कल हमेशा रहेगा: भाग 1- वेदश्री ने किसे चुना

‘‘अभि, मैं आज कालिज नहीं आ रही. प्लीज, मेरा इंतजार मत करना.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ वेदश्री. कोई खास समस्या है?’’ अभि ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हां, अभि. मानव की आंखों की जांच के लिए उसे ले कर डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘क्या हुआ मानव की आंखों को?’’ अभि की आवाज में चिंता घुल गई.

‘‘वह कल शाम को जब स्कूल से वापस आया तो कहने लगा कि आंखों में कुछ चुभन सी महसूस हो रही है. रात भर में उस की दाईं आंख सूज कर लाल हो गई है.

आज साढ़े 11 बजे का

डा. साकेत अग्रवाल से समय ले रखा है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चलूं?’’ अभि ने प्यार से पूछा.

‘‘नहीं, अभि…मां मेरे साथ जा रही हैं.’’

डा. साकेत अग्रवाल के अस्पताल में मानव का नाम पुकारे जाने पर वेदश्री अपनी मां के साथ डाक्टर के कमरे में गई.

डा. साकेत ने जैसे ही वेदश्री को देखा तो बस, देखते ही रह गए. आज तक न जाने कितनी ही लड़कियों से उन की अपने अस्पताल में और अस्पताल के बाहर मुलाकात होती रही है, लेकिन दिल की गहराइयों में उतर जाने वाला इतना चित्ताकर्षक चेहरा साकेत की नजरों के सामने से कभी नहीं गुजरा था.

वेदश्री ने डाक्टर का अभिवादन किया तो वह अपनेआप में पुन: वापस लौटे.

अभिवादन का जवाब देते हुए डाक्टर ने वेदश्री और उस की मां को सामने की कुरसियों पर बैठने का इशारा किया.

मानव की आंखों की जांच कर

डा. साकेत ने बताया कि उस की दाईं आंख में संक्रमण हो गया है जिस की वजह से यह दर्द हो रहा है. आप घबराइए नहीं, बच्चे की आंखों का दर्द जल्द ही ठीक हो जाएगा पर आंखों के इस संक्रमण का इलाज लंबा चलेगा और इस में भारी खर्च भी आ सकता है.

हकीकत जान कर मां का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. वेदश्री मम्मी को ढाढ़स बंधाने का प्रयास करती हुई किसी तरह घर पहुंची. पिताजी भी हकीकत जान कर सकते में आ गए.

वेदश्री ने अपना मन यह सोच कर कड़ा किया कि अब बेटी से बेटा बन कर उसे ही सब को संभालना होगा.

मानव जैसे ही आंखों में चुभन होने की फरियाद करता वह तड़प जाती थी. उसे मानव का बचपन याद आ जाता.

उस के जन्म के 15 साल के बाद मानव का जन्म हुआ था. इतने सालों के बाद दोबारा बच्चे को जन्म देने के कारण मां को शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी.  वह कहतीं, ‘‘श्री…बेटा, लोग क्या सोचेंगे? बुढ़ापे में पहुंच गई, पर बच्चे पैदा करने का शौक नहीं गया.’’

‘‘मम्मा, आप ऐसा क्यों सोचती हैं.’’ वेदश्री ने समझाते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे राखी बांधने वाला भाई दिया है, जिस की बरसों से हम सब को चाहत थी. आप की अब जो उम्र है इस उम्र में तो आज की आधुनिक लड़कियां शादी करती दिखाई देती हैं…आप को गलतसलत कोई भी बात सोचने की जरूरत नहीं है.’’

गोराचिट्टा, भूरी आंखों वाला प्यारा सा मानव, अभी तो आंखों में ढेर सारा विस्मय लिए दुनिया को देखने के योग्य भी नहीं हुआ था कि उस की एक आंख प्रकृति के सुंदरतम नजारों को अपने आप में कैद करने में पूर्णतया असमर्थ हो चुकी थी. परिवार में सब की आंखों का नूर अपनी खुद की आंखों के नूर से वंचित हुआ जा रहा था और वे कुछ भी करने में असमर्थ थे.

‘‘वेदश्रीजी, कीटाणुओं के संक्रमण ने मानव की एक आंख की पुतली पर गहरा असर किया है और उस में एक सफेद धब्बा बन गया है जिस की वजह से उस की आंख की रोशनी चली गई है. कम उम्र का होने के कारण उस की सर्जरी संभव नहीं है.’’

15 दिन बाद जब वह मानव को ले कर चेकअप के लिए दोबारा अस्पताल गई तब डा. साकेत ने उसे समझाते हुए बताया तो वह दम साधे उन की बातें सुनती रही और मन ही मन सोचती रही कि काश, कोई चमत्कार हो और उस का भाई ठीक हो जाए.

‘‘लेकिन उचित समय आने पर हम आई बैंक से संपर्क कर के मानव की आंख के लिए कोई डोनेटर ढूंढ़ लेंगे और जैसे ही वह मिल जाएगा, सर्जरी कर के उस की आंख को ठीक कर देंगे, पर इस काम के लिए आप को इंतजार करना होगा,’’ डा. साकेत ने आश्वासन दिया.

वेदश्री भारी कदमों और उदास मन से वहां से चल दी तो उस की उदासी भांप कर साकेत से रहा न गया और एक डाक्टर का फर्ज निभाते हुए उन्होंने समझाया, ‘‘वेदश्रीजी, मुझे आप से पूरी हमदर्दी है. आप की हर तरह से मदद कर के मुझे बेहद खुशी मिलेगी. प्लीज, मेरी बात को आप अन्यथा न लीजिएगा, ये बात मैं दिल से कह रहा हूं.’’

‘‘थैंक्स, डा. साहब,’’ उसे डाक्टर का सहानुभूति जताना उस समय सचमुच अच्छा लग रहा था.

मानव की आंख का इलाज संभव तो था लेकिन दुष्कर भी उतना ही था. समय एवं पैसा, दोनों का बलिदान ही उस के इलाज की प्राथमिक शर्त बन गए थे.

पिताजी अपनी मर्यादित आय में जैसेतैसे घर का खर्च चला रहे थे. बेटे की तकलीफ और उस के इलाज के खर्च ने उन्हें उम्र से पहले ही जैसे बूढ़ा बना दिया था. उन का दर्द महसूस कर वेदश्री भी दुखी होती रहती. मानव की चिंता में उस ने कालिज के अलावा और कहीं आनाजाना कम कर दिया था. यहां तक कि अभि जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी, से भी जैसे वह कट कर रह गई थी.

डा. साकेत अग्रवाल शायद उस की मजबूरी को भांप चुके थे. उन्होंने वेदश्री को ढाढ़स बंधाया कि वह पैसे की चिंता न करें, अगर सर्जरी जल्द करनी पड़ी तो पैसे का इंतजाम वह खुद कर देंगे. निष्णात डाक्टर होने के साथसाथ साकेत एक सहृदय इनसान भी हैं.

दरअसल, साकेत उम्र में वेदश्री से

2-3 साल ही बड़े होंगे. जवान मन का तकाजा था कि वह जब भी वेदश्री को देखते उन का दिल बेचैन हो उठता. वह हमेशा इसी इंतजार में रहते कि कब वह मानव को ले कर उस के पास आए और वह उसे जी भर कर देख सकें. न जाने कब वेदश्री डा. साकेत के हृदय सिंहासन पर चुपके से आ कर बैठ गई, उन्हें पता ही नहीं चला. तभी तो साकेत ने मन ही मन फैसला किया था कि मानव की सर्जरी के बाद वह उस के मातापिता से उस का हाथ मांग लेंगे.

उधर वेदश्री डा. साकेत के मन में अपने प्रति उठने वाले प्यार की कोमल भावनाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वह अभिजीत के साथ मिल कर अपने सुंदर सहजीवन के सपने संजोने में मगन थी. उस के लिए साकेत एक डाक्टर से अधिक कुछ भी न थे. हां, वह उन की बहुत इज्जत करती थी क्योंकि उस ने महसूस किया था कि डा. साकेत एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथसाथ नेक दिल इनसान भी हैं.

समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते डेढ़ वर्ष का समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. एक दिन फोन की घंटी बजी तो अभिजीत का फोन समझ कर वेदश्री ने फोन उठा लिया और ‘हैलो’ बोली.

‘‘वेदश्रीजी, डा. साकेत बोल रहा हूं. मैं ने यह बताने के लिए आप को फोन किया है कि यदि आप मानव को ले कर कल 12 बजे के करीब अस्पताल आ जाएं तो बेहतर होगा.’’

साकेत चाहता तो अपनी रिसेप्शनिस्ट से फोन करवा सकता था, लेकिन दिल का मामला था अत: उस ने खुद ही यह काम करना उचित समझा.

‘‘क्या कोई खास बात है, डाक्टर साहब,’’ वेदश्री समझ नहीं पा रही थी कि डाक्टर ने खुद क्यों उसे फोन किया. उसे लगा जरूर कोई गंभीर बात होगी.

‘‘नहीं, कोई ऐसी खास बात नहीं है. मैं ने तो यह संभावना दर्शाने के लिए आप के पास फोन किया है कि शायद कल मैं आप को एक बहुत बढि़या खबर सुना सकूं, क्योंकि मैं मानव को ले कर बेहद सकारात्मक हूं.’’

‘‘धन्यवाद, सर. मुझे खुशी है कि आप मानव के लिए इतना सोचते हैं. मैं कल मानव को ले कर जरूर हाजिर हो जाऊंगी, बाय…’’ और वेदश्री ने फोन रख दिया.

वेदश्री की मधुर आवाज ने साकेत को तरोताजा कर दिया. उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

मानव का चेकअप करने के बाद डा. साकेत वेदश्री की ओर मुखातिब हुए.

‘‘क्या मैं आप को सिर्फ ‘श्री…जी’ कह कर बुला सकता हूं?’’ डा. साकेत बोले, ‘‘आप का नाम सुंदर होते हुए भी मुझे लगता है कि उसे थोड़ा छोटा कर के और सुंदर बनाया जा सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर वेदश्री भी हंस पड़ी.

‘‘श्रीजी, मेरे खयाल से अब मानव की सर्जरी में हमें देर नहीं करनी चाहिए और इस से भी अधिक खुशी की बात यह है कि एशियन आई इंस्टीट्यूट बैंक से हमें मानव के लिए योग्य डोनेटर मिल गया है.’’

‘‘सच, डाक्टर साहब, मैं आप का यह ऋण कभी भी नहीं चुका सकूंगी,’’ उस की आंखों में आंसू उभर आए.

डा. साकेत के हाथों मानव की आंख की सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न हुई. परिवार के लोग दम साधे उस की आंख की पट्टी खुलने का इंतजार कर रहे थे.

आगे पढ़ें- वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद…

जीवन लीला: भाग 1- क्या हुआ था अनिता के साथ

लेखकसंतोष सचदेव

जीवन के आखिरी पलों में न जाने क्यों आज मेरा मन खुद से बातें करने को हो गया. सोचा अपनी  जिंदगी की कथा या व्यथा मेज पर पड़े कोरे कागजों पर अक्षरों के रूप में अंकित कर दूं.

यह मैं हूं. मेरा नाम अनिता है. कहां पैदा हुई, यह तो पता नहीं, पर इतना जरूर याद है कि मेरे पिता कनाडा में भारतीय दूतावास में एक अच्छे पद पर तैनात थे. उन का औफिस राजधानी ओटावा में था. मां भी उन्हीं के साथ रहती थीं. मैं और मेरा भाई मांट्रियल में मौसी के यहां रहते थे. मेरी पढ़ाई की शुरुआत वहीं से हुई. मेरा भाई रोहन मुझ से 5 साल बड़ा था.

स्कूल घर के पास ही था, मुश्किल से 3-4 मिनट का रास्ता था. तमाम बच्चे पैदल ही स्कूल आतेजाते थे. लेकिन हमारे घर और स्कूल के बीच एक बड़ी सड़क थी, जिस पर तेज रफ्तार से कारें आतीजाती थीं. इसलिए वहां के कानून के हिसाब से स्कूल बस हमें लेने और छोड़ने आती थी.

घर में हम हिंदी बोलते थे, जबकि स्कूल में फ्रेंच और अंग्रेजी पढ़नी और बोलनी पड़ती थी. वहां की भाषा फ्रेंच थी. वहां सभी फ्रेंच में बातें करते थे. दुकानों के साइन बोर्ड, सड़कों के नाम, सब कुछ फ्रेंच में थे. जबकि मुझे फ्रेंच से बड़ी चिढ़ थी. स्कूल की कोई यूनीफार्म नहीं थी, फीस भी नहीं, किताबकापियां सब फ्री में मिलती थीं.

