फोम का गद्दा

वाणी बहुत उत्साहित थी. विवाह के 2 महीने बाद ही उस का यह पहला जन्मदिन था. अनुज से प्रेमविवाह के बाद वह जीवन में हर तरह से सुखी व संतुष्ट थी जबकि वाणी उत्तर भारतीय ब्राह्मण परिवार से थी जबकि अनुज मारवाड़ी परिवार से था. दोनों एक कौमन फ्रैंड की बर्थडे पार्टी में मिले थे. सालभर की दोस्ती के बाद दोनों परिवारों की सहर्ष सहमति के बाद दोनों 2 महीने पहले ही विवाहबंधन में बंध गए थे. अनुज मुंबई में विवाह से पहले फ्रैंड्स के साथ फ्लैट शेयर करता था. विवाह के बाद अब मुलुंड में उस ने फ्लैट ले लिया था.

आज वाणी अपने बर्थडे के बारे में ही सोच रही थी कि अच्छा है, परसों बर्थडे का दिन इतवार है, पूरा दिन खूब ऐंजौय करेंगे. उसे विवाह से पहले का अपना पिछला बर्थडे भी याद आ गया. पिछले बर्थडे पर जब वाणी ने अनुज को डिनर करवाया तो वह मन ही मन अच्छे गिफ्ट की उम्मीद कर रही थी. आखिरकार अनुज की नईनई गर्लफ्रैंड थी. पर अनुज ने जब उसे जेब से एक फूल निकाल कर दिया तो उस का मन बुझ गया था. मन में आया था, कंजूस, मारवाड़ी.

वाणी का उतरा चेहरा देख अनुज ने पूछा था, ‘क्या हुआ? तुम्हें फूल पसंद नहीं है?’ वाणी ने मन में कुछ नहीं रखा था, साफसाफ बोली थी, ‘बस, फूल. मुझे लग रहा था तुम मेरे लिए कुछ स्पैशल लाओगे, हमारी नईनई दोस्ती है.’

‘अरे, तभी तो. अभी दोस्ती ही तो है. मैं ने सोचा अभी तुम्हारे लिए कुछ स्पैशल ले लूं और थोड़े दिनों बाद किसी भी कारण से यह दोस्ती न रहे, तो?’

वाणी चौंकी थी, ‘मतलब तुम्हारा गिफ्ट बेकार चला जाएगा, फिर?’

‘हां, भई, मारवाड़ी हूं. ऐसे ही फ्यूचर पक्का हुए बिना गिफ्ट में पैसे थोड़े ही लुटाऊंगा. मैं ने तो आज तक किसी लड़की को गिफ्ट नहीं दिया.’

‘ओह, मेरा मारवाड़ी बौयफ्रैंड, दिल का कितना साफ है,’ उस समय तो यही सोचा था वाणी ने और आज वह उस की पत्नी है. अब देखना है क्या गिफ्ट देगा वह बर्थडे पर. वाणी को इतवार का इंतजार था.

इतवार की सुबह वाणी को बांहों में भर किस करते हुए अनुज ने उसे बर्थडे विश किया. वाणी बहुत अच्छे मूड में थी. वह अनुज की बांहों में सिमटती हुई बोली, ‘‘अनुज, मैं बहुत खुश हूं, विवाह के बाद मेरा पहला बर्थडे है.’’

‘‘हां, डियर, मैं भी बहुत खुश हूं. रुको, तुम्हारा गिफ्ट लाया,’’ अनुज अलमारी की तरफ बढ़ते हुए बोला, ‘‘आंखें बंद रखना, जब कहूंगा तभी खोलना.’’

आंखें बंद कर मन ही मन वाणी कल्पनाओं में खो गई. काश, डायमंड रिंग हो, गोल्ड चेन, स्टाइलिश ब्रेसलैट, कोई मौडर्न ड्रैस या लेटैस्ट घड़ी या मोबाइल? यही सब अपनी पसंद तो है, वह अनुज को बताती रहती है. मन ही मन खूबसूरत कल्पनाओं में डूबी वाणी को हाथ पर किसी पेपर का एहसास हुआ. अनुज ने कहा, ‘‘खोलो आंखें, तुम्हारा बर्थडे गिफ्ट.’’

वाणी जैसे आसमान से जमीन पर गिरी. एक पेपर उलटापुलटा देखा. अनुज ने गर्वित स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारे नाम से एफडी करवा दी है, डार्लिंग. यही गिफ्ट है तुम्हारा.’’

वाणी के तनबदन में आग लग गई, ‘‘यह मेरा बर्थडे गिफ्ट है, रियली?’’

‘‘हां, डार्लिंग, पर मेरा रिटर्न गिफ्ट?’’ कहता हुआ शरारत से अनुज मुसकराया, तो वाणी ने कहा, ‘‘अभी नहीं, पर सच में यही गिफ्ट है मेरा?’’

‘‘हां, चलो, अब तैयार हो जाओ, नाश्ता बाहर ही करेंगे, मूवी देख कर लौटेंगे,’’ कहता हुआ अनुज एक बार और वाणी के गाल पर किस करता हुआ फ्रैश होने चला गया.

गुस्से के मारे वाणी के आंसू बह चले. पेपर फेंक दिया. बाथरूम में शावर की बौछार में आंसू बहते रहे, इतना कंजूस. क्या करूंगी इस के साथ. मुझे तो हर चीज का शौक है. अब लाइफ कैसे ऐंजौय करूंगी. यह तो एफडी और शेयर के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकता. सिर्फ इस के प्यार में कब तक हर खुशी ढूंढ़ती रहूंगी. अरे, कौन पति बर्थडे गिफ्ट में एफडी पकड़ाता है. पर हां, उस के बर्थडे पर खुश तो हो रहा है. पर ऐसे तो नहीं चलेगा न. प्यार तो बहुत करता है और गिफ्ट की बात पर गुस्सा दिखाऊंगी तो लालची, छोटी सोच की लगूंगी, नहीं. इस मारवाड़ी लोहे को सिर्फ प्यार से ही फोम का गद्दा बनाना पड़ेगा. शावर की बौछार से रोतेरोते हंस पड़ी वाणी. थोड़ी देर पहले की सारी चिढ़, गुस्सा हवा हो चुका था.

वह स्वभाव से बहुत शांत और खुशमिजाज थी. मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी. गिफ्ट जैसी चीज पर थोड़ी ही मन में कटुता रखेगी. पर हां, इस का इलाज उस ने सोच लिया था, इसलिए अब वह खुश थी.

दोनों ने बाहर जा कर रैस्टोरैंट में साउथ इंडियन नाश्ता किया. वाणी को यहां आना अच्छा लगता था. अनुज को याद था, यह देख कर वाणी खुश हुई. वाणी के मायके और ससुराल से सब ने बर्थडे विश किया था. सब के गिफ्ट के बारे में पूछने पर उस का दिल बुझ गया था. पर्सनल कह कर बात हंसी में टाल दी थी. फिर दोनों ने मूवी देखी. थोड़ा घूमफिर कर दोनों वापस आ गए.

दिन बहुत अच्छा रहा था, पर कोई भी गिफ्ट न पाने की कसक थी वाणी के मन में. फिर समय के साथसाथ वाणी ने स्पष्टतया महसूस कर लिया था कि अनुज के प्यार में कमी नहीं है, पर जहां पैसे की बात आती है, वह बहुत सोचता है. एक भी पैसा कहीं फालतू खर्च हो जाता तो सारा दिन कलपता और कहीं दो पैसे बच जाते तो बच्चों की तरह खुश हो जाता है.

उस की हर बात में नफानुकसान की बात होती. कई बार वाणी मन ही मन बुरी तरह चिढ़ जाती, पर वह अपने बर्थडे पर सोच ही चुकी थी कि कैसे अनुज के साथ घरगृहस्थी चलानी है कि झगड़े भी न हों और उस का मन भी दुखी न हो.

अपने बर्थडे के दिन से ही उस के मन में एक डायमंड रिंग लेने की इच्छा थी. आसपास की नई बनी सहेलियों से अंदाजा ले कर पास ही स्थित मौल के एक ज्वैलरी शोरूम में गई और एक नाजुक सी, सुंदर रिंग खरीद कर खुद ही खुश हो गई. उस के पास क्रैडिट कार्ड था ही.

क्रैडिट कार्ड का मैसेज सीधा अनुज के पास पहुंचा तो कार्ड पर्स में डालने से पहले ही अनुज का फोन आ गया, ‘अरे, क्या खरीदा?’ वह इस बात से बहुत चिढ़ती थी कि अनुज ने सब जगह अपना ही नंबर दिया हुआ था. वह जब भी कहीं शौपिंग करती, पेमैंट करते ही अनुज का फोन आ जाता कि क्या ले लिया? अब भी अनुज ने पूछा, ‘‘अरे, ज्वैलरी शौप पर क्या कर रही हो?’’

‘‘वही डियर, जो सब करते हैं.’’

‘‘अरे, जल्दी बताओ, क्या ले लिया?’’

‘‘डायमंड रिंग.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘घर आओ तो बताऊंगी.’’

शाम को अनुज ने घर में घुसते ही पहला सवाल किया, ‘‘अरे, रिंग कैसे खरीद ली? मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘सांस तो ले लो, डियर, खरीदनी तो बर्थडे पर ही थी पर तुम ने एफडी ले ली,’’ अनुज के गले में बांहें डाल दी वाणी ने, ‘‘सब सहेलियां बारबार पूछ रही थीं कि क्या लिया, क्या लिया, तुम्हारी इज्जत भी तो रखनी थी.’’

वाणी की नईनई सहेलियों या किसी और परिचित के सामने अपनी अच्छी इमेज बनाने का बहुत शौक था अनुज को. उस की कोई तारीफ करता था तो वह और उत्साहित हो जाता था. यह जानती थी वाणी, इसलिए उस ने दांव आजमाया था. ठंडा पड़ गया अनुज, ‘‘हां, ठीक है ले ली. अच्छा, अब दिखाओ तो.’’ उंगली में पहनी हुई अंगूठी सामने दिखाती हुई वाणी का चमकता चेहरा देख अनुज भी मुसकरा कर बोला, ‘‘बहुत सुंदर है.’’

वाणी हंसी, ‘‘यह भी अच्छा इन्वैस्टमैंट है, डियर, खुशी का, प्यार का.’’ अनुज भी हंस पड़ा तो वाणी ने चैन की सांस ली.

वाणी को अनुज से कोई और शिकायत नहीं थी सिवा इस के कि रुपएपैसे के मामले में वह बड़ा हिसाबकिताब रखता था. अब वाणी को भी अच्छी तरह से समझ आ गया था कि ऐसे जीवनसाथी के साथ कैसे खुश रहना है. वह कई तरीके आजमाती, सब में लगभग सफल ही रहती. अनुज को प्यारभरे पलों में अपने दिल की बातें भी कहती रहती, ‘‘अनुज, मुझे वह चीज अच्छी लगती है जो मुझे आज खुशी देती है. 50 साल बाद मुझे कोई बचत खुशी देगी, उस इंतजार में मैं अपनी यह उम्र, ये शौक, ये खुशियों के दिन तो खराब नहीं करूंगी न.’’

वाणी अब यह उम्मीद नहीं करती थी कि अनुज सरप्राइज में उसे कोई गिफ्ट या कुछ भी और ला देगा. उस जैसे कंजूस पति के साथ कैसे निभाना है, यह वह जान ही चुकी थी.

एक बार दोनों में अकारण ही बहस हो गई. अनुज गुस्से में जोरजोर से  बोलने लगा, वाणी को भी गुस्सा आया था पर वह चिल्लाई नहीं. गुस्से में चुपचाप बैठी रही. अनुज गुस्से में ही औफिस का बैग उठा कर निकलने लगा तो वाणी ने संयत स्वर में कहा, ‘‘घर की दूसरी चाबी ले कर जाना.’’

चलता हुआ ठिठक गया अनुज, गुर्राया, ‘‘क्यों?’’

‘‘मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘कहां?’’

‘‘मैं ने सोच लिया है जबजब तुम बेवजह, गुस्सा कर ऐसे जाओगे उसी दिन जी भर कर शौपिंग कर के आऊंगी. अपना मूड मैं शौपिंग कर के ठीक करूंगी.’’ अनुज के गुस्से की तो सारी हवा निकल गई. बैग टेबल पर रखा और वाणी के कंधे पर हाथ रख कर खड़ा हो गया, मुसकरा दिया, ‘‘ठीक है, अच्छा, सौरी.’’

वाणी भी जोर से हंस पड़ी. मन में सोचा, चलो, यह पैंतरा भी काम आया. मतलब अब हमारा झगड़ा कभी नहीं होगा. वह बोली, ‘‘सचमुच, जब भी तुम गुस्सा होंगे, मैं शौपिंग पर चली जाऊंगी.’’

‘‘ऐसा जुल्म मत करना, मेरी जान, खर्च करने में बंदा बहुत कमजोर दिल का है, जानती हो न.’’

‘‘जानती हूं, तभी तो कहा है.’’ उस के बाद हंसतेमुसकराते अनुज औफिस चल दिया. वाणी अकेले में भी बहुत हंसी, यह तो अच्छा इलाज है इस का. पैसे खर्च करने के नाम से तो इस का सारा गुस्सा हवा हो जाता है.

एक दिन फिर बातोंबातों में वाणी ने कहा, ‘‘अनुज, पता है पत्नियों के रहनसहन, उन की लाइफस्टाइल से उन के पतियों का स्टैंडर्ड पता चलता है?’’

‘‘हां, यह तो है.’’

‘‘इसलिए मैं अच्छा पहनती, खातीपीती हूं, मेरे पति का इतना अच्छा काम है, मैं क्यों मन मार कर रहूं. मैं अच्छी तरह रहूंगी तो आसपास पड़ोसियों और मेरी सहेलियों को भी तुम्हारे पद, आय का अंदाजा मिलेगा. वैसे, मुझे दिखावा पसंद नहीं है, फिर भी तुम्हारी इज्जत रखना, तुम्हारी तारीफ सुनना अच्छा लगता है मुझे,’’ कहतेकहते वाणी अनुज की प्रेममयी बातें, उस का खुशमिजाज स्वभाव, पूरी तरह से अनुज प्रभावित था वाणी से. वाणी के स्वभाव की सरलता उसे अच्छी लगती.

वाणी भी खुश थी पर अनुज को बदलना भी इतना आसान नहीं था. उसे अपने ऊपर बहुत संयम रखना पड़ता. एक शर्ट लेने के लिए भी, एक जगह पसंद आने पर भी अनुज कई ब्रैंडेड शोरूम में भटकता कि सेल, डिस्काउंट कहां ज्यादा है. मौल में उस के पीछे इधरउधर भटकती हुई वाणी चिढ़ जाती, पर चुप रहती. उस की एक शर्ट की शौपिंग में भी वह थकहार जाती. वह अनुज के साथ होने पर अपनी शौपिंग बहुत ही कम करती. बाद में अकेली या किसी फ्रैंड के साथ आती. जो मन होता, खरीदती और अनुज की कंजूसी से भरे सवालों के जवाब प्यारभरी होशियारी से बखूबी देती.

अनुज कुछ कह न पाता. अनुज का बर्थडे आया, तो अपने जोड़े हुए पैसों से वह अनुज के लिए एक शर्ट और परफ्यूम ले आई. अनुज को परफ्यूम्स बहुत पसंद थे. पर अच्छे परफ्यूम्स बहुत महंगे होते हैं, इसलिए अपने लिए खरीदता ही नहीं था. कभी एक लिया था तो उसे भी बहुत कंजूसी से खास मौके पर ही लगाता था. वाणी को इस बात पर बहुत हंसी आती थी.

एक बार अनुज को चिढ़ाया भी था, ‘अपने इस परफ्यूम को बैंक के लौकर में क्यों नहीं रखते?’ अनुज इस मजाक पर बहुत हंसा था. अनुज वाणी के लिए गिफ्ट्स देख कर बहुत खुश हुआ. वाणी को अच्छे डिनर के लिए ले गया.

नया विवाह, रोमांस, उत्साह, प्यारभरी तकरार का एक साल हुआ तो मैरिज एनिवर्सिरी का पहला सैलिबे्रशन भी वाणी ने खूब उत्साह से प्लान किया. अब वह कुछ चीजों में अनुज से सलाह भी नहीं लेती थी. अपने लिए एक सुंदर साड़ी और अनुज के लिए एक घड़ी ले कर आई जिसे देख कर वह बहुत खुश हुआ. कीमत सुन कर मुंह तो उतरा क्योंकि सरप्राइज के लिए वाणी कार्ड का इस्तेमाल नहीं करती थी, नकद दे कर खरीदती थी. इसलिए अनुज को पहले से कोई अंदाजा नहीं हो पाता था, पर औफिस से आते ही वाणी को बांहों में भर लिया, ‘‘वाणी, पता है सब को घड़ी इतनी पसंद आई कि पूछो मत.’’

वाणी मुसकराई, ‘‘गिफ्ट्स अच्छे लगते हैं न, डियर?’’

‘‘हां,’’ कहता हुआ अनुज हंस दिया.

फिर आया विवाह के बाद वाणी का दूसरा बर्थडे. इस बार कोई उम्मीद, कल्पना नहीं थी वाणी के मन में, हमेशा की तरह उस ने सोच रखा था कि वह खुद ही कुछ ले लेगी अपने लिए. इस बार भी उसे सैल्फ सर्विस करनी पड़ेगी. वह मन ही मन इस बात पर हंसती रहती थी कि कंजूस पति के साथ उसे ‘सैल्फ सर्विस’ ही करनी पड़ती है. बर्थडे वाले दिन वाणी सुबह सो कर उठी तो अनुज ने उसे विश किया. फिर आंखें बंद करने के लिए कहा. वाणी ने इस बार फिर आंखें बंद कीं. इस बार कल्पना में एफडी, शेयर मार्केट का इन्वैस्टमैंट या कोई हैल्थ पौलिसी या कोई इंश्योरैंस लगता है.

‘‘अब आंखें खोलो,’’ अनुज के कहने पर वाणी ने आंखें खोली तो उसे अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ, सामने बैड पर एक खूबसूरत साड़ी और एक ब्रेसलैट रखा था. वह ‘थैंक्यू, यह तुम ही हो न,’ कह कर हंसती हुई अनुज से लिपट गई, उसे जोर से बांहों में भर लिया.

‘‘चलो, अब मेरा रिटर्न गिफ्ट?’’ शरारत से अनुज ने उसे देखा तो उस की बातों का मतलब समझती हुई वाणी का चेहरा गुलाबी हो गया. वह उस के सीने में छिपती चली गई. वह हैरान थी.

मारवाड़ी लोहा प्यार से एक साल में ही फोम का गद्दा जो बन चुका था.

सूना आसमान: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता जब छोटी थी तो मेरे साथ खेलती थी. मुझे पता नहीं अमिता के पिता क्या काम करते थे, लेकिन उस की मां एक घरेलू महिला थीं और मेरी मां के पास लगभग रोज ही आ कर बैठती थीं. जब दोनों बातों में मशगूल होती थीं तो हम दोनों छोटे बच्चे कभी आंगन में धमाचौकड़ी मचाते तो कभी चुपचाप गुड्डेगुडि़या के खेल में लग जाते थे.

धीरेधीरे परिस्थितियां बदलने लगीं. मेरे पापा ने मुझे शहर के एक बहुत अच्छे पब्लिक स्कूल में डाल दिया और मैं स्कूल जाने लगा. उधर अमिता भी अपने परिवार की हैसियत के मुताबिक स्कूल में जाने लगी थी. रोज स्कूल जाना, स्कूल से आना और फिर होमवर्क में जुट जाना. बस, इतवार को वह अपनी मां के साथ नियमित रूप से मेरे घर आती, तब हम दोनों सारा दिन खेलते और मस्ती करते.

हाईस्कूल के बाद जीवन पूरी तरह से बदल गया. कालेज में मेरे नए दोस्त बन गए, उन में लड़कियां भी थीं. अमिता मेरे जीवन से एक तरह से निकल ही गई थी. बाहर से आने पर जब मैं अमिता को अपनी मां के पास बैठा हुआ देखता तो बस, एक बार मुसकरा कर उसे देख लेता. वह हाथ जोड़ कर नमस्ते करती, तो मुझे वह किसी पौराणिक कथा के पात्र सी लगती. इस युग में अमिता जैसी सलवारकमीज में ढकीछिपी लड़कियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था. अमिता खूबसूरत थी, लेकिन उस की खूबसूरती के प्रति मन में श्रद्धाभाव होते थे, न कि उस के साथ चुहलबाजी और मौजमस्ती करने का मन होता था.

वह जब भी मुझे देखती तो शरमा कर अपना मुंह घुमा लेती और फिर कनखियों से चुपकेचुपके मुसकराते हुए देखती. दिन इसी तरह बीत रहे थे.

फिर मैं ने नोएडा के एक कालेज में बीटैक में दाखिला ले लिया और होस्टल में रहने लगा. केवल लंबी छुट्टियों में ही घर जाना हो पाता था. जब हम घर पर होते थे, तब अमिता कभीकभी हमारे यहां आती थी और दूर से ही शरमा कर नमस्ते कर देती थी, लेकिन उस के साथ बातचीत करने का मुझे कोई मौका नहीं मिलता था. उस से बात करने का मेरे पास कोई कारण भी नहीं था. ज्यादा से ज्यादा, ‘कैसी हो, क्या कर रही हो आजकल?’ पूछ लेता. पता चला कि वह किसी कालेज से बीए कर रही थी. बीए करने के बावजूद वह अभी तक सलवारकमीज में लिपटी हुई एक खूबसूरत गुडि़या की तरह लगती थी. लेकिन मुझे तो जींसटौप में कसे बदन और दिलकश उभारों वाली लड़कियां पसंद थीं. उस की तमाम खूबसूरती के बावजूद, संस्कारों और शालीन चरित्र से मुझे वह प्राचीनकाल की लड़की लगती थी.

गरमी की एक उमसभरी दोपहर थी. मैं अपने कमरे में एसी की ठंडी हवा लेता हुआ एक उपन्यास पढ़ने में व्यस्त था, तभी दरवाजे पर एक हलकी थाप पड़ी. मैं चौंक गया और लेटेलेटे ही पूछा, ‘‘कौन?’’

‘‘मैं, एक मीठी आवाज कानों में पड़ी. मैं पहचान गया, अमिता की आवाज थी, मैं ने कहा, आ जाओ, दरवाजे की सिटकिनी नहीं लगी है.’’

‘‘हां,’’ उस का सिर झुका हुआ था, आंखें उठा कर उस ने एक बार मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में एक अनोखी कशिश थी, जो सामने वाले को अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी. उस का चेहरा भी दमक रहा था. वह बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. उस के नैनन बहुत सुंदर थे. मैं एक पल के लिए देखता ही रह गया और मेरे हृदय में एक कसक सी उठतेउठते रह गई.

‘‘तुम…अचानक…इतनी दोपहर को? कोईर् काम है?’’ मैं उस के सौंदर्य से अभिभूत होता हुआ बिस्तर पर बैठ गया. पहली बार वह मुझे इतनी सुंदर और आकर्षक लगी थी.

वह शरमातीसकुचाती सी थोड़ा आगे बढ़ी और अपने हाथों को आगे बढ़ाती हुई बोली, ‘‘मिठाई लीजिए.’’

‘‘मिठाई?’’

‘‘हां, आज मेरा जन्मदिन है. मां ने मिठाई भिजवाई है,’’ उस ने सिर झुकाए हुए ही कहा.

‘‘अच्छा, बधाई हो,’’ मैं ने उस के हाथों से मिठाई ले ली.

मैं उस वक्त कमरे में अकेला था और एक जवान लड़की मेरे साथ थी. कोई देखता तो क्या समझता. मेरा ध्यान भी उपन्यास में लगा हुआ था. कहानी एक रोचक मोड़ पर पहुंच चुकी थी. ऐसे में अमिता ने आ कर अनावश्यक व्यवधान पैदा कर दिया था. अत: मैं चाहता था कि वह जल्दी से जल्दी मेरे कमरे से चली जाए. लेकिन वह खड़ी ही रही. मैं ने प्रश्नवाचक भाव से उसे देखा.

‘‘क्या मैं बैठ जाऊं?’’ उस ने एक कुरसी की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘‘हां…’’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी. मेरे दिल में धुकधुकी पैदा हो गई. क्या अमिता किसी खास मकसद से मेरे कमरे में आई थी? उस की आंखें याचक की भांति मेरी आंखों से टकरा गईं और मैं द्रवित हो उठा. पता नहीं, उस की आंखों में क्या था कि डरने के बावजूद मैं ने उस से कह दिया, ‘‘हांहां, बैठो,’’ मेरी आवाज में अजीब सी बेचैनी थी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या आप को डर लग रहा है?’’

‘‘नहीं, क्या तुम डर रही हो?’’ मैं ने अपने को काबू में करते हुए कहा.

‘‘मैं क्यों डरूंगी? आप से क्या डरना?’’ उस ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘डरने की बात नहीं है? चारों तरफ सन्नाटा है. दूरदूर तक किसी की आवाज सुनाई नहीं पड़ रही. भरी दोपहर में लोग अपनेअपने घरों में बंद हैं. ऐसे में एक सूने कमरे में एक जवान लड़की किसी लड़के के साथ अकेली हो तो क्या उसे डर नहीं लगेगा?’’

वह हंसते हुए बोली, ‘‘इस में डरने की क्या बात है? मैं आप को अच्छी तरह जानती हूं. आप भी तो कालेज में लड़कियों के साथ उठतेबैठते हैं, उन के साथ घूमतेफिरते हो. रेस्तरां और पार्क में जाते हो, तो क्या वे लड़कियां आप से डरती हैं?’’

मैं अमिता के इस रहस्योद्घाटन पर हैरान रह गया. कितनी साफगोई से वह यह बात कह रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम कि हम लोग लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं और मौजमस्ती करते हैं?’’

‘‘अब मैं इतनी भोली भी नहीं हूं. मैं भी कालेज में पढ़ती हूं. क्या मुझे नहीं पता कि किस प्रकार युवकयुवतियां एकदूसरे के साथ घूमते हैं और आपस में किस प्रकार का व्यवहार करते हैं?’’

‘‘लेकिन वे युवतियां हमारी दोस्त होती हैं और तुम…’’ मैं अचानक चुप हो गया. कहीं अमिता को बुरा न लग जाए. अफसोस हुआ कि मैं ने इस तरह की बात कही. आखिर अमिता मेरे लिए अनजान नहीं थी. बचपन से हम एकदूसरे को जानते हैं. जवानी में भले ही आत्मीयता या निकटता न रही हो, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि वह मुझ से मिल नहीं सकती थी.

अमिता को शायद मेरी बात बुरी लगी. वह झटके से उठती हुई बोली, ‘‘अब मैं चलूंगी वरना मां चिंतित होंगी,’’ उस की आवाज भीगी सी लगी. उस ने दुपट्टा अपने मुंह में लगा लिया और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई. मैं ने स्वयं से कहा, ‘‘मूर्ख, तुझे इतना भी नहीं पता कि लड़कियों से किस तरह पेश आना चाहिए. वे फूल की तरह कोमल होती हैं. कोई भी कठिन बात बरदाश्त नहीं कर सकतीं.’’

