अंतिम मिलन: क्यों जाह्नवी को नहीं मिल पाया वह

“मेरी एक तमन्ना है. वादा करो तुम पूरा करोगे उसे. ” जान्हवी ने मेरे चेहरे पर अपनी निगाहें टिका दी थी .

“बताओ न. कुछ भी हो जाए तुम्हारी हर तमन्ना पूरी करना मेरे जीवन का मकसद है. तुम बोल कर तो देखो.” मैं पूरे जोश में था .

” तो ठीक है मैं बताती हूं. वह मेरे करीब सरक आई थी. उस की आंखों में मेरे लिए प्यार का सागर लहरा रहा था. मैं देख सकता था उस की शांत, खुशनुमा और झील सी नीली आंखों में बस एक ही गूंज थी. मेरे प्यार की गूंज …  मेरी बाहों में समा कर हौले से उस ने मेरे लबों को छू लिया था.

वह पल अदितीय था. जिंदगी का सब से खूबसूरत और कीमती लम्हा जो कुछ देर तक यूं ही ठहरा रहा था हम दोनों की बाहों के दरमियां… और फिर वह खिलखिलाती हुई अलग हो गई और बोली,” बस यह जो लम्हा था न, यही लम्हा अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महसूस करना चाहती हूं. वादा करो कभी मैं तुम्हें छोड़ कर जाने वाली होउ तो तुम मेरे करीब रहोगे. तुम्हारी बाहों में ही मेरा दम निकले इसी प्यार के साथ.”

उस की बातों ने मेरी रूह को छू लिया था. तड़प कर कहा था मैं ने,” वादा करता हूं. पर ऐसा समय आने ही नहीं दूंगा. तुम्हारे साथ में भी चलाई जाऊंगा न. अकेला जी कर क्या करूंगा.” मैं ने उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया था.

उस के जाने के एहसास भर से मेरी रूह कांप उठी थी. बहुत प्यार करता हूं मैं उसे. मेरी जान है मेरी जान्हवी.

कॉलेज में पहले दिन पहली लड़की जिस पर मेरी नजरें गई थी वह जान्हवी ही थी. एक नजर देखा और देखता ही रह गया था. कहते हैं न पहली नजर का प्यार जो अब तक मैं ने फिल्मों में ही देखा था. पर इस बात को मैं हमेशा हंसीमजाक में लेता था . पर जब यह मेरे साथ हुआ तो पता लगा कि आंखोंआंखों में कैसे आप किसी के बन जाते हो हमेशा के लिए . जान्हवी और मेरी दोस्ती पूरे कॉलेज में मशहूर थी. मेरे घर वालों ने भी हमारे प्यार को सहजता से मंजूरी दे दी थी. मैं मेडिकल की पढ़ाई करने न्यूयौर्क चला गया और पीछे से जान्हवी यहीं रह गई दिल्ली में . हम कुछ साल एकदूसरे से दूर रहे थे पर दिल से एक दूसरे से जुड़े रहे थे.

मैं पढ़ाई कर के लौटा तो जल्दी ही एक अच्छे हॉस्पिटल में जॉब मिल गई. जान्हवी ने भी एक कंपनी ज्वाइन कर ली थी . अब हम ने देर नहीं की और शादी कर ली. बड़ी खुशहाल जिंदगी जी रहे थे हम .

एक दिन सुबहसुबह जान्हवी मेरी बाहों में समा गई और धीरे से बोली,” तो मिस्टर आप तैयार हो जाइए. जल्दी ही आप को घोड़ा बनना पड़ेगा.”

उस की ऐसी अजीब सी बात सुन कर मैं चौंक उठा,” ये क्या कह रही हो ? घोड़ा और मैं ? क्यों ?”

“अपने बेटे की जिद पूरी नहीं करोगे?” बोलते हुए शरमा गई थी जान्हवी. मुझे बात समझ में आ गई थी. खुशी से बावला हो कर मैं झूम उठा और उसे माथे पर एक प्यारा सा किस दिया. उस के हाथों को थाम कर मैं ने कहा,” आज तुम ने मुझे दुनिया की सब से बड़ी खुशी दे दी है. आई लव यू .”

इस के बाद तो हम दोनों एक अलग ही दुनिया में पहुंच गए. हमारे बीच अपनी बातें कम और बच्चे की बातें ज्यादा होने लगी थी. बच्चे के लिए क्या खरीदना है, कैसे रखना है, वह क्या बोलेगा, क्या करेगा जैसी बातों में हम घंटों गुजार देते. वैसे डॉक्टर होने की वजह से मेरे पास अधिक समय नहीं होता था फिर भी जब भी मौका मिलता तो मैं आने वाले बेबी के लिए कुछ न कुछ खरीद लाता था. बच्चे के सामानों से एक पूरा कमरा भर दिया था मैं ने . जान्हवी का पूरा ख्याल रखना, उसे सही डाइट और दवाइयां देना, उस के करीब बैठे रह कर भविष्य के सपने देखना, यही सब अच्छा लगने लगा था मुझे .

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. जान्हवी की प्रेगनेंसी के 5 महीने बीत चुके थे. हम खुशियों के पल संजोय जा रहे थे. पर हमें कहां पता था कि हमारी खुशियों के सफर को एक बड़ा धक्का लगने वाला है. ऐसा समय आने वाला है जब तिनकेतिनके हमारी खुशियां बिखर जाएंगी.

वह मार्च 2020 का महीना था. सारा विश्व कोरोना के कहर से आक्रांत था . भारत में भी तेजी से कोरोना ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे. मैं ने जान्हवी को घर से न निकलने की सख्त हिदायत दी थी. डॉक्टर होने के नाते मुझे हॉस्पिटल में काफी समय गुजारना पड़ रहा था. इसलिए मैं ने उस की मम्मी को अपने यहां बुला लिया था. ताकि वे मेरे पीछे से जान्हवी की देखभाल कर सकें.

इसी बीच एक दिन मुझे पता चला कि दोपहर में जानवी की एक सहेली उस से मिलने आई थी. जान्हवी उस दिन बहुत खुश थी, बचपन की सहेली प्रिया से मिल कर . जान्हवी ने जब बताया कि प्रिया 2 दिन पहले ही वाशिंगटन से लौटी है तो मैं चिंतित हो उठा और बोल पड़ा,” यह ठीक नहीं हुआ जान्हवी. तुम्हें पता है न विदेश से लौट रहे लोग ही बीमारी के सब से बड़े वाहक हैं. तुम्हें उस;के पास नहीं जाना चाहिए था जान्हवी.”

” अच्छा तो तुम यह कह रहे हो कि मेरी सहेली जो मेरी प्रेगनेंसी और शादी की बधाई देने मेरे घर आई उसे मैं दरवाजे पर ही रोक देती कि नहीं तुम अंदर नहीं आ सकती. मुझसे मिल नहीं सकती. ये क्या कह रहे हो अमन.”

“मैं ठीक ही कह रहा हूं जान्हवी.  तुम डॉक्टर की बीवी हो. तुम्हें पता है न हमारे देश में भी कोरोना के मरीज पाए जाने लगे हैं और भारत में यह बीमारी बाहर से ही आ रही है . पर वह वुहान से नहीं वाशिंगटन से आई थी. फिर मैं ने उस के हाथ भी धुलवाए थे.”

“जो भी हो जान्हवी मेरा दिल कह रहा है तुम ने ठीक नहीं किया. तुम प्रेगनेंट हो. तुम्हें ज्यादा खतरा है . वायरस केवल हाथ में ही नहीं कपड़ों में भी होते हैं . उस ने एक बार भी खांसा होगा तो भी वायरस तुम्हें मिलने का खतरा है . देखो आइंदा ऐसी गलती भूल कर भी मत करना मेरी खातिर. ” मैं ने उसे समझाया.

“ओके, अब कभी नहीं.”

उस दिन बात आई गई हो गई. इस बीच मेरा समय पर घर लौटना मुश्किल होने लगा क्यों कि ज्यादा से ज्यादा समय मुझे हॉस्पिटल में ही गुजारना पड़ रहा था.

और फिर अचानक देश में लॉकडाउन हो गया. मैं 5- 7 दिनों तक घर नहीं जा पाया. केवल फोन पर जान्हवी का हालचाल लेता रहा . कोरोना मरीजों के बीच रहने के कारण मैं खुद घर जाने से बच रहा था. क्यों कि मैं नहीं चाहता था कि मुझ से जान्हवी तक यह वायरस पहुंच जाए. इस बीच एक दिन मुझे फोन पर जान्हवी की तबीयत खराब लगी. मैं ने पूछा तो उस ने स्वीकार किया कि 2- 3 दिनों से उसे सूखी खांसी है और बुखार भी चल रहा है . वह बुखार की साधारण दवाईयां खा कर ठीक होने का प्रयास कर रही थी . अब उसे सांस लेने में भी थोड़ी दिक्कत होने लगी थी .

मैं बहुत घबरा गया. ये सारे लक्षण तो कोरोना के थे . मेरे हाथपैर फूल गए थे. एक तरफ जान्हवी प्रेग्नेंट थी और उस पर यह खौफनाक बीमारी. मैं ने उसे तुरंत इमरजेंसी में अस्पताल में एडमिट कराया. जांच कराई तो वह कोरोना पॉजिटिव निकली. 24 घंटे मैं उस पर नजर रख रहा था और उस की देखभाल में लगा हुआ था. मगर हालात बिगड़ते ही जा रहे थे. उस पर कोई भी दवा असर नहीं कर रही थी और फिर एक दिन हमारी मेडिकल टीम ने यह अनाउंस कर दिया कि जान्हवी को बचाना अब संभव नहीं है.

वह पल मेरे लिए इतना सदमा भरा था कि वहीं बैठा हुआ मैं फूटफूट कर रो पड़ा . जान्हवी जो मेरी जान मेरी जिंदगी है, मुझे छोड़ कर कैसे जा सकती है ? काफी देर तक मैं भीगी पलकों के साथ जुड़वत् बैठा रहा.

शुरू से ले कर अब तक की जान्हवी की हर एक बात मुझे याद आ रही थी और फिर अचानक मुझे वह वादा याद आया जो मुझ से जान्हवी ने लिया था. अंतिम समय में करीब रहने का वादा. बाहों में भर कर विदा करने का वादा.

मैं जानता था कोरोना के कारण मौत होने पर मरीज की बॉडी भी घरवालों को नहीं दी जाती. पेशेंट को मरने से पहले प्लास्टिक कवर से ढक दिया जाता है. मैं जानता था कि वह समय आ गया है जब जान्हवी को मैं कभी देख नहीं सकूंगा. छू नहीं सकूंगा. पर अपना वादा जरुर पूरा करूंगा . मैं ने फैसला कर लिया था.

मैं जान्हवी के बेड से थोड़ी दूरी पर दूसरे डॉक्टरों और नर्सों के साथ खड़ा था. सब परेशान थे . तभी मैं ने अपना गाउन उतारा, ग्लव्स हटाए , आंखों को आजाद किया और फिर मास्क भी हटाने लगा. मुझे ऐसा करने से सभी रोक रहे थे. एक डॉक्टर ने तो मुझे पकड़ भी लिया. मगर मैं रुका नहीं.

मैं जानता था अभी नहीं तो फिर कभी नहीं. मैं आगे बढ़ा . अपनी जान्हवी के करीब उस के बेड पर बैठ गया. मैं ने उस के हाथों को थामा . बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी उनींदी आंखें खोली. 2-4 पल को मैं उसे निहारता रहा और वह मुझे निहारती रही. फिर मैं ने उस के लबों को छुआ और उसे अपनी बाहों का सहारा दिया. हम हम दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे.

तभी जान्हवी एकदम से अलग हो गई और अपनी कमजोर आवाज से इशारे से अपने होठों पर उंगली रख कर कहने लगी,” नो अमन नो . प्लीज गो . गो अमन गो… आई लव यू .”

“आई लव यू टू …” कह कर मैं ने एक बार फिर उसे छुआ और उस की जिद की वजह से उठ कर चला आया.

मेरे साथी डॉक्टरों ने तुरंत मुझे सैनिटाइजर दिया . हाथों के साथ मेरे होठों को भी सैनिटाइज कराया गया. मुझे तुरंत नहाने के लिए भेजा गया.

नहाते हुए मैं फूटफूट कर रो रहा था. क्योंकि मैं जानता था कि जान्हवी के साथ यह मेरा अंतिम मिलन था.

बेला फिर महकी: क्या रीना को माफ कर पाई वह

मधु दीदी अपनत्व लुटा कर और मेरे दिलोदिमाग में भूचाल पैदा कर चली गई थीं. कितने अपनेपन से उन्होंने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘सच बेला, तुम्हारी तो तकदीर ही कुछ ऐसी है कि हर रिश्ता तुम्हें इस्तेमाल करने के लिए ही बना है. तुम ब्याह कर आईं तो भाई साहब तुम्हें मांपिताजी की सेवा में सौंप कर निश्ंिचत हो गए. इतने बरसों में हम ने कभी तुम्हें उन के साथ घूमनेफिरने या पिक्चर जाते नहीं देखा.

‘‘सासससुर की सेवा और बच्चों की परवरिश से उबरीं तो अब अफसर बहू के बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी तुम पर आ पड़ी है. शुक्र है कि बहू बोलती मीठा है. हां, जब सारी जिम्मेदारी सास पर डाल कर नौकरी के नाम पर तफरी की जा रही हो, तो व्यवहार तो मीठा रखना ही पड़ेगा. चलो, अच्छा है कि तुम उस की मिठास पर लट्टू हो कर उस के बच्चों को जीजान से पालती रहो वरना सारी असलियत सामने आ जाएगी.’’

मधु दीदी के इस अपनेपन ने जैसे सारे रिश्तों के अपनत्व की कलई खोल दी. सासससुर और रमेश बाबू के रूखे व्यवहार को सहने की तो जैसे आदत सी पड़ गई थी. उसे मैं ने अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था. बहू के लिए प्यार का परदा मधु दीदी ने हटा कर मुझे निराश ही कर दिया था.

बेला नाम मेरे पिताजी ने कितने अरमानों से रखा था. मेरे जन्म के बाद ही आंगन में पिताजी ने बेला का एक छोटा पौधा रोप दिया था. बेला को झाड़ बन कर फूलों से लद कर महकते और मेरी किलकारी को लरजती मुसकराहट में बदलते कहां वक्त लगा था. पिताजी ने बेला को अपने आंगन में ही महकने दिया और मुझे रमेश बाबू के आंगन को महकाने के लिए डोली में बिठा कर विदा कर दिया. मेरे पति रमेश बाबू ने मेरे कोमल जज्बात को कभी महत्त्व नहीं दिया. स्त्री के सामने प्रेम प्रदर्शन कर उसे सिर पर चढ़ाना उन्हें अपनी मर्दानगी के खिलाफ लगता था.

पिछवाड़े के बगीचे में पेड़ोें और झाडि़यों पर लिपटी अमरबेल को दिखला कर पति ने यह जतला दिया था कि उन की जिंदगी में मेरी हैसियत इस अमरबेल से अधिक कुछ नहीं है. जड़, पत्र और पुष्पविहीन पीली सी बदरंग अमरबेल… अनचाही बगिया में छाई रहती है, जिसे काटछांट कर जितना पीछा छुड़ाना चाहो वह उतनी ही अपनी लता फैला देती है.

मेरी ससुराल में सबकुछ स्वार्थ के रिश्तों पर कायम था. उस पर भी हर पल मुझे यह एहसास कराया जाता कि मैं निपट घरेलू महिला अमरबेल की तरह आश्रित और अनपेक्षित हूं. तब विरोध और विद्रोह बहुओं का अधिकार कहां था. पति से तिरस्कृत पत्नी सासससुर की लाड़ली भी नहीं बन पाती है. मैं ने सहमे हुए इस नए नाम अमरबेल  को चुपचाप स्वीकार कर लिया और बेला की महक न जाने कहां गुम होती गई. मैं और बगिया की अमरबेल बिन चाहत और जरूरत के अपनीअपनी उम्र आगे बढ़ाते रहे.

ऐसी नीरस जिंदगी के बाद बहू का अपनापन बुझे मन पर प्यार की फुहार बन कर आया. पोतेपोती की मासूम शरारतों और उन के साथ बढ़ी व्यस्तता में मन की टीस कहीं गहरे दबने लगी थी. यह टीस न चाहते हुए भी जानेअनजाने उभर आती थी, जब मैं अपने बेटे मयंक और बहू रीना में आपसी सामंजस्य और अधिक से अधिक समय साथ गुजारने की चाहत देखती. मयंक ने रीना का आफिस दूर होने से उसे आनेजाने में होने वाली परेशानी से बचने के लिए कार चलाना सिखाया और एक नई कार उसे जन्मदिन पर उपहार में दे दी.

इस समय भी मेरे पति मुझे ताना मारने से नहीं चूके कि अगर पत्नी लायक और समझबूझ में समान स्तर की हो तो इतना ध्यान रखा जाना लाजमी है. इस तरह जिंदगी भर मुझे दिए गए तिरस्कार का कारण बता दिया था उन्होंने और बरसों से घुटती, जीती मैं तब भी मौन रह गई थी. मैं बेला से अमरबेल जो बन चुकी थी.

लेकिन आज मधु दीदी ने जब मेरे और रीना के ममता भरे रिश्ते में मुझे स्वार्थ के दर्शन कराए तो मेरा कुंठित मन विद्रोह के लिए बेचैन हो उठा. बहू को लगातार मिल रही सुविधाएं और सम्मान व्यर्थ नजर आ रहा था. अब तक जाने- अनजाने हुई लापरवाही और गलतियां, जिन्हें मैं रीना की नादानी मान कर नजरअंदाज कर रही थी, आज वे सारी गलतियां मेरी पुरातन परंपराओं और संकुचित सोच को, जानबूझ कर मेरे सम्मान को ठेस पहुंचाने की कोशिश जान पड़ रही थीं.

गुस्से और अपमान से मेरे कान लाल थे और बढ़ी हुई धड़कन जैसे सारे बंधन तोड़ शरीर को कंपा रही थी. कल तक बहू से मिल रहा प्यार मुझे आत्मसंतोष दे रहा था, लेकिन आज मधु दीदी ने मेरे संतोष में आग लगा दी थी. बहू का सारा प्यार स्वार्थ के तराजू में तौल कर अपवित्र कर दिया था. अगर मैं गृहस्थी की साजसंवार, बच्चों का होमवर्क, स्कूल से वापस आने पर उन की देखभाल को दरकिनार कर सत्संग और पूजा में मन लगाऊं  तो आत्मशांति तो मिलेगी ही, बहू का व्यवहार बदलने से असलियत भी सामने आ जाएगी.