सर्दी में भी सभी लड़कियां छोटेछोटे कपड़े पहनती थीं. हम भारतीयों को यह सब बड़ा अजीब लगता था. बचपन के लगभग 10 साल वहीं बीते. मांट्रियल के बारे में सुना था कि वहां बहुत बड़ा पहाड़ था, जिसे माउंट रायल कहते थे. बोलतेबोलते वह माउंट रायल मांट्रियल बन गया. ऊंचे पहाड़ से बहते झरने की तरह मेरी जीवनधारा भी कभी कलकल करती, कभी हिलोरें भरती, कभी गहरी झील की गहराई सी समेटे आगे बढ़ रही थी. वह मधुरिम समय आज भी मेरे जीवन की जमापूंजी है.

मैं थोड़ा बड़ी हो गई. भारतीय परंपराओं के बंधनों से मेरा परिचय कराया जाने लगा. लड़कियां मित्र हो सकती हैं, लड़के नहीं. स्कूल सीमा के बाहर किसी लड़के के साथ न बोलना, न घूमना. पिता नए जमाने के साथ चलने के पक्षधर थे, पर मौसी ने जो बचपन में सिखाया था, उसे तब तक भूली नहीं थीं. वह उस परंपरा को आगे भी जारी रखने के लिए दृढ़ संकल्प थीं. मैं स्कर्ट नहीं पहन सकती थी. कमीज भी पूरी बाहों की, जिसे गले तक बंद करना पड़ता था. भले ही स्कूल में दूसरे बच्चों के बीच हंसी का पात्र बनूं, लेकिन मौसी से कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी.

मैं दसवीं में पढ़ रही थी, तभी अचानक पिताजी का तबादला हो गया. हम अपने देश भारत आ गए. रहने को दिल्ली के आरकेपुरम में सरकारी मकान मिला. वह काफी खुला इलाका था, मां बहुत खुश थीं. क्योंकि उन्हें चांदनी चौक के पुराने कटरों की तंग गलियों वाले अपने पुश्तैनी मकान में नहीं जाना पड़ा था.

दिल्ली के स्कूलों में दाखिला कोई आसान काम नहीं था. पर पिताजी की सरकारी नौकरी और तबादले का मामला था, इसलिए घर के पास ही सर्वोदय स्कूल में दाखिला मिल गया. बारहवीं की परीक्षा मैं ने अच्छे नंबरों से पास की, जिस से दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए में एडमिशन में कोई परेशानी नहीं हुई. इंगलिश औनर्स से बीए कर के मैं युवावस्था की दहलीज तक पहुंच गई.

मां बीमार रहने लगी थीं, भाई रोहन डाक्टरी की ऊंची शिक्षा के लिए लंदन चले गए. जैसा कि भारतीय हिंदू परिवारों में होता है, उसी तरह घर में मेरी शादी की चिंता होने लगी. मेरे पिताजी के एक बड़े पुराने मित्र थे सुंदरदास अरोड़ा. वह ग्रेटर कैलाश में एक बड़ी कोठी में रहते थे.

कनाडा से आने के बाद हम अकसर उन के यहां आयाजाया करते थे. एक दिन उन्होंने मेरे पिताजी से कहा, ‘‘हम दोनों अच्छे मित्र हैं, हमारे परिवार एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं. क्यों न हम इस दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दें. मैं चाहता हूं कि डा. वरुण की शादी अनिता से कर दी जाए.’’

वरुण उन दिनों अमेरिका में रह रहा था. वह वहीं अपनी क्लिनिक चलाता था. उन्होंने डा. वरुण को बुला लिया. उस ने मुझे पसंद कर लिया. मेरी पसंद, नापसंद के कोई मायने नहीं थे. बात आगे बढ़ी और मैं मिस अनिता मेहरा से मिसेज अनिता अरोड़ा हो गई.

शादी के बाद मैं वरुण के साथ अमेरिका के कैलीफोर्निया में रहने लगी. एक साल में ही मैं एक बेटे की मां बन गई. बेटे का नाम रखा गया रोहित. वक्त के साथ रोहित 3 साल का हो गया और स्कूल जाने लगा. पति ने उस की देखभाल के लिए एक आया रख ली थी. इसी बीच दिल्ली में मेरी सास सुमित्राजी के गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना मिली. वरुण ने कहा कि रोहित को आया संभाल लेगी, इसलिए मैं सास की देखभाल के लिए दिल्ली चली जाऊं.

दिल्ली आ कर पता चला कि सास को कैंसर था. ससुर और मैं उन्हें ले कर अस्पतालों के चक्कर काटने लगे. उन की देखभाल के लिए घर पर नर्स रख ली गई थी. लेकिन मेरा मौजूद रहना जरूरी था.

6 महीने से ज्यादा बीत गए. सास की हालत में काफी सुधार आ गया तो मैं ने कैलीफोर्निया जाने की तैयारी शुरू कर दी. शुरूशुरू में वरुण लगभग रोज ही फोन कर के मां का हालचाल पूछता रहा. मैं भी अकसर फोन कर के रोहित के बारे में जानकारी लेती रहती थी. लेकिन अचानक वरुण के फोन आने बंद हो गए. मैं फोन करती तो उधर से फोन नहीं उठता. मुझे चिंता होने लगी.

वरुण से बात किए बगैर वहां कैसे जा सकती थी. जब वरुण से बात नहीं हो सकी तो मेरे ससुर ने अपने दूर के किसी रिश्तेदार से वरुण के बारे में पता करने को कहा. उन्होंने पता कर के बताया कि वरुण किसी डा. मारिया से शादी कर के नाइजीरिया चला गया है. उस के बाद वरुण का कुछ पता नहीं चला.

हम सभी हैरान रह गए. रोहित के बारे में पता करने मैं कैलीफोर्निया गई. पर उस के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था. न परिचितों को न आसपड़ोस वालों को. मैं अकेली होटलों में कितने दिन रुक सकती थी. थकहार कर लौट आई.

मेरे ससुर और पिता की तमाम कोशिशों के बाद भी न वरुण का पता चला, न रोहित का. एक गहरा घाव भीतर ही भीतर रिसता रहा. कुछ दिन बीते थे कि मेरे मातापिता की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. भाई रोहन एक अंग्रेज महिला से शादी कर के लंदन में बस गया था. मातापिता की मौत पर दोनों दिल्ली आए थे. वे लोग चांदनी चौक का पुश्तैनी मकान बेच कर वापस चले गए. मुझे सांत्वना देने के सिवाय और वे कर भी क्या सकते थे.

ग्रेटर कैलाश की उस विशाल कोठी में मेरे दिन गुजरने लगे. समय बिताने और मानसिक तनाव से बचने के लिए मैं एक स्कूल में पढ़ाने लगी थी. स्कूल से घर लौटती तो मेरे सासससुर दरवाजे पर मेरी बाट जोहते मिलते. उन्होंने मुझे मांबाप से कम प्यारदुलार नहीं दिया. मेरे ससुर की उदास आंखें सदा मेरे चेहरे पर कुछ खोजती रहतीं. वह अकसर कहते, ‘‘मैं तुम्हारे पिता और तुम्हारा अपराधी हूं. मेरे बेटे ने मेरे हाथों न जाने किस जन्म का पाप करवाया है.’’

सास भी अकसर अपनी कोख को कोसती रहतीं, ‘‘मेरे बेटे ने जघन्य पाप किया है. इतनी सुंदर पत्नी के रहते उस ने बिना बताए दूसरी शादी कर ली. मेरे पोते को भी ले गया. जिंदा भी हो तो मैं कभी उस का मुंह न देखूं.’’

आगे पढ़ें- अरुण मेरे पति का छोटा भाई था, जो…

अवैध संतान: क्या था मीरा का फैसला

मीरा कन्या महाविद्यालय के गेट से बाहर आते ही विमला मैडम ने अपनी चाल तेज कर दी. वे लगभग दौड़ रही थीं, इसलिए उन की बिटिया सीमा को भी दौड़ लगानी पड़ रही थी. विमला मैडम सीमा के उस सवाल से बचना चाहती थीं जो उस ने गेट से बाहर आते ही दाग दिया था, ‘‘मम्मी, मैं आप की और विमल सर की अवैध संतान हूं?’’

वे बिना कोई उत्तर दिए चली जा रही थीं. इसलिए जब उन के बगल से एक आटो गुजरा तो उसे रोक कर अपनी बेटी सीमा को लगभग खींचते हुए आटो में बैठ गईं. उन्हें पता था, उन की बेटी आटोचालक के सामने कुछ नहीं बोलेगी.

आज जो कुछ घटा उस की उम्मीद उन को सपने में भी नहीं थी. आज उन के स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी तब उन्होंने अपनी बेटी को भी छुट्टी दिला कर बाजार जाने की सोची थी. इसलिए, वे उस की बड़ी मैडम से अपनी बेटी की छुट्टी स्वीकृत करा कर, स्टाफरूम में बैठी थीं. तभी विमल सर स्टाफरूम में आए. विमला मैडम विमल सर से बात कर रही थीं. उसी समय सीमा स्टाफरूम में घुसी. उसे देख कर विमल सर बोले, ‘‘यह तुम्हारी बेटी है, तभी…’’ उन के बात आगे बढ़ाने से पूर्व ही विमला मैडम ने इशारे से उन्हें रोक दिया. परंतु सर के ये शब्द सीमा के कान में पड़ गए. उस समय तो सीमा कुछ नहीं बोली परंतु गेट से बाहर आते ही मम्मी से पूछे बिना नहीं रही.

आटो में चुप बैठी रही सीमा घर पहुंचते ही बोल पड़ी, ‘‘मम्मी, आप जवाब नहीं दे रही हो जबकि मेरी सहेलियां मुझे चिढ़ाती हैं. कहती हैं, ‘तू भी कानपुर की और सर भी कानपुर के, और तेरे में सर का अक्स दिखाई देता है. कहीं तेरी मम्मी और सर के बीच अफेयर तो नहीं था?’ और आज उन के शब्द ‘यह तुम्हारी बेटी है, तभी’. तब क्या, मैं आप की और सर की अवैध संतान हूं?’’

विमला उस की बात को टालते हुए बोलीं, ‘‘जब तू पेट में थी तब तेरे सर के परिवार का घर में बहुत आनाजाना था, इसीलिए.’’

‘‘मम्मी, आप ने मुझे बच्चा समझा है. मैं सर से ही पूछ लूंगी,’’ कह कर सीमा वहां से उठ गई.

विमला ने उसे रोका नहीं क्योंकि उन को पता था, वह जो सोच लेती है, करती है. सीमा चायनाश्ता कर अपने कमरे में आ कर लेट गई. टीवी चला लिया परंतु उस का प्रिय प्रोग्राम भी उस को शांति नहीं दे रहा था. ‘यह तुम्हारी बेटी है, तभी…’, ये ही शब्द उस के कानों में बारबार गूंज रहे थे. तभी फोन की घंटी बजी. उस ने फोन उठाया, उधर उस की सहेली मधु थी, ‘‘तू भी घर आ गई पागल, घड़ी देख, 4 से ज्यादा बज गए हैं.’’

इधरउधर की बातें करने के बजाय सीमा ने सीधे ही पूछ लिया, ‘‘तू विमल सर का घर जानती है?’’

‘‘क्यों? क्या तू भी सर से ट्यूशन पढ़ना चाहती है? हां, वह बहुत अच्छा पढ़ाते हैं. अरे हां, तेरा विषय तो सर पढ़ाते नहीं हैं. फिर तू…?’’

‘‘तुझ से जितना पूछा है उतना बता. मैं खुद चली जाऊंगी, तू केवल पता बता.’’

‘‘ऐसा कर, गांधी चौक की ओर से मेरे घर की ओर आएगी, तो पहले ही मोड़ पर अंतिम मकान है. उन के नाम की प्लेट लगी है.’’

उस ने फोन रख दिया और मम्मी से बोल दिया, ‘‘मैं मधु के घर जा रही हूं, जल्दी घर आ जाऊंगी.’’

कुछ ही देर में सीमा सर के घर पहुंच गई. वह पहले झिझकी, फिर घंटी बजा दी. दरवाजा सर ने ही खोला. एक पल को वह सर को देखती ही रही क्योंकि आज उसे सर दूसरे ही रूप में दिख रहे थे और फिर उसे अपना मकसद ध्यान आया और सर के कुछ बोलने से पहले ही वह बोल पड़ी, ‘‘सर, क्या मैं आप की और मम्मी की अवैध संतान हूं?’’

सर को शायद ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी.

इसलिए सर ने कहा, ‘‘देखो बेटे, ऐसे प्रश्न दरवाजे पर नहीं किए जाते. अंदर आओ. मैं तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर दूंगा.’’