फिर मैं ने झटक कर अपने मन से यह बात निकाल दी, ‘‘हुंह, मुझे अमिता से क्या लेनादेना? बुरा मानती है तो मान जाए. मुझे कौन सा उस के साथ रिश्ता जोड़ना है. न वह मेरी प्रेमिका है, न दोस्त.’’

उन दिनों घर में बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं. वह बीए करने के बाद एक औफिस में स्टैनो हो गई थी. दूसरी बहन बीए करने के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी और सिविल सर्विसेज में जाने की इच्छुक थी. एक कोचिंग क्लास भी जौइन कर रखी थी. सब के साथ शाम की चाय पीने तक मैं अमिता के बारे में बिलकुल भूल चुका था. चाय पीने के बाद मैं ने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और यारदोस्तों से मिलने के लिए निकल पड़ा.

मैं दोस्तों के साथ एक रेस्तरां में बैठ कर लस्सी पीने का मजा ले रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर निधि का फोन आया. वह मेरे साथ इंटरमीडिएट में पढ़ती थी और हम दोनों में अच्छी जानपहचान ही नहीं आत्मीयता भी थी. मेरे दोस्तों का कहना था कि वह मुझ पर मरती है, लेकिन मैं इस बात को हंसी में उड़ा देता था. वह हमारी गंभीर प्रेम करने की उमर नहीं थी और मैं इस तरह का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. मेरे मम्मीपापा की मुझ से कुछ अपेक्षाएं थीं और मैं उन अपेक्षाओं का खून नहीं कर सकता था. अत: निधि के साथ मेरा परिचय दोस्ती तक ही कायम रहा. उस ने कभी अपने पे्रम का इजहार भी नहीं किया और न मैं ने ही इसे गंभीरता से लिया.

इंटर के बाद मैं नोएडा चला गया, तो उस ने भी मेरे नक्शेकदम पर चलते हुए गाजियाबाद के एक प्रतिष्ठान में बीसीए में दाखिला ले लिया. उस ने एक दिन मिलने पर कहा था, ‘‘मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

‘‘अच्छा, कहां तक?’’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘‘जहां तक तुम मेरा साथ दोगे.’’

‘‘अगर मैं तुम्हारा साथ अभी छोड़ दूं तो?’’

‘‘नहीं छोड़ पाओगे. 3 साल से तो हम आसपास ही हैं. न चाहते हुए भी मैं तुम से मिलने आऊंगी और तुम मना नहीं कर पाओगे. यहां से जाने के बाद क्या होगा, न तुम जानते हो, न मैं. मैं तो बस इतना जानती हूं, अगर तुम मेरा साथ दोगे, तो हम जीवनभर साथ रह सकते हैं.’’

मैं बात को और ज्यादा गंभीर नहीं करना चाहता था. बीटैक का वह मेरा पहला ही साल था. वह भी बीसीए के पहले साल में थी. प्रेम करने के लिए हम स्वतंत्र थे. हम उस उम्र से भी गुजर रहे थे, जब मन विपरीत सैक्स के प्रति दौड़ने लगता है और हम न चाहते हुए भी किसी न किसी के प्यार में गिरफ्तार हो जाते हैं. हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे.

वह मुझे अच्छी लगती थी, उस का साथ अच्छा लगता था. वह नए जमाने के अनुसार कपड़े भी पहनती थी. उस का शारीरिक गठन आकर्षक था. उस के शरीर का प्रत्येक अंग थिरकता सा लगता. वह ऐसी लड़की थी, जिस का प्यार पाने के लिए कोई भी लड़का कुछ भी उत्सर्ग कर सकता था, लेकिन मैं अभी पे्रम के मामले में गंभीर नहीं था, अत: बात आईगई हो गई. लेकिन हम दोनों अकसर ही महीने में एकाध बार मिल लिया करते थे और दिल्ली जा कर किसी रेस्तरां में बैठ कर चायनाश्ता करते थे, सिनेमा देखते थे और पार्क में बैठ कर अपने मन को हलका करते थे.

तब से अब तक 2 साल बीत चुके थे. अगले साल हम दोनों के ही डिग्री कोर्स समाप्त हो जाएंगे, फिर हमें जौब की तलाश करनी होगी. हमारा जौब हमें कहां ले जाएगा, हमें पता नहीं था.

मैं ने फोन औन कर के कहा, ‘‘हां, निधि, बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं, तुम से मिलने का मन कर रहा है. तुम तो कभी फोन करोगे नहीं कि मेरा हालचाल पूछ लो. मैं ही तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हूं. क्या कर रहे हो?’’ उधर से निधि ने जैसे शिकायत करते हुए कहा. उस की आवाज में बेबसी थी और मुझ से मिलने की उत्कंठा… लगता था, वह मेरे प्रति गंभीर होती जा रही थी.

मैं ने सहजता से कहा, ‘‘बस, दोस्तों के साथ गपें लड़ा रहा हूं.’’

‘‘क्या बेवजह समय बरबाद करते फिरते हो.’’

‘‘तो तुम्हीं बताओ, क्या करूं?’’

‘‘मैं तुम से मिलने आ रही हूं, कहां मिलोगे?’’

मैं दोस्तों के साथ था. थोड़ा असहज हो कर बोला, ‘‘मेरे दोस्त साथ हैं. क्या बाद में नहीं मिल सकते?’’

‘‘नहीं, मैं अभी मिलना चाहती हूं. उन से कोई बहाना बना कर खिसक आओ. मैं अभी निकलती हूं. रामलीला मैदान के पास आ कर मिलो,’’ वह जिद पर अड़ी हुई थी.

दोस्त मुझे फोन पर बातें करते देख कर मुसकरा रहे थे. वे सब समझ रहे थे. मैं ने उन से माफी मांगी, तो उन्होंने उलाहना दिया कि प्रेमिका के लिए दोस्तों को छोड़ रहा है. मैं खिसियानी हंसी हंसा, ‘‘नहीं यार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ फिर बिना कोई जवाब दिए चला आया. रामलीला मैदान पहुंचने के 10 मिनट बाद निधि वहां पहुंची. वह रिकशे से आई थी. मैं ने उपेक्षित भाव से कहा, ‘‘ऐसी क्या बात थी कि आज ही मिलना जरूरी था. दोस्त मेरा मजाक उड़ा रहे थे.’’

उस ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘सौरी अनुज, लेकिन मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकी. आज पता नहीं दिल क्यों इतना बेचैन था. सुबह से ही तुम्हारी बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘अच्छा, लगता है, तुम मेरे बारे में कुछ अधिक ही सोचने लगी हो.’’

हम दोनों मोटरसाइकिल के पास ही खड़े थे. उस ने सिर नीचा करते हुए कहा, ‘‘शायद यही सच है. लेकिन अपने मन की बात मैं ही समझ सकती हूं. अब तो पढ़ने में भी मेरा मन नहीं लगता, बस हर समय तुम्हारे ही खयाल मन में घुमड़ते रहते हैं.’’

मैं सोच में पड़ गया. ये अच्छे लक्षण नहीं थे. मेरी उस के साथ दोस्ती थी, लेकिन उस को प्यार करने और उस के साथ शादी कर के घर बसाने के बारे में मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

‘‘निधि, यह गलत है. अभी हमें पढ़ाई समाप्त कर के अपना कैरियर बनाना है. तुम अपने मन को काबू में रखो,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकती. यह तुम्हारी तरफ भागता है. अब सबकुछ तुम्हारे हाथ में है. मैं सच कहती हूं, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.’’

मैं चुप रहा. उस ने उदासी से मेरी तरफ देखा. मैं ने नजरें चुरा लीं. वह तड़प उठी, ‘‘तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’

मैं हड़बड़ा गया. मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘चलो, पीछे बैठो,’’ वह चुपचाप पीछे बैठ गई. मैं ने फर्राटे से गाड़ी आगे बढ़ाई. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसे मौके पर कैसे रिऐक्ट करूं? निधि ने बड़े आराम से बीच सड़क पर अपने प्यार का इजहार कर दिया था. न उस ने वसंत का इंतजार किया, न फूलों के खिलने का और न चांदनी रात का… न उस ने मेरे हाथों में अपना हाथ डाला, न चांद की तरफ इशारा किया और न शरमा कर अपने सिर को मेरे कंधे पर रखा.

बड़ी शालीनता से उस ने अपने प्यार का इजहार कर दिया. मुझे बड़ा अजीब सा लगा कि यह कैसा प्यार था, जिस में प्रेमी के दिल में प्रेमिका के लिए कोई प्यार की धुन नहीं बजी.

एक अच्छे से रेस्तरां के एक कोने में बैठ कर मैं ने बिना उस की ओर देखे कहा, ‘‘प्यार तो मैं कर सकता हूं, पर इस का अंत क्या होगा?’’ मेरी आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उस के साथ कोई समझौता करने जा रहा था.

‘‘प्यार के परिणाम के बारे में सोच कर प्यार नहीं किया जाता. तुम मुझे अच्छे लगते हो, तुम्हारे बारे में सोचते हुए मेरा दिल धड़कने लगता है, तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मधुर संगीत घोलती है, तुम से मिलने के लिए मेरा मन बेचैन रहता है. बस, मैं समझती हूं, यही प्यार है,’’ उस ने अपना दायां हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और बाएं हाथ से मेरा सीना सहलाने लगी.

मैं सिकुड़ता हुआ बोला, ‘‘हां, प्यार तो यही है, लेकिन मैं अभी इस मामले में गंभीर नहीं हूं.’’

‘‘कोईर् बात नहीं, जब रोजरोज मुझ से मिलोगे तो एक दिन तुम को भी मुझ से प्यार हो जाएगा. मैं जानती हूं, तुम मुझे नापसंद नहीं करते,’’ वह मेरे साथ जबरदस्ती कर रही थी.

क्या पता, शायद एक दिन मुझे भी निधि से प्यार हो जाए. निधि को अपने ऊपर विश्वास था, लेकिन मुझे अपने ऊपर नहीं… फिर भी समय बलवान होता है. एकदो साल में क्या होगा, कौन क्या कह सकता है?

इसी तरह एक साल बीत गया. निधि से हर सप्ताह मुलाकात होती. उस के प्यार की शिद्दत से मैं भी पिघलने लगा था और दोनों चुंबक की तरह एकदूसरे को अपनी तरफ खींच रहे थे. इस में कोई शक नहीं कि निधि के प्यार में तड़प और कसमसाहट थी. मेरे मन में चोर था और मैं दुविधा में था कि मैं इस संबंध को लंबे अरसे तक खींच पाऊंगा या नहीं, क्योंकि भविष्य के प्रति मैं आश्वस्त नहीं था.

एक साल बाद हमारे डिग्री कोर्स समाप्त हो गए. परीक्षा के बाद फिर से गरमी की छुट्टियां. मैं अपने शहर आ गया. छुट्टियों में निधि से रोज मिलना होता, लेकिन इस बार अपने घर आ कर मैं कुछ बेचैन सा रहने लगा था. पता नहीं, वह क्या चीज थी, मैं समझ ही नहीं पा रहा था. ऐसा लगता था, जैसे मेरे जीवन में किसी चीज का अभाव था. वह क्या चीज थी, लाख सोचने के बावजूद मैं समझ नहीं पा रहा था. निधि से मिलता तो कुछ पल के लिए मेरी बेचैनी दूर हो जाती, लेकिन घर आते ही लगता मैं किसी भयानक वीराने में आ फंसा हूं और वहां से निकलने का कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा.

अचानक एक दिन मुझे अपनी बेचैनी का कारण समझ में आ गया. उस दिन मैं जल्दी घर लौटा था. मां आंगन में अमिता की मां के साथ बैठी बातें कर रही थीं. अमिता की मां को देखते ही मेरा दिल अनायास ही धड़क उठा, जैसे मैं ने बरसों पूर्व बिछड़े अपने किसी आत्मीय को देख लिया हो. मुझे तुरंत अमिता की याद आई, उस का भोला मुखड़ा याद आया. उस के चेहरे की स्निग्धता, मधुर सौंदर्य, बड़ीबड़ी मुसकराती आंखें और होंठों को दबा कर मुसकराना सभी कुछ याद आया. मेरा दिल और तेजी से धड़क उठा. मेरे पैर जैसे वहीं जकड़ कर रह गए. मैं ने कातर भाव से अमिता की मां को देखा और उन्हें नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘चाची, आजकल आप दिखाई नहीं पड़ती हैं?’’ वास्तव में मैं पूछना चाहता था कि आजकल अमिता दिखाई नहीं पड़ती.

मुझे अपनी बेचैनी का कारण पता चल गया था, लेकिन मैं उस का निवारण नहीं कर सकता था. अमिता की मां ने कहा, ‘‘अरे, बेटा, मैं तो लगभग रोज ही आती हूं. तुम ही घर पर नहीं रहते.’’

मैं शर्मिंदा हो गया और झेंप कर दूसरी तरफ देखने लगा. मेरी मां मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘लगता है, यह तुम्हारे बहाने अमिता के बारे में पूछ रहा है. उस से इस बार मिला कहां है?’’ मां मेरे दिल की बात समझ गई थीं.

अमिता की मां भी हंस पड़ीं, ‘‘तो सीधा बोलो न बेटा, मैं तो उस से रोज कहती हूं, लेकिन पता नहीं उसे क्या हो गया है कि कहीं जाने का नाम ही नहीं लेती. पिछले एक साल से बस पढ़ाई, सोना और कालेज… कहती है, अंतिम वर्ष है, ठीक से पढ़ाई करेगी तभी तो अच्छे नंबरों से पास होगी.’’

‘‘लेकिन अब तो परीक्षा समाप्त हो गई है,’’ मेरी मां कह रही थीं. मैं धीरेधीरे अपने कमरे की तफ बढ़ रहा था, लेकिन उन की बातें मुझे पीछे की तरफ खींच रही थीं. दिल चाहता था कि रुक कर उन की बातें सुनूं और अमिता के बारे में जानूं, पर संकोच और लाजवश मैं आगे बढ़ता जा रहा था. कोई क्या कहेगा कि मैं अमिता के प्रति दीवाना था…

‘‘हां, परंतु अब भी वह किताबों में ही खोई रहती है,’’ अमिता की मां बता रही थीं.

आगे की बातें मैं नहीं सुन सका. मेरे मन में तड़ाक से कुछ टूट गया. मैं जानता था कि अमिता मेरे घर क्यों नहीं आ रही थी. उस दिन की मेरी बात, जब वह मेरे कमरे में मिठाई देने के बहाने आई थी, उस के दिल में उतर गई थी और आज तक उसे गांठ बांध कर रखा था. मुझे नहीं पता था कि वह इतनी जिद्दी और स्वाभिमानी लड़की है. बचपन में तो वह ऐसी नहीं थी.

अब मैं फोन पर निधि से बात करता तो खयालों में अमिता रहती, उस का मासूम और सुंदर चेहरा मेरे आगे नाचता रहता और मुझे लगता मैं निधि से नहीं अमिता से बातें कर रहा हूं. मुझे उस का इंतजार रहने लगा, लेकिन मैं जानता था कि अब अमिता मेरे घर कभी नहीं आएगी. एक साल हो गया था, आज तक वह नहीं आई तो अब क्या आएगी? उसे क्या पता कि मैं अब उस का इंतजार करने लगा था. मेरी बेबसी और बेचैनी का उसे कभी पता नहीं चल सकता था. मुझे ही कुछ  करना पड़ेगा वरना एक अनवरत जलने वाली आग में मैं जल कर मिट जाऊंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.

मैं अमिता के घर कभी नहीं गया था, लेकिन बहुत सोचविचार कर एक दिन मैं उस के घर पहुंच ही गया. दरवाजे की कुंडी खटखटाते ही मेरे मन को एक अनजाने भय ने घेर लिया. इस के बावजूद मैं वहां से नहीं हटा. कुछ देर बाद दरवाजा खुला तो अमिता की मां सामने खड़ी थीं. वे मुझे देख कर हैरान रह गईं. अचानक उन के मुंह से कोई शब्द नहीं निकला. मैं ने अपने दिल की धड़कन को संभालते हुए उन्हें नमस्ते किया और कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ जाऊं?’’

‘‘आं… हांहां,’’ जैसे उन्हें होश आया हो, ‘‘आ जाओ, अंदर आ जाओ,’’ अंदर घुस कर मैं ने चारों तरफ नजर डाली. साधारण घर था, जैसा कि आम मध्यवर्गीय परिवार का होता है. आंगन के बीच खड़े हो कर मैं ने अमिता के घर को देखा, बड़ा खालीखाली और वीरान सा लग रहा था. मैं ने एक गहरी सांस ली और प्रश्नवाचक भाव से अमिता की मां को देखा, ‘‘सब लोग कहीं गए हुए हैं क्या,’’ मैं ने पूछा.

अमिता की मां की समझ में अभी तक नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दें. मेरा प्रश्न सुन कर वे बोलीं, ‘‘हां, बस अमिता है, अपने कमरे में. अच्छा, तुम बैठो. मैं उसे बुलाती हूं,’’ उन्होंने हड़बड़ी में बरामदे में रखे तख्त की तरफ इशारा किया. तख्त पर पुराना गद्दा बिछा हुआ था, शायद रात को उस पर कोई सोता होगा. मैं ने मना करते हुए कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. मैं उस के कमरे में ही जा कर मिल लेता हूं. कौन सा कमरा है?’’

अब तक शायद हमारी बातचीत की आवाज अमिता के कानों तक पहुंच चुकी थी. वह उलझी हुई सी अपने कमरे से बाहर निकली और फटीफटी आंखों से मुझे देखने लगी. वह इतनी हैरान थी कि नमस्कार करना तक भूल गई. मांबेटी की हैरानगी से मेरे दिल को थोड़ा सुकून पहुंचा और अब तक मैं ने अपने धड़कते दिल को संभाल लिया था. मैं मुसकराने लगा, तो अमिता ने शरमा कर अपना सिर झुका लिया, बोली कुछ नहीं. मैं ने देखा, उस के बाल उलझे हुए थे, सलवारकुरते में सिलवटें पड़ी हुई थीं. आंखें उनींदी सी थीं, जैसे उसे कई रातों से नींद न आई हो. वह अपने प्रति लापरवाह सी दिख रही थी.

‘‘बैठो, बेटा. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं? तुम पहली बार मेरे घर आए हो,’’ अमिता की मां ऐसे कह रही थीं, जैसे कोई बड़ा आदमी उन के घर पर पधारा हो.

मैं कुछ नहीं बोला और मुसकराता रहा. अमिता ने एक बार फिर अपनी नजरें उठा कर गहरी निगाह से मुझे देखा. उस की आंखों में एक प्रश्न डोल रहा था. मैं तुरंत उस का जवाब नहीं दे सकता था. उस की मां के सामने खुल कर बात भी नहीं कर सकता था. मैं चुप रहा तो शायद वह मेरे मन की बात समझ गई और धीरे से बोली, ‘‘आओ, मेरे कमरे में चलते हैं. मां, आप तब तक चाय बना लो,’’ अंतिम वाक्य उस ने अपनी मां से कुछ जोर से कहा था.

हम दोनों उस के कमरे में आ गए. उस ने मुझे अपने बिस्तर पर बैठा दिया, पर खुद खड़ी रही. मैं ने उस से बैठने के लिए कहा तो उस ने कहा, ‘‘नहीं, मैं ऐसे ही ठीक हूं,’’ मैं ने उस के कमरे में एक नजर डाली. पढ़ने की मेजकुरसी के अलावा एक साधारण बिस्तर था, एक पुरानी स्टील की अलमारी और एक तरफ हैंगर में उस के कपड़े टंगे थे. कमरा साफसुथरा था और मेज पर किताबों का ढेर लगा हुआ था, जैसे अभी भी वह किसी परीक्षा की तैयारी कर रही थी. छत पर एक पंखा हूम्हूम् करता हुआ हमारे विचारों की तरह घूम रहा था.

मैं ने एक गहरी सांस ली और अमिता को लगभग घूर कर देखता हुआ बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’ मैं बहुत तेजी से बोल रहा था. मेरे पास समय कम था, क्योंकि किसी भी क्षण उस की मां कमरे में आ सकती थीं और मुझे काफी सारे सवालों के जवाब अमिता से चाहिए थे.

वह कुछ नहीं बोली, बस सिर नीचा किए खड़ी रही. मैं ने महसूस किया, उस के होंठ हिल रहे थे, जैसे कुछ कहने के लिए बेताब हों, लेकिन भावातिरेक में शब्द मुंह से बाहर नहीं निकल पा रहे थे. मैं ने उस का उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘‘देखो, अमिता, मेरे पास समय कम है और तुम्हारे पास भी… मां घर पर हैं और हम खुल कर बात भी नहीं कर सकते, जो मैं पूछ रहा हूं, जल्दी से उस का जवाब दो, वरना बाद में हम दोनों ही पछताते रह जाएंगे. बताओ, क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’

‘‘नहीं, उस ने कहा, लेकिन उस की आवाज रोती हुई सी लगी.’’

‘‘तो, तुम मुझे प्यार करती हो? मैं ने स्पष्ट करना चाहा. कहते हुए मेरी आवाज लरज गई और दिल जोरों से धड़कने लग गया. लेकिन अमिता ने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उस के पास शब्द नहीं थे. बस, उस का बदन कांप कर रह गया. मैं समझ गया.’’

‘‘तो फिर तुम ने हठ क्यों किया? अपना मान तोड़ कर एक बार मेरे पास आ जाती, मैं कोई अमानुष तो नहीं हूं. तुम थोड़ा झुकती, तो क्या मैं पिघल नहीं जाता?’’

वह फिर एक बार कांप कर रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी तरफ नहीं देखोगी?’’ उस ने तड़प कर अपना चेहरा उठाया. उस की आंखें भीगी हुई थीं और उन में एक विवशता झलक रही थी. यह कैसी विवशता थी, जो वह बयान नहीं कर सकती थी? मुझे उस के ऊपर दया आई और सोचा कि उठ कर उसे अपने अंक में समेट लूं, लेकिन संकोचवश बैठा रहा.

उस की मां एक गिलास में पानी ले कर आ गई थीं. मुझे पानी नहीं पीना था, फिर भी औपचारिकतावश मैं ने गिलास हाथ में ले लिया और एक घूंट भर कर गिलास फिर से ट्रे में रख दिया. मां भी वहीं सामने बैठ गईं और इधरउधर की बातें करने लगीं. मुझे उन की बातों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन उन के सामने मैं अमिता से कुछ पूछ भी नहीं सकता था.

उस की मां वहां से नहीं हटीं और मैं अमिता से आगे कुछ नहीं पूछ सका. मैं कितनी देर तक वहां बैठ सकता था, आखिर मजबूरन उठना पड़ा, ‘‘अच्छा चाची, अब मैं चलता हूं.’’

‘‘अच्छा बेटा,’’ वे अभी तक नहीं समझ पाई थीं कि मैं उन के घर क्यों आया था. उन्होंने भी नहीं पूछा. इंतजार करूंगा, कह कर मैं ने एक गहरी मुसकान उस के चेहरे पर डाली. उस की आंखों में विश्वास और अविश्वास की मिलीजुली तसवीर उभर कर मिट गई. क्या उसे मेरी बात पर यकीन होगा? अगर हां, तो वह मुझ से मिलने अवश्य आएगी.

पर वह मेरे घर फिर भी नहीं आई. मेरे दिल को गहरी ठेस पहुंची. क्या मैं ने अमिता के दिल को इतनी गहरी चोट पहुंचाई थी कि वह उसे अभी तक भुला नहीं पाई थी. वह मुझ से मिलती तो मैं माफी मांग लेता, उसे अपने अंक में समेट लेता और अपने सच्चे प्यार का उसे एहसास कराता. लेकिन वह नहीं आई, तो मेरा दिल भी टूट गया. वह अगर स्वाभिमानी है, तो क्या मैं अपने आत्मसम्मान का त्याग कर देता?

हम दोनों ही अपनेअपने हठ पर अड़े रहे. समय बिना किसी अवरोध के अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. इस बीच मेरी नौकरी एक प्राइवेट कंपनी में लग गई और मैं अमिता को मिले बिना चंडीगढ़ चला गया. निधि को भी जौब मिल  गया, अब वह नोएडा में नौकरी कर रही थी.

इस दौरान मेरी दोनों बहनों का भी ब्याह हो गया और वे अपनीअपनी ससुराल चली गईं. जौब मिल जाने के बाद मेरे लिए भी रिश्ते आने लगे थे, लेकिन मम्मी और पापा ने सबकुछ मेरे ऊपर छोड़ दिया था.

निधि की मेरे प्रति दीवानगी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, मैं उस के प्रति समर्पित नहीं था और न उस से मिलनेजुलने के लिए इच्छुक, लेकिन निधि मकड़ी की तरह मुझे अपने जाल में फंसाती जा रही थी. वह छुट्टियों में अपने घर न जा कर मेरे पास चंडीगढ़ आ जाती और हम दोनों साथसाथ कई दिन गुजारते.

मैं निधि के चेहरे में अमिता की छवि को देखते हुए उसे प्यार करता रहा, पर मैं इतना हठी निकला कि एक बार भी मैं ने अमिता की खबर नहीं ली. पुरुष का अहम मेरे आड़े आ गया. जब अमिता को ही मेरे बारे में पता करने की फुरसत नहीं है, तो मैं उस के पीछे क्यों भागता फिरूं?

अंतत: निधि की दीवानगी ने मुझे जीत लिया. उधर मम्मीपापा भी शादी के लिए दबाव डाल रहे थे. इसलिए जौब मिलने के सालभर बाद हम दोनों ने शादी कर ली.

निधि के साथ मैं दक्षिण भारत के शहरों में हनीमून मनाने चला गया. लगभग 15 दिन बिता कर हम दोनों अपने घर लौटे. हमारी छुट्टी अभी 15 दिन बाकी थी, अत: हम दोनों रोज बाहर घूमनेफिरने जाते, शाम को किसी होटल में खाना खाते और देर रात गए घर लौटते. कभीकभी निधि के मायके चले जाते. इसी तरह मस्ती में दिन बीत रहे थे कि एक दिन मुझे तगड़ा झटका लगा.

अमिता की मां मेरे घर आईं और रोतेरोते बता रही थीं कि अमिता के पापा ने उस के लिए एक रिश्ता ढूंढ़ा था. बहुत अच्छा लड़का था, सरकारी नौकरी में था और घरपरिवार भी अच्छा था. सभी को यह रिश्ता बहुत पसंद था, लेकिन अमिता ने शादी करने से इनकार कर दिया था. घर वाले बहुत परेशान और दुखी थे, अमिता किसी भी तरह शादी के लिए मान नहीं रही थी.

‘‘शादी से इनकार करने का कोई कारण बताया उस ने,’’ मेरी मां अमिता की मम्मी से पूछ रही थीं.

‘‘नहीं, बस इतना कहती है कि शादी नहीं करेगी और पहाड़ों पर जा कर किसी स्कूल में पढ़ाने का काम करेगी.’’

