एक मोड़ पर: जया की जिंदगी में क्या बदल गया था

दुकान से घर लौटते हुए वह अचानक ही उदास हो उठता है. एक अजीब तरह की वितृष्णा उस के भीतर पैदा होने लगती है. वह सोचने लगता है, घर लौट कर भी क्या करूंगा? वहां कौन है जो मुझे प्यार दे सके, अपनत्व दे सके, मेरी थकान मिटा सके, मेरी चिंताओं का सहभागी बन सके? पत्नी है, मगर उस के पास शिकायतों का कभी न खत्म होने वाला लंबा सिलसिला है. न वह हंसना जानती है न मुसकरा कर पति का स्वागत करना.

वह जब भी दुकान से घर लौटता है, जया का क्रोध से बिफरा और घृणा से विकृत चेहरा ही उसे देखने को मिलता है. जब वह खाने बैठता है तभी जया अपनी शिकायतों का पिटारा खोल कर बैठ जाती है. कभी मां की शिकायतें तो कभी अपने अभावों की. शिकायतें और शिकायतें, खाना तक हराम कर देती है वह. जब वह दुकान से घर लौटता है तब उस के दिल में हमेशा यही हसरत रहती है कि घर लौट कर आराम करे, थकी हुई देह और व्याकुल दिमाग को ताजगी दे, जया मुसकरा कर उस से बातें करे, उस के सुखदुख में हिस्सेदार बने. मगर यह सब सुख जैसे किसी ने उस से छीन लिया है. पूरा घर ही उसे खराब लगता है.

घर के हर शख्स के पास अपनीअपनी शिकायतें हैं, अपनाअपना रोना है. सब जैसे उसी को निचोड़ डालना चाहते हैं. किसी को भी उस की परवा नहीं है. कोई भी यह सोचना नहीं चाहता कि उस की भी कुछ समस्याएं हैं, उस की भी कुछ इच्छाएं हैं. दिनभर दुकान में ग्राहकों से माथापच्ची करतेकरते उस का दिमाग थक जाता है. उसे जिंदगी नीरस लगने लगती है. मगर घर में कोई भी ऐसा नहीं था जो उस की नीरसता को खत्म कर, उस में आने वाले कल के लिए स्फूर्ति भर सके. जया को शिकायत है कि वह मां का पक्ष लेता है, मां को शिकायत है कि वह पत्नी का पिछलग्गू बन गया है. लेकिन वह जानता है कि वह हमेशा सचाई का पक्ष ही लेता है, सचाई का पक्ष ले कर किसी के पक्ष या विपक्ष में कोई निर्णय लेना क्या गलत है? जया या मां क्यों चाहती हैं कि वह उन्हीं का पक्ष ले? वे दोनों उसे समझने की कोशिश क्यों नहीं करतीं? वह समझ नहीं पाता कि ये औरतें क्यों छोटीछोटी बातों के लिए लड़तीझगड़ती रहती हैं, चैन से उसे जीने क्यों नहीं देतीं?

उसे याद है शादी के प्रारंभिक दिनों में सबकुछ ठीकठाक था. जया हमेशा हंसतीमुसकराती रहती थी. घर के कामकाज में भी उसे कितना सुख मिलता था. मां का हाथ बंटाते हुए वह कितना आनंद महसूस करती थी. देवरननदों से वह बड़े स्नेह से पेश आती थी. मगर कुछ समय से उस का स्वभाव कितना बदल गया है. बातबात पर क्रोध से भर जाती है. घर के कामकाज में भी हाथ बंटाना उस ने बंद कर दिया है. मां से सहयोग करने के बजाय हमेशा उस से लड़तीझगड़ती रहती है. किसी के साथ भी जया का सुलूक ठीक नहीं रहा है. समझ नहीं आता कि आखिर जया को अचानक हो क्या गया है…इतनी बदल क्यों गई है? उस के इस प्रकार ईर्ष्यालु और झगड़ालू बन जाने का क्या कारण है? किस ने उस के कान भरे कि इस घर को युद्ध का मैदान बना डाला है?

अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि जया अलग से घर बसाने के लिए हठ करने लगी है. अपनी मांग मनवाने के लिए वह तमाम तरह के हथियार और हथकंडे इस्तेमाल करने लगी है. वह जब भी खाना खाने बैठता है, उस के साथ आ कर वह बैठ जाती है. लगातार भुनभुनाती, बड़बड़ाती रहती है. कभीकभी रोनेसिसकने भी लगती है. शायद इस सब का एक ही उद्देश्य होता है, वह साफसाफ जतला देना चाहती है कि अब वह मां के साथ नहीं रह सकती, उसे अलग घर चाहिए.

उसे हैरानी है कि आखिर जया एकाएक अलग घर बसाने की जिद क्यों करने लगी है. यहां उसे क्या तकलीफ है? वह सोचती क्यों नहीं कि उन के अलग हो जाने से यह घर कैसे चलेगा? मां का क्या होगा? छोटे भाईबहनों का क्या होगा? कौन उन्हें पढ़ाएगालिखाएगा? कौन उन की शादी करेगा? पिताजी की मौत के बाद इस घर की जिम्मेदारी उसी पर तो है. वही तो सब का अभिभावक है. छोटे भाई अभी इतने समर्थ नहीं हैं कि उन के भरोसे घर छोड़ सके. अभी तो इन सब की जिम्मेदारी भी उस के कंधों पर ही है. वह कैसे अलग हो सकता है? जया को उस ने हमेशा समझाने की कोशिश की है. मगर जया समझना ही नहीं चाहती. जिद्दी बच्चे की तरह अपनी जिद पर अड़ी हुई है. वह चाहता है इस मामले में वह जया की उपेक्षा कर दे. वह उस की बात पर गौर तक करना नहीं चाहता. मगर वह क्या करे, जया उस के सामने बैठ कर रोनेबुड़बुड़ाने लगती है. वह उस का रोनाधोना सुन कर परेशान हो उठता है.

तब उस का मन करता है कि वह खाने की थाली उठा कर फेंक दे. जया को उस की बदतमीजी का मजा चखा दे या घर से कहीं बाहर भाग जाए, फिर कभी लौट कर न आए. आखिर यह घर है या पागलखाना जहां एक पल चैन नहीं?

इच्छा न होते भी वह घर लौट आता है. आखिर जाए भी कहां? जिम्मेदारियों से भाग भी तो नहीं सकता. उसे देखते ही जया मुंह फुला कर अपने कमरे में चली जाती है. अब उस का स्वागत करने का यही तो तरीका बन गया है. वह जानता है कि अब जया अपने कमरे से बाहर नहीं आएगी. इसलिए वह अपनेआप ही बालटी में पानी भरता है. अपनेआप ही कपड़े उठा कर गुसलखाने में चला जाता है. नहा कर वह अपने कमरे में चला जाता है. जया तब भी मुंह फुलाए बैठी रहती है. उसे उबकाई सी आने लगती है. क्या पत्नी इसी को कहते हैं? क्या गृहस्थी का सुख इसी का नाम है. वह जया से खाना लाने के लिए कहता है. वह अनमने मन से ठंडा खाना उठा लाती है. खाना देख कर उसे गुस्सा आने लगता है, फिर भी वह खाने लगता है.

जया उस के पास ही बैठ जाती है. फिर एकाएक कहती है, ‘‘मैं पूछती हूं, आखिर मुझे कब तक इसी तरह जलना होगा? कब तक मुझे मां की गालियां सुननी होंगी? कब तक देवरननदों के नखरे उठाने पड़ेंगे?’’

रोटी का कौर उस के मुंह में ही अटक जाता है. उस का मन जया के प्रति घोर नफरत से भर जाता है. वह क्रोधभरे स्वर में कहता है, ‘‘आखिर तुम्हें कब अक्ल आएगी, जया? तुम मेरा खून करने पर क्यों तुली हुई हो? कभी थोड़ाबहुत कुछ सोच भी लिया करो. कम से कम खाना तो आराम से खा लेने दिया करो. यदि तुम्हें कोई शिकायत है तो खाना खाने के बाद भी तो कह सकती हो. क्या यह जरूरी है कि जब भी मैं खाने बैठूं, तुम अपनी शिकायतें ले कर बैठ जाओ? प्यार की कोई बात करना तो दूर, हमेशा जलीकटी बातें ही करती रहती हो.’’ हमेशा की तरह जया रोने लगती है, ‘‘हां, मैं तो आप की दुश्मन हूं. आप का खून करना चाहती हूं. मैं तो आप की कुछ लगती ही नहीं हूं.’’

‘‘देखो जया, मैं मां से अलग नहीं हो सकता. इस घर के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं उन से भाग नहीं सकता. तुम्हारे लिए अच्छा यही है कि तुम मां के साथ निभाना सीखो. अलग होने की जिद छोड़ दो.’’

‘‘नहीं,’’ वह रोतेरोते ही कहती है, ‘‘मैं नहीं निभा सकती. मुझ से मां की गालियां नहीं सही जातीं.’’

वह जानता है कि गालीगलौच करने की आदत मां की नहीं है. चूंकि जया अलग होना चाहती है, इसलिए हमेशा मां के खिलाफ बातें बनाती है. उसे समझाना बेकार है. वह समझना ही नहीं चाहती. उस के दिमाग में तो बस एक ही बात बैठी हुई है- अलग होने की. दुखी और परेशान हो कर वह खाना बीच में ही छोड़ कर उठ खड़ा होता है. घर से बाहर आ कर वह सड़कों पर घूमने लगता है. अपने दुख को हलका करने का प्रयास करता है. सोचता रहता है, यही जया कभी उस की मां से कितना स्नेह करती थी. आज उसे किस ने भड़का दिया है? किस ने उसे सलाह दी है अलग हो जाने की? कौन हो सकता है वह धूर्त इंसान? उसे ध्यान आता है जब से सुनयना इस घर में आने लगी है तभी से जया के तेवर भी बदलते जा रहे हैं. सुनयना जया की मौसेरी बहन है. वह अकसर घर में आती है. दोनों बहनें अलग कमरे में बैठी देर तक बातें करती रहती हैं. पता नहीं वे क्याक्या खुसुरफुसुर करती रहती हैं.

सुनयना के पति विनोद को भी वह जानता है. विनोद बीमा विभाग में क्लर्क है. सुनयना और विनोद के बीच हमेशा खटपट रहती है. दोनों के बीच कभी नहीं बनती, किसी न किसी बात पर दोनों झगड़ते रहते हैं. विनोद की आदत लड़नेझगड़ने की नहीं है. मगर सुनयना उसे चैन से जीने नहीं देती. वह बहुत झगड़ालू और ईर्ष्यालु औरत है. तरहतरह के इलजाम लगा कर वह विनोद को लांछित करती रहती है. रोजरोज के इन्हीं झगड़ों से तंग आ कर विनोद अकसर घर नहीं आता. होटल में खाना खा लेता है और कहीं भी जा कर सो जाता है. घर और पत्नी के होते हुए भी वह बेघर इंसान की जिंदगी जी रहा है. विनोद की मां या भाई उसे मना कर वापस घर ले आते हैं, सुनयना के साथ उस का समझौता करा देते हैं. कुछ दिन तो सब ठीकठाक रहता है, मगर थोड़े ही दिनों में सुनयना फिर अपनी असलियत पर उतर आती है और वह फिर घर छोड़ने के लिए विवश हो जाता है. वही सुनयना अब उस के घर को भी तबाह करने पर तुली हुई है. कुछ लोग अत्यंत नीच प्रकृति के होते हैं. वे न तो स्वयं सुखी रहते हैं और न किसी दूसरे को सुखी रहने देना चाहते हैं. दूसरों के घर उजाड़ना उन की आदत हो जाती है. सुनयना भी ऐसी ही औरत है. अपना घर तो वह उजाड़ ही चुकी है, अब इस घर को तबाह करने पर तुली हुई है.

सुनयना से उसे हमेशा ही नफरत रही है. वह उस से कभी बात तक नहीं करता. वह सोचा करता है जो औरत अपने पति के साथ निभा न सकी, जिस ने अपने हाथों से अपना घर बरबाद कर लिया, जो अपने अच्छेभले पति पर लांछन लगाने से बाज नहीं आती, वह किसी दूसरे की हितचिंतक कैसे हो सकती है? जिस का अपना पति होटलों में खाता है, जिस के व्यवहार से दुखी हो कर उस का पति घर भी लौटना नहीं चाहता, ऐसी औरत किसी दूसरे के घर का सुख कैसे बरदाश्त कर सकती है?