वह अंदर आ गई. अंदर सर ने अपनी मम्मी से उस का परिचय कराया, ‘‘मम्मी, यह विमला की बेटी है.’’

सर की मम्मी पुलकित हो उठीं, ‘‘मम्मी को भी ले आती.’’

उन के और कुछ बोलने से पूर्व ही सर ने मम्मी को कहा, ‘‘मम्मी, बाकी बातें बाद में हो जाएंगी. इसे चायनाश्ता कराओ. पहली बार घर आई है,’’ उन के चले जाने के बाद सर बोले, ‘‘हां, अब बोलो.’’

‘‘सर, मैं आप की और मम्मी की अवैध संतान हूं?’’

‘‘देखो बेटे, संतान अवैध नहीं होती, बल्कि संबंध अवैध होते हैं. और फिर मेरे और तुम्हारी मम्मी के संबंधों को तो तुम्हारे पापा की स्वीकृति थी.’’

यह सुनते ही सीमा का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई इतना नीचे भी गिर सकता है. उसे यह समझ नहीं आया कि पापा की क्या मजबूरी थी.

उस की परेशानी भांप कर सर बोले, ‘‘शांत हो कर बैठो, मैं सब बताता हूं. तुम्हारी मम्मी की शादी आम हिंदुस्तानी शादी थी. पहले 2 साल शादी की खुमारी में  निकल गए और फिर कानाफूसी शुरू हो गई कि घर में किलकारी क्यों नहीं गूंजी. पहले घर से और फिर आसपास. तुम्हारे पापा के दोस्त ताना मारने से नहीं चूकते. उधर, उन की मर्दानगी पर चुटकुले बनने लगे. साथ ही, डाक्टरी रिपोर्ट ने आग में घी का कार्य किया. कमी तुम्हारे पापा में मिली. ‘‘तुम्हारे पापा औफिस का गुस्सा घर में निकालने लगे. उन्हीं दिनों हमारा परिवार तुम्हारे पड़ोस में आ गया. तुम्हारी मम्मी हमारे घर आ जातीं. मैं तुम्हारी मम्मी के बाजार के काम कर देता. तुम्हारी मम्मी कोई बच्चा गोद लेने को कहतीं तो तुम्हारे पापा नाराज हो जाते. उन को अपनी मर्दानगी दिखानी थी. मेरे और तुम्हारी मम्मी के बीच निकटता बढ़ने लगी. तुम्हारे पापा ने हमारी निकटता को इग्नोर किया. फलस्वरूप, हमारी निकटता और बढ़ती गई और उस मुकाम तक पहुंच गई जिस के फलस्वरूप तुम अपनी मम्मी के पेट में आ गईं.

‘‘वह दिन मुझे आज भी याद है, मैं जब तुम्हारे घर पहुंचा तब तुम्हारी मम्मी के शब्द कान में पड़े, उन शब्दों को सुनते ही अंदर जा रहे मेरे कदम रुक गए. तुम्हारी मम्मी कह रही थीं, ‘लो, अब तुम भी मर्द बन गए. मैं गर्भवती हो गई. अब दोस्तों के सामने तुम्हारी गरदन नहीं झुकेगी.’ मुझे लगा कि मैं सिर्फ एक टूल था, जो तुम्हारे पापा को मर्द साबित करने के लिए इस्तेमाल किया गया था. मुझे तुम्हारी मम्मी पर गुस्सा आया. सोचा कि वहां जा कर अपनी नाराजगी जाहिर करूं लेकिन फिर मुझे तुम्हारी मम्मी पर तरस आ गया. मैं वापस घर आ गया. उस के बाद मैं कभी तुम्हारे घर नहीं गया.

‘‘उसी दौरान मेरे पापा का तबादला हो गया. जिस दिन हम जा रहे थे उस दिन तुम्हारी मम्मी हमें छोड़ने आई थीं. वे कुछ नहीं बोलीं लेकिन उन की चुप्पी भी बहुतकुछ कह गई. मैं ने उन को माफ कर दिया.’’

सर की मम्मी, जो वहां आ गई थीं, ने सब सुन लिया था, बोल पड़ीं, ‘‘बेटा, इस ने खुद को माफ नहीं किया और अब तक शादी नहीं की.’’

‘‘तुम्हारी मम्मी की खबरें शोभा आंटी से मिलती रहीं. तुम्हारा जन्म हुआ. तुम्हारे पिता ने पार्टी दी. लेकिन बताते हैं कि उन के चेहरे पर वह खुशी नहीं दिखाई दी जो एक बाप के चेहरे पर दिखाई देनी चाहिए थी. तुम्हारी मम्मी और पापा में झगड़ा और बढ़ गया. तुम्हारा चेहरा देख कर उन को पता नहीं क्या हो जाता, शायद उन को अपनी नामर्दी ध्यान आ जाती या वे हीनभावना से ग्रस्त हो गए थे. तुम्हारी ओर ध्यान नहीं देते. तुम्हारी मम्मी के लिए तुम सबकुछ थीं. शायद वे तुम्हारे कारण अपने को भूल जातीं.

‘‘एक दिन तुम्हारी मम्मी बाथरूम में नहा रही थीं. तुम जोरजोर से रो रही थीं. तुम्हारे पापा वहीं खड़े थे परंतु उन्होंने तुम्हें चुप नहीं कराया. उसी समय शोभा आंटी आ गईं. तुम्हें जोरजोर से रोते देख कर वे तुम्हारे पापा से बोलीं, ‘कैसा बाप है? लड़की रोए जा रही है और तू अपनी टाई बांधने में लगा है, जैसे यह तेरी बेटी नहीं है.’ आंटी के बोलते ही वे आगबबूला हो उठे. वे चीखे, ‘हांहां, यह मेरी बेटी नहीं है. मैं तो नपुंसक हूं.’

‘‘इतना कह कर वे घर से निकल गए और फिर केवल उन की मौत की सूचना आई कि उन्होंने रेलगाड़ी के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली थी. बस, एक ही बात उन्होंने अच्छी की, अपनी मौत के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया.

‘‘कुछ दिन के बाद तुम्हारे मामा, तुम्हारी मम्मी और तुम को ले कर चले गए.’’

बात गंभीर हो गई थी. एक तरह से वहां चुप्पी छा गई. चुप्पी सीमा ने ही तोड़ी, ‘‘सर, मेरी शादी के बाद मेरी मम्मी अकेली रह जाएंगी. आप भी कभी अकेले हो जाओगे. इसलिए आप और  मम्मी अपने उन अवैध संबंधों को वैध नहीं बना सकते?’’

‘‘पगली, अब हमारी शादी की उम्र थोड़े ही है, अब तो तेरी शादी करनी है.’’

‘‘लेकिन सर, आप से मिलने के बाद मैं ने मम्मी के चेहरे पर अलग चमक देखी थी. और अब जब आप ने घर के दरवाजे पर मुझे देखा तो आप के चेहरे पर भी वही चमक मैं ने महसूस की.’’

‘‘बहुत बड़ी हो गई है तू और लोगों को पढ़ना भी जानती है.’’

‘‘प्लीज, सर.’’

‘‘तू एक तरफ तो मुझे पापा बनाना चाहती है और दूसरी ओर सरसर भी करे जा रही है. पापा नहीं कह सकती.’’

‘‘सौरी, पापा,’’ कहती हुई वह सर से लिपट गई. दादी ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘चल बेटा, अपनी बहू के पास चलते हैं.’’

सीमा ने उन को रोक दिया, ‘‘पहले मैं मम्मी से बात कर लूं.’’

‘‘मैं तेरी मम्मी को जानती हूं. वह भी राजी हो ही जाएगी.’’

‘‘हां, दादी, मम्मी मेरी खुशी के लिए कुछ भी कर सकती हैं.’’

सीमा वापस घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई तब विमल सर उसे छोड़ने आ गए. उधर, विमला सीमा के लिए चिंतित हो रही थीं. दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोलने पर सामने सीमा ही थी. विमला चीखीं, ‘‘कहां गई थी?’’

‘‘पापा के पास.’’

‘‘तेरे पापा तो मर चुके हैं.’’

‘‘वे मेरे पापा नहीं थे. वे आप के पति थे. और फिर वे तो पति कहलाने लायक भी नहीं क्योंकि वे तन से ही नहीं मन से भी नपुंसक थे, जो अपनी पत्नी को पराए मर्द के साथ सोने को प्रेरित करता है मात्र इसलिए कि दुनिया के सामने अपने को मर्द दिखा सके. अपने को मर्द दिखाने के लिए पत्नी द्वारा बच्चा गोद ले लेने के विचार को भी न सुने.’’

‘‘तो इतना जहर भर दिया उस ने. मुझे उस से यह उम्मीद नहीं थी. मैं इसीलिए चुप थी कि यह सुन कर तू मुझ से भी घृणा करने लगती.’’

‘‘मम्मी, मैं आप से घृणा करूंगी? आप ने जिस तरह मेरी परवरिश की है उस पर मुझे गर्व है कि तुम मेरी मां हो. पापा भी ऐसे नहीं हैं. दरवाजे पर मुझे देख कर उन की नजर इधरउधर घूम रही थी. वे शायद आप को खोज रहे थे.’’

फिर कुछ समय तक चुप्पी छाई रही. दोनों एकदूसरे को देखती रहीं. फिर सीमा ही बोली, ‘‘मम्मी, आप और सर अपने अवैध संबंधों को वैध नहीं बना सकते?’’

‘‘नहीं बेटा, अब मुझे तेरी शादी करनी है, अपनी नहीं.’’

‘‘मम्मी, पापा को पता है मैं उन की बेटी हूं परंतु मुझे बेटी नहीं कह सकते. मैं जानते हुए भी उन को पापा नहीं कह सकती. और आप मेरे सामने खोखली हंसी हंसोगी और अकेले में रोओगी.’’

‘‘लेकिन बेटा, लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘उन की चिंता नहीं है. मुझे आप की चिंता है. मेरी शादी के बाद आप अकेली रह जाओगी और उधर, दादी कितने दिन की मेहमान हैं. बाद में पापा भी अकेले हो जाएंगे.’’

विमला विचारमग्न हो गईं. फिर अचानक बोल पड़ीं, ‘‘तू अकेली आई, कैसा पिता है? जवान लड़की को रात में अकेला भेज दिया.’’

‘‘नहीं, मम्मी, पापा आए थे.’’

‘‘फिर अंदर क्यों नहीं आए?’’

‘‘मम्मी, मैं ने मना कर दिया था. मैं चाहती थी कि पहले मैं आप से बात कर लूं.’’

‘‘ओह, क्या बात है. बड़ी समझदार हो गई है मेरी लाड़ली.’’

तभी फोन की घंटी बजी. सीमा ने फोन उठाया, उधर दादी थीं. उस ने फोन मम्मी को दे दिया. मम्मी बोलीं, ‘‘नमस्ते, आंटी.’’

‘‘अरे, मैं अब तेरी आंटी नहीं, बल्कि अब तेरी सास हूं.’’ इस के बाद की कहानी भी छोटी सी रह गई है. सीमा के मम्मीपापा के अवैध संबंध वैध बन गए. सब बहुत खुश थे. सब से ज्यादा कौन खुश था, बताने की जरूरत नहीं.

आज जब मैं यह कहानी लिख रहा हूं तब सीमा मेरे पास बैठी है, पूछ रही है, ‘पापा, मैं ने सही किया या गलत?’

अब आप लोग ही बताएं सीमा ने सही किया या गलत?

हमसफर: पूजा का राहुल से शादी करने का फैसला क्या सही था

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Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 3- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

‘‘अरे रुकिए तो वकील साहब. मेरे जूते मिलेंगे तभी तो,’’ सिकंदर जूते ढूंढ़ते हुए बोला.

प्रख्यात कीचड में खड़ा कभी खुद को, तो कभी अपने गंदे हो रहे पांवों को खीज कर देख रहा था. पैसे निकाल कर उसे देने ही पड़े.

‘‘हैलो पैसे मिल गए?’’ सखी का फोन था.

‘‘हां, जल्दी बता कहां हैं जूते?’’

‘‘सच बोल रही है न?’’

‘‘हां भई, अब बता न.’’

‘‘जा जूते सिकंदर की गाड़ी में रखे हैं.’’

‘‘वादा किया था कोई शरारत नहीं करेगी पर मानी नहीं शैतान… इस की शादी में सारा बदला लूंगी अच्छी तरह,’’ सुदीपा ने मुसकराते हुए कार की ओर इशारा किया.

सभी तुरंत भाग कर गाड़ी में जा बैठे. गाड़ी वकील को 33 सैक्टर छोड़ने चल पड़ी.