‘‘इतनी छोटी उम्र में उसे ऐसा क्या वैराग्य हो गया,’’ मेरी मां की समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था. पर मैं जानता था कि अमिता ने यह कदम क्यों उठाया था? उसे मेरा इंतजार था, लेकिन मैं ने हठ में आ कर निधि से शादी कर ली थी. मैं दोबारा अमिता के पास जा कर उस से माफी मांग लेता, तो संभवत: वह मान जाती और मेरा प्यार स्वीकार कर लेती. हम दोनों ही अपनी जिद्द और अहंकार के कारण एकदूसरे से दूर हो गए थे. मुझे लगा, अमिता ने किसी और के साथ नहीं बल्कि मेरे साथ अपना रिश्ता तोड़ा है.

मेरी शादी हो गई थी और मुझे अब अमिता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए था, पर मेरा दिल उस के लिए बेचैन था. मैं उस से मिलना चाहता था, अत: मैं ने अपना हठ तोड़ा और एक बार फिर अमिता से मिलने उस के घर पहुंच गया. मैं ने उस की मां से निसंकोच कहा कि मैं उस से एकांत में बात करना चाहता हूं और इस बीच वे कमरे में न आएं.

मैं बैठा था और वह मेरे सामने खड़ी थी. उस का सुंदर मुखड़ा मुरझा कर सूखी, सफेद जमीन सा हो गया था. उस की आंखें सिकुड़ गई थीं और चेहरे की कांति को ग्रहण लग गया था. उस की सुंदर केशराशि उलझी हुई ऊन की तरह हो गई थी. मैं ने सीधे उस से कहा, ‘‘क्यों अपने को दुख दे रही हो?’’

‘‘मैं खुश हूं,’’ उस ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘शादी के लिए क्यों मना कर दिया?’’

‘‘यही मेरा प्रारब्ध है,’’ उस ने बिना कुछ सोचे तुरंत जवाब दिया.

‘‘यह तुम्हारा प्रारब्ध नहीं था. मेरी बात को इतना गहरे अपने दिल में क्यों उतार लिया? मैं तो तुम्हारे पास आया था, फिर तुम मेरे पास क्यों नहीं आई? आ जाती तो आज तुम मेरी पत्नी होती.’’

‘‘शायद आ जाती,’’ उस ने निसंकोच भाव से कहा, ‘‘लेकिन रात को मैं ने इस बात पर विचार किया कि आप मेरे पास क्यों आए थे. कारण मेरी समझ में आ गया था. आप मुझ से प्यार नहीं करते थे, बस तरस खा कर मेरे पास आए थे और मेरे घावों पर मरहम लगाना चाहते थे.

‘‘मैं आप का सच्चा प्यार चाहती थी, तरस भरा प्यार नहीं. मैं इतनी कमजोर नहीं हूं कि किसी के सामने प्यार के लिए आंचल फैला कर भीख मांगती. उस प्यार की क्या कीमत, जिस की आग किसी के सीने में न जले.’’

‘‘क्या यह तुम्हारा अहंकार नहीं है?’’ उस की बात सुन कर मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया था.

‘‘हो सकता है, पर मुझे इसी अहंकार के साथ जीने दीजिए. मैं अब भी आप को प्यार करती हूं और जीवनभर करती रहूंगी. मैं अपने प्यार को स्वीकार करने के लिए ही उस दिन आप के पास मिठाई देने के बहाने गई थी, लेकिन आप ने बिना कुछ सोचेसमझे मुझे ठुकरा दिया. मैं जानती थी कि आप दूसरी लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं, शायद उन में से किसी को प्यार भी करते हों. इस के बावजूद मैं आप को मन ही मन प्यार करने लगी थी. सोचती थी, एक दिन मैं आप को अपना बना ही लूंगी. मैं ने आप का प्यार चाहा था, लेकिन मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई. फिर भी अगर आप का प्यार मेरा नहीं है तो क्या हुआ, मैं ने जिस को चाहा, उसे प्यार किया और करती रहूंगी. मेरे प्यार में कोई खोट नहीं है,’’ कहतेकहते वह सिसकने लगी थी.

‘‘अगर अपने हठ में आ कर मैं ने तुम्हारा प्यार कबूल नहीं किया, तो क्या दुनिया इतनी छोटी है कि तुम्हें कोई दूसरा प्यार करने वाला युवक न मिलता. मुझ से बदला लेने के लिए तुम किसी अन्य युवक से शादी कर सकती थी,’’ मैं ने उसे समझाने का प्रयास किया.

वह हंसी. बड़ी विचित्र हंसी थी उस की, जैसे किसी बावले की… जो दुनिया की नासमझी पर व्यंग्य से हंस रहा हो. वह बोली, ‘‘मैं इतनी गिरी हुई भी नहीं हूं कि अपने प्यार का बदला लेने के लिए किसी और का जीवन बरबाद करती. दुनिया में प्यार के अलावा और भी बहुत अच्छे कार्य हैं. मदर टेरेसा ने शादी नहीं की थी, फिर भी वह अनाथ बच्चों से प्यार कर के महान हो गईं. मैं भी कुंआरी रह कर किसी कौन्वैंट स्कूल में बच्चों को पढ़ाऊंगी और उन के हंसतेखिलखिलाते चेहरों के बीच अपना जीवन गुजार दूंगी. मुझे कोई पछतावा नहीं है.

‘‘आप अपनी पत्नी के साथ खुश रहें, मेरी यही कामना है. मैं जहां रहूंगी, खुश रहूंगी… अकेली ही. इतना मैं जानती हूं कि बसंत में हर पेड़ पर बहार नहीं आती. अब आप के अलावा मेरे जीवन में किसी दूसरे व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं है,’’ उस की आंखों में अनोखी चमक थी और उस के शब्द तीर बन कर मेरे दिल में चुभ गए.

मुझे लगा मैं अमिता को बिलकुल भी नहीं समझ पाया था. वह मेरे बचपन की साथी अवश्य थी, पर उस के मन और स्वभाव को मैं आज तक नहीं समझ पाया था. मैं ने उसे केवल बचपन में ही जाना था. अब जवानी में जब उसे जानने का मौका मिला, तब तक सबकुछ लुट चुका था.

वह हठी ही नहीं, स्वाभिमानी भी थी. उस को उस के निर्णय से डिगा पाना इतना आसान नहीं था. मैं ने अमिता को समझने में बहुत बड़ी भूल की थी. काश, मैं उस के दिल को समझ पाता, तो उस की भावनाओं को इतनी चोट न पहुंचती.

अपनी नासमझी में मैं ने उस के दिल को ठेस पहुंचाई थी, लेकिन उस ने अपने स्वाभिमान से मेरे दिल पर इतना गहरा घाव कर दिया था, जो ताउम्र भरने वाला नहीं था.

सबकुछ मेरे हाथों से छिन गया था और मैं एक हारे हुए जुआरी की तरह अमिता के घर से चला आया.

पदचिह्न: क्या किया था पूजा ने?

बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.

हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.

नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’

घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.

मैं भी, इस झूठी आशा में कितने ही वर्ष जीती रही. सोचती थी, जब तक समीर की नौकरी है, कभी बेटाबहू हमारे पास आ जाया करेंगे, कभी हम दोनों उन के पास चले जाया करेंगे और समीर के रिटायरमेंट के बाद तो रजत अपने साथ हमें दिल्ली ले ही जाएगा किंतु सोचा हुआ क्या कभी पूरा होता है? रजत के विवाह के बाद कुछ समय तक आनेजाने का सिलसिला चला भी. पोते धु्रव के जन्म के समय मैं 2 महीने तक दिल्ली में रही थी. समीर रिटायर हुए तो दिल्ली के चक्कर अधिक लगने लगे. बेटेबहू से अधिक पोते का मोह अपनी ओर खींचता था. वैसे भी मूलधन से ब्याज अधिक प्यारा होता है.

धु्रव की प्यारी मीठीमीठी बातों ने हमें फिर से हमारा बचपन लौटा दिया था. धु्रव के साथ खेलना, उस के लिए खिलौने लाना, छोटेछोटे स्वेटर बनाना, कितना आनंददायक था सबकुछ. लगता था धु्रव के चारों तरफ ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गई थी. किंतु जल्दी ही मुट्ठी में बंद रेत की तरह खुशियां हाथ से फिसल गईं. जैसेजैसे मेरा और समीर का दिल्ली जाना बढ़ता गया, नेहा का हमारे ऊपर लुटता स्नेह कम होने लगा और उस की जगह ले ली उपेक्षा ने. मुंह से उस ने कभी कुछ नहीं कहा. ऐसी बातें शायद शब्दों की मोहताज होती भी नहीं किंतु मुझे पता था कि उस के मन में क्या चल रहा था. भयभीत थी वह इस खयाल से कि कहीं मैं और समीर उस के पास दिल्ली शिफ्ट न हो जाएं.

ऐसा नहीं था कि रजत नेहा के इस बदलाव से पूरी तरह अनजान था, किंतु वह भी नेहा के व्यवहार की शुष्कता को नजरअंदाज कर रहा था. मन ही मन शायद वह भी समझता था कि मांबाप के उस के पास आ कर रहने से उन की स्वतंत्रता में बाधा पड़ेगी. उस की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी जिस से उस का दांपत्य जीवन प्रभावित होगा. उस के और नेहा के बीच व्यर्थ ही कलह शुरू हो जाएगी और ऐसा वह कदापि नहीं चाहता था. मैं ने अपने बेटे रजत का विवाह कितने चाव से किया था. नेहा के ऊपर अपनी भरपूर ममता लुटाई थी किंतु…

मैं ने एक गहरी सांस ली. मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. शरीर में और भी शिथिलता महसूस हो रही थी. मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. मांबाप इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं मांबाप के लिए? बुढ़ापे में उन का सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. आक्रोश से मेरा मन भर उठा था. क्या यही संस्कार दिए थे मैं ने रजत को?

इस विचार ने जैसे ही मेरे मन को मथा, तभी मन के भीतर कहीं छनाक की आवाज हुई और अतीत के आईने में मुझे अपना बदरंग चेहरा नजर आने लगा. अतीत की न जाने कितनी कटु स्मृतियां मेरे मन की कैद से छुटकारा पा कर जेहन में उभरने लगीं.

मेरा समीर से जिस समय विवाह हुआ, वह आगरा में एक सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स अफसर थे. वह अपने मांबाप के इकलौते लड़के थे. मेरी सास धार्मिक विचारों वाली सीधीसादी महिला थीं. विवाह के बाद पहले दिन से ही उन्होंने मां के समान मुझ पर अपना स्नेह लुटाया. मेरे नाजनखरे उठाने में भी उन्होंने कमी नहीं रखी. सारा दिन अपने कमरे में बैठ कर मैं या तो साजशृंगार करती या फिर पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी और वह अकेली घर का कामकाज निबटातीं.

उन में जाने कितना सब्र था कि उन्होंने मुझ से कभी कोई गिलाशिकवा नहीं किया. समीर को कभीकभी मेरा काम न करना खटकता था, दबे शब्दों में वह अम्मां की मदद करने को कहते, किंतु मेरे माथे पर पड़ी त्योरियां देख खामोश रह जाते. धीरेधीरे सास की झूठीझूठी बातें कह कर मैं ने समीर को उन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिस से समीर और उन के मांबाप के बीच संवादहीनता की स्थिति आ गई. आखिर एक दिन अवसर देख कर मैं ने समीर से अपना ट्रांसफर करा लेने को कहा. थोड़ी नानुकूर के बाद वह सहमत हो गए. अभी विवाह को एक साल ही बीता था कि मांबाप को बेसहारा छोड़ कर मैं और समीर लखनऊ आ गए.

जिंदगी भर मैं ने अपने सासससुर की उपेक्षा की. उन की ममता को उन की विवशता समझ कर जीवनभर अनदेखा करती रही. मैं ने कभी नहीं चाहा, मेरे सासससुर मेरे साथ रहें. उन का दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं थी. अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता मुझे अत्यधिक प्रिय थी. समीर पर मैं ने सदैव अपना आधिपत्य चाहा. कभी नहीं सोचा, बूढ़े मांबाप के प्रति भी उन के कुछ कर्तव्य हैं. इस पीड़ा और उपेक्षा को झेलतेझेलते मेरे सासससुर कुछ साल पहले इस दुनिया से चले गए.

वास्तव में इनसान बहुत ही स्वार्थी जीव है. दोहरे मापदंड होते हैं उस के जीवन में, अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और. अब जबकि मेरी उम्र बढ़ रही है, शरीर साथ छोड़ रहा है, मेरे विचार, मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. अब मैं हैरान होती हूं आज की युवा पीढ़ी पर. उस की छोटी सोच पर. वह क्यों नहीं समझती कि बुजुर्गों का साथ रहना उन के हित में है.

आज के बच्चे अपने मांबाप को अपने बुजुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े हो कर उन के साथ करेंगे. एक दिन मैं ने नेहा से कहा था, ‘‘घर के बड़ेबुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.’’

मेरी बात सुन कर नेहा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी तैर गई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में अनेक प्रश्न दिखाई दे रहे थे. उस की खामोशी मुझ से पूछ रही थी कि क्यों मम्मीजी, क्या आप के बुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान नहीं थे, क्या वे आप को अपनी छाया, अपना संबल प्रदान नहीं करते थे? जब आप ने उन के संरक्षण में रहना नहीं चाहा तो फिर मुझ से ऐसी अपेक्षा क्यों?

आहत हो उठी थी मैं उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर और साथ ही साथ शर्मिंदा भी. उस समय अपने ही शब्द मुझे खोखले जान पड़े थे. इस समय मन की अदालत में न जाने कितने प्रसंग घूम रहे थे, जिन में मैं स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रही थी. कहते हैं न, इनसान सब से दूर भाग सकता है किंतु अपने मन से दूर कभी नहीं भाग सकता. उस की एकएक करनी का बहीखाता मन के कंप्यूटर में फीड रहता है.

मैं ने चेहरा घुमा कर खिड़की के बाहर देखा. शाम ढल चुकी थी. रात्रि की परछाइयों का विस्तार बढ़ता जा रहा था और इसी के साथ नर्सिंग होम की चहल पहल भी थक कर शांत हो चुकी थी. अधिकांश मरीज गहरी निद्रा में लीन थे किंतु मेरी आंखों की नींद को विचारों की आंधियां न जाने कहां उड़ा ले गई थीं. सोना चाह कर भी सो नहीं पा रही थी, मन बेचैन था. एक असुरक्षा की भावना मन को घेरे हुए थी. तभी मुझे अपने नजदीक आहट महसूस हुई, चेहरा घुमा कर देखा, समीर मेरे निकट खड़े थे.

मेरे माथे पर हाथ रख स्नेह से बोले, ‘‘क्या बात है पूजा, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं घर जाना नहीं चाहती हूं,’’ डूबते स्वर में मैं बोली.

‘‘मैं जानता हूं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो? घबराओ मत, कल का सूरज तुम्हारे लिए आशा और खुशियों का संदेश ले कर आ रहा है. तुम्हारे बेटाबहू तुम्हारे पास आ रहे हैं.’’

समीर के कहे इन शब्दों ने मुझ में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति भर दी. सचमुच रजत और नेहा का आना मुझे उजली धूप सा खिला गया. आते ही रजत ने अपनी बांहें मेरे गले में डालते हुए कहा, ‘‘यह क्या हाल बना लिया मम्मी, कितनी कमजोर हो गई हो? खैर कोई बात नहीं. अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा.’’

एक बार फिर से इन शब्दों की भूलभुलैया में मैं विचरने लगी. एक नई आशा, नए विश्वास की नन्हीनन्ही कोंपलें मन में अंकुरित होने लगीं. व्यर्थ ही मैं चिंता कर रही थी, कल से न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी, हंसी आ रही थी अब मुझे अपनी सोच पर. जिस बेटे को 9 महीने अपनी कोख में रखा, ममता की छांव में पालपोस कर बड़ा किया, वह भला अपने मांबाप की ओर से आंखें कैसे मूंद सकता है? मेरा रजत ऐसा कभी नहीं कर सकता.

नर्सिंग होम से मैं घर वापस आई तो समीर और बेटेबहू क्या घर की दीवारें तक जैसे मेरे स्वागत में पलकें बिछा रही थीं. घर में चहलपहल हो गई थी. धु्रव की प्यारीप्यारी बातों ने मेरी आधी बीमारी को दूर कर दिया था. रजत अपने हाथों से दवा पिलाता, नेहा गरम खाना बना कर आग्रहपूर्वक खिलाती. 6-7 दिन में ही मैं स्वस्थ नजर आने लगी थी.

एक दिन शाम की चाय पीते समय रजत ने कहा, ‘‘पापा, मुझे आए 10 दिन हो चुके हैं. आप तो जानते हैं, प्राइवेट नौकरी है. अधिक छुट्टी लेना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. कब जाना चाहते हो?’’ समीर ने पूछा.

‘‘कल ही हमें निकल जाना चाहिए, किंतु आप दोनों चिंता मत करना, जल्दी ही मैं फिर आऊंगा.’’

अपनी ओर से आश्वासन दे कर रजत और नेहा अपने कमरे में चले गए. एक बार फिर से निराशा के बादल मेरे मन के आकाश पर छाने लगे. हताश स्वर में मैं समीर से बोली, ‘‘जीवन की इस सांध्य बेला में अकेलेपन की त्रासदी झेलना ही क्या हमारी नियति है? इन हाथ की लकीरों में क्या बच्चों का साथ नहीं लिखा है?’’

‘‘पूजा, इतनी भावुकता दिखाना ठीक नहीं. जिंदगी की हकीकत को समझो. रजत की प्राइवेट नौकरी है. वह अधिक दिन यहां कैसे रुक सकता है?’’ समीर ने मुझे समझाना चाहा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. रुंधे कंठ से मैं बोली, ‘‘यहां नहीं रुक सकता किंतु हमें अपने साथ दिल्ली चलने को तो कह सकता है या इस में भी उस की कोई विवशता है. अपनी नौकरी, अपनी पत्नी, अपना बच्चा बस, यही उस की दुनिया है. बूढ़े होते मांबाप के प्रति उस का कोई कर्तव्य नहीं. पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि एक दिन वह हमें यों बेसहारा छोड़ कर चला जाएगा.’’

‘‘शांत हो जाओ, पूजा,’’ समीर बोले, ‘‘तुम्हारी सेहत के लिए क्रोध करना ठीक नहीं. ब्लडप्रेशर बढ़ जाएगा, रजत अभी उतना बड़ा नहीं है जितना तुम उसे समझ रही हो. हम ने आज तक उसे कोई दायित्व सौंपा ही कहां है? पूजा, अकसर हम अपनों से अपेक्षा रखते हैं कि हमारे बिना कुछ कहे ही वे हमारे मन की बात समझ जाएं, वही बोलें जो हम उन से सुनना चाहते हैं और ऐसा न होने पर दुखी होते हैं. रजत पर क्रोध करने से बेहतर है, तुम उस से अपने मन की बात कहो. देखना, यह सुन कर कि हम उस के साथ दिल्ली जाना चाहते हैं, वह बहुत प्रसन्न होगा.’’

कुछ देर खामोश बैठी मैं समीर की बातों पर विचार करती रही और आखिर रजत से बात करने का मन बना बैठी. मैं उस की मां हूं, मेरा उस पर अधिकार है. इस भावना ने मेरे फैसले को बल दिया और कुछ समय के लिए नेहा की उपस्थिति से उपजा एक अदृश्य भय और संकोच मन से जाता रहा.

मैं कुरसी से उठी. तभी दूसरे कमरे में परदे के पीछे से नेहा के पांव नजर आए. मैं समझ गई परदे के पीछे खड़ी वह हम दोनों की बातें सुन रही थी. मेरा निश्चय कुछ डगमगाया किंतु अधिकार की बात याद आते ही पुन: कदमों में दृढ़ता आ गई. रजत के कमरे के बाहर नेहा के शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मम्मी ने स्वयं तो जीवनभर आजाद पंछी बन कर ऐश की और मुझे अभी से दायित्वों के बंधन में बांधना चाहती हैं. नहीं रजत, मैं साथ नहीं रहूंगी.’

नेहा से मुझे कुछ ऐसी ही नासमझी की उम्मीद थी. अत: मैं ने ऐसा दिखाया मानो कुछ सुना ही न हो. तभी मेरे कदमों की आहट सुन कर रजत ने मुड़ कर देखा, बोला, ‘‘अरे, मम्मी, तुम ने आने की तकलीफ क्यों की? मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘रजत बेटा, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी.

रजत ने मुझे पलंग पर बैठाया फिर स्वयं मेरे नजदीक बैठ मेरा हाथ सहलाते हुए बोला, ‘‘हां, अब बताओ मम्मी, क्या कह रही हो?’’

‘‘बेटा, अब मेरा और तुम्हारे पापा का अकेले यहां रहना बहुत कठिन है. हम दोनों तुम्हारे पास दिल्ली रहना चाहते हैं. अकेले मन भी नहीं लगता.’’

इस से पहले कि रजत कुछ कहता, समीर भी धु्रव को गोद में उठाए कमरे में चले आए. बात का सूत्र हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘रजत, तुम तो देख ही रहे हो अपनी मम्मी की हालत. इन्हें अकेले संभालना अब मेरे बस की बात नहीं है. इस उम्र में हमें तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है.’’

‘‘पापा, आप दोनों का कहना अपनी जगह ठीक है किंतु यह भी तो सोचिए, लखनऊ का इतना बड़ा घर छोड़ कर आप दोनों दिल्ली के हमारे 2 कमरों के फ्लैट में कैसे एडजस्ट हो पाएंगे? जहां तक मन लगने की बात है, आप दोनों अपना रुटीन चेंज कीजिए. सुबहशाम घूमने जाइए. कोई क्लब अथवा संस्था ज्वाइन कीजिए. जब आप का यहां मन नहीं लगता है तो दिल्ली में कैसे लग सकता है? वहां तो अगलबगल रहने वाले आपस में बात तक नहीं करते हैं.’’

‘‘मन लगाने के लिए हमें पड़ोसियों का नहीं, अपने बच्चों का साथ चाहिए. तुम और नेहा जौब पर जाते हो, इस कारण धु्रव को कै्रच में छोड़ना पड़ता है. हम दोनों वहां रहेंगे तो धु्रव को क्रैच में नहीं भेजना पड़ेगा. हमारा भी मन लगा रहेगा और धु्रव की परवरिश भी ठीक से हो सकेगी.’’

‘‘क्रैच में बच्चों को छोड़ना आजकल कोई समस्या नहीं है पापा. बल्कि क्रैच में दूसरे बच्चों का साथ पा कर बच्चा हर बात जल्दी सीख जाता है, जो घर में रह कर नहीं सीख पाता.’’

‘‘इस का मतलब तुम नहीं चाहते कि हम दोनों तुम्हारे साथ दिल्ली में रहें,’’ समीर कुछ उत्तेजित हो उठे थे.

‘‘कैसी बातें करते हैं पापा? चाहता मैं भी हूं कि हम लोग एकसाथ रहें किंतु प्रैक्टिकली यह संभव नहीं है.’’

तभी नेहा बोल उठी, ‘‘इस से बेहतर विकल्प यह होगा पापा कि हम लोग यहां आते रहें बल्कि आप दोनों भी कुछ दिनों के लिए आइए. हमें अच्छा लगेगा.’’

‘कुछ’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया था. उन की बात का उत्तर दिए बिना मैं और समीर अपने कमरे में चले आए थे.

शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. मेरे भीतर भी कुछ गहरा होता जा रहा था. कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. हताश सी मैं पलंग पर लेट कर छत को निहारने लगी. वर्तमान से छिटक कर मन अतीत के गलियारे में विचरने लगा था.

आगरा में मेरे सासससुर उन दिनों बीमार रहने लगे थे. समीर अकसर बूढ़े मांबाप को ले कर चिंतित हो उठते थे. रात के अंधेरे में अकसर उन्हें फर्ज और कर्तव्य जैसे शब्द याद आते, खून जोश मारता, बूढ़े मांबाप को साथ रखने को जी चाहता किंतु सुबह होतेहोते भावुकता व्याव- हारिकता में बदल जाती. काम की व्यस्तता और मेरी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए वह जल्दी ही मांबाप को साथ रखने की बात भूल जाते.

एक बार मैं और समीर दीवाली पर आगरा गए थे. उस समय मेरी सास ने कहा था, ‘समीर बेटे, मेरी और तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहती. अकेले पड़ेपड़े दिल घबराता है. काम भी नहीं होता. यह मकान बेच कर तुम्हारे साथ लखनऊ रहना चाहते हैं.’

इस से पहले कि समीर कुछ कहें मैं उपेक्षापूर्ण स्वर में बोल उठी थी, ‘अम्मां मकान बेचने की भला क्या जरूरत है? आप की लखनऊ आने की इच्छा है तो कुछ दिनों के लिए आ जाइए.’ ‘कुछ’ शब्द पर मैं ने भी विशेष जोर दिया था. इस बात से अम्मां और बाबूजी बेहद आहत हो उठे थे. उन के चेहरे पर न जाने कहां की वेदना और लाचारी सिमट आई थी. फिर कभी उन्होंने लखनऊ रहने की बात नहीं उठाई थी. काश, वक्त रहते अम्मां की आंखों के सूनेपन में मुझे अपना भविष्य दिखाई दे जाता.

तो क्या इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है? जैसा मैं ने किया वही मेरे साथ भी.. मन में एक हूक सी उठी. तभी एक दीर्घ नि:श्वास ले कर समीर बोले, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकता था पूजा कि हमारा रजत इतना व्यावहारिक हो सकता है. किस खूबसूरती से उस ने अपने फर्ज, अपने दायित्व यहां तक कि अपने मांबाप से भी किनारा कर लिया.’’

‘‘इस में उस का कोई दोष नहीं, समीर. सच पूछो तो मैं ने उसे ऐसे संस्कार ही कहां दिए जो वह अपने मांबाप के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे. उन की सेवा करे. मैं ने हमेशा रजत से यही कहा कि मांबाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है. इस बात को मैं भूल ही गई कि बच्चों के ऊपर मांबाप के उपदेशों का नहीं बल्कि उन के कार्यों का प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘चुप हो जाओ पूजा, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी.’’

‘‘नहीं, आज मुझे कह लेने दो, समीर. रजत और नेहा तो फिर भी अच्छे हैं. बीमारी में ही सही कम से कम इन दिनों मेरा खयाल तो रखा. मैं ने तो कभी अम्मां और बाबूजी से अपनत्व के दो शब्द नहीं बोले. कभी नहीं चाहा कि वे दोनों हमारे साथ रहें, यही नहीं तुम्हें भी सदैव तुम्हारा फर्ज पूरा करने से रोका. जब पेड़ ही बबूल का बोया हो तो आम के फल की आशा रखना व्यर्थ है.’’

समीर ने मेरे दुर्बल हाथ को अपनी हथेलियों के बीच ले कर कहा, ‘‘इस में दोष अकेले तुम्हारा नहीं, मेरा भी है लेकिन अब अफसोस करने से क्या फायदा? दिल छोटा मत करो पूजा. बस, यही कामना करो, हम दोनों का साथ हमेशा बना रहे.’’

