Serial Story: लाइफ कोच – भाग 4

अभी नकुल खाना खा कर सोने ही जा रहा था कि फिर किरण का फोन आ गया.

पूछने लगी कि उस ने खाना खाया या नहीं और खाया तो क्या खाया? बहुत ज्यादा कैलोरी वाला खाना तो नहीं खाया न? दवा तो याद से ले रहा है न?

‘‘हां, ले रहा हूं और खाना भी एकदम सादा ही खाया है, तुम चिंता मत करो,’’ मन झंझला उठा नकुल का, ‘अरे, मैं कोई छोटा बच्चा हूं जो हर वक्त मुझे समझती रहती है? खाना खाया कि नहीं, दवा ली या नहीं? इंसान को भूख लगेगी तो खाएगा ही, जरूरत है तो दवा भी लेगा. इस में पूछने वाली कौन सी बात है. सच कहता हूं, एकदो दिन दवा न खाने से शायद मैं बच भी जाऊं, परंतु किरण की कड़कती बातों से एक दिन जरूर मुझे हार्ट अटैक आ जाएगा,’ मन में सोच नकुल ने तकिया उठा कर पलंग पर दे मारा.

लोगों के सामने वह जाहिर करती कि पैसे कमाने के अलावा नकुल को कुछ नहीं आता है. इसलिए घरबाहर सबकुछ उसे ही संभालना पड़ता है. हंसतेहंसते उस के दोस्तरिश्तेदारों के सामने उसे अपमानित कर देती और बेचारा नकुल दांत निपोर कर रह जाता. लेकिन अंदर से उस का दिल कितना रोता था वही जानता था. तंग आ चुका था वह अपने दोस्त और सहकर्मियों के चिढ़ाने से. जब वे कहते, ‘भई बीबी हो तो नकुल के जैसी. कितनी पढ़ीलिखी है, नकुल की तो जिंदगी ही बदल कर रख दी है भाभीजी ने वरना यह तो रमता जोगी, बहता पानी था.

लेकिन उन्हें कौन समझए कि वह पहले ही ठीक था. आजाद जिंदगी थी. जो मन आए करता था. जहां मन आए जाताआता था, कोई रोकटोक नहीं थी उस की जिंदगी में. लेकिन आज उस की जिंदगी झंड बन चुकी है. लगता है वह अपने घर में नहीं, बल्कि एक पिंजरे में कैद है, जिस की किरण पहरेदारी कर रही है.

नकुल के तो अपने कमाए पैसे पर भी अधिकार नहीं था, क्योंकि उस के कमाए पैसे का सारा हिसाबकिताब किरण ही रखती थी. रोज के खर्चे के लिए वह उसे पैसे तो देती थी पर 1-1 पैसे का हिसाब भी लेती थी कि उस ने कहां कितने पैसे खर्च किए. नकुल के लिए चाहे कपड़े हों, चप्पलें हों या अन्य कोई सामान किरण ही पसंद करती थी, क्योंकि उस के हिसाब से नकुल की पसंद ‘आउट औफ डेटेड’ हो चुकी थी. जब भी कोई नकुल के कपड़े, घड़ी या जूतों की तारीफ करता तो कैसे तन कर किरण कहती कि यह तो उस की पसंद है. नकुल को ये सब कहां आता है. मतलब लोगों के सामने उस ने तो नकुल को एकदम गंवार ही साबित कर दिया था.

नकुल के फोन चलाने पर भी उसे एतराज होता है. कहती है कि उस के कारण ही पीहू बिगड़ रही है. बेचारे नकुल की हिम्मत ही नहीं पड़ती है फिर किरण के सामने फोन छूने की भी, जबकि वह खुद घंटों मोबाइल पर हंसहंस कर अपने रिश्तेदार और सहेलियों से बातें करती रहती है. जब मन होता शौपिंग पर निकल पड़ती है. किट्टी पार्टी करती है. सहेलियों के सामने अपनी धाक जमाने के लिए हर महीने नई साड़ी और ज्वैलरी खरीदती है. अपने रूपरंग को निखारने के लिए ब्यूटीपार्लर जाती है.

नकुल के मेहनत से कमाए पैसों को पानी की तरह बहाती है. तब तो नकुल कुछ नहीं बोलता है, क्योंकि यह उस का जन्मसिद्ध अधिकार है और अगर पति कुछ बोल दे, तो पत्नी उस पर घरेलू हिंसा का आरोप लगा कर थाने तक घसीट ले जाती है. फिर पति और बच्चों के साथ इतनी रोकाटोका क्यों? सोच कर ही नकुल तिलमिला उठता था. लेकिन उस की हिम्मत नहीं होती थी किरण से कुछ पूछने की. इस घर में सिर्फ नकुल और पीहू के लिए ही अनुशासन संचालित था, किरण के लिए नहीं. वह तो आजाद थी अपने हिसाब से अपनी जिंदगी जीने के लिए.

बचपन से ही नकुल ने देखा है, कैसे उस की मां उस के पापा से डरडर कर

जीती थी. हमेशा इस बात का डर लगा रहता था उसे कि जाने किस बात पर नकुल के पापा उस पर भड़क उठेंगे. कभी उस के बनाए खाने को ले कर तो कभी उस के पहनावे और बोलने के ढंग को ले कर नकुल के पापा अपनी पत्नी का अपमान करते रहते थे और वह बेचारी, सिर झकाए सब सुनती यह सोच कर कि शायद वे सही बोल रहे हैं. उसे विश्वास दिला दिया गया था कि वह एक अनपढ़गंवार औरत है, कुछ नहीं आता उसे. अपने पापा के कड़े व्यवहार के कारण ही नकुल 10वीं कक्षा के बाद बाहर पढ़ने निकल गया था.

लेकिन उसे नहीं पता था कि एक दिन उस की जिंदगी भी उस की मां जैसी बन जाएगी. तभी वह कहता अपनी मां से कि वह चुप क्यों रहती है, बोलती क्यों नहीं कुछ? विरोध क्यों नहीं करती उन की बातों का? लेकिन आज उसे समझ में आ रहा है कि घर की शांति भंग न हो, इसलिए एक इंसान चुप लगा जाता है. लेकिन कैसे दूसरा इंसान उस की इस चुप्पी का फायदा उठा जाता है वह भी अच्छे से देख रहा था. नकुल की चुप्पी का ही नतीजा है कि आज उस का परिवार उस से दूर हो गया.

पिछले साल रक्षाबंधन पर कैसे किरण ने नकुल की बहन सिम्मी को यह बोल कर अपने घर आने से रोक दिया था कि नकुल ही वहां चला जाएगा, उसे परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है.

जाते वक्त नकुल को 500 रुपए पकड़ाते हुए कहा था कि बहुत हैं, इन से ज्यादा क्या दोगे. एक ही बहन है उस की और भाई इतने बड़ी कंपनी में काम करता है तो क्या यही दे सकता है वह अपनी एकलौती बहन को? बहुत दुख हुआ था उसे. लेकिन नकुल की मां सब समझती थी तभी तो अपनी तरफ से सिम्मी को उपहार दे कर बात संभाल ली. मगर कब तक? एक न एक दिन तो सब को पता चल ही जाता है न.

किरण के ऐसे डौमिनेटिंग व्यवहार के कारण ही नकुल के परिवार के लोगों ने उस के घर आना बंद कर दिया. नकुल को उस के घर में सब जोरू का गुलाम बुलाते हैं. उन्हें लगता है नकुल अपनी पत्नी से डरता है, जबकि वह उस की इज्जत करता है. मगर क्या किरण यह बात समझेगी कभी? उसे तो सिर्फ लोगों को बेइज्जत करना आता है.

नकुल को जब भी मन होता है अपने परिवार से मिलने वहां खुद चला जाता है, क्योंकि किरण को अपने घर में वे लोग पसंद नहीं. अपने ही घर में नकुल इतना पराया हो गया है कि उसे यह भी फैसला लेने का हक नहीं है कि उस के घर में कौन आ सकता है कौन नहीं, जबकि उस के मायके वाले जब मन हुआ तब आ धमकते हैं. किरण कैसे उन के स्वागत में पानी की तरह पैसे बहाती है. क्या ये सब देख कर नकुल को गुस्सा नहीं आता है? वह खून का घूंट पी कर रह जाता है.

हमेशा जताती है कि अगर वह नकुल की जिंदगी में न आई होती, तो आज वह इस मुकाम पर न होता. इस में भी सारा श्रेय खुद ले कर वह नकुल को जीरो साबित कर देती है. अपने दोस्तों और परिवार वालों के सामने नकुल का आत्मसम्मान, उस का आत्मविश्वास सब टूटने लगा था. जिस तरह से किरण उसे झिड़कती, उसे सच में लगता कि वह कुछ काम का नहीं है.

‘‘हाय, स्ट्रौंग मैन, आप अभी तक यहीं हो?’’ पीछे से किसी का स्पर्श पा कर जब नकुल मुड़ा तो वही बच्चा अपनी मां का हाथ थामे खड़ा मुसकरा रहा था.

‘मैं और स्ट्रौंग’ नकुल ने मन ही मन कहा कि वैसे गलती मेरी भी है. मैं ने खुद को इतना कमजोर बना लिया कि किरण मुझ पर हावी होती चली गई. ‘लाइफ कोच’ के नाम पर वह मेरा शोषण करती रही और मैं करवाता रहा. लेकिन अब नहीं, अब बहुत हो चुका. अब मैं अपना ‘लाइफ कोच’ खुद बनूंगा. अब न तो मैं खुद और न ही अपनी बेटी को किरण के जुल्मों का शिकार बनने दूंगा. अब से मैं वही करूंगा जो मुझे सही लगेगा. अगर उसे पसंद है तो ठीक, वरना हमारे रास्ते अलग होंगे. मन में सोच नकुल ने एक लंबी सांस ली.

Serial Story: अंत भला तो सब भला – भाग 1

माहभर बाद जब ग्रीष्मा अपने स्कूल पहुंची तो पता चला कि पुराने प्रिंसिपल सर का तबादला हो गया है और नए प्रिंसिपल ने 2 दिन पहले ही जौइन किया है. जैसे ही उस ने स्टाफरूम में प्रवेश किया सभी सहकर्मी उस के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए बोले, ‘‘ग्रीष्मा अच्छा हुआ जो तुम ने स्कूल जौइन कर लिया. कम से कम उस माहौल से कुछ देर के लिए ही सही दूर रह कर तुम खुद को तनावमुक्त तो रख पाओगी. आज ही प्रिंसिपल सर ने पूरे स्टाफ से मुलाकात हेतु एक मीटिंग रखी है. तुम भी मिल लोगी वरना बाद में तुम्हें अकेले ही मिलने जाना पड़ता.’’ प्रेयर के बाद अपनी कक्षा में जाते समय जब ग्रीष्मा प्रिंसिपल के कक्ष के सामने से गुजरी तो उन की नेमप्लेट पर नजर पड़ी. लिखा था- ‘‘प्रिंसिपल विनय कुमार.’’