सुनयना जब भी इस घर में आती है वह उस की उपेक्षा कर देता है. जया जरूर उस से घंटों बतियाती रहती है. शायद इसीलिए इस घर की रगों में उस जहरीली नागिन का जहर फैलता जा रहा है, इस घर की शांत और सुखी जिंदगी तबाह होती जा रही है. लेकिन सुनयना पर इलजाम लगाने से पूर्व वह पूरी तरह इतमीनान कर लेना चाहता था कि इस स्थिति के लिए वाकई वही जिम्मेदार है. अगर वही इस सब की जड़ में है तो उसे काटना ही होगा. उस की काली करतूत का मजा उसे चखाना ही होगा. इस सांप के फन को यहीं कुचल देना होगा. काफी रात गए तक वह सड़कों पर घूमता रहा. फिर वापस लौट आया इस निर्णय के साथ कि वह सही स्थिति का पता लगा कर रहेगा, असली अपराधी को दंडित कर के रहेगा.

अगले दिन सुबहसुबह ही सुनयना आ धमकी. चेहरे पर झलकती वही कुटिल मुसकान और आंखों में वही कमीनापन. उसे देखते ही वह क्रोध से भर गया. उस ने सोच लिया कि आज फैसला कर के ही रहेगा. सुनयना और जया हमेशा की तरह अलग कमरे में बैठ गईं. दोनों के बीच खुसुरफुसुर होने लगी. वह दरवाजे के पास खड़ा हो कर दोनों की बातें सुनने लगा. सुनयना धीमेधीमे स्वर में कह रही थी, ‘‘तुम तो मूर्ख हो, जया. तुम समझतीं क्यों नहीं? तुम इस घर की बहू हो, कोई लौंडीबांदी तो हो नहीं. तुम्हें क्या पड़ी है कि तुम सास की मिन्नतचिरौरी करती फिरो? तुम क्यों किसी की धौंस सहो? आखिर इस घर में कमाता कौन है? तुम्हारा पति ही तो. फिर तुम्हें देवरननदों के नखरे उठाने की क्या जरूरत है?’’

वह चुपचाप सुनता रहा. सुनयना जया को समझाती रही. जया उसे अपनी सब से बड़ी हितचिंतक समझती थी जबकि वह उसे बरबाद करने पर तुली थी. काफी देर तक वह सुनता रहा. वह अपनेआप को रोक नहीं पाया. दरवाजे की ओट से निकल कर वह भीतर चला गया. उसे इस प्रकार अप्रत्याशित रूप से आया देख कर दोनों बहनें सकपका गईं. मगर सुनयना तुरंत ही संभल गई. वह मुसकरा कर बोली, ‘‘आइए जीजाजी. आप तो कभी हमारे साथ बैठते ही नहीं, हम से कभी बोलते ही नहीं.’’

‘‘आज मैं तुम से बातें करने के लिए ही आया हूं,’’ वह बोला. उस की आवाज में व्यंग्य का पुट था.

सुनयना सकपका सी गई, फिर बोली, ‘‘आप की तबीयत कैसी है?’’

‘‘तुम्हारी मेहरबानी से अच्छा ही हूं,’’ कटु और व्यंग्यभरी आवाज में बोला. लेकिन फिर अपने स्वर को मधुर बना कर पूछा, ‘‘विनोद भाईसाहब के क्या हाल हैं?’’

‘‘ठीक हैं,’’ सुनयना ने जवाब दिया. इस प्रसंग से वह बचना चाहती थी. यह उस का एक कमजोर पहलू जो था.

‘‘सुना है पिछले कई दिनों से वे घर पर नहीं लौटे.’’ सुनयना का चेहरा पीला पड़ गया. भरे बाजार में जैसे उसे किसी ने निर्वस्त्र कर दिया हो. कोई उपयुक्त जवाब उसे नहीं सूझा. फिर भी उस ने कहा, ‘‘यह तो उन की मरजी है, मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘सुना है आजकल खाना भी वे होटल में ही खाते हैं,’’ वह एक के बाद एक सवाल करता गया. सुनयना की असली तसवीर को वह जया के सामने प्रकट कर देना चाहता था ताकि जया पहचान सके कि सुनयना कैसी औरत है. जया सुनयना को अपनी सब से बड़ी हितचिंतक समझती थी. वह उस की बातों में आ कर, उस पर विश्वास कर के अपने घर को तबाह करने पर तुली हुई थी. जया के सामने सुनयना की पोल खोल देना बहुत जरूरी थी. जया बड़ी हैरानी से उसे देख रही थी. उसे आश्चर्य हो रहा था कि आज वह कैसी बातें कर रहा है, सुनयना का अपमान करने पर क्यों तुला हुआ है. सुनयना अपनी सफाई देती हुई बोली, ‘‘अब देखिए न, जीजाजी, उन के लिए घर में क्या जगह नहीं है? घर में खाना नहीं है? लेकिन मुझे बदनाम करने के लिए वे होटलों में रहते हैं.’’

‘‘होटलों में सोनेखाने का न तो विनोद को शौक है और न ही वह तुम्हें बदनाम करना चाहता है. तुम अपनी गलतियों पर परदा क्यों डालना चाहती हो? तुम यह क्यों नहीं स्वीकार करतीं कि तुम्हारे व्यवहार की वजह से ही विनोद यह जिंदगी जीने को

विवश हुआ है? मैं मानता हूं कि वह घर में होगा तो उसे सोने की जगह और खाने को रोटी मिल जाएगी,  मगर घर सिर्फ खाने और सोने के लिए ही नहीं होता. वहां और भी बहुत कुछ होता है. प्यार होता है, मधुर संबंध होते हैं. तुम ने कभी अपने पति को प्यार दिया है,

पत्नीत्व का सुख दिया है? विनोद दफ्तर से लौटता है और तुम मुसकरा कर उस का स्वागत करने के बजाय उसे जलीकटी सुनाने लगती हो. उस पर तरहतरह के लांछन लगाती हो. आखिर कोई कब तक बरदाश्त कर सकता है? वह होटल में नहीं जाएगा तो क्या करेगा?’’ वह क्रोध और आवेश में सुनयना पर बरस पड़ा. सुनयना इस अपमान को बरदाश्त नहीं कर पाई. तिलमिला कर उठ गई, ‘‘जीजाजी, आप मेरा अपमान कर रहे हैं. हमारी घरेलू जिंदगी में दखल दे रहे हैं आप.’’

‘‘मैं मानता हूं कि मैं तुम्हारी घरेलू जिंदगी में दखल दे रहा हूं. मगर तुम्हें भी हमारे घरेलू मामलों में दखल देने का क्या अधिकार है? तुम क्यों हमारे घर की बरबादी पर जश्न मनाना चाहती हो? तुम यहां किसलिए आती हो? इसीलिए न कि तुम जया को हम सब के खिलाफ भड़का सको, इस घर की शांति को भी खत्म कर सको? अपना घर तो तुम ने तबाह कर ही लिया है, अब हमारा घर तबाह करने पर तुली हुई हो.’’ सुनयना इस अपमान को झेल नहीं पाई. क्रोध और आवेश में आ कर वह जाने लगी, ‘‘जया, मैं नहीं जानती थी कि इस घर में मेरा इस प्रकार अपमान होगा.’’ जया ने उसे रोकना चाहा मगर वह उसे मना करते हुए बोला, ‘‘उसे जाने दो, जया, और उस से कह दो कि फिर कभी हमारे घर न आए. हमें ऐसे हितचिंतकों की जरूरत नहीं है.’’ सुनयना चली गई तो जया रोने लगी,  ‘‘यह आज आप को क्या हो गया है? आप ने मेरी बहन का अपमान किया है.’’

उस ने जया को समझाया, ‘‘उसे अपनी बहन मत कहो. जो औरत तुम्हारी बसीबसाई गृहस्थी उजाड़ना चाहती है, तुम्हारे सुखों को जला डालना चाहती है, उसे बहन समझना तुम्हारी बहुत बड़ी भूल है. जानती हो विनोद की क्या हालत है? अपना घर और अपनी पत्नी होते हुए भी वह बेचारा आवारों जैसी जिंदगी जी रहा है. न उस के रहने का कोई ठिकाना है न खाने का. कभी कहीं पड़ा रहता है, कभी कहीं. उस की यह दशा किस ने की है? तुम्हारी इसी प्यारी बहन ने. सुनयना उसे चैन से नहीं जीने देती. उस से हर समय झगड़ती रहती है. वह न खुद शांति से रहती है न दूसरों को रहने देती है. वही सुनयना हर रोज तुम्हें कोई न कोई पाठ पढ़ा जाती है. हर रोज तुम्हें किसी नए षड्यंत्र में उलझा जाती है क्योंकि उसे तुम्हारा सुख बरदाश्त नहीं है. अपनी तरह वह तुम्हें भी उजाड़ डालना चाहती है.

‘‘जया, जरा याद करो पहले हम कितने सुखी थे. तुम भी खुश रहती थी. मां भी खुश थीं. कैसी हंसीखुशी से हमारी जिंदगी बीत रही थी. न तुम्हें किसी से कोई शिकायत थी और न किसी को तुम से. लेकिन आज क्या हालत है? दिनरात तुम क्रोध और घृणा से भरी रहती हो. हर रोज मां से तुम्हारी लड़ाई होती है. तुम्हें किसी से प्यार नहीं रह गया है. मुझ से भी तुम प्यार के बजाय शिकायतें ही करती रहती हो. क्यों? सिर्फ सुनयना की वजह से. वह एक मक्कार और धूर्त औरत है. कुछ लोग ऐसे ही होते हैं जो कभी किसी का सुख बरदाश्त नहीं कर पाते. सुनयना ऐसी ही औरत है.

‘‘मुझे समझने की कोशिश करो, जया. मेरी जिम्मेदारियों को समझने की कोशिश करो. सुनयना की बातों से हट कर सोचने की कोशिश करो. इस घर को उजाड़ने के बजाय बसाने की कोशिश करो.’’ जया भौचक्की सी रह गईं. उसे लगा  जैसे उस के दिमाग के परदे खुलने शुरू हो गए हैं. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह पति के कंधे पर सिर रख कर आत्मग्लानि व आत्मसमर्पण से सिसकने लगी. आज कितने दिनों बाद वह घर में सुख महसूस कर रहा था.

सुकून: क्यों सोहा की शादी नहीं करवाना चाहते थे उसके माता-पिता

सुधाकरऔर सविता की शादी के 7 साल बाद सोहा का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के साथ पूरे परिवार की खुशी की सीमा न रही थी. शानदार दावत का आयोजन कर दूरदूर के रिश्तेदारों को आमंत्रित किया गया था.

सोहा के 3 साल की होने पर उसे स्कूल में दाखिल करवा दिया. एक दिन सविता को बेटी के पैर पर व्हाइट स्पौट्स से दिखे. रात में सविता ने पति को बताया तो अगले दिन सोहा को डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने ल्यूकोडर्मा कनफर्म किया. जान कर पतिपत्नी को गहरा आघात लगा. इकलौती बेटी और यह मर्ज, जो ठीक होने का नाम नहीं लेता.

डाक्टर ने बताया, ‘‘ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण व्हाइट स्पौट्स हो जाते हैं. कभीकभी कोई दवा भी रीएक्शन कर जाती है. आप अधिक परेशान न हों. अब ऐसी दवा उपलब्ध है जिस के सेवन से ये बढ़ नहीं पाते और कभीकभी तो ठीक भी हो जाते हैं.’’

डाक्टर की बात सुन कर सुधाकर और सविता ने थोड़ी राहत की सांस ली. फिर स्किन स्पैशलिस्ट की देखरेख में सोहा का इलाज शुरू हो गया.

यौवन की दहलीज पर पांव रखते ही सोहा गुलाब के फूल सी खिल उठी. उस के सरल व्यक्तित्व और सौंदर्य में बेहिसाब आकर्षण था. मगर उस के पैरों के व्हाइट स्पौट्स ज्यों के त्यों थे. हां, दवा लेने के कारण वे बढ़े नहीं थे. सोहा को अपने इस मर्ज की कोई चिंता नहीं थी.

सविता और सुधाकर ने कभी इस बीमारी का जिक्र अथवा चिंता उस के समक्ष प्रकट नहीं की. अत: सोहा ने भी कभी इसे मर्ज नहीं समझा.

