किस्सा डाइटिंग का: क्या अपना वजन कम कर पाए गुप्ताजी

एक दिन सुबहसुबह पत्नी ने मुझ से कहा, ‘‘आप ने अपने को शीशे में  देखा है. गुप्ताजी को देखो, आप से 5 साल बड़े हैं पर कितने हैंडसम लगते हैं और लगता है जैसे आप से 5 साल छोटे हैं. जरा शरीर पर ध्यान दो. कचौरी खाते हो तो ऐसा लगता है कि बड़ी कचौरी छोटी कचौरी को खा रही है. पेट की गोलाई देख कर तो गेंद भी शरमा जाए.’’

मैं आश्चर्यचकित रह गया. यह क्या, मैं तो अपने को शाहरुख खान का अवतार समझता था. मैं ने शीशे में ध्यान से खुद को देखा, तो वाकई वे सही कह रही थीं. यह मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो मैं कभी नहीं था. अब क्या किया जाए? सभी मिल कर बैठे तो बातें शुरू हुईं. बेटे ने कहा, ‘‘पापा, आप को बहुत तपस्या करनी पड़ेगी.’’

फिर क्या था. बेटी भी आ गई, ‘‘हां पापा, मैं आप के लिए डाइटिंग चार्ट बना दूं. बस, आप तो वही करते जाओ जोजो मैं कहूं, फिर आप एकदम स्मार्ट लगने लगेंगे.’’

मैं क्या करता. स्मार्ट बनने की इच्छा के चलते मैं ने उन की सारी बातें मंजूर कर लीं पर फिर मुझे लगा कि डाइटिंग तो कल से शुरू करनी है तो आज क्यों न अंतिम बार आलू के परांठे खा लिए जाएं. मैं ने कहा कि थोड़ी सी टमाटर की चटनी भी बना लेते हैं. पत्नी ने इस प्रस्ताव को वैसे ही स्वीकार कर लिया जैसे कि फांसी पर चढ़ने वाले की अंतिम इच्छा को स्वीकार करते हैं.

मैं ने भरपेट परांठे खाए. उठने ही वाला था कि बेटी पीछे पड़ गई, ‘‘पापा, एक तो और ले लो.’’

पत्नी ने भी दया भरी दृष्टि मेरी ओर दौड़ाई, ‘‘कोई बात नहीं, ले लो. फिर पता नहीं कब खाने को मिलें.’’

आमतौर पर खाने के मामले में इतना अपमान हो तो मैं कदापि नहीं खा सकता था पर मैं परांठों के प्रति इमोशनल था कि बेचारे न जाने फिर कब खाने को मिलें.

रात को सो गया. सुबह अलार्म बजा. मैं ने पत्नी को आवाज दी तो वे बोलीं, ‘‘घूमने मुझे नहीं, आप को जाना है.’’

मैं मरे मन से उठा. रात को प्रोग्राम बनाते समय सुबह 5 बजे उठना जितना आसान लग रहा था अब उतना ही मुश्किल लग रहा था. उठा ही नहीं जा रहा था.

जैसेतैसे उठ कर बाहर आ गया. ठंडीठंडी हवा चल रही थी. हालांकि आंखें मुश्किल से खुल रही थीं पर धीरेधीरे सब अच्छा लगने लगा. लगा कि वाकई न घूम कर कितनी बड़ी गलती कर रहा था. लौट कर मैं ने घर के सभी सदस्यों को लंबा- चौड़ा लैक्चर दे डाला. और तो और अगले कुछ दिनों तक मुझे जो भी मिला उसे मैं ने सुबह उठ कर घूमने के फायदे गिनाए. सभी लोग मेरी प्रशंसा करने लगे.

पर सब से खास परीक्षा की घड़ी मेरे सामने तब आई जब लंच में मेरे सामने थाली आई. मेरी थाली की शोभा दलिया बढ़ा रहा था जबकि बेटे की थाली में मसालेदार आलू के परांठे शोभा बढ़ा रहे थे. चूंकि वह सामने ही खाना खा रहा था इसलिए उस की महक रहरह कर मेरे मन को विचलित कर रही थी.

मरता क्या न करता, चुपचाप मैं जैसेतैसे दलिए को अंदर निगलता रहा और वे सभी निर्विकार भाव से मेरे सामने आलू के परांठों का भक्षण कर रहे थे, पर आज उन्हें मेरी हालत पर तनिक भी दया नहीं आ रही थी.

खाने के बाद जब मैं उठा तो मुझे लग ही नहीं रहा था कि मैं ने कुछ खाया है. क्या करूं, भविष्य में अपने शारीरिक सौंदर्य की कल्पना कर के मैं जैसेतैसे मन को बहलाता रहा.

डाइटिंग करना भी एक बला है, यह मैं ने अब जाना था. शाम को जब चाय के साथ मैं ने नमकीन का डब्बा अपनी ओर खिसकाया तो पत्नी ने उसे वापस खींच लिया.

‘‘नहीं, पापा, यह आप के लिए नहीं है,’’ यह कहते हुए बेटे ने उसे अपने कब्जे में ले लिया और खोल कर बड़े मजे से खाने लगा. मैं क्या करता, खून का घूंट पी कर रह गया.

शाम को फिर वही हाल. थाली में खाना कम और सलाद ज्यादा भरा हुआ था. जैसेतैसे घासपत्तियों को गले के नीचे उतारा और सोने चल दिया. पर पत्नी ने टोक दिया, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो. अभी तो तुम्हें सिटी गार्डन तक घूमने जाना है.’’

मुझे लगा, मानो किसी ने पहाड़ से धक्का दे दिया हो. सिटी गार्डन मेरे घर से 2 किलोमीटर दूर है. यानी कि कुल मिला कर आनाजाना 4 किलोमीटर. जैसेतैसे बाहर निकला तो ठंडी हवा बदन में चुभने लगी. आंखों में आंसू भले नहीं उतरे, मन तो दहाड़ें मार कर रो रहा था. मैं जब बाहर निकल रहा था तो बच्चे रजाई में बैठे टीवी देख रहे थे. बाहर सड़क पर भी दूरदूर तक कोई नहीं था पर क्या करता, स्मार्ट जो बनना था, सो कुछ न कुछ तो करना ही था.

फिर यही दिनचर्या चलने लगी. एक ओर खूब जम कर मेहनत और दूसरी ओर खाने को सिर्फ घासफूस. अपनी हालत देख कर मन बहुत रोता था. लोग बिस्तर में दुबके रहते और मैं घूमने निकलता था. लोग अच्छेअच्छे पकवान खाते और मैं वही बेकार सा खाना.

तभी एक दिन मैं ने सुबह 9 बजे अपने एक मित्र को फोन किया. मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि वह अभी तक सो कर ही नहीं उठा था जबकि उस ने मुझे घूमने के मामले में बहुत ज्ञान दिया था. करीब 10 बजे मैं ने दोबारा फोन किया. तो भी जनाब बिस्तर में ही थे. मैं ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘क्यों भई, तुम तो घूमने के बारे में इतना सारा ज्ञान दे रहे थे. सुबह 10 बजे तक सोना, यह सब क्या है.’’

मित्र हंसने लगा, ‘‘अरे भई, आज संडे है. सप्ताह में एक दिन छुट्टी, इस दिन सिर्फ आराम का काम है.’’

मुझे लगा, यही सही रास्ता है. मैं ने फौरन एक दिन के साप्ताहिक अवकाश की घोषणा कर दी और फौरन दूसरे ही दिन उसे ले भी लिया. देर से सो कर उठना कितना अच्छा लगता है और वह भी इतने संघर्ष के बाद. उस दिन मैं बहुत खुश रहा. पर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, दूसरे दिन तो घूमने जाना ही था.

तभी बीच में एक दिन एक रिश्तेदार की शादी आ गई. खाना भी वहीं था. पहले यह तय हुआ था कि मेरे लिए कुछ हल्काफुल्का खाना बना लिया जाएगा पर जब जाने का समय आया तो पत्नी ने फैसला सुनाया कि वहीं पर कुछ हल्का- फुल्का खाना खा लेंगे. बस, मिठाइयों पर थोड़ा अंकुश रखें तो कोई परेशानी थोड़े ही है.

उन के इस निर्णय से मन को बहुत राहत पहुंची और मैं ने वहां केवल मिठाई चखी भर, पर चखने ही चखने में इतनी खा गया कि सामान्य रूप से कभी नहीं खाता था. उस रात को मुझे बहुत अच्छी नींद आई थी क्योंकि मैं ने बहुत दिनों बाद अच्छा खाना खाया था लेकिन नींद भी कहां अपनी किस्मत में थी. सुबह- सुबह कम्बख्त अलार्म ने मुझे फिर घूमने के लिए जगा दिया. जैसेतैसे उठा और घूमने चल दिया.

मेरी बड़ी मुसीबत हो गई थी. जो चीजें मुझे अच्छी नहीं लगती थीं वही करनी पड़ रही थीं. जैसेतैसे निबट कर आफिस पहुंचा. पर यहां भी किसी काम में मन नहीं लग रहा था. सोचा, कैंटीन जा कर एक चाय पी लूं. आजकल घर पर ज्यादा चाय पीने को नहीं मिलती थी. चूंकि अभी लंच का समय नहीं था इसलिए कैंटीन में ज्यादा भीड़ नहीं थी पर मैं ने वहां शर्मा को देखा. वह मेरे सैक्शन में काम करता था और वहां बैठ कर आलूबड़े खा रहा था. मुझे देख कर खिसिया गया. बोला, ‘‘अरे, वह क्या है कि आजकल मैं डाइटिंग पर चल रहा हूं. अब कभीकभी अच्छा खाने को मन तो करता ही है. अब इस जबान का क्या करूं. इसे तो चटपटा खाने की आदत पड़ी है पर यह सब कभीकभी ही खाता हूं. सिर्फ मुंह का स्वाद चेंज करने के लिए…मेरा तो बहुत कंट्रोल है,’’ कह कर शर्मा चला गया पर मुझे नई दिशा दे गया. मेरी तो बाछें खिल गईं. मैं ने फौरन आलूबड़े और समोसे मंगाए और बड़े मजे से खाए.

उस दिन के बाद मैं प्राय: वहां जा कर अपना जायका चेंज करने लगा. हां, एक बात और, डाइटिंग का एक और पीडि़त शर्मा, जोकि अपने कंट्रोल की प्रशंसा कर रहा था, वह वहां अकसर बैठाबैठा कुछ न कुछ खाता रहता था. शुरूशुरू में वह मुझ से शरमाया भी पर फिर बाद में हम लोग मिलजुल कर खाने लगे.

बस, यह सिलसिला ऐसे ही चलने लगा. इधर तो पत्नी मुझ से मेहनत करवा रही थी और दूसरी ओर आफिस जाते ही कैंटीन मुझे पुकारने लगती थी. मैं और मेरी कमजोरी एकदूसरे पर कुरबान हुए जा रहे थे. पत्नी ध्यान से मुझे ऊपर से नीचे तक देखती और सोच में पड़ जाती.

फिर 2 महीने बाद वह दिन भी आया जहां से मेरा जीवन ही बदल गया. हुआ यों कि हम सब लोग परिवार सहित फिल्म देखने गए. वहां पत्नी की निगाह वजन तौलने वाली मशीन पर पड़ी. 2-2 मशीनें लगी हुई थीं. फौरन मुझे वजन तौलने वाली मशीन पर ले जाया गया. मैं भी मन ही मन प्रसन्न था. इतनी मेहनत जो कर रहा था. सुबहसुबह उठना, घूमनाफिरना, दलिया, अंकुरित नाश्ता और न जाने क्याक्या.

मैं शायद इतने गुमान से शादी में घोड़ी पर भी नहीं चढ़ा होऊंगा. सभी लोग मुझे घेर कर खड़े हो गए. मशीन शुरू हो गई. 2 महीने पहले मेरा वजन 80 किलो था. तभी मशीन से टिकट निकला. सभी लोग लपके. टिकट मेरी पत्नी ने उठाया. उस का चेहरा फीका पड़ गया.

‘‘क्या बात है भई, क्या ज्यादा कमजोर हो गया? कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’’ मैं ने पत्नी को सांत्वना दी.

पर यह क्या, पत्नी तो आगबबूला हो गई, ‘‘खाक दुबले हो गए. पूरे 5 किलो वजन बढ़ गया है. जाने क्या करते हैं.’’

मैं हक्काबक्का रह गया. यह क्या? इतनी मेहनत? मुझे कुछ समझ में नहीं आया. कहां कमी रह गई, बच्चों के तो मजे आ गए. उस दिन की फिल्म में जो कामेडी की कमी थी, वह उन्होंने मुझ पर टिप्पणी कर के पूरी की. दोनों बच्चे बहुत हंसे.

मैं ने भी बहुत सोचा और सोचने के बाद मुझे समझ में आया कि आजकल मैं कैंटीन ज्यादा ही जाने लगा था. शायद इतने समोसे, आलूबडे़, कचौरियां कभी नहीं खाईं. पर अब क्या हो सकता था. पिक्चर से घर लौटने के बाद रात को खाने का वक्त भी आया. मैं ने आवाज लगाई, ‘‘हां भई, जल्दी से मेरा दलिया ले आओ.’’

पत्नी ने खाने की थाली ला कर रख दी. उस में आलू के परांठे रखे हुए थे. ‘‘बहुत हो गया. हो गई बहुत डाइटिंग. जैसा सब खाएंगे वैसा ही खा लो. और थोड़े दिन डाइटिंग कर ली तो 100 किलो पार कर जाओगे.’’

मैं भला क्या कहता. अब जैसी पत्नीजी की इच्छा. चुपचाप आलू के परांठे खाने लगा. अब कोई नहीं चाहता कि मैं डाइटिंग करूं तो मेरा कौन सा मन करता है. मैं ने तो लाख कोशिश की पर दुबला हो ही नहीं पाया तो मैं भी क्या करूं. इसलिए मैं ने उन की इच्छाओं का सम्मान करते डाइटिंग को त्याग दिया.

साथ साथ: कौनसी अनहोनी हुई थी रुखसाना और रज्जाक के साथ

आपरेशन थियेटर के दरवाजे पर लालबत्ती अब भी जल रही थी और रुखसाना बेगम की नजर लगातार उस पर टिकी थी. पलकें मानो झपकना ही भूल गई थीं, लग रहा था जैसे उसी लालबत्ती की चमक पर उस की जिंदगी रुकी है.

रुखसाना की जिंदगी जिस धुरी के चारों तरफ घूमती थी वही रज्जाक मियां अंदर आपरेशन टेबल पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे. जिन बांहों का सहारा ले कर वह कश्मीर के एक छोटे से गांव से सुदूर कोलकाता आई थी उन्हीं बांहों पर 3-3 गोलियां लगी थीं. शायद उस बांह को काट कर शरीर से अलग करना पड़े, ऐसा ही कुछ डाक्टर साहब कह रहे थे उस के मकान मालिक गोविंदरामजी से. रुखसाना की तो जैसे उस वक्त सुनने की शक्ति भी कमजोर पड़ गई थी.

क्या सोच रहे होंगे गोविंदरामजी और उन की पत्नी शीला उस के और रज्जाक के बारे में? कुछ भी सोचें पर भला हो शीला बहन का जो उन्होंने उस के 1 साल के पुत्र रफीक को अपने पास घर में ही रख लिया, वरना वह क्या करती? यहां तो अपने ही खानेपीने की कोई सुध नहीं है.

रुखसाना ने मन ही मन ठान लिया कि अब जब घर लौटेगी तो गोविंद भाई साहब और शीला भाभी को अपने बारे में सबकुछ सचसच बता देगी. जिन से छिपाना था जब उन्हीं से नहीं छिपा तो अब किस का डर? और फिर गोविंद भाई और शीला भाभी ने उस के इस मुसीबत के समय जो उपकार किया, वह तो कोई अपना ही कर सकता है न. अपनों की बात आते ही रुखसाना की आंखों के आगे उस का अतीत घूम गया.

ऊंचेऊंचे बर्फ से ढके पहाड़, हरेभरे मैदान, बीचबीच में पहाड़ी झरने और उन के बीच अपनी सखियों और भाईबहनों के साथ हंसताखेलता रुखसाना का बचपन.

वह रहा सरहद के पास उस का बदनसीब गांव जहां के लोग नहीं जानते कि उन्हें किस बात की सजा मिल रही है. साल पर साल, कभी मजहब के नाम पर तो कभी धरती के नाम पर, कभी कोई वरदीधारी तो कभी कोई नकाबधारी यह कहता कि वतन के नाम पर वफा करो… धर्म के नाम पर वफा करो, बेवफाई की सजा मौत है.

रुखसाना को अब भी याद है कि दरवाजे पर दस्तक पड़ते ही अम्मीजान कैसे 3 बहनों को और जवान बेवा भाभी को अंदर खींच कर तहखाने में बिठा देती थीं और अब्बूजान सहमेसहमे दरवाजा खोलते.

इन्हीं भयावह हालात में जिंदगी अपनी रफ्तार से गुजर रही थी.

कहते हैं हंसतेखेलते बचपन के बाद जवानी आती ही आती है पर यहां तो जवानी मातम का पैगाम ले कर आई थी. अब्बू ने घर से मेरा निकलना ही बंद करवा दिया था. न सखियों से हंसना- बोलना, न खुली वादियों में घूमना. जब देखो इज्जत का डर. जवानी क्या आई जैसे कोई आफत आ गई.

उस रोज मझली को बुखार चढ़ आया था तो छोटी को साथ ले कर वह ही पानी भरने आई थी. बड़े दिनों के बाद घर से बाहर निकलने का उसे मौका मिला था. चेहरे से परदा उठा कर आंखें बंद किए वह पहाड़ी हवा का आनंद ले रही थी. छोटी थोड़ी दूरी पर एक बकरी के बच्चे से खेल रही थी.

सहसा किसी की गरम सांसों को उस ने अपने बहुत करीब अनुभव किया. फिर आंखें जो खुलीं तो खुली की खुली ही रह गईं. जवानी की दहलीज पर कदम रखने के बाद यह पहला मौका था जब किसी अजनबी पुरुष से इतना करीबी सामना हुआ था. इस से पहले उस ने जो भी अजनबी पुरुष देखे थे वे या तो वरदीधारी थे या नकाबधारी…रुखसाना को उन दोनों से ही डर लगता था.

लंबा कद, गठा हुआ बदन, तीखे नैननक्श, रूखे चेहरे पर कठोरता और कोमलता का अजीब सा मिश्रण. रुखसाना को लगा जैसे उस के दिल ने धड़कना ही बंद कर दिया हो. अपने मदहोशी के आलम में उसे इस बात का भी खयाल न रहा कि वह बेपरदा है.

तभी अजनबी युवक बोल उठा, ‘वाह, क्या खूब. समझ नहीं आता, इस हसीन वादी को देखूं या आप के हुस्न को. 3-4 रात की थकान तो चुटकी में दूर हो गई.’

शायराना अंदाज में कहे इन शब्दों के कानों में पड़ते ही रुखसाना जैसे होश में आ गई. लजा कर परदा गिरा लिया और उठ खड़ी हुई.

अजनबी युवक फिर बोला, ‘वैसे गुलाम को रज्जाक कहते हैं और आप?’

‘रुखसाना बेगम,’ कहते हुए उस ने घर का रुख किया. इस अजनबी से दूर जाना ही अच्छा है. कहीं उस ने उस के दिल की कमजोरी को समझ लिया तो बस, कयामत ही आ जाएगी.

‘कहीं आप अब्दुल मौला की बेटी रुखसाना तो नहीं?’

‘हां, आप ने सही पहचाना. पर आप को इतना कैसे मालूम?’

‘अरे, मुझे तो यह भी पता है कि आप के मकान में एक तहखाना है और फिलहाल मेरा डेरा भी वहीं है.’

अजनबी युवक का इतना कहना था कि रुखसाना का हाथ अपनेआप उस के सीने पर ठहर गया जैसे वह तेजी से बढ़ती धड़कनों को रोकने की कोशिश कर रही हो. दिल आया भी तो किस पत्थर दिल पर. वह जानती थी कि तहखानों में किन लोगों को रखा जाता है.

पिछली बार जब महजबीन से बात हुई थी तब वह भी कुछ ऐसा ही कह रही थी. उस का लोभीलालची अब्बा तो कभी अपना तहखाना खाली ही नहीं रखता. हमेशा 2-3 जेहादियों को भरे रखता है और महजबीन से जबरदस्ती उन लोगों की हर तरह की खिदमत करवाता है. बदले में उन से मोटी रकम ऐंठता है. एक बार जब महजबीन ने उन से हुक्मउदूली की थी तो उस के अब्बू के सामने ही जेहादियों ने उसे बेपरदा कर पीटा था और उस के अब्बू दूसरी तरफ मुंह घुमाए बैठे थे.

तब रुखसाना का चेहरा यह सुन कर गुस्से से तमतमा उठा था पर लाचार महजबीन ने तो हालात से समझौता कर लिया था. उस के अब्बू में तो यह अच्छाई है कि वह पैसे के लालची नहीं हैं और जब से उस के सीधेसादे बड़े भाई साहब को जेहादी उठा कर ले गए तब से तो अब्बा इन जेहादियों से कुछ कटेकटे ही रहते हैं. पर अब सुना है कि अब्बू के छोटे भाई साहब जेहादियों से जा मिले हैं. क्या पता यह उन की ही करतूत हो.

एक अनजानी दहशत से रुखसाना का दिल कांप उठा था. उसे अपनी बरबादी बहुत करीब नजर आ रही थी. भलाई इसी में है कि इस अजनबी को यहीं से चलता कर दे.

कुछ कहने के उद्देश्य से रुखसाना ने ज्यों ही पलट कर उस अजनबी को देखा तो उस के जवान खूबसूरत चेहरे की कशिश रुखसाना को कमजोर बना गई और होंठ अपनेआप सिल गए. रज्जाक अभी भी मुहब्बत भरी नजरों से उसी को निहार रहा था.

नजरों का टकराना था कि फिर धड़कनों में तेजी आ गई. उस ने नजरें झुका लीं. सोच लिया कि भाई साहब बड़े जिद्दी हैं. जब उन्होेंने सोच ही लिया है कि तहखाने को जेहादियों के हाथों भाड़े पर देंगे तो इसे भगा कर क्या फायदा? कल को वह किसी और को पकड़ लाएंगे. अपना आगापीछा सोच कर रुखसाना चुपचाप रज्जाक को घर ले आई थी.

बेटे से बिछुड़ने का गम और ढलती उम्र ने अब्बू को बहुत कमजोर बना दिया था. अपने छोटे भाई के खिलाफ जाने की शक्ति अब उन में नहीं थी और फिर वह अकेले किसकिस का विरोध करते. नतीजतन, रज्जाक मियां आराम से तहखाने में रहने लगे और रुखसाना को उन की खिदमत में लगा दिया गया.

रुखसाना खूब समझ रही थी कि उसे भी उस के बचपन की सहेली महजबीन और अफसाना की तरह जेहादियों के हाथों बेच दिया गया है पर उस का किस्सा उस की सहेलियों से कुछ अलग था. न तो वह महजबीन की तरह मजबूर थी और न अफसाना की तरह लालची. उसे तो रज्जाक मियां की खिदमत में बड़ा सुकून मिलता था.

रज्जाक भी उस के साथ बड़ी इज्जत से पेश आता था. हां, कभीकभी आवेश में आ कर मुहब्बत का इजहार जरूर कर बैठता था और रुखसाना को उस का पे्रम इजहार बहुत अच्छा लगता था. अजीब सा मदहोशी का आलम छाया रहता था उस समय तहखाने में, जब दोनों एक दूसरे का हाथ थामे सुखदुख की बातें करते रहते थे.

रज्जाक के व्यक्तित्व का जो भाग रुखसाना को सब से अधिक आकर्षित करता था वह था उस के प्रति रज्जाक का रक्षात्मक रवैया. जब भी किसी जेहादी को रज्जाक से मिलने आना होता वह पहले से ही रुखसाना को सावधान कर देता कि उन के सामने न आए.

उस दिन की बात रुखसाना को आज भी याद है. सुबह से 2-3 जेहादी तहखाने में रज्जाक मियां के पास आए हुए थे. पता नहीं किस तरह की सलाह कर रहे थे…कभीकभी नीचे से जोरों की बहस की आवाज आ रही थी, जिसे सुन कर रुखसाना की बेचैनी हर पल बढ़ रही थी. रज्जाक को वह नाराज नहीं करना चाहती थी इसलिए उस ने खाना भी छोटी के हाथों ही पहुंचाया था. जैसे ही वे लोग गए रुखसाना भागीभागी रज्जाक के पास पहुंची.

रज्जाक घुटने में सिर टिकाए बैठा था. रुखसाना के कंधे पर हाथ रखते ही उस ने सिर उठा कर उस की तरफ देखा. आंखें लाल और सूजीसूजी सी, चेहरा बेहद गंभीर. अनजानी आशंका से रुखसाना कांप उठी. उस ने रज्जाक का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.