‘‘अनोखी सखी है आप की… कोई अनोखा ही मिलना चाहिए उन्हें,’’ प्रख्यात जूते पहनते हुए बोला.

‘‘सही में… मैं तो उस के लिए यही

कामना करती हूं… शुक्र करो बहुत कम शरारत ही की उस ने… अरे मैं तो कालेज से देख रही

हूं. कभी किसी के सीट पर गोंद चिपकाना, तो कभी किसी की चोटी चेयर से बांधना… टीचरों के अपने ही नामकरण किए थे. इंगलिश वाली मैडम को सूर्पणखा तो बौटनी वाली को मां

शारदे, कैमिस्ट्री वाली को काली खप्परवाली, फिजिक्स टीचर को दुर्गति दुर्गा… अपने बचपन के तो तमाम शरारती किस्से मजे ले कर सुनाते नहीं थकती.’’

सिकंदर और सुदीपा को कोर्ट मैरिज के बाद घर वालों के बड़े गुस्से का सामना करना पड़ा. काफी समय नाराजगी रही, खूब डांट पड़ी. प्रख्यात ने अपनी तरफ से उन्हें काफी सम झाने की कोशिश की. फिर सही में मातापिता दोबारा शादी के बाद ही उन्हें पतिपत्नी के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार

हो गए. सब के मन में खुशी की लहर दौड़ने लगी. पूछ कर शादी की तारीख 3 महीने बाद तय की गई.

रात को प्रख्यात घर पहुंचा तो मां ने उसे उस की सगाई का कार्ड दिखाया जो अभीअभी छप कर आया था.

‘‘देख प्रख्यात कितना सुंदर है तेरी सगाई का कार्ड… दे आ अपने दोस्तों को भी.’’

‘‘आयुष्मति निष्ठा…’’ वह चौंका. उसे लाली याद आ गई. उस का नाम भी…’’

‘‘अब तो यह फोटो देख ले उस का… कितनी प्यारी है. तभी तो रिश्ता आते ही हम ने हां कर दी… तूने हमेशा मना किया देखने को, अब बाद में न कहना. देख ले अभी भी…’’ मम्मी अपनी सही और सुंदर पसंद दिखाने को बेचैन हो उठी थीं.

कुतूहलवश एक नजर उस ने देख ही लिया.

शुक्र है शक्ल उस लाली निष्ठा की नहीं. नाम से तो मैं तो घबरा ही गया था. लाली के पीछे से बौयकट, आगे से माथे को पूरा ढकते साधना कट हेयर, उस की हलकी सी भूरी आंखें… जुड़ी हुई भवें, सामने दांतों के बीच गैप… स्लाइड सी चल पड़ी प्रख्यात के दिमाग में.

‘‘क्या सोच रहा है. अच्छी नहीं लगी क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी ऐसा कुछ नहीं. आप ने

पसंद की है तो अच्छी कैसे नहीं होगी,’’ वह मुसकराया.

सिकंदर के मातापिता ने थाईलैंड डैस्टिनेशन वैडिंग का निश्चय किया. वे सभी सहमत हुए तो उन की तैयारी शुरू हो गई. इधर रिसर्च पूरा होने के पहले ही प्रख्यात की जौब प्लेसमैंट के लिए मेल आ गया कि जल्दी थीसिस अप्रूव होते ही जौइन करें. मुंबई की नामी मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब मिल गई थी. निष्ठा तो उस के लिए सही रही, यह खुशखबरी कैसे बताए उसे एक  िझ झक मन में लिए वह निकल पड़ा अपने होस्टल अपनी थीसिस जल्दी पूरी कर सबमिट करने के लिए.

‘‘मेरी सखी अंतर्ध्यान हो गई… किसी रिश्तेदार की शादी में गई है हाऊ बोरिंग… उस के साथ हर पल रोचक रहता मेरा.’’

‘‘अब मेरा सखा भी चला गया रिसर्च सबमिशन के लिए… अपनी सगाई के समय ही आएगा.’’

सही ही कहा था सिकंदर ने. प्रख्यात वाकई अपनी सगाई के दिन ही पहुंचा था.

‘‘कमाल करता है यार इतना बिजी था… अभी तक लड़की को न देखा न बात की होगी… क्या सोचती होगी वह… मम्मापापा का संस्कारी बौय,’’ सिकंदर ने थोड़ा गुस्सा किया.

‘‘अच्छा चल पहले जल्दी सैलून चल अच्छी तरह तैयार हो कर आ. फिर यह आंटी की लाई शानदार ड्रैस पहनना.’’

प्रख्यात तैयार हो कर सब के साथ वेन्यू पहुंचा तो निष्ठा के पिता व भाइयों ने स्वागत किया. निष्ठा की प्रतीक्षा में स्टेज पर बैठे प्रख्यात के दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं. निष्ठा आई तो चेहरे पर घूंघट डाल रखा था. सिकंदर और सुदीपा ने उसे थाम लिया, बधाई दी.

सुदीपा गले मिल कर बोली, ‘‘बहुत बधाई सखी, पर ज्यादा तंग न करना बेचारे को. बात पच नहीं रही थी फिर भी हम दोनों ने कुछ नहीं बताया इसे,’’ सुदीपा ने मुसकराते हुए उस की हथेली दबा दी.

‘‘हां, बिना मु झे पहले देखे मिले. मंगनी करने का फल तो भुगतना होगा जनाब को… न कौल की न मिले,’’ वह घूंघट में हंसी.

लड़कियां तो शादी के समय भी आजकल घूंघट नहीं करतीं यह तो… मम्मी तो बता रही थीं कि बड़े मौर्डन खयालात के हैं ये लोग… प्रख्यात सोचे जा रहा था.

सखी पास आ कर बैठ गई. सब ने तालियां बजाईं.

‘‘प्रख्यात घूंघट उठा. फिर सगाई की रस्म शुरू की जाए,’’ मम्मी की आवाज थी.

‘‘मगर मम्मी…’’

‘‘यहां भी तु झे मम्मी की हैल्प चाहिए?’’ वातावरण में ठहाका गूंज उठा.

प्रख्यात ने जब घूंघट उठाया तो हैरान हो उठा. निष्ठा ने उसे चिढ़ाने के

लिए अपनी आंखें पूरी स्क्विंट कर ली थीं. उस की भवें लाली जैसी ही जुड़ी थीं. वह पसीने से नहा गया. मम्मी को देखने लगा.

दूसरे ही पल निष्ठा ने आंखें ठीक कर लीं, तो राहत हुई. सुदीपा टिशू से उस की काजल से बनी भवें साफ कर हंसने लगी.

‘‘यही सखी है, लाली भी और आप की निष्ठा भी… बोला था न शादी करूंगी तो तुम

से. पूरी नजर रख रही हूं तब से ही… बैठी रही तुम्हारे इंतजार में… आंटीअंकल को सब पता

था, पार्क में भी उस दिन मैं ही थी. जब दिल

नहीं माना तो जंगली घास की बाली घुसा दी तुम्हारी शर्ट में. मम्मी को तो पहचान लिया

होगा. बुद्धू सिंह. तुम्हें सरप्राइज का जबरदस्त  झटका देना था. इसीलिए कोर्ट में चेहरा छिपाते हुए जल्दी ही भाग गई थी. तुम्हें तंग करने

का अलग ही मजा है. अब तो जिंदगी भर ये

मजे लूंगी,’’ और फिर हंसते हुए बड़ी नजाकत

से रिंग सेरेमनी के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.

प्रख्यात हैरान हो अनोखी लाली का

बदला रूप मंत्रमुग्ध हो देखे जा रहा था.

बचपन में वह अनोखी की अनोखी शरारतों से डरता भी था पर रोज इंतजार भी करता था.

शायद उस की नित नई रंगभरी शरारतों का

इंतजार उसे अच्छा भी लगता था. इसीलिए तो आज वह पूरा जीवन इस जीवंत रंग में रंगने

के लिए अपने को बिना डर के सहर्ष तैयार पा रहा था.

‘‘अब पहना भी दो कहां खो गए? जल्दी करो, निहारते ही रहोगे क्या?’’

‘‘पहनाओ प्रख्यात वरना अनोखी फिर

कोई शरारत न कर दे,’’ एकसाथ कई आवाजें गूंजीं.

फिर ठहाकों और तालियों के बीच

आखिर मुसकराते हुए निष्ठा को मंगनी रिंग

पहना दी.

मौन : एक नए रिश्ते की अनकही जबान

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे हों. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’

मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था,  बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’

‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’

‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया.

‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’

‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं.

श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए.

सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए.

Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 2- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

‘‘अबे चल कोई फिल्म है क्या? मैं आंटी से बात करता हूं अगर तू वाकई सीरियस है तो,’’ प्रख्यात हंसा था.

‘‘अच्छा इतना ही सयाना है तो मेरी आंटी से लड़की से मिलने देने को क्यों नहीं कहता… ये पुरातनपंथी मानने वाले नहीं…’’

‘‘अरे कुछ ही दिनों की बात है. रहने देते हैं न उन्हें सुख से अपने संस्कारों में, अपनी मान्यताओं में. 15 को तो मिल ही लूंगा…’’

‘‘पसंद न आई तो?’’ सिकंदर अभी भी नहीं पचा पा रहा था कि प्रख्यात बिना देखे शादी के लिए कैसे मान रहा है.

‘‘अरे घर वाले ही हैं अच्छा ही सोचा होगा,’’ कह प्रख्यात मुसकराया.

‘‘फिर भी… कमाल है तू… हद ही है… अच्छा सुन अगले सोमवार कर लेते हैं शादी… वह कह रही थी कि हम सीधा कोर्ट आ जाएंगे… तू वहां का सब संभाल लेना. तेरे दोस्त वहां हैं न. फिर घर जा कर सब का आशीर्वाद ले लेंगे. उन्हें देना ही पड़ेगा घर वाले जो हैं,’’ वह प्रख्यात की बात दोहराते हुए हंसा था.

‘‘कमाल है, तू उलटापलटा काम करेगा और मेरी नकल उतारेगा… मैं इन बातों में साथ नहीं देने वाला… आंटीअंकल से मु झे डांट नहीं खानी… मेरा रैपो क्यों खराब करना चाहता है?’’

‘‘अबे यार उस की दोस्त सखी तो उस की मदद को साथ आ रही है,’’ सिकंदर बोला.

‘‘दोस्तसखी एक ही बात है. नाम नहीं कह सकता?’’

‘‘यही नाम मालूम है मु झे. वह हमारी शादी तक में सब संभाल लेगी. उस के बाद काम तेरा, तू कैसा दोस्त है यार… अच्छा चल किसी दोस्त को ही बोल दे वहां सब तैयारी रखे.’’

‘‘अरे यार आंटी से बात करने दे. ऐसे बिलकुल ठीक नहीं लगता,’’ प्रख्यात फिर हिचकिचाया.

‘‘अरे तब तो वे बिलकुल नहीं होने देंगी. दादी की सारी मान्यताएं उन्हें सिर ओढ़नी हैं… मान ले मेरा कहा यार… लड़के की तरफ से विटनैस तो तू ही होगा वरना मैं तेरी सगाई में नहीं आऊंगा सम झ ले,’’ वह छोटे बच्चे की तरह रूठ कर बोला तो प्रख्यात हंस दिया.

‘‘चल डन. तू मिला न मिला अपनी से मु झे बट मैं तु झे आज ही मिला दूंगा. शाम को 7 बजे क्वालिटी में. अभी उस से बात करता हूं… हम रोज ही मिलते हैं. तेरा बता देता हूं कि आज तू भी साथ होगा.’’

शाम को प्रख्यात मिला तो सुदीपा के व्यवहार से काफी इंप्रैस हुआ. फिर सोचने लगा कि हां फिट बैठेगी इस के घर में पर इस फंटूश को कैसे पसंद कर लिया इस ने. पर फिर थोड़ी देर में ही उसे पता चल गया कि आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है.

‘‘भाई प्लीज, आप हमारी शादी में हमारे साथ रहना, गवाह बनना कोर्ट में… बहुत डर लग रहा है. मांपापा की मरजी के बिना कभी कोई काम नहीं किया. मेरी दोस्त भी आएगी… उसी ने तो मु झे हिम्मत दिलाई है. बड़ी दिलेर है. किसी भी बात का उसे डर नहीं. एकदम बिंदास है. आप मिलना उस से, हम ग्रैजुएशन से दोस्त हैं… आप अपने दोस्त को वहां बोल देना सारी तैयारी, औपचारिकताएं पूरी रखे. मांपापा पहले तो नहीं मान रहे पर यकीन है बाद में मान जाएंगे,’’ सुदीपा बोली.

