कल पति आज पत्नी: समलैंगिक संबंधों की एक कहानी

25 जून की मध्य रात्रि. समय लगभग साढ़े 3 बजे का था. वैद्यराज दीनानाथ शास्त्री अपनी पत्नी सुशीला देवी के साथ इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एअरपोर्ट पर बैठे कैलिफोर्निया से आने वाली उड़ान का इंतजार कर रहे हैं. जहाज के आने का समय 4 बजे का है. अनाउंसमैंट हो चुका है कि फ्लाइट ठीक समय पर आ रही है.

पतिपत्नी अपने इकलौते बेटे कमलदीप और उस की पत्नी के आने का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. बेटा कमलदीप 4 साल पहले कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट औफ फैशन डिजाइनिंग में पढ़ने गया था. पहली बार तो बेटा 6 महीने बाद ही आ गया था. दूसरी बार 1 साल बाद आया तो उस के रंगढंग काफी बदले हुए थे. वह बातें करता तो हिंदी कम और अमेरिकन अंगरेजी का मिश्रण ज्यादा होता. उस पर आधेआधे शब्दों का उच्चारण, जो कम ही समझ में आता. रंगीले भड़कदार अजीबोगरीब सी बनावट के कपड़े, बिना बांहों की शर्ट और कमर के नीचे की जीन्स, घुटनों से नीची और टखनों से ऊपर. सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल, आंखों में काजल तथा कानों में छोटीछोटी बालियां. बात करते हुए हाथों का इशारा, गरदन का हिलाना और आंखों का मटकाना, इसी के साथ चाल में अजीब सी मस्ती.

बेटे का हुलिया और चालढाल देख कर वैद्यजी को कुछ अच्छा नहीं लगा, लेकिन यही सोच कर चुप रह गए कि चलो, एक और साल की ही तो बात है, कोर्स पूरा होने पर जब लौट कर घर आएगा तो धीरेधीरे यहां के रीतिरिवाजों में ढल कर ठीक हो जाएगा.

वैसे भी कमलदीप को मजबूरी में ही बाहर पढ़ने के लिए भेजना पड़ा था. 19 साल की उम्र तक विभिन्न कक्षाओं में 3 बार फेल होने के बाद वह सैकंड डिवीजन से इंटर की परीक्षा पास कर पाया था. मथुरा के आसपास ही नहीं, बल्कि दूरदराज के भी किसी कालेज में उसे दाखिला न मिलने की वजह से वैद्यजी को बेटे के भविष्य की चिंता थी. पढ़ाई में उस की कोई खास दिलचस्पी तो थी नहीं, बस लोकल ड्रामा कंपनियों के साथ रह कर तरहतरह के नाटकों में ज्यादातर लड़कियों की भूमिकाएं करने में उसे मजा आता था.

मथुरावृंदावन के सालाना जलसों में कृष्ण की रासलीला में राधा की भूमिका पर पिछले 3 साल से उस का एकाधिकार था. शहर के लोग वैद्यजी को बधाई देते हुए कमलदीप के अभिनय की तारीफ करते थे. मगर वैद्यजी को बेटे के रंगढंग देखते हुए उस के भविष्य की चिंता बनी रहती थी.

स्कूल में भी कमलदीप खाली समय में अपने साथियों के बीच लड़कियों की सी हरकतें तथा सिनेमा की नायिकाओं की नकल करता. अब तो उस का ज्यादातर समय किसी न किसी नाटक में अभिनय के बहाने रासलीला की रिहर्सल में बीतने लगा था. वैद्यजी का माथा तो तब ठनका जब उन्होंने बेटे को घर के पिछवाड़े  प्रेमिका के रूप में दूसरे लड़के के साथ रासक्रीड़ा की विभिन्न मुद्राओं में मग्न देखा.

उस घटना के बाद से वैद्यजी का मन व्याकुल था. तभी उन्होंने अगले दिन अखबारों में बड़ेबड़े विज्ञापन देखे कि दिल्ली के होटल अशोका में विश्वस्तर के कालेजों तथा विश्वविद्यालयों का मेला लग रहा है जिस में कौन्फ्रैंस, सेमिनार तथा काउंसलिंग के जरिए बच्चों के इंटरव्यू होंगे और उन को विदेशों में उच्च शिक्षा में ऐडमिशन मिलेगा.

वैद्यजी ने सोचा कि बेटा विदेश जा कर कुछ पढ़ाईलिखाई करेगा तो एक तो उस का कैरियर बन जाएगा और वहां उस का यह छिछोरापन भी धीरेधीरे समाप्त हो जाएगा. यही सोच कर वैद्यजी ने तुरंत कमलदीप को साथ ले कर दिल्ली चलने का फैसला किया.

काफी भागदौड़ के बाद कैलिफोर्निया के इंस्टिट्यूट औफ फैशन डिजाइनिंग में एक स्थानीय एजेंट ने उस के ऐडमिशन के लिए हां कर दी. ऐडमिशन की फीस, वीजा, जाने का खर्च और 1 साल की फीस तथा रहनेखाने का खर्च आदि मिला कर लगभग 12 लाख रुपए जमा कराने थे. वैद्यजी को रकम भारी तो लगी, मगर बेटे के भविष्य और उस के कैरियर की खातिर ऐडमिशन की तैयारी शुरू हो गई. डेढ़ महीने बाद बेटा फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने अमेरिका चला गया.

जहाज आ चुका था, अत: दोनों पतिपत्नी बाहर जा कर रेलिंग के सहारे खड़े हो गए. यात्रियों का आना शुरू हो गया था.

वैद्यजी पत्नी के साथ भीड़ में बहूबेटे को टटोल रहे थे कि पंडिताइन कुछ बेचैन सी घबराहट के साथ बोलीं कि आप ही ध्यान रखिए, मैं तो शायद उसे पहचान भी नहीं पाऊंगी. पिछले ढाई साल में अपना कमलदीप कितना बदल गया होगा. पंडितजी थोड़ा कटाक्ष से बोले, ‘‘तुम मां हो. अपने बेटे को नहीं पहचान पाओगी तो और कौन पहचानेगा? फिर भी कोई हिंदुस्तानी लड़का किसी गोरी अंगरेजन के साथ आता दिखाई दे तो समझ लेना कि तुम्हारा कमल ही होगा.’’

6 महीने पहले ही कमलदीप ने मां को बताया था कि वह 1 साल से किसी संस्था के साथ काम कर रहा है और एक घनिष्ठ मित्र के साथ ही एक कमरे के फ्लैट में रहता है. उसी के साथ उस ने पिछले महीने शादी भी कर ली है. उस का नाम जैक है और वह स्वीडन से है. दोनों का पिछले 1 साल में विदेशों में भी काफी आनाजाना रहा है. अभी तक कनाडा, आस्ट्रेलिया, स्वीडन, स्पेन तथा यूरोप आदि के दौरे कर चुके हैं.

मातापिता भी यह सोच कर संतुष्ट थे कि शायद किसी अच्छे ओहदे पर बेटा काम कर रहा होगा क्योंकि एकडेढ़ साल में उस ने कोई रुपया नहीं मंगाया. अपना खर्च स्वयं चला रहा है और विदेशों में भी उस का काफी घूमनाफिरना रहता है. अत: बेटा अपने पैरों पर खड़ा है और शायद कामकाज की व्यस्तता के कारण ज्यादा बात नहीं कर पाता.

बस, 3 दिन पहले ही उस का टैलीफोन आया था कि एक हफ्ते के लिए वे दोनोें दिल्ली आ रहे हैं. दिल्ली में औल इंडिया कौन्फ्रैंस है तथा जरूरी मीटिंग्स अटैंड करनी हैं. अत: 1 दिन से ज्यादा वह उन के साथ नहीं रह पाएगा. आगे का कार्यक्रम वहीं पर डिसाइड होगा कि उन्हें कहांकहां जाना है और क्याक्या करना है.

आने वाले यात्रियों की जैसेजैसे भीड़ छंट रही थी, मातापिता की बेचैनी भी उसी तरह बढ़ रही थी. पंडिताइन रोंआसी सी आवाज में बोलीं, ‘‘बस जी, बहुत हो चुका, अब नहीं भेजना है उसे वापस. बहुत रह चुका विदेश में, दुनिया घूम चुका है. अब तो शादी भी कर ली है. बस, यहीं रहेगा, बहू के साथ, हमारे पास. आगे बच्चे होंगे, परिवार बढ़ेगा. कैसे संभालेंगे बच्चों को अकेले रह कर विदेश में, यहां किसी चीज की कमी नहीं है हमारे पास. बस, यहीं रहेगा और जो कुछ भी करना है करे, मगर करेगा यहीं रह कर.’’

वैद्यजी भी खामोशी में ऐसा ही कुछ सोच रहे थे कि पंडिताइन की हालत देख कर उन का भी दिल पसीज गया. अपनेआप को संभाला और पंडिताइन को सहारा दिया कि एकाएक 2 लड़के सामने से आते हुए वैद्यजी को दिखाई दिए जो थोड़ी दूर पर हंसते- खिलखिलाते से मस्ती के साथ अजीब से रंगरंगीले पहनावे में थे.

वैद्यजी बड़े उल्लास भरे स्वर में पंडिताइन से बोले, ‘‘लो, देखो, लगता है कि तुम्हारा लाल कमलदीप आ गया,’’ वैद्यजी थोड़ा और रुक कर बोले, ‘‘लेकिन इस के साथ तो कोई अंगरेज लड़का है. बहूरानी जैसी तो कोई उस के साथ दिखाई नहीं दे रही.’’

अपना चश्मा ठीक करती पंडिताइन बोलीं, ‘‘वह क्या कोई साड़ीलहंगा पहन कर आएगी यहां. आजकल तो सारे एक जैसे ही कपड़े पहनते हैं. लड़का हो या लड़की, सब एक जैसे लगते हैं. पहननेओढ़ने में, चालढाल में, बातचीत करने में और फिर उस की बहू तो अंगरेज है. आजकल तो कई बार लड़के और लड़की में कोई फर्क पता ही नहीं लगता.’’

देखते ही देखते दोनों थोड़ा और पास आ गए. कमलदीप ने अपने मातापिता को इंतजार करते हुए देख लिया और भागते हुए उन के पास आ गया. अपने साथी को वहीं छोड़ कर ऊंचे स्वर में कमलदीप दूर से ही चिल्लाया, ‘‘हाय डैड, हाय मौम. व्हाट हैपैंड टू यू, लुक टु बी वैरी सीरियस. आर यू औल राइट मौम. कम औन, आई एम हियर,’’ और कहतेकहते कमलदीप रेलिंग से बाहर आ गया.

पिताजी का आशीर्वाद और मां का प्यार बांधे रहा उसे थोड़ी देर. धीरेधीरे लग रहा था कि कमलदीप कितना बदल गया है. एक सभ्य घराने का लड़का और बोलचाल में, पहनावे में और चालढाल में लड़कियों जैसी हरकत करता है तथा कूल्हे मटकाते हुए हिजड़ों जैसी चाल चलता है. उस का जिप्सियों जैसा पहनावा, अजीबअजीब से रंगीन छोटेबड़े, ऊंचेनीचे कपड़े, कानों में बालियां, हाथों में मोटे कड़े, रंगीन चूडि़यों के साथ और गले में रंगीन रस्सियों की माला जिस में तरहतरह के रंगबिरंगे पत्थर गुथे हुए थे.

पंडिताइन से रहा नहीं गया तो बोलीं कि यह क्या हुलिया बनाया हुआ है तू ने? यह लड़कियों वाला भेष बना कर आया है तू यहां. कमलदीप बोला, ‘‘अरे, क्या मौम आप का वही पुराना घिसापिटा सा कल्चर, यू नो दिस इज द यूनीसैक्स ड्रैस-लेटैस्ट इन फैशन. यानी लड़के हों या लड़कियां अब सभी एक सी ही ड्रैस से काम चला लेते हैं.’’

वैद्यजी कुछ झिझकते हुए से बोले, ‘‘बेटा…लेकिन लेटैस्ट में लड़का लड़की तो नहीं बन जाता या वह भी है?’’

‘‘ओ, डैड यू आर ग्रेट. यू सीम टू अंडरस्टैंड एवरीथिंग वैरी क्विकली.’’

माताजी से रुका नहीं जा रहा था अत: बात बीच में ही काटते हुए कुछ संकुचित सी हो कर बोलीं, ‘‘तू ने तो शादी कर ली है न. कहां है बहू, तू लाने वाला था न अपने साथ.’’

‘‘ओ यैस, आई विल गिव यू ए बिग सरप्राइज. आई एम ट्र ू टू माई वर्ड्स,’’ और कहतेकहते उस ने अपने साथी जैक को आवाज दी, ‘‘कम हियर एंड मीट दैम, शी इज माई मौम एंड मीट माई डैड.’’

पंडिताइन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बहू के नाम पर यह किस से मिला रहा है उन का बेटा.

सामने जैक खड़ा था. और वह भारतीय सभ्यता की नकल करता हुआ हाथ जोड़ते हुए बोला, ‘‘हाय, डैड एंड मौम. आई एम जैक, योअर सन इन ला.’’ लेकिन जब उस ने आगे कहा, ‘‘होप यू लाइक मी टु बी द हसबैंड औफ योर सन के.डी.’’ उस की बात को आगे बढ़ाते हुए डिटेल में समझाते हुए कमलदीप ने कहा कि हम ने 6 महीने पहले ही कैलिफोर्निया कोर्ट में शादी की है. इट इज ए कौंट्रैक्चुअल मैरिज और कौंट्रैक्ट के अनुसार, हर 6 महीने बाद हमारे रिश्ते यानी कि हसबैंड और वाइफ के रिश्ते बदल जाते हैं. यानी शादी के समय जैक मेरी पत्नी थी और मैं उस का पति लेकिन पिछले 2 हफ्ते से जैक मेरा पति है और मैं इस की पत्नी.

यह सब कमलदीप एक ही सांस में कह गया, अमेरिकन अंगरेजी के साथ हिंदी में भी. मातापिता को दोनों की बातें सुन कर बड़ा अटपटा सा लगा. क्या बोल रहा है यह, कहीं कोई मजाक तो नहीं कर रहा है? वैद्यजी बड़े असमंजस में थे कि पंडिताइन बोलीं, ‘‘देखा आप ने, कैसा मजाक कर रहा है यह मांबाप के साथ. अमेरिका में क्या रहा कि सारी शर्म, मानमर्यादा, बड़ों का सम्मान सभी कुछ खो दिया इस ने, पता नहीं इस को कि बड़ों से ऐसा मजाक नहीं करते. समझाइए इसे आप ही, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

वैद्यजी संभलते हुए बोले कि चलो, बहुत हो चुका मजाक, अब बताओ कि यह तुम्हारे साथ जैक कौन है, कहां से आया है और बहूरानी कहां है?

‘‘आई एम सीरियस डैड…आप क्या समझते हैं कि मैं आप से कोई मजाक करूंगा. दिस इज ट्रू, ही इज माई हसबैंड एंड आई एम हिज वाइफ सिंस लास्ट टू वीक्स. बिफोर दैट आई वाज हसबैंड एंड ही यूज्ड टु बी माई वाइफ,’’ कमलदीप यह सब कहता जा रहा था और वैद्यजी का पारा चढ़ता जा रहा था. चेहरा तमतमाने लगा, जिसे देख कर पंडिताइन ने भांप लिया कि कुछ गड़बड़ है जिसे वैद्यजी सहन नहीं कर पा रहे हैं. अत: पंडिताइन अपने पति का साथ देते हुए काफी उत्तेजित स्वर में बोलीं, ‘‘के.डी., ठीठीक क्यों नहीं बताता कि आखिर बात क्या है. पहेलियां बुझाना बंद कर और साफसाफ बता कि माजरा क्या है?’’

के.डी. हक्काबक्का सा सोच रहा था कि किन शब्दों में बताए इन को? पंडितजी के.डी. की बांह पकड़ कर पूरी ताकत से उसे झकझोरते हुए बोले, ‘‘यह नालायक क्या बताएगा तुम्हें, लड़की बन कर आया है तुम्हारे पास. यह कह रहा है कि जैक से उस ने शादी की है, वह इस का पति है और यह तुम्हारा लाड़ला इस की पत्नी.’’

पति के मुंह से यह सुनते ही पंडिताइन भी बौखला गईं और अपनी भरीभरी आवाज में चिल्लाईं, ‘‘बोलता क्यों नहीं कि यह सब झूठ है, क्या तू लड़का हो कर इस गधे की पत्नी बन कर रहेगा.’’

भारतीय संस्कृति और अपनी मर्यादा के लिए जब वैद्यजी से नहीं रहा गया तो उन्होंने आव देखा न ताव और बेटे के गाल पर जोर का तमाचा जड़ दिया. ‘व्हाई डिड यू हिट मी’ के साथ कमलदीप जोर से चीखा. चीख सुन कर जैक भी आवेश में बोला कि ‘‘हे मैन, हाऊ डेयर यू टच माई वाइफ एंड व्हाई दिस लेडी इज शाउटिंग एट हिम? यू हैव नो राइट टु स्कोल्ड हिम ऐंड बीट हिम, ही इज माय वाइफ.’’ इसी के साथ वह जोरजोर से चिल्लाने लगा.

शोरगुल में वहां भीड़ इकट्ठा हो गई. भीड़ देख कर एअरपोर्ट सिक्योरिटी प्रोटैक्शन फोर्स की पुलिस भी आ गई. इंस्पैक्टर ने झटपट कार्यवाही शुरू कर दी. भीड़ को तितरबितर किया तो बस 4 ही लोग बचे थे जिन के बीच झगड़ा था.

पूछताछ करने पर पता चला कि एक पक्ष मातापिता हैं जो अपने लड़के को डांट रहे हैं और अपने साथ ले जाना चाहते हैं. दूसरा पक्ष है 2 लड़के, जो विदेश से आए हैं. एक लड़का भारतीय, जिस के माता- पिता मौजूद हैं और दूसरा लड़का विदेशी, जो पहले लड़के को अपनी पत्नी बता रहा है और मातापिता पर जबरदस्ती उस को अपने साथ ले जाने का यानी अपहरण का आरोप लगा रहा है जबकि मातापिता का कहना है कि विदेशी लड़का बहलाफुसला कर उन के बेटे को अपनी पत्नी होने का दावा कर के उसे अपने साथ चलने को मजबूर कर रहा है और उन के बेटे का अपहरण करना चाहता है. बेटा है कि चुप खड़ा, कुछ बोलता ही नहीं.  पुलिस का मानना था कि किसी की पत्नी को जबरदस्ती पति से अलग करना और ले जाना अपहरण (किडनैपिंग) के अंतर्गत संगीन अपराध है. अत: सभी को गिरफ्तार कर लिया गया और दोनों पक्षों को अलगअलग कोठरी में बंद कर दिया गया. वैद्यजी और पंडिताइन को एक कोठरी में और दोनों लड़कों को अलगअलग दूसरी तथा तीसरी कोठरी में. रात ढल रही थी, बोल दिया गया कि सुबह 10 बजे डीसीपी साहब के सामने सभी को पेश किया जाएगा.

पूछताछ के दौरान बताया गया कि भारतीय कानून की धारा 377 के अधीन एक ही सैक्स के 2 वयस्क चाहे वे 2 लड़के या 2 लड़कियां हों, आपस में संभोग नहीं कर सकते हैं. जैक ने अपना पासपोर्ट और मैरिज सर्टिफिकेट दिखाया और कहा कि हम लोगों ने कैलिफोर्निया में शादी की है और वहां का कानून इस शादी को पूर्णत: मान्यता देता है और वे लोग भारतीय कानून के अंतर्गत नहीं आते.

जैक का पलड़ा भारी था. डीसीपी ने कमलदीप का अलग से इंटरव्यू लिया, डांटा भी, समझाया भी कि क्यों भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ा रहे हो? लेकिन उस ने एक न मानी. डीसीपी साहब मजबूर थे. मातापिता को बुला कर साफसाफ बता दिया कि इन दोनों लड़कों पर भारतीय कानून लागू नहीं होता और भारतीय पुलिस को विदेशी नागरिकों को उन के देश के कानून के तहत सुरक्षा देना जरूरी है. अत: वे या तो राजीनामा लिख कर और माफी मांगते हुए अपने घर वापस जाएं अन्यथा सभी को अदालत में  पेश कर के मुकदमा चलाया जाएगा.

मातापिता ने आपस में सलाह की कि जब अपना ही सिक्का खोटा है तो दूसरे का क्या दोष और माफीनामा लिख बेटे को उस के हाल पर छोड़ दिया. लौट आए वापस अपने घर, अपना सा मुंह ले कर, मातम सा माहौल बन गया घर में. शाम के वक्त अपने समाज के कुछ खास मिलने वालों को बेटेबहू से मिलाने के लिए न्योता भी दे चुके थे पर सभी को यह कह कर टाला कि उन का कार्यक्रम रद्द हो गया है. किसी जरूरी काम से उन्हें रुकना पड़ा और वे लोग नहीं आ पाए.

पहली बार वैद्यजी को लगा कि उन्होंने अपनी इज्जत बचाने के लिए सचमुच झूठ बोला, झूठ का सहारा लिया. कितना व्याकुल हो रहा था उन का अंतर्मन कि एक सच को छिपाने के लिए झूठ का सहारा लेना पड़ा.

वैसे तो कई मामलों में कई बार झूठ बोलना पड़ता है लेकिन आज का झूठ उन से सहन नहीं हो पा रहा था. बेटे के प्यार और लगाव के कारण अंतर्मन में एक द्वंद्व सा चल रहा था. मातापिता का प्यार रोष में परिवर्तित हो रहा था. एक तरफ था मां का ममत्व और दूसरी तरफ था पिता का प्यार, जो अपने बेटे को अपने से ज्यादा उन्नत तथा प्रगतिशील इंसान के रूप में देखना चाहते थे जिस में खुद की योग्यता के सहारे, अपनेआप से दुनिया में हर तरह की विपदाओं को पार करते हुए समाज में अपना एक अस्तित्व बनाने की क्षमता हो. इसी परेशानी से जूझते हुए मातापिता रात भर सो नहीं पाए.

दोनों सोचते रहे, किसी के मरने पर सिर्फ मौत का ही गम होता है, मगर इज्जत तो नहीं जाती. यहां तो इज्जत का, अपनी संस्कृति का, अपनी मानमर्यादा का बखेड़ा खड़ा हुआ है. अगर शहर में किसी को भी पता चले तो समाज में वे क्या मुंह दिखाएंगे? क्या बहाना करें, कैसे टालें इस बात को, कैसे बचाएं अपनी इज्जत को? बस, यही सोचतेसोचते सवेरा हो गया.

सुबह की दिनचर्या शुरू हुई और दोनों के लिए सुबह की चाय तथा आज के ताजा अखबारों का पुलिंदा बरामदे में चटाई पर रखा था. पंडितजी आ कर बैठ गए. चश्मा लगाया और चाय का प्याला उठाया. अखबारों का पुलिंदा खोलते हुए मुख्य पेज की हैडलाइन पर नजर पड़ी कि धारा 377 के खिलाफ देश के सभी महानगरों में खुद को एल.जी.बी.टी. मानने वाले लोग एकजुट हो कर विशाल प्रदर्शन के साथ रैली निकाल रहे हैं और कल 28 जून, रविवार को भारत की राजधानी दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन आयोजित किया जा रहा है जिस में एल.जी.बी.टी. के सभी सदस्य देश के विभिन्न शहरों तथा विदेशों से भारी संख्या में एकत्रित हो कर विशाल रैली का आयोजन कर रहे हैं. यह रैली इंडिया गेट से चल कर राजपथ, जनपथ होते हुए संसद मार्ग स्थित जंतरमंतर पर आएगी और यहां से संसद भवन के सामने प्रदर्शन होगा और मांगें रखी जाएंगी.  इस ऐतिहासिक रैली का नेतृत्व कैलिफोर्निया से आई युवा जोड़ी करेगी. के.डी. जोकि कैलिफोर्निया में भारतीय प्रवासी हैं और उन के पति जैक जो स्वीडन से हैं. दोनों ने कैलिफोर्निया में शादी की है और पतिपत्नी के रूप में रह रहे हैं.

काफी देर तक पंडितजी अखबारों को उलटपलट कर देखते रहे. तभी पंडिताइन भी आ पहुंचीं और बोलीं कि आज के अखबार में ऐसा क्या ढूंढ़ रहे हैं कि आप को इतनी आवाजें दीं पर आप ने कोई जवाब नहीं दिया.

थोड़ा उत्तेजित हो कर वैद्यजी बोले, ‘‘देखो, तुम्हारा बेटा क्या गुल खिला रहा है. पत्नी बन कर लौटा है विदेश से अपने पति के साथ. बस, इसी का ढिंढोरा पीटने आया है यहां. कल दिल्ली में इन दोनों के नेतृत्व में एक विशाल रैली का आयोजन किया जा रहा है. इन की मांग है कि 2 वयस्कों के बीच चाहे दोनों लड़के हों या लड़कियां, आपस में यौन संबंधों को तथा शादी करने के अधिकारों को मान्यता देनी होगी और धारा 377 को कानून की किताब से हटाना होगा. इन का मानना है कि 2 वयस्कों के बीच किसी भी प्रकार की सैक्स क्रियाएं तथा यौन संबंधों के खिलाफ किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही नहीं होनी चाहिए.

‘‘2 जुलाई को दिल्ली उच्च न्यायालय में इसी मामले में इन की याचिका पर सुनवाई होगी, जिस के लिए देश के मान्यताप्राप्त वकीलों को इन के हक में पैरवी करने के लिए बुलाया जा रहा है. इन का मानना है कि भारत को अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारते हुए दुनिया के अग्रसर देशों की पंक्ति में खड़े हो कर, दुनिया में अपनी एक नई पहचान बनाते हुए 100 साल से ज्यादा पुरानी कानूनी धारा 377 को मिटाना होगा.

‘‘आधुनिक युग में देश की युवा पीढ़ी पर सैक्स क्रियाएं तथा आपसी यौन संबंधों को ले कर किसी प्रकार के भय के दायरे में रहना बहुत भारी मानसिक दबाव है और यह मानव अधिकार के विरुद्ध भी है तथा देश की उन्नति के लिए बहुत बड़ी रुकावट है. आज की युवा पीढ़ी को चाहिए पूर्ण स्वतंत्रता अपने विचारों की, सोच की, काम करने की, जीने की और आगे बढ़ने की.’’

वैद्यजी घूरती निगाहों से पंडिताइन को देखते हुए आगे बोले, ‘‘देख लो, अपने लाड़ले को. हम ने तो उसे अमेरिका पढ़ने के लिए भेजा था कि यहां आ कर अपना कुछ बड़ा काम करेगा. बड़ा आदमी बनेगा, कुछ नाम रोशन करेगा और हमारा नाम भी रोशन होगा. हां, बड़ा आदमी तो नहीं बन सका, वहां जा कर पत्नी बन कर जरूर आ गया और नाम तो रोशन कर ही रहा है, सारे अखबारों में उस की चर्चा छपी है.’’

सुबहशाम खाली समय में यही चर्चा   का एक मुद्दा था. तरहतरह के  सवाल भी उठते रहे और सारा इतिहास भी चर्चित होता रहा. धीरेधीरे दिमाग से रूढि़वादिता के परदे उठने शुरू हुए जब चर्चा चली कि महाराज दशरथ की 3 रानियां थीं, द्रौपदी के 5 पति, कृष्ण की अनेक प्रेमिकाएं. शादी तो की रुक्मिणी से और अपने साथ रखा राधा को. सारी दुनिया के सामने खुलेआम आज भी चर्चा राधा और कृष्ण की होती है. रुक्मिणी और उन के बच्चों के बारे में किस को कितना मालूम?

वात्स्यायन का कामसूत्र, अजंताएलोरा की गुफाओं में विभिन्न मुद्राओं में सामूहिक संभोग की विभिन्न क्रियाओं का खुलेआम जनता के लिए सचित्र प्रदर्शन. वेश्यावृत्ति का प्रचलन तो सदियों से चला आ रहा है. वैशाली की नगरवधू, आम्रपाली, चित्रलेखा, वसंतसेना…आदि न जाने कितने ही नाम लीजिए, जिन्हें राजनर्तकियों का सम्मान प्राप्त था.

समाज तो जनता का समूह है. समाज के कर्ताधर्ता समाज के माननीय कर्णधार जब अपनी हवस मिटाने के लिए किसी भी तरह का कोई असामाजिक काम कर बैठते हैं तो उन के विरुद्ध कौन आवाज उठाने की हिम्मत करे? बल्कि समाज के लिए वही एक नया प्रचलन शुरू हो जाता है और बस, धीरेधीरे समाज के लोग भी उन्हीं पदचिह्नों पर चलते हुए इसे सामाजिक पद्धति का हिस्सा मानने लगते हैं.

यहां तक कि पुराने जमींदार तो किसी मनचाही स्त्री को उठवा लेते थे और बाद में सलामती के साथ उसे घर भेज देते थे. घर वालों को थोड़ा सा मेहनताना दे देते थे और यदि कहीं किसी ने धौंस दिखाई तो तबाही का रास्ता अपना लेते थे. पहले जमाने में क्याक्या जुल्म नहीं होते थे. मजाल थी किसी की कि परदे से बाहर निकले और बोल दे किसी के सामने. भेड़बकरियों की तरह औरतों से भरे होते थे राजामहाराजाओं तथा रईसों के हरम. कानून भी तो जनता के लिए कम, हुकूमत के लिए ज्यादा काम करता है.

गंभीर हो गए दोनों कि बातें कहां से चलीं और क्या मोड़ ले बैठीं. ऐसी ही होती हैं बातें. ज्यादा बातें बस, बाल की खाल. कहीं से शुरू और पता नहीं किसकिस को लपेट लें. खैर, सोचविचार और सभी बातों का निष्कर्ष यही निकला कि आज जो भी कुछ हो रहा है, कोई नया तो है नहीं. ये सब क्रियाएं तो सदियों से चली आ रही हैं. बस, समय और जरूरत के अनुसार तरीके बदल रहे हैं. इसी तरह सामाजिक प्रचलन भी बदलता रहता है.

रोजाना अखबारों में तरहतरह के लेख छपने लगे. जैसे किसी सामाजिक बदलाव के लिए एक अभियान चालू हो गया हो. अलगअलग अखबारों में विज्ञापन तथा समीक्षाएं आती रहीं. वीमन लिबरेशन, फ्री सैक्स, लिव इन रिलेशन- शिप, यूनिसैक्स सैलून तथा ड्रैसेज, गे टूरिज्म, गे-कल्चर आदि. 2 जुलाई को सभी अखबारों में रेडियो और टैलीविजन के लगभग सभी चैनलों पर दिल्ली उच्च न्यायालय के एल.जी.बी.टी. के हक में फैसले की समीक्षा के अलावा इस पर पक्षविपक्ष के वादविवाद भी चलते रहे.

दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार अब किसी भी प्रकार की सैक्स क्रियाएं कानून के दायरे से बाहर हैं. अगले दिन 3 जुलाई के अखबारों में एक ही चर्चा थी. देश के सभी महानगरों में एल.जी.बी.टी. के सदस्य और उन के समर्थक उल्लास प्रदर्शित करते रहे. जगहजगह जुलूस निकाले गए.

एल.जी.बी.टी. की अलगअलग शाखाओं में रात भर उन के सदस्य अपनी स्वतंत्रता का जश्न मनाते रहे. सब से ज्यादा चर्चा का विषय था कमलदीप और उस का पति जैक. सभी अखबारों में इन दोनों के दांपत्य जीवन के बारे में लेख प्रकाशित हुए. इस युवा जोड़ी को सब की सहमति से समाज के इस ऐतिहासिक बदलाव का हीरो मान लिया गया. हर चैनल पर उन दोनों का इंटरव्यू दिखाया जा रहा था. इन का कहना है कि दुनियाभर के ज्यादातर विकसित देशों ने 2 वयस्कों को चाहे वे दोनों लड़के हों या लड़कियां, आपस में मरजी से साथ रहने की और शादी करने की मान्यता दी हुई है. अत: हमारा अभियान अभी पूरा नहीं हुआ. इस के लिए देश के ब्याहशादी के कानून में बदलाव जरूरी है. अत: इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए एल.जी.बी.टी. के कार्यकर्ता एक घोषणापत्र जारी करेंगे जिस की ड्राफ्ंिटग की जा रही है और शीघ्र ही इस के अनुसार कार्यवाही चालू की जाएगी. सामने बैठे एक चैनल के प्रतिनिधि ने आगे के कार्यक्रम तथा कार्ययोजना पर उन से संक्षिप्त में प्रकाश डालने का आग्रह किया.  कमलदीप और जैक ने एकदूसरे के साथ भाषा तथा विचारों का तालमेल जोड़ते हुए अपनी संस्था की कार्यप्रणाली की समीक्षा कुछ इस प्रकार की :

एल.जी.बी.टी. का पहला कार्यक्रम है, जन जागरूकता अभियान. सभी एल.जी.बी.टी. के सदस्य अपनेअपने क्षेत्रों में सामाजिक कार्यों को बढ़ावा देते हुए जनता के हृदय से रूढि़वादिता का सामाजिक भय समाप्त करेंगे.

दूसरा प्रोग्राम है, दहेज प्रथा की समाप्ति. सभी महानगरों में एल.जी.बी.टी. हौस्टल बनाए जाएंगे जहां शादी से पहले लिव इन रिलेशन के तहत बाहर से आए लड़के और लड़कियों को अपने मनचाहे साथी के साथ रहने की सुविधा होगी. इस तरह सामाजिक जानकारी तथा आपस में विचारों का आदानप्रदान करते हुए अपने जीवनसाथी का वे स्वयं ही चुनाव कर सकेंगे, बिना किसी रोकटोक अथवा दानदहेज के. संस्था के द्वारा कौंट्रैक्चुअल शादी का प्रयोजन तथा सहायता भी उपलब्ध कराई जाएगी.

तीसरा उद्देश्य है, तलाक के मामलों में कटौती. युवाओं के साथसाथ रहने के बाद भी शादी के गठबंधन को स्वीकार या अस्वीकार करने की छूट. कौंट्रैक्चुअल शादी के प्रचलन से अदालतों के फैसले का जीवन भर इंतजार नहीं करना होगा जिस से वकीलों की भारी फीस तथा जीवन का एक अमूल्य भाग नष्ट होने से रोका जा सकेगा. साथ ही संस्था की काउंसलिंग शाखा द्वारा आपस में मेलजोल व समन्वय का माहौल बना रहेगा. युवा पीढ़ी अपने साथ कामकाज तथा कैरियर की ओर ज्यादा ध्यान देगी. उस पर मानसिक दबाव कम होने से देश की कार्यप्रणाली का विकास होगा.

चौथा उद्देश्य है, हर बड़े शहर में एल.जी.बी.टी. क्लबों की स्थाप. यहां पर आधुनिक सैक्स शिक्षा का प्रावधान होगा. सुरक्षित सैक्स तथा अलगअलग सैक्स क्रियाओं के बारे में वीडियो कौन्फ्रैंस के माध्यम से शिक्षा दी जाएगी.

एड्स या एचआईवी जैसी घातक बीमारियों की रोकथाम तथा एम.एम. सैक्स, डब्ल्यू.एम. सैक्स, डब्ल्यूडब्ल्यू सैक्स, बाई सैक्स और ट्रांस सैक्स के अलावा पी.वी. सैक्स, ऐनल सैक्स, ओरल सैक्स तथा रौबोटिक एवं आर्टीफिशियली असिस्टेड सैक्स आदि के बारे में भी ज्ञानार्जन की सुविधा होगी. इस के साथसाथ हमारे हैड औफिस में एक विंग की स्थापना करते हुए कामसूत्र जैसे ग्रंथों को अपग्रेड किया जाएगा. इस अपग्रेडेशन से आधुनिक सैक्स क्रियाओं का सचित्र विवरण सामने आएगा.

हमारा पांचवां उद्देश्य, डी.आई.एन.के. यानी ‘डबल इनकम एंड नो किड’ को बढ़ावा देते हुए देश की बढ़ती जनसंख्या की रोकथाम तथा भुखमरी की समाप्ति. ‘फ्री सैक्स’, ‘लिव इन रिलेशनशिप’, ‘गे’ तथा ‘लेस्बियन’ विवाह आदि के प्रचलन से प्राकृतिक प्रजनन में कमी आ जाएगी. ऐसी युवा जोडि़यों की आमदनी दोगुनी होगी और बच्चों का भार भी उन के ऊपर नहीं होगा.

फिर भी ऐसी युवा जोड़ी अगर शादी के बाद या बिना शादी के भी अपना घर बसाने के लिए बच्चे चाहेंगी तो वे अनाथ आश्रमों से अथवा भिखारियों के बच्चों को गोद ले सकेंगे, जिस से गरीब परिवारों का आर्थिक संकट दूर होगा और बिना मांबाप के बच्चों का सही ढंग से लालनपालन तथा उन की पढ़ाईलिखाई ठीक से हो सकेगी. ऐसे बच्चे समाज के साथ देश के सुदृढ़ नागरिक बन सकेंगे. इस तरह देश के भावी कर्णधारों को उच्चस्तर के परिवार में रहनसहन के अवसर प्राप्त होंगे. इस से देश का आध्यात्मिक, आर्थिक, वैज्ञानिक तथा व्यापारिक क्षेत्र में विकास होगा.

इन सब गतिविधियों को देखते हुए तथा समाज के बदलते हुए चलन को समझते हुए मातापिता यानी पंडिताइन और वैद्यजी का मानसिक दबाव कुछ कम होना शुरू हुआ. शाम तक समाज के लोग उन के घर आने शुरू हो गए और मातापिता को उन के होनहार बेटे के लिए बधाई देते रहे. मातापिता चुपचाप तमाशा देख रहे थे, समझ में नहीं आया कि ये सब उन का मजाक उड़ा रहे हैं या वास्तव में उन का बेटा हीरो बन चुका है.

