अछूत- भाग 1: जब एक फैसला बना बेटे के लिए मुसीबत

वह अब एक मृत शरीर था. स्वयं को चिरंजीवी, दूसरों से बेहतर तथा कुलीन समझने के अभिमान से बंधा हुआ उस का शरीर, ऐंबुलैंस के अंदर घंटों से निर्जीव, निरीह पड़ा था. न जाने कितनी बार अपनी कठोरता और शुष्क व्यवहार से भर कर उस ने लोगों का तिरस्कार किया था, आज स्वयं तिरस्कृत हो कर, लावारिस के समान पड़ा हुआ था.
जिस श्मशानघाट के द्वार पर खड़े हो कर, कभी उस ने शवों का भी वर्गीकरण किया था, उस स्थान पर उस के ही प्रवेश पर गहन चर्चा चल रही थी. चारधामों की यात्रा के बावजूद अर्जित पुण्य भी उस के पवित्र शरीर के लिए 4 कंधों की व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे. उस की विशुद्ध और स्वर्ण देह, आज निर्जीव पङी थी.

उसे कुछ दिनों पूर्व करोना का आलिंगन प्राप्त हुआ था, लेकिन उस की आत्मा तो न जाने कब से मलिन थी. इस महामारी ने उस बलराज शास्त्री के शरीर का अंत किया था, जिस का हृदय स्वार्थ और अहंकार के  वशीभूत था.

बलराज के पिता श्रीधर शास्त्री उज्जैन के एक गांव में एकमात्र यजमानी पंडित थे. इसी से घर में कभी खानेपीने, ओढ़नेबिछाने, पहननेखाने की वस्तुओं का अभाव नहीं रहा. यजमानों के घर में जन्म हो या मृत्यु, दोनों समान रूप से श्रीधर शास्त्री को समृद्धि से लाद जाते. वे ब्राह्मण थे और पूजित होने का परंपरागत जातिगत विशेषाधिकार उन्हें प्राप्त था.

4 पुत्रियों के बाद हुआ बलराज का जन्म, उस के परिवार और पिता के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था. बचपन से ही उस की माता ने उस के भीतर के पुरुष का पूजन शुरू कर दिया, तो वहीं पिता ने उस के कोमल मन में घृणा का अंकुर बोना.

जब बलराज 4-5 साल का था तब हमारे पास के गांधी स्मारक स्कूल में उस का दाखिला कराया गया. इस स्कूल में लगभग सभी जातियों के बच्चे जाते थे. बच्चों के अलावा वहां  सभी जातियों के शिक्षक भी थे. वहां तमाम तरह के खेल खोखो, भाग छू, कबड्डी आदि खिलाए जाते थे. लेकिन वहां पर उस सामंती नैतिक शिक्षा का बोलबाला था, जिस का धीमा जहर सभी की धमनियों में परिवार से ले कर स्कूलों तक भरा जाता था. उस समय इन के प्रति सवालों का प्रायः अकाल था.

गांव में रामलीला भी होती थी. कभीकभी आसपास होने वाले शादीब्याह में नौटंकी भी होती थी. पासपड़ोस के कई लड़के उसे देखने जाते थे. उस का भी मन इन के प्रति सदा से उत्साह रहता, पर यह उत्साह प्रकट न हो सकता था, क्योंकि इन्हें देखने जाने की मनाही थी. कभीकभी जाने की जिद करने पर पिताजी कहते,”वहां अच्छे घरों के बच्चे नहीं जाते.”
अच्छे घरों से मतलब ऊंची जातियों से होता था.

तब वह नहीं जानता था कि रामलीला, नौटंकी नाटक की ही विविध शैलियां हैं. लेकिन जब जान गया तब भी कहां पूछ पाया कि जब नाटक को पंचम वेद की संज्ञा दी गई है, फिर वह वर्जित कैसे हो सकती थी?

हालांकि उस के पिताजी ने भरत मुनि का नाट्यशास्त्र कभी नहीं पढ़ा, पर  पढ़ कर भी बलराज उसे कहां समझ पाया. सदियों से घृणा सिंचित ब्राह्मण मानस की  जातिवादी  मानसिकता मस्तिष्क के चेतनअवचेतन में इस कदर घुल चुकी थी कि कुछ भी समझ पाने की बुद्धि शेष ही नहीं थी.

उस समय यह सब कुछ सही प्रतीत होता था. वह इस अमानवीय व्यवस्था का हिस्सा बनता चला गया, जहां एक बच्चे की कोमल भावनाओं को निर्ममता से कुचल दिया जाता था. हमेशा से अपने बाजार के दलित लड़कों को देख कर उस का मन दुखता था. एक पल को उस का बालमन सोचता कि कितने मस्त हैं, चाहे जहां जाते हैं, नाचते हैं, खाते हैं, पीते हैं. लेकिन अगले ही पल तर्कसंगत सोच पर झूठी श्रेष्ठता के दंभ का अधिकार हो जाता और वह उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखने लगता.

बड़े होने पर बीए की पढ़ाई करने दिल्ली आया तब भी जाति ने पीछा नहीं छोड़ा. वैसे यह शहर बुद्धिजीवियों, पढ़नेलिखने वालों की नगरी थी, लेकिन ऐडमिशन लेते, किराए का कमरा ढूंढ़ते और लोगों से बात करते समय हमेशा जाति का संदर्भ जारी रहा.

इस देश में श्रेष्ठता के अनेक मापदंड हैं. विभिन्नता में एकता तो एक आदर्श परिस्थिति है जो यदाकदा ही नजर आती है. लेकिन विभिन्नताओं में अनेकता इस देश की कङवी सचाई  है. हर धर्म स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने में लगा रहता है. जातिधर्म तो भारतीय समाज को सदियों से खोखला कर ही रही है. भाषा की लड़ाई ने भी घृणित रूप ले लिया है. एक ही देश के लोग उत्तर और दक्षिण की लड़ाई में व्यस्त रहने लगे हैं. रंगभेद रूपी घृणा का पेड़ भी फलफूल रहा है. निर्धन और संपन्न के मध्य धन के साथ नफरत की खाई भी बढ़ रही है.

धीरेधीरे वह भी यह सोचने लगा कि उस के नाम ‘बलराज’ के बाद ‘शास्त्री ’ लगते ही, उस के नाम का वजन बढ़ जाता है. लोगों का नाम सुन कर ही उस के हाथ हरकत में आया करते थे. वह कभी भी, तथाकथित बड़े और ऊंचे लोग जिन्हें अछूत जाति या नीच जाति कहते हैं, का सरनेम लगा होता तो उस व्यक्ति से हाथ नहीं मिलाया करता था. वह जाति इतर किसी के व्यक्तित्व को कोई महत्व ही नहीं दे पाया. किसी के ज्ञान व बुद्धि का उस के लिए जैसे कोई मूल्य ही नहीं था. महत्व था, मूल्य था, तो इस कट्टर व्यवस्था का जो सदियों से चली आ रही थी.

देश के कानून और अपनी बैंक की सरकारी नौकरी से बंधे होने के कारण बलराज खुल कर अपनी भावनाओं को तो व्यक्त नहीं कर पाता लेकिन, पारिवारिक चर्चाओं में उस के मन की कटुता कभी छिपी भी नहीं रहती थी. वैसे अब वह जाति से ब्राह्मण और कर्म से वैश्य था, लेकिन उस के अहंकार में लेशमात्र की भी कमी नहीं हुई थी.

नियत समय पर बलराज का विवाह कालिंदी के साथ हो गया. विवाह के बाद उसे बेटा हुआ तो ऐसा लगा जैसे उस की विरासत को उत्तराधिकारी प्राप्त हो गया. वैसे यह सोचना भी हास्यपद ही था कि कौन सी रियासत थी उस के पास, जिस का युवराज वह अपने बेटे शिशिर को बनाने वाला था.

दहकता पलाश: भाग-3

पूर्व कथा

प्रवीण से अचानक मुलाकात होते ही अर्पिता की कालेज के दिनों की यादें ताजा हो गईं. तब वह प्रवीण को चाहने लगी थी. उधर प्रवीण के दिल में भी उस के लिए प्यार उमड़ने लगा था. मगर प्रवीण के पिता के ट्रांसफर की खबर ने 2 दिलों को एक होने से पहले ही जुदा  कर दिया. कालेज की पढ़ाई के बाद अर्पिता की शादी आनंद के साथ हो गई. शादी के बाद आनंद का अकसर टुअर पर रहना उसे बेहद खलता था. मगर प्रवीण से मिल कर उस के दिल में दबी प्यार की चिनगारी भड़क उठी. एक रोज प्रवीण ने उसे सांस्कृतिक कार्यक्रम में आमंत्रित किया तो वह मना न कर पाई. प्रवीण का साथ पा कर वह बेहद खुश थी.

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रात के लगभग 12 बजे दोनों वहां के गैस्ट हाउस वापस आ गए. चौकीदार दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में सोने चला गया. अर्पिता अपने कमरे में जाने लगी तो प्रवीण भी उस के पीछे आ गया और दरवाजा बंद कर के उस ने अर्पिता को अपनी बांहों में भर लिया. अर्पिता के अंगअंग में पलाश की कलियां चटक कर फूल बनने लगीं और वह पलाश के दहकते फूलों की तरह पलंग पर बिछ गई.

2 दिन और 2 रातें प्यार की बड़ी खुमारी में बीत गईं. अर्पिता को लग रहा था कि जैसे वह हनीमून पर आई है. प्यार क्या होता है, कितना रोमांचक और सुखद होता है यह तो उस ने पहली बार ही जाना है. उस का अंगअंग निखर आया. तीसरे दिन सुबह प्रवीण और वह वापस आ गए.

इस के बाद अकसर ही शनिवार रविवार को आसपास के छोटे छोटे टूरिस्ट स्पौट्स, जहां ज्यादा लोगों का आनाजाना नहीं होता था, प्रवीण अर्पिता को ले कर चला जाता. दोनों गैस्ट हाउस या फिर होटल में रुकते. अब तो

2 कमरों की औपचारिकता भी समाप्त हो गई थी. अर्पिता के गले का मंगलसूत्र देख कर गैस्ट हाउस के चौकीदार उसे प्रवीण की पत्नी ही समझते. दोनों 2 दिन साथ रहते मौजमस्ती करते और वापस आ जाते. पड़ोसियों को लगता अर्पिता मां के यहां गई है और मां से अर्पिता किसी सहेली के घर जाने का बहाना कर देती.

