मुझे एतराज नहीं- भाग 1: क्यों शांत थी वह महिला

मैं एक पौश कालोनी में रहती हूं. मेरे साथ मेरे वृद्ध पिता रहते हैं. मैं इस कालोनी में 15 वर्षों से रह रही हूं. पड़ोस के मकान, जिस की बाउंड्री एक ही है, में रहने वाले उसे बेच कर अपने बच्चों के पास चले गए. यहां मकान बहुत महंगे हैं. उस मकान को

60 साल की एक महिला ने खरीदा. उसे नया बनाने में बहुत पैसा खर्च किया. उसे मौडर्न बनवा लिया.

सारी सुविधाएं मुहैया करवाईं. फिर वे रहने आईं.

वे बहुत ही प्यारी व सुंदर महिला थीं. वे किसी से बात नहीं करती थीं, सिर्फ मुसकरा देती थीं. कहीं जाना हो तो अपनी बड़ी सी कार में बैठ कर चली जातीं. हमारी और उन की कामवाली बाई एक ही थी. जो थोड़ीबहुत मेरी उत्सुकता को कम करने की कोशिश करती. पूरे महल्ले वालों को उन के बारे में जानने की उत्सुकता तो थी, पर जानें कैसे?

वे कोई त्योहार नहीं मनाती थीं. नाश्ता वगैरह नहीं बनाती थीं. बाई, जिसे मैं समाचारवाहक ही कहूंगी, कहती, ‘कैसी औरत है, न वार माने न त्योहार. पूछो तो कहती है कि इन बातों में क्या रखा है. शुद्ध ताजा बनाओ और खाओ.’ वे अकसर दलिया ही बनातीं.

कभीकभी मैं सोचती कि बाई के हाथ कुछ नाश्ता भेज दूं. फिर कभी डरतेडरते भेज देती. वे महिला पहले मना करतीं, फिर ले लेतीं. मु झे बरतन लौटाते समय कोई फल रख कर दे देतीं. उन से बोलने की तो इच्छा होती पर मैं क्या, महल्ले का कोई भी उन से नहीं बोलता. मैं अपने पिता से ही कितनी बात करती. मैं सर्विस करती थी, सुबह जा कर शाम आती थी. इसीलिए मु झे ताक झांक करने की आदत नहीं है.

यदि उन के बाहर जाते समय मैं बाहर खड़ी होती तो वे मुसकरा देतीं. सब को उन के रुतबे के कारण बोलने में संकोच होता था. मैं स्वयं तो बोलती ही नहीं थी. ऐसे ही 5 साल बीत गए. इतने साल कालोनी में रहने के बावजूद उन की किसी से दोस्ती न हुई, न उन्होंने की.

एक दिन अचानक उन के घर एक बड़ी कार आ कर खड़ी हुई. उस में से एक सुंदर 40-45 साल का व्यक्ति निकला. सब ने उसे आश्चर्य से देखा. इतने सालों में उन के घर कोई नहीं आया. अब यह कौन है? महल्ले वालों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा वह उन्हीं के घर में उन के साथ ही रहने लगा. वे साथसाथ बाहर जाते. कार से जाते और कार से ही वापस आते. मैं अपनी उत्सुकता रोक न सकी. पर क्या करें. अब तो उन के घर से पकवान बनाने की खुशबू भी आने लगी. परम आश्चर्य, एक दिन बाई ने मु झे बताया कि वह उन का बेटा है. शायद चला जाए. पर वह तो गया ही नहीं.

एक दिन वही पड़ोसिन गीता आंटी घर के सामने सुंदर रंगोली बना रही हैं. क्या बच्चे, क्या बड़े, पूरा महल्ला  झांक झांक कर देख रहा था. मेरी भी कुछ सम झ में नहीं आया, कहां तो कोई त्योहार नहीं मनाती थीं. हमारे उत्तर भारत में रंगोली कोईकोई बनाता है.

उन का बेटा भी मां के रंगोली बनाने को बड़े ध्यान से देख रहा था. तो उसी समय मेरे पापा ने अपना परिचय दे कर उस युवक से बात की. युवक तो बहुत खुश हुआ. बड़ी गर्मजोशी से पापा से हाथ मिलाया. पापा ने उसे बताया कि पड़ोस में रहते हैं.

‘‘हां अंकल, मैं ने आप को देखा, संकोचवश बोल न पाया,’’ उस ने कहा.

मैं ने घर में मूंग की दाल का हलवा बनाया था, सोचा क्यों न गीता आंटी को भी दे आऊं. मैं आंटी के घर गई.

उन्होंने खुश हो कर मेरे हाथ से हलवा ले लिया. और पोंगल चावलमूंग की दाल की मीठी डिश मुझे खिला दी. मु झे बहुत आश्चर्य हुआ. मैं ने बहुत स्वाद ले कर खाई. उन्होंने मेरे पापा के लिए भी एक बरतन में डाल कर दी. फिर अपने बेटे से मेरा परिचय कराया. उस का नाम सोमसुंदरम था. वे उसे सुंदर कह कर बुलाती हैं.

मैं ने पूछा, ‘‘इतने दिनों ये कहां गए थे?’’

‘‘यह अमेरिका में रहता था. अब मेरे पास आ गया है.’’

इस तरह आंटी से मेरी दोस्ती हो गई. पर मु झे एक प्रश्न परेशान करता था. इतने दिनों से तो कहती थीं कि मेरा कोई नहीं. आज मेरा बेटा कह रही हैं. कोई इन्हें धोखा तो नहीं दे रहा है, कहीं भावना में बह कर इन्होंने इसे अपना बेटा तो नहीं माना, कोई अनहोनी हो गई तो? मेरा मन रहरह कर मु झे परेशान करता. मैं ने यह बात अपने पापा को बताई तो वे बोले, ‘‘तुम अपने काम से मतलब रखो, ज्यादा होशियार बनने की जरूरत नहीं. वह औरत आईएएस थी. अपने काम से ही मतलब रखना बेटा. उन्हें सलाह देने की जरूरत नहीं.’’

परंतु, वह लड़का बहुत ही स्मार्ट, बढि़या पर्सनैलिटी, बहुत ही हैंडसम था. कहना तो नहीं चाहिए पर मेरे दिल में पता नहीं क्यों कुछ अजीब सा होने लगा. क्या हुआ इस उम्र में. मैं ने दिल को काबू करना चाहा. पर पता नहीं क्यों मेरा दिल काबू में नहीं रहा.

मु झे लगा इन आदमियों का दिल तो होता नहीं. मु झे बहुत तकलीफ हो रही थी. मु झे लगता, बच्चे सब को बहुत अच्छे लगते हैं. कौन सी ऐसी औरत होगी जो मां न बनना चाहे. यह औरत भी 65 साल से ऊपर हो गई है. कहते तो हैं कि 60 साल में सठिया जाते हैं. यह तो 65 से ऊपर हो गई है.

पैसे वाली हैं, इसीलिए कोई इन्हें धोखा तो नहीं दे रहा, फंस जाएंगी बेचारी. मैं सोचसोच कर परेशान होती रही. पर उन के बेटे का आकर्षण मु झे उन की ओर खींचता चला गया.

वे बेटे के लिए रोज तरहतरह का खानानाश्ता बनातीं.

यह लड़का शायद दक्षिण भारत का है, सो वे वहीं के त्योहार ज्यादा मनातीं और दक्षिण भारतीय व्यंजन और नाश्ते बनातीं. मन बहुत परेशान रहने लगा. कहीं मेरी पड़ोसिन धोखा न खा जाए क्योंकि पड़़ोस में साथ रहतेरहते उन से विशेष स्नेह और अपनत्व हो गया था. उन से कैसे पूछूं. कुछ बोलूं, तो शायद बुरा मानें. कल को कुछ हो न जाए, मन बहुत व्यथित हो रहा था.

एक दिन उन के लड़के को अकेले बाहर जाते देखा, तो मैं गीता आंटी

के पास चली गई. मैं ने कहा, ‘‘आंटी, आप बहुत बड़ी हैं. सम झदार हैं. मु झे आप के पारिवारिक मामले में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. पर मैं आप से बहुत ही स्नेह रखती हूं. सो, कह रही हूं, गलती हो तो माफ कर देना. मैं आप की बेटी जैसी हूं.’’

‘‘हांहां रमा, बोलो, क्यों इतनी परेशान हो रही हो? तुम मेरी बेटी ही हो,’ वे बोलीं. िझ झकते हुए मैं बोली, ‘‘यह आप का सगा बेटा है क्या?’’‘‘बिलकुल. पर मैं ने कभी किसी से कहा नहीं क्योंकि मु झे भी पता नहीं था कि वह कहां है?’’

अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 3: क्या गलत थी रेखा की सोच

‘सुधीर, धैर्यपूर्वक मेरी बात सुनो. और लता, तुम भी गौर करो,’ मैं बोलने लगी, ‘देखो, तुम ने हमेशा अपनी मां को सिर्फ ‘मां’ के रूप में ही देखा है, पर कभी तुम ने यह भी सोचा है कि वे मां होने के साथसाथ एक औरत भी हैं. कभी तो उन्हें इस नजर से भी देखना चाहिए. एक औरत की कुछ भावनाएं होती हैं. उन्होंने मां की जिम्मेदारी तो पूरी तरह निभा दी है. अब अगर वे एक औरत के रूप में जीना चाहती हैं तो इस में बुराई क्या है?’

‘अगर उन्हें किसी मर्द की जरूरत थी तो पहले ही विवाह कर लेतीं. अब इस उम्र में यह सब करना क्या ठीक है?’ लता कुछ रुष्ट होते हुए बोली.

‘अगर पहले विवाह कर लेतीं तो आज सुधीर की दशा कुछ और ही होती. लता, समझने की कोशिश करो. तुम भी एक औरत हो. मर्द हो या औरत, जवानी के दिन तो फिर भी निकल जाते हैं, पर प्रौढ़ावस्था में ही एकदूसरे की जरूरत महसूस होती है. हो सकता है, यही जरूरत उन दोनों को करीब लाई हो. जवानी तो संघर्षों के कारण बीत गई, पर अब जब सुधीर भी अपने पद पर स्थायी हो गया है, सुमन भी अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ व्यस्त हो गई है तो अकेलापन तो तुम्हारी मां को ही महसूस होता होगा.’

‘तुम बेकार की बातें कर रही हो,’ सुधीर बोला, ‘दुनिया क्या कहेगी कि जवान बेटी घर पर बैठी है और मां की शादी हो रही है.’

‘कभी तो समाज का भय छोड़ कर अपने प्रियजनों के हित के बारे में सोचने की आदत डालो. समाज का क्या है, वह तो राई का पहाड़ बना देता है, शादी हो जाने के बाद कोई कुछ नहीं कहेगा. अगर कोई कहेगा तो थोड़े दिन बोलेगा, फिर अपनेआप ही सब चुप हो जाएंगे.’

‘लोग चुप नहीं होंगे, उलटे, सुमन की शादी करनी मुश्किल हो जाएगी.’

‘ठीक है, तुम्हें अगर सिर्फ यही फिक्र है तो सुमन की शादी के बाद सोच लेना. उस व्यक्ति से बात तो कर के देखो.’

