बिना शर्त: भाग 3- मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

‘कोई बात नहीं. आप अपने मम्मीपापा का कहना मानो. वैसे भी शर्तों के आधार पर जीवन में साथसाथ नहीं चला जा सकता,’ उस ने दुखी मन से कहा था.

‘सोच लेना, आभा, सारी रात है. कल मु झे जवाब दे देना.’

‘मेरा निर्णय तो सदा यही रहेगा कि जो मु झे मेरी बेटी से दूर करना चाहता है उस के साथ मैं सपने में भी नहीं रह सकती.’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा था.

कुछ देर बाद महेश उठ कर कमरे से बाहर निकल गया था.

विचारों में डूबतेतैरते आभा को नींद आ गई थी. सुबह आभा की आंख खुली तो सिर में दर्द हो रहा था और उठने को मन भी नहीं कर रहा था. रात की बातें याद आने लगीं. हृदय पर फिर से भारी बो झ पड़ने लगा. क्या महेश ऊपरी मन से मिन्नी को प्रेम व दुलार देता था? मिन्नी को बेटीबेटी कहना केवल दिखावा था. यदि वह पहले ही यह सब जान जाती तो महेश की ओर कदम ही न बढ़ाती. महेश भी तो मिन्नी को उस से दूर करना चाहता है.

नहीं, वह मिन्नी को कभी स्वयं से दूर नहीं करेगी. प्रशांत के जाने के बाद उस ने मिन्नी को पढ़ालिखा कर किसी योग्य बनाने का लक्ष्य बनाया था. पर जब महेश ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो वह स्वयं को रोक नहीं पाई थी.

दोपहर को आभा के मोबाइल की घंटी बजी. स्क्रीन पर महेश का नाम था. उस ने कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘आभा, आज आप औफिस नहीं आईं?’’ स्वर महेश का था.

‘‘हां, आज तबीयत ठीक नहीं है, औफिस नहीं आ पाऊंगी.’’

‘‘दवा ले लेना. मेरी जरूरत हो तो फोन कर देना. मैं डाक्टर के यहां ले चलूंगा.’’

‘‘ठीक है.’’

उधर से मोबाइल बंद हो गया. आभा मन ही मन तड़प कर रह गई. उस ने सोचा था कि शायद महेश यह कह देगा कि मिन्नी हमारे साथ ही रहेगी, पर ऐसा नहीं हुआ. अब वह एक अंतिम निर्णय लेने पर विवश हो गई. ठीक है जब महेश को उस की बेटी मिन्नी की जरा भी चिंता नहीं है तो उसे क्या जरूरत है महेश के बारे में सोचने की.

दोपहर बाद मांजी आभा के पास आईं और बोलीं, ‘‘अरे बेटी, आज तुम औफिस नहीं गईं?’’

‘‘मांजी, आज तबीयत कुछ खराब थी, इसलिए औफिस से छुट्टी कर ली.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ? मु झे बता देती. मैं कमल से कह कर दवा मंगा देती. कहीं डाक्टर को दिखाना है तो मैं शाम को तेरे साथ चलूंगी.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी. मामूली सा सिरदर्द था, अब तो ठीक भी हो गया है. आप चिंता न करें.’’

‘‘तू मेरी बेटी की तरह है. बेटी की चिंता मां को नहीं होगी तो फिर किसे होगी?’’ मांजी ने आभा की ओर देखते हुए कहा.

आभा मांजी की ओर देखती रह गई. ठीक ही तो कह रही हैं मांजी. बेटी की चिंता मां नहीं करेगी तो कौन करेगा. उस के चेहरे पर प्रसन्नता फैल गई. वह कुछ नहीं बोली.

‘‘बेटी, बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रही थी, पर डर रही थी कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ,’’ मांजी बोलीं.

‘‘मांजी, आप कहिए. मां की बात का बेटी भी कहीं बुरा मानती है क्या?’’

‘‘बेटी, तुम तो हमारे छोटे से घरपरिवार के बारे में जानती हो. कमल में कोई ऐब नहीं है. उस की आयु भी ज्यादा नहीं है. जब भी उस से दूसरी शादी की बात करती हूं तो मना कर देता है. उसे डर है कि दूसरी लड़की भी तेज झगड़ालू आदत की आ गई तो यह घर घर न रहेगा.’’

आभा सम झ गई जो मांजी कहना चाहती हैं लेकिन वह चुप रही.

मांजी आगे बोलीं, ‘‘बेटी, जब से तुम हमारे यहां किराएदार बन कर आई हो, मैं तुम्हारा व्यवहार अच्छी तरह परख चुकी हूं. राजू और मिन्नी भी आपस में हिलमिल गए हैं. तुम्हारे औफिस जाने के बाद दोनों आपस में खूब खेलते हैं. मैं चाहती हूं कि तुम हमारे घर में बहू बन कर आ जाओ. राजू को बहन और मिन्नी को भाई मिल जाएगा. कमल भी ऐसा ही चाहता है. मैं बहुत आशाएं ले कर आई हूं, निराश न करना अपनी इस मांजी को.’’

सुनते ही आभा की आंखों के सामने महेश और कमल के चेहरे आ गए. कितना अंतर है दोनों में. महेश तो अपने मम्मीपापा के कहने में आ कर बेटी मिन्नी को उस से दूर करना चाहता है जबकि मांजी मिन्नी को अपने पास ही रखना चाहती हैं. इस में तो कमल की भी स्वीकृति है.

‘‘क्या सोच रही हो, बेटी? मु झे तुम्हारा उत्तर चाहिए. यदि तुम ने हमारे राजू को अपना बेटा बना लिया तो मेरी बहुत बड़ी चिंता दूर हो जाएगी,’’ मांजी ने आभा की ओर देखा.

आभा कुछ नहीं बोली. वह चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू सिर पर किया और मुड़ कर मांजी के चरण छू लिए.

मांजी को उत्तर मिल गया था. वे प्रसन्नता से गदगद हो कर बोलीं, ‘‘मु झे तुम से ऐसी ही आशा थी, बेटी. सदा सुखी रहो. तुम अपने मम्मीपापा को बुला लेना. उन से भी बात करनी है.’’

‘‘अच्छा मांजी.’’

‘‘और हां, आज रात का खाना हम सभी इकट्ठा खाएंगे.’’

‘‘खाना मैं बनाऊंगी, मांजी. मैं आप की और कमल की पसंद जानती हूं.’’

‘‘ठीक है, बेटी. अब मैं चलती हूं. कमल को भी यह खुशखबरी सुनाना चाहती हूं. उस से कह दूंगी कि औफिस से लौटते समय मिठाई का डब्बा लेता आए क्योंकि आज सभी का मुंह मीठा कराना है,’’ मांजी ने कहा और कमरे से बाहर निकल गईं.

अगले दिन सुबह जब आभा की नींद खुली तो 7 बज रहे थे. रात की बातें याद आते ही उस के चेहरे पर प्रसन्नता दौड़ने लगी. रात खाने की मेज पर कमल, मांजी, वह, राजू और मिन्नी बैठे थे. खाना खाते समय कमल व मांजी ने बहुत तारीफ की थी कि कितना स्वादिष्ठ खाना बनाया है. हंसी, मजाक व बातों के बीच पता भी न चला कि कब 2 घंटे व्यतीत हो गए. उसे बहुत अच्छा लगा था.

वह आंखें बंद किए अलसाई सी लेटी रही. बराबर में मिन्नी सो रही थी.

अगली सुबह आभा नाश्ता कर रही थी. तभी मोबाइल की घंटी बज उठी. उस ने देखा कौल महेश की थी.

‘‘हैलो,’’ वह बोली.

‘‘अब कैसी हो, आभा?’’

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘मैं ने मम्मीपापा को मना लिया है. वे बहुत मुश्किल से तैयार हुए हैं. अब मिन्नी हमारे साथ रह सकती है.’’

‘‘आप को अपने मम्मीपापा को जबरदस्ती मनाने की जरूरत नहीं थी.’’

‘‘मैं कुछ सम झा नहीं?’’

‘‘सौरी महेश, आप ने थोड़ी सी देर कर दी. अब तो मैं अपनी मिन्नी के साथ काफी दूर निकल चुकी हूं. अब लौट कर नहीं आ पाऊंगी.’’

‘‘आभा, तुम क्या कह रही हो, मेरी सम झ में कुछ नहीं आ रहा है,’’ महेश का परेशान व चिंतित सा स्वर सुनाई दिया.

‘‘अभी आप इतना ही सम झ लीजिए कि मु झे बिना शर्त का रिश्ता यानी अपना घरपरिवार मिल गया है, जहां मिन्नी को ले कर कोई शर्त नहीं. मिन्नी भी साथ रहेगी. आप अविवाहित हैं, आप की शादी भी जल्द हो जाएगी. मैं आज औफिस आ रही हूं, बाकी बातें वहां आ कर सम झा दूंगी,’’ यह कह कर आभा ने मोबाइल बंद कर दिया और निश्चिंत हो कर नाश्ता करने लगी.

लेखक – रमेश चंद्र छबीला

बिना शर्त: भाग 2- मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

शाम को वह मिन्नी के साथ रैस्टोरैंट में पहुंच गई थी जहां महेश उस की प्रतीक्षा कर रहा था. खाने के बाद जब वह घर वापस लौटी तो 10 बज रहे थे.

बिस्तर पर लेटते ही मिन्नी सो गई थी. पर उस की आंखों में नींद न थी. वह आज महेश के बारे में बहुतकुछ जान चुकी थी कि महेश के पापा एक व्यापारी हैं. वह अपने घरपरिवार में इकलौता है. मम्मीपापा उस की शादी के लिए बारबार कह रहे हैं. कई लड़कियों को वह नापसंद कर चुका है. उस ने मम्मीपापा से साफ कह दिया है कि वह जब भी शादी करेगा तो अपनी मरजी से करेगा.

वह सम झ नहीं पा रही थी कि महेश उस की ओर इतना आकर्षित क्यों हो रहा है. महेश युवा है, अविवाहित और सुंदर है. अच्छीखासी नौकरी है. उस के लिए लड़कियों की कमी नहीं. महेश कहीं इस दोस्ती की आड़ में उसे छलना तो नहीं चाहता? पर वह इतनी कमजोर नहीं है जो यों किसी के बहकावे में आ जाए. उस के अंदर एक मजबूत नारी है. वह कभी ऐसा कोई गलत काम नहीं करेगी जिस से आजीवन प्रायश्चित्त करना पड़े.

कमल उस का मकान मालिक था. उस का फ्लैट भी बराबर में ही था. वह एक सरकारी विभाग में कार्यरत था. परिवार के नाम पर कमल, मां और 5 वर्षीय बेटा राजू थे. कमल की पत्नी बहुत तेज व  झगड़ालू स्वभाव की थी. वह कभी भी आत्महत्या करने और कमल व मांजी को जेल पहुंचाने की धमकी भी दे देती थी. रोजाना घर में किसी न किसी बात पर क्लेश करती थी. कमल ने रोजाना के  झगड़ों से परेशान हो कर पत्नी से तलाक ले लिया था.

आभा मिन्नी को सुबह औफिस जाते समय एक महिला के घर छोड़ आती थी, जहां कुछ कामकाजी परिवार अपने छोटे बच्चों को छोड़ आते थे. शाम को औफिस से लौटते समय वह मिन्नी को वहां से ले आती थी.

एक दिन मांजी ने आभा के पास आ कर कहा था, ‘बेटी, तुम औफिस जाते समय मिन्नी को हमारे पास छोड़ जाया करो. वह राजू के साथ खेलेगी. दोनों का मन लगा रहेगा. हमारे होते हुए तुम किसी तरह की चिंता न करना, आभा.’

उस दिन के बाद वह मिन्नी को मांजी के पास छोड़ कर औफिस जाने लगी.

रविवार छुट्टी का दिन था. वह मिन्नी के साथ एक शौपिंग मौल में पहुंची. लौट कर बाहर सड़क पर खड़ी औटो की प्रतीक्षा कर रही थी, तभी एक बाइक उस के सामने रुकी, बाइक पर बैठे कमल ने कहा, ‘आभाजी, आइए बैठिए.’

वह चौंकी, ‘अरे आप? नहींनहीं, कोई बात नहीं, मैं चली जाऊंगी. थ्रीव्हीलर मिल जाएगा.’

‘क्यों, टूव्हीलर से काम नहीं चलेगा क्या? इस ओर मेरा एक मित्र रहता है. बस, उसी से मिल कर आ रहा हूं. यहां आप को देखा तो मैं सम झ गया कि आप किसी बस या औटो की प्रतीक्षा में हैं. आइए, आप जहां कहेंगी, मैं आप को छोड़ दूंगा.’

‘मु झे पलटन बाजार जाना है,’ उस ने बाइक पर बैठते हुए कहा.

‘ओके मैडम. घर पहुंच कर मां को मेरे लिए भी एक रस्क का पैकेट दे देना.’ उस ने रस्क के कई पैकेट खरीदे थे जो कमल ने देख लिए थे.

‘ठीक है,’ उस ने कहा था.

कमल उसे व मिन्नी को पलटन बाजार में छोड़ कर चला गया.

आभा कभीकभी मांजी व कमल के बारे में सोचती कि कितना अच्छा स्वभाव है दोनों का. हमेशा दूसरों की भलाई के बारे में सोचते हैं. दोनों ही बहुत मिलनसार व परोपकारी हैं.

अकसर मांजी राजू को साथ ले कर उस के पास आ जाती थीं. राजू और मिन्नी खेलते रहते. वह मांजी के साथ बातों में लगी रहती.

एक दिन मांजी ने कहा था, ‘आभा, हमारे साथ तो कुछ भी ठीक नहीं हुआ. ऐसी  झगड़ालू बहू घर में आ गई थी कि क्या बताऊं. बहू थी या जान का क्लेश. हमें तो तुम जैसी सुशील बहू चाहिए थी.’