पढ़ाई पूरी करने के बाद फैशन डिजाइनर की ट्रेनिंग के लिए उस का चयन हो गया. वह कुशाग्रबुद्धि थी. अत: फैशन डिजाइनर का कोर्स पूर्ण होते ही उसे कैंपस से जौब मिल गई. बेटी की योग्यता पर मातापिता को गर्व की अनुभूति हुई.

सोहा को जौब करतेकरते 2 साल बीत गए. अब सविता को उस की शादी की चिंता होने लगी. सर्वगुणसंपन्न होने पर भी बेटी में एक भारी कमी के कारण पतिपत्नी की कहीं बात चलाने की हिम्मत नहीं पड़ती. दोनों जानते थे कि उस की योग्यता और खूबसूरती के आधार पर बात तुरंत बन जाएगी, लेकिन फिर उस की कमी आड़े आ जाएगी, सोच कर उन का मर्म आहत होता.

यद्यपि सुधाकर और सविता को पता था कि शरीर की सीमित जगहों पर हुए ल्यूकोडर्मा के दागों को छिपाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी कराई जा सकती है, लेकिन पतिपत्नी 2 कारणों से इस के लिए सहमत नहीं थे. पहला यह कि वे अपनी प्यारी बेटी सोहा को इस तरह की कोई शारीरिक तकलीफ नहीं देना चाहते थे और दूसरा यह कि इस रोग को सोहा की नजरों में कुछ विशेष अड़चन अथवा शारीरिक विकृति नहीं समझने देना चाहते थे. इसी कारण सोहा अपने को हर तरह से नौर्मल ही समझती.

दोनों पतिपत्नी को पूरा विश्वास था कि उन की बेटी को अच्छा वर और घर मिल जाएगा. इसी विश्वास पर सुधाकर ने औनलाइन सोहा की शादी का विज्ञापन डाला.

कुछ दिनों के बाद यूएसए से डाक्टर अर्पित का ईमेल आया, साथ में उन का फोटो भी. उन्होंने अपना पूरा परिचय देते हुए लिखा था, ‘‘मैं डा. अर्पित स्किन स्पैशलिस्ट हूं. बैचलर हूं और स्वयं के लिए आप का प्रस्ताव पसंद है. आप ने अपनी बेटी में जिस कमी का वर्णन किया है, वह मेरे लिए कोई माने नहीं रखती है. मैं आप को पूर्ण विश्वास दिलाना चाहता हूं कि हमारी तरफ से आप को या आप की बेटी को कभी किसी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘यदि आप को भी हमारा रिश्ता मंजूर हो तो आप लोग बैंगलुरु जा कर मेरे मातापिता से बात कर सकते हैं. बात पक्की होने पर मैं विवाह के लिए इंडिया आ जाऊंगा.’’

अर्पित का मैसेज सुधाकर और सविता को सुखद प्रतीत हुआ. सोहा से भी बात की. उसे भी अर्पित की जौब और फोटो पसंद आया. मातापिता के कहने पर उस ने अर्पित से बात भी की. सब कुछ ठीक लगा.

बैंगलुरु जा कर सुधाकर ने अर्पित के परिवार वालों से बातचीत की. बिना किसी नानुकुर के शादी पक्की हो गई. 1 माह का अवकाश ले कर अर्पित इंडिया आ गया. धूमधाम के साथ सोहा और अर्पित परिणयसूत्र में बंध गए. विवाहोपरांत कुछ दिन मायके और ससुराल में रह कर वह अर्पित के साथ यूएसए चली गई.

सबकुछ अच्छा होने पर भी सुधाकर और सविता को बेटी के शुभ भविष्य के प्रति मन में कुछ खटक रहा था.

यूएसए पहुंच कर सोहा रोज ही मां से फोन पर बातें करती. अपना,

अर्पित का और दिनभर कैसे व्यतीत हुआ, पूरा हाल बताती. अर्पित के अच्छे स्वभाव की प्रशंसा भी करती.

सविता को अच्छा लगता. वे पूछना चाहतीं कि उस के पैरों के बारे में कुछ बात तो नहीं होती, लेकिन पूछ नहीं पाती, क्योंकि अभी तक कभी उस से व्यक्तिगत रूप से इस पर बात कर के उस का ध्यान इस तरफ नहीं खींचा था ताकि बेटी को कष्ट की अनुभूति न हो.

सोहा ने भी कभी इस बाबत मां से कोई बात नहीं की, इस विषय में मां से कुछ कहना उसे कोई जरूरी बात नहीं लगती थी. बस इसी तरह समय सरकता रहा.

स्वयं स्किन स्पैशलिस्ट डाक्टर होने के कारण अर्पित को ल्यूकोडर्मा के बारे में पूरी जानकारी थी. वे इस से परिचित थे कि यह बीमारी आनुवंशिक होती है और न ही छूत से. अपितु शरीर में ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण हो जाती है. एक लिमिट में रहने तक प्लास्टिक सर्जरी से छिपाया जा सकता है. उन्होंने सोहा के साथ भी वही किया. कुछ अन्य डाक्टरों से सलाहमशवरा कर के उन्होंने बारीबारी से सोहा के दोनों पैर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा ठीक कर दिए.

कुछ समय और बीता तो सोहा को पता चला कि उस के पांव भारी हैं. उस ने अर्पित को इस शुभ समाचार से अवगत कराया.

अर्पित ने अपनी खुशी व्यक्त करते हुए उसे बांहों में भर लिया, ‘‘मां को भी इस शुभ समाचार से अवगत कराओ,’’ अर्पित ने कहा.

‘‘हां, जरूर,’’ सोहा ने मुसकराते हुए कहा.

दूसरे दिन सोहा ने फोन पर मां को बताया. सविता और सुधाकर को अपार हर्ष की

अनुभूति हुई. उन्हें विश्वास हो गया कि उन की बेटी का दांपत्य जीवन सुखद है.

दोनों पतिपत्नी ने शीघ्र यूएसए जाने की तैयारी भी कर ली. सोहा और अर्पित के पास मैसेज भी भेज दिया. यथासमय बेटीदामाद उन्हें रिसीव करने पहुंच गए. काफी दिनों बाद सोहा को देख कर सविता ने उसे गले से लगा लिया. घर आ कर विस्तृत रूप से बातचीत हुई.

सोहा के पैरों को सही रूप में देख कर सुधाकर और सविता को असीम खुशी हुई.

शिकायत करती हुई सविता ने सोहा से कहा, ‘‘अपने पैरों के बारे में तुम ने मुझे नहीं बताया?’’

‘‘हां मां, यह कोई ऐसी विशेष बात तो थी नहीं, जो तुम्हें बताती,’’ सोहा ने लापरवाही से कहा.

सविता के मन ने स्वीकार लिया कि बेटी की जिस बीमारी को ले कर वे लोग 24-25 सालों तक तनाव में रहे वह अर्पित के लिए कोई विशेष बात नहीं रही. ‘योग्य दामाद के साथ बेटी का दांपत्य जीवन और भविष्य उज्ज्वल रहेगा,’ सोच सविता को भारी सुकून मिला.

रिश्तों की डोर: भाग 1- माता-पिता के खिलाफ क्या जतिन की पसंद सही थी

लेखिका- रेनू मंडल

खाना खातेखाते जतिन के हाथ रुक गए. बराबर वाले कमरे से मम्मी की आवाज आ रही थी, ‘‘क्या इसी दिन के लिए मैं ने इसे पालपोस कर बड़ा किया था कि एक दिन यह मुझे खून के आंसू रुलाएगा.’’

‘‘साहबजादे बड़े हो गए हैं न, इसलिए अपनी जिंदगी के फैसले स्वयं करेंगे. मांबाप की अब भला क्या जरूरत है?’’ यह पापा की आवाज थी.

जतिन ने हाथ में पकड़ा रोटी का कौर वापस प्लेट में रख दिया और पानी पी कर उठ गया.

‘‘क्या बात है, जतिन, खाना क्यों छोड़ दिया? और मम्मीपापा सुबहसुबह नाराज क्यों हो रहे हैं?’’ मैं ने चाय का कप टेबल पर रखा और जतिन के समीप चेयर पर बैठ गई. जतिन ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप अपना ब्रीफकेस उठाया और बैंक चल दिया. मैं हैरानी से उसे जाता देखती रही.

2 दिन पहले ही मैं अपनी ससुराल से मायके बी.एड. करने के लिए आई थी. जिस क्षण मैं ने घर की देहरी पर पांव रखा था उसी क्षण घर में पसरे तनाव को महसूस कर लिया था. यद्यपि हमेशा की भांति मम्मीपापा ने गले लगा कर मेरे माथे को चूमा था किंतु उन के माथे पर परेशानी की लकीरें मैं ने साफ महसूस की थीं.

उस समय तो घर पहुंचने के उत्साह में मैं ने इस बात को अनदेखा कर दिया था किंतु शाम होतेहोते जब जतिन घर आया तो उस का चेहरा देख कर मुझे लगा, मेरा अंदेशा गलत नहीं था. अवश्य ही घर में किसी बात को ले कर तनाव था. फिर आज सुबह की घटना, जतिन का भूखे आफिस जाना और मम्मीपापा का उसे कोसते रहना, ये सब बातें मेरे संदेह की पुष्टि कर रही थीं.

जतिन के जाते ही मैं मम्मी के पास गई और पूछा, ‘‘क्या बात है, मम्मी, उधर जतिन बिना खाना खाए बैंक चला गया और इधर आप को और पापा को गुस्सा आ रहा है. आखिर बात क्या है? कोई मुझे कुछ बताता क्यों नहीं?’’

‘‘अब तुम्हें क्या बताऊं? इस लड़के ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा. तुम्हारे पापा ने इस के रिश्ते के लिए एक जगह बात चलाई है. लड़की और उस का परिवार दोनों अच्छे हैं. कल मैं ने इसे लड़की की फोटो दिखानी चाही तो बोला, ‘मैं ने अपने लिए लड़की ढूंढ़ रखी है.’ फोटो तक देखने से इनकार कर दिया. अब तुम्हीं बताओ, मुझे और तुम्हारे पापा को गुस्सा आएगा या नहीं?’’

मम्मी की बात पर मैं सहजता से मुसकरा दी, ‘‘इस में गुस्से वाली कौन सी बात है, मम्मी. अब जमाना बदल चुका है. अकसर लड़केलड़कियां अपने जीवनसाथी स्वयं चुन लेते हैं. जतिन ने भी ऐसा कर लिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई.’’

‘‘बेकार की बातें मत कर, नीलू. समझा दे उसे. उस का विवाह वहीं होगा जहां हम चाहेंगे.’’

मैं ने एक गहरी सांस ली और अपने कमरे में आ गई.

शाम को जतिन के बैंक से वापस लौटने पर मैं ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या मैं अब इतनी पराई हो गई हूं कि तुम अब अपने मन की बात भी मुझ से नहीं कह सकते हो?’’

‘‘सच कहूं, दीदी, अभी रास्ते में यही सोचता आ रहा था कि आज तुम से सारी बात कहूंगा,’’ जतिन बोला.

‘‘अच्छा, अब बता कौन है वह लड़की जिसे तू पसंद करता है,’’ मैं ने उस के लिए चाय का कप टेबल पर रखा और उस के समीप बैठ गई.

‘‘दीदी, उस का नाम स्वाति है. मेरे साथ बैंक में काम करती है. बहुत अच्छी लड़की है पर मम्मीपापा ने उसे बिना देखे अस्वीकृत कर दिया.’’

‘‘जतिन, मम्मीपापा की बात का बुरा मत मानो. वे दोनों पुराने खयालों के हैं. हम दोनों मिल कर उन्हें मनाने का प्रयत्न करेंगे. अच्छा, पहले यह बताओ, मुझे स्वाति से कब मिलवा रहे हो?’’

‘‘दीदी, कल रविवार है. शाम 5 बजे स्वाति को मैं क्वालिटी रेस्तरां में बुला लेता हूं. वहीं पर मिल लेना.’’

अगले दिन 5 बजे मैं और जतिन क्वालिटी रेस्तरां पहुंचे. जब तक जतिन कौफी का आर्डर करता, एक गोरी- चिट्टी सुंदर सी लड़की हमारे करीब आ कर खड़ी हो गई. जतिन ने हमारा परस्पर परिचय कराया. स्वाति ने तुरंत झुक कर मेरे पांव छू लिए. कौफी पीते हुए मैं उस के परिवार से संबंधित हलकेफुलके प्रश्न पूछती रही जिन का वह सहज उत्तर देती रही.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम जानती ही होगी, मम्मीपापा तुम्हारे और जतिन के विवाह के लिए राजी नहीं हैं. ऐसे में जतिन, तुम्हें छोड़ कर उन की पसंद की लड़की से विवाह कर ले तो तुम क्या करोगी?’’

