और रिश्ते टूट गए : निशि की मौसीजी ने उसका कौनसा राज खोल दिया?

ौ‘‘सभी मौसियां राधास्वामी मत को मानने वाली बनी फिरती हैं, अक्ल धेले की नहीं है,’’ निशि, मेरी साली की बेटी के उक्त शब्द पास से गुजरते जब मेरे कानों में पड़े तो मेरे तनबदन में आग लग गई. सर्दी की इस उफनती रात में भी भीतर के कोप के कारण मैं ने स्वयं को अत्यंत उग्र पाया. इस का जवाब दिया जाना चाहिए. जैसे ही मैं पीछे को मुड़ा, मेरी पत्नी सरला मेरे मुड़ने का आशय समझ गई. सरला ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस समय नहीं. इस समय हम किसी के समारोह में आए हुए हैं, मैं नहीं चाहती, कुछ अप्रिय हो.’’

‘‘एक बच्ची हो कर उसे इस बात का खयाल नहीं है कि बड़ों से कैसे बात की जाती है या की जानी चाहिए, तो उसे इस बात का प्रत्युत्तर मिलना चाहिए. इस को उस की स्थिति का संज्ञान करवाना आवश्यक है. बस, तुम देखती जाओ.’’

मैं निशि के पास जा कर बैठ गया. उस के सासससुर भी बैठे हुए थे. मैं ने कहा, ‘‘निशि बेटा, क्या कहा तुम ने?’’ उस का ढीठपना तो देखो, उस ने वही बात दोहरा दी. उसे सासससुर का भी लिहाज नहीं रहा.

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मेरे स्वर में तीखापन था.

‘‘देखो न बडे़ मौसा, परसों मेरे फूफा की मृत्यु उपरांत उठाला था. कोई मौसी नहीं आई,’’ वह हमेशा मुझे बड़े मौसा कह कर बुलाती थी.

‘‘क्यों, तुम ने अपने मम्मीपापा से नहीं पूछा?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘कुछ भी कहने से पहले तुम्हें उन से पूछना चाहिए था. नहीं पूछा तो कोई बात नहीं. वैसे तो तुम बच्ची हो, तुम्हें बड़ों की बातों में नहीं पड़ना चाहिए था. अब तुम पड़ ही गई हो तो तुम्हें हमारे मन के भीतर के तीखेपन का भी अनुभव करना पड़ेगा,’’ मैं अल्प समय के लिए रुका, फिर कहा, ‘‘तुम्हें अपने मायके के परिवार के बुजुर्गों की कहां तक याद है?’’

‘‘मुझे याद है जब पापा की चाची की मृत्यु हुई थीं.’’

‘‘तो फिर तुम्हें यह भी याद होगा कि हम सब यानी तुम्हारी मौसियां, मौसा तुम्हारे पापा की चाची, चाचा और मां यानी तुम्हारी दादी की मृत्यु पर कब हाजिर नहीं हुए? यहां तक कि आजादपुर मंडी के पास डीडीए फ्लैट में, मुझे नहीं पता वे तुम्हारे पापा के क्या लगते थे, हम वहां भी हाजिर थे. नोएडा में भी पता नहीं किस की मृत्यु हुई थी, हम पूछपूछ कर वहां भी हाजिर हुए थे. इतनी दूर फरीदाबाद से इन स्थानों पर जाना कितना मुश्किल होता है, तुम जैसी लड़की को इस बात का अनुभव हो ही नहीं सकता.’’

मैं ने अपने जज्बातों को काबू में किया और फिर बोला, ‘‘पिछले वर्ष मेरी मां की मृत्यु हुई थी. अपने भाई संग हरिद्वार में उन के फूल प्रवाहित करने के बाद जब घर लौटा तो सभी जाने कहांकहां से अफसोस करने आए थे. अपने पापा से पूछना, वे आए थे? अरे, आना तो दूर अफसोस का टैलीफोन तक नहीं किया.’’

‘‘मुझे याद है, उन दिनों पापा के घुटनों में दर्द था,’’ निशि ने सफाई देनी चाही.

‘‘सब बकवास है. टैलीफोन करने में घुटनों में दर्द होता है? उस के 2 रोज बाद तुम्हारे मामा ससुर की मृत्यु हुई थी. वहां 6 घंटे का सफर कर के श्रीगंगानगर अफसोस प्रकट करने गए थे, तब उन के घुटनों में दर्द नहीं हुआ? तब ये तुम्हारे फूफाजी भी जीवित थे. क्या उन का मेरी मां की मृत्यु पर अफसोस करना नहीं बनता था? तब वे कहां गए थे? तुम्हारे मम्मीपापा ने उन को बताया ही नहीं होगा, नहीं तो वे तुम्हारी तरह, तुम्हारे मम्मीपापा की तरह असभ्य नहीं हैं. मैं उन को तुम्हारे पापा की शादी के पहले से जानता हूं.

‘‘और जिन मौसियों के लिए तुम इस प्रकार के असभ्य शब्दों का प्रयोग कर रही हो उन्होंने भी तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है. वह सब तुम भूल गईं? याद करो, तुम्हारी पंजाबी बाग वाली मौसी और मौसा, जिन को आज तुम नमस्ते करना भी गंवारा नहीं समझतीं, तुम्हारे ब्याह की सारी मार्केटिंग उन्होंने ही करवाई. घर पर बुला कर न केवल तुम्हें बल्कि तुम्हारे ससुराल वालों को खाना खिलाया, शगुन भी दिए. न केवल इस मौसी ने बल्कि सभी मौसियों ने ऐसा ही किया. उन के बहूबेटों को किस ने खाना खिलाया अथवा शगुन दिए? तुम्हारी बेटी होने पर पंजाबी बाग वाली मौसी ने 9-9 किलो की देसी घी की पंजीरी अपने पल्ले से बना कर दी. तुम इतनी जल्दी भूल गईं. एहसानफरामोश कहीं की…अपने पापा की तरह.’’

‘‘आप को मेरे और मेरे पापा के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करने का कोई अधिकार नहीं है.’’

‘‘और तुम्हें ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहने का अधिकार है? मैं बताता हूं, तुम्हारे पापा एहसानफरामोश कैसे हैं. तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा के दिल का औपरेशन हो रहा था. नए वाल्व पड़ने थे.’’

‘‘जी, याद है.’’

‘‘औपरेशन के लिए 9 यूनिट खून चाहिए था. वह पूरा नहीं हो रहा था. तुम्हारे इसी पंजाबी बाग वाले मौसा ने और मैं ने अपना खून दे कर उस कमी को पूरा किया था. याद आया?’’

‘‘जी.’’

‘‘आज तक अनेक विसंगतियां होने के बावजूद हम मूक रहे तो केवल इसलिए कि हम खूनदान जैसे पवित्र कार्य को लज्जित नहीं करना चाहते थे. लेकिन तुम्हारे और तुम्हारे पापा के खराब व्यवहार ने हमें मजबूर कर दिया. यह नहीं है कि तुम्हारी मम्मी इस तरह के व्यवहार से अछूती हैं. जानेअनजाने में वे भी तुम्हारे पापा संग खड़ी हैं. न खड़ी हों तो मार खाएं, क्यों? यह तुम बड़ी अच्छी तरह से जानती हो.’’

निशि ने मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया. शायद उस के पास कोई उत्तर था ही नहीं. परंतु मैं प्रहार करने से नहीं चूका, ‘‘अरे छोड़ो, तुम्हारे पापा को हमारे दुख से दुख तो क्या हमारी खुशी से भी कोई खुशी नहीं थी. तुम्हें याद होगा, हमारी 25वीं मैरिज ऐनीवर्सरी में तुम किस प्रकार अंतिम क्षणों में पहुंचीं. तुम्हारे पापा फिर भी न आए जबकि तुम्हें पता है, तुम्हारे पापा को स्वयं मैं ने कितने प्यार और सम्मान से बुलाया था.

‘‘तुम्हारी मम्मी ने न आने के लिए कितना घटिया बहाना बनाया था, शायद तुम्हें याद न हो? वहां चोरियां हो रही हैं, इसलिए वे नहीं आए. क्या तुम अपने समारोहों में इस प्रकार के बहाने स्वीकार कर लेतीं? सत्य बात तो यह है, वे हमारी खुशी में कभी शामिल ही नहीं होना चाहते थे. कभी हुए भी तो मन से नहीं. यह तुम भी जानती हो और हम भी. यह बात अलग है, तुम इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न कर सको.

‘‘और मेरे बेटे सोमू की शादी में क्या हुआ? मौसा की मिलनी थी. बड़े मौसा होने के नाते मिलनी का अधिकार तुम्हारे पापा को था. कुछ समय पहले वे वहीं खड़े थे. हम ने आवाजें भी दीं परंतु वे जानबूझ कर वहां से खिसक गए. मिलनी तुम्हारे पंजाबी बाग वाले मौसा को करनी पड़ी. और उन की शराफत देखो, यह नहीं कि जो पैसे और कंबल मिला अपने पास रख लें बल्कि उस सब को तुम्हारे मम्मीपापा को दे दिया क्योंकि यह उन्हीं का अधिकार समझा गया. तुम्हारी शादी में मेरे साथ क्या हुआ? मिलनी के लिए 4 बार पगड़ी पहनाई गई, 4 बार उतारी गई और मिलनी फिर भी न करवाई गई. हम ने तो मिलनी करवाने के लिए नहीं कहा था. इस प्रकार बेइज्जत करने का अधिकार तुम्हारे मम्मीपापा को किस ने दिया?  इस प्रश्न का उत्तर है तुम्हारे मायके वालों के पास?

‘‘कालांत में सोचा था, तुम सब इस योग्य ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए, लेकिन तुम्हारे पापा तो अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. क्या तुम अथवा तुम्हारी मम्मी इस के प्रति नहीं जानतीं? जानती हैं परंतु इसे दूसरों के समक्ष स्वीकार नहीं करना चाहतीं.

‘‘उसी शादी में तुम्हारे पापा ने कहा था कि मैं ने खाना ही नहीं खाया. जब वीडियो रील बन कर आई तो उस में प्लेट भर कर खाना खाते देखा गया. अपने पापा की इस हरकत को तुम किस संज्ञा का नाम दोगी? यह नहीं है कि तुम्हें, तुम्हारी मम्मी और तुम्हारे भाई को इस के प्रति पता नहीं है. बस, उक्त कारणों से तुम सब स्पष्ट स्वीकार नहीं कर पाते.’’

निशि ने फिर भी मेरी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया या मुझे यह समझना चाहिए कि वह मेरे समक्ष निरुत्तर हो गई है परंतु मेरी बात अभी समाप्त नहीं हुई थी, ‘‘तुम्हारे भाई ने कार ली, हम सब ने बधाई दी. हमारे बच्चों ने भी कारें लीं, हमें किस ने बधाई दी? यह तीखा प्रश्न आज भी मेरे समक्ष मुंहबाए खड़ा है.

‘‘पिछले दिनों मैं और सरला अमृतसर में थे, तुम्हारे नानानानी के पास. तभी तुम्हारी मम्मी का टैलीफोन आया था कि कार लेने की इन को बधाई दे दो और कहना कि वे ब्यास गए हुए थे इसलिए बधाई देने में देर हो गई. बधाई दे दी गई. सभी तो चुप रहे पर तुम्हारी मामी बोली थीं कि जब कभी निशा दीदी यानी तुम्हारी मम्मी उन के सामने होगी तो वे पूछेंगी कि उन के भाई ने जाने कैसेकैसे अपना घर बनाया, उस को बधाई किस ने दी? मैं जानता हूं, उस समय इस प्रश्न का उत्तर न तुम्हारी मम्मी के पास होगा और न तुम्हारे पापा के पास. मुझे आश्चर्य नहीं होगा, उस समय इस प्रश्न से बचने के लिए तुम्हारे पापा जानबूझ कर कहीं खिसक जाएं जैसा वे अकसर करते हैं.

‘‘मामू के गृहप्रवेश में तुम्हारे भाई के जाने तक बात नहीं बनती थी बल्कि तुम्हारे मम्मीपापा का टैलीफोन पर बधाई देना भी बनता था. पूछना, बधाई दी थी? क्या औरों से ऐसी आशा करना मूर्खता नहीं है जो वे स्वयं नहीं कर सकते?

‘‘तुम्हें याद होगा निशि, अपने पापा की एक और बेमानी हरकत का? एक मौसी की बेटी की शादी में वे नहीं आए थे. जब तुम्हारी शादी हुई, सब के समझाने पर तुम्हारी वह मौसी न केवल स्वयं उपस्थित हुईं बल्कि अपने परिवार को ले कर आईं, यह सोच कर कि यदि एक व्यक्ति गलत है तो उसे खुद को गलत नहीं होना है. जानती हो…तुम भी तो वहीं थीं, प्रसंग उठने पर किस प्रकार तुम्हारे पापा ने उन की बेइज्जती करने में एक क्षण भी नहीं लगाया था, ‘हम ने कौन सा बुलाया है.’ उस समय मेरे मन में बड़े तीखे रूप से आया था कि तुम सब ऐसे हो ही नहीं जिन से किसी प्रकार का संबंध रखा जाए.

‘‘तुम्हें अफसोस होगा कि कल तुम्हारी मैरिज ऐनीवर्सरी थी और मौसियों ने तुम्हें बधाई नहीं दी. तुम मौसियों को ‘धेले की अक्ल नहीं है’ कहती हो और तुम्हारा भाई उन के राज खोलने की बात करता है. क्या तुम समझती हो ऐसी स्थिति में तुम से, तुम्हारे भाई से, तुम्हारे मम्मीपापा से किसी प्रकार के संबंध रखे जा सकते हैं? बल्कि यह कहने की आवश्यकता है कि हमें माफ करो, भविष्य में तुम्हें हमारे दुखसुख से कुछ लेनादेना नहीं है और न ही हमें. मुझे एक कहावत स्मरण हो रही है कि सांप के बच्चे सपोलिए.’’

मैं मूक हो गया था. शायद मेरे पास और कुछ कहने को शेष नहीं था. निशि भी मूक थी. उस का मुंह खुला का खुला रह गया था. अपने मायके वालों के ऐक्सपोज हो जाने से वह अवाक् थी. निशि के सासससुर भी मूक और भावशून्य बैठे थे. शायद वे भी अपनी बहू की बदतमीजी और बदजबानी के प्रति जानते थे. मुझे नहीं लगता है कि निकट भविष्य में कोई इन टूटते रिश्तों को बचा पाएगा.

इन्टौलरैंस: दृष्टि को क्यों पड़ा आवाज उठाना भारी

लेखिका- दिव्या शर्मा

‘‘कूड़ा…’’घर के बाहर कूड़े वाले ने जोर से आवाज लगाते हुए गेट पर हाथ मारा.‘‘यह कमीना भी उसी वक्त आता है जब इंसान जरूरी काम कर रहा होता है,’’ दृष्टि ने भुनभुनाते हुए फोन मेज पर रखा और फिर डस्टबिन उठा कर बाहर की ओर लपकी.

बाहर जा कर देखा तो कूड़े वाला 3 मकान छोड़ कर खड़ा था और सब के कूड़े में से कूड़ा छांट रहा था.

‘‘अब आ कर ले जा… कब तक हाथ में कूड़ा लिए खड़ी रहूंगी,’’ तमतमा कर वह चिल्लाई.

‘‘आ रहा हूं 2 मिनट रुकिए,’’ उस ने जवाब दिया और फिर से कूड़ा छांटने लगा.

‘‘अब इस का भी इंतजार करो… कुछ कह दो तो नखरे दिखाने लगेंगे. यह इन्टौलरैंस किसी को दिखाई नहीं देती,’’ बुदबुदाते हुए वह डस्टबिन पटक अंदर चली गई और फोन उठा कर बाहर आ गई तथा फेसबुक पर ‘इन्टौलरैंस का शिकार होती महिलाएं’ शीर्षक पर लिखे गए लेख पर चल रही बहस में शामिल हो गई.

‘सब से ज्यादा बरदाश्त कर रही हैं हम औरतें. हर जगह, हर संस्कृति में हमें दबाया जाता है,’ दृष्टि ने प्रतिउत्तर में एक टिप्पणी लिख दी थी.

‘कौन दबा रहा है मैडम? असल में औरतें बहुत होशियार होती हैं. फायदे के लिए खुद को बेचारी बनाए रखना चाहती हैं,’ किसी ने उस की टिप्पणी के उत्तर में लिख दिया.

‘औरतें कभी फायदा नहीं उठातीं, बल्कि तुम जैसे लोग अपनी मां का भी फायदा उठाते हो,’ उस की महिला मित्र ने जवाबी टिप्पणी लिख दी.

इस के बाद जैसे सब ने उस के विरुद्ध मोरचा ही खोल दिया.

किसी ने लिखा कि महावारी पर नौटंकी करतीं ये औरतें ?ाठा फैमिनिज्म का एजेंडा चला रही हैं. किसी ने उच्छृंखल कहा तो किसी ने लिखा कि इसे औरतों के साथ न जोड़ो. किसी ने लिखा कि यह तुम्हारा ?ाठा नारीवाद है और किसी ने वामपंथी कह कुछ गालियां लिख दीं.

दृष्टि सब को जवाब दे रही थी कि तभी उसे परेशान करने कूड़े वाला आ गया. वह अब तक वहीं खड़ा था. दृष्टि का गुस्सा बढ़ता जा

रहा था.

दृष्टि पोस्ट पर आए कमैंट्स को देखने लगी. तभी एक कमैंट ने उस के दिमाग के पारे को और बढ़ा दिया. किसी ने लिखा कि इस देश में सिर्फ मुसलमान और दलित ही असहिष्णुता के शिकार हो रहे हैं. इस से ध्यान भटकाने के लिए तुम जैसी महिलाएं ऐसे प्रपंच रचती हैं.

‘‘सामने होता तो इस की गरदन दबा देती… ओ आएगा कि नहीं तू?’’ कमैंटकर्ता को गाली देते हुए वह कूड़े वाले पर फिर चिल्लाई.

अगले पल वह उस के सामने था. उस ने दृष्टि के हाथ से डस्टबिन ली और अपनी गाड़ी में उलट दी.

वापस मुड़ती दृष्टि कुछ देख अचानक ठिठक गई. कूडे़ वाले की गाड़ी पर नजर डाल कर कुछ देखने लगी. वहां पड़े महल्ले भर के कूड़े को उस ने अपने हाथों से अलगअलग किया हुआ था, जिस में शामिल थे खून से सने सैनिटरी पैड्स डायपर्स और न जाने क्याक्या. यह देख वह खुद पर शर्म महसूस करने लगी और सोच में पड़ गई कि समाज में इन्टौलरैंस के असली शिकार कौन हैं?’’

दृष्टि की उंगली फोन पर एक बार और थिरक उठी. अब उस के कमैंट में मुद्दा कूड़े वाला था.

क्यों दूर चले गए

सामाजिक मान्यताएं, संस्कार और परंपराएं व्यक्ति को अपने मकड़जाल में उलझाए रखती हैं. ऐसे में या तो वह विद्रोह कर के सब का कोपभाजन बने या फिर परिस्थितियों से समझौता कर के खुद को नियति के हाल पर छोड़ दे. किंतु यह जरूरी नहीं कि वह सुखी रह सके.

मैं भी जीवन के एक ऐसे दोराहे पर उस मकड़जाल में फंस गया कि जिस से निकलना शायद मेरे लिए संभव नहीं था. कोई मेरी मजबूरी नहीं समझना चाहता था. बस, अपनाअपना स्वार्थ भरा आदेश और निर्णय वे थोपते रहे और मैं अपने ही दिल के हाथों मजबूरी का पर्याय बन चुका था.

मैं जानता हूं कि पिछले कई दिनों से खुशी मेरे फोन का इंतजार कर रही थी. उस ने कई बार मेरा फैसला सुनने के लिए फोन भी किया था मगर मेरे पास वह साहस नहीं था कि उस का फोन उठा सकूं. वैसे हमारे बीच कोई अनबन नहीं थी और न ही कोई मतभेद था फिर भी मैं उस का फोन सुनने का साहस नहीं जुटा सका.

मैं ने कई बार यह कोशिश की कि खुशी को फोन पर सबकुछ साफसाफ बता दूं पर मेरा फोन पर हाथ जातेजाते रुक जाता और दिल तेजी से धड़कने लगता. मैं घबरा कर फोन रख देता.

खुशी मेरी प्रेमिका थी, मेरी जान थी, मेरी मंजिल थी. थोडे़ में कहूं तो वह मेरी सबकुछ थी. पिछले 4 सालों में हमारे बीच संबंध इतने गहरे बनते चले गए कि हम ने एकदूसरे की जिंदगी में आने का फैसला कर लिया था और आज जो समाचार मैं उसे देने जा रहा था वह किसी भी तरह से मनोनुकूल नहीं था. न मेरे लिए, न उस के लिए. फिर भी उसे बताना तो था ही.

मैं आफिस में बैठा घड़ी की तरफ देख रहा था. जैसे ही 2 बजेंगे वह फिर फोन करेगी क्योंकि इसी समय हम दोनों बातें किया करते थे. मैं भी अपने काम से फ्री हो जाता और वह भी. बाकी आफिस के लोग लंच में व्यस्त हो जाते.

मैं ने हिम्मत जुटा कर फोन किया, ‘‘खुशी.’’

‘‘अरे, कहां हो तुम? इतने दिन हो गए, न कोई फोन न कोई एसएमएस. मैं ने तुम्हें कितने फोेन किए, क्या बात है सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ठीक ही है. बस, तुम से मिलना चाहता हूं,’’ मैं ने बडे़ अनमने मन से कहा.

‘‘क्या बात है, तुम ऐसे क्यों बोल रहे हो? न डार्लिंग कहा, न जानू बोले. बस, सीधेसीधे औपचारिकता निभाने लग गए. घर पर कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘हां, हुई तो थी पर फोन पर नहीं बता सकता. तुम मिलो तो सारी बात बताऊंगा.’’

‘‘देखो, कुछ ऐसीवैसी बात मत बताना. मैं सह नहीं पाऊंगी,’’ वह एकदम घबरा कर बोली, ‘‘डार्लिंग, आई लव यू. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘आई लव यू टू, पर खुशी, लगता है हम इस जन्म में नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘यही खुशखबरी देने के लिए तुम मुझ से मिलना चाहते थे,’’ खुशी एकदम असंयत हो उठी, ‘‘तुम ने जरा भी नहीं सोचा कि मुझ पर क्या बीतेगी. क्या सोचेंगे वे लोग जो हमें हमेशा एकसाथ देखते थे. यही है तुम्हारा प्यार. तुम्हारे कहने पर ही मैं ने मम्मीपापा को अपने रिश्ते के बारे में बताया था. आज क्या कहूंगी कि सब झूठ है,’’ इतना कहतेकहते खुशी रो पड़ी और फोन काट दिया.

इस के बाद मैं ने कितनी ही बार उसे फोन किया पर हर बार वह काट देती और अंत में उस ने फोन ही बंद कर दिया.

मैं एकदम परेशान हो गया. कहता भी तो किस से.

खुशी का मुझ से गुस्सा होना स्वाभाविक था. मैं ने ही उस से झूठेसच्चे वादे किए थे. मैं ने उस को एक सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया था. अपना सुखदुख उस से बांटा था. उस ने हर समय मुझे एक रास्ता दिखाया था. मेरे बीमार होने पर वह बुरी तरह परेशान हो जाती थी और बिना कहे कई दवाइयां सीधे मेरे आफिस भिजवा देती और मेरे चपरासी को फोन कर के ढेर सारी हिदायतें भी देती. वह जानती थी कि मैं अपने प्रति बेहद लापरवाह हूं. आज मैं ने उस के सारे सपने पल भर में ही तोड़ दिए.

शाम को उदास मन और भरे दिल से मैं घर पहुंचा. मुझे देखते ही भाभी ने पूछा, ‘‘क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कहते हुए मैं रोंआसा सा हो गया. मुझे लगा कि वहां कुछ देर और खड़ा रहा तो आंसू न आ जाएं, इसलिए खुद को संभालता हुआ चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बिस्तर पर गिरते ही मेरा सारा अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. रोतेरोते आंसू तो सूख गए पर भीतर का मन शांत न हो सका. थोड़ी देर में भाभी ने खाने के लिए पूछा. मैं ने कह दिया कि खा कर आ रहा हूं, भूख नहीं है पर खाया कब था, मैं अपने विचारों से जितना बचना चाहता था वे मुझे उतना ही सताने लगे.

खुशी से मेरी मुलाकात 4 साल पहले आफिस के बाहर वाले बस स्टैंड पर हुई थी. उजला वर्ण, तीखी नाक, लंबा कद और सधी हुई देहयष्टि. ऊपर से कपडे़ पहनने का ढंग इतना निराला था कि मैं उसे देखे बिना नहीं रह सका और पहली ही नजर में वह आंखों के रास्ते दिल में उतर गई. हमारी चार्टर्ड बस और आफिस के छूटने का लगभग एक ही समय था. मैं 5 मिनट पहले ही बस स्टैंड पर पहुंच जाता. पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता था कि उस की आंखें निरंतर मुझे ही तलाशती रहती हैं. धीरेधीरे वह भी आतेजाते मुझे देख कर हंस देती. इस तरह हम एकदूसरे के करीब आ गए. उस के पिता नेवी में उच्च पद पर थे तथा मेरे पिता मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर थे.

