सुहागन: पति की मौत के बाद किस ने भरे प्रिया की जिंदगी में रंग

क्षण भर में इतना बड़ा हादसा हो जाएगा प्रिया को पता न था. 2 घंटे पहले ही तो प्रवीण ने रात का खाना खाया था. फिर वह बिछावन पर ही पर्स और कागजकलम ले कर बैठ गया था. उस ने प्रिया से कहा था कि वह और पुनू सो जाएं. उसे कुछ हिसाब लिखना है, उस के बाद ही वह सोएगा.

प्रिया जब सवेरे सो कर उठी तो उस ने प्रवीण को जगाना चाहा पर यह क्या…उस का तो शरीर ठंडा पड़ चुका था. प्रवीण का लिखा हिसाब पर्स में अभी तक रखा हुआ था. कल ही तो वह अपनी तनख्वाह ले कर आया था. एक कागज में राशन का खर्च लिखा था और उस की रकम अलग रखी हुई थी. दूसरे कागज में पुनू की स्कूल फीस व अन्य खर्चे दर्ज थे और उन के लिए रुपए अलग कर दिए थे. प्रवीण आखिरी प्लान बना कर चला गया. उस ने अपने खर्चों का, अपनी गाड़ी के पैट्रोल का और जेबखर्च का कोई हिसाब नहीं लिखा था, शायद उसे मालूम हो कि अब इस की जरूरत नहीं.

प्रिया ने प्रवीण का सूटकेस खोला. उस में रखा सारा सामान ज्यों का त्यों पड़ा था. एकएक चीज को प्रवीण बड़े करीने से सजा कर रखता था. औफिस के कागजात रखने के लिए अलग ब्रीफकेस था. व्यक्तिगत चीजों का एक रजिस्टर था जिस में वह खुद के और प्रिया के नाम निवेश, शेयरों, डिबैंचरों, म्यूचुअल फंडों, जीवनबीमा पौलिसियों और बैंकों में सावधि जमा के खाते आदि दर्ज करता था.

दफ्तर से आते ही वह यह रजिस्टर ले कर बैठ जाता था. कई बार प्रिया उस के इस काम से ऊब कर फटकार भी दिया करती थी. प्रवीण बोलता, ‘ये सब तो भविष्य के लिए हैं…मेरे लिए, तेरे लिए और इस छोटी पुनू के लिए.’

प्रवीण को प्लान करने की आदत थी. बड़ी प्लानिंग, छोटी प्लानिंग और रोजमर्रा की प्लानिंग यानी प्लान करना ही उस की जिंदगी थी. वह कहा भी करता था, ‘प्रिया, बिना प्लानिंग के जिंदगी कुछ भी नहीं है. जितने दिन जियो अपने अनुसार जियो. यह जिंदगी बहुत छोटी होती है और कामों की शृंखला बहुत लंबी होती है. अपने सोचे हुए काम अगर पूरे नहीं हुए तो मन में मलाल रह जाता है. इसलिए कामों को चुनना है, जितने जरूरी लगें उतने ही पूरा करने की कोशिश करो. बाकी छोड़ो. वे तुम्हारे नहीं हैं. वे बस मोह हैं. इस मोह को त्यागना है.’

‘सचमुच तुम ने मोह त्याग दिया प्रवीण,’ अनायास प्रिया के मुख से निकला, ‘तुम ने प्लान किया मुझे अकेली छोड़ने का. ऐसा स्वार्थी तुम्हारा प्लान निकला. तुम ने सिर्फ अपना प्लान किया. मेरी जिंदगी की भी प्लानिंग कर के जाते.’

अपने पर्स को दफ्तर से आते ही प्रवीण इसी सूटकेस में रख दिया करता था. सूटकेस खोलते ही प्रिया को वह पर्स मिल गया. धीरे से प्रिया ने पर्स खोला. एक रंगीन पासपोर्ट साइज में प्रवीण का आइडैंटिटी कार्ड देखते ही उस की आंखों से आंसू छलक आए.

कहते हैं कि जीवनमरण प्रकृति के हाथ है. आदमी चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता. प्रिया सोचने लगी कि प्रकृति की यह कितनी बड़ी बेईमानी है. उस की शादी हुए मात्र 5 साल ही तो बीते हैं. एक स्वयंवरा की तरह उस ने प्रवीण के गले में वरमाला डाली थी. स्त्रीपुरुष का संबंध क्या इतना क्षणिक होता है? अभी उस ने जिंदगी देखी ही क्या है? क्यों प्रकृति ने उस का सुखचैन छीन लिया. उस का कुसूर ही क्या है?

इस जन्म में तो नहीं, तो क्या सचमुच कुछ जन्म और भी होते हैं? क्या किसी पूर्व जन्म का उस का किया कोई पाप है? लोग तो यही कहते हैं.

प्रिया के मम्मीपापा ने उसे समझाया, ‘बेटी, पाप, धर्म कुछ भी नहीं है. कौन कहता है कि तुम्हें किसी पाप का फल मिला है. बेटी, इस दुनिया में किसी को फूल मिलते हैं तो किसी को कांटे. जिस के हिस्से कांटे आते हैं वह संघर्षशील बन जाता है. जीवन तो एक संघर्ष है. इस को सहज रूप में लेना चाहिए. जो होना था वह हो गया. हिम्मत से काम लो. उठो, अपने को सहज बनाओ.’

कैसे सहज कर ले अपने को प्रिया? यह दुख क्या एक दिन का है जो सुबह होते ही दूर हो जाएगा अथवा किसी दवा द्वारा छुटकारा मिल जाएगा. क्या वैधव्य से भी बड़ा कोई दुख होता है एक स्त्री के लिए? एक विधवा का क्या स्थान होता है इस समाज में, वह खूब जानती है.

प्रिया को अच्छी तरह याद है, गांव में उस के दूर के एक रिश्ते की भाभी हुआ करती थीं जो बालविधवा थीं. लोगों ने उन का सिर मुंडवा दिया था. एक सादा धोती पहना करती थीं वे. अपने अंधेरे कमरे से गांव के मंदिर तक का ही था उन का संसार. शादीविवाह के शुभ अवसर पर उन की उपस्थिति की मनाही थी. उन की छाया तक से लोग दूर भागते थे.

प्रिया भी अब एक विधवा है. पति के दाहसंस्कार के दिन सास ने उस के हाथों की चूडि़यां तोड़ कर पानी में फेंक दी थीं. बिंदी और माथे का सिंदूर धुल गया. वह सुहागन नहीं रही. लोग उस से घृणा करेंगे. घर से और समाज से कट कर रह जाएगी वह. अब तो यही उस का हश्र है. क्या वह इस स्थिति को स्वीकार कर ले? नहीं, यह एक बुजदिली होगी. वह नए जमाने की लड़की है. वह दुनिया का सामना करेगी. वह गांव की निरीह भाभी नहीं बनेगी. जिंदगी में एक हादसा ही नहीं आता और भी आ सकते हैं, पहले से भी बड़े. तो क्या वह जिंदगी इसी तरह हारती रहेगी, नहीं, कदापि नहीं.

प्रिया ने पर्स को मोड़ कर ज्यों का त्यों रख दिया. अनायास उस का हाथ सूटकेस की पौकेट में चला गया.

इस पौकेट में प्रवीण द्वारा लाई लहठी (एक प्रकार की चूड़ी) रखी थीं जो कुछ दिनों पहले वह प्रिया के लिए लाया था. लेकिन अब वह इन लहठियों का क्या करेगी? किस के लिए पहनेगी अब? कौन देखने वाला है इन्हें? जो चाव से ले कर आया वही नहीं रहा. ये सब चीजें तो सुहागनों के लिए होती हैं न, वह तो अब सुहागन भी नहीं रही. उस की आंखों से फिर आंसू टपकने लगे.

कुछ देर के लिए वह निष्क्रिय हो गई. घर का सामान आदि जब भी कभी वह देखने लगती है तो ऐसा ही होता है. घर में उलटपुलट करने की आदत उस की पुरानी है. प्रवीण बारबार कहा करता था, ‘यह क्या तुम घर की चीजों की उठापटक में लगी रहती हो. क्या तुम्हें और कोई काम नहीं? क्यों नहीं तुम अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करती हो? मैं इस बार पटना जा कर तुम्हारे नए कोर्स की सारी किताबें ला देता हूं.’

प्रवीण फिर पटना नहीं जा पाया और प्रिया की पढ़ाई अधूरी ही रह गई. वह एमए नहीं कर पाई. अब तो और भी कुछ करने का उस का मन नहीं करता. पुनू को स्कूल पहुंचाने का काम आया कर देती है. स्कूल का रिकशा दोपहर में पुनू को घर पहुंचा जाता. पुनू स्कूल से आती है तो कुछ देर के लिए उस के साथ उस का मन बहल जाता, लेकिन पुनू के बारबार पूछने पर कि उस के पापा कब तक आएंगे? वह कुछ भी जवाब नहीं दे पाती. प्रवीण के मृत शरीर को जब श्मशानघाट ले जाया जा रहा था तब पुनू सवाल कर बैठी थी, ‘क्यों पापा को इस तरह लिए जा रहे हैं?’ उत्तर में प्रिया बोली थी, ‘तुम्हारे पापा की तबीयत रात से ही खराब है न, उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा है. जल्द ही वे अच्छे हो कर वापस आ जाएंगे.’

एक महीना गुजर गया लेकिन प्रिया पुनू के सवाल का जवाब नहीं दे पाई. पिछली शाम जब वह पुनू के साथ छत पर बैठी थी तब पुनू ने वही सवाल फिर किया था. अचानक प्रिया के मुख से निकल गया, ‘वह देखो, सब से बड़ा तारा जो तुम्हें दिखाई दे रहा है वही तुम्हारे पापा हैं. जब तुम्हें पापा की याद आए तब तुम इसी तारे को देख कर उन्हें पुकारना. वे सपने में तुम से मिलने जरूर आएंगे.’

इस तरह कितने दिन प्रिया पुनू को ढाढ़स देती रहेगी? कभीकभी वह सोचती कि इस पहाड़ सी जिंदगी को कैसे जी सकेगी. अब इस जिंदगी में रखा ही क्या है? किस सुख के लिए वह जिएगी? क्यों न वह मर जाए? जहर खा कर अपनी जीवन लीला खत्म कर दे? यह 5 वर्ष की बेटी पुनू जो उस की नजरों के सामने आ जाती है, नहीं तो उसी दिन जिस दिन प्रवीण का हादसा हुआ, वह भी अपना अंत कर लेती. पुनू के लिए ही तो उस को जीना होगा, चाहे जैसे भी हो, दुख से या सुख से, ताने सह कर या फिर लांछन सह कर. वह औरत है, एक विधवा, जिसे समाज बारबार ठुकराएगा, दुतकारेगा.

‘चल बेटी, यहां से अब चल. क्या करेगी यहां रह कर अब अकेली. प्रवीण की बीमा और भविष्य निधि आदि का सैटलमैंट तो घर से भी किया जा सकता है. वह मुझ पर छोड़ दे. मैं पटना से ही ये सब काम कर लूंगा,’ पापा ने उसे साथ ले जाने की जिद की थी.

प्रिया ने उन की बातों का कोई जवाब नहीं दिया था. वह सोच रही थी कि कितने दिन मां और पापा अपने साथ उस को रख पाएंगे. 5 वर्ष, 10 वर्ष. फिर उस के बाद घर में 2 छोटे भाई हैं. माना, वे उस को बेहद प्यार करते हैं. भाइयों की शादियां होंगी. एक विधवा ननद को भाभियां क्या सहज रूप में स्वीकार कर लेंगी? उस को उन लोगों के भरोसे ही तो जीना पड़ेगा. गांव की विधवा भाभी की ही तरह वह भी जिएगी.

मां ने भी उस को बहुत समझाया था कि तुम्हारे पापा ठीक ही कहते हैं बेटी. उन की बातें मान ले और घर चल. हम समझेंगे कि हमारी बेटी कुंआरी ही है. हम अपनी दुलारी बेटी को पाल लेंगे.

मां कहने को तो कह गईं, लेकिन वे खुद इस बात को समझती हैं कि उन के कथन में जरा भी सचाई नहीं है. कोई भी मां अपनी बेटी को जिंदगी भर नहीं पाल सकती. उस की ममता, उस का प्यार उस की थोड़ी सी जिंदगी तक ही सीमित है.  अपना भार बेटों या बहुओं पर नहीं थोपा जा सकता.

प्रिया गांव वाली भाभी की तरह दूसरों की दया पर नहीं जीना चाहती थी. उस ने मां को दोटूक जवाब दिया था, ‘तुम पापा को समझा दो मां कि वे मेरे लिए अधिक चिंता न करें. वे खुद ही कितने कमजोर हैं. इतनी सोचफिक्र करने से उन की सेहत और भी खराब हो जाएगी. मैं अपना दुख सहन करना सीख लूंगी, मां.’

प्रिया का जवाब सुन कर मां की आंखें छलछला उठी थीं. फिर उन्होंने प्रिया से साथ चलने को नहीं कहा.

प्रिया ने बिंदियों के पैकेट से एक छोटी सी बिंदी निकाली और ड्रैसिंग टेबल के सामने खड़ी हो कर अपने माथे पर लगा ली. कुछ देर के लिए उसे लगा कि जैसे उस ने कोई गुनाह किया हो. फिर उस ने अपने मन को समझाया, वह गांव वाली भाभी की तरह कभी नहीं बनेगी. यह बिंदियां तो प्रवीण ने उस को बड़े प्यार से दी हैं. इन पर तो केवल उसी का अधिकार है. उस की याद में वह इन्हें हमेशा अपने साथ रखेगी, चाहे लोग उसे कुछ भी कहें. ये कड़वे सच की तरह हैं, जिन्हें वह प्रवीण के लिए जिंदगी भर संजो कर रखेगी. बिंदी वाले पैकेट को उस ने फिर वापस रख दिया. अचानक उस की नजर प्रवीण की कंपनी के प्रबंधनिदेशक द्वारा भेजे गए उस लिफाफे पर पड़ी जो एक दिन पहले ही उसे मिला था. लिफाफा खोल कर उस ने पत्र निकाला और पढ़ने लगी. प्रबंधनिदेशक ने लिखा था, ‘प्रवीण के असमय निधन से कंपनी के हम सभी लोग दुख से स्तब्ध रह गए हैं. आप पर क्या गुजरती होगी, इसे हम अच्छी तरह समझते हैं. हम आप से अनुरोध करते हैं कि प्रवीण की जगह ले कर आप कंपनी की सेवा में आ जाएं. आप का समय भी कट जाएगा और हमें खुशी होगी कि हम अपने पूर्व कर्मचारी के परिवार के लिए कुछ कर सके.’

प्रिया कुछ क्षण सोचती रही और फिर उस ने फैसला ले लिया कि वह नौकरी जरूर जौइन करेगी…बिना देर किए. उस ने सूटकेस से साड़ी निकाली और डै्रसिंग टेबल के सामने आ कर खड़ी हो गई. साउथ सिल्क की साड़ी में वह खूबसूरत दिख रही थी. जैसे ही उस ने माथे पर बिंदी लगाई, उसे लगा जैसे गहरे अंधेरे के बाद उजाला हो गया हो. प्रवीण का दफ्तर वाला बैग उस ने अपने हाथ में उठाया और मां को कहा, ‘मां, पापा से कह देना, मैं उन के साथ नहीं जा सकती, मैं ने अपना रास्ता चुन लिया है. मैं प्रवीण की कंपनी जौइन कर रही हूं.’