सोचा, क्यों न कुछ दिन के लिए अपनी बेटी रोजी के यहां चली जाऊं? जरा मेरे जाने के बाद यह महारानी भी जाने कि मेरे बिना वह अपनी अफसरी कैसे कायम रख सकती है, लेकिन वहां जाना क्या अच्छा लगेगा? नौकरीशुदा रोजी भी तो अपने सासससुर के साथ भरे परिवार में रहती है. उसे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी तो मैं ने ही किया था, जिस से वह मेरी तरह प्रताडि़त हो कर नहीं सम्मान की जिंदगी जी सके.

बहुत कशमकश के बाद मैं ने हालात से लड़ने का फै सला लिया, ‘नहीं, मैं यहीं रह कर अपने लिए जीऊंगी. सारे दिन रीना और बच्चों की दिनचर्या के मुताबिक चक्करघिन्नी बनने के बजाय अब आदेशात्मक रवैया अपनाऊंगी. भला हो मधु दीदी का, जो उन्होंने मुझे समय रहते चौकन्ना कर दिया.’

हमेशा हंसतीमुसकराती रीना जो वक्तबेवक्त गलबहियां डाल कर मांमां की रट लगाए रहती है, आज मुझे खलनायिका लग रही थी. कुश और नीति के स्कूल से आने पर उन के कपड़े बदलवाने और खाना खिलाने में मन नहीं लग रहा था. दोनों बच्चे दादी को अनमना देख कर चुपचाप खाना खा कर टीवी देखने लगे थे.

बेचैनी अपनी चरम सीमा पर थी. बच्चों के पास जा कर टीवी देख कर मन बहलाने का प्रयास भी बेकार गया. सिर भारी हो रहा था. शाम होते ही बच्चे पार्क में खेलने और रमेश  बाबू अपने मित्रों के साथ टहलने चले गए. रसोई में जा कर रात के खाने की व्यवस्था देखने का मन आज कतई नहीं हो रहा था. परिवार की जिम्मेदारियों में सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद आज मैं खुद को शोषित मान रही थी.

शाम का अंधेरा गहराने लगा था. बाहर बहू की कार का हार्न सुनाई दिया. मन गुस्से से और भर गया. रीना को पता है कि रामू अपने गांव गया है और बच्चे पार्क में होंगे तो हार्न बजाने पर क्या मैं गेट खोलने जाऊंगी? और फिर सामने बालकनी में खड़ी मधु दीदी ने अगर मुझे गेट खोलते देख लिया तो व्यंग्य से ऐसे मुसकराएंगी मानो कह रही हों कि अच्छी तरह करो अफसर बहू की चाकरी.

मैं रुकी रही कि दोबारा हार्न की आवाज आई. मैं गुस्से में उठी कि बहू को इतनी जोर से झिड़कूंगी कि मधु दीदी भी सामने के घर में सुन लें कि मैं भी सास का रौब रखती हूं.

मैं बाहर पहुंची तो रीना तुरंत कार से उतर कर गेट खोलने लगी, ‘‘अरे, मां, आप क्यों आईं. मैं तो भूल ही गई थी कि आज रामू घर में नहीं है,’’ उस की मीठी बोली में मैं सारा आक्रोश भूल गई.

‘‘ओफ, मां, आप कैसी अव्यवस्थित सी घूम रही हैं?  आप की तबीयत तो ठीक है न?’’ कहते हुए रीना ने मेरा माथा छू कर देखा, ‘‘लगता है आप ने दिन में जरा भी आराम नहीं किया. आप जल्दी से तैयार हो जाइए. रोजी दीदी और जीजाजी भी आने वाले हैं.’’

मैं फिर उस के जादू में बंधी कपड़े बदल बाल संवार कर आ गई. जल्दी ही रीना भी फ्रेश हो कर आ गई.

‘‘हां, अब लग रही हैं न आप बर्थडे गर्ल. हैप्पी बर्थ डे, मां,’’ कहते हुए बड़ा सा गुलदस्ता मेरे हाथों में दे कर रीना ने मेरे चरण स्पर्श किए.

‘तुम्हें कैसे पता चला’ वाले आश्चर्य मिश्रित भाव को ले कर जब मैं ने उसे गले लगाया तो उस ने बताया कि पापा के पेंशन के पेपर्स में आप की जन्मतिथि पढ़ी थी. मयंक भी आज आफिस से जल्दी घर आएंगे और हां, आज आप की और मेरी रसोई से छुट्टी है, क्योंकि हम सब आप का जन्मदिन मनाने होटल जा रहे हैं.’’

मैं मधु दीदी के बहकावे में आ कर अपनी संकीर्ण मनोदशा से खुद ही शर्मिंदा होने लगी. अब तक देखीसुनी बुरी सासुओं की कुंठा आज मुझ पर भी हावी हो गई थी. मुझे लगा कि पति, सासससुर से मिले अपमान को हर नारी की कहानी मान चुपचाप स्वीकार किया और निरपराध बहू को मात्र पड़ोसन के बहकावे में आ कर स्वार्थ का पुतला मान लिया. बरसों से अपने जन्मदिन को साधारण दिनों की तरह गुजारती आज बहू की बदौलत ही खुशियों के साथ मना पाऊंगी. पति के रूप में रमेश बाबू तो इन औपचारिकताओें के महत्त्व को कभी समझे ही नहीं.

‘‘मां, आओ, आप को अच्छी तरह तैयार कर दूं. बच्चों के पार्क से आते ही फिर उन्हें भी तैयार करना होगा,’’ यह कह कर बहू ने एक नई कोसा की साड़ी मुझे दी और बोली, ‘‘कैसी लगी साड़ी, मां?’’

‘‘तुम मेरी पसंद को कितनी अच्छी तरह समझती हो,’’ बस, इतना ही कह पाई मैं.

साड़ी पहन कर जब मैं उस के पास आई तो रीना ने बेला का एक बड़ा सा गजरा मेरे जूड़े पर सजा दिया तो मैं ने रीना को अपने सीने से लगा लिया.

आंखों में आए आंसुओं से मैं अपने दिन भर दिल में भरे जहर को निकाल देना चाहती हूं. मेरी प्यारी रीना और जूडे़ में बंधे बेला के गजरे की भीनीभीनी महक ने आज बरसों बाद यह एहसास करा दिया कि मैं अमरबेल नहीं, बेला हूं.

सामंजस्य: क्या रमोला औफिस और घर में सामंजस्य बिठा पाई?

रमोला के हाथ जल्दीजल्दी काम निबटा रहे थे, पर नजरें रसोई की खिड़की से बाहर गेट की तरफ ही थीं. चाय के घूंट लेते हुए वह सैंडविच टोस्टर में ब्रैड लगाने लगी.

‘‘श्रेयांश जल्दी नहा कर निकलो वरना देर हो जाएगी,’’ उस ने बेटे को आवाज दी.

‘‘मम्मा, मेरे मोजे नहीं मिल रहे.’’

मोजे खोजने के चक्कर में चाय ठंडी हो रही थी. अत: रमोला उस के कमरे की तरफ भागी. मोजे दे कर उस का बस्ता चैक किया और फिर पानी की बोतल भरने लगी.

‘‘चलो बेटा दूध, कौर्नफ्लैक्स जल्दी खत्म करो. यह केला भी खाना है.’’

‘‘मम्मा, आज लंचबौक्स में क्या दिया है?’’

श्रेयांश के इस सवाल से वह घबराती थी. अत: धीरे से बोली, ‘‘सैंडविच.’’

‘‘उफ, आप ने कल भी यही दिया था. मैं नहीं ले जाऊंगा. रेहान की मम्मी हर दिन उसे बदलबदल कर चीजें देती हैं लंचबौक्स में,’’ श्रेयांश पैर पटकते हुए बोला.

‘‘मालती दीदी 2 दिनों से नहीं आ रही है. जिस दिन वह आ जाएगी मैं अपने राजा बेटे को रोज नईनई चीजें दिया करूंगी उस से बनवा कर. अब मान जा बेटा. अच्छा ये लो रुपए कैंटीन में मनपसंद का कुछ खा लेना.’’

रेहान की गृहिणी मां से मात खाने से बचने का अब यही एक उपाय शेष था. सोचा तो था कि रात में ही कुछ नया सोच श्रेयांश के लंचबौक्स की तैयारी कर के सोएगी पर कल दफ्तर से लौटतेलौटते इतनी देर हो गई कि खाना बाहर से ही पैक करा कर लेती आई.

खिड़की के बाहर देखा. गेट पर कोई आहट नहीं थी. घड़ी देखी 7 बज रहे थे. स्कूल बस आती ही होगी. बेटे को पुचकारते हुए जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी.

ये बाइयां भी अपनी अहमियत खूब समझती हैं. अत: मनमानी करने से बाज नहीं आती हैं. मालती पिछले 3 सालों से उस के यहां काम कर रही थी. सुबह 6 बजे ही हाजिर हो जाती और फिर रमोला के जाने के वक्त 9 बजे तक लगभग सारे काम निबटा लेती. वह खाना भी काफी अच्छा बनाती थी. उसी की बदौलत लंचबौक्स में रोज नएनए स्वादिष्ठ व्यंजन रहते थे. शाम 6 बजे उस के दफ्तर से लौटते वह फिर हाजिर हो जाती. चाय के साथ मालती कुछ स्नैक्स भी जरूर थमाती.

मालती की बदौलत ही रमोला घर के कामों से बेफिक्र रहती थी और दफ्तर में अच्छा काम कर पाती. नतीजा 3 सालों में 2 प्रमोशन. अब तो वह रोहन से दोगुनी सैलरी पाती थी. परंतु अब मालती के न होने पर काम के बोझ तले उस का दम निकले जा रहा था. बढ़ती सैलरी अपने साथ बेहिसाब जिम्मेदारियां ले कर आ गई थी. हां, साथ ही साथ घर में सुखसुविधाएं भी बढ़ गई थीं. तभी रोहन और रमोला इस पौश इलाके में इतने बड़े फ्लैट को खरीद पाने में सक्षम हुए थे.

मालती के रहते उसे कभी किसी और नौकर या दूसरी कामवाली की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. लगभग उसी की उम्र की औरत होगी मालती और काम बिलकुल उसी लगन से करती जैसे वह अपनी कंपनी के लिए करती थी. इसी से रमोला हमेशा उस का खास ध्यान रखती और घर के सदस्य जैसा ही सम्मान देती. परंतु इधर कुछ महीनों से मालती का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सुबह अकसर देर से आती या न भी आती. बिना बताए 2-2, 3-3 दिनों तक गायब रहती. अचानक उस के न आने से रमोला परेशान हो जाती. पर समयाभाव के चलते रमोला ज्यादा इस मामले में पड़ नहीं रही थी. मालती की गैरमौजूदगी में किसी तरह काम हो ही जाता और फिर जब वह आती तो सब संभाल लेती.

श्रेयांश को बस में बैठा रमोला तेजी से सीढि़यां चढ़ते हुए घर में घुसी. बिखरी हुई बैठक को अनदेखा कर वह एक बार फिर रसोई में घुस गई. वह कम से कम 2 सब्जियां बना लेना चाहती थी, क्योंकि आज रात उसे लौटने में फिर देर जो होनी थी.

हाथ भले छुरी से सब्जी काट रहे थे पर उस का ध्यान आज दफ्तर में होने वाली मीटिंग पर अटका था. देर रात एक विदेशी क्लाइंट के साथ एक बड़ी डील के लिए वीडियो कौन्फ्रैंसिंग भी करनी थी. उस के पहले मीटिंग में सारी बातें तय करनी थीं. आधेपौने घंटे में उस ने काफी कुछ बना लिया. अब रोहन को उठाना जरूरी था वरना उसे भी देर हो जाएगी.

रोहन कभी घर के कामों में उस का हाथ नहीं बंटाता था उलटे हजार नखरे करता. कल रात भी वह बड़ी देर से आया था. उलझ कर वक्त जाया न हो, इसलिए रमोला ने ज्यादा सवालजवाब नहीं किए. जबकि रोहन का बैंक 6 बजे तक बंद हो जाता था. वह महसूस कर रही थी कि इन दिनों रोहन के खर्चों में बेहिसाब वृद्धि हो रही है. शौक भी उस के महंगे हो गए थे. आएदिन महंगे होटलों की पार्टियां रमोला को नहीं भातीं. फिर सोचती आखिर कमा किस लिए रहे हैं. घर और दोनों गाडि़यों की मासिक किश्तों और उस पर बढ़ रहे ब्याज के विषय में सोचती तो उस के काम की गति बढ़ जाती.

‘‘आज तुम श्रेयांश को मम्मी के घर से लाने ही नहीं गए, बेचारा इंतजार करता वहीं सो गया था. तुम तो जानते ही हो मम्मी के हार्ट का औपरेशन हुआ है. वह श्रेयांश की देखभाल करने में असमर्थ हैं,’’ रमोला ने बेहद नर्म लहजे में कहा पर मन तो हो रहा था कि पूछे इस बार क्रैडिट कार्ड का बिल इतना अधिक क्यों आया?

मगर रोहन फट पड़ा, ‘‘हां मैं तो बेकार बैठा हूं. मैडम खुद देर रात तक बाहर गुलछर्रे उड़ा कर घर आएं. मैं जल्दी घर आ कर करूंगा क्या? बच्चे की देखभाल?’’

रोहन के इस जवाब से रमोला हैरान रह गई. उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा. सिर झुकाए लैपटौप पर काम करती रही. क्लाइंट से मीटिंग  के पहले यह प्रेजैंटेशन तैयार कर उसे कल अपने मातहतों को दिखानी जरूरी थी. कनखियों से उस ने देखा रोहन सीधे बिस्तर पर ही पसर गया. खून का घूंट पी वह लैपटौप पर तेजी से उंगलियां चलाने लगी.

चाय बन चुकी थी पर रोहन अभी तक उठा नहीं था. अपनी चाय पी वह दफ्तर जाने के लिए तैयार होने लगी. अपने बिखरे पेपर्स समेटे, लैपटौप बंद किया. साथसाथ वह नाश्ता भी करती जा रही थी. हलकी गुलाबी फौर्मल शर्ट के साथ किस रंग की पतलून पहने वह सोच रही थी. आज खास दिन जो था.

तभी रोहन की खटरपटर सुनाई देने लगी. लगता है जाग गया है. यह सोच रमोला उस की चाय वहीं देने चली गई.

‘‘गुड मौर्निंग डार्लिंग… अब जल्दी चाय पी लो. मैं बस निकलने वाली हूं,’’ परदे को सरकाते हुए रमोला ने कहा.

‘‘क्या यार जब देखो हड़बड़ी में ही रहती हो. कभी मेरे पास भी बैठ जाया करो,’’ रोहन लेटेलेटे ही उस के हाथ को खींचने लगा.

‘‘मुझे चाय नहीं पीनी, मुझे तो रात से ही भूख लगी है. पहले मैं खाऊंगा,’’ कहते हुए रोहन ने उसे बिस्तर पर खींच लिया.

‘‘रोहन, अब ज्यादा रोमांटिक न बनो, मेरी कमीज पर सलवटें पड़ जाएंगी. छोड़ो मुझे. नाश्ता और लंचबौक्स मैं ने तैयार कर दिया है. खा लेना, 9 बजने को हैं. तुम भी तैयार हो जाओ,’’ कह रमोला हाथ छुड़ा चल दी.

‘‘रोहन, दरवाजा बंद कर लो मैं निकल रही हूं,’’ रमोला ने कहा और फिर सीढि़यां उतर गैराज से कार निकाल दफ्तर चल दी. रमोला मन ही मन मीटिंग का प्लान बनाती जा रही थी.

‘उमेश को वह वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के वक्त अपने साथ रखेगी. बंदा स्मार्ट है और उसे इस प्रोजैक्ट का पूरा ज्ञान भी है. जितेश को मार्केटिंग डिटेल्स लाने को कहा ही है. एक बार सब को अपना प्रेजैंटेशन दिखा, उन के विचार जान ले तो फिर फाइनल प्रेजैंटेशन रचना तैयार कर ही लेगी. सब सहीसही सोचे अनुसार हो जाए तो एक प्रमोशन और पक्की,’ यह सोचते रमोला के अधरों पर मुसकान फैल गई.

दफ्तर के गेट के पास पहुंच उसे ध्यान आया कि लैपटौप, लंचबौक्स सहित जरूरी कागजात वह सब घर भूल आई है. आज इतनी दौड़भाग थी सुबह से कि निकलते वक्त तक मन थक चुका था. रमोला ने कार को घर की तरफ घुमा दिया. कार को सड़क पर ही छोड़ वह तेजी से सीढि़यां चढ़ने लगी. दरवाजा अंदर से बंद न था. हलकी थपकी से ही खुल गया. बैठक में कदम रखते ही उसे जोरजोर से हंसने की आवाजें सुनाई दीं.

‘‘ओह मीतू रानी तुम ने आज मन खुश कर दिया… सारी भूख मिट गई… मीतू यू आर ग्रेट,’’ रोहन की आवाज थी.

‘‘साहबजी आप भी न…’’

‘तो मालती आ चुकी है… रोहन उसे ही मीतू बोल रहा है. पर इस तरह…’ सोच रमोला का सिर मानो घूमने लगा, पैर जड़ हो गए.

जबान तालू से चिपक गई. उस की बचीखुची होश की हवा चूडि़यों की खनखनाहट और रोहन के ठहाकों ने निकाल दी. वह उलटे पांव लौट गई. बिना लैपटौप लिए ही जा कर कार में बैठ गई. उस के तो पांव तले से जमीन खिसक गई थी.

‘मेरी पीठ पीछे ऐसा कब से चल रहा है… मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला. रोहन मेरे साथ ऐसी बेवफाई करेगा, मैं सोच भी नहीं सकती. घर संभालतेसंभालते महरी उस के पति को भी संभालने लगी,’ मालती की जुरअत पर वह तड़प उठी कि कब रोहन उस से इतनी दूर हो गया. वह तो हमेशा हाथ बढ़ाता था. मैं ही छिटक देती थी. उस के प्यारइजहार की भाषा को मैं ने खूब अनदेखा किया.

‘रोहन को इस गुनाह के रास्ते पर धकेलने वाली मैं ही हूं. साथसाथ तो चल रहे थे हम… अचानक यह क्या हो गया. शायद साथ नहीं, मैं कुछ ज्यादा तेज चल रही थी, पर मैं तो घर, पति और बच्चे के लिए ही काम कर रही हूं, उन की जरूरतें और शौक पूरा हो इस के लिए दिनरात घरबाहर मेहनत करती हूं. क्या रोहन का कोई फर्ज नहीं? वह अपनी ऐयाशी के लिए बेवफाई करने की छूट रखता है?’ विचारों की अंधड़ में घिरी कार चला वह किधर जा रही थी, उसे होश नहीं था. बगल की सीट पर रखे मोबाइल पर दफ्तर से लगातार फोन आ रहे थे. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की बेहद उच्च पदासीन रमोला अचानक खुद को हारी हुई, लुटीपिटी, असहाय महसूस करने लगी. उसे सब कुछ बेमानी लगने लगा कि कैसी तरक्की के पीछे वह भागी जा रही है. उसे होश ही न रहा कि वह कार चला रही है.

जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. सिरहाने रोहन और श्रेयांश बैठे थे. डाक्टर बता रहे थे कि अचानक रक्तचाप काफी बढ़ जाने से ये बेहोश हो गई थीं. कुछ दिनों के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई. उमेश और जितेश दफ्तर से उस से मिलने आए थे. उन की बातों से लगा कि उस की अनुपस्थिति में दफ्तर में काफी मुश्किलें आ रही हैं. रमोला ने उन्हें आश्वासन दिया कि बेहतर महसूस करते ही वह दफ्तर आने लगेगी, तब तक घर से स्काइप के जरीए वर्क ऐट होम करेगी.

रोहन को देख उसे घृणा हो जाती. उस दिन की हंसी और चूडि़यों की खनखनाहट की गूंज उसे बेचैन किए रहती. रोहन को छोड़ने यानी तलाक की बात भी उस के दिमाग में आ रही थी. पर फिर मासूम श्रेयांश का चेहरा सामने आ जाता कि क्यों उस का जीवन बरबाद किया जाए. उस के उच्च शिक्षित होने का क्या फायदा यदि वह अपनी जिंदगी की उलझनों को न सुलझा सके.

‘हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा’ एक कवि की ये पंक्ति उसे हमेशा उत्साहित करती थी, विपरीत परिस्थितियों में शांतिपूर्वक जूझने के लिए प्रेरणा देती थी. आज भी वह हार नहीं मानेगी और अपने घर को टूटने से बचा लेगी, ऐसा उसे विश्वास था.

रमोला से उस की कालेज की एक सहेली मिलने आई. वह यूएस में रहती थी. बातोंबातों में उस ने बताया कि वहां तो नौकर, दाई मिलते नहीं. अत: सारा काम पतिपत्नी मिल कर करते हैं. रमोला को उस की बात जंच गई कि अपने घर का काम करने में शर्म कैसी.

उस के जाने के बाद कुछ सोचते हुए रमोला ने रोहन से कहा, ‘‘रोहन मैं सोचती हूं कि मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूं. घर पर रह कर तुम्हारी तथा श्रेयांश की देखभाल करूं. तुम्हारी शिकायत भी दूर हो जाएगी कि मैं बहुत व्यस्त रहती हूं, घर पर ध्यान नहीं देती हूं.’’

यह सुनना था कि रोहन मानो हड़बड़ा गया. उसे अपनी औकात का पल भर में भान हो गया. श्रेयांश के महंगे स्कूल की फीस, फ्लैट और गाडि़यों की मोटी किस्त ये सब तो उस के बूते पूरा होने से रहा. कुछ ही पलों में उसे अपनी सारी ऐयाशियां याद आ गईं.

‘‘नहीं डियर, नौकरी छोड़ने की बात क्यों कर रही हो? मैं हूं न,’’ हकलाते हुए रोहन ने कहा.

‘‘ताकि तुम अपनी मीतू के साथ गुलछर्रे उड़ा सको… नहीं मुझे अब घर पर रहना है और किसी महरी को नहीं रखना है,’’ रमोला ने सख्त लहजे में तंज कसा.

रोहन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह घुटनों के बल वहीं जमीन पर बैठ गया और रमोला से माफी मांगने लगा. भारतीय नारी की यही खासीयत है, चाहे वह कम पढ़ीलिखी हो या ज्यादा घर हमेशा बचाए रखना चाहती है. रमोला ने भी रोहन को एक मौका और दिया वरना दूसरे रास्ते तो हमेशा खुले हैं उस के पास.

रमोला ठीक हो दफ्तर जाने लगी. गाड़ी के पहियों की तरह दोनों अपनी गृहस्थी की गाड़ी आगे खींचने लगे. अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए रमोला ने भी तय कर लिया था कि वह घर और दफ्तर दोनों में सामंजस्य बैठा कर चलेगी, भले ही एकाध तरक्की कम हो. नौकरी छोड़ने की उस की धमकी के बाद से रोहन अब घर के कामों में उस का हाथ बंटाने लगा था. इन सब बदलावों के बाद श्रेयांश पहले से ज्यादा खुश रहने लगा था, क्योंकि लंचबौक्स उस की मम्मी खुद तैयार करती और रोज नईनई डिश देती.

कुछ ऐसे बंधन होते हैं: क्यों थी प्रेरणा को रवीश की जरुरत

‘‘दोस्तीवह इमारत है जो विश्वास की नींव पर खड़ी होती है… यह नदी के किनारों को जोड़ने वाला वह पुल है, जिस में यह माने नहीं रखता कि किनारे स्त्री है या पुरुष,’’ व्हाट्सऐप पर आया मैसेज प्रेरणा ने जरा ऊंचे स्वर में पति सोमेश को सुनाते हुए पढ़ा.

‘‘एक स्त्री और पुरुष आपस में कभी दोस्त नहीं हो सकते… यह सिर्फ और सिर्फ अपनी वासना को शराफत का खोल पहनाने की गंदी मानसिकता से ज्यादा कुछ नहीं…’’ सुनते ही हमेशा की तरह सोमेश उस दिन भी बिदक गया.

प्रेरणा का मुंह उतर गया. उस ने फोन चार्जर में लगाया और बाथरूम की तरफ बढ़ गई.

प्रेरणा और सोमेश की शादी को 5 वर्ष होने को आए थे. देह के फासले जरूर उन के बीच पहली रात को ही खत्म हो गए थे, लेकिन दिलों के बीच की दूरी आज तक तय नहीं हो सकी थी. यों तो दोनों के बीच खास मतभेद नहीं थे, लेकिन स्त्रीपुरुष के बीच संबंधों को ले कर सोमेश के खयालात आज भी सामंती युग वाले ही थे. जब भी प्रेरणा स्त्रीपुरुष के बीच खालिस दोस्ती की पैरवी करती, सोमेश इसी तरह भड़क जाता था.

दोनों अलगअलग मल्टीनैशनल कंपनी में काम करते थे. सुबह का वक्त दोनों के

लिए ही भागमभाग वाला होता था और शाम को घर लौटने में अकसर दोनों को ही रात हो जाती थी. सप्ताहांत पर जरूर उन्हें कुछ लमहे फुरसत के मिलते, लेकिन वे भी सप्ताहभर के छूटे हुए कामों की भेंट चढ़ जाते. ऐसे में सोमेश को तो कोई खास परेशानी नहीं होती थी, क्योंकि वह तो शुरू से ही अंतर्मुखी स्वभाव का रहा है, लेकिन मनमीत के अभाव में प्रेरणा अपने मन की गुत्थियों को सुलझाने के लिए तड़प उठती थी.

प्रेरणा को हमेशा एक ऐसे पुरुष मित्र की तलाश थी जो दिल के बेहद करीब हो… जिस से हर राज शेयर किया जा सके… हर मुश्किल वक्त में सलाह ली जा सके… जिस के साथ बिंदास खिलखिलाया जा सके और दुख की घड़ी में जिस के कंधे पर सिर टिका कर रोया भी जा सके.

ऐसे दोस्त की कल्पना जब प्रेरणा सोमेश के साथ साझा करती थी, तो वह आगबबूला हो उठता था.

‘‘पति है न… सुखदुख में साथ निभाने के लिए… फिर अलग से पुरुष की क्या जरूरत हो सकती है और फिर मित्र भी हो तो कोई स्त्री क्यों नहीं? मां या बहन से अच्छी कोई सहेली नहीं हो सकती?’’ कह कर सोमेश उसे चुप करा दिया करता.

‘‘पति कभी दोस्त नहीं हो सकता, क्योंकि उस के प्रेम में अधिकार की भावना होती है… पत्नी को ले कर स्वामित्व का भाव होता है… और स्त्री उस में तो स्वाभाविक ईर्ष्या होती ही है… फिर चाहे बहन ही क्यों न हो… रही बात मां की तो उन की बातें तो हमेशा नैतिकता का जामा पहने होती हैं… वे दिल की नहीं दिमाग की बातें करती हैं… मुझे ऐसा मित्र चाहिए जिस के साथ बंधन में भी आजादी का एहसास हो…’’

प्रेरणा लाख कोशिश कर के भी सोमेश को समझा नहीं सकती थी कि किसी भी महिला के लिए पुरुष मित्र शारीरिक नहीं, बल्कि भावनात्मक जरूरत है.

इन्हीं दिनों रवीश ने प्रेरणा की जिंदगी में दस्तक दी. मार्केटिंग विभाग में ट्रेनी के रूप में जौइन करने वाला रवीश दिखने में जितना आकर्षक था व्यवहार में भी उतना ही शालीन और हंसमुख था. उसे देख प्रेरणा को लगता जैसे वह अपने आधे संवाद तो अपनी आंखों और मुसकराहट से ही कर लेता है.

धीरेधीरे रवीश पूरे औफिस का चहेता बन गया था और फिर कब वह प्रेरणा के दिल के बंद दरवाजे पर दस्तक देने लगा था खुद प्रेरणा भी कहां जान पाई थी. हां, रवीश की इस हिमाकत पर उसे आश्चर्य अवश्य हुआ था. सोमेश के स्वभाव से भलीभांति परिचित प्रेरणा ने रवीश के लिए अपने दिल का दरवाजा कस कर बंद कर लिया था, लेकिन रवीश कोई फूल नहीं था जिसे रोका जा सके… वह तो खुशबू था और खुशबू कभी रोकने से रुकी है भला?

और फिर शुरुआत हुई स्त्रीपुरुष के बीच उस खालिस दोस्ती के रिश्ते की जिसे जीने

के लिए प्रेरणा ने न जाने कितनी बार अपने मन को मारा था… जिस के कोमल एहसास को महसूस करने के लिए न जाने कितनी ही बार सोमेश के तानों से अपनेआप को छलनी किया था…

प्रेरणा अपने जीवन की किताब के अनछुए पन्ने को पढ़ने लगी. कितना सुंदर था यह बंद पन्ना… इंद्रधनुषी रंगों में ढला… खुशबुओं से तरबतर… पंखों से हलका… सूर्य की किरण सा सुनहरा… बर्फ सा शीतल… और मिस्री सा मीठा… रवीश का साथ जैसे पिता का वात्सल्य… मां की ममता… भाई सा प्रेम… बहन सा स्नेह और प्रेमी सा नाज उठाने वाला… प्रेम का हर रूप उस में समाया था… नहीं था तो बस एकाधिकार का भाव… आधिपत्य की भावना…

प्रेरणा रवीश की आदी होने लगी थी. उस से बात किए बिना तो उस के दिन की शुरुआत ही नहीं होती थी. हर काम में रवीश की सलाह प्रेरणा के लिए जरूरी हो जाती थी. वह रवीश के साथ फिल्मों से ले कर खेल… सामाजिक से ले कर राजनीति और व्यक्तिगत से ले कर सार्वजनिक तक हर विषय पर खुल कर बात करती थी.

उन के बीच स्त्री और पुरुष होने का भेद कहीं दिखाई नहीं देता था. अब वे मात्र 2 इंसान थे जो एक पवित्र रिश्ते को जी रहे थे. जब दोनों फोन पर होते थे तो मिनट कब घंटों में बदल जाते थे दोनों को ही खबर नहीं होती थी. सोशल मीडिया पर भी दोनों के बीच संदेशों का आदानप्रदान अनवरत होता था. लेकिन दोनों ही अपनीअपनी मर्यादा में बंधे होते थे. उन की बातचीत या संदेशों में अश्लीलता का अंशमात्र भी नहीं होता था.

बेशक यह मित्रता पूरी तरह 2 इंसानों के बीच थी, लेकिन सोमेश का स्वभाव भला प्रेरणा कैसे भूल सकती थी. कहा जाता है कि सभ्य कहलाने के लिए व्यक्ति अपनी आदतें बदल सकता है, मगर अपने मूल स्वभाव को बदलना उस के लिए संभव नहीं. सोमेश के बारे में सोचते ही रवीश की दोस्ती को खोने का डर प्रेरणा को सताने लगता था. इसीलिए वह अब तक रवीश के साथ अपनी दोस्ती को सोमेश से छिपाए हुए थी.

रात देर तक लैपटौप पर काम निबटाती प्रेरणा की आंख सुबह देर से खुली. फटाफट चायनाश्ता और दोनों का टिफिन पैक कर के वह भागती सी बाथरूम में घुस गई. फिर किसी तरह 2 ब्रैड पीस चाय के साथ निगल कर अपना पर्स संभालने लगी.

‘‘उफ, कहीं देर न हो जाए…’’ हड़बड़ाती प्रेरणा सोमेश को बाय कहती हुए घर से निकल गई.

सोमेश आज थोड़ी देर से औफिस जाने वाला था, इसलिए आराम से नाश्ता कर रहा था.

मोड़ पर ही औटो मिल गया तो प्रेरणा ने राहत की सांस ली. फिर बोली, ‘‘भैया, जरा तेज चलाओ न… मेरी ट्रेन न मिस हो जाए… मेरा प्रेजैंटेशन है… अगर टाइम पर औफिस न पहुंची तो बौस बहुत नाराज होंगे…’’

पता नहीं प्रेरणा औटो वाले से कह रही थी

या अपनेआप से, लेकिन उस की

बड़बड़ाहट सुन कर औटो वाले ने स्पीड जरा बढ़ा दी. मैट्रो स्टेशन पहुंचते ही उसे ट्रेन मिल गई और उस में सीट भी.

तसल्ली से बैठते ही प्रेरणा को रवीश की याद आ गई. उस ने मुसकराते हुए मोबाइल निकालने के लिए पर्स में हाथ डाला. पूरा पर्स खंगाल लिया, मगर मोबाइल हाथ में नहीं आया. अपनी तसल्ली के लिए उस ने एक बार फिर से पर्स को अच्छी तरह खंगाला, मगर मोबाइल उस में होता तो उसे मिलता न…

‘उफ, यह क्या हो गया… मोबाइल तो चार्जर में लगा हुआ ही छोड़ आई… इतनी बड़ी भूल मैं कैसे कर सकती हूं?’ सोच प्रेरणा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं…

‘अब क्या करूं? यदि सोमेश ने उत्सुकतावश मेरा फोन चैक कर लिया तो? रवीश के मैसेज पढ़ लिए तो? तो… तो… क्या? यह तो मानव स्वभाव है कि हर छिपी हुई चीज उसे आकर्षित करती है… सोमेश भी अवश्य उस का मोबाइल चैक करेगा… काश, उस ने अपने मोबाइल की स्क्रीन को अनलौक करने का पैटर्न सोमेश से साझा न किया होता…’

‘क्या करूं… क्या वापस जा कर अपना फोन ले कर आऊं? लेकिन अब तक तो उस ने फोन देख ही लिया होगा… यदि उस ने रवीश के मैसेज पढ़ लिए होंगे तो वह उस का सामना कैसे कर पाएगी…’

प्रेरणा कुछ भी तय नहीं कर पा रही थी. हार कर उस ने आने वाली स्थिति को वक्त के हवाले कर दिया और खुद को उस का सामना करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी.

‘रवीश भी टूर पर गया है. वह अवश्य उसे फोन करेगा… बस, फटाफट औफिस पहुंच कर उसे मोबाइल भूलने की सूचना दे दूं ताकि वह कौल न करे…’ प्रेरणा का दिमाग बिजली की सी तेज गति से दौड़ रहा था.

‘अब जो भी होगा देखा जाएगा… यदि उस की निजता का सम्मान करते हुए सोमेश ने उस का मोबाइल चैक नहीं किया होगा तब तो कोई फिक्र ही नहीं और यदि उस ने मोबाइल चैक कर भी लिया और रवीश को ले कर सवालजवाब किए तो उसे हिम्मत दिखानी होगी… वह रवीश के साथ अपनी दोस्ती कुबूल कर लेगी, परिणाम चाहे जो हो. लेकिन रवीश का साथ नहीं छोड़ेगी…’ प्रेरणा ने मन ही मन निश्चय कर लिया था. अब वह काफी हलका महसूस कर रही थी.

लाख हिम्मत बनाए रखने के बावजूद घर में पसरे अंधेरे ने प्रेरणा के हौसला पस्त कर दिया. आखिर वही हुआ जिस का डर था.

‘‘कब से चल रहा है ये सब… उस दो टके के इंसान की हिम्मत कैसे हुई तुम्हें इस तरह के व्यक्तिगत मैसेज भेजने की… जरूर तुम ने ही उसे बढ़ावा दिया होगा… जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को दोष कैसे दिया जा सकता है…’’ सोमेश के स्वर में क्षोभ, नफरत, गुस्से और निराशा के मिलेजुले भाव थे.

‘‘हमारे बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं है जिस पर तुम उंगली उठा रहे हो… रवीश मेरा दोस्त है… अंतरंग मित्र… लेकिन छोड़ो… दोस्ती के माने तुम नहीं समझोगे…’’ प्रेरणा ने बहस को विराम देने की मंशा से कहा.

लेकिन इतना बड़ा मुद्दा इतनी आसानी से कहां सुलझ सकता है. प्रेरणा की स्वीकारोक्ति ने आग में घी का काम किया. सोमेश के पुरुषोचित अहम को ठेस लगी. वह लगातार जहर उगलता रहा और प्रेरणा उसे अपने भीतर उतारती रही. दोनों के बीच एक शून्य पसर गया. उस रात खाना नहीं बना.

इस घटना के बाद हालांकि सोमेश ने उस से अपने व्यवहार के लिए माफी मांग ली थी, लेकिन प्रेरणा ने खुद को खुद में समेट लिया. वह जितनी देर घर में सोमेश के साथ रहती, एक मशीन की तरह अपने सारे काम निबटाती… खानापीना हो या पहननाओढ़ना, घूमनाफिरना हो या किसी से मिलनाजुलना… यहां तक कि बिस्तर में भी वह न अपनी कोई इच्छा जाहिर करती और न ही किसी बात पर प्रतिवाद करती. बस, चुपचाप अपने हिस्से के कर्तव्य निभाती रहती.

हर सुबह वह घर से औफिस के लिए इस तरह निकलती मानो कोई पंछी कैद से छूट कर खुले आकाश में आया हो… और शाम को घर वापस लौटते ही फिर से कछुए की तरह अपनेआप में सिमट जाती.

सोमेश के साथ रिश्ते में ठंडापन आने से प्रेरणा के मन की घुटन और भी अधिक बढ़ने लगी थी. उस के अंदर ऐसा बहुत कुछ उमड़ताघुमड़ता रहता था जिसे अभिव्यक्ति की चाह होती… उसे बहुत बेचैनी होती थी जब वह ये सब रवीश के साथ बांटना चाहती और रवीश उपलब्ध नहीं होता.