मैं ने भावविह्वल हो कर समीर का हाथ कस कर थाम लिया, हृदय की संपूर्ण वेदना चेहरे पर सिमट आई, आंखों की कोरों से आंसू बह निकले, जो चेहरे की लकीरों में ही विलीन हो गए. आज मुझे समझ में आ रहा था कि समय की रेत पर हम जो पदचिह्न छोड़ जाते हैं, आने वाली पीढ़ी उन्हीं पदचिह्नों का अनुसरण कर के आगे बढ़ती है.

शर्मा एक्सक्लूसिव पैट शौप

रिटायरमैंट के 4 दिन बाद ही घर बैठेबैठे घर वालों की गालियां सुनतेसुनते शर्माजी का दिमाग और टांगें जाम हो गईं तो उन्होंने कुछ ऐसा करने की सोची कि टांगों और दिमाग की तंदुरुस्ती के साथसाथ घर वालों की चिकचिक से भी छुटकारा मिले और इनकम का सोर्स भी हो जाए. रिटायरमैंट के बाद वैसे भी पगार आधी हो गई है. पर पैसा और शोहरत चाहे कितनी भी हो, कम ही लगती है. इन के लिए इनसान तो छोडि़ए, उसे बनाने वाला तक क्याक्या नहीं करता. जिस के मुंह इन दोनों का बेस्वाद सा स्वाद लग जाए, उसे हद से ले कर जद तक कोई अर्थ नहीं रखते.

तनीबनीठनी बीवी के हाथों की ठंडी पर ठंडी कौफी पीने, विचार पर विचार करने, महल्ले का व्यापारिक सर्वे और उस के गहन विश्लेषण से निकले नतीजों के बाद शर्माजी को लगा कि महल्ले में कुत्तों की संख्या इनसानों की जनसंख्या से अधिक है. पर उन के लिए कोई दुकान नहीं है, जहां से कुत्ते अपने मालिक को आदेश दे कर अपने हिसाब से अपनी पसंद का सामान मंगवा सकें. ऐसे में अगर महल्ले में कुत्तों के लिए एक जनरल स्टोर खुल जाए तो महल्ले के कुत्तों को अपनी पसंद का सामान मंगवाने के लिए अपने मालिकों को शहर न भेजना पड़े. इस से कुत्तों का काम भी हो जाएगा और चार पैसों की इनकम भी.

शर्माजी अपना प्रोजैक्ट फाइनल करने से पहले महल्ले के 4 कुत्तों के शौक के बारे में कुत्ता मालिकों से भी मिले. उन का इंटरव्यू किया. उन का विश्लेषण करने के बाद वे अंतिम रूप से इस नतीजे पर पहुंच गए कि महल्ले में कुत्तों की दुकान की इनसानों की दुकान से अधिक सख्त जरूरत है. उन्होंने मन बना लिया कि वे महल्ले में कुत्तों के लिए जनरल स्टोर खोल कर ही दम लेंगे. इनसान उन्हें जो समझें, सो समझें.

अपने इरादे पर अंतिम मुहर लगाने कल वे मेरे घर आए. उस वक्त मैं अपने स्वदेशी कुत्ते के बाल संवार रहा था. मैं स्वदेशी का हिमायती तो नहीं हूं, पर मुझे हर कुत्ता एक सा ही लगता है. इनसानों को हम चाहे देशविदेश में बांट लें, पर कुत्तों को मैं एक सा ही मानता हूं. कुत्ता चाहे देशी हो या विदेशी उस के पास एक अदद पूंछ तो जरूर होती है. कुत्ता काटनेभूंकने से नहीं, पूंछ से ही अधिक पहचाना जाता है. वैसे जब से इनसान ने भूंकना, काटना शुरू किया है तब से कुत्ते शरीफ होने लगे हैं.

असल में मुझे उस वक्त अपने कुत्ते के साथ सैर करने जाना था. कई महीनों से पता नहीं मैं क्यों उस की फिटनैस को ले कर अपनी फिटनैस से अधिक चिंतित हूं. अपने बाल सैर करने जाने पर संवेरे हों या न, इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. अपना पेट खराब हो, मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. कुत्ते का हाजमा ठीक तो मेरा खुद ही ठीक. जब आप के साथ कुत्ता घूमने निकला हो तो लोग आप के बालों के संवरे होने के प्रति उतने सजग नहीं होते जितने कुत्ते के सजेसंवरे होने को ले कर होते हैं. इनसान का क्या, वह तो होता ही सजनेसंवरने के लिए है. पर असली आदर्श मालिक वह है जो अपने कुत्ते को अपने से अधिक सजासंवार कर रखे.

‘‘कहिए शर्माजी, कैसे आना हुआ? कैसे कट रही है रिटायरमैंट के बाद?’’ मैं ने कुत्ते के बाल संवारने के बाद उसी कंघी से अपने बाल संवारे तो कुत्ते की श्रद्घा मेरे प्रति देखने लायक थी. उसे उस वक्त लग रहा था जैसे मैं उस का मालिक न हो कर वह मेरा मालिक हो.

उन्होंने मेरे मन में कुत्ते के प्रति इतना अगाध प्रेम देखा तो बिन सोचेसमझे मेरे कुत्ते के पांव छूते हुए कहा, ‘‘समझो, मेरी निकल पड़ी.’’

‘‘क्या निकल पड़ी शर्माजी?’’ मैं हैरान. कल तक जो गली के इनसान तो इनसान कुत्तों तक को गाली देते थे, आज कुत्तों के प्रति उन के मन में इतना स्नेह कहां से उमड़ आया? कहीं हृदय परिवर्तन तो नहीं?

‘‘दुकान. अगर महल्ले में आप जैसे कुत्तों के 4 भी कुत्ता उपासक निकल आएं तो समझो मेरी शौप निकल पड़ी,’’ कह वे मुसकराते हुए भगवान को हाथ जोड़ खिसक लिए.

और अगले दिन उन के घर की सड़क के साथ लगते कमरे पर मैं ने एक बड़ा सा साइन बोर्ड लगा देखा. ‘शर्मा ऐक्सक्लूसिव शौप.’ मैं हैरानपरेशान. वाह, क्या खूबसूरत बोर्ड बनवाया था. दूर से ही ऐसा चमक रहा था कि नयनसुख तक उस बोर्ड को मजे से पढ़ ले. जिस महल्ले में इनसानों की किराने की दुकान की जरूरत थी वहां शर्मा पैट शौप और वह भी ऐक्सक्लूसिव? समाज में इनसानों से अधिक संभ्रांत कुत्ते कब से हो गए? कुत्तों की जरूरतें इनसानों से महत्त्वपूर्ण कब से हो गईं समाज में? मैं मन ही मन कुछ सोचने लगा कि तभी मेरा कुत्ता मेरी सोच भांप गया कि मेरे दिमाग के भीतर क्या पक रहा है. सो उस ने मुझे घूरा तो मैं ने सोचना बंद कर दिया.

अभी मैं उस साइन बोर्ड को मुसकराते हुए घूर ही रहा था कि शर्माजी सजेधजे बाहर निकले. वाह, ऐसी सजधज? ऐसे तो वे अपने विवाह पर भी न सजेधजे होंगे. मुझे देख एक बिजनैसमैन के नाते वे हद से अधिक मुझ में दिलचस्पी लेते हुए बोले, ‘‘वर्माजी, कैसा लगा मेरा इनोवेटिव आइडिया?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मैं ने काफी समय तक सर्वे के बाद तय किया कि महल्ले में और तो सब कुछ है पर कुत्तों के लिए अलग से ऐक्सक्लूसिव पैट शौप नहीं. कई बार मैं ने यह भी देखा है कि इनसानों के स्टोर से कुत्ते अपना सामान लेते शरमाते से हैं या कि इनसानों के सामने उन के स्टोर में आते ही नहीं. वे वहां खुल कर अपनी पसंद की चीजें ले नहीं पाते और मनमसोस कर रह जाते हैं. सो मैं ने सोचा कि बस अब यही काम करूं. इस बहाने राहु की सेवा भी हो जाएगी और चार पैसे की इनकम भी.’’

‘‘मतलब, आम के आम, गुठलियों के दाम, पर भाई साहब जो 60 साल तक गुठलियों के दाम ही लेते रहे हों, रिटायरमैंट के बाद आम के ही पैसे कैसे लेंगे?’’ दिमाग ने बका.

‘‘ऐसा ही कुछ समझिए बस. मैं चाहता हूं कि कल आप इस दुकान की ओपनिंग अपने कुत्ते से करवा मुझे कृतार्थ करें.’’

‘‘इस मौके पर और कौनकौन पधार रहे हैं?’’ मैं ने जिज्ञासावश पूछा तो वे बोले, ‘‘पासपड़ोस के कुत्ते वाले अपनेअपने कुत्ते के साथ पधार रहे हैं. स्नैक्स भी रखे हैं.’’

‘‘किस के लिए? कुत्तों के लिए या…’’

‘‘नहीं, दोनों के लिए.’’

‘‘पर मेरे हिसाब से दुकान की ओपनिंग किसी विदेशी कुत्ते वाले से करवाते तो… वे इस मामले में ज्यादा टची और फसी होते हैं. इसीलिए…

‘‘करवाता तो उन से ही पर वे इस मामले में ज्यादा टची और फसी होते हैं. उन के नखरे सहने की मेरी हिम्मत नहीं. ऊपर से मैं वसुधैव कुटुंबकम में विश्वास रखता हूं, भले ही एक छत तक के नीचे बंधुत्व न बचा हो. मैं मान कर चला हूं कि समस्त धरा के आदमी एक हों या न पर समस्त धरा के कुत्ते एक ही परिवार के होते हैं. सब कुत्ते एक से होते हैं. दूसरे, हमारे आसपास अभी बहुमत स्वदेशी कुत्तों का ही है. इसलिए भी मैं ने…’’ मुझे लगा कि बंदा बिजनैस के गुर दुकान खुलने से पहले ही सीख गया. कुत्तों का माल बेच कर बहुत आगे तक जाएगा.

‘‘तो क्याक्या रख रहे हो शर्मा पैट शौप में कुत्तों के लिए?’’ मैं ने यों ही पूछा था पर उन्हें लगा जैसे मेरी उन की दुकान में जिज्ञासा हो.

‘‘कुत्तों का हर जरूरी सामान. सूई से ले कर सिंहासन तक सारी रेंज एक ही छत के नीचे उपलब्ध होगी. क्वालिटी से कोई समझौता नहीं. देश में इनसानों को कुत्तों का सामान खिलाया जा रहा हो तो खिलाया जाता रहे, पर मेरी दुकान में आदमियों के सामान से ज्यादा बेहतर क्वालिटी रहेगी उस की. कोई ठगी नहीं. ठगने को देश पड़ा है. इसलिए बेजबान कुत्तों को क्यों ठगा जाए? कुत्तों के कपड़ों, साबुन, शैंपू से ले कर उन के ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर तक सब कुछ तक मतलब, कंप्लीट रेंज औफ पैट और वह भी बिलकुल कम प्रौफिट के साथ या यों समझिए कि मैं रिटायरमैंट के बाद बस कुत्तों की सेवा में अपने को लगा अपना परलोक सुधारना चाहता हूं. रेट्स ऐसे वाजिब की कुत्ते तो कुत्ते, कुत्तों के मालिक तक कुत्तों के प्रोडक्ट्स तक खरीदने से ले कर यूज करने तक से गुरेज न करें.’’

‘‘मतलब?’’ मुझे शांत सा गुस्सा आने लगा था.

‘‘औरिजनल प्रोडक्ट्स बिलकुल मिट्टी के दाम. अच्छा, तो मैं कल के लिए आप को चीफ गैस्ट फाइनल समझूं न? अभी बहुत काम पड़े हैं वर्माजी. और हां, कल ठीक 10 बजे आ जाएं आप खुदा के लिए. माफ कीजिएगा, बीवी के साथ आप अपने कुत्ते सौरी डियरैस्ट वन को प्लीज जरूर लाएं. अभी स्नैक्स, फोटोग्राफर, मीडिया वगैरह का इंतजाम वैसे ही पड़ा है. अब तो जब तक फंक्शन में खापी कर हुड़दंग न मचे, अखबारों में फोटो, खबर न छपे, टीवी पर खबर न दौड़े तब तक मरने से ले कर जीने तक के फंक्शन नीरस ही लगते हैं.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता वे शर्मा पैट शौप के उद्घाटन के लिए जरूरी इंतजाम करने निकल पड़े.

 

हुस्न और इश्क: शिखा से आखिर सब क्यों जलते थे

सौरभ के साथ शादी होने से पहले मेरा रूपयौवन हमेशा मेरे लिए परेशानी का कारण बनता रहा. अपनी खूबसूरत बेटी को समाज में मौजूद भेडि़यों से बचाने की चिंता में मेरे मम्मीपापा मेरे ऊपर कड़ी निगाह रखते थे. उन की जबरदस्त सख्ती के चलते भेडि़ए ही नहीं, बल्कि मेमने भी मेरे नजदीक आने का मौका नहीं पा सके. ‘‘सारा दिन शीशे के सामने खड़ी न रहा कर… बाजार जाने के लिए इतना क्यों सजधज रही है… लड़कों के साथ ज्यादा हंसेगीबोलेगी तो बदनाम हो जाएगी. पढ़ाई में ध्यान लगा पढ़ाई में…’’ मेरे मम्मीपापा मुझे देखते ही ऐसा भाषण देना शुरू कर देते थे.

मेरी बड़ी बहन भी सुंदर है, पर मुझ से बहुत कम. ऐसा 2 बार हुआ कि उसे देखने लड़के वाले आए पर पसंद मुझे कर गए. इन दोनों घटनाओं के बाद मैं उस की नजरों में खलनायिका बन गई. बहन का बहन पर से ऐसा विश्वास उठा कि राकेश जीजाजी के साथ अब भी अगर वह मुझे अकेले में बातें करते देख ले तो सब काम छोड़ कर हमारे बीच आ जमती है. मैं किसी तरह का गलत व्यवहार करने की कुसूरवार नहीं हूं, पर उस बेचारी का शायद विश्वास डगमगा गया है. मुझे लड़कियों के कालेज में दाखिला दिलाया ही जाना था, पर मेरे मम्मीपापा का यह कदम भी मेरी परेशानियों को कम नहीं कर सका. वहां मुझे अपनी सहेलियों की जलन का सामना करना पड़ा.

पहले तो मुझे सहेलियों के खराब बरताव पर गुस्सा आता था पर फिर बाद में सहानुभूति होने लगी. वे बेचारियां महंगी ड्रैस में भी उतनी सुंदर व आकर्षक नहीं लगती थीं जितनी कि मैं साधारण से कपड़ों में लगती. मैं साथ होती तो उन के बौयफ्रैंड उन पर कम ध्यान देते और मेरी तरफ देख कर ज्यादा लार टपकाते. मेरा कोई बौयफ्रैंड नहीं बन सका. मेरे मम्मीपापा ने मेरी 2-3 सहेलियों को अपना जासूस बना रखा था. कभीकभी तो मुझे बाद में पता लगता था कि कोई लड़का मुझ में दिलचस्पी लेने लगा है, पर उन के जासूस उन तक यह खबर पहले पहुंचा देते.

बाद में मेरी जान को जो मुसीबत खड़ी होती थी उस से बचने को मैं ने लड़कों के साथ फ्लर्ट करने का मजा कभी नहीं लिया. अपना सारा इतराना, सारी अदाएं, सारी रोमांटिक छेड़छाड़ सब कुछ मैं ने अपने भावी जीवनसाथी के लिए मन में सुरक्षित रख छोड़ा था.

भला हो सौरभ की मम्मी का जिन्होंने अपने काबिल व स्मार्ट बेटे के लिए तगड़ा दहेज लेने के बजाय चांद सी सुंदर बहू लाने की जिद पकड़ रखी थी. सौरभ से शादी हो जाना

मेरी जिंदगी की सब से बड़ी लौटरी के निकलने जैसा था. हम दोनों ने मनाली में हनीमून का जो पूरा

1 सप्ताह गुजारा वे दिन मेरी जिंदगी के सब से खूबसूरत और मौजमस्ती से भरे दिन गिने जाएंगे. मेरी सुंदरता ने उन के दिलोदिमाग पर जादू सा कर दिया था. मुझे अपनी मजबूत बांहों में कैद कर के जब वे मेरे रूप की तारीफ करना शुरू करते तो पूरे कवि नजर आते… ‘‘लोगों की आंखों में हमारी जोड़ी को देख कर जो तारीफ के भाव पैदा होते हैं वे मेरे दिल को गुदगुदा जाते हैं शिखा. तुम तो जमीन पर उतर आई परी हो… स्वर्ग से आई अप्सरा हो… रुपहले परदे से मेरी जिंदगी में उतर आई बौलीवुड की सब से सुंदर हीरोइन से भी ज्यादा सुंदर मेरे दिल की रानी हो,’’ वे मेरी यों तारीफ करते तो मैं खुद पर इतना उठती थी.

हनीमून से लौटने के बाद मेरे सासससुर और ननद ने मुझे सिरआंखों पर बैठा कर रखा. रिश्तेदार और पड़ोसी जब घर में आ कर मेरी सुंदरता की तारीफ करते तो मेरे ससुराल वालों के सिर गर्व से ऊंचे हो जाते. घर में आने वाले हर इंसान की मेरे रंगरूप की यों दिल खोल कर तारीफ करना महीने भर तक तो मेरी ससुराल वालों को अच्छी तरह  हजम हुआ पर इस के बाद बदहजमी का सबब बन गया. ‘‘सूरत के साथ सीरत अच्छी न हो तो लड़कियों को ससुराल में बहुत नाम सुनने को मिलते हैं, बहूरानी. जरा काम करते हुए हाथ जल्दीजल्दी चलाया करो,’’ मेरी सास ने जिस दिन रसोई में मेरी ऐसी आलोचना करने की शुरुआत करी, मैं समझ गई कि अब इस घर में सुखशांति व आराम से जीने का समय समाप्त होने की तरफ चल पड़ा है.

घरगृहस्थी के काम करने में मैं उतनी ही कुशल हूं जितनी मेरी ननद नेहा, पर मेरी सास को सिर्फ मेरे ही काम में नुक्स निकालने होते हैं. वे अपने द्वारा कुशलता से किए गए काम का उदाहरण सामने रख कर मुझे नीचा दिखाने का कोई मौका मुश्किल से ही हाथ से निकलने देती हैं. ‘‘मैं आप से सारा काम सीखने को तैयार हूं मम्मी. आप मुझे डांटा कम और सिखाया ज्यादा करो न,’’ मैं ने बड़े लाड़ से एक शाम अपनी यह इच्छा सासुमां के सामने जाहिर करी पर उन्होंने इसी बात को पकड़ कर घर में हंगामा खड़ा कर दिया था.

‘‘जो काम सीखना चाहता हो उसे अपनी जबान को काबू में और आंखों व कानों को खुला रखना चाहिए बहूरानी. मैं क्या पागल हूं, जो बिना बात तुझे डांटती हूं? अपने घर से सब

काम सीख कर आती तो मुझे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती. मुझे इन से प्यार और इज्जत करानी हो तो घर के कामों में कुशल बनो,’’ मुझे ऐसी ढेर सारी बातें सुनाने के बाद सासुमां ने मुंह फुला कर घर में घूमना शुरू कर दिया तो कुछ ही देर में इस घटना की जानकारी हर किसी को हो गई. उस रात पति ने भी मेरे दिल को जख्मी करने की शुरुआत कर दी, ‘‘शिखा, अब सारा दिन सिर्फ सजधज कर घूमने से काम नहीं चलेगा. मां को घर में बहू के आने का सुख मिलना चाहिए… तुम उन से बहस करने के बजाय सही ढंग से काम करना सीखो. घर

की सुखशांति तुम्हारे कारण बिलकुल नहीं बिगड़नी चाहिए,’’ यों भाषण देते हुए सौरभ मुझे मेरे प्यार में पागल प्रेमी नहीं, बल्कि जबरदस्ती नुक्स निकालने वाले आलोचक नजर आ रहे थे.

सौरभ के अचानक बदले व्यवहार ने मेरे दिल को तो चोट पहुंचाई कि मेरी आंखों से आंसू बह चले. तब उन्होंने फौरन मुझे छाती से लगा कर प्यार करना शुरू कर दिया. उन का छूना मुझे हमेशा मदहोश सा कर देता था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. मेरे जेहन में रहरह कर उन की आंखों में उभरे अजीब से संतोष के भाव व्यक्त करता उन का चेहरा उभर रहा था. ये भाव उन की आंखों में तब उभरे थे जब मैं ने उन का भाषण सुन कर आंसू बहाने शुरू किए थे.

इस तरह के भाव मैं जब से होश संभाला है तब से बहुतों की आंखों में देखती आई हूं.

मुझे डांट कर रुला देने में अगर मेरे मम्मीपापा सफल हो जाते थे तो ऐसा ही संतोष उन की आंखों में झलकता था. मेरा कोई काम बिगाड़ कर या मुझे नीचा दिखाने के बाद मेरी बहन की आंखें ऐसे ही भाव दिखाती थीं. मेरी कालेज

की सहेलियां अपने खराब व्यवहार से मुझे अकेलेपन व उदासी का शिकार बना देने के बाद इसी तरह से संतोषी भाव से मुसकराती नजर आती थीं. ‘मेरे जीवनसाथी के दिल में भी मेरी

सुंदरता ने जलन के भाव पैदा कर दिए हैं’ यह विचार अचानक मेरे मन में कौंधा तो मैं उन के कंधे से लग फूटफूट कर रोने लगी. जिस जीवनसाथी के साथ मैं ने अपनी सारी खुशियां और मन की सुखशांति जोड़ रखी थी, वह भी मेरी सुंदरता के कारण हीनभावना का शिकार बन बैठेगा, यह एहसास मुझे अंदर तक झकझोर गया. सौरभ का व्यवहार मेरे प्रति बदलने लगा था.

मैं ने ध्यान से सोचा तो सौरभ के व्यवहार में पिछले दिनों धीरेधीरे आए अंतर को पकड़ लिया. जब भी उन का कोई दोस्त मेरी तारीफ करता या मेरे साथ हंसीमजाक करने लगता तो उन्हें मैं ने कई बार संजीदा हो कर खिंचाखिंचा सा व्यवहार करते देखा था. अपने पुराने अनुभवों के आधार पर मैं बखूबी जानती थी कि आगे क्या होने वाला है. धीरेधीरे सौरभ की टोकाटाकी बढ़ती और फिर वे मुझे नीचा दिखाने की कोशिश शुरू कर देते. पहले अकेले में और फिर अन्य लोगों के सामने.

आगे चल कर हमारे मधुर संबंध बिगड़ जाएंगे, इस सोच ने मुझे रात भर जगाया और ढेर सारे खामोश आंसू मेरी आंखों से गिरवा दिए. अपनी सास के कटु व्यवहार को सहन करने की ताकत मुझे में थी पर सौरभ के प्यार में रत्तीभर भी कमी आए, यह मुझे स्वीकार नहीं था. ‘मुझे कुछ करना ही होगा. अपनी शादीशुदा जिंदगी को मैं उन के मन में पैदा हो रही जलन की कड़वाहट से कभी खराब नहीं होने दूंगी,’

मन ही मन ऐसा सोच कर मैं ने अगली सुबह बिस्तर छोड़ा. अपने विवाहित जीवन की खुशियां तय करने का एक सूत्र मेरी पकड़ में जरूर आया. मनाली में भी बहुत से लोगों ने मेरी सुंदरता की तारीफ करी थी और सौरभ कभी किसी से रत्तीभर नाराज नहीं हुए थे उलटा मेरी तारीफ सुन कर उन की छाती गर्व से फूल जाती थी.

यहां उन के रिश्तेदार, परिचित और दोस्त मेरी तारीफ करते हैं, तो वे जलन का शिकार बन रहे हैं. उन की प्रतिक्रिया में ऐसा अंतर क्यों पैदा हो रहा है? इस सवाल का जवाब शायद मैं ने ढूंढ़ भी लिया था. मनाली में मेरी तारीफ करने वाले लोग

हम दोनों के लिए अजनबी थे. वे हमारी जिंदगी का हिस्सा नहीं थे. उन के द्वारा करी गई मेरी तारीफ सौरभ को अपनी उपेक्षा नहीं लगती थी. वे उन लोगों की बातों को ऐसे नहीं लेते थे जैसे हम दोनों के व्यक्तित्वों के बीच तुलना की जा रही हो.

अब मेरी तारीफ उन के अंदर नकारात्मक भावनाएं पैदा करवा रही थी. इस गलत प्रतिक्रिया की जड़ों को मुझे किसी भी कीमत पर मजबूत नहीं होने देना था. अपनी विवाहित जिंदगी में से मैं प्यार व रोमांस की गरमाहट कभी नहीं खोना चाहती थी. उन के एक पक्के दोस्त मयंक ने अगले दिन अपनी शादी की सालगिरह के उपलक्ष्य में हमें अपने घर डिनर पर आमंत्रित किया. वहां जाने के लिए जब पूरी तरह से तैयार हो कर मैं सौरभ के सामने आई तो मारे हैरानी के उन का मुंह खुला का खुला रह गया.

अपने को तैयार करने में मै ने सचमुच बहुत मेहनत करी थी और मैं बला की खूबसूरत लग भी रही थी. पार्टी में इन के करीबी दोस्त और मयंक के घरवाले ही मौजूद थे. सभी एकदूसरे से अच्छी तरह परिचित थे, इसलिए ड्राइंगहौल में खूब हल्लागुल्ला हो रहा था.

‘‘शिखा के आते ही कमरे में रोशनी की मात्रा कितनी ज्यादा बढ़ गई है न?’’ इन के दोस्त नीरज के इस मजाक पर सभी लोग ठहाके मार कर हंस पड़े. ‘‘अपने सौरभ का तो बिजली का खर्चा बचने लगा है, यारो. अब तो शिखा के कारण अपने कमरे में ट्यूबलाइट जलाने की कोई जरूरत ही नहीं रही इसे,’’ राजीव के इस मजाक पर एक बार फिर ठहाकों की आवाज से कमरा गूंज उठा. ‘‘दोस्तो, रोशनी के कारण सोने में दिक्कत तो जरूर आती होगी अपने यार को.’’

‘‘अरे, रात भर सोता ही कौन है,’’ इस बार मिलेजुले ठहाकों की ऊंची आवाज आसपास के घरों तक जरूर पहुंच गई होगी. मैं ने साफ महसूस किया कि सौरभ अब जबरदस्ती मुसकरा रहे थे. उन्हें मेरा सब के हंसीमजाक का केंद्र बन जाना अच्छा नहीं लगा था. अपने दोस्तों की आंखों में मेरे रूपरंग के लिए तारीफ के भाव देख कर वे तनाव से भरे नजर आने लगे थे.

मैं ने अपनी गरदन घुमा कर उन्हें अपनी नजरों का केंद्र बना लिया. उन के कान के पास अपने होंठ ले जा कर मैं ने पहले चुंबन की हलकी सी आवाज निकाली और फिर प्यार से उन की आंखों में झांकते हुए दिलकश अंदाज में मुसकराने लगी. हमारे चारों तरफ लोग दिल खोल कर हंसबोल रहे थे, पर मेरा ध्यान पूरी तरह से अपने जीवनसाथी के चेहरे पर केंद्रित था मानो इस पल पूरे कमरे में मेरे लिए सौरभ के अलावा कोई और मौजूद ही न हो.