मां प्रिया को एकटक देखती रहीं. उस के माथे की बिंदी और चेहरे के तेज भाव को. प्रिया का वह एक दूसरा ही रूप था जिसे देख कर मां के मन में कुतूहल के साथ एक अज्ञात भय पैदा हो गया. पता नहीं, यह लड़की क्या करेगी? घरबाहर किस प्रकार रहना चाहिए इसे मालूम नहीं? कुदरत ने उस से शानोशौकत, खानपान, रहनसहन और सामान्य ढंग से जीने का हक छीन लिया है, क्या वह नहीं जानती, कुदरत ने ही उस के साथ खिलवाड़ किया है? तब सच को छिपाने से क्या फायदा? अपने धर्म और परिवार का खयाल रखना पड़ेगा. आने दो आज, समझाऊंगी मैं उसे, एक विधवा को कैसे रहना है और कैसे जीना है.

शाम को प्रिया जैसे ही अपने दफ्तर से लौट कर आई, मां ने उसे अपने पास बैठा लिया. प्रिया बहुत खुश थी. मां से उस ने कहा कि दफ्तर का माहौल उस के माकूल है. एमडी से ले कर जीएम, अन्य अधिकारी तथा स्टाफ के सभी सदस्यों से उस को आदर मिला. प्रवीण कंपनी में एजीएम के पद पर था.

वही जगह प्रिया को भी मिली. दफ्तर में एक एजीएम का एक और पद है जिस पर फिलहाल मुंबई से सतीश ने जौइन किया है. सतीश और प्रवीण ने एक ही दिन नागपुर में कंपनी में जौइन किया था. सतीश से नागपुर में ही प्रिया की मुलाकात हुई थी. एक बार प्रवीण ने अपने घर उसे खाने पर बुलाया था, फिर उस का ट्रांसफर मुंबई हो गया. आज दफ्तर में उस से भेंट होने पर पुरानी याद ताजा हो गई. उस ने प्रवीण की मृत्यु पर काफी अफसोस प्रकट करते हुए कहा, ‘‘भाभी, आप इस दफ्तर में आ गईं, अच्छा हुआ.’’

‘‘यह सब तो ठीक है बेटी. कंपनी जौइन कर ली, मैं मना नहीं कर रही लेकिन तुम इस तरह मत रहो कि लोग तुम पर उंगली उठाएं. तुम्हें रंगीन कपड़े, बिंदी छोड़ कर सादे ढंग से जीना है,’’ मां ने जैसे अपना हुक्म जारी कर दिया.

‘‘मां, ऐसा न कहो, मैं एक विधवा की तरह नहीं जी सकती. मेरा दम घुट जाएगा. मेरी पुनू मर जाएगी. मुझे इन खोखले बंधनों से उबरने दो, मां. मैं अपनी जिंदगी को अपनी बेटी के साथ भरपूर जीना चाहती हूं. मुझे बल दो मां कि मैं इन बुरे रीतिरिवाजों का खुल कर सामना कर सकूं,’’ प्रिया ने अपना साहस दिखाया.

‘‘यह कैसे होगा बेटा, मैं मान भी जाऊं लेकिन तुम्हारे पापा, अपना धर्म, यह समाज हमें सुखचैन से नहीं रहने देगा.’’

‘‘उस की चिंता तुम मत करो मां. हमें ढंग से जीने का पूरा अधिकार है. जो धर्म हमें अपने पथ से डिगा दे उसे हम नहीं मानते और यह समाज जो खुद कुरीतियों के दलदल में फंसा हुआ है, उस की हम क्यों सुनेंगे. हम जैसा करेंगे समाज वैसा ही बनेगा.’’

मांने फिर कुछ जवाब नहीं दिया. शायद, प्रिया की बातों का उन पर अनुकूल असर हुआ. वे समझने लगीं कि जमाना अब बदल गया है. नए विचारों का साथ देने में ही अब भलाई है. वक्त के साथ पुराने पत्ते झड़ते गए और उस की जगह नए पत्ते मुसकराने लगे. प्रिया के भीतर भी नईनई कोंपलें उग आईं. दफ्तर में प्रिया का मन लगने लगा. वहां काम करने वाले सभी कर्मियों से उस की दोस्ती बढ़ती गई, खासकर सतीश से. एक दिन सतीश को उस ने अपने घर बुला कर मां से भी मिलाया. मां ने उत्सुकतावश उस से पूछ ही लिया कि वह कहां का रहने वाला है, उस के घर और कौनकौन हैं तथा वह किस बिरादरी का है? सतीश ने स्पष्ट शब्दों में मां को समझाया था कि वह रांची के आदिवासी परिवार से है. उस के घर में मातापिता और शादीशुदा 2 बहनें हैं. वैसे हम खांटी हिंदू हैं. लेकिन किसी दकियानूस धर्म या नीति से बंधे नहीं हैं. हमारा परिवार एक उन्मुक्त परिवार है. उस में दुनिया की सभी जातियां और धर्म समाहित हैं. इंसानियत ही हमारी जाति है और वही हमारा धर्म है.

‘‘बेटा, यह सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन हमारा समाज और धर्म इस की इजाजत नहीं देते. हम इन से बंधे हैं. अपने मन से कुछ नहीं कर सकते.’’

‘‘मांजी, आप लोगों को कुछ नहीं करना. करने वाले तो हम लोग हैं ही. आप बुजुर्ग लोग बस स्वीकारते जाइए. समाज और धर्म में बदलाव अपनेआप आ जाएगा.’’

‘‘ठीक है बेटा.’’

‘‘मांजी, आप ने स्वीकार कर लिया, फिलहाल बस इतना ही काफी है,’’ सतीश बोल कर जैसे निश्ंिचत हो गया.

एक दिन आखिर सतीश ने प्रिया के सामने शादी का प्रस्ताव रख ही दिया. इस पर प्रिया ने कहा, ‘‘मेरे साथ मेरी 5 वर्ष की बेटी पुनू भी है सतीश, क्या तुम उसे स्वीकार करोगे?’’

‘‘ऐसा क्यों बोलती हो? पुनू तुम्हारी बेटी है तो वह मेरी बेटी भी है. हमारे लिए एक बच्चा काफी है अब और की हमें जरूरत नहीं.’’

‘‘मुझ जैसी एक बच्ची की मां और विधवा औरत से तुम शादी के लिए तैयार हो गए सतीश, यह तुम्हारा बड़प्पन है.’’

‘‘अरे, तुम्हारी तुलना में मेरा बड़प्पन कोई अर्थ नहीं रखता, प्रिया. तुम जैसी उच्च खानदान की लड़की एक आदिवासी से संबंध करने को तैयार हो गई, इस पर आज ही नहीं, आने वाली पीढ़ी भी नाज करेगी. धर्म, समाज और जातिवाद की कुरीतियों पर जो तुम ने कुठाराघात करने का साहस किया है वह प्रशंसनीय है.’’

आखिर दोनों की सहमति मिल गई और एक दिन दफ्तर के सहकर्मियों के साथ दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली. मां ने जाना तो प्रिया से बस इतना ही कहा कि मैं तो मान गई लेकिन तुम्हारे पापा बर्दाश्त नहीं करेंगे और धर्मसमाज से तुम्हें जिंदगी भर लड़ना पड़ेगा.

प्रिया ने मां को साथ रहने के लिए मना लिया. सोचा, मां साथ रहेंगी तो पापा जरूर आएंगे और किसी भी तरह उन्हें वह मना ही लेगी. यह सोच कर ही प्रिया के भीतर एक खुशी की लहर दौड़ गई.

प्रिया ने अपने ऊपर लगने वाले विधवा के ठप्पे का अंत कर दिया. कोई अब उस को विधवा नहीं कह सकता. वह सदा सुहागन रहेगी. अब उस की ओर कोई उंगली नहीं उठा सकेगा.

लेखक- बिलास बिहारी

क्या मैं गलत हूं: शादीशुदा मयंक को क्या अपना बना पाई मायरा?

पियाबालकनी में आ कर खड़ी हो गई. खुली हवा में सांस ले कर ऐसा लगा जैसे घुटन से बाहर आ गई हो. आसपास का शांत वातावरण, हलकीहलकी हवा से धीरेधीरे लहराते पेड़पौधे, डूबता सूरज सबकुछ सुकून मन को सुकून सा दे रहा था. सामने रखी चेयर पर बैठ कर आंखें मूंद लीं. भरसक प्रयास कर रही थी अपने को भीतर से शांत करने का. लेकिन दिमाग शांत होने का नाम नहीं ले रहा था. एक के बाद एक बात दिमाग में आती जा रही थी…

मैं पिया इस साल 46 की हुई हूं. जानपहचान वाले अगर मेरा, मेरे परिवार का खाका खींचेंगे तो सब यही कहेंगे, वाह ऐश है पिया की, अच्छाखासा खातापीता परिवार, लाखों कमाता पति, होशियार कामयाब बच्चे, नौकरचाकर और क्या चाहिए किसी को लाइफ में खुद भी ऐसी कि 4 लोगों के बीच खड़ी हो जाए तो अलग ही नजर आती है. खूबसूरती प्रकृति ने दोनों हाथों से है. ऊपर से उच्च शिक्षा ने उस में चारचांद लगा दिए. तभी तो मयंक को वह एक नजर में भा गई थी.

‘नैशनल इंस्टिट्यूट औफ फैशन टैक्नोलौजी, बेंगलुरु’ से मास्टर डिगरी ली थी उस ने.

जौब के बहुत मौके थे. मयंक का गारमैंट्स का बिजनैस देशविदेश में फैला था. फैशन इलस्टेटर की जौब के लिए उस ने अप्लाई किया था. उस के डिजाइन्स किए गारमैंट्स के कंपनी को काफी बड़ेबड़े और्डर मिले. मयंक की अभी तक उस से मुलाकात नहीं हुई, बस नाम ही

सुना था.

पिया के काम की तारीफ और स्पैशल इंसैंटिव के लिए मयंक ने उसे स्पैशल अपने कैबिन में बुलाया. कंपनी के सीईओ से मिलना पिया के लिए फक्र की बात थी.

मयंक को देखा तो देखती रह गई. किसी फिल्मी हीरो जैसी पर्सनैलिटी थी उस की. लेकिन पिया कौन सी कम थी. मयंक के दिल में उसी दिन से उतर गई थी. पिया कंपनी के सीईओ के लिए कुछ ऐसावैसा सोच भी नहीं सकती थी, लेकिन मयंक ने तो बहुत कुछ सोच लिया था पिया को देख कर. अब तो वह नित नए बहाने बना कर पिया को डिस्कस करने के लिए कैबिन में बुला लेता. पिया बेवकूफ तो थी नहीं कि कुछ सम?ा न पाती. मयंक ने उस से जब बातों ही बातों में शादी का प्रस्ताव रखा तो पिया को लगा कि कहीं वह कोई सपना तो नहीं देख रही. सपनों का राजकुमार उसे मिल गया था.

शादी के बाद पिया का हर दिन सोना और रात चांदी थी. 1 साल के अंदर ही पिया बेटे अनुज की मां बन गई और डेढ़ साल बाद ही स्वीटी की किलकारियों से घर फिर से गुलजार हो गया.

कहते हैं न जब प्रकृति देती है तो छप्पर फाड़ कर देती है. दोनों बच्चे एक से बढ़ कर एक होशियार. अनुज 12वीं के बाद ही आस्ट्रेलिया चला गया और वहां से बीबीए करने के बाद उस ने मयंक के साथ बिजनैस संभाल लिया. बापबेटे की देखरेख में बिजनैस खूब फूलफल रहा था. स्वीटी का एमबीबीएस करते हुए शशांक के साथ अफेयर हो गया तो दोनों की पढ़ाई खत्म होते हुए उन की शादी कर दी. आज दोनों मिल कर अपना बड़ा सा क्लीनिक चला रहे हैं.

पिया की यह कहानी सुन कर यह लगेगा न वाऊ क्या लाइफ है. पिया को भी ऐसा लगता है. लेकिन लाइफ यों ही मजे से गुजरती रहे ऐसा भला होता है? बस पिया की जिंदगी में भी ट्विस्ट आना बाकी था.

मयंक का अपने बिजनैस के सिलसिले में दुबई काफी आनाजाना था. मायरा जरीवाला गुजरात से थी. गारमैंट्स स्टार्टअप से शुरुआत की थी उस ने और आज उस की गुजराती टचअप लिए क्लासिक और मौडर्न ड्रैसेज की खूब डिमांड हो रही थी. बहुत महत्त्वाकांक्षी लड़की थी. मयंक की गारमैंट इंडस्ट्री के साथ टाइअप कर के वह अपने और पांव पसारना चाहती थी. इसी सिलसिले में उस ने दुबई में मयंक के साथ एक मीटिंग रखी थी.

मयंक 48 वर्ष का हो चुका था. कहते हैं कि पुरुष इस उम्र में अपने अनुभव, अपने धीरगंभीर व्यक्तित्व और पैसे वाला हो तो उस की पर्सनैलिटी में गजब की रौनक आ जाती है. माएरा मयंक के इस रोबीले व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. उस की कंपनी के साथ टाइअप के साथसाथ उस की जिंदगी के साथ भी टाइअप करने की उस ने ठान ली.

पता नहीं क्यों पत्नी चाहे कितनी ही खूबसूरत, प्यार करने वाली हो, हर तरह से खयाल रखने वाली हो, लेकिन जहां कोई दूसरी औरत, ऊपर से खूबसूरत लाइन देने लगे तो पुरुष को उस की तरफ खिंचते हुए ज्यादा देर नहीं लगती. मयंक भी पुरुष था. मायरा एक बिजनैस वूमन थी. ऊपर से पूरी तरह आत्मविश्वास से भरी 35 साल की खूबसूरत औरत.

मयंक धीरेधीरे उस की ओर आकर्षित होता गया. मायरा नए दौर की औरत थी, जिस के लिए पुरुष के साथ रिलेशनशिप बनाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी. अपनी खुशी उस के लिए सब से ज्यादा माने रखती थी. मयंक और वह अब अकसर दुबई में ही मिलते और हफ्ता साथ बिता कर अपनेअपने बिजनैस में लग जाते. दोनों बिजनैस वर्ल्ड में अपनी रैपो बना कर रखना चाहते थे.

‘‘मयंक डियर, मु?ो बुरा लगता है कि मेरे कारण तुम पिया के साथ धोखा कर रहे हो. लेकिन मैं क्या करूं. मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं. अब मेरी खुशी तुम से जुड़ी है,’’ मायरा मयंक को अपनी बांहों के घेरे में घेरती हुई बोली.

‘‘मायरा, मैं तुम से ?ाठ नहीं बोलूंगा. पिया से मैं भी प्यार करता हूं. लेकिन अब जब भी तुम्हारे साथ होता हूं मु?ो अजीब सा सुकून मिलता है. मैं उसे कोई दुख नहीं पहुंचाना चाहता, लेकिन तुम्हें अब छोड़ भी नहीं सकता. वह मेरी जिंदगी है तो तुम मेरी सांस हो. मायरा, अब मैं तुम्हें जीवनभर यों ही प्यार करना चाहता हूं. मेरी जिंदगी में अब तक पिया की जगह एक तरफ

है और तुम्हारी दूसरी तरफ. मैं दोनों को ही शिकायत का मौका नहीं देना चाहता,’’ मयंक ने मायरा को एक भरपूर किस करते हुए अपने आगोश में ले लिया.

मयंक ने पूरी कोशिश की थी कि पिया को मायरा के बारे में कुछ पता न चले.

वह मायरा के साथ अपनी सारी चैट साथ ही

साथ डिलीट कर देता था. मोबाइल में अपना फिंगर पासवर्ड लगा रखा था. पिया खुद भी मयंक का मोबाइल कभी चैक नहीं करती थी, पूरा विश्वास जो था उस पर, लेकिन उस दिन मयंक नहाने के लिए जैसे ही बाथरूम में गया मायरा के 2-3 व्हाट्सऐप मैसेज आ गए.