धोखा: जब रश्मि का प्यार रोहन बना शादी के बाद अनजाना

हमेशाखुद भी खुश रहने वाली तथा औरों को भी खुश रखने वाली रश्मि को न जाने आजकल क्या हुआ है कि हमेशा खोईखोई सी रहती, पूछने पर टाल जाती.  आखिर जब मुझ से रहा न गया तो एक दिन मैं उसे पकड़ कर बैठ गई और फिर पूछा, ‘‘रश्मि, आज मैं तुझे छोड़ने वाली नहीं, बता न आखिर हुआ क्या है?’’

‘‘कुछ भी नहीं कविता, तू तो यों ही परेशान हो रही है.’’

‘‘कुछ तो हुआ है, तू बताती क्यों नहीं? देख आज मैं तुझे छोड़ने वाली नहीं.’’

‘‘जाने भी दे… अपने लिए मैं किसी को दुखी नहीं करना चाहती,’’ रश्मि ने कुछ उदास स्वर में कहा.

‘‘रश्मि, तू मुझे अब अपना नहीं मानती, ऐसा लगता है. देख हमारी दोस्ती आज की नहीं है और मरते दम तक हम दोस्त रहेंगे.’’

‘‘वह तो है.’’

‘‘देख अपना दुख मुझे नहीं बताएगी तो किसे बताएगी?’’ उस के कंधे पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा.

‘‘हां, तुझ से तो बताना पड़ेगा वरना मेरा दम घुट जाएगा,’’ रश्मि बोली, ‘‘तू तो जानती है कि क्या कुछ नहीं गुजरा मुझ पर परंतु वक्त का खेल समझ कर सब स्वीकार करती रही. रोहन 2 बच्चे दे कर मुंह मोड़ गया और दूसरी शादी कर ली. मैं ने सह लिया. सब रिश्तेदार 1-1 कर के चले गए. किसी ने भी यह नहीं सोचा कि मैं अपने 2 बच्चों के साथ कैसे जीऊंगी? क्या करूंगी? वह तो भला हो नेहा का जिन्होंने अपने पति से कह कर मुझे यह नौकरी दिलवा दी और मेरे घर की गाड़ी चल पड़ी.’’

‘‘यह तो मैं भी जानती हूं और तेरे साहस की मिसाल मैं ही नहीं, बल्कि जितने भी परिचित हैं, सब देते हैं,’’ मैं ने उसे सहारा देते हुए कहा, ‘‘पर अब जब सब कुछ ठीक हो गया, फिर तेरी उदासी की बात समझ में नहीं आ रही. इतना सब कुछ सहते हुए भी तूने अपना जीवन बड़ी जिंदादिली से जीया ही नहीं, उस के हर पल को महसूस भी किया,’’ मैं ने कहा, ‘‘अपने बच्चों के कैरियर को बहुत ऊपर पहुंचाया. यही नहीं कालोनी में अच्छी इज्जत भी कमाई. अब तो सब ठीक है, फिर क्या बात है?’’

‘‘तू ठीक कह रही है पर एक बात तो है न कि कब्र का हाल मुरदा ही जानता है,’’ उस ने कुछ हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छा ऐसा क्या है? देख बहुत देर हो गई अब रुक मत.’’

रश्मि खयालों में खो गई. मानो उस का जीवन उस के सामने चलचित्र की तरह घूम रहा हो…

रोहन का उस की जिंदगी में आना… वह उस की तरफ यों खिंचती चली गई जैसे पतंग के साथ डोर. दुनिया के रिवाज सब उस के लिए बेमानी हो गए थे. मम्मीपापा ने कितना डांटा था. जमाने की ऊंचनीच सब समझाई थी. पर वह तो जैसे दीवानी हो गई थी जैसे ही मोबाइल की घंटी बजती बस उसे रोहन ही दिखाई देता और वह पागलों की तरह दौड़ी चली जाती. पापा गुस्सा होते, मम्मी अपना वास्ता देतीं, पर उस के लिए सब बेकार था सिवा रोहन के.  एक दिन जब वह रोहन से मिलने जा रही थी तो पापा ने डांटते हुए कहा, ‘‘तुम नहीं मानोगी… क्या है उस आवारा लफंगे में जो तुम्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा?’’

‘‘पापा मैं उस से बहुत प्यार करती हूं और उस के बिना नहीं रह सकती.’’

‘‘बहुत पछताओगी तुम… बेटा मान जाओ वह अच्छा लड़का नहीं है,’’ पापा ने समझाते हुए कहा.

‘‘पापा वह मेरी जिंदगी है,’’ रश्मि जिद करते हुए बोली.

‘‘तो खत्म कर दो अपनी जिंदगी,’’ झल्लाते हुए पापा बोले.

‘‘क्या कह रहे हो जी? कुछ भी हो रश्मि हमारी इकलौती बेटी है,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘उसी का तो फायदा उठा रही है… पर जीते जी कैसे कुएं में धकेल दें अपनी बेटी को?’’

‘‘पापा कुछ भी हो मैं रोहन से ही शादी करूंगी.’’

‘‘तो फिर अपना चेहरा हमें कभी न दिखाना,’’ पापा क्रोध से बोले.

‘‘ऐसा मत कहो मैं अपनी बेटी के बिना नहीं रह सकूंगी,’’ मम्मी ने सिसकते हुए कहा.

‘‘चुप रहो. तुम्हारे ही लाड़ का नतीजा हमें भुगतना पड़ रहा है,’’ पापा गरजते हुए बोले. और रश्मि सब को अनदेखा कर रोहन के साथ चली गई. बाद में पता चला कि दोनों ने शादी कर ली है और झांसी में बस गए हैं. भानू प्रताप ने अपने सीने पर पत्थर रख लिया परंतु उन की पत्नी चंद्रिका बेटी की याद में बीमार पड़ गईं और एक दिन उस की याद को अपने साथ लिए दुनिया से विदा हो गईं.   उधर रश्मि रोहन के साथ बहुत खुश थी. लेकिन जब उसे अपने मातापिता की  याद आती तो उदास हो जाती. शुरूशुरू में रोहन उस का बहुत ध्यान रखता था. समय के साथ वह 1 बेटी और 1 बेटे की मां बन गई.

कुछ दिनों से रश्मि नोट कर रही थी कि रोहन अब उस का उतना ध्यान नहीं रखता जितना पहले रखता था. कुछ दिन तो इसे हलके में लिया. सोचा शायद काम का बोझ ज्यादा है, परंतु फिर यह रोज का नियम बन गया.

‘‘रोहन, आजकल तुम बहुत व्यस्त रहने लगे हो,’’ रश्मि ने कुछ उदास हो कर कहा.

‘‘भई घर चलाना है तो काम तो करना ही पड़ेगा,’’ रोहन ने कहा.

‘‘काम तो पहले भी होता था, पर आजकल कुछ ज्यादा हो रहा है क्या?’’

रोहन टाल कर चला गया. पर आज रश्मि ने इसे कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लिया. अब तो रात को भी देर से आना रोहन का नियम बन गया था. रश्मि पूछने की कोशिश करती तो झगड़ा होने लगता.  उस दिन तो हद ही हो गई… उस की सहेली आई थी. मुसकराते हुए रश्मि ने पहले तो परिचय कराया, ‘‘रोहन, यह मेरी सहेली है. शिमला से आई है. यहां इसे कुछ काम है. करीब हफ्ता भर रहेगी.’’

‘‘रश्मि यह मेरा घर है कोई धर्मशाला नहीं जो कोई भी यहां आ कर रहे.’’

रश्मि देखती रह गई.

‘‘रोहनजी आप चिंता न करें मैं मैनेज कर लूंगी,’’ शालिनी ने कहा.

‘‘अरे नहीं, मैं तो मजाक कर रहा था,’’ रोहन ने हंसते हुए कहा.  सब ने इसे मजाक में ले लिया, पर रश्मि नहीं जानती थी कि उस ने अपने लिए कितनी

बड़ी खाई खोद ली है. जो रोहन रोज देर रात आता था, वह शाम की चाय घर में ही पीने लगा. शुरू में तो रश्मि खुश हुई. पर फिर धीरेधीरे उसे समझ में आने लगा कि रोहन उस के लिए नहीं बल्कि शालिनी के लिए जल्दी आता है. चाय पीने के बाद दोनों ही किसी न किसी बहाने निकल जाते. कभी बाहर से खाना खा कर आते कभी उसे आदेश दे कर बनवाते.

‘‘मम्मी, ये आंटी और कितने दिन रहने वाली हैं?’’ एक दिन रश्मि के बेटे शलभ ने पूछा.

‘‘क्यों बेटे, आंटी से तुम्हें क्या तकलीफ है?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘मम्मी जब देखो आप आंटी की सेवा में लगी रहती हो जैसे वे कोई नवाब हों,’’ शलभ ने कुछ चिढ़ते हुए कहा.

‘‘हां मम्मी और वे तो कोई काम नहीं करतीं. बस पापा से बातें करती रहती हैं जैसे वे ही इस घर की मालिक हों.’’

‘‘बेटा ऐसा नहीं कहते. वे मेहमान हैं, उन्हें कुछ काम है यहां. जब हो जाएगा तो चली जाएंगी,’’ रश्मि ने बच्चों को तो दिलासा दे दिया, किंतु अपने को न समझा सकी. सारी रात बड़ी बेचैनी में काटी और फैसला किया कि सुबह शालिनी और रोहन से बात करेगी.

दूसरे दिन सुबह जब सब नाश्ता कर रहे थे तो रश्मि ने रोहन से कहा, ‘‘सुनिए, मेरे खयाल में अब तो काफी दिन हो चुके हैं, अगर शालिनी का काम बाकी है तो वह किसी गर्ल्स होस्टल में इंतजाम कर लेगी?’’

‘‘क्यों ऐसी भी क्या जल्दी है?’’ रोहन ने कहा.

‘‘बात कुछ नहीं बस बच्चों के ऐग्जाम सिर पर हैं… उन की पढ़ाई नहीं हो पा रही… फिर मेहमान कुछ दिन के ही अच्छे होते हैं.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो रश्मि? क्या शालिनी से यह सब कहते ठीक लगेगा? फिर एक तो वह तुम्हारी सहेली है… इस नए शहर में कहां जाएगी?’’

‘‘कहीं भी जाए या कहीं भी इंतजाम करे यह हमारी सिरदर्दी नहीं,’’ रश्मि ने कुछ झल्ला कर कहा.

‘‘ठीक है कुछ दिन और देखो या तो वह कोई इंतजाम कर लेगी या फिर मैं  ही उस का कोई इंतजाम कर दूंगा. तुम परेशान न हो,’’ रोहन उसे दिलासा दे कर औफिस चला गया.  रोहन का सारा दिन उधेड़बुन में बीता. अब उसे शालिनी का साथ अच्छा लगने लगा था. वह उस के बिना नहीं रहना चाहता था, परंतु रश्मि का क्या इलाज किया जाए? बहुत सोचने के बाद रोहन ने एक उपाय सोचा. उस ने शहर से बाहर बनी नई कालोनी में एक मकान किराए पर लिया और उस में शालिनी को शिफ्ट कर दिया.

एक बार को शालिनी हिचकिचाई. कहा, ‘‘रोहन, क्या यह ठीक होगा?’’

‘‘देखो शालिनी तुम्हारा कोई नहीं है और अब न ही मैं तुम्हारे बिना रह सकता हूं. तुम बताओ क्या तुम मेरे बिना रह पाओगी? इतने दिन साथ गुजारने के बाद क्या हम दोनों को एकदूसरे की आदत नहीं हो गई है?’’

‘‘यह तो ठीक है, परंतु रश्मि और बच्चे. ऊपर से यह समाज क्या हमें जीने देगा?’’ शालिनी कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘देखो शालिनी अब मेरीतुम्हारी बात बहुत बढ़ गई है. अब न तो मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं और न ही तुम्हारे बिना रह सकता हूं. तुम्हारी तो तुम ही जानो पर मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि तुम्हारे विचार भी यही हैं.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, परंतु रश्मि मेरी सहेली है और उस के साथ यह अन्याय होगा.’’

‘‘तुम्हें अब सिर्फ अपने और मेरे बारे में सोचना है शालिनी,’’ रोहन ने बात खत्म करते हुए कहा, ‘‘अब देखो इस शहर में कितने ही लोगों से तुम्हें मिलवा दूंगा, जिन्होंने न सिर्फ 2-2 शादियां कर रखी हैं वरन दोनों निभा भी रहे हैं.’’

‘‘परंतु लोग क्या कहेंगे?’’ शालिनी बोली.

‘‘देखो शालिनी, अब तुम कुछ मत सोचो. सोचो तो सिर्फ अपनी नई जिंदगी के बारे में.’’  रोहन की बात सुन कर शालिनी ने उस से सोचने के लिए 2 दिन का समय मांगा.

‘‘ठीक है, मैं चलता हूं. तुम्हारी जरूरत का सारा सामान यहां है.’’  रोहन घर पहुंचा तो रश्मि और बच्चे उसे अकेला देख कर बहुत खुश हुए. उन्होंने सोचा कि शालिनी चली गई है अपने शहर.

रश्मि ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘आज अकेले? क्या शालिनी वापस चली गई?’’

रोहन चुप रहा और अपने कमरे में कपड़े चेंज करने चला गया. रश्मि कुछ सोचती रह गई. जब वह वापस आया तो रश्मि ने फिर दोहराया, ‘‘आप ने बताया नहीं कि शालिनी वापस चली गई क्या?’’  ‘‘देखो रश्मि, तुम ने चाहा कि शालिनी यहां से चली जाए और वह चली गई. अब वह कहां गई और क्यों गई, इस से तुम्हें मतलब नहीं होना चाहिए. रहा मेरे जल्दी आने का प्रश्न तो आज मैं यह फैसला कर के आया हूं कि अब मैं शालिनी से शादी कर रहा हूं. तुम साथ रहोगी या अलग यह फैसला तुम्हें करना है.’’  रश्मि और बच्चे यह सुन कर हैरान रह गए.

‘‘तुम्हें पता भी है कि तुम क्या कह रहे हो?’’ रश्मि ने लगभग चीखते हुए कहा. दोनों बच्चे शलभ और रीतिका डर गए. तभी रश्मि को लगा कि उन्हें बच्चों के सामने ये सब बातें नहीं करनी चाहिए. अत: उस ने सामान्य होने की कोशिश की और बच्चों से कहा, ‘‘बेटा, आप अपने कमरे में जा कर पढ़ाई करो.’’

अब बच्चे इतने भी छोटे नहीं थे कि वे अपनी मां की बात न समझ सकें. दोनों  सिर झुकाए अपने कमरे में चले गए.  ‘‘हां, अब बताओ कि तुम क्या कह रहे थे? तुम्हें शालिनी से शादी करनी है? तुम इतनी बड़ी सजा मुझे कैसे दे सकते हो? सिर्फ तुम्हारे कारण मैं अपने मातापिता और घरपरिवार को छोड़ कर आई थी.’’

‘‘हां तुम आई थीं पर यह फैसला भी तुम्हारा था. फिर मैं कब मना कर रहा हूं, क्या बिगड़ जाएगा अगर शालिनी भी हमारे साथ रहे?’’ रोहन ने कहा.  ‘‘यह कभी नहीं हो सकता रोहन, तुम मुझे इतना बड़ा धोखा नहीं दे सकते.’’

‘‘धोखा, जो धोखा करता है उसे धोखा ही तो मिलता है. यही दुनिया का सत्य है. तुम ने भी तो अपने मातापिता को धोखा दिया था. तुम्हारी मां असमय गुजर गईं. वे क्या जी पाईं और पिताजी? वे भी जैसे जी रहे हैं वह जीना नहीं होता. क्या तुम ने उन के लिए सोचा? आज बात करती हो धोखे की.’’

‘‘उस की वजह भी तुम थे रोहन… तुम ने तो मुझे न घर का छोड़ा और न घाट का,’’ रश्मि ने सिर थामते हुए कहा.

‘‘अब यह फैसला तुम्हारा है रश्मि तुम साथ रहो या अलग. हां यह जरूर है कि तुम्हारे और बच्चों के खर्च का पैसा मैं तुम्हें देता रहूंगा,’’ रोहन ने कहा.

‘‘बस करो रोहन… तुम क्या दोगे, जाओ आज मैं ने तुम्हें शालिनी दी, तुम्हारा नया घर, नई पत्नी, तुम्हें मुबारक… मुझे तुम से कुछ नहीं चाहिए. चले जाओ यहां से अभी इसी वक्त,’’ रश्मि ने चिल्ला कर कहा तो रोहन चला गया.  रश्मि की आंखों के सामने सब कुछ घूमने लगा. उस की बनाई दुनिया, उस का घर, उस के सपने सब कुछ भरभरा कर ढह गया.  तभी बिल्ली ने कूद कर फ्लौवर पौट गिरा दिया तो रश्मि की तंद्रा भंग हुई.

‘‘फिरफिर क्या हुआ रश्मि,’’ मैं ने पूछा.

‘‘होना क्या था रोहन मुझे अधर में छोड़ कर चला गया और आज मैं अपने बच्चों के साथ अकेले जिंदगी गुजार रही हूं. सारे दुख, सारा अकेलापन अपने अंदर समेटे चलती जा रही हूं बस.’’

‘‘परंतु कब तक?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जब तक जीवन है… न मैं हारूंगी, न रोहन के पास जाऊंगी और न ही अपने पिता के पास.’’

‘‘चल जाने भी दे. जब भी कभी तू अकेलापन महसूस करेगी मुझे अपने करीब पाएगी.’’  उधर रोहन ने शालिनी से शादी कर ली और अपने नए घर में मगन हो गया. धीरेधीरे उन का रिश्ता सभी को मालूम हो गया. सामने तो कोई कुछ नहीं कहता था, परंतु पीठ पीछे सभी उस की बुद्धि पर तरस खाते, ‘‘देखो रोहन ने इस उम्र में अपनी इतनी सुंदर, सुघड़ पत्नी व 2 बच्चों को छोड़ कर नई शादी कर ली,’’ नरेंद्रजी बोले.  ‘‘भई, हम तो रश्मि भाभी के बारे में सोचते हैं… वे अकेली ही हर हालात का सामना कर रही हैं,’’ निरंजन कुछ सोचते हुए बोले.  ऐसा नहीं था कि रोहन को इन सब बातों का पता नहीं था, परंतु वह बड़ी चतुरता से सफाई दे देता था.  एक दिन रोहन लौटा तो उस के हाथ में शिमला के 2 टिकट थे. घर में घुसते ही  चिल्लाया, ‘‘शालिनी… ओ शालू देखो मैं क्या लाया हूं?’’

‘‘क्या लाए हैं?’’ शालिनी ने पूछा.

‘‘सोचो क्या हो सकता है?’’

शालू मुसकरा कर बोली, ‘‘क्या होगा सिनेमा के टिकट होंगे या फिर होटल में डिनर का औफर.’’

‘‘नहीं डार्लिंग, हम कल 1 हफ्ते के लिए शिमला जा रहे हैं. क्या नजारा होगा तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं. चलो फटाफट पैकिंग कर लो.’’  दूसरे दिन जब वे शिमला पहुंचे तो लगभग सारे होटल बुक थे और फिर औटो वाले की सहायता से जो होटल मिला उसे देख कर रोहन को जबरदस्त झटका लगा. वही होटल और तो और वही कमरा जहां वह पहली बार रश्मि को ले कर आया था.

उसे सकते में देख कर शालिनी बोली, ‘‘क्या हुआ, आप कहां खो गए?’’

‘‘कुछ नहीं बस यों ही जरा सोच रहा था कि देखो वक्त भी क्याक्या खेल दिखाता है. अभी कुछ दिन की तो बात है. मैं किसी काम से शिमला में आया था और उस वक्त भी यही होटल और तो और यही कमरा था शालिनी,’’ रोहन ने आधा झूठ और आधा सच बोला. वह उसे यह कैसे बताता कि यहां इसी कमरे में उस ने और रश्मि ने अपना हनीमून मनाया था. झूठ तो उस ने कह दिया, किंतु उस का मन उखड़ गया था.  दूसरे दिन दोनों घूमने निकल गए. यह भी अजीब बात थी जिस रश्मि को छोड़ कर शालिनी के लिए वह बेताब था और उस के साथ शादी कर के उस के साथ हनीमून मनाने आया था उसे छोड़ कर हर जगह उसे रश्मि नजर आ रही थी. वह काफी परेशान हो रहा था. उस के अंदर यह बदलाव शालिनी भी महसूस कर रही थी, परंतु उस ने सोचा कि हो सकता है कोई औफिस की बात उसे परेशान कर रही हो. उस ने बहुत पूछा भी परंतु उस ने उसे टाल दिया.  आज उसे लगा कि 2-2 नावों पर सवार होना कितना कठिन है. होटल आ कर वह बिस्तर पर ढेर सा हो गया.

‘‘क्या बात है रोहन, काफी थकेथके से लग रहे हो और काफी परेशान भी?’’

रोहन ने कहा, ‘‘हां थक तो गया हूं… ऐसा करते हैं शालिनी वापस चलते हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, औफिस का एक जरूरी काम याद आ गया… जाना जरूरी है, फिर कभी प्रोग्राम बना लेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ शालिनी बोली और फिर पैकिंग करने लगी. दूसरे दिन वापस आ गए. सब काम अपने ढर्रे पर चलने लगे.

एक दिन रोहन व शालिनी शौपिंग के लिए गए तो उन्होंने रितिका को देखा. वह अपनी सहेली के साथ स्कूटी पर जा रही थी. तभी एक बाइक सवार ने उस की स्कूटी में टक्कर मार दी और वे दोनों गिर पड़ीं. रोहन और शालिनी उस की तरफ दौड़े. उसे उठाने के लिए शालिनी ने हाथ बढ़ाया तो उस ने बड़ी नफरत से उस का हाथ झटक दिया.

शालिनी ने कहा, ‘‘रितिका, तुम ठीक तो हो?’’

‘‘तुम तो ठीक हो… मैं ठीक हूं या नहीं इस से तुम्हें क्या फर्क पड़ता है,’’ रितिका ने गुस्से और नफरत से कहा.

‘‘ऐसा न कहो बेटा… मैं तुम्हारी मां के समान हूं,’’ शालिनी ने कुछ मायूसी से कहा.

‘‘आप जानती हैं कि मां क्या होती है? कभी आप ने जाना मां को? मां तो बस देना ही जानती है और आप ने तो बस छीनना ही जाना है… हम से हमारे पापा को छीना, हमारे घर की सुखशांति छीनी, मेरी मां का सुहाग छीना, आप क्या जाने मां और मां के त्याग को.’’  ‘‘रितिका क्या तुम ने बात करने की तमीज छोड़ दी,’’ रोहन ने चिल्लाते हुए कहा.

‘‘पापा, मैं ने तो सिर्फ बात करने की तमीज छोड़ी है, किंतु आप ने तो हम सब को छोड़ दिया,’’ और सिसकते हुए रितिका अपने जख्म को बिना देखे चली गई.  दोनों का मूड खराब हो गया था. दोनों वापस घर आ गए. दूसरे दिन रोहन अपने  औफिस चला गया. शालिनी के कानों में रितिका के कहे शब्द हथौड़े की तरह पड़ रहे थे. ‘जानती हो मां क्या होती है? तुम ने तो बस छीना है… तुम ने मेरे पापा को छीना है, हमारे घर की सुखशांति छीनी है.’

‘‘छीनी है… छीनी है… छीनी है… हां मैं ने अपनी सहेली का घर उजाड़ा है… उसे बरबाद कर दिया है, मैं दोषी हूं,’’ एकाएक शालिनी अपना सिर पकड़ कर जोरजोर से चिल्लाई.

तभी अचानक रोहन आ गया. बोला, ‘‘क्या हुआ शालू, तुम चिल्ला क्यों रही थीं? क्यों परेशान लग रही हो?’’

‘‘कुछ खास नहीं बस यों ही कुछ पुरानी यादें याद हो आई थीं. मगर तुम कैसे आ गए?’’

‘‘वे अपने कुछ जरूरी कागजात घर भूल गया था… शालिनी लिफाफे में कुछ कागज थे… तुम ने देखे क्या?’’

‘‘नहीं तो? कहां रखे थे?’’

‘‘अलमारी में थे. जरा देखो तो,’’ रोहन ने कहा और फिर सोफे पर बैठ गया. शालिनी बैडरूम की तरफ थी. थोड़ी दूर ही चली थी कि गिर पड़ी.

‘‘अरे, क्या हुआ?’’ रोहन तेजी से उस की तरफ लपका. शालिनी को उठा कर बैड पर लिटाया और पानी ला कर उस के चेहरे पर छींटे मारने लगा. शालिनी ने धीरे से आंखें खोलीं.

‘‘क्या हुआ शालू? तबीयत खराब थी तो मुझे बताया होता. मैं पहले तुम्हें डाक्टर के पास ले जाता. खैर, कोई बात नहीं, अब चलते हैं.’’

‘‘नहीं रोहन, मुझे नहीं जाना डाक्टर के पास. कोई खास बात नहीं है… मैं ठीक हूं.’’

रोहन उस का माथा सहलाने लगा, ‘‘देखो शालिनी, लगता है अकेलेपन की वजह से तुम्हारी तबीयत खराब हो गई है… कुछ व्यस्त रहा करो.’’

‘‘रोहन मैं ने बहुत गलत काम किया है न… बहुत बड़ी गलती की है.’’

‘‘कौन सी गलती शालू?’’

‘‘मैं ने अपनी सहेली का पति छीना… उस का घर उजाड़ा दिया… उस की हाय लगेगी मुझे.’’

‘‘हम ने कोई गलत काम नहीं किया है शालू… हम ने प्यार किया है… दोनों एकसाथ जीवन गुजारना चाहते हैं… शादी की है क्या गलत किया है? मैं ने तो रश्मि को भी कहा था कि वह हमारे साथ रहे. क्या 2 पत्नियां एकसाथ नहीं रह सकतीं और यदि नहीं तो हम क्या कर सकते हैं? मैं तो उस का खर्चा भी उठाने को तैयार था, किंतु वह ज्यादा स्वाभिमानी बनना चाहती है तो उस में हमारा क्या दोष?’’  उस के बाद रोहन उसे समझाबुझा कर वापस अपने औफिस चला गया. शालिनी ने एक नौवल उठाया, परंतु उस का मन फिर किसी भी काम में नहीं लगा. बारबार उसे रितिका की बात याद आ रही थी. उस का मन फिर किसी भी काम नहीं लगा. बारबार उसे रितिका की बात याद आ रही थी. उस का मन भी बारबार उसे ही दोषी मान रहा था. जैसेतैसे शाम हुई और रोहन औफिस से आ गया. उस ने चाय बनाई और दोनों अपनाअपना कप ले कर टैरेस में आ गए.

‘‘क्या बात है, आज कुछ परेशान दिखाई दे रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं, बस यों ही मन नहीं लग रहा.’’

‘‘चलो तो आज कहीं घूमफिर आते हैं… तुम्हारा मन भी बहल जाएगा,’’ और फिर दोनों तैयार हो कर बाहर निकल गए. पास ही एक पार्क था. दोनों जा कर नर्म घास पर बैठ गए.

अभी कुछ देर ही हुई थी उन्हें वहां बैठे तभी एक तरफ कुछ शोर सा हुआ.  उत्सुकतावश दोनों भी वहां पहुंच गए. बड़ा ही अजीब नजारा था. एक औरत अपने पति के साथ मारपीट कर रही थी. उन्होंने कारण पूछा तो पता चला कि उस ने अपने पति को दूसरी औरत के साथ पकड़ लिया था. यह कहने को तो एक साधारण बात थी, परंतु इस बात ने शालिनी के मनमस्तिष्क पर उलटा प्रभाव डाला. उस के दिमाग में रश्मि का चेहरा घूम गया. उसे और गिल्टी महसूस होने लगी.  अब यह रोज का नियम हो गया था कि शालिनी चुपचाप अपने काम निबटा कर उदास सी रहती. उस की इस हालत से रोहन परेशान रहने लगा. जो जीवन उन्होंने चुना था वह उन्हें बजाय खुशी देने के परेशानी देने लगा और हद तो तब हुई जब शालिनी न सिर्फ डिप्रैशन में, बल्कि आक्रामक भी हो गई. छोटीछोटी बातों पर नाराज हो जाना, गुस्से में कोई भी चीज उठा कर फेंक देना उस का नियम बन गया.  एक दिन तो छोटी सी कहासुनी पर शालिनी ने कप उठा कर रोहन को दे मारा. तब रोहन को लगा कि अब कुछ ठीक नहीं है. वह उसे ले कर न्यूरोलौजिस्ट के पास गया.  डाक्टर ने शालिनी की जांच कर के कहा, ‘‘रोहन, शालिनी के दिमाग को कोई सदमा लगा है, जिस की वजह से इन की यह दशा हुई है,’’ फिर डाक्टर ने कुछ दवाएं लिखीं और कहा, ‘‘इन्हें ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश करें.’’

दवा चलती रही. रोहन हर संभव कोशिश करता कि शालिनी खुश रहे. पर कहीं न कहीं से कुछ ऐसा हो जाता कि शालिनी को रश्मि का बुझा चेहरा और रितिका के शब्द याद आ जाते. उस की हालत बद से बदतर होती जा रही थी. अब इस बात की चर्चा आसपास भी होने लगी थी. अभी दोपहर को वह बालकनी में खड़ी थी कि रूहेला ने इशारा करते हुए नीलिमा से कहा, ‘‘सुना है शालिनी न्यूरोलौजिस्ट के पास गई थीं. उन्हें कुछ दिमागी बीमारी है.’’  ‘‘अरे भई किसी का बुरा कर के कोई सुखी हुआ है कभी? मुझे तो बेचारी रश्मि पर तरस आता है. इस ने उस का पति छीन कर उसे और उस के 2 बच्चों के साथ बुरा किया. अब भरेगी भी तो यही,’’ नीलिमा बोलीं.

इतना सुन कर शालिनी कमरे में आ गई और आते ही बस्तर पर पड़ गई. जब लंच के लिए रोहन आया तो उस ने देखा और तुरंत उसे ले कर डाक्टर के यहां गया.  डाक्टर साहब चिंतित हो कर बोले, ‘‘रोहन इतनी दवा के बावजूद शालिनी में कोई सुधार नहीं हो रहा है. मुझे लगता है कि इन्हें हौस्पिटीलाइज करना पड़ेगा.’’

‘‘कुछ भी कीजिए डाक्टर साहब, परंतु शालिनी को ठीक कर दीजिए.’’

उसी समय डाक्टर ने शालिनी को दाखिल कर लिया.  रोहन अब तिहरी मुसीबत में फंस गया. एक तरफ उस का काम, दूसरी तरफ घर और अब अस्पताल भी सुबहशाम जाना. वह बुरी तरह थक चुका था. उस दिन के बारे में सोचता जब वह शालिनी को ले कर घर और बच्चों को छोड़ कर आया था. विवाहेतर संबंधों का सच अब उस की समझ में अच्छी तरह से आ रहा था, परंतु क्या हो सकता था. अब गले पड़े ढोल को बजाने के सिवा कोई चारा नहीं था. न तो वह शालिनी को छोड़ कर वापस रश्मि के पास जा सकता था और शालिनी थी कि वह ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी. खैर जैसेतैसे वह अपनी तीनों जिम्मेदारियां निभाने की कोशिश कर रहा था.  एक दिन रश्मि बाजार गई वहीं उसे कविता मिली. दोनों ही बड़ी गर्मजोशी से मिलीं. तभी कविता बोली, ‘‘चल, बहुत दिनों के बाद मिली हैं कहीं बैठ कर कौफी पीती हैं.’’

‘‘नहीं कविता, जल्दी घर जाना है. बच्चों के पेपर चल रहे हैं,’’ रश्मि ने जवाब दिया.

‘‘चल भी न… कितने दिनों बाद तो मिली हैं… थोड़ी गपशप हो जाएगी,’’ और फिर दोनों एक कैफे हाउस में चली गईं.  बातें करतेकरते बात शालिनी पर आ कर ठहर गई. अचानक कविता बोली, ‘‘सुना है रश्मि आजकल रोहन बहुत परेशानी में है.’’

‘‘क्यों? अब तो उसे खुश रहना चाहिए. उस ने शालिनी से शादी भी कर  ली जो वह चाहता था और मैं भी उस से कोई वास्ता नहीं रखती जिस का उसे डर था…’’

‘‘अरे, यह सब तो ठीक है परंतु सुना है शालिनी डिप्रैशन में आ गई है और आजकल सिटी अस्पताल में दाखिल है.’’

‘‘डिप्रैशन में वह? परंतु उसे तो वह सब प्राप्त है जिस की उस को चाह थी… अब उसे और क्या चाहिए? देखा जाए तो डिप्रैशन में तो मुझे आना चाहिए… मेरा तो सब कुछ उस ने छीन लिया है. खैर, छोड़ो सब समय का खेल है नहीं तो मैं क्यों अपना घर छोड़ कर रोहन के साथ घर बसाती? पर कविता यह तो बता कि तुझे कैसे पता चला कि वह सिटी अस्पताल में दाखिल है?’’

‘‘अरे मैं तो इन के एक दोस्त को देखने गई थी तो वहां रोहन मिले थे. वही बता रहे थे.’’

‘‘अच्छा किस वार्ड में है? रूम नंबर क्या है?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘क्यों अब भी तुझे उस से मिलने जाना है?’’ कविता ने पूछा.

‘‘हां, यार सोच रही हूं मिल लेती हूं. कुछ भी हो वह मेरी सहेली है और उस की देखभाल करने वाला कोई भी तो नहीं. उस की करनी उस के साथ और मेरी करनी मेरे साथ,’’ कह रश्मि शालिनी का रूम नंबर ले कर घर आ गई.  शलभ और रितिका ने उस से बहुत मना किया, परंतु उस ने यही कहा कि इस सारे किस्से में जितनी गुनहगार शालिनी है उस से कहीं अधिक गुनहगार रोहन है और इस का खमियाजा अकेली शालिनी उठा रही है.  अकेले दिन वह शालिनी से मिलने अस्पताल पहुंची. वहां उस ने देखा कि शालिनी चीखचिल्ला रही है. तभी डाक्टर आए और उसे नींद का इंजैक्शन लगा दिया. धीरेधीरे शालिनी नींद के आगोश में चली गई. रश्मि वहां रखी कुरसी पर बैठ कर गहरी सोच में डूब गई. उसे शालिनी पर बड़ा तरस आ रहा था.  वह सोच रही थी क्या यह वही शालिनी है, जो उस के पास आई थी तब कितनी निर्मल, कितनी खुशमिजाज और सुंदर थी और आज ऐसे पड़ी है बेचारी… रश्मि का दिमाग कुछ कह रहा था और दिल कुछ और. दिल तो कह रहा था कि यह उस की सहेली है उसे ऐसी हालत में नहीं छोड़ना चाहिए, मगर दिमाग में तो चल रहा था कि उस ने उस के साथ क्या किया था. वह बड़ी दुविधा में पड़ी थी, परंतु उस के पैर डाक्टर के कैबिन की तरफ चल पड़े.

‘‘डाक्टर साहब मैं अंदर आ सकती हूं?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘यस, कम इन,’’ डाक्टर बोले.

उस ने डाक्टर साहब से शालिनी के बारे में सारी जानकारी ली और उसे डिस्चार्ज करा लिया. अगले दिन जब रोहन शालिनी के कमरे में पहुंचा तो शालिनी वहां नहीं थी. उस ने नर्स से पूछा तो उस ने बताया कि कल कोई मेम साहब आई थीं. अपने को उस का दूर का रिश्तेदार बता रही थीं. वे ही उसे अपने साथ ले गई हैं.  रोहन ने बहुत खोजबीन की, परंतु कुछ हासिल न हुआ. उस ने बहुत हंगामा भी किया, किंतु कुछ हाथ न लगा तो उस ने डाक्टर को धमकी दी कि वह लापरवाही के तहत पुलिस में एफआईआर दर्ज कराएगा परंतु डाक्टर ने उसे न जाने क्या पट्टी पढ़ाई कि वह चुपचाप अपने घर चला गया.  रोहन घर पहुंचा तो उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करे. उस का तो यह हाल हो गया कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का. खाली घर उसे काटने को दौड़ रहा था. एक ओर शालिनी जिस का कुछ पता न था तो दूसरी ओर रश्मि उस के पास जाने का उस में साहस न था.

एक डर यह भी रोहन को सता रहा था कि कहीं कोई शालिनी के बारे में न पूछ ले. शालिनी कहां गई कहां नहीं, उसे यह पता नहीं था. कहीं उस का कोई रिश्तेदार न आ धमके. रोहन अपने स्तर पर चुपचाप उस की खोजबीन में लगा था. इसी उधेड़बुन में वह चला जा रहा था. देखा सामने से रश्मि आ रही है. वह उस से बचना चाहता था कि वह सामने आ गई और उसे देख कर बोली, ‘‘कैसे हो रोहन?’’

‘‘ठीक हूं,’’ रोहन ने जवाब दिया.

‘‘और शालिनी कैसी है?’’

‘‘प्रश्न सुन कर रोहन को काटो तो खून नहीं. सारी बातें यहीं पूछोगी…

रश्मि चलो कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं,’’ रोहन ने कहा.

‘‘इस की जरूरत नहीं,’’ रश्मि बोली.