धीरेधीरे 7 महीने निकल गए. अर्पिता और प्रवीण का मिलनाजुलना बदस्तूर जारी था. प्रवीण कभीकभी सरकारी काम से इंदौर या रायपुर चला जाता तो अर्पिता से जुदाई के ये दिन काटे नहीं कटते थे. ऐसे ही समय कटता रहा और आनंद को कैलिफोर्निया गए 10 महीने बीत गए. अर्पिता का मन कभीकभी घबरा जाता. वह प्रवीण के साथ इतनी आगे बढ़ गई है, अब लौट कर आनंद के साथ कैसे निभा पाएगी? अगर वह आनंद को तलाक दे दे तो क्या प्रवीण उस से शादी कर लेगा? अब प्रवीण के बिना जिंदगी बिताने के बारे में वह सोच भी नहीं सकती और ऐसी हालत में आनंद के साथ अपने रिश्ते को जबरन ढो भी नहीं सकती. अर्पिता रातदिन सोच में डूबी रहती. वह कैसे दोराहे पर आ कर खड़ी हो गई थी. एक ओर आनंद मम्मीपापा, समाज और दूसरी ओर प्रवीण का साथ.

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एक दिन प्रवीण इंदौर गया हुआ था. अर्पिता का मन उदास था. बुटीक में काम निबटा कर अर्पिता पार्लर चली गई. सोचा, फेस मसाज करवा कर थोड़ा रिलैक्स फील करेगी. पार्लर में भीड़ थी, अर्पिता बाहर के रूम में सोफे पर बैठ कर मैगजीन पढ़ने लगी.

‘‘कैसी हो अर्पिता?’’

अपना नाम सुन कर अर्पिता ने चौंक कर सिर उठाया. देखा तो सामने नीलांजना खड़ी थीं, जो उसे पचमढ़ी में मिली थीं. नीलांजना अर्पिता के पास ही सोफे पर बैठ गईं.

‘‘जी मैं ठीक हूं. आप कैसी हैं?’’ अर्पिता ने मुसकरा कर पूछा. 2 मिनट तक दोनों के बीच औपचारिक बातें होती रहीं, फिर अचानक नीलांजना असल बात पर आ गईं.

‘‘प्रवीण को कब से जानती हो?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘जी वह मेरा कालेज के समय का दोस्त है,’’ अर्पिता को उन के हावभाव देख कर आशंका हो रही थी कि वे उस के बारे में ही बात करना चाह रही हैं.

‘‘मैं इधरउधर की बात न कर के सीधी बात पर आती हूं अर्पिता. प्रवीण ठीक आदमी नहीं है. उस का चरित्र अच्छा नहीं है. तुम उस से दूर ही रहो तो ठीक होगा. तुम्हारा उस के साथ अकेले पचमढ़ी जाना और वहां तुम दोनों के एकदूसरे के प्रति जो ऐक्सप्रेशंस थे उस से मैं समझ गई थी कि तुम उस की दोस्त से आगे बढ़ कर कुछ और भी हो,’’ नीलांजना की गहरी आंखें अर्पिता के मन में छिपे चोर को साफ देख रही थीं.

अर्पिता अपनी चोरी पकड़ी जाने से हड़बड़ा गई. नीलांजनाजी ने इतने दृढ़ और विश्वास भरे स्वर में यह बात कही थी कि क्षण भर को अर्पिता को समझ ही नहीं आया कि उन की बात कैसे झुठलाए.

क्षण भर बाद खुद को संयत कर के उस ने कमजोर स्वर में प्रतिवाद किया, ‘‘मैं उसे सालों से जानती हूं. वह तो किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखता था.’’

‘‘तब की बात मैं नहीं जानती. मैं तो आज के प्रवीण को जानती हूं. प्रवीण के कई शादीशुदा औरतों से संबंध हैं. रायपुर में जब यह 6 माह की ट्रेनिंग पर आया था तो वहां के भी एक अधिकारी की खूबसूरत बीवी को अपने जाल में फांस लिया था. यह अब भी वहां जा कर उस से मिलता है,’’ नीलांजना ने बताया तो अर्पिता को लगा कि जैसे उस के चारों ओर एकसाथ सैकड़ों धमाके हो गए हैं. वह सन्न सी बैठी रह गई.

‘‘लेकिन अगर ऐसा ही है तो उसे कुंआरी लड़कियों की क्या कमी, वह शादीशुदा औरतों के पीछे क्यों पड़ेगा भला?’’ अर्पिता ने नीलांजना को गलत साबित करना चाहा.

‘‘प्रवीण बहुत शातिर है. कुंआरी लड़की शादी के सपने देखने लगती है और फिर छोड़े जाने पर व्यर्थ का बवाल खड़ा करती है, जो उस की छवि को खराब करेगा. शादीशुदा औरतों को अगर वह छोड़ भी देता है तो वे आंसू बहा कर चुप रह जाती हैं. अपनी और पति व घर की इज्जत की खातिर वे तमाशा खड़ा नहीं करतीं. बस प्रवीण का काम बन जाता है. जैसा कि उस ने इंदौर के एक बिजनैसमैन की पत्नी के साथ किया.

‘‘पति की अनुपस्थिति में उस के साथ खूब घूमाफिरा, मौजमस्ती की और फिर भोपाल आ गया. वह बेचारी आज भी उस की याद में रो रही है. जहां तक शादी का सवाल है, उस की महत्त्वाकांक्षा बहुत ऊंची है. उस की इच्छा किसी बहुत बड़े अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी से ही शादी करने की रही है. इसीलिए 2 महीने पहले उस ने इंदौर के एक उच्च अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी नीलम से सगाई कर ली है,’’ नीलांजना ने संक्षेप में बताया.

‘‘क्या प्रवीण की सगाई हो गई?’’ अर्पिता बुरी तरह चौंक कर बोली. उसे लगा जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो.

नीलांजना बोलीं, ‘‘तुम तो उस से दोस्ती का दम भरती हो, तुम्हें उस ने बताया नहीं कि उस की शादी पक्की हो गई है? तभी तो आजकल उस के इंदौर के टूर बढ़ गए हैं.’’

प्रवीण उस से इतनी बड़ी बात छिपाएगा, उसे धोखे में रखेगा, इस का उसे जरा भी अंदेशा नहीं था. उस का सिर चकराने लगा.

‘‘आप प्रवीण के बारे में इतना सब कैसे जानती हैं?’’ अर्पिता ने थके से स्वर में पूछा.

‘‘रायपुर वाली घटना तो मेरी आंखों के सामने की ही है और इंदौर वाली…’’ नीलांजना एक गहरी सांस भर कर बोलीं, ‘‘वह बिजनैसमैन और कोई नहीं मेरा भाई है. तभी प्रवीण मुझे देखते ही सकपका जाता है. प्रवीण के चक्कर में पड़ कर अपना घरसंसार व्यर्थ में बरबाद मत करो. आज नहीं तो कल वह वैसे भी तुम्हें छोड़ ही देगा. अच्छा है समय रहते ही तुम खुद उसे छोड़ दो.’’

अर्पिता शाम को घर लौटी तो उस का सिर बुरी तरह से चकरा रहा था. नीलांजना की बातों में सचाई झलक रही थी. वह भी देख रही थी कि पिछले 2 महीनों से प्रवीण कुछ बदल सा गया है. अब छुट्टियों में अर्पिता के साथ बाहर जाने के बजाय वह सरकारी काम का बहाना बना कर अकेला ही चला जाता है. यदि यह सच है कि प्रवीण को औरतों को फंसाने की आदत ही है तो वह कितनी बड़ी गलती कर बैठी है. उस के पद और प्रतिष्ठा की चकाचौंध में अंधी हो कर अपने पति के साथ बेवफाई कर बैठी. अब पता नहीं अपनी गलती की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी. धोखे के एहसास से अर्पिता तिलमिला गई. उस ने प्रवीण को फोन लगाया.

‘‘तुम ने सगाई कर ली और मुझे बताया भी नहीं,’’ प्रवीण के फोन उठाने पर अर्पिता गुस्से से चिल्लाई.

‘‘ओह तो तुम्हें पता चल गया. अच्छा हुआ. मैं खुद ही सोच रहा था कि मौका देख कर तुम्हें बता दूं,’’ प्रवीण का स्वर अत्यंत सामान्य था.

‘‘तुम ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम ने मुझे धोखा दिया है,’’ उस के सामान्य स्वर पर अर्पिता तिलमिला गई.

‘‘क्या किया है मैं ने?’’ प्रवीण आश्चर्य से बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें कौन सा धोखा दिया है? मैं कुंआरा हूं और एक न एक दिन मेरी शादी होगी यह तो तुम जानती ही थीं. मैं ने कोई तुम से तो शादी का वादा किया नहीं था फिर धोखे की बात कहां से आ गई?’’

‘‘तुम ने मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है. क्यों खेलते रहे मेरे जज्बातों से इतने दिन?’’ अर्पिता अब भी तिलमिला रही थी.

‘‘मैं ने तुम्हारी भावनाओं से नहीं खेला. जो कुछ हुआ तुम्हारी मरजी से हुआ. मैं ने कोई जबरदस्ती तो की नहीं. हम दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगा और हम ने साथ में जीवन के मजे लूटे. मैं ने जिंदगी भर साथ निभाने का कोई वादा तो किया नहीं है तुम से. हां, तुम कालेज के दिनों से मुझे पसंद थीं. तुम कुंआरी होती तो मैं तुम से शादी के बारे में सोच भी सकता था, लेकिन तुम तो शादीशुदा हो. ऐसा सोच भी कैसे सकती हो कि तुम से शादी करूंगा? मैं इतनी बड़ी पोस्ट पर हूं. शहर में मेरा नाम व रुतबा है. तुम से शादी कर के मुझे अपनी इज्जत खराब नहीं करवानी,’’ प्रवीण तल्ख स्वर में बोला, ‘‘हां, तुम चाहो तो हम ये रिश्ता ऐसे ही बरकरार रखेंगे वरना…’’

अपमान और पीड़ा से अर्पिता छटपटा गई. वह बिफर कर बोली, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतने गिरे हुए होगे.’’ फिर उस ने उस से रायपुर और इंदौर वाले किस्सों का जवाब भी मांगा.

‘‘तुम औरतें पतियों से दुखी रह कर उन से ऐडजस्ट न कर पाने के कारण खुद ही बाहर किसी सहारे की तलाश में रहती हो. तुम लोगों को हमेशा एक ऐसे कंधे की तलाश रहती है, जिस पर सिर रख कर तुम अपना दुख हलका कर सको. अपने जीवनसाथी की थोड़ी सी भी कमी तुम लोगों से सहन नहीं होती और तुम लोग बाहर उसे पूरा करने को तत्पर रहती हो.