‘क्या हुआ? वे लोग कुछ कह गए क्या?’ रुखसाना ने सहमे लहजे में पूछा.

‘रुखसाना, खुदा ने हमारी मुहब्बत को इतने ही दिन दिए थे. जिस मिशन के लिए मुझे यहां भेजा गया था ये लोग उसी का पैगाम ले कर आए थे. अब मुझे जाना होगा,’ कहतेकहते रज्जाक का गला भर आया.

‘आप ने कहा नहीं कि आप यह सब काम अब नहीं करना चाहते. मेरे साथ घर बसा कर वापस अपने गांव फैजलाबाद लौटना चाहते हैं.’

‘अगर यह सब मैं कहता तो कयामत आ जाती. तू इन्हें नहीं जानती रुखी…ये लोग आदमी नहीं हैवान हैं,’ रज्जाक बेबसी के मारे छटपटाने लगा.

‘तो आप ने इन हैवानों का साथ चुन लिया,’ रुखसाना का मासूम चेहरा धीरेधीरे कठोर हो रहा था.

‘मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है रुखी. मैं ने इन लोगों के पास अपनी जिंदगी गिरवी रखी हुई है. बदले में मुझे जो मोटी रकम मिली थी उसे मैं बहन के निकाह में खर्च कर आया हूं और जो बचा था उसे घर से चलते समय अम्मीजान को दे आया था.’

‘जिंदगी कोई गहना नहीं जिसे किसी के भी पास गिरवी रख दिया जाए. मैं मन ही मन आप को अपना शौहर मान चुकी हूं.’

‘इन बातों से मुझे कमजोर मत बनाओ, रुखी.’

‘आप क्यों कमजोर पड़ने लगे भला?’ रुखसाना बोली, ‘कमजोर तो मैं हूं जिस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं है. मैं ने आप को सब से अलग समझा था पर आप भी दूसरों की तरह स्वार्थी निकले. एक पल को भी नहीं सोचा कि आप के जाने के बाद मेरा क्या होगा,’ कहतेकहते रुखसाना फफकफफक कर रो पड़ी.

रज्जाक ने उसे प्यार से अपनी बांहों में भर लिया और गुलाबी गालों पर एक चुंबन की मोहर लगा दी.

चढ़ती जवानी का पहला आलिंगन… दोनों जैसे किसी तूफान में बह निकले. जब तूफान ठहरा तो हर हाल में अपनी मुहब्बत को कुर्बान होने से बचाने का दृढ़ निश्चय दोनों के चेहरों पर था.

रुखसाना के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए रज्जाक बोला, ‘रुखी, मैं अपनी मुहब्बत को हरगिज बरबाद नहीं होने दूंगा. बोल, क्या इरादा है?’

मुहब्बत के इस नए रंग से सराबोर रुखसाना ने रज्जाक की आंखों में आंखें डाल कर कुछ सोचते हुए कहा, ‘भाग निकलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रज्जाक मियां. बोलो, क्या इरादा है?’

‘पैसे की चिंता नहीं, जेब में हजारों रुपए पडे़ हैं पर भाग कर जाएंगे कहां?’ रज्जाक चिंतित हो कर बोला.

महबूब के एक स्पर्श ने मासूम रुखसाना को औरत बना दिया था. उस के स्वर में दृढ़ता आ गई थी. हठात् उस ने रज्जाक का हाथ पकड़ा और दोनों दबेपांव झरोखे से निकल पड़े. झाडि़यों की आड़ में खुद को छिपातेबचाते चल पड़े थे 2 प्रेमी एक अनिश्चित भविष्य की ओर.

रज्जाक के साथ गांव से भाग कर रुखसाना अपने मामूजान के घर आ गई. मामीजान ने रज्जाक के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘यह मेरे शौहर हैं.’

मामीजान को हैरत में छोड़ कर रुखसाना रज्जाक को साथ ले सीधा मामूजान के कमरे की तरफ चल दी. क्योंकि एकएक पल उस के लिए बेहद कीमती था.

मामूजान एक कीमती कश्मीरी शाल पर नक्काशी कर रहे थे. दुआसलाम कर के वह चुपचाप मामूजान के पास बैठ गई और रज्जाक को भी बैठने का इशारा किया.

बचपन से रुखसाना की आदत थी कि जब भी कोई मुसीबत आती तो वह मामूजान के पास जा कर चुपचाप बैठ जाती. मामूजान खुद ही समझ जाते कि बच्ची परेशान है और उस की परेशानी का कोेई न कोई रास्ता निकाल देते.

कनखियों से रज्जाक को देख मामूजान बोल पड़े, ‘इस बार कौन सी मुसीबत उठा लाई है, बच्ची?’

‘मामूजान, इस बार की मुसीबत वाकई जानलेवा है. किसी को भनक भी लग गई तो सब मारे जाएंगे. दरअसल, मामूजान इन को मजबूरी में जेहादियों का साथ देना पड़ा था पर अब ये इस अंधी गली से निकलना चाहते हैं. हम साथसाथ घर बसाना चाहते हैं. अब तो आप ही का सहारा है मामू, वरना आप की बच्ची मर जाएगी,’ इतना कह कर रुखसाना मामूजान के कदमों में गिर कर रोने लगी.

अपने प्रति रुखसाना की यह बेपनाह मुहब्बत देख कर रज्जाक मियां का दिल भर आया. चेहरे पर दृढ़ता चमकने लगी. मामूजान ने एक नजर रज्जाक की तरफ देखा और अनुभवी आंखें प्रेम की गहराई को ताड़ गईं. बोले, ‘सच्ची मुहब्बत करने वालों का साथ देना हर नेक बंदे का धर्म है. तुम लोग चिंता मत करो. मैं तुम्हें एक ऐसे शहर का पता देता हूं जो यहां से बहुत दूर है और साथ ही इतना विशाल है कि अपने आगोश में तुम दोनों को आसानी से छिपा सकता है. देखो, तुम दोनों कोलकाता चले जाओ. वहां मेरा अच्छाखासा कारोबार है. जहां मैं ठहरता हूं वह मकान मालिक गोविंदरामजी भी बड़े अच्छे इनसान हैं. वहां पहुंचने के बाद कोई चिंता नहीं…उन के नाम मैं एक खत लिखे देता हूं.’

मामूजान ने खत लिख कर रज्जाक को पकड़ा दिया था जिस पर गोविंदरामजी का पूरा पता लिखा था. फिर वह घर के अंदर गए और अपने बेटे की जीन्स की पैंट और कमीज ले आए और बोले, ‘इन्हें पहन लो रज्जाक मियां, शक के दायरे में नहीं आओगे. और यहां से तुम दोनों सीधे जम्मू जा कर कोलकाता जाने वाली गाड़ी पर बैठ जाना.’

जिस मुहब्बत की मंजिल सिर्फ बरबादी नजर आ रही थी उसे रुखसाना ने अपनी इच्छाशक्ति से आबाद कर दिया था. एक युवक को जेहादियों की अंधी गली से निकाल कर जीवन की मुख्यधारा में शामिल कर के एक खुशहाल गृहस्थी का मालिक बनाना कोई आसान काम नहीं था. पर न जाने रुखसाना पर कौन सा जनून सवार था कि वह अपने महबूब और मुहब्बत को उस मुसीबत से निकाल लाई थी.

पता ही नहीं चला कब साल पर साल बीत गए और वे कोलकाता शहर के भीड़़ का एक हिस्सा बन गए. रज्जाक बड़ा मेहनती और ईमानदार था. शायद इसीलिए गोविंदराम ने उसे अपनी ही दुकान में अच्छेखासे वेतन पर रख लिया था और जब रफीक गोद में आया तो उन की गृहस्थी झूम उठी.

शुरुआत में पहचान लिए जाने के डर से रज्जाक और रुखसाना घर से कम ही निकलते थे पर जैसेजैसे रफीक बड़ा होने लगा उसे घुमाने के बहाने वे दोनों भी खूब घूमने लगे थे. लेकिन कहते हैं न कि काले अतीत को हम बेशक छोड़ना चाहें पर अतीत का काला साया हमें आसानी से नहीं छोड़ता.

रोज की तरह उस दिन भी रज्जाक काम पर जा रहा था और रुखसाना डेढ़ साल के रफीक को गोद में लिए चौखट पर खड़ी थी. तभी न जाने 2 नकाबपोश कहां से हाजिर हुए और धांयधांय की आवाज से सुबह का शांत वातावरण गूंज उठा.

उस खौफनाक दृश्य की याद आते ही रुखसाना जोर से चीख पड़ी तो आसपास के लोग उस की तरफ भागे. रुखसाना बिलखबिलख कर रो रही थी. इतने में गोविंदराम की जानीपहचानी आवाज ने उस को अतीत से वर्तमान में ला खड़ा किया, वह कह रहे थे, ‘‘रुखसाना बहन, अब घबराने की कोई जरूरत नहीं. आपरेशन ठीकठाक हो गया है. रज्जाक मियां अब ठीक हैं. कुछ ही घंटों में उन्हें होश आ जाएगा.’’

रुखसाना के आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. उसे कहां चोट लगी थी यह किसी की समझ से परे था.

इतने में किसी ने रफीक को उस की गोद में डाल दिया. रुखसाना ने चेहरा उठा कर देखा तो शीला बहन बड़े प्यार से उस की तरफ देख रही थीं. बोलीं, ‘‘चलो, रुखसाना, घर चलो. नहाधो कर कुछ खा लो. अब तो रज्जाक भाई भी ठीक हैं और फिर तुम्हारे गोविंदभाई तो यहीं रहेंगे. रफीक तुम्हारी गोद को तरस गया था इसलिए मैं इसे यहां ले आई.’’

रुखसाना भौचक्क हो कर कभी शीला को तो कभी गोविंदराम को देख रही थी. और सोच रही थी कि अब तक तो इन्हें उस की और रज्जाक की असलियत का पता चल गया होगा. तो पुलिस के झमेले भी इन्होंने झेले होंगे. फिर भी कितने प्यार से उसे लेने आए हैं.

रुखसाना आंखें पोंछती हुई बोली, ‘‘नहीं बहन, अब हम आप पर और बोझ नहीं बनेंगे. पहले ही आप के हम पर बड़े एहसान हैं. हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए. कुछ लोग दुनिया में सिर्फ गम झेलने और मरने को आते हैं. हम अपने गुनाह की सजा आप को नहीं भोगने देंगे. आप समझती होंगी कि वे लोग हमें छोड़ देंगे? कभी नहीं.’’

‘‘रुखसाना कि वे आतंकवादी गली से बाहर निकल भी न पाए थे कि महल्ले वाले उन पर झपट पड़े. फिर क्या था, जिस के हाथों में जो भी था उसी से मारमार कर उन्हें अधमरा कर दिया, तब जा कर पुलिस के हवाले किया. दरअसल, इनसान न तो धर्म से बड़ा होता है और न ही जन्म से. वह तो अपने कर्म से बड़ा होता है. तुम ने जिस भटके हुए युवक को सही रास्ता दिखाया वह वाकई काबिलेतारीफ है. आज तुम अकेली नहीं, सारा महल्ला तुम्हारे साथ है .’’

शीला की इन हौसला भरी बातों ने रुखसाना की आंखों के आगे से काला परदा हटा दिया. रुखसाना ने देखा शाम ढल चुकी थी और एक नई सुबह उस का इंतजार कर रही थी. महल्ले के सभी बड़ेबुजुर्ग और जवान हाथ फैलाए उस के स्वागत के लिए खड़े थे. वह धीरेधीरे गुनगुनाने लगी, ‘हम साथसाथ हैं.’

परिंदा : अजनबी से एक मुलाकात ने कैसे बदली इशिता की जिंदगी

लेखक-रत्नेश कुमार

‘‘सुनिए, ट्रेन का इंजन फेल हो गया है. आगे लोकल ट्रेन

से जाना होगा.’’

आवाज की दिशा में पलकें उठीं तो उस का सांवला चेहरा देख कर पिछले ढाई घंटे से जमा गुस्सा आश्चर्य में सिमट गया. उस की सीट बिलकुल मेरे पास वाली थी मगर पिछले 6 घंटे की यात्रा के दौरान उस ने मुझ से कोई बात करने की कोशिश नहीं की थी.

हमारी ट्रेन का इंजन एक सुनसान जगह में खराब हुआ था. बाहर झांक कर देखा तो हड़बड़ाई भीड़ अंधेरे में पटरी के साथसाथ घुलती नजर आई.

अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी मैं अपना सूटकेस बस, हिला भर ही पाई. बाहर कुली न देख कर मेरी सारी बहादुरी आंसू बन कर छलकने को तैयार थी कि उस ने अपना बैग मुझे थमाया और बिना कुछ कहे ही मेरा सूटकेस उठा लिया. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ क हूं.

‘‘रहने दो,’’ मैं थोड़ी सख्ती से बोली.

‘‘डरिए मत, काफी भारी है. ले कर भाग नहीं पाऊंगा,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और आगे बढ़ गया.

पत्थरों पर पांव रखते ही मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ. रात के 11 बजे से ज्यादा का समय हो रहा था. घनघोर अंधेरे आकाश में बिजलियां आंखें मटका रही थीं और बारिश धीरेधीरे जोश में आ रही थी.

हमारे भीगने से पहले एक दूसरी ट्रेन आ गई लेकिन मेरी रहीसही हिम्मत भी हवा हो गई. ट्रेन में काफी भीड़ थी. उस की मदद से मुझे किसी तरह जगह मिल गई मगर उस बेचारे को पायदान ही नसीब हुआ. यह बात तो तय थी कि वह न होता तो उस सुनसान जगह में मैं…

आखिरी 3-4 स्टेशन तक जब ट्रेन कुछ खाली हो गई तब मैं उस का नाम जान पाई. अभिन्न कोलकाता से पहली बार गुजर रहा था जबकि यह मेरा अपना शहर था. इसलिए कालिज की छुट्टियों में अकेली ही आतीजाती थी.

हावड़ा पहुंच कर अभिन्न को पता चला कि उस की फ्लाइट छूट चुकी है और अगला जहाज कम से कम कल दोपहर से पहले नहीं था.

‘‘क्या आप किसी होटल का पता बता देंगी?’’ अभिन्न अपने भीगे कपड़ों को रूमाल से पोंछता हुआ बोला.

हम साथसाथ ही टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे थे. कुली ने मेरा सामान उठा रखा था.

लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद हम कम से कम अजनबी नहीं रह गए थे. वह भी कालिज का छात्र था और किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए दूसरे शहर जा रहा था. टैक्सी तक पहुंचने से पहले मैं ने उसे 3-4 होटल गिना दिए.

‘‘बाय,’’ मेरे टैक्सी में बैठने के बाद उस ने हाथ हिला कर कहा. उस ने कभी ज्यादा बात करने की कोशिश नहीं की थी. बस, औपचारिकताएं ही पूरी हुई थीं मगर विदा लेते वक्त उस के शब्दों में एक दोस्ताना आभास था.

‘‘एक बात पूछूं?’’ मैं ने खिड़की से गरदन निकाल कर कुछ सोचते हुए कहा.

एक जोरदार बिजली कड़की और उस की असहज आंखें रोशन हो गईं. शायद थकावट के कारण मुझे उस का चेहरा बुझाबुझा लग रहा था.

उस ने सहमति में सिर हिलाया. वैसे तो चेहरा बहुत आकर्षक नहीं था लेकिन आत्मविश्वास और शालीनता के ऊपर बारिश की नन्ही बूंदें चमक रही थीं.

‘‘यह शहर आप के लिए अजनबी है और हो सकता है आप को होटल में जगह न भी मिले,’’ कह कर मैं थोड़ी रुकी, ‘‘आप चाहें तो हमारे साथ हमारे घर चल सकते हैं?’’

उस के चेहरे पर कई प्रकार की भावनाएं उभर आईं. उस ने प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘डरिए मत, आप को ले कर भाग नहीं जाऊंगी,’’ मैं खिलखिला पड़ी तो वह झेंप गया. एक छोटी सी हंसी में बड़ीबड़ी शंकाएं खो जाती हैं.

वह कुछ सोचने लगा. मैं जानती थी कि वह क्या सोच रहा होगा. एक अनजान लड़की के साथ इस तरह उस के घर जाना, बहुत अजीब स्थिति थी.

‘‘आप को बेवजह तकलीफ होगी,’’ आखिरकार अभिन्न ने बहाना ढूंढ़ ही निकाला.

‘‘हां, होगी,’’ मैं गंभीर हो कर बोली, ‘‘वह भी बहुत ज्यादा यदि आप नहीं चलेंगे,’’ कहते हुए मैं ने अपने साथ वाला गेट खोल दिया.

वह चुपचाप आ कर टैक्सी में बैठ गया. इंसानियत के नाते मेरा क्या फर्ज था पता नहीं, लेकिन मैं गलत कर रही हूं या सही यह सोचने की नौबत ही नहीं आई.

मैं रास्ते भर सोचती रही कि चलो, अंत भला तो सब भला. मगर उस दिन तकदीर गलत पटरी पर दौड़ रही थी. घर पहुंच कर पता चला कि पापा बिजनेस ट्रिप से एक दिन बाद लौटेंगे और मम्मी 2 दिन के लिए रिश्तेदारी में दूसरे शहर चली गई हैं. हालांकि चाबी हमारे पास थी लेकिन मैं एक भयंकर विडंबना में फंस गई.

‘‘मुझे होटल में जगह मिल जाएगी,’’ अभिन्न टैक्सी की ओर पलटता हुआ बोला. उस ने शायद मेरी दुविधा समझ ली थी.

‘‘आप हमारे घर से यों ही नहीं लौट सकते हैं. वैसे भी आप काफी भीग चुके हैं. कहीं तबीयत बिगड़ गई तो आप सेमिनार में नहीं जा पाएंगे और मैं इतनी डरपोक भी नहीं हूं,’’ भले ही मेरे दिल में कई आशंकाएं उठ रही थीं पर ऊपर से बहादुर दिखना जरूरी था.

कुछ देर में हम घर के अंदर थे. हम दोनों बुरी तरह से सहमे हुए थे. यह बात अलग थी कि दोनों के अपनेअपने कारण थे.

मैं ने उसे गेस्टरूम का नक्शा समझा दिया. वह अपने कपड़ों के साथ चुपचाप बाथरूम की ओर बढ़ गया तो मैं कुछ सोचती हुई बाहर आई और गेस्टरूम की कुंडी बाहर से लगा दी. सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था. दुनियादारी के पहले पाठ का शीर्षक है, शक. खींचतेधकेलते मैं सूटकेस अपने कमरे तक ले गई और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी.

‘‘लगता है दरवाजा फंसता है?’’ अभिन्न गेस्टरूम के दरवाजे को गौर से देखता हुआ बोला. उस ने कम से कम 5 मिनट तक दरवाजा तो अवश्य ठकठकाया होगा जिस के बारे में मैं भूल गई थी.

‘‘हां,’’ मैं ने तपाक से झूठ बोल दिया ताकि उसे शक न हो, पर खुद पर ही यकीन न कर पाई. फिर मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

किचन से मुझे जबरदस्त चिढ़ थी और पढ़ाई के बहाने मम्मी ने कभी जोर नहीं दिया था. 1-2 बार नसीहतें मिलीं भी तो एक कान से सुनी दूसरे से निकल गईं. फ्रिज खोला तो आंसू जमते हुए महसूस होने लगे. 1-2 हरी सब्जी को छोड़ कर उस में कुछ भी नहीं था. अगर घर में कोई और होता तो आसमान सिर पर उठा लेती मगर यहां खुद आसमान ही टूट पड़ा था.

एक बार तो इच्छा हुई कि उसे चुपचाप रफादफा करूं और खुद भूख हड़ताल पर डट जाऊं. लेकिन बात यहां आत्मसम्मान पर आ कर अटक गई थी. दिमाग का सारा सरगम ही बेसुरा हो गया था. पहली बार अफ सोस हुआ कि कुछ पकाना सीख लिया होता.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’

आवाज की ओर पलट कर देखा तो मन में आया कि उस की हिम्मत के लिए उसे शौर्यचक्र तो मिलना ही चाहिए. वह ड्राइंगरूम छोड़ कर किचन में आ धमका था.

‘दफा हो जाओ यहां से,’ मेरे मन में शब्द कुलबुलाए जरूर थे मगर प्रत्यक्ष में मैं कुछ और ही कह गई, ‘‘नहीं, आप बैठिए, मैं कुछ पकाने की कोशिश करती हूं,’’ वैसे भी ज्यादा सच बोलने की आदत मुझे थी नहीं.

‘‘देखिए, आप इतनी रात में कुछ करने की कोशिश करें इस से बेहतर है कि मैं ही कुछ करूं,’’ वह धड़धड़ा कर अंदर आ गया और किचन का जायजा लेने लगा. उस के होंठों पर बस, हलकी सी मुसकान थी.

मैं ठीक तरह से झूठ नहीं बोल पा रही थी इसलिए आंखें ही इशारों में बात करने लगीं. मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाई. कारण कई हो सकते थे मगर मुझे जोरदार भूख लगी थी और भूखे इनसान के लिए तो सबकुछ माफ है. मैं चुपचाप उस की मदद करने लगी.

10 मिनट तक तो उस की एक भी गतिविधि समझ में नहीं आई. मुझे पता होता कि खाना पकाना इतनी चुनौती का काम है तो एक बार तो जरूर पराक्रम दिखाती. उस ने कढ़ाई चढ़ा कर गैस जला दी. 1-2 बार उस से नजर मिली तो इच्छा हुई कि खुद पर गरम तेल डाल लूं, मगर हिम्मत नहीं कर पाई. मुझे जितना समझ में आ रहा था उतना काम करने लगी.

‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’

मैं पूरी तल्लीनता से आटा गूंधने में लगी थी कि उस ने मुझे टोक  दिया. एक तो ऐसे काम मुझे बिलकुल पसंद नहीं थे और ऊपर से एक अजनबी की रोकटोक, मैं तिलमिला उठी.

‘‘दिखता नहीं, आटा गूंध रही हूं,’’ मैं ने मालिकाना अंदाज में कहा, पर लग रहा था कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. मैं ने एक बार उस की ओर नजर उठाई तो उस की दबीदबी हंसी भी दुबक गई.

‘‘आप रहने दें, मैं कर लूंगा,’’ उस ने विनती भरे स्वर में कहा.

आटा ज्यादा गीला तो नहीं था मगर थोड़ा पानी और मिलाती तो मिल्क शेक अवश्य बन जाता.

हाथ धोने बेसिन पर पहुंची तो आईना देख कर हृदय हाहाकार कर उठा. कान, नाक, होंठ, बाल, गाल यानी कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां आटा न लगा हो. एक बार तो मेरे होंठों पर भी हंसी फिसल गई.

मैं जानबूझ कर किचन में देर से लौटी.

‘‘आइए, खाना बस, तैयार ही है,’’ उस ने मेरा स्वागत यों किया जैसे वह खुद के घर में हो और मैं मेहमान.

इतनी शर्मिंदगी मुझे जीवन में कभी नहीं हुई थी. मैं उस पल को कोसने लगी जिस पल उसे घर लाने का वाहियात विचार मेरे मन में आया था. लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था. किसी तरह से 5-6 घंटे की सजा काटनी थी.

मैं फ्रिज से टमाटर और प्याज निकाल कर सलाद काटने लगी. फिलहाल यही सब से आसान काम था मगर उस पर नजर रखना नहीं भूली थी. वह पूरी तरह तन्मय हो कर रोटियां बेल रहा था.

‘‘क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘आप को दिखता कम है क्या…’’ मेरे गुस्से का बुलबुला फटने ही वाला था कि…

‘‘मेरा मतलब,’’ उस ने मेरी बात काट दी, ‘‘मैं कर रहा हूं न,’’ उसे भी महसूस हुआ होगा कि उस की कुछ सीमाएं हैं.

‘‘क्यों, सिर्फ काटना ही तो है,’’ मैं उलटे हाथों से आंखें पोंछती हुई बोली. अब टमाटर लंबा रहे या गोल, रहता तो टमाटर ही न. वही कहानी प्याज की भी थी.

‘‘यह तो ठीक है इशिताजी,’’ उस ने अपने शब्दों को सहेजने की कोशिश की, ‘‘मगर…इतने खूबसूरत चेहरे पर आंसू अच्छे नहीं लगते हैं न.’’

मैं सकपका कर रह गई. सुंदर तो मैं पिछले कई घंटों से थी पर इस तरह बेवक्त उस की आंखों का दीपक जलना रहस्यमय ही नहीं खतरनाक भी था. मुझे क्रोध आया, शर्म आई या फिर पता नहीं क्या आया लेकिन मेरा दूधिया चेहरा रक्तिम अवश्य हो गया. फिर मैं इतनी बेशर्म तो थी नहीं कि पलकें उठा कर उसे देखती.