‘‘रश्मि सच तो यह है कि शालिनी की तबीयत बहुत खराब थी. उसे मैं ने सिटी अस्पताल में दाखिल कराया था, किंतु पता नहीं उस की कौन सी दूर की रिश्तेदार वहां आई और मेरी गैरमौजूदगी में उसे अपने साथ ले गई.’’

‘‘फिर तुम ने ढूंढ़ा नहीं शालिनी को?’’

‘‘बहुत ढूंढ़ रहा हूं, परंतु कुछ पता नहीं चल रहा,’’ रोहन परेशान सा बोला.

‘‘अब क्या करोगे? पुलिस में रिपोर्ट करोगे?’’

‘‘यही तो नहीं कर सकता हूं.’’

‘‘क्यों?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘क्योंकि डाक्टर और उस की अनजानी रिश्तेदार मुझे धमकी दे रहे हैं कि वह मुझे दफा 420 के केस में फंसा देंगे, क्योंकि एक पत्नी  और बच्चों के होते हुए मैं ने दूसरी शादी की. मैं ने तुम्हारे साथ बहुत बुरा किया… मुझे माफ कर दो रश्मि.’’  ‘‘रोहन तुम तो वह इनसान हो जो किसी का भी सगा नहीं हो सकता न मेरा और न शालिनी का. जानना चाहते हो शालिनी कहां है? वह मेरे पास है और धीरेधीरे स्वास्थ्य लाभ कर रही है. किंतु अब वह तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती. जैसे ही वह ठीक हो जाएगी वापस दिल्ली चली जाएगी… और तुम अपना स्वयं सोच लो.’’  रोहन कोई जवाब देता उस से पहले ही रश्मि उस की नजरों से दूर जा चुकी थी. उस के चेहरे पर संतोष की रेखा थी. जो धोखा रोहन ने उसे दिया था आज उस का जवाब उस ने दे दिया था.

पार्टी, डांस, ड्रिंक: क्या बेटे का शादीशुदा घर टूटने से बचा पाई सोम की मां

अलसाई हुई वाणी के मोबाइल की घंटी बजी तो उस ने उसे उठाया. उधर मम्मीजी थीं.

‘‘वाणी, हैप्पी मैरिज ऐनिवर्सरी.’’

‘‘थैंक्स मम्मीजी.’’

‘‘तुम्हारा प्यारा पिया कहां है?’’

‘‘मम्मीजी वे तो घर पर नहीं हैं.’’

‘‘कहां गया?’’

‘‘मैं तो सो रही थी. वे न जाने कब उठ कर चले गए. मुझे पता ही नहीं चला.’’ ‘‘सोम कभी नहीं सुधरेगा. उसे याद भी नहीं रहा कि आज तुम लोगों की मैरिज ऐनिवर्सरी है.’’

‘‘उन्हें कोई जरूरी काम होगा इसीलिए चले गए होंगे,’’ वाणी ने कहा, लेकिन वह मन ही मन उदास हो उठी थी. सोम को ऐनिवर्सरी भी याद नहीं रही. तभी आहिस्ता से सोम कमरे में आया और फोन हाथ में ले कर बोला, ‘‘थैंक्स मौम.’’

‘‘हम लोग शाम तक तुम्हारे पास पहुंच रहे हैं. आज कुछ पार्टीशार्टी हो जाए.’’

‘‘ओ.के. मौम, लेकिन आप की लाडली बहू जब परमिशन देगी तब तो.’’

‘‘समझ लो मिल गई.’’

‘‘ओ.के. मौम, मैं एअरपोर्ट पर आऊं?’’

‘‘नहीं. तुम पार्टी की तैयारी करो.’’ फिर सोम ने वाणी को अपने आगोश में ले लिया और एक प्यारा सा चुंबन उस के गाल पर अंकित कर उस की कलाइयों में डायमंड के कंगन पहना दिए और बोला, ‘‘डियर, हैप्पी ऐनिवर्सरी. आज तो सैलिब्रेशन का दिन है. आज तो ग्रैंड पार्टी होगी. डांस फ्लोर वाला हौल बुक करेंगे. मौम और डैड को तो डांस के बिना मजा ही नहीं आएगा.’’

‘‘लेकिन एक बात सुन लीजिए. ड्रिंक के लिए नो परमिशन.’’ आज से 5 साल पहले की बात है, जब मंजरी की शादी में उस के सौंदर्य और शालीनता से प्रभावित हो कर मम्मीजी और पापाजी ने उसे अपनी बहू बनाने का फैसला कर लिया था. वह छोटे शहर के मध्यवर्गीय परिवार की बेटी थी. उस के बाबूजी कृष्णदास सोम के पिता महेंद्रजी के बचपन के दोस्त थे और एक स्कूल में प्रधानाध्यापक थे. सोम के पिता महेंद्रजी फौज में भरती हो कर बाहर चले गए थे और इस समय बहुत ऊंचे ओहदे पर थे. वे स्वाभाविक रूप से बहुत खुले विचारों के थे और जब से लंदन रह कर आए थे, तब से अपने को आधा अंगरेज समझने लगे थे. इसलिए सोम और वाणी दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि बिलकुल अलगअलग थी. सोम अपने पापा से बचपन से डरता था. उसी डर के कारण उस ने मंडप में वाणी के संग फेरे ले कर उसे अपनी जीवनसंगिनी बना तो लिया था, परंतु मन ही मन वह उसे देहाती लड़की ही समझ रहा था.

सोम की जीवनशैली के पाश्चात्य तौरतरीके देख वाणी थोड़ा घबराई थी. परंतु रात के अंधेरे में उस का सान्निध्य पा कर वह दिल से उस की हो गई थी. ससुराल में पहले दिन वाणी की नींद जब प्याजलहसुन की तेज गंध से खुली थी, तो उस का जी मिचला उठा था. वह जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई, तो डाइनिंग टेबल पर सब लोग उस का नाश्ते पर इंतजार कर रहे थे. देर हो जाने की वजह से वह सकुचा उठी थी. टेबल पर एक प्लेट में अंडे की भुरजी देख कर वह सकपका गई थी. फिर भी अपने को सामान्य करती हुई अपनी प्लेट में ब्रैड ले कर कुतरने लगी थी. ‘‘वाणी यह अंडा भुरजी तो लो. इसे सोम ने तुम्हारे लिए विशेष रूप से बनवाया है.’’

वह धीमी आवाज में बोली थी, ‘‘मैं अंडा नहीं खाती हूं.’’ लेकिन सोम ने तेजी से लपक कर अपनी प्लेट से पूड़ी और भुरजी का बड़ा सा कौर बना कर उस के मुंह में रख दिया था. वह घबरा कर तेजी से बाथरूम की तरफ भागी थी. उसे मम्मीजी की आवाज पीछे से सुनाई दी थी, ‘‘सोम, तुम्हें इस तरह से जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए थी.’’ इस के बाद वह 2-3 दिन वहां रही तो सोम उस से उखड़ाउखड़ा सा रहा. फिर उस की छुट्टियां समाप्त हो गईं, तो वाणी को उस के साथ मुंबई आना पड़ा. छोटे शहर की वाणी मुंबई की तेज रफ्तार भरी जिंदगी देख सहम सी गई थी. वह हर काम सोम की इच्छानुसार करने के चक्कर में सब उलटापुलटा कर बैठती. एक दिन शाम को सोम घर आते ही बोला, ‘‘तैयार हो जाओ. आज मेरी शादी की पार्टी है, जिस में मेरे कुछ खास दोस्त होंगे. जरा ढंग से तैयार होना.’’ वाणी सोम के साथ आज पहली बार घर से बाहर पार्टी में जा रही थी. इस वजह से वह खुश मन से सजधज कर तैयार हुई तो सोम बुरा सा मुंह बना कर बोला, ‘‘यह क्या गंवारों की तरह साड़ी पहन ली. कुछ वैस्टर्न पहनतीं.’’

पार्टी में उस के दोस्त रुचिर और भुवन तो उस की सुंदरता पर मर मिटे थे. रुचिर ने हैलो करने को हाथ पकड़ा तो पकड़े ही रह गया. उस ने जबरदस्ती खींच कर अपना हाथ छुड़ाया. भुवन नशे में धुत्त था. वह उसे खींच कर डांस फ्लोर पर ले जा रहा था. उस के मना करते ही सोम सब के सामने नाराज हो कर बोला, ‘‘तुम ने तो मैनर्स का ककहरा भी नहीं पढ़ा है. डांस कर लोगी तो क्या हो जाएगा?’’ वाणी की आंखों में आंसू आ गए थे. वह कोने में जा कर बैठ गई थी. वहां भुवन की पत्नी निशा बैठी हुई थी. उस को भी इस तरह की पार्टियां पसंद नहीं थीं. सोम के 7-8 दोस्तों और उन की पत्नियों ने जी भर कर बोतलें खाली कीं. फिर किसी को होश नहीं रहा कि कौन किस की बांहों में थिरक रहा है. सब नशे में डूबे हुए थे. उसे यह सब बहुत अटपटा लग रहा था. सोम को नशे में धुत्त देख वह परेशान हो उठी थी. वाणी ने उस दिन से इस तरह की पार्टियों में न जाने की कसम खा ली थी.जल्द ही वाणी के पैर भारी हो गए. उस की तबीयत ढीली रहने लगी. लेकिन दोनों के संबंध सामान्य नहीं हो पाए. सोम उस पर हावी होता गया. वह झगड़े से बचने के लिए चुप रह जाती. कभीकभी पीने वाला सोम अकसर पी कर आने लगा था.

उस की खराब तबीयत के बारे में सुन कर उस के अम्माबाबूजी आ कर उस को अपने साथ ले गए. वहां कुहू के पैदा होने पर सोम आया और बेटी को लाड़ दिखा कर चला गया. वह सोचती थी कि मेरी प्यारी सी बेटी हम दोनों के रिश्ते सामान्य कर देगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सोम की मम्मीजी और पापाजी विदेश में थे. थोड़े दिनों बाद वह सोम के साथ फिर से मुंबई आ गई. वहां नन्ही सी कुहू की देखभाल में उस का समय बीतने लगा. उस की सहायता के लिए एक आया लीला को रख लिया गया. एक दिन सुबह औफिस जाते हुए सोम बोला, ‘‘शाम को 6 बजे तैयार रहना. आज रुचिर की मैरिज ऐनिवर्सरी है. उस ने तुम्हें ले कर आने को कहा है.’’ यह कह कर वह औफिस चला गया, लेकिन वाणी के लिए वहां जाना मुमकिन नहीं था, क्योंकि कुहू को बुखार था. फिर उसे शुरू से ही सोम के दोस्त पसंद नहीं थे. पीना, डांस करना और आपस में भद्देभद्दे मजाक करना. पीनेपिलाने वाली पार्टियों से तो वह कोसों दूर रहना चाहती थी.

शाम 7 बजे आते ही सोम घुड़क कर बोला, ‘‘तुम्हारे कान बंद रहते हैं क्या? सुबह मैं तुम से कुछ कह कर गया था. अभी तक तुम तैयार क्यों नहीं हुई हो?’’

‘‘मैं नहीं जा पाऊंगी. कुहू को बुखार है.’’ सोम नाराज हो कर पैर पटकता हुआ घर से चला गया. लेकिन पार्टी में अकेले जाने के कारण सोम दोस्तों से हायहैलो करने के बाद एक पैग ले कर कोने की एक टेबल पर चुपचाप बैठ गया. उस पर अभी नशे का सुरूर चढ़ा भी नहीं था कि एक सुंदर महिला पर उस की निगाह पड़ी. वह कुछ क्षणों तक उस को अपलक निहारता रह गया. सोम की निगाहें उस महिला से एक क्षण को मिल गईं तो उस ने एक घूंट में ही बड़ा पैग खाली कर दिया. वह महिला भी अकेली बैठी सोम की ओर देख रही थी. अचानक वह तेजी से उठी और उस के पास आ कर कुरसी पर बैठते हुए बोली, ‘‘हाय हैंडसम, माईसैल्फ नैना.’’

उस की सुंदरता में खोए सोम को सब सपना सा लग रहा था, लेकिन वह भी बोला, ‘‘हैलो, माईसैल्फ सोम.’’ दोनों में दोस्ती होते देर न लगी. सोम उस की सुंदरता पर मर मिटा था, तो नैना सोम की स्मार्टनैस और जवानी पर. उन दोनों ने बेखौफ ड्रिंक और डांस का अच्छी तरह आनंद लिया. फोन नंबर का आदानप्रदान हुआ और शुरू हो गया दोनों का मिलनाजुलना. सोम सब कुछ भूल कर नैना के प्यार में खो गया. वह मीटिंग और अधिक काम के बहाने घर देर से पहुंचने लगा. दोनों के बीच जिस्मानी रिश्ते बन चुके थे, इसलिए सोम उस के नशे में डूबा रहता. दोनों अकसर साथ में लंच करते, तो कभी पिक्चर, कभी थिएटर, कभी मौल में घूमते. वाणी को पति के आचरण पर शक होने लगा था. वह कभीकभी उस के फोन काल और एसएमएस चैक करती, परंतु चौकन्ना सोम पत्नी के लिए कोई निशान नहीं छोड़ता था. एक दिन शाम को अचानक सोम बोला, ‘‘वाणी, मैं दिल्ली जा रहा हूं. वहां न्यूयार्क से एक डैलिगेशन आया है. उन के साथ मेरी मीटिंग है. मुझे वहां 2-3 दिन लगेंगे.’’ वाणी ने पति को शक की नजर से देखा, लेकिन कुछ बोली नहीं सिर्फ धीमी आवाज में बाय कह दिया. बाद में उस ने सोम की सेक्रेटरी से पता लगा लिया कि वह छुट्टी ले कर गया हुआ है, तो उस का शक विश्वास में बदल गया.

इधर सोम प्लेन की सीट पर बैठते ही नैना के ख्वाबों में खो गया. उस ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं और वह नैना के सान्निध्य के खूबसूरत एहसास को जी रहा था. तभी उस के फोन की घंटी बज उठी थी. उधर नैना थी. वह बोली, ‘‘डियर, मेरे लिए एकएक पल काटना मुश्किल हो रहा है. मेरी फ्लाइट में अभी देर है.’’ सोम ने एहतियातन दोनों की अलगअलग फ्लाइट बुक करवाई थी. वह आने वाले कल के रंगीन सपनों में खोया नैना के साथ बिताने वाले समय की रूपरेखा मन ही मन बना रहा था. वह दिल्ली पहुंचा ही था कि फिर से नैना का फोन आ गया, ‘‘डियर, तुम कहां तक पहुंचे?’’

‘‘मैं दिल्ली पहुंच गया हूं. जब तुम्हारी फ्लाइट पहुंचेगी मैं एअरपोर्ट पर तुम्हारा इंतजार करता हुआ मिलूंगा.’’

‘‘तुम बहुत अच्छे हो. तुम मुझे यूज कर के फिर अपनी बीवी के आंचल में तो नहीं लौट जाओगे?’’

‘‘नहीं…’’

नैटवर्क की प्रौब्लम के चलते फोन कट चुका था, लेकिन नैना के नशे में डूबे सोम ने वाणी से तलाक लेने का मन बना लिया था. वह सोच रहा था कि दिल्ली से लौटते ही वह अपने वकील से कागज तैयार करवा लेगा. नैना को लेने वह एअरपोर्ट पर पहुंचा. उस के हाथ में एक बड़ा सा बुके था. आज वह अपने नए जीवन की शुरुआत करने जा रहा था. यहां पर केवल वह होगा और उस की नैना. आज तो नैना शौर्ट स्कर्ट और टौप पहन कर आई थी. सोम उत्तेजनावश उस को निहारता ही रह गया. नैना ने पास आते ही उसे अपने आलिंगन में जकड़ लिया. रात में जिस 5 सितारा होटल में वे ठहरे थे, उस के विशेष कक्ष में दोनों ने डिनर लिया. तभी नैना ने अपने पर्स से एक सुंदर सा ब्रेसलेट निकाल कर सोम की कलाई में पहना दिया.

‘‘डियर सोम, यह ब्रेसलेट मैं ने तुम्हारे लिए ही खरीदा है. यह हर समय तुम्हें मेरी याद दिलाता रहेगा.’’ ब्रेसलेट पहन सोम अचकचा उठा. उसे भी तो नैना के लिए कोई महंगा गिफ्ट खरीदना पड़ेगा. यह मस्ती तो उस पर भारी पड़ रही थी. रात में नैना उस को एक नाइट क्लब में ले गई. यह उस के लिए नया अनुभव था, लेकिन शायद नैना इन पार्टियों और क्लबों की अभ्यस्त थी. वहां सहजता से वह एक के बाद एक पैग चढ़ा रही थी, साथ ही सोम को भी पिला रही थी. दोनों मदहोशी में थे और गहरे नशे में डूब चुके थे. होटल में लौटने पर सोम अपने फोन पर कुछ कर रहा था कि नैना उस के हाथ से फोन खींच कर बोली, ‘‘तुम भी खूब हो. मुझ जैसी हसीना के बजाय फोन से खेल रहे हो.’’ फिर वह उस के और करीब खिसक कर बोली, ‘‘मुझे एक लंबे इंतजार के बाद तुम जैसा साथी मिला है. तुम अपनी बीवी से कब तलाक लोगे? बहुत हो गई लुकाछिपी. अब तुम से दूरी मुझ से बरदाश्त नहीं हो रही है.’’

‘‘नैना, यह बताओ कि आज तक तुम्हारे जीवन में कोई और तो नहीं आया?’’

‘‘नहीं यार, मैं सिंगल हूं. तुम्हें देखते ही मुझे जाने क्या हो गया. मैं तुम्हारे प्यार में पड़ कर सारी दुनिया भूल गई. दिन भर तुम्हारे ख्वाबों में खोई रहती हूं. औफिस के काम में भी मेरा मन नहीं लगता,’’ यह सब कहतेकहते उस ने सोम के होंठों पर अपने दहकते हुए होंठ रख दिए. फिर दोनों बेसुध हो कर सो गए. सुबह सोम के पास औफिस से जरूरी मीटिंग के लिए फोन आ गया. वह जाना नहीं चाहता था, क्योंकि अभी नैना के साथ और समय बिताना चाह रहा था, लेकिन उस का लौटना जरूरी था, इसलिए वह नैना से बोला, ‘‘नैना, मुझे औफिस की मीटिंग की वजह से आज ही मुंबई पहुंचना होगा.’’

‘‘ठीक है, तुम चले जाओ. मैं 2 दिन बाद पहुंचूंगी.’’

सोम फ्लाइट से अगले दिन सुबह जब घर पहुंचा तो नैना को छोड़ कर आने की वजह से खिसियाया हुआ था. फिर जब औफिस के लिए तैयार हो रहा था, वाणी किचन में गई. उस ने चायनाश्ता बनाया और डाइनिंग टेबल पर रख दिया. सोम हड़बड़ाता हुआ कमरे से निकला तो कप में चाय देखते ही चिल्लाया, ‘‘बदतमीज औरत, जब तुझे पता है कि मैं इस तरह की चाय नहीं पीता, तो क्यों बना कर रख देती हो?’’ और गुस्से में चाय का कप और नाश्ता दोनों को उठा कर जमीन में फेंक दिया. वाणी किचन से बाहर आई और सोम से बोली, ‘‘सोम मैं आप की पसंद की पौट वाली चाय बना कर लाती हूं, प्लीज रुक जाइए. घर से इस तरह चायनाश्ते के बिना मत जाइए.’’ सोम ने वाणी को सामने से हटाने के लिए धक्का दिया और बिना पीछे देखे गाड़ी स्टार्ट कर के चला गया. वाणी जमीन पर गिर गई और टेबल का कोना माथे पर चुभ जाने से उस के माथे से खून बह निकला. कुछ पलों के लिए वह बेहोश हो गई. फिर होश आने पर उस ने चोट पर दवा लगाई और लेट कर अपने जीवन के बारे में सोचने लगी. वह कब तक इस तरह से अपमानित होहो कर जीती रहेगी? उसे अपने भविष्य के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचना पड़ेगा. सोम उस पर हाथ भी उठाने लगे हैं. वह किस तरह से सोम को सही रास्ते पर लाए.

तभी उस का मोबाइल बज उठा. उधर उस की सासूमां सरिताजी थीं.

‘‘कैसी हो वाणी?’’

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘मेरे नालायक बेटे का क्या हाल है?’’

‘‘वे भी ठीक हैं.’’

‘‘तेरा खयाल रखता है मेरा अकड़ू बेटा?’’

‘‘जी मम्मीजी.’’

‘‘उसे बता देना कि मैं उसे याद कर रही थी.’’ उन की बात यहीं खत्म हो गई पर मम्मीजी के अकड़ू शब्द ने वाणी की चेतना को जगा दिया. उस ने नैट पर प्राइवेट डिटैक्टिव एजेंसी को ढूंढ़ व उस से संपर्क कर सोम और उस की महिला मित्र के विषय में पूरी जानकारी हासिल करने के लिए कहा. उस के लिए उस ने मुंहमांगी फीस भी दी. उस के बाद उस ने अपना सामान गैस्टरूम में शिफ्ट कर लिया. शाम को जब सोम आया तो सारे घर में अंधेरा देख उस का माथा ठनका. फिर वाणी को गैस्टरूम में देखा तो बोला, ‘‘यह सब क्या नाटक है?’’

‘‘जो देख रहे हो. जल्दी ही मैं अपनी व्यवस्था कर लूंगी. फिर यहां से हमेशा के लिए आप की नजरों से दूर हो जाऊंगी.’’ अपनी सुबह की गलती का एहसास होते ही उस ने वाणी से आज पहली बार माफी मांग कर समझौता करना चाहा.

 

लेकिन वाणी बोली, ‘‘देखिए सोम, आप का जीने का ढंग मुझे पसंद नहीं और मेरी स्टाइल आप को पसंद नहीं. इसलिए अच्छा यही है कि हम दोनों अलग हो जाएं.’’ मन ही मन खुश होता हुआ सोम बोला, ‘‘वाणी तुम से सौरी बोल तो दिया, अब मान भी जाओ.’’ ‘‘सोम, आज आप ने सारी सीमाएं तोड़ दी हैं. यदि कुहू गोद में न होती तो मैं बहुत पहले आप का घर छोड़ चुकी होती. कुहू की ममता के कारण ही इस समय तक मैं आप का अत्याचार झेलती रही.’’

‘‘बहुत दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा, मुझ से जबान लड़ाती हो.’’

‘‘सोम, आज आखिरी बार मैं आप से कह रही हूं कि तमीज से बात करो. नहीं तो मैं क्या करूंगी, इस का आप को अनुमान भी नहीं है. मुझे कमजोर मत समझिएगा. इतने दिन मैं चुप और शांत इसलिए रही कि शायद आप सुधर जाओगे, लेकिन आप ने तो न सुधरने की कसम खा ली है.’’ वाणी का कड़ा रुख देख सोम चुपचाप अपने कमरे में चला गया. परंतु उस की आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं. दोनों में बोलचाल बंद थी. घर में शांति छा गई थी. वाणी को सीक्रेट सर्विस वालों की रिपोर्ट का इंतजार था. वह जब उसे मिली तो उस का शक सही निकला था. उन लोगों ने सोम और नैना के रिश्तों की बात सच बताई. साथ ही नैना के अन्य संबंधों की सीडी उस को दे कर गए. अब वह आश्वस्त थी कि अपने और सोम के रिश्ते को या तो बचा लेगी या तोड़ लेगी. तभी मम्मीजी का फोन आ गया कि पापा को हार्टअटैक पड़ा है, इसलिए तुम दोनों तुरंत आओ. सोम और वह दोनों तुरंत वहां पहुंच गए थे. पापाजी एक हफ्ते नर्सिंग होम में रहने के बाद डिस्चार्ज हो कर घर आ गए थे. सोम के पिता महेंद्रजी बहुत जल्दी स्वस्थ हो गए. नैना के नशे में डूबा सोम वाणी को वहीं छोड़ मुंबई चला आया. वाणी के उतरे हुए चेहरे और गुमसुम रहने से सरिताजी का माथा ठनका. उन्होंने पूछा, ‘‘वाणी, तुम्हारे और सोम के बीच सब ठीक तो है न?’’

‘‘जी मम्मीजी.’’

‘‘सोम तो तुम्हें फोन भी नहीं करता?’’

‘‘वे काम में बहुत बिजी रहते हैं, इसलिए नहीं कर पाए होंगे.’’

‘‘तुम मुझ से कुछ छिपा रही हो. सचसच बताओ. मैं अपने बेटे के स्वभाव को अच्छी तरह जानती हूं.’’

अब वाणी अपने को रोक न पाई तो एकदम से उबल पड़ी, ‘‘मम्मीजी, मैं सोम से तलाक लेना चाहती हूं. मैं उन के साथ अब नहीं निभा सकती.’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘प्लीज, आप पापाजी से कुछ मत कहिएगा. अभी उन की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं है.’’ वाणी ने सीक्रेट सर्विस वालों द्वारा दी हुई सीडी उन के हाथ में रख दी और फूटफूट कर रो पड़ी. सरिताजी ने वाणी के आंसू पोछे और बोलीं, ‘‘तुम चुप हो जाओ. मैं तुम्हारे साथ हूं. तुम्हारी समस्या का समाधान मैं करूंगी.’’ सरिताजी ने आहत मन से उस सीडी को देखा. वे वाणी से बोलीं, ‘‘बेटी, जैसे शरीर में कोई रोग या बीमारी हो जाने पर उस का इलाज करने के लिए कड़वी दवा पीनी पड़ती है, वैसे ही यदि सोम के कदम बहक गए हैं, तो हम सब को मिल कर उसे सही रास्ते पर लाना होगा. तुम्हें मेरा साथ देना होगा. मेरा विश्वास है कि सोम बहुत जल्द तुम्हारे पास होगा. बस थोड़ा धीरज रखो.’’ उन्होंने वाणी को इंगलिश स्पीकिंग और व्यक्तित्व विकास की क्लासेज जौइन करवा दीं. सुंदर तो वह थी ही अब उस का व्यक्तित्व भी निखर उठा था, क्योंकि उस का आत्मविश्वास बढ़ चुका था. सरिताजी वाणी के बदले हुए व्यक्तित्व से बहुत खुश थीं. कुछ दिनों बाद वे बेटे के घर अकेले पहुंच गईं. घर पर नैना की यहांवहां बिखरी चीजें देख वे सोम से बोलीं, ‘‘बेटा, यहां तुम्हारे साथ कौन रहता है?’’

सकपकाया सा सोम बोला, ‘‘कोई नहीं मौम? मेरी एक दोस्त किसी मीटिंग में यहां आई है. उसी का सामान यहांवहां बिखरा हुआ है. 3-4 दिनों से वह यहां है, आज उसे जाना है.’’ ‘‘साफ शब्दों में क्यों नहीं कहते कि मेरी गर्लफ्रैंड मेरे साथ रह रही है. वैसे बेटा यह तुम ने बड़ा अच्छा किया कि अपने लिए एक पार्टनर ढूंढ़ लिया. लेकिन तुम्हें पार्टनर बड़ी जल्दी से मिल गई. अभी तो वाणी को गए 2 महीने भी नहीं हुए. चलो मेरी चिंता समाप्त हुई. मैं सोचती थी कि मेरा इतना मौडर्न बेटा कैसे उस देहाती लड़की के साथ गुजर कर रहा होगा?’’

‘‘नहीं मां, ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन वाणी के साथ रहना तो वास्तव में बहुत मुश्किल है. पक्की घरेलू और देहातिन लड़की है. मैं तो उस के साथ खून का घूंट पी कर रहता हूं.’’

‘‘तो ठीक है, तुम उस से तलाक ले लो.’’

‘‘हां, मैं मन ही मन यह सोचता तो था, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ती थी. अब आप मेरे फेवर में हैं तो मैं कल ही वकील से मिल कर बात करूंगा. लेकिन मौम, आप पापा के सामने अपने कदम पीछे तो नहीं कर लेंगी? मुझे पापा से बहुत डर लगता है.’’ ‘‘हां, तुम्हारे पापा को समझाना तो थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि वाणी ने उन पर न जाने कौन सा जादू कर रखा है. वे तो रातदिन उस की तारीफ करते रहते हैं. चलो देखती हूं, लेकिन अपनी दोस्त से कब मिलवाओगे?’’

‘‘शुभ काम में देरी कैसी डियर मौम. मैं ने तो उसे न आने के लिए मैसेज कर दिया था पर अब उसे आने के लिए बोल देता हूं.’’ ‘‘यह सब तो ठीक है, लेकिन वाणी तो आदर्श हिंदू लड़की है. वह तो मरते दम तक तुम्हें तलाक नहीं देगी और साथ में तुम्हारी बेटी कुहू का जीवन संकट में पड़ जाएगा.’’

‘‘मौम, आज नैना बिजी है, इसलिए वह नहीं आएगी.’’

‘‘रात में वह कहां बिजी रहती है?’’

‘‘मुझे क्या मालूम. किसी क्लाइंट के साथ उस की मीटिंग होगी. हम लोग पर्सनल बातें आपस में डिस्कस नहीं करते.’’

‘‘फिर तो वह अमीर लड़की होगी. चलो अच्छा है तुम्हारी नौकरी चली गई तो वह तुम्हारा खर्च तो उठा लेगी.’’

‘‘मौम, आप तो न जाने क्या कहना चाह रही हैं.’’

‘‘देखो सोम, जब किसी ऐसे काम को करने जा रहे हो, जिस का फैसला कोई दूसरा करने वाला हो, तो उस के नकारात्मक पहलू पर भी विचार करना चाहिए. जरा वह ब्रेसलेट ले आओ.’’ सोम ने ब्रेसलेट ला कर सरिताजी की हथेली पर रखा. उन्होंने ब्रेसलेट को उलटपलट कर और यहांवहां जरा सा घिस कर देखा. फिर बोलीं, ‘‘इस ब्रेसलेट पर तो सोने की पौलिश भी नहीं है. इस की कीमत तो क्व100, क्वडेढ़ 100 होगी. चलो इस को ज्वैलर के यहां परखवा लेते हैं.’’

‘‘छोड़ो मौम, नैना ने शायद मुझ पर इंप्रैशन जमाने के लिए यह नकली ब्रेसलेट दिया होगा.’’

‘‘मेरे लाल, असलीनकली को पहचानना सीखो. कब तक नकली तड़कभड़क के पीछे भागते रहोगे?’’

‘‘आप ने तो जरा सी बात का बतंगड़ बना दिया. दोस्तों के बीच तो यह सब चलता ही रहता है.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. अब छोड़ो भी ये सब बातें. जरा यह सीडी वीडियो प्लेयर में लगा दो. आते समय तेरे पापा ने यह कह कर दी थी कि इस सीडी को अपने लायक बेटे के साथ ही बैठ कर देखना. जरा देखूं तो इस सीडी में ऐसा क्या है.’’

सोम ने सीडी चालू की. टीवी में सब से पहले नैना का फोटो उस के पूर्व पति के साथ था, जिस में वह साधारण परिवार की वेशभूषा में थी. उस का पति कोई क्लर्क था. उसे छोड़ कर नैना ने किसी दूसरे व्यक्ति से ब्याह रचाया था. उस का भी फोटो था. उसे छोड़ने के बाद किसी अधेड़ रईस के साथ रहने लगी थी. वह उस के पैसे पर ऐश करती रही. जब उस की आर्थिक स्थिति खराब हो गई, उस को पैरालाइसिस हो गया, तो उस को छोड़ कर अब इधरउधर रईस, स्मार्ट लड़कों के संग रोमांस का नाटक कर के उन्हें लूट रही थी. नाइटक्लब के भी कई वीडियो थे, जिस में वह अलगअलग लड़कों के साथ अश्लील नृत्य कर रही थी. सोम ने मां के हाथ से रिमोट ले कर टीवी बंद कर दिया. वह गुमसुम हो गया था. उस की आंखों से आंसू बह निकले थे. ‘‘मौम, मैं भटक गया था. असली हीरे को छोड़ मैं नकली की चमकदमक में भटक गया था. मैं वाणी का गुनहगार हूं. मुझे उस से माफी मांगनी है, कहीं देर न हो जाए.’’ वह सोच रही थी कि मां के इस कदम ने उस की टूटती शादी को बचा लिया था. तभी सोम के दोस्त रुचिर और भुवन के सम्मिलत स्वर से उस की तंद्रा टूटी, ‘‘थैंक्स भाभी. आप के कड़े रुख के कारण सोम ने हम सब के सामने शर्त रख दी थी कि या तो दोस्ती या ड्रिंक. ड्रिंक पर दोस्ती भारी पड़ी.’’

वाणी प्यार भरी निगाहों से सोम को देख कर उस का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘थैंक्स सोम.’’

हिजाब: क्या चिलमन, आपा की चालों से बच पाई

‘‘आपा,दरवाजा बंद कर लो, मैं निकल रही हूं. और हां, आज आने में थोड़ी देर हो सकती है. स्कूटी सर्विसिंग के लिए दूंगी.’’

‘‘अब्बा ने निगम का टैक्स भरने को भी तो दिया था. उस का क्या करेगी?’’

‘‘भर दूंगी… और भी कई काम हैं. रियाद और शिगुफ्ता की शादी की सालगिरह का गिफ्ट भी ले लूंगी.’’

‘‘ठीक है, जो भी हो, जल्दी आना. 2 घंटे में आ जाना. ज्यादा देर न हो,’’ कह आपा ने दरवाजा बंद कर लिया.

मैं अब गिने हुए चंद घंटों के लिए पूरी तरह आजाद थी. जब भी घर से निकलती हूं मेरी हाथों में घड़ी की सूईयां पकड़ा दी जाती हैं. ये सूईयां मेरे जेहन को वक्तवक्त पर वक्त का आगाह कराती बेधती हैं- अपराधबोध से, औरत हो कर खतरों के बीच घूमने के डर से, खानदान की नाक की ऊंचाई कम हो जाने के खतरे से और मैं दौड़ती होती हूं काम निबटा कर जल्दी दरवाजे के अंदर हो जाने को.

किन दिमागी खुराफातों में उलझा दिया मैं ने… इतने बगावती तेवर तो हिजाब की तौहीन हैं. खैर, क्यों न इन चंद घंटों में लगे हाथ अपने घर वालों से भी रूबरू करा दूं.

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तो हम कानपुर के बाशिंदे हैं. मेरे अब्बा होम्योपैथी के डाक्टर हैं. 70 की उम्र में भी उन की प्रैक्टिस अच्छी चल रही है. मेरे वालिदान अपनी बिरादरी के हिसाब से बड़े खुले दिलोदिमाग वाले हैं, ऐसा कहा जाता है.

6 बहनों में मैं सब से छोटी. मैं ने माइक्रोबायोलौजी में एमएससी की है. मेरी सारी बहनों को भी अच्छी तालीम की छूट दी गई थी और वे भी बड़ी डिगरियां हासिल करने में कामयाब हुईं. हमें याद है हम सारी बहनें बढि़या रिजल्ट लाने के लिए कितनी जीतोड़ मेहनत करती थीं और पढ़ने से आगे कैरियर भी मेरे लिए माने रखता ही था. मुझे एक प्राइवेट संस्थान में अच्छी सैलरी पर लैक्चरर की जौब मिल रही थी. लेकिन यह बात मेरे अब्बा की खींची गई आजादी की लकीर से उस पार की हो जाती थी.

साहिबा आपा को छोड़ वैसे तो मेरी सारी बहनों ने ऊंची डिगरियां हासिल की थीं, लेकिन दीगर बात यह भी थी कि अब वे सारी अपनीअपनी ससुराल की मोटीतगड़ी चौखट के अंदर बुरके में कैद थीं. हां, मेरे हिसाब से कैद ही. उन्होंने अपने सर्टिफिकेट को दिमाग के जंग लगे कबूलनामे के बक्से में बंद कर राजीखुशी ताउम्र इस तरह बसर करने का अलिखित हुक्म मान लिया था.

वे उन गलतियों के लिए शौक से शौहर की डांट खातीं, जिन्हें उन के शौहर भी अकसर सरेआम किया करते. वे सारी खायतों को आंख मूंद कर मानतीं और लगे हाथों मुझे मेरे तेवर पर कोसती रहतीं.

वालिदान के घर मैं और सब से बड़ी आपा रहती थीं. बाकी मेरी 4 बहनों की कानपुर के आसपास ही शादी हुई थी. ये सभी बहनें पढ़ीलिखी होने के साथसाथ बाहरी कामकाज में भी स्मार्ट थीं. वैसे अब ये बातें बेजा थीं, ससुराली कायदों के खिलाफ थीं. सब से बड़ी आपा साहिबा की शादी कम उम्र में ही हो गई थी. उन का पढ़ाई में मन नहीं था और शादी के लिए वे तैयार थीं.

बाद के कुछ सालों में उन का तलाक हो गया और वे अपने बेटे रियाद के साथ हमारे पास रहने आ गईं. मेरी दूसरी आपा जीनत की शादी पड़ोस के गांव में हुई थी. उन की बेटी शिगुफ्ता की अच्छी तालीम के लिए अब्बा ने अपने पास रखा. उम्र बढ़ने के साथ रियाद और शिगुफ्ता के बीच ‘गुल गुलशन गुलफाम’ होने लगे तो इन लोगों की शादी पक्की कर दी गई.

अब्बा के बनाए घर में हम सब बड़े प्रेम से रहते थे. हां, प्रेम के बाड़े के अंदर उठापटक तब होती जब अब्बा की दी गई आजादी के निशान से हमारे कदम कुछ कमज्यादा हो जाते.

घर में पूरी तरह इसलामी कानून लागू था. बावजूद इस के अब्बा कुछ हद तक अपने खुले विचारों के लिए जाने जाते थे. मगर यह ‘हद’ जिस से अब मेरा ही हर वक्त वास्ता पड़ता मेरे लिए कोफ्त का सबब बन गया था. मैं चिढ़ी सी रहती कि मैं क्यों न अपनी तालीम को अपनी कामयाबी का जरीया बनाऊं? क्यों वालिदान का घर संभालते ही मैं जाया हो जाऊं?

सारे काम निबटा कर रियाद और शिगुफ्ता के तोहफे ले कर मैं जब अपनी स्कूटी सर्विसिंग में देने पहुंची तो 4 बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे. मन में बुरे खयालात आने लगे… घर में फिर वही बेबात की बातें… दिमाग गरम…

मैं स्कूटी दे कर जल्दी सड़क पर आई और औटो का इंतजार करने लगी. अभी औटो के इंतजार में बेचैन ही हो रही थी कि पास खड़ी एक दुबलीपतली सांवली सामान्य से कुछ ऊंची हाइट की लड़की विचित्र स्थिति से जूझती मिली. उस की तुलना में उस की भारीभरकम ड्युऐट ने उसे खासा परेशान किया हुए था.

सर्विस सैंटर के सामने उस की गाड़ी सड़क से उतर गई थी और वह उसे खींच कर सड़क पर उठाने की कोशिश में अपनी ताकत जाया कर रही थी. हाइट वैसे मेरी उस से भले ही कुछ कम थी, लेकिन अपनी बाजुओं की ताकत का जायजा लिया मैं ने तो वे उस से 20 ही लगीं मुझे. मैं ने पीछे से उस की गाड़ी को एक झटके में यों धक्का दिया कि गाड़ी आसानी से सड़क पर आ गई. पीछे से अचानक मिल गई इस आसान राहत पर उसे बड़ी हैरानी हुई. उस ने पीछे मुड़ कर मुझे देख मुझ पर अपनी सवालिया नजर रख दी.

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मैं ने मुसकरा कर उस का अभिवादन किया. बदले में उस सलोनी सी लड़की ने मुझ पर प्यारी सी मुसकान डाली. मैं पढ़ाई पूरी कर के 3 सालों से घर में बैठी हूं, मेरी उम्र 26 की हो रही. उस की भी कोई यही होगी. उस की शुक्रियाअदायगी से अचानक ऐसा लगा मुझे जैसे कभी हम मिली थीं.

मेरी उम्मीद से आगे उस ने मुझ से पूछ लिया कि मैं कहां जा रही हूं. वह मुझे मेरी मंजिल तक छोड़ सकती है. तब तक औटो को मैं ने रोक लिया था, इसलिए उसे मना करना पड़ा. हां, वह मुझे बड़ी प्यारी लगी थी, इसीलिए मैं ने उस से उस का फोन नंबर मांग लिया.

औटो में बैठ कर मैं उस सलोनी लड़की के बारे में ही सोचती रही…

वह नयनिका थी. छोटीछोटी आंखें, छोटी सी नाक पर मासूम सी सूरत. सांवली त्वचा निखरी ऐसी जैसे चमक शांति और बुद्धि की हो. बारबार मेरे जेहन में एहसास जगता रहा कि इसे मैं कहीं मिली हूं, लेकिन वे पल मुझे याद नहीं आए.

शाम को 4 बजे तक घर लौट आने का हुक्मनामा साथ ले गई थी, लेकिन अब 6 बजने में कुछ ही मिनटों का फासला था.

सूर्य का दरवाजा बंद होते ही एक लड़की बाहर महफूज नहीं रह सकती या तो बेवफाई की कालिख या फिर बिरादरी वालों की तोहमत अथवा औरत पर मंडराता जनूनी काला साया.

कहते हैं हिजाब हट रहा है. हिजाब तो समाज के दिमाग पर पड़ा है. समाज की सोच हिजाब के पीछे चेहरा छिपाए खड़ी है… वह रोशनी से खौफ खाती है. जब तक उस हिजाब को नहीं हटाओगे औरतों के हिजाब हट भी गए तो क्या?

अब्बा अम्मी पर बरस रहे थे, ‘‘लड़की जात को ज्यादा पढ़ालिखा देने से

यही होता है. मैं ही कमअक्ल था जो अपनी बिरादरी के उसूलों के खिलाफ जा कर लड़कियों को इतना पढ़ा डाला.. पैर मैं चटके बांध दिए… उस की सभी बहनें खानदान के रिवाजों की कद्र करते चल रही हैं… उन की कौन सी बेइज्जती हो रही है? वे तो किसी बात का मलाल नहीं करतीं… और इस छोटी चिलमन का यह हाल क्यों? मैं कहे देता हूं, वह कितना भी रोक ले, वाकर अली से उसे निकाह पढ़ना ही है. उस के आपा के बेटेबेटियों की शादी हो गई और यह अभी तक…

‘‘कैरियर बनाएगी… और क्या बनाएगी? इतना पढ़ा दिया… बिन बुरके यूनिवर्सिटी जाती रही… अब भी बुरका नहीं पहनती. मैं भी कुछ कहता नहीं… चलो जमाने के हिसाब से हम भी उसे छूट दें, लेकिन यह तो किसी को कुछ मानना ही नहीं चाहती?’’

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अब्बा की पीठ दरवाजे की तरफ थी.

उन्होंने देखा नहीं मुझे. वैसे मुझे और उन्हें इस से फर्क भी नहीं पड़ने वाला था. मुझे जितनी आजादी थमाई गई थी, उस का सारा रस बारबार निचोड़ लिया जाता था और मैं सूखे हुए चारे की जुगाली करती जाती थी. वैसे मेरा मानना तो यह था कि जो दी गई हो वह आजादी कहां? मेरी शादी मेरे खाला के बेटे से तय करने की पहल चल रही थी.

वाकर अली नाम था उस का. वह मैट्रिक पास था. अपनी बैग्स की दुकान थी.

आगे पढ़ें- दिनरात एक कर के ईमानदारी से…दिनरात एक कर के ईमानदारी से कमाई गई मेरी माइक्रोबायोलौजी की एमएससी की डिगरी चुल्लू भर पानी मांग रही थी डूब मरने को… और घर वाले मेरी बहनों का नाम गिना रहे थे. कैसे

वे ऊंची डिगरियां ले कर भी कम पढ़ेलिखे बिजनैस और खेती करने वाले पतियों से बाखुशी निभा रही हैं… वाकई मैं घर वालों की नजरों में उन बहनों जैसी अक्लमंद, गैरतमंद और धीरज वाली नहीं थी.

वाकर अली आज मुझे देखने आया. वैसे देखा मैं ने उसे ज्यादा… मुझ जैसी हाइट 5 फुट

5 इंच से ज्यादा नहीं होगी. सामान्य शक्लसूरत वैसे इस की कोई बात नहीं थी, लेकिन जो बात हुई वह तो जरूर कोई बात थी.

वकौल वाकर अली, ‘‘घर पर रह लेंगी न? हमारे यहां शादी के बाद औरत को घर से बाहर अकेले घूमते रहने की इजाजत नहीं होती… और आप को बुरके की आदत डाल लेनी होगी. आप को बिरादरी का खयाल रखना चाहिए था.’’

मैं अब्बा की इज्जत का खयाल कर चुप रही. मगर मैं चुप नहीं थी. सोच रही थी कि ये इजाजत देने वाले क्याक्या सोच कर इजाजत देते हैं.

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जेहन में सवाल थे कि क्याक्या फायदा होता है अगर आप के घर लड़कियां शादी बाद घर से अकेले नहीं निकलें या क्या नुकसान हो जाता है अगर निकलें तो? क्या बीवी पर भरोसे की कमी है या मर्दजात पर…

खानदानी आबरू के नाम पर काले सायों से ढकी रहने वाली औरतों की इज्जत घर में कितनी महफूज है?

वाकर अली मेरे अब्बा की तरह ही कई सारे कानून मुझ पर थोप कर चला गया कि अगर राजी रहूं तो अब्बा उस से बात आगे बढ़ाएं.

अब्बा तो जैसे इस बंदे के गले में मुझे बांधने को बेताब हुए जा रहे थे. घर में 2 दिन से इस बात पर बहस छिड़ी थी कि आखिर मुझे उस आदमी से दिक्कत क्या है? एक जोरू को चाहिए क्या- अपना घरबार, दुकान इतना कमाऊ पति, गाड़ी, काम लेने को घर में 2-3 मददगार हमेशा हाजिर… क्या बताऊं, क्या नहीं चाहिए मुझे? मुझे तो ये सब चाहिए ही नहीं.

मैं ने सोचा एक बार साहिबा आपा से बात की जाए. दीदी हैं कुछ तो समझेंगी मुझे. अभी मैं सोच कर अपने बिस्तर से उठी ही थी कि साहिबा आपा मेरे कमरे का दरवाजा ठेल अंदर आ गईं. बिना किसी लागलपेट के मैं ने कहा, ‘‘आपा, मैं परेशान हूं आप से बात करने को…’’

बीच में टोक दिया आपा ने, ‘‘हम सब भी परेशान हैं… आखिर तू निकाह क्यों नहीं करना चाहती? वाकर अली किस लिहाज से बुरा है?’’

‘‘पर वही क्यों?’’

‘‘हां, वही क्योंकि वह हमारी जिन जरूरतों का खयाल रख रहा है उन का और कोई नहीं रखेगा.’’

मैं उत्सुक हो उठी थी, ‘‘क्या? कैसी मदद?’’

‘‘वह तुझे बुटीक खुलवा देगा, तू घर पर ही रह कर कारीगरों से काम करवा कर पैसा कमाएगी.’’

‘‘पर सिर्फ पैसा कमाना मेरा मकसद नहीं… मैं ने जो पढ़ा वह शौक से पढ़ा… उस डिगरी को बक्से में बंद ही रख दूं?’’

‘‘बड़ी जिद्दी है तू!’’

‘‘हां, हूं… अगर मैं कुछ काम करूंगी तो अपनी पसंद का वरना कुछ नहीं.’’

‘‘निकाह भी नहीं?’’

‘‘जब मुझे खुद कोई पसंद आएगा तब.’’

साहिबा आपा गुस्से में पैर पटकती चली गईं. मैं सोच में पड़ गई कि वाकर अली से ब्याह कराने का बस इतना ही मकसद है कि वह मुझे बुटीक खुलवा देगा. वह बुटीक न भी खुलवाए तो इन लोगों को क्या? बात कुछ हजम नहीं हो रही थी. मन बहुत उलझन में था.

बिस्तर पर करवटें बदलते मेरा ध्यान पुरानी बातों और पुराने दिनों पर चला गया.

अचानक नयनिका याद आ गई. फिर मैं उसे पुराने किसी दिन से मिलान करने की कोशिश करने लगी. अचानक जैसे घुप्प अंधेरे में रोशनी जल उठी…

अरे, यह तो 5वीं कक्षा तक साथ पढ़ी नयना लग रही है… हो न हो वही है… अलग सैक्शन में थी, लेकिन कई बार हम ने साथ खेल भी खेले. उस की दूसरी पक्की सहेलियां उसे नयना बुलाती थीं और इसीलिए हमें भी इसी नाम का पता था. वह मुझे बिलकुल भी नहीं समझ पाई थी. ठीक ही है…

16-17 साल पुरानी सूरत आसान नहीं था समझना. रात के 12 बजने को थे. सोचा उसे एक मैसेज भेज रखूं. अगर कहीं वह देख ले तो उस से बात करूं. संदेश उस ने कुछ ही देर में देख लिया और मुझे फोन किया.

बातों का सिलसिला शुरू हो कर हम ज्यों 5वीं क्लास तक पहुंचे हमारी घनिष्ठता गहरी

होती गई. जल्दी मिलने का तय कर हम ने फोन रखा तो बहुत हद तक मैं शांत महसूस कर

रही थी.

कुछ ही मुलाकातों में विचारों और भावनाओं के स्तर पर मैं खुद को नयनिका के करीब पा रही थी. वह सरल, सभ्य शालीन और कम बोलने वाली लड़की थी. बिना किसी ऊपरी पौलिश के एकदम सहज. उस के घर में पिता सरकारी अफसर थे और बड़ा भाई सिविल इंजीनियर. मां भी काफी पढ़ीलिखी महिला थीं, लेकिन घर की साजसंभाल में ही व्यस्त रहतीं.

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नयनिका कानपुर आईआईटी से ऐरोस्पेस इंजीनियरिंग में डिगरी हासिल कर के अब पायलट बनने की नई इबारत लिख रही थी.

इतनी दूर तक उस की जिंदगी भले ही समतल जमीन पर चलती दिख रही हो, लेकिन उस की जिंदगी की उठापटक से मैं भी दूर नहीं रह पा

रही थी.

इधर मेरे घर पर अचानक अब्बा अब वाकर अली से निकाह के लिए जोर देने के साथसाथ बुटीक खोल लेने की बात मान लेने को ले कर मुझ से लड़ने लगे थे. साथ कभीकभार अम्मी भी बोल पड़तीं. हां, आपा सीधे तो कुछ नहीं कहतीं, लेकिन उन का मुझ से खफा रहना मैं साफ समझती थी. अब तो रियाद और शिगुफ्ता भी बुटीक की बात को ले कर मुझ से खफा रहने लगे थे. अलबत्ता निकाह की बात पर वे कुछ न कहते. मैं बड़ी हैरत में थी. दिनोदिन घर का माहौल कसैला होता जा रहा था. आखिर बात थी क्या? मुझे भी जानने की जिद ठन गई.

साहिबा आपा से पूछने की मैं सोच ही रही थी कि रात को किचन समेटते वक्त बगल के कमरे से अब्बा की किसी से बातचीत सुनाई पड़ी. अब्बा के शब्द धीरेधीरे हथौड़ा बन मेरे कानों में पड़ने लगे.

अच्छा, तो यह वाकर अली था फोन पर.

रियाद की प्राइवेट कंपनी में घाटा होने की वजह से उस के सिर पर छंटनी की

तलवार लटक रही थी. इधर शिगुफ्ता को बुटीक का काम अच्छा आता था. रियाद और शिगुफ्ता के लिए एक विकल्प की तलाश थी. मुझ से बुटीक खुलवाना. लगे हाथ मेरे हाथ पीले हो जाएं… रियाद और शिगुफ्ता को मेरे नाम से बुटीक मिल जाए… मालिकाना हक रियाद और शिगुफ्ता का रहे, लेकिन मेरा नाम आगे कर के कामगारों से काम लेने का जिम्मा मेरा रहे. शिगुफ्ता को जब फुरसत मिले वह बुटीक जाए.

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मैं रात को साहिबा आपा के पास जा बैठी… कहीं उन का मन मेरे लिए पसीजे. मगर वे लगीं उलटा मुझे समझाने, ‘‘वाकर तो अपनी खाला का बेटा है. गैर थोड़े ही है. पहली बीवी बेचारी मर गई थी… दूसरी भी तलाक के बाद चली गई… 38 का जवान जहान लड़का… क्यों न उस का घर बस जाए? शादी तो तुझे करनी ही है… कहीं तेरी शादी से मेरे बच्चों का जरा भला न हो जाए वह तुझे फूटी आंख नहीं सुहा रहा न?’’

‘‘अब आगे इन के बच्चे होंगे, हमारा घर छोटा पड़ेगा… इन का कारोबार जम जाए तो ये फ्लैट ले लें… यहां भी जगह बने. अब्बा फिर इस घर को बड़ा करवा कर किराए पर चढ़ाएं तो हमें भी कुछ आमदनी हो.’’

‘‘घर तोड़ेंगे क्या अब्बा… किस का कमरा?’’

‘‘किस का क्या बाहर वाला?’’

‘‘पर वह तो मेरा कमरा है?’’

‘‘तो तू कौन सी घर में रह जाएगी… वाकर के घर चली तो जाएगी ही न? जरा घर वालों का भी सोच चिलमन.’’

‘‘क्या मतलब? सुबह से ले कर रात तक सब की सेवा में लगी रहती हूं… और क्या सोचूं?’’

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‘‘कमाल है… तुझे बिना बुरके के आनेजाने, घूमनेफिरने की आजादी दी गई है… और क्या चाहिए तुझे?’’

हताश हो कर मैं आपा के कमरे से अपने कमरे में बिस्तर पर आ कर लेट गई… सच मैं क्या चाहती हूं? क्या चाहना चाहिए मुझे? एक औरत को खुद के बारे में कभी सोचना नहीं है, यही सीख है परिवार और समाज की?

मुझे एक दोस्त की बेहद जरूरत थी. नयनिका से मिलतेमिलाते सालभर होने को था. बचपन का सूत्र कहूं या हम दोनों की सोच की समानता दोनों ही एकदूसरे की दोस्ती में गहरे उतर रहे थे.

मैं जिस वक्त उस के घर गई वह अपनी पढ़ाई की तैयारी में व्यस्त थी. नयनिका कमर्शियल पायलट के लाइसैंस के लिए तैयारी कर रही थी. हम दोनों उस के बगीचे में आ गए थे. रंगबिरंगे फूलों के बीच जब हम जा बैठे तो कुछ और करीबियां हमारे पास सिमट आईं. उस की आंखों में छिपा दर्द शायद मुझे अपना हाल सुनाने को बेताब था. शायद मैं भी. बरदाश्त की वह लकीर जब तक अंगारा नहीं बन जाती, हम उसे पार करना नहीं चाहतीं, हम अपने प्रियजनों के खिलाफ जल्दी कुछ बुरा कहनासुनना भी

नहीं चाहते.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘उदास क्यों रहती हो हमेशा? तैयारी तो अच्छी चल रही न?’’

उस ने कहा, ‘‘कारण है, तभी तो उदास हूं… कमर्शियल पायलट बनने की कामयाबी मिल भी जाए तो हजारों रुपए लगेंगे इस की ट्रेनिंग में जाने को. बड़े भैया ने तो आदेश जारी कर दिया है कि बहुत हो गया, हवा में उड़ना… अब घरगृहस्थी में मन रमाओ.’’

‘‘हूं, दिक्कत तो है… फिर कर लो शादी.’’

‘‘क्यों, तुम मान रही हो वाकर से शादी और बुटीक की बात? वह तुम्हारे

हिसाब से, तुम्हारी मरजी से अलग है… अमेरिका में हर महीने लाखों कमाने वाले खूबसूरत इंजीनियर से शादी वैसे ही मेरी मंजिल नहीं. जो मैं बनना चाहती हूं, वह बनने न देना और सब की मरजी पर कुरबान हो जाना… यह इसलिए कि एक स्त्री की स्वतंत्रता मात्र उस के सिंदूर, कंगन और घूमनेफिरने के लिए दी गई छूट या रहने को मिली छत पर ही आ कर खत्म हो जाती है.’’

‘‘वाकई तुम प्लेन उड़ा लोगी,’’

मैं मुसकराई.

वह अब भी गंभीर थी. पूछा, ‘‘क्यों? अच्छेअच्छे उड़ जाएंगे, प्लेन क्या चीज है,’’ वह उदासी में भी मुसकरा पड़ी.

‘‘क्या करना चाहती हो आगे?’’

‘‘कमर्शियल पायलट का लाइसैंस मिल जाए तो मल्टीइंजिन ट्रैनिंग के लिए न्यूजीलैंड जाना चाहती हूं. पापा किसी तरह मान भी जाएं तो भैया यह नहीं होने देंगे.’’

‘‘क्यों, उन्हें इतनी भी क्या दिक्कत?’’

‘‘वे एक सामान्य इंजीनियर मैं कमर्शियल पायलट… एक स्त्री हो कर उन से ज्यादा डेयरिंग काम करूं… रिश्तेदारों और समाज में चर्चा का विषय बनूं? बड़ा भाई क्यों पायलट नहीं बन सका? आदि सवाल न उठ खड़े हों… दूसरी बात यह है कि अमेरिका में उन का दोस्त इंजीनियर है. अगर मैं उस दोस्त से शादी कर लूं तो वह अपनी पहचान से भैया को अमेरिका में अच्छी कंपनी में जौब दिलवाने में मदद करेगा. तीसरी बात यह है कि इन की बहन को मेरे भैया पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं, जो अभी अमेरिका में ही जौब कर रही है.’’

‘‘उफ, बड़ी टेढ़ी खीर है,’’ मैं बोल पड़ी.

‘‘सब सधे लोग हैं… पक्के व्यवसायी… मैं तो उस दोस्त को पसंद भी नहीं करती और न ही वह मुझे.’’

‘‘हम ही नहीं सीख पा रहे दुनियादारी.’’

‘‘सीखना पड़ेगा चिलमन… लोग हम जैसों के सिर पर पैर रख सीढि़यां चढ़ते रहेंगे… हम आंसुओं पर लंबीलंबी शायरियां लिख उन पन्नों को रूह की आग में जलाते जाएंगे.’’

‘‘तुम्हें मिलाऊंगी अर्क से… आने ही वाला है… शाम को उस के साथ मुझे डिनर पर जाना पड़ेगा… भैया का आदेश है,’’ नयनिका उदास सी बोली जा रही थी.

मैं अब यहां से निकलने की जल्दी में थी. मेरी मोहलत भी खत्म होने को आई थी.

‘ये सख्श कौन? अर्क साहब तो नहीं? फुरसत से बनाया है बनाने वाले ने,’ मैं मन ही मन अनायास सोचती चली गई.

अर्क ही थे महाशय. 5 फुट 10 इंच लंबे, गेहुंए रंग में निखरे… वाकई खूबसूरत नौजवान. उन्हें देखते मैं पहली बार छुईमुई सी हया बन गई… न जाने क्यों उन से नजरें मिलीं नहीं कि चिलमन खुद आंखों में शरमा कर पलकों के अंदर सिमट गई.

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अर्क साहब मेरे चेहरे पर नजर रख खड़े हो गए. फिर नयनिका की ओर मुखाबित हुए, ‘‘ये नई मुहतरमा कौन?’’

‘‘चिलमन, मेरी बचपन की सहेली.’’

अर्क साहब ने हाथ मिलाने को मेरी ओर हाथ बढ़ाया. मैं ने हाथ तो मिलाया, पर फिर घर वालों की याद आते ही मैं असहज हो गई. मैं ने जोर दे कर कहा, ‘‘मैं चलूंगी.’’

नयनिका समझ रही थी, बोली, ‘‘हां,

तुम निकलो.’’

अर्क मुझ पर छा गए थे. मैं नयनिका से मन ही मन माफी मांग रही थी, लेकिन इस अनजाने से एहसास को जाने क्यों अब रोक पाना संभव नहीं था मेरे लिए.

कुछ दिनों बाद नयनिका ने खुशखबरी सुनाई. उस की लड़ाई कामयाब हुई थी… उसे मल्टी इंजिन ट्रेनिंग के लिए राज्य सरकार के खर्चे पर न्यूजीलैंड भेजा जाना था.

इस खुशी में उस ने मुझे रात होटल में डिनर पर बुलाया.

उस की इस खबर ने मुझ में न सिर्फ उम्मीद की किरण जगाई, बल्कि काफी हिम्मत भी दे गई. मैं ने भी आरपार की लड़ाई में उतर जाने को मन बना लिया.

होटल में अर्क को देख मैं अवाक थी और नहीं भी.

हलकेफुलके खुशीभरी माहौल में नयनिका ने मुझ से कहा, ‘‘तुम दोनों को यहां साथ बुलाने का मेरा एक मकसद है. अर्क और तुम्हारी बातों से मैं समझने लगी हूं कि यकीनन तुम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो वरना अर्क माफी मांगते हुए तुम्हारे मोबाइल नंबर मुझ से न मांगते… चिलमन, अर्क जानते हैं मैं किस मिट्टी की बनी हूं… यह घरगृहस्थी का तामझाम मेरे

बस का नहीं है… सब लोग एक ही सांचे में नहीं ढल सकते… मैं अभी न्यूजीलैंड चली जाऊंगी, फिर आते ही पायलट के काम में समर्पण. चिलमन तुम अर्क से आज ही अपने मन की बात कह दो.’’

अर्क खुशी से सुर्ख हो रहे थे. बोले, ‘‘अरे, ऐसा है क्या? मैं तो सोच रहा था कि मैं अकेला ही जी जला रहा हूं.’’

कुछ देर चुप रहने के बाद अर्क फिर बोले, ‘‘नयनिका के पास बड़े मकसद हैं.’’

मेरे मुंह से अचानक निकला, ‘‘मेरे पास

भी थे.’’

‘‘तो बताइए न मुझे.’’

नयनिका ने कहा, ‘‘जाओ उस कोने वाली टेबल पर और औपचारिकता छोड़ कर बातें कर लो.’’

अर्क ने पूरी सचाई के साथ मेरा हाथ थाम लिया था… विदेश जा कर मेरे कैरियर को नई ऊंचाई देने का मुझ से वादा किया.

इधर शादी के मामले में अर्क ने नयनिका के घर वालों का भी मोरचा संभाला.

अब थी मेरी बारी. अर्क का साथ मिल गया तो मुझे राह दिख गई.

घर से निकलते वक्त मन भारी जरूर था, लेकिन अब डर, बेचारगी की जंजीरों से अपने पैर छुड़ाने जरूरी हो गए थे.

कानपुर से दिल्ली की फ्लाइट पकड़ी हम ने. फिर वक्त से अमेरिकन एयरवेज में दाखिल

हो गए.

साहिबा आपा को फोन से सूचना दे दी कि अर्क के साथ मैं अपनी नई जिंदगी शुरू करने अमेरिका जा रही हूं. वहां माइक्रोबायोलौजी ले कर काम करूंगी और अर्क को खुश रखूंगी.’’

साहिबा आपा जैसे आसमान से गिरी हों. हकला कर पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

हमारी आजादी हिजाब हटनेभर से नहीं है आपा… हमारी आजादी में एक उड़ान होनी चाहिए.

आपा के फोन रख देने भर से हमारी आजादी की नई दास्तां शुरू हो गई थी.

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भूल: शिखा के ससुराल से मायके आने की क्या थी वजह

मेरीसास सुचित्रा देवी विधवा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं. इकलौती ननद अर्चना मायके में रह रही है. उस की ससुराल में निभी नहीं. पति शराब पी कर मारपीट करता था. उस ने तलाक लेने की प्रक्रिया शुरू कर रखी है.

शिखा के देवर संजीव की शादी अपने बड़े भाई राजीव की शादी के 3 साल बाद हुई. उस की देवरानी रितु के आते ही हम मांबेटी ने उस के घर से अलग होने का अभियान तेज कर दिया.

मुझे अपनी छोटी बेटी की सुंदरता पर नाज है. राजीव उस के रंगरूप का दीवाना है. शादी के साल भर बाद 1 बेटे की मां बनने के बावजूद शिखा गजब की खूबसूरत नजर आती है. घरगृहस्थी तब पनपी जब मैं संयुक्त परिवार से अलग हुई. सच, मनचाहे ढंग से जिंदगी जीने का अपना अलग ही मजा है.

अपनी दोनों बेटियों की खुशियों को ध्यान में रखते हुए मैं ने हमेशा चाहा कि वे भी जल्दी से जल्दी ससुराल से अलग हो कर रहने लगें.

मेरी बड़ी बेटी सविता ने अपनी शादी की पहली वर्षगांठ अपने फ्लैट में मनाई थी. उस की नौकरी अच्छी है, इसलिए अलग होने में उसे ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा.

छोटी बेटी शिखा ज्यादा पढ़ी नहीं है. वह शादी से पहले एक कंपनी में रिसैप्शनिस्ट थी. अपनी सास व पति की इच्छा को ध्यान में रख कर उस ने शादी के बाद नौकरी नहीं की. उस की सास सुचित्रा देवी विधवा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं. इकलौती ननद अर्चना मायके में रह रही है. उस की ससुराल में निभी नहीं. पति शराब पी कर मारपीट करता था. उस ने तलाक लेने की प्रक्रिया शुरू कर रखी है.

शिखा के देवर संजीव की शादी अपने बड़े भाई राजीव की शादी के 3 साल बाद हुई. उस की देवरानी रितु के आते ही हम मांबेटी ने उस के घर से अलग होने का अभियान तेज कर दिया.

मुझे अपनी छोटी बेटी की सुंदरता पर नाज है. राजीव उस के रंगरूप का दीवाना है. शादी के साल भर बाद 1 बेटे की मां बनने के बावजूद शिखा गजब की खूबसूरत नजर आती है.

मेरी चांद सी सुंदर बेटी संयुक्त परिवार में पिसती रहे, यह न उसे स्वीकार था, न मुझे. हम दोनों ने राजीव पर घर से अलग होने के लिए बड़ी होशियारी से दबाव बनाना शुरू कर दिया.

मेरी सलाह पर शिखा ने ससुराल में घर के कामों से हाथ खींचना शुरू कर दिया. सास सुचित्रा ने उसे डांटा, पर वह खामोश रही. जिस दिन उस की ननद अर्चना उस पर चिल्लाई, शिखा उस से खूब झगड़ी और खूब रोई.

ऐसे झगड़े 2-4 बार हुए, तो शिखा तबीयत खराब होने का बहाना बना कर कमरे से नहीं निकली. सास, ननद व देवरानी ने उस की उपेक्षा की, तो वह जिद कर के अपने पति के साथ मायके मेरे पास आ गई. उस के यहां आने के बाद राजीव को किराए के मकान में अलग रहने के लिए राजी करना हम दोनों के लिए आसान हो गया.

‘‘मम्मी, हमारे घर में न जगह की कमी है, न सुखसुविधाओं की. अपनी विधवा मां को छोड़ कर अलग होते हुए मुझे दुख होगा,’’ राजीव की ऐसी दलीलों की काट मुझे अच्छी तरह से मालूम थी.

मेरी जिम्मेदारी थी राजीव को पूरा मानसम्मान देते हुए उस की खूब खातिर करना. शिखा उस के मनोरंजन, सुख और खुशियों का पूरा ध्यान रखती. मेरे घर में उस का बड़ा अच्छा समय व्यतीत होता. इसी कारण वह हर दूसरीतीसरी रात ससुराल में बिताता.

मेरी बड़ी बेटी सविता और उस के पति अरुण ने भी राजीव का मन बदलने में अपना पूरा योगदान दिया. अपने घर में रहने के फायदे गिनाते दोनों की जबान न थकती.

करीब महीना भर मायके में रह कर शिखा ससुराल लौट गई. उस का यह कदम हमारी योजना का ही हिस्सा था. आगामी 3 महीनों में वह लड़ाईझगड़ा कर के 4 बार फिर मायके भाग आई. इस के बाद दोनों तरफ की सहनशक्ति जवाब दे गई.

घर की सुखशांति के लिए सुचित्रा ने अपने बड़े बेटे को किराए के मकान में जाने की इजाजत दे दी. अपने देवर की शादी के मात्र 6 महीनों के बाद शिखा मेरे घर के बहुत नजदीक एक किराए के मकान में रहने आ गई. सिवा शिखा के पिता के हम सब खूब खुश हुए. वे जरा भावुक किस्म के इंसान हैं… आज की दुनिया की चाल को कम समझते हैं.

‘‘हमारी शिखा घरगृहस्थी के कामों में कुशल नहीं है. उसे बस हवा में उड़ना आता है. तुम ने उसे अलग करवा कर ठीक नहीं किया, शोभा,’’ उन्हें यों परेशान देख कर मैं मन ही मन हंस पड़ी थी.

शिखा की घरगृहस्थी अच्छी तरह से जमाने के लिए मैं ने खुशीखुशी अपनी जेब से खर्चा किया. राजीव और नन्हे रोहित को कोई शिकायत या परेशानी न हो, इस का मैं ने विशेष ध्यान रखा. अपनी बेटी का कामकाज में हाथ बंटाने मैं रोज ही उस के घर चली जाती थी.

राजीव कुछ दिनों तक बुझाबुझा और नाराज सा रहा, पर फिर सहज व सामान्य हो गया. अब स्वतंत्र जीवन जी रही शिखा का खिला चेहरा देख मैं खूब प्रसन्न होती.

शिखा ससुराल बहुत कम जाती. उस का अपनी नईपुरानी सहेलियों के साथ ज्यादा समय गुजरता. रोहित को तब मुझे संभालना पड़ता. मैं यह काम खुशीखुशी करती, पर उस का बढ़ता चिड़चिड़ापन कभीकभी मुझे बहुत परेशान कर डालता.

जी भर के घूमनाफिरना कर लेने के बाद शिखा के सिर पर नौकरी करने का भूत सवार हुआ. मैं ने उस के इस कदम का दबी जबान से विरोध किया, पर उस का कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि उस ने राजीव को राजी कर लिया था.

अपने आकर्षक व्यक्तित्व के कारण शिखा फिर से अपनी पुरानी कंपनी में रिसैप्शनिस्ट का पद पा गई. सप्ताह में 6 दिन रोहित को मैं संभालने लगी. अपनी बेटी की खुशी की खातिर मैं ने इस जिम्मेदारी को खुशीखुशी निभाना शुरू कर दिया.

मुझे लग रहा था कि मेरी छोटी बेटी की विवाहित जिंदगी में सब कुछ बढि़या चल रहा है, पर मेरा यह अंदाजा रोहित के तीसरे जन्मदिन की पार्टी के दौरान गलत साबित हुआ.

पार्टी का सारा मजा रोहित के लगातार रोतेकिलसते रहने से किरकिरा हो गया. वह अपनी मां से चिपटा रहना चाहता था, पर शिखा को और भी कई काम थे.

शिखा की ससुराल से सब लोग आए जरूर, पर किसी ने पार्टी के आयोजन में सक्रिय हिस्सा नहीं लिया. सारी देखभाल सविता और मुझे करनी पड़ी. शिखा अपने औफिस के सहयोगियों की देखभाल में बेहद व्यस्त रही.

शिखा की कंपनी के मालिक के बड़े बेटे तरुण विशेष मेहमान के रूप में आए. रोहित के लिए वह छोटी साइकिल का सब से महंगा उपहार दे कर गए. अपने हंसमुख, सहज व्यवहार से उन्होंने सभी का दिल जीत लिया. शिखा और राजीव दोनों ही उन के सामने बिछबिछ जा रहे थे.

तरुण के आने से पहले राजीव और शिखा के बीच में मैं ने अजीब सा तनाव महसूस किया था. मेरे दामाद की आंखों में अपनी पत्नी के लिए भरपूर प्यार के भाव कोई भी पढ़ सकता था, पर शिखा जानबूझ कर उन भावों की उपेक्षा कर रही थी.

अपने पति को देख कर वह बारबार मुसकराती, पर उस की मुसकराहट आंखों तक नहीं पहुंचती. कोई ऐसी बात जरूर थी, जो शिखा को बेचैन किए हुए थी. उस बात की मुझे कोई जानकारी न होना मेरे लिए चिंता का कारण बन रहा था.

तरुण को विदा करने के लिए राजीव और शिखा दोनों बाहर गए. मैं पहली मंजिल की खिड़की से नीचे का सारा दृश्य देख रही थी.

तरुण की कार के पास पहुंचने के बाद शिखा ने राजीव से कहा, तो वह लौट पड़ा.

शिखा कार से सट कर खड़ी हो गई. तरुण उस के नजदीक खड़े थे. दोनो हंसहंस कर बातें कर रहे थे.

उन्हें कोई भी देखता तो किसी तरह के शक का कोई कारण उस के मन में शायद पैदा न होता, लेकिन मेरे मन में कोई शक नहीं रहा कि मेरी बेटी का तरुण के साथ अवैध प्रेम संबंध कायम हो चुका है.

मैं ने साफ देखा कि तरुण का एक हाथ कार से सट कर खड़ी शिखा की कमर व कूल्हों को बड़े मालिकाना अंदाज में सहला रहा था.

तरुण की इस हरकत को सामने से आता इंसान नहीं देख सकता था, पर पहली मंजिल की खिड़की से मुझे सब साफ नजर आया.

कुछ देर बाद राजीव मिठाई का छोटा डब्बा ले कर उन के पास पहुंचा. तरुण ने अपनी गलत हकरत रोक कर अपने हाथ छाती पर बांध लिए. राजीव को उन के गलत रिश्ते का अंदाजा होना असंभव था.

उस रात मैं बिलकुल नहीं सो पाई. राजीव शिखा को बहुत प्यार करता था. शिखा के तरुण के साथ बने अवैध प्रेम संबंध को वह कभी स्वीकार नहीं कर पाएगा, मुझे मालूम था.

अवैध प्रेम संबंध को छिपाए रखना असंभव है. देरसवेर राजीव को भी इस के गलत संबंध की जानकारी होनी ही थी.

‘तब क्या होगा?’ इस सवाल का जवाब सोच कर मेरा कलेजा कांप उठा.

राजीव अपनी जान दे सकता था, तो शिखा की जान ले भी सकता था. कम से कम तलाक तो दोनों के बीच जरूर होगा, अपनी बेटी के घर के बिखरने की यों कल्पना करते हुए मैं रो पड़ी.

शिखा ससुराल से अलग न हुई होती, तो यह मुसीबत कभी न आती. अलग होने के इस बीज के अंकुरित होने में मेरा अहम योगदान था. उस रात करवटें बदलते हुए मैं ने खुद को अपनी उस गलत भूमिका के लिए खूब कोसा. मैं ने कभी नहीं चाहा था कि मेरी बेटी का तलाक हो और वह 40 साल के अमीर विवाहित पुरुष की रखैल के रूप में बदनाम हो.

मेरी मूर्ख बेटी अपनी विवाहित जिंदगी की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे को समझ नहीं रही थी. उसे सही राह पर लाने की जिम्मेदारी मेरी ही थी और इस कार्य को पूरा करने का संकल्प पलपल मेरे मन में मजबूती पकड़ता गया.

मैं ने राजीव की मां से फोन पर बातें कीं, ‘‘बहनजी, मैं ने कल की पार्टी में रोहित को पूरा समय रोते ही देखा. उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. वह दुबला भी होता जा रहा है,’’ ऐसी इधरउधर की कुछ बातें करने के बाद मैं ने वार्त्तालाप इच्छित दिशा में मोड़ा.

‘‘यह सब तो होना ही था, क्योंकि आप की बेटी के पास उस का उचित पालनपोषण करने के लिए समय ही नहीं है,’’ सुचित्रा की आवाज में फौरन शिकायत के भाव पैदा हो गए.

‘‘उस के पास न समय है और न ही बच्चे को सही ढंग से पालने की कुशलता.’’

‘‘यह बात आप को बड़ी देर से समझ आई,’’ सुचित्रा की आवाज में रोष के साथसाथ हैरानी के भाव भी मौजूद थे.

‘‘ठीक कह रही हैं आप. हम सब की गलती का एहसास मुझे अब है, बहनजी. मेरी एक प्रार्थना आप स्वीकार करेंगी?’’

‘‘कहिए,’’ उन का स्वर कोमल हो उठा.

‘‘मेरी मूर्ख बेटी को वापस अपने पास आने की इजाजत दे दीजिए,’’ अपना गला रुंध जाने पर मुझे खुद को भी काफी हैरानी हुई.

‘‘यह घर उसी का है, पर उस ने लौटने की इच्छा मुझ से जाहिर नहीं की.’’

‘‘वह ऐसा जल्दी करेगी… मैं उसे समझाऊंगी.’’

‘‘उस का यहां हमेशा स्वागत होगा, बहनजी. हम सब को बहुत खुशी होगी,’’ इस बार भावावेश के कारण सुचित्रा का गला रुंध गया.

उस पूरे हफ्ते मैं ने अपनी बेटी की जासूसी की. उस ने 2 बार रेस्तरां में तरुण के साथ कौफी पी. 1 बार लंच के बाद छुट्टी कर के शहर के बाहरी हिस्से में बने सिनेमाहौल में फिल्म देखी. इन अवसरों पर तरुणउसे घर से दूर मुख्य सड़क पर कार से छोड़ गया.

इन 5 दिनों तक रोहित के नाना ने उसे संभाला. मेरे घर से गायब रहने की चर्चा शिखा या राजीव से हम दोनों ने बिलकुल नहीं की.

आगामी सोमवार की सुबह शिखा के औफिस जाने के बाद राजीव जब रोहित को मेरे घर छोड़ने आया, तो मैं ने उसे रोक कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘मैं तुम से कुछ जरूरी बात करना चाहती हूं, बेटा,’’ मैं ने गंभीर लहजे में उस से वार्त्तालाप शुरू किया.

राजीव का सारा ध्यान फौरन मुझ पर केंद्रित हो गया.

‘‘मेरी दिली इच्छा है कि तुम दोनों अपने घर लौट जाओ.’’

‘‘शिखा तैयार नहीं होगी लौटने को,’’ अपनी हैरानी को छिपाते हुए राजीव ने जवाब दिया.

‘‘तुम तो लौटना चाहते हो न?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘तब मुझे सहयोग करो. शिखा नौकरी भी छोड़ देगी और लौटने के लिए भी राजी हो जाएगी. मेरी समझ से उसे सारा ध्यान रोहित के उचित पालनपोषण पर लगाना चाहिए.’’

‘‘जी बिलकुल.’’

‘‘मैं जो कहूंगी, वह करोगे?’’

‘‘मुझे क्या करना है?’’

‘‘तुम रोहित को आज चिडि़याघर दिखा लाओ. शाम को लौटना और यहां आने से पहले मुझे फोन कर लेना. ध्यान बस इसी बात का रखना कि तुम्हें शिखा से कोई संपर्क नहीं रखना है. तुम्हारे सारे सवालों के जवाब मैं शाम को दूंगी.’’

कुछ देर खामोश रह कर उस ने सोचविचार किया और फिर मेरी बात मान ली.

कुछ देर बाद बापबेटा चिडि़याघर घूमने निकल गए. उन के जाने के बाद मैं ने शिखा को औफिस में फोन किया और भय से कांपती आवाज से बोली, ‘‘बेटी, तू इसी वक्त घर आ जा. हम सब बड़ी मुसीबत में हैं.’’

‘‘रोहित को कुछ हुआ है क्या?’’ वह फौरन घबरा उठी.

‘‘रोहित को भी… और राजीव को भी… तू फौरन यहां पहुंच और देख, उस तरुण से न इस बात की चर्चा करना, न उस के साथ आना वरना सब बहुत गड़बड़ हो जाएगा. बस, फौरन आ जा,’’ और मैं ने फोन काट दिया. करीब 15 मिनट के अंदर शिखा घर आ गई.

वह मेरे सामने पहुंची, तो मैं ने गुस्से से घूरना शुरू कर दिया.‘‘क्या हुआ है? मुझे ऐसे क्यों देख रही हैं?’’ उस की घबराहट और बढ़ गई.

‘‘अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर तुझे क्या मिला है, बेवकूफ? मैं ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि मेरी बेटी चरित्रहीन निकलेगी,’’ क्रोधावेश के कारण मेरी आवाज कांप उठी.

‘‘यह क्या कह रही हैं आप?’’ मन में चोर होने के कारण उस का चेहरा फौरन पीला पड़ गया.

‘‘राजीव को सब पता लग गया है, बेहया…’’

‘‘क्या पता लग गया है उन्हें?’’ पूरा वाक्य मुंह से निकले में वह कई बार अटकी.

‘‘तरुण और तुम्हारे गलत संबंध के बारे में.’’

‘‘हमारे बीच कोई गलत संबंध नहीं है,’’ उस ने आवाज ऊंची कर के अपने इनकार में वजन पैदा करना चाहा.

‘‘तू क्या सोमवार और बुधवार को उस के साथ रेस्तरां में नहीं गई थी?’’

‘‘नहीं… और अगर गई भी थी तो इस से यह साबित नहीं होता कि तरुण और मेरे…’’

‘‘पिछले शुक्रवार को तुम दोनों ने क्या फिल्म नहीं देखी थी?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने झूठ बोला.

मैं ने आगे बढ़ कर एक जोर का तमाचा उस के गाल पर जड़ा और चिल्लाई, ‘‘यों झूठ बोल कर तू अब अपने माथे पर लगा कलंक का टीका साफ नहीं कर पाएगी, मूर्ख लड़की. राजीव रोहित को तुझ से दूर ले गया है. उस ने तुम्हें अपनी व अपने बेटेकी जिंदगी से बाहर निकाल फेंकने का निर्णय ले लिया है… हमारी नाक कटा दी तू ने और अपनी तो जिंदगी ही बरबाद कर ली.’’

मेरे चांटे का फौरन असर हुआ. वह झूठ बोल कर अपना बचाव करना भूल गई. अपने हाथों में उस ने अपना मुंह छिपाया और रो पड़ी.

‘‘अब क्यों रो रही है?’’ मैं ने उस पर चोट करना जारी रखा, ‘‘राजीव से तलाक मिल जाएगा तुझे. जा कर उस तरुण से बात कर कि वह भी अब अपनी पत्नी से तलाक ले कर तुझे अपनाए.’’

‘‘मैं रोहित से दूर नहीं रह सकती हूं,’’ अपनी इच्छा बता कर वह और जोर से रो पड़ी.

‘‘रोहित के पिता को धोखा दे कर… उस के प्रेम को अपमानित कर के तू किस मुंह से रोहित को मांग रही है? अब तू उन्हें भूल जा और उस तरुण के साथ…’’

‘‘उस का नाम मत लो, मां,’’ वह तड़प उठी, ‘‘मैं उस से आगे कोई संबंध नहीं रखूंगी. मैं भटक गई थी… मुझे उन दोनों के साथ ही रहना है, मां.’’

‘‘अब यह नहीं हो सकता, बेटी.’’

‘‘मां, कुछ करो, प्लीज,’’ वह मेरे गले लग कर बिलखने लगी.

मैं ने मन ही मन राहत की सांस ली. शिखा की प्रतिक्रिया से साफ जाहिर था कि तरुण और उस के बीच अवैध संबंध नहीं था.

मेरी मूर्ख बेटी ने ससुराल में मिली आजादी का गलत फायदा उठाया था. अपने पति के प्रेम का नाजायज फायदा उठाते हुए वह नासमझी में भटक गई थी.

मैं बंदर के हाथ उस्तरा देने की कुसूरवार थी. मुझे पता था कि मेरी बेटी सुंदर ज्यादा है और गुणवान कम. ऐसी लड़कियां संयुक्त परिवार की सुरक्षा में ज्यादा सुखी रहती हैं. उसे परिवार से अलग कर मैं ने भारी भूल की थी.

जिस भय, चिंता व तनाव भरी मनोदशा का शिखा शिकार थी, उस के चलते उस से अपनी हर बात मनवाना मेरे लिए कठिन नहीं था. राजीव और रोहित को पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी.

मैं ने आसानी से उसे फौरन नौकरी छोड़ने व ससुराल लौटने को तैयार कर लिया.

‘‘बेटी, जगह की कमी, ससुराल वालों के दुर्व्यवहार या किसी अन्य मजबूरी के कारण बहुएं संयुक्त परिवार को छोड़ देती हैं, पर तू सिर्फ जिम्मेदारियों से बचने के लिए अलग हुई. तुझे गलत शह देने की कुसूरवार मैं भी हूं. तू ससुराल लौट कर ही सुखी रहेगी, इस में कोई शक नहीं. तू मुझ से एक वादा कर,’’ मैं बहुत गंभीर हो गई.

‘‘कैसा वादा?’’ उस ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘यही कि इस बार लौट कर तुम अपने उत्तरदायित्वों को सही तरह से निभाओगी… अपने संयुक्त परिवार की मजबूत कड़ी बनोगी.’’

‘‘बनूंगी, मां,’’ उस ने जोर से कहा.

मैं ने आगे झुक कर उस का माथा चूमा और भावुक लहजे में बोली, ‘‘अब सच बात सुन. जिस व्यक्ति ने मुझे तरुण और तुम्हारे बारे में बताया है, वह राजीव नहीं है और उस ने भूल सुधार फौरन न होने की स्थिति में सब कुछ राजीव को बताने की धमकी भी दी है.’’

‘‘क…कौन है वह व्यक्ति?’’ उस ने परेशान लहजे में पूछा.

‘‘उस का नाम मत पूछ. बस, अपनेआप को बदल डाल, बेटी और अपने विवाहित जीवन की सुरक्षा व खुशियों को फिर कभी अपनी मूर्खता व नासमझी द्वारा दांव पर मत लगाना. इस बार तुम बच जाओगी, पर भविष्य में…’’

उस ने मेरे मुंह पर हाथ रख कर मजबूत स्वर में जवाब दिया, ‘‘भविष्य में ऐसी भूल कभी नहीं दोहराऊंगी, मां. पर तुम्हें विश्वास है कि सब जानने वाला वह इंसान अपना मुंह बंद रखेगा?’’

‘‘हां, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगाया और मौन आंसू बहाने लगी, क्योंकि अपने द्वारा की गई भूलों का कड़वा पल सामने आया देख मैं खुद को काफी शर्मिंदा महसूस कर रही थी.

 

बदलती दिशा: क्या गृहस्थी के लिए जया आधुनिक दुनिया में ढल पाई

जया ने घड़ी देखी और ब्रश पकड़े हाथों की गति बढ़ा दी. आज उठने में देर हो गई है. असल में पिं्रस की छुट्टी है तो उस ने अलार्म नहीं लगाया था. यही कारण है कि 7 बजे तक वह सोती रह गई. प्रिंस तो अभी भी सो रहा है.

कल रात जया सो नहीं पाई थी, भोर में सोई तो उठने का समय गड़बड़ा गया. वैसे आज प्रिंस को तैयार करने का झमेला नहीं है. बस, उसे ही दफ्तर के लिए तैयार होना है.

अम्मां ने चलते समय उसे टिफिन पकड़ाया और बोलीं, ‘‘परांठा आमलेट है, बीबी. याद से खा लेना. लौटा कर मत लाना. सुबह नाश्ता नहीं किया…चाय भी आधी छोड़ दी.’’

अम्मां कितना ध्यान रखती हैं, यह सोच कर जया की आंखों में आंसू झिलमिला उठे. यह कहावत कितनी सही है कि अपनों से पराए भले. अपने तो पलट कर भी नहीं देखते लेकिन 700 रुपए और रोटीकपड़े पर काम करने वाली इस अम्मां का कितना ध्यान है उस के प्रति. आज जया उसे हटा दे तो वह चली जाएगी, यह वह भी जानती है फिर भी कितना स्नेह…कैसी ममता है.

ढलती उमर में यह औरत पराए घर काम कर के जी रही है. भोर में आ कर शाम को जाती है फिर भी जया के प्रति उस के मन में कितना लगावजुड़ाव है. और पति रमन…उस के साथ तो जन्मजन्मांतर के लिए वह बंधी है. तब भी कभी नहीं पूछता कि कैसी हो. इतना स्वार्थी है रमन कि किसी से कोई मतलब नहीं. बस, घर में सबकुछ उस के मन जैसा होना चाहिए. उस के सुखआराम की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए. वह अपने को घर का मालिक समझता है जबकि तनख्वाह जया उस से डबल पाती है और घर चलाती है.

अच्छे संस्कारों में पलीबढ़ी जया मांदादी के आदर्शों पर चलती है…उच्च पद पर नौकरी करते हुए भी उग्र- आधुनिकता नहीं है उस के अंदर. पति, घर, बच्चा उस के प्राण हैं और उन के प्रति वह समर्पित है. उसे बेटे प्रिंस से, पति रमन से और अपने हाथों सजाई अपनी गृहस्थी से बहुत प्यार है.

बचपन से ही जया भावुक, कोमल और संवेदनशील स्वभाव की है. पति उस को ऐसा मिला है, जो बस, अपना ही स्वार्थ देखता है, पत्नी बच्चे के प्रति कोई प्यारममता उस में नहीं है.  जया तो उस के लिए विलास की एक वस्तु मात्र है.

जया घर से निकली तो देर हो गई थी. यह इत्तेफाक ही था कि घर से निकलते ही उसे आटो मिल गया और वह ठीक समय पर दफ्तर पहुंच गई.

कुरसी खींच कर जया सीट पर बैठी ही थी कि चपरासी ने आकर कहा, ‘‘मैडम, बौस ने आप को बुलाया है.’’

जया घबराई…डरतेडरते उन के कमरे में गई. वह बड़े अच्छे मूड में थे. उसे देखते ही बोले, ‘‘जया, मिठाई खिलाओ.’’

‘‘किस बात की, सर?’’ अवाक् जया पूछ बैठी.

‘‘तुम्हारी सी.आर. बहुत अच्छी गई थी…तुम को प्रमोशन मिल गया है.’’

धन्यवाद दे कर जया बाहर आई, फिर ऐसे काम में जुट गई कि सिर उठाने का भी समय नहीं मिला.

दफ्तर से छुट्टी के बाद वह घर आ कर सीधी लेट गई. प्रिंस भी आ कर उस से लिपट गया. अम्मां चाय लाईं.

‘‘टिफन खाया?’’

‘‘अरे, अम्मां…आज भी लंच करना ध्यान नहीं रहा. अम्मां, ऐसा करो, ओवन में गरम कर उसे ही दे दो.’’

‘‘रहने दो, मैं गरमगरम नमक- अजवाइन की पूरी बना देती हूं…पर बीबी, देह तुम्हारी अपनी है, बच्चे को पालना है. ऐसा करोगी तो…’’

बड़बड़ाती अम्मां रसोई में पूरी बनाने चली गईं. जया कृतज्ञ नजरों से उन को जाते हुए देखती रही. थोड़ी ही देर में अचार के साथ पूरी ले कर अम्मां आईं.

‘‘रात को क्या खाओगी?’’

‘‘अभी भर पेट खा कर रात को क्या खाऊंगी?’’

‘‘प्रिंस की खिचड़ी रखी है,’’ यह बोल कर अम्मां दो पल खड़ी रहीं फिर बोलीं, ‘‘साहब कब आएंगे?’’

‘‘काम से गए हैं, जब काम खत्म होगा तब आएंगे.’’

रात देर तक जया को नींद नहीं आई. अपने पति रमन के बारे में सोचती रही कि वह अब कुछ ज्यादा ही बाहर जाने लगे हैं. घर में जब रहते हैं तो बातबात पर झुंझला पड़ते हैं. उन के हावभाव से तो यही लगता है कि आफिस में शायद काम का दबाव है या किसी प्रकार का मनमुटाव चल रहा है. सब से बड़ी चिंता की बात यह है कि वह पिछले 4 महीने से घर में खर्च भी नहीं दे रहे हैं. पूछो तो कहते हैं कि गलती से एक वाउचर पर उन से ओवर पेमेंट हो गई थी और अब वह रिफंड हो रही है. अब इस के आगे जया क्या कहती…ऐसी गलती होती तो नहीं पर इनसान से भूल हो भी सकती है…रमन पर वह अपने से ज्यादा भरोसा करती है. थोड़ा सख्त मिजाज तो हैं पर कपटी नहीं हैं. सोचतेसोचते पता नहीं कब उसे नींद आ गई.

अगले दिन दफ्तर में उस के प्रमोशन की बात पता चलते ही सब ने उसे बधाई दी और पार्टी की मांग की.

लंच के बाद जम कर पार्टी हुई. सब ने मिल कर उसे फूलों का गुलदस्ता उपहार में दिया. जया मन में खुशी की बाढ़ ले कर घर लौटी पर घर आ कर उसे रोना आया कि ऐसे खुशी के अवसर पर रमन घर में नहीं हैं.

अम्मां के घर मेहमान आने वाले हैं इसलिए वह जल्दी घर चली गईं. ड्राइंगरूम में कार्पेट पर बैठी वह प्रिंस के साथ ब्लाक से रेलगाड़ी बना रही थी कि रमन का पुराना दोस्त रंजीत आया.

रंजीत को देखते ही जया हंस कर बोली, ‘‘आप…मैं गलत तो नहीं देख रही?’’

‘‘नहीं, तुम सही देख रही हो. मैं रंजीत ही हूं.’’

‘‘बैठिए, वीना भाभी को क्यों नहीं लाए?’’

‘‘वीना क ा अब शाम को निकलना कठिन हो गया है. दोनों बच्चों को होमवर्क कराती है…रमन आफिस से लौटा नहीं है क्या?’’

‘‘वह यहां कहां हैं. आफिस के काम से बंगलौर गए हैं.’’

रंजीत और भी गंभीर हो गया.

‘‘जया, पता नहीं कि तुम मेरी बातों पर विश्वास करोगी या नहीं पर मैं तुम को अपनी छोटी बहन मानता हूं इसलिए तुम को बता देना उचित समझता हूं…और वीना की भी यही राय है कि पत्नी को ही सब से पीछे इन सब बातों का पता चलता है.’’

जया घबराई सी बोली, ‘‘रंजीत भैया, बात क्या है?’’

‘‘रमन कहीं नहीं गया है. वह यहीं दिल्ली में है.’’

चौंकी जया. यह रंजीत कह रहा है, जो उन का सब से बड़ा शुभचिंतक और मित्र है. ऐसा मित्र, जो आज तक हर दुखसुख को साथ मिल कर बांटता आया है.

‘‘जया, तुम्हारे मन की दशा मैं समझ रहा हूं. पहले मैं ने सोचा था कि तुम को नहीं बताऊंगा पर वीना ने कहा कि तुम को पता होना चाहिए, जिस से कि तुम सावधान हो जाओ.’’

‘‘पर रंजीत भैया, यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘सुनो, कल मैं और वीना एक बीमार दोस्त को देखने गांधीनगर गए थे. वीना ने ही पहले देखा कि रमन आटो से उतरा तो उस के हाथ में मून रेस्तरां के 2 बड़ेबड़े पोलीबैग थे. उन को ले वह सामने वाली गली के अंदर चला गया. मैं बुलाने जा रहा था पर वीना ने  रोक दिया.’’

जया की सांस रुक गई. एक पल को लगा कि चारों ओर अंधेरा छा गया है फिर भी अपने को संभाल कर बोली, ‘‘कोई गलती तो…मतलब डीलडौल में रमन जैसा कोई दूसरा आदमी…’’

‘‘रमन मेरे बचपन का साथी है. उस को पहचानने में मैं कोई भूल कर ही नहीं सकता.’’

‘‘पर भैया, उन्होंने आज सुबह ही बंगलौर से फोन किया था. रोज ही करते हैं.’’

‘‘उस का मोबाइल और तुम्हारा लैंडलाइन, तुम को क्या पता कहां से बोल रहा है?’’

जया स्तब्ध रह गईर्. रमन निर्मोही है यह तो वह समझ गई थी पर धोखा भी दे सकता है ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा था.

रंजीत गंभीर और चिंतित था. बोला, ‘‘तुम्हारे पारिवारिक मामलों में मेरा दखल ठीक नहीं है फिर भी पूछ रहा हूं. रमन तुम को अपनी तनख्वाह ला कर देता है या नहीं?’’

‘‘तनख्वाह तो कभी नहीं दी…हां, घरखर्च देते थे पर 4 महीने से एक पैसा नहीं दिया है. कह रहे थे कि गलती से ओवर पेमेंट हो गई, सो वह रिफंड हो रही है. उस में आधी तनख्वाह कट जाती है.’’

‘‘जया, तुम पढ़ीलिखी हो, समझदार हो, अच्छे पद पर नौकरी कर रही हो, घर के बाहर का संसार देख रही हो फिर भी रमन ने तुम्हें मूर्ख बनाया और तुम बन गईं. यह कैसा अंधा विश्वास है तुम्हारा पति पर. सुनो, अपना भला और बच्चे का भविष्य ठीक रखना चाहती हो तो रमन पर लगाम कसो. अपने पैसे संभालो.’’

जया की नींद उड़ गई. चिंता से सिर बोझिल हो गया. वह खिड़की के सहारे बिछी आरामकुरसी पर चुपचाप बैठी रमन के बारे में मां की नसीहतों को याद करने लगी.

संपन्न मातापिता की बड़ी लाड़ली बेटी जया, रमन के लिए उन को भी त्याग आई थी.

रमन का हावभाव और उस के बात करने का ढंग कुछ इस तरह का रूखा था जो किसी संस्कारी व्यक्ति को पसंद नहीं आता था. इस के लिए जया, रमन को दोषी नहीं मानती थी क्योंकि उसे संस्कारवान बनाने वाला कोई था ही नहीं. जिस  समय रमन का उस के परिवार में आनाजाना था तब वह मामूली नौकरी करता था और जया ने लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर के अधिकारी के पद पर काम शुरू किया था. लेकिन तब जया, रमन के प्रेम में एकदम पागल हो गई थी.

मां ने समझाया भी था कि इतने अच्छेअच्छे घरों से रिश्ते आ रहे हैं और तू ने किसे पसंद किया. यह अच्छा लड़का नहीं है, इस के चेहरे से चालाकी और दिखावा टपकता है. तू क्यों नहीं समझ पा रही है कि यह तुझ से प्यार नहीं करता बल्कि तेरे पैसे से प्यार करता है.

जया तो रमन के कामदेव जैसे रूप पर मर मिटी थी, सो एक दिन घर में बिना बताए उस ने चुपचाप रमन के साथ कोर्ट मैरिज कर ली और दोनों पतिपत्नी बन गए. तब से मांबाप से उस का कोई संबंध ही नहीं रहा. अब इस शहर में उस का ऐसा कोई नहीं है जिस के सामने वह रो कर जी हलका कर सके. कोई विपदा आई तो कौन सहारा देगा उसे?

मां के कहे शब्द और रमन  के आचरण की तुलना करने लगी तो पाया कि जब से विवाह हुआ है तब से ले कर अब तक कभी रमन ने उस की इच्छाओं को मान्यता नहीं दी. कभी उसे खुश करने का प्रयास नहीं किया और वह इन सब बातों को नजरअंदाज करती रही, सोचती रही कि रमन का पारिवारिक जीवन कुछ नहीं था इसलिए यह सब सीख नहीं पाया.

शादी के बाद 2 बार घूमने गई थी पर दोनों बार रमन ने अपनी ही इच्छा पूरी की. पहली बार जया ‘गोआ’ जाना चाहती थी और रमन उसे ले कर ‘जयपुर’ चला गया. दूसरी बार वह ‘शिमला’ जाना चाहती थी तो जिद कर रमन उसे ‘केरल’ के कोच्चि शहर ले गया था.

प्रिंस के होने के बाद तो उस ने घूमने जाने का नाम ही नहीं लिया. मजे की बात यह कि दोनों यात्रा का पूरा पैसा रमन ने उस से कैश ले लिया. आश्चर्य यह कि रमन के ऐसे व्यवहार से भी जया के मन में उस के प्रति कोई विरूप भाव नहीं जागा.

अभी तक रमन पर जया को इतना विश्वास था कि पति पास रहे या दूर उस का सुरक्षा कवच था, ढाल था पर अब विश्वास टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखर गया…कहीं भी कुछ नहीं बचा. अब अपनी और बच्चे की रक्षा उस को ही करनी होगी.

रमन लौटा, एकदम टे्रन के निश्चित समय पर. जया ने उसे गौर से देखा तो उस के चेहरे पर कहीं भी सफर की थकान के चिह्न नहीं थे.

‘‘जया, जल्दी से नाश्ता लगवा दो. आफिस के लिए निकलना है.’’

अम्मां ने परांठासब्जी प्लेट में रख खाना लगा दिया. खाना खातेखाते रमन बोला, ‘‘200 रुपए मेरे पर्स में रख दो, स्कूटर में तेल डलवाना है. मेरा पर्स खाली है.’’

पहले कहते ही निहाल हो कर जया पैसे रख देती थी पर इस बार अभी से समेटना शुरू हो गया.

‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं. मेरी तनख्वाह एक हफ्ते बाद मिलेगी.’’

‘‘तो क्या मैं बस में जाऊं या पैदल?’’

‘‘वह समस्या तुम्हारी है मेरी नहीं.’’

रमन अवाक् सा उस का मुंह देखने लगा. जया  नहाने चली गई. नहा कर बाहर आई तो रमन तैयार हो रहा था.

‘‘सुनो, मुझे कुछ कहना है.’’

‘‘हां, कहो…सुन रहा हूं.’’

‘‘घर का पूरा खर्च मैं चला रही हूं… तुम देना तो दूर उलटे लेते हो. अगले महीने से ऐसा नहीं होगा. तुम को घरखर्च देना पड़ेगा.’’

‘‘पर मेरा रिफंड…’’

‘‘वह तो जीवन भर चलता रहेगा. ओवर पेमेंट का इतना सारा पैसा गया कहां? देखो, जैसे भी हो, घर का खर्च तुम को देना पड़ेगा.’’

‘‘कहां से दूंगा? मेरे भी 10 खर्चे हैं.’’

‘‘घर चलाने की जिम्मेदारी तुम्हारी है मेरी नहीं.’’

रमन खीसें निकाल कर बोला, ‘‘डार्लिंग, नौकरी वाली लड़की से शादी घर चलाने के लिए ही की थी, समझीं.’’

जया को लगा उस के सामने एक धूर्त इनसान बैठा है.

‘‘और सुनो, रात को खाने में कीमा और परांठा बनवाना.’’

‘‘डेढ़ सौ रुपए गिन कर रख जाओ कीमा और घी के लिए, तब बनेगा.’’

‘‘रहने दो, मैं सब्जीरोटी खा लूंगा.’’

उस दिन जया दफ्तर में बैठी काम कर रही थी कि उस के ताऊ की बेटी दया का फोन आया. घबराई सी थी. दया से उसे बहुत लगाव है. उस के साथ जया जबतब फोन पर बात करती रहती है.

‘‘जया, मैं तेरे पास आ रही हूं.’’

‘‘बात क्या है? कुशल तो है न?’’

‘‘मैं आ कर बताऊंगी.’’

आधा घंटा भी नहीं लगा कि दया चली आई. वास्तव मेें ही वह परेशान और घबराई हुई थी.

‘‘पहले बैठ, पानी पी…फिर बता हुआ क्या?’’

‘‘मेरी छोटी ननद का रिश्ता पक्का हो गया है, पर महज 50 हजार के लिए बात अटक गई. लड़का बहुत अच्छा है पर 50 हजार का जुगाड़ 2 दिन में नहीं हो पाया तो रिश्ता हाथ से निकल जाएगा. सब जगह देख लिया…अब बस, तेरा ही भरोसा है.’’

‘‘परेशान मत हो. मेरे पास 80 हजार रुपए पड़े हैं. तू चल मेरे साथ, मैं पैसे दे देती हूं.’’

दया को साथ ले कर जया घर आई. अलमारी का लौकर खोला तो वह एकदम खाली पड़ा था. जया को चक्कर आ गए. दया उस का चेहरा देख चौंकी और समझ गई कि कुछ गड़बड़ है. बोली, ‘‘क्या हुआ, जया?’’

‘‘40 हजार के विकासपत्र थे. पिछले महीने मेच्योर हो कर 80 हजार हो गए थे. सोच रही थी कि उठा कर उन्हें डबल कर दूंगी पर…’’

तभी अम्मां पानी ले कर आईं और बोलीं, ‘‘बीबीजी, एक दिन दोपहर में आ कर साहब अलमारी से कुछ कागज निकाल कर ले गए थे.’’

‘‘कब?’’

‘‘पिछली बार दौरे पर जाने से पहले.’’

जया सिर थाम कर बिस्तर पर बैठ गई. दया ने ढाढ़स बंधाया.

‘‘जाने दे, जया, तू परेशान न हो. कहीं न कहीं से पैसे का जुगाड़ हो ही जाएगा.’’

‘‘एक बार डाकघर चल तो मेरे साथ.’’

दोनों डाकघर आईं और बड़े बाबू से बात की तो उन्होंने कहा, ‘‘आप के पति 10-12 दिन पहले कैश करा कर रकम ले गए थे. आप को पता नहीं क्या?’’

दोनों चुपचाप डाकघर से निकल आईं. घर आ कर रो पड़ी जया.

‘‘धैर्य रख, जया,’’ दया बोली, ‘‘अब तू भी सावधान हो जा. जो गया सो गया पर अब और नुकसान न होने पाए. इस का ध्यान रख.’’

थोड़ी देर बाद वह फिर बोली, ‘‘जया, एक बात बता…तेरा प्यार अंधा है या तू रमन से डरती है.’’

‘‘अब तक मैं प्यार में अंधी ही थी पर अब मेरी आंख खुल गई है.’’

‘‘ऐसा है तो थोड़ा साहस बटोर. तू तो जो है सो है, प्रिंस के भविष्य को अंधेरे में मत डुबा दे. उसे एक स्वस्थ जीवन दे. अकेले उसे पालने की सामर्थ्य है तुझ में.

‘‘जया, मैं तुझे एक बात बताना चाहती थी, पर तुझे मानसिक कष्ट होगा यह सोच कर आज तक नहीं बोली थी. मेरी भानजी नैना को तो तू जानती है. पिछले माह उस की शादी हुई तो वह पति के साथ हनीमून पर शिमला गई थी. वहां रमन एक युवती को ले कर जिस होटल में ठहरा था उसी में नैना भी रुकी हुई थी.  नैना जब तक शिमला में रही रमन की नजरों से बचती रही पर लौट कर उस ने मुझे यह बात बताई थी.’’

अब सबकुछ साफ हो गया था. जया ने गहरी सांस ली.

‘‘हां, तू ठीक कह रही है…बदलाव से डर कर चुप बैठी रही तो मेरे साथ मेरे बच्चे का भी सर्वनाश होगा, मम्मी भी पिछले रविवार को आ कर यही कह रही थीं. कुछ करूंगी.’’

2 दिन बाद रमन लौटा. प्रिंस को बुखार था इसलिए जया उसे गोद में ले कर बैठी थी. रमन ने उस का हाल भी नहीं पूछा, आदत के मुताबिक आते ही बोला, ‘‘अम्मां से कहो, बढि़या पत्ती की एक कप चाय बना दें.’’

‘‘पहले बाजार जा कर तुम दूध का पैकेट ले आओ तब चाय बनेगी.’’

रमन हैरान हो जया का मुंह देखने लगा.

‘‘मैं… मैं दूध लेने जाऊं?’’

‘‘क्यों नहीं? सभी लाते हैं.’’

जया ने इतनी रुखाई से कभी बात नहीं की थी. रमन कुछ समझ नहीं पा रहा था.

‘‘अम्मां को भेज दो.’’

‘‘अम्मां के पास और भी काम हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लाता हूं, पैसे दे दो.’’

‘‘अपने पैसों से लाओ और घर का भी कुछ सामान लाना है…लिस्ट दे रही हूं, लेते आना.’’

‘‘रहने दो, चाय नहीं पीनी.’’

रमन बैठ गया. प्रिंस सो गया तो जया अखबार ले कर पढ़ने लगी. रमन तैयार होते हुए बोला, ‘‘100 रुपए दे देना, पर्स एकदम खाली है.’’

‘‘मैं एक पैसा भी तुम्हें नहीं दे सकती, 100 रुपए तो बड़ी बात है… और तुम बैठो, मुझे तुम से कुछ कहना है.’’

रमन बैठ गया.

‘‘विकासपत्र के 80 हजार रुपए निकालते समय मुझ से पूछने की जरूरत नहीं समझी?’’

‘‘पूछना क्या? जरूरत थी, ले लिए.’’

‘‘अपनी जरूरत के लिए तुम खुद पैसों का इंतजाम करते, मेरे रुपए क्यों लिए और वह भी बिना पूछे?’’

‘‘तुम्हारे कहां से हो गए…शादी में दहेज था. दहेज में जो आता है उस पर लड़की का कोई अधिकार नहीं होता.’’

‘‘कौन सा कानून पढ़ कर आए हो? उस में दहेज लेना अपराध नहीं होता है क्या? आज 5 महीने से पूरा घर मैं चला रही हूं, तुम्हारा पैसा कहां जाता है?’’

‘‘मैं कितने दिन खाता हूं तुम्हारा, दौरे पर ही तो रहता हूं.’’

‘‘कहां का दौरा? शिमला का या गांधीनगर का?’’

तिलमिला उठा रमन, ‘‘मैं कहीं भी जाता हूं…तुम जासूसी करोगी मेरी?’’

‘‘मुझे कुछ करने की जरूरत नहीं. इतने दिन मूर्ख बनाते रहे…अब मेरी एक सीधी बात सुन लो. यह मेरा घर है…मेरे नाम से है…मैं किस्त भर रही हूं…तुम्हारे जैसे लंपट की मेरे घर में कोई जगह नहीं. मुझे पिं्रस को इनसान बनाना है, तुम्हारे जैसा लंपट नहीं. इसलिए चाहती हूं कि तुम्हारी छाया भी मेरे बच्चे पर न पडे़. तुम आज ही अपना ठिकाना खोज कर यहां से दफा हो जाओ.’’

‘‘मुझे घर से निकाल रही हो?’’

‘‘तुम्हें 420 के अपराध में पुलिस के हाथों भी दे सकती थी पर नहीं. वैसे हिसाब थोड़ा उलटा पड़ गया है न.  आज तक तो औरतों को ही धक्के मारमार कर घर से निकाला जाता था…यहां पत्नी पति को निकाल रही है.’’

रमन बुझ सा गया, फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘मैं तुम्हारी शर्तों पर समझौता करने को तैयार हूं.’’

‘‘मुझे कोई समझौता नहीं चाहिए. तुम जैसे धूर्त व मक्कार पति की छाया से भी मैं अपने को दूर रखना चाहती हूं.’’

‘‘तुम घर तोड़ रही हो.’’

‘‘यह घर नहीं शोषण की सूली थी जिस पर मैं तिलतिल कर के मरने के लिए टंगी थी पर अब मुझे जीवन चाहिए, अपने बच्चे के लिए जीना है मुझे.’’

बात बढ़ाए बिना रमन ने अपने कपड़े समेटे और चला गया.

जया ने मां को फोन किया :

‘‘मम्मी, आप की सीता ने निरपराधी हो कर भी बिना विरोध किए अग्निपरीक्षा दी थी और मैं एक छलांग में आग का दरिया पार कर आई. रमन को घर से भगा दिया.’’

‘‘सच, कह रही है तू?’’

‘‘एकदम सच, मम्मी. मां के सामने जब बच्चे के भविष्य का सवाल आ कर खड़ा होता है तो वह संसार की हर कठिनाई से टक्कर लेने के लिए खड़ी हो जाती है.’’

‘‘तू मेरे पास चली आ. यहां ऊपर का हिस्सा खाली पड़ा है.’’

‘‘नहीं, मम्मी, अपने घर में रह कर ही मेरा प्रिंस बड़ा होगा. अम्मां अब मेरे साथ ही रहेंगी, घर नहीं जाएंगी.’’

‘‘जैसी तेरी इच्छा, बेटी,’’ कह कर जया की मां ने फोन रख दिया.

अटूट बंधन : विशू की पत्नी ने अपने रिश्ते को कैसे स्वार्थ में बदल दिया?

विशू  देर तक सोया पड़ा था. वैसे तो जल्दी ही उठ जाता है वह या कहें कि उठना पड़ता है. विश्वनाथ तिवारी, डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर एक मल्टीनैशनल कंपनी में रोबदाब के साथ 13 साल से काम कर रहा है. वह कंपनी के मालिक जालान का दाहिना हाथ है. आकाश चूमता वेतन,  साथ में अन्य सुविधाएं जैसे ड्राइवर, पैट्रोल समेत गाड़ी, फुल फर्निश्ड फ्लैट, मैडिकल और बच्चों की पढ़ाई का पैसा, साल में एक बार देश या विदेश में घूमने का खर्चा और पूरे विश्व में औफिशियल टूर का अलग पैसा. जब  इतनी सारी सुविधाएं देती है कंपनी तो काम भी दबा कर लेती है.

सच तो यह है कि उसी ने ही कंपनी को सफलता की चोटी पर बैठाया है. इस की टक्कर की जो दूसरी कंपनी हैं वे उस पर नजर लगाए हैं कि कब विश्वनाथ का जालान से मतभेद हो और कब वे उसे चारा फेंक, अपनी कंपनी में खींच लें. हां, तो यह भोर की नींद उसे बचपन से लुभाती है.

उस के पिता एक निष्ठावान ब्राह्मण पंडित केशवदास थे. गांव के छोटे से प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर, वेतन अनियमित. पहली पत्नी डेढ़ साल के विश्वनाथ को छोड़ कर दुनिया से चल बसी तो विशू की देखभाल के लिए ही गरीब ब्राह्मण कन्या निर्मला को ब्याह लाए थे वे. उस से 2 बच्चे, बेटा दीनानाथ और बेटी सुलक्षणा हैं. अपनी आय में गृहस्थी नहीं चलती पर 5 बीघा जमीन थी उन के पास. उसी से रोटीकपड़ा चल जाता. मिट्टी का कच्चा घर तो अपना था ही. पर उन के पास सब से बड़ी संपत्ति थी पूरे गांव का आदरसम्मान. भोर में 4 बजे वे उठ जाते. अपने साथ ही वे विशू को जगा कर पढ़ने बैठा देते. कहते, ‘‘ऊषाकाल का अध्ययन सब से श्रेष्ठ होता है, सूर्योदय तक बिस्तर पर रहना चांडालों का काम है.’’

बेचारा विशू, बचपन से ही भोर की मीठी नींद से वंचित रह गया. विद्यार्थी जीवन समाप्त होते ही कंधों पर आ बैठा ऊंचे पद का दायित्व. भोर की तो क्या रात की नींद भी छिन रही थी. पर रविवार के दिन विशू देर तक सोता है, रीमा भी नहीं जगाती, उलटे बच्चों को हल्लागुल्ला करने से रोकती है.

आज रविवार नहीं सोमवार है. हफ्तेभर काम करने का पहला दिन. विशू गहरी नींद में सो रहा था. इतनी निश्चिंत शांति की नींद वह वर्षों से नहीं सोया. बच्चे कब स्कूल चले गए, पता नहीं चला. पहली चाय रोज की तरह सिरहाने रख कर कब नौकर भी चला गया उस का भी पता नहीं चला. रीमा के जोरदार झकझोरने से उठा. हड़बड़ा कर देखा खिड़की के परदे हटा दिए गए हैं. फर्श पर धूप, सामने रीमा हाउसकोट पहने खड़ी हंस रही है.

‘‘उठिए साहब, पता है 8 बज गए. आज आस्ट्रेलिया की पार्टी से मीटिंग है न?’’

‘‘धत, नींद खराब कर दी मेरी.’’ रीमा बिस्तर पर बैठी प्यार से उस के बिखरे बालों को संवार रही थी और हंस रही थी.

‘‘बच्चों से कम नहीं हो तुम. वे भी तैयार हो, स्कूल चले गए. चलो, उठो.’’

वह फिर लुढ़कने को तैयार.

‘‘सोने दो मुझे.’’

‘‘अरे अरे, ठीक 11 बजे मीटिंग है तुम्हारी.’’

‘‘भाड़ में जाए मीटिंग. जालान का बच्चा संभाले अपनेआप.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘ठीक ही कह रहा हूं. शनिवार को ही मैं रैजिगनेशन लैटर उस के मुंह पर मार आया हूं. आजाद हूं अब मैं.’’

‘‘क्या?’’

रीमा इस तरह छिटक कर खड़ी हो गई मानो हजार वोल्ट का झटका लगा हो.

‘‘नौकरी छोड़ दी तुम ने?’’

‘‘हां.’’

‘‘इतना बड़ा फैसला तुम ने मुझ से पूछे बिना लिया कैसे?’’

विशू ने देखा, एक क्षण पहले की रोमांसभरी मधुर मुसकान उस के मुख से गायब थी. अब वहां क्रोध की ज्वाला थी.

‘‘क्या? तुम से पूछता? यह तो मेरा व्यक्तिगत मामला है. मैं नौकरी करूंगा या नहीं, यह मेरा फैसला है.’’

गुस्से में हांफ रही थी रीमा, ‘‘तुम्हारा फैसला? वाह, बहुत बढि़या. अब तुम्हारा व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है जो अपनी मरजी से चलोगे. घरपरिवार वाले हो. तुम्हारे सबकुछ पर हमारा अधिकार है. तुम बिना पूछे इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हो? सोने की खान जैसी नौकरी, जिस ने तुम को झोंपड़े से उठा कर राजमहल में बैठा दिया. समाज की सर्वोच्च सोसाइटी में तुम को पहचान दी, तुम उसी नौकरी को मिजाज दिखा छोड़ आए.’’

‘‘ऐ, हैलो, यह सब जो तुम मुझे गिना रही हो वह सब खैरात में नहीं दिया है किसी ने मुझे. अपनी योग्यता और ईमानदारी की बदौलत हासिल किया था मैं ने यह मुकाम. कैंपस सिलैक्शन में टौप किया था. एक पिछड़ी कंपनी को कहां से कहां पहुंचा दिया इन 13 वर्षों में. खरबों का मुनाफा कमा कर दिया कंपनी को, नहीं तो बड़ीबड़ी कंपनियों के सामने तिनके की तरह बह जाता जालान का बच्चा.’’

‘‘अपने मुंह मियांमिट्ठू तो बनो मत. तुम जैसे एमबीए आजकल क्लर्क का काम कर रहे हैं.’’

‘‘हां, कर रहे हैं पर 13 वर्ष पहले आज की तरह छवड़ा भरभर एमबीए नहीं निकलते थे प्रति वर्ष.’’

थोड़ी नरम दिखाई दी रीमा, ‘‘देखो, आपस में लड़ाई करने से किसी समस्या का समाधान नहीं होता. जालान साहब इतनी बड़ी कंपनी के मालिक हैं, कोई मूर्ख तो हैं नहीं. तुम से कंपनी को कितना फायदा है, यह वे भी समझते हैं. तुम इतने वर्षों से इस कंपनी के प्रतिनिधि हो. बहुत से देशों के लोग तुम को ही जानते हैं इस कंपनी के नाम से. तुम्हारे न रहने का मतलब है कंपनी का बहुत नुकसान हो सकता है. बहुत सारे बाहर के कस्टमर तुम्हारी जगह नया आदमी देख डील ही न करें. इस बात को जालान साहब भी जानते हैं.’’

विशू अवाक हो रीमा को देख रहा था. वह भी एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत है. 50 हजार रुपए से ऊपर ही वेतन लेती है. उस में इतनी प्रैक्टिकल समझ, व्यावसायिक बुद्धि है, यह तो उस ने सोचा ही नहीं था और ऐसा दांवपेंच तो इतने बड़ेबड़े डील कर के भी उस के मस्तिष्क में नहीं आया.

‘‘देखो, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा. जालान साहब मंजे हुए व्यापारी हैं. अपना फायदा अच्छी तरह समझते हैं. तुम्हारी जगह नए आदमी को ले कर उसे अपने हिसाब से तैयार करने में उन को वर्षों लग जाएंगे. कंपनी को बहुत नुकसान होगा. चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं. वे मुझे बेटी मानते हैं. तुम माफी मांग कर रैजिगनेशन वापस ले लो. आज की आस्ट्रेलिया वाली डील में सफल हो जाओगे तो वे औैर भी खुश हो जाएंगे. चलो, उठो, मैं भी तैयार होती हूं. तुम्हारी समस्या का समाधान कर मैं अपने औफिस चली जाऊंगी.’’

 

‘‘माफी मांगूंगा, मैं?’’

‘‘अरे, यह बस फौर्मेलिटी है. दो शब्द कह देने में क्या जाता है? उम्र में पिता समान हैं और मालिक हैं.’’

‘‘कभी नहीं…’’

पंडितजी का खून जाग उठा विशू की धमनियों में. वह पंडितजी जो आज भी न्याय, निष्ठा, सदाचार, सपाटबयानी व सत्यवचन के लिए जाने जाते हैं, उन की प्रथम संतान, इतना नहीं गिर सकती.

‘‘प्रश्न ही नहीं उठता माफी मांगने का. गलत वे हैं, मैं नहीं. माफी उन को मुझ से मांगनी चाहिए.’’

फिर से जल उठी रीमा, ‘‘तो तुम त्यागपत्र वापस नहीं लोगे, माफी नहीं मांगोगे?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’

‘‘ठीक,’’ अनपढ़ गंवार महिलाओं की तरह मुंह बिदका कर रीमा चीखी, ‘‘तो अब मजे करो, बीवी की रोटी तोड़ो, उस की कमाई पर मौजमस्ती करो.’’

विशू का मुंह खुला का खुला रह गया. क्या स्वार्थ का नग्न रूप देख रहा है वह. पहले तो यही रीमा प्रेम में समर्पण, त्याग और मधुरता की बात करती थी पर उस के स्वार्थ पर चोट लगते ही क्या रूपांतरण हो गया. विशू की नजरों में सब से सुंदर मुख आज कितना भयंकर और कुरूप हो उठा है. वह अपलक उसे देखता रहा.

क्रोध में भुनभुनाती रीमा तैयार हुई. डट कर नाश्ता किया, गैराज से अपनी गाड़ी निकाल औफिस चली गई. अब लंच में लौटेगी बच्चों को स्कूल से ले कर 2 बजे. 3 बजे फिर जा कर फिर लौटेगी 5 बजे. रोज का यही रुटीन है उस का.

रीमा के जाने के बाद एक अलसाई अंगड़ाई ले विशू उठ बैठा. घड़ी ठीक 10 बजा रही थी. चलो, अब पूरे 4 घंटे हैं उस के हाथ में सोचविचार कर निर्णय लेने को. फ्रैश हो कर आते ही संतो ने ताजी चाय ला कर स्टूल पर रखी. उस ने चाय पी. रीमा से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. आज वह स्वयं समझा गई उस का रिश्ता बस स्वार्थ का रिश्ता है. इन्हीं सब उलझनों में फंसा वह अतीत में खो गया.

अपने पिता को वह कभीकभी आर्थिक चिंता करते देखता था तब निर्मला यानी सौतेली मां कभी डांट कभी प्यार जता उन को साहस जुटाती थी कि चिंता क्यों करते हो जी, सब समस्या का हल हो जाएगा. कभी भी आर्थिक दुर्बलता को ले कर पिता को ताने देते या व्यंग्य करते नहीं सुना. न ही कभी अपने लिए कुछ मांग करते.

अपनी मां की तो स्मृति भी नहीं है मन में, डेढ़ वर्ष की उम्र से ही उस ने निर्मला को अपनी मां ही जाना है और निर्मला ने भी उसे पलकों पर पाला है. दीनू से बढ़ कर प्यार किया है. उस का भी तो बाबा से वही रिश्ता था जो रीमा का उस के साथ है. फिर निर्मला हर संकट में बाबा के साथ रही, साहस जुटाया, मेहनत कर के सहयोग दिया और रीमा ने आज…उस की रोटी का एक कौर भी नहीं खाया अभी, फिर भी अपनी कमाई का ताना दे गई.

पति के मानसम्मान का कोई मूल्य नहीं, जो उसे पूरी तरह मिट्टी में मिलाने, माफी मंगवाने ले जा रही थी, उस झूठे और बेईमान जालान के पास. उस ने उस के आत्मसम्मान की प्रशंसा नहीं की. एक बार भी साहस नहीं बढ़ाया कि ठीक किया, चिंता क्यों करते हो, मेरी नौकरी तो है ही. दूसरी नौकरी मिलने तक मैं सब संभाल लूंगी. वाह, क्या कहने उच्च समाज की अति उच्च पद पर कार्यरत पत्नी की.

आज रीमा ने 13 वर्ष से पति से सारे सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, अपने हर शौक की पूर्ति, आराम, विलास का जीवन सबकुछ एक झटके में उठा कर फेंक दिया, अपनी जरा सी असुविधा की कल्पना मात्र से. एक बार भी नहीं सोचा कि पति के पास कितनी योग्यता है, कितना अनुभव है, और अपने क्षेत्र में कितना नाम है. वह दो दिन भी नहीं बैठेगा. दसियों कंपनी मालिक हाथ फैलाए बैठे हैं उसे खींच लेने के लिए, देश ही नहीं विदेशों में भी. और उस की सब से प्रिय पत्नी उस की तुलना कर गई डोनेशन वाले सड़कछाप एमबीए लोगों के साथ. बस, अब और नहीं. पार्लर ने जो सुंदर मुख दिया है रीमा को वह मुखौटा हटा कर उस के अंदर का भयानक स्वार्थी, क्रूर मुख स्वयं ही दिखा गई है वह आज. उस का सारा मोह भंग हो चुका है.

अपने ही प्रोफैसर की बेटी रीमा को पाने के लिए वह स्वयं कितना स्वार्थी बन गया था, आज उस बात का उसे अनुभव हुआ. एमबीए के खर्चे के लिए उस निर्धन परिवार के मुंह की रोटी 5 बीघा खेत तक बिकवा दिया.

पिता पर दबाव डाला. अपने 2 छोटेछोटे बच्चों की चिंता कर के भी सौतेली मां निर्मला ने एक बार भी बाबा को नहीं रोका. और उस ने इन 13 वर्षों में उधर पलट कर भी नहीं देखा क्योंकि उसे बहाना मिल गया था. जब नौकरी पा कर बाबा को सहायता करने का समय आया तब सब से पहले रीमा से शादी कर के अपने परिवार से पल्ला झाड़ने का बहाना खोजने लगा और मिल भी गया.

निष्ठावान स्वात्तिक ब्राह्मण पंडितजी ने ठाकुर की बेटी को अपने घर की बहू के रूप में नहीं स्वीकारा और वह खुश हो रिश्ता तोड़ आया. असल में उस के अंतरमन में भय था, आशंका थी कि इस निर्धन परिवार से जुड़ा रहा तो कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य ही चला जाएगा इस परिवार के हिस्से. जब कि पिता छोड़ औरों से उस का खून का रिश्ता है ही नहीं. और पिता के प्रति भी क्या दायित्व निभाया.

दिल्ली से 40 मिनट या 1 घंटे का रास्ता है फूलपुर गांव का. ‘फूलपुर’ वह भी हाईवे के किनारे. गांव के चौधरी का बेटा महेंद्र मोटर साइकिल ले कर आया था उसे लेने. गेट पर ही मिल गया. एक जरूरी मीटिंग थी, इस के बाद ही प्रमोशन की घोषणा होने वाली थी. रीमा औफिस न जा कर घर में ही सांस रोके बैठी थी. वह औफिस ही निकल रहा था कि महेंद्र ने पकड़ा.

‘विशू, जल्दी चल पंडितजी नहीं रहे. अभी अरथी नहीं उठी, तू जाएगा तब उठेगी.’

उस के दिमाग में प्रमोशन की मीटिंग चल रही थी. इस समय यह झूठझमेला. खीज कर बोला, ‘दीनू है तो.’

मुंह खुल गया था महेंद्र का, ‘क्या कह रहा है, तू बड़ा बेटा है और तेरे पिता थे वे…’

‘देख, मेरे जीवन का प्रश्न है. आज मैं नहीं जा सकता, जरूरी काम है. आ जाऊंगा. तू जा.’

महेंद्र के खुले हुए मुंह के सामने वह औफिस चला गया था. 8 वर्ष पुरानी बात हो गई.

 विशू ने निर्णय ले लिया और निर्णय के बाद अपने को जहां पाया उस से उस के होश उड़ गए. उस का अपना कुछ है ही नहीं. यह कंपनी का लग्जरी फर्निश्ड फ्लैट नहीं गुड़गांवदिल्ली सीमा पर बागबगीचों से सजी सुंदर कोठी है.

गांव की मिट्टी में पले विशू को 9 मंजिल पर टंगे रहना अच्छा नहीं लगता था. तब इतनी आबादी भी नहीं थी. इधर तो सस्ते में जमीन मिल गई फिर मनपसंद नक्शे से घर बनवा लिया. कुशल माली के साथ खड़े हो पेड़पौधे लगवाए जो अब बड़े हो गए हैं. लौन में आगरा से मंगवा कर कारपेट घास लगवाई पर यह कुछ भी उस का अपना नहीं है. पूरा का पूरा घर रीमा के नाम है. उस ने सारे बैंक खाते, निवेश के कागज देखे. सब कुछ रीमा के नाम है. कहीं भी कुछ भी उस अकेले के नाम नहीं. हां, एक खाता उस अकेले के नाम अवश्य है, जहां उस का वेतन जमा होता है. उसे खोल देखा तो उस में मात्र 55 हजार रुपए पड़े हैं. चलो, भागते भूत की लंगोटी संकटकालीन समय को पार कर देगी. 5 हजार पर्स में हैं. और हां, आज 17 तारीख है, कल रविवार गया है. 15 तारीख शनिवार को त्यागपत्र दिया है शाम को 4 बजे, मतलब उस दिन तक का वेतन तो मिलेगा ही.

पर वह जानता है कि हफ्ते दो हफ्ते से ज्यादा बेरोजगार नहीं रहने वाला. बस, यह बीच का समय काटने के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जगह चाहिए.

वह अटैची में जरूरी कागजपत्तर रख रहा था तभी ध्यान आया, एक पौलिसी और है जिस में रीमा का नहीं एक ट्रस्ट का नाम है. 20 लाख की पौलिसी है. विशू ने वह पौलिसी निकाली, 5 दिन बाद वह मैच्योर हो रही है. चैन की सांस ली कि चलो 20 लाख रुपए हाथ में रहेंगे.

अब उसे कोई चिंता नहीं. उस ने पौलिसी अटैची में संभाल कर रख ली. इस के बाद कपड़ेलत्ते बैग में डाले. बैग को नौकर से गाड़ी में रखवा दिया. नौकर ने नाश्ता लगा दिया. नहातेनहाते ही उस ने फैसला कर लिया था कि भरपेट नाश्ता कर के ही निकलेगा. अभी तक तो रीमा के घर में रोटी उसी की कमाई की है. नाश्ता कर लैपटौप उठा चलतेचलते एक पल रुका, एक कसक यहां छोड़ कर जा रहा है, दोनों बच्चे. पलकें गीली हो उठीं पर जाना तो पड़ेगा ही.

आज उस ने सब से पहले अपने निजी खाते से 9 हजार निकाल पर्स में रखे फिर गाड़ी से नगरनिगम सीमा पार की. अपने गांव की सड़क पर गाड़ी जब उतारी तब अचानक याद आया, 13 वर्ष हो गए घर आए. एक युग बीत गया, जाने कितना परिवर्तन हो चुका होगा. एक परिवर्तन तो अभी देख रहा है विशू. पहले गांव जाने की सड़क चौड़ी तो इतनी ही थी पर कच्ची थी. बारहों महीना धूल उड़ाती, बरसात में कीचड़ भरी.

अब काले कोलतार की साफसुथरी सड़क. चमचमाती नागिन सी पड़ी है. उस पर टैंपो भी चल रहे हैं. उस की गाड़ी फिसलती चली जा रही है. गांव की सीमा में एक चाय की दुकान. दुकान क्या, जरा सी आड़ बना रखी थी. वहां एक तख्त पर 2 युवतियां. सामने एक मेज पर स्टोव, केतली, दूध का भगौना, कांच के जार में सस्ते बिस्कुट, नमकीन और ब्रैड्स. ग्राहक शून्य दुकान थी. उस ने गति धीमी की, उतर पड़ा. एक युवती सलवारसूट में थी, दूसरी साड़ी में. उस के उतरते ही सलवार वाली युवती चहक उठी, ‘‘बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने जल्दी से पल्ला खींच सिरमुंह ढक लिया. यह सहज संकोच, सम्मान प्रदर्शन आज शिक्षित, शहरी समाज में जड़ से उखड़ एकदम समाप्त हो गया है, उस का मन जुड़ा गया. युवती की ओर देखा, ‘‘तू? तू मुन्नी है क्या?’’

‘‘जी, बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने तब तक आ कर उसे प्रणाम किया. विशू का समाज बदल गया है. वह हाय, हैलो तो जानता है पर आशीर्वाद में क्या कहे, नहीं जानता. इसलिए चुप ही रहा. मुन्नी ने कहा, ‘‘भाभी, बड़े भैया के साथ मैं घर जा रही हूं. तुम दुकान बढ़ा कर जल्दी से घर आ जाओ.’’

वक्त क्याक्या दिखाएगा मुझे. इन के मुंह का निवाला छीन कर उस ने अपने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी बनवाई थी. वह तो ऊपर की चोटी पर चढ़ कर आराम से बैठ गया पर उस का मूल्य चुकाना कितना भारी पड़ा इस निर्धन परिवार को. पंडित केशवदास तिवारी, जिन को जिलाधिकारी तक सम्मान की दृष्टि से देखते थे, उन की बहूबेटी दो रोटी जुटाने के लिए चाय की दुकान खोले बैठी हैं. पर दीनू तो था, वह कहां गया? क्या कमाता नहीं है, आवारा हो गया है…या…इतना अमंगल नहीं हुआ होगा, बहू के हाथों में सुहाग की प्रतीक लाल कांच की चूडि़यां हैं.

घर एकदम खंडहर हो चुका है. मिट्टी का ही घर था पर एकदम मजबूत, लिपापुता, सूई भी गिरे तो उठा लो. छत इतनी मजबूत थी कि वह दोस्तों के साथ दिनभर छत पर पतंग उड़ाया करता था. और घर भले ही कच्चा हो जमीन काफी थी. पंडितजी ने बांस का बेड़ा बना रखा था पूरी सीमा को घेर, जिसे बाउंडरी वौल कहते हैं. अब तक बांस के टुकड़ों का भी नामोनिशान नहीं, सब बराबर हो गया

उसी के कोने में चाय की दुकान है. आंगन में आते ही मुग्ध हो गया. एक छोटा सा लंगड़ा आम का पौधा लगाया था उस ने आंगन के बीचोंबीच. अब वह महावृक्ष बन गया है, मजबूत शाखाएं फैलाए खड़ा है. मुन्नी ने उस के पैर रुकते देख हंस कर कहा, ‘‘बड़े भैया, यह तुम्हारा लगाया पेड़ है. अम्मा कहती हैं, देखो कितना बड़ा हो गया है. छवड़ा भरभर मीठे आम उतरते हैं. सावनभर पूरे महल्ले की औरतें इस पर झूला झूलने आती हैं.’’

यह सच है कि निर्मला ने अपना सारा स्नेह, प्यार उस पर पहले ही दिन से न्यौछावर किया पर विशू ने कभी उस को मां नहीं समझा, उस के साथ उस का व्यवहार सदा ही औपचारिक रहा. लड़ाई या अपमान भी नहीं किया कभी. पर आज उस ने मन से जा कर उस के धूल भरे, गंदे पैरों को छू कर प्रणाम किया. निर्मला ने अपने दुर्बल हाथों में उसे छाती पर खींच लिया, माथे को चूमा, ‘‘मेरा विशू, मेरा बेटा, कितने दिनों में आया रे तू?’’

दंग रह गया वह, एक अनपढ़, निर्धन महिला जो सौतेली मां है, अपने स्वार्थ के लिए इन की मुंह की रोटी तक छीन कर ले उड़ा, आज तक पलट कर देखा भी नहीं. अपनी पत्नी जिस के ऊपर अपना सर्वस्व लुटाता रहा, उस से करारा थप्पड़ न खाता तो आज भी इधर की दिशा नहीं लेता. उस निर्मला की आंसूभरी आंखों में कोई क्रोध, कोई विराग नहीं, कोई शिकायत नहीं. है तो बस स्नेह, ममता की अमृतधारा.

‘‘अम्मा, कैसी हो तुम?’’

‘‘बस ठीक हूं, तू खुश है, बड़ा आदमी बन गया है, यह क्या कम सुख है.’’

आंचल से तख्त पोंछा, ‘‘बैठ बेटा, मुन्नी, भैया के लिए पानी ला.’’

विशू ने देखा, छत पर अनगिनत दरारें, कहींकहीं तो दरार इतनी चौड़ी कि धूप का कतरा नीचे आ रहा है. साथ वाले कमरे की तो आधी छत ही गिर गई है. उस के ऊपर खुला आकाश. सिहर उठा वह, वहां बैठ बाबा अध्ययन किया करते थे, दूसरे कोने में उस के पढ़ने की मेज थी.

‘‘अम्मा, छत तो कभी भी गिर सकती है.’’

‘‘हां बेटा, पर करें क्या? दीनू को लाला की चीनी मिल में काम मिला था. 10वीं भी पास न कर पाया. बल्कि मुन्नी की बुद्धि अच्छी है, 10वां पास कर लिया. सोचा था, थोड़ाथोड़ा जोड़ छत की मरम्मत करवा लेंगे पर एक ट्रक ने टक्कर मार दी, आधा पैर काटना पड़ा. बैसाखी पर चलता है वह अब. नौकरी चली गई तो दानेदाने को तरस गए. तब बहू और मुन्नी ने सलाह कर चाय की दुकान खोली. उस से रूखासूखा ही सही, दो रोटी शाम को मिल जाती हैं.’’

स्तब्ध हो गया. उस किशोरी सी बहू के प्रति मन में आदर भर उठा. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद पति को दुत्कार उस से पल्ला नहीं झाड़ा, उस के साथ रही, उस को, उस के परिवार को सहारा दिया.

अपनी छोटी सी सीमित क्षमता के अनुसार और रीमा? इतनी बड़ी नौकरी, इतनी संपन्नता, उसी का ही दिया इतना सुख, आराम, संपन्नता में जरा सा अंतराल आएगा, सोच कर ही इतनी गुस्से में आ गई कि पति को ताने देते नहीं हिचकी. और यह छोटी सी निर्धन अनपढ़ लड़की.

मुन्नी पानी ले आई. नल का ताजा पानी. वर्षों से मिनरल वाटर छोड़ सादा पानी नहीं पीता है विशू. पर आज निश्चिंत हो कर नल का पानी पी गया और लगा बहुत देर से प्यासा था.

‘‘दीनू है कहां?’’

‘‘चौधरी के बेटे ने सड़क पर पैट्रोल पंप खोला है, तेल भराने जो गाडि़यां आती हैं उन में से कोईकोई सफाई भी करवाते हैं तो उस ने दीनू को लगा दिया है. कभीकभी 30-40 रुपए कमा लेता है, कभीकभी एकदम खाली हाथ. बेटा, तू हाथमुंह धो ले. मुन्नी ताजे पानी से बालटी भर दे. धुला तौलिया निकाल दे.’’

‘‘अम्मा, सड़क पर गाड़ी खड़ी है. मैं अंदर ले आता हूं.’’

निर्मला की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘‘तू गाड़ी लाया है.’’

‘‘हां, अम्मा.’’

आत्मग्लानि और अपराधबोध से विशू का मन भारी हो रहा था. आज लग रहा है कि उस दिन वह गलत था, बाबा कहते थे, ‘धनवान बनो या न बनो पर बच्चा, इंसान बनो, आदमी धन नहीं मन से बड़ा होना चाहिए.’ पर उन के दिए सारे संस्कारों को ठेंगा दिखा कर उस ने उस उपदेश को कभी न अपनाया. अपना स्वार्थ तो पूरा हो ही गया.

तभी वह सजग हुआ, सोचा, अरे, उस के पास अपना बचा ही क्या है, एक नाम और नाम के पीछे जुड़ा सरनेम ‘तिवारी’ छोड़ सारे अभ्यास, आत्मजन, घरद्वार, यहां तक कि सोच भी तो रीमा की है. उस के मम्मीपापा, उन के उपदेश, रीमा के भाईबहन, उस की आदतें, उठनाबैठना, समाज में परिचय तक रीमा का दिया है, रीमा का पति, मिस्टर सिन्हा का दामाद, गौतम साहब का जीजा.

पंडित केशवदास तिवारी का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहा क्योंकि अपने सुपुत्र विश्वनाथ तिवारी ने स्वयं अपना अस्तित्व खो दिया. मिस्टर सिन्हा का दामाद, रीमा का पति नाम से ही तो जाना जाता है तो फिर पंडितजी का नाम चलेगा कैसे?

विशू ने गाड़ी ला कर खड़ी की. निर्मला ने आ कर गाड़ी को बड़ी ही सावधानी से छुआ, मुख पर गर्व का उजाला, ‘‘तेरे बाबा देख कर कितना खुश होते रे, मुन्ना.’’

अचानक ही विशू को लगा कि क्या होता अगर वह कैरियर के पीछे ऐसे सांस बंद कर न दौड़ता. बाबा सदा कहते थे सहज, सरल व आदरणीय बने रहने के लिए. पर उस ने तो स्वयं ही अपने जीवन को जटिल, इतना तनावपूर्ण बना लिया. वह मेधावी था, शिक्षा पूरी कर कोई नौकरी कर लेता, काम पर जाता फिर अपने आंगन में अपने प्रियजनों के बीच लौट खापी कर चैन की नींद सो जाता, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक और माटी की सुगंध की चादर ओढ़. पर नहीं, उस ने जो दौड़ शुरू की है दूसरों को पीछे छोड़ आगे और आगे जा कर आकाश छूने की, उस में कोई विरामचिह्न है ही नहीं. बस, सांस रोक कर दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, गिर गए तो मर गए. दूसरे लोग तुम को रौंद आगे निकल जाएंगे.

आज इस निर्धन, थकेहारे परिवार को देख एक नए संसार की खोज मिली उस को. यहां पलपल जीवित रहने की लड़ाई लड़ते हुए भी ये लोग कितने सुखी हैं, कितनी शांति है आम की घनी छाया के नीचे, एकदूसरे के प्रति कितना लगाव है. कोई भी बुरा समय आए तो कैसे सब मिलजुल कर उस को मार भगाने को एकजुट हो जाते हैं. उस के जीवन में संपन्नता के साथ वह सबकुछ, सारी सफलताएं हैं जो आज के तथाकथित उच्चाकांक्षी लोगों का सपना हैं पर आज रीमा ने आंखों में उंगली डाल दिखा दिया कि उस के प्रति समर्पण किसी का भी नहीं.

‘‘चल बेटा, खाना खा ले. थोड़ा आराम कर के जाना. दिन रहते ही घर लौटना, समय ठीक नहीं. दीनू लौट कर दुखी होगा कि भैया से भेंट नहीं हुई.’’

एकएक शब्दों में उस मां, जिसे वह सौतेली मानता था, का स्नेह, ममता और संतान की चिंता देख विशू अंदर तक भीग उठा.

‘‘मैं नहीं जा रहा. कई दिनों की छुट्टी ले कर आया हूं. घर में रहूंगा.’’

बुरी तरह चौंकी निर्मला, ‘‘क्या, अरे रहेगा कहां? देख रहा है घरद्वार की दशा, कहां सोएगा, कहां उठेगाबैठेगा और नहानाधोना?’’

‘‘तुम लोग कैसे करते हो?’’

‘‘पागल मत बन. हमारी बात मान और…’’

‘‘क्यों? क्या मैं कोई आसमान से उतर कर आया हूं?’’

हंस पड़ी निर्मला. विशू ने देखा इतना आंधीतूफान झेल कर भी निर्मला की हंसी में आज भी वही शुद्ध पवित्र हृदय झांकता है, वही मीठी सहज सरल हंसी, ‘‘कर लो बात. तेरा घरद्वार है, रहेगा क्यों नहीं? पर तेरे रहने लायक भी तो हो.’’

‘‘तभी तो रहना है मुझे…इस को रहने लायक बनाने के लिए.’’

‘‘क्या कह रहा है तू?’’

‘‘अम्मा, नासमझ था जो अपनी जड़ अपने हाथों काट गया था. पर मजबूत जड़ काट कर भी नहीं कटती. एक टुकड़ा भी रह जाए तो पेड़ फिर से लहलहा उठता है. अम्मा, मैं समझ गया हूं कि मैं आज तक सोने के हिरन के पीछे दौड़ता रहा जो लुभाता जरूर है पर किसी का भी अपना नहीं होता. बस, तुम मुझे वह करने दो जो मुझे करना है.’’

‘‘वह क्या है, लल्ला?’’

‘‘इस मकान को मजबूत, पक्का घर बनाना है, 3 कमरे, 1 हाल, बिजली, पानी की व्यवस्था, रसोई, बाथरूम की सुविधा और आज से चाय की दुकान बंद. पंडितजी की बहूबेटी सड़क चलते लोगों को चाय बेचेंगी, यह तो बड़ी लज्जा की बात है. वहां एक बहुत बड़ी परचून की दुकान होगी. एक नौकर होगा, दीनू उस में बैठेगा.’’

‘‘पर वह तो… बहुत पैसों का…’’

‘‘अम्मा, याद है तुम बचपन में कहती थीं कि तेरा बेटा लाखों का नहीं करोड़ों का है. तुम पैसों की चिंता क्यों करती हो. मैं हूं तो.’’

रो पड़ी निर्मला, ‘‘मेरे बच्चे…’’

‘‘चलो अम्मा, रोटी खिलाओ, भूख लगी है.’’

मन एकदम नीले आकाश में जलहीन छोटेछोटे बादलों के टुकड़ों जैसा हलका हो गया. उसे चिंता नहीं इस समय पर्स में 35 हजार रुपए पड़े ही हैं, काम शुरू करने में परेशानी नहीं होगी. बीमा के 20 लाख रुपए हैं ही. उसे पता है कि वह 1 हफ्ता भी खाली नहीं बैठेगा. दूसरे लोगों की नजर वर्षों से उस पर है. उस की योग्यता और काम की निष्ठा से सब ललचाए बैठे हैं.

देश और विदेश की कंपनियों के कर्णधार, कई औफर इस समय भी उस के हाथ में हैं. बस, स्वीकार करने की देर है और वह करेगा भी. पर इस बार देश नहीं विदेश में ही जाने का मन बना लिया है. जहां रीमा की परछाईं भी नहीं हो. घर के ऊपर अपने लिए एक बड़ा सा पोर्शन बना लेगा जहां से हरेहरे खेत, गाती कोयल, आम के बाग और गांव के किनारेकिनारे बहती यमुना नदी दिखाई पड़ेगी.

एक बार जिस पेड़ की जड़ काट कर गया था, उस की जड़ के बचे हुए टुकड़े से पेड़ फिर लहलहाता वटवृक्ष बन गया है. अब दोबारा से उस जड़ को नहीं काटेगा. वर्ष में एक बार मां, भाईबहन के पास अवश्य आएगा.

बहुत दिनों बाद लौकी की सब्जी, चूल्हे की आंच में सिंकी गोलमटोल करारीकरारी रोटी पेट भर खा कर वह मूंज की बनी चारपाई पर दरी और साफ धुली चादर के बिछौने पर पड़ते ही सो गया. बहुत दिनों बाद गहरी, मीठी नींद आई है उसे.

 

 

जरा सी आजादी: सुखी परिवार होने के बावजूद क्यों आत्महत्या करना चाहती थी नेहा?

‘‘आखिर क्या कमी है जो तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा. तुम तो मुझे भी पागल कर के छोड़ोगी, नेहा. इतना समय नहीं है मेरे पास जो हर समय तुम्हारा ही चेहरा देखता रहूं.’’

एक कड़वी सी मुसकान चली आई नेहा के होंठों पर. बोली, ‘‘समय तो कभी नहीं रहा तुम्हारे पास. जब जवानी थी तब समय नहीं था, अब तो बुढ़ापा सिर पर खड़ा है जब अपने पेशे के शिखर पर हो तुम. इस पल तुम से समय की उम्मीद तो मैं कर भी नहीं सकती.’’

‘‘क्या चाहती हो? क्या छुट्टी ले कर घर बैठ जाऊं? माना आज बैठ भी गया तो कल क्या होगा. कल फिर तुम्हारा मन नहीं लगेगा, फिर क्या करोगी? कोई ठोस हल है?’’

तौलिया उठा कर ब्रजेश नहाने चले गए. आज एक मीटिंग भी थी. नेहा ने उन्हें जरूरी तैयारी भी करने नहीं दी. वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर वह चाहती क्या है. सब तो है. साडि़यां, गहने, महंगे साधन जो भी उन की सामर्थ्य में है सब है उन के घर में. अभी इकलौते बेटे की शादी कर के हटे हैं. पढ़ीलिखी कमाऊ बहू भी मिल चुकी है. जीवन के सभी कोण पूरे हैं, फिर कमी क्या है जो दिल नहीं लगता. बस, एक ही रट है, दिल नहीं लगता, दिल नहीं लगता. हद होती है हर चीज की.

जीवन के इस पड़ाव पर परेशान हो चुके हैं ब्रजेश. रिटायरमैंट को 3 साल रह गए हैं. कितना सब सोच रखा है, बुढ़ापा इस तरह बिताएंगे, उस तरह बिताएंगे. जीवनभर की थकान धीरेधीरे अपनी मरजी से जी कर उतारेंगे. आज तक अपनी इच्छा से जिए कब हैं? पढ़ाई समाप्त होते ही नौकरी मिल गई थी. उस के बाद तो वह दिन और आज का दिन.

पिताजी पर बहनों की जिम्मेदारी थी इसलिए जल्दी ही उन का सहारा बन जाना चाहते थे ब्रजेश. अपना चाहा कभी नहीं किया. पिता की बहनें और फिर अपनी बहनें… सब को निभातेनिभाते यह दिन आ गया. अपना परिवार सीमित रखा, सब योजनाबद्ध तरीके से निबटा लिया. अब जरा सुख की सांस लेने का समय आया है तो नेहा कैसी बेसिरपैर की परेशानी देने लगी है. नींद नहीं आती उसे, परेशान रहती है, अकेलेपन से घबराने लगी है. बारबार एक ही बात कहती है, उस का दिल नहीं लगता. उस का मन उदास होने लगा है.

कुछ दिन के लिए मायके भी भेज दिया था उसे. वहां से भी जल्दी ही वापस आ गई. पराए घर में वह थोड़े न रहेगी सारी उम्र. उस का घर तो यह है न, जहां वह रहती है. कुछ दिन बहू के पास भी रहने गई. वह घर भी अपना नहीं लगा. वह तो बहू का घर है न, वह वहां कैसे रह सकती है.

रिटायरमैंट के बाद एक जगह टिक कर बैठेंगे तब शायद साथसाथ रहने के लिए बड़ा घर ले लें. अभी जब तक नौकरी है हर 3-4 साल के बाद उन्हें तो शहर बदलना ही है. उस शहर में आए मात्र  4 महीने हुए हैं. यह नई जगह नेहा को पसंद नहीं आ रही. नया घर ही मनहूस लग रहा है.

‘‘अड़ोसपड़ोस में आओजाओ, किसी से मिलोजुलो. टीवी देखो, किताबें पढ़ो. अपना दिल तो खुद ही लगाना है न तुम्हें, अब इस उम्र में मैं तुम्हें दिल लगाना कैसे सिखाऊं,’’ जातेजाते ब्रजेश ने समझाया नेहा को.

हर रोज यही क्रम चलता रहता है. जीवन एकदम रुक जाता है जब ब्रजेश चले जाते हैं, ऐसा लगता है हवा थम गई है, इतनी भारी हो कर ठहर गई है कि सांस भी नहीं आती. छाती पर भी हवा ही बोझ बन कर बैठ गई है.

बेमन से नहाई नेहा, तौलिया सुखाने बालकनी में आई. सहसा आवाज आई किसी की.

‘‘नमस्कार, भाभीजी. इधर देखिए, ऊपर,’’ ताली बजा कर आवाज दी किसी ने.

नेहा ने आगेपीछे देखा, कोई नजर नहीं आया तो भीतर जाने लगी.

‘‘अरेअरे, जाइए मत. इधर देखिए न बाबा,’’ कह कर किसी ने जोर से सीटी बजाई.

सहसा ऊपर देखा नेहा ने. चौथे माले पर एक महिला खड़ी थी.

‘‘क्या हैं आप भी. इस उम्र में मुझ से सीटी बजवा दी. कोई अड़ोसीपड़ोसी देखता होगा तो क्या कहेगा, बुढि़या का दिमाग घूम गया है क्या. नमस्कार, कैसी हैं आप?’’

हंस रही थी वह महिला. नेहा से जानपहचान बढ़ाना चाह रही थी. कहां से आए हैं? नाम क्या है? पतिदेव क्या काम करते हैं?

‘‘आप से पहले जो इस फ्लैट में थे उन से मेरी बड़ी दोस्ती थी. उन का तबादला हो गया. आप से रोज मिलना चाहती हूं मैं, आप मिलती ही नहीं. वाशिंग मशीन पिछली बालकनी में रख लीजिए न. इसी बहाने सूरत तो नजर आएगी.

‘‘अरे, कपड़े धोते समय ही किसी का हालचाल पूछा जाता है. सारा दिन बोर नहीं हो जातीं आप? क्या करती रहती हैं? आज क्या कर रही हैं?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. आप आइए न मेरे घर.’’

‘‘जरूर आऊंगी. आज आप आ जाइए. एक बार बाहर तो निकल कर देखिए, आज मेरे घर किट्टी पार्टी है. सब से मुलाकात हो जाएगी.’’

कुछ सोचा नेहा ने. किट्टी डालना ब्रजेश को पसंद नहीं है. बिना किट्टी डाले वह कैसे चली जाए. चलती किट्टी में जाना अच्छा नहीं लगता.

‘‘आप मेरी मेहमान बन कर आइए न. इधर से घूम कर आएंगी तो फ्लैट नं. 22 सी नजर आएगा. चौथी मंजिल. जरूर आइएगा, नेहाजी.’’

हाथ हिला दिया नेहा ने. मन ही नहीं कर रहा था. साड़ी निकाल कर रखी थी कि चली जाएगी मगर मन माना ही नहीं, सो, वह नहीं गई. वह दिन बीत गया और भी कई दिन. एक शाम वही पड़ोसन दरवाजे पर खड़ी नजर आई.

‘‘आइए,’’ भारी मन से पुकारा नेहा ने.

‘‘अरे भई, हम तो आ ही जाएंगे जब आ गए हैं तो. आप क्यों नहीं आईं उस दिन? मन नहीं घबराता क्या? एक तरफ पड़ेपड़े तो रोटी भी जल जाती है. उसे भी पलटना पड़ता है. आप कहीं बाहर नहीं निकलतीं, क्या बात है? सामने निशा से पूछा था मैं ने, उस ने बताया कि आप उस से भी कभी नहीं मिलीं.’’

आने वाली महिला का व्यवहार नेहा को इतना अपनत्व भरा लगा कि सहसा आंखें भर आईं. रोटी भी एक ही तरफ पड़ेपड़े जल जाती है तो वह भी जल ही तो गई है न. क्या फर्क है उस में और एक जली रोटी में. जली रोटी भी कड़वी हो जाती है और वह भी कड़वी हो चुकी है. हर कोई उस से परेशान है.

‘‘नेहाजी, क्या बात है? कोई परेशानी है?’’

गरदन हिला दी नेहा ने, न ‘न’ में न ‘हां’ में. कंधे पर हाथ रखा उस ने. सहसा रोना निकल गया. उस के साथ ही चली आई वह भीतर.

‘‘घर इतना बंदबंद क्यों रखा है? खिड़कियांदरवाजे खोलो न. ताजी हवा अंदर आने दो. उस दिन आईं क्यों नहीं?’’ सहसा थोड़ा रुक कर पूछा.

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आंखें मिलीं नेहा से. भीगी आंखों में न जाने क्या था, न कुछ कहा न कुछ सुना. नेहा ने नहीं, शायद आने वाली महिला ने ही एक नाता सा बांध लिया.

‘‘मेरा नाम शुभा है. तुम मुझे जैसे चाहो पुकार सकती हो. दीदी कहो, भाभी कहो, नाम भी ले सकती हो. मेरी उम्र 53 साल है, हिसाब लगा लो, कैसे बुलाना चाहती हो. तुम छोटी लग रही हो मुझ से.’’

‘‘जी, मेरी उम्र 50 साल है.’’

‘‘वैसे किसी खूबसूरत महिला से उस की उम्र पूछनी तो नहीं चाहिए थी मगर महिला तुम जैसी हो तो कहना ही क्या, जो खुद अपने को 50 की बता रही हो. तुम इतनी बड़ी तो नहीं लगती हो. मैं नाम ले कर पुकारूं? नेहा पुकारूं तुम्हें?’’

‘‘जी, जैसा आप को अच्छा लगे.’’

‘‘मुझे अच्छा लगे क्यों. तुम्हें क्या अच्छा लगता है, यह तो बताओ.’’

चुप रही नेहा. शुभा ने कंधे पर हाथ रखा. झिलमिलझिलमिल करती आंखों में ढेर सारा नमकीन पानी शुभा को न जाने क्याक्या बता गया.

‘‘जो तुम्हें अच्छा लगे मैं वही पुकारूंगी तुम्हें. तुम से पहले जो इस घर में रहती थी उस से मेरा बहुत प्यार था. यह घर मेरे लिए पराया नहीं है, उसी अधिकार से चली आई हूं. मीरा नाम

था उस का जो यहां रहती थी. बहुत प्यारी सखी थी वह मेरी. तुम भी

उतनी ही प्यारी हो. जरा दरवाजे- खिड़कियां तो खोलो.’’

‘‘उन को दरवाजेखिड़कियां खोलना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘उन को किसी के साथ हंसनाबोलना भी पसंद है कि नहीं? उस दिन तुम किट्टी पार्टी में भी नहीं आईं.’’

‘‘उन्हें किट्टी डालना पसंद नहीं.’’

‘‘तुम्हारे बच्चे कहां हैं. बाहर होस्टल में पढ़ते हैं क्या?’’

‘‘एक ही बेटा है. अभी 4 महीने पहले ही उस की शादी हुई है.’’

‘‘अरे वाह, सास हो तुम. सास हो कर भी उदास हो. भई, बहू को 2-4 जलीकटी सुनाओ, अपनी भड़ास निकालो और खुश रहो. टीवी सीरियल में यही तो सिखाते हैं. शादी होती है, उस के बाद एक तो रोती ही रहती है, या बहू रुलाती है या सास. तुम्हारे यहां क्या सीन है?’’

‘‘मैं तो यहां अकेली हूं. बहू आगरा में है. दूरदूर रहना है जब, तब लड़ाई कैसी?’’

‘‘बहू तुम ने पसंद की थी या भाईसाहब ने?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. उन दोनों ने ही एकदूसरे को पसंद कर लिया था.’’

‘‘चलो, मेहनत कम हुई. मुझे तो अपने बच्चों के लिए साथी ही ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. कहीं परिवार अच्छा नहीं था, कहीं लड़की पसंद नहीं आती थी.’’

शुभा ने धीरेधीरे घर की खिड़कियां खोलनी शुरू कर दीं. ताजी हवा घर में आने लगी.

‘‘आज खाने में क्या बनाया था तुम ने?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ नहीं, मतलब. भूखी हो सुबह से? अभी शाम के 6 बज रहे हैं. तुम ने कुछ भी खाया नहीं है.’’

शुभा ने हाथ पकड़ा नेहा का. रोक कर रखा बांध बह निकला. एक अनजान पड़ोसन के गले लग नेहा फूटफूट कर रो पड़ी. शुभा भी उस का माथा सहलाती रही.

‘‘चलो, तुम्हारी रसोई में चलें. बेसन है न घर में. पकौड़े बनाते हैं. आटा तो गूंध रखा होगा, चपाती के साथ पकौड़े और गरमगरम चाय पीते हैं.’’

आननफानन ही सब हो गया. आधे घंटे के बाद ही दोनों मेज पर बैठी चाय पी रही थीं.

‘‘क्यों इतना उदास हो, नेहा? खुश होना चाहिए तुम्हें. नए शहर में आई हो, उदासी स्वाभाविक है, मैं मानती हूं मगर इतनी नहीं कि भूखे ही मरने लगो. एक ही बच्चा है जिसे पालपोस दिया, उस का घर बसा दिया. तुम्हारा कर्तव्य पूरा हो गया, और क्या चाहिए?’’

‘‘बहुत खालीपन लगता है, दीदी. जी चाहता है कि अपने साथ कुछ कर लूं. जीवन और क्यों जीना, अब क्या करना है मुझे, किसे मेरी जरूरत है?’’

‘‘अपने साथ कुछ कर लूं, क्या मतलब?’’ शुभा का स्वर तनिक ऊंचा हो गया.

‘‘कुछ खा कर मर जाऊं.’’

‘‘क्या?’’ अवाक् रह गई शुभा. अनायास उस के सिर पर चपत लगा दी.

‘‘पागल हो क्या. अपने परिवार और अपनी बहू को सजा देना चाहती हो क्या? मर कर उन का क्या बिगाड़ लोगी. तुम्हें क्या लगता है वे उम्रभर रोते रहेंगे? जो जाएगा तुम्हारा जाएगा, किसी का क्या जाएगा.

खालीपन लगता है तो क्या मर कर भरोगी उसे? पति, बेटा और बहू के सिवा भी तुम्हारे पास कुछ है, नेहा. तुम्हारे पास तुम हो, अपनी इज्जत करना सीखो. पति को खिड़की खोलना पसंद नहीं तो तुम खिड़कीदरवाजे बंद कर के बैठी हो. पति को किट्टी डालना पसंद नहीं तो उस दिन तुम मेरे घर ही नहीं आईं. इतना कहना क्यों मान रही हो कि घुट कर मर जाओ?’’

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‘‘शुरू से… शुरू से ऐसा ही है. मैं चाहती थी दूसरा बच्चा हो, ये माने ही नहीं. जीवन में मैं ने तो कभी सांस भी खुल कर नहीं ली. सोचा था मनपसंद लड़की को बहू बना कर लाऊंगी, सोचा था बेटी की इच्छा पूरी हो जाएगी. बेटे ने अपनी पसंद की ढूंढ़ ली. मेरी पसंद मन में ही रह गई.’’

‘‘अच्छा किया बेटे ने. अपनी पसंद से तो जी रहा है न. क्या चाहती हो कि आज से 20-30 साल बाद वह भी वही भाषा बोले जो आज तुम बोल रही हो. तुम आज कह रही हो न अपने तरीके से जी नहीं पाई, क्या चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा भी तुम्हारी तरह अपना जीवन खालीपन से भरा पाए. अपनी पसंद से जी नहीं पाई और मर जाना चाहती हो. क्या तुम्हारा बच्चा भी…’’

‘‘नहीं… नहीं तो दीदी,’’ सहसा जैसे कुछ कचोटा नेहा को, ‘‘मेरे बच्चे को मेरी उम्र भी लग जाए.’’

‘‘अपने बच्चे को अपनी उम्र देना चाहती हो लेकिन चैन से जीने देना नहीं चाहती. कैसी मां हो? मर कर उम्रभर का अपराधबोध देना चाहती हो. तुम तो मर कर चली जाओगी लेकिन तुम्हारा परिवार चेहरे पर प्रश्नचिह्न लिए उम्रभर किसकिस के प्रश्न का उत्तर देता रहेगा. अरे, मन में जो है आज ही कह कर भड़ास निकाल लो. सुन लो, सुना दो, किस्सा खत्म करो और जिंदा रहो.’’

सहसा शुभा का हाथ नेहा के हाथ पर पड़ा. कलाई में रूमाल बांध रखा था नेहा ने.

‘‘यह क्या हुआ, जरा दिखाना तो,’’ झट से रूमाल खींच लिया. हाथ सीधा किया, ‘‘अरे, यह क्या किया? यहां काटा था क्या? कब काटा था? ताजे खून के निशान हैं. क्या आज ही काटा? क्या अभी यही काम कर रही थीं जब मैं आई थी?’’

काटो तो खून नहीं रहा शुभा में. यह क्या देख लिया उस ने. यह अनजानी औरत जिस से वह पड़ोसी धर्म निभाने चली आई, क्या भरोसे लायक है? अभी अगर इस के जाने के बाद इस ने यह असफल प्रयास सफल बना लिया तो क्या से क्या हो जाएगा? आत्महत्या या हत्या, इस का निर्णय कौन करेगा? वही तो होगी आखिरी इंसान जो नेहा से मिली. कहीं उसी पर कोई मुसीबत न आ जाए.

‘‘नहीं तो दीदी. चूड़ी टूट कर लग गई थी.’’

‘‘भाईसाहब वापस कब आते हैं औफिस से?’’

‘‘वे तो 9-10 बजे से पहले नहीं आते. आजकल ज्यादा काम रहता है, मार्च का महीना है न.’’

‘‘तुम चलो मेरे साथ, मेरे घर. जब वे आएंगे, तुम्हें उधर से ही लेते आएंगे. तुम अकेली मत रहो.’’

‘‘मैं तो पिछले कई सालों से अकेली हूं. अब थक गई हूं. एक ही बेटे में सब देखती रही. आज वह भी मुझे एक किनारे कर पराई लड़की का हो गया. मैं खाली हाथ रह गई हूं, दीदी. पति तो पहले ही अपने परिवार के थे. मेरी इच्छा उन के लिए न कल कोई मतलब रखती थी न आज रखती है. बेटा अपनी पत्नी की इच्छा पर चलता है, पति अपने तरीके से चलते हैं. दम घुटता है मेरा. सांस ही नहीं आती. इन से कुछ कहती हूं तो कहते हैं, मेरा घर है, जैसा मैं कहता हूं वैसा ही होगा. बहू का घर उस का घर होना ही चाहिए. तो फिर मेरा घर कहां है, दीदी?

‘‘मायके जाती हूं तो वहां लगता है यह भाभी का घर है. वहां मन नहीं लगता. पति कहते हैं कि क्या कमी है, साडि़यां हैं, गहने हैं. भला साडि़यां, गहनों से क्या कोई सुखी हो जाता है? मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. मैं तो अपने घर में एक पत्ता भी हिला नहीं सकती. यह सोफासैट इधर से उधर कर लूंगी तो भी तूफान आ जाएगा. बेजान गुडि़या हूं मैं, जिसे चूं तक करने का अधिकार नहीं है.’’

अवाक् रह गई शुभा. नेहा की परेशानी समझ रही थी वह. इस की जगह अगर वह भी होती तो शायद उस की भी यही हालत होती.

‘‘कल सोफासैट से ही शुरुआत करते हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि अभी खिड़कियां खोली हैं न. इन्हें आज बंद मत करना. कहना मेरा दम घुटता है इसलिए इन्हें बंद मत करो. थोड़ा सा विरोध भी करो. कल बाई के साथ मिल कर जरा सा सामान अपनी मरजी से सजाना. कुछ कहेंगे तो कहना, तुम्हें इसी तरह अच्छा लगता है. अपनी भी कहना सीखो, नेहा. कई बार ऐसा भी होता है, हम ही अपनी बात नहीं कहते या हम ही अपनी इच्छा का सम्मान किए बिना दूसरे की हर इच्छा मानते चले जाते हैं, जिसे सामने वाला हमारी हां ही मानता है. इस में उन का भी क्या दोष.

‘‘इतने सालों में तुम ने अपने पति को कभी ‘न’ नहीं कहा और उन का अधिकार क्षेत्र तुम्हारी सांस तक पहुंच गया. 12 घंटे तुम इस बंद घर में इतनी भी हिम्मत नहीं कर सकती कि खिड़कियां ही खोल पाओ. जिंदा इंसान हो, तुम कोई मृत काया नहीं जिसे ताजी हवा नहीं चाहिए. सारा दोष तुम्हारा अपना है, तुम्हारे पति का नहीं. जिस की सांस घुटती है, विरोध भी उसी को करना पड़ता है. 4 दिन घर में अशांति होगी, होने दो मगर अपना जीवन समाप्त मत करो. शांति पाने के लिए कभीकभी अशांति का सहारा भी लेना पड़ता है. तुम्हारे पति को परेशानी तो होगी क्योंकि उन्होंने कभी तुम्हारी ‘न’ नहीं सुनी. इतने बरसों में न की गई कितनी सारी ‘न’ हैं जिन का उन्हें एकसाथ सामना करना होगा. अब जो है सो है. तब नहीं तो अब सही, जब जागे तभी सवेरा. अपना घर अपने तरीके से सजाओ.’’

नेहा आंखें फाड़े उस का चेहरा देखती रही.

‘‘घर में वह सामान जो बेकार पड़ा है, सब निकाल दो. कबाड़ी वाला मैं ले आऊंगी. गति दो हर चीज को. तुम भी रुकी पड़ी हो, सामान भी रुका पड़ा है. तुम मालकिन हो घर की, जैसा चाहो, सजाओ.’’

‘‘वही तो मैं भी सोचती हूं.’’

‘‘कुछ भी गलत नहीं सोचती हो तुम. इस घर में पतिदेव सिर्फ रात गुजारते हैं. तुम्हें तो 24 घंटे गुजारने हैं. किस की मरजी चलनी चाहिए?’’

शुभा को नेहा के चेहरे का रंग बदलाबदला नजर आया. आंखों में बुझीबुझी सी चमक, जराजरा हिलती सी नजर आई.

‘‘अच्छा, भाईसाहब का बिजनैस कार्ड देना जरा. मेरे पतिदेव को इनकम टैक्स की कोई सलाह लेनी थी. तुम चलो, अभी मेरे साथ. आज 31 मार्च है न. क्या पता रात के 12 ही बज जाएं. जब आएंगे, तुम्हें बुला लेंगे. अरे, फोन पर बात कर लेंगे न हम,’’ कहते हुए शुभा उस का हाथ थाम चलने के लिए खड़ी हो गई.

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि सबकुछ होने के बावजूद न जाने क्यों नेहा खुल कर सांस नहीं ले पाती थी. कई बार उस के मन में आत्महत्या करने तक का खयाल आया. पढि़ए अब आगे…

नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.

‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’

‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’

‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.

उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.

वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.

क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.

रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.

दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.

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दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.

‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’

सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया  था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.

‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’

‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’

नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.

‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’

‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’

‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’

‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’

ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर.  शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’

ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?

आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.

पिछली बालकनी में खड़ी रही शुभा देर तक. नजर नेहा के घर पर थी. रोशनी जल रही थी. वहां क्या हाल है क्या नहीं, यह उसे बेचैन कर रहा था. तभी उस के पतिदेव विजय का फोन आया तो सहसा सारा किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है, विजय. अगर नेहा ने कुछ…’’

‘‘ब्रजेश को सब बताया है न तुम ने. अब वह देख लेगा न.’’

‘‘नहीं देखेगा. मुझे लगता है उसे पता ही नहीं कि उसे क्या करना चाहिए.’’

‘‘देखो शुभा, तुम अपना दिमाग खराब मत करो. तुम्हारा ब्लड प्रैशर बढ़ जाएगा और मैं भी वहां नहीं हूं. तुम कोई झांसी की रानी नहीं हो जो किसी की भी जंग में कूदना चाहती हो.’’

‘‘सवाल उस के जीनेमरने का है, विजय. अगर मेरे कूदने से वह बच जाती है तो मेरे मन पर कोई बोझ नहीं रहेगा और अगर उस ने कुछ कर लिया तो जीवनभर अफसोस रहेगा.’’

‘‘तुम ने ठेका ले रखा है क्या सब का? न जान न पहचान.’’

‘‘हम जिंदा इंसान हैं, विजय. क्या मरने वाले को लौटा नहीं सकते? मुझे लगता है मैं उसे मरने से रोक सकती हूं. आप एक बार ब्रजेश से बात कीजिए न. उस का फोन नंबर है मेरे पास, मैं आप को लिखवा देती हूं.’’

मंदमंद मुसकराने लगे विजय. जानते हैं अपनी पत्नी को. समस्या को सुलझाए बिना मानेगी नहीं और सच भी तो कह रही है. खिलौना टूट जाने के बाद कोई कर भी क्या लेगा? प्रयास का कोई भी औचित्य तभी तक है जब तक प्राण हैं. पखेरू के उड़ जाने के बाद वास्तव में उन्हें भी अफसोस होगा. शुभा का कहा मान लेना चाहिए, किसी के जीवन से बड़ा क्या होगा भला?

‘‘अच्छा बाबा, तुम जैसे कहो. नंबर दे दो, मैं एक बार ब्रजेश से बात करता हूं. शायद कोई रास्ता निकल ही आए.’’

विजय ने आश्वासन दिया और उस का रंग उसे दूसरी सुबह नजर भी आ गया. पूरे 10 बजे ब्रजेश नेहा को उस के पास छोड़ते गए.

‘‘आप पर भरोसा करना चाहता हूं जिस में मेरा ही फायदा होगा.’’

नेहा भीतर जा चुकी थी और जातेजाते कहा ब्रजेश ने, ‘‘शायद कहीं मैं ही सही नहीं हूं. आप मेरी बहन जैसी हैं. वह भी इसी तरह अधिकार से कान मरोड़ देती है. आप जैसा चाहें करें. मैं दखल नहीं दूंगा. बस, मेरा घर बच जाए. मेरी नेहा जिंदा रहे.’’

आभार व्यक्त किया ब्रजेश ने और यह भी बता दिया कि नेहा ने नाश्ता नहीं किया है अभी. एक पीड़ा अवश्य नजर आई उसे ब्रजेश के चेहरे पर और एक बेचारगी भी. ब्रजेश चले गए और शुभा भीतर चली आई.

‘‘नाश्ता क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आप ने कर लिया क्या?’’

‘‘अभी नहीं किया. बोलो, क्या खाएं? तुम्हारा क्या मन है, वही खाते हैं.’’

‘‘मैं बनाऊं क्या? आप पसंद करेंगी?’’

‘‘अरे बाबा, नेकी और पूछपूछ. ऐसा करती हूं, मैं जरा अपनी अलमारी ठीक कर लेती हूं. तुम्हारा मन जो चाहे बना लो.’’

पैनी नजर रखी शुभा ने क्योंकि रसोई में चाकू भी थे. तेज धार चाकू उस ने उठा कर छिपा दिए थे जिस पर नेहा ने आवाज दी. ‘‘दीदी, आप का चाकू आलू तक तो काटता नहीं है, आप इस से काम कैसे करती हैं?’’

‘‘आज बाजार चलेंगे, नेहा. कुछ सामान लाना है. चाकू भी लाने वाले हैं.’’

आधे घंटे के बाद नेहा ने नाश्ता मेज पर सजा कर रख दिया. आलूटमाटर की सब्जी और पूरी. खातेखाते नेहा ने कहा, ‘‘दीदी, आप का घर कितना खुलाखुला है. ऐसा लगता है सांस आती भी है और जाती भी है. मेरे घर में सामान ही इतना है कि…’’

‘‘पुराना सामान निकाल देते हैं. थोड़ा सा बदलाव करते हैं. तुम्हारा घर भी खुलाखुला हो जाएगा. आज बाजार चलते हैं न. चलो, अभी चलें. दोपहर का लंच बाहर ही करेंगे.’’

‘‘कुछ रुपए दिए हैं ब्रजेश ने. अपने लिए जो चाहूं खरीदने को कहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास भी कुछ रुपए हैं. जरूरत पड़ी तो बैंक से निकाल लेंगे. तुम जो चाहो, ले लेना.’’

‘‘अरे नहीं बाबा, मुझे क्या ताजमहल खरीदना है जो इतने रुपए चाहिए. न सोना चाहिए न महंगी साड़ी. कुछ भी भारीभरकम नहीं चाहिए. कुछ हलकाफुलका चाहिए जिस का मेरी छाती पर कोई बोझ न हो.’’

अभियान शुरू किया नेहा की रसोई से. दुनियाजहान के पुराने बरतन, जिन्हें कभी अपना घर बनाने पर निकाल देंगे, पुराना फ्रिज, पुराना टीवी, रेडियो, पुरानी प्रैस, पुराना लोहा, पुरानीपुरानी किताबें, पुराना फर्नीचर, पुराने परदे, पुराने कपड़े, पुरानी तसवीरें, पुरानी साडि़यां, और भी बहुतकुछ था जिसे बदलने की आवश्यकता थी.

‘‘कल जब अपना घर होगा तब ले लेना नया सब.’’

‘‘अपना घर होगा जब रिटायरमैंट होगा और उस में अभी 4 साल पड़े हैं. तब तक तो मन भी मर जाएगा. कल का इंतजार कब तक, दीदी?’’

‘‘कल का इंतजार तुम अपने हाथों समाप्त कर लो, नेहा.’’

‘‘ब्रजेश औफिस के काम से बाहर जाने वाले हैं इस सोमवार, कह रहे हैं मुझे साथ लेते जाएंगे.’’

‘‘तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘क्या करूंगी, होटल में सड़ूंगी और क्या.’’

‘‘तो मत जाओ. मैं कागजकलम देती हूं, सामान की लिस्ट बनाओ जिसे बदलना चाहती हो. वे बाहर रहेंगे तो हम आराम से सफाई अभियान पूरा कर लेंगे.’’

‘‘घर में तांडव हो जाएगा. मेरी इतनी औकात कहां.’’

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‘‘तुम घर की मालकिन हो न. अपनी इच्छा का मान भी करना सीखो. घर के बरतन बदलने में भी तुम ब्रजेशजी का मुंह देखती हो. उन्हें उन के औफिस तक ही रहने दो न.’’

‘‘नहीं रहते न औफिस तक. रसोई के चम्मच तक में उन की मरजी होती है. घर में ऐसा कुहराम मचेगा कि मुझे सांस तक लेना मुश्किल हो जाएगा,’’ खीज पड़ी थी नेहा, ‘‘कल मेरी सास की मरजी थी, अब पति की है. कल बहू की होगी, मेरी मरजी शायद अगले जन्म में होगी.’’

‘‘अगला जन्म किस ने देखा है, पगली. कल क्या होगा कौन जानता है. आज देखो. ब्रजेश को मैं और विजय समझा लेंगे. आज भी शायद विजय ने समझाया होगा.’’

‘‘तो क्या इसीलिए आज बारबार मुझ से कह रहे थे कि मेरा जो जी चाहे मैं करूं, वे मना नहीं करेंगे. कुछ अजीबअजीब सी बातें कर तो रहे थे.’’

‘‘तुम्हारी मरजी की बात अजीबअजीब सी लगी तुम्हें?’’

‘‘जो कभी नहीं हुआ वह एक दिन होने लगे तो अजीब ही लगेगा न.’’

नेहा की बातों में शुभा दिलचस्पी ले रही थी.

‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’

मन भर आया शुभा का.

‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’

सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.

पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.

3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.

हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.

‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’

‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’

‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’

‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’

‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’

बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?

द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.

‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.

एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.

‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.

पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.

‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’

नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’

‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’

धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’

‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.

‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’

बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.

शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.

संयोग : बूआ ने जब छेड़ी अर्पिता और निक्की के विवाह की बात

‘‘सब तेरा ही कियाधरा तो है निक्की, सो तुझे ही भुगतना भी पड़ेगा,’’ अर्पिता ने रुखाई से कह कर फोन रख दिया.

वैसे अर्पिता का कहना था भी सही. निक्की तो उस रोज जिद कर के सब को सूरजकुंड मेला दिखाने ले गई थी. मेले में घूमते हुए अचानक पापा की ममेरी बहन रूपा बूआ मिल गईं. कई वर्ष पहले एक सरकारी आवासीय कालोनी में वे पड़ोस में ही रहती थीं. रातदिन का आनाजाना था. लेखाकार फूफाजी अर्पिता और निक्की को गणित पढ़ाते थे. फिर पापा ने नोएडा में फ्लैट खरीद लिया और फूफाजी ने द्वारका में, धीरेधीरे संपर्क खत्म हो गए. आज मिल कर सब बहुत खुश हुए और गपशप करने के लिए एक रेस्तरां में जा कर बैठ गए.

‘‘अर्पिता तो सौफ्टवेयर इंजीनियर बन गई, तू क्या बनेगी निक्की?’’ फूफाजी ने पूछा.

‘‘आप की दी शिक्षा को सार्थक कर रही हूं फूफाजी, कौमर्स कालेज में लेक्चरर हूं और पीएच.डी. की तैयारी भी कर रही हूं.’’

‘‘बड़ी खुशी हुई यह सुन कर,’’ रूपा बोलीं, ‘‘लेकिन इन के शादीब्याह के बारे में क्या कर रहे हो उदय भैया?’’

‘‘अभी तो कुछ सोचा नहीं. दोनों ही अपनेअपने कैरियर को बनाने में व्यस्त हैं,’’ उदय शंकर ने कहा.

‘‘कैरियर तो उम्र भर बनता रहेगा, लेकिन शादी की एक खास उम्र होती है और अच्छे लड़केलड़कियों के रिश्ते इसी उम्र में हो जाते हैं. अर्पिता 27 साल की हो रही है, जल्दी से इस के लिए लड़का तलाश करो वरना तुम्हें भी शंभु दयालजी वाली परेशानी होगी,’’ रूपा बोलीं.

‘‘शंभु दयाल कौन? वही पंडारा रोड वाले आप के मुंहबोले जेठ?’’ मम्मी ने पूछा, ‘‘कहां हैं वे आजकल?’’

‘‘उन का बेटा ओमी रामजस कालेज में व्याख्याता है न, कालेज के पास ही राजेंद्र नगर में रहते हैं,’’ रूपा बोलीं.

‘‘और उन की परेशानी क्या है?’’ उदय शंकर ने पूछा.

‘‘लड़कियों की शादी को ले कर परेशान होंगे,’’ मम्मी बोलीं, ‘‘4 लड़कियां थीं न उन की.’’

‘‘लड़कियां तो सब ब्याह गईं अनीता भाभी,’’ रूपा उसांस ले कर बोलीं, ‘‘बहनों को ब्याहने और डिगरियां लेने के चक्कर में ओमी कुंआरा रह गया है. सर्वगुण संपन्न लड़का है लेकिन 33 साल की उम्र की वजह से अच्छी लड़की ही नहीं मिल रही. बहुत परेशान हैं सब.’’

‘‘तो आप सब की परेशानी हल कर दो न रूपा बूआ,’’ निक्की ने चुटकी ली, ‘‘27 साल की अर्पिता दीदी और 33 साल के ओमी भाई की शादी करवा कर.’’

‘‘अरे, क्या कमाल का आइडिया दिया है री छोरी तू ने,’’ रूपा बूआ फड़क कर बोलीं.

‘‘और संयोग से वे सब भी यहां आए हुए हैं,’’ फूफाजी चहके, ‘‘शंभु से मोबाइल पर बात करवाता हूं…यह लो… उधर देखो, वह रहे वे लोग, अपनी टेबल पर बुला लेते हैं,’’ फूफाजी के साथ उदय शंकर, अनीता और रूपा भी लपक लीं.

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‘‘यह क्या बदतमीजी है, निक्की?’’ अर्पिता ने आंखें तरेरीं, ‘‘पहले तो खरीदारी के बहाने यहां ला कर शाम खराब की और अब यह शादी का शोशा छोड़ दिया.’’

इस से पहले कि निक्की कुछ बोलती, अर्पिता की नजर अपनी सहेली ओमी की छोटी बहन सरला पर पड़ी और वह लपक कर उस से मिलने चली गई.

2-3 मेजों को जोड़ कर एक लंबी मेज बनाई गई और चायनाश्ते का और्डर कर सब बातों में तल्लीन हो गए. केवल ओमी और निकिता उर्फ निक्की चुप थे. उम्र में फर्क जरूर था लेकिन बचपन की जान- पहचान तो थी ही, सो ओमी ने अपनी कुरसी निकिता के पास सरका ली.

यह सुन कर कि निकिता भी उसी के विषय की लेक्चरर है, ओमी बड़ा प्रभावित लगा. उस ने बातोंबातों में यह बताया कि वह अगले दिन लंदन स्कूल औफ इकोनोमिक्स में हो रहे सेमिनार में भाग लेने जा रहा है. निकिता को इस सेमिनार के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. ओमी ने उसे उन वैबसाइटों के बारे में बताया जिन पर इस तरह की जानकारियां मिलती थीं और ज्ञान को अपडेट किया जा सकता था. निकिता बड़ी दिलचस्पी से ओमी की बातें सुन रही थी और भी बहुत कुछ पूछना चाहती थी लेकिन अर्पिता और सरला उसे अपने साथ शौपिंग के लिए ले गईं, बाकी सब लोग वहीं बैठे रहे.

उन की खरीदारी अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि सरला को ओमी का फोन आ गया कि सब लोग जाने के लिए मेले के गेट के पास उन का इंतजार कर रहे हैं. उन के वहां पहुंचते ही सब ने जल्दीजल्दी विदा ली, निकिता चाह कर भी ओमी से बात नहीं कर सकी. उसे यह तो यकीन था कि पापा ने शंभु अंकल से फोन नंबर लिया होगा लेकिन उस ने पूछना मुनासिब नहीं समझा.

सरला से मिलने के बाद अर्पिता का सुधरा मूड ओमी का नाम सुन कर फिर बिगड़ सकता था. वैसे भी जब अर्पिता गाड़ी चलाती थी तो मम्मीपापा काफी तनाव में रहते थे और आज तो ट्रैफिक भी और दिनों के मुकाबले अधिक था, सो रास्ते भर सब चुप रहे. घर आते ही निक्की तो कंप्यूटर पर ओमी की बताई वैबसाइट देखने में व्यस्त हो गई और अर्पिता मोबाइल पर बात करने में. मम्मीपापा टीवी देखने लगे और मेले में मिले लोगों के बारे में कोई बात नहीं हुई.

रविवार था, इसलिए अगली सुबह सभी रोज के मुकाबले देर से उठे और नाश्ता भी देर से बना.

‘‘तुम दोनों का आज क्या प्रोग्राम है?’’ मां ने नाश्ते के दौरान पूछा.

‘‘मुझे तो लंच के बाद कुछ देर को बाहर जाना है,’’ अर्पिता बोली, ‘‘निक्की तो कंप्यूटर से चिपकी रहेगी शायद.’’

निक्की ने राहत की सांस ली. अर्पिता के जाने के बाद वह पापा से नंबर ले कर ओमी से बात करेगी. उसे अपनी कुछ शंकाओं का निवारण करना था. लेकिन इस से पहले कि वह कुछ बोलती, दरवाजे की घंटी बजी. नौकर ने दरवाजा खोला. सामने शंभु दयाल सपरिवार खड़े थे.

‘‘माफ करना उदय भाई, इस तरह बिना बताए आ धमकने को, लेकिन मजबूरी है. सरला को दोपहर की गाड़ी से लखनऊ वापस जाना है और हम तीनों को लंदन, सो जो बात कल शुरू की थी उसे जाने से पहले पूरी करना चाह रहे हैं,’’ शंभु दयाल सांस लेने को रुके, ‘‘ओमी की रजामंदी तो मैं ने ले ली है, तुम ने अर्पिता से बात कर ली होगी?’’

हतप्रभ से खड़े उदय शंकर ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘अभी तो नहीं…’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ शंभु दयाल ने आराम से सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘अब कर लेंगे. वैसे अर्पिता सरला को बता चुकी है कि शादी तो वह भी करना चाह रही है लेकिन यही सोच कर डरती है कि कहीं  शादी के बाद इतनी मेहनत से बनाए कैरियर का बंटाधार न हो जाए. ओमी से शादी कर के ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘मैं इस बात की गारंटी देने को तैयार हूं,’’ ओमी हंसा, ‘‘क्योंकि न तो मैं अवार्ड विनिंग किताबें लिखने का मोह छोड़ सकता हूं और न मम्मी अपनी गृहस्थी की बागडोर का. सो हमें तो अपने कैरियर को सर्वोपरि मानने वाली लड़की ही चाहिए.’’

‘‘इस के बाद कहनेसुनने को कुछ रह ही नहीं जाता,’’ सरला बोली, ‘‘ओमी भैया और परिवार के बारे में तो तुम अच्छी तरह से जानती हो अर्पिता, फिर भी कुछ पूछना है तो पूछ लो. ओमी भैया से यहीं या अकेले में.’’

‘‘यहीं पूछूंगी सब के सामने कि शादी के बाद राजेंद्र नगर से रोज सुबह 9 बजे नोएडा आफिस पहुंचने के लिए कितने बजे घर से निकलना होगा और शाम को 7-8 बजे छूटने के बाद घर कब पहुंचा करूंगी?’’ अर्पिता ने चुनौती के स्वर में पूछा.

‘‘सवाल तो वाजिब है लेकिन उस के जवाब में उलझने के बजाय मैं यह बताना चाहूंगा कि लंदन से लौटने के बाद मैं यह नौकरी छोड़ रहा हूं,’’ ओमी ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मुझे नोएडा में एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान में बेहतर नौकरी मिल चुकी है और मेरे पास 3 महीने का जौइनिंग टाइम है. मैं अपनी अर्जित छुट्टियों का सदुपयोग मांपापा को लंदन दिखाने में करना चाहता हूं, सो लौटने के बाद रामजस कालेज की नौकरी छोड़ूंगा.’’

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‘‘और कोई शंका तो नहीं रही अब?’’ शंभु दयाल ने सब की ओर देखा, ‘‘सो समय व्यर्थ मत करो सुभद्रा, पकड़ाओ बहू को शगुन और पक्का करो रिश्ता.’’

‘‘ठहरिए, भाई साहब,’’ अनीता पहली बार बोलीं, ‘‘ऐसे थोड़े ही रिश्ते पक्के होते हैं, आप तो शगुन ले कर आ गए, मगर हमारे पास तो कोई तैयारी नहीं है.’’

‘‘तो हमारे पास ही कौन सी तैयारी है?’’ सुभद्रा बोलीं, ‘‘हम भी नकद दे रहे हैं, आप भी नकद दे दो. नकद नहीं है तो चैक पकड़ा दो, 2 महीने बाद आ कर कैश करवा लेगा.’’

‘‘तो यह शगुन भी 2 महीने बाद ही कर लें…’’

‘‘नहीं, भाई उदय शंकर,’’ शंभु दयाल ने बात काटी, ‘‘शगुन यानी बात पक्की तो हम अभी कर के ही जाएंगे. अब तुम से क्या छिपाना, तुम्हें तो पता ही है कि मेरे भाई व बहनोई इंगलैंड में रहते हैं, वे जबतब ओमी को वहां बसाने के लिए, उस के लिए वहां की लड़कियों के रिश्ते सुझाते रहते हैं, जो हम नहीं चाहते. अब जब वहां जाने से पहले संयोग से ओमी के उपयुक्त लड़की भी मिल गई है तो क्यों न बात पक्की कर के जाऊं और इस से पहले कि वे कोई लड़की सुझाएं, मैं उन्हें यह खुशखबरी दे दूं कि तुम्हारी बेटी मेरी बहू बन रही है.’’

‘‘यह बात तो सोलह आने सही है,’’ उदय शंकर ने अर्पिता की ओर देखा, ‘‘तू क्या कहती है बेटी?’’

‘‘मैं क्या कहूं पापा?’’ अर्पिता ने असहाय भाव से कहा, ‘‘मेरी बस एक विनती है कि यहां शादी की बात अभी किसी को न बताई जाए.’’

‘‘हमारे पास तो किसी को बताने का समय है नहीं क्योंकि हम तो आज रात को ही लंदन जा रहे हैं,’’ सुभद्रा बोलीं, ‘‘तुम्हारे घर वाले क्या करते हैं, यह तुम जानो.’’

‘‘मम्मी का कैश तो तैयार पड़ा है, आंटीजी. आप को भी जो देना है जल्दी से लाओ ताकि ‘रोके’ की  रस्म करें. मिठाईविठाई के चक्कर में मत पडि़ए, मेज पर अंगूर रखे हैं उन से मुंह मीठा करवा दीजिए सब का,’’ सरला ने कहा, ‘‘चल अर्पि, इधर बैठ सोफे पर, आप भी इधर आ जाओ ओमी भैया.’’

‘‘दीदी को कपड़े तो बदलने दीजिए,’’ निकिता हंसी.

‘‘रहने दे, इस के कपड़े बदलने के चक्कर में मेरी ट्रेन छूट जाएगी. सोच क्या रही हो मम्मी, खोलो अपना बटुआ,’’ सरला ने जल्दी मचाई.

उस के बाद घर में जो था वही जल्दीजल्दी खा कर, 2 महीने बाद मिलने का वादा कर के सब लोग चले गए.

‘‘यह सरला भी न…बिलकुल नहीं बदली, किसी को कुछ सोचने का मौका ही नहीं देती,’’ अनीता ने लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तू क्या कहती है अर्पि, जो हुआ ठीक ही हुआ न?’’

‘‘यह मैं कैसे कह सकती हूं मम्मी, क्योंकि मैं इस परिवार में किसी को इतना नहीं जानती कि उन्हें तुरंत नकार या स्वीकार कर सकूं,’’ अर्पिता के स्वर में तल्खी थी.

‘‘घरवर के अच्छे होने के बारे में तो खैर कोई शक ही नहीं है लेकिन अर्पि जो कह रही है वह भी ठीक है. फिक्र मत कर बेटी, हम अगला फैसला करने से पहले तुझे और ओमी को एकदूसरे को जानने का मौका देंगे,’’ उदय शंकर ने आश्वासन दिया.

‘‘और इस दौरान हम इस बारे में कोई बात नहीं करेंगे,’’ अर्पिता ने धीरे से कहा.

लंच के बाद अर्पिता को बाहर जाते देख कर अनीता ने शंकित स्वर में पूछा, ‘‘कहां जा रही है?’’

‘‘आप को बताया तो था मम्मी कि दोपहर को कुछ देर के लिए बाहर जाऊंगी,’’ कह कर अर्पिता चली गई और जब वह लौट कर आई तो बिलकुल सामान्य लग रही थी.

‘‘घर में जो फल थे मम्मी, वे तो आप के बिनबुलाए मेहमान खा गए. सो मैं फल ले आई हूं,’’ उस ने लिफाफे मेज पर रखते हुए कहा.

‘‘बड़ा अच्छा किया अर्पि, मैं सोच रही थी कि बापबेटियों में से किस से कहूं कि मुझे बाजार ले चलो.’’

‘‘आप को बाजार जाना है तो अभी चलिए, तू भी चल निक्की, कल जो कपड़े लाए हैं, वे टेलर को भी तो देने हैं.’’

इस के बाद जीवन पुरानी गति से चलने लगा. केवल पतिपत्नी अकेले में कितना और क्या खर्च करेंगे, इस पर बातचीत करते थे. शंभु दयाल के परिवार के लौटने से कुछ सप्ताह पहले एक शाम अर्पिता अपने सहकर्मी प्रणय के साथ आई. प्रणय अकेला रहता था, सो अकसर अनीता उसे खाने पर बुला लिया करती थी, उदय शंकर को भी उस के साथ शतरंज खेलना पसंद था.

‘‘पापा आ गए हैं मम्मी?’’ अर्पिता ने उतावली से पूछा विश्वास की जड़ें- जब टूटा रमन और राधा का वैवाहिक रिश्ता

‘‘हां, अपनी स्टडी में हैं, बुलाती हूं.’’

‘‘नहीं मम्मी, हम सब वहीं चलते हैं, निक्की आ गई हो तो उसे भी बुला लीजिए, मुझे आप सब को कुछ बताना है,’’ अर्पिता ने पापा के कमरे में जाते हुए कहा.

‘‘ऐसा क्या है जो उन के कमरे में ही बताएगी?’’पूर्व कथा

सूरजकुंड मेले में उदय शंकर अपने परिवार के साथ घूमने गए तो संयोगवश वहां रूपा बूआ और उन के मुंहबोले जेठ शंभु दयाल का परिवार मिल गया. बातोंबातों में उदयशंकर की बेटी निक्की ने अपनी बहन अर्पिता की शादी का प्रस्ताव शंभु दयाल के लेक्चरर बेटे ओमी के साथ करवाने का प्रस्ताव रख दिया. बात सब को जंच गई और आननफानन में अगले दिन ओमी और अर्पिता का रिश्ता पक्का हो गया क्योंकि उन्हें उसी रात 3 माह के लिए लंदन जाना था. एक दिन अर्पिता अपने सहकर्मी प्रणय के साथ घर आई और सब को कुछ बताने लगी…

अब आगे पढि़ए.

‘‘ड्राइंगरूम में नौकरों के सामने मैं बताना नहीं चाहती थी कि मैं ने और प्रणय ने आज कोर्ट में शादी कर ली है,’’ अर्पिता ने मैरिज सर्टिफिकेट पिता की ओर बढ़ाया.?

अनीता ने हैरानी से बेटी की सूनी मांग को देखा. निक्की भी भौचक्की सी खड़ी थी लेकिन उदय शंकर ने संयत स्वर में कहा, ‘‘चुपचाप कोर्ट मैरिज की क्या जरूरत थी बेटी? हम से कहतीं तो हम धूमधाम से तुम्हारी शादी प्रणय से कर देते…’’

‘‘अगर ओमी वाला ड्रामा होने से पहले कहती तो,’’ अर्पिता ने बात काटी, ‘‘मैं और प्रणय शादी इसलिए टाल रहे थे कि इस का असर हमारे कैरियर पर पड़ेगा. जब सरला ने, जो स्वयं एक सफल सौफ्टवेयर इंजीनियर है और एक बच्चे की मां भी है, बताया कि यदि पतिपत्नी के बीच सही तालमेल हो तो कुछ भी असंभव नहीं है. वह बच्चे को सास और पति के पास छोड़ कर यहां आई हुई थी, तो मुझे बात समझ में आई और फिर यह डर था कि कहीं आप लोग निक्की के शोशे को गंभीरता से न ले लो. सो, मैं ने रात को प्रणय को सब बताया. इस ने कहा कि कल मिलने पर बात करेंगे लेकिन इस से मिलने के पहले ही ‘रोका’ हो गया.’’

‘‘दीदी, यह बात आप को ‘रोके’ की रस्म होने से पहले सब को बता देनी चाहिए थी,’’ निक्की बोली.

‘‘प्रणय से बगैर पूछे मैं कैसे कुछ वादा करती और फिर मौका भी नहीं मिला. ‘रोके’ को रोकने को जोे भी हम कहते थे उसे वे लोग काट देते थे. खैर, मुझे यही सही लगा कि इस बात को गुप्त रखने को कहूं और फिर खारिज करवा दूं. लेकिन आप सब जिस तरह ओमी पर लट्टू हो मुझे नहीं लगा कि आप यह रिश्ता तोड़ना मानोगे, सो हम ने कोर्ट मैरिज कर ली…’’

‘‘सिर्फ कागजी कार्यवाही,’’ अब तक चुप प्रणय बोला, ‘‘सिवा हमारे उन दोस्तों के जिन्हें गवाह बनाना जरूरी था, किसी को इस शादी के बारे में पता नहीं है. आप जब और जिस विधि से शादी करवाना चाहेंगे, हम शादी कर लेंगे और तब तक अर्पिता आप के पास ही रहेगी. बस, आप कहीं और इस की शादी नहीं कर सकेंगे.’’

‘‘उस का तो खैर सवाल ही नहीं उठता,’’ अनीता ने कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारे घरवालों की रजामंदी, प्रणय?’’

‘‘मेरे परिवार में तो सिर्फ भाईभाभी हैं, उन्हें अर्पिता पसंद है. आप जब कहेंगे उन लोगों को बुला लूंगा,’’ प्रणय ने कहा.

‘‘तुम दोनों अपनी छुट्टियों का हिसाबकिताब बताओ उसी के मुताबिक हम तैयारी करेंगे,’’ उदय शंकर ने कहा.

‘‘छुट्टी तो कभी भी एक हफ्ते की नोटिस पर मिल जाएगी.’’

‘‘तो ठीक है, अपने भाई का फोन नंबर दो, उन से बात करता हूं,’’ उदय शंकर ने कहा. इतनी शांति से सब होता देख कर अर्पिता द्रवित हो उठी.

‘‘लेकिन शंभु दयाल अंकल से कैसे निबटेंगे, पापा. और रूपा बूआ भी बहुत नाराज होंगी.’’

‘‘होती रहें, जब रूपा ने बात छेड़ी थी, मैं ने तभी कह दिया था कि मैं अर्पिता से बात करने के बाद ही बात आगे बढ़ाऊंगा. मेरे लिए सिर्फ मेरी बेटी की खुशी माने रखती है. रिश्तेदारों की नाराजगी नहीं,’’ उदय शंकर ने दृढ़ स्वर में कहा.

शादी धूमधाम से हो गई. रूपा को ‘रोके’ के बारे में कुछ पता नहीं था, सो उस ने इतना ही कहा कि अचानक अर्पिता की शादी तय हो जाने से ऐसा लगता है कि ओमी के जीवन में शादी लिखी ही नहीं है.

‘‘बेचारा,’’ निक्की के मुंह से अचानक ही निकला.

 

शंभु दयाल के विदेश से लौटने से पहले ही अर्पिता और प्रणय हनीमून पर जा चुके थे. उदय शंकर ने शंभु दयाल को पत्र लिख कर रिश्ते का अंत कर दिया था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. एक रविवार की सुबह शंभु दयाल और सुभद्रा को देख कर उदय और अनीता बुरी तरह सकपका गए. शंभु दयाल दंपती ने बड़ी शालीनता से अर्पिता की शादी के लिए उन्हें मुबारकबाद दी, जिस से वे लोग और भी संकुचित हो गए. वातावरण को सहज करने के लिए निक्की उन से उन के लंदन प्रवास के बारे में पूछने लगी. उन्होंने वहां क्या अच्छा लगा और क्या नहीं, विस्तार से बताया, फिर उस की रिसर्च के बारे में बात करतेकरते अचानक पूछा, ‘‘तुझे भी कोई पसंद है शादी के लिए तो अभी से उदय को बता दे.’’

‘‘नहीं, अंकल, इस रिसर्च के चक्कर में कपड़े तक तो पसंद करने का समय नहीं मिलता. थीसिस पूरी कर लूं, फिर आस- पास देखूंगी और कोई पसंद आया तो आप को बता दूंगी.’’

‘‘पक्का…अभी कोई पसंद नहीं है?’’

‘‘शतप्रतिशत, अंकल.’’

‘‘अगर इसे कोई पसंद होता न तो यह कब का ढिंढोरा पीट चुकी होती भाई साहब,’’ अनीता ने कहा, ‘‘यह अर्पिता की तरह धीरगंभीर नहीं है. सच मानिए, प्रणय को हम बरसों से जानते हैं मगर कभी खयाल ही नहीं आया कि उस से रिश्ता जुड़ सकता है वरना हम आप को परेशान नहीं करते.’’

‘‘परेशानी तो अब होगी अनीताजी, जब लंदन वाले सगाई व शादी की तारीख पूछेंगे. क्या बताएंगे उन्हें कि जिस लड़की से रिश्ता कर के हम ने उन के सुझाए रिश्तों को नकारा था, उस की तो कहीं और शादी हो गई,’’ सुभद्रा ने कहा, ‘‘आप चाहें तो हमें इस परेशानी से नजात मिल सकती है. निक्की का रिश्ता ओमी से कर दीजिए.’’

निक्की सिहर उठी. अपने से 9 साल बड़े ओमी से शादी. उस ने तुरंत फैसला किया कि वह अर्पिता की तरह चुप नहीं रहेगी. यह उस की जिंदगी है और वह इस के बारे में शंभु अंकल से खुद बात करेगी.

‘‘आप को शायद मेरी उम्र मालूम नहीं है? मेरी और ओमीजी की उम्र में 9 साल का फर्क है, ऐसी बेमेल जोड़ी बनाने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती,’’ निक्की मम्मीपापा के बोलने से पहले ही बोल पड़ी.

‘‘वर्षों के अंतराल को तो नकारा नहीं जा सकता बेटी,’’ शंभु दयाल ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘लेकिन न तो ओमी 33 वर्ष का लगता है और न ही कुंआरा होने की वजह से उस की सोच भी उम्र के मुताबिक धीरगंभीर है. वह खुशमिजाज और शौकीन है. तुम भी छिछोरी नहीं हो और तुम दोनों का विषय भी एक ही है. सो, खुश रहोगे एकदूसरे के साथ. यह हमारा नहीं ओमी का कहना है.’’

‘‘क्या मतलब? यह प्रस्ताव ओमी का है?’’ अनीता ने चौंक कर पूछा.

‘‘सुझाव कहना बेहतर होगा. असल में मैं यह सोच कर परेशान हो रहा था कि मैं अपने रिश्तेदारों को किस मुंह से रिश्ता तोड़ने की बात बताऊं तो ओमी ने सुझाया कि हम निक्की का हाथ मांग लें, रिश्तेदारों को यह तो नहीं बताया था कि उदय अंकल की बड़ी बेटी से रिश्ता तय किया है या छोटी से. वैसे भी निकिता मुझे पसंद है और फिर हम दोनों पढ़ाते भी एक ही विषय हैं, सो एकदूसरे को सहयोग भी दिया करेंगे यानी खुश रहेंगे एकदूसरे के साथ,’’ शंभु दयाल ने कहा, ‘‘मुझे उस का यह कहना गलत नहीं लगा.’’

‘‘ओमी का कहना बिलकुल सही है,’’ उदय शंकर कहे बिना न रह सके.

‘‘फिर भी इस बार हम आप पर कोई जोरजबरदस्ती नहीं करेंगे. आप लोग आपस में विचारविमर्श कर के हमें बता दीजिएगा,’’ कह कर शंभु दयाल उठ खड़े हुए.

‘‘अरे, ऐसे कैसे बिना चायपानी पीए चले जाएंगे,’’ अनीता ने प्रतिवाद किया.

‘‘आप बैठिए मम्मी, मैं अभी चाय भिजवाती हूं,’’ निकिता ने उठते हुए कहा और नौकर से चाय बनाने को कह कर अपने कमरे में आ गई. मम्मीपापा के रवैए से तो लग रहा था कि वे उसे आसानी से ओमी के सुझाव को नकारने नहीं देंगे. जिस सहृदयता से अर्पिता की खुशी की खातिर उन्होंने रिश्तेदारी की परवा नहीं की थी, उसी रिश्तेदारी के लिए उसे अपने से कहीं बड़े पुरुष से विवाह कर के अपने अरमानों का बलिदान करने को कहा जाएगा.

उस ने अर्पिता को फोन किया, पर उस के शुष्क जवाब ने उस का इरादा दृढ़ कर दिया कि यह उस की निजी समस्या है और उसे अकेले ही सुलझानी होगी. वह ओमी से मिलेगी, अपनी रिसर्च के बारे में उस से जितनी मदद मिल सकेगी, बटोर लेगी और फिर ऐसी बचकानी हरकतें करेगी कि ओमी खुद ही उस से शादी करने को मना कर देगा.

ये  उदय शंकर और अनीता के पूछने पर उस ने कहा कि कुछ फैसला करने से पहले वह ओमी से मिलना चाहेगी और फिर मुलाकातों और फोन पर बातें करने का सिलसिला शुरू हो गया. उसे लगने लगा कि केवल उन के विषय ही नहीं, शौक और पसंद भी प्राय: एक सी थीं. ओमी परिपक्व था, सो शालीनता व मनोरंजन के बीच सामंजस्य बनाना जानता था. उस के कहने से पहले ही उस की पसंद जान जाता था. उसे वह अच्छा लगने लगा था मगर इतना अच्छा भी नहीं कि उम्र भर के बंधन में बंध जाए.

‘‘तू ने क्या सोचा, निक्की?’’ एक रोज अनीता ने पूछा, ‘‘ओमी को तो तू बहुत पसंद है, वह कहता है कि कमाल की जोड़ी बननी थी, सो उस रोज संयोग से हम दूरदराज रहने वाले लोग सूरजकुंड मेले में चले गए. मुझे भी उस की बातें सही लगती हैं. वरना क्यों तू रूपा को उस के और अर्पिता के बारे में सुझाती और अर्पिता कोर्ट मैरिज करने की हिम्मत करती?’’

‘‘यह तो है मम्मी, है तो सब संयोग ही,’’ निकिता ने स्वीकार किया.

‘‘और इसे नकारना बेवकूफी होगी जो मेरी समझदार बेटी कभी नहीं करेगी,’’ उदय शंकर ने अंदर आते हुए कहा.

निकिता ने शरमा कर सिर झुका लिया. मम्मीपापा उस से बलिदान नहीं मांग रहे थे बल्कि उसे वरदान दे रहे थे.

अहिल्या: आखिर क्या थी तुहिना की सास की हकीकत?

आज अरमानों के पूरे होने के दिन थे, स्वप्निल गुलाबी पंखड़ियों सा नरम, खूबसूरत और चमकीला भी, तुहिना और अंकुर की शादी का दिन.

ब्यूटीपार्लर में दुलहन बनती तुहिना बीते वक्त को यादों के गलियारों से गुजरती पार करने लगी.

वे दोनों इंजीनियरिंग फाइनल ईयर में दोस्त बने थे, जब उन दोनों की एक ही कंपनी में नौकरी लगी थी कैंपस प्लेसमैंट में. फिर बातें होनी शुरू हुईं, नई जगह जाना, घर खोजना और एक ही औफिस में जौइन करना. दोनों ने ही औफिस के पास ही पीजी खोजा और फिर जीवन की नई पारी शुरू की.

फिर हर दिन मिलना, औफिस की बातें करना, बौस की शिकायत करना वगैरह. कभीकभी शाम को साथ में नाश्ता करना या सड़क पर घूमना.

धीरेधीरे दोस्ती का स्वरूप बदलने लगा था. अब घरपरिवार की पर्सनल बातें भी शेयर होने लगी थीं. दोनों ही अपने परिवार में इकलौते बच्चे थे और दोनों के ही पिता नौकरीपेशा.

हां, तुहिना की मम्मी भी जहां एक कालेज में पढ़ाती थीं, वहीं अंकुर की मम्मी गांव की सीधी, सरल महिला थीं और वे गांव में ही रहती थीं. अंकुर के पिताजी शहर में अकेले ही रहते थे और अंकुर की छुट्टियां होने पर दोनों साथ ही गांव जाते थे. दोनों 4-5 दिनों के लिए ही जाते और फिर शहर लौट आते.

“तुम्हारी मम्मी साथ क्यों नहीं रहतीं?” तुहिना ने एक मासूम सा सवाल पूछा था.

“दरअसल, गांव में हमारी बहुत प्रोपर्टी है. सैकड़ों एकड़ खेत, खलिहान और गौशाला इत्यादि भी. फिर घर भी बहुत बड़ा है, जैसे पीजी में मैं अभी रह रहा हूं, वैसी तो हमारी गौशाला भी नहीं है. मां वहां रह कर सब की देखभाल करती हैं. सालभर तो एक न एक फसल काटने और रोपने की जिम्मेदारी रहती है. उन सब को कौन देखेगा, यदि मां शहर में आ जाएंगी. हमारे घर आने का तो वे बेसब्री से इंतजार करती हैं. आज भी वे छोटे बच्चे की ही तरह मुझे दुलारती हैं,“ अंकुर ने बताया था.

“अच्छा तो तुम खेतिहर बैक ग्राउंड से हो? मैं ने तो कभी गांव देखा नहीं. हां, मैं ने गांव फिल्मों में जरूर देखा है. दादादादी या नानानानी सब शहर में ही रहे हैं और मेरी अब तक की जिंदगी फ्लैट में ही कटी है,” तुहिना ने विस्फारित नयनों से कहा.

“अच्छा, शादी होने दो तो तुम भी गांव देख लेना, वो भी अपना वाला,” अंकुर ने हंसते हुए कहा, तो तुहिना चौंक गई, “शादी…? क्या तुम मुझे प्रपोज कर रहे हो? इस तरह भला कोई पूछता है?”

तुहिना ने आश्चर्यमिश्रित खुशी से चीखते हुए पूछा.

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“अब मैं ठहरा गांव का गंवई आदमी, मुझे इन बातों की ज्यादा समझ नहीं. पर, मैं बाकी जिंदगी तुम्हारे साथ ही रहना चाहूंगा, क्या हम शादी कर लें?” अंकुर ने तुहिना की हथेली को अपने हाथों में लेते हुए कहा.

ब्यूटीपार्लर में बैठी तुहिना के दिमाग में रील की तरह ये सब घूम रहा था. कितनी आननफानन में फिर सारी बातें तय हो गईं. नौकरी के एक साल होतेहोते दोनों शादी के बंधन में बंधने जा रहे हैं, यह सोच कर तुहिना रोमांचित हो रही थी. दोनों के ही घर वालों को कोई आपत्ति नहीं हुई थी.

तुहिना के मम्मीपापा तो यह सुन कर खुश ही हुए थे कि अंकुर की पृष्ठभूमि इतनी मजबूत है. अंकुर के पिताजी जो पटना में एक बैंक में काम करते थे, तुहिना से मिलने बैंगलुरु चले गए और तुहिना के मातापिता भी उसी वक्त बैंगलुरु जा कर उन लोगों से मिल लिए.

ऐसा लगा मानो सबकुछ पहले से तय हो, बस औपचारिकता पूरी करनी रह गई थी. अब बरात दिल्ली, तुहिना के घर कब आएगी, ये सब तय होना था.

तुहिना के मम्मीपापा जहां डरे हुए थे कि न जाने अंकुर के पिता की क्या मांग हो, कितनी दहेज की इच्छा जाहिर करेंगे, पर हुआ इस के ठीक उलट ही. उन्होंने ऐसी कोई भी मांग या विशेष इच्छा जाहिर नहीं की, बल्कि दो महंगे सेट भारीभरकम जड़ाऊ वाले तुहिना को आशीर्वाद में दिए.

तुहिना का मेकअप अब समाप्तप्रायः ही था, तुहिना ने जल्दी से अपना मोबाइल निकाला और 4-5 सेल्फी ली. बरात में गिनेचुने लोग ही आए थे और शादी में अधिक मेहमान तो तुहिना की ही तरफ के थे. महिलाएं तो एक भी नहीं आई थीं, क्योंकि अंकुर के गांव में महिलाएं बरात में नहीं जाती हैं, ऐसा ही कुछ उस के पिताजी ने बताया था.

शादी खूब अच्छी तरह से संपन्न हुई. विदा हो कर तुहिना उसी होटल में गई, जहां अंकुर के पापा ठहरे हुए थे. मोबाइल पर वीडियो काल पर अंकुर ने अपनी मां से उसे मिलवाया. सचमुच बेहद स्नेहिल दिख रही थीं उस की मां, बारबार उन की आंखें छलक रही थीं.

“मां, अब बस… हम तुम्हारे पास ही तो आ रहे हैं, तुम रोओ मत,“ अंकुर ने उन्हें भावविभोर होते देख कर कहा, तभी उस के पापा आ गए और काल समाप्त हो गई.

अंकुर के पापा बेहद खुश दिख रहे थे. उन्होंने बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और एक लिफाफा पकड़ाया.

“लो बच्चो, ये तुम दोनों को मेरी तरफ से शादी का गिफ्ट, यूरोप का 15 दिनों का हनीमून पैकेज. कल सुबह ही निकलना है यहीं दिल्ली से, सो तैयारी कर लो.”

तुहिना और अंकुर आश्चर्यचकित रह गए,

“पर पापा, फिर मां से मिलना कैसे होगा? हम घूमने बाद में भी तो जा सकते हैं,” अंकुर ने आनाकानी करते हुए कहा.

“घूम कर सीधे गांव ही आ जाना. अभी शादी एंजौय करो. गांव में तुम लोग बोर हो जाओगे,” अंकुर के पापा बोले.

इस तरह अंकुर और तुहिना फिर यूरोप टूर पर निकल गए. 15 दिन कैसे गुजर गए, दोनों को पता ही नहीं चला, सबकुछ एक स्वप्न की तरह मानो चल रहा हो. लौट कर दोनों सीधे बैंगलुरु ही चले गए. इस तरह तुहिना अपनी सासू मां से नहीं मिल पाई. तय हुआ कि 2 महीने बाद दीवाली के वक्त गांव चल जाएंगे दोनों.

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2 महीने बाद जब तुहिना पहली बार गांव जा रही थी तो उसे अंदर ही अंदर बहुत घबराहट हो रही थी. जाने कैसी होंगी अंकुर की मां, वहां लोग कैसे होंगे या फिर गांव का घर कैसा होगा. बैंगलुरु से वे लोग पटना पहुंचे और वहां से अंकुर के पापा के साथ वे लोग सड़क मार्ग से गांव की ओर चल दिए. कोई तीन साढ़े तीन घंटों में वे लोग गांव पहुंच गए. रास्ते की हरियाली उस का मन मोह रही थी, बरसात बीत चुकी थी. पेड़पौधे, खेत सब चमकदार हरे परिधान पहन नई दुलहन का मानो स्वागत कर रहे थे.

अंकुर बीचबीच में अपनी मां को बता रहा था कि वे लोग कहां तक पहुंचे या कितनी देर में पहुंच जाएंगे.

रास्ते में पहली बार तुहिना अपने ससुरजी से भी इतनी घुलमिल कर बातें करती जा रही थी. उस के ससुरजी काफी लंबे बलिष्ठ कदकाठी के व्यक्ति थे, जिन पर उम्र अपनी छाप नहीं लगा पाई थी अब तक.

जब कार लंबीचैड़ी बाउंड्री वाल को पार करती हुई एक दरवाजे के सामने जा कर रुकी तो तुहिना हैरान रह गई उस दरवाजे को देख कर.

अर्धगोलकार बड़े से उस नक्काशीदार लकड़ी के दरवाजे के ऊपर महीन काष्ठकारी की हुई थी, दरवाजा तो इतना बड़ा था मानो उस में से हाथी निकल जाए. अवश्य इन दरवाजों का प्रयोग हाथी घुसाने के लिए किया जाता होगा, वह अब तक मुंहबाएं दरवाजे को ही देख रही थी कि अंकुर ने कुहनी मारी. सामने उस की सासू मां खड़ी थीं, आरती का थाल ले कर.

गोल सा चेहरा, गेंहुआ रंगत, मझोला कदकाठी, उलटे पल्ले की गुलाबी रेशमी साड़ी पहनी उस की सासू मां ने उसे सिंदूर का टीका लगाया, बेटेबहू दोनों की आरती उतारी और लुटिया में भरे जल को 3 बार उन के ऊपर वार कर अक्षत के साथ ढेर सारे सिक्के हवा में उछाल दिए.

गांव की मुहानी से कार के पीछेपीछे दुलहन देखने को उत्सुक दौड़ते बच्चे झट उन्हें लूटने लगे. यह तो अच्छा हुआ था कि तुहिना ने आज सलवारकुरती और दुपट्टा पहना हुआ था, वरना बड़ी शर्म आती कि सासू मां सिर पर पल्लू लिए हुए हों और बहू जींसटौप में.

अंकुर ने कुछ भी नहीं बताया था, वह पूछती रह गई थी कि वह क्या पहने, कैसे कपड़े ले कर वह गांव चले.

उस की सासू मां उस से सब नई दुलहन वाले नेग करवा रही थी. जब उस ने अंदर प्रवेश किया तो वह चकित रह गई कि घर कितना बड़ा है. उसे घर नहीं हवेली, कोठी या महल ही कहना चाहिए.

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सारी जिंदगी फ्लैट में रहने वाली तुहिना ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ससुराल का घर इतना विशाल होगा. मुख्य दरवाजे को पार कर बड़ा सा दालान था, उस के बाद एक बहुत बड़ा सा आंगन था. आंगन बीचोंबीच था और उस के चारों तरफ कमरे दिखाई दे रहे थे. आंगन और फिर दालान पार कर दो कोनों पर सीढ़ियां दिखाई दे रही थीं, वहीं तीसरे कोने में एक मंदिर था. एक तरफ जहां उसे सिर नवाने के लिए ले जाया गया, वहां उस ने देखा कि सासू मां बाहर ही रुक गईं और ससुर उन दोनों को देवताघर में ले गए.

घर के अंदर इतना सुंदर सा मंदिर, वहां एक पंडितजी भी बैठे हुए थे, जिन्होंने इन दोनों से कुछ पूजा, कुछ रस्म करवाई. फिर सासू मां तुहिना का हाथ पकड़ सीढ़ियों से ऊपर ले जाने लगीं, अंकुर को भी दुलारते हुए वे ले चलीं. तीसरे तले तक पहुंचतेपहुंचते तुहिना हांफ गई थी.

“दुलहन, ये तुम्हारा कमरा है. अब तुम आराम करो.“

कोई उस का सामान वहां पहले ही पहुंचा चुका था. वह कमरा कहने को था, था तो पूरा हाल. शायद महानगरों के बहुमंजिले इमारतों का एक ‘2 बेडरूम फ्लैट’ इस में समा जाए. कमरे से निकली बालकनी, जिस की रेलिंग पर बहुत सुंदर नक्काशीदार काम था. झरोखेनुमा खिड़कियां अलग मन मोह रही थीं.

तुहिना कमरे का मुआयना कर ही रही थी कि उस ने देखा अंकुर मां की गोदी में सिर रख लेट चुका था. मां उस का सिर सहलाते हुए कह रही थीं, “ये घर आज घर लग रहा है, वरना मैं अकेले एक कोने मे पड़ी रहती हूं. वर्षों से रंगरोगन नहीं हुआ था और न ही मरम्मत. जब शादी की खबर मिली, तो मैं ने झट मरम्मत का काम शुरू करवाया, पर इतना बड़ा घर, काम पूरा ही नहीं हुआ.

“मेरी इच्छा थी कि तेरी बहू को मैं साफसुथरे घर में ही उतारूंगी. उस भूतिया हो चुके घर में नहीं. अभी 2 दिन पहले ही तो मजदूरों ने अपने बांसबल्लियां यहां से हटाए हैं. बहू के आने से आज घर में मानो रौनक आ गई.”

“अच्छा तो ये राज है उस अचानक हनीमून पैकेज का,” तुहिना ने मुसकराते हुए सोचा.
फिर अंकुर की मां ने तुहिना को पास बुला कर चाबियों का गुच्छा थमाते हुए कहा, “लो संभालो अपनी जिम्मेदारी, अब मैं थक चुकी हूं. मैं ने वर्षों इंतजार किया कि कब अंकुर की बहू आएगी, जो ये सब घरगृहस्थी संभालेगी.“

उन के ऐसे बोलते ही तुहिना को मानो बिच्छू ने काट लिया. उस ने बेबसी से अंकुर की तरफ देखा. अंकुर ने उस के भाव समझते हुए कहा, “मां, ये बस आप ही संभाल सकती हैं. तुहिना नौकरी करती है, उसे छोड़ वह कहां इन सब झमेलों में रहने आएगी,” अंकुर ने मां को गुच्छा लौटाते हुए कहा.

“अच्छा, जब तक है तब तक तो संभाले, सबकुछ देखेसमझे,” कहती हुई वे चाबियां वहीं छोड़ कर चली गईं.

उस दिन तो थकान उतारने में ही बीत गया. अगले दिन तुहिना हवेली में घूमघूम कर देखने लगी सबकुछ. कौतूहलवश हर झरोखे से झांकती, हर खंबे के पास खड़ी हो सेल्फी लेती, तो कभी बंद दरवाजे की ही खूबसूरती को अपने मोबाइल कैमरे में कैद करती. चाबी के गुच्छे को भी वह हैरानी से देखती. वैसे तालाचाबी तो अब दिखते भी नहीं. कम से कम तुहिना ने तो नहीं ही देखा था. हर कमरे पर बड़ा सा ताला लटका हुआ था. उस बड़े से ताले को देख उसे किसी लटके चेहरे वाले बूढ़े की याद आ रही थी. दीवाली में अभी 2 दिन और थे, पर घर तो उसी दिन से सजा हुआ था, जिस दिन से वे सब आए थे.

अंकुर देर तक सोता रहता और तुहिना को समझ आ रहा था कि अंकुर घर सिर्फ सोने और खाने ही आता है. शायद उसे भी सभी कमरों की कोई जानकारी नहीं थी.

“अंकुर उठो न… मैं बोर हो रही हूं, सुबह के 11 बजने को आए और तुम अभी भी उठ नहीं रहे,” तुहिना ने अंकुर को हिलाने का असफल प्रयास किया. हार कर वह चौके के दरवाजे को पकड़ कर खड़ी हो गई. वहां मम्मी खाना बनाने में बिजी थीं, सब की पसंद के पकवान बन रहे थे.

: मेरे भैया

“जब सब घर आते हैं तभी इस रसोई के भाग जागते हैं, वरना मैं उधर अपने कमरे में ही कुछ पका लेती हूं. अब सीढ़ियां भी तो चढ़ी नहीं जाती हैं. न… न बिटिया, तुम रहने दो, अपने घर पर तो करती ही होंगी, कुछ दिन यहां मेरे हाथ के खाने का स्वाद लो.

“जा बिटिया घूमोफिरो, अपने घर को देखोसमझो… अंकुर तो कभी देखता ही नहीं और न ही उस के बाबा. तुम संभाल लो तो मेरी जिम्मेदारी खतम हो,” तुहिना को हाथ बंटाने के लिए आते देख उन्होंने टोक दिया.