शाम की औपचारिक बैठक के बाद घर जाते समय आज इतने दिनों के बाद ग्रीष्मा का मन थोड़ा हलका महसूस कर रहा था वरना वही बातें… सुनसुन कर उस की तो जीने की इच्छा ही समाप्त होने लगी थी. नए सर अपने नाम के अनुकूल शांत और सौम्य हैं. सोचतेसोचते वह कब घर पहुंच गई उसे पता ही न चला. रवींद्र की अचानक हुई मौत के बाद अब जिंदगी धीरेधीरे अपने ढर्रे पर आने लगी थी. रवींद्र के साथ उस का 10 साल का वैवाहिक जीवन किसी सजा से कम न था. अपने मातापिता की इकलौती नाजों से पलीबढ़ी ग्रीष्मा का जब रवींद्र से विवाह हुआ तो सभी लड़कियों की भांति वह भी बहुत खुश थी. परंतु शीघ्र ही रवींद्र का शराबी और बिगड़ैल स्वभाव उस के सामने उजागर हो गया.

रवींद्र का कपड़ों का पुश्तैनी व्यवसाय था. मातापिता की इकलौती बिगड़ैल संतान थी. शराब ही उस की जिंदगी थी. उस के बिना एक दिन भी नहीं रह पाता था. ग्रीष्मा ने शुरू में बहुत कोशिश की कि रवींद्र की शराब की लत छूट जाए पर बरसों की पड़ी लत उस की जरूरत नहीं जिंदगी बन चुकी थी. अपने तरीके से जीना उस की आदत थी. दुकान बंद कर के देर रात तक यारदोस्तों के साथ मस्ती कर के शराब के नशे में धुत्त हो कर घर लौटना और बिस्तर पर ग्रीष्मा के शरीर के साथ अठखेलियां करना उस का प्रिय शौक था. यदि कभी ग्रीष्मा नानुकुर करती तो मार खानी पड़ती थी.

ऐसे ही 1 माह पूर्व शराब के नशे में एक रात घर लौटते समय रवींद्र की बाइक एक कार से टकरा गई और वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठा. उस की मृत्यु से ग्रीष्मा सहित उस के सासससुर पर जैसे गाज गिर गई. इकलौते बेटे की मृत्यु से उन का खानापीना सब छूट गया. नातेरिश्तेदार अपना शोक जता कर 13 दिनों के बाद 1-1 कर के चले गए. रवींद्र के जाने के बाद ग्रीष्मा ने अपने बिखरे परिवार को संभालने में पूरी ताकत लगा दी. मातापिता के लिए इकलौते बेटे का गम भुलाना आसान नहीं होता. संतान जिस दिन जन्म लेती है मातापिता उसी दिन से उस के साथ रोना, हंसना और जीना सीख लेते हैं और उस के साथ भविष्य के सुनहरे सपने बुनने लगते हैं पर जब जीवन के एक सुखद मोड़ पर अचानक वही संतान साथ छोड़ देती है तो मातापिता तो जीतेजी ही मर जाते हैं.

कहने के लिए तो रवींद्र उस का पति था, परंतु रवींद्र के दुर्व्यवहार के कारण उस के प्रति प्रेम जैसी भावना कभी जन्म ही नहीं ले पाई. रवींद्र से अधिक तो उसे अपने सासससुर से प्यार था. उन्होंने उसे सदैव बहू नहीं, बल्कि एक बेटी सा प्यार दिया. अपने बेटे रवींद्र के आचरण का वे भले ही प्रत्यक्ष विरोध न कर पाते थे, परंतु जानते सब थे और इसीलिए सदैव मन ही मन अपराधबोध से ग्रस्त हो कर अपने प्यार से उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी. इसलिए रवींद्र के जाने के बाद अब वे उस की ही जिम्मेदारी थे. बड़ी मुश्किल से पोते कुणाल का वास्ता देदे कर उस ने उन्हें फिर से जीना सिखाया.

रवींद्र की मृत्यु के बाद आज पहली बार वह स्कूल गई थी. सासससुर ने ही उस से कहा, ‘‘बेटा, घर में रहने से काम नहीं चलेगा… जाने वाला तो चला गया अब तू ही हमारा बेटा, बेटी, और बहू है. तू अपनी नौकरी जौइन कर ले. दुकान तो हम दोनों संभाल लेंगे.’’ ग्रीष्मा विवाह से पहले एक स्कूल में पढ़ा रही थी और पति ने उसे रोका नहीं था. किचन का काम समाप्त कर के वह जब बिस्तर पर लेटी तो बारबार मन सुबह की मीटिंग में हुई प्रिंसिपल सर की बातों पर चला गया. न जाने क्या था उन के व्यक्तित्व में कि ग्रीष्मा का मन उन के बारे में सोच कर ही प्रफुल्लित हो उठता.

एक दिन स्कूल से घर के लिए निकली ही थी कि झमाझम बारिश शुरू हो गई. स्कूटी खराब होने के कारण वह उस दिन रिकशे से ही आई थी. बारिश रुकने के इंतजार में वह एक पेड़ के नीचे खड़ी हो गई. तभी विनय सर की गाड़ी उस के पास आ कर रुकी, ‘‘मैडम, आइए मैं आप को घर छोड़ देता हूं,’’ कह कर उन्होंने अपनी गाड़ी का दरवाजा खोल दिया.

‘‘नहींनहीं सर मैं चली जाऊंगी. आप परेशान न हों,’’ कह कर ग्रीष्मा ने उन्हें टालने की कोशिश की.

मगर वे फिर बोले, ‘‘मान भी जाइए मैडम, बारिश बहुत तेज है. आप भीग कर बीमार हो जाएंगी और फिर कल लीव की ऐप्लिकेशन भेज देंगी.’’ ग्रीष्मा चुपचाप गाड़ी में बैठ गई.

गाड़ी में पसरे मौन को तोड़ते हुए विनय सर ने कहा, ‘‘मैडम, आप कहां रहती हैं? कौनकौन हैं आप के घर में?’’

‘‘सर यहीं अरेरा कालोनी में अपने सासससुर और एक 10 वर्षीय बेटे के साथ रहती हूं.’’ ‘‘आप के पति?’’

‘‘सर अभी 1 माह पूर्व ही उन का देहांत हो गया,’’ ग्रीष्मा ने दबे स्वर में कहा. यह सुन विनय सर लगभग हड़बड़ाते हुए बोले, ‘‘ओह सौरी… आई एम वैरी सौरी.’’

‘‘अरे नहींनहीं सर इस में सौरी की क्या बात है… आप को तो पता नहीं था न, तो पूछना जायज ही है. सर… आप के परिवार में… कहतेकहते ग्रीष्मा रुक गई.’’ ‘‘मैडम मैं तो अकेला फक्कड़ इंसान हूं. विवाह हुआ नहीं और मातापिता एक दुर्घटना में गुजर गए. बस अब मैं और मेरी तन्हाई,’’ कह कर विनय सर एकदम शांत हो गए.

‘‘जी सर…बसबस सर यहीं उतार दीजिए. वह सामने मेरा घर है,’’ सामने दिख रहे घर की ओर इशारा करते हुए ग्रीष्मा ने कहा.

आगे पढ़ें- एक दिन जैसे ही ग्रीष्मा स्कूल पहुंची, चपरासी…

Serial Story: कोई अपना – भाग 3

उन के जाने के बाद मेरा क्रोध पति पर उतरा, ‘‘आप ही बांध लेना इसे, मुझे नहीं पहनना इसे.’’ ‘‘अरे बाबा, 2-3 सौ रुपए की साड़ी होगी, किसी बहाने कीमत चुका देंगे. तुम तो बिना वजह अड़ ही जाती हो. इतने प्यार से कोई कुछ दे तो दिल नहीं तोड़ना चाहिए.’’

‘‘यह प्यारव्यार सब दिखावा है. आप से कर्ज लिया है न उन्होंने, उसी का बदला उतार रहे होंगे.’’ ‘‘50 हजार रुपए में न बिकने वाला क्या 2-3 सौ रुपए की साड़ी में बिक जाएगा? पगली, मैं ने दुनिया देखी है, प्यार की खुशबू की मुझे पहचान है.’’

मैं निरुत्तर हो गई. परंतु मन में दबा अविश्वास मुझे इस भाव में उबार नहीं पाया कि वास्तव में कोई बिना मतलब भी हम से मिल सकता है. वह साड़ी अटैची में कहीं नीचे रख दी, ताकि न वह मुझे दिखाई दे और न ही मेरा जी जले. समय बीतता रहा और इसी बीच ढेर सारे कड़वे सत्य मेरे स्वभाव पर हावी होते रहे. बेरुखी और सभी को अविश्वास से देखना कभी मेरी प्रकृति में शामिल नहीं था. मगर मेरे आसपास जो घट रहा था, उस से एक तल्खी सी हर समय मेरी जबान पर रहने लगी. मेरे भीतर और बाहर शीतयुद्ध सा चलता रहता. भीतर का संवेदनशील मन बाहर के संवेदनहीन थपेड़ों से सदा ही हार जाता. धीरेधीरे मैं बीमार सी भी रहने लगी, वैसे कोई रोग नहीं था, मगर कुछ तो था, जो दीमक की तरह चेतना को कचोट और चाट रहा था.

एक सुबह जब मेरी आंख अस्पताल में खुली तो हैरान रह गई. घबराए से पति पास बैठे थे. मैं हड़बड़ा कर उठने लगी, मगर शरीर ने साथ ही नहीं दिया.

‘‘शालिनी,’’ पति ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘अब कैसी हो?’’ मुझे ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा था. पति की बढ़ी दाढ़ी बता रही थी कि उन्होंने 2-3 दिनों से हजामत नहीं बनाई.

‘‘शालिनी, तुम्हें क्या हो गया था?’’ पति ने हौले से पूछा. मैं खुद हैरान थी कि मुझे क्या हो गया है? बाद में पता चला कि 2 दिन पहले सुबह उठी थी, लेकिन उष्ण रक्तचाप से चकरा कर गिर पड़ी थी.

‘‘बच्चों को तो नहीं बुला लिया?’’ मैं ने पति से पूछा. ‘‘नहीं, उन के इम्तिहान हैं न.’’

‘‘अच्छा किया.’’ ‘‘सुनीलजी, अब आप घर जा कर नहाधो लीजिए, हम भाभीजी के पास बैठेंगे. आप चिंता मत कीजिए, अब खतरे की कोई बात…’’ किसी का स्वर कानों में पड़ा तो मेरी आंखें खुलीं.

‘‘अरे, भाभीजी को होश आ गया,’’ स्वर में एक उल्लास भर आया था, ‘‘भाईसाहब, मैं अभी उर्मि को फोन कर के आता हूं.’’ वह युवक बाहर निकल गया, पर मैं उसे पहचान न सकी.

‘‘तुम ने तो मुझे डरा ही दिया था. ऐसा लग रहा था, इतने बड़े संसार में अकेला हो गया हूं. बच्चों के इम्तिहान चल रहे हैं, उन्हें बुला नहीं सकता था और इस अजनबी शहर में ऐसा कौन था जिस पर भरोसा करता,’’ पति ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. मेरी आंखों के कोर भीग गए थे. ऐसा लगा मेरा अहं किसी कोने से जरा सा संतुष्ट हो गया है. सोचती थी, पति की जिंदगी में मेरी जरूरत ही नहीं रही. जब उन्हें रोते देखा तो लगा, मेरा अस्तित्व इतना भी महत्त्वहीन नहीं है.

मैं 2 दिन और अस्पताल में रही. इस बीच वह युवक लगातार मेरे पति की सहायता को आता रहा.