उजाले में आंखें खुलीं तो सूरज का कहीं अतापता नहीं था. शायद सिर पर चढ़ आया हो. मैं भागतीभागती गेस्टरूम तक गई. अभिन्न लेटेलेटे ही अखबार पलट रहा था.

‘‘गुडमार्निंग…’’ मैं ने अपनी आवाज से उस का ध्यान खींचा.

‘‘गुडमार्निंग,’’ उस ने तत्परता से जवाब दिया, ‘‘पेपर उधर पड़ा था,’’ उस ने सफाई देने की कोशिश की.

‘‘कोई बात नहीं,’’ मैं ने टाल दिया. जो व्यक्ति रसोई में धावा बोल चुका था उस ने पेपर उठा कर कोई अपराध तो किया नहीं था.

‘‘मुझे कल सुबह की फ्लाइट में जगह मिल गई है,’’ उसे यह कहने में क्या प्रसन्नता हुई यह तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं आशंकित हो उठी, ‘‘सौरी, वह बिना पूछे ही आप का फोन इस्तेमाल कर लिया,’’ उस ने व्यावहारिकतावश क्षमा मांग ली, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

‘‘कहां?’’

अभिन्न ने मुझे यों देखा जैसे पहली बार देख रहा हो. प्रश्न तो बहुत सरल था मगर मैं जिस सहजता से पूछ बैठी थी वह असहज थी. मुझे यह भी आभास नहीं हुआ कि यह ‘कहां’ मेरे मन में कहां से आ गया. मेरी रहीसही नींद भी गायब हो गई.

कितने पलों तक कौन शांत रहा पता नहीं. मैं तो बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी.

‘‘10 बज गए हैं,’’ ऐसा नहीं था कि घड़ी देखनी मुझे नहीं आती हो मगर कुछ कहना था इसलिए उस ने कह दिया होगा.

‘‘ह…हां…’’ मेरी शहीद हिम्मत को जैसे संजीवनी मिल गई, ‘‘आप चाहें तो इधर रुक सकते हैं, बस, एक दिन की बात तो है.’’

मैं ने जोड़तोड़ कर के अपनी बात पूरी तो कर दी मगर अभिन्न दुविधा में फंस गया.

उस की क्या इच्छा थी यह तो मुझे पता न था लेकिन उस की दुविधा मेरी विजय थी. मेरी कल्पना में उस की स्थिति उस पतंग जैसी थी जो अनंत आकाश में कुलांचें तो भर सकती थी मगर डोर मेरे हाथ में थी. पिछले 15 घंटों में यह पहला सुखद अनुभव था. मेरा मन चहचहा उठा.

‘‘फिर से खाना बनवाने का इरादा तो नहीं है?’’

उस के इस प्रश्न से तो मेरे अरमानों की दुनिया ही चरमरा गई. पता नहीं उस की काया किस मिट्टी की बनी थी, मुझे तो जैसे प्रसन्न देख ही नहीं सकता था.

‘‘अब तो आप को यहां रुकना ही पड़ेगा,’’ मैं ने अपना फैसला सुना दिया. वास्तव में मैं किसी ऐसे अवसर की तलाश में थी कि कुछ उस की भी खबर ली जा सके.

‘‘एक शर्त पर, यदि खाना आप पकाएं.’’

उस ने मुसकरा कर कहा था, सारा घर खिलखिला उठा. मैं भी.

‘‘चलिए, आज आप को अपना शहर दिखा लाऊं.’’

मेरे दिमाग से धुआं छटने लगा था इसलिए कुछ षड्यंत्र टिमटिमाने लगे थे. असल में मैं खानेपीने का तामझाम बाहर ही निबटाना चाहती थी. रसोई में जाना मेरे लिए सरहद पर जाने जैसा था. मैं ने जिस अंदाज में अपना निर्णय सुनाया था उस के बाद अभिन्न की प्रतिक्रियाएं काफी कम हो गई थीं. उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘मैं कुछ देर में आती हूं,’’ कह कर मैं फिर से अंदर चली गई थी.

आखिरी बार खुद को आईने में निहार कर कलाई से घड़ी लपेटी तो दिल फूल कर फुटबाल बन गया. नानी, दादी की मैं परी जैसी लाडली बेटी थी. कालिज में लड़कों की आशिक निगाहों ने एहसास दिला दिया था कि बहुत बुरी नहीं दिखती हूं. मगर वास्तव में खूबसूरत हूं इस का एहसास मुझे कभीकभार ही हुआ था. गहरे बैगनी रंग के सूट में खिलती गोरी बांहें, मैच नहीं करती मम्मी की गहरी गुलाबी लिपस्टिक और नजर नहीं आती काजल की रेखाएं. बचीखुची कमी बेमौसम उमड़ आई लज्जा ने पूरी कर दी थी. एक बार तो खुद पर ही सीटी बजाने को दिल मचल गया.

घड़ी की दोनों सुइयां सीधेसीधे आलिंगन कर रही थीं.

‘‘चलें?’’ मैं ने बड़ी नजाकत से गेस्टरूम के  दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘बस, एक मिनट,’’ उस ने अपनी नजर एक बार दरवाजे से घुमा कर वापस कैमरे पर टिका दी.

मैं तब तक अंदर पहुंच चुकी थी. थोड़ी ऊंची सैंडल के कारण मुझे धीरेधीरे चलना पड़ रहा था.

उस ने मेरी ओर नजरें उठाईं और जैसे उस की पलकें जम गईं. कुछ पलों तक मुझे महसूस हुआ सारी सृष्टि ही मुझे निहारने को थम गई है.

‘‘चलें?’’ मैं ने हौले से उस की तंद्रा भंग की तो लगा जैसे वह नींद से जागा.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ उस ने इतने सीधे शब्दों में कहा कि मैं उलझ कर रह गई.

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरी सारी अदा आलोपित हो गई.

‘‘क्या हुआ? अरे मैडम, लंगूर के साथ हूर देख कर तो शहर वाले हमारा काम ही तमाम कर देंगे न,’’ उस ने भोलेपन से जवाब दिया.

ऐसा न था कि मेरी प्रशंसा करने वाला वह पहला युवक था लेकिन ऐसी विचित्र बात किसी ने नहीं कही थी. उस की बात सुन कर और लड़कियों पर क्या गुजरती पता नहीं लेकिन शरम के मारे मेरी धड़कनें हिचकोले खाने लगीं.

टैक्सी में उस ने कितनी बार मुझे देखा पता नहीं लेकिन 3-4 बार नजरें मिलीं तो वह खिड़की के बाहर परेशान शहर को देखने लगता. यों तो शांत लोग मुझे पसंद थे मगर मौन रहना खलने लगा तो बिना शीर्षक और उपसंहार के बातें शुरू कर दीं.

अगर दिल में ज्यादा कपट न हो तो हृदय के मिलन में देर नहीं लगती है. फिर हम तो हमउम्र थे और दिल में कुछ भी नहीं था. जो मन में आता झट से बोल देती.

‘‘क्या फिगर है?’’

उस की ऊटपटांग बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. मैं ने शरमाते हुए कनखियों से उस की भावभंगिमाएं देखने की कोशिश की तो मेरे मन में क्रोध की सुनामी उठने लगी. वह मेरी नहीं संगमरमर की प्रतिमा की बात कर रहा था. जब तक उस की समझ में आता कि उस ने क्या गुस्ताखी की तब तक मैं उसे खींचती हुई विक्टोरिया मेमोरियल से बाहर ले आई.

‘‘मैं आप की एक तसवीर उतार लूं?’’ अभिन्न ने अपना कैमरा निकालते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ जब तक मैं उस का प्रश्न समझ कर एक अच्छा सा उत्तर तैयार करती एक शब्द फुदक कर बाहर आ गया. मेरे मन में थोड़ा नखरा करने का आइडिया आया था.

‘‘कोई बात नहीं,’’ उस ने यों कंधे उचकाए जैसे इसी उत्तर के लिए तैयार बैठा हो.

मैं गुमशुम सी तांबे की मूर्ति के साथ खड़ी हो गई जहां ज्यादातर लोग फोटो खिंचवाते थे. वह खुशीखुशी कैमरे में झांकने लगा.

‘‘जरा उधर…हां, ठीक है. अब जरा मुसकराइए.’’

उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.

रास्ते में पड़े पत्थरों को देख कर खयाल आया कि चुपके से एक पत्थर उठा कर उस का सिर तोड़ दूं. कमाल का लड़का था, जब साथ में इतनी सुंदर लड़की हो तो थोड़ाबहुत भाव देने में उस का क्या चला जाता. मेरा मन खूंखार होने लगा.

‘‘चलिए, थोड़ा रक्तदान कर दिया जाए?’’ रक्तदान का चलताफिरता शिविर देख कर मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैं बस, थोड़ा सा कष्ट उसे भी देना चाहती थी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘चलिए, आप न सही मगर मैं रक्तदान करना चाहती हूं,’’ मुझे उसे नीचा दिखाने का अवसर मिल गया.

‘‘आप हो आइए, मैं इधर ही इंतजार करता हूं,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

मैं इतनी आसानी से मानने वाली नहीं थी. उसे लगभग जबरदस्ती ले कर गाड़ी तक पहुंची. नामपता लिख कर जब नर्स ने सूई निकाली तो मेरी सारी बहादुरी ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी बहादुर थी ही नहीं. पलभर के लिए इच्छा हुई कि चुपचाप खिसक लूं मगर मैं उसे दर्द का एहसास कराना चाहती थी.

किसी तरह खुद को बहलाफुसला कर लेट गई. खुद का खून देखने का शौक कभी रहा नहीं इसलिए नर्स की विपरीत दिशा में देखने लगी. गाड़ी में ज्यादा जगह न होने की वजह से वह बिलकुल पास ही खड़ा था. चेहरे पर ऐसी लकीरें थीं जैसे कोई उस के दिल में सूई चुभो रहा हो.

दर्द और घबराहट का बवंडर थमा तो वह मेरी हथेली थामे मुझे दिलासा दे रहा था. मेरी आंखों में थोड़े आंसू जरूर जमा हो गए होंगे. मन भी काफी भारी लगने लगा था.

बाहर आने से पहले मैं ने 2 गिलास जूस गटक लिया था और बहुत मना करने के बाद भी डाक्टरों ने उस का ब्लड सैंपल ले लिया.

इंडियन म्यूजियम से निकल कर हम ‘मैदान’ में आ गए. गहराते अंधकार के साथ हमेशा की तरह लोगों की संख्या घटने लगी थी और जोड़े बढ़ने लगे थे. यहां अकसर प्रेमी युगल खुले आकाश के नीचे बैठ सितारों के बीच अपना आशियाना बनाते थे. इच्छा तो बिलकुल नहीं थी लेकिन मैं ने सोच रखा था कि खानेपीने का कार्यक्रम निबटा कर ही वापस लौटूंगी. हम दोनों भी अंधेरे का हिस्सा बन गए.

मैं कुछ ज्यादा ही थकावट महसूस कर रही थी. इसलिए अनजाने ही कब उस की गोद में सिर रख कर लेट गई पता ही नहीं चला. मेरी निगाहें आसमान में तारों के बीच भटकने लगीं.

वे अगणित सितारे हम से कितनी दूर होते हैं. हम उन्हें रोज देखा करते हैं. वे भी मौन रह कर हमें बस, देख लिया करते हैं. हम कभी उन से बातें करने की कोशिश नहीं करते हैं. हम कभी उन के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि हमें लगता ही नहीं है कि वे हम से बात कर सकते हैं, हमें सुन सकते हैं, हमारे साथ हंस सकते हैं, सिसक सकते हैं. हम कभी उन्हें याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि हम जानते हैंकि कल भी वे यहीं थे और कल भी वे यही रहेंगे.

मुझे अपने माथे पर एक शीतल स्पर्श का एहसास हुआ. शायद शीतल हवा मेरे ललाट को सहला कर गुजर गई.

सुबह दरवाजे पर ताबड़तोड़ थापों से मेरी नींद खुली. मम्मी की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं. मैं भाग कर गेस्टरूम में पहुंची तो कोई नजर नहीं आया. मैं दरवाजे की ओर बढ़ गई.

4 दिन बाद 2 चिट्ठियां लगभग एकसाथ मिलीं. मैं ने एक को खोला. एक तसवीर में मैं तांबे की मूर्ति के बगल में विचित्र मुद्रा में खड़ी थी. साथ में एक कागज भी था. लिखा था :

‘‘इशिताजी,

मैं बड़ीबड़ी बातें करना नहीं जानता, लेकिन कुछ बातें जरूर कहना चाहूंगा जो मेरे लिए शायद सबकुछ हैं. आप कितनी सुंदर हैं यह तो कोई भी आंख वाला समझ सकता है लेकिन जो अंधा है वह इस सच को जानता है कि वह कभी आप को नहीं देख पाएगा. जैसे हर लिखे शब्द का कोई अर्थ नहीं होता है वैसे ही हर भावना के लिए शब्द नहीं हैं, इसलिए मैं ज्यादा लिख भी नहीं सकता. मगर एक चीज ऐसी है जो आप से कहीं अधिक खूबसूरत है, वह है आप का दिल.

हम जीवन में कई चीजों को याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि वे हमेशा हमारे साथ होती हैं और कुछ चीजों को याद रखने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वे हमारे साथ बस, एक बार होती हैं.

सच कहूं तो आप के साथ गुजरे 2 दिन में मैं ठीक से मुसकरा भी नहीं सका था. जब इतनी सारी हंसी एकसाथ मिल जाए तो इन्हें खोने का गम सताने लगता है. उन 2 दिनों के सहारे तो मैं दो जनम जी लेता फिर ये जिंदगी तो दो पल की है. जानता हूं दुनिया गोल है, बस रास्ते कुछ ज्यादा ही लंबे निकल आते हैं.

जब हम अपने आंगन में खड़े होते हैं तो कभीकभार एक पंछी मुंडेर पर आ बैठता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां से आया. हम बस, उसे देखते हैं, थोड़ा गुस्साते हैं, थोड़ा हंसते भी हैं और थोड़ी देर में वह वापस उड़ जाता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां जाएगा और उसे याद रखने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होती है.

जीवन के कुछ लमहे हमारे नाम करने का शुक्रिया.

-एक परिंदा.’’

दूसरी चिट्ठी में ब्लड रिपोर्ट थी. मुझे अपने बारे में पता था. अभिन्न की जांच रिपोर्ट देख कर पलकें उठाईं तो महसूस हुआ कि कोई परिंदा धुंधले आकाश में उड़ चला है…अगणित सितारों की ओर…दिल में  चुभन छोड़ कर.

प्यार है: लड़ाई को प्यार से जीत पाए दो प्यार करने वाले

हाइड पार्क सोसाइटी वैसे तो ठाणे के काफी पौश इलाके में स्थित है, यहां के लोग भी अपनेआप को सभ्य, शिष्ट, आधुनिक और समृद्ध मानते हैं, पर जैसाकि अपवाद तो हर जगह होते हैं, और यहां भी है. कई बार ऊपरी चमकदमक से तो देखने में तो लगता है कि परिवार बहुत अच्छा है, सभ्य है पर जब असलियत सामने आती है तो हैरान हुए बिना नहीं रह सकते. ऐसे ही 2 परिवारों के जब अजीब से रंगढंग सामने आए तो यहां के निवासियों को समझ ही नहीं आया कि इन का क्या किया जाए, हंसें या इन्हे टोकें.

बिल्डिंग नंबर 9 के फ्लैट 804 में रहते हैं रोहित, उन की पत्नी सुधा और बेटियां सोनिका और मोनिका. इन के सामने वाले फ्लैट 805 में रहते हैं आलोक, उन की पत्नी मीरा और बेटा शिविन. कभी दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती थी, दोनों के बच्चे एक ही स्कूलकलेज में पढ़ते रहे.

दोनों दंपत्ति बहुत ही जिद्दी, घमंडी और गुस्सैल हैं. जो भी इन परिवारों के बीच दोस्ती रही, वह सिर्फ इन के प्यारे, समझदार बच्चों के कारण ही. अब 1 साल के आगेपीछे शिविन और सोनिका दोनों आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए हैं. मोनिका मुंबई में ही फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है. सब ठीक चल ही रहा था कि सोसाइटी में कुछ लोगों ने आमनेसामने के खाली फ्लैट खरीद लिए और अब उन का बड़ा सा घर हो गया, तो इन दोनों दंपत्तियों के मन में आया कि उन्हें भी सामने वाला फ्लैट मिल जाए तो उन का भी घर बहुत बड़ा हो जाएगा.

एक दिन सोसाइटी की मीटिंग चल रही थी कि वहां रोहित ने आलोक से कहा, ”आप का अपना फ्लैट बेचने का कोई मूड है क्या?”

”नहीं भाई, मैं क्यों बेचूंगा…”

”अगर बेचें तो हमें ही बताना, हम खरीद लेंगे.”

”आप भी कभी बेचें तो हमें ही बताना, हमें भी चाहिए आप का फ्लैट.”

”हम तो कहीं नहीं जा रहे, यही रहेंगे.”

“फिर भी जाओ तो हमें बता देना. आजकल तो आसपास बढ़िया सोसाइटी हैं, आप वहां भी देख सकते हैं बड़ा फ्लैट.”

”आप अपने लिए क्यों नहीं देख लेते वहां बड़ा फ्लैट?”

‘’हमें यही सोसाइटी अच्छी लगती है.’’

बात यहीं खत्म नहीं हुई. यह बात जो लोग भी सुन रहे थे, उन्होंने दोनों की आवाजों में बढ़ रही कड़वाहट महसूस की. घर जा कर रोहित ने सुधा से कहा,”इस आलोक को तो मैं यहां से भगा कर दम लूंगा. अपनेआप को समझता क्या है.”

उधर आलोक भी शुरू थे,”मीरा, यह मुझे जानता नहीं है. देखना, मैं इसे यहां से कैसे भगाता हूं.’’

अगले दिन जब दोनों लिफ्ट में मिले, दोनों ने बस एकदूसरे पर नजर ही डाली, हमेशा की तरह हायहैलो भी नहीं हुआ. अगले दिन जब मोनिका सुबह साइक्लिंग के लिए जाने लगी, देखा, साइकिल के ट्यूब कटे हुए हैं, वह वौचमैन को डांटने लगी,”यह किस ने किया है?”

”मैडम, बाहर से तो कोई नहीं आया,’’ वौचमैन बोला

”तो फिर मेरी साइकिल की यह हालत किस ने की?”

वौचमैन डांट खाता रहा, वह तो लगातार यहीं था, पर साइकिल को तो जानबूझ कर खराब किया गया था, यह साफसाफ समझ आ रहा था.मोनिका घर जा कर चिङचिङ करती रही, किसी को कुछ समझ नहीं आया कि किस ने किया. उधर आलोक घर में अपनेआप को शाबाशी दे रहे थे कि रोहित बाबू, अब आगे देखना क्याक्या करता हूं तुम सब के साथ.

जब 2 चालाक लोग आमनेसामने होते हैं तो किसी की कोई हरकत एकदूसरे से छिपी नहीं रह पाती, दोनों एकदूसरे की चालाकी तुरंत पकड़ लेते हैं. यहां भी रोहित समझ गए कि किसी बाहर वाले ने आ कर मोनिका की साइकिल खराब नहीं की है, यह कोई बिल्डिंग का ही रहने वाला है. पूरा शक आलोक पर था जो सच ही था. सोचने लगे कि यह हमें ऐसे परेशान करेगा. मैं करता हूं इसे ठीक.

उन्होंने सुबह बहुत जल्दी उठ कर अपना डस्टबिन आलोक के फ्लैट के बाहर ऐसे रखा कि जो भी दरवाजा खोले, डस्टबिन गिर जाए और सारा कचरा बिखर जाए. आलोक और मीरा सुबह सैर पर जाते थे, एक ही बेटा था जो बाहर है. सुबहसुबह आलोक ने दरवाजा खोला तो कचरा फैल गया. वह भी समझ गए कि किस का काम है. फौरन रोहित की डोरबेल बजा दी, एक बार नहीं, कई बार बजा दी. रोहित ने तो रात में ही डोरबेल बंद कर दी थी, रोहित कीहोल से आलोक को गुस्से में चिल्लाते देख रहे थे. फ्लोर पर जो 2 फ्लैट्स और थे, उन में बैचलर्स रहते थे. इस चिल्लीचिल्लम पर उन्होंने दरवाजा खोला और आलोक से पूछा,”क्या हुआ अंकल?”

”यह देखो, कैसे गंवार हैं. कैसे रखा डस्टबिन.”

बैचलर्स को इन बातों में जरा इंटरैस्ट नहीं था, उन्होंने सर को यों ही हिलाते हुए अपने फ्लैट का दरवाजा बंद कर लिया जैसे कह रहे हों, ”भाई, खुद ही देख लो, हम तो किराएदार हैं.’’

लंदन में साउथ हौल में शिविन और सोनिका एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले बेफिक्र घूम रहे हैं. सोनिका के कालेज में ट्रैडिशनल डे है और उसे सूटसलवार पहनना है. यहां ट्रेन से उतरते ही इस एरिया में आते ही ऐसा लगता है जैसे पंजाब आ गए हों. पूरा एरिया पंजाबी है. इंडियन सामानों की दुकानें आदि सबकुछ मिलता है यहां.

सोनिका ने कहा,”शिवू, पहले रोड कैफे में बैठ कर छोलेभटूरे खा लें, फिर कपङे ले लेंगे.’’

”हां, बिलकुल, यह रोड कैफे तो हमारे प्यार से जुड़ा है, यहीं हम मिले थे न सब से पहले?”

सोनिका खिलखिलाई, ”हां, मैं तो गा ही उठी थी, ‘कब के बिछड़े हुए हम कहां आ के मिले…'”

दोनों ने और्डर दिया और एक कोना खोज कर बैठ गए. शिविन ने कहा, ”बस अब अच्छी जगह प्लैसमेंट हो जाए, जौब शुरू हो तो शादी करें.’’

”हां, सही कह रहे हो. यह बताओ, घर वालों का क्या करना है, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पेरैंट्स नौन सिंधी लड़की को ऐक्सैप्ट करेंगे.”

”न करें, हमारी शादी तो हो कर रहेगी. तुम मेरे बचपन का प्यार हो, उन्हें यह पता नहीं है कि हम यहां लिवइन में ही रह रहे हैं, वक्त आने पर बात कर लूंगा उन से.‘’

शिविन और सोनिका एकदूसरे के प्यार में पोरपोर डूबे हैं और उधर इंडिया में किसी को भनक भी नहीं कि लंदन में क्या चल रहा है. शुरूशुरू में कुछ दिन दोनों किसी और फ्रैंड्स के साथ रूम शेयर कर रहे थे, फिर एक दिन यहीं रोड कैफे में दोनों टकरा गए तो तब से ही साथ हैं.

जो बात इंडिया में दोनों एकदूसरे से नहीं कह पाए थे, यहां आ कर कही कि दोनों एकदूसरे को हमेशा से पसंद करते रहे हैं. अब तो दोनों बहुत आगे निकल चुके हैं. दोनों के पेरैंट्स आजकल चल रहे आपस की लङाईयां और शीतयुद्ध को विदेश में पढ़ रहे अपने बच्चों को नहीं बताते कि बेकार में क्यों उन्हें पढाई में डिस्टर्ब करना. और बच्चे तो होशियार हैं ही, हवा भी नहीं लगने दे रहे कि इंडिया में तो आमनेसामने के पड़ोसी थे, अब तो एकसाथ ही रह रहे.

अब तो रोजरोज का किस्सा हो गया. रोहित और आलोक दोनों इसी कोशिश में थे कि परेशान हो कर सामने वाला फ्लैट बदल ले पर दोनों गजब का इंतजार कर रहे थे. नित नए प्लान बन रहे थे. दरवाजों पर जो मिल्क बैग टांगा जाता है, उस में से दूध 2 की जगह एक पैकेट ही निकलता. कभी उस दूध के पैकेट में 1 छेद कर दिया जाता जिस से सारा दूध रिस कर जमीन पर फैल जाए. सीढ़ियों से उतर कर आने वाले लोग दोनों परिवारों को कोसकोस कर चले जाते. सब को पता चल गया था कि क्या क्या हो रहा है, ऐसे में मैनेजिंग कमिटी की मुश्किल बहुत बढ़ गई थी.

दोनों लोग रोज औफिस जाते और एकदूसरे की शिकायत करते. हरकतें इतनी सफाई से की जा रही थीं कि कोई सुबूत किसी को न मिलता कि किस ने क्या किया है. रोज एक से एक हरकत की जाती, गिरी से गिरी प्लानिंग होती, यहां तक कि सुधा यह जानती थी कि मीरा कौकरोच से बहुत ज्यादा डरती है, इसलिए पैसेज में घूमने वाले कौकरोच को सुधा ने एक पेपर से पकड़ कर मीरा के डोर के अंदर छोड़ दिया. मीरा का गेट खुला हुआ था, मेड काम कर रही थी, उस ने देख लिया. बस, अब तो सुबूत सामने था.