बीतते दिनों के साथ खुशी से मेरा प्रेम भी परवान चढ़ता गया. हमारी मुलाकातों की संख्या और समय दोनों बढ़ते रहे. इस दौरान मुझे सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली एक बड़़ी कंपनी में बहुत अच्छा औफर मिला और मैं ने उसे स्वीकार कर लिया. अब दोनों के दफ्तरों में कई किलोमीटर का फासला हो गया था. इस के बावजूद भी हम कोई न कोई बहाना ढूंढ़ कर मिलते रहे. हम दोनों कभी फिल्में देखते तो कभी बिना मकसद बांहों में बांहें डाल कर इधरउधर घूमते.

एक दिन खुशी ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख कर कहा, ‘अब बहुत हो चुकी है चुहलमस्ती. सीधीसीधी बात बताओ, कब मिला रहे हो मुझे अपनी मम्मी से.’

‘अरे, तुम तो दिल के रास्ते सीधा घर पर कब्जा करने की सोच रही हो,’ मैं ने मजाक के लहजे में कहा.

‘मेरे पापा अब रिटायर होने वाले हैं. वह चाहते हैं कि मेरी जल्दी से शादी हो जाए ताकि नौकरी में रहते हुए वह अपनी तमाम सुविधाओं का उपयोग कर सकें. रिटायरमेंट के बाद तो हम सिविलियन हो जाएंगे. फिर कहां ये सुविधाएं मिलेंगी.’

‘तो कोर्ट मैरिज कर लेंगे,’ मैं ने चुटकी लेते हुए कहा और उस के माथे पर घिर आई लटों को पीछे करने के बहाने उसे अपने अंक में भींच लिया. उस ने बिना कोई प्रतिवाद किए अपना सिर मेरे कंधों पर टिका दिया.

‘सच कहूं तो मुझे इन मजबूत कंधों की बहुत जरूरत है. प्लीज, मेरी बात को सीरियसली लेना, नहीं तो तुम्हारी खुशी तुम्हारे हाथ से निकल जाएगी,’ कहतेकहते वह रोंआसी हो गई.

मैं ने उस की भर आई आंखों के कोरों से बहने वाले आंसू के कतरे को अपनी उंगलियों से पोंछा, ‘तुम तो बेहद संजीदा हो गई हो.’

‘हां, बात ही कुछ ऐसी है. इन दिनों मेरे रिश्ते की बातें चल रही हैं. तुम एक बार अपने घर पर बात कर लेते तो मैं भी कम से कम उन्हें बता देती.’

‘कौन सी बात? मैं ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘क्या कहोगी मेरे बारे में?’

‘यही कि तुम बेवकूफ हो, बुद्धू हो, एकदम बेकार और गुस्से वाले हो, पर तुम मेरे हो,’ कह कर पुन: खुशी ने मेरी गोद में सिर रख दिया. देर तक हम यों ही भविष्य के सपने संजोते रहे. मैं ने उस का हाथ अपने हाथों में रखा और उसे जल्दी ही बात करने का आश्वासन दिया. हम दोनों ही वहां से विदा हो गए.

घर पर मैं अपनी बात को इस ढंग से पेश करना चाहता था कि इनकार की कोई गुंजाइश ही न रहे और इस के लिए उचित अवसर तलाशता रहा.

भैया की शादी को 2 वर्ष हो चुके थे और उन का 8 माह का एक बेटा भी था. हमारे घर का माहौल बेहद सौहार्दपूर्ण था पर घर के सभी लोग एकसाथ नहीं मिल पाते थे.

मैं सपनों में जीने लगा था. एक दिन मैं आफिस में बैठा कोई काम कर रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर पापा का फोन आया. पता चला कि भैया का एक्सीडेंट हो गया और उन्हें काफी गंभीर चोटें आई हैं. वह जीवन नर्सिंगहोम में हैं. इस से पहले कि मैं वहां पहुंचता, भैया की निर्जीव देह को लोग एंबुलेंस में डाल कर घर ले जा रहे थे.

घर पर मरघट का सा सन्नाटा पसरा था. सभी एकदम स्तब्ध रह गए थे. भाभी तो जैसे पत्थर ही बन गईं और मम्मीपापा का रोरो कर बुरा हाल था. 2-3 दिनों तक घर का माहौल बेहद गमगीन रहा.

समय अपनी गति से चलता रहा. घर का माहौल धीरेधीरे संभलने लगा. खुशी मेरी विवशता समझती थी और दिल का हाल भी. जितनी बार भी समय निकाल कर मैं ने उस से संपर्क किया, बेहद नरम आवाज में वह संवेदना व्यक्त करती और मेरे घर पर आने की जिद करती. वह चाहती थी कि मैं अपने और उस के बारे में घर पर सबकुछ बता दूं मगर मैं ऐसा कर नहीं पा रहा था.

मम्मी भाभी को ले कर बेहद चिंतित और दुखी थीं. एक तो उन का बड़ा बेटा गुजर गया था, दूसरा जवान बहू का गम. उन्हें इस बात की बेहद चिंता थी कि बहू बाकी की तमाम उम्र इस घर में कैसे बिताएगी.

एक दिन खुशी और मैं पार्क में बैठे थे. वह भरे स्वर

में कहने लगी, ‘देखो, अब तक मैं पापा को जैसेतैसे टालती रही हूं पर अब और उन्हें टाल नहीं पाऊंगी. आज भी उन्होंने मुझे कई लड़कों के फोटो दिखाए हैं. तुम ने यदि अब तक अपने घर पर बात की होती तो मैं कम से कम तुम्हारे बारे में कुछ तो कह सकती. उन का इस तरह रोजरोज बात करना तो रुक जाता. मम्मी अकेले में कई बार मुझ से मेरी पसंद की तरफ भी इशारा करती हैं.’

‘तो फिर इंतजार किस बात का है,’ मैं ने खुशी से कहा, ‘तुम मेरे बारे में सबकुछ बता दो और मेरी मजबूरी भी उन्हें बता दो कि जैसे ही मुझे मौका मिला, मैं उन से मिलने आऊंगा.’

‘सच,’ उस ने अविश्वास भरे स्वर में ऐसे पूछा जैसे उसे मुझ पर शक हो.

‘तुम ऐसे अविश्वास से मुझे क्यों देख रही हो. तुम तो जानती हो कि मैं घर पर बात करने जा ही रहा था कि ऐसा हादसा हो गया,’ मैं ने कहा.

‘ओह डार्लिंग, पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि तुम इस बात को संजीदगी से नहीं ले रहे हो.’

‘मैं भी तुम्हारे बिना रह सकता हूं क्या?’ कह कर मैं ने उस के गालों पर एक प्यारा सा चुंबन जड़ दिया तो शर्म से खुशी ने अपनी पलकें झुका लीं और कस कर मुझ से लिपट गई.

एक दिन शाम को मैं घर आया. भाभी के मम्मीपापा आए हुए थे. मैं ने उन के चरण स्पर्श किए और बाथरूम में फ्रेश होने चला गया. मेरे आने पर भाभी चाय बना कर ले आईं. घर का माहौल बेहद गमगीन और घुटा हुआ था. खामोशी तोड़ने के लिए मम्मी ने पहल की थी.

‘बहनजी, अब तो मेरे बेटे को गुजरे हुए 3 महीने हो चुके हैं. किंतु बहू की ऐसी हालत मुझ से देखी नहीं जाती. मैं जब भी इसे देखती हूं कलेजा मुंह को आता है. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता. आप ही कुछ बताइए न.’

‘मैं क्या कहूं, मैं ने तो अपनी बेटी आप को दी है. आप जैसा उचित समझें, करें,’ वह बेहद भावुक हो कर बोलीं.

‘आप इसे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाइए. वहां थोड़ा इस का मन तो बहल जाएगा,’ मम्मी ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘नहीं, मम्मीजी, मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मैं इस घर में बहू बन कर आई थी और यहीं से मेरी अंतिम विदाई भी होगी,’ भाभी धीरे से बोलीं.

‘तुम्हें यहां से कौन भेज रहा है बहू. मैं तो कह रही हूं कि कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओ. वैसे तुम इस बात को भी ध्यान से सोचना कि तुम्हारे सामने सारी उम्र पड़ी है. तुम पहाड़ जैसा जीवन किस के सहारे काटोगी.’

‘मुन्ना है न, उसी में मैं उन का रूप देखती हूं,’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं.

‘बेटी, मुझे अपने बेटे के खोने से ज्यादा गम तुम्हारा है, क्योंकि मुझे तुम से हमदर्दी भी है और आत्मीयता भी. हम भला कब तक तुम्हारा साथ देंगे. एकल परिवारों की अपनी जन्मजात मुश्किलें हैं. कल अंकित की शादी होगी. उस की अपनी गृहस्थी बनेगी. हमारे जाने के बाद कौन कैसा व्यवहार करेगा…’

‘बहनजी, वैसे तो यह आप का पारिवारिक मामला है पर यदि अंकित की कहीं और बात नहीं चली हो तो संगीता भी तो…घर की बात घर में ही बन जाएगी और आप भी चिंतामुक्त हो जाएंगी. आप सोच लीजिए…’

उन के यह शब्द सुन कर मैं एकदम सकते में आ गया. मुझे लगा यदि मैं ने कोई कदम फौरन नहीं उठाया तो शायद किसी परेशानी में न फंस जाऊं.

‘आंटी, यह आप क्या कह रही हैं? मैं अपनी ही भाभी से…’ मैं ने कहा.

‘बेटा, जब भाई ही नहीं रहा तो यह रिश्ता कैसा,’ मम्मी ने कहा. जैसे वह भी इस रिश्ते को स्वीकार कर के बैठी थीं.

‘लेकिन मम्मी…’ मैं ने चौंक कर कहा.

‘ठीक है, तो सोच कर बता देना,’ मम्मी बोलीं, ‘हम ने तो बिना झिझक एक बात कही है. बाकी तुम जैसा उचित समझो, बता देना.’

मेरे लिए अब वहां का माहौल बेहद बोझिल होता जा रहा था. मुझ से और देर तक वहां बैठा नहीं गया और मैं उठ कर चला गया.

मेरे लिए अब बेहद जरूरी हो गया था कि मैं घर पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं, पर भाभी की उपस्थिति में मैं कोई बात नहीं करना चाहता था. इधर मुझ पर लगातार खुशी का दबाव बढ़ता जा रहा था.

एक दिन भाभी किसी काम से बाजार गई हुई थीं. मम्मीपापा बाहर बरामदे में बैठे थे. उचित अवसर देख कर मैं ने बिना कोई भूमिका बांधे कहा, ‘मम्मी, मैं एक लड़की को पसंद करता हूं. पिछले कई सालों से मेरा उस के साथ परिचय है और हम शादी करना चाहते हैं.’

‘ये प्रेमप्यार सब बेकार की बातें हैं. तुम जिसे प्रेम कहते हो वह महज कुछ ही दिनों का बुखार होता है,’ पापा ने एक तरह से मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया.

‘नहीं, यह बात नहीं है,’ मैं ने मजबूती से कहा.

‘बेटा, हम तुम्हारा कोई बुरा थोड़े ही चाहेंगे,’ मम्मी ने गरमाए माहौल की तीव्रता को कम करने की कोशिश की, ‘संगीता को इस घर में रहते हुए लगभग 2 साल हो चुके हैं. अब वह हम सब को अच्छी तरह जान चुकी है और हम उसे. नई लड़की इस घर में कैसे एडजेस्ट करेगी, यह कौन जानता है. इस हादसे के बाद तो वह इस घर में पूरी तरह समर्पित रहेगी. संगीता और तुम हमउम्र हो. तुम ने दुनियादारी को अभी ठीक से जाना नहीं है. आज जिसे तुम अपनी पत्नी बना कर लाना चाहते हो, क्या पता वह संगीता के साथ कैसा व्यवहार करे और तुम्हारा संगीता से मिलना उसे कितना उचित लगे. ऐसा नहीं है कि संगीता के मातापिता के कहने के बाद हम ने ऐसा निर्णय लिया है. सोच तो हम लोग पहले से रहे थे पर यह सब कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. अब अगर उस के घर वालों की भी ऐसी इच्छा है तो हमें कोई एतराज नहीं है.’

‘लेकिन मम्मी, मैं जिसे भाभी मानता आया हूं उसे पत्नी बनाने के बारे में कैसे सोच सकता हूं. यह शादी आप की नजरों में नैतिक हो सकती है पर युक्तिसंगत नहीं. मेरे भी अपने कुछ अरमान हैं, फिर मेरे उस लड़की के प्रति वादे और कसमें…’

‘अरे, बेटा, यह प्रेमप्यार कुछ दिनों का बुखार होता है. वह अपने घर में एडजेस्ट हो जाएगी और तुम अपने घर में,’ पापा ने अपनी बात फिर से दोहराई.

मैं ने उन्हें लाख समझाने की कोशिश की पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा.

मेरे पास अब 2 ही विकल्प बचे थे. मैं या तो संगीता भाभी से विवाह करूं या इस घर को छोड़ कर अपनी इच्छानुसार गृहस्थी बसा लूं. भैया की मौत के बाद अब मैं ही उन का सहारा था. मुझ से अब उन की सारी आशाएं बंधी थीं. हर हाल में वज्रपात मुझ पर ही होना था. यह तो सच था कि इस विवाह से न तो मैं सुखी रह सकता, न संगीता भाभी को खुश रख सकता और न ही खुशी ही सुखी रहती.

परिस्थितियां धीरेधीरे ऐसी बनती गईं कि मैं घर में तटस्थ होता चला गया और अंतर्मुखी भी.

हार कर इस घर की भलाई और मातापिता के फर्ज को निभाने के लिए मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पडे़. मुझे नहीं पता था कि नियति मेरे साथ ही ऐसा खेल क्यों खेल रही है. कहने को सब अपने थे पर अपनापन किसी में नहीं था.

मैं ने खुशी को कई बार फोन करने की कोशिश की मगर हर बार नाकामयाबी हाथ लगी. मैं उस की हालत भी अच्छी तरह जानता था. मैं ने उसे सचमुच कहीं का नहीं छोड़ा था. उस का गम मेरे गम से काफी गहरा था. आज मुझे उस की और उसे मेरी सख्त जरूरत थी पर वह मुझ से बहुत दूर जा चुकी थी. मैं ने भी समझ लिया कि मुझ पर अब जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती. मेरे सारे सपने पलकों में ही लरज कर रह गए और सारी हसरतें सीने में ही दफन हो कर रह गईं.

अचानक घर से संगीता भाभी का फोन आया तो मैं चाैंक पड़ा. मैं सपनों की जिस दुनिया में घूम रहा था, उस से बाहर निकल कर मोबाइल को कान से लगा लिया.

‘‘सौरी, मैं ने तुम्हें इस समय फोन किया. क्या तुम अभी घर पर आ सकते हो?’’

मैं एकदम घबरा गया. मुझे लगा मेरे लिए एक और आघात प्रतीक्षा कर रहा है. मैं ने पूछा, ‘‘क्या बात है. सब ठीक तो है?’’

‘‘सब ठीक नहीं है. बस, तुम घर आ जाओ,’’ इस बार भाभी का निवेदन आदेश में बदल गया.

‘‘बात क्या है?’’ मैं ने फिर पूछा.

‘‘सच बात तो यह है कि मैं ठीक से जानना चाहती हूं कि तुम इस विवाह से खुश हो या नहीं. मैं चाहती हूं कि तुम इसी समय घर पर आ जाओ. मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. ऐसे में तसल्ली से बैठ कर बात हो सकेगी ताकि हम कोई निर्णय ले सकें.’’

मुझे लगा शायद यही ठीक होगा. जो औरत मेरी जिंदगी का हिस्सा बनना चाहती है उसे मैं सबकुछ बता दूंगा पर खुशी की बात को छिपा जाऊंगा ताकि उस के भविष्य में कोई बाधा न पहुंचे.

मैं ने जैसे ही घर में कदम रखा, सामने खुशी बैठी थी. मेरा तनबदन एकदम सिहर उठा. पता नहीं, खुशी क्या कह चुकी होगी.

‘‘इसे पहचानते हैं, इस का नाम खुशी है,’’ भाभी ने भेद भरी नजरों से मुझे देखा, ‘‘मैं ने ही इसे यहां बुलाया है. मुझे इतना कमजोर और स्वार्थी मत समझना. तुम्हारे हावभाव से मैं समझ चुकी थी कि तुम किसी को बहुत चाहते हो. मुझे लगा, ऐसे घुटघुट कर जीने से क्या फायदा. जिंदगी जीने और काटने में बड़ा फर्क होता है अंकित, और तुम्हारी जिंदगी तो खुशी है, फिर परिस्थितियों से डट कर मुकाबला क्यों नहीं कर सकते. जब किसी से कोई सच्चा प्यार करता है तो उस के दिल में हमेशा वही बसा रहता है, फिर तुम मुझे कैसे खुश रख सकोगे?

‘‘मैं ने बड़ी मुश्किल से इस का नंबर तुम्हारे मोबाइल से ढूंढ़ा था. अपनी इस गलती के लिए मैं तुम से माफी मांगती हूं. जब मैं ने तुम्हारी सारी स्थिति खुशी के सामने रखी तो इस ने फौरन मुझ से मिलने की इच्छा जाहिर की.’’

‘‘मम्मीपापा मानेंगे क्या?’’ मैं ने अपनी शंका रखी.

‘‘जानते हो, वे दोनों खुशी के घर ही गए हैं इस का हाथ मांगने और यह पूरी की पूरी तुम्हारे सामने खड़ी है,’’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं और वह भीतर चली गईं.

मैं ने खुशी को कस कर अंक में भींच लिया. खुशी मुझ से अलग होते हुए बोली, ‘‘तुम मेरा सबकुछ ले कर क्यों दूर चले गए थे.’’

हमकदम : अनन्या की तरक्की पर क्या था पति का साथ

अधिक खुशी से रहरह कर अनन्या की आंखें भीग जाती थीं. अब उस ने एक मुकाम पा लिया था. संभावनाओं का विशाल गगन उस की प्रतीक्षा कर रहा था. पत्रकारों के जाने के बाद अनन्या उठ कर अपने कमरे में आ गई. शरीर थकावट से चूर था पर उस की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. एक पत्रकार के प्रश्न पर पति द्वारा कहे गए शब्द कि इन की जीत का सारा श्रेय इन की मेहनत, लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है, रहरह कर उस के जेहन में कौंध जाते.

कितनी आसानी से चंद्रशेखर ने अपनी जीत का सेहरा उस के सिर बांध दिया. अगर कदमकदम पर उसे उन का साथ और सहयोग नहीं मिला होता तो वह आज विधायक नहीं गांव के एक दकियानूसी जमींदार परिवार की दबीसहमी बहू ही होती.

इस मंजिल तक पहुंचने में दोनों पतिपत्नी ने कितनी मुश्किलों का सामना किया है यह वे ही जानते हैं. जीवन की कठिनाइयों से जूझ कर ही इनसान कुछ पाता है. अपने वजूद के लिए घोर संघर्ष करने वाली अनन्या सिंह इस महत्त्वपूर्ण बात की साक्षी थी.

उस का मन रहरह कर विगत की ओर जा रहा था. तकिए पर टेक लगा कर अधलेटी अनन्या मन को अतीत की उन गलियों में जाने से रोक नहीं पाई जहां कदमकदम पर मुश्किलों के कांटे बिछे पड़े थे.

बचपन से ही अनन्या का स्वभाव भावुक और संवेदनशील था. वह सब के आकर्षण का केंद्र बन कर रहना चाहती थी. दफ्तर से घर आने पर पिता अगर एक गिलास पानी के लिए कहीं उस के छोटे भाई या बहन को आवाज दे देते तो वह मुंह फुला कर बैठ जाती. पूछो तो होंठों पर बस, एक ही जुमला होता, ‘पापा मुझ से प्यार नहीं करते.’

बातबात पर उसे सब के प्यार का प्रमाण चाहिए था. कभीकभी मां बेटी की हठ देख कर चिंतित हो उठतीं. एक बार उन्होंने अनन्या के पिता से कहा भी था, ‘अनु का स्वभाव जरा अलग ढंग का है. अगर इसे आप इतना सिर पर चढ़ाएंगे तो कल ससुराल में कैसे निबाहेगी? न जाने कैसा घरपरिवार मिलेगा इसे.’

‘तुम चिंता क्यों करती हो, समय सबकुछ सिखा देता है. हम से जिद नहीं करेगी तो किस से करेगी?’ अनु के पिता ने पत्नी को समझाते हुए कहा था.

एक दिन अनन्या के मामा ने उस के लिए चंद्रशेखर का रिश्ता सुझाया तो उस के पिता सोच में पड़ गए.

‘अभी उस की उम्र ही क्या हुई है शिव बाबू, इंटर की परीक्षा ही तो दी है. इस साल आगे पढ़ने का उसे कितना चाव है.’

‘देखिए जीजाजी, इतना अच्छा रिश्ता हाथ से मत निकलने दीजिए, पुराना जमींदार घराना है. उन का वैभव देख कर भानजी के सुख की कामना से ही मैं यह रिश्ता लाया हूं. अनन्या के लिए इस से अच्छा रिश्ता नहीं मिलेगा,’ शिवप्रकाशजी ने समझाया तो अनन्या के पिता राजी हो गए.

पहली मुलाकात में ही चंद्रशेखर और उस का परिवार उन्हें अच्छा लगा था. उन्होंने बेटी को समझाते हुए कहा था, ‘चंद्रशेखर एक नेक लड़का है, तुम्हारी इच्छाओं का वह जरूर आदर करेगा.’

शादी के बाद अनन्या दुलहन बन कर ससुराल चली आई. गांव में बड़ा सा हवेलीनुमा घर, चौड़ा आंगन, लंबेलंबे बरामदे, भरापूरा परिवार, कुल मिला कर उस के मायके से ससुराल का परिवेश बिलकुल अलग था. मायके में कोई रोकटोक नहीं थी पर ससुराल में हर घड़ी लंबा घूंघट निकाले रहना पड़ता था. आएदिन बूढ़ी सास टोक दिया करतीं, ‘बहू, घड़ीघड़ी तुम्हारे सिर से आंचल क्यों सरक जाता है? ढंग से सिर ढंकना सीखो.’

चंद्रशेखर अंतर्मुखी प्रवृत्ति का इनसान था. प्रेम के एकांत पलों में भी वह मादक शब्दों के माध्यम से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और बचपन से ही बातबात पर प्रमाण चाहने वाली अनन्या उसे अपनी अवहेलना समझने लगी थी.

पुराना जमींदार घराना होने के कारण उस की ससुराल वाले बातबात पर खानदान की दुहाई दिया करते थे और उन के गर्व की चक्की में पिस जाती साधारण परिवार से आई अनन्या. सुनसुन कर उस के कान पक गए थे.

एक दिन अनन्या ने दुखी हो कर पति से कहा, ‘आप के जाने के बाद मैं अकेली पड़ी बोर हो जाती हूं. गांव में कहीं आनेजाने और किसी के साथ खुल कर बातें करने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं समय का सदुपयोग करना चाहती हूं. आप तो जानते ही हैं कि मैं ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया है. मैं और आगे पढ़ना चाहती हूं, पर मुझे नहीं लगता यह संभव हो पाएगा. बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी, दादी मां, बाबूजी क्या मुझे आगे पढ़ने देंगे?’

चंद्रशेखर ने पत्नी की ओर गहरी नजर से देखा. पत्नी के चेहरे पर आगे पढ़ने की तीव्र लालसा को महसूस कर उस ने मन ही मन परिवार वालों से इस बारे में सलाह लेने की सोच ली.

उधर पति को चुपचाप देख कर अनन्या सोच में पड़ गई. उस के अंतर्मन की मिट्टी से पहली बार शंका की कोंपल फूटी कि यह मुझ से प्यार नहीं करते तभी तो चुप रह गए. आखिर खानदान की इज्जत का सवाल है न.

अनन्या 2-3 दिनों तक मुंह फुलाए रही. चंद्रशेखर ने भी कुछ नहीं कहा. एक दिन आवश्यक काम से चंद्रशेखर को पटना जाना पड़ा. लौटा तो चेहरे पर एक अनजानी खुशी थी.

रात का खाना खाने के बाद चंद्रशेखर भी अपने बाबूजी के साथ टहलने चला गया. थोड़ी देर में बाबूजी का तेज स्वर गूंजा, ‘शेखर की मां, देखो, तुम्हारा लाड़ला क्या कह रहा है.’

‘क्या हुआ, क्यों आसमान सिर पर उठा रखा है?’ चंद्रशेखर की मां रसोई से बाहर आती हुई बोलीं.

‘यह कहता है कि बहू आगे पढ़ने कालिज जाएगी. विश्वविद्यालय जा कर एडमिशन फार्म ले भी आया है. कमाता है न, इसलिए मुझ से पूछने की जरूरत भी क्या है?’ ससुरजी फिर भड़क उठे थे.

‘लेकिन बाबूजी, इस में गलत क्या है?’ चंद्रशेखर ने पूछा तो मां बिदक कर बोलीं, ‘तेरा दिमाग चल गया है क्या? हमारे खानदान की बहू पढ़ने कालिज जाएगी. ऐसी कौन सी कमी है महारानी को इस घर में, जो पढ़लिख कर कमाने की सोच रही है?’

