खरीदी हुई दुल्हन: क्या मंजू को मिल पाया अनिल का प्यार

38 साल के अनिल का दिल अपने कमरे में जाते समय 25 साल के युवा सा धड़क रहा था. आने वाले लमहों की कल्पना ही उस की सांसों को बेकाबू किए दे रही थी, शरीर में झुरझुरी सी पैदा कर रही थी. आज उस की सुहागरात है. इस रात को उस ने सपनों में इतनी बार जिया है कि इस के हकीकत में बदलने को ले कर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा.

बेशक वह मंजू को पैसे दे कर ब्याह कर लाया है, तो क्या हुआ? है तो उस की पत्नी ही. और फिर दुनिया में ऐसी कौन सी शादी होती होगी जिस में पैसे नहीं लगते. किसी में कम तो किसी में थोड़े ज्यादा. 10 साल पहले जब छोटी बहन वंदना की शादी हुई थी तब पिताजी ने उस की ससुराल वालों को दहेज में क्या कुछ नहीं दिया था. नकदी, गहने, गाड़ी सभी कुछ तो था. तो क्या इसे किसी ने वंदना के लिए दूल्हा खरीदना कहा था. नहीं न. फिर वह क्यों मंजू को ले कर इतना सोच रहा था. कहने दो जिसे जो कहना था. मुझे तो आज रात सिर्फ अपने सपनों को हकीकत में बदलते देखना है. दुनिया का वह वर्जित फल चखना है जिसे खा कर इंसान बौरा जाता है. मन में फूटते लड्डुओं का स्वाद लेते हुए अनिल ने सुहागरात के लिए सजाए हुए अपने कमरे में प्रवेश किया.

अब तक उस ने जो फिल्मों और टीवी सीरियल्स में देखा था उस के ठीक विपरीत मंजू बड़े आराम से सुहागसेज पर बैठी थी. उस के शरीर पर शादी के जोड़े की जगह पारदर्शी नाइटी देख कर अनिल को अटपटा सा लगा क्योंकि उस का तो यह सोचसोच कर ही गला सूखे जा रहा था कि वह घूंघट उठा कर मंजू से बातों की शुरुआत कैसे करेगा. मगर यहां का माहौल देख कर तो लग रहा है जैसे कि मंजू तो उस से भी ज्यादा उतावली हो रही है.

अनिल सकुचाया सा बैड के एक कोने में बैठ गया. मंजू थोड़ी देर तो अनिल की पहल का इंतजार करती रही, फिर उसे झिझकते देख कर खुद ही उस के पास खिसक आई और उस के कंधे पर अपना सिर टिका दिया. यंत्रवत से अनिल के हाथ मंजू के इर्दगिर्द लिपट गए. मंजू ने अपनेआप को हलका सा धक्का दिया और वे दोनों ही बैड पर लुढ़क गए. मंजू ने अनिल के ऊपर झुकते हुए उस के होंठ चूमने शुरू कर दिए तो अनिल बावला सा हो उठा. उस के बाद तो अनिल को कुछ भी होश नहीं रहा. प्रकृति ने जैसे उसे सबकुछ एक ही लमहे में सिखा दिया.

मंजू ने उसे चरम तक पहुंचाने में पूरा सहयोग दिया था. अनिल का यह पहला अनुभव ऐसा था जैसे गूंगे को गुड़ का स्वाद, जिस के स्वाद को सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बयान नहीं. एक ही रात में अनिल तो जैसे जोरू का गुलाम ही हो गया था. आज मंजू ने उसे वह तोहफा दिया था जिस के सामने सारी बादशाहत फीकी थी.

सुबह अनिल ने बेफिक्री से सोती हुई मंजू को नजरभर कर देखा. सबकुछ सामान्य ही था उस में. कदकाठी, रंगरूप और चेहरामोहरा सभी कुछ. मगर फिर भी रात जो खास बात हुई थी उसे याद कर के अनिल मन ही मन मुसकरा दिया और सोती हुई पत्नी को प्यार से चूमता हुआ कमरे से बाहर निकल गया.

मंजू जैसी भी थी, अनिल से तो इक्कीस ही थी. अनिल का गहरा सांवला रंग, मुटाया हुआ सा शरीर, कम पढ़ाईलिखाई सभीकुछ उस की शादी में रोड़ा बने हुए थे. अब तो सिर के बाल भी सफेद होने लगे थे. बहुत कोशिशों के बाद भी जब जानपहचान और अपनी बिरादरी में अनिल के रिश्ते की बात नहीं जमी तो उस की बढ़ती हुई उम्र को देखते हुए उस की बूआ ने उस की मां को सलाह दी कि अगर अपने समाज में बात नहीं बन रही है तो किसी गरीब घर की गैरबिरादरी की लड़की के बारे में सोचने में कोई बुराई नहीं है. और तो और, आजकल तो लोग पैसे दे कर भी दुलहन ला रहे हैं. बूआ की बात से सहमत होते हुए भी अनिल की मां ने एक बार उस की कुंडली मंदिर वाले पंडितजी को दिखाने की सोची.

पंडितजी ने कुंडली देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘बहनजी, शादी का योग तो हर किसी की कुंडली में होता ही है. किसीकिसी की शादी जल्दी तो किसी की थोड़ी देर से, मगर समझदार लोग आजकल कुंडली के फेर में नहीं पड़ते. आप तो कोई ठीकठाक सी लड़की देख कर बच्चे का घर बसा दीजिए. चाहे कुंडली मिले या न मिले. बस, लड़की मिल जाए और शादी के बाद दोनों के दिल.’’

अनिल की मां को बात समझ में आ गई और उन्होंने अपने मिलने वालों व रिश्तेदारों के बीच में यह बात फैला दी कि उन्हें अनिल के लिए किसी भी जातबिरादरी की लड़की चलेगी. बस, लड़की संस्कारी और दिखने में थोड़ी ठीकठाक हो.

बात निकली है तो दूर तलक जाएगी. एक दिन अनिल की मां से मिलने एक व्यक्ति आया जो शादियां करवाने का काम करता था. उसी ने उन्हें मंजू के बारे में बताया और अनिल से उस की शादी करवाने के एवज में 20 हजार रुपए की मांग की. अनिल अपनी मां और बूआ के साथ मंजू से मिलने उस के घर गया. बेहद गरीब घर की लड़की मंजू अपने 5 भाईबहनों में तीसरे नंबर पर थी. उस से छोटा एक भाई और भाई से छोटी एक बहन रीना. मंजू की 2 बड़ी बहनें भी उस की ही तरह खरीदी गई थीं.

25 साल की युवा मंजू उम्र में अनिल से लगभग 12-13 साल छोटी थी. एक कमरे के छोटे से घर में इतने प्राणी कैसे रहते होंगे, यह सोच कर ही अनिल हैरान हो रहा था. उसे तो यह सोच कर हंसी आ रही थी कि कैसी परिस्थितियों में ये बच्चे पैदा हुए होंगे.

खैर, मंजू को देखने के बाद अनिल ने शादी के लिए हां कर दी. अब यह तय हुआ कि शादी का सारा खर्चा अनिल का परिवार ही उठाएगा और साथ ही, मंजू के परिवार को 2 लाख रुपए भी दिए जाएंगे ताकि उन का जीवनस्तर कुछ सुधर सके. 50 हजार रुपए एडवांस दे कर अनिल और मंजू की शादी का सौदा तय हुआ और जल्दी ही घर के 4 जने जा कर मंजू को ब्याह लाए. बिना किसी बरात और शोरशराबे के मंजू उस की पत्नी बन गई.

मंजू निम्नवर्गीय घर से आई थी, इसलिए अनिल के घर के ठाटबाट देख कर वह भौचक्की सी रह गई. बेशक उस का स्वागत किसी नववधू सा नहीं हुआ था मगर मंजू को इस का न तो कोई अफसोस था और न ही उस ने कभी इस तरह का कोई सपना देखा था. बल्कि वह तो इस घर में आ कर फूली नहीं समा रही थी. जितना खाना उस के मायके में दोनों वक्त बनता था उतना तो यहां एक वक्त के खाने में बच जाता है और कुत्तों को खिलाया जाता है. ऐसेऐसे फल और मिठाइयां उसे यहां देखने और खाने को मिल रहे थे जिन के उस ने सिर्फ नाम ही सुने थे, देखे और चखे कभी नहीं.

‘अगर मैं अनिल के दिल की रानी बन गई तो फिर घर की मालकिन बनने से मुझे कोई नहीं रोक सकता’, मंजू ने मन ही मन सोच लिया कि आखिरकार उसे घर की सत्ता पर कब्जा करना ही है.

‘सुना था कि पुरुष के दिल का रास्ता उस के पेट से हो कर जाता है. नहीं. पेट से हो कर नहीं, बल्कि उस की भूख की आनंददायी संतुष्टि से हो कर जाता है. फिर भूख चाहे पेट की हो, धन की हो या फिर शरीर की हो. यदि मैं अनिल की भूख को संतुष्ट रखूंगी तो वह निश्चित ही मेरे आगेपीछे घूमेगा. और फिर, तू मेरा राजा, मैं तेरी रानी, घर की महारानी’, यह सोचसोच कर मंजू खुद ही अपने दिमाग की दाद देने लगी.

‘बनो दिल की रानी’ अपने इस प्लान के मुताबिक, मंजू रोज दिन में 2 बार अनिल को ‘आई लव यू स्वीटू’ का मैसेज भेजने लगी. लंचटाइम में उसे फोन कर के याद दिलाती कि खाना टाइम पर खा लेना. वह शाम को सजधज कर अनिल को उस के इंतजार में खड़ी मिलती.

रात के खाने में भी वह अनिल को गरमागरम फुल्के अपने हाथ से बना कर ही खिलाती थी चाहे उसे घर आने में कितनी भी देर क्यों न हो जाए और खुद भी उस के साथ ही खाती थी. यानी हर तरह से अनिल को यह महसूस करवाती थी कि वह उस की जिंदगी में सब से विशेष व्यक्ति है. और हर रात वह अनिल को अपने क्रियाकलापों से खुश करने की पूरी कोशिश करती थी. उस ने कभी अनिल को मना नहीं किया बल्कि वह तो उसे प्यार करने को प्रोत्साहित करती थी. उम्र में छोटी होने के कारण अनिल उसे बच्ची ही समझता था और उस की हर नादानी को नजरअंदाज कर देता था.

कहने को तो अनिल अपने मांबाप का इकलौता बेटा था मगर कम पढ़ेलिखे होने और अतिसाधारण शक्लसूरत के कारण अकसर लोग उसे कोई खास तवज्जुह नहीं दिया करते थे. वहीं, उस की शादी भी नहीं हो रही थी. सो, अनिल हीनभावना का शिकार होने लगा था. मगर मंजू ने उसे यह एहसास दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि वह कितना काबिल और खास इंसान है बल्कि वह तो कहती थी कि अनिल ही उस की सारी दुनिया है.

मंजू के साथ और प्यार से अनिल का आत्मविश्वास भी बढ़ने लगा. मंजू को पा कर अनिल ऐसे खुश था जैसे किसी भूखे व्यक्ति को हर रोज भरपेट स्वादिष्ठ भोजन मिलने लगा हो.

एक दिन मंजू की मां का फोन आया. वे उस से मिलना चाह रही थीं. रात में मंजू ने अनिल की शर्ट के बटन खोलते हुए अदा से कहा, ‘‘मुझे कुछ रुपए चाहिए. मां ने मिलने के लिए बुलाया है. पहली बार जा रही हूं. अब इतने बड़े बिजनैसमैन की पत्नी हूं, खाली हाथ तो नहीं जा सकती न.’’

‘‘तो मां से ले लो न,’’ अनिल ने उसे पास खींचते हुए कहा.

‘‘मां से क्यों? मैं तो अपने हीरो से ही लूंगी. वह भी हक से,’’ कहते हुए मंजू ने अनिल के सीने पर अपना सिर टिका दिया.

‘‘कितने चाहिए? अभी ये रखो. और चाहिए तो कल दे दूंगा,’’ अनिल ने निहाल होते हुए उसे 20 हजार रुपए थमा दिए और फिर मंजू को बांहों में कसते हुए लाइट बंद कर दी.

मंजू 15 दिनों के लिए मायके गईर् थी. मगर 5 दिनों बाद ही अनिल को उस की याद सताने लगी. मंजू की शहदभरी बातें और मस्तीभरी शरारतें उसे रातभर सोने नहीं देतीं. उस ने अगले ही दिन मंजू का तत्काल का टिकट बनवा कर आने के लिए कह दिया. मंजू भी जैसे आने के लिए तैयार ही बैठी थी. उस के वापस आने के बाद अनिल की दीवानगी उस के लिए और भी बढ़ गई. अब मंजू हर महीने अनिल से

10-15 हजार रुपए ले कर अपने मायके भेजने लगी. मंजू ने अनिल से उस का एटीएम कार्ड नंबर और पिन आदि ले लिया. जिस की मदद से वह अपनी बहनों और भाई के लिए कपड़े, घरेलू सामान आदि भी औनलाइन और्डर कर के भेज देती. मंजू के प्यार का नशा अनिल के सिर चढ़ कर बोलने लगा था. ‘सैयां भए कोतवाल तो अब डर काहे का.’ घर में मंजू का ही हुक्म चलने लगा.

बेटे की इच्छा को देख अनिल की मां को न चाहते हुए भी तिजोरी की चाबियां बहू को देनी पड़ीं. सामाजिक लेनदेन आदि भी सबकुछ उसी की सहमति या अनुमति से होता था. अनिल की मां उसे कुछ नहीं कह पाती थीं क्योंकि मंजू ने उन्हें भी यह एहसास करवा दिया था कि उस ने अनिल से शादी कर के अनिल सहित उन के पूरे परिवार पर एहसान किया है.

‘‘सुनिए न, मेरी बड़ी इच्छा है कि मेरा नाम हर जगह आप के नाम के साथ जुड़ा हो,’’ एक दिन मंजू ने अनिल से बड़े ही अपनेपन से कहा.

‘‘अरे, इस में इच्छा की क्या बात है? वह तो जुड़ा ही है. देखो, तुम मेरी अर्धांगिनी हो यानी मेरा आधा हिस्सा. इस नाते मेरी हर चलअचल संपत्ति पर तुम्हारा आधा हक हुआ न,’’ अनिल ने प्यार से मंजू को समझाया.

‘‘वह तो ठीक है, मगर यह सब अगर कानूनी रूप से भी हो जाता तो कितना अच्छा होता. मगर उस में तो कई पेंच होंगे न. चलो, रहने दो. बिना मतलब आप परेशान हो जाएंगे,’’ मंजू ने बालों की लट को उंगलियों में लपेटते हुआ कहा.

‘‘मेरी जान, मेरे तन, मन और धन… सब की मालकिन हो तुम,’’ अनिल ने उसे बांहों में भरते हुए कहा और फिर एक दिन वकील और सीए को बुला कर अपने घरदुकान, बैंक अकाउंट व अन्य चलअचल प्रौपर्टी में मंजू को कानूनन अपना उत्तराधिकारी बना दिया.

इधर एक बच्चे की मां बन कर जहां मंजू ने अनिल के खानदान को वारिस दे कर सदा के लिए उसे अपना कर्जदार बना लिया वहीं मां बनने के बाद मंजू के रूप और यौवन में आए निखार ने अनिल की रातों की नींद उड़ा दी. अनिल को अब अपनी ढलती उम्र का एहसास होने लगा था. वह यह महसूस करने लगा था कि अब उस में पहले वाली ऊर्जा नहीं रही और वह मंजू की शारीरिक जरूरतें पहले की तरह पूरी नहीं कर पाता. अपनी इस गिल्ट को दूर करने के लिए वह मंजू की हर भौतिक जरूरत पूरी करने की कोशिश में लगा रहता. अनिल आंख बंद कर के मंजू की हर बात मानने लगा था.

मंजू बेशक अनिल की प्रौपर्टी की मालकिन बन गई थी मगर उस ने भी अपने दिल का मालिक सिर्फ और सिर्फ अनिल को ही बनाया था. वह यह बात कभी नहीं भूल सकी थी कि जब उस के आसपड़ोस के लोेग उसे ‘खरीदी हुई दुलहन’ कह कर हिकारत से देखते थे तब यही अनिल कैसे उस की ढाल बन कर सामने खड़ा हो जाता था और उसे दुनिया की चुभती हुई निगाहों से बचा कर अपने दिल में छिपा लेता था. उस की सास ने उसे कभी अपने खानदान की बहू जैसा सम्मान नहीं दिया था मगर फिर भी अपनी स्थिति से आज वह खुश थी.

उस ने बहुत ही योजनानुसार अपने परिवार को गरीबी के दलदल से बाहर निकाल लिया था. मंजू ने मोमबत्ती की तरह खुद को जला कर अपने परिवार को रोशन कर दिया था. मंजू ने दुकान के काम में मदद करने के लिए अपने भाई को अपने पास बुला लिया. इसी बीच अनिल की मां चल बसीं, तो अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए मंजू ने अपने मांपापा और छोटी बहन रीना को भी अपने पास ही बुला लिया.

एक दिन वही दलाल अनिल के घर आया जिस ने मंजू से उस की शादी करवाई थी. रीना को देखते ही उस की मां से बोला, ‘‘क्या कीमत लगाओगे लड़की की? किसी को जरूरत हो तो बताना पड़ेगा न?’’

‘‘मेरी बहन किसी की खरीदी हुई दुलहन नहीं बनेगी,’’ मंजू ने फुंफकारते हुए कहा.

‘‘खरीदी हुई दुलहन, बड़ी जल्दी पर निकल आए. अपनी शादी का किस्सा भूल गई क्या?’’ दलाल ने मंजू पर ताना कसते हुए मुंह बनाया.

‘‘मेरी बात और थी. मैं तो बिना सहारे की बेल थी जिसे किसी न किसी पेड़ से लिपटना ही था. मगर रीना के साथ ऐसा नहीं है. देर आए दुरुस्त आए. कुदरत ने उसे अनिल के रूप मे सिर पर छत दे दी है और पांवों के नीचे जमीन भी. अभी मैं जिंदा हूं और अपनी बहन की शादी कैसे करनी है, यह हम खुद तय कर लेंगे. आप जा सकते हैं. लेकिन हां, अनिल को मेरी जिंदगी में लाने के लिए मैं सदा आप की कर्जदार रहूंगी, धन्यवाद,’’ मंजू ने दलाल से हाथ जोड़ते हुए आभार जताया. वहीं पीछे खड़ा अनिल मुसकरा रहा था. आज उस के दिल में मंजू के लिए प्यार के साथसाथ इज्जत भी बढ़ गई थी.

गिनीपिग: सभ्रांत चेहरे के पीछे की क्या शख्सीयत थी?

40 वर्ष में ही राजी के बाल काफी सफेद हो गए थे. वह पार्लर जाती, बाल डाई करवा कर आ जाती. पार्लर वाली के लिए वह एक मोटी आसामी थी. राजी हर समय सुंदर दिखना चाहती थी. वह क्या उस का पति अनिरुद्ध और दोनों बेटियां भी तो यही चाहती थीं.

कौरपोरेट वर्ल्ड की जानीपहचानी हस्ती अनिरुद्ध कपूर का जब राजी से विवाह हुआ तब राजी रज्जो हुआ करती थी. मालूम नहीं अनिरुद्ध की मां को रज्जो में ऐसा क्या दिखा था. जयपुर में एक विवाह समारोह में उसे देख कर उन्होंने राजी को अनिरुद्ध के लिए अपने मन में बसा लिया. रज्जो विवाह कराने वाले पंडित शिवप्रसाद की बेटी थी. 12वीं पास रज्जो यों तो बहुत सलीके वाली थी, परंतु एमबीए अनिरुद्ध के लिए कहीं से भी फिट नहीं थी.

विवाह संपन्न होने के बाद अनिरुद्ध की मां ने पंडितजी के सामने अपने बेटे की शादी का प्रस्ताव रख दिया.  पंडितजी के लिए यह प्रस्ताव उन के भोजन के थाल में परोसा हुआ ऐसा लड्डू था जो न निगलते बन रहा था न ही उगलते. वे असमंजस में थे. कहां वे ब्राह्मण और कहां लड़का पंजाबी. कहां लड़के का इतना बड़ा धनाढ्य और आधुनिक परिवार, कहां वे इतने गरीब. दोनों परिवारों में कोई मेल नहीं, जमीनआसमान का अंतर. वे समझ नहीं पा रहे थे कि इस रिश्ते को स्वीकारें या नकारें.

पंडित शिवप्रसाद ने दबी जबान में पूछा, ‘बहनजी, लड़का…’

पंडितजी अभी अपनी बात पूरी नहीं कर पाए थे कि श्रीमती कपूर ने उन्हें बताया कि लड़का किसी सेमिनार में विदेश गया हुआ है.  श्रीमती कपूर के साथ उन के पति श्रीदेश कपूर और अनिरुद्ध के दोनों छोेटे भाई भी इस विवाह समारोह में जयपुर आए थे.  पंडितजी असमंजस में थे.  ‘मैं समझ सकती हूं पंडितजी कि आप हमारे पंजाबी परिवार में अपनी बेटी को भेजने में झिझक रहे हैं. पर अब इन सब बातों में कुछ नहीं रखा है. मुझे ही देख लीजिए, मैं कायस्थ परिवार से हूं और कपूर साहब पंजाबी…तो क्या आप की बेटी हमारे पंजाबी परिवार की बहू नहीं बन सकती?’

पंडितजी मध्यमवर्गीय अवश्य थे परंतु खुले विचारों के थे. उन्होंने श्रीमती कपूर से कहा, ‘बहनजी, मुझे 1-2 दिन का समय दे दें. मैं घर में सलाह कर लूं.’  ‘ठीक है पंडितजी, हम आप का जवाब सुन कर ही दिल्ली वापस जाएंगे,’ श्रीमती कपूर ने कहा.

अगले ही दिन सुषमाजी को उस शादी वाले घर के यजमान के साथ अपने घर आया देख पंडितजी पसोपेश में पड़ गए.

‘पंडितजी, आप सोच लीजिए, इतना अच्छा घरवर जरा मुश्किल ही है मिलना.’

‘जी, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है…’ फिर कुछ झिझक कर बोले, ‘वर को भी हम ने नहीं देखा है…इधर हमारी पुत्री भी अभी पढ़ाई करना चाहती है…’ पंडितजी असमंजस में घिरे रहे.