‘‘दीदी, यह तुम क्या…’’ जतिन ने मुझे टोकना चाहा किंतु मैं ने उसे खामोश रहने का संकेत किया और अपना प्रश्न दोहरा दिया.

स्वाति के चेहरे पर मुझे पीड़ा के भाव दिखाई दिए. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘मैं भला क्या कर सकती हूं?’’

‘‘कहीं आत्महत्या जैसा मूर्खतापूर्ण कदम तो नहीं उठाओगी?’’

‘‘नहीं दीदी, मैं इतनी कमजोर नहीं हूं. जिंदगी में संघर्ष करना अच्छी तरह जानती हूं. आत्महत्या कायरों का काम है. ऐसा कर के अपने मांबाप और भाई को जीतेजी नहीं मार सकती.’’

स्वाति का जवाब सुन कर मुझे अच्छा लगा. प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर मैं बोली, ‘‘मुझे अपने भाई की पसंद पर गर्व है. मैं तुम दोनों को मिलाने का पूरा प्रयास करूंगी.’’

कौफी पी कर हम लोग उठ खड़े हुए. रास्ते में जतिन बोला, ‘‘दीदी, स्वाति आप को कैसी लगी?’’

‘‘बहुत सुंदर, बहुत समझदार. तुम्हारी शादी उसी से होनी चाहिए.’’

मेरा जवाब सुन कर जतिन के मन को कुछ राहत अवश्य मिली.

एक दिन मैं कालिज से वापस लौटी, तो स्वाति मेरे साथ थी. मम्मी से उसे मिलवाते हुए मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, यह स्वाति है. राहुल की बूआ की लड़की. पिछले माह इस की हमारे शहर में नौकरी लगी है.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे मातापिता कहां पर हैं?’’

‘‘मम्मीपापा तो दिल्ली में हैं. मैं यहां होस्टल में रहती हूं,’’ मेरे सिखाए हुए जवाब स्वाति ने मम्मी के आगे दोहरा दिए.

‘‘इसे अपना ही घर समझना. जब भी मन करे, आ जाना,’’ मम्मी ने चलते हुए स्वाति से कहा. उस के बाद स्वाति का हमारे घर आनाजाना शुरू हो गया. मम्मी से उस की खूब पटने लगी थी. 2-4 दिन भी वह नहीं आती तो मम्मी उस के बारे में पूछपूछ कर मुझे परेशान कर देती थीं.

एक दिन लंच टाइम में स्वाति घर पर आई. मैं उस समय कालिज गई हुई थी. ज्यों ही वह गेट खोल कर अंदर घुसी उसे सीढि़यों पर से मम्मी के चीखने की आवाज सुनाई दी. वह तेजी से उस ओर लपकीं. देखा, मम्मी सीढि़यां उतरते हुए फिसल गई थीं. स्वाति ने उन्हें सहारा दे कर उठाया. मम्मी के बाएं हाथ में चोट आई थी. हाथ हिलाने में भी तकलीफ हो रही थी. स्वाति ने तुरंत टैक्सी की और उन्हें डाक्टर के पास ले गई. एक्सरे लेने के बाद डाक्टर ने हाथ पर कच्चा प्लास्टर चढ़ा दिया. शाम को हम सब मम्मी का हाथ देख घबरा गए.

सारी बात बता कर मम्मी बोलीं, ‘‘स्वाति बहुत अच्छी लड़की है. उस ने जिस जिम्मेदारी के साथ मेरी देखभाल की, मुझे विश्वास है, वह घर बहुत भाग्यशाली होगा जहां वह बहू बन कर जाएगी.’’

मैं ने जतिन की तरफ मुसकरा कर देखा, बोली, ‘‘मम्मी, क्यों न हम अपने ही घर को भाग्यशाली बना डालें.’’

‘‘अरे, मेरे बस में होता तो कब का बना चुकी होती, परंतु इसे भी तो अक्ल आए न. पता नहीं कौन सी लड़की पसंद किए बैठा है,’’ मम्मी ने जतिन की तरफ गुस्से से देखा.

आगे पढ़ें- मैं ने अपनी बात पूरी की ही थी कि…

लौट जाओ शैली: विनीत ने क्या किया था

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रिश्तों की डोर: भाग 3- माता-पिता के खिलाफ क्या जतिन की पसंद सही थी

लेखिका- रेनू मंडल

एक शाम पापा के मित्र सुरेश अंकल आए. बातों ही बातों में वह पापा से बोले, ‘‘एक बात मुझे समझ नहीं आई. आप ने जब जतिन और स्वाति को विवाह की इजाजत दे दी थी तो फिर जतिन घर से अलग क्यों हुआ और क्यों उस ने स्वयं मंदिर में शादी कर ली?’’

‘‘अब तुम्हें क्या बताऊं? छोटीछोटी बातों में हमारे विचार मेल नहीं खा रहे थे किंतु इस का मतलब यह तो नहीं कि घर से अलग हो जाओ और स्वयं शादी रचा डालो. पालपोस कर क्या इसी दिन के लिए बड़ा किया था?’’ दबी जबान में पापा बोले.

‘‘यार, अब जमाना बहुत बदल गया है. आज की युवा पीढ़ी इन सब बातों को कहां सोचती है? मांबाप के प्रति भी उन का कुछ फर्ज है, ऐसी भावनाओं से कोसों दूर वे अपने स्वार्थ में लिप्त हैं.’’

अंकल के जाते ही मम्मी भड़क उठीं, ‘‘दोस्त के आगे बेटे को क्यों कोस रहे थे? अपनी बात भी तो उन्हें बताते कि मैं ही दहेज मांग रहा था. तुम्हारे पैसे के लालच के कारण ही जवान बेटे को घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. मेरी क्याक्या इच्छाएं थीं बेटे की शादी को ले कर किंतु सब तुम्हारे लालच की आग में भस्म हो गईं.’’

मम्मी रोने लगीं. पापा उन के आंसुओें की परवा न करते हुए चिल्लाए, ‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं अकेला ही पैसे की इच्छा कर रहा था. क्या तुम इस काम में मेरे साथ नहीं थीं? आज बड़ी दूध की धुली बन रही हो. इतनी ही पाकसाफ थीं तो उस समय मुझ से क्यों नहीं कहा कि दहेज मत मांगो. नीलू, तू ही बता, क्या तेरी मम्मी दहेज लेना नहीं चाहती थीं?’’

पापा ने मुझे अपने पक्ष में करना चाहा किंतु मम्मी भी पीछे रहने वाली नहीं थीं. वह भी बिना एक पल

गंवाए बोलीं, ‘‘नीलू, तू सच कहना, ज्यादा इच्छा किस की थी, तेरे पापा की या मेरी?’’

‘‘ओह, मम्मीपापा, आप दोनों चुप रहो,’’ मैं खीज उठी, ‘‘जो बीत गया उस की लकीर पीटने से क्या फायदा? बीता वक्त तो हाथ आ नहीं सकता. हां, आने वाला वक्त हमारे हाथ में है. उसे अवश्य संवार सकते हैं,’’ बिगड़ी बात मनाने का एक सूत्र उन के हाथ में दे कर मैं कमरे से बाहर चली आई. अभी मुझे ढेरों काम करने थे. 2 दिन बाद मम्मीपापा और मुझे रमा मौसी की लड़की की शादी में जयपुर जाना था.

जयपुर पहुंचने पर रमा मौसी से आराम से बैठ कर बात करने का वक्त ही नहीं मिला. अगले दिन शादी थी और वह काम करने में व्यस्त थीं. मुझे लगा, व्यस्त होने के साथसाथ वह तनावग्रस्त भी थीं. शाम के समय बड़े मामाजी से मौसीमौसा की परेशानी का कारण पूछा तो वह बोले, ‘‘अरे, तुम लोगों को नहीं पता रमा की परेशानी का कारण. लड़के वालों ने दहेज में कार मांगी है. अब तुम लोग तो जानते ही हो, रमा के पति सुरेशजी रिटायर हो चुके हैं. कार के लिए रुपयों का इंतजाम करना कितना कठिन काम था. लड़की की शादी

क्या की, कर्जे के नीचे दब गए रमा और जीजाजी.’’

मामीजी बोलीं, ‘‘मैं ने तो रमा दीदी से कहा था कि ऐसे लालची लोगों से रिश्ता मत जोड़ो. अरे, जिस ने अपनी लड़की दे दी उस ने सबकुछ दे दिया किंतु रमा दीदी नहीं मानीं. उन्हें डर था, कहीं अच्छा रिश्ता जल्दी मिले न मिले. दरअसल, लड़की वालों की कमजोरी की वजह से ही लड़के वाले ज्यादा सिर चढ़ते हैं.’’

मामामामी की बातें सुन कर मम्मीपापा के चेहरे का रंग उड़ गया. मम्मी धीरे से हांहूं कर के रह गईं. मैं मन ही मन उन की मनोस्थिति का अंदाजा लगा रही थी. क्या बीत रही होगी उन के मन पर. थोड़ी देर पहले तक दोनों रमा मौसी को ले कर कितने चिंतित थे किंतु अब उन की परेशानी का कारण जान कर दोनों के मुंह पर ताला लग गया था.

जयपुर से वापस लौट कर मम्मीपापा और भी व्यथित रहने लगे. मन ही मन दोनों प्रायश्चित की अग्नि में जल रहे थे. अब हर दूसरे दिन मम्मी मुझ से पूछ बैठतीं, ‘‘नीलू, जतिन के घर गई थी क्या?’’ मेरे हां कहने पर उत्सुकता से बेटेबहू के बारे में पूछतीं. मैं जानती थी, मम्मी और पापा के मन में इन दिनों क्या चल रहा था. दोनों अजीब सी कशमकश में फंसे हुए थे. एक तरफ बेटेबहू की ममता तो दूसरी तरफ उन का अहं.

एक दिन मैं कालिज से लौटी तो देखा, मम्मीपापा चाय पी रहे थे. मैं ने उन्हें बताया, ‘‘आज मैं जतिन के घर गई थी. स्वाति को 2 दिन से बुखार है.’’

‘‘अरे, तो उस की देखभाल कौन कर रहा होगा? वह तो पहले ही कमजोर है,’’ मम्मी को चिंता होने लगी.

पापा बोले, ‘‘ऐसा करो जतिन

की मां, खाना बना लो, नीलू वहां दे आएगी.’’

मैं कुछ पल सोचती रही फिर बोली, ‘‘मम्मी, सच कहिए, क्या आप दोनों का मन नहीं करता जतिन और स्वाति को देखने का?’’

‘‘मन तो बहुत करता है. अकसर रातों को नींद खुल जाती है. उस समय कितनी छटपटाहट होती है, क्या बताऊं. तुम्हारे पापा से कुछ कहती हूं तो उन की आंखें पहले ही भर आती हैं. कहते हैं, मांबाप तो अपने घर को बसाते हैं और हम ने बसेबसाए घर के टुकड़े कर दिए.’’

‘‘आप चाहें मम्मी तो इन टुकड़ों को पुन: जोड़ सकती हैं. इस घर को फिर से बसा सकती हैं.’’

‘‘जतिन कभी हमें याद करता है, नीलू,’’ पापा के चेहरे पर गहन पीड़ा के भाव उभर आए थे.

‘‘आप को अपनी ममता पर भरोसा नहीं है मम्मीपापा. जब आप उसे नहीं भूले तो वह आप को कैसे भूल सकता है? आप दोनों मेरा कहा मानिए, यह अत्यंत उपयुक्त अवसर है जतिन और स्वाति के पास जाने का. इस समय आप का बड़प्पन भी बना रहेगा और आप की इच्छा भी पूरी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक है जतिन की मां, हम चलते हैं अपने बेटेबहू के पास.’’

हम तीनों जतिन के घर पहुंचे. हमें यों अचानक आया देख जतिन और स्वाति हक्केबक्के रह गए. स्वाति ने तुरंत उठ कर मम्मीपापा के पांव छू लिए. स्नेह से दोनों के सिर पर हाथ फेर कर मम्मी बोलीं, ‘‘हमें माफ कर दो बच्चो. हम अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदा हैं.