वह रवीश की मजबूरी समझती थी… आखिर उस की अपनी जिंदगी… अपनी

प्राथमिकताएं हैं… लेकिन दिल का क्या करे? उसे तो हर समय एक साथी चाहिए जो बिना किसी शर्त के उसे उपलब्ध हो… कई बार सोमेश की तरफ भी हाथ बढ़े, लेकिन हर बार स्वाभिमान पांवों में बेडि़यां डाल देता. रवीश और सोमेश के बीच झूलती प्रेरणा की निराशा अवसाद में बदलती जा रही थी.

देर रात तक जागती प्रेरणा आज सुबह उठी तो सिर में भारीपन था. उठने की कोशिश में गिर पड़ी. सोमेश लपक कर पास आया, लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर रुक गया. पे्ररणा ने फिर से उठने की कोशिश की, लेकिन इस बार भी कामयाब नहीं हुई तो उस ने निरीहता से सोमेश की तरफ देखा. सोमेश ने बिना एक पल गंवाए उसे बांहों में थाम लिया.

‘अरे, तुम्हें तो तेज बुखार है,’ सोमेश की फिक्र उसे अच्छी लगी.

‘काश, इस वक्त रवीश मेरे पास होता,’ सोच प्रेरणा ने आह भरी. अब तक सोमेश उस के लिए उस की मनपसंद गरमगरम अदरक वाली चाय बना लाया था. प्रेरणा ने कृतज्ञता से उस की ओर देखा.  सोमेश ने फोन कर डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने उसे आवश्यक दवा और आराम करने की सलाह दी.

सोमेश ने प्रेरणा के औफिस फोन कर उस के लिए 1 सप्ताह की छुट्टी मांग ली और खुद भी औफिस से छुट्टी ले ली. सोमेश प्रेरणा का एक छोटे बच्चे की तरह खयाल रख रहा था. लेकिन प्रेरणा को रहरह कर रवीश की अनुपस्थिति अखर रही थी… उस का ध्यान बारबार अपने मोबाइल की तरफ जा रहा था. उसे रवीश के फोन का इंतजार था.

फिर सोचने लगी कि शायद रवीश सोच रहा हो कि सोमेश उस के पास है, इसलिए फोन नहीं कर रहा… लेकिन व्हाट्सऐप पर मैसेज तो कर ही सकता है…

प्रेरणा बारबार मोबाइल चैक करती और हर बार उस की निराशा कुछ और बढ़ जाती… दोपहर होतेहोते उसे रवीश की बुजदिली पर गुस्सा आने लगा कि क्या उन का रिश्ता इतना कमजोर है? जब हमारा रिश्ता पाकसाफ है तो फिर यह डर कैसा? ऐसे रिश्ते का क्या फायदा जो जरूरत पड़ने पर साथ न निभा सके? तो क्या उन का रिश्ता सिर्फ सतही था? उस में कोई गहराई नहीं थी? क्या यह सिर्फ टाइमपास था? प्रेरणा ऐसे अनेक प्रश्नों के जाल में उलझ कर कसमसा उठी.

फिर अचानक उस के सोचने की दिशा बदल गई कि सोमेश जब साथ होता है तो वह कितने आत्मविश्वास से भरी होती हूं जबकि रवीश के साथ खालिस दोस्ती का रिश्ता होते हुए भी एक अनजाना डर मन को घेरे रहता है कि कहीं कोई देख न ले… किसकिस को सफाई देती रहेगी… सोमेश उस की हर जरूरत के समय साथ खड़ा रहता जबकि रवीश चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाता… आखिर सामाजिक मजबूरियां भी एक तरह का बंधन ही तो हैं…

फिर प्रेरणा अनजाने ही दोनों के साथ अपने रिश्ते की तुलना करने लगी. हर बार उसे सोमेश का पलड़ा ही भारी लगा.

अब सोचने लगी कि सैक्स और साथ के अलावा भी विवाह में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता. रवीश उस की मानसिक जरूरत है, लेकिन उस के साथ उस के रिश्ते को सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकती तो क्या वह रवीश से रिश्ता खत्म कर ले? क्या अपने मन की हत्या कर दे? फिर जीएगी कैसे?

प्रेरणा का मानसिक द्वंद्व खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

तभी सोमेश कमरे में आया. पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है अब? सूप बना कर लाया

हूं… गरमगरम पी लो. तुम्हें अच्छा लगेगा,’’ और फिर उसे सहारा दे कर उठाया.

प्रेरणा ने गौर से उस की आंखों में देखा. कहीं कोई छलकपट या दिखावा नहीं था… खुद के लिए परवाह और प्यार देख कर वह पुलक उठी. लेकिन इस परवाह के पीछे से अब भी स्वामित्व का भाव झलक रहा था.

‘मुझे स्वीकार है तुम्हारा प्रेम… रवीश से उतना ही रिश्ता रखूंगी जितना हम दोनों के बीच की झिर्री को भरने के लिए पर्याप्त हो… हमारा रिश्ता शाश्वत सत्य है, लेकिन हरेक रिश्ता जरूरी होता है… दोस्ती का भी… इस रिश्ते में तुम्हारे अधिकारों का अतिक्रमण कभी नहीं होगा, यह मेरा वादा है तुम से… तुम भी मुझे समझने की कोशिश करोगे न,’ मन ही मन निश्चय करते हुए प्रेरणा ने सोमेश के कंधे पर सिर टिका लिया.

‘‘मैं ने शायद प्रेम के बंधन जरा ज्यादा ही कस लिए थे… तुम घुटने लगी थी… मैं अपने पाश को ढीला करता हूं… मुझे माफ कर सकोगी न…’’ कह सोमेश ने उसे बांहों में कस लिया.

आगाज: क्या ज्योति को मिल पाया उसका सच्चा प्यार?

कहानी- प्रेमलता यादु

‘‘क्यातुम मेरे इस जीवनपथ की हमराही बनना चाहोगी? क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’ प्रकाश के ऐसा कहते ही ज्योति आवाक उसे देखती रही. वह समझ ही नहीं पाई क्या कहे? उस ने कभी सोचा नहीं था कि प्रकाश के मन में उस के लिए ऐसी

कोई भावना होगी. उस के स्वयं के हृदय में प्रकाश के लिए इस प्रकार का खयाल कभी नहीं आया.

कई वर्षों से दोनों एकदूजे को जानते हैं. दोनों ने संग में न जाने कितना ही वक्त बिताया है. जब भी उसे कांधे की जरूरत होती. प्रकाश का कंधा सदैव मौजूद होता. ज्योति अपनी हर छोटी से छोटी खुशी

और बड़े से बड़ा दुख इस अनजान शहर में प्रकाश से ही साझा करती.

उन दोनों की दोस्ती गहरी थी. जबजब ज्योति किसी रिलेशनशिप में आती तो प्रकाश को बताती और जब ब्रेकअप होता तब भी वह प्रकाश से ही दुख जाहिर करती.

उस का यह पहला ब्रेकअप नहीं था. लेकिन दिल तो इस बार भी टूटा था. हां, दर्द जरूर थोड़ा कम था. यह सब जानते हुए प्रकाश का आज इस तरह शादी के लिए प्रपोज करना उसे उलझन में डाल गया. वह अपनी कौफी खत्म किए बिना और प्रकाश से कुछ कहे बगैर औफिस कैंटीन से अपने चैंबर में लौट आई. प्रकाश ने भी उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की. ज्योति विचारों के गिरह में उलझने लगी थी.

मरुस्थल के गरम रेत पर चलते हुए ज्योति के पैरों में फफोले आ चुके थे. मृगतृष्णा की तलाश में न जाने वह कब से अकेली भटक रही थी. जिस अमृतरूपी प्रेम का वह रसपान करना चाहती थी, वह प्रेम उसे हर बार एक विष के रूप में मिला. बचपन में मां को खोने के बाद लाड़प्यार को तरसती रही. सौतेली मां का दुर्व्यवहार और दबाव इतना था कि पिता भी उसे दुलार करने से डरते.

ज्योति का सारा बचपन मातापिता के स्नेह से वंचित रहा. फिर जब उसे जिंदगी को अपने ढंग से जीने का अवसर मिला, वह आंखों में रंगीन सपने लिए इस महानगरी मुंबई में आ पहुंची. यहां उसे लगने लगा उस की सच्चे प्यार और जीवनसाथी की तलाश जरूर पूरी होगी. लेकिन जब भी उसे ऐसा लगा कि उस ने अपना सच्चा प्यार पा लिया है, अगले ही पल वह प्रेम, वासना में तबदील हो गया. यों, आज जब प्रकाश उस के सामने एक सच्चे प्यार के रूप में खड़ा है वह क्यों उसे स्वीकार नहीं करना चाह रही? कारण शायद साफ था कि अब वह टूटना नहीं चाहती.

मन में चल रही उलझनों को सुलझाने के लिए सिगरेट सुलगा वह धुआं उड़ाने लगी. धीरेधीरे पूरा पैकेट खत्म होने लगा लेकिन इस धुएं में गुत्थियां खुलने के बजाय उलझने लगीं तो वह धुआं उड़ाती हुई अतीत की गलियों में मुड़ गई. जब उस ने अपने छोटे शहर पटना से एमबीए कर असिस्टैंट मैनेजिंग डायरैक्टर के पद पर इस जगमगाती कौर्पोरेट दुनिया में अपना पहला कदम रखा था. उस दिन से ही वह प्रकाश को जानती है. लेकिन प्रकाश से प्यार… नहीं. नहीं. प्रकाश उस के दिल के बहुत करीब जरूर है लेकिन वह उस से प्यार नहीं करती. प्रकाश उस का सब से अच्छा और सच्चा मित्र है.

उस का पहला प्यार तो पीयूष है, जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी और वह भी तो उस का दीवाना था. पीयूष के प्यार में वह इस कदर पागल थी कि दुनिया की परवा करना छोड़ चुकी थी. पीयूष जैसे लड़के की ही तमन्ना उसे थी. जब उसे देखती तो उस की आंखों में डूब जाती. हमउम्र थे दोनों. उस की हर बात ज्योति को दीवाना कर देती. इस पागलपन में उस ने कब अपना सबकुछ उसे समर्पित कर दिया, उसे पता ही नहीं चला. जब होश आया तब तक सब लुट चुका था और पीयूष का असली चेहरा सामने था.

पीयूष ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा था, ‘ज्योति, मैं तुम से प्यार तो करता हूं लेकिन मैं अपने मातापिता के विरुद्ध जा कर तुम्हारा साथ नहीं निभा सकता.’ यह सुनते ही ज्योति के जीवन में सैलाब आ गया था. पीयूष उस का पहला प्यार था जिसे वह अब खो चुकी थी. उस वक्त एक प्रकाश ही था जिस ने उसे इस हलाहल में डूबने से बचाया था. यह सब सोच ज्योति को घुटन महसूस होने लगी. वह घबरा कर खुली हवा में सांस लेने टैरेस पर जा खड़ी हुई.

रात गहरी और काली थी. इस से पहले उसे रात इतनी डरावनी कभी नहीं लगी. रोड पर इक्कादुक्का वाहनों की आवाजाही थी. दिन में कोलाहल से भरा यह शहर यामिनी की गोद में सो रहा था, लेकिन ज्योति के नयनों में निद्रा कहां? उस के मन में तो हलचल मची हुई थी.

पीयूष से मिली बेवफाई के बाद उस ने निश्चय कर लिया कि अब वह कभी किसी से प्यार नहीं करेगी, किसी पर विश्वास नहीं करेगी. अपने इन्हीं विचारों के साथ जब वह आगे बढ़ चली तभी उस के दिल के किवाड़ पर आयुष नाम की दस्तक हुई और एक बार फिर उस ने अपने दिल का दरवाजा खुलेमन से खोल दिया. लेकिन इस बार वह पूर्णरूप से सतर्क  थी.

धीरेधीरे उसे लगने लगा आयुष का प्रेम जिस्मानी नहीं. लेकिन यह भी भ्रम मात्र था. असल में आयुष का लक्ष्य भी उस के शरीर को ही पाना था. वह मौके की तलाश में था. ज्योति जब उस की असलियत से रूबरू हुई तो दोनों के रास्ते जुदा हो गए और इस बार फिर दिल ज्योति का ही टूटा.

हलकीहलकी ठंड लगने लगी, परंतु ज्योति टैरेस पर ही खड़ी रही. उसे याद है किस तरह आयुष से ब्रेकअप के बाद अवसाद ने उसे अपनी गिरफ्त में इस प्रकार जकड़ा था कि वह सिगरेट और शराब में अपनेआप को डुबोने लगी. इस वजह से औफिस में उस का परफौर्मैंस ग्राफ गिरने लगा. उस वक्त भी प्रकाश ही था जिस ने उसे इस परिस्थिति से उभारा. तब उस के मन में प्रकाश के लिए सम्मान और बढ़ गया.

साथ ही साथ, मन के एक कोने में प्रेम का बीज भी अंकुरित होने लगा जिसे वह दफना देना चाहती थी क्योंकि वह प्रकाश को खोना नहीं चाहती और न ही वह अपनेआप को उस के काबिल समझती है. यही कारण है कि उस ने अब तक प्रकाश से कुछ नहीं कहा.

आयुष के बाद चिराग पतझड़ में वसंत की बहार बन कर आया, जो उस की सारी सचाई जानते हुए उसे अपनाना चाहता था. लेकिन, उस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि चिराग की यह शर्त थी कि उसे अपने अतीत के साथसाथ प्रकाश को भी हमेशा के लिए भुला उस के संग चलना होगा. ज्योति किसी शर्त के साथ रिश्ते में नहीं बंधना चाहती थी, और फिर मोहब्बत में कैसी शर्त?

वह प्रकाश को किसी भी हाल में खोने को तैयार नहीं थी. फिर आज जब प्रकाश सदा के लिए उस का हो जाना चाहता है तो वह क्यों शादी के लिए हां नहीं कह पाई? बेशक, प्रकाश देखने में साधारण था, लेकिन बोलने में ऐसी कशिश थी कि उस के आगे उस का रंगरूप माने नहीं रखता था.

तभी उस के कंधे पर किसी ने हाथ रखा. वह घबरा कर मुड़ी, सामने प्रकाश खड़ा था. प्रकाश उस के हाथों से सिगरेट ले कर फेंकते हुए बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें इन सब से दूर रहने को कहा था न, और तुम…,’’ प्रकाश अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि ज्योति उस से लिपट फफकफफक कर रोने लगी. फिर खुद को प्रकाश से अलग कर उस की ओर पीठ करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां से चले जाओ, प्रकाश. मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे मुझ पर पहले ही बहुत एहसान हैं. पर बस… अब और नहीं. वैसे भी तुम जानते हो, मैं तुम्हारे लायक नहीं.’’

ज्योति की बातें सुन प्रकाश उसे अपनी ओर खींचते हुए बोला, ‘‘तुम ने ऐसा कैसे सोच लिया कि तुम मेरे लायक नहीं. तुम तो उन सब के साथ पाक दिल से चली थीं, नापाक तो उन के इरादे थे जिन्होंने तुम्हें मलिन किया. शादी के लिए जब लड़के का वर्जिन होना अनिवार्य नहीं, तो लड़की का होना जरूरी कैसे हो सकता है? शादी के लिए जरूरी होता है अपने जीवनसाथी के प्रति दिल से समर्पित होना, वफादार होना, जो तुम हो.’’ प्रकाश के ऐसा कहते ही ज्योति प्रकाश की बांहों में सिमट गई. काली अंधेरी रात बीत चुकी थी. ऊषा की पहली सुनहरी किरणें दोनों पर पड़ने लगीं जो नई सुबह का आगाज थीं.

जी शुक्रिया: रंजीता से क्या चाहता था रघु

लेखक- नरेंद्र सिंह ‘नीहार’

रंजीता यों तो 30 साल की होने वाली थी, पर आज भी किसी हूर से कम नहीं लगती थी. खूबसूरत चेहरा, तीखे नैननक्श, गोलमटोल आंखें, पतलेपतले होंठ, सुराही सी गरदन, गठीला बदन और ऊपर से खनकती आवाज उस के हुस्न में चार चांद लगा देती थी. वह खुद को सजानेसंवारने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती थी.

रामेसर ने जब रंजीता को पहली बार सुहागरात पर देखा था, तो उस की आंखें फटी की फटी रह गई थीं. जब 22 साल की उम्र में रंजीता बहू बन कर ससुराल आई थी, तब टोेले क्या गांवभर में उस की खूबसूरती की चर्चा हुई थी.

पासपड़ोस की बहुत सी लड़कियां हर रोज अपनी नई भाभी को देखने पहुंच जाती थीं. वे एकटक नई भाभी को निहारती रहती थीं. जब उस की खूबसूरती को ले कर तरहतरह के सवालजवाब करतीं, तो वह हंस कर बोलती, ‘‘धत तेरे की, यह भी कोई बात हुई…’’

रामेसर ठहरा एक देहाती लड़का. बहुत ज्यादा पढ़ालिखा तो था नहीं, पर बिजली मेकैनिक का काम अच्छा जानता था. उसी के चलते तकरीबन 5,000 रुपए महीना वह कमा लेता था. काम करने वह पास के एक कसबे में जाता था. शाम ढले दालसब्जी और गृहस्थी का सामान ले कर लौटता था.

रंजीता सजसंवर कर उस का इंतजार कर रही होती थी. अगर कभी रामेसर को देर हो जाती तो रंजीता उसे उलाहना देते हुए कहती, ‘‘देखोजी, हम पूरे दिन आप के इंतजार में खटते रहते हैं, पर आप को एक बार भी हमारी याद तक नहीं आती. ज्यादा सताओगे तो हम अपने मायके चले जाएंगे.’’

यह सुन कर रामेसर उस की जीहुजूरी करने लग जाता था. रंजीता मान भी जाती थी. गरमागरम जलेबी उस की कमजोरी थी. रामेसर घर वालों से छिपतेछिपाते थोड़ी जलेबी अकसर ले आता था.

वक्त बुलेट ट्रेन से भी तेज रफ्तार के साथ आगे बढ़ता गया. 3 साल में घर में 2 बच्चे भी हो गए. फिर शुरुआत हुई उन की पढ़ाईलिखाई की.

गांव में बहुत अच्छे स्कूल तो नहीं थे इसलिए रंजीता ने रामेसर को कसबे में जा कर रहने के लिए राजी कर लिया.

कसबे में आ कर रामेसर पूरी तरह काम में रम गया. अब उसे पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही थी. किराए का घर, मोलतोल का सामान, बच्चों की फीस, ऊपर से गांव में मांबाप के लिए भी कुछ न कुछ भेजने की चिंता हमेशा रामेसर को खाए रहती थी. वह ओवरटाइम भी करने लगा था.