जब अस्पताल से लौटी तो कल्पना के विपरीत मेरा घर साफसुथरा था. शरीर में कमजोरी थी, मगर मन स्वस्थ था, जिस का सहारा ले कर मैं ने पति से ठिठोली की, ‘‘मुझे नहीं पता था, तुम घर की देखभाल भी कर सकते हो.’’ ‘‘यह सब उर्मि ने किया है. सचमुच अगर वे लोग सहारा न देते तो पता नहीं क्या होता.’’

‘‘उर्मि कौन?’’ ‘‘वही पतिपत्नी जो तुम्हें एक बार साड़ी उपहार में दे गए थे…’’

‘‘क्या?’’ मैं अवाक रह गई. ‘‘पता नहीं, किस ने उन्हें बताया कि तुम अस्पताल में हो. दोनों सीधे वहीं पहुंच गए. तुम्हें खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी, उर्मि ने ही अपना खून दिया. मैं उस का ऋण जीवन में कभी नहीं चुका सकता.

‘‘वही हमारे घर को भी संभाले रही. आज सुबह ही अपने घर वापस गई है. शायद, दोपहर को फिर आएगी.’’ ‘‘और उस का बुटीक?’’

‘‘वह तो कब का बंद हो चुका है. उस के ससुर उन दोनों को अपने घर ले गए हैं. बैंक का कर्ज तो उन्होंने कब का वापस दे दिया. वे तो बस प्यार के मारे हमारा हालचाल पूछने आए थे. और हमें हमेशा के लिए अपना ऋणी बना गए.’’ अनायास मैं रो पड़ी और सोचने लगी कि मेरे पति ठीक ही कहते थे कि हमें तो बस अपना काम ईमानदारी से करना है. अच्छे लोग मिलें या बुरे, ईमानदार हों या बेईमान, बस, उन का हमारे चरित्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. कुछ लोग हमें खरीदना चाहते हैं तो कुछ आदर दे कर मांबाप का दरजा भी तो देते हैं. इस संसार में हर तरह के लोग हैं, फिर हम उन की वजह से अपना स्वभाव क्यों बिगाड़ें, क्यों अपना मन भारी करें?

‘‘तुम्हारे कपड़े निकाल देता हूं, नहाओगी न?’’ पति के प्रश्न ने चौंका दिया. मैं वास्तव में नहाधो कर तरोताजा होना चाहती थी. मैं ने अटैची से वही गुलाबी साड़ी निकाली, जिसे पहले खोल कर भी नहीं देखा था.

दोपहर को उर्मि हमारा दोपहर का भोजन ले कर आई. मैं समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उस का स्वागत करूं. ‘‘अरे, आप कितनी सुंदर लग रही हैं,’’ उस ने समीप आ कर कहा. फिर थोड़ा रुक गई, संभवतया मेरा रूखा व्यवहार उसे याद आ गया होगा.

मैं समझ नहीं पाई कि क्यों रो पड़ी. उस प्यारी सी युवती को मैं ने बांह से पकड़ कर पास खींचा और गले से लगा लिया.

‘‘आप को दीदी कह सकती हूं न?’’ उस ने हौले से पूछा. ‘‘अवश्य, अब तो खून का रिश्ता भी है न,’’ मेरे मन से एक भारी बोझ उतर गया था. ऐसा लगा, वास्तव में कोई अपना मिल गया है. सस्नेह मैं ने उस का माथा चूम लिया.

फिर उस ने मुझे और मेरे पति को खाना परोसा. ‘‘तुम्हारी ससुराल वाले कैसे हैं?’’ मैं ने धीरे से पूछा तो वह उदास सी हो गई.

‘‘संसार में सब को सबकुछ तो नहीं मिल जाता न, दीदी. सासससुर तो बहुत अच्छे हैं, परंतु मेरे मांबाप आज तक नाराज हैं. मैं तरस जाती हूं किसी ऐसे घर के लिए जिसे अपना मायका कह सकूं.’’ ‘‘मैं…मैं हूं न, इसी घर को अपना मायका मान लो, मुझे बहुत प्रसन्नता होगी.’’

सहसा उर्मि मेरी गोद में सिर रख कर रो पड़ी. मेरे पति पास खड़े मुसकरा रहे थे. उस के बाद उर्मि हमारी अपनी हो गई. उस घटना को 8 साल बीत गए हैं. हमारा स्थानांतरण 2 जगह और हुआ. फिर से अच्छेबुरे लोगों से पाला पड़ा, परंतु मेरा मन किसी से बंधा नहीं. उर्मि आज भी मेरी है, मेरी अपनी है. मैं अकसर यह सोच कर स्नेह और प्रसन्नता से सराबोर हो जाती हूं कि निकट संबंधियों के अलावा इस संसार में मेरा कोई अपना भी है.

Serial Story: लाइफ कोच – भाग 3

‘‘नकुल, देखो, मैं ने तुम्हारे कपड़े, दवाइयां वगैरह अटैची में रख दिए हैं,’’ औफिस के कामों से मुंबई जाते समय किरण उसे एक छोटे बच्चे की तरह समझ रही थी और नकुल ‘ठीक है, ठीक है’ कहता जा रहा था.

‘‘कुछ समझ भी रहे हो या यों ही ‘ठीक है, ठीक है’ कहते जा रहे हो? फिर वहां से फोन कर दसों बार पूछोगे कि कौन सी चीज कहां रखी है,’’ किरण झिड़कते हुए बोली थी.

‘‘हां किरण, मैं सब समझ गया कि तुम ने कौन सी चीज कहां रखी है… नहीं भूलूंगा. लेकिन एक बात कहूं किरण? कम से कम मेरे दोस्तों के सामने ऐसा तो मत जाहिर किया करो कि तुम्हारे बिना मेरा काम नहीं चलता… मुझे कुछ नहीं आता. मैं तुम्हारे ही भरोसे हूं. अच्छा नहीं लगता है न?’’

‘‘ओह… कल की बात का बुरा मान गए,’’ किरण ने अपनी आंखें नचाईं, ‘‘तो क्या हो गया बोल दिया तो,’’ अटैची की चेन लगाते हुए किरण बोली, ‘‘वैसे, क्या गलत बोल दिया मैं ने? तुम्हें एक कपड़ा तक तो ठीक से खरीदना नहीं आता है और चले थे शौपिंग करने. देखा है मैं ने, कुछ भी उठा कर ले आते हो और फिर पैसे की बरबादी होती है. अच्छा चलो, छोड़ो वे सब. मुंबई पहुंचते ही फोन करना मत भूलना और सुनो, ध्यान रखना अपना, क्योंकि वहां मैं नहीं होऊंगी तुम्हारे साथ, समझे? और सुनो, बाहर का कुछ भी खानेपीने मत लगना, देख रहे हो न बीमारी फैली हुई है. और सुनो…’’

‘‘अच्छा भई, हो गया अब, जाने दो न,’’ खीजते हुए नकुल बोला. उसे लग रहा था जितनी जल्दी हो सके घर से निकल जाए. नहीं तो किरण बारबार उसे समझती रहेगी और फिर वह सब भूल जाएगा.

नकुल के घर से निकलतेनिकलते भी किरण ने 2-4 और नसीहतें और दे

डाली थीं, जिन से वह अंदर से तिलमिला उठा था. पर कुछ बोल  नहीं पाया और बाय कह कर घर से निकल गया. नकुल की चुप्पी का ही नतीजा था कि किरण इतना सिर चढ़ बोलने लगी थी. उसे लगता एक वही है जो घर में सब से बुद्धिमान इंसान है, एक वही है जिसे दुनियादारी की सारी समझ है नकुल तो बेवकूफ है. कुछ नहीं आता उसे. वह न आई होती उस की जिंदगी में, तो जाने उस का क्या हुआ होता, जैसे विचार उस के मन में पलते रहते थे. लेकिन उसे नहीं पता कि नकुल उस के जीवन में वह कुछ साल पहले आई है, उस से पहले वह खुद ही खुद की देखभाल करता था और आज जो वह इतने बड़े पोस्ट पर है, किरण की वजह से नहीं, बल्कि खुद की काबिलीयत के बल पर है.

लोग जो उस के कामों की तारीफ करते हैं, वह किरण की वजह से नहीं, बल्कि ये सब उस की मेहनत के कारण है, जो लोग उस का लोहा मानते हैं वरना कई ऐसे लोग हैं औफिस में जो मुंबई आना चाह रहे थे. मगर बौस ने इस काम के लिए नकुल को चुना, क्योंकि वही है जो इतनी बड़ी मीटिंग हैंडल कर सकता था.

नकुल अभी एअरपोर्ट से बाहर निकला ही था कि उस का फोन घनघना उठा. देखा, तो किरण का फोन था, ‘‘हां, बोलो’’ एक हाथ से अपना बैग पकड़े और दूसरे हाथ से वह टैक्सी को इशारा कर ही रहा था कि फोन उस के हाथ से गिरतेगिरते बचा, ‘‘रुको, मैं तुम्हें कौलबैक करता हूं,’’ कह कर नकुल ने फोन काट दिया और टैक्सी को आवाज देने लगा. रास्ते में कई बार उस के बौस का फोन आया, तो उन से काम और होने वाली मीटिंग के बारे में डिसकस करते हुए नकुल को याद ही नहीं रहा कि उसे किरण को फोन भी करना था.

होटल पहुंच कर जब उस ने अपना फोन चैक किया तो किरण के कई मिस्ट थे, ‘अरे, यार किरण को फोन करना तो भूल ही गया’ सोच कर ही नकुल का डर के मारे खून सूख गया कि कैसे वह किरण को फोन करना भूल गया और अब उस की खैर नहीं. दरअसल, मीटिंग के दौरान उस ने अपना फोन साइलैंट मोड पर रख दिया था, जिस के कारण उसे पता ही नहीं चला. खैर, हड़बड़ा कर अभी वह उसे फोन मिला ही रहा था कि उस के बौस का फोन आ गया यह पूछने के लिए कि मीटिंग कैसी रही? उन से बातें कर अभी वह किरण को फोन लगा ही रहा था कि फिर से उस का फोन आ गया तो बोला, ‘‘किरण मैं अभी तुम्हें ही फोन लगा रहा था. वह क्या है कि…’’ नकुल ने सफाई देनी चाही.

मगर वह फोन पर ही चीखने लगी, ‘‘पता था मुझे तुम यही करोगे. वहां जाते ही बेपरवाह हो जाओगे. भुल्लकड़ कहीं के. कब से… कब से मैं फोन लगा रही हूं. पर फोन बिजी ही आ रहा था. किस से बात कर रहे थे इतनी देर तक कि तुम्हें मुझे फोन करना भी याद नहीं आ रहा? बोलो, बोलते क्यों नहीं?’’ वह फोन पर ही इतना चीखने लगी कि नकुल का माथा झनझना उठा. एक तो वह खुद ही मीटिंग के कारण थक कर चूर हो चुका था. ऊपर से यह किरण कुछ समझती ही नहीं है. मन तो किया उस का कि अच्छे से समझ दे कि वह यहां होटल में ऐश करने नहीं आया है, बल्कि यहां औफिस के जरूरी काम से आया हुआ है. लेकिन उस ने केवल सौरी बोल कर फोन रख दिया, क्योंकि उसे समझने का कोई फायदा नहीं.

किरण के मुंह से कड़वी बातें सुनना नकुल के लिए कोई नई बात नहीं थी, बल्कि वह तो अब इस का आदी हो चुका था. रात में कितनी देर तक नकुल को नींद नहीं आई. बारबार उसे अपनी बेटी का चेहरा याद आ रहा था. वह फोन पर कैसे सिसकते हुए बोल रही थी कि मम्मी ने उसे मारा, क्योंकि उस ने पिज्जा खाने की जिद की थी इसलिए.