आलोक तो सीधे पुलिस स्टैशन पहुंच गए और सुधा की शिकायत कर दी, साथ में मेड को भी ले गए थे. मेड डर रही थी फिर बाद में मीरा की रिक्वैस्ट पर उन के साथ चली ही गई. थोड़ीबहुत कानूनी काररवाई हुई और रोहित और सुधा को चेतावनी देते हुए छोड़ दिया गया.

सोसाइटी में रहने वाले लोग हैरान थे. अपने फ्लैट को बड़ा करने के लिए दूसरे फ्लैट वालों को कैसे परेशान किया जा रहा था, कैसी जिद और सनक थी अब दोनों परिवारों में जो इतनी बढ़ गई कि इस की खबर लंदन तक पहुंच ही गई. सोनिका और शिविन ने अपने सिर पकड़ लिए. दोनों अपने पेरैंट्स को अलगअलग कोने में बैठ कर समझा रहे थे, मगर कोई असर नहीं हो रहा था.

सोनिका ने कहा, ”यार, अब हमारा क्या होगा?”

”डोंट वरी, हमारे पेरैंट्स बहुत गलत कर रहे हैं, इस जिद में हम तो नहीं पड़ेंगे. पता नहीं क्या फालतू हरकतें कर रहे हैं. वैसे तो अपनी तबीयत और अकेलेपन का रोना रोते रहते हैं और अब देखो, इन सब बातों की कितनी ऐनर्जी है सब में.”

मुंबई में दोनों घरों का माहौल बहुत खराब होता जा रहा था. दोनों परिवार अपनेअपने तरीके से एकदूसरे को नुकसान पहुंचा रहे थे. रात में वीडियो कौल पर सोनिका और शिविन से अब हर बात बताते. शिविन तो इकलौती संतान था, आलोक और मीरा उसी से कह कर अपना दिल हलका करते. सोनिका और शिविन का दिल उदास हो रहा था कि यह तो बड़ा बुरा हो रहा है. कहां तो दोनों सपना देख रहे थे कि दोनों परिवारों का साथ भविष्य में एकदूसरे के लिए अब और कितना बड़ा सहारा होगा, सब एकदूसरे के सुखदुख में साथ रह लेंगे.

शिविन ने बहुत गंभीर मुद्रा में कहा, ”सोनू, कोई वहां एकदूसरे को कोई बड़ा नुकसान पहुंचा दे, इस से पहले उन्हें रोकना होगा. सोच रहा हूं कि हम उन्हें अपना संबंध बता देते हैं, शायद कोई असर हो.”

”ठीक है, कोशिश कर सकते हैं, अब अपने बारे में बता ही देते हैं.’’

उसी दिन जब दोनों अपने परिवार से वीडियो कौल कर रहे थे, दोनों ने बात करतेकरते साफसाफ कहा, ”आप लोग यह झगड़ा यहीं रोक दें क्योंकि जौब मिलते ही हम दोनों शादी कर लेंगे और हम अभी भी साथ ही रह रहे हैं. बहुत सोचसमझ कर हम ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी चुन लिया है और हमारा फैसला बदलेगा नहीं. अब आप लोग देख लीजिए क्या करना है. हमें तो प्यार है, तो है.’’

दोनों परिवारों में जैसे सन्नाटा फैल गया, सब एकदम चुप. कोई किसी से नहीं बोला. कई दिन दोनों तरफ बहुत शांति रही. किसी ने किसी को परेशान नहीं किया. सोनिका और शिविन ने घर कोई बात नहीं की. पूरा समय दिया अपने पेरैंट्स को. मोनिका लगातार सोनिका के टच में थी, वह पूरी कोशिश कर रही थी कि दोनों परिवार झगडे खत्म कर दें.

3 दिन बाद सोनिका से बात कर रहा था परिवार. रोहित बोले, ”इंसान अपनी संतान से ही हारता है, क्या कर सकते हैं, जैसी तुम्हारी मरजी.’’

मोनिका हंस पड़ी, ”पापा, यह हारजीत नहीं है, यह प्यार है.”

उधर मीरा मुसकराती हुई शिविन से कह रही थी, ”ठीक है फिर, प्यार है तो फिर हम क्या कर सकते हैं. बात ही खत्म.

फोन रखने के बाद शिविन और सोनिका चहकते हुए एकदूसरे की बांहों में खो गए थे.

वारिसों वाली अम्मां : पुजारिन अम्मां की मौत से मच गई खलबली

कल रात पुजारिन अम्मां ठंड से मर गईं तो महल्ले में शोक की लहर दौड़ गई. हर एक ने पुजारिन अम्मां के ममत्व और उन की धर्मभावना की जी खोल कर चर्चा की पर दबी जबान से चिंता भी जाहिर की कि पुजारिन का अंतिम संस्कार कैसे होगा? पिछले 20-25 सालों से वह मंदिर में सेवा करती आ रही थीं, जहां तक लोगों को याद है इस दौरान उन का कोई रिश्तेनाते का परिचित नहीं आया. उन की जैसी लंबी आयु का कोई बुजुर्ग अब महल्ले में भी नहीं बचा है जो बता सके कि उन का कोई वारिस है भी या नहीं. महल्ले वालों को यह सोच कर ही कंपकंपी छूट रही है कि केवल दाहसंस्कार कराने से ही तो सबकुछ नहीं हो जाएगा, तमाम तरह के कर्मकांड भी तो करने होंगे. आखिर मंदिर की पवित्रता का सवाल है. बिना कर्मकांड के न तो पत्थर की मूर्तियां शुद्ध होंगी और न ही सूतक से बाहर निकल सकेंगी. पर यह सब करे कौन और कैसे?

मजाकिया स्वभाव के राकेशजी हंस कर अपनी पत्नी से बोले, ‘‘क्यों रमा, यह 4 बजे भोर में पुजारिन अम्मां को लेने यमदूत आए कैसे होंगे? ठंड से तो उन की भी हड्डी कांप रही होगी न?’’

इस समाचार को ले कर आई महरी घर का काम करने के पक्ष में बिलकुल नहीं थी. वह तो बस, मेमसाहब को गरमागरम खबर देने भर आई है. चूंकि वह पूरी आल इंडिया रेडियो है इसलिए रमा ने पति की तरफ चुपके से आंखें तरेरीं कि कहीं उन की मजाक में कही बात मिर्च- मसाले के साथ पूरे महल्ले में न फैल जाए.

घड़ी की सूई जब 12 पर पहुंचने को हुई तब जा कर महल्ले वालों को चिंता हुई कि ज्यादा देर करने से रात में घाट पर जाने में परेशानी होगी. पुजारिन अम्मां की देह यों ही पड़ी है लेकिन कोई उन के आसपास भी नहीं फटक रहा है. वहां जाने से तो अशौच हो जाएगा, फिर नहाना- धोना. जितनी देर टल सकता है टले.

धीरेधीरे पूरे महल्ले के पुरुष चौधरीजी के यहां जमा हो गए. चौधरीजी कालीन के निर्यातक हैं. महल्ले में ही नहीं शहर में भी उन का रुतबा है. चमचों की लंबीचौड़ी फौज है जो हथियारों के साथ उन्हें चारों ओर से घेरे रहती है. शायद यह उन के खौफ का असर है कि अंदर से सब उन से डरते हैं लेकिन ऊपर से आदर का भाव दिखाते हैं और एकदूसरे से चौधरीजी के साथ अपनी निकटता का बखान करते हैं.

हां, तो पूरा महल्ला चौधरीजी के विशाल ड्राइंगरूम में जमा हो गया. सब के चेहरे तो उन के सीने तक ही लटके रहे पर चौधरीजी का तो और भी ज्यादा, शायद उन के पेट तक. फिर वह दुख के भाव के साथ उठे और मुंह लटकाएलटकाए ही बोलना शुरू किया, ‘‘भाइयो, पुजारिन अम्मां अचानक हमें अकेला छोड़ कर इस लोक से चली गईं. उन का हम सब के साथ पुत्रवत स्नेह था.’’

वह कुछ क्षण को मौन हुए. सीने पर बायां हाथ रखा. एक आह सी निकली. फिर उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘मेरी तो दिली इच्छा थी कि पुजारिन अम्मां के क्रियाकर्म का समस्त कार्य हम खुद करें और पूरी तरह विधिविधान से करें किंतु…’’

चौधरीजी ने फिर अपना सीना दबाया और एक आह मुंह से निकाली. उधर उन के इस ‘किंतु’ ने कितनों के हृदय को वेदना से भर दिया क्योंकि महल्ले के लोगों ने चौधरी के इस अलौकिक अभिनय का दर्शन कितने ही आयोजनों में चंदा लेते समय किया है.

चौधरीजी ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘किंतु मेरा व्यापार इन दिनों मंदा चल रहा है. इधर घर ठीकठाक कराने में हाथ लगा रखा है, उधर एक छोटा सा शौपिंग मौल भी बनवा रहा हूं. इन वजहों से मेरा हाथ बहुत तंग चल रहा है. और फिर पुजारिन अम्मां का अकेले मैं ही तो बेटा नहीं हूं, आप सब भी उन के बेटे हैं. उन की अंतिम सेवा के अवसर को आप भी नहीं छोड़ना चाहेंगे. मेरे विचार से तो हम सब को मिलजुल कर इस कार्य को संपादित करना चाहिए जिस से किसी एक पर बोझ भी न पड़े और समस्त कार्य अनुष्ठानपूर्वक हो जाए. तो आप सब की क्या राय है? वैसे यदि इस में किसी को कोई परेशानी है तो साफ बोल दे. जैसे भी होगा महल्ले की इज्जत रखने के लिए मैं इस कार्य को करूंगा.’’

चौधरी साहब के इस पूरे भाषण में कहां विनीत भाव था, कहां कठोर आदेश था, कहां धमकी थी इस सब का पूरापूरा आभास महल्ले के लोगों को था. इसलिए प्रतिवाद का कोई प्रश्न ही न था.

अपने पुत्रों की इस विशाल फौज से पुजारिन अम्मां जीतेजी तो नहीं ही वाकिफ थीं. कितने समय उन्होंने फाके किए यह तो वही जानती थीं. हां, आधेअधूरे कपड़ों में लिपटी उन की मृत देह एक फटी गुदड़ी पर पड़ी थी. लगभग डेढ़ सौ घरों वाला वह महल्ला न उन के लिए कपड़े जुटा पाया न अन्न. किंतु आज उन के लिए सुंदर महंगे कफन और लकड़ी का प्रबंध तो वह कर ही रहा है.

कभी रेडियो, टीवी का मुंह न देखने वाली पुजारिन अम्मां के अंतिम संस्कार की पूरी वीडियोग्राफी हो रही है. शाम को टीवी प्रसारण में यह सब चौधरीजी की अनुकंपा से प्रसारित भी हो जाएगा.

इस प्रकार पुजारिन अम्मां की देह की राख को गंगा की धारा में प्रवाहित कर गंगाजल से हाथमुंह धो सब ने अपनेअपने घरों को प्रस्थान किया. घर आ कर गीजर के गरमागरम पानी से स्नान कर और चाय पी कर चौधरी के पास हाजिरी लगाने में किसी महल्ले वाले ने देर नहीं की.

चौधरी खुद तो घाट तक जा नहीं सके थे क्योंकि उन का दिल पुजारिन अम्मां के मरने के दुख को सहन नहीं कर पा रहा था किंतु वह सब के लौटने की प्रतीक्षा जरूर कर रहे थे. उन की रसोई में देशी घी में चूड़ा मटर बन रहा था तो गाजर के हलवे में मावे की मात्रा भरपूर थी. आने वाले हर व्यक्ति की वह अगवानी करते, नौकर गुनगुने पानी से उन के चरण धुलवाता और कालीमिर्च चबाने को देता, पांवपोश पर सब अपने पांव पोंछते और अंदर आ कर सोफे पर बैठ शनील की रजाई ओढ़ लेते. नौकर तुरंत ही चूड़ामटर पेश कर देता, फिर हलवा, चाय, पान वगैरह चौधरीजी की इसी आवभगत के तो सब दीवाने हैं. बातों के सिलसिले में रात गहराई तो देसीविदेशी शराब और काजूबादाम के बीच पुजारिन अम्मां कहीं खो सी गईं.

अगली सुबह महल्ले वालों को एक नई चिंता का सामना करना पड़ा. मंदिर और मूर्तियों की साफसफाई का काम कौन करे. महल्ले के पुरुषों को तो फुरसत न थी. महिलाओं के कामों और उन की व्यस्तताओं का भी कोई ओरछोर न था. किसी को स्वेटर बुनना था तो किसी को अचार डालना था. कोई कुम्हरौड़ी बनाने की तैयारी कर रही थी, तो कोई आलू के पापड़ बना रही थी. उस पर भी यह कि सब के घर में ठाकुरजी हैं ही, जिन की वे रोज ही पूजा करती हैं. फिर मंदिर की देखभाल करने का समय किस के पास है?

महल्ले की सभी समस्याओं का समाधान तो चौधरी को ही खोजना था. हर रोज एक परिवार के जिम्मे मंदिर रहेगा. वह उस की देखभाल करेगा और रात में चौधरीजी को दिनभर की रिपोर्ट के साथ उस दिन का चढ़ावा भी सौंपेगा. हर बार की तरह अब भी महल्ले वालों के पास प्रतिवाद के स्वर नहीं थे.

अभी पुजारिन अम्मां को मरे एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि एक दिन 50, 55 और 60 वर्ष की आयु के 3 लोग रामनामी दुपट्टा ओढ़े मंदिर में सपरिवार विलाप करते महल्ले वालों को दिखाई दिए. ये कौन लोग हैं और कहां से आए हैं यह किसी को पता नहीं था पर उन के फूटफूट कर रोने से सारा महल्ला थर्रा उठा.

महल्ले के लोग अपनेअपने घरों से निकल कर मंदिर में आए और यह जानने की कोशिश की कि वे कौन हैं और क्यों इस तरह धाड़ें मारमार कर रो रहे हैं. ये तीनों परिवार केवल हाहाकार करते जाते पर न तो कुछ बोलते न ही बताते.

हथियारधारी लोगों से घिरे चौधरी को मंदिर में आया देख कर महल्ले वाले उन के साथ हो लिए. तीनों परिवार के लोगों ने चौधरीजी को देखा, उन के साथ आए हथियारबंद लोगों को देखा और समझ गए कि यही वह मुख्य व्यक्ति है जो यहां फैले इस सारे नाटक को दिशानिर्देश दे सकेगा. इस बात को समझ कर उन के विलाप करते मुंह से एक बार ही तो निकला, ‘‘अम्मां’’ और उन के हृदय से सटी अम्मां और उन के परिवार की किसी मेले में खींची हुई फोटो जैसे उन के हाथों से छूट गई.

चौधरीजी के साथ सभी ने अधेड़ अम्मां को अपने तीनों जवान बेटों के साथ खड़े पहचाना जो अब अधेड़ हो चुके हैं. घूंघट की ओट से झांकती ये अधेड़ औरतें जरूर इन की बीवियां होंगी और पोते- पोतियों के रूप में कुछ बच्चे.

चौधरी साहब के साथ महल्ले के लोग अपनेअपने ढंग से इन के बारे में सोच रहे थे कि इतने सालों बाद इन बेटों को अपनी मां की याद आई है, वह भी तब जब वह मर गई. किस आशा, किस आकांक्षा से आए हैं ये यहां? क्या पुजारिन अम्मां के पास कोई जमीनजायदाद थी? 3 बेटों की यह माता इतना भरापूरा परिवार होते हुए भी अकेली दम तोड़ गई, आज उस का परिवार यहां क्यों जमा हुआ है? इतने सालों तक ये लोग कहां थे? किसी को भी तो नहीं याद आता कि ये तीनों कभी यहां आए हों या पुजारिन अम्मां कुछ दिनों के लिए कहीं गई हों?

‘‘ठीक है, ठीक है, हाथमुंह धो लो, आराम कर लो फिर हवेली आ जाना. बताना कि क्या समस्या है?’’ चौधरीजी ने घुड़का तो सारा विलाप बंद हो गया. धीरेधीरे भीड़ अपनेअपने रास्ते खिसक ली.

अगर कोई देखता तो जान पाता कि कैसे वे तीनों परिवार लोगों के जाने के बाद आपस में तूतू-मैंमैं करते हुए लड़ पड़े थे. बड़ा बोला, ‘‘मैं बड़ा हूं. अम्मां की संपत्ति पर मेरा हक है. उस का वारिस तो मैं ही हूं. तुम दोनों क्यों आए यहां? क्या मंदिर बांटोगे? पुजारी तो एक ही होगा मंदिर का?’’

मझले के पास अपने तर्क थे, ‘‘अम्मां मुझे ही अपना वारिस मानती थीं. देखोदेखो, उन्होंने मुझे यह चिट्ठी भेजी थी. लो, देख लो दद्दा. अम्मां ने लिखा है कि तू ही मेरा राजा बेटा है. बड़े ने तो साथ ले जाने से मना कर दिया. तू ही मुझे अपने साथ ले जा. अकेली जान पड़ी रहूंगी. जैसे अपने टामी को दो रोटियां डालना वैसे मुझे भी दे देना.’’

अब की बार छोटा भी मैदान में कूद पड़ा, ‘‘तो कौन सा तुम ले गए मझले दद्दा. अम्मां ने मुझे भी चिट्ठी भेजी थी. लो, देखो. लिखा है, ‘मेरा सोना बेटा, तू तो मेरा पेट पोंछना है. तू ही तो मुझे मरने पर मुखाग्नि देगा. बेटा, अकेली भूत सी डोलती हूं. पोतेपोतियों के बीच रहने को कितना दिल तड़पता है. मंदिर में कोई बच्चा, कोई बहू जब अपनी दादी या सास के साथ आते हैं तो मेरा दिल रो पड़ता है. इतने भरेपूरे परिवार की मां हो कर भी मैं कितनी अकेली हूं. मेरा सोना बेटा, ले जा मुझे अपने साथ.’ ’’

सच है, सब के पास प्रमाण है अपनेअपने बुलावे का किंतु कोई भी सोना या राजा बेटा पुजारिन अम्मां को अपने साथ नहीं ले गया. इस के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं क्योंकि कोई ले कर गया होता तो आज पुजारिन अम्मां यों अकेली पड़ेपड़े न मर गई होतीं और उन का दाहसंस्कार चंदा कर के न किया गया होता.

पुजारिन अम्मां के 3 पुत्र, जिन्होंने एक क्षण भी बेटे के कर्तव्य का पालन नहीं किया, जिन्हें अपनी मां का अकेलापन नहीं खला, वे आज उस के वारिस बने खड़े हैं. क्या उन का मन जरा भी अपनी मां के भेजे पत्र से विचलित नहीं हुआ. क्या कभी उन्हें एहसास हुआ कि जिस मां ने उन्हें 9 माह तक अपनी कोख में रखा, जिस ने उन्हें सीने से लगा कर रातें आंखों में ही काट दीं, उस मां को वे तीनों मिल कर 9 दिन भी अपने साथ नहीं रख सके.

आज भी उन्हें उस के दाहसंस्कार, उस के श्राद्ध आदि की चिंता नहीं, चिंता है तो मात्र मंदिर के वारिसाना हक की. वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मंदिर का पुजारी दीनहीन हो तो कोई चढ़ावा नहीं चढ़ता किंतु पुजारी तनिक भी टीमटाम वाला हो, उस को पूजा करने का दिखावा करना आता हो, भक्तों की जेबों के वजन को टटोलना आता हो तो इस से बढि़या कोई और धंधा हो ही नहीं सकता.

आने वाले समय की कल्पना कर तीनों भाई मन में पूरी योजना बनाए पड़े थे. बस, उन्हें चौधरी का खौफ खाए जा रहा था वरना अब तक तो तीनों भाइयों ने फैसला कर ही लिया होता, चाहे बात से चाहे लात से. 3 अलगअलग ध्रुवों से आए एक ही मां के जने 3 भाइयों को एकदूसरे की ओर दृष्टि फिराना भी गवारा नहीं. एकदूसरे का हालचाल, कुशलक्षेम जानने की तनिक भी जिज्ञासा नहीं, बस, केवल मंदिर पर अधिकार की हवस ही दिल- दिमाग को अभिभूत किए है.

उधर चौधरीजी की चिंता और परेशानी का कोई ओरछोर नहीं है. कितने योजनाबद्ध तरीके से वे मंदिर को अपनी संपत्ति बनाने वाले थे. उन के जैसा विद्वान पुरुष यह अच्छी तरह से जानता है कि मंदिर की सेवाटहल करना महल्ले के लोगों के बस की बात नहीं. उन्हें ही कुछ प्रबंध करना है. प्रबंध भी ऐसा हो जिस से उन का भी कुछ लाभ हो. मंदिर के लिए अभी उन्होंने जो व्यवस्था की है वह तो अस्थायी है.

अभी वह कोई उचित व्यवस्था सोच भी नहीं पाए थे कि ये तीनों जाने कहां से टपक पड़े. पर उन के आने के पीछे छिपी उन की चतुराई को याद कर और उन को देख उन के नाटक में आए बदलाव को याद कर चौधरीजी मुसकरा दिए. तीनों में से किसी एक का चुनाव करना कठिन है. तीनों ही सर्वश्रेष्ठ हैं, तीनों ही योग्य और उपयुक्त हैं. एक निश्चय सा कर चौधरीजी निश्चिन्त हो चले थे.

अगले दिन सुबह ही मंदिर के घंटे की ध्वनि से महल्ले वालों की नींद टूट गई. मंदिर को देखने और पुजारिन अम्मां के वारिसों के बारे में जानने के लिए लोग मंदिर पहुंचे तो देखा तीनों भाई मंदिर के तीनों कमरों में किनारीदार पीली धोती पहने, लंबी चुटिया बांधे और सलीके से चंदन लगाए मूर्तियों के सामने मंत्र बुदबुदा रहे हैं. वे बारीबारी से उठते हैं और वहां खड़े लोगों को तांबे के लोटे में रखे जल का प्रसाद देते हैं. सामने ही तालाजडि़त दानपात्र रखा है जिस पर गुप्तदान, स्वेच्छादान आदि लिखा हुआ है. पुजारी की ओर दक्षिणा बढ़ाने पर वे दानपात्र की ओर इशारा कर देते हैं.

मंदिर के इस बदलाव पर अब महल्ले के लोग भौचक हैं. श्रद्धालुओं की जेबें ढीली हो रही हैं. पुजारीत्रय तथा चौधरीजी के खजाने भर रहे हैं. पुजारिन अम्मां को सब भूल चुके हैं.

हम बेवफा न थे: हमशां ने क्यों मांगी भैया से माफी

लेखक- दरख्शां अनवर ‘ईराकी’

‘‘अरे, आप लोग यहां क्या कर रहे हैं? सब लोग वहां आप दोनों के इंतजार में खड़े हैं,’’ हमशां ने अपने भैया और होने वाली भाभी को एक कोने में खड़े देख कर पूछा.

‘‘बस कुछ नहीं, ऐसे ही…’’ हमशां की होने वाली भाभी बोलीं.

‘‘पर भैया, आप तो ऐसे छिपने वाले नहीं थे…’’ हमशां ने हंसते हुए पूछा.

‘काश हमशां, तुम जान पातीं कि मैं आज कितना उदास हूं, मगर मैं चाह कर भी तुम्हें नहीं बता सकता,’ इतना सोच कर हमशां का भाई अख्तर लोगों के स्वागत के लिए दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया.

तभी अख्तर की नजर सामने से आती निदा पर पड़ी जो पहले कभी उसी की मंगेतर थी. वह उसे लाख भुलाने के बावजूद भी भूल नहीं पाया था.

‘‘हैलो अंकल, कैसे हैं आप?’’ निदा ने अख्तर के अब्बू से पूछा.

‘‘बेटी, मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ अख्तर के अब्बू ने प्यार से जवाब दिया.

‘‘हैलो अख्तर, मंगनी मुबारक हो. और कितनी बार मंगनी करने की कसम खा रखी है?’’ निदा ने सवाल दागा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो? मैं तो कुछ नहीं जानता कि हमारी मंगनी क्यों टूटी. पता नहीं, तुम्हारे घर वालों को मुझ में क्या बुराई नजर आई,’’ अख्तर ने जवाब दिया.

‘‘बस मिस्टर अख्तर, आप जैसे लोग ही दुनिया को धोखा देते फिरते हैं और हमारे जैसे लोग धोखा खाते रहते हैं,’’ इतना कह कर निदा गुस्से में वहां से चली गई.