‘मां, तुम क्यों बात का बतंगड़ बना रही हो? यह तुम से किस ने कहा कि यह पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती है? इसे आगे पढ़ने का चाव है तो क्यों न हम इसे बी.ए. में दाखिला दिलवा दें,’ चंद्रशेखर ने कहा तो अपने कमरे में परदे के पीछे सहमी सी खड़ी अनन्या को जैसे एक सहारा मिल गया.

पास ही खड़ी बड़ी भाभी मुंह बना कर बोलीं, ‘देवरजी, हम भी तो रहते हैं इस घर में, बी.ए. करो या एम.ए., आखिरकार चूल्हाचौका ही संभालना है.’

‘छोड़ो बहू, यह नहीं मानने वाला, रोज कमानेखाने वाले परिवार की बेटी ब्याह कर लाया है. छोटे लोग, छोटी सोच,’ अनन्या की सास ने कहा और भीतर चली गईं.

दरवाजे के पास खड़ी अनन्या सन्न रह गई, छोटे लोग छोटी सोच? यह क्या कह गईं मांजी? क्या अपने भविष्य के बारे में चिंतन करना छोटी सोच है? बातबात पर खानदान की दुहाई देने वाली मांजी यह क्यों भूल जाती हैं कि अच्छे खानदान की जड़ में अच्छे संस्कार होते हैं और शिक्षित इनसान ही अच्छे संस्कारों को हमेशा जीवित रखने का प्रयास करते हैं.

रात बहुत बीत चुकी थी. अनन्या की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. चंद्रशेखर भी करवटें बदल रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ‘अनन्या, तुम कल सुबह फार्म भर कर मुझे दे देना. मैं ने सोच लिया है कि तुम आगे जरूर पढ़ोगी.’

अनन्या को आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई, ‘सच?’

‘हां, मैं परसों पटना जा रहा हूं, तुम्हारा फार्म भी विश्वविद्यालय में जमा करता आऊंगा.’

एक दिन चंद्रेशेखर बैंक से लौटा तो बेहद खुश था. उस ने अनन्या से कहा, ‘आज पटना से मेरे दोस्त रमेश का फोन आया था. बता रहा था कि तुम्हारा नाम प्रवेश पाने वालों की सूची में है. प्रवेश लेने की अंतिम तिथि 25 है. तुम कल से ही सामान बांधना शुरू कर दो. हमें परसों जाना है क्योंकि जल्दी पहुंच कर तुम्हारे लिए होस्टल में रहने की भी व्यवस्था करनी होगी.’

‘मैं होस्टल में रहूंगी?’ अनन्या ने पूछा, ‘घर से दूर…अकेली…क्या यहां कालिज नहीं है?’ उस ने अपने मन की बात कह ही डाली.

‘देखो, विश्वविद्यालय की बात ही अलग होती है. तुम ज्यादा सोचो मत. चलने की तैयारी करो. मैं बाबूजी को बता कर आता हूं,’ कहते हुए चंद्रशेखर बाबूजी के कमरे की ओर चला गया.

पटना आते समय अनन्या ने सासससुर के चरणस्पर्श किए तो सास ने उसे झिड़क कर कहा था, ‘जाओ बहू, बेहद कष्ट में थीं न तुम यहां…अब बाहर की दुनिया देखो और मौज करो.’

चंद्रशेखर के प्रयास से अनन्या को महिला छात्रावास में कमरा मिल गया. उसे वहां छोड़ कर आते वक्त उस ने कहा था, ‘तुम्हारे भीतर की लगन को महसूस कर के ही मैं ने अपने परिवार वालों की इच्छा के खिलाफ यह कदम उठाया है. मैं जानता हूं कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी. किसी चीज की जरूरत हो तो फोन कर देना.’

अनन्या ने धीरे से सिर हिला दिया था. होस्टल के गेट पर खड़ी हो कर वह तब तक पति को देखती रही जब तक वह नजरों से ओझल नहीं हो गए.

उस का मन यह सोच कर दुख से भर उठा था कि उन्होंने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. कितनी निष्ठुरता से छोड़ गए मुझे. इतना तो कह ही सकते थे न कि अनु, मुझे तुम्हारी कमी खलेगी, पर नहीं, सच में मुझ से प्यार हो तब न…

आंसू पोंछ कर वह अपने कमरे में चली आई. कुछ दिनों तक उस का मन खिन्न रहा पर धीरेधीरे सबकुछ भूल कर वह पढ़ाई में रम गई. तेज दिमाग अनन्या ने बी.ए. फाइनल की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए.

एम.ए. में प्रवेश लेने के बाद वह कुछ दिन की छुट्टी में घर आई थी. एक दिन चंद्रशेखर ने उस से कहा, ‘एम.ए. में तुम्हें विश्वविद्यालय में पोजीशन लानी है. उस के लिए बहुत मेहनत की जरूरत है तुम्हें.’

अनु ने सोचा, छुट्टियों में घर आई हूं तब भी वही पढ़ाई की बातें, प्रेम की मीठीमीठी बातों का मधुरिम एहसास और वह दीवानापन न जाने क्यों चंद्रशेखर के मन में है ही नहीं. जब देखो पढ़ो, कैरियर बनाओ…उन्हें मुझ से जरा भी प्यार नहीं.

‘अनु, कहां खो गईं?’ चंद्रशेखर ने कहा, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं.’

चंद्रशेखर कहता जा रहा था और अनु जैसे जड़ हो गई थी. मन में विचारों का बवंडर चल रहा था, ‘क्या यही प्यार है? न रस पगे दो मीठे बोल, न मनुहार…ज्यादा खुश हुए तो गए और हिंदी साहित्य की किताब उठा कर ले आए. स्वार्थी कहीं के…’

‘अनु, मैं तुम्हें कुछ दिखा रहा हूं,’ चंद्रशेखर ने फिर कहा तो अनन्या बनावटी हंसी हंस कर बोली, ‘हां, अच्छी किताब है.’

अनन्या ने मन ही मन एक ग्रंथि पाल ली थी कि चंद्रशेखर मुझ से प्यार नहीं करते. तभी तो अपने से दूर मुझे होस्टल भेज कर भी खुश हैं. क्या प्रणय की वह स्वाभाविक आंच जो मुझे हर समय जलाती रहती है, उन्हें तनिक भी नहीं जलाती होगी? शायद नहीं, उन्हें मुझ से प्यार हो तब न…

इन्हीं दिनों अनन्या को पता चला कि वह मां बनने वाली है. पूरा परिवार खुश था. एक दिन चंद्रशेखर ने उस को समझाते हुए कहा, ‘तुम्हें बच्चे के जन्म के बाद परीक्षा देने जरूर जाना चाहिए. साल बरबाद मत करना, बीता समय फिर लौट कर नहीं आता.’

अनन्या पति के साथ कुछ दिनों के लिए मायके आई थी. एक शाम घूमने के क्रम में वह गोलगप्पे वाले खोमचे के सामने ठिठक गई तो चंद्रशेखर ने पूछ लिया, ‘क्या हुआ?’

‘मुझे गोलगप्पे खाने हैं.’

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं चल गया. अपना नहीं तो कम से कम बच्चे का तो खयाल करो,’ चंद्रशेखर ने गुस्से से कहा तो अनन्या पैर पटकती हुई घर चली आई.

‘आप ने एक छोटी सी बात पर मुझे इतनी बुरी तरह क्यों डांटा? एक छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते? अरमान ही रह गया कि आप कभी कोई उपहार देंगे या फिर कहीं घुमाने ले जाएंगे. मेरी खुशी से आप को क्या लेनादेना…मुझ से प्यार हो तब न. जब देखो, पढ़ो…कैरियर बनाओ, जैसे दुनिया में और कुछ है ही नहीं,’ रात में अनन्या मन की भड़ास निकालते हुए बोली.

चंद्रशेखर कुछ पलों तक अपलक पत्नी को निहारता रहा फिर संजीदा हो कर बोला, ‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम से प्यार नहीं करता, पतिपत्नी का रिश्ता तो प्रेम और समर्पण की डोरी से बंधा होता है.’

‘अपनी सारी फिलासफी अपने तक ही रखिए. मैं अच्छी तरह जानती हूं कि आप मुझ से…’ ‘हांहां, मैं तुम से प्यार नहीं करता, मुझे प्रमाण देने की जरूरत नहीं है,’ चंद्रशेखर बीच में ही अनन्या की बात काट कर बोला.

एक दिन अनन्या गुडि़या जैसी बेटी की मां बन गई. जब बच्ची 3 महीने की हो गई तब चंद्रशेखर ने पत्नी से कहा कि उसे अब एम.ए. की परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए.

‘क्या मैं 6 महीने में परीक्षा की तैयारी कर पाऊंगी? सोचती हूं इस साल ड्राप कर दूं. अभी गुडि़या छोटी है.’

पत्नी की बातों को सुन कर उसे समझाते हुए चंद्रशेखर बोला, ‘देखो, अनन्या, पढ़ाईर् एक बार सिलसिला टूट जाने के बाद फिर ढंग से नहीं हो पाती. मैं गुडि़या के बारे में मां से बात करूंगा.’

अनन्या को लगा जैसे कोई मुट्ठी में ले कर उस का दिल भींच रहा हो. इतना बड़ा फैसला ऐसे सहज ढंग से सुना दिया जैसे छोटी सी बात हो. मेरी नन्ही सी बच्ची मेरे बिना कैसे रहेगी?

अनन्या की सास ने पोती को पास रखने से साफ मना कर दिया, ‘मुझे

तो माफ ही करो तुम लोग. कैसी मां है यह जो बेटी को छोड़ कर पढ़ने जाना चाहती है.’

अनन्या ने चीख कर कहना चाहा कि यह आप के बेटे की इच्छा है, मेरी नहीं पर कह नहीं पाई. एक दिन उस के पिता का फोन आया तो उस ने सारी बातें उन्हें बताते हुए पूछा, ‘अब आप ही बताइए, पापा, मैं क्या करूं?’

‘तुम गुडि़या को हमारे पास छोड़ कर होस्टल जा सकती हो बेटी, समय सब से बड़ी पूंजी है. इसे गंवाना नहीं चाहिए. मेरे खयाल से चंद्रशेखर बाबू ठीक कहते हैं,’ उस के पिता ने कहा.

अनन्या के सिर से एक बोझ सा हट गया. दूसरे ही दिन वह होस्टल जाने की तैयारी करने लगी. नन्ही सी बेटी को मायके छोड़ कर जाते समय अनन्या का दिल रोनेरोने को हो आया था पर मन को मजबूत कर वह रिकशे पर बैठ गई.

धीरेधीरे 6 माह बीत गए. अनन्या जब भी अपनी बेटी के बारे में सोचती उस का मन पढ़ाई से उचट जाता. वह इतनी भावुक हो जाती कि आंसुओं पर उस का बस नहीं रह जाता.

कभीकभी वह खुद को समझाती हुई सोचती कि जिंदगी में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. इस तरह के सकारात्मक सोच उस के मन में नवीन उत्साह भर जाते. आखिरकार उत्साह की परिणति लगन में और लगन की परिणति कठोर परिश्रम में हो गई. नतीजा सुखदायक रहा. अनन्या ने विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में दूसरा स्थान पाया.

चंद्रशेखर ने भी खुश हो कर कहा था, ‘मुझे तुम से यही उम्मीद थी अनु.’

अनन्या ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से ‘नेट’ करने के बाद उस ने हिंदी साहित्य में पीएच.डी. की उपाधि भी हासिल की.

उच्च शिक्षा ने अनन्या की सोच को बहुत बदल डाला. सहीगलत की पहचान उसे होने लगी थी. कभीकभी वह सोचती कि आज उस के पास सबकुछ है. प्यारी सी बिटिया, स्नेही पति, उच्च शिक्षा, आगे की संभावनाएं. क्या यह बिना चंद्रशेखर के सहयोग के संभव था? उस की राह की सारी मुश्किलों को चंद्रशेखर ने अपने मजबूत कंधों पर उठा रखा था. वह जान गई थी कि प्रेम शब्दों का गुलाम नहीं होता. प्रेम तो एक अनुभूति है जिसे महसूस किया जा सकता है.

अनन्या को लेक्चरर पद के लिए इंटरव्यू देने जाना था. वह तैयार हो कर बैठक में आई तो एक सुखद एहसास से भीग उठी, जब उस ने यह देखा कि चंद्रशेखर उस की मार्कशीट और प्रमाणपत्रों को फाइल में सिलसिलेवार लगा रहे थे. उसे देखते ही चंद्रशेखर ने कहा, ‘जल्दी करो, अनु, नहीं तो बस छूट जाएगी.’

असीम स्नेह से पति को निहारती हुई अनन्या ने धीरे से कहा, ‘मुझे आप से कुछ कहना है.’

‘बातें बाद में होंगी, अभी चलो.’.

‘नहीं, आप को आज मेरी बात सुननी ही होगी.’

‘तुम क्या कहोगी, मुझे पता है, वही रटारटाया वाक्य कि आप मुझ से प्यार नहीं करते,’ चंद्रशेखर व्यंग्य से हंस कर बोला तो अनन्या झेंप गई.

‘ठीक है, चलिए,’ उस ने कहा और तेजी से बाहर निकल गई. आज वह अपने पति से कहना चाहती थी कि वह अपने प्रति उन के प्यार को अब महसूस करने लगी है. पर मन की बात मन में ही रह गई.

साक्षात्कार दे कर आई अनन्या को नौकरी पाने का पूरा भरोसा था. पर उस समय वह जैसे आकाश से गिरी जब उस ने चयनित व्याख्याताओं की सूची में अपना नाम नहीं पाया. हृदय इस चोट को सहने के लिए तैयार नहीं था अत: वह फूटफूट कर रोने लगी.

पत्नी को रोता देख कर चंद्रशेखर भी संज्ञाशून्य सा खड़ा रह गया. जानता था, असफलता का आघात मौत के समान कष्ट से कम नहीं होता.

‘देखो, अनु,’ पत्नी को दिलासा देते हुए चंद्रशेखर बोला, ‘यह भ्रष्टाचार का युग है. पैरवी और पैसे के आगे आज के परिवेश में डिगरियों का कोई महत्त्व नहीं रहा. तुम दिल छोटा मत करो. एक न एक दिन तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी.’

एक दिन चंद्रशेखर ने अनन्या को समझाते हुए कहा था, ‘शिक्षा का अर्थ केवल धनोपार्जन नहीं है. हमारे समाज में आज भी शिक्षित महिलाओं की कमी है, तुम इस की अपवाद हो, यही कम है क्या?’

‘आप मुझे गलत समझ रहे हैं. मैं केवल पैसों के लिए व्याख्याता बनने की इच्छुक नहीं थी. अपनी अस्मिता की तलाश…समाज में एक ऊंचा मुकाम पाने की अभिलाषा है मुझे. मैं आम नहीं खास बनना चाहती हूं. अपने वजूद को पूरे समाज की आंखों में पाना चाहती हूं मैं.’

चंद्रशेखर पत्नी की बदलती मनोदशा से अनजान नहीं था. समझता था, अनन्या अवसाद के उन घोर दुखदायी पलों से गुजर रही है जो इनसान को तोड़ कर रख देते हैं.

एक दिन चंद्रशेखर के दोस्त रमेश ने बातों ही बातों में उसे बताया कि 4-5 महीने में ग्राम पंचायत के चुनाव होने वाले हैं और उस की पत्नी निशा जिला परिषद की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ने वाली है.

चंद्रशेखर ने कहा, ‘आज के माहौल में तो कदमकदम पर राजनीति के दांवपेच मिलते हैं. कई लोग चुनाव मैदान में उतर जाएंगे. कुछ गुंडे होंगे, कुछ जमेजमाए तथाकथित नेता. ऐसे में एक महिला का मैदान में उतरना क्या उचित है?’

‘ऐसी बात नहीं है. पंचायत चुनाव में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है. अगर सीट महिला के लिए आरक्षित हो तो प्रयास करने में क्या हर्ज है? देखना, कई पढ़ीलिखी महिलाएं इस क्षेत्र में आगे आएंगी,’ रमेश ने समझाते हुए कहा.

चंद्रशेखर के मन में एक विचार कौंधा, अगर अनन्या भी कोशिश करे तो? उस ने इस बारे में पूरी जानकारी हासिल की तो पता चला कि उस के इलाके की जिला परिषद सीट भी महिला आरक्षित है. चंद्रशेखर के मन में एक नई सोच ने अंगड़ाई ले ली थी.

‘मैं चुनाव लडूं? क्या आप नहीं जानते कि आज की राजनीति कितनी दूषित हो गई है?’ अनन्या बोली.

‘इस में हर्ज ही क्या है. वैसे भी अच्छे विचार के लोग यदि राजनीति में आएंगे तो राजनीति दूषित नहीं रहेगी. तुम अपनेआप को चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लो.’

अनन्या के मन में 2-3 दिन तक तर्कवितर्क चलता रहा. आखिरकार उस ने हामी भर दी.

यह बात जब अनन्या के ससुर ने सुनी तो वह बुरी तरह बिगड़ उठे, ‘लगता है दोनों का दिमाग खराब हो गया है. जमींदार खानदान की बहू गांवगांव, घरघर वोट के लिए घूमती फिरे, यह क्या शोभा देता है? पुरखों की इज्जत क्यों मिट्टी में मिलाने पर तुले हो तुम लोग?’

‘ऐसा कुछ नहीं होगा, बाबूजी, इसे एक कोशिश कर लेने दीजिए. जरा यह तो सोचिए कि अगर यह जीत जाती है तो क्या खानदान का नाम रोशन नहीं होगा?’ चंद्रशेखर ने भरपूर आत्मविश्वास के साथ कहा था.

चंद्रशेखर ने निश्चित तिथि के भीतर ही अनन्या का नामांकनपत्र दाखिल कर दिया. फिर शुरू हुई एक नई जंग.

अनन्या ने आम उम्मीदवारों से अलग हट कर अपना प्रचार अभियान शुरू किया. वह गांव की भोलीभाली अनपढ़ जनता को जिला परिषद और उस से जुड़ी जन कल्याण की तमाम बातों को विस्तार से समझाती थी. धीरेधीरे लोग उस से प्रभावित होने लगे. उन्हें महसूस होने लगा कि जमींदार की बहू में सामंतवादी विचारधारा लेशमात्र भी नहीं है. वह जितने स्नेह से एक उच्च जाति के व्यक्ति से मिलती है उतने ही स्नेह से अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों से भी मिलती है. और उस का व्यवहार भी आम नेताओं जैसा नहीं है.

धीरेधीरे उस की मेहनत रंग लाने लगी. 50 हजार की आबादी वाले पूरे इलाके में अनन्या की चर्चा जोरों पर थी.

मतगणना के दिन ब्लाक कार्यालय के बाहर हजारों की भीड़ जमा थी. आखिरकार 2 हजार वोटों से अनन्या की जीत हुई. उस की जीत ने पूरे समाज को दिखा दिया था कि आज भी जनता ऊंचनीच, जातिपांति, धर्म- समुदाय और अमीरीगरीबी से ऊपर उठ कर योग्य उम्मीदवार का चयन करती है. बड़ी जाति के लोगों की संख्या इलाके में कम होने पर भी हर जाति और धर्म के लोगों से मिले अपार समर्थन ने अनन्या को जीत का सेहरा पहना दिया था.

घर लौट कर अनन्या ने ससुर के चरणस्पर्श किए तो पहली बार उन्होंने कहा, ‘खुश रहो, बहू.’

अनन्या आंतरिक खुशी से अभिभूत हो उठी. उसे लगा, वास्तव में उस की जीत तो इसी पल दर्ज हुई है.

उस ने फिर कभी मुड़ कर पीछे नहीं देखा. हमकदम के रूप में चंद्रशेखर जो हर पल उस के साथ थे. 3 साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी वह भारी बहुमत से विजयी हुई. उस का रोमरोम पति के सहयोग का आभारी था. अगर वह हर मोड़ पर उस का साथ न देते तो आज भी वह अवसाद के घने अंधेरे में डूबी जिंदगी को एक बोझ की तरह जी रही होती.

‘‘खट…’’ तभी कमरे का दरवाजा खुला और अनन्या की सोच पर विराम लग गया. चंद्रशेखर ने भीतर आते हुए पूछा, ‘‘तुम अभी तक सोई नहीं?’’

‘‘आप कहां रह गए थे?’’

‘‘कुछ लोग बाहर बैठे थे. उन्हीं से बातें कर रहा था. तुम से मिलना चाहते थे तो मैं ने कह दिया कि मैडम कल मिलेंगी,’’ चंद्रशेखर ने ‘मैडम’ शब्द पर जोर डाल कर हंसते हुए कहा.

भावुक हो कर अनन्या ने पूछा, ‘‘अगर आप का साथ नहीं मिलता तो क्या आज मैं इस मुकाम पर होती? फिर क्यों आप ने सारा श्रेय मेरी लगन और मेहनत को दे दिया?’’

‘‘तो मैं ने गलत क्या कहा? अगर हर इनसान में तुम्हारी तरह सच्ची लगन हो तो रास्ते खुद ही मंजिल बन जाते हैं. हां, एक बात और कि तुम इसे अपना मुकाम मत समझो. तुम्हारी मंजिल अभी दूर है. जिस दिन तुम सांसद बन कर संसद में जाओगी और इस घर के दरवाजे पर एक बड़ी सी नेमप्लेट लगेगी…डा. अनन्या सिंह, सांसद लोकसभा…उस दिन मेरा सपना सार्थक होगा,’’ चंद्रशेखर ने कहा तो अनन्या की आंखें खुशी से छलक पड़ीं.

‘‘हर औरत को आप की तरह प्यार करने वाला पति मिले.’’

‘‘अच्छा, इस का मतलब तो यह हुआ कि तुम अब मुझ पर यह आरोप नहीं लगाओगी कि मैं तुम से प्यार नहीं करता.’’

‘‘नहीं, कभी नहीं,’’ अनन्या पति के कंधे पर सिर टिका कर असीम स्नेह से बोली.

‘‘तो तुम अब यह पूरी तरह मान चुकी हो कि मैं तुम से सच्चा प्यार करता हूं,’’ चंद्रशेखर ने मुसकरा कर कहा तो अनन्या भी हंस कर बोल पड़ी, ‘‘हां, मैं समझ चुकी हूं, प्यार की परिभाषा बहुत गूढ़ है. कई रूप होते हैं प्रेम के,

कई रंग होते हैं प्यार करने वालों के, पर सच्चे प्रेमी तो वही होते हैं जो जीवन साथी की तरक्की के रास्ते में अपने अहं का पत्थर नहीं आने देते, ठीक आप

की तरह.’’

एक स्वर्णिम भोर की प्रतीक्षा में रात ढलने को बेताब थी. कुछ क्षणों में पूर्व दिशा में सूर्य की किरणें अपना प्रकाश फैलाने को उदित हो उठीं.

जीवन की नई शुरुआत: क्या रघु का प्रेम और जिम्मेदारी मुन्नी बनी उनकी हमसफर?

अरे रे रे, कोई रोको उसे, मर जाएगा वो,” अचानक से आधी रात को शोर सुन कर सारे लोग जाग गए और जो देखा, देख कर वे भी चीख पड़े. जल्दी से उसे वहां से खींच कर नीचे उतारा गया, वरना जाने क्या अनर्थ हो गया होता.

यह तीसरी बार था, जब रघु अपनी जान देने की कोशिश कर रहा था.  लेकिन इस बार भी उसे किसी ने बचा लिया, वरना अब तक तो वह मर गया होता.

क्वारंटीन सेंटर का निरीक्षण करने पहुंचे डीएम यानी जिलाधिकारी को जब रघु की आत्महत्या करने की बात पता चली और यह भी कि वह न तो ठीक से खातापीता है और न ही किसी से बात करता है. वह खुद में ही गुमशुम रहता है. कुछ पूछने पर बस वह अपने घर जाने की बात कह रो पड़ता है, तो डीएम को भी फिक्र होने लगी कि अगर इस लड़के ने क्वारंटीन सेंटर में कुछ कर लिया तो बहुत बुरा होगा.

जिलाधिकारी ने वहां रह रहे एकांतवासियों से पूछा कि उन्हें दिया जा रहा भोजन गुणवत्तायुक्त है या नहीं? हाथ धोने के लिए साबुन, मास्क, तौलिया आदि की व्यवस्था के बारे में भी जानकारी ली, फिर वहां की देखभाल करने वाले केयर टेकर को खूब फटकार लगाई कि वह करता क्या है?एक इनसान आत्महत्या करने की क्यों कोशिश कर रहा है, उस से जानना नहीं चाहिए?

“फांसी लगाने की कोशिश कर रहे थे, पर क्यों?” उस जिलाधिकारी ने जब रघु के समीप जा कर पूछा, तो भरभरा कर उस की आंखें बरस पड़ीं.

“कोई तकलीफ है यहां? बोलो न, मरना क्यों चाहते हो? अपने परिवार के पास नहीं जाना है?”

जब जिलाधिकारी मनोज दुबे ने कहा, तो सिसकियां लेते हुए रघु कहने लगा, “जाना है साहब, कब से कह रहा हूं मुझे मेरे घर जाने दो, पर कोई मेरी सुनता ही नहीं.”

कहते हुए रघु फिर सिसकियां लेते हुए रो पड़ा, तो जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई.