उन का पूरा ध्यान केंद्रित कर मैं ने उन के सभी दोस्तों को अजनबियों की श्रेणी में खड़ा कर दिया था. वे तो इधरउधर देख भी रहे थे, पर जब भी उन्होंने मेरी तरफ देखा तो हर बार मुझे अपने चेहरे को प्यार भरे अंदाज में ताकते हुए पाया. मानो वे मेरे प्यार में खो जाना चाहते हों.

वे अचानक खुशी भरे अंदाज में मुसकराने लगे तो मेरा चेहरा फूल सा खिल उठा. ‘‘आई लव यू,’’ मैं ने बहुत धीमी आवाज में कहा और फिर शरमा कर नजरें झुका लीं.

अपने जीवनसाथी को जलन की भावना से आजाद करने का तरीका मैं ने ढूंढ़ लिया था. उस रात कोईर् भी मेरी जरा सी तारीफ करता तो मैं फौरन मुसकराते हुए सौरभ की तरफ यों प्यार से देखने लगती मानो कह रही हूं कि वह मेरी नहीं आप की पत्नी की तारीफ हो रही है, जनाब. आप संभालिए अपने इस दोस्त को व्यक्तिगत तौर पर. इन के मुंह से अपनी तारीफ सुनने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. मुझे लगता है कि मैं ने अपने विवाहित जीवन की रोमांस भरी मौजमस्ती को सदा तरोताजा रखने का तरीका ढूंढ़ लिया है. मेरी खूबसूरती अब उन के मन में मायूसी व जलन पैदा करने का कारण कभी नहीं बनेगी. जरा सी समझदारी दिखा कर मैं ने हुस्न और इश्क की उम्र को बढ़ा दिया है.

पतझड़ का अंत

सुहाग सेज पर बैठी सुषमा कितनीसुंदर लग रही थी. लाल जोड़े में सजी हुई वह बड़ी बेताबी से अपने पति समीर का इंतजार कर रही थी. एकाएक दरवाजा खुला और समीर मुसकराता हुआ कमरे में दाखिल हुआ. सुषमा समीर को देखते ही रोमांचित हो उठी. समीर ने अंदर आ कर धीरे से दरवाजा बंद किया. पलंग पर बिलकुल पास आ कर वह बैठ गया. फिर सुषमा का घूंघट उठा कर उसे आत्मविभोर हो देखने लगा.

सुषमा उसे इस तरह गौर से देखने पर बोली, ‘‘क्या देख रहे हो?’’

‘‘तुम्हें, जो आज के पहले मेरी नहीं थी. पता है सुसु, पहली बार मैं ने जब तुम्हें देखा था तभी मुझे लगा कि तुम्हीं मेरे जीवन की पतवार हो और अगर तुम मुझे नहीं मिलतीं तो शायद मेरा जीवन अधूरा ही रहता,’’ फिर समीर ने अपने दोनों हाथ फैला दिए और सुषमा पता  नहीं कब उस के आगोश में समा गई.

उस रात सुषमा के जीवन के पतझड़ का अंत हो गया था. शायद  40 साल के कठिन संघर्ष का अंत हुआ था.

सुषमा और समीर दोनों खुश थे, बहुत खुश. एकदूसरे को पा  कर उन्हें दुनिया की तमाम खुशियां नसीब हो गई थीं.

प्यार और खुशी में दिन कितनी जल्दी बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता. देखते ही देखते 1 साल बीत गया और आज सुषमा की शादी की पहली सालगिरह थी. दोनों के दोस्तों के साथ उन के घर वाले भी शादी की सालगिरह पर आए थे.

घर में अच्छीखासी रौनक थी. घरआंगन बिजली की रोशनी से ऐसा सजा था जैसे  घर में शादी हो.

सुषमा के घर वालों ने जब यह साजोसिंगार देखा तो उन का मुंह खुला का खुला रह गया और छोटी बहन जया अपनी मां से बोली, ‘‘मां, दीदी को इतना सबकुछ करने की क्या जरूरत थी. अरे, शादी की सालगिरह है, कोई दीदी की  शादी तो नहीं.’’

सुषमा की मां बोलीं, ‘‘हमें क्या, पैसा उन दोनों का है, जैसे चाहें खर्च करें.’’

शादी की पहली सालगिरह बड़ी धूमधाम से मनी. जब सभी लोग चले गए तब सुषमा ने अपनी मां से आ कर पूछा, ‘‘मां, तुम खुश तो हो न, अपनी बेटी का यह सुख देख कर?’’

‘‘हां, खुश तो हूं बेटी. तेरा जीवन तो सुखमय हो गया, पर प्रिया और सचिन के बारे में सोच कर रोना आता है. उन दोनों बिन बाप के बच्चों का क्या होगा?’’

‘‘मां, तुम ऐसा क्यों सोचती हो. मैं हूं न, उन दोनों को देखने वाली. तुम्हारे दामादजी भी बहुत अच्छे हैं. मैं जैसा कहती हूं वह वैसा ही करते हैं. जब मैं ने एक बहन की शादी कर दी तो दूसरी की भी कर दूंगी. और हां, सचिन की भी तो अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो गई है.’’

‘‘हां, पूरी हो तो गई है, लेकिन कहीं नौकरी लगे तब न.’’

‘‘मां, तुम घबराओ नहीं, हम कोशिश करेंगे कि उस की नौकरी जल्दी लग जाए.’’

‘‘सुषमा, हमें तो बस, एक तेरा ही सहारा है बेटी. जब तू हमें छोड़ कर चली आई तो हम अपने को अनाथ समझने लगे हैं.’’

अभी सुषमा और मां बातें कर ही रहे थे कि समीर आ गया. वह हंसते हुए बोला, ‘‘क्यों सुसु, आज मां आ गईं तो मुझे भूल गईं. मैं कब से तुम्हारा खाने पर इंतजार कर रहा हूं.’’

मां की ओर देख कर सुषमा बोली, ‘‘मां, अब तुम सो जाओ. रात काफी बीत गई है. हम भी खाना खा कर सोएंगे. सुबह हमें कालिज जाना है.’’

सुषमा जब कमरे में आई तो समीर थाली सजाए उस का इंतजार कर रहा था, ‘‘सुसु, कितनी देर लगा दी आने में. यहां मैं तुम्हारे इंतजार में बैठा पागल हो रहा था. थोड़ी देर तुम और नहीं आतीं तो मेरा तो दम ही निकल जाता.’’

‘‘समीर, आज के दिन ऐसी अशुभ बातें तो न कहो.’’

‘‘ठीक है, अब हम शुभशुभ ही बातें करेंगे. पहले तुम आओ तो मेरे पास.’’

‘‘समीर, हमारी शादी को 1 साल बीत गया है लेकिन तुम्हारा प्यार थोड़ा भी कम नहीं हुआ, बल्कि पहले से और बढ़ गया है.’’

‘‘फिर तुम मेरे इस बढ़े हुए प्यार का आज के दिन कुछ तो इनाम दोगी.’’

‘‘बिलकुल नहीं, अब आप सो जाइए. सुबह मुझे कालिज जल्दी जाना है.’’

‘‘सुसु, अभी मैं सोने के मूड में नहीं हूं. अभी तो पूरी रात बाकी है,’’ वह मुसकराता हुआ बोला.

सुबह सुषमा जल्दी तैयार हो गई और कालिज जाते समय मां से बोली, ‘‘मां, मैं दोपहर में आऊंगी, तब तुम जाना.’’

‘‘नहीं, सुषमा, मैं भी अभी निकलूंगी. पर तुझ से एक बात कहनी थी.’’

‘‘हां मां, बोलो.’’

‘‘प्रिया का एम.ए. में दाखिला करवाना है. अगर 5 हजार रुपए दे देतीं तो बेटी, उस का दाखिला हो जाता.’’

‘‘ठीक है मां, मैं किसी से पैसे भिजवा दूंगी.’’

‘‘सुषमा, एक तेरा ही सहारा है बेटी, मैं  तुझ से एक बात और कहना चाहती हूं कि ज्यादा  फुजूलखर्ची मत किया कर.’’

‘‘मां, तुम्हें तो पता है कि मैं ने बचपन से ले कर 1 साल पहले तक कितना संघर्ष किया है. जब पिताजी का साया हमारे सिर से उठ गया था तब से ही मैं ने घर चलाने, खुद पढ़ने और भाईबहनों को पढ़ाने के लिए क्याक्या नहीं किया. अब क्या मैं अपनी खुशी के लिए इतना भी नहीं कर सकती?’’

‘‘मैं ऐसा तो नहीं कह रही हूं. फिर भी पैसे बचा कर चल. हमें भी तो देखने वाला कोई नहीं है.’’

आज सुबह ही जया का फोन आया कि दीदी, आज मंटू का जन्मदिन है. तुम और जीजाजी जरूर आना.

‘‘ हां, आऊंगी.’’

‘‘और हां, दीदी, एक बात तुम से कहनी थी. तुम ने अपनी फें्रड की शादी में जो साड़ी पहनी थी वह बहुत सुंदर लग रही थी. दीदी, मेरे लिए भी एक वैसी ही साड़ी लेती आना, प्लीज.’’

‘‘ठीक है, बाजार जाऊंगी तो देखूंगी.’’

‘‘दीदी, बुरा न मानो तो एक बात कहूं?’’

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘तुम अपनी वाली साड़ी ही मुझे दे दो.’’

‘‘जया, वह तुम्हारे जीजाजी की पसंद की साड़ी है.’’

‘‘तो क्या हुआ. अब तुम्हारी उम्र तो वैसी चमकदमक वाली साड़ी पहनने की नहीं है.’’

‘‘जया, मेरी उम्र को क्या हुआ है. मैं तुम से 5 साल ही तो बड़ी हूं.’’

यह सुनते ही जया ने गुस्से में फोन रख दिया और सुषमा फोन का रिसीवर हाथ में लिए सोचने लगी थी.

दुनिया कितनी स्वार्थी है. सब अपने बारे में ही सोचते हैं. चाहे वह मेरी अपनी मां, भाईबहन ही क्यों न हों. मैं ने सभी के लिए कितना कुछ किया है और आज भी जिसे जो जरूरत होती है पूरी कर रही हूं. फिर भी किसी को मेरी खुशी सुहाती नहीं. जब मैं ने शादी का फैसला किया था तब भी घर वालों ने कितना विरोध किया था. कोई नहीं चाहता था कि मैं अपना घर बसाऊं. वह तो बस, समीर थे जिन्होंने मुझे अपने प्यार में इतना बांध लिया कि मैंउन के बगैर रहने की सोच भी नहीं सकती थी.

सुषमा की आंखों में आंसू झिल- मिलाने लगे थे. समीर पीछे से आ कर बोले, ‘‘जानेमन, इतनी देर से आखिर किस से बातें हो रही थीं.’’

‘‘जया का फोन था. समीर, आज उस के बेटे का जन्मदिन है.’’

‘‘तो ठीक है, शाम को चलेंगे दावत खाने…और हां, तुम वह नीली वाली साड़ी शाम को पार्टी में  पहनना. उस दिन जब तुम ने वह साड़ी पहनी थी तो बहुत सुंदर लग रही थीं. बिलकुल फिल्म की हीरोइन की तरह.’’

‘‘समीर, लेकिन वह साड़ी तो जया मांग रही है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, वैसे मैं ने उस से कहा है कि वह आप की पसंद की साड़ी है.’’

‘‘तुम पार्टी में जाने के लिए कोई दूसरी साड़ी पहन लेना और वह साड़ी उसे दे देना, आखिर वह तुम्हारी बहन है.’’

‘‘समीर, तुम कितने अच्छे हो.’’

‘‘हां, वह तो मैं हूं, लेकिन इतना भी अच्छा नहीं कि नाश्ते के बगैर कालिज जाने की सोचूं.’’

सुषमा और समीर एकदूसरे को पा कर बेहद खुश थे. दोनों के विचार एक थे. भावनाएं एक थीं.

एक दिन सुषमा का भाई सचिन आया और बोला, ‘‘दीदी, मुझे कुछ रुपए चाहिए.’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘शहर से बाहर एकदो जगह नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाना है.’’

‘‘कितने रुपए  लगेंगे?’’

‘‘10 हजार रुपए दे दो.’’

‘‘इतने रुपए का क्या करोगे सचिन?’’

‘‘दीदी,  इंटरव्यू देने के लिए अच्छे कपड़े, जूते भी तो चाहिए. मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं हैं.’’

‘‘सचिन, अभी मैं इतने रुपए तुम्हें नहीं दे सकती. तुम्हारे जीजाजी की बहुत इच्छा है कि हम शिमला जाएं. शादी के बाद हम कहीं गए नहीं थे न.’’

‘‘दीदी,  तुम्हारी  शादी हो गई वही बहुत है. अब इस उम्र में घूमना, टहलना ये सब बेकार के चोचले हैं. मुझे पैसे की जरूरत है, वह तो तुम दे नहीं सकतीं और यह फालतू का खर्च करने को तैयार हो.’’

‘‘सचिन, क्या हम अपनी खुशी के लिए कुछ नहीं कर सकते. अरे, इतने दिनों से तो मैं तुम लोगों के लिए ही करती आई हूं और जब अपनी खुशी के लिए अब करना चाहती हूं तो बातबात पर तुम लोग मुझे मेरी उम्र का एहसास दिलाते हो.

‘‘सचिन, प्यार की कोई उम्र नहीं होती. वह तो हर उम्र में हो सकता है. जब मैं खुश हूं, समीर खुश हैं तो तुम लोग क्यों दुखी हो?’’

समीर उस दिन अचानक जिद कर बैठे कि सुसु, आज मैं अपने ससुराल जाना चाहता हूं.

‘‘क्यों जी, क्या बात है?’’

‘‘अरे, आज छुट्टी है. तुम्हारे घर के सभी लोग घर पर ही होंगे. फिर जया भी तो आई होगी. और हां, नए मेहमान के आने की खुशखबरी अपने घर वालों को नहीं सुनाओगी?’’

‘‘ठीक है, अगर तुम्हारी इच्छा है तो चलते हैं, तुम्हारे ससुराल,’’ सुषमा मुसकरा दी थी.

सुषमा आज काफी सजधज कर मायके आई थी. लाल रंग की साड़ी से मेल खाता ब्लाउज और उसी रंग की बड़ी सी बिंदी अपने माथे पर  लगा रखी थी. उस ने सोने के गहनों से अपने को सजा लिया था.

मां उसे देख कर मुसकरा दीं, ‘‘क्या बात है, आज तू बड़ी सज कर आई है.’’

अभी सुषमा कुछ कहना चाह रही थी कि प्रिया बोली, ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम.’’

प्रिया की बातें सुन कर सुषमा का खून खौल उठा पर वह कुछ बोली नहीं.

मां ने आदर के साथ बेटी को बिठाया और दामादजी से हाल समाचार पूछे.

सुषमा बोली, ‘‘मां, खुशखबरी है. तुम नानी बनने वाली हो.’’

मां यह सुन कर बोलीं, ‘‘चलो, ठीक है. एक बच्चा हो जाए. फिर अपना दुखड़ा रोने लगीं कि सचिन की नौकरी के लिए 50 हजार रुपए चाहिए. बेटी, अगर तुम दे देतीं तो…’’

सुषमा बौखला उठी. मां की बात बीच में काट कर बोली, ‘‘मां, अब और नहीं, अब बहुत हो गया. मुझे जितना करना था कर दिया. अब सब बड़े हो गए हैं और वे अपनी जिम्मेदारी खुद उठा सकते हैं. मैं आखिर कब तक इस घर को देखती रहूंगी.

‘‘मैं  जब 12 साल की थी तब से ही तुम लोगों की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ढो रही हूं. रातरात भर जाग कर मैं एकएक पैसे के लिए काम करती थी. फिर सभी को इस योग्य बना दिया कि वे अपनी जिम्मेदारियां खुद उठा सकें.

‘‘अब मेरा भी अपना परिवार है. पति हैं, और अब घर में एक और सदस्य भी आने वाला है. मैं अब तुम सब के लिए करतेकरते थक गई हूं मां. अब मैं जीना चाहती हूं, अपने लिए, अपने परिवार के लिए और अपनी खुशी के लिए.

‘‘जिंदगी की  खूबसूरत 40 बहारें मैं ने यों ही गंवा दीं, अब और नहीं. मेरे जीवन के पतझड़ का अंत हो गया है. अब मैं खुश हूं, बहुत खुश.’’

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लम्हों ने खता की थी: क्या डिप्रैशन से निकल पाई रिया

गुरमीत पाटनकर के 30 साल के लंबे सेवाकाल में ऐसा पेचीदा मामला शायद पहली दफा सामने आया था. इस बहुराष्ट्रीय कंपनी में पिछले वर्ष पीआरओ पद पर जौइन करने वाली रिया ने अपनी 6 वर्ष की बच्ची के लिए कंपनी द्वारा शिक्षण संबंधित व्यय के पुनर्भरण के लिए प्रस्तुत आवेदन में बच्ची के पिता के नाम का कौलम खाली छोड़ा था. अभिभावक के नाम की जगह उसी का नाम और हस्ताक्षर थे. उन्होंने जब रिया को अपने कमरे में बुला कर बच्ची के पिता के नाम के बारे में पूछा तो वह भड़क कर बोली थी, ‘‘इफ क्वोटिंग औफ फादर्स नेम इज मैंडेटरी, प्लीज गिव मी बैक माइ एप्लीकेशन. आई डोंट नीड एनी मर्सी.’’ और बिफरती हुई चली गई थी. पाटनकर सोच रहे थे, अगर इस अधूरी जानकारी वाले आवेदनपत्र को स्वीकृत करते हैं तो वह (रिया) भविष्य में विधिक कठिनाइयां पैदा कर सकती है और अस्वीकृत कर देते हैं तो आजकल चलन हो गया है कि कामकाजी महिलाएं किसी भी दशा में उन के प्रतिकूल हुए किसी भी फैसले को उन के प्रति अधिकारी के पूर्वाग्रह का आरोप लगा देती हैं.

अकसर वे किसी पीत पत्रकार से संपर्क कर के ऐसे प्रकरणों का अधिकारी द्वारा महिला के शारीरिक शोषण के प्रयास का चटपटा मसालेदार समाचार बना कर प्रकाशितप्रसारित कर के अधिकारी की पद प्रतिष्ठा, सामाजिक सम्मान का कचूमर निकाल देती हैं. रिया भी ऐसा कर सकती है. आखिर 2 हजार रुपए महीने की अनुग्रह राशि का मामला है. टैलीफोन की घंटी बजने से उन की तंद्रा भंग हुई. उन्होंने फोन उठाया, मगर फोन सुनते ही वे और भी उद्विग्न हो उठे. फोन उन की पत्नी का था. वह बेहद घबराई हुई लग रही थी और उन से फौरन घर पहुंचने के लिए कह रही थी.

घर पहुंच कर उन्होंने जो दृश्य देखा तो सन्न रह गए. रिया भी उन के ही घर पर थी और भारी डिप्रैशन जैसी स्थिति में थी. कुछ अधिकारियों की पत्नियां उसे संभाल रही थीं, दिलासा दे रही थीं, मगर उसे रहरह कर दौरे पड़ रहे थे. बड़ी मुश्किल से उन की पत्नी उन्हें यह बता पाई कि उस की 6 वर्षीय बच्ची आज सुबह स्कूल गई थी. लंचटाइम में वह पता नहीं कैसे सिक्योरिटी के लोगों की नजर बचा कर स्कूल से कहीं चली गई. उस के स्कूल से चले जाने का पता लंच समाप्त होने के आधे घंटे बाद अगले पीरियड में लगा. क्लासटीचर ने उस को क्लास में न पा कर उस की कौपी वगैरह की तलाशी ली. एक कौपी में लिखा था, ‘मैं अपने पापा को ढूंढ़ने जाना चाहती हूं. मम्मी कभी पापा के बारे में नहीं बतातीं. ज्यादा पूछने पर डांट देती हैं. कल तो मम्मी ने मुझे चांटा मारा था. मैं पापा को ढूंढ़ने जा रही हूं. मेरी मम्मी को मत बताना, प्लीज.’

स्कूल प्रशासन ने फौरन बच्ची की डायरी से अभिभावकों के टैलीफोन नंबर देख कर इस की सूचना रिया को दे दी और स्कूल से बच्ची के गायब होने की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करा दी. सभी स्तब्ध थे यह सोचते हुए कि क्या किया जाए. तभी कालोनी कैंपस में एक जीप रुकी. जीप में से एक पुलिस इंस्पैक्टर और कुछ सिपाही उतरे और पाटनकर के बंगले पर भीड़भाड़ देख कर उस तरफ बढ़े. पाटनकर खुद चल कर उन के पास गए और उन के आने का कारण पूछा. इंस्पैक्टर ने बताया कि स्कूल वालों ने जिस हुलिए की बच्ची के गायब होने की रिपोर्ट लिखाई है उसी कदकाठी की एक लड़की किसी अज्ञात वाहन की टक्कर से घायल हो गई. जिसे अस्पताल में भरती करा कर वे बच्ची की मां और कंपनी के कुछ लोगों को बतौर गवाह साथ ले जाने के लिए आए हैं.

इंस्पैक्टर का बयान सुन कर रिया तो मिसेज पाटनकर की गोदी में ही लुढ़क गई तो वे इंस्पैक्टर से बोलीं, ‘‘देखिए, आप बच्ची की मां की हालत देख रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि वह इस हालत में कोई मदद कर पाएगी. हम सभी इसी कालोनी के हैं और वह बच्ची स्कूल से आने के बाद इस की मां के औफिस से लौटने तक मेरे पास रहती है इसलिए मैं चलती हूं आप के साथ.’’ अब तक कंपनी के अस्पताल की एंबुलैंस भी मंगा ली गई थी. इसलिए कुछ महिलाएं अचेत रिया को ले कर एंबुलैंस में सवार हुईं और 2-3 महिलाएं मिसेज पाटनकर के साथ पुलिस की जीप में बैठ गईं. अस्पताल पहुंचते ही शायद मातृत्व के तीव्र आवेग से रिया की चेतना लौट आई. वह जोर से चीखी, ‘‘कहां है मेरी बच्ची, क्या हुआ है मेरी बच्ची को, मुझे जल्दी दिखाओ. अगर मेरी बच्ची को कुछ हो गया तो मैं किसी को छोड़ूंगी नहीं, और मिसेज पाटनकर, तुम तो दादी बनी थीं न पिऊ की,’’ कहतेकहते वह फिर अचेत हो गई.

बच्ची के पलंग के पास पहुंचते ही मिसेज पाटनकर और कालोनी की अन्य महिलाओं ने पट्टियों में लिपटी बच्ची को पहचान लिया. वह रिया की बेटी पिऊ ही थी. बच्ची की स्थिति संतोषजनक नहीं थी. वह डिलीरियम की स्थिति में बारबार बड़बड़ाती थी, ‘मुझे मेरे पापा को ढूंढ़ने जाना है, मुझे जाने दो, प्लीज. मम्मी मुझे पापा के बारे में क्यों नहीं बतातीं, सब बच्चे मेरे पापा के बारे में पूछते हैं, मैं क्या बताऊं. कल मम्मी ने मुझे क्यों मारा था, दादी, आप बताओ न…’ कहतेकहते अचेत हो जाती थी. बच्ची की शिनाख्त होते ही पुलिस इंस्पैक्टर ने मिसेज पाटनकर को बच्ची की दादी मान कर उस के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले वे दोपहर को महिला कल्याण समिति की बैठक में जाने के लिए निकली थीं. तभी रिया की बच्ची, जो अपनी आया से बचने के लिए अंधाधुंध दौड़ रही थी, उन से टकरा गई थी. बच्ची ने उन से टकराते ही उन की साड़ी को जोर से पकड़ कर कहा था, ‘आंटी, मुझे बचा लो, प्लीज. आया मुझे बाथरूम में बंद कर के अंदर कौकरोच छोड़ देगी.’

बच्ची की पुकार की आर्द्रता उन्हें अंदर तक भिगो गई थी. इसलिए उन्होंने आया को रुकने के लिए कहा और बच्ची से पूछा, ‘क्या बात है?’ तो जवाब आया ने दिया था कि यह स्कूल में किसी बच्चे के लंचबौक्स में से आलू का परांठा अचार से खा कर आई है और घर पर भी वही खाने की जिद कर रही है. मेमसाब ने इसे दोपहर के खाने में सिर्फ बर्गर और ब्रैड स्लाइस या नूडल्स देने को कहा है. यह बेहद जिद्दी है. उसे बहुत तंग कर रही है, इस ने खाना उठा कर फेंक दिया है, इसलिए वह इसे यों ही डरा रही थी. मगर बच्ची उन की साड़ी पकड़ कर उन से इस तरह चिपकी थी कि आया ज्यों ही उस की तरफ बढ़ी वह उन से और भी जोर से चिपक कर बोली, ‘आंटी प्लीज, बचा लो,’ और उन की साड़ी में मुंह छिपा कर सिसक उठी तो उन्होंने आया को कह दिया, ‘बच्ची को वे ले जा रही हैं, तुम लौट जाओ.’

कालोनी में उन की प्रतिष्ठा और व्यवहार से आया वाकिफ थी, इसलिए ‘मेमसाब को आप ही संभालना’, कह कर चली गई थी. उन्होंने मीटिंग में जाना रद्द कर दिया और अपने घर लौट पड़ी थीं. घर आने तक बच्ची उन की साड़ी पकड़े रही थी. पता नहीं कैसे बच्ची का हाथ थाम कर घर की तरफ चलते हुए वे हर कदम पर बच्ची के साथ कहीं अंदर से जुड़ती चली गई थीं. घर आ कर उन्होंने बच्ची के लिए आलू का परांठा बनाया और उसे अचार से खिला दिया. परांठा खाने के बाद बच्ची ने बड़े भोलेपन से उन से पूछा था, ‘आंटी, आप ने आया से तो बचा लिया, आप मम्मी से भी बचा लोगी न?’

मासूम बच्ची के मुंह से यह सुन कर उन के अंदर प्रौढ़ मातृत्व का सोता फूट निकला था कि उन्होंने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर बोलीं, ‘हां, जरूर, मगर एक शर्त है.’

‘क्या?’ बच्ची ने थोड़ा असमंजस से पूछा. जैसे वह हर समझौता करने को तैयार थी.

‘तुम मुझे आंटी नहीं, दादी कहोगी, कहोगी न?’

बच्ची ने उन्हें एक बार संशय की नजर से देखा फिर बोली, ‘दादी, आप जैसी होती है क्या? उस के तो बाल सफेद होते हैं, मुंह पर बहुत सारी लाइंस होती हैं. वह तो हाथ में लाठी रखती है. आप तो…’

‘हां, दादी वैसी भी होती है और मेरी जैसी भी होती है, इसलिए तुम मुझे दादी कहोगी. कहोगी न?’

‘हां, अगर आप कह रही हैं तो मैं आप को दादी कहूंगी,’ कह कर बच्ची उन से चिपट गई थी.