‘‘बेटा, कोई बात नहीं, जब मैं वहां आऊंगा न तब हम साथ में पिज्जा खाने चलेंगे, ओके? तो अब रोना बंद करो और मम्मी जो कहती है वही करो वरना फिर मारेगी वह तुम्हें. मेरा प्यारा बच्चा, मेरी परी, मानोगी न मेरी बात?’’ फोन पर जब नकुल ने बेटी को पुचकारा, तब जा कर वह चुप हुई. मन तो किया नकुल कि पूछे किरण से, क्यों उस ने पीहू को मारा? क्या प्यार से नहीं समझ सकती थी उसे? मारना जरूरी था? मगर क्या फायदा. वह तो वही करेगी जो उसे ठीक लगेगा उजटे और नकुल का गुस्सा भी पीहू पर ही उतार देगी.

आगे पढ़ें- अभी नकुल खाना खा कर सोने ही जा रहा था कि…

Serial Story: कोई अपना – भाग 2

चंद क्षणों के बाद उस युवक ने पूछा, ‘‘सुनीलजी कितने बजे तक आ जाते हैं?’’ ‘‘कोई निश्चित समय नहीं है. वैसे अच्छा होगा, आप उन से कार्यालय में ही मिलें. ऐसा है कि वे घर पर किसी से मिलना पसंद नहीं करते.’’

‘‘जी, औफिस में उन के पास समय ही कहां होता है.’’ ‘‘इस विषय में मैं आप की कोई भी मदद नहीं कर सकती. बेहतर होगा, आप उन से वहीं मिलें,’’ ढकेछिपे शब्दों में ही सही, मैं ने उन्हें फिर वह कहानी दोहराने से रोक दिया जिस की टीस अकसर मेरे मन में उठती रहती थी.

वे दोनों अपना सा मुंह ले कर चले गए. उन के इस तरह उदास हो कर जाने पर मुझे दुख हुआ, परंतु क्या करती? शाम को पति को सब सुनाया तो वे हंस पड़े, ‘‘ऐसा कहने की क्या जरूरत थी, उन की नईनई शादी हुई है. प्रेमविवाह किया है. दोनों के घर वालों ने कुछ नहीं दिया. सो, कर्ज ले कर कोई काम शुरू करना चाहता है. घर चला आया तो हमारा क्या ले गया. तुम प्यार से बात कर लेतीं, तो कौन सा नुकसान हो जाता?’’

‘‘लेकिन काम हो जाने के बाद तो ये मजे से अपना पल्ला झटक लेंगे.’’ ‘‘झटक लें, हमारा क्या ले जाएंगे. देखो शालिनी, हम समाज से कट कर तो नहीं रह सकते. मैं बैंक अधिकारी हूं, मुझ से तो वही लोग मिलेंगे, जिन्हें मुझ से काम होगा. अब क्या हम किसी के साथ हंसेंबोलें भी नहीं? कोई आता है या बुलाता है तो इस में कोई खराबी नहीं है. बस, एक सीमारेखा खींचनी चाहिए कि इस के पार नहीं जाना. भावनात्मक नाता बनाने की कोई जरूरत नहीं है. यों मिलो, जैसे हजारों जानने वाले मिलते हैं. इतनी मीठी भी न बनो कि कोई चट कर जाए और इतनी कड़वी भी नहीं कि कोई थूक दे.’’

मेरे पति ने व्यावहारिकता का पाठ पढ़ा दिया, जो मेरी समझ में तो आ गया, मगर भावुकता से भरा मन उसे सहज स्वीकार कर पाया अथवा नहीं, समझ नहीं पाई.

एक शाम एक दंपती हमारे यहां आए. बातचीत के दौरान पत्नी ने कहा, ‘‘अब आप कार क्यों नहीं ले लेते.’’ ‘‘कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई. जब लगेगा कार होनी चाहिए तब ले लेंगे,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘फिर भी भाभीजी, भाईसाहब बैंक में उच्चाधिकारी हैं, स्कूटर पर आनाजाना अच्छा नहीं लगता.’’ ‘‘क्यों, हमें तो बुरा नहीं लगता. कृपया आप विषय बदल लीजिए. हमारी जिंदगी में दखल न ही दें तो अच्छा है.’’

बच्चे बाहर पढ़ रहे थे, जिस वजह से कमरतोड़ खर्चा बड़ी मुश्किल से हम सह रहे थे. ईमानदार इंसान इन सारे खर्चों के बीच भला कहां कार और अन्य सुविधाओं के विषय में सोच सकता है. उस पर तुर्रा यह कि कोई आ कर यह जता जाए कि अब हमें स्कूटर शोभा नहीं देता, तो भला कैसे सुहा सकता है. एक बार तो कमाल ही हो गया. हमें किसी के जन्मदिन की पार्टी में जाना पड़ा. मेजबान ने मुझे घर की मालकिन से मिलाया, ‘‘आप सुनीलजी की पत्नी हैं और ये हैं मेरी पत्नी सुलेखा.’’ कीमती जेवरों से लदी आधुनिका मुझे देख ज्यादा प्रसन्न नहीं हुईं. फीकी सी मुसकान से मेरा स्वागत कर अन्य मेहमानों में व्यस्त हो गईं. पति को तो 2-3 लोगों ने बैंक की बातों में उलझा लिया, लेकिन मैं अकेली रह गई. चुपचाप एक तरफ बैठी रही. अचानक हाथ में गिलास थामे एक आदमी ने कहा, ‘‘आप सुनीलजी की पत्नी हैं?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने उत्तर दिया. ‘‘भाभीजी, आप से एक बात करनी थी…जरा सुनीलजी को समझाइए न, पूरे 50 हजार रुपए देने को तैयार हूं. आप कहिए न, मेरा काम हो जाएगा. अरे, ईमानदारी से रोटी ही चलती है, बस? आखिर वे कितना कमा लेते होंगे, यही 14-15 हजार…कितनी बार कहा है, हम से हाथ मिला लें…’’

मैं उस धूर्त व्यापारी को जवाब दिए बगैर ही वहां से उठ खड़ी हुई थी. मेरे पति पूरी बात सुन कर हैरान रह गए. मैं ने तनिक गुस्से से कहा, ‘‘आज के बाद ऐसी पार्टियों में मत ले जाना. मेरा वहां दम घुटता है.’’ ‘‘कोई बात नहीं, शालिनी, तुम एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो. आजकल हर तीसरा इंसान बिकाऊ है. शायद वह सोचता होगा, तुम से बात कर के उस का काम आसान हो जाएगा.’’

मैं रो पड़ी थी. फिर कितने दिन सामान्य नहीं हो पाई थी. इसी बीच फिर खाने का दावतनामा मिला तो मैं ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘उन लोगों ने हम दोनों को खासतौर पर बुलाया है. छोटा सा काम शुरू किया है, उसी खुशी में.’’ ‘‘मुझे किसी के काम से क्या लेनादेना है, आप ही चले जाइए.’’

‘‘ऐसा नहीं सोचते, शालिनी, वे हमारा इतना मान करते हैं, सभी एकजैसे नहीं होते.’’

पति ने बहुत जिद की थी, मगर मैं टस से मस न हुई. वे अकेले ही चले गए. जब पति 2 घंटे बाद लौटे तो कोई साथ था.

‘‘नमस्ते, भाभीजी,’’ एक नारी स्वर कानों में पड़ा, सामने एक युवा जोड़ा खड़ा था. ऐसा लगा, इस से पहले कहीं इन से मिल चुकी हूं. ‘‘आप हमारे घर नहीं आईं, इसलिए सोचा, हम ही आप से मिल आएं,’’ महिला ने कहा.

‘‘बैठिए,’’ मैं ने सोफे की तरफ इशारा किया. उस के हाथ में रंगदार कागज में कुछ लिपटा था, जिसे बढ़ कर मेरे हाथ में देने लगी. मुझे लगा, बिच्छू है उस में, जो मुझे डस ही जाएगा. मैं ने जरा तीखी आवाज में कहा, ‘‘नहींनहीं, यह सब हमारे यहां…’’

‘‘यह मेरे बुटीक की पहली पोशाक है. हमारे मांबाप ने तो हमें दुत्कार ही दिया था. लेकिन सुनील भाईसाहब की कृपा से हमें कर्ज मिला और छोटा सा काम खोला. हमें आप लोगों का बहुत सहारा है, आप ही अब हमारे मांबाप हैं. कृपया मेरी यह भेंट स्वीकार करें,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी. मैं भौचक्की सी रह गई कि पत्थरों के इस शहर में कोई रो भी रहा है. वह कड़वाहट जिसे मैं पिछले कई सालों से ढो रही थी, क्षणभर में ही न जाने कहां लुप्त हो गई.

‘‘भाभीजी, आप इसे स्वीकार कर लें, वरना इस का दिल टूट जाएगा,’’ इस बार उस के पति ने बात संभाली. मैं ने उस के हाथ से पैकेट ले कर खोला, उस में गुलाबी रंग की कढ़ाई की हुई सफेद साड़ी थी.

‘‘आप घर नहीं आईं, इसलिए हम स्वयं ही देने चले आए. आप इसे पहनेंगी न?’’ ‘‘हांहां, जरूर पहनूंगी, मगर इस की कीमत कितनी है?’’

‘‘वह तो हम ने लगाई ही नहीं, आप पहन लेंगी तो कीमत अपनेआप मिल जाएगी.’’ ‘‘नहींनहीं, भला ऐसा कैसे होगा,’’ फिर मेरा स्वर कड़वा होने लगा था. मैं कुछ और भी कहती, इस से पहले मेरे पति ने ही वह साड़ी ले कर मेज पर रख दी, ‘‘हमें यह साड़ी पसंद है, शालिनी इसे अवश्य पहनेगी. और गुलाबी रंग तो इसे बहुत प्रिय है.’’

आगे पढ़ें- मैं निरुत्तर हो गई. परंतु मन में दबा…

Serial Story: लाइफ कोच – भाग 2

हंसते वक्त किरण के बायां गाल पर पड़़ते गड्ढे देख नकुल दीवाना हो जाता था.

सिर्फ यही नहीं, किरण की हर एक अदा पर नकुल दीवाना हो जाता था.

लेकिन नकुल की कुछ आदतों पर मुंह बना कर किरण कभीकभार उसे ?िड़क भी देती थी, ‘‘शादी हो जाने दो हमारी, फिर देखना कैसे बनती हूं मैं तुम्हारी लाइफ कोच… मैनर्स में रहना सिखाऊंगी मैं तुम्हें.’’

उस की बातों पर हंसते हुए नकुल ने बोला, ‘‘अब इतनी सुंदर ‘लाइफ कोच’ किसे नहीं चाहिए. मेरा तो जीवन ही सफल हो जाएगा.’’

नकुल को अच्छा लगता था किरण का उसे यों रोकनाटोकना या डांट लगाना. उसे लगता किरण उस से बहुत ज्यादा प्यार करती है तभी तो हक से उसे रोकतीटोकती है.

‘‘हां, तुम्हारा जीवन बहुत जल्दी सफल हो जाता है, अब चलो,’’ हंसते हुए नकुल के बगल वाली सीट पर बैठते हुए किरण बोली, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो? क्या तुम्हारे ऊपर मेरा अधिकार नहीं?’’

