लियो: क्या जोया से दूर हुआ यश

राधा यश पर खूब बरसीं, धर्म, जाति, समाज की बड़ीबड़ी बातें कीं लेकिन जब यश भी उखड़ गया, तो रोने लगीं. ये कैसी मां हैं, क्या इन्हें अपने इकलौते व योग्य बेटे की खुशी पसंद नहीं? इंसानों ने अपनी खुशियों के बीच इतनी दीवारें क्यों खड़ी कर ली हैं? अपनों की खुशी इन दीवारों के आगे माने नहीं रखती क्या? राधा जोया को इतने अपशब्द क्यों कह रही हैं? आखिर, ऐसा क्या किया है उस ने?

अहा, जोया आ रही है. उस के परफ्यूम की खुशबू को मैं पहचानता हूं और वह मेरे लिए मटन ला रही है, मुझे यह भी पता चल गया है. अब आई, अब आई और यह बजी डोरबैल. यश लैपटौप पर कुछ काम कर रहा था, जिस फुरती से उस ने दरवाजा खोला, हंसी आई मुझे. प्यार करता है जोया से वह और जोया भी तो जान देती है उस पर. दोनों साथ में कितने अच्छे लगते हैं जैसे एकदूसरे के लिए ही बने हैं.

जैसे ही यश ने दरवाजा खोला, जोया अंदर आई. आते ही यश ने उस के गाल पर किस कर दिया. वह शरमा गई. मैं ने लपक कर अपनी पूंछ जोरजोर से हिला कर अपनी तरह से जोया का स्वागत किया. वह मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए नीचे ही बैठ गई. पूछा, ‘‘कैसे हो, लिओ? देखो, तुम्हारे लिए क्या लाई हूं.’’

मैं ने और तेजी से अपनी पूंछ हिलाई. फिर जोया ने आंगन की तरफ मेरे बरतनों के पास जाते हुए कहा, ‘‘आओ, लिओ.’’ मैं मटन पर टूट पड़ा, कितना अच्छा बनाती है जोया. उस के हाथ में कितना स्वाद है. राधारानी तो अपने मन का कुछ भी बनाखा कर अपनी खाली सहेलियों के साथ सत्संग, भजनों में मस्त रहती हैं. यश बेचारा सीधा है, मां जो भी बना देती है, चुपचाप खा लेता है. कभी कोई शिकायत नहीं करता. अच्छे बड़े पद पर काम करता है, पर घमंड नाम का भी नहीं. और जोया भी कितनी सलीकेदार, पढ़ीलिखी नरम दिल लड़की है. मैं तो इंतजार कर रहा हूं कि कब वह यश की पत्नी बन कर इस घर में आए.

यश के पापा शेखर भी बहुत अच्छे स्वभाव के हैं. घर में क्लेश न हो, यह सोच कर ज्यादातर चुप रहते हैं. राधा की जिदों पर उन्हें गुस्सा तो खूब आता है पर शांत रह जाते हैं. शायद इसी कारण से राधारानी जिद्दी और गुस्सैल होती चली गई हैं. यश का स्वभाव बिलकुल अपने पापा पर ही तो है. घर में मुझे प्यार तो सब करते हैं, राधारानी भी, पर मुझे उन का अपनी जाति पर घमंड करना अच्छा नहीं लगता. उन की बातें सुनता हूं तो बुरा लगता है. बोल नहीं पाता तो क्या हुआ, सुनतासमझता तो सब हूं.

मैं यश और जोया को बताना चाहता हूं कि राधारानी यश के लिए लड़कियां देख रही हैं, यह अभी यश को पता ही नहीं है. वह तो सुबह निकल कर रात तक ही आता है. वह घर आने से पहले जब भी जोया से मिल कर आता है, मैं समझ जाता हूं क्योंकि यश के पास से जोया के परफ्यूम की खुशबू आ जाती है मुझे. एक दिन जोया यश को बता रही थी कि उस का भाई समीर फ्रांस से यह परफ्यूम ‘जा दोर’ लाया था. जब घर में शेखर और राधा नहीं होते, यश जोया को घर में ही बुला लेता है. मैं खुश हो जाता हूं कि अब जोया आएगी, यश की फोन पर बात सुन लेता हूं न. जोया मुझे बहुत प्यार करती है, इसलिए हमेशा मेरे लिए कुछ जरूर लाती है.

यश जोया को अपने बैडरूम में ले गया तो मैं चुपचाप आंगन में आ कर बैठ गया. इतनी समझ है मुझ में. दोनों को बड़ी मुश्किल से यह तनहाई मिलती है. शेखर और राधा को, बस, इतना ही पता है कि दोनों अच्छे दोस्त हैं. दोनों एकदूसरे को बेइंतहा प्यार करते हैं, इस की भनक भी नहीं है उन्हें. मैं जानता हूं, जिस दिन राधारानी को इस बात का अंदाजा भी हो गया, जोया का इस घर में आना बंद हो जाएगा. एक विजातीय लड़की से बेटे की बाहर की दोस्ती तो ठीक है पर इस के आगे राधारानी कुछ सह न पाएंगी. धर्मजाति से बढ़ कर उन के जीवन में कुछ भी नहीं है, पति और बेटे की खुशी भी नहीं.

थोड़ी देर बाद जोया ने अपने और यश के लिए कौफी बनाई. फिर दोनों ड्राइंगरूम में ही बैठ कर बातें करने लगे. अब मैं उन दोनों के पास ही बैठा था.  कौफी पीतेपीते अपने पास बिठा कर मेरे  सिर पर हाथ फेरते रहने की यश की आदत है. मैं भी खुद ही कौफी का कप देख कर उस के पास आ कर बैठ जाता हूं. मुझे भी यही अच्छा लगता है. उस के स्पर्श में इतना स्नेह है कि मेरी आंखें बंद होने लगती हैं, ऊंघने भी लगता हूं. पर अचानक जोया के स्वर में उदासी महसूस हुई तो मेरे कान खड़े हुए.

जोया कह रही थी, ‘‘यश, अगर मैं ने अपने मम्मीपापा को मना भी लिया तो तुम्हारी मम्मी तो कभी राजी नहीं होंगी, सोचो न यश, कैसे होगा?’’

‘‘तुम चिंता मत करो जो, अभी टाइम है, सब ठीक हो जाएगा.’’

जो, यश भी न. जोया के पहले से ही छोटे नाम को उस ने ‘जो’ में बदल दिया है, हंसी आती है मुझे. खैर, मैं यश को कैसे बताऊं कि अब टाइम नहीं है, राधारानी लड़कियां देख रही हैं. मैं ने अपने मुंह से कूंकूं तो किया पर समझाऊं कैसे. मुझे जोया के उतरे चेहरे को देख कर तरस आया तो मैं जोया की गोद में मुंह रख कर बैठ गया.

जोया की आंखें भर आई थीं, बोली, ‘‘यश, मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकती.’’

‘‘ठीक है जो, मैं मम्मी से जल्दी ही बात करूंगा. तुम दुखी मत हो.’’

फिर यश अपने हंसीमजाक से जोया को हंसाने लगा. दोनों हंसते हुए कितने प्यारे लगते हैं. जोया की लंबी सी चोटी पकड़ कर यश ने उसे अपने पास खींच लिया था. वह हंस दी. मैं भी हंस रहा था. फिर जोया ने अपने फोन से हम तीनों की एक सैल्फी ली. वाह, ‘हैप्पी फैमिली’ जैसा फील हुआ मुझे. फिर जोया टाइम देखती हुई उठ खड़ी हुई, ‘‘अब आंटीअंकल के आने का टाइम हो रहा है, मैं चलती हूं.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कहते हुए यश ने खड़े हो कर उसे बांहों में भर लिया, फिर उस के होंठों पर किस कर दिया. मैं जानबूझ कर इधरउधर देखने लगा था.

जोया के जाने के 20 मिनट बाद शेखर और राधा आ गए. मैं ने सोचा, अच्छा हुआ, जोया टाइम से चली गई. जोया के परफ्यूम की जो खुशबू पूरे घर में आती रहती है, उसे शेखर और राधा महसूस नहीं करते. घंटों तक रहती है यह खुशबू घर में. कितनी अच्छी खुशबू है यह. पर आज शायद घर में मटन और परफ्यूम की अलग ही खुशबू राधारानी को महसूस हो ही गई, पूछा, ‘‘यश, कैसी महक है?’’

‘‘क्या हुआ, मम्मी?’’

‘‘कोई आया था क्या?’’

‘‘हां मम्मी, मेरे कुछ फ्रैंड्स आए थे.’’

शक्की तो हैं ही राधारानी, ‘‘अच्छा? कौनकौन?’’

‘‘अमित, महेश, अंजलि और जोया. जोया ही लिओ के लिए मटन ले आई थी.’’

शेखर ने जोया के नाम पर जिस तरह यश को देखा, मजा आ गया मुझे. बापबेटे की नजरें मिलीं तो यश मुसकरा दिया, वाह. बापबेटे की आंखोंआंखों में जो बातें हुईं, उन से मुझे मजा आया. दोनों का बढि़या दोस्ताना रिश्ता है. शेखर गरदन हिला कर मुसकराए, यश मुंह छिपा कर हंसने लगा. अचानक राधा ने कहा, ‘‘यश, अगले वीकैंड का कुछ प्रोग्राम मत रखना. फ्री रहना.’’

‘‘क्यों, मम्मी?’’

‘‘मैं ने तुम्हारे लिए एक लड़की पसंद की है, ज्योति, उसे देखने चलेंगे.’’

‘‘नहीं मम्मी, मुझे नहीं देखना है किसी को.’’

‘‘क्यों?’’ राधारानी के माथे पर त्योरियां उभर आईं.

‘‘बस, नहीं जाना मुझे.’’

‘‘कारण बताओ.’’

यश ने पिता को देखा, शेखर ने सस्नेह पूछा, ‘‘तुम्हारी कोईर् पसंद है?’’

यश साफ बात करने वाला सच्चा इंसान है. उसे लागलपेट नहीं आती, बोला, ‘‘मम्मी, मुझे जोया पसंद है, मैं उसी से मैरिज करूंगा.’’

जोया के नाम पर जो तूफान आया, पूरा घर हिल गया. राधा यश पर खूब बरसीं, धर्म, जाति, समाज की बड़ीबड़ी बातें कीं. जब यश भी उखड़ गया, तो रोने पर आ गईं. वैसा ही दृश्य हो गया जैसा फिल्मों में होता है. यश जब घर में कोई मूवी देखता है, मैं भी देखता हूं उस के साथ बैठ कर, ऐसा दृश्य तो खूब घिसापिटा है पर अब तो मेरे यश से इस का संबंध था तो मैं बहुत दुखी हो रहा था. मुझे बारबार जोया की आज की ही आंसुओं से भरी आंखें याद आ रही थीं.

मैं चुपचाप शेखर के पास बैठ कर सारा तमाशा देख रहा था और सोच रहा था, ये कैसी मां हैं, क्या इन्हें अपने इकलौते व योग्य बेटे की खुशी अजीज नहीं?

इंसानों ने अपनी खुशियों के बीच इतनी दीवारें क्यों खड़ी कर ली हैं? अपनों की खुशी इन दीवारों के आगे माने नहीं रखती? राधा जोया को इतने अपशब्द क्यों कह रही हैं? ऐसा क्या किया उस ने?

यश अपने बैडरूम की तरफ बढ़ गया तो मैं झट उठ कर उस के पीछे चल दिया. वह बैड पर औंधेमुंह पड़ गया. मैं ने उस के पैर चाटे. अपना मुंह उस के पैरों पर रख कर उसे तसल्ली दी. वह मुझे अपनी गोद में उठा कर वापस अपने पास लिटा कर एक हाथ अपनी आंखों पर रख कर सिसक उठा तो मुझे भी रोना आ गया. यश को तो मैं ने आज तक रोते देखा ही नहीं था. ये कैसी मां हैं? इतने में शेखर यश के पास आ कर बैठ गए.

यश के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,  ‘‘बेटा, तुम्हारी मां जोया को किसी सूरत में स्वीकार नहीं करेंगी.’’

‘‘और मैं उस के सिवा किसी और से विवाह नहीं करूंगा, पापा.’’

घर का माहौल अजीब हो गया था. अगले कई दिन घर का माहौल बेहद तनावपूर्ण रहा. राधा और यश दोनों अपनी बात पर अड़े थे. शेखर कभी राधा को समझा रहे थे, कभी यश को. यश कभी घर में खाता, कभी बाहर से खा कर आता और चुपचाप अपने कमरे में बंद हो जाता. वह जोया से तो बाहर मिलता ही था, मुझे तो जोया के परफ्यूम की खुशबू अकसर यश के पास से आ ही जाती थी.

मैं ने जोया को बहुत दिनों से नहीं देखा था. मुझे जोया की याद आती थी. यश का उदास चेहरा देख कर भी राधा का हठ कम नहीं हो रहा था और मेरा यश तो मुझे आजकल बिलकुल रूठारूठा फिल्मी हीरो लगता था.

एक दिन राधा यश के पास आईं, टेबल पर एक लिफाफा रखती हुई बोलीं, ‘‘यह रही ज्योति की फोटो. एक बार देख लो, खूब धनी व समृद्ध परिवार है.  ज्योति परिवार की इकलौती वारिस है. तुम्हारा जीवन बन जाएगा और एक बात कान खोल कर सुन लो, यह इश्क का भूत जल्दी उतार लो, वरना मैं अन्नजल त्याग दूंगी.’’

मैं ने मन ही मन कहा, झूठी. आप तो भूखी रह ही नहीं सकतीं. व्रत में भी आप का मुंह पूरा दिन चलता है. मेरे यश को झूठी धमकियां दे रही हैं राधारानी. झूठी बातें कर के यश को परेशान कर रही हैं, बेचारा फंस न जाए. अन्नजल त्यागने की धमकी से सचमुच यश का मुंह उतर गया.

अब मैं कैसे बताऊं कि यश, इस धमकी से डरना मत, तुम्हारी मां कभी भूखी नहीं रह सकतीं. जोया को न छोड़ना, तुम दोनों साथ बहुत खुश रहोगे. पिछली बार जो मेरे फेवरेट पौपकौर्न तुम मेरे लिए लाए थे, आधे तो राधारानी ने ही खा लिए थे. 4 अपने मुंह में डाल रही थीं तो एक मेरे लिए जमीन पर रख रही थीं. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरे फेवरेट पौपकौर्न हैं और तुम मेरे लिए लाए थे. तुम ने जोया के साथ मूवी देखते हुए खरीदे थे और आ कर झूठ बोला था कि एक दोस्त के साथ मूवी देख कर आए हो. हां, ठीक है, ऐसी मां से झूठ बोलना ही पड़ जाता है. गपड़गपड़ सारे पौपकौर्न खा गई थीं राधारानी. ये कभी भूखी नहीं रहतीं, तुम डरना मत, यश.

फोटो पटक कर राधा शेखर के साथ कहीं बाहर चली गई थीं. यश सिर पकड़ कर बैठ गया था. मैं तुरंत उस के पैरों के पास जा कर बैठ गया. इतने दिनों से घर में तूफान आया हुआ था. यश के साथ मैं भी थक चुका था. मैं ने उसे कभी अपने मातापिता से ऊंची आवाज में बात करते हुए भी नहीं सुना था. उसे अपनी पसंद की जीवनसंगिनी की इच्छा का अधिकार क्यों नहीं है? इंसानों में यह भेदभाव करता कौन है और क्यों? क्यों एक इंसान दूसरे इंसान से इतनी नफरत करता है? मेरा मन हुआ, काश, मैं बोल सकता तो यश से कहता, ‘दोस्त, यह तुम्हारा जीवन है, बेकार की बहस छोड़ कर अपनी पसंद का विवाह तुम्हारा अधिकार है. राधारानी ज्यादा दिनों तक बेटे से नाराज थोड़े ही रहेंगी. तुम ले आओ जोया को अपनी दुलहन बना कर. जोया को जाननेसमझने के बाद वे तुम्हारी पसंद की प्रशंसा ही करेंगी.’ यश मुझे प्यार करने लगा तो मैं  भी उस से चिपट गया.

मैं बेचैन सा हुआ तो यश ने कहा, ‘‘लिओ, क्या करूं? प्लीज हैल्प मी. बताओ, दोस्त. मां की पसंद देखनी है? मुझे भी पता है तुम्हें भी जोया पसंद है, है न?’’

मैं ने खूब जोरजोर से अपनी पूंछ हिला कर ‘हां’ में जवाब दिया. वह भी समझ गया. हम दोनों तो पक्के दोस्त हैं न. एकदूसरे की सारी बातें समझते हैं, फिर उसे पता नहीं क्या सूझा, बोला, ‘‘आओ, तुम्हें मां की पसंद दिखाता हूं.’’

यश ने मेरे आगे उस लड़की की फोटो की. मुझे धक्का लगा, मेरे हीरो जैसे हैंडसम दोस्त के लिए यह भीमकाय लड़की. पैसे व जाति के लिए राधारानी इसे बहू बना लेंगी. छिछि, लालची हैं ये. यश को भी झटका लगा था. वह चुपचाप अपनी हथेलियों में सिर रख कर बैठ गया. उस की आंखों की कोरों से नमी सी बह गई. मैं ने उस के घुटनों पर अपना सिर रख कर उसे प्यार किया. मुंह से कुछ आवाज भी निकाली. वह थके से स्वर में बोला.

‘‘लिओ, देखा? मां कितनी गलत जिद कर रही हैं. बताओ दोस्त, क्या करना चाहिए अब?’’

मेरा दोस्त, मेरा यार मुझ से पूछ रहा था तो मुझे बताना ही था. राधारानी को पता नहीं आजकल के घर के दमघोंटू माहौल में चैन आ रहा था, यह तो वही जानें. यश की उदासी मुझे जरा भी सहन नहीं हो रही थी. मेरा दोस्त अब मुझ से पूछ रहा था तो मुझे तो अपनी राय देनी ही थी. क्या करूं, क्या करूं, ऐसे समय न बोल पाना बहुत अखरता है. मैं ने झट न आव देखा न ताव, उस फोटो को मुंह में डाला और चबा कर जमीन पर रख दिया. यश को तो यह दृश्य देख हंसी का दौरा पड़ गया. मैं भी हंस दिया, खूब पूंछ हिलाई. दोनों पैरों पर खड़ा भी हो गया. यश तो हंसतेहंसते जमीन पर लेट गया था. मैं भी उस से चिपट गया. हम दोनों जमीन पर लेटेलेटे खूब मस्ती करने लगे थे.

अब यश की हंसी नहीं रूक रही थी. मैं भांप गया था, अब यश जोया से दूर नहीं होगा. वह फैसला ले चुका था और मैं इस फैसले से बहुत खुश था. मुझ पर अपना हाथ रखते हुए यश कह रहा था, ‘‘ओह लिओ, आई लव यू.’’

‘मी टू,’ मैं ने भी उस का हाथ चाट कर जवाब सा दिया था.

लाइफ एंज्वायमेंट: जब रिसेप्शनिस्ट मोनिका की आवाज में फंसे मिस्टर गंभीर

टेलीफोन की घंटी घनघनाई. मैं ने जैसे ही फोन उठाया, उधर से आई मधुर आवाज ने कानों में मिठास घोल दी.

‘‘क्या मिस्टर गंभीर लाइन पर हैं? क्या मैं उन से बात कर सकती हूं?’’

प्रत्युत्तर में मैं ने कहा, ‘‘बोल रहा हूं.’’ इस से पहले कि मैं कुछ कहूं, उधर से पुन: बातों का सिलसिला जारी हो गया, ‘‘सर, मैं पांचसितारा होटल से रिसेप्स्निष्ट बोल रही हूं. हम ने हाल ही में एक स्कीम लांच की है. हम चाहते हैं कि आप को उस का मेंबर बनाएं. सर, इस के कई बेनीफिट हैं. शहर के प्रतिष्ठित लोगों से कांटेक्ट कर के आप हाइसोसायटी में उठबैठ सकेंगे. क्रीम सोसायटी में उठनेबैठने से आप का स्टेटस बढ़ेगा और आप ऐश से लाइफ एंज्वाय करेंगे. इतने सारे लाभों के बावजूद सर, आप के कुल बिल पर हम 10 परसेंट डिस्काउंट भी देंगे. आप समझ सकते हैं सर कि यह स्कीम कितनी यूजफुल है, आप के लिए. सर, बताइए, मैं कब आ कर मेंबरशिप ले लूं?’’

मैं एकाग्रता से उस की बातें सुन रहा था क्योंकि उस के लगातार बोलने के कारण मुझे कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिल सका. वह जब कुछ क्षण के लिए रुकी तो मैं ने तुरंत पूछ  लिया, ‘‘मैडम, आप पहले अपना नाम और परिचय दीजिए ताकि मैं आप की स्कीम के संबंध में कुछ सोच सकूं. बिना सोचेसमझे कैसे मेंबर बन पाऊंगा?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, मैं पहले ही बता चुकी हूं कि मैं रिसेप्शनिस्ट हूं. क्या परिचय के लिए इतना काफी नहीं है? आप तो सर मेंबरशिप में इंटरेस्ट लीजिए. जो आप के लिए बहुत यूजफुल है.’’

‘‘मैडम, आप का कहना सही है पर उस से पहले आप के बारे में जानना भी तो जरूरी है. बिना कुछ जानेपहचाने मेंबर बनना कैसे संभव है.’’ वह अपनी बात पर कायम रहते हुए फिर बोली, ‘‘सर, आप मेंबर बनने के लिए यस कीजिए. जब मैं पर्सनली आ कर आप से कांटेक्ट करूंगी तब आप मुझ से रूबरू भी हो लीजिएगा. बस, आप के यस कहने की ही देर है. आप जो चाहते हैं, वह सब डिटेल में जान जाएंगे. हमारे आनरेबल कस्टमर के रूप में, आप जब यहां आएंगे तो मुलाकातें होती रहेंगी. लोगों को आपस में मिला कर, लाइफ एंज्वाय कराने का चांस देना ही हमारी स्कीम का मेन मोटो है. सर, प्लीज हमें सेवा करने का एक चांस तो अवश्य दीजिए. मेरा नाम और परिचय जानने में आप क्यों टाइम वेस्ट कर रहे हैं?’’

यह तर्क सुनने के बाद भी मैं अपनी बात पर अटल रहा. मैं ने कहा, ‘‘मैडम, जब तक आप नाम और परिचय नहीं बताएंगी, तब तक आप के प्रस्ताव पर कैसे विचार करूं?’’

जब उस ने देखा कि मैं अपनी बात पर कायम हूं, तो हार कर उस ने कहा, ‘‘सर, जब आप को इसी में सैटिस्फैक्शन है कि पहले मैं अपना इंट्रोडक्शन दूं, तो मैं दिए देती हूं. पर सर, मेरी भी एक शर्त है. इस के बाद आप मेंबर अवश्य बनेंगे. आप इस का भी वादा कीजिए.’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ बताइए तो सही.’’

उस ने कहा, ‘‘सर, मेरा नाम मोनिका है,’’ और यह बताने के साथ ही उस ने फिर अपनी बात दोहराई और बोली, ‘‘अब तो प्लीज मान जाइए, मैं कब आ जाऊं?’’

उस के बारबार के मनुहार पर कोई ध्यान न देते हुए मैं ने उस की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘मैडम, कितना सुंदर नाम है, मोनिका? जिसे बताने में आप ने इतनी देर लगा दी. जब नाम इतना शार्ट और स्वीट है, आप की आवाज इतनी मधुर है, आप बात इतने सलीके से कर रही हैं तो स्वाभाविक है, आप सुंदर भी बहुत होंगी? सच कहूं तो आप के दर्शन करने की अब इच्छा होने लगी है.’’

अपनी तारीफ सुन कर उस ने हंस कर कहा, ‘‘सर, अब आप मेन इश्यू को अवाइड कर रहे हैं. यह फेयर नहीं है. जो आप ने नाम पूछा वह मैं ने बता दिया. फिर आप मेरी तारीफ करने लगे और अब दर्शन की बात. आखिर इरादा क्या है आप का, सर? हम ने बहुत बातें कर लीं. अब आप काम की बात पर आइए. सर, बताइए कब आ कर दर्शन दे दूं.’’