सामने स्टेज पर मंगनी की तैयारी पूरे जोरशोर से हो रही थी. सब लोग एकदूसरे से बातें करते नजर आ रहे थे. तभी निदा ने हमशां को देखा, जो उसी की तरफ दौड़ी चली आ रही थी.

‘‘निदा, आप आ गईं. मैं तो सोच रही थी कि आप भी उन लड़कियों जैसी होंगी, जो मंगनी टूटने के बाद रिश्ता तोड़ लेती हैं,’’ हमशां बोली.

‘‘हमशां, मैं उन में से नहीं हूं. यह सब तो हालात की वजह से हुआ है…’’ निदा उदास हो कर बोली, ‘‘क्या मैं जान सकती हूं कि वह लड़की कौन है जो तुम लोगों को पसंद आई है?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. वह देखो, सामने स्टेज की तरफ सुनहरे रंग का लहंगा पहने हुए खड़ी है,’’ हमशां ने अपनी होने वाली भाभी की ओर इशारा करते हुए बताया.

‘‘अच्छा, तो यही वह लड़की है जो तुम लोगों की अगली शिकार है,’’ निदा ने कोसने वाले अंदाज में कहा.

‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इस में भैया की कोई गलती नहीं है. वह तो आज भी नहीं जानते कि हम लोगों की तरफ से मंगनी तोड़ी गई?है,’’ हमशां ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘मगर, तुम तो बता सकती थीं.

तुम ने क्यों नहीं बताया? आखिर तुम भी तो इसी घर की हो,’’ इतना कह कर निदा वहां से दूसरी तरफ खड़े लोगों की तरफ बढ़ने लगी.

निदा की बातें हमशां को बुरी तरह कचोट गईं.

‘‘प्लीज निदा, आप हम लोगों को गलत न समझें. बस, मम्मी चाहती थीं कि भैया की शादी उन की सहेली की बेटी से ही हो,’’ निदा को रोकते हुए हमशां ने सफाई पेश की.

‘‘और तुम लोग मान गए. एक लड़की की जिंदगी बरबाद कर के अपनी कामयाबी का जश्न मना रहे हो,’’ निदा गुस्से से बोली.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं?है. मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मम्मी की कसम के आगे हम सब मजबूर थे वरना मंगनी कभी भी न टूटने देते,’’ कह कर हमशां ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘देखो हमशां, अब पुरानी बातों को भूल जाओ. पर अफसोस तो उम्रभर रहेगा कि इनसानों की पहचान करना आजकल के लोग भूल चुके हैं,’’ इतना कह कर निदा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और आगे बढ़ गई.

‘‘निदा, इन से मिलो. ये मेरी होने वाली बहू के मम्मीपापा हैं. यह इन की छोटी बेटी है, जो मैडिकल की पढ़ाई कर रही है,’’ अख्तर की अम्मी ने निदा को अपने नए रिश्तेदारों से मिलवाया.

निदा सोचने लगी कि लोग तो रिश्ता टूटने पर नफरत करते हैं, लेकिन मैं उन में से नहीं हूं. अमीरों के लिए दौलत ही सबकुछ है. मगर मैं दौलत की इज्जत नहीं करती, बल्कि इनसानों की इज्जत करना मुझे अपने घर वालों ने सिखाया है.

‘‘निदा, आप भैया को माफ कर दें, प्लीज,’’ हमशां उस के पास आ कर फिर मिन्नत भरे लहजे में बोली.

‘‘हमशां, कैसी बातें करती हो? अब जब मुझे पता चल गया है कि इस में तुम्हारे भैया की कोई गलती नहीं है तो माफी मांगने का सवाल ही नहीं उठता,’’ निदा ने हंस कर उस के गाल पर एक हलकी सी चपत लगाई.

कुछ देर ठहर कर निदा फिर बोली, ‘‘हमशां, तुम्हारी मम्मी ने मुझ से रिश्ता तोड़ कर बहुत बड़ी गलती की. काश, मैं भी अमीर घर से होती तो यह रिश्ता चंद सिक्कों के लिए न टूटता.’’

‘‘मुझे मालूम है कि आप नाराज हैं. मम्मी ने आप से मंगनी तो तोड़ दी, पर उन्हें भी हमेशा अफसोस रहेगा कि उन्होंने दौलत के लिए अपने बेटे की खुशियों का खून कर दिया,’’ हमशां ने संजीदगी से कहा.

‘‘बेटा, आप लोग यहां क्यों खड़े हैं? चलो, सब लोग इंतजार कर रहे हैं. निदा, तुम भी चलो,’’ अख्तर के अब्बू खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘मुझे यहां इतना प्यार मिलता है, फिर भी दिल में एक टीस सी उठती?है कि इन्होंने मुझे ठुकराया है. पर दिल में नफरत से कहीं ज्यादा मुहब्बत का असर है, जो चाह कर भी नहीं मिटा सकती,’ निदा सोच रही थी.

‘‘निदा, आप को बुरा नहीं लग रहा कि भैया किसी और से शादी कर रहे हैं?’’ हमशां ने मासूमियत से पूछा.

‘‘नहीं हमशां, मुझे क्यों बुरा लगने लगा. अगर आदमी का दिल साफ और पाक हो, तो वह एक अच्छा दोस्त भी तो बन सकता है,’’ निदा उमड़ते आंसुओं को रोकना चाहती थी, मगर कोशिश करने पर भी वह ऐसा कर नहीं सकी और आखिरकार उस की आंखें भर आईं.

‘‘भैया, आप निदा से वादा करें कि आप दोनों जिंदगी के किसी भी मोड़ पर दोस्ती का दामन नहीं छोड़ेंगे,’’ हमशां ने इतना कह कर निदा का हाथ अपने भैया के हाथ में थमा दिया और दोनों के अच्छे दोस्त बने रहने की दुआ करने लगी.

‘‘माफ कीजिएगा, अब हम एकदूसरे के दोस्त बन गए हैं और दोस्ती में कोई परदा नहीं, इसलिए आप मुझे बेवफा न समझें तो बेहतर होगा,’’ अख्तर ने कहा.

‘‘अच्छा, आप लोग मेरे बिना दोस्ती कैसे कर सकते हैं. मैं तीसरी दोस्त हूं,’’ अख्तर की मंगेतर निदा से बोली.

निदा उस लड़की को देखती रह गई और सोचने लगी कि कितनी अच्छी लड़की है. वैसे भी इस सब में इस की कोई गलती भी नहीं है.

‘‘आंटी, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं. प्लीज, इनकार न कीजिएगा,’’ निदा ने कहा.

‘‘तुम मुझ को शर्मिंदा तो नहीं कर रही हो?’’ अख्तर की अम्मी ने पलट कर पूछा.

‘‘नहीं आंटी, मैं एक दोस्त होने के नाते अपने दोस्त की बहन को अपने भाई के लिए मांग रही हूं,’’ इतना कह कर निदा ने हमशां को गले से लगा लिया.

‘‘निदा, आप हम से बदला लेना चाहती?हैं. आप भी मम्मी की तरह रिश्ता जोड़ कर फिर तोड़ लीजिएगा ताकि मैं भी दुनिया वालों की नजर में बदनाम हो जाऊं,’’ हमशां रोते हुए बोली.

‘‘अरी पगली, मैं तो तेरे भैया की दोस्त हूं, दुख और सुख में साथ देना दोस्तों का फर्ज होता है, न कि उन से बदला लेना,’’ निदा ने कहा.

‘‘नहीं, मुझे यह रिश्ता मंजूर नहीं है,’’ अख्तर की अम्मी ने जिद्दी लहजे में कहा.

तभी अख्तर के अब्बू आ गए.

‘‘क्या बात है? किस का रिश्ता नहीं होने देंगी आप?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘अंकल, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं.’’

‘‘तो देर किस बात की है. ले जाओ. तुम्हारी अमानत है, तुम्हें सौंप देता हूं.’’

‘‘निदा, आप अब भी सोच लें, मुझे बरबाद होने से आप ही बचा सकती हैं,’’ हमशां ने रोते हुए कहा.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हो. मैं तो तुम्हें दिल से कबूल कर रही हूं, जबान से नहीं, जो बदल जाऊंगी,’’ निदा खुशी से चहकी.

‘‘हमशां, निदा ठीक कह रही हैं. तुम खुशीखुशी मान जाओ. यह कोई जरूरी नहीं कि हम लोगों ने उस के साथ गलत बरताव किया तो वह भी ऐसी ही गलती दोहराए,’’ अख्तर हमशां को समझाते हुए कहने लगा.

‘‘अगर वह भी हमारे जैसी बन जाएगी, तब हम में और उस में क्या फर्क रहेगा,’’ इतना कह कर अख्तर ने हमशां का हाथ निदा के भाई के हाथों में दे दिया.

‘‘निदा, हम यह नहीं जानते कि कौन बेवफा था, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि हम बेवफा न थे,’’ अख्तर नजर झुकाए हुए बोला.

‘‘भैया, आप बेवफा न थे तो फिर कौन बेवफा था?’’ हमशां शिकायती लहजे में बोली. उस की नजर जब अपने भैया पर पड़ी तो देख कर दंग रह गई. उस का भाई रो रहा था.

‘‘भैया, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप को गलत समझा,’’ हमशां अख्तर के गले लग कर रोने लगी.

सच है कि इनसान को हालात के आगे झुकना पड़ता है. अपनों के लिए बेवफा भी बनना पड़ता है.

सूर्यकिरण: एक शर्त पर की थी मीना ने नितिश से शादी

मीना और नितीश की गृहस्थी में अचानक तूफान आ गया था. दोनों के विवाह को मात्र 1 साल हुआ था. आधुनिक जीवन की जरूरतें पूरी करते हुए दोनों 45 वसंत देख चुके थे. पहले उच्चशिक्षा प्राप्त करने की धुन, फिर ऊंची नौकरी और फिर गुणदोषों की परख व मूल्यांकन करने के फेर में एक के बाद एक प्रस्तावों को ठुकराने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो वह रुकने का नाम ही नहीं लेता था.

मीना के मातापिता जो पहले अपनी मेधावी बेटी की उपलब्धियों का बखान करते नहीं थकते थे. अब अचानक चिंताग्रस्त हो उठे थे.

बड़ी मुश्किल से गुणदोषों, सामाजिक स्तर आदि का मिलान कर के कुछ नवयुवकों को उन्होंने मीना से मिलने को तैयार भी कर लिया था, पर मीना पर तो एक दूसरी ही धुन सवार थी.मीना छूटते ही अजीब सा प्रश्न पूछ बैठती थी, ‘‘आप को बच्चे पसंद हैं या नहीं?’’

ज्यादातर भावी वर, मीना की आशा के विपरीत बच्चों को पसंद तो करते ही थे, अपने परिवार के लिए उन का होना जरूरी भी मानते थे. मगर यही स्वीकारोक्ति मीना को भड़काने के लिए काफी होती थी और संबंध बनने से पहले ही उस के पूर्वाग्रहों की भेंट चढ़ जाता था.

नितीश से अपनी पहली मुलाकात उसे आज भी अच्छी तरह याद हैं. चुस्तदुरुस्त और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नितीश को देखते ही वह प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी थी. पर उच्चशिक्षा और ऊंची नौकरी ने उस के आत्मविश्वास को गर्व की कगार तक पहुंचा दिया था. वैसे भी वह नारी अधिकारों के प्रति बेहद सजग थी. छुईमुई सी बनी रहने वाली युवतियों से उसे बड़ी कोफ्त होती थी. इसलिए नितीश को देखते ही उस ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी.

‘‘आशा है पत्रों के माध्यम से आप को मेरे बारे में पूरी जानकारी मिल गई होगी?’’ मीना अपने खास अंदाज में बोली थी.

‘‘जी, हां,’’ नितीश उसे ऊपर से नीचे तक निहारते हुए बोला था.

मीना मन ही मन भुनभुना रही थी कि ऐसे घूर रहा है मानो कभी लड़की नहीं देखी हो, पर मुंह से कुछ नहीं बोली थी.

‘‘आप अपने संबंध में कुछ और बताना चाहती है? मौन अंतत: नितीश ने ही तोड़ा था.

‘‘हां, क्यों नहीं. शायद आप जानना चाहें कि मैं ने अब तक विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘जी हां, अवश्य.’’

‘‘तो सुनिए, मेरे कंधों पर न तो पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ था और न ही कोई अन्य मजबूरी पर अपना भविष्य बनाने के लिए कड़ा परिश्रम किया है मैं ने.’’

‘‘जी हां, सब समझ गया मैं. आप अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं. पिता जानेमाने व्यापारी हैं, फिर पारिवारिक समस्याओं का तो प्रश्न ही नहीं उठता. पर मैं इतना खुशहाल नहीं रहा. पिता की लंबी बीमारी के कारण छोटे भाई और बहन के पालनपोषण, पढ़ाईलिखाई, विवाह आदि के बीच इतना समय ही नहीं मिला कि अपने बारे में सोच सकूं.’’

‘‘चलिए जब आप ने स्वयं को मानसिक रूप से विवाह के लिए तैयार कर ही लिया है, तो आप ने यह भी सोच लिया होगा कि आप अपनी भावी पत्नी में किन गुणों को देखना चाहेंगे.’’

‘‘किसी विशेष गुण की चाह नहीं है मुझे. हां, ऐसी पत्नी की चाह जरूर है जो मुझे मेरे सभी गुणोंअवगुणों के साथ अपना सके,’’ नितीश भोलेपन से मुसकराया तो मीना देखती ही रह गई थी. कुछ ऐसा ही व्यक्ति उस के कल्पनालोक में भी था.

‘‘आप के विचार जान कर खुशी हुई पर आप को नहीं लगता कि जीवन साथ बिताने का निर्णय लेने से पहले कुछ और विषयों पर विस्तार से बात करना जरूरी है?’’ मीना कुछ संकुचित स्वर में बोली.

‘‘मैं हर विषय पर विस्तार से बात करने को तैयार हूं. पूछिए क्या जानना चाहती हैं आप?’’

‘‘हम दोनों ने सफलता प्राप्त करने के लिए कड़ा परिश्रम किया है, पर जब 2 सफल व्यक्ति एक ही छत के नीचे रहें तो कई अप्रत्याशित समस्याएं सामने आ सकती है.’’

‘‘शायद.’’

‘‘शायद नहीं, वास्तविकता यही है,’’ मीना झुंझला गई थी.

‘‘मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई समस्या आ सकती है जिसे हम दोनों मिल कर सुलझा न सकें.’’

‘‘सुन कर अच्छा लगा, पर विवाह के बाद घर का काम कौन करेगा?’’

‘‘हम दोनों मिल कर करेंगे. मेरा दृढ़ विश्वास है कि विवाह नाम की संस्था में पतिपत्नी को समान अधिकार मिलने चाहिए,’’ नितीश ने तत्परता से उत्तर दिया.

‘‘और बच्चे?’’

‘‘बच्चे? कौन से बच्चे?’’

‘‘बनिए मत, बच्चों की जिम्मेदारी कौन संभालेगा?’’ ‘‘इस संबंध में तो कभी सोचा ही नहीं मैं ने.’’

‘‘तो अब सोच लीजिए. शतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छिपाने से तो समस्या हल नहीं हो जाएगी.’’

‘‘मैं बहस के लिए तैयार हूं महोदया,’’ नितीश नाटकीय अंदाज में बोल कर हंस पड़ा.

‘‘तो सुनिए मुझे बच्चे बिलकुल पसंद नहीं हैं या यों कहिए कि मैं बच्चों से नफरत करती हूं.’’

‘‘क्या कह रही हैं आप? उन भोलभाले मासूमों ने आप का क्या बिगाड़ा है.’’

‘‘इन मासूमों की भोली सूरत पर न जाइए. ये मातापिता के जीवन को कुछ इस तरह

जकड़ लेते हैं कि उन्हें जीवन की हर अच्छी चीज को त्याग देना पड़ता है.’’

‘‘मैं आप से सहमत हूं पर फिर भी लोग संतान की कामना करते हैं,’’ नितीश ने तर्क दिया.

‘‘करते होंगे, पर मुझे नहीं लगता कि मैं अपनी नौकरी के साथ आप के बच्चों के पालनपोषण का भार उठा सकूं. मुझे तो उन के नाम से ही झुरझुरी आने लगती है.’’

‘‘आप बोलती रहिए आप की बातों से मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही है.’’

‘‘जरा सोचिए, दोगुनी कमाई और 2 सफल व्यक्ति साथ रहें तो जीवन में आनंद ही आनंद है, पर मैं ने अपने कई मित्रों को बच्चों के चक्कर में रोतेबिलखते देखा है. अच्छा क्या आप बता सकते हैं कि केवल मानव शिशु ही क्यों रोते हैं? मैं ने जानवर या चिडि़या के बच्चों को कभी रोते नहीं देखा,’’ मीना ने अपनी बात समाप्त की.

‘‘आप ठीक कहती हैं. मैं आप से पूर्णतया सहमत हूं, पर परिवार में बच्चे की जगह कोई तोता या कुत्ता नहीं ले सकता.’’

‘‘तो फिर इस समस्या को कैसे सुलझाएंगे आप?’’

‘‘मैं एक समय में एक समस्या सुलझाने में विश्वास करता हूं. पहली समस्या विवाह करने की है. फैसला यह करना है कि हम दोनों एक ही छत के नीचे साथ रह सकते हैं या नहीं. बच्चे जब आएंगे तब देखा जाएगा. अभी से इस झमेले में पड़ने की क्या जरूरत है?’’ नितीश गंभीर स्वर में बोला.

‘‘पर मेरे लिए यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है. मैं किसी भी कीमत पर अपने भविष्य से समझौता नहीं कर सकती. नारीजीवन की सार्थकता केवल मां बनने में है, मैं ऐसा नहीं मानती.’’

‘‘मेरे लिए कोई समस्या नहीं है. अब वह समय तो रहा नहीं जब बच्चे बुढ़ापे की लाठी होते थे. इसलिए यदि आप शादी के बाद परिवार की वृद्धि में विश्वास नहीं करतीं तो मुझे कोई समस्या नहीं है,’’ नितीश ने मानो फैसला सुना दिया.

मीना कुछ देर मौन रही. कोई उस की सारी शर्तों को मान कर उस से विवाह की स्वीकृति देगा ऐसा तो उस ने कभी सोचा भी नहीं था. फिर भी मन में ऊहापोह की स्थिति थी. नितीश सचमुच ऐसा ही है या केवल दिखावा कर रहा है और विवाह के बाद उस का कोई दूसरा ही रूप सामने आएगा.

मगर अनिर्णय की स्थिति अधिक देर तक नहीं रही. सच तो यह था कि उस के विवाह को ले कर घर में पसरा तनाव सारी सीमाएं लांघ गया था. अपने लिए न सही पर मातापिता की खुशी के लिए वह शादी करने को तैयार थी.

मीना की मां ममता तथा पिता प्रकाश बड़ी बेचैनी से मीना और नितीश के फैसले की प्रतीक्षा कर रहे थे. नितीश के मातापिता भी यही चाहते थे कि किसी तरह वह शादी के लिए हां कर दे तो वे चैन की सांस लें.

जैसे ही नितीश और मीना ने विवाह के लिए सहमति जताई तो घर में मानो नई जान पड़ गई. ममता तो मीना के विवाह की आशा ही त्याग चुकी थीं. उन्हें पहले तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ और जब हुआ तो वे फफक उठीं. ‘‘ये तो खुशी के आंसू है,’’ ममता झट आंसू पोंछ कर अतिथिसत्कार में जुट गई थीं.

दोनों ही पक्ष जल्द शादी के इच्छुक थे. पहले ही इतनी देर हो चुकी थी. अब 1 दिन की देरी भी उन के लिए अंसहनीय थी.

हफ्ते भर के अंदर ही शादी संपन्न हो गई. शादी के बाद मीना और नितीश जिस आनंदमय स्थिति में थे वैसा आमतौर पर किस्सेकहानियों में होता होगा. मधुयामिनी से लौटी मीना के चेहरे पर अनोखी चमक देख कर उस के मातापिता भी पुलकित हो उठे थे.

मगर जीवन सदा सीधी राह पर ही तो नहीं चला करता. अचानक मीना की सेहत बिगड़ने लगी. वह बुझी सी रहने लगी. दूसरों को भी प्रेरित करने वाली ऊर्जा मानो खो सी हो गई थी.

तबीयत सुधरते न देख नितीश उसे डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने जब नए मेहमान के आने का शुभ समाचार सुनाया तो मीना का व्यवहार सर्वथा अप्रत्याशित था. वह अपनी सुधबुध खो बैठी. डाक्टर बड़े प्रयत्न से उसे होश में लाईं तो चीखचिल्ला कर मीना ने पूरा नर्सिंगहोम सिर पर उठा लिया. आसपास के लोग डाक्टर रमोला के कक्ष की ओर कुछ इस तरह दौड़ आए मानो कोई अनहोनी घट गईर् हो.

‘‘इस तरह संयम खोने से कोई भी समस्या हल नहीं होगी मीनाजी. मैं ने तो सोचा था कि आप यह शुभ समाचार सुन कर फूली नहीं समाएंगी. खुद को संभालिए. मैं ने ऐसे व्यवहार की आशा तो सपने में भी नहीं की थी. डाक्टर रमोला मीना को समझाने का प्रयत्न कर रही थीं. मगर मीना तो एक ही रट लगाए थी कि वह किसी भी कीमत पर इस अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाना चाहती थी.’’

‘‘माफ कीजिए, मैं आप को इस आयु में गर्भपात की सलाह नहीं दूंगी.’’

‘‘मैं आप की सलाह नहीं मांग रही…बहुत नम्रता से कहूं तो अनुरोध कर रही हूं. आप को दोगुनी या तिगुनी फीस भी देने को तैयार हूं.’’

‘‘माफ कीजिए, मैं किसी कीमत पर यह काम कभी न करूंगी और न ही आप को गर्भपात करवाने की सलाह दूंगी.’’

‘‘आप क्या समझती हैं कि शहर में और कोई डाक्टर नहीं है? चलो कहीं और चलते हैं,’’ मीना बड़े तैश में नितीश के साथ डाक्टर रमोला के कक्ष से बाहर निकल गई.

‘‘मेरे विचार से पहले घर चलते है. सोचसमझ कर फैसला करेंगे कि क्या और कैसे करना है? किस डाक्टर के पास जाना है,’’ कार में बैठते ही नितीश ने सुझाव दिया.

‘‘मैं सब समझती हूं. तुम सब की मिलीभगत है. तुम चाहते ही नहीं कि मैं इस मुसीबत से छुटकारा पा सकूं.’’

‘‘क्या कह रही हो मीना? लगता है 1 साल बाद भी तुम मुझे समझ नहीं सकीं. मुझे तुम्हारे स्वास्थ्य की चिंता है. मैं ने तुम्हारे और अपने मातापिता को सूचित कर दिया है. कोई फैसला लेने से पहले सलाह आवश्यक है.’’

‘‘किस से पूछ कर सूचित किया तुम ने? मुझे तो लगता है कि डाक्टर रमोला के कान भी तुम ने ही भरे थे. सब पुरुष एकजैसे होते हैं. साफ क्यों नहीं कहते कि तुम मेरी ग्रोथ से जलते हो. इसीलिए राह में रोड़े अटका रहे हो,’’ मीना एक ही सांस में बोल गई.

मीना का रोनाधोना न जाने कब तक चलता पर तभी उस की मां ममता का फोन आ गया. उन्होंने सख्त हिदायत दी कि वे पहली गाड़ी से पहुंच रही हैं. तब तक धैर्य से काम लो.

मीना छटपटा कर रह गई. वह समझ गई कि इस मुसीबत से निकल पाना आसान नहीं होगा.

दूसरे दिन सवेरे तक घर में मेहमानों की भीड़ लग गई थी. सब ने एकमत से घोषणा कर दी कि कुदरत के इस वरदान को अभिशाप में बदलने का मीना  को कोई अधिकार नहीं.

मीना मनमसोस कर रह गई. फिर भी उस ने निर्णय किया कि अवसर मिलते ही वह इस मुसीबत से छुटकारा अवश्य पा लेगी.

लाख चाहने पर भी मीना को अवसर नहीं मिल रहा था. उस के तथा नितीश के मातापिता एक पल के लिए भी उसे अकेला नहीं छोड़ते थे.

उस की मां ममता ने तो बच्चे को पालने का भार अपने कंधों पर लेने की घोषणा भी कर दी थी. फिर भला नितीश की मां कब पीछे रहने वाली थीं. उन्होंने भी अपने सहयोग का आश्वासन दे डाला था.

अब मीना बेचैनी से उस पल का इंतजार कर रही थी जब बच्चे के जन्म के साथ ही उसे इस शारीरिक तथा मानसिक यातना से छुटकारा मिलेगा. वह अकसर नितीश से परिहास करती कि नारी के साथ तो कुदरत ने भी पक्षपात किया है. तभी तो सारी असुविधाएं नारी के ही हिस्से आई हैं.