‘जहां तक पढ़ाई का सवाल है, हमारा लड़का तो खुद ही एमबीए है. चाहेगी तो, जरूर आगे पढ़ लेगी…जहां तक लड़के को देखने का सवाल है तो वह 15 दिन में आ जाएगा, देख लीजिएगा. हमें आप की बेटी की खूबसूरती और सादगी भा गई है पंडितजी. हमें और किसी चीज की इच्छा नहीं है सिवा सुंदर लड़की के,’ सुषमाजी ने अपनी अमीरी का एहसास करवाया.  बात इस पर आ कर ठहर गई कि अनिरुद्ध के विदेश से लौट कर आते ही वे उसे ले कर जयपुर आ जाएंगी.

कपूर परिवार दिल्ली लौट गया तो शास्त्रीजी ने चैन की सांस ली और फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. रज्जो को इस वर्ष बीए में प्रवेश भी दिलवाना था, उसे अच्छे कपड़ों की जरूरत होगी. पत्नी से वे इन्हीं बातों पर चर्चा करते रहते.  किसी न किसी प्रकार पंडित शिवप्रसाद ने इस मध्यमवर्गीय लोगों के महल्ले में घर तो बना लिया था परंतु वे इसे थोड़ा सजानासंवारना चाहते थे. बेटी के ब्याह के लिए अच्छे रिश्ते की चाहत हर मातापिता को होती ही है. वे भी अपना ‘स्टेटस’ बनाना चाहते थे.  सुषमा कपूर को जयपुर से दिल्ली गए हुए अब लगभग 1 महीना हो गया था. पंडितजी के लिए भी वे एक सपना सी हो गई थीं. पर अचानक एक दिन वह सपना हकीकत में बदल गया जब एक बड़ी सी सफेद गाड़ी से लकदक करती सुषमाजी उतरीं. उन के साथ एक सुदर्शन युवक भी था. बेचारे पंडितजी का मुंह खुला का खुला रह गया. दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हुए उन्होंने सुषमाजी और उस युवक को बैठक में बैठाया.

‘और…पंडितजी कैसे हैं? ये हैं हमारे बड़े बेटे अनिरुद्ध.’  अनिरुद्ध ने बड़ी शालीनता से हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्ते किया.  पंडितजी अनिरुद्ध की शालीनता से गद्गद हो गए.

सुषमाजी ने पर्स से निकाल कर अनिरुद्ध की जन्मपत्री पंडितजी को पकड़ाई, ‘आप तो सोच रहे होंगे कि अब हम आएंगे ही नहीं, पर अनिरुद्ध ही विदेश से देर से आया. मैं ने सोचा कि इसे साथ ले कर आना ही ठीक रहेगा…’  पंडितजी के मस्तिष्क पर फिर से दबाव सा पड़ने लगा.

‘अनिरुद्ध बाबू, मेरी बेटी सिर्फ 12वीं पास है, परंतु उसे पढ़ने का बहुत शौक है. इसी वर्ष उसे बीए में प्रवेश लेना है.’

‘हमारे यहां पढ़ाई के लिए कोई रोकटोक नहीं है. आप की बेटी जितना पढ़ना चाहे पढ़ सकती है,’ अनिरुद्ध ने कहा.

‘यानी बेटा भी तैयार है,’ पंडितजी का मन फिर से डांवांडोल होने लगा, ‘जरूर कहीं कुछ गड़बड़ होगी,’ उन्होंने सोचा. इस सोचविचार के बीच लड़की, लड़के की देखादेखी भी हो गई, जन्मपत्री भी मिल गई और पसोपेश में ही शादी भी तय हो गई. पंडितजी अब भी अजीब सी ऊहापोह में ही पडे़ हुए थे.

‘अब, जब सबकुछ तय हो गया है तब क्यों आप डांवांडोल हो रहे हैं?’ पंडिताइन बारबार पंडितजी को समझातीं.

‘पंडितजी, ग्रह इतने अच्छे मिल रहे हैं फिर क्यों बिना बात ही परेशान रहते हैं?’ उन के मित्र उन्हें समझाते.

‘मेरी समझ में तो कुछ आ नहीं रहा है. कैसे सब कुछ होता जा रहा है,’ पंडितजी अनमने से कहते.

महीने भर में ही विवाह भी संपन्न हो गया और उन की लाडली रज्जो अपनी ससुराल पहुंच गई. पंडितजी ने तो तब बेटी का घर देखा जब वे उसे लेने दिल्ली गए. क्या घर था. उन की आंखें चुंधिया गईं. दरबान से ले कर ड्राइवर, महाराज, अन्य कामों के लिए कई नौकरचाकर.  कुछ देर बेटी के घर में रुकने के बाद वे उसे ले कर जयपुर रवाना हो गए. लेकिन उन की चिंता का अभी अंत नहीं हुआ था. रास्तेभर वे सोचते रहे, ‘नहीं… कुछ तो कमी होगी वरना…’  ड्राइवर के सामने कुछ पूछ नहीं सकते थे अत: बेटी से रास्तेभर इधरउधर की बातें ही करते रहे.  घर पहुंचते ही रज्जो की मां उसे घेर कर बैठ गईं, ‘तू खुश तो है न?’ मां ने उसे सीने से लगा लिया.

‘हां मां, मैं बहुत खुश हूं. सभी लोग बहुत अच्छे हैं.’  बेटी खुश है जान कर पंडिताइन की आंखें खुशी से छलछला आईं.

‘लेकिन हम लोग मुंबई चले जाएंगे,’ रज्जो ने अचानक यह भेद खोला तो पंडितजी चिंतित हो उठे.

‘क्यों? मुंबई क्यों?’ पंडितजी उठ कर चारपाई पर बैठ गए.

‘इन की नौकरी मुंबई में ही है न?’ रज्जो ने बताया.

एक और राज खुला था. पंडितजी तो अब तक यही सोच रहे थे कि अनिरुद्ध दिल्ली में ही नौकरी कर रहे हैं. इतनी दूर…मुंबई में…उन का दिल फिर घबराहट से भर उठा.

अगले दिन अनिरुद्ध रज्जो को लेने जयपुर पहुंच गए थे. उस दिन पंडितजी ने खुल कर दामाद से बात की और आंखों में आंसू भर कर प्रार्थना की, ‘बेटे, हम जानते हैं कि हमारी बेटी आप के घर के योग्य नहीं है, परंतु अब तो जो होना था हो चुका है. अब उस का ध्यान आप को ही रखना है,’ पंडितजी ने दामाद के सामने दोनों हाथ जोड़ दिए थे. उन की पत्नी भी हाथ जोड़े खड़ी थीं.

‘यह क्या कर रहे हैं आप मुंबु…’ अनिरुद्ध के मुंह से मुंबु सुन कर पंडितजी चौंक उठे.

‘मुझे राजी ने सब बता दिया है. मांजी और बाबूजी को मिला कर ही उस ने यह नया शब्द बनाया है ‘मुंबु’ यानी मां और बाबूजी. आप मेरे लिए भी मुंबु ही हुए न…’

पंडितजी व उन की पत्नी की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी. क्या राजकुमार सा दामाद है, सुंदर और सुशील. ‘मैं जानता हूं मातापिता को अपनी बेटी की बहुत चिंता रहती है. पर आप चिंता न करें. मुझे अपनी मां को यह प्रूव कर के दिखाना है कि मैं कैसे पत्थर तराशने की कला में माहिर हूं?’

‘मतलब…?’

‘मैं ने ही मौम से कहा था कि वे मेरे लिए कोई साधारण घर की लड़की ढूंढ़ें. मैं उन्हें दिखाऊंगा कि उसे तराश कर कैसे हीरा बनाया जाता है,’ अनिरुद्ध ने फिर से मुसकरा कर पंडितजी को बताया.

‘मतलब? मेरी बेटी आप के लिए महज एक परीक्षण की चीज…मात्र ‘गिनीपिग’?’ पंडितजी को चक्कर से आने लगे, ‘अगर परीक्षण सफल न हुआ तो…?’

‘आप चिंता क्यों करते हैं मुंबु, मेरी ये दूसरी मां हैं. इन्होंने मुझे बहुत प्यार से पाला है पर हर बार ये मुझ से ऐक्सपैरिमैंट करवाती रही हैं और मैं हमेशा उन के टैस्ट में पास होता रहा हूं.’

‘ऐक्सपैरिमैंट…टैस्ट…पास…? क्या मैं ने अपनी रज्जो को प्रयोग की भट्ठी में झोंक दिया है?’ पंडितजी के मुंह से अनायास ही निकल गया.

‘नहीं, बिलकुल नहीं,’ अनिरुद्ध को कितना विश्वास था स्वयं पर और रज्जो पर भी.  खैर, वह समय तो बीत चुका था जब पंडितजी की स्थिति कोई निर्णय लेने की होती. अब तो परीक्षण का परिणाम देखने के लिए ही उन्हें समय की सूली पर लटकते रहना था.

अनिरुद्ध अपनी राजी और पंडितजी की रज्जो को ले कर मुंबई चले गए थे. अनिरुद्ध ने ससुरजी के यहां एक टेलीफोन भी लगवा दिया था, जिस से वे अपनी प्यारी बिटिया की स्थिति जानते रहें. साल भर तक केवल फोन पर ही मुंबु से रज्जो की बात होती रही. साल भर बाद अनिरुद्ध स्वयं अपनी पत्नी को ले कर जब जयपुर आए तो रज्जो को देख कर मुंबु की आंखें फटी की फटी रह गईं. वह अब उन की रज्जो नहीं रह गई थी. अनिरुद्ध की पत्नी राजी और फिर राज हो गई थी.

बेटी को देख कर पंडितजी फूले नहीं समा रहे थे. उन्होंने आसपास के सभी लोगों को बेटी, दामाद से मिलने के लिए बुलवा दिया था. आखिर, अनिरुद्ध को कहना ही पड़ा, ‘मुंबु, मैं और राज आप से एक दिन के लिए मिलने आए हैं. कल हमें दिल्ली भी जाना है. मौम मेरे ‘ऐक्सपैरिमैंट’ को ठोकबजा कर देखना चाहती हैं. आप बातें कीजिए. इतने लोेगों को बुला कर तो…’ वे और कुछ कहतेकहते चुप रह गया थे. शायद रज्जो ने पति को इशारा किया था. पंडितजी की हसरत ही रह गई कि वे महल्ले के लोगों को जोड़ कर कुछ कथाकीर्तन करते.

अगले दिन सुबह अनिरुद्ध अपनी खूबसूरत, मौडर्न, फर्राटेदार अंगरेजी बोलने वाली पत्नी को ले कर दिल्ली रवाना हो गया था. लंबी सांस भरते ‘मुंबु’ ने सोचा था कि चलो बेटी खुश तो है. समय अपनी गति से चलता रहा. इस बीच रज्जो के 2 बेटियां हो चुकी थीं.

लगभग हर वर्ष अनिरुद्ध पत्नी को दोनों बेटियों सहित 2-4 दिन के लिए नाना के यहां भेज देते. अनिरुद्ध की बेटियां कहां नानानानी का लाड़प्यार पा सकी थीं. वे तो बस आतीं और जब तक ना…ना उन के मुंह से निकलता तब तक तो उन के जाने का दिन आ जाता. कुछ वर्ष इसी तरह बीत गए. रज्जो से दूर रहने का गम और अकेलापन पंडित पंडिताइन को खाए जा रहा था. 10 वर्ष के अंदर ही वे चल बसे और वह घर सदा के लिए बंद हो गया. रज्जो ने उस पर अपने हाथों से ही मोटा ताला लटकाया था. उस दिन वह कितना फूटफूट कर रोई थी. धीरेधीरे रज्जो की बेटियां भी बड़ी हो चली थीं. फिर उन की शादियां भी हो गईं. एक बेटी सिंगापुर और दूसरी दुबई में सैटल हो गई थी. एक एमबीए और दूसरी मैडिकल औफिसर. दामाद भी इतने भले कि सासससुर का ध्यान अपने मातापिता से भी अधिक रखते.

20 वर्ष मुंबई में रह कर अनिरुद्ध और रज्जो भी सिंगापुर चले गए थे. दिल्ली में अब मातापिता भी नहीं रहे थे. भाई अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त थे. सब कुछ बहुत अच्छा मिला रज्जो को लेकिन न जाने क्यों वह उम्र के इस पड़ाव पर आ कर कुछ बेचैन सी रहने लगी थी. कभी महसूस करती कि उस का पूरा जीवन ऐसे ही तो बीता है, जैसा अनिरुद्ध ने चाहा था या ‘ऐक्सपैरिमैंट’ किया था. उस ने अपने हिसाब से, अपनी सोच से कुछ किया क्या…? अनिरुद्ध के हिसाब से हाथों में हाथ डाल कर पार्टियां, डांस, पिकनिक और न जाने क्याक्या, सिर्फ शोे बिजनैस. उस का अपना क्या रहा…? कहां रही वह सीधीसादी, साधारण से महल्ले की रज्जो?

सिंगापुर में वह अनमनी सी रहने लगी थी. दिन भर मुंह सी कर बैठी रहती. आकाश को निहारा करती. कारण समझ में नहीं आ रहा था. बेटियों से सलाह कर के अनिरुद्ध भारत वापस आ गए. मुंबई में एक फ्लैट पहले से ही खरीद रखा था. यहां भी वे अपनी जौब में व्यस्त रहते थे अनिरुद्ध, परंतु रज्जो अपनी यादों की पुरानी गलियों में भटकती रहती. एकदम तन्हा, नितांत अकेली. हर 15 दिन में ब्यूटीपार्लर जा कर खुद को सजानेसंवारने वाली रज्जो एक बार कई दिनों के लिए बीमार पड़ गई. शायद वह अकेलापन महसूस कर रही थी. इस से भी अधिक उस के मस्तिष्क में ‘मुंबु’ की असमय मृत्यु मंडराती रहती. उस के पास इतना कुछ है तब भी वह इतनी उदास रहती. उसे ‘मुंबु’ और उन का घर याद आता रहता. एक दिन नौकरानी ने ब्यूटीशियन को घर पर ही रज्जो का फेशियल   करने के लिए बुला लिया. शायद साहब के आदेश पर, परंतु रज्जो ने उसे वापस भेज दिया. कई दिनों से उस की मनोदशा अजीब सी थी. अनिरुद्ध ने छोटी बेटी रोज को सिंगापुर से रज्जो की देखभाल के लिए बुला लिया था. उस के 2 छोटे बच्चे थे जिन्हें उस के पति आया की मदद से संभाल लेते थे. अत: वह मातापिता के पास बीचबीच में आ जाती थी. रज्जो सोचती कि वह बेटी को अपनी सेवा के लिए बुला लेती है पर वह स्वयं किस दिन अपने मातापिता की जरूरत में काम आ सकी थी? अंदर ही अंदर रज्जो को घुन लगने लगा था. शीशे के सामने खड़ी हो कर अपने सफेद बालों को देख कर अचानक ही वह सोचने लगी कि किसी राजा ने केवल एक बाल सफेद देख कर राजपाट त्यागने का फैसला ले लिया था. उस का तो न जाने कब से सारा सिर ही सफेद है. हर बार डाई करवा कर स्वयं को जवान सिद्ध करने की होड़ में ही लगी रही है. बाकी कभी कुछ नहीं किया. बस, केवल ‘ऐक्सपैरिमैंट’ यानी ‘गिनीपिग’ भर बनी रही ताउम्र.

अकसर आंसू ढुलक कर उस के गालों पर बहने लगते. छोटी बेटी रोज इस बार मां को देख कर सहम गई थी. जब रोते हुए देखा तो बोली, ‘‘क्या हुआ, मौम…? आर यू आल राइट..?’’ सुबकियों के बीच रज्जो ने सिर हिलाया कि वह ठीक है.

‘‘फिर आप रो क्यों रही हैं?’’

रात में भी मां को करवटें बदलते देख कर रोज कुछ परेशान सी हो उठी थी. अचानक वह उठ बैठी और मां को बांहों में भर लिया, ‘‘आई वांट टू विजिट माय होमटाउन…आय वांट टू मीट पीपल हू वर अराउंड मी…’’ सुबकते हुए रज्जो ने अपनी खूबसूरत बेटी रोज के कंधे पर अपना सिर रख दिया और जोर से बिलख उठी.

‘‘तुम जानती हो राज, कितने साल हो गए हैं तुम्हें वहां गए? तुम से किसी का कौंटैक्ट भी नहीं है शायद…फिर…?’’ अनिरुद्ध उस की बात सुन कर बौखला उठे थे.

‘‘मैं ‘मुंबु’ का  घर खोल कर देखना चाहता हूं.’’

‘‘करोगी क्या वहां जा कर…कौन पहचानेगा तुम्हें?’’

‘‘अनि, प्लीज, मैं मुंबु का घर खोलना चाहती हूं, सहन में बनी हुई तुलसी की क्यारी को छूना चाहती हूं… मुझे पता है कृष्णा बहनजी, इंदु मौसी, सरोज मौसी मुझे देख कर खुश होंगी. बस…जस्ट वंस…मेरा बचपन मुझे पुकार रहा है…मेरा घर मुझे पुकार रहा है.’’

‘‘वहां कौन रहा होगा…  तुम जानती हो क्या?’’ उन की राज में रज्जो प्रवेश कर रही थी. कितनी मुश्किल से उस मिट्टी की गंध शरीर से मलमल कर छुड़ाई थी उस ने. अब फिर से 60 वर्ष की उम्र में उन की पत्नी उस गंध को लपेटने के लिए व्याकुल हो उठी थी.

‘‘कौन जाएगा तुम्हारे साथ. यह बेचारी अपना घर, बच्चे, जौब सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे लिए आई है.’’

रोज के मन में मां के प्रति कुछ पिघलने लगा, ‘‘ओके डैड…आय विल टेक हर विद मी जस्ट फौर टू डेज औनली…’’ उसे वापस भी तो जाना था.  रज्जो रोज के साथ मुंबु के शहर जयपुर आ गई. स्टेशन से घर तक का सफर रिकशे में बमुश्किल से कटा. वह जल्दी अपने मुंबु के घर पहुंचना चाहती थी. रास्ते भर वह उन सड़कों और गलियारों को बच्चों की तरह खुश हो कर निहारती जा रही थी.

रज्जो तो मानो अपने बचपन की सैर करने लगी थी. बीमारी से कमजोर हुई रज्जो में मानो किसी ने फूंक कर ताजी हवा का झोंका भर दिया था.  मां के पर्स से चाबी निकाल कर रोज ने जैसे ही दरवाजे के ताले से जूझना शुरू किया, ऊपर से कच्ची मिट्टी भरभरा कर उस के खूबसूरत चेहरे पर फैल गई. हाथों से चेहरे को झाड़ते हुए उस ने खीझ कर मां की ओर देखा. ‘‘मौम, कांट वी हैव समवन टू क्लीन द डोर. ओ…माय गुडनैस.’’

धीरेधीरे आसपास के दरवाजे खुलने लगे. औरतें फुसफुसाती हुई उन की ओर बढ़ीं. रोज ने पैंट में से रुमाल निकाल कर मुंह पर फैली मिट्टी को साफ करने की बेकार सी कोशिश की.

‘‘कौन हो?’’ लाठी पकड़े एक बुजुर्ग महिला चश्मे में से झांकने का प्रयास कर रही थी.

रज्जो की आंखों में चमक भर आई.

‘‘लाखी चाची,’’ उस ने आंसुओं से चेहरा तर कर लिया और झुकी कमर वाली महिला के गले लग कर सुबकने लगी, ‘‘रज्जो हूं चाची, आप की रज्जो… पहचाना नहीं?’’

अंदर से चाची की किसी बहू ने एक खाट ला कर सड़क के किनारे डाल दी थी. घूंघट के भीतर से बहुएं पैंट पहनी हुई सुंदरी को निहार रही थीं.

‘‘जरूर कोई मेम है…’’ एक ने फुसफुस कर के दूसरी के कान में कहा.

रोज उन के पास चली आई, ‘‘नमस्ते, मैं इन की बेटी… कोई सर्वेंट मिल जाएगा यहां? ताला भी नहीं खुल रहा है. उसे भी खोलना होगा.’’

घूंघट वाली बहुओं में से एक ने घर में बरतन मांजती हुई महरी को आवाज दे कर बाहर बुला लिया.

‘‘आप इसे चाबी दे दीजिए, यह खोल देगी.’’

महरी ने उस के हाथ से चाबी ले ली और ताले में चाबी घुमाने लगी तो कुंडा टूट कर उस के हाथ में आ गया.

‘‘महरी को वहीं छोड़ रोज उस ओर बढ़ गई जहां रज्जो खाट पर बैठी बुजुर्ग महिला से बातें कर रही थी.

रोज के लिए यह माहौल कुतूहल भरा था.

‘‘तेरी 2 बेटी हैं न रज्जी?’’ बूढ़ी औरत उसे अच्छी प्रकार देखना चाहती थी. वह अपने चेहरे को ऊपरनीचे करने लगी थी.

‘‘बहुत कम दिखाई देता है बेटी. देखो, अब तो हमारी उमर का कोई एकाध ही बचा होगा. सभी साथ छोड़ गए. अच्छा किया तू आ गई…तेरे से मिलना हो गया.’’

रोज के सामने चाय का  प्याला आ गया था और दोनों बहुएं उस की कुरसी के इर्दगिर्द खड़ी हो गई थीं.

‘‘ले बेटी, समोसा फोड़ ले.’’

रोज को हंसी आने को हुई पर उस ने कंट्रोल कर लिया. समोसा कुतरते हुए उस ने ‘मुंबु’ के मकान के बाहरी हिस्से में उगे पीपल के छोटेछोटे पौधों पर नजर गढ़ा दी.

‘‘हर साल काट देते हैं हम जी… पर ये हर साल उग आते हैं,’’ घूंघट वाली एक बहू ने उस की दृष्टि भांप ली थी.

‘मुंबु’ के घर में अब भी जीवन है वह सोचने लगी. लेकिन रात में इस घर में तो रहा नहीं जा सकता. जयपुर तो इतना बड़ा शहर है, अच्छेअच्छे होटल हैं. वह मौम को वहां रहने के लिए मना लेगी.

‘‘बेटा, मैं जिन से मिलने आई थी, उन में से तो कोई भी नहीं रहा.’’

रोज ने मां का कंधा दबा कर उन्हें सांत्वना देने का प्रयास किया.