वह बराबर सदस्यता लेने के लिए अनुनयविनय करती जा रही थी लेकिन मेरे मन में एक जिज्ञासा थी जिस का समाधान करना उपयुक्त समझा. मैं ने पूछा, ‘‘मोनिकाजी, इतने बड़े शहर में आप ने मुझे ही क्यों इस के लिए चुना? शहर में और लोग भी तो हैं?’’

उस ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘सर, वास्तव में स्कीम लांच होने पर हम शहर के स्टेटस वाले लोगों से फोन पर कांटेक्ट कर रहे हैं, जो हमारी मेंबरशिप अफोर्ड करने योग्य हैं. वैसे आप के नाम का प्रपोजल आप के मित्र सुदर्शनजी ने किया था. उन्होंने कहा था कि यदि मिस्टर गंभीर तैयार हो जाते हैं तो मैं भी मेंबर बन जाऊंगा. इसीलिए आप से इतनी रिक्वेस्ट कर रही हूं क्योंकि आप के यस कह देने पर हमें आप दोनों की मेंबरशिप मिल जाएगी. सर, अब तो सारी बातें क्लीयर हो गई हैं. इसलिए अब कोई और बहाना मत बनाइए. बताइए, मैं कब आऊं?’’

यह सुन कर मैं पसोपेश में पड़ गया क्योंकि कुछ कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी. मुझे चुप देख कर उस ने घबराई आवाज में पूछा, ‘‘सर, अब क्या हो गया? किस गंभीर सोच में पड़ गए हैं? आप का नाम तो गंभीर है ही, क्या नेचर से भी गंभीर हैं? लाइफ में एंज्वाय करने का चांस, आप का वेट कर रहा है और आप इतनी देर से सोचने में टाइम वेस्ट कर रहे हैं. मैं ने कहा न, कम से कम मेरी बात मान कर आप एक चांस तो लीजिए, नो रिस्क नो गेन.’’

मैं ने कहा, ‘‘मोनिकाजी, मैं बहुत कनफ्यूज्ड हो गया हूं. आप को जान कर दुख होगा कि मैं अब 68 का हो गया हूं. जीवन के इस पड़ाव में आप के द्वारा दर्शित जिंदगी का उपभोग कैसे कर सकूंगा? एंज्वाय करने के दिन तो लद गए.’’

उस ने तुरंत मेरी बात को काटते हुए कहा, ‘‘गंभीरजी, यही उम्र तो होती है मौजमस्ती करने की. जब आदमी सभी रिस्पोंसिबिलिटीज से फ्री हो जाता है. फ्री माइंड हो एंज्वाय करने का मजा ही कुछ और होता है. आप मिसेज को साथ ले कर आइए और दोनों मिल कर लुफ्त उठाइए. आप अभी तक जो मजा नहीं उठा पाए  हैं, उसे कम से कम लेटर एज गु्रप में तो उठा लीजिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘यही तो परेशानी है. श्रीमतीजी एक घरेलू और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं. होटलों में आनाजाना उन्हें पसंद नहीं है. आज तक तो कभी गईं ही नहीं फिर अब कैसे जा पाएंगी? हमारे दौर में आज जैसा होटलों में जाने का चलन और संस्कृति नहीं थी. फिर इस उम्र में लोग क्या कहेंगे? आप ही बताइए, इन हालात में आप का प्रस्ताव कैसे स्वीकार करूं?’’

उस ने तपाक से कहा, ‘‘गंभीरजी, आप जैसे एज गु्रप वालों के साथ यही तो समस्या है कि सेल्फ डिसीजन लेने में हिचकिचाते हैं. लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर अपना इंटरेस्ट और फ्यूचर क्यों किल कर रहे हैं आप? यदि आप की मिसेज को होटल आने में दिक्कत है तो क्या हुआ? उस का समाधान भी मेरे पास है. मैं आप के लिए पार्टनर का प्रबंध कर दूंगी. हाइसोसायटी में तो यह कामन बात है.

‘‘हमारे यहां कई सिंगल फीमेल मेंबर्स हैं. वे भी यही सोच कर मेंबर बनी हैं कि यदि अदर सेक्स का कोई सिंगल मेंबर होगा तो वे उस के साथ पार्टनरशिप शेयर कर लेंगी. गंभीरजी, जरा सोचिए, अब उन्हें आप के साथ एडजेस्ट होने में कोई आब्जेक्शन नहीं है तो आप को क्या डिफीकल्टी है? बस, आप को करेज दिखाने की जरूरत है. बाकी बातें आप मुझ पर छोड़ दीजिए. आप कोई टेंशन न लें अपने ऊपर. मैं हूं न, सब मैनेज कर दूंगी. आप तो अपनी च्वाइस भर बता दीजिए. बस, अब कोई और बहाना मत बनाइए और हमारा आफर फाइनल करने भर का सोचिए.’’

मोनिका की खुली और बेबाक दलीलें सुन कर मैं सकते में आ गया. मन में अकुलाहट होने लगी. सोचने लगा कि कहीं मैं उस के शब्दजालों में घिरता तो नहीं जा रहा हूं? यद्यपि उस से चर्चा करते हुए मन को आनंद की अनुभूति हो रही थी. टेलीफोन के मीटर घूमते रहने की भी चिंता नहीं थी. इसलिए बात को आगे बढ़ाते हुए, मैं ने पूछ लिया, ‘‘मोनिकाजी, इस प्रकार की पार्टनरशिप में पैसे काफी खर्च हो सकते हैं. मैं एक रिटायर आदमी हूं. इस का खर्च सब कैसे और कहां से बरदाश्त कर सकूंगा?’’

उस ने कहा, ‘‘आप का यह सोचना सही है. हमारी एनुअल मेंबरशिप ही 5 हजार रुपए है. होटल विजिट की सिंगल सिटिंग में 700-800 का बिल आना साधारण बात है पर आप चिंता क्यों कर रहे हैं? इस बिल पर 10 परसेंट का डिस्काउंट भी तो मिल रहा है आप को. वैसे कभीकभी पार्टनर के बिल का पेमेंट भी आप को करना पड़ सकता है. कभी वह भी पेमेंट कर दिया करेंगी. मैं उन्हें समझा दूंगी. वह मुझ पर छोडि़ए.’’

वह एक पल रुक कर फिर बोली, गंभीरजी, एक बात कहूं, जब लाइफ एंज्वाय करना ही है तो फिर पैसों का क्या मुंह देखना? आखिर आदमी पैसा इसीलिए तो कमाता है. फिर बिना पार्टनरशिप के जिंदगी में एंज्वायमेंट कैसे होगा? सिर्फ रूखीसूखी दालरोटी खाना ही तो जिंदगी का नाम नहीं है. ‘‘गंभीरजी, एक बार इस लाइफ स्टाइल का टेस्ट कर के देखिए, सबकुछ भूल जाएंगे. शुरू में आप को कुछ अजीबअजीब जरूर लगेगा लेकिन एक बार के बाद आप का मन आप को बारबार यहां विजिट करने को मजबूर करेगा. इस का नशा सिर चढ़ कर बोलता है. यही तो रियल लाइफ का एंज्वायमेंट है.’’

‘‘मोनिकाजी, मैं 68 का हूं. क्या ऐसा करना मुझे अच्छा लगेगा?’’ मैं ने यह कहा तो वह तुनक कर बोली, ‘‘गंभीरजी, आप एज का आलाप क्यों कर रहे हैं? अरे, हमारे यहां तो 80 तक के  मेंबर हैं. उन्होंने तो कभी लाइफ एंज्वायमेंट में एज फेक्टर को काउंट नहीं किया. जिंदादिली इसी को कहते हैं कि आदमी हर एज गु्रप में स्वयं को फुल आफ यूथ समझे. बस, जोश और होश से जीने की मन में तमन्ना होनी चाहिए. ‘साठा सो पाठा’ वाली कहावत तो आप ने सुनी ही होगी. आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता, जरूरत है सिर्फ आत्मशक्ति की.’’

मोनिकाजी द्वारा आधुनिक जीवन दर्शन का तर्क सुन कर मैं अचंभित हुए बिना नहीं रहा. मुझे ऐसा लगा कि मेरी प्रत्येक बात का, एक अकाट्य तथ्यात्मक उत्तर उस के पास है. वह मुझे प्रत्येक प्रश्न पर निरुत्तर करती जा रही है. अंदर ही अंदर भय भी व्याप्त होने लगा था. एकाएक मन में एक नवीन विचार प्रस्फुटित हुआ. उन से तुरंत पूछ बैठा कि आप की एज क्या है? यह सुन कर वह चौंक गई और कहने लगी, ‘‘अब मेरी एज बीच में कहां से आ गई?’’ पर जब इस के लिए मैं ने मजबूर किया तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप स्वयं समझ सकते हैं कि फाइव स्टार रिसेप्सनिस्ट की एज क्या हो सकती है? इतना तो श्योर है कि मैं आप के एज ग्रुप की नहीं हूं.’’

‘‘फिर भी बताइए तो सही, मैं विशेष कारण से पूछ रहा हूं.’’

‘‘25.’’

इस के बाद मैं ने फिर प्रश्न किया कि आप के मातापिता भी होंगे? उस ने सहजता से हां में उत्तर दिया. मैं ने फिर पूछा, ‘‘मोनिकाजी, क्या आप ने उन्हें भी सदस्य बना कर जीवन का आनंद उठाने का अवसर दिलाया है? वे तो शायद मुझ से भी कम उम्र के होंगे. जब आप अन्य लोगों को लाइफ एंज्वाय करने के लिए प्रोत्साहित और अवसर प्रदान कर रही हैं, तो उन्हें क्यों और कैसे भूल गईं? वे भी तो अन्य लोगों की तरह इनसान हैं. उन्हें भी जीवन में आनंद उठाने का अधिकार है. उन्हें भी मौका मिलना चाहिए. पूर्व में आप ही ने कहा कि यही उम्र तो एंज्वाय करने की होती है, इसलिए आप को स्मरण दिलाना मैं ने उचित समझा. ‘चैरिटी बिगिंस फ्राम होम’ वाली बात आप शायद भूल रही हैं.’’

मेरी बात सुन कर शायद उसे अच्छा नहीं लगा. खिन्न हो कर बोली, ‘‘आप मेरे मातापिता में कैसे इंटरेस्ट लेने लगे? मैं तो आप के बारे में चर्चा कर रही हूं.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं,’’ मैं ने कहा, ‘‘आप के मातापिता से मेरा इनसानियत का रिश्ता है. मुझे यही लगा कि जब आप सभी लोगों को जीवन में इतना सुनहरा अवसर प्रदान करने के लिए आमादा हो कर जोर दे रही हैं तो फिर इस में मेरा भी स्वार्थ है.’’

उस ने तुरंत पूछा, ‘‘मेरे मातापिता से आप का क्या स्वार्थ सिद्ध हो रहा है?’’

तब मैं ने कहा, ‘‘कुछ खास नहीं, मुझे उन की कंपनी मिल जाएगी. आप मुझे पार्टनर दिलाने का जो टेंशन ले रही हैं, उस से मैं आप को मुक्त करना चाहता हूं. इसलिए मैं उन्हें भी मेंबर बनाने की नेक सलाह दे रहा हूं,’’ बिना अवरोध के अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं ने कहा, ‘‘मोनिकाजी, आप उन दोनों के मेंबर बन जाने का शुभ समाचार मुझे कब दे रही हैं, ताकि मैं खुद आप के पास आ कर सदस्यता ग्रहण कर सकूं?’’

मेरी इस बात का उत्तर शायद उस के पास नहीं था. अब उस की बारी थी निरुत्तर होने की. एकाएक खट की आवाज आई और फोन कट गया. मैं ने एक लंबी सास ली और फोन रख दिया.

विगत 15 मिनट से चल रही बातचीत के क्रम का इस प्रकार एकाएक पटाक्षेप हो गया. मेरी एकाग्रता भंग हो गई. मैं गंभीरता से बीते क्षणों मेें हुई बातचीत के बारे में सोचने लगा कि आज के इस आधुनिक युग में विज्ञापनों के माध्यम से उपभोक्ताओं को जीवन में आनंद और सुखशांति की परिभाषा जिस प्रकार युवाओं द्वारा परोसी तथा पेश की जा रही है, वह कितनी घिनौनी है. जिस का एकमात्र उद्देश्य उपभोक्ता को किसी भी प्रकार आकर्षित कर, उन्हें सिर्फ ‘ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी’ के आधुनिक मायाजाल में लिप्त और डुबो दिया जाए. क्या यह सब बातें हमारी भारतीय संस्कृति, संस्कारों, आदर्शों और परंपराओं के अनुरूप और उपयुक्त हैं? क्या यह उन के साथ छल और कपट नहीं है? सोच कर मन कंपित हो उठता है.

आज के आधुनिक युग की दुहाई दे कर जिस प्रकार का घृणित प्रचारप्रसार, वह भी देश की युवा पीढ़ी के माध्यम से करवाया जा रहा है, क्या वह हमारी संस्कृति पर अतिक्रमण और कुठाराघात नहीं है? हम कब तक मूकदर्शक बने, इन सब क्रियाकलापों तथा आपदाओं के साक्षी हो कर, इन्हें सहन करते जाएंगे?

दूसरे दिन फिर उसी होटल से फोन आया. इस बार आवाज किसी पुरुष की थी. उस ने कहा, ‘‘सर, मैं पांचसितारा होटल से बोल रहा हूं. हम ने एक स्कीम लांच की है. हम उस का आप को मेंबर…’’ इतना सुनते ही मैं ने बात काटते हुए उस से प्रश्न किया, ‘‘आप के यहां मोनिकाजी रिसेप्शनिस्ट हैं क्या?’’

उस ने सकारात्मक उत्तर देते हुए प्रत्युत्तर में हां कहा. इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया कि कल इस बारे में उन से विस्तृत चर्चा हो चुकी है. मेंबरशिप के बारे में आप उन से बात कर लीजिए.

तब से मैं उन के फोन की प्रतीक्षा कर रहा हूं. पर खेद है कि उन का फोन नहीं आया. इस प्रकार तब से मैं रियल माडर्न लाइफ एंज्वायमेंट करने के लिए प्रतीक्षारत हूं.

नया सफर: ससुराल के पाखंड और अंधविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू

“पापा, मैं यह शादी नहीं करना चाहती. प्लीज, आप मेरी बात मान लो…”

“क्या कह रही हो तुम? आखिर क्या कमी है मुनेंद्र में? भरापूरा परिवार है. खेतखलिहान हैं उस के पास. दोमंजिले मकान का मालिक है. घर में कोई कमी नहीं. हमारी टक्कर के लोग हैं,” उस के पिता ने गुस्से में कहा.

“पर पापा, आप भी जानते हैं, मुनेंद्र 5वीं फेल है जबकि मैं ग्रैजुएट हूं. हमारा क्या मेल?” मंजू ने अपनी बात रखी.

“मंजू, याद रख पढ़नेलिखने का यह मतलब नहीं कि तू अपने बाप से जबान लड़ाए और फिर पढ़ाई में क्या रखा है? जब लड़का इतना कमाखा रहा है, वह दानधर्म करने वाले इतने ऊंचे खानदान से है फिर तुझे बीच में बोलने का हक किस ने दिया? देख बेटा, हम तेरे भले की ही बात करेंगे. हम तेरे मांबाप हैं कोई दुश्मन तो हैं नहीं,” मां ने सख्त आवाज में उसे समझाने की कोशिश की.

“पर मां आप जानते हो न मुझे पढ़नेलिखने का कितना शौक है. मैं आगे बीएड कर टीचर बनना चाहती हूं. बाहर निकल कर काम करना है, रूपए कमाने हैं मुझे,” मंजू गिड़गिड़ाई.

“बहुत हो गई पढ़ाई. जब से पैदा हुई है यह लड़की पढ़ाई के पीछे पड़ी है. देख, अब तू चेत जा. लड़की का जन्म घर संभालने के लिए होता है, रुपए कमाने के लिए नहीं. तेरे ससुराल में इतना पैसा है कि बिना कमाई किए आराम से जी सकती है. चल, ज्यादा नखरे मत कर और शादी के लिए तैयार हो जा. हम तेरे नखरे और नहीं सह सकते. अपने घर जा और हमें चैन से रहने दे,” उस के पिता ने अपना फैसला सुना दिया था.

हार कर मंजू को शादी की सहमति देनी पड़ी. मुनेंद्र के साथ सात फेरे ले कर वह उस के घर आ गई. मंजू का मायका बहुत पूजापाठ करने वाला था. उस के पिता गांव के बड़े किसान थे. अब उसे ससुराल भी वैसा ही मिला था. पूजापाठ और अंधविश्वास में ये लोग दो कदम आगे ही थे.

किस दिन कौन से रंग के कपड़े पहनने हैं, किस दिन बाल धोना है, किस दिन नाखून काटने हैं और किस दिन बहू के हाथ दानपुण्य कराना है यह सब पहले से निश्चित रहता था.

सप्ताह के 7 में से 4 दिन उस से अपेक्षा रखी जाती थी कि वह किसी न किसी देवता के नाम पर व्रत रखे. व्रत नहीं तो कम से कम नियम से चले. रीतिरिवाजों का पालन करे. मंजू को अपनी डिगरी के कागज उठा कर अलमारी में रख देने पड़े. इस डिगरी की इस घर में कोई अहमियत नहीं थी.

उस का काम केवल सासससुर की सेवा करना, पति को सैक्स सुख देना और घर भर को स्वादिष्ठ खाना बनाबना कर खिलाना मात्र था. उस की खुशी, उस की संतुष्टि और उस के सपनों की कोई अहमियत नहीं थी.

समय इसी तरह गुजरता जा रहा था. बहुत बुझे मन से मंजू अपनी शादीशुदा जिंदगी गुजार रही थी. शादी के 1 साल बीत जाने के बाद भी जब मंजू ने सास को कोई खुशखबरी नहीं सुनाई तो घर में नए शगूफे शुरू हो गए.

सास कभी उसे बाबा के पास ले जाती तो कभी टोटके करवाती, कभी भस्म खिलाती तो कभी पूजापाठ रखवाती. लंबे समय तक इसी तरह बच्चे के जन्म की आस में परिवार वाले उसे टौर्चर करते रहे. मंजू समझ नहीं पाती थी कि आखिर इस अनपढ़, जाहिल और अंधविश्वासी परिवार के साथ कैसे निभाए?

इस बीच खाली समय में बैठेबैठे उस ने फेसबुक पर एक लड़के अंकित से दोस्ती कर ली. अंकित पढ़ालिखा था और उसी की उम्र का भी था. दोनों बैचमेट थे. उस के साथ मंजू हर तरह की बातें करने लगी. अंकित मंजू की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता. उसे नईनई बातें बताता. दोनों के बीच थोड़ा बहुत अट्रैक्शन भी था मगर अंकित जानता था कि मंजू विवाहित है सो वह कभी अपनी सीमारेखा नहीं भूलता था.

एक दिन उस ने मंजू को बताया कि वह सिंगापुर अपनी आंटी के पास रहने जा रहा है. उसे वहां जौब भी मिल जाएगी. इस पर मंजू के मन में भी उम्मीद की एक किरण जागी. उसे लगा जैसे वह इन सारे झमेलों से दूर किसी और दुनिया में अपनी जिंदगी की शुरुआत कर सकती है.

उस ने अंकित से सवाल किया,” क्या मैं तुम्हारे साथ सिंगापुर चल सकती हूं?”

“पर तुम्हारे ससुराल वाले तुम्हें जाने की अनुमति दे देंगे?” अंकित ने पूछा.

“मैं उन से अनुमति मांगने जाऊंगी भी नहीं. मुझे तो बस यहां से बहुत दूर निकल जाना है, ” मंजू ने बिंदास हो कर कहा.

“इतनी हिम्मत है तुम्हारे अंदर?” अंकित को विश्वास नहीं हो रहा था.

“हां, बहुत हिम्मत है. अपने सपनों को पूरा करने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.”

“तो ठीक है मगर सिंगापुर जाना इतना आसान नहीं है. पहले तुम्हें पासपोर्ट, वीजा वगैरह तैयार करवाना पड़ेगा. उस में काफी समय लग जाता है. वैसे मेरा एक फ्रैंड है जो यह काम जल्दी कराने में मेरी मदद कर सकता है. लेकिन तुम्हें इस के लिए सारे कागजात और पैसे ले कर आना पड़ेगा. कुछ औपचारिकता हैं उन्हें पूरी करनी होगी,” अंकित ने समझाया.

“ठीक है, मैं कोई बहाना बना कर वहां पहुंच जाऊंगी. मेरे पास कुछ गहने पड़े हैं उन्हें ले आऊंगी. तुम मुझे बता दो कब और कहां आना है.”

अगले ही दिन मंजू कालेज में सर्टिफिकेट जमा करने और सहेली के घर जाने के बहाने घर से निकली और अंकित के पास पहुंच गई. दोनों ने फटाफट सारे काम किए और मंजू वापस लौट आई. घर में किसी को कानोंकान खबर भी नहीं हुई कि वह क्या कदम उठाने जा रही है.

इस बीच मंजू चुपकेचुपके अपनी पैकिंग करती रही और फिर वह दिन भी आ गया जब उसे सब को अलविदा कह कर बहुत दूर निकल जाना था. अंकित ने उसे व्हाट्सऐप पर सारे डिटेल्स भेज दिए थे.

शाम के 7 बजे की फ्लाइट थी. उसे 2-3 घंटे पहले ही निकलना था. उस ने अंकित को फोन कर दिया था. अंकित ठीक 3 बजे गाड़ी ले कर उस के घर के पीछे की तरफ खड़ा हो गया. इस वक्त घर में सब सो रहे थे. मौका देख कर मंजू बैग और सूटकेस ले कर चुपके से निकली और अंकित के साथ गाड़ी में बैठ कर एअरपोर्ट की ओर चल पड़ी.

फ्लाइट में बैठ कर उसे एहसास हुआ जैसे आज उस के सपनों को पंख लग गए हैं. आज से उस की जिंदगी पर किसी और का नहीं बल्कि खुद उस का हक होगा. वह छूट रही इस दुनिया में कभी भी वापस लौटना नहीं चाहती थी.

रास्ते में अंकित जानबूझ कर माहौल को हलका बनाने की कोशिश कर रहा था. वह जानता था कि मंजू अंदर से काफी डरी हुई थी. अंकित ने अपनी जेब से कई सारे चुइंगम निकाल कर उसे देते हुए पूछा,”तुम्हें चुइंगम पसंद हैं?”

मंजू ने हंसते हुए कहा,”हां, बहुत पसंद हैं. बचपन में पिताजी से छिप कर ढेर सारी चुइंगम खरीद लाती थी.”

“पर अब भूल जाओ. सिंगापुर में चुइंगम नहीं खा पाओगी.”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि वहां चुइंगम खाना बैन है. सफाई को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर सरकार ने साल 1992 में चुइंगम बैन कर दिया था.”

अंकित के मुंह से यह बात सुन कर मंजू को हंसी आ गई. चेहरा बनाते हुए बोली,” हाय, यह वियोग मैं कैसे सहूंगी?”

“जैसे मैं सहता हूं,” कहते हुए अंकित भी हंस पड़ा.

“वैसे वहां की और क्या खासियतें हैं? मंजू ने उत्सुकता से पूछा.

“वहां की नाईटलाइफ बहुत खूबसूरत होती है. वहां की रातें लाखों टिमटिमाती डिगाइनर लेजर लाइटों से लैस होती हैं जैसे रौशनी में नहा रही हों.

“तुम्हें पता है, सिंगापुर हमारे देश के एक छोटे से शहर जितना ही बड़ा होगा. लेकिन वहां की साफसुथरी सड़कें, शांत, हराभरा वातावरण किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी है. वहां संस्कृति के अनोखे और विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं. वहां की शानदार सड़कों और गगनचुंबी इमारतों में एक अलग ही आकर्षण है. सिंगापुर में सड़कों और अन्य स्थलों पर लगे पेड़ों की खास देखभाल की जाती है और उन्हें एक विशेष आकार दिया जाता है. यह बात इस जगह की खूबसूरती को और भी बढ़ा देते हैं. ”

“ग्रेट, पर तुम्हें इतना सब कैसे पता? पहले आ चुके हो लगता है?”

“हां, आंटी के यहां कई बार आ चुका हूं।”

सिंगापुर पहुंच कर अंकित ने उसे अपनी आंटी से मिलवाया. 2-3 दिन दोनों आंटी के पास ही रुके.

आंटी ने मंजू को सिंगापुर की लाइफ और वर्क कल्चर के बारे में विस्तार से समझाते हुए कहा,” वैसे तो तेरी जितनी शिक्षा है वह कहीं भी गुजरबसर करने के लिए काफी है. पर याद रख, तू फिलहाल सिंगापुर में है और वह डिगरी भारत की है जिस का यहां ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला.

“तेरे पास जो सब से अच्छा विकल्प है वह है हाउसहोल्ड वर्क का. सिंगापुर में घर संभालने के लिए काफी अच्छी सैलरी मिलती है. वैसे कपल्स जो दिन भर औफिस में रहते हैं उन्हें पीछे से बच्चों और बुजुर्गों को संभालने के लिए किसी की जरूरत पड़ती है. यह काम तू आसानी से कर सकेगी. बाद में काम करतेकरते कोई और अच्छी जौब भी ढूंढ़ सकती है.”

मंजू को यह आइडिया पसंद आया. उस ने आंटी की ही एक जानपहचान वाली के यहां बच्चे को संभालने का काम शुरू किया. दिनभर पतिपत्नी औफिस चले जाते थे. पीछे से वह बेबी को संभालने के साथ घर के काम करती. इस के लिए उसे भारतीय रुपयों में ₹20 हजार मिल रहे थे. खानापीना भी घर में ही था. ऐसे में वह सैलरी का ज्यादातर हिस्सा जमा करने लगी.

धीरेधीरे उस के पास काफी रुपए जमा हो गए. घर में सब उसे प्यार भी बहुत करते थे. बच्चों का खयाल रखतेरखते वह उन से गहराई से जुड़ती चली गई थी. अब उसे अपनी पुरानी जिंदगी और उस जिंदगी से जुड़े लोग बिलकुल भी याद नहीं आते थे. वह अपनी नई दुनिया में बहुत खुश थी. अंकित जैसे सच्चे दोस्त के साथसाथ उसे एक पूरा परिवार मिल गया था.

अपनी मालकिन सीमा की सलाह पर मंजू ने ऐडवांस कंप्यूटर कोर्स भी जौइन कर लिया ताकि उसे समय आने पर कोई अच्छी जौब का मौका भी मिल जाए. वह अब सिंगापुर और यहां के लोगों से भी काफी हद तक परिचित हो चुकी थी. यहां के लोगों की सोच और रहनसहन उसे पसंद आने लगी थी. यहां का साफसुथरा माहौल उसे बहुत अच्छा लगता. अंकित से भी उस की दोस्ती काफी खूबसूरत मोड़ पर थी. अंकित को जौब मिल चुकी थी और वह एक अलग कमरा ले कर रहता था.

हर रविवार जिद कर के वह मंजू को आसपास घुमाने भी ले जाता. वह मंजू की हर तरह से मदद करने को हमेशा तैयार रहता. कभीकभी मंजू को लगता जैसे वह अंकित से प्यार करने लगी है. अंकित की आंखों में भी उसे अपने लिए वही भाव नजर आते. मगर सामने से दोनों ने ही एकदूसरे से कुछ नहीं कहा था.

एक दिन शाम में अंकित उस से मिलने आया. उस ने घबराए हुए स्वर में मंजू को बताया,”मंजू, तुम्हारे पति को कहीं से खबर लग गई कि तुम मेरे साथ कहीं दूर आ गई हो. दरअसल, किसी ने तुम्हें मेरे साथ एअरपोर्ट के पास देख लिया था. यह सुन कर तुम्हारा पति मेरे भाई के घर पहुंचा और डराधमका कर सच उस से उगलवा लिया कि हम सिंगापुर में हैं.

“दोनों को यह लग रहा है कि तुम मेरे साथ भाग आई हो. हो सकता है कि तुम्हारा पीछा करतेकरते वे यहां भी पहुंच जाएं.”

“लेकिन उन के लिए सिंगापुर आना इतना आसान तो नहीं और यदि वे यहां आ भी जाते हैं तो उस से पहले ही मुझे यहां से निकलना पड़ेगा.”

“हां पर तुम जाओगी कहां?” चिंतित स्वर में अंकित ने पूछा.

“ऐसा करो मंजू तुम मलयेशिया निकल जाओ. वहां मेरी बहन रहती है. उस के घर में बूढ़े सासससुर और एक छोटा बेबी है. जीजू और दीदी जौब पर जाते हैं. पीछे से सास बेबी को संभालती हैं. मगर अब उन की भी उम्र काफी हो चुकी है. तुम कुछ दिनों के लिए उन के घर में फैमिली मैंबर की तरह रहो. मैं तुम्हारे बारे में उन्हें सब कुछ बता दूंगी. तुम बेबी संभालने का काम कर लेना. बाद में जब तुम्हारे पति और भाई यहां से चले जाएं तो वापस आ जाना. अंकित तुम्हें वहां भेजने का प्रबंध कर देगा,” सीमा ने समाधान सुझाया.

मंजू ने अंकित की तरफ देखा. अंकित ने हामी भरते हुए कहा,” डोंट वरी मंजू मैं तुम्हें सुरक्षित मलेशिया तक पहुंचाऊंगा मगर वीजा बनने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम्हें यहां छिप कर रहना होगा.”

“हां, अंकित मुझे अपनी पढ़ाई भी छोड़नी होगी. मैं नहीं चाहती कि मेरा पति या भाई मुझे पकड़ लें और फिर से उसी नरक में ले जाएं जहां से बच कर मैं आई हूं. आई विल बी ग्रेटफुल टू यू अंकित.”

“ओके, तुम डरो नहीं मैं इंतजाम करता हूं,” कह कर अंकित चला गया और मंजू उसे जाता देखती रही. फिर वह सीमा के गले लग गई. सीमा बड़ी बहन की तरह प्यार से उस का माथा सहलाने लगी.

इस बात को कई दिन बीत गए. एक दिन मंजू कंप्यूटर क्लास से निकलने वाली थी कि उसे अपने भाई की शक्ल वाला लड़का नजर आया. वह इस बात को मन का भ्रम मान कर आगे बढ़ने को हुई कि तभी उसे भाई के साथ अपना पति मुनेंद्र भी नजर आ गया. मंजू वहीं ठहर गई. वह नहीं चाहती थी कि उन दोनों को उस की झलक भी मिले. उस का पति और भाई इधरउधर देखते दूसरी सड़क पर आगे बढ़ गए तो वह दुपट्टे से चेहरा ढंक कर बाहर निकली और तेजी से अपने घर की तरफ चल दी. उसे बहुत डर लग रहा था. वह समझ गई थी कि उस का भाई और पति उस की तलाश में सिंगापुर पहुंच चुके हैं और अब यहां उस का बचना मुश्किल है.

घर आ कर उस ने सारी बात सीमा और अंकित को बताई. जाहिर था कि अब मंजू का सिंगापुर में रहना खतरे से खाली नहीं था. अब तक अंकित ने मंजू की वीजा का इंतजाम कर दिया था. अगले दिन ही उस के जाने का प्रबंध कर दिया गया. अपना सामान पैक करते समय मंजू सीमा के गले लग कर देर तक रोती रही. बच्चे भी मंजू को छोड़ने को तैयार नहीं थे.

छोटी परी ने तो उसे कस कर पकड़ लिया और कहने लगी,” नहीं दीदी, आप कहीं नहीं जाओगे हमें छोड़ कर.”

मंजू का दिल भर आया था. उस की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. अंकित के साथ एअरपोर्ट की तरफ जाते हुए भी वही सोच रही थी कि एक अनजान देश में अनजानों के बीच उसे अपने परिवार से कहीं ज्यादा प्यार मिला. यही नहीं, अंकित जैसा दोस्त मिला जो रिश्ते में कुछ न होते हुए भी उस के लिए इतनी भागदौड़ करता रहता है, उसे सुरक्षा देता है, उस की परवाह करता है. काश अंकित हमेशा के लिए उस का बन जाता. इसी तरह हमेशा उस के बढ़ते कदमों को हौंसला और संबल देता.

मंजू ने इन्हीं भावों के साथ अंकित की तरफ देखा. अंकित की नजरों में भी शायद यही भाव थे. एक अनकहा सा प्यार दोनों की आंखों में झलक रहा था पर दोनों ही कुछ कह नहीं पा रहे थे. अंकित ने उदास स्वर में कहा,”अपना ध्यान रखना मंजू।”

“देखो, तुम भी बच के रहना. कहीं वे तुम्हें देख न लें,” मंजू ने भी चिंतित हो कर कहा.

“नहींनहीं आजकल मेरी नाईटशिफ्ट चल रही है. मैं दिन में वैसे भी घर में ही रहता हूं सो पकड़ में नहीं आने वाला. अगर वे मुझे खोजते हुए घर तक आ भी गए तो मैं यही कहूंगा कि तुम मेरे साथ आई जरूर थी मगर अब कहां हो यह खबर नहीं है. तुम घबराओ नहीं आराम से रहना और अपना ध्यान रखना.”

मलयेशिया की फ्लाइट में बैठी हुई मंजू का दिल अभी भी अंकित को याद कर रहा था. शायद वह अंकित से दूर जाना नहीं चाहती थी. वह एक नए सफर की तरफ निकल तो चुकी थी पर इस बार पीछे जो छूट रहा था वह सब फिर से पा लेने की चाहत थी.

हिल स्टेशन पर तबादला

भगत राम का तबादला एक सुंदर से हिल स्टेशन पर हुआ तो वे खुश हो गए, वे प्रकृति और शांत वातावरण के प्रेमी थे, सो, सोचने लगे, जीवन में कम से कम 4-5 साल तो शहरी भागमभाग, धुएं, घुटन से दूर सुखचैन से बीतेंगे. पहाड़ों की सुंदरता उन्हें इतनी पसंद थी कि हर साल गरमी में 1-2 हफ्ते की छुट्टी ले कर परिवार सहित घूमने के लिए किसी न किसी हिल स्टेशन पर अवश्य ही जाते थे और फिर वर्षभर उस की ताजगी मन में बसाए रखते थे.

तबादला 4-5 वर्षों के लिए होता था. सो, लौटने के बाद ताजगी की जीवनभर ही मन में बसे रहने की उम्मीद थी. दूसरी खुशी यह थी कि उन्हें पदोन्नति दे कर हिल स्टेशन पर भेजा जा रहा था. साहब ने तबादले का आदेश देते हुए बधाई दे कर कहा था, ‘‘अब तो 4 वर्षों तक आनंद ही आनंद लूटोगे. हर साल छुट्टियां और रुपए बरबाद करने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. कभी हमारी भी घूमनेफिरने की इच्छा हुई तो कम से कम एक ठिकाना तो वहां पर रहेगा.’’

‘‘जी हां, आप की जब इच्छा हो, तब चले आइएगा,’’ भगत राम ने आदर के साथ कहा और बाहर आ गए. बाहर साथी भी उन्हें बधाई देने लगे. एक सहकर्मी ने कहा, ‘‘ऐसा सुअवसर तो विरलों को ही मिलता है. लोग तो ऐसी जगह पर एक घंटा बिताने के लिए तरसते हैं, हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं. तुम्हें तो यह सुअवसर एक तरह से सरकारी खर्चे पर मिल रहा है, वह भी पूरे 4 वर्षों के लिए.’’

‘‘वहां जा कर हम लोगों को भूल मत जाना. जब सीजन अच्छा हो तो पत्र लिख देना. तुम्हारी कृपा से 1-2 दिनों के लिए हिल स्टेशन का आनंद हम भी लूट लेंगे,’’ दूसरे मित्र ने कहा. ‘‘जरूरजरूर, भला यह भी कोई कहने की बात है,’’ वे सब से यही कहते रहे.

घर लौट कर तबादले की खबर सुनाई तो दोनों बच्चे खुश हो गए. ‘‘बड़ा मजा आएगा. हम ने बर्फ गिरते हुए कभी भी नहीं देखी. आप तो घुमाने केवल गरमी में ले जाते थे. जाड़ों में तो हम कभी गए ही नहीं,’’ बड़ा बेटा खुश होता हुआ बोला.

‘‘जब फिल्मों में बर्फीले पहाड़ दिखाते हैं तो कितना मजा आता है. अब हम वह सब सचमुच में देख सकेंगे,’’ छोटे ने भी ताली बजाई. मगर पत्नी सुजाता कुछ गंभीर सी हो गई. भगत राम को लगा कि उसे शायद तबादले वाली बात रास नहीं आई है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, गुमसुम क्यों हो गई हो?’’

‘‘तबादला ही कराना था तो आसपास के किसी शहर में करा लेते. सुबह जा कर शाम को आराम से घर लौट आते, जैसे दूसरे कई लोग करते हैं. अब पूरा सामान समेट कर दोबारा से वहां गृहस्थी जमानी पड़ेगी. पता नहीं, वहां का वातावरण हमें रास आएगा भी या नहीं,’’ सुजाता ने अपनी शंका जताई. ‘‘सब ठीक हो जाएगा. मकान तो सरकारी मिलेगा, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी. और फिर, पहाड़ों में भी लोग रहते हैं. जैसे वे सब रहते हैं वैसे ही हम भी रह लेंगे.’’

‘‘लेकिन सुना है, पहाड़ी शहरों में बहुत सारी परेशानियां होती हैं-स्कूल की, अस्पताल की, यातायात की और बाजारों में शहरों की तरह हर चीज नहीं मिल पाती,’’ सुजाता बोली.

भगत राम हंस पड़े, ‘‘किस युग की बातें कर रही हो. आज के पहाड़ी शहर मैदानी शहरों से किसी भी तरह से कम नहीं हैं. दूरदराज के इलाकों में वह बात हो सकती है, लेकिन मेरा तबादला एक अच्छे शहर में हुआ है. वहां स्कूल, अस्पताल जैसी सारी सुविधाएं हैं. आजकल तो बड़ेबड़े करोड़पति लाखों रुपए खर्च कर के अपनी संतानों को मसूरी और शिमला के स्कूलों में पढ़ाते हैं. कारण, वहां का वातावरण बड़ा ही शांत है. हमें तो यह मौका एक तरह से मुफ्त ही मिल रहा है.’’ ‘‘उन्नति होने पर तबादला तो होता ही है. अगर तबादला रुकवाने की कोशिश करूंगा तो कई पापड़ बेलने पड़ेंगे. हो सकता है 10-20 हजार रुपए की भेंटपूजा भी करनी पड़ जाए और उस पर भी आसपास की कोई सड़ीगली जगह ही मिल पाए. इस से तो अच्छा है, हिल स्टेशन का ही आनंद उठाया जाए.’’

यह सुन कर सुजाता ने फिर कुछ न कहा. दफ्तर से विदाई ले कर भगत राम पहले एक चक्कर अकेले ही अपने नियुक्तिस्थल का लगा आए और

15 दिनों बाद उन का पूरा परिवार वहां पहुंच गया. बच्चे काफी खुश थे. शुरूशुरू की छोटीमोटी परेशानी के बाद जीवन पटरी पर आ ही गया. अगस्त के महीने में ही वहां पर अच्छीखासी ठंड हो गई थी. अभी से धूप में गरमी न रही थी. जाड़ों की ठंड कैसी होगी, इसी प्रतीक्षा में दिन बीतने लगे थे.

फरवरी तक के दिन रजाई और अंगीठी के सहारे ही बीते, फिर भी सबकुछ अच्छा था. सब के गालों पर लाली आ गई थी. बच्चों का स्नोफौल देखने का सपना भी पूरा हो गया. मार्च में मौसम सुहावना हो गया था. अगले 4 महीने के मनभावन मौसम की कल्पना से भगत राम का मन असीम उत्साह से भर गया था. उसी उत्साह में वे एक सुबह दफ्तर पहुंचे तो प्रधान कार्यालय का ‘अत्यंत आवश्यक’ मुहर वाला पत्र मेज पर पड़ा था.

उन्होंने पत्र पढ़ा, जिस में पूछा गया था कि ‘सीजन कब आरंभ हो रहा है, लौटती डाक से सूचित करें. विभाग के निदेशक महोदय सपरिवार आप के पास घूमने आना चाहते हैं.’ सीजन की घोषणा प्रशासन द्वारा अप्रैल मध्य में की जाती थी, सो, भगत राम ने वही सूचना भिजवा दी, जिस के उत्तर में एक सप्ताह में ही तार आ गया कि निदेशक महोदय 15 तारीख को पहुंच रहे हैं. उन के रहने आदि की व्यवस्था हो जानी चाहिए.

निदेशक के आने की बात सुन कर सारे दफ्तर में हड़कंप सा मच गया. ‘‘यही तो मुसीबत है इस हिल स्टेशन की, सीजन शुरू हुआ नहीं, कि अधिकारियों का तांता लग जाता है. अब पूरे 4 महीने इसी तरह से नाक में दम बना रहेगा,’’ एक पुराना चपरासी बोल पड़ा.

भगत राम वहां के प्रभारी थे. सारा प्रबंध करने का उत्तरदायित्व एक प्रकार से उन्हीं का था. उन का पहला अनुभव था, इसलिए समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे और क्या किया जाए.

सारे स्टाफ की एक बैठक बुला कर उन्होंने विचारविमर्श किया. जो पुराने थे, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर राय भी दे डालीं. ‘‘सब से पहले तो गैस्टहाउस बुक करा लीजिए. यहां केवल 2 गैस्टहाउस हैं. अगर किसी और ने बुक करवा लिए तो होटल की शरण लेनी पड़ेगी. बाद में निदेशक साहब जहांजहां भी घूमना चाहेंगे, आप बारीबारी से हमारी ड्यूटी लगा दीजिएगा. आप को तो सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक उन के साथ ही रहना पड़ेगा,’’ एक कर्मचारी ने कहा तो भगत राम ने तुरंत गैस्टहाउस की ओर दौड़ लगा दी.

जो गैस्टहाउस नगर के बीचोंबीच था, वहां काम बन नहीं पाया. दूसरा गैस्टहाउस नगर से बाहर 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगल में बना हुआ था. वहां के प्रबंधक ने कहा, ‘‘बुक तो हो जाएगा साहब, लेकिन अगर इस बीच कोई मंत्रीवंत्री आ गया तो खाली करना पड़ सकता है. वैसे तो मंत्री लोग यहां जंगल में आ कर रहना पसंद नहीं करते, लेकिन किसी के मूड का क्या भरोसा. यहां अभी सिर्फ 4 कमरे हैं, आप को कितने चाहिए?’’ भगत राम समझ नहीं पाए कि कितने कमरे लेने चाहिए. साथ गए चपरासी ने उन्हें चुप देख कर तुरंत राय दी, ‘‘कमरे तो चारों लेने पड़ेंगे, क्या पता साहब के साथ कितने लोग आ जाएं, सपरिवार आने के लिए लिखा है न?’’

भगत राम को भी यही ठीक लगा. सो, उन्होंने पूरा गैस्टहाउस बुक कर दिया. ठीक 15 अप्रैल को निदेशक महोदय का काफिला वहां पहुंच गया. परिवार के नाम पर अच्छीखासी फौज उन के साथ थी. बेटा, बेटी, दामाद और साले साहब भी अपने बच्चों सहित पधारे थे. साथ में 2 छोटे अधिकारी और एक अरदली भी था.

सुबह 11 बजे उन की रेल 60 किलोमीटर की दूरी वाले शहर में पहुंची थी. भगत राम उन का स्वागत करने टैक्सी ले कर वहीं पहुंच गए थे. मेहमानों की संख्या ज्यादा देखी तो वहीं खड़ेखड़े एक मैटाडोर और बुक करवा ली. शाम 4 बजे वे सब गैस्टहाउस पहुंचे. निदेशक साहब की इच्छा आराम करने की थी, लेकिन भगत राम का आराम उसी क्षण से हराम हो गया था.

‘‘रहने के लिए बाजार में कोई ढंग की जगह नहीं थी क्या? लेकिन चलो, हमें कौन सा यहां स्थायी रूप से रहना है. खाने का प्रबंध ठीक हो जाना चाहिए,’’ निदेशक महोदय की पत्नी ने गैस्टहाउस पहुंचते ही मुंह बना कर कहा. उन की यह बात कुछ ही क्षणों में आदेश बन कर भगत राम के कानों में पहुंच गई थी. खाने की सूची में सभी की पसंद और नापंसद का ध्यान रखा गया था. भगत राम अपनी देखरेख में सारा प्रबंध करवाने में जुट गए थे. रहीसही कसर अरदली ने पूरी कर दी थी. वह बिना किसी संकोच के भगत राम के पास आ कर बोला, ‘‘व्हिस्की अगर अच्छी हो तो खाना कैसा भी हो, चल जाता है. साहब अपने साले के साथ और उन का बेटा अपने बहनोई के साथ 2-2 पेग तो लेंगे ही. बहती गंगा में साथ आए साहब लोग भी हाथ धो लेंगे. रही बात मेरी, तो मैं तो देसी से भी काम चला लूंगा.’’

भगत राम कभी शराब के आसपास भी नहीं फटके थे, लेकिन उस दिन उन्हें अच्छी और खराब व्हिस्कियों के नाम व भाव, दोनों पता चल गए थे.

गैस्टहाउस से घर जाने की फुरसत भगत राम को रात 10 बजे ही मिल पाई, वह भी सुबह 7 बजे फिर से हाजिर हो जाने की शर्त पर. निदेशक साहब ने 10 दिनों तक सैरसपाटा किया और हर दिन यही सिलसिला चलता रहा. भगत राम की हैसियत निदेशक साहब के अरदली के अरदली जैसी हो कर रह गई.

निदेशक साहब गए तो उन्होंने राहत की सांस ली. मगर जो खर्च हुआ था, उस की भरपाई कहां से होगी, यह समझ नहीं पा रहे थे. दफ्तर में दूसरे कर्मचारियों से बात की तो तुरंत ही परंपरा का पता चल गया.

‘‘खर्च तो दफ्तर ही देगा, साहब, मरम्मत और पुताईरंगाई जैसे खर्चों के बिल बनाने पड़ेंगे. हर साल यही होता है,’’ एक कर्मचारी ने बताया. दफ्तर की हालत तो ऐसी थी जैसी किसी कबाड़ी की दुकान की होती है, लेकिन साफसफाई के बिलों का भुगतान वास्तव में ही नियमितरूप से हो रहा था. भगत राम ने भी वही किया, फिर भी अनुभव की कमी के कारण 2 हजार रुपए का गच्चा खा ही गए.

निदेशक का दौरा सकुशल निबट जाने का संतोष लिए वे घर लौटे तो पाया कि साले साहब सपरिवार पधारे हुए हैं. ‘‘जिस दिन आप के ट्रांसफर की बात सुनी, उसी दिन सोच लिया था कि इस बार गरमी में इधर ही आएंगे. एक हफ्ते की छुट्टी मिल ही गई है,’’ साले साहब खुशी के साथ बोले.

भगत राम की इच्छा आराम करने की थी, मगर कह नहीं सके. जीजा, साले का रिश्ता वैसे भी बड़ा नाजुक होता है. ‘‘अच्छा किया, साले साहब आप ने. मिलनेजुलने तो वैसे भी कभीकभी आते रहना चाहिए,’’ भगत राम ने केवल इतना ही कहा.