“हां, तो चले जाना, इस में कौन सी बड़ी बात है, बल्कि यहां कोई रहने नहीं आया है.  अवधि पूरी होगी, सभी को भेज दिया जाएगा अपनेअपने घर.  बताओ, और कोई बात है? यहां किसी चीज की समस्या हो रही है?”

“नहीं… लेकिन, मेरे मांबाप बूढ़े और बीमार हैं, उन्हें मेरी जरूरत है,” कहते हुए रघु का गला भर्रा गया.  लेकिन जिलाधिकारी को लग रहा था कि बात कुछ और भी है, जो रघु को खाए जा रही है.

अपने घरपरिवार से दूर क्वारंटीन सेंटर में 15-20 दिनों से रह रहे रघु पर मानसिक दबाव बढ़ने लगा था. वह रात को उठ कर यहांवहां घूमने लगता और अजीब सी हरकतें करता था. कभी वह क्वारंटीन सेंटर की ऊंची दीवार को नापता, तो कभी बड़े से लंबे दरवाजे को आंखें गड़ा कर देखता. कई बार तो वह पेड़ पर चढ़ जाता, ताकि वहां से फांद कर दीवार पार कर सके, पर कामयाब नहीं हो पाता.

रघु की इस हरकत पर उसे फटकार भी पड़ी थी.  लेकिन उस का कहना था कि उसे घर जाना है, क्योंकि अब उस के सब्र का बांध टूटने लगा है. उस ने कई बार मरने की भी धमकी दी थी कि अगर उसे उस के घर नहीं जाने दिया गया तो वह अपनी जान दे देगा. लेकिन कौन सुनने वाला था यहां उस का? सब उसे ‘पागल-बताहा’ कह कर चुप करा देते और हंसते. जैसे सच में वह कोई पागल हो.  लेकिन वह पागल नहीं था. यह बात कैसे समझाए सब को कि उसे यहां से जाना है, नहीं तो सब खत्म हो जाएगा.

जिलाधिकारी मनोज के पूछने पर रघु कहने लगा, “साहब, अच्छीखासी खुशहाल जिंदगी चल रही थी हमारी. किसी चीज की कमी नहीं थी. पर इस कोरोना ने एक झटके में सब बरबाद कर दिया साहब, कुछ नहीं बचा, कुछ नहीं, ना ही नौकरी और ना ही मेरा प्यार…”

बोलतेबोलते रघु की हिचकियां बंध गईं और वह बिलख कर रोने लगा, “साहब, हम गरीबों की तो किस्मत ही खराब है, वरना क्या दालरोटी पर भी मार पड़ जाती? अच्छीखासी जिंदगी चल रही थी हमारी.  मेहनतमजदूरी कर के खुश थे हम. लेकिन सब मटियामेट हो गया.”

अपने आंसू पोंछते हुए रघु बताने लगा कि अभी दो साल पहले ही वह अपने गांव सिवान से गुजरात आया था. वह यहां मिस्त्री का काम करता था, जिस से उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती थी. अपने मांबाप के पास घर भी पैसे भेजता था. लेकिन अब क्या करेगा, समझ नहीं आ रहा है.

बताने लगा कि वह यहां अहमदाबाद में एक कमरे का घर ले कर रह रहा था. सोचा था कि मांबाप को भी ले आएगा, सब साथ मिल कर रहेंगे. लेकिन जिंदगी में ऐसी उथलपुथल मच जाएगी, नहीं सोचा था.

रघु हमेशा खुश रहने वाला, हंस कर बोलने वाला इनसान था और यही बात मुन्नी को, जो उस की ही बस्ती में रहती थी और वह नेपाल से थी, उस के करीब लाता था.

रघु का साथ मुन्नी को खूब भाता था. उस के पिता बड़े बाजार से थोक भाव में सब्जीफल ला कर बाजार में बेचते थे. उसी से उन के 8 परिवार का खर्चा चलता था. मुन्नी भी दोचार घरों में झाड़ूबरतन कर के कुछ पैसे कमा लेती थी. मगर रघु को मुन्नी का दूसरे के घरों में झाड़ूबरतन करना जरा भी अच्छा नहीं लगता था. उसे जब कोई गंदी नजरों से घूरता, तो रघु की आंखों में खून उतर आता. मन करता उस का कि जान ही ले ले उस की. कितनी बार उस ने मुन्नी से कहा कि छोड़ दे वह लोगों के  घरों में काम करना. पर मुन्नी उस की बात को यह कह कर टाल दिया करती कि उसे क्यों बुरा लगता है? कौन लगती है वह उस की?

वैसे तो मुन्नी को भी दूसरे के घरों में झाड़ूबरतन करना अच्छा नहीं लगता था, मगर क्या करे वह भी? अब  8-8 जनों का पेट एक की कमाई से थोड़े ही भर सकता था.  कितनी बार लोगों की भेदती नजरों का वह निशाना बनी है. जिन घरों में वह काम करती है, वहां के मर्द ही उस पर गंदी नजर रखते हैं.

कहते तो बेटीबहन समान है, पर गलत इरादों से यहांवहां छूछाप कर देते हैं. देखने की कोशिश करते हैं कि लड़की कैसी है? लेकिन मुन्नी उस टाइप की लड़की थी ही नहीं. वह तो अपने काम से मतलब रखती थी. गरीबों के पास एक इज्जत ही तो होती है, वही चली जाए तो मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है. कुछ बोल भी नहीं सकती थी, अगर आवाज उठती तो उलटे मुंह गिरती. सो बच कर रहने में ही अपनी भलाई समझती थी.

गलती मुन्नी के मांबाप की भी कम नहीं थी. एक बेटे की खातिर पहले तो धड़ाधड़ 5 बेटियां पैदा कर लीं और अब उसी बेटी को दूसरेतीसरे घरों में काम करने भेजने लगे, ताकि पैसे की कमाई होती रहे.

चूंकि मुन्नी घर में सब से बड़ी थी, इसलिए छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी भी उस के ऊपर ही थी. बेचारी दिनभर चक्करघिन्नी की तरह पिसती रहती, फिर भी मां से गालियां पड़तीं कि ‘करमजली कहां गुलछर्रे उड़ाती फिरती है पूरे दिन.’

इधर मुन्नी को देखदेख कर रघु का कलेजा दुखता रहता, क्योंकि प्यार जो करने लगा था वह उस से. अपने काम से वापस आ कर हर रोज वह घर के बाहर खटिया लगा कर बैठ जाता और मुन्नी को निहारता रहता था. लेकिन आज कहीं भी उसे मुन्नी नहीं दिख रही थी, सो हैरानपरेशान सा वह इधरउधर देख ही रहा था कि उस के सिर पर आ कर कुछ गिरा. देखा, तो पेड़ पर चढ़ी मुन्नी उस के सिर पर पत्ता तोड़तोड़ कर फेंक रही थी.

“ओय मुन्नी… तू ने फेंका?” रघु लपका.

“नहीं तो… फेंका होगा किसी ने,” एक पत्ता मुंह में दबाते हुए शरारती अंदाज में मुन्नी बोली.

“देख, झूठ मत बोल, मुझे पता है कि तुम ने ही फेंका है.”

“अच्छा… और क्याक्या पता है तुझे?” कह कर वह पेड़ से नीचे कूद कर भागने लगी कि रघु ने झपट कर उस का हाथ पकड़ लिया.

“छोड़ रघु, कोई देख लेगा,” अपना हाथ रघु की पकड़ से छुड़ाते हुए मुन्नी बोली.

“नहीं छोडूंगा. पहले ये बता, तू ने मेरे सिर पर पत्ता क्यों फेंका?” आज रघु को भी शरारत सूझी थी.

“हां, फेंका तो… क्या कर लेगा?” अपने निचले होंठ को दांतों तले दबाते हुए मुन्नी बोली और दौड़ कर अपने घर भाग गई.

दिनभर का थकाहारा रघु मुन्नी को देखते ही उत्साह से भर उठता और मुन्नी भी रघु को देखते बौरा जाती. भूल जाती  दिनभर के काम को और अपनी मां की डांट को भी.  एकदूसरे को देखते ही दोनों सुकून से भर उठते थे.

18 साल की मुन्नी और 22 साल के रघु के बीच कब और कैसे प्यार पनप गया, उन्हें पता ही नहीं चला. इश्क परवान चढ़ा तो दोनों कहीं अकेले मिलने का रास्ता तलाशने लगे. दोनों बस्ती के बाहर कहीं गुपचुप मिलने लगे. मोहब्बत की कहानी गूंजने लगी, तो बात मुन्नी के मातापिता तक भी पहुंची और मुन्नी के प्रति उन का नजरिया सख्त होने लगा, क्योंकि मुन्नी के लिए तो उन्होंने किसी और को पसंद कर रखा था.

इसी बस्ती का रहने वाला मोहन से मुन्नी के मातापिता उस का ब्याह कर देना चाहते थे और वह मोहन भी तो मुन्नी पर गिद्ध जैसी नजर रखता था. वह तो किसी तरह उसे अपना बना लेना चाहता था और इसलिए वह वक्तबेवक्त मुन्नी के मांबाप की पैसों से मदद करता रहता था.

मोहन रघु से ज्यादा कमाता तो था ही, उस ने यहां अपना दो कमरे का घर भी बना लिया था. और सब से बड़ी बात कि वह भी नेपाल से ही था, तो और क्या चाहिए था मुन्नी के मांबाप को? मोहन बहुत सालों से यहां रह रहा था तो यहां उस की काफी लोगों से पहचान भी बन गई थी. काफी धाक थी इस बस्ती में उस की. इसलिए तो वह रघु को हमेशा दबाने की कोशिश करता था. मगर रघु कहां किसी से डरने वाला था.  अकसर दोनों आपस में भिड़ जाते थे. लेकिन उन की लड़ाई का कारण मुन्नी ही होती थी.

मोहन को जरा भी पसंद नहीं था कि मुन्नी उस रघु से बात भी करे. दोनों को साथ देख कर वह बुरी तरह जलकुढ़ जाता.

मुन्नी के कच्चे अंगूर से गोरे रंग, मैदे की तरह नरम, मुलायम शरीर, बड़ीबड़ी आंखें, पतले लाललाल होंठ और उस के सुनहरे बाल पर जब मोहन की नजर पड़ती, तो वह उसे खा जाने वाली नजरों से घूरता.

मुन्नी भी उस के गलत इरादों से अच्छी तरह वाकिफ थी, तभी तो वह उसे जरा भी नहीं भाता था. उसे देखते ही वह दूर छिटक जाती. और वैसे भी कहां मुन्नी और कहां वह मोहन, कोई मेल था क्या दोनों का? कालाकलूटा नाटाभुट्टा वह मोहन मुन्नी से कम से कम 14-15 साल बड़ा था. उस की पत्नी प्रसव के समय सालभर पहले ही चल बसी थी. एक छोटा बेटा है, उस के ऊपर पांचेक साल की एक बेटी भी है, जो दादी के पास रहती है.  वही दोनों बच्चों की अब मां है.

वैसे भी पीनेखाने वाले मोहन की पत्नी मरी या उस ने खुद ही उसे मार दिया क्या पता? क्योंकि आएदिन तो वह अपनी पत्नी को मारतापीटता ही रहता था. राक्षस है एक नंबर का. अब जाने सचाई क्या है, मगर मुन्नी को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था.

उसे देखते ही मुन्नी को घिन आने लगती थी. मगर उस के मांबाप जाने उस में क्या देख रहे थे, जो अपनी बेटी की शादी उस से करने को आतुर थे? शायद पैसा, जो उस ने अच्छाखासा कमा कर रखा हुआ था.

लेकिन मुन्नी का प्यार तो रघु था. उस के साथ ही वह अपने आगे के जीवन का सपना देख रही थी और उधर रघु भी जितनी जल्दी हो सके उसे अपनी दुलहन बनाने को व्याकुल था. अपनी मां से भी उस ने मुन्नी के बारे में बात कर ली थी.  मोबाइल से उस का फोटो भी भेजा था, जो उस की मां को बहुत पसंद आया था. कई बार फोन के जरीए मुन्नी से उन की बात भी हुई थी और अपने बेटे के लिए मुन्नी उन्हें एकदम सही लगी थी.

एक शाम… मुन्नी की कोमलकोमल उंगलियों को अपनी उंगलियों के बीच फंसाते हुए रघु बोला था, “मुन्नी, छोड़ दे न लोगों के घरों में काम करना. मुझे अच्छा नहीं लगता.”

“छोड़ दूंगी, ब्याह कर ले जा मुझे,” मुन्नी ने कहा था.

“हां, ब्याह कर ले जाऊंगा एक दिन. और देखना, रानी बना कर रखूंगा तुम्हें. मेरा बस चले न मुन्नी तो मैं आकाश की दहलीज पर बनी सात रंगों की इंद्रधनुषी अल्पना से सजी तेरे लिए महल खड़ा कर दूं,” कह कर मुसकराते हुए रघु ने मुन्नी के गालों को चूम लिया था.  लेकिन उन के बीच तो जातपांत और पैसों की दीवार आ खड़ी हुई थी. तभी तो मुन्नी के घर से बाहर निकलने पर पहरे गहराने लगे थे. जब वह घर से बाहर जाती तो किसी को साथ लगा दिया जाता था, ताकि वह रघु से मिल ना सके, उस से बात ना कर सके. लेकिन हवा और प्यार को भी कभी किसी ने रोक पाया है? किसी ना किसी वजह से दोनों मिल ही लेते.

इधर मुन्नी के मांबाप जितनी जल्दी हो सके, अपनी बेटी का ब्याह उस मोहन से कर देना चाहते थे. वह मोहन तो वैसे भी शादी के लिए उतावला हो रहा था. उसे तो लग रहा था शादी कल हो, जो आज ही हो जाए.

इधर रघु जल्द से जल्द बहुत ज्यादा पैसे कमा लेना चाहता था, ताकि मुन्नी के मांबाप से उस का हाथ मांग सके. और इस के लिए वह दिनरात मेहनत भी कर रहा था. दिन में वह  मिस्त्री का काम करता, तो रात में होटल में जा कर प्लेटें धोता था.

लेकिन अचानक से कोरोना ने ऐसी तबाही मचाई कि रघु का कामधंधा सब छूट गया. कुछ दिन तो रखे धरे पैसे से चलता रहा. इस बीच वह काम भी तलाशता रहा, लेकिन सब बेकार. अब तो दानेदाने को मोहताज होने लगा वह.  कर्जा भी कितना लेता भला. भाड़ा न भरने के कारण मकान मालिक ने भी कोठरी से निकल जाने का हुक्म सुना दिया.

इधर, उस मोहन का मुन्नी के घर आनाजाना कुछ ज्यादा ही बढ़ने लग गया, जिसे मुन्नी चाह कर भी रोक नहीं पा रही थी. आ कर ऐसे पसर जाता खटिया पर, जैसे इस घर का जमाई बन ही गया हो. चिढ़ उठती मुन्नी, पर कुछ कर नहीं सकती थी. लेकिन मन तो करता उस का मुंह नोच ले उस मोहन के बच्चे का या दोचार गुंडे से इतना पिटवा दे कि महीनाभर बिछावन पर से उठ ही न पाए.

दर्द एक हो तो कहा जाए. यहां तो दर्द ही दर्द था दोनों के जीवन में. जिस दुकान से रघु राशन लेता था, उस दुकानदार ने भी उधार में राशन देने से मना कर दिया.

उधर गांव से खबर आई कि रघु की चिंता में उस की मां की तबीयत बिगड़ने लगी है, जाने बच भी पाए या नहीं. मकान मालिक ने कोरोना के डर से जबरदस्ती कमरा खाली करवा दिया. अब क्या करे यहां रह कर और रहे भी तो कहां? इसलिए साथी मजदूरों के साथ रघु ने भी अपने घर जाने का फैसला कर लिया.

रघु के गांव जाने की बात सुन कर मुन्नी सहम उठी और उस से लिपट कर बिलख पड़ी यह कह कर कि ‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रघु, मैं घुटघुट कर मर जाऊंगी. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती. मुझे मंझदार में छोड़ कर मत जाओ.’

मुन्नी की आंखों से बहते अविरल आंसुओं को देख, रघु की भी आंखें भीग गईं, क्योंकि वह जानता था, मुन्नी और उस का साथ हमेशा के लिए छूट रहा है. उस के जाते ही मुन्नी के मांबाप मोहन से उस का ब्याह कर देंगे. लेकिन फिर भी कुछ क्षण उस के बालों में उंगलियां घुमाते हुए आहिस्ता से रघु ने कहा था, वह जल्द ही लौट आएगा.

मुन्नी जानती थी कि रघु झूठ बोल रहा है, वह अब वापस नहीं आएगा. लेकिन यह भी सच था कि वह रघु की है और उस की ही हो कर रहेगी, नहीं तो जहर खा कर अपनी जान खत्म कर लेगी. लेकिन उस अधेड़ उम्र के दुष्ट मोहन से कभी ब्याह नहीं करेगी.

मुन्नी के मांबाप ने जब उस दिन मोहन से उस की शादी का फरमान सुना दिया था, तब मुन्नी ने दोटूक भाषा में अपना फैसला दे दिया था कि वह किसी मोहनफोहन से ब्याह नहीं करेगी, वह तो रघु से ही ब्याह करेगी, नहीं तो मर जाएगी.

उस के मरने की बात पर मांबाप पलभर को सकपकाए थे, लेकिन फिर आक्रामक हो उठे थे. ‘उस रघु से ब्याह करेगी, जिस का ना तो कमानेखाने का ठिकाना है और ना ही रहने का. क्या खिलाएगा और कहां रखेगा वह तुम्हें ?’

मां ने भी दहाड़ा था कि ‘कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो हमें मुंह छिपाने के लिए जगह भी नहीं मिलेगी. और बाकी चार बेटियों का कैसे बेड़ा पार लगेगा ?

‘लड़की की लाज मिट्टी का सकोरा होत है, समझ बेटियां तू’ मगर मुन्नी को कुछ समझनाबुझाना नहीं था.
दांत भींच लिए थे उस ने यह कह कर, “अगर तुम लोगों ने जबरदस्ती की तो मैं अपनी जान दे दूंगी सच कहती हूं,” और अपनी कोठरी में सिटकिनी लगा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

मुन्नी की मां का तो मन कर रहा था बेटी का टेंटुवा ही दबा दे, ताकि सारा किस्सा ही खत्म हो जाए. ‘हां, क्यों नहीं चाहेगी, आखिर बेटियों से प्यार ही कब था इसे. हम बेटियां तो बोझ हैं इन के लिए’ अंदर से ही बुदबुदाई थी मुन्नी. ‘देखो इस कुलच्छिनी को, कैसे हमारी इज्जत की मिट्टी पलीद कर देना चाहती है. यह सब चाबी तो उस रघु की घुमाई हुई है, वरना इस की इतनी हिम्मत कहां थी. अरे नासपीटी, भले हैं तेरे बाप… कोई और होता तो दुरमुट से कूट के रख देता. मेरे भाग्य फूटे थे जो मैं ने तुझे पैदा होते ही नमक न चटा दिया’

खूब आग उगली थी उस रात मुन्नी की मां. उगले भी क्यों न, आखिर उसे अपने हाथ से तोते जो उड़ते नजर आने लगे थे. एक तो कमाऊ बेटी, ऊपर से पैसे वाला दामाद, जो हाथ से सरकता दिखाई देने लगा था. सोचा था, बाकी बेटियों का ब्याह भी मोहन के भरोसे कर लेगी, मगर यहां तो… ऊंचा बोलबोल कर आवाज फट चुकी थी मुन्नी की मां की, मगर फिर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ा था. उस की जिद तो अभी भी यही थी कि वह रघु की है और उस की ही रहेगी.

रात में सब के सो जाने के बाद रघु को फोन लगा कर कितना रोई थी वह. उस के जाने के बाद उस के साथ क्याक्या हुआ, सब बताया और यह भी कि अगर वह उस की नहीं हो सकी, तो किसी की भी नहीं हो सकेगी. फिर कई बार रघु ने फोन लगाया, पर बंद ही आ रहा था.

कहते हैं, सारी मुसीबत एक बार आ धमकती है इनसान की जिंदगी में और यह बात आज रघु को सही प्रतीत पड़ रही थी.

कोरोना महामारी के कारण एक तो कामकाज और शहर छूटा, फिर पता चला कि वहां मां बीमार है और अब यह सब… कहीं मुन्नी ने कुछ कर लिया तो… सोच कर ही रघु का खून सूखा जा रहा था. लेकिन क्या करे वह भी? यहां से भाग भी तो नहीं सकता है? इसलिए उस ने भी अपनी जान खत्म करने की सोच ली थी. ना जिएगा, ना इतनी मुसीबत झेलनी पड़ेगी.

आज उसे मुन्नी का वह उदास चेहरा और थकी आंखें याद आ रही थीं. मन कर रहा था, करीब होती तो उस के अधरों पर अपने होंठ रख सारी उदासी सोख लेता.

मुसकरा भी पड़ा था वह दिन याद कर के, जब पहली बार मुन्नी को आलिंगन में भर कर उस के अधरों को चूम लिया था और लजा कर वह रघु के सीने में सिमट गई थी. जीवन में पुरुष के साथ उस का यह पहला भरपूर आलिंगन था. मुन्नी की रीढ़ में हलकी सी झुरझुरी दौड़ गई थी. दोनों को एकदूसरे की छूती हुई परस्पर आकर्षण की हिलोरें का एहसास था, तभी तो दोनों एकदूसरे के करीब आते चले गए थे बिना जमाने की परवाह किए. लतावितान के भीतर यह अनुभूति गहराई थी, जब रघु ने उस के होठों पर तप्त दबाव बढ़ाया था. योवन वेग के अनेक स्पंदन अचानक देह में चमक उठे थे. इस आलिंगन और चुंबन की अवधि दिनप्रतिदिन बढ़ती ही चली गई थी. लेकिन जमाने ने और कुछ इस कोरोना ने उन्हें जुदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

रघु की कहानी सुन कर जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई कि एक गरीब इनसान को प्यार करने का भी हक नहीं होता? बुझीबुझी सी उम्मीदों पर कोरोना का खौफ सब की आंखों में साफ दिखाई दे रहा था. ख्वाहिशों व उम्मीदों को समेटे लोग खुश हो कर दूसरे शहरों में कमानेखाने गए थे? लेकिन एक वायरस ने इन का सबकुछ छीन लिया. इन गरीब मजदूरों ने जिस शहर को सजायासंवारा, उसी ने इन्हें गैर बना दिया. अब तो बस दर्द ही याद है’ अपने मन में ही सोच मनोज को उन मजदूरों  पर दया आ गई कि आखिर गरीब लोग ही हमेशा क्यों मारे जाते हैं? वे ही क्यों दरदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं? सब से ज्यादा तो उन्हें रघु पर दया आ रहा था कि उस का प्यार भी छिन गया. लेकिन उन्होंने भी सोच लिया कि जहां तक हो सकेगा, वह इन मजदूरों की सहायता जरूर करेंगे.

इधर मोहन से शादी के जोर पड़ने पर मुन्नी धीरेधीरे टूटने लगी थी. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, कैसे इस शादी को रोके? मन तो कर रहा था कि धतूरे का बीज खा कर अपनी जान खत्म कर ले. लेकिन ऐसा भी वह नहीं कर सकती थी. क्योंकि मरना तो कायरता है. किसी चीज को हासिल करने के लिए लड़ना पड़ता है और वह लड़ेगी अपने मांबाप से भी और इस जमाने से भी. सोच लिया उस ने और अपने मन में ही एक फैसला ले लिया. रात में सोने से पहले उस ने तकिए में मुंह छिपा कर रघु का नाम लिया. उस का चुंबन याद आया और वह पुरानी सिहरन शरीर में झनझना गई.

अपने प्लान के अनुसार, सुबह मुंहअंधेरे ही वह घर से निकल गई और पैदल चल रहे मजदूरों के संग हो ली. जानती थी पैदल चल कर रघु से मिलना इतना आसान नहीं होगा. पर अपने प्यार के लिए वह कुछ भी करेगी. हजारों क्या, लाखों किलोमीटर चलना पड़े तो चल कर अपने प्यार को पा कर रहेगी. यह भी जानती थी कि उसे घर में ना पा कर गुस्से से सब बौखला जाएंगे. जहां तक होगा, उसे ढूंढ़ने की कोशिश की जाएगी. लेकिन कोई फायदा नहीं, क्योंकि तब तक वह काफी दूर निकल चुकी होगी. रघु के गांवघर का पता तो उसे मालूम ही था, फिर डर किस बात का था.

5 दिन बाद थकेहारे कदमों से, मगर विजयी मुसकान के साथ वह अपने रघु के सामने खड़ी थी. रघु को तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था.  उसे तो लग रहा था, जैसे वह कोई सपना देख रहा हो. मगर यह सच था, मुन्नी उस के सामने खड़ी थी. दोनों बालिग थे, इसलिए उन की शादी में रुकावट की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. क्वारंटीन अवधि पूरी होते ही जिलाधिकारी मनोज ने अपनी देखरेख में दोनों की शादी ही नहीं करवाई, बल्कि एक भाई की तरह मुन्नी को विदा भी किया. रघु को उन्होंने रोजगार दिलाने में भी मदद की, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके और अपनी जिंदगी अपने अनुसार जिए.