पिया की नजर मोबाइल पर पड़ी. मोबाइल पर 2-3 बार बीप की आवाज हुई. नोटीफिकेशन में माई डियर लिखा दिख गया.

पिया का माथा ठनक गया. अब उसे मयंक की हरकतों पर शक होना शुरू हो गया. मयंक का बिजनैस ट्रिप की बात कह कर जल्दीजल्दी दुबई जाना, मोबाइल चैट पढ़ते हुए मंदमंद मुसकान, उस पर जरूरत से ज्यादा प्यार लुटाना, बातवेबात उसे गिफ्ट दे कर खुश रखना.

अपनी बौडी फिटनैस के लिए जिम एक दिन भी मिस न करना, डाइट पर पूरापूरा ध्यान देना जिस के लिए वह कहतेकहते थक जाती थी, लेकिन वह लापरवाही करता था. पिया को एक के बाद एक सब बातें जुड़ती नजर आने लगीं.

मयंक की जिंदगी में आजकल क्या चल रहा है उस का पता लगाना उस के लिए मुश्किल नहीं था. मयंक का ऐग्जीक्यूटिव असिस्टैंट समीर को एक तरह से पिया ने ही जौब पर रखा था. वह उस की फ्रैंड सीमा का कजिन था. समीर पिया की बहुत इज्जत करता था और अपनी बड़ी बहन मानता था.

पिया ने जब समीर से मयंक के प्रेमप्रसंग के बारे में पूछा तो उस ने अपना नाम बीच में न आने की बात कह पिया को मायरा के बारे में सबकुछ बता दिया.

समीर उसे मायरा और मयंक के बीच के बारे में बताता जा रहा था और पिया को लग रहा था जैसे उस के सपनों का महल जिसे उस ने प्यार से मजबूत बना दिया था आज रेत की तरह ढह गया है.

कहां कमी छोड़ दी थी उस ने. सबकुछ तो मयंक के कहे अनुसार करती रही थी. उस ने कहा नौकरी छोड़ दो, उस ने छोड़ दी. अपने कैरियर के पीक पर थी वह लेकिन मयंक के प्यार के आगे सब फीका लगा. उस ने कहा कि पिया बच्चों की देखभाल तुम्हारी जिम्मेदारी है, मैं अपने काम में बिजी हूं, तो यह बात भी उस ने मयंक की चुपचाप मान ली थी.

बच्चों की हर जिम्मेदारी उस ने खुद पर ले ली थी. अड़ोसपड़ोस, नातेरिश्तेदार, घरबाहर की सब व्यवस्था उस ने संभाल ली थी. किस के लिए, मयंक के लिए न, क्योंकि मयंक ही उस की दुनिया था. सबकुछ उस से ही तो जुड़ा था और उस ने कितनी आसानी से मायरा को उस के हिस्से का प्यार दे दिया. यह भी नहीं सोचा कि उस पर क्या बीतेगी, जब उसे पता चलेगा.

पिया को ऐसा लग रहा था जैसे उस की नसों में गरम खून दौड़ रहा है. तनमन दहक रहा है. मन कर रहा था कि मयंक को सब के सामने शर्मसार कर दे.

पिया यह सब तू क्या सोच रही है’, अचानक पिया को अपने मन की आवाज सुनाई दी, ‘पिया, यह तो तु?ो मयंक के बारे में अचानक शक हो गया तो तू ने सच पता कर लिया. अगर उस दिन फोन नहीं देखती तो? सबकुछ वैसा ही चलता रहता जैसे पिछले कई बरसों से चलता आ रहा है.’

पिया की सोच जैसे तसवीर का दूसरा पहलू देखने लगी थी. आज समाज में मयंक का एक रुतबा है. बेटे की बिजनैस टाइकून की इमेज बनी हुई. बेटी स्वीटी अपनी ससुराल में सिरआंखों पर बैठाई जाती है, क्योंकि उस का मायका रुसूखदार है. खुद का सोसाइटी में हाई प्रोफोइल स्टेट्स रखती है. आज अगर वह मुंह खोलती है तो मयंक के इस अफेयर को ले कर मीडिया वाले मिर्चमसाला लगा कर जगजाहिर कर देंगे. उन के बिजनैस पर इस का बहुत फर्क पड़ेगा.

बरसों से कमाई गई शोहरत पर ऐसा धब्बा लगेगा जिस का खमियाजा अनुज को भुगतना पड़ेगा, बेटा जो है. अभी तो उस का पूरा भविष्य पड़ा है आगे अपनी शोहरत बटोरने के लिए. स्वीटी के लिए मयंक उस के आइडियल पापा हैं. समाज में कितना रुतबा है उन के खानदान का. ऊफ, सब मिट्टी में मिल जाएगा. सोचतेसोचते पिया का सिर चकराने लगा था.

‘‘पिया मैडम, जरा संभल कर. आप ठीक तो हैं न, आप यहां आराम से बैठिए,’’ समीर ने पिया को कुरसी पर बैठाते हुए कहा.

पिया को पानी का गिलास दिया तो वह एक सांस में पी गई. उस की चुप्पी सबकुछ वैसा ही चलते रहने देगी जैसे चलता आ रहा है और अपने साथ हो रही बेवफाई को सरेआम करती है तो सच बिखर जाएगा. दिल और दिमाग में टकराव चल रहा था.

अचानक पिया कुरसी से उठ खड़ी हुई. पर्स से मोबाइल निकाला और

मयंक को फोन मिलाया, ‘‘मयंक, कहां हो तुम.’’

‘‘डार्लिंग, मीटिंग के लिए बाहर आया था. क्यों क्या बात है?’’ मयंक ने पूछा.

‘‘वह मैं तुम्हारे औफिस आई थी कि साथ लंच करते हैं.’’

‘‘ओह, यह बात है. नो प्रौब्लम, ऐसा करो तुम शंगरिला होटल पहुंचो, मैं सीधा तुम्हें वहां

15 मिनट में मिलता हूं. साथ लंच करते हैं वहां,’’ मयंक ?ाट से बोला.

‘‘ठीक है मैं पहुंचती हूं,’’ बोल कर पिया ने फोन काट दिया.

पिया जब होटल पहुंची तो मयंक उसे उस का इंतजार करता मिला.

पिया को लगा जैसे मयंक वही तो है जैसे पहले था. उस का खयाल रखने वाला. उसे इंतजार न करना पड़े इसलिए खुद पहले पहुंच जाना. मयंक के प्यार में कमी तो उसे कहीं दिख नहीं रही.

दोनों ने साथ लंच किया और मयंक ने उसे घर छोड़ा और औफिस चला गया, क्योंकि 4 बजे उस की क्लाइंट के साथ फिर मीटिंग थी.

घर आ कर पिया बालकनी में बैठ गई थी. उस ने निर्णय ले लिया. मयंक का सबकुछ बिखेर कर रख देगा. जो कुछ वह देख पा रही है शायद मयंक ने उस बारे में सोचा तक नहीं है. उस का सबकुछ तबाह हो जाएगा.

मयंक ने शायद सोचा ही नहीं कि मायरा के साथ उस की खुशी बस तभी तक है जब तक सब परदे के पीछे है. सच सामने आ गया तो सब खत्म हो जाएगा. न प्यार का यह नशा रहेगा, न परिवार में इज्जत, न समाज में मानप्रतिष्ठा.

‘उस की तो दोनों तरफ हार है. मयंक की तबाही से उसे क्या हासिल होगा. खुशी तो मिलने से रही. फिर यह ?ाठ ही क्यों नहीं अपना लिया जाए,’ पिया दिल को एक तरफ रख दिमाग से सोचने लगी, ‘मयंक उस से मायरा का सच छिपाने के लिए उस से बेइंतहा प्यार करने लगा है. प्यार तो कर रहा है न.

‘उस के प्यार के बिना वह नहीं रह सकती. नहीं जी पाएगी वह उस के बिना. मयंक इस भुलावे में रहे कि वह उस की सचाई जानती तो अच्छा ही है. सब अच्छी तरह तो चल रहा है.

‘पत्नी हूं मैं उस की, मेरा हक कोई और छीन नहीं सकता. पतिपत्नी के रिश्ते में सचाई होनी चाहिए. यह बात मानती है वह लेकिन अगर आज वह मयंक को उस के सच के साथ नंगा कर देगी तो क्या उन के बीच वह पहले जैसा प्यार रह पाएगा? नहीं, कई बार ?ाठ को ही अपनाना पड़ता है. दवा कड़वी होती है, लेकिन इलाज के लिए खानी ही पड़ती है.’

पिया ने अब निर्णय ले लिया और एक नई पहल शुरू करने के लिए वह कमरे के भीतर गई. लाइट औन की. पूरा कमरा लाइट से जगमगा उठा. अब अंधेरा नहीं था. मयंक के सामने जाहिर नहीं होने देगी कि वह सब जान चुकी है. शायद यही सब के लिए ठीक है. गलत तो नहीं है वह कहीं?

मोह के धागे: क्यों पति का घर छोड़ने पर मजबूर हो गई वृंदा

दरवाजे की घंटी बजी तो वृंदा ने सोचा कौन होगा इस वक्त? घड़ी में 8 बज रहे थे. पैरों में जल्दी से चप्पलें फंसा कर चलतेचलते पहनने की कोशिश करते हुए दरवाजा खोला तो सामने मानव खड़ा था. ‘‘ओह, तुम?’’ धीरे से कह कर रास्ता छोड़ दिया.

अचानक कमरे में गहरा सन्नाटा पसर गया था. टेबल पर रखे गिलास में पानी भरते हुए पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’ ‘‘वह… मां का देहांत हो गया… आज… मैं ने सोचा… शायद… तुम घर आना चाहो.’’

वृंदा के हाथ थमे से रह गए, ‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर पलकें झुका लीं. आंखों में आंसू भर आए थे. फिर से एक लंबी चुप्पी पसर गई थी. ‘‘तो… कल मैं… इंतजार करूंगा,’’ कह कर मानव उठा और दरवाजे तक पहुंच कर फिर मुड़ा, ‘‘आई विल वेट फौर यू.’’

वृंदा ने हामी में सिर हिलाते हुए नजरें झुका लीं. मानव के सीढि़यां उतरने की आवाज धीरेधीरे दूर हो गई तो वृंदा ने दरवाजा बंद कर लिया और आ कर सोफे पर ही लेट गई. उस की आंखें अब भी नम थीं. 9 वर्ष बीत गए… वृंदा ने गहरी सांस ली… खाने का वक्त हो गया, मगर भूख न जानें कहां चली गई थी. अपार्टमैंट की बत्तियां बुझा धीमी रोशनी में बालकनी में आ खड़ी हुई. तेज रफ्तार से दौड़ती गाडि़यां मानो एकदूसरे का पीछा कर रही हों.

वृंदा का मन बोझिल सा हो गया था. कपड़े बदले, पानी पीया और बिस्तर में लेट गई. आंखें बंद कीं तो आवाजें कानों में गूंजने लगीं… ‘‘वृंदा, मां को खाना दे दो.’’

‘‘हां, बस बन गया है.’’ मानव थाली निकाल मां का खाना ले कर उन के कमरे की तरफ चल दिया.

‘‘सुनो, मैं दे रही हूं.’’ ‘‘रहने दो,’’ कह कर, मानव चला गया.

‘‘वृंदा, देखो मां क्यों खांस रही हैं.’’ ‘‘अरे, ऐसे ही आ गई होगी.’’

मानव ने दवा निकाली और मां के कमरे में चला गया. वृंदा सुबह भागभाग कर काम निबटा रही थी. मानव के औफिस का वक्त हो रहा था.

‘‘वृंदा, मेरा नाश्ता? उफ, ये सब तुम बाद में भी कर सकती हो,’’ मुंह बना कर मुड़ गया. मां के कपड़े धोना, प्रैस करना, उन का खाना, नाश्ता, दूध, फ्रूट काटना, जूस देना और भी कई छोटेछोटे काम करते वृंदा थक जाती.

शाम को मानव घर लौटा, तुम मां का खयाल नहीं रखतीं… बूढ़ी हैं वे… सब कामवाली पर छोड़ रखा है.’’

सुन कर वृंदा अवाक रह गई. गुस्सा आने लगा था उसे. मानव और उस के बीच जो मीठा सा प्रेम था वह मर सा गया था. क्या यह वही आदमी है जो जरा सा रूठते ही मनाने लगता था. मेरी छोटीछोटी बातों का भी ध्यान रखता था. अब मां के सिवा उसे कुछ नजर ही नहीं आता. मां पर भी गुस्सा आने लगा था कि इतना करने के बावजूद कभी कोई आशीर्वाद या तारीफ का शब्द उन के मुंह से न निकलता. फिर भी मानव पर प्यार आ जाता बारबार. शायद वृंदा का प्रेम मोह में बदल गया था. खुद पर गुस्सा आ रहा था. चाह कर भी मानव को समझा नहीं पा रही थी कि वह भी मां की परवाह करती है, प्यार करती है, देखभाल करती है… जाने कैसा चक्र सा बन गया था. मानव मां की ओर झुकता जाता. वृंदा को गुस्सा आता तो कुछ भी बोल देती. बाद में अफसोस होता. मगर मानव उन शब्दों को ही सही मान कर मां के लिए और परेशान रहता.

वृंदा को लगता मानव कहीं दूर चला गया है. अजनबी सा बन गया था. वृंदा उठ कर बिस्तर में बैठ गई. एसी चलने के बावजूद पसीना आ रहा था. पानी पीया और फिर लेट गई. रोज झगड़ा होने लगा. वृंदा इंसिक्योर होती गई. धीरेधीरे डिप्रैशन में जाने लगी. मानव बेखबर रहा. मां भी मूकदर्शक बनी रही. तनाव सा रहने लगा घर में.

एक दिन वृंदा ने मां को मानव से कुछ कहते सुना. वृंदा सामने आ गई, ‘‘मां… मेरे ही घर में मेरे खिलाफ बातें?’’

मानव बोला, ‘‘मां हैं मेरी इज्जत करो… बूढ़ी हैं,’’ वृंदा बूढ़ी हैं… बूढ़ी हैं सुनसुन कर तंग आ चुकी थी. बोली, ‘‘जानती हूं मैं,’’ चीखने लगी थी वह, ‘‘मैं किस के लिए हूं… अगर मैं ही प्रौब्लम हूं तो मैं ही चली जाती हूं.’’

‘‘जाना है तो जाओ… निकलो,’’ मानव ने कहा. वृंदा ने घर छोड़ दिया. मानव ने कोई खबर न ली. वृंदा ने भी गिरतेपड़ते राह खोज ली. आंसू भर आए थे. जख्म फिर हरे हो गए थे. वृंदा फफकफफक कर रो पड़ी थी.

सुबह मानव के घर में मां का क्रियाकर्म चलता रहा. मानव सफेद कुरतापाजामा पहने नजरों के सामने से गुजरता रहा. कितना जानापहचाना सा था सबकुछ. वृंदा भी हाथ बंटाती रही. 15 दिन बीत गए. मानव एक बार फिर उस के दरवाजे पर खड़ा था, ‘‘वृंदा… घर लौट आओ… अब तो मां नहीं रही.’’