‘‘सच तो यह है कि मर्दों की बजाय औरतों को ऐसे संबंधों की ज्यादा जरूरत होती है और वे इन्हें ज्यादा ऐंजौय करती हैं. अगर औरतें ऐसे संबंधों को न चाहें तो मर्द की हिम्मत ही नहीं होगी किसी भी औरत की ओर आंख उठा कर देखने की. औरतें खुद ही यह सब चाहती हैं और मर्दों को फालतू बदनाम करती हैं. अपने पति से बेवफाई कर के उन्हें धोखा तुम ने दिया और धोखेबाज मुझे कह रही हो. तुम सोचो, बेवफा और धोखेबाज सही अर्थों में कौन है?’’

अर्पिता सन्न रह गई. प्रवीण ने उसे आईना दिखा दिया था. आनंद की जो कमियां उसे खलती थीं उन्हें प्रवीण के द्वारा पूरा कर के वह सुख पाना चाहती थी. गलत तो वही थी. पलाश की सुर्ख मादकता में डूबने से पहले उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि सुर्ख रंग सिर्फ मादकता का ही नहीं खतरे का प्रतीक भी होता है. लेकिन अब क्या हो सकता था. उस ने खुद ही अपने ही संसार में आग लगा ली थी. अर्पिता कटे पेड़ की भांति पलंग पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. दहकते पलाश ने इस का जीवन झुलसा दिया था.

Father’s Day 2022: अथ से इति तक- बेटी के विद्रोह ने हिला दी माता- पिता की दुनिया

‘‘चल न शांता, बड़ी अच्छी फिल्म लगी है ‘संगीत’ में. कितने दिन से घर से बाहर गए भी तो नहीं हैं…इन के पास तो कभी समय ही नहीं रहता है,’’ पति के कार्यालय तथा बच्चों के स्कूल, कालेज जाते ही शुभ्रा अपनी सहेली शांता के घर चली आई.

‘‘आज नहीं शुभ्रा, आज बहुत काम है. फिर मैं ने राजेश्वर को बताया भी नहीं है. अचानक ही बिना बताए चली गई तो न जाने क्या समझ बैठें,’’ शांता ने टालने का प्रयत्न किया.

‘‘लो सुनो, अरे, शादी को 20 वर्ष बीत गए, अब भी और कुछ समझने की गुंजाइश है? ले, फोन उठा और बता दे भाईसाहब को कि तू आज मेरे साथ फिल्म देखने जा रही है.’’

‘‘तू नहीं मानने वाली…चल, आज तेरी बात मान ही लेती हूं, तू भी क्या याद करेगी,’’ शांता निर्णयात्मक स्वर में बोली.

निर्णय लेने भर की देर थी, फिर तो शांता ने झटपट पति को फोन किया. बेटी प्रांजलि के नाम पत्र लिख कर खाने की मेज पर फूलदान के नीचे दबा दिया और आननफानन में तैयार हो कर घर की चाबी पड़ोस में देते हुए दोनों सहेलियां बाहर सड़क पर आ गईं.

‘‘अकेले घूमनेफिरने का मजा ही कुछ और है. पति व बच्चों के साथ तो सदा ही जाते हैं, पर यह सब बड़ा रूढि़वादी लगता है. अब देखो, केवल हम दोनों और यह स्वतंत्रता का एहसास, मानो हर आनेजाने वाले की निगाह हमें सहला रही हो,’’ शुभ्रा चहकते हुए बोली.

‘‘पता नहीं, मेरी तो इतनी उलटीसीधी बातें सोचने की आदत ही नहीं है,’’ शांता ने मुसकरा कर टालने का प्रयत्न किया.

‘‘अच्छा शांता, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कुछ समय के लिए हमारी किशोरावस्था हमें वापस मिल जाए. फिर वही पंखों पर उड़ते से हलकेफुलके दिन, सपनीली पलकें लिए झुकीझुकी आंखें…’’ शुभ्रा, अपनी ही रौ में बोलती चली गई.

‘‘शुभ्रा, हम सड़क पर हैं. माना कि तुझे कविता कहने का बड़ा शौक है, पर कुछ तो शर्म किया कर…अब हम किशोरियां नहीं, अब हम किशोरियों की माताएं हैं. कोई ऐसी बातें सुनेगा तो क्या सोचेगा?’’ शांता ने उसे चुप कराने के लिए कहा.

‘‘तू बड़ी मूर्ख है शांता, तू तो किशोरा- वस्था में भी दादीअम्मां की तरह उपदेश झाड़ा करती थी, अब तो फिर भी आयु हो गई, पर एक राज की बात बताऊं?’’

‘‘क्या?’’

‘‘कोई कह नहीं सकता कि तेरी 17-18 वर्ष की बेटी है,’’ शुभ्रा मुसकराई.

‘‘शुभ्रा, तू कभी बड़ी नहीं होगी, यह हमारी आयु है, ऐसी बातें करने की?’’

‘‘लो भला, हमारी आयु को क्या हुआ है…विदेशों में तो हमारे बराबर की स्त्रियां रास रचाती घूमती हैं,’’ शुभ्रा ने शरारत भरा उत्तर दिया.

इस से पहले कि शांता कोई उत्तर दे पाती, आटोरिकशा एक झटके के साथ रुका और दोनों सहेलियां वास्तविकता की धरती पर लौट आईं.

टिकट खरीदने के लिए लंबी कतार लगी थी. शुभ्रा लपक कर वहां खड़ी हो गई और शांता कुछ दूर खड़ी हो कर उस की प्रतीक्षा करने लगी. रंगबिरंगे कपड़े पहने युवकयुवतियों और स्त्रीपुरुषों को शांता बड़े ध्यान से देख रही थी. ऐसे अवसरों पर ही तो नए फैशन, परिधानों आदि का जायजा लिया जा सकता है.

फिल्म का शो खत्म हुआ. शांता भीड़ से बचने के लिए एक ओर हटी ही थी कि तभी भीड़ में जाते एक जोड़े को देख कर मानो उसे सांप सूंघ गया. क्या 2 व्यक्तियों की शक्ल, आकार, चालढाल इतनी अधिक मेल खा सकती है? युवती बिलकुल उस की बेटी प्रांजलि जैसी लग रही थी. ‘कहीं यह प्रांजलि ही तो नहीं?’ एक क्षण को यह विचार मस्तिष्क में कौंधा, पर दूसरे ही क्षण उस ने उसे झटक दिया. प्रांजलि भला इस समय यहां क्या कर रही होगी? वह तो कालेज में होगी. वह युवती कुछ दूर चली गई थी और अपने पुरुष मित्र की किसी बात पर खिलखिला कर हंस रही थी. शांता कुछ देर के लिए उसे घूर कर देखती रही, ‘नहीं, उस की निगाहें इतना धोखा नहीं खा सकतीं, क्या वह अपनी बेटी को नहीं पहचान सकती?’

पर तभी उसे खयाल आया कि प्रांजलि आज स्कर्टब्लाउज पहन कर गई थी और यह युवती तो नीले रंग के चूड़ीदार पाजामेकुरते में थी. शांता ने राहत की सांस ली, पर दूसरे ही क्षण उसे याद आया कि ऐसा ही चूड़ीदार पाजामाकुरता प्रांजलि के पास भी है. संशय दूर करने के लिए उस ने उस युवती को पुकारने के लिए मुंह खोला ही था कि शुभ्रा के वहां होने के एहसास ने उस के मुंह पर मानो ताला जड़ दिया. शुभ्रा लाख उस की सहेली थी पर अपनी बेटी के संबंध में शांता किसी तरह का खतरा नहीं उठा सकती थी. प्रांजलि के संबंध में कोई ऐसीवैसी बात शुभ्रा को पता चले और फिर यह आम चर्चा का विषय बन जाए, यह वह कभी सहन नहीं कर सकती थी. अत: वह चुपचाप खड़ी रह गई.

‘‘क्या बात है शांता, तबीयत खराब है क्या?’’ तभी शुभ्रा टिकट ले कर आ गई.

‘‘पता नहीं शुभ्रा, कुछ अजीब सा लग रहा है. चक्कर आ रहा है. लगता है, अब मैं अधिक समय खड़ी नहीं रह सकूंगी,’’ शांता किसी प्रकार बोली. सचमुच उस का गला सूख रहा था तथा नेत्रों के सम्मुख अंधेरा छा रहा था.

‘‘गरमी भी तो कैसी पड़ रही है…चल, कुछ ठंडा पीते हैं…’’ कहती शुभ्रा उसे शीतल पेय की दुकान की ओर खींच ले गई.

शीतल पेय पी कर शांता को कुछ राहत अवश्य मिली किंतु मन अब भी ठिकाने पर नहीं था. कुछ देर पहले के हंसीठहाके उदासी में बदल गए थे. फिल्म देखते हुए भी उस की निगाह में प्रांजलि ही घूम रही थी. किसी प्रकार फिल्म समाप्त हुई तो उस ने राहत की सांस ली.

अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी लेकिन शुभ्रा तो बाहर ही खाने का निश्चय कर के आई थी. पर शांता की दशा देख कर शुभ्रा ने भी अपना विचार बदल दिया और दोनों सहेलियां घर पहुंच गईं.

शांता घर पहुंची तो देखा, प्रांजलि अभी घर नहीं लौटी थी. उस की घबराहट की तो कोई सीमा ही नहीं थी. सोचने लगी, ‘लगभग 3 घंटे पहले प्रांजलि को देखा था, न जाने किस आवारा के साथ घूम रही थी? लगता है, यह लड़की तो हमें कहीं का न छोड़ेगी,’ सोचते हुए शांता तो रोने को हो आई.

जब और कुछ न सूझा तो शांता पति का फोन नंबर मिलाने लगी, लेकिन तभी द्वार की घंटी बज उठी. वह लपक कर द्वार तक पहुंची. घबराहट से उस का हृदय तेजी से धड़क रहा था. दरवाजा खोला तो सामने खड़ी प्रांजलि को देख कर उस की जान में जान आई, पर इस बात पर तो वह हैरान रह गई कि प्रांजलि तो वही स्कर्टब्लाउज पहने थी जो वह सुबह पहन कर गई थी. फिर वह नीले चूड़ीदार पाजामेकुरते वाली लड़की? क्या यह संभव नहीं कि उस ने प्रांजलि जैसी शक्लसूरत की किसी अन्य लड़की को देखा हो.