इस कोरोना काल में रघु ने बहुत मुसीबतें झेलीं, पर कहते हैं न, अंत भला तो सब भला.  रघु और मुन्नी के जीवन की नई शुरुआत हो चुकी थी.

दिव्या आर्यन : जब दो अनजानी राहों में मिले धोखा खा चुके हमराही

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘पता नहीं बस और गाड़ियों में रात में भी एसी क्यों चलाया जाता है, माना कि गरमी से नज़ात पाने के लिए एसी का चलाया जाना ज़रूरी है पर तब क्यों जब ज्यादा गरमी न हो,’ बस की खिड़की से बाहर देखती हुई दिव्या सोच रही थी. मन नहीं माना तो उस ने खिड़की को ज़रा सा खिसका भर दिया, एक हवा का झोंका आया और दिव्या की ज़ुल्फों से अठखेलियाँ करते हुए गुज़र गया.

कोई टोक न दे, इसलिए धीरे से खिड़की को वापस बंद कर दिया दिव्या ने. दिव्या जो आज अपने कसबे लालपुर से शहर को जा रही थी. वहां उसे कुछ दिन रुकना था. उस ने शहर के एक होटल में एक सिंगल रूम की बुकिंग पहले से ही करा रखी थी.

चर्रचर्र की आवाज़ के साथ बस रुकी. दिव्या ने बाहर की ओर देखा तो पाया कि पुलिसचेक है. शायद स्वतंत्रता दिवस करीब है, इसीलिए पुलिस वाले हर बस को रोक कर गहन तलाशी करते हैं. हरेक व्यक्ति की तलाशी और आईडी चेक होती है. पुलिस की चेकिंग के बाद बस आगे बढ़ी.

अब भी आधा सफर बाकी था. ‘अब तो लगता है मुझे पहुंचने में काफी रात हो जाएगी. तब, बसस्टैंड से होटल तक जाने में परेशानी होगी,’ दिव्या सोच रही थी.

ऐसा हुआ भी.

बस को शहर पहुंचने में काफी रात हो गई. दिव्या ने अपना सामान उठाया और किसी रिकशे या कैब वाले को देखने लगी. कई औटो रिकशे वाले खड़े थे पर उन में से कुछ ने होटल तक जाने से मना कर दिया तो कुछ औटो में ही सो रहे थे जबकि कुछ में ड्राइवर थे ही नहीं.

परेशान हो उठी दिव्या, ‘अगर कोई सवारी नहीं मिली तो मैं होटल कैसे जाऊंगी और बाकी की रात यहां कैसे बिताऊंगी!’

तभी उस की नज़र कोने में खड़े एक औटो पर पड़ी. दिव्या उस की तरफ गई तो देखा कि ड्राइवर उस के अंदर बैठबैठे हुआ सो रहा है.

“ए औटो वाले, खाली हो, होटल रीगल तक चलोगे?” दिव्या का स्वर पता नहीं क्यों तेज़ हो गया था. उस की आवाज़ सुन कर वह उठ गया और इधरउधर देखने लगा.

“ज…जी, वह आखिरी बस आ गई क्या? मैं ज़रा सो गया था. हां, बताइए मैडम, कहां जाना है?”

“होटल रीगल जाना है मुझे,” दिव्या बोली थी.

“हां जी, बैठिए,” कह कर उस ने औटो स्टार्ट कर के आगे बढ़ा दिया.

“होटल रीगल यहां से कितनी दूर होगा?” दिव्या ने पूछा

“वह मैडम, कुछ नहीं तो 16 किलोमीटर तो पड़ ही जाएगा. बात ऐसी है न मैडम, कि यह बसस्टैंड शहर के काफी बाहर और सुनसान जगह पर बनवा दिया गया है, इसीलिए यहां से हर चीज़ दूर पड़ती है. पर, आप घबराइए मत, हम अभी पहुंचाए देते हैं,” औटो वाले ने जवाब दिया.

औटो वाले का चेहरा तो नहीं दिख रहा था पर उस के कान में एक चेन में पिरोया हुआ कोई बुंदा पहना हुआ था, जो बारबार बाहर की चमक पड़ने पर रोशनी बिखेर देता था. उस चमक से बारबार दिव्या का ध्यान औटो वाले के कानों पर चला जाता.

अचानक से औटो के अंदर रोशनी सी भर गई. औटो वाले और दिव्या दोनों का ध्यान उस रोशनी पर गया. 4 लड़के थे जो अपनी बाइक की हेडलाइट को जानबूझ कर औटो के अंदर तक पंहुचा रहे थे .

इन को भी कहीं जाना होगा, ऐसा सोच कर दिव्या ने अपना ध्यान वहां से हटा लिया पर औटो वाले की आंखें लगातार पीछे आने वाली बाइकों पर थीं और वह उन लोगों की नीयत भांप चुका था.

अचानक से औटो वाले ने अपनी गति बढ़ा दी जितनी बढ़ा सकता था और औटो को मुख्य सड़क से हटा कर किसी और सड़क पर चलाने लगा.

“क्या हुआ, यह तुम इतनी तेज़ क्यों चला रहे हो और औटो को किस दिशा में ले जा रहे हो? बात क्या है आखिर?” दिव्या ने कई सवाल दाग दिए.

“जी, कुछ नहीं मैडम, आप डरिए नहीं. दरअसल, इस शहर में कुछ भेड़िए इंसानी भेष में रोज़ रात को लड़कियों का मांस नोचने के लिए निकल पड़ते हैं और आज इन लोगों ने आप को अकेले देख लिया है. पर आप घबराइए नहीं, मैं इन के मंसूबे कामयाब नहीं होने दूंगा,” आंखों को रास्ते और साइड मिरर पर जमाए हुए औटो वाला बोल रहा था.

पीछे आती हुई बाइकों ने अपनी गति और बढ़ा दी और वे औटो के बराबर में आने लगे .

औटो वाले ने अचानक औटो को एक दिशा में लहरा दिया और औटो के लहराने से बाइक वाला संभल नहीं पाया और बाइक कंट्रोल से बाहर हो गई. और वह लहराता हुआ गिर गया.

अपने साथी को गिरा देख कर दूसरा गुस्से में भर गया और बाइक चलाते हुए अंदर बैठी दिव्या के बराबर हाथ पहुंचाया. तुरंत ही दिव्या ने अपने साथ में लाए हुए लेडीज़ छाते का एक ज़ोरदार वार उस के हेलमेट पर कर दिया. इस अप्रत्याशित वार से वह भी बाइक समेत गिर गया. अपने 2 साथियों के चोटिल होने के बाद बाकी के दोनों सवारों का हौसला टूट गया उन दोनों ने पीछे आना छोड़ कर अपनी बाइकों को मोड़ लिया.

उन गुंडों से पीछा छुड़ाने के चक्कर में औटो मुख्य सड़क से भटक कर पास में छोटी सड़क पर चलने लगा था और औटोवाला ड्राइवर बगैर इस बात का ध्यान करे औटो भगाता जा रहा था. और अब जब उसे इस बात का भान हुआ तब तक औटो शहर के किसी दूसरे हिस्से में आ गया था. वहां चारों और घुप्प अंधेरा था. बस, जितनी दूर औटो की रोशनी जाती उतना ही रास्ता दिखाई दे रहा था.

औटो चला जा रहा था. तभी अचानक औटो से खटाक की आवाज़ आई और औटो रुक गया. औटो ड्राइवर को जितनी तकनीक मालूम थी वह सबकुछ अपना लिया. पर कुछ न हो सका .

“मैडम, अफ़सोस की बात है, हम शहर के किसी बाहरी हिस्से में आ गए हैं और वापसी का कोई उपाय नहीं है. अब हमें रात यही कहीं काटनी होगी.”

“क्या मतलब, यहां कहां और कैसे?”

“अब क्या करें मैडम, मजबूरी है,” औटोवाला युवक बोला, फिर कहने लगा, “वह सामने आसमान में ऊंचाई पर एक लाल बल्ब चमक रहा है, वहां चलते हैं. ज़रूर वहां हमे सिर छिपाने लायक जगह मिल जाएगी.” अपनी उंगली दिखाते हुए उस ने कहा और एक झटके से दिव्या का बैग उठा लिया और तेज़ी से चल पड़ा.

उस का अंदाज़ा सही था. यह एक निर्माणाधीन बहुमंज़िली इमारत थी, जिस के एक हिस्से में कुछ मज़दूर सो रहे थे और बाकी की इमारत खाली थी. दोनों चलते हुए ऊपर वाले फ्लोर पर पहुंचे और एक कोने में सामान रख दिया.

यह सब दिव्या को बड़ा अजीब लग रहा था और वह यह भी सोच रही थी, एक अजनबी के साथ वह इतनी देर से है, फिर भी उसे कोई असुरक्षा का भाव क्यों नहीं आ रहा है?

“इधर आ जाइए, हवा अच्छी आ रही है,” युवक ने बालकनी में आवाज़ देते हुए कहा.

“वैसे, तुम्हारा नाम क्या है?” अचानक से दिव्या ने पूछा.

“ज जी, मेरा नाम आर्यन है,” युवक ने थोड़ा झिझकते हुए उत्तर दिया.

” भाई वाह, क्या नाम है, वैरी गुड़,” दिव्या ने अपने पर्स में रखे हुए बिस्कुट निकाल कर आर्यन की ओर बढ़ाते हुए कहा.

“जी मैडम, बात ऐसी है कि मेरी मां शाहरुख खान की बहुत बड़ी फैन थी और जब ‘मोहब्बतें’ फिल्म रिलीज़ हुई न, तब मैं उस के पेट में था और तभी उस ने सोच लिया था कि अगर बेटा पैदा हुआ तो उस का नाम आर्यन रखेगी.”

आर्यन की सरल बातें सुन कर बिना मुसकराए न रह सकी दिव्या. पानी पीते हुए घड़ी पर निगाह डाली तो अभी रात का 2 बज रहा था. अभी तो पूरी रात यहीं काटनी है, इस गरज से दिव्या ने बातचीत जारी रखी.

“दिखने में तो खूबसूरत लगते हो और पढ़े लिखे भी. फिर, यह औटो चलाने की जगह कोई नौकरी क्यों नहीं करते?” दिव्या ने पूछा.

“मैडम, मैं ने एमए किया है वह भी इंग्लिश में. पर आजकल इस पढ़ाई से कुछ नहीं होता. या तो बहुत बड़ी डिग्री हो या फिर किसी की सिफारिश. और अपने पास दोनों ही नहीं. मरता क्या न करता, इसलिए औटो लाने लगा.

“ऊं…मोहब्बतें… तो कुछ अपनी मोहब्बत के बारे में भी बताओ. किसी लड़की से प्यारव्यार भी हुआ है या फिर…?” दिव्या ने पूछा.

उस की इस बात पर पहले तो आर्यन कुछ शरमा सा गया, फिर उस की आंखों में गुस्सा उत्तर आया, बोला, “हां मैडम, मुझे भी प्यार हुआ तो था पर अफ़सोस कि लड़की ने धोखा दे दिया…एक दिन मैं औटो ले कर घर वापस जा रहा था. तभी सड़क के किनारे मैं ने देखा कि एक लड़का पड़ा हुआ है. उस के सिर से खून बह रहा है और भीड़ मोबाइल से वीडियो बना रही है. कोई उस लड़के को अस्पताल ले कर नहीं जा रहा. उस लड़के के साथ एक बदहवास सी लड़की भी थी. मुझे उन दोनों पर दया आई और इंसानियत के नाते मैं ने उन दोनों को अस्पताल पहुंचाया. “अस्पताल में उस लड़के को जब खून की ज़रूरत पड़ी तो उस लड़की ने मुझ से मदद मांगी. मुझ से कहा कि वह लड़का उस का भाई है और खून का इंतज़ाम करना है.

“मैं क्या करता, मैं ने अपना खून उस लड़के को दिया और उस की जान बचाई. उस लड़की ने मुझे शुक्रिया कहा और बदले में मेरे को अपने घर का पता व अपना मोबाइल नंबर दिया, साथ ही मेरा नंबर लिया भी. और फिर रोज़ सुबह ही उस लड़की का व्हाट्सऐप्प पर मैसेज आता और चैटिंग भी करती. वह मुझ से पूछती कि वह उसे कैसी लगती है. और इसी तरह की कई दूसरी बातें भी पूछती थी.

“एक दिन मेरे मोबाइल पर उसी लड़की का फोन आया और उस ने मुझे अपने घर पर बुलाया. मैं उस से मिलने के लिए आतुर था, इसलिए तैयार हो कर उस के घर पहुंच गया. पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा था कि वह लड़की मुझ से प्यार करने लगी है, इसलिए मैं उस के लिए एक लाल गुलाब भी ले कर गया था. जब मैं वहां पहुंचा तो उस ने मेरा खूब स्वागत भी किया. उस के घर में सिर्फ उस की मां ही रहती थी पर उस दिन वह कहीं गई हुई थी.

“जब मैं ने उस लड़की से पूछा कि उस का वह भाई कहां है तो उस ने बताया कि वह भी मां के साथ ही कहीं गया है. अकेलापन देख कर मैं ने उस लड़की को शादी का प्रस्ताव दे डाला.

“अभी तक उस लड़की ने मेरा नाम नहीं पूछा था. नाम पूछने पर जब मैं ने उसे अपना नाम आर्यन डिसूजा बताया तब उस ने मेरे ईसाई होने पर सवाल खड़ा कर दिया और निराश हो कर कहने लगी, ‘मुझे भूल जाओ. मैं शादी तुम से नहीं कर सकती क्योंकि मेरी मां और पापा कट्टर हिंदू हैं, वे किसी गैरधर्म वाले लड़के से मेरी शादी नहीं करेंगे.’ हालांकि उस के भाई को खून देने को ले कर किसी को कोई एतराज नहीं था पर शादी की बात आते ही जातिधर्म सब आ गया. बस मैडम, मेरी पहली और आखिरी कहानी यही थी,” यह कह कर आर्यन चुप हो गया.

“काफी अजीब कहानी है तुम्हारे प्यार की. पर है बहुत ही इमोशनल और नई सी. इस पर कोई फिल्म वाला एक फिल्म बना सकता है,” दिव्या ने हंसते हुए कहा.

“हां जी, हो सकता है. पर आप ने कुछ अपने बारे में नहीं बताया, मसलन आप के मांबाप?” आर्यन भी दिव्या की प्रेमकथा ही जानना चाहता था, पर वह बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाया, इसलिए मांबाप का नाम ले लिया.

“मेरे बाप एक फार्मा कंपनी में काम करते थे. उन का सेल्स का काम था, तो अकसर घर के बाहर रहते. घर में सबकुछ था, ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं. जब वे घर आते तो हम सब को खूब समय और तोहफे भी देते…” कहतेकहते चुप हो गई दिव्या.

“जी, और आप की मां?”

“मां, अब उस के बारे में क्या बताऊं. उस का पेट हर तरह से भरा हुआ था- रुपए से, पैसे से. पर कुछ औरतों को अपने जिस्म की भूख मिटाने के लिए रोज़ एक नया मर्द चाहिए होता है न, कुछ ऐसी ही थी मेरी मां. वह कहीं भी जाती तो अपने लिए गुर्गा तलाश ही लेती और उसे अपना फोन नंबर दे देती. और जब वह आदमी घर तक आ जाता तो मुझे किसी बहाने से घर के बाहर भेज देती और उस आदमी के साथ जिस्मानी ताल्लुकात बनाती.

“धीरेधीरे उस की बेशर्मी इतनी बढ़ गई थी कि वह मेरे सामने ही किसी भी गैरमर्द के साथ प्रेम की अठखेलियां करने लगती. उस की ये हरकतें पापा को पता चलीं, तो उन्होंने तुरंत ही उसे तलाक़ दे दिया और मुझे मां के पास ही छोड़ दिया. तलाक़ के बाद मां को सम्भल जाना चाहिए था, पर वह और भी निरंकुश हो गई. “अब तो आदमी आते और घर पर ही पड़े रहते, बल्कि आदमी लोग शिफ्टों में आने लगे थे और मेरी मां जीभर सेक्स का मज़ा लेती थी. मां की हरकतें देख कर मैं ने अपने घर की छत पर जा कर आत्महत्या करने की कोशिश की, पर तभी मेरे पड़ोस में रहने वाले लड़के ने अपनी जान पर खेलते हुए मेरी जान बचाई.

“मुझे किसी का सहारा चाहिए था. मैं उस लड़के के कंधे पर सिर रख कर खूब रोई. मैं सिसकियों में बंध सी गई थी.

उस लड़के ने मुझे ऐसे वक्त में सहारा दिया कि मुझे उस से प्यार हो जाना स्वाभाविक ही था. प्यार तो उस को भी मुझ से हो गया था पर हमारी शादी के बीच मेरी मां का दुष्चरित्र आ गया और उस लड़के ने मुझ से साफ कह दिया कि उस के मांबाप किसी ऐसी लड़की से उस की शादी नहीं कराना चाहते जिस की तलाकशुदा मां कई मर्दों से सम्बन्ध रखती हो,” इतना कह कर चुप हो गई थी दिव्या.

दोनों चुप थे. रात का सन्नाटा भी बखूबी उन का साथ दे रहा था. हवा आआ कर अब भी कभीकभी दिव्या की ज़ुल्फों को उड़ा दे रही थी, जिन्हें वह परेशान हो कर बारबार संभालती थी.

“पर मैडम, मेरी कहानी कुछ नई लग सकती है आप को पर आप की कहानी में तो दर्द के अलावा कुछ नहीं है” पास में बैठे हुए आर्यन ने कहा.

प्रतिउत्तर में कोई जवाब नहीं आया, सिर्फ एक छोटी सी सिसकी ही आई जिसे चाह कर भी दिव्या छिपा न सकी थी.

“क्या तुम रो रही हो?” आर्यन ने पूछा.

बिना कोई उत्तर दिए ही आर्यन के सीने से लिपट गई दिव्या…रोती रही…शायद बचपन से ले कर अब तक कोई कंधा नहीं नसीब हुआ था उसे जिस पर वह सिर रख सके. रोती रही वह जब तक उस का मन हलका नहीं हो गया.

और आर्यन ने भी अपनी मज़बूत बांहों का घेरा दिव्या के गिर्द डाल दिया था. और दिव्या के माथे पर चुम्बन अंकित कर दिया. वह खामोश इमारत अब उन के मिलन की गवाह बन रही थी.

सूरज की पहली किरण फूटी पर वे दोनों अब भी किसी लता की तरह एकदूसरे से लिपटे हुए थे.

तभी दूर से एक दुग्ध वाहन आता हुआ दिखाई दिया. दिव्या ने आर्यन का हाथ पकड़ा और आर्यन ने बैग उठाया और दोनों ने दौड़ कर उस वाहन में लिफ्ट मांगी.

“हम कहां जा रहे हैं …और मेरा औटो तो वहीं रह गया मैडम,” आर्यन ने पूछा.

“अगर तुम्हें कोई और काम मिले तो क्या तुम करोगे ?” दिव्या ने आर्यन की आंखों में झांकते हुए कहा.

“हां मैडम, क्यों नहीं करूंगा.”

“पर हो सकता है तुम्हें उम्रभर मेरा साथ देना पड़े?”

“हां, पर तुम्हें साथ देना होगा तो ही करूंगा मैडम.”

“मैडम नहीं, दिव्या नाम है मेरा,” दिव्या ने कहा.

बदले में आर्यन सिर्फ मुसकरा कर रह गया.

शहर आ गया था. दोनों पूछतेपाछते होटल रीगल पहुंच गए.

रिसेप्शन पर जा कर दिव्या ने मैनेजर से कहा, “जी, मैं ने अपने लिए एक सिंगल बैडरूम बुक कराया था. मुझे आने में देर हो गई. पर, अब मुझे सिंगल नहीं बल्कि डबल बैडरूम चाहिए.”

“जी मैडम, किस नाम से रूम बुक था?” मैनेजर ने पूछा.

“मेरा कमरा दिव्या नाम से बुक था. पर अब आप रजिस्टर में मेरे पति आर्यन डिसूजा और दिव्या डिसूजा का नाम लिख सकते हैं,” दिव्या ने आर्यन की तरफ देखते हुए कहा.

प्रिया : क्या था प्रिया के खुशहाल परिवार का सच?

जैसे ही प्लेन के पहियों ने रनवे को छुआ, विकास के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. वह 3 साल बाद मां के बेहद जोर देने पर अपनी बहन के विवाह में शामिल होने के लिए इंडिया आया था. इस से पहले भी कितने मौके आए, लेकिन वह काम का बहाना बना कर टालता रहा. लेकिन इस बार वह अपनी बहन नीलू को मना नहीं कर सका. दिल्ली से उसे पानीपत जाना था, वहां फिर उस की याद आएगी. वह सोच रहा था कि यह कैसी मजबूरी है? वह उसे भूल क्यों नहीं जाता? क्यों आखिर क्यों? कोई किसी से इतना प्यार करता है कि अपना वजूद तक भूल जाता है? प्रिया अब किसी और की हो चुकी थी. लेकिन विकास उस की जुदाई सह नहीं पाया था, इसलिए पहले उस ने शहर और फिर एक दिन देश ही छोड़ दिया. भूल जाना चाहता था वह सब कुछ. उस ने खुद को पूरी तरह बिजनैस में लगा दिया था.

पलकों पर नमी सी महसूस हुई तो उस ने इधरउधर देखा. सभी अपनीअपनी सीट पर अपने खयालों में गुम थे. विकास एक गहरी सांस लेते हुए खुद को नौर्मल करने की कोशिश करने लगा.

बाहर आ कर उस ने टैक्सी ली और ड्राइवर को पता समझा कर पिछली सीट पर सिर टिका कर बाहर देखने लगा. दिल्ली की सड़कों पर लगता है जीवन चलता नहीं, बल्कि भागता है. तभी उस का मोबाइल बज उठा. विकास अमर का नाम देख कर मुसकराया और बोला, ‘‘बस, पहुंच ही रहा हूं.’’

विकास जब अपने सभी अरमानों को दफना कर खामोशी से लंदन आया था, तो कुछ ही दिनों बाद उस की मुलाकात अमर से हुई थी, जो अपनी कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के सिलसिले में लंदन आया हुआ था. दोनों के फ्लैट पासपास ही थे. दोनों में दोस्ती हो गई थी. इसी बीच अमर का ऐक्सिडैंट हुआ तो विकास ने दिनरात उस का खयाल रखा, जिस कारण दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त बन गए.

अमर ट्रेनिंग पूरी कर के भारत लौट आया. फिर कुछ दिनों बाद उस का विवाह भी हो गया. अब दोनों फोन पर बातें करते थे. दोस्ती का रिश्ता कायम था. अमर के बारबार कहने पर विकास ने उस से मिलते हुए पानीपत जाने का प्रोग्राम बनाया था. अमर के बारे में सोचते हुए उस ने टैक्सी ड्राइवर को पैसे दे कर डोरबैल बजा दी.

कुछ ही पलों में अमर का मुसकराता चेहरा गेट पर नजर आया, ‘‘सौरी यार, तुम्हें लेने एअरपोर्ट नहीं आ पाया.’’

‘‘कोई बात नहीं, बस अचानक आने का प्रोग्राम बना. मम्मी की जिद थी कि बहन की शादी में जरूर आऊं. एअरपोर्ट से ही मैं ने तुम्हें फोन किया था. सोचा तुम से मिलता जाऊं. सच पूछो तो घर वालों के साथसाथ मुझे तुम्हारी दोस्ती, तुम्हारा प्यार भी खींच लाया है.’’

अमर मुसकराता हुआ विकास के गले लग गया. फिर बातें करतेकरते विकास को ड्राइंगरूम में ले कर आया.

‘‘कैसा लगा घर?’’ अमर ने पूछा.

‘‘बहुत शांति है तुम्हारे घर में, लगता है स्वर्ग में रह रहे हो?’’

‘‘औफकोर्स, लेकिन बस एक ही अप्सरा है इस स्वर्ग में,’’ और फिर दोनों के की हंसी से ड्राइंगरूम गूंज उठा.

थोड़ी देर बाद अमर उठ कर अंदर गया और फिर गोद में एक बच्चे को ले कर आया और बोला, ‘‘विकास, इस से मिलो. सनी है यह.’’

विकास ने उठ कर सनी को गोद में लिया. बच्चा था ही ऐसा कि देख कर उस पर प्यार आ जाए.

‘‘अमर, खाना तैयार है,’’ कहते हुए वह गुलाबी साड़ी में अंदर आई तो विकास को लगा जैसे दिल की धड़कनें अभी बंद हो जाएंगी. और फिर वह अचानक उठ खड़ा हुआ.

‘‘विकास, यह प्रिया है, तुम्हारी भाभी,’’ प्रिया की नजरों में पहचान का कोई भाव नहीं था.

‘‘आप बैठिए न, अमर आप को बहुत याद करते हैं. और आज तो आप के फोन के बाद से आप की ही बातें चल रही हैं.’’

बेवफा, धोखेबाज, विकास मन ही मन उस के अनजान बनने पर कुढ़ कर रह गया.

प्रिया मुसकराते हुए अमर के पास बैठ गई. फिर कहने लगी, ‘‘अमर, खाना मैं ने टेबल पर लगा दिया है, सनी के सोने का टाइम हो रहा है. मैं इसे सुला कर आती हूं,’’ और वह बच्चे को ले कर चली गई.

अमर कहने लगा, ‘‘विकास, इस घर की सारी खूबसूरती और शांति प्रिया से है.’’

उधर विकास सोचने लगा कि इस बेवफा को वह एक पल में गलत साबित कर सकता है. विकास के दिल में प्रिया के खिलाफ नफरत का तूफान उठ रहा था. कुछ जख्म ऐसे होते हैं, जो दिखाई देते हैं, लेकिन दिखाई न देने वाले जख्म ज्यादा तकलीफ देते हैं. बीते दिनों का एहसास एक बार फिर विकास के मन में जाग उठा. यकीनन मेरा डर प्रिया के दिल में उतर चुका होगा, फिर वह बोला, ‘‘अमर, भाभी हमारे साथ खाना नहीं खाएंगी?’’

‘‘तुम शुरू करो, मैं बुलाता हूं,’’ लेकिन अमर के बुलाने से पहले ही वह आ गई और आते ही कहने लगी, ‘‘मैं सनी को सुलाने गई थी, वैसे मुझे भी बड़ी जोर की भूख लगी है,’’ और वह कुरसी खींच कर विकास के सामने बैठ गई.

विकास सोच रहा था यह प्यार भी अजीब चीज है. हम हमेशा उसी चीज से प्यार करते हैं, जो हमारे बस में नहीं होती. सब जानते हुए भी मजबूर हो जाते हैं. प्रिया का चेहरा आज भी खिलते गुलाब जैसा था. आज भी उस पर नजरें टिक नहीं रही थीं. जब तक लड़कियों की शादी नहीं हो जाती तब तक उन्हें लगता है वे अपने प्यार के बिना मर जाएंगी, लेकिन फिर वही लड़कियां अपने पति के प्यार में इतना आगे निकल जाती हैं कि उन्हें अपना अतीत किसी बेवकूफी से कम नहीं लगता.

विकास के मन में आया कि वह उस के हंसतेबसते घर को बरबाद कर दे… अगर वह बेचैन है तो प्रिया को भी कोई हक नहीं है चैन से रहने का…

‘‘विकास, तुम खा कम और सोच ज्यादा रहे हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं,’’ अमर के कहने पर वह चौंका.

‘‘लगता है खाना पसंद नहीं आया आप को,’’ प्रिया कहते हुए मुसकराई.

‘‘नहीं, खाना तो बहुत टेस्टी है.’’

‘‘प्रिया खाना बहुत अच्छा बनाती है,’’ अमर ने कहा तो वह हंस दी, फिर उठते हुए बोली, ‘‘आप लोग बातें करो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

कुछ ही देर में प्रिया ट्रे उठाए आ गई. और बोली, ‘‘आप बता रहे थे आप के दोस्त शाम को चले जाएंगे… कम से कम 1 दिन तो आप को इन्हें रोकना चाहिए…’’

विकास उस की बातों से हैरान रह गया. उस के हिसाब से तो प्रिया उस से पीछा छुड़ाने की कोशिश करती.

‘‘अरे, मैं कहां जाने दूंगा इसे… कम से कम 1 दिन तो इसे यहां ठहरना ही पड़ेगा.’’

फिर विकास ने भी ज्यादा नानुकर नहीं की. वह मन में प्रिया से सारे हिसाब बराबर करने का फैसला कर चुका था. चाय के बाद अमर उसे थोड़ी देर आराम करने के लिए दूसरे रूम में छोड़ गया.

नर्म बैड, ठंडा कमरा, अभी लेट कर आंखें बंद की ही थीं कि प्रिया एक बार फिर सामने आ गई जिसे वर्षों बाद भी मन भुला नहीं पाया था…

उन के पड़ोस में जो नया परिवार आया था वह प्रिया का ही था. जल्द ही विकास की बहन नीलू की प्रिया से दोस्ती हो गई. अकसर उस की प्रिया से मुलाकात हो जाती थी. कभीकभी विकास भी उन दोनों की बातों में शामिल हो जाता था. गपशप के दौरान विकास को लगता कि प्रिया भी उसे पसंद करती है. उस की आंखों के पैगाम प्रिया के दिल तक पहुंच जाते. पता नहीं किस पल, किस वक्त वह इस तिलिस्म में कैद हुआ था, जिसे प्यार कहते हैं. लेकिन उस के दिल की बात कभी जबान तक नहीं आई थी.

घर में बड़ा बेटा होने के कारण विकास मांबाप का दुलारा था. उस ने एमबीए करने के बाद जब बिजनैस शुरू किया तो उस की इच्छा देखते हुए उस की मम्मी ने प्रिया की जन्मपत्री मंगा ली थी. लेकिन जब वह नहीं मिली तो दोनों के परिवार वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. विकास के तनबदन में आग लग गई. वह इस अंधविश्वास के कारण प्रिया से दूर नहीं रह सकता था. अत: उस ने मन की तसल्ली के लिए नीलू को प्रिया के मन का हाल जानने के लिए भेजा. हालांकि अब तक प्रिया से उस की कोई ऐसी गंभीर बात नहीं हुई थी फिर भी अगर वह विकास का साथ दे तो वे कोर्ट मैरिज कर सकते हैं.

लेकिन प्रिया के जवाब से विकास के दिल को बहुत ठेस पहुंची थी. उस का कहना था कि वह विकास की भावनाओं की कद्र करती है. वह उसे पसंद करती है, लेकिन वह विवाह मातापिता की सहमति से ही करेगी. विकास का बुरा हाल था. वह सोचता, वह सब कुछ क्या था? वह उसे देख कर मुसकराना, उस से बातें करना, क्या प्रिया उस की भावनाओं से खेलती रही? विकास को एक पल चैन नहीं आ रहा था. उसे लगा प्रिया ने उस के साथ धोखा किया है. उस के बाद प्रिया से बात नहीं हुई.

धीरेधीरे प्रिया ने घर आना भी छोड़ दिया. अब विकास का यहां दम घुटने लगा था. कुछ दिनों बाद वह लंदन आ गया. कभीकभी उसे लगता कि शायद यह एक दिमागी कमी है, जिसे इश्क कहते हैं. अतीत में खोए विकास को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

जागने पर नहाने के बाद विकास ने स्वयं को फ्रैश महसूस किया. सारी थकान खत्म हो चुकी थी. दरवाजा खोल कर वह बाहर आया, प्रिया चाय की ट्रे मेज पर रख ही रही थी. हलके मेकअप ने उस के चेहरे को और भी निखार दिया था. विकास की नजर प्रिया के चेहरे पर जम कर रह गई. फिर उस ने पूछा, ‘‘अमर कहां है?’’

‘‘कुछ सामान लेने गए हैं, आते ही होंगे.’’

‘‘तुम चाय में साथ नहीं दोगी?’’ विकास का बेचैन दिल एक बार फिर उस की कंपनी के लिए मचलने लगा.

‘‘आप लीजिए, मैं किचन में बिजी हूं,’’ कह कर वह किचन की तरफ बढ़ गई.

विकास सोचने लगा, आखिर थी न बेवफा औरत, कैसे टिक सकती थी मेरे सामने. मगर मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं प्रिया, यह तुम्हें जल्द ही पता चल जाएगा. और फिर अंदर की ईर्ष्या ने उसे ज्यादा देर बैठने नहीं दिया.

प्रिया किचन में थी और वह किचन के दरवाजे पर खड़ा उसे देख रहा था. समय ने उस के सौंदर्य में कमी के बजाय वृद्धि ही की थी.

‘‘क्या देख रहे हैं आप?’’ प्रिया लगी तो काम में थी, लेकिन ध्यान विकास पर ही था.

विकास बोला, ‘‘तुम जैसी लड़कियां प्यार किसी से करती हैं और शादी किसी और से, कैसे बिताती हैं ऐसा दोहरा जीवन?’’

प्रिया काम करते हुए ही बोली, ‘‘आप मुझ से क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘तुम इतनी अनजान क्यों बन रही हो? तुम मुझे क्यों बेवकूफ बनाती रहीं? क्या मैं इतना पागल नजर आता था?’’

विकास की तेज आवाज पर प्रिया ने हैरान हो कर उस की तरफ देखा, फिर आंच धीमी की और विकास की आंखों में देखती हुई बोली, ‘‘विकास, आप की पहली गलतफहमी यह है कि मैं ने आप को बेवकूफ बनाया. मैं ने आप से कभी थोड़ीबहुत जो बातें कीं वह मेरी गलती थी, लेकिन वे बातें प्यारमुहब्बत की तो थीं नहीं, आप ने अपनेआप को किसी भ्रम में डाल लिया शायद… जब मेरे मम्मीपापा ने आप के रिश्ते को मना किया तो मुझे दुख हुआ था, लेकिन ऐसा नहीं कि मैं खुद को संभाल न सकूं. मैं ने फिर आप के बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘तुम झूठ बोल रही हो. तुम ने नीलू से क्यों कहा था कि मैं तुम्हें अच्छा लगता हूं, लेकिन तुम ने मेरा साथ नहीं दिया… जब मैं पूरी तरह तुम्हारे प्यार में डूब गया तो तुम ने मेरा दिल तोड़ दिया… अमर के जीवन में आने से पहले तुम ने यह खेल न जाने कितनों के साथ खेला होगा.’’

‘‘विकास,’’ प्रिया गुस्से से बोली, ‘‘शायद आप जानते होंगे कि रिश्ते तो हर लड़की के लिए आते हैं. आप का भेजा हुआ प्रपोजल कोई अनोखा नहीं था फर्क सिर्फ इतना था कि मैं आप को जानती थी.

‘‘मैं ने नीलू को बताया था कि आप मुझे बुरे नहीं लगते. आप बुरे थे भी नहीं. एक अच्छे इंसान में जो खूबियां होनी चाहिए वे सब आप में थीं. लेकिन जब मेरे मम्मीपापा की मरजी नहीं थी तो मैं आप का साथ देने की सोच भी नहीं सकती थी. अगर मैं मांबाप की मरजी के खिलाफ आप का साथ देती तो एक भागी हुई लड़की कहलाती और ऐसे प्यार का क्या फायदा जो इज्जत न दे सके? मैं ने आप के बारे में सोचा जरूर था, लेकिन आप से प्यार कभी नहीं किया. आप शायद एकतरफा मेरे लिए अपने दिल में जगह बना चुके थे, इसलिए मेरी शादी को आप ने बेवफाई माना. कुछ समय बाद मेरी अमर के साथ शादी हो गई, यकीन करें मैं ने आप के साथ कोई मजाक नहीं किया था. उस के बाद मैं ने कभी आप के बारे में सोचा भी नहीं. अमर का प्यार मुझे उन के अलावा कुछ और सोचने भी नहीं देता.’’

प्रिया की आवाज में अमर के लिए प्यार भरा हुआ था और विकास सोच रहा था, वह कितना बेवकूफ था अपने एकतरफा प्यार में… अपने जीवन का इतना लंबा समय बरबाद करता रहा.

‘‘क्या सोचने लगे, विकास?’’ किचन की तपिश ने उस के चेहरे को और खूबसूरत बना दिया था.

‘काश, तुम मेरी प्रिया होतीं. तुम्हारी यह खूबसूरती मेरे जीवन में होती, मेरा प्यार एकतरफा न होता,’ फिर अचानक शर्मिंदगी के एहसास ने विकास को घेर लिया कि यह सब वह अपने दोस्त की पत्नी के बारे में सोच रहा है.

प्रिया ध्यान से उस के चेहरे के उतारचढ़ाव को देख रही थी. वह उसे चुप देख कर बोली, ‘‘आप ड्राइंगरूम में बैठिए, यहां गरमी है, मैं अभी आती हूं.’’

विकास चुपचाप हारे कदमों से ड्राइंगरूम में आ गया, जहां सनी अभी तक खेल रहा था. कुछ देर में प्रिया भी आ गई और वहीं बैठ गई. दोनों काफी देर चुप रहे.

दिल ने एक बार फिर उकसाया तो विकास बोल उठा, ‘‘अगर मैं अमर को बता दूं कि मैं तुम्हें जानता हूं, बल्कि प्रपोज भी कर चुका हूं तो?’’ कह कर विकास ने उस के चेहरे पर नजरें जमा दीं.

प्रिया की गहरी आंखों में पल भर के लिए उलझन छाई, फिर धीरे से बोली, ‘‘यह जो पुरुष होता है न बड़ा अजीब होता है. अच्छाई पर आए तो फरिश्तों को भी मात कर दे और बुराई पर आए तो शैतान भी पनाह मांगे. आप का दिल जो चाहे, वह करो. आप अपने अधूरे प्यार का गुस्सा मेरे शांत जीवन को खत्म कर के उतारना चाहते हैं, अमर के सामने मेरा अपमान करना चाहते हैं जबकि आप का और मेरा ऐसा कोई रिश्ता था ही नहीं. क्या मेरा अपराध यही है कि मैं ने अपने मम्मीपापा की इच्छा के बिना आप का साथ नहीं दिया,’’ कहतेकहते प्रिया की आंखें भर आईं.

वह ठीक कह रही थी. विकास के दिमाग को उस की बातें स्वीकार्य थीं, लेकिन उस का दिल अब भी नहीं मान रहा था. और फिर दिमाग दिल पर हावी हो गया. विकास ने महसूस किया कि दिल और दिमाग में रस्साकशी चले तो दिमाग की बात मान लेनी चाहिए. इसीलिए शायद कुदरत ने बुद्धि को हृदय के ऊपर बैठाया है.

प्रिया की बातों ने विकास को शर्मिंदा सा कर दिया था. उस का मन ग्लानि से भर उठा. उस ने प्रिया को देखा तो उस के उदास चेहरे के घेरे में कैद सा हो गया. अपनी छोटी सोच पर उसे कुछ बोला ही नहीं गया, फिर हिम्मत कर के बोला, ‘‘आई एम सौरी, प्रिया, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए. मैं गलत सोच रहा था,’’ फिर दोनों थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे.

कुछ ही देर में अमर आ गया. फिर सब ने खाना खाया, दोनों दोस्त बीते दिनों की बातें दोहराते रहे. प्रिया काम समेटती रही.

विकास के चलने का समय आया तो अमर गाड़ी निकालने लगा. प्रिया बोली, ‘‘आप फिर कब आएंगे?’’

‘‘शायद अब कभी नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें मुझे अपने घर बुलाते हुए डर नहीं लग रहा है?’’

‘‘वह क्यों?’’ प्रिया ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं तुम्हारा कोई नुकसान कर दूं तो?’’

‘‘मुझे पता है आप ऐसा कभी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह क्यों?’’ अब हैरान होने की बारी विकास की थी.

‘‘इसलिए कि आप बहुत अच्छे इंसान हैं. आप अमर के दोस्त हैं, जब चाहें आ सकते हैं.’’

‘‘प्रिया बहुत शांति है तुम्हारे घर में, तुम्हारे जीवन में, मेरी कामना है कि यह हमेशा रहे,’’ विकास मुसकराया.

‘‘आप घर बसा लें ऐसी शांति आप को भी मिल जाएगी,’’ प्रिया की आंखों में खुशी दिखाई दे रही थी.

विरोधी भावों के तूफान से जूझने के

बाद विकास का मन पंख सा हलका हो गया था. मन का बोझ उतरने पर बड़ी शांति मिल रही थी, यही विकल्प था दीवाने मन का. विकास को लगा इतने वर्षों की थकान जैसे खत्म हो गई है.

पश्चात्ताप : आज्ञाकारी पुत्र घाना को किस बात की मिली सजा?

लेखक- धीरज कुमार

ट्रेन से उतर कर टैक्सी किया और घर पहुंच गया. महीनों बाद घर वापस आया था. मुझे व्यापार के सिलसिले में अकसर बाहर रहना पड़ता है. मैं लंबी यात्रा के कारण थका हुआ था, इसलिए आदतन सब से पहले नहाधो कर फ्रेश हुआ. तभी  पत्नी आंगन में चायनाश्ता ले आई. चाय पीते हुए मां से बातें कर रहा था. अगर मैं घर से बाहर रहूं और कुछ दिनों बाद वापस आता हूं तो  मां  घर की समस्याएं और गांवघर की दुनियाभर की बातें ले कर बैठ जाती है. यह उस की पुरानी आदत है. इसलिए कुछ उस की बातें सुनता हूं. कुछ बातों पर ध्यान नहीं देता हूं. परंतु इस प्रकार अपने गांवघर के बारे में बहुतकुछ जानकारी मिल जाती है.

मां ने बातोंबातों में बताया कि, “उस ने अपने बिसेसर चाचा की हत्या  डंडे से पीटपीट कर  कर दी है. उसे  जेल हो गई है.”

“कौन, मां, तुम किस के बारे में कह रही हो?” मैं ने हत्या और जेल के बारे में सुन कर जरा चौकन्ना होते हुए पूछा.

” घाना…ना…, घाना के बारे में बता रही हूं,” मां जोर देते हुए बोली.

” घाना ने किस की हत्या कर दिया, मां? ” मैं ने ज़रा आश्चर्य से पूछा था.

“अरे, वह अपने बिसेसर चाचा की, बउआ,” वह दृढ़ता से बोली थी.

यह सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ. एक पल को लगा, शायद यह झूठ है. किंतु सच तो सच होता है न, कई दिनों तक उस के बारे में मेरे मन में विचार उमड़तेघुमड़ते रहे.

मुझे आज भी याद है. हम दोनों एकसाथ बचपन में खेलते थे. साथसाथ बगीचे से आम चुराते थे. खेतों से मटर ककी फलियां तोड़ना, एकसाथ पगडंडियों पर दौड़ना… दोनों साथ साथ खेलते हुए बड़े हुए थे.

आज मैं व्यापार के सिलसिले में अपने गांव से दूर रहता हूं और कभीकभार ही आ पाता हूं. समयाभाव के कारण मिलनाजुलना हम दोनों का कम हो गया था. किंतु आज भी हमदोनों की पटती है. जब भी मैं गांव  आता हूं, हम दोनों की घंटों बातें होती हैं.

उस के परिवार के लोगों की विसेसर चाचा से पुरानी रंजिश थी क्योंकि वे उस के गोतिया थे. मैं एक बार किसी काम से उस के घर जा रहा था. उस की चाची से उस की मां की तूतूमैंमैं हो रही थी. उस की मां जोरजोर से गालियां दे रही थी.

उस की चाची व उस की चचेरी बहनें भी उस की मां को  गालियां देने लगीं.

उस की मां  जोरजोर से चिल्लाने लगी, “दौड़ रे घाना…” इतना सुनते ही घाना अंदर से दौड़ पड़ा था. ऐसा लग रहा था, अभी वह चाची पर टूट पड़ेगा. वह भी मां की तरह से अनापशनाप बोलने लगा. मैं ने उस को डांटा और शांत किया. वह मेरी बात मानता था. मैं ने उस को समझाया, “छोटीछोटी बातों पर गुस्सा क्यों करते हो, आखिर, वह तुम्हारी चाची ही तो है.”

कुछ देर बाद मामला रफादफा हो गया था.

कुछ दिनों बाद उस ने बताया कि, “चाचा के परिवार से परेशान हो गया हूं. वे लोग जमीनजायदाद के बंटवारे को उलझा कर रखे हैं. उन्होंने बंटवारे में ज्यादा जमीन रख ली है. इसलिए हम दोनों परिवारों में झगड़ा और तनाव रहता है. वे दोबारा बंटवारे के लिए  तैयार नहीं हो रहे हैं.”

यह कहते हुए वह गंभीर हो गया था.

मैं ने उस को समझाया, “क्यों नहीं तुम लोग सहूलियत से ही  मांग लेते हो.”

“वे कभी नहीं देंगे. वे बहुत अड़ियल हैं,” वह निराश होते हुए बोला था.

वह मेरा बचपन का दोस्त था. मैं उस को भलीभांति जानता हूं. वह कभीकभी उखड़ जाता है, गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाता है. परंतु वह इतना कठोर नहीं है कि हत्या जैसे अपराध में लिप्त हो जा.

गांव के लोगों से मालूम हुआ कि जब वह केस हार गया और उसे सजा मिल गई तो उस ने अपने मांबाबूजी से भी मिलने से इनकार कर दिया.

सभी लोग उसे अपराधी मान रहे थे. लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था. इसलिए मैं ने समय निकाल कर उस से मिलने के लिए सोचा.

मैं जेल के सामने खड़ा था. वह कुछ देर बाद  सलाखों के पीछे आ चुका था. मुझे देखते ही उस की आंखों में आंसू आ गए. उस के आंसू रुक नहीं रहे थे. मैं बारबार उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था.

“घाना,  मैं तुम से जानने आया हूं  कि आखिर यह सब कैसे हो गया?” मैं ने उस से सीधा सवाल किया था.

वह बहुत देर तक अपने आंसुओं पर काबू पाने की कोशिश करता रहा. जब आंसू रुके तो उस ने बोलना शुरू किया, “भैया, आप जानते हैं…”

मैं उस की उम्र से थोड़ा बड़ा हूं और गांवघर के रिश्ते में भाई भी लगता हूं, इसलिए वह मुझे भैया ही कहता है. फिर भी, वह मेरा दोस्त है.

एक बार फिर रुक कर उस ने बोला शुरू किया, “मैं गुस्से के आवेग में ऐसा कर गया. वहां मांबाबूजी और मेरी बहन  भी थी. मां मारोमारो की आवाज लगा रही थी. बहन ने आग में घी डालने का काम कर दिया. मैं आगेपीछे नहीं सोच पाया. किसी ने एक बार भी मुझ से यह नहीं कहा कि मत मारो. अगर  किसी ने एक बार भी रोका होता,  तो शायद मैं उन की हत्या न करता और कारावास का दंड न मिलता.”

मैं ने तसल्ली देने की कोशिश की, “अब जो हो गया,  हो गया. अब पछताने से कोई फायदा नहीं है.”

कुछ देर मुझ से नज़रें नहीं मिला पा रहा था वह. अपना चेहरा इधरउधर घुमा रहा था. वह स्वयं को अपराधी महसूस कर रहा था, ऐसा मुझे महसूस हो रहा था.

वह कुछ सोचते हुए अपना हाथ मलने लगा था. वह बारबार अपनी उन हथेलियों को देख रहा था जिन से उस ने हत्या की थी. भले ही वह हत्या के लिए पश्चात्ताप कर रहा था, यह बात तो स्पष्ट थी कि वह गुनाहगार और अपराधी तो बन ही गया. मैं कुछ देर तक गांवघर के बारे में इधरउधर की बातें कर उस का मन बहलाता रहा.

“मैं ने सुना है कि तुम अपने मांबाबूजी से अब नहीं मिलते हो. शायद, तुम ने  उन को मिलने से मना कर दिया है. लेकिन क्यों ?” मैं ने उस से सवाल किया.

उस का चेहरा कठोर हो गया था. उस ने बताया, “भैया, आप जानते हैं,  मांबाबूजी की आकांक्षाओं के कारण ही तो यह महाभारत हुआ है. अब मैं जिंदगीभर जेल में रहूंगा. इस के पीछे मेरे मांबाबूजी ही जिम्मेदार हैं. वे जमीन के कुछ टुकड़ों के लिए जिंदगीभर जहर भरते रहे. वे लोग एक बार भी रोके  होते तो शायद मैं  कारावास में जीवन नहीं भोगता.”

मैं सचाई सुन कर घाना के प्रति द्रवित हो रहा था. लेकिन इस परिस्थिति में मदद नहीं कर पा रहा था. मैं ने महसूस किया कि इन सहानुभूतियों का भी कोई फायदा नहीं है. मैं भारीमन से फिर मिलने का वादा कर के निकल गया.

उस ने कहा, “आते रहिएगा भैया, आप के सिवा अब मेरा कोई अपना नहीं है. अब मेरे मांबाबूजी अपने नहीं रहे जिन्होंने मुझे गुनाह के रास्ते पर धकेल दिया है.”

“ऐसा नहीं कहते मेरे भाई, वे तुम्हारे ही मांबाबूजी हैं. वे तुम्हारे ही रहेंगे,” मैं ने समझाने की कोशिश की.

उस की आंखों में घृणा और पश्चात्ताप के आंसू स्पष्ट दिख रहे थे.

उम्र का फासला: क्या हुआ लक्षिता के साथ

नर्सरी  में देखो तो पौधे कितने खिलेखिले रहते हैं. मगर गमलों में शिफ्ट करते ही मुरझने लगते हैं. बराबर खादपानी देती हूं, सीधी धूप से भी बचाती हूं, फिर भी पता नहीं क्यों मिट्टी बदलते ही पौधे कुछ दिन तो ठीक रहते हैं, लेकिन फिर धीरेधीरे जल जाते हैं,’’ मां अपने टैरेस गार्डन में उदास खड़ी बड़बड़ा रही थी. आज फिर उस का जतन से लगाया एक प्यारा पौधा मुरझ गया था.

खिड़की में खड़ी लक्षिता अपनी मां को देख रही थी. खुद वह भी तो इन गमलों के पौधों जैसी ही है. शादी से पहले मायके में कितनी खिलीखिली रहती थी. ससुराल जाते ही मुरझ गई. हर समय चहकने वाली लक्षिता शादी के 2 साल बाद ही अपना घर छोड़ कर मायके आ गई थी. नहींनहीं, यह कोई व्यक्तिगत, सामाजिक या कानूनी अलगाव नहीं था, बस लक्षिता विशाल और अपने रिश्ते को थोड़ा और समय देना चाह रही थी.

ऐसा नहीं था कि उस ने अपनी जड़ों को पराई जमीन में रोपने में कोई कसर छोड़ी हो. भरसक प्रयास किया था नई मिट्टी के मुताबिक ढलने का… लेकिन पता नहीं मिट्टी में ही कीड़े थे या फिर धूप इतनी तेज कि उस पर तनी विशाल के प्रेम वाली हरी नैट भी बेअसर हो गई. लक्षिता अपनी असफल शादी को याद कर भर आई आंखें पोंछने लगी.

‘न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन. जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन…’ कितना झठ कहते है ये शायर लोग भी. कौन कहता है कि प्यार उम्र के फासले को पाट सकता है? यह तो वह खाई है जिसे लांघने की कोशिश करने वाले को अपने हाथपांव तुड़वाने ही पड़ते हैं. और यदि इस राह में जन्म का बंधन यानी जातिधर्म की चट्टान भी आ जाए तो फिर इन फासलों को पाटना किसी साधारण व्यक्ति के बस की बात तो नहीं हो सकती, लक्षिता मोबाइल की स्क्रीन पर लगी अपनी और विशाल की शादी की तसवीर को देख कर फीकी सी मुसकरा दी.

पूरे 10 वर्ष का फासला था दोनों की उम्र में. इस के साथसाथ विजातीय होने की अड़चन थी सो अलग… समाज में कैसे स्वीकार होता? स्वीकार होने की प्राथमिकता बढ़ भी जाती यदि विशाल की उम्र लक्षिता से अधिक होती क्योंकि प्रचलित सामाजिक धारणा के अनुसार पुरुष और घोड़े कभी बूढ़े नहीं होते बशर्ते उन्हें अच्छी खुराक दी जाए. शायद इसीलिए लड़कों को लड़कियों से अच्छा खानापीना दिए जाने का रिवाज चल पड़ा होगा. एक बात की कड़ी से कड़ी जोड़ती लक्षिता दूर तक सोच आई.

लक्षिता पुणे की एक मल्टी नैशनल कंपनी में मैनेजर थी और विशाल एक

मैनेजमैंट ट्रेनी… लक्षिता विशाल की बौस थी. 35 वर्षीय लक्षिता देखने में किसी मौडल सी लगती है जिसे देख कर उस की उम्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. चेहरे की स्किन ऐसी पारदर्शी है कि जरा नाखून भी लग जाए तो गाल कई दिनों तक लाल दिखाई दे. बाल बेशक कंधे तक कटे थे, लेकिन लेयर में होने के कारण चेहरे पर नहीं आते. हां, गरदन झकाने पर चेहरे को ढांप जरूर लेते थे जैसे बरसाती दिनों में चांद के चारों तरह घिरा सुनहरा आवरण. लक्षिता अपने चेहरे पर मेकअप नहीं पोतती, लेकिन कुछ तो ऐसा लगाती कि चेहरा हर समय दमकता रहता है. लिपस्टिक का शेड भी न्यूड सा ही रहता और आंखें हमेशा गोल्डन फ्रेम के चश्मे में कैद…

ऐसा नहीं है कि 35 वर्षीय इस युवती को अविवाहित रहने का कोई शौक या शगल था. कुछ मजबूरियां ही ऐसी रहीं कि सही उम्र में विवाह कर ही नहीं पाई. यों तो आजकल 35 में कोई बुढ़ाता नहीं है, लेकिन हां, युवाओं वाले मिजाज तो नर्म पड़ने ही लगते हैं. ऐसी ही ठंडी पड़ती चिनगारी को सुलगाने विशाल उस की जिंदगी में आया था.

विशाल ने जब उस का विभाग जौइन किया तो वह भी लक्षिता को एक आम ट्रेनी जैसा ही लगा था, लेकिन धीरेधीरे विशाल उस के वजूद को स्क्रब की तरह सहलातारगड़ता गया और वह निखरीनिखरी एक नए आकर्षक रूप में खिलती गई.

कभी ‘‘यह रोजरोज सलवारकमीज क्यों पहनती हैं? कभी कुरती के साथ जीन्स भी ट्राई कीजिए,’’ कह कर तो कभी ‘‘बालों को बांधना क्या औफिस के प्रोटोकाल में आता है? चलो मान लिया कि आता होगा, लेकिन औफिस टाइम के बाद तो इन्हें भी आजाद किया जाना चाहिए न?’’ जैसे जुमले वह लक्षिता के पास से गुजरते हुए फुसफुसा देता था. चेहरे पर भोलापन इतना कि लक्षिता चाह कर भी उसे लताड़ नहीं पाती थी.

कब लक्षिता के वार्डरोब में जीन्स और आधुनिक पैंट्स की संख्या बढ़ने लगी, कब औफिस बिल्डिंग के मुख्य दरवाजे से बाहर निकलते ही उस के बालों का कल्चर निकल

कर हैंडबैग के स्ट्रैप में लगने लगा वह जान ही नहीं पाई.

राजपूती कदकाठी को जस्टिफाई करता लंबे कद और चौड़े कंधों वाला विशाल अपने घुंघराले बालों के कारण पीठ पीछे से भी पहचाना जा सकता था. विशाल में गजब की ड्रैस सैंस थी. उस की शर्ट के रंग इतने मोहक और कूल होते कि उस की उपस्थिति एक ठंडक का एहसास दिला देती थी. भीनीभीनी महकती बगलें जैसे अपनी तरफ खींचती थीं. लक्षिता के पास आ कर किसी काम के लिए जब विशाल अपनी दोनों बांहें टेबल पर रख कर फाइलों पर झक जाता तो लक्षिता एक लंबी सांस लेने को मजबूर हो जाती थी. आंखें खुदबखुद मुंद जातीं और विशाल का पसीने मिला डीयो नाक से होता हुआ रूह तक अपना एहसास छोड़ जाता. विशाल एक कुहरे की तरह उसे ढकता गया और जब यह कुहांसा छंटा तो लक्षिता ने पाया कि प्रेम की धुंध उस के भीतर तक उतर चुकी है.

लक्षिता ने इस प्रेम को बहुत नकारा, लेकिन वह प्रेम ही क्या जो दीवानगी ले कर न आए. सच ही कहा है किसी ने कि प्रेम करना किसी समझदार के बस की बात नहीं है. यह तो एक फुतूर है जिसे कोई जनूनी ही निभा सकता है. लक्षिता हालांकि बहुत समझदारी दिखाने की कोशिश कर रही थी. जितना हो सके उतना वह विशाल को नजरअंदाज करने का प्रयास भी करती, लेकिन राजस्थान से आया यह नया ट्रेनी बिलकुल रेगिस्तानी धूल की तरह था. कितने भी खिड़कीदरवाजे बंद कर लो, इस का प्रवेश रोकना नामुमकिन था. अलमारी में रखी साडि़यों की भीतरी तह तक पहुंच जाने वाली गरद की तरह विशाल भी हर परत को बेधता हुआ आखिर लक्षिता के मन के गर्भगृह तक जा ही पहुंचा था.

अपने जन्मदिन पर विशाल ने लक्षिता को डिनर के लिए आमंत्रित किया तो वह इनकार नहीं कर सकी. अंधेरे में भी हाथ बढ़ाते ही हाथ में आने वाली ड्रैस पहनने वाली बेपरवाह लक्षिता को उस दिन अपने लिए ड्रैस का चुनाव करने में

2 घंटे लग गए. जब भी किसी कुरते या साड़ी पर हाथ रखती, पीछे खड़ा विशाल न में गरदन हिला देता. अंत में उसे चुप रहने की सख्त हिदायत देते हुए लक्षिता ने हलके हरे रंग का टौप और औरिजनल डैनिम की पैंट चुनी. गले में फंकी सा लौकेट डालते समय अपनी 35 की उम्र को याद करती वह हिचकी तो थी, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों कानों में भी झलते से लटकन डाल ही लिए थे. लिपस्टिक लगाते समय दिमाग ने पूछा भी था कि आज यह इतना रोमांटिक सा गुलाबी रंग क्यों? लेकिन तु?ो इस से क्या? अपने काम से काम रखा कर कहते हुए दिल ने दिमाग को ऐसा करारा जवाब दिया कि शेष समय दिमाग ने अपने होंठ सिल लिए. लक्षिता को उस का फायदा भी हुआ. पूरी मुलाकात के दौरान दिमाग ने कोई रायता नहीं फैलाया. बस, जो दिल ने कहा लक्षिता करती गई.

विशाल ने घुटनों पर बैठते हुए उसे प्रोपोज किया तो लक्षिता समझ नहीं पा रही थी कि सौगात पर हंसे या रोए. असमंजस में उलझ वह विशाल को भी असमंजस में उलझ छोड़ कर डाइनिंगहौल से बाहर निकल आई.

‘यह आज की पीढ़ी भी न. सपनों में ही जीती है. अरे सपनों से परे समाज भी तो होता है न? उस ने भी तो संसार के सफल संचालन के लिए कुछ नियम बनाए ही हैं. हां, जरूरी नहीं कि ये नियम सब को रास आएं ही, लेकिन नियम किसी एक व्यक्ति की खुशी या सुविधा को

ध्यान में रख कर तो नहीं बनाए जा सकते न?’ लक्षिता कैब में बैठी मन ही मन खुद को

समझने का प्रयास कर रही थी. रातभर विशाल के प्रश्नों के जवाब ही तैयार करती रही. वह जानती थी कि विशाल सवालों की लिस्ट लिए उसे औफिस के मुख्य दरवाजे पर ही खड़ा मिलेगा. लेकिन विशाल को इतना चैन कहां.

उस ने तो सुबहसवेरे ही लक्षिता के घर की घंटी बजा दी.

‘‘आज के दौर के बदलाव को देखते हुए बात करें तो मेरे और तुम्हारे बीच पूरी एक पीढ़ी का फासला कहा जा सकता है. समझ रहे हो न तुम? उम्र का यह फासला बहुत माने रखता है विशाल,’’ लक्षिता ने उसे चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, लेकिन उस के तो रोमरोम पर जैसे इश्क तारी था.

लक्षिता से झगड़ ही पड़ा, ‘‘प्यार हर फासले को पाट देता है,’’ कुछ संयत होने के बाद उसने लक्षिता के दोनों हाथ पकड़ लिए.

लक्षिता उन आंखों की तरलता को सहन नहीं कर सकी. वह पिघलने लगी. न केवल पिघली बल्कि वह तो विशाल के प्रेम प्रवाह में बह ही गई. बहतीबहती इतनी दूर निकल आई कि किनारे न जाने कहां पीछे छूट गए.

वह तो विशाल ने ही प्रेम के चरम को छूने के बाद उस की अधमुंदी आंखों को चूम कर

उसे इस स्वप्नलोक से बाहर निकाला वरना उस का मन तो चाह रहा था कि बस विशाल प्रेम की नैया को खेता रहे और वह बहती रहे.

लक्षिता ने विशाल का प्रेम स्वीकार कर लिया, लेकिन वह जानती थी कि अभी उम्र और जन्म के बंधन को भी पार पाना पड़ेगा. अभी तो शुरुआत हुई है. इस कहानी को अंजाम तक पहुंचाने में बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा. हो सकता है कि शुरुआत घर से ही हो. उस ने अपनी मां को विशाल के बारे में बताया.

जैसाकि उसे अंदेशा था, स्वीकार तो मां को भी नहीं था यह रिश्ता लेकिन ‘‘चलो, देर से ही सही. बेटी का घर तो बस जाएगा. बड़ी बहू, बड़े भाग,’’ कहते हुए किसी तरह उन्होंने खुद को समझ लिया था, मगर विशाल के मातापिता को यह रिश्ता जरा भी नहीं सुहाया था.

‘‘मति मारी गई है लड़के की. अरे 16 की उम्र में तो मैं अपनी मां की गोद में थी. साथ चलोगे तो लोग पतिपत्नी नहीं बल्कि बूआभतीजा सम?ोंगे. ऊपर से ब्राह्मण खानदान की अलग. जिन के पुरखे हमारे यजमान होते हैं हम उन्हें दान दें या उन से बेटी लें?’’ मां ने सख्ती से इस बेमेल जोड़ी की खिलाफत की.

‘‘औरतों के शरीर पर उम्र जल्दी झलकने लगती है. आगे की सोचो. जब इस लड़की की उम्र ढलने लगेगी तब क्या तुम्हारी हमउम्र तुम्हें ललचाएंगी नहीं? फिर अपने होने वाले बच्चों की भी तो सोचो. रिटायरमैंट की उम्र में यह पोतड़े धोएगी क्या?’’ यह कहते हुए पिता ने भी समझया था. लेकिन विशाल के भी अपने अलग तर्क थे.

‘‘अमृता सिंह से ले कर प्रियंका चोपड़ा तक… और शिखर धवन से ले कर सचिन तेंदुलकर तक… किसी को भी देख लो सब अपनी बड़ी पत्नियों के साथ खुश हैं. आप लोग पता नहीं क्यों उम्र के फासले को इतना तूल दे रहे हैं,’’ विशाल ने कई बड़ी हस्तियों के उदाहरण अपने पक्ष में दिए.

‘‘वे सब बड़े लोग हैं. उन्हें समाज से कोई विशेष मतलब नहीं होता, लेकिन हमें तो सब सोचना पड़ेगा न? लोग तुम्हीं में खोट निकालेंगे कि कोई मिली नहीं तो जो मिली उसी को ब्याह लिया,’’ मां ने अपना प्रतिरोध जारी रखा.

मगर विशाल तो सचमुच दीवाना हो उठा था. उस

ने उन की हर दलील को खारिज करते हुए जब कोर्ट मैरिज और घर छोड़ने की धमकी दी तो मन मार कर घर वालों को उस की सनक के सामने झकना पड़ा और तानोंतंजों के मध्य लक्षिता विशाल की ब्याहता बन कर उस के घर आ गई.

किसी आम फिल्मी कहानी की तरह इस दास्तान की कोई हैप्पी ऐंडिंग नहीं हुई थी बल्कि यहां से तो हैप्पीनैस की ऐंडिंग शुरू हुई थी.

‘‘उम्र में जितनी तुम विशु से बड़ी हो, लगभग उतनी ही बड़ी मैं तुम से हूं. मेरी सहेलियां कहती हैं कि बहू से मांजी नहीं बल्कि दीदी कहलवाया करो,’’ सास बातों ही बातों में लक्षिता को उस की उम्र जता देती थी.

‘‘ये तो छोटा है लेकिन तुम तो बड़ी हो न. तुम से तो समझदारी की उम्मीद की ही जा सकती है,’’ कहते हुए विशाल के पिता भी जबतब उस पर बड़प्पन लाद देते.

लक्षिता क्या करती. कट कर रह जाती.

कभीकभी तो शाकाहारमांसाहार को ले कर घर में ऐसी बहस छिड़ती कि लक्षिता को सचमुच यह शादी जल्दबाजी में लिया गया फैसला लगने लगती.

‘विशाल को भी बारबार खुरचने से क्या फायदा. खून का रिश्ता है, किसी दिन उबाल खा गया तो बेवजह बतंगड़ बन जाएगा और लोगों को अपनी आशंका सही साबित होने का दावा करने का मौका मिल जाएगा,’ यही सोच कर लक्षिता चुप्पी साध लेती.

मां से मन की कही तो उन्होंने भी, ‘‘यह तो एक दिन होना ही था,’’ कह कर उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया.

लक्षिता को जब कुछ नहीं सूझ तो उस ने यहां मुंबई यानी अपने मायके में ट्रांसफर ले लिया. इधर मां भी अकेली थी, इसलिए लक्षिता और उन्हें दोनों को ही यह व्यवस्था रास आ गई. काम की अधिकता का बहाना बना कर वह ससुराल जाना टालती रहती. विशाल ही हफ्ते 10 दिन में उस से मिलने आ जाता. गनीमत कि विशाल की उस के प्रति दीवानगी और प्यार अभी भी बरकार थी, इसलिए यह रिश्ता जुड़ा हुआ था. रोज उस से फोन पर बात होती रहती. एक दिन उसी से पता चला कि उस के पापा कोरोना पौजिटिव हो गए हैं. 3 ही दिन में इतने गंभीर हो गए कि उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा.

कहने को तो मरीज की पूरी देखभाल अस्पताल के जिम्मे ही थी, लेकिन अस्पताल के बाहर भी सैकड़ों काम होते हैं यह विशाल को इसी दौरान पता चला. बेचारा विशाल उन के लिए आवश्यक दवाओं, औक्सीजन और आईसीयू बेड की व्यवस्था करता हकलान हुआ जा रहा था. कभी इस डाक्टर से राय लेता तो कभी उस डाक्टर से. विशाल को समझ में नहीं आ रहा था कि जिंदगी में आए इस भूचाल को कैसे व्यवस्थित करे. इस से पहले तो कभी पापा ने उसे इस उलझन में आने ही नहीं दिया.

दूसरी तरफ मां का हाल अलग ही बुरा था. वह बारबार अस्पताल जाने और पापा को देखने की जिद किए जा रही थी. विशाल अपनी सारी परेशानी लक्षिता को सुना कर हलका हो लिया करता था. लक्षिता भी कभी केवल सुन कर तो कभी सलाह दे कर उस का हौसला बढ़ाती रहती.

अगले 2 दिन विशाल का फोन नहीं आया. ‘व्यस्त होगा,’ सोच कर लक्षिता ने भी उसे डिस्टर्ब नहीं किया. आज रविवार की छुट्टी थी. लक्षिता को विशाल के आने की उम्मीद थी. जब से वह यहां शिफ्ट हुई है, एक छोड़ एक रविवार को विशाल आता है उस से मिलने.

शाम ढलने को थी, लेकिन विशाल नहीं आया. उस के इंतजार में लक्षिता ने लंच भी नहीं किया. सोचा साथ ही करेंगे, लेकिन अब तो वह शाम की चाय भी पी चुकी थी. मां ने जिद की तो चाय के साथ 2 बिस्कुट ले लिए.

‘‘आज विशाल नहीं आया?’’ मां ने पूछा.

लक्षिता सिर्फ ‘‘हम्म’’ कह कर रह गई.

‘‘क्यों?’’ मां ने फिर पूछा तो लक्षिता ने ससुरजी के कोरोना ग्रस्त और विशाल के परेशानी में होने की जानकारी दी. लक्षिता ने महसूस किया कि उस के हर वाक्य के साथ मां की आंखें आश्चर्य से फैलतीं और माथे की लकीरें तनाव से सिकुड़ती जा रही थीं.

‘‘अरे, विशाल तो छोटा है, लेकिन तु?ो भी अकल क्यों नहीं आई. कम से कम ऐसे समय तो सासससुर को बहू से सेवा की आशा रहती ही है. मैं तो कहती हूं कि तुझे कल ही वहां चले जाना चाहिए. तू ऐसा कर, अभी विशाल को फोन कर. उसे हिम्मत बंधा और अपना सामान पैक कर. और सुन, औफिस से कम से कम 15 दिन की छुट्टी ले कर जाना.’’

मां ने लक्षिता को दुनियादारी सिखाई.

लक्षिता को हालांकि मां का उम्र का हवाला देना अखरा, लेकिन उसे अपनी गलती भी महसूस हुई.

‘अकेला लड़का, बेचारा परेशान हो रहा है. न घरबाहर संभल रहा होगा… मुझ से भी तो आने को कह सकता था न,’’ सोचतेविचारते हुए उस ने विशाल को फोन किया.

‘‘क्या बताता तुम्हें? पापा को संभालतेसंभालते मैं खुद संक्रमित हो गया. तुम्हें बताता तो तुम आने की जिद करती और तुम्हारे लिए मैं कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता. फिलहाल तो लक्षण गंभीर नहीं दिख रहे इसलिए घर पर ही क्वारंटीन हूं, लेकिन मु?ो बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्या होगा,’’ लक्षिता का फोन सुनते ही विशाल छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगा.

इधर लक्षिता के पांवों तले से भी जमीन दरक गई. उसे पति पर दया भी आई और लाड़ भी. अगले दिन सुबह लक्षिता विशाल के घर अपनी सास के पास थी.

घर पहुंचते ही लक्षिता ने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. साफसफाई से ले कर पौष्टिक खाने तक सभी काम वह अपनी निगरानी में ही करवाती. विशाल एक अलग कमरे में क्वारंटीन था. लक्षिता उस की हर जरूरत का खयाल रख रही थी. वह विशाल की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर अपनी नजर बनाए हुए थी. विशाल को अकेलापन न खले इस का भी उसे पूरा खयाल था. लगातार वीडियो कौल पर बातों के साथसाथ कुछ अच्छी पुस्तकों और कई ओटीटी प्लेटफौर्म उसे सब्सक्राइब करवा दिए ताकि उस का मन बहलता रहे.

लक्षिता की सास उस की हर गतिविधि का अवलोकन कर रही थी. हालांकि लक्षिता ऐसा कुछ भी विशेष नहीं कर रही थी जो कोई अन्य नहीं कर सकता, लेकिन उस ने महसूस किया कि लक्षिता के हर क्रियाकलाप में एक गंभीरता है, परिपक्वता है. वह कोई भी काम चाहे किसी डाक्टर से परामर्श लेना हो या कोई घरेलू उपाय, हड़बड़ी या घबराहट में नहीं करती बल्कि पूरी तरह से विचार कर, आगापीछा सोच कर करती है. इस दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आया कि यदि बहू विशाल की हमउम्र होती तो ऐसी परिस्थति में कैसे रिएक्ट करती. शायद मुसीबतों का भी व्यक्ति की उम्र से कुछ लेनादेना नहीं होता.

डाक्टर की दवाओं के साथसाथ लक्षिता एक वैद्य के संपर्क में भी थी.

ऐलोपैथी और आयुर्वेद के साथसाथ लक्षिता की मेहनत भी मिल गई थी. तीनों ने मिल कर उम्मीद से कहीं अधिक अच्छे परिणाम दिए. विशाल अब पहले से काफी बेहतर महसूस कर रहा था. सप्ताह भर बाद उस की कोरोना रिपोर्ट भी नैगेटिव आ गई और इधर विशाल के पापा को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वे भी लक्षिता की समझदारी की तारीफ करते नहीं थक रहे थे.

इन दिनों लक्षिता की सास के चेहरे पर संतुष्टि की चमक उत्तरोत्तर गहराने लगी थी. उस ने यह भी लक्ष्य किया कि लक्षिता के सलीके और सुघड़ता को देख कर उस की और विशाल की उम्र के अंतर को भांप पाना आसान नहीं लगता.

विशाल अब पूरी तरह से स्वस्थ था. पापा की रिकवरी भी बहुत अच्छी हो रही थी. 2 दिन बाद लक्षिता की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. लक्षिता ने घर में साफसफाई और खाने की व्यवस्था करवा दी. कपड़े धोने के लिए औटोमैटिक वाशिंग मशीन भी खरीद लाई. एकबारगी काम चलाने लायक जुगाड़ हो गया था. यह भी तय हुआ कि जब तक पापा पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तब तक लक्षिता हर सप्ताह उन्हें देखने आएगी. यही सब बताने के लिए लक्षिता अपनी सास के कमरे की तरफ जा रही थी कि भीतर से आते संवाद में अपने नाम का जिक्र सुन कर दरवाजे पर ही ठिठक गई.

‘‘लक्षिता, सचमुच बहुत समझदार है. उस के व्यवहार ने मेरी उस धारणा को गलत साबित कर दिया कि अधिक उम्र की लड़की अपने पति को बच्चा समझ कर उस के साथ मां की तरह पेश आती है बल्कि अब तो मु?ो लग रहा है कि विशाल से तो लक्षिता जैसी समझदार पत्नी ही निभा सकती थी. कितना बचपना है विशाल में. एकदम अनाड़ी है दुनियादारी में.’’

अपने बारे में सास के विचार जान कर लक्षिता चौंक गई.

‘‘यानी तुम इस बात को स्वीकार करती

हो कि विवाहित जोड़े में किसी एक की उम्र

दूसरे से इतनी ही अधिक होनी चाहिए. तुम्हारे हिसाब से उम्र का यह फासला जायज है?’’ यह ससुर की आश्चर्य भरी प्रतिक्रिया थी. लक्षिता

इस प्रतिक्रिया का जवाब सुनने के लिए उतावली हो उठी. उस ने अपने कान सास के जवाब पर टिका दिए.

‘‘हर जोड़े में ऐसा ही हो यह जरूरी नहीं. इस बात में भी दोराय नहीं कि उम्र का

अधिक फासला रिश्तों में पेचीदगी लाता है, लेकिन हां, इस बात को मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूं कि प्रेम उम्र के फासले को पाट सकता है,’’ सास ने कहा तो लक्षिता के चेहरे की मुसकान और भी अधिक गहरी हो गई. वह सास के कमरे में जाने के बजाय रसोई की तरफ मुड़ गई. आज मन कुछ खास बनाने को हो आया.

‘‘लक्षिता, वैसे तो यह फैसला पतिपत्नी का होता है, लेकिन फिर भी मैं सलाह देना चाहूंगी कि तुम दोनों को अपना परिवार बढ़ाने में देर नहीं करनी चाहिए. उम्र बढ़ने पर कोई कौंप्लिकेसी आ सकती है,’’ सास ने रात को खाने की मेज पर सब के सामने कहा तो निवाला मुंह की तरफ बढ़ाते विशाल का हाथ रुक गया. वह कभी अपनी मां तो कभी लक्षिता की तरफ देखने लगा.

