो स्वयं हीनभावना से ग्रस्त था, कुछ साथियों ने फिकरे कसकस कर परेशान कर दिया. कोई कहता, ‘‘मियां, तुम्हें तो हिज्जे करकर के बोलना पड़ता होगा.’’

कोई कहता, ‘‘भाई, सूरत ही सूरत है या सीरत भी है?’’

कोई कहता, ‘‘अजी, शर्महया तो सब कालेज की पढ़ाई में विदा हो जाती है. वह तो अतुल को भी चौराहे पर बेच आएगी.’’

दूसरा कंधे पर हाथ रख कर धीरे से कान में फुसफुसाया, ‘‘यार, हाथ भी रखने देती है कि नहीं.’’ निवेदिता जब दोबारा ससुराल आई तो मांबेटे किसी अप्रत्याशित घटना की कल्पना कर रहे थे. रहरह कर दोनों का कलेजा धड़क जाता था और वे अपने निर्णय पर सकपका जाते थे.

वास्तव में हुआ भी अप्रत्याशित ही. हाथों की मेहंदी छूटी नहीं थी कि निवेदिता कमर कस कर घर के कामों में जुट गई. झाड़ू लगाना और बरतन मांजने जैसे काम उस ने अपने मायके में कभी नहीं किए थे पर यहां वह बिना संकोच के सभी काम करती थी.

महल्ले वालों ने पैंतरा बदला. अब उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘गौने वाली बहू से ही चौकाबरतन, झाड़ूबुहारू शुरू करा दी है. 4 दिन तो बेचारी को चैन से बैठने दिया होता.’’

सास ने काम का बंटवारा कर लेने पर जोर दिया, पर निवेदिता नहीं मानी. उसे घर की आर्थिक परिस्थिति का भी पूरा ध्यान था, इसीलिए जब कुमुदिनी एक दिन घर का काम करने के लिए किसी नौकरानी को पकड़ लाई तो निवेदिता इस शर्त पर उसे रखने को तैयार हुई कि अर्चना की ट्यूशन की छुट्टी कर दी जाए. वह उसे स्वयं पढ़ाएगी.

अर्चना हाईस्कूल की परीक्षा दे रही थी. छमाही परीक्षा में वह अंगरेजी और संस्कृत में फेल थी. सो, अतुल ने उसे घर में पढ़ाने के लिए एक सस्ता सा मास्टर रख दिया था. मास्टर केवल बीए पास था और पढ़ाते समय उस की कई गलतियां खुद निवेदिता ने महसूस की थीं. 800 रुपए का ट्यूशन छुड़ा कर नौकरानी को 500 रुपए देना महंगा सौदा भी नहीं था.

निवेदिता के पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि अर्चना भी खुश थी. एक महीने में ही अर्चना की गिनती क्लास की अच्छी लड़कियों में होने लगी. जब सहेलियों ने उस की सफलता का रहस्य पूछा तो उस ने भाभी की भूरिभूरि प्रशंसा की.

थोड़े ही दिनों में महल्ले की कई लड़कियों ने निवेदिता से ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दिया. कुमुदिनी को पहले तो कुछ संकोच हुआ पर बढ़ती हुई महंगाई में घर आती लक्ष्मी लौटाने को मन नहीं हुआ. सोचा बहू का हाथखर्च ही निकल आएगा. अतुल की बंधीबंधाई तनख्वाह में कहां तक काम चलता?

गरमी की छुट्टियों में ट्यूशन बंद हो गए. इन दिनों अतुल अपनी छुट्टी के बाद प्रैस में 2 घंटे हिंदी के प्रूफ देखा करता था. एक रात निवेदिता ने उस से कहा कि वह प्रूफ घर ले आया करे और सुबह जाते समय ले जाया करे. कोई जरूरी काम हो तो रात को घूमते हुए जा कर वहां दे आए. अतुल पहले तो केवल हिंदी के ही प्रूफ देखता था, अब वह निवेदिता के कारण अंगरेजी के प्रूफ भी लाने लगा.

निवेदिता की प्रूफरीडिंग इतनी अच्छी थी कि कुछ ही दिनों स्थिति यहां तक आ पहुंची कि प्रैस का चपरासी दिन या रात, किसी भी समय प्रूफ देने आ जाता था. अब पर्याप्त आय होने लगी.

अर्चना हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी में पास हुई तो सारे स्कूल में धूम मच गई. स्कूल में जब यह रहस्य प्रकट हुआ कि इस का सारा श्रेय उस की भाभी को है तो प्रधानाध्यिपिका ने अगले ही दिन निवेदिता को बुलावा भेजा. एक अध्यापिका का स्थान रिक्त था. प्रधानाध्यिपिका ने निवेदिता को सलाह दी कि वह उस पद के लिए प्रार्थनापत्र भेज दे. 15 दिनों के बाद उस पद पर निवेदिता की नियुक्ति हो गई. निवेदिता जब नियुक्तिपत्र ले कर घर पहुंची तो उस की आंखों में प्रसन्नता के आंसू छलक आए.

निवेदिता अब दिन में स्कूल की नौकरी करती और रात को प्रूफ पढ़ती. घर की आर्थिक दशा सुधर रही थी, पर अतुल स्वयं को अब भी बौना महसूस करता था. प्यार के नाम पर निवेदिता उस की श्रद्धा ही प्राप्त कर रही थी. एक रात जब अतुल हिंदी के प्रूफ पढ़ रहा था तो निवेदिता ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘सुनो.’’ अतुल का हृदय धकधक करने लगा.

‘‘अब आप यह प्रूफ संशोधन छोड़ दें. पैसे की तंगी तो अब है नहीं.’’

अतुल ने सोचा, ‘गए काम से.’ उस के हृदय में उथलपुथल मच गई. संयत हो कर बोला, ‘‘पर अब तो आदत बन गई है. बिना पढ़े रात को नींद नहीं आती.’’

निवेदिता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘वही तो कह रही हूं. अर्चना की इंटर की पढ़ाई के लिए सारी किताबें खरीदी जा चुकी हैं, आप प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में इंटर का फौर्म भर दें.’’

अतुल का चेहरा अनायास लाल हो गया. उस ने असमर्थता जताते हुए कहा, ‘‘इतने साल पढ़ाई छोड़े हो गए हैं. अब पढ़ने में कहां मन लगेगा?’’  निवेदिता ने उस के निकट खिसक कर कहा, ‘‘पढ़ते तो आप अब भी हैं. 2 घंटे प्रूफ की जगह पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ लेने से बेड़ा पार हो जाएगा. कठिन कुछ नहीं है.’’

अतुल 3-4 दिनों तक परेशान रहा. फिर उस ने फौर्म भर ही दिया. पहले तो पढ़ने में मन नहीं लगा, पर निवेदिता प्रत्येक विषय को इतना सरल बना देती कि अतुल का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था. साथी ताना देते. कोईकोई उस से कहता कि वह तो पूरी तरह जोरू का गुलाम हो गया है. यही दिन तो मौजमस्ती के हैं पर अतुल सुनीअनसुनी कर देता.

इंटर द्वितीय श्रेणी में पास कर लेने के बाद तो उस ने स्वयं ही कालेज की संध्या कक्षाओं में बीए में प्रवेश ले लिया. बीए में उस की प्रथम श्रेणी केवल 5 नंबरों से रह गई.

कुमुदिनी की समझ में नहीं आता था कि बहू ने सारे घर पर जाने क्या जादू कर दिया है. अतुल के पिता हार गए पर यह पढ़ने में सदा फिसड्डी रहा. अब इस की अक्ल वाली दाढ़ निकली है.

बीए के बाद अतुल ने एमए (हिंदी) में प्रवेश लिया. इस प्रकार अब तक पढ़ाई में निवेदिता से जो सहायता मिल जाती थी, उस से वह वंचित हो गया. पर अब तक उस में पर्याप्त आत्मविश्वास जाग चुका था. वह पढ़ने की तकनीक जान गया था. निवेदिता भी यही चाहती थी कि वह हिंदी में एमए करे अन्यथा उस की हीनता की भावना दूर नहीं होगी. अपने बूते पर एमए करने पर उस का स्वयं में विश्वास बढ़ेगा. वह स्वयं को कम महसूस नहीं करेगा.

वही हुआ. समाचारपत्र में अपना एमए का परिणाम देख कर अतुल भागाभागा घर आया तो मां आराम कर रही थी. अर्चना किसी सहेली के घर गई हुई थी. छुट्टी का दिन था, निवेदिता घर की सफाई कर रही थी. अतुल ने समाचारपत्र उस की ओर फेंकते हुए कहा, ‘‘प्रथम श्रेणी, द्वितीय स्थान.’’

और इस से पहले कि निवेदिता समाचारपत्र उठा कर परीक्षाफल देखती, अतुल ने आगे बढ़ कर उसे दोनों हाथों में उठा लिया और खुशी से कमरे में नाचने लगा.

उस की हीनता की गं्रथि चरमरा कर टूट चुकी थी. आज वह स्वयं को किसी से कम महसूस नहीं कर रहा था. विश्वविद्यालय में उस ने दूसरा स्थान प्राप्त किया है, यह गर्व उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था.

निवेदिता का चेहरा पहले प्रसन्नता से खिला, फिर लज्जा से लाल हो गया. आज पहली बार, बिना मांगे, उसे पति का संपूर्ण प्यार प्राप्त हुआ था. इस अधिकार की वह कितने दिनों से कामना कर रही थी, विवाह के दिन से ही. अपनी इस उपलब्धि पर उस की आंखों में खुशी का सागर उमड़ पड़ा.

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कितने अजनबी: टूटते परिवार की कहानी

हम 4 एक ही छत के नीचे रहने वाले लोग एकदूसरे से इतने अजनबी कि अपनेअपने खोल में सिमटे हुए हैं.

मैं रश्मि हूं. इस घर की सब से बड़ी बेटी. मैं ने अपने जीवन के 35 वसंत देख डाले हैं. मेरे जीवन में सब कुछ सामान्य गति से ही चलता रहता यदि आज उन्होंने जीवन के इस ठहरे पानी में कंकड़ न डाला होता.

मैं सोचती हूं, क्या मिलता है लोगों को इस तरह दूसरे को परेशान करने में. मैं ने तो आज तक कभी यह जानने की जरूरत नहीं समझी कि पड़ोसी क्या कर रहे हैं. पड़ोसी तो दूर अपनी सगी भाभी क्या कर रही हैं, यह तक जानने की कोशिश नहीं की लेकिन आज मेरे मिनटमिनट का हिसाब रखा जा रहा है. मेरा कुसूर क्या है? केवल यही न कि मैं अविवाहिता हूं. क्या यह इतना बड़ा गुनाह है कि मेरे बारे में बातचीत करते हुए सब निर्मम हो जाते हैं.

अभी कल की ही बात है. मकान मालकिन की बहू, जिसे मैं सगी भाभी जैसा सम्मान देती हूं, मेरी नईनवेली भाभी से कह रही थी, ‘‘देखो जलज, जरा अपनी बड़ी ननद से सावधान रहना. जब तुम और प्रतुल कमरे में होते हो तो उस के कान उधर ही लगे रहते हैं. मुझे तो लगता है कि वह ताकझांक भी करती होगी. अरी बहन, बड़ी उम्र तक शादी नहीं होगी तो क्या होगा, मन तो करता ही होगा…’’  कह कर वह जोर से हंस दी.

मैं नहीं सुन पाई कि मेरी इकलौती भाभी, जिस ने अभी मुझे जानासमझा ही कितना है, ने क्या कहा. पर मेरे लिए तो यह डूब मरने की बात है. मैं क्या इतनी फूहड़ हूं कि अपने भाई और भाभी के कमरे में झांकती फिरूंगी, उन की बातें सुनूंगी. मुझे मर जाना चाहिए. धरती पर बोझ बन कर रहने से क्या फायदा?

मैं अवनि हूं. इस घर की सब से छोटी बेटी. मैं बिना बात सब से उलझती रहती हूं. कुछ भी सोचेसमझे बिना जो मुंह में आता है बोल देती हूं और फिर बाद में पछताती भी हूं.

मेरी हर बात से यही जाहिर होता है कि मैं इस व्यवस्था का विरोध कर रही हूं जबकि खुद ही इस व्यवस्था का एक हिस्सा हूं.

मैं 32 साल की हो चुकी हूं. मेरे साथ की लड़कियां 1-2 बच्चों की मां  बन चुकी हैं. मैं उन से मिलतीजुलती हूं पर अब उन के साथ मुझे बातों में वह मजा नहीं आता जो उन की शादी से पहले आता था.

अब उन के पास सासपुराण, पति का यशगान और बच्चों की किचकिच के अलावा कोई दूसरा विषय होता ही नहीं है. मैं चिढ़ जाती हूं. क्या तुम लोग  इतना पढ़लिख कर इसी दिमागी स्तर की रह गई हो. वे सब हंसती हुई कहती हैं, ‘‘बन्नो, जब इन चक्करों में पड़ोगी तो जानोगी कि कितनी पूर्णता लगती है इस में.’’

‘क्या सच?’ मैं सोचती हूं एक स्कूल की मास्टरी करते हुए मुझे अपना जेबखर्च मिल जाता है. खूब सजधज कर जाती हूं. अच्छी किस्म की लिपस्टिक लगाती हूं. बढि़या सिल्क की साडि़यां पहनती हूं. पैरों में ऊंची हील की सैंडिल होती हैं जिन की खटखट की आवाज पर कितनी जोड़ी आंखें देखने लगती हैं. पर मैं किसी को कंधे पर हाथ नहीं रखने देती.

क्या मुझ में पूर्णता नहीं है? मैं एक परफैक्ट महिला हूं और मैं ऐसा प्रदर्शित भी करती हूं, लेकिन जब कोई हंसताखिलखिलाता जोड़ा 2 छोटेछोटे भागते पैरों के पीछे पार्क में दौड़ता दिख जाता है तो दिल में टीस सी उठती है. काश, मैं भी…

मैं जलज हूं. इस घर के इकलौते बेटे की पत्नी. अभी मेरी शादी को मात्र 6 महीने हुए हैं. मेरे पति प्रतुल बहुत अच्छे स्वभाव के हैं. एकांत में मेरे साथ ठीक से रहते हैं. हंसतेमुसकराते हैं, प्यार भी जताते हैं और मेरी हर छोटीबड़ी इच्छा का ध्यान रखते हैं लेकिन अपनी दोनों बहनों के सामने उन की चुप्पी लग जाती है.

सारे दिन मुझे बड़ी दीदी रश्मि की सूक्ष्मदर्शी आंखों के सामने घूमना पड़ता है. मेरा ओढ़नापहनना सबकुछ उन की इच्छा के अनुसार होता है. अभी मेरी शादी को 6 महीने ही हुए हैं पर वह मुझे छांटछांट कर हलके रंग वाले कपड़े ही पहनाती हैं. जरा सी बड़ी बिंदी लगा लो तो कहेंगी, ‘‘क्या गंवारों की तरह बड़ी बिंदी और भरभर हाथ चूडि़यां पहनती हो. जरा सोबर बनो सोबर. अवनि को देखो, कितनी स्मार्ट लगती है.’’

मैं कहना चाहती हूं कि दीदी, अवनि दीदी अविवाहित हैं और मैं सुहागिन, लेकिन कह नहीं सकती क्योंकि शादी से पहले प्रतुल ने मुझ से यह वादा ले लिया था कि दोनों बड़ी बहनों को कभी कोई जवाब न देना.

मैं अपने मन की बात किस से कहूं. घुटती रहती हूं. कल रश्मि दीदी कह रही थीं, ‘‘भाभी, भतीजा होगा तो मुझे क्या खिलाओगी.’’

मैं ने भी हंसते हुए कहा था, ‘‘दीदी, आप जो खाएंगी वही खिलाऊंगी.’’

चेहरे पर थोड़ी मुसकराहट और ढेर सारी कड़वाहट भर कर अवनि दीदी बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘भाभी, हमें थोड़ा सल्फास खिला देना.’’

मैं अवाक् रह गई. क्या मैं इन्हें सल्फास खिलाने आई हूं.

अगर भाभी के बारे में सोच ऐसी ही थी तो फिर अपने भाई की शादी क्यों की?

मैं 3 भाइयों की इकलौती बहन हूं. मातापिता मेरे भी नहीं हैं इसलिए इन बहनों का दर्द समझती हूं. ऐसा बहुतकुछ मेरे जीवन में भी गुजरा है. जब मैं इंटर पास कर बी.ए. में आई तो महल्लापड़ोस वाली औरतें मेरी भाभियों को सलाह देने लगीं, ‘‘अरे, बोझ उतारो अपने सिर से. बहुत दिन रख लिया. अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो रोती फिरोगी. भाई लाड़ करते हैं इसलिए नकचढ़ी हो गई है.’’

सच में मैं नकचढ़ी थी लेकिन बड़ी भाभी मेरी मां बन गई थीं. उन्होंने कहा था, ‘‘आप लोग अपनाअपना बोझ संभालो. मेरे घर की चिंता मत करो. जब तक पढ़लिख कर जलज किसी काबिल नहीं हो जाती और कोई सुपात्र नहीं मिल जाता, हम शादी नहीं करेंगे.’’

और सचमुच भाभी ने मुझे एम.ए., बी.एड. करवाया और अच्छे रिश्ते की खोज में लग गईं. यद्यपि प्रतुल और मुझ में 10 साल का अंतर है लेकिन इस रिश्ते की अच्छाई भाभी ने यह समझी कि अपनी जलज, बिन मांबाप की है. भाईभाभियों के बीच रह कर पलीबढ़ी है. बिना मांबाप की बच्चियों का दर्द खूब समझेगी और प्रतुल को सहयोग करेगी.

मैं नहीं जानती थी कि मुझे ऐसा माहौल मिलेगा. इतनी कुंठा से ग्रस्त ननदें होंगी. अरे, अगर शादी नहीं हुई या नहीं हो रही है तो क्या करने को कुछ नहीं है. बहुतकुछ है.

एक बार मैं ने यही बात अवनि दीदी से धीरे से कही थी तो किचन के दरवाजे पर हाथ अड़ा कर लगभग मेरा रास्ता रोकते हुए वह बड़ी क्रूरता से कह गई थीं, ‘आज आप की शादी हो गई है इसलिए कह रही हैं. अगर न होती और भाईभाभी के साथ जीवन भर रहना पड़ता तो पता चलता.’ बताइए, मैं 6 महीने पुरानी विवाहिता आज विवाहित होने का ताना सुन रही हूं.

मैं प्रतुल हूं. इस घर का इकलौता बेटा और बुजुर्ग भी. मेरी उम्र 40 वर्ष है. मेरे पिता की मृत्यु को अभी 5 वर्ष हुए हैं. इन 5 सालों में मैं बहुत परिपक्व हो गया हूं. जब मेरे पिता ने अंतिम सांस ली उस समय मेरी दोनों बहनें क्रमश: 30 और 27 वर्ष की थीं. मेरी उम्र 35 वर्ष की थी. उन्होंने हम में से किसी के बारे में कुछ नहीं सोचा. पिताजी की अच्छीखासी नौकरी थी, परंतु जितना कमाया उतना गंवाया. केवल बढि़या खाया और पहना. घर में क्या है यह नहीं जाना. अम्मां उन से 5 वर्ष पहले मरी थीं. यानी 10 साल पहले भी हम भाईबहन इतने छोटे नहीं थे कि अपनाअपना घर नहीं बसा सकते थे. मेरे दोस्तों के बच्चे लंबाई में उन के बराबर हो रहे हैं और यहां अभी बाप बनने का नंबर भी नहीं आया.