‘‘क्या बात है, मां? इस तरह रास्ता रोक कर क्यों खड़ी हो? मुझे अंदर तो आने दो.’’

‘‘अंदर? हांहां, आओ, तुम्हारा ही तो घर है,’’ शांता वहां से हटते हुए बोली, पर प्रांजलि के अंदर आते ही उस ने शीघ्रता से बेटी के कंधे पर लटकता बैग उतारा और सारा सामान उलट दिया.

नीला चूड़ीदार पाजामाकुरता बैग से बाहर पड़ा शांता को मुंह चिढ़ा रहा था. प्रांजलि भी मां के इस व्यवहार पर स्तब्ध खड़ी थी.

‘‘इस तरह छिपा कर ये कपड़े ले जाने की क्या आवश्यकता थी?’’ शांता का स्वर आवश्यकता से अधिक तीखा था.

‘‘मैं क्यों छिपा कर ले जाने लगी?’’ प्रांजलि अब तक संभल चुकी थी, ‘‘पहले से ही रखा होगा.’’

‘‘तुम अब भी झूठ बोले जा रही हो, प्रांजलि. कालेज छोड़ कर किस के साथ फिल्म देख रही थीं, ‘संगीत’ में? वह तो शुभ्रा मेरे साथ थी और मैं नहीं चाहती थी कि उस के सामने कोई तमाशा खड़ा हो, नहीं तो यह प्रश्न मैं तुम से वहीं करती,’’ शांता गुस्से से चीखी.

‘‘वहीं पूछ लेना था, मां. शुभ्रा चाची तो बिलकुल घर जैसी हैं. फिर एक दिन तो सब को पता चलना ही है.’’

‘‘अपनी मां से इस तरह बेशर्मी से बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या किया है, मां? सुबोध और मैं एकदूसरे को प्यार करते हैं और विवाह करना चाहते हैं…साथसाथ फिल्म देखने चले गए तो क्या हो गया?’’

‘‘शर्म नहीं आती, ऐसा कहते? तुम क्या समझती हो कि तुम मनमानी करती रहोगी और हम चुपचाप देखते रहेंगे? आज से तुम्हारा घर से निकलना बंद…बंद करो यह कालेज जाना भी, बहुत हो गई पढ़ाई,’’ शांता ने मानो अपना आज्ञापत्र जारी कर दिया.

प्रांजलि पैर पटकती अपने कमरे में चली गई और स्तंभित शांता वहीं बैठ कर फूटफूट कर रो पड़ी.

Women’s Day: प्यार की जीत: निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

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प्यार की जीत: भाग 3- निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

निशा इस प्रस्ताव के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. वह गहरी सोच में पड़ गई. दिल की बात किसी के साथ बांटने के लिए निशा की कोई करीबी सहेली भी नहीं थी.

निशा रातदिन इस बारे में सोचने लगी. निशा ने सोचा कि अगर उस के पिता ने उस की शादी करवाई तो वे जरूर एक ऐसे लड़के व परिवार को ढूंढ़ निकालेंगे जो औरत को इंसान नहीं मानते. उस से भी नहीं पूछेंगे कि वह लड़का उसे पसंद है या नहीं.

बहुत सोचने के बाद निशा को यह एहसास हुआ कि मन ही मन में वह बिलाल से प्यार करने लगी है. बस, अपने दिल की बात समझ नहीं पाई और बिलाल ने अपने दिल की बात कह कर  उस के अंदर सोए हुए प्यार को जगा दिया. बिलाल एक नेक और अच्छा इंसान है. अच्छे खानदान का है. निशा को ऐसा लगा कि बिलाल से अच्छा पति ढूंढ़ने पर भी कहीं नहीं मिलेगा. काफी कशमकश के बाद निशा ने फैसला लिया कि जिस परिवार ने उसे प्यार और इज्जत नहीं दी उस परिवार के लिए वह अपने प्यार की बलि क्यों चढ़ाए.

निशा ने 15 दिनों के बाद बिलाल से अपने प्यार का इजहार किया. उसी दिन बिलाल उसे अपने घर ले गया.?

बिलाल की गाड़ी एक आलीशान बंगले के सामने आ कर रुक गई. गाड़ी से उतर कर झिझकती हुई निशा अंदर गई.  ‘आजा मेरी बहूरानी’ एक प्यारभरी पुकार सुन कर निशा ने उस तरफ देखा तो वहां एक और मुसकराती हुई औरत खड़ी थी. ‘मेरी अम्मीजान जुबैदा बेगम,’ बिलाल ने कहा और वहां 2 और औरतें खड़ी थीं और उन में से एक औरत को ‘मेरी भाभीजान जीनत और सूट पहने एक लड़की को ‘मेरी छोटी व इकलौती बहन शबनम, कालेज में पढ़ रही है,’ कह कर बिलाल ने सब से परिचय करवाया. निशा ने अपने संस्कार के अनुसार बिलाल की मां के पैर छुए, मगर बिलाल की मां ने निशा को उठा कर अपने सीने से लगाया और कहा, ‘नहीं, मेरी बेटी, तुम्हारी जगह यहां नहीं बल्कि यहां मेरे दिल में है. आ कर यहां आराम से बैठो. डर क्यों रही हो, मैं भी एक मां हूं.’ यह सुनते ही निशा का मनोबल बढ़ गया.

ऐसे में शबनम बोली, ‘अरे, मेरी नई भाभी, आप क्यों इतनी टैंशन में हैं. अपनी टैंशन कम करने के लिए यह ठंडा पानी पीजिए.’ निशा ने भी हंसते हुए उस से पानी का गिलास ले लिया.

इसी दौरान उस घर की बहू जीनत एक प्लेट में कुछ मिठाई और नमकीन ले कर आई, ‘लीजिए, मेरी नई देवरानीजी, इसे खाइए.’

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इतने में बिलाल के बड़े भाई और पापा आ गए. बिलाल ने अपने पिताजी से निशा का परिचय करवाया. उस की आवाज में डर बिलकुल नहीं था. उस ने प्यार और इज्जत के साथ अपने पिताजी से बात की. ‘अब्बूजान, मैं ने आप से कहा था न कि मैं एक लड़की से प्यार करता हूं, यही वह लड़की है निशा.’ बिलाल की बातें सुनते ही पिताजी ने मुसकराते हुए निशा के पास आ कर कहा, ‘हमेशा खुश रहो बेटी.’

बिलाल को अपने पिता से बातें करते हुए देख कर निशा को ऐसा लगा कि बापबेटे नहीं, बल्कि 2 भाई आपस में बातें कर रहे हैं. फिर बिलाल ने अपने भाई को निशा से मिलवाया. अपने भाई से एक दोस्त की तरह पेश आया बिलाल.

बिलाल के परिवार से मिलने के बाद निशा ने फैसला कर लिया कि चाहे जो भी हो बिलाल से शादी करने के अपने फैसले से वह पीछे नहीं हटेगी. अपने पिता से भी उस ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘मैं 21 साल की हूं. अपनी जिंदगी का अहम फैसला लेने की उम्र है मेरी. अगर आप अपने बेटों के साथ मेरे रास्ते में अड़चन डालेंगे तो मजबूरन मुझे कानून की मदद लेनी पड़ेगी. मैं आगे आने वाली किसी भी मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार हूं और मैं अपने फैसले पर अटल हूं.’

निशा की दृढ़ता देख कर सोमनाथ ने भी अपना निर्णय सुनाया, ‘‘मुझे तुम्हारी कोई परवा नहीं. तुम जियो या मरो, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर एक बात कान खोल कर सुन लो, अगर तुम्हारी शादीशुदा जिंदगी में कोई समस्या आए तो मायका समझ कर इस घर में कदम रखने के बारे में सोचना मत. याद रहे, मेरे लिए तुम मर चुकी हो.’’ सोमनाथ ने एक बाप की तरह नहीं, बल्कि किसी दुश्मन की तरह निशा के साथ व्यवहार किया.

बिलाल और निशा की शादी हुए लगभग 2 महीने बीत गए. शादी के दिन निशा ने बिलाल से कहा, ‘‘बिलाल, यह मेरी जिंदगी का बहुत बड़ा फैसला है. अगर कुछ गलती हो जाए तो सिर छिपाने के लिए मेरे पास मेरा मायका भी नहीं है.’’ बिलाल ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘हमारे घर में तुम्हें इतना प्यार मिलेगा कि तुम्हें अपने मायके की याद कभी नहीं आएगी. यह मेरा वादा है तुम से.’’

निशा ने सोचा था कि बिलाल के घर वाले उन दोनों की शादी इसलामिक तौरतरीकों से करेंगे. मगर शादी के 2 दिन पहले ही बिलाल के मां और पापा ने निशा से इस के बारे में बात की. उन्होंने कहा, ‘‘तुम ने मेरे बेटे से प्यार किया है और शादी भी करने वाली हो, इस वजह से तुम्हारे ऊपर हम अपना मजहब नहीं थोपना चाहते. दबाव में पड़ कर एक मजहब को कोई अपना नहीं सकता. इसलिए अब तुम दोनों की कानूनी तौर से कोर्टमैरिज करवा देंगे. तुम हमारे साथ रह कर हमारे मजहब और रीतिरिवाज को जान लो. जब तुम्हारा मन पूरी तरह से इसलाम को कुबूल करना चाहे तब तुम अपना मजहब बदलना.’’ यह सुनते ही निशा को राहत मिली और उस ने अपनी सास को गले लगा लिया.

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उस घर का माहौल निशा को बहुत पसंद आया. निशा को ऐसा लगा कि उस घर के कोनेकोने में प्यार ही प्यार है. कोई भी किसी से बुरा सुलूक नहीं करता और ऊंची आवाज में भी नहीं बोलता था. खासकर, अपनी सास के प्यार से वह फूली न समाई. बिलाल की मां अपनी दोनों बहुओं को अपनी बेटी की तरह प्यार और सम्मान देती थीं.

बिलाल की मां को सिलाई व कढ़ाई में ज्यादा दिलचस्पी थी. वे उस बंगले के बाहर वाले एक बड़े कमरे में अपनी डिजाइनर साडि़यों का बुटीक चला रही थीं. निशा ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था, इसलिए वह भी अपनी सास के साथ साडि़यां तैयार करने लगी और बुटीक में जा कर वहां भी काम संभालने लगी.