‘‘इट्स औल राइट मौम. जिंदगी ऐसे ही चलती है,’’ फिर थोड़ा रुक कर रोज आगे कहती है, ‘‘मौम, अंदर चलेंगी? आप का तुलसी का चौरा…’’

‘‘हां, और कोई तो मिला नहीं…’’ राजी दुखी थी.

‘‘चलिए, अंदर देखते हैं,’’ रोज उस का ध्यान बटाना चाहती थी.

‘‘हां,’’ कह कर रज्जो ने हाथ में पकड़ा हुआ चाय का प्याला मेज पर रखा और उठ खड़ी हुई. उस के साथ लाखी चाची भी अपना डंडा उठा कर उस के घर की ओर बढ़ चलीं. उन के पीछेपीछे दोनों घूंघट वाली बहुएं भी.

रोज आगे बढ़ कर सहन पार कर गई थी. पीछेपीछे राजी आ रही थी. तुलसी का अधटूटा चौरा सहन में मृत्युशैया पर पड़े बूढ़े की तरह मानो किसी की प्रतीक्षा कर रहा था. रज्जो ने सिंहद्वार में प्रवेश किया ही था कि ऊपर से अधटूटी लटकी हुई बल्ली उस के सिर पर गिरी और वह वहीं पसर गई. लाखी चाची को बहुओं ने पीछे खींच लिया था. जोरदार आवाज सुन कर रोज ने पीछे मुड़ कर देखा. ‘‘मौम…’’ वह चिल्लाई.

पर…मौम की आवाज शांत हो गई थी…हमेशाहमेशा के लिए. उस की आंखें उलट चुकी थीं और प्रतीक्षारत तुलसी के टूटे हुए चौरे पर अटक गई थीं. ‘राज कपूर’ की फिर से रज्जो बनने की हसरत पूरी हो गई थी. समय ने उसे कहांकहां घुमाफिरा कर, उस के साथ न जाने कितने प्रयोग कर के रज्जो को फिर से उसी धूल में मिला दिया था जिस से निकल कर वह ताउम्र समय के साथ आंखमिचौनी करती रही थी. अब वह गिनीपिग नहीं रही थी. अब उस पर कोई ऐक्सपैरिमैंट नहीं कर सकता था.

अंदाज: ससुराल के रूढ़िवादी माहौल को क्या बदल पाई रंजना?

अपनेसहयोगियों के दबाव में आ कर रंजना ने अपने पति मोहित को फोन किया, ‘‘ये सब लोग कल पार्टी देने की मांग कर रहे हैं. मैं इन्हें क्या जवाब दूं?’’

‘‘मम्मीपापा की इजाजत के बगैर किसी को घर बुलाना ठीक नहीं रहेगा,’’ मोहित की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.

‘‘फिर इन की पार्टी कब होगी?’’

‘‘इस बारे में रात को बैठ कर फैसला करते हैं.’’

‘‘ओ.के.’’

रंजना ने फोन काट कर मोहित का फैसला बताया तो सब उस के पीछे पड़ गए, ‘‘अरे, हम मुफ्त में पार्टी नहीं खाएंगे. बाकायदा गिफ्ट ले कर आएंगे, यार.’’

‘‘अपनी सास से इतना डर कर तू कभी खुश नहीं रह पाएगी,’’ उन लोगों ने जब इस तरह का मजाक करते हुए रंजना की खिंचाई शुरू की तो उसे अजीब सा जोश आ गया. बोली, ‘‘मेरा सिर खाना बंद करो. मेरी बात ध्यान से सुनो. कल रविवार रात 8 बजे सागर रत्ना में तुम सब डिनर के लिए आमंत्रित हो. कोई भी गिफ्ट घर भूल कर न आए.’’

रंजना की इस घोषणा का सब ने तालियां बजा कर स्वागत किया था.

कुछ देर बाद अकेले में संगीता मैडम ने उस से पूछा, ‘‘दावत देने का वादा कर के तुम ने अपनेआप को मुसीबत में तो नहीं फंसा लिया है?’’

‘‘अब जो होगा देखा जाएगा, दीदी,’’ रंजना ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अगर घर में टैंशन ज्यादा बढ़ती लगे तो मुझे फोन कर देना. मैं सब को पार्टी कैंसल हो जाने की खबर दे दूंगी. कल के दिन बस तुम रोनाधोना बिलकुल मत करना, प्लीज.’’

‘‘जितने आंसू बहाने थे, मैं ने पिछले साल पहली वर्षगांठ पर बहा लिए थे दीदी. आप को तो सब मालूम ही है.’’

‘‘उसी दिन की यादें तो मुझे परेशान कर रही हैं, माई डियर.’’

‘‘आप मेरी चिंता न करें, क्योंकि मैं साल भर में बहुत बदल गई हूं.’’

‘‘सचमुच तुम बहुत बदल गई हो, रंजना? सास की नाराजगी, ससुर की डांट या ननद की दिल को छलनी करने वाली बातों की कल्पना कर के तुम आज कतई परेशान नजर नहीं आ रही हो.’’

‘‘टैंशन, चिंता और डर जैसे रोग अब मैं नहीं पालती हूं, दीदी. कल रात दावत जरूर होगी. आप जीजाजी और बच्चों के साथ वक्त से पहुंच जाना,’’ कह रंजना उन का कंधा प्यार से दबा कर अपनी सीट पर चली गई.

रंजना ने बिना इजाजत अपने सहयोगियों को पार्टी देने का फैसला किया है, इस खबर को सुन कर उस की सास गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘हम से पूछे बिना ऐसा फैसला करने का तुम्हें कोई हक नहीं है, बहू. अगर यहां के कायदेकानून से नहीं चलना है, तो अपना अलग रहने का बंदोबस्त कर लो.’’

‘‘मम्मी, वे सब बुरी तरह पीछे पड़े थे. आप को बहुत बुरा लग रहा है, तो मैं फोन कर के सब को पार्टी कैंसल करने की खबर कर दूंगी,’’ शांत भाव से जवाब दे कर रंजना उन के सामने से हट कर रसोई में काम करने चली गई.

उस की सास ने उसे भलाबुरा कहना जारी रखा तो उन की बेटी महक ने उन्हें डांट दिया, ‘‘मम्मी, जब भाभी अपनी मनमरजी करने पर तुली हुई हैं, तो तुम बेकार में शोर मचा कर अपना और हम सब का दिमाग क्यों खराब कर रही हो? तुम यहां उन्हें डांट रही हो और उधर वे रसोई में गाना गुनगुना रही हैं. अपनी बेइज्जती कराने में तुम्हें क्या मजा आ रहा है?’’

अपनी बेटी की ऐसी गुस्सा बढ़ाने वाली बात सुन कर रंजना की सास का पारा और ज्यादा चढ़ गया और वे देर तक उस के खिलाफ बड़बड़ाती रहीं.

रंजना ने एक भी शब्द मुंह से नहीं निकाला. अपना काम समाप्त कर उस ने खाना मेज पर लगा दिया.

‘‘खाना तैयार है,’’ उस की ऊंची आवाज सुन कर सब डाइनिंगटेबल पर आ तो गए, पर उन के चेहरों पर नाराजगी के भाव साफ नजर आ रहे थे.

रंजना ने उस दिन एक फुलका ज्यादा खाया. उस के ससुरजी ने टैंशन खत्म करने के इरादे से हलकाफुलका वार्त्तालाप शुरू करने की कोशिश की तो उन की पत्नी ने उन्हें घूर कर चुप करा दिया.

रंजना की खामोशी ने झगड़े को बढ़ने नहीं दिया. उस की सास को अगर जरा सा मौका मिल जाता तो वे यकीनन भारी क्लेश जरूर करतीं.

महक की कड़वी बातों का जवाब उस ने हर बार मुसकराते हुए मीठी आवाज में दिया.

शयनकक्ष में मोहित ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की, ‘‘किसी और की न सही पर तुम्हें कोई भी फैसला करने से पहले मेरी इजाजत तो लेनी ही चाहिए थी. मैं कल तुम्हारे साथ पार्टी में शामिल नहीं होऊंगा.’’

‘‘तुम्हारी जैसी मरजी,’’ रंजना ने शरारती मुसकान होंठों पर सजा कर जवाब दिया और फिर एक चुंबन उस के गाल पर अंकित कर बाथरूम में घुस गई.

रात ठीक 12 बजे रंजना के मोबाइल के अलार्म से दोनों की नींद टूट गई.

‘‘यह अलार्म क्यों बज रहा है?’’ मोहित ने नाराजगी भरे स्वर में पूछा.

‘‘हैपी मैरिज ऐनिवर्सरी, स्वीट हार्ट,’’ उस के कान के पर होंठों ले जा कर रंजना ने रोमांटिक स्वर में अपने जीवनसाथी को शुभकामनाएं दीं.

रंजना के बदन से उठ रही सुगंध और महकती सांसों की गरमाहट ने चंद मिनटों में जादू सा असर किया और फिर अपनी नाराजगी भुला कर मोहित ने उसे अपनी बांहों के मजबूत बंधन में कैद कर लिया.

रंजना ने उसे ऐसे मस्त अंदाज में जी भर कर प्यार किया कि पूरी तरह से तृप्त नजर आ रहे मोहित को कहना ही पड़ा, ‘‘आज के लिए एक बेहतरीन तोहफा देने के लिए शुक्रिया, जानेमन.’’

‘‘आज चलोगे न मेरे साथ?’’ रंजना ने प्यार भरे स्वर में पूछा.

‘‘पार्टी में? मोहित ने सारा लाड़प्यार भुला कर माथे में बल डाल लिए.’’

‘‘मैं पार्क में जाने की बात कर रही हूं, जी.’’

‘‘वहां तो मैं जरूर चलूंगा.’’

‘‘आप कितने अच्छे हो,’’ रंजना ने उस से चिपक कर बड़े संतोष भरे अंदाज में आंखें मूंद लीं.

रंजना सुबह 6 बजे उठ कर बड़े मन से तैयार हुई. आंखें खुलते ही मोहित ने उसे सजधज कर तैयार देखा तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा.

‘‘यू आर वैरी ब्यूटीफुल,’’ अपने जीवनसाथी के मुंह से ऐसी तारीफ सुन कर रंजना का मन खुशी से नाच उठा.

खुद को मस्ती के मूड में आ रहे मोहित की पकड़ से बचाते हुए रंजना हंसती हुई कमरे से बाहर निकल गई.

उस ने पहले किचन में जा कर सब के लिए चाय बनाई, फिर अपने सासससुर के कमरे में गई और दोनों के पैर छू कर आशीर्वाद लिया.

चाय का कप हाथ में पकड़ते हुए उस की सास ने चिढ़े से लहजे में पूछा, ‘‘क्या सुबहसुबह मायके जा रही हो, बहू?’’

‘‘हम तो पार्क जा रहे हैं मम्मी,’’ रंजना ने बड़ी मीठी आवाज में जवाब दिया.

सास के बोलने से पहले ही उस के ससुरजी बोल पड़े, ‘‘बिलकुल जाओ, बहू. सुबहसुबह घूमना अच्छा रहता है.’’

‘‘हम जाएं, मम्मी?’’

‘‘किसी काम को करने से पहले तुम ने मेरी इजाजत कब से लेनी शुरू कर दी, बहू?’’ सास नाराजगी जाहिर करने का यह मौका भी नहीं चूकीं.

‘‘आप नाराज न हुआ करो मुझ से, मम्मी. हम जल्दी लौट आएंगे,’’ किसी किशोरी की तरह रंजना अपनी सास के गले लगी और फिर प्रसन्न अंदाज में मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई.

वह मोहित के साथ पार्क गई जहां दोनों के बहुत से साथी सुबह का मजा ले रहे थे. फिर उस की फरमाइश पर मोहित ने उसे गोकुल हलवाई के यहां आलूकचौड़ी का नाश्ता कराया.

दोनों की वापसी करीब 2 घंटे बाद हुई. सब के लिए वे आलूकचौड़ी का नाश्ता पैक करा लाए थे. लेकिन यह बात उस की सास और ननद की नाराजगी खत्म कराने में असफल रही थी.

दोनों रंजना से सीधे मुंह बात नहीं कर रही थीं. ससुरजी की आंखों में भी कोई चिंता के भाव साफ पढ़ सकता था. उन्हें अपनी पत्नी और बेटी का व्यवहार जरा भी पसंद नहीं आ रहा था, पर चुप रहना उन की मजबूरी थी. वे अगर रंजना के पक्ष में 1 शब्द भी बोलते, तो मांबेटी दोनों हाथ धो कर उन के पीछे पड़ जातीं.

सजीधजी रंजना अपनी मस्ती में दोपहर का भोजन तैयार करने के लिए रसोई में चली आई. महक ने उसे कपड़े बदल आने की सलाह दी तो उस ने इतराते हुए जवाब दिया, ‘‘दीदी, आज तुम्हारे भैया ने मेरी सुंदरता की इतनी ज्यादा तारीफ की है कि अब तो मैं ये कपड़े रात को ही बदलूंगी.’’

‘‘कीमती साड़ी पर दागधब्बे लग जाने की चिंता नहीं है क्या तुम्हें?’’

‘‘ऐसी छोटीमोटी बातों की फिक्र करना अब छोड़ दिया है मैं ने, दीदी.’’

‘‘मेरी समझ से कोई बुद्धिहीन इनसान ही अपना नुकसान होने की चिंता नहीं करता है,’’ महक ने चिढ़ कर व्यंग्य किया.

‘‘मैं बुद्धिहीन तो नहीं पर तुम्हारे भैया के प्रेम में पागल जरूर हूं,’’ हंसती हुई रंजना ने अचानक महक को गले से लगा लिया तो वह भी मुसकराने को मजबूर हो गई.

रंजना ने कड़ाही पनीर की सब्जी बाजार से मंगवाई और बाकी सारा खाना घर पर तैयार किया.

‘‘आजकल की लड़कियों को फुजूलखर्ची की बहुत आदत होती है. जो लोग खराब वक्त के लिए पैसा जोड़ कर नहीं रखते हैं, उन्हें एक दिन पछताना पड़ता है, बहू,’’ अपनी सास की ऐसी सलाहों का जवाब रंजना मुसकराते हुए उन की हां में हां मिला कर देती रही.

उस दिन उपहार में रंजना को साड़ी और मोहित को कमीज मिली. बदले में उन्होंने महक को उस का मनपसंद सैंट, सास को साड़ी और ससुरजी को स्वैटर भेंट किया. उपहारों की अदलाबदली से घर का माहौल काफी खुशनुमा हो गया था.

यह सब को पता था कि सागर रत्ना में औफिस वालों की पार्टी का समय रात 8 बजे का है. जब 6 बजे के करीब मोहित ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उस ने अपने परिवार वालों का मूड एक बार फिर से खराब पाया.

‘‘तुम्हें पार्टी में जाना है तो हमारी इजाजत के बगैर जाओ,’’ उस की मां ने उस पर नजर पड़ते ही कठोर लहजे में अपना फैसला सुना दिया.

‘‘आज के दिन क्या हम सब का इकट्ठे घूमने जाना अच्छा नहीं रहता, भैया?’’ महक ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘रंजना ने पार्टी में जाने से इनकार कर दिया है,’’ मोहित के इस जवाब को सुन वे तीनों ही चौंक पड़े.

‘‘क्यों नहीं जाना चाहती है बहू पार्टी में?’’ उस के पिता ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘उस की जिद है कि अगर आप तीनों साथ नहीं चलोगे तो वह भी नहीं जाएगी.’’

‘‘आजकल ड्रामा करना बड़ी अच्छी तरह से आ गया है उसे,’’ मम्मी ने बुरा सा मुंह बना कर टिप्पणी की.

मोहित आंखें मूंद कर चुप बैठ गया. वे तीनों बहस में उलझ गए.

‘‘हमें बहू की बेइज्जती कराने का कोई अधिकार नहीं है. तुम दोनों साथ चलने के लिए फटाफट तैयार हो जाओ वरना मैं इस घर में खाना खाना छोड़ दूंगा,’’ ससुरजी की इस धमकी के बाद ही मांबेटी तैयार होने के लिए उठीं.

सभी लोग सही वक्त पर सागर रत्ना पहुंच गए. रंजना के सहयोगियों का स्वागत सभी ने मिलजुल कर किया. पूरे परिवार को यों साथसाथ हंसतेमुसकराते देख कर मेहमान मन ही मन हैरान हो उठे थे.

‘‘कैसे राजी कर लिया तुम ने इन सभी को पार्टी में शामिल होने के लिए?’’ संगीता मैडम ने एकांत में रंजना से अपनी उत्सुकता शांत करने को आखिर पूछ ही लिया.

रंजना की आंखों में शरारती मुसकान की चमक उभरी और फिर उस ने धीमे स्वर में जवाब दिया, ‘‘दीदी, मैं आज आप को पिछले 1 साल में अपने अंदर आए बदलाव के बारे में बताती हूं. शादी की पहली सालगिरह के दिन मैं अपनी ससुराल वालों के रूखे व कठोर व्यवहार के कारण बहुत रोई थी, यह बात तो आप भी अच्छी तरह जानती हैं.’’

‘‘उस रात को पलंग पर लेटने के बाद एक बड़ी खास बात मेरी पकड़ में आई थी. मुझे आंसू बहाते देख कर उस दिन कोई मुसकरा तो नहीं रहा था, पर मुझे दुखी और परेशान देख कर मेरी सास और ननद की आंखों में अजीब सी संतुष्टि के भाव कोई भी पढ़ सकता था.

‘‘तब मेरी समझ में यह बात पहली बार आई कि किसी को रुला कर व घर में खास खुशी के मौकों पर क्लेश कर के भी कुछ लोग मन ही मन अच्छा महसूस करते हैं. इस समझ ने मुझे जबरदस्त झटका लगाया और मैं ने उसी रात फैसला कर लिया कि मैं ऐसे लोगों के हाथ की कठपुतली बन अपनी खुशियों व मन की शांति को भविष्य में कभी नष्ट नहीं होने दूंगी.

‘‘खुद से जुड़े लोगों को अब मैं ने 2 श्रेणियों में बांट रखा है. कुछ मुझे प्रसन्न और सुखी देख कर खुश होते हैं, तो कुछ नहीं. दूसरी श्रेणी के लोग मेरा कितना भी अहित करने की कोशिश करें, मैं अब उन से बिलकुल नहीं उलझती हूं.

‘‘औफिस में रितु मुझे जलाने की कितनी भी कोशिश करे, मैं बुरा नहीं मानती. ऐसे ही सुरेंद्र सर की डांट खत्म होते ही मुसकराने लगती हूं.’’

‘‘घर में मेरी सास और ननद अब मुझे गुस्सा दिलाने या रुलाने में सफल नहीं हो पातीं. मोहित से रूठ कर कईकई दिनों तक न बोलना अब अतीत की बात हो गई है.

‘‘जहां मैं पहले आंसू बहाती थी, वहीं अब मुसकराते रहने की कला में पारंगत हो गई हूं. अपनी खुशियों और मन की सुखशांति को अब मैं ने किसी के हाथों गिरवी नहीं रखा हुआ है.

‘‘जो मेरा अहित चाहते हैं, वे मुझे देख कर किलसते हैं और मेरे कुछ किए बिना ही हिसाब बराबर हो जाता है. जो मेरे शुभचिंतक हैं, मेरी खुशी उन की खुशियां बढ़ाने में सहायक होती हैं और यह सब के लिए अच्छा ही है.

‘‘अपने दोनों हाथों में लड्डू लिए मैं खुशी और मस्ती के साथ जी रही हूं, दीदी. मैं ने एक बात और भी नोट की है. मैं खुश रहती हूं तो मुझे नापसंद करने

वालों के खुश होने की संभावना भी ज्यादा हो जाती है. मेरी सास और ननद की यहां उपस्थिति इसी कारण है और उन दोनों की मौजूदगी मेरी खुशी को निश्चित रूप से बढ़ा रही है.’’

संगीता मैडम ने प्यार से उस का माथा चूमा और फिर भावुक स्वर में बोलीं, ‘‘तुम सचमुच बहुत समझदार हो गई हो, रंजना. मेरी तो यही कामना है कि तुम जैसी बहू मुझे भी मिले.’’

‘‘आज के दिन इस से बढिया कौंप्लीमैंट मुझे शायद ही मिले, दीदी. थैंक्यू वैरी मच,’’ भावविभोर हो रंजना उन के गले लग गई. उस की आंखों से छलकने वाले आंसू खुशी के थे.

सूखता सागर: करण की शादी को लेकर क्यों उत्साहित थी कविता?

भैया का ड्राइवर कार से स्टेशन तक छोड़ गया था. अटैची, बैग और थैला कुली को दे कर कविता छोटू और बबली के हाथ थाम प्लेटफार्म की तरफ बढ़ गई. बैंच पर बैठने के बाद कविता सोच में डूब गई कि लो भतीजे करण की शादी भी निबट गई. इतने महीनों से तैयारी चल रही थी, कितना उत्साह था इस शादी में आने का. पूरे 8 वर्ष बाद घर में शादी का समारोह होने जा रहा था. भैया ने तो काफी समय पहले ही सब को बुलावे के पत्र डाल दिए थे, फिर आए दिन फोन पर शादी की तैयारी की चर्चा होती रहती कि दुलहन का लहंगा जयपुर में बन रहा है… ज्वैलरी भी खास और्डर पर बनवाई जा रही है… मेहमानों के ठहरने की भी खास व्यवस्था की जा रही है…

इस में संदेह नहीं कि काफी खर्चा किया होगा भैयाभाभी ने. उन के इकलौते बेटे की शादी जो थी. पर पता नहीं क्यों इतने अच्छे इंतजाम के बावजूद कविता वह उत्साह या उमंग अपने भीतर नहीं पा सकी, जिस की उसे अपेक्षा थी. एक तो चलने के ऐन वक्त पर ही पति अनिमेष को जरूरी काम से रुकना पड़ गया था. वह तो डर रही थी कि पता नहीं भैयाभाभी क्या सोचेंगे कि इतने आग्रह से इतने दिन पहले से बुला रहे थे और दामादजी को ऐन वक्त पर कोई काम आ गया. पूरे रास्ते वह इसी भावना से आशंकित रही थी. मगर कानपुर पहुंचने पर जैसा ठंडा स्वागत हुआ उस से उस की यह धारणा बदल गई.