‘‘ऐसा मत कहिए मम्मी, क्षमा मांगने का अधिकार सिर्फ बच्चों का होता है,’’ मम्मीपापा को देख कर जतिन का चेहरा खुशी से चमक उठा था. उस ने आदर से उन्हें बैठाया. मैं ने जल्दी से सब के लिए चाय बना ली. चाय पीते हुए पापा बोले, ‘‘बच्चो, पिछली बातें भुला कर क्या तुम दोनों अब अपने घर चलने के लिए तैयार हो?’’

‘‘पापा, परिस्थितिवश मैं आप से अलग भले ही रहने लगा परंतु दूर कभी नहीं हुआ. आप जब कहेंगे, हम आ जाएंगे.’’

मम्मीपापा के पछतावे के बारे में मैं ने जतिन और स्वाति को पहले ही बता रखा था इसलिए वे दोनों अपने को मानसिक रूप से इस सब के लिए तैयार कर चुके थे.

‘‘फिर देर किस बात की है? आज ही तुम दोनों हमारे साथ चलो. सामान बाद में आता रहेगा. स्वाति बीमार है. वहां पर इस की भलीभांति देखभाल होगी.’’

‘‘और मुझे छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ेगी. आप लोग तो जानते ही हैं, मुझ पर छुट्टियों की हमेशा कमी रहती है,’’ जतिन की इस बात पर स्वाति ने उस की ओर आंखें तरेर कर देखा फिर हंस पड़ी.

मैं सोच रही थी, जीवन में सुख और दुख धूपछांव के समान आते रहते हैं. जहां दिलों में प्यार होता है वहां रिश्तों की डोर इतनी आसानी से नहीं टूटती.

ऊंच नीच की दीवार: क्या हो पाई दिनेश की शादी

‘‘बाबूजी…’’

‘‘क्या बात है सुभाष?’’

‘‘दिनेश उस दलित लड़की से शादी कर रहा है,’’ सुभाष ने धीरे से कहा.

‘‘क्या कहा, दिनेश उसी दलित लड़की से शादी कर रहा है…’’ पिता भवानीराम गुस्से से आगबबूला हो उठे.

वे आगे बोले, ‘‘हमारे समाज में क्या लड़कियों की कमी है, जो वह एक दलित लड़की से शादी करने पर तुला है? अब मेरी समझ में आया कि उसे नौकरी वाली लड़की क्यों चाहिए थी.’’

‘‘यह भी सुना है कि वह दलित परिवार बहुत पैसे वाला है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम कुछ सोच कर बोले, ‘‘पैसे वाला हुआ तो क्या हुआ? क्या दिनेश उस के पैसे से शादी कर रहा है? कौन है वह लड़की?’’

‘‘उसी के स्कूल की कोई सरिता है?’’ सुभाष ने जवाब दिया.

‘‘देखो सुभाष, तुम अपने छोटे भाई दिनेश को समझाओ.’’

‘‘बाबूजी, मैं तो समझा चुका हूं, मगर वह तो उसी के साथ शादी करने का मन बना चुका है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम सोच में पड़ गए. वे दिनेश को शादी करने से कैसे रोकें? चूंकि उन के लिए यह जाति की लड़ाई है और इस लड़ाई में उन का अहं आड़े आ रहा है.

भवानीराम पिछड़े तबके के हैं और दिनेश जिस लड़की से शादी करने जा रहा है, वह दलित है, फिर चाहे वह कितनी ही अमीर क्यों न हो, मगर ऊंचनीच की यह दीवार अब भी समाज में है. सरकार द्वारा भले ही यह दीवार खत्म हो चुकी है, मगर फिर भी लोगों के दिलों में यह दीवार बनी हुई है.

दिनेश भवानीराम का छोटा बेटा है. वह सरकारी स्कूल में टीचर है. जब से उस की नौकरी लगी है, तब से उस के लिए लड़की की तलाश जारी थी. उस के लिए कई लड़कियां देखीं, मगर वह हर लड़की को खारिज करता रहा.

तब एक दिन भवानीराम ने चिल्ला कर उस से पूछा था, ‘तुझे कैसी लड़की चाहिए?’

‘मुझे नौकरी करने वाली लड़की चाहिए,’ दिनेश ने उस दिन जवाब दिया था. भवानीराम ने इस शर्त को सुन कर अपने हथियार डाल दिए थे. वे कुछ नहीं बोले थे.

जिस स्कूल में दिनेश है, वहीं पर सरिता नाम की लड़की भी काम करती है. सरिता जिस दिन इस स्कूल में आई थी, उसी दिन दिनेश से उस की आंखें चार हुई थीं. सरिता की नौकरी रिजर्व कोटे के तहत लगी थी.

सरिता उज्जैन की रहने वाली है. वहां उस के पिता का बहुत बड़ा जूतों का कारोबार है. इस के अलावा मैदा की फैक्टरी भी है. उन का लाखों रुपयों का कारोबार है.

फिर भी सरिता सरकारी नौकरी करने क्यों आई? इस ‘क्यों’ का जवाब स्टाफ के किसी शख्स ने नहीं पूछा.

सरिता को अपने पिता की जायदाद पर बहुत घमंड था. उस का रहनसहन दलित होते हुए भी ऊंचे तबके जैसा था. वह अपने स्टाफ में पिता के कारोबार की तारीफ दिल खोल कर किया करती थी. वह हरदम यह बताने की कोशिश करती थी कि नौकरी उस ने अपनी मरजी से की है. पिता तो नौकरी कराने के पक्ष में नहीं थे, मगर उस ने पिता की इच्छा के खिलाफ आवेदन भर कर यह नौकरी हासिल की.

स्टाफ में अगर कोई सरिता के पास आया, तो वह दिनेश था. ज्यादातर समय वे स्कूल में ही रहा करते थे. पहले उन में दोस्ती हुई, फिर वे एकदूसरे के ज्यादा पास आए. जब भी खाली पीरियड होता, उस समय वे दोनों स्टाफरूम में बैठ कर बातें करते रहते.

शुरूशुरू में तो वे दोस्त की तरह रहे, मगर उन की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. स्टाफरूम के अलावा वे बगीचे और रैस्टोरैंट में

भी मिलने लगे, भविष्य की योजनाएं बनाने लगे.

ऐसे ही रोमांस करते 2 साल गुजर गए. उन्होंने फैसला कर लिया कि अब वे शादी करेंगे, इसलिए सरिता ने पूछा था, ‘हम कब शादी करेंगे?’

‘तुम अपने पिताजी को मना लो, मैं अपने पिताजी को,’ दिनेश ने जवाब दिया.

‘मेरे पिताजी ने तो अपने समाज में लड़के देख लिए हैं और उन्होंने कहा भी है कि आ कर लड़का पसंद कर लो. मैं ने मना कर दिया कि मैं अपने ही स्टाफ में दिनेश से शादी करूंगी,’ सरिता बोली.

‘फिर पिताजी ने क्या कहा?’ दिनेश ने पूछा.

‘उन्होंने तो हां कर दी…’ सरिता ने कहा, ‘तुम्हारे पिताजी क्या कहते हैं?’

‘पहले मैं बड़े भैया से बात करता हूं,’ दिनेश ने कहा.

‘हां कर लो, ताकि मेरे पिताजी शादी की तैयारी कर लें,’ कह कर सरिता ने गेंद दिनेश के पाले में फेंक दी. मगर दिनेश कैसे अपने पिता से कहे. उस ने अपने बड़े भाई सुभाष से बात करनी चाही, तो सुभाष बोला, ‘तुम समझते हो कि बाबूजी इस शादी के लिए तैयार हो जाएंगे?’

‘आप को तैयार करना पड़ेगा,’ दिनेश ने जोर देते हुए कहा.

‘अगर बाबूजी नहीं माने, तब तुम अपना इरादा बदल लोगे?’

‘नहीं भैया, इरादा तो नहीं बदलूंगा. अगर वे नहीं मानते हैं, तो शादी करने का दूसरा तरीका भी है,’ कह कर दिनेश ने अपने इरादे साफ कर दिए.

मगर सुभाष ने जब पिताजी से बात की, तब उन्होंने मना कर दिया. अब सवाल यह है कि कैसे शादी हो? सुभाष भी इस बात से परेशान है. एक तरफ पिता?हैं, तो दूसरी तरफ छोटा भाई. इन दोनों के बीच में उस का मरना तय है.

बाबूजी का अहं इस शादी में आड़े आ रहा है. इन दोनों के बीच में सुभाष पिस रहा?है. ऐसा भी नहीं है कि दोनों नाबालिग हैं. शादी के लिए कानून भी उन पर लागू नहीं होता है.

एक बार फिर बाबूजी का मन टटोलते हुए सुभाष ने पूछा, ‘‘बाबूजी, आप ने क्या सोचा है?’’

भवानीराम के चेहरे पर गुस्से की रेखा उभरी. कुछ पल तक वे कोई जवाब नहीं दे पाए, फिर बोले, ‘‘अब क्या सोचना है… जब उस ने उस दलित लड़की से शादी करने का मन बना ही लिया है, तब उस के साथ शादी करने की इजाजत देता हूं? मगर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘कौन सी शर्त बाबूजी?’’ कहते समय सुभाष की आंखें थोड़ी चमक उठीं.

‘‘न तो मैं उस की शादी में जाऊंगा और न ही उस दलित लड़की को बहू स्वीकार करूंगा और मेरे जीतेजी वह इस घर में कदम नहीं रखेगी. आज से मैं दिनेश को आजाद करता हूं,’’ कह कर बाबूजी की सांस फूल गई.

बाबूजी की यह शर्त भविष्य में क्या गुल खिलाएगी, यह तो बाद में पता चलेगा, मगर यह बात तय है कि परिवार में दरार जरूर पैदा होगी.

जब से अम्मां गुजरी हैं, तब से बाबूजी बहुत टूट चुके हैं. अब कितना और टूटेंगे, यह भविष्य बताएगा. उन की इच्छा थी कि दिनेश शादी कर ले तो एक और बहू आ जाए, ताकि बड़ी बहू को काम से राहत मिले, मगर दिनेश ने दलित लड़की से शादी करने का फैसला कर बाबूजी के गणित को गड़बड़ा दिया है.

उन्होंने अपनी शर्त के साथ दिनेश को खुला छोड़ दिया. उन की यह शर्त कब तक चल पाएगी, यह नहीं कहा जा सकता है.

मगर शादी की सारी जिम्मेदारी सरिता के बाबूजी ने उठा ली.

व्रत: भाग 1- क्या वर्षा समझ पाई पति की अहमियत

लेखक-अमृत कश्यप

साल में 2 बार नवरात्रे आते हैं. उन दिनों में अनिल की शामत आ जाती. घर में खेती कर दी जाती और सब्जीतरकारी में प्याज का इस्तेमाल बंद हो जाता. वहीं, जरा सी ही कोई प्यार की बात की तो उसे माता रानी के कोप से डराया जाता. अनिल के दिल में यह अरमान ही रहा कि कभी उस की पत्नी उसे प्यार करने के लिए उत्साहित करे. उस ने हमेशा अनिल का तिरस्कार ही किया. अनिल कपड़े पहन कर दफ्तर जाने के लिए तैयार हो चुका था. दूसरे कमरे में उस की पत्नी वर्षा गीता का पाठ करने में मग्न थी. वह दिल ही दिल में खीझ रहा था कि उसे दफ्तर को देर हो रही है और वर्षा पाठ करने में लगी हुई है. सत्ता में नरेंद्र मोदी का फरमान लागू है, समय पर दफ्तर पहुंचने के कड़े आदेश हैं, किंतु वर्षा है कि उसे कुछ परवा ही नहीं. खाना बनने की प्रतीक्षा करूं तो देर हो जाएगी और अधिकारियों की झाड़ सुननी पड़ेगी, भूखा ही जाना होगा आज भी. उस ने एक्टिवा पर कपड़ा मारा और बाहर निकाल कर खड़ी कर दी.

वापस कमरे में आ कर बोला, ‘‘मैं आज भी भूखा ही दफ्तर चला जाऊं या कुछ खाने को मिलेगा?’’

वर्षा ने कोई उत्तर न दिया और पाठ करती रही. अनिल ने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की, फिर बड़बड़ाता हुआ एक्टिवा उठा कर भूखा ही दफ्तर चला गया. अनिल के लिए यह नई बात नहीं थी. उस की पत्नी रोज ही सुबह नहाधो कर पूजा करने बैठ जाती और वह नाश्ते के लिए चिल्लाता रहता, किंतु उस पर कोई असर न होता. उस की शादी को 8 साल हो चुके थे, किंतु अभी तक उन के यहां कोई संतान नहीं हुई थी.