साले साहब के अनुरोध पर उन्हें दफ्तर से 3 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी और गाइड बन कर उन्हें घुमाना भी पड़ा. छुट्टियां तो शायद और भी लेनी पड़ जातीं, मगर बीच में ही बदहवासी की हालत में दौड़ता हुआ दफ्तर का चपरासी आ गया. उस ने बताया कि दफ्तर में औडिट पार्टी आ गई है, अब उन के लिए सारा प्रबंध करना है.

सुनते ही भगत राम तुरंत दफ्तर पहुंच गए और औडिट पार्टी की सेवाटहल में जुट गए. साले साहब 3 दिनों बाद ‘सारी खुदाई एक तरफ…’ वाली कहावत को चरितार्थ कर के चले गए, मगर औडिट पार्टी के सदस्यों का व्यवहार भी सगे सालों से कुछ कम न था. दफ्तर का औडिट तो एक दिनों में ही खत्म हो गया था लेकिन पूरे हिल स्टेशन का औडिट करने में एक सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया.

औडिट चल ही रहा था कि दूर की मौसी का लड़का अपनी गर्लफ्रैंड सहित घर पर आ धमका. जब तक भगत राम मैदानी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्त थे, उस के दर्शन नहीं होते थे, लेकिन अचानक ही वह सब से सगा लगने लगा था. एक हफ्ते तक वह भी बड़े अधिकारपूर्वक घर में डेरा जमाए रहा. औडिट पार्टी भगत राम को निचोड़ कर गई तो किसी दूसरे वरिष्ठ अधिकारी के पधारने की सूचना आ गई.

‘‘समझ में नहीं आता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?’’ भगत राम बड़बड़ाए. ‘‘जब तक सीजन चलेगा,’’ एक कर्मचारी ने बता दिया.

भगत राम ने अपना सिर दोनों हाथों से थाम लिया. घर पर जा कर भी सिर हाथों से हट न पाया क्योंकि वहां फूफाजी आए हुए थे. बाद में दूसरे अवसर पर तो बेचारे चाह कर भी ठीक से मुसकरा तक नहीं पाए थे, जब घर में दूर के एक रिश्तेदार का बेटा हनीमून मनाने चला आया था.

उसी समय सुजाता की एक रिश्तेदार महिला भी पति व बच्चों सहित आ गई थी. और अचानक उन के दफ्तर के एक पुराने साथी को भी प्रकृतिप्रेम उमड़ आया था. भगत राम को रजाईगद्दे किराए पर मंगाने पड़ गए थे. वे खुद तो गाइड की नौकरी कर ही रहे थे, पत्नी को भी आया की नौकरी करनी पड़ गई थी. सुजाता की रिश्तेदार अपने पति के साथ प्रकृति का नजारा लेने के लिए अपने छोटेछोटे बच्चों को घर पर ही छोड़ जाया करती थी.

उधर, दफ्तर में भी यही हाल था. एक अधिकारी से निबटते ही दूसरे अधिकारी के दौरे की सूचना आ जाती थी. शांति की तलाश में भगत राम दफ्तर में आ जाते थे और फिर दफ्तर से घर में. लेकिन मानसिक शांति के साथसाथ आर्थिक शांति भी छिन्नभिन्न हो गई थी. 4 महीने कब गुजर गए, कुछ पता ही न चला. हां, 2 बातों का ज्ञान भगत राम को अवश्य हो गया था. एक तो यह कि दफ्तर के कुल कितने बड़ेबड़े अधिकारी हैं और दूसरी यह कि दुनिया में उन के रिश्तेदार और अभिन्न मित्रों की कोई कमी नहीं है.

‘‘सच पूछिए तो यहां रहने का मजा ही आ गया…जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है, लेकिन छुट्टियां इतनी ही थीं, इसलिए जाना ही पड़ेगा. अगले साल जरूर फुरसत से आएंगे.’’ रिश्तेदार और मित्र यही कह कर विदा ले रहे थे. उन की फिर आने की धमकी से भगत राम बुरी तरह से विचलित होते जा रहे थे. ‘‘क्योंजी, अगले साल भी यही सब होगा क्या?’’ सुजाता ने पूछा. शायद वह भी विचलित थी.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ भगत राम निर्णायक स्वर में चीख से पड़े, ‘‘मैं आज ही तबादले का आवदेन भिजवाए देता हूं. यहां से तबादला करवा कर ही रहूंगा, चाहे 10-20 हजार रुपए खर्च ही क्यों न करने पड़ें.’’ ?सुजाता ने कुछ न कहा. भगत राम तबादले का आवेदनपत्र भेजने के लिए दफ्तर की ओर चल पड़े.

मुक्ति : मां के मनोभावों से अनभिज्ञ नहीं था सुनील

टनटनटन मोबाइल की घंटी बजी और सुनील के फोन उठाने के पहले ही बंद भी हो गई. लगता है यह फोन भारत से आया होगा. भारत क्या, रांची से, शिवानी का. शिवानी, वह मुंहबोली भांजी, जिस के यहां वह अपनी मां को अमेरिका से ले जा कर छोड़ आया था. वहां से आए फोन के साथ ऐसा ही होता रहता है. घंटी बजती है और बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद फिर घंटी बज उठती है.

सुनील मोबाइल पर घंटी के फिर से बजने की प्रतीक्षा करने लगा है. इस के साथ ही उस के मन में एक दहशत सी पैदा हो जाती है. न जाने क्या खबर होगी? फोन तो रांची से ही आया होगा. बात यह थी कि उस की 90 वर्षीया मां गिर गई थीं और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. सुनील को पता था कि मां इस चोट से उबर नहीं पाएंगी, इलाज पर चाहे कितना भी खर्च क्यों न किया जाए और पैसा वसूलने के लिए हड्डी वाले डाक्टर कितनी भी दिलासा क्यों न दिलाएं. मां के सुकून के लिए और खासकर दुनिया व समाज को दिखाने के लिए भी इलाज तो कराना ही था, वह भी विदेश में काम कर के डौलर कमाने वाले इकलौते पुत्र की हैसियत के मुताबिक.

वैसे उस की पत्नी चेतावनी दे चुकी थी कि इस तरह हम अपने पैसे बरबाद ही कर रहे हैं. मां की बीमारी के नाम पर जितने भी पैसे वहां भेजे जा रहे हैं उन सब का क्या हो रहा है, इस का लेखाजोखा तो है नहीं? शिवानी का घर जरूर भर रहा है. आएदिन पैसे की मांग रखी जाती है. हालांकि यह सब को पता था कि इस उम्र में गिर कर कमर तोड़ लेना और बिस्तर पकड़ लेना मौत को बुलावा ही देना था.

शिवानी ने सुनील की मां की देखभाल के नाम पर दिनरात के लिए एक नर्स रख ली थी और उन्हीं के नाम पर घर में काफी सुविधाएं भी इकट्ठी कर ली थीं, फर्नीचर से ले कर फ्रिज, टीवी और एयरकंडीशनर तक. डाक्टर, दवा, फिजियोथेरैपिस्ट और बारबार टैक्सी पर अस्पताल का चक्कर लगाना तो जायज बात थी.

सुनील की पत्नी को इन सब दिखावे से चिढ़ थी. वह कहती  थी कि एक गाड़ी की मांग रह गई है, वह भी शिवानी मां के जिंदा रहते पूरा कर ही लेगी. कमर टूटने के बाद हवाखोरी के लिए मां के नाम पर गाड़ी तो चाहिए ही थी. सुनील चुप रह जाता. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता था कि शिवानी की मांगें बढ़ी हुई लगती थीं किंतु उन्हें नाजायज नहीं कहा जा सकता था.

शिवानी अपनी हैसियत के मुताबिक जो भी करती वह उस की मां के लिए काफी नहीं होता. मां के लिए गांवों में चलने वाली खाटें तो नहीं चल सकती थीं, घर में सीमित रहने पर मन बहलाने के लिए टीवी रखना जरूरी था, फिर वहां की गरमी से बचनेबचाने को एक एनआरआई की मां के लिए फ्रिज और एसी को फुजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता था.

अब यह कहां तक संभव या उचित था कि जब ये चीजें मां के नाम पर आई हों तो घर का दूसरा व्यक्ति उन का उपयोग ही न करे? पैसा बचा कर अगर शिवानी ने एक के बदले 2 एसी खरीद लिए तो इस के लिए उसे कुसूरवार क्यों ठहराया जाए? फ्रिज भी बड़ा लिया गया तो क्या हुआ, क्या मां भर का खाना रखने के लिए ही फ्रिज लेना चाहिए था?

आखिर मां की जो सेवा करता है उसे भी इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए थी. पर उस की पत्नी को यह सब गलत लगता था. सामान तो आ ही गया था, अब यह बात थोड़े थी कि मां के मरने के बाद कोई उन सब को उस से वापस मांगने जाता?

सुनील के मन के किसी कोने में यह भाव चोर की तरह छिपा था कि यह फोन शिवानी का न हो तो अच्छा है, क्योंकि वहां से फोन आने का मतलब था किसी न किसी नई समस्या का उठ खड़ा होना. साथ ही, हर बार शिवानी से बात कर के उसे अपने में एक छोटापन महसूस हुआ करता था.

अपनी बात के लहजे से वह उसे बराबर महसूस कराती रहती थी कि वह अपनी मां के प्रति अपने कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं कर रहा. केवल पैसा भेज देने से ही वह अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था, भारतीय संस्कृति में पैसा ही सबकुछ नहीं होता, उस की उपस्थिति ही अधिक कारगर हो सकती थी. और यहीं पर सुनील का अपराधबोध हृदय के अंतराल में एक और गांठ की परत बना देता. इस से वह बचना चाहता था और शायद यही वह मर्मस्थल भी था जिसे शिवानी बारबार कुरेदती रहती थी.

शिवानी का कहना था कि उसे तथा उस के पति को डाक्टर डांट कर भगा देते थे, जबकि सुनील की बात वे सुनते थे. सुनील का नाम तथा उस का पता जान कर ही लोग ज्यादा प्रभावित होते थे, न कि मात्र पैसा देने से. आजकल भारत में भी पैसे देने वाले कितने हैं, पर क्या अस्पताल के अधिकारी उन लोगों की बात सुनते भी हैं? सुनील फोन पर ही उन लोगों से जितनी बात कर लेता था वही वहां के अधिकारियों पर बहुत प्रभाव डाल देती थी.

इस के अतिरिक्त उस का खुद का भारत आना अधिक माने रखता था, मां की तसल्ली के लिए ही सही. थोड़ी हरारत भी आने पर मां सुनील का ही नाम जपना शुरू कर देती थीं.

शिवानी को लगता कि वह अपना शरीर खटा कर दिनरात उन की सेवा करती रहती है, जबकि उसे पैसे के लालच में काम करने वाली में शुमार कर के मां ही नहीं, परोक्ष रूप से सुनील भी उस के प्रति बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. यह खीझ शिवानी मां पर ही नहीं, बल्कि किसी न किसी तरह सुनील पर भी उतार लेती थी.

कुछ ही महीने पहले की बात थी. जिस दिन मां की कमर की हड्डी टूटी थी, अस्पताल में जब तक इमरजैंसी में मां को छोड़ कर शिवानी और उस के पति डाक्टर के लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे कि फोन पर इस दुर्घटना की खबर मिलने पर सुनील ने अमेरिका में बैठेबैठे न जाने किसकिस डाक्टर के फोन नंबर का ही पता नहीं लगा लिया बल्कि डाक्टर को तुरंत मां के पास भेज भी दिया. ऐसा क्या वहां किसी अन्य के किए पर हो सकता था?

और उस के बाद तो अनेक परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था. उधर, सुनील फोन पर लगातार हिदायतों पर हिदायतें देता जा रहा था और इधर शिवानी पर शामत आ रही थी. अपने पति पर घर छोड़ कर और एंबुलैंस पर मां को अकेले अपने दम पर पटना ले जाना, किसी विशेषज्ञ जिस का नाम सुनील ने ही बताया था उस से संपर्क करना और प्राइवेट वार्ड में रख कर मां का औपरेशन करवाना, नर्स के रहते भी दिनरात उन की सेवा करते रहना इत्यादि कितनी ही जहमतों का काम वह 3 हफ्तों तक करती रही थी. इस का एकमात्र पुरस्कार शिवानी को यह मिला था कि मां का प्यार उस के प्रति बढ़ गया था और अब वे उसी का नाम जपने लगी थीं.

सुनील के न चाहने पर भी मोबाइल की घंटी फिर बज उठी. एक झिझक के साथ सुनील ने मोबाइल उठाया. उधर शिवानी ही थी, जोर से बोल उठी, ‘‘अंकल, मैं शिवानी बोल रही हूं.’’

शिवानी के मुंह से अंकल शब्द सुन कर सुनील को ऐसा लगता था जैसे वह उस के कानों पर पत्थर मार रही हो. लाख याद दिलाने पर भी कि वह उस का मामा है, शिवानी उसे अंकल ही कहती थी. स्पष्ट था कि यह संबोधन उसे एक व्यावसायिक संबंध की ही याद दिलाता था, रिश्ते की नहीं.

‘‘हां, हां, मैं समझ गया, बोलो.’’

‘‘प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो, बोलो, क्या बात है?’’

‘‘आप लोग कैसे हैं, अंकल?’’

सुनील जल्दी में था, इसलिए खीझ गया पर शांत स्वर में ही बोला, ‘‘हम लोग सब ठीक हैं, पर तुम बताओ मां कैसी हैं?’’

‘‘नानीजी ने तो खानापीना सब छोड़ रखा है,’’ सुनील को लगा जैसे उस की छाती पर किसी ने हथौड़ा चला दिया हो. उसे चिंता हुई, ‘‘कब से?’’

‘‘कल रात से. कल रात कुछ नहीं खाया, आज भी न नाश्ता लिया और न दोपहर का खाना ही खाया.’’

‘‘अब रात का खाना उन्हें अवश्य खिलाओ. जो उन को पसंद आए वही बना कर दो. खाना थोड़ा गला कर देना ताकि उसे वे आसानी से निगल सकें. निगलने में दिक्कत होने से भी वे नहीं खाती होंगी.’’

‘‘हम ने तो कल खिचड़ी दी थी.’’

‘‘उसे भी जरा पतला कर के दो और घी वगैरह मिला दिया करो. मां को खिचड़ी अच्छी लगती है.’’

‘‘इसीलिए तो अंकल, लेकिन कहती हैं कि भूख नहीं है.’’

‘‘डाक्टर से पूछ कर देखो. भूख न लगने का भी इलाज हो सकता है.’’

‘‘वे कहती हैं, खाने की रुचि ही खत्म हो गई है. इस का क्या इलाज है? शायद मेरे हाथ से खाना ही नहीं चाहतीं.’’

उस लड़की की बात में सुनील को साफ व्यंग्य झलकता दिखाई पड़ा. ‘‘फिर भी, तुम डाक्टर से पूछो,’’ वह शांत स्वर में ही बोला.

‘‘जी अच्छा, अंकल.’’

‘‘फिर जैसा हो बताना. तुम चाहो तो व्हाट्सऐप कौल कर सकती हो.’’

‘‘नहीं अंकल, अब तो अमेरिका फोन करना सस्ता हो गया है. कोई बात नहीं. रात में फिर से कोशिश कर के देखती हूं.’’ वास्तव में शिवानी के पास पैसे की कोई कमी तो थी नहीं, फिर भी, उस की उदारता की उस ने जिस तरह उपेक्षा कर दी वह उसे अच्छा नहीं लगा.

‘‘जरूर.’’

‘‘अंकल, वहां अभी क्या समय हो रहा है?’’

‘‘यहां सुबह के 7 बज रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, प्रणाम अंकल.’’

‘‘खुश रहो.’’

शिवानी सुनील के दूर के रिश्ते की बहन की बेटी थी. उस का घर तो भरापूरा था, उस का पति, 3 बेटे और 2 बेटियां. पर आय सीमित थी. हाईस्कूल कर के उस का पति किसी तरह कोई सिफारिश पहुंचा कर रांची के एंप्लौयमैंट एक्सचेंज औफिस में लोअर डिवीजन क्लर्क बन गया था.

सुनील जब किसी तरह मां को  अपने साथ अमेरिका में नहीं रख  सका तो वह भारत में एक ऐसा परिवार ढूंढ़ने लगा जो मां को अपने साथ रखे तथा उन की देखभाल करे, खर्च चाहे जो लगे. पर उसे ऐसा कोई परिवार जल्दी नहीं मिला. कोई इस तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता था. नजदीकी रिश्तेदारी में तो कोई मिला ही नहीं. किसी तरह उसे शिवानी का पता चला.

शिवानी को उस ने पहले देखा भी नहीं था, पर इस पारस्परिक रिश्ते को वे दोनों जानते थे. इस में संदेह नहीं था कि शिवानी को लगा कि सुनील की मां, जिसे वह नानी कहती थी, को रखने से उस की आर्थिक स्थिति में सुधार आ जाएगा. सुनील ने शुरू में ही उसे सबकुछ समझा दिया था. हफ्तों खोज करने के बाद उसे यह परिवार मिला था. सो वह उन पर ज्यादा ही निर्भर हो गया था. शिवानी को उस की मां को केवल पनाह देनी थी. काम करने के लिए उस ने अलग से एक नर्स रखने की अनुमति दे रखी थी. खर्च के लिए पैसे देने में उस ने कंजूसी नहीं की. मां को समझा दिया कि शिवानी के यहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी.

चलते समय मां की आंखें उसे वैसी ही लगीं जैसा बचपन में वह अपनी गाय को बछड़े से बिछुड़ते हुए देखा करता था. दुखभरी आवाज में मां ने पूछा, ‘आते तो रहोगे न, बेटा?’

सुनील ने तपाक से उत्तर दिया था, ‘जरूर मां, कुछ ही महीनों में यहां फिर आना है. और फिर मोबाइल तो है ही, मोबाइल पर जब कभी भी बात हो जाया करेगी.’

‘बेटा, मैं तो बहरी हो गई हूं, फोन पर क्या बात कर सकूंगी?’

‘मां, तुम नहीं, शिवानी तुम्हारा समाचार देती रहेगी. यह भी तो नतिनी ही हुई तुम्हारी. तुम्हें यह बहुत अच्छी तरह रखेगी.’

‘यह क्या रखेगी, तुम्हारा पैसा रखाएगा,’ मां ने धीरे से कहा.

बेटे ने चलते समय मां के पैर छुए, तो मां ने कहा, ‘जुगजुग जियो. अब हमारे लिए एक तुम्हीं रह गए हो, बेटा.’

सुनील अपनी सफाई में किसी तरह यही बोल पाया, ‘मां, अगर मैं तुम्हें अमेरिका में रख पाता तो जरूर रखता. तुम्हें कई बार बता चुका हूं. मैं तो वहां तुम्हारा इलाज भी नहीं करा सकता.’

‘तुम ने तो कहा था कि साल दो साल में तुम रिटायरमैंट ले लोगे और फिर भारत वापस आ जाओगे.’

सुनील की जैसे चोरी पकड़ी गई. इस बात की तसल्ली उस ने मां को बारबार दी थी कि वह उन्हें शिवानी के पास अधिक से अधिक 2 साल के लिए रख रहा था, जैसे ही वह रिटायर होगा, भारत आ जाएगा और उन्हें साथ रखेगा. उस घटना को 5 साल बीत गए थे. पर सुनील नहीं जा पाया था मां से मिलने.

वैसे वह रिटायर हो चुका था. यह नहीं कि इस बीच वह भारत गया ही नहीं. हर वर्ष वह भारत जाता रहा था किंतु कभी ऐसा जुगाड़ नहीं बन पाया कि वह मां से मिलने जाने की जहमत उठाता. कभी अपने काम से तो कभी पत्नी को भारतभ्रमण कराने के चलते. किंतु रांची जाने में जितनी तकलीफ उठानी पड़ती थी, उस के लिए वह समय ही नहीं निकाल पाता था. मां को या शिवानी को पता भी नहीं चल पाता कि वह इस बीच कभी भारत आया भी है.

अमेरिका से फोन करकर वह यह बताता रहता कि अभी वह बहुत व्यस्त है, छुट्टी मिलते ही मां से मिलने जरूर आएगा. और मन को हलका करने के लिए वह कुछ अधिक डौलर भेज देता केवल मां के ही लिए नहीं, शिवानी के बच्चों के लिए या खुद शिवानी और उस के पति के लिए भी. तब शिवानी संक्षेप में अपना आभार प्रकट करते हुए फोन पर कह देती कि वह उस की व्यस्तता को समझ सकती है. पता नहीं शिवानी के उस कथन में उसे क्या मिलता कि वह उस में आभार कम और व्यंग्य अधिक पाता था.

सुनील के अमेरिका जाने के बाद से उस की मां उस की बहन यानी अपनी बेटी सुषमा के पास वर्षों रहीं. सुनील के पिता पहले ही मर चुके थे. इस बीच सुनील अमेरिका में खुद को व्यवस्थित करने में लगा रहा. संघर्ष का समय खत्म हो जाने के बाद उस ने मां को अमेरिका नहीं बुलाया.

बहन तथा बहनोई ने बारबार लिखा कि आप मां को अपने साथ ले जाइए पर सुनील इस के लिए कभी तैयार नहीं हुआ. उस के सामने 2 मुख्य बहाने थे, एक तो यह कि मां का वहां के समाज में मन नहीं लगेगा जैसा कि वहां अन्य बुजुर्ग व रिटायर्ड लोगों के साथ होता है और दूसरे, वहां इन की दवा या इलाज के लिए कोई मदद नहीं मिल सकती. हालांकि वह इस बात को दबा गया कि इस बीच वह उन के भारत रहतेरहते भी उन्हें ग्रीनकार्ड दिला सकता था और अमेरिका पहुंचने पर उन्हें सरकारी मदद भी मिल सकती थी.

एक बार जब वह सुषमा की बीमारी पर भारत आया तो बहन ने ही रोरो कर बताया कि मां के व्यवहार से उन के पति ही नहीं, उस के बच्चे भी तंग रहते हैं. अपनी बात यदि वह बेटी होने के कारण छोड़ भी दे तो भी वह उन लोगों की खातिर मां को अपने साथ नहीं रख सकती. दूसरी ओर मां का यह दृढ़ निश्चय था कि जब तक सुषमा ठीक नहीं  हो जाती तब तक वे उसे छोड़ नहीं सकतीं.

सुनील ने अपने स्वार्थवश मां की हां में हां मिलाई. सुषमा कैंसर से पीडि़त थी. कभी भी उस का बुलावा आ सकता था. सुनील को उस स्थिति के लिए अपने को तैयार करना था.

सुषमा की मृत्यु पर सुनील भारत नहीं आ सका पर उस ने मां को जरूर अमेरिका बुलवा लिया अपने किसी संबंधी के साथ. अमेरिका में मां को सबकुछ बहुत बदलाबदला सा लगा. उन की निर्भरता बहुत बढ़ गई. बिना गाड़ी के कहीं जाया नहीं जा सकता था और गाड़ी उन का बेटा यानी सुनील चलाता था या बहू. घर में बंद, कोई सामाजिक प्राणी नहीं. बेटे को अपने काम के अलावा इधरउधर आनेजाने व काम करने की व्यस्तता लगी रहती थी. बहू पर घर के काम की जिम्मेदारी अधिक थी. यहां कोई कामवाली तो आती नहीं थी, घर की सफाई से ले कर बाहर के भी काम बहू संभालती थी.

मां के लिए परेशानी की बात यह थी कि सुनील को कभीकभी घर के काम में अपनी पत्नी की सहायता करनी पड़ती थी. घर का मर्द घर में इस तरह काम करे, घर की सफाई करे, बरतन मांजे, कपड़े धोए, यह सब देख कर मां के जन्मजन्मांतर के संस्कार को चोट पहुंचती थी. सुनील के बारबार यह समझाने पर भी कि यहां अमेरिका में दाईनौकर की प्रथा नहीं है, और यहां सभी घरों में पतिपत्नी मिल कर घर के काम करते हैं, मां संतुष्ट नहीं होतीं.