जिंदगी की भागदौड़ में रामेसर हांफने लगा था. अब उस में पहले जैसा जोश व ताजगी नहीं बची थी. वह खापी कर रात में जल्दी सो जाता था. उस के पास रंजीता की तारीफ करने के लिए न तो शब्द बचे थे और न ही समय बचा था.

उन्हीं दिनों रामेसर का दूर का रिश्ते का एक भाई रघु काम की तलाश में उस के पास आया. उस ने सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर ली. रामेसर के पास वाला ही कमरा किराए पर ले लिया.

रघु की ड्यूटी ज्यादातर रात में ही होती थी. वह आधे दिन आराम करता और बाकी दिन में अपने छोटेमोटे काम निबटा लेता. रंजीता से उस की पटरी खूब बैठती थी. खाली समय में वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे.

रघु रंजीता की तारीफ के पुल बांधता तो वह मुंह में आंचल भर कर हंस देती थी. रघु उस की मस्त हंसी में कहीं खो जाता था.

रघु की अभी शादी नहीं हुई थी. वह भाभी के चुलबुलेपन, रूपरंग और मदमस्त अदाओं का दीवाना हो चला था. रंजीता भी उसे छेड़ने का कोई मौका जाने नहीं देती थी.

एक दिन रंजीता रघु से बोली थी, ‘‘गांव कब जाओगे?’’

‘‘क्यों, आप के लिए कुछ लाना है क्या भाभी?’’

‘‘हां, लाना तो है… एक देवरानी.’’

रघु इस पर कुछ झेंप सा गया था.

उधर बच्चों के स्कूल में छुट्टियां हो गई थीं. रामेसर का साला बंटू शहर घूमने आया था. वापस जाते समय वह अपने साथ दोनों बच्चों को भी ले गया. नानी के घर के क्या कहने. जाना तो रंजीता भी चाहती थी मगर रामेसर के खयाल ने उसे रोक दिया था. उस के खानेपीने, कपड़े धोने की चिंता बनी हुई थी.

रामेसर सुबह 8 बजे अपना खाना ले कर घर से निकल जाता था और देर शाम 7-8 बजे तक ही घर लौटता था.

रघु की छुट्टी बुधवार को होती थी. एक दिन वह आराम से दोपहर के 1 बजे तक सो कर उठा. चाय बना कर पी.

बरतनों की खटपट की आवाज सुन कर रंजीता ने पुकारा, ‘‘अरे रघुजी, थोड़ा आना तो.’’

‘‘आया भाभी,’’ कह कर रघु दौड़ादौड़ा रंजीता के कमरे में गया. वह औंधे मुंह बिस्तर पर लेटी हुई थी.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘ज्यादा कुछ नहीं, थोड़ा सिरदर्द है. दुकान से दवा ला दो.’’

रघु पास की कैमिस्ट की दुकान से सिरदर्द की गोली ले आया.

रघु ने रंजीता को गोली थमा दी और पानी का गिलास भी भर कर ले आया.

‘‘रघु, तुम कितना ध्यान रखते हो हमारा,’’ रंजीता ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा.

‘‘भाभी, आप कहो तो थोड़ा सिर भी दबा दूं,’’ रघु ने अपनेपन में कहा.

रंजीता ने ‘हां’ में गरदन हिला दी. रघु उस के सिरहाने एक कुरसी पर बैठ गया. उस की जादुई उंगलियां रंजीता के माथे पर थिरकने लगीं. दवा के असर और रघु की सेवा से रंजीता के माथे का दर्द तो बंद हो गया, मगर बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई.

अब एक अजब सा खिंचाव रंजीता के मन में आ गया था. वह बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पा रही थी. उस ने बंद आंखों से ही कहा, ‘‘ठीक है रघु, तुम्हारा शुक्रिया.’’

‘‘अरे, शुक्रिया कैसा भाभी? अपने ही तो काम आएंगे. जब से यहां आया हूं, मेरे सिर में आज तक किसी ने मालिश नहीं की है. आप कर सकती हो क्या?’’

रंजीता सोच में पड़ गई कि आखिर आज रघु चाहता क्या है? बड़ी मुश्किल से वह खुद को रोक पाई थी. फिर आगपानी का मिलन. क्या करे, मना भी नहीं कर सकती. उस ने खुद को वक्त के हवाले कर दिया.

रंजीता की पतलीलंबी उंगलियां रघु के सिर में हलचल मचा रही थीं. वह धीरेधीरे सुधबुध खो रहा था. उस ने रंजीता की गोलमटोल हथेली को पकड़ कर चूम लिया.

रंजीता ने अपना हाथ खींचते हुए कहा, ‘‘यह क्या है रघु.’’

‘‘यह मेरा शुक्रिया है, भाभी.’’

रंजीता ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘बस, इतना सा शुक्रिया.’’

रघु ने रंजीता को अपने सामने की ओर खींच लिया. वह किसी धधकते ज्वालामुखी सी लग रही थी. आंखों के लाललाल डोरे अंदर की हलचल को साफ बयां कर रहे थे.

रघु ने अपने तपते होंठ रंजीता के गुलाबी होंठों पर रख दिए. इस के बाद हुई प्यार की बरसात में वे दोनों जम कर भीगे. जब एकदूसरे से अलग हुए तो दोनों ने मुसकराते हुए कहा, ‘जी शुक्रिया.’

रोशनी की आड़ में: क्या हुआ था रागिनी की चाची के साथ

पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए अनुशा को जब रागिनी के गांव  का पता  मिला तो उसे लगा जैसे कोई खजाना हाथ  लग गया है. अनुशा को अतीत में रागिनी के कहे शब्द याद आ गए, ‘मेरे पति को अपने गांव से बड़ा लगाव है. गांव से नाता बना रहे, इस के लिए वह साल में 1-2 बार गांव जरूर जाते हैं.’

यही सोच कर अनुशा खुश थी कि अब वह रागिनी को पत्र लिख सकती है और जब भी उस के पति गांव जाएंगे तो वहां भेजा उस का पत्र उन्हें जरूर मिल जाएगा. रागिनी को कितना आश्चर्य होगा जब वह इस चौंका देने वाली खबर के बारे में जानेगी.

अनुशा के दिमाग में रागिनी की चाची के साथ घटित हुआ वह हादसा तसवीर की भांति घूमने लगा जिसे रागिनी ने कालिज के दिनों में उसे बताया था.

मैं और रागिनी बी.ए. कर रही थीं. दशहरे की छुट्टियां होने वाली थीं. इसलिए ज्यादातर अध्यापिकाएं घर चली गई थीं. उस दिन खाली पीरियड में हम दोनों कालिज कैंपस के लान में बैठी थीं. मैं ने रागिनी से पूछा, ‘आज तो तुम भी व्रत होगी?’

रागिनी ने बड़े रूखेपन से कहा था, ‘नहीं, घर में बस, मुझे छोड़ कर सभी का व्रत है. मेरी तो धर्मकर्म से आस्था ही मर गई है.’

‘क्यों, ऐसा क्या हो गया है?’ मैं ने हंसते हुए पूछा तो रागिनी और भी गंभीर हो उठी और बोली, ‘अनुशा, मेरे यहां एक बड़ी दर्दनाक घटना घट चुकी है जिस की चर्चा भी अब घर में नहीं होती.’

मैं उत्सुकता से रागिनी को एकटक देखे जा रही थी. उस ने कहा, ‘मेरी चाची को तो तुम ने देखा है. वह अपनी मां और छोटी बहन के साथ विंध्याचल गई थीं. चाची की बहन सुशीला अविवाहित थी लेकिन पूजापाठ, धर्मकर्म में उस की बड़ी रुचि थी. वे तीनों कई दिनों तक विंध्याचल में एक पंडे के घर रुकी रहीं. रोज गंगास्नान, पूजन, दर्शन और पंडे के यहां रात्रिनिवास. उन का यही क्रम चल रहा था.

‘एक दिन सुशीला खाना बना रही थी. उसे छोड़ कर चाची और उन की मां पूजा करने मंदिर चली गईं. कुछ देर बाद जब वे लौट कर आईं तो सुशीला को घर में न पा कर उन्होंने पंडे से पूछा तो उस ने बताया कि सुशीला भी खाना बनाने के बाद गंगास्नान को कह कर यहां से चली गई थी.

‘बहुत ढूंढ़ने के बाद भी जब सुशीला का कहीं पता न चला तो उन्होंने घर पर खबर भेजी. घर के पुरुष भी विंध्याचल आ गए. कई दिनों तक वे लोग सुशीला को इधरउधर ढूंढ़ते रहे. पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई लेकिन सुशीला का कहीं पता नहीं चला.

‘चाची की मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया था. वह पागलों की तरह हर किसी से सुशीला के बारे में ही पूछती रहतीं. यह पीड़ा वह अधिक दिनों तक नहीं झेल सकीं और कुछ ही महीने बाद उन की मौत हो गई.

‘बेटी के गायब होने से चाची के पिता तो पहले ही टूट चुके थे, पत्नी के मरने के बाद तो एकदम बेसहारा ही हो गए. बीमारी की हालत में मेरे चाचाजी उन्हें गांव से यहां ले आए. कुछ दिन इलाज चला लेकिन अंत में वह भी चल बसे. उसके बाद तो सुशीला मामले का अंत सा हो गया.

‘अब उस घटना की एकमात्र गवाह मेरी चाची ही बची हैं जो सीने में सबकुछ दफन किए बैठी हैं. उन की हंसी जैसे किसी ने छीन ली हो. इसीलिए मुझ पर हमेशा पाबंदियां लगाए रहती हैं. इतने समय जाना है, इतने समय तक आना है, तरहतरह की चेतावनी मुझे देती रहती हैं.

‘मुझे चाची पर बड़ा गुस्सा आता था, उन की टोकाटाकी से परेशान हो कर मैं ने एक दिन चाची को बुरी तरह झिड़क दिया था. तभी चाची ने मुझे यह घटना रोरो कर बताई थी. अनुशा, उसी दिन से मेरा मन धर्मकर्म, पूजापाठ, व्रतउपवास से बुरी तरह उचट गया.

‘उक्त घटना ने मेरे मन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं. मेरी निसंतान चाची, जिस संतान की कामना से गई थीं उन की वह इच्छा आज तक पूरी नहीं हो सकी है. चाची की मां कुंआरी बेटी सुशीला को अच्छा घरवर पाने की जिस कामना के लिए विंध्याचल गई थीं वह पूरी होनी तो दूर, सुशीला बेचारी तो दुनिया से ही ओझल हो गई. अब तुम्हीं बताओ अनुशा, मैं क्या उत्तर दूं अपने मन को?’

रागिनी की बातें सुन कर वास्तव में मैं निरुत्तर और ठगी सी रह गई. रागिनी ने मुझे कसम दी थी कि इस घटना की चर्चा मैं कभी किसी दूसरे से न करूं क्योंकि उस के परिवार की इज्जत, मर्यादा का सवाल था.

बी.ए. के बाद रागिनी की शादी हो गई. उस की ससुराल झांसी के एक गांव में है. शादी के बाद भी हमारा संपर्क बना रहा. उस ने अपने गांव का पता मेरी डायरी में यह कह कर लिख दिया था कि मेरे पति को गांव से बहुत लगाव है. वहां उन का आनाजाना लगा ही रहता है.

कुछ दिनों बाद मेरी भी शादी हो गई. मैं जब भी मायके जाती तो रागिनी का समाचार मिल जाता था. लेकिन बाद में रागिनी के पिता स्कूल से रिटायर होने के बाद अपने पुश्तैनी घर इटावा चले गए और उस के बाद हमारा संपर्क टूट गया.

मैं अपने छोटे बेटे का मुंडन कराने विंध्याचल गई थी. मुझे क्या पता था कि सुशीला की जीवनकथा में अभी एक और नया अध्याय जुड़ने वाला है जिस का सूत्रपात मेरे ही हाथों होगा. तभी से मेरे मन में अजीब सी खलबली मची हुई है. जी करता है किसी तरह रागिनी मिल जाए तो मन का बोझ हलका कर लूं. जाने उस की चाची अब इस दुनिया में हैं भी या नहीं.

अचानक पति की इस आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘मैं 5 मिनट से खड़ा तुम्हें देख रहा हूं और तुम इन पुरानी किताबों और डायरी में न जाने क्या तलाश रही हो. मेरा आफिस से आना तक तुम्हें पता नहीं चल सका. अनुशा, यही हाल रहा तो तुम एक दिन मुझे भी भूल जाओगी. अब उस घटना के पीछे क्यों पड़ी हो जिस का पटाक्षेप हो चुका है.’’

‘‘नहीं, सुधीर, रागिनी को सबकुछ बताए बगैर मुझे चैन नहीं मिलेगा, आज उस का पता मुझे मिल गया है. परिस्थितियों ने तुम्हें उस घटना का राजदार तो बना ही दिया है सुधीर, अच्छाखासा किरदार तुम ने भी तो निभाया है. रागिनी को सबकुछ जान कर कितना आश्चर्य होगा. कैसा लगेगा उसे जब दुखों की पीड़ा और खुशियों की हिलोरें उस के मन में एकसाथ तरंगित हो उठेंगी. हो सकता है, उस की चाची भी अभी जीवित हों और सबकुछ जानने के बाद और कुछ नहीं तो उन के मन को एक शांति तो मिलेगी ही.’’

सुधीर बोले, ‘‘मैडम, अब जरा आप इन झंझावातों से बाहर निकलें और चल कर चायनाश्ते की व्यवस्था करें.’’

‘‘ठीक है, मैं नाश्ता बनाती हूं. आप दोनों बच्चों को बाहर से बुला लें.’’

‘‘मम्मी, मेरा होमवर्क अभी पूरा नहीं हुआ है. प्लीज, करा दो न,’’ बड़े भोलेपन से पिंकू ने अनुशा से कहा.

‘‘बेटे, आप लोग आज सारे काम खुदबखुद करो. तुम्हारी मम्मी अपनी पुरानी सहेली को पत्र लिखने जा रही हैं जो शायद सुबह तक ही पूरा हो पाएगा. क्यों अनुशा, सही कह रहा

हूं न?’’

‘‘बेशक, आप सच कह रहे हैं. रागिनी को पत्र लिखे बिना मेरा मन न तो किसी काम में लगेगा, न ही चित्त स्थिर हो सकेगा. संजीदगी भरे पत्र के लिए रात का शांतिपूर्ण माहौल ही अच्छा होता है.’’

अनुशा विचारों में खोई हुई पेन और पैड ले कर रागिनी को पत्र लिखने बैठ गई.

स्नेहमयी रागिनी,

मधुर स्मृति,

इतने लंबे अरसे बाद मेरा पत्र पा कर तुम अचंभित तो होगी ही. साथ ही रोमांचित भी. बात ही कुछ ऐसी है जो अकल्पनीय होते हुए भी सत्य है. अच्छा तो बगैर किसी भूमिका के मैं सीधे मुख्य बात पर आती हूं.

पिछले माह हम अपने छोटे बेटे पिंकू का मुंडन कराने अपने पूरे परिवार के साथ विंध्याचल गए थे. शायद मेरे ये वाक्य तुम्हारे दिमाग में एक पुरानी तसवीर खींच रहे होंगे. सच, मैं उसी से संबंधित घटना तुम्हें लिख रही हूं.

उस दिन सोमवार था. हम वहां रुकना नहीं चाहते थे लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि हमें शीतला पंडे के यहां ठहरना पड़ा.

दूसरे दिन पिंकू का मुंडन हो गया. हम ने सोचा, थोड़ा घूमफिर कर आज ही निकल जाएंगे.

हम एक टैक्सी तय कर उस में बैठ ही रहे थे कि शीतला पंडे का लड़का, जिस का नाम भानु था, मेरे पास आ कर बोला कि मांजी, हमें भी साथ ले चलिए, आप का बड़ा उपकार होगा. और बीचबीच में वह सहमी निगाहों से अपने घर की तरफ भी देख लेता था.

मुझे उस पर बड़ी दया आई. मैं ने सुधीर से उसे भी साथ ले चलने के लिए कहा तो वह बोले कि देख रही हो, इस के घर के सभी लोग मना कर रहे हैं. तुम जानती तो हो नहीं. घर वाले सोच रहे होंगे कि बेटा धंधा छोड़ कर कहीं घूमने न चला जाए. खैर, मेरे कहने पर सुधीर शीतला पंडे से भानु को साथ ले जाने की बात कह आए और वह मान भी गया.

मेरे दोनों बच्चे बहुत खुश थे. वे विंध्याचल के पहाड़ और पत्थर देख कर उछल रहे थे. हम लोग मंदिर पहुंच गए और वहीं बैठ कर नाश्ता करने लगे. बातों के सिलसिले में मैं ने सुधीर से कहा कि ऐसे स्थानों पर पिकनिक मनाना कितना अच्छा लगता है. भौतिक और आध्यात्मिक दोनों का आनंद एकसाथ मिल जाता है.

‘‘भानु, तुम भी खाओ,’’ कह कर मैं ने पहला कौर मुंह में उतारा ही था कि वह जोरजोर से रो पड़ा. अचानक उस का रोना देख हम परेशान हो गए. लेकिन रागिनी, भानु की कहानी तो हर पल रुलाने वाली थी.

भानु रोते हुए कहे जा रहा था कि मांजी, बाबूजी, मुझे इस नरक से निकाल लीजिए. शीतला मेरा बाप नहीं, मेरा काल है जो मुझे खा जाएगा. मैं मरना नहीं चाहता. मुझे अपने साथ ले चलिए, मांजी.

भानु की आंखों में समंदर उमड़ रहा था. उस ने धीमे स्वर में अपनी जो कहानी सुनाई वह तुम्हारे द्वारा बताई कहानी ही थी. भानु तुम्हारी चाची की छोटी बहन सुशीला का बेटा है.

मैं ने भानु को चुप कराया और आगे की बात जल्दी पूरी करने को कहा क्योंकि उस को टैक्सी ड्राइवर का खौफ भयभीत किए जा रहा था. मैं ने सुधीर के कान में यह समस्या बताई तो सुधीर जा कर ड्राइवर से बातें करते हुए उसे कुछ आगे ले गए.

भानु अब थोड़ा आश्वस्त हो कर आंसू पोंछता हुआ कहने लगा कि मेरी मां ने मरने से पहले मुझे अपनी कहानी सुनाई थी जो इस प्रकार है : ‘उस दिन जब मेरी अम्मां और दीदी मंदिर चली गईं तो शीतला मेरे पास आकर बैठ गया और कहने लगा कि सुशीला,क्या बनाया है आज, जरा मुझे भी खिलाओ.

‘मैं थाली में खाना लगाने लगी तो शीतला बोला कि तू तो बड़ी भोली है.  सुशीला, मैं तो ऐसे ही कह रहा था. अच्छा, खाना तो बना ही चुकी है. चल तुझे आज घुमा लाऊं.