एक दिन जब निशा अपनी सास के साथ बुटीक में बैठी थी, उस वक्त एक छोटा सा पत्थर आ कर गिरा. उस पत्थर से बुटीक का एक शीशा टूट गया. सासबहू हैरान हो गईं. इतने में और भी बहुत सारे पत्थर आ कर गिरे. दोनों ने बाहर आ कर देखा तो वहां निशा के दोनों भाई खड़े थे. उन्हें देखते ही निशा को यह आभास हुआ कि यह हरकत इन दोनों की ही है. इस हरकत से निशा को बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई. इस के बाद निशा के दोनों भाई सड़क पर खड़े हो कर बहन को गाली देने लगे.

‘‘यही है वह औरत जिस ने एक मुसलमान से शादी की. बेशरम कहीं की,’’ ऐसा कह कर निशा के भाई निशा का अपमान करने लगे. यह सुन कर निशा शर्म से पानीपानी हो गई. निशा अपना सिर पकड़ कर बैठ गई. निशा इस सोच में पड़ गई कि इस मामले को कैसे सुलझाए.

निशा को पता था कि उस के भाई लखनऊ शहर के बहुत बड़े गुंडे हैं और 2-3 बार जेल की हवा भी खा चुके हैं. उन के पिताजी ने उन्हें जेल से छुड़वाया और जब निशा की मां ने कुछ पूछने की कोशिश की तो सोमनाथ ने बात काट कर, ‘‘तुम औरत हो. यह मामला मर्दों का है और मेरे बेटों ने मर्दों जैसा काम किया है, तुम बीच में मत बोलो,’’ लक्ष्मी को चुप करा दिया.

आज उन दोनों भाइयों ने निशा के ससुराल वालों के सामने आ कर अपनी गुंडागर्दी दिखाई. इतने में 4-5 छोटेछोटे पत्थर और आ कर गिरे और उन में से एक पत्थर निशा की सास के माथे पर लगा और उन्हें चोट लग गई.

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प्यार की जीत: भाग 2- निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

पहले तो सोमनाथ ने निशा को फैशन टैक्नोलौजी की पढ़ाई करने की इजाजत देने से सख्त मना कर दिया. लेकिन लक्ष्मी ने उन से गुजारिश की, ‘कोर्स को खत्म होने में अब सिर्फ एक ही साल बाकी है, उसे बीच में रोकना नहीं. उसे पूरा करने दीजिए, मैं आप के पैर पड़ती हूं.’ बहुत सोचने के बाद आखिरकार सोमनाथ ने निशा को कालेज भेजने के लिए मंजूरी दी.

निशा को यह सब बड़ा अजीब सा लगा. एक तो  पहली बार वह अभी अपनी 21 साल की उम्र में अपने जन्मदाता मांबाप से मिल रही थी, दूसरी बात जिस माहौल में वह बड़ी हुई थी वहां इस तरह औरतें अपने पति के सामने झोली फैला कर नहीं खड़ी होती थीं. दोनों को वहां पर बराबर का सम्मान दिया जाता था.

लक्ष्मी ने भी अपनी बेटी के प्रति अपना प्यार नहीं जताया. उस के मन में एक ही विचार था कि पढ़ाई खत्म होते ही निशा का ब्याह एक ऐसे घर में हो जहां औरतों को इज्जत दी जाए. बेटी की शादी में पिता की उपस्थिति जरूरी है, इसलिए लक्ष्मी अपने पति से अपनी बेटी के बारे में कोई भी बहस नहीं करना चाहती थी और सोमनाथ की हर बात मानती थी.

सोमनाथ की देखादेखी उन के दोनों बेटे भी औरतों की इज्जत नहीं करते थे. दोनों मिल कर अकसर निशा को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते. बचपन से लाड़प्यार और इज्जत से पली निशा को इस माहौल में घुटन होने लगी. उसे इस बात का बहुत अफसोस था कि उस की मां ने भी अपना प्यार जाहिर नहीं किया.

इसी बीच निशा के कालेज में वार्षिक महोत्सव हुआ और तभी पहली बार उस की मुलाकात बिलाल से हुई. उस उत्सव में भाग लेने के लिए कई कालेजों से बहुत सारे छात्र आए हुए थे. निशा एक अच्छी गायिका थी और उस की आवाज में मिठास थी. जिस के कारण उस के कालेज के छात्रों और अध्यापकों ने निशा को गाने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि उन के कालेज को पुरस्कार मिले. निशा ने उस प्रतियोगिता के लिए खूब तैयारी भी की. उस के साथ उस की सहेली गिटार बजाने वाली थी.

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मगर उत्सव के दिन जो लड़की गिटार बजाने वाली थी उस के पिता बीमार हो कर अस्पताल में भरती थे और वह उत्सव में न आ सकी. निशा अब उलझन में पड़ गई. गिटार के बिना निशा का गाना अधूरा होगा और इसी कारण उसे पुरस्कार मिलने की उम्मीद नहीं थी. निशा असमंजस में पड़ गई और रोने लगी. उस की सहेलियां ढाढ़स बंधाने लगीं और उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थीं.

उसी वक्त एक नौजवान वहां आया और उस ने कहा, ‘एक्सक्यूज मी, मैं आप की बातें सुन रहा था और मैं समझ गया हूं कि आप को एक गिटार बजाने वाला चाहिए. अगर आप को कोई एतराज न हो तो क्या मैं आप की मदद कर सकता हूं?’ इसे सुन कर निशा और उस की सहेलियां ताज्जुब से एकदूसरे को देखने लगीं. एक पल के लिए वे सोच में पड़ गईं कि क्या जवाब दें.

निशा और उस की सहेलियों को उस अनजान युवक का प्रस्ताव स्वीकार करने में झिझक हुई. वह किसी और कालेज का छात्र है, फिर वह क्यों अपने कालेज को छोड़ कर हमारे कालेज के लिए गिटार बजाने को तैयार है, ऐसा क्यों? उन के मन में यह डर था कि यह ईव टीजिंग का कोई चक्कर तो नहीं.

उस युवक ने हंसते हुए कहा, ‘मैं एक अच्छा गिटारिस्ट हूं. इसलिए मैं ने सोचा कि मैं आप की मदद करूं, अगर आप बुरा न मानें तो. ज्यादा मत सोचिए, हमारे पास वक्त बहुत कम है.

उस की गंभीरता देख कर निशा और उस की सहेलियां उस लड़के की मदद लेने के लिए तैयार हो गईं. उस लड़के ने तुरंत अपने दोस्त से गिटार ले कर निशा के साथ मिल कर 2 बार रिहर्सल किया. निशा ने देखा कि वह उस के साथ बड़ी तमीज के साथ बातें कर रहा था और बहुत ही मृदुभाषी था. निशा स्पर्धा को ले कर बहुत परेशान थी और इस हड़बड़ी में उस ने उस लड़के का नाम तक नहीं पूछा.

जब उन की बारी आई तो दोनों मंच पर आए. निशा अपनेआप को भूल कर अपने गाने में मंत्रमुग्ध हो गई और उसे पुरस्कार भी मिला. पुरस्कार लेते समय निशा उस लड़के को भी अपने साथ मंच पर ले गई.

विदाई के समय उस लड़के ने निशा को अपना नाम बताया, ‘मेरा नाम बिलाल है. मैं अंगरेजी साहित्य में एमए कर रहा हूं. आप मेरा मोबाइल नंबर सेव कर लीजिए. अगर आप को कोई परेशानी न हो तो हम फोन पर बात कर सकते हैं और दोस्ती को आगे कायम रख सकते हैं.’ निशा ने एक मीठी सी मुसकान के साथ बात कर रहे बिलाल की ओर देखा.

निशा ने पहली बार बिलाल को गौर से देखा. 6 फुट का कद, चौड़े कंधे, गेहुंआ रंग, बड़ीबड़ी आंखें और चौड़ा माथा तथा उस के चेहरे पर छलक रही एक मधुर मुसकान. निशा को लगा कि सच में बिलाल एक आकर्षक युवक है. इस के अलावा लड़कियों के प्रति उस का बरताव निशा को बेहद पसंद आया.

उस घटना के बाद दोनों अकसर फोन पर बातें करते थे. बिलाल की आवाज में भी एक अनोखा जादू था. बड़े अदब से बात करने वाला उस का अंदाज निशा को उस की ओर खींचने लगा. कई बार फोन पर बात होने के बाद दोनों ने एक कौफी शौप में मिलने का फैसला लिया. बिलाल एक बड़ी गाड़ी में आया. फोन पर इतनी बातें करते वक्त कभी अपनी हैसियत के बारे में उस ने कुछ भी नहीं बताया. अब भी बड़ी नम्रता से कहा, ‘वापस जाते

समय आप को मोटरबाइक में छोड़ना अच्छा नहीं लगेगा, इसलिए गाड़ी ले कर आया.’ उस की आवाज में जरा भी घमंड नहीं था.

बिलाल ने अपने परिवार के बारे में सबकुछ बताया. उस ने बताया कि लखनऊ की मशहूर कपड़े की दुकान जमाल ऐंड संस के मालिक हैं उस के पिता और उस की मां घर पर ही बुटीक चलाती हैं जहां वे डिजाइनर साडि़यां तैयार कर उन्हें बेचती हैं. उस के बडे़ भाई पिता के साथ कारोबार संभालते हैं और एक छोटी बहन कालेज में पढ़ती है. यह सुनती रही निशा बिलाल को अपने परिवार के बारे में क्या बताए, सोचने लगी. अपने पिता या अपने भाइयों की झूठी तारीफ करने के बजाय वह चुप रही.

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दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई. एक दिन बिलाल ने कौफी शौप में कौफी पीते समय कहा, ‘निशा, मुझे बातें घुमाना नहीं आता. मैं आप से बेहद प्यार करता हूं और आप से शादी करना चाहता हूं. क्या आप को मेरा प्यार कुबूल है.’ यह बात सुन कर निशा को एक झटका सा लगा, क्योंकि वह बिलाल को दोस्त ही मानती रही और कभी भी उस ने उसे इस नजरिए से नहीं देखा था. इस के अलावा निशा ने सोचा कि दोनों के बीच मजहब की दीवार है और यह शादी कैसे हो सकती है?

‘मैं जानता हूं कि हमारा मजहब अलग है मगर वह हमारे बीच नहीं आ सकता. आप को जल्दबाजी में फैसला लेने की जरूरत नहीं है. आप मेरे बारे में और हमारे रिश्ते के बारे में आराम से ठंडे दिमाग से सोचिए. आप मुझ से शादी न करना चाहें तो भी मैं दोस्ती को बरकरार रखना चाहता हूं.’

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एक और सच: क्या बदल गया था जीतेंद्र

एक आदमी को सुख से जीने के लिए क्या-क्या चाहिए? आदमी का आदमी पर भरोसा, संबंधों में सहानुभूति, एकदूसरे का लिहाज, ठीक से जीने लायक आमदनी, जीवन की सुरक्षा, चैन की सांस ले सकने की आजादी, भयमुक्त वातावरण.