उस की बात पर नकुल ने उस के गाल पर एक किस करते हुए इस बात की मुहर लगा दी कि बिलकुल उस का अधिकार है.

2 साल तक रिलेशनशिप में रहने के बाद अपने मातापिता के आशीर्वाद से दोनों एक हो गए. शादी के बाद उन की जिंदगी ऐसी लगने लगी जैसे सतरंगी आकाश. बस रोमांस ही रोमांस था उन की जिंदगी में और कुछ नहीं.

शादी के 1 साल बाद ही पीहू ने उन की जिंदगी में आ कर और रोशनी बिखेर दी. पीहू को कुछ महीने तक तो उस की नानीदादी ने संभाला. पर अब उन के लिए भी यहां रहना संभव नहीं था. इसलिए किरण ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया ताकि पीहू को एक अच्छी परवरिश दे सके. सोचा, जब पीहू थोड़ी बड़ी हो जाएगी तब वह फिर से जौब करने लगेगी.

लेकिन ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि पीहू हमेशा बीमार रहने लगी थी. वह जन्म से ही कमजोर बच्ची थी और डाक्टर का कहना था कि उसे चौबीसों घंटे एक आदमी की जरूरत है जो उस की अच्छी तरह देखभाल कर सके और मां से बेहतर एक बच्चे की देखभाल तो कोई कर ही नहीं सकता, इसलिए किरण ने जौब न करने का फैसला ले लिया. धीरेधीरे पीहू तंदुरुस्त होने लगी. लेकिन फिर किरण का जौब करने का मन ही नहीं हुआ, क्योंकि अब वह अपना पूरा वक्त अपने घरपरिवार पर देना चाहती थी.

नकुल औफिस के साथ बाहर का भी काम संभालता और किरण घर के साथ अपनी बेटी पीहू का भी ध्यान रखती. सबकुछ व्यवस्थित चल रहा था जिंदगी में. वैसे तो किरण की शुरू से ही आदत थी हर बात पर टोकाटाकी करने की जिसे नकुल बुरा भी नहीं मानता था. लेकिन पीहू के जन्म के बाद से ये सब कुछ ज्यादा ही होने लगा था. किरण का दूसरा ही रूप नकुल के सामने आने लगा था. बातबात पर वह उसे झड़प देती. लोगों के सामने ही उसे अपमानित करने लगती. उस के लाए सामान में मीनमेख निकालती और गुस्सा तेज होता तो सामान उठा कर फेंकने लगती थी.

इस पर भी नकुल उस की बातों का बुरा नहीं मानता था. सोचता जब शांत होगी तब खुदबखुद अपनी गलती का एहसास हो जाएगा. लेकिन नकुल गलत था, क्योंकि किरण को कभी अपनी गलती का एहसास हुआ ही नहीं. उसे तो यही लगता वह सही है और बाकी सब गलत.

दिनबदिन किरण का व्यवहार अपने पति और बेटी के प्रति सख्त होता जा रहा था. किसी न किसी बात को ले कर वह घर में हंगामा खड़ा कर देती और फिर बिना गलती के ही नकुल को सौरी बोलना पड़ता ताकि घर में शांति बनी रहे.

नकुल को घर में चप्पलें पहन कर चलना बिलकुल भी पसंद नहीं था. लेकिन उसे पहननी पड़ती थीं, क्योंकि किरण ऐसा चाहती थी. खाना खाने के समय मुंह से आवाज न करना, औफिस से आते ही अपने जूतेकपड़े सही जगह रखना, लोगों के सामने उतना ही बोलना, जितना किरण आंखों से इशारा करे, घर में दोस्तरिश्तेदारों को बुलाने से पहले किरण की अनुमति लेना, ये सारे रूल्स उस ने बना रखे थे जिन्हें नकुल को फौलो करना ही पड़ता था. किरण सफाई के मामले में कुछ ज्यादा ही सनकी थी. कोई गंदे पैर बिस्तर पर नहीं चढ़ सकता था. अगर कभी किसी ने ऐसी गलती कर दी तो समझ लो उस की खैर नहीं.

औफिस से आते हुए जब नकुल किरण को किचन में काम करते

देखता, तो रोमांटिक होते हुए उसे पीछे से पकड़ लेता था. तब किरण कैसे उसे धकेल देती और कहती, ‘‘उफ, दूर हटो… पहले बाथरूम से फ्रैश हो कर आओ, तब तक मैं खाना लगाती हूं.’’

उस के ऐसे व्यवहार से नकुल के रोमांटिक मूड की ऐसी की तैसी हो जाती थी. फिर उस का मन ही नहीं करता किरण के करीब जाने का. कभी बाथरूम में भीगे तौलिए को ले कर, तो कभी अपना सामान सही जगह न रखने को ले कर, तो कभी बाजार से सामान लाने को ले कर किरण उसे सुनाती ही रहती थी. यहां तक कि नकुल के बढ़ते वजन पर उसे एतराज होने लगा था. नकुल को हाई बीपी की शिकायत थी इसलिए किरण अपने हिसाब से उस के लिए डाइट फूड तैयार करती थी कम तेलमसाला वाला.

नकुल को ‘ग्रीन टी’ पीना जरा भी पसंद नहीं था. लेकिन उसे पीनी पड़ती थी क्योंकि किरण ऐसा चाहती थी. हर दूसरेतीसरे दिन नौनवैज खाने वाले नकुल की उस पर भी पाबंदी लगा दी गई. अब उबला मटनचिकन और अंडे कैसे कोई खा सकता है भला? इसलिए नकुल ने नौनवैज खाना ही छोड़ दिया. वह सबकुछ इसलिए कर रहा था ताकि किरण खुश रहे. लेकिन फिर भी किरण को उस से कोईनकोई शिकायत लगी ही रहती थी. बिंदास किस्म का इंसान था नकुल, किरण के ऐसे व्यवहार से वह दुखी रहने लगा था.

किरण के तानाशाह व्यवहार के कारण जब नकुल को अपना घर ही जेल लगने लगता, तो वह कहीं बाहर निकल जाता. खीज उत्पन्न होती यह सोच कर कि वह किरण के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया है. सिर्फ वही नहीं, बल्कि 11 साल की पीहू भी हमेशा अपनी मां से डरीसहमी रहती थी. वह कितनी देर टीवी या मोबाइल देख सकती है, वह अपने दोस्तों के साथ खेल सकती है या नहीं और कौनकौन उस के दोस्त बनने के लायक हैं, ये सब किरण ही तय करती थी.

अगर कभी पीहू से कोई गलती हो जाती, तो किरण उसे सजा देती. उस का मानना था कि ऐसे में बच्चे दोबारा गलती नहीं करेंगे. गलती करने पर बच्चों को सजा देना जरूरी है वरना वे बिगड़ जाएंगे. एकदम कड़े अनुशासन में किरण उसे रखती थी. लेकिन किरण को यह नहीं पता कि उस के ऐसे व्यवहार से मासूम पीहू के दिलोदिमाग पर क्या असर पड़ रहा है. रिसर्च भी कहती है कि बच्चों पर ज्यादा सख्ती से उन के मस्तिष्क की संरचना बदल जाती है. हरदम खिलखिलाने वाली पीहू इसीलिए तो बहुत गुमसुम सी रहने लगी थी.

आगे पढ़ें- नकुल के घर से निकलतेनिकलते भी…

 

Valentine’s Day: नया सवेरा- भाग 2

पिछला भाग- Valentine’s Day: नया सवेरा (भाग-1)

छोटी मां को कभी मैं ने पापा की कमाई पर ऐशोआराम करते नहीं देखा. वे तो घर से बाहर भी नहीं जाती थीं. चुपचाप अपने कमरे में रहतीं. धीरेधीरे मेरी उन के प्रति नफरत कम होती गई, लेकिन अभी भी मैं उन को मां मानने को तैयार नहीं थी. कभीकभी दिल जरूर करता कि मैं उन से पूछूं कि क्यों उन्होंने मेरे उम्रदराज पापा से शादी की जबकि उन्हें तो कोई भी मिल सकता था. आखिर इतनी खूबसूरत थीं और इतनी जवान. लेकिन हमारे बीच बहुत दूरी बन गई थी जिसे न मैं ने कभी दूर करना चाहा, न उन्होंने. ऐसा लगता था मानो घर के अलगअलग 2 कमरों में 2 जिंदा लाशें हों.

घड़ी की घंटी ने सुबह के 3 बजाए. मैं कमरे से बाहर गई और फ्रिज से पानी निकाल कर पिया. तभी मेरी नजर छोटी मां पर पड़ी जो बाहर बालकनी में बैठी थीं और बाहर की तरफ एकटक देख कर कुछ सोच रही थीं.

मु झे अनायास ही हंसी आ गई. मु झे दया आ रही थी इस बंगले पर जहां की महंगी दीवारों और महंगे कालीनों ने महंगे आंसुओं का मोल नहीं सम झा. मैं अपने कमरे में रो रही थी और छोटी मां इसी अवस्था में सुबह के 3 बजे बालकनी में बैठी हैं. खैर, मैं अपने कमरे में जाने के लिए जैसे ही मुड़ी, आज मेरे दिल ने मु झे रोक लिया.

दिमाग ने फिर उसे जकड़ा, कहा कि तु झे क्या मतलब है. यहां सब अपनी जिंदगियां जी रहे हैं. तू भी जी. क्या तु झे तेरी छोटी मां ने कभी कुछ कहा? जब तू उदास थी तब कभी तु झ से उदासी का कारण पूछा? जब कभी तू परेशान थी, कभी तेरे पास आ कर बैठीं वो? यह तो छोड़, कभी तु झ से कुछ बात भी करने की कोशिश की इन्होंने? तेरी जिंदगी में कभी कोई दिलचस्पी दिखाई इन्होंने? नहीं न, फिर तू किस बात की सहानुभूति दिखाना चाहती है? तो सब जैसा सब चल रहा है सदियों से इस घर में, वैसा ही चलने दे. अब और कुछ नए रिश्ते न बना. लेकिन पता नहीं क्या हुआ, आज तो मेरा मन मेरे दिमाग से हारने वाला नहीं था.

कदम वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ ही नहीं रहे थे. मैं ने एक नजर फिर छोटी मां पर डाली. उन के गालों से आंसुओं का सैलाब बह रहा था. न जाने मु झे उस वक्त क्या हुआ, मेरे कदम उन की तरफ बढ़ने लगे. मैं उन के पास जा कर खड़ी हो गई.

मैं ने उन से पूछा, ‘‘आप ठीक तो हैं न? इस वक्त अकेले में यहां?’’ छोटी मां ने आंसुओं को पोंछते हुए कहा, ‘‘मैं तो अकसर यहां बैठ कर खुद से बात कर लेती हूं

प्रीति, और अकेले रहना तो इस घर की नियति ही है. तुम भी तो अकेली ही रहती हो. हां, आज बात कुछ और है. प्रीति, कल रात 11 बजे मेरे पिता चल बसे.’’ यह कह कर छोटी मां चुप हो गईं. मु झे सम झ में नहीं आ रहा था मैं क्या कहूं. मैं ने पहली बार ठीक से उन से बात की थी. मैं तो शायद दूसरों से बात करना, उन्हें सांत्वना देना भी भूल गई थी.