पहले वह अपने मातापिता के साथ रहता था. वर्षा सुबह उठ कर पूजापाठ में लग जाती और उस की मां उसे खाना बना कर दे दिया करती थी. कुछ समय बाद उसे सरकारी फ्लैट मिल गया और वह अपनी पत्नी को ले कर फ्लैट में चला आया था. यहां आ कर उसे नई समस्या का सामना करना पड़ रहा था. अनिल को अकसर रोज भूखे ही दफ्तर जाना पड़ता था क्योंकि वर्षा पूजापाठ में लगी रहती थी, खाना कौन बनाता? उस ने कई बार उस से कहा भी था, किंतु वह कब मानने वाली थी. वह तो अपना धर्मकर्म छोड़ने को बिलकुल तैयार न थी. अनिल का विचार था कि इंसान को भगवान की आराधना नहीं, अपनी रोजीरोटी की चिंता करनी चाहिए.

वह वर्षा के रोजरोज के व्रत से भी बहुत परेशान था. आज क्या है? आज पूर्णमासी का व्रत है. आज सोमवती अमावस्या का व्रत है. आज मंगल का व्रत है. यह कहना शायद गलत न होगा कि रोज ही कोई न कोई व्रत होता था और वर्षा उसे अवश्य रखा करती थी. अनिल की उम्र 22 साल की थी और वर्षा की 20 साल. जवानी की उम्र थी, अनिल के दिल में अरमान थे, कुछ उमंगें थीं. वह अपनी पत्नी से प्यार करना चाहता था, किंतु जब भी वह उस से प्यार जताता या उसे छू भर देता तो वर्षा कहती, ‘मुझे हाथ मत लगाओ, जी, मैं आज अमुक व्रत में हूं. मुझे तो पाप लगेगा ही, तुम को भी पाप का भागीदार बनना पड़ेगा,’ बेचारा अनिल दिल मसोस कर रह जाता.

कभी अनिल जोरजबरदस्ती पर उतर आता तो वह अपना पल्ला छुड़ा कर दूसरे कमरे में चली जाती और रामायण या गीता ऊंचीऊंची आवाज में पढ़ने लग जाती. वह उस समय उसे क्या कहता. इन रोजरोज के व्रतों से वह खिन्न रहने लगा था. एक दिन अनिल ने निर्णयात्मक लहजे में कहा, ‘‘वर्षा, यह रोजरोज के व्रत रखने से भला तुम्हें क्या लाभ होता है? क्यों भूखी रहरह कर तुम अपने शरीर को दुर्बल बनाती जा रही हो? कभी अपनी शक्ल भी देखी है आईने में? आंखों के नीचे गड्ढे पड़ गए हैं, रंग पीला पड़ता जा रहा है.’’

इस पर वर्षा बोली, ‘‘व्रत रखने से बड़ा पुण्य मिलता है.’’

‘‘क्या पुण्य मिलता है? तुम वर्षों से नित्य ही कोई न कोई व्रत रखती आ रही हो. कोई परिवर्तन हुआ है घर में? वही दो वक्त की रोटी नसीब होती है, वही नपीतुली तनख्वाह है. तुम्हारे भोलेनाथ ने हमें क्या दिया? महालक्ष्मी ने धन की कौन सी वर्षा कर दी? तुम लौटरी के इतने टिकट लेती हो, कभी तुम्हारी महालक्ष्मी से यह तक तो हुआ नहीं कि एक पैसे का भी इनाम निकलवाया हो.’’

‘‘लौटरीवौटरी तो दूसरी बातें हैं.’’

‘‘फिर यह कथाकीर्तन और व्रत रख कर भूखे मरने से क्या लाभ? भगवान और देवताओं की चापलूसी, खुशामद का क्या फायदा?’’

‘‘इंसान को कर्म तो करना ही चाहिए.’’

‘‘अवश्य करना चाहिए.’’

लेकिन फिर भगवान, देवीदेवता बीच में कहां से कूद पड़े? जैसा कर्म करें वैसा ही उस का नतीजा होगा. मेहनत करेंगे तो पैसा आएगा ही और फिर इस का यह मतलब नहीं कि पति भूखा ही दफ्तर चला जाए और तुम पूजापाठ करती रहो. मुझे एक बूंद देसी घी नसीब नहीं होता और तुम हो कि पूरा एक किलो देसी घी का डब्बा जोत जलाजला कर ही बरबाद कर देती हो?’’

‘‘क्यों नास्तिकों जैसी बातें करते हो?’’

‘‘हां, मैं नास्तिक हूं, वर्षा, यह कहां का न्याय है कि पति असंतुष्ट रहे, अप्रसन्न रहे, पत्नी देवीदेवताओं को प्रसन्न करने के चक्कर में लगी रहे. सुबह उठ कर खाना बना दिया करो, जिस से मैं खाना खा कर दफ्तर जा सकूं. शायद तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हारे

खाना न बनाने की वजह से मुझे रोज ही 100-200 रुपए की चपत लग जाती है. भूखे पेट तो मैं रह नहीं सकता. पूजापाठ करना हो तो दिन में किसी समय कर लिया करो,’’ अनिल ने गुस्से में कहा.

‘‘पूजापाठ तो सुबह ही किया जाता है, उसे कैसे छोड़ दूं?’’

‘‘मुझे चाहे भूखा रहना पड़े? देर से जाने पर मुझे भले ही नौकरी से निकाल दिया जाए?’’

‘‘तुम्हारी नौकरी कहीं नहीं जाती जी, बाबा बालकनाथ सब पर कृपा रखते हैं.’’

‘‘हां, अगर नौकरी से जवाब मिल गया तो तुम्हारे बाबा बालकनाथ की तरह मैं भी झोलीचिमटा ले कर हरिभजन कर लिया करूंगा. मांगने से दो रोटियां मिल ही जाया करेंगी.’’

‘‘तुम बाबा बालकनाथजी का निरादर कर रहे हो?’’ वर्षा ने चिढ़ कर कहा.

‘‘निरादर नहीं कर रहा हूं, मैं तो तुम्हें समझाने की चेष्टा कर रहा हूं. हैरानी है कि तुम्हारे समझ में कुछ नहीं आता.’’

और सचमुच अनिल के लाख समझाने पर भी वर्षा पर कोई असर नहीं हुआ. वह उसी प्रकार व्रत रखती रही, पूजा करती रही और नित्य ही अनिल भूखा दफ्तर जाता रहा. वर्षा का परिवार बेहद अंधविश्वासी था. मातापिता दोनों कईकई आश्रमों में जाते थे. वर्षा सुंदर थी, स्मार्ट थी पर पढ़ाई में साधारण थी और मातापिता व बाबाओं की बात आंख मूंद कर मान लेती थी. उस की शादी अनिल के साथ उस के मामा ने बड़ी भागदौड़ के बाद कराई थी क्योंकि मातापिता तो कहते थे कि बाबा अपनेआप करा देंगे. शादी के बाद अनिल को पता चला कि वर्षा कैसी अंधविश्वासी थी पर उस के अलावा वह हर तरह से ठीकठाक थी. हां, बच्चा न होने पर वह और भावुक हो गई. लेकिन डाक्टरों के पास जाने को वह तैयार नहीं हुई थी.

एक दिन रात के 11 बजे होंगे, अनिल के मन में तरंग उठी. वह उठ कर वर्षा के पलंग के पास जा कर बैठ गया. उस का बैठना था कि वर्षा की आंख खुल गई और वह झट से उठ कर बैठ गई. अनिल ने उसे मनाने की बहुत कोशिश की, किंतु उस ने उसे हाथ तक न लगाने दिया. कहने लगी, ‘‘देखो जी, मैं ने सवा महीने के लिए आप से अलग रहने का व्रत लिया है, अभी 10 दिन बाकी हैं.’’ और फिर उस ने अनिल से अपने कमरे में जा कर सो जाने को कहा. उस के दिल को बहुत गहरी चोट लगी और वह चुपचाप अपने कमरे में आ गया. उसे वर्षा पर बहुत गुस्सा आ रहा था. वह अपनी भूल पर पश्चात्ताप कर रहा था कि मैं ने वर्षा जैसी धर्मांध से क्यों शादी की? मेरा प्यार करने को दिल चाहता है तो मैं कहांजाऊं? उस के दिल में तो यह अरमान ही रहा कि कभी उस की पत्नी उसे प्यार करने के लिए उत्साहित करे, कभी मुसकरा कर उस का स्वागत करे. वर्षा ने हमेशा ही उस का तिरस्कार किया है. उस ने कई तरीकों से उसे समझाने की चेष्टा की, किंतु वर्षा ने अपना नियम न छोड़ा.

आगे पढ़ें- वर्षा को शौचालय जाना था. जाते समय उसे…

बेऔलाद: क्यों पेरेंट्स से नफरत करने लगी थी नायरा

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सन्नाटा: पंछी की तरह क्यों आजाद होना चाहता था सुखलाल

इस वृद्ध दंपती का यह 5वां नौकर  सुखलाल भी काम छोड़ कर चला गया. अब वे फिर से असहाय हो गए. नौकर के चले जाने से घर का सन्नाटा और भी बढ़ गया. नौकर था तो वह इस सन्नाटे को अपनी मौजूदगी से भंग करता रहता था. काम करते-करते कोई गाना गुन-गुनाता रहता था. मुंह से सीटी बजाता रहता था. काम से फारिग हो जाने पर टीवी देखता रहता था. बाहर गैलरी में खड़े हो कर सड़क का नजारा देखने लगता था. उस की उपस्थिति का एहसास इस वृद्ध दंपती को होता रहता था. उन के जीवन की एकरसता इस के कारण ही भंग होती थी, इसीलिए वे आंखें फाड़फाड़ कर उसे देखते रहते थे. दोनों जब तब नौकर से बतियाने का प्रयास भी करते रहते थे.

दोनों ऊंचा सुनते थे, लिहाजा, आपस में बातचीत कम ही कर पाते थे. संकेतों से ही काम चलाते थे. इसी कारण आधीअधूरी बातें ही हो पाती थीं.

जब कभी वे आधीअधूरी बात सुन कर कुछ का कुछ जवाब दे देते थे तो नौकर की मुसकराहट या हंसी फूट पड़ती थी. तब वे समझ जाते थे कि उन्होंने कुछ गलत बोल दिया है. उन्हें अपनी गलती पर हंसी आती थी. इस तरह घर के भीतर का सन्नाटा कुछ क्षणों के लिए भंग हो जाता था.

मगर अब नौकर के चले जाने से यह क्षण भी दुर्लभ हो गए. बाहर का सन्नाटा बोझिल हो गया. अपनी असहाय स्थिति पर वे दुखी होने लगे. इस दुख ने भीतर के सन्नाटे को और भी बढ़ा दिया. इस नौकर ने काम छोड़ने के जो कारण बताए उस से इन की व्यथा और भी बढ़ गई. उन्हें अफसोस हुआ कि सुखलाल के लिए इस घर का वातावरण इतना असहनीय हो गया कि वह 17 दिन में ही चला गया.

वृद्ध दंपती को अफसोस के साथसाथ आश्चर्य भी हुआ कि मांगीबाई तो इस माहौल में 7-8 साल तक बनी रही. उस ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. वह तो इस माहौल का एक तरह से अंग बन गई थी. इस छोकरे सुखलाल का ही यहां दम घुटने लगा.

सुखलाल से पहले आए 4 नौकरों ने भी इस घर के माहौल की कभी कोई शिकायत नहीं की. वे अन्य कारणों से काम छोड़ कर चले गए. मांगीबाई के निधन के बाद उन्हें सब से पहले आई छोकरी को चोर होने के कारण हटाना पड़ा था. उस के बाद आई पार्वतीबाई को दूसरी जगह ज्यादा पैसे में काम मिल गया था, इसलिए उस ने क्षमायाचना करते हुए यहां का काम त्यागा था.

पार्वतीबाई के बाद आई हेमा कामचोर और लापरवाह निकली थी. बारबार की टोकाटाकी से लज्जित हो कर वह चली गई थी. इस के बाद आया वह भील युवक जो यहां आ कर खुश हुआ था. उसे यह घर बहुत अच्छा लगा था. पक्का मकान, गद्देदार बिस्तर, अच्छी चाय, अच्छा भोजन आदि पा कर वह अपनी नियति को सराहता रहा था. उस ने वृद्ध दंपती की अपने मातापिता की तरह बड़े मन से सेवा की थी. पुलिस में चयन हो जाने की सूचना उसे यदि नहीं मिलती तो वह घर छोड़ कर कभी नहीं जाता. वह विवशता में गया था.