पर लूटमार, चोरीडकैती, हत्या, अपहरण, दंगाफसाद, बलात्कार और छलप्रपंच भरे इस वातावरण में क्या यह सब आम आदमी को नसीब है? लोग सुख से जिएं, इस की किसी को फिक्र है? नेता, जनप्रतिनिधि, अफसर सब के सब अपनेअपने जुगाड़ में जुटे हुए हैं. लोगों को जीने लायक मामूली सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं.

हबड़तबड़ में स्टेशन की तरफ भागती जा रही अमिला यही सब लगातार सोचे जा रही है. गाड़ी न निकल जाए. निकल गई तो गांव के स्कूल तक कैसे पहुंचेगी. अफसर आ रहे हैं. अंबेडकर गांव में खानापूर्ति के लिए रोज अफसरों के दौरे होते रहते हैं. गांव पूरी तरह संतृप्त होना चाहिए. हुं, खाक संतृप्त होगा. कभी राजीव गांधी ने कहा था, सरकार गांवों के लिए 1 रुपया यानी 100 पैसा भेजती है पर वहां तक पहुंचतेपहुंचते वह 10 पैसे ही रह जाते हैं. 90 पैसे बीच की सरकारी मशीन खा जाती है. कैसे विकास हो देश का? पर इस के लिए जिम्मेदार कौन हैं? नेतागण, बिचौलिए, भ्रष्ट नौकरशाही और कहीं न कहीं हमसब.

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अजीब दिमाग होता है आदमी का. हर वक्त सोचविचार, मन में उठापटक, तर्कवितर्क. शहर से दूर इस गांव में तबादला कर दिया गया अमिला का. अफसरों से खूब गिड़गिड़ाई कि सर, बच्चा छोटा है. सास बहुत बूढ़ी हैं. कामकाज नहीं कर पातीं. ससुर को लकवा है. पति दूर के जिले में सरकारी सेवा में हैं. परिवार को देखने वाली मैं अकेली…मुझ पर रहम कीजिए, सर.

लेकिन पैसा ऐंठू, रिश्वतखोरों को कहीं किसी पर रहम आता है? झिड़क दिया अमिला को, ‘हर कोई शहर में रहना चाहता है. उस के लिए एक से एक बहाने. सब को यहीं, शहर में रखेंगे तो गांव में कौन जाएगा पढ़ाने? मैं जाऊं? तबादला न स्वीकार हो तो नौकरी छोड़ दीजिए. हम दूसरी अध्यापिका रख लेंगे. कोई कमी है क्या? सरकारी नौकरी के लिए हर कोई तैयार बैठा रहता है. बी.टी.सी. और बी.एड. वाले रोज धरनाप्रदर्शन कर रहे हैं कि उन्हें नौकरी नहीं दी जा रही, हम उन में से किसी को बुला लेंगे, आप अपना घरपरिवार संभालिए. हमें क्या फर्क पड़ता है?’

सच कह रहे हैं. अफसरों को क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो काम करने वाले कर्मचारी को पड़ता है. तकलीफें तो उन्हें झेलनी पड़ती हैं. परेशान तो वे होते हैं. बाहर निकल आई थी दफ्तर से अमिला.

रामकिशन चपरासी पीछेपीछे खैनी हथेली पर रगड़ता भागाभागा आया था, ‘क्या टीचरजी, आप भी बस…इतने सालों से मास्टरी कर रही हैं और सरकारी अफसरों के कायदे नहीं जान पाईं. अरे, इन से काम कराने का एक ही तरीका है मैडम, इन्हें खुश करिए. और सरकारी देवता सिर्फ 2 प्रकार के भोग से ही खुश होते हैं, कैश या काइंड.’

जमीन में गड़ सी गई अमिला. कैश या काइंड. घर में कैश होता तो प्राइमरी स्कूल की इस अपमान भरी नौकरी में गांवगांव क्यों मारीमारी डोलती…घर- परिवार बरबाद करती…जीवन का जोखिम उठाती…

और काइंड…उस जैसी जवान युवती से ये अफसर और क्या चाहेंगे? सुनीता ने अपना तबादला काइंड से ही रुकवाया था. दबे स्वर में उसी ने अमिला से भी कहा था, ‘कहो तो बात करें?’

‘नहीं,’ स्पष्ट इनकार कर दिया था अमिला ने. सबकुछ मंजूर पर पति के प्रति ईमानदारी की कीमत पर कुछ भी मंजूर नहीं. औरत के पास और ऐसा होता ही क्या है जिस पर वह गर्व कर सके? एक यही तो.

पति सुमेर 2 सप्ताह में 1 दिन को घर आते हैं. बाकी दिन उसी कसबे में किराए के एक कमरे में हाथ से खाना और चाय बनाते हैं. गैस का छोटा चूल्हा ले रखा है. कभीकभार सड़क के ढाबे पर भी खा लेते हैं. सरकारी नौकरी है, छोड़ते भी नहीं बनती. परिवार है पर परिवार के सुख से वंचित.

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‘कुछ करिए न…गांव तक टे्रन से सुबहसुबह जाने में बहुत परेशानी होती है. कभीकभी टे्रन लेट हो जाती है, राजधानी के कारण कहीं बीच के स्टेशन पर रोक दी जाती है. स्कूल लेट पहुंचने पर प्रधान आंखें तरेरता है,’ रात को अमिला ने सुमेर से कहा.

अमिला ने बताया कि कसबे के स्टेशन से 4 किलोमीटर पैदल चल कर गांव पहुंचना पड़ता है. सीधा कोई रास्ता नहीं है. खेतों के बीच से पगडंडी जाती है. खेतों में बाजरा, ज्वार, अरहर, गन्ने की फसलों के बीच से निकलने में बहुत खतरा रहता है. आतेजाते कभी भी बदमाश दबोच कर खेतों में घसीट कर ले जा सकते हैं. कई केस हो चुके हैं. अकसर लड़कियों, युवतियों की लाशें मिलती हैं खेतों में क्षतविक्षत.

आसपास के गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. दबंग लोग अपने घरों में दूरदूर से पकड़ कर लाई गई ‘पकड़ें’ रखते हैं. फिरौती मिल जाए तो छोड़ देते हैं न मिले तो मार कर कुएं में डाल देते हैं. पुलिस ही नहीं, आसपास के सब लोग जानते हैं पर सब का पैसा बंधा हुआ है. गांवों के लोग डर के कारण मुंह नहीं खोलते. नेता, पत्रकार और अफसर उन दबंगों के यहां दावत उड़ाने और ऐश करने आते रहते हैं. वे लोग उन की हर तरह की सेवा करते हैं.

सुन कर सुमेर परेशान जरूर हुए पर कुछ कर सकने में लाचार ही रहे. सोच कर बोले, ‘किसी तरह यह साल तो निकालना ही पड़ेगा, किसी नेता या अफसर से जुगाड़ निकालने की कोशिश करूंगा, शायद अगले साल तक कुछ कर पाऊं.’

‘और तब तक अगर मेरे साथ कुछ घट गया तो?’ अमिला परेशान हो उठी, ‘जब से उस खूनी कुएं के बारे में सुना है, सचमुच बहुत भय लगता है.’

झल्ला पड़े सुमेर, ‘15 दिन बाद घर आता हूं और तुम यही रोना ले कर बैठ जाती हो. ट्रेन से उस गांव जाने वाली तुम कोई अकेली तो हो नहीं. और भी सवारियां उतरती होंगी उस गांव की. सब के संगसाथ आयाजाया करो. ऐसे कौन खा जाएगा तुम्हें?’ कहने को कह तो गए सुमेर पर सोचते भी रहे, कहीं सचमुच अगर अमिला के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया तो? कितनी बदनामी होगी. पर करें तो क्या करें?

टे्रन में बैठी अमिला सारी स्थितियों पर सोचती रही. कुढ़ती और गुस्से से उबलती भी रही. सहसा उसे हेडमास्टर जितेंद्र की बात याद आई, ‘बहुत मत सोचा करो अमिला. यह दुनिया ऐसे ही चलेगी. हमारेतुम्हारे सोचने से कुछ नहीं होगा. मस्त रहा करो.’

जितेंद्र ही हैं जिन से वह अपने मन की बात कह लेती है. अपने भय और आतंक, अपनी आर्थिक परेशानियां, परिवार की कठिनाइयां बोलबता लेती है. पति तो 15 दिन में 1 दिन को आते हैं. उन से क्या कहे वह?

‘‘हम अध्यापकों को इस नौकरी में कितनी जलालत भोगनी पड़ती है. इस के बावजूद अगर हम इसे छोड़ें तो हजार हमारी जगह काम करने को तैयार हैं. इसी का लाभ उठाती है व्यवस्था,’’ जितेंद्रजी बोले, ‘‘हर सरकारी योजना को जनता के बीच पहुंचाना हमारा काम है. पोलियो ड्राप्स इतवार को पिलाइए, ‘स्कूल चलो’ आंदोलन हम चलाएं, ग्रामीणों को स्वच्छता का महत्त्व हम बताएं, वृक्षारोपण हम कराएं, साक्षरता अभियान चलाना हमारी जिम्मेदारी, मिड डे मील हमारी जिम्मेदारी, स्कूल की साफसफाई हमारी जिम्मेदारी, मुफ्त पुस्तकें बंटें हमारी जिम्मेदारी, बच्चे स्कूल न आएं तो घरघर जा कर उन्हें स्कूल में बुला कर लाएं, यह भी हमारा काम.

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गांधी जयंती हो या नेहरू दिवस, बुद्ध जयंती हो या अंबेडकर जयंती, हर मौके पर गण्यमान्य अतिथियों को बुला कर भाषण हमें कराने हैं. उन के चायनाश्ते का प्रबंध करना हमारी जिम्मेदारी, पर पैसा कहां से आए? इस सवाल पर सब एकदूसरे पर टालते हैं. प्रधानजी पैसा नहीं देते. आता है तो अपने पास रख लेते हैं. उन से कौन लड़े? है हम में ताकत? अफसरों से शिकायत करो तो कहते हैं, हम क्या जानें, वह आप की समस्या है, आप जानिए.’’