मैं कुछ देर चुप रही. फिर छोटी मां ने खुद कहा, ‘‘मेरे पापा बहुत शराब पीते थे. हम 3 बहनें ही थीं. उन्हें बेटा नहीं था. वे कुछ कमाते भी नहीं थे. हमारी मां थोड़ाबहुत जो कमातीं उसी से गुजर चलता था. मां ने उस हालत में भी मेरी बड़ी 2 बहनों को तो पढ़ाया. परंतु जब मेरा स्कूल में दाखिले का समय आया तो वे किसी अनजान बीमारी से ग्रसित हो गईं. हालांकि, मैं 6 वर्ष की थी, मां मु झे बस थोड़ीथोड़ी याद हैं. हां, एक बार पापा ने मां को बहुत मारा था. मैं उस वक्त बहुत डर गई थी.

‘‘मां की मृत्यु के बाद मेरी बड़ी बहनों ने घर की जिम्मेदारी ले ली. वे खुद भी पढ़तीं और मु झे भी पढ़ातीं. मैं स्कूल नहीं जाती थी. उतना पैसा नहीं था हमारे पास. मेरी बहनें मु झे घर पर ही पढ़ातीं. मैं ने पढ़ाई काफी देर से शुरू की थी, परिणामस्वरूप 20 वर्ष की आयु में मैं ने मैट्रिक की परीक्षा ओपन स्कूल से दी. मैं पास तो हो गई, लेकिन अच्छे अंक नहीं आए. फिर घर का खर्चा भी चलाना मुश्किल होता जा रहा था. दोनों बहनों की शादी हो चुकी थी. पापा तो पहले की तरह शराब के नशे में ही डूबे रहते.

‘‘कभीकभी सोचती हूं कि यदि दादाजी ने अपना घर नहीं बनाया होता, तब हमारा क्या होता. कम से कम सिर छिपाने की जगह तो थी. खैर, यही सब देखते हुए मैं ने अस्पताल में नौकरी करने की सोची. तनख्वाह बहुत कम थी, परंतु दालरोटी का खर्च निकल ही आता था. अस्पताल में मु झ पर बुरी नजर डालने वाले बहुत थे. कभीकभी खूबसूरती भी औरत की दुश्मन बन जाती है.

‘‘एक दिन तुम्हारे पिता किसी काम से अस्पताल आए. उन्होंने मु झे वहां देखा. मेरे बारे में पूछताछ की. मेरे घर का पता लिया और मेरे पापा से मिले. औरों की तरह उन्हें भी मेरी खूबसूरती भा गई और गरीब की खूबसूरती को खरीदना अमीरों के लिए शायद ही कभी मुश्किल रहा हो. उन्होंने मेरे पिता के सम्मुख शादी का प्रस्ताव रखा.

‘‘मेरे पिता तो जैसे खुशी से फूले नहीं समाए. 20 साल की बेटी को 42 साल के उम्रदराज से ब्याहने में उन्हें जरा सी भी तकलीफ नहीं हुई, बल्कि उन की खुशी की तो कोई सीमा ही नहीं थी. उन्हें तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उन की बेटी शहर के जानेमाने रईसजादे के साथ ब्याही जाएगी. पैसों में बहुत बल होता है. बहुत बुरा लगा मु झे. मेरी राय तो कभी ली ही नहीं गई. पापा किस अधिकार से मेरी जिंदगी का निर्णय कर सकते थे? कभी बाप होने का कोई फर्ज निभाया था उन्होंने? मैं बहुत रोई, चिल्लाई लेकिन मेरी कौन सुनने वाला था. मैं ने अपनी बहनों को यह बात कही, परंतु वे भी अपनी घरगृहस्थी के  झमेलों में इस तरह लिप्त थीं कि ज्यादा कुछ कर न सकीं. वे खुद भी इस स्थिति में नहीं थीं कि मेरी कोई सहायता कर सकें.

‘‘परंतु मेरा मन नहीं माना. मैं ने सोच लिया कि कुछ भी हो जाए, मैं यह शादी नहीं करूंगी. लेकिन, तभी मेरी बड़ी बहन के साथ एक दुर्घटना हो गई. वे बस से कहीं जा रही थीं और वह बस खाई में गिर गई. वे बच तो गईं लेकिन इलाज में बहुत पैसा लगता. तब मैं ने ठंडे मन से सोचा. बहन को बचाना जरूरी था. आखिर उन्होंने मां की तरह पाला था मु झे. पैसों की ताकत को मैं ने उस वक्त पहचाना. मैं ने चुपचाप तुम्हारे पापा से शादी करने का मन बना लिया. मु झे पता चला कि उन की एक 12 वर्ष की बेटी भी है परंतु फिर भी मैं ने सिर्फ अपनी बड़ी बहन को बचाने की खातिर यह सब किया.

आगे पढ़ें  तुम्हारे पिता ने हमारी आर्थिक रूप से बहुत मदद की…

Serial Story: कोई अपना – भाग 1

स्थानांतरण के बाद जब हम नई जगह आए तो पिछली भूलीभटकी कई बातें अकसर याद आतीं. कुछ दिन तो नए घर में व्यवस्थित होने में ही लग गए और कुछ दिन पड़ोसियों से जानपहचान करने में. धीरेधीरे कई नए चेहरे सामने चले आए, जिन से हमें एक नया संबंध स्थापित करना था. मेरे पति बैंक में प्रबंधक हैं, जिस वजह से उन का पाला अधिकतर व्यापारियों से ही पड़ता. अभी महीना भर ही हुआ था कि एक शाम हमारे

घर में एक युवा दंपती आए और इतने स्नेह से मिले, मानो बहुत पुरानी जानपहचान हो. ‘‘नई जगह पर दिल लग गया न, भाभीजी? हम ने तो कई बार सुनीलजी से कहा कि आप को ले कर हमारे घर आएं. आप आइए न कभी, हमारे साथ भी थोड़ा सा समय गुजारिए.’’ युवती की आवाज में बेहद मिठास थी, जो कि मेरे गले से नीचे नहीं उतर रही थी. इतने प्यार से ‘भाभीभाभी’ की रट तो कभी मेरे देवर ने भी नहीं लगाई थी.

मेरे पति अभी बैंक से आए नहीं थे, सो मुझे ही औपचारिकता निभानी पड़ रही थी. नई जगह थी, सो, सतर्कता भी आवश्यक थी. शायद? उन्होंने मेरे चेहरे की असमंजसता पढ़ ली थी. युवक बोला, ‘‘मुझे सुनीलजी से कुछ विचारविमर्श करना था. बैंक में तो समय नहीं होता न उन के पास, इसलिए सोचा, घर पर ही क्यों न मिल लें. इसी बहाने आप के दर्शन भी हो जाएंगे.’’

‘‘ओह,’’ उन का आशय समझते ही मेरे चेहरे पर अनायास ही एक बनावटी मुसकान चली आई. शीतल पेय लेने जब मैं भीतर जाने लगी तो वह युवती भी साथ ही चली आई, ‘‘मैं आप की मदद करूं?’’

मेरे चेहरे पर खीझ उभर आई कि अपना काम हो तो लोग किस सीमा तक झुक जाते हैं.

लगभग 4 साल पहले जब नएनए लुधियाना गए थे, तब भी ऐसा ही हुआ था. मधु कैसे घुसी चली आई थी हमारी जिंदगी में. दोनों पतिपत्नी कितने प्यार से मिले थे. मधु के पति केशव ने कहा था, ‘भाभीजी, आप आइए न हमारे घर. मधु आप से मिल कर बहुत खुश होगी.’ ‘जी, जरूर आएंगे,’ मैं कितनी खुश हुई थी, कोई अपना सा लगने वाला जो मिला था. परिवार सहित पहले वे लोग हमारे घर आए और उस के बाद हम उन के घर गए. मधु मुझ से जल्दी ही घुलमिल गई थी जैसे पुरानी दोस्ती हो.

‘ये साहब आप को कैसे जानते हैं?’ मैं ने पति से पूछा. ‘हमारे बैंक की ही एक पार्टी है. अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए बेचारा दौड़धूप कर रहा है. बड़ी फैक्टरी खोलने का विचार है,’ पति ने लापरवाही से टाल दिया था, मानो उन्हें मेरा प्रश्न बेतुका सा लगा हो.

एक दिन मधु ऊन लाई और जिद करने लगी कि मैं उस के बेटे का स्वेटर बुन दूं. काफी मेहनत के बाद मैं ने रंगबिरंगा स्वेटर बुना था. उसे देख कर मधु बहुत खुश हुई थी, ‘भाभी, बहुत सफाई है आप के हाथ में. अब एक स्वेटर अपने देवर का भी बुन देना. ये कह रहे थे, इतना अच्छा स्वेटर तो उन्होंने आज तक नहीं देखा.’

‘मुझे समय नहीं मिलेगा,’ मैं ने टालना चाहा तो वह झट बोल पड़ी, ‘अपना भाई कहेगा तो क्या उसे भी इसी तरह इनकार कर देंगी?’ मधु के स्वर का अपनापन मुझे भीतर तक पुलकित कर गया था.

वह आगे बोली, ‘माना कि हम में खून का रिश्ता नहीं है, फिर भी आप को अपनों से कम तो नहीं जाना. मुझे ऊन से एलर्जी है, तभी तो आप से कह रही हूं.’ आखिर मुझे उस की बात माननी पड़ी. लेकिन मेरे पति ने मुझे डांट दिया था, ‘यह क्या समाजसेवा का काम शुरू कर दिया है? उसे ऊन से एलर्जी है तो पैसे दे कर कहीं से भी बनवा लें. तुम अपनी जान क्यों जला रही हो?’

‘वे लोग हम से कितना प्यार करते हैं, और कुछ बना दिया तो क्या हुआ.’ मेरे पति खीझ कर चुप रह गए थे.

हमारा आनाजाना लगा रहता और हर बार वे लोग ढेर सारा प्यार जताते. धीरेधीरे उन का आना कम होने लगा. 2 महीनों की छुट्टियों में हम अपने घर गए थे. जब वापस आए, तब भी वे हम से मिलने नहीं आए.

एक दिन मैं ने पति से कहा, ‘मधु नहीं आई हम से मिलने, वे लोग कहीं बाहर गए हुए हैं?’ ‘पता नहीं,’ पति ने लापरवाही से उत्तर दिया.

‘क्या, केशव भाईसाहब आप से नहीं मिले?’ ‘कल उस का भाई बैंक में आया था.’

‘तो आप ने उन का हालचाल नहीं पूछा क्या?’ ‘नहीं. इतना समय नहीं होता, जो हर आनेजाने वाले के परिवार का हालचाल पूछता रहूं.’

‘कैसी रूखी बातें कर रहे हैं.’ किसी तरह पति मुझे टाल कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए और मैं यही सोचने लगी कि आखिर मधु आई क्यों नहीं?

15-20 दिनों बाद बच्चों के स्कूल में ‘पेरैंट्स मीटिंग’ थी. मधु का घर रास्ते में ही पड़ता था. अत: सो, वापसी पर मैं उस के घर चली गई. ‘ओह, आप,’ मधु का स्वर ठंडा सा था, मानो उसे मुझ से मिलना अच्छा न लगा हो. जब भीतर आई तो उस की सखियों से मुलाकात हुई. उस ने उन से मेरा परिचय कराया, ‘इन से मिलो, ये हैं मेरी रेखा और निशी भाभी, और आप हैं शालिनी भाभी.’

थोड़ी देर बाद 15-20 वर्ष का लड़का मेरे सामने शीतल पेय रख गया. सोफे पर 4-5 सूट बिछाए, वह अपनी सखियों में ही व्यस्त रही. वे तीनों महंगे सूटों और गहनों के बारे में ही बातचीत करती रहीं. मैं एक तरफ अवांछित सी बैठी, चुपचाप अपनी अवहेलना और उन की गपशप सुनती व महसूस करती रही. शीतल पेय के घूंट गले में अटक रहे थे. कितने स्नेह से मैं उस से मिलने गई थी बेगाना सा व्यवहार, आखिर क्यों?

‘अच्छा, मैं चलूं,’ मैं उठ खड़ी हुई तो वहीं बैठेबैठे उस ने हाथ हिला दिया, ‘माफ करना शालिनी भाभी, मैं नीचे तक नहीं आ पाऊंगी.’ ‘कोई बात नहीं,’ कहती हुई मैं चली आई थी.

मैं मधु के व्यवहार पर हैरान रह गई थी कि कहां इतना अपनापन और कहां इतनी दूरी.

दिनभर बेहद उदास रही. रात को पति से बात की तो उन्होंने बताया, ‘उन्हें बैंक से 2 करोड़ रुपए का कर्ज मिल गया है. नई फैक्टरी का काम जोरों से चल रहा है. भई, मैं तो पहले ही जानता था, उन्हें अपना काम कराना था, इसलिए चापलूसी करते आगेपीछे घूम रहे थे. लेकिन तुम तो उन से भावनात्मक रिश्ता बांध बैठीं.’ ‘लेकिन,’ अनायास मैं रो पड़ी, क्योंकि छली जो गई थी, किसी ने मेरे स्नेह को छला था.

‘कई लोग अधिकारी के घर तक में घुस जाते हैं, जबकि काम तो अपनी गति से अपने समय पर ही होता है. कुछ लोग सोचते हैं, अधिकारी से अच्छे संबंध हों तो काम जल्दी होता है और केशव उन्हीं लोगों में से एक है,’ पति ने निष्कर्ष निकाला था. उस के बाद वे लोग हम से कभी नहीं मिले. मधु का वह दोगला व्यवहार मन में कांटे की तरह चुभता है. कोई ज्यादा झुक कर ‘भाभीजी, भाभीजी’ कहता है तो स्वार्थ की बू आने लगती है.

इसी कारण मैं ने उस युवती को टाल दिया. फिर शीतल पेय उन के सामने रख, पंखा तेज कर दिया क्योंकि गरमी बहुत ज्यादा थी. वे दोनों बारबार पसीना पोंछ रहे थे.

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Valentine’s Day: नया सवेरा- भाग 1

आज रोहित ने मु झ से वह कह दिया जिसे शायद मैं शायद सुनना भी चाहती थी और शायद नहीं भी. दिल तो कह रहा था कि उसी क्षण उस के साथ हो ले, पर हमेशा की तरह दिमाग ने उसे फिर जकड़ लिया, और हमेशा की तरह दिल हार गया. हालांकि वह उदास हो गया पर उदास होना तो इस दिल की नियति ही थी. जब भी मेरे दिल ने उन्मुक्त आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरना चाही, जब भी मेरे दिल ने गुब्बारे की तरह हलका हो कर बिना कुछ सोचे, बिना कुछ सम झे हवा के वेग के साथ अपने को खुले आसमान में छोड़ना चाहा या जब भी मेरे दिल ने रोहित की बांहों में छिप कर जीभर कर रो लेना चाहा, हर बार इस दिमाग ने मेरे मन की भावनाओं को इतना जकड़ लिया कि मन बेचारा मन मार कर ही रह गया. मैं आखिर ऐसी क्यों हूं? मात्र 23 वर्ष की तो हुई हूं. मेरी उम्र की लड़कियां जिंदगी को कितना खुल कर जीती हैं, उठती लहरों की तरह लापरवाह, सुबह की पहली किरण की तरह उम्मीदों से भरी, पलपल को खुल कर जीती हैं. आखिर यह सब मेरी नियति में क्यों नहीं? परंतु मैं नियति को दोष क्यों दूं?

आखिर किस ने मु झे रोका है? आखिर किस को मेरी चिंता है? पापा, जिन से एक छत के नीचे रहते हुए भी शायद ही कभी मुलाकात होती है, या छोटी मां जिन्होंने न ही मु झे कभी रोका है, न ही कभी किसी बात के लिए टोका है. हम तीनों कहने को तो एक ही घर में रहते थे पर परिवार जैसा कुछ नहीं हमारे बीच, बिलकुल पटरियों की तरह जो एकसाथ रह कर भी कभी नहीं मिलतीं.

अपने कमरे में बैठी मैं आज जब अपने मन के डर को कुरेदना चाहती थी, उस से जीतना चाहती थी, तब अनायास ही मेरी नजर मां की तसवीर पर पड़ी. कितना प्यार करती थीं मु झ से, मेरी पसंद का भोजन बनाने से ले कर मु झे पार्क में ले कर जाना, मेरे साथ खेलना, मु झे पढ़ाना, मानो उन की दुनिया मु झ से शुरू हो कर मु झ पर ही खत्म होती थी. पापा तो हो कर भी कभी नहीं होते थे. मैं ने कई बार मां को पापा के इंतजार में आंसू बहाते देखा. कई बार मैं उन से कहती, ‘मां, आप पापा के लिए क्यों रोती हैं? क्यों हमेशा मेरे जन्मदिन का केक काटने से पहले उन से बारबार घर आने की गुहार लगाती हैं, जबकि पापा कभी नहीं आते और कभी घर आते भी हैं तो अपने कमरे बंद रहते हैं. मां, आप पापा को छोड़ क्यों नहीं देतीं?’

मेरे ऐसा कहने पर मां मु झे प्यार से सम झातीं, ‘बेटी, मैं ने तुम्हारे पिता को अपना सबकुछ माना है. उन की महत्त्वाकांक्षाओं ने उन के रिश्तों की जगह ले ली है. मु झे उस दिन का इंतजार करना है जब उन का यह भ्रम टूटे कि वे अपने पैसों से सबकुछ खरीद सकते हैं. यदि हम लोग उन्हें छोड़ कर चले जाएंगे तो कल जब उन का यह भ्रम टूटेगा, वे अकेले पड़ जाएंगे. तब उन के साथ कौन होगा? और यह मैं नहीं देख सकती. मु झे अपने प्यार और समर्पण पर पूर्ण विश्वास है, वह दिन जरूर आएगा.’

11 वर्ष की आयु में मां की ये दलीलें मु झे बिलकुल सम झ में नहीं आतीं. आज याद करती हूं तो लगता है, इतना प्यार और इतना समर्पण, इतना निश्छल प्रेम और उस प्रेम को पाने के लिए इतना धैर्य, कैसे कर पातीं थीं मां ये सब? और आखिर क्यों करती थीं? क्यों उन्होंने उस इंसान के साथ अपनी जिंदगी खराब कर ली जिस की नजरों में मां की कोई इज्जत नहीं थी. जिस की नजरों में मां के लिए कोई प्यार नहीं था और न ही प्यार था अपनी बेटी के लिए.

वह इंसान तो केवल पैसों की मशीन बन कर रह गया था जिस के भीतर भावनाओं ने शायद पनपना भी बंद कर दिया था. और एक दिन अचानक कार ऐक्सिडैंट में मु झ से वह ममता की निर्मल छाया भी छिन गई. मात्र 12 वर्ष की थी मैं, खूब रोई, चिल्लाई पर मेरी पीड़ा सुनने वाला कौन था. जितनी मु झे पीड़ा थी उतना क्रोध भी था. क्रोध उस पिता पर जिन्होंने मेरी मां को आखिरी बार भी देखना उचित नहीं सम झा. विदेश गए थे वे, जब यह दुर्घटना घटी. मैं ने पापा से रोरो कर जल्दी से जल्दी आने की अपील की परंतु वे मु झे टालते रहे और अंत में नानाजी ने मां की अंत्येष्टि की. याद है मु झे कितना बिलखबिलख कर रोए थे नानाजी.

बारबार अपनी बेटी के मृत शरीर को देख कर माफी मांगते ही रहे कि कैसे उन्होंने अपनी फूल सी कोमल बेटी की शादी इस इंसान के साथ कर दी. उस के बाद नानाजी मु झे अपने साथ ले गए. परंतु कुछ ही वक्त बाद पश्चात्ताप में वे भी इस कदर जले कि यह प्यारभरा साया भी मु झ से छिन गया. तब कहीं जा कर पापा आए और मु झे अपने साथ घर ले गए. मैं अपने पापा से लिपट कर खूब रोई थी. तब पहली बार पापा ने मु झ से कहा था, ‘मां चली गईं तो क्या हुआ? तुम्हारे पापा हैं तुम्हारे पास. सब ठीक हो जाएगा, बेटा. हम जल्दी ही बंगले में शिफ्ट हो रहे हैं. वहां हमारा अपना बागान होगा. तुम वहां खूब खेलना.’

पापा आज पहली बार मु झ से प्यार से बोले थे. मु झे लगा कि शायद मां की तपस्या रंग ला रही है. शायद सच में पापा बदल गए हैं. शायद मां के जाने के बाद उन्हें अपनी गलती महसूस हुई. लेकिन, कुछ ही वक्त के बाद मैं यह सम झ गई कि ऐसा कुछ नहीं था.

पापा जैसे थे वैसे ही हैं. उन्होंने मु झे आश्रय जरूर दिया परंतु कभी मु झे स्नेह नहीं दिया. हमेशा की तरह फिर उन के पास समय नहीं था. धीरेधीरे अकेले रहने की मेरी आदत ही पड़ती गई. घर से स्कूल और स्कूल से घर. पापा शायद ही कभी मेरे स्कूल आए होंगे. न कभी अच्छे अंक लाने से मेरी पीठ थपथपाई गई, न ही कभी बुरे अंक लाने पर डांटा. हां, स्कूल में अन्य बच्चों के मातापिता को देखती तो बहुत तकलीफ होती. मां तो नहीं थीं पर पिता थे मेरे, जो हो कर भी नहीं थे.

कई बार टीचर ने मु झ से कहा, ‘प्रीति, तुम अपने पिता से कहना कि वे पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आएं, सभी आते हैं.’ मैं चुप ही रहती. मानो मैं मन से हार चुकी थी. कौन पिता? कैसे पिता? धीरेधीरे ये सब खत्म हो गया. अब कोई मु झ से कुछ नहीं कहता. स्कूल वालों को टाइम पर फीस मिल रही थी और अब मेरे पिता शहर के जानेमाने रईस थे. उन्हें कोई क्या सिखाता. इसी बीच मेरी आया ने मु झे बताया कि पापा फिर शादी करने वाले हैं.