अभी अम्मां और दीदी आ जाएं तो साथ ही चलेंगे सब लोग. मैं अपनी बात कह ही रही थी तभी शीतला ने मुझे पकड़ कर कुछ सुंघा दिया था. बस, मुझे सुस्ती छाने लगी.

जब मुझे होश आया तो मैं ने खुद को एक बड़े से पुराने मकान में कैद पाया. वहां शीतला के साथ कुछ लोग और थे जिन की आवाजें ही मुझे सुनाई पड़ती थीं. मेरा कमरा अलग था जिस में शीतला के सिवा और कोई नहीं आता था.’

भानु अपनी मां की कही कहानी को विस्तार से सुना रहा था :

‘एक दिन मैं वहां से भागने का रास्ता तलाश रही थी कि शीतला भांप गया. फिर तो उस का रौद्ररूप देख कर मैं कांप गई. मुझे कई तरह से प्रताडि़त करने के बाद वह बोला कि आगे से ऐसी हरकत की तो ऐसी दुर्गति बनाऊंगा कि तुझे खुद से भी नफरत हो जाएगी.

‘अब मेरे सामने कोई रास्ता नहीं था. मैं ने इसे ही अपनी तकदीर मान लिया और होंठ सी कर चुप रह गई. एक दिन मेरे कहने पर शीतला ने मेरी मांग में सिंदूर भर कर मुझे पत्नी का चोला जरूर पहना दिया. साल भर के अंदर ही तेरा जन्म हुआ. शीतला ने बड़ा जश्न मनाया. खुश तो मैं भी थी कि मेरा भी कोई अपना आ गया. साथ ही मैं कल्पना करने लगी कि मेरा बेटा ही मुझे यहां से मुक्ति दिलाएगा. लेकिन क्या पता था कि यह राक्षस तुझ पर भी जुल्म ढाएगा. गलती मेरी ही है, कभीकभी गुस्से में मेरे मुंह से निकल जाता था कि मेरा बेटा, बड़ा हो कर तुझे बताएगा. बस, तभी से शीतला के मन में भय सा व्याप्त हो गया था.’

भानु ने आगे बताया कि मेरी मां जिस दिन अपनी दुख भरी कहानी बता कर रो रही थी शीतला छिप कर सबकुछ सुन रहा था. वह गुस्से में तमतमाया, गड़ासा ले कर आया और मेरे सामने ही मेरी मां का सिर धड़ से अलग कर दिया. मुझे तरहतरह से समझाया और डराया- धमकाया. मैं भी बेबस, लाचार था. मां के चले जाने से मैं एकदम अकेला पड़ गया था लेकिन मेरे मन में बदले की जो आग लगी थी वह आज तक जल रही है, मांजी.

भानु की कहानी दिल दहला देने वाली थी लेकिन हम कर ही क्या सकते थे. खैर, उस समय उसे दिलासा दे कर हम वापस लौट आए थे.

यद्यपि भानु पर बड़ा तरस आ रहा था. वह आंखों में आंसू लिए मायूसी से हमें देख रहा था. भानु यानी तुम्हारी चाची की बहन सुशीला का बेटा, रागिनी. तुम्हारी बताई वह घटना मेरी आंखों के सामने नग्न सत्य बन कर खड़ी थी, जो मेरी आस्था पर चोट कर रही थी. साथ ही यह पूरे समाज के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर रही है जिस का जवाब हम सभी को मिल कर ढूंढ़ना है. खासकर हम औरतें अपनी मर्यादा पर यह प्रहार कब तक सहती रहेंगी, इस का भी जवाब हमें खुद तलाशना है. धर्म की आड़ में धर्म के ठेकेदार कब तक यह नंगा नाच करते रहेंगे?

ऐसे अनेक सवाल हैं रागिनी, जिन के जवाब हमें ही तलाशने हैं. खैर, अभी तो मैं अपनी मुख्य बात पर आती हूं. हां, तो दूसरे दिन हम अपने घर आ गए. सुधीर से मैं बारबार भानु को छुड़ा लाने की सिफारिश करती रही.

मेरे इस आग्रह पर उन्होंने यहां पुलिस स्टेशन में सूचना भी दर्ज कराई. यहां से विंध्याचल थाने पर संपर्क कर के जांचपड़ताल शुरू हो गई. यहां से पुलिस टीम विंध्याचल गई. दुर्भाग्य से वहां के दरोगा की सांठगांठ भी शीतला से थी जिस से शीतला को पुलिस काररवाई की भनक लग गई थी. लेकिन पुलिस उसे गिरफ्तार करने में सफल हो गई. भानु ने पुलिस के सामने कई रहस्य उजागर किए.

खैर, तुम्हें यह जान कर खुशी होगी कि शीतला को आजीवन कारावास हो गया है और उस की संपत्ति जब्त कर ली गई है. भानु 8वीं तक पढ़ा था सो आजकल वह एक सरकारी दफ्तर में चपरासी है. उस ने अपना घरपरिवार बसा लिया है और अपना अतीत भूल कर वह एक नई जिंदगी जीने का प्रयास कर रहा है. उस का यह कहना कितना सच है कि धर्मस्थलों में एक शीतला नहीं अनेक धूर्त शीतला अभी भी मौजूद हैं जो देवी- देवताओं की आड़ में भोली जनता और महिलाओं का शोषण कर रहे हैं.

मैं सोच सकती हूं कि मेरा पत्र पढ़ कर तुम्हें कैसा लग रहा होगा. पर सबकुछ सत्य है. मिलने पर तुम्हें विस्तार से सारी बातें बताऊंगी. भानु अपनी मां द्वारा दिए नाम से ही अब जाना जाता है.

पत्र का उत्तर फौरन देना. मुझे बेसब्री से इंतजार रहेगा. प्रतीक्षा के साथ…

तुम्हारी अनुशा.’’

कहानी- किरन पांडेय

कद: पत्नी से क्यों नाराज थे शिंदे साहब

कहते हुए शिंदे साहब अपना पसीना पोंछते हुए ‘धप’ से सोफे में धंस गए. गोमा तिरछी नजरों से उन्हें एकटक देखता रहा. ‘लाल मुंह का बंदर… इस के खून में जरूर अंगरेजों का खून मिला होगा, नहीं तो ऐसा लाल भभूका मुंह नहीं हो सकता,’ गोमा सोचते हुए मुसकरा उठा.

शिंदे साहब की नजर गोमा पर पड़ी, तो उस की तिरछी नजर देख कर उन के तनबदन में आग लग गई. वे चिल्लाए, ‘‘अरे कैसा बेशर्म है तू, इतनी मार खा कर भी कोई असर नहीं हुआ?’’

शिंदे साहब को गुस्सा तो बहुत आ रहा था और इच्छा भी हो रही थी कि गोमा का खून कर दें, पर वे ऐसा नहीं कर सकते, यह बात वे दोनों जानते थे.

गोमा शराब पीता था, पर तनख्वाह मिलते ही… और वह भी 2 दिन तक. उस के बाद अगली तनख्वाह के मिलने तक शराब को मुंह नहीं लगाता था. लगाता भी कैसे? पैसे मिलते ही घर में खर्च के लिए कुछ पैसे दे कर एक बार जो पीने के लिए जाता, तो तीसरे दिन होश आने पर खुद को किसी नाले या गटर में पाता. फिर उसे साहब का और खुद का घर याद आता.

शिंदे साहब के घर पहुंचते ही हर महीने मेम साहब से पड़ने वाली नियमित डांट सुनने को मिलती कि पिछले 3 दिन से कहां रहे? यहां काम कौन करेगा? इस तरह शराब में धुत्त रहोगे तो साहब से कह कर पिटवाऊंगी.

मेम साहब मन ही मन भुनभुनाती रहतीं और गोमा चुपचाप अपना काम करता जाता मानो वे किसी और को सुना रही हों. इन के जैसे कितने ही साहब और मेम साहब के लिए गोमा काम कर चुका है. उन लोगों का गुजारा गोमा जैसे लोगों के बिना मुमकिन नहीं है.

अर्दली तो बहुत होते हैं, जिन में से आधे तो केवल भरती और गिनती के नाम पर होते हैं, गोमा जैसे पुराने और मंजे हुए तो बस 2-4 ही होते हैं, जो साहब व मेम साहब की सारी जरूरतें जानते हैं. तभी तो मेम साहब केवल धमकी दे कर रह जाती हैं.

साहब लोगों की बातें नौकर असली या नकली नशे की आड़ में ही तो उजागर कर सकते हैं. वैसे, गोमा की यह आदत भी नहीं थी कि वह साहब लोगों के बारे में इधरउधर चर्चा करे.

गोमा अपने काम से काम रखता था, इसलिए साहब या मेम साहब कैसे हैं या उन के स्वभाव के बारे में ज्यादा सोचता ही नहीं था. पर शिंदे साहब को पहली बार देखते ही उस का मन खराब सा हो गया था. उन की शक्ल से ले कर हर चीज, हर बात बनावटी और बेढंगी लगी थी.

शिंदे साहब का अजीब सा गोराभूरा रंग, कंजी आंखें, मोटे होंठ, भारीभरकम शरीर और बेवजह चिल्लाचिल्ला कर बात करने का तरीका कुछ भी अच्छा नहीं लगा था, इसीलिए उन से सामना न हो, इस बात का वह खयाल रखता था.

पर, उस दिन गोमा ने अपने पूरे होशोहवास में साहब के मुंह पर ऐसी बात कही थी क्योंकि मेम साहब उस से उलझी हुई थीं और जब उस से सहन न हुआ, तो साहब व मेम साहब दोनों को देख कर ही बोला था.

गोमा सोचता है कि इन बड़े लोगों को रोज नियम से शाम को पीनी है, पूरे तामझाम के साथ. एक अर्दली बोतल खोलेगा, दूसरा भुने हुए काजू, पनीर के टुकड़े, नमकीन वगैरह लाता रहेगा.

2-4 अफसर अपनी बीवियों के साथ हर दिन मौजूद रहते थे.

‘‘मैडम, आप थोड़ी सी लीजिए न, फोर कंपनीज सेक.’’

‘‘न बाबा, हम को हमारा सौफ्ट ड्रिंक ही ठीक है. अपनी वाइफ को पिलाओ,’’ बड़े अफसर की बीवी अफसराना अंदाज में कहतीं.

दूसरी तरफ बड़े साहब इन की बीवी से इस तरह चोंच लड़ा रहे होते जैसे सुग्गा अपनी मादा से.

‘‘मोनाजी, आप तो मौडर्न हैं, कम से कम हमारे पैग को तो छू दीजिए,’’ कहतेकहते उन की नजरें मोनाजी के पूरे जिस्म का सफर कर किसी ऐसे उभार पर टिक जातीं, जो उन्हें लुभावना लगता था.

गोमा मन ही मन सोच कर हंसता कि अगर कोई नया आदमी उस कमरे में आ जाए, तो उस के लिए यह पहचानना मुश्किल होगा कि कौन किस की बीवी है. सभी अपने पति को छोड़ दूसरे मर्दों से सटीं, हंसतींखिलखिलातीं, लाड़ लड़ाती मिलेंगीं. फिर मर्दों का तो क्या कहना, सारी बगिया के फूल तो उन के लिए हैं, कोई भी तोड़ लो.

शिंदे साहब गोमा पर जितना ही चिल्लाते या झल्लाते, उतना ही उन्हें हैरान करने में मजा आ रहा था. उस ने भी कोई झूठ थोड़े ही बोला था, ‘‘अपनी बीवी को संभाल नहीं पाते हैं और दुनिया वालों की बातों पर गुर्राते हैं.’’

गोमा ने तो कई बार मेम साहब और साहब के जूनियर रमेश को चोंच लड़ाते और इशारे करते देखा था. जब शिंदे साहब दौरे पर होते, तो उन दोनों की पौबारह रहती थी. एकलौते बेटे को बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा कर मिसेज शिंदे एकदम आजाद हो गई थीं.

पति के दौरे पर चले जाने के बाद तो मैदान एकदम साफ रहता. पर, एक मुसीबत तो फिर भी सिर पर होती थी. दिनभर रहने वाले अर्दली को भले ही काम न होने का कह कर विदा कर दें, पर रात को पहरे पर रहने वाला गार्ड तो 9 बजे आ धमकता था.

हालांकि रोज शाम को रमेश ‘इधर से जा रहा था, सोचा पूछ लूं कि कोई काम तो नहीं है’ कहते हुए आ जाता था. गार्ड के आते ही वे दोनों ऐसा बरताव करते, मानो चंद मिनट पहले ही मिले हों और रमेश हालचाल पूछ कर चला जाएगा.

मेम साहब बाजार का कुछ काम बता देती थीं. केवल एक चीज के लिए तो कभी भेजती नहीं थीं, लिस्ट बना कर देती थीं. आज भी एक चीज जो वे लाने को कह रही थीं, उस की ऐसी खास जरूरत नहीं थी.

गोमा ने कहा, ‘‘कुछ और चीजों का नाम लिख दीजिए, फिर चला जाऊंगा. एक चीज के पीछे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘अरे वाह, तुझे समय की फिक्र कब से होने लगी. जब पी कर 2 दिनों तक बेसुध पड़ा रहता है, तब समय का खयाल नहीं आता,’’ मेम साहब ने मुंह बनाते हुए जिस तरह कहा, गोमा अपनेआप को रोक न पाया और बोला, ‘‘पीते हैं तो अपने पैसे की, बड़े लोगों की तरह मुफ्त की नहीं.’’

‘‘ठीक है भई, तू शराब पी या कहीं पड़ा रहे, बस अब जा,’’ उन की आवाज में एक उतावलापन था, मानो गोमा को वहां से हटाना ही उन का मकसद था.

गोमा भी शब्दों के तीर छोड़ कर अब वहां से भागना ही चाह रहा था, पर मेम साहब के बरताव से मन में उलझन सी हो रही थी. गोमा को ज्यादा सोचना नहीं पड़ा, क्योंकि तभी रमेश की शानदार मोटरसाइकिल बंगले के अहाते में घुसी.

जब भी शिंदे साहब के घर कोई पार्टी होती, तो सारे इंतजाम रमेश को ही करने पड़ते थे. शिंदे साहब के हर आदेश को ‘यस सर’ कहते हुए वह इस तरह पूरा करता, मानो सिर पर अपने बौस के आदेश का बोझ नहीं, बल्कि फूलों का ताज हो.

पार्टी के दिन रमेश और मेम साहब के बीच हंसीमजाक, नैनमटक्का चलता रहता था. गोमा के अलावा और भी 3-4 अर्दली होते थे. पानी की तरह ‘ड्रिंक’ ले जाने, परोसने, स्नैक्स की प्लेटें ले जाने, चारों ओर घुमाघुमा कर सब को देने के लिए इतने नौकर तो चाहिए ही थे.

पार्टी के बीच अचानक शिंदे साहब के बौस के दिमाग में आइडिया का बल्ब जला. शाम की ‘डलनैस’ को दूर करने के लिए कोई मौडर्न ‘गेम’ खेलने का फुतूर.

‘‘अरे शिंदे, क्या पिलापिला कर ही मार डालोगे?’’

‘‘नो सर, आप कहें तो डिनर सर्व हो जाए?’’

‘‘होहो…’’ अट्टहास करते हुए बौस ने कहा, ‘‘तुम हो पूरे बेवकूफ और वही रहोगे. कभी दिल्लीमुंबई की ‘ऐलीट’ लोगों की पार्टी में शामिल होओगे,

तब समझ आएगा पार्टी का असली रंग और मजा.’’

‘‘जी सर,’’ शिंदे साहब बोले.

‘‘कुछ ‘थ्रिलिंग गेम’ हो जाए,’’ बौस ने कहा.

शिंदे साहब अपने बौस के चेहरे को उजबक की तरह ताकने लगे, कुछ देर पहले जब वे अपनी बीवी से कुछ कहने अंदर जा रहे थे और रमेश के साथ उन की प्रेमलीला देखी, तो उस से वे काफी आहत थे.

‘‘मैडम, अब आप अंदर जाइए, अच्छा नहीं लगता कि आप इस खादिम के साथ यहां रहें,’’ रमेश मेम साहब को चिढ़ाते हुए बोल रहा था.

‘‘यार रमेश, कम से कम अकेले में मुझे मैडम मत कहो,’’ शिंदे साहब की बीवी मचल कर बोलीं.

ऐसा कह कर मेम साहब हाल की तरफ जाने को पलट ही रही थीं कि शिंदे साहब पास ही दिखे.

‘‘क्या बात है डार्लिंग, थकेथके से लग रहे हो? अभी तो पार्टी पूरे शबाब पर भी नहीं आई है,’’ मेम साहब ने शिंदे साहब से पूछा.

शिंदे साहब मन ही मन बोले, ‘तुम तो हो अभी से पूरे शबाब पर,’ फिर रमेश की ओर देख कर रूखी आवाज में बोले, ‘‘गोमा या किसी और को समझा कर आप भी हाल में तशरीफ ले आइए.’’

उन की रूखी आवाज से रमेश को भला क्या फर्क पड़ता. छड़ा, कुंआरा बस मौजमस्ती चल रही है. ज्यादा से ज्यादा उस का तबादला हो जाएगा. वह तो वैसे भी कभी न कभी होना ही है.

‘‘तुम कब से गायब हो, क्या ऐसे अच्छा लगता है कि ‘होस्टेस’ अपने ‘गैस्ट्स’ का खयाल न रखे,’’ अपनी बीवी से कहते हुए शिंदे साहब की दबी आवाज में भी गुस्सा नजर आ रहा था.

‘‘गैस्ट्स के लिए तो सारा तामझाम कर रही हूं डार्लिंग, परेशान मत होइए. तुम्हारे बौस इतने खुश हो जाएंगे कि तुम भी क्या याद करोगे,’’ मेम साहब बोलीं.

उधर बौस के आदेश से थ्रिलिंग गेम ‘वाइफ स्वैपिंग’ की तैयारी में एक खूबसूरत डब्बों में सब की कारों की चाबियां डाल दी गई थीं.

गोमा साहबों और मेम साहबों के तरहतरह के चोंचले, सनकीपन और मूड से उसी तरह वाकिफ था, जिस तरह अपनी हथेली की लकीरों से. उसे किसी भी साहब या मेम साहब के लिए कोई दिली आदर न था और न ही उन से किसी तरह का डर लगता था. उस के कुछ उसूल थे, जिन का पालन वह पूरी ईमानदारी से करता था.

गोमा ने मन ही मन सोचा कि अगर उस की बीवी दूसरे आदमी के साथ इस तरह जाए, तो वह दोबारा उस का मुंह भी नहीं देखे. अगर उस का खुद का रिश्ता दूसरी औरत से हो जाए, तो उस की घरवाली भी उसे यों ही नहीं छोड़ देगी. गोमा के इसी स्वाभिमान ने तो उस के मुंह से वह कहलवाया, जो शिंदे साहब को बरदाश्त नहीं हुआ.