वह कुछ नहीं बोली. बस, इधरउधर देखने लगी.

धीरेधीरे उस के व महेश के संबंधों की दूरी घटने लगी थी. महेश ने उस से कह दिया था कि वह जल्द ही उस के जीवन का हमसफर बन जाएगा. उसे भी लग रहा था कि उस ने महेश की ओर हाथ बढ़ा कर कुछ गलत नहीं किया है.

आज शाम जब वह रसोई में थी तो महेश का फोन आ गया था, ‘मैं कुछ देर बाद आ रहा हूं. कुछ जरूरी बात करनी है.’ ऐसी क्या जरूरी बात है जो महेश घर आ कर ही बताना चाहता है. उस ने जानना भी चाहा, परंतु महेश ने कह दिया था कि वहीं घर आ कर बताएगा.

एक घंटे बाद महेश उस के पास आ गया.

‘क्या लोगे? ठंडा या गरम?’ उस ने पूछा था.

‘कुछ नहीं.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है? कोल्डडिं्रक्स ले लीजिए,’ कहते हुए वह रसोई की ओर चली गई. जब लौटी तो ट्रे में 2 गिलास कोल्डडिं्रक्स के साथ खाने का कुछ सामान था.

‘अब कहिए अपनी जरूरी बात,’ उस ने मुसकरा कर महेश की ओर देखते हुए कहा.

‘आज मम्मीपापा आए हैं दिल्ली से. मैं ने उन को सबकुछ बता दिया था. यह भी कह दिया था कि शादी करूंगा तो केवल आभा से. कल वे तुम से मिलने आ रहे हैं,’ महेश ने उस की ओर देखते हुए कहा था. उस के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं फैलने लगीं.

‘मम्मीपापा ने इस शादी की स्वीकृति तो दे दी है, परंतु एक शर्त रख दी है.’

वह चौंक उठी, ‘शर्त, कैसी शर्त?’

‘वे कहते हैं कि शादी के बाद मिन्नी किसी होस्टल में रहेगी या नानानानी के पास रहेगी.’

यह सुन कर मन ही मन तड़प उठी थी वह. उस ने कहा, ‘यह तो मम्मीपापा की शर्त है, आप का क्या कहना है?’

‘देखो आभा, मेरी बात को सम झने की कोशिश करो. मिन्नी को अच्छे स्कूल व होस्टल में भेज देंगे. हम उस से मिलते भी रहेंगे.’

‘नहीं, महेश ऐसा नहीं हो सकता. मैं मिन्नी के बिना और मिन्नी मेरे बिना नहीं रह सकती.’

‘ओह आभा, तुम सम झती क्यों नहीं.’

‘मु झे कुछ नहीं सम झना है. मैं एक मां हूं. मिन्नी मेरी बेटी है. आप ने यह कैसे कह दिया कि मिन्नी होस्टल में रह लेगी. मैं अपनी मिन्नी को अपने से दूर नहीं कर सकती.’

‘तब तो बहुत कठिन हो जाएगा, आभा. मम्मीपापा नहीं मानेंगे.’

लेखक – रमेश चंद्र छबीला

बिना शर्त: भाग 1- मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

महेश के कमरे से बाहर निकलते ही आभा के हृदय की धड़कन धीमी होने लगी. उस ने सोफे पर गरदन टिका कर आंखें बंद कर लीं.

आभा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि महेश आज उसे ऐसा उत्तर देगा जिस से उस के विश्वास का महल रेत का घरौंदा बन कर ढह जाएगा. महेश ने उस की गुडि़या सी लाड़ली बेटी मिन्नी के बारे में ऐसा कह कर उस के सपनों को चूरचूर कर दिया. पता नहीं वह कैसे सहन कर पाई उन शब्दों को जो अभीअभी महेश कह कर गया था.

वह काफी देर तक चिंतित बैठी रही. कुछ देर बाद दूसरे कमरे में गई जहां मिन्नी सो रही थी. मिन्नी को देखते ही उस के दिल में एक हूक सी उठी और रुलाई आ गई. नहीं, वह अपनी बेटी को अपने से अलग नहीं करेगी. मासूम भोली सी मिन्नी अभी 3 वर्ष की ही तो है. वह मिन्नी के बराबर में लेट गई और उसे अपने सीने से लगा लिया.

5 वर्ष पहले उस का विवाह प्रशांत से हुआ था. परिवार के नाम पर प्रशांत व उस की मां थी, जिसे वह मांजी कहती थी.

प्रशांत एक प्राइवेट कंपनी में प्रबंधक था.

वह स्वयं एक अन्य कंपनी में काम करती थी.

2 वर्षों बाद ही उन के घरपरिवार में एक प्यारी सी बेटी का जन्म हुआ. बेटी का मिन्नी नाम रखा मांजी ने. मांजी को तो जैसे कोई खिलौना मिल गया हो. मांजी और प्रशांत मिन्नी को बहुत प्यार करते थे.

एक दिन उस के हंसते, खुशियोंभरे जीवन पर बिजली गिर पड़ी थी. औफिस से घर लौटते हुए प्रशांत की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. सुन कर उसे लगा था मानो कोई भयंकर सपना देख लिया हो. पोस्टमार्टम के बाद जब प्रशांत का शव घर पर आया तो वह एक पत्थर की प्रतिमा की तरह निर्जीव हो गई थी.

मिन्नी अभी केवल 2 वर्ष की थी. उस की हंसीखुशी, सुखचैन मानो प्रशांत के साथ ही चला गया था. जब भी वह अपना शृंगारविहीन चेहरा शीशे में देखती तो उसे रुलाई आ जाती थी. कभीकभी तो वह अकेली देर तक रोती रहती.

उस के मां व बाबूजी आते रहते थे उस के दुख को कुछ कम करने के लिए. उस ने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली थी.

एक दिन उस के बाबूजी ने उसे सम झाते हुए कहा था, ‘देख बेटी, जो दुख तु झे मिला है उस से बढ़ कर कोई दुख हो ही नहीं सकता. अब तो इस दुख को सहन करना ही होगा. यह तेरा ही नहीं, हमारा भी दुख है.’

वह चुपचाप सुनती रही.

‘बेटी, मिन्नी अभी बहुत छोटी है. तेरी आयु भी केवल 30 साल की है. अभी तो तेरे जीवन का सफर लंबा है. हम चाहते हैं कि फिर से तु झे कोई जीवनसाथी मिल जाए.’

‘नहीं, मु झे नहीं चाहिए कोई जीवनसाथी. अब तो मैं मिन्नी के सहारे ही अपना जीवन गुजार लूंगी. मैं इसे पढ़ालिखा कर किसी योग्य बना दूंगी. अगर मेरे जीवन में जीवनसाथी का सुख होता तो प्रशांत हमें छोड़ कर जाता ही क्यों?’ उस ने कहा था.

तब मां व बाबूजी ने उसे बहुत सम झाया था, पर उस ने दूसरी शादी करने से मना कर दिया था.

4 महीने बाद कंपनी ने उस का ट्रांस्फर देहरादून कर दिया था. वह बेटी मिन्नी के साथ देहरादून पहुंच गई थी.

देहरादून में उस की एक सहेली लीना थी. लीना का 4-5 कमरों का मकान था. लीना तो कहती थी कि उसे किराए का मकान लेने की क्या जरूरत है. यहीं उस के साथ रहे, जिस से उसे अकेलेपन का भी एहसास नहीं होगा. पर वह नहीं मानी थी.

उस ने हरिद्वार रोड पर 2 कमरों का एक फ्लैट किराए पर ले लिया था.

कुछ दिनों में उसे ऐसा लगने लगा था कि एक व्यक्ति उस में कुछ ज्यादा रुचि ले रहा है. वह व्यक्ति था महेश. कंपनी का सहायक प्रबंधक. महेश उसे किसी न किसी बहाने केबिन में बुलाता और उस से औफिस के काम के बारे में बातचीत करता.

एक दिन सुबह वह सो कर भी नहीं उठी थी कि मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. सुबहसुबह किस का फोन आ गया.

उस ने मोबाइल स्क्रीन पर पढ़ा – महेश.

महेश ने सुबहसुबह क्यों फोन किया? आखिर क्या कहना चाहता है वह? उस ने फोन एक तरफ रख दिया. आंखें बंद कर लेटी रही. फोन की घंटी बजती रही. दूसरी बार फिर फोन की घंटी बजी, तो उस ने  झुं झला कर फोन उठा कर कहा, ‘हैलो…’

‘आभाजी, आप सोच रही होंगी कि पता नहीं क्यों सुबहसुबह डिस्टर्ब कर रहा हूं जबकि हो सकता है आप सो रही हों. पर बात ही ऐसी है कि…’

‘ऐसी क्या बात है जो आप को इतनी सुबह फोन करने की जरूरत आ पड़ी. यह सब तो आप औफिस में भी…’

‘नहीं आभाजी, औफिस खुलने में अभी 3 घंटे हैं और मैं 3 घंटे प्रतीक्षा नहीं कर सकता.’

‘अच्छा, तो कहिए.’ वह सम झ नहीं पा रही थी कि वह कौन सी बात है जिसे कहने के लिए महेश 3 घंटे भी प्रतीक्षा नहीं कर पा रहा है.

‘जन्मदिन की शुभकामनाएं आप को व बेटी मिन्नी को. आप दोनों के जन्मदिन की तारीख भी एक ही है,’ उधर से महेश का स्वर सुनाई दिया.

चौंक उठी थी वह. अरे हां, आज तो उस का व बेटी मिन्नी का जन्मदिन है. वह तो भूल गई थी पर महेश को कैसे पता चला? हो सकता है औफिस की कंप्यूटर डिजाइनर संगीता ने बता दिया हो क्योंकि उस ने संगीता को ही बताया था कि उस की व मिन्नी के जन्म की तिथि एक ही है.

‘थैंक्स सर,’ उस ने कहा था.

‘केवल थैंक्स कहने से काम नहीं चलेगा, आज शाम की दावत मेरी तरफ से होगी. जिस रैस्टोरैंट में आप कहो, वहीं चलेंगे तीनों.’

‘तीनों कौन?’

‘आप, मिन्नी और मैं.’

सुन कर वह चुप हो गई थी. सम झ नहीं पा रही थी कि क्या उत्तर दे.

‘आभाजी, प्लीज मना न करना, वरना इस बेचारे का यह छोटा सा दिल टूट जाएगा,’ बहुत ही विनम्र शब्द सुनाई दिए थे महेश के.

वह मना न कर सकी. मुसकराते हुए उस ने कहा था, ‘ओके.’

लेखक – रमेश चंद्र छबीला

16वें साल की कारगुजारियां

कैफेकौफी डे में पहुंच कर सौम्या, नीतू और मिताली कौफी और स्नैक्स का और्डर दे कर आराम से बैठ गईं. नीतू ने सौम्या को टोका, ‘‘आज तेरा मूड कुछ खराब लग रहा है… शौपिंग भी तूने बुझे मन से की. पति से झगड़ा हुआ है क्या?’’

‘‘नहीं यार… छोड़, घर से निकल कर भी क्या घर के ही झमेलों में पड़े रहना? कोई और बात कर… मेरा मूड ठीक है.’’

‘‘ऐसा तो है नहीं कि तेरा खराब मूड हमें पता न चले. हमेशा खुश रहने वाली हमारी सहेली को क्या चिंता सता रही है, बता दे? मन हलका हो जाएगा,’’ मिताली बोली.

म्या ने फिर टालने की कोशिश की, लेकिन उस की दोनों सहेलियों ने पीछा नहीं छोड़ा. तीनों पक्की सहेलियां थीं. शौपिंग के बाद कौफी पीने आई थीं. तीनों अंधेरी की एक सोसायटी में रहती थीं. सौम्या ने उदास स्वर में कहा, ‘‘क्या बताऊं, निक्की के तौरतरीकों से परेशान हो गई हूं… हर समय फोन… हम लोगों से बात भी करेगी तो ध्यान फोन में ही रहेगा. पता नहीं क्या चक्कर है… सोएगी तो फोन को तकिए के पास रख कर सोएगी. 16 साल की हो गई है. चिंता लगी रहती है कि कहीं किसी लड़के के चक्कर में तो नहीं पड़ गई.’’

‘‘अरे, इस बात ने तो मेरी भी नींद उड़ाई हुई है… सोनू का भी यही हाल है. टोकती हूं तो कहता है कि चिल मौम, टेक इट इजी. मैं बड़ा हो गया हूं. बताओ, वह भी तो 16 साल का ही हुआ है. कैसे छोड़ दूं उस की चिंता. कितना समझाया… हर समय मैसेज में ध्यान रहेगा तो पढ़ेगा कब? पता नहीं क्या होगा इन बच्चों का?’’ नीतू बोली. तभी वेटर कौफी और स्नैक्स रख गया. कौफी का 1 घूंट पी कर नीतू मिताली से बोली, ‘‘हमारा तो 1-1 ही बच्चा है… तू तो पागल हो गई होगी 2 बच्चों की देखरेख करते… तेरी तानिया और यश भी तो इसी उम्र से गुजर रहे हैं.’’ मिताली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, यश 16वां साल पूरा करने वाला है. तानिया उस से 2 ही साल छोटी है.’’

‘‘दोनों पागल कर देते होंगे तुझे? मैं तो निक्की पर नजर रखतेरखते थक गई हूं. रात में कई बार उठ कर चैक करती हूं कि क्या कर रही है. पता नहीं इतनी रात तक क्या करती रहती है, कब सोती है. आजकल तो बच्चनजी की यह पंक्ति बारबार याद आती है कि कुछ अवगुन कर ही जाती है चढ़ती जवानी…’’ सौम्या ने कहा. नीतू ठंडी सांस लेते हुए बोली, ‘‘सोनू का तो फोन चैक भी नहीं कर सकती. लौक लगाए रखता है. देख लो, अभी 16-16 साल के ही हैं ये बच्चे और नाच नचा देते हैं मांबाप को.’’ मिताली के होंठों पर मुसकराहट देख कर नीतू ने कहा, ‘‘तू लगातार क्यों मुसकरा रही है? क्या तू परेशान नहीं होती?’’