उस दिन शाम को जब रिया औफिस से लौटी तो आया द्वारा दी गई रिपोर्ट से उद्विग्न थी, मगर एक तो मिस्टर पाटनकर औफिस में उस के अधिकारी थे, दूसरे, कालोनी में मिसेज पाटनकर की सामाजिक प्रतिष्ठा थी, इसलिए विनम्रतापूर्वक बोली, ‘मैडम, यह आया बड़ी मुश्किल से मिली है. इस शैतान ने आप को पूरे दिन कितना परेशान किया होगा, मैं जानती हूं और आप से क्षमा चाहती हूं. आप आगे से इस का फेवर न करें.’ इस पर उन्होंने बड़ी सरलता से कहा था, ‘रिया, तुम्हें पता नहीं है, हमारी इस बच्ची की उम्र की एक पोती है. हमारा बेटा यूएसए में है इसलिए मुझे इस बच्ची से कोई तकलीफ नहीं हुई. हां, अगर तुम्हें कोई असुविधा हो तो बता दो.

‘देखो, मैं तो सिर्फ समय काटने के लिए महिला वैलफेयर सोसायटी में बच्चों को पढ़ाने का काम करती हूं. मैं कोई समाजसेविका नहीं हूं. मगर पाटनकर साहब के औफिस जाने के बाद 8 घंटे करूं क्या, इसलिए अगर तुम्हें कोई परेशानी न हो तो बच्ची को स्कूल से लौट कर तुम्हारे आने तक मेरे साथ रहने की परमिशन दे दो. मुझे और पाटनकर साहब को अच्छा लगेगा.’

‘मैडम, देखिए आया का इंतजाम…’ रिया ने फिर कहना चाहा तो उन्होंने बीच में टोक कर कहा, ‘आया को तुम रखे रहो, वह तुम्हारे और काम कर दिया करेगी.’ सब तरह के तर्कों से परास्त हो कर रिया चलने लगी तो उन्होंने कहा, ‘रिया, तुम सीधे औफिस से आ रही हो. तुम थकी होगी. मिस्टर पाटनकर भी आ गए हैं. चाय हमारे साथ पी कर जाना.’

‘जी, सर के साथ,’ रिया ने थोड़ा संकोच से कहा तो वे बोलीं, ‘सर होंगे तुम्हारे औफिस में. रिया, तुम मेरी बेटी जैसी हो. जाओ, बाथरूम में हाथमुंह धो लो.’

उस दिन से रिया की बेटी और उन में दादीपोती का जो रिश्ता कायम हुआ उस से वे मानो इस बच्ची की सचमुच ही दादी बन गईं. मगर जब कभी बच्ची उन से अपने पापा के बारे में प्रश्न करती, तो वे बेहद मुश्किल में पड़ जाती थीं. इंस्पैक्टर को यह संक्षिप्त कहानी सुना कर वे निबटी ही थीं कि डाक्टर आ कर बोले, ‘‘देखिए, बच्ची शरीर से कम मानसिक रूप से ज्यादा आहत है. इसलिए उसे किसी ऐसे अटैंडैंट की जरूरत है जिस से वह अपनापन महसूस करती हो.’’ स्थिति को देखते हुए मिसेज पाटनकर ने बच्ची की परिचर्या का भार संभाल लिया.

करीब 4-5 घंटे गुजर गए. बच्ची होश में आते ही, उसी तरह, ‘‘मुझे पापा को ढूंढ़ने जाना है, मुझे जाने दो न प्लीज,’’ की गुहार लगाती थी.

बच्ची की हालत स्थिर देखते हुए डाक्टर ने फिर कहा, ‘‘देखिए, मैं कह चुका हूं कि बच्ची शरीर की जगह मैंटली हर्ट ज्यादा है. हम ने अभी इसे नींद का इंजैक्शन दे दिया है. यह 3-4 घंटे सोई रह सकती है. मगर बच्ची की उम्र और हालत देखते हुए हम इसे ज्यादा सुलाए रखने का जोखिम नहीं ले सकते. बेहतर यह होगा कि बच्ची को होश में आने पर इस के पापा से मिलवा दिया जाए और इस समय अगर यह संभव न हो तो उन के बारे में कुछ संतोषजनक उत्तर दिया जाए. आप बच्ची की दादी हैं, आप समझ रही हैं न?’’

अब मिसेज पाटनकर ने डाक्टर को पूरी बात बताई तो वह बोला, ‘‘हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं मगर बच्ची के पापा के विषय में आप को ही बताना पड़ेगा.’’ बच्ची को मिसेज सान्याल को सुपुर्द कर मिसेज पाटनकर रिया के वार्ड में आ गईं. रिया को होश आ गया था. वह उन्हें देखते ही बोली, ‘‘मेरी बेटी कहां है, उसे क्या हुआ है, आप कुछ बताती क्यों नहीं हैं? इतना कहते हुए वह फिर बेहोश होने लगी तो मिसेज पाटनकर उस के सिरहाने बैठ गईं और बड़े प्यार से उस का माथा सहलाने लगीं.

उन के ममतापूर्ण स्पर्श से रिया को कुछ राहत मिली. उस की चेतना लौटी. वह कुछ बोलती, इस से पहले मिसेज पाटनकर उस से बोलीं, ‘‘रिया, बच्ची को कुछ नहीं हुआ. मगर वह शरीर से ज्यादा मानसिक रूप से आहत है. अब तुम ही उसे पूरी तरह ठीक होने में मदद कर सकती हो.’’ मिसेज पाटनकर बोलते हुए लगातार रिया का माथा सहला रही थीं. रिया ने इस का कोई प्रतिवाद नहीं किया तो उन्हें लगा कि वह उन से कहीं अंतस से जुड़ती जा रही है.

थोड़ी देर में वह क्षीण स्वर में बोली, ‘‘मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘देखो रिया, बच्ची अपने पापा के बारे में जानना चाहती है. हम उसे गोलमोल जवाब दे कर या उसे डांट कर चुप करा कर उस के मन में संशय व संदेह की ग्रंथि को ही जन्म दे रहे हैं. इस से उस का बालमन विद्रोही हो रहा है. मैं मानती हूं कि वह अभी इतनी परिपक्व नहीं है कि उसे तुम सबकुछ बताओ, मगर तुम एक परिपक्व उम्र की लड़की हो. तुम खुद निर्णय कर लो कि उसे क्या बताना है, कितना बताना है, कैसे बताना है. मगर बच्ची के स्वास्थ्य के लिए, उस के हित के लिए उसे कुछ तो बताना ही है. यही डाक्टर कह रहे हैं,’’ इतना कहते हुए मिसेज पाटनकर ने बड़े स्नेह से रिया को देखा तो उन्हें लगा कि वह उन के साथ अंतस से जुड़ गई है.

रिया बड़े धीमे स्वर में बोली, ‘‘अगर मैं ही यह सब कर सकती तो उसे बता ही देती न. अब आप ही मेरी कुछ मदद कीजिए न, मिसेज पाटनकर.’’

‘‘तुम मुझे कुछ बताओगी तो मैं कुछ निर्णय कर पाऊंगी न,’’ मिसेज पाटनकर ने रिया का हाथ अपने हाथ में स्नेह से थाम कर कहा.

रिया ने एक बार उन की ओर बड़ी याचनाभरी दृष्टि से देखा, फिर बोली, ‘‘आज से 7 साल पहले की बात है. मैं एमबीए कर रही थी. हमारा परिवार आम मध्य परिवारों की तरह कुछ आधुनिकता और कुछ पुरातन आदर्शों की खिचड़ी की सभ्यता वाला था. मैं ने अपनी पढ़ाई मैरिट स्कौलरशिप के आधार पर पूरी की थी. इसलिए जब एमबीए करने के लिए बेंगलुरु जाना तय किया तो मातापिता विरोध नहीं कर सके. एमबीए के दूसरे साल में मेरी दोस्ती संजय से हुई. वह भी मध्यवर्ग परिवार से था. धीरेधीरे हमारी दोस्ती प्यार में बदल गई. मगर आज लगता है कि उसे प्यार कहना गलत था. वह तो 2 जवान विपरीत लिंगी व्यक्तियों का आपस में शारीरिक रूप से अच्छा लगना मात्र था, जिस के चलते हम एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा रहना चाहते थे.

‘‘5-6 महीने बीत गए तो एक दिन संजय बोला, ‘रिया, हमतुम दोनों वयस्क हैं. शिक्षित हैं और एकदूसरे को पसंद करते हैं, काफी दिन से साथसाथ घूमतेफिरते और रहते हुए एकदूसरे को अच्छी तरह समझ भी चुके हैं. यह समय हमारे कैरियर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है. इस में क्लासैज के बाद इस तरह रोमांस के लिए मिलनेजुलने में समय बिताना दरअसल समय का ही नहीं, कैरियर भी बरबाद करना है. अब हमतुम जब एकदूसरे से इतना घुलमिल गए हैं तो होस्टल छोड़ कर किसी किराए के मकान में एकसाथ मिल कर पतिपत्नी बन कर क्यों नहीं रह लेते. आखिर प्रोजैक्ट में भी किसी पार्टनर की जरूरत होगी.’

‘‘‘मगर एमबीए के बीच में शादी, वह भी बिना घर वालों को बताए, उन की रजामंदी के…’ मैं बोली तो संजय मेरी बात बीच में ही काट कर बोला था, ‘मैं बैंडबाजे के साथ शादी करने को नहीं, हम दोनों की सहमति से आधुनिक वयस्क युवकयुवती के एक कमरे में एक छत के नीचे लिव इन रिलेशनशिप के रिश्ते में रहने की बात कर रहा हूं. इस तरह हम पतिपत्नी की तरह ही रहेंगे, मगर इस में सात जन्म तो क्या इस जन्म में भी साथ निभाने के बंधन से दोनों ही आजाद रहेंगे.’

‘‘मैं संजय के कथन से एकदम चौंकी थी. तो संजय ने कहा था, ‘तुम और्थोडौक्स मिडिल क्लास की लड़कियों की यही तो प्रौब्लम है कि तुम चाहे कितनी भी पढ़लिख लो मगर मौडर्न और फौरवर्ड नहीं बन सकतीं. तुम्हें तो ग्रेजुएशन के बाद बीएड कर के किसी स्कूल में टीचर का जौब करना चाहिए था. एमबीए में ऐडमिशन ले कर अपना समय और इस सीट पर किसी दूसरे जीनियस का फ्यूचर क्यों बरबाद कर दिया.’

‘‘उस के इस भाषण पर भी मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं देख कर वह मानो समझाइश पर उतर आया, बोला, ‘अच्छा देखो, आमतौर पर मांबाप लड़की के लिए अच्छा सा लड़का, उस का घरपरिवार, कारोबार देख कर अपने तमाम सगेसंबंधी और तामझाम जोड़ कर 8-10 दिन का वक्त और 8-10 लाख रुपए खर्च कर के जो अरेंज्ड मैरिज नाम की शादी करते हैं क्या उन सभी शादियों में पतिपत्नी में जिंदगीभर निभा पाने और सफल रहने की गारंटी होती है? नहीं होती है न. मेरी मानो तो मांबाप का अब तक का जैसेतैसे जमा किया गया रुपया, उन के भविष्य में काम आने के लिए छोड़ो. देखो, यह लिव इन रिलेशनशिप दकियानूसी शादियों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी परिवर्तन है.

हम जैसे पढ़ेलिखे एडवांस्ड यूथ का समर्थन मिलेगा तभी इसे सामाजिक स्वीकृति मिलेगी. अब किसी को तो आगे आना होगा, तो हम ही क्यों नहीं इस रिवोल्यूशनरी चेंज के पायोनियर बनें. सो, कमऔन, बी बोल्ड, मौडर्न ऐंड फौरवर्ड. कैरियर बन जाने पर और पूरी तरह सैटल्ड हो जाने पर हम अपनी शादी डिक्लेयर कर देंगे. सो, कमऔन. वरना मुझे तो मेरे कैरियर पर ध्यान देना है. मुझे अपने कैरियर पर ध्यान देने दो.’ ‘‘एक तो संजय से मुझे गहरा लगाव हो गया था, दूसरे, मुझे उस के कथन में एक चुनौती लगी थी, अपने विचारों, अपनी मान्यताओं और अपने व्यक्तित्व के विरुद्ध. इसलिए मैं ने उस का समर्थन करते हुए उस के साथ ही अपना होस्टल छोड़ दिया और हम किराए पर एक मकान ले कर रहने लगे. ‘‘मकानमालिक एक मारवाड़ी था जिसे हम ने अपना परिचय किसी प्रोजैक्ट पर साथसाथ काम करने वाले सहयोगियों की तरह दिया. वह क्या समझा और क्या नहीं, बस उस ने किराए के एडवांस के रुपए ले व मकान में रहने की शर्तें बता कर छुट्टी पाई.

‘‘धीरेधीरे 1 साल बीत चला था. इस बीच हम ने कई बार पतिपत्नी वाले शारीरिक संबंध बनाए थे. इन्हीं में पता नहीं कब और कैसे चूक हो गई कि मैं प्रैग्नैंट हो गई. ‘‘मैं ने संजय को यह खबर बड़े उत्साह से दी मगर वह सुन कर एकदम खीझ गया और बोला, ‘मैं तो समझ रहा था कि तुम पढ़ीलिखी समझदार लड़की हो. कुछ कंट्रासैप्टिव पिल्स वगैरह इस्तेमाल करती रही होगी. तुम तो आम अनपढ़ औरतों जैसी निकलीं. अब फटाफट किसी मैटरनिटी होम में जा कर एमटीपी करा डालो. बच्चे पैदा करने के लिए और मां बनने के लिए जिंदगी पड़ी है. अगले महीने कुछ मल्टीनैशनल कंपनी के प्रतिनिधि कैंपस सिलैक्शन के लिए आएंगे इसलिए एमटीपी इस सप्ताह करा लो.’

‘‘मैं सन्न रह गई थी संजय की बातें सुन कर. क्या यही सब सुनने के लिए मैं मौडर्न, फौरवर्ड और बोल्ड बनी थी? आज कई साल पहले कालेज में एक विदुषी लेखिका का भाषण का एक वाक्य याद आने लगा, ‘हमें नारी मुक्ति चाहिए, मुक्त नारी नहीं,’ और इन दोनों की स्थितियों में अंतर भी समझ में आ गया.

‘‘मैं ने इस स्थिति में एक प्रख्यात नारी सामाजिक कार्यकर्ता से बात की तो वह बड़ी जोश में बोली कि परिवार के लोगों और युगयुगों से चली आ रही सामाजिक संस्था विवाह की अवहेलना कर के और वयस्क होने तथा विरोध नहीं करने पर भी शारीरिक संबंध बनाना स्वार्थी पुरुष का नारी के साथ भोग करना बलात्कार ही है. इस के लिए वह अपने दल को साथ ले कर संजय के विरुद्ध जुलूस निकालेगी, उस का घेराव करेगी, उस के कालेज पर प्रदर्शन करेगी. इस में मुझे हर जगह संजय द्वारा किए गए इस बलात्कार की स्वीकृति देनी होगी. इस तरह वह संजय को विवाह पूर्व यौन संबंध बनाने को बलात्कार सिद्ध कर के उसे मुझ से कानूनन और सामाजिक स्वीकृति सम्मत विवाह करने के लिए विवश कर देगी अथवा एक बड़ी रकम हरजाने के रूप में दिलवा देगी, मगर इस के लिए मुझे कुछ पैसा लगभग 20 हजार रुपए खर्च करने होंगे. सामाजिक कार्यकर्ता की बात सुन कर मुझे लगा कि मुझे अपनी मूर्खता और निर्लज्जता का ढिंढोरा खुद ही पीटना है और उस के कार्यक्रम के लिए मुझे ही एक जीवित मौडल या वस्तु के रूप में इस्तेमाल होने के लिए कहा जा रहा है.

‘‘इस के बाद मैं ने एक प्रौढ़ महिला वकील से संपर्क किया जो वकील से अधिक सलाहकार के रूप में मशहूर थीं. उन्होंने साफ कह दिया, ‘अगर संजय को कानूनी प्रक्रिया में घसीट कर उस का नाम ही उछलवाना है तो वक्त और पैसा बरबाद करो. अदालत में संजय का वकील तुम से संजय के संपर्क से पूर्व योनि शुचिता के नाम पर किसी अन्य युवक के साथ शारीरिक संबंध नहीं होने के बारे में जो सवाल करेगा, उस से तुम अपनेआप को सब के सामने पूरी तरह निर्वस्त्र खड़ा हुआ महसूस करोगी. मैं यह राय तुम्हें सिर्फ तुम से उम्र में बड़ी होने के नाते एक अभिभावक की तरह दे रही हूं.

‘अगर तुम किसी तरह अदालत में यह साबित करने में सफल भी हो गईं कि यह बच्चा संजय का ही है और संजय ने उसे सामाजिक रूप से अपना नाम दे भी दिया तो जीवन में हरदम, हरकदम पर कानून से ही जूझती रहोगी क्या. देखो, जिन संबंधों की नींव ही रेत में रखी गई हो उन की रक्षा कानून के सहारे से नहीं हो पाएगी. यह मेरा अनुभव है. तुम्हारा एमबीए पूरा हो रहा है. तुम्हारा एकेडैमिक रिकौर्ड काफी अच्छा है. मेरी सलाह है कि तुम अपने को मजबूत बनाओ और बच्चे को जन्म दो. एकाध साल तुम्हें काफी संघर्ष करना पड़ेगा. 3 साल के बाद बच्चा तुम्हारी प्रौब्लम नहीं रहेगा. फिर अपना कैरियर और बच्चे का भविष्य बनाने के लिए तुम्हारे सामने जीवन का विस्तृत क्षेत्र और पूरा समय होगा.’

‘‘‘मगर जब कभी बच्चा उस के पापा के बारे में पूछेगा तो…’ मैं ने थोड़ा कमजोर पड़ते हुए कहा था तो महिला वकील ने कहा था, ‘मैं तुम से कोई कड़वी बात नहीं कहना चाहती मगर यह प्रश्न उस समय भी अपनी जगह था जब तुम ने युगयुगों से स्थापित सामाजिक, पारिवारिक, संस्था के विरुद्ध एक अपरिपक्व भावुकता में मौडर्न तथा बोल्ड बन कर निर्णय लिया था. मगर अब तुम्हारे सामने दूसरे विकल्प कई तरह के जोखिमों से भरे हुए होंगे. क्योंकि प्रैग्नैंसी को समय हो गया है. वैसे अब बच्चे के अभिभावक के रूप में मां के नाम को प्राथमिकता और कानूनी मान्यता मिल गई है. बाकी कुछ प्रश्नों का जवाब वक्त के साथ ही मिलेगा. वक्त के साथ समस्याएं स्वयं सुलझती जाती हैं.’’’

इतना सब कह कर रिया शायद थकान के कारण चुप हो गई. थोड़ी देर चुप रह कर वह फिर बोली, ‘‘मुझे लगता है आज समय वह विराट प्रश्न ले कर खड़ा हो गया है, मगर उस का समाधान नहीं दे रहा है. शायद ऐसी ही स्थिति के लिए किसी ने कहा होगा, ‘लमहों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई,’’’ यह कह कर उस ने बड़ी बेबस निगाहों से मिसेज पाटनकर को देखा. मिसेज पाटनकर किसी गहरी सोच में थीं. अचानक उन्होंने रिया से पूछा, ‘‘संजय का कोई पताठिकाना…’’ रिया उन की बात पूरी होने के पहले ही एकदम उद्विग्न हो कर बोली, ‘‘मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं मिसेज पाटनकर, मगर मुझे संजय से कोई मदद या समझौता नहीं चाहिए, प्लीज.’’

‘‘मैं तुम से संजय से मदद या समझौते के लिए नहीं कह रही, पर पिऊ के प्रश्न के उत्तर के लिए उस के बारे में कुछ जानना तो होगा. जो जानती हो वह बताओ.’’

‘‘उस का सिलेक्शन कैंपस इंटरव्यू में हो गया था. पिछले 4-5 साल से वह न्यूयार्क के एक बैंक में मैनेजर एचआरडी का काम कर रहा था. बस, इतना ही मालूम है मुझे उस के बारे में किसी कौमन फ्रैंड के जरिए से,’’ रिया ने मानो पीछा छुड़ाने के लिए कहा. रिया की बात सुन कर मिसेज पाटनकर कुछ देर तक कुछ सोचती रहीं, फिर बोलीं, ‘‘हां, अब मुझे लगता है कि समस्या का हल मिल गया है. तुम्हें और संजय को अलग हुए 6-7 साल हो गए हैं. इस बीच में तुम्हारा उस से कोई संबंध तो क्या संवाद तक नहीं हुआ है.

‘‘उस के बारे में बताया जा सकता है कि वह न्यूयार्क में रहता था. वहीं काम करता था. वहां किसी विध्वंसकारी आतंकवादी घटना के बाद उस का कोई पता नहीं चल सका कि वह गंभीर रूप से घायल हो कर पहचान नहीं होने से किसी अस्पताल में अनाम रोगी की तरह भरती है या मारा गया. अस्पताल के मनोचिकित्सक को यही बात पिऊ के पापा के बारे में बता देते हैं. वे अपनेआप जिस तरह और जितना चाहेंगे पिऊ को होश आने पर उस के पापा के बारे में अपनी तरह से बता देंगे और आज से यही औफिशियल जानकारी होगी पिऊ के पापा के बारे में.’’

‘‘लेकिन जब कभी पिऊ को यह पता चलेगा कि यह झूठ है तो?’’ कह कर रिया ने बिलकुल एक सहमी हुई बच्ची की तरह मिसेज पाटनकर की ओर देखा तो वे बोलीं, ‘‘रिया, वक्त अपनेआप सवालों के जवाब खोजता है. अभी पिऊ को नर्वस ब्रैकडाउन से बचाना सब से बड़ी जरूरत है.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप ठीक समझें. पिऊ ठीक हो जाएगी न, मिसेज पाटनकर?’’ रिया ने डूबती हुई आवाज में कहा.

‘‘पिऊ बिलकुल ठीक हो जाएगी, मगर एक शर्त रहेगी.’’

‘‘क्या, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. बस, पिऊ…’’

‘‘सुन तो ले,’’ मिसेज पाटनकर बोलीं, ‘‘अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर पिऊ स्वस्थ होने तक मेरे पास रहेगी और बाद में भी तुम्हारी अनुपस्थिति में वह हमेशा अपनी दादी के पास रहेगी. बोलो, मंजूर है?’’ उन्होंने ममतापूर्ण दृष्टि से रिया को देखा तो रिया डूबती सी आवाज में ही बोली, ‘‘आप पिऊ की दादी हैं या नानी, मैं कह नहीं सकती. मगर अब मुझे लग रहा है कि मेरे कुछ मूर्खतापूर्ण भावुक लमहों की जो लंबी सजा मुझे भोगनी है उस के लिए मुझे आप जैसी ममतामयी और दृढ़ महिला के सहारे की हर समय और हर कदम पर जरूरत होगी. आप मुझे सहारा देंगी न? मुझे अकेला तो नहीं छोड़ेंगी, बोलिए?’’ कह कर उस ने मिसेज पाटनकर का हाथ अपने कांपते हाथों में कस कर पकड़ लिया.

‘‘रिया, मुझे तो पिऊ से इतना लगाव हो गया है कि मैं तो खुद उस के बिना रहने की कल्पना कर के भी दुखी हो जाती हूं. मैं हमेशा तेरे साथ हूं. पर अभी इस वक्त तू अपने को संभाल जिस से हम दोनों मिल कर पिऊ को संभाल सकें. अभी मेरा हाथ छोड़ तो मैं यहां से जा कर मनोचिकित्सक को सारी बात बता सकूं,’’ कह कर उन्होंने रिया के माथे को चूम कर उसे आश्वस्त किया, बड़ी नरमी से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया और डाक्टर के कमरे की ओर चल पड़ीं.

प्रैशर प्रलय: पार्टी में क्या हुआ था

‘‘प्रैशर आया?’’ हाथी जैसी मस्त चाल से झूमते हुए अंदर आते ही जय ने पूछा. ‘‘अरे जय भैया आप को ही आया लगता है, जल्दी जाइए न वाशरूम खाली है,’’ प्रश्रय की छोटी बहन प्रशस्ति जोर से हंसी.

‘‘क्यों बिगाड़ता रहता है जय मेरे बेटे का सुंदर नाम. पहले ढंग से बोल प्रश्रय…’’ नीला, बेटे के नर्सरी के दोस्त संजय को आज भी दोस्त का सही नाम लेने के लिए सता कर खूब मजे लेती. बचपन में जय तोतला था तो उस के मुंह से अलग ही नाम निकलता. धीरेधीरे तो बोल जाता पर जल्दी में कुछ और ही बोल जाता. अब तो उस ने प्रश्रय को पै्रशर ही बुलाना शुरू कर दिया. अमूमन वह सीरियस बहुत कम होता. सीरियस होता तो भी प्रैशर सिंह ही पुकारता और प्रश्रय उसे तोतला. ‘‘अरे आंटीजी छोड़ो भी, कितनी बार कहा आसान सा नाम रख दो. इतना मुश्किल नाम क्यों रख दिया. अब हम ने सही नाम तो रख दिया प्रैशर सिन्हा… हा… हा… अरे मोदीजी की क्या खबर है. कुछ पता भी है, आज क्या नया इजाद कर डाला?’’

‘‘क्या?’’ सब का मुंह खुल गया, फिर कोई नई ‘बंदी’, ‘नोटबंदी’? सब सोच ही रहे थे कि वह मोदीजी… मोदीजी कहते हुए किचन में चला आया. ‘‘ओह… क्या जय भैया…’’ सब भूल ही जाते जय प्रश्रय की नईनवेली पत्नी मुदिता को मोदीजी कहना शुरू किया है.

‘‘अरे मुदिता भी नहीं कह पाता, सिंपल तो है. तो मोदीजी क्या भाभी ही कहा कर… कोई और भाभी तो है नहीं.’’ ‘‘मैं तो भैया मोदीजी ही कहूंगा, रोज नया ही कुछ देखने को मिल जाता है. कुछ नया फिर किया?’’ ‘‘किया है न तभी तो स्कूटी से प्रश्रय साथ दूध लेने गई है. बना रही थी हलवा उस में पानी इतना डाला कि वह लपसी बन गया. अब उसे सुधार कर फटाफट खीर बनाने का प्रोग्राम है. लो आ गए दोनों…’’ नीला मुसकरा कर बोलीं.

‘‘हमारे भैया भी तो महा कंजूस… कुछ वैस्ट नहीं करने देते…’’ ‘‘राम मिलाई जोड़ी… आगे नहीं बकूंगा वरना प्रैशर सिन्हा को प्रैशर आ जाएगा. बहुत मारेगा फिर…’’ कहते हुए उस ने प्रशस्ति के हाथ पर जोर से ताली मारी, हंसा और फिर उंगली से उसे चुप रहने का इशारा किया.