नौकरी पाने के लिए भी मैं ने खूब एडि़यां घिसीं. 8 सालों तक दैनिक वेतनभोगी के रूप में रहा. दोस्त और दुश्मन की पहचान उसी दौर में हुई थी. आज भी उस दौर के बारे में सोचता हूं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

अम्मां सोतेउठते एक ही मंत्र फूंका करती थीं कि बेटा, इन बहनों की नइया तुझे ही पार लगानी है. लेकिन कैसे? वह भी नहीं जानती थीं.

मैं ने जब से होश संभाला, अम्मां और पिताजी को झगड़ते ही पाया. हर बहस का अंत अम्मां की भूख हड़ताल और पिताजी की दहाड़ पर समाप्त होता था. रोतीकलपती अम्मां थकहार कर खाने बैठ जातीं क्योंकि पिताजी पलट कर उन्हें पूछते ही नहीं थे. अम्मां को कोई गंभीर बीमारी न थी. एक दिन के बुखार में ही वह चल बसीं.

रिटायरमेंट के बाद पिताजी को गांव के पुश्तैनी मकान की याद आई. सबकुछ छोड़छाड़ कर वह गांव में जा बैठे तो झक मार कर हम सब को भी जाना पड़ा. पिछले 15 सालों में गांव और

शहर के बीच तालमेल बैठातेबैठाते मैं न गांव का गबरू जवान रहा न शहर का

छैलछबीला.

बहनों को पढ़ाया, खुद भी पढ़ा और नौकरी की तलाश में खूब भटका. उधर गांव में पिताजी की झकझक अब रश्मि और अवनि को झेलनी पड़ती थी. वे ऊटपटांग जवाब देतीं तो पिताजी उन्हें मारने के लिए डंडा उठा लेते. अजीब मनोस्थिति होती जब मैं छुट्टी में घर जाता था. घर जाना जरूरी भी था क्योंकि घर तो छोड़ नहीं सकता था.

पिताजी के बाद मैं दोनों बहनों को शहर ले आया. गांव का मकान, जिस का हिस्सा मात्र 2 कमरों का था, मैं अपने चचेरे भाई को सौंप आया. उस का परिवार बढ़ रहा था और वहां भी हमारे घर की तरह ‘तानाशाह’ थे.

शहर आ कर अवनि को मैं ने टाइप स्कूल में दाखिला दिलवा दिया लेकिन उस का मन उस में नहीं लगा. वह गांव के स्कूल में पढ़ाती थी इसलिए यहां भी वह पढ़ाना ही चाहती थी. मेरे साथ काम करने वाले पाठकजी की बेटी अपना स्कूल चलाती है, वहीं अवनि पढ़ाने लगी है. जितना उसे मिलता है, पिताजी की तरह अपने ऊपर खर्च करती है. बातबात में ताने देती है. बोलती है तो जहर उगलती है लेकिन मैं क्या करूं? पिताजी के बाद जो खजाना मुझे मिला वह केवल उन की 1 महीने की पेंशन थी. जिस शहर में रहने का ताना ये दोनों मुझ को देती थीं वही शहर हमारी सारी कमाई निगल रहा है.

40 बरस की आयु में आखिर परिस्थितियों से ऊब कर मैं ने शादी कर ली. जलज अच्छी लड़की है. शांत स्वभाव और धैर्य वाली. उस की बड़ीबड़ी आंखों में दुख के बादल कुछ क्षण मंडराते तो जरूर हैं लेकिन फिर छंट भी बहुत जल्दी जाते हैं. जलज ने आज तक मेरी बहनों के बारे में मुझ से किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं की. क्या करूं, मेरे प्रारब्ध से जुड़ कर उसे भी सबकुछ सहन करना पड़ रहा है.

माना कि बहनें छोटी हैं लेकिन कहने वाले कब चूकते हैं, ‘‘खुद की शादी कर ली और बहनों को भूल गया. बहनें भी तड़ से कहती हैं, ‘‘तुम अपनी जिंदगी देखो, हम को कब तक संभालोगे या तुम्हारे पास इतना पैसा कहां है कि हमें बैठा कर खिला सको.’’

पिताजी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई. खुद खायापिया और मौज उड़ाई. इस में मेरा कुसूर क्या है? मैं कब कहता हूं कि बहनों का ब्याह नहीं करूंगा. अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ता पर मैं सब से कहता हूं, समय तो आने दो, धैर्य तो रखो.

एक तो कहीं बात नहीं बनती और कहीं थोड़ीबहुत गुंजाइश होती भी है तो ये दोनों मना करने लगती हैं. यह लड़का अच्छा नहीं है. गांव में शादी नहीं करेंगे. वास्तव में दोनों में निरंकुशता आ गई है. मुझे कुछ समझती ही नहीं. हैसियत मेरी बुजुर्ग वाली है लेकिन ये दोनों मुझे बच्चा समझ कर डपटती रहती हैं. मेरे साथ जलज भी डांट खाती है.

अम्मां पिताजी के उलझाव ने इन दोनों के स्वभाव में अजीब सा कसैलापन ला दिया है. पापा से उलझ कर अम्मां मुंह फुला कर लेट जातीं और यह तक न देखतीं कि रश्मि और अवनि क्या कर रही हैं, कैसे बोल रही हैं.

मैं अपनी दोनों बहनों और पत्नी के बीच सामंजस्य बैठाने की कोशिश में अपने ही खोल में सिमटता जा रहा हूं. न जाने कब समाप्त होगा हमारा अजनबीपन.

मिनी, एडजस्ट करो प्लीज: क्या हुआ था उसके साथ

देखते ही देखते गुबार उठा और आंधी चलने लगी. भाभी ने ड्राइंगरूम से आवाज दी, ‘मिनी, दरवाजेखिड़कियां बंद कर लेना, नहीं तो गर्द अंदर आ जाएगी.’ उस ने कहना चाहा, भाभी, तूफानी अंधड़ ने तो पहले ही से मेरे मन के दरवाजेखिड़कियों को बंद कर रखा है और मुझे अंधेरे कमरे में कैद कर रखा है.

कुछ देर बाद बारिश शुरू हो गई, तो बाहर का तूफान थम गया पर उस के मन के तूफान की रफ्तार वैसी ही थी. वह जानती थी, भैयाभाभी ड्राइंगरूम में मैट्रोमोनियल के जवाब में आई चिट्ठियां पढ़ रहे होंगे. 6 माह पहले जब भैया ने मैट्रोमोनियल विज्ञापन की बात कही थी तो मैं पत्थर हो गईर् थी. मैं दोबारा किसी के साथ जुड़ने की बात सोच भी नहीं सकती थी. पर भैया ने कहा था, ‘मिनी, सोच कर जवाब देना, सारी जिंदगी पड़ी है आगे.’

भैया ने तो ठीक ही कहा था पर अगले दिन जब उन्होंने मुझे अपनी डिगरियां निकालते देखा तो वे खामोश हो गए.2 कमरों के इस फ्लैट में मैं, भैया और भाभी 3 लोग ही थे पर वक्त ने जैसे हमें अजनबी बना दिया था.

यह अजनबियत पहले नहीं थी. मात्र एक साल ही तो गुजारा था नरेश के घर में. फिर मैं अपनी सूनी मांग ले कर भैया के घर वापस आ गई. नरेश के बाद किसी दूसरे के साथ जुड़ने का खयाल भी मन को झकझोर देता था.

फिर मैं अपनी डिगरियों के सहारे नौकरी की तलाश में लग गई. पर एक विधवा के प्रति लोगों का रुख देख कर मन कांप उठता था. एक विधवा, जवान और खूबसूरत कितने अवगुण थे मुझ में. आखिर, मैं ने हथियार डाल दिए. भैया ठीक ही कहते हैं. अकेले सारी जिंदगी गुजारना सचमुच मुश्किल था.

भैया ने फिर विज्ञापन देखने शुरू कर दिए. चिट्ठियां फिर से आने लगीं. मैं समझ गईर् कि एक न एक दिन मुझे इस घर से जाना ही होगा. इसी बीच एक दिन एक शख्स का पत्र आया. कोठी, कार, अच्छी नौकरी, अकेला घर सबकुछ था उस के पास, और क्या चाहिए किसी औरत को. हां, खलने वाली एक ही बात थी, कि उस की पत्नी जीवित थी और उस के साथ उस का बाकायदा तलाक अभी तक नहीं हुआ था. पर इस से क्या होता है, पत्नी का उस से कोई सरोकार नहीं था.

भैया ने उस शख्स को फोन कर घर आने को कह दिया. वह आया. भैया ने अपनी शंकाएं उस से जाहिर कीं. बदले में उस ने आश्वासनों का ढेर लगा दिया. भैया उस की बातों से संतुष्ट हुए और मुझे उस के हवाले कर दिया.

उस के गंभीर और गरिमामय व्यक्तित्व ने मुझे भी प्रभावित किया था. मुझे मालूम था कि किसी न किसी के गले बांध दी ही जाऊंगी, तो फिर तुम ही सही.

वह मुझे अपने घर ले गया. घर क्या था, पूरी हवेली थी. इस हवेलीनुमा घर के वैभव को छोड़ कर उस की पत्नी क्यों चली गई होगी, यह खयाल मेरे दिल में रहा. मेरे साथ रहते हुए तुम्हें अरसा बीत गया. अब तक तुम मुझे क्यों तड़पाती रहीं, ऐसा क्यों किया तुम ने?

उस के यह पूछने के जवाब में मैं ने पूरी कहानी सुना दी. ‘‘दरअसल, अपने हवेलीनुमा घर में ला कर तुम ने कहा, ‘अपना घर तुम्हें कैसा लगा, मिनी?’ इस के साथ तुम ने मुझे अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया. मैं ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, तो तुम ने कहा, ‘क्यों, क्या बात है, अब तो तुम मेरी हो, मेरी पत्नी, यह घर तुम्हारा ही है?’

‘‘‘बिना किसी संस्कार के मैं तुम्हारी पत्नी कैसे हो गई,’ मैं ने प्रतिरोध करते हुए कहा. तुम्हारी बांहों का घेरा कुछ और तंग हो गया और तुम ने हंसते हुए कहा, ‘ओह, तो तुम उस औपचारिकता की बात करती हो, उस की कोई वैल्यू नहीं है, तुम्हारे भी बच्चे होगें, उन्हें मेरा नाम मिलेगा, प्यार मिलेगा, जायदाद में पूरा हिस्सा मिलेगा.’

‘‘कितनी आसानी से तुम ने मुझे सारा कुछ समझा दिया था पर तुम जिसे औपचारिकता कहते हो वही तो एक सूत्र होता है जिस के दम पर एक औरत रानी बन कर राज करती है मर्द के घर और उस के दिल पर.

‘‘महाराज चाय बना कर ले आया था. चाय के साथ उस ने ढेर सारी प्लेटें मेज पर लगा दी थीं. चाय पीने के बाद तुम औफिस के लिए तैयार हुए और जातेजाते मुझे बांहों में भरा. तुम्हारी बांहों में मैं मछली सी तड़प उठी. तुम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे और औफिस चले गए. पर मैं अपने औरत होने की शर्मिंदगी में टूटतीबिखरती रही.

‘‘मैं क्या कहती, मुझे तो यह भी नहीं पता था कि तुम्हें क्याक्या पसंद था. मैं ने यह कह कर मुक्ति पा ली, ‘कुछ भी बना लो.’ तभी वीरो आ गई, घर की मेडसर्वेंट. महाराज ने चुपके से उसे मेरे बारे में बताया. वीरो ने कहा, ‘अच्छा तो ये हैं,’ और काम में लग गई. बीचबीच में वह मुझे कनखियों से तोलती रही.

‘‘शाम को तुम औफिस से लौटे तो काफी खुश थे. महाराज तुम्हारी गाड़ी में से कई बैग निकाल कर लाया और सोफे पर रख दिया. तुम ने कई खूबसूरत साडि़यां मेरे सामने फैला दीं, ‘मिनी, ये सब तुम्हारे लिए हैं.’ पर तुम्हारे स्वर का अपनत्व मेरे अंदर की जमी हुई बर्फ को पिघला नहीं सका. तुम्हारी इच्छा से मैं ने आसमानी रंग की साड़ी पहन ली. फिर तुम महाराज और वीरो के जाने का इंतजार करने लगे. उन के जाते ही तुम बेसब्रे हो गए और मुझे बिस्तर पर खींच लिया. तुम्हारे बिस्तर पर बैठते ही मुझे लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने मुझे डंक मार दिया हो. मैं तड़पने लगी. फिर कुछ समझते हुए तुम मेरी पीठ सहलाने लगे.

‘‘‘मिनी, नरेश को क्या हुआ था?’ तुम ने पहली बार इतने प्यार से पूछा कि तुम मुझे आत्मीय से लगने लगे. पिछले

6 महीनों से जो गुबार मन में रुका हुआ था वह अचानक फूट पड़ा. मैं तुम्हारे कंधे पर झुक गई. तुम मेरे आसुंओं से भीगते रहे. फिर मैं ने तुम्हें बताया कि नरेश के साथ मैं ने कितने खुशहाल दिन बिताए थे. लेकिन सुख के दिन ज्यादा देर न रहे और एक दिन औफिस से लौटते समय नरेश का ऐक्सिडैंट हो गया. उस की रीढ़ की हड्डी टूट गई जो इलाज के बावजूद ठीक से जुड़ नहीं पाई.

‘‘नरेश ने जो एक बार बिस्तर पकड़ा तो उठ नहीं पाया. जबजब वह मेरी ओर हाथ बढ़ाता तो उस की हड्डी में कसक उठती. कभीकभी तो वह दर्द से चीखने लगता.

‘‘नरेश अब बिस्तर पर पड़ापड़ा मुझे दयनीय नजरों से देखता रहता और मैं आहत हो जाती. नरेश के इलाज पर बहुत पैसा खर्च हो गया था. धीरेधीरे नरेश को लगने लगा कि उस के कारण मेरी जवान उमंगों का खून हो रहा है. यह अपराधबोझ उस के दिल में घर करने लगा. मैं ने हालात को अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था पर नरेश ने नहीं किया.

‘‘नरेश को अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी. हम उसे घर ले आए थे. पर अब हालात काफी बदल चुके थे. परिवार वालों की नजर में मैं अपशकुनी थी. नरेश अपने मन की हलचलों से ज्यादा लड़ नहीं सका और न ही अपनी शारीरिक तकलीफ को झेल सका. एक दिन उस ने अपनी कलाई की नस काट ली और चला गया मुझे अकेला छोड़ कर.

‘‘नरेश के परिवार वालों को अब मैं कांटे सी खटकने लगी और एक दिन भैया मुझे घर ले आए.‘‘तुम ने ठंडी सांस ली और कहा, ‘मिनी, ऐडजस्ट करने का प्रयास करो.’ मैं तुम्हारे सीने पर फफक पड़ी. कैसे भूलूं उस सब को. नरेश की आंखें मेरा पीछा करती हैं. मैं ने उसे तिलतिल कर मरते हुए देखा है. उस की आंखों में छलकती प्यास मुझे जीने नहीं देती.

‘‘तुम देर तक मेरी पीठ सहलाते रहे. फिर बत्ती बुझाई और सो गए. पर मैं रातभर जागती रही. मुझे लगा जैसे मैं अंगारों पर लेटी हुई हूं. अगले दिन तुम एक पिंजड़ा ले आए. उस में एक तोता था. तुम ने हंसते हुए कहा, ‘मिनी, इस तोते को बातें करना सिखाना, तुम्हारा मन लगा रहेगा.’ महाराज ने तोते के लिए कटोरी में पानी और हरीमिर्च रख दी.

‘‘तोते ने कुछ भी छुआ नहीं. वह अपनी दुम में ही सिमटा रहा. तुम ने कहा, ‘मिनी, नई जगह आया है न, एकदो दिन में ऐडजस्ट कर लेगा.’

‘‘सचमुच 2 दिनों बाद तोते ने खानापीना शुरू कर दिया. अब वह पिंजड़े में उछलकूद करने लगा था. बीचबीच में आवाजें भी निकालने लगा था. तुम औफिस से आते ही तोते से बातें करते, फिर मुझ से कहते, ‘देखा, तोता अब हम से हिलनेमिलने लगा है.’

‘‘मैं तुम्हें कैसे बताती कि इंसान और पंछी में फर्क होता है. इंसान की अपनी ही कुंठाएं उसे खाती रहती हैं. मैं भावनात्मक रूप से नरेश से जुड़ी हुई थी. मुझ में और तोते में फर्क है.

‘‘तुम ने मुझे गहरी नजर से देखा और गले से लगा लिया. फिर गंभीर स्वर में कहा, ‘मिनी, मैं सरकारी नौकरी में हूं. एक पत्नी के जिंदा रहते दूसरी शादी करना कानूनन जुर्म है. मुझे जेल भी हो सकती है. पर मैं भी इंसान हूं. तनहा नहीं रह सकता. मेरी भी कुछ जिस्मानी जरूरतें हैं. मैं ने कई लड़कियां देखीं, पर कोई पसंद नहीं आई. फिर तुम्हारे भैया का निमंत्रण आया. तुम मुझे बेहद मासूम लगीं. मुझे लगा कि तुम्हारे साथ जीवन आसान हो जाएगा. क्या मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती की है?’

‘नहींनहीं, तुम भला क्यों जबरदस्ती करते. पर मैं भैया के लिए एक भार ही थी न. बड़ी मुश्किल से उन्होंने मेरी शादी की थी. पर नरेश…’

‘‘‘उस सब को भूल जाओ, मिनी. गया वक्त कभी लौट कर नहीं आता. ऐडजस्ट करने की कोशिश करो.’

‘‘पर मैं क्या करूं, कुछ समझ नहीं आता. जानवर नहीं हूं, न ही पूंछी हूं, फिर भी जानती हूं आज नहीं तो कल, ऐडजस्ट करना ही होगा.

‘‘तुम्हारे साथ बिस्तर पर लेटते ही नींद आंखों से उड़ जाती. रातभर सोचती रहती, कितनी निष्ठुर होगी तुम्हारी पत्नी जो तुम्हें छोड़ कर चली गई. सोचतेसोचते जब ध्यान तुम्हारी ओर जाता तो लगता, तुम भी सोए नहीं हो. मेरे दिल और दिमाग में तूफानी कशमकश चलने लगती पर समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं.