सहसा रुक कर हेडमास्टर जितेंद्र फिर बोले, ‘‘अब बड़ेबड़े शिक्षाधिकारी इस अंबेडकर गांव में आ रहे हैं. हर तरह गांव संतृप्त हुआ या नहीं, इस का मुआयना करने…हम ने शिक्षा अधिकारी से जा कर कहा, ‘सर, प्रधानजी न तो इमारत की मरम्मत का पैसा दे रहे हैं न रंगाईपुताई के लिए. बच्चों को पीने के पानी तक की कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही. स्कूल में श्यामपट्ट तक नहीं है. लिखने के लिए चौक या खडि़या मिट्टी तक नहीं मिलती. स्कूल के दरवाजे लोग उखाड़ कर ले गए हैं. आवारा जानवर रात को स्कूल में घुस कर बैठते हैं. उन का गोबर हमें पहले साफ करना पड़ता है तब स्कूल चल पाता है, इस पर बच्चों के मांबाप एतराज करते हैं, कहते हैं. बच्चे सफाई नहीं करेंगे…हमें चपरासी मिलता नहीं है. कौन करे यह सब…’

‘‘जानती हो शहर के अफसर ने क्या कहा? बोले, ‘आप लोग जो वेतन पाते हैं वह किसलिए? उस में से करिए आप लोग. हम तो पैसा प्रधान को देते हैं, उस से मिलबैठ कर आप किसी तरह यह सब कराइए… और हां, मिड डे मील पर जरूर ध्यान दीजिए. किसी बच्चे ने शिकायत की तो समझ लीजिए…’ ’’

‘‘लेकिन सर, मिड डे मील तो हम हफ्ते में 1-2 दिन ही दे पाते हैं. प्रधान न सामग्री देते हैं न जलावन के लिए कुछ. न बर्तन देते हैं. क्या करें?

‘‘अफसर कहते हैं, हम कुछ नहीं जानते, हमें सबकुछ चाकचौबंद मिलना चाहिए.’’

जितेंद्र ने गुस्से से कहा, ‘‘आने दीजिए इस बार. सब कह देंगे बड़े अफसरों से. फिर जो होगा, देखा जाएगा,’’ उन का चेहरा क्रोध से तमतमा गया था.

‘‘नहीं, जितेंद्रजी, ऐसा हरगिज मत करिएगा,’’ अमिला घबरा गई थी. कुछ सोच कर बोली थी, ‘‘आप अपने गांव से उस गांव तक मोटरसाइकिल पर आते हैं. रास्ते में वह खूनी कुआं पड़ता है. आसपास के सारे गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. आप को वह जालिम प्रधान कभी भी रास्ते में पकड़वा लेगा. आप को कुछ हो गया तो मैं इस गांव में किस के भरोसे नौकरी कर पाऊंगी? प्रधानजी की कैसी नजरें मुझे घूरती हैं, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. किसी भी दिन अनहोनी घट सकती है.’’

‘‘सब की ऐसी की तैसी,’’ जितेंद्रजी ने दिलासा दी, ‘‘अपने गांव में मेरी भी कुछ इज्जत है. अगर तुम पर जरा भी कोई आंच आई तो सैकड़ों लोगों को अपने गांव से ला कर यहां बवाल मचवा दूंगा.’’

‘‘उस सब की नौबत ही क्यों आने दी जाए? अक्ल से काम लें हम लोग,’’ अमिला ने कहा.

‘‘अक्ल से क्या काम लें, बताओ? प्रधानजी के पास मिड डे का अनाज और सामग्री आती है. वह हमें बहुत कम देते हैं. मीनू के अनुसार एक दिन भी हम बच्चों को नहीं खिला पाते. स्कूल की मरम्मत के लिए पैसा आया, प्रधान ने हड़प लिया. न गिरती इमारत की मरम्मत हो सकी, न दरवाजेखिड़कियां लग सकीं और न रंगाईपुताई हो सकी. यहां तक कि बच्चों के लिए मुफ्त बांटने को जो किताबें आईं वे तक गांव की स्टेशनरी की दुकान पर बेच दी गईं.

‘‘हेडमास्टर का एकमात्र कमरा है. उस में प्रधान ने अपने जानवरों का भूसा भरवा दिया है. पाठशाला एक प्रकार से पशुशाला बन गई है. शिकायत नहीं करेंगे तो अफसर चेतेंगे कैसे? सारा दोष हम पर मढ़ दिया जाएगा कि हम नकारा हैं और पैसा खा गए. सरकारी अफसर किसी को नहीं नापेंगे…हम मास्टरों को नाप देंगे… सस्पेंड तो करेंगे ही, संभव है नौकरी से निकाल बाहर करें. शिकायत के अलावा और कौन सा रास्ता है?’’

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अमिला को लगा, जितेंद्रजी कहते तो सच हैं पर सच का नतीजा वह भी जानते हैं और अमिला भी. जिस प्रधान के खिलाफ गांव में कोई चुनाव लड़ने तक की हिम्मत नहीं करता, जिस के पास हथियारबंद लोगों की पूरी फौज रहती है, जो आसपास के इलाके में कुख्यात है, जिस की चारों तरफ तूती बोलती है, जिस के खिलाफ कोई जबान तक नहीं खोलता, जिस के पास अफसर और नेताओं का जमावड़ा लगा रहता है, दावतें उड़ती रहती हैं, आसपास की लड़कियों को ला कर रात को ऐश और जश्न होते हैं, उस दबंग के खिलाफ अमिला या जितेंद्र जैसे मामूली लोगों की क्या हैसियत है कि वे कुछ कह पाएं. पर यह भी सच है कि यह अंबेडकर गांव है और सरकारी आदेश है कि गांव हर तरह से संतृप्त होना चाहिए. अफसर मुआयने पर आ रहे हैं. क्या हो?

स्कूल की सफाई और रंगाईपुताई जितेंद्रजी को अपने पैसे से करानी पड़ी. खाद और बीज का जो पैसा घर पर रखा था, उसे लगाना पड़ा. अमिला ने कहा, ‘‘सर, पूरे खर्चे का हिसाब लगाइए, कुछ मैं भी करूं, यह सिर्फ आप की ही जिम्मेदारी क्यों हो?’’

‘‘तुम रहने दो, अमिला. मुझे तुम्हारी हालत अच्छी तरह पता है,’’ जितेंद्रजी मुसकराए, ‘‘कुछ भी हो, मैं इस बार अफसरों के आने पर पूरी स्थिति सब के सामने रख दूंगा, फिर चाहे मुझे नौकरी से ही हाथ क्यों न धोना पड़े,’’ उन की आवाज में जो दृढ़ता थी, उस से अमिला सचमुच सहम गई थी. अगर उन्होंने ऐसा किया तो नतीजे की वह कल्पना कर सकती थी.

दबी जबान बोली, ‘‘अच्छी तरह सोच लीजिए…आएदिन प्रधानजी और गांव के छुटभैए नेता बेकसूर लोगों को सब के सामने बेइज्जत करते रहते हैं. हम लोगों की बेइज्जती करते उन्हें क्या देर लगेगी?’’

‘‘जो होगा, देखा जाएगा, पर सहने की भी एक सीमा होती है, अमिला. हम कहां तक सहें? इस का प्रतिकार किसी न किसी को, एक न एक दिन करना ही पड़ेगा. फिर हम ही क्यों न करें? और इसी मौके पर क्यों न करें? रोजरोज मरने से एक दिन मरना ज्यादा अच्छा है, अमिला. हमें हिम्मत से काम लेना चाहिए.’’

‘‘जिस हिम्मत का परिणाम हमें पहले से पता हो उसे दिखाने का क्या औचित्य है जितेंद्रजी?’’ अमिला ने कहा जरूर पर जितेंद्र अपने गुस्से को भीतर ही भीतर दबाते रहने का प्रयत्न करते रहे.

सफाई का प्रबंध, बच्चों के वस्त्रों की स्थिति, मिड डे मील, पीने के पानी की व्यवस्था, इमारत का रखरखाव, बच्चों की पढ़ाईलिखाई का स्तर सब की जांचपड़ताल की जाने लगी. बाहर से आए अफसर बिगड़ गए, ‘‘बहुत बुरी स्थिति है. आप लोग करते क्या रहते हैं?’’

जवाब में जितेंद्रजी ने सब के बीच सबकुछ कह दिया. अंत में उन्हीं लोगों से पूछा, ‘‘आप ही बताइए, इन स्थितियों में हम लोग क्या करें?’’

एक सहायक शिक्षाधिकारी तमक कर आगे बढ़ आए, ‘‘बहाने मत बनाइए मास्टर साहब, हम लोग सब जानते हैं, आप लोग क्या गुलगपाड़ा करते रहते हैं. स्कूल आते नहीं. अपने खेतों पर काम करते या करवाते रहते हैं. शिक्षामित्रों से काम चलाऊ पढ़ाई कराते रहते हैं या अपनी एवज में 500-700 रुपए में अध्यापक रख लेते हैं और उस से बच्चों को यह अधकचरा पढ़वाते रहे हैं. हमें सारी खबर रहती है आप लोगों की. प्रधानजी हमें एकएक खबर, एकएक सूचना लिख कर देते रहते हैं.’’

कुछ देर बाद जितेंद्रजी को भीतर अकेले में बुला लिया गया. प्रधानजी मुसकराए, ‘‘रात को गांव में अधिकारी यहां मौजमस्ती और खानेपीने के लिए रुकेंगे. अपनी मास्टरनी से कहो, उन की सेवा में रहे रात को.’’

‘‘नहीं, अमिलाजी नहीं रुक सकेंगी यहां, सर…’’ जितेंद्र ने बारीबारी हर किसी चेहरे की तरफ देखा, ‘‘उन का बच्चा छोटा है और घर पर बूढ़ी सास उस बच्चे को नहीं संभाल सकतीं. पति बाहर दूसरे शहर में रहते हैं.’’

‘‘हम कुछ नहीं सुनना चाहते,’’ प्रधानजी गरजे, ‘‘अगर उसे नौकरी करनी है तो रात को हमारे इन अफसरों और मेहमानों की सेवा के लिए रुकना ही पड़ेगा. तुम अकेले उस का स्वाद चखते रहे हो…हम लोगों को भी उस का मजा लेने दो.’’

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पता नहीं जितेंद्र को अचानक क्या हो गया. एक झन्नाटेदार चांटा जड़ दिया प्रधान के चेहरे पर. बस, फिर क्या था. जितेंद्र पर तमाम लोग एकदम टूट पड़े. उन्हें मारतेपीटते बाहर चबूतरे तक ले आए. वहां स्कूल के सारे बच्चे मौजूद थे. अमिला बुरी तरह घबरा गई. वे लोग लगातार लातघूंसे, थप्पड़मुक्के और जूतों से जितेंद्र की पिटाई कर रहे थे. अमिला तो एकदम हतबुद्ध. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि भीतर ऐसा क्या हुआ जो यह नौबत आ गई.