उस के बाद आया यह सुखलाल, यहां आ कर दुखीलाल बन गया. 17 दिन बाद एक दिन भी यहां गुजारना उसे असहनीय लगा. 14-15 साल का किशोर होते हुए भी वह छोटे बच्चों की तरह रोने लगा था. रोरो कर बस, यही विनती कर रहा था कि उसे अपने घर जाने दिया जाए.

दंपती हैरान हुए थे कि इसे एकाएक यह क्या हो गया. यह रस्सी तुड़ाने जैसा आचरण क्यों करने लगा? इसीलिए उन्होंने पूछा था, ‘‘बात क्या है? रो क्यों रहा है?’’

इस के उत्तर में सुखलाल बस, यही कहता रहा था, ‘‘मुझे जाने दीजिए, मालिक. मुझ से यहां नहीं रहा जाएगा.’’

तब प्रश्न हुआ था, ‘‘क्यों नहीं रहा जाएगा? यहां क्या तकलीफ है?’’

सुखलाल ने हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘कोई तकलीफ नहीं है, मालिक. यहां हर बात की सुविधा है, सुख है. जो सुख मैं ने अभी तक भोगा नहीं था वह यहां मिला मुझे. अच्छा खानापीना, पहनना सबकुछ एक नंबर. चमचम चमकता मकान, गद्देदार पलंग और सोफे. रंगीन टीवी, फुहारे से नहाने का मजा. ऐसा सुख जो मेरी सात पीढि़यों ने भी नहीं भोगा, वह मैं ने भोगा. तकलीफ का नाम नहीं, मालिक.’’

‘‘तो फिर तुझ से यहां रहा क्यों नहीं जा रहा है? यहां से भाग क्यों रहा है?’’

‘‘मन नहीं लगता है यहां?’’

‘‘क्यों नहीं लगता है?’’

‘‘घर की याद सताती है. मैं अपने परिवार से कभी दूर रहा नहीं, इसलिए?’’

‘‘मन को मार सुखलाल?’’ वृद्ध दंपती ने समझाने की पूरी कोशिश की थी.

‘‘यह मेरे वश की बात नहीं है, मालकिन.’’

‘‘तो फिर किस के वश की है?’’

इस प्रश्न का उत्तर सुखलाल दे न पाया था. वह एकटक उन्हें देखता रहा था. जब इस बारे में उसे और कुरेदा गया था तो वह फिर रोने लगा था. रोतेरोते ही विनती करने लगा था, ‘‘आप तो मुझे बस, जाने दीजिए. अपने मन की बात मैं समझा नहीं पा रहा हूं.’’

वृद्ध दंपती ने इस जिरह से तंग आ कर कह दिया था, ‘‘तो जा, तुझे हम ने बांध कर थोड़े ही रखा है.’’

सुखलाल ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘‘जाऊं? आप की इजाजत है?’’

‘‘हां सुखलाल, हां. हम तुझे यहां रहने के लिए मजबूर तो नहीं कर सकते?’’

सुखलाल का चेहरा खिल उठा. वह अपना सामान समेटने लगा था. इस बीच वृद्ध दंपती ने उस का हिसाब कर दिया था. वह अपना झोला ले कर उन के पास आया तो उन्होंने हिसाब की रकम उस की ओर बढ़ाते हुए कहा था, ‘‘ले.’’

सुखलाल ने यह रकम अपनी जेब में रख कर अपना झोला दंपती के सामने फैलाते हुए कहा था, ‘‘देख लीजिए,’’ मगर वृद्ध दंपती ने इनकार में हाथ हिला दिए थे.

सुखलाल ने दोनों के चरणस्पर्श कर भर्राए स्वर में कहा था, ‘‘मुझे माफ कर देना, मालिक. आप लोगों को यों छोड़ कर जाते हुए मुझे दुख हो रहा है, पर करूं भी क्या?’’ इतना कह कर वह फर्श पर बैठते हुए हाथ जोड़ कर बोला था, ‘‘एक विनती और है?’’

‘‘क्या…बोलो?’’

‘‘बड़े साहब से मेरी शिकायत मत करिएगा वरना मेरे मांबाप आदि की नौकरी खतरे में पड़ जाएगी. इतनी दया हम पर करना.’’

बड़े साहब से सुखलाल का आशय वृद्धा के भाई फारेस्ट रेंजर से था. वही अपने विश्वसनीय नौकर भिजवाता रहा था. उसी ने ही इस सुखलाल को भी नर्सरी में परख कर भिजवाया था. वह अपने परिवार के साथ वहीं काम कर रहा था.

वृद्ध दंपती से कोई आश्वासन न मिलने पर वह फिर गिड़गिड़ाया था, ‘‘बड़े साहब के डर के कारण ही इतने दिन मैं ने यहां काटे हैं. वरना मैं 2-4 दिन पहले ही चल देता. मेरा मन तो तभी से उखड़ गया था.’’

‘‘मन क्यों उखड़ गया था?’’

तब सुखलाल आलथीपालथी मार कर इतमीनान से बैठते हुए बोला था, ‘‘मन उखड़ने का खास कारण था यहां का सन्नाटा, घर के भीतर का सन्नाटा. यह सन्नाटा मेरे लिए अनोखा था क्योंकि मैं भरेपूरे परिवार का हूं, मेरे घर में हमेशा हाट बाजार की तरह शोरगुल मचा रहता है.

‘‘मगर यहां तो मरघट जैसे सन्नाटे से मेरा वास्ता पड़ा. हमेशा सन्नाटा. किसी से बातें करने तक की सुविधा नहीं. आप दोनों बहरे, इस कारण आप से भी बातें नहीं कर पाता था. अभी की तरह जोरजोर से बोल कर काम लायक बातें ही हो पाती थीं, इसीलिए मेरा दम जैसे घुटने लगता था. मैं बातूनी प्रवृत्ति का हूं. मगर यहां मुझे जैसे मौन व्रत साधना पड़ा, इसीलिए यह सन्नाटा मुझे जैसे डसने लगा.

‘‘मुझे ऐसा लगने लगा कि जैसे मैं किसी पिंजरे में बंद कर दिया गया हूं. इसीलिए मेरा मन यहां लगा नहीं. मेरा घर मुझे चुंबक की तरह खींचने लगा. आप दोनों को जब तब इस छोटी गैलरी में बैठ कर सामने सड़क की ओर ताकते देख कर मुझे पिंजरे के पंछी याद आने लगे. इस पिंजरे से बाहर जाने को मैं छटपटाने लगा. मेरा मन बेचैन हो गया. इसीलिए आप से यह विनती करनी पड़ी. मेरे मन की दशा बड़े साहब को समझा देना. मैं बड़े भारी मन से जा रहा हूं.’’

छोटे मुंह बड़ी बातें सुन कर वृद्ध दंपती चकित थे. उन्हें आश्चर्य हुआ था कि साधारण, दुबलेपतले इस किशोर की मूंछें अभी उग ही रही हैं मगर इस ने उन की व्यथा को मात्र 17 दिन में ही समझ लिया. गैलरी में बैठ कर हसरत भरी निगाहों से सामने सड़क पर बहते जीवन के प्रवाह को निहारने के उन के दर्द को भी वह छोकरा समझ गया, इसीलिए उन का मन हुआ था कि इस समझदार लड़के से कहें कि तू ने पिंजरे के पंछी वाली जो बात कही वह बिलकुल सही है. हम सच में पिंजरे के पंछी जैसे ही हो गए हैं. शारीरिक अक्षमता ने हमें इस स्थिति में ला दिया.

शारीरिक अक्षमता से पहले हम भी जीवन के प्रवाह के अंग थे, अब दर्शक भर हो गए. शारीरिक अक्षमता ने हमें गैलरी में बिठा कर जीवन के प्रवाह को हसरत भरी नजरों से देखते रहने के लिए विवश कर दिया. सामने सड़क पर जीवन को अठखेलियां करते, मस्ती से झूमते, फुदकते एवं इसी तरह अन्य क्रियाएं करते देख हमारे भीतर हूक सी उठती है. अपनी अक्षमता कचोटती है. हमारी शारीरिक अकर्मण्यता हमारी हथकड़ी, बेड़ी बन गई. पिंजरा बन गई. हम चहचहाना भूल गए.

वृद्ध दंपती का मन हो रहा था कि वे सुखलाल से कहें कि हाथपांव होते हुए भी वे हाथपांवविहीन से हो गए. बल्कि जैसे पराश्रित हो गए. पाजामे का नाड़ा बांधना, कमीज के बटन लगाना, खोलना, शीशी का ढक्कन खोलना, पैंट की बेल्ट कसना, अखबार के पन्ने पलटना, शेव करना, नाखून काटना, नहाना, पीठ पर साबुन मलना जैसे साधारण काम भी उन के लिए कठिन हो गए. घूमनाफिरना दूभर हो गया. हाथपांव के कंपन ने उन्हें लाचार कर दिया.

भील युवक ने उन की लाचारी समझ कर उन्हें हर काम में सहायता देना शुरू किया था. वह उन के नाखून काटने लगा था. शेव में सहायता करने लगा था. कपड़े पहनाने लगा था. बिना कहे ही वह उन की जरूरत को समझ लेता था. समझदार युवक था. ऐसी असमर्थता ने जीवन दूभर कर दिया है.

वृद्धा के मन में भी हिलोर उठी थी कि इस सहृदय किशोर को अपनी व्यथा से परिचित कराए. इसे बतलाए कि डायबिटीज की मरीज हो जाने से वह गठिया, हार्ट, ब्लडप्रेशर आदि रोगों से ग्रसित हो गई. उस की चाल बदल गई. टांगें फैला कर चलने लगी. एक कदम चलना भी मुश्किल हो गया. फीकी चाय, परहेजी खाना लेना पड़ गया. खानेपीने की शौकीन को इन वर्जनाओं में जीना पड़ रहा है. फिर भी जब तब ब्लड में शुगर की मात्रा बढ़ ही जाती है. मौत सिर पर मंडराती सी लगती है. परकटे पंछी जैसी हो गई है वह. पिंजरे के पंछी पिंजरे में पंख तो फड़फड़ा लेते हैं मगर उस में तो इतनी क्षमता भी नहीं रही.

मगर दोनों ने अपने मन का यह गुबार सुखलाल को नहीं बताया. वे मन की बात मन में ही दबाए रहे. सुखलाल से तो वह इतना ही कह पाए, ‘‘हम रेंजर साहब से तुम्हारी शिकायत नहीं करेंगे, बल्कि तुम्हारी सिफारिश करेंगे. तुम निश्चिंत हो कर जाओ. हम उन से कहेंगे कि तुम्हें आगे पढ़ाया जाए.’’

सुखलाल की बांछें खिल उठी थीं. वह खुशी से झूमता हुआ चल पड़ा था. जातेजाते उस ने वृद्ध दंपती के चरण स्पर्श किए थे. बाहर सड़क पर से उस ने गैलरी में आ खड़े हुए दंपती को ‘टाटा’  किया था. उन्होंने भी ‘टाटा’ का जवाब हाथ हिला कर ‘टाटा’ में दिया था. वे आंखें फाड़फाड़ कर दूर जाते हुए सुखलाल को देखते रहे. उन्हें वही प्रसन्नता हुई थी जैसे पिंजरे के पंछी को आजाद हो कर मुक्त गगन में उड़ने पर होती है.

बेऔलाद: भाग 5- क्यों पेरेंट्स से नफरत करने लगी थी नायरा

मगर नायरा ने नरेश से बात तक करना छोड़ दिया था. उस की तो बस एक ही जिद थी कि उसे अपनी मां से मिलना है. हार कर नरेश ने ही घुटने टेक दिए और बताया कि उस की मां दक्षिण अमेरिका के चिली में रहती है. नायरा के सामने एक बहुत बड़ी समस्या यह थी कि वहां जाने के लिए पैसे भी बहुत लगेंगे… वहां तक पहुंचेगी कैसे? वहां की भी तो यहां से अलग है. लेकिन जब उसे पता चला 12 टूरिस्टों में से एक ‘चिली’ का है तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. जब उस ने उस से बात की और अपनी समस्या से अवगत कराया तो वह नायरा की मदद के लिए तैयार हो गया. उस ने यह भी कहा कि वह नायरा को वहां की थोड़ीबहुत भाषा भी सिखा देगा. 46 साल का जेम्स बहुत ही अच्छा इंसान था. वह नायरा को ‘सिस्टर’ कह कर बुलाता था. जगहजगह घूमना और वहां की युनीक चीजों को अपने कैमरे में कैद करना उस का फैशन था.