‘‘परेशान? मैं? नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘क्या कह रही हो, मिताली?’’

‘‘हां, माई डियर फ्रैंड्स. मैं तो यश और तानिया के साथ मन ही मन 16वें साल में जी रही हूं.’’

‘‘मतलब?’’ दोनों एकसाथ चौंकी.

‘‘मतलब यह कि बच्चों के साथ फिर से जी उठी हूं मैं… मैं बच्चों की हरकतें देखती हूं तो मन ही मन 16वें साल की अपनी कारगुजारियां याद कर हंसती हूं.’’

सौम्या मुसकरा दी, ‘‘मिताली ठीक कह रही है. अब हम मांएं बन गई हैं तो हमारा सोचने का ढंग कितना बदल गया है. मां बनते ही हम अपनी साफसुथरे चरित्र वाली मां की छवि बनाने में लग जाती हैं.’’

मिताली हंसी, ‘‘मैं तो यह सोचती हूं कि मेरे पास तो आज के बच्चों जितनी सुविधाएं भी नहीं थीं, फिर भी उस उम्र का 1-1 पल का भरपूर लुत्फ उठाया.’’

‘‘तेरा कोई बौयफ्रैंड था?’’ सौम्या ने अचानक पूछा.

‘‘हां, था.’’

नीतू चहकते हुए बोली, ‘‘यार थोड़ा विस्तार से बता न.’’

‘‘ठीक है, हम तीनों उस उम्र की अपनीअपनी कारगुजारियां शेयर करती हैं और हां, ये बातें हम तीनों तक ही रहें.’’ थोड़ी देर रुक कर मिताली ने बताना शुरू किया, ‘‘मेरे सामने वाली आंटी का बेटा था. खूब आनाजाना था. मम्मी घर पर ही रहती थीं. जब वे बाहर जाती थीं तो मैं घर पर अकेली होती थी. बस उस समय के इंतजार में दिनरात बीता करते थे. वह भी अकेले मिलने का मौका देखता रहता था.’’ सौम्या ने बेताबी से पूछा, ‘‘बात कहां तक पहुंची थी?’’

‘‘वहां तक नहीं जहां तक तू सोच रही है,’’ मिताली ने प्यार से झिड़का.

‘‘मम्मी के घर से बाहर जाते ही एक लवलैटर वह पकड़ाता था और एक मैं. थोड़ी देर एकदूसरे को देखते थे और बस. उफ, जिस दिन मम्मी घर से बाहर नहीं जाती थीं वह पूरा दिन बेचैनी में बीतता था.’’

‘‘फिर क्या हुआ? शादी नहीं हुई उस से?’’ सौम्या ने पूछा.

मिताली हंसी, ‘‘नहीं, जब पापा ने मेरा विवाह तय किया तब वह पढ़ ही रहा था. मैं उस समय उदास तो हुई थी, लेकिन शादी के बाद अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त हो गई पर

बेटे यश के हावभाव, रंगढंग देख कर अपनी पुरानी बातें जरूर याद कर लेती हूं. फिर मुझे बच्चों पर गुस्सा नहीं आता. जानती हूं एक उम्र है जो सब के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है. बच्चों पर नजर तो रखती हूं, लेकिन उन की रातदिन जासूसी नहीं करती,’’ फिर नीतू से पूछा, ‘‘तेरा क्या हाल था?’’

‘‘सच बताऊं? तुम लोग हंसेंगी तो नहीं?’’

‘‘जल्दी बता… नहीं हंसेंगी,’’ सौम्या ने पूछा.

‘‘मुझे तो उस उम्र में बहुत मजा आया था. जब मैं स्कूल से साइकिल पर निकलती थी, स्कूल के बाहर ही एक लड़का मेरे इंतजार में रोज खड़ा रहता था. अपनी साइकिल पर मेरे पीछेपीछे हमारी गली तक आ कर मुड़ जाता था. कड़ाके की ठंड, घना कुहरा और मेरे इंतजार में खड़ा वह लड़का… आज भी कुहरे में उस का पीछेपीछे आना याद आ जाता है.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं. 2 महीनों तक साथसाथ आता रहा, फिर मुड़ जाता. मुझे बाद में पता चला उस का लड़कियों को पटाने का यही ढंग था. मैं अकेली नहीं थी जिस के पीछे वह साइकिल पर आता था. तब मैं ने उसे देखना एकदम छोड़ दिया. कभी रास्ता बदल लेती, कभी किसी सहेली के साथ आती. धीरेधीरे उस ने आना छोड़ दिया. मजेदार बात यह है कि फिर मुझे उस का एक दोस्त अच्छा लगने लगा, जिस के साथ मैं ने कई दिनों तक आंखमिचौली खेली. उस के बाद भी मेरा एक और गंभीर प्रेमप्रसंग चला.’’

सौम्या हंस पड़ी, ‘‘मतलब 16वां साल बड़ी हलचल मचा कर गया… 1 साल में 3 अफेयर.’’

‘‘हां यार, तीसरा कुछ दिन टिका, फिर मेरी संजीव से शादी हो गई,’’ और फिर तीनों हंस दीं. कौफी और स्नैक्स खत्म हो गए थे. तीनों का उठने का मन नहीं हो रहा था. फिर कौफी का और्डर दे दिया.

मिताली ने कहा, ‘‘सौम्या, चल अब तेरा नंबर है.’’

सौम्या ने ठंडी सांस ली और फिर बोलना शुरू किया, ‘‘अब सोच रही हूं कि बहुत कुछ किया है उस उम्र में शायद इसीलिए निक्की पर ज्यादा पहरे लगाती हूं मैं… आकर्षण था, प्यार था, जो भी था, मैं भी उस उम्र के एहसास से बच नहीं पाई थी. हां, प्यार ही तो समझी थी मैं उसे, जो मेरे और उस के बीच था. काफी बड़ा था  से. मेरी एक सहेली का रिश्तेदार था. जब भी आता मैं बहाने से उस के घर जाती. वह भी समझ गया था. बातें होने लगीं. मैं उस से शादी के सपने देखती, मेरी सहेली को अंदाजा नहीं हुआ. कभीकभी बाहर अकेले आतेजाते… बातें होने लगीं. संस्कारों की दीवार, मर्यादा की लक्ष्मणरेखा सब कुछ सलामत था. पर कुछ था जो बदल गया था और वह अच्छा लगता था. लेकिन जब एक दिन सहेली ने बातोंबातों में बताया कि वह शादीशुदा है, तो मैं घर आ कर खूब रोई थी. बड़ी मुश्किल से संभाला था खुद को,’’ फिर सौम्या कुछ पल चुप रही और फिर जोर से हंस पड़ी, ‘‘फिर मुझे 1 महीने बाद ही कोई और अच्छा लगने लगा.’’ वेटर खाली कप उठाने आ गया था. सौम्या ने बिल मंगवाया.

मिताली ने कहा, ‘‘देखा, इसीलिए मुझे अपने बच्चों पर गुस्सा नहीं आता. हम सब इस उम्र से गुजरी हैं. इस उम्र के उन के एहसास, शोखियों, चंचलता का आनंद उठाओ, उन्हें बस अच्छाबुरा समझा कर चैन से जीने दो. आजकल के बच्चे समझदार हैं, जब भी उन पर गुस्सा आए अपनी यादों में खो कर देखो, बिलकुल गुस्सा नहीं आएगा. एक बार नौकरी, घरगृहस्थी के झंझट शुरू हो गए तो जीवन भर वही चलते रहेंगे, बाद में उम्र के साथ दुनिया कब आप को बदल देती है, पता भी नहीं चलता. इस उम्र में बच्चे दूसरी दुनिया में ही जीते हैं. उसी दुनिया में जिस में कभी हम भी जीए हैं, उन्हें इस समय संसार के दांवपेचों की न तो कोई जानकारी होती है और न ही परवाह. उन्हें चैन से जीने दें और खुद भी चैन से जीएं, यही ठीक है.’’

‘‘हां, ठीक कहती हो मिताली,’’ नीतू ने कह कर पर्स निकाला.

वेटर बिल ले आया था. तीनों ने हमेशा की तरह बिल शेयर किया. फिर उठ गईं. बाहर आ कर सौम्या अपनी कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गई. मिताली और नीतू भी बैठ गईं. तीनों चुप थीं. शायद अभी तक अपनेअपने 16वें साल की कुछ कही कुछ अनकही कारगुजारियों में खोई हुई थीं.

अनोखा रिश्ता- भाग 4: कौन थी मिसेज दास

मिसेज दास के आने तक घर में एक अजीब सन्नाटा छाया रहा. जयशंकर चुपचाप उदास अपनी पढ़ाईलिखाई की मेज पर जा बैठा और मैं अपना अपराधबोध लिए बरामदे में आ कर चुपचाप तखत पर लेट गया.

करीब साढ़े 4 बजे मिसेज दास आईं और मुझे बरामदे में लेटा देख कर बोलीं, ‘इस गरमी में तुम बरामदे में क्यों लेटे हो? जयशंकर वापस नहीं आया है क्या?’

कमरे से अब सिर्फ जयशंकर की आवाज आ रही थी. वह असमी भाषा में पता नहीं क्याक्या अपनी मां को बताए जा रहा था. मैं अपनेआप को बड़ा उपेक्षित महसूस कर रहा था.

मिसेज दास कमरे से बाहर निकलीं. मैं अपना सिर नीचा किए रोए जा रहा था. उन्होंने बढ़ कर मेरा चेहरा अपने दोनों हाथों में ले कर पेट से लगा लिया और पीठ सहलाने लगीं. फिर अपने आंचल से मेरी आंखें पोंछ कर मुझे कमरे में ले गईं और पीने को एक गिलास पानी दिया. उस के बाद वह सारे सामान को खोल कर देखने लगीं. उन के इशारे पर जयशंकर भी अपने कपड़े नापने उठा. पैंट और कमीज दोनों उस के नाप के थे. शाल और चप्पल भी मिसेज दास को बड़े पसंद आए. वह सब्जियां और मिठाइयां सजासजा कर रखने लगीं. बारबार मुझे बस इतना ही सुनने को मिलता था, ‘इतना क्यों खरीदा? गुवाहाटी के सारे बाजार कल से उठने वाले थे क्या?’

मैं खुश था कि कम से कम घर का तनाव थोड़ा कम तो हुआ.

उस रात खाना खाने के बाद मुझे मिसेज दास ने अपने कमरे में बुलाया. वह चारपाई पर बैठी अपनी चप्पलों को पैर से इधरउधर सरका रही थीं. पास  ही जयशंकर एक कुरसी पर चुपचाप बैठा छत के पंखे को देखे जा रहा था. मिसेज दास ने इशारे से अपने पास बुलाया और मुझे अपने बगल में बैठने को कहा. बड़ा समय लिया उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ने में.

‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारे परिचित ने तुम्हें आज 600 रुपए दिए थे, यह बताओ कि हम पर तुम ने कितने पैसे खर्च कर डाले?’

‘करीब 300 रुपए.’

‘बाकी के 300 रुपए तो तुम्हारे पास हैं न?’

मैं ने शेष 300 रुपए जेब से निकाल कर उन के सामने रख दिए.

अब मिसेज दास ने अपना फैसला चंद शब्दों में मुझे सुना दिया कि तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर धनबाद के लिए किसी भी ट्रेन में अपना आरक्षण करवा लो. तुम्हारी मां घबरा रही होंगी. अपने परिचित का पता मुझे लिखवा दो. जब तुम्हारे बाबा का पैसा आ जाएगा तब मैं जयशंकर के हाथ यह 600 रुपए वापस करवा कर शेष रुपए तुम्हारे बाबा के नाम मनीआर्डर कर दूंगी. तुम्हें हम पर भरोसा तो है न?’

मुझे पता था कि यह मिसेज दास का अंतिम फैसला है और उसे बदला नहीं जा सकता. अपने एक झूठ को छिपाने के लिए मुझे मिसेज दास को एक मनगढ़ंत पता देना ही पड़ा.

दूसरे दिन मुझे एक टे्रन में आरक्षण मिल गया. मेरी टे्रन शाम को 7 बजे थी. मैं बुझे मन से घर वापस लौटा. खाना खाने के बाद मैं मिसेज दास की चारपाई पर लेट गया और मिसेज दास जयशंकर को साथ ले कर मेरी विदाई की तैयारी में लग गईं. वह मेरे रास्ते के लिए जाने क्याक्या पकाती और बांधती रहीं. हर 10 मिनट पर जयशंकर मुझ से चाय के लिए पूछने आता था पर मेरे मन में एक ऐसा शूल फंस गया था जो निकाले न निकल रहा था.

ट्रेन अपने नियत समय पर आई. मैं मिसेज दास के पांव छू कर और जयशंकर के गले मिल कर अपनी सीट पर जा बैठा.

कुछ दिनों के बाद बाबूजी का भेजा रुपया धनबाद के पते पर वापस आ गया. मनीआर्डर पर मात्र मिसेज दास का पता भर लिखा था.

मेरा यह अक्षम्य झूठ 25 वर्षों तक एक नासूर की तरह आएदिन पकता, फूटता और रिसता रहा था.

सोच के इस सिलसिले के बीच जागतेसोते मैं गुवाहाटी आ गया. रिकशा पकड़ कर मैं मिसेज दास के घर की ओर चल दिया. घर के सामने पहुंचा तो उस का नक्शा ही बदला हुआ था. कच्चे बरामदे के आगे एक दीवार और एक लोहे का फाटक लग गया था. छोटे से अहाते में यहांवहां गमले, बरामदे की छत तक फैली बोगनबेलिया की लताएं, एक लिपापुता आकर्षक घर.