महीने का पहला हफ्ता था और हमेशा की तरह गोमा 3 दिन गायब रह कर चौथे दिन आया था. इस बीच रमेश को ले कर साहब और मेम साहब में तीखी नोकझोंक हुई. जब गोमा सामने आया, तो दोनों का बचाखुचा गुस्सा उसी पर उतरा, वह भी ऐसा उतरा कि बिलकुल बेलगाम.

मेम साहब की जबान फिसलती गई, ‘‘फिर जा कर गिरा नाले में, तू नाले का कीड़ा ही बना रहेगा. किसी दिन यह शराब तुझे और तेरे घर को बरबाद कर देगी.

‘‘देखना, तेरी बीवी एक दिन तुझे छोड़ कर किसी और के साथ घर बसा लेगी. तुम्हारी जात में तो वैसे भी एक को छोड़ कर दूसरे के साथ बैठ जाना बुरा नहीं माना जाता.’’

इतना सुन कर गोमा मेम साहब के ठीक सामने आ गया और बोला, ‘‘हमारी जात? हमारी जात को कितना जानती हैं आप? आप लोगों की ऊंची जात में होती होगी चीजों की तरह लुगाइयों की अदलाबदली. हम लोगों के घर बसाने में एक तमीज होती है. कोठे की बाई की तरह नहीं कि आज इस के साथ, कल उस के साथ और परसों तीसरे के साथ.’’

मेम साहब को तो जैसे सांप सूंघ गया. इसी बात का फायदा उठा कर गोमा फिर शुरू हो गया. लगा जैसे आज उस के मन में जो फोड़ा था, वह पक कर फूट गया और सारा मवाद निकल रहा हो, ‘‘मैं तो महीने में 1-2 दिन ही पीता हूं. केवल इसलिए कि 2-3 दिन तक पैसे की तंगी, घर की चिंता से इतना दूर चला जाऊं कि अपनेआप को मैं खुशकिस्मत समझ सकूं.

‘‘पर, आप बड़े लोग तो रोज महंगी अंगरेजी शराब बहाते हैं अपनी खुशी, अपना फालतू पैसा दिखाने को. मैं तो शराब पी कर भी आप जैसे बड़े लोगों जैसी छोटी हरकत कभी नहीं करता…’’

तब से शिंदे साहब गोमा को पीटे जा रहे हैं, मानो बीवी का सारा गुस्सा उस पर उतार देंगे. उधर गोमा इतनी मार खा कर भी मन ही मन जीत की खुशी महसूस कर रहा था.

लेखक- मंगला रामचंद्रन

बातों बातों में: सूरज ने अवनी को कैसे बचाया

उस गहरी घाटी के एकदम किनारे पहुंच कर अवनी पलभर के लिए ठिठकी, पर अब आगेपीछे सोचना व्यर्थ था. मन कड़ा कर के वह छलांग लगाने ही जा रही थी कि किसी ने पीछे से उस का हाथ पकड़ लिया. देखा वह एक युवक था.

युवक की इस हरकत पर अवनी को गुस्सा आ गया. उस ने नाराजगी से कहा, ‘‘कौन हो तुम, मेरा हाथ क्यों पकड़ा? छोड़ो मेरा हाथ. मुझे बचाने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है. यह मेरी जिंदगी है, इस का जो भी करना होगा, मैं करूंगी. हां प्लीज, किसी भी तरह का कोई उपदेश देने की जरूरत नहीं है.’’

जवाब देने के बजाय युवक जोर से हंसा. उस की इस ढिठाई पर अवनी तिलमिला उठी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘न तो मैं ने इस समय हंसने वाली कोई बात कही, न ही मैं ने कोई जोक सुनाया, फिर तुम हंसे क्यों? और हां, तुम अपना नाम तो बता दो कि कौन हो तुम?’’

‘‘एक मिनट मेरी बात तो सुनो. जिंदगी के आखिरी क्षणों में मेरा नाम जान कर क्या करोगी. लेकिन अब तुम ने पूछ ही लिया है तो बताए देता हूं. मेरा नाम अमन है.’’

‘‘मुझे अब किसी की कोई बात नहीं सुननी. तुम यह बताओ कि हंसे क्यों?’’

‘‘तुम्हें जब किसी की कोई बात सुननी ही नहीं है तो मैं कैसे बताऊं कि हंसा क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं यह कह रही थी कि…’’ अवनी थोड़ा सकपकाई.

इसके बाद थोड़ी चुप्पी के बाद कहा, ‘‘इसलिए कि अगर तुम्हें आत्महत्या न करने के बारे में कुछ सीखसलाह देनी हो तो वह सब

मुझे नहीं सुनना. मैं कह रही थी कि… मुझे नहीं लगता कि इस में कोई हंसने जैसी बात थी. वैसे भी मेरा हाथ पकड़ने का तुम्हें कोई अधिकार

नहीं है.’’

‘‘ओह सौरी… रियली सौरी.’’ अमन ने अवनी का हाथ छोड़ दिया.

‘‘इट्स ओके… अब बताइए क्यों हंसे?’’

‘‘अब जब तुम मरने ही जा रही हो तो अंतिम पलों में कुछ भी जानने से क्या फायदा?’’

‘‘मात्र एक छोटा सा कुतूहल… नथिंग एल्स…’’

‘‘ओके… लेकिन मरने वाले की अंतिम इच्छा पूरी होनी चाहिए, वरना आत्मा भूत बन भटकती रहेगी और भूत मुझे जरा भी पसंद नहीं हैं.’’

‘‘यह जो तुम घुमाफिरा कर कह रहे हो, इस के बजाय सीधेसीधे कह दो न. क्योंकि अब मुझे देर हो रही है.’’

‘‘आज ही तो मुझे हंसी आई है, वह भी तुम्हारे भ्रम पर. कुछ भ्रम भी कितने मजेदार होते हैं. पर सभी का जानना जरूरी नहीं है.’’

‘‘भ्रम… मेरा? कैसा, किस चीज का और कैसा भ्रम?’’

‘‘बाप रे, एक साथ इतने सारे सवाल?’’

‘‘तुम इसी तरह बातें करते हुए मूल बात को खत्म करना चाहते हो.’’

‘‘बात खत्म करना चाहता हूं, वह भी तुम्हारी. नहीं जी, सुंदर लड़कियों की बात खत्म करने की बेवकूफी मैं नहीं कर सकता.’’

‘‘बस… बस, मस्का लगाने की कोई जरूरत नहीं है. लड़कियों को फंसाने का यह बहुत सरल उपाय है. पर यहां तुम्हारी दाल गलने वाली नहीं है. तुम्हें सीधीसीधी बात करनी है या नहीं?’’ अवनी की बातों में गुस्सा झलक रहा था. चेहरा भी गुस्से से थोड़ा लाल था.

‘‘अरे बाबा, एकदम सीधीसादी बात है. तुम ने कहा कि मुझे बचाने की कोई जरूरत नहीं है. मुझे तुम्हारे इसी भ्रम पर हंसी आ गई थी. वैसे भी हंसने की मेरी आदत नहीं है.’’

‘‘इस में भ्रम कैसा, फिर तुम ने मेरा हाथ क्यों पकड़ा?’’

‘‘तुम्हें बचाने के लिए नहीं, कुछ बताने के लिए.’’

‘‘क्या बताने के लिए?’’

‘‘यही कि अगर तुम्हारा इरादा सचमुच मरने का है तो इस के लिए यह जगह ठीक नहीं है. हां, हाथपैर तुड़वाने हों तो अलग बात है.’’

‘‘मतलब’’

‘‘मतलब साफ है. जरा ध्यान से नीचे देखो. यह खाई गहरी तो है, पर इस में गिर कर मौत हो जाएगी, इस की कोई गारंटी नहीं है.’’

‘‘इस गहरी खाई में कोई इतनी ऊंचाई से कूदेगा तो मरेगा नहीं तो क्या होगा.’’

‘‘आई एम सौरी टू से… पर तुम्हारा आब्जर्वेशन पावर यानी निरीक्षण शक्ति बहुत कमजोर है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘देख नहीं रही हो खाई में नीचे कितने पेड़ हैं. कहीं जमीन दिखाई दे रही है? अगर तुम यहां से कूदती हो तो गारंटी नहीं कि जमीन पर ही गिरो. किसी पेड़ पर गिरोगी तो हाथपैर तो टूट जाएगा, पर जान नहीं जाएगी. पेड़ में फंस गई तो न मर सकती हो न जी सकती हो. न नीचे जा सकती हो, न ऊपर आ सकती हो. त्रिशंकु की तरह लटकी रहोगी.

‘‘बस, उसी दृश्य की कल्पना कर के हंस पड़ा था. तुम पेड़ पर लटकी रहोगी तो देखने में कैसा लगेगा? बचाने के लिए भी चिल्लाओगी तो कोई बचाने के लिए भी नहीं पहुंच सकेगा. क्योंकि तुम्हारी आवाज किसी तक पहुंचेगी ही नहीं.’’

अवनी ने नीचे देखा. अमन की बात सच थी. नीचे घाटी पेड़ों से भरी थी. कहीं भी जमीन नहीं दिख रही थी. उस में फंस जाने की संभावना से नकारा नहीं जा सकता था. पर अभी उस का गुस्सा वैसा ही था. उस ने कहा, ‘‘लगता है, तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं है. पेड़ में भी फंस गई तो नीचे गिर ही जाऊंगी. पेड़ मुझे पकड़ तो नहीं लेगा.’’

‘‘ओह यस, यू आर राइट. यह तो मैं ने सोचा ही नहीं, यू आर जीनियस.’’

‘‘फिर खुशामद, मैं ने पहले ही कह दिया है कि इस की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘यस, यह तो मुझे पता है कि अब तुम्हारी खुशमद करने की मुझे कोई जरूरत नहीं है. यह सीधीसादी बात मैं सोच ही नहीं सका. जबकि तुम ने आगे तक सोच लिया. इसीलिए मैं ने कहा. तुम्हारी परफेक्ट प्लानिंग, अब तुम कूद सकती हो. गो अहेड…’’

अवनी ने अमन को गौर से देखा, वह उस का मजाक तो नहीं उड़ा रहा? पर अमन गंभीर दिखाई दिया. वह खाई में गौर से झांक रहा था. न चाहते हुए अवनी के मुंह से निकल गया, ‘‘तुम भी नीचे जाना चाहते हो क्या?’’

‘‘नहीं…नहीं.’’ उसी तरह खाई में झांकते हुए अमन ने कहा.

‘‘लग तो ऐसा रहा है, जैसे खाई के पेड़ गिन रहे हो?’’ अवनी ने व्यंग्य किया.

‘‘नहीं जी, इस तरह पेड़ गिनने में मेरी कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘तो इस तरह गिद्ध की तरह नीचे…’’

अवनी को बीच में ही रोक कर अमन ने कहा, ‘‘थैंक्स फार कौम्पलीमैंट्स, पर जरा नीचे देखिए.’’

‘‘क्या है वहां?’’

‘‘नीचे, एकदम नीचे तक पेड़ हैं. साफ दिखाई दे रहे हैं.’’

‘‘हां, तो क्या हुआ इन का?’’

‘‘इन्हें देख कर तुम्हारे मन में कोई विचार नहीं आया?’’

‘‘इस में विचार क्या करना है?’’

‘‘कोई महान विचार नहीं, एकदम सीधासादा, सिंपल, शुद्ध विचार.’’

अवनी की नाक फूलने पिचकने लगी. रंग भी लाल गुड़हल की तरह हो गया. किसी के मरते वक्त भला कोई इस तरह का मजाक करता है. लड़के बड़े होशियार होते हैं. इस पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता. अवनी का मन हुआ उसे ठीक से सुना दे.

‘‘इस में इतना उत्तेजित मत होइए. मैं तुम्हें समझाता हूं. तुम जो कह रही हो सच है, सौ प्रतिशत सच. कोई पेड़ तुम्हें पकड़ नहीं लेगा. चलो मान लेते हैं वह छोड़ देगा. पर मेरी बात भी एकदम झुठलाई नहीं जा सकती. छलांग लगाने के बाद तुम किसी पर गिरी तो उस में फंस जाओगी.

‘‘कहां फंसोगी, यह कोई निश्चित नहीं है. क्योंकि पेड़ पर फंसने के बाद जमीन और पेड़ में ज्यादा अंतर नहीं रह जाएगा. पेड़ पर और फिर जमीन पर गिरने पर हाथ पैर जरूर टूट जाएंगे. उस के बाद तो परेशानी और बढ़ जाएगी. इसलिए चलो मैं इस की अपेक्षा अच्छी जगह बताता हूं, जहां पर मर जाना निश्चित है. एक छलांग और खेल खत्म, पूरी गारंटी के साथ.’’ अमन ने कहा.

‘‘तुम मरने की जगह खोजने के एक्सपर्ट हो क्या?’’

‘‘नहीं दरअसल, हम दोनों एक ही गाड़ी की सवारी हैं, इसलिए…’’

‘‘यानी कि तुम भी मेरी तरह…’’

‘‘हां, मैं भी तुम्हारी तरह यहां मरने के भव्य इरादे के साथ आया हूं. इसीलिए अच्छी और गारंटेड जगह की तलाश कर रहा था. काफी शोध के बाद मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि संदेह वाला कोई भी काम करना ठीक नहीं है. जो भी काम करो, पक्का करो.’’

‘‘इस का मतलब तुम भी यहां आत्महत्या करने आए हो?’’

‘‘शंका का कोई समाधान नहीं है. इस सुनसान जगह पर घूमने नहीं आया, वह भी अकेले. तुम्हारी जैसी सुंदर लड़की साथ हो, तब इस सुनसान जगह पर आने में फायदा है.’’

‘‘बस, अब कुछ मत कहिएगा.’’

अवनी चुपचाप खड़ी अमन को ताक रही थी. उस ने अचानक कहा. ‘‘छोड़ो इस अंतहीन चर्चा को. पर तुम तो पुरुष हो. तुम्हें मरने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘क्यों, दुखी होने का अधिकार केवल औरतों का है क्या? तुम्हारा मानना है कि हम दुखी नहीं हो सकते?’’

‘‘पुरुष प्रधान समाज में सहन करने वाला काम ज्यादातर महिलाओं के हिस्से में आता है. इस से…’’

‘‘यह तुम्हारी व्यक्तिगत मान्यता है. इस अंतिम समय में मेरी इच्छा किसी तरह का वादविवाद करने की नहीं है. चलिए, मैं तुम्हें मरने की परफेक्ट जगह बताता हूं. अगर तुम्हारा मन हो तो चलो मेरे साथ. एक से दो भले.

‘‘जीवन में कोई अच्छा साथी नहीं मिला तो कोई बात नहीं, कम से कम मरते समय तो अच्छा साथी मिल गया. जीवन में हमसफर तो सभी को मिलते हैं, मौत का हमसफर किसे मिलता है. अकेले मरने में उतना मजा नहीं आता, अब तो तुम्हारे जैसा साथी पा कर मरने में भी मजा आ जाएगा.’’

‘‘तुम पर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा, जो तुम मरने आ गए?’’ अवनी ने पूछा. उस की हैरानी अभी खत्म नहीं हुई थी. भला पुरुष को कौन सा दुख हो सकता है, जो इस तरह मरने आ जाएगा. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह लड़का भी उस की तरह आत्महत्या करने आया है.’’

‘‘छोड़ो न अब इस बात को. मैं ने कहा न, मुझे अब चर्चा में कोई रूचि नहीं है. दुख का नगाड़ा बजाने से क्या फायदा. मुझे पता है, मेरे मरने से मांबाप को बहुत तकलीफ होगी. वे बहुत रोएंगे. पर अब क्या, मर जाने के बाद मैं तो देखूंगा नहीं. मर जाने के बाद कौन देखता है, जिस को जो करना होगा, करता रहेगा.’’

इस के बाद अमन ने जेब से च्यूइंगम निकाल कर अवनी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लो च्यूइंगम खाओगी? अपनी इस अंतिम मुलाकात की सहयात्री के रूप में अंतिम भेंट.’’

‘‘एक नंबर के स्वार्थी हो. तुम्हें मम्मीपापा के रोने की जरा भी चिंता नहीं. तुम्हें उन से कोई मतलब नहीं.’’

‘‘यह तुम कह रही हो, तुम भी तो…?’’

अवनी चुप हो गई. वह सोच में पड़ गई. उसे सोच में डूबा देख कर अमन ने कहा. ‘‘छोड़ो इन फालतू के विचारों को. अगर इस तरह सब के बारे में सोचने लगे तो मर नहीं पाएंगे. लो यह च्युंगम खाओ.’’

‘‘मरते समय यह च्युंगम तुम भी न…’’

‘‘च्युंगम मुझे बहुत प्रिय है. तुम इसे एक तरह से आदत कह सकती हो. मरने से पहले अपनी अंतिम इच्छा खुद ही पूरी करनी है.’’ मुंह में च्युंगम डालते हुए अमन ने लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘आज की यह अंतिम च्युंगम तुम भी ले लो… लेनी है या नहीं?’’

अवनी सोच में डूबी थी. उसे इस तरह सोच में डूबी देख कर अमन ने कहा, ‘‘च्युंगम ही है, कोई जहर नहीं. फिर जहर ही होगा, अब मुझ पर या तुम पर कौन सा फर्क पड़ने वाला है. इस के बाद तो हमें खाई में छलांग लगाने की भी जरूरत नहीं पडे़गी.’’

अवनी ने च्युंगम ले कर मुंह में रख लिया.

‘‘छलांग लगाने के लिए ज्यादा हिम्मत की जरूरत नहीं है, पर थोड़ा डर जरूर लगता है. तुम्हें डर नहीं लग रहा? अमन ने पूछा’’

‘‘जब मरना है तो डर किस बात का.’’

‘‘पर मुझे तो डर लग रहा है. नीचे गिरने पर कितना लगेगा, कहां लगेगा, गिरते ही जान निकल जाएगी, यह निश्चित तो नहीं. गिरने के बाद थोड़ी देर भी जीवित रहे तो… बाप रे कितनी तकलीफ होगी. मरने से पहले वह पीड़ा सहन करनी पड़ेगी. मरना कोई आसान काम नहीं है. ‘मरने के एक हजार सरल उपाय’ नाम की एक किताब के बारे में सुना था. तुम ने इस किताब के बारे में सुना है कि नहीं?’’

अवनी ने ‘न’ में सिर हिला दिया.

‘‘मैं ने भी खाली सुना है देखा नहीं है. अगर पढ़ने को मिल जाती तो बहुत अच्छा होता. मरने का कोई सरल उपाय सूझ जाता. पर वह किताब यहां मिलती ही नहीं है. इस तरह की किताब न तो यहां मिलती है, न यहां के लेखक लिखते हैं. इस तरह का काम विदेशी लेखक ही करते हैं. छोड़ो इस बात को, अब इस सब के लिए बहुत देर हो चुकी है. चलो, अब उठो, जो करना है, करते हैं.’’