मां को यही लगता कि उन की बहू ही उन के बेटे से रोज काम लिया करती है. सभी कामों में वे खुद हाथ बंटाना चाहतीं ताकि बेटे को वह सब नहीं करना पड़े, पर 85 साल की उम्र में उन पर कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था. कहीं भूल से उन्हें चोट न लग जाए, घर में आग न लग जाए, वे गिर न पड़ें, इन आशंकाओं के मारे कोई उन्हें घर का काम नहीं करने देता था.

सुनील अपनी मां का इलाज  करवाने में समर्थ नहीं था.

अमेरिका में कितने लोग सारा का सारा पैसा अपनी गांठ से लगा कर इलाज करवा सकते थे? मां ऐसी बातें सुन कर इस तरह चुप्पी साध लेती थीं जैसे उन्हें ये बातें तर्क या बहाना मात्र लगती हों. उन की आंखों में अविश्वास इस तरह तीखा हो कर छलक उठता था जिसे झेल न सकने के कारण, अपनी बात सही होने के बावजूद सुनील दूसरी तरफ देखने लग जाता था. उन की आंखें जैसे बोल पड़तीं कि क्या ऐसा कभी हो सकता है कि कोई सरकार अपने ही नागरिक की बूढ़ी मां के लिए कोई प्रबंध न करे. भारत जैसे गरीब देश में तो ऐसा होता ही नहीं, फिर अमेरिका जैसे संपन्न देश में ऐसा कैसे हो सकता था?

सुनील के मन में वर्षों तक मां के लिए जो उपेक्षा भाव बना रहा था या उन्हें वह जो अपने पास अमेरिका बुलाने से कतराता रहा था शायद इस कारण ही उस में एक ऐसा अपराधबोध समा गया था कि वह अपनी सही बात भी उन से नहीं मनवा सकता था. कभीकभी वे रोंआसी हो कर यहां तक कह बैठती थीं कि दूसरे बच्चों का पेट काटकाट कर भी उन्होंने उसे डबल एमए कराया था और सुनील यह बिना कहे ही समझ जाता था कि वास्तव में वे कह रही हैं कि उस का बदला वह अब तक उन की उपेक्षा कर के देता रहा है जबकि उस की पाईपाई पर उन का हक पहले है और सब से ज्यादा है.

सुनील के सामने उन दिनों के वे दृश्य उभर आते जब वह कालेज की छुट्टियों में घर लौटता था और अपने मातापिता के साथ भाईबहनों को भी वह रूखासूखा खाना बिना किसी सब्जीतरकारी के खाते देखता था.

मां को सब से अधिक परेशानी इस बात की थी कि परदेश में उन्हें हंसनेबोलने के लिए कोई संगीसाथी नहीं मिल पाता था, और अकेले कहीं जा कर किसी से अपना परिचय भी नहीं बढ़ा सकती थीं. शिकागो जैसे बड़े शहर में भारतीयों की कोई कमी तो नहीं थी, पर सुनील दंपती लोगों से कम ही मिलाजुला करते थे.

कभीकभी मां को वे मंदिर ले जाते थे. उन्हें वहां पूरा माहौल भारत का सा मिलता था. उस परिसर में घूमती हुई किसी भी बुजुर्ग स्त्री को देखते ही वे देर तक उन से बातें करने के लिए आतुर हो जातीं. वे चाहती थीं कि वे वहां बराबर जाया करें, पर यह  भी कर सकना सुनील या उस की पत्नी के लिए संभव नहीं था. अपनी व्यस्तता के बीच तथा अपनी रुचि के प्रतिकूल सुनील के लिए सप्ताहदोसप्ताह में एक बार से अधिक मंदिर जाना संभव नहीं था और वह भी थोड़े समय के लिए.

कुछ ही समय में सुनील की मां को लगा कि अमेरिका में रहना भारी पड़ रहा है. उन्हें अपने उस घर की याद बहुत तेजी से व्यथित कर जाती जो कभी उन का एकदम अपना था, अपने पति का बनवाया हुआ. वे भूलती नहीं थीं कि अपने घर को बनवाने में उन्होंने खुद भी कितना परिश्रम किया था, निगरानी की थी और दुख झेले थे. और यह भी कि जब वह दोमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था तो उन्हें कितना अधिक गर्व हुआ था.

आज यदि उन के पति जीवित होते तो कहीं और किसी के साथ रहने या अमेरिका आने के चक्कर में उन्हें अपने उस घर को बेचना नहीं पड़ता. उन के हाथों से उन का एकमात्र जीवनाधार जाता रहा था. उन के मन में जबतब अपने उस घर को फिर से देखने और अपनी पुरानी यादों को फिर से जीने की लालसा तेज हो जाती.

पर अमेरिका आने के बाद तो फिर से भारत जाने और अपने घर को देखने का कोई अवसर ही आता नहीं दिखता था. न तो सुनील को और न ही उस की पत्नी को भारत से कोई लगाव रह गया था या भारत में टूटते अपने सामाजिक संबंधों को फिर से जोड़ने की लालसा. तब सुनील की मां को लगता कि भारत ही नहीं छूटा, उन का सारा अतीत पीछे छूट गया था, सारा जीवन बिछुड़ गया था. यह बेचैनी उन को जबतब हृदय में शूल की तरह चुभा करती. उन्हें लगता कि वे अपनी छायामात्र बन कर रह गई हैं और जीतेजी किसी कुएं में ढकेल दी गई हैं. ऐसी हालत में उन का अमेरिका में रहना जेल में रहने से कम न था.

मां के मन में अतीत के प्रति यह लगाव सुनील को जबतब चिंतित करता. वह जानता था कि उन का यह भाव अतीत के प्रति नहीं, अपने अधिकार के न रहने के प्रति है. मकान को बेच कर जो भी पैसा आया था, जिस का मूल्य अमेरिकी डौलर में बहुत ही कम था, फिर भी उसे वे अपने पुराने चमड़े के बौक्स में इस तरह रखती थीं जैसे वह बहुत बड़ी पूंजी हो और जिसे वे अपने किसी भी बड़े काम के लिए निकाल सकती थीं. कम से कम भारत जाने के लिए वे कई बार कह चुकी थीं कि उन के पास अपना पैसा है, उन्हें बस किसी का साथ चाहिए था.

सुनील देखता था कि वे किस प्रकार घर का काम करने, विशेषकर खाना बनाने के लिए आगे बढ़ा करती थीं पर सुनील की पत्नी उन्हें ऐसा नहीं करने दे सकती थी. कहीं कुछ दुर्घटना घट जाती तो लेने के देने पड़ जाते. बिना इंश्योरैंस के सैकड़ों डौलर बैठेबिठाए फुंक जाते. तब भी, जबतब मां की अपनी विशेषज्ञता जोर पकड़ लेती और वे बहू से कह बैठतीं, यह ऐसे थोड़े बनता है, यह तो इस तरह बनता है. साफ था कि उस की पत्नी को उन से सीख लेने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी.

सुनील की मां के लिए अमेरिका छोड़ना हर प्रकार सुखकर हो, ऐसी भी बात नहीं थी. अपने बेटे की नजदीकी ही नहीं, बल्कि सारी मुसीबतों के बावजूद उस की आंखों में चमकता अपनी मां के प्रति प्यार आंखों के बूढ़ी होने के बाद भी उन्हें साफ दिख जाता था. दूसरी ओर अमेरिका में रहने का दुख भी कम नहीं था. उन का जीवन अपने ही पर भार बन कर रह गया था.

अब जहां वे जा रही थीं वहां से पारिवारिक संबंध या स्नेह संबंध तो नाममात्र का था, यह तो एक व्यापारिक संबंध स्थापित होने जा रहा था. ऐसी स्थिति में शिवानी से महीनों तक उन का किसी प्रकार का स्नेहसंबंध नहीं हो पाया. जो केवल पैसे के लिए उन्हें रख रही हो उस से स्नेहसंबंध क्या?

उन का यह बरताव उन की अपनी और अपने बेटे की गौरवगाथा में ही नहीं, बल्कि दिनप्रतिदिन की सामान्य बातचीत में भी जाहिर हो जाता था. उस में मेरातेरा का भाव भरा होता था. यह एसी मेरे बेटे का है, यह फ्रिज मेरा है, यह आया मेरे बेटे के पैसे से रखी गई है, इसलिए मेरा काम पहले करेगी, इत्यादि.

शिवानी को यह सब सिर झुका कर स्वीकार करना पड़ता, कुछ नानी की उम्र का लिहाज कर के, कुछ अपनी दयनीय स्थिति को याद कर के और कुछ इस भार को स्वीकार करने की गलती का एहसास कर के.

मोबाइल की घंटी रात के 2 बजे फिर बज उठी. यह भी समय है फोन करने का? लेकिन होश आया, फोन जरूर मां की बीमारी की गंभीरता के कारण किया गया होगा. सुनील को डर लगा. फोन उठाना ही पड़ा. उधर से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानी तो अपना होश खो बैठी हैं.’’

‘‘क्या मतलब, होश खो बैठी हैं? डाक्टर को बुलाया’’ सुनील ने चिंता जताई.

‘‘डाक्टर ने कहा कि आखिरी वक्त आ गया है, अब कुछ नहीं होगा.’’

सुनील को लगा कि शिवानी अब उसे रांची आने को कहेगी, ‘‘शिवानी, तुम्हीं कुछ उपाय करो वहां. हमारा आना तो नहीं हो सकता. इतनी जल्दी वीजा मिलना, फिर हवाईजहाज का टिकट मिलना दोनों मुश्किल होगा.’’

‘‘हां अंकल, मैं समझती हूं. आप कैसे आ सकते हैं?’’ सुनील को लगा जैसे व्यंग्य का एक करारा तमाचा उस के मुंह पर पड़ा हो.

‘‘किसी दूसरे डाक्टर को भी बुला लो.’’

‘‘अंकल, अब कोई भी डाक्टर क्या करेगा?’’

‘‘पैसे हैं न काफी?’’

‘‘आप ने अभी तो पैसे भेजे थे. उस में सब हो जाएगा.’’

शिवानी की आवाज कांप रही थी, शायद वह रो रही थी. दोनों ओर से सांकेतिक भाषा का ही प्रयोग हो रहा था. कोई भी उस भयंकर शब्द को मुंह में लाना नहीं चाहता था. मोबाइल अचानक बंद हो गया. शायद कट गया था.

3 घंटे के बाद मोबाइल की घंटी बजी. सुनील बारबार के आघातों से बच कर एकबारगी ही अंतिम परिणाम सुनना चाहता था.

शिवानी थी, ‘‘अंकल, जान निकल नहीं रही है. शायद वे किसी को याद कर रही हैं या किसी को अंतिम क्षण में देखना चाहती हैं.’’

सुनील को जैसे पसीना आ गया, ‘‘शिवानी, पानी के घूंट डालो उन के मुंह में.’’

‘‘अंकल, मुंह में पानी नहीं जा रहा.’’ और वह सुबकती रही. फोन बंद हो गया.

सुबह होने से पहले घंटी फिर बजी. सुनील बेफिक्र हो गया कि इस बार वह जिस समाचार की प्रतीक्षा कर रहा था वही मिलेगा. अब किसी और अपराधबोध का सामना करने की चिंता उसे नहीं थी. उस ने बेफिक्री की सांस लेते हुए फोन उठाया और दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अंकल, नानीजी को मुक्ति मिल गई.’’ सुनील के कानों में शब्द गूंजने लगे, बोलना चाहता था लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे.

उन्मुक्त : कैसा था प्रौफेसर सोहनलाल का बुढ़ापे का जीवन

लेखक- श्रीप्रकाश

फिर प्रोफैसर ने नाश्ता और चाय लिया. रीमा बगल में ही बैठी थी पहले की तरह और आदतन टेबल पर पोर्टेबल टूइनवन में गाना भी बज रहा था. रीमा बोली, ‘‘आजकल आप कुछ ज्यादा ही रोमांटिक गाने सुनने लगे हैं. कमला मैडम के समय ऐसे नहीं थे.’’

उन्होंने उस के गालों को चूमते हुए कहा, ‘‘अभी तुम ने मेरा रोमांस देखा कहां है?’’

रीमा बोली, ‘‘वह भी देख लूंगी, समय आने पर. फिलहाल कुछ पैसे दीजिए राशन पानी वगैरह के लिए.’’

प्रोफैसर ने 500 के 2 नोट उसे देते हुए कहा, ‘‘इसे रखो. खत्म होने के पहले ही और मांग लेना. हां, कोई और भी जरूरत हो, तो निसंकोच बताना.’’

रीमा बोली, ‘‘जानकी बेटी के लिए कुछ किताबें और कपड़े चाहिए थे.’’ उन्होंने 2 हजार रुपए का नोट उस को देते हुए कहा, ‘‘जानकी की पढ़ाई का खर्चा मैं दूंगा. आगे उस की चिंता मत करना.’’

कुछ देर बाद रीमा बोली, ‘‘मैं आप का खानापीना दोनों टाइम का रख कर जरा जल्दी जा रही हूं. बेटी के लिए खरीदारी करनी है.’’

प्रोफैसर ने कहा, ‘‘जाओ, पर एक बार गले तो मिल लो, और हां, मैडम की अलमारी से एकदो अपनी पसंद की साडि़यां ले लो. अब तो यहां इस को पहनने वाला कोई नहीं है.’’

रीमा ने अलमारी से 2 अच्छी साडि़यां और मैचिंग पेटीकोट निकाले. फिर उन से गले मिल कर चली गई.

अगले दिन रीमा कमला के कपड़े पहन कर आई थी. सुबह का नाश्तापानी हुआ. पहले की तरह फिर उस ने लंच भी बना कर रख दिया और अब फ्री थी. प्रोफैसर बैडरूम में लेटेलेटे अपने पसंदीदा गाने सुन रहे थे. उन्होंने रीमा से 2 कौफी ले कर बैडरूम में आने को कहा. दोनों ने साथ ही बैड पर बैठेबैठे कौफी पी थी. इस के बाद प्रोफैसर ने उसे बांहों में जकड़ कर पहली बार किस किया और कुछ देर दोनों आलिंगनबद्ध थे. उन के रेगिस्तान जैसे तपते होंठ एकदूसरे की प्यास बु झा रहे थे. दोनों के उन्माद चरमसीमा लांघने को तत्पर थे. रीमा ने भी कोई विरोध नहीं किया, उसे भी वर्षों बाद मर्द का इतना सामीप्य मिला था.

अब रीमा घर में गृहिणी की तरह रहने लगी थी. कमला के जो भी कपड़े चाहिए थे, उसे इस्तेमाल करने की छूट थी. डै्रसिंग टेबल से पाउडर क्रीम जो भी चाहिए वह लेने के लिए स्वतंत्र थी.

कुछ दिनों बाद नवल बेटे का स्काइप पर वीडियो कौल आया. रीमा घर में कमला की साड़ी पहने थी. प्रोफैसर की बहू रेखा ने भी एक ही  झलक में सास की साड़ी पहचान ली थी. औरतों की नजर इन सब चीजों में पैनी होती है. रीमा ने उसे नमस्ते भी किया था. रेखा ने देखा कि रीमा और उस के ससुर दोनों पहले की अपेक्षा ज्यादा खुश और तरोताजा लग रहे थे.

बात खत्म होने के बाद रेखा ने अपने पति नवल से कहा, ‘‘तुम ने गौर किया, रीमा ने मम्मी की साड़ी पहनी थी और पहले की तुलना में ज्यादा खुशमिजाज व सजीसंवरी लग रही थी. मु झे तो कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

नवल बोला, ‘‘तुम औरतों का स्वभाव ही शक करने का होता है. पापा ने मम्मी की पुरानी साड़ी उसे दे दी तो इस में क्या गलत है? और पापा खुश हैं तो हमारे लिए अच्छी बात है न?’’

‘‘इतना ही नहीं, शायद तुम ने ध्यान नहीं दिया. घर में पापा लैपटौप ले कर जहांजहां जा रहे थे, रीमा उन के साथ थी. मैं ने मम्मी की ड्रैसिंग टेबल भी सजी हुई देखी है,’’ रेखा बोली.

नवल बोला, ‘‘पिछले 2-3 सालों से पापामम्मी की बीमारी से और फिर उन की मौत से परेशान थे, अब थोड़ा सुकून मिला है, तो उन्हें भी जिंदगी जीने दो.’’

प्रोफैसर और रीमा का रोमांस अब बेरोकटोक की दिनचर्या हो गई थी. अब बेटेबहू का फोन या स्काइप कौल

आता तो वे उन से बातचीत में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते थे और जल्दी ही कौल समाप्त कर देना चाहते थे. इस बात को नवल और रेखा दोनों ने महसूस किया था.

कुछ दिनों बाद बेटे ने पापा को फोन कर स्काइप पर वीडियो पर आने को कहा, और फिर बोला, ‘‘पापा, थोड़ा पूरा घर दिखाइए. देखें तो मम्मी के जाने के बाद अब घर ठीकठाक है कि नहीं?’’

प्रोफैसर ने पूरा घर घूम कर दिखाया और कहा, ‘‘देखो, घर बिलकुल ठीकठाक है. रीमा सब चीजों का खयाल ठीक से रखती है.’’

नवल बोला, ‘‘हां पापा, वह तो देख रहे हैं. अच्छी बात है. मम्मी के जाने के बाद अब आप का दिल लग गया घर में.’’

जब प्रोफैसर कैमरे से पूरा घर दिखा रहे थे तब बहू, बेटे दोनों ने रीमा को मम्मी की दूसरी साड़ी में देखा था. इतना ही नहीं, बैड पर भी मम्मी की एक साड़ी बिखरी पड़ी थी. तब रेखा ने नवल से पूछा, ‘‘तुम्हें सबकुछ ठीक लग रहा है, मु झे तो दाल में काला नजर आ रहा है.’’

नवल बोला, ‘‘हां, अब तो मु झे भी कुछ शक होने लगा है. खुद जा कर देखना होगा, तभी तसल्ली मिलेगी.’’

इधर कुछ दिनों के लिए रीमा की बेटी किसी रिश्तेदार के साथ अपने ननिहाल गई हुई थी. तब दोनों ने इस का भरपूर लाभ उठाया था. पहले तो रीमा डिनर टेबल पर सजा कर शाम के पहले ही घर चली जाती थी. प्रोफैसर ने कहा, ‘‘जानकी जब तक ननिहाल से लौट कर नहीं आती है, तुम रात को भी यहीं साथ में खाना खा कर चली जाना.’’

आज रात 8 बजे की गाड़ी से जानकी लौटने वाली थी. रीमा ने उसे प्रोफैसर साहब के घर ही आने को कहा था क्योंकि चाबी उसी के पास थी. इधर नवल ने भी अचानक घर आ कर सरप्राइज चैकिंग करने का प्रोग्राम बनाया था. उस की गाड़ी भी आज शाम को पहुंच रही थी.

अभी 8 बजने में कुछ देर थी. प्रोफैसर और रीमा दोनों घर में अपना रोमांस कर रहे थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी तो उन्होंने कहा, ‘‘रुको, मैं देखता हूं. शायद जानकी होगी.’’ और उन्होंने लुंगी की गांठ बांधते हुए दरवाजा खोला तो सामने बेटे को खड़ा देखा. कुछ पलों के लिए दोनों आश्चर्य से एकदूसरे को देखते रहे थे, फिर उन्होंने नवल को अंदर आने को कहा. तब तक रीमा भी साड़ी ठीक करते हुए बैडरूम से निकली जिसे नवल ने देख लिया था.

रीमा बोली, ‘‘आज दिन में नहीं आ सकी थी तो शाम को खाना बनाने आई हूं. थोड़ी देर हो गई है, आप दोनों चल कर खाना खा लें.’’

खैर, बापबेटे दोनों ने खाना खाया. तब तक जानकी भी आ गई थी. रीमा अपनी बेटी के साथ लौट गई थी. रातभर नवल को चिंता के कारण नींद नहीं आ रही थी. अब उस को भी पत्नी की बातों पर विश्वास हो गया था. अगले दिन सुबह जब प्रोफैसर साहब मौर्निंग वौक पर गए थे, नवल ने उन के बैडरूम का मुआयना किया. उन के बाथरूम में गया तो देखा कि बाथटब में एक ब्रा पड़ी थी और मम्मी की एक साड़ी भी वहां हैंगर पर लटक रही थी. उस का खून गुस्से से खौलने लगा था. उस ने सोचा, यह तो घोर अनैतिकता हुई और मम्मी की आत्मा से छल हुआ. उस ने निश्चय किया कि वह अब चुप नहीं रहेगा, पापा से खरीखरी बात करेगा.

रीमा तो सुबह बेटी को स्कूल भेज कर 8 बजे के बाद ही आती थी. उस के पहले जब प्रोफैसर साहब वौक से लौट कर आए तो नवल ने कहा, ‘‘पापा, आप मेरे साथ इधर बैठिए. आप से जरूरी बात करनी है.’’

वे बैठ गए और बोले, ‘‘हां, बोलो बेटा.’’

नवल बोला, ‘‘रीमा इस घर में किस हैसियत से रह रही है? आप के बाथरूम में ब्रा कहां से आई और मम्मी की साड़ी वहां क्यों है? मम्मी की साडि़यों में मैं ने और रेखा दोनों ने रीमा को बारबार स्काइप पर देखा है. मम्मी की डै्रसिंग टेबल पर मेकअप के सामान क्यों पड़े हैं? इन सब का क्या मतलब है?’’

प्रोफैसर साहब को बेटे से इतने सारे सवालों की उम्मीद न थी. वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे. तब नवल ने गरजते हुए कहा, ‘‘पापा बोलिए, मैं आप से ही पूछ रहा हूं. मु झे तो लग रहा है कि रीमा सिर्फ कामवाली ही नहीं है, वह मेरी मम्मी की जगह लेने जा रही है.’’

प्रोफैसर साहब तैश में आ चुके थे. उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा, ‘‘तुम्हारी मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता है. पर क्या मु झे खुश रहने का अधिकार नहीं है?’’

नवल बोला, ‘‘यह तो हम भी चाहते हैं कि आप खुश रहें. आप हमारे यहां आ कर मन लगाएं. पोतापोती और बहू हम सब आप को खुश रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे.’’

‘‘भूखा रह कर कोईर् खुश नहीं रह सकता है,’’ वे बोले.

नवल बोला, ‘‘आप को भूखा रहने का सवाल कहां है?’’

प्रोफैसर साहब बोले, ‘‘खुश रहने के लिए पेट की भूख मिटाना ही काफी नहीं है. मैं कोई संन्यासी नहीं हूं. मैं भी मर्द हूं. तुम्हारी मां लगभग पिछले 3 सालों से बीमार चल रही थीं. मैं अपनी इच्छाओं का दमन करता रहा हूं. अब उन्हें मुक्त करना चाहता हूं. मु झे व्यक्तिगत मामलों में दखलअंदाजी नहीं चाहिए. और मैं ने किसी से जोरजबरदस्ती नहीं की है. जो हुआ, दोनों की सहमति से हुआ.’’ एक ही सांस में इतना कुछ बोल गए वे.

नवल बोला, ‘‘इस का मतलब मैं जो सम झ रहा था वह सही है. पर 70 साल की उम्र में यह सब शोभा नहीं देता.’’

प्रोफैसर साहब बोले, ‘‘तुम्हें जो भी लगे. जहां तक बुढ़ापे का सवाल है, मैं अभी अपने को बूढ़ा नहीं महसूस करता हूं. मैं अभी भी बाकी जीवन उन्मुक्त हो कर जीना चाहता हूं.’’

नवल बोला, ‘‘ठीक है, आप हम लोगों की तरफ से मुक्त हैं. आज के बाद हम से आप का कोई रिश्ता नहीं रहेगा.’’ और नवल ने अपना बैग उठाया, वापस चल पड़ा. तभी दरवाजे की घंटी बजी थी. नवल दरवाजा खोल कर घर से बाहर निकल पड़ा था. रीमा आई थी. वह कुछ पलों तक बाहर खड़ेखड़े नवल को जाते देखते रही थी.