यहां भी तो स्टेशन पर यही ड्राइवर खड़ा था, उस के नाम की तख्ती लिए हुए. ठीक है भैया व्यस्त होंगे पर कोई और भी तो आ सकता था, लेने. घर पहुंचने पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वह अकेली ही बच्चों के साथ आई है.

‘‘चलो कविता आ गई, बच्चे ठीक हैं, ऐसा करो श्यामलाल को साथ ले कर अपने कमरे में सामान रखवा लो, वहीं तुम्हारा चायनाश्ता भी पहुंच जाएगा. फिर नहाधो कर तैयार हो कर नीचे डाइनिंगहौल में लंच के लिए आओगी तो सब से मिल लेना,’’ भाभी बोलीं.

थकान तो थी ही सफर की, पर अब कविता का मन भी बुझ चला था. दोनों बड़ी बहनें पहले ही आ चुकी थीं. वे भी अपनेअपने कमरे में थीं. एक बड़े होटल में भैया ने सब के ठहरने का इंतजाम किया था.

थर्मस में चाय और साथ में नाश्ते की प्लेटें रख कर नौकर चला गया. चाय पी कर कुछ देर लेटने का मन हो रहा था पर बच्चों का उत्साह देख कर उन्हें नहला कर तैयार कर दिया. स्वयं भी तैयार हुई.

तभी कमरे में इंटरकौम की घंटी बजने लगी. शायद खाने के लिए सब लोग नीचे पहुंचने लगे थे. बड़ी दीदी और मझली दीदी से वहीं मिलना हुआ.

‘‘अरे कविता, इधर आ… बहुत दिनों बाद मिली है,’’ मझली दीदी ने दूर से ही आवाज दी.

बड़ी दीदी के घुटनों में तकलीफ थी, इसलिए सब उन्हें घेरे बैठे थे. भैया भी 2 मिनट को उधर आए. कुछ देर की औपचारिकता के बाद उन्हें ध्यान आया, ‘‘अरे, अनिमेष कहां है?’’

‘‘आ नहीं पाए भैया, क्या करें ऐन वक्त पर ही…’’

वह कुछ और कहने की भूमिका बना ही रही थी कि भैया ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘कोई बात नहीं, तुम आ गईं, बच्चे आ गए… चलो अब बहनों के साथ गपशप करो,’’ कहते हुए भैया आगे बढ़ गए.

बड़ी दीदी के पास अपने घरपरिवार की उलझनें थीं तो मझली दीदी यहां अपनी बेटी के लिए रिश्ता खोज रही थीं.

‘‘दीदी, हम लोग एक ही हौल में रहते तो अच्छा रहता, देर रात तक गपशप करते… अब अपनेअपने कमरे में बंद हैं तो किसी की शक्ल तक नहीं दिखती कि कौनकौन मेहमान आए हैं, कहां ठहरे हैं, कैसे हैं. बस, खाने के समय मिल लो,’’ कविता के मुंह से निकल ही गया.

पर बड़ी दीदी तो अपनी ही उधेड़बुन में थीं. बोलीं, ‘‘मुझे तो अभी बाजार निकलना होगा. दर्द तो है घुटनों में पर किसी का साथ मिल जाता तो हो आती, बहू ने साडि़यां मंगवाई थीं… आज ही समय है. भाभी से ही कहती हूं कि गाड़ी का इंतजाम कर दें…’’

उधर मझली दीदी को अपनी ननद के घर जा कर रिश्ते की बात करनी थी. अत: खाना खा कर कविता चुपचाप अपने कमरे में आ गई.

उधर बच्चे भी उकताने लगे थे, ‘‘ममा, हम किस के साथ खेलें? हमारी उम्र का तो कोई है ही नहीं.’’

‘‘नीचे बगीचे में घूम आओ या फिर टीवी देख लेना.’’

बच्चों को भेज कर कविता लेट तो गई, पर नींद आंखों से कोसों दूर थी. 12 वर्ष पहले उस का स्वयं का विवाह हुआ था. फिर 8 साल पहले चचेरी बहन पिंकी का. अभी तक सारे विवाह अपने पुश्तैनी घर में ही होते रहे थे. घर छोटा था तो क्या हुआ, सारे मेहमान उस में आ जाते. आंगन में ही रात को सब की खाटें बिछ जातीं. दिन भर गहमागहमी रहती. शादी का माहौल दिखता. ढोलक की थाप पर नाचगाना होता. पिंकी के विवाह में जब आशा बूआ नाच रही थीं तो बच्चे हंसहंस कर लोटपोट हो रहे थे.

‘‘हाय दइया ततैयों ने खा लयोरे…’’ कहते हुए वे साड़ी घुटनों तक उठा लेतीं.

सब लोग हा…हा… कर के हंसते. तभी बड़ी ताईजी सब को डांटतीं कि बेटी का ब्याह है कोई नौटंकी नहीं हो रही, समझीं? पर फिर भी सब हंसते रहते और वही माहौल बना रहता. आज मांबाबूजी हैं नहीं, ताईजी भी इतनी बूढ़ी हैं कि कहीं आ जा नहीं सकतीं. बस छोटी बूआ आई हैं, दीदी बता रही थीं. पर वे भी शायद अकेली किसी कमरे में होंगी.

हां, दीदी कह तो रही थीं किसी से कि एक थाली कमरे में भिजवा दो. उस समय तो हलवाइयों की रौनक, मिठाई, नमकीन सब की खुशबू हुआ करती थी शादीब्याह के माहौल में, पर यहां तो बस चुपचाप अपने कमरे में बंद हैं. लग ही नहीं रहा है कि अपने घर की शादी में आए हैं.

शाम को बरात को रवाना होना था, बरात क्या होटल में ठहरे मेहमानों को ही चलना था, पास ही के एक दूसरे होटल में लड़की वाले ठहरे थे, वहीं शादी होनी थी.

पर जब तक कविता तैयार हो कर बच्चों को ले कर नीचे आई तो पता चला कि भैयाभाभी और करण तो पहले ही जा चुके हैं. कुछ लोग अब जा रहे थे, दोनों दीदियां भी नीचे खड़ी थीं.

‘‘अरे दीदी, करण का तिलक भी तो होना था,’’ कविता को याद आया.

‘‘अब रहने दे, सब लोग वहां पहुंच चुके हैं… नीचे ड्राइवर इंतजार कर रहा है,’’ कहते हुए मझली दीदी आगे बढ़ गईं.

ऐसा लग रहा था जैसे किसी दूसरे परिचित की शादी हो, खाने की अलगअलग मेजें लगी थीं, जैसा कि होटलों में होता है. सब लोग मेजों पर पहुंचने लगे.

‘‘फेरों के समय तो अपनी कोई जरूरत है नहीं,’’ बड़ी दीदी कह रही थीं.

‘‘और क्या, मेरी तो वैसे भी रात को देर तक जागने की आदत है नहीं. सुबह फिर जल्दी उठना है, 7 बजे की ट्रेन है, तो 6 बजे तक तो निकलना ही होगा,’’ मझली दीदी बोलीं.

तभी भाभी की छोटी बहन ममता हाथ में ढेर से पैकेट लिए आती दिखी.

‘‘दीदी आप लोग तो कल ही जा रहे हो न तो अपनेअपने गिफ्ट संभालो,’’ कहते हुए उस ने सभी को पैकेट और मिठाई के डब्बे थमा दिए.

‘‘पर मेरी तो ट्रेन सुबह 10 बजे की है, अभी इतनी जल्दी क्या है?’’ कविता के मुंह से निकला.

‘‘वह तो ठीक है पर दीदी जीजाजी को कहां सुबह समय मिल पाएगा, रात भर के थके होंगे. हां, आप अपने नाश्ते के समय लंच का डब्बा जरूर सुबह ले लेना.’’

मझली दीदी ने तो तब तक एक पैकेट के कोने से अंदर झांक भी लिया, ‘‘साड़ी तो बढि़या दी है भाभी ने,’’ वे फुसफुसाईं.

पर कविता चुप थी. अंदर कमरे में आ कर भी उसे देर तक नींद नहीं आई थी. रिश्ते क्या इतनी जल्दी बदल जाते हैं? क्या अब लेनादेना ही शेष रह गया है? प्रश्न ही प्रश्न थे उस के मन में जो अनुत्तरित थे.

सुबह चायनाश्ते के बाद वह तैयार हो कर नीचे उतरी तो भैयाभाभी नीचे ही खड़े थे.

‘‘कविता, तुम्हारा गिफ्ट पैक मिल गया है न… और हां, ड्राइवर नीचे ही है. तुम्हें स्टेशन तक छोड़ देगा. श्याम, गाड़ी में सामान रखवा दो,’’ भैया ने नौकर को आवाज दी.

इस तरह कविता की विदाई भी हो गई. दोनों दीदियां सुबह ही जा चुकी थीं. ड्राइवर को किसी और को भी छोड़ना था, इसलिए कविता को 2 घंटे पहले ही स्टेशन उतार गया.

बैंच पर बैठेबैठे कविता अनमनी सी हो गई थी. अभी भी घोषणा हो रही थी कि ट्रेन और 2 घंटे लेट है.

‘‘लो…’’ उस के मुंह से निकल ही गया.

‘‘ममा, हमें तो भूख लगी है…’’ छोटू की आवाज गूंजी तो उस ने एक पैकेट खोल लिया.

‘‘और कुछ खाना हो तो सामने से ले आऊं, अभी ट्रेन के आने में देर है.’’

‘‘हां ममा, जूस पीना है.’’

‘‘मुझे भी…’’

‘‘ठीक है, अभी लाती हूं.’’

‘बच्चे साथ थे तो मन कुछ बहल गया… अकेली होती तो…’ सोचते हुए कविता आगे बढ़ गई.

ट्रेन में बैठ कर बच्चे तो सो गए पर कविता चुपचाप खिड़की के बाहर देख रही थी… ‘पीछे छूटते वृक्ष, इमारतें… शायद ऐसे ही बहुत कुछ छूटता जाता है…’ सोचते हुए उस ने भी आंखें मूंद लीं.

इक विश्वास था

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

छत: क्या शकील ने दीबा की वजह से छोड़ा घर

‘‘सुनते हो जी,’’ दीबा ने धीरे से उस के हाथों को छूते हुए पुकारा.

‘‘क्या है,’’ वह इस कदर थक चुका था कि उसे दीबा का उस समय इतने प्रेम से आवाज देना और स्पर्श करना भी बुरा लगा.

उस का मन चाह रहा था कि वह बस यों ही आंखें बंद किए पलंग पर लोटपोट करता रहे और अपने शरीर की थकान दूर करता रहे.

उस दिन स्थानीय रेलगाड़ी में कुछ अधिक ही भीड़ थी और उसे साइन स्टेशन तक खड़ेखड़े आना पड़ा था और वह भी इस बुरी हालत में कि शरीर को धक्के लगते रहे और लगने वाले हर धक्के के साथ उसे अनुभव होता था, जैसे उस के शरीर की हड्डियां भी पिस रही हैं.

उस के बाद पैदल सफर, दफ्तर के काम की थकान, इन सारी बातों से उस का बात करने तक का मन नहीं हो रहा था.

बड़ी मुश्किल से उस ने कपड़े बदल कर मुंह पर पानी के छींटे मार कर स्वयं को तरोताजा करने का प्रयत्न किया था. इस बीच दीबा चाय ले आई थी. उस ने चाय कब और किस तरह पी थी, स्वयं उसे भी याद नहीं था.

पलंग पर लेटते समय वह सोच रहा था कि यदि नींद लग गई तो वह रात का भोजन भी नहीं करेगा और सवेरे तक सोता रहेगा.

‘‘दोपहर को पड़ोस में चाकू चल गया,’’ दीबा की आवाज कांप रही थी.

‘‘क्या?’’ उसे लगा, केवल एक क्षण में ही उस की सारी थकान जैसे कहीं लोप हो गई और उस का स्थान भय ने ले लिया है. उसे अपने हृदय की धड़कनें बढ़ती अनुभव हुईं, ‘‘कैसे?’’

‘‘वह अब्बास भाई हैं न…उन का कोई मित्र था. कभीकभी उन के घर आता था. आज शायद शराब पी कर आया था और उस ने अब्बास भाई की पत्नी पर हाथ डालने का प्रयत्न किया. पत्नी सहायता के लिए चीखी…उसी समय अब्बास भाई भी आ गए. उन्होंने चाकू निकाल कर उसे घोंप दिया…उस के पेट से निकलने वाला वह खून का फुहारा…मैं वह दृश्य कभी नहीं भूल सकती,’’ दीबा का चेहरा भय से पीला हो गया था.

‘‘फिर?’’

‘‘किसी ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस आ कर उस घायल को उठा कर ले गई. पता नहीं, वह जिंदा भी है या नहीं. अब्बास भाई फरार हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ़ रही है. पुलिस वाले पड़ोसियों से भी पूछने लगे कि सबकुछ कैसे हुआ. मुझ से भी पूछा… परंतु मैं ने साफ कह दिया कि मैं उस समय सोई हुई थी.’’

दीबा की सांसें तेजी से चल रही थीं. उस के चेहरे का रंग पीला पड़ गया था, जैसे वह दृश्य अब भी उस की आंखों के सामने नाच रहा हो. स्वयं उस के माथे पर भी पसीने की बूंदें उभर आई थीं. उस ने जल्दी से उन्हें पोंछा कि कहीं दीबा उस की स्थिति से इस बात का अनुमान न लगा ले कि वह इस बात को सुन कर भयभीत हो उठा है. वह यही कहेगी, ‘आप सुन कर इतने घबरा गए हैं तो सोचिए, मेरे दिल पर क्या गुजर रही होगी. मैं ने तो वह दृश्य अपनी आंखों से देखा है.’

‘‘पड़ोसी कह रहे थे,’’ दीबा आगे बताने लगी, ‘‘अब्बास भाई ने जो किया, अच्छा ही किया था. वह आदमी इसी सजा का हकदार था. शराब पी कर अकसर वह लोगों के घरों में घुस जाता था और घर की औरतों से छेड़खानी करता था. अब्बास भाई का तो वह दोस्त था, परंतु उस ने उन की पत्नी के साथ भी वही व्यवहार किया…’’ उस ने दीबा का अंतिम वाक्य पूरी तरह नहीं सुना क्योंकि उस के मस्तिष्क में एक विचार बिजली की तरह कौंधा था. ‘अब्बास भाई के पड़ोस में ही उस का घर था. दीबा घर में अकेली थी… अगर वह आदमी…’

‘‘आप कहीं और खोली नहीं ले सकते क्या?’’ दीबा की सिसकियों ने उस के विचारों की शृंखला भंग कर दी. वह उस के सीने पर अपना सिर रख कर सिसक रही थी.

‘‘आप सुबह दफ्तर चले जाते हैं और शाम को आते हैं. मुझे दिन भर अकेले रहना पड़ता है. अकेले घर में मुझे बहुत डर लगता है. दिन भर आसपास लड़ाईझगड़े, मारपीट होती रहती है. कभी चाकू निकलते हैं तो कभी लाठियां. पुलिस छापे मार कर कभी शराब, अफीम बरामद करती है तो कभी तस्करी का सामान. कभी कोई गुंडा किसी औरत को छेड़ता है तो कभी किसी खोली में कोई वेश्या पकड़ी जाती है. हम कब तक इस गंदगी से बचते रहेंगे. कभी न कभी तो हमारे दामन पर इस के छींटे पड़ेंगे ही… और कभी इस गंदगी का एक छींटा भी मेरे दामन पर पड़ गया तो मैं दुनिया को अपना मुंह दिखाने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझूंगी,’’ उस के सीने पर सिर रख कर दीबा सिसक रही थी.

उस की नजरें छत पर जमीं थीं. मस्तिष्क कहीं और भटक रहा था, उस का एक हाथ दीबा की पीठ पर जमा था और दूसरा हाथ उस के बालों से खेल रहा था.

दीबा ने जो सवाल उस के सामने रखा था, उस ने उसे इतना विवश कर दिया था कि वह चाह कर भी उस का उत्तर नहीं दे सकता था. न वह दीबा से यह कह सकता था कि ‘ठीक है, हम किसी दूसरे घर का प्रबंध करेंगे और न ही यह कह सकता था कि यहां से कहीं और जाना हमारे लिए संभव नहीं है.

इस बात का पता दीबा को भी था कि कितनी मुश्किल से यह घर मिला था.

शकील का एक जानपहचान वाला था जो पहले यहीं रहता था. उस ने अपने वतन जाने का इरादा किया था. उसे पता था कि शकील मकान के लिए बहुत परेशान है. उस ने पूरी सहानुभूति से उस की सहायता करने की कोशिश की थी.

‘‘यह खोली मैं ने 8 हजार रुपए पगड़ी पर ली थी और 100 रुपए महीना किराया देता हूं. फिलहाल कोई भी मुझे इस के 10 से 15 हजार रुपए दे सकता है, परंतु यदि तुम्हें जरूरत हो तो मैं केवल 8 हजार रुपए ही लूंगा. यदि लेना हो तो मुझे 10-12 दिन में उत्तर दे देना.’’

‘8 हजार रुपए’ मित्र की बात सुन कर शकील सोच में पड़ गया था, ‘मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे… फिलहाल तो मुश्किल से 2 हजार रुपए होंगे मेरे पास. यदि कमरा लेना तय भी किया तो बाकी 6 हजार रुपए का प्रबंध कहां से होगा.’

उस के बाद 2 दिन की छुट्टी ले कर वह घर गया तो दीबा ने उस से पहला प्रश्न यही किया था, ‘‘क्या कमरे का कोई प्रबंध किया?’’

‘‘देखा तो है, परंतु पगड़ी 8 हजार रुपए है. 10-12 दिन में 6 हजार रुपए का प्रबंध संभव भी नहीं है.’’

उस की बात सुन कर दीबा का चेहरा उतर गया था.

बहुत देर सोचने के बाद दीबा ने उस से कहा था, ‘‘क्यों जी, मुझे जो विवाह में अपने मायके से सोने के बुंदे मिले थे, यदि हम उन्हें बेच दें तो 6 हजार रुपए तो आ ही जाएंगे और इस तरह हमारे लिए कमरे का प्रबंध हो जाएगा.’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गई हो. कमरा लेने के लिए मैं तुम्हारे बुंदे बेचूं… यह मुझ से नहीं हो सकता. फिर तुम्हारे घर वाले मुझ से या तुम से पूछेंगे कि बुंदों का क्या हुआ तो क्या जवाब दोगी?’’

‘‘वह मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उन्हें समझा दूंगी. यदि उन के कारण हमारी कोई समस्या हल हो सकती है तो हमारे लिए इस से बढ़ कर और क्या बात हो सकती है. देखिए, जो परिस्थितियां हैं, उन को देखते हुए हम कभी मुंबई में अपने लिए किराए के एक कमरे का भी प्रबंध नहीं कर पाएंगे. तो क्या आप सारा जीवन अपने मित्रों के साथ एक कमरे में सामूहिक रूप से रह कर गुजार देंगे? जीवन भर होटलों का बदमजा खाना खा कर जीएंगे? जीवन भर आप अकेले मुंबई में रहेंगे? हमारे जीवन में महीने दो महीने में एकदो दिन के लिए मिलना ही लिखा रहेगा?’’ दीबा ने डबडबाई आंखों से पति की ओर देखा.

दीबा की किसी भी बात का वह उत्तर नहीं दे पाया था. सचमुच जो परिस्थितियां थीं, उन से तो ऐसा लगता था कि उन का जीवन इसी तरह से चलता रहेगा. कभीकभी उसे अम्मी और घर वालों पर बहुत क्रोध आता था.

‘‘मैं बारबार कहता था कि जब तक बंबई में एक कमरे का प्रबंध न कर लूं, विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता, परंतु उन्हें तो मेरे विवाह का बड़ा अरमान था. इस विवाह से उन्हें क्या मिला? उन का केवल एक अरमान पूरा हुआ, परंतु मेरे लिए तो जीवन भर का रोग बन गया.’’

वह डिगरी ले कर बंबई आया था. उस समय भी बंबई में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था. परंतु उसे अपने ही शहर के कुछ मित्र मिल गए, उन्हीं ने उस के लिए प्रयत्न और मार्गदर्शन किया, कुछ उस की योग्यताएं भी काम आईं. उसे एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई. वेतन कम था, परंतु आगे बढ़ने की आशा थी और काम उस की रुचि का था.

उस के बाद उस का जीवन उसी तरह गुजरने लगा, जिस तरह बंबई का हर व्यक्ति जीता है. उस के मित्रों ने कुर्ला में एक छोटा सा कमरा ले रखा था. उस छोटे से कमरे में वे 5 मित्र मिल कर रहते थे. वह छठा उन में शामिल हुआ था.

कमरा थोड़ी देर आराम करने और सोने के ही काम आता था क्योंकि सभी सवेरे से ही अपनेअपने काम पर निकल जाते थे और रात को ही वापस आते थे.

सभी होटल के खाने पर दिन गुजारते थे. कभीकभी मन में आ गया तो छुट्टी के किसी दिन हाथ से खाना पका कर उस का आनंद ले लिया. बहुत कंजूसी करने के बाद वह घर केवल 200 या 300 रुपए भेज पाता था.

जब भी वह घर जाता, घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव डालते. उन के इस दबाव से वह झल्ला उठता था, ‘‘यह सच है कि मेरे विवाह की उम्र हो गई है और आप लोगों को मेरे विवाह का भी बहुत अरमान है. मैं नौकरी भी करने लग गया हूं, परंतु मैं विवाह कर के क्या करूंगा. अभी बंबई में मेरे पास सिर छिपाने का ठिकाना नहीं है. विवाह के बाद पत्नी को कहां रखूंगा? फिर बंबई में इतनी आसानी से मकान नहीं मिलता है, उस पर बंबई के खर्चे इतने अधिक हैं कि विवाह के बाद मुझे जो वेतन मिलता है, उस में मेरा और मेरी पत्नी का गुजारा मुश्किल से होगा. मैं आप लोगों को एक पैसा भी नहीं भेज पाऊंगा.’’

‘‘हमें तुम एक पैसा भी न भेजो तो चलेगा, परंतु तुम विवाह कर लो. दीबा बहुत अच्छी लड़की है. अगर वह हाथ से निकल गई तो फिर ऐसी लड़की मुश्किल से मिलेगी. तुम विवाह तो कर लो…जब तक तुम किसी कमरे का प्रबंध नहीं कर लेते दीबा हमारे पास रहेगी. तुम महीने में एकदो दिन के लिए आ कर उस से मिल जाया करना. जैसे ही कमरे का प्रबंध हो जाए उसे अपने साथ ले जाना.’’

घर वालों के बहुत जोर देने पर भी वह केवल इसलिए विवाह के लिए राजी हुआ था कि दीबा सचमुच बहुत अच्छी लड़की थी और वह उसे पसंद थी. जिस तरह की जीवन संगिनी की वह कल्पना करता था, वह बिलकुल वैसी ही थी.

विवाह के बाद वह कुछ दिनों तक दीबा के साथ रहा, फिर बंबई चला आया. बंबई में वही बंधीटिकी दिनचर्या के सहारे जिंदगी गुजरने लगी, लेकिन उस में एक नयापन शामिल हो गया था और वह था, दीबा की यादें और उस के सहयोग का एहसास.

वह जब भी घर जाता, दीबा को अपने समीप पा कर स्वयं को अत्यंत सुखी अनुभव करता. दीबा भी खुशी से फूली नहीं समाती. घर का प्रत्येक सदस्य दीबा की प्रशंसा करता.

कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरते, लेकिन फिर वही वियोग, फिर वही उदासी दोनों के जीवन में आ जाती.

दोनों की मनोदशा घर वाले भी समझते थे. इसलिए वे भी दबे स्वर में उस से कहते रहते थे, ‘‘कोई कमरा तलाश करो और दीबा को ले जाओ. तुम कब तक वहां अकेले रहोगे?’’

वह बंबई आने के बाद पूरे उत्साह से कमरा तलाश करने भी लगता, परंतु जब 20-25 हजार पगड़ी सुनता तो उस का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता. वह सोचता, कमरा किराए पर लेने के लिए वह इतनी रकम कहां से लाएगा? मुश्किल से वह महीने में 300-400 रुपए बचा पाता था. इस बीच जितने पैसे जमा किए थे, सब शादी में खर्च हो गए बल्कि अच्छाखासा कर्ज भी हो गया था. वह और घर वाले मिल कर उस कर्ज को अदा कर रहे थे.

परंतु दीबा के अनुरोध और फिर जिद के सामने उसे हथियार डालने ही पड़े. बुंदे बेचने के बाद जो पैसे आए और उन के पास जो पैसे जमा थे, उन से उन्होंने वह कमरा किराए पर ले लिया.

पहलेपहल कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरे. उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं हुआ कि वे धारावी की झोंपड़पट्टी के एक कमरे में रहते हैं. उन्हें तो ऐसा अनुभव होता था, जैसे वे किसी होटल के कमरे में रहते हैं.

परंतु धीरेधीरे वास्तविकता प्रकट होने लगी. आसपास का वातावरण, अच्छेबुरे लोग, चारों ओर फैला शराब, अफीम, जुए, तस्करी और वेश्याओं का कारोबार, गुंडे, उन के आपसी झगड़े, बातबात पर चाकूछुरी और लाठियों का निकलना, गोलियों का चलना, खून बहना, पुलिस के छापे, दंगेफसाद, पकड़धकड़ आदि देख कर वे दोनों अत्यंत भयभीत हो गए थे. तब उन्हें महसूस हुआ कि वे एक दलदल पर खड़े हैं और कभी भी, किसी भी क्षण उस में धंस सकते हैं. वह जब भी दफ्तर से आता, दीबा उसे एक नई कहानी सुनाती, जिसे सुन कर वह आतंकित हो उठता था.

कभी मन में आता था कि वह दीबा से कह दे कि वह वापस घर चली जाए क्योंकि उस का यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. परंतु दीबा के बिना न उस का मन लगता था और न ही उस के बिना दीबा का.

उस रात वह एक क्षण भी चैन से सो नहीं सका. बारबार उस के मस्तिष्क में एक ही विचार आता था कि उसे यह जगह छोड़ देनी चाहिए तथा कहीं और कमरा लेना चाहिए.

परंतु उसे कमरा कहां मिलेगा? कमरे के लिए पगड़ी के रूप में पैसा कहां से आएगा? क्या दूसरी जगह इस से अच्छा वातावरण होगा?

उस दिन दफ्तर में भी उस का मन नहीं लग रहा था. उसे खोयाखोया देख कर उस का मित्र आदिल पूछ ही बैठा, ‘‘क्या बात है शकील, बहुत परेशान हो?’’

‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘कुछ तो है, जिस की परदादारी है,’’ उसे छेड़ते हुए जब आदिल ने उस पर जोर दिया तो उस ने उसे सारी कहानी कह सुनाई.

उस की कहानी सुन कर आदिल ने एक ठंडी सांस ली और बोला, ‘‘यह सच है कि बंबई में छत का साया मिलना बहुत मुश्किल है. यहां लोगों को रोजीरोटी तो मिल जाती है, परंतु सिर छिपाने के लिए छत नहीं मिल पाती. फिर तुम ने छत ढूंढ़ी भी तो धारावी जैसी खतरनाक जगह पर, जहां कोई शरीफ आदमी रह ही नहीं सकता.

‘‘इस से तो अच्छा था, तुम बंबई से 60-70 किलोमीटर दूर कमरा लेते. वहां तुम्हें आसानी से कमरा भी मिल जाता और इन बातों का सामना भी नहीं करना पड़ता. हां, आनेजाने की तकलीफ अवश्य होती.’’

‘‘मैं हर तरह की तकलीफ सहने को तैयार हूं. परंतु मुझे उस वातावरण से मुक्ति चाहिए और सिर छिपाने के लिए छत भी.’’

‘‘यदि तुम आनेजाने की हर तरह की तकलीफ सहन करने को तैयार हो तो मैं तुम्हें परामर्श दूंगा कि तुम मुंब्रा में कमरा ले लो. मेरे एक मित्र का एक कमरा खाली है. मैं समझता हूं, धारावी का कमरा बेचने से जितने पैसे आएंगे, उन में थोड़े से और पैसे डालने के बाद तुम वह कमरा आसानी से किराए पर ले सकोगे. कष्ट यही रहेगा कि तुम्हें दफ्तर जाने के लिए 2 घंटा पहले घर से निकलना पड़ेगा और 2 घंटा बाद घर पहुंच सकोगे,’’ आदिल ने समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे यह स्वीकार है. मैं एक ऐसी छत चाहता हूं जिस के नीचे मैं और मेरी पत्नी सुरक्षित रह सकें. ऐसी छत से क्या लाभ जो आदमी को सुरक्षा भी नहीं दे सके. यदि थोड़े से कष्ट के बदले में सुरक्षा मिल सकती है तो मैं वह कष्ट झेलने को तैयार हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ आदिल बोला, ‘‘मैं अपने मित्र से बात करता हूं. तुम अपना धारावी वाला कमरा छोड़ने की तैयारी करो.’’

शकील का पड़ोसी उस कमरे को 12 हजार में लेने को तैयार था. उन्होंने वह कमरा उसे दे दिया. आदिल के दोस्त ने अपने कमरे की कीमत 15 हजार लगाई थी. कमरा अच्छा था.

2 हजार रुपया 2 मास बाद अदा करने की बात पर भी वह राजी हो गया था.

जब वे मुंब्रा के अपने नए घर में पहुंचे तो उन्हें अनुभव हुआ कि अब वे इस घर की छत के नीचे सुरक्षित हैं.

वह नई जगह थी. आसपास क्या हो रहा है, एकदो दिन तक तो पता ही नहीं चल सका. दिन भर दीबा घर का सामान ठीक तरह से लगाने और साफसफाई में लगी रहती.

वह भी दफ्तर से आ कर उस का हाथ बंटाता. इसलिए आसपास के लोगों और वहां के वातावरण को जानने का अवसर ही नहीं मिल सका. वैसे भी बंबई में बरसों पड़ोस में रहने के बाद भी लोग एकदूसरे को नहीं जान पाते.

एक दिन वह दफ्तर से आया तो अपने कमरे से कुछ दूरी पर पुलिस की भीड़ देख कर चौंक पड़ा.

उस ने जल्दी से कमरे में कदम रखा तो दीबा को अपनी राह देखता पाया. वह भयभीत स्वर में बोली, ‘‘सुनते हो जी, हम फिर बुरी तरह फंस गए हैं. पुलिस ने इस जगह छापा मारा है. इस चाल के एक कमरे में वेश्याओं का अड्डा था और एक कमरे में जुआखाना.

‘‘सिपाही हमारे घर भी आए थे. मुझे धमका रहे थे कि हमारा भी संबंध इन लोगों से है. बड़ी मुश्किल से मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि नएनए यहां आए हैं. इस पर वे कहने लगे कि हम ने इस बदनाम जगह कमरा क्यों लिया?’’

‘‘क्या?’’ यह सुनते ही उस के मस्तिष्क को झटका लगा. आंखों के सामने तारे से नाचने लगे और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

Raksha Bandhan: ममता- क्या बहन के साथ मातापिता का प्यार बांट पाया अंचल

‘‘मां, मैं किस के साथ खेलूं? मुझे भी आप अस्पताल से छोटा सा बच्चा ला दीजिए न. आप तो अपने काम में लगी रहती हैं और मैं अकेलेअकेले खेलता हूं. कृपया ला दीजिए न. मुझे अकेले खेलना अच्छा नहीं लगता है.’’

अपने 4 वर्षीय पुत्र अंचल की यह फरमाइश सुन कर मैं धीरे से मुसकरा दी थी और अपने हाथ की पत्रिका को एक किनारे रखते हुए उस के गाल पर एक पप्पी ले ली थी. थोड़ी देर बाद मैं ने उसे गोद में बैठा लिया और बोली, ‘‘अच्छा, मेरे राजा बेटे को बच्चा चाहिए अपने साथ खेलने के लिए. हम तुम्हें 7 महीने बाद छोटा सा बच्चा ला कर देंगे, अब तो खुश हो?’’

अंचल ने खुश हो कर मेरे दोनों गालों के तड़ातड़ कई चुंबन ले डाले व संतुष्ट हो कर गोद से उतर कर पुन: अपनी कार से खेलने लगा था. शीघ्र ही उस ने एक नया प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘मां, जो बच्चा आप अस्पताल से लाएंगी वह मेरी तरह लड़का होगा या आप की तरह लड़की?’’

मैं ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘बेटे, यह तो मैं नहीं जानती. जो डाक्टर देंगे, हम ले लेंगे. परंतु तुम से एक बात अवश्य कहनी है कि वह लड़का हो या लड़की, तुम उसे खूब प्यार करोगे. उसे मारोगे तो नहीं न?’’

‘‘नहीं, मां. मैं उसे बहुत प्यार करूंगा,’’ अंचल पूर्ण रूप से संतुष्ट हो कर खेल में जुट गया, पर मेरे मन में विचारों का बवंडर उठने लगा था. वैसे भी उन दिनों दिमाग हर वक्त कुछ न कुछ सोचता ही रहता था. ऊपर से तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी.

अंचल आपरेशन से हुआ था, अत: डाक्टर और भी सावधानी बरतने को कह रहे थे. मां को मैं ने पत्र लिख दिया था क्योंकि इंगलैंड में भला मेरी देखभाल करने वाला कौन था? पति के सभी मित्रों की पत्नियां नौकरी और व्यापार में व्यस्त थीं. घबरा कर मैं ने मां को अपनी स्थिति से अवगत करा दिया था. मां का पत्र आया था कि वह 2 माह बाद आ जाएंगी, तब कहीं जा कर मैं संतुष्ट हुई थी.

उस दिन शाम को जब मेरे पति ऐश्वर्य घर आए तो अंचल दौड़ कर उन की गोद में चढ़ गया और बोला, ‘‘पिताजी, पिताजी, मां मेरे लिए एक छोटा सा बच्चा लाएंगी, मजा आएगा न?’’

ऐश्वर्य ने हंसते हुए कहा, ‘‘हांहां, तुम उस से खूब खेलना. पर देखो, लड़ाई मत करना.’’

अंचल सिर हिलाते हुए नीचे उतर गया था.

मैं ने चाय मेज पर लगा दी थी. ऐश्वर्य ने पूछा, ‘‘कैसी तबीयत है, सर्वदा?’’

मैं ने कहा, ‘‘सारा दिन सुस्ती छाई रहती है. कुछ खा भी नहीं पाती हूं ठीक से. उलटी हो जाती है. ऐसा लगता है कि किसी तरह 7 माह बीत जाएं तो मुझे नया जन्म मिले.’’

ऐश्वर्य बोले, ‘‘देखो सर्वदा, तुम 7 माह की चिंता न कर के बस, डाक्टर के बताए निर्देशों का पालन करती जाओ. डाक्टर ने कहा है कि तीसरा माह खत्म होतेहोते उलटियां कम होने लगेंगी, पर कोई दवा वगैरह मत खाना.’’

2 माह के पश्चात भारत से मेरी मां आ गई थीं. उस समय मुझे 5वां माह लगा ही था. मां को देख कर लगा था जैसे मुझे सभी शारीरिक व मानसिक तकलीफों से छुटकारा मिलने जा रहा हो. अंचल ने दौड़ कर नानीजी की उंगली पकड़ ली थी व ऐश्वर्य ने उन के सामान की ट्राली. मैं खूब खुश रहती थी. मां से खूब बतियाती. मेरी उलटियां भी बंद हो चली थीं. मेरे मन की सारी उलझनें मां के  आ जाने मात्र से ही मिट गई थीं.

मैं हर माह जांच हेतु क्लीनिक भी जाती थी. इस प्रकार देखतेदेखते समय व्यतीत होता चला गया. मैं ने इंगलैंड के कुशल डाक्टरों के निर्देशन व सहयोग से एक बच्ची को जन्म दिया और सब से खुशी की बात तो यह थी कि इस बार आपरेशन की आवश्यकता नहीं पड़ी थी. बच्ची का नाम मां ने अभिलाषा रखा. वह बहुत खुश दिखाई दे रही थीं क्योंकि उन की कोई नातिन अभी तक न थी. मेरी बहन के 2 पुत्र थे, अत: मां का उल्लास देखने योग्य था. छोटी सी गुडि़या को नर्स ने सफेद गाउन, मोजे, टोपा व दस्ताने पहना दिए थे.

तभी अंचल ने कहा, ‘‘मां, मैं बच्ची को गोद में ले लूं.’’

मैं ने अंचल को पलंग पर बैठा दिया व बच्ची को उस की गोद में लिटा दिया. अंचल के चेहरे के भाव देखने लायक थे. उसे तो मानो जमानेभर की खुशियां मिल गई थीं. खुशी उस के चेहरे से छलकी जा रही थी. यही हाल ऐश्वर्य का भी था. तभी नर्स ने आ कर बतलाया कि मिलने का समय समाप्त हो चुका है.

उसी नर्स ने अंचल से पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हारा बच्चा ले सकती हूं?’’

अंचल ने हड़बड़ा कर ‘न’ में सिर हिला दिया. हम सब हंसने लगे.

जब सब लोग घर चले गए तो मैं बिस्तर में सोई नन्ही, प्यारी सी अभिलाषा को देखने लगी, जो मेरे व मेरे  परिवार वालों की अभिलाषा को पूर्ण करती हुई इस दुनिया में आ गई थी. परंतु अब देखना यह था कि मेरे साढ़े 4 वर्षीय पुत्र व इस बच्ची में कैसा तालमेल होता है.

5 दिन बाद जब मैं घर आई तो अंचल बड़ा खुश हुआ कि उस की छोटी सी बहन अब सदा के लिए उस के पास आ गई है.

बच्ची 2 माह की हुई तो मां भारत वापस चली गईं. उन के जाने से घर बिलकुल सूना हो गया. इन देशों में बिना नौकरों के इतने काम करने पड़ते हैं कि मैं बच्ची व घर के कार्यों में मशीन की भांति जुटी रहती थी.

देखतेदेखते अभिलाषा 8 माह की हो गई. अब तक तो अंचल उस पर अपना प्यार लुटाता रहा था, पर असली समस्या तब उत्पन्न हुई जब अभिलाषा ने घुटनों के बल रेंगना आरंभ किया. अब वह अंचल के खिलौनों तक आराम से पहुंच जाती थी. अपने रंगीन व आकर्षक खिलौनों व झुनझुनों को छोड़ कर उस ने भैया की एक कार को हाथ से पकड़ा ही था कि अंचल ने झपट कर उस से कार छीन ली, जिस से अभिलाषा के हाथ में खरोंचें आ गईं.

उस समय मैं वहीं बैठी बुनाई कर रही थी. मुझे क्रोध तो बहुत आया पर स्वयं पर किसी तरह नियंत्रण किया. बालमनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए मैं ने अंचल को प्यार से समझाने की चेष्टा की, ‘‘बेटे, अपनी छोटी बहन से इस तरह कोई चीज नहीं छीना करते. देखो, इस के हाथ में चोट लग गई. तुम इस के बड़े भाई हो. यह तुम्हारी चीजों से क्यों नहीं खेल सकती? तुम इसे प्यार करोगे तो यह भी तुम्हें प्यार करेगी.’’

मेरे समझाने का प्रत्यक्ष असर थोड़ा ही दिखाई दिया और ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे सवा 5 वर्षीय यह बालक स्वयं के अधिकार क्षेत्र में किसी और के प्रवेश की बात को हृदय से स्वीकार नहीं कर पा रहा है. मैं चुपचाप रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद जब मैं रसोई से बाहर आई तो देखा कि अंचल अभिलाषा को खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

शाम को ऐश्वर्य घर आए तो अंचल उन की ओर रोज की भांति दौड़ा. वह उसे उठाना ही चाहते थे कि तभी घुटनों के बल रेंगती अभिलाषा ने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए. ऐश्वर्य चाहते हुए भी स्वयं को रोक न सके और अंचल के सिर पर हाथ फेरते हुए अभिलाषा को उन्होंने गोद में उठा लिया.

मैं यह सब देख रही थी, अत: झट अंचल को गोद में उठा कर पप्पी लेते हुए बोली, ‘‘राजा बेटा, मेरी गोद में आ जाएगा, है न बेटे?’’ तब मैं ने अंचल की नजरों में निरीहता की भावना को मिटते हुए अनुभव किया.

तभी भारत से मां व भैया का पत्र आया, जिस में हम दोनों पतिपत्नी को यह विशेष हिदायत दी गई थी कि छोटी बच्ची को प्यार करते समय अंचल की उपेक्षा न होने पाए, वरना बचपन से ही उस के मन में अभिलाषा के प्रति द्वेषभाव पनप सकता है. इस बात को तो मैं पहले ही ध्यान में रखती थी और इस पत्र के पश्चात और भी चौकन्नी हो गई थी.

मेरे सामने तो अंचल का व्यवहार सामान्य रहता था, पर जब मैं किसी काम में लगी होती थी और छिप कर उस के व्यवहार का अवलोकन करती थी. ऐसा करते हुए मैं ने पाया कि हमारे समक्ष तो वह स्वयं को नियंत्रित रखता था, परंतु हमारी अनुपस्थिति में वह अभिलाषा को छेड़ता रहता था और कभीकभी उसे धक्का भी दे देता था.

मैं समयसमय पर अंचल का मार्ग- दर्शन करती रहती थी, परंतु उस का प्रभाव उस के नन्हे से मस्तिष्क पर थोड़ी ही देर के लिए पड़ता था.

बाल मनोविज्ञान की यह धारणा कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण न केवल युवावस्था में अपितु बचपन में भी होता है. अर्थात पुत्री पिता को अधिक प्यार करती है व पुत्र माता से अधिक जुड़ा होता है, मेरे घर में वास्तव में सही सिद्ध हो रही थी.

एक दिन कार्यालय से लौटते समय ऐश्वर्य एक सुंदर सी गुडि़या लेते आए. अभिलाषा 10 माह की हो चुकी थी. गुडि़या देख कर वह ऐश्वर्य की ओर लपकी.

मैं ने फुसफुसाते हुए ऐश्वर्य से पूछा, ‘‘अंचल के लिए कुछ नहीं लाए?’’

उन के ‘न’ कहने पर मैं तो चुप हो गई, पर मैं ने अंचल की आंखों में उपजे द्वेषभाव व पिता के प्रति क्रोध की चिनगारी स्पष्ट अनुभव कर ली थी. मैं ने धीरे से उस का हाथ पकड़ा, रसोई की ओर ले जाते हुए उसे बताया, ‘‘बेटे, मैं ने आज तुम्हारे मनपसंद बेसन के लड्डू बनाए हैं, खाओगे न?’’

अंचल बोला, ‘‘नहीं मां, मेरा जरा भी मन नहीं है. पहले एक बात बताइए, आप जब भी हमें बाजार ले जाती हैं तो मेरे व अभिलाषा दोनों के लिए खिलौने खरीदती हैं, पर पिताजी तो आज मेरे लिए कुछ भी नहीं लाए? ऐसा क्यों किया उन्होंने? क्या वह मुझे प्यार नहीं करते?’’

जिस प्रश्न का मुझे डर था, वही मेरे सामने था, मैं ने उसे पुचकारते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे, पिताजी तो तुम्हें बहुत प्यार करते हैं. उन के कार्यालय से आते समय बीच रास्ते में एक ऐसी दुकान पड़ती है जहां केवल गुडि़या ही बिकती हैं. इसीलिए उन्होंने एक गुडि़या खरीद ली. अब तुम्हारे लिए तो गुडि़या खरीदना बेकार था क्योंकि तुम तो कारों से खेलना पसंद करते हो. पिछले सप्ताह उन्होंने तुम्हें एक ‘रोबोट’ भी तो ला कर दिया था. तब अभिलाषा तो नहीं रोई थी. जाओ, पिताजी के पास जा कर उन्हें एक पप्पी दे दो. वह खुश हो जाएंगे.’’

अंचल दौड़ कर अपने पिताजी के पास चला गया. मैं ने उस के मन में उठते हुए ईर्ष्या के अंकुर को कुछ हद तक दबा दिया था. वह अपनी ड्राइंग की कापी में कोई चित्र बनाने में व्यस्त हो गया था.

कुछ दिन पहले ही उस ने नर्सरी स्कूल जाना आरंभ किया था और यह उस के लिए अच्छा ही था. ऐश्वर्य को बाद में मैं ने यह बात बतलाई तो उन्होंने भी अपनी गलती स्वीकार कर ली. इन 2 छोटेछोटे बच्चों की छोटीछोटी लड़ाइयों को सुलझातेसुलझाते कभीकभी मैं स्वयं बड़ी अशांत हो जाती थी क्योंकि हम उन दोनों को प्यार करते समय सदा ही एक संतुलन बनाए रखने की चेष्टा करते थे.

अब तो एक वर्षीय अभिलाषा भी द्वेष भावना से अप्रभावित न रह सकी थी. अंचल को जरा भी प्यार करो कि वह चीखचीख कर रोने लगती थी. अपनी गुडि़या को तो वह अंचल को हाथ भी न लगाने देती थी और इसी प्रकार वह अपने सभी खिलौने पहचानती थी. उसे समझाना अभी संभव भी न था. अत: मैं अंचल को ही प्यार से समझा दिया करती थी.

मैं मारने का अस्त्र प्रयोग में नहीं लाना चाहती थी क्योंकि मेरे विचार से इस अस्त्र का प्रयोग अधिक समय तक के लिए प्रभावी नहीं होता, जबकि प्यार से समझाने का प्रभाव अधिक समय तक रहता है. हम दोनों ही अपने प्यार व ममता की इस तुला को संतुलन की स्थिति में रखते थे.

एक दिन अंचल की आंख में कुछ चुभ गया. वह उसे मसल रहा था और आंख लाल हो चुकी थी. तभी वह मेरे पास आया. उस की दोनों आंखों से आंसू बह रहे थे.

मैं ने एक साफ रूमाल से अंचल की आंख को साफ करते हुए कहा, ‘‘बेटे, तुम्हारी एक आंख में कुछ चुभ रहा था, पर तुम्हारी दूसरी आंख से आंसू क्यों बह रहे हैं?’’

वह मासूमियत से बोला, ‘‘मां, है न अजीब बात. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है?’’

मैं ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटे, जिस तरह तुम्हारी एक आंख को कोई तकलीफ होती है तो दूसरी आंख भी रोने लगती है, ठीक उसी प्रकार तुम और अभिलाषा मेरी व पिताजी की दोनों आंखों की तरह हो. यदि तुम दोनों में से एक को तकलीफ होती हो तो दूसरे को तकलीफ होनी चाहिए. इस का मतलब यह हुआ कि यदि तुम्हारी बहन को कोई तकलीफ हो तो तुम्हें भी उसे अनुभव करना चाहिए. उस की तकलीफ को समझना चाहिए और यदि तुम दोनों को कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो मुझे और तुम्हारे पिताजी को भी तकलीफ होगी. इसलिए तुम दोनों मिलजुल कर खेलो, आपस में लड़ो नहीं और अच्छे भाईबहन बनो. जब तुम्हारी बहन बड़ी होगी तो हम उसे भी यही बात समझा देंगे.’’

अंचल ने बात के मर्म व गहराई को समझते हुए ‘हां’ में सिर हिलाया.

तभी से मैं ने अंचल के व्यवहार में कुछ परिवर्तन अनुभव किया. पिता का प्यार अब दोनों को बराबर मात्रा में मिल रहा था और मैं तो पहले से ही संतुलन की स्थिति बनाए रखती थी.

तभी रक्षाबंधन का त्योहार आ गया. मैं एक भारतीय दुकान से राखी खरीद लाई. अभिलाषा ने अंचल को पहली बार राखी बांधनी थी. राखी से एक दिन पूर्व अंचल ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, अभिलाषा मुझे राखी क्यों बांधेगी?’’

मैं ने उसे समझाया, ‘‘बेटे, वह तुम्हारी कलाई पर राखी बांध कर यह कहना चाहती है कि तुम उस के अत्यंत प्यारे बड़े भाई हो व सदा उस का ध्यान रखोगे, उस की रक्षा करोगे. यदि उसे कोई तकलीफ या परेशानी होगी तो तुम उसे उस तकलीफ से बचाओगे और हमेशा उस की सहायता करोगे.’’

अंचल आश्चर्य से मेरी बातें सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, यदि राखी का यह मतलब है तो मैं आज से वादा करता हूं कि मैं अभिलाषा को कभी नहीं मारूंगा, न ही उसे कभी धक्का दूंगा, अपने खिलौनों से उसे खेलने भी दूंगा. जब वह बड़ी हो कर स्कूल जाएगी और वहां पर उसे कोई बच्चा मारेगा तो मैं उसे बचाऊंगा,’’ यह कह कर वह अपनी एक वर्षीय छोटी बहन को गोद में उठाने की चेष्टा करने लगा.

अंचल की बातें सुन कर मैं कुछ हलका अनुभव कर रही थी. साथ ही यह भी सोच रही थी कि छोटे बच्चों के पालनपोषण में मातापिता को कितने धैर्य व समझदारी से काम लेना पड़ता है.

आज इन बातों को 20 वर्ष हो चुके हैं. अंचल ब्रिटिश रेलवे में वैज्ञानिक है व अभिलाषा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में पढ़ रही है. ऐसा नहीं है कि अन्य भाईबहनों की भांति उन में नोकझोंक या बहस नहीं होती, परंतु इस के साथ ही दोनों आपस में समझदार मित्रों की भांति व्यवहार करते हैं. दोनों के मध्य सामंजस्य, सद्भाव, स्नेह व सहयोग की भावनाओं को देख कर उन के बचपन की छोटीछोटी लड़ाइयां याद आती हैं तो मेरे होंठों पर स्वत: मुसकान आ जाती है.

इस के साथ ही याद आती है अपने प्यार व ममता की वह तुला, जिस के दोनों पलड़ों में संतुलन रखने का प्रयास हम पतिपत्नी अपने आपसी मतभेद व वैचारिक विभिन्नताओं को एक ओर रख कर किया करते थे. दरवाजे की घंटी बजती है. मैं दरवाजा खोलती हूं. सामने अंचल हाथ में एक खूबसूरत राखी लिए खड़ा है. मुसकराते हुए वह कहता है, ‘‘मां, कल रक्षाबंधन है, अभिलाषा आज शाम तक आ जाएगी न?’’

‘‘हां बेटा, भला आज तक अभिलाषा कभी रक्षाबंधन का दिन भूली है,’’ मैं हंसते हुए कहती हूं.

‘‘मैं ने सोचा, पता नहीं बेचारी को लंदन में राखी के लिए कहांकहां भटकना पड़ेगा. इसलिए मैं राखी लेता आया हूं. आप ने मिठाई वगैरा बना ली है न?’’ अंचल ने कहा.

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया और मुसकराते हुए पति की ओर देखा, जो स्वयं भी मुसकरा रहे थे.

Raksha Bandhan: मेरे भैया- क्या लिखा था उस अंतिम खत में

सावन का महीना था. दोपहर के 3 बजे थे. रिमझिम शुरू होने से मौसम सुहावना पर बाजार सुनसान हो गया था. साइबर कैफे में काम करने वाले तीनों युवक चाय की चुसकियां लेते हुए इधरउधर की बातों में वक्त गुजार रहे थे. अंदर 1-2 कैबिनों में बच्चे वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे. 1-2 किशोर दोपहर की वीरानगी का लाभ उठा कर मनपसंद साइट खोल कर बैठे थे.  तभी वहां एक महिला ने प्रवेश किया. युवक महिला को देख कर चौंके, क्योंकि शायद बहुत दिनों बाद एक महिला और वह भी दोपहर के समय, उन के कैफे पर आई थी. वे व्यस्त होने का नाटक करने लगे और तितरबितर हो गए.

महिला किसी संभ्रांत घराने की लग रही थी. चालढाल व वेशभूषा से पढ़ीलिखी भी दिख रही थी. छाता एक तरफ रख कर उस ने अपने बालों को जो वर्षा की बूंदों व तेज हवा से बिखर गए थे, कुछ ठीक किए. फिर काउंटर पर बैठे लड़के से बोली, ‘‘मुझे एक संदेश टाइप करवाना है. मैं खुद कर लेती पर हिंदी टाइपिंग नहीं आती है.’’

‘‘आप मुझे लिखवाएंगी या…’’

‘‘हां, मैं बोलती जाती हूं और तुम टाइप करते जाओ. कर पाओगे? शुद्ध वर्तनी का ज्ञान  है तुम्हें?’’

लड़का थोड़ा सकपका गया पर हिम्मत कर के बोला, ‘‘अवश्य कर लूंगा,’’ मना करने से उस के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचने की आशंका थी.  महिला ने बोलना शुरू किया, ‘‘लिखो- मेरे भैया, शायद यह मेरी ओर से तुम्हारे लिए अंतिम राखी होगी, क्योंकि अब मुझ में इतना सब्र नहीं बचा है कि मैं भविष्य में भी ऐसा करती रहूंगी. नहीं तुम गलत समझ रहे हो. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि शिकायत करने का हक तुम वर्षों पहले ही खत्म कर चुके हो.’’  इतना बोल कर महिला थोड़ी रुक गई. भावावेश से उस का चेहरा तमतमाने लगा था. उस ने कहा, ‘‘थोड़ा पानी मिलेगा?’’

लड़के ने कहा, ‘‘जरूर,’’ और फिर एक बोतल ला कर उस महिला को थमा दी. लड़के को बड़ी उत्सुकता थी कि महिला आगे क्या बोलेगी. उसे यह पत्र बड़ा रहस्यमयी लगने लगा था.  महिला ने थोड़ा पानी पीया, पसीना पोंछा और फिर लिखवाना शुरू किया, ‘‘कितना खुशहाल परिवार था हमारा. हम 5 भाईबहनों में तुम सब से बड़े थे और मां के लाड़ले तो शुरू से ही थे. तभी तो पापा की साधारण कमाई के बावजूद तुम्हें उच्च शिक्षा के लिए शहर भेज दिया था. पापा की इच्छा के विरुद्ध जा कर मां ने तुम्हारी इच्छा पूरी की थी. तुम भी वह बात भूले नहीं होंगे कि मां ने अपनी बात मनवाने के लिए

2 दिन खाना नहीं खाया था. जब तुम्हारा दाखिला मैडिकल कालेज में हुआ था तो मैं ने अपनी सारी सखियों को चिल्ला कर इस के बारे में बताया था और मुझे उन की ईर्ष्या का शिकार भी होना पड़ा था. एक ने तो चिढ़ कर यह भी कह दिया था कि तुम तो ऐसे खुश हो रही हो जैसे तुम्हारा ही दाखिला हुआ हो, जिस का उत्तर मैं ने दिया था कि मेरा हो या मेरे भैया का, क्या फर्क पड़ता है. है तो दोनों में एक ही खून. भैया क्या मैं ने गलत कहा था?  ‘‘फिर तुम होस्टल चले गए थे और जबजब आते थे, मैं और मां सपनों के सुनहरे संसार में खो जाती थीं. सपनों में मां देखती थीं कि तुम एक क्लीनिक में बैठे हो और तुम्हारे सामने मरीजों की लंबी लाइन लगी है. तुम 1-1 कर के सब को परामर्श देते और बदले में वे एक अच्छीखासी राशि तुम्हें देते. शाम तक रुपयों से दराज भर जाती. तुम सारे रुपए ले कर मां की झोली भर देते. तुम बातें ही ऐसी करते थे, मां सपने न देखतीं तो क्या करतीं?

‘‘और मैं देखती कि मैं सजीधजी बैठी हूं. एक बहुत ही उच्च घराने से सुंदर, सुशिक्षित वर मुझे ब्याहने आया है. तुम अपने हाथों से मेरी डोली सजा रहे हो और विदाई के वक्त फूटफूट कर रो रहे हो.

‘‘पिताजी हमें अकसर सपनों से जगाने की कोशिश करते रहते थे पर हम मांबेटी नींद से उठ कर आंखें खोलना ही नहीं चाहती थीं, क्योंकि तुम अपनी मीठीमीठी बातों से ठंडी हवा के झोंके जो देते रहते थे.

‘‘मां ने साथसाथ तुम्हारी शादी के सपने देखने भी शुरू कर दिए थे. उन्हें एक सुंदरसजीली दुलहन, आंखों में लाज लिए, घर के आंगन में प्रवेश करते हुए नजर आती थी. मां का पद ऊंचा उठ कर सास का हो जाता था और घर उपहारों से उफनता सा नजर आता था.

‘‘होस्टल से आतेजाते मां तुम्हें तरहतरह के पकवान बना कर खिलाती भी थीं और बांध कर भी देती थीं. पता नहीं ये सब करते समय मां में कहां से ताकत व हिम्मत आ जाती थी वरना तो सिरदर्द की शिकायत से पूरे घर को वश में किए रखती थीं.

‘‘सपने पूरे होने का समय आ गया था. तुम ने अपनी डिगरी हासिल कर ली थी और होस्टल छोड़ कर घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक तुम्हें एक प्रस्ताव मिला. प्रस्ताव एक सहपाठिन के पिता की ओर से था- विवाह का. तुम ने मां को बताया. मां को अपने सपने दूनी गति से पूरे होते नजर आने लगे. मां ने सहर्ष हामी भर दी. मैं आज तक नहीं समझ पाई कि मां ने स्वयं को इतनी खुशहाल कैसे समझ लिया था. इठलातीइतराती घरघर समाचार देने लगीं कि डाक्टर बहू आएगी हमारे घर.

‘‘तुम्हारा विवाह हो गया. अब सब को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी थी. मां बहुत खुश थीं. उन्होंने जो थोड़ाबहुत गहने मेरे लिए बनवाए थे उन्हें दिखाते हुए तुम से कहा था कि बेटा इतना तो है मेरे पास, कुछ नकद भी है, तू कोई अच्छा वर तलाश कर बाकी इंतजाम भी हो जाएगा. अब तू यहां रहेगा तो क्या चिंता है. समाज में मानप्रतिष्ठा भी बढ़ेगी और आर्थिक समृद्धि भी आएगी.

‘‘सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भाभी ने घोषणा कर दी कि अभी यहां क्लीनिक खोलने से लाभ नहीं है. इतना पैसा तो है नहीं आप लोगों के पास कि सारी मशीनें ला सकें. नौकरी करना ही ठीक रहेगा. मेरे पिताजी ने हम दोनों के लिए सरकारी नौकरी देख ली है, हमें वहीं जाना होगा.

‘‘और तुम चले गए थे. उस के बाद तुम जब भी आते तुम्हारे साथ भाभी की फरमाइशों व शिकायतों का पुलिंदा रहता था पर पापा की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अब तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी कर पाते. उन्हें अन्य भाईबहनों की भी चिंता थी. भैया उन दिनों मैं ने तुम्हारे चेहरे पर परेशानी व विवशता दोनों का संगम देखा था. तुम्हारी मुसकराहट न जाने कहां गायब हो गई थी. हर वक्त तनाव व चिड़चिड़ाहट ने तुम्हारे चारों ओर घेरा बना लिया था. भाभी को मां गंवार, मैं बोझ और पापा तानाशाह नजर आने लगे थे. तुम ने बहुत कोशिश की कि मां कुछ ऐसा करती रहें कि भाभी संतुष्ट रहे, परंतु न मां में इतनी सामर्थ्य थी, न ही भाभी में सहनशक्ति. धीरेधीरे तुम भी हमें भाभी की निगाहों से देखने लगे थे. कुछ तुम्हारी मजबूरी थी, कुछ तुम्हारा स्वार्थ. एक दिन तुम ने मां से कहा कि मां, मुझे दोनों में से एक को चुनना होगा, आप सब या मेरा निजी जीवन.

‘‘मां ने इस में भी अपना ममत्व दिखाया और तुम्हें अपने बंधन से मुक्त कर के भाभी  के सुपुर्द कर दिया ताकि तुम्हारा वैवाहिक जीवन सुखमय बन सके.

‘‘उस दिन के बाद तुम यदाकदा घर तो आते थे पर एक मेहमान की तरह और अपनी खातिरदारी करवा कर लौट जाते थे. पापा ने मेरा रिश्ता तय कर दिया और शादी भी. इसे मेरा विश्वास कहो या नादानी अभी भी मुझे यही लगता था कि यदि तुम मेरे लिए वर ढूंढ़ते तो पापा से बेहतर होता और मैं कई दिनों तक तुम्हारा इंतजार करती भी रही थी. पर तुम नहीं आए. शादी के वक्त तुम थे परंतु सिर्फ विदा करने के लिए. सीधेसादे पापा ने अपने ही बलबूते पर सभी भाईबहनों का विवाह कर दिया. करते भी क्या. घर का बड़ा बेटा ही जब धोखा दे जाए, हिम्मत तो करनी ही पड़ती है.

‘‘मैं पराई हो गई थी. जब भी मैं मां से मिलने जाती मां की सूनी आंखों में तुम्हारे इंतजार के अलावा और कुछ नजर नहीं आता था. मां मुझ से कहतीं कि एक बार भैया को फोन मिला कर पूछ तो सही कैसा है, वह घर क्यों नहीं आता. कहो न उस से एक बार बस एक बार तो मिलने आए. तुम ने घर आना बिलकुल बंद कर दिया था. पापा पुरुष थे, उन्हें रोना शोभा नहीं देता था, परंतु मायूसी उन के चेहरे पर भी झलकती थी. मां के पास सब कुछ होते हुए भी जैसे कुछ नहीं था. तुम मां के लाड़ले जो चले गए थे मां से रूठ कर. पर मां को अपना दोष कभी समझ नहीं आया. वे अकसर मुझ से पूछतीं कि क्या मुझे उसे पढ़ने बाहर नहीं भेजना चाहिए था या मैं ने उस का यह रिश्ता कर के गलती की? अंत में यही परिणाम निकलता कि सारा दोष मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखना ही था. सिर्फ खर्चा और कुछ न मिलने की आस से ही यह हुआ था.

‘‘पापा ने आस छोड़ दी थी पर मां के दिल को कौन समझाता? पापा से छिपछिप कर अपनी टूटीफूटी भाषा में तुम्हें चिट्ठी लिख कर पड़ोसियों के हाथों डलवाती रहती थीं और उन की 5-6 चिट्ठियों का उत्तर भाभी की फटकार के रूप में आता था कि हमें परेशान मत करो, चैन से जीने दो.

‘‘मां का अंतिम समय आ गया था. पर तुम नहीं आए. तुम से मिलने की आस लिए मां दुनिया छोड़ कर चली गईं और किसी ने तुम्हें भी खबर कर दी. तुम आए तो सही पर अंतिम संस्कार के वक्त नहीं, क्योंकि शायद तुम्हें यह एहसास हो गया था कि अब मैं इस का हकदार नहीं हूं.

‘‘जीतेजी मां सदा तुम्हारा इंतजार करती रहीं और मरते वक्त भी तुम्हारा हिस्सा मुझ से बंधवा कर रखवा गई हैं, क्योंकि वे मां थीं और मैं ने भी उन्हें मना नहीं किया, क्योंकि मैं भी आखिर बहन हूं पर तुम न बेटे बन सके न भाई.

‘‘भैया, क्या इनसान स्वार्थवश इतना कमजोर हो जाता है कि हर रिश्ते  को बलि पर चढ़ा देता है? तुम ऐसे कब थे? यह कभी मत कहना ये सब भाभी की वजह से हुआ है, क्या तुम में इतना भी साहस नहीं था कि  अपनी इच्छा से एक कदम चल पाते? यदि  तुम्हारे जीवन में रिश्तों का बिलकुल ही महत्त्व नहीं है, तो मेरी राखी न मिलने पर विचलित क्यों हो जाते हो? और किसी न किसी के हाथों यह खबर भिजवा ही देते हो कि अब की बार राखी नहीं मिली.

‘‘भैया, क्या सिर्फ राखी भेजने या बांधने से ही रक्षाबंधन का पर्व सार्थक सिद्ध हो जाता है? क्या इस के लिए दायित्व निभाने जरूरी नहीं? आज 25 साल हो गए. इस बीच न तो तुम मुझ से मिलने ही आए और न ही मुझे बुलाया. इस बीच मेरे द्वारा भेजी गई राखी एक नाजुक सेतु की तरह थी जोकि अब टूटने की कगार पर है, क्योंकि अब मेरा विश्वास व इच्छाशक्ति दोनों ही खत्म हो गए हैं.

‘‘भैया, बस तुम मुझे एक बात बता दो कि यदि हम बहनें न होतीं तो क्या तुम मम्मीपापा को छोड़ कर नहीं जाते? क्या तुम्हारे पलायन का कारण हम बहनें थीं? हम तुम्हें कैसे विश्वास दिलातीं कि हम तुम से कभी कुछ अपेक्षा नहीं रखेंगी, तुम एक बार अपनी विवशता कहते तो सही. हो सके तो इस राखी को मेरी अंतिम निशानी समझ कर संभाल कर रख लेना, क्योंकि मेरे खयाल से तुम्हारे दिल में न सही, घर में इतनी जगह तो होगी.’’

लिखवातेलिखवाते वह महिला उत्तेजना व दुखवश कांपने लगी, पर उस की आंखों से आंसू नहीं छलके. शायद वे सूख चुके थे, पर टाइप करने वाले लड़के की आंखें नम हो गई थीं.  काम पूरा हो गया था. उस महिला ने लड़के से कहा, ‘‘तुम इस की एक प्रतिलिपि निकाल कर मुझे दे दो ताकि मैं यह संदेश अपने भैया तक पहुंचा सकूं. तुम जानते हो आज 25 वर्षों बाद मैं यह सब लिखने का साहस कर पाई हूं. मैं सदा छोटी बहन बन कर ही रही. ‘‘हां, एक कष्ट और दूंगी तुम्हें. इस संदेश को इंटरनैट द्वारा ऐसे ब्लौग पर डाल दो जहां से ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पढ़ें. हो सकता है दुनिया में ऐसे और भी भाई हों, जिन में आत्मनिर्णय व आत्मसम्मान की कमी हो. उन को इस पत्र से कुछ लाभ हो जाए. यह संदेश मैं अपनी मां को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि के रूप में देना चाहती हूं ताकि जो दुख वे अपने सीने में दबाए इस दुनिया से विदा हो गईं, उस से उन्हें कुछ राहत मिल सके.’’

Raksha Bandhan: तोबा मेरी तोबा- अंजली के भाई के साथ क्या हुआ?

मेरे सिगरेट छोड़ देने से सभी हैरान थे. जिस पर डांटफटकार और समझानेबुझाने का भी कोई असर नहीं हुआ वह अचानक कैसे सुधर गया? जब मेरे दोस्त इस की वजह पूछते तो मैं बड़ी भोली सूरत बना कर कहता, ‘‘सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है, इसलिए छोड़ दी. तुम लोग भी मेरी बात मानो और बाज आओ इस गंदी आदत से.’’

मुझे पता है, मेरे फ्रैंड्स  मुझ पर हंसते होंगे और यही कहते होंगे, ‘नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली. बड़ा आया हमें उपदेश देने वाला.’ मेरे मम्मीडैडी मेरे इस फैसले से बहुत खुश थे लेकिन आपस में वे भी यही कहते होंगे कि इस गधे को यह अक्ल पहले क्यों नहीं आई? अब मैं उन से क्या कहूं? यह अक्ल मुझे जिंदगी भर न आती अगर उस रोज मेरे साथ वह हादसा न हुआ होता.

कालेज में कदम रखते ही मुझे सिगरेट की लत पड़ गई थी. जब मौका मिलता, हम यारदोस्त पांडेजी की दुकान पर खड़े हो कर खूब सिगरेट फूंकते और फिर हमारे शहर में सिगरेट पीना मर्दानगी की निशानी समझी जाती थी. कालेज के जो लड़के सिगरेट पी कर खांसने लगते, हम उन का मजाक उड़ाते. हां, लेकिन घर लौटने से पहले मैं पिपरमिंट की गोलियां चूस लेता ताकि किसी को तंबाकू की बू न आए. वजह यह नहीं थी कि मैं घर में किसी से डरता था. वजह सिर्फ यही थी कि घर के लोग किसी भी बात पर लेक्चर देना शुरू कर देते जिस से मुझे बड़ी चिढ़ होती थी.

मेरी बड़ी बहन अंजली की नाक बड़ी तेज थी. हमारे किचन में अगर कुछ जल रहा हो तो गली में दाखिल होते ही अंजली दीदी को उस की बू आ जाती. एक दिन मैं घर पहुंचा तो दरवाजा उसी ने खोला. वे बिल्ली की तरह नाक सिकोड़ कर बोलीं, ‘‘सिगरेट की बदबू कहां से आ रही है? तुम ने पी है क्या?’’

मैं पहले तो सहम गया लेकिन फिर गुस्से से बोला, ‘‘आप क्यों हर समय मेरे पीछे पड़ी रहती हैं? हमारा चौकीदार दिन भर बीड़ी फूंकता है. जब हवा चलती है तो उस का धुआं यहां तक आ जाता है. यकीन न आए तो बाहर जा कर देख लीजिए. वह इस वक्त जरूर बीड़ी पी रहा होगा.’’

मुझे गलत साबित करने के लिए अंजली दीदी फौरन बरामदे में चली गईं. संयोग से चौकीदार उस समय वाकई बीड़ी पी रहा था. मुझे शक भरी नजरों से देखती हुई वे उस समय तो वहां से चली गईं लेकिन उस दिन के बाद मैं ने नोट किया कि वे मुझ पर नजर रखने लगी थीं. मैं जब बाहर से लौट कर अपने कमरे में आता तब यह बात फौरन समझ में आ जाती कि मेरे कमरे की तलाशी ली गई है. अलमारी और मेज की दराजें सब टटोले गए हैं. मुझे यकीन हो गया कि अंजली दीदी जरूर कोई सुराग ढूंढ़ रही होंगी ताकि मुझ पर हमला किया जा सके. पर मैं ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. अपने कमरे में सिगरेट और माचिस की डब्बी मैं भूल से भी नहीं रखता था.

एक दिन मुझ से गलती हो गई. मैं महल्ले के लड़कों के साथ नुक्कड़ पर खड़े हो कर गपशप कर रहा था. एक दोस्त ने सिगरेट सुलगाई तो मैं ने उस के हाथ से ले कर एक कश लगा लिया. उसी समय अंजली दीदी सब्जी ले कर घर लौट रही थीं. उन की नजर मुझ पर पड़ी और मैं रंगेहाथों पकड़ा गया. वे तीर की तरह घर की तरफ भागीं और मैं ने घबराहट में सिगरेट का एक और ऐसा दमदार कश लगाया कि मुझे चक्कर आने लगे. दोस्तों के सामने मैं ने शेखी बघारी कि मैं किसी से नहीं डरता. सिगरेट पीता हूं तो क्या हुआ? कोई चोरी तो नहीं की, डाका तो नहीं डाला. मेरे दोस्तों ने मेरी पीठ ठोंक कर मुझे शाबाशी दी. मेरी हिम्मत वाकई काबिलेतारीफ थी. मैं ने खुश हो कर सब को एक इंपोर्टेड सिगरेट पिला दी. फिर मैं घर जाने के लिए मुड़ा, लेकिन कुछ सोच कर रुक गया. घर पहुंचते ही कैसा हंगामा होगा, इस का अंदाजा था मुझे. यही सब सोच कर दिनभर घर लौटने की मेरी हिम्मत न हुई.

पूरा दिन अपनी साइकिल पर सवार शहर के चक्कर काटता रहा. सोचा कि चलो लगेहाथ फिल्म देख डालें. लेकिन जब जेब में हाथ डाला तो पता चला कि टिकट के पैसे नहीं हैं. दोस्तों को इंपोर्टेड सिगरेट जो पिला दी थी.

शाम को अंधेरा होने के बाद मैं डरतेडरते घर में दाखिल हुआ. मम्मी और डैडी बड़े कमरे में बैठे थे. उन के गंभीर चेहरों से साफ जाहिर था कि उन को अंजली दीदी से पता चल गया था कि मैं सिगरेट पीता हूं. वे मेरी राह देख रहे थे. मम्मी के पीछे अंजली दीदी खड़ी थीं और उन के होंठों पर चिपकी हुई जहरीली मुसकान, नुकीले कांटे की तरह चुभ रही थी मुझे. मैं समझ रहा था कि डैडी अभी उठ कर मेरे पास आएंगे और दोचार भारीभरकम थप्पड़ रसीद करेंगे मुझे. लेकिन उन्होंने शांत आवाज में मुझे अपने पास बुला कर बिठाया. हमारे परिवार में कोई किसी किस्म का भी नशा नहीं करता था, न सिगरेट न शराब और न ही तंबाकू वाला पान. फिर मुझे यह लत कैसे लगी, इस बात का बड़ा अफसोस था उन्हें.

काफी देर तक वे मुझे सिगरेट के नुकसान समझाते रहे. यह कह कर डराया भी कि एक सिगरेट पीने से इंसान की उम्र 15 दिन कम हो जाती है. मैं बड़ी विनम्रता से सिर झुकाए उन की बातें सुनता रहा. मन ही मन यह भी सोचता रहा कि अंजली दीदी से बदला कैसे लिया जाए? जब अदालत का समय समाप्त हुआ तब मैं ने डैडी को वचन दिया कि आज के बाद मैं सिगरेट छुऊंगा तक नहीं. डैडी ने खुश हो कर मेरी पीठ थपथपाई और 500 रुपए का नोट मेरे हाथ में थमा कर कहा, ‘इस के फल खरीद कर ले आओ और रोज खाया करो. अपनी सेहत का खयाल रखो.’

अंजली दीदी ने मिर्च लगाई, ‘डैडी, आप देख लेना, 500 रुपए यह धुएं में उड़ा देगा.’ अब मैं ने अपनेआप को वचन दिया, ‘अंजली दीदी को सबक सिखा के रहूंगा.’ लेकिन वे इतनी चालाक थीं कि हर बार बच कर निकल जातीं.

मुश्किल से 3 दिन मैं ने अपने वादे पर अमल किया. मेरे दोस्त सिगरेट फूंकते तो उस की खुशबू सूंघ कर ही मैं इत्मिनान कर लेता. लेकिन फिर मुझ से सब्र न हुआ और चौथे दिन पूरी डब्बी खरीद कर फूंक डाली. सिगरेट पीने वाले जानते हैं कि जब तलब लगती हैं तब इंसान बेचैनी से कैसे फड़फड़ाता है.

कालेज की छुट्टियां शुरू हो गईं. गरमियों के दिन थे और लू चलती थी, इसलिए बाहर जाने का मन नहीं करता था. एक दिन दोपहर में जब सब सो रहे थे, मौका देख कर मैं चुपचाप बाथरूम में गया, अंदर से कुंडी लगाई और सिगरेट सुलगा ली. बड़े आराम से कमोड पर बैठ कर सिगरेट पीता रहा और सोचा, ‘वाह, क्या जगह ढूंढ़ निकाली है मैं ने.’ लेकिन जब बाथरूम से निकलने के लिए दरवाजा खोलने लगा तो दिल धक से रह गया. किसी ने बाहर से कुंडी लगा दी थी. हमारे बाथरूम का एक दरवाजा आंगन की तरफ खुलता था, मैं ने वह खोलना चाहा लेकिन उस की भी बाहर से कुंडी लगी हुई थी. दरवाजा खटखटा कर मैं ने जोर से पुकारा तो बाहर से अंजली दीदी की आवाज आई, ‘बदतमीज, तुम कभी नहीं सुधरोगे. तुम्हारी यह हिम्मत कि घर में भी सिगरेट पीना शुरू कर दिया. अब डैडी ही आ कर खोलेंगे यह दरवाजा.’

मैं ने बहुत मिन्नत की, माफी मांगी, कसमें भी खाईं लेकिन दीदी का दिल नहीं पसीजा. मदद के लिए मैं ने मम्मी को पुकारा लेकिन उन्हें भी मुझ पर तरस नहीं आया. चीख कर बोलीं, ‘तेरी यही सजा है.’

शाम को डैडी ने घर लौट कर जब दरवाजा खोला तब तक मैं बाथरूम की गरमी से निढाल हो चुका था. तिस पर डैडी ने आव देखा न ताव, गिन कर पूरे 4 थप्पड़ मेरे मुंह पर जड़ दिए. 1 घंटे तक मम्मी की डांट सुननी पड़ी सो अलग. सिर्फ अंजली दीदी ही नहीं, पूरा घर मेरा दुश्मन बन चुका था. उन्होंने सोचा कि इतने थप्पड़ खाने के बाद अब मैं सुधर जाऊंगा, लेकिन मैं भी बहुत जिद्दी हूं. तपती हुई धूप में घर से बाहर जा कर सिगरेटें फूंकता रहता.

एक दिन डैडी ने मुझे रास्ते के किनारे सिगरेट पीते हुए देख लिया. उसी वक्त मुझे गाड़ी में बिठा कर अपने साथ ले गए और घर से थोड़े फासले पर गाड़ी रोक कर बोले, ‘लोग सारी जिंदगी सिगरेट पीने के बाद भी यह आदत छोड़ देते हैं. फिर तुम क्यों नहीं छोड़ सकते यह गंदी आदत? तुम्हें जो चाहिए वह तुम्हें मिलेगा, बस तुम सिगरेट पीना छोड़ दो.’

उसी समय सामने वाली सड़क पर चमचमाती हुई मोटरबाइक आ कर रुकी. ललचाई नजरों से बाइक को देखते हुए मैं ने डैडी से कहा, ‘मुझे मोटरबाइक दिला दीजिए, मैं सिगरेट पीना छोड़ दूंगा.’ मुझे पूरा यकीन था कि डैडी इनकार कर देंगे. लेकिन मैं हैरत से चक्कर खा गया जब डैडी ने बड़े ही शांत लहजे में कहा, ‘अगर तुम इसी शर्त पर सिगरेट छोड़ोगे तो मुझे तुम्हारी यह शर्त भी मंजूर है.’

जिस दिन मोटरबाइक मेरे हाथ आई उस दिन अपने 2 यारों को साथ बिठा कर पूरे शहर में उड़ता फिरा और फिर जश्न मनाने हम पांडेजी की दुकान पर पहुंच गए. कोल्ड ड्रिंक के बाद सिगरेट और पान के बाद फिर सिगरेट. बुरा भी लग रहा था कि डैडी को धोखा दे रहा हूं लेकिन फिर अपने मन को समझाया कि बस यह आखिरी सिगरेट है, इस के बाद नहीं पीऊंगा. लेकिन फिर हर सिगरेट आखिरी सिगरेट बनती गई और यह सिलसिला चलता रहा.

मम्मी और डैडी अंजली दीदी की शादी को ले कर काफी चिंतित रहा करते थे. मैं भी दुआएं मांगता था कि यह बला जल्दी टले ताकि मुझे भी आजादी मिले. चंद महीनों की तलाश के बाद एक मुनासिब रिश्ता आया और अंजली दीदी का ब्याह तय हो गया. हमारे घर में यह पहली शादी थी इसलिए खूब धूम मची हुई थी. ब्याह के लिए जेवरात और कपड़ों की खरीदारी शुरू हो गई. उस गहमागहमी और खुशी के माहौल में मेरा जुर्म सब भूल गए. अंजली दीदी भी मुझ से हंसहंस कर बात करने लगीं. छोटेबड़े हर काम के लिए मेरी खुशामद करतीं, कभी चंदू भाई टेलर तो कभी मगन भाई सुनार के पास जाना होता और मैं दौड़दौड़ कर वे सारे काम कर देता. अब वे अपनेआप में इतनी मगन रहतीं कि मैं अपने कमरे में बैठ कर सिगरेट फूंकता तब भी उन्हें पता न चलता.

घर के आंगन में बरातियों के लिए शामियाना लगाया गया. रौनक बढ़ाने के लिए रंगबिरंगे फूल और नीलेपीले बल्ब भी लगाए गए. जैसेजैसे शादी का दिन नजदीक आने लगा, रिश्तेदारों और मेहमानों की चहलपहल बढ़ने लगी. कोई सहारनपुर से तो कोई भोपाल से. अंजली दीदी की सहेलियों ने तो घर पर धावा ही बोल दिया था. स्कूल से ले कर कालेज तक की सारी सहेलियां मौजूद थीं. दिन भर उन के हंसने और खिलखिलाने की आवाजें घर में गूंजती रहतीं. मैं शादी की भागदौड़ में मसरूफ रहता, लेकिन इस बीच जब कोई सुंदर चेहरा नजर आता तब थोड़ी सी थकान दूर हो जाती.

जिस कमरे में अंजली दीदी हलदी की रस्म के बाद बैठी थी, वहां से नाचगाने और ढोलक की आवाजें आतीं और मैं छिप कर झरोखे से उन्हें निहारता रहता. लड़कियां झूमझूम कर नाचतीं और मधुर गीत गातीं. उन सब में एक लड़की बहुत सुंदर थी. पता चला कि उस का नाम बांसुरी है. वह भोपाल से आई है और डैडी के एक दोस्त की बेटी है. उस का कद लंबा था, रंग सांवला, लंबीलंबी पलकें, बहुत ही आकर्षक चेहरा, छुईमुई जैसी इतनी प्यारी कि छू लेने को दिल चाहे.

रोज की तरह उस दिन भी जोरजोर से नए फिल्मी गाने बज रहे थे और आंगन में बच्चे नाच रहे थे. बच्चों ने जिद की तो मैं भी उन के साथ नाच में शामिल हो गया. नाचतेनाचते मैं खो गया और मन की आंखों से सोचने लगा कि बांसुरी इन गानों पर नाचती हुई कैसी दिखेगी. अचानक किसी की आवाज आई, ‘ओ भाईसाब, यह क्या हो रहा है?’

मैं ने आंखें खोल कर देखा तो चौंक पड़ा. बांसुरी मेरे सामने खड़ी थी. मैं ने सोचा कि मैं सपना देख रहा हूं और मैं ने फिर से आंखें बंद कर लीं. इस बार उस ने मेरे कंधे पर हलकी सी चपत लगाई और बोली, ‘नींद में हो क्या? मैं तुम से कह रही हूं.’

मैं ने बहुत नरमी से पूछा, ‘कुछ काम है मुझ से?’ वह तुनक कर बोली, ‘ये कैसे गाने लगा रखे हैं जिन की एक लाइन भी समझ में नहीं आती. यों लगता है जैसे दीवाली के पटाखों से डर कर कोई कुत्ता भौंक रहा है. मीठेमीठे पुराने गाने बजाओ. और ये जो नए गाने हैं न, ये तुम अपनी शादी में बजाना.’

वह पलट कर जाने लगी तो मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘एक शर्त पर, जिस दिन मेरा ब्याह तुम्हारे साथ होगा उस दिन तुम्हारी पसंद के गाने बजेंगे, बल्कि तुम कहो तो मैं तुम्हें पुराने गाने गा कर भी सुनाऊंगा.’

उस ने घूर कर देखा और मेरा हाथ झटक कर वह भाग गई, लेकिन फिर दरवाजे के पास जा कर मुड़ी और मुसकरा कर मुझे देखने लगी. मेरा दिल इतने जोर से धड़का जैसे अभी उछल कर बाहर आ जाएगा. यह दिल कम्बख्त है ही ऐसी चीज. जरा सी खुशी मिली नहीं कि धड़कने लगता है, वह भी जोरों से.

जब पुराने गीत बजने लगे तब मैं उसे झरोखों से छिपछिप कर देखता रहा. वह बारबार कनखियों से मुझे देखती और लहरालहरा कर नाचती रही. उस ने महफिल में ऐसा रंग जमाया कि मम्मी ने कहा, ‘तेरा ब्याह जल्द हो जाए और ऐसा पति मिले जो तुझे हमेशा खुश रखे.’ वह मेरी ओर देख कर धीरे से मुसकराई और उस रात मैं उसी के सपने देखता रहा. सपने में वह मेरी दुलहन थी और मैं उस का दूल्हा.

अगले दिन बड़ी चहलपहल थी. अंजली दीदी का ब्याह होना था. घर के पिछवाड़े हलवाई खाना बना रहे थे. डैडी ने मेरी ड्यूटी वहां लगा दी थी. बांसुरी अचानक वहां आ धमकी और मुझे देख कर बोली, ‘अंजली दीदी का संदेशा लाई हूं तुम्हारे लिए. उन्होंने कहा है, नमकमिर्च का खयाल रखना, अगर जरा भी ऊंचनीच हो गई न, तो तुम्हारी खैर नहीं.’

बांसुरी की आवाज में ऐसी खनक थी कि वह गाली भी दे तो मीठी लगे. मैं ने मुसकरा कर पूछा, ‘तुम्हें खाना पकाना आता है या नहीं?’

उस की भवें तन गईं, ‘क्यों पूछ रहे हो?’

मैं शरारत से बोला, ‘बड़ी खास वजह है इसीलिए पूछ रहा हूं. वैसे तुम्हें यह भी बता दूं कि अगर तुम्हें खाना पकाना नहीं आता हो तब भी चिंता की कोई बात नहीं. जब हमारा ब्याह हो जाएगा तब इन बेचारे हलवाइयों को अपने घर में नौकरी दे देंगे तो इन की रोजीरोटी का बंदोबस्त भी हो जाएगा.’

वह जोर से हंसी, ‘तुम से ब्याह करे मेरी जूती.’

बैंड बाजे के साथ बरात आई तो हर कोई दूल्हे को देखने बरामदे में आ गया. धक्कामुक्की और आपाधापी में पता ही नहीं चला कि बांसुरी चुपके से आ कर कब मेरे पास खड़ी हो गई. नरमनरम गुदाज जिस्म मेरी बांह से टकराया तो मैं ने चौंक कर उसे देखा. लेकिन वह ऐसी अनजान बन गई जैसे उस ने मुझे देखा ही न हो. मौके का फायदा उठा कर मैं ने उस का हाथ मजबूती से अपने हाथ में पकड़ लिया. पहले तो उस ने अपने दोनों हाथ अपने दुपट्टे में छिपा लिए फिर मेरे बाजू पर ऐसी खतरनाक चुटकी काटी कि मेरे मुंह से आह निकल गई.

समय अपनी गति से चलता रहा. शामियाने में पंडितजी के मंत्र गूंजने लगे. ब्याह के फेरों का समय हो चला था. अपनी सहेलियों से घिरी अंजली दीदी धीरेधीरे शामियाने की ओर बढ़ने लगीं. जरीदार साड़ी और गहनों में लिपटी हुई कितनी सुंदर लग रही थीं मेरी दीदी. मैं उन्हें एकटक देखता रहा और यह सोच कर कि अब वे इस घर से चली जाएंगी, मेरी आंखें डबडबा गईं. उन्होंने मुझे मम्मीडैडी से बहुत डांट खिलवाई थी, पिटवाया भी था मुझे, ताने भी दिए थे, लेकिन हैं तो आखिर मेरी बहन. अचानक डैडी की आवाज मेरे कानों में गूंजी, ‘यह क्या हुलिया बना रखा है तुम ने? अभी तक तैयार नहीं हुए? जाओ, कपड़े बदल कर आओ.’ मैं सरपट अपने कमरे की तरफ भागा.

कमरे में दाखिल होते ही मैं ठिठक गया. बांसुरी अलमारी के आईने के सामने खड़ी हो कर जेवर पहन रही थी. मुझे देख कर वह जरा भी नहीं चौंकी बल्कि डांट कर बोली, ‘यह क्या मुंह उठाए चले आ रहे हो? इतनी भी तमीज नहीं कि दरवाजे पर दस्तक दे कर अंदर आओ.’ उसे वहां देख कर मेरे होशोहवास तो जैसे गुम हो गए थे. वह बला की हसीन लग रही थी, जैसे आसमान से उतर कर कोई अप्सरा धरती पर आ गई हो. मैं बेशर्मी से उसे घूरता रहा और मैं ने पहली बार देखा कि वह भी कुछ सकपका सी गई है. मैं धीरेधीरे उस के नजदीक गया और घुटी हुई आवाज में बोला, ‘तुम कितनी सुंदर हो, मैं ने आज तक इतनी सुंदरता कहीं नहीं देखी.’

अपनी तारीफ सुन कर उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई. वह अपनी जगह से नहीं हिली, बस मेरी आंखों में आंखें डाल कर मुझे देखती रही. बेखुदी के आलम में मैं उस की ओर खिंचता चला गया, इतने पास कि उस की गर्म सांसें अपने गालों पर महसूस करने लगा. उस के होंठ धीरे से खुले और उस ने अपनी आंखें मूंद लीं. मेरे शरीर में कंपकंपी सी होने लगी. ऐसी कैफियत मैं ने पहले कभी महसूस नहीं की थी. मैं ने अपने दोनों हाथ उस के कंधों पर रखे और मैं उस के होंठों को चूमने ही वाला  था कि वह अचानक पीछे हटी, ‘तुम सिगरेट पीते हो?’