कोई जवाब देने के बजाय अवनी चुपचाप अमन को ताकती रही. जबकि अमन की नजरें सामने दिखाई दे रहे सूरज पर टिकी थीं. अवनी की ओर नजर घुमा कर उस ने धीरे से पूछा, ‘‘पांच मिनट और बैठ कर इंतजार कर सकते हैं?’’

‘‘किस का इंतजार?’’

‘‘सूर्य के अंतर्ध्यान होने की, देखो न उधर. अस्त होने की तैयारी में है. कल का उगता सूरज तो अब हम देख नहीं पाएंगे, चलो आज का अस्त होता सूरज ही देख लें. पर एक तरह से यह हमारा भ्रम ही है. यह सूरज यहां अस्त हो रहा है तो कहीं उग रहा होगा. यही नहीं, सूरज तो एक ही है, पर सवेरा रोजरोज अलग होता है.

‘‘कब, कौन सवेरा क्या रंग लाता है, कौन जानता है? अस्त होता सूरज मनुष्य को दार्शनिक बना देता है. देखो न, जातेजाते सूरज कैसा रंग वैभव फैला रहा है.’’ अमन ने सूरज की ओर ऊंगली उठा कर इशारा किया तो अवनी उसी ओर देखने लगी. आकाश में संध्या की लालिमा फैल रही थी. पहाड़ के उस पार का दृश्य बड़ा अद्भुत था.

‘‘चलो, अब अपने इरादे को अंतिम अंजाम देते हैं, तैयार हो जाओ.’’ अमन ने कहा, पर अवनी ने कोई जवाब नहीं दिया. थोड़ी देर दोनों मौन का आवरण ओढ़े च्यूइंगम चबाते रहे.

सूरज धीरेधीरे क्षितिज से ओझल हो रहा था. पक्षी पेड़ों पर कलरव कर रहे थे. इस तरह घाटी में अनजाना शोर फैल रहा था. अचानक अवनी ने धीमे से कहा, ‘‘मुझे बचाने के लिए आप को बहुतबहुत धन्यवाद… क्षणिक आवेश से उबारने के लिए…’’

‘‘मैं कोई तुम्हें बचाने के लिए थोड़े ही…मैं तो खुद…’’

अमन अपनी बात पूरी कर पाता, उस के पहले ही अवनी ने कहा, ‘‘आई एम श्योर, तुम यहां आत्महत्या करने नहीं आए थे.’’

शाम के धुंधलके में अमन के चेहरे पर हलकी मुसकराहट फैल गई तो अवनी की आंखों में नए जीवन की चमक थी. पेड़ और घाटी पक्षियों के कोलाहल से गूंज रही थी.

अदला बदली: दूसरे को बदलने की इच्छा का क्या होता है परिणाम

मेरे पति राजीव के अच्छे स्वभाव की परिचित और रिश्तेदार सभी खूब तारीफ करते हैं. उन सब का कहना है कि राजीव बड़ी से बड़ी समस्या के सामने भी उलझन, चिढ़, गुस्से और परेशानी का शिकार नहीं बनते. उन की समझदारी और सहनशीलता के सब कायल हैं.

शादी के 3 दिन बाद का एक किस्सा  है. हनीमून मनाने के लिए हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे. हमारे 2 सूटकेस कुली ने उठाए और 5 मिनट में प्लेटफार्म तक पहुंचा कर जब मजदूरी के पूरे 100 रुपए मांगे तो नईनवेली दुलहन होने के बावजूद मैं उस कुली से भिड़ गई.

मेरे शहंशाह पति ने कुछ मिनट तो हमें झगड़ने दिया फिर बड़ी दरियादिली से 100 का नोट उसे पकड़ाते हुए मुझे समझाया, ‘‘यार, अलका, केवल 100 रुपए के लिए अपना मूड खराब न करो. पैसों को हाथ के मैल जितना महत्त्व दोगी तो सुखी रहोगी. ’’

‘‘किसी चालाक आदमी के हाथों लुटने में क्या समझदारी है?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा था.

‘‘उसे चालाक न समझ कर गरीबी से मजबूर एक इनसान समझोगी तो तुम्हारे मन का गुस्सा फौरन उड़नछू हो जाएगा.’’

गाड़ी आ जाने के कारण मैं उस चर्चा को आगे नहीं बढ़ा पाई थी, पर गाड़ी में बैठने के बाद मैं ने उन्हें उस भिखारी का किस्सा जरूर सुना दिया जो कभी बहुत अमीर होता था.

एक स्मार्ट, स्वस्थ भिखारी से प्रभावित हो कर किसी सेठानी ने उसे अच्छा भोजन कराया, नए कपडे़ दिए और अंत में 100 का नोट पकड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम शक्लसूरत और व्यवहार से तो अच्छे खानदान के लगते हो, फिर यह भीख मांगने की नौबत कैसे आ गई?’’

‘‘मेमसाहब, जैसे आप ने मुझ पर बिना बात इतना खर्चा किया है, वैसी ही मूर्खता वर्षों तक कर के मैं अमीर से भिखारी बन गया हूं.’’

भिखारी ने उस सेठानी का मजाक सा उड़ाया और 100 का नोट ले कर चलता बना था.

इस किस्से को सुना कर मैं ने उन पर व्यंग्य किया था, पर उन्हें समझाने का मेरा प्रयास पूरी तरह से बेकार गया.

‘‘मेरे पास उड़ाने के लिए दौलत है ही कहां?’’ राजीव बोले, ‘‘मैं तो कहता हूं कि तुम भी पैसों का मोह छोड़ो और जिंदगी का रस पीने की कला सीखो.’’

उसी दिन मुझे एहसास हो गया था कि इस इनसान के साथ जिंदगी गुजारना कभीकभी जी का जंजाल जरूर बना करेगा.

मेरा वह डर सही निकला. कितनी भी बड़ी बात हो जाए, कैसा भी नुकसान हो जाए, उन्हें चिंता और परेशानी छूते तक नहीं. आज की तेजतर्रार दुनिया में लोग उन्हें भोला और सरल इनसान बताते हैं पर मैं उन्हें अव्यावहारिक और असफल इनसान मानती हूं.

‘‘अरे, दुनिया की चालाकियों को समझो. अपने और बच्चों के भविष्य की फिक्र करना शुरू करो. आप की अक्ल काम नहीं करती तो मेरी सलाह पर चलने लगो. अगर यों ही ढीलेढाले इनसान बन कर जीते रहे तो इज्जत, दौलत, शोहरत जैसी बातें हमारे लिए सपना बन कर रह जाएंगी,’’ ऐसी सलाह दे कर मैं हजारों बार अपना गला बैठा चुकी हूं पर राजीव के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

बेटा मोहित अब 7 साल का हो गया है और बेटी नेहा 4 साल की होने वाली है अपने ढीलेढाले पिता की छत्रछाया में ये दोनों भी बिगड़ने लगे हैं. मैं रातदिन चिल्लाती हूं पर मेरी बात न बच्चों के पापा सुनते हैं, न ही बच्चे.

राजीव की शह के कारण घर के खाने को देख कर दोनों बच्चे नाकभौं चढ़ाते हैं क्योंकि उन की चिप्स, चाकलेट और चाऊमीन जैसी बेकार चीजों को खाने की इच्छा पूरी करने के लिए उन के पापा सदा तैयार जो रहते हैं.

‘‘यार, कुछ नहीं होगा उन की सेहत को. दुनिया भर के बच्चे ऐसी ही चीजें खा कर खुश होते हैं. बच्चे मनमसोस कर जिएं, यह ठीक नहीं होगा उन के विकास के लिए,’’ उन की ऐसी दलीलें मेरे तनबदन में आग लगा देती हैं.

‘‘इन चीजों में विटामिन, मिनरल नहीं होते. बच्चे इन्हें खा कर बीमार पड़ जाएंगे. जिंदगी भर कमजोर रहेंगे.’’

‘‘देखो, जीवन देना और उसे चलाना प्रकृति की जिम्मेदारी है. तुम नाहक चिंता मत करो,’’ उन की इस तरह की दलीलें सुन कर मैं खुद पर झुंझला पड़ती.

राजीव को जिंदगी में ऊंचा उठ कर कुछ बनने, कुछ कर दिखाने की चाह बिलकुल नहीं है. अपनी प्राइवेट कंपनी में प्रमोशन के लिए वह जरा भी हाथपैर नहीं मारते.

‘‘बौस को खाने पर बुलाओ, उसे दीवाली पर महंगा उपहार दो, उस की चमचागीरी करो,’’ मेरे यों समझाने का इन पर कोई असर नहीं होता.

समझाने के एक्सपर्ट मेरे पतिदेव उलटा मुझे समझाने लगते हैं, ‘‘मन का संतोष और घर में हंसीखुशी का प्यार भरा माहौल सब से बड़ी पूंजी है. जो मेरे हिस्से में है, वह मुझ से कोई छीन नहीं सकता और लालच मैं करता नहीं.’’

‘‘लेकिन इनसान को तरक्की करने के लिए हाथपैर तो मारते रहना चाहिए.’’

‘‘अरे, इनसान के हाथपैर मारने से कहीं कुछ हासिल होता है. मेरा मानना है कि वक्त से पहले और पुरुषार्थ से ज्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता.’’

उन की इस तरह की दलीलों के आगे मेरी एक नहीं चलती. उन की ऐसी सोच के कारण मुझे नहीं लगता कि अपने घर में सुखसुविधा की सारी चीजें देखने का मेरा सपना कभी पूरा होगा जबकि घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों को मैं बड़ी गंभीरता से लेती हूं. हर चीज अपनी जगह रखी हो, साफसफाई पूरी हो, कपडे़ सब साफ और प्रेस किए हों, सब लोग साफसुथरे व स्मार्ट नजर आएं जैसी बातों का मुझे बहुत खयाल रहता है. मैं घर आए मेहमान को नुक्स निकालने या हंसने का कोई मौका नहीं देना चाहती हूं.

अपनी लापरवाही व गलत आदतों के कारण बच्चे व राजीव मुझ से काफी डांट खाते हैं. राजीव की गलत प्रतिक्रिया के कारण मेरा बच्चों को कस कर रखना कमजोर पड़ता जा रहा है.

‘‘यार, क्यों रातदिन साफसफाई का रोना रोती हमारे पीछे पड़ी रहती हो? अरे, घर ‘रिलैक्स’ करने की जगह है. दूसरों की आंखों में सम्मान पाने के चक्कर में हमारा बैंड मत बजाओ, प्लीज.’’

बड़ीबड़ी लच्छेदार बातें कर के राजीव दुनिया वालों से कितनी भी वाहवाही लूट लें, पर मैं उन की डायलागबाजी से बेहद तंग आ चुकी हूं.

‘‘अलका, तुम तेरामेरा बहुत करती हो, जरा सोचो कि हम इस दुनिया में क्या लाए थे और क्या ले जाएंगे? मैं तो कहता हूं कि लोगों से प्यार का संबंध नुकसान उठा कर भी बनाओ. अपने अहं को छोड़ कर जीवनधारा में हंसीखुशी बहना सीखो,’’ राजीव के मुंह से ऐसे संवाद सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, पर व्यावहारिक जिंदगी में इन के सहारे चलना नामुमकिन है.

बहुत तंग और दुखी हो कर कभीकभी मैं सोचती हूं कि भाड़ में जाएं ये तीनों और इन की गलत आदतें. मैं भी अपना खून जलाना बंद कर लापरवाही से जिऊंगी, लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर हूं. देख कर मरी मक्खी निगलना मुझ से कभी नहीं हो सकता. मैं शोर मचातेमचाते एक दिन मर जाऊंगी पर मेरे साहब आखिरी दिन तक मुझे समझाते रहेंगे, पर बदलेंगे रत्ती भर नहीं.

जीवन के अपने सिखाने के ढंग हैं. घटनाएं घटती हैं, परिस्थितियां बदलती हैं और इनसान की आंखों पर पडे़ परदे उठ जाते हैं. हमारी समझ से विकास का शायद यही मुख्य तरीका है.

कुछ दिन पहले मोहित को बुखार हुआ तो उसे दवा दिलाई, पर फायदा नहीं हुआ. अगले दिन उसे उलटियां होने लगीं तो हम उसे चाइल्ड स्पेशलिस्ट के पास ले गए.

‘‘इसे मैनिन्जाइटिस यानी दिमागी बुखार हुआ है. फौरन अच्छे अस्पताल में भरती कराना बेहद जरूरी है,’’ डाक्टर की चेतावनी सुन कर हम दोनों एकदम से घबरा उठे थे.

एक बडे़ अस्पताल के आई.सी.यू. में मोहित को भरती करा दिया. फौरन इलाज शुरू हो जाने के बावजूद उस की हालत बिगड़ती गई. उस पर गहरी बेहोशी छा गई और बुखार भी तेज हो गया.

‘‘आप के बेटे की जान को खतरा है. अभी हम कुछ नहीं कह सकते कि क्या होगा,’’ डाक्टर के इन शब्दों को सुन कर राजीव एकदम से टूट गए.

मैं ने अपने पति को पहली बार सुबकियां ले कर रोते देखा. चेहरा बुरी तरह मुरझा गया और आत्मविश्वास पूरी तरह खो गया.

‘‘मोहित को कुछ नहीं होना चाहिए अलका. उसे किसी भी तरह से बचा लो,’’ यही बात दोहराते हुए वह बारबार आंसू बहाने लगते.

मेरे लिए उन का हौसला बनाए रखना बहुत कठिन हो गया. मोहित की हालत में जब 48 घंटे बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ तो राजीव बातबेबात पर अस्पताल के कर्मचारियों, नर्सों व डाक्टरों से झगड़ने लगे.

‘‘हमारे बेटे की ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं ये सब,’’ राजीव का पारा थोड़ीथोड़ी देर बाद चढ़ जाता, ‘‘सब बेफिक्री से चाय पीते, गप्पें मारते यों बैठे हैं मानो मेले में आएं हों. एकाध पिटेगा मेरे हाथ से, तो ही इन्हें अक्ल आएगी.’’

राजीव के गुस्से को नियंत्रण में रखने के लिए मुझे उन्हें बारबार समझाना पड़ता.

जब वह उदासी, निराशा और दुख के कुएं में डूबने लगते तो भी उन का मनोबल ऊंचा रखने के लिए मैं उन्हें लेक्चर देती. मैं भी बहुत परेशान व चिंतित थी पर उन के सामने मुझे हिम्मत दिखानी पड़ती.

एक रात अस्पताल की बेंच पर बैठे हुए मुझे अचानक एहसास हुआ कि मोहित की बीमारी में हम दोनों ने भूमिकाएं अदलबदल दी थीं. वह शोर मचाने वाले परेशान इनसान हो गए थे और मैं उन्हें समझाने व लेक्चर देने वाली टीचर बन गई थी.

मैं ये समझ कर बहुत हैरान हुई कि उन दिनों मैं बिलकुल राजीव के सुर में सुर मिला रही थी. मेरा सारा जोर इस बात पर होता कि किसी भी तरह से राजीव का गुस्सा, तनाव, चिढ़, निराशा या उदासी छंट जाए. ’’

4 दिन बाद जा कर मोहित की हालत में कुछ सुधार लगा और वह धीरेधीरे हमें व चीजों को पहचानने लगा था. बुखार भी धीरेधीरे कम हो रहा था.

मोहित के ठीक होने के साथ ही राजीव में उन के पुराने व्यक्तित्व की झलक उभरने लगी.

एक शाम जानबूझ कर मैं ने गुस्सा भरी आवाज में उन से कहा, ‘‘मोहित, ठीक तो हो रहा है पर मैं इस अस्पताल के डाक्टरों व दूसरे स्टाफ से खुश नहीं हूं. ये लोग लापरवाह हैं, बस, लंबाचौड़ा बिल बनाने में माहिर हैं.’’

‘‘यार, अलका, बेकार में गुस्सा मत हो. यह तो देखो कि इन पर काम का कितना जोर है. रही बात खर्चे की तो तुम फिक्र क्यों करती हो? पैसे को हाथ का मैल…’’

उन्हें पुराने सुर में बोलता देख मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी. मेरी प्रतिक्रिया गुस्से और चिढ़ से भरी नहीं है, यह नोट कर के मेरे मन का एक हिस्सा बड़ी सुखद हैरानी महसूस कर रहा था.

मोहित 15 दिन अस्पताल में रह कर घर लौटा तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. जल्दी ही सबकुछ पहले जैसा हो जाने वाला था पर मैं एक माने में बिलकुल बदल चुकी थी. कुछ महत्त्वपूर्ण बातें, जिन्हें मैं बिलकुल नहीं समझती थी, अब मेरी समझ का हिस्सा बन चुकी थीं.

मोहित की बीमारी के शुरुआती दिनों में राजीव ने मेरी और मैं ने राजीव की भूमिका बखूबी निभाई थी. मेरी समझ में आया कि जब जीवनसाथी आदतन शिकायत, नाराजगी, गुस्से जैसे नकारात्मक भावों का शिकार बना रहता हो तो दूसरा प्रतिक्रिया स्वरूप समझाने व लेक्चर देने लगता है.

घरगृहस्थी में संतुलन बनाए रखने के लिए ऐसा होना जरूरी भी है. दोनों एक सुर में बोलें तो यह संतुलन बिगड़ता है.

मोहित की बीमारी के कारण मैं भी बहुत परेशान थी. राजीव को संभालने के चक्कर में मैं उन्हें समझाती थी. और वैसा करते हुए मेरा आंतरिक तनाव, बेचैनी व दुख घटता था. इस तथ्य की खोज व समझ मेरे लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण साबित हुई.

आजकल मैं सचमुच बदल गई हूं और बहुत रिलेक्स व खुश हो कर घर की जिम्मेदारियां निभा रही हूं. राजीव व अपनी भूमिकाओं की अदलाबदली करने में मुझे महारत हासिल होती जा रही है और यह काम मैं बड़े हल्केफुल्के अंदाज में मन ही मन मुसकराते हुए करती हूं.

हर कोई अपने स्वभाव के अनुसार अपनेअपने ढंग से जीना चाहता है. अपने को बदलना ही बहुत कठिन है पर असंभव नहीं लेकिन दूसरे को बदलने की इच्छा से घर का माहौल बिगड़ता है और बदलाव आता भी नहीं अपने इस अनुभव के आधार पर इन बातों को मैं ने मन में बिठा लिया है और अब शोर मचा कर राजीव का लेक्चर सुनने के बजाय मैं प्यार भरे मीठे व्यवहार के बल पर नेहा, मोहित और उन से काम लेने की कला सीख गई हूं.

लेखक- अवनीश शर्मा

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