वृंदा ने मानव की ओर देखा, ‘‘मानव, तुम आज तक समझ ही नहीं पाए… इट वाज नैवर अबाउट योर मदर… मैं तुम से उम्मीद करती थी कि तुम मेरी भावनाओं को समझोगे… जिस के लिए मैं अपना सब कुछ छोड़ आई थी… कितनी आसानी से उस घर से निकलने को कह दिया… मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. तुम्हारा प्यार पाना चाहती थी… मां के सामने तुम मुझे देख ही नहीं पाए… मैं ने खुद को तुम्हारे प्रेम में खो दिया था. अच्छा किया जो तुम ने मुझे बेसहारा छोड़ दिया. मैं ने अपने पैरों पर खड़ा होना सीख लिया. अपना आत्मविश्वास पा लिया. अब जो पाया है उसे फिर नहीं खोना चाहती. अच्छा होगा तुम फिर यहां न आओ.’’ मानव धीरे से उठा और बोझिल कदमों से चलता हुआ दरवाजे से निकल गया. वृंदा ने दरवाजा बंद किया और बंद हो गईं वे आवाजें जो उस का पीछा करती रहीं… वे मोह के धागे जो उसे बांधे हुए थे और कमजोर बना रहे थे आज तोड़ दिए थे और एक नए अध्याय की शुरुआत की थी.

तपस्या: क्या शिखर के दिल को पिघला पाई शैली?

शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डेगुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डेगुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी ंिंजदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो?

पूरी रात वह सो नहीं सका था.

दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

रहे चमकता अक्स: आखिर क्या करना चाहती थी अनन्या

‘‘रजत की बेरुखी अनन्या को अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. इसी बीच उसे हैदराबाद शिफ्ट होने की बात पता चली…’’

रजत के घर से जाते ही अनन्या चुपचाप बैड पर आ कर लेट गई. 5 दिन के लिए औफिस के काम से भीमताल जा रहा था रजत. पर जाते हुए रोज की तरह वही रूखा सा बाय. कितनी याद आई थी उसे रजत की जब वह पिछले महीने 1 सप्ताह के लिए गोवा गया था.

वह बेसब्री से रजत का इंतजार करते हुए उस के दिल में जगह बनाने के तरीके ढूंढ़ती रहती थी. तभी तो उस ने इंटरनैट पर वीडियो देख कर खाने की कुछ चीजें बनाना भी सीख लिया था. जिस दिन रजत लौटा था, उस दिन कुक से खाना न बनवा कर अपने हाथों से नर्गिसी कोफ्ते और लच्छेदार परांठे बनाए थे रजत के लिए. खाना खाने के बाद हलके से मुसकरा कर जब रजत ने थैंक्स बोला था, तो गदगद हो गई थी अनन्या.

आज उसे पूरी उम्मीद थी कि रजत खूब हिदायतें दे कर जाएगा, जैसेकि ज्यादा याद मत करना… बाई से अपने लिए अच्छा सा खाना बनवा कर खा लिया करना… रात में देर तक जागती मत रहना वगैरहवगैरह. पर रजत तो हमेशा की तरह सिर्फ बाय बोल टैक्सी में बैठ गया और मुड़ कर भी नहीं देखा.

सब सोचते हुए अनन्या को नींद आ गई. उस की नींद मोबाइल की रिंग बजने से टूटी.

‘‘अभीअभी लैंड हुई है फ्लाइट,’’ रजत का फोन था.

‘‘ओके… अभी तो कुछ देर लगेगी न एअरपोर्ट से बाहर निकलने में? फिर औफिस के गैस्ट हाउस तक पहुंचने में 1 घंटा और लगेगा… आप ने औफिस में इन्फौर्म कर के गाड़ी तो मंगवा ली थी न? रात को टैक्सी से जाना रिस्की होता है… ध्यान रखना अपना…’’

अनन्या हमेशा की तरह रजत को ले कर चिंतित हुई जा रही थी. इस के अलावा वह दूर गए रजत से बातचीत का कोई बहाना भी तलाशती रहती है.

‘‘मैं ठीक हूं,’’ और फोन काट दिया रजत ने.

अनन्या की रुलाई फूट पड़ी कि रजत थोड़ी देर और बात कर सकता था. अभी उस की शादी को 6 महीने ही तो हुए हैं, पर रजत तो लगता है उस से बोर हो गया. दिव्या की शादी भी तो उस के साथ ही हुई थी. वह तो जैसे अभी तक हनीमून पीरियड पर है.

उस दिन बाजार में कैसे अपने मियांजी के हाथ में हाथ डाले घूम रही थी… और एक वह है कि रजत को खुश करने में लगी रहती है दिनरात. खूब बातें बताती है वह रजत को अपने विषय में. पर रजत सुन भर लेता है. न चेहरे पर कोई भाव और न अपना सुनाने की उत्सुकता. चुपचाप अपनी धुन में मग्न घर पर भी लैपटौप लिए औफिस के काम में व्यस्त रजत अनन्या के लिए एक पहेली सा बनता जा रहा था.

अंधेरा घिरते ही अनन्या को उदासी ने पूरी तरह से घेर लिया. अपना ध्यान दूसरी ओर करने के उद्देश्य से उस ने व्हाट्सऐप पर जा कर दोस्तों के गु्रप की चैट खोली.

‘अरे वाह, कल सब ने इंडियागेट पर मिलने का कार्यक्रम बनाया है. मस्ती से बीतेगा कल का दिन,’ सोच कर उछल पड़ी अनन्या.

‘मैं भी आऊंगी,’ लिख कर वह कल पहनने के लिए अलमारी से कपड़े निकालने चल दी. कपड़ों से मैचिंग ऐक्सैसरी निकाल कर ड्रैसिंग टेबल पर रख वह खुशीखुशी सो गई.

सुबह उठ कर कामवाली से जल्दीजल्दी काम करवा कर खुशीखुशी तैयार होने लगी. ग्रे पैंट के साथ गुलाबी रंग का क्रौप टौप और रूबी का चोकर पहन जब वह लिपस्टिक लगाने लगी तो आईने में दपदप करते अपने रूप पर खुद ही फिदा हो गई. मुसकराते हुए हाथ में मैचिंग पर्स लिए वह मोबाइल ले कर कैब बुक कराने लगी. कैब के आते ही वह इंडिया गेट रवाना हो गई.

वहां पहुंची तो संजना, मनीष, निवेदिता, सारांश और कार्तिक पहले से ही पहुंचे हुए थे.

‘‘हाय ब्यूटीफुल,’’ मनीष हमेशा की तरह उसे देख कर हाथ हिलाते हुए बोला.

‘‘वाह कौन कहेगा कि तुम मैरिड हो… कितने लोग रोज प्रपोज करते हैं तुम्हें?’’ सारांश उसे ऊपर से नीचे तक निहारता हुआ बोला.

तभी किसी ने पीछे से आ कर अपने हाथों से अनन्या की आंखें बंद कर दीं.

‘‘साक्षी… पहचान लिया मैं ने,’’ साक्षी के हाथों को अपनी आंखों से हटाती हुए अनन्या खुशी से चहक उठी.

साक्षी अनन्या को आंखें फाड़े देखे जा रही थी, ‘‘अरे, यार मैं ने तो शादी के 2 महीने बाद ही वेट पुट औन कर लिया… तू कैसे अब तक… वाकई अनन्या, तुम सा नहीं देखा.’’

संजना भी पीछे नहीं रही, अनन्या की तारीफ में, ‘‘पता है सारे होस्टल में चर्चा होती थी उत्तराखंड से आई इस लड़की की… हम सब तो इसे डौल बुलाते थे… मेरी प्यारी सी…’’

‘‘कुछ भी कहो तुम सब इसे, मैं तो चुनचुन ही कहता था और वही कहूंगा,’’ संजना की बात पूरी होने से पहले रितेश आ गया और हमेशा की तरह अनन्या पर दुलार बरसाने लगा.

‘‘स्वाति अब तक नहीं आई?’’ सब को पहले की तरह ही अपने आगेपीछे घूमते देख अपनी इकलौती प्रतिद्वंद्वी स्वाति को याद करते हुए अनन्या बोली.

‘‘अरे, लो आ गई वह… साथ में पतिदेव हैं शायद,’’ दूर से आती स्वाति को देख मनीष बोला. स्वाति ने आ कर सब को हाय किया. इस से पहले कि वह सब से अपने पति की जानपहचान करवाती, स्वाति की ओर इशारा कर वह खुद ही बोल उठा, ‘‘बिना मैम के हमारा मन ही नहीं लगता, इसलिए इन का पल्लू पकड़ कर पीछेपीछे आ गए.’’

स्वाति अनन्या के रूप को देख कर हमेशा कुढ़ती रहती थी. पर आज स्वाति के पति को इस तरह मजाक करते और स्वाति के साथसाथ दोस्तों के बीच आया देख कर अनन्या को जलन हो रही थी.

कुछ ही देर में सब दोस्त इकट्ठे हो गए. एकदूसरे के साथ मौजमस्ती करते हुए वे अभी भी कालेज के स्टूडैंट्स ही लग रहे थे. इसी तरह हंसतेखेलते, खातेपीते पूरा दिन बीत गया. कुछ समय बाद फिर से मिलने का वादा कर सब ने एकदूसरे से विदा ले ली.

घर आ कर अनन्या के 2-3 दिन फेसबुक और व्हाट्सऐप पर तसवीरें डालते और शेयर करते हुए बीत गए. फेसबुक पर जब उस ने अपनी प्रोफाइल पिक बदली तो उस की खूबसूरती पर दनादन कमैंट्स आने लगे. खुद पर इतराती अनन्या कमैंट्स के रिप्लाई करने लगी. इसी बीच रजत के लौटने का दिन भी आ गया.

रजत ने आते ही बताया कि उन्हें 15 दिनों के अंदर ही दिल्ली से हैदराबाद शिफ्ट होना पड़ेगा, क्योंकि मीटिंग के दौरान उस के काम से प्रभावित हो कर उसे प्रमोशन दे दिया गया है. अगले ही दिन से दोनों जाने की तैयारियों में जुट गए.

हैदराबाद पहुंच कर रजत नई जिम्मेदारियां संभालते हुए बेहद व्यस्त हो गया. अनन्या सुबह से शाम तक नए मकान की सैटिंग करते हुए बहुत थक जाती थी. कामवाली रोजमर्रा का काम तो निबटा देती थी, पर अन्य कामों में अनन्या उस की मदद नहीं ले पा रही थी. अनन्या तेलुगु नहीं जानती थी और वह हिंदी ठीक से नहीं समझ पाती थी. अत: अनन्या के लिए बताना संभव नहीं हो पा रहा था कि वह किस काम में बाई की मदद चाहती है.

कुछ दिनों बाद अनन्या को कमजोरी के साथसाथ नींद भी बहुत आने लगी. दोपहर में वह कोई पत्रिका ले कर पढ़ने बैठती तो नींद के झोंके आने लगते. सुबह भी उसे उठने में देरी हो जाती थी, इसलिए बैड टी रजत ही बना रहा था इन दिनों. रजत का यह व्यवहार अनन्या को अच्छा तो लग रहा था, लेकिन अपनी सुस्ती को ले कर वह खुश नहीं थी. उस का मौर्निंगवौक भी छूट गया था. खुद को काम में लगाए हुए वह नींद और सुस्ती से दूर रहने का भरसक प्रयास करती, पर ऐसा हो नहीं पा रहा था.

उन लोगों को हैदराबाद आए हुए लगभग 1 महीना हो चुका था. उस दिन दोनों को पड़ोस में एक बच्चे के जन्मदिन की पार्टी में शामिल होना था. अनन्या ने पहनने के लिए ड्रैस निकाली, पर यह क्या, वह ड्रैस तो अनन्या को बहुत टाइट आ रही थी. उस ने सोचा कि ड्रैस धोने से सिकुड़ गई होगी, इसलिए 3-4 और ड्रैसेज निकाल कर पहनने की कोशिश की, पर कोई भी ड्रैस ठीक से पहनी नहीं जा रही थी. इन दिनों घर के काम में व्यस्त होने के कारण वह ढीली कुरती और गाउन ही पहन रही थी. अत: उसे अंदाज ही नहीं लग पाया कि उस का वजन बढ़ रहा है.

अनन्या ने सुबहसुबह टहलना शुरू कर दिया और साथ ही व्यायाम भी, पर वजन काबू में नहीं आ रहा था. थकान हो रही थी वह अलग. चेहरा भी निस्तेज पड़ गया था. जब उसे पैरों में सूजन दिखाई देने लगी तो वह रजत के साथ डाक्टर के पास गई.

वहां डाक्टर ने उसे ब्लड टैस्ट करवाने को कहा. रिपोर्ट आने पर पता चला कि अनन्या को हाइपरथायरोडिज्म हो गया है. गले में पाई जाने वाली थायराइड नामक ग्लैंड जब अधिक सक्रिय नहीं रह पाती तो यह बीमारी हो जाती है, जिस कारण शरीर को आवश्यक हारमोंस नहीं मिल पाते.

डाक्टर ने रोज खाने के लिए दवा लिख दी और कुछ समय बाद फिर टैस्ट करवाने को कहा ताकि दवा की सही मात्रा निर्धारित की जा सके. साथ ही उसे यह भी बता दिया कि एक बार यह ग्रंथि निष्क्रिय हो जाती है तो दोबारा सक्रिय होना लगभग असंभव है. लेकिन घबराने वाली बात नहीं है.

अनन्या ने अगले दिन से ही दवा लेनी शुरू कर दी. उस के असर से वह पहले से बेहतर महसूस कर रही थी पर अपने वजन को ले कर अकसर चिंतित हो जाती कि न जाने यह कब सामान्य होगा और फिर बाद में भी तो डोज कमज्यादा होने से वजन पर ही सब से पहले असर पड़ेगा. फिर डाक्टर की बताई यह बात याद कर कि बस अपना ध्यान रखते हुए रोज दवा की गोली खाने से एक सामान्य व्यक्ति जैसा ही जीवन व्यतीत होता रहेगा, खुद को तसल्ली देने की कोशिश करती.

कुछ दिनों बाद रजत को ट्रेनिंग के सिलसिले में 1 महीने के लिए दिल्ली जाना था.

इतने लंबे समय तक अजनबी शहर में अनन्या कैसे रहेगी, यही सोच कर उस ने अनन्या को भी साथ ले जाने का कार्यक्रम बना लिया.

दिल्ली पहुंच कर वे एक होटल में ठहरे. अनन्या का ज्यादातर समय टीवी देखने में बीत जाता था. एक दिन उस ने अपने दोस्तों को लंच पर बुलाने का कार्यक्रम रखा. जिस होटल में वह ठहरी थी, उस का पता सब को बता कर उस ने वहां के डाइनिंग हौल में ही टेबल्स बुक करवा लीं. अपनी मनपसंद ड्रैस पहन अनन्या बेसब्री से दोस्तों का इंतजार करने लगी.

मनीष ने सब से पहले आ कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. अनन्या उसे देखते ही खिल उठी. पर मनीष ने उसे देख मुंह बना कर आंखें सिकोड़ते हुए कहा, ‘‘अरे यह क्या? तू… तू… इतनी मोटी? क्या कर लिया?’’

इस से पहले कि अनन्या उस का जवाब देती, रितेश भी आ पहुंचा. फिर 1-1 कर के सब आ गए.

‘‘मैं अनन्या से मिल रहा हूं या किसी बहनजी से… कैसी थुलथुली हो गई इतने दिनों में… आलसियों की तरह पड़ी रह कर खूब खाती रहती है क्या सारा दिन?’’ सारांश हंसता हुआ बोला.

अनन्या रोंआसी हो गई, ‘‘अरे, नहीं… न मैं आलसी हूं और न ही कोई डाइटवाइट बढ़ी है मेरी… हाइपोथायरोडिज्म की प्रौब्लम हो गई है.’’

