प्रेम का निजी स्वाद : महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

प्रेम… कहनेसुनने और देखनेपढ़ने में यह जितना आसान शब्द है, समझने में उतना ही कठिन. कठिन से भी एक कदम आगे कहूं तो यह कि यह समझ से परे की शै है. इसे तो केवल महसूस किया जा सकता है.

दुनिया का यह शायद पहला शब्द होगा जिस के एहसास से मूक पशुपक्षी और पेड़पौधे तक वाकिफ हैं. बावजूद इस के, इस की कोई तय परिभाषा नहीं है. अब ऐसे एहसास को अजूबा न कहें तो क्या कहें?

बड़ा ढीठ होता है यह प्रेम. न उम्र देखे न जाति. न सामाजिक स्तर न शक्लसूरत. न शिक्षा न पेशा. बस, हो गया तो हो गया. क्या कीजिएगा. तन पर तो वश चल सकता है, उस पर बंधन भी लगाया जा सकता है लेकिन मन को लगाम कैसे लगे? सात घोड़ों पर सवार हो कर दिलबर के चौबारे पहुंच जाए, तो फिर मलते रहिए अपनी हथेलियां.

महिमा भी आजकल इसी तरह बेबसी में अपनी हथेलियां मसलती रहती है. जबजब वतन उस के सामने आता है, वह तड़प उठती है. एक निगाह अपने पति कमल की तरफ डालती और दूसरी वतन पर जा कर टिक जाती है.

ऐसा नहीं है कि कमल से उसे कोई शिकायत रही थी. एक अच्छे पति होने के तमाम गुण कमल में मौजूद हैं. न होते तो क्या पापा अपने जिगर का टुकड़ा उसे सौंपते? लेकिन क्या भौतिक संपन्नता ही एक आधार होता है संतुष्टि का? मन की संतुष्टि कोई माने नहीं रखती? अवश्य रखती है, तभी तो बाहर से सातों सुखों की मालकिन दिखने वाली महिमा भीतर से कितनी याचक थी.

महिमा कभीकभी बहुत सोचती है प्रेम के विषय में. यदि वतन उस की जिंदगी में न आता तो वह कभी इस अलौकिक एहसास से परिचित ही न हो पाती. अधिकांश लोगों की तरह वह भी इस के सतही रूप को ही सार्थक मानती रहती. लेकिन वतन उस की जिंदगी में आया कहां था? वह तो लाया गया था. या कहिए कि धकेला गया था उस की तनहाइयों में.

कमल को जब लगने लगा कि अपनी व्यस्तता के चलते वह पत्नी को उस के मन की खुशी नहीं दे पा रहा है तो उस ने यह काम वतन के हवाले कर दिया. ठीक वैसे ही जैसे अपराधबोध से ग्रस्त मातापिता समय की कमी पूरी करने के लिए बच्चे को खिलौनों की खेप थमा देते हैं.

हालांकि महिमा ने अकेलेपन की कभी कोई शिकायत नहीं की थी लेकिन कमल को दिनभर उस का घर में रह कर पति का इंतजार करना ग्लानि से भर रहा था. किट्टी पार्टी, शौपिंग और सैरसपाटा महिमा की फितरत नहीं थी. फिल्में और साहित्य भी उसे बांध नहीं पाता था. ऐसे में कमल ने उसे पुराने शौक जीवित करने का सुझाव दिया. प्रस्ताव महिमा को भी जंच गया और अगले ही रविवार तरुण सपनों में खुद को संगीत की भावी मल्लिका समझने वाली महिमा ने बालकनी के एक कोने को अपनी राजधानी बना लिया. संगीत से जुड़े कुछ चित्र दीवार की शोभा बढ़ाने लगे. गमलों में लगी लताएं रेलिंग पर झूलने लगीं. ताजा फूल गुलदस्ते में सजने लगे. कुल मिला कर बालकनी का वह कोना एक महफ़िल की तरह सज गया.

महिमा ने रियाज करना शुरू कर दिया. पहलेपहल यह मद्धिम स्वर में खुद को सुनाने भर जितना ही रहा. फिर जब कुछकुछ सुर नियंत्रण में आने लगे तो एक माइक और स्पीकर की व्यवस्था भी हो गई. कॅरिओके पर गाने के लिए कुछ धुनों को मोबाइल में सहेजा गया. महिमा का दोपहर के बाद वाला समय अब बालकनी में गुजरने लगा.

कला चाहे कोई भी हो, कभी भी किसी को संपूर्णरूप से प्राप्त नहीं होती. यह तो निरंतर अभ्यास का खेल है और अभ्यास बिना गुरु के मार्गदर्शन के संभव नहीं. तभी तो कहा गया है कि गुरु बिना ज्ञान नहीं. ऐसा ही कुछ यहां भी हुआ. महिमा कुछ दिनों तो अपनेआप को बहलाती रही लेकिन फिर उसे महसूस होने लगा मानो मन के भाव रीतने लगे हैं. सुरों में एक ठंडापन सा आने लगा है. बहुत प्रयासों के बाद भी जब यह शिथिलता नहीं टूटी तो उस ने अपने रियाज को विश्राम दे दिया. जहां से चले थे, वापस वहीं पहुंच गए. महिमा फिर से ऊबने लगी.

और तब, उस की एकरसता तोड़ने के लिए कमल ने उसे वतन से मिलाया. संगीतगुरु वतन शहर में एक संगीत स्कूल चलाता है. समयसमय पर उस के विद्यार्थी स्टेज पर भी अपनी कला का प्रदर्शन करते रहते हैं. कंधे तक लंबे बालों को एक पोनी में बांधे वतन सिल्क के कुरते और सूती धोती में बेहद आकर्षक लग रहा था.

‘कौन पहनता है आजकल यह पहनावा.’ महिमा उसे देखते ही सम्मोहित सी हो गई और मन में उस के यह विचार आया. युवा जोश से भरपूर, संभावनाओं से लबरेज वतन स्वयं को संगीत का विद्यार्थी कहता था. नवाचार करना उस की फितरत, चुनौतियां लेना उस की आदत, नवीनता का झरना अनवरत उस के भीतर फूटता रहता. एक ही गीत पर अनेक कोणों से संगीत बनाने वाला वतन आते ही धूलभरे गुबार की तरह महिमा के सुरों को अपनी आगोश में लेता चला गया. महिमा तिनके की तरह उड़ने लगी.

वतन ने संगीत के 8वें सुर की तरह उस के जीवन में प्रवेश किया. महिमा की जिंदगी सुरीली हो गई. रंगों का एक वलय हर समय उसे घेरे रहता. वतन के साथ ने उस की सोच को भी नए आयाम दिए. उस ने महिमा को एहसास करवाया कि मात्र सुर-ताल के साथ गाना ही संगीत नहीं है. संगीत अपनेआप में संपूर्ण शास्त्र है.

कॅरिओके पर अभ्यास करने वाली महिमा जब वाद्ययंत्रों की सोहबत में गाने लगी तो उसे अपनी आवाज पर यकीन ही न हुआ. जब उस ने अपनी पहली रिकौर्डिंग सुनी तब उसे एहसास हुआ कि वह कितने मधुर कंठ की स्वामिनी है. पहली बार उसे अपनी आवाज से प्यार हुआ.

सुगम संगीत से ले कर शास्त्रीय संगीत तक और लोकगीतों से ले कर ग़ज़ल तक, सभीकुछ वतन इतने अच्छे से निभाता था कि महिमा के पांव हौलेहौले जमीन पर थपकी देने लगते और उस की आंखें खुद ही मुंदने लगतीं. महिमा आनंद के सागर में डूबनेउतरने लगती. उन पलों में वह ब्रह्मांड में सुदूर स्थित किसी आकाशगंगा में विचरण कर रही होती.

‘यदि संगीत को पूरी तरह से जीना है तो कम से कम किसी एक वाद्ययंत्र से दोस्ती करनी पड़ेगी. इस से सुरों पर आप की पकड़ बढती है,’ एक दिन वतन ने उस से यह कहा तो महिमा ने गिटार बजाना सीखने की मंशा जाहिर की. उस की बात सुन कर वतन मुसकरा दिया. वह खुद भी यही बजाता है.

कला की दुनिया बड़ी विचित्र होती है. यह तिलिस्म की तरह होती है. यह आप को अपने भीतर आने के लिए आमंत्रित करती है, उकसाती है, सम्मोहित करती है. यह कांटें से बांध कर खींच भी लेती है. जो इस में समा गया वह बाहर आने का रास्ता खोजना ही नहीं चाहता. महिमा भी वतन की कलाई थामे बस बहे चली जा रही थी.

गिटार पर नृत्य करती वतन की उंगलियां महिमा के दिल के तारों को भी झंकृत करने लगीं. कोई समझ ही न सका कि कब प्रेम के रेशमी धागों की गुच्छियां उलझने लगीं.

सीखना कभी भी आसान नहीं होता. चूंकि मन हमेशा आसान को अपनाने पर ही सहमत होता है, इसलिए वह सीखने की प्रक्रिया में अवरोह उत्पन्न करने लगता है और इस के कारण अकसर सीखने की प्रक्रिया बीच में ही छोड़ देने का मन बनने लगता है.

महिमा को भी गिटार सीखना दिखने में जितना आसान लग रहा था, हकीकत में उस के तारों को अपने वश में करना उतना ही कठिन था. बारबार असफल होती महिमा ने भी प्रारंभिक अभ्यास के बाद गिटार सीखने के अपने इरादे से पांव पीछे खींच लिए. लेकिन वतन अपने कमजोर विद्यार्थियों का साथ आसानी से छोड़ने वालों में न था. जब भी महिमा ढीली पड़ती, वतन इतनी सुरीली धुन छेड़ देता कि महिमा दोगुने जोश से भर उठती और अपनी उंगलियों को वतन के हवाले कर देती.

वतन जब उसे किसी युगल गीत का अभ्यास करवाता तो महिमा को लगता मानो वही इस गीत की नायिका है और वतन उस के लिए ही यह गीत गा रहा है. स्टेज पर दोनों की प्रस्तुति इतनी जीवंत होती कि देखनेसुनने वाले किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते.

अब महिमा गिटार को साधने लगी थी. अभ्यास के लिए वतन उसे कोई नई धुन बनाने को कहता, तो महिमा सबकुछ भूल कर, बस, दिनरात उसी में खोई रहती. घर में हर समय स्वरलहरियां तैरने लगीं. कमल भी उसे खुश देख कर खुश था.

महिमा सुबह से ही दोपहर होने की प्रतीक्षा करने लगती. कमल को औफिस के लिए विदा करने के बाद वह गिटार ले कर अपने अभ्यास में जुट जाती. जैसे ही घड़ी 3 बजाती, महिमा अपना स्कूटर उठाती और वतन के संगीत स्कूल के लिए चल देती. वहां पहुंचने के बाद उसे वापसी का होश ही न रहता. घर आने के बाद कमल उसे फोन करता तब भी वह बेमन से ही लौटती.

‘काश, वतन और मैं एकदूसरे में खोए, बस, गाते ही रहें. वह गिटार बजाता रहे और मैं उस के लिए गाती रहूं.’ ऐसे खयाल कई बार उसे बेचैन कर देते थे. वह अपनी सीमाएं जानती थी. लेकिन मन कहां किसी सीमा को मानता है. वह तो, बस, प्रिय का साथ पा कर हवा हो जाता है.

‘कल एक सरप्राइज पार्टी है. एक खास मेहमान से आप सब को मिलवाना है.’ उस दिन वतन ने क्लास खत्म होने पर यह घोषणा की तो सब इस सरप्राइज का कयास लगाने लगे. महिमा हैरान थी कि इतना नजदीक होने के बाद भी वह वतन के सरप्राइज से अनजान कैसे है. घर पहुंचने के बाद भी उस का मन वहीं वतन के इर्दगिर्द ही भटक रहा था.

“क्या सरप्राइज हो सकता है?” महिमा ने कमल से पूछा.

“हो सकता है उस की शादी तय हो गई हो. अपनी मंगेतर से मिलवाना चाह रहा हो,” कमल ने हंसते हुए अपना मत जाहिर किया. सुनते ही महिमा तड़प उठी. दर्द की लहर कहीं भीतर तक चीर गई. अनायास एक अनजानीअनदेखी लड़की से उसे ईर्ष्या होने लगी. रात बहुत बेचैनी में कटी. उसे करवटें बदलते देख कर कमल भी परेशान हो गया. दूसरे दिन जब महिमा संगीत स्कूल से वापस लौटी तो बेहद खिन्न थी.

“क्या हुआ? कुछ परेशान हो? क्या सरप्राइज था?” जैसे कई सवाल कमल ने एकसाथ पूछे तो महिमा झल्ला गई.

“बहुत काली जबान है आप की. वतन अपनी मंगेतर को ही सब से मिलाने लाया था. अगले महीने उस की शादी है,” कहतेकहते उस की रुलाई लगभग फूट ही पड़ी थी. आंसू रोकने के प्रयास में उस का चेहरा टेढ़ामेढ़ा होने लगा तो वह बाथरूम में चली गई. कमल अकबकाया सा उसे देख रहा था. वह महिमा की रुलाई के कारण को कुछकुछ समझने का प्रयास कर रहा था लेकिन वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे आखिर करना क्या चाहिए.

स्त्रीमन अभेद्य दुर्ग सरीखा होता है. युक्ति लगा कर उस में प्रवेश पाना लगभग नामुमकिन है. लेकिन हां, अगर द्वार पर लटके ताले की चाबी किसी तरह प्राप्त हो जाए तो फिर इस की भीतरी तह तक सुगमता से पहुंचा जा सकता है. कमल को शायद अभी तक यह चाबी नहीं मिली थी.

अगले कुछ दिनों तक महिमा की क्लासेज बंद रहने वाली थीं. वतन अपनी शादी के सिलसिले में छुट्टी ले कर गया था. उस के बाद वह हनीमून पर जाने वाला था. महिमा की चिड़चिड़ाहट चरम पर थी. न ठीक से खापी रही थी न ही कमल की तरफ उस का ध्यान था. कितनी ही बार कमल ने उस का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की लेकिन महिमा के होंठों पर मुसकान नहीं ला सका. एकदो बार तो गिटार के तार छेड़ने की कोशिश भी की लेकिन महिमा ने इतनी बेदर्दी से उस के हाथ से गिटार छीना कि वह सकते में आ गया.

बीमारी यदि शरीर की हो तो दिखाई देती है, मन के रोग तो अदृश्य होते हैं. ये घुन की तरह व्यक्ति को खोखला कर देते हैं. महिमा की बीमारी जानते हुए भी कमल इलाज करने में असमर्थ था. वतन का प्यार कोई वस्तु तो थी नहीं जिसे बाजार खरीदा जा सके. दोतरफा होता, तब भी कमल किसी तरह अपने दिल पर पत्थर रख लेता. लेकिन यहां तो वतन को खबर ही नहीं है कि कोई उस के प्यार में लुटा जा रहा है.

कमल महिमा की बढ़ती दीवानगी को ले कर बहुत चिंतित था. उस ने तय किया कि वह कुछ दिनों के लिए महिमा को उस की मां के पास छोड़ आएगा. शायद जगह बदलने से ही कुछ सकारात्मक असर पड़े. बेटीदामाद को एकसाथ देखते ही मां खिल गईं. कमल सास के पांवों में झुका तो मां के मुंह से सहस्रों आशीष बह निकले.

एक दिन ठहरने के बाद कमल वापस चला गया. जातेजाते उस का उदास चेहरा मां की आंखों में तसवीर सा बस गया था. मां ने अकेले में महिमा को बहुत कुरेदा लेकिन उन के हाथ कुछ भी नहीं लगा. महिमा का उड़ाउड़ा रंग उन्हें खतरे के प्रति आगाह कर रहा था. मां महिमा के आसपास बनी रहने लगीं.

दाइयों से भी कभी पेट छिपे हैं भला? दोचार दिनों में ही मां ताड़ गईं कि मामला प्रेम का है. ऐसा प्रेम जिसे न स्वीकार करते बन रहा है और न परित्याग. लेकिन भविष्य को अनिश्चित भी तो नहीं छोड़ा जा सकता न? एक दिन जब महिमा बालकनी के कोने में कोई उदास धुन गुनगुना रही थी, मां उस के पीछे आ कर खड़ी हो गईं.

“बहुत अपसैट लग रही हो. कोई परेशानी है, तो मुझे बताओ. मां हूं तुम्हारी, तुम्हारी बेहतरी ही सोचूंगी,” मां ने महिमा के कंधे पर हाथ रख कर कहा. उन के अचानक स्पर्श से महिमा चौंक गई.

“नहीं, कुछ भी तो नहीं. यों ही, बस, जरा दिल उदास है,” महिमा ने यह कह कर उन का हाथ परे हटा दिया. मां उस के सामने आ खड़ी हुईं. उन्होंने महिमा का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया और एकटक उस की आंखों में देखने लगीं. महिमा ने अपनी आंखें नीची कर लीं.

“कहते हैं कि गोद वाले बच्चे को छोड़ कर पेट वाले से आशा नहीं रखनी चाहिए. यानी, जो हासिल है उसे ही सहेज लेना चाहिए बजाय इस के कि जो हासिल नहीं, उस के पीछे भागा जाए,” मां ने धीरे से कहा. महिमा की आंखें डबडबा आईं. वह मां के सीने से लग गई. टपटप कर उन का आंचल भिगोने लगी. मां ने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया.

कुछ देर रो लेने के बाद जब महिमा ने अपना चेहरा ऊपर उठाया तो बहुत शांत लग रही थी. शायद उस ने मन ही मन कोई निर्णय ले लिया था. मां ने उस का कंधा थपथपा दिया.

“कमल को फोन कर के आने को कह दे. अकेला परेशान हो रहा होगा,” मां ने उस के हाथ में मोबाइल थमाते हुए कहा. अगले ही दिन कमल आ गया. कमल को देखते ही महिमा लहक कर उस के सीने से लग गई. कमल फिर से हैरान था.

‘यह लड़की है या पहेली.’ कमल उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा लेकिन असफल रहा.

इधर महिमा समझ गई थी कि कुछ यादों को यदि दिल में दफन कर लिया जाए तो वे धरोहर बन जाती हैं. वतन की मोहब्बत को पाने के लिए कमल के प्रेम का त्याग करना किसी भी स्तर पर समझदारी नहीं कही जा सकती वह भी तब, जब वतन को इस प्रेम का आभास तक न हो. और वैसे भी, प्रेम कहां यह कहता है कि पाना ही उस का पर्याय है. यह तो वह फूल है जो सूखने के बाद भी अपनी महक बिखेरता रहता है.

“हम कल ही अपने घर चलेंगे,” महिमा ने कहा. कमल ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

महिमा मन ही मन वतन की आभारी है. वह उस की जिंदगी में न आता तो प्रेम के वास्तविक स्वरूप से उस का परिचय कैसे होता? कैसे वह इस का स्वाद चख पाती. वह स्वाद, जिस का वर्णन तो सब करते हैं लेकिन बता कोई नहीं पाता. असल स्वाद तो वही महसूस कर पाता है जिस ने इसे चखा हो.

हरेक के लिए प्रेम का स्वाद नितांत निजी होता है और उस का स्वरूप भी.

बदलते रंग: क्या संजना जरमनी में अपने पति के पास लौट सकी?

‘‘जया…’’

आवाज सुनते ही वह चौंकी थी. यहां मौल के इस भीड़ भरे वातावरण में किस ने आवाज दी. पीछे मुड़ कर देखा, ‘‘अरे वीणा तू…’’

अपनी पुरानी सहेली वीणा को देख कर सुखद आश्चर्य भी हुआ था.

‘‘तू कब आई बेंगलुरु से और यहां…’’

‘‘अरे, मैं तो पिछले 6 महीनों से यही हूं. यहां बेटे के पास आई हूं. बीच में सुना कि तेरी बेटी संजना की शादी तय हो गई है, मुझे उषा ने बताया था, पर कुछ ऐसे काम आ गए कि मिलना हो नहीं पाया.

“उषा ने तो तेरा नंबर भी दिया था, पर वह भी कहीं खो गया. नहीं तो मैं फोन पर ही तुझे बधाई दे ही देती…’’

‘‘अरे, यह सब तो ठीक है, पर अब बैठ कर कहीं बातें करते हैं, मेरी तो शापिंग भी अब पूरी हो गई है और थक भी गई हूं,’’ कहते हुए जया उसे कौफी शौप की तरफ ले गई.

‘‘हां तो अब यहां बैठ कर इतमीनान से बातें कर सकते हैं.’’

‘‘वो तो मैं देख ही रही हूं. लगता है कि बेटी की शादी के बाद तू भी अब काफी रिलेक्स फील कर रही है,’’
वीणा के कहने पर जया को हंसी आ गई थी.

‘‘शायद तू ठीक ही कह रही है.’’

फिर कौफी की चुसकियों के साथ देर तक बातें चलती रही. कैसे दिल्ली में शादी का इंतजाम था, दोनों परिवार के लोग वहीं इकट्ठे हो गए थे. एक बड़ा रिसोर्ट बुक करा लिया गया था. अब संजना और सुकांत अपनी पसंद से शादी कर रहे थे तो जैसा उन्होंने चाहा, वैसा ही इंतजाम कर दिया था.

‘‘ठीक किया तू ने,’’ वीणा ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘जया, मैं सोचती हूं कि अगर लड़का, लड़की अपनी पसंद से शादी कर लें तो हम लोग कितनी परेशानियों से बच जाते हैं. अब हमारी पीढ़ी के बाद कितना अंतर भी तो आ गया है. हमारी पीढ़ी में जब मातापिता सब कुछ तय करते थे, तब हमें पता भी नहीं होता था कि कैसी ससुराल होगी, पति का स्वभाव कैसा होगा, कैसे हम एडजस्ट करेंगे.
कितनी तरफ की आशंकाएं थीं, हमें भी और हमारे मातापिता को भी, पर अब बच्चे जब एकदूसरे को अच्छी तरह समझ कर शादी का निर्णय लेते हैं तो बच्चों के साथ मातापिता भी सुकून का अनुभव करते हैं.’’

जया ने भी तब एक संतोष की सांस लेते हुए कहा था,
‘‘तू ठीक कह रही है वीणा, मैं बहुतकुछ ऐसा ही अनुभव कर रही हूं.’’

देर तक गपशप कर के जब जया घर लौटी, तो उस के दिमाग में वीणा की कही बातें ही गूंज रही थीं.