‘उस का नाम मत लो. उस को देखते ही मुझे नफरत होने लगती है. और उसे मैं बाप बोलूंगा, हरगिज नहीं.’

‘मैं मानती हूं कि एकाएक उसे पिता का स्थान देना बहुत कठिन है, पर धीरेधीरे कोशिश करने पर सब सामान्य हो जाएगा. शादी के बाद सप्ताह में एक बार मुलाकात करना, फिर देखना तुम्हारी नफरत कैसे मिट जाती है. अपरिचित व्यक्ति भी कुछ दिन साथ रहने पर अपना लगने लगता है, फिर वह तो कुछ हक भी रखेगा.’

‘हक? मैं उसे कोई हक नहीं देने वाला,’ सुधीर अभी भी अपनी बात पर अड़ा हुआ था.

‘मैं जानती हूं कि हम जिसे प्यार करते हैं, उस पर किसी और की हिस्सेदारी बरदाश्त नहीं कर पाते. पर तुम एक बार अपनी मां के बारे में सोचो, सिर्फ एक बार,’ मैं उसे समझाते हुए बोली.

‘ठीक है, कभी सोचेंगे,’ सुधीर हथियार डालते हुए बोला.

‘अच्छा, मेरी बातों पर गौर करना.’

‘हां, भई हां, तुम्हारी मूल्यवान बातों को मैं कैसे भूल सकता हूं. खैर, कब वापस जा रही हो?’

‘अगले मंगलवार को.’

‘बस, इतने ही दिन?’

‘हां, मेरे पति के चाचा जा रहे हैं, उन का साथ मिल जाएगा.’

‘हम तुम्हें छोड़ने के लिए एयरपोर्ट आएंगे,’ सुधीर ने कहा.

इतने में सुमन के टीचर भी चले गए. फिर हम काफी देर तक बातें करते रहे. करीब 6 बजे मैं घर लौटी.

समय अपनी गति से चल रहा था. मेरे जाने का समय भी आ गया था. भावभीनी विदाई के बाद मैं विमान में चढ़ गई. अपनी गलियों, महल्लों को छोड़ते बहुत दुख हो रहा था. पति के यहां स्थायी रूप से रहने के कारण मुझे भी यहां रहना पड़ रहा था, वरना मन तो हमेशा भारत में ही भटकता रहता था.

सुधीर का यह तीसरा पत्र था. 2 पत्र वह पहले भी भेज चुका था. पहले पत्र में अपनी उन्नति के बारे में लिखा था और दूसरे पत्र में सुमन के विवाह के बारे में.

मैं ने फिर से उस पत्र को गौर से देख कर पढ़ना शुरू किया, जिस में लिखा था:

‘‘प्रिय रेखा,

‘‘असीम याद

‘‘आशा है, तुम पूरी तरह स्वस्थ व सुखी होगी. तुम्हें याद है, एक साल पहले की वह घटना, जब तुम ने मां की शादी करने के लिए लंबाचौड़ा भाषण दिया था.

‘‘आज तुम्हारा दिया हुआ वह भाषण काम आ गया है. तुम्हें जान कर हार्दिक खुशी होगी कि मैं ने मां का विवाह उसी व्यक्ति के साथ संपन्न करा दिया है. तुम सोच रही होगी कि यह सब कैसे हुआ.

‘‘दरअसल, बात यह थी कि सुमन की शादी के बाद मां रूखीरूखी सी रहने लगी थीं. धीरेधीरे उन का स्वास्थ्य गिरने लगा. इधर मैं भी अधिक व्यस्त हो चुका था, इसलिए मां को पूरा वक्त नहीं दे पाया.

‘‘मां की बीमारी के चलते लता भी काफी दुखी रहने लगी. वह मुझ पर जोर देती रही कि रेखा की बात मान लो. फिर मां ने जो बिस्तर पकड़ा तो 3 दिनों तक उठ ही न पाईं.

‘‘वह व्यक्ति भी मां से मिलने आया. पहले तो मुझे थोड़ा गुस्सा आया, पर लता के जोर देने पर मैं ने उस से बात की. वह शादी करने को तैयार हो गया. फिर मैं ने मां का विवाह कोर्ट में जा कर करा दिया. सुमन, उस का पति और जापान से उस व्यक्ति का बेटा भी आया था. मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि मां उस दिन कितनी सुंदर लग रही थीं. अंतिम पड़ाव में मिले सुख के कारण वे भावविभोर हो गईं. शर्म के चलते वे मुझ से कुछ कह न पाईं और न ही मैं कुछ बोल पाया.

‘‘जापान से आया उस व्यक्ति का बेटा भी मेरे प्रति कृतज्ञता प्रकट करने लगा. उस ने कहा कि वह अब बेफिक्र हो कर जापान में काम कर सकता है. अब हम हर रविवार को मिलते हैं.

‘‘तुम ने सच ही कहा था कि साथ रहने से अपरिचित व्यक्ति भी अपना लगने लगता है. वास्तव में मुझे अब वे अच्छे लगने लगे हैं. उन की गंभीर बातें मेरे दिलोदिमाग में उतर जाती हैं. वे हमारा पूरा खयाल रखते हैं. अगर हम किसी दूसरे को पलभर के लिए भी खुशी दे सकें तो उस से बढ़ कर दूसरा कोई सुख नहीं, फिर मां तो मेरी अपनी ही हैं.

‘‘मेरा लंबाचौड़ा खत पढ़ कर शायद तुम बोर हो गई होगी. पर मैं और लता तुम्हारे प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेंगे. जो कुछ तुम ने किया, उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.

‘‘तुम्हारा दोस्त,

‘‘सुधीर.’’

पत्र मेज पर रख मैं आंखें मूंद कर लेट गई. मुझे खुशी थी कि मैं अपनी जिंदगी में कम से कम एक व्यक्ति को तो सच्ची खुशी प्रदान कर सकी.

जाने क्यों लोग: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

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अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 2: क्या गलत थी रेखा की सोच

घर पहुंच कर उस ने अपनी भाभी से मेरा परिचय कराया. उस का नाम लता था. वह भी सुंदर थी, साथ ही सलीकेदार व्यवहार के कारण कुछ ही क्षणों में मुझ से घुलमिल गई.

मैं पूछना तो नहीं चाहती थी, पर रहा न गया. इसीलिए उस की भाभी से पूछ बैठी, ‘मौसीजी कहां हैं?’

‘वे बाजार गई हुई हैं,’ लता मुसकराती हुई बोली.

इतने में दरवाजे की घंटी बजी. लता एक झटके के साथ खुशीखुशी उठ खड़ी हुई. ‘शायद वे आ गए’ इतना कह कर वह दरवाजा खोलने चली गई.

‘रेखा, तुम?’ अपना नाम सुन कर सामने देखा.

‘सुधीर, तुम?’ सामने सुधीर को देख हैरान हो गई.

‘ये मेरे भैया हैं,’ सुमन परिचय कराते हुए बोली, ‘और सुधीर भैया, ये शीबा की बड़ी बहन हैं.’

‘तो तुम मेरी पड़ोसिन हो?’ सुधीर लता को ब्रीफकेस थमाते हुए बोला.

‘मैं नहीं, तुम मेरे पड़ोसी हो, क्योंकि बाद में तुम आए

हो. हम तो पहले से ही यहां रहते हैं.’

‘पर मैं ने सुना था, तुम्हारी शादी हो गईर् है और विदेश चली गई हो,’ सुधीर सोफे पर बैठता हुआ बोला.

‘जी हां, आप ने ठीक सुना. अभी महीनेभर से पीहर आईर् हुई हूं. पर, तुम्हें मेरे बारे में कैसे मालूम?’

‘भई, हम तो सभी दोस्तों के बारे में खबर रखते हैं. स्वार्थी तो लड़कियां होती हैं. जहां अपना सुख देखती हैं, वहीं चली जाती हैं. यहां तक कि मांबाप को भी छोड़ देती हैं.’

‘अच्छाअच्छा, अब चुप हो. लड़कियों की अपनी मजबूरियां होती हैं.’

‘हां भई, सारी मजबूरियां तो औरतों की ही होती हैं.’

‘बाप रे, आप लोगों ने तो लड़ना शुरू कर दिया,’ लता बोली, ‘आप लोग एकदूसरे को कैसे जानते हैं?’

‘हम दोनों एक ही कालेज में पढ़े हुए हैं,’ सुधीर उत्तर देते हुए बोला.

इतने में एक शख्स के आने से सुमन बोली, ‘दीदी, आप बातें करिए, मेरे तो टीचर आ गए. मैं पढ़ने जा रही हूं.’

मैं ने सिर हिला कर उसे स्वीकृति दे दी. फिर लता की ओर मुखातिब होते हुए बोली, ‘जानती हो, हम बिना झगड़े एक दिन भी नहीं बिता पाते थे.’

‘तुम्हारा अन्न जो हजम नहीं होता था,’ सुधीर हंसते हुए बोला.

‘पर तुम यहां कैसे?’

‘तुम तो जानती ही हो, मैं होस्टल में रह कर यहां पढ़ाई कर रहा था. बीकौम के बाद मैं ने सीए करना शुरू कर दिया. साथ ही एक बैंक में नौकरी भी

मिल गई. बस, मैं ने सब को यहीं बुलवा लिया. हमारी शादी को भी अभी 6 महीने ही हुए हैं. अब मुझे क्या मालूम था कि मैं तुम्हारे ही पड़ोस में रह रहा हूं.’

‘लता, मालूम है, सब सुधीर को ‘मां का भक्त’ कह कर पुकारते थे,’ मैं

उस की ओर देखते हुए बोली, ‘यह हमेशा कहता था कि मां जैसी ही पत्नी मुझे मिले.’

‘पर मैं तो उन जैसी नहीं हूं,’ लता ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा.

मुझे अपने ऊपर ही गुस्सा आया कि उस की मां के बारे में क्यों वार्त्तालाप छेड़ दिया.

लेकिन सुधीर ने बात संभालते हुए कहा, ‘तुम ने मेरी मां को देखा है?’

‘हां, एक दिन छत पर देखा था,’ मैं सामान्य स्वर में बोली.

‘तो यह उन की तरह ही सुंदर है कि नहीं.’

‘हां, है तो,’ मैं ने कहा.

लता अपनी तारीफ सुन शरमा गई.

‘इसे भी मां ने ही पसंद किया था, वरना तुम तो जानती ही हो, मेरी पसंद कैसी है,’ सुधीर हंसते हुए बोला.

‘हांहां, जानती हूं. तुम्हारी पसंद एकदम घटिया है.’

‘घटिया है, तभी तो तुम मेरी दोस्त बनीं,’ सुधीर ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘क्या मतलब?’ मैं चीखते हुए बोली.

‘भई, आप लोग तो बहुत झगड़ते हैं. अब आराम से बैठ कर बातें करिए, मैं नाश्ता ले कर आती हूं,’ कहते हुए लता रसोई की तरफ चल दी.