‘‘वह तो मेरी भाभी को भी है, पर तू तो कुछ ज्यादा ही…’’ अपने गालों को फुला कर दोनों हाथों से मोटापे का इशारा करती हुई स्वाति ठहाका लगा कर हंस पड़ी.

सब की बातों से उदास अनन्या ने वेटर को खाना लगाने को कहा. खाना खाते हुए भी दोस्त उस की प्लेट उस के सामने से हटा कर बस कर कितना खाएगी जैसी बातें करते हुए उस का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आ रहे थे. खाना खाने के बाद अनन्या सब को बाहर तक छोड़ने आई.

‘‘ओके… बाय चुनचुन नहीं टुनटुन…’’ रितेश के कहते ही सब जाते हुए खूब हंसे, पर अनन्या का मन छलनी हुआ जा रहा था. उदास मन से वह अपने कमरे में आ कर बैठ गई.

रात को सोने के लिए जब वह बैड पर लेटी तो रजत के करीब जा कर उस के सीने में अपना मुंह छिपाए कुछ देर यों ही चुपचाप लेटी रही.

‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? दोस्तों के साथ गप्पें मारते हुए ज्यादा ही थक गईं शायद?’’ रजत उस की पीठ पर हाथ रख कर बोला.

अनन्या अपना चेहरा रजत की ओर घुमाते हुए बोली, ‘‘एक बात पूछूं रजत… क्या तुम्हें बुरा नहीं लगता कि मैं इतनी मोटी हो गई हूं. फेस भी बदलाबदला सा लग रहा है…तुम ने तो एक स्लिमट्रिम, गोरी लड़की से शादी की थी…

7-8 महीनों में ही वह क्या से क्या हो गई.’’ ‘‘हा… हा… हा…’’ पहले तो रजत ने एक जोरदार ठहाका लगाया. फिर मुसकरा कर अनन्या की ओर देखते हुए बोला, ‘‘ओह अनन्या, कैसा सवाल है यह? यह सच है कि तुम्हें एक बीमारी हो गई है और उस में वेट कंट्रोल में नहीं रहता…पर यह बताओ कि क्या हम हमेशा वैसे ही दिखते रहेंगे जैसे शादी के वक्त थे? क्या जब बुढ़ापे में मैं गंजा हो जाऊंगा या फिर मेरे दांत टूट जाएंगे तो तुम्हें खराब लगने लगूंगा?’’

‘‘तुम मुझे प्यार तो करते हो न?’’ अनन्या के चेहरे पर निराशा अभी भी झलक रही थी. रजत एक बार फिर खिलखिला पड़ा, ‘‘अनन्या तुम इतनी समझदार हो कि मैं कब तुम से पूरी तरह जुड़ गया मैं ही नहीं समझ पाया. तुम मेरी केयर तो करती ही हो, मुझ से अपने मन की हर बात शेयर करती हो, बिना वजह कभी भी झगड़ा नहीं करतीं… और इतना क्वालिफाइड होने के बाद भी घर का काम करना पड़े तो नाकभौं नहीं सिकोड़ती… तुम सच में अपने नाम की तरह ही सब से बिलकुल अलग, बहुत खास हो.’’

‘‘पर इस से पहले तो आप ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा?’’ रजत की प्रेममयी बातें सुन भावविभोर हो अनन्या बोली.

‘‘मैं हूं ही ऐसा… बोलना कम और सुनना बहुत कुछ चाहता हूं… अनन्या यकीन करो, मुझे बिलकुल तुम सा ही पार्टनर चाहिए था.’’

अनन्या मंत्रमुग्ध हुए जा रही थी.

‘‘एक बात और कहूंगा…अपने शरीर का ध्यान रखना हम सब के लिए जरूरी है… पर बाहरी सुंदरता कभी मन पर हावी नहीं होनी चाहिए… तुम जब भी मेरे इस मन में झांक कर अपनी सूरत देखोगी, तुम्हें अपनी वही सूरत दिखाई देगी जो कल थी. आज भी वही और आने वाले कल भी.’’

‘‘ओह रजत… कुछ नहीं चाहिए मुझे अब… कोई मुझे कुछ भी कहता रहे परवाह नहीं… बस तुम्हारे दिल के आईने में मेरा अक्स यों ही चमकता रहे.’’

अनन्या नम आंखों को मूंद कर रजत से लिपट गई. रजत के प्रेम की लौ में पिघल कर वह स्वयं को बहुत हलका महसूस कर रही थी.

कमजोर नस: वंदना को क्यों था अपने पति पर शक

किरण से मेरी पहली मुलाकात राजीव से शादी होने के करीब 6 महीने बाद हुई थी. वह अपनी भाभी के साथ स्कूल आई थी. तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले उस के भतीजे समीर की मैं क्लास टीचर हूं.

‘‘मैं किरण हूं. राजीव और मैं कालेज में साथसाथ पढ़े हैं और हम बहुत अच्छे दोस्त भी थे,’’ उस की भाभी जब दूसरी टीचर से मिलने चली गई तो उस ने मुसकराते हुए अपना परिचय मुझे दिया था.

उस का नाम सुनते ही मेरा दिमाग एक बार को सुन्न सा हो गया. एकदम से समझ में ही नहीं आया कि मैं आगे क्या बोलूं.

उस ने मेरी चुप्पी का गलत अर्थ लगाया और बिदा लेते हुए बोली, ‘‘कभी राजीव को ले कर घर जरूर आना. बाय.’’

‘‘उसे यों जाते देख कर मैं चौंकी और फिर हड़बड़ाती सी बोली, ‘‘मैं अकेले में आप से कुछ बातें करना चाहती हूं.’’

‘‘श्योर,’’ उस का जवाब सुन कर मैं कुरसी से उठी और उसे हौल के एक कोने में ले आई. फिर मैं ने इधरउधर की बातें करने में समय नष्ट किए बिना उस से सीधा सवाल पूछा, ‘‘तुम ने राजीव से शादी क्यों नहीं करी?’’

‘‘मुझे राजीव से शादी क्यों करनी चाहिए थी?’’ उस ने मुसकराते हुए उलटा सवाल पूछा.

‘‘क्योंकि तुम दोनों एकदूसरे से प्यार करते थे. राजीव विजातीय थे तो क्या हुआ? तुम्हें अपने मातापिता की इच्छा के खिलाफ जा कर उन से शादी करनी चाहिए थी.’’

‘‘क्योंकि उन्होंने आज भी तुम्हारी तसवीर को दिल में बसा रखा है. तुम से जुड़ी यादों के कारण मैं कभी उन के दिल की रानी नहीं बन पाऊंगी,’’ मैं गुस्सा हो उठी थी.

‘‘क्या मेरे साथ जुड़ी यादें तुम्हारे व राजीव के प्यार में बीच में आ रही है?’’ वह चौंक पड़ी.

‘‘हां, उन्होंने सिवा प्यार की गरमाहट के मुझे सबकुछ दे रखा है,’’ न चाहते हुए भी मेरा गला भर आया था.

‘‘यह तो राजीव बहुत गलत कर रहा है,’’ उस ने सहानुभूति

भरे अंदाज में मेरा कंधा पकड़

कर दबाया.

‘‘तुम ने अपने मातापिता की क्यों सुनी? जब प्यार किया था तो शादी क्यों नहीं करी?’’

उस ने कुछ देर खामोश

रहने के बाद जवाब दिया, ‘‘इन सवालों के जवाब देने मैं तुम्हारे घर आती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम्हारा मेरे घर आना ठीक नहीं रहेगा,’’ मैं एकदम

घबरा उठी.

‘‘क्या तुम्हें डर है कि अगर मैं ने तुम्हारे घर आनाजाना शुरू कर दिया तो तुम कहीं राजीव को पूरी तरह से ही न खो दो?’’

मैं जवाब में खामोश रही तो उस ने प्यार से मेरा गाल थपथपा कर कहा, ‘‘मुझे तुम आज से अपनी बड़ी बहन समझो. मैं कभी तुम्हारा अहित नहीं करूंगी.’’

‘क्या तुम और राजीव मिलते रहते हो?’’

‘‘तुम्हारे सब सवालों के जवाब अगली मुलाकात में तुम्हारे घर आ कर दूंगी.’’

‘‘कब आओगी?’’

‘‘जल्द ही,’’ उस ने मुझ से हाथ मिलाया और अपनी भाभी की तरफ चली गई.

मैं ने राजीव को किरण से हुई इस मुलाकात की जानकारी शाम को दी तो उन्होंने सब से पहला सवाल यह पूछा, ‘‘कैसी लगी किरण की पर्सनैलिटी तुम्हें?’’

‘‘तुम बिना बात गुस्सा हो रही हो. अरे, वह मुझ से प्यार जरूर करती थी पर अब हमारे बीच कोई चक्कर नहीं चल रहा है.’’

‘‘चक्कर नहीं चल रहा है पर आप उसे भूले भी कहां हैं,’’ मेरा मूड खराब होता जा रहा था.

‘‘तुम सचसच बताओ कि क्या उस जैसी शानदार शख्सीयत को कोई भुला सकता है?’’ उन्होंने गहरी आह सी भरी.

‘‘यह बिडंबना ही है कि मेरी सेवा और समर्पण की आप की नजरों में कोई कीमत नहीं है,’’

मैं बुरी तरह से चिड़ उठी, ‘‘आप मेरी यह बात कान खोल कर

सुन लो. मैं बिलकुल नहीं चाहती हूं कि उस का मेरे घर में आनाजाना शुरू हो.’’

‘‘किसी का दिल ईर्ष्या की आग में जलने की बू आ रही है,’’ मेरा मजाक सा उड़ाते ये कमरे से बाहर चले गए और मैं देर तक किलसती रही.

अगले रविवार सुबह 11 बजे के करीब किरण

अपनी 2 सहेलियों शिखा व नेहा के साथ अचानक हमारे घर आ पहुंची. ये दोनों भी कालेज में राजीव के साथ पढ़ी थीं. इन के आते ही घर का माहौल तो एकदम से खुशनुमां हो गया, पर मैं खिंचीखिंची सी

बनी रही.

‘‘राजीव, जितनी तुम तारीफ फोन पर करते थे, वंदना तो उस से कहीं गुणा ज्यादा सुंदर और स्मार्ट है,’’ शिखा के मुंह से मेरी तारीफ सुन कर राजीव खुश हो गए.

‘‘तुम्हारी तो लौटरी निकल आई इै इतनी अच्छी पत्नी पा कर. इसी बात पर आज पार्टी हो जाए?’’ नेहा की आंखों में भी मैं ने अपने लिए प्रशंसा के भाव साफ देखे.

‘‘बिलकुल हो जाए,’’ राजीव ने फौरन खुशी से जवाब दिया.

‘‘मिठाई में हमारी पसंद याद है या भूल गए हो?’’ किरण ने बड़ी अदा से पूछा.

‘‘नेहा को रसमलाई, शिखा को रसगुल्ले और तुम्हें काजू की बरफी पसंद है. मैं कुछ नहीं भूला हूं.’’

‘‘तो किस की पसंद की मिठाई खिलाओगे?’’

‘‘मेरी.’’

‘‘मेरी.’’

‘‘नहीं, मेरी.’’

‘‘अरे, परेशान मत होओ.

मैं तीनों की पसंद की मिठाई ले आता हूं.’’

‘‘यह हुई न बात. तुम बिलकुल नहीं बदले हो. कितना बड़ा दिल है तुम्हारा,’’ किरण के मुंह से अपनी तारीफ सुनते ही राजीव ने विजयी भाव से मेरी तरफ देखा.

‘‘मैं अभी गया और अभी आया,’’ कह वे एकदम बाजार जाने को उठ खड़े हुए.

‘‘अभी रुको. थोड़ी देर बाद सब साथ चलेंगे. पहले तुम्हारी जानेमन वंदना के हाथ की बनी चाय तो पी लें.’’

‘‘चाय तो मैं अभी बना कर लाती हूं पर मुझे इन की जानेमन समझने की भूल न करें. इन की जानेमन तो कोई और है,’’ अपनी शिकायत बताने के बाद मैं रसोई में जाने को उठ खड़ी हुई.

‘‘लगता है कालेज में इस के सिर के ऊपर हर लड़की से प्रेम करने का जो भूत सवार रहता था, वह अभी भी उतरा नहीं है,’’ शिखा की इस टिप्पणी पर वे तीनों खिलखिला कर हंसीं.

किरण ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे किचन में जाने से रोका और अपने पास बैठाते हुए बोली, ‘‘हमें जाने की कोई जल्दी नहीं है. चाय कुछ देर बाद पी लेंगे. वैसे सहेलियां आज बहुत समय बाद राजीव के हाथ की बनी चाय पी जाए तो

कैसा रहेगा?’’

राजीव तो चाय बनाने को फौरन तैयार हो गए थे. वे तीनों उन के साथ रसोई में चली आई. वहां उन्होंने मुझे कोई काम नहीं करने दिया.

कुछ देर बाद ही रसोई में बहुत शोर मचने लगा.

‘‘अरे, इतनी ज्यादा चाय की पत्ती मत डालो.’’

‘‘अरे, अभी से चीनी क्यों डाल रहे हो?’’

‘‘कैसे भोंदू हो गए हो जो ढंग की चाय बनाना भी भूल गए हो. लगता है वंदना कोई काम तुम से नहीं कराती है.’’

‘‘आज पकौड़े बना कर नहीं खिलाओगे?’’

‘‘पकौड़ों को रहने दें… हमें पेट खराब नहीं करना है.’’

वे तीनों राजीव का खूब मजाक उड़ा रही थीं. लेकिन उन का व्यवहार बहुत दोस्ताना था. कभीकभी मुझे भी अपनी हंसी रोकना मुश्किल हो जाता था.

कुछ देर बाद हम सब ड्राइंगरूम में बैठ कर राजीव द्वारा बनाई गई चाय का आनंद ले रहे थे. चाय अच्छी बनी थी और सब के मुंह से अपने काम की प्रशंसा सुन वे फूले नहीं समा रहे थे.

‘‘राज, आज एक बढि़या सा गाना भी हो जाए,’’ किरण के मुंह से निकला तो बाकी दोनों भी गाना सुनाने के लिए उन के पीछे पड़ गई.

‘‘अब प्रैक्टिस नहीं रही है. मैं नहीं गा पाऊंगा,’’ राजीव ने गाने से बचने की कोशिश करी.

‘‘मेरी खातिर गाओ न,’’ किरण ने बड़ी अदा से जोर डाला तो ये गाना गाने को सचमुच तैयार हो गए और कमरे में एकदम से वे तीनों हल्ला मचाने लगीं.

‘‘कौन सा गाना सुनाओगे?’’

‘‘जब मुझ से इश्क लड़ा रहे थे तब ‘चौहदवीं का चांद हो…’ सुनाया था. आज वही सुना दो.’’

‘‘नहीं, पार्क में मेरे साथ घूमते हुए मेरी तारीफ में जो ‘तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूं…’ गीत गुनगुनाते थे वही सुना दो.’’

‘‘नहीं, वह मेरी पसंद का गाना सुनाइगा.’’

कुछ देर बाद जब राजीव ने किरण की पसंद का गाना गाया तो हम सब की हंसतेहंसते हालत खराब हो गई. उन से न सुर सध रहा था, न ताल. आवाज कहीं की कहीं जा रही थी.

वे बारबार रुक जाते थे पर उन तीनों ने पीछे पड़ कर गाना पूरा करवा ही लिया. गाना खत्म कर के इन्होंने मुझे सफाई सी दी, ‘‘मैं कालेज के दिनों में अच्छा सिंगर होता था. कुछ दिन रियाज करने के बाद देखना मैं कितना बढि़या गाने लगूंगा.’’