तब प्रोफैसर साहब ने हाथ पकड़ कर उसे घर के अंदर खींच लिया और दरवाजा बंद कर दिया था. फिर उसे बांहों में कस कर जकड़ लिया और कहा, ‘‘आज मैं आजाद हूं.”

मलहम: प्यार में मिले धोखे का बदला कैसे लिया गुंजन ने?

गुंजन जल्दीजल्दी काम निबटा रही थी. दाल और सब्जी बना चुकी थी बस फुलके बनाने बाकी थे. तभी अभिनव किचन में दाखिल हुआ और गुंजन के करीब रखे गिलास को उठाने लगा. उस ने जानबूझ कर गुंजन को हौले से स्पर्श करते हुए गिलास उठाया और पानी ले कर बाहर निकल गया.

गुंजन की धड़कनें बढ़ गईं. एक नशा सा उस के बदन को महकाने लगा. उस ने चाहत भरी नजरों से अभिनव की तरफ देखा जो उसे ही निहार रहा था. गुंजन की धड़कनें फिर से ठहर गईं. लगा जैसे पूरे जहान का प्यार लिए अभिनव ने उसे आगोश में ले लिया हो और वह दुनिया को भूल कर अभिनव में खो गई हो.

तभी अम्मांजी अखबार ढूंढ़ती हुई कमरे में दाखिल हुईं और गुंजन का सपना टूट गया. नजरें चुराती हुई गुंजन फिर से काम में लग गई.

गुंजन अभिनव के यहां खाना बनाने का काम करती है. अम्मांजी का बड़ा बेटा अनुज और बहु सारिका जौब पर जाते हैं. छोटा बेटा अभिनव भी एक आईटी कंपनी में काम करता है. उस की अभी शादी नहीं हुई है और वह गुंजन की तरफ आकृष्ट है.

22 साल की गुंजन बेहद खूबसूरत है और वह अपने मातापिता की इकलौती संतान है. मातापिता ने उसे बहुत लाड़प्यार से पाला है. इंटर तक पढ़ाया भी है. मगर घर की माली हालत सही नहीं होने की वजह से उसे दूसरों के घरों में खाना बनाने का काम शुरू करना पड़ा.

गुंजन जानती है कि अभिनव ऊंची जाति का पढ़ालिखा लड़का है और अभिनव के साथ उस का कोई मेल नहीं हो सकता. मगर कहते हैं न कि प्यार ऐसा नशा है जो अच्छेअच्छों की बुद्धि पर ताला लगा देता है. प्यार के एहसास में डूबा व्यक्ति सहीगलत, ऊंचनीच, अच्छाबुरा कुछ भी नहीं समझता. उसे तो बस किसी एक शख्स का खयाल ही हर पल रहने लगता है और यही हो रहा था गुंजन के साथ भी. उसे सोतेजागते हर समय अभिनव ही नजर आने लगा था.

धीरेधीरे वक्त गुजरता गया. अभिनव की हिम्मत बढ़ती गई और गुंजन भी उस के आगे कमजोर पड़ती गई. एक दिन मौका देख कर अभिनव ने उसे बांहों में भर लिया. गुंजन ने खुद को छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा,” अभिनवजी, अम्मां जी ने देख लिया तो क्या सोचेंगी?”

“अम्मां सो रही हैैं गुंजन. तुम उन की चिंता मत करो. बहुत मुश्किल से आज हमें ये पल मिले हैं. इन्हें यों ही बरबाद न करो.”

“मगर अभिनवजी, यह सही नहीं है. आप का और मेरा कोई मेल नहीं,” गुंजन अब भी सहज नहीं थी.

“ऐसी बात नहीं है गुंजन. मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. प्यार में कोई छोटाबड़ा नहीं होता. बस मुझे इन जुल्फों में कैद हो जाने दो. गुलाब की पंखुड़ी जैसे इन लबों को एक दफा छू लेने दो.”

अभिनव किसी भी तरह गुंजन को पाना चाहता था. गुंजन अंदर से डरी हुई थी मगर अभिनव का प्यार उसे अपनी तरफ खींच रहा था. आखिर गुंजन ने भी हथियार डाल दिए. वह एक प्रेयसी की भांति अभिनव के सीने से लग गई. दोनों एकदूसरे के आलिंगन में बंधे प्यार की गहराई में डूबते रहे. जब होश आया तो गुंजन की आंखें छलछला आईं. वह बोली,”आप मेरा साथ तो दोगे न? जमाने की भीड़ में मुझे अकेला तो नहीं छोड़ दोगे?”

“पागल हो क्या? प्यार करता हूं. छोड़ कैसे दूंगा?” कह कर उस ने फिर से गुंजन को चूम लिया. गुंजन फिर से उस के सीने में दुबक गई. वक्त फिर से ठहर गया.

अब तो ऐसा अकसर होने लगा. अभिनव प्यार का दावा कर के गुंजन को करीब ले आता.

दोनों ने ही प्यार के रास्ते पर बढ़ते हुए मर्यादाओं की सीमारेखाएं तोड़ दी थीं. गुंजन प्यार के सुहाने सपनों के साथ सुंदर घरसंसार के सपने भी देखने लगी थी.

मगर एक दिन वह देख कर भौंचक्की रह गई कि अभिनव के रिश्ते की बात करने के लिए एक परिवार आया हुआ है. मांबाप के साथ एक आधुनिक, आकर्षक और स्टाइलिश लड़की बैठी हुई थी.

अम्मांजी ने गुंजन से कुछ खास बनाने की गुजारिश की तो गुंजन ने सीधा पूछ लिया,” ये कौन लोग हैं अम्मांजी?”

“ये अपने अभि को देखने आए हैं. इस लड़की से अभि की शादी की बात चल रही है. सुंदर है न लड़की?” अम्मांजी ने पूछा तो गुंजन ने हां में सिर हिला दिया.

उस के दिलोदिमाग में तो एक भूचाल सा आ गया था. उस दिन घर जा कर भी गुंजन की आंखों के आगे उसी लड़की का चेहरा नाचता रहा. आंखों से नींद कोसों दूर थी.

अगले दिन जब वह अभिनव के घर खाना बनाने गई तो सब से पहले मौका देख कर उस ने अभिनव से बात की,” यह सब क्या है अभिनव? आप की शादी की बात चल रही है? आप ने अपने घर वालों को हमारे प्यार की बात क्यों नहीं बताई?”

“नहीं गुंजन, हमारे प्यार की बात मैं उन्हें नहीं बता सकता.”

“मगर क्यों? ”

“क्योंकि हमारा प्यार समाज स्वीकार नहीं करेगा. मेरे मांबाप कभी नहीं मानेंगे कि मैं एक नीची जाति की लड़की से शादी करूं,” अभिनव ने बेशर्मी से कहा.

“तो फिर प्यार क्यों किया था आप ने? शादी नहीं करनी थी तो मुझे सपने क्यों दिखाए थे?” तड़प कर गुंजन बोली.

“देखो गुंजन, समझने का प्रयास करो. प्यार हम दोनों ने किया है. प्यार के लिए केवल हम दोनों की रजामंदी चाहिए थी. मगर शादी एक सामाजिक रिश्ता है. शादी के लिए समाज की अनुमति भी चाहिए. शादी तो मुझे घर वालों के कहे अनुसार ही करनी होगी.”

“यानी प्यार नहीं, आप ने प्यार का नाटक खेला है मेरे साथ. मैं नहीं केवल मेरा शरीर चाहिए था. क्यों कहा था मुझे कि कभी अकेला नहीं छोड़ोगे?”

“मैं तुम्हें अकेला कहां छोड़ रहा हूं गुंजन? मैं तो अब भी तुम ही से प्यार करता हूं मेरी जान. यकीन मानो हमारा यह प्यार हमेशा बना रहेगा. शादी भले ही उस से कर लूं मगर हम दोनों पहले की तरह ही मिलते रहेंगे. हमारा रिश्ता वैसा ही चलता रहेगा. मैं हमेशा तुम्हारा बना रहूंगा,” गुंजन को कस कर पकड़ते हुए अभि ने कहा.

गुंजन को लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने उसे जकङ रखा हो. वह खुद को अभिनव के बंधन से आजाद कर काम में लग गई. आंखों से आंसू बहे जा रहे थे और दिल रो रहा था.

घर आ कर वह सारी रात सोचती रही. अभिनव की बेवफाई और अपनी मजबूरी उसे रहरह कर कचोट रही थी. अभिनव के लिए भले ही यह प्यार तन की भूख थी मगर उस ने तो हृदय से चाहा था उसे. तभी तो अपना सबकुछ समर्पित कर दिया था. इतनी आसानी से वह अभिनव को माफ नहीं कर सकती थी. उस के किए की सजा तो देनी ही होगी. वह पूरी रात यही सोचती रही कि अभिनव को सबक कैसे सिखाया जाए.

आखिर उसे समझ आ गया कि वह अभिनव से बदला कैसे ले सकती है. अगले दिन से ही उस ने बदले की पटकथा लिखनी शुरू कर दी.

उस दिन वह ज्यादा ही बनसंवर कर अभि के घर खाना बनाने पहुंची. अभि शाम 4 बजे की शिफ्ट में औफिस जाता था. अम्मांजी हर दूसरे दिन 12 से 4 बजे तक के लिए घर से बाहर अपनी सखियों से मिलने जाती थीं. पिताजी के पैर में तकलीफ थी इसलिए वे बिस्तर पर ही रहते थे.

12 बजे अम्मांजी के जाने के बाद वह अभि के पास चली आई और उस का हाथ पकड़ कर बोली, “अभिनव आप की शादी की बात सुन कर मैं दुखी हो गई थी. मगर अब मैं ने खुद को संभाल लिया है. शादी से पहले के इन दिनों को मैं भरपूर ऐंजौय करना चाहती हूं. आप की बांहों में खो जाना चाहती हूं.”

अभिनव की तो मनमांगी मुराद पूरी हो रही थी. उस ने झट गुंजन को करीब खींच लिया. दोनों एकदूसरे के आगोश में खोते चले गए. बैड पर अभि की बांहों में मचलती गुंजन ने सवाल किया,” कल आप सच कह रहे थे अभिनव ? शादी के बाद भी आप मुझ से यह रिश्ता बनाए रखोगे न ?”

“हां गुंजन इस में तुम्हें शक क्यों है? शादी एक चीज होती है और प्यार दूसरी चीज. हम दोनों का प्यार और शरीर का यह मिलन हमेशा कायम रहेगा. शादी के बाद भी यह रिश्ता ऐसा ही चलता रहेगा,” कह कर अभिनव फिर से गुंजन को बेतहाशा चूमने लगा.

शाम को गुंजन अपने घर लौट आई. उसे खुद से घिन आ रही थी. वह बाथरूम में गई और नहा कर बाहर निकली. फिर मोबाइल ले कर बैठ गई. आज के उन के शारीरिक मिलन का एकएक पल इस मोबाइल में कैद था. उस ने बड़ी होशियारी से मोबाइल का कैमरा औन कर के ऐसी जगह रखा था जहां से दोनों की सारी हरकतें कैद हो गई थीं.

यह काफी देर तक का लंबा अंतरंग वीडियो था. 10 दिन के अंदर उस ने ऐसे 3 -4 वीडियो और शूट कर लिए. फिर वीडियोज में ऐडिट कर के बड़ी चतुराई से उस ने अपने चेहरे को छिपा दिया.

कुछ दिनों में अभिनव की शादी हो गई. 8-10 दिनों के अंदर ही उस ने अभिनव की पत्नी से दोस्ती कर ली और उस का मोबाइल नंबर ले लिया. अगले दिन उस ने अम्मांजी को कह दिया कि उसे मुंबई में जौब लग गई है और अब काम पर नहीं आ पाएगी. उस दिन वह अभिनव से मिली भी नहीं और घर चली आई.

अगले दिन सुबहसुबह उस ने अपने और अभिनव के 2 अंतरंग वीडियो अभिनव की पत्नी को व्हाट्सऐप कर दिए. 2 घंटे बाद उस ने 2 और वीडियो व्हाट्सऐप किए और चैन से घर के काम निबटाने लगी.

शाम 4 बजे के करीब अभिनव का फोन आया. गुंजन को इस का अंदाजा पहले से था. उस ने मुसकराते हुए फोन उठाया तो सामने से अभिनव का रोता हुआ स्वर सुनाई दिया,” गुंजन तुम ने यह क्या किया मेरे साथ? मेरी शादीशुदा जिंदगी की अभी ठीक से शुरुआत भी नहीं हुई थी और तुम ने ये वीडियो भेज दिए. तुम्हें पता है माया सुबह से ही मुझ से लड़ रही थी और अभीअभी सूटकेस ले कर हमेशा के लिए अपने घर चली गई. गुंजन, तुम ने यह क्या कर दिया मेरे साथ? अब मैं…”

“…अब तुम न घर के रहोगे न घाट के. गुडबाय मिस्टर अभिनव,” वाक्य पूरा करते हुए गुंजन ने कहा और फोन काट दिया.

उस ने आज अभिनव से बदला ले लिया था. खुद को मिले हर आंसुओं का बदला. आज उसे महसूस हो रहा था जैसे उस के जख्मों पर किसी ने मलहम लगा दिया हो.

कंजूस: आखिर क्या था विमल का दर्दभरा सच

विमल जब अपनी दुकान बंद कर घर लौटे तो रात के 10 बजने वाले थे. वे रोज की तरह सीधे बाथरूम में गए जहां उन की पत्नी श्रद्धा ने उन के कपड़े, तौलिया वगैरा पहले से रख दिए थे. नवंबर का महीना आधे से अधिक बीत जाने से ठंड का मौसम शुरू हो गया था. विशेषकर, रात में ठंड का एहसास होने लगा था. इसलिए विमल ने दुकान से आने पर रात में नहाना बंद कर दिया था. बस, अच्छे से हाथमुंह धो कर कपड़े बदलते और सीधे खाना खाने पहुंचते. उन की इच्छा या बल्कि हुक्म के अनुसार, खाने की मेज पर उन की पत्नी, दोनों बेटे और बेटी उन का साथ देते. विमल का यही विचार था कि कम से कम रात का खाना पूरे परिवार को एकसाथ खाना चाहिए. इस से जहां सब को एकदूसरे का पूरे दिन का हालचाल मिल जाता है, आपस में बातचीत का एक अनिवार्य ठिकाना व बहाना मिलता है, वहीं पारिवारिक रिश्ते भी मधुर व सुदृढ़ होते हैं.

विमल ने खाने को देखा तो चौंक गए. एक कटोरी में उन की मनपसंद पनीर की सब्जी, ठीक उसी तरह से ही बनी थी जैसे उन को बचपन से अच्छी लगती थी. श्रद्धा तो किचन में थी पर सामने बैठे तीनों बच्चों को अपनी हंसी रोकने की कोशिश करते देख वे बोल ही उठे, ‘‘क्या रज्जो आई है?’’ उन का इतना कहना था कि सामने बैठे बच्चों के साथसाथ किचन से उन की पत्नी श्रद्धा, बहन रजनी और उस की बेटी की हंसी से सारा घर गूंज उठा. ‘‘अरे रज्जो कब आई? कम से कम मुझ को दुकान में फोन कर के बता देतीं तो रज्जो के लिए कुछ लेता आता,’’ विमल ने शिकायती लहजे में पत्नी से कहा ही था कि रजनी किचन से बाहर आ कर कहने लगी, ‘‘भैया, उस बेचारी को क्यों कह रहे हो. भाभी तो तुम को फोन कर के बताने ही वाली थीं पर मैं ने ही मना कर दिया कि तुम्हारे लिए सरप्राइज होगा. आजकल के बच्चों को देख कर मैं ने भी सरप्राइज देना सीख लिया.’’

‘‘अरे मामा, आप लोग तो फन, थ्रिल या प्रैंक कुछ भी नहीं जानते. मैं ने ही मां से कहा था कि इस बार आप को सरप्राइज दें. इसलिए हम लोगों ने दिन में आप को नहीं बताया. क्या आप को अच्छा नहीं लगा?’’ रजनी की नटखट बेटी बोल उठी. ‘‘अरे नहीं बेटा, सच कहूं तो तुम लोगों का यह सरप्राइज मुझे बहुत अच्छा लगा. बस, अफसोस इस बात का है कि अगर तुम लोगों के आने के बारे में दिन में ही पता चल जाता तो रज्जो की मनपसंद देशी घी की बालूशाही लेता आता,’’ विमल ने कहा. ‘‘वो तो मैं ने 2 किलो बालूशाही शाम को मंगवा ली थीं और वह भी आप की मनपसंद दुकान से. मुझे पता नहीं है कि बहन का तो नाम होगा लेकिन सब से पहले आप ही बालूशाही खाएंगे,’’ श्रद्धा ने कहा ही था कि सब के कहकहों से घर फिर गूंज उठा.खाना निबटने के बाद श्रद्धा ने  उन सब की रुचि के अनुसार जमीन पर कई गद्दे बिछवा कर उन पर मसनद, कुशन, तकिये व कंबल रखवा दिए. और ढेर सारी मूंगफली मंगा ली थीं. उसे पता था कि भाईबहन का रिश्ता तो स्नेहपूर्ण है ही, बूआ का व्यवहार भी सारे बच्चों को बेहद अच्छा लगता है. जब भी सब लोग इकट्ठे होते हैं तो फिर देर रात तक बातें होती रहती हैं. विशेषकर जाड़े के इस मौसम में देर रात तक मूंगफली खाने के साथसाथ बातें करने का आनंद की कुछ अलग होता है.

रजनी अपने समय की बातें इस रोचक अंदाज में बता रही थी कि बच्चे हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे. विमल और श्रद्धा भी इन सब का आनंद ले रहे थे. बातों का सिलसिला रोकते हुए रजनी ने विमल से कहा, ‘‘अच्छा भैया, एक बात कहूं, ये बच्चे मेरे साथ पिकनिक मनाना चाह रहे हैं. कल रविवार की छुट्टी भी है. अब इतने दिनों बाद अपने शहर आई हूं तो मैं भी भाभी के साथ शौपिंग कर लूंगी. इसी बहाने हम सब मौल घूमेंगे, मल्टीप्लैक्स में सिनेमा देखेंगे और समय मिला तो टूरिस्ट प्लेस भी जाएंगे. अब पूरे दिन बाहर रहेंगे तो हम सब खाना भी बाहर ही खाएंगे. बस, तुम्हारी इजाजत चाहिए.’’ विमल ने देखा कि उस के बच्चों ने अपनी निगाहें झुकाई हुई थीं. यह उन की ही योजना थी लेकिन शायद वे सोच रहे थे कहीं विमल मना न कर दें. ‘‘ठीक है, तुम लोगों के घूमनेफिरने में मुझे क्यों एतराज होगा. मैं सुबह ही ट्रैवल एजेंसी को फोन कर पूरे दिन के लिए एक बड़ी गाड़ी मंगा दूंगा. तुम लोग अपना प्रोग्राम बना कर कल खूब मजे से पिकनिक मना लो. हां, मैं नहीं जा पाऊंगा क्योंकि कल दुकान खुली है,’’ विमल ने सहजता से कहा.

तीनों बच्चों ने विमल की ओर आश्चर्य से देखा. शायद उन को इस बात की तनिक भी आशा नहीं थी कि विमल इतनी आसानी से हामी भर देंगे क्योंकि जाने क्यों उन लोगों के मन में यह धारणा बनी हुई थी कि उन के पिता कंजूस हैं. इस का कारण यह था कि उन के साथी जितना अधिक शौपिंग करते थे, अकसर ही मोबाइल फोन के मौडल बदलते थे या आएदिन बाहर खाना खाते थे, वे सब उस तरीके से नहीं कर पाते थे. हालांकि विमल को भी अपने बच्चों की सोच का एहसास तो हो गया था पर उन्होंने बच्चों से कभी कुछ कहा नहीं था. लेकिन विमल को यह जरूर लगता था कि बच्चों को भी अपने घर के हालात तो पता होने ही चाहिए, साथ ही अपनी जिम्मेदारियां भी जाननी चाहिए, क्योंकि अब वे बड़े हो रहे हैं. आज कुछ सोच कर विमल पूछने लगे, ‘‘रज्जो, यह प्रोग्राम तुम ने बच्चों के साथ बनाया है न?’’

रज्जो ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘बच्चों को लग रहा था कि तुम मना न कर दो, इसलिए मैं भी जिद करने को तैयार थी पर तुम ने तो एक बार में ही हामी भर दी.’’ इस पर विमल मुसकराए और एकएक कर सब के चेहरे देखने के बाद सहज हो कर कहने लगे, ‘‘रज्जो, तुम शायद इस का कारण नहीं जानती हो कि बच्चों ने ऐसा क्यों कहा होगा. जानना चाहोगी? इस का कारण यह है कि मेरे बच्चे समझते हैं कि मैं, उन का पिता, कंजूस हूं.’’ विमल का इतना कहना था कि तीनों बच्चे शर्मिंदा हो गए और अपने पिता से निगाहें चुराने लगे. एक तो उन को यह पता नहीं था कि उन के पिता उन की इस सोच को जान गए हैं, दूसरे, विमल द्वारा इतनी स्पष्टवादिता के साथ उसे सब के सामने कह देने से वे और भी शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे. विमल किन्हीं कारणों से ये सारी बातें करना चाह रहे थे और संयोगवश, आज उन को मौका भी मिल गया.

‘‘वैसे रज्जो, अगर देखा जाए तो इस में बच्चों का उतना दोष भी नहीं है. दरअसल, मैं ही आजकल की जिंदगी नहीं जी पाता हूं. न तो आएदिन बाहर खाना, घूमनाफिरना, न ही रोजरोज शौपिंग करना, नएनए मौडल के टीवी, मोबाइल बदलना, अकसर नए कपड़े खरीदते रहना. ऐसा नहीं है कि मैं इन बातों के एकदम खिलाफ हूं या यह बात एकदम गलत है पर क्या करूं, मेरी ऐसी आदत बन गई है. मगर इस का भी एक कारण है और आज मैं तुम सब को अपने स्वभाव का कारण भी बताता हूं,’’ इतना कह कर विमल गंभीर हो गए तो सब ध्यान से सुनने लगे.

विमल बोले, ‘‘रज्जो, तुझे अपना बचपन तो याद होगा?’’

‘‘हांहां, अच्छी तरह से याद है, भैया.’’

‘‘लेकिन रज्जो, तुझे अपने घर के अंदरूनी हालात उतने अधिक पता नहीं होंगे क्योंकि तू उस समय छोटी ही थी,’’ इतना कह कर विमल अपने बचपन की कहानी सुनाने लगे : उन के पिता लाला दीनदयाल की गिनती खातेपीते व्यापारियों में होती थी. उन के पास पुरखों का दोमंजिला मकान था और बड़े बाजार में गेहूंचावल का थोक का व्यापार था. विमल ने अपने बचपन में संपन्नता का ही समय देखा था. घर में अनाज के भंडार भरे रहते थे, सारे त्योहार कई दिनों तक पूरी धूमधाम से परंपरा के अनुसार मनाए जाते थे. होली हो या दशहरा, दिल खोल कर चंदा देने की परंपरा उस के पूर्वजों के समय से चली आ रही थी. विमल जब कभी अपने दोस्तों के साथ रामलीला देखने जाता तो उन लोगों को सब से आगे की कुरसियों पर बैठाया जाता. इन सब बातों से विमल की खुशी देखने लायक होती थी. विमल उस समय 7वीं कक्षा में था पर उसे अच्छी तरह से याद है कि पूरी कक्षा में वे 2-3 ही छात्र थे जो धनी परिवारों के थे क्योंकि उन के बस्ते, पैन आदि एकदम अलग से होते थे. उन के घर में उस समय के हिसाब से ऐशोआराम की सारी वस्तुएं उपलब्ध रहती थीं. उस महल्ले में सब से पहले टैलीविजन विमल के ही घर में आया था और जब रविवार को फिल्म या बुधवार को चित्रहार देखने आने वालों से बाहर का बड़ा कमरा भर जाता था तो विमल को बहुत अच्छा लगता था. उस समय टैलीफोन दुर्लभ होते थे पर उस के घर में टैलीफोन भी था. आकस्मिकता होने पर आसपड़ोस के लोगों के फोन आ जाते थे. इन सारी बातों से विमल को कहीं न कहीं विशिष्टता का एहसास तो होेता ही था. उसे यह भी लगता था कि उस का परिवार समाज का एक प्रतिष्ठित परिवार है.

पिछले कुछ समय से जाने कैसे दीनदयाल को सट्टे, फिर लौटरी व जुए की लत पड़ गई थी. उन का अच्छाखासा समय इन सब गतिविधियों में जाने लगा. जुए या ऐसी लत की यह खासीयत होती है कि जीतने वाला और अधिक जीतने के लालच में खेलता है तो हारने वाला अपने गंवाए हुए धन को वापस पा लेने की आशा में खेलता है. दलदल की भांति जो इस में एक बार फंस जाता है, उस के पैर अंदर ही धंसते जाते हैं और निकलना एकदम कठिन हो जाता है. पहले तो कुछ समय तक दीनदयाल जीतते रहे मगर होनी को कौन टाल सकता है. एक बार जो हारने का सिलसिला शुरू हुआ तो धीरेधीरे वे अपनी धनदौलत हारते गए और इन्हीं सब  चिंता व समस्याओं से व्यवसाय पर पूरा ध्यान भी नहीं दे पाते थे. उन की सेहत भी गिर रही थी, साथ ही व्यापार में और भी नुकसान होने लगा. विमल को वे दिन अच्छी तरह से याद हैं जब वह कारण तो नहीं समझ पाया था पर उस के माता और पिता इस तरह पहली बार झगड़े थे. उस ने मां को जहां अपने स्वभाव के विपरीत पिता से ऊंची आवाज में बात करते सुना था वहीं पिता को पहली बार मां पर हाथ उठाते देखा था. उस दिन जाने क्यों पहली बार विमल को अपने पिता से नफरत का एहसास हुआ था. फिर एक दिन ऐसा आया कि उधार चुकता न कर पाने के कारण उन का पुश्तैनी मकान, जो पहले से ही गिरवी रखा जा चुका था, के नीलाम होने की नौबत आ गई. इस के बाद दीनदयाल अपने परिवार को ले कर वहां से दूर एक दूसरे महल्ले में किराए के एक छोटे से मकान में रहने को विवश हो गए. हाथ आई थोड़ीबहुत पूंजी से वे कुछ धंधा करने की सेचते पर उस के पहले ही उन का दिल इस आघात को सहन नहीं कर सका और वे परिवार को बेसहारा छोड़ कर चल बसे.

यह घटना सुनते हुए रजनी की आंखें नम हो आईं और उस का गला रुंध गया. कटु स्मृतियों के दंश बेसाख्ता याद आने से पुराने दर्द फिर उभर आए. कुछ पल ठहर कर उस ने अपनेआप को संयत किया फिर कहने लगी, ‘‘मुझे आज भी याद है कि भैया के ऊपर बचपन से ही कितनी जिम्मेदारियां आ गई थीं. हम लोगों के लिए फिर से अपना काम शुरू करना कितना कठिन था. वह तो जाने कैसे भैया ने कुछ सामान उधार ले कर बेचना शुरू किया था और अपनी मेहनत से ही सारी जिम्मेदारियां पूरी की थीं.’’ ‘‘रज्जो सच कह रही है. इसी शहर में मेरे एक मित्र के पिता का थोक का कारोबार था. हालांकि वह मित्र मेरी आर्थिक रूप से मदद तो नहीं कर सका मगर उस ने मुझे जो हौसला दिया, वह कम नहीं था. मैं ने कैसेकैसे मिन्नतें कर के सामान उधार लेना शुरू किया था और उसे किसी तरह बेच कर उधार चुकाता था. वह सब याद आता है तो हैरान रह जाता हूं कि कैसे मैं यह सब कर पाया था. जैसेतैसे जब कुछ पैसे आने शुरू हुए तो मैं ने अम्मा, दीदी और रज्जो के साथ दूसरे मकान में रहना शुरू किया. हमारे साथ जो कुछ घटित हुआ, इस तरह की खबरें बहुत तेजी से फैलती हैं और जानते हो इस का सब से बड़ा नुकसान क्या होता है? आर्थिक नुकसान तो कुछ भी नहीं है क्योंकि पैसों का क्या है, आज नहीं तो कल आ सकते हैं पर पारिवारिक प्रतिष्ठा को जो चोट पहुंचती है और पुरखों की इज्जत जिस तरह मिटती है उस की भरपाई कभी नहीं हो सकती. मैं अपना बचपन अपने बाकी साथियों की तरह सही तरीके से नहीं जी पाया और उस की भरपाई आज क्या, कभी नहीं हो सकती.

‘‘लेकिन यह मत समझो कि इस की वजह केवल पैसों का अभाव रहा है. अपना सम्मान खोने के बाद भी सिर उठा कर जीना आसान नहीं होता. मुझे अच्छी तरह से याद है कि इन सब घटनाओं से मैं कितनी शर्मिंदगी महसूस करता था और अपने दोस्तों का सामना करने से बचता था. तू तो छोटी थी पर मां तो जैसे काफी दिन गुमसुम सी रही थीं और मेरी खुशमिजाज व टौपर दीदी भी इन सब घटनाओं से जाने कितने दिन डिप्रैशन में रही थीं. इन सारी घटनाओं की चोट मेरे अंतर्मन में आज भी ताजा है और मैं अकेले में उस पीड़ा को आज भी ऐसे महसूस करता हूं जैसे कल की घटना हो. अब मुझे पता चला कि एक आदमी की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का खमियाजा उस के परिवार के जाने कितने लोगों को और कितने समय तक भुगतना पड़ सकता है. आज भी अगर कोई पुराना परिचित मिल जाता है तो भले ही वह हमारा अतीत भूल चुका हो परंतु मैं उस को देख कर भीतर ही भीतर शर्मिंदा सा महसूस करता हूं. मुझे ऐसा लगता है कि मेरे सामने वह व्यक्ति नहीं कोई आईना आ गया है, जिस में मेरा अतीत मुझे दिख रहा है.

‘‘जीतोड़ मेहनत से काम करने से धीरेधीरे पैसे इकट्ठे होते गए और मेरा काम बढ़ता गया. फिर मैं ने अपनी एक दुकान खोली, जिस में डेयरी का दूध, ब्रैड और इस तरह के बस एकदो ही सामान रखना शुरू किया. जब कोई पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करता है तो वक्त भी उस की सहायता करता है. मेरा उसूल रहा है कि न तो किसी की बेईमानी करो, न किसी का बुरा करो और मेहनत से कभी पीछे मत हटो. मेरी लगन और मेहनत का परिणाम यह है कि आज वही दुकान एक जनरल स्टोर बन चुकी है और उसी की बदौलत यह मकान खरीद सका हूं. श्रद्धा तो थोड़ाबहुत जानती है पर बच्चे कुछ नहीं जानते क्योंकि वे तो शुरू से ही यह मकान और मेरा जनरल स्टोर देख रहे हैं. वे शायद समझते हैं कि उन के पिता पैदायशी अमीर रहे हैं, जिन को पारिवारिक व्यवसाय विरासत में मिला है. उन को क्या पता कि मैं कितना संघर्ष कर इस मुकाम पर पहुंचा हूं.’’

विमल की बातें सुन कर बच्चे तो जैसे हैरान रह गए. वास्तव में वे यही सोचते थे कि  उन के पिता का जनरल स्टोर उन को विरासत में मिला होगा. उन को न तो यह पता था न ही वे कल्पना कर सकते थे कि उन के पिता ने अपने बचपन में कितने उतारचढ़ाव देखे हैं, कैसे गरीबी का जीवन भी जिया है और कैसी विषम परिस्थितियों में किस तरह संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचे हैं. पुरानी स्मृतियों का झंझावात गुजर गया था पर जैसे तूफान गुजर जाने के बाद धूलमिट्टी, टूटी डालियां व पत्ते बिखरे होने से स्थितियां सामान्य नहीं लगतीं, कुछ इसी तरह अब माहौल एकदम गंभीर व करुण सा हो गया था. बात बदलते हुए श्रद्धा बोली, ‘‘अच्छा चलिए, वे दुखभरे दिन बीत गए हैं और आप की मेहनत की बदौलत अब तो हमारे अच्छे दिन हैं. आज हमें किसी बात की कमी नहीं है. आप सही माने में सैल्फमेडमैन हैं.’’ ‘‘श्रद्धा, इसीलिए मेरी यही कोशिश रहती है कि न तो हमारे बच्चों को किसी बात की कमी रहे, न ही वे किसी बात में हीनता का अनुभव करें. यही सोच कर तो मैं मेहनत, लगन और ईमानदारी से अपना कारोबार करता हूं. बच्चो, तुम लोग कभी किसी बात की चिंता न करना. तुम्हारी पढ़ाई में कोई कमी नहीं रहेगी. जिस का जो सपना है वह उसे पूरा करे. मैं उस के लिए कुछ भी करने से पीछे नहीं रहूंगा.’’

‘‘यह बात हुई न. अब तो कल का प्रोग्राम पक्का रहा. चलो बच्चो, अब कल की तैयारी करो,’’ बूआ के इतना कहते ही सारे बच्चे चहकने लगे मगर जाने क्यों विमल का 15 वर्षीय बड़ा बेटा रजत अभी भी गंभीर ही था.‘‘क्या हुआ रजत, अब क्यों चिंतित हो?’’ बूआ ने पूछा ही था कि रजत उसी गंभीर मुद्रा में कहने लगा, ‘‘बूआ, अब पुराना समय बीत गया जब पापा को पैसों की तंगी रहती थी. अब हमारे पास पैसे या किसी चीज की कमी नहीं है बल्कि हम अमीर ही हो गए हैं. तो फिर पापा क्यों ऐसे रहते हैं. अब तो वे अपनी वे इच्छाएं भी पूरी कर सकते हैं जो वे गरीबी के कारण पूरी नहीं कर सके होंगे.’’रजत के प्रश्न से विमल चौंक गया, फिर कुछ सोच कर कहने लगा, ‘‘बेटा, मुझे खुशी है कि तुम ने यह प्रश्न पूछा. वास्तव में हमारी आज की जीवनशैली, आदतें या खर्च करने का तरीका इस बात पर निर्भर नहीं होता कि हमारी आज की आर्थिक स्थिति कैसी है बल्कि हमारे जीने के तरीके तय करने में हमारा बचपन भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अपने बचपन में मैं ने जैसा जीवन जिया है, उस प्रकार का जीवन जीने वालों के मन में कटु माहौल सा बन जाता है, जिस से वे चाह कर भी बाहर नहीं आ सकते. जो आर्थिक संकट वे भुगत चुके होते हैं, पैसे के अभावों की जो पीड़ा उन का मासूम बचपन झेल चुका होता है, उस के कारण वे अमीर हो जाने पर भी फुजूलखर्ची नहीं कर सकते.

‘‘आर्थिक असुरक्षा के भय, अपमानजनक परिस्थितियों की यादों के कष्टप्रद दंश, एकएक पैसे का महत्त्व या पैसों की तंगी की वजह से अभावों में गुजरे समय की जो पीड़ा  अंतर्मन में कहीं गहरे बैठ जाती है उस से चाह कर भी उबरना बहुत कठिन होता है. हकीकत तो यह है कि हमारा आज कितना भी बेहतर हो जाए या मैं कितना भी अमीर क्यों न हो जाऊं लेकिन मैं जिस तरह का बचपन और संघर्षमय अतीत जी चुका हूं वह मुझे इस तरह से खर्च नहीं करने देगा. लेकिन क्या तुम जानते हो कि वास्तव में कंजूस तो वह होता है जो जरूरी आवश्यकताओं पर खर्च नहीं करता है. ‘‘तुम लोगों को पता होगा कि घर में दूध, मौसम के फलसब्जियों या मेवों की कमी नहीं रहती. हां, मैं तुम लोगों को फास्ट फूड या कोल्ड डिं्रक्स के लिए जरूर मना करता हूं क्योंकि आज भले ही ये सब फैशन बन गया है पर ऐसी चीजें सेहत के लिए अच्छी नहीं होतीं. इस के अलावा तुम लोगों की वे सारी जरूरतें, जो आवश्यक हैं, उन को पूरा करने से न तो कभी हिचकता हूं न ही कभी पीछे हटूंगा. तुम्हारे लिए लैपटौप भी मैं ने सब से अच्छा खरीदा है. तुम लोगों के कपड़े हमेशा अच्छे से अच्छे ही खरीदता हूं. इसी तरह तुम लोगों की जरूरी चीजें हमेशा अच्छी क्वालिटी की ही लाता हूं. मैं अपने अनुभव के आधार पर एक बात कहता हूं जिसे हमेशा याद रखो कि जो इंसान अपनी आमदनी के अनुसार खर्च करता और बचत करता है, अपने आने वाले कल के लिए सोच कर चलता है, वह कभी परेशान नहीं होता. अच्छा, अब रात बहुत हो गई है और सब को कल घूमना भी है, इसलिए चलो, अब सोने की तैयारी की जाए.’’

नया रिश्ता : पार्वती-विशाल ने किसे चुना अपना जीवनसाथी

अमित की मम्मी पार्वती ने शरमाते हुए विशाल कुमार को अंगूठी पहनाई तो अमित की पत्नी शिवानी और उन के बच्चे अनूप व अतुल ने अपनी दादी पर फूलों की बरसात करनी शुरू कर दी. बाद में विशाल कुमार ने भी पार्वती को अंगूठी पहना दी. माहौल खुशनुमा हो गया, सभी के चेहरे खिल उठे, खुशी से झूमते बच्चे तो अपने नए दादा की गोद में जा कर बैठ गए.

यह नज़ारा देख कर अमित की आंखें नम हो गईं. वह अतीत की यादों में खो गया. अमित 5 वर्षों से शहर की सब से पौश कालोनी सनराइज सोसाइटी में रह रहा था. शिवानी अपने मिलनसार स्वभाव के कारण पूरी कालोनी की चहेती बनी हुई थी. कालोनी के सभी कार्यक्रमों में शिवानी की मौजूदगी अकसर अनिवार्य होती थी.

अमित के मातापिता गांव में रहते थे. अमित चाहता था कि वे दोनों उस के साथ मुंबई में रहने के लिए आ जाएं मगर उन्होंने गांव में ही रहना ज्यादा पसंद किया. वे साल में एकदो बार 15-20 दिनों के लिए जरूर अमित के पास रहने के लिए मुंबई आते थे. मगर मुंबई आने के 8-10 दिनों बाद ही गांव लौटने का राग आलापने लग जाते थे.

वक्त बीत रहा था. एक दिन रात को 2 बजे अमित का मोबाइल बजा.

‘हैलो, अमित बेटा, मैं तुम्हारे पिता का पड़ोसी रामप्रसाद बोल रहा हूं. बहुत बुरी खबर है, तुम्हारे पिता शांत हो गए है. अभी घंटेभर पहले उन्हें हार्ट अटैक आया था. हम उन्हें अस्पताल ले कर जा रहे थे, रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया.’

अपने पिता की मृत्यु के बाद अमित अपनी मम्मी को अपने साथ मुंबई ले कर आ गया. बतौर अध्यापिका सेवानिवृत्त हुई पार्वती अपने पति के निधन के बाद बहुत अकेली हो गई थी. पार्वती को पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था. अमित और शिवानी के नौकरी पर जाने के बाद वह अपने पोते अनूप और अतुल को पढ़ाती थी. उन के होमवर्क में मदद भी करती थी.

पार्वती को अमित के पास आए 2 साल हो गए थे. अमित के पड़ोस में विशाल कुमार रहते थे. वे विधुर थे, नेवी से 2 साल पहले ही रिटायर हो कर रहने के लिए आए थे. उन का एक ही बेटा था जो यूएस में सैटल हो गया था. एक दिन शिवानी ने पार्वती की पहचान विशाल कुमार से करवाई. दोपहर में जब बच्चे स्कूल चले जाते थे तब दोनों मिलते थे. कुछ दिनों तक दोनों के बीच औपचारिक बातें होती थीं. धीरेधीरे औपचारिकता की दीवार कब ढह गई, उन्हें पता न चला. अब दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ गई. पार्वती और विशाल कुमार का अकेलापन दूर हो गया.

एक दिन शिवानी ने अमित से कहा- ‘अमित, पिछले कुछ दिनों से मम्मी में आ रहे बदलाव को तुम ने महसूस किया क्या?’

अमित की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, उस ने विस्मय से पूछा- ‘मैं कुछ समझा नहीं, शिवानी, तुम क्या कह रही हो?’

‘अरे अमित, मम्मी अब पहले से ज्यादा खुश नज़र आ रही हैं, उन के रहनसहन में भी अंतर आया है. पहले मम्मी अपने पहनावे पर इतना अधिक ध्यान नहीं देती थीं, आजकल वे बहुत ही करीने से रह रही हैं. उन्होंने अपने संदूक से अच्छीअच्छी साड़ियां निकाल कर वार्डरोब में लटका दी हैं. आजकल वे शाम को नियमितरूप से घूमने के लिए जाती हैं…’

अमित ने शिवानी की बात बीच में काटते हुए पूछा- ‘शिवानी, मैं कुछ समझा नहीं, तुम क्या कह रही हो?’

‘अरे भई, मम्मी को एक दोस्त मिल गया है. देखते नहीं, आजकल उन का चेहरा खिला हुआ नज़र आ रहा है.’

‘व्हाट…कैसा दोस्त, कौन दोस्त, शिवानी. प्लीज पहेली मत बुझाओ, खुल कर बताओ.’

‘अरे अमित, आजकल हमारे पड़ोसी विशाल अंकल और मम्मी के बीच याराना बढ़ रहा है,’ यह कहती हुई शिवानी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘वाह, यह तो बहुत अच्छी बात है. मम्मी वैसे भी अकेली पड़ गई थीं. वे हमेशा किताबों में ही खोई रहती थीं. कोई आदमी दिनभर किताबें पढ़ कर या टीवी देख कर अपना वक्त भला कैसे गुजार सकता है. कोई तो बोलने वाला चाहिए न. चलो, अच्छा हुआ मगर यह सब कब से हो रहा है, मैं ने तो कभी महसूस नहीं किया. तुम्हारी पारखी नज़रों ने यह सब कब भांप लिया? शिवानी, यू आर ग्रेट…’ अमित ने विस्मय से कहा.

‘अरे अमित, तुम्हें अपने औफिस के काम, मीटिंग, प्रोजैक्ट्स आदि से फुरसत ही कहां है, मम्मी अकसर मुझ से तुम्हारी शिकायत भी करती हैं कि अमित को तो मुझ से बात करने का वक्त भी नहीं मिलता है,’ शिवानी ने शिकायत की तो अमित तुरंत बोला, ‘हां शिवानी, तुम सही कह रही हो, आजकल औफिस में इतना काम बढ़ गया है कि सांस लेने की फुरसत तक नहीं मिलती है. मगर मुझे यह सुन कर अच्छा लगा कि अब मम्मी बोर नहीं होंगी. साथ ही, हमें कभी बच्चों को ले कर एकदो दिन के लिए बाहर जाना पड़ा तो मम्मी घर पर अकेली भी रह सकती हैं.’ अमित ने अपने दिल की बात कह दी.

‘मगर अमित, मैं कुछ और सोच रही हूं,’ शिवानी ने धीरे से रहस्यमयी आवाज में कहा तो अमित ने विस्मयभरी आंखों से शिवानी की सूरत को घूरते हुए कहा- ‘हां, बोलो, बोलो, तुम क्या सोच रही हो?’

‘मैं सोच रही हूं कि तुम विशाल अंकल को अपना पापा बना लो,’ शिवानी ने तुरुप का पता फेंक दिया.

‘क्या…तुम्हारा दिमाग तो नहीं खिसक गया,’ अमित लगभग चिल्लाते हुए बोला.

‘अरे भई, शांत हो जाओ, पहले मेरी बात ध्यान से सुनो. मम्मी अकेली हैं, उन के पति नहीं हैं. और विशाल अंकल भी अकेले हैं व उन की पत्नी नहीं हैं. जवानी की बनिस्पत बुढ़ापे में जीवनसाथी की जरूरत ज्यादा होती है. मम्मी और विशाल अंकल दोनों सुलझे हुए विचारों के इंसान हैं, दोनों सीनियर सिटिजन हैं और अपनी पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त हैं.

‘विशाल अंकल का इकलौता बेटा है जो यूएस में सैटल है. विशाल अंकल के बेटे सुमित और उस की पत्नी तान्या से मेरी अकसर बातचीत भी होती रहती है. वे दोनों भी चाहते हैं कि उन के पिता यूएस में हमेशा के लिए आ जाएं मगर उन्हें तो अपने वतन से असीम प्यार है, वे किसी भी कीमत पर वहां जाने को राजी नहीं, सेना के आदमी जो ठहरे. फिर उन का तो कहना है कि वे आखरी सांस तक अपने बेटे और बहू को भारत लाने की कोशिश करते रहेंगे. मगर वे अपनी मातृभूमि मरते दम तक नहीं छोडेंगे.’ अमित बड़े ध्यान से शिवानी की बात सुन रहा था.

शिवानी ने किंचित विश्राम के बाद कहा, ‘अमित, अब मैं मुख्य विषय पर आती हूं. तुम ने ‘लिवइन रिलेशनशिप’ का नाम तो सुना ही होगा.’

शिवानी की बात सुन कर अमित के चेहरे पर अनभिज्ञता के भाव तेजी से उभरने लगे जिन्हें शिवानी ने क्षणभर में पढ़ लिया और अमित को समझाते हुए बोली- ‘अमित, आजकल हमारे देश में विशेषकर युवाओं और बुजुर्गों के बीच एक नए रिश्ते का ट्रैंड चल रहा है जिसे ‘लिवइन रिलेशनशिप’ कहते हैं. इस में महिला और पुरूष शादी के बिना अपनी सहमति के साथ एक ही घर में पतिपत्नी की तरह रह सकते हैं. आजकल शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वतंत्र लोग इस तरह की रिलेशनशिप को अधिक पसंद करते है क्योंकि इस में विवाह की तरह कानूनी प्रक्रिया से गुजरना नहीं पड़ता है. भारतीय कानून में भी इसे स्वीकृति दी गई है.

‘शादी के टूटने के बाद आप को कई तरह की कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है मगर इस रिश्ते में इतनी मुश्किलें नहीं आती हैं. लिवइन रिलेशनशिप में रहने का फैसला आप को सामाजिक व पारिवारिक दायित्वों से मुक्ति देता है. इस रिश्ते में सामाजिक व पारिवारिक नियम आप पर लागू नहीं होते हैं. अगर यह रिश्ता टूट भी जाता है तो आप इस में से आसानी बाहर आ सकते हैं. इस में कोई कानूनी अड़चन भी नहीं आती है. इसलिए मैं चाहती हूं कि…’ बोलती हुई शिवानी फिर रुक गई तो अमित अधीर हो गया और झल्लाते हुए बोला- ‘अरे बाबा, लगता है तुम ने ‘लिवइन रिलेशनशिप’ विषय में पीएच डी कर रखी है. पते की बात तो बता नहीं रही हो, लैक्चर दिए जा रही हो.’

‘अरे यार, बता तो रही हूं, थोड़ा धीरज रखो न,’ शिवानी ने मुसकराते हुए कहा.

‘ठीक है, बताओ,’ अमित ने बात न बढ़ाने की मंशा से कहा.

‘अमित, मैं चाहती हूं कि हम मम्मी और विशाल अंकल को ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने के लिए राजी कर लेते हैं ताकि दोनों निश्चिंत और स्वच्छंद हो कर साथसाथ घूमफिर सकें,’ शिवानी ने अपने मन की बात कह दी.

‘मगर शिवानी, क्या मम्मी इस के लिए तैयार होंगी?’ अमित ने संदेह व्यक्त किया.

‘क्यों नहीं होंगी, वैसे भी आजकल दोनों छिपछिप एकदूसरे से मिल रहे हैं, मोबाइल पर घंटों बात करते हैं. लिव इन रिलेशनशिप के लिए दोनों तैयार हो जाएंगे तो वे दुनिया से डरे बगैर खुल कर मिल सकेंगे, साथ में भी रह सकेंगे,’ शिवानी ने अमित को आश्वस्त करते हुए कहा.

‘इस के लिए मम्मी या विशाल अंकल से बात करने की मुझ में तो हिम्मत नहीं है बाबा,’ अमित ने हथियार डालते हुए कहा.

‘इस की चिंता तुम न करो, अमित. अपनी ही कालोनी में रहने वाली मेरी एक खास सहेली रेणू इस मामले में मेरी सहायता करेगी. वह इस प्रेमकहानी से भलीभांति वाकिफ भी है. हम दोनों मिल कर इस शुभकार्य को जल्दी ही अंजाम दे देंगे. हमें, बस, तुम्हारी सहमति का इंतजार है,’ शिवानी ने विश्वास के साथ यह कहा तो अमित की व्यग्रता कुछ कम हुई.

उस ने शांत स्वर में कहा, ‘अगर मम्मी इस के लिए तैयार हो जाती हैं तो भला मुझे क्यों एतराज होगा. उन्हें अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक तो है न.’

अमित की सहमति मिलते ही शिवानी और रेणु अपने मिशन को अंजाम देने में जुट गईं. शिवानी को यह विश्वास था कि पार्वती और विशाल अंकल पुराने जमाने के जरूर हैं मगर उन्हें आधुनिक विचारधारा से कोई परहेज नहीं है. दोनों बहुत ही फ्लैग्जिबल है और परिवर्तन में यकीन रखते हैं. एक संडे को शिवानी और रेणू गुलाब के फूलों के एक सुंदर गुलदस्ते के साथ विशाल अंकल के घर पहुंच गईं.

विशाल कुमार ने अपने चिरपरिचित मजाकिया स्वभाव में उन का स्वागत करते हुए कहा- ‘वाह, आज सूरज किस दिशा में उदय हुआ है, आज तो आप दोनों के चरण कमल से इस गरीब की कुटिया पवित्र हो गई है.’

शिवानी और रेणू ने औपचारिक बातें समाप्त करने के बाद मुख्य बात की ओर रुख किया. रेणू ने कहना शुरू किया-

‘अंकल, आप की और पार्वती मैडम की दोस्ती से हम ही नहीं, पूरी कालोनी वाकिफ है. इस दोस्ती ने आप दोनों का अकेलापन और एकांतवास खत्म कर दिया है. कालोनी के लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर अकसर आप दोनों छिपछिप कर मिलते हैं. अंकल, हम चाहते हैं कि आप दोनों ‘औफिशियली’ एकदूसरे से एक नया रिश्ता बना लो और दोनों खुल कर दुनिया के सामने आ जाओ…’

कुछ गंभीर बने विशाल कुमार ने बीच में ही पूछा, ‘मैं समझा नहीं, रेणू. तुम कहना क्या चाहती हो?’

‘अंकल, आप और पार्वती मैडम ‘लिवइन रिलेशनशिप’ बना लो, फिर आप को दुनिया का कोई डर नहीं रहेगा. आप कानूनीरूप से दोनों साथसाथ रह सकते हैं और घूमफिर सकते हैं,’ यह कहती हुई शिवानी ने ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के बारे में विस्तृत जानकारी विशाल अंकल दे दी.

विशाल अंकल इस के लिए तुरंत राजी होते हुए बोले-

‘यह तो बहुत अच्छी बात है. दरअसल, मेरे और पार्वती के बीच अब तो अच्छी कैमिस्ट्री बन गई है. हमारे विचारों में भी बहुत समानता है. हम जब भी मिलते हैं तो घंटों बाते करते हैं. पार्वती को हिंदी साहित्य की अकूत जानकारी है. उस ने अब तक मुझे हिंदी की कई प्रसिद्ध कहानियां सुनाई हैं.’

‘अंकल, अब पार्वती मैडम को लिवइन रिलेशनशिप के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी आप की होगी.’

‘यस, डोन्ट वरी, आई विल डू इट. मगर जैसे आप दोनों ने मुझ से बात की है, वैसे एक बार पार्वती से भी बात कर लो तो ज्यादा ठीक होगा, बाकी मैं संभाल लूंगा.’

विशाल अंकल को धन्यवाद दे कर शिवानी और रेणू खुशीखुशी वहां से विदा हुईं. अगले संडे दोनों ने पार्वती से बात की. पहले तो उन्होंने ना नू, ना नू किया, मगर शिवानी और रेणू जानती थीं कि पार्वती दिल से विशाल कुमार को चाहती हैं और वे इस रिश्ते के लिए न नहीं कहेंगी, फिर उन दोनों की बेहतर कन्विन्सिंग स्किल के सामने पार्वती की ‘ना’ कुछ ही समय के बाद ‘हां’ में बदल गई.

शिवानी ने दोनों की ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की औपचारिक घोषणा के लिए एक दिन अपने घर  पर एक छोटी पार्टी रखी थी, जिस में अमित, शिवानी और विशाल कुमार के बहुत करीबी दोस्त ही आमंत्रित थे. विशाल और पार्वती ने एकदूसरे को अंगूठियां पहना कर इस नए रिश्ते को सहर्ष स्वीकर कर लिया.

“अरे अमित, कहां खो गए हो, अपनी मम्मी और नए पापा को केक तो खिलाओ,” शिवानी ने चिल्ला कर यह कहा तो अमित अतीत से वर्तमान में लौटा.

इस नए रिश्ते को देख अमित की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी.

मोहभंग : आंचल को पति के बारे में क्या पता चला

5 साल पहले अंसल दंपती ने उस पौश कालोनी में यह विशाल बंगला खरीदा था. उन के आते ही कालोनी की महिलाएं उन को अपनी किट्टी पार्टी में शामिल करने पहुंच गई थीं. उस पहली मुलाकात में भी रागिनी ने बिदा करते समय सब को एकएक आयातित सेंट की बोतल दी थी और साथ में यह भी कहा था, ‘‘आप सब ने मुझे अपनी किट्टी पार्टी में शामिल कर जो एहसान किया है उस के बदले यह उपहार कुछ भी नहीं है.’’

आयातित उपहार पा कर महिलाएं खुश होती थीं, पर प्रेमा भगत कुछ ज्यादा ही खुश होती थी जो रागिनी अंसल की अनुभवी आंखों से छिपा नहीं था. वह ताड़ गई थीं कि इस औरत में विदेशी सामान के प्रति मोह कुछ ज्यादा ही है. इस तरह रागिनी अंसल ने 5 साल की किट्टी पार्टी की हर सदस्य को 6 उपहार दे डाले थे, सेंट, म्यूजिकल गुडि़या, नेल पालिश, नाइटक्रीम, लिपस्टिक तथा एक शो पीस, जिस का अजीब सा जिगजैग आकार था. इस शो पीस को सब ने बड़े गर्व से अपने ड्राइंगरूम में सजा लिया था.

उपहार देते हुए अकसर रागिनी अंसल कहतीं, ‘‘क्या करूं, इतना सबकुछ है पर भोगने वाला कोई नहीं. बस, एक भतीजा है, वह भी विवाह नहीं करता. कोई लड़की उसे पसंद ही नहीं आती. परिवार बढ़े तो कैसे बढ़े?’’

जब से रागिनी ने अपने कुंआरे भतीजे के बारे में महिलाओं को बताया है तब से प्रेमा भगत अपनी बेटी आंचल का उस के साथ विवाह करने का सपना देखने लगी. पर मन की बात नहीं कह पाती क्योंकि करोड़ों में खेलने वाली रागिनी अंसल के सामने वह अपनेआप को बौना समझती थी. यद्यपि रागिनी अंसल आंचल के रूपलावण्य पर मुग्ध थीं पर वह खुद आगे बढ़ कर लड़की वालों से बात चलाना हेय समझती थीं.

इन सब से बेखबर आंचल अपनी दुनिया में व्यस्त थी. वह अपनी मां के एकदम विपरीत थी. इंजीनियरिंग कर के वह बंगलौर की एक प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत थी. उसे विदेश व विदेशी वस्तुएं तनिक भी नहीं लुभाती थीं.

सादा जीवन उच्च विचार की सोच वाली आंचल के साथ की लड़कियों ने जहां बाल कटवाए हुए थे वहीं वह अपने लंबे काले घने केशों को एक चोटी में बांधे रखती थी.

प्रेमा भगत बेटी के इस तरह से रहने पर अकसर खीज उठती, ‘‘पता नहीं यह लड़की किस पर गई है. तनिक भी कपड़े पहनने का ढंग नहीं है. इस के साथ की सब लड़कियां इंजीनियर बन कर अपने सहयोगियों के साथ प्रेम विवाह कर विदेश चली गईं पर यह अभी तक यहीं बैठी हुई है.’’

आंचल मां की बातें सुन कर हंस देती. उस पर मां की बड़बड़ का तनिक भी असर नहीं होता.

इस बार की किट्टी पार्टी से लौट कर प्रेमा भगत ने ठान ली थी कि वह आज आंचल से बात कर के ही रहेगी. जैसे ही बेटी घर आई उस ने रागिनी अंसल से मिली लिपस्टिक को दिखाते हुए पूछा, ‘‘आंचल, इस का शेड कैसा है? आयातित है, रागिनी अंसल ने दी है.’’

आंचल ने लिपस्टिक बिना हाथ में लिए दूर से देख कर कहा, ‘‘अच्छा शेड है मां, आप पर खूब फबेगा.’’

‘‘मैं अपनी नहीं तेरी बात कर रही हूं.’’

‘‘मैं तो लिपस्टिक नहीं लगाती.’’

‘‘क्यों नहीं लगाती? कब तक ऐसे चलेगा? दूसरी लड़कियों की तरह तू क्यों नहीं ओढ़तीपहनती और अपनी मार्केट वेल्यू बढ़ाती.’’

‘‘मार्केट वेल्यू? मां, मैं क्या कोई बेचने की वस्तु हूं?’’ नाराज हो गई आंचल.

मांबेटी की बातचीत को ध्यान से सुन रहे पिता स्थिति बिगड़ती देख पत्नी को झिड़कने वाले अंदाज में बोले, ‘‘पढ़ीलिखी बेटी से कैसे बात करनी है इस की तुम्हें जरा भी तमीज नहीं,’’ और फिर बेटी को दुलार कर दूसरे कमरे में ले गए. पिता ने रात के एकांत में प्रेमा से पूछा, ‘‘क्यों, आंचल के लिए कोई लड़का ढूंढ़ रखा है क्या?’’

‘‘ढूंढ़ना क्या है, समझ लीजिए कि अपनी पकड़ के अंदर है. केवल आंचल को उस के अनुसार ढालना बाकी है.’’

फिर अपने पति को रागिनी अंसल के अमेरिका प्रवासी भतीजे तथा उन के विशालकाय बंगले के बारे में बता कर बोली, ‘‘रागिनी के न कोई आगे है न कोई पीछे. सबकुछ अपनी आंचल का होगा. ऐश करेगी वह अमेरिका में जा कर.’’

भारतीय संस्कृति के परिवेश में डूबे बापबेटी को विदेश में बसने के नाम से बड़ी कोफ्त होती थी. वैसे भी वह अपनी इकलौती बेटी को इतनी दूर भेजने के पक्ष में नहीं थे. बोले, ‘‘कोई यहीं का लड़का ढूंढ़ना चाहिए ताकि आंचल हमारी आंखों से ओझल न हो.’’

2 माह बाद रागिनी अंसल के यहां तीसरा चेहरा देख कर कालोनी के लोग चौंक उठे. एक नौजवान चोटियां बांधे अंसल दंपती के साथ कार में अकसर दिखाई देता. पता लगा कि वही उन का भतीजा देव अंसल है.

प्रेमा भगत उसे देख कर कुछ निराश हुई. बेटी आंचल को दिखाया तो वह बोली, ‘‘इस अजीबोगरीब चुटियाधारी जानवर को मुझ से दूर ही रखो मां, अन्यथा मैं इसे स्वयं खदेड़ दूंगी.’’

मां ने समझाया, ‘‘बेटी, आदमी का रूप नहीं, धन देखा जाता है.’’

आंचल ने मुंह बिचकाया, ‘‘ऊंह, पैसा तो मेरे पास भी बहुत है पर आकर्षक व्यक्तित्व पसंद है.’’

मां बेटी को समझाने में लगी ही थी कि रागिनी अंसल का निमंत्रण आ गया. अपने भतीजे से परिचय कराने के लिए सभी सपरिवार अगले दिन शाम पार्टी में आमंत्रित थे.

आंचल जाने को तैयार नहीं थी, पर मां के रोनेधोने के कारण तैयार हुई. पार्टी क्या थी, एक अच्छाखासा बड़ा आयोजन था जिस में शहर के तमाम बड़ेबड़े उद्योगपति, बड़ेबड़े नेता, सरकारी अफसर सपरिवार आए थे. उन के साथ उन के परिवार की बेटियां भी आई थीं जो एक से बढ़ कर एक डिजाइन की पोशाक पहने अपने शरीर की नुमाइश लगाने में लगी हुई थीं. आंचल सब से अलग कुरसी पर बैठी हाथ में ठंडा पेय ले कर उन्हें देखने में लगी हुई थी.

अचानक देव अंसल ने आंचलके पास आ कर हाथ बढ़ाते हुए विनम्रता के साथ डांस के लिए आग्रह किया तो आंचल ने बेहद शालीनता से मना कर दिया. तभी प्रेमा भगत दनदनाती हुई आई और बोली, ‘‘यह आंचल है, मेरी बेटी. पसंद आई तुम्हें?’’

उस के इस बेतुके सवाल पर देव चौंक पड़ा और आंचल नाराज हो कर पिता के साथ घर चली आई.

अगले दिन अंसल दंपती के घर लड़कियों के मातापिता की ओर से देव के लिए विवाह प्रस्तावों की झड़ी

लग गई. रागिनी अंसल के जोर दे कर पूछने पर देव बोला, ‘‘मुझे आंचल पसंद है.’’

चौंक गईं रागिनी. क्योंकि भगत दंपती की ओर से कोई प्रस्ताव नहीं आया था. एक सप्ताह के बाद रागिनी अंसल को भतीजे के लिए झुकना पड़ा. उन्होंने प्रेमा भगत को फोन लगाया और बोलीं, ‘‘आप ने मेरे भतीजे को देख कर अभी तक अपनी कोई राय नहीं दी.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं रागिनीजी, मैं ने आप के भतीजे को देखा और पसंद भी किया पर आप को क्या बताऊं…’’ कहतेकहते प्रेमा रुक गई.

‘‘नहीं, आप को बात तो बतानी ही पड़ेगी,’’ श्रीमती अंसल की रौबीली आवाज सुन कर प्रेमा भगत का मुख अपनेआप खुल गया और वह बोल पड़ी, ‘‘आंचल को देव की चुटिया पसंद नहीं है.’’

आंचल की नापसंदगी सुन कर रागिनी को धक्का सा लगा और उन्होंने आहत हो कर फोन रख दिया.

यह पता चलते ही देव अंसल ने आम भारतीय युवाओं की तरह तुरंत बाल कटवा लिए और पहुंच गया आंचल के आफिस. देव को इस नए रूप में सामने खड़ा देख कर आंचल चौंक उठी.

देव बड़ी विनम्रता के साथ आंचल से बोला, ‘‘मिस, क्या आज शाम आफिस के बाद आप मेरे साथ एक कप चाय पीना पसंद करेंगी?’’

उस के निमंत्रण में एक अनोखी आतुरता का भाव देख कर आंचल मना नहीं कर सकी.

इस पहली मुलाकात के बाद तो दोनों की शामें एकसाथ गुजरने लगीं.

दोनों के ही घर वाले देव व आंचल की मुलाकातों से अनजान थे पर बाहर वालों की नजरों से कब तक बचे रहते, खासकर तब जब मामला अंसल परिवार से जुड़ा हो. दोनों के घर वालों को जब उन के आपस में मिलने की जानकारी हुई तो भगत परिवार बेहद खुश हुआ पर रागिनी अंसल के पैरों तले धरती खिसक गई.

इस बीच देव ने आंचल के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया. आंचल ने भी हां कर दी. बेटी के हां करने की बात सुन कर प्रेमा भगत ने उसे खुशी से चूमते हुए कहा, ‘‘आखिर बेटी किस की है.’’

एक भव्य समारोह में देव व आंचल का विवाह हो गया. चूंकि अंसल परिवार के साथ रिश्ता हुआ था और आंचल के मांबाप ने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि देव अमेरिका के किस शहर में रहता है तथा वहां काम क्या कर रहा है. फिर भी आंचल के बौस केशवन ने उस का त्यागपत्र अस्वीकार करते हुए उसे समझाया, ‘‘आंचल, मैं तुम्हारे पिता समान हूं. बहुत अनुभवी हूं. अनजान देश में अनजान पुरुष के साथ जा रही हो. बेशक देव तुम्हारा पति है पर तुम उस के बारे में अधिक तो नहीं जानतीं इसलिए नौकरी मत छोड़ो. वहां न्यूयार्क में भी हमारी कंपनी की एक शाखा है, मैं तुम्हारी पोस्टिंग वहीं कर दे रहा हूं. अवश्य ज्वाइन कर लेना.’’

देव को बिना बताए आंचल ने वहां का नियुक्तिपत्र संभाल कर रख लिया था.

एअरपोर्ट पर विदा करने आए लोगों की भीड़ देख कर आंचल को अपने भाग्य पर रश्क होने लगा. लगभग 16 घंटे का हवाई सफर था पर देव अपने ही खयालों में खोया था. बड़ा विचित्र लगा आंचल को.

पहली बार आंचल को ध्यान आया कि देव ने अपने बिजनेस के बारे में उसे कुछ भी नहीं बताया था. पूछने पर बोला, ‘‘दूर जा रही हो तो खुद ही सब देख लेना. न्यूयार्क शहर की सीमा से लगा मेरा कारखाना है, कारों के कलपुर्जे बनते हैं.’’

आश्वस्त हुई आंचल जान कर.

न्यूयार्क पहुंच कर अगले ही दिन सुबह देव कारखाने चला गया तो उस विशालकाय बंगले में आंचल अकेली ही रह गई. देव जब तीसरे दिन भी नहीं लौटा तो चौथे दिन बोर हो कर आंचल ने नौकरी ज्वाइन करने का मन बनाया.

कंपनी की न्यूयार्क शाखा के बौस रेमंड ने उस का बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया. पूरे स्टाफ से परिचय करवाया. पति के रूप में देव अंसल का नाम सुनते ही वहां अचानक चुप्पी छा गई. आंचल ने चौंक कर रेमंड की ओर देखा तो उन्होंने इशारे से आंचल को अपने केबिन में बुलाया और पूछा, ‘‘क्या वास्तव में तुम्हारे पति देव अंसल ही हैं?’’

रेमंड के प्रश्न और स्टाफ के लोगों की चुप्पी को देख कर उसे किसी अनहोनी का पूर्वाभास हो रहा था.

कुछ रुक कर रेमंड ने फिर पूछा, ‘‘मैडम, देव अंसल से आप का विधिवत विवाह हुआ है? या आप दोनों की ‘लिव इन’ व्यवस्था है?’’

‘‘यह ‘लिव इन’ व्यवस्था क्या होती है, मैं समझी नहीं, सर. स्पष्ट बताइए,’’ आंचल कांपते हुए बोली.

‘‘जब बिना विवाह के लड़का और लड़की पतिपत्नी की तरह साथ रहने लगते हैं तो उसे ‘लिव इन’ व्यवस्था कहते हैं,’’  रेमंड बोले, ‘‘विश्वास नहीं होता कि देव अंसल जैसे व्यक्ति ने विवाह कैसे कर लिया. वह तो ‘लिव इन’ व्यवस्था का पक्षधर है. तकरीबन 2 साल पहले अरुणा नाम की एक लड़की देव के साथ ‘लिव इन’ थी. गर्भवती हो गई तो देव पर विवाह के लिए जोर डालने लगी तब देव ने उसे अपने घर से निकाल बाहर किया. सुनते हैं उस ने…’’

‘‘आत्महत्या कर ली,’’ आंचल ने उन का वाक्य पूरा किया.

चौंक कर रेमंड ने आंचल की ओर देखा और बोले, ‘‘नहीं, उस ने आत्महत्या नहीं की थी, उस की हत्या हुई थी. पुलिस को देव पर शक था. वह इस मामले में जेल भी गया था पर सुबूत के अभाव में छूट गया.’’

आंचल याद करने लगी अरुणा को, जो उस के साथ कालिज में पढ़ती थी और अचानक पता चला कि उस को किसी एन.आर.आई. से प्रेम हो गया था और वह हमेशा के लिए अमेरिका चली गई थी.

रेमंड ने बताया कि देव ने अपने कारखाने में ही एक छोटा सा बंगला बनवा रखा है. वहां आजकल मिली नाम की एक अमेरिकन लड़की ‘लिव इन’ व्यवस्था में देव के साथ रह रही है,’’ फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘यहां आने वाले कुछ भारतीय पुरुष दोहरा मानदंड अपनाते हैं, अकेले में यहां कुछ और भारत में मातापिता तथा रिश्तेदारों के सामने कुछ अलग मुखौटा ओढ़े रहते हैं.’’

आंचल सोच रही थी कि देव का असली चेहरा सब के सामने लाना होगा ताकि वह आगे किसी लड़की की भावनाओं से खिलवाड़ न कर सके.

अपने दफ्तर के एक अमेरिकन सहयोगी के साथ वह अंसल के कारखाने की ओर चल पड़ी.

ठिकाने पर पहुंच कर आंचल ने देखा कि कारखाने के पश्चिमी छोर पर स्थित बंगला दूर से ही लुभा रहा था. वह कारखाने के सामने वाले दरवाजे से न जा कर बंगले की दूसरी तरफ वाले दरवाजे से अंदर घुसी. कुत्तों के भौंकने की आवाज सुन कर अंदर से एक बेहद खूबसूरत युवती बाहर निकली. बड़े ही सहज भाव से आंचल ने आगे बढ़ कर उस का अभिवादन किया और बोली, ‘‘मैं आंचल हूं. देव से मिलने के लिए भारत से यहां आई हूं.’’

उस लड़की ने अंगरेजी में कहा, ‘‘देव बाहर गया है. एक घंटे के बाद लौटेगा. आप यहां बैठ कर इंतजार कर सकती हैं.’’

आंचल यही तो चाहती थी. उसे अंदर ले जाते हुए मिली ने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं देव की पत्नी मिली हूं.’’

तपाक से आंचल बोली, ‘‘मैं भी देव की कानूनन ब्याहता पत्नी हूं. उस ने 15 दिन पहले भारत में मुझ से विवाह किया था.’’

एक घंटे बाद जब देव लौटा तो मिली और आंचल को एकसाथ एक सोफे पर बैठा देख कर बौखला गया. वह घबरा कर उलटे पांव वापस लौटने ही वाला था कि दोनों ने उसे लपक कर पकड़ लिया और अंदर ले जा कर एक कमरे में बंद कर दिया.

इस के बाद आंचल और मिली ने फोन कर पुलिस को बुलाया और देव को धोखा दे कर विवाह करने के अपराध में पुलिस के हवाले कर दिया. यही नहीं दोनों ने मिल कर अरुणा की संदेहास्पद मौत की फाइल को दोबारा खुलवा दिया.

बेटी आंचल को सहीसलामत वापस पा कर प्रेमा भगत एक अलग ही सुकून महसूस कर रही थी. रागिनी अंसल ने किट्टी ग्रुप से हमेशा के लिए अपना नाता तोड़ लिया तथा उन की भव्य पार्टी में अपनीअपनी बेटियों को सजा कर लाए मातापिता एकदूसरे से यही कह रहे थे, अच्छा हुआ जो हम बालबाल बच गए.

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