सुदीपा की मासूमियत भरी अनुनय देख कर प्रख्यात पिघल गया, ‘‘ओके फिर… आना ही पड़ेगा विवाह में, लड़के वाला जो बन रहा हूं…’’

वे सब रैस्टोरैंट से बाहर निकल आए.

सुदीपा की दोस्त सखी की बात सुन कर प्रख्यात को लाली फिर याद हो आई. वह भीतो ऐसी ही दबंग थी. कभी डेस्क में ब्लेड खोंस कर, चलती क्लास में बाजा बजाती. टीचर चिल्लाती कि कौन बजा रहा है, पर उस के डर से कोई नहीं बताता. शांति छा जाती. कभी पूरी क्लास की छुट्टी कराने का मन हो तो उस के निर्देश पर सभी किताब न लाने का बहाना बताते. पूरी क्लास को बैंचों पर खड़े रहने की सजा दे कर मैडम चली जातीं. बस पढ़ाई बंद और सीढ़ीनुमा क्लास की बैंचों पर चुपकेचुपके पकड़मपकड़म के मजे शुरू… कई दिनों से न जाने क्यों बारबार उस अनोखी शैतान की याद आ रही है. जिस के पल्ले पड़ी होगी उस का भला हो.

कोर्ट पहुंच कर प्रख्यात अचरज में था. सुदीपा को जींसटौप के

ऊपर ही चुन्नी ओढ़ा कर उस की दोस्त माथा ढकी साथ बैठी थी. सिकंदर भी सिंपल जींसटीशर्ट में था.

‘‘अरे यार तेरी शेरवानी कहां गई जो तूने उस दिन ली थी? मेरे साथ आज पहनी

क्यों नहीं?’’

‘‘लास्ट मोमैंट पर सखी ने तय किया.

मना किया कि बहुत खूबसूरत है ड्रैस पर कौन देख रहा है यहां, उस पर यह गरमी में क्या

तुक है भई… पक्की बात है दोनों के पेरैंट्स दोबारा धूमधाम से शादी करेंगे ही तब पहनना बेकार अभी वेस्ट क्यों करना. इसे ब्यूटीपार्लर

भी न जाने दिया. न दुलहन सी ड्रैसिंग करने दी कि यहां से सीधा कोर्ट जाना है. हमें भी लगा सही है.’’

‘‘तो मैं ही उल्लू बन गया, जो सूट कर आया हूं,’’ प्रख्यात पूरे सूट में था. न जाने क्यों उस ने कोर्ट में भी बाहर जूते उतारे और पास ही कुरसी पर बैठ गया. सब में तेज खिलखिलहट

जो उभरी थी वह सखी की ही थी, ‘‘नमस्ते’’.

मगर प्रख्यात खिसयाया सा नजरें नहीं

मिला पाया. न ही चेहरा ठीक से देख पाया

उस का. फिर एक ओर देखते हुए उस ने जवाब दिया, ‘‘नमस्ते.’’

फिर चोरी से देखना भी चाहा पर दिखी नहीं. न जाने कहां गायब हो गई.

थोड़ी देर बाद ही कैमरा चेहरे पर चढ़ाए फोटोशूट करती हुई नजर आई. प्रख्यात को उस का चेहरा अब और भी नहीं दिख रहा था.

‘‘जल्दी शुरू करो.’’

ज्यादा समय नहीं लगा, 1 घंटे में विवाह के सारे दस्तावेज, प्रमाणपत्र ले लिए गए. बधाई दे कर गले मिलने के बाद जब सब चलने को हुए तो कोर्ट के कमरे के बाहर से प्रख्यात के चमकते जूते गायब थे. सखी हैलमेट पहन अपनी स्कूटी स्टार्ट कर चुकी थी. अगेन कौंग्रैट्स सुदी सिक… मतलब सिकंदर भाई, मैं चली ड्यूटी बाय. थोड़ा ढूंढ़ो तुम. मिल जाएंगे… कोर्ट में सभी रिकौर्ड लेने में अभी बहुत टाइम है. थोड़ी मेहनत करो,’’ हंसते हुए वह फुर्र से निकल गई. रिम िझम बारिश होने लगी थी.

‘‘हैलो,’’ सुदीपा ने उस का फोन उठाया. सखी का ही था.

‘‘सुदीपा जरा दोनों से क्वहजारहजार जूता चुराई के मेरे वसूल लो फिर बताती हूं कहां छिपाए हैं… नो चीटिंग… पैसे दो जूते लो.’’

‘‘ओह तो यह कारगुजारी करने के लिए गायब हुई थी मैडम. अभी साली बन गई कोर्ट में ही,’’ सुदीपा हंसी.

‘‘तो अब दोनों नेग देने को भी तैयार हो जाओ. पैसे दे दो जूते ले लो. निकालिए आप हजारहजार रुपए.’’

‘‘वकील साहब हलकी फुहार में भी हैरानपरेशान पसीने से तर हो रहे थे. उन्हें अगले किसी मामले की तैयारी पर पहुंचने की जल्दी जो थी. वे उतावले थे जाने को. बारबार कहे जा रहे थे, ‘‘भैया पहले मु झे छोड़ दो 33 सैक्टर… देर हो रही है. वहां समय से क्लाइंट से मकान की राजस्ट्री के कागज तैयार कराने न पहुंचा तो मेरा नुकसान हो जाएगा.’’

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दूसरी औरत : अब्बू की जिंदगी में कौन थी वो औरत

मैं मोटरसाइकिल ले कर बाहर खड़ा था. अम्मी अंदर पीर साहब के पास थीं. वहां लोगों की भीड़ लगी थी.

भीतर जाने से पहले अम्मी ने मुझ से भी कहा था, ‘आदिल बेटा, अंदर चलो.’ ‘मुझे ऐसी फालतू बातों पर भरोसा नहीं है,’ मैं ने तल्खी के साथ कहा था.

‘ऐसा नहीं कहते बेटा,’ कह कर अम्मी पर्स साथ ले कर अंदर चली गई थीं. न जाने बाबाबैरागियों के पीछे ये नासमझ लोग क्यों भागते हैं? मैं देख रहा था कि कोई नारियल तो कोई मिठाई ले कर वहां आया हुआ था. पिछले जुमे पर भी जब अम्मी यहां आई थीं, तो 5 सौ रुपए दे कर अपना नंबर लगा गई थीं. फोन से ही आज का समय मिला था, तो वे मुझे साथ ले कर आ गई थीं. मैं घर का सब से छोटा हूं, इसलिए सब के लिए आसानी से मुहैया रहता हूं. मैं ने अम्मी को कई बार समझाया भी था, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं. यह बात आईने की तरह साफ थी कि पिछले 2-3 सालों में हमारे घर की हालत बहुत खराब हो गई थी. इस के पहले सब ठीकठाक था.

मेरे अब्बा सरकारी ड्राइवर थे और न जाने कहां का शौक लगा तो एक आटोरिकशा खरीद लिया और उसे किराए पर दे दिया. कुछ आमदनी होने लगी, तो बैंक से कर्ज ले कर 2-3 आटोरिकशा और ले लिए और उसी हिसाब से आमदनी बढ़ गई थी. अब्बा घर में मिठाई, फल लाने लगे थे. 1-2 दिन छोड़ कर चिकन बिरयानी या नौनवेज बनने लगा था. फ्रिज में तो हमेशा फल भरे ही रहते थे. अम्मी के लिए चांदी के जेवर बन गए थे और फिर हाथ के कंगन. गले में सोने की माला आ गई थी. मेरी पढ़ाई के लिए अलग से कोचिंग क्लास लगा दी गई थी. मेरी बड़ी बहन यानी अप्पी भी हमारे शहर में ही ब्याही गई थीं. उन की ससुराल में अम्मी कभी भी खाली हाथ नहीं जाती थीं. बड़ी अप्पी के बच्चे तो नानानानी का मानो इंतजार ही करते रहते थे.

फिर अब्बा परेशान रहने लगे. वे किसी से कुछ बात नहीं कहते थे. मुझे कभी कपड़ों की या कोचिंग के लिए फीस की जरूरत होती, तो वे झिड़क देते थे, ‘कब तक मांगोगे? इतने बड़े हो गए हो. खुद कमओ…’

अब्बा के मुंह से कड़वी बातें निकलने लगी थीं. नए कपड़े दिलाना बंद हो गया था. अम्मी अब बड़ी अप्पी के यहां खाली हाथ ही जाने लगी थीं. अम्मी घरखर्च के लिए 3-4 बार कहतीं, तब अब्बा रुपए निकाल कर देते थे. आखिर ऐसा क्यों हो रहा था? अम्मी कहतीं कि घर पर किसी की नजर लग गई या किसी शैतान का बुरा साया घर में आ गया है. हद तो तब हो गई, जब अब्बा ने अम्मी से सोने के कड़े उतरवा कर बेच दिए और जो रुपए आए उस का क्या किया, पता नहीं? अम्मी को भरोसा हो गया था कि कुछ न कुछ गलत हो रहा है. वे मौलाना से पानी फुंकवा कर ले आईं, कुछ तावीज भी बनवा लिए. अब्बा के तकिए के नीचे दबा दिए, लेकिन परेशानियां दूर नहीं हुईं. एक दिन शाम को अम्मी ने एक पीर साहब को बुलवाया. वे पूरा घर घूम कर कहने लगे, ‘कोई बुरी शै है.’

इसे दूर करने के लिए पीर साहब ने 2 हजार रुपए मांगे. अम्मी ने जो रुपए जोड़ कर रखे थे, वे निकाल कर दे दिए और तावीज ले लिया. घर में पानी का छिड़काव कर दिया. दरवाजों के बीच में सूइयां ठुंकवा लीं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. अब्बा ने अम्मी से चांदी के जेवर भी उतरवा लिए. अम्मी ने मना किया, तो बहुत झगड़ा हुआ. अब तो मुझे भी यकीन होने लगा था कि मामला गंभीर है, क्योंकि ऐसी खराब हालत हमारे परिवार की कभी नहीं हुई थी. अम्मी ने यह बात अपनी बहनों से भी की और कोई बहुत पहुंचे हुए पीर बाबा के बारे में मालूम किया. अम्मी ने पिछले जुमे को पैसा दे कर अपना नंबर लगवा लिया था.

मैं अपनी यादों से लौट आया. मैं ने घड़ी में देखा. रात के 9 बज रहे थे. तभी देखा कि अम्मी बाहर बदहवास से आ रही थीं. मैं घबरा गया और पूछा, ‘‘क्या बात है अम्मी?’’ ‘‘कुछ नहीं बेटा, घर चल,’’ घबराई सी आवाज में अम्मी ने कहा और कहतेकहते उन का गला भर आया.

‘‘आखिर माजरा क्या है? पीर साहब ने कुछ कहा क्या?’’ मैं ने जोर दे कर पूछा.

‘‘तू घर चल, बस… अम्मी ने गुस्से में कहा.

बड़ी अप्पी घर पर आई हुई थीं. अम्मी तो अंदर आते ही अप्पी के गले लग कर रोने लगीं. आखिर दिल भर रो लेने के बाद अम्मी ने आंसुओं को पोंछा और कहा, ‘‘मैं जो सोच रही थी, वह सच था.’’

‘‘क्या सोच रही थीं? कुछ साफसाफ तो बताओ,’’ बड़ी अप्पी ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं? हम तो बरबाद हो गए. पीर साहब ने साफसाफ बताया है कि इन की जिंदगी में दूसरी औरत है, जिस की वजह से यह बरबादी हो रही है…’’ अम्मी जोर से रो रही थीं. मैं ने सुना, तो मैं भी हैरान रह गया. अब्बा ऐसे लगते तो नहीं हैं. लेकिन फिर हम बरबाद क्यों हो गए? इतने रुपए आखिर जा कहां रहे हैं?

अम्मी को अप्पी ने रोने से मना किया और कहा, ‘‘अब्बा आज आएंगे, तो बात कर लेंगे.’’ हम सब ने आज सोच लिया था कि अब्बा को घर की बरबादी की पूरी दास्तां बताएंगे और पूछेंगे कि आखिर वे चाहते क्या हैं? रात के तकरीबन साढ़े 10 बजे अब्बा परेशान से घर में आए. वे अपने कमरे में गए, तो अम्मी वहीं पर पहुंच गईं. अब्बा ने उन्हें देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है बेगम, बहुत खामोश हो?’’

अम्मी चुप रहीं, तो अब्बा ने दोबारा कहा, ‘‘कोई खास बात है क्या?’’

‘‘जी हां, खास बात है. आप से कुछ बात करनी है,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘कहो, क्या बात है?’’