पहले तो मेरी समझ में नहीं आया कि वह बोल क्या रही है. मैं हक्काबक्का सा उसे देखता रहा और वह गुस्से से बोली, ‘दूर हटो मुझ से. नफरत है मुझे सिगरेट पीने वालों से. कितनी गंदी बदबू आ रही है तुम्हारे मुंह से.’

मैं इस अचानक हमले से संभल भी नहीं पाया था कि वह कमरे से बाहर चली गई और मैं सिर झुकाए शर्मिंदा सा वहीं खड़ा रह गया.

अगले दिन वह भोपाल वापस चली गई.

वह दिन और आज का दिन, मैं ने सिगरेट कभी नहीं पी. आज भी जब कोई मेरे सामने सिगरेट सुलगाता है तो मेरा मन करता है कि उस के हाथ से सिगरेट छीन कर दो कश लगा लूं, लेकिन अब यह मुमकिन नहीं, क्योंकि उस हादसे के बाद जब मैं बांसुरी से मिलने भोपाल पहुंचा तो बांसुरी इसी शर्त पर मुझ से शादी करने के लिए राजी हुई कि मैं सिगरेट कभी नहीं पीऊंगा. अब आप ही बताइए, जिस लड़की को पाने की खातिर मैं ने अपना दिल-ओ-जान कुरबान कर दिया था, उस की खातिर क्या मैं सिगरेट की कुरबानी नहीं दे सकता?

Raksha Bandhan: मत बरसो इंदर राजाजी- क्या भाइयों ने समझा ऋतु का प्यार

भाई की चिट्ठी हाथ में लिए ऋतु उधेड़बुन में खड़ी थी. बड़ी  प्यारी सी चिट्ठी थी और आग्रह भी इतना मधुर, ‘इस बार रक्षाबंधन इकट्ठे हो कर मनाएंगे, तुम अवश्य पहुंच जाना…’

उस की शादी के 20 वर्षों  आज तक उस के 3 भाइयों में से किसी ने भी कभी उस से ऐसा आग्रह नहीं किया था और वह तरसतरस कर रह गई थी.  उस की ससुराल में लड़कियों के यहां आनाजाना, तीजत्योहारों का लेनादेना अभी तक कायम था. वह भी अपनी इकलौती ननद को बुलाया करती थी. उस की ननद तो थी ही इतनी प्यारी और उस की सास कितनी स्नेहशील.  जब भी ऋतु ने मायके में अपनी ससुराल की तारीफ की तो उस की मंझली भाभी उषा, जो मानसिक रूप से अस्वस्थ रहती थीं, कहने लगीं, ‘‘जीजी, ससुराल में आप की इसलिए निभ गई क्योंकि आप की सासननद अच्छी हैं, हमारी तो सासननदें बहुत ही तेज हैं.’’

उषा भाभी को यह भी ज्ञान नहीं था कि वह किस से क्या कह रही थीं और छोटी बहू अलका मुंह में साड़ी दबा कर हंस रही थी.

ऋतु अंगरेजी साहित्य से एमए कर के पीएचडी कर रही थी कि उस का विवाह अशोक से हो गया था. अशोक एक निजी कंपनी में इंजीनियर था. उसे अच्छा वेतन मिलता था. पिता भी मुख्य इंजीनियर पद से जल्दी ही सेवानिवृत्त हुए थे. ऋतु देखने में सुंदर, सुसंस्कृत व परिष्कृत विचारों की लड़की थी. उस से चार बातें करते ही उस के भावी ससुर ने ऋतु के पिता से उसे मांग लिया था, ‘‘मेजर साहब, हमें आप की लड़की बहुत पसंद है…’’

इतना संपन्न परिवार पा कर ऋतु के मातापिता तो फूले नहीं समाए और फिर ऋतु बहू बन कर अशोक के घर आ गई.

ऋतु अपनी ससुराल में सुखी थी. वह जब भी मायके जाती तो एक न एक कटु अनुभव अपनी झोली में भर ले आती. उस के पिता ने सेवानिवृत्त होतेहोते एक घर बना लिया था. न जाने क्यों उस की मां की इच्छा एक बड़ा सा घर बनाने की रही और पिता ने अपनी सारी जमा पूंजी उस में लगा दी. रहीसही रकम सब से छोटी बहन उपमा की शादी में खर्च हो गई.

पिताजी कहा करते, ‘‘मेरे 3-3 बेटे हैं, दहेज तो मैं ने लिया नहीं, बुढ़ापा इन्हीं के सहारे कट जाएगा. मरूंगा तो लाखों की जायदाद इन्हें सौंपूंगा,’’ और गर्वपूर्वक अपनी दोमंजिली इमारत निहारा करते. शुरूशुरू में पिताजी की पैंशन और तीनों लड़कों का कुछ न कुछ सहारा रहा, पर धीरेधीरे उन के उत्तरदायित्वों का दायरा बढ़ गया और उन के हाथ सिमट गए.

बड़े भाई अच्छी जगह पर थे, पर उन की बीवी बेहद खर्चीली थी. जब देखो तब घर में खर्चे को ले कर कलह…भाई अम्मा से कहते, ‘‘तुम्हीं पसंद कर के लाई थीं…गोरे रंग पर लट्टू हो कर…’’

भाभी को शिकायत होती, ‘‘मैं गंवारों की तरह रहना पसंद नहीं करती.’’ इशारा मेरठ जैसे छोटे शहरवासियों की ओर था. भाभी का मायका दिल्ली में था. भाई की मोटी तनख्वाह भाभी की फरमाइशों की सूची के सामने कम पड़ जाती. सोने पर सुहागा बेटा पढ़ाई में जीरो, पर मोटरसाइकिल उसे 9वीं कक्षा में ही चाहिए थी और अब 20वें साल में पहुंच कर तो मारुति के बिना शान कम.

मंझला भाई फौज में कर्नल था पर भाभी मगज से कुछ फिरी हुई थी, वह अपनी ससुराल में कभी 2 दिन से ज्यादा ठहरी ही नहीं…या तो मां घर के बाहर अनशन पर या बहू टैक्सी ले कर मायके रवाना हो जाती.

शुरूशुरू में बेटे का मन करता कि उस की पत्नी मांबाप की सेवा करे, सो कहसुन कर छुट्टियों में घर ले आता, पर आते ही घर में जो महाभारत छिड़ती तो मां कहतीं, ‘‘मेरी सेवा का खयाल छोड़…तू अपनी बीवी को ले कर जा.’’

हताश भैया बिना खुला बोरियाबिस्तर ढो कर चल देते. 5-7 वर्ष प्रयत्न किया फिर लगभग लाना ही छोड़ दिया. भाभी आतीं तो बस इतनी देर को मानो पड़ोसियों से मिलने आई हों.

कुसूर मां का भी था, उन का परहेज उन्हें डरा देता, ‘‘और तो सब मंजूर है पर यह गंदे कपड़ों में ठाकुरद्वारे में घुस कर मेरा धरम खराब कर देती है. तब रहा नहीं जाता,’’ ऋतु के सामने मां कहतीं.

इतना सुनते ही उषा भाभी बिफर पड़तीं और कुछ अंगरेजी में तो कुछ हिंदी में भैया से कहतीं. भाभी की बेशर्मी मां को आगबबूला कर देती और भैया उन्हें ले कर चले जाते.

अकसर ऋतु मां को समझाती, ‘‘अम्मा, इन्हें अपनाने से ही घर में सुख मिलेगा. तुम और पिताजी यहां अकेले रहते हो…बहू और बच्चे आएंगे तभी तो चहलपहल होगी.’’

कोशिश तो दोनों पक्ष करते, आगे बढ़ते, पर कहते हैं कि जब संस्कार ही मेल न खाते हों तो कोई क्या कर सकता है.

छोटी बहू ऋतु से लगभग 10 साल छोटी थी. ऋतु उसे छोटी बहन के समान प्यार करती. छोटा भाई डाक्टर था और अच्छी- खासी प्रैक्टिस जमी थी. पैसे का अभाव नहीं था. मेरठ से कुल 1 घंटे का रास्ता था. मोदीनगर में उस का अपना दवाखाना था. पिताजी ने चाहा था कि मोहन मेरठ में प्रैक्टिस करे पर उस की पत्नी अलका वहीं स्थानीय कालेज में प्रवक्ता थी, अत: वहीं पर किराए का एक मकान ले कर रहता था. उस की 2 प्यारी सी बेटियां थीं जो बड़ी बूआ की लाड़ली थीं.

ऋतु का स्नेह इस परिवार से कुछ अधिक ही था. ये लोग यदाकदा आ भी जाते थे और अपने बच्चों को भेज भी देते थे. बड़े भाई के बेटे को तो शायद ठीक से अपनी दोनों बूआ के बच्चों के नाम व उम्र भी ज्ञात नहीं थी. मंझले भैया फौजी नौकरी में कभी पूना, कभी असम तो कभी कश्मीर, इतने छितर गए थे कि 5-5 साल हो जाते भाईबहनों को मिले.

सब से छोटी थी बहन उपमा, जो शादी के हफ्ते भर बाद ही अमेरिका चली गई थी. उस के ससुराल वाले भी वहीं जा बसे थे. जब तक पिताजी जिंदा थे, ऋतु को मायके की इतनी चिंता नहीं थी, पर 2 साल पहले वे चल बसे. इतने बड़े घर में मां अकेली रह गईं. ऋतु अपने पिता की सब से चहेती संतान थी और ऋतु के आंसू आज तक सूखे नहीं थे.

समय की रफ्तार ने मां को एकाकी बना दिया और मोहन व अलका में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया था. पैसा कमाने की अंधी भूख ने डाक्टर मोहन का समय खा लिया था. 30 वर्ष की उम्र में ही सिर के सारे बाल पक गए थे, उधर अलका बेटियों के लिए धन से खुशियां खरीदने की खातिर रुपयों की चिनाई कर रही थी. उस का तर्क था, ‘‘अपनी बेटी को संपन्न घर व योग्य वर दिलवाने में कम से कम 5-10 लाख तो चाहिए ही. डाक्टरों के बेटेबेटी के विवाह में इतना ही खर्च आता है, अपने स्तर के अनुकूल ब्याहना…’’

यह दलील मां को अरुचिकर लगती और ऋतु के कानों में सीसा उड़ेल जाती. बेटी तो उस की भी 2 हैं पर उस ने तो 10-5 लाख न जोड़े हैं न जोड़ेगी. वह अलका से कहती, ‘‘विवाह स्नेह बंधन है, व्यापार नहीं. बेटी के लिए घरवर खरीदा नहीं, तलाशा जाता है.’’

ऋतु आजकल सारा दिन उद्विग्न रहती. उसे बेचैन व छटपटाता देख कर अशोक व उस की सास कहते, ‘‘जाओ, मेरठ हो आओ,’’ पर वह कम से कम मेरठ जाती. पिछली बार जब वह गई तो 2 पीढ़ी से काम कर रही आया की लड़की शकु उस के पैरों के पास आ कर बैठ गई थी. अम्मा ने ऊपर का हिस्सा किराए पर चढ़ा दिया था. हजार रुपए वह और पिताजी की आधी पेंशन, अम्मा के नियमित जीवन के लिए काफी थी. अभाव था तो स्नेह बेल के फूलों की महक का, जो उस चारदीवारी से रूठ गई थी.

आया का परिवार वहीं गैरेज में रहता था, वही उन का घर था. बूढ़ी आया तो मर गई थी, पर उस की बेटी शकुंतला, दामाद कन्हैया अम्मा की सेवाटहल किया करते थे. यही दोनों अब अम्मा की आंख, कान, हाथ और पैर थे.

शकु ने बताया, ‘‘जीजी, इस बार बड़े भैया गैरेज खाली करने को कह गए हैं.’’

ऋतु तो सकते में रह गई यह सुन कर. शकु और बाहर जमा हुआ जामुन का पेड़ एक ही उम्र के थे. उन सब ने मिल कर खट्टी कमरख, मीठे लंगड़े आम के बिरवे रोपे थे. उन्हें यहां से निकालने का अर्थ… ऋतु ने साफ समझा…गैरेज के सामने ईंटों की सड़क के नीचे तक जमी जड़ें उखाड़ने में कोठी की नींव हिल जाएगी.

‘‘मां से कहा,’’ ऋतु ने पूछा.

‘‘नहीं जीजी, मैं ने तो उन्हें कुछ नहीं बताया. तुम्हारा इंतजार कर रही थी…’’

‘‘अच्छा, मैं बात करूंगी,’’ आश्वासन दे दिया था ऋतु ने.

बड़े भैया से जिक्र किया तो वे बोले, ‘‘जानती हो 200 गज जमीन पर पैर फैलाए बैठे हैं ये लोग, हथिया लेंगे. मां तो कुछ देखती ही नहीं, नुकसान तो हमारा होगा…’’ इतनी हमदर्दी जमीन के टुकड़े से और मां के बचेखुचे जीवन के प्रति कितने उदासीन. ऋतु का मन फट गया. पिताजी के दुख में जब उपमा अमेरिका से आई थी तो चलतेचलते उस ने रोरो कर कहा था, ‘‘देख लेना जीजी, हमारे भाई मां के दिल पर बोझ ही बोझ डालेंगे.’’

उपमा मुंहफट थी. जब भी अमेरिका से आती भाईभाभियों से कहासुनी हो ही जाती. पिताजी के जीतेजी एक बार जब वह सपरिवार आई तो मां ने उसे लाड़प्यार से, उपहारों से लाद दिया. सूटकेस में कपड़े सजाते हुए बडे़ भाई व भाभी को मां की दी साड़ी दिखा कर बोली, ‘‘यह सिल्क की साड़ी देख कर मेरी सहेलियां जल जाएंगी, हाय कितनी सुंदर है,’’ पर बड़ी भाभी के मुख पर छिटक आई नफरत की बदली ऋतु ने देख ली थी.

भाई ने अचानक कह दिया, ‘‘मां को चाहिए कि दीवाली की साड़ी सिर्फ अपनी बेटियों को न दे कर तीनों बहुओं को भी दिया करें.’’

उपमा के हाथों से साड़ी गिरतेगिरते बची. सहज हो कर उस ने कटाक्ष किया, ‘‘तब तो मां ने जो 3 हिस्सों में जेवर बांटा है हमें भी मिलना चाहिए था.’’

‘‘उपमा, बड़े भाई से ऐसे बात की जाती है?’’ ऋतु ने डांटा था.

‘‘बड़ा भाई भी छोटी बहन को मां से मिली स्नेहगठरी पर तीर नहीं चलाता,’’ और उपमा ने अच्छाखासा हंगामा खड़ा किया. बात मां तक जातेजाते बची वरना मां बहुत गरममिजाज थीं. हवाईअड्डे पर उपमा बहुत रोई थी, ‘‘जीजी, मां की याद आती है…’’

और अभी कुछ दिन पहले उपमा की चिट्ठी ने ऋतु का सुखचैन छीन लिया था. उस ने लिखा था, ‘‘जीजी, पिछले साल की राखी और भैयादूज दोनों पर टीके भेजे पर किसी भाई ने जवाब नहीं दिया. मां भी न रहीं तो मैं तो वैसे ही विदेशी हूं. मेरा बचपन, मेरा घरआंगन छिन जाएगा. तुम मेरी तरफ से मां से कहना कि बराबर का हिस्सा नहीं लेकिन एक कमरा और बाथरूम मेरे नाम लिख दें, मेरे तो ससुराल वाले भी घर और खेत बेच कर अमेरिका आ गए हैं. मैं नहीं चाहती कि भारत से मेरी जड़ें ही उखड़ जाएं.’’

ऋतु जितनी बार यह चिट्ठी पढ़ती, उतनी बार बेचैन हो उठती. वह जानती थी कि मां चाहें अपनी बेटियों को कितना भी प्यार करें पर जहां तक पुश्तैनी मकान व पिता की संपत्ति का संबंध है, वहां उत्तराधिकारी उन के बेटेपोते ही हैं. जायदाद में हिस्सा मांगने वाली बेटी, अम्मा के समाज में ‘नालायक’ समझी जाती है.

पड़ोस वाली चाची कह तो रही थीं एक दिन. वे सदैव ऋतु से बातें करती थीं, ‘‘कैसा जमाना आ गया है, 20 नंबर वाले राजन बाबू की चारों बेटियों ने बाप से हिस्सा मांग लिया. यह भी नहीं सोचा कि इकलौता भाई दिल का मरीज है, 4-4 बच्चों का बाप, ऊपर से स्कूल के अध्यापक की तनख्वाह… बेचारा, बाप के मकान के सहारे जिंदगी गुजार रहा था.’’

‘‘सच, यह तो बड़ा बुरा किया राजन बाबू की लड़कियों ने. चारों इतने रईस घर गई हैं, एकएक पर दोदो कारें हैं,’’ ऋतु को राजन बाबू के लड़के पर बड़ी दया आई. भाई के समान ही तो थे बस्ती के सभी लड़के. पासपड़ोस की बातें करते ऋतु को यह भी याद नहीं रहा कि दीमक तो इस घर में भी लग रही है. आखिर उस ने मेरठ जाने का मन बना ही लिया.

इलाहाबाद से मेरठ तक ऋतु खयालों में डूबतीउतराती रही. शकु की बेटी जो ऋतु की बेटी अनु की हमउम्र थी, उस ने अनु से कहा था, ‘‘अनु, पता है, मंझली उषा भाभी क्या कहती थीं…कहती थीं, बड़ी ननद अपनी मां को इसलिए मक्खन लगा रही हैं कि बेटेबहुओं का पत्ता साफ कर यह कोठी हजम कर जाएं.’’

‘‘अनु, नौकरों की बात न सुनने की होती है और न विश्वास करने योग्य,’’ ऋतु ने अपनी बेटी के मुख से सुनी बात पर डांटा था. उषा भाभी फौजी की पत्नी हो कर मक्खन की लिपाई से आगे सोच ही क्या सकती हैं? ऋतु का मन आक्रोश से भर गया. पर कहते हैं न कि बिना आग के धुआं नहीं होता, अवश्य कुछ तो सुलग रहा था इस घर में. उपमा की चिट्ठी तो इस आग में घी का काम करेगी.  और मां बारबार ऋतु से कहतीं, ‘‘बैठ कर इस घर के हिस्से बंटवा जा, तेरे भाईबहन तो किसी काम के हैं नहीं.’’  उधर अशोक की हिदायतें कि मायके वालों के जमीनजायदाद के बीच मत पड़ना, वरना तुम्हारा मेरठ जाना बंद. करे तो क्या करे?

मेरठ पहुंची तो मन खुशी से भर गया. स्टेशन पर भाईभाभियां, भतीजेभतीजियां सभी आए थे. उपमा होती तो पूछ लेती, ‘‘क्या मामला है, आज गाड़ी में पैट्रोल क्या मां ने डलवाया है, वरना इतनी मेहरबानी कैसे?’’  पर ऋतु उस स्नेह की छाया में तृप्त हो गई. आज पहली बार पिताजी के बिना घर घर लग रहा था. थकेहारे बुढ़ापे के सहारे की जगह नहीं. खूब फलमिठाई और बरसों से संभाल कर रखी मां की कटलरी क्रौकरी से खाने की मेज सजी. उपमा की राखी भी मेरठ के पते पर पहुंच गई थी.  रात को सब के सोने के बाद अम्मा चुपके से ऋतु को उठा कर अपनी पूजा की कोठरी में ले गईं. घर के बंटवारे की चिंता मां को सोने नहीं देती थी.  पूजाघर में मां ने जो एक प्रस्ताव बना कर कागज पर लिखा था, उसे देख कर ऋतु को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो.

‘‘यह क्या मां, 3 की जगह, बराबर- बराबर 5 हिस्से. नहींनहीं, मुझे तुम्हारी संपत्ति का कोई हिस्सा नहीं चाहिए.’’

‘‘अशोक क्या कहेंगे? मेरे ससुर ने अपने ताऊ से करोड़ों की भागीदारी में भी कुछ नहीं कहा, उन्होंने उन्हें मकान का बाहरी हिस्सा दिया. वे उसी में रहते रहे… सेवानिवृत्त होने तक.’’

ऋतु का चेहरा फक पड़ गया, ‘‘तब तो पगली भाभी की बात ठीक निकली…नहीं मां, इसे तुम बेटों में ही बांटो…’’

‘‘अरी, मुझ से ही माल लेंगी और मुझ से ही सीधे मुंह बात नहीं करेंगी.’’

‘‘जो भी हो, वे ही तुम्हारे वंशज हैं. हां, चाहो तो उपमा को…’’ और ऋतु ने उपमा  की चिट्ठी के अंश मां को सुना दिए.

‘‘ठीक है, बेटी मां से नहीं मांगेगी तो किस से मांगेगी.’’

रात भर मां और ऋतु यादों की गंगायमुना में तैरती रहीं. पिताजी को याद कर दोनों रोती रहीं. अपनी शादी से आज तक के खट्टेमीठे अनुभव याद करतेकरते कब भोर हो गई पता ही नहीं चला. पौ फटने से पहले ऋतु ने बंटवारे के कागजों का रुख मोड़ दिया था. उपमा के लिए बाहर का एक कमरा व बरामदा तथा शेष पूरा घर, दिल्ली की जमीन तीनों भाइयों में बराबर बंट गई.

‘‘और तू?’’ मां ने पूछा.

‘‘मुझे तुम्हारी यह गोद मिली रहे…और मां, मैं चाहती हूं कि जब मेरी बेटियों का ब्याह हो और औरतें मंगलाचार गाएं तो मेरे घर की दहलीज पर भाईभाभी, भतीजे- भतीजियों की बरात लग जाए. मैं भी औरतों की टोली में बैठ कर गा सकूं, ‘मत बरसो इंदर राजाजी, मेरी मां का जाया भीजै’.’’

अगले दिन, राखी टीके से पहले भाई ने ऋतु से ‘अपना हिस्सा न मांगने वाले’ कानूनी दस्तावेज पर दखत करा लिए, दस्तखत करते हुए उसे कहीं से एक राहत भरी गहरी निश्वास सुनाई पड़ी. तीनों भाभियों ने राखी के उपलक्ष्य में ऋतु को सुंदर साडि़यां भेंट कीं. उपमा की राखी भी ऋतु ने बांध दी थी. उपमा के हिस्से वाली बात मांबेटी छिपा गई थीं, इस डर से कि कहीं विदेशी बहन के भेजे स्नेहधागे तिरस्कृत न हो जाएं.

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