लाया हुआ सामान करीने से जमाया, खाना तो सुबह ही बना लिया था तो अब कोई जल्दी नहीं थी. कुछ फल काट कर प्लेट ले कर वह बालकनी में आ गई. नीचे लौन में कालोनी के बच्चे खेल रहे थे.

सांझ का अंधेरा अब गहराने लगा था, पर सबकुछ देखते हुए भी जया अपने ही खयालों में खोई हुई थी.
सचमुच एक सकून मिला है उसे संजना की शादी के बाद. इंजीनियरिंग कर के जब वह एमबीए करने दिल्ली गई, तभी उस की मुलाकात सुकांत से हुई थी.
फोन पर 2-4 बार उस ने जिक्र भी किया था, फिर दिल्ली में सुकांत से मिलवाया.

‘‘मां, हम लोग शादी करना चाहते हैं,’’ सुन कर वह और पति राकेश दोनों ही चौंक गए थे.

राकेश ने फिर कहा भी था,
‘‘बेटा, यहां तो तुझे पढ़ाई के लिए भेजा है. शादी के बारे में बाद में सोचना.’’

‘‘नहीं पापा, बहुत सोच कर ही मैं और सुकांत इस निर्णय पर पहुंचे हैं और अब हम लोग मैच्युर हैं, अपने निर्णय ले सकते हैं.’’

‘‘ठीक है. पहले पढ़ाई करो मन लगा कर, फिर अगर पढ़ाई पूरी करने के बाद भी तुम लोगों का यही निर्णय रहा तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी. पर शादीब्याह का निर्णय जल्दबाजी में लेना ठीक नहीं है.’’

जया ने यह कह कर बात समाप्त कर दी थी. वैसे, सुकांत उसे भी ठीक ही लगा था. परिवार भी भला था. अब बच्चों की यही मरजी है तो यही सही.
फिर भी पूरे साल उसे यही लगता रहा कि संजना दिल्ली में होस्टल में अकेली रहती है. कहीं बीच में कोई गलत कदम न उठा ले, जल्दी उस की पढ़ाई पूरी हो तो शादी कर के हम भी निश्चिंत हों. अच्छे नंबरों से एमबीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी संजना ने. वैसे पढ़ाई में वह शुरू से ही अव्वल रही थी. यहां तो बस एक भटकाव की आशंका थी जया को.

फिर दोनों परिवारों ने मिल कर सारी योजना बनाई. संजना को यहां भी जौब औफर हो गए थे, पर सुकांत को इसी बीच जरमनी से एक बड़ा औफर मिला था. तय यह हुआ कि शादी के बाद संजना भी जरमनी जाएगी.

सोचते हुए जया अपने खयालों में इतनी खो गई थी कि अब याद आया फलों की प्लेट तो तब से स्टूल पर वैसी ही पड़ी है.

प्लेट उठाते ही मन फिर कहीं दौड़ गया था. शादी के बाद संजना बेहद खुश थी. दोनों की जोड़ी लग भी बहुत सुंदर रही थी. सिंगापुर घूमने गए, तो वहां से भी संजना ने ढेरों फोटो भेजे थे और मोबाइल पर सारी जगहों का वर्णन करती रहती.

‘‘अरे, तुम लोग आराम से अपना टाइम साथ बिताओ, बातें तो बाद में भी हो जाएंगी.’’

जया ने फोन पर हंस कर कहा भी था.

फिर हनीमून से आते ही उन लोगों की जरमनी जाने की तैयारी शुरू हो गई थी.

फ्रेंकफर्ट में एक छोटा सुंदर सा फ्लैट मिल गया था. सुकांत को बड़े विस्तार से मां सुनैना मेल करती कि कैसे पतिपत्नी घर सजाने में लगे हुए हैं. सुकांत घर के कामों में बहुत मदद करते हैं.

‘‘मां, अब तुम और पापा भी इधर आने का प्रोग्राम बनाओ.’’

‘‘हां… हां आएंगे, पहले तुम लोग तो अच्छी तरह सैट हो लो.’’

बेटी का बचपना अब तक गया नहीं है. जरा सी बात पर खुश और कुछ मन लायक नहीं हुआ तो नाराज भी तुरंत.

जया को सोचते ही फिर हंसी आ गई.

अरे मोबाइल पर मैसेज आ रहा है. हां संजना का ही तो है, ‘‘मां, तुझे मेल किया था.’’

‘अरे, मेल खोला कुछ घर के फोटो थे, फिर लंबी दिनचर्या का वर्णन था.

‘मां, सुकांत ने अब औफिस जौइन कर लिया है, मैं ने भी कई इंटरव्यू दिए हैं. पर, अब तक कोई जवाब नहीं आया है.

‘क्या मेरी लाइफ अब चौकेचूल्हे में ही सिमट कर रह जाएगी.’

‘ओफ्फो… यह लड़की भी…’’ जया के मुंह से निकला था. जरा भी धैर्य नहीं है. अब इंटरव्यू दिए हैं तो कुछ समय तो लगेगा ही. सुकांत अच्छा जौब कर तो रहा है, पर नहीं, यह नई पीढ़ी भी बस…

सोचते हुए जया फिर घर के कामों में लग गई थी. थोड़ा समझा कर ईमेल का जवाब भी भेज दिया था. फिर कुछ दिनों बाद सुकांत का भी मेल था, ‘मां, जरमनी में यहां की भाषा सीखना भी जरूरी होता है. मैं ने संजना को भी भाषा की क्लास जौइन करवा दी है.’’

‘चलो ठीक है, व्यस्त रहेगी तो कम सोचेगी…’ जया के मुंह से निकला.

पर उस दिन उस का फोन आने पर वह चौंक गई,
‘‘मां, मैं अगले हफ्ते इंडिया आ रही हूं.”

‘‘अरे… इतनी जल्दी? एकाएक कैसे? सब ठीक तो है, सुकांत भी आ रहे हैं क्या…?”

जया तो एकदम हड़बड़ा ही गई थी.

‘‘नहीं मां, मैं अकेली ही आ रही हूं, और तुम इतना घबरा क्यों रही हो? मेरा आना अच्छा नहीं लग रहा है क्या?”

‘नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं है, तू आएगी तो अच्छा क्यों नहीं लगेगा… पर… और तेरी जौब का क्या हुआ?’

‘‘अब जब आऊंगी तब और बातें करेंगे,” कह कर बेटी ने फोन भी रख दिया था.

जया फिर उलझनों में घिरने लगी. ये लड़की भी बस पहेलियां ही बुझाती रहेगी. अब जब आएगी तब पता चलेगा कि एकाएक यहां आने का प्रोग्राम क्यों बन गया.

जया के लिए यह पूरा हफ्ता काटना मुश्किल हो रहा था. यह तो अच्छा था कि पति आजकल अपने कार्यभार के सिलसिले में लंबे टूर पर थे… नहीं तो और सवाल करते.

बेटी ने यह भी तो नहीं बताया कि कब कौन सी फ्लाइट से आ रही है. एयरपोर्ट पर किसी को भेजना तो नहीं है.

जया अपने ही प्रश्नजाल में उलझती जा रही थी.

उस दिन सुबहसुबह जब वह चाय बना रही थी, तब दरवाजे की घंटी बजी. दौड़ कर दरवाजा खोला…

‘मां,’ कहते हुए संजना उस से लिपट गई थी.

‘‘संजू कैसी है तू… अचानक इस तरह आ कर तो तू ने मुझे चौंका ही दिया.’’

‘‘वही तो मां, मैं ऐसी ही तो हूं. हमेशा आप को चौंकाती रहती हूं.’’

संजना ने फिर मजाक किया था.

‘‘चल, अब अंदर चल, मैं चाय ही बना रही थी.’’

सूटकेस और बैग उठा कर संजना अंदर आ गई.

‘अरे, घर तो आप ने काफी व्यवस्थित कर रखा है,’
अलमारी में सजे अपने और सुकांत के फोटोग्राफ पर नजर डाल कर उस ने फिर मां की ओर देखा था.

‘‘और बताओ मां, क्या खिला रही हो, मुझे तो जोरों की भूख लग रही है, फ्लाइट में भी कुछ नहीं खाया.’’

‘‘अब जो कहेगी वही बना दूंगी, पहले चाय तो पी,’’ कह कर जया चाय के साथ कुछ हलका नाश्ता ले आई थी.

चाय के साथ भी संजना ने बस अपनी फ्लाइट की और जरमनी के सामान्य जीवन के बातें कही थीं.

जया जानने को उत्सुक थी कि आखिरकार यह अचानक यहां आने का प्रोग्राम क्यों बन गया.
ठीक है, शायद अपनेआप ही बताए फिर भी उस की चिंता कम नहीं हो पा रही थी.

खाना खा कर फिर संजना गहरी नींद में सो भी गई थी.

जया ने चुपचाप उस के बिखरे सामान को व्यवस्थित किया. पता नहीं क्या सोच कर आई है यह लड़की. अगर कुछ ही दिनों के लिए आना था, तो इतने बड़े 2 सूटकेस और बड़ा सा बैग लाने की क्या जरूरत थी.

फिर शाम को उस ने संजना को अपने पास बिठाते हुए पूछा, ‘‘हां, अब इतमीनान से बता, सब ठीक तो है न. अचानक इस तरह आने का प्रोग्राम कैसे बन गया. सुकांत तो आए नहीं,’’ सुनते ही संजना ने कुछ चिढ़ कर जवाब दिया, ‘‘मां, सुकांत क्यों आएंगे? उन का जौब है, ठाट से औफिस जा रहे हैं, बेकार तो मैं थी तो आ गई.’’

‘‘बेकार… तू क्यों बेकार होने लगी?’’

ज्यादा कुछ समझ नहीं पा रही थी वह.

‘‘क्यों…? मैं बेकार नहीं हो सकती, जब मुझे वहां जौब नहीं मिली तो बेकार तो हो ही जाऊंगी और बेकार वहां बैठ कर क्या करूंगी, इसलिए यहां आ गई. अब इंडिया में जौब देखूंगी.’’

यह सुन कर जया तो और चकरा गई.

‘‘यहां जौब… मतलब, तू यहां रहेगी और सुकांत जरमनी में.”

‘‘मां, अब अधिक सवाल मत करो. सुकांत को जहां रहना है, रहेंगे. बस मैं यहां रहूंगी. कल से कुछ कंपनियों से बात करती हूं. गलती की जो जल्दबाजी में चली गई. मुझे तो यहां इतने अच्छे औफर आ रहे थे.’’

‘‘बेटी, जौब ही तो सबकुछ नहीं है, तुम्हारी लाइफ, परिवार.’’

‘‘कैसा परिवार…?’’ संजना ने फिर टोक दिया था, ‘‘मां, मैं ने पहले ही सुकांत को बता दिया था कि मुझे कुकिंग और घर के कामों में कोई दिलचस्पी नहीं है, आखिर इतनी मेहनत से पढ़ाई की है तो कुछ काम तो करूंगी, तब सुकांत को भी सब ठीक लगा और अब… अब जरमनी जाते ही बदल गए.

“मैं सुबह, शाम खाना बनाऊं, घर व्यवस्थित करूं, सब काम करूं, क्यों… क्योंकि जौब तो मेरे पास है नहीं और सब करूं तब भी सुकांत की फटकार सुनूं, घर क्यों अस्तव्यस्त है, खाना बिलकुल बेस्वाद है, रोटियां कच्ची हैं, सब्जी जल गई है, यह ठीक नहीं, वो ठीक नहीं, आखिर यह सब सुनने के लिए तो मैं गई नहीं थी उन के साथ, न ही इसलिए शादी की.’’

संजना जैसे आवेश में थी. जया ने शांत करने का प्रयास किया. जया बोली, ‘‘बेटी, तुम दोनों ने सबकुछ देखसुन कर ही तो शादी का फैसला लिया था, तो अब इतनी जल्दी किसी निर्णय पर पहुंचना…’’

‘‘हां, फैसला लिया था. अपनी गलती को भी तो मैं ही सुधारूंगी. मैं ही ठीक करूंगी और कौन करेगा.’’

जया समझ नहीं पा रही थी कि क्या कह कर समझाए बेटी को. ठीक है, अभी आवेश में है, 2-4 दिन बाद बात करूंगी. सोच कर चुप रह गई थी.

2-4 दिन भी फिर ऐसे ही निकल गए थे, कंप्यूटर पर पता नहीं क्याक्या टटोलती रहती है यह लड़की, क्या जौब सर्च कर रही है, आजकल बात भी तो बहुत कम कर रही है.

‘‘सुकांत से बात की,’’
उस दिन जया ने पूछ ही लिया था.

‘‘क्यों…? मैं क्यों बात करूं…?’’ संजना का तीखा उत्तर.

‘‘अरे, अपने यहां पहुंचने की सूचना तो दे देती.’’

‘‘जब सामने वाले को जरूरत नहीं तो मैं क्या बात करूं…?’’

संजना का दोटूक उत्तर.

‘‘देख बेटा, उस दिन मैं ने तुझ से कुछ नहीं कहा था. पर अब सुन, शादीब्याह कोई गुड्डेगुड़ियों का खेल नहीं है और इस प्रकार लड़नेझगड़ने से दूरियां बढ़ती हैं, हमें थोड़ाबहुत एडजस्ट भी करना होता है, नहीं तो शादी टिकेगी कैसे?’’

‘‘न टिके, मुझे कोई परवाह नहीं. मैं क्यों एडजस्ट करूं, सुकांत का क्या कोई फर्ज नहीं बनता है, क्यों की फिर मुझ से शादी, कर लेते किसी घरेलू लड़की से जो उन का चूल्हाचौका संभालती, और मां, मुझे अब इस बारे में कोई बात करनी भी नहीं है,’’ कहती हुई संजना तेजी से उठ कर अपने कमरे में चली गई.

जया जड़ हो कर रह गई, तो क्या यह पति से अलग होने का मन बना कर आई है, अभी तो मुश्किल से 6 महीने भी नहीं हुई होंगे शादी के.

क्या करे, आजकल तो राकेश भी यहां नहीं हैं, नहीं तो वे ही समझाते अपनी बेटी को. पर अभी तो यह कुछ समझना भी नहीं चाह रही है.

क्या करे, क्या सुकांत से बात की जाए, पर बात क्या करे, पहले यह खुल कर तो बताए कि चाहती क्या है, क्यों अचानक इस प्रकार यहां आ गई.

जया का जैसे दिमाग काम ही नहीं कर रहा था.

बेटी खुद समझदार है, अपने निर्णय लेना जानती है, कोई फैसला उस पर थोपा भी तो नहीं जा सकता.

उस रात ठीक से सो भी नहीं पाई थी. रातभर लगता रहा कि कहीं कोई गलती उस से हो गई है, ठीक है बेटी की पढ़ाई पर ध्यान दिया, पर शायद जिंदगी के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा वह नहीं दे पाई.

उसे अपने विवाह के शुरुआती दिन याद आ रहे थे. उस की शादी तो मातापिता की मरजी से हुई थी, ससुराल में ननदें, जो हर काम में नुक्स निकालती रहतीं, राकेश तो अपने काम के सिलसिले में अकसर बाहर ही रहते.

पर उसे अपनी मां की सीख याद थी, धीरेधीरे अपने व्यवहार से तुम सब का मन जीत लोगी.

और फिर हुआ भी यही था. सालभर के अंदर ही वह अपनी सास की चहेती बहू बन गई थी. ननदें भी अब लाड़ करने लगी थीं, पर यहां… यहां तो संजना और सुकांत पहले से ही आपस में अच्छी तरह परिचित थे. ससुराल का भी कोई दखल नहीं. फिर…

दूसरे दिन संजना ने ही फरमाइश की थी, ‘‘मां, कुछ अच्छा खाना बनाओ न, यह क्या रोज वही दालरोटी.’’

‘‘हां, आज कचौड़ी बना रही हूं, सुकांत को भी पसंद थी न…’’ जया के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘मां, मेरी भी तो कोई पसंद हो सकती है या नहीं…’’
संजना का आक्षेप भरा स्वर…

‘‘नहीं बेटे, मेरा यह मतलब नहीं था, अच्छे खाने का सभी को शौक होता है तो सीख लेना चाहिए. फिर वहां विदेश में…”

“कोई बात नहीं, मैं कहां विदेश जा रही हूं…’’

संजना ने कह तो दिया था, पर जया देख रही थी कि वह ध्यान से कचौड़ी बनते देख रही है.

‘‘खाना बनाना कोई बहुत कठिन काम तो है नहीं. और तुम जैसी लड़कियां तो चटपट सब सीख सकती हैं.’’

जया ने उसे और उत्साहित करना चाहा था, पर संजना ने कोई जवाब नहीं दिया.
पर हफ्तेभर बाद ही जया को लगने लगा कि बेटी अब कुछ खोईखोई सी रहने लगी है. मोबाइल पर भी पता नहीं क्या टटोलती रहती है.

‘‘तू जौब की ज्यादा चिंता मत कर. पापा आ जाएं तो उन से बात करना. कुछ कंपनियों में उन की पहचान भी है.”

जया ने टटोलना चाहा था, पर संजना चुप थी. चेहरा भी सपाट था.

‘‘बेटी, सुकांत से मैं बात करूं?’’ कुछ झिझक के बाद जया के मुंह से निकला था.

‘‘मां, तुम क्यों बात करोगी…? जिसे बात करनी है, वह करेगा.’’

जया को पहली बार लगा कि बेटी के स्वर में कुछ दर्द है. वह चुप रह गई.

फिर उस दिन मोबाइल की घंटी बजी. संजना का फोन जया के पास ही पड़ा था,
‘सुकांत…’

‘‘संजना, सुकांत का फोन है, बात करना. और हां, स्पीकर पर डाल, मुझे भी बात करनी है.’’

जया के आदेश भरे स्वर को संजना टाल नहीं पाई थी.
जया उठ कर अपने कमरे में आ गई थी. आवाज यहां भी आ रही थी.

‘‘संजू बेबी, कितनी बार फोन किया, उठाती क्यों नहीं हो? अच्छा बाबा, मैं अब माफी मांगता हूं तुम से, अब कभी तुम्हारे काम में कोई मीनमेख नहीं निकालूंगा. अब तो गुस्सा थूक दो.’’

संजना ने भी धीरे से कुछ कहा था. फिर सुकांत की ही आवाज गूंजी, “हां, अब कभी तुम्हारी किसी और से तुलना भी नहीं करूंगा, अब तो खुश. अब जल्दी से लौट आओ, नहीं तो फिर मैं ही पहुंच जाऊंगा.

“और हां, सारी बातों के बीच में मैं यह तो कहना ही भूल गया कि तुम्हारे दो इंटरव्यू काल आए हुए हैं, 5 दिन के अंदर ही आ जाओ, टिकट मैं भेज रहा हूं, सुनो बेबी…’’
कुछ फुसफुसे से स्वर, संजना ने शायद फिर स्पीकर औफ कर दिया था.
पर जया सबकुछ समझ गई थी. आज इतने दिनों बाद उसे गहरी नींद आई थी.
सुबह भी शायद देर तक सोती रही थी, संजना की आवाज से ही नींद टूटी थी,
‘‘मां उठो, मैं ने चाय बना दी है, फिर आप को सुबह की सैर के लिए भी जाना है, मेरे आते ही आप की दिनचर्या बिगड़ गई है.’’

वह फिर संजना के प्रफुल्लित चेहरे को देख रही थी.

‘‘मां, अब 2-4 दिन में मुझे जरमनी जाना है, पर सोच रही हूं कि आप मुझे कुछ अच्छी डिशेज बनाना सिखा दो. वैसे, फोन पर भी मैं आप से पूछती रहूंगी,’’ कह कर संजना मां के पास ही बैठ गई थी.

‘‘और… और…इतनी जल्दी तेरी वापसी का प्रोग्राम…’’
जया ने मजाक किया था.

‘‘तो मैं ने कब कहा था कि मैं वापस जरमनी नहीं जाऊंगी. आखिर मेरा घर तो वहीं है, आप भी मां पता नहीं क्याक्या सोच लेती हो,’’ कहते हुए वह मां से लिपट गई थी.

और जया सोच रही थी कि यह आधुनिक पीढ़ी भी बस… सच अब तक तो वह इसे समझ ही नहीं पाई है…
पर एक संतोष भरी मुसकान जया के चेहरे पर भी थी.

समाधान: क्या थी असीम की कहानी

‘‘मैं ने पहचाना नहीं आप को,’’ असीम के मुंह से निकला.

‘‘अजी जनाब, पहचानोगे भी कैसे…खैर मेरा नाम रूपेश है, रूपेश मनकड़. मैं इंडियन बैंक में प्रबंधक हूं,’’ आगुंतक ने अपना परिचय देते हुए कहा.

‘‘आप से मिल कर बड़ी खुशी हुई. कहिए, आप की क्या सेवा करूं?’’ दरवाजे पर खड़ेखड़े ही असीम बोला.

‘‘यदि आप अंदर आने की अनुमति दें तो विस्तार से सभी बातें हो जाएंगी.’’

‘‘हांहां आइए, क्यों नहीं,’’ झेंपते हुए असीम बोला, ‘‘इस अशिष्टता के लिए माफ करें.’’

ड्राइंगरूम में आ कर वे दोनों सोफे पर आमनेसामने बैठ गए.

‘‘कहिए, क्या लेंगे, चाय या फिर कोई ठंडा पेय?’’

‘‘नहींनहीं, कुछ नहीं, बस आप का थोड़ा सा समय लूंगा.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘कुछ दिन पहले आप के बड़े भाई साहब मिले थे. हम दोनों ही ‘सिकंदराबाद क्लब’ के सदस्य थे और कभीकभी साथसाथ गोल्फ भी खेल लेते…’’

‘‘अच्छा…यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि आप से उन की मुलाकात हो जाती है वरना वह तो इतने व्यस्त रहते हैं कि हम से मिले महीनों हो जाते हैं,’’ असीम ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘डाक्टरों की जीवनशैली तो होती ही ऐसी है, पर सच मानिए उन्हें आप की बहुत चिंता रहती है. बातोंबातों में उन्होंने बताया कि 3 साल पहले आप की पत्नी का आकस्मिक निधन हो गया था. आप का 4 साल का एक बेटा भी है…’’

‘‘जी हां, वह दिन मुझे आज भी याद है. मेरी पत्नी आभा का जन्मदिन था. टैंक चौराहे के पास सड़क पार करते समय पुलिस की जीप उसे टक्कर मारती निकल गई थी. मेरा पुत्र अनुनय उस की गोद में था. उसे भी हलकी सी खरोंचें आई थीं, पर आभा तो ऐसी गिरी कि फिर उठी ही नहीं…’’

‘‘मुझे बहुत दुख है, आप की पत्नी के असमय निधन का, पर मैं यहां किसी और ही कारण से आया हूं.’’