समय आने पर बच्चे का जन्म हुआ. सब कुछ ठीकठाक निबट गया तो सब ने राहत की सांस ली.

बच्चे को गोद में लेते हुए ममता तो रो ही पड़ी, ‘‘आज 35-36 साल बाद घर में बच्चे की किलकारियां गूजेंगी. कुदरत इतनी प्रसन्नता देगी, मैं ने तो इस की कल्पना भी नहीं की थी,’’ वे भरे गले से बोलीं.

‘‘यह तो बिलकुल अपने दादाजी पर गया है. वैसे तीखे नैननक्श, वैसा ही रोबीला चेहरा. तुम लोगों ने इस का नाम क्या सोचा है? नितीश की मां बच्चे को दुलारते हुए बोलीं.

‘‘आप लोग ही पालोगे इसे, नाम भी आप ही सोच लेना,’’ नितीश ने शिशु को गोद में ले कर ध्यान से देखा.

मीना कुतूहल से सारा दृश्य देख रही थी. वह बिस्तर पर बैठी थी. नितीश ने बच्चा उस के हाथों में दे दिया.

मीना को लगा मानो पूरे शरीर में बिजली दौड़ गईर् हो. उस ने बच्चे की बंद आंखों पर उंगलियां फेरी, छोटेछोटे हाथों की उंगलियां खोलने का प्रयत्न किया और नन्हे से तलवों को प्यार से सहलाया.

मीना को पहली बार आभास हुआ कि वह इस नन्ही सी जान को स्वयं से दूर करने की बात सोच भी नहीं सकती. उस ने शिशु को कलेजे से लगा लिया. और फिर उस कोमल, मीठे स्पर्शसुख में भीगती चली गई जिसे शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता था. दूर खड़ा नितीश मीना के चेहरे के बदलते भावों को देख कर ही सब कुछ समझ गया था जैसे दूर क्षितिज से पहली सूर्यकिरण अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हो.

गुरुजी का मटका : गुरुजी के प्रवचन से अशोक को मिला कौन सा मूल मंत्र

ड्राइवर की नौकरी करते हुए अशोक ने अपना ड्राइविंग का शौक तो पूरा कर लिया. लेकिन कहीं न कहीं उस के मन में अधिक धन कमाने की लालसा छिपी थी. अखबार में छपे ‘गुरुजी का प्रवचन’ के विज्ञापन को देख कर उस के दिमाग में षड्यंत्र का कीड़ा कुलबुलाने लगा.

अशोक ने जब आंखें खोलीं तो सुबह के 7 बजने वाले थे. उस ने एक अंगड़ाई ली और उठ कर बैठ गया और बैठेबैठे ही विचारों में खो गया. वह 10 साल पहले एक सैलानी की तरह गोआ आया था. वह ग्रेजुएट होने के बाद से ही नौकरी की तलाश करतेकरते थक गया था. शाम का समय बिताने के लिए उस ने ला में यह सोच कर दाखिला ले लिया कि नौकरी नहीं मिली तो वकालत शुरू कर लेगा. रोपीट कर उस ने कुछ पेपर पास भी कर लिए थे, लेकिन नौकरी न मिलनी थी न मिली. मांबाप भी कब तक खिलाते. रोजरोज के तानों से तंग आ कर एक दिन घर से नाराज हो कर अशोक भाग निकला और गोआ पहुंच गया.

पर्यटकों को आकर्षित करते गोआ के बीच अशोक को भी अच्छे लगे थे लेकिन वे पेट की आग तो नहीं बुझा सकते थे. नौकरी के लिए अशोक ने हाथपैर मारने शुरू किए तो उस का पढ़ालिखा होना और फर्राटे से अंगरेजी बोलना काम आ गया. उसे एक जगह ड्राइवर की नौकरी मिल गई. इस नौकरी से अशोक को कई फायदे हुए, पहला तो उस का ड्राइविंग का शौक पूरा हो गया तथा सफेद कपड़ों के रूप में रोजाना अच्छी डे्रस मिलती थी. टैक्सी मालिक की कई कारें थीं, जोकि कांट्रेक्ट पर होटलों में लगी रहती थीं. उस का टैक्सी मालिक शरीफ आदमी  था. उस को किलोमीटर के हिसाब से आमदनी चाहिए थी. देर रात से मिलने वाले ओवर टाइम का पैसा ड्राइवर को मिलता था.

अशोक की लगन देख कर कुछ ही दिनों में उस के मालिक ने उसे नई लग्जरी कार दे दी थी जिस का केवल विदेशी सैलानी अथवा बड़ेबड़े पैसे वाले इस्तेमाल करते थे. इस का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि अशोक को हमेशा विदेशी अथवा बड़े लोगों के संपर्क में रहने का मौका मिलने लगा. कई विदेशी तो उसे साथ खाना खाने को मजबूर भी कर देते थे, खासकर तब जब वह उन्हें एक बीच से दूसरे बीच घुमाता था. अच्छीखासी टिप भी मिलती थी जो उस की पगार से कई गुना ज्यादा होती थी.

धीरेधीरे अशोक ने एक कमरे का मकान भी ले लिया. विदेशी पर्यटकों की संगत का असर यह हुआ कि अब उस को शराब पीने की आदत पड़ गई. चूंकि वह अकेला रहता था इसलिए अन्य टैक्सी ड्राइवर मदन, आनंद आदि भी उस के कमरे में ही शराब पीते थे.

कल रात भी अशोक तथा उस के दूसरे टैक्सी ड्राइवर दोस्तों का जमघट काफी समय तक उस के कमरे पर लगा रहा. कारण था पर्यटन सीजन का समाप्त होना. बरसात का मौसम आ गया था. इस मौसम में विदेशी पर्यटक अपने देश चले जाते हैं.

हां, स्कूल की छुट्टियां होने से देशी पर्यटक गोआ आते हैं जिन में उन की कोई रुचि नहीं थी. मातापिता से मिलने या अपने शहर जाने का उस का कोई कार्यक्रम नहीं था.

इतने में दरवाजे पर घंटी बजी तो अशोक अपने अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आया. दरवाजा खोल कर देखा तो बाहर अखबार वाला खड़ा था जिस का 2 महीने का बिल बाकी था. अशोक ने उस को 1-2 दिन में पैसा देने को कह कर भेज दिया और स्थानीय अखबार ले कर पढ़ने लगा. अखबार पढ़तेपढ़ते उस की इच्छा चाय पीने को हुई. उस ने कमरे में एक कोने में मेज पर रखे गैस चूल्हे पर अपने लिए चाय बनाई तथा चाय और अखबार ले कर बाथरूम में घुस गया.

यद्यपि स्थानीय समाचारों में अशोक की कोई खास रुचि नहीं थी. वह तो महज मोटीमोटी हैडिंग पढ़ता और कुछ चटपटी खबरों के साथ यह जरूर पढ़ता कि गोआ में कहां क्या कार्यक्रम होने वाले हैं और किस ओर के ट्रैफिक को किस ओर मोड़ा जाना है. चाय समाप्त कर के अशोक अखबार फेंक ही रहा था कि उस की निगाह एक बड़े विज्ञापन पर पड़ी.

विज्ञापन के अनुसार अगले महीने की 10 तारीख की शाम को मीरामार बीच पर गुरु रामदासजी का प्रवचन होना था. बिना किसी प्रवेश शुल्क के सभी लोग सादर आमंत्रित थे.

विज्ञापन से ही उसे पता चला कि गोआ का प्रसिद्ध औद्योगिक घराना ‘खोटके परिवार’ इस कार्यक्रम को आयोजित करा रहा है.

अशोक को ध्यान आया कि कल उस के टैक्सी मालिक भी गुरु रामदास के गुणों का बखान कर रहे थे जिस को उन के परिवार के लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे. तभी उस ने जाना था कि गुरुजी बीमारी ठीक करने के उपाय तथा ‘बेटर लिविंग’ की शिक्षा देने में माहिर हैं, देशविदेश में उन का बड़ा नाम है. लाखों उन के अनुयायी हैं. बंगलौर में गुरुजी का बहुत बड़ा आश्रम है. अशोक को गुरु रामदासजी प्रेरणा स्रोत लगे तथा उस ने भी उन के इस कार्यक्रम में जाने का मन बना लिया.

अशोक तैयार हो कर टैक्सी मालिक के दफ्तर के लिए निकला तो यह देख कर उसे आश्चर्य हुआ कि शहर में जगहजगह गुरुजी की फोटो के साथ बड़ेबड़े होर्डिंग लगे हैं, पोस्टर लगे हैं. उस ने टैक्सी ली और इस उम्मीद से मेरियट होटल की तरफ चल पड़ा कि पांचसितारा होटल में भूलेभटके कोई सवारी मिल ही जाएगी. वैसे भी होटल मैनेजर का कमीशन बंधा होता है. अत: निश्चित था कि यदि कोई सवारी होगी तो उस को ही मिलेगी.

मेरियट होटल मीरामार बीच के साथ ही है. टैक्सी होटल में पार्क कर के अशोक बीच पर चला गया. बारिश रुकी हुई थी. उस को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि कई मजदूर सफाई का काम कर रहे हैं. पूछने पर पता चला कि गुरुजी के कार्यक्रम की तैयारी चल रही है.

होटल पहुंचा तो मैनेजर ने उसे बताया कि 2 सवारी हैं जिन को शहर तथा आसपास के इलाकों को देखने के लिए जाना है. इतने में ही सफेद कपड़ों में 2 व्यक्ति काउंटर पर आ गए. उन के खादी के कपड़ों की सफेदी देखते ही बनती थी.

मैनेजर के इशारे पर अशोक गेट पर टैक्सी ले आया. वे दोनों बैठे तो अशोक ने दरवाजा सैल्यूट के साथ बंद किया. अशोक टैक्सी चला रहा था पर उस का ध्यान उन की बातों की ओर लगा था. उन की बातों से उसे पता चला कि वे दोनों गुरुजी के कार्यक्रम को आयोजित करने के बारे में आए हैं. लंबे व्यक्ति का नाम ओमप्रकाश है जिस को सभी ओ.पी. के नाम से जानते हैं. वह गुरुजी का ‘इवंट’ मैनेजर है तथा कार्यक्रमों को आयोजित करने की जिम्मेदारी गुरुजी ने उसे ही स्थायी रूप से दी हुई है.

दूसरे व्यक्ति का नाम विजय गोयल था जो चार्टर्ड अकाउंटेंट है और आयोजनों में लागत और खर्चों की जिम्मेदारी वह गुरुजी के निर्देश पर निभा रहा है. दोनों ही गुरुजी के 2 हाथ हैं, विश्वासपात्र हैं. दोनों व्यक्तियों ने शहर में लगे पोस्टर, होर्डिंग आदि का जायजा लिया और आवश्यक निर्देश दिए.

समाचारपत्रों में छपे गुरुजी के विज्ञापन को देख कर वे दोनों उन समाचारपत्रों के दफ्तरों में गए और गुरुजी के चमत्कार के किस्से प्रकाशित करने के लिए कहा. इस के बाद वे दोनों ‘खोटके परिवार’ के बंगले पर पहुंचे जहां उन का भरपूर स्वागत हुआ. शाम के समय लान में ही कुरसियां लगी थीं और उस लान के बगल में ही टैक्सी पार्क की गई. जलपान के बाद विजय गोयल ने समाचारपत्रों में प्रकाशित विज्ञापनों के बिल तथा होर्डिंग आदि के खर्चों का ब्योरा दिया जोकि लगभग 5 लाख रुपए का था.

खोटके परिवार के मुखिया ने सभी बिल अपने पास खड़े मैनेजर को बिना देखे पेमेंट करने के लिए आवश्यक निर्देश दिए. तभी विजय गोयल ने कहा कि सारा भुगतान कैश में होना चाहिए, चेक नहीं और इस पर सभी सहमत थे.

अशोक पास में खड़ा उन की बातें सुन रहा था. ‘खोटके परिवार’ का आग्रह था कि गुरुजी उन्हीं के यहां रुकें तथा व्यवस्था उन्हीं के अनुसार हो जाएगी. मीरामार बीच कार्यक्रम में गुरुजी का स्वागत खासतौर से ‘खोटकेजी ही करेंगे और उन की पत्नी औरतों का प्रतिनिधित्व करेंगी. इस समारोह में. ओ.पी. ने बताया कि गुरुजी के साथ कितने लोग होंगे और उन सब की आवश्यकताएं क्याक्या होंगी. इतने में मैनेजर ने एक मोटा लिफाफा विजय गोयल को पकड़ा दिया जो शायद कैश पेमेंट था.

2 घंटे के बाद वे दोनों वापस होटल की ओर चल दिए. अंधेरा हो चला था लेकिन गोआ की नाइट लाइफ अभी शुरू होनी थी. होटल पहुंचने से पहले विजय गोयल ने अपने साथी ओ.पी. से बोला कि मटकों का कार्यक्रम तो बाकी ही रह गया. इस पर ओ.पी. ने टैक्सी ड्राइवर अशोक से पूछा कि क्या यहां आसपास कुम्हार हैं जो मटका बनाते हैं?

अशोक ने बताया कि मापसा में कुम्हार रहते हैं जो मिट्टी के बरतन बनाते हैं. और मापसा लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर दूसरा शहर है.

ओ.पी. ने विजय से कहा कि यह काम इस ड्राइवर को दे दो. यह 2-3 मटके ले आएगा.

‘‘हमारा काम तो 2 मटकों से ही हो जाएगा,’’ विजय बोला.

‘‘भाई, मैं ने ‘इवेंट मैनेजमेंट’ का कोर्स किया है. तीसरा मटका इमर्जेंसी के लिए रखो,’’ ओ.पी. ने जवाब दिया.

विजय गोयल ने अशोक को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, तीनों मटके साधारण होने चाहिए जिन को सफेद रंग से पोता जाएगा और उस पर स्वस्तिक का निशान व ‘श्री गुरुजी नम:’ भी लिखाना होगा. उन मटकों की खासीयत यह होगी कि मुंह बंद होगा और जैसे मिट्टी की गोलक में लंबा सा चीरा होता है वैसे ही मटकों के मुंह पर होगा जिस से उस में रुपयापैसा डाला जा सके.’’

यह सबकुछ समझाने के बाद विजय बोले, ‘‘ओ.पी., मैं तो अब थक गया हूं. कल सुबह की फ्लाइट से बंगलौर वापस भी जाना है.’’

ओ.पी. ने अशोक को 2 हजार रुपए दिए और बोले, ‘‘अशोक, इस बात का खास ध्यान रखना कि मटके आकर्षक ढंग से पेंट होने चाहिए.’’

‘‘सर, ये रुपए तो बहुत ज्यादा हैं,’’ अशोक बोला.

‘‘कोई बात नहीं, बाकी तुम रख लेना लेकिन याद रहे कि कार्यक्रम 10 तारीख को है और हम 8 तारीख को आएंगे. तब यह मटके तुम से ले लेंगे. तब तक उन्हें अपने पास ही रखना.’’

रात के 10 बज गए थे. अशोक भी टैक्सी स्टैंड पर छोड़ कर अपने कमरे पर पहुंचा. थकान महसूस हो रही थी साथ ही भूख भी लग रही थी. जेब में 2 हजार रुपए पड़े ही थे इसलिए उस ने मदन को बुला लिया क्योंकि उस का दोस्त आनंद टैक्सी ले कर मुंबई गया था. दोनों एक होटल में गए और खाना मंगा लिया. खाना खाते समय अशोक के दिमाग में एक विचार आया जिस ने एक षड्यंत्र को जन्म दिया. उस ने दोस्तों से कहा कि भाई मदन, मैं ने बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि इन महंतोंगुरुओं के पास जो चंदे का पैसा आता है उस का कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जाता और इस में हेराफेरी हो तो ये लोग उस की कहीं शिकायत भी नहीं करते हैं और फिर दोनों आपस में बाबाओं के किस्से सुनासुना कर ठहाके लगाते रहे.

रात के 12 बजे मदन अपने घर चला गया और अशोक भी कमरे पर आ कर सो गया. सुबह उस ने अखबार का पूरा पेमेंट कर दिया. इस के बाद तैयार हो कर वह बस पकड़ कर मापसा कुम्हारों की बस्ती में पहुंचा और मुंह बंद लेकिन चीरे के साथ मटकों का आर्डर दे दिया. सौदा 50 रुपए प्रति मटके पर तय हुआ तो कुम्हार ने 3 दिन का समय मांगा. अशोक ने 5 मटकों का आर्डर दिया तथा एडवांस भी 100 रुपए पकड़ा दिए.

अब अशोक पेंटर की तलाश भी वहीं करने लगा क्योंकि वह सारा काम मापसा में ही कराना चाहता था. इधरउधर नजर दौड़ाने पर बाजार की एक गली में उसे पेंटर की दुकान दिखाई दी. अशोक ने पेंटर को मटके पेंट करने के बारे में बताया. पेंटर जितेंद्र होशियार था, वह तुरंत समझ गया और उस ने अशोक को गुरुजी का चित्र भी बनाने का सुझाव दिया. अशोक ने जब उस से यह कहा कि उस के पास गुरुजी का फोटो नहीं है तो वह बोला, ‘‘आप इस के लिए परेशान न हों. अखबार में तो गुरुजी का चित्र छप ही रहा है उसे देख कर बना दूंगा.’’

इस के बाद उस ने अशोक को अपने द्वारा बनाई गई कुछ पेंटिंग भी दिखाईं. अशोक ने उस के काम से संतुष्ट हो कर कीमत तय की. जितेंद्र  ने 100 रुपए प्रति मटका पेंटिंग की कीमत बताई. इस पर अशोक ने कहा कि अगर कार्य संतोषजनक होगा तो वह 200 रुपए अतिरिक्त देगा. इसलिए काम बहुत ही अच्छा करना होगा. जितेंद्र ने भरोसा दिया कि आप मटका दें. 3 दिन में कार्य पूरा हो जाएगा.

अशोक ने 3 दिन बाद मटके कुम्हार से ले कर जितेंद्र की दुकान पर पहुंचा दिए. एडवांस भी दे दिया. इस बीच वह खोटके परिवार के दफ्तर भी गया तथा गुरुजी के कार्यक्रम में रुचि दिखाई. खोटकेजी ने कहा कि वह सेवक के रूप में कार्यक्रम की तैयारी में भाग ले सकता है.

चूंकि आफ सीजन के चलते अशोक बेकार था इसलिए बेकारी से बेगारी भली के सिद्धांत को मानते हुए उस ने हां कर दी. कार्यक्रम में केवल 5 रोज रह गए थे अत: तैयारी जोरशोर से चल रही थी. ड्राइवर होने के कारण खोटकेजी ने सारी भागदौड़ की जिम्मेदारी अशोक को सौंप दी तथा एक कार भी, जिस को अशोक ने जीजान से पूरा किया.

इस दौरान अशोक ने मीरामार बीच समारोह स्थल का बारीकी से निरीक्षण किया. एक भव्य मंच बनाया गया था जहां पर गुरुजी को विराजमान होना था. मंच पर संगीतकारों सहित लगभग 50 लोगों के बैठने की व्यवस्था थी. कार्यक्रम बड़े पैमाने पर होना था अत: टेलीविजन पत्रकारों, वीडियो आदि के साथ प्रतिष्ठित लोगों के बैठने की भी व्यवस्था की गई थी. मुख्यमंत्री अपने सहयोगी मंत्रियों के साथ गुरुजी को माला पहना कर गोआ में उन के स्वागत की रस्म अदा करने वाले थे. मंच पर मुख्यमंत्री के साथ खोटकेजी को बैठना था. बाद में सभी को खोटकेजी के बंगले पर गुरुजी के साथ भोजन पर आध्यात्मिक चर्चा में भाग लेने का कार्यक्रम था.

यह सुनहरा अवसर था जिस को खोटकेजी खोना नहीं चाहते थे. बातोंबातों में अशोक को पता चला कि खोटकेजी ने सारा खर्चा इसी खास अवसर के लिए उठाया है वरना गुरुजी के दर्शन तो वह बंगलौर जा कर भी कर सकते थे.

खैर, इस बीच अशोक मटके ले आया. वास्तव में जितेंद्र ने अपने चित्रों से मटके बेहद खूबसूरत बना दिए. सफेद रंग के मटके तथा उन पर गुरुजी का आकर्षक फोटो, स्वस्तिक के निशान के साथ कुछ चित्रकारी भी की गई थी.

आखिर 10 तारीख यानी समारोह का दिन आ गया. गुरुजी दोपहर की फ्लाइट से गोआ आ गए थे तथा खोटकेजी के बंगले में विश्राम कर रहे थे. पिछले 2 दिनों से लगातार गुरुजी के आश्रम के सदस्य समूह में गोआ पहुंच रहे थे. हवाई अड्डे पर विशेष व्यवस्था की गई थी. ओ.पी. तथा विजय गोयल भी कल ही आ गए थे और उन्होंने अशोक की भूरिभूरि प्रशंसा की शानदार मटके बनवाने के लिए. दोनों ही संतुष्ट थे.

शाम को सभी कार्यकर्ता सफेद पोशाक पहने गुरुजी के चित्र, बैच, आई कार्ड लगाए मीरामार बीच पर पहुंच चुके थे. अशोक को भी आईकार्ड लगाए विजयजी ने विशेष जिम्मेदारी सौंप दी. कार्यक्रम शुरू हो गया था. सभास्थल के बीच में लंबा प्लेटफार्म बनाया गया था जिस से सभास्थल 2 भागों में बंट गया था. लाउडस्पीकर पर बारबार घोषणा हो रही थी कि गुरुजी बस, आने ही वाले हैं. इतने में हलकी बरसात होने लगी तो थोड़ी हलचल सी मच गई. लोगों ने अपनेअपने छाते खोल लिए लेकिन भीड़ उठने का नाम नहीं ले रही थी, इस से पता चलता था कि गुरुजी के प्रति लोगों में कितना विश्वास है.

बारिश रुक गई तो गुरुजी बीच के प्लेटफार्म पर चल कर मंच पर आए और भक्तों का अभिवादन स्वीकार कर के उन के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी. लोगों ने फूलमालाएं पहना कर, दे कर तथा दूर से फेंक कर उन का अभिवादन किया. गुरुजी मंच पर पहुंचे तो खोटकेजी, मुख्यमंत्री और अन्य विशिष्ट व्यक्तियों ने परंपरागत तरीके से उन का स्वागत किया.

गुरुजी ने हलकी बारिश का श्रेय लेते हुए मजाक के अंदाज में अपने भाषण की शुरुआत करने से पहले सभी को आदेश दिया कि वे आंखें बंद कर के 2 मिनट का ध्यान लगाएं. बाद में भक्तों को कहा गया कि लंबी सांस लें तथा धीरेधीरे छोड़ें. यह प्रक्रिया अनेक बार दोहराई गई.

इसी दौरान विजयजी ने अशोक को मटका देते हुए मंच की बाईं तरफ श्रद्धालुओं के बीच उसे घुमाने को कहा तथा दूसरा मटका खुद ले कर दाईं तरफ चले गए. ओ.पी. तो मंच पर विराजमान थे.

कार्यक्रम निशुल्क था अत: हर श्रद्धालु ने क्षमतानुसार मटके में अपना योगदान दिया. कम से कम 10 रुपए का नोट तो देना ही था. कुछ ने 500 तो कुछ ने हजार तक का नोट दिया. जब बाईं तरफ बैठे सभी श्रद्धालुओं में मटका घूम चुका तो उस का वजन काफी बढ़ गया था. अशोक मटका ले कर धीरेधीरे पंडाल में बैठे श्रद्धालुओं से निकल कर बाहर की तरफ खड़े श्रद्धालु, पुलिसकर्मी, टैक्सी वालों के बीच चला गया.

अशोक ने बाहर खड़ी मदन की टैक्सी के पास मटका दिखाया तो मदन ने तुरंत झुक कर मटका ले लिया तथा बराबर में खाली रखा मटका अशोक को थमा दिया. अशोक पुन: मटके को ले कर टैक्सी वालों, पुलिस वालों के बीच घुमाने लगा. मंत्रीजी ने भी मटके में योगदान दिया. अशोक धीरेधीरे वापस विजय के पास पहुंचा जोकि दाईं तरफ अभी भी आधे श्रद्धालुओं के बीच मटका घुमा पाए थे. इस बीच उन को स्थानीय महिला कार्यकर्ताओं ने घेर रखा था तथा विजय अपने गुरुजी के साथ घनिष्ठ संबंधों की चर्चा से खुश हो रहे थे.

अशोक ने विजय से कहा, ‘‘सर, उस तरफ से तो पूरा हो गया. इधर मैं करता हूं आप उधर वाला मटका पकड़ लें.’’ विजय ने मटका बदल लिया तथा अशोक ने उस तरफ के लोगों के बीच मटका घुमाना शुरू कर दिया. जब पीछे की तरफ अशोक मटका ले कर गया तो देखा विजय पहले मटके को पकड़े महिला श्रद्धालुओं से हंसहंस कर बातें कर रहे हैं.