मेरा किशोरमन अपनी मां की जगह किसी और को कैसे दे सकता था. पापा से तो मैं ने कुछ नहीं कहा. परंतु मन ही मन ठान लिया कि वो औरत जो भी हो, पापा की पत्नी तो बन सकती है परंतु मेरी मां नहीं. मैं अपनी मां की जगह किसी और को कभी नहीं दूंगी. पापा ने मां की मृत्यु से 9 महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली. वह कौन थी? कैसी थी? न तो मैं जानती थी और न ही जानना चाहती थी. मेरे स्कूल में कई लोग मु झ से पूछते लेकिन मैं चुप रहती. फिर उन्होंने पूछना भी बंद कर दिया. मैं कहीं न कहीं हीनभावना से ग्रस्त रहने लगी. मैं लोगों की भीड़ से बस भाग जाना चाहती थी. अकेलापन ही धीरेधीरे मु झे अपना सा लगने लगा. खैर, पापा ने छोटी मां से मेरा परिचय करवाया. ‘प्रीति, इन से मिलो. इन का नाम आशा है और आज से यही तुम्हारी मां हैं.’ मैं चुप रही. एक नजर भी उठा कर उस आशा को नहीं देखा. मैं अब घर में और कैद रहने लगी. स्कूल से आते ही अपने कमरे में चली जाती. बस, कभीकभार आशा आया से कुछ बात कर लेती. छोटी मां ने कभी मु झ से कुछ बात करने की कोशिश नहीं की. और समय गुजरता गया. पापा अब भी नहीं बदले. कई बार वे छोटी मां पर चिल्लाते. लगता था कि फिर वही सब दोहराया जा रहा है.

आगे पढें  छोटी मां को कभी मैं ने पापा की कमाई पर ऐशोआराम…

Serial Story: लाइफ कोच – भाग 1

आज औफिस का काम जल्दी निबट गया, तो नकुल होटल न जा कर जुहू बीच आ गया. बहुत नाम सुन रखा था उस ने मुंबई जुहू बीच का. यहां आते ही उसे एक अजीब सी शांति महसूस हुई. लोगों की भीड़भाड़ से दूर वह एक तरफ जा कर बैठ गया और आतीजाती लहरों को देखने लगा. कितना सुकून, कितनी शांति मिल रही थी उसे बता नहीं सकता था.

सब से बड़ी बात यह कि यहां उसे कोई रोकनेटोकने वाला नहीं था और न ही कोई सिर पर सवार रहने वाला. यहां तो बस वह था और उस की तनहाई. उस का मन कर रहा था यहां कुछ दिन और ठहर जाए या पूरी उम्र यहीं गुजार दे तो भी कोई हरज नहीं है. अच्छा ही है न, कम से कम ऐसे इंसान से तो छुटकारा मिल जाएगा जो हरदम उस के पीछे पड़ा रहता है. लेकिन यह संभव कहां था.

खैर, एक गहरी सांस लेते हुए नकुल आतेजाते लोगों को, भेलपूरी, पानीपूरी, सैंडविच का मजा लेते देखने लगा. अच्छा लग रहा था उसे. वहीं उधर एक जोड़ा दीनदुनिया से बेखबर अपने में ही मस्त नारियल पानी का मजा ले रहा था. वे जिस तरह से एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले एक ही स्ट्रो से नारियल पानी शिप कर रहे थे, उस से तो यही लग रहा था दोनों एकदूसरे से बेइंतहा प्यार करते हैं. आंखों ही आंखों में दोनों जाने क्या बातें करते और फिर हंस पड़ते थे.

अच्छा है न, लोगों को पता भी नहीं चलता और 2 प्यार करने वाले आंखों ही आंखों में अपनी बातें कह देते हैं. मुसकराते हुए नकुल ने मन ही मन कहा, ‘चेहरा झठ बोल सकता है पर आंखें नहीं. यदि किसी व्यक्ति की बातों का सही और गहराई से अर्थ जानना हो तो उस के चेहरे को विशेष तौर पर आंखों को पढ़ना चाहिए. यदि 2 प्यार करने वाले आपस में एकदूसरे को अच्छी तरह समझते हैं तो उन्हें बोलने की कुछ भी जरूरत नहीं पड़ती.

कवि बिहारी अपनी कविता में ऐसे ही नहीं बोल गए हैं कि कहत, नटत, रीझत, खिजत, मिलत, खिलत, लजियात… भरे मौन में कहत हैं  नैनन ही सौ बात. हम भी तो कभी इसी तरह न्यू कपल थे. हम भी तो कभी इसी तरह एकदूसरे की आंखों को पढ़ा करते थे. लेकिन किरण ने अब मेरी आंखों को पढ़ना छोड़ दिया है, नहीं

तो क्या उसे नहीं पता चलता कि आज भी मैं उस से कितना प्यार करता हूं? सच कहूं तो वह मुझे मेरी पत्नी कम और हिटलर ज्यादा लगती है. डर लगता है मुझे उस से कि जाने कब, किस बात पर उखड़ जाए और फिर मेरा जीना हराम कर दे. छोटीछोटी बातों को बड़ा बना कर इतना ज्यादा बोलने लगती है कि मेरे कान सनसनाने लगते हैं.

नकुल अपनी सोच में डूबा हुआ था, तभी अचानक एक बौल उस से आ टकराई.

‘‘अंकल, प्लीज, थ्रो द बौल,’’ दूर खड़े उस बच्चे ने बड़ी मासूमियत से कहा, तो नकुल ने अपने पैर से उस बौल को ऐसा उछाला कि वह सीधे जा कर उस बच्चे के पास पहुंच गई.

ताली बजाते हुए उस बच्चे ने कहा, ‘‘अंकल यू आर द ग्रेट,’’ सुन कर नकुल हंस पड़ा.

‘‘अंकल, जौइन मी,’’ उस 10 साल के बच्चे ने नकुल की तरफ बौल फेंकते हुए बोला तो नकुल भी जोश में आ गया और उस के साथ खेलने लगा. देखतेदेखते कुछ और लोग भी उन के साथ जुड़ गए और सब ऐसे जोश में खेलने लगे कि पूछो मत.

‘‘अंकल, यू आर सच ए ग्रेट पर्सन,’’ कह कर उस बच्चे ने ताली बजाई तो बाकी लोग भी तालियां बजाने लगे.

अपनी एक छोटी सी जीत पर आज नकुल इसलिए खुशी से झम उठा, क्योंकि

उस की काबिलीयत की तारीफ हो रही थी और यहां कोई यह बोलने वाला नहीं था कि नकुल को यह जीत तो उस की वजह से मिली है. अपने हाथ उठा कर सब को बाय कह कर नकुल आगे बढ़ गया.

‘किसी को शायद नहीं पता, पर कालेज के समय में मैं बढि़या फुटबौल प्लेयर हुआ करता था. अपने कालेज का मैं लीडर था. कालेज के ज्यादातर लड़केलड़कियां मुझ से राय लिया करते थे. पढ़ाई में भी मैं अव्वल था, इसलिए तो कालेज के प्रिंसिपल का भी मैं फैवरिट हुआ करता था. लेकिन समय के साथ सब पर धूल चढ़ गई. आज वही पुराना वाला जोश पा कर बता नहीं सकता कि अपनेआप में मैं कितना स्फूर्ति महसूस कर रहा हूं. लेकिन मैं ये सब कैसे भूल गया कि मैं एक बेहतर खिलाड़ी के साथसाथ एक आजाद सोच वाला इंसान भी हुआ करता था,’ एक गहरी सांस लेते हुए नकुल इधरउधर देखने लगा. लोग जाने लगे, पर वह वहां कुछ देर और ठहरना चाहता था, क्योंकि उसे यहां अपार शांति महसूस हो रही थी.

समुद्र किनारे रेत पर बैठ कर अपनी उंगलियों से आढ़ीतिरछी लकीरें खींचते हुए नकुल सोचने लगा कि पहले उन के बीच कितना प्यार था. दो जिस्म एक जान हुआ करते थे दोनों. लेकिन आज कितना कुछ बदल गया है. आज किरण की नजरों में वह एक बेवकूफ इंसान है. कोई सलीका नहीं है उस में. कोई काम का आदमी नहीं रहा वह. ‘काश, मैं और किरण एक न हुए होते तो आज मैं वह न बन गया होता लोगों की नजरों में, जो मैं हूं ही नहीं,’ मन ही मन बोल नकुल आसमान की तरफ देखने लगा.

किरण और नकुल दोनों एक ही कंपनी में जौब करते थे. जब नकुल ने पहली बार किरण को कंपनी मीटिंग में देखा, तो उसे देखता ही रह गया. गोरी, लंबी कदकाठी, बड़ीबड़ी आंखें, खुले बाल और उस पर उस के बात करने के अंदाज से तो नकुल की आंखें ही चौंधिया गई थीं.

किरण भी नकुल का गठीला बदन, घुंघराले बाल और उस के बात करने के अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाई थी. कुछ ही महीनों में दोनों की मुलाकात बढ़तेबढ़ते ऐसे मुकाम पर पहुंच गई जहां अब एक दिन भी बिना मिले उन्हें चैन नहीं पड़ता था. औफिस के बाद वे घंटों व्हाट्सऐप पर चैटिंग के साथ फोन पर भी बातें करते. साथसाथ घूमनाफिरना, फिल्म देखना, शौपिंग करने जाना और छुट्टियों में किसी हिल स्टेशन पर एकदूसरे में खो जाना उन की आदतें बन चुकी थी. अकसर नकुल किरण को महंगेमहंगे गिफ्ट देता तो किरण भी उस के पसंद का उपहार लाना नहीं भूलती थी.

दीनदुनिया से बेखबर दोनों एकदूसरे की कंपनी खूब ऐंजौय करते थे. ऐसा लगता था कि वे एकदूसरे के लिए ही बने हैं और जन्मजन्मांतर तक वे कभी एकदूसरे से अलग नहीं होंगे. दोनों इतने अच्छे और प्यारे जीवनसाथी बनेंगे कि उन का पूरा जीवन खुशनुमा हो जाएगा. किरण बड़े हक से नकुल पर और्डर पर और्डर झड़ती, तो नकुल भी हंसतेहंसते उस के सारे नखरे उठाता था.

‘‘नहीं नकुल, मुझे तो शाहरुख खान की ही फिल्म देखनी है. सोच लो, नहीं तो मैं नहीं जाऊंगी, तुम अकेले ही जाओ फिल्म देखने,’’ नाक सिकोड़ते किरण बोली.

‘‘अरे यार, तुम लड़कियां भी न… फिल्म अच्छी हो या बुरी पर देखने जाना ही है, क्योंकि उस में शाहरुख खान जो है. देखो मेरी तरफ, क्या मैं शाहरुख खान से कोई कम हूं मेरी क… क… किरण…’’ बोल कर नकुल जोर से हंसने लगा था.

उस के डायलौग पर किरण भी खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘बस… बस… बस… तुम से नहीं हो पाएगा मेरे शाहरुख… तुम तो रहने ही दो,’’

इस पर किरण को बांहों में भरते हुए नकुल बोला था कि कोई बात नहीं जो उस ने डायलौग कैसा भी मारा हो, पर किरण के लिए उस का प्यार तो सच्चा है न.

‘‘हूं… बात में दम है बौस,’’ कह कर किरण ने उस के सीने पर प्यार का एक घूंसा बरसाया.

नकुल ने खींच कर उसे अपनी मजबूत बांहों में भरते हुए चूम लिया.

सिनेमाहौल से बाहर निकलते हुए नकुल ने मुंह बनाते हुए कहा था, ‘‘मुझे फिल्म जरा भी पसंद नहीं आई.

‘‘वह तो मुझे भी नहीं आई, पर उस में शाहरुख खान तो था न,’’ बोल कर जब किरण हंसी तो नकुल उसे देखते रह गया.

आगे पढ़ें- हंसते वक्त किरण के बायां गाल पर…

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