सिर पर हाथ रखे बैठी नायरा सोच ही रही थी कि यहां तक तो समस्या सुल?झते दिख रहा है, लेकिन पैसे… वे कहां से आएंगे? बिना पैसे के वह उतनी दूर अपनी मां से मिलने कैसे जाएगी? तभी अपने सामने अपने पापा नरेश को खड़े देख वह उठ खड़ी हुई. उसे लगा नरेश फिर उसे सम?झने आया है कि वह अपनी जिद छोड़ दे. लेकिन नरेश ने उस के हाथों में ब्लैंक चैक पकड़ाते हुए कहा कि वह जितने चाहे पैसे निकल ले. लेकिन वह अपना ध्यान रखे. पहुंचने पर एक फोन जरूर कर दे. बोलते हुए नरेश की आंखों से आंसू गिर पड़े, जिन्हें वह अपनी शर्ट से पोंछने लगा ताकि नायरा देख न ले. लेकिन अगर नायरा को अपने पापा के आंसुओं की इतनी ही चिंता होती तो वह उन्हें छोड़ कर जाती ही क्यों?

उसे तो अब भी यही लग रहा था कि नरेश ने उसे उस की मां से छीन कर उसे अपनी

जिंदगी से बाहर फेंक दिया. उसे लगा रहा था दुनिया के सारे मर्द एकजैसे हैं. नरेश ने कितना सम?झया कि जैसा वह सम?झ रही है वैसा बिलकुल नहीं है और अगर उस की मां को उस से प्यार होता तो क्या वह एक बार फोन कर के उस का हालचाल नहीं पूछती? लेकिन अपनी मां की तरह ही जिद्दी नायरा, 7 समुंदर पार उस से जोली से मिलने निकल पड़ी. नायरा की बहुत सी आदतें जोली से मिलतीजुलती थीं. नायरा को भी अपनी मां की तरह आर्किटैक्चर बनने का शौक था. वह भी शादी में विश्वास नहीं रखती थी. वह भी अपनी मां की तरह देशदुनिया घूमना पसंद करती थी.

अमेरिका रवाना होते समय नरेश ने खुद की और जोली की एक पेयर फोटो नायरा को थमाते हुए कहा था कि यही उस की मां है. नरेश ने फोटो इसलिए दिया ताकि जोली को लगे कि नायरा सच कह रही है. नायरा ने देखा, देखने में वह बहुत कुछ अपनी मां जैसी ही है. रास्ते भर वह अपनी मां से मिलने के खयालों में खोयी रही. उसे तो लग रहा था जैसे वह सपना देख रही है. लेकिन यह सच था कि जेम्स की मदद से वह चिली पहुंच चुकी थी. लेकिन कई दिनों की कोशिशों के बाद भी उसे जोली के बारे में कुछ पता नहीं चल रहा था. फिर एक दिन जेम्स ने उसे बताया कि जोली का पता चल गया. उस की मां यहीं चिली में ही अपना आर्किटेक्चर का फर्म चलाती है. जेम्स ने ही सु?झया कि क्यों न वह आर्किटेक्चर में इंटर्नशिप के बहाने जोली से मिले. नायरा को यह आइडिया बहुत ही अच्छा लगा और उस ने वही किया. अपनी मां को अपने इतने करीब देख कर नायरा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मन तो किया उस का अपनी मां के गले लग जाए और कहे कि वह उस की बेटी है. लेकिन क्या वह किसी अंजान लड़की पर भरोसा करेगी? इसलिए नायरा को अभी कुछ बताना उचित नहीं लगा.

नायरा को तो पता था वह उस की मां है, पर जोली तो नहीं जानती थी कि वह उस की बेटी है. लेकिन फिर भी उसे नायरा का साथ बहुत अच्छा लगता था. अच्छा लगने का एक कारण यह भी था कि नायरा इंडिया से थी. नहीं, उसे नरेश की याद नहीं आती थी. मगर कुछ तो था जो उसे इंडिया से जोड़े हुए था लेकिन क्या, नहीं पता उसे. नायरा यहां एक पीजी में रहती है जो जेम्स की मदद से मिला था. पीजी अच्छा था लेकिन जोली के पूछने पर कह दिया कि वहां उसे अच्छा नहीं लगता है. ताकि जोली उसे अपने घर आ कर रहने को इनवाइट करे और वह जरा नानुकर के बाद मान जाए. यह आइडिया भी उसे जेम्स ने ही दिया था. जेम्स फोन पर उस से उस का हालचाल लेता रहता था. खैर, नायरा अब जोली के साथ उस के घर आ कर ही रहने लगी थी. लेकिन उसे जोली को अपने बारे में बताने का मौका नहीं मिल रहा था.

इंसान शराब तब पीता है जब वह बहुत खुश हो या बहुत ज्यादा दुखी. जोली बहुत

दुखी थी क्योंकि आज उस के एकलौते बेटे का जन्मदिन था और वह अपनी मां से मिलना भी नहीं चाहता था. जोली का अपने पति ग्रेग से सालों पहले तलाक हो चुका था. दोनों के बीच बच्चे की कस्टडी को ले कर ?झगड़ा चला, लेकिन जीत ग्रेग की हुई. उस ने कोर्ट में यह साबित कर दिया कि जोली एक अच्छी मां नहीं और आस्टिन, जोली का बेटा उस का भविष्य उस के साथ सुरक्षित नहीं है.  हालांकि, कोर्ट ने उसे अपने बेटे से मिलने की अनुमति दी थी. पर खुद आस्टिन ही अपनी मां से मिलना नहीं चाहता है. उसे उस की मां दुनिया की सब से बुरी मां लगती है. अपने बेटे को याद कर जोली पैग पर पैग लिए जा रही थी और बकबक बोले भी जा रही थी. ज्यादा शराब कहीं जोली को नुकसान न पहुंचा दे, यह सोच कर नायरा ने उसे और शराब पीने से रोका, तो वह कहने लगी कि उस से ज्यादा बदकिस्मत औरत इस दुनिया में और कोई नहीं होगी. कहते हैं इंसान जब नशे में होता है तो सच बोलता है और आज जोली भी सारी सचाई उगलने लगी. शराब के नशे में पुरानी सारी बातें उस ने नायरा के सामने खोल कर रख दीं. यह भी कि वह नरेश के बच्चे की मां बनने वाली थी और उस ने एक बेटी को जन्म दिया था.

‘‘तो अब वह बच्चा कहां है?’’ वह जानना चाहती थी कि आखिर ऐसा क्या हुआ था कि उसे अपनी बेटी को छोड़ कर यहां आना पड़ा.

‘‘बेटी को छोड़ कर. अरे नहीं, मुझे तो वह बच्चा चाहिए ही नहीं था,’’ शराब का एक घूंट भरते हुए वह बोली.

‘‘फुलिश मैन नरेश को लगा मैं उस से प्यार करती हूं और शादी करूंगी. पागल,’’ बोल कर एक ?झटके में ही पूरा ग्लास खाली कर दिया और ठहाके लगा कर आगे बोली, ‘‘वह बच्चा मेरी जिंदगी की पहली और आखिरी गलती थी जिसे मैं ने हमेशा के लिए खत्म कर दिया. मैं ने कितनी कोशिश की थी अबौर्शन कराने की पर सारे डाक्टरों ने मना कर दिया. अपने देश आ कर अबौर्शन करा नहीं सकती थी क्योंकि मुझे जेल नहीं जाना था. इसलिए मजबूरन मुझे वहां रहना पड़ा ताकि उस बच्चे को जन्म दे सकूं.’’

‘‘तो वह बच्ची कहां है अब?’’ नायरा ने पूछा.

‘‘कचरे के डब्बे में… मैं उसे कचरे के डब्बे में फेंक आई थी क्योंकि उस की असली जगह वही थी.’’

जोली की बात सुन कर नायरा सन्न रह गई. उस की आंखों से ?झर?झर आंसू बहने लगे.

‘‘मुझे उस बच्चे से कुछ लेनादेना ही नहीं था तो फिर यहां ला कर क्या करती? पता नहीं, पर उसे जरूर लावारिस जानवर खा गए होंगे,’’ बोलते हुए जोली की जबान भी नहीं लड़खड़ाई.

आखिर कोई मां इतनी बेरहम दिल कैसे हो सकती है. नायरा को अपने पापा की याद सताने लगी थी. कहा था उन्होंने जैसे वह अपने पापा के बारे में सोच रही है, बात वह नहीं बल्कि… लेकिन कहां सुन पाई थी वह नरेश की पूरी बात. बीच में ही अपने कान बंद कर लिए थे ताकि कुछ सुन ही न पाए.

जोली की 1-1 बात उसे सूई की तरह चुभ रही थी. नायरा वहां से उठ कर जाने ही लगी कि उस का सिर घूम गया और वह वहीं पर गिर पड़ी.  होश आया तो वह अस्पताल में थी. जोली उस के पास बैठी उस का माथा सहला रही थी, पूछ रही थी कि अचानक उसे क्या हो गया. लेकिन नायरा के पास कोई जवाब नहीं था. उसे तो बस अब अपने पापा के पास जाना था. नरेश ने अपनी बेटी की खातिर आज तक शादी नहीं की और इस औरत ने सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देखा.

नायरा ने फोन कर अपने बीमार होने की बात जब नरेश को बताई, तो वह पागलों की तरह भागता हुआ यहां पहुंच गया. अचानक वर्षों बाद नरेश को अपने सामने देख कर जोली की आंखें फटी की फटी रह गईं. उसे अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था कि नरेश उस के सामने खड़ा है. लेकिन जब भरोसा हुआ और जाना कि नायरा कोई और नहीं, बल्कि उस की वही बेटी है जिसे वह कचरे में फेंक आई थी. बेटी के लिए उस के दिल में प्यार उमड़ पड़ा. कहने लगी, ‘‘मैं मानती हूं कि मु?झ से गलती हुई, बहुत बड़ी गलती हुई. लेकिन मुझे माफ कर दो नरेश. इतनी बड़ी सजा मत दो मुझे. प्लीज, नरेश लौटा दो मेरी बेटी मुझे,’’ जोली नरेश के सामने हाथ जोड़ कर कहने लगी, ‘‘बोलो न नायरा को वह मुझे छोड़ कर न जाए. नायरा मैं तुम्हारी मां हूं मैं ने तुम्हें जन्म दिया है. मेरा हक है तुम पर… और देखो, यह घर, औफिस यहां तक की अपना सारा बैंक बैलेंस भी मैं तुम्हारे नाम कर दूंगी. प्लीज, बेटा, माफ कर दो अपनी मां को. मत जाओ मुझे छोड़ कर,’’ घिघियाते हुए जोली दोनों के सामने हाथ जोड़ने लगी. सब उस की जिंदगी से जा चुके थे. अब उसे नायरा में ही अपना सहारा नजर आ रहा था.

‘‘माफ कर दूं आप को जिस ने मेरे पापा को सिर्फ यूज किया अपने स्वार्थ के लिए. मुझे लगा था पापा गलत है इसलिए इन से लड़?झगड़ मैं यहां आप के पास आ गई थी. लेकिन गलत थी मैं.

हमारे यहां एक कहावत है, ‘पूत भले ही कुपूत बन जाए, पर माता कभी कुमाता

नहीं होती.’ लेकिन आज देख रही हूं कि एक माता भी कुमाता हो सकती है. एक मां अपने बच्चे को मरने के लिए छोड़ सकती है,’’ बोलतेबोलते नायरा का स्वर तेज हो गया…, ‘‘और आप ने सोच भी कैसे लिए कि सबकुछ जानने के बाद भी मैं आप के साथ आ कर रहूंगी? नहीं चाहिए मुझे आप का यह घर, औफिस और बैंक बैलेंस.

‘‘पापा, आप ने सही कहा था, मेरी मां मर चुकी है,’’ कह कर नायरा अपने पापा का हाथ पकड़ कर जाने लगी, लेकिन फिर पलट कर बोली, ‘‘एक बात और… 2 बच्चों को जन्म देने के बाद भी आज तुम बेऔलाद हो और रहोगी क्योंकि तुम इसी लायक हो.’’

अपनी बेटी को जाते वह देखती रह गई क्योंकि उसे रोकने का उसे कोई हक नहीं था. उस के लिए तो उस की बेटी कब की मर चुकी थी.

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