‘‘अगले दिन तुम औफिस से आए तो काफी उदास थे. पर मैं तो अभी तक तुम्हारे साथ मन से जुड़ नहीं पाई थी. सो, कुछ पूछ नहीं पाई. खाना खा कर तुम पलंग पर लेट गए. तुम बहुत खामोश थे. मैं भी चुपचाप लेट गई. मेरे अंदर की जमी हुई बर्फ अब तुम्हारे व्यवहार से कुछकुछ पिघलने लगी थी. मैं ने देखा, तुम सो नहीं पा रहे थे. अचानक तुम्हारे मुंह से एक गहरी सांस निकली. मैं ने तुम्हारे कंधे पर हाथ रख दिया. तुम ने आंखें खोल कर मेरी ओर देखा और हाथ बढ़ा कर मुझे अपने करीब खींच लिया. मैं ने कोई विरोध नहीं किया.

‘‘मैं ने देखा, तुम्हारी आंखों में वही आदम भूख जाग उठी थी. तुम्हारी नजरों ने मुझे आहत कर दिया. मुझे लगा, मेरी नजदीकी ने बिस्तर पर लेटे नरेश को भी बहुत तड़पाया था और अब तुम्हें…

‘‘‘नहीं, मुझे कोई हक नहीं था तुम्हें तड़पाने का.’ मैं फफक पड़ी. तुम ने मुझे सहलाते हुए कहा, ‘क्या बात है मिनी, क्यों परेशान हो?’

‘‘मैं सरक कर तुम्हारे करीब आ गई. तुम्हारी सांसें अब मेरी सांसों से टकराने लगी थीं. मैं ने अपनी बांहें तुम्हारे गले में डाल दीं. तुम स्पर्श के इस भाव को समझ गए और तुम ने मुझे और अधिक कस कर सीने से लगा लिया और मैं ने अपने अंदर की औरत को समझाया कि आखिर कब तक एक पंछी और इंसान के फर्क में उलझी रहोगी. और मैं ने अपनेआप को तुम्हारे साथ ऐडजस्ट कर ही लिया.’’

एक सवाल: शीला और समीर के प्यार का क्या था अंजाम

शीना और समीर दोनों ही किसी कौमन दोस्त के विवाह में आए थे. जब उस दोस्त ने उन्हें मिलवाया तो वे एकदूसरे से बहुत प्रभावित हुए. वैसे तो यह उन की पहली मुलाकात थी, लेकिन दोनों ही जानीमानी हस्तियां थीं. रोज अखबारों में फोटो और इंटरव्यू आते रहते थे दोनों के. सो, ऐसा भी नहीं था कि कुछ जानना बाकी हो.

समीर सिर्फ व्यवसायी ही नहीं, बल्कि देश की राजनीतिक पार्टी का सदस्य भी था. उधर, शीना बड़ी बिजनैस वूमन थी. अच्छे दिमाग की ही नहीं, खूबसूरती की भी धनी. सो, दोनों का आंखोंआंखों में प्यार होना स्वाभाविक था. दोस्त की शादी में ही दोनों ने खूब मजे किए और दिल में मीठी यादें लिए अपनेअपने घरों को चल दिए.

शीना सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपने बिजनैस का विस्तार कर रही थी. नाम, पैसा और ऊपर से हुस्न. भला ऐसे में कौन उस का दीवाना न हो जाए. सो, समीर ने उस से अपनी मुलाकातें बढ़ाईं. शीना को भी उस से एतराज नहीं था. अपने पति की मृत्यु के बाद वह भी तो कितनी अकेली सी हो गईर् थी. ऐसे में मन किसी न किसी के प्यार की चाहत तो रखता ही है. और सिर्फ मन ही नहीं, तन की प्यास भी तो सताती है.

शीना भी समीर को मन ही मन चाहने लगी थी. बातों बातों में मालूम हुआ समीर भी शादीशुदा है लेकिन उस का पहली पत्नी से तलाक हो चुका था. दोनों अभी अर्ली थर्टीज में थे.

कई दिनों बाद समीर अपने व्यवसाय के सिलसिले में आस्ट्रेलिया गया और शीना भी उस वक्त वहीं किसी जरूरी मीटिंग के लिए गईर् थी.

दोनों को मिलने का जैसे फिर एक बहाना मिल गया. समीर अपना काम खत्म कर जब शीना से उस के होटल में डिनर पर मिला तो उस ने अपने मन की बात शीना से कह ही डाली, ‘‘शीना, आज जिंदगी के जिस पड़ाव पर तुम और मैं हूं, क्या ऐसा नहीं लगता कि कुदरत ने हमें एकदूसरे के लिए बनाया है? क्यों न हम दोनों विवाह के बंधन में बंध जाएं?’’

शीना को लगा समीर ठीक ही तो कह रहा है. उसे भी तो पुरुष के सहारे की जरूरत है. सो, उस ने समीर को इस रिश्ते की रजामंदी दे दी.

बस, फिर क्या था, दोनों ने भारत लौट कर दोस्तों को बुला कर अपने प्यार को दुनिया के साथ साझा किया और साथ ही विवाह की घोषणा भी. रातोंरात सारे जहां में उन का प्यार दुनिया की सब से बड़ी खबर बन गया था. सारे विश्व में फैले उन के सहयोगी उन्हें बधाइयां दे रहे थे. दोनों ने ट्विटर पर अपने दोस्तों व फौलोअर्स की बधाइयां स्वीकारते हुए धन्यवाद किया.

बस, अगले ही महीने दोनों ने शादी की रस्म भी पूरी कर ली. हनीमून के लिए मौरिशस का प्लान तो पहले ही बना रखा था, सो, विवाह के अगले दिन ही हनीमून को रवाना हो गए.

शीना कहने लगी, ‘‘समीर, जीवन में सबकुछ तो था, शायद एक तुम्हारी ही कमी थी. और वह कमी अब पूरी हो गई है. ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं दुनिया की सब से खुशहाल औरत हूं.’’

समीर ने भी अपना मन शीना के सामने खोल कर रख दिया था, बोला, ‘‘सेम हियर शीना, तुम बिन जिंदगी अधूरीअधूरी सी थी.’’

दोनों ने अपने हनीमून के फोटो इंस्टाग्राम पर शेयर किए. इतनी सुंदर तसवीरें थीं कि शायद कोई भी न माने कि यह उन दोनों का दूसरा विवाह था. शायद ईर्ष्या भी होने लगे उन तसवीरों को देख कर.

खैर, हनीमून खत्म हुआ और दोनों भारत लौट आए. और फिर से अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. दोनों खूब पैसा कमा रहे थे. पैसे के साथ नाम और शोहरत भी. 2 वर्ष बीते, शीना ने एक बेटे को जन्म दिया. अब ऐसा लग रहा था जैसे उन का परिवार पूरा हो गया हो.

शीना अपनी जिंदगी में भरपूर खुशियां समेट रही थी और अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाती जा रही थी. समीर और उस के विवाह के 10 वर्ष कैसे बीत गए, उन्हें कुछ मालूम ही न हुआ. बेटा भी होस्टल में पढ़ने के लिए चला गया था.

समीर अब व्यवसाय से ज्यादा राजनीति में सक्रिय हो गया था. एकदो बार किसी घोटाले में फंस भी गया. लेकिन, उस ने सारा पैसा शीना के अकाउंट में जमा किया था, जिस से बारबार बच जाता. वैसे तो शीना इन घोटालों को खूब सम?ाती थी लेकिन अकसर व्यवसाय में थोड़ाबहुत तो इधरउधर होता ही है. इसलिए उसे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता था.

शौकीनमिजाज समीर जनता के पैसों से अपने सारे शौक पूरे कर रहा था. साथ में शीना भी. अब वे स्पोर्ट्स टीम के मालिक भी बन चुके थे. कभी दोनों साथ में रेसकोर्स में, तो कभी स्पोर्ट्स टीम को चीयर्स करते नजर आते थे. दोनों को साथ मौजमस्ती करते देख भला किस की नीयत खराब न हो जाए.

अंधेरे आसमान में चांदनी फैलाने वाले चांद में भी कभी तो ग्रहण लगता ही है. शीना को अपने पति के रंगढंग कुछ बदलेबदले लगने लगे थे. उसे लगने लगा कि आजकल समीर पहले की तरह उसे दिल से नहीं चाहता है. जैसे, वह उस के साथ हो तो भी उस का मन कहीं और होता है. वैसे तो वह 50 वर्ष की उम्र पार कर रहा था, लेकिन दौलतमंद लोग अपने जीवन को जीभर कर जी लेना चाहते हैं. उन के शौक तो हर दिन बढ़ते जाते हैं और साथ ही साथ, वे उन्हें पूरा भी कर ही लेते हैं.

शीना को महसूस होने लगा था कि अब समीर उस से दूरियां बनाने लगा है. न तो वह पहले की तरह उसे वक्त देता है और न ही उस की तारीफ करता है. जहां शीना को देख समीर के चेहरे पर मुसकराहट खिल जाती थी वहीं अब वह काम का बहाना कर उस से नजरें तक नहीं मिलाना चाहता था. वह समझने लगी थी कि जरूर समीर के जीवन में कोई और औरत आई है.

अब वह उस की ज्यादा से ज्यादा खबर रखने लगी थी. जैसे, बैंक अकाउंट में कितने पैसे हैं, वह कहां और कितने पैसे खर्च कर रहा है आदि. इस बार जब शीना के बिजनैस अकाउंट से समीर ने कुछ पैसे निकालने चाहे तो उस ने समीर को साफ न कह दिया. वह बोली, ‘‘समीर, तुम्हारी मौजमस्ती के लिए नहीं कमाती मैं. तुम्हारे पास मेरे लिए फुरसत के दो क्षण नहीं, अकेले मौजमस्ती के लिए वक्त है? अगर ऐसा ही है तो वह मौजमस्ती तुम अपने पैसों से करो.’’

यह बात समीर को चुभ गई थी. उस ने तो घोटाले के पैसों से शीना को बहुत ऐश करवाईर् थी. खैर, इतना अनापशनाप पैसा था दोनों के पास कि पैसे का झगड़ा तो मामूली ही बात थी.

शीना अब समीर की दूसरी गतिविधियों पर भी नजर रखने लगी थी. जैसे, अपनी फेसबुक वौल पर वह किसे ज्यादा तवज्जुह देता है, किस के फोटो ज्यादा शेयर करता है, किस महिला मित्र को ज्यादा कमैंट करता है आदि.

कुछ ही दिनों में वह समीर की बेरुखी की तह तक पहुंच गई. उस की फेसबुक वौल पर किसी जवान लड़की के ऐसे कमैंट दिखे कि उसे लगा कि समीर के उस लड़की से संबंध हैं. ट्विटर पर भी उस ने नजर गड़ा रखी थी कि समीर किस के नाम पर क्या ट्वीट करता है.

तभी उस का ध्यान पड़ा कि जो लड़की समीर से काम के सिलसिले में अकसर मिलती जुलती है उस के और समीर के मैसेज कुछ साधारण नहीं. उसे कहीं से उन संदेशों में प्यार की गंध आने लगी थी. वह सब समझ गई थी कि शौकीनमिजाज समीर क्यों उस से किनारा कर रहा है, क्यों उस के खर्चे बढ़ गए हैं. समीर इतना बड़ा व्यापारी और शख्सियत है, कौन लड़की उस के साथ उठनेबैठने और मौजमस्ती करने से इनकार करेगी. और फिर इतनी बड़ी हस्तियों पर प्रैस और मीडिया तो जैसे नजर गड़ाए ही रहते हैं. अखबारों और मनोरंजक मैगजींस में समीर व उस लड़की के संबंध के बारे में खुल्लमखुल्ला छपने लगा था.

शीना को यह सब बहुत अखरने लगा. एक तो पति की उस से दूरी, ऊपर से जगहंसाई भी. जो पैसा वह दिनरात मेहनत कर के कमाती रही और पति के जिस पैसे पर उस का हक है, उस पर कोई और मौज करे, यह बरदाश्त करना क्या आसान बात है और तो और, जब कभी पार्टी में जाती, समीर साथ न होता तो वह अन्य महिलाओं की हंसी का पात्र बन कर रह जाती. उसे ऐसा महसूस होता जैसे किसी ने उस के जले पर नमक छिड़क दिया हो.

सबकुछ उस की बरदाश्त से बाहर होने लगा था. सो, एक दिन उस ने गुस्से में आ कर ट्वीट कर डाला, ‘‘मेरे पति समीर के दूसरी लड़की से संबंध हैं, यह मैं आप सब के साथ साझा कर रही हूं क्योंकि मैं दुनिया के ताने सुनसुन कर परेशान हो गई हूं. बेहतर है मैं स्वयं ही इसे स्वीकार लूं.’’

यह ट्वीट तो ऐसा था जैसे मीडिया के हाथ गड़ा खजाना लग गया हो. समीर इसे बरदाश्त न कर पाया और उस रात दोनों में खूब ? झगड़ा हुआ. समीर ने कहा, ‘‘क्यों तुम हमारी जिंदगी बरबाद करने पर तुली हो? तुम भी चैन से रहो और मुझे भी रहने दो. यदि मेरे किसी और लड़की से संबंध हैं तो तुम्हें क्या? तुम से पहले भी तो मैं तलाकशुदा था. तब तो तुम्हें कोई तकलीफ नहीं हुई, फिर अब क्यों?’’

शीना बिफर कर बोली, ‘‘क्योंकि अब मैं तुम्हारी पत्नी हूं. तुम्हारे पैसे और तुम पर मेरा हक है. तुम उसे किसी और से बांटो और मेरी जगहंसाई करवाओ, मैं कैसे बरदाश्त करूं? सारी मीडिया आज तुम्हारी और उस लड़की की ही बातें कर रही है. मैं ने अपने मुंह से स्वीकार लिया, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.’’

‘‘कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? मैं बताता हूं, अगले एक महीने बाद फिर से इलैक्शन आ रहे हैं. तुम्हारे इस ट्वीट से मेरी कितनी छवि खराब होगी तुम ने सोचा? कौन टिकट देगा मुझे और इस राजनीति में मैं जो अपने पैर जमा रहा हूं वह कल को हमारे बेटे के लिए ही तो अच्छा होगा. चलो, जो भी हुआ भूल जाओ. और अब हम अच्छे पतिपत्नी की तरह प्यारभरी जिंदगी जिएंगे.’’

शीना को लगा उस के जीवन में लगा ग्रहण हट गया है. उसे लगा जैसे उस का खोया प्यार उसे फिर से मिल गया है. सो, उस ने अगले दिन ही समीर से कहा, ‘‘समीर, चलो न हम एक कौमन ट्वीट फिर से कर देते हैं.’’

समीर कहां मना करने वाला था. दोनों ने मिल कर अगले ही दिन ट्वीट किया, ‘‘हम दोनों अपने जीवन से बहुत खुश हैं, और उस लड़की के बारे में जो भी कहा, वह मात्र एक गलतफहमी थी.’’

मीडिया में फिर से यह बात फैल गईर् थी. समीर की छवि एक बार फिर अच्छे राजनेता की बन गई.

एक महीना बीता. चुनाव हुए और समीर को कुरसी हासिल हो गई. अब समीर के तेवर फिर से बदल गए थे. शीना ने लाख कोशिशें कीं कि समीर गैर महिलाओं से संबंध न रखे, किंतु फितरत से शौकीन समीर को वह रोक न पाई. खूब जगहंसाई हुई. पति, प्यार, पैसा सब ही तो बंट गया था.

वह समझ गई थी कि वह दोबारा अपने ही पति द्वारा छली गई है. इस झटके को वह सहन न कर पाई और एक दिन अपने ही घर में मृत पाई गई. पुलिस आई, उसे लगा कहीं यह हत्या तो नहीं. लेकिन नहीं, पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से मालूम हुआ कि उस ने जहर खा कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली थी.

वह तो चली गई, लेकिन जातेजाते एक सवाल छोड़ गई. एक पत्नी कैसे अपने पति के प्यार को बांट ले और कैसे रोजरोज जगहंसाई करवाए? दूसरी महिला उस के हक को छीन ले, उस के पैसे पर मौज करे, जिसे बदनामी और इज्जत की परवा ही नहीं. लेकिन एक पत्नी के लिए तो वह उस की इज्जत पर जैसे बड़ा प्रहार है, वह कैसे उसे सह सकती थी.

ईस्टर्न डिलाइट: आखिर क्यों उड़े समीर के होश?

सीमा रविवार की सुबह देर तक सोना चाहती थी, लेकिन उस के दोनों बच्चों ने उस की यह इच्छा पूरी नहीं होने दी.

‘‘आज हम सब घूमने चल रहे हैं. मुझे तो याद ही नहीं आता कि हम सब ने छुट्टी का कोई दिन कब एकसाथ गुजारा था,’’ उस के बेटे समीर ने ऊंची आवाज में शिकायत की.

‘‘बच्चो, इतवार आराम करने के लिए बना है और…’’

‘‘और बच्चो, हमें घूमनेफिरने के लिए अपने मम्मी पापा को औफिस से छुट्टी दिलानी चाहिए,’’ शिखा ने अपने पिता राकेशजी की आवाज की बढि़या नकल उतारी तो तीनों ठहाका मार कर हंस पड़े.

‘‘पापा, आप भी एक नंबर के आलसी हो. मम्मी और हम सब को घुमा कर लाने की पहल आप को ही करनी चाहिए. क्या आप को पता नहीं कि जिस परिवार के सदस्य मिल कर मनोरंजन में हिस्सा नहीं लेते, वह परिवार टूट कर बिखर भी सकता है,’’ समीर ने अपने पिता को यह चेतावनी मजाकिया लहजे में दी.

‘‘यार, तू जो कहना चाहता है, साफसाफ कह. हम में से कौन टूट कर परिवार से अलग हो रहा है?’’ राकेशजी ने माथे पर बल डाल कर सवाल किया.

‘‘मैं ने तो अपने कहे में वजन पैदा करने के लिए यों ही एक बात कही है. चलो, आज मैं आप को मम्मी से ज्यादा स्मार्ट ढंग से तैयार करवाता हूं,’’ समीर अपने पिता का हाथ पकड़ कर उन के शयनकक्ष की तरफ चल पड़ा.

सीमा को आकर्षक ढंग से तैयार करने में शिखा ने बहुत मेहनत की थी. समीर ने अपने पिता के पीछे पड़ कर उन्हें इतनी अच्छी तरह से तैयार कराया मानो किसी दावत में जाने की तैयारी हो.

‘‘आज खूब जम रही है आप दोनों की जोड़ी,’’ शिखा ने उन्हें साथसाथ खड़ा देख कर कहा और फिर किसी छोटी बच्ची की तरह खुश हो कर तालियां बजाईं.

‘‘तुम्हारी मां तो सचमुच बहुत सुंदर लग रही है,’’ राकेशजी ने अपनी पत्नी की तरफ प्यार भरी नजरों से देखा.

‘‘अगर ढंग से कपड़े पहनना शुरू कर दो तो आप भी इतना ही जंचो. अब गले में मफलर मत लपेट लेना,’’ सीमा की इस टिप्पणी को सुन कर राकेशजी ही सब से ज्यादा जोर से हंसे थे.

कार में बैठने के बाद सीमा ने पूछा, ‘‘हम जा कहां रहे हैं?’’