‘‘जल्दी भाभी… आप की नई ईजाद डिश ‘एग प्लस’ वह आमलेट में ब्रैड की फिलिंग वाले यम्मी नाश्ते से तो हमारा अभी आधा पेट ही भरा,’’ प्रशस्ति ने जानबूझ कर जबान होंठों पर फिराई, ‘‘आप चूक गए जय भैया उस स्पैशल नाश्ते को…’’ बहन प्रशस्ति छेड़ कर मुसकरा उठी. ‘‘क्याक्या वह ब्रैड में अंडे की स्टफिंग तो खाई है पर अंडे में ब्रैड की स्टफिंग? देखा तश्तरी, मैं ने सही नाम ही दिया है मोदीजी नमस्ते, मेरे लिए तो जरूर, जल्दी…’’ उस ने पेट सहलाते हुए भूखा होने का एहसास दिलाया.

मुदिता ने हंसते हुए प्रतिक्रिया दी, ‘‘मैं अभी सबकुछ, आप के लिए भी लाई…’’ और फिर किचन में चली गई. ‘‘क्यों मजाक बनाता है मेरी नईनवेली का तोतले? वह बुरा नहीं मानती. फिर इस का मतलब क्या?’’ प्रश्रय ने उस की पीठ पर हंसते हुए एक धौल जमा दी.

‘‘क्यों भई, प्रैशर सिन्हा तो प्रैशर में आ गया. तश्तरी तू उठ, उसे ठंडा हो कर बैठने

दे ढक्कन…’’ ‘‘लो अब एक और नामकरण मेरा… क्या है भैया,’’ वह रूठते हुए बोली.

‘‘ठीक ही तो है पर्यायवाची ही तो है तश्तरी का ढक्कन,’’ प्रश्रय हंस कर उसे सरकाते हुए बैठ गया.

‘‘यही तो काम होता है तश्तरी का,’’ दोनों हंसने लगे तो 15 साल की प्रशस्ति पीछे जा कर दोनों को हलकेहलके घूंसे बरसाने लगी. ‘‘अरे, रुकरुक ढक्कन… देख प्रैशर की तो डाई उतरने लगी है,’’ जय उस के बालों को निहारते हुए उन पर हाथ फिराने लगा.

‘‘अरे यार, मैं डाई लगाता कहां हूं जो छूटने लगेगी… पागल है क्या?’’ वह थोड़ा हैरानपरेशान हुआ, नवेली बहू मुदिता भी ध्यान लगा कर सुनने जो लगी थी. ‘‘बड़ी मार खाएगा, मेरी इज्जत का फालूदा क्यों निकालने पर लगा रहता है?’’

‘‘लो भई, प्रैशर सिन्हा तो जरा से में प्रैशर में आ गए.’’ ‘‘अबे समझ न, पैदा ही अच्छी डाई लगवा कर हुआ था, ऊपर वाले के सैलून से. अब और कितने सालों चलेगी आखिर. 30 का तू होने को आया…’’

‘‘ओए तू कितने का होने आया स्वीट सिक्सटीन?’’ वह चिढ़ कर बोला. ‘‘तुझे भी पता है शक्ल से तो स्वीट सिक्सटीन ही लगता है और दिल से ट्वैंटी वन और दिमाग से फोर्टी फोर…’’ कौलर ऊंचा करते हुए अकड़ से बोला.

‘‘मुझे तो तू हर तरह से फोर्टी फोर नहीं, फोरट्वैंटी लगता है.’’ ‘‘भई वकालत क्या यों ही चल जाएगी. इसीलिए तो ये विस्कर्स भी सफेद कलर कर रखे हैं कि लोग थोड़ा अनुभवी वकील समझें… वैसे मुझे तो तुझ से बढि़या डाई लगा कर भेजा है कुदरत ने और फिर प्रैशर सिन्हा तुझ से छोटा भी तो हूं,’’ बात मुदिता तक पहुंचाने के लिए वह तेज स्वर में बोला.

‘‘अच्छा?’’ मुदिता नाश्ते की ट्रे के साथ वहीं आ गई थी.

‘‘अच्छा क्या… केवल 4 दिनों का ही अंतर है महाराज. 1 ही महीना 1 ही साल दोनों पैदा हुए हैं…’’

‘‘तू फिर प्रैशर में आ गया, मजाक में भी सीरियस…’’ उस ने ऐसा चेहरा बनाया कि सभी हंस पड़े. फिर नाश्ते के लिए टेबल पर जा बैठे. मुदिता फिर कुछ लाने किचन में चली गई. तभी मुदिता का टेबल पर रखा मोबाइल बजने लगा.

‘‘देखना किस का है प्रश्रय… उठा लो, मैं आई.’’

‘‘दे भई,’’ प्रश्रय ने उसे मोबाइल पास करने को कहा. ‘‘गदाधर भीम…’’ कहते हुए उस ने मुसकरा कर मोबाइल उसे थमा दिया. मुदिता की बहन मुग्धा के नाम का सरलीकरण उस ने यही कर दिया था.

प्रश्रय ने उसे उंगली से चुप रहने का इशारा किया और बात करने लगा. ‘‘नमस्ते जीजू, जीजी कहां है? उस ने अपना मोबाइल जो मुझे दिया फिर उस में कुछ टाइप हो कर मेरे सिर को चला गया. अब मैं

क्या करूं. मेरा मूड बहुत औफ है जीजू, दीजिए उन को… अपना घटिया फोन मुझे हैल्प के लिए थमा दिया.’’ ‘‘देता हूं 1 सैकंड… किचन में है… पर अब क्या टाइप हो कर सैंड हो गया?’’

‘‘जीजू वह कैमिस्ट्री सर को मैं ने प्रश्न भेजने के लिए लिखा था ‘यू सैंड’

तो ई की जगह ए टाइप हो गया. फिर मैं ने ‘सौरी’ लिखा तो एस की जगह डब्ल्यू सैंड हो गया.’’ ‘‘क्याक्या मतलब…’’

‘‘यू सांड…वरी सर… अब क्या करूं जीजी के फोन ने तो कहीं का न छोड़ा… सर बहुत गुस्सा हो गए,’’ और उस का रोना शुरू हो गया. ‘‘अरे कौन वह विवेक शर्मा ही पढ़ाता है न तुम्हें…यहीं तो रहता है. मैं बात कर लूंगा. कोई गुस्सा नहीं रहेगा. अब रोना बंद करो और लो जीजी से बात करो.’’

‘‘सांड… वरी…’’ जय की हंसी छूट गई. वह पेट पकड़े हंसे जा रहा था. ‘‘मरवाएगा क्या पागल?’’

‘‘इसे बताया ही क्यों,’’ नीला के होंठों पर भी मुसकान खेलने लगी. ‘‘पहले ही बोला था मुझे दिया होता तो अब तक ठीक कर दिया होता,’’ जय किसी तरह हंसी कंट्रोल करते हुए बोला.

‘‘छांट कर ससुराल ढूंढ़ी है. सभी कलाकार हैं. हा… हा…’’ ‘‘ज्यादा मत हंस. तेरी भी शादी छांट कर ही करवाऊंगा, तोतले… जहां लड़की का तो ऐसा मुश्किल नाम होगा कि तू नाम ही सोचता रह जाएगा,’’ प्रश्रय जोर से हंसा.

‘‘ठीकवीक नहीं करना. से नया स्मार्ट फोन चाहिए अपने बर्थडे पर पहले ही वादा कर चुकी हूं. इसी 24 को तो है संडे को… मम्मी ने सब को बुलाया है. आप को भी आना है जय भैया… आंटी को भी लाना है,’’ मुदिता भी आ कर खाली सीट पर बैठ गई. ‘‘अरे बिलकुल. आप की आज्ञा शिरोधार्य.’’

‘‘यार, इतना महंगा फोन अभी बच्ची ही तो है… 11वीं क्लास कुछ होती है?’’ ‘‘लो प्रैशर सिन्हा का प्रैशर फिर बढ़ गया… अच्छा ही तो है रोजरोज गदाधर सायरन तुझे नहीं सुनना पड़ेगा.’’

‘‘अरे इतनी क्या कंजूसी. एक ही साली है, तेरी शादी के बाद उस का पहला जन्मदिन है. सही तो वादा किया है मुदिता ने,’’ नीला मुसकराई.

रविवार को मुदिता के घर जन्मदिन की खूब चहलपहल हो रखी थी. प्रश्रय और जय परिवार के साथ ठीक समय पर पहुंच गए. बर्थडे गर्ल मुग्धा बाकी मेहमानों को छोड़ उन की ओर लपकी और गिफ्ट का डब्बा मुदिता के हाथ से खींच लिया, ‘‘मेरा मोबाइल

है न…’’ ‘‘अरे रुकरुक, पहले सब से मिल… हम सब को विश तो कर लेने दे…’’

‘‘ओकेओकेओके… नमस्तेनमस्ते आंटी, आंटीजी, जीजू भैया दी… थैंकयू… थैंकयू… थैंकयू सब को,’’ उस ने गिफ्ट लेनेके उतावलेपन में इतनी जल्दीजल्दी कहा कि सभी हंस पड़े. ‘‘और मोहित कैसे हो यार? कैसी चल रही है तुम्हारी फाइनल ईयर की पढ़ाई? कभी तो मिलने आ जाया करो घर. कब हैं ऐग्जाम्स?’’ मोहित मुदिता का भाई जिसे जय मिसफिट, कभी लाल हिट कहता, घर भर में उसे वही तेज दिमाग व गोरा लगता था.

‘‘अरे छोड़ यार लाल हिट, सारे प्रश्न कौकरोचों को तुझे तो मार ही डालना है… आज के दिन भी पढ़ाई की बातें ही करेगा… बता आंटीअंकल कहां हैं? दोनों दिख नहीं रहे? नमकमिर्च… पेपरसाल्ट, मेरे अंकलआंटी तेरे मम्मीपापा रौनक कुछ कम लग रही है. मजा नहीं आ रहा,’’ जय ने कुतूहल से पूछा. तभी दोनों आ गए… सक्सेनाजी दोनों हाथों से पैंट संभालने में लगे हुए थे और गोलमटोल मैडम ने केक का डब्बा और एक पैकेट थामा हुआ था. सब से नमस्तेनमस्ते हुई पर दोनों की तूतू मैंमैं अभी भी चालू थी.

‘‘नाड़ा तेरा टूटा तो बैल्ट निकलवा मेरी आफत कर डाली. अब मेहमानों के सामने मेरी फजीहत… सब की तूही जिम्मेदार है…’’ ‘‘चुप करो अकेले तो कोई काम करते नहीं बनता. टेलर से ब्लाउज लेना न होता तो मैं जाती भी न आज तुम्हारे साथ.’’

‘‘तेरा सामान कौन लाता? कम खाया कर वरना नाड़ा न टूटता तेरा… वह तो शुक्र मना मेरा कि मैं ने तुम्हें अपनी बैल्ट मौके पर ही बांधने को दे दी.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. भूल गए पहली बार ससुराल कैसी पुरानी बैल्ट पहन कर पहुंच गए थे, जो पटाक से टूटी तो चुपके से मैं ने ही नाड़ा ला कर तुम्हारी इज्जत बचाई थी. बड़े हीरो की तरह शर्ट बिना खोंसे बाहर निकाल कर आए थे कि पुरानी बैल्ट दिखेगी नहीं… हां नहीं तो लो थामो अपना वालेट…’’

‘‘भगवान ने रात बनाई है वरना तो चौबीसों घंटे मुझ से लड़ाई ही करती रहो तुम…’’ मिसेज सक्सेना की साड़ी पर चमकती बैल्ट देख माजरा समझ सभी मुसकरा रहे थे. जय, प्रश्रय के कानों के पास मुंह ले जा कर बुदबुदा उठा, ‘‘राम मिलाए जोड़ी…’’

प्रश्रय ने उसे घूर कर देखा तो उस ने मुसकराते हुए अपने होंठों पर चुप की उंगली रख ली.

‘‘नमस्ते पापा,’’ प्रश्रय चरण छूने झुका था. ‘‘अरे रुकोरुको वरना हाथ उठा कर

आशीष दिया तो गड़बड़ हो जाएगी,’’ वे हंसे और बैठ गए.

‘‘हां अब ठीक है… खुश रहो,’’ उन्होंने दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया.

‘‘भागवान, मौके की नजाकत समझो, जल्दी जा कर मेरी बैल्ट ला दो…’’ वे बैठ कर वालेट में नोट गिनगिन कर कुछ परेशान से दिखने लगे…

‘‘लगता है शौप में हजार के 2 नोट देने की जगह 3 नोट दे डाले मैडम ने. 10 होने चाहिए थे अब 9 ही हैं.’’ ‘‘अरे नहीं…’’

‘‘नमस्ते अंकल… लाइए मैं देखता हूं… होंगे इसी में, आंटीजी इतनी भी भुलक्कड़ नहीं… अरे, बहुत गड़बड़ कर दी है आप ने तभी तो… पिताजी की तसवीर उलटी रखेंगे तो क्या होगा. यह देखिए सारे पिताजी को सीधा कर दिया. अब गिन लीजिए पूरे हैं…’’ मिस्टर सक्सेना के साथ औरों का मुंह भी सोच में खुला रह गया था…

‘‘अरे पिताजी मतलब बापू, गांधीजी…’’ उस ने मुसकरा कर वालेट वापस थमा दिया, ‘‘अब गिनिए पूरे हैं ना?’’ ‘‘अच्छा ऐसा भी होता है क्या… मुझे तो मालूम ही नहीं था,’’ उन का मुंह अभी भी खुला हुआ था.

‘‘अरे पापा इस की तो मजाक करने की आदत है. आप को मालूम तो है…’’ प्रश्रय मुसकराया. ‘‘यह लो अपनी बैल्ट… मोहित जल्दी जा गाड़ी में मेरा चश्मा रह गया है उठा ला. नए चश्में के साथ मेरा फोटो सब से रोबदार आती है,’’ उन्होंने मिस्टर सक्सेना की ओर देखते हुए कहा.

‘‘मम्मी सिर पर लगा रखा है पहले देख तो लो…’’ ‘‘देखती कैसे इस की असली आंखें तो सर पर थीं…’’ मिस्टर सक्सेना चिढ़ कर चहक उठे.

‘‘आप भी न भाई साहब भाभी को छेड़ने का कोई मौका नहीं चूकते,’’ नीला मुसकराई. ‘‘सच में प्यारी सी हैं भाभीजी, चहकती

ही अच्छी लगती हैं,’’ जय की मम्मी शांता ने सहमति दर्शाई. ‘‘गजानन का हुक्म हो गया है, चलना ही पड़ेगा…’’ उन्होंने मुसकराते हुए जय, प्रश्रय की ओर देखा. हंसे तो हिल कर उन का शरीर भी साथ देने लगा.

‘‘जानते हो इन का असली नाम तो गजगामिनी था… नए नामकरण में क्या खाली तुम ही उस्ताद हो?’’ वह मुसकराए. ‘‘पर मैं कभी बुला ही नहीं पाया. इतने लंबे नाम से खाली गज कैसे कहता, मार ही डालती, तो गजानन पुकारने लगा,’’ वे ठठा कर हंस पड़े.

‘‘तभी तो आप के बिना माहौल जम नहीं रहा था.’’

‘‘बस 10-10 मिनट रुकिए, मम्मी वह वैशाली पहुंचने वाली है. 1 घंटा पहले एअरपोर्ट से निकली हैं… मुंबई से आ चुकी हैं. उस की दीदी और पापामम्मी भी साथ हैं… दी का कोई ऐग्जाम है. अभीअभी उस का फोन आया.’’

‘‘अरे वाह वैष्णवी… मेरी सहेली कितने सालों बाद हम मिलेंगे मम्मी…’’ मुदिता खुशी से चीखी और मम्मी के गले लिपट गई. डगमगा गया था संतुलन मम्मी का. किसी तरह मोटे शरीर को संभाला. ‘‘छोड़छोड़ मुदि, अभी तो मैं गिर जाती.’’

‘‘अच्छा… हिमांशु अंकल सपरिवार… सही मौके पर…’’ ‘‘तब तक आप लोग कुछकुछ खातेपीते रहो. कोल्ड ड्रिंक्स और लो, बहुत वैराइटी है…’’ गजगामिनी ने पास आ कर बोला.

शीतल बाल पेय बहुत हो लिया आंटीजी अब थोड़ा बड़ों का उष्णोदक मिल जाए तो… मीठा गरम पानी बढि़या… मतलब बींस पाउडर वाला या लीफ वाला…’’ ‘‘मतलब मम्मीजी कौफीचाय की तलब लग रही है इसे…’’ प्रश्रय ने मुसकराते हुए घबराई गजगामिनी को क्लीयर कर दिया.

‘‘आए, हय मैं तो घबरा ही गई कि कोई बीमारी हो गई क्या… अच्छाअच्छा मैं बनवाती हूं अभी,’’ वह मस्त लुढ़कती सी चली गई.

चाय का दौर चल ही रहा था कि मुग्धा की सहेली वैशाली, दीदी वैष्णवी, सुधांशु अंकल व ललिता आंटी आ गए. 3 साल पहले वे दिल्ली इसी कालोनी में रहते थे. बच्चों का स्कूल में भी साथ हो गया तो दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती हो गई थी. फिर सुधांशुजी का परिवार अहमदाबाद शिफ्ट हो गया. वहां प्रोफैसर पद

पर यूनिवर्सिटी में उन की नियुक्ति हो गई थी. सभी अपने पुराने दोस्तों से मिल कर प्रसन्न हो गए. सभी से उन का परिचय कराया जाने लगा. मुदिता वैष्णवी को ले कर प्रश्रय के पास

ले आई, ‘‘मिल, ये तेरे जीजाजी हैं, तू तो शादी में थी नहीं.’’

‘‘नमस्ते जीजाजी… मी वैष्णवी… हाऊ हैंडसम यू आर… हये बहुत लकी है मुदिता तू यार.’’

‘‘अब नजर न लगा मेरे पति को, क्या पता तू मुझ से भी लकी निकले, मुझ से सुंदर जो है.’’ ‘‘इन से मिलो ये हैं जय भैया. प्रश्रय के दोस्त बड़े मजाकिया स्वभाव के हैं. जानती हो प्रश्रय को ये प्रैशर सिन्हा और प्रश्रय इन्हें तोतला पुकारते हैं बचपन से.’’

‘‘हाय, माइसैल्फ वैष्णवी एलएलबी. मुदिता की टैंथ ट्वैल्थ की फ्रैंड,’’ वैष्णवी ने नमस्ते की. ‘‘नमस्ते, पर आप को बता दूं अब मैं तोतला बिलकुल नहीं हूं… वलना तोल्त में तेस तैसे ललता तिनियल लायल जो हूं.’’

वैष्णवी हंस पड़ी. ‘‘क्या मैं जान सकता हूं कौन सा मीठा साबुन चख कर आप आई हैं मुंबई से?’’

‘‘आप की उजली दंत कांति ने मुझे प्रश्न के लिए मजबूर कर दिया,’’ वह गंभीर होते

हुए बोला. ‘‘मीठा साबुन… मतलब?’’ वह सोचने लगी थी. साथ ही मुदिता भी. फिर बोली, ‘‘ओ गुड आप भी लौयर हैं. मेरी भी कानून में बहुत रुचि है, व्यक्ति को सिविलाइज्ड बनाता है कानून. इसीलिए मैं ने एलएलबी किया. अब सिविल जजी का ऐग्जाम ही देने आई हूं यहां.’’

‘‘अरे ठाट से वकालत कीजिए, ढेरों पैसे बनाइए, जजी में क्या रखा है? आप के पास जो केस आएगा समझो जीताजिताया है.’’ ‘‘वह कैसे?’’

‘‘ओ जय भैया, बातें बाद में बनाना. किस से बातें कर रहे हो… यह तो बताओ पहले… ‘वैष्णवी’ बोल के तो दिखाओ, तब मानेंगे हम वरना कुछ तो है बचपन का वह असर अभी भी हम तो यही कहेंगे… मालूम है अब बस आप नया नाम ही दे दोगे, चलो वही दे दो इसे भी,’’ वह मुसकराई.

‘‘मोदीजी माफी…’’ उस ने हंसते हुए हाथ जोड़ दिए. छोटी बहन वैशाली ने जय का प्रश्न सुन लिया था. पापा सुधांशु को पूछने भी चली गई. जहां पहले ही वैष्णवी की शादी के लिए सुधांशु और ललिता को चिंतित देख गजगामिनी नीला और जय की शादी के लिए परेशान शांता सभी अपने सुयोग्य ऐडवोकेट लड़के जय की तारीफ और उस के मजाकिया स्वभाव की भी चर्चा

किए बैठे थे. ‘‘ओ गौड मतलब मंजन टूथपेस्ट… मीठा साबुन? हा… हा… कोलगेट,’’ प्रोफैसर सुधांशु जवाब दे कर हंसे थे.

‘‘मुझे भी मिलाओ उस भैया से,’’ मुग्धा व वैशाली उसे बुलाने चलीं आईं. ‘‘चलचल हीरो बन रहा था न आज तेरी बात ही पक्की करवा देता हूं इसी वैष्णवी से… शांता आंटी की तेरी शादी की चिंता खत्म…

बेटा अब बोल के दिखा नाम या कोई और नाम रख,’’ प्रश्रय उस के कानों में फुसफुसा कर हंसे जा रहा था. वह जय को पकड़ कर वहां ले गया जहां सुधांशु और उस के ससुर मिस्टर सक्सेना पत्नियों के साथ बैठे थे.

हंसीमजाक चलता रहा. केक कटा, खानापीना, नाचगाना और

खूब मस्ती होती रही. बड़ों ने उसी बीच जय और वैष्णवी की रजामंदी ले कर उन की शादी भी तय कर दी. ‘‘जय भैया अब तो नाम लेना ही पड़ेगा, बोलिए वैष्णवी… या नाम बिगाडि़ए हमारे जैसा…’’

‘‘बेशोन दही या नवी मुंबई जो पसंद हो…’’ झट से बोल कर जय जोर से हंसा. सारे बच्चे, बड़े ‘बेशोन दही’ और ‘नवी मुंबई’ कह कर वैष्णवी को चिढ़ाने लगे. ये… ये… उस ने सोफे पर बैठे हुए एक कुशन से जय पर सटीक निशाना लगाया और फिर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे ये जय नहीं प्रलय… और फिर कुशन में अपना मुंह छिपा लिया.’’

फिर तो सब का कुशन एकदूसरे पर फेंकने का खेल चल पड़ा. हुड़दंग का जंगल लौ अचानक वैष्णवी को सिविल लौ से और भी अच्छा लगने लगा था.

इतवार की एक शाम: कैसे बढ़ गई शैलेन के जीवन की खुशियां

शामहोने को थी. पहाड़ों के रास्ते में शाम गहरा रही थी. शैलेन गाड़ी में बैठा सोच रहा था कि कहां मुंबई की भीड़भाड़ और कहां पहाड़ की शुद्ध हवा. आज कई सालों के बाद वह अपने घर अपने मातापिता से मिलने जा रहा था. उस का घर कूर्ग में था. कूर्ग अपनी खूबसूरती और कौफी के बागानों के लिए मशहूर है. उस की बहन इरा, जो उस की बहन कम और दोस्त ज्यादा थी, अमेरिका से आई हुई थी. ज्यादातर तो उस के माता और पिता उस के  पास मुंबई में रहते थे, क्योंकि मल्टीनैशनल कंपनी में काम करने वाले शैलेन के पास समय की कमी थी. वह अपने परिवार के साथ मुंबई में रहता था. लेकिन इस बार इरा आई थी और वह अपना समय इस बार कूर्ग में बिताना चाहती थी. उसी से मिलने और अपने बचपन की यादें ताजा करने के लिए शैलेन 3 दिन के लिए अपने घर जा रहा था. मायसोर से आगे चावल के खेतों और साफसुथरे गांवों को पीछे छोड़ती उस की गाड़ी आगे बढ़ रही थी. उस के घर तक पहुंचने का रास्ता बहुत सुंदर था.

सहसा शैलेन को याद आया कि इरा ने उसे फोन पर बताया था कि इस बार वह अपनी बचपन की सहेलियों के साथ अपने स्कूल जाना चाहती है. इस बार इस के पास समय की कमी नहीं थी. इरा और उस की सहेलियां सब एक ही स्कूल में पढ़ती थीं. वे सब एकसाथ उस स्कूल को देखना चाहती थीं और कई सालों बाद आज आखिर वह मौका आ ही गया था.

‘चलो, ठीक ही है,’ शैलेन ने मन ही मन सोचा. वह भी तो उसी स्कूल में पढ़ता था. इरा और उस की सहेलियों से 3 क्लास सीनियर.

दोनों भाईबहन एकदूसरे के हमदर्द तो थे ही, हमराज भी थे. पढ़ाईलिखाई के मामले में एकदूसरे के राज छिपा कर रखते थे सब से.

यह सोचतेसोचते शैलेन मुसकरा उठा. उसे इरा

की सहेलियां याद आईं. वे सब भी इरा की

तरह हुल्लड़बाज थीं. कई बार वह इरा की सहेलियों को छोड़ने उन के घर गया था. उस ने इरा की कई सहेलियों को साइकिल चलाना भी सिखाया था.

इस बार शैलेन इरा से पूछेगा कि उस की वे सब शैतान सहेलियां कैसी हैं और कहां हैं? वैसे तो आजकल फेसबुक और व्हाट्सऐप के जमाने में सब ही एकदूसरे के बारे में जानते हैं. शैलेन को इरा की सहेलियों के नाम और चेहरे याद आने लगे. ये चेहरे और नाम वैसे तो कोई खास अहमियत उस के जीवन में नहीं रखते थे, लेकिन वह इन सब के साथ अपने बचपन का जुड़ाव महसूस करता था. शैलेन को याद आया कि जब उस की शादी मुंबई से होनी तय हुई थी तो इरा की सहेलियों को बहुत निराशा हुई थी. वे सब उस की शादी में शामिल होना चाहती थीं, क्योंकि हुल्लड़ मचाने का इस से अच्छा मौका और कहां मिलता? बाद में जब रिसैप्शन कूर्ग में तय हुआ तो सब के चेहरे की हंसी लौटी.

गाड़ी कौफी बागानों से होती हुई

गुजर रही थी और शैलेन के दिमाग में इरा की सहेलियों के नाम आ जा रहे थे. इन सब चेहरों

से परे एक चेहरा ऐसा भी था जिस की याद आते ही शैलेन का जीवन के प्रति उत्साह और लगन दोनों बढ़ जाते थे. यह चेहरा वेदा का था. वेदा भी इरा की खास सहेलियों में थी. वेदा की खासीयत यह थी कि वह अपने चेहरे की शैतानी को मासूमियत में बदल लेती थी. वैसे तो शैलेन

इरा की सभी सहेलियों से मिलताजुलता था, लेकिन एक इतवार की शाम कुछ ऐसा हुआ जिस के बाद से उसे वेदा से मिलने में हिचकिचाहट होने लगी.

शैलेन को वेदा से मिले अब 16 साल से भी ऊपर हो चुके हैं. वह शैलेन की रिसैप्शन में भी नहीं आ पाई थी. उस इतवार की शाम को कुछ ऐसा हुआ था जो शैलेन को आज भी जीने की प्रेरणा देता है. वैसे तो एक खुशनुमा जिंदगी जीने के लिए जो कुछ भी चाहिए वह सबकुछ शैलेन के पास था पर फिर भी इतवार की उस शाम के बिना सबकुछ अधूरा होता. आज से 16 साल पहले सोशल मीडिया नहीं था. उन दिनों चिट्ठियां यानी प्रेम पत्रों से काम चलाया जाता था. उस इतवार की शाम को ऐसी ही एक चिट्ठी शैलेन को भी मिली थी. उस चिट्ठी में शैलेन की बहुत तारीफ की गई थी और हर तरह की मदद के लिए (साइकिल सिखाने, होमवर्क में मदद करवाने आदि) शुक्रिया अदा करने के बाद अंत में यह लिखा था कि शैलेन उस रात 8 बजे उस के फोन का इंतजार करे. पत्र के अंत में वेदा का नाम लिखा था.