‘‘हमारे घर के हालात पिछले 2 सालों से बद से बदतर होते जा रहे हैं, इस पर आप ने कभी गौर किया है?’’ ‘‘मैं जानता हूं, लेकिन कुछ मजबूरी है. 1-2 महीने में सब ठीक हो जाएगा,’’ अब्बा ने ठंडी सांस खींच कर कहा. ‘‘बिलकुल ठीक नहीं होगा, आप यह जान लें, बल्कि आप हमें भिखारी बना कर ही छोड़ेंगे,’’ अम्मी की आवाज बेकाबू हो रही थी. हम दरवाजे की ओट में आ कर खड़े हो गए थे, ताकि कोई ऊंचनीच हो, तो हम अम्मी की ओर से खड़े हो सकें.

‘‘ऐसा नहीं कहते बेगम.’’

‘‘क्यों? क्या कोई कसर छोड़ रहे हैं आप? आप को एक बार भी अपने बीवीबच्चों का खयाल नहीं आया कि हम पर क्या गुजरेगी,’’ कह कर अम्मी रोने लगी थीं.

‘‘मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि हम इन बुरे दिनों से पार निकल जाएं.’’ ‘‘लेकिन निकल नहीं पा रहे, यही न? उस औरत ने आप को जकड़ लिया है,’’ अम्मी ने अपनी नाराजगी जाहिर कर तकरीबन चीखते हुए कहा.

‘‘खामोश रहो. तुम्हारे मुंह से ऐसी बेहूदा बातें अच्छी नहीं लगतीं.’’

‘‘क्यों… मैं सब सच कह रही हूं, इसलिए?’’

‘‘कह तो तुम सच रही हो, लेकिन बेगम मैं क्या करूं? पानी को कितना भी तलवार से काटो, वह कटता नहीं है,’’ अब्बा ने अपना नजरिया रखा.

‘‘आज आप फैसला कर लें.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आखिर आप चाहते क्या हैं? उस औरत के साथ रहना चाहते हैं या हमारे साथ जिंदगी बसर करना चाहते हैं?’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? साफसाफ कहो?’’ अब्बा भी नाराज होने लगे थे.

‘‘मैं आज बड़े पीर साहब के पास गई थी. उन्होंने मुझे सब बता दिया है,’’ अम्मी ने राज खोलते हुए कहा.

‘‘क्या सब बता दिया है?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आप किसी दूसरी औरत के चक्कर में सबकुछ बरबाद कर रहे हैं. लानत है…’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘चुप रहो. जानती हो कि वह दूसरी दूसरी औरत कौन है?’’ अब्बा ने गुस्से में कांपते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ अम्मी ने भी उतनी ही तेजी से ऊंची आवाज में पूछा.

‘‘तुम्हारी ननद है, मेरी बड़ी बहन. उस की मेहनत की वजह से ही मैं पढ़ाई कर पाया और अपने पैरों पर खड़ा हो सका और उस की एक छोटी सी गलती की वजह से हमारे पूरे परिवार ने उसे अपने से अलग कर दिया था, क्योंकि उस ने अपनी मरजी से शादी की थी. ‘‘मुझे पिछले एक साल पहले ही मालूम पड़ा कि उस के पति को कैंसर है, जिस की कीमोथैरैपी और इलाज के लिए उसे रुपयों की जरूरत थी. उस के बच्चे भी ऊंचे दर्जे में पढ़ रहे थे. उन्होंने तो तय किया था इलाज नहीं कराएंगी, लेकिन जैसे ही मुझे खबर लगी, तो मैं ने इलाज और पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली, ताकि वह परिवार बरबाद होने से बच सके. ‘‘मेरी बहन के हमारे सिर पर बहुत एहसान हैं. अगर मुझे जान दे कर भी वे एहसान चुकाने पड़ें, तो मैं ऐसा खुशीखुशी कर सकता हूं,’’ कहतेकहते अब्बा जोर से रो पड़े. अम्मी हैरान सी सब देखतीसुनती रहीं.

‘‘मुझ से कैसा बड़ा गुनाह हो गया,’’ अम्मी बड़बड़ाईं. हम भी दरवाजे की ओट से बाहर निकले और अब्बा के गले से लिपट गए. ‘‘अब्बा, हमें माफ कर दो. अगर हमें  और भी मुसीबतें झेलना पड़ीं, तो हम झेल लेंगे, लेकिन आप उन्हें बचा लें,’’ मैं ने कहा. अब्बा ने आंसू पोंछे और कहा, ‘आदिल बेटा, उन का पूरा इलाज हो गया है. वे ठीक हो गए हैं और भांजे को नौकरी भी लग गई है. ‘‘यह सब तुम लोगों की मदद की वजह से ही सब हो पाया. तुम लोग खामोश रहे और मैं उस परिवार की मदद कर के उन्हें जिंदा रख पाया,’’ अब्बा की आवाज में हम सब के प्रति शुक्रिया का भाव नजर आ रहा था. अम्मी ने शर्म के मारे नजरें नीची कर ली थीं. अब्बा ने कहा, ‘‘कल सुबह मेरी बहन यहां आने वाली हैं. अच्छा हुआ, जो सब बातें रात में ही साफ हो गईं.’’

‘‘हम सब कल उन का बढि़या से इस्तकबाल करेंगे, ताकि बरसों से वे हम से जो दूर रहीं, सारे गम भूल जाएं,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘क्यों नहीं,’’ अब्बा ने कहा, तो हम सब हंस दिए. रात में हमारी हंसी से लग रहा था, मानो रात घर में बिछ गई हो और खुशियों के सितारे उस में टंग गए हों.

ऑडिट: कौनसे इल्जामों में फंस गई थी महिमा

औफिस का छोटा लेकिन सुव्यवस्थित चैंबर. ग्लासडोर से अंदर का नजारा साफ दिखता था. टेबल पर रखे लैपटौप पर काम करती महिमा आज नीली साड़ी में काफी आकर्षक लग रही थी. महिमा हमेशा की तरह समय पर औफिस पहुंच गई थी.

विभाग के विभिन्न कार्यालयों में होने वाले औडिट से संबंधित शैड्यूल का मेल देखते ही राजस्व अधिकारी महिमा ने अपने पूरे स्टाफ को चैंबर में बुला लिया.

‘‘इस महीने की 20 तारीख को हमारे औफिस में औडिट पार्टी आएगी जो 22 तक रहेगी. आप लोग अपनेअपने सैक्शन से जुड़े हुए सभी डौक्यूमैंट्स कंपलीट कर लें. ध्यान रखिए कि किसी भी फाइल या रजिस्टर में औडिट पैरा बनने की नौबत न आए. हर एंट्री सही होनी चाहिए,’’ महिमा ने सब को निर्देश दिए.

‘‘विमलजी, संस्थापन शाखा के इंचार्ज होने के नाते आप की जिम्मेदारी सब से अधिक है और काम भी. सब से ज्यादा औब्जैक्शन इन्हीं फाइलों में लगते हैं. इसलिए आप विशेष ध्यान रखिएगा,’’ महिमा ने विमलजी को अलग से हिदायत दी.

‘‘मैडम, औडिट पार्टी को खुश करने का जिम्मा राकेशजी को दे दीजिए. उन्हें औफिस में औडिट करवाने का बरसों का अनुभव है. पहले भी वही ये सब काम करवाते आए हैं. कभी कोई औडिट पैरा नहीं बना,’’ विमल ने महिमा को सलाह दी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं. इस में राकेशजी क्या करेंगे? वे तो किसी सैक्शन के इंचार्ज भी नहीं हैं,’’ महिमा के माथे पर सिलवटें उभर आईं.

‘‘आप अभी नई हैं न, नहीं समझेंगी कि औडिट कैसे करवाया जाता है. मैं राकेशजी को भेजता हूं, वे आप को सबकुछ समझा देंगे.’’ विमल तो यह कह कर चैंबर से निकल गया लेकिन महिमा के लिए कई सारे प्रश्न छोड़ गया.

महिमा 2 साल पहले ही दिल्ली के इस औफिस में ट्रांसफर हो कर आई है. भोपाल शहर में पलीबढ़ी थी वह. स्कूल के बाद कालेज में हर ऐक्टिविटी में आगे रहती. अपनी बात कहने में वह कभी पीछे नहीं रही थी. उस का यही आत्मविश्वास उसे और भी आकर्षक बनाता था. यहां इसे राजस्व अधिकारी का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है. इस से पहले वह उच्च अधिकारी की अधीनस्थ थी, इसलिए यह औडिट वाला काम कभी उस के जिम्मे नहीं आया था. अलबत्ता अनुभव की उस के पास कमी नहीं थी. 35 वर्ष की हो चुकी थी वह. इस बार पहली दफा उसे स्वतंत्ररूप से अपने औफिस का औडिट करवाना था.

‘‘जी मैडम, आदेश करें,’’ राकेश ने बहुत ही विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘राकेशजी, औफिस में औडिट होने वाला है. मैं ने सुना है कि आप को औडिट करवाने का बहुत अनुभव है. आप के निर्देशन में औडिट हो तो कभी कोई औडिट पैरा नहीं बनता.’’ महिमा ने राकेश को पढ़ने की कोशिश की.

‘‘अरे मैडम, यह तो इन सब का प्रेम है वरना मैं तो बस अपनी ड्यूटी निभाता हूं. आखिर यह औफिस मेरा भी तो है,’’ राकेश विनम्रता से कुछ और झुक आया.

‘‘तो ठीक है, करवाइए औडिट. मैं भी आप की कुशलता देखना चाहती हूं,’’ महिमा उसे निर्देश दे कर टेबल पर रखी फाइलें देखने लगी. राकेश कुछ देर तो खड़ा रहा, फिर चैंबर से बाहर चला गया.

लगभग 40 के आसपास होगा राकेश. आंखों पर काले फ्रेम का चश्मा. माथे की त्योरियां उसे गंभीर बनाती थीं. बातें नापतौल कर करता था. अच्छी तरह से प्रैस की हुई सफेद कमीज उस पर फब रही थी.

‘‘मैडम, औडिट पार्टी के ठहरने, खानेपीने और घूमनेफिरने पर कुल मिला कर लगभग 10-12 हजार रुपए का खर्चा आएगा,’’ दूसरे दिन राकेश ने एक कागज पर लिखा हिसाब महिमा के सामने टेबल पर रख दिया. इतने रुपयों के खर्चे को सुन कर महिमा चौंक गई.

‘‘क्या बात कर रहे हैं, उन के ठहरने और खानेपीने का खर्चा भला हम क्यों करेंगे? क्या इस हैड में औफिस बजट का कोई अलग से प्रावधान है? मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’ महिमा कुछ समझी नहीं थी.

‘‘अरे मैडम, ये सब तो नौर्मल बातें हैं. जिस औफिस का औडिट होता है, सारा खर्चा उसी को करना पड़ता है. क्या आप को सचमुच कुछ भी नहीं पता?’’ अब हैरान होने की बारी राकेश की थी.

‘‘नहीं, मैं सचमुच इस बारे में नहीं जानती. वैसे भी, इतने पैसों की व्यवस्था कहां से होगी?’’ महिमा ने अपनी शंका रखी.

‘‘अरे मैडमजी, मलाई वाली सीट पर बैठने वाले अधिकारी ही अगर इस तरह की बातें करेंगे तो फिर सूखी सीट वालों का क्या होगा,’’ राकेश ने उसे इशारों में समझाया.

महिमा ने वह कागज अपने पास रख कर राकेश को जाने के लिए कहा. महिमा ने देखा कि कागज में शहर के एक बड़े होटल में 2 कमरे, सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने का खर्चा, एक दिन आसपास के दर्शनीय स्थान पर भ्रमण हेतु लक्जरी गाड़ी के साथसाथ होटल से औफिस लानेलेजाने के लिए गाड़ी आदि का ब्योरा लिखा था. यह सारी व्यवस्था 4 व्यक्तियों के लिए थी. देख कर महिमा का माथा घूम गया.

उस ने 2-3 दिन औडिट के सारे पहलुओं पर विचार किया. किसी भी फाइल में औब्जैक्शन लगने के बाद भविष्य में होने वाले पत्राचार और उस के बाद की मानसिक परेशानियों के बारे में भी विस्तार से सोचा. 1-2 अनुभवी अधिकारियों से भी परामर्श किया. हालांकि सब का इशारा इसी तरफ था कि राकेश की डील मान ली जाए लेकिन उस का मन उस का साथ नहीं दे रहा था.

‘‘जब मेरे रिकौर्ड में कोई कमी ही नहीं होगी तो फिर औडिट पैरा बनेगा कैसे?’’ उस का आत्मविश्वास अपने चरम पर था. अपना काम पूरी ईमानदारी से करती थी.

‘‘अरे मैडम, यह औडिट है. यहां पूरा हाथी निकलने के बाद भी उस की पूंछ कांटे में फंस सकती है,’’ अनुभवी लोगों का कहना था.