मुझे पता था कि मिस्टर दास का अधूरा सपना बस, जयशंकर ही पूरा कर सकता है और उस ने पूरा कर के दिखा भी दिया.

फाटक की कुंडी खटखटाने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं हुआ. मैं यहां किसी तरह की कोई उम्मीद ले कर नहीं आया था. बस, मुझे मिसेज दास से एक बार मिलना था. खटका सुन कर वह कमरे से बाहर निकलीं. शायद इन 25 सालों के बाद भी मुझ में कोई बदलाव न आया था.

उन्होंने मुझे देखते ही पहचान लिया. बिना किसी प्रतिक्रिया केझट से फाटक खोला और मुझे गले से लगा कर रोने लग पड़ीं. फिर मेरा चेहरा अपनी

आंखों के सामने कर के बोलीं, ‘‘तुम तो बिलकुल अंगरेजों की तरह गोेरे

लगते हो.’’

मैं उन के पांव तक न छू पाया. वह मेरा हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. कमरों की साजसज्जा तो साधारण ही थी पर घर की दीवारें, फर्श और छतें सब की मरम्मत हुई पड़ी थी. मिसेज दास रत्ती भर न बदली थीं. न तो उन की ममता में और न उन की सौम्यता में कोई बदलाव आया था. बस, एक बदलाव मैं उन में देख रहा था कि उन के स्वर अब आदेशात्मक न रहे.

मेरे लिए यह बिलकुल अविश्वसनीय था. एम.एससी. करने के बाद जयशंकर अपनी इच्छा से एक करोड़पति की लड़की से शादी कर के डिब्रूगढ़ चला गया था. उस ने मां के साथ अपने सभी संबंध तोड़ डाले, जिस की मुझे सपनों में भी कभी आहट न हुई.

मिसेज दास की बड़ी बहन अब दुनिया में न रहीं. वह अपनी चल और अचल संपत्ति अपनी छोटी बहन के नाम कर गई थीं जो तकरीबन डेढ़ लाख रुपए की थी. जिस का

एक भाग उन्होंने अपने घर की मरम्मत में लगाया और बाकी के सूद और

अपनी सीमित पेंशन से अपना जीवन निर्वाह एक तरह से सम्मानित ढंग से कर रही थीं.

अब वह मेरे लिए मिसेज दास न थीं. मैं उन्हें खुश करने के लिए बोला, ‘‘मां, आप के हाथ की बनी रोहू मछली खाने का मन कर रहा है.’’

यह सुनते ही उन की आंखों से सावनभादों की बरसात शुरू हो गई. वह एक अलमारी में से मेरी चिट्ठियों का पूरा पुलिंदा ही उठा लाईं और बोलीं, ‘‘तुम्हारी एकएक चिट्ठी मैं अनगिनत बार पढ़ चुकी हूं. कई बार सोचा कि तुम्हें जवाब लिखूं पर शंकर मुझे बिलकुल तोड़ गया, बेटा. जब मेरी अपनी कोख का जन्मा बेटा मेरा सगा न रहा तो तुम पर मैं कौन सी आस रखती? फिर भी एक प्रश्न मैं तुम से हमेशा ही पूछना चाहती थी.’’

‘‘कौन सा प्रश्न, मां?’’

‘‘तुम्हें वह 600 रुपए मिले कहां से थे?’’

अब मुझे उन्हें सबकुछ साफसाफ बताना पड़ा.

सबकुछ सुनने के बाद उन्होंने मुझ से पूछा, ‘‘और एक बार भी तुम्हारा मन तुम्हें पैसे पकड़ने से पहले न धिक्कारा?’’

‘‘नहीं, क्योंकि मुझेअपने मन की चिंता न थी. मुझे आप के अभाव खलते थे पर अगर मुझे उन दिनों यह पता होता कि मैं अपने उपहारों के बदले आप को खो दूंगा तो मैं उन पैसों को कभी न पकड़ता. आप से कभी झूठ न बोलता. आप का अभाव मुझे अपने जीवन में अपनी मां से भी अधिक खला.’’

मिसेज दास चुपचाप उठीं और अपने संदूक से एक खुद का बुना शाल अपने कंधे पर डाल कर वापस आईं.

‘‘आओ, बाजार चलते हैं. तुम्हें मछली खानी है न. मेरे साथ 1-2 दिन तो रहोगे न, कितने दिन की छुट्टी है?’’

मैं उन के साथ 4 दिन तक रहा और उन की ममता की बौछार में अकेला नहाता रहा.

5वें दिन सुबह से शाम तक वह अपने चौके में मेरे रास्ते के लिए खाना बनाती रहीं और मुझे स्टेशन भी छोड़ने आईं. पूरे दिन उन से एक शब्द भी न बोला गया. बात शुरू करने से पहले ही उन का गला रुंध जाता था.

अब जब भी बर्लिन में मुझे उन की चिट्ठी मिलती है तो मैं अपना सारा घर सिर पर उठा लेता हूं. कई दिनों तक उन के पत्र का एकएक शब्द मेरे दिमाग में गूंजता रहता है, विशेषकर पत्र के अंत में लिखा उन का यह शब्द ‘तुम्हारी मां मनीषा.’

मैं उन्हें जब पत्र लिखने बैठता हूं अनायास मेरी भाषा बच्चों जैसी नटखट  हो जाती है. मेरी उम्र घट जाती है. मुझे अपने आसपास कोहरे या बादल नजर नहीं आते. बस, उन का सौम्य चेहरा ही मुझे हर तरफ नजर आता है.

जीत: रमेश अपने मां-बाप के सपने को पूरा करना चाहता था

लेखक- प्रदीप गुप्ता

रमेश चंद की पुलिस महकमे में पूरी धाक थी. आम लोग उसे बहुत इज्जत देते थे, पर थाने का मुंशी अमीर चंद मन ही मन उस से रंजिश रखता था, क्योंकि उस की ऊपरी कमाई के रास्ते जो बंद हो गए थे. वह रमेश चंद को सबक सिखाना चाहता था. 25 साला रमेश चंद गोरे, लंबे कद का जवान था. उस के पापा सोमनाथ कर्नल के पद से रिटायर हुए थे, जबकि मम्मी पार्वती एक सरकारी स्कूल में टीचर थीं. रमेश चंद के पापा चाहते थे कि उन का बेटा भी सेना में भरती हो कर लगन व मेहनत से अपना मुकाम हासिल करे. पर उस की मम्मी चाहती थीं कि वह उन की नजरों के सामने रह कर अपनी सैकड़ों एकड़ जमीन पर खेतीबारी करे.

रमेश चंद ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपने मांबाप के सपनों को पूरा करने के लिए पुलिस में भरती होगा और जहां कहीं भी उसे भ्रष्टाचार की गंध मिलेगी, उस को मिटा देने के लिए जीजान लगा देगा. रमेश चंद की पुलिस महकमे में हवलदार के पद पर बेलापुर थाने में बहाली हो गई थी. जहां पर अमीर चंद सालों से मुंशी के पद पर तैनात था. रमेश चंद की पारखी नजरों ने भांप लिया था कि थाने में सब ठीक नहीं है. रमेश चंद जब भी अपनी मोटरसाइकिल पर शहर का चक्कर लगाता, तो सभी दुकानदारों से कहता कि वे लोग बेखौफ हो कर कामधंधा करें. वे न तो पुलिस के खौफ से डरें और न ही उन की सेवा करें.

एक दिन रमेश चंद मोटरसाइकिल से कहीं जा रहा था. उस ने देखा कि एक आदमी उस की मोटरसाइकिल देख कर अपनी कार को बेतहाशा दौड़ाने लगा था.

रमेश चंद ने उस कार का पीछा किया और कार को ओवरटेक कर के एक जगह पर उसे रोकने की कोशिश की. पर कार वाला रुकने के बजाय मोटरसाइकिल वाले को ही अपना निशाना बनाने लगा था. पर इसे रमेश चंद की होशियारी समझो कि कुछ दूरी पर जा कर कार रुक गई थी. रमेश चंद ने कार में बैठे 2 लोगों को धुन डाला था और एक लड़की को कार के अंदर से महफूज बाहर निकाल लिया.

दरअसल, दोनों लोग अजय और निशांत थे, जो कालेज में पढ़ने वाली शुभलता को उस समय अगवा कर के ले गए थे, जब वह बारिश से बचने के लिए बस स्टैंड पर खड़ी घर जाने वाली बस का इंतजार कर रही थी. निशांत शुभलता को जानता था और उस ने कहा था कि वह भी उस ओर ही जा रहा है, इसलिए वह उसे उस के घर छोड़ देगा. शुभलता की आंखें तब डर से बंद होने लगी थीं, जब उस ने देखा कि निशांत तो गाड़ी को जंगली रास्ते वाली सड़क पर ले जा रहा था. उस ने गुस्से से पूछा था कि वह गाड़ी कहां ले जा रहा है, तो उस के गाल पर अजय ने जोरदार तमाचा जड़ते हुए कहा था, ‘तू चुपचाप गाड़ी में बैठी रह, नहीं तो इस चाकू से तेरे जिस्म के टुकड़ेटुकड़े कर दूंगा.’

तब निशांत ने अजय से कहा था, ‘पहले हम बारीबारी से इसे भोगेंगे, फिर इस के जिस्म को इतने घाव देंगे कि कोई इसे पहचान भी नहीं सकेगा.’ पर रमेश चंद के अचानक पीछा करने से न केवल उन दोनों की धुनाई हुई थी, बल्कि एक कागज पर उन के दस्तखत भी करवा लिए थे, जिस पर लिखा था कि भविष्य में अगर शहर के बीच उन्होंने किसी की इज्जत पर हाथ डाला या कोई बखेड़ा खड़ा किया, तो दफा 376 का केस बना कर उन को सजा दिलाई जाए. शुभलता की दास्तान सुन कर रमेश चंद ने उसे दुनिया की ऊंचनीच समझाई और अपनी मोटरसाइकिल पर उसे उस के घर तक छोड़ आया. शुभलता के पापा विशंभर एक दबंग किस्म के नेता थे. उन के कई विरोधी भी थे, जो इस ताक में रहते थे कि कब कोई मुद्दा उन के हाथ आ जाए और वे उन के खिलाफ मोरचा खोलें.

विशंभर विधायक बने, फिर धीरेधीरे अपनी राजनीतिक इच्छाओं के बलबूते पर चंद ही सालों में मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ गए. सिर्फ मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता ही इस बात को जानती थीं कि उन की बेटी शुभलता को बलात्कारियों के चंगुल से रमेश चंद ने बचाया था. बेलापुर थाने में नया थानेदार रुलदू राम आ गया था. उस ने अपने सभी मातहत मुलाजिमों को निर्देश दिया था कि वे अपना काम बड़ी मुस्तैदी से करें, ताकि आम लोगों की शिकायतों की सही ढंग से जांच हो सके. थोड़ी देर के बाद मुंशी अमीर चंद ने थानेदार के केबिन में दाखिल होते ही उसे सैल्यूट किया, फिर प्लेट में काजू, बरफी व चाय सर्व की. थानेदार रुलदू राम चाय व बरफी देख कर खुश होते हुए कहने लगा, ‘‘वाह मुंशीजी, वाह, बड़े मौके पर चाय लाए हो. इस समय मुझे चाय की तलब लग रही थी…

‘‘मुंशीजी, इस थाने का रिकौर्ड अच्छा है न. कहीं गड़बड़ तो नहीं है,’’ थानेदार रुलदू राम ने चाय पीते हुए पूछा.

‘‘सर, वैसे तो इस थाने में सबकुछ अच्छा है, पर रमेश चंद हवलदार की वजह से यह थाना फलफूल नहीं रहा है,’’ मुंशी अमीर चंद ने नमकमिर्च लगाते हुए रमेश चंद के खिलाफ थानेदार को उकसाने की कोशिश की.

थानेदार रुलदू राम ने मुंशी से पूछा, ‘‘इस समय वह हवलदार कहां है?’’

‘‘जनाब, उस की ड्यूटी इन दिनों ट्रैफिक पुलिस में लगी हुई है.’’

‘‘इस का मतलब यह कि वह अच्छी कमाई करता होगा?’’ थानेदार ने मुंशी से पूछा.

‘‘नहीं सर, वह तो पुश्तैनी अमीर है और ईमानदारी तो उस की रगरग में बसी है. कानून तोड़ने वालों की तो वह खूब खबर लेता है. कोई कितनी भी तगड़ी सिफारिश वाला क्यों न हो, वह चालान करते हुए जरा भी नहीं डरता.’’

इतना सुन कर थानेदार रुलदू राम ने कहा, ‘‘यह आदमी तो बड़ा दिलचस्प लगता है.’’

‘‘नहीं जनाब, यह रमेश चंद अपने से ऊपर किसी को कुछ नहीं समझता है. कई बार तो ऐसा लगता है कि या तो इस का ट्रांसफर यहां से हो जाए या हम ही यहां से चले जाएं,’’ मुंशी अमीर चंद ने रोनी सूरत बनाते हुए थानेदार से कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. आज उस को यहां आने दो, फिर उसे बताऊंगा कि इस थाने की थानेदारी किस की है… उस की या मेरी?’’

तभी थाने के कंपाउंड में एक मोटरसाइकिल रुकी. मुंशी अमीर चंद दबे कदमों से थानेदार के केबिन में दाखिल होते हुए कहने लगा, ‘‘जनाब, हवलदार रमेश चंद आ गया है.’’

अर्दली ने आ कर रमेश चंद से कहा, ‘‘नए थानेदार साहब आप को इसी वक्त बुला रहे हैं.’’

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार रुलदू राम को सैल्यूट मारा.

‘‘आज कितना कमाया?’’ थानेदार रुलदू राम ने हवलदार रमेश चंद से पूछा.

‘‘सर, मैं अपने फर्ज को अंजाम देना जानता हूं. ऊपर की कमाई करना मेरे जमीर में शामिल नहीं है,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

थानेदार ने उसे झिड़कते हुए कहा, ‘‘यह थाना है. इस में ज्यादा ईमानदारी रख कर काम करोगे, तो कभी न कभी तुम्हारे गरीबान पर कोई हाथ डाल कर तुम्हें सलाखों तक पहुंचा देगा. अभी तुम जवान हो, संभल जाओ.’’

‘‘सर, फर्ज निभातेनिभाते अगर मेरी जान भी चली जाए, तो कोई परवाह नहीं,’’ हवलदार रमेश चंद थानेदार रुलदू राम से बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, तुम्हारे ये प्रवचन सुनने के लिए मैं ने तुम्हें यहां नहीं बुलाया था,’’ थानेदार रुलदू राम की आवाज में तल्खी उभर आई थी.

दरवाजे की ओट में मुंशी अमीर चंद खड़ा हो कर ये सब बातें सुन रहा था. वह मन ही मन खुश हो रहा था कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. हवलदार रमेश चंद के बाहर जाते ही मुंशी अमीर चंद थानेदार से कहने लगा, ‘‘साहब, छोटे लोगों को मुंह नहीं लगाना चाहिए. आप ने हवलदार को उस की औकात बता दी.’’

‘‘चलो जनाब, हम बाजार का एक चक्कर लगा लें. इसी बहाने आप की शहर के दुकानदारों से भी मुलाकात हो जाएगी और कुछ खरीदारी भी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मैं जरा क्वार्टर जा कर अपनी पत्नी से पूछ लूं कि बाजार से कुछ लाना तो नहीं है?’’ थानेदार ने मुंशी से कहा.

क्वार्टर पहुंच कर थानेदार रुलदू राम ने देखा कि उस की पत्नी सुरेखा व 2 महिला कांस्टेबलों ने क्वार्टर को सजा दिया था. उस ने सुरेखा से कहा, ‘‘मैं बाजार का मुआयना करने जा रहा हूं. वहां से कुछ लाना तो नहीं है?’’

‘‘बच्चों के लिए खिलौने व फलसब्जी वगैरह देख लेना,’’ सुरेखा ने कहा.

मुंशी अमीर चंद पहले की तरह आज भी जिस दुकान पर गया, वहां नए थानेदार का परिचय कराया, फिर उन से जरूरत का सामान ‘मुफ्त’ में लिया और आगे चल दिया. वापसी में आते वक्त सामान के 2 थैले भर गए थे. मुंशी अमीर चंद ने बड़े रोब के साथ एक आटोरिकशा वाले को बुलाया और उस से थाने तक चलने को कहा. थानेदार को मुंशी अमीर चंद का रसूख अच्छा लगा. उस ने एक कौड़ी भी खर्च किए बिना ढेर सारा सामान ले लिया था. अगले दिन थानेदार के जेहन में रहरह कर यह बात कौंध रही थी कि अगर समय रहते हवलदार रमेश चंद के पर नहीं कतरे गए, तो वह उन सब की राह में रोड़ा बन जाएगा. अभी थानेदार रुलदू राम अपने ही खयालों में डूबा था कि तभी एक औरत बसंती रोतीचिल्लाती वहां आई.

उस औरत ने थानेदार से कहा, ‘‘साहब, थाने से थोड़ी दूरी पर ही मेरा घर है, जहां पर बदमाशों ने रात को न केवल मेरे मर्द करमू को पीटा, बल्कि घर में जो गहनेकपड़े थे, उन पर भी हाथ साफ कर गए. जब मैं ने अपने पति का बचाव करना चाहा, तो उन्होंने मुझे धक्का दे दिया. इस से मुझे भी चोट लग गई.’’

थानेदार ने उस औरत को देखा, जो माथे पर उभर आई चोटों के निशान दिखाने की कोशिश कर रही थी. थानेदार ने उस औरत को ऐसे घूरा, मानो वह थाने में ही उसे दबोच लेगा. भले ही बसंती गरीब घर की थी, पर उस की जवानी की मादकता देख कर थानेदार की लार टपकने लगी थी. अचानक मुंशी अमीर चंद केबिन में घुसा. उस ने बसंती से कहा, ‘‘साहब ने अभी थाने में जौइन किया है. हम तुम्हें बदमाशों से भी बचाएंगे और जो कुछवे लूट कर ले गए हैं, उसे भी वापस दिलाएंगे. पर इस के बदले में तुम्हें हमारा एक छोटा सा काम करना होगा.’’

‘‘कौन सा काम, साहबजी?’’ बसंती ने हैरान हो कर मुंशी अमीर चंद से पूछा.

‘‘हम अभी तुम्हारे घर जांचपड़ताल करने आएंगे, वहीं पर तुम्हें सबकुछ बता देंगे.’’

‘‘जी साहब,’’ बसंती उठते हुए बोली.

थानेदार ने मुंशी से फुसफुसाते हुए पूछा, ‘‘बसंती से क्या बात करनी है?’’

मुंशी ने कहा, ‘‘हुजूर, पुलिस वालों के लिए मरे हुए को जिंदा करना और जिंदा को मरा हुआ साबित करना बाएं हाथ का खेल होता है. बस, अब आप आगे का तमाशा देखते जाओ.’’ आननफानन थानेदार व मुंशी मौका ए वारदात पर पहुंचे, फिर चुपके से बसंती व उस के मर्द को सारी प्लानिंग बताई. इस के बाद मुंशी अमीर चंद ने कुछ लोगों के बयान लिए और तुरंत थाने लौट आए. इधर हवलदार रमेश चंद को कानोंकान खबर तक नहीं थी कि उस के खिलाफ मुंशी कैसी साजिश रच रहा था.

थानेदार ने अर्दली भेज कर रमेश चंद को थाने बुलाया.

हवलदार रमेश चंद ने थानेदार को सैल्यूट मारने के बाद पूछा, ‘‘सर, आप ने मुझे याद किया?’’

‘‘देखो रमेश, आज सुबह बसंती के घर में कोई हंगामा हो गया था. मुंशीजी अमीर चंद को इस बाबत वहां भेजना था, पर मैं चाहता हूं कि तुम वहां मौका ए वारदात पर पहुंच कर कार्यवाही करो. वैसे, हम भी थोड़ी देर में वहां पहुंचेंगे.’’

‘‘ठीक है सर,’’ हवलदार रमेश चंद ने कहा.

जैसे ही रमेश चंद बसंती के घर पहुंचा, तभी उस का पति करमू रोते हुए कहने लगा, ‘‘हुजूर, उन गुंडों ने मारमार कर मेरा हुलिया बिगाड़ दिया. मुझे ऐसा लगता है कि रात को आप भी उन गुंडों के साथ थे.’’ करमू के मुंह से यह बात सुन कर रमेश चंद आगबबूला हो गया और उस ने 3-4 थप्पड़ उसे जड़ दिए.

तभी बसंती बीचबचाव करते हुए कहने लगी, ‘‘हजूर, इसे शराब पीने के बाद होश नहीं रहता. इस की गुस्ताखी के लिए मैं आप के पैर पड़ कर माफी मांगती हूं. इस ने मुझे पूरी उम्र आंसू ही आंसू दिए हैं. कभीकभी तो ऐसा मन करता है कि इसे छोड़ कर भाग जाऊं, पर भाग कर जाऊंगी भी कहां. मुझे सहारा देने वाला भी कोई नहीं है…’’

‘‘आप मेरी खातिर गुस्सा थूक दीजिए और शांत हो जाइए. मैं अभी चायनाश्ते का बंदोबस्त करती हूं.’’

बसंती ने उस समय ऐसे कपड़े पहने हुए थे कि उस के उभार नजर आ रहे थे. शरबत पीते हुए रमेश की नजरें आज पहली दफा किसी औरत के जिस्म पर फिसली थीं और वह औरत बसंती ही थी. रमेश चंद बसंती से कह रहा था, ‘‘देख बसंती, तेरी वजह से मैं ने तेरे मर्द को छोड़ दिया, नहीं तो मैं इस की वह गत बनाता कि इसे चारों ओर मौत ही मौत नजर आती.’’ यह बोलते हुए रमेश चंद को नहीं मालूम था कि उस के शरबत में तो बसंती ने नशे की गोलियां मिलाई हुई थीं. उस की मदहोश आंखों में अब न जाने कितनी बसंतियां तैर रही थीं. ऐन मौके पर थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद वहां पहुंचे. बसंती ने अपने कपड़े फाड़े और जानबूझ कर रमेश चंद की बगल में लेट गई. उन दोनों ने उन के फोटो खींचे. वहां पर शराब की 2 बोतलें भी रख दी गई थीं. कुछ शराब रमेश चंद के मुंह में भी उड़ेल दी थी.

मुंशी अमीर चंद ने तुरंत हैडक्वार्टर में डीएसपी को इस सारे कांड के बारे में सूचित कर दिया था. डीएसपी साहब ने रिपोर्ट देखी कि मौका ए वारदात पर पहुंच कर हवलदार रमेश चंद ने रिपोर्ट लिखवाने वाली औरत के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी. डीएसपी साहब ने तुरंत हवलदार रमेश चंद को नौकरी से सस्पैंड कर दिया. अब सारा माजरा उस की समझ में अच्छी तरह आ गया था, पर सारे सुबूत उस के खिलाफ थे. अगले दिन अखबारों में खबर छपी थी कि नए थानेदार ने थाने का कार्यभार संभालते ही एक बेशर्म हवलदार को अपने थाने से सस्पैंड करवा कर नई मिसाल कायम की. रमेश चंद हवालात में बंद था. उस पर बलात्कार करने का आरोप लगा था. इधर जब मुख्यमंत्री विशंभर की पत्नी चंद्रकांता को इस बारे में पता लगा कि रमेश चंद को बलात्कार के आरोप में हवालात में बंद कर दिया गया है, तो उस का खून खौल उठा. उस ने सुबह होते ही थाने का रुख किया और रमेश चंद की जमानत दे कर रिहा कराया. रमेश चंद ने कहा, ‘‘मैडम, आप ने मेरी नीयत पर शक नहीं किया है और मेरी जमानत करा दी. मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

चंद्रकांता बोली, ‘‘उस वक्त तुम ने मेरी बेटी को बचाया था, तब यह बात सिर्फ मुझे, मेरी बेटी व तुम्हें ही मालूम थी. अगर तुम मेरी बेटी को उन वहशी दरिंदों से न बचाते, तो न जाने क्या होता? और हमें कितनी बदनामी झेलनी पड़ती. आज हमारी बेटी शादी के बाद बड़ी खुशी से अपनी जिंदगी गुजार रही है.

‘‘जिन लोगों ने तुम्हारे खिलाफ साजिश रची है, उन के मनसूबों को नाकाम कर के तुम आगे बढ़ो,’’ चंद्रकांता ने रमेश चंद को धीरज बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं आज ही मुख्यमंत्रीजी से इस मामले में बात करूंगी, ताकि जिस सच के रास्ते पर चल कर अपना वजूद तुम ने कायम किया है, वह मिट्टी में न मिल जाए.’’ अगले दिन ही बेलापुर थाने की उस घटना की जांच शुरू हो गई थी. अब तो स्थानीय दुकानदारों ने भी अपनीअपनी शिकायतें लिखित रूप में दे दी थीं. थानेदार रुलदू राम व मुंशी अमीर चंद अब जेल की सलाखों में थे. रमेश चंद भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई जीत गया था.

दो भूत : उर्मिल से तालमेल क्या बैठा पाई अम्माजी

लेखिका- सरोज गोयल

मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी…तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया. घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी. उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’

‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’

‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’

‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’

‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.

‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’

‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.

‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’

अंदर पहुंच कर मैं ने अम्माजी को प्रणाम किया और पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है अब आप की?’’

‘‘बस, तबीयत तो ऐसी ही चलती रहती है, चक्कर आते हैं. भूख नहीं लगती.’’

‘‘डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘डाक्टर क्या कहेंगे. कहते हैं आप दवाएं बहुत खाती हैं. आप को कोई बीमारी नहीं है. तुम्हीं देखो अब रमा, दवाओं के बल पर तो चल भी रही हूं, नहीं तो पलंग से ही लग जाती,’’ यह कह कर वे सेब काटने लगीं.

‘‘सेब काटते हुए आप का हाथ कांप रहा है. लाइए, मैं काट दूं.’’

‘‘नहीं, मैं ही काट लूंगी. रोज ही काटती हूं.’’

‘‘क्यों, क्या उर्मिल काट कर नहीं देती?’’

‘‘तभी उर्मिल ट्रे में चाय व कुछ नमकीन ले कर आ गई और बोली, ‘‘यह उर्मिल का नाम क्यों लिया जा रहा था?’’

‘‘उर्मिल, यह क्या बात है? अम्माजी का हाथ कांप रहा है और तुम इन्हें एक सेब भी काट कर नहीं दे सकतीं?’’

‘‘रमा, तू चाय पी चुपचाप. अम्माजी ने एक सेब काट लिया तो क्या हो गया.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं ही काट लूंगी. तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ तनाव के कारण अम्माजी की सांस फूल गई थी.

मैं उर्मिल को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘‘उर्मिल, तुझे क्या हो गया है?’’

‘‘छोड़ भी इस किस्से को? जल्दी चाय खत्म कर, फिर बाजार चलें,’’ उर्मिल हंसती हुई बोली.

मैं ठगी सी उसे देखती रह गई. क्या यह वही उर्मिल है जो 2 वर्ष पूर्व रातदिन सास का खयाल रखती थी, उन का एकएक काम करती थी, एकएक चीज उन को पलंग पर हाथ में थमाती थी. अगर कभी अम्माजी कहतीं भी, ‘अरी बहू, थोड़ा काम मुझे भी करने दिया कर,’ तो हंस कर कहती, ‘नहीं, अम्माजी, मैं किस लिए हूं? आप के तो अब आराम करने के दिन हैं.’