सारे बच्चों के बीच उन लोगों ने जितेंद्र को मुरगा बना दिया. एक दबंग ने पीछे से ऐसी लात मारी कि वह मुंह के बल गिर पड़े.

कुछ ही देर में अफसरों और नेताओं की गाडि़यां चली गईं. अमिला जितेंद्र के पास बैठी सिसकती रही.

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प्यार की जीत: भाग 1- निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

‘‘मैं बिलाल से बेइंतहा मोहब्बत करती हूं. चाहे कुछ भी हो जाए मैं उसी से शादी करूंगी. आप मुझे कुछ भी कर के रोक नहीं सकते. मेरे जन्म से आज तक इन 21 सालों में आप ने सिर उठा कर भी मेरी ओर नहीं देखा क्योंकि मैं एक बेटी हूं. ऐसे में आप अब क्यों मेरी जिंदगी में दखल दे रहे हैं? यह मेरी जिंदगी है. अगर इस मामले में भी मैं आप की बात सुनूंगी तो मेरी पूरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं इसे बरदाश्त नहीं कर सकती हूं. गलत क्या है और सही क्या है, यह मैं जानती हूं. इस के अलावा मैं अब नाबालिग नहीं हूं. अपना जीवनसाथी  चुनने का अधिकार है मुझे.’’ अपने समक्ष खड़ी अपनी बेटी निशा की बातें सुन कर सोमनाथ आश्चर्यचकित रह गए.

सोमनाथ को यकीन ही नहीं हो रहा था कि जो उन के सामने बोल रही है वह उन की बेटी निशा है. निशा ने इस घर में आए इन 2 सालों में अपने पिता के सामने कभी इतनी हिम्मत से बात नहीं की.

निशा को अपने पिता से इस तरह बात करते हुए देख कर उस की मां लक्ष्मी भी हैरान थी. उसे भी निशा के इस नए रूप को देख कर यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह उस की बेटी निशा ही है. अगर एक सलवारकमीज खरीदनी होती तो भी वह अपने पापा से पूछने के लिए घबराती. अपनी मां के पास आ कर ‘मां, आप ही पापा से पूछिए और खरीद दीजिए न प्लीज, प्लीज मां’ बोलने वाली निशा आज अपने पापा के सामने अचानक शेरनी कैसे बन गई? अपने पापा के सामने इस तरह खड़े हो कर बेधड़क बातें कर रही निशा को देख कर लक्ष्मी सन्न रह गई.

उस से भी बड़ी हैरानी की बात यह है कि निशा का यह कहना कि वह एक मुसलमान युवक से प्यार करती है और उसी से शादी भी करना चाहती है. इस प्रस्ताव को सोमनाथ के सामने रखने के लिए भी हिम्मत चाहिए, क्योंकि सोमनाथ एक कट्टर हिंदू हैं. उन के सामने उन की बेटी कह रही है कि वह एक मुसलमान युवक से शादी करना चाहती है. लक्ष्मी ने मन में सोचा कि जो भी हो, निशा की हिम्मत की दाद देनी चाहिए.

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एक कड़वा सच यह है कि लक्ष्मी कभी अपने पति के सामने ऐसी बातें नहीं कर सकती थी. शादी हुए इन 30 सालों में लक्ष्मी ने पति के सामने कभी अपनी राय जाहिर नहीं की. उन के परिवार की प्रथा है कि औरतों को आजादी न दी जाए. उन का मानना है कि स्त्री का दर्जा हमेशा पुरुष से कम होता है.

मगर लक्ष्मी के मायके की बात अलग थी. लक्ष्मी के पिता ने उसे एक महारानी की तरह पालपोस कर बड़ा किया. उस के पिता की 3 बेटियां थीं और वे इस से बहुत खुश थे. वे अपनी लड़कियों को घर की महालक्ष्मी मानते थे और उन्हें भरपूर स्नेह व इज्जत देते. उन्हें अपनी तीनों बेटियों पर गरूर था खासकर अपनी बड़ी बेटी लक्ष्मी पर. लक्ष्मी की बातों को वे सिरआंखों पर रखते थे. लक्ष्मी की ख्वाहिश का मान करते हुए उन्होंने उसे अंगरेजी साहित्य में बीए करने की इजाजत दी.

लक्ष्मी के पिता ने अपनी बेटी की शादी के मामले में एक गलत फैसला ले लिया. सोमनाथ के परिवार के बारे में अच्छी तरह पूछताछ किए बगैर उस परिवार की शानोशौकत को देख कर अपनी बेटी की शादी सोमनाथ से करवाई. शादी के दूसरे दिन ही लक्ष्मी को ससुराल में एक झटका सा लगा. लक्ष्मी को अंगरेजी अखबार पढ़ते देख कर उस के ससुर ने उसे फटकारा, ‘इस तरह सुबह अंगरेजी अखबार पढ़ना एक बहू को शोभा देता है क्या? तुम्हारी मां ने तुम्हें यही सिखाया है क्या? मर्दों की तरह औरतों का अखबार पढ़ना अच्छे संस्कार नहीं हैं. दुनिया के बारे में जान कर तुम क्या करोगी? तुम्हारा काम है रसोई में खाना पकाना और बच्चे पैदा कर के उन का पालनपोषण करना, समझी तुम?’ ससुरजी की बातें सुन कर लक्ष्मी को ताज्जुब हुआ.

ससुराल में आए कुछ ही दिनों में लक्ष्मी को पता चल गया कि औरतों को मर्दों का गुलाम बना कर रहना ही इस घर की परंपरा है. न चाहते हुए भी लक्ष्मी ने अपनेआप को बदलने की कोशिश की.

समय आया जब लक्ष्मी अपने पहले बच्चे की मां बनने वाली थी. जब डाक्टर ने यह खबर सुनाई तो लक्ष्मी बेहद खुश हुई. उस ने खुशी से अपने पति सोमनाथ को यह समाचार सुनाया तो उन्होंने कहा, ‘‘सुनो, अगर लड़का पैदा हुआ तो उसे ले कर इस घर में आना. लड़की पैदा हुई तो उसे अपने मायके में छोड़ कर आना, समझी. खानदान को आगे बढ़ाने के लिए मुझे लड़का ही चाहिए.’’ यह सुनते ही लक्ष्मी सन्न रह गई. वह सोच भी नहीं सकती थी कि कोई आदमी अपनी पहली संतान के बारे में ऐसा भी सोच सकता है.

बहरहाल, लक्ष्मी ने एक लड़के को जन्म दिया और उस के बाद लक्ष्मी की इज्जत उस घर में बढ़ गई. इस का कारण यह था कि लक्ष्मी की दोनों जेठानियां अपनी पहली संतान लड़की होने केकारण उन्हें अपने मायकों में ही छोड़ कर आईर् थीं. लक्ष्मी के ससुर ने उसे एक कीमती गहना तोहफे में दिया. उस के 2 वर्षों बाद जब लक्ष्मी का दूसरा लड़का पैदा हुआ तब से सोमनाथ अपना सीना चौड़ा करते हुए घूमते थे.

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लक्ष्मी के कई बार मना करने के बावजूद उस के दोनों बेटों संदीप और सुदीप को उस के पति और ससुर ने लाड़प्यार दे कर बिगाड़ दिया. अगर लक्ष्मी बीच में बोले तो, ‘ये दोनों लड़के हैं, शेर हैं मेरे बच्चे. उन्हें पढ़ने की कोई जरूरत नहीं. कुछ भी कर के जिंदगी में सफल हो जाएंगे,’ कह कर लक्ष्मी के दोनों बेटों को पूरी तरह बिगाड़ दिया सोमनाथ ने. लक्ष्मी बेबस हो कर देखती रह गई.

इतने में लक्ष्मी तीसरी बार गर्भवती हुई. सोमनाथ तो बड़े गरूर से कहता रहा, ‘यह भी बेटा ही होगा.’ सोमनाथ की इस बेवकूफी को देख कर लक्ष्मी को समझ में ही नहीं आया कि वह रोए या हंसे.

मगर इस बार लक्ष्मी के एक खूबसूरत बेटी पैदा हुई. लक्ष्मी ने अपनी नन्ही सी परी को अपने सीने से लगा लिया. जब सोमनाथ को यह खबर मिली कि लक्ष्मी ने एक लड़की को जन्म दिया है तो वे गुस्से से पागल हो गए. बच्ची को देखने के लिए भी नहीं आए और ऊपर से उन्होंने चिट्ठी लिखी कि घर वापस आते समय बेटी को मायके में छोड़ कर आना. अगर वहां भी बच्ची को पालना नहीं चाहें तो उसे किसी अनाथ आश्रम में दाखिल करवा देना.

लक्ष्मी अपनी बच्ची को अपनी छोटी बहन के हवाले कर अपने पति के घर वापस आ गई. लक्ष्मी की बहन के 2 बेटे थे, इसलिए उस ने खुशीखुशी लक्ष्मी की बेटी की परवरिश करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. लक्ष्मी की छोटी बहन ने उस प्यारी सी बच्ची का नाम निशा रखा.

लक्ष्मी के बेटे संदीप और सुदीप दोनों अव्वल नंबर के निकम्मे, बदतमीज और बदचलन बने. 10वीं कक्षा में दोनों फेल हो गए और लफंगों की तरह इधरउधर घूमने लगे. लाख कोशिशों के बावजूद लक्ष्मी अपने बेटों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाई. संदीप और सुदीप दोनों गैरकानूनी काम कर के 2 बार जेल भी जा चुके थे.

लक्ष्मी ने अपनी बहन की चिट्ठी से यह जान लिया कि निशा पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहती है और अच्छे संस्कारों से आगे बढ़ रही है. लक्ष्मी को इतनी कठिनाइयों के बीच इसी समाचार ने खुश रखा. मगर वह खुशी बहुत दिनों तक नहीं टिकी. लक्ष्मी की छोटी बहन, जिसे कोई बीमारी नहीं थी, अचानक दिल का दौरा पड़ा और 4 दिन अस्पताल में रहने के बाद चल बसी. उस के पति ने सोचा कि एक 21 साल की लड़की को बिन मां के पालना खुद से नहीं होगा, इसलिए निशा को लक्ष्मी के पास छोड़ने का फैसला लिया. उस वक्त निशा फैशन टैक्नोलौजी का कोर्स कर रही थी और वह अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी.

आगे पढ़ें- निशा को यह सब बड़ा अजीब सा लगा….

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