‘‘पहले लंच होगा और फिर फिल्म देखने के बाद शौपिंग करेंगे,’’ समीर ने प्रसन्न लहजे में उन्हें जानकारी दी.

‘‘हम सागर रत्ना में चल रहे हैं न?’’ दक्षिण भारतीय खाने के शौकीन राकेशजी ने आंखों में चमक ला कर पूछा.

‘‘नो पापा, आज हम मम्मी की पसंद का चाइनीज खाने जा रहे हैं,’’ समीर ने अपनी मां की तरफ मुसकराते हुए देखा.

‘‘बहुत अच्छा, किस रेस्तरां में चल रहे हो?’’ सीमा एकदम से प्रसन्न हो गई.

‘‘नए रेस्तरां ईस्टर्न डिलाइट में.’’

‘‘वह तो बहुत दूर है,’’ सीमा झटके में उन्हें यह जानकारी दे तो गई, पर फौरन ही उसे यों मुंह खोलने का अफसोस भी हुआ.

‘‘तो क्या हुआ? मम्मी, आप को खुश रखने के लिए हम कितनी भी दूर चल सकते हैं.’’

‘‘तुम कब हो आईं इस रेस्तरां में?’’ राकेशजी ने उस से पूछा.

‘‘मेरे औफिस में कोई बता रहा था कि रेस्तरां अच्छा तो है, पर बहुत दूर भी है,’’ यों झूठ बोलते हुए सीमा के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं.

‘‘वहां खाना ज्यादा महंगा तो नहीं होगा?’’ राकेशजी का स्वर चिंता से भर उठा था.

‘‘पापा, हमारी खुशियों और मनोरंजन की खातिर आप खर्च करने से हमेशा बचते हैं, लेकिन अब यह नहीं चलेगा,’’ समीर ने अपने दिल की बात साफसाफ कह दी.

‘‘भैया ठीक कह रहे हैं. हम लोग साथसाथ कहीं घूमने जाते ही कहां हैं,’’ शिखा एकदम से भावुक हो उठी, ‘‘आप दोनों हफ्ते में 6 दिन औफिस जाते हो और हम कालेज. पर अब हम भाईबहन ने फैसला कर लिया है कि हर संडे हम सब इकट्ठे कहीं न कहीं घूमनेफिरने जरूर जाया करेंगे. अगर हम ने ऐसा करना नहीं शुरू किया तो एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी से हो जाएंगे.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. तुम सब समझते क्यों नहीं हो कि यों बेकार की बातों पर ज्यादा खर्च करना ठीक नहीं है. अभी तुम दोनों की पढ़ाई बाकी है. फिर शादीब्याह भी होने हैं. इंसान को पैसा बचा कर रखना चाहिए,’’ राकेशजी ने कुछ नाराजगी भरे अंदाज में उन्हें समझाने की कोशिश की.

‘‘पापा, ज्यादा मन मार कर जीना भी ठीक नहीं है. क्या मैं गलत कह रहा हूं, मम्मी?’’ समीर बोला.

‘‘ये बातें तुम्हारे पापा को कभी समझ में नहीं आएंगी और न ही वे अपनी कंजूसी की आदत बदलेंगे,’’ सीमा ने शिकायत की और फिर इस चर्चा में हिस्सा न लेने का भाव दर्शाने के लिए अपनी आंखें मूंद लीं.

‘‘प्यार से समझाने पर इंसान जरूर बदल जाता है, मौम. हम बदलेंगे पापा को,’’ समीर ने उन को आश्वस्त करना चाहा.

‘‘बस, आप हमारी हैल्प करती रहोगी तो देखना कितनी जल्दी हमारे घर का माहौल हंसीखुशी और मौजमस्ती से भर जाएगा,’’ शिखा भावुक हो कर अपनी मां की छाती से लग गई.

‘‘अरे, मैं क्या कोई छोटा बच्चा हूं, जो तुम सब मुझे बदलने की बातें मेरे ही सामने कर रहे हो?’’ राकेशजी नाराज हो उठे.

‘‘पापा, आप घर में सब से बड़े हो पर अब हम छोटों की बातें आप को जरूर माननी पड़ेंगी. भैया और मैं चाहते हैं कि हमारे बीच प्यार का रिश्ता बहुतबहुत मजबूत हो जाए.’’

‘‘यह बात कुछकुछ मेरी समझ में आ रही है. मेरी गुडि़या, मुझे बता कि ऐसा करने के लिए मुझे क्या करना होगा?’’

उन के इस सकारात्मक नजरिए को देख कर शिखा ने अपने पापा का हाथ प्यार से पकड़ कर चूम लिया.

इस पल के बाद सीमा तो कुछ चुपचुप सी रही पर वे तीनों खूब खुल कर हंसनेबोलने लगे थे. ईस्टर्न डिलाइट में समीर ने कोने की टेबल को बैठने के लिए चुना. अगर कोई वहां बैठी सीमा के चेहरे के भावों को पढ़ सकता, तो जरूर ही उस के मन की बेचैनी को भांप जाता.

वेटर के आने पर समीर ने सब के लिए और्डर दे दिया, ‘‘हम सब के लिए पहले चिकन कौर्न सूप ले आओ, फिर मंचूरियन और फिर फ्राइड राइस लाना. मम्मी, हैं न ये आप की पसंद की चीजें?’’

‘‘हांहां, तुम ने जो और्डर दे दिया, वह ठीक है,’’ सीमा ने परेशान से अंदाज में अपनी रजामंदी व्यक्त की और फिर इधरउधर देखने लगी.

सीमा ने भी सब की तरह भरपेट खाना खाया, लेकिन उस ने महसूस किया कि वह जबरदस्ती व नकली ढंग से मुसकरा रही थी और यह बात उसे देर तक चुभती रही.

रेस्तरां से बाहर आए तो समीर ने मुसकराते हुए सब को बताया, ‘‘आप सब को याद होगा कि फिल्म ‘ब्लैक’ मम्मी को बहुत पसंद आई थी. इन के मुंह से इसे दोबारा देखने की बात मैं ने कई बार सुनी तो इसी फिल्म के टिकट कल शाम मैं ने अपने दोस्त मयंक से मंगवा लिए, जो यहां घूमने आया हुआ था. मम्मी, आप यह फिल्म दोबारा देख लेंगी न?’’

‘‘हांहां, जरूर देख लूंगी. यह फिल्म है भी बहुत बढि़या,’’ अपने मन की बेचैनी व तनाव को छिपाने के लिए सीमा को अब बहुत कोशिश करनी पड़ रही थी.

फिल्म देखते हुए अगर सीमा चाहती तो लगभग हर आने वाले सीन की जानकारी उन्हें पहले से दे सकती थी. अगर कोई 24 घंटों के अंदर किसी फिल्म को फिर से देखे तो उसे सारी फिल्म अच्छी तरह से याद तो रहती ही है.

फिल्म देख लेने के बाद वे सब बाजार में घूमने निकले. सब ने आइसक्रीम खाई, लेकिन सीमा ने इनकार कर दिया. उस का अब घूमने में मन नहीं लग रहा था.

‘‘चलो, अब घर चलते हैं. मेरे सिर में अचानक दर्द होने लगा है,’’ उस ने कई बार ऐसी इच्छा प्रकट की पर कोई इतनी जल्दी घर लौटने को तैयार नहीं था.

समीर और शिखा ने अपने पापा के ऊपर दबाव बनाया और उन से सीमा को उस का मनपसंद सैंट, लिपस्टिक और नेलपौलिश दिलवाए.

घर पहुंचने तक चिंतित नजर आ रही सीमा का सिर दर्द से फटने लगा था. उस ने कपड़े बदले और सिर पर चुन्नी बांध कर पलंग पर लेट गई. कोई उसे डिस्टर्ब न करे, इस के लिए उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

उसे पता भी नहीं लगा कि कब उस की आंखों से आंसू बहने लगे. फिर अचानक ही उस की रुलाई फूट पड़ी और वह तकिए में मुंह छिपा कर रोने लगी.

तभी बाहर से समीर ने दरवाजा खटखटाया तो सीमा ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मुझे आराम करने दो.’’

‘‘मम्मी, आप कुछ देर जरूर आराम कर लो. शिखा पुलाव बना रही है, तैयार हो जाने पर मैं आप को बुलाने आ जाऊंगा,’’ समीर ने कोमल स्वर में कहा.

‘‘मैं सो जाऊं तो मुझे उठाना मत,’’ सीमा ने उसे रोआंसी आवाज में हिदायत दी.

कुछ पलों की खामोशी के बाद समीर का जवाब सीमा के कानों तक पहुंचा, ‘‘मम्मी, हम सब आप को बहुत प्यार करते हैं. पापा में लाख कमियां होंगी पर यह भी सच है कि उन्हें आप के सुखदुख की पूरी फिक्र रहती है. मैं आप को यह विश्वास भी दिलाता हूं कि हम कभी कोई ऐसा काम नहीं करेंगे, जिस के कारण आप का मन दुखे या कभी आप को शर्म से आंखें झुका कर समाज में जीना पड़े. अब आप कुछ देर आराम कर लो पर भूखे पेट सोना ठीक नहीं. मैं कुछ देर बाद आप को जगाने जरूर आऊंगा.’’

‘तू ने मुझे जगा तो दिया ही है, मेरे लाल,’ उस के दूर जा रहे कदमों की आवाज सुनते हुए सीमा होंठों ही होंठों में बुदबुदाई और फिर उस ने झटके से उठ कर उसी वक्त मोबाइल फोन निकाल कर अपने सहयोगी नीरज का नंबर मिलाया.

‘‘स्वीटहार्ट, इस वक्त मुझे कैसे याद किया है?’’ नीरज चहकती आवाज में बोला.

‘‘तुम से इसी समय एक जरूरी बात कहनी है,’’ सीमा ने संजीदा लहजे में कहा.

‘‘कहो.’’

‘‘समीर को उस के दोस्त मयंक से पता लग गया है कि कल दिन में मैं तुम्हारे साथ घूमने गई थी.’’

‘‘ओह.’’

‘‘आज वह हमें उसी रेस्तरां में ले कर गया, जहां कल हम गए थे और खाने में वही चीजें मंगवाईं, जो कल तुम ने मंगवाई थीं. वही फिल्म दिखाई, जो हम ने देखी थी और उसी दुकान से वही चीजें खरीदवाईं, जो कल दिन में तुम ने मेरे लिए खरीदवाई थीं.’’

‘‘क्या उस ने तुम से इस बात को ले कर झगड़ा किया है?’’

‘‘नहीं, बल्कि आज तो सब ने मुझे खुश रखने की पूरी कोशिश की है.’’

‘‘तुम कोई बहाना सोच कर उस के सवालों के जवाब देने की तैयारी कर लो, स्वीटहार्ट. हम आगे से कहीं भी साथसाथ घूमने जाने में और ज्यादा एहतियात बरतेंगे.’’

कुछ पलों की खामोशी के बाद सीमा ने गहरी सांस खींची और फिर दृढ़ लहजे में बोली, ‘‘नीरज, मैं अकेले में काफी देर रोने के बाद तुम्हें फोन कर रही हूं. जिस पल से आज मुझे एहसास हुआ है कि समीर को हमारे प्रेम संबंध के बारे में मालूम पड़ गया है, उसी पल से मैं अपनेआप को शर्म के मारे जमीन में गड़ता हुआ महसूस कर रही हूं.

‘‘मैं अपने बेटे से आंखें नहीं मिला पा रही हूं. मुझे हंसनाबोलना, खानापीना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है. बारबार यह सोच कर मन कांप उठता है कि अगर तुम्हारे साथ मेरे प्रेम संबंध होने की बात मेरी बेटी और पति को भी मालूम पड़ गई, तो मुझे जिंदगी भर के लिए सब के सामने शर्मिंदा हो कर जीना पड़ेगा.

‘‘आज एक झटके में ही मुझे यह बात अच्छी तरह से समझ आ गई है कि अपने बड़े होते बच्चों की नजरों में गिर कर जीने से और दुखद बात मेरे लिए क्या हो सकती है नीरज. मैं कभी नहीं चाहूंगी कि मेरे गलत, अनैतिक व्यवहार के कारण वे समाज में शर्मिंदा हो कर जिएं.

‘‘यह सोचसोच कर मेरा दिल खून के आंसू रो रहा है कि जब समीर के दोस्त मयंक ने उसे यह बताया होगा कि उस की मां किसी गैरमर्द के साथ गुलछर्रे उड़ाती घूम रही थी, तो वह कितना शर्मिंदा हुआ होगा. नहीं, अपने बड़े हो रहे बच्चों के मानसम्मान की खातिर आज से मेरे और तुम्हारे बीच चल रहे अवैध प्रेम संबंधों को मैं हमेशाहमेशा के लिए खत्म कर रही हूं.’’

‘‘मेरी बात तो…’’

‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना है, क्योंकि मैं ने इस मामले में अपना अंतिम फैसला तुम्हें बता दिया है,’’ सीमा ने यह फैसला सुना कर झटके से फोन का स्विच औफकर दिया.

सीमा का परेशान मन उसे और ज्यादा रुलाना चाहता था, पर उस ने एक गहरी सांस खींची और फ्रैश होने के लिए गुसलखाने में घुस गई.

हाथमुंह धो कर वह समीर के कमरे में गई. अपने बेटे के सामने वह मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाल पाई. बस, अपने समझदार बेटे की छाती से लग कर खूब रोई. इन आंसुओं के साथ सीमा के मन का सारा अपराधबोध और दुखदर्द बह गया.

जब रो कर मन कुछ हलका हो गया, तो उस ने समीर का माथा प्यार से चूमा और सहज मुसकान होंठों पर सजा कर बोली, ‘‘देखूं, शिखा रसोई में क्या कर रही है… मैं तेरे पापा के लिए चाय बना देती हूं. मेरे हाथों की बनी चाय हम दोनों को एकसाथ पिए एक जमाना बीत गया है.’’

‘‘जो बीत गया सो बीत गया, मम्मी. अब हम सब को अपनेआप से यह वादा जरूर करना है कि एकदूसरे के साथ प्यार का मजबूत रिश्ता बनाने में हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे,’’ समीर ने उन का माथा प्यार से चूम कर अपने मन की इच्छा जाहिर की.

‘‘हां, जब सुबह का भूला शाम को घर आ जाए, तो उसे भूला नहीं कहते हैं,’’ सीमा ने मजबूत स्वर में उस की बात का समर्थन किया और फिर अपने पति के साथ अपने संबंध सुधारने का मजबूत इरादा मन में लिए ड्राइंगरूम की तरफ चल पड़ी.

अर्पण : क्यों रो पड़ी थी अदिति

लेखिका- स्नेहा सिंह

आदमकद आईने के सामने खड़ी अदिती स्वयं के ही प्रतिबिंब को मुग्धभाव से निहार रही थी. उस ने कान में पहने डायमंड के इयरिंग को उंगली से हिला कर देखा. खिड़की से आ रही धूप इयरिंग से रिफ्लैक्ट हो कर उस के गाल पर पड़ रही थी, जिस से वहां इंद्रधनुष चमक रहा था. अदिती ने आईने में दिखाई देने वाले अपने प्रतिबिंब पर स्नेह से हाथ फेरा. फिर वह अचानक शरमा सी गई. इसी के साथ वह बड़बड़ाई, ‘‘वाऊ, आज तो हिमांशु मुझे जरूर कौंप्लीमैंट देगा.’’

फिर उस के मन में आया कि यदि यह बात मां सुन लेतीं, तो कहती कि हिमांशु कहती है? वह तेरा प्रोफैसर है.

‘‘सो ह्वाट?’’ अदिती ने कंधे उचकाए और आईने में स्वयं को देख कर एक बार फिर मुसकराई. अदिती शायद कुछ देर तक स्वयं को इसी तरह आईने में देखती रहती, लेकिन तभी मां की आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘अदिती, खाना तैयार है.’’

‘‘आई मम्मी,’’ कह कर अदिती बाल ठीक करते हुए डाइनिंग टेबल की ओर भागी.

अदिती का यह लगभग रोज का कार्यक्रम था. प्रोफैसर साहब के यहां जाने से पहले आईने के सामने वह अपना अधिक से अधिक समय स्वयं को निहारते हुए बिताती थी. शायद आईने को भी ये सब अच्छा लगने लगा था, इसलिए वह भी अदिती को थोड़ी देर बांधे रखना चाहता था. इसीलिए तो वह उस का इतना सुंदर प्रतिबिंब दिखाता था कि अदिती स्वयं पर ही मुग्ध हो कर निहारती रहती.

आईना ही क्यों अदिती को तो जो भी देखता, देखता ही रह जाता. वह थी ही इतनी सुंदर. छरहरी, गोरी काया, बड़ीबड़ी मछली काली आंखें, घने काले लंबे रेशम जैसे बाल. वह हंसती, तो सुंदरता में चार चांद लगाने वाले उस के गालों में गड्ढे पड़ जाते थे.

उस की मम्मी उस से अकसर कहती थीं, ‘‘तू एकदम अपने पापा जैसी लगती है. एकदम उन की कार्बन कौपी.’’

इतना कहतेकहते अदिती की मम्मी की आंखें भर आतीं और वे दीवार पर लटक रही अदिती के पापा की तसवीर को देखने लगतीं. अदिती जब 2 साल की थी, तभी उस के पापा का देहांत हो गया था. अदिती को तो अपने पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं था. उस की मम्मी जिस स्कूल में नौकरी करती थीं, उसी स्कूल में अदिती की पढ़ाई हुई थी. अदिती स्कूल की ड्राइंग बुक में जब भी अपने परिवार का चित्र बनाती, उस में नानानानी, मम्मी और स्वयं होती थी. अदिती के लिए उस का इतना ही परिवार था.

अदिती के लिए पापा यानी घर दीवार पर लटकती तसवीर से अधिक कुछ नहीं थे. कभी मम्मी की आंखों से पानी बन कर बहते, तो कभी अलबम के ब्लैक ऐंड ह्वाइट तसवीर में स्वयं की गोद में उठाए खड़ा पुरुष यानी पापा. अदिती की क्लासमेट अकसर अपनेअपने पापा के बारे में बातें करतीं.

टैलीविजन के विज्ञापनों में पापा के बारे में देख कर अदिती शुरूशुरू में कच्ची उम्र में पापा को मिस करती थी, परंतु धीरेधीरे उस ने मान लिया कि उस के घर में 2 स्त्रियां वह और उस की मम्मी रहती हैं और आगे भी वही दोनों रहेंगी.

बिना बाप की छत्रछाया में पलीबढ़ी अदिती कालेज की अपनी पढ़ाई पूरी कर के कब कमाने लगी, उसे पता ही नहीं चला. वह फाइनल ईयर में पढ़ रही थी, तभी वह अपने एक प्रोफैसर हिमांशु के यहां पार्टटाइम नौकरी करने लगी थी.

डा. हिमांशु एक जानेमाने साहित्यकार थे. यूनिवर्सिटी में हैड औफ डिपार्टमैंट. अदिती इकौनोमिक ले कर बीए करना चाहती थी. परंतु हिमांशु का लैक्चर सुनने के बाद उस ने हिंदी को अपना मुख्य विषय चुना था. डा. हिमांशु अदिती में व्यक्तिगत रुचि लेने लगे थे. उसे नईनई पुस्तकें सजैस्ट करते, किसी पत्रिका में कुछ छपा होता, तो पेज नंबर सहित रैफरैंस देते. यूनिवर्सिटी की ओर से प्रमोट कर के 1-2 य्ेमिनारों में भी अदिती को भेजा था. अदिती डा. हिमांशु की हर परीक्षा में प्रथम आने के लिए कटिबद्ध रहती थी. इसीलिए डा. हिमांशु० अदिती से हमेशा कहते थे कि वे उस में बहुत कुछ देख रहे हैं. वह जीवन में जरूर कुछ बनेगी.

डा. हिमांशु जब भी अदिती से यह कहते, तो कुछ बनने की लालसा अदिती में जोर मारने लगती. उन्होंने अदिती को अपनी लाइब्रेरी में पार्टटाइम नौकरी दे रखी थी. डा हिमांशु जानेमाने नाट्यकार, उपन्यासकार और कहानीकार थे. उन की हिंदी की तमाम पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगी हुई थीं. उन का लैक्चर सुनने और मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी. वे यूनिवर्सिटी से घर आते, तो रात 10 बजे तक उन से मिलने वालों की लाइन लगी रहती. नवोदित लेखकों से ले कर नाट्य जगत, साहित्य जगत और फिल्मी दुनिया के लोग भी उन से मिलने आते थे.

अदिती यूनिवर्सिटी में डा. हिमांशु को मात्र अपने प्रोफैसर के रूप में जानती थी. डा. हिमांशु पूरी क्लास को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, यह भी उसे पता था. उसी क्लास में अदिती भी तो थी. अदिती डा. हिमांशु की क्लास कभी नहीं छोड़ती थी.

लंबे, स्मार्ट, सुदृढ़ शरीर वाले डा. हिमांशु की आंखों में एक अजीब सा तेज था. सामान्य रूप से वे हलके रंग की शर्ट और ब्लू डैनिम पहनने वाले डा. हिमांशु पढ़ने के लिए सुनहरे फ्रेम वाला चश्मा पहनते, तो अदिती मुग्ध हो कर उन्हें ताकती ही रह जाती. जब वे अदिती के नोट्स या पेपर्स की तारीफ करते, तो उस दिन अदिती हवा में उड़ने लगती.

फाइनल ईयर में जब डा. हिमांशु की क्लास खत्म होने वाली थी, तो एक दिन प्रोफैसर साहब ने उसे मिलने के लिए डिपार्टमैंट में बुलाया.

अदिती उन के कक्ष में पहुंची, तो उन्होंने कहा, ‘‘अदिती मैं देख रहा हूं कि इधर तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में नहीं लग रहा है. तुम अकसर मेरी क्लास से गायब रहती हो. पहले 2 सालों में तुम फर्स्ट क्लास आई हो. यदि तुम्हारा यही हाल रहा, तो इस साल तुम पिछले दोनों सालों की मेहनत पर पानी फेर दोगी.’’

अदिती कोई भी जवाब देने के बजाय रो पड़ी.

डा. हिमांशु अपनी कुरसी से उठ कर अदिती के पास आ कर खड़े हो गए. उन्होंने अपना एक हाथ अदिती के कंधे पर रख दिया. उन के हाथ रखते ही अदिती को लगा, जैसे वह हिमालय के हिमाच्छादित शिखर के सामने खड़ी है. उस के कानों में घंटियों की आवाजें गूंजने लगी थीं.

‘‘तुम्हें किसी से प्रेम हो गया है क्या?’’ प्रोफैसर हिमांशु ने पूछा.

अदिती ने रोतेरोते गरदन हिला कर इनकार कर दिया.

‘‘तो फिर?’’

‘‘सर मैं नौकरी करती हूं. इसलिए पढ़ने के लिए समय कम मिलता है.’’

‘‘क्यों?’’ डा. हिमांशु ने आश्चर्य से कहा, ‘‘शायद तुम्हें शिक्षा के महत्त्व का पता नहीं है. शिक्षा केवल कमाई का साधन ही नहीं है. शिक्षा संस्कार, जीवनशैली और हमारी परंपरा है. कमाने के चक्कर में तुम्हारी पढ़ाई में रुचि खत्म हो गई है. इस तरह मैं ने तमाम विद्यार्थियों की जिंदगी बरबाद होते देखी है.’’

‘‘सर…’’ अदिती ने हिचकी लेते हए कहा, ‘‘मैं पढ़ना चाहती हूं, इसीलिए तो नौकरी करती हूं.’’

डा. हिमांशु ने अदिती के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आई एम सौरी… मुझे पता नहीं था.’’

‘‘इट्स ओके सर.’’

‘‘क्या काम करती हो?’’

‘एक वकील के औफिस में टाइपिस्ट हूं.’’

‘‘मैं नई किताब लिख रहा हूं. मेरी रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करोगी?’’ डा. हिमांशु ने पूछा तो अदिती ने आंसू पोंछते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.

उसी दिन से अदिती डा. हिमांशु की रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करने लगी.  इस बात को आज 2 साल य्हो गए हैं. अदिती ग्रेजुएट हो गयी है. वह फर्स्ट क्लास फर्स्ट आई थी यूनिवर्सिटी में. डा. हिमांशु एक किताब खत्म होते ही अगली पर काम शुरू कर देते. इस तरह अदिती का काम चलता रहा. अदिती ने एमए में एडमीशन ले लिया था.

डा. हिमांशु अकसर उस से कहते, ‘‘अदिती, तुम्हें पीएचडी करनी है. मैं तुम्हारे नाम के आगे डाक्टर लिखा देखना चाहता हूं.’’

फिर तो कभीकभी अदिती बैठी पढ़ रही होती, तो कागज पर लिख देती, डा. अदिती हिमांशु. फिर शरमा कर उस कागज पर इतनी लाइनें खींचती कि वह नाम पढ़ने में न आता. परंतु बारबार कागज पर लिखने की वजह से यह नाम अदिती के हृदय में इस तरह रचबस गया कि वह एक भी दिन डा. हिमांशु को न देखती, तो उस का समय काटना मुश्किल हो जाता.

पिछले 2 सालों में अदिती डा. हिमांशु के घर का एक हिस्सा बन गई थी. सुबह घंटे डेढ़ घंटे डा. हिमांशु के घर काम कर के वह उन के साथ यूनिवर्सिटी जाती. फिर 5 बजे उन के साथ ही उन के घर आती, तो उसे अपने घर जाने में अकसर रात के 8-9 बज जाते. कभीकभी तो 10 भी बज जाते. डा. हिमांशु मूड के हिसाब से काम करते थे. अदिती को भी कभी घर जाने की जल्दी नहीं होती थी. वह तो डा. हिमांशु के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का बहाना ढूंढ़ती रहती थी.

इन 2 सालों में अदिती ने देखा था कि डा. हिमांशु को जानने वाले तमाम लोग थे. उन से मिलने भी तमाम लोग आते थे. अपना काम कराने और सलाह लेने वालों की भी कमी नहीं थी. फिर डा. हिमांशु एकदम अकेले थे. घर से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से घर… यही उन की दिनचर्या थी.

वे कहीं बाहर जाना या किसी गोष्ठी में भाग लेना पसंद नहीं करते थे. बड़ी मजबूरी में ही वे

किसी समारोह में भाग लेने जाते थे. अदिती को ये सब बड़ा आश्चर्यजनक लगता था क्योंकि डा. हिमांशु का लैक्चर सुनने के लिए अन्य यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट आते थे, जबकि वे पढ़ाई के अलावा किसी से भी कोई फालतू बात नहीं करते थे.

अदिती उन के साथ लगभग रोज ही गाड़ी से आतीजाती थी. परंतु इस आनेजाने में शायद ही कभी उन्होंने उस से कुछ कहा हो. दिन के इतने घंटे साथ बिताने के बावजूद डा. हिमांशु ने काम के अलावा कोई भी बात अदिती से नहीं की थी. अदिती कुछ कहती, तो वे चुपचाप सुन लेते. मुसकराते हुए उस की ओर देख कर उसे यह आभास करा देते कि उन्होंने उस की बात सुन ली है.

किसी बड़े समारोह या कहीं से डा. हिमांशु वापस आते, तो अदिती बड़े ही अहोभाव से उन्हें देखती रहती. उन की शाल ठीक करने के बहाने, फूल या किताब लेने के बहाने, अदिती उन्हें स्पर्श कर लेती. टेबल के सामने डा. हिमांशु बैठ कर लिख रहे होते, तो अदिती उन के पैर में अपना पैर स्पर्श करा कर संवेदना जगाने का प्रयास करती.

डा. हिमांशु भी उस की नजरों और हावभाव से उस के मन की बात जान गए थे. फिर भी उन्होंने अदिती से कभी कुछ नहीं कहा. अब तक अदिती का एमए हो गया था. वह डा. हिमांशु के अंडर ही रिसर्च कर रही थी. उस की थिसिस भी अलग तैयार ही थी.

अदिती को भी आभास हो गया था कि डा. हिमांशु उस के मन की बात जान गए हैं. फिर भी वे ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो. डा. हिमांशु के प्रति अदिती का आकर्षण धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा था. आईने के सामने खड़ी स्वयं को निहार रही अदिती ने निश्चय कर लिया था कि आज वह डा. हिमांशु से अपने मन की बात अवश्य कह देगी. फिर वह मन ही मन बड़बड़ाई कि प्रेम करना कोई अपराध नहीं है. प्रेम की कोई उम्र भी नहीं होती.

इसी निश्चय के साथ अदिती डा. हिमांशु के घर पहुंची. वे लाइब्रेरी में बैठे थे. अदिती उन के सामने रखी रैक से टिक कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बरसने की तैयारी में थे. उन्होंने अदिती को देखते ही कहा, ‘‘अदिती बुरा मत मानना, मेरे डिपार्टमैंट में प्रवक्ता की जगह खाली है. सरकारी नौकरी है. मैं ने कमेटी के सभी सदस्यों से बात कर ली है. तुम अपनी तैयारी कर लो. तुम्हारा इंटरव्यू फौर्मल ही होगा.’’

‘‘परंतु मुझे यह नौकरी नहीं करनी है,’’ अदिती ने यह बात थोड़ी ऊंची आवाज में कही. उस की आंखों में आंसू भर आए थे.

डा. हिमांशु ने मुंह फेर कर कहा, ‘‘अदिती, अब तुम्हारे लिए हमारे यहां काम नहीं है.’’

‘‘सचमुच?’’ अदिती ने उन के एकदम नजदीक जा कर पूछा.

‘‘हां, सचमुच,’’ अदिती की ओर देखे बगैर बड़े ही मृदु और धीमी आवाज में डा. हिमांशु ने कहा, ‘‘अदिती वहां वेतन बहुत अच्छा मिलेगा.’’

‘‘मैं वेतन के लिए नौकरी नहीं करती?’’ अदिती और भी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सर, आप ने मुझे कभी समझ ही नहीं.’’

डा. हिमांशु कुछ कहते, उस के पहले ही अदिती उन के एकदम करीब पहुंच गई. दोनों के बीच अब मात्र हथेली भर की दूरी रह गई थी. उस ने डा. हिमांशु की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘सर, मैं जानती हूं, आप सबकुछ जानतेसमझते हैं… प्लीज इनकार मत कीजिएगा.’’

अदिती की आंखों के आंसू आंखों से निकल कर उस के कपोलों को भिगोते हुए नीचे तक बह गए थे. वह कांपते स्वर में बोली, ‘‘आप के यहां काम नहीं है? इस अधूरी पुस्तक को कौन पूरा करेगा? जरा बताइए तो चार्ली चैपलिन की आत्मकथा कहां रखी है? बायर की कविताएं कहां हैं? विष्णु प्रभाकर या अमरकांत की नई किताबें कहां रखी हैं?’’

डा. हिमांशु चुपचाप अदिती की बातें सुन रहे थे. उन्होंने दोनों हाथ बढ़ा कर अदिती के गालों के आंसू पोंछे और एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारे आने के पहले मैं किताबें ही खोज रहा था. तुम नहीं रहोगी, तो भी मैं किताबें ढूंढ़ लूंगा.’’

अदिती को लगा कि उन की आवाज यह कहने में कांप रही है.

उन्होंने आगे कहा, ‘‘इंसान पूरी जिंदगी ढूंढ़ता रहे, तो भी शायद उसे न मिले और यदि मिले भी, तो इंसान ढूंढ़ता रहे. उसे फिर भी प्राप्त न हो सके ऐसा भी हो सकता है.’’

‘‘जो अपना हो, उस का तिरस्कार कर के,’’ इतना कह कर अदिती दो कदम पीछे हटी और चेहरे को दोनों हाथों में छिपा कर रोने लगी. फिर लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘क्यों?’’

डा. हिमांशु ने थोड़ी देर तक अदिती को रोने दिया. फिर उस के नजदीक जा कर कालेज में पहली बार जिस सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा था, उसी तरह उस के कंधे पर हाथ रखा. अदिती को फिर एक बार लगा कि हिमालय के शिखरों की ठंडक उस के सीने में समा गई है. कानों में घंटियां बजने लगीं. उस ने स्नेहिल नजरों से डा. हिमांशु को देखा. फिर आगे बढ़ कर अपनी दोनों हथेलियों में उन के चेहरे को भर कर चूम लिया.

फिर वह डा. हिमांशु से लिपट गई. वह इंतजार करती रही कि उन की बांहें उस के इर्दगिर्द लिपटेंगी. परंतु ऐसा नहीं हुआ. उस ने डा. हिमांशु की ओर देखा. वे चुपचाप बिना किसी प्रतिभाव के आंखें फाड़े उसे ताक रहे थे. उन का चेहरा शांत, स्थितप्रज्ञ और निर्विकार था.

‘‘आप मुझ से प्यार नहीं करते?’’

डा. हिमांशु मात्र उसे देखते रहे.

‘‘मैं आप के लायक नहीं हूं?’’

डा. हिमांशु के होंठ कांपे, पर शब्द नहीं निकले.

‘‘मैं अंतिम बार पूछती हूं,’’ अदिती की आवाज के साथ उस का शरीर भी कांप रहा था. स्त्री हो कर स्वयं को समर्पित कर देने के बाद भी पुरुष के इस तिरस्कार ने उस के पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था. उस की आंखों से आंसुओं की जलधारा बह रही थी.

एक लंबी सांस ले कर वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं, आप मुझे प्यार करते हैं या नहीं या फिर मैं आप के लिए केवल एक तेजस्विनी विद्यार्थिनी से अधिक कुछ नहीं हूं,’’ फिर उन की कालर पकड़ कर झकझरते हुए बोली, ‘‘सर, मुझे अपनी बातों के जवाब चाहिए.’’

डा. हिमांशु उसी तरह जड़ बने थे. अदिती ने लगभग धक्का मार कर उन्हें छोड़ दिया. रोते हुए वह उन्हें अपलक ताक रही थी. उस ने दोनों हाथों से आंसू पोंछे. पलभर में ही उस का हावभाव बदल गया. उस का चेहरा सख्त हो गया. उस की आंखों में घायल बाघिन का जनून आ गया था. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मुझे इस बात का हमेशा पश्चात्ताप रहेगा कि मैं ने एक ऐसे आदमी से प्यार किया, जिस में प्यार को स्वीकार करने की ताकत ही नहीं है. मैं तो समझती थी कि आप मेरे आदर्श हैं, समर्थ्यवान हैं, परंतु आप में एक स्त्री को सम्मान के साथ स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है.

‘‘जीवन में यदि कभी समझ में आए कि मैं ने आप को क्या दिया है, तो उसे स्वीकार कर लेना. जिस तरह हो सके, उस तरह क्योंकि आज के आप के तिरस्कार ने मुझे छिन्नभिन्न कर दिया है. जो टीस आप ने मुझे दी है, हो सके तो उसे दूर कर देना क्योंकि इस टीस के साथ जीया नहीं जा सकता,’’ इतना कह कर अदिती तेजी से पलटी और बाहर निकल गई. उस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा.

कुछ दिनों बाद अदिती अखबार पढ़ रही थी, तो अखबार में छपी एक सूचना पर उस

की नजर अटक गई. सूचना थी ‘प्रसिद्ध साहित्यकार, यूनिवर्सिटी के हैड आफ दि डिपार्टमैंट डा. हिमांशु की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई है उन का…’

अदिती ने इतना पढ़ कर पन्ना पलट दिया. रोने का मन तो हुआ, लेकिन जी कड़ा कर के उसे रोक दिया. अगले दिन अखबार में डा. हिमांशु के बारे में 3-4 लेख छपे थे, परंतु अदिती ने उन्हें पढ़े बगैर ही उस पन्ने को पलट दिया.

इस के 4 दिन बाद ही पाठ्य पुस्तक मंडल की ओर से ब्राउन पेपर में लिपटा एक पार्सल अदिती को मिला. भेजने वाले का नाम उस पर नहीं था. अदिती ने जल्दीजल्दी उस पैकेट को खोला तो उस में वही पुस्तक थी, जिसे वह अधूरी छोड़ आई थी. अदिती ने प्यार से उस पुस्तक पर हाथ फेरा. लेखक का नाम पढ़ा. उस ने पहला पन्ना खोला, किताब के नाम आदि की जानकारी… दूसरा पन्ना खोला…

‘‘‘अर्पण…’ मेरे जीवन की एकमात्र स्त्री को, जिसे मैं ने हृदय से चाहा, फिर भी उसे कुछ दे न सका. यदि वह मेरी एक पल की कमजोरी को माफ कर सके, तो मेरी इस पुस्तक को अवश्य स्वीकार कर लेना.’’

उस किताब को सीने से लगाने के साथ ही अदिती एकदम से फफक कर रो पड़ी. पूरा औफिस एकदम से चौंक पड़ा. सभी उठ कर उस के पास आ गए. हरकोई एक ही बात पूछ रहा था, ‘‘क्या हुआ अदिती? क्या हुआ?’’

रोते हुए अदिती मात्र गरदन हिला रही थी. उसे खुद पता नहीं था कि उसे क्या हुआ.

जीत गया जंगवीर: क्यों जगवीरी से नहीं मिलना चाहती थी मुनिया

‘‘खत आया है…खत आया है,’’ पिंजरे में बैठी सारिका शोर मचाए जा रही थी. दोपहर के भोजन के बाद तनिक लेटी ही थी कि सारिका ने चीखना शुरू कर दिया तो जेठ की दोपहरी में कमरे की ठंडक छोड़ मुख्यद्वार तक जाना पड़ा. देखा, छोटी भाभी का पत्र था और सब बातें छोड़ एक ही पंक्ति आंखों से दिल में खंजर सी उतर गई, ‘दीदी आप की सखी जगवीरी का इंतकाल हो गया. सुना है, बड़ा कष्ट पाया बेचारी ने.’ पढ़ते ही आंखें बरसने लगीं. पत्र के अक्षर आंसुओं से धुल गए. पत्र एक ओर रख कर मन के सैलाब को आंखों से बाहर निकलने की छूट दे कर 25 वर्ष पहले के वक्त के गलियारे में खो गई मैं.