तभी उर्मिल ने मुझे झिंझोड़ दिया, ‘‘अरे, कहां खो गई तू? चल, अब चलें.’’

‘‘हां.’’

‘‘और हां, तू खाना भी यहां खाना. अम्माजी बना लेंगी.’’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, ‘‘उर्मिल, तुझे हो क्या गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्माजी बना लेंगी. इस में बुरा क्या है?’’

‘‘नहीं, उर्मिल, चल दोनों मिल कर सब्जीदाल बना लेते हैं और अम्माजी के लिए रोटियां भी बना कर रख देते हैं. जरा सी देर में खाना बन जाएगा.’’

‘‘सब्जी बन गई है, दालरोटी अम्माजी बना लेंगी, जब उन्हें खानी होगी.’’

‘‘हांहां, मैं बना लूंगी. तुम दोनों जाओ,’’ अम्माजी भी वहीं आ गई थीं.

‘‘पर अम्माजी, आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हाथ भी कांप रहे हैं,’’ मैं किसी भी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही थी.

‘‘बेटी, अब पहले का समय तो रहा नहीं जब सासें राज करती थीं. बस, पलंग पर बैठना और हुक्म चलाना. बहुएं आगेपीछे चक्कर लगाती थीं. अब तो इस का काम न करूं तो दोवक्त का खाना भी न मिले,’’ अम्माजी एक लंबी सांस ले कर बोलीं.

‘‘अरे, अब चल भी, रमा. अम्माजी, मैं ने कुकर में दाल डाल दी है. आटा भी तैयार कर के रख दिया है.’’

बाजार जाते समय मेरे विचार फिर अतीत में दौड़ने लगे. बैंक उर्मिल के घर के पास ही था. एक सुबह अम्माजी ने कहा, ‘मैं बैंक जा कर रुपए जमा कर ले आती हूं.’

‘नहीं अम्माजी, आप कहां जाएंगी, मैं चली जाऊंगी,’ उर्मिल ने कहा था.

‘नहीं, तुम कहां जाओगी? अभी तो अस्पताल जा रही हो.’

‘कोई बात नहीं, अस्पताल का काम कर के चली जाऊंगी.’

और फिर उर्मिल ने अम्माजी को नहीं जाने दिया था. पहले वह अस्पताल गई जो दूसरी ओर था और फिर बैंक. भागतीदौड़ती सारा काम कर के लौटी तो उस की सांस फूल आई थी. पर उर्मिल न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी कि कभी खीझ या थकान के चिह्न उस के चेहरे पर आते ही न थे.

उर्मिल की भागदौड़ देख कर एक दिन जीजाजी ने भी कहा था,

‘भई, थोड़ा काम मां को भी कर लेने दिया करो. सारा दिन बैठे रहने से तो उन की तबीयत और खराब होगी और खाली रहने से तबीयत ऊबेगी भी.’

इस पर उर्मिल उन से झगड़ पड़ी थी, ‘आप भी क्या बात करते हैं? अब इन की कोई उम्र है काम करने की? अब तो इन से तभी काम लेना चाहिए जब हमारे लिए मजबूरी हो.’

बेचारे जीजाजी चुप हो गए थे और फिर कभी सासबहू के बीच में नहीं बोले.  मैं इन्हीं विचारों में खोई थी कि उर्मिल ने कहा, ‘‘लो, बाजार आ गया.’’ यह सुन कर मैं विचारों से बाहर आई.

बाजार में हम दोनों ने मिल कर खरीदारी की. सूरज सिर पर चढ़ आया था. पसीने की बूंदें माथे पर झलक आई थीं. दोनों आटो कर के घर पहुंचीं. अम्माजी ने सारा खाना तैयार कर के मेज पर लगा रखा था. 2 थालियां भी लगा रखी थीं. मेरा दिल भर आया.

अम्माजी बोलीं, ‘‘तुम लोग हाथ धो कर खाना खा लो. बहुत देर हो गई है.’’

‘‘अम्माजी, आप?’’  मैं ने कहा.

‘‘मैं ने खा लिया है. तुम लोग खाओ, मैं गरमगरम रोटियां सेंक कर लाती हूं.’’

मैं अम्माजी के स्नेहभरे चेहरे को देखती रही और खाना खाती रही. पता नहीं अम्माजी की गरम रोटियों के कारण या भूख बहुत लग आने के कारण खाना बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खा कर अम्माजी को स्वादिष्ठ खाने के लिए धन्यवाद दे कर मैं अपने घर लौट आई.

कुछ दिनों बाद एक दिन जब मैं उर्मिल के घर पहुंची तो दरवाजा थोड़ा सा खुला था. मैं धीरे से अंदर घुसी और उर्मिल को आवाज लगाने ही वाली थी कि उस की व अम्माजी की मिलीजुली आवाज सुन कर चौंक पड़ी. मैं वहीं ओट में खड़ी हो कर सुनने लगी.

‘‘सुनो, बहू, तुम्हारी लेडीज क्लब की मीटिंग तो मंगलवार को ही हुआ करती है न? तू बहुत दिनों से उस में गई नहीं.’’

‘‘पर समय ही कहां मिलता है, अम्माजी?’’

‘‘तो ऐसा कर, तू आज हो आ. आज भी मंगलवार ही है न?’’

‘‘हां, अम्माजी, पर मैं न जा सकूंगी. अभी तो काम पड़ा है. खाना भी बनाना है.’’

‘‘उस की चिंता न कर. मुझे बता दे, क्याक्या बनेगा.’’

‘‘अम्माजी, आप सारा खाना कैसे बना पाएंगी? वैसे ही आप की तबीयत ठीक नहीं रहती है.’’

‘‘बहू, तू क्या मुझे हमेशा बुढि़या और बीमार ही बनाए रखेगी?’’

‘‘अम्माजी मैं…मैं…तो…’’

‘‘हां, तू. मुझे इधर कई दिनों से लग रहा है कि कुछ न करना ही मेरी सब से बड़ी बीमारी है, और सारे दिन पड़ेपड़े कुढ़ना मेरा बुढ़ापा. जब मैं कुछ काम में लग जाती हूं तो मुझे लगता है मेरी बीमारी ठीक हो गई है और बुढ़ापा कोसों दूर चला गया है.’’

‘‘अम्माजी, यह आप कह रही हैं?’’ उर्मिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘हां, मैं. इधर कुछ दिनों से तू ने देखा नहीं कि मेरी तबीयत कितनी सुधर गई है. तू चिंता न कर. मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे जहां जाना है जा. आज शाम को सुधीर के साथ किसी पार्टी में भी जाना है न? मेरी वजह से कार्यक्रम स्थगित मत करना. यहां का सब काम मैं देख लूंगी.’’

‘‘ओह अम्माजी,’’  उर्मिल अम्माजी से लिपट गई और रो पड़ी.

‘‘यह क्या, पगली, रोती क्यों है?’’ अम्माजी ने उसे थपथपाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी, मेरे कान कब से यह सुनने को तरस रहे थे कि आप बूढ़ी नहीं हैं और काम कर सकती हैं. मैं ने इस बीच आप से जो कठोर व्यवहार किया, उस के लिए क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. चल जा, जल्दी उठ. क्लब की मीटिंग का समय हो रहा है.’’

‘‘अम्माजी, अब तो नहीं जाऊंगी आज. हां, आज बाजार हो आती हूं. बच्चों की किताबें और सुधीर के लिए शर्ट लेनी है.’’

‘‘तो बाजार ही हो आ. रमा को भी फोन कर देती तो दोनों मिल कर चली जातीं.’’

‘‘अम्माजी, प्रणाम. आप ने याद किया और रमा हाजिर है.’’

‘‘अरी, तू कब से यहां खड़ी थी?’’

‘‘अभी, बस 2 मिनट पहले आई थी.’’

‘‘तो छिप कर हमारी बातें सुन रही थी, चोर कहीं की.’’

‘‘क्या करती? तुम सासबहू की बातचीत ही इतनी दिलचस्प थी कि अपने को रोकना जरूरी लगा.’’

‘‘तुम दोनों बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ अम्माजी रसोई की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने को रोक न पाई. उर्मिल से पूछ ही बैठी, ‘‘यह सब क्या हो रहा था? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. यह माफी कैसी मांगी जा रही थी?’’

‘‘रमा, याद है, उस दिन, तू मुझ से बारबार मेरे बदले हुए व्यवहार का कारण पूछ रही थी. बात यह है रमा, अम्माजी के सिर पर दो भूत सवार थे. उन्हें उतारने के लिए मुझे नाटक करना पड़ा.’’

‘‘दो भूत? नाटक? यह सब क्या है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. पहेलियां न बुझा, साफसाफ बता.’’

‘‘बता तो रही हूं, तू उतावली क्यों है? अम्माजी के सिर पर चढ़ा पहला भूत था उन का यह समझ लेना कि बहू आ गई है, उस का कर्तव्य है कि वह प्राणपण से सास की सेवा और देखभाल करे, और सास होने के नाते उन का अधिकार है दिनभर बैठे रहना और हुक्म चलाना. अम्माजी अच्छीभली चलफिर रही होती थीं तो भी अपने इन विचारों के कारण चायदूध का समय होते ही बिस्तर पर जा लेटतीं ताकि मैं सारी चीजें उन्हें बिस्तर पर ही ले जा कर दूं. उन के जूठे बरतन मैं ही उठा कर रखती थी. मेरे द्वारा बरतन उठाते ही वे फिर उठ बैठती थीं और इधरउधर चहलकदमी करने लगती थीं.’’

‘‘अच्छा, दूसरा भूत कौन सा था?’’

‘‘दूसरा भूत था हरदम बीमार रहने का. उन के दिमाग में घुस गया था कि हर समय उन को कुछ न कुछ हुआ रहता है और कोई उन की परवा नहीं करता. डाक्टर भी जाने कैसे लापरवाह हो गए हैं. न जाने कैसी दवाइयां देते हैं, फायदा ही नहीं करतीं.’’

‘‘भई, इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है. अम्माजी दुबली भी तो हो गई हैं,’’ मैं कुछ शिकायती लहजे में बोली.

‘‘मैं इस से कब इनकार करती हूं, पर यह तो प्रकृति का नियम है. उम्र के साथसाथ शक्ति भी कम होती जाती है. मुझे ही देख, कालेज के दिनों में जितनी भागदौड़ कर लेती थी उतनी अब नहीं कर सकती, और जितनी अब कर लेती हूं उतनी कुछ समय बाद न कर सकूंगी. पर इस का यह अर्थ तो नहीं कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं,’’ उर्मिल ने मुझे समझाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी की सब से बड़ी बीमारी है निष्क्रियता. उन के मस्तिष्क में बैठ गया था कि वे हर समय बीमार रहती हैं, कुछ नहीं कर सकतीं. अगर मैं अम्माजी की इस भावना को बना रहने देती तो मैं उन की सब से बड़ी दुश्मन होती. आदमी कामकाज में लगा रहे तो अपने दुखदर्द भूल जाता है और शरीर में रक्त का संचार बढ़ता है, जिस से वह स्वस्थ अनुभव करता है, और फिर व्यस्त रहने से चिड़चिड़ाता भी नहीं रहता.’’

मुझे अचानक हंसी आ गई. ‘‘ले भई, तू ने तो डाक्टरी, फिलौसफी सब झाड़ डाली.’’

‘‘तू चाहे जो कह ले, असली बात तो यही है. अम्माजी को अपने दो भूतों के दायरे से निकालने का एक ही उपाय था कि…’’

‘‘तू उन की अवहेलना करे, उन्हें गुस्सा दिलाए जिस से चिढ़ कर वे काम करें और अपनी शक्ति को पहचानें. यही न?’’  मैं ने वाक्य पूरा कर दिया.

‘‘हां, तू ने ठीक समझा. यद्यपि गुस्सा और उत्तेजना शरीर और हृदय के लिए हानिकारक समझे जाते हैं पर कभीकभी इन का होना भी मनुष्य के रक्तसंचार को गति देने के लिए आवश्यक है. एकदम ठंडे मनुष्य का तो रक्त भी ठंडा हो जाता है. बस, यही सोच कर मैं अम्माजी को जानबूझ कर उत्तेजित करती थी.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है.’’

‘‘तू मेरे नानाजी से तो मिली है न?’’

‘‘हां, शादी से पहले मिली थी एक बार.’’

‘‘जानती है, कुछ दिनों में वे 95 वर्ष के हो जाएंगे. आज भी वे कचहरी जाते हैं. जितना कर पाते हैं, काम करते हैं. कई बार रातरातभर अध्ययन भी करते हैं. अब भी दोनों समय घूमने जाते हैं.’’

‘‘इस उम्र में भी?’’  मुझे आश्चर्य हो रहा था.

‘‘हां, उन की व्यस्तता ही आज भी उन्हें चुस्त रखे हुए है. भले ही वे बीमार से रहते हैं, फिर भी उन्होंने उम्र से हार नहीं मानी है.’’

मैं ने आंख भर कर अपनी इस सहेली को देखा जिस की हर टेढ़ी बात में भी कोई न कोई अच्छी बात छिपी रहती है. ‘‘अच्छा एक बात तो बता, क्या जीजाजी को पता था? उन्हें अपनी मां के प्रति तेरा यह रूखा व्यवहार चुभा नहीं?’’

‘‘उन्होंने एकदो बार कहा, पर मैं ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया कि यह सासबहू का मामला है, आप बीच में न ही बोलें तो अच्छा है.’’

मैं चाय पीते समय कभी हर्ष और आत्मसंतोष से दमकते अम्माजी के चेहरे को देख रही थी, कभी उर्मिल को. आज फिर एक बार उस का बदला रूप देख कर पिछले माह की उर्मिल से तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थी.