‘‘हांहां, कहिए न,’’ असीम अतीत को बिसारते बोला.

‘‘जी, बात यह है कि मेरी ममेरी बहन मीता ऐसी ही हालत में विवाह के ठीक 2 माह बाद अपना पति खो बैठी थी. मैं ने सोचा यदि आप दोनों एकदूसरे का हाथ थाम लें तो जीवन में पहले जैसी खुशियां पुन: लौट सकती हैं,’’ कह कर रूपेश तो चुप हो गया, मगर असीम को किंकर्तव्यविमूढ़ कर गया.

‘‘देखिए रूपेश बाबू, मैं ने तो दूसरे विवाह के संबंध में कभी कुछ सोचा ही नहीं. पहले भी कई प्रस्ताव आए पर मैं ने अस्वीकार कर दिए. मैं नहीं चाहता कि मेरे पुत्र पर सौतेली मां का साया पड़े,’’ कहते हुए असीम ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया.

‘‘मैं अपनी बहन की तारीफ केवल इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मैं उस का भाई हूं बल्कि इसलिए कि उस का स्वभाव इतना मोहक है कि वह परायों को भी अपना बना ले. फिर भी मैं आप पर कोई जोर नहीं डालना चाहता. आप दोनों एकदूसरे से मिल लीजिए, जानसमझ लीजिए. यदि आप दोनों को लगे कि आप एकदूसरे का दुखसुख बांट सकते हैं, तभी हम बात आगे बढ़ाएंगे,’’ कहते हुए रूपेश ने अपनी जेब से एक कागज निकाल कर असीम को थमा दिया, जिस में मीता का जीवनपरिचय था. मीता नव विज्ञान विद्यालय में भौतिकी की व्याख्याता थी.

फिर रूपेश एक प्याला चाय पी कर असीम से विदा लेते हुए बोला, ‘‘आप जब चाहें मुझ से फोन पर संपर्क कर सकते हैं,’’ कह कर वह चला गया.

इस मामले में ज्यादा सोचविचार के लिए असीम के पास समय नहीं था. उसे तैयार हो कर कार्यालय पहुंचना था, इस जल्दी में वह रूपेश और उस की बहन मीता की बात पूरी तरह भूल गया.

कार्यालय पहुंचते ही ‘नीलिमा’ उस के सामने पड़ गई. हालांकि वह उस से बच कर निकल जाना चाहता था.

‘‘कहिए महाशय, कहां रहते हैं आजकल? आज सुबह पूरे आधे घंटे तक बस स्टाप पर लाइन में खड़ी आप का इंतजार करती रही,’’ नीलिमा ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘यानी मुझ में और बस में कोई अंतर ही नहीं है…’’ कहते हुए असीम मुसकराया.

‘‘है, बहुत बड़ा अंतर है. बस तो फिर भी ठीक समय पर आ गई थी पर श्रीमान असीम नहीं पधारे थे.’’

‘‘बहुत नाराज हो? चलो, आज सारी नाराजगी दूर कर दूंगा. आज अच्छी सी एक फिल्म देखेंगे और रात का खाना भी अच्छे से एक रेस्तरां में…’’ असीम बोला.

‘‘नहीं, आज नहीं. इंदौर से मेरे मांपिताजी आए हुए हैं. 3 दिन तक यहीं रुकेंगे. उन के जाने के बाद ही मैं तुम्हारे साथ कहीं जा पाऊंगी.’’

‘‘अरे वाह, तुम तो अपने पति और सासससुर तक की परवा नहीं करतीं फिर मांपिताजी…’’ असीम ने व्यंग्य में कहा.

‘‘मांपिताजी की परवा करनी पड़ती है. तुम तो जानते ही हो कि देर से जाने पर सवालों की झड़ी लगा देंगे. परिवार के सम्मान और समाज की दुहाई देंगे. फिर 3 दिन की ही तो बात है, क्यों खिटपिट मोल लेना. पति और सासससुर भी कहतेसुनते रहते हैं, पर सदा साथ ही रहना है, लिहाजा, मैं चिंता नहीं करती,’’ कहती हुई नीलिमा हंसी.

‘‘पता नहीं, तुम्हारे तर्क तो बहुत ही विचित्र होते हैं. पर नीलू आज शाम की चाय साथ पिएंगे, तुम से जरूरी बात करनी है,’’ असीम बोला.

‘‘नहीं, तुम्हारे साथ चाय पी तो मेरी बस निकल जाएगी. दोपहर का भोजन साथ लेंगे. आज तुम्हारे लिए विशेष पकवान लाई हूं.’’

‘‘ठीक है, आशा करता हूं उस समय कोई मीटिंग न चल रही हो.’’

‘‘देर हो भी गई तो मैं इंतजार करूंगी,’’ कहती हुई नीलिमा अपने केबिन की ओर बढ़ गई.

कार्यालय की व्यस्तता में असीम भोजन की बात भूल ही गया था पर भोजनावकाश में दूसरों को जाते देख उसे नीलिमा की याद आई तो वह लपक कर कैंटीन में जा पहुंचा.

‘‘यह देखो, गुलाबजामुन और मलाईकोफ्ता…’’ नीलिमा अपना टिफिन खोलते हुए बोली.’’

‘‘मेरे मुंह में तो देख कर ही पानी आ रहा है. मैं तो आज केवल डबलरोटी और अचार लाया हूं. समय ही नहीं मिला,’’ असीम कोफ्ते के साथ रोटी खाते हुए बोला.

‘‘ऐसा क्या करते रहते हो जो अपने लिए कुछ बना कर भी नहीं ला सकते? सच कहूं, तुम्हें कैंटिन के भोजन की आदत पड़ गई है.’’

‘‘तुम जो ले आती हो रोजाना कुछ न कुछ…पर सुनो, आज बहुत ही अजीब बात हुई. एक अजनबी आ टपका. रूपेश नाम था उस का, उम्र में मुझ से 1-2 साल का अंतर होगा. कहने लगा, मेरे भाई डाक्टर उत्तम से उस का अच्छा परिचय है,’’ असीम ने बताया.

‘‘अरे, तो कह देते तुम्हें कार्यालय जाने को देर हो रही है.’’

‘‘बात इतनी ही नहीं थी नीलू, वह अपनी ममेरी बहन का विवाह प्रस्ताव लाया था. विवाह के कुछ माह बाद ही बेचारी के पति का निधन हो गया था.’’

‘‘तुम ने कहा नहीं कि दोबारा से ऐसा साहस न करें.’’

‘‘नहीं, मैं ने ऐसा कुछ नहीं कहा बल्कि मैं ने तो कह दिया कि विवाह प्रस्ताव पर विचार करूंगा.’’

‘‘देखो असीम, फिर से वही प्रकरण दोहराने से क्या फायदा है. मैं ने कहा था न कि तुम ने दूसरे विवाह की बात भी की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ कहती हुई नीलिमा तैश में आ गई.

‘‘हां, याद है. पिछली बार तुम ने नींद की गोलियां भी खा ली थीं. मैं ने भी तुम से कहा था कि ऐसी हरकतें मुझे पसंद नहीं हैं. तुम्हारा पति है, बच्चे हैं भरापूरा परिवार है. हम मित्र हैं, इस का मतलब यह तो नहीं कि तुम इतनी स्वार्थी हो जाओ कि मेरा जीना ही मुश्किल कर दो…’’ कहते हुए असीम का स्वर इतना ऊंचा हो गया कि कैंटीन में मौजूद लोग उन्हीं को देखने लगे.

‘‘मैं सब के सामने तमाशा करना नहीं चाहती, पर तुम मेरे हो और मेरे ही रहोगे. यदि तुम ने किसी और से विवाह करने का साहस किया तो मुझ से बुरा कोई न होगा,’’ कहती हुई नीलिमा अपना टिफिन बंद कर के चली गई और असीम हक्काबक्का सा शून्य में ताकता बैठा रह गया.

‘‘क्या हुआ मित्र? आज तो नीलिमाजी बहुत गुस्से में थीं?’’ तभी कुछ दूर बैठा भोजन कर रहा उस का मित्र सोमेंद्र उस के सामने आ बैठा.

‘‘वही पुराना राग सोमेंद्र, मैं उस से अपना परिवार छोड़ कर विवाह करने को कहता हूं तो परिवार और समाज की दुहाई देने लगती है, पर मेरे विवाह की बात सुन कर बिफरी हुई शेरनी की तरह भड़क उठती है,’’ असीम दुखी स्वर में बोला.

‘‘बहुत ही विचित्र स्त्री है मित्र, पर तुम भी कम विचित्र नहीं हो,’’ सोमेंद्र गंभीर स्वर में बोला.

‘‘वह कैसे?’’ कहता हुआ असीम वहां से उठ कर अपने कक्ष की ओर जाने लगा.

‘‘उस के कारण तुम्हारी कितनी बदनामी हो रही है, क्या तुम नहीं जानते? अपने हर विवाह प्रस्ताव पर उस से चर्चा करना क्या जरूरी है? ऐसी दोस्ती जो जंजाल बन जाए, शत्रुता से भी ज्यादा घातक होती है…’’ सोमेंद्र ने समझाया.

‘‘शायद तुम ठीक कह रहे हो, तुम ने तो मुझे कई बार समझाया भी पर मैं ही अपनी कमजोरी पर नियंत्रण नहीं कर पाया,’’ कहता हुआ असीम मन ही मन कुछ निर्णय ले अपने कार्य में व्यस्त हो गया.

उस के बाद घटनाचक्र इतनी तेजी से घूमा कि स्वयं असीम भी हक्काबक्का रह गया.

रूपेश ने न केवल उसे मीता से मिलवाया बल्कि उसे समझाबुझा कर विवाह के लिए तैयार भी कर लिया.

विवाह समारोह के दिन शहनाई के स्वरों के बीच जब असीम मित्रों व संबंधियों की बधाइयां स्वीकार कर रहा था, उसे रूपेश और नीलिमा आते दिखाई दिए. एक क्षण को तो वह सिहर उठा कि न जाने नीलिमा क्या तमाशा खड़ा कर दे.

‘‘असीम बाबू, इन से मिलिए यह है मेरी पत्नी नीलिमा. आप के ही कार्यालय में कार्य करती है. आप तो इन से अच्छी तरह परिचित होंगे ही, अलबत्ता मैं रूपेश नहीं सर्वेश हूं. मैं ने आप से थोड़ा झूठ बोला अवश्य था, पर अपने परिवार की सुखशांति बचाने के लिए. आशा है आप माफ कर देंगे,’’ रूपेश बोला.

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. आप की सुखी गृहस्थी में मेरे कारण ही तो भूचाल आया था,’’ असीम धीरे से बोला.

‘‘आप व्यर्थ ही स्वयं को दोषी ठहरा रहे हैं, असीम बाबू. हमारे पारिवारिक जीवन में तो ऐसे अनगिनत भूचाल आते रहे हैं, पर अपनी संतान के भविष्य के लिए मैं ने हर भूचाल का डट कर सामना किया है. इस में आप का कोई दोष नहीं है. अपना ही सिक्का जब खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष?’’ कहते हुए सर्वेश ने बधाई दे कर अपना चेहरा घुमा लिया. असीम भी नहीं देख पाया था कि उस की आंखें डबडबा आई थीं. वह नीलिमा पर हकारत भरी नजर डाल कर अन्य मेहमानों के स्वागत में व्यस्त हो गया.

बेशरम: क्या टूट गया गिरधारीलाल शर्मा का परिवार

पारिवारिक विघटन के इस दौर में जब भी किसी पारिवारिक समस्या का निदान करना होता तो लोग गिरधारीलाल को बुला लाते. न जाने वह किस प्रकार समझाते थे कि लोग उन की बात सुन कर भीतर से इतने प्रभावित हो जाते कि बिगड़ती हुई बात बन जाती.

गिरधारीलाल का सदा से यही कहना रहा था कि जोड़ने में वर्षों लगते हैं और तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगता. संबंध बड़े नाजुक होते हैं. यदि एक बार संबंधों की डोर टूट जाए तो उन्हें जोड़ने में गांठ तो पड़ ही जाती है, उम्र भर की गांठ…..

गिरधारीलाल ने सनातनधर्मी परिवार में जन्म लिया था पर जब उन की विदुषी मां  ने पंडितों के ढकोसले देखे, छुआछूत और धर्म के नाम पर बहुओं पर अत्याचार देखा तो न जाने कैसे वह अपनी एक सहेली के साथ आर्यसमाज पहुंच गईं. वहां पर विद्वानों के व्याख्यान से उन के विकसित मस्तिष्क का और भी विकास हुआ. अब उन्हें जातपांत और ढकोसले से ग्लानि सी महसूस होने लगी और उन्होंने अपनी बहुओं को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की कला सिखाई. इसी कारण उन का परिवार एक वैदिक परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था.

आर्ची को अच्छी तरह से याद है कि जब बूआजी को बेटा हुआ था और  उसे ले कर अपने पिता के घर आई थीं तब पता लगातेलगाते हिजड़े भी घर पर आ गए थे. आंगन में आ कर उन्होंने दादाजी के नाम की गुहार लगानी शुरू की और गानेनाचने लगे थे. दादीमां ने उन्हें उन की मांग से भी अधिक दे कर घर से आदर सहित विदा किया था. उन का कहना था कि इन्हें क्यों दुत्कारा जाता है? ये भी तो हाड़मांस के ही बने हुए हैं. इन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है, फिर इन का अपमान क्यों?

दादी की यह बात आर्ची के मस्तिष्क में इस प्रकार घर कर गई थी कि जब भी कहीं हिजड़ों को देखती, उस के मन में उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आती. वह कभी उन्हें धिक्कार की दृष्टि से नहीं देख पाई. ससुराल में शुरू में तो उसे कुछेक तीखी नजरों का सामना करना पड़ा पर धीरेधीरे सबकुछ सरल, सहज होता गया.

मेरठ में पल कर बड़ी होने वाली आर्ची मुंबई पहुंच गई थी. एकदम भिन्न, खुला वातावरण, तेज रफ्तार की जिंदगी. शादी हो कर दिल्ली गई तब भी उसे माहौल इतना अलग नहीं लगा था जितना मुंबई आने पर. साल में घर के 2 चक्कर लग जाते थे. विवाह के 5 वर्ष बीत जाने पर भी मायके जाने का नाम सुन कर उस के पंख लग जाते.

बहुत खुश थी आर्ची. फटाफट पैकिंग किए जा रही थी. मायके जाना उस के पैरों में बिजलियां भर देता था. आखिर इतनी दूर जो आ गई थी. अपने शहर में होती थी तो सारे त्योहारों में कैसी चटकमटक करती घूमती रहती थी. दादा कहते, ‘अरी आर्ची, जिस दिन तू इस घर से जाएगी घर सूना हो जाएगा.’ ‘क्यों, मैं कहां और क्यों जाऊंगी, दादू? मैं तो यहीं रहूंगी, अपने घर में, आप के पास.’

दादी लाड़ से उसे अपने अंक में भर लेतीं, ‘अरी बिटिया, लड़की का

तो जन्म ही होता है पराए घर जाने के लिए. देख, मैं भी अपने घर से आई हूं, तेरी मम्मी भी अपने घर से आई हैं, तेरी बूआ यहां से गई हैं, अब तेरी बारी आएगी.’

13 वर्षीय आर्ची की समझ में यह नहीं आ पाता कि जब दादी और मां अपने घर से आई हैं तब यह उन का घर कैसे हो गया. और बूआ अपने घर से गई हैं तो उन का वह घर कैसे हो गया. और अब वह अपने घर से जाएगी…

क्या उधेड़बुन है… आर्ची अपना घर, उन का घर सोचतीसोचती फिर से रस्सी कूदने लगती या फिर किसी सहेली की आवाज से बाहर भाग जाती या कोई भाई आवाज लगा देता, ‘आर्ची, देख तो तेरे लिए क्या लाया हूं.’

इस तरह आर्ची फिर व्यस्त हो जाती. एक भरेपूरे परिवार में रहते हुए आर्ची को कितना लाड़प्यार मिला था वह कभी उसे तोल ही नहीं सकती. उस का मन उस प्यार से भीतर तक भीगा हुआ था. वैसे भी प्यार कहीं तोला जा सकता है क्या? अपने 3 सगे भाई, चाचा के 4 बेटे और सब से छोटी आर्ची.

‘‘क्या बात है भई, बड़ी फास्ट पैकिंग हो रही है,’’ किशोर ने कहा.

‘‘कितना काम पड़ा है. आप भी तो जरा हाथ लगाइए,’’ आर्ची ने पति से कहा.

‘‘भई, मायके आप जा रही हैं और मेहनत हम से करवाएंगी,’’ किशोर आर्ची की खिंचाई करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे.

‘‘हद करते हैं आप भी. आप भी तो जा रहे हैं अपने मायके…’’

‘‘भई, हम तो काम से जा रहे हैं, फिर 2 दिन में लौट भी आएंगे. लंबी छुट्टियां तो आप को मिलती हैं, हमें कहां?’’

किशोर को कंपनी की किसी मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना था सो तय कर लिया गया था कि दिल्ली तक आर्ची भी फ्लाइट से चली जाएगी. दिल्ली में किशोर उसे और बच्चों को टे्रन में बैठा देंगे. मेरठ में कोईर् आ कर उसे उतार लेगा. एक सप्ताह अपने मायके मेरठ रह कर आर्ची 2-3 दिन के लिए ससुराल में दिल्ली आ जाएगी जबकि किशोर को 2 दिन बाद ही वापस आना था. बच्चे छोटे थे अत: इतनी लंबी यात्रा बच्चों के साथ अकेले करना जरा कठिन ही था.

किशोर को दिल्ली एअरपोर्ट पर कंपनी की गाड़ी लेने के लिए आ गई, सो उस ने आर्ची और बच्चों को स्टेशन ले जा कर मेरठ जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया और फोन कर दिया कि आर्ची इतने बजे मेरठ पहुंचेगी. फोन पर डांट भी खानी पड़ी उसे. अरे, भाई, पहले से फोन कर देते तो दिल्ली ही न आ जाता कोई लेने. आजकल के बच्चे भी…दामाद को इस से अधिक कहा भी क्या जा सकताथा.

किशोर ने आर्ची को प्रथम दरजे में बैठाया था और इस बात से संतुष्ट हो गए थे कि उस डब्बे में एक संभ्रांत वृद्धा भी बैठी थी. आर्ची को कुछ हिदायतें दे कर किशोर गाड़ी छूटने पर अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

अब आर्ची की अपनी यात्रा प्रारंभहुई थी, जुगनू 2 वर्ष के करीब था और बिटिया एनी अभी केवल 7 माह की थी. डब्बे में बैठी संभ्रांत महिला उसे घूरे जा रही थी.

‘‘कहां जा रही हो बिटिया?’’ वृद्धा ने पूछा.

‘‘जी, मेरठ?’’

‘‘ये तुम्हारे बच्चे हैं?’’

‘‘जी हां,’’ आर्ची को कुछ अजीब सा लगा.

‘‘आप कहां जा रही हैं?’’ उस ने माला फेरती उस महिला से पूछा.

‘‘मेरठ,’’ उस ने छोटा सा उत्तर दिया फिर उसे मानो बेचैनी सी हुई. बोली, ‘‘वे तुम्हारे घर वाले थे?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘रहती कहां हो…मेरठ?’’

‘‘जी नहीं, मुंबई…’’

‘‘तो मेरठ?’’

‘‘मायका है मेरा.’’

‘‘किस जगह?’’

‘‘नंदन में…’’ नंदन मेरठ की एक पौश व बड़ी कालोनी है.

‘‘अरे, वहीं तो हम भी रहते हैं. हम गोल मार्किट के पास रहते हैं, और तुम?’’

‘‘जी, गोल मार्किट से थोड़ा आगे चल कर दाहिनी ओर ‘साकेत’ बंगला है, वहीं.’’

‘‘वह तो गिरधारीलालजी का है,’’ फिर कुछ रुक कर वह वृद्धा बोली, ‘‘तुम उन की पोती तो नहीं हो?’’

‘‘जी हां, मैं उन की पोती ही हूं.’’

‘‘बेटी, तुम तो घर की निकलीं, अरे, मेरे तो उस परिवार से बड़े अच्छे संबंध हैं. कोई लेने आएगा?’’

‘‘जी हां, घर से कोई भी आ जाएगा, भैया, कोई से भी.’’

वृद्धा निश्ंिचत हो माला फेरने लगीं.

‘‘तुम्हारी दादी ने मुझे आर्यसमाज का सदस्य बनवा दिया था. पहले ‘हरे राम’ कहती थी अब ‘हरिओम’ कहने लगी हूं,’’ वह हंसी.

आर्ची मुसकरा कर चुप हो गई.

वृद्धा माला फेरती रही.

गाड़ी की रफ्तार कुछ कम हुई. मुरादनगर आया था. गाड़ी ने पटरी बदली. खटरपटर की आवाज में आर्ची को किसी के दरवाजा पीटने की आवाज आई. उस ने एनी को देखा वह गहरी नींद में सो रही थी. जुगनू भी हाथ में खिलौना लिए नींद के झटके खा रहा था. आर्ची ने उसे भी बर्थ पर लिटा दिया और अपने कूपे से गलियारे में पहुंच कर मुख्यद्वार पर पहुंच गई.

कोई बाहर लटका हुआ था. अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण वह दस्तक दे रहा था. आर्ची ने इधरउधर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया. सब अपनेअपने कूपों में बंद थे. आर्ची ने आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया और वह मनुष्य बदहवास सा अंदर आ गया. वृद्धा वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे, क्या कर रही हो? क्यों घुसाए ले रही हो इस मरे बेशरम को, हिजड़ा है.’’

‘‘मांजी, मुझे दूसरे स्टेशन तक ही जाना है, मैं तो गाड़ी धीमी होते ही उतर जाऊंगा, देखो, यहीं दरवाजे के पास बैठ रहा हूं…’’ और वह भीतर से दरवाजा बंद कर वहीं गैलरी में उकड़ूूं बैठ गया.

आर्ची अपने कूपे में आ गई. वृद्धा का मुंह फूल गया था. उस ने आर्ची की ओर से मुंह घुमा कर दूसरी ओर कर लिया और जोरजोर से अपने हाथ की माला घुमाने लगी.

आर्ची को बहुत दुख हुआ. बेचारा गाड़ी से लटक कर गिर जाता तो? कुछ पल बाद ही आर्ची को बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. दोनों बच्चे खूब गहरी नींद सो रहे थे.

‘‘मांजी, प्लीज, जरा इन्हें देखेंगी. मैं अभी 2 मिनट में आई,’’ कह कर आर्ची  बाथरूम की ओर गई. उस का कूपा दरवाजे के पास था, अत: गैलरी से निकलते ही थोड़ा मुड़ कर बाथरूम था. जैसे ही आर्ची ने बाथरूम में प्रवेश किया गाड़ी फिर से खटरपटर कर पटरियां बदलने लगी. उसे लगा बच्चे कहीं गिर न पड़ें. जब तक बाथरूम से वह बाहर भागी तब तक गाड़ी स्थिर हो चुकी थी. सीट पर से गिरती हुई एनी को उस ‘बेशरम’ व्यक्ति ने संभाल लिया था.

वृद्धा क्रोधपूर्ण मुद्रा में खूब तेज रफ्तार से माला पर उंगलियां फेर रही थी. जुगनू बेखबर सो रहा था. उस बेशरम व्यक्ति का झुका हुआ एक हाथ जुगनू को संभालने की मुद्रा में उस के पेट पर रखा हुआ था. यह देख कर आर्ची भीतर से भीग उठी. यदि उस ने बच्चे संभाले न होते तो उन्हें गहरी चोट लग सकती थी.

‘‘थैंक्यू…’’ आर्ची ने कहा और एनी को अपनी गोद में ले लिया.

उस बेशरम की आंखों से चमक जैसे अचानक कहीं खो गई. हिचकिचाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा स्टेशन आ रहा है. बस, 2 मिनट आप की बेटी को गोद में ले लूं?’’

आर्ची ने बिना कुछ कहे एनी को उस की गोद में थमा दिया. वृद्धा के मुंह से ‘हरिओम’ शब्द जोरजोर से बाहर निकलने लगा.

बारबार गोद बदले जाने के कारण एनी कुनमुन करने लगी थी. उस हिजड़े ने एनी को अपने सीने से लगा कर आंखें मूंद लीं तो 2 बूंद आंसू उस की आंखों की कोरों पर चिपक गए. आर्ची ने देखा कैसी तृप्ति फैल गई थी उस के चेहरे पर. एनी को उस की गोदी में देते हुए उस ने कहा, ‘‘यहां गाड़ी धीमी होगी, बस, आप जरा एक मिनट दरवाजा बंद मत करना…’’ और धीमी होती हुईर् गाड़ी से वह नीचे कूद गया. आर्ची ने खुले हुए दरवाजे से देखा, वह भाग कर सामने के टी स्टाल पर गया. वहां से बिस्कुट का एक पैकेट उठाया, भागतेभागते बोला, ‘‘पैसा देता हूं अभी…’’ और पैकेट दरवाजे के पास हाथ लंबा कर आर्ची की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘बहन, इसे अपने बच्चों को जरूर खिलाना.’’

गाड़ी रफ्तार पकड़ रही थी. आर्ची कुछ आगे बढ़ी, उस ने पैकेट पकड़ना चाहा पर गोद में एनी के होने के कारण वह और आगे बढ़ने में झिझक गई और पैकेट हाथ में आतेआते गाड़ी के नीचे जा गिरा. आर्ची का मन धक्क से हो गया. बेबसी से उस ने नजर उठा कर देखा वह ‘बेशरम’ व्यक्ति हाथ हिलाता हुआ अपनी आंखों के आंसू पोंछ रहा था.

देह : क्या औरत का मतलब देह है

चारपाई पर लेटी हुई बुधिया साफसाफ देख रही थी कि सूरज अब ऊंघने लगा था और दिन की लालिमा मानो रात की कालिमा में तेजी से समाती जा रही थी.

देखते ही देखते अंधेरा घिरने लगा था… बुधिया के आसपास और उस के अंदर भी. लगा जैसे वह कालिमा उस की जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है…

एक ऐसा हिस्सा, जिस से चाह कर भी वह अलग नहीं हो सकती. मन किसी व्याकुल पक्षी की तरह तड़प रहा था. अंदर की घुटन और चुभन ने बुधिया को हिला कर रख दिया. समय के क्रूर पंजों में फंसीउलझी बुधिया का मन हाहाकार कर उठा है.

तभी ‘ठक’ की आवाज ने बुधिया को चौंका दिया. उस के तनमन में एक सिहरन सी दौड़ गई. पीछे मुड़ कर देखा तो दीवार का पलस्तर टूट कर नीचे बिखरा पड़ा था. मां की तसवीर भी खूंटी के साथ ही गिरी पड़ी थी जो मलबे के ढेर में दबे किसी निरीह इनसान की तरह ही लग रही थी.

बुधिया को पुराने दिन याद हो आए, जब वह मां की आंखों में वही निरीहता देखा करती थी.

शाम को बापू जब दारू के नशे में धुत्त घर पहुंचता था तो मां की छोटी सी गलती पर भी बरस पड़ता था और पीटतेपीटते बेदम कर देता था. एक बार जवान होती बुधिया के सामने उस के जालिम बाप ने उस की मां को ऐसा पीटा था कि वह घंटों बेहोश पड़ी रही थी. बुधिया डरीसहमी सी एक कोने में खड़ी रही थी. उस का मन भीतर ही भीतर कराह उठा था.

बुधिया को याद है, उस दिन उस की मां खेत पर गई हुई थी… धान की कटाई में. तभी ‘धड़ाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला था और उस का दारूखोर बाप अंदर दाखिल हुआ था. आते ही उस ने अपनी सिंदूरी आंखें बुधिया के ऊपर ऐसे गड़ा दी थीं मानो वह उस की बेटी नहीं महज एक देह हो.

‘बापू…’ बस इतना ही निकल पाया था बुधिया की जबान से.

‘आ… हां… सुन… बुधिया…’ बापू जैसे आपे से बाहर हो कर बोले थे, ‘यह दारू की बोतल रख दे…’

‘जी अच्छा…’ किसी मशीन की तरह बुधिया ने सिर हिलाया था और दारू की बोतल अपने बापू के हाथ से ले कर कोने में रख आई थी. उस की आंखों में डर की रेखाएं खिंच आई थीं.

तभी बापू की आवाज किसी हथौड़े की तरह सीधे उसे आ कर लगी थी, ‘बुधिया… वहां खड़ीखड़ी क्या देख रही है… यहां आ कर बैठ… मेरे पास… आ… आ…’

बुधिया को तो जैसे काटो तो खून नहीं. उस की सांसें तेजतेज चलने लगी थीं, धौंकनी की तरह. उस का मन तो किया था कि दरवाजे से बाहर भाग जाए, लेकिन हिम्मत नहीं हुई थी. उसी पल बापू की गरजदार आवाज गूंजी थी, ‘बुधिया…’

न चाहते हुए भी बुधिया उस तरफ बढ़ चली थी, जहां उस का बाप खटिया पर पसरा हुआ था. उस ने झट से बुधिया का हाथ पकड़ा और अपनी ओर ऐसे खींच लिया था जैसे वह उस की जोरू हो.

‘बापू…’ बुधिया के गले से एक घुटीघुटी सी चीख निकली थी, ‘यह क्या कर रहे हो बापू…’

‘चुप…’ बुधिया का बापू जोर से गरजा और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उस के दाएं गाल पर दे मारा था.

बुधिया छटपटा कर रह गई थी. उस में अब विरोध करने की जरा भी ताकत नहीं बची थी. फिर भी वह बहेलिए के जाल में फंसे परिंदे की तरह छूटने की नाकाम कोशिश करती रही थी. थकहार कर उस ने हथियार डाल दिए थे.

उस भूखे भेडि़ए के आगे वह चीखती रही, चिल्लाती रही, मगर यह सिलसिला थमा नहीं, चलता रहा था लगातार…

बुधिया ने मां को इस बाबत कई बार बताना चाहा था, मगर बापू की सुलगती सिंदूरी आंखें उस के तनमन में झुरझुरी सी भर देती थीं और उस पर खौफ पसरता चला जाता था, वह भीतर ही भीतर घुटघुट कर जी रही थी.

फिर एक दिन बापू की मार से बेदम हो कर बुधिया की मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. महीनों बिस्तर पर पड़ी तड़़पती रही थी वह. और उस दिन जबरदस्त उस के पेट में तेज दर्द उठा. तब बुधिया दौड़ पड़ी थी मंगरू चाचा के घर. मंगरू चाचा को झाड़फूंक में महारत हासिल थी.

बुधिया से आने की वजह जान कर मंगरू ने पूछा था, ‘तेरे बापू कहां हैं?’

‘पता नहीं चाचा,’ इतना ही कह पाई थी बुधिया.

‘ठीक है, तुम चलो. मैं आ रहा हूं,’ मंगरू ने कहा तो बुधिया उलटे पैर अपने झोंपड़े में वापस चली आई थी.

थोड़ी ही देर में मंगरू भी आ गया था. उस ने आते ही झाड़फूंक का काम शुरू कर दिया था, लेकिन बुधिया की मां की तबीयत में कोई सुधार आने के बजाय दर्द बढ़ता गया था.

मंगरू अपना काम कर के चला गया और जातेजाते कह गया, ‘बुधिया, मंत्र का असर जैसे ही शुरू होगा, तुम्हारी मां का दर्द भी कम हो जाएगा… तू चिंता मत कर…’

बुधिया को लगा जैसे मंगरू चाचा ठीक ही कह रहा है. वह घंटों इंतजार करती रही लेकिन न तो मंत्र का असर शुरू हुआ और न ही उस की मां के दर्द में कमी आई. देखते ही देखते बुधिया की मां का सारा शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया.

आंखें पथराई सी बुधिया को ही देख रही थीं, मानो कुछ कहना चाह रही हों. तब बुधिया फूटफूट कर रोने लगी थी.

उस के बापू देर रात घर तो आए, लेकिन नशे में चूर. अगली सुबह किसी तरह कफनदफन का इंतजाम हुआ था.

बुधिया की यादों का तार टूट कर दोबारा आज से जुड़ गया. बापू की ज्यादतियों की वजह से बुधिया की जिंदगी तबाह हो गई. पता नहीं, वह कितनी बार मरती है, फिर जीती है… सैकड़ों बार मर चुकी है वह. फिर भी जिंदा है… महज एक लाश बन कर.

बापू के प्रति बुधिया का मन विद्रोह कर उठता है, लेकिन वह खुद को दबाती आ रही है.

मगर आज बुधिया ने मन ही मन एक फैसला कर लिया. यहां से दूर भाग जाएगी वह… बहुत दूर… जहां बापू की नजर उस तक कभी नहीं पहुंच पाएगी.

अगले दिन बुधिया मास्टरनी के यहां गई कि वह अपने ऊपर हुई ज्यादतियों की सारी कहानी उन्हें बता देगी. मास्टरनी का नाम कलावती था, मगर सारा गांव उन्हें मास्टरनी के नाम से ही जानता है.

कलावती गांव के ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. बुधिया को भी उन्होंने ही पढ़ाया था. यह बात और है कि बुधिया 2 जमात से ज्यादा पढ़ नहीं पाई थी.

‘‘क्या बात है बुधिया? कुछ बोलो तो सही… जब से तुम आई हो, तब से रोए जा रही हो. आखिर बात क्या हो गई?’’

मास्टरनी ने पूछा तो बुधिया का गला भर आया. उस के मुंह से निकला, ‘मास्टरनीजी.’’

‘‘हां… हां… बताओ बुधिया… मैं वादा करती हूं, तुम्हारी मदद करूंगी,’’ मास्टरनी ने कहा तो बुधिया ने बताया, ‘‘मास्टरनीजी… उस ने हम को खराब किया… हमारे साथ गंदा… काम…’’ सुन कर मास्टरनी की भौंहें तन गईं. वे बुधिया की बात बीच में ही काट कर बोलीं, ‘‘किस ने किया तुम्हारे साथ गलत काम?’’

‘‘बापू ने…’’ और बुधिया सबकुछ सिलसिलेवार बताती चली गई.

मास्टरनी कलावती की आंखें फटी की फटी रह गईं और चेहरे पर हैरानी की लकीरें गहराती गईं. फिर वे बोलीं, ‘‘तुम्हारा बाप इनसान है या जानवर… उसे तो चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए. उस ने अपनी बेटी को खराब किया.

‘‘खैर, तू चिंता मत कर बुधिया. तू आज शाम की गाड़ी से मेरे साथ शहर चल. वहां मेरी बेटी और दामाद रहते हैं. तू वहीं रह कर उन के काम करना, बच्चे संभालना. तुम्हें भरपेट खाना और कपड़ा मिलता रहेगा. वहां तू पूरी तरह महफूज रहेगी.’’

बुधिया का सिर मास्टरनी के प्रति इज्जत से झुक गया. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरते ही बुधिया को लगा जैसे वह किसी नई दुनिया में आ गई हो. सबकुछ अलग और शानदार था.

बुधिया बस में बैठ कर गगनचुंबी इमारतों को ऐसे देख रही थी मानो कोई अजूबा हो.

तभी मास्टरनीजी ने एक बड़ी इमारत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘देख बुधिया… यहां औरतमर्द सब एकसाथ कंधे से कंधा मिला कर काम करते हैं.’’

‘‘सच…’’ बुधिया को जैसे हैरानी हुई. उस का अल्हड़ व गंवई मन पता नहीं क्याक्या कयास लगाता रहा.

बस एक झटके से रुकी तो मास्टरनी के साथ वह वहीं उतर पड़ी. चंद कदमों का फासला तय करने के बाद वे दोनों एक बड़ी व खूबसूरत कोठी के सामने पहुंचीं. फिर एक बड़े से फाटक के अंदर बुधिया मास्टरनीजी के साथ ही दाखिल हो गई. बुधिया की आंखें अंदर की सजावट देख कर फटी की फटी रह गईं.

मास्टरनीजी ने एक मौडर्न औरत से बुधिया का परिचय कराया और कुछ जरूरी हिदायतें दे कर शाम की गाड़ी से ही वे गांव वापस लौट गईं.

शहर की आबोहवा में बुधिया खुद को महफूज समझने लगी. कोठी के चारों तरफ खड़ी कंक्रीट की मजबूत दीवारें और लोहे की सलाखें उसे अपनी हिफाजत के प्रति आश्वस्त करती थीं.

बेफिक्री के आलम से गुजरता बुधिया का भरम रेत के घरौंदे की तरह भरभरा कर तब टूटा जब उसे उस दिन कोठी के मालिक हरिशंकर बाबू ने मौका देख कर अपने कमरे में बुलाया और देखते ही देखते भेडि़या बन गया. बुधिया को अपना दारूबाज बाप याद हो आया.

नशे में चूर… सिंदूरी आंखें और उन में कुलबुलाते वासना के कीड़े. कहां बचा पाई बुधिया उस दिन भी खुद को हरिशंकर बाबू के आगोश से.

कंक्रीट की दीवारें और लोहे की मजबूत सलाखों को अपना सुरक्षा घेरा मान बैठी बुधिया को अब वह छलावे की तरह लगने लगा और फिर एक रात उस ने देखा कि नितिन और श्वेता अपने कमरे में अमरबेल की तरह एकदूसरे से लिपटे बेजा हरकतें कर रहे थे. टैलीविजन पर किसी गंदी फिल्म के बेहूदा सीन चल रहे थे.

‘‘ये दोनों सगे भाईबहन हैं या…’’ बुदबुदाते हुए बुधिया अपने कमरे में चली आई.

सुबह हरिशंकर बाबू की पत्नी अपनी बड़ी बेटी को समझा रही थीं, ‘‘देख… कालेज जाते वक्त सावधान रहा कर. दिल्ली में हर दिन लड़कियों के साथ छेड़छाड़ व बलात्कार की वारदातें बढ़ रही हैं. तू जबजब बाहर निकलती है तो मेरा मन घबराता रहता है. पता नहीं, क्या हो गया है इस शहर को.’’

बुधिया छोटी मालकिन की बातों पर मन ही मन हंस पड़ी. उसे सारे रिश्तेनाते बेमानी लगने लगे. वह जिस घर को, जिस शहर को अपने लिए महफूज समझ रही थी, वही उसे महफूज नहीं लग रहा था.

बुधिया के सामने एक अबूझ सवाल तलवार की तरह लटकता सा लगता था कि क्या औरत का मतलब देह है, सिर्फ देह?

काठ की हांडी : क्या हुआ जब पति की पुरानी प्रेमिका से मिली सीमा

कहानी- सरोज शर्मा

रितु ने दोपहर में फोन कर के मु झे शाम को अपने फ्लैट पर बुलाया था.

‘‘मेरा मन बहुत उचाट हो रहा है. औफिस से निकल कर सीधे मेरे यहां आ जाओ. कुछ देर. दोनों गपशप करेंगे,’’ फोन पर रितु की आवाज में मु झे हलकी सी बेचैनी के भाव महसूस हुए.

‘‘तुम वैभव को क्यों नहीं बुला लेती हो गपशप के लिए? तुम्हारा यह नया आशिक तो सिर के बल भागा चला आएगा,’’ मैं ने जानबू झ कर वैभव को बुलाने की बात उठाई.

‘‘इस वक्त मु झे किसी नए नहीं, बल्कि पुराने आशिक के साथ की जरूरत महसूस हो रही है,’’ उस ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘सीमा भी तुम से मिलने आने की बात कह रही थी. उसे साथ लेता आऊं?’’ मैं ने उस के मजाक को नजरअंदाज करते हुए पूछा.

‘‘क्या तुम्हें अकेले आने में कोई परेशानी है?’’ वह खीज उठी.

‘‘मु झे कोई परेशानी होनी चाहिए क्या?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘‘अब ज्यादा भाव मत खाओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’ और उस ने  झटके से फोन काट दिया.

रितु अपने फ्लैट में अकेली रहती है. शाम को उस से मिलने जाने की बात मेरे मन को बेचैन कर रही थी. अपना काम रोक कर मैं कुछ देर के लिए पिछले महीनेभर की घटनाओं के बारे में सोचने लगा…

मेरी शादी होने के करीब 8 साल बाद रितु अचानक महीनाभर पहले मेरे घर मु झ से मिलने आई तो मैं हैरान होने के साथसाथ बहुत खुश भी हुआ था.

‘‘अभी भी किसी मौडल की तरह आकर्षक नजर आ रही रितु और मैं ने एमबीए साथसाथ किया था. सीमा, हमारी शादी होने से पहले ही यह मुंबई चली गई थी वरना बहुत पहले ही तुम से इस की मुलाकात हो जाती,’’ सहज अंदाज में अपनी पत्नी का रितु से परिचय कराते हुए मैं ने अपने मन की उथलपुथल को बड़ी कुशलता से छिपा लिया.

मेरे 5 साल के बेटे रोहित के लिए रितु ढेर सारी चौकलेट और रिमोट से चलने वाली कार लाई थी. सीमा और मेरे साथ बातें करते हुए वह लगातार रोहित के साथ खेल भी रही थी. बहुत कम समय में उस ने मेरे बेटे और उस की मम्मी का दिल जीत लिया.

‘‘क्या चल रहा है तुम्हारी जिंदगी में? मयंक के क्या हालचाल हैं?’’ मेरे इन सवालों को सुन कर उस ने अचानक जोरदार ठहाका लगाया तो सीमा और मैं हैरानी से उस का मुंह ताकने लगे.

हंसी थम जाने के बाद उस ने रहस्यमयी मुसकान होंठों पर सजा कर हमें बताया, ‘‘मेरी जिंदगी में सब बढि़या चल रहा है, अरुण. बहुराष्ट्रीय बैंक में जौब कर रही हूं. मयंक मजे में है. वह 2 प्यारी बेटियों का पापा बन गया है.’’

‘‘अरे वाह, वैसे तुम्हें देख कर यह कोई नहीं कह सकता है कि तुम 2 बेटियों की मम्मी हो,’’ मेरे शब्दों में उस की तारीफ साफ नजर आ रही थी.

रितु पर एक बार फिर हंसने का दौरा सा पड़ा. सीमा और मैं बेचैनीभरे अंदाज में मुसकराते हुए उस के यों बेबात हंसने का कारण जानने की प्रतीक्षा करने लगे.

‘‘माई डियर अरुण, मु झे पता था कि तुम ऐसा गलत अंदाजा जरूर लगाओगे. यार, वह 2 बेटियों का पिता है पर मैं उस की पत्नी नहीं हूं.’’

‘‘क्या तुम दोनों ने शादी नहीं की है?’’

‘‘उस ने तो की पर मैं अभी तक शुद्ध अविवाहिता हूं, तलाकशुदा या विधवा नहीं. तुम्हारी नजर में मेरे लायक कोई सही रिश्ता हो तो जरूर बताना,’’ अपने इस मजाक पर उस ने फिर से जोरदार ठहाका लगाया.

‘‘मजाक की बात नहीं है यह, रितु बताओ न कि तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’ मैं ने गंभीर लहजे में पूछा.

‘‘जब सही मौका सामने था किसी अच्छे इंसान के साथ जिंदगीभर को जुड़ने का तो मैं ने नासम झी दिखाई और वह मौका हाथ से निकल गया. लेकिन यह किस्सा फिर कभी सुनाऊंगी. अब तो मैं अपनी मस्ती में मस्त बहती धारा बनी रहना चाहती हूं… सच कहूं तो मु झे शादी का बंधन अब अरुचिकर प्रतीत होता है,’’ 33 साल की उम्र तक अविवाहित रह जाने का उसे कोई गम है, यह उस की आवाज से बिलकुल जाहिर नहीं हो रहा था.

मगर सीमा ने शादी न करने के मामले में अपनी राय उसे

उसी वक्त बता दी, ‘‘शादी नहीं करोगी तो बढ़ती उम्र के साथ अकेलेपन का एहसास लगातार बढ़ता जाएगा. अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. मेरी सम झ से तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, रितु.’’

‘‘तुम ढूंढ़ना न मेरे लिए कोई सही जीवनसाथी, सीमा,’’ रितु बड़े अपनेपन से सीमा का हाथ पकड़ कर दोस्ताना लहजे में मुसकराई तो मेरी पत्नी ने उसी पल से उसे अपनी अच्छी सहेली मान लिया.

उन दोनों को गपशप में लगा देख मैं उस दिन भी अतीत की यादों में खो गया…

एक समय था जब साथसाथ एमबीए करते हुए हम दोनों ने जीवनसाथी बनने के रंगीन सपने देखे थे. हमारा प्रेम करीब 2 साल चला और फिर उस का  झुकाव अचानक मयंक की तरफ होता चला गया.

वैसे मयंक रितु की एक सहेली निशा का बौयफ्रैंड था. इस इत्तफाक ने बड़ा गुल खिलाया कि मयंक रितु की कालोनी में ही रहता था. इस कारण निशा द्वारा परिचय करा दिए जाने के बाद मयंक और रितु की अकसर मुलाकातें होने लगीं.

ये मुलाकातें निशा और मेरे लिए बड़ी दुखदाई साबित हुईं. अचानक एक दिन रितु ने मु झ से और मयंक ने निशा से प्रेम संबंध समाप्त कर लिए.

‘‘रितु प्लीज, तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी. मेरा साथ मत छोड़ो,’’ मैं ने उस के सामने आंसू भी बहाए पर उस ने मु झ से दूर होने का अपना फैसला नहीं बदला.

‘‘आई एम सौरी अरुण… मैं मयंक के साथ कहीं ज्यादा खुश हूं. तुम्हें मु झ से बेहतर लड़की मिलेगी, फिक्र न करो,’’ हमारी आखिरी मुलाकात के समय उस ने मेरा गाल प्यार से थपथपाया और मेरी जिंदगी से निकल गई.

मु झ से कहीं ज्यादा तेज  झटका उस की सहेली निशा को लगा था. उस ने तो नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश भी करी थी.

एमबीए करने के बाद वह मुंबई चली गई. मैं सोचता था कि उस ने मयंक से शादी कर ली होगी पर मेरा अंदाजा गलत निकला.

मैं ने अपने मन को टटोला तो पाया कि रितु से जुड़ी यादों की पीड़ा को वह लगभग पूरी तरह भूल चुका है. मैं सीमा और रोहित के साथ बहुत खुश था. उस दिन रितु को सामने देख कर मु झे वैसी खुशी महसूस हुई थी जैसी किसी पुराने करीबी दोस्त के अचानक आ मिलने से होती है.

उस दिन सीमा ने अपनी नई सहेली रितु को खाना खिला कर भेजा. कुछ घंटों में ही उन दोनों के बीच दोस्ती के मजबूत संबंध की नींव पड़ गई.

रितु अकसर हमारे यहां शाम को आ जाती थी. उस की मु झ से कम और सीमा से ज्यादा बातें होतीं. रोहित भी उस के साथ खेल कर बहुत खुश होता.

रोहित के जन्मदिन की पार्टी में सीमा ने उस का परिचय अपनी सहेली वंदना के बड़े भाई वैभव से कराया. दोनों सहेलियों की मिलीभगत से यह मुलाकात संभव हो पाई थी.

वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था.

किसी को उम्मीद नहीं थी पर रितु के साथ हुई पहली मुलाकात में ही वैभव भाई उस के प्रशंसक बन गए थे. रितु भी उस दिन फ्लर्ट करने के पूरे मूड में थी. उन दोनों के बीच आपसी पसंद को लगातार बढ़ते देख सीमा बहुत खुश हुई थी.

रितु और वैभव ने 2 दिन बाद बड़े महंगे होटल में साथ डिनर किया है, वंदना से मिली इस खबर ने सीमा को खुश कर दिया.

‘‘वैसे यह बंदा तो ठीक है सीमा, पर मेरे सपनों के राजकुमार से बहुत ज्यादा नहीं मिलता है, लेकिन तुम्हारी मेहनत सफल करने के लिए

मैं दिल से कोशिश कर रही हूं कि हमारा तालमेल बैठ जाए,’’ अगले दिन शाम को रितु ने अपने मन की बात सीमा को और मु झे साफसाफ बता दी.

‘‘अपने सपनों के राजकुमार के गुणों से हमें भी परिचित कराओ, रितु,’’ सीमा की इस जिज्ञासा का रितु क्या जवाब देगी, उसे सुनने को मैं भी उत्सुक हो उठता था.

रितु ने सीमा की पकड़ में आए बिना पहले मेरी तरफ मुड़ कर शरारती अंदाज में मु झे आंख मारी और फिर उसे बताने लगी, ‘‘मेरे सपनों का राजकुमार उतना ही अच्छा होना चाहिए जितना अच्छा तुम्हारा जीवनसाथी, सीमा. मेरी खुशियों… मेरे सुखदुख का हमेशा ध्यान रखने वाला सीधासादा हंसमुख इंसान है मेरे सपनों का राजकुमार.’’

‘‘ऐसे सीधेसादे इंसान से तुम जैसी स्मार्ट, फैशनेबल, आधुनिक स्त्री की निभ जाएगी?’’ सीमा ने माथे में बल डाल कर सवाल किया.

‘‘सीमा, 2 इंसानों के बीच आपसी सम झ और तालमेल गहरे प्रेम का मजबूत आधार बनता है या नहीं?’’

‘‘बिलकुल बनता है. वैभव तुम्हें अगर नहीं भी जंचा तो फिक्र नहीं. तुम्हारी शादी मु झे करानी ही है और तुम्हारे सपनों के राजकुमार से मिलताजुलता आदमी मैं ढूंढ़ ही लाऊंगी,’’ जोश से भरी सीमा भावुक भी हो उठी थी.

‘‘जो सामने मौजूद है उसे ढूंढ़ने की बात कह रही थी मेरी सहेली,’’ कुछ देर बाद जब सीमा रसोई में थी तब रितु ने मजाकिया लहजे में इन शब्दों को मुंह से निकाला तो मेरे दिल की धड़कनें बहुत तेज हो गईं.

मन में मच रही हलचल के चलते मु झ से कोई जवाब देते नहीं बना था. रितु ने हाथ बढ़ा कर अचानक मेरे बालों को शरारती अंदाज में खराब सा किया और फिर मुसकराती हुई रसोई में सीमा के पास चली गई.

उस दिन रितु की आंखों में मैं ने अपने लिए चाहत के भावों को साफ पहचाना था.

आगामी दिनों में उसे जब भी अकेले में मेरे साथ होने का मौका मिलता तो वह जरूर कुछ न कुछ ऐसा कहती या करती जो उस की मेरे प्रति चाहत को रेखांकित कर जाता. मैं ने अपनी तरफ से उसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया था पर मु झ से छेड़छाड़ करने का उस का हौसला बढ़ता ही जा रहा था.

इन सब बातों को सोचते हुए मैं ने शाम तक का समय गुजारा. रितु के फ्लैट की तरफ अपनी कार से जाते हुए मैं खुद को काफी तनावग्रस्त महसूस कर रहा था, इस बात को मैं स्वीकार करता हूं.

अपने ड्राइंगरूम में रितु मेरी बगल में बैठते हुए शिकायती अंदाज में बोली, ‘‘तुम ने बहुत इंतजार कराया, अरुण.’’

‘‘नहीं तो… अभी 6 ही बजे हैं. औफिस खत्म होने के आधे घंटे बाद ही मैं हाजिर हो गया हूं. कहो, कैसे याद किया है?’’ अपने स्वर को हलकाफुलका रखते हुए मैं ने जवाब दिया.

‘‘आज तुम से बहुत सारी बातें कहनेसुनने का दिल कर रहा है,’’ कहते हुए उस ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया.

‘‘तुम बेहिचक बोलना शुरू करो. मैं तुम्हारे मुंह से निकले हर शब्द को पूरे ध्यान से सुनूंगा.’’

मेरी आंखों में गहराई से  झांकते हुए उस ने भावुक लहजे में कहा, ‘‘अरुण, तुम्हारे प्यार को मैं कुछ दिनों से बहुत मिस कर रही हूं.’’

‘‘अरे, अब मेरे नहीं वैभव के प्यार को अपने दिल में जगह दो, रितु,’’ मैं ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘मेरी जिंदगी में बहुत पुरुष आए हैं और आते रहेंगे, पर मेरे दिल में तुम्हारी जगह किसी को नहीं मिल सकेगी. तुम से दूर जा कर मैं ने अपने जीवन की सब से बड़ी भूल की है.’’

‘‘पुरानी बातों को याद कर के बेकार में अपना मन क्यों दुखी कर रही हो?’’

‘‘मेरी जिंदगी में खुशियों की बौछार तुम ही कर सकते हो, अरुण. अपने प्यार के लिए मु झे अब और तरसने मत दो, प्लीज,’’ और उस ने मेरे हाथ को कई बार चूम लिया.

‘‘मैं एक शादीशुदा इंसान हूं, रितु. मु झ से ऐसी चीज मत मांगो जिसे देना गलत होगा,’’ मैं ने उसे कोमल स्वर में सम झाया.

‘‘मैं सीमा का हक छीनने की कोशिश नहीं कर रही हूं. हम उसे कुछ पता नहीं लगने देंगे,’’ मेरे हाथ को अपने वक्षस्थल से चिपका कर उस ने विनती सी करी.

कुछ पलों तक उस के चेहरे को ध्यान से निहारने के बाद मैं ने ठहरे अंदाज में बोलना शुरू किया, ‘‘तुम्हारे बदलते हावभावों को देख कर मु झे पिछले कुछ दिनों से ऐसा कुछ घटने का अंदेशा हो गया था, रितु. अब प्लीज तुम मेरी बातों को ध्यान से सुनो.

‘‘हमारा प्रेम संबंध उसी दिन समाप्त हो गया था जिस दिन तुम ने मु झे छोड़ कर मयंक के साथ जुड़ने का निर्णय लिया था. अब हमारे पास उस अतीत की यादें हैं, लेकिन उन यादों के बल पर दोबारा प्रेम का रिश्ता कायम करने की इच्छा रखना तुम्हारी नासम झी ही है.

‘‘ऐसे प्रेम संबंध को छिपा कर रखना संभव नहीं होता है, रितु. मु झे आज भी मयंक की प्रेमिका निशा याद है. तुम ने मयंक को उस से छीना तो उस ने खुदकुशी करने की कोशिश करी थी. तुम्हें मनाने के लिए मैं किसी छोटे बच्चे की तरह रोया था, शायद तुम्हें याद होगा. किसी बिलकुल अपने विश्वासपात्र के हाथों धोखा खाने की गहन पीड़ा कल को सीमा भोगे, ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहूंगा.

‘‘पिछली बार तुम ने निशा और मेरी खुशियों के संसार को अपनी खुशियों की खातिर तहसनहस कर दिया था. आज तुम सीमा, रोहित और मेरी खुशियोें और सुखशांति को अपने स्वार्थ की खातिर दांव पर लगाने को तैयार हो पर काठ की हांडी फिर से चूल्हे पर नहीं चढ़ती है.

‘‘देखो, आज तुम सीमा की बहुत अच्छी सहेली बनी हुई हो. हम तुम्हें अपने घर की सदस्य मानते हैं. मैं तुम्हारा बहुत अच्छा दोस्त और शुभचिंतक हूं. तुम नासम झी का शिकार बन कर हमारे साथ ऐसे सुखद रिश्ते को तोड़ने व बदनाम करने की मूर्खता क्यों करना चाहती हो?’’

‘‘तुम इतना ज्यादा क्यों डर रहे हो, स्वीटहार्ट?’’ मेरे सम झाने का उस पर खास असर नहीं हुआ और वह अपनी आंखों में मुझे प्रलोभित करने वाले नशीले भाव भर कर मेरी तरफ बढ़ी.

तभी किसी ने बाहर से घंटी बजाई तो वह नाराजगीभरे अंदाज में मुड़ कर दरवाजा

खोलने चल पड़ी.

‘‘यह सीमा होगी,’’ मेरे मुंह से निकले इन शब्दों को सुन वह  झटके से मुड़ी और मु झे गुस्से से घूरने लगी.

‘‘तुम ने बुलाया है उसे यहां?’’ उस ने दांत पीसते हुए पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैं अकेले यहां नहीं आना चाहता था.’’

‘‘अब उसे क्या बताओगे?’’

‘‘कह दूंगा कि तुम उस की सौत बनने की…’’

‘‘शटअप, अरुण. अगर तुम ने हमारे बीच हुई बात का उस से कभी जिक्र भी किया तो मैं तुम्हारा मर्डर कर दूंगी.’’ वह अब घबराई सी नजर आ रही थी.

‘‘क्या तुम्हें इस वक्त डर लग रहा है?’’ मैं ने उस के नजदीक जा कर कोमल स्वर में पूछा.

‘‘म… मु झे… मैं सीमा की नजरों में अपनी छवि खराब नहीं करना चाहती हूं.’’

‘‘बिलकुल यही इच्छा मेरे भी है, माई गुड फ्रैंड.’’

‘‘अब उस से क्या कहोगे?’’ दोबारा बजाई गई घंटी की आवाज सुन कर उस की हालत और पतली हो गई.

‘‘तुम्हें वैभव कैसा लगता है?’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘इस ठीक को हम सब मिल कर बहुत अच्छा बना लेंगे, रितु. तुम बहुत भटक चुकी हो. मेरी सलाह मान अब अपनी घरगृहस्थी बसाने का निर्णय ले डालो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि सीमा को हम यह बताएंगे कि हम ने उसे यहां महत्त्वपूर्ण सलाहमश्वरे के लिए बुलाया है, क्योंकि तुम आज वैभव को अपना जीवनसाथी बनाने के लिए किसी पक्के फैसले तक पहुंचना चाहती हो.’’

‘‘गुड आइडिया,’’ रितु की आंखों में राहत के भाव उभरे.

‘‘तब सुखद विवाहित जीवन के लिए मेरी अग्रिम शुभकामनाएं स्वीकार करो, रितु,’’ मैं ने उस से फटाफट हाथ मिलाया और फिर जल्दी से दरवाजा खोलने के लिए मजाकिया ढंग से धकेल सा दिया.

‘‘थैंक यू, अरुण.’’ उस ने कृतज्ञ भाव से मेरी आंखों में  झांका और फिर खुशी से भरी दरवाजा खोलने चली गई.

‘‘वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था…’’

निर्णय : पुरवा ने ताऊजी के घर रहने के बाद कैसा निर्णय लिया?

लेखक- रईस अख्तर

जब से अफरोज ने वक्तव्य दिया था, पूरे मोहल्ले और बिरादरी में बस, उसी की चर्चा थी. एक ऐसा तूफान था, जो मजहब और शरीअत को बहा ले जाने वाला था. वह जाकिर मियां की चौथे नंबर की संतान थी. 2 लड़के और उस से बड़ी राबिया अपनेअपने घरपरिवार को संभाले हुए थे. हर जिम्मेदारी को उन्होंने अपने अंजाम तक पहुंचा दिया था और अब अफरोज की विदाई के बारे में सोच रहे थे. लेकिन अचानक उन की पुरसुकून सत्ता का तख्ता हिल उठा था और उस के पहले संबंधी की जमीन पर उन्होंने अपनी नेकनीयती और अक्लमंदी का सुबूत देते हुए वह बीज बोया था, जो अब पेड़ बन कर वक्त की आंधी के थपेड़े झेल रहा था.

उन के बड़े भाई एहसान मियां उसी शहर में रहते थे. हिंदुस्तान-पाकिस्तान बनने के वक्त हुए दंगों में उन का इंतकाल हो गया था. वह अपने पीछे अपनी बेवा और 1 लड़के को छोड़ गए थे. उस वक्त हारून 8 साल का था. तभी पति के गम ने एहसान मियां की बेवा को चारपाई पकड़ा दी थी. उन की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी. उस हालत में भी उन्हें अपनी चिंता नहीं थी. चिंता थी तो हारून की, जो उन के बाद अनाथ हो जाने वाला था.

कितनी तमन्नाएं थीं हारून को ले कर उन के दिल में. सब दम तोड़ रही थीं. उन की बीमारी की खबर पा कर जाकिर मियां खानदान के साथ पहुंच गए थे. उन्हें अपने भाई की असमय मृत्यु का बहुत दुख था. उस दुख से उबर भी नहीं पाए थे कि अब भाभीजान भी साथ छोड़ती नजर आ रही थीं. उन के पलंग के निकट बैठे वह यही सोच रहे थे. तभी उन्हें लगा जैसे भाभीजान कुछ कहना चाह रही हैं. भाभीजान देर तक उन का चेहरा देखती रहीं. वह अपने शरीर की डूबती शक्ति को एकत्र कर के बोलीं, ‘वक्त से पहले सबकुछ खत्म हो गया,’

इतना कहतेकहते वह हांफने लगी थीं. कुछ पल अपनी सांसों पर नियंत्रण करती रहीं, ‘मैं ने कितने सुनहरे सपने देखे थे हारून के भविष्य के, खूब धूमधाम से शादी करूंगी…बच्चे…लेकिन…’

‘आप दिल छोटा क्यों करती हैं. यह सब आप अपने ही हाथों से करेंगी,’ जाकिर मियां ने हिम्मत बढ़ाने की कोशिश की थी. ‘नहीं, अब शायद आखिरी वक्त आ गया है…’ भाभीजान चुप हो कर शून्य में देखती रहीं. फिर वहां मौजूद लोगों में से हर एक के चेहरे पर कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करने लगीं. ‘सायरा,’ वह जाकिर मियां की बीवी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली थीं,

‘तुम लोग चाहो तो मेरे दिल का बोझ हलका कर सकते हो…’ ‘कैसे भाभीजान?’ सायरा ने जल्दी से पूछा था. ‘मेरे हारून का निकाह मेरे सामने अपनी अफरोज से कर सको तो…’ भाभीजान ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया था और आशाभरी नजरों से सायरा को देखने लगी थीं. सायरा ने जाकिर मियां की तरफ देखा. जैसे पूछ रही हों, तुम्हारी क्या राय है?

आखिर आप का भी तो कोई फर्ज है. वैसे भी अफरोज की शादी तो आप को ही करनी होगी. अच्छा है, आसानी से यह काम निबट रहा है. लड़का देखो, खानदान देखो, इन सब झंझटों से नजात भी मिल रही है. ‘इस में सोचने की क्या बात है? हमें तो खुशी है कि आप ने यह रिश्ता मांगा है,’

जाकिर मियां ने सायरा की तरफ देखा, ‘मैं आज ही निकाह की तैयारी करता हूं,’ यह कहते हुए जाकिर मियां उठ खड़े हुए. वक्त की कमी और भाभीजान की नाजुक हालत देखते हुए अगले दिन ही अफरोज का निकाह हारून से कर दिया गया था. उसी के साथ वक्त ने तेजी से करवट ली थी और भाभीजान धीरेधीरे स्वस्थ होने लगी थीं. वह घटना भी अपने-आप में अनहोनी ही थी.

तब की 6 साल की अफरोज अब समझदार हो चुकी थी. उस ने बी.ए. तक शिक्षा भी पा ली थी. इसी बीच जब उस ने यह जाना था कि बचपन में उस का निकाह अपने ही चचाजाद भाई हारून से कर दिया गया था तो वह उसे सहजता से नहीं ले पाई थी. ‘‘यह भी कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल हुआ कि चाहे जैसे और जिस के साथ ब्याह रचा दिया. दोचार दिन की बात नहीं, आखिर पूरी जिंदगी का साथ होता है पतिपत्नी का. मैं जानबूझ कर खुदकुशी नहीं करूंगी. बालिग हूं, मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, कुछ अरमान हैं,’’

अफरोज ने बारबार सोचा था और विद्रोह कर दिया था. जब अफरोज के उस विद्रोह की बात उस के अम्मीअब्बा ने जानी थी तो बहुत क्रोधित हुए थे. ‘‘हम से जनमी बेटी हमें ही भलाबुरा समझाने चली है,’’ सायरा ने मां के अधिकार का प्रयोग करते हुए कहा था, ‘‘तुझे ससुराल जाना ही होगा. तू वह निकाह नहीं तोड़ सकती.’’

‘‘क्यों नहीं तोड़ सकती? जब आप लोगों ने मेरा निकाह किया था, तब मैं दूध पीती बच्ची थी. फिर यह निकाह कैसे हुआ?’’ अफरोज ने तत्परता से बोलते हुए अपना पक्ष रखा था. ‘‘शायद तेरी बात सही हो लेकिन तुझे पता होना चाहिए कि शरीअत के मुताबिक औरत निकाह नहीं तोड़ सकती. हम ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया-लिखाया कि तू अपने फैसले खुद करने लगे. आखिर मांबाप किस लिए हैं?’’ सायरा किसी तरह भी हथियार डालने वाली नहीं थी.

‘‘मैं किसी शरीअतवरीअत को नहीं मानती. आप को आज के माहौल में सोचना चाहिए. कैसी मां हैं आप? जानबूझ कर मुझे अंधे कुएं में धकेल रही हैं. लेकिन मैं हरगिज खुदकुशी नहीं करूंगी. चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े. यह मेरा आखिरी फैसला है,’’ अफरोज पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई थी. अफरोज के खुले विद्रोह के आगे मांबाप की एक नहीं चली थी. आखिर उन्हें इस बात पर समझौता करना पड़ा था कि शहर काजी या मुफ्ती से उस निकाह पर फतवा ले लिया जाए. शाम को उन के घर बिरादरी भर के लोग जमा हो गए थे. हर शख्स मुफ्ती साहब का इंतजार बेचैनी से कर रहा था. उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा.

कुछ ही देर बाद मुफ्ती साहब के आने की खबर जनानखाने में जा पहुंची थी. इशारे में जाकिर मियां ने कुछ कहा और अफरोज को परदे के पास बैठा दिया गया. दूसरी ओर मरदों के साथ मुफ्ती साहब बैठे थे. मुफ्ती साहब ने खंखारते हुए गला साफ किया. फिर बोले, ‘‘अफरोज वल्द जाकिर हुसैन, यह सही है कि हर लड़की को निकाह कुबूल करने और न करने का हक है, लेकिन उस के लिए कोई पुख्ता वजह होनी चाहिए. तुम बेखौफ हो कर बताओ कि तुम यह निकाह क्यों तोड़ना चाहती हो?’’ वह चुप हो कर अफरोज के जवाब का इंतजार करने लगे.

‘‘मुफ्ती साहब, मुझे यह कहते हुए जरा भी झिझक नहीं महसूस हो रही है कि मेरी अपनी मालूमात और इला के मुताबिक हारून एक काबिल शौहर बनने लायक आदमी नहीं है. ‘‘उस की कारगुजारियां गलत हैं और बदनामी का बाइस है,’’ वह कुछ पल रुकी फिर बोली,

‘‘बचपन में हुआ यह निकाह मेरे अम्मीअब्बा की नासमझी है. इसे मान कर मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोल सकती. बस, मुझे इतना ही कहना है.’’ दोनों तरफ खामोशी छा गई. तभी मुफ्ती साहब बुलंद आवाज में बोले, ‘‘अफरोज के इनकार की वजह काबिलेगौर है. मांबाप की मरजी से किया गया निकाह इस पर जबरन नहीं थोपा जा सकता. निकाह वही जायज है जो पूरे होशहवास में कुबूल किया गया हो. इसलिए यह अपने निकाह को नहीं मानने की हकदार है और अपनी मरजी से दूसरी जगह निकाह करने को आजाद है.’’

मुफ्ती साहब के फतवा देते ही चारों ओर सन्नाटा छा गया था. अपने हक में निर्णय सुन कर, जाने क्यों, अफरोज की आंखों में आंसू आ गए थे.

चित्तशुद्धि: क्यों सुकून की तलाश कर रही थी आभा

लेखिका- कंवल भारती

इस शहर में मेरा पहली बार आना हुआ है. यह मेरे लिए अनजाना है. 5 साल तक एक ही शहर में रहने के बाद मेरा ट्रांसफर इस शहर में हुआ है. हुआ क्या है, किसी तरह कराया है. जहां से मैं आई हूं वहां एक मंत्री का इतना दबदबा था कि उस के गुंडे औफिस आ कर मेज पर चढ़ कर बैठ जाते थे, और मंत्री के नाम पर गलत काम कराने का दबाव बनाते थे. गालियां उन की जबान पर हर वक्त धरी रहती थीं. औरत तक का कोई लिहाज उन की नजरों में नहीं था.

मैं स्टेशन से बाहर निकलती हूं. बहुत सारे रिकशे खड़े हैं. मैं हाथ के संकेत से एक रिकशे वाले को बुलाती हूं. मैं उस से कुछ कहे बिना ही रिकशे में बैठ जाती हूं. रिकशे वाला पूछ रहा है, ‘‘बहनजी, कहां जाइएगा?’’ मैं उस से विकास भवन चलने को कहती हूं. नए शहर में रिकशे में बैठ कर घूमना मु झे अच्छा लगता है. सड़कें, बाजार और दिशाएं अच्छी तरह दिखाई देती हैं.

रिकशे वाला स्टेशन से बाहर निकल कर सीधे रोड पर चल रहा है. यह स्टेशन रोड है. कुछ दूर चल कर सड़क पर ढेर सी सब्जियों की दुकानें देख रही हूं. मैं अनुमान लगाती हूं, शायद यह यहां की सब्जी मंडी है. मैं रिकशे वाले से कन्फर्म करती हूं. वह बता रहा है, ‘‘बहनजी, यह अनाज मंडी है. सब्जियां भी यहां बिकती हैं.’’

मैं देख रही हूं, सड़क के दोनों ओर सब्जियों के ढेर से सड़क काफी संकरी हो गई है. गाय और सांड़ खुले घूम रहे हैं. इस भीड़ वाले संकरे रास्ते से निकल कर आगे दाहिने हाथ पर राजकीय चिकित्सालय की इमारत दिख रही है. फिर चौक आता है. रिकशे वाला कह रहा है, ‘‘यहां बाईं तरफ घंटाघर है, यह सामने नगरपालिका है.’’

रिकशा चौक से आगे जा कर बाएं मुड़ जाता है. इस रोड की सजीधजी दुकानें बता रही हैं कि यह यहां का मुख्य बाजार है. मैं दोनों ओर गौर से देखती जा रही हूं. किराने, वस्त्रों, साडि़यों, रेडीमेड गारमैंट्स, बरतन, स्टेशनरी आदि की काफी सारी दुकानें नजर आ रही हैं. साडि़यों के एक शोरूम पर नजर पड़ती है. बहुत ही भव्य शोरूम लग रहा है. अब तो इस शहर में रहना ही है. सो, मैं निश्चित कर रही हूं, इस शोरूम पर जरूर आना है.

कुछ दूर चल कर एक संकरा पुल आता है. इस पुल पर काफी जाम है. रिकशे वाला धीरेधीरे रास्ता बनाते हुए चल रहा है. पुल के नीचे नदी है, पर उस में पानी ज्यादा नहीं दिख रहा है. रिकशे वाला पुल और नदी का नाम बता रहा है, पर मेरा ध्यान उस की तरफ नहीं है. इसलिए मैं उसे सुन नहीं पाई. पुल पार करते ही बाईं ओर एक बड़ी सी मिठाई की दुकान नजर आई. रिकशे वाला बता रहा है, ‘‘बहनजी, इस दुकान की इमरती दूरदूर तक मशहूर है.’’

इमरती मुझे बहुत अच्छी लगती है. पर अब डायबिटीज की पेशेंट हूं, इसलिए परहेज करती हूं. इसी वक्त चमेली की खुशबू नथुनों में भर जाती है. देखती हूं कि सड़क के दोनों ओर इत्र की दुकानें हैं. यहां से आगे चल कर फिर एक बाजार आया है. दुकानों के बोर्ड पढ़ती हूं, कोई गंज बाजार है.

रिकशा अब बाएं मुड़ रहा है. आगे एक देशी शराब का ठेका बाईं तरफ दिखाई दे रहा है.

रिकशा वाला कह रहा है, ‘‘यहां शाम को मछली बाजार लगता है.’’ पर मैं उस की बात अनसुनी कर देती हूं. यहां से कोई 20 मिनट बाद कलैक्ट्रेट का गेट दिखाई देने लगा है. रिकशा इसी गेट के अंदर प्रवेश कर रहा है. मैं बाईं ओर जिला कोषागार का औफिस देख रही हूं. उस के थोड़ा ही आगे विकास भवन की बिल्डिंग दिखाई देने लगी है. रिकशा वहीं पर रुक जाता है.

मैं रिकशे से उतरती हूं. मैं उस से किराया पूछती हूं, वह 10 रुपए मांग रहा है. यहां इतना कम किराया. मु झे यह ठीक नहीं लग रहा है. मैं मन में सोच रही हूं, यह तो इस के श्रम के साथ न्याय नहीं है. पर मैं कर भी क्या सकती हूं. मैं ने उसे 10 रुपए दिए. बाद में सौ रुपए का नोट अलग से दिया कि वह मेरी तरफ से तुम्हारे बच्चों के लिए मिठाई है. आज इस शहर में मेरा पहला दिन है. जाओ, उसी दुकान से इमरती ले कर घर जाना.

रिकशे वाले की आंखों में खुशी देख कर मैं अपने बचपन की यादों में खो जाती हूं. पिताजी चीनी मिल में मजदूर थे. एक दिन जब वे रात में ड्यूटी से घर आए, तो उन के हाथों में मिठाई का डब्बा था. उस में इमरतियां थीं. मां ने पूछा था ‘मिठाई कहां से लाए,’ तो पिताजी ने बताया था, ‘एक नए अफसर आए हैं. उन के साथ मिल के विभागों में घूमा था. उन्होंने मु झ से घरगृहस्थी की बातें पूछी थीं. जब चलने को हुआ, तो उन्होंने 50 रुपए दे कर कहा था कि बच्चों के लिए मिठाई ले जाना.’ उस दिन मैं ने पहली बार इमरती खाई थी. ओह, मैं भी कहां खो गई. वर्तमान में लौटती हूं.

मैं सूटकेस ले कर विकास भवन में प्रवेश करती हूं. अपने विभाग में जा कर अपना जौइनिंग लैटर बनवाती हूं. बाबू बताता है, डीएम साहब अवकाश पर हैं, उन का चार्ज सीडीओ के पास है. मैं बाबू के साथ सीडीओ से मिलने जाती हूं. मैं उन्हें जिला समाज कल्याण अधिकारी के पद पर अपना जौइनिंग लैटर सौंपती हूं.

आज का दिन ऐसे ही बीत जाता है. सीडीओ से मिल कर अच्छा लग रहा है. रोबदाब वाली अफसरी उन में नहीं दिखी. वे मु झे मिलनसार और सहयोगी स्वभाव के लगे. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या इस शहर में कोई संबंधी है?’’ मेरे मना करने पर उन्होंने तुरंत ही मेरे आवास की समस्या भी हल कर दी है.

डीआरडीए के परियोजना निदेशक का ट्रांसफर हो गया था, और उन का आवास खाली पड़ा था. वे मु झे उस की चाबी दिलवा देते हैं. मैं उन का आभार व्यक्त करती हूं.

बाबू ने आवास की साफसफाई करवा दी है. कुछ जरूरी सामान भी उस ने उपलब्ध करा दिया है. अकसर नई जगह पर नींद थोड़ी मुश्किल से आती है. पर 12 घंटे की रेलयात्रा की थकान थी, इसलिए लेटते ही नींद ने आगोश में ले लिया था. सुबह 6 बजे आंख खुली. आदत के अनुसार अखबार के लिए बाहर आई. पर अखबार कहां से होता. किसी हौकर से डालने को कहा भी नहीं गया था.

संयोग से साइकिल पर एक हौकर आता दिखाई दिया. मैं उस से एक हिंदी और एक इंग्लिश का अखबार लेती हूं, और यही 2 अखबार उस से रोज डालने को कहती हूं. ब्रश कर के चाय बनाती हूं. मैं दूध का इस्तेमाल नहीं करती हूं. बाकी सारा सामान इलैक्ट्रिक केतली, शुगरफ्री के पाउच और टीबैग्स घर से साथ ले कर आईर् हूं. चाय पीने के साथ अखबार पढ़ती हूं.

एक खबर पढ़ कर चौंक जाती हूं. क्या सरला इसी शहर में है? क्या यह वही सरला है, जो मेरी क्लासपार्टनर थी या यह कोई और है? नाम तो उस का भी सरला था. बहुत छुआछूत करती थी. मगर यह वही सरला है, तब तो यह बिलकुल नहीं बदली. वैसी की वैसी ही कूपमंडूक है अभी तक. सच में कुछ लोग कभी नहीं बदलते. घुट्टी में दिए गए संस्कार उन में ऐसे रचबस जाते हैं कि उन की पूरी दिनचर्या संस्कारों की गुलाम हो जाती है. अच्छाबुरा, और सहीगलत में वे कोई अंतर ही नहीं कर पाते. बस, उन के लिए उन की मान्यताएं, आस्थाएं और संस्कार ही उन का परम धर्म होते हैं. मु झे याद है, एक बार मैं ने कहा था, चल सरला, आज बाहर किसी रैस्तरां में कुछ खापी कर आते हैं.

वह तुरंत बोली थी, ‘तुम जाओ, मु झे अपना धर्म नहीं भ्रष्ट करना.’

मैं ने कहा, ‘क्या रैस्तरां में खाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है?’

‘और क्या?’

‘तु झ से किस ने कहा?’

‘किसी ने नहीं कहा, पर क्या तु झे पक्का पता है कि वहां जातकुजात के लोग नहीं होते हैं? ब्राह्मण ही खाना बनाते और परोसते हैं?’

‘तू जातपांत को मानती है?’

‘हां, मैं तो मानती हूं.’

उस का रिऐक्शन इतना खराब होगा, मु झे नहीं पता था. मैं तो सुन कर अवाक रह गई थी.

अगर यह वही सरला है, तब तो उस की नौकरानी ने उस के खिलाफ केस कर के ठीक ही किया है. बताइए, यह कोई बात हुई कि जो नौकरानी 6 महीने से चायनाश्ता और खाना बना रही थी, उसे इस वजह से मारपीट कर के नौकरी से निकाल दिया कि वह उसे ब्राह्मण सम झ रही थी जबकि वह यादव निकली. इस ब्राह्मणदंभी को यह नहीं पता कि जो आटा वह बाजार से लाती है, वह किस जाति या धर्म के खेत के गेहूं का आटा है- ब्राह्मण के, यादव के, चमार के या मुसलमान के?

पर ऐसे लोग यहां भी तर्क जमा लेते हैं, कहते हैं, अग्नि में तप कर सब शुद्ध हो जाता है. अन्न अग्नि में शुद्ध हो जाता है, लेकिन उसे बनाने वाला शुद्ध नहीं होता है. वह अगर ब्राह्मण है तो ब्राह्मण ही रहता है, और यादव है तो यादव ही रहता है. मैं तो यह खबर पढ़ कर ही परेशान हुई जा रही हूं, यह कितनी अवैज्ञानिक सोच है, कह रही है, नौकरानी ने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया. इतने दिनों से मैं एक शूद्रा के हाथ का बना खाना खा रही थी.

मैं सरला से मिलने की सोचने लगी हूं. पर पहले तो यह पता करना होगा कि वह रहती कहां है. पर इस से भी पहले उस का फोन नंबर मिलना जरूरी है. यहां भी सीडीओ साहब काम आते हैं. और मु झे उस के आवास का पता व फोन नंबर मिल जाता है. मैं तुरंत नंबर मिलाती हूं. फोन स्विचऔफ जा रहा है. हो सकता है ऐसी परिस्थिति में उसे अनेक लोगों के फोन आ रहे होंगे. उसी से बचने के लिए उस ने फोन स्विचऔफ कर दिया होगा. पर उस से मिलना जरूरी है. इसलिए मैं उस से मिलने उस के आवास की ओर चल देती हूं.

ट्रांजिट होस्टल में सैकंड फ्लोर पर जा कर मैं एक दरवाजे की घंटी बजाती हूं. दरवाजा सरला ही खोलती है. मैं इतने सालों के बाद भी उसे पहचान लेती हूं. पर वह मु झे देख कर अवाक सी है, …..पहचानने का भाव उस की आंखों में मु झे दिख रहा है. फिर पूछती है, ‘‘जी कहिए?’’

मेरे जवाब देने से पहले ही वह फिर बोल पड़ती है, ‘‘बोलिए, किस से मिलना है?’’

‘‘अरे सरला, मु झे पहचाना नहीं? मैं आभा हूं, कानपुर वाली तेरी क्लासफैलो.’’

फिर वह थोड़ा चौंक कर बोली, ‘‘अरे आभा तू? तू यहां कैसे? माफ करना यार, कोई 10 साल के बाद मिल रही हो, इसलिए पहचान नहीं पाई. आओ, अंदर आओ.’’

मैं उस के साथ अंदर प्रवेश करती हूं. ड्राइंगरूम एकदम साफसुथरा लग रहा है, करीने से सजा हुआ. मैं सोफे पर बैठ जाती हूं. वह फ्रिज में से पानी की बोतल निकाल कर गिलास में डालती है और मु झे दे कर मेरे पास ही बैठ जाती है. फिर ढेर सारे सवाल करती है, ‘‘और बता, तू इतनी मोटी जो हो गई, पहचानती कैसे? और तू इस शहर में क्या कर रही है? किसी रिलेटिव के पास आई है क्या? और तु झे मेरा पता कैसे मिला?’’

‘‘अरे रुक यार, कितने सवाल पूछेगी एकसाथ?’’

वह हंसने लगती है. पर मैं देख रही हूं कि उस की हंसी में स्वाभाविकता नहीं है. एकदम फीकी सी हंसी. मैं सम झ रही हूं, वह खुश नहीं है, अंदर से परेशान है.

मैं उसे बताती हूं, ‘‘मैं ने यहां कल ही समाज कल्याण अधिकारी के पद पर जौइन किया है. आज ही सुबह अखबार में तेरी खबर पढ़ी, और बेचैन हो गई. इतनी चिंतित हुई कि किसी तरह तेरा नंबर और पता लिया. पहले फोन किया, वह स्विचऔफ जा रहा था. फिर मिलने चली आई.’’

‘‘किस से मिला मेरा फोन नंबर और पता?’’

‘‘अब यह सब छोड़. वैसे सीडीओ साहब से ही मिला.’’

‘‘क्या बात है, एक ही दिन में काफी मेहरबान हो गए सीडीओ साहब?’’ उस ने व्यंग्यात्मक मजाक किया.

‘‘हां, तो क्या हुआ? भले व्यक्ति हैं. मिलनसार हैं.’’

‘‘और मोहब्बत वाले हैं,’’ यह कह कर वह फिर हंसी.

‘‘हां, हैं मोहब्बत वाले. अब तो खुश. अब तू बता, तू ने यह क्या कांड कर डाला?’’

‘‘कैसा कांड?’’

‘‘अरे, तेरी कुक ने तु झ पर मारपीट का मामला दर्ज कराया है. यह कांड नहीं है.’’

‘‘अरे, वह कुछ नहीं है, उस से मैं निबट लूंगी.’’

‘‘कैसे? यह कहेगी कि वह  झूठ बोल रही है?’’

‘‘हां, तो क्या हुआ?’’

‘‘तेरे लिए गरीब औरत के लिए कोई इज्जत नहीं है?’’

‘‘काहे की गरीब और काहे की इज्जत? क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है? मेरा धर्म भ्रष्ट कर के चली गई?’’ उस ने क्रोध से भर कर कहा.

‘‘कैसा धर्म भ्रष्ट? क्या किया उस ने?’’

तब उस ने बताया, ‘‘मु झे एक ब्राह्मण कुक की जरूरत थी. एक व्यक्ति ने एक औरत को मेरे यहां भेजा कि यह बहुत अच्छा खाना बनाती है और ब्राह्मण भी है. उस व्यक्ति के विश्वास पर मैं ने उसे रख लिया. वह काम करने लगी. सुबह में वह नाश्ता बनाती और दोनों समय का खाना बना कर, खिला कर चली जाती थी. अचानक 6 महीने बाद उस की कालोनी की एक औरत उस से मिलने आई. मैं ने उस से पूछा, ‘तुम इसे कैसे जानती हो?’ उस ने बताया, ‘यह हमारी ही कालोनी में रहती है.’

‘‘मैं ने पूछा, ‘कौन है यह,’ तो वह बोली, ‘यादव है.’

‘‘यह सुन कर मेरे तो बदन में आग लग गई. इतना बड़ा  झूठ मेरे साथ, यह घोर अनर्र्थ था. मैं 6 महीने से एक शूद्रा के हाथों का बना खाना खा रही थी. मेरे नवरात्र के व्रत तक भ्रष्ट कर गई. मेरा सारा धर्म भ्रष्ट कर गई.’’

मैं ने कहा, ‘‘इस का मतलब है कि तु झे दूसरी औरत ने बताया कि वह कुक यादव है, तब तु झे पता चला.’’

‘‘हां, वरना मैं ब्राह्मण ही सम झती रहती.’’

‘‘और भ्रष्ट होती रहती?’’

‘‘और क्या? मु झे उस ने बचा लिया.’’

‘‘अच्छा, उस पहले व्यक्ति ने उसे ब्राह्मण बताया था.’’

‘‘हां.’’

‘‘मतलब यह कि एक ने कहा, वह ब्राह्मण है, तो तू ने उसे ब्राह्मण मान लिया, दूसरे ने कहा, वह यादव है, तो तू ने उसे यादव मान लिया. कोई तीसरा उसे चमार बताता, तो उसे मान लेती.’’

‘‘तू कहना क्या चाहती है?’’

‘‘मैं यह कहना चाहती हूं कि औरत की जाति को पहचानने का तेरे पास कोई मापदंड नहीं है. जो भी जाति औरत अपनी बताएगी, या दूसरा व्यक्ति बताएगा, तू उसी पर विश्वास करेगी.’’

अब वह घूम गई, क्योंकि कोई जवाब उस के पास नहीं है. मैं ने कहा, ‘‘सरला, औरत के वर्ग की कोई पहचान नहीं है.’’

‘‘क्यों नहीं है?’’ उस ने बहस में अपने अज्ञान को निरर्थक छिपाने का प्रयास किया.

‘‘बता क्या पहचान है? किस चीज से पहचानेगी – चेहरे से? भाषा से? पहनावे से?’’

वह मौन रही.

‘‘अच्छा, तू बता, तेरी क्या पहचान है? तू कैसे साबित करेगी कि तू ब्राह्मण है?’’ मैं ने तर्क किया, ‘‘पुरुष तो अपना जनेऊ दिखा कर साबित कर देगा, पर औरत क्या दिखा कर साबित करेगी कि वह ब्राह्मण है?’’

वह सोच में पड़ गई थी. गरम लोहा देख कर मैं ने फिर तर्क का प्रहार किया, ‘‘क्या तेरा जनेऊ हुआ है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘मेरा भी नहीं हुआ है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तू धर्म को ज्यादा सम झती है. जिस का जनेऊ नहीं होता, उसे क्या कहते हैं?’’

वह चुप.

मैं ने कहा, ‘‘उसे शूद्र कहते हैं. तब बिना जनेऊ के तू भी शूद्रा हुई कि नहीं? मैं भी शूद्रा हुई कि नहीं?’’

उस का ब्राह्मण अहं आहत हो गया, तुरंत बोली, ‘‘एक ब्राह्मणी शूद्रा कैसे हो सकती है?’’

‘‘नहीं हो सकती न, फिर सम झा तू, किस तरह ब्राह्मण है?’’

‘‘मेरे पिता ब्राह्मण हैं, दादा ब्राह्मण थे, मेरी मां ब्राह्मण हैं,’’ उस ने तर्क दिया.

मैं ने कहा, ‘‘यह कोई तर्कनहीं है. तेरे पिता और दादा ब्राह्मण हो सकते हैं, पर तेरी मां भी ब्राह्मण हैं, इस का दावा तू कैसे कर सकती है? खुद तेरी मां भी ब्राह्मण होने का दावा नहीं कर सकती.’’

‘‘तू कैसी अजीब बातें कर रही है, क्यों नहीं कर सकती मेरी मां ब्राह्मण होने का दावा?’’ उस ने क्रोध में जोर दे कर कहा.

‘‘क्योंकि वे औरत हैं, इसलिए.’’

‘‘मतलब?’’

मतलब यह है कि औरत उस तरल पदार्थ की तरह है, जो जिस बरतन में रखा जाता है, वह उसी का रूप धारण कर लेता है. औरत अपने पिता या पति के वर्ग से जानी जाती है, उस का अपना कोई वर्ण नहीं होता है. वह ब्राह्मण से विवाह करने पर ब्राह्मणी, ठाकुर से विवाह करने पर ठकुरानी, लाला से विवाह करने पर लालानी होगी, और शूद्र वर्ण में जिस जाति से विवाह करेगी, उस की भी वही जाति मानी जाएगी. सरला, मैं फिर कह रही हूं कि औरत का अपना कोई वर्ण नहीं होता है.’’

वह मौन हो कर सुन रही थी. पर मैं सम झ रही थी कि उसे यह अच्छा नहीं लग रहा था. मैं ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘तुम्हारी मां भी तुम्हारे पिता के वर्ण से ब्राह्मण हैं, और दादी भी तुम्हारे दादा के वर्ण से ब्राह्मण थीं. इस से पहले की पीढि़यों के बारे में भी जहां तक तुम्हें याद है, वहीं तक बता सकती हो. उस के बाद वह भी नहीं.’’

मैं ने आगे कहा, ‘‘तू ऋतु को तो जानती होगी. अभी पिछले महीने उस की किन्हीं प्रोफैसर शर्मा से शादी हुई है.’’

‘‘इस में अचरज क्या है?’’ अब उस ने पूछा.

‘‘सरला, अचरज यह है कि ऋतु की मां ब्राह्मण नहीं थीं. रस्तोगी जाति की थीं, जिसे शायद सुनार कहते हैं. फिर वह एक शूद्रा की बेटी हुई कि नहीं? पर चूंकि उस के पिता भट्ट थे, इसलिए वह भी ब्राह्मण है. अब उस के बच्चे भी भट्ट ब्राह्मण कहलाएंगे, क्योंकि दूसरी पीढ़ी में वह ब्राह्मण हो गई. इसलिए सरला, यह ब्राह्मण का भूत दिमाग से निकाल दे.’’

पर हार कर भी सरला हार मानने को तैयार नहीं थी. उस ने गुण का सवाल खड़ा कर दिया, ‘‘तो क्या ब्राह्मण का कोई गुण नहीं होता?’’

अनजाने में यह उस ने एक अच्छा प्रश्न उठा दिया था. मु झे उसे निरुत्तर करने का एक और अवसर मिल गया. मैं ने कहा, ‘‘इस का मतलब है, तू ने यह मान लिया कि ब्राह्मण गुण से होता है?’’

‘‘बिलकुल, इस में क्या शक है?’’

‘‘गुड, अब यह बता, ब्राह्मण के गुण क्या हैं?’’

‘‘ब्राह्मण के गुण?’’

‘‘हां, ब्राह्मण के गुण?’’

‘‘क्या तू नहीं जानती?’’

‘‘हां, मैं नहीं जानती. तू बता?’’ फिर मैं ने कहा, ‘‘अच्छा छोड़, यह बता, ब्राह्मण के कर्म क्या हैं.’’

‘‘वेदों का पठनपाठन और दान लेना.’’

‘‘गुड, और ब्राह्मणी के?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि यह कर्म जो तू ने बताए हैं, वे तो ब्राह्मण के कर्म हैं. ब्राह्मणी के कर्म क्या हैं?’’

‘‘ब्राह्मण और ब्राह्मणी एक ही बात है.’’

‘‘एक ही बात नहीं है, सरला. स्त्री के रूप में ब्राह्मणी वेदों का पठनपाठन नहीं कर सकती. उस का कोई संस्कार भी नहीं होता. वह यज्ञ भी नहीं कर सकती. एक ब्राह्मणी के नाते क्या तू यह सब कर्म करती है?’’

‘‘नहीं, मेरी इस में कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘वैरी गुड. अब तू ने सही बात कही. यार, तबीयत खुश कर दी. अब मैं तु झे बताती हूं कि शास्त्रों में ब्राह्मण का गुण भिक्षाटन कर के जीविका कमाना है. तू नौकरी क्यों कर रही है? यह तो ब्राह्मण का गुण नहीं है.’’

‘‘यार, तेरी बातें तो अब मु झे सोचने पर मजबूर कर रही हैं. मैं इतनी पढ़ीलिखी, क्यों भीख मांगूंगी? यह तो व्यक्ति की क्षमताओं का तिरस्कार है.’’

‘‘व्यक्ति की क्षमताओं का ही नहीं, गुणों का भी.

‘‘हर व्यक्ति में ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, वैश्य है और शूद्र है. गुण के आधार पर वह स्त्री ब्राह्मण है, जिसे तू ने शूद्रा मान कर मारपीट कर निकाल दिया. उसे अगर पढ़नेलिखने का अवसर मिलता और बौस बन कर तेरे ऊपर बैठी होती, तो क्या तू तब भी उस से नफरत करती? लेकिन मैं जानती हूं, तू तब भी करती. तेरे जैसे अशुद्ध चित्त वाले जातीय अभिमानी लोग ही समाज को रुढि़वादी बनाए हुए हैं.’’

वह गुमसुम बैठी थी. मैं ने कहा, ‘‘यार, तू ने तो चाय भी नहीं पिलाई. चल, आज मैं ही तु झे चाय बना कर पिलाती हूं.’’ यह कह कर मैं उस के किचन में चली जाती हूं.

खत्म हुआ तूफान: क्या सच्चा था आकाश का प्यार

शाम के 5 बज रहे थे, 170 से 180 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चल रही हवाएं तथा समंदर की कई फुट ऊंची लहरों का शोर किसी भी इंसान को भयभीत करने के लिए काफी था. ऐसे में एक लड़की का बचाओबचाओ का स्वर आकाश के कानों में पड़ा. बगैर परवाह किए वह चक्रवाती तूफान ‘हुदहुद’ के चक्रव्यूह को भेदता हुआ पानी में कूद पड़ा और उसे बचा कर किनारे की तरफ ले आया. वह उस लड़की को पहचानता नहीं था, मगर बचाने का हर संभव प्रयास कर रहा था. समुद्रतट पर उसे लिटा कर वह उस के शरीर में भरा पानी निकालने लगा. थोड़ी देर में लड़की ने आंखें खोल दीं. उसे होश आ गया था मगर वह ठंड से कांप रही थी. आकाश कुछ देर उसे देखता रहा. फिर उसे गोद में उठा कर सुरक्षित स्थान पर ले आया.

वह लड़की अभी भी भयभीत थी और आकाश को लगातार देख रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे वह उस के साथ स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रही हो. आकाश उसे ले कर दूर एक टूटेफूटे घर की तरफ बढ़ गया. घर के दरवाजे पर एक बूढ़ी खड़ी थी. आगंतुक की गोद में एक लड़की को देख बूढ़ी ने उन्हें अंदर आने दिया और पूछा, ‘‘क्या यह तुम्हारी बीवी है?’’

‘‘नहीं, दरअसल यह लड़की तूफान में फंस गई थी और डूब रही थी, इसलिए मैं इसे बचा कर यहां ले आया,’’ आकाश ने कहा.

‘‘अच्छा किया तुम ने. इसे ठंड लग रही होगी. ऐसा करो, तुम इसे मेरे बिस्तर पर लिटा दो. मैं इस के कपड़े बदल देती हूं. इस तूफान ने तो हमारा जीना ही दूभर कर रखा है. खाने के ऐसे लाले पड़ रहे हैं कि लूट मची हुई है. कल एक ट्रक सामान भर कर आने वाला था. खानेपीने की चीजें थीं उस में. मगर यहां पहुंचने से पहले ही सबों ने उसे लूट लिया. हमारे पास तक कुछ पहुंचा ही नहीं. अभी मेरा मरद गया है. शायद कुछ ले कर लौटे,’’ बूढ़ी बोली.

करीब 50 साल की थी वह महिला मगर दुख और परेशानियां उस की उम्र बढ़ा कर दिखा रही थीं. बूढ़ी के पास जो भी कपड़े थे, वह उन्हें ही ले आई और लड़की को पहनाने लगी. आकाश दूसरे कोने में खड़ा हो गया और कमरे का मुआयना करने लगा. यह एक छोटा सा कमरा था, जिस में बैड और किचन के कुछ छोटेमोटे सामानों के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था. एक कोने में खाली बरतन पड़े थे और बाईं तरफ एक रस्सी बंधी थी जिस पर 2-4 फटे कपड़े लटके हुए थे. 2 दिनों में हुदहुद की मार हर किसी के घर पर नजर आने लगी थी. बहुत से लोग मर चुके थे, तो बहुतों के घर बह गए थे. पूरे गांव में खौफ और बरबादी का मंजर था. ऐसे में आकाश को विशाखापटनम पहुंचना जरूरी था.

जब वह निकला था अपने गांव से, तो उसे हुदहुद के आने की खबर नहीं थी. मगर रास्ते में इस तूफान में वह पूरी तरह फंस गया था. उस की प्रेमिका दिशा उसी के कहने पर हमेशा के लिए अपना घर छोड़ कर उस से मिलने पहुंच चुकी थी और एक होटल में ठहरी हुई थी. आकाश उस के पास जाने की हड़बड़ी में था, मगर बीच में यह वाकेआ हो गया. वह क्या करता? लग रहा था जैसे रास्ता लंबा होता जा रहा है. बूढ़ी ने अब तक लड़की के कपड़े बदल दिए थे और उस पर कंबल डाल दिया था. इस के बाद वह गरमगरम चाय बना लाई और दोनों के हाथों में 1-1 प्याला दे दिया.

लड़की अभी भी काफी परेशान और घबराई हुई लग रही थी. आकाश ने लड़की को समझाने का प्रयास किया कि वह घबराए न. वैसे आज वह खुद भी कम परेशान न था. एक तरफ तूफान का जोर और दूसरी तरफ प्रेमिका के पास पहुंचने की जल्दी. उस पर इस तूफान में मिली लड़की की जिम्मेदारी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. करीब 2-3 घंटे उस घर में गुजारने के बाद आकाश ने आगे जाना तय किया. मगर इस लड़की का क्या किया जाए, जो अभी भी बहुत ही घबराई हुई थी और ठीक से चल भी नहीं पा रही थी?

आकाश ने लड़की से पूछा, ‘‘अब बताओ, कहां छोड़ूं तुम्हें? तुम्हारा घर कहां है?’’

लड़की फफकफफक कर रोने लगी फिर रोतेरोते ही बोली, ‘‘मेरा घर तो डूब गया. मेरे तो केवल बाबा थे, उन्हें भी लहरें अपने साथ ले गईं. अब कोई नहीं है मेरा.’’ वह बोल कर फिर रोने लगी. आकाश उस के माथे पर हाथ फिराने लगा और बोला, ‘‘प्लीज, रोओ मत. मैं हूं न. कोई इंतजाम कर दूंगा. अभी चलो मेरे साथ, मैं ले चलता हूं तुम्हें.’’

थोड़ी देर में जब लड़की थोड़ी सामान्य हो गई तो आकाश ने आगे जाने की सोची. उस ने सहारा दे कर लड़की को उठाया तो वह दर्द से कराह उठी. शायद उस के पैर में गहरी चोट लगी थी. आकाश ने फिर से उसे गोद में उठा लिया और बाहर निकल आया. वह अब और रुक नहीं सकता था. काफी आगे जाने पर उसे एक बस मिल गई, जो विशाखापटनम ही जा रही थी. उस ने लड़की को बस में बैठाया और खुद भी बैठ गया. लड़की अब उसे कृतज्ञता और अपनेपन से देख रही थी. आकाश ने मुसकरा कर उस का सिर सहलाया और पहली बार गौर से लड़की को देखा. लंबे काले बालों वाली लड़की देखने में काफी खूबसूरत थी. रंग बिलकुल गोरा, चमकता हुआ. वह एकटक आकाश की तरफ ही देख रही थी. आकाश भी थोड़ी देर उसे देखता रहा फिर सहसा ही नजरें हटा लीं. उसे जल्द से जल्द अपनी प्रेमिका के पास पहुंचना था. वह दिशा को याद करने लगा. दिशा बहुत खूबसूरत नहीं पर अलग सा आकर्षण था उस के पूरे वजूद में. आकाश पूरी तरह दिशा की यादों में खो गया. लेकिन बस अचानक झटके से रुक गई तो उस का ध्यान बंट गया.

दोबारा बस चलने पर आकाश एक बार फिर से दिशा के बारे में सोचने की कोशिश करने लगा मगर अब बारबार उस के जेहन में बगल में बैठी लड़की का खयाल आने लगा था. इतनी सुंदर है, अकेली कहां जाएगी? सहानुभूति के अलावा शायद एक अजीब तरह का रिश्ता भी जुड़ने लगा था उन के बीच. इसे प्यास लग रही होगी, उस ने सोचा. एक जगह बस रुकते ही आकाश की नजर सामने दुकान पर गई. पानी की 1 लिटर की बोतल उठाते हुए उस ने पूछा, ‘‘कितने की है?’’

‘‘100 रुपए की.’’

‘‘क्या? पानी की बोतल इतनी महंगी?’’

‘‘क्या करें भैया, इस तूफान की वजह से चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं.’’

आकाश ने पानी की बोतल खरीद ली और लड़की को पीने को दी. बाद में थोड़ा पानी उस ने भी पी लिया.

विशाखापटनम बस स्टौप आ चुका था. आकाश ने लड़की को सहारा दे कर नीचे उतारा और रिकशा ढूंढ़ने लगा. बड़ी मुश्किल से एक रिकशा वाला मिला. उस पर बैठ कर वह होटल की तरफ चल पड़ा. रास्ते में वह सोच रहा था कि इसे मां के पास छोड़ दूंगा. गांव में सहारा मिल जाएगा बेचारी को वरना इस अकेली लड़की को देख कोई इस के साथ क्या कर बैठे या कहां पहुंचा दे कुछ कहा नहीं जा सकता और फिर इस के बाबा भी नहीं रहे, घर भी बह गया. हुदहुद तूफान ने इस लड़की की जिंदगी सड़क पर ला कर खड़ी कर दी.

उधर दिशा होटल में बैठी लगातार टीवी समाचार पर नजरें टिकाए बैठी थी, जिस में आ रहा था: ‘चक्रवाती तूफान हुदहुद से प्रभावित आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्रों का सर्वेक्षण करने और स्थिति का जायजा लेने प्रधानमंत्री विशाखापटनम पहुंचे. गौरतलब है कि इस चक्रवाती तूफान में 24 लोगों की जान गई है और यह तटीय आंध्र प्रदेश में अपने पीछे भारी तबाही के निशान छोड़ गया है.

‘चक्रवात के कारण मची तबाही की दास्तां यह है कि सड़कों पर जड़ों के साथ उखड़े पेड़, बिजली के खंभे और तारें आदि पड़े हैं. चक्रवात के कारण जिले में 15 मौतें हो गईं. स्थिति सामान्य करने के लिए संघर्ष जारी है.’दिशा का मन वैसे ही घबरा रहा था, उस पर हुदहुद के समाचारों से परेशान हो वह कई दफा आकाश को फोन कर चुकी थी. मगर उस से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था. तभी दरवाजे की घंटी बजी.

वह दौड़ती हुई आई और दरवाजा खोला तो सामने खड़े आकाश को देख कर खुशी से उछल पड़ी. मगर यह क्या, बगल में एक सकुचाई, सुंदर सी लड़की. आकाश नेउस का हाथ पकड़ कर बैड पर बैठाया और फिर दिशा की तरफ मुखातिब हुआ. दिशा की आंखों में परेशानी साफ झलक रही थी. न चाहते हुए भी उस के चेहरे पर शिकन की लकीरें आ गई थीं. ‘यह कौन है?’ उस की निगाहों में यही प्रश्न था, जिसे भांपते हुए आकाश ने उसे किनारे लाते हुए कहा, ‘‘ऐक्चुअली, यह सुनीता है. दरअसल, यह तूफान में फंस गई थी. मैं ने इसे बचाया. इस का घर, बाबा, सब तूफान में बह गए. इसलिए मुझे साथ लाना पड़ा.’’

दिशा ने फिर लड़की की तरफ देखा तो उस के चेहरे पर शिकन और बढ़ गई. आकाश की ओर देखती हुई वह बोली, ‘‘तुम दोनों पूरे रास्ते साथ थे?’’

‘‘हां दिशा, मैं इसे अकेला नहीं छोड़ सकता था. यह घबराई हुई थी.’’

दिशा आकाश का हाथ पकड़ती हुई बोली, ‘‘इसे जाने दो. मुझे तो बस इस बात की खुशी है कि तुम सकुशल लौट आए. तुम्हें कुछ हुआ नहीं. सच बहुत डर गई थी मैं,’’ कहती हुई वह आकाश के सीने से लग गई.

आकाश ने प्यार से उसे बांहों में बांधा और बोला, ‘‘रास्ते भर बस तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा.’’

मगर यह क्या, बोलतेबोलते उस की आवाज अटक गई. कहीं वह झूठ तो नहीं बोल रहा, उस ने सोचा.

तभी वह लड़की वहीं बैठेबैठे बोल पड़ी, ‘‘मुझे भूख लग रही है. कल से कुछ नहीं खाया.’’

‘‘मैं अभी कुछ मंगवाता हूं,’’ कहते हुए आकाश ने दिशा का हाथ छोड़ दिया और आगे बढ़ा तो दिशा उसे रोक कर बोली, ‘‘तुम बैठो. मेरे पास खाने की कुछ चीजें पड़ी हैं. अभी ही मंगवाया था उन्हें वही खिला देती हूं. भूख तो तुम्हें भी लगी होगी न? चलो हम दोनों बाहर जा कर कुछ खा लेते हैं.’’

आकाश समझ रहा था कि दिशा उस लड़की के साथ कंफर्टेबल नहीं है. वह उस के साथ अकेले वक्त बिताना चाहती है. उसे खुद भी उस लड़की की उपस्थिति अजीब लग रही थी. इतनी दूर से उस की दिशा सिर्फ उस की खातिर आई है और वह उसे गले भी नहीं लगा पा रहा है.

‘‘चलो,’’ आकाश उठ कर खड़ा हो गया. दिशा ने खाने की चीजें लड़की के आगे रखीं और आकाश के साथ बाहर निकल आई.

‘‘मैं तुम्हारी खातिर अपना कल छोड़ आई हूं आकाश. सिर्फ तुम ही अब मेरा आज, मेरा सब कुछ हो और मैं चाहती हूं कि तुम भी मेरे बन कर रहो,’’ दिशा आकाश की नजरों में झांक रही थी. वह उन आंखों में सिर्फ खुद को देखना चाहती थी.

आकाश ने पलकें झुका लीं. वह दिशा के मन की बेचैनी समझ सकता था.

उस ने दिशा का हाथ थाम कर कहा, ‘‘ऐसा ही होगा.’’ दिशा मुसकराई. पर उस मुसकराहट में संशय साफ नजर आ रहा था. आकाश और दिशा खाते वक्त खामोश थे पर दोनों के मन में तूफान मचा हुआ था. कहां पता था कि हुदहुद का यह तूफान उन के जीवन में भी तूफान ले आएगा.

‘‘बहुत सुंदर है वह लड़की,’’ अचानक दिशा बोल पड़ी.

‘‘तो?’’ आकाश ने अजीब नजरों से उस की तरफ देखा. दिशा का यह रवैया उसे नागवार गुजरा था.

‘‘बस यों ही कह रही हूं,’’ वह मुसकराई, ‘‘मुझे तुम पर पूरा विश्वास है. पर आज क्या यह हमारे साथ ही रहेगी?’’

‘‘हूं. अब क्या करूं, बताओ? अकेला कैसे छोड़ दूं इसे? मैं खुद परेशान हूं. कहां हम अपनी जिंदगी के इतने कठिन मोड़ पर खड़े हैं और कहां यह लड़की इस वक्त हमारी जिंदगी में…’’

‘‘परेशानी बढ़ाने आ गई है.’’ आगे के शब्द दिशा ने पूरे किए तो आकाश मुसकरा कर रह गया.

‘‘चलो इस की बातें छोड़ो. मैं इसे मां के पास छोड़ आऊंगा. वहां घर के काम में मदद कर दिया करेगी या अंकल के यहां छोड़ दूंगा. तुम यह सोचो कि अब आगे क्या करना है. अपने मांबाप को मैं काफी हद तक सहमत कर चुका हूं, इस शादी के लिए. बस तुम्हें देख लेंगे तो बाकी का एतराज भी जाता रहेगा.’’

आकाश ने दिशा का मूड ठीक करने का प्रयास किया तो दिशा के चेहरे पर प्यार की लाली फैल गई. दोनों खापी कर पुन: होटल लौट आए. वह लड़की अब काफी हद तक सामान्य हो चुकी थी.

रात में दोनों लड़कियां बैड पर और आकाश सोफे पर सो गया. अचानक 3-4 बजे के करीब आकाश की आंखें खुलीं तो देखा कि वह लड़की उस के सोफे के कोने पर बैठी है और उठ कर वाशरूम की तरफ जाने की कोशिश कर रही है. मगर पैर में चोट की वजह से ठीक से उठ नहीं पा रही है.

आकाश को उठा देख वह लाचार नजरों से उस की तरफ देखती हुई बोली, ‘‘मैं उधर जा रही थी तो चला नहीं गया, सो…’’

आकाश ने चुपचाप उसे पकड़ कर उठाया और वाशरूम तक ले गया.

इस दौरान दिशा की आंखें भी खुल चुकी थीं. वह इन दोनों को इस तरह साथ देख कर चौंक पड़ी. दिशा को उठा देख आकाश भी सकपका गया. फिर भी उस ने चुपचाप लड़की को बैड पर लिटाया और फिर दिशा की तरफ मुखातिब हुआ. वह करवट बदल कर सोने का उपक्रम करने लगी. आकाश भी आ कर लेट गया.

उधर दिशा रात भर करवटें बदलती रही. उसे नींद नहीं आ रही थी. दिमाग में बस वही दृश्य घूम रहा था, जो उस ने देखा था. आकाश कितने प्यार से उसे थामे हुए था और वह लड़की किन नजरों से उस की तरफ देख रही थी. पहले भी उस ने देखा है कि वह लड़की आकाश को वैसी ही नजरों से देखती है. और फिर वह इतनी खूबसूरत है कि कोई भी पिघल जाए.

दिशा सुबहसुबह उठी और बाहर निकल आई. पार्क में बेचैनी से चहलकदमी करती रही. फिर जब वह थक गई तो वापस कमरे की ओर लौट पड़ी. मगर दरवाजे पर पहुंचते ही उस के पांव ठिठक गए. उस ने परदे के अंदर झांक कर देखा. वह लड़की अभी भी आकाश की तरफ देख रही थी. वह आगे बढ़ती या कुछ सोचती, इस से पहले ही उस लड़की ने आकाश का हाथ पकड़ लिया. आकाश ने मुड़ कर उस की तरफ देखा तो वह पास आ गई और धीरे से बोली, ‘‘आकाश, मैं तुम्हें बहुत प्यार करने लगी हूं. प्लीज मुझे कभी अकेला मत छोड़ना मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं…’’

दिशा के सीने में आग सी लग गई और मन में तूफान सा मच गया. आकाश भी दो पल के लिए निरुत्तर हो गया. दिशा को लगा अब अंदर जा कर उस लड़की के बाल पकड़ कर खींचती हुई बाहर ले आएगी. तभी लड़की का हाथ आहिस्ता से परे सरकाते हुए आकाश ने दृढ़ शब्दों में कहा, ‘‘मैं दिशा से प्यार करता हूं और सारी जिंदगी उसी का बन कर रहूंगा. जो तुम चाहती हो वह नहीं हो सकता. मगर हां, मैं तुम्हें तकलीफ में अकेला नहीं छोड़ूंगा. तुम मेरी जिम्मेदारी बन गई हो. इसी शहर में मेरे अंकल रहते हैं, जो डाक्टर हैं उन की कोई संतान नहीं. वे वृद्ध हैं और उन की वाइफ बीमार रहती हैं. तुम उन की सेवा कर देना और वे तुम्हें बेटी की तरह प्यार देंगे.’’

लड़की ने कुछ नहीं कहा. बस खामोश नजरों से आकाश की तरफ देखती रही. फिर धीरे से बोली, ‘‘मुझे नहीं पता था कि आप दिशा से प्यार करते हैं. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई शायद. मगर मैं कभी भी आप को भूल नहीं पाऊंगी. आप मुझे जहां भेजना चाहते हैं, भेज दें. मुझे पूरा विश्वास है आप पर,’’ कह कर वह खामोश हो गई.

इधर दरवाजे पर खड़ी दिशा के लिए अपने आंसुओं को रोक पाना कठिन हो रहा था. वह रोती हुई पार्क की तरफ भाग गई ताकि अपने मन में उठ रहे तूफान पर काबू पा सके. मन के गलियारों में उमड़ताघुमड़ता यह तूफान अब थमता जा रहा था. उसे ऐसा लग रहा था जैसे उस के मन में उठी बेचैन लहरें धीरेधीरे शांत होती जा रही हैं. हुदहुद ने जो तूफान उस की जिंदगी में उठाया था, उसे आकाश की वफा ने एक झटके में प्यार के रंगों से सराबोर कर दिया था. वह पूरी तरह इस तूफान के साए से मुक्त हो चुकी थी. आकाश के प्रति उस का प्रेम और भी गहरा हो गया था.

जहर: बहुओं को समझाने के लिए सास ने कौनसा रास्ता अपनाया

कविता की जेठानी मीना 1 सप्ताह के लिए मायके रहने को गई तो उसे विदा करने के लिए सास कमरे से बाहर ही नहीं निकली.

‘‘मुझे तो बहुत डर लग रहा है, भाभीजी. आप का साथ और सहारा नहीं होगा, तो कैसे बचाऊंगी मैं इन से अपनी जान?’’ सिर्फ 4 महीने पहले इस घर में बहू बन कर आई कविता की आंखों में डर और चिंता के भाव साफ नजर आ रहे थे.

‘‘वे चुभने या बेइज्जत करने वाली कोई भी बात कहें, तुम उस पर ध्यान न दे कर चुप ही रहना, कविता, झगड़ा कर के तुम उन से कभी जीत नहीं सकोगी,’’ मीना ने उसे प्यार से समझया.

‘‘भाभी, अगर सामने वाला तुम्हारी बेइज्जती करता ही चला जाए, तो कोई कब तक चुप रहेगा?’’

‘‘उस स्थिति में तुम वह करना जो मैं करती हूं. जब तंग आ कर तुम जवाब देने को मजबूर हो जाओ, तो गुस्से से पागल हो इतनी जोर से चिल्लाने का अभिनय करना की सासूजी की सिट्टीपिट्टी गुम हो जाए. उन्हें चुप करने का यही तरीका है कि उन से ज्यादा जोर से गुर्राओ. अगर उन के सामने रोनेधोने की गलती करोगी तो वे तुम पर पूरी तरह हावी हो जाएंगी, कविता,’’ अपनी देवरानी को ऐसी कई सलाहें दे कर मीना अपने बेटे के साथ स्कूटर में बैठ कर बसअड्डा चली गई.

कविता अंदर आ कर दोपहर के भोजन की तैयारी करने रसोई में घुसी ही थी कि उस की सास आरती वहीं पहुंच गईं.

‘‘उफ, इस मीना जैसी बददिमाग और लड़ाकी बहू किसी दुश्मन को भी न मिले. अब सप्ताह भर तो चैन से कटेगा,’’ कह आरती ने अपनी छोटी बहू से बातें करनी शुरू कर दीं.

आरती लगातार मीना की बुराइयां करती रहीं. बहुत सी पुरानी घटनाओं की यादों को दोहराते हुए उन्होंने उस के खिलाफ  जहर उगलना जारी रखा.

कविता ने जब चुप रह कर वार्त्तालाप में कोई हिस्सा नहीं लिया तो आरती नाराज हो कर बोल पड़ीं, ‘‘अब तू क्यों गूंगी हो गई है, बहू? मुंह फुला कर घूमने वाले लोग मुझे जरा भी अच्छे नहीं लगते हैं.’’

‘‘आप बोल कर अपना मन हलका कर लो, मम्मी. मेरे मन में भाभी के लिए कोई शिकायत है ही नहीं, तो मैं क्या बोलूं?’’ कविता का यह जवाब सुन कर आरती चिढ़ उठी थीं.

आरती वैसे कविता के घर वालों को कुछ ज्यादा भाव देती थीं. उस के मातापिता की जाति उन से ऊंची भी थी और वे सब इंग्लिश मीडियम के पढ़े थे जबकि अरुण और उस का बड़ा भाई हिंदी मीडियम स्कूल से था. फिर भी कविता और उस के घर वाले आरती को पूरा सम्मान देते थे. आरती को एहसास था कि जरा सी जाति ऊंची हुई नहीं या बच्चे अंगरेजी मीडियम में गए नहीं उन की नाक ऊंची हो जाती है.

आटा गूंधने का काम बीच में रोक कर वे उसे तीखी आवाज में सुनाने लगीं, ‘‘अपनी जेठानी के नक्शे कदम पर चल कर इस घर की सुख शांति को और ज्यादा बिगाड़ने में सहयोग मत दो, बहू. अगर बड़ी की इज्जत नहीं करोगी तो तुम भी कभी सुखी नहीं रह पाओगी.’’

अपनी जेठानी की नसीहत को याद कर कविता ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर

करना मुनासिब नहीं समझ और सब्जी काटने

के काम में लग गई. अकेली ही बोलते हुए

आरती आजकल की बहुओं को देर तक भलाबुरा कहती रहीं.

‘भाभी होती तो 1 मिनट में इन्हें दोगुना ज्यादा बातें सुना कर चुप कर देती. पूरे 7 दिन मैं अकेली कैसे झेलूंगी इन्हें?’ ऐसे विचारों में उलझ कविता चुप रह कर अपना खून फूंकती रही.

कविता ने जब तक आलूगोभी की सब्जी तैयार करी, तब तक आरती ने परांठे सेंक डाले. उस ने अपनी सास के साथ खाना न खाने के

लिए भूख न होने का बहाना बनाया, पर आरती

ने बड़े हक से दोनों का खाना इकट्ठा परोस

लिया था.

खाना खाते हुए आरती ने कविता के मायके वालों को वार्त्तालाप का विषय बनाया. वे उन के बारे में हलकीफुलकी बातें कर रही थीं. थोड़ी ही देर में कविता अपनी नाराजगी भुला उन के साथ खुल कर हंसनेबोलने लगी.

भोजन समाप्त कर वह आराम करने के लिए अपने कमरे में आ कर लेट गईं. आंख लगने से पहले एक बात सोच कर उस के होंठों पर व्यंग्य भरी मुसकान उभरी थी कि मुझे अपनी तरफ करने को वे आज कितना मीठा बोल रही थीं. लेकिन उन की सारी चालाकी बेकार जाएगी क्योंकि असल में तो उन के मन में अपनी दोनों बहुओं के लिए इज्जत और प्यार है ही नहीं.

शाम को आरती ने कविता के लिए स्वीगी से गरम समोसे और चाय मंगवाई. आरती ने अपने मोबाइल पर सब एप डाउनलोड कर रखे थे और बेटे के कार्ड से कनैक्ट थे. इसलिए पेमैंट की कोई दिक्कत तो थी नहीं. चाय पीते हुए जब उन्होंने अपनी बड़ी बहू के खिलाफ उस के कान भरने की कोशिश जारी रखी, तो कविता का मन अंदर से खिन्न सा बना रहा.

कुछ देर बाद आरती ने अपनी बेटी और दामाद के बारे में बोलना शुरू किया, ‘‘आजकल मनोज ज्यादा पीने लगा है और पी कर अंजु से झगड़ा भी बहुत करता है. मैं सोच रही हूं कि परसो उन्हें डिनर पर बुला लूं. अरुण और तुम से मनोज की अच्छी पटती है. तुम दोनों उसे समझना कि वह शराब कम पीया करे,’’ अपनी बेटी के बारे में बात करते हुए तेजतर्रार आरती असहाय और दुखी सी नजर आ रही थीं.

‘जितनी फिक्र इन्हें अपनी बेटी की है, उतनी अपनी बहुओं की क्यों नहीं करतीं? तेज मां की तेज बेटी दुख तो पाएगी ही,’ ऐसी बातें सोचते हुए कविता ने अपनेआप को जब ज्यादा खुश महसूस नहीं किया, तो मन ही मन उसे हैरानी हुई.

‘‘अंजु दीदी अगर अपना गुस्सा कुछ कम कर लें, तो जीजाजी के ऊपर बदलने के लिए दबाव बनाना आसान हो जाएगा, मम्मी,’’ कविता के मुंह से निकले इस वाक्य के साथ सासबहू के बीच अंजु के घरपरिवार की सुखशांति को ले कर लंबा वार्त्तालाप शुरू हो गया.

उस रात सोने से पहले कविता को शादी के बाद गुजरे 4 महीनों में पहली बार यह एहसास हुआ कि उस की कठोर और निर्दयी नजर आने वाली सास अपनी बेटी के दुख में दुखी हो कर आंसू भी बहा सकती हैं. उस शाम पहली बार उस ने खुद को अपनी सास के काफी नजदीक भी महसूस किया.

सासबहू के संबंधों में अगले दिन से लगातार सुधार होने लगा. अपने पति, जेठ और ससुर को औफिस भेजने के बाद कविता ने आराम से अपनी सास के साथ बैठ कर नाश्ता किया. एक के बजाय दोनों ने 2 बार चाय पीने का लुत्फ  उठाया. फिर कपड़े धोने की मशीन लगाने का काम दोनों ने इकट्ठे किया.

दोपहर के खाने में आरती ने अपनी बहू को गोभी के परांठे बनाने सिखाए. खाना दोनों ने सीरियल देखते हुए खाया.

खाना खाने के बाद कविता सोफे पर और आरती तख्त पर आराम करने को ड्राइंगरूम में ही लेट गईं. दोनों में से किसी का भी मन अपने कमरे में जा कर बंद होने को नहीं था.

शाम को दोनों सब्जी खरीदने साथसाथ रिलायंस फ्रैश गईं. आरती ने अच्छी और सस्ती सब्जियां खरीदने की कला सिखाते हुए लंबा सा लैक्चर उसे दिया, पर कविता को उन की बातें उस शाम बुरी नहीं लगीं.

उस रात सासबहू को घुलमिल कर बातें करते देख कविता के पति अरुण ने उसे छेड़ा भी, ‘‘मां ने तुम्हें ऐसा क्या लालच दिया है जो इतना मीठा बोलने लगी हो तुम उन से? यह चमत्कार कैसे संभव हो रहा है, मैडम?’’

‘‘इस में कोई चमत्कार वाली बात नहीं है, जनाब. मुझे अपनी तरफ करने को आप की माताजी मुंह में गुड़ रख कर मुझ से बोल रही हैं… मीना भाभी को अलगथलग कर देने के लिए उन की तरफ से यह सारा नाटक चल रहा है,’’ कविता ने शरारती अंदाज में मुसकराते हुए अरुण को जानकारी दी.

‘‘किसी भी बहाने सही, पर इस घर में सुखशांति का माहौल तो बना. तुम तीनों के रोज शाम को सूजे मुंह देख कर दिमाग भन्ना जाया करता था.’’

‘‘भाभी के लौटने पर स्थिति फिर बदल जाएगी, सरकार. सासबहू को प्यार से आपस में हंसतेबोलते देखने का मजा बस कुछ दिनों तक

ही और ले सकते हैं आप इस घर में,’’ अपने

इस मजाक पर कविता खुद ही ठहाका मार कर हंसी तो अरुण बुरा सा मुंह बना कर बस जरा

सा मुसकराया.

अगले दिन शाम को अंजु और मनोज के साथ सब का समय बड़ा अच्छा गुजरा. आरती अपनी छोटी बहू की तारीफ करने का कोई मौका नहीं चूकी थीं. ननदभाभी पहली बार खुल कर खूब हंसीबोलीं. मांबेटी दोनों ने कविता का काम में पूरा हाथ बंटाया.

अगले दिन आरती ने कविता के साथ एक सहेली की तरह गपशप करी. उन्होंने अपनी सास के बारे में बहुत सी कहानियां उसे सुनाईं.

‘‘अपनी सास के सामने मैं जोर से सांस भी नहीं ले सकती थी, बहू. सुबह 4 बजे उठ कर हाथ से नल से बीसियों बालटी पानी भरना पड़ता था. फिर नहाधो कर पूरे 8 आदमियों का नाश्ता और खाना बनाना होता है. घर का काम देर रात को खत्म होता. तारीफ के शब्द सुनने की बात तो दूर रही, घर के छोटेबड़े मुझ पर हाथ उठाने से भी परहेज नहीं करते थे,’’ वे लोग तब हाल ही में गांव से कसबे में आए थे और आरती की सास यानी अरुण के दादादादी रीतिरिवाज मानो संदूक में पैक कर ले आए हों. आरती को एडजस्ट करने में बहुत समय लगा था. आरती ये बाते इस अंदाज में सुना रही थीं मानो अपने ससुराल वालों की बढ़ाई कर रही हों.

कविता ने भी शादी से पहले अपनी जिंदगी में घटी कई दिलचस्प घटनाएं उन्हें सुनाईं. इस में कोई शक नहीं कि सास और बहू इस 1 सप्ताह में एकदूसरे के काफी करीब आ गई थीं.

मीना की वापसी होने से 1 दिन पहले आरती ने कविता को अकेले में अपने

पास बैठा कर बड़े प्यार से समझया, ‘‘तुम स्वभाव की अच्छी और समझदार औरत हो, बहू बस, तुम मीना के बहकावे में आना बंद कर दो. उस की शह पर जब तुम मुझ से बहस और झगड़ा करती हो, तो मेरा मन बड़ा दुखता है. उस की तरह अगर तुम ने भी मेरी बेइज्जती करने की आदत डाल ली, तब मेरी जिंदगी तो नर्क बन जाएगी.’’

‘‘मम्मी, आप प्लीज आंसू मत बहाओ. उन के लौटने पर हम सब मिल कर कोशिश करेंगे कि घर का माहौल हंसीखुशी से भरा रहे,’’ अपनी सास को ऐसा दिलासा देते हुए कविता की आंखों में भी आंसू भर आए.

उस रात कविता को जल्दी से नींद नहीं आई. कुछ सवाल लगातार उस के मन में चक्कर काटे जा रहे थे.

‘नजदीक से जानने का मौका मिला तो मेरी सास दिल की वैसी बुरी जरा भी नहीं निकलीं जैसी मैं उन्हें अब तक समझती आई थी. मीना भाभी तो पहले दिन से मेरे हित और खुशियों का ध्यान रख रही हैं. जब इन दोनों के दिल में कोमल भावनाएं मौजूद हैं, तो इन के आपसी संबंध इतने ज्यादा खराब क्यों हैं? मेरे दिल में सासुजी को ले कर जो गुस्सा, नफरत और डर बैठा था वह सप्ताह भर में किन कारणों से गायब हो गया है? घर में बना सुखशांति का माहौल क्या मीना भाभी के लौट आने पर बरकरार नहीं रखा जा सकता है?’ ऐसे सवालों के सही उत्तर पाने के लिए कविता ने देर रात तक माथापच्ची करी.

अगले दिन रविवार की सुबह मीना अपने बेटे के साथ

सुबह 10 बजे के करीब घर लौटी और घंटे भर बाद ही आरती और उन के बीच तेज लड़ाई हो गई.

मीना की कमर में सफर के दौरान झटका लग जाने से दर्द हो रहा था. वह काम में लगने के बजाय जब अपने कमरे में जा कर लेट गई, तो आरती ने उसे बहुत सारी जलीकटी बातें सुना दीं.

जब ससुर और जेठ ने अपनीअपनी पत्नी को ऊंची आवाज में बहुत जोर से डांटा, तब कहीं जा कर घर में शांति कायम हुई.

आरती ने रसोई में आ कर कविता से मीना की बुराई करनी शुरू कर दी, ‘‘बहू, देखा कितनी लंबी जबान है इस की. मैं ने इसे घर से अलग करने का फैसला कर लिया है.’’

कविता ने कोई प्रतिक्रिया दर्शाने के बजाय उन से सहज स्वर में पूछा, ‘‘मम्मी, आज अरहर की दाल बना लें?’’

‘‘देख लेना एक दिन टैंशन के कारण मेरे दिमाग की कोई नस जरूर फट जाएगी.’’

‘‘आप इस पतीले में दाल निकालो, तब तक मैं दही जमा देती हूं.’’

आरती ने एक बार को तो उसे गुस्से से घूरा, पर फिर कड़वे शब्द मुंह से निकाले बिना डब्बे से दाल निकालने के काम में लग गईं.

शायद नाराज हो जाने के कारण उन्होंने अपनी छोटी बहू से फिर कोई बात नहीं करी.

कविता जब कुछ देर बाद चाय का कप ले कर मीना के कमरे में गई, तो उस ने आरती के खिलाफ  जहर उगलना शुरू कर दिया, ‘‘पता

नहीं कब इस खूंखार औरत से हमारा पीछा छूटेगा. मुझे एक वक्त का खाना खाना मंजूर है, पर मैं अब इस घर में नहीं बल्कि किराए के मकान में रहूंगी.’’

‘‘अब गुस्सा थूक कर यह बताओ कि आप मेरे लिए क्या लाई हो?’’ कविता ने वार्त्तालाप का विषय बदल दिया.

‘‘इन्हें बहुत घमंड है अपनी धनदौलत का, पर मुझे इन से 1 फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए.’’

‘‘आप कहीं घूमने भी गईं या सारा समय घर पर ही रहीं?’’

‘‘अभी मुझ से कुछ मत पूछ, कविता. तुम्हारे पास दर्द की कोई गोली पड़ी हो तो देना. शाम को मेरे साथ डाक्टर के यहां चलोगी?’’

‘‘जरूर चलूंगी, भाभी. आप चाय पीना शुरू करो, मैं आप के लिए गोली ले कर आती हूं.’’

कविता को मीना ने अजीब सी नजरों से देखा. उन्हें अपनी देवरानी बदली सी लग रही थी. वह उस में आए बदलाव को समझ कर कुछ कह पाती, उस से पहले ही कविता कमरे से बाहर चली गई.

आरती और मीना ने बहुत कोशिश करी, पर कविता के मुंह से किसी की तरफदारी करते हुए 1 शब्द भी नहीं निकला. इस कारण वे दोनों ही शाम तक यह सोच कर उस से नाराज रहीं कि वह ‘हां में हां’ न मिला कर दूसरी पार्टी की तरफ हो गई है.

आरती और मीना के बीच उस दिन कई बार झड़प हुई, पर कविता का मन जरा से भी तनाव का शिकार नहीं बना. पहले की तरह न उसे सिरदर्द ने सताया, न भूख और नींद पर बुरा असर पड़ा.

शाम को मीना भी काम में हाथ बटाने के लिए रसोई में आ गई. वह और आरती दोनों ही उसे संबोधित करते हुए बातें कर रही थीं. एक ही अनुपस्थिति में जब दूसरी उस की बुराई करना शुरू करती, तो कविता फौरन ही बात को किसी और दिशा में मोड़ देती.

उस के इस बदले व्यवहार की बदौलत रसोई में आरती और मीना के बीच टकराव की

स्थिति विस्फोटक नहीं होने पाई. कुछ देर बाद तो वे दोनों आपस में सीधे बात भी करने लगीं, तो उन की नजरों से छिप कर कविता प्रसन्न भाव से मुसकरा उठी.

पिछली रात देर तक जाग कर वह जिस निष्कर्ष पर पहुंची थी, उस पर उस ने आज का नतीजा देख कर सही होने का ठप्पा लगा दिया.

‘आपसी झगड़े बहुत कम देर चलते हैं, पर उन की चर्चा कितनी भी लंबी खींची जा सकती है. हर वक्त ऐसी चर्चा करते रहने से मन में उन की यादों की जड़ें मजबूत होती जाती हैं. इस कारण मन में दूसरे व्यक्ति के लिए झगड़ा समाप्त होने के बाद भी बहुत देर तक वैरभाव बना रहता है और नया झगड़ा शुरू होने की संभावना भी बढ़ जाती है.

‘इस तरह की चर्चा करने में कहने और सुनने वाले को रस तो आता है, पर यह रस आपसी संबंधों के लिए जहरीला साबित होता है. जब भी मेरे सामने ऐसी चर्चा शुरू होगी, मैं फौरन कोई और बात आरंभ कर दिया करूंगी. मेरे ऐसे व्यवहार के लिए मुझे कोई भला कहे या बुरा, मुझे परवाह नहीं.’ ऐसा फैसला कर के कविता देर रात को सोई और आज अपने मन को प्रसन्न व हलकीफुलकी अवस्था में पा कर वह अपने फैसले पर उस के सही होने की मुहर पूरे विश्वास के साथ लगा सकती थी.

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