शैलेन चिट्ठी हाथ में लिए वहीं बैठे का बैठा रह गया. वैसे तो उस चिट्ठी में प्यार का इजहार बहुत साफ शब्दों में नहीं किया था पर यह निश्चित था कि चिट्ठी लिखने वाली लड़की वेदा थी. वह उसे पसंद करती थी. पहली और शायद आखिरी बार ऐसा हुआ था कि किसी महिला ने उस की यों तारीफ की हो. वैसे तो महानगर में और उस के विदेश प्रवास में अनेक महिला मित्रों ने और महिला सहकर्मियों ने उस की प्रशंसा की थी पर उन सब में बनावटीपन ज्यादा था. इस चिट्ठी और इस में व्यक्त भावनाएं शैलेन को ओस की बूंदों की तरह लगती थीं.

उन दिनों भावनाओं में गरमाहट होती थी, आजकल की तरह ठंडापन नहीं. आज भी वह चिट्ठी शैलेन के पास कहीं पड़ी होगी. जब कभी शैलेन को वह चिट्ठी और उस में लिखी बातें याद आती थीं तो उस की थकान का एक अंश गायब हो जाता था.

वह उस इतवार की रात को फोन का इंतजार करने लगा. मगर 8 बजे का समय गलत

सोचा था वेदा ने. इतवार की रात को शैलेन के पिताजी सब के साथ ही खाना खाते थे और

फोन वहीं डाइनिंगहौल में ही रखा था. वेदा किसी और दिन को फोन करने का रख सकती थी.

शैलेन रात को 8 बजने का इंतजार करने लगा. फोन आया और 8 बजे आया जैसाकि चिट्ठी में लिखा था. फोन पिताजी ने उठाया. जब वे घर में होते थे तो वही फोन उठाते थे. पर फोन कट गया और दोबारा नहीं आया.

आगे के कुछ दिन शैलेन ने वेदा के बारे में सोचते हुए बिताए. इस के बाद उस का वेदा से मिलना हुआ तो पर उन हालात में नहीं जहां चिट्ठी के बारे में कोई बात हो सके. इस के बाद सब अपने जीवन में धीरेधीरे आगे बढ़ते गए.

शैलेन मुंबई आ गया, इरा अमेरिका चली गई और वेदा बैंगलुरु. फिर बाद में सुना कि वेदा की शादी भी बैंगलुरु में हो गई. लेकिन शैलेन

उस चिट्ठी को भूल नहीं पाया. आज भी इतवार की ही शाम थी और शैलेन अपने घर अपने परिवार से मिलने जा रहा था. उस की गाड़ी अब घुमावदार रास्तों से हो कर घर की ओर जा रही थी. अचानक मोबाइल बज उठा. देखा तो इरा का फोन था.

‘‘और कितनी देर लगेगी? इरा ने बेताबी

से पूछा.’’

‘‘बस आधा घंटा और… कौफी तैयार रख… मैं पहुंच रहा हूं,’’ शैलेन ने जवाब दिया.

तभी इरा ने कहा, ‘‘गैस हु इज देअर

विद मी?’’

अचानक इस सवाल से शैलेन अचकचा उठा. भला कौन हो सकता है?

तभी इरा बोल पड़ी, ‘‘इट्स माई डियर

फ्रैंड, वेदा.’’

शैलेन का दिल धड़क उठा. उसे एक बार फिर उस चिट्ठी और इतवार की शाम की याद आ गई. वह मुसकरा उठा. उसे इस बात की खुशी थी कि वेदा यहां है. शाम गहरा चुकी थी और वह अपने घर के गेट पर पहुंच चुका था. अंदर पहुंच कर उस ने अपने मातापिता के पैर छुए.

तभी पीछे से आवाज आई, ‘‘हाय, हाऊ आर यू?’’

शैलेन ने पीछे घूम कर देखा तो वेदा

खड़ी थी.

‘‘हाय वेदा, कैसी है?’’ शैलेन ने जवाब में हंसते हुए कहा.

‘‘औल वैल,’’ वेदा का जवाब आया.

शैलेन ने देखा कि वेदा में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है. वही आंखें, वही चेहरा, वही मासूमियत और इन सब के पीछे वही शरारती चेहरा. कुछ औपचारिक बातों और घरपरिवार के हालचाल लेने के बाद वे सब कौफी पीने लगे. शैलेन मन ही मन सोचने लगा कि क्या वेदा इतवार की उस शाम को भूल चुकी है? वैसे देखा जाए तो भूलने जैसा था भी क्या? एक चिट्ठी को तो बड़ी आसानी से भुलाया जा सकता है. पर आखिर कुछ भी हो वह चिट्ठी वेदा ने उसे खुद ही लिखी थी. अपनी खुद की लिखी चिट्ठी को वह एकदम कैसे भूल गई? वैसे भी आजकल फेसबुक की दुनिया में एक अदना सी चिट्ठी की औकात ही क्या? पर उन दिनों चिट्ठियों में ही दिल बसते थे.

उस चिट्ठी ने शैलेन को एक एहसास दिया था, पसंद किए जाने का एहसास,

स्वीकारे जाने का एहसास और इन सब से ऊपर एक अच्छे इंसान होने का एहसास.

ये एहसास जीवन में हवा और पानी की तरह जरूरी तो नहीं हैं, लेकिन इन का होना जीवन को और खूबसूरत बनाता है. पर कमाल है, वेदा को तो जैसे कुछ याद ही नहीं है. यह सही है कि  वेदा और शैलेन दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हैं पर फिर भी बीते हुए समय के कुछ अंशों को तो याद किया ही जा सकता है. वेदा ने जिन भावनाओं को एक दिन चिट्ठी में उकेरा था वे शैलेन की न होते हुए भी उसे याद थीं, पर लगता है वेदा भूल चुकी थी.

पहली बार शैलेन को इस मामले में बेचैनी हुई. रात के 10 बजे थे और वह बालकनी में बैठा था. तभी इरा कौफी लिए बाहर आई. शैलेन वैसे तो इरा से कुछ नहीं छिपाता था पर न जाने क्या सोच कर वेदा की चिट्ठी की बात उसे नहीं बताई थी. आज सालों बाद शैलेन को लगा कि वेदा की चिट्ठी की बात इरा को बताई जाए. इरा वहीं बैठ कर कौफी पी रही थी और अपने मोबाइल में कुछ देख रही थी.

‘‘वेदा कहीं काम करती है?’’ शैलेन ने भूमिका बांधी.

‘‘हां,’’ छोटा सा उत्तर दे कर इरा फिर मोबाइल में व्यस्त हो गई.

‘‘कहां?’’ शैलेन ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘उस का एनजीओ है बैंगलुरु में, वहीं,’’ इरा की निगाहें अपने मोबाइल पर ही थीं.

शैलेन ने आगे बात करने के लिए गला साफ किया, फिर बोला, ‘‘तुम्हें पता है, वेदा ने मुझे एक चिट्ठी लिखी थी बहुत पहले जब तुम लोग कालेज में थीं. मैं ने उस चिट्ठी का कोई जवाब नहीं दिया था.’’

इरा ने अब मोबाइल छोड़ कर भाई की तरफ देखा, ‘‘कौन सी चिट्ठी वही जो छोटू के हाथ से भिजवाई गई थी?’’ इरा ने उदासीनता से पूछा.

‘‘हांहां, वही… तुम्हें पता था?’’ शैलेन को अब इरा की उदासीनता पर गुस्सा आने लगा कि उसे छोड़ कर और सब लोग जो उस चिट्ठी से जुड़े हैं, इतने उदासीन क्यों हैं?

‘‘वह चिट्ठी वेदा ने नहीं लिखी थी,

मधू और चंदा ने लिखी थी,’’ इरा ने जम्हाई लेते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब? मधु और वेदा ने लिखी थी? क्यों?’’ शैलेन ने इस अप्रत्याशित जानकारी के बाद सवाल किया. मधु और वेदा भी इरा की सहेलियां थीं और बहुत शरारती भी थीं.

शैलेन के इस सवाल पर इरा हंसने लगी, ‘‘अरे भाई, तू भूल गया उस दिन पहली अप्रैल थी.’’

मधु और चंदा का चेहरा शैलेन की आंखों के सामने घूम गया.

‘‘पर नीचे नाम तो वेदा का लिखा था?’’ शैलेन ने पूछा.

‘‘अब नीचे किसी न किसी का नाम तो लिखना ही था, तो वेदा का ही लिख दिया,’’ इरा ने जवाब दिया.

‘‘क्या वेदा को यह बात मालूम थी?’’ शैलेन ने हक्काबक्का होते हुए पूछा.

‘‘कौन सी बात? चिट्ठी वाली? पहले तो नहीं पर बाद में उन्होंने मुझे और वेदा को बता दिया था कि उन लोगों ने तुम्हें पहली अप्रैल पर वेदा के नाम से बेवकूफ बनाया है,’’ इरा ने अलसाते हुए कहा.

‘‘पर उन्हें वेदा का नाम नहीं लिखना चाहिए था,’’ शैलेन ने जैसे अपनेआप से कहा.

‘‘हां, लिखना तो नहीं चाहिए था, बट इट इज नौट मैटर, बिकौज दे न्यू दैट यू आर ए जैंटलमैंन,’’ इरा ने उनींदी आंखों से जवाब दिया.

शैलेन मन ही मन यह सोच कर मुसकरा उठा कि शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा कि पहली अप्रैल पूरे 16 सालों तक मना हो. पर जो भी हो, इस वाकेआ ने उस के जीवन की खुशियों को बढ़ाया ही था भले वह उसे मूर्ख बनाने का प्रयास ही क्यों न रहा हो. अनजाने में ही उन लड़कियों ने कुछ ऐसा कर दिया था कि उस से शैलेन के जीवन की खुशियां बढ़ गई थीं.

एक मासूम सी ख्वाहिश: रवि को कौनसी लत लगी थी

 कहानी- कीर्ति प्रकाश

योंतो रवि और प्रेरणा की शादी अरेंज्ड मैरिज थी, मगर सच यही था कि दोनों एकदूसरे को शादी से 3 साल पहले से जानते थे और एकदूसरे को पसंद करते थे. दिल में एकदूसरे को जगह दी तो फिर कोई और दिल में न आया. दुनिया एकदूसरे के दिल में ही बसा ली सदा के लिए.

सब के लिए एक नियत वक्त आता है और इन दोनों के जीवन में भी वह नियत खूबसूरत वक्त आया जब मातापिता, समाज ने इन्हें पतिपत्नी के बंधन में बांध दिया.

जीवन आगे बढ़ा और प्यार भी. रवि और प्रेरणा के बीच हर तरह की बात होती. अमूमन पतिपत्नी बनने के बाद ज्यादातर जोड़ों के बीच बहुत सारी बातें खत्म हो जाती हैं. मसलन, राजनीति, खेलकूद, देशदुनिया, साइंस, कैरियर, हंसीमजाक आदि. मगर इन के बीच सबकुछ पहले जैसा था. हंसीमजाक, ठिठोली, वादविवाद, एकदूसरे की टांग खिंचाई, एकदूसरे की खास बातों में सलाह देनालेना, साथ घूमनाफिरना, एक ही प्लेट में खाना, एकदूसरे का इंतजार करना आदि सबकुछ बहुत प्यारा था रवि और प्रेरणा के बीच. ऐसा नहीं कि रवि और प्रेरणा के  झगड़े न होते हों. होते थे मगर वैसे ही जैसे दोस्त लड़ते झगड़ते, मुंह फुलाते और आखिर में वही होता, चलो छोड़ो न यार जाने दो न. सौरी बाबा… माफ कर दो न. गलती हो गई और दोनों एकदूसरे को गले लगा लेते.

रवि और प्रेरणा की छोटी सी प्यारी सी गृहस्थी थी. शादी को 6 साल हो गए थे. अनंत 2 साल का हो गया था. अब एक और मेहमान बस 4-5 महीनों में आने वाला था. जीवन की बगिया महक रही थी. रवि प्रेरणा का बहुत खयाल रखता था. प्रेरणा ने भी जीवन के हर पल में रवि को हद से ज्यादा प्यार किया. शादी के 6 साल बाद भी यों लगता जैसे अब भी दोनों प्यार में हैं और जल्द से जल्द एकदूसरे के जीवनसाथी बनना चाहते हों. रिश्तेदारों और करीबी दोस्तों के अलावा शायद ही कोई सम झ पाता था कि दोनों पतिपत्नी हैं. हां, अनंत के कारण भले ही अंदाज लगा लेते थे वरना नहीं.

अब सबकुछ अच्छा चल रहा था. कहीं कोई कमी न थी. फिर भी जाने क्यों कभीकभी प्रेरणा उदास हो जाती. रवि शायद ही कभी उस के उदास पल देख पाता और कभी दिख भी जाते तो प्रेरणा कहती, ‘‘कुछ नहीं, यों ही.’’

प्रेम चीज ही ऐसी है जो स्व का त्याग कर दूसरे को खुश रखने की कला सिखा ही देती है. मगर इन सब बातों के बीच एक ऐसी बात थी, एक ऐसी आदत रवि की जिसे प्रेरणा कभी दिल से स्वीकार नहीं कर सकी. हालांकि उस ने कोशिश बहुत की. उस ने कई बार रवि से कहा भी, बहुत मिन्नतें भी कीं कि प्लीज इस आदत को छोड़ दो. यह हमारी प्यारी गृहस्थी, हमारे रिश्ते, हमारे अगाध प्यार के बीच एक दाग है. कहतेकहते अब 6 साल बीतने को थे. रवि ने न जाने उस आदत को खुद नहीं त्यागना चाहा या फिर उस से हुआ नहीं, पता नहीं. जबकि कहते हैं कि दुनिया में जिंदगी और मौत के अलावा बाकी सबकुछ संभव है. महान गायिका लताजी का यह गाना सुन कर मन को बहला लेती, ‘हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता…’

नन्हे मेहमान के आगमन में बस 2 महीनों की देरी थी. रवि जल्दी घर आता. प्रेरणा को बहुत प्यार देता. अनंत भी खुश था, क्योंकि उसे बताया गया कि मम्मी तुम्हारे लिए जल्द ही एक बहुत ही सुंदर गुड्डा या गुडि़या लेने जाएंगी जो तुम्हारे साथ खेलेगी भी, दौड़ेगी भी और बातें भी करेगी. अनंत को गोद में लिए रवि प्रेरणा के साथ बैठ घंटों दुनियाजहान की बातें करता. प्रेरणा हर वक्त खुश थी पर कभीकभी अनायास पूछ बैठती, ‘‘रवि, तुम सच में अपनी आदत नहीं छोड़ सकते?’’

रवि उस के हाथ थाम फिर वही बात दोहरा देता जो पिछले 6 सालों से कहता आ रहा था, ‘‘बस 2-4 दिन दे दो मु झे. सच कहता हूं इस बार पक्का. तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगा.’’

प्रेरणा कसक भरी मुसकान के साथ सिर हिला देती, ‘‘ओके, प्लीज, इस बार जरूर.’’

रवि प्यार से प्रेरणा के माथे को चूम लेता, कभी गालों पर थपकी दे कर कहता, ‘‘इस बार पक्का प्रौमिस.’’

बात फिर खत्म हो जाती.

एक शाम अचानक प्रेरणा का बहुत दिल किया कि आज आइसक्रीम

खाने चलते हैं. वैसे भी 2-3 महीनों से कहीं निकली नहीं थी. रवि ने कहा, ‘‘मैं घर ही ले आता हूं.’’

प्रेरणा नहीं मानी. तीनों तैयार हो कर आइसक्रीमपार्लर चले गए. आइसक्रीम खाते हुए बहुत खुश थे तीनों. होनी कुछ और लिखी गई थी, जिस का समय नजदीक था. तीनों घर आए. अनंत तो आते ही सो गया. प्रेरणा के दिल में आज फिर एक सोई हुई ख्वाहिश जगी. उस ने रवि का हाथ पकड़ कर अपनी ओर प्यार से खींचते हुए कहा, ‘‘रवि, सुनो न एक बात… इधर आओ तो जरा.’’

मगर रवि ने पुरानी आदत के अनुसार हाथ छुड़ाते हुए कहा, ‘‘रुको प्रेरणा. बस 5 मिनट, मैं अभी आया,’’ और फिर बालकनी में चला गया और सिगरेट पीने लगा.

अचानक प्रेरणा की तेज चीख सुन कर रवि दौड़ा. प्रेरणा बाथरूम में लहूलुहान पड़ी थी. अब बस उस की आंखें कुछ कह रह थीं पर उस के मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही थी. रवि के प्राण ही सूख चले. उस ने बिना देर किए ऐंबुलैंस बुलाई और प्रेरणा को कुछ ही पलों में हौस्पिटल पहुंचाया गया. तत्काल इलाज शुरू हुआ. रवि अब तक अपने मातापिता और प्रेरणा के घर वालों को भी खबर कर चुका था. सभी आ गए. सभी प्रेरणा के लिए चिंतित और दुखी थे.

उधर अनंत घर में अकेला था. सिर्फ नौकरों के भरोसे छोटा बच्चा नहीं रह सकता, इसलिए रवि की मां को घर जाना पड़ा. इधर डाक्टर प्रेरणा की कंडीशन को अब भी खतरे में बता रहे थे. बच्चा पेट में खत्म हो गया था. औपरेशन कर दिया था. अब प्रेरणा को बचाने की कोशिश में जुटे थे. थोड़ी देर में अनंत को ले कर मां पुन: हौस्पिटल आईं. मां ने रवि के हाथ में एक पेपर देते हुए कहा, ‘‘यह तकिए के नीचे रखा था शायद… अनंत के हाथ में खेलते हुए आ गया. कोई जरूरी चीज हो शायद यह सोच मैं लेती आई.’’

मां पढ़ना नहीं जानती थीं सो रवि पढ़ने लगा.

उस ने पहचान लिया. प्रेरणा की लिखावट थी और जगहजगह स्याही ऐसे बिखरी हुए थी कि लग रहा था उस ने रोतेरोते ही ये सब लिखा है. अरे यह तो अभी शाम को लिखा है उस ने… क्योंकि प्रेरणा की आदत सभी जानते हैं. वह कुछ भी लिखती है तो उस पर अपने साइन कर के नीचे तारीख और समय भी लिखती है. मतलब कि जब रवि थोड़ी देर के लिए सिगरेट पीने बालकनी में गया था तभी प्रेरणा ने यह लिखा था.

कागज में लिखा था, ‘पता है रवि जब प्यार में हम दोनों सराबोर हुए थे पहली बार… जब हम पहली बार अपनेअपने दिल की बात एकदूसरे से कहने को मिले थे, जो शायद हमारे प्यार की पहली ही शाम थी, उस दिन हम ने समंदर किनारे बने उस कौफीहोम में समंदर की लहरों को साक्षी मान कर एकदूसरे से पूछा था कि हम एकदूसरे को ऐसा क्या दे सकते हैं जो सच में बहुत नायाब हो. मैं ने कहा पहले आप कहो रवि. याद है रवि आप ने क्या कहा था? आप को तो शायद याद ही नहीं है, लेकिन मैं एक पल को भी नहीं भूली. आप ही ने कहा था रवि कि मैं तुम्हारी आंखों से अपनी आंखों को जोड़ना चाहता हूं. बोलो दोगी मु झे यह तोहफा? मैं ने आप की आंखों में प्यार की सचाई देखी थी. उस एक पल में मैं ने आप के साथ अपना पूरा जीवन देख लिया था. ऐसे तोहफे आप मांगेंगे यह कल्पना तो नहीं की थी, लेकिन आप की इस ख्वाहिश ने ही मु झे भी यह ख्वाहिश दे दी कि मैं आप की यह इच्छा जरूर पूरी कर दूं. दिल में तो आया था कि अभी ही पूरी कर दूं. पर मैं शादी के बाद आप की यह इच्छा जरूर पूरी करूंगी, मैं ने सोच लिया था. लेकिन साथ ही यह भी था कि मु झे आप का सिगरेट पीना बरदाश्त न था मैं ने अपने घरपरिवार में कभी ये सब देखासुना नहीं था.

‘मु झे इस के धुएं से, इस की अजीब सी स्मैल से हद से ज्यादा नफरत थी. मेरा दम घुटने को हो आता है इस से. फिर भी मैं ने नजरें नीची कर के कहा कि सही वक्त आने पर आप को यह तोहफा जरूर दूंगी. आप की आंखें खुशी से चमक उठी थीं. मु झे बहुत अच्छा लगा था रवि. फिर आप ने मु झ से पूछा कि तुम्हें मु झ से क्या चाहिए? याद है रवि, मैं ने एक ही चीज मांगी थी. रवि आप सिगरेट पीना छोड़ दो. इस के अलावा मु झे सारी जिंदगी कुछ और नहीं चाहिए. आप ने कहा बस 1 सप्ताह बाद तुम मु झे सिगरेट पीते नहीं देखोगी. मैं कितनी खुश हुई थी, आप इस का अंदाजा नहीं लगा सकते. लेकिन आप ने पलट कर यह नहीं पूछा कि मु झे यही तोहफा नायाब क्यों लगा? मैं ने बताया भी नहीं. जानते हो रवि क्यों नहीं मांगा था मैं ने ताकि मैं आप की ख्वाहिश पूरी कर सकूं. हां रवि, आप की सांसों से अपनी सांसों को जोड़ने की ख्वाहिश मेरे मन में भी जग चुकी थी. पर आप की सिगरेट पीने की आदत ने मु झे यह कभी करने न दिया.

‘मु झे आप से बहुत प्यार मिला है रवि बहुत सम्मान मिला है. सच है कि आप को जीवनसाथी पा कर मैं इस जहान में खुद को सब से ज्यादा खुशहाल पाती हूं. हमारी एकदूसरे से नजदीकियां तो शरीर और मन की तरह हैं रवि. पर बेहद अजीब है न कि इतने करीब हो कर भी वह पल नहीं आ पाया कि मेरा वादा और मेरी एक छोटी सी ख्वाहिश पूरी हो सके.

‘शादी के बाद इन 6 सालों में आप ने मेरे लिए बहुत कुछ किया पर अफसोस मेरी एक छोटी सी यह ख्वाहिश आज भी अधूरी है. कितनी बार मैं ने चाहा, मगर हर बार जब भी आप की सांसों का हमकदम बनना चाहा हर बार वही सिगरेट की अजीब सी गंध ने मु झे मुंह फेर लेने को मजबूर किया. लेकिन आप ने कभी यह सम झने की कोशिश नहीं की. क्या कोई यकीन कर सकता है रवि कि पतिपत्नी हो कर, 1 बच्चे के मातापिता हो कर भी हम एकदूसरे के होंठों के स्पर्श को नहीं जानते. लोग हंसेंगे कि यह क्या बकवास है. भला 6 साल के दांपत्य जीवन में ऐसा पल न आया हो. मैं कैसे कहूं कि यह हमारे अटूट बंधन, गहरे प्रेम के बीच एक दाग की तरह है, मगर सच है आप नहीं सम झोगे रवि. लेकिन मैं अब सम झ गई हूं कि आप मु झे भी शायद छोड़ सकते हो, लेकिन सिगरेट को नहीं, कभी नहीं. मैं फिर आज इसलिए लिख रही हूं रवि क्योंकि आज हद से ज्यादा दिल मचल गया था और लगा था कि आप ने आज तो बहुत देर से सिगरेट नहीं पी है. शायद आज एक बार ही सही मेरी ख्वाहिश पूरी हो जाएगी. लेकिन आज भी आप हाथ छुड़ा कर सिगरेट उठा कर चल दिए.

‘मैं रोना चाहती हूं चीखचीख कर पर नहीं रो सकती, शायद हमारे अगाध प्रेम में यह शोभनीय नहीं होगा. मैं बांटना चाहती हूं अपना यह दर्द, मगर क्या यह किसी से कहना उचित लगेगा? बेहद अपमानित महसूस करने लगी हूं आप की सिगरेट के सामने अपनेआप को. कोई तरीका नहीं है मेरे पास अपनी इस अधूरी ख्वाहिश का दर्द बांटने के लिए सिवा इस के कि पन्ने पर उतार कर दिल हलका कर लूं, जबकि जानती हूं पहले की ही तरह कुछ देर बाद इसे भी फाड़ कर फेंक दूंगी पर कोई बात नहीं दिल तो हलका हो जाता है. आई लव यू रवि, लव यू औलवेज.’

पढ़तेपढ़ते रवि आंसुओं में डूब गया. उसे आज एहसास हुआ कि

उस की सिगरेट की लत के कारण क्या से क्या हो गया.

रवि के सिगरेट ले कर चले जाने के कारण प्रेरणा को आज बहुत ज्यादा बुरा लगा. उस की आंखों से आंसू छलक आए. उस ने पेपर और पैन उठाया और

अपने मन की सारी बात उस कागज पर लिख कर अपने मने को हलका कर लिया. जब तक रवि सिगरेट खत्म कर के कमरे में वापस आने वाला था. प्रेरणा का चेहरा आंसुओं से भीग गया था. वह उठ कर हाथमुंह धोने चली गई. जब वह वाशरूम से वापस आने लगी तो अचानक उस का पैर फिसल गया. यह उस की संतप्त मन की मंशा थी या प्रैगनैंसी के कारण उसे चक्कर आया होगा या फिर उस की जीवन की इतनी ही अवधि तय थी यह तो कुदरत को ही पता था या फिर खुद प्रेरणा को.

रवि पागलों की तरह डाक्टर से कह रहा था, ‘‘मेरी प्रेरणा को बचा लो. मेरा सबकुछ ले लो… मेरी जान भी उसे दे दो, मगर बचा लो उसे.’’

मगर यह नहीं हो सका. 8 घंटे के अथक प्रयास के बाद डाक्टरों ने आकर कहा, ‘‘हम ने बहुत कोशिश की, लेकिन हम हार गए. प्रेरणा के पास अब ज्यादा समय नहीं. उस से मिल लें आप लोग.’’

रवि बदहवास प्रेरणा के पास पहुंचा. प्रेरणा की आंखें शून्यता से भरी थीं. रवि ने उस का हाथ थामा और पागलों की तरह कहने लगा, ‘‘प्रेरणा मु झे छोड़ कर मत जाओ… मत जाओ प्रेरणा… मैं तुम्हारी हर बात मान लूंगा आज से, अभी से. अब नहीं टालूंगा 1 सैकंड भी नहीं. बस मत जाओ… मत जाओ मु झे छोड़ कर.’’

प्रेरणा की आंखें रवि के चेहरे पर टिक गईं. वह बड़ी मुश्किल से जरा सा मुसकराई और फिर अपने होंठों पर एक मासूम सी ख्वाहिश सजा हमेशा के लिए खामोश हो गई.

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