‘‘यह राजीव लड़कियों में भी सब से पौपुलर युवक होता था हमारे कालेज का, वंदना.’’

‘‘जब यह लड़कियों पर अनापशनाप खर्चा करने को हमेशा तैयार रहता था तो पौपुलर कैसे न होता?’’

‘‘मुझे इस ने कम से कम 20 फिल्में तो दिखाई ही होंगी.’’

‘‘मैं ने 50 देखी होंगी.’’

‘‘मैं ने 100 से ऊपर.’’

‘‘तू तो खास सहेली थी न इस की.’’

वे राजीव की पुरानी बातें याद कर खूब देर तक हंसती रहीं और फिर अचानक किरण ने कहा, ‘‘अब चलो भी. देर हो रही है. मेरा बेटा और पति लंच करने को तैयार बैठे होंगे.’’

‘‘ऐसे कैसे जाओगी? अभी तो तुम लोगों ने मनपसंद मिठाई भी नहीं खाई है,’’ राजीव बाजार जाने को फौरन उठ खड़े हुए.

‘‘मिठाई फिर कभी खा लेंगे. अभी तो तुम बस कोल्ड ड्रिंक ही पिला दो अपने हाथों से ला कर,’’ किरण ने राजीव को रसोई की तरफ जबरदस्ती धकेल दिया.

वे चले गए तो किरण ने संजीदा हो कर मुझ से कहा, ‘‘मैं ने राजीव से शादी क्यों नहीं करी, अब जल्दी से अपने सवाल का जवाब सुनो, वंदना. हमारे आज के व्यवहार से तुम्हें अंदाजा हो गया होगा कि राजीव को हम ने मनोरंजन के माध्यम से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा था. उस जैसे सीधेसादे लड़केलड़कियों के अच्छे दोस्त बन ही जाते हैं पर उस से शादी करने का विचार कभी हम में से किसी के दिल में आया ही नहीं था.

‘‘मैं इस के साथ बस फ्लर्ट करती थी पर जब यह सीरियस हो गया तो मुझे मजबूरन अपनी मम्मी को बीच में लाना पड़ा था. वे विजातीय लड़के से मेरी शादी करने को बिलकुल तैयार नहीं हैं, यह कह कर मैं ने अपनी जान छुड़ाई थी.

‘‘अब मेरी एक बात ध्यान से सुनो. अगर तुम हमारी तरह इसे अपनी उंगलियों पर नचाना चाहती हो तो इस की एक कमजोर नस मैं तुम्हें बताती हूं. यह दूसरों की नजरों में खास बने रहने को कुछ भी करेगा और कहेगा. इस के डींग मारने वाले व्यवहार से नाराज व दुखी रहने के बजाय तुम इस की झूठीसच्ची तारीफ कर के इस से कुछ भी करा सकती हो.’’

राजीव के लौट आने के कारण वह आगे और कुछ नहीं कह पाई थी. कोल्ड ड्रिंक पीने के बाद उन तीनों ने बारीबारी से मेरा माथा चूमा और खूब होहल्ला मचाते हुए अपनेअपने घर चली गईं.

उन के जाते ही राजीव ने मुझ से छाती चौड़ी करते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें बुरा तो नहीं लग रहा है न?’’

‘‘किस बात का?’’ मैं ने उन की आंखों में प्यार से झांक कर पूछा.

‘‘यही कि मेरी चाहने वालियों की आज भी कोई कमी नहीं है.’’

‘‘बिलकुल भी नहीं. आप हो ही इतने स्मार्ट,’’ पहले वाले अंदाज में नाराज हो कर मुंह फुलाने के बजाय मैं ने इन के गले में प्यार से बांहें डाल कर यह जवाब दिया तो इन का चेहरा खिल उठा.

‘‘वैसे आज की तारीख में ये सब तुम्हारे सामने कुछ भी नहीं हैं,’’ इन के मुंह से यों उलटी गंगा बहती देख मैं मन ही मन खुशी से झूम उठी और मन ही मन किरण को धन्यवाद दिया जिस ने मुझे इन की कमजोर नस पकड़वा दी थी.

एकांत कमजोर पल: जब सनोबर ने साहिल को गैर महिला की बांहों में देखा

वकील साहब का हंसताखेलता परिवार था. उन की पत्नी सीधीसाधी घरेलू महिला थी. वकील साहब दिलफेंक थे यह वे जानती थीं पर एक दिन सौतन ले आएंगे वह ऐसा सोचा भी नहीं था. उस दिन वे बहुत रोईं.

वकील साहब ने समझाया, ‘‘बेगम, तुम तो घर की रानी हो. इस बेचारी को एक कमरा दे दो, पड़ी रहेगी. तुम्हारे घर के काम में हाथ बटाएगी.’’

वे रोती रहीं, ‘‘मेरे होते तुम ने दूसरा निकाह क्यों किया?’’

वकील साहब बातों के धनी थे. फुसलाते हुए बोले, ‘‘बेगम, माफ कर दो. गलती हो गई. अब जो तुम कहोगी वही होगा. बस इस को घर में रहने दो.’’

बेगम का दिल कर रहा था कि अपने बच्चे लें और मायके चली जाएं. वकील साहब की सूरत कभी न देखें. पर मायके जाएं तो किस के भरोसे? पिता हैं नहीं, भाइयों पर मां ही बोझ है. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि शादी के 14 साल बाद 40 साल की उम्र में वकील साहब यह गुल खिलाएंगे. बसाबसाया घर उजड़ गया.

वकील साहब ने नीचे अपने औफिस के बगल वाले कमरे में अपनी दूसरी बीवी का सामान रखवा दिया और ऊपर अपनी बड़ी बेगम के पास आ गए जैसे कुछ हुआ ही नहीं. बड़ी बेगम का दिल टूट गया. इतने जतन से पाईपाई बचा कर मकान बनवाया था. सोचा भी न था कि गृहस्थी किसी के साथ साझा करनी पड़ेगी.

दिन गुजरे, हफ्ते गुजरे. बड़ी बेगम रोधो कर चुप हो गईं. पहले वकील साहब एक दिन ऊपर खाना खाते और एक दिन नीचे. फिर धीरेधीरे ऊपर आना बंद हो गया. उन की नई बीवी में चाह इतनी बढ़ी कि वकालत पर ध्यान कम देने लगे. आमदनी घटने लगी और परिवार बढ़ने लगा. छोटी बेगम के हर साल एक बच्चा हो जाता. अत: खर्चा बड़ी बेगम को कम देने लगे.

बड़ी बेगम ने हालत से समझौता कर लिया था. हाईस्कूल पास थीं, इसलिए महल्ले के ही एक स्कूल में पढ़ाने लगीं. बच्चों की छोटीमोटी जरूरतें पूरी करतीं. शाम को घर पर ही ट्यूशन पढ़ातीं जिस से अपने बच्चों की ट्यूशन की फीस देतीं. अब उन का एक ही लक्ष्य था अपने बेटेबेटी को खूब पढ़ाना और उन्हें उन के पैरों पर खड़ा करना. पति और सौतन के साथ रहने का उन का निर्णय केवल बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए ही था. वे जानती थीं कि बच्चों के लिए मांपिता दोनों आवश्यक हैं.

अब सारे घर पर छोटी बेगम का राज था. बड़ी बेगम और उन के बच्चे एक कमरे में रहते थे जहां कभी किसी विशेष कारण से वकील साहब बुलाए जाने पर आते.

इस तरह समय बीतता गया और फिर एक दिन वकील साहब अपनी 5 बेटियों और छोटी बेगम को छोड़ कर चल बसे. छोटी बेगम ने जैसेतैसे बेटियों की शादी कर दी. मकान भी बेच दिया.

बड़ी बेगम की बेटी सनोबर की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. देखने में सुंदर भी थी पर शादी के नाम से भड़कती थी. वह अपनी मां का अतीत देख चुकी थी अत: शादी नहीं करना चाहती थी. बड़ी बेगम के बहुत समझाने पर वह शादी के लिए राजी हो गई. साहिल अच्छा लड़का था, परिवार का ही था.

सनोबर ने शादी के लिए हां तो कर दी पर अपनी शर्तें निकाहनामे में रखने को कहा.

साहिल ने कहा, ‘‘मुझे तुम्हारी हर शर्त मंजूर है.’’

सनोबर ने बात साफ की, ‘‘ऐसे कह देने से नहीं, निकाहनामे में लिखना होगा की मेरे रहते तुम दूसरी शादी नहीं करोगे और अगर कभी हम अलग हों और हमारे बच्चे हों तो वे मेरे साथ रहेंगे.’’

सनोबर को साहिल बचपन से जानता था. उस के दिल का डर समझता था. बोला, ‘‘सनोबर निकाहनामे में यह भी लिख देंगे और भी जो तुम कहो. अब तो मुझ से शादी करोगी?’’

सनोबर मान गई और दोनों की शादी हो गई. दोनों की अच्छी जौब, अच्छा प्लैट, एक प्यारी बेटी थी. कुल मिला कर खुशहाल जीवन था सनोबर का. शादी के 12 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

सनोबर का प्रमोशन होने वाला था. अत: वह औफिस पर ज्यादा ध्यान दे रही थी. घर बाई ने ही संभाल रखा था. बेटी भी बड़ी हो गईर् थी. वह अपना सब काम खुद ही कर लेती थी. सनोबर उस को भी पढ़ाने का समय नहीं दे पाती. अत: ट्यूशन लगा दिया था. सनोबर का सारा ध्यान औफिस के काम पर था. घर की ओर से वह निश्चिंत थी. बाई ने सब संभाल लिया था.

औफिस के काम से सनोबर 2 दिनों के लिए बाहर गई थी. आज उसे रात को आना था पर उस का काम सुबह ही हो गया तो वह दिन में ही फ्लाइट से आ गई. इस समय बेटी स्कूल में होगी, पति औफिस में और बाई तो 5 बजे आएगी. वह अपनी चाबी से दरवाजा खोल कर अंदर आई तो देखा लाईट जल रही है. बैडरूम

से कुछ आवाज आई तो वह दबे पैर बैडरूम तक गई तो देख कर अवाक रह गई. साहिल और बाई एक साथ…

वह वापस ड्राइंगरूम में आ गई. साहिल दौड़ता हुआ आया और बाई दबे पैर खिसक ली.

साहिल सनोबर को सफाई देने लगा, ‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. मेरी तबीयत खराब थी तो वह सिर दबाने लगी और मैं बहक गया. उस ने भी मना नहीं किया.’’

वह और भी जाने क्याक्या कहता रहा. सनोबर बुत बनी बैठी रही. वह माफी मांगता रहा.

सनोबर धीरे से उठी और अपने और अपनी बच्ची के कुछ कपड़े बैग में डालने लगी. बच्ची आई तो उसे ले कर अपनी अम्मी के पास चली गई. साहिल उसे रोकता रहा, माफी मांगता रहा पर सनोबर को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.

घर आ कर मां से सारी बात बताई और फफक कर रो पड़ी, ‘‘साहिल ने मुझे धोखा दिया. अब मैं उस के साथ नहीं रह सकती.’’

बड़ी बेगम का दिल रो पड़ा. वर्षों पहले जिस आग में उन का घर जला था आज उन की बेटी के घर पर उस की आंच आ गई.

निकाह में शर्तें रखने से भी क्या हुआ? सब मर्द एकजैसे होते हैं, जब जिसे मौका मिल जाए कोई नहीं चूकता.

बड़ी बेगम ने बेटी को संभाला, ‘‘बेटी मैं तुम्हारा दुख समझ सकती हूं. तुम सो जाओ.’’ और उस का सिर अपनी गोद में रख कर सहलाने लगीं.

दूसरे दिन जब सनोबर औफिस गई और बच्ची स्कूल तो साहिल आया. जानता था बड़ी बेगम अकेली होगी. नौकरानी ने बैठाया. बड़ी बेगम को सलाम कर के बैठ गया. धीरे से बोला, ‘‘खालाजान, मुझ से बड़ी गलती हो गई. मैं एक कमजोर पल में बहक गया था. मुझ से गलती हो गई. मैं कसम खाता हूं अब कभी ऐसा नहीं होगा. मुझे माफ कर दीजिए, सनोबर से माफ करवा दीजिए,’’ इतना सब वह एक सांस में ही कह गया था.

बड़ी बेगम चुप रहीं. उन को बहुत दुख था और गुस्सा भी. साहिल की बातों और आंखों में शर्मिंदगी और पछतावा था. वे धीरे से बोलीं, ‘‘मैं कुछ नहीं कर सकती, जैसा सनोबर चाहे.’’

‘‘खालाजान मेरा घर टूट जाएगा, मेरी बेटी मेरे बारे में क्या सोचेगी? मैं सनोबर के बिना जी नहीं सकता.’’

बड़ी बेगम कुछ न कह सकीं.

शाम को जब सनोबर औफिस से आई तो बड़ी बेगम ने बताया कि साहिल आया था और माफी मांग रहा था.

सनोबर ने गुस्सा किया, ‘‘आप ने उसे आने क्यों दिया? हमारा कोई रिश्ता नहीं उस से. मैं तलाक लूंगी.’’

बड़ी बेगम को याद आया जब वकील साहब दूसरी बीवी ले आए थे तो वे भी मायके जाना चाहती थीं पर उन का न तो कोई सहारा था न वे अपने पैरों पर खड़ी थीं. आज सनोबर अपने पैरों पर खडी है. अपने फैसले खुद ले सकती है. फिर सोचने कि लगीं तलाक से इस मासूम बच्ची का क्या होगा? मां या बाप किसी एक से कट जाएगी. अगर दोनों ने दूसरी शादी कर ली तो इस का क्या होगा? वे अंदर ही अंदर डर गईर्ं. अपने बेटे को सनोबर और साहिल के बारे में बताया तो वह दूसरे दिन ही आ गया. दोनों बहनभाई की एक ही राय थी कि तलाक ले लिया जाए. साहिल रोज फोन करता, मैसेज भेजता पर सनोबर जवाब न देती.

साहिल बड़ी बेगम से मिन्नतें करता, ‘‘खालाजान, आप सब ठीक कर सकती हैं. एक बार मुझे माफ कर दीजिए और सनोबर से भी माफ करवा दीजिए. मैं अपनी गलती के लिए बहुत शर्मिंदा हूं.’’

एक दिन सनोबर औफिस से अपने फ्लैट पर कुछ सामान लेने गई तो उस ने देखा घर बिखरा है. किचन में भी कुछ बाहर का खाना पड़ा है. वह समझ गई बाई नहीं आ रही है. घर में हर तरफ लिखा था, ‘आई एम सौरी, वापस आ जाओ सनोबर.’ सनोबर को लगा साहिल 40 साल का नहीं, कोई नवयुवक हो और उसे मना रहा हो.

धीरेधीरे कई कोशिशों के बाद साहिल ने बड़ी बेगम को विश्वास दिला दिया कि यह एक कमजोर पल की भूल थी. उस ने पहले कभी कोई बेवफाई नहीं की. बड़ी बेगम ने सोचा यह तो सच है कि साहिल से भूल हो गई, अपनी गलती पर उसे शर्मिंदगी भी है, माफी भी मांग रहा है. प्रश्न बच्ची का भी है. वह दोनों में से किसी एक से छिन जाएगी. तो क्या इसे एक अवसर देना चाहिए?

बड़ी बेगम ने साहिल को बताया कि सनोबर तलाक लेने की तैयारी कर रही है. यह सुनते ही साहिल दौड़ादौड़ा आया, ‘‘खालाजान, अगर सनोबर ने तलाक की अर्जी डाली तो मैं मर जाऊंगा, मुझे एक मौका दीजिए और बच्चों की तरह रोने लगा.’’