‘‘छोडि़ए न मैडमजी, आप तो यह गरमागरम चाय पी कर तरोताजा हो जाइए. याद रखेंगी शीतल के हाथ की बनी चाय को,’’ औफिस की लेडी प्यून ने एक कप चाय उस की टेबल पर रख दी तो महिमा मुसकरा उठी.

बेचारी शीतल, अभी कोई उम्र है उस की नौकरी करने की. अभी 20 की ही तो हुई है. लेकिन क्या करे. घर की सारी जिम्मेदारी भी तो उसी के कंधों पर आ गई. सच में, सिर पर पिता का हाथ होना बहुत जरूरी है. महिमा की सोच की सूई अब औडिट से हट कर शीतल की तरफ घूम गई. सलवारसूट पहने हुए शीतल को देख उसे तरस आ गया.

शीतल के पिताजी इसी औफिस में बाबू थे. सालभर पहले एक सड़क दुर्घटना में उन की मृत्यु होने के बाद इसे अनुकंपा के आधार पर यहां चपरासी की नौकरी मिल गई. हालांकि शीतल ने आगे की पढ़ाई जारी रखी हुई है ताकि उसे क्लर्क की पोस्ट मिल जाए लेकिन इन सब कामों में वक्त लगता है.

खूबसूरत, चुलबुली शीतल पूरे औफिस की लाड़ली है. सब उसे अपनी बेटी की तरह प्यार करते हैं. महिमा के भी खूब मुंह लगी है. महिमा चाय पीने लगी. चाय वाकई अच्छी बनी थी. अदरक का अलग स्वाद आ रहा था. उस का दिमाग एक बार फिर से राकेश के हिसाब में उलझ गया.

क्या होगा अगर औडिट में कोई औब्जैक्शन लगा भी तो. जवाब दे दिया जाएगा. यदि वह अपना काम ईमानदारी से कर रही है तो फिर उसे डरने की क्या जरूरत है. आखिर उस ने तय किया कि वह राकेश की इस डील को स्वीकार नहीं करेगी.

उस ने सभी सैक्शन अधिकारियों को निर्देश दिए कि हर एंट्री में पूरी सावधानी बरती जाए. पिछले वर्षों में हुए औडिट के औब्जैक्शन पढ़ कर उन्हें पहले ही दुरुस्त करने की हिदायत भी दी. वह खुद इन सब पर बराबर नजर रखे हुए थी. एक सप्ताह की मेहनत के बाद अब वह पूरी तरह से संतुष्ट थी. कहीं किसी कमी की गुंजाइश उसे नहीं लग रही थी.

‘‘मैडम, मैं औडिट पार्टी से उत्तम बोल रहा हूं. हमारी पार्टी कल सुबह 8 बजे  पहुंच जाएगी. आप स्टेशन पर गाड़ी भिजवा दीजिएगा,’’ महिमा के पास फोन आया.

‘‘आप टैक्सी या औटो ले लीजिए. हमारी गाड़ी तो कल सुबह जल्दी ही साइट पर निकलेगी,’’ महिमा ने दोटूक जवाब दिया. दूसरी तरफ कुछ देर के लिए शांति सी रही.

‘‘चलिए, कोई बात नहीं. आप होटल का ऐड्रेस मेरे नंबर पर व्हाट्सऐप कर दीजिए,’’ उत्तम ने आगे कहा.

‘‘होटल तो नहीं है. आप चाहें तो आप के रुकने की व्यवस्था औफिशियल गैस्टहाउस में करवा सकती हूं. बहुत ही नौर्मल रेट पर अच्छी सुविधा आप को मिल जाएगी,’’ महिमा ने कहा, तो दूसरी तरफ फिर से शांति छा गई.

‘‘धन्यवाद मैडम, आप कष्ट न करें. हम अपनी व्यवस्था देख लेंगे. आप अपनी देख लीजिएगा,’’ उत्तम ने धमकीभरे स्वर में कहा और फोन कट गया. महिमा मानसिक रूप से अपनेआप को औडिट के लिए तैयार करने लगी. उस ने राकेश, विमल सहित सभी कर्मचारियों को समय से औफिस पहुंचने के निर्देश दिए और स्वयं साइट पर जाने की तैयारी करने लगी. शीतल से भी आवश्यक रूप से पूरा समय औफिस में रुकने को कहा गया. उसे हिदायत थी कि वह मेहमानों को 2 समय चायपानी करवा दे.

सुबह ठीक साढ़े 9 बजे उत्तम अपनी टीम के साथ औफिस में मौजूद था. आते ही उस ने कर्मचारियों का हाजिरी रजिस्टर मांगा. महिमा को टूर पर देख कर उस का पारा चढ़ गया. शेष सभी कर्मचारी औफिस में उपस्थित थे. राकेश विनम्रता से झुका हुआ उस के सामने खड़ा था.

‘‘क्या बात है राकेशजी, मैडम नई हैं या उन के लिए यह काम नया है? बहुत अकड़ में रहती हैं,’’ उत्तम ने अपनी कड़वाहट राकेश पर उतारी.

‘‘यह सब नई फसल है साहब, धीरेधीरे सीख जाएंगी. आप तो अपना काम शुरू कीजिए. हम हैं न आप की सेवा में. आप मुझे आदेश कीजिए,’’ राकेश ने उत्तम को खुश करने की कोशिश की. फिर उस ने शीतल को आवाज लगाई, ‘‘अरे शीतल, चायपानी का इंतजाम करो, भई.’’ थोड़ी ही देर में शीतल मुसकराती हुई चाय के साथ समोसे भी ले आई. समोसे देख कर उत्तम का मूड कुछ ठीक हुआ.

‘‘हूं, मैडम को साइट पर जाने का बहुत शौक है न, चलो, औडिट की शुरुआत मैडम की गाड़ी की लौगबुक से ही करते हैं. राकेशजी, पिछले 2 वर्षों की लौगबुक मंगवा दीजिए,’’ उत्तम ने समोसे खा कर एक लंबी सी डकार मारी. शीतल लौगबुक ले आई. उत्तम उस की एकएक एंट्री को बड़े गौर के साथ चैक करने लगा. वह साथसाथ एक सादे कागज पर नोट्स भी बनाता जा रहा था.

लौगबुक के बाद उस ने स्टौक रजिस्टर, बजट का इस्तेमाल, हाजिरी रजिस्टर, फर्नीचर आदि का हिसाब, टैलीफोन का बिल रजिस्टर आदि की जांच की. 2 दिन लगातार इस काम में जूझते उत्तम की मुलाकात महिमा से नहीं हुई. जानबूझ कर या काम की अधिकता, इन 2 दिनों में महिमा लगातार टूर पर ही बनी हुई थी. आज औफिस में औडिट का आखिरी दिन था. राकेश ने महिमा से औफिस में रह कर उत्तम से डिस्कस करने का अनुरोध किया.

ठीक साढ़े 9 बजे महिमा अपनी सीट पर थी. कुछ ही देर में राकेश उत्तम के साथ आता हुआ दिखाई दिया. महिमा ने देखा कि उत्तम नाटे कद का सांवला सा व्यक्ति है जिस की तोंद कुछ बाहर को निकली हुई है. पेट बड़ा होने के कारण पैंट बारबार कमर से लुढ़क कर नीचे आ रही थी जिसे वह बैल्ट से पकड़ कर ऊपर खींच रहा था. उस की यह हरकत देख कर महिमा के होंठों पर बरबस मुसकान आ गई. उसी समय शीतल कुछ फाइलें ले कर वहां आई. उसे उत्तम की हरकत पर मुसकराता देख कर शीतल भी खिलखिला दी.

‘‘नमस्कार मैडमजी, आज आखिर आप के दर्शन हो ही गए. मुझे तो लगा था आप से बिना मिले ही जाना होगा,’’ उत्तम के शब्दों में छिपे व्यंग्य को महिमा आसानी से समझ रही थी. उस ने उस को कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ बैठने का इशारा किया.

‘‘आप के औफिस में तो घपला ही घपला है, मैडमजी. जहां हाथ रखिए, वहीं दर्द है,’’ उत्तम ने एक पुरानी फिल्म के गाने की पंक्ति के साथ बत्तीसी खोल कर अपने पान से रंगे दांत दिखा दिए. उस के साथ ही उस के मुंह से आती गुटखे की गंध पूरे चैंबर में फैल गई. महिमा ने कुछ पल को अपनी सांस रोक कर उस गंध को हवा में लुप्त होने दिया, फिर हाथ को नाक के सामने लहराते हुए सांस ली. उत्तम उस की नाखुशी को समझ गया था. वह बाहर जा कर पीक थूक आया.

‘‘जी, दिखाइए, क्या घपला है,’’ महिमा ने उस से कागज मांगे.

‘‘सब से पहला तो यही है कि आप ने गाड़ी पूरे महीने के लिए किराए पर रखी है. लेकिन आप की लौगबुक कहती है कि आप इस का इस्तेमाल 15 दिनों से अधिक नहीं करतीं. यानी, आप ड्राइवर को मुफ्त का पैसा दे कर विभाग को चूना लगा रही हैं. क्यों न विभाग को होने वाले इस नुकसान की भरपाई आप के वेतन में से की जाए,’’ उत्तम ने फिर से दांत दिखाए.

‘‘बेशक ड्राइवर को पैसा पूरे महीने का मिल रहा है लेकिन गाड़ी कम चला कर हम सरकार का ईंधन भी तो बचा रहे हैं. आप इसे इस नजरिए से देखिए न. वैसे भी हमारी तो इमरजैंसी ड्यूटी है. कभी भी बाहर जाना पड़ सकता है, इसलिए गाड़ी तो पूरे महीने और चौबीसों घंटे के लिए ही रखनी पड़ेगी न,’’ महिमा ने अपना पक्ष रखा.

‘‘हम किसे किस नजरिए से देखें, यह आप हम पर छोडि़ए. दूसरी बात यह है कि कर्मचारियों ने आकस्मिक अवकाश पहले मना लिया और उन के प्रार्थनापत्र बाद की तारीख में दर्ज हुए हैं,’’ उत्तम ने अपनी आंखें महिमा के चेहरे पर टिका दीं.

‘‘तो क्या हुआ? आकस्मिक अवकाश का अर्थ ही है कि उसे आकस्मिक कार्य के लिए लिया जाता है. अब आकस्मिकता भी भला कभी बता कर आती है. कर्मचारी ने अवकाश स्वीकृत तो करवाया ही है, चाहे देर से ही सही,’’ महिमा ने फिर से अपना पक्ष रखा.

‘‘ये सब बातें आप औडिट पैरा के जवाब में लिखलिख कर देती रहिएगा. और भी कई खामियां हैं जो मैं लिख कर ऊपर सरकार को भेज दूंगा. फिर आगे जो भी विभाग की मरजी,’’ उत्तम ने कहा और अपने कागजपत्र समेटने लगा. महिमा को समझ में नहीं आया कि क्या कहे.

‘‘उत्तम साहब, चलिए नाश्ता ठंडा हो रहा है,’’ कहता हुआ राकेश उसे दूसरे कमरे में ले गया. उसे वहां छोड़ कर वह तुरंत ही महिमा के पास आया.

‘‘मैडम, औडिट के पैरा बहुत बुरे होते हैं. सालों निकल जाते हैं जवाब देतेदेते. इसीलिए सब लोग कुछ लेदे कर औफिस में ही सैट करने की कोशिश करते हैं. अपने औफिस के पैरा तो ऐसे हैं जिन्हें आप चाहें तो यहीं टेबल पर ही ड्रौप कर सकती हैं और न चाहें तो लंबे खींच सकती हैं. और फिर गाड़ी वाला पैरा तो आप पर व्यक्तिगत प्रहार है. जरा ठंडे दिमाग से सोचिए,’’ राकेश ने महिमा को समझाने की कोशिश की. बात शायद कुछकुछ महिमा को समझ में भी आ गई थी. राकेश की बातों में दम तो था.

‘‘ठीक है, आप देखिए क्या हो सकता है. विचार करते हैं.’’ महिमा राकेश से सहमत होने लगी.

‘‘जी मैडम, आप ने बिलकुल सही फैसला लिया है. मैं उत्तम से बात कर के देखता हूं. पार्टी को लंच पर ले कर जा रहा हूं, वहीं सब सैट करने की कोशिश करता हूं. उम्मीद है सब ठीक हो जाएगा,’’ यह कह कर राकेश चैंबर से बाहर निकल गया.

दोपहर बाद लगभग 4 बजे राकेश आया. महिमा ने देखा कि उस का मुंह उतरा हुआ था. उत्तम और उस की टीम उस के साथ नहीं थी. राकेश चुपचाप आ कर महिमा के सामने बैठ गया.