अशोक ने बड़े अदब से विजय के पास जा कर पूछा, ‘‘सर, बाहर खड़े श्रद्धालुओं, टैक्सी, ड्राइवर, पुलिस वालों के बीच भी मटका घुमाना है?’’

विजय ने आदेशात्मक लहजे में कहा कि जल्दी करो…गुरुजी का कार्यक्रम अगले 20 मिनट में समाप्त होने वाला है.

अशोक तेज कदमों से मदन की टैक्सी को ढूंढ़ने लगा. मदन की टैक्सी को न पा कर अशोक ने लंबी गहरी संतोष की सांस ली. योजना के अनुसार वह आनंद की टैक्सी की तरफ बढ़ा जिस ने झुक कर मटका अंदर रख लिया तथा खाली मटका अशोक को पकड़ा दिया, जिस को ले कर वह पुन: ड्राइवरों, पुलिसकर्मियों एवं बाहर खडे़ श्रद्धालुओं के बीच घुमाता हुआ विजय के पास पहुंच गया तथा दूसरा मटका भी उन के हवाले कर दिया.

विजयजी ने दोनों मटकों को अपने संरक्षण में ले लिया. इतने में कार्यक्रम समाप्त करने की घोषणा हो चुकी थी. गुरुजी  मंच छोड़ चुके थे. भजनों के द्वारा श्रद्धालुओं  को रोका जा रहा था लेकिन भीड़ भी धीरेधीरे  घटने  लगी थी. तभी  ओ.पी. जी मंच छोड़ कर वहां आ गए.

अशोक ने सफल कार्यक्रम कराने के लिए उन्हें बधाई दी. खुश हो कर ओ.पी. जी ने उस को बंगलौर आने को कहा तथा प्रस्तावित किया कि वह चाहे तो गुरुजी के स्टाफ में शामिल हो सकता है.

अशोक ने तुरंत ओमप्रकाशजी के तथा विजयजी के पांव छुए तथा उन के आशीष वचन प्राप्त किए.

विजय और ओमप्रकाश दोनों को मटके ले कर अशोक की टैक्सी से होटल पहुंचना था जहां से उन्हें खोटकेजी के बंगले पर जाना था.

टैक्सी स्टार्ट करने से पहले अशोक को यह देख कर राहत हुई कि आनंद भी टैक्सी ले कर गायब हो चुका था. अशोक ने विजय से कहा कि वह मटका फोड़ कर देख लें कि कितना कलेक्शन आया है क्योंकि गोआ की जनता पैसे देने के मामले में कंजूस है तथा धार्मिक कामों में कम ही योगदान देती है. ‘‘शराब से पैसे बचते ही नहीं होंगे,’’ ओमप्रकाशजी बोले तो तीनों हंस पड़े.  दोनों मटके कमरे में बंद कर  के, तीनों लोग खोटकेजी के  बंगले की ओर चल पडे़. अशोक ने फिर मटकों के बारे में चर्चा करनी चाही लेकिन विजय ने डांटते  हुए कहा कि मटके गुरुजी के सामने बंगलौर में फोडे़ जाएंगे. ऐसा उन का आदेश है.

‘‘आखिर अपने सुंदर चित्र को नक्काशी  के साथ देख कर गुरुजी प्रसन्न होंगे,’’ ओ.पी. जी ने एक जुमला फिर जड़ दिया. तीनों पुन: हंस पड़े. खोटकेजी के बंगले पर उन दोनों को छोड़ कर अशोक वापस कमरे पर आया जहां उस के दोनों दोस्त मदन व आनंद खानेपीने के सामान के साथ उस की प्रतीक्षा कर रह थे.

तीनों ने अपनेअपने जाम टकराए और बोले, ‘‘जय गुरुजी का मटका.’’

(इस कहानी के लेखक आयकर अपीलीय अधिकरण पणजी के न्यायिक सदस्य हैं)

फर्ज: नजमा ने अपना फर्ज कैसे निभाया?

जयपुर के सिटी अस्पताल में उस्मान का इलाज चलते 15 दिनों से भी ज्यादा हो गए थे लेकिन उस की तबीयत में सुधार नहीं हो रहा था.

आईसीयू वार्ड के सामने परेशान सरफराज लगातार इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे. बेचैनी में कभी डाक्टरों से अपने बेटे की जिंदगी की भीख मांगते तो कभी फर्श पर बैठ कर फूटफूट कर रोने लग जाते.

उधर, अस्पताल के एक कोने में खड़ी उस्मान की मां फरजाना भी बेटे की सलामती के लिए नर्सों की खुशामद कर रही थी. तभी आईसीयू वार्ड से डाक्टर बाहर निकले तो सरफराज उन के पीछेपीछे दौड़े और उन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे, ‘‘डाक्टर साहब, मेरे उस्मान को बचा लो. कुछ भी करो. उस के इलाज में कमी नहीं होनी चाहिए.’’

डाक्टर ने उन्हें उठा कर तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘देखिए अंकल, हम आप के बेटे को बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. उस की हालत अभी भी गंभीर बनी हुई है. औपरेशन और दवाओं को मिला कर कुल 5 लाख रुपए का खर्चा आएगा.’’

‘‘कैसे भी हो, आप मेरे बेटे को बचा लो, डाक्टर साहब. मैं 1-2 दिनों में पैसों का इंतजाम करता हूं,’’ सरफराज ने हाथ जोड़ कर कहा.

काफी भागदौड़ के बाद भी जब सरफराज से सिर्फ 2 लाख रुपयों का ही इंतजाम हो सका तो निराश हो कर उस ने बेटी नजमा को मदद के लिए दिल्ली फोन मिलाया. उधर से फोन पर दामाद अनवर की आवाज आई.

‘‘हैलो अब्बू, क्या हुआ, कैसे फोन किया?’’

‘‘बेटा अनवर, उस्मान की हालत ज्यादा ही खराब है. उस के औपरेशन और इलाज के लिए 5 लाख रुपयों की जरूरत थी. हम से 2 लाख रुपयों का ही इंतजाम हो सका. बेटा…’’ और सरफराज का गला भर आया.

इस के पहले कि उन की बात पूरी होती, उधर से अनवर ने कहा, ‘‘अब्बू, आप बिलकुल फिक्र न करें. मैं तो आ नहीं पाऊंगा, लेकिन नजमा कल सुबह पैसे ले कर आप के पास पहुंच जाएगी.’’

दूसरे दिन नजमा पैसे ले कर जयपुर पहुंच गई. आखिरकार सफल औपरेशन के बाद डाक्टरों ने उस्मान कोे बचा लिया. धीरेधीरे 10 साल गुजर गए. इस बीच सरफराज ने गांव की कुछ जमीन बेच कर उस्मान को इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवाई और मुंबई एअरपोर्ट पर उस की नौकरी लग गई. उस ने अपने साथ काम करने वाली लड़की रेणु से शादी भी कर ली और ससुराल में ही रहने लगा.

इस के बाद उस्मान का मांबाप से मिलने आना बंद हो गया. कई बार वे बीमार हुए. उसे खबर भी दी, फिर भी वह नहीं आया. ईद, बकरीद तक पर भी वह फोन पर भी मुबारकबाद नहीं देता

एक दिन सुबह टैलीफोन की घंटी बजी. सरफराज ने फोन उठाया उधर से उस्मान बोल रहा था, ‘‘हैलो अब्बा, कैसे हैं आप सब लोग? अब्बा, मुझे एक परेशानी आ गई है. मुझे 10 लाख रुपयों की सख्त जरूरत है. मैं 1-2 दिनों में पैसे लेने आ जाता हूं.’’

‘‘बेटा, तेरे औपरेशन के वक्त नजमा से उधार लिए 3 लाख रुपए चुकाने ही मुश्किल हो रहा है. ऐसे में मुझ से 10 लाख रुपयों का इंतजाम नहीं हो सकेगा. मैं मजबूर हूं बेटा,’’ सरफराज ने कहा.

इस के आगे सरफराज कुछ बोलते, उस्मान गुस्से से भड़क उठा, ‘‘अब्बा, मुझे आप से यही उम्मीद थी. मुझे पता था कि आप यही कहोगे. आप ने जिंदगी में मेरे लिए किया ही क्या है?’’ और उस ने फोन काट दिया.

अपने बेटे की ऐसी बातें सुन कर सरफराज को गहरा सदमा लगा. वे गुमसुम रहने लगे. घर में पड़े बड़बड़ाते रहते.

एक दिन अचानक शाम को सीने में दर्द के बाद वे लड़खड़ा कर गिर पड़े तो बीवी फरजाना ने उन्हें पलंग पर लिटा दिया. कुछ देर बाद आए डाक्टर ने जांच की और कहा, ‘‘चाचाजी की तबीयत ज्यादा खराब है, उन्हें बड़े अस्पताल ले जाना पड़ेगा.’’डाक्टर साहब की बात सुन कर घबराई फरजाना ने बेटे उस्मान को फोन कर बीमार बाप से मिलने आने की अपील करते हुए आखिरी वक्त होने की दुहाई भी दी.

जवाब में उधर से फोन पर उस्मान ने अम्मी से काफी भलाबुरा कहा. गुस्से में भरे उस्मान ने यह तक कह दिया, ‘‘आप लोगों से अब मेरा कोई रिश्ता नहीं है. आइंदा मुझे फोन भी मत करना.’’

यह सुन कर फरजाना पसीने से लथपथ हो गई. वो चकरा कर जमीन पर बैठ गई. कुछ देर बाद अपनेआप को संभाल कर उस ने नजमा को दिल्ली फोन किया, ‘‘हैलो नजमा, बेटी, तेरे अब्बा की तबीयत बहुत खराब है. तू अनवर से इजाजत ले कर कुछ दिनों के लिए यहां आ जा. तेरे अब्बा तुझे बारबार याद कर रहे हैं.’’

नजमा ने उधर से फौरन जवाब दिया, ‘‘अम्मी आप बिलकुल मत घबराना. मैं आज ही शाम तक अनवर के साथ आप के पास पहुंच जाऊंगी.’’

शाम होतेहोते नजमा और अनवर जब  घर पर पहुंचे तो खानदान के लोग सरफराज के पलंग के आसपास बैठे थे. नजमा भाग कर अब्बा से लिपट गई. दोनों बापबेटी बड़ी देर तक रोते रहे. ‘‘देखो अब्बा, मैं आ गई हूं. आप अब मेरे साथ दिल्ली चलोगे. वहां हम आप को बढि़या इलाज करवाएंगे. आप बहुत जल्दी ठीक हो जाओगे,’’ नजमा ने रोतेरोते कहा.

आंखें खोलने की कोशिश करते सरफराज बड़ी देर तक नजमा के सिर पर हाथ फेरते रहे. आंखों से टपकते आंसुओं को पोंछ कर बुझी आवाज में उन्होंने कहा, ‘‘नजमा बेटी, अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा. अब तू जो आ गई है. मुझे सुकून से मौत आ जाएगी.’’ ‘‘ऐसा मत बोलो, अब्बा. आप को कुछ नहीं होगा,’’ यह कह कर नजमा ने अब्बा का सिर अपनी गोद में रख लिया. अम्मी को बुला कर उस ने कह दिया, ‘‘अम्मी आप ने खूब खिदमत कर ली. अब मुझे अपना फर्ज अदा करने दो.’’ उस के बाद तो नजमा ने अब्बा सरफराज की खिदमत में दिनरात एक कर दिए. टाइम पर दवा, चाय, नाश्ता, खाना, नहलाना और घंटों तक पैर दबाते रहना, सारी रात पलंग पर बैठ कर जागना उस का रोजाना का काम हो गया.

कई बार सरफराज ने नजमा से ये सब करने से मना भी किया पर नजमा यही कहती, ‘‘अब्बा, आप ने हमारे लिए क्या नहीं किया. आप भी हमें अपने हाथों से खिलाते, नहलाते, स्कूल ले जाते, कंधों पर बैठा कर घुमाते थे. सबकुछ तो किया. अब मेरा फर्ज अदा करने का वक्त है. मुझे मत रोको, अब्बा.’’

बेटी की बात सुन कर सरफराज चुप हो गए. इधर, सरफराज की हालत दिनपरदिन गिरती चली गई. उन का खानापीना तक बंद हो गया.

एक दिन दोपहर के वक्त नजमा अब्बा का सिर गोद में ले कर चम्मच से पानी पिला रही थी. तभी घर के बाहर कार के रुकने की आवाज सुनाई दी.

कुछ देर बाद उस्मान एक वकील को साथ ले कर अंदर आया. उस के हाथ में टाइप किए हुए कुछ कागजात थे. अचानक बरसों बाद बिना इत्तला दिए उस को घर आया देख कर सभी खुश हो रहे थे. दरवाजे से घुसते ही वह लपक कर सरफराज के नजदीक जा कर आवाज देने लगा, ‘‘अब्बा, उठो, आंखे खोलो, इन कागजात पर दस्तखत करना है. उठो, उठो,’’ यह कह कर उस ने हाथ पकड़ कर उन्हें पैन देना चाहा.

नजमा ने रोक कर पूछा, ‘‘भाईजान, ये कैसे कागजात हैं?’’

लेकिन वह किसी की बिना सुने अब्बा को आवाजें देता रहा. सरफराज ने आंखें खोलीं. उस्मान की तरफ एक नजर देखा. और अचानक उन के हाथ में दिए कागजात और पैन नीचे गिर पड़े. उन का हाथ बेदम हो कर लटक गया. यह देख नजमा चिल्लाई, ‘‘अब्बा, अब्बा, हमें अकेला छोड़ कर मत जाओ.’’ और घर में कुहराम ?मच गया. नजमा बोली, ‘‘भाईजान जो मकान आप अपने नाम कराना चाहते थे वह तो 10 साल पहले अब्बू ने आप के नाम कर दिया था. आप अब फिक्र न करो.’’

ये सब देख कर उस्मान ने फुरती से अब्बा के बिना दस्तखत रह गए कागजात उठाए और वकील के साथ बिना पीछे देखे बाहर निकल गया. फरजाना, नजमा और अनवर भाग कर पीछेपीछे आए लेकिन तब तक कार रवाना हो गई. तीनों दरवाजे में खड़े कार की पीछे उड़ी धूल के गुबार में चकाचौंधभरी शहरी मतलबपरस्त दुनिया की आंधी में फर्ज और रिश्तों की मजबूत दीवार को भरभरा कर गिरते हुए देखते रह गए.

प्रयास: क्या श्रेया अपने गर्भपात होने का असली कारण जान पाई?

छतपर लगे सितारे चमक रहे थे. असली नहीं, बस दिखाने भर को ही थे. जिस वजह से लगाए गए थे वह तो… खैर, जीवन ठहर नहीं जाता कुछ होने न होने से.

बगल में पार्थ शांति से सो रहे थे. उन के दिमाग में कोई परेशान करने वाली बात नहीं थी शायद. मेरी जिंदगी में भी कुछ खास परेशानी नहीं थी. पर बेवजह सोचने की आदत थी मुझे. मेरे लिए रात बिताना बहुत मुश्किल होता था. इस नीरवता में मैं अपने विचारों को कभी रोक नहीं पाती थी. पार्थ तो शायद जानते भी नहीं थे कि मेरी हर रात आंखों में ही गुजरती है.

मैं शादी से पहले भी ऐसी ही थी. हर बात की गहराई में जाने का एक जनून सा रहता था. पर अब तो उस जनून ने एक आदत का रूप ले लिया था. इसीलिए हर कोई मुझ से कम ही बात करना पसंद करता था. पार्थ भी. जाने कब किस बात का क्या मतलब निकाल बैठूं. वैसे, बुरे नहीं थे पार्थ. बस हम दोनों बहुत ही अलग किस्म के इनसान थे. पार्थ को हर काम सलीके से करना पसंद था जबकि मैं हर काम में कुछ न कुछ नया ढूंढ़ने की कोशिश करती.

उस पहली मुलाकात में ही मैं जान गई थी कि हम दोनों में काफी असमानता है.

‘‘तुम्हें नहीं लगता कि हम घर पर मिलते तो ज्यादा अच्छा रहता?’’ पार्थ असहजता से इधरउधर देखते हुए बोले.

‘‘मुझे लगा तुम मुझ से कहीं अकेले मिलना पसंद करोगे. घर पर सब के सामने शायद हिचक होगी तुम्हें,’’ मैं ने बेफिक्री से कहा.

‘‘तुम? तुम मुझे ‘तुम’ क्यों कह रही हो?’’ पार्थ का स्वर थोड़ा ऊंचा हो गया.

मैं ने इस ओर ज्यादा ध्यान न दे कर एक बार फिर बेफिक्री से कहा, ‘‘तुम भी तो मुझे ‘तुम’ कह रहे हो?’’

उस दिन पार्थ के चेहरे का रंग तो बदला था, लेकिन उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा. मैं भी अपने महिलावादी विचारों में चूर अपने हिसाब से उचित उत्तर दे कर संतुष्ट हो गई.

फेरों के वक्त जब पंडित ने मुझ से कहा कि कभी अकेले जंगल वीराने में नहीं जाओगी, तब इन्होंने हंस कर कहा, ‘‘अकेले तो वैसे भी कहीं नहीं जाने दूंगा.’’

यह सुन कर सभी खिलखिला उठे. मैं ने भी इसे प्यार भरा मजाक समझ कर हंसी में उड़ा दिया. उस वक्त नहीं जानती थी कि वह सिर्फ एक मजाक नहीं था. उस के पीछे पार्थ के मन में गहराई तक बैठी सोच थी. इस जमाने में भी वे औरतों को खुद से कमतर समझते थे.

शादी के बाद हनीमून मना कर जब लौटी तो खुद को हवा में उड़ता पाती थी. लेकिन इस नशे को काफूर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. रविवार की एक खुशनुमा सुबह जब मैं ने पार्थ से फिर से नौकरी जौइन करने के बारे में पूछा तो उन के रूखे जवाब ने मुझे एक और झटका दे दिया.

‘‘क्या जरूरत है नौकरी करने की? मैं तो कमा ही रहा हूं.’’

पार्थ के इस उत्तर को सुन कर मेरी आंखों के सामने पुरानी फिल्मों के खड़ूस पतियों की तसवीरें आ गईं. फिर बोली, ‘‘लेकिन शादी से पहले भी तो मैं नौकरी करती ही थी?’’

‘‘शादी से पहले तुम्हारा खर्च तुम्हारे घर वालों को भारी पड़ता होगा. अब तुम मेरी जिम्मेदारी हो. जैसी मेरी मरजी होगी वैसा तुम्हें रखूंगा. इस बारे में मुझे कोई राय नहीं चाहिए,’’ इन्होंने मुझ पर पैनी नजर डालते हुए कहा.

अपने परिवार पर की गई टिप्पणी तीर की तरह चुभी मुझे. अत: फुफकार उठी, ‘‘मैं नौकरी खर्चा निकालने के लिए नहीं, बल्कि अपनी खुशी के लिए करती थी और अब भी करूंगी. मैं भी देखती हूं मुझे कौन रोकता है,’’ इतना कह कर मैं वहां से जाने लगी.

तभी पीछे से पार्थ का ठंडा स्वर सुनाई दिया, ‘‘ठीक है, करो नौकरी, लेकिन फिर मुझ से एक भी पैसे की उम्मीद मत रखना.’’

एक पल को मेरे पैर वहीं ठिठक गए, लेकिन मैं स्वाभिमानी थी, इसलिए बिना उत्तर दिए कमरे से निकल गई.

अब तक काफी कुछ बदल चुका था हमारे बीच. पार्थ को तो खैर वैसे भी कुछ मतलब नहीं था मुझ से और अब मैं ने भी दिमाग पर जोर डालना काफी हद तक छोड़ दिया था. दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त रहते. शाम को थकहार कर खाना खा कर अपनेअपने लैपटौप में खोए रहते. कभीकभी जब पार्थ को अपनी शारीरिक जरूरत पूरा करने का ध्यान आता तो मशीनी तरीके से मैं भी साथ दे देती. उन्हें मेरी रुचि अरुचि से कोई फर्क नहीं पड़ता.

अब तो लड़ने का भी मन नहीं करता था. पहले की तरह अब हमारा झगड़ा कईकई दिनों तक नहीं चलता था, बल्कि कुछ ही मिनटों में खत्म हो जाता. उस का अंत करने में अकसर मैं ही आगे रहती. मुझे अब पार्थ से बहस करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता था. इस का मतलब यह नहीं था कि मैं ने पार्थ के सत्तावादी रवैऐ से हार मान ली थी. उस की हर बात का जवाब देने में अब मुझे आनंद आने लगा था.

उस दिन पार्थ की बहन रितिका के बेटे की बर्थडे पार्टी थी. उन्होंने मुझे शाम को जल्दी घर आने को कहा. वे अपनी बात पूरी कर पाते, उस से पहले ही मैं ने सपाट स्वर में उत्तर दिया, ‘‘मुझे औफिस में देर तक काम है, तुम चले जाना.’’

‘‘अरे, पर मैं अकेले कैसे जाऊंगा? वहां लोग क्या कहेंगे?’’ वे परेशान हो कर बोले.

‘‘वही जो हर बार मेरे अकेले जाने पर मेरे घर वाले कहते हैं,’’ कह कर मैं जोर से दरवाजा बंद कर औफिस के लिए निकल पड़ी.

आंखों में आंसू थे, पर इन के कारण मैं पार्थ के सामने कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. उन्हें कभी एहसास नहीं होता था कि वे क्या गलत कर जाते हैं. उन्हें इस तरह वक्त बेवक्त सुना कर मुझे लगता था कि शायद उन्हें समझा पाऊं कि उन के व्यवहार में क्या कमी है. लेकिन बेरुखी का जवाब बेरुखी से देना, फासला ही बढ़ाता है. कभीकभी लगता कि पार्थ को प्यार से समझाऊं. कई बार कोशिश भी की, लेकिन रिश्ते में मिठास बनाए रखने का प्रयास दोनों ओर से होता है.

एक मौका मिला था मुझे सब कुछ ठीक करने का. तभी आंखें भर आईं. पलक मूंद कर पार्थ के साथ बिताए उन खूबसूरत पलों को फिर से याद करने लगी…

‘‘पा…पार्थ…’’ मैं ने लड़खड़ाते हुए उन्हें पुकारा.

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘पार्थ, मुझे तुम से बहुत जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, बोलो. मैं सुन रहा हूं,’’ वे अब भी अपने लैपटौप में खोए थे.

‘‘पार्थ… मैं…,’’ मेरे मुंह से मारे घबराहट के कुछ निकल ही नहीं रहा था कि पता नहीं पार्थ क्या प्रतिक्रिया देंगे.

‘‘बोलो भी श्रेया क्या बात है?’’ आखिरकार उन्होंने लैपटौप से अपनी नजरें हटा कर मेरी तरफ देखा.

‘‘पार्थ मैं मां बनने वाली हूं,’’ मैं ने पार्थ से नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘सच?’’ उन्होंने झटके से लैपटौप को हटाते हुए खुशी से कहा.

मैं ने उन की तरफ देखा. पार्थ के चेहरे पर इतनी खुशी मैं ने कभी नहीं देखी थी.

उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘हमारे लिए यह सब से बड़ी खुशी की बात है, श्रेया. इस बात पर तो मिठाई होनी चाहिए भई,’’ और फिर मेरा माथा चूम लिया. उस रात काफी वक्त के बाद अपने रिश्ते की गरमाहट मुझे महसूस हुई. उस रात पार्थ कुछ अलग थे, रोजाना की तरह रूखे नहीं थे.

मुझे तो लगा था कि पार्थ यह खबर सुन कर खुश नहीं होंगे. हर दूसरे दिन वे पैसे की तंगी का रोना रोते थे, जबकि हम दोनों की जरूरत से ज्यादा पैसा ही घर में आ रहा था. उन की इस परेशानी का कारण मुझे समझ नहीं आता था. उस पर घर में नए सदस्य के आने की बात मुझे उन्हें और अधिक परेशान करने वाली लगी. लेकिन पार्थ की प्रतिक्रिया से मैं खुश थी, बहुत खुश.

ऐसा लगता था कि पार्थ बदल गए हैं. रोज मेरे लिए नएनए उपहार लाते. चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जाते, मेरे खानेपीने का वे खुद खयाल रखते. औफिस के लिए लेट हो जाना भी उन्हें नहीं अखरता. मुझे नाश्ता करा कर दवा दे कर ही औफिस निकलते थे. अकसर मेरी और अपनी मां से मेरी सेहत को ले कर सलाह लेते.

मेरे लिए यह सब नया था, सुखद भी. पार्थ ऐसे भी हो सकते हैं, मैं ने कभी सोचा नहीं था. उन का उत्साह देख कर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता.