बड़ी बेगम को दया आने लगी बोलीं, ‘‘तुम रो मत मैं आज बात करूंगी.’’

सनोबर बोली, ‘‘औफकोर्स अम्मी.’’

बड़ी बेगम ने भूमिका बांधी, ‘‘जब तुम्हारे अब्बू दूसरी बीवी ले आए थे तो मैं भी उन्हें छोड़ना चाहती थी पर सामने तुम दोनों बच्चे थे.’’

‘‘आप की बात अलग थी मैं खुद को और अपनी बच्ची को संभाल सकती हूं. उस की गलती की सजा उसे मिलना ही चाहिए, सनोबर बोली.’’

‘‘उस की गलती की सजा उस के साथसाथ तुम्हारी बेटी को भी मिलेगी या तो उस का बाप छिनेगा या मां और अगर तुम दोनों ने दूसरी शादी कर ली तो इस का क्या होगा?’’

‘‘अम्मी एक शादी से दिल नहीं भरा जो दूसरी करूंगी? रह गया पिता तो ऐसे पिता के होने से ना होना भला,’’ सनोबर के मन की सारी कड़वाहट होंठों पर आ गई.

बड़ी बेगम जानती थीं इस का गुस्सा निकलना अच्छा है. उन्होंने बहस नहीं की.

बोलीं, ‘‘ठीक है तुम को लगता है तुम अकेली ही अच्छी परवरिश कर सकती हो तो ठीक है, पर मैं चाहती हूं कि तुम तलाक की अर्जी 6 महीने बाद दो. कुछ वक्त दो फिर जो तुम्हारा फैसला होगा मैं मानूंगी.’’

‘‘नो वे अम्मी मैं 6 दिन भी न दूं. जबजब मुझे याद आता है साहिल और बाई… घिन आती है उस के नाम से. कोई इतना गिर सकता है?’’

बड़ी बेगम ने दुनिया देखी थी. अपने पति को बहुतों के साथ देखा था. उन्होंने अपने अनुभव का निचोड़ बताया, ‘‘वह एक वक्ती हरकत थी. उस का कोई अफेयर नहीं था. जब एक औरत और एक मर्द अकेले हों तो दोनों के बीच तनहाई में एक कमजोर पल आ सकता है.’’

मैं भी तो औफिस में अकेली मर्दों के साथ घंटों काम करती हूं. मेरे साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ. आत्मसंयम और मर्यादा ही इंसान होने की पहचान हैं वरना जानवर और आदमी में क्या फर्क है?’’

‘‘मैं ने अब तक तुम से कुछ नहीं कहा पर बहुत सोच कर तुम से समय देने को कह रही हूं. आगे तुम्हारी जो मरजी.’’

‘‘ठीक है आप कहतीं हैं तो मान लेती हूं पर मेरे फैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा.’’

सनोबर यह सोच कर मान गई कि उसे भी तो कुछ काम निबटाने हैं. प्रौपर्टी के पेपर अपने नाम करवाना और सेविंग्स में नौमिनी बदलना आदि. फिर अभी औफिस का भी प्रैशर है. रात को रोज की तरह साहिल ने फोन किया तो सनोबर ने उठा लिया.

साहिल खुशी और अचंभे के मिलेजुले स्वर में बोला, ‘‘सनोबर मुझे माफ कर दो, वापस आ जाओ.’’

सनोबर ने तटस्थ स्वर में कहा, ‘‘मुझे तुम से मिलना है.’’

साहिल बोला, ‘‘हां, हां… जब कहो.’’

सनोबर बोली, ‘‘कल औफिस के बाद घर पर.’’ और फोन रख दिया.

औफिस के बाद सनोबर घर पहुंची. साहिल उस की प्रतिक्षा कर रहा था. घर भी उस ने कुछ ठीक किया था. साहिल ने सनोबर का हाथ पकड़ना चाहा तो उस ने झिड़क दिया और दूर बैठ गई.

‘‘साहिल मैं कोई तमाशा नहीं करना चाहती. शांति से सब तय करना चाहती हूं. मेरातुम्हारा जौइंट अकाउंट बंद करना है. इंश्योरैंस पौलिसीज में नौमिनी हटाना है. इस फ्लैट में तुम्हारा जो पैसा लगा वह तुम ले लो. मैं इसे अपने नाम करवाना चाहती हूं. मुझे तुम से कोई पैसा नहीं चाहिए, मैं काजी के यहां खुला (औरत की ओर से निकाह तोड़ना) की अर्जी देने जा रही हूं.’’

थोड़ी देर के लिए साहिल चुप रहा फिर बोला, ‘‘सनोबर, मेरा जो कुछ है सब तुम्हारा और हमारी बेटी का है. तुम सब ले लो मुझे मेरी सनोबर दे दो. मुझे एक बार माफ कर दो. मेरी गलती की इतनी बड़ी सजा न दो. अगर तुम मेरी जिंदगी में नहीं तो मैं यह जिंदगी ही खत्म कर दूंगा,’’ सनोबर जानती थी साहिल भावुक है पर इतना ज्यादा है यह नहीं जानती थी. वह उठ कर चली गई.

अब बस औफिस जाने और मन लगा कर काम करने में और बेटी के साथ उस का समय बीतने लगा. बड़ी बेगम के कहने पर और बेटी की जिद पर वह राजी हुई कि साहिल सप्ताह में एक बार बेटी से मिल सकता है. उसे बाहर ले जा सकता है. वह नहीं चाहती थी कि उस की बेटी को उस के पिता की असलियत पता चले. इस आयु में यदि उसे पिता के घिनौने कारनामे का पता चलेगा तो वह जाने क्या प्रतिक्रिया करे. साहिल सप्ताह में 2 घंटे के लिए बेटी को घुमाने ले जाता, गिफ्ट दिलाता और सनोबर की पसंद का भी कुछ बेटी के साथ भेजता पर सनोबर आंख उठा कर भी न देखती.

तभी सनोबर की पदोन्नति हुई साथ ही मुख्यालय में तबादला भी. सनोबर को न चाह कर भी दिल्ली जाना पड़ा. बेटी को नानी के पास छोड़ना पड़ा. स्कूल का सैशन समाप्त होने में अभी 2 महीने थे. बड़ी बेगम ने आश्वासन दिया, ‘‘मैं संभाल लूंगी तुम जाओ मगर हर वीकैंड पर आ जाना.’’

मुख्यालय में उस के कुछ पूर्व साथी भी थे, सब ने स्वागत किया. एक प्रोजैक्ट में उस को समीर के साथ रखा गया. समीर भी सनोबर का पुराना साथी था और उस पर फिदा भी था.

समीर और सनोबर साथसाथ काम करते हुए काफी समय एकदूसरे के साथ बिताते. सनोबर ने साहिल और अपने बारे में समीर को नहीं बताया. जिस प्रोजैकट पर दोनों काम कर रहे थे उस में क्लाइंट की लोकेशन पर भी जाना होता था. दोनों साथसाथ जाते, होटल में रहते और काम पूरा कर के आते. घंटों अकेले एकसाथ काम करते. आज भी दोनों सुबह की फ्लाइट से गए थे. दिन भर काम कर के रात को होटल पहुंचे. समीर बोला, ‘‘फ्रैश हो लो फिर खाना खाने नीचे डाइनिंगरूम में चलते हैं.’’

सनोबर बोली, ‘‘तुम जाओ. मैं अपने रूम में ही कुछ मंगवा लूंगी.’’

समीर बोला, ‘‘ठीक है मेरा भी कुछ और्डर कर देना, साथ ही खा लेंगे.’’

सनोबर को समीर चाहता भी था, उस का आदर भी करता था. सनोबर के हैड औफिस आने के बाद समीर ने कभी अपने पुराने प्यार को प्रकट नहीं किया. वह अपनी पत्नी और बच्चों में खुश था.

समीर सनोबर के कमरे में आ गया. खाना आने की प्रतीक्षा में दोनों काम से जुड़ी बातें ही करते रहे. समीर की पत्नी का फोन भी आया. समीर की और उस की पत्नी की बातों से लग रहा था दोनों सुखी व संतुष्ट हैं.

समीर ने साहिल के बारे में पूछा तो सनोबर बात टाल गई. फिर खाना आया, दोनों खाना खातेखाते पुराने दिनों की बातें करने लगे.

समीर ने सनोबर से पूछा, ‘‘अच्छा एक बात बताओ यदि तुम साहिल से शादी न करतीं तो क्या मुझ से शादी करतीं?’’

सनोबर झिझकी फिर बोली, ‘‘शायद हां.’’

समीर ने मजाकिया अंदाज में कहा, ‘‘अरे पहले बताती तो मैं उस को गोली मार देता,’’ बात आईगई हो गई. दोनों ने खाना खाया फिर समीर अपने कमरे में चला गया.

सनोबर सोचने लगी समीर अच्छा दोस्त हैं. फिर जाने क्यों साहिल याद आ गया. वह काफी थकी थी. कुछ ही देर में सो गई. अगले दिन भी दोनों बहुत व्यस्त रहे.

‘‘आज भी खाना कमरे में मंगवाते हैं ठीक है?’’ समीर ने पूछा तो सनोबर बोली, ‘‘हां, ठीक है.’’

फिर समीर फ्रैश हो कर सनोबर के कमरे में आ गया. खाना और्डर कर के दोनों बातें करने लगे. सनोबर को खाते समय खाना सरक गया वह खांसने लगी. समीर ने उसे जल्दी से पानी निकाल कर दिया. पानी पी कर ठीक हुई. खाने के बाद समीर ने चाय बना कर सनोबर की दी तो दोनों का हाथ एकदूसरे से टकराया. दोनों चुपचाप धीरेधीरे चाय पीने लगे.

एक अजीब सा सन्नाटा छा गया. दोनों पासपास बैठे थे. एक अजीब सी चाह सनोबर ने अपने मन में महसूस की जैसे वह समीर के सीने से लग के रोना चाहती हो. फिर उस ने देखा समीर की निगाहें भी उस के ऊपर टिकी हैं. शायद वह भी सनोबर को अपनी बांहों में जकड़ना चाहता है. तभी उसे लगा कहीं यही वह एकांत कमजोर पल तो नहीं है जिस के बारे में अम्मी कह रही थी. वह संभल गई और उठ कर इधरउधर कुछ रखनेउठाने लगी. समीर से बोली, ‘‘अच्छा, कल मिलते हैं.’’

समीर भी उठते हुए बोला, ‘‘हां देर हो गई, गुड नाईट.’’

अगले दिन दोनों वापस आ गए. सनोबर अपनी अम्मी के पास चली गई. अम्मी उसे बताने लगीं कि उस की बेटी खाने में नखरा करती है. साहिल बेटी का बहुत ध्यान रखता है. अपने साथ ले जाता है, बराबर फोन करता है. अम्मी साहिल की प्रशंसा किए जा रही थीं.

सनोबर ने साहिल को फोन किया, ‘‘मैं तुम से मिलना चाहती हूं अभी.’’ वह साहिल से मिलने चल पड़ी. साहिल पलकें बिछाए उस की राह ताक रहा था. घर लगता था साहिल ने ही साफ किया था. बैडरूम पर नजर गई तो बदलाबदला लग रहा था. साहिल बहुत प्यार से बोला, ‘‘अब तो वापस आ जाओ, मुझे माफ कर दो.’’

सनोबर एकांत कमजोर पल क्या होता है यह जान चुकी थी. उस ने साहिल को माफ कर दिया. साहिल ने सनोबर का हाथ पकड़ा और दोनों एकदूसरे के बहुत पास आ गए.

Valentine’s Day: अंत भला तो सब भला- विनय ने ग्रीष्मा की जिंदगी में कैसे हलचल मचाई

Valentine’s Special: नहले पे दहला

पूर्णिमा तुझे मनु याद है?’’ मां ने खुशी से पूछा.

‘‘हां,’’ और फिर मन ही मन बोली कि अपने बचपन के उस इकलौते मित्र को कैसे भूल सकती हूं मां, जिस के जाने के बाद किसी और से दोस्ती करने को मन ही नहीं किया.

‘मनु वापस आ रहा है… किसी बड़ी कंपनी का मैनेजर बन कर…’’

‘‘मनु ही नहीं राघव और जया भाभी भी आ रहे हैं,’’ पापा ने उत्साह से मां की बात काटी.

‘‘मैं ने तो राघव से फोन पर कह दिया है कि जब तक आप का अपना घर पूरी तरह सुव्यवस्थित नहीं हो जाता तब तक रहना और खाना हमारे साथ ही होगा.’’

‘‘तो उन्होंने क्या कहा?’’

‘‘कहा कि इस में कहने की क्या जरूरत है? वह तो होगा ही. बिलकुल नहीं बदले दोनों मियांबीवी. और मनु भी पीछे से कह रहा था कि पूर्णिमा से पूछो कुछ लाना तो नहीं है. तब भाभी ने उसे डांट दिया कि पूछ कर कभी कुछ ले कर जाते हैं क्या? बिलकुल उसी तरह जैसे बचपन में डांटा करती थीं.’’

‘‘और मनु ने सुन लिया?’’ पूर्णिमा ने खिलखिला कर पूछा.

‘‘सुना ही होगा, तभी तो डांट रही थीं और इन सब संस्कारों की वजह से उस ने यहां की पोस्टिंग ली है वरना अमेरिका जा कर कौन वापस आता है,’’ पापा ने सराहना के स्वर में कहा. यह सुन कर पूर्णिमा खुशी से झूम उठी. बराबर के घर में रहने वाले परिवार से पूर्णिमा के परिवार का रातदिन का उठनाबैठना था. वह और मनु तो सिर्फ सोने के समय ही अलग होते थे वरना स्कूल जाने से ले कर खेलना, होमवर्क करना या घूमने जाना इकट्ठे ही होता था. आसपास और बच्चे भी थे, लेकिन ये दोनों उन के साथ नहीं खेलते थे. फिर अचानक राघव को अमेरिका जाने का मौका मिल गया. जाते हुए दुखी तो सभी थे, मगर कह रहे थे कि जल्दी लौट आएंगे पी.एचडी. पूरी होते ही. मौका लगा तो बीच में भी एक चक्कर लगा लेंगे.

लेकिन 20 बरसों में आज पहली बार लौटने की बात की थी. उस समय संपर्क साधन आज की तरह विकसित और सुलभ नहीं थे. शुरूशुरू में राघव फोन किया करते थे. नई जगह की मुश्किलें बताते थे यह भी बताते रहते कि जया और मनु लता भाभी और पूर्णिमा को बहुत याद करते हैं. लेकिन नए परिवेश को अपनाने के चक्कर में धीरेधीरे पुराने संबंध कमजोर हो गए. 10 बरस पहले का दुबलापतला मनु अब सजीलारोबीला जवान बन गया था. वह पूर्णिमा को एकटक देख रहा था.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? पूर्णिमा ही है यह,’’ लता बोलीं.

‘‘यही तो यकीन नहीं हो रहा आंटी. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मुटल्ली पूर्णिमा इतनी पतली कैसे हो गई?’’

‘‘वह ऐसे कि तेरे साथ मैं हरदम खाती रहती थी. तेरे जाने के बाद उस गंदी आदत के छूटते ही मैं पतली हो गई,’’ पूर्णिमा चिढ़ कर बोली.

‘‘यानी मेरे जाने से तुझे फायदा हुआ.’’

‘‘सच कहूं मनु तो पूर्णिमा को वाकई फायदा हुआ,’’ महेश ने कहा, ‘‘तेरे जाने के बाद यह किसी और से दोस्ती नहीं कर सकी. किताबी कीड़ा बन गई, इसीलिए प्रथम प्रयास में आईआईएम अहमदाबाद में चुन ली गई और आज इन्फोटैक की सब से कम उम्र की वाइस प्रैजीडैंट है.’’

‘‘अरे वाह, शाबाश बेटा. वैसे महेश, फायदा मनु को भी हुआ. यह भी किसी से दोस्ती नहीं कर रहा था. भला हो सैंडी का… उस ने कभी इस की अवहेलना का बुरा नहीं माना और दोस्ती का हाथ बढ़ाए रखा. फिर उस के साथ यह भी सौफ्टवेयर इंजीनियर बन गया,’’ राघव बोले.

‘‘वरना इसे तो राघव अंकल की तरह काले कोट वाला वकील बनना था और मुझे भी वही बनाना था,’’ पूर्णिमा बोली. ‘‘अच्छा हुआ अंकल आप अमेरिका चले गए.’’सब हंस पड़े. फिर लता बोलीं, ‘‘क्या अच्छा हुआ, यहां रहते तो तू आज तक कुंआरी नहीं होती.’’

‘‘वह तो है लता,’’ जया ने कहा, ‘‘खैर अब आ गए हैं तो हमारा पहला काम इसे दुलहन बनाने का होगा. क्यों मनु?’’

‘‘बिलकुल मम्मी, नेक काम में देर क्यों? चट मंगनी पट शादी रचवाओ ताकि भारतीय शादी देखने के लालच में सैंडी भी जल्दी आ जाए.’’

‘‘यही ठीक रहेगा. इसी बहाने सभी पुराने परिजनों से एकसाथ मिलना भी हो जाएगा,’’ राघव ने स्नेह से पूर्णिमा के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘चल तैयार हो जा बिटिया, सूली पर झूलने को.’’पूर्णिमा ने कहना तो चाहा कि सूली नहीं अंकल, मनु की बलिष्ठ बांहें कहिए. फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी तो हम सब को इतने सालों की जमा पड़ी बातें करनी हैं अंकल… आप को यहां सुव्यवस्थित होना है, उस के बाद और कुछ करने की सोचेंगे.’’

‘‘यह बात भी ठीक है, लेकिन बहू के आने से पहले उस की सुविधा और आराम की सही व्यवस्था भी तो होनी चाहिए यानी बहू के गृहप्रवेश से पहले घर भी तो ठीक हो. और भी बहुत काम हैं. तू नौकरी पर जाने से पहले मेरे कुछ काम करवा दे मनु,’’ जया ने कहा.

‘‘मुझे तो कल से ही नौकरी पर जाना है मम्मी पूर्णिमा से करवाओ जो करवाना है.’’

‘‘हां, पूर्णिमा तो बेकार बैठी है न. नौकरी पर तो बस मनु को ही जाना है,’’ पूर्णिमा ने मुंह बनाया, ‘‘मगर आप फिक्र मत करिए आंटी, आप को मैं कोई परेशानी नहीं होने दूंगी.’’

‘‘उस का तो सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि सब से बड़ी परेशानी तो पूर्णिमा आप स्वयं ही हैं,’’ मनु ने चिढ़ाया, ‘‘आप काम में लग जाइए, सारी परेशानी दूर हो जाएगी.’’

‘‘लो, हो गया शुरू मनु महाराज का अपने अधकचरे ज्ञान का बखान,’’ पूर्णिमा ने कृत्रिम हताशा से माथे पर हाथ मारा.

यह देख सभी हंस पड़े.

‘‘इतने बरस एकदूसरे से लड़े बगैर दोनों ने खाना कैसे पचाया होगा? ’’ लता बोलीं.

‘‘सोचने की बात है, झगड़ता तो खैर सैंडी से भी हूं, लेकिन अंगरेजी में झगड़ कर वह मजा नहीं आता, जो अपनी भाषा में झगड़ कर आता है,’’ मनु कुछ सोचते हुए बोला.

पूर्णिमा को यह सुनना अच्छा लगा. मनु का लौटना ऐसा था जैसे पतझड़ और जाडे़ के बाद एकदम बहार का आ जाना और वह भी इतने बरसों के बाद. होस्टल में अपनी रूममैट को कई बार पढ़ते हुए भी गुनगुनाते सुन कर वह पूछा करती थी कि पढ़ाई के समय यह गानाबजाना कैसे सूझता है, सेजल? तो वह कहती थी कि जब तुम्हें किसी से प्यार हो जाएगा न तब तुम इस तरह गुनगुनाने लगोगी. सेजल का कहना ठीक था, आज पूर्णिमा का मन गुनगुनाने को ही नहीं झूमझूम कर नाचने को भी कर रहा था. उस के बाद प्रत्यक्ष में तो किसी ने पूर्णिमा की शादी की बात नहीं की थी, लेकिन जबतब लता और महेश लौकर में रखे गहनों और एफडी वगैरह का लेखाजोखा करने लगे थे. राघव ने भी आर्किटैक्ट बुलाया था, छत की बरसाती तुड़वा कर बहूबेटे के लिए नए कमरे बनवाने को. मनु को नए परिवेश में काम संभालने में जो परेशानियां आ रही थीं, उन्हें मैनेजमैंट ऐक्सपर्ट पूर्णिमा बड़ी सहजता से हल कर देती थी. अब मनु हर छोटीबड़ी बात उस से पूछने लगा था. वह अपने काम के साथ ही मनु के काम की बातें भी इंटरनैट पर ढूंढ़ती रहती थी. एक शाम उस ने मनु को फोन किया कि उसे जो जानकारी चाहिए थी वह मिल गई है. अत: उस का विवरण सुन ले.

‘‘मैं औफिस से निकल चुका हूं पूर्णिमा, तुम भी आने वाली होंगी. अत: घर पर ही बात कर लेंगे,’’ मनु ने कहा.

‘‘मैं तो घंटे भर बाद निकलूंगी.’’

‘‘ठीक है, फिर मिलते हैं.’’

लेकिन जब वह 2 घंटे के बाद घर पहुंची तो मम्मीपापा और अंकलआंटी बातों में व्यस्त थे. मनु की गाड़ी कहीं नजर नहीं आ रही थी.

‘‘मनु कहां है?’’ पूर्णिमा ने पूछा.

‘‘अभी औफिस से नहीं आया,’’ सुनते ही पूर्णिमा चौंक पड़ी कि इतनी देर रास्ते में तो नहीं लग सकती, कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई. मगर तभी मनु आ गया.

‘‘बड़ी देर कर दी आज आने में?’’ जया ने पूछा.

‘‘वह ऊपर के कमरों के ब्लू प्रिंट्स सैंडी को भेजे थे न… उस की टिप्पणी के साथ आर्किटैक्ट के पास गया था. वहीं देर लग गई. अब कल से काम शुरू हो जाएगा.’’

पूर्णिमा यह सुन कर हैरान हो गई कि जिसे उन कमरों में रहना है उसे तो ब्लू प्रिंट्स दिखाए नहीं और सैंडी को भेज दिए. फिर पूछा, ‘‘सैंडी आर्किटैक्ट है?’’

‘‘नहीं, मेरी ही तरह सौफ्टवेयर इंजीनियर है.’’

‘‘तो फिर उसे ब्लू प्रिंट्स क्यों भेजे?’’

‘‘क्योंकि उसे ही तो रहना है उन कमरों में.’’

‘‘उसे क्यों रहना है?’’ पूर्णिमा ने तुनक कर पूछा.

‘‘क्योंकि वही तो इस घर की बहू यानी मेरी बीवी है भई.’’

‘‘बीवी है तो साथ क्यों नहीं आई?’’ पूर्णिमा अभी भी इसे मनु का मजाक समझ रही थी.

‘‘क्योंकि वह जिस प्रोजैक्ट पर काम कर रही है उसे बीच में नही छोड़ सकती. काम पूरा होते ही आ जाएगी. तब तक ऊपर के कमरे भी बन जाएंगे और नए कमरों में बहू का गृहप्रवेश धूमधाम से करवाने की मम्मी की ख्वाहिश भी पूरी हो जाएगी.’’

पूर्णिमा को मनु के शब्द गरम सीसे की तरह जला गए. उस ने अपने मातापिता की तरफ देखा. वे भी हैरान थे.

‘‘कमाल है भाभी, सास बन गईं और हमें भनक भी नहीं लगी,’’ महेश ने उलहाने के स्वर में कहा.

‘‘यह कैसे हो सकता है महेश भैया…’’

‘‘हम अभी तक वर्षों पुरानी बातें करते रहे हैं,’’ राघव ने जया की बात काटी, ‘‘इस बीच खासकर अमेरिका में क्या हुआ, उस के बारे में हम ने बात ही नहीं की.’’

‘‘मगर मैं ने तो पहले दिन ही कहा था कि मुझे बहू के गृहप्रवेश से पहले घर ठीकठाक चाहिए.’’

‘‘हम ने समझा आप हमारी बेटी के लिए कह रही हैं,’’ लता ने मन ही मन बिसूरते हुए कहा.

‘‘विस्तार से इसलिए नहीं बताया कि बापबेटे ने मना किया था कि अमेरिका में क्या करते थे या क्या किया बता कर शान मत बघारना…’’

‘‘सफाईवफाई क्या देनी मम्मी, सब को अपनी शादी का वीडियो दिखा देता हूं लेकिन डिनर के बाद,’’ मनु ने बात काटी, ‘‘तू भी जल्दी से फ्रैश हो जा पूर्णिमा.’’

‘‘मुझे तो खाने के बाद कुछ जरूरी काम करना है. मम्मीपापा को दिखा दे. मुझे सीडी दे देना. फुरसत में देख लूंगी.’’

‘‘मेरी शादी की सीडी है पूर्णिमा तुम्हारे औफिस की फाइल नहीं, जिसे फुरसत में देख लोगी,’’ मनु ने चिढ़ कर कहा, ‘‘जब फुरसत हो आ जाना, दिखा दूंगा. चलो, मम्मी खाना लगाओ, भूख लग रही है.’’ पूर्णिमा के परिवार की तो भूख मर चुकी थी, लेकिन नौकर के कई बार कहने पर कि खाना तैयार है, सब जा कर डाइनिंग टेबल के पास बैठ गए.

तभी मनु आ गया, ‘‘ओह, आप खाना खा रहे हैं, मैं फिर आता हूं.’’

‘‘अब आया है तो बैठ जा, खाना हो चुका है,’’ पूर्णिमा बोली.

‘‘अभी किसी ने खाना शुरू नहीं किया और तू कह रही है कि हो चुका. खैर, खातेखाते जो सुनाना है सुना दे,’’ मनु पूर्णिमा की बगल की चेयर पर बैठ गया.

लता और महेश ने चौंक कर एकदूसरे की ओर देखा.

‘‘क्या सुनना चाहते हो?’’ लता स्वयं नहीं समझ सकीं कि उन के स्वर में व्यंग्य था या टीस.

‘‘वही जो सुनाने को पूर्णिमा ने मुझे फोन किया था.’’

‘‘ओह, राजसंस का फीडबैक? काफी दिलचस्प है और वह इसलिए कि उन्होंने अभी तक किसी राजनेता का संरक्षण लिए बगैर अपने दम पर इतनी तरक्की की है.’’

‘‘यानी उन के साथ काम किया जा सकता है?’’

‘‘उस के लिए उन लोगों के विवरण देखने होंगे जो उन के साथ काम कर रहे हैं. चल तुझे पूरी फाइल दिखा देती हूं,’’ पूर्णिमा ने प्लेट सरकाते हुए कहा.

‘‘पहले तू आराम से खाना खा. बगैर खाना खाए टेबल से नहीं उठते. वह फाइल मुझे मेल कर देना. अभी चलता हूं,’’ मनु ने उठते हुए कहा.

‘‘क्यों सैंडी को फोन करने की जल्दी है?’’ लता ने पूछा.

‘‘नहीं आंटी, सैंडी तो अभी औफिस में होगी. वह आजकल ज्यादातर समय औफिस में ही रहती है ताकि काम पूरा कर के जल्दी यहां आ सके. हमें भी ऊपर के कमरे बनवाने में जल्दी करनी चाहिए. पापा को अभी यही समझाने जा रहा हूं,’’ फिर सभी को गुडनाइट कह कर मनु चला गया.

‘‘यह तो ऐसे व्यवहार कर रहा है जैसे कुछ हुआ ही नहीं है,’’ लता ने मुंह बना कर कहा.

‘‘सच पूछो तो मनु या उस के परिवार के लिए तो कुछ भी नहीं हुआ है और हमारे साथ भी जो हुआ है वह हमारी अपनी सोच, खुशफहमी या गलतफहमी के कारण हुआ है,’’ महेश ने कहा, ‘‘राघव या जया भाभी ने तो प्रत्यक्ष में ऐसा कुछ नहीं कहा. मनु ने तुझ से अकेले में कभी ऐसा कुछ कहा पूर्णिमा?’’

पूर्णिमा ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, गलतफहमी तो हमें ही हुई है. सैंडी को भी तो हम सब लड़का समझते रहे,’’ लता बुझे स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन अब क्या करें?’’

‘‘राघव के परिवार के साथ सामान्य व्यवहार और पूर्णिमा के लिए रिश्ते की बात,’’ महेश का स्वर नर्म होते हुए भी आदेशात्मक था.

पूर्णिमा सिहर उठी, ‘‘नहीं पापा…मेरा मतलब है बातवात मत करिए. मैं शादी नहीं करना चाहती.’’

‘‘साफ कह मनु के अलावा किसी और से नहीं और उस का अब सवाल ही नहीं उठता. मुझे तो लगता है कि न तो राघव और जया भाभी ने तुझे कभी अपनी बहू के रूप में देखा और न ही मनु ने भी तुझे एक हमजोली से ज्यादा कुछ समझा. क्यों लता गलत कह रहा हूं?’’

‘‘अब तो यही लगता है. मनु की असलियत तो पूर्णिमा को ही पता होगी,’’ लता बोलीं.

पूर्णिमा चिढ़ गई, ‘‘या तो हंसीमजाक करता है या फिर अपने काम से जुड़ी बातें. इस के अलावा और कोई बात नहीं करता है.’’

‘‘कभी यह नहीं बताया कि वहां जा कर उस ने तुझे कितना याद किया?’’

‘‘कभी नहीं, अगर ऐसा लगाव होता तो संपर्क ही क्यों टूटता? मनु वहां जा कर जरूर सब से अलगथलग रहा होगा, क्योंकि जितनी अंगरेजी उसे आती थी उस से न उसे किसी की बात समझ आती होगी न किसी को उस की. सैंडी को भी अमेरिकन चालू लड़कों से यह बेहतर लगा होगा, इसलिए दोस्ती कर ली,’’ पूर्णिमा कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘यह तो तूने बड़ी समझदारी की बात कही पूर्णिमा,’’ महेश ने कहा, ‘‘अब थोड़ी समझदारी और दिखा. डा. शशिकांत की तुझ में दिलचस्पी किसी से छिपी नहीं है, लेकिन तू उन्हें घास नहीं डालती. हालात को देखते हुए मनु नाम की मृगमरीचिका के पीछे भागना छोड़ कर डा. शशिकांत से मेलजोल बढ़ा ताकि हम भी राघव और जया भाभी को यह कह कर सरप्राइज दे सकें कि हम ने तो पूर्णिमा के लिए बहुत पहले से लड़का देख रखा है, बस किसी को बताया नहीं है. अब आप की बहू आ जाए तो रिश्ता पक्का होने की रस्म पूरी कर दें.’’

‘‘हां, यह होगा नहले पे दहला पापा,’’ पूर्णिमा के मुंह से निकला.

Valentine’s Special: कोई अपना- शालिनी के जीवन में भी कोई बहार आने को थी

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