अनोखा रिश्ता- भाग 3: कौन थी मिसेज दास

वह मुझे ले कर एक कैफे में गए जहां हम ने समोसे के साथ कौफी पी.  वहीं उन्होंने मुझे बताया कि जिस दक्षिण भारतीय के घर वह ठहरे हैं वह लखपति आदमी है. मैं घर से बाहर निकला नहीं कि जेब में 200 रुपए जबरन ठूंस देता है.

‘तुम अपने दोस्त से मिलने आए हो?’ उन्होंने पूछा तो मैं ने हां में अपनी गरदन हिला दी.

‘क्या करता है तुम्हारा दोस्त?’

‘बी.एससी. कर रहा है, सर.’

‘उस के मांबाप मालदार हैं?’

‘नहीं, वह विधवा मां का इकलौता बेटा है. मां एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. फिर मैं ने उन्हें मिसेज दास के बारे में थोड़ाबहुत संक्षेप में बताया. कैफे के बाहर अचानक शर्माजी ने मुझ से पूछा, ‘आज शाम को तुम क्या कर रहे हो?’

‘कुछ खास नहीं.’

‘तुम 9 बजे के आसपास मुझ से शहर में कहीं मिल सकते हो?’

‘पर कहां? यहां तो मैं पहली बार आया हूं.’

वह कुछ सोचते हुए बोले, ‘ऐसा करो, तुम आज मेरा इंतजार रात के 9 बजे गुवाहाटी स्टेशन के पुल पर करना जो सारे प्लेटफार्मों को जोड़ता है. तुम समय से वहां पहुंच जाना क्योंकि मेरे पास शायद तब उतना समय न होगा कि तुम्हारे  किसी सवाल का जवाब दे सकूं.’

आशंकाओं की धुंध लिए मैं घर वापस आया. मिसेज दास खाना बना रही थीं. जयशंकर उन की मदद कर रहा था. मुझे देखते ही जयशंकर कहने लगा, ‘अगर तुम आने में थोड़ा और देर करते तो मां मुझे तुम्हारी खोज में भेजने वाली थीं. दोपहर का खाना भी तुम ने नहीं खाया.’

मैं माफी मांग कर हाथमुंह धोने चला गया. मेरे दिमाग में बस, एक ही सवाल कुंडली मारे बैठा था कि मिसेज दास को कौन सी कहानी गढ़ के सुनाऊं ताकि वह निश्ंिचत हो कर मुझे शर्माजी से मिलने की अनुमति दे दें.

हाथमुंह धो कर मैं बरामदे में आ गया और आ कर चौकी पर चुपचाप बैठ गया. इस शर्मा से मेरा कोई कल्याण होने वाला है, यह भनक तो मुझे थी पर मैं मिसेज दास को कौन सा बहाना गढ़ कर सुनाऊं, यह मेरे दिमाग में उमड़घुमड़ रहा था.

खाने के बाद मैं ने मिसेज दास को अपनी गढ़ी कहानी सुना दी कि आज अचानक शहर में मुझे मेरे ननिहाल का एक आदमी मिला. स्टेशन के पास ही उस का अपना एक निजी होटल है. मुझे उस से मिलने 9 बजे जाना है.

मिसेज दास चौंकीं, ‘इतनी रात में क्यों?’

इस सवाल का जवाब मेरे पास था…‘होटल के कामों में वह दिन भर व्यस्त रहते हैं. उन के पास समय नहीं होता.’

‘ठीक है, तुम जयशंकर को साथ ले कर जाना. वह यहां के बारे में ठीक से जानता है. गुवाहाटी इतना सुरक्षित नहीं है. मैं इतनी रात में तुम्हें अकेले कहीं भी जाने की अनुमति नहीं दे सकती.’

मैं ने इस बारे में पहले सोच लिया था अत: बोला, ‘मिसेज दास, मैं बच्चा थोड़े ही हूं जो आप इतना घबरा रही हैं. हो सकता है कि अगला कुछ खानेपीने को कहे, ऐसे में अच्छा नहीं लगता किसी को बिना आमंत्रण के साथ ले जाना.’

मेरी बात सुन कर मिसेज दास की पेशानी पर बल पड़े पर उन्हें सबकुछ युक्तिसंगत लगा.

‘ठीक है, समय से तैयार हो जाना. मैं एक रिकशा तुम्हारे लिए तय कर दूंगी. वह तुम्हें वापस भी ले आएगा.’

ठीक साढ़े 8 बजे मिसेज दास एक रिकशे वाले को बुला कर लाईं. मैं उस पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल पड़ा. स्टेशन के सामने वह मुझे उतार कर बोला, ‘मैं अपना रिकशा स्टैंड पर लगा कर स्टेशन

के सामने आप का इंतजार करूंगा.’

9 बजने में अभी 5 मिनट बाकी थे. अंदर से मैं थोड़ा घबरा रहा था. प्लेटफार्मों को जोड़ने वाले पुल पर आधी गुवाहाटी अपने चिथड़ों में लिपटी सो रही थी. घुप अंधेरा था. यह शर्मा कहीं किसी षड्यंत्र में मुझे फंसाने तो नहीं जा रहा, सोचते ही मेरी रीढ़ की हड्डी तक सिहर गई थी. अचानक मुझे पुल पर एक आदमी लगभग भागता हुआ आता दिखा. इस घुप अंधेरे में भी शर्माजी की आंखें मुझे पहचानने में धोखा न खाईं… ‘ये हैं 600 रुपए. इन्हें संभालो और फटाफट अपना रास्ता नाप लो.’

मैं आननफानन में सारे रुपए अपनी जेब में ठूंस कर वहां से चल दिया. बाहर आते ही मेरा रिकशा वाला मुझे मिल गया. मैं ने एक घंटे का समय ले रखा था. हम घर की तरफ वापस लौट पड़े. रास्ते भर पुलिस की सीटियों और चोरचोर पकड़ो का स्वर मेरे कानों में गूंजता रहा.

घर पर मेरी असहजता कोई भी भांप न पाया. मिसेज दास और जयशंकर दोनों जागे हुए थे. बरामदे के सामने रिकशे के रुकते ही दोनों बरामदे में आ गए, ‘क्या हुआ, इतनी जल्दी वापस क्यों आ गए?’

वह बिहारी होटल में था ही नहीं तो मैं उस के नाम एक परची पर यहां का पता लिख कर वापस आ गया. कब तक मैं उस का इंतजार करता. आप भी देर होने पर घबरातीं.

‘चाय पीओगे,’ बड़ी आत्मीयता से मिसेज दास बोलीं.

मैं यह भी नहीं चाहता था कि मिसेज दास मेरी असहजता भांप लें. थकावट का बहाना बना कर बरामदे में आ गया और अपनी चौैकी पर लेट कर एक पतली सी चादर अपने चेहरे तक तान ली. नींद तो मुझे आने से रही.

रात भर बुरेबुरे खयाल तसवीर बन कर मेरी आंखों के सामने आते रहे और एक अनजाने भय से मैं रात भर बस, करवटें ही बदलता रहा. रात में 2-3 बार मिसेज दास मेरी मच्छरदानी ठीक करने आईं. मैं झट अपनी आंखें मूंद लेता था. ये शर्माजी के 600 रुपए अभी तक मेरी दाईं जेब में ठुंसे पड़े थे जिन्हें सहेजने की मेरे पास हिम्मत न थी.

सुबह होते ही रात का भय जाता रहा. रोज की तरह अपनी दिनचर्या शुरू हुई. 10 बजे के बाद मैं अकेला था.

मैं बाहर निकला तो नुक्कड़ पर मुझे वही रिकशे वाला टकरा गया जो स्टेशन ले गया था. उस के रिकशे पर बैठ कर मैं पास के एक बाजार में गया. 2 घंटे की खरीदारी में मिसेज दास के लिए मैं ने एक ऊनी शाल खरीदी और एक जोड़ी ढंग की चप्पल भी.

जयशंकर के लिए एक रेडीमेड पैंट और कमीज खरीदी. इस के अलावा मैं ने तरहतरह की मौसमी सब्जियां, सेब, नारंगी, मिठाइयां और एक किलो रोहू मछली भी खरीदी. इस खरीदारी में 300 रुपए खर्च हो गए पर रास्ते भर मैं बस, यही सोच कर खुश होता रहा कि इतने सारे सामानों को देख कर मिसेज दास और जयशंकर कितने खुश होंगे.

जयशंकर कालिज से वापस घर आया तो सामान का ढेर देखते ही पूछा, ‘बाबा, का पैसा आ गया क्या?’

मैं ने उसे बताया कि मेरे ननिहाल वाला आदमी आया था. जबरदस्ती मेरे हाथ पर 600 रुपए रख गया. मेरे नाना से वापस ले लेगा. तुम मिठाई खाओ न.

जयशंकर बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाए अपने कपड़े बदल कर दोपहर का खाना लगाने लगा. मैं उसे कुरेदता रहा पर वह बिना एक शब्द बोले सिर झुकाए खाना खाता रहा.

जब मैं थोड़ा सख्त हुआ तो वह कहने लगा. बस, तुम ने हमारा स्वाभिमान आहत किया है. इतने पैसे खर्च करने से पहले तुम्हें मां से बात कर लेनी चाहिए थी. मां को उपहारों से बड़ी घबराहट होती है.’

हरिनूर

‘‘अरे, इस बैड नंबर8 का मरीज कहां गया? मैं तो इस लड़के से तंग आ गई हूं. जब भी मैं ड्यूटी पर आती हूं, कभी बैड पर नहीं मिलता,’’ नर्स जूली काफी गुस्से में बोलीं.

‘आंटी, मैं अभी ढूंढ़ कर लाती हूं,’’ एक प्यारी सी आवाज ने नर्स जूली का सारा गुस्सा ठंडा कर दिया. जब उन्होंने पीछे की तरफ मुड़ कर देखा, तो बैड नंबर 10 के मरीज की बेटी शबीना खड़ी थी.

शबीना ने बाहर आ कर देखा, फिर पूरा अस्पताल छान मारा, पर उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिया और थकहार कर वापस जा ही रही थी कि उस की नजर बगल की कैंटीन पर गई, तो देखा कि वे जनाब तो वहां आराम फरमा रहे थे और गरमागरम समोसे खा रहे थे.

शबीना उस के पास गई और धीरे से बोली, ‘‘आप को नर्स बुला रही हैं.’’

उस ने पीछे घूम कर देखा. सफेद कुरतासलवार, नीला दुपट्टा लिए सांवली, मगर तीखे नैननक्श वाली लड़की खड़ी हुई थी. उस ने अपने बालों की लंबी चोटी बनाई हुई थी. माथे पर बिंदी, आंखों में भरापूरा काजल, हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यों की खनखन.

वह बड़े ही शायराना अंदाज में बोला, ‘‘अरे छोडि़ए ये नर्सवर्स की बातें. आप को देख कर तो मेरे जेहन में बस यही खयाल आया है… माशाअल्लाह…’’

‘‘आप भी न…’’ कहते हुए शबीना वहां से शरमा कर भाग आई और सीधे बाथरूम में जा कर आईने के सामने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया. फिर हाथों को मलते हुए अपने चेहरे को साफ किया और बालों को करीने से संवारते हुए बाहर आ गई.

तब तक वह मरीज, जिस का नाम नीरज था, भी वापस आ चुका था. शबीना घबरा कर दूसरी तरफ मुंह कर के बैठ गई.

नीरज ने देखा कि शबीना किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है, तो उस ने सोचा कि क्यों न पहले उस की मम्मी से बात की जाए.

शबीना की मां को टायफायड हुआ था, जिस से उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था. नीरज को बुखार था, पर काफी दिनों से न उतरने के चलते उस की मां ने उसे दाखिल करा दिया था.

नीरज की शबीना की अम्मी से काफी पटती थी. परसों ही दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी, पर तब तक नीरज और शबीना अच्छे दोस्त बन चुके थे.

शबीना 10वीं जमात की छात्रा थी और नीरज 11वीं जमात में पढ़ता था. दोनों के स्कूल भी आमनेसामने थे. वैसे भी फतेहपुर एक छोटी सी जगह है, जहां कोई भी आसानी से एकदूसरे के बारे में पता लगा सकता है. सो, नीरज ने शबीना का पता लगा ही लिया.

एक दिन स्कूल से बाहर आते समय दोनों की मुलाकात हो गई. दोनों ही एकदूसरे को देख कर खुश हुए. उन की दोस्ती और गहरी होती गई.

इसी बीच शबीना कभीकभार नीरज के घर भी जाने लगी, पर वह नीरज को अपने घर कभी नहीं ले गई.

ऐसे ही 2 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. अब यह दोस्ती इश्क में बदल कर रफ्तारफ्ता परवान चढ़ने लगी.

एक दिन जब शबीना कालेज से घर में दाखिल हुई, तो उसे देखते ही अम्मी चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें बताया था न कि तुम्हें देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं, पर तुम ने वही किया जो 2 साल से कर रही हो. तुम्हारी जोया आपा ठीक ही कह रही थीं कि तुम एक लड़के के साथ मुंह उठाए घूमती रहती हो.’’

‘‘अम्मी, आप मेरी बात तो सुनो… वह लड़का बहुत अच्छा है. मुझ से बहुत प्यार करता है. एक बार मिल कर तो देखो. वैसे, तुम उस से मिल भी चुकी हो,’’ शबीना एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘वैसे अम्मी, अब्बू कौन होते हैं हमारी निजी जिंदगी का फैसला करने वाले? कभी दुखतकलीफ में तुम्हारी खैर पूछने आए, जो आज इस पर उंगली उठाएंगे? हम मरें या जीएं, उन्हें कोई फर्क पड़ता है क्या?

‘‘शायद आप भूल गई हो, पर मेरे जेहन में वह सबकुछ आज भी है, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. तब नई अम्मी ने अब्बू के सामने ही कैसे हमें जलील किया था.

‘‘इतना ही नहीं, हम सभी को घर से बेदखल भी कर दिया था.’’

तभी जोया आपा घर में आईं.