‘‘मुझे तुम्हारी तरह एक प्यारी सी लड़की चाहिए,’’ एक रात पार्थ ने मेरे बालों में उंगलियां घुमाते हुए कहा.

‘‘लेकिन मुझे तो लड़का चाहिए ताकि ससुराल में पति का रोब न झेलना पड़े,’’ मैं ने उन्हें छेड़ते हुए कहा.

‘‘अच्छा… और अगर वह घरजमाई बन बैठा तो?’’ पार्थ के इतना कहते ही हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘मजाक तक ठीक है पार्थ, लेकिन मांजी तो बेटा ही चाहेंगी न?’’ मैं ने थोड़ी गंभीरता से पूछा.

‘‘तुम मां की चिंता न करो. उन्होंने ही तो मुझ से कहा है कि उन्हें पोती ही चाहिए.’’

दरअसल, मांजी अपने स्वामी के आदेशों का पालन कर रही थीं. स्वामी का कहना था कि लड़की होने से पार्थ को तरक्की मिलेगी. इस स्वामी के पास 1-2 बार मांजी मुझे भी ले कर गई थीं. मुझे तो वह हर बाबा की तरह ढोंगी ही लगा. उस का ध्यान भगवान में कम, अपनी शिष्याओं में ज्यादा लगा रहता था. वहां का माहौल भी मुझे कुछ अजीब लगा. लेकिन मांजी की आस्था को देखते हुए मैं ने कुछ नहीं कहा.

घर के हर छोटेबड़े काम से पहले स्वामी से पूछना इस घर की रीत थी. अब जब स्वामी ने कह दिया कि घर में बेटी ही आनी चाहिए, मांबेटा दोनों दोहराते रहते. मांजी मेरी डिलिवरी के 3 महीने पहले ही आ गई थीं. उन्हें ज्यादा तकलीफ न हो, इसलिए मैं कुछ दिनों के लिए मायके जाने की सोच रही थी पर पार्थ ने मना कर दिया.

‘‘तुम्हारे बिना मैं कैसे रहूंगा श्रेया?’’ उन्होंने कहा.

अब मुझे मांबेटे के व्यवहार पर कुछ शक सा होने लगा. मेरा यह शक कुछ ही दिन बाद सही भी साबित हुआ.

‘‘ये सितारे किसलिए पार्थ?’’ पूरा 1 घंटा मुझे इंतजार कराने के बाद यह सरप्राइज दिया था पार्थ ने.

‘‘श्रुति के लिए और किस के लिए जान,’’ श्रुति नाम पसंद किया था पार्थ ने हमारी होने वाली बेटी के लिए.

‘‘और श्रुति की जगह प्रयास हुआ तो?’’ मैं ने फिर चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘हो ही नहीं सकता. स्वामी ने कहा है तो बेटी ही होगी,’’ मैं ने उन की बात सुन कर अविश्वास से सिर हिलाया, ‘‘और हां स्वामी से याद आया कि कल हम सब को उस के आश्रम जाना है. उस ने तुम्हें अपना आशीर्वाद देने बुलाया है,’’ उन्होंने कहा.

मैं चुपचाप लेट गई. मेरे लिए इस हालत में सफर करना बहुत मुश्किल था. स्वामी का आश्रम घर से 50 किलोमीटर दूर था और इतनी देर तक कार में बैठे रहना मेरे बस का नहीं था. पार्थ और उन की मां से बहस करना बेकार था. मेरी कोई भी दलील उन के आगे नहीं चलने वाली थी.

अगले दिन सुबह 9 बजे हम आश्रम पहुंच गए. ऐसा लग रहा था जैसे किसी जश्न की तैयारी थी.

‘‘स्वामी ने आज हमारे लिए खास पूजा की तैयारी की है,’’ मांजी ने बताया.

कुछ ही देर में हवनपूजा शुरू हो गई. इतनी तड़कभड़क मुझे नौटंकी लग रही थी. पता नहीं पार्थ से कितने पैसे ठगे होंगे इस ढोंगी ने. पार्थ तो समझदार हैं न. लेकिन नहीं, जो मां ने कह दिया वह काम आंखें मूंद कर करते जाना है.

पूजा खत्म होने के बाद स्वामी ने सभी को चरणामृत और प्रसाद दिया. उस के बाद उस के प्रवचन शुरू हो गए. उन बोझिल प्रवचनों से मुझे नींद आने लगी.

मैं पार्थ को जब यह बताने लगी तो मांजी बीच में ही बोल पड़ीं, ‘‘नींद आ रही है तो यहीं आराम कर लो न, बहुत शांति है यहां.’’

‘‘नहीं मांजी, मैं घर जा कर आराम कर लूंगी,’’ मैं ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, ऐसे वक्त में सेहत के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहिए. मैं अभी स्वामी से कह कर इंतजाम करवाती हूं.’’

5 मिनट में ही स्वामी की 2 शिष्याएं मुझे विश्रामकक्ष की ओर ले चलीं. कमरे में बिलकुल अंधेरा था. बिस्तर पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला. जब नींद खुली तो सिर भारी लग रहा था. कमरे में मेरे अलावा और कोई नहीं था. मैं ने हलके से आवाज दे कर पार्थ को बुलाया. शायद वे कमरे के बाहर ही खड़े थे, आवाज सुनते ही आ गए.

अभी हम आश्रम से कुछ ही मीटर की दूरी पर आए थे कि मेरे पेट में जोर का दर्द उठा. मुझे बेचैनी हो रही थी. पार्थ के चेहरे पर जहां परेशानी थी, वहीं मांजी मुझे धैर्य बंधाने की कोशिश कर रही थीं. मुझे खुद से ज्यादा अपने बच्चे की चिंता हो रही थी.

कब अस्पताल पहुंचे, उस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं. जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया.

शाम को मांजी मुझ से मिलने आईं. लेकिन मेरी नजरें पार्थ को ढूंढ़ रही थीं.

‘‘वह किसी काम में फंस गया है. कल सुबह आएगा तुम से मिलने,’’ मांजी ने झिझकते हुए कहा.

 

मगर पार्थ अगली सुबह नहीं आए. अब तक मैं यह तो जान ही चुकी थी कि मैं अपना बच्चा खो चुकी हूं. लेकिन उस का कारण नहीं समझ पा रही थी. न तो मैं शारीरिक रूप से कमजोर थी और न ही कोई मानसिक परेशानी थी मुझे. कोई चोट भी नहीं पहुंची थी. फिर वह क्या चीज थी जिस ने मुझ से मेरा बच्चा छीन लिया?

2 दिन बाद पार्थ मुझ से मिलने आए. न जाने क्यों मुझ से नजरें चुरा रहे थे. पिछले कुछ महीनों का दुलारस्नेह सब गायब था. मांजी के व्यवहार में भी एक अजीब सी झिझक मुझे हर पल महसूस हो रही थी.

खैर, मुझे अस्पताल से छुट्टी मिलने के कुछ ही दिन बाद मांजी चली गईं, लेकिन मेरे और पार्थ के बीच की खामोशी गायब होने का नाम ही नहीं ले रही थी. शायद मुझ से ज्यादा पार्थ उस बच्चे को ले कर उत्साहित थे. कई बार मैं ने बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कभी अपनी नाराजगी को ले कर मुंह नहीं खोला.

उस दिन से ले कर आज तक कुछ नहीं बदला था. एक ही घर में हम 2 अजनबियों की तरह रह रहे थे. अब न तो पार्थ का गुस्सैल रूप दिखता था और न ही स्नेहिल. अजीब से कवच में छिप गए थे पार्थ.

अचानक आई तेज खांसी ने मेरी विचारशृंखला को तोड़ दिया. पानी पीने के लिए उठी तो छाती में दर्द महसूस हुआ. ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने जकड़ लिया हो. पानी पीपी कर जैसेतैसे रात काटी. सुबह उठी, तब भी बदन में हरारत हो रही थी. बिस्तर पर पड़े रहने से और बीमार पड़ूंगी, यह सोच कर उठ खड़ी हुई. पार्थ के लिए नाश्ता बनाते वक्त भी मैं खांस रही थी.

‘‘तुम्हें काफी दिनों से खांसी है. पूरी रात खांसती रहती हो,’’ नाश्ते की टेबल पर पार्थ ने कहा.

‘‘उन की आवाज सुन कर मैं लगभग चौंक पड़ी. पिछले कुछ दिनों से उन की आवाज ही भूल चुकी थी मैं.’’

‘‘बस मामूली सी है, ठीक हो जाएगी,’’ मैं ने हलकी मुसकान के साथ कहा.

‘‘कितनी थकी हुई लग रही हो तुम? कितनी रातों से नहीं सोई हो?’’ पार्थ ने माथा छू कर कहा, ‘‘अरे, तुम तो बुखार से तप रही हो. चलो, अभी डाक्टर के पास चलते हैं.’’

‘‘लेकिन पार्थ…’’ मैं ने कुछ बोलने की कोशिश की, लेकिन पार्थ नाश्ता बीच में ही छोड़ कर खड़े हो चुके थे.

गाड़ी चलाते वक्त पार्थ के चेहरे पर फिर से वही परेशानी. मेरे लिए चिंता दिख रही थी. मेरा बीमार शरीर भी उन की इस फिक्र को महसूस कर आनंदित हो उठा.

जांच के बाद डाक्टर ने कई टैस्ट लिख दिए. इधर पार्थ मेरे लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे, उधर मैं उन की इस भागदौड़ पर निहाल हुए जा रही थी. सूई के नाम से ही घबराने वाली मैं ब्लड टैस्ट के वक्त जरा भी नहीं कसमसाई. मैं तो पूरा वक्त बस पार्थ को निहारती रही थी.

मेरी रिपोर्ट अगले दिन आनी थी. पार्थ मुझे ले कर घर आ गए. औफिस में फोन कर के 3 दिन की छुट्टी ले ली. मेरे औफिस में भी मेरे बीमार होने की सूचना दे दी.

‘‘कितने दिन औफिस नहीं जाओगे पार्थ? मैं घर का काम तो कर ही सकती हूं,’’ पार्थ को चाय बनाते हुए देख मैं सोफे से उठने लगी.

‘‘चुपचाप लेटी रहो. मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूं,’’ उन्होंने मुझे झिड़कते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा… मुझे काम मत करने दो… मांजी को बुला लो,’’ मैं ने सुझाव दिया.

कुछ देर तक पार्थ ने अपनी नजरें नहीं उठाईं. फिर दबे स्वर में कहा, ‘‘नहीं, मां को बेवजह परेशान करने का कोई मतलब नहीं है. मैं बाई का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘बाई? पार्थ ठीक तो है?’’ मैं ने सोचा.

एक बार जब मैं ने झाड़ूपोंछे के लिए बाई का जिक्र किया था तो पार्थ भड़क उठे थे, ‘‘बाइयां घर का काम बिगाड़ती हैं. आज तक तो तुम्हें घर का काम करने में कोई परेशानी नहीं हुई थी. अब अचानक क्या दिक्कत आ गई?’’

‘‘पार्थ, तुम्हें पता है न मुझे सर्वाइकल पेन रहता है. दर्द के कारण रात भर सो नहीं पाती,’’ मैं ने जिद की.

‘‘देखो श्रेया, अभी हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि घर में बाई लगा सकें,’’ उन्होंने अपना रुख नर्म करते हुए कहा.

मगर मैं ने पूरी प्लानिंग कर रखी थी. अत: बोली, ‘‘अरे, उस की तनख्वाह मैं अपने पैसों से दे दूंगी.’’

मेरी बात सुनते ही पार्थ का पारा चढ़ गया. बोले, ‘‘अच्छा, अब तुम मुझे अपने पैसों का रोब दिखाओगी?’’

‘‘नहीं पार्थ, ऐसा नहीं है,’’ मैं ने सकपकाते हुए कहा.

‘‘इस घर में कोई बाई नहीं आएगी. अगर जरूरत पड़ी तो मां को बुला लेंगे,’’ उन्होंने करवट लेते हुए कहा.

आज वही पार्थ मांजी को बुलाने के बजाय बाई रखने पर जोर दे रहे थे. पिछले कुछ दिनों से पार्थ सिर्फ मुझ से ही नहीं मांजी से भी कटने लगे थे. अब तो मांजी का फोन आने पर भी संक्षिप्त बात ही करते थे.

कहां, क्या गड़बड़ थी मुझे समझ नहीं आ रहा था. अपना बच्चा खोने के कारण मुझे कुसूरवार मान कर रूखा व्यवहार करना समझ आता था, लेकिन मांजी से उन की नाराजगी को मैं समझ नहीं पा रही थी.

अगली सुबह अस्पताल जाने से पहले ही मांजी का फोन आ गया. पार्थ बाथरूम में थे तो मैं ने ही फोन उठाया.

‘‘हैलो, हां श्रेया कैसी हो बेटा?’’ मेरी आवाज सुनते ही मांजी ने पूछा.

‘‘ठीक हूं मांजी. आप कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बस बाबा की कृपा है बेटा. पार्थ से बात कराना जरा.’’

तभी पार्थ बाथरूम से निकल आए, तो मैं ने मोबाइल उन के हाथ में थमा दिया. उन की बातचीत से तो नहीं, लेकिन इन के स्वर की उलझन से मुझे कुछ अंदेशा हुआ, ‘‘क्या हुआ? मांजी किसी परेशानी में हैं क्या?’’ पार्थ के फोन काटने के बाद मैं ने पूछा.

‘‘अरे, उन्हें कहां कोई परेशानी हो सकती है. उन की रक्षा के लिए तो दुनिया भर के बाबा हैं न,’’ उन्होंने कड़वाहट से उत्तर दिया.

‘‘वह उन की आस्था है पार्थ. इस में इतना नाराज होने की क्या बात है? उन का यह विश्वास तो सालों से है और जहां तक मैं जानती हूं अब तक तुम्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं थी. अब अचानक क्या हुआ?’’ मैं ने शांत स्वर में पूछा.

‘‘ऐसी आस्था किस काम की है श्रेया जो किसी की जान ले ले,’’ उन्होंने नम स्वर में कहा.

मैं अचकचा गई, ‘‘जान? मांजी किसी की जान थोड़े ही लेंगी पार्थ. तुम भी न.’’

‘‘मां नहीं, लेकिन उन की आस्था एक जान ले चुकी है,’’ पार्थ का स्वर गंभीर था. वे सीधे मेरी आंखों में देख रहे थे. उन आंखों का दर्द मुझे आज नजर आ रहा था. मैं चुप थी. नहीं चाहती थी कि कई महीनों से जो मेरे दिमाग में चल रहा है वह सच बन कर मेरे सामने आए.

मेरी खामोशी भांप कर पार्थ ने कहना शुरू किया, ‘‘हमारे बच्चे का गिरना कोई हादसा नहीं था श्रेया. वह मांजी की अंधी आस्था का नतीजा था. मैं भी अपनी मां के मोह में अंधा हो कर वही करता रहा जो वे कहती थीं. उस दिन जब हम स्वामी के आश्रम गए थे तो तुम्हें बेहोश करने के लिए तुम्हारे प्रसाद में कुछ मिलाया गया था ताकि जब तुम्हारे पेट में पल रहे बच्चे के लिंग की जांच हो तो तुम्हें पता न चले.

‘‘मां और मैं स्वामी के पास बैठे थे. वहां क्या हो रहा था, उस की मुझे भनक तक नहीं थी. थोड़ी देर बाद स्वामी ने मां से कुछ सामान मंगाने को कहा. मैं सामान लेने बाहर चला गया, जब तक वापस आया, तुम होश में आ चुकी थीं. उस के बाद क्या हुआ, तुम जानती हो,’’ पार्थ का चेहरा आंसुओं से भीग गया था.

‘‘लेकिन पार्थ इस में मांजी कहां दोषी हैं? तुम केवल अंदाज के आधार पर उन पर आरोप कैसे लगा सकते हो?’’ मैंने उन का चेहरा अपने हाथों में लेते हुए पूछा. मेरा दिल अब भी मांजी को दोषी मानने को तैयार नहीं था.

पार्थ खुद को संयमित कर के फिर बोलने लगे, ‘‘यह मेरा अंदाजा नहीं है श्रेया. जिस शाम तुम अस्पताल में दाखिल हुईं, मैं ने मां को स्वामी को धन्यवाद देते हुए सुना. उन का कहना था कि स्वामी की कृपा से हमारे परिवार के सिर से काला साया हट गया.

‘‘मैं ने मां से इस बारे में खूब बहस की. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मां हमारे बच्चे के साथ ऐसा कर सकती हैं.’’

अब पार्थ मुझ से नजरें नहीं मिला पा रहे थे. मेरी आंखें जल रही थीं. ऐसा लग रहा था जैसे मेरे अंदर सब कुछ टूट गया हो. लड़खड़ाती हुई आवाज में मैं ने पूछा, ‘‘लेकिन क्यों पार्थ? सब कुछ तो उन की मरजी से हो रहा था? क्या स्वामी के मुताबिक मेरे पेट में लड़की नहीं थी?’’

पार्थ मुझे नि:शब्द ताकते रहे. फिर अपनी आंखें बंद कर के बोलने लगे, ‘‘वह लड़की ही थी श्रेया. वह हमारी श्रुति थी. हम ने उसे गंवा दिया. एक बेवकूफी की वजह से वह हम से बहुत दूर चली गई,’’ पार्थ अब फूटफूट कर रो रहे थे. इतने दिनों में जो दर्द उन्होंने अपने सीने में दबा रखा था वह अब आंसुओं के जरीए निकल रहा था.

‘‘पर मांजी तो लड़की ही चाहती थीं न और स्वामी ने भी यही कहा था?’’ मैं अब भी असमंजस में थी.

‘‘मां कभी लड़की नहीं चाहती थीं श्रेया. तुम सही थीं, उन्होंने हमेशा एक लड़का ही चाहा था. जब से स्वामी ने हमारे लिए लड़की होने की बात कही थी, तब से वे परेशान रहती थीं. वे अकसर स्वामी के पास अपनी परेशानी ले कर जाने लगीं. स्वामी मां की इस कमजोरी को भांप गया था. उस ने पैसे ऐंठने के लिए मां से कह दिया कि अचानक ग्रहों की स्थिति बदल गई है. इस खतरे को सिर्फ और सिर्फ एक लड़के का जन्म ही दूर कर सकता है.

‘‘उस ने मां से एक अनुष्ठान कराने को कहा ताकि हमारे परिवार में लड़के का जन्म सुनिश्चित हो सके. मां को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई. उन्होंने मुझे इस बात की कानोंकान खबर न होने दी.

‘‘पूजा वाले दिन जब मैं आश्रम से बाहर गया तो स्वामी और उस के शिष्यों ने तुम्हारे भ्रूण की जांच की तो पता चला कि वह लड़की थी. अब स्वामी को अपने ढोंग के साम्राज्य पर खतरा मंडराता प्रतीत हुआ. तब उस ने मां से कहा कि ग्रहों ने अपनी चाल बदल ली है. अब अगर बच्चा नहीं गिराया गया तो परिवार को बरबाद होने से कोई नहीं रोक सकता. मां ने अनहोनी के डर से हामी भर दी. एक ही पल में हम ने अपना सब कुछ गंवा दिया,’’ पार्थ ने अपना चेहरा अपने हाथों में छिपा लिया.

मैं तो जैसे जड़ हो गई. वे एक मां हो कर ऐसा कैसे कर सकती थीं? उस बच्चे में उन का भी खून था. वे उस का कत्ल कैसे कर सकती थीं और वह ढोंगी बाबा सिर्फ पैसों के लिए किसी मासूम की जान ले लेगा?

‘‘मां तुम्हें अब भी उस ढोंगी बाबा के पास चलने को कह रही थीं?’’ मैं ने अविश्वास से पूछा.

‘‘नहीं, अब उन्होंने कोई और चमत्कारी बाबा ढूंढ़ लिया है, जिस के प्रसाद मात्र के सेवन से सारी परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है.’’

‘‘तो क्या मांजी की आंखों से स्वामी की अंधी भक्ति का परदा हट गया?’’ मैं ने पूछा.

पार्थ गंभीर हो गए, ‘‘नहीं, उन्हें मजबूरन उस ढोंगी की भक्ति त्यागनी पड़ी. वह ढोंगी स्वामी अब जेल में है. जिस रात मुझे उस की असलियत पता चली, मैं धड़धड़ाता हुआ पुलिस के पास जा पहुंचा. अपने बच्चे के को मैं इतनी आसानी से नहीं छोड़ने वाला था. अगली सुबह पुलिस ने आश्रम पर छापा मारा तो लाखों रुपयों के साथसाथ सोनोग्राफी मशीन भी मिली. उसे और उस के साथियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. उस ढोंगी को उस के अपराध की सजा दिलाने में व्यस्त होने के कारण ही कुछ दिन मैं तुम से मिलने अस्पताल नहीं आ पाया था.’’

‘‘उफ, पार्थ,’’ कह कर मैं उन से लिपट गई. अब तक रोकी हुई आंसुओं की धारा अविरल बह निकली. पार्थ का स्पर्श मेरे अंदर भरे दुख को बाहर निकाल रहा था.

‘‘आप इतने वक्त से मुझ से नजरें क्यों चुराते फिर रहे थे?’’ मैं ने थोड़ी देर बाद सामान्य हो कर पूछा.

‘‘मुझे तुम से नजरें मिलाने में शर्म महसूस हो रही थी. जो कुछ भी हुआ उस में मेरी भी गलती थी. पढ़ालिखा होने के बावजूद मैं मां के बेतुके आदेशों का आंख मूंद पालन करता रहा. मुझे अपनेआप को सजा देनी ही थी.’’

उन के स्वर में बेबसी साफ झलक रही थी. मैं ने और कुछ नहीं कहा, बस अपना सिर पार्थ के सीने पर टिका दिया.

शाम के वक्त हम अस्पताल से रिपोर्ट ले कर लौट रहे थे. मुझे टीबी थी. डाक्टर ने समय पर दवा और अच्छे खानपान की पूरी हिदायत दी थी. कार में एक बार फिर चुप्पी थी. पार्थ और मैं दोनों ही अपनी उलझन छिपाने की कोशिश कर रहे थे.

तभी पार्थ के फोन की घंटी बजी. मां का फोन था. पार्थ ने कार रोक कर फोन स्पीकर पर कर दिया.

मांजी बिना किसी भूमिका के बोलने लगीं, ‘‘मैं यह क्या सुन रही हूं पार्थ? श्रेया को टीबी है?’’

अस्पताल में रितिका का फोन आने पर पार्थ ने उसे अपनी परेशानी बताई थी. शायद उसी से मां को मेरी बीमारी के बारे में पता चला था.

‘‘पहले अपशकुनी बच्चा और अब टीबी… मैं ने तुम से कहा था न कि यह लड़की हमारे परिवार के लिए परेशानियां खड़ी कर देगी.’’

पार्थ का चेहरा सख्त हो गया. बोला, ‘‘मां, श्रेया को मेरे लिए आप ने ही ढूंढ़ा था. तब तो आप को उस में कोई ऐब नजर नहीं आया था. इस दुनिया का कोई भी बच्चा अपने मांबाप के लिए अपशकुनी नहीं हो सकता.’’

मांजी का स्वर थोड़ा नर्म पड़ गया, ‘‘पर बेटा, श्रेया की बीमारी… मैं तो कहती हूं कि उसे एक बार बाबाजी का प्रसाद खिला लाते हैं. सब ठीक हो जाएगा.’’

पार्थ गुस्से में कुछ कहने ही वाले थे, लेकिन मैं ने हलके से उन का हाथ दबा दिया. अत: थोड़े शांत स्वर में बोले, ‘‘अब मैं अपनी श्रेया को किसी ढोंगी बाबा के पास नहीं ले जाने वाला और बेहतर यही होगा कि आप भी इन सब चक्करों से दूर रहो. श्रेया को यह बीमारी उस की शारीरिक कमजोरी के कारण हुई है. इतने वक्त तक वह मेरी उपेक्षा का शिकार रही है. वह आज तक एक बेहतर पत्नी साबित होती आई है, लेकिन मैं ही हर पल उसे नकारता रहा. अब मुझे अपना पति फर्ज निभाना है. उस का अच्छी तरह खयाल रख कर उसे जल्द से जल्द ठीक करना है.’’

मांजी फोन काट चुकी थीं. पार्थ और मैं न जाने कितनी देर तक एकदूसरे को निहारते रहे.

घर लौटते वक्त पार्थ का बारबार प्यार भरी नजरों से मुझे देखना मुझ में नई ऊर्जा का संचार कर रहा था. हमारी जिंदगी में न तो श्रुति आ सकी और न ही प्रयास, लेकिन हमारे रिश्ते में मिठास भरने के प्रयासों की श्रुति शीघ्र ही होगी, इस का आभास मुझे हो रहा था.

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