जगवीरी मेरी सखी ही नहीं बल्कि सच्ची शुभचिंतक, बहन और संरक्षिका भी थी. जब से मिली थी संरक्षण ही तो किया था मेरा. जयपुर मेडिकल कालेज का वह पहला दिन था. सीनियर लड़केलड़कियों का दल रैगिंग के लिए सामने खड़ा था. मैं नए छात्रछात्राओं के पीछे दुबकी खड़ी थी. औरों की दुर्गति देख कर पसीने से तरबतर सोच रही थी कि अभी घर भाग जाऊं. वैसे भी मैं देहातनुमा कसबे की लड़की, सब से अलग दिखाई दे रही थी. मेरा नंबर भी आना ही था. मुझे देखते ही एक बोला, ‘अरे, यह तो बहनजी हैं.’ ‘नहीं, यार, माताजी हैं.’ ऐसी ही तरहतरह की आवाजें सुन कर मेरे पैर कांपे और मैं धड़ाम से गिरी. एक लड़का मेरी ओर लपका, तभी एक कड़कती आवाज आई, ‘इसे छोड़ो. कोई इस की रैगिंग नहीं करेगा.’

‘क्यों, तेरी कुछ लगती है यह?’ एक फैशनेबल तितली ने मुंह बना कर पूछा तो तड़ाक से एक चांटा उस के गाल पर पड़ा. ‘चलो भाई, इस के कौन मुंह लगे,’ कहते हुए सब वहां से चले गए. मैं ने अपनी त्राणकर्ता को देखा. लड़कों जैसा डीलडौल, पर लंबी वेणी बता रही थी कि वह लड़की है. उस ने प्यार से मुझे उठाया, परिचय पूछा, फिर बोली, ‘मेरा नाम जगवीरी है. सब लोग मुझे जंगवीर कहते हैं. तुम चिंता मत करो. अब तुम्हें कोई कुछ भी नहीं कहेगा और कोई काम या परेशानी हो तो मुझे बताना.’ सचमुच उस के बाद मुझे किसी ने परेशान नहीं किया. होस्टल में जगवीरी ने सीनियर विंग में अपने कमरे के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया. मुझे दूसरे जूनियर्स की तरह अपना कमरा किसी से शेयर भी नहीं करना पड़ा. मेस में भी अच्छाखासा ध्यान रखा जाता. लड़कियां मुझ से खिंचीखिंची रहतीं. कभीकभी फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ती, ‘जगवीरी की नई ‘वो’ आ रही है.’ लड़के मुझे देख कर कन्नी काटते. इन सब बातों को दरकिनार कर मैं ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो दिया. थोड़े दिनों में ही मेरी गिनती कुशाग्र छात्रछात्राओं में होने लगी और सभी प्रोफेसर मुझे पहचानने तथा महत्त्व भी देने लगे.

जगवीरी कालेज में कभीकभी ही दिखाई पड़ती. 4-5 लड़कियां हमेशा उस के आगेपीछे होतीं.

एक बार जगवीरी मुझे कैंटीन खींच ले गई. वहां बैठे सभी लड़केलड़कियों ने उस के सामने अपनी फरमाइशें ऐसे रखनी शुरू कर दीं जैसे वह सब की अम्मां हो. उस ने भी उदारता से कैंटीन वाले को फरमान सुना दिया, ‘भाई, जो कुछ भी ये बच्चे मांगें, खिलापिला दे.’ मैं समझ गई कि जगवीरी किसी धनी परिवार की लाड़ली है. वह कई बार मेरे कमरे में आ बैठती. सिर पर हाथ फेरती. हाथों को सहलाती, मेरा चेहरा हथेलियों में ले मुझे एकटक निहारती, किसी रोमांटिक सिनेमा के दृश्य की सी उस की ये हरकतें मुझे विचित्र लगतीं. उस से इन हरकतों को अच्छी अथवा बुरी की परिसीमा में न बांध पाने पर भी मैं सिहर जाती. मैं कहती, ‘प्लीज हमें पढ़ने दीजिए.’ तो वह कहती, ‘मुनिया, जयपुर आई है तो शहर भी तो देख, मौजमस्ती भी कर. हर समय पढ़ेगी तो दिमाग चल जाएगा.’

वह कई बार मुझे गुलाबी शहर के सुंदर बाजार घुमाने ले गई. छोटीबड़ी चौपड़, जौहरी बाजार, एम.आई. रोड ले जाती और मेरे मना करतेकरते भी वह कुछ कपड़े खरीद ही देती मेरे लिए. यह सब अच्छा भी लगता और डर भी लगा रहता. एक बार 3 दिन की छुट्टियां पड़ीं तो आसपास की सभी लड़कियां घर चली गईं. जगवीरी मुझे राजमंदिर में पिक्चर दिखाने ले गई. उमराव जान लगी हुई थी. मैं उस के दृश्यों में खोई हुई थी कि मुझे अपने चेहरे पर गरम सांसों का एहसास हुआ. जगवीरी के हाथ मेरी गरदन से नीचे की ओर फिसल रहे थे. मुझे लगने लगा जैसे कोई सांप मेरे सीने पर रेंग रहा है. जिस बात की आशंका उस की हरकतों से होती थी, वह सामने थी. मैं उस का हाथ झटक अंधेरे में ही गिरतीपड़ती बाहर भागी. आज फिर मन हो रहा था कि घर लौट जाऊं.

मैं रो कर मन का गुबार निकाल भी न पाई थी कि जगवीरी आ धमकी. मुझे एक गुडि़या की तरह जबरदस्ती गोद में बिठा कर बोली, ‘क्यों रो रही हो मुनिया? पिक्चर छोड़ कर भाग आईं.’ ‘हमें यह सब अच्छा नहीं लगता, दीदी. हमारे मम्मीपापा बहुत गरीब हैं. यदि हम डाक्टर नहीं बन पाए या हमारे विषय में उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना तो…’ मैं ने सुबकते हुए कह ही दिया.

‘अच्छा, चल चुप हो जा. अब कभी ऐसा नहीं होगा. तुम हमें बहुत प्यारी लगती हो, गुडि़या सी. आज से तुम हमारी छोटी बहन, असल में हमारे 5 भाई हैं. पांचों हम से बड़े, हमें प्यार बहुत मिलता है पर हम किसे लाड़लड़ाएं,’ कह कर उस ने मेरा माथा चूम लिया. सचमुच उस चुंबन में मां की महक थी. जगवीरी से हर प्रकार का संरक्षण और लाड़प्यार पाते कब 5 साल बीत गए पता ही न चला. प्रशिक्षण पूरा होने को था तभी बूआ की लड़की के विवाह में मुझे दिल्ली जाना पड़ा. वहां कुणाल ने, जो दिल्ली में डाक्टर थे, मुझे पसंद कर उसी मंडप में ब्याह रचा लिया. मेरी शादी में शामिल न हो पाने के कारण जगवीरी पहले तो रूठी फिर कुणाल और मुझ को महंगेमहंगे उपहारों से लाद दिया.

मैं दिल्ली आ गई. जगवीरी 7 साल में भी डाक्टर न बन पाई, तब उस के भाई उसे हठ कर के घर ले गए और उस का विवाह तय कर दिया. उस के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ जगवीरी का स्नेह, अनुरोध भरा लंबा सा पत्र भी था. मैं ने कुणाल को बता रखा था कि यदि जगवीरी न होती तो पहले दिन ही मैं कालेज से भाग आई होती. मुझे डाक्टर बनाने का श्रेय मातापिता के साथसाथ जगवीरी को भी है. जयपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर के एक गांव में थी जगवीरी के पिता की शानदार हवेली. पूरे गांव में सफाई और सजावट हो रही थी. मुझे और पति को बेटीदामाद सा सम्मानसत्कार मिला. जगवीरी का पति बहुत ही सुंदर, सजीला युवक था. बातचीत में बहुत विनम्र और कुशल. पता चला सूरत और अहमदाबाद में उस की कपड़े की मिलें हैं.

सोचा था जगवीरी सुंदर और संपन्न ससुराल में रचबस जाएगी, पर कहां? हर हफ्ते उस का लंबाचौड़ा पत्र आ जाता, जिस में ससुराल की उबाऊ व्यस्तताओं और मारवाड़ी रिवाजों के बंधनों का रोना होता. सुहाग, सुख या उत्साह का कोई रंग उस में ढूंढ़े न मिलता. गृहस्थसुख विधाता शायद जगवीरी की कुंडली में लिखना ही भूल गया था. तभी तो साल भी न बीता कि उस का पति उसे छोड़ गया. पता चला कि शरीर से तंदुरुस्त दिखाई देने वाला उस का पति गजराज ब्लडकैंसर से पीडि़त था. हर साल छह महीने बाद चिकित्सा के लिए वह अमेरिका जाता था. अब भी वह विशेष वायुयान से पत्नी और डाक्टर के साथ अमेरिका जा रहा था. रास्ते में ही उसे काल ने घेर लिया. सारा व्यापार जेठ संभालता था, मिलों और संपत्ति में हिस्सा देने के लिए वह जगवीरी से जो चाहता था वह तो शायद जगवीरी ने गजराज को भी नहीं दिया था. वह उस के लिए बनी ही कहां थी. एक दिन जगवीरी दिल्ली आ पहुंची. वही पुराना मर्दाना लिबास. अब बाल भी लड़कों की तरह रख लिए थे. उस के व्यवहार में वैधव्य की कोई वेदना, उदासी या चिंता नहीं दिखी. मेरी बेटी मान्या साल भर की भी न थी. उस के लिए हम ने आया रखी हुई थी.

जगवीरी जब आती तो 10-15 दिन से पहले न जाती. मेरे या कुणाल के ड्यूटी से लौटने तक वह आया को अपने पास उलझाए रखती. मान्या की इस उपेक्षा से कुणाल को बहुत क्रोध आता. बुरा तो मुझे भी बहुत लगता था पर जगवीरी के उपकार याद कर चुप रह जाती. धीरेधीरे जगवीरी का दिल्ली आगमन और प्रवास बढ़ता जा रहा था और कुणाल का गुस्सा भी. सब से अधिक तनाव तो इस कारण होता था कि जगवीरी आते ही हमारे डबल बैड पर जम जाती और कहती, ‘यार, कुणाल, तुम तो सदा ही कनक के पास रहते हो, इस पर हमारा भी हक है. दोचार दिन ड्राइंगरूम में ही सो जाओ.’

कुणाल उस के पागलपन से चिढ़ते ही थे, उस का नाम भी उन्होंने डाक्टर पगलानंद रख रखा था. परंतु उस की ऐसी हरकतों से तो कुणाल को संदेह हो गया. मैं ने लाख समझाया कि वह मुझे छोटी बहन मानती है पर शक का जहर कुणाल के दिलोदिमाग में बढ़ता ही चला गया और एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘कनक, तुम्हें मुझ में और जगवीरी में से एक को चुनना होगा. यदि तुम मुझे चाहती हो तो उस से स्पष्ट कह दो कि तुम से कोई संबंध न रखे और यहां कभी न आए, अन्यथा मैं यहां से चला जाऊंगा.’

यह तो अच्छा हुआ कि जगवीरी से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. उस के भाइयों के प्रयास से उसे ससुराल की संपत्ति में से अच्छीखासी रकम मिल गई. वह नेपाल चली गई. वहां उस ने एक बहुत बड़ा नर्सिंगहोम बना लिया. 10-15 दिन में वहां से उस के 3-4 पत्र आ गए, जिन में हम दोनों को यहां से दोगुने वेतन पर नेपाल आ जाने का आग्रह था. मुझे पता था कि जगवीरी एक स्थान पर टिक कर रहने वाली नहीं है. वह भारत आते ही मेरे पास आ धमकेगी. फिर वही क्लेश और तनाव होगा और दांव पर लग जाएगी मेरी गृहस्थी. हम ने मकान बदला, संयोग से एक नए अस्पताल में मुझे और कुणाल को नियुक्ति भी मिल गई. मेरा अनुमान ठीक था. रमता जोगी जैसी जगवीरी नेपाल में 4 साल भी न टिकी. दिल्ली में हमें ढूंढ़ने में असफल रही तो मेरे मायके जा पहुंची. मैं ने भाईभाभियों को कुणाल की नापसंदगी और नाराजगी बता कर जगवीरी को हमारा पता एवं फोन नंबर देने के लिए कतई मना किया हुआ था.

जगवीरी ने मेरे मायके के बहुत चक्कर लगाए, चीखी, चिल्लाई, पागलों जैसी चेष्टाएं कीं परंतु हमारा पता न पा सकी. तब हार कर उस ने वहीं नर्सिंगहोम खोल लिया. शायद इस आशा से कि कभी तो वह मुझ से वहां मिल सकेगी. मैं इतनी भयभीत हो गई, उस पागल के प्रेम से कि वारत्योहार पर भी मायके जाना छूट सा गया. हां, भाभियों के फोन तथा यदाकदा आने वाले पत्रों से अपनी अनोखी सखी के समाचार अवश्य मिल जाते थे जो मन को विषाद से भर जाते. उस के नर्सिंगहोम में मुफ्तखोर ही अधिक आते थे. जगवीरी की दयालुता का लाभ उठा कर इलाज कराते और पीठ पीछे उस का उपहास करते. कुछ आदतें तो जगवीरी की ऐसी थीं ही कि कोई लेडी डाक्टर, सुंदर नर्स वहां टिक न पाती. सुना था किसी शांति नाम की नर्स को पूरा नर्सिंगहोम, रुपएपैसे उस ने सौंप दिए. वे दोनों पतिपत्नी की तरह खुल्लमखुल्ला रहते हैं. बहुत बदनामी हो रही है जगवीरी की. भाभी कहतीं कि हमें तो यह सोच कर ही शर्म आती है कि वह तुम्हारी सखी है. सुनसुन कर बहुत दुख होता, परंतु अभी तो बहुत कुछ सुनना शेष था. एक दिन पता चला कि शांति ने जगवीरी का नर्सिंगहोम, कोठी, कुल संपत्ति अपने नाम करा कर उसे पागल करार दे दिया. पागलखाने में यातनाएं झेलते हुए उस ने मुझे बहुत याद किया. उस के भाइयों को जब इस स्थिति का पता किसी प्रकार चला तो वे अपनी नाजों पली बहन को लेने पहुंचे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी जगवीरी.

मैं सोच रही थी कि एक ममत्व भरे हृदय की नारी सामान्य स्त्री का, गृहिणी का, मां का जीवन किस कारण नहीं जी सकी. उस के अंतस में छिपे जंगवीर ने उसे कहीं का न छोड़ा. तभी मेरी आंख लग गई और मैं ने देखा जगवीरी कई पैकेटों से लदीफंदी मेरे सिरहाने आ बैठी, ‘जाओ, मैं नहीं बोलती, इतने दिन बाद आई हो,’ मैं ने कहा. वह बोली, ‘तुम ने ही तो मना किया था. अब आ गई हूं, न जाऊंगी कहीं.’ तभी मुझे मान्या की आवाज सुनाई दी, ‘‘मम्मा, किस से बात कर रही हो?’’ आंखें खोल कर देखा शाम हो गई थी.

रिटायरमेंट: शर्माजी के साथ क्या हुआ रिटायरमेंट के बाद

मेरी नौकरी का अंतिम सप्ताह था, क्योंकि मैं सेवानिवृत्त होने वाला था. कारखाने के नियमानुसार 60 साल पूरे होते ही घर बैठने का हुक्म होना था. मेरा जन्मदिन भी 2 अक्तूबर ही था. संयोगवश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन पर.

विभागीय सहयोगियों व कर्मचारियों ने कहा, ‘‘शर्माजी, 60 साल की उम्र तक ठीकठाक काम कर के रिटायर होने के बदले में हमें जायकेदार भोज देना होगा.’’ मैं ने भरोसा दिया, ‘‘आप सब निश्ंिचत रहें. मुंह अवश्य मीठा कराऊंगा.’’

इस पर कुछ ने विरोध प्रकट किया, ‘‘शर्माजी, बात स्पष्ट कीजिए, गोलमोल नहीं. हम ‘जायकेदार भोज’ की बात कर रहे हैं और आप मुंह मीठा कराने की. आप मांसाहारी भोज देंगे या नहीं? यानी गोश्त, पुलाव…’’ मैं ने मुकरना चाहा, ‘‘आप जानते हैं कि गांधीजी सत्य व अहिंसा के पुजारी थे, और हिंसा के खिलाफ मैं भी हूं. मांसाहार तो एकदम नहीं,’’ एक पल रुक कर मैं ने फिर कहा, ‘‘पिछले साल झारखंड के कुछ मंत्रियों ने 2 अक्तूबर के दिन बकरे का मांस खाया था तो उस पर बहुत बवाल हुआ था.’’

‘‘आप मंत्री तो नहीं हैं न. कारखाने में मात्र सीनियर चार्जमैन हैं,’’ एक सहकर्मी ने कहा. ‘‘पर सत्यअहिंसा का समर्थक तो हूं मैं.’’

फिर कुछ सहयोगी बौखलाए, ‘‘शर्माजी, हम भोज के नाम पर ‘सागपात’ नहीं खा सकते. आप के घर ‘आलूबैगन’ खाने नहीं जाएंगे,’’ इस के बाद तो गीदड़ों के झुंड की तरह सब एकसाथ बोलने लगे, ‘‘शर्माजी, हम चंदा जमा कर आप के शानदार विदाई समारोह का आयोजन करेंगे.’’ प्रवीण ने हमें झटका देना चाहा, ‘‘हम सब आप को भेंट दे कर संतुष्ट करना चाहेंगे. भले ही आप हमें संतुष्ट करें या न करें.’’

मैं दबाव में आ कर सोचने लगा कि क्या कहूं? क्या खिलाऊं? क्या वादा करूं? प्रत्यक्ष में उन्हें भरोसा दिलाना चाहा कि आप सब मेरे घर आएं, महंगी मिठाइयां खिलाऊंगा. आधाआधा किलो का पैकेट सब को दे कर विदा करूंगा. सीनियर अफसर गुप्ता ने रास्ता सुझाना चाहा, ‘‘मुरगा न खिलाइए शर्माजी पर शराब तो पिला ही सकते हैं. इस में हिंसा कहां है?’’

‘‘हां, हां, यह चलेगा,’’ सब ने एक स्वर से समर्थन किया. ‘‘मैं शराब नहीं पीता.’’

‘‘हम सब पीते हैं न, आप अपनी इच्छा हम पर क्यों लादना चाहते हैं?’’ ‘‘भाई लोगों, मैं ने कहा न कि 2 अक्तूबर हो या नवरात्रे, दीवाली हो या नववर्ष…मुरगा व शराब न मैं खातापीता हूं, न दूसरों को खिलातापिलाता हूं.’’

सुखविंदर ने मायूस हो कर कहा, ‘‘तो क्या 35-40 साल का साथ सूखा ही निबटेगा?’’ कुछ ने रोष जताया, ‘‘क्या इसीलिए इतने सालों तक आप के मातहत काम किया? आप के प्रोत्साहन से ही गुणवत्तापूर्ण उत्पादन किया? कैसे चार्जमैन हैं आप कि हमारी अदनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते?’’

एक ने व्यंग्य किया, ‘‘तो कोई मुजरे वाली ही बुला लीजिए, उसी से मन बहला लेंगे.’’ नटवर ने विचार रखा, ‘‘शर्माजी, जितने रुपए आप हम पर खर्च करना चाह रहे हैं उतने हमें दे दीजिए, हम किसी होटल में अपनी व्यवस्था कर लेंगे.’’

इस सारी चर्चा से कुछ नतीजा न निकलना था न निकला. यह बात मेरे इकलौते बेटे बलबीर के पास भी पहुंची. वह बगल वाले विभाग में बतौर प्रशिक्षु काम कर रहा था.

कुछ ने बलबीर को बहकाया, ‘‘क्या कमी है तुम्हारे पिताजी को जो खर्च के नाम से भाग रहे हैं. रिटायर हो रहे हैं. फंड के लाखों मिलेंगे… पी.एफ. ‘तगड़ा’ कटता है. वेतन भी 5 अंकों में है. हम उन्हें विदाई देंगे तो उन की ओर से हमारी शानदार पार्टी होनी चाहिए. घास छील कर तो रिटायर नहीं हो रहे. बुढ़ापे के साथ ‘साठा से पाठा’ होना चाहिए. वे तो ‘गुड़ का लाठा’ हो रहे हैं…तुम कैसे बेटे हो?’’

बलबीर तमतमाया हुआ घर आया. मैं लौट कर स्नान कर रहा था. बेटा मुझे समझाने के मूड में बोला, ‘‘बाबूजी, विभाग वाले 50-50 रुपए प्रति व्यक्ति चंदा जमा कर के ‘विदाई समारोह’ का आयोजन करेंगे तो वे चाहेंगे कि उन्हें 75-100 रुपए का जायकेदार भोज मिले. आप सिर्फ मिठाइयां और समोसे खिला कर उन्हें टरकाना चाहते हैं. इस तरह आप की तो बदनामी होगी ही, वे मुझे भी बदनाम करेंगे. ‘‘आप तो रिटायर हो कर घर में बैठ जाएंगे पर मुझे वहीं काम करना है. सोचिए, मैं कैसे उन्हें हर रोज मुंह दिखाऊंगा? मुझे 10 हजार रुपए दीजिए, खिलापिला कर उन्हें संतुष्ट कर दूंगा.’’

‘‘उन की संतुष्टि के लिए क्या मुझे अपनी आत्मा के खिलाफ जाना होगा? मैं मुरगे, बकरे नहीं कटवा सकता,’’ बेटे पर बिगड़ते हुए मैं ने कहा. ‘‘बाबूजी, आप मांसाहार के खिलाफ हैं, मैं नहीं.’’

‘‘तो क्या तुम उन की खुशी के लिए मद्यपान करोगे?’’ ‘‘नहीं, पर मुरगा तो खा ही सकता हूं.’’

अपना विरोध जताते हुए मैं बोला, ‘‘बलबीर, अधिक खर्च करने के पक्ष में मैं नहीं हूं. सब खाएंगेपीएंगे, बाद में कोई पूछने भी नहीं आएगा. मैं जब 4 महीने बीमारी से अनफिट था तो 1-2 के अलावा कौन आया था मेरा हाल पूछने? मानवता और श्रद्धा तो लोगों में खत्म हो गई है.’’ पत्नी कमला वहीं थी. झुंझलाई, ‘‘आप दिल खोल कर और जम कर कुछ नहीं कर पाते. मन मार कर खुश रहने से भी पीछे रह जाते हैं.’’

कमला का समर्थन न पा कर मैं झुंझलाया, ‘‘श्रीमतीजी, मैं ने आप को कब खुश नहीं किया है?’’ वे मौका पाते ही उलाहना ठोक बैठीं, ‘‘कई बार कह चुकी हूं कि मेरा गला मंगलसूत्र के बिना सूना पड़ा है. रिटायरमेंट के बाद फंड के रुपए मिलते ही 5 तोले का मंगलसूत्र और 10 तोले की 4-4 चूडि़यां खरीद देना.’’

‘‘श्रीमतीजी, सोने का भाव बाढ़ के पानी की तरह हर दिन बढ़ता जा रहा है. आप की इच्छा पूरी करूं तो लाखों अंटी से निकल जाएंगे, फिर घर चलाना मुश्किल होगा.’’ श्रीमतीजी बिगड़ कर बोलीं, ‘‘तो बताइए, मैं कैसे आप से खुश रहूंगी?’’

बलबीर को अवसर मिल गया. वह बोला, ‘‘बाबूजी, अब आप जीवनस्तर ऊंचा करने की सोचिए. कुछ दिन लूना चलाते रहे. मेरी जिद पर स्कूटी खरीद लाए. अब एक बड़ी कार ले ही लीजिए. संयोग से आप देश की नामी कार कंपनी से अवकाश प्राप्त कर रहे हैं.’’ बेटे और पत्नी की मांग से मैं हतप्रभ रह गया.

मैं सोने का उपक्रम कर रहा था कि बलबीर ने अपनी रागनी शुरू कर दी, ‘‘बाबूजी, खर्च के बारे में क्या सोच रहे हैं?’’ मैं ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम अभी स्थायी नौकरी में नहीं हो. प्रशिक्षण के बाद तुम्हें प्रबंधन की कृपा से अस्थायी नौकरी मिल सकेगी. पता नहीं तुम कब तक स्थायी होगे. तब तक मुझे ही घर का और तुम्हारा भी खर्च उठाना होगा. इसलिए भविष्यनिधि से जो रुपए मिलेंगे उसे ‘ब्याज’ के लिए बैंक में जमा कर दूंगा, क्योंकि आगे ब्याज से ही मुझे अपना ‘खर्च’ चलाना होगा. अत: मैं ने अपनी भविष्यनिधि के पैसों को सुरक्षित रखने की सोची है.’’

श्रीमतीजी संभावना जाहिर कर गईं कि 20 लाख रुपए तक तो आप को मिल ही जाएंगे. अच्छाखासा ब्याज मिलेगा बैंक से. उन के इस मुगालते को तोड़ने के लिए मैं ने कहा, ‘‘भूल गई हो, 3 बेटियों के ब्याह में भविष्यनिधि से ऋण लिया था. कुछ दूसरे ऋण काट कर 12 लाख रुपए ही मिलेंगे. वैसे भी अब दुनिया भर में आर्थिक संकट पैदा हो चुका है, इसलिए ब्याज घट भी सकता है.’’

बलबीर ने टोका, ‘‘बाबूजी, आप को रुपए की कमी तो है नहीं. आप ने 10 लाख रुपए अलगअलग म्यूचुअल फं डों में लगाए हुए हैं.’’

मैं आवेशित हुआ, ‘‘अखबार नहीं पढ़ते क्या? सब शेयरों के भाव लुढ़कते जा रहे हैं. उस पर म्यूचुअल फंडों का बुराहाल है. निवेश किए हुए रुपए वापस मिलेंगे भी या नहीं? उस संशय से मैं भयभीत हूं. रिटायर होने के बाद मैं रुपए कमाने योग्य नहीं रहूंगा. बैठ कर क्या करूंगा? कैसे समय बीतेगा. चिंता, भय से नींद भी नहीं आती…’’ श्रीमतीजी ने मेरे दर्द और चिंता को महसूस किया, ‘‘चिंतित मत होइए. हर आदमी को रिटायर होना पड़ता है. चिंताओं के फन को दबोचिए. उस के डंक से बचिए.’’

‘‘देखो, मैं स्वयं को संभाल पाता हूं या नहीं?’’ तभी फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, मैं विजय बोल रहा हूं.’’

‘‘नमस्कार, विजय बाबू.’’ ‘‘शर्माजी, सुना है, आप रिटायर होने जा रहे हैं.’’

‘‘हां.’’ ‘‘कुछ करने का विचार है या बैठे रहने का?’’ विजय ने पूछा.

‘‘कुछ सोचा नहीं है.’’ ‘‘मेरी तरह कुछ करने की सोचो. बेकार बैठ कर ऊब जाओगे.’’

‘‘मेरे पिता ने भी सेवामुक्त हो कर ‘बिजनेस’ का मन बनाया था, पर नहीं कर सके. शायद मैं भी नहीं कर सकूंगा, क्यों जहां भी हाथ डाला, खाली हो गया.’’ विजय की हंसी गूंजी, ‘‘हिम्मत रखो. टाटा मोटर्स में ठेका पाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराओ. एकाध लाख लगेंगे.’’

बलबीर उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘ठेका ले कर देखिए, बाबूजी.’’ ‘‘बेटा, मैं भविष्यनिधि की रकम को डुबाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता.’’

बलबीर जिद पर उतर आया तो मैं बोला, ‘‘तुम्हारे कहने पर मैं ने ट्रांसपोर्ट का कारोबार किया था न? 7 लाख रुपए डूब गए थे. तब मैं तंगी, परेशानी और खालीहाथ से गुजरने लगा था. फ ांके की नौबत आ गई थी.’’ बलबीर शांत पड़ गया, मानो उस की हवा निकल गई हो.

तभी मोबाइल बजने लगा. पटना से रंजन का फोन था. आवाज कानों में पड़ी तो मुंह का स्वाद कसैला हो गया. रंजन मेरा चचेरा भाई था. उस ने गांव का पुश्तैनी मकान पड़ोसी पंडितजी के हाथ गिरवी रख छोड़ा था. उस की एवज में 50 हजार रुपए ले रखे थे. पहले मैं रंजन को अपना भाई मानता था पर जब उस ने धोखा किया, मेरा मन टूट गया था.

‘‘रंजन बोल रहा हूं भैया, प्रणाम.’’ ‘‘खुश रहो.’’

‘‘सुना है आप रिटायर होने वाले हैं? एक प्रार्थना है. पंडितजी के रुपए चुका कर मकान छुड़ा लीजिए न. 20 हजार रुपए ब्याज भी चढ़ चुका है. न चुकाने से मकान हाथ से निकल जाएगा. मेरे पास रुपए नहीं हैं. पटना में मकान बनाने से मैं कर्जदार हो चुका हूं. कुछ सहायता कीजिएगा तो आभारी रहूंगा.’’ मैं क्रोध से तिलमिलाया, ‘‘कुछ करने से पहले मुझ से पूछा था क्या? सलाह भी नहीं ली. पंडितजी का कर्ज तुम भरो. मुझे क्यों कह रहे हो?’’

मोबाइल बंद हो गया. इच्छा हुई कि उसे और खरीखोटी सुनाऊं. गुस्से में बड़बड़ाता रहा, ‘‘स्वार्थी…हमारे हिस्से को भी गिरवी रख दिया और रुपए ले गया. अब चाहता है कि मैं फंड के रुपए लगा दूं? मुझे सुख से जीने नहीं देना चाहता?’’ ‘‘शांत हो जाइए, नहीं तो ब्लडप्रेशर बढे़गा,’’ कमला ने मुझे शांत करना चाहा.

सुबह कारखाने पहुंचा तो जवारी- भाई रामलोचन मिल गए, बोले, ‘‘रिटायरमेंट के बाद गांव जाने की तो नहीं सोच रहे हो न? बड़ा गंदा माहौल हो गया है गांव का. खूब राजनीति होती है. तुम्हारा खाना चाहेंगे और तुम्हें ही बेवकूफ बनाएंगे. रामबाबू रिटायरमेंट के बाद गांव गए थे, भाग कर उन्हें वापस आना पड़ा. अपहरण होतेहोते बचा. लाख रुपए की मांग कर रहे थे रणबीर दल वाले.’’ सीनियर अफसर गुप्ताजी मिल गए. बोले, ‘‘कल आप की नौकरी का आखिरी दिन है. सब को लड्डू खिला दीजिएगा. आप के विदाई समारोह का आयोजन शायद विभाग वाले दशहरे के बाद करेंगे.’’

कमला ने भी घर से निकलते समय कहा था, ‘‘लड्डू बांट दीजिएगा.’’

बलबीर भी जिद पर आया, ‘‘मैं भी अपने विभाग वालों को लड्डू खिलाऊंगा.’’ ‘‘तुम क्यों? रिटायर तो मैं होने वाला हूं.’’

वह हंसते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, रिटायरमेंट को खुशी से लीजिए. खुशियां बांटिए और बटोरिए. कुछ मुझे और कुछ बहनबेटियों को दीजिए.’’ मुझे क्रोध आया, ‘‘तो क्या पैसे बांट कर अपना हाथ खाली कर लूं? मुझे कम पड़ेगा तो कोई देने नहीं आएगा. हां, मैं बहनबेटियों को जरूर कुछ गिफ्ट दूंगा. ऐसा नहीं कि मैं वरिष्ठ नागरिक होते ही ‘अशिष्ट’ सिद्ध होऊं. पर शिष्ट होने के लिए अपने को नष्ट नहीं करूंगा.’’

मैं सोचने लगा कि अपने ही विभाग का वेणुगोपाल पैसों के अभाव का रोना रो कर 5 हजार रुपए ले गया था, अब वापस करने की स्थिति में नहीं है. उस के बेटीदामाद ने मुकदमा ठोका हुआ है कि उन्हें उस की भविष्यनिधि से हिस्सा चाहिए. रामलाल भी एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति थे. एक दिन आए और गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे, ‘‘शर्माजी, रिटायर होने के बाद मैं कंगाल हो गया हूं. बेटों के लिए मकान बनाया. अब उन्होंने घर से बाहर कर दिया है. 15 हजार रुपए दे दीजिए. गायभैंस का धंधा करूंगा. दूध बेच कर वापस कर दूंगा.’’

रिटायर होने के बाद मैं घर बैठ गया. 10 दिन बीत गए. न विदाई समारोह का आयोजन हुआ, न विभाग से कोई मिलने आया. मैं ने गेटपास जमा कर दिया था. कारखाने के अंदर जाना भी मुश्किल था. समय के साथ विभाग वाले भूल गए कि विदाई की रस्म भी पूरी करनी है. एक दिन विजय आया. उलाहने भरे स्वर में बोला, ‘‘यार, तुम ने मुझे किसी आयोजन में नहीं बुलाया?’’

मैं दुखी स्वर में बोला, ‘‘क्षमा करना मित्र, रिटायर होने के बाद कोई मुझे पूछने नहीं आया. विभाग वाले भी विभाग के काम में लग कर भूल गए…जैसे सारे नाते टूट गए हों.’’ कमला ताने दे बैठी, ‘‘बड़े लालायित थे आधाआधा किलो के पैकेट देने के लिए…’’

बलबीर को अवसर मिला. बोला, ‘‘मांसाहारी भोज से इनकार कर गए, अत: सब का मोहभंग हो गया. अब आशा भी मत रखिए…आप को पता है, मंदी का दौर पूरी दुनिया में है. उस का असर भारत के कारखानों पर भी पड़ा है. कुछ अनस्किल्ड मजदूरों की छंटनी कर दी गई है. मजदूरों को चंदा देना भारी पड़ रहा है. वैसे भी जिस विभाग का प्रतिनिधि चंदा उगाहने में माहिर न हो, काम से भागने वाला हो और विभागीय आयोजनों पर ध्यान न दे, वह कुछ नहीं कर सकता.’’

विजय ने कहा, ‘‘यार, शर्मा, घर में बैठने के बाद कौन पूछता है? वह जमाना बीत गया कि लोगों के अंदर प्यार होता था, हमदर्दी होती थी. रिटायर व्यक्ति को हाथी पर बैठा कर, फूलमाला पहना कर घर तक लाया जाता था. अब लोग यह सोचते हैं कि उन का कितना खर्च हुआ और बदले में उन्हें कितना मिला. मुरगाशराब खिलातेपिलाते तो भी एकदो माह के बाद कोई पूछने नहीं आता. सचाई यह है कि रिटायर व्यक्ति को सब बेकार समझ लेते हैं और भाव नहीं देते.’’ मैं कसमसा कर शांत हो गया…घर में बैठने का दंश सहने लगा.

एक नई शुरुआत: स्वाति का मन क्यों भर गया?

बिखरे पड़े घर को समेट, बच्चों को स्कूल भेज कर भागभाग कर स्वाति को घर की सफाई करनी होती है, फिर खाना बनाना होता है. चंदर को काम पर जो जाना होता है. स्वाति को फिर अपने डे केयर सैंटर को भी तो खोलना होता है. साफसफाई करानी होती है. साढ़े 8 बजे से बच्चे आने शुरू हो जाते हैं.

घर से कुछ दूरी पर ही स्वाति का डे केयर सैंटर है, जहां जौब पर जाने वाले मातापिता अपने छोटे बच्चों को छोड़ जाते हैं.

इतना सब होने पर भी स्वाति को आजकल तनाव नहीं रहता. खुशखुश, मुसकराते-मुसकराते वह सब काम निबटाती है. उसे सहज, खुश देख चंदर के सीने पर सांप लोटते हैं, पर स्वाति को इस से कोई लेनादेना नहीं है. चंदर और उस की मां के कटु शब्द बाण अब उस का दिल नहीं दुखाते. उन पराए से हो चुके लोगों से उस का बस औपचारिकता का रिश्ता रह गया है, जिसे निभाने की औपचारिकता कर वह उड़ कर वहां पहुंच जाती है, जहां उस का मन बसता है.

‘‘मैम आज आप बहुत सुंदर लग रही हैं,‘‘ नैना ने कहा, तो स्वाति मुसकरा दी. नैना डे केयर की आया थी, जो सैंटर चलाने में उस की मदद करती थी.

‘‘अमोल नहीं आया अभी,‘‘ स्वाति की आंखें उसे ढूंढ़ रही थीं.

याद आया उसे जब एडमिशन के पश्चात पहले दिन अमोल अपने पापा रंजन वर्मा के साथ उस के डे केयर सैंटर आया था.

अपने पापा की उंगली पकड़े एक 4 साल का बच्चा उस के सैंटर आया, जिस का नाम अमोल वर्मा और पिता का नाम रंजन वर्मा था. रंजन ही उस का नाम लिखा कर गए थे. उन के सुदर्शन व्यक्तित्व से स्वाति प्रभावित हुई थी.

‘‘पति-पत्नी दोनों जौब करते होंगे, इसलिए बच्चे को यहां दाखिला करा कर जा रहे हैं,‘‘ स्वाति ने उस वक्त सोचा था.

रंजन ने उस से हलके से नमस्कार किया.

‘‘कैसे हो अमोल? बहुत अच्छे लग रहे हो आप तो… किस ने तैयार किया?‘‘ स्वाति ने कई सारे सवाल बंदूक की गोली जैसे बेचारे अमोल पर एकसाथ दाग दिए.

‘‘पापा ने,‘‘ भोलेपन के साथ अमोल ने कहा, तो स्वाति की दृष्टि रंजन की ओर गई.

‘‘जी, इस की मां तो है नहीं, तो मुझे ही तैयार करना होता है,‘‘ रंजन ने कहा, तो स्वाति का चौंकना स्वाभाविक ही था.

‘‘4 साल के बच्चे की मां नहीं है,‘‘ यह सुन कर उसे धक्का सा लगा. सौम्य, सुदर्शन रंजन को देख कर अनुमान भी लगाना मुश्किल था कि उन की पत्नी नहीं होंगी.

‘‘कैसे?‘‘ अकस्मात स्वाति के मुंह से निकला.

‘‘जी, उसे कैंसर हो गया था. 6 महीने के भीतर ही कैंसर की वजह से उस की जान चली गई,‘‘ रंजन की कंपकंपाती सी आवाज उस के दिल को छू सी गई. खुद को संयत करते हुए उस ने रंजन को आश्वस्त करने की कोशिश की, ‘‘आप जरा भी परेशान न हों, अमोल का यहां पूरापूरा ध्यान रखा जाएगा.‘‘

रंजन कुछ न बोला. वहां से बस चला गया. स्वाति का दिल भर आया इतने छोटे से बच्चे को बिन मां के देख. बिन मां के इस बच्चे के कठोर बचपन के बारे में सोचसोच कर उस का दिल भारी हो उठा था. उस दिन से अमोल से उस का कुछ अतिरिक्त ही लगाव हो गया था.

रंजन जब अमोल को छोड़ने आते तो स्वाति आग्रह के साथ उसे लेती. रंजन से भी एक अनजानी सी आत्मीयता बन गई थी, जो बिन कहे ही आपस में बात कर लेती थी. रंजन की उम्र लगभग 40 साल के आसपास की होगी.

‘‘जरूर शादी देर से हुई होगी, तभी तो बच्चा इतना छोटा है,’’ स्वाति ने सोचा.

रंजन अत्यंत सभ्य, शालीन व्यक्ति थे. स्त्रियों के प्रति उन का शालीन नजरिया स्वाति को प्रभावित कर गया था, वरना उस ने तो अपने आसपास ऐसे ही लोग देखे थे, जिन की नजरों में स्त्री का अस्तित्व बस पुरुष की जरूरतें पूरी करना, घर में मशीन की तरह जुटे रहने से ज्यादा कुछ नहीं था.

स्वाति का जीवन भी एक कहानी की तरह ही रहा. मातापिता दोनों की असमय मृत्यु हो जाने से उसे भैयाभाभी ने एक बोझ को हटाने की तरह चंदर के गले बांध दिया.

शराब पीने का आदी चंदर अपनी मां पार्वती का लाड़ला बेटा था, जिस की हर बुराई को वे ऐसे प्यार से पेश करती थीं, जैसे चंदर ही संसार में इकलौता सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति है.

चंदर एक फैक्टरी में सुपरवाइजर के पद पर काम करता था और अपनी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा यारीदोस्ती और दारूबाजी में उड़ा देता. मांबेटा मिल कर पलपल स्वाति के स्वाभिमान को तारतार करते रहते.

‘‘चल दी महारानी सज कर दूसरों के बच्चों की पौटी साफ करने,‘‘ स्वाति जब भी अपने सैंटर पर जाने को होती, पार्वती अपने व्यंग्यबाण छोड़ना न भूलतीं.

‘‘जाने दे मां, इस बहाने अपने यारदोस्तों से भी मिल लेती है,‘‘ चंदर के मुंह से निकलने वाली प्रत्येक बात उस के चरित्र की तरह ही छिछली होती.

स्वाति एक कान से सुन दूसरे कान से निकाल कर अपने काम पर निकल लेती.

‘‘उस की कमाई से ही घर में आराम और सुविधाएं बनी हुई थीं. शायद इसीलिए वे दोनों उसे झेल भी रहे थे, वरना क्या पता कहीं ठिकाने लगा कर उस का क्रियाकर्म भी कर देते,‘‘ स्वाति अकसर सोचती.

नीच प्रकृति के लोग बस अपने स्वार्थवश ही किसी को झेलते या सहन करते हैं. जरूरत न होने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं… स्वाति अपने पति और सास की रगरग से वाकिफ थी और कहीं न कहीं भीतर ही भीतर उन से सजग और सावधान भी रहती थी.

स्वाति ने अपना ‘डे केयर सैंटर‘ घर से कुछ दूर ‘निराला नगर‘ नामक पौश कालोनी में एक खाली मकान में खोल रखा था. घर की मालकिन मिसेज बत्रा का शू बिजनैस था और ज्यादातर समय वे कनाडा में ही रहती थीं. शहर में ऐसे उन के कई मकान पड़े थे. स्वाति से उन्हें किराए का भी लालच नहीं था. बस घर की देखभाल होती रहे और घर सुरक्षित रहे, यही उन के लिए बहुत था. साल में 1-2 बार जब वे इंडिया आतीं, तो स्वाति से मिल कर जातीं. अपने घर को सहीसलामत हाथों में देख कर उन्हें संतुष्टि होती.

मिसेज बत्रा से स्वाति की मुलाकात यों ही अचानक एक शू प्रदर्शनी के दौरान हुई थी. स्वाति का मिलनसार स्वभाव, उस की सज्जनता और अपने से बड़ों को आदर देने की उस की भावना लोगों को सहज ही उस से प्रभावित कर देती थी. वह जहां भी जाती, उस के परिचितों और शुभचिंतकों की तादाद में इजाफा हो जाता.

बातों ही बातों में मिसेज बत्रा ने जिक्र किया था कि उन का यह मकान खाली पड़ा है, जिसे वे किसी विश्वसनीय को सौंपना चाहती हैं जो उस की देखभाल भी कर सके और खुद भी रह सके.

स्वाति उस समय अपने वजूद को तलाश रही थी. उस के पास न कोई बहुत भारी रकम थी और न कोई उच्च या स्पैशल शैक्षिक प्रशिक्षण था. ऐसे में उसे डे केयर सैंटर चलाने का विचार सूझा.

स्वाति ने मिसेज बत्रा से बात की. उन्होंने सहर्ष सहमति दे दी. स्वाति ने घर वालों की हर असहमति को दरकिनार कर अपने इस सैंटर की शुरुआत कर दी.

सुबह से शाम तक स्वाति थक कर चूर हो जाती. उस के काम के कारण बच्चे उपेक्षित होते थे, वह जानती थी. पर क्या करे.

शादी के बाद जब इस घर में आई तो कितने सपने सजे थे उस की आंखों में. फिर एकएक, सब किर्चकिर्च होने लगे. चंदर पक्का मातृभक्त था और मां शासन प्रिय. परिवार का प्रत्येक व्यक्ति उन के दबाव में रहता. ससुर भी सास के आगे चूं न करते. हां, उन के धूर्त कामों में साथ देने को हमेशा तैयार रहते. चंदर जो भी कमाता या तो मां के हाथ में देता या दारू पर उड़ा देता.

स्वाति से उस का सिर्फ दैहिक रिश्ता बना, स्वाति का मन कभी उस से नहीं जुड़ा. उस ने कोशिश भी की, तो हमेशा चंदर के विचारों, कामों और आचरण से वह हमेशा उस से और दूर ही होती गई.

‘‘देखो तुम्हारी मां तुम्हारा ध्यान नहीं रख सकतीं और दूसरों के बच्चों की सूसूपौटी साफ करती है,” सास उस के दोनों बच्चों को भड़काती रहतीं.

राहुल 7 साल का था और प्रिया 5 साल की होने वाली थी. दोनों कच्ची मिट्टी के समान थे. स्वाति बाहर रहती और दादी जैसा मां के विरुद्ध उन्हें भड़काती रहती. उस से बच्चों के मन में मां की नकारात्मक छवि बनती जाती. यहां तक कि दोनों स्वाति की हर बात को काटते.

‘‘आप तो जाओ अपने सैंटर के बच्चों को देखो, वही आप के अपने हैं, हम तो पराए हैं. हमारे साथ तो दादी हैं. आप जाओ.‘‘

प्रिया और राहुल को आभास भी न होता होगा कि उन की बातों से स्वाति का दिल कितना दुखता था. ऊपर से चंदर, उसे खाना, चाय, जूतेमोजे, कच्छाबनियान सब मुंह से आवाज निकलते ही हाजिर चाहिए थे.

बिस्तर से उठते ही यदि चप्पल सामने न मिले तो हल्ला मचा देता. स्वाति को बेवकूफ, गंवार सब तरह की संज्ञाओं से नवाजता और खुद रोज शाम को बदबू मारता, नशे में लड़खड़ाता हुआ घर आता.

यही जिंदगी थी स्वाति की घर में. अपनी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मोहताज थी वह. ऐसे में आत्मसम्मान किस चिड़िया का नाम होता है, ये उजड्ड लोग जानते ही न थे. तब स्वाति को मिसेज बत्रा मिलीं और उसे आशा की एक किरण दिखाई दी.

इन्हीं आपाधापियों में उस के ‘डे केयर‘ की शुरुआत हो गई. अब तो बच्चे भी बहुत हो गए हैं, जिन में अमोल से उसे कुछ विशेष लगाव हो गया था. उस के पिता रंजन वर्मा से भी. उस का एक आत्मीय रिश्ता बन गया था. जब से उसे पता चला था कि रंजन की पत्नी की कैंसर से मृत्यु हो चुकी है और अमोल एक बिन मां का बच्चा है, तब से अमोल और रंजन दोनों के ही प्रति उस के दिल में खासा लगाव पैदा हो गया था.

हालांकि रंजन के प्रति अपनी मनोभावनाओं को उस ने अपने दिल में ही छुपा रखा था, कभी बाहर नहीं आने दिया था.

अपनी सीमाओं की जानकारी उसे थी. यहां व्यक्ति का चरित्र आंकने का बस यही तो एक पैमाना है. मन की इच्छाओं को दबाते रहना. जो हो वह नहीं दिखना चाहिए बस एक पाकसाफ, आदर्श छवि बनी रहे तो कम से कम इस दोहरे मानदंडों वाले समाज में सिर उठा कर जी तो सकते हैं वरना तो लोग आप को जीतेजी ही मार डालेंगे.

शर्म, ग्लानि और अपराध बोध बस उन के लिए है, जो स्वाभिमानी हैं और अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए सम्मान से जीना चाहते हैं और चंदर जैसे दुर्गुणी, नशेबाज के लिए कोई मानमर्यादा नहीं है.

चंदर के मातापिता जैसे चालाक और धूर्तों के लिए भी कोई नैतिकता के नियम नहीं हैं. उन की बुजुर्गियत की आड़ में सब छुप जाता है.

पर हां, अगर स्वाति किसी भावनात्मक सहारे के लिए तनिक भी अपने रास्ते से डगमग हो गई तो भूचाल आ जाएगा और उस का सारा संघर्ष और मेहनत बेमानी हो जाएगी, यह स्वाति अच्छी तरह जानती और समझती थी. इसीलिए उस ने रंजन के प्रति अपनी अनुरक्ति को केवल अपने मन की परतों में ही दबा रखा था. पर यह भी उसे अच्छा लगता था. चंदर और उस के स्वार्थी परिवार से उस का यह मौन विद्रोह ही था, जो उसे परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति देता था और उस का मनोबल बढ़ाता था.

राहुल और प्रिया का टिफिन तैयार कर उन्हें स्कूल के लिए छोड़ कर, घर के सब काम निबटा कर जैसे ही स्वाति घर से निकलने को हुई, सास की कर्कश आवाज आई, ‘‘चल दी गुलछर्रे उड़ाने महारानी… हम लोगों के साथ इसे अच्छा ही कहां लगता है.‘‘ चंदर भी मां का साथ देता.

आखिर स्वाति कितना और कब तक सुनती. दबा हुआ आक्रोश फूट पड़ा स्वाति का, ‘‘जाती हूं तो क्या… कमा कर तो तुम्हारे घर में ही लाती हूं. कहीं और तो ले जाती नहीं हूं.‘‘

‘‘अच्छा, अब हम से जबान भी लड़ाती है…’’ गाली देते हुए चंदर उस पर टूट पड़ा. सासससुर भी साथ हो लिए.

पलभर के लिए हैरान रह गई स्वाति… उसे लगा कि ये लोग तो उसे मार ही डालेंगे. उस के कुछ दिमाग में न आया, तो जल्दीजल्दी रंजन को फोन लगा दिया और खुद भी अपने सैंटर की ओर भाग ली.

‘‘अब इस घर में मुझे नहीं रहना है,‘‘ उस ने मन ही मन सोच लिया, ‘‘कैसे भी हो, अपने बच्चों को भी यहां से निकाल लेगी. सैंटर पर कमरा तो है ही. कैसे भी वहीं रह लेगी. मिसेज बत्रा को सबकुछ बता देगी. वे नाराज नहीं होंगी.‘‘

स्वाति के दिमाग में तरहतरह के खयाल उमड़घुमड़ रहे थे. सबकुछ अव्यवस्थित हो गया था. समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा…

सैंटर पहुंच कर कुछ देर में स्वाति ने खुद को व्यवस्थित कर लिया. उस के फोन लगा देने पर रंजन भी वहां आ गया था.

रंजन के आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का आसरा पा कर वह कुछ छुपा न पाई और सबकुछ बता दिया…अपने हालात… परिस्थितयां, बच्चे… सब.

पहलेपहल तो रंजन को कुछ समझ ही न आया कि क्या कहे. एक शादीशुदा स्त्री की निजी जिंदगी में इस तरह दखल देना सही भी होगा या नहीं… फिर भी स्वाति की मनोस्थिति देख कर रंजन ने कहा, ‘‘कोई परेशानी या जरूरत हो तो वह उसे याद कर ले और अगर उस की जान को खतरा है, तो वह उस घर में वापस न जाए.‘‘

रंजन का संबल पा कर स्वाति का मनोबल बढ़ गया और उस ने सोच लिया कि अब वह वापस नहीं जाएगी. रहने का ठिकाना तो उस का यहां है ही. यहीं से रह कर अपना सैंटर चलाएगी. कुछ दिन नैना को यहीं रोक लगी अपने पास.

उस दिन स्वाति घर नहीं गई. उस का कुछ विशेष था भी नहीं घर में. जरूरत भर का सामान, थोड़ेबहुत कपड़े बाजार से ले लेगी. पक्का निश्चय कर लिया था उस ने. बस अपनेआप को काम में झोंक दिया स्वाति ने.

अपने डे केयर को प्ले स्कूल में और बढ़ाने का सोच लिया उस ने और कैसे अपने काम का विस्तार करे, बस इसी योजना में उस का दिमाग काम कर रहा था.

स्वाति के चले जाने से घर की सारी व्यवस्था ठप हो गई थी. स्वाति तो सोने का अंडा देने वाली मुरगी थी. वह ऐसा जोर का झटका देगी, ऐसी उम्मीद न थी. चंदर और उस की मां तो उसे गूंगी गुड़िया ही समझते थे, जिस का उन के घर के सिवा कोई ठौरठिकाना न था. आखिर जाएगी कहां? अब खिसियाए से दोनों क्या उपाय करें कि उन की अकड़ भी बनी रहे और स्वाति भी वापस आ जाए, यही जुगाड़ लगाने में लगे थे.

मां के चले जाने पर बच्चे राहुल और प्रिया को भी घर में उस की अहमियत पता चल रही थी. जो दादी दिनरात उन्हें मां के खिलाफ भड़काती रहती थी, उन्होंने एक दिन भी उन का टिफिन नहीं बनाया. 2 दिन तो स्कूल मिस भी हो गया.

स्कूल से आने पर न कोई होमवर्क को पूछने वाला और न कोई कराने वाला. बस चैबीस घंटे स्वाति की बुराई पुराण चालू रहता. उन से हजम नहीं हो रहा था कि स्वाति इस तरह उन सब को छोड़ कर भी जा सकती है. ऊपर से सारा घर अव्यवस्थित पड़ा रहता था.

स्वाति को गए एक हफ्ता भी न हुआ था कि दोनों बच्चों के सामने उन सब की सारी असलियत खुल कर सामने आ गई. उन का मन हो रहा था कि उड़ कर मां के पास पहुंच जाएं, पर दादादादी और पिता के डर से सहमे हुए बच्चे कुछ कहनेकरने की स्थिति में नहीं थे.

एक दिन दोनों स्कूल गए तो लौट कर आए ही नहीं, बल्कि स्कूल से सीधे अपनी मां के पास ही पहुंच गए. सैंटर तो उन्होंने देख ही रखा था. स्वाति को तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उस के कलेजे के टुकड़े उस के सामने थे. कैसे छाती पर पत्थर रख कर उन्हें छोड़ कर आई थी, यह वह ही जानती थी.

चंदर और स्वाति के सासससुर बदले की आग में झुलस रहे थे. सोने का अंडा देने वाली मुरगी और घर का काम करने वाली उन्हें पलभर में ठेंगा दिखा कर चली जो गई थी.

बेइज्जती की आग में जल रहे थे तीनों. चंदर किसी भी कीमत पर स्वाति को घर वापस लाना चाहता था. शहर के कुछ संगठन जो स्त्रियों के चरित्र का ठेका लिए रहते थे और वेलेंटाइन डे पर लड़केलड़कियों को मिलने से रोकते फिरते थे, उन में चंदर भी शामिल था. वास्तव में तो इन छद्म नैतिकतावादियों से स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व ही बरदाश्त नहीं होता और यदि खोजा जाए तो उन सभी के घरों में औरत की स्थिति स्वाति से बेहतर न मिलती.

स्वाति के चरित्र पर भद्दे आरोप लगाता हुआ अपने ‘स्त्री अस्मिता रक्षा संघ‘ के नुमाइंदों को ले कर चंदर स्वाति के डे केयर सैंटर पहुंच गया.

यह देख स्वाति घबरा गई. उस ने रंजन को, अपने सभी मित्रों, बच्चों के मातापिता को जल्दीजल्दी फोन किए. सैंटर के बाहर दोनों गुट जमा हो गए. रंजन भी पुलिस ले कर आ गया था. दोनों पक्षों की बातें सुनी गईं.

स्वाति ने अपने ऊपर हो रहे उत्पीड़न को बताते हुए ‘महिला उत्पीड़न‘ और ‘घरेलू हिंसा‘ के तहत रिपोर्ट लिखवा दी. रंजन, उस के दोस्त और बच्चों के मातापिता सभी स्वाति के साथ थे.

पुलिस ने चंदर को आगे से स्वाति को तंग न करने की चेतावनी दे दी और आगे ‘कुछ अवांछित करने पर हवालात की धमकी भी.‘ चंदर और उस के मातापिता अपना से मुंह ले कर चलते बने.

स्वाति ने सोच लिया था कि अब वह चंदर के साथ नहीं रहेगी. अपने जीवन के उस अध्याय को बंद कर अब वह एक नई शुरुआत करेगी.

शाम का धुंधलका छा रहा था. स्वाति अकेले खड़ी डूबते हुए सूरज को देख रही थी. सामने रंजन आ रहा था, अमोल का हाथ पकड़े.

अमोल ने आ कर अचानक स्वाति का एक हाथ थाम लिया और एक रंजन ने. राहुल और प्रिया भी वहीं आ गए थे. अब वे सब साथ थे एक परिवार के रूप में मजबूती से एकदूसरे का हाथ थामे हुए, ‘एक नई शुरुआत के लिए और हर आने वाली समस्या का सामना करने को तैयार.

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