‘‘अरे जोया, तुम ही इस को समझाओ. मैं तुम दोनों के लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कहते हुए अम्मी रसोईघर में चली गईं.

रसोईघर क्या था… एक बड़े से कमरे को बीच से टाट का परदा लगा कर एक तरफ बना लिया गया था, तो दूसरी तरफ एक पुराना सा डबल बैड, टूटी अलमारी और अम्मी की शादी का एक पुराना बक्सा रखा था, जिस में अम्मी के कपड़े कम, यादें ज्यादा बंद थीं. मगर सबकुछ रखा बड़े करीने से था.

तभी अम्मी चाय और बिसकुट ले कर आईं और सब चाय का मजालेने लगे.

शबीना यादों की गहराइयों में खो गई… वह मुश्किल से 6-7 साल की थी, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. वह अपनी बड़ी सी हवेली के बगीचे में खेल रही थी. तभी नई अम्मी घर में दाखिल हुईं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. उस की अम्मी हर वक्त रोती क्यों रहती हैं?

जब नई अम्मी को बेटा हुआ, तो जोया आपा और अम्मी को बेदखल कर उसी हवेली में नौकरों के रहने वाली जगह पर एक कोना दे दिया गया.

अम्मी दिनभर सिलाईकढ़ाई करतीं और जोया आपा भी दूसरों के घर का काम करतीं तो भी दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं हो पाती थी.

अम्मी 30 साल की उम्र में 50 साल की दिखने लगी थीं. ऐसा नहीं था कि अम्मी खूबसूरत नहीं थीं. वे हमेशा अब्बू की दीवानगी के किस्से बयां करती रहती थीं.

सभी ने अम्मी को दूसरा निकाह करने को कहा, पर अम्मी तैयार नहीं हुईं. पर इधर कुछ दिनों से वे काफी परेशान थीं. शायद जोया आपा के सीने पर बढ़ता मांस परेशानी का सबब था. मेरे लिए वह अचरज, पर अम्मी के लिए जिम्मेदारी.

‘‘शबीना… ओ शबीना…’’ जोया आपा की आवाज ने शबीना को यादों से वर्तमान की ओर खींच दिया.

‘‘ठीक है, उस लड़के को ले कर आना, फिर देखते हैं कि क्या करना है.’’

लड़के का फोटो देख शबीना खुशी से उछल गई और चीख पड़ी. भविष्य के सपने संजोते हुए वह सोने चली गई.

अकसर उन दोनों की मुलाकात शहर के बाहर एक गार्डन में होती थी. आज जब वह नीरज से मिली, तो उस ने कल की सारी घटना का जिक्र किया, ‘‘जनाब, आप मेरे घर चल रहे हैं. अम्मी आप से मुलाकात करना चाह रही हैं.’’

‘‘सच…’’ कहते हुए नीरज ने शबीना को अपनी बांहों में भर लिया. शबीना शरमा कर बड़े प्यार से नीरज को देखने लगी, फिर नीरज की गाड़ी से ही घर पहुंची.

नीरज तो हैरान रह गया कि इतनी बड़ी हवेली, सफेद संगमरमर सी नक्काशीदार दीवारें और एक मुगलिया संस्कृति बयां करता हरी घास का

लान, जरूर यह बड़ी हैसियत वालों की हवेली है.

नीरज काफी सकुचाते हुए अंदर गया, तभी शबीना बोली, ‘‘नीरज, उधर नहीं, यह अब्बू की हवेली है. मेरा घर उधर कोने में है.’’

हैरानी से शबीना को देखते हुए नीरज उस के पीछेपीछे चल दिया. सामने पुराने से सर्वैंट क्वार्टर में शबीना दरवाजे पर टंगी पुरानी सी चटाई हटा कर अंदर नीरज के साथ दाखिल हुई.

नीरज ने देखा कि वहां 2 औरतें बैठी थीं. उन का परिचय शबीना ने अम्मी और जोया आपा कह कर कराया.

अम्मी ने नीरज को देखा. वह उन्हें बड़ा भला लड़का लगा और बड़े प्यार से उसे बैठने के लिए कहा.

अम्मी ने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के लिए चाय बना कर लाती हूं. तब तक अब्बू और भाईजान भी आते होंगे.’’

‘‘अब्बू, अरे… आप ने उन्हें क्यों बुलाया? मैं ने आप से पहले ही मना किया था,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए शबीना अम्मी पर बरस पड़ी.

अम्मी भी गुस्से में बोलीं, ‘‘चुपचाप बैठो… अब्बू का फैसला ही आखिरी फैसला होगा.’’

शबीना कातर निगाहों से नीरज को देखने लगी. नीरज की आंखों में उठे हर सवाल का जवाब वह अपनी आंखों से देने की कोशिश करती.

थोड़ी देर तक वहां सन्नाटा पसरा रहा, तभी सामने की चटाई हिली और भरीभरकम शरीर का आदमी दाखिल हुआ. वे सफेद अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए थे. साथ ही, उन के साथ 17-18 साल का एक लड़का भी अंदर आया.

आते ही उस आदमी ने नीरज का कौलर पकड़ कर उठाया और दोनों लोग नीरज को काफी बुराभला कहने लगे.

नीरज एकदम अचकचा गया. उस ने संभलने की कोशिश की, तभी उस में से एक आदमी ने पीछे से वार कर दिया और वह फिर वहीं गिर गया.

शबीना कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस के अब्बू चिल्ला कर बोले, ‘‘खबरदार, जो इस लड़के से मिली. तुझे शर्म नहीं आती… वह एक हिंदू लड़का है और तू मुसलमान…’’ नीरज की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘‘आज के बाद शबीना की तरफ आंख उठा कर मत देखना, वरना तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का वह हाल करेंगे कि प्यार का सारा भूत उतर जाएगा.’’

नीरज ने समय की नजाकत को समझते हुए चुपचाप चले जाना ही उचित समझा.

अब्बू ने शबीना का हाथ झटकते हुए अम्मी की तरफ धक्का दिया और गरजते हुए बोले, ‘‘नफीसा, शबीना का ध्यान रखो और देखो अब यह लड़का कभी शबीना से न मिले. इस किस्से को यहीं खत्म करो,’’ और यह कहते हुए वे उलटे पैर वापस चले गए.

अब्बू के जाते ही जो शबीना अभी तक तकरीबन बेहोश सी पड़ी थी, तेजी से खड़ी हो गई और अम्मी से बोली, ‘‘अम्मी, यह सब क्या है? आप ने इन लोगों को क्यों बुलाया? अरे, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि ये इतने सालों में कभी तो हमारा हाल पूछने नहीं आए. हम मर रहे हैं या जी रहे हैं, पेटभर खाना खाया है कि नहीं, कैसे हम जिंदगी गुजार रहे हैं. दोदो पैसे कमाने के लिए हम ने क्याक्या काम नहीं किया.

‘‘बोलो न अम्मी, तब ये कहां थे? जब हमारी जिंदगी में चंद खुशियां आईं, तो आ गए बाप का हक जताने. मेरा बस चले, तो आज मैं उन का सिर फोड़ देती.’’

‘‘शबीना…’’ कहते हुए अम्मी ने एक जोरदार चांटा शबीना को रसीद कर दिया और बोलीं, ‘‘बहुत हुआ… अपनी हद भूल रही है तू. भूल गई कि उन से मेरा निकाह ही नहीं हुआ है, दिल का रिश्ता है. मैं उन के बारे में एक भी गलत लफ्ज सुनना पसंद नहीं करूंगी. कल से तुम्हारा और नीरज का रास्ता अलगअलग है.’’

शबीना सारी रात रोती रही. उस की आंखें सूज कर लाल हो गईं. सुबह जब अम्मी ने शबीना को इस हाल में देखा, तो उन्हें बहुत दुख हुआ. वे उस के बिखरे बालों को समेटने लगीं. मगर शबीना ने उन का हाथ झटक दिया.

बहरहाल, इसी तरह दिनहफ्ते, महीने बीतने लगे. शबीना और नीरज की कोई बातचीत तक नहीं हुई. न ही नीरज ने मिलने की कोशिश की और न ही शबीना ने.

इसी तरह एक साल बीत गया. अब तक अम्मी ने मान लिया था कि शबीना अब नीरज को भूल चुकी है.

उसी दौरान शबीना ने अपनी फैशन डिजाइन के काम में काफी तरक्की कर ली थी और घर में अब तक सब नौर्मल हो गया था. सब ने सोचा कि अब तूफान शांत हो चुका है.

वह दिन शबीना की जिंदगी का बहुत खास दिन था. आज उस के कपड़ों की प्रदर्शनी थी. वह तेजतेज कदमों से लिफ्ट की तरफ बढ़ रही थी, तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला, तो सामने खड़े शख्स को देख कर उस के पैर ठिठक गए.

‘‘कैसी हो शबीना?’’ उस ने बोला, तो शबीना की आंखों से आंसू आ गए. बिना कुछ बोले भाग कर वह उस के गले लग गई.

‘‘तुम कैसे हो नीरज? उस दिन तुम्हारी इतनी बेइज्जती हुई कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि तुम से कैसे बात करूं, पर सच में मैं तुम्हें कभी भी नहीं भूली…’’

नीरज ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘वह सब छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहां कैसे?

‘‘आज मेरे सिले कपड़ों की प्रदर्शनी लगी है, पर तुम…’’

‘‘मैं यहां का मैनेजर हूं.’’

शबीना ने मुसकराते हुए प्यारभरी निगाहों से नीरज को देखा. नीरज को लगा कि उस ने सारे जहां की खुशियां पा ली हैं.

‘‘अच्छा सुनो, मैं यहां का सारा काम खत्म कर के रात में 8 बजे तुम से यहीं मिलूंगी.’’

आज शबीना का मन अपने काम में नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि जल्दी से नीरज के पास पहुंच जाए.

शबीना को देखते ही नीरज बोला, ‘‘कुछ इस कदर हो गई मुहब्बत तनहाई से अपनी कि कभीकभी इन सांसों के शोर को भी थामने की कोशिश कर बैठते हैं जनाब…’’

शबीना मुसकराते हुए बोली, ‘‘शिकवा तो बहुत है मगर शिकायत कर नहीं सकते… क्योंकि हमारे होंठों को इजाजत नहीं है तुम्हारे खिलाफ बोलने की,’’ और वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘नीरज, तुम्हें पता नहीं है कि आज मैं मुद्दतों बाद इतनी खुल कर हंसी हूं.’’

‘‘शायद मैं भी…’’ नीरज ने कहा. रात को दोनों ने एकसाथ डिनर किया और दोनों चाहते थे कि इतने दिनों की जुदाई की बातें एक ही घंटे में खत्म कर दें, जो कि मुमकिन नहीं था. फिर वे दोनों दिनभर के काम के बाद उसी पुराने गार्डन या कैफे में मिलने लगे.

लोग अकसर उन्हें साथ देखते थे. शबीना के घर वालों को भी पता चल गया था, पर उन्हें लगता था कि वे शादी नहीं करेंगे. वे इस बारे में शबीना को समयसमय पर हिदायत भी देते रहते थे.

इसी तरह साल दर साल बीतने लगे. एक दिन रात के अंधेरे में उन दोनों ने अपना शहर छोड़ एक बड़े से महानगर में अपनी दुनिया बसा ली, जहां उस भीड़ में उन्हें कोई पहचानता तक नहीं था. वहीं पर दोनों एक एनजीओ में नौकरी करने लगे.

उन दोनों का घर छोड़ कर अचानक जाना किसी को अचरज भरा नहीं लगा, क्योंकि सालों से लोगों को उन्हें एकसाथ देखने की आदत सी पड़ गई थी. पर अम्मी को शबीना का इस तरह जाना बहुत खला. वे काफी बीमार रहने लगीं. जोया आपा का भी निकाह हो गया था.

इधर शबीना अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. समय पंख लगा कर उड़ने लगा था. एक दिन पता चला कि उस की अम्मी को कैंसर हो गया और सब लोगों ने यह कह कर इलाज टाल दिया था कि इस उम्र में इतना पैसा इलाज में क्यों बरबाद करें.

शबीना को जब इस बात का पता चला, तो उस ने नीरज से बात की.

नीरज ने कहा, ‘‘तुम अम्मी को अपने पास ही बुला लो. हम मिल कर उन का इलाज कराएंगे.’’

शबीना अम्मी को इलाज कराने अपने घर ले आई. अम्मी जब उन के घर आईं, तो उन का प्यारा सा संसार देख कर बहुत खुश हुईं.

नीरज ने बड़ी मेहनत कर पैसा जुटाया और उन का इलाज कराया और वे धीरेधीरे ठीक होने लगीं. अब तो उन की बीमारी भी धीरेधीरे खत्म हो गई. मगर अम्मी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती. नीरज उन की परेशानी को समझ गया.

एक दिन शाम को अम्मी शबीना के साथ बैठी थीं, तभी नीरज भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘अम्मी, जिंदगी में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नहीं है, पर रिश्तों में ज्यादा जिंदगी होना जरूरी है. अम्मी, जब बनाने वाले ने कोई फर्क नहीं रखा, तो हम कौन होते हैं फर्क रखने वाले.

‘‘अम्मी, मेरी तो मां भी नहीं हैं, मगर आप से मिल कर वह कमी भी पूरी हो गई.’’

अम्मी ने प्यार से नीरज को गले लगा लिया, तभी नीरज बोला, ‘‘आज एक और खुशखबरी है, आप जल्दी ही नानी बनने वाली हैं.’’

अब अम्मी बहुत खुश थीं. वे अकसर शबीना के घर आती रहतीं. समय के साथ ही शबीना ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम शबीना ने हरिनूर रखा. शबीना ने यह नाम दे कर उसे हिंदूमुसलमान के झंझावातों से बरी कर दिया था.

चीयर गर्ल: फ्रैंड रिक्वैस्ट एक्सैप्ट करने के बाद क्या हुआ उसके साथ

Romantic Story in hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें