बंदिनी- भाग 2 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

लाखों में एक न होने पर भी रेखा के चेहरे का अपना आकर्षण था. लंबी, छरहरी देह, गेहुआं रंग, सुतवां नाक, और ऊंचे उठे कपोल. बड़ी आंखें जिन में चौबीसों घंटे एक उज्ज्वल हंसी चमकती रहती, काले रेशम जैसे बाल और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे जिस में पलभर का पाहुना भी सदा के लिए गिरने स्वयं ही चला आए. अशोक तो पहली नजर में ही दिल हार बैठा था.

अशोक एक व्यापारी मोहनलाल के घर में काम करता था. मोहनलाल ग्वालियर का एक बहुत बड़ा व्यापारी था. गांव में उस की बहुत जमीनें थीं जिन की देखभाल के लिए उस ने अशोक और उस के बड़े भाई को लगा रखा था. वह साल में कई बार गांव आता था. मंडी में आई अकसर हर कुंआरी लड़की का खरीदार वही होता था. शादीशुदा, अधेड़ उम्र का आदमी और 4 बच्चों का पिता, परंतु पुरुष की उम्र और वैवाहिक स्थिति उस की इच्छाओं के आड़े नहीं आती.

समाज के नियम बनाने वालों के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता. जाति से ब्राह्मण और व्यवसाय से बनिया मोहनलाल बहुत ही कामी और धूर्त पुरुष था. वह अपना व्यवसाय तो बदल चुका था परंतु जातीय वर्चस्व का झूठा अहंकार आज भी कायम था. बहुत जल्द ही वह राजनीतिक मंच पर पदार्पण करने वाला था. इसी व्यस्तता के कारण पिछले कुछ वर्षों में उस का गांव आना थोड़ा कम हो गया था.

अशोक इसी बात से निश्ंिचत था. उस ने रेखा को खरीद कर कहीं दूर भाग जाने की साहसी योजना भी बना रखी थी. शुरू में रेखा केवल अशोक के प्रेम से अवगत थी, वह न तो उस के अस्तित्व के बारे में जानती थी और न ही उस की योजना के बारे में. परंतु कल्पना की  विदाई ने उसे वास्तविकता से अवगत करा दिया था. रेखा को यह भी मालूम हो गया था कि उस के धनलोलुप परिवार के मुंह में खून लग चुका है.

शीघ्र ही रेखा को अपने परिवार की नई योजना की भनक भी लग गई थी. अशोक सदा रेखा से किसी बड़े काम के लिए पैसे बचाने की बात करता था. उस समय रेखा को लगा करता था, वह शायद किसी व्यवसाय हेतु बचत कर रहा है. परंतु अब वह इस बचत के पीछे का मतलब समझ गई थी. किंतु अब रेखा के परिवार वालों के पास एक नया और प्रभावशाली ग्राहक आ गया था. इस में कोई शक नहीं था कि वे रेखा का सौदा उस के साथ तय करने वाले थे.

इस प्रथा की बात छिपाने की वजह से रेखा अशोक से नाराज थी, परंतु अशोक ने उसे समझाबुझा कर शांत कर दिया था. रेखा इस गांव से पहले ही भाग जाना चाहती थी, अशोक के तर्कों से हार गई थी. बदली हुई परिस्थितियों ने उसे भयभीत कर दिया था और उस ने अपना गुस्सा अशोक पर जाहिर किया था कि, ‘‘जिस बहुमूल्य को खरीदने के लिए तू इतने महीनों से धन जोड़ रहा था, उस के कई और खरीदार आ गए हैं.’’

एकाएक हुए इस आघात के लिए अशोक तैयार नहीं था, वह लड़खड़ा गया. न जाने कितने महीनों से पाईपाई जोड़ कर उस ने 2 लाख रुपए जमा किए थे. रेखा की यही बोली उस के भाई ने लगाई थी. अशोक जानता था कि रेखा को अपना बनाने के लिए उस का प्रेम थोड़ा कम पड़ेगा, इसलिए वह धन जोड़ रहा था. परंतु आज रेखा के इस खुलासे ने जाहिर कर दिया था कि विक्रेता अपनी वस्तु के दाम में परिस्थिति के अनुसार बदलाव कर सकता है.

थोड़ी देर पहले रेखा को उस पर गुस्सा आ रहा था, परंतु अब अशोक की दशा देख कर उसे दुख हो रहा था. उस ने करीब जा कर अशोक को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘तूने कैसे भरोसा कर लिया उस भेडि़ए पर. अरे पगले, जो अपनी बहन का व्यापार कर सकता है, वह क्या कभी सौदे में लाभ से परे कुछ सोच सकता है?’’

‘‘जान से मार दूंगा मैं, उन सब को भी और तेरे भाई को भी,’’ रेखा के बाजुओं को जोर से पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए चिल्ला पड़ा था अशोक.

‘‘अच्छा, मोहनलाल को भी?’’ रेखा ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा था.

वह एक ही पल में छिटक कर दूर हो गया,

‘‘क्य्याआआ?’’

एक दर्दभरी मुसकान खिल गई थी रेखा के चेहरे पर, ‘‘बस, प्यार का ज्वार उतर गया लगता है.’’

काफी समय तक दोनों निशब्द बैठे रहे थे. फिर अशोक ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘रेखा, तू अपने भाई की बात मान ले. हां, परंतु मोहनलाल से पहले तू मेरी बन जा.’’

‘‘पागल हो गया है क्या? मैं…’’ रेखा को अपनी बात पूरी भी नहीं करने दी उस ने और दोबारा बोल पड़ा था, ‘‘रेखा, सारा चक्कर तेरे कौमार्य का है. एक बार तेरा कौमार्य भंग हो गया तो तेरा दाम भी कम हो जाएगा. मोहनलाल ज्यादा से ज्यादा तुझे एक साल रखेगा. चल, हो सकता है तेरी सुंदरता के कारण अवधि को एकदो साल के लिए बढ़ा दे परंतु उस के बाद तो तुझे छोड़ ही देगा. फिर तुझे मैं खरीद लूंगा. लेकिन…’’

‘‘लेकिन?’’

‘‘मैं मोहनलाल को जीतने नहीं दूंगा. कुंआरी लड़कियों का कौमार्य उसे आकर्षित करता है न, तू उसे मिलेगी तो जरूर, पर मैली…’’

रेखा अशोक के ऐसे आचरण के लिए तैयार नहीं थी. पुरुष चाहे कितनी ही लड़कियों के साथ संबंध रखे, वह हमेशा पाक, परंतु स्त्री मैली. वह यह भूल जाता है मैला करने वाला स्वयं पाक कैसे हो सकता है. परंतु कोई भी निर्णय लेने से पहले वह कुछ और प्रश्नों का उत्तर चाहती थी, ‘‘यदि मेरा कोई बच्चा हो गया तो?’’

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‘‘न, न. तुझे गर्भवती नहीं होना है. किसी और का पाप मैं नहीं पालूंगा.’’

एक आह निकल गई थी रेखा के मुख से. इस पुरुष की कायरता से ज्यादा उसे स्वयं की मूर्खता पर क्रोध आ रहा था. उस की वासना को प्रेम समझने की भूल उस ने स्वयं की थी. रेखा ने एक थप्पड़ के साथ अशोक के साथ अपने संबंधों पर विराम लगा दिया था. परंतु अब अपने परिवार द्वारा रचित व्यूह में वह अकेली रह गई थी.

चक्रव्यूह की रचना तो हो गई थी, उसे भेदने के लिए महाभारत काल में अभिमन्यु भी अकेला था और आज रेखा भी अकेली ही थी. तब भी केशव नहीं आए थे और आज भी कोई दैवी चमत्कार नहीं हुआ था. पराजित दोनों ही हुए थे.

पराजित रेखा मोहनलाल की रक्षिता बन ग्वालियर चली गई थी. दूर से ही जिस के जिस्म की सुगंध राह चलते को भी मोह कर पलभर को ठिठका देती थी, वही रेखा अब सूखी झाडि़यों के झंकार के समान मोहनलाल के घर में धूल खा रही थी.

केवल शरीर ही नहीं, वजूद भी छलनी हो गया था उस का. मोहनलाल के घर में बीते वो 10 साल अमानुषिक यातनाओं से भरे हुए थे. उस का शरीर जैसे एक लीज पर ली हुई जमीन थी, जिसे लौटाने से पहले मालिक उस का पूरी तरह से दोहन कर लेना चाहता था. कभी मालिक खुद रौंदता था, कभी उस के रिश्तेदार, तो कभी उस के मेहमान. घर की स्त्रियों से भी सहानुभूति की उम्मीद बेकार थी.

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Serial Story: कीर्तन, किट्टी पार्टी और बारिश- भाग 2

अलका का भी कुछ ही दिन पहले पूना ट्रांसफर हुआ था. इन सब का साथ सुनंदा को अच्छा लगता था, लेकिन वह तब परेशान हो जाती जब ये तीनों उसे किसी न किसी कीर्तन या सत्संग में ले जाने के लिए तैयार रहतीं और उस की इन सब चीजों में कोई रुचि नहीं थी.

वह इन लोगों का अपमान भी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि नीलेश की मृत्यु के समय इन सब ने उसे बहुत भावनात्मक सहारा दिया था, जिसे वह भूली नहीं थी.

सुनंदा लेटेलेटे सोच रही थी कि वह अपना जीवन पुण्य कमाने के लिए किसी धार्मिक आयोजन में नहीं बिता सकती, वह वही करेगी जो उसे अच्छा लगता है, जिस से उस के मन को खुशी मिलती है.

नीलेश भी तो अंतिम समय तक उस से यही कहते रहे कि वह हमेशा खुश रहे, अपनी जिंदादिली कभी नहीं छोड़े. वह थी भी तो शुरू से ऐसी ही हंसमुख, मिलनसार, बेहद सुंदर, अपने कोमल व्यवहार से सब के दिल में जगह बनाने वाली.

सुभद्रा बूआ का तो उसे सम  झ आता था. पुराने जमाने की बुजुर्ग महिला थीं. उन के पति की मृत्यु हो चुकी थी. अपने बहूबेटे के साथ रहती थीं. उन की बहू को उन की कितनी भी जरूरत हो वे हमेशा किसी न किसी प्रवचन या सत्संग में अपना समय बिताती थी.

सुनंदा से वे कभीकभी नाराज हो जाती थीं. कहतीं, ‘‘सुनंदा, क्यों अपना परलोक खराब कर रही हो? नीलेश तो चला गया, अब तुम्हें धर्मकर्म में ही मन लगाना चाहिए. मन शांत रहेगा.’’

सुनंदा कभी तो उन की उम्र और रिश्ते का लिहाज कर के चुप रह जाती. कभी प्यार से कहती, ‘‘बूआजी, मन की शांति के लिए मु  झे किसी के प्रवचन की जरूरत नहीं है.’’

सुनंदा को रमा और अलका पर मन ही मन गुस्सा आता, इस जमाने की पढ़ीलिखी औरतें हो कर कैसे अपना समय किसी बाबाजी के लिए खराब करती हैं, लेकिन वह यही कोशिश करती ये तीनों उसे न ले जाने पाएं.

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अगले दिन वह नाश्ता कर के फ्री हुई. रोज की तरह उस ने वेबकैम सैट किया और गौरव और कविता से बात करने लगी. आस्ट्रेलिया के समय के अनुसार गौरव लंच करने इस समय घर आता था तो सुनंदा से जरूर बात करता था. दोनों से बात कर के सुनंदा का मन पूरा दिन खुश रहता था.

गौरव ने पूछा, ‘‘मां, कैसा रहा कल बर्थडे?’’

सुनंदा ने प्रवचन और किट्टी का किस्सा सुनाया, तो गौरव बहुत हंसा. बोला, ‘‘मां, आप का जवाब नहीं. आप हमेशा ऐसी रहना.’’

और थोड़ीबहुत बातचीत के बाद सुनंदा रोज के काम निबटाने लगी. शारीरिक रूप से वह बहुत चुस्तदुरुस्त, स्मार्ट थी, किसी को अंदाजा नहीं होता था कि वह 50 की हो गई है. वह एमए, बीएड थी.

उस ने काफी साल तक एक स्कूल में अध्यापिका के पद पर काम किया था, लेकिन गौरव ने अपनी नौकरी लगते ही बहुत जिद कर के मां से रिजाइन करवा दिया था. अब वह मनचाहा जीवन जी रही थी और खुश थी. पासपड़ोस की किसी भी स्त्री को उस की जरूरत होती, वह हमेशा हाजिर रहती. पूरी कालौनी में उस ने अपने मधुर व्यवहार और जिंदादिली से अपनी विशेष जगह बनाई हुई थी.

बस कभीकभी पड़ोस की कुछ महिलाएं उस के धार्मिक आयोजनों से दूर भागने पर मुंह बनाती थीं, जिसे वह हंस कर नजरअंदाज कर देती थी. उस का मानना था कि यह जीवन उस का है और वह इसे अपनी इच्छा से जीएगी, हमेशा खुश रहना उसे अच्छा लगता था.

एक दिन नेहा शाम को आई. कहने लगी, ‘‘संडे को हमारी पहली मैरिज ऐनिवर्सरी की ‘वैस्ट इन’ में पार्टी है, आप को जरूर आना है.’’

सुनंदा ने सहर्ष निमंत्रण स्वीकार किया. थोड़ी देर इधरउधर की गप्पें मार कर नेहा चली गई. संडे को पूरा गु्रप ‘वैस्ट इन’ पहुंचा. पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी. लौन में चारों ओर पेड़ों और सलीके से कटी   झाडि़यों पर टंगी छोटेछोटे बल्बों की   झालरें बहुत सुंदर लग रही थी.

जुलाई का महीना था, बारिश की वजह से प्रोग्राम अंदर हौल में ही था, जो  बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था. सब ने नेहा और उस के पति विपिन को बहुत सी शुभकामनाएं और गिफ्ट्स दिए. सब से मिलनेमिलाने का सिलसिला चलता रहा.

नेहा ने सब को अपने मातापिता, सासससुर से मिलवाया और अंत में एक सौम्य, स्मार्ट और आकर्षक व्यक्ति को अपने साथ ले कर आई और सब से मिलवाने लगी, ‘‘ये मेरे देव मामा हैं, अभी इन का ट्रांसफर पूना में ही हो गया है. बाकी सब तो कल ही चले जाएंगे, ये हमारे साथ ही रहेंगे.’’

देव ने सब को हाथ जोड़ कर नमस्ते की, अपनी आकर्षक मुसकराहट और बातों से उन्होंने सब को प्रभावित किया.

डिनर हो गया. सुनंदा घर जाना चाहती थी. 12 बज रहे थे. किसी को घर जाने की जल्दी नहीं थी. सुनंदा ने नेहा और विपिन से विदा ली और बाहर निकल आई. थोड़ी दूर ही पहुंची थी कि अचानक उस की कार रुक गई. बारिश बहुत तेज थी. उस ने बहुत कोशिश की, लेकिन कार स्टार्ट नहीं हुई. वह परेशान हो गई. पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था. कुछ सम  झ नहीं आया तो उस ने नेहा को अपनी परेशानी बताई.

नेहा ने फौरन कहा, ‘‘आप वहीं रुकिए, मैं अभी मामा को भेजती हूं.’’

‘‘अरे, नहीं, उन्हें क्यों तकलीफ देती हो?’’

‘‘कोई तकलीफ नहीं होगी उन्हें. बाकी सब डांस फ्लोर पर हैं. मामा ही अकेले बैठे है. वे आ जाएंगे. मैं आप का नंबर भी उन्हें दे देती हूं.’’

थोड़ी देर में देव पहुंच गए, उन्होंने फोन पर कहा, ‘‘आप अपनी गाड़ी वहीं लौक  कर के मेरी गाड़ी में आ जाइए. बारिश बहुत तेज है. ध्यान से आइएगा. मैं सामने खड़ी ब्लैक गाड़ी में हूं.’’

सुनंदा ने गाड़ी में हमेशा रहने वाला छाता उठाया, गाड़ी लौक की और फिर देव की गाड़ी में बैठते ही बोली, ‘‘सौरी, मेरी वजह से आप को परेशानी उठानी पड़ी.’’

देव हंसते हुए बोले, ‘‘मैं तो वहां अकेले बेकार ही बैठा था. मु  झे बरिश में ड्राइविंग करना अच्छा लगता है.’’

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सुनंदा उन्हें अपने घर का रास्ता बताती रही. घर आ गया, तो देव ने कहा, ‘‘अगर आप चाहें तो अपनी कार की चाबी मु  झे दे दें, मैं ठीक करवा दूंगा या घर पर कोई है तो ठीक है.’’

‘‘ओह, थैंक्स अ लौट,’’ कहते हुए सुनंदा ने कार की चाबी देव को दे दी.

देव ‘गुडनाइट’ बोल कर चले गए.

अगले दिन शाम को नेहा देव के साथ सुनंदा से मिलने चली आई. सुनंदा दोनों को देख कर खुश हुई. नेहा देव को सुनंदा के बारे में सब बता चुकी थी. बातचीत के साथ चायनाश्ता होता रहा, रात की पार्टी की बातें होती रहीं.

नेहा ने कहा, ‘‘कितना मना कर रहे हैं हम लोग मामा को अलग फ्लैट ले कर शिफ्ट करने से, लेकिन मामा तो हैं ही शुरू से जिद्दी.’’

देव मुसकराते हुए बोले, ‘‘तुम लोगों को प्राइवेसी चाहिए या नहीं?’’

सुनंदा हंस पड़ी, तो देव उठ खड़े हुए. बोले, ‘‘मैं चलता हूं. मु  झे अपनी नई गृहस्थी की शौपिंग करनी है.’’

नेहा ने कहा, ‘‘विपिन आने वाले होंगे, मैं भी चलती हूं.’’

सुनंदा बोली,’’ मैं भी थोड़ा घर का सामान लेने जा रही हूं.’’

नेहा ने कहा, ‘‘तो आप मामा के साथ ही चली जाइए न. कार तो अभी है नहीं आप के पास.’’

सुनंदा ने औपचारिकतावश मना किया तो देव बोले, ‘‘चलिए न, मु  झे कंपनी मिल जाएगी.’’

सुनंदा ने सहमति में सिर हिला दिया. कहा, ‘‘आप बैठिए, मैं तैयार हो जाती हूं.’’

नेहा चली गई. देव सुनंदा का इंतजार करने लगे. सुनंदा तैयार हो कर आई तो देव ने उसे तारीफ भरी नजरों से देखा तो वह थोड़ा सकुचाई. फिर दोनों घर से निकले ही थे कि बहुत तेज बारिश होने लगी. दोनों ने एकदूसरे को देखा. देव ने कहा, ‘‘क्या हमेशा हम दोनों के साथ होने पर तेज बारिश होगी?’’

सुनंदा खुल कर हंस दी. दोनों ने शौपिंग की. फिर कौफी पी और देव ने सुनंदा को उस के घर छोड़ दिया. देव की बातों से उस ने इतना जरूर अंदाजा लगाया था कि देव अकेले हैं. ज्यादा कुछ उस ने पूछा नहीं था.

वह सोच रही थी वह माने या न माने, देव ने उस के मन में कुछ हलचल सी जरूर पैदा कर दी है. यदि ऐसा नहीं है तो उस का मन देव के इर्दगिर्द ही क्यों भटक रहा है, बाहर बारिश, कार के अंदर चलता एक पुराना कर्णप्रिय गीत, देव का बात करने का मनमोहक ढंग सुनंदा को बहुत अच्छा लगा था. नीलेश के बाद आज पहली बार किसी पुरुष के साथ ने उस के मन में इस तरह हलचल मचाई थी.

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कहीं यह प्यार तो नहीं- भाग 3 : विहान को किससे था प्यार

जूही के लिए वहां एक मिनट भी ठहरना मुश्किल हो रहा था. सूप पीने के बाद उस ने अपनी तबीयत ठीक न होने का बहाना बनाया और बिना खाना खाए वापस लौट आई.

घर पहुंच कर उसे लग रहा था जैसे किसी शिकारी के जाल से बच कर आई हो. जूही का जी चाह रहा था कि अभी विहान के पास पहुंच जाए और उस के सीने में अपना मुंह छिपा ले. विहान फिर उसे खूब प्यार करे. स्वयं पर आश्चर्यचकित हो जूही सोच रही थी कि राहुल के हाथ पकड़ने पर उस का मन घृणा से भर उठा था, लेकिन विहान के बाहुपाश में समाने को वह व्याकुल हो रही है. अचानक उस का दिल पूछ बैठा कि कहीं यह प्यार तो नहीं?

रात को सोने से पहले जूही ने व्हाट्सऐप पर विहान को लिखा, ‘‘बहुत याद आ रहो आज, मन कर रहा है मिलने का, साथ में उदास चेहरे वाला इमोजी भी लगा दी.’’

विहान का तुरंत जवाब आ गया कि मोबाइल से हाथ बाहर निकालो. अभी खींच लूंगा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही हूं. आ जाऊंगी किसी दिन मिलने. आमनेसामने बैठ कर बातें किए कितने दिन हो गए.’’

‘‘मु झे भी अच्छा ही लगेगा तुम्हारा आना, लेकिन एक प्रौब्लम है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यहां 4 कमरे हैं और दोस्त भी 4. सब के कमरे में अपनाअपना सिंगल बैड है. तुम कहां सोओगी रात में?’’

‘‘क्या विहान, मु झे अपने पास नहीं सुला सकते? इतना भी एडजस्ट नहीं करोगे मेरे लिए? तुम बदल गए हो,’’ इस मैसेज के साथ जूही ने रोते चेहरे वाले 2 इमोजी लगा दी.

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‘‘अरे, नहींनहीं… बदला नहीं हूं. आ जाना जब चाहो. मैं इंतजार करूंगा. नाराज मत होना, मेरी जान निकल जाएगी,’’ मैसेज के अंत में लगाने के लिए इमोजी ढूंढ़ते हुए विहान का मन किस करती इमोजी पर जा कर ठहर गया. मन में हलचल होने लगी. जीवन में पहली बार किसी को वह चुंबन करते चेहरे वाला इमोजी भेज रहा था.

विहान की ओर से किसिंग फेस इमोजी और वह भी उस दिन जब जूही कल्पना में विहान के गले लगी हुई थी. जूही के गाल तपने लगे. सोच में पड़ गई कि अब क्या टाइप करे?

जब कुछ देर तक जवाब नहीं आया तो बातचीत का रुख बदलते हुए विहान ने लिखा, ‘‘कल मैं अपने औफिस न जा कर एमजी रोड जाऊंगा, वहां के एक औफिस में काम है. 4 फ्रैंड्स भी जा रहे हैं साथ. तीन दिन रुक कर वापस आएंगे हम सब… और हां… उन चारों फ्रैंड्स में एक लड़की भी है.’’

जवाब में जूही ने लिखा, ‘‘सो व्हाट…? लड़की ही तो जा रही है न या फिर वह कोई भूतनी है कि स्पैश्ली बता रहे हो?’’ मैसेज भेजते ही अपने डाउनलोड किए स्टिकर्स में से  झाड़ू पर बैठी विच का स्टिकर लगाना नहीं भूली जूही.

विहान की हंसी छूट गई. उस ने लिखा, ‘‘भूतनी हो या हूर की परी, मु झे किसी और से क्या लेनादेना अब?’’

जूही के मन की वीणा के तार  झंकृत होने लगे. पूछना तो चाहती थी कि फिर अब किस से लेनादेना है यह तो बता दो, लेकिन संकोचवश लिख नहीं पाई. जवाब में एक गुलाब का फूल पोस्ट कर दिया.

कुछ देर बाद विहान का मैसेज आ गया, ‘‘अब सोना है मु झे क्योंकि कल जल्दी उठना है. आज से ही आधे बैड पर सोने की प्रैक्टिस शुरू कर दूंगा, तुम प्रोग्राम बना ही लो आने का… गुड नाइट.’’

जूही ने इस बार जवाब दिया,’’ गुड नाइट… मैं भी सो जाती हूं. सपनों में मिलेंगे.’’

विहान जूही को याद कर बेचैन हो सोने का प्रयास करने लगा. लग रहा था जैसे जूही आ कर उस के पास बिस्तर पर लेटी है. वीडियो चैटिंग वाले दिन देखा जूही का रूप उस के मनमस्तिष्क पर छा रहा था. कल्पना में महकती जूही उसे कुछ और सोचने ही नहीं दे रही थी. ‘कहीं यह प्यार तो नहीं?’ सोच कर वह मुसकरा दिया.

एमजी रोड बैंगलुरु का एक व्यस्त इलाका है, जहां विभिन्न कंपनियों के कार्यालय भी हैं और घूमनेफिरने के लिए सुंदर स्थल भी. पहले दिन का काम निबटा कर विहान मित्रों के साथ यूबी सिटी मौल चला गया. दिल्ली में उस ने इस प्रकार के मौल नहीं देखे थे. लक्जरी मौल होने के कारण सभी प्रमुख इंटरनैशनल ब्रैंड्स के उत्पाद उपलब्ध थे वहां.

विहान मौल में घुसा तो लगा जैसे विदेश में आ गया हो. जगमगाता ऊंचा चौका ऐस्कलेटर, चकाचौंध कर देने वाली गुंबदनुमा छत, खूबसूरत इंटीरियर वर्क और बड़ेबड़े स्टोर्स. इतना भव्य स्थान और जूही का साथ न होना, विहान जैसे भीड़ में अकेला सा हो गया. दोस्त अपनी बातों में मस्त थे और विहान यादों में उल झा हुआ था.

अगले दिन उन सभी ने देर तक रुक कर काम निबटा लिया और अंतिम दिन घूमनेफिरने के नाम कर दिया. सुबह होते ही वे नाश्ता कर कब्बन पार्क पहुंच गए. सुंदरसुंदर फूलों से लदे छायादार पेड़ों के नीचे लगे बैंच, मूर्तियां, ब्रिटिश काल के पुस्तकालय की सुंदर लाल बिल्डिंग व रंगबिरंगे फुहारे वातावरण को सुखद बना रहे थे. हाथों में हाथ डाले प्रेमी युगल विहान को जूही और अपना प्रतिरूप लग रहे थे, एक ऐसा रूप जो उस के दिल में कहीं छिपा बैठा था, लेकिन दिमाग तक पहुंचने में बहुत समय लग गया.

पार्क से निकल पास के एक होटल में लंच कर सभी मित्र उल्सूर  झील देखने निकल पड़े. वहां बोटिंग करते हुए नाव जब एक टापू पर रुकी तो विहान को बचपन याद आ गया. जूही और वह जब गुड्डेगुडि़या का खेल खेलते थे तो विहान टब में पानी ले कर उसे  झील कहता था. छोटेछोटे डब्बों पर मिट्टी और घास रख वह जब  झील में टापू बनाता तो जूही उछल पड़ती थी.

जूही को खुश करने के लिए बारबार वह भिन्नभिन्न प्रकार से टापुओं को सजाता. विहान सोच रहा था कि जूही आज यहां होती तो  झील में बने छोटेछोटे टापुओं को देख कर कितनी प्रसन्न होती कि कल्पना साकार हो गई है.

शाम हुई तो सभी चाय पीने बैठ गए. चाय वाले की टपरी पर हिंदी गाने बज रहे थे. अचानक किशोर कुमार की आवाज में ‘कुदरत’ फिल्म का गाना सुन विहान ने जूही को फोन मिला दिया और उस से हैलो कहते ही बोल पड़ा, ‘‘पता है कौन सा गाना सुन रहा हूं मैं अभी?’’

‘‘अचानक इस समय फोन और ऐसी बहकी सी बात, ठीक हो न?’’ जूही अचरज में पड़ गई.

सब छोड़ो और सुनो न गाने के बोल, ‘‘‘हमें तुम से प्यार कितना ये हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना…’’’

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जूही को ऐसा लगा जैसे गुलाब की सैकड़ों पंखुडि़यां उस पर लगातार गिरती जा रही हैं. अभिभूत हो वह बोल उठी, ‘‘मेरे मन में तो इसी फिल्म का कोई और गाना गूंज रहा है, लता मंगेशकर का गाया हुआ.’’

‘‘कौन सा?’’ विहान भी प्यार में डूबा था.

‘‘‘तूने ओ रंगीले कैसा जादू किया, पियापिया बोले मतवाला जिया…’’’

‘‘जूही मु झे नहीं पता प्यार कैसा होता है, पर मैं रह नहीं सकता तुम्हारे बिना… यही सच है,’’ विहान अब चुप नहीं रह सका.

‘‘जो जादू तुम ने मु झ पर किया शायद उसे ही कहते हैं प्यार… कितना खूबसूरत है यह एहसास,’’ जूही की आवाज में नमी थी,

प्रेम था और लज्जा भी.

‘‘जल्दी आऊंगा दिल्ली. मम्मीपापा से आज ही बात करता हूं,’’ विहान कह उठा.

जूही की खनकती हंसी सुन विहान ने ‘बाय’ कह फोन काट दिया. ‘हमें तुम से प्यार कितना…’

गाना  झील से टकरा कर उसे अभी भी तरंगित कर रहा था.

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जीवनज्योति

लड़की- भाग 3 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे.

पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी?

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बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी.

वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’

‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’

‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’

‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी.

‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’

‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

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‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता.

‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी.

एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

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भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं.

Serial Story: कीर्तन, किट्टी पार्टी और बारिश- भाग 3

अगली किट्टी पार्टी का दिन आ गया. पार्टी सुरेखा के यहां थी. इस बार नेहा सब को उत्साहित हो कर बता रही थी, ‘‘मामा की शादी के 1 साल बाद ही उन का डाइवोर्स हो गया था. मामी अपने किसी प्रेमी के साथ शादी करना चाहती थी.

वह मामा के साथ एक दिन भी नहीं चाहती थी, मामा को उन्होंने बहुत तंग किया. मामी की इच्छा को देखते हुए मामा ने उन्हें चुपचाप डाइवोर्स दे दिया, उन्होंने तो अपने प्रेमी से शादी कर ली, लेकिन मामा ने उस के बाद गृहस्थी नहीं बसाई. मामा एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर हैं. बस, उन्होंने काम में ही हमेशा खुद को व्यस्त रखा.’’

सुनंदा चुपचाप देव की कहानी सुन रही थी. नेहा ने अचानक पूछा, ‘‘सुनंदाजी, आप की और मामा की शौपिंग कैसी रही?’’

‘‘बहुत अच्छी,’’ कह कर सुनंदा और बाकी महिलाएं बातों में व्यस्त हो गईं.

अगले दिन औफिस से लौट कर देव सुनंदा के घर आए, उन्हें कार की चाबी दी. कहा, ‘‘आप की गाड़ी ले आया हूं.’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘थैंक्स, आप बैठिए. मैं चाय लाती हूं.’’

थोड़ी देर में सुनंदा चाय ले आई. बातों के दौरान पूछा, ‘‘आप कैसे जाएंगे अब?’’

देव हंसे, ‘‘आप छोड़ आइए.’’

सुनंदा ने भी कहा, ‘‘ठीक है,’’ और खिलखिला दी.

तभी सुनंदा के मोबाइल की घंटी बजी. अलका थी. हालचाल पूछने के बाद वह कह रही थी, ‘‘सुनंदा, तुम फ्री हो न?’’

सुनंदा के कान खड़े हुए, ‘‘क्यों, कुछ काम है क्या?’’

‘‘अभी से बता रही हूं, मेरी सहेली ने घर पर कीर्तन रखा है. उस ने तुम्हें भी बुलाया है. कल आ जाना, साथ चलेंगे.’’

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‘‘ओह दीदी, कल नहीं आ पाऊंगी, मेरी गाड़ी खराब है. मु  झे कल तो समय नहीं मिलेगा. कल डाक्टर के यहां भी जाना है. रैग्युलर चैकअप के लिए और गाड़ी लेने भी जाना है. बहुत काम है दीदी कल.’’

थोड़ीबहुत नाराजगी दिखा कर अलका ने फोन रख दिया. सुनंदा भी फोन रख कर मुसकराने लगी, तो देव ने कहा, ‘‘लेकिन आप की गाड़ी तो ठीक है.’’

सुनंदा ने हंसते हुए अपनी कीर्तन, प्रवचनों से दूर रहने की आदत के बारे में बताया तो देव ने भरपूर ठहाका लगाया. बोले, ‘‘  झूठ तो बहुत अच्छा बोल लेती हैं आप.’’

देव अलग फ्लैट में शिफ्ट हो चुके थे. सुनंदा उन्हें उन की कालोनी तक छोड़ आई. अब तक दोनों में अच्छी दोस्ती हो चुकी थी. कोई औपचारिकता नहीं बची थी. अब दोनों मिलते रहते, अंतरंगता बढ़ रही थी. कई जगह साथ आतेजाते. सबकुछ अपनेआप होता जा रहा था. देव कभी नेहा के यहां भी चले जाते थे. उन्होंने एक नौकर रख लिया था, जो घर का सब काम करता था.

सुनंदा ने गौरव को देव के बारे में सब कुछ बता दिया था. उन के साथ उठनाबैठना, आनाजाना सब. सुनंदा विमुग्ध थी, अपनेआप पर, देव पर, अपनी नियति पर. अब लगने लगा था शरीर की भी कुछ इच्छाएं, आकांक्षाएं हैं. उसे भी किसी के स्निग्ध स्पर्श की कामना थी. आजकल सुनंदा को लग रहा था कि जैसे जीवन का यही सब से सुंदर, सब से रोमांचकारी समय है. वह पता नहीं क्याक्या सोच कर सचमुच रोमांचित हो उठती.

देव और सुनंदा की नजदीकियां बढ़ रही थीं. देव औफिस से भी सुनंदा से फोन पर हालचाल पूछते. अकसर मिलने चले आते. सुनंदा की पसंदनापसंद काफी जान चुके थे. अत: अकसर सुनंदा की पसंद का कुछ लेते आते तो सुनंदा हैरान सी कुछ बोल भी न पाती.

एक दिन विपिन से विचारविमर्श के बाद नेहा ने सुनंदा को छोड़ कर किट्टी पार्टी की  बाकी सब सदस्याओं को अपने घर बुलाया.

सब हैरान सी पहुंच गईं.

मंजू ने कहा, ‘‘क्या हुआ नेहा? फोन पर कुछ बताया भी नहीं और सुनंदा जी को बताने के लिए क्यों मना किया?’’

नेहा ने कहा, ‘‘पहले सब सांस तो ले लो. मेरे मन में बहुत दिन से कोई बात चल रही है. मु  झे आप सब का साथ चाहिए.’’

अनीता ने कहा, ‘‘जल्दी कहो, नेहा.’’

नेहा ने गंभीरतापूर्वक बात शुरू की, ‘‘सुनंदाजी और मेरे देव मामा को आप ने कभी साथ देखा है?’’

सब ने कहा, ‘‘हां, कई बार.’’

‘‘आप ने महसूस नहीं किया कि दोनों एकदूसरे के साथ कितने अच्छे लगते हैं, कितने खुश रहते हैं एकसाथ.’’

अनीता ने कहा, ‘‘तो क्या हुआ? सुनंदाजी तो हमेशा खुश रहती हैं.’’

‘‘मैं सोच रही हूं कि सुनंदाजी मेरी मामी बन जाएं तो कैसा रहेगा?’’

पूजा बोली, ‘‘पागल हो गई हो क्या नेहा? सुनंदाजी सुनेंगी तो कितना नाराज होंगी.’’

‘‘क्यों, नाराज क्यों होंगी? अगर वे देव मामा के साथ खुश रहती हैं तो हम आगे का कुछ क्यों नहीं सोच सकते? आज तक वे हमारी हर जरूरत के लिए हमेशा तैयार रहती हैं. हम उन के लिए कुछ नहीं कर सकते क्या?’’

अनीता ने कहा, ‘‘तुम्हें अंदाजा है उन की सुभद्रा बूआ, जेठानी और बहन यह सुन कर भी उन का क्या हाल करेंगी?’’

‘‘क्यों, इस में बुरा क्या है? मैं आप सब से छोटी हूं. आप से रिक्वैस्ट ही कर सकती हूं कि आप लोग मेरा साथ दो प्लीज, समय बहुत बदल चुका है और सुनंदाजी तो किसी की परवाह न करते हुए जीना जानती हैं.’’

पूजा ने कहा, ‘‘गौरव के बारे में सोचा है?’’

बहुत देर से चुप बैठी सुनीता ने कहा, ‘‘जानती हूं मैं अच्छी तरह गौरव को, वह बहुत सम  झदार लड़का है, वह अपनी मां को हमेशा खुश देखना चाहता है.’’

बहुत देर तक विचारविमर्श चलता रहा. फिर तय हुआ सुनीता ही इस बारे में सुनंदा से बात करेगी.

अगले दिन सुनीता सुनंदा के घर पहुंच गई. इधरउधर की बातों के बाद सुनीता ने  पूछा, ‘‘और देव कैसे हैं? मिलना होता है या नहीं?’’

सुनंदा के गोरे चेहरे पर देव के नाम से ही एक लालिमा छा गई और वह बड़े उत्साह से देव की बातें करने लगी.

सुनीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘इतने अच्छे हैं मि. देव तो कुछ आगे के लिए भी सोच लो.’’

सुनंदा ने प्यार भरी डांट लगाई, ‘‘पागल हो गई हो क्या? दिमाग तो ठीक है न?’’

‘‘हम सब की यही अच्छा है. अभी मैं जा रही हूं, अच्छी तरह सोच लो, लेकिन जरा जल्दी. हम लोग जल्दी आएंगी.’’

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सुनंदा कितने ही विचारों में डूबतीउतराती रही कि क्या करें. मन तो यही चाहता है देव को अपने जीवन में शामिल कर ले सदा के लिए, पर अब? गौरव क्या कहेगा? सुभद्रा बूआ, रमा और अलका क्या कहेंगी? वह रातभर करवटें बदलती रही. बीचबीच में आंख लगी भी तो देव का चेहरा दिखाई देता रहा.

उधर विपिन और नेहा ने देव से बात की. उम्र के इस मोड़ पर उन्हें भी किसी साथी की जरूरत महसूस होने लगी थी. देव के मन में भी जीवन के सारे संघर्ष   झेल कर भी हंसतीमुसकराती सुनंदा अपनी जगह बना चुकी थी. कुछ देर सोच कर देव ने अपनी स्वीकृति दे दी.

सुबह जब सुनंदा का गौरव से बात करने का समय हो रहा था, सब पहुंच गईं और विपिन और देव के साथ. देव और सुनंदा एकदूसरे से आंखें बचातेशरमाते रहे.

सुनीता ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम हटो, मैं गौरव से बात करती हूं,’’ और फिर वेबकैम पर सुनीता ने गौरव को सबकुछ बताया.

सुनंदा बहुत संकोच के साथ गौरव के सामने आई तो गौरव ने कहा, ‘‘यह क्या मां, इतनी अच्छी बात, मु  झे ही सब से बाद में पता चल रही है.’’

सुनंदा की आंखों से भावातिरेक में अश्रुधारा बह निकली. वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

सुनीता ने ही गौरव का परिचय देव से करवाया. देव की आकर्षक, सौम्य सी मुसकान गौरव को भी छू गई और उस ने इस बात में अपनी सहर्ष सहमति दे दी तो सुनंदा के दिल पर रखा बो  झ हट गया.

गौरव ने कहा, ‘‘मां, आप दादी, ताईजी और मौसी की चिंता मत करना, उन सब को मैं आ कर संभाल लूंगा. आप किसी की चिंता मत करना मां. आप अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं. मु  झे तो अभी छुट्टी नहीं मिल पाएगी, लेकिन आप मेरे लिए देर मत करना.’’

गौरव की बातें सुनंदा को और मजबूत बना गईं.

थोड़ी देर चायनाश्ता कर सब सुनंदा को गले लगा कर प्यार करती हुईं अपनेअपने घर चली गईं.

नेहा, विपिन और देव रह गए. विपिन ने कहा, ‘‘अब देर नहीं करेंगे, कल ही मैरिज रजिस्ट्रार के औफिस में चलते हैं.’’

अगले दिन सुनंदा तैयार हो रही थी. सालों पहले नीलेश की दी हुई लाल साड़ी निकाल कर पहनने का मन हुआ. फिर सोचा नहीं, कोई लाइट कलर पहनना चाहिए. मन को न सही, शरीर को उम्र का लिहाज करना ही चाहिए. वह कुछ सिहर गई, क्या देव को उस के शरीर से भी उम्मीदें होंगी? स्त्री को ले कर पता नहीं क्यों लोग हमेशा नकारात्मक भ्रांतियां रखते हैं, कभी किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि उम्रदराज स्त्री भी…

आगे कुछ सोचने से पहले ही वह खुद ही हंस दी, उम्रदराज? उम्र से क्या होता है, फिर नीलेश का चेहरा अचानक आंखों को धुंधला कर गया. नीलेश उसे हमेशा खुश देखना चाहते थे और बस वह अब खुश थी, सारे संदेहों, तर्कवितर्कों में डूबतेउतराते वह जैसे ही तैयार हुई, डोरबैल बजी. सुनंदा ने गेट खोला. देव उसे ले जाने आ गए थे.

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भयंकर भूल: मोबाइल लेने की सनक का क्या हुआ अंजाम

लेखक- आशा वर्मा

पंडित रामसनेही जवानी की दहलीज लांघ कर अधेड़ावस्था के आंगन में खड़े थे. अपने गोरे रंग और ताड़ जैसे शरीर पर वह धर्मेंद्र कट केश रखना पसंद करते थे. ज्यादातर वह अपने पसंदीदा हीरो की पसंद के ही कपड़े पहनते थे लेकिन कर्मकांड कराते समय उन का हुलिया बदल जाता था और ताड़ जैसे उन के शरीर पर धोतीकुरते के साथ एक कंधे पर रामनामी रंगीन गमछा दिखाई देता तो दूसरे कंधे पर मदारी की तरह का थैला लटका होता जिस में पत्रा, जंत्री और चालीसा रखते थे. माथे पर लाल रंग का बड़ा सा तिलक लगाए रामसनेही जब घर से निकलते तो गलीमहल्ले के सारे लड़के दूर से ही ‘पाय लागे पंडितजी’ कहते थे. सफेद लिबास के रामसनेही और पैंटशर्ट के रामसनेही में बहुत फर्क था.

रामसनेही को पुरोहिताई का काम अपने पुरखों से विरासत में मिला था क्योंकि बचपन से ही उन के पिता उन को अपने साथ रखते थे. विरासत की परंपरा में रह कर उन्होंने विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश और मरने के बाद के तमाम कर्मकांड कराने की दीक्षा बखूबी हासिल कर ली थी. हर कार्यक्रम पर बोले जाने वाले श्लोक उन को कंठस्थ हो गए थे.

छोटे भाई से यजमानी के बंटवारे के समय पंचायत में तिकड़म भिड़ा कर ऊंचे तथा रईस घरों की यजमानी उन्होंने हथिया ली थी. छोटे भाई को जो यजमानी मिली थी वह कम आय वालों की थी, जहां पैसे कमाने की गुंजाइश बहुत कम थी. परिवार के नाम पर रामसनेही की एक अदद बीवी और बच्ची थी.

आज की पुरोहिताई के सभी गुण रामसनेही में कूटकूट कर भरे थे. और होते भी क्यों न, आखिर 15 सालों से शंख फूंकफूंक कर पारंगत जो हो चुके थे. लड़केलड़कियों की जन्मकुंडली न मिल रही हो तो वह कोई जुगत निकाल देते थे. विवाह का मुहूर्त या तिथि इधरउधर करना उन के बाएं हाथ का खेल था. कुंडली देख कर भविष्यवाणी भी करते थे. शनी से ले कर राहूकेतू की दशा का निराकरण भी करवाते थे. झाड़फूंक, जादुई अंगूठियों से वशीकरण जैसे कार्यों में उन्हें महारत हासिल थी.

व्यावसायिक तो रामसनेही इतना थे कि कंजूस की पोटली से भी अशरफी निकाल लें. जैसा यजमान वैसा काम के सिद्धांत पर चल कर उन्होंने अपने गुणों को और भी पैना कर लिया था. वह सब तरह का नशा करते थे पर जब गांजा का नशा करते तो मन ही मन औरतों के शृंगार का आनंद भी लेते थे. कुल मिला कर उन के बारे में हम यही कह सकते हैं कि 21वीं सदी की पंडिताई के साथसाथ वह बेहतरीन हरफनमौला इनसान थे.

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इधर बीच उन्हें भी एक मोबाइल लेने की सनक सवार हुई ताकि अपने काम को वह अच्छी तरह से अंजाम दे सकें. यही नहीं व्यस्त दिनों में वह पूरे दिन का एक रिकशा किराए पर लेने की बात भी सोच रहे थे ताकि मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाया जा सके.

रामसनेही को जो मोबाइल पसंद आया उस की कीमत 5 हजार रुपए थी. जोड़बटोर कर उन के पास कुल 3 हजार रुपए हो रहे थे. बाकी 2 हजार रुपए किसी से मांगना वह अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. इसलिए मोबाइल के विचार को फिलहाल टाल कर किसी बड़े रईस के यहां कर्मकांड होने का इंतजार करने लगे. इस के लिए उन्हें अधिक दिन तक इंतजार नहीं करना पड़ा. जैसे ही सेठ चुन्नीलाल की गद्दी से नई कोठी में गृहप्रवेश कराने का बुलावा आया उन की बांछें खिल गईं.

चुन्नीलाल शहर के रईस आदमी थे. कोई भी कार्यक्रम रहा हो पंडितजी उन के यहां से काफी पैसे पाते रहे थे. उन के लिए यह घर मोटी यजमानी का था. चूंकि उस दिन पंडितजी का कार्यक्रम कहीं और नहीं था इसलिए समय से काफी पहले ही वह चुन्नीलाल के नए घर पहुंच गए.

गली में घुसते ही विभिन्न पकवानों की खुशबू का एहसास पंडितजी को होने लगा. दरवाजे पर पहुंचे तो चुन्नीलाल के बड़े लड़के नंदू ने पंडितजी के पैर छुए. आंगन में पहुंचे तो आकारप्रकार देख कर वह चौंधिया गए. विशालकाय आंगन में कम से कम 200 आदमी एकसाथ बैठ सकते थे. राजामहाराजाओं के महल जैसा उन का घर चमक रहा था.

घर मेहमानों से खचाखच भरा था. आंगन के एक ओर की दालान में महिलाएं बैठी थीं, तो दूसरी ओर की बड़ी दालान में पुरुष बैठे थे. सभी लोग कार्यक्रम शुरू होने का इंतजार कर रहे थे. कार्यक्रम के अनुसार यह तय हुआ कि पूजा शुरू होते ही पूडि़यां बनने का काम शुरू कर दिया जाए और पूजा खत्म होते ही मेहमानों की पंगतें बैठा दी जाएं.

इस दौरान ही पंडितजी को सेठ चुन्नीलाल नजर आ गए. वह सफेद धोतीकुरता, गले में कम से कम 10 तोले की सोने की जंजीर और हाथ की उंगलियों में हीरे की अंगूठियां पहने थे. अपने भारीभरकम शरीर के साथ चुन्नीलाल पंडितजी के पैर छूने की रस्म अदायगी के लिए झुके तो उन के हाथ पंडितजी के घुटनों तक मुश्किल से पहुंच पाए. यद्यपि चुन्नीलाल पंडित से उम्र में काफी बड़े थे पर रिवाज तो पूरा करना ही था. शायद अपने बड़प्पन की रक्षा के लिए ही उन्होंने रईसी अंदाज में पंडितजी को अपनेपन की एक मधुर धौल जमाते हुए कहा, ‘‘पंडितजी, इतनी देर कहां लगा दी.’’

पंडित रामसनेही तो समय से पहले ही पहुंचे थे इसलिए चुन्नीलाल के धौल पर थोड़ा खिसिया गए. कान के पास बजते मोबाइल के एहसास ने अपमान के इस घूंट को शरबत समझ कर पीते हुए होंठों पर मुसकान ला कर पंडितजी बोले, ‘‘सेठजी, आप चिंता क्यों कर रहे हैं. आप बैठें तो सही, देखिए कैसे जल्दी मैं काम को पूरा करता हूं.’’

आदेश के स्वर में सेठ चुन्नीलाल ने फिर मुंह खोला, ‘‘अरे, शार्टकट मत कर देना. पूरे विधिविधान से पूजा करानी है?’’

विधिविधान से पूजा कराने की बात चुन्नीलाल ने सिर्फ अपनी पत्नी को खुश करने के लिए कही थी अन्यथा मन से तो वह पूजापाठ के पक्ष में ही नहीं थे. वह तो शहर भर से आने वाले समाज के प्रतिष्ठित लोगों का स्वागत करना चाह रहे थे लेकिन घर में बड़े होने के नाते इस कार्यक्रमरूपी मटके को पत्नी के साथ बैठ कर उन्हें अपने सिर पर फोड़ना पड़ रहा था.

‘‘लालाजी, मैं आप के घर का सारा धार्मिक कार्यक्रम विधिविधान से पूरा करता हूं,’’ पंडितजी गर्व से बोले.

‘‘वह तो ठीक है पंडितजी,’’ चुन्नीलाल जल्दी में बोले, ‘‘यह तो बताइए कि कितना खर्च आएगा जिस में भेंट, पूजा का चढ़ावा, न्योछावर एवं दक्षिणा सभी कुछ शामिल हो.’’

इस सवाल पर पंडितजी थोड़ा रुके और माथे पर बनावटी सलवटें डाल कर मन ही मन कुछ गणना करते हुए बोले, ‘‘2 हजार रुपए से थोड़ा ऊपर.’’

‘‘2 हजार रुपए ज्यादा नहीं हैं. खैर, जल्दी शुरू करो. लंच का समय हो रहा है. आने वालों को समय से खाना भी खिलाना है.’’

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पंडितजी ने मंत्रोच्चारण के साथ अपना कार्यक्रम शुरू कर दिया. हवन करने के लिए एक तरफ चुन्नीलाल अपनी पत्नी कमला के साथ बैठे थे, उन से थोड़ा हट कर मुन्नीलाल पैसों की गठरी संभाले बैठा था. दूसरी ओर पंडित रामसनेही खुद विराजमान थे. उन की नजर बारबार मुन्नीलाल के हाथ की गठरी पर जा कर रुक जाती. मन में यही हूक उठती कि आज यह गठरी खाली करा लेनी है.

गृहप्रवेश के श्लोक वह निर्धारित शैली के अनुसार बोलते चले गए और यजमान को बीचबीच में आचमन करने का तो कभी चावल छिड़कने का, सिंदूर लगाने का, पान के पत्ते से पानी छिड़कने का निर्देश देते रहे. इस दौरान चढ़ावा चढ़ाने की बात भी वह नहीं भूलते.

गृहप्रवेश का धार्मिक कार्यक्रम बेरोकटोक चल रहा था लेकिन पंडितजी और चुन्नीलाल दोनों ही दिमागी उलझनों में उलझे हुए थे. चुन्नीलाल सोच रहे थे कि डेढ़ घंटे के काम के लिए पंडित ने उन से 2 हजार रुपए मांगे हैं जो इस काम को देखते हुए बहुत अधिक हैं लेकिन वह करते भी क्या, मौका ऐसा था कि जबरन उन्हें अपने मुंह पर ताला लगाना पड़ रहा था. नातेरिश्तेदार, महल्ले वालों के साथ शहर के इज्जतदार लोग भी उन की खुशी में शरीक होने आए थे. ऐसे समय पैसे के लिए पंडित से विवाद करना ठीक नहीं था. लेकिन मन ही मन फैसला ले लिया था कि आगे इस लालची पंडित को नहीं बुलाएंगे.

उधर पंडित रामसनेही मन ही मन मुसकरा रहे थे कि सेठ को तो उन्होंने यह सोच कर अधिक पैसा बताया था कि कुछ मोलतोल होगा पर यजमान ने तो कोई मोलभाव ही नहीं किया. फिर उन के दिमाग में आया कि इतने बड़े सेठ से मुझे 4 हजार रुपए बोलना चाहिए था तो बात 3 तक आ कर पट जाती. इसी विचार मंथन के क्रम में शुरू की खुशी अब पछतावे में बदल गई थी.

अचानक पंडितजी के दिमाग में बिदाई की दक्षिणा वाली बात आ गई और उन के चेहरे पर फिर से खुशी की लहर दौड़ गई. सोचने लगे, यजमान से कितनी दक्षिणा मांगी जाए. मन की बात मन में 2 हजार रुपए से शुरू हुई, लेकिन इस कार्यक्रम में हजारों रुपए पानी की तरह बहता देख कर अंतिम दक्षिणा की रकम मन ही मन 2 हजार रुपए से बढ़ कर 5 हजार रुपए हो गई.

पूजा समाप्त होने से 5 मिनट पहले ही चुन्नीलाल ने खाना शुरू करने का इशारा अपने छोटे भाई को कर दिया. मुन्नीलाल खाने की व्यवस्था करने जैसे ही ऊपरी मंजिल की ओर चले उन के साथ परिवार के दूसरे लोग भी चल दिए. चूंकि पेटपूजा का कार्यक्रम ऊपर वाली मंजिल में शुरू होने जा रहा था इसलिए आंगन से काफी लोग छंट चुके थे. पूजा खत्म होते ही पंडितजी ने अधिकार के साथ कहा, ‘‘यजमान अंतिम दक्षिणा.’’

चुन्नीलाल दरियादिली से बोले, ‘‘हां, पंडितजी, कितनी दक्षिणा चाहिए.’’

शिकारी बिल्ली की तरह चुन्नीलाल रूपी चूहे पर झपट्टा मारने को तैयार पंडितजी कुछ धीमे स्वर में बोले, ‘‘यजमान 5 हजार रुपए.’’

चुन्नीलाल समझे कि भूल से पंडितजी 500 की जगह 5 हजार रुपए कह गए होंगे इसलिए फिर से पूछा, ‘‘कितने रुपए दे दूं.’’

पंडितजी इस बार आवाज तेज कर उस में चाटुकारिता का पुट घोलते हुए बोले, ‘‘मालिक, महज 5 हजार रुपए.’’

चुन्नीलाल इतनी रकम सुन कर सन्न रह गए. भौचक हो कर बोले, ‘‘पंडित, तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. जानते हो कि तुम कितनी बड़ी रकम मांग रहे हो.’’

‘‘हुजूर, आप बड़े लोग हैं,’’ चाटुकारिता की चाशनी में अपने शब्दों को लपेट कर पंडितजी बोले, ‘‘आप के लिए 5 हजार रुपए चुटकी है. पूरे शहर में आप का नाम है. किस जमाने से हमारे बापदादों ने आप के यहां पुरोहिती शुरू की थी.’’

2 हजार रुपए के चक्कर में चुन्नीलाल तो पहले से ही पंडितजी पर खार खाए बैठे थे, इस 5 हजार रुपए की नई मांग ने आग में घी का काम किया. तमतमाए चेहरे से चुन्नीलाल दहाड़े, ‘‘पंडितजी, आप अपने आपे में रहिए. इतना तो मैं कदापि नहीं दूंगा. 5 हजार रुपए हंसीठट्ठा समझ रखा है क्या?’’

इतने में कमला पति चुन्नीलाल को इशारे से चुप कराती हुई बोलीं, ‘‘पंडितजी, यह तो संयुक्त परिवार है इसलिए आप को हम लोग धनी दिख रहे हैं. हम लोग भी घर में दालरोटी ही खाते हैं. आप तो बहुत ज्यादा मांग रहे हैं. 5 हजार रुपए आप को मैं अपने बेटे नंदू की शादी में इन्हीं से दिलवाऊंगी, अभी तो 500 रुपए आप रख लें.

पंडितजी ने कमला की कोमलता को टटोल लिया. आंतरिक शक्ति बटोर कर उन्होंने कमला की तरफ मुंह कर के कहा, ‘‘अरे, मालकिन, यह गरीब ब्राह्मण आप लोगों से नहीं मांगेगा तो इस शहर में किस के पास मांगने जाएगा. यह तो धर्मकर्म का काम है. पुरोहित को देना तो सब से बड़ा पुण्य का काम होता है. यही दिया तो आगे काम आता है.’’

इसी बीच चुन्नीलाल ने 500 रुपए पंडितजी के हाथ में पकड़ाने का प्रयास किया पर वह उन रुपयों को छूने को तैयार न थे.

लिहाजा, 500 रुपए का वह नोट जमीन पर गिर पड़ा. लक्ष्मी का इस तरह अपमान होता देख कर मुन्नीलाल भड़क उठे, ‘‘500 रुपए लेना हो तो लो नहीं तो अपने घर का रास्ता नापो.’’

मोलतोल एवं तय तोड़ की सारी गुंजाइशें खत्म हो चुकी थीं. पंडितजी हाथ आई चिडि़या को किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाह रहे थे. उधर दोनों भाई चुन्नीलाल और मुन्नीलाल वीर योद्धा की तरह अपनी बात पर डटे रहे. कमला भी अपनी दाल गलती न देख थोड़ी दूर जा कर खड़ी हो गईं. दोनों ओर आवेश बढ़ने लगा. वाक्युद्ध अपने पूरे उफान पर था. यद्यपि पंडितजी अकेले थे पर वाक्पटुता में निपुण थे, तभी तो अपनी चाटुकारिता से बात को बीच में संभाल लेते थे.

पंडित रामसनेही जब हर तरफ से यजमान को झुकाने की कोशिश में हार गए तो अपने पूर्वजों के अंतिम ब्रह्मास्त्र ‘शाप’ का सहारा लिया और फिल्मी अंदाज में भड़क कर बोले, ‘‘यजमान, यह ब्राह्मण की दक्षिणा है, मुझे नहीं दोगे तो तुम्हें कहीं और देना पड़ेगा. अगर मैं ने मन से शाप दे दिया तो सारा घर भस्म हो जाएगा.’’

यह सुन कर वहां खड़े घर के लोग अवाक् रह गए. मगर बाहर से आंगन की तरफ आता चुन्नीलाल का छोटा बेटा पल्लू का धैर्य जाता रहा. पंडितजी का आखिरी कहा शब्द उस के हृदय में भाले की तरह चुभा था इसलिए वह भी युद्ध के मैदान में कूद पड़ा.

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पंडितजी की तरफ पल्लू झपट्टा मार कर गरजते हुए बोला, ‘‘सौ जूते मारो इस ढोंगी पंडित को. इस ने अपने आप को समझ क्या रखा है?’’

इसी के साथ हाथ में चप्पल ले कर पल्लू पंडितजी पर टूट पड़ा.

बात एकदम उलटी हो गई. पंडितजी का ब्रह्मास्त्र उन्हीं पर बज्र बन कर गिर पड़ा था. सेर को सवा सेर मिल गया था. पंडितजी इस युद्ध में चारों खाने चित हो चुके थे. तभी पल्लू और पंडितजी के बीच मुन्नीलाल और चुन्नीलाल आ गए. एक ने पल्लू की कमर पकड़ी तो दूसरे ने हाथ पकड़े और मौका देख कर पंडित रामसनेही बिना झोला उठाए और चप्पलें पहने अपनी जान हथेली पर रख कर त्वरित गति से एक प्रशिक्षित धावक की तरह संकटमोचन का नाम मन में ले कर भागे तो जा कर घर की चौखट पर ही रुके. उन के कानों में मोबाइल की घंटी तो नहीं अपने ही दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी, जो किसी धौंकनी की रफ्तार से धड़क रही थी.

पंडित रामसनेही का झोला, पुस्तकें, 500 रुपए और उन की चप्पलें शहर में लगे कर्फ्यू की तरह आंगन में अनाथ पड़ीं अपनी कहानी बयां कर रही थीं.

विश्वास के घातक टुकड़े: इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

विश्वास के घातक टुकड़े- भाग 1 : इंद्र को जब आई पहली पत्नी पूर्णिमा की याद

रात का सन्नाटा पसरा हुआ था. घर के सभी लोग गहरी नींद सोए थे, लेकिन पूर्णिमा की आंखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं था. बगल में लेटा उस का पति इंद्र निश्चिंत हो कर सो रहा था, जबकि पूर्णिमा अंदर ही अंदर घुट रही थी. पूर्णिमा को इंद्र के व्यवहार में आए परिवर्तन ने बेचैन कर रखा था.

पूर्णिमा की शादी को 5 साल गुजर गए थे, लेकिन वह मां नहीं बन पाई थीं. इलाज जरूर चल रहा था, लेकिन परिणाम की हालफिलहाल कोई आशा नहीं थी. रात के तीसरे पहर इंद्र की नींद खुली. बिस्तर टटोला तो उसे पूर्णिमा नजर नहीं आई. उस ने उठ कर बल्ब का स्विच औन किया. देखा, पूर्णिमा बिस्तर के एक कोने पर घुटनों में मुंह छिपाए बैठी थी. उसे इस हालत में देख कर इंद्र ने पूछा, ‘‘पूर्णिमा, तुम अभी तक सोई नहीं?’’

‘‘मुझे नींद नहीं आ रही,’’ पूर्णिमा का स्वर बुझा हुआ था.

‘‘क्यों?’’ इंद्र ने पूछा.

‘‘बस, यूं ही.’’ पूर्णिमा ने टालने वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘पूर्णिमा, मैं जानता हूं कि तुम्हें नींद क्यों नहीं आ रही है. मैं तुम्हारा दुख समझ सकता हूं. थोड़ा इंतजार करो, सब ठीक हो जाएगा.’’ इंद्र का इतना कहना भर था कि पूर्णिमा उस के सीने से लग कर सुबकने लगी.

‘‘इंद्र, तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’ पूर्णिमा ने अनायास पूछा. पत्नी के इस सवाल पर इंद्र गंभीर हो गया. वह कुछ सोच कर बोला, ‘‘कैसी पागलों वाली बातें कर रही हो?’’

बीते दिन की ही बात थी. पूर्णिमा हमेशा की तरह इंद्र की अलमारी के कपड़ों को हैंगर में लगा रही थी, तभी गलती से एक शर्ट नीचे गिर गई. शर्ट की जेब से एक फोटो निकल कर जमीन पर जा गिरा. पूर्णिमा ने सहज भाव से फोटो को उठाया, किसी लड़की का फोटो था. लड़की देखने में आकर्षक लग रही थी. उस की उम्र 25 के आसपास रही होगी. वह इंद्र के पास जा पहुंची, वह अखबार पढ़ रहा था.

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जैसे ही पूर्णिमा ने फोटो दिखाई, वह अखबार छोड़ कर उस के हाथ से फोटो लेते हुए बोला, ‘‘यह फोटो तुम्हें कहां से मिली? ‘‘तुम औरतों की यही खामी है, टटोलना नहीं छोड़ सकतीं.’’ कहते हुए इंद्र ने फोटो अपनी जेब में रख ली.

‘‘तुम्हारे कपड़े ठीक कर रही थी. मुझे क्यापता था कि तुम जेब में इतने महत्त्वपूर्ण दस्तावेज रखते हो.’’ पूर्णिमा ने चुहलबाजी की.

इंद्र मुसकरा कर बोला, ‘‘मेरे ही विभाग की है.’’

‘‘तो जेब में क्या कर रही थी?’’

‘‘फिर वही सवाल. एक फार्म पर लगानी थी, गलती से मेरे साथ चली आई.’’ वह बोला.

पूर्णिमा इधर कुछ महीनों से महसूस कर रही थी कि भले ही इंद्र उस के साथ बिस्तर पर सोता है, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं थी. पतिपत्नी का संबंध महज औपचारिकता बन कर रह गया था. एक दिन उस से न रहा गया तो पूछ बैठी, ‘‘इंद्र, तुम बदल गए हो.’’

‘‘यह तुम कैसे कह सकती हो?’’ वह सकपकाते हुए बोला.

‘‘तुम्हारे व्यवहार से महसूस कर रही हूं.’’ पूर्णिमा ने कहा.

‘‘ऐसी बात नहीं है. औफिस में काम का बोझ बढ़ गया है.’’ उस ने सफाई दी तो पूर्णिमा ने मामले को ज्यादा तूल नहीं दिया.

दिन के 10 बज रहे होंगे. इंद्र का औफिस से फोन आया, ‘‘पूर्णिमा, आज मेरा मोबाइल चार्जिंग पर ही लगा रह गया. क्या तुम उसे मुझ तक पहुंचा सकती हो?’’

‘‘जरूर, तुम औफिस से बाहर आ कर ले लेना.’’ कह कर पूर्णिमा ने जैसे ही फोन चार्जर से निकाला एक लड़की का फोन आ गया, ‘‘इंद्र सर, आज मैं औफिस नहीं आ सकूंगी.’’

पूर्णिमा ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह बोली, ‘‘आप कुछ बोल नहीं रहे. क्या नाराज हो मुझ से. माफी मांगती हूं, कल मेरा मूड नहीं था. घर पर कुछ रिश्तेदार आए थे, मम्मी ने जल्दी आने के लिए कहा, इसलिए आप के साथ कौफी पीने नहीं जा सकी.’’

पूर्णिमा को समझते देर नहीं लगी कि इंद्र शाम को देर से क्यों आता है. सोच कर पूर्णिमा का दिल बैठने लगा. वह खुद पर नियंत्रण करते हुए बोली, ‘‘मैं उन की बीवी बोल रही हूं. आज वह अपना मोबाइल घर पर ही छोड़ गए हैं.’’

पूर्णिमा का इतना कहना भर था कि उस ने फोन काट दिया.

पूर्णिमा का मन आशंकाओं से भर गया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इंद्र से कैसे पेश आए. वह सोचने लगी कि इस लड़की से इंद्र का क्या संबंध है. ऐसे ही विचारों में डूबी पूर्णिमा पति को मोबाइल देने के लिए निकल गई. इंद्र के औफिस पहुंच कर उस ने फोन कर दिया, इंद्र औफिस के बाहर आ गया. फोन देते समय पूर्णिमा ने उस लड़की का जिक्र किया तो वह बोला, ‘‘मैं बात कर लूंगा.’’

शाम को इंद्र घर आया तो आते ही पूर्णिमा से बोला, ‘‘मैं 2 दिनों के लिए औफिस के काम से लखनऊ जा रहा हूं. मेरा सामान पैक कर देना.’’

‘‘अकेले जा रहे हो?’’ पूर्णिमा के इस सवाल पर वह असहज हो गया.

‘‘क्या पूरा औफिस जाएगा?’’

‘‘मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’ पूर्णिमा ने कहा तो अचानक इंद्र को न जाने क्या सूझा कि एकाएक सामान्य हो गया. वह पूर्णिमा को बाहों में भरते हुए बोला, ‘‘मुझे क्षमा कर दो.’’

इस के बाद पूर्णिमा भी सामान्य हो गई. उस ने पति के कपड़े वगैरह बैग में रख दिए. पति के जाने के बाद वह अकेली रह गई. घर में बूढ़ी सास के अलावा कोई नहीं था. वह किसी से ज्यादा नहीं बोलती थी. इसीलिए वह चाह कर भी अपने मन की बात किसी से शेयर नहीं कर पाती थी.

रात को आंगन में चांदनी बिखरी थी, जो पूर्णिमा को शीतलता देने की जगह शूल की तरह चुभ रही थी. मन में असंख्य सवाल उठ रहे थे. कभी लगता यह सब झूठ है तो कभी लगता उस का वैवाहिक जीवन खतरे में है. तभी अचानक सास की नजर पूर्णिमा पर पड़ी.

‘‘यहां क्यों बैठी हो?’’

‘‘नींद नहीं आ रही है.’’ कह कर पूर्णिमा उठने लगी.

‘‘इंद्र चला गया इसलिए?’’ इस सवाल का पूर्णिमा ने कोई जवाब नहीं दिया.

इंद्र को ले कर उस के मन में जो चल रहा था, वह उस की निजी सोच थी. उसे सास से साझा करने का कोई औचित्य नहीं था. अनायास उस का मन अतीत की ओर चला गया. पूर्णिमा अपने मांबाप की एकलौती संतान थी. आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद उस के पिता ने सिर्फ इंद्र की अच्छी नौकरी देखी और कर दी शादी. काफी दहेज दिया था उन्होंने उस की शादी में. एक ही रात में इंद्र की सामाजिक हैसियत का ग्राफ ऊपर उठ गया था.

तब उसे क्या पता था कि ऐसा भी वक्त आएगा, जब रुपयापैसा सब गौण हो जाएगा. हर महीने सैकड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद उस के मां बनने की संभावना क्षीण नजर आती थी. कभीकभी इंद्र खीझ जाता, तो पूर्णिमा अपनी मम्मी से दवा पर होने वाले खर्चे की बात करती. संपन्न मांबाप उस के खाते में तत्काल हजारों रुपए डाल देते थे.

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इधर कुछ महीने से इंद्र उखड़ाउखड़ा सा रहने लगा था. दोनों में बात कम ही हो पाती थी. उसे भावनात्मक सहारे की जरूरत थी. सोचतेसोचते उस का मन भर आया. अगले दिन अचानक पूर्णिमा के मम्मीपापा आ गए. उन्हें देखते ही वह फफक कर रो पड़ी. बेटी का दुख उन्हें पता था. बोले, ‘‘मायके चलो.’’

पूर्णिमा के लिए यह राहत की बात थी. लेकिन उसे इंद्र की मां का खयाल था. इसलिए मातापिता से कहा, ‘‘सास अकेली रह जाएंगी. इंद्र औफिस के काम से बाहर गए हुए हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं 2 दिन उस का इंतजार कर लूंगा.’’ पूर्णिमा के पापा बोले.

तीसरे दिन इंद्र आया तो पूर्णिमा ने कहा, ‘‘मैं मायके जाना चाहती हूं.’’

‘‘बिलकुल जाओ,’’ इंद्र निर्विकार भाव से बोला, ‘‘तुम कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओगी तो माहौल चेंज हो जाएगा. एक ही माहौल में रहतेरहते ऊब होने लगी है.’’

‘‘पति के साथ रहने में कैसी ऊब? कहीं तुम मुझ से ऊब तो नहीं गए?’’ लेकिन इंद्र ने एक शातिर खिलाड़ी की तरह चुप्पी साध ली. पूर्णिमा बेमन से मायके चली गई.

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जीवनज्योति- भाग 1: क्या पूरा हुआ ज्योति का आई.पी.एस. बनने का सपना

लेखक- मनोज सिन्हा

‘‘इस घर में रुपए के पेड़ नहीं लगा रखे हैं मैं ने कि जब चाहूं नोट तोड़तोड़ कर तुम सब की हर इच्छा पूरी करता रहूं. जूतियों के नीचे दब कर मुनीमगीरी करता हूं उस सेठ की बारह घंटे, तब जा कर एक दिन का अनाज इस परिवार के पेट में डाल पाता हूं.

वर्षों से दरक रही किसी वेदना का बांध अचानक आज ध्वस्त हो गया था. चोट खाए सिंह की भांति दहाड़ उठे थे मुंशी रामप्यारे सहाय.

आंखों से चिंगारियां बरसने लगी थीं. मन के अंदर फूट पड़े ज्वालामुखी का खौलता लावा शब्दों के रूप में बाहर आ कर सब को झुलसानेजलाने लगा था.

सुमित्रा इस घटना से हतप्रभ थी. उस ने आत्मीयता के शीतल जल से इस धधकती ज्वाला को शांत करने की भरसक कोशिश की थी.

‘‘सब जानते हैं जी और समझते भी हैं कि किस मुसीबत से आप इस घर का…’’

‘‘खाक समझते हैं. एक साधारण मुनीम की औलाद होने का उन्हें जरा भी एहसास है? नखरे तो ऐसे हैं इन के जैसे इन का बाप मैं नहीं, कोई कलक्टर, गवर्नर है.’’

‘‘छि:छि:, अब इन बच्चों के साथसाथ आप मुझे भी गाली दे रहे हैं जी, कहां जाएंगे ये? अब आप से अपनी जरूरतों को नहीं कहेंगे तो क्या दूसरे से कहेंगे?’’

‘‘तो क्या करूं मैं? चोरी करूं, डाका डालूं या आत्महत्या कर लूं इन की जरूरतों की खातिर…और यह सब तुम्हारी शह का नतीजा है. बच्चे अच्छे स्कूल- कालिज में पढ़ेंगे, बड़े आदमी बनेंगे, सिर ऊंचा कर के जिएंगे? कुछ नहीं करेंगे ये तीनों. बस, मुझे बेमौत मारेंगे.’’

एक पल को पसर आए सन्नाटे के बाद दूसरे ही पल यह बवंडर ज्योति की ओर बढ़ चला था, ‘‘और तू, किस ने कहा था तुझ से हर महीने फार्म भरने, परीक्षा देने के नाम पर पैसे उड़ाने को? कभी रिटेन, कभी पीटी तो कभी इंटरव्यू, हर महीने मेमसाहब की सवारी तैयार. कभी दिल्ली, कभी पटना, कभी कोलकाता…’’

तिरस्कार का यह अपदंश बिलकुल नया था ज्योति के लिए. बाबूजी का यह विकराल रूप उसे पहले कभी देखने को नहीं मिला था. बड़ीबड़ी आंखों में पानी की एक परत उमड़ आई थी जिसे पलकों पर ही संभाल लिया था ज्योति ने.

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भावनाओं की यह उमड़घुमड़ सुमित्रा की नजरों से छिप न सकी थी. कचोट उठा था मां का दिल, ‘‘देखिए, जो कहना है आप मुझ से कहिए न…ज्योति अब बच्ची नहीं रही, बड़ी हो गई है. एक जवान बेटी को भला इस तरह दुत्कारना…’’

‘‘हां… हां, जवान हो गई है तभी तो कह रहा हूं कि क्यों बोझ बन कर जिंदा है ये मेरी जिंदगी में. किसी नदी, तालाब में जा कर डूब क्यों नहीं मरती. कम से कम एक दायित्व से तो मुझे मुक्ति मिलती.’’

सर्वस्व झनझना उठा था ज्योति का. आहत भावनाएं इस से पहले कि रुदन बन कर बाहर आतीं, दुपट्टे से भींच कर दबा दिया था उस ने अपने मुंह को.

स्वयं को रोकतेथामते सुमित्रा भी बिफर उठी थीं, ‘‘कुछ होश भी है आप को?’’

‘‘होश है, तभी तो बोल रहा हूं कि आज अगर इस की जगह घर में बेटा होता तो कमा कर लाता. परिवार का सहारा होता. मगर यह लड़की तो अभिशाप है, एक अभिशाप.’’

‘‘हद करते हैं आप भी, अगर यह लड़की है तो क्या यह इस का दोष है?’’

‘‘हां, यह लड़की है. यही दोष है इस का. मुझ गरीब की कुटिया में सांसें ले कर इतनी जल्दी जवान हो गई, यह दोष है इस का. और इस घर में 3-3 लड़कियां ही पैदा कीं तुम ने. यह दोष है तुम्हारा,’’ कहतेकहते मुंशीजी का स्वर रुंधने लगा था.

‘‘आज पता नहीं क्या हो गया है आप को. आप जैसा धैर्यवान और समझदार इनसान भी ऐसी घटिया बात सोच सकता है. इस मानसिकता के साथ बोल सकता है, मैं ने तो कभी कल्पना तक नहीं की थी.’’

‘‘तो मैं ने कब कल्पना की थी कि सीमित आय की जरूरतें इतनी असीमित हो जाएंगी. तुम्हीं बताओ कि खानेदाने के लिए अपनी पगार खर्च करूं या पेट पर पत्थर बांध कर इस के ब्याह के लिए रोकड़े जमा करूं. उस पर से इस लड़की के यह चोंचले कि बड़ा आफीसर ही बनना है. कंगले की ड्योढ़ी पर बैठ कर आसमान झुकाने चली है. जब तक जिंदा रहेगी इस बाप की छाती पर बैठ कर मूंग ही तो दलेगी…’’ और इसी के साथ फफक पड़े थे स्वयं मुंशीजी भी.

मुंशीजी की यह हुंकार आर्तनाद बन इस कमरे में पसर गई थी और वहां खड़ा हर व्यक्ति सन्नाटे की चादर को ओढ़ कर खुद को इस हादसे का कारण मान बैठा था.

ज्योति इस बार दिल्ली से सिविल सर्विसेज का साक्षात्कार दे आई थी. संतुष्ट तो थी ही इस परीक्षा से, मगर उस के भरोसे ही बैठ जाना, संघर्षों की इतिश्री करना न तो बुद्धिमानी थी न ही उस की मानसिकता. बैंक प्रोबेशनरी आफीसर का फार्म भरना था, कल 150 रुपए का ड्राफ्ट बनवाना है उसे, बस, इतना ही तो मां से बाबूजी को कहलवाया था कि वह हत्थे से उखड़ गए थे. क्याक्या नहीं कह डाला उन्होंने.

नीतू और पिंकी ने भी बाबूजी का ऐसा रौद्र रूप पहले कभी नहीं देखा था. दोनों अब तक भीतर ही भीतर कांप रही थीं.

इस हादसे ने ज्योति की हर आकांक्षा, हर उम्मीद का गला घोंट दिया था. सकते का आवरण ढीला पड़ते ही मनोबल और धैर्य भी साथ छोड़ गए थे. अचानक टीसने लगा उस का अंतर्मन. सुबकती, सिसकती ज्योति एक चीत्कार के साथ रो पड़ी थी. और इन असह्य परिस्थितियों का बोझ उठाए सरपट वह अपने कमरे की ओर भागी थी.

‘‘चैन मिल गया आप को. दूर हो गया सारा पागलपन, क्याक्या नहीं कह डाला आप ने ज्योति को?

‘‘एक छोटी सी बात पर इतना बड़ा कुहराम…जवान बेटी है, इतना भी नहीं सोचा आप ने. यदि उस ने कुछ ऊंचनीच कर लिया तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेंगे हम…’’ सुमित्रा के रुंधते गले ने शब्दों का दामन छोड़ दिया था. टपकते आंसुओं को पोंछती हुई वह भी कमरे से निकल गई थी. नीतू और पिंकी भी मां के पीछेपीछे चल पड़ी थीं.

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इस कमरे में अकेले मुंशीजी ठगे से रह गए थे. एक ऐसा दावानल जिस की तपिश में झुलस कर सभी अपने उन से दूर हो गए थे. आंखें अब भी नम थीं. मुंशीजी खुद ब खुद ही बुदबुदा उठे थे, ‘ताना मारेगी, दुनिया मुझ पर थूकेगी. एक मैं ही तो बचा हूं सारी दुनिया में अकेला. सब का दोषी है ये मुंशी रामप्यारे सहाय. ढाई हजार पगार पाने वाला, 3-3 लड़कियों का गरीब, लाचार बाप.’

उधर कमरे में कुहनियों के बीच मुंह छिपा कर ज्योति रोती ही जा रही थी. मां का स्नेहिल स्पर्श भी आज उसे ममता- विहीन लग रहा था. उसे लग रहा था जैसे वह सचमुच एक लाश है, एक चेतना -शून्य देह. कोई बाहरी स्पर्श, कोई अनुभूति, कोई संवेदना, कोई सांत्वना उसे अर्थहीन लग रही थी. बस, कलेजे में रहरह कर एक हूक सी उठती थी और अविरल अश्रुधार निकल पड़ती थी.

सुमित्रा ने खूब सहलायासमझाया था उसे. वस्तुस्थिति के इस पीड़ादायक धरातल पर बाबूजी की मनोदशा विश्लेषित करती हुई सुमित्रा ने यह जताने की कोशिश की थी कि किसी भी व्यक्ति के लिए इस तरह अचानक बरस पड़ना कोई असामान्य बात नहीं थी. नीतू और पिंकी ने भी दीदी को बहलाने, गुदगुदाने, रिझाने की बहुत कोशिश की थी, मगर सब व्यर्थ.

जिज्ञासावश नीतू ने मां से एक संजीदा सा सवाल पूछ ही लिया, ‘‘मां, लड़की होना क्या सच में एक सामाजिक अभिशाप है?’’

‘‘नहीं, बेटी, इस संसार में लड़की हो कर पैदा होना बड़े सौभाग्य की बात है, गर्व की बात है. हां, ‘औरत’ जाति नहीं नीतू, ‘गरीबी’ अभिशाप है… गरीबी?’’ यह वाक्य सुमित्रा का सिर्फ उत्तर ही नहीं, बल्कि भोगा हुआ यथार्थ था.

शरद की सर्द रात. घर में एक अजीब सी खामोशी थी. नीतू और पिंकी तो गहरी नींद में थीं मगर ज्योति, सुमित्रा और मुंशीजी की बंद आंखों में शाम की घटना का असर अब तक भरा था. मुंशीजी बारबार करवट बदल रहे थे. सुमित्रा ने जानबूझ कर उन्हें छेड़ना उचित नहीं समझा था.

कहने को तो मुंशीजी सबकुछ कह गए थे मगर अब अवसादों ने उन्हें धिक्कारना शुरू कर दिया था. उन के मुंह से निकला एकएक शब्द उन्हें नागफनी के बड़ेबड़े झाड़ में तब्दील हो कर उन की आत्मा तक को छलनी कर रहा था.

मुंशीजी की आंखों के सामने ज्योति का रोताबिलखता चेहरा जितनी बार घूम जाता उतनी बार वह कलप उठते थे.

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