लता के जाने के बाद सुधीर नम्रतापूर्वक बोला, ‘तुम लता की बातों का बुरा मत मानना. वह बहुत अच्छी है, पर कभीकभी अपना विवेक खो बैठती है. लेकिन इस में इस का कोई कुसूर नहीं है. परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हो गई हैं कि…’

‘क्या बात है, सुधीर, तुम रुक क्यों गए?’

‘तुम ने मां के बारे में कभी कुछ सुना है?’ सुधीर हौले से बोला.

‘हां, सुना तो है,’ मैं नजरें नीची करती हुई बोली, ‘पर विश्वास नहीं हो रहा. तुम तो उन की बहुत तारीफ करते रहते थे कि कितने कष्टों से तुम्हें पालापोसा है.’

‘हां, यह सच है. हम दोनों भाईबहन छोटे थे, तभी पिताजी का देहांत हो गया. सभी रिश्तेदार पुनर्विवाह के लिए मां पर जोर देते, पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया था. सिलाई कर कर उन्होंने हमें पालापोसा. हमें अच्छी शिक्षा भी दिलाई. हम उन का सम्मान भी बहुत करते हैं, पर इन दिनों…’ कहते हुए सुधीर का गला रुंध गया.

‘वह व्यक्ति क्या करता है?’ मैं सीधे सुधीर से पूछ बैठी. कालेज के जमाने में हम काफी गहरे दोस्त थे, कोई बात एकदूसरे से छिपाते न थे.

‘व्यापारी है. यहीं अगले मोड़ पर उस की दुकान है. उस को देखता हूं तो खून खौल उठता है. जी तो चाहता है, उस का खून कर दूं, पर परिवार की तरफ देख मन मसोस कर रह जाता हूं,’ वह गुस्से से बोला.

‘उस के बच्चे भी होंगे?’

‘हां, एक है. पर वह भी जापान में बस गया है. वहीं उस ने शादी कर ली है.’

‘क्या मां के व्यवहार में भी कुछ बदलाव हुआ है?’

‘नहींनहीं, उन का व्यवहार हमारे प्रति पहले जैसा ही है. बदलाव तो हमारे दिलों में हुआ है. यों तो लता भी उन का काफी सम्मान करती है. उन दोनों में कभी अनबन भी नहीं हुई. हम ने शर्म व संकोच के कारण मां से कभी कुछ नहीं कहा, पर यह दिल ही जानता है कि हमारे अंदर क्या बीत रही है.’

कुछ पलों के लिए खामोशी छा गई. फिर मैं बोली, ‘तुम मां की शादी उस व्यक्ति से क्यों नहीं कर देते?’

‘क्या?’ सुधीर सोफे से उछल कर खड़ा हो गया.

‘तुम इतने हैरानपरेशान क्यों हो रहे हो? शांति से बात तो सुनो.’

‘शांति से बात सुनूं?’ सुधीर सिर हिलाते हुए बोला, ‘रेखा, तुम्हारा सिर फिर गया है. अमेरिका जा कर तुम पागल हो गई हो.’

‘इस में पागल होने की क्या बात है?’

‘और नहीं तो क्या? यह भारत है, तुम जानती हो न. यहां पश्चिमी सभ्यता की कोई जरूरत नहीं है.’

‘क्या हुआ, आप इतनी जोर से क्यों बोले?’ लता रसोई से आते हुए सुधीर से बोली.

‘रेखा की बात सुनो,’ सुधीर हाथ उचकाते हुए बोला, ‘कहती है, मां की शादी कर दो.’

‘क्या?’ अब उछलने की बारी लता की थी?

मैं सिर पकड़े थोड़ी देर बैठी रही. जब दोनों चुप हो गए तो मैं बोली, ‘अब थोड़े शांत हुए हो तो मैं कुछ बोलूं?’

‘कुछ क्या, तुम बहुत कुछ बोल सकती हो.’

अंतिम पड़ाव का सुख- भाग 1: क्या गलत थी रेखा की सोच

सुधीर का पत्र न जाने मैं ने कितनी बार पढ़ा होगा. हर बार एक सुखद सुकून का एहसास हो रहा था. फिर अपने वतन से आए पत्र की महक कुछ अलग ही होती है.

भारत से दूर अमेरिका में बसे मुझे करीब 3 साल हो गए. पत्र पढ़ने के बाद मुझे एक साल पहले की घटना याद आ गई जब मैं विवाह के बाद पहली बार भारत अपने पीहर गई थी. सप्ताहभर तो लोगों से मिलनाजुलना ही चलता रहा. रिश्तेदार मुझ से मिलने आते, पर मुझे सादे लिबास में देख कर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते, ‘अरे, तुम तो पहले जैसी ही हो.’

तमाम रिश्तेदारों को आश्चर्य होता कि विदेश जाने के बाद भी मुझ में फर्क क्यों नहीं आया. मैं उन की बातों पर हंस पड़ती, क्या विदेश जाने से अपनी सभ्यता को कोई भूल जाता है. जहां जन्म हुआ हो, वहां के संस्कार तो कभी मिट ही नहीं सकते. अपनी मिट्टी

की महक मेरे मन में इतनी अधिक समाई हुई थी कि अमेरिका में रहते

हुए भी कभी भारत को पलभर भी न भुला पाई.

जब मेलमुलाकातों का सिलसिला कुछ कम हुआ तो एक शाम मैं छत पर टहलने चली गई. हर घर को मैं बड़े गौर से देख रही थी, कहीं कुछ बदलाव नहीं हुआ था. तभी मैं सामने के घर से एक अपरिचित महिला को कपड़े उतारते हुए देखने लगी. इतने में मां भी छत पर आ गईं. मैं उस महिला को देखती हुई उन से पूछ बैठी, ‘सुरेशजी के घर में मेहमान आए हैं क्या?’

‘अब तुम तो 2 साल बाद लौटी हो. तुम्हें इधर की क्या खबर?’ मां कपड़े उतारती हुई बोलीं, ‘सुरेशजी तो सालभर पहले ही यह मकान खाली कर चुके हैं. नए लोग आ बसे हैं. इन की लड़की सुमन हर रोज शीबा के पास आती है. शीबा की अच्छी दोस्ती है. रोज शाम को दोनों मिलती हैं. कभी वह आ जाती है तो कभी शीबा उस के घर चली जाती है,’ फिर वे मेरी ओर देख कर बोलीं, ‘अब नीचे चलो, मैं चाय बना देती हूं.’

‘थोड़ी देर में आती हूं,’ कहते हुए मैं छत पर टहलने लगी.

शीबा मेरी छोटी बहन का नाम है, उसी ने मेरा सुमन से परिचय कराया था. मेरी दृष्टि उस औरत पर ही टिकी रही. उस की उम्र 37-38 वर्ष के करीब होगी, पर सुंदरता अभी भी लाजवाब थी. देखने में अपनी उम्र से वह काफी छोटी लग रही थी. मैं तो उस की लड़की को नजर में रख कर अनुमान लगा रही थी कि जब उस की बेटी बीए में पढ़ रही है तो उस की उम्र यही होनी चाहिए. शायद यह औरत विधवा थी, तभी तो न माथे पर बिंदिया थी, न मांग में सिंदूर और न ही गले में मंगलसूत्र.

तभी पक्षियों का एक झुंड मेरे ऊपर से गुजरा. सुबह के थकेहारे पक्षी अपनेअपने घोंसलों की ओर जा रहे थे. आसमान साफ नजर आ रहा था. तभी मैं ने देखा, एक विमान धुएं की लकीर छोड़ता उड़ा जा रहा है. बच्चे अपनीअपनी पतंगों को वापस खींच रहे थे. सूर्य भी धीरेधीरे डूबता जा रहा था.

मां की आवाज सुन कर मैं सीढि़यां उतरने लगी. नीचे हाल में शीबा और सुमन टीवी देखते हुए पकौड़े खा रही थीं. मैं सुमन की ओर देखते हुए बोली, ‘तुम्हारी मां बहुत खूबसूरत हैं.’

‘हां, हैं, तो,’ सुमन ने बोझिल स्वर में कहा.

थोड़ी देर सुमन बैठी रही. शीबा की बातों का भी वह अनमने ढंग से उत्तर देती रही. कुछ क्षणों के बाद वह शीबा से बोली, ‘मैं घर जा रही हूं.’

शीबा ने उसे रोकने की कोशिश न की. उस के जाने के बाद मैं शीबा से पूछ बैठी, ‘क्या बात है, सुमन बुझीबुझी सी क्यों हो गई?’

‘तुम ने उस का मूड जो खराब कर दिया,’ शीबा ने उत्तर दिया.

‘मैं ने क्या कहा? मैं ने तो उस की मां की तारीफ ही की थी.’

‘तभी तो…’

‘क्या मतलब? अपनी मां की तारीफ से भी कोईर् नाराज होता है क्या?’

‘तुम अगर मां को कुछ नहीं बताओ तो मैं उस की मां के बारे में कुछ बताऊं,’ शीबा मेरे पास आ कर फुसफुसाते हुए बोली.

‘हांहां, बोलो,’ मैं अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पा रही थी.

‘दरअसल, उस की मां का किसी से चक्कर है,’ शीबा हौले से बोली, ‘तुम मां को मत बताना, वरना वे मुझे सुमन से मिलने नहीं देंगी.’

‘मैं कुछ नहीं बताऊंगी. बेफिक्र रहो. पर यह बेसिरपैर की बातें मेरे सामने मत किया करो,’ मैं नाराज होते हुए बोली.

‘मैं सच कह रही हूं. सुमन ने खुद मुझे बताया था.’

‘अच्छा, क्या बताया था?’

‘यही कि उस की मां जब मंदिर जाती हैं तो 2 घंटे तक वापस नहीं आतीं और एक अधेड़ व्यक्ति से बातें करती रहती हैं.’

‘तुम ने कभी देखा है?’

‘मैं ने तो नहीं देखा, पर वही बता रही थी.’

‘और कौनकौन हैं उस के घर में?’

‘एक भाई है, जिस की शादी हो चुकी है. सब इसी घर में साथ रहते हैं.’

फिर मैं ने और अधिक बात बढ़ाना उचित न समझा. सोचा, हर घर में कुछ न कुछ घटित होता ही रहता है.

समय यों ही गुजरता गया. सुमन रोज आती थी. वह घर के सदस्य जैसी थी. मैं ने फिर कभी उस की मां का जिक्र उस के सामने नहीं छेड़ा. थोड़े ही दिनों में वह मुझ से भी काफी घुलमिल गई. मेरे वापस जाने में एक सप्ताह बाकी था. एक दिन मैं ने सोचा कि कुछ खरीदारी कर लूं. मैं शीबा से बोली, ‘चलो, आज बाजार चलते हैं. मुझे कुछ सामान खरीदना है.’

शीबा टैलीविजन देखने में मग्न थी. वह बोली, ‘दीदी, अभी बहुत बढि़या आर्ट फिल्म आ रही है. तुम सुमन को साथ ले जाओ.’

‘जब तुम ही चलने को तैयार नहीं हो तो सुमन कैसे जाएगी. वह भी तो फिल्म देखेगी,’ मैं नाराज होते हुए बोली.

‘नहीं दीदी, मैं चलती हूं,’ सुमन बोली, ‘मुझे आर्ट फिल्में पसंद नहीं. इन में सिर्फ समस्याएं दिखाई जाती हैं, जिन्हें सभी जानते हैं. कोई समाधान बताए तो बात बने.’

शीबा उस की पीठ पर एक मुक्का जमाते हुए बोली, ‘तुझे अच्छी नहीं लगतीं तो ज्यादा बुराई मत कर.’

हम दोनों 4 बजे तक खरीदारी करती रहीं. जब हम लौट रही थीं तो सुमन बोली, ‘दीदी, मेरे घर चलो न.’

‘अभी?’ मैं घड़ी देखते हुए बोली, ‘कल चलूंगी.’

‘नहीं, अभी चलिए न,’ वह जिद सी करती हुई बोली.

‘अच्छा, चलो,’ मैं उस के साथ चल पड़ी.

सीरियल औन अनाज गौन: महंगाई की मार झेलती जनता

‘‘यहक्या, खाने में बैगन बनाए हैं… तुम्हें पता है न कि मुझे बैगन बिलकुल पसंद नहीं हैं. फिर क्यों बनाए? तुम चुनचुन कर वही चीजें क्यों बनाती हो, जो मुझे पसंद नहीं?’’ इन्होंने मुंह बना कर थाली परे सरकाते हुए कहा.

मैं भी थोड़ी रुखाई से बोली, ‘‘तो रोजरोज क्या बनाऊं? वही आलूमटर, गोभी…? सब्जियों के भाव पता हैं? आसमान छू रहे हैं. इस महंगाई में यह बन रहा है न तो इसे भी गनीमत समझो… जो बना है उसे चुपचाप खा लो.’’

ये चिढ़ते स्वर में बोले, ‘‘मुझे क्या अपने मायके वालों जैसा समझ रखा है कि जो बनाओगी चुपचाप खा लूंगा, जानवरों की तरह?’’

उफ, एक तो मेरे मायके वालों को बीच में लाना उस पर भी उन की तुलना जानवरों से करना. मैं ऐसे उफनी जैसे जापान के समुंदर में लहरें उफनती हैं, ‘‘मेरे मायके वाले आप की तरह नहीं हैं, वे चादर देख कर पैर फैलाते हैं. हुंह, घर में नहीं दाने और अम्मां चली भुनाने. पल्ले है कुछ नहीं पर शौक रईसों जैसे… इस महंगाई के जमाने में आप जो मुझे ला कर देते हैं न उस में तो बैगन की सब्जी भी नसीब नहीं हो सकती है… आए बड़े मेरे मायके वालों को लपेटने… पहले खुद की औकात देखो, फिर मेरे मायके की बात करो.’’

ये भी भड़क गए, ‘‘जितना देता हूं न वह कम नहीं है. बस, घर चलाने की अक्ल होनी चाहिए… मैं तुम्हारी जगह होता तो इस से भी कम में घर चलाता और ऊपर से बचत कर के भी दिखाता.’’

मेरी कार्यकुशलता पर आक्षेप? दक्षता से घर चलाने के बाद भी कटाक्ष? मैं भला कैसे चुप रह सकती थी… बोलना जरूरी था, इसलिए बोली, ‘‘बोलना बहुत आसान होता है… खाली जबान हिलाने से कुछ नहीं होता… 2 दिन घर संभालना पड़े तो नानीदादी सब याद आ जाएंगे. यह तो मैं ही हूं, जो आप की इस टुच्ची तनख्वाह में निर्वाह कर रही हूं… दूसरी कोई होती तो कब की छोड़ कर चली गई होती.’’

‘‘मैं ने तुम्हें रोका नहीं है. मेरी कमाई से पूरा नहीं पड़ रहा न, तो ढूंढ़ लो कोई ऐसा जिस की कमाई पूरी पड़ती हो… अच्छा है मुझे भी शांति मिलेगी,’’ कह इन्होंने जोर से हाथ जोड़ दिए.

अब तो मेरे सब्र का बांध टूट गया. जारजार आंसू बहने लगे. रोतेरोते ही बोली, ‘‘आ गई न दिल की बात जबान पर… आप चाहते ही हो कि मैं घर छोड़ कर चली जाऊं ताकि आप को छूट मिल जाए, मुझे नीचा दिखाने का बहाना मिल जाए. ठीक है, मैं चली जाऊंगी. देखती हूं कैसे रहोगे मेरे बिना… एक दिन बैगन की सब्जी क्या बना दी. इतना बखेड़ा कर दिया. अब चली जाऊंगी तो बनाते रहना, जो मन में आए और खाते रहना.’’और फिर मैं डाइनिंग टेबल से उठ कर अपने कमरे में आ गई और धड़ाम से दरवाजा बंद कर लिया.

दूसरे दिन बालकनी में कपड़े सुखा रही थी. कल का झगड़ा चेहरे पर पसरा हुआ था. उदासी आंखों के गलियारे में चक्कर लगा रही थी. बोझिल मन कपड़ों के साथ झटका जा रहा था. मैं अपने काम में व्यस्त थी और मेरी पड़ोसिन अपने काम में. पर वह पड़ोसिन ही क्या जो अपनी पड़ोसिन में बीमारी के लक्षण न देख ले और बीमारी की जड़ को न पकड़ ले. अत: उस ने पूछा, ‘‘लगता है भाई साहब से झगड़ा हुआ है?’’

खुद को रोकतेरोकते भी मेरे मुंह से निकल ही गया, ‘‘हां, इन्हें और काम ही क्या है सिवा मुझ से झगड़ने के.’’

पड़ोसिन हंस दी, ‘‘वजह से या बेवजह?’’

‘‘झगड़ा ही करना है तो फिर कोई भी वजह ढूंढ़ लो और झगड़ा कर लो. मैं तो कहती हूं ये आदमी शादी ही इसलिए करते हैं कि घर में ले आओ एक प्राणी, एक गुलाम, एक सेविका, एक दासी जो इन के लिए खाना पकाए, घर संवारे, इन के कपड़े धोए और बदले में या तो आलोचना सहे या फिर झगड़ा झेले. हुंह…’’ कह मैं ने कपड़े जोर से झटके.

मेरी पड़ोसिन खिलखिला कर हंस दी, ‘‘अरे, पर झगड़ा हुआ क्यों?’’

मैं ने बताया, ‘‘इन्हें बैगन पसंद नहीं और कल मैं ने बैगन की सब्जी बना दी. बस फिर क्या था सब्जी देखते ही भड़क उठे.’’

पड़ोसिन की हंसी नहीं रुक रही थी. बड़ी मुश्किल से हंसीं रोक कर बोली, ‘‘अच्छा, यह बता कि तुम लोग खाना खाते समय टीवी बंद रखते हो?’’

मैं ने हैरानी से कहा, ‘‘हां, मगर टीवी का और खाने का क्या संबंध?’’

उस ने कहा, ‘‘है टीवी और खाने का बहुत गहरा संबंध है. मेरे यहां तो सभी टीवी देखतेदेखते खाना खाते हैं. सब का ध्यान टीवी में रहता है तो किसी का इस तरफ ध्यान ही नहीं जाता कि खाने में क्या बना है और कैसा बना है? है न बढि़या बात? वे भी खुश और मैं भी टैंशन फ्री वरना तो रोज की टैंशन कि क्या बनाया जाए… अब तू ही बता रोजरोज बनाएं भी क्या?’’

मैं ने कहा, ‘‘वही तो… रोज सुबह उठो तो सब से पहले यही प्रश्न क्या बनाऊं? सच कहूं आधा समय तो इस क्या बनाऊं, क्या बनाऊं में ही निकल जाता है. ऊपर से फिर यह भी पता नहीं कि इन्हें पसंद आएगा या नहीं, खाएंगे या नहीं और फिर वही झगड़ा.’’

पड़ोसिन ने सुझाव दिया, ‘‘हां तो तू वही किया कर जैसे ही ये खाना खाने बैठें टीवी चला दिया. उन का ध्यान टीवी पर रहेगा तो खाने पर ध्यान नहीं जाएगा और फिर झगड़ा नहीं होगा.’’

मैं उस की सलाह सुन भीतर आ गई. फिर मन ही मन तय कर लिया आज से ही मिशन डिनर विद टीवी शुरू…

शाम को मैं ने टीवी देखना शुरू किया. स्टार प्लस, सब, जी, सोनी देखतेदेखते ही खाना बनाया. टीवी देखतेदेखते ही खाना लगाया और टीवी दिखातेदिखाते ही खिलाया. आश्चर्य, ये भी सीरियल देखतेदेखते आराम से खाना खा गए. हालांकि सब्जी इन की मनपसंद थी फिर भी कुछ बोले नहीं. न आह न वाह. फिर तो रोज का काम हो गया. मैं खाना बनाती, ये टीवी देखतेदेखते खा लेते. सब कुछ शांति से चलने लगा. पर अब दूसरी मुसीबत शुरू हो गई. इन का पूरा ध्यान टीवी में रहने लगा. मुझे गुस्सा आने लगा. जब देखो आंखें फाड़फाड़ कर सीरियल की हीरोइनों को देखते रहते. मेरा खून खौलता रहता. हद तो यह भी थी कि टीवी देखतेदेखते बस खाते रहते, खाते रहते गोया गब्बर की तरह यह डायलौग रट लिया हो कि जब तक यह टीवी चलेगा हमारा खाना चलेगा. अब मेरा किचन का बजट गड़बड़ाने लगा. एक दिन ये टीवी देखतेदेखते खाना खा रहे थे. जैसे ही इन्होंने एक और रोटी की डिमांड की मैं भड़क गई, ‘‘मैं ने यहां ढाबा नहीं खोल रखा है, जो रोटी पर रोटी बनाती रहूं और खिलाती रहूं… तोंद देखी है अपनी, कैसी निकल रही है.’’

इन्होंने टीवी में नजरें गड़ाए हुए ही जवाब दिया, ‘‘अब तुम खाना ही इतना अच्छा बनाती हो तो मैं क्या करूं? मन करता है खाते रहो खाते रहो… लाओ अब जल्दी से 1 चपाती और लाओ.’’

उफ यह… कुछ दिनों पहले तक तो खाने पर झगड़ा करते थे और अब खाना खाने बैठते हैं तो उठने का नाम ही नहीं लेते. अत: गुस्से से इन की थाली में चपाती रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘बंद करो अब खाना खाना भी और टीवी देखना भी, कहीं ऐसा न हो चंद्रमुखी की आंखों में डूब ही जाओ…’’

इन्होंने कौर मुंह में दबाते हुए कहा, ‘‘तो प्रिया कपूर की जुल्फें है न, उन्हें पकड़ कर बाहर निकल आएंगे.’’

मैं गुस्से से तिलमिला गई, ‘‘और मैं जो हड्डियां तोड़ूंगी तब क्या करोेगे?’’

ये हंसने लगे, ‘‘तो डाक्टर निधि है न, इलाज के लिए.’’

मेरा मन किया कि टेबल पर पड़े सारे बरतन उठा कर पटक दूं… एक परेशानी से निकलना चाह रही थी दूसरी में उलझ गई.

अब मैं खाने में कुछ भी बनाऊं ये कुछ नहीं कहते. दाल पतली और बेस्वाद हो ‘लापतागंज’ की इंदुमति के चटपटेपन के साथ खा लेंगे. आलूमटर की सब्जी में मटर न मिलें तो ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ के गोलू राम को गटक लेंगे. प्लेट से सलाद गायब हो तो ‘तारक मेहता’ के सेहत भरे संवाद हैं न? मीठानमकीन नहीं है पर ‘चौटाला’ की मीठीनमकीन बातें तो हैं न? आज पनीर नहीं बना कोई बात नहीं टोस्टी की टेबल पर से कुछ उठा लेंगे.

मतलब यह कि इधर सीरियल चलने लगे. उधर मेरा सीरियल (अनाज) उड़ने लगा. अब तो जो भी बनाऊं अच्छा लगे न लगे सीरियल के साथ चटखारे ले ले कर खाने लगे. मैं अब फिर परेशान हूं कि क्या करूं क्या न करूं. कुछ समझ में नहीं आ रहा.

महंगाई से निबटने और झगड़े से बचने के लिए सीरियल दिखातेदिखाते खाना खिलने की सलाह पर अमल किया था. पर मेरे साथ तो उलटा हो गया. अब सब कुछ मुझे डबल बनाना पड़ता है वरना भूखा रह गया का आलाप सुनना पड़ता है.

हयात: रेहान ने क्यों थामा उसका हाथ

‘‘कल जल्दी आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ हयात ने पूछा.

‘‘कल से रेहान सर आने वाले हैं और हमारे मिर्जा सर रिटायर हो रहे हैं.’’

‘‘कोशिश करूंगी,’’ हयात ने जवाब तो दिया लेकिन उसे खुद पता नहीं था कि वह वक्त पर आ पाएगी या नहीं.

दूसरे दिन रेहान सर ठीक 10 बजे औफिस में पहुंचे. हयात अपनी सीट पर नहीं थी. रेहान सर के आते ही सब लोगों ने खड़े हो कर गुडमौर्निंग कहा. रेहान सर की नजरों से एक खाली चेयर छूटी नहीं.

‘‘यहां कौन बैठता है?’’

‘‘मिस हयात, आप की असिस्टैंट, सर,’’ क्षितिज ने जवाब दिया.

‘‘ओके, वह जैसे ही आए उन्हें अंदर भेजो.’’

रेहान लैपटौप खोल कर बैठा था. कंपनी के रिकौर्ड्स चैक कर रहा था. ठीक 10 बज कर 30 मिनट पर हयात ने रेहान के केबिन का दरवाजा खटखटाया.

‘‘में आय कम इन, सर?’’

‘‘यस प्लीज, आप की तारीफ?’’

‘‘जी, मैं हयात हूं. आप की असिस्टैंट?’’

‘‘मुझे उम्मीद है कल सुबह मैं जब आऊंगा तो आप की चेयर खाली नहीं होगी. आप जा सकती हैं.’’

हयात नजरें झुका कर केबिन से बाहर निकल आई. रेहान सर के सामने ज्यादा बात करना ठीक नहीं होगा, यह बात हयात को समझे में आ गई थी. थोड़ी ही देर में रेहान ने औफिस के स्टाफ की एक मीटिंग ली.

‘‘गुडआफ्टरनून टू औल औफ यू. मुझे आप सब से बस इतना कहना है कि कल से कंपनी के सभी कर्मचारी वक्त पर आएंगे और वक्त पर जाएंगे. औफिस में अपनी पर्सनल लाइफ को छोड़ कर कंपनी के काम को प्रायोरिटी देंगे. उम्मीद है कि आप में से कोई मुझे शिकायत का मौका नहीं देगा. बस, इतना ही, अब आप लोग जा सकते हैं.’’

‘कितना खड़ूस है. एकदो लाइंस ज्यादा बोलता तो क्या आसमान नीचे आ जाता या धरती फट जाती,’ हयात मन ही मन रेहान को कोस रही थी.

नए बौस का मूड देख कर हर कोई कंपनी में अपने काम के प्रति सजग हो गया. दूसरे दिन फिर से रेहान औफिस में ठीक 10 बजे दाखिल हुआ और आज फिर हयात की चेयर खाली थी. रेहान ने फिर से क्षितिज से मिस हयात को आते ही केबिन में भेजने को कहा. ठीक 10 बज कर 30 मिनट पर हयात ने रेहान के केबिन का दरवाजा खटखटाया.

‘‘मे आय कम इन, सर?’’

‘‘जी, जरूर, मुझे आप का ही इंतजार था. अभी हमें एक होटल में मीटिंग में जाना है. क्या आप तैयार हैं?’’

‘‘जी हां, कब निकलना है?’’

‘‘उस मीटिंग में आप को क्या करना है, यह पता है आप को?’’

‘‘जी, आप मुझे कल बता देते तो मैं तैयारी कर के आती.’’

‘‘मैं आप को अभी बताने वाला था. लेकिन शायद वक्त पर आना आप की आदत नहीं. आप की सैलरी कितनी है?’’

‘‘जी, 30 हजार.’’

‘‘अगर आप के पास कंपनी के लिए टाइम नहीं है तो आप घर जा सकती हैं और आप के लिए यह आखिरी चेतावनी है. ये फाइल्स उठाएं और अब हम निकल रहे हैं.’’

हयात रेहान के साथ होटल में पहुंच गई. आज एक हैदराबादी कंपनी के साथ मीटिंग थी. रेहान और हयात दोनों ही टाइम पर पहुंच गए. लेकिन सामने वाली पार्टी ने बुके और वो आज आएंगे नहीं, यह मैसेज अपने कर्मचारी के साथ भेज दिया. उस कर्मचारी के जाते ही रेहान ने वो फूल उठा कर होटल के गार्डन में गुस्से में फेंक दिए. ‘‘आज का तो दिन ही खराब है,’’ यह बात कहतेकहते वह अपनी गाड़ी में जा कर बैठ गया.

रेहान का गुस्सा देख कर हयात थोड़ी परेशान हो गई और सहमीसहमी सी गाड़ी में बैठ गई. औफिस में पहुंचते ही रेहान ने हैदराबादी कंपनी के साथ पहले किए हुए कौंट्रैक्ट के डिटेल्स मांगे. इस कंपनी के साथ 3 साल पहले एक कौंट्रैक्ट हुआ था लेकिन तब हयात यहां काम नहीं करती थी, इसलिए उसे वह फाइल मिल नहीं रही थी.

‘‘मिस हयात, क्या आप शाम को फाइल देंगी मुझे’’ रेहान केबिन से बाहर आ कर हयात पर चिल्ला रहा था.

‘‘जी…सर, वह फाइल मिल नहीं रही.’’

‘‘जब तक मुझे फाइल नहीं मिलेगी, आप घर नहीं जाएंगी.’’

यह बात सुन कर तो हयात का चेहरा ही उतर गया. वैसे भी औफिस में सब के सामने डांटने से हयात को बहुत ही इनसल्टिंग फील हो रहा था. शाम के 6 बज चुके थे. फाइल मिली नहीं थी.

‘‘सर, फाइल मिल नहीं रही है.’’

रेहान कुछ बोल नहीं रहा था. वह अपने कंप्यूटर पर काम कर रहा था. रेहान की खामोशी हयात को बेचैन कर रही थी. रेहान का रवैया देख कर वह केबिन से निकल आईर् और अपना पर्स उठा कर घर निकल गई. दूसरे दिन हयात रेहान से पहले औफिस में हाजिर थी. हयात को देखते ही रेहान ने कहा, ‘‘मिस हयात, आज आप गोडाउन में जाएं. हमें आज माल भेजना है. आई होप, आप यह काम तो ठीक से कर ही लेंगी.’’

हयात बिना कुछ बोले ही नजर झुका कर चली गई. 3 बजे तक कंटेनर आए ही नहीं. 3 बजने के बाद कंटेनर में कंपनी का माल भरना शुरू हुआ. रात के 8 बजे तक काम चलता रहा. हयात की बस छूट गई. रेहान और उस के पापा कंपनी से बाहर निकल ही रहे थे कि कंटेनर को देख कर वे गोडाउन की तरफ मुड़ गए. हयात एक टेबल पर बैठी थी और रजिस्टर में कुछ लिख रही थी.

तभी मिर्जा साहब के साथ रेहान गोडाउन में आया. हयात को वहां देख कर रेहान को, कुछ गलत हो गया, इस बात का एहसास हुआ.

‘‘हयात, तुम अभी तक घर नहीं गईं,’’ मिर्जा सर ने पूछा.

‘‘नहीं सर, बस अब जा ही रही थी.’’

‘‘चलो, जाने दो, कोई बात नहीं. आओ, हम तुम्हें छोड़ देते हैं.’’

अपने पापा का हयात के प्रति इतना प्यारभरा रवैया देख कर रेहान हैरान हो रहा था, लेकिन वह कुछ बोल भी नहीं रहा था. रेहान का मुंह देख कर हयात ने ‘नहीं सर, मैं चली जाऊंगी’ कह कर उन्हें टाल दिया. हयात बसस्टौप पर खड़ी थी. मिर्जा सर ने फिर से हयात को गाड़ी में बैठने की गुजारिश की. इस बार हयात न नहीं कह सकी.

‘‘हम तुम्हें कहां छोड़ें?’’

‘‘जी, मुझे सिटी हौस्पिटल जाना है.’’

‘‘सिटी हौस्पिटल क्यों? सबकुछ ठीक तो है?’’

‘‘मेरे पापा को कैंसर है, उन्हें वहां ऐडमिट किया है.’’

‘‘फिर तो तुम्हारे पापा से हम भी एक मुलाकात करना चाहेंगे.’’

कुछ ही देर में हयात अपने मिर्जा सर और रेहान के साथ अपने पापा के कमरे में आई.

‘‘आओआओ, मेरी नन्ही सी जान. कितना काम करती हो और आज इतनी देर क्यों कर दी आने में. तुम्हारे उस नए बौस ने आज फिर से तुम्हें परेशान किया क्या?’’

हयात के पापा की यह बात सुन कर तो हयात और रेहान दोनों के ही चेहरे के रंग उड़ गए.

‘‘बस अब्बू, कितना बोलते हैं आप. आज आप से मिलने मेरे कंपनी के बौस आए हैं. ये हैं मिर्जा सर और ये इन के बेटे रेहान सर.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई सुलतान मियां. अब कैसी तबीयत है आप की?’’ मिर्जा सर ने कहा.

‘‘हयात की वजह से मेरी सांस चल रही है. बस, अब जल्दी से किसी अच्छे खानदान में इस का रिश्ता हो जाए तो मैं गहरी नींद सो सकूं.’’

‘‘सुलतान मियां, परेशान न हों. हयात को अपनी बहू बनाना किसी भी खानदान के लिए गर्व की ही बात होगी. अच्छा, अब हम चलते हैं.’’

इस रात के बाद रेहान का हयात के प्रति रवैया थोड़ा सा दोस्ताना हो गया. हयात भी अब रेहान के बारे में सोचती रहती थी. रेहान को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए सजनेसंवरने लगी थी.

‘‘क्या बात है? आज बहुत खूबसूरत लग रही हो,’’ रेहान का छोटा भाई आमिर हयात के सामने आ कर बैठ गया. हयात ने एकबार उस की तरफ देखा और फिर से अपनी फाइल को पढ़ने लगी. आमिर उस की टेबल के सामने वाली चेयर पर बैठ कर उसे घूर रहा था. आखिरकार हयात ने परेशान हो कर फाइल बंद कर आमिर के उठने का इंतजार करने लगी. तभी रेहान आ गया. हयात को आमिर के सामने इस तरह से देख कर रेहान परेशान तो हुआ लेकिन उस ने देख कर भी अनदेखा कर दिया.

दूसरे दिन रेहान ने अपने केबिन में एक मीटिंग रखी थी. उस मीटिंग में आमिर को रेहान के साथ बैठना था. लेकिन वह जानबूझ कर हयात के बाजू में आ कर बैठ गया. हयात को परेशान करने का कोई मौका वह छोड़ नहीं रहा था. लेकिन हयात हर बार उसे देख कर अनदेखा कर देती थी. एक दिन तो हद ही हो गई. आमिर औफिस में ही हयात के रास्ते में खड़ा हो गया.

‘‘रेहान तुम्हें महीने के 30 हजार रुपए देता है. मैं एक रात के दूंगा. अब तो मान जाओ.’’

यह बात सुनते ही हयात ने आमिर के गाल पर एक जोरदार चांटा जड़ दिया. औफिस में सब के सामने हयात इस तरह रिऐक्ट करेगी, इस बात का आमिर को बिलकुल भी अंदाजा नहीं था. हयात ने तमाचा तो लगा दिया लेकिन अब उस की नौकरी चली जाएगी, यह उसे पता था. सबकुछ रेहान के सामने ही हुआ.

बस, आमिर ने ऐसा क्या कर दिया कि हयात ने उसे चाटा मार दिया, यह बात कोई समझ नहीं पाया. हयात और आमिर दोनों ही औफिस से निकल गए.

दूसरे दिन सुबह आमिर ने आते ही रेहान के केबिन में अपना रुख किया.

‘‘भाईजान, मैं इस लड़की को एक दिन भी यहां बरदाश्त नहीं करूंगा. आप अभी और इसी वक्त उसे यहां से निकाल दें.’’

‘‘मुझे क्या करना है, मुझे पता है. अगर गलती तुम्हारी हुई तो मैं तुम्हें भी इस कंपनी से बाहर कर दूंगा. यह बात याद रहे.’’

‘‘उस लड़की के लिए आप मुझे निकालेंगे?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘यह तो हद ही हो गई. ठीक है, फिर मैं ही चला जाता हूं.’’

रेहान कब उसे अंदर बुलाए हयात इस का इंतजार कर रही थी. आखिरकार, रेहान ने उसे बुला ही लिया. रेहान अपने कंप्यूटर पर कुछ देख रहा था. हयात को उस के सामने खड़े हुए 2 मिनट हुए. आखिरकार हयात ने ही बात करना शुरू कर दिया.

‘‘मैं जानती हूं आप ने मुझे यहां बाहर करने के लिए बुलाया है. वैसे भी आप तो मेरे काम से कभी खुश थे ही नहीं. आप का काम तो आसान हो गया. लेकिन मेरी कोई गलती नहीं है. फिर भी आप मुझे निकाल रहे हैं, यह बात याद रहे.’’

रेहान अचानक से खड़ा हो कर उस के करीब आ गया, ‘‘और कुछ?’’

‘‘जी नहीं.’’

‘‘वैसे, आमिर ने किया क्या था?’’

‘‘कह रहे थे एक रात के 30 हजार रुपए देंगे.’’

आमिर की यह सोच जान कर रेहान खुद सदमे में आ गया.

‘‘तो मैं जाऊं?’’

‘‘जी नहीं, आप ने जो किया, बिलकुल ठीक किया. जब भी कोई लड़का अपनी मर्यादा भूल जाए, लड़की की न को समझ न पाए, फिर चाहे वह बौस हो, पिता हो, बौयफ्रैंड हो उस के साथ ऐसा ही होना चाहिए. लड़कियों को छेड़खानी के खिलाफ जरूर आवाज उठानी चाहिए. मिस हयात, आप को नौकरी से नहीं निकाला जा रहा है.’’

‘‘शुक्रिया.’’

अब हयात की जान में जान आ गई. रेहान उस के करीब आ रहा था और हयात पीछेपीछे जा रही थी. हयात कुछ समझ नहीं पा रही थी.

रेहान ने हयात का हाथ अपने हाथ में ले लिया और आंखों में आंखें डालते हुए बोला, ‘‘मिस हयात, आप बहुत सुंदर हैं. जिम्मेदारियां भी अच्छी तरह से संभालती हैं और एक सशक्त महिला हैं. इसलिए मैं तुम्हें अपनी जीवनसाथी बनाना चाहता हूं.’’

हयात कुछ समझ नहीं पा रही थी. क्या बोले, क्या न बोले. बस, शरमा कर हामी भर दी.

जाने क्यों लोग- भाग 3: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

उस रात न.. न… करने पर भी अनिमेष तियाशा को उस के फ्लैट में छोड़ गए. दूसरे दिन रविवार की छुट्टी थी. सुबह के 8 भी न बजे थे कि दरवाजे पर नितिन को देख कर चौंक गई. जो बीता सो बीत गया कह कर वह चैप्टर बंद करना चाहती थी. नितिन को सामने पा कर दुविधा में पड़ गई. न चाहते हुए भी उसे बैठने को कहना पड़ा. तियाशा भी बैठ गई और सीधे पूछ लिया, ‘‘क्या जरूरत थी यहां आने की? सुना लोग बातें बना रहे हैं?’’

‘‘सुना तो सही है, मैं आता भी नहीं, लेकिन एक काम है.’’

‘‘कहो.’’

‘‘प्लीज तुम पारुल और उस की मां से कह दो कि मेरा इस में कोई हाथ नहीं, तुम ने ही खुद जोर दिया था कि मैं तुम्हारे साथ घूमूंफिरूं.’’

‘‘अरे. यह क्या? क्या साधारण सी दोस्ती को तुम भी इतना कुरूप बनाओगे और पारुल कौन है? कभी तुम ने मुझे बताया नहीं?’’

‘‘पारुल मेरी मंगेतर है. 2 महीने बाद हमारी शादी है इसलिए नहीं बताया था, सोचा था तुम बुरा मान जाओगी.’’

‘‘अरे. बुरा क्यों मानती? क्या तुम भी

वही समझते हो जो लोग बता रहे हैं और अब बता रहे हो क्योंकि पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है? तुम्हीं बताओ नितिन, क्या मैं ने तुम्हें

मेरे साथ उठनेबैठने की जबरदस्ती की है? फिर उन्हें ऐसा क्यों कहूं. मेरा तुस से अन्य कोई

संबंध भी नहीं सिवा एक सामान्य सी दोस्ती के. तुम लोगों के सामने यह तो साबित नहीं करो

कि हम दोनों के बीच कोई अनुचित संबंध है… इस में मैं ने तुम्हे विक्टिम बनाया है. नहीं, मैं ऐसा नहीं कहूंगी.’’

‘‘देखो तियाशा उम्र में तुम मुझ से बड़ी

हो. इसलिए लिहाज कर रहा हूं, तुम्हारा साथ देने की वजह से मैं फालतू बदनाम हो रहा हूं. लोगों की बातें सुनसुन कर पारुल का शक पक्का हो गया है, तुम नहीं कहोगी तो मैं सुगंधा या

मल्लिक से कहलवा लूंगा. तुम्हारे फोन पर मैं

उस का नंबर भेज रहा हूं, बात कर लेना, मेरी शादी अगर कैंसिल हुई तो यह तुम्हारे लिए बहुत बुरा होगा.’’

यद्यपि तियाशा को कुछ भी अच्छा नहीं

लग रहा था, लेकिन जिंदगी जब खुद को ही

दांव पर लगा देती है तो आप को खेलना तो

पड़ता ही है, चाहे इस खेल से निकलने के लिए ही सही.

बड़ी ऊहापोह थी और उस से भी ज्यादा थी गहरी चोट. नितिन का हंसनाबोलना

केयर करना याद आता रहा. पर अब तियाशा क्या करे? अगर नितिन की शादी टूटती है तो इस की जिम्मेदारी उस की होगी और इस के लिए उस के आसपास का समाज उस का दुश्मन बन बैठेगा, लेकिन सब से बड़ी दुश्मन तो होगी वह खुद ही खुद की. उस का धिक्कार उसे एक पल को भी चैन लेने देगा?

उस ने एक झटके में एक निर्णय लिया और अनिमेष को फोन लगाया. कुछ ही देर में औटो पकड़ कर वह रूबी मोड़ के पास अनिमेष के फ्लैट में थी. हलकीफुलकी बातचीत और अनिमेष की ओर से दोस्ती की पहल ने अब तक तियाशा को बहुत हद तक सहज कर दिया था. दोनों ने मिल कर चीज सैंडविच बनाए और रविवार की सुबह निकल पड़े बाबूघाट की ओर. गंगा नदी में बाबूघाट से हावड़ा तक ढेरों स्टीमर चलते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में फेरी कहा जाता है. इसी फेरी में दोनों आसपास बैठे थे. कुनकुनी धूप जैसे आपसी पहचान में विश्वास का तानाबना बुन रही हो. रविवार होने की वजह से फेरी में

2-4 लोग ही इधरउधर बिखरे बैठे थे.

‘‘हां तो मैडम तियाशा आप ने कहा नितिन की धमकी से आप डरी हुई हैं, सोचिए तो मेरी पत्नी जब मेरी 10 साल की बेटी को छोड़ कर एक मुसलिम कश्मीरी शादीशुदा आदमी के साथ भाग जाती है, जोकि उस के साथ ही काम करता था और इस वजह से मुझे मेरे ब्राह्मण समाज से कठोर धमकी मिलती रही, समाज से मुझे बहिष्कृत कर दिया गया, मैं ने अकेले कैसे खुद को इन चीजों से उबारा? जबकि स्थितियां मेरी नाक के नीचे कब पैदा हुईं मुझे मालूम ही नहीं चला. वह तो भागने के आखिरी दिन तक मुझ से वैसे ही प्रेम और विश्वास से मिलती रही जैसे शुरुआती दिनों में था.

‘‘मैं जहां एक तरफ पत्नी के विश्वासघात और ब्राह्मण समाज के अडि़यल रवैए के दबाव में बुरी तरह टूट चुका था, वहीं दूसरी ओर उस कश्मीरी के अपनी बीवी को छोड़ कर भागने की वजह से उस की बीवी अपने घर वालों को ले कर अकसर मेरे घर पहुंच जाती कि उस के शौहर का पता लगाने में उस की मदद करूं. मुझ पर सब का दबाव था कि मैं अपनी बीवी की तलाश करूं.

‘‘अरे यह रिश्ता अब मैं जबरदस्ती ढो ही नहीं सकता था, बल्कि अपनी बीवी

को कभी देखना भी नहीं चाहता था मैं. इसलिए नहीं कि उस ने किसी और से प्रेम किया, इसलिए कि उसे मेरा प्रेम समझ ही नहीं आया था. मुझ से छिपाया. मुझे एक बार भी मौका नहीं दिया कि मैं उसे फिर से हासिल कर लूं.

‘‘वाकई जब हिस्से में रात आती है तो सूरज न सही चांद तो मिलता ही है और जब इतनी रोशनी मिल जाती है तो जीतने की हिम्मत रखने वाले सुबह होने तक सूरज हासिल कर ही लेते हैं. तो न केवल मैं ने उसे भुलाया, समाज से लड़ी, उस कश्मीरी की बीवी को दिलाशा दिया और आगे अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उसे कुछ दिया ताकि वह अपना बुटीक खोल कर अपना खोया आत्मविश्वास लौटा सके. हालांकि उस ने

2 साल के अंदर खुद की कमाई से मेरा कर्ज लौटा दिया और मुझे बड़ा भाई सा मान दे कर मेरे प्रति कृतज्ञता जताई. मैं ने अपनी बेटी को भी पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा कर दिया. हां, यह बात अलग है कि बेटी अब हम से कोई रिश्ता नहीं रखती.’’

‘‘अरे, क्यों?’’

‘‘उस का मानना है कि मुझे उस के लिए ही सही उस की मां को ढूंढ़ना चाहिए था, पर तियाशा आप ही बताओ, वह भागी थी, हम तो वहीं थे, याद करती अगर बेटी को तो संपर्क कर सकती थी न. मुझ से न सही, बेटी से ही. यह थी मेरी सोच, जिसे मैं नहीं बदलूंगा. तो क्या अब इतनी कहानी सुनने के बाद आप फिर भी अपना निर्णय, अपनी जिंदगी लोगों के भरोसे छोड़ेंगी? लोग ऐसे खाली नहीं होते तियाशा जी. जब दूसरों के टांग खींचने की बारी आती है, लोग खुदवखुद फ्री हो जाते हैं.’’

‘‘पारुल को कैफियत देने नहीं जाऊंगी मैं और न ही नितिन की किसी धमकी से डरूंगी. अगर किसी को कुछ पूछना होगा तो वह खुद ही आएगा.’’

‘‘यह हुई न बात. अब एक बात और क्यों न हो जाए.’’

तियाशा अब थोड़ा खिलखिला कर हंस पड़ी.

अनिमेष ने बड़े स्नेह से उस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘हमारी इस दोस्ती को एक प्यारे से रिश्ते का नाम देने की मेरी बड़ी तमन्ना है. अगर मैं जल्दीबाजी कर रहा हूं तो खफा मत होना, मैं बहुत सारा समय देने को तैयार हूं.’’

‘‘कौन सा नाम?’’ समझते हुए भी तियाशा शरारत से पूछ कर मुसकराई.

अब तक स्टीमर दूसरे घाट पर आ गया था. अनिमेष ने तियाशा का हाथ पकड़ कर घाट में उतारते हुए कहा, ‘‘यही, जिसे वसंत मंजरी

कहते हैं, पपीहा की पीहू और दिल का मचलना कहते हैं.’’

‘‘पर लोग,’’ मुसकराते हुए थोड़ी सी शंका भरी नजर रख दी तियाशा ने अनिमेष की पैनी आंखों में.

उस की हथेली पर अपना दबाव बनाते हुए अनिमेष ने जवाब दिया, ‘‘कल फिर

लोगों के सामने औफिस में बात पक्की कर

देता हूं.’’

तियाशा के हुए अनिमेष. किसी का कोई सवाल?

तियाशा खिलखिला कर हंस रही थी.

यह सुरमई शाम हंस रही थी, ये गोधूलि की लाली हंस रही थी. डूबता सा सूरज भरोसे की मुसकान दे कर जा रहा था, कल से साथ चलने के लिए.

जाने क्यों लोग- भाग 2: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

औफिस आई तो उस के बौस को बुलावा था. तियाशा कैबिन में गई.  बौस अनिमेष, उम्र 45 के आसपास, चेहरे पर घनी काली दाढ़ी, बड़ीबड़ी आंखें, रंग गोरा, हाइट ऊंची… तियाशा ने उन्हें इतने ध्यान से देखा नहीं था कभी.

बौस ने अपने जन्मदिन पर उसे घर बुलाया था, छोटी सी पार्टी थी. औफिस से निकल कर उस ने एक बुके खरीदा और घर आ गई.

किंशुक के जाने के बाद अब तक जैसेतैसे जिंदगी काट रही थी वह. ऐसे भी समाज में कहीं किसी शुभ कार्य में सालभर जाना नहीं होता है. कहते हैं मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य के कारण लोगों के मंगल कार्य में बांधा पड़ती है. और बाद के दिनों में? विधवा है. अश्पृश्य वैधव्य की शिकार. अमंगल की छाया है उस के माथे पर. पारंपरिक भारतीय समाज डरता है ऐसी स्त्री से कि क्या पता संगति से उन के घर भी अनहोनी हो जाए. उस पर दुखड़ा रो कर भीड़ जुटाने वाली स्त्री न हो और लोगों को सलाह देने, दया दिखाने का मौका न मिले तो वह तो और भी बहिष्कृत हो जाती है. पड़ोस में कई शुभ समारोह तो हुए, लेकिन तियाशा बुलाई न गई. अकेलापन उस का न चाहते हुए भी साथी हो गया है.

शादी से पहले तियाशा स्वाबलंबी थी. एक प्राइवेट कालेज में लैक्चरर थी. तब की बात कुछ अलग थी, मगर शादी के इन 7 सालों में जैसे वह किंशुक नाम के खूंटे से टंग कर रह गई थी. बाहर जाने के नाम पर किंशुक ने ही तो तनाव भरा था उस में. हमेशा कहता कि अब तुम कहां जाओगी, मैं ही जाता हूं. आखिरी दिनों के दर्दभरे एहसासों के बीच भी कहता कि दवा खत्म हो गई है, थोड़ी देर में मैं ही जाता हूं. काश, किंशुक समझ पाता कि इस तरह उसे आगे अकेले कितनी परेशानी होगी. दुविधा, भय और लोगों से मेलजोल में अपराध भावना हावी हो जाएगी उस की चेतना पर. अब देखो कितनी दूभर हो गई है रोजमर्रा की जिंदगी उस की. न तो खुल कर किसी से दिल का हाल कह पाती है और न ही अनापशनाप सवालों के तीखे जवाब दे पाती है.

नीली जौर्जट साड़ी और पर्ल के हलके सैट के साथ जब वह निकलने को तैयार हुई तो आइने के सामने एक पल को ठहर गई वह.

‘‘बहुत सुंदर तिया. जैसे रूमानी रात ने सितारों के कसीदे से सजा आसमान ओढ़ रखा हो,’’ उसे नीली साड़ी पहना देख किंशुक ने कहा था कभी. खुद के सौंदर्य पर खुश होने के बदले ?िझक सी गई वह.

अनिमेष के घर के, दफ्तर के लगभग सारा स्टाफ  ही जुटा था, जिस में नितिन भी था. बधाई दे कर वह एक किनारे बैठ गई. उम्मीद थी नितिन उसे अकेला देख कर उस के पास जरूर आएगा. लेकिन 30 साल का नौजवान नितिन उसे देख कर अनायास ही अनदेखा करता रहा.

तभी हायहैलो करते सुगंधा उस के पास आ बैठी. 34 के आसपास की सुगंधा अपने चौंधियाते शृंगार से सभी का ध्यान आकर्षित कर रही थी. आते ही सवाल दागे, ‘‘तियाशा नितिन आज कहां रह गया? दिखा नहीं आसपास?’’

पूछ रही थी या तंस कस रही थी? बड़ी कोफ्त हुई तियाशा को, लेकिन वह सहज रहने का अभिनय करती सी बोली, ‘‘हमेशा मेरे ही पास क्यों रहे?’’

कह तो दिया उस ने लेकिन क्या पता क्यों नितिन का व्यवहार उसे खटक गया था. आखिर उसे अनदेखा करने या तिरछी नजर देख कर मुंह फेर लेने जैसी क्या बात हुई होगी.

सुगंधा का अगला सवाल खुद उत्तर बन कर आ गया था, ‘‘और कौन घास डालता है उसे? वैसे अच्छा ही है, औफिस में तुम्हें साथ देने को कोई तो मिल जाता है.’’

इसे आखिर मुझ से चिढ़ किस बात की है. तियाशा मन ही मन दुखी होती हुई भी सहज रही.

तभी अंजलि दौड़ती हुई आ गई, ‘‘कहां छिप कर बैठी हो सुगंधा. कब से ढूंढ़ रही हूं तुम्हें,’’ अंजलि जोश में थी.

‘‘क्यों?’’

‘‘देखो मेरे इस हार को, हीरे का है, किस ने दिया पूछो?’’

‘‘और किस ने? तुम्हारे पतिदेव ने. कल हम लोग भी गए थे खरीदारी करने. उन्होंने बहुत कहा, पर मैं ने लिया नहीं, 2 तो पड़े हैं ऐसे ही. क्यों तियाशा तुम्हारा यह हार रियल पर्ल का है? वैसे पर्ल ही सही है आजकल. चोरउच्चक्कों का जमाना है, तुम बेचारी अकेली हो, क्यों भला गहने जमाओ.’’

‘‘अरे इसे क्यों पूछ रही हो, इस बेचारी को हीरे का हार ले कर देगा कौन?’’

‘‘अपने नितिन को कहना पड़ेगा, फ्री में बहुत घूम चुका,’’ सुगंधा ने रसभरी चुटकी ली.

सुगंधा और अंजलि हंसते हुए उठ कर चली गईं, लेकिन पीछे बैठी तियाशा की रगरग में दमघोंटू धुआं भर गईं.

अकेली चुप बैठी भी वह लोगों की नजर में

ज्यादा आ रही थी. औफिस के स्टाफ में से अधिकांश उस से ज्यादा घुलेमिले नहीं थे. अनिमेष गैस्ट संभालते हुए भी तियाशा को बीचबीच में देख लेते. वह कभी किसी को देख कर झेंप से भरी हुई मुसकराती, तो कभी अपने फोन पर जबरदस्ती व्यस्त होने का दिखावा करती. सब को खाने के बुफे की ओर भेज कर अनिमेष तियाशा के पास आ गए. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए. हौल अब लगभग खाली हो गया था. ज्यादातर लोग खापी कर घर निकल गए थे, कुछेक बचे लोग खाने की जगह इकट्ठा थे.

अनिमेष ने कहा, ‘‘चलिए आप भी, खाना खा ले.’’

वैसे अनिमेष ने कहा तो सही, लेकिन उन की इच्छा थी कि वे कुछ देर तियाशा के साथ अकेले बैठें, उस से बातें करें, उस के बारे में जानें.

उधर तियाशा को अनिमेष का साथ बुरा तो नहीं लग रहा था? लेकिन वह नितिन को ले कर परेशान सी थी. आखिर हंसताबोलता इंसान अचानक मुंह फेर कर बैठ जाए यह तो बेचैन करने वाली बात है न.

‘‘क्या हुआ, लगता है आप को मेरी पार्टी में आनंद नहीं आया? क्या मैं आप को परेशान कर रहा हूं?’’

यह अब दूसरी परेशानी. बौस है, कहीं खफा हो गया तो मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी. अत: अपनी उदासीनता छिपाते हुए उस ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है सर… वह आज तबीयत कुछ

ठीक नहीं.’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं या नितिन को ले कर आप के बारे में लोग पीठ पीछे बातें बना रहे हैं इसलिए?’’

अब यह तो वाकई नई बात थी. तियाशा को तो मालूम नहीं था कि उस के पीछे नितिन के साथ उस का नाम जोड़ा जा रहा है.

तियाशा को अपना अकेलापन खलता था. कोई ऐसा नहीं था जो उस से खुले दिल से बात करे. इस समय नितिन से बातें करना, कभी उसे अपने घर बुलाकर साथ चाय पीना या कभी साथ कहीं शौपिंग पर चले जाना उसे मानसिक रूप से अच्छा महसूस कराता, मगर कभी यह बात दिल में नहीं आ पाई कि इस नितिन के साथ उस का नाम जोड़ कर पीठ पीछे बुराई की जाएगी. बेचारे मृत किंशुक को लोग किस नजर से देखेंगे… सभी तो यही सोच रहे होंगे कि किंशुक के मरते ही साल भर के अंदर कम उम्र के लड़के के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है.

उस के चेहरे के उतरते रंग को अनिमेष कुछ देर देखते रहे, फिर कहा, ‘‘चलिए खाने पर चलते हैं… लोगों से डरना बंद करिए, आप अगर मेरी जिंदगी जानेंगी तो आप को अपनेआप ही रश्क हो आएगा. आइए…’’

सच, तियाशा को रहरह कर यह खयाल आ रहा था कि अनिमेष सर इस घर में अकेले क्यों दिखाईर् दे रहे हैं, इन की बीवी या बच्चे कहां हैं? पर संकोची स्वभाव की होने के कारण किसी से पूछ नहीं पाई.’’

जाने क्यों लोग- भाग 1: क्या हुआ था अनिमेष और तियाशा के साथ

लंबी,छरहरी, गोरी व मृदुभाषिणी 48 साल की तियाशा इस फ्लैट में अब अकेली रहती है, मतलब रह गई है.

आई तो थी सपनों के गुलदान में प्यारभरी गृहस्थी का भविष्य सजा कर, लेकिन एक रात गुलदान टूट गया, सो फूल तूफानी झेंकों में उड़ गए.

तियाशा के पिता ने 2 शादियां की थीं.

बड़ी मां के गुजरने के बाद उस की मां से ब्याह रचाया था उस के पिता ने. उस की मां ने उस के सौतेले बड़े भैया को भी उसी प्यार से पाला था जैसे उसे. लेकिन मातापिता की मृत्यु के बाद भाभी की तो जैसे कुदृष्टि ही पड़ गई थी उस पर. अच्छीभली प्राइवेट कालेज में वह लैक्चरर थी. मगर उस की 32 की उम्र का रोना रोरो कर उसे चुनाव का मौका दिए बगैर उस की शादी जैसेतैसे कर दी गई.

शादी के समय किंशुक उस से 8 साल बड़ा था, एक बीमार विधवा मां थी उस की, जिन की तीमारदारी के चलते इकलौते बेटे ने अब तक शादी नहीं की थी. मगर जाने क्या हुआ, सास के गुजरने के 2 साल के अंदर ही किंशुक को हार्ट की बीमारी का पता चला. फिर तो जैसे शादी के 5 साल यों पलक झपकते गुजर गए कि कभी किंशुक का होना सपना सा हो गया.

7 बजने को थे. औफिस जाने की तैयारी में लग गई. आसमानी चिकनकारी कुरती और नीली स्ट्रैचेबल डैनिम जींस में कहना न होगा बहुत स्मार्ट लग रही थी. किंशुक उस का स्मार्ट फैशनेबल लुक हमेशा पसंद करता था.

औफिस पहुंच कर थोड़ी देर पंखे के नीचे सुस्ता कर वह अपने काम पर ध्यान देने की कोशिश करती. कोशिश ही कर सकती है क्योंकि घोषाल बाबू, मल्लिक यहां तक कि अंजलि और सुगंधा भी उसे काम में मन लगाने का मौका दें तब तो.

यह राज्य सरकार का डिस्ट्रिक्ट ऐजुकेशन औफिस है. यहां किंशुक ने लगभग 19 साल नौकरी की. तियाशा को 10 महीने होने को

आए इस औफिस में किंशुक की जगह नौकरी करते हुए.

आज भी जैसे ही वह अपनी कुरसी पर आ कर बैठी मल्लिक और घोषाल बाबू ने एकदूसरे को देखा. मल्लिक की उम्र 45 और घोषाल की 48 के आसपास होगी. इन तीनों के अलावा इस औफिस में स्टाफ की संख्या 22 के आसपास होगी. मल्लिक ने तियाशा की ओर देखते हुए घोषाल से चुटकी ली कि कोलकाता के लोगों को बातबात पर बड़ी गरमी लगती है. भई, क्या जरूरत है बस में धक्के खाने की. हम और हमारी बाइक काम न आ सके तो लानत है.

पास से गुजरती अंजलि और सुगंधा मल्लिक आंख मारती हंसती निकल गईं.

तियाशा की रगरग में जहरीली जुगुप्सा सिहरती रही. वह अपने कंप्यूटर की स्क्रीन में धंसने की कोशिश करती रही, असहज महसूस करती रही.

ललिता ने तियासा को बताया था कि वह वहां वहीखाता, फाइल आदि टेबल तक पहुंचाने का काम करती थी. अन्य के मुकाबले किंशुक ललिता को उस की उम्र का लिहाज कर अतिरिक्त सम्मान देता था. आज किंशुक की विधवा के प्रति वह स्नेह सा महसूस करती. अकसर कहती, ‘‘बेटी यहां सारे लोग सामान्य शिक्षित, बड़े ही पारंपरिक पृष्ठभूमि के हैं, अगर तुम केश बांध कर, फीके रंग की साड़ी में आती, रोनी सी सूरत बनाए रखती, किसी से बिना हंसेमुसकराए सिर झका कर काम कर के निकल जाती तो शायद तुम्हें ऐसी बातें सुनने को नहीं मिलतीं. सब के साथ सामान्य औपचारिकता निभाती हो, मौडर्न तरीके की ड्रैसें पहनती हो… लोगों को खटकता है.’’

लब्बोलुआब यह कि पति की मृत्यु के बाद भारतीय समाज में स्त्री को अब भले ही जिंदा न जलना पड़े, पर जिंदा लाश बन कर रहना ही चाहिए. उस का सिर उठा कर जीना, दूसरे के सामने अपना दर्द छिपा कर मुसकराना, स्वयं के हाथों अपनी जिंदगी की बागडोर रखना लोगों को गवारा नहीं. वह हमेशा सफेद कफन ओढ़े रहे, निराश्रितपराश्रित जैसे व्यवहार अपनाए, तभी वह प्रमाणित कर पाएगी कि उस का चरित्र सच्चा है और वह पति के सिवा किसी अन्य को नहीं चाहती. और तो और गलत भी क्या है अगर पति के जाने के बाद कोई स्त्री अपने लिए खुशी ढूंढ़ती है. क्यों जरूरी है कि वह ताउम्र किसी का गम मनाती रहे?

तियाशा का मन विद्रोह कर उठता है. पत्नी की मृत्यु पर तो सारा समाज एक पुरुष को सहानुभूति के नाम पर खुली छूट दे देता है. तब वह बेचारा, सहारे का हकदार, मनोरंजन के लिए किसी भी स्त्री में दिलचस्पी लेने की स्वतंत्रता का विशेषाधिकार पाने वाला होता है. लेकिन एक स्त्री अपने जीवने को सामान्य ढर्रे पर भी चलाने की कोशिश करने की हकदार नहीं. उसे एक कदम पीछे चलना होगा. उसे हमेशा प्रमाणित करना होगा कि पति के बिना उस का अपना कोई वजूद नहीं है.

इन दिनों जाने क्यों उसे ज्यादा गुस्सा आने लगा है. इस वजह कुछ जिद भी. नितिन की यहां नई जौइनिंग से उन के मन ही मन अपना मन बहलाना शुरू किया है. अच्छा लड़का है, सुंदर है, स्मार्ट है… क्या हुआ यदि उस से 7-8 साल छोटा है. इन लोगों की तरह पूर्वाग्रह से ग्रस्त तो बिलकुल भी नहीं.

काफी है एक दोस्त की हैसियत से उस से थोड़ी बातचीत कर लेना. फिर और लोग भी क्या बात करेंगे उस से? न तो उस के पास पति या ससुराल वालों की निंदा के विषय हैं और न ही मायके वालों की धौंस और रुतबे का बखान. बच्चे के कैरियर को ले कर दिखावे की भी होड़ नहीं. फिर लोग उसे ही तो अपना विषय बनाए फिरते हैं. कौन है जिस से वह अपना दुखसुख बांटे?

दोपहर के ब्रेक में आजकल वह नितिन से कैंटीन जाने के लिए पूछती तो वह

भी यहां नया और अकेला होने के कारण सहर्ष राजी हो जाता. कुछ हैवी स्नैक्स के साथ 2 कप कौफी उन दोनों के बीच औपचारिकता की दीवार ढहा कर थोड़ाथोड़ा रोमांच और ठीठोली भर रही थी. एक इंसान होने के नाते तियाशा को अच्छा लगने का इतना तो अधिकार था, फिर भी वह खुद को हर वक्त सांत्वना देती रहती जैसेकि वह किंशुक को धोखा दे देने के बोझ से खुद को उबारना चाहती हो.

कुछ पल जो जिंदगी में नितिन के साथ के थे, क्योंकि इस साथ में आपसी दुराग्रह नहीं था, सामाजिक परंपरागत कुंठा नहीं थी, यद्यपि इस दोस्ती को ले कर भी चुटीली बातों का बाजार गरम ही रहता.

आज नितिन औफिस नहीं आया था, फिर भी रहरह तियाशा की नजर दरवाजे की तरफ घूम जातीं. दोपहर तक उस के दिल ने राह देखना जब बंद नहीं किया तो वह झल्ला पड़ी और ब्रेक होते ही कैंटीन की तरफ खुद ही चल दी. उम्मीद थी वह खुद को एक बेहतर ट्रीट दे कर साबित कर देगी कि वह नितिन के लिए उतावली नहीं है. दिल उदास था, जाने क्यों अकेलापन छाया रहा. मन मार कर सकुचाते हुए उस ने नितिन को कौल किया. कौल उस ने पहली बार किया था, लेकिन नितिन ने कौल नहीं उठाया. यह भले ही सामान्य सी बात रही हो, लेकिन तियाशा को खलता रहा. हो सकता है इस चिंता के पीछे लोगों का उस पर अतिरिक्त ध्यान देना रहा हो.

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