‘‘क्या तय हुआ राकेशजी, आप का उतरा हुआ चेहरा बता रहा है कि मामला सैट नहीं हुआ. क्या अपने बजट से बाहर जा रहा है?’’ महिमा की निगाह राकेश के चेहरे पर टिकी थी.

‘‘सिर्फ बजट से ही नहीं, इस बार तो मामला हद से भी बाहर जा रहा है,’’ राकेश ने कहा.

‘‘क्या बात है? मैं समझी नहीं. जरा खुल कर बताइए. अरे शीतल, जरा 2 गिलास पानी तो लाना,’’ महिमा ने आवाज लगाई तो शीतल तुरंत 2 गिलास ठंडा पानी ले कर हाजिर हो गई. ट्रे को टेबल पर रख कर वह भी वहीं खड़ी हो गई.

‘‘शीतल, तुम जाओ,’’ राकेश ने उसे भेज दिया और धीरेधीरे पानी के घूंट भरने लगा. ऐसा लग रहा था मानो वह पानी के साथ और भी बहुतकुछ निगलने की कोशिश कर रहा है. चैंबर में छाई चुप्पी महिमा को अखरने लगी.

‘‘कुछ बोलिए भी, उत्तम क्या चाह रहा है,’’ आखिर महिमा ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘उत्तम को शीतल चाहिए,’’ राकेश किसी तरह से बोल पाया.

‘‘क्या? मैं कुछ समझी नहीं.’’ महिमा के माथे पर लकीरें गहरा गईं. राकेश आगे कुछ भी नहीं बोल सका. चुपचाप पानी के घूंट भरता रहा लेकिन महिमा सबकुछ समझ गई थी.

‘‘उस की हिम्मत कैसे हुई इस तरह का घटिया प्रस्ताव रखने की. विश्वास नहीं हो रहा कि कोई व्यक्ति इतना नीचे भी गिर सकता है. अरे, शीतल उस की बेटी की उम्र से भी छोटी होगी. निर्लज्ज कहीं का. कह दो उसे, जो रिपोर्ट बनानी है, बना दे. जो औब्जैक्शन लगाने हैं, लगा दे. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, मामला ड्रौप होने में बरसों लग जाएंगे. लग जाने दो. अरे, गलतियां तो हरेक से होती हैं. निकालने लगो तो कमियां हर जगह मिल जाती हैं. तो क्या हुआ, आखिर कमियां दूर भी तो होती ही हैं. जो होगा, देखा जाएगा. अगर कुछ पैसा जेब से भी भरना पड़ा तो भर दूंगी, लेकिन उस मासूम को औडिट के नाम पर बलि नहीं चढ़ाऊंगी.’’ महिमा गुस्से से उबलने लगी थी. शीतल का मासूम चेहरा महिमा की आंखों के आगे आ गया.

राकेश ने जेब से निकाल कर उत्तम द्वारा बनाए गए औडिट पैरा का बड़ा सा लैटर महिमा की टेबल पर रख दिया.

‘‘मैं जानता था आप का यही फैसला होगा, इसलिए उत्तम को लंच के बाद वहीं से स्टेशन विदा कर आया. अब सब मिल कर बनाते हैं उस के पैरा के जवाब,’’ राकेश मुसकरा दिया. राकेश को आज महसूस हो रहा था कि ईमानदारी व्यक्ति को कई बार कितना निडर बना देती है. मन ही मन वह महिमा के निर्णय से प्रभावित था.

‘‘पैसा तो सारी दुनिया कमाती है, राकेशजी, मैं ने अपने स्टाफ का विश्वास कमाया है. यह मेरे लिए बहुत बड़ी पूंजी है,’’ महिमा ने कहा और औडिट की लगाई हुई आपत्तियां पढ़ने लगी.

चैंबर के दरवाजे पर खड़ी शीतल अपने आंसू पोंछ रही थी. महिमा के प्रति उस के मन में सम्मान कई दरजे बढ़ गया था.

Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 1- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

पत्तियोंके  झुरमुट में फिर सरसराहट हुई. प्रख्यात ने सिर घुमा कर फिर देखने की कोशिश की. लग रहा था कोई उसे छिप कर देख रहा है. तभी पीछे शर्ट में कुछ चुभा. उस का हाथ  झट पीछे चला गया. जंगली घास की वह गेहूं जैसी बाली कैसे उस

की टीशर्ट में ऊपर पहुंच गई. उस ने निकाल कर एक ओर फेंक तो दी पर फिर सोचने लगा कि यह आई कहां से? इस तरह का कोई पौधा भी यहां नहीं दिख रहा. फिर उस ने सरसरी निगाह चारों ओर डाली.

‘‘क्या ढूंढ़ रहा है यार?’’ तभी बचपन से ग्रैजुएशन तक का साथी सिकंदर वहां आ पहुंचा.

‘‘तू अब आ रहा है? आधे घंटे से बोर हो कर वीडियो देखे जा रहा था… वह याद है तु झे वह जंगली घास की बाली हम बचपन में खेलखेल में एकदूसरे की ड्रैस में चुपके से घुसा देते थे. वही मेरी शर्ट में अभी न जाने कहां से आ गईर् थी… वही देख रहा था,’’ कह वह हंसा.

सिकंदर भी हंसा. फिर बोला, ‘‘कितना रोया करता था तू. लाली अकसर तेरी स्कूल ड्रैस में डाल दिया करती थी… तू रोता तो हम सब खूब मजे लेते, हंसते. कितनी पुरानी बात याद आ गई… कहीं वही तो नहीं आ गई… कितने मस्तीभरे दिन थे… किसी बात की चिंता नहीं होती थी.’’

‘‘सच में यार सब से शरारती, अनोखी लाली ही तो थी. हर दिन डरता भी था फिर भी शरारतों का इंतजार भी करता. कब क्या कर दे… न जाने कहां होगी अब… जी ब्लौक से ही तो चढ़ती थी स्कूल बस में. उस की मम्मी हिदायतें देते हुए उसे बस में चढ़ातीं, ‘‘लाली, स्कूल से अब कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए…किसी बच्चे को तंग नहीं करना लाली… अपना ही टिफिन खाना लाली… तेरी पसंद का ही सब रखा है लाली… तू सुन रही है न लाली… भैया जरा इस पर ध्यान रखना,’’ प्रख्यात उस की मम्मी की नकल करते हुए बोल रहा था.

‘‘तो हम भी उसे लालीलाली ही चिढ़ा कर पुकारने लगे थे. उस का असली नाम… याद नहीं आ रहा…हां वह तु झे चिढ़ कर प्रख्यात की जगह खुरपी खाद कहती थी यह याद है… और मु झे सिकंदर बंदर. हा… हा…’’

‘‘तू भूल गया मैं नहीं भूला उस का निष्ठा नाम… मेरी बगल में ही तो बैठती थी. होमवर्क के लिए अपनी कौपी टीचर से छिपा मेरी ओर सरका देती. खुंदक बहुत आती थी मु झे उस पर उस की अचरज भरी शैतानियों पर.’’

‘‘लंच के समय तु झे ही अकसर अपना डब्बा खाली मिलता, तू बहुत रोता तो अपनी मम्मी का दिया पौटिष्क लंच थमा जाती कि मम्मी ने अच्छे वाले छोटे कटहल भी छील कर इस में रखे हैं.

‘‘तू चिढ़ जाता कि ततहल मैं नहीं खाता तो ततहल कहकह कर हंसती. मैं बौक्स में देख कर तु झे सम झाता कि पागल, यह लीची को छोटा कटहल कह रही है.

‘‘सुंदर तो है तू रोतड़ू पर पौष्टिक खाना क्यों नहीं खाता? ये बर्गर, नूडल्स क्यों खाता है रोज? लंबातगड़ा होगा तभी तो शादी करूंगी तु झ से. मेरा लंच खा कर यह टौफी खा लेना. वह बड़े प्यार से तेरी शर्ट की पौकेट में डाल देती और तू भोंदू जब खाता तो फिर रोता कि चीटिंग की. फिर

इस ने रैपर में पता नहीं क्या भर दिया. थूथू… फिर वह खूब हंसती. रैपर में कभी इमली तो कभी मिट्टी निकलती. ऐसे ही छेड़ा करती. कभी रूमाल में जुगनू, तितलियां पकड़ लाती… पूरी क्लास को कुतूहल से भर देती… जहां भी होगी अपनी शैतानियों से बाज नहीं आई होगी यह तो तय है…’’

‘‘हां, हाई स्कूल के बाद हम बौयज सीनियर स्कूल में शिफ्ट हुए, तब जा कर उस से पीछा छूटा… अब तो मेरा कमर्शियल लौ का रिसर्च वर्क भी पूरा होने को है, फिर भी उसे कभी देखा नहीं और तू तो कालेज का फुटबौल चैंपियन था ही. आज 7-8 सालों में स्टेट कोच बन बैठा. यहां बहुत कम रहा, दूसरे शहर ही चला गया, उसे तू देखता कहां से.’’

‘‘और तू किताबों में घुसा रहा कहीं और देखने की तु झे फुरसत कहां थी… हो गई होगी शादीवादी किसी दूसरे शहर में और हो लिए होंगे उसे उस के जैसे ही शैतान बच्चे… हा… हा… भिंडी की ढेंपियां चेहरे पर चिपका कर दूसरों को डराते होंगे.’’

‘‘क्या बात करता है 7-8 सालों में उस के बच्चे?’’

‘‘और क्या, गै्रजुएशन के बाद अकसर पेरैंट्स विदा कर देते हैं… लड़की के पीछे ही पड़ जाते हैं.’’

‘‘अरे, लड़की क्या लड़के के पेरैंट्स भी पीछे पड़ जाते हैं जैसे मेरे… तय भी कर रखी

है. जौब लगते ही छोड़ेंगे नहीं, शादी करा के ही दम लेंगे.’’

‘‘फिर तो बधाई हो. कौन है कहां की है बता तो सही? तेरे पेरैंट्स ने तो सही ही किया है… तू भी तो पढ़ता ही जा रहा है… तेरे सारे एलएलबी के साथी ग्रैजुएशन के बाद ही काम

पर लग गए… चल बता उस के बारे में,’’ सिकंदर ने पूछा.

‘‘अरे कुछ भी नहीं मालूम,’’ प्रख्यात बोला.

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’

‘‘हमारे यहां सब थोड़े पुराने खयालों के हैं. सब अच्छी तरह देख कर खुद ही तय करते हैं.’’

‘‘अरे, ऐसे कैसे?’’

‘‘हूं यार, अगले महीने की 15 को सगाई करने वाले हैं. तभी देखूंगा तेरे साथ ही. तू तो होगा ही न?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है… अब मेरी सुन, मेरा तो संयोगिता हरण की योजना बन रही है. इश्क हो गया है मु झे,’’ सिकंदर कुछ रुक कर बोला.

‘‘क्या बात करता है फिर… बाज नहीं आएगा. इश्कबाज… पर सीधे से क्यों नहीं करता?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘सुदीपा नाम है. ब्राह्मण है और मैं सिकंदर ठाकुर… दोनों परिवार

राजी नहीं. इसलिए तेरी मदद चाहिए. तु झे करनी ही पड़ेगी. इस बार सच्चा इश्क हुआ है… सच कह रहा हूं.’’

‘‘अब यह कहां मिल गई तु झे?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘इतनी सिंपल, इतनी भोलीभाली कि  पहली नजर में बस गई. रिसैप्शनिस्ट है. पूरी टीम के लिए रूम्स बुक थे वहां, पर उस ने मु झे पहचाना नहीं. डेढ़ घंटे तक सारे प्रूफ लिए, तब कहीं अंदर जाने दिया मु झे. फिर बाद में मालूम होने पर कि मैं कौन हूं बड़ी माफी मांगी मु झ से. बस उस की मासूमियत पर दिल आ गया मेरा. यही मेरा प्यार है. तीसरे दिन उस से पूछ ही लिया कि मु झ से शादी करोगी तो वह शरमा गई. मतलब हां था. मगर दूसरे दिन ही उस ने अपनी परेशानी सकुचाते हुए बता दी कि हम ब्राह्मण परिवार से हैं और परिवार दूसरी कास्ट में मैरिज के सख्त खिलाफ है. खिलाफ तो हमारा परिवार भी है. ठाकुर ठाकुरों में ही ब्याह करते हैं… पर हमें ही कुछ करना पड़ेगा इस प्रथा को तोड़ने के लिए. हम भाग कर कोर्ट में रजिस्टर मैरिज करेंगे तब तो घर वालों को राजी होना पड़ेगा.’’

आगे पढ़ें- ‘‘अबे चल कोई फिल्म है क्या? मैं आंटी से बात करता हूं…

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