सब्जी परोसती लक्षिता के हाथ भी ठिठक गए. आज उसे सास का बड़ी उम्र का ताना देना भी बुरा नहीं लगा. रिश्ते को स्वीकृति देने के इस अनोखे अंदाज को समझते ही लक्षिता की आंखें शर्म से झक गईं.

‘‘मैं तो कहता हूं कि कोशिश कर के तुम अपना ट्रांसफर यहीं करवा लो, कम से कम परिवार एकसाथ तो रहेगा,’’ कहते हुए ससुरजी ने उस की तरफ देखा.

विशाल और लक्षिता एकदूसरे को चोर निगाहों से देखते हुए मंदमंद मुसकरा रहे थे.

मीरा: अंगद ने क्या धोखा किया

बचपन में मीरा जब भी उड़ते हुए विमान को देखती थी तो उस की नन्ही सी आंखों में विस्मय छलक उठता. इतने छोटे से विमान में लोग कैसे बैठते होंगे, डर नहीं लगता होगा? और बड़ी होने तक विमान में बैठने का तो सपना भी कभी नहीं आया था.

लेकिन जिस बात का कभी सपना भी नहीं देखा था वह बात आज सच हो गई थी. वक्त ने कुछ ऐसी करवट ली थी कि आज वह विमान में बैठ कर सात समंदर पार जा रही थी. यही एकमात्र सत्य था बाकी सब झूठ. वैसे ऐसा तो कहानियों में या फिर फिल्मों में होता है कि कोई राजकुमार आ कर किसी गरीब घर की लड़की को ब्याह कर ले जाए लेकिन यहां तो वास्तव में उस के जीवन में यही हुआ था.

कालेज की पढ़ाई पूरी होते ही अंगद उस की जिंदगी में कहीं से आ धमका था. उस की एक दूर की रिश्तेदार ने अंगद को दिखाया था और अंगद को वह पसंद आ गई थी. सब काम इतनी शीघ्रता से हुआ था कि सोचने का कुछ मौका ही न मिला. घर वालों की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. बिना किसी लेनदेन के बेटी को ऐसा घर और ऐसा वर मिला था. किसी भी गरीब मांबाप को इस से ज्यादा क्या चाहिए? बेटी राज करेगी. एक हफ्ते में ही चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

अंगद ज्यादा रुक नहीं सकता था. शादी के दूसरे दिन ही उसे जाना पड़ा. मीरा के सब पेपर तैयार करने थे, वीजा जो लेना था. जाने में थोड़ा समय तो लगना ही था. मीरा उतने दिन सासससुर के पास ही रही. बुजुर्ग सासससुर, दोनों ही बहुत अच्छे थे. और फिर थोड़े ही दिनों में मीरा का जाना भी हो गया. आंखों में सपने संजोए मीरा आज विमान में उड़ रही थी. उस ने जो सपना देखा भी नहीं था आज वह हकीकत बन गया था.

विमान में बैठेबैठे मीरा की आंखों ने आज पहली बार कुछ रंगीन सपने देखने शुरू किए थे.

शिकागो के ओहेर एअरपोर्ट पर अंगद उसे लेने आया था. उस के साथ उस की एक दोस्त भी थी. अंगद ने उस की पहचान कराई, ‘‘मीरा, यह मेरी दोस्त, मेरियन. और मेरियन, ये है मीरा.’’

विदेश में तो ये सब सहज है. ऐसा मीरा ने सुन रखा था, इसलिए उसे कुछ बुरा न लगा. हंस के उस ने मेरियन से हाथ मिलाया. मेरियन मीरा का अनूठा सौंदर्य देख कर चकित हो गई थी. तीनों साथ ही घर आए.

नई दुलहन का स्वागतसत्कार तो यहां कौन करे? मीरा ने ऐसे ही घर में प्रवेश किया.

अंगद ने बाहर से कुछ मंगवा कर रखा था. तीनों ने साथ खाया. मीरा को अंगद की बातों में ऊष्मा की कमी महसूस हुई. लेकिन शायद किसी तीसरे व्यक्ति की मौजूदगी के कारण होगा, ऐसा सोच कर मीरा कुछ बोली नहीं. खाना खाने के बाद अंगद ने मीरा को एक कमरा दिखा कर कहा, ‘‘मीरा, आज से यह तुम्हारा कमरा.’’

‘‘मेरा?’’ मीरा कुछ समझी नहीं. उस ने अंगद की ओर देखा.

मीरा की आंखों में तैरता प्रश्न अंगद समझ रहा था. अब स्पष्टता करने की घड़ी आ पहुंची थी.

‘‘देखो मीरा, मेरियन मेरी दोस्त ही नहीं बल्कि मेरी प्रेमिका भी है. हम दोनों 1 साल से साथ रहते हैं. मुझे पता है, तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा, पर क्या करूं? तुम से शादी करना मेरी मजबूरी थी. मेरे मातापिता ने शर्त रखी थी कि अगर मैं किसी भारतीय लड़की से शादी करूंगा तभी उन की मिल्कियत मुझे मिलेगी, इसीलिए तुम से शादी करनी पड़ी. उन्हें मेरियन के बारे में कुछ पता नहीं. वैसे तो मुझे पहले दिन ही तुम्हें ये सब बताना नहीं था, लेकिन मेरियन ने बोला था कि मुझे आज ही बोलना पड़ेगा. सौरी. लेकिन मेरे पास और कोई चारा नहीं था.’’

मेरियन सामने बैठ कर सब सुन रही थी. अंगद के साथ रहने से वह हिंदी समझने लगी थी और थोड़ाबहुत बोल भी लेती थी.

मेरियन मीरा के सामने ही बैठी सब देख रही थी, अब मीरा क्या करेगी?

थोड़ी देर मीरा कुछ बोल नहीं पाई. एक सन्नाटा सा रहा. मीरा का वैसे तो जोरजोर से चीखने का जी हो रहा था लेकिन कौन सुनेगा यहां? कौन था अपना यहां? जिस को अपना मान कर, जिस के सहारे आई थी वह खुद ही…

रोने का कोई मतलब ही नहीं दिख रहा था. इस आदमी ने पैसों के लिए एक नारी की जिंदगी दांव पर लगा दी थी. क्या कर सकती है वह?

थोड़ी देर चुप्पी छाई रही.

फिर मीरा ने धीरे से पूछा, ‘‘अब मुझे क्या करना है?’’

‘‘देखो मीरा, मैं कोई ऐसा बुरा आदमी नहीं हूं. तुम्हें दुख पहुंचाने का मेरा कोई इरादा भी नहीं है और मैं यह भी अच्छी तरह जानता हूं कि इस से ज्यादा दुख की बात तुम्हारे लिए और कोई नहीं होगी. मुझे माफ करना. मेरा प्यार मेरी मजबूरी है. तुम यहां आराम से रह सकती हो. तुम्हें यहां कोई तकलीफ नहीं होगी. पर हमारे बीच पतिपत्नी का कोई संबंध नहीं होगा. तुम भूल जाओ कि मैं तुम्हारा पति हूं और मैं भूल जाऊंगा कि तुम मेरी पत्नी हो. हम दोस्त की हैसियत से साथसाथ रहेंगे.

2 साल के बाद तुम स्वदेश वापस जाना चाहोगी तो जा सकती हो. मेरे मातापिता की शर्त सिर्फ 2 साल के लिए ही है. फिर मुझे उन की संपत्ति मिल जाएगी. और तब अगर तुम चाहो तो दूसरी शादी भी कर सकती हो.’’

मीरा के मन में प्रश्न आया, ‘शादी के बाद एक रात जो हम ने साथ बिताई थी, उस का क्या?’

उस का मन हुआ कि अंगद को झंझोड़ कर इस बात का जवाब मांगे, क्या मुझे मेरा कौमार्य वापस दे सकते हो? लेकिन कोई फायदा नहीं था. उस ने धैर्य रख कर पूछा, ‘‘और यहां रह कर मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘कुछ नहीं. मैं और मेरियन. हम दोनों भी यहीं रहेेंगे. क्योंकि मेरियन के पास अपना खुद का कोई घर नहीं है. तुम अपने तरीके से यहां रह सकती हो. जो जी में आए, करो और खुश रहो,’’ अंगद ने उदारता दिखाते हुए कहा.

मीरा 2-3 मिनट मौन रही. फिर एकाएक जोरों से हंस पड़ी.

अंगद बुत की तरह उसे हंसते हुए देखता रह गया. यह औरत पागल तो नहीं है? रोने के बजाय हंसती है? उस ने तो सोचा था कि मेरियन की बात सुनते ही वह एक आम भारतीय नारी की तरह रोनेधोने लगेगी. उस को भलाबुरा बोलेगी. मेरियन को भी कुछ सुनाएगी. पर इसे तो मानो कुछ असर ही नहीं है. मेरियन को भी आश्चर्य हुआ. अंगद ने तो उस से कुछ और ही कहा था.

अंगद से रहा न गया. उस ने पूछा, ‘‘तुम्हें ये बात सुन कर दुख नहीं हुआ? हंसी क्यों आई?’’

‘‘सच बात बताऊं?’’

अंगद मीरा को देखता रहा.

‘‘अरे, आप ने तो मेरी प्रौब्लम हल कर दी. अंगद, सच बात यह है कि मैं भी शादी से पहले किसी और से प्यार करती थी. यह शादी मेरी भी इच्छा के खिलाफ हुई थी. मेरे प्रेमी माधव की पढ़ाई पूरी होने में अभी 2 साल बाकी हैं. इसीलिए कैसे भी कर के मुझे 2 साल तक प्रतीक्षा करनी थी. मैं उलझन में फंसी हुई थी, लेकिन तुम ने तो मेरी मुश्किल आसान कर दी, थैंक्स अंगद. यह तो बहुत अच्छी बात हुई. हम दोनों एक ही नाव के यात्री निकले.’’

‘‘क्या? क्या तुम सच कहती हो?’’ अंगद को जैसे विश्वास नहीं हुआ.

न जाने क्यों उसे यह सुनना अच्छा नहीं लगा.

‘‘अरे, इस में हैरान होने की क्या बात है? अगर ऐसा नहीं होता तो पहले ही दिन पति की ऐसी बात सुन कर कौन पत्नी आंसू न बहाती?’’

‘‘चलो, हम दोनों की प्रौब्लम सौल्व हो गई,’’ अंगद ने कहा तो सही लेकिन उस की आवाज में वास्तविक खुशी नहीं थी.

ये सब बातें सुन कर मेरियन बहुत खुश हो रही थी. चलो, एक बला टली. उसे डर था कि पता नहीं मीरा क्या करेगी? अब कुछ नहीं होगा. उस ने राहत की सांस ली.और फिर एक ही छत के नीचे, एक ही घर में ‘पति, पत्नी और वो’ का सिलसिला शुरू हुआ.

सुबह अंगद और मेरियन दोनों ही अपनी जौब पर चले जाते. मीरा तीनों के लिए खाना बनाती. घर के सब काम करती. थोड़े दिन सब ठीक ही चला.

1 महीने में मीरा यहां के तौरतरीके, रहनसहन सब सीख गई थी.

एक दिन जब अंगद और मेरियन शाम को घर आए तो खाना नहीं बना था.

मीरा से पूछने पर उस ने बताया, ‘‘सौरी अंगद, आज मुझे भूख नहीं थी, इसलिए कुछ नहीं बनाया. रोज अपने लिए बनाती थी तो साथ में आप दोनों के लिए भी बना लेती थी.’’

‘‘तो आज खाना कौन बनाएगा?’’

‘‘क्यों? मेरे आने से पहले आप लोग बनाते ही होंगे न?’’

‘‘हां, लेकिन तब तो घर में दूसरा कोई था नहीं, इसीलिए.’’

‘‘अभी ऐसा ही सोच लो.’’

‘‘क्यों? अभी तो तुम हो न?’’

‘‘तो मैं क्या आप की खाना बनाने वाली हूं?’’

‘‘अगर यहां रहना है तो काम भी करना पड़ेगा.’’

‘‘तो मुझे यहां रहने का कहां शौक था? 2 साल की शर्त आप की ओर से थी. अगर आप को पसंद नहीं है तो मैं चली जाऊंगी,’’ मीरा ने शांति से उत्तर दिया.

अंगद को बहुत गुस्सा आया लेकिन कुछ बोल नहीं पाया.

वैसे दूसरे दिन जब वे दोनों आए तब खाना तैयार था. मीरा ने आज तरहतरह का बहुत बढि़या खाना बनाया था. अंगद को आश्चर्य हुआ. उस ने पूछा, ‘‘आज क्या कुछ खास बात है?’’

‘‘ओह, हां अंगद, आज मैं बहुत खुश हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अरे, आज मेरा माधव भी यहां आ गया है. और आज वह मुझे यहां मिलने आने वाला है. ओह, अंगद टुडे आई ऐम सो हैप्पी. माधव की पढ़ाई पूरी हो जाएगी और फिर हम दोनों शादी कर लेंगे. अब तो हम दोनों भी मिल पाएंगे. ठीक आप की तरह. है न खुशी की बात?’’

तभी मीरा का मोबाइल बजा.

‘‘ओह, माधव, सौरी, अंगद. आप दोनों खा लो, मेरा फोन तो लंबा चलेगा,’’ खुश होती हुई मीरा अपने कमरे में चली गई.

आज खाना तो बहुत अच्छा बना था लेकिन अंगद को मजा न आया. उस का ध्यान खाने के बजाय मीरा के कमरे से आती हंसी की आवाज पर ज्यादा था. न जाने क्यों आज वह बेचैन हो उठा था.

मेरियन ने एकदो बार पूछा पर अंगद ने कुछ जवाब नहीं दिया.

दूसरे दिन जब अंगद और मेरियन काम पर जा रहे थे तब मीरा ने घर की चाबी अंगद के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘लो, यह एक चाबी तुम अपने पास भी रखो. मुझे आज आने में शायद देर हो जाएगी.’’

मीरा के चेहरे पर खुशी झलक रही थी.

‘‘क्यों? तुम कहीं जाने वाली हो?’’

‘‘क्यों, कल बोला तो था कि माधव भी यहां आया है. आज मैं उसी से मिलने जा रही हूं. कितने लंबे अरसे के बाद हम दोनों मिल पाएंगे. अंगद, आज मैं बहुत खुश हूं. अच्छा है आप के जीवन में मेरियन है, वरना मुझे भी पूरी जिंदगी आप के साथ बितानी होती. तब मेरे प्रेम का क्या होता?’’

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती अपने पति के सामने पराए मर्द की बातें करते?’’

‘‘पति?’’ हंसते हुए मीरा ने कहा, ‘‘भूल गए? आप ने ही तो कहा था, हम दोनों पतिपत्नी नहीं हैं. क्यों, सही बात है न, मेरियन?’’

‘‘या, राइट, इट्स क्वाइट ओके. फाइन, नाउ कमऔन, अंगद. वी आर गेटिंग लेट,’’ अंगद का हाथ खींचती मेरियन बोली.

उस शाम अंगद आया तब मीरा घर में नहीं थी. मेरियन साथ में ही थी, फिर भी न जाने क्यों अंगद को कुछ अच्छा नहीं लगा. आज वह मेरियन के साथ भी ठीक से बात नहीं कर पाया. बारबार उस का ध्यान घड़ी की सूई पर जाता रहा.

मीरा जब आई तब रात हो चुकी थी. उस का चेहरा खुशी से चमक रहा था.

मीरा को देखते ही अंगद बरस पड़ा, ‘‘समय क्या हुआ है, पता भी है? कहां थीं इतनी देर?’’

‘‘अरे, अंगद, आप तो ऐसे डांट रहे हो जैसे मैं आप की पत्नी हूं.’’

‘‘तो क्या, तुम मेरी पत्नी नहीं हो?’’

‘‘आप भी क्या मजाक कर लेते हो? मैं कब से आप की पत्नी हो गई?’’

‘‘हमारी शादी हुई है, भूल गईं?’’

‘‘हां, शादी हुई थी. लेकिन तुम्हारी पत्नी मेरियन है, मैं नहीं. यह बात आप ने ही तो पहले ही दिन मुझे बताई थी न? हम दोनों पतिपत्नी नहीं हैं, यह बात आप ने कही थी, मैं ने नहीं.’’

‘‘तुम भी तो किसी और से प्यार करती हो, ऐसा कहा था न?’’

‘‘यह तो आप के कहने के बाद कहा था. वरना मैं तो अपने प्यार का बलिदान दे चुकी थी. पूरा जीवन आप के साथ बिताने, सिर्फ आप के भरोसे ही इतनी दूर आई थी.’’

‘‘देखो मीरा, मुझे तुम्हारे साथ कोई बहस नहीं करनी है. लेकिन तुम इतनी रात तक किसी के साथ बाहर रहो, यह मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘आप को जो अच्छा लगे वह ही करना मेरी ड्यूटी में नहीं आता. आप की कई बातें मुझे भी पसंद नहीं आतीं. मैं ने कभी कुछ बोला?’’

‘‘तुम भी बोल सकती हो.’’

‘‘अंगद, ऐसा कोई हक आप ने मेरे पास रहने नहीं दिया है. अब प्लीज, आप जाओ, मैं भी थक गई हूं. गुडनाइट.’’

और मीरा अपने कमरे में चली गई. अंगद उसे देखता रह गया.

1 महीना बीत गया. मीरा अब पूरी तरह बदल चुकी है. वह कभीकभी काफी देर से आती है. अंगद के पूछने पर अंटशंट जवाब देती है.

अंगद को कुछ चुभता रहता है. वह अब मेरियन पर गुस्सा करता रहता है. मेरियन के साथ छोटीछोटी बातों में झगड़ा होता रहता है.

अंगद को खुद को पता नहीं चलता कि उस को क्या हो रहा है? मीरा कब आती है, कब जाती है, इसी बात पर उस का ध्यान लगा रहता है.

और आज तो मानो हद हो गई. आज मीरा के साथ माधव भी घर पर आया था. अंगद के आने पर मीरा ने माधव के साथ उस का परिचय करवाया.

अंगद क्या बोलता? खा जाने वाली नजर से बस माधव को देखता रहा.

‘‘माधव, अब चलो, मेरे कमरे में बैठते हैं.’’

माधव उठ कर मीरा के कमरे में चला गया. पूरी रात माधव वहीं रुका था. सुबह जब माधव गया तो अंगद मीरा पर बरस पड़ा, ‘‘यह क्या चालू किया है तुम ने?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘क्या हुआ? जैसे कुछ हुआ ही नहीं.’’

‘‘पर, मुझे हकीकत पता नहीं कि क्या हुआ है? कोई प्रौब्लम?’’

‘‘तुम्हारे कमरे में कल पूरी रात कोई गैर मर्द रुका था और पूछती हो कि क्या हुआ?’’

‘‘माधव कोई गैर मर्द थोड़े ही है? मेरा होने वाला पति है.’’

‘‘होने वाला होगा, अभी हुआ नहीं है. अभी मैं तुम्हारा पति हूं.’’

‘‘सौरी अंगद, लेकिन आप मेरियन के पति हो. मेरियन तो रोज पूरी रात आप के कमरे में रहती है. मैं तो कुछ नहीं बोलती.’’

‘‘मैं मेरियन का पति नहीं हूं. मैं ने अभी मेरियन के साथ शादी नहीं की है.’’

‘‘ओह, तो आप दोनों बिना शादी किए ही…उफ, मैं भूल गई. यह अमेरिका है. बाय द वे, अब शादी कब कर रहे हो?’’

अंगद मौन साधे मीरा की ओर देख रहा था. बोला, ‘‘मीरा, याद है, शादी के बाद हम ने एक रात साथ बिताई थी?’’ अंगद की आवाज में न जाने कहां से भावुकता छा गई थी.

‘‘हां, याद है, मैं जीवन की उस काली रात को कैसे भूल सकती हूं?’’

‘‘काली रात?’’

‘‘हां, और क्या कह सकती हूं?’’

‘‘मीरा, सौरी, मुझे लगता है कि मैं ने कहीं कोई गलती की है.’’

‘‘अंगद, अब ये सब सोचने का कोई अर्थ कहां रहा है?’’

‘‘मीरा, तुम अगर मानो तो अभी भी अर्थ हो सकता है.’’

‘‘कैसे, मुझे भी तो पता चले?’’

‘‘मीरा, मुझे एहसास हो गया है कि मेरियन मेरे जीवन की मंजिल नहीं है. वह मेरे जीवन की एक भूल थी.’’

‘‘अंगद, जीवन में हर भूल ठीक नहीं हो सकती. अब हम पौइंट औफ नो रिटर्न पर खड़े हैं.’’

‘‘मीरा, प्लीज, मुझे एक मौका चाहिए.’’

‘‘सौरी, मैं माधव को धोखा नहीं दे सकती.’’

‘‘मीरा, तुम कुछ भी कहो पर पवित्र अग्नि के सात फेरे ले कर सामने हमारी शादी हुई है. हम ने जीवनभर साथ निभाने का प्रण लिया था.’’

‘‘ये सब आज याद आया?’’

‘‘मैं ने कहा न कि वह मेरी गलती थी. और मैं नहीं मानता कि कोई गलती सुधारी नहीं जाती.’’

‘‘अच्छा? कैसे सुधरेगी यह गलती? आप के कमरे में बैठी हुई मेरियन को क्या जवाब देंगे आप?’’

‘‘मेरियन के लिए मैं अकेला नहीं हूं. उस के पास दोस्तों की फौज है.’’

‘‘ओह, तो ये बात है? इसीलिए आज मेरे लिए प्यार उमड़ आया है.’’

‘‘नहीं मीरा, यह बात नहीं है. पर मुझे लगता है मैं सचमुच तुम से प्यार करता हूं.’’

‘‘अभी पता चला?’’

‘‘शायद, हां, माधव के साथ मैं तुम्हें देख नहीं सकता. मेरी पत्नी किसी के साथ है, यह भावना…’’

‘‘अंगद, यह प्रेम नहीं है. यह पुरुष वर्ग की सहज ईर्ष्या है.’’

‘‘तुम जो भी कहो, पर मीरा, आज से मेरी जिंदगी में तुम्हारे सिवा किसी और स्त्री का कोई स्थान नहीं होगा.’’

‘‘पर मेरा प्यार माधव है. उस का क्या?’’

‘‘मीरा, हमारी शादी तो हो चुकी थी न? और अगर मेरियन न होती तो तुम यह शादी निभाने वाली भी थीं न? तब माधव को तुम भूलने वाली ही थीं न?’’

‘‘पर…’’

‘‘मीरा, प्लीज फौरगेट इट, फौरगेट ऐवरीथिंग. हम दोनों ही सब भूल जाते हैं. नए सिरे से जिंदगी शुरू करेंगे.’’

‘‘मैं देखूंगी, मुझे सोचने के लिए थोड़ा वक्त चाहिए. वैसे भी जब तक मेरियन घर में है तब तक तो सोचने का कुछ सवाल भी नहीं है.’’

‘‘ये सब मुझ पर छोड़ दो. मुझे मेरी गलती का पूरा एहसास हो गया है.’’

और अगले 2 दिनों में मेरियन अंगद की जिंदगी से सदा के लिए चली गई.

‘‘मीरा, अब क्या सोचा?’’

‘‘मैं आप को कल जवाब दूंगी.’’

दूसरे दिन अंगद को मीरा का जवाब मिल गया था, एक पत्र के रूप में-

‘‘अंगद, सौरी, पर मैं हमेशा के लिए चली जाती हूं. कहां? यह जानने का कोई हक आप को नहीं है. हां, जाने से पहले, एक और बात.

‘‘मेरी जिंदगी में कभी कोई माधव था ही नहीं. कितने सपने सजाए मैं आई थी. मेरे दिल में दूरदूर तक अंगद के सिवा किसी और का अस्तित्व नहीं था. पर आप ने जो आघात दिया उसी आघात ने एक काल्पनिक माधव का सृजन किया, बस इतना ही.

‘‘आप ने जिस माधव को देखा था वह वास्तव में मेरा ममेरा भाई था. वह यहां अमेरिका में ही था. मुझे उस की मदद मिल गई और हमारे नाटक में हम सफल भी रहे. अंगद, जीवन में सब भूल हम सुधार नहीं सकते. क्या आप मेरा कौमार्य वापस दे सकते हो? उस रात एक नारी ने पूरी श्रद्धा से अपने पति को अपना सर्वस्व अर्पण किया था. श्रद्धा का टूटना क्या होता है, यह आप कभी नहीं समझ पाओगे. मेरे पूरे अस्तित्व में से उठे चीत्कार को क्या आप कभी सुन सके? आज की नारी बदल चुकी है. यह एहसास दिलाने के लिए ही मुझे यह नाटक करना पड़ा.

‘‘और एक दूसरा प्रश्न.

‘‘ऐसी कोई भूल मैं ने की होती तो? तो आप क्या करते? सिर्फ एक गलती समझ कर मुझे माफ कर पाते? दे सकते हो सच्चा जवाब? ऐसी कितनी ही मीरा समाज में होंगी? और हर मीरा को

कोई माधव नहीं मिलता. आप को और आपजैसे सभी पुरुषों को अपनी भूल का एहसास हो, इसी इच्छा के साथ, अलविदा.’’

अंगद, किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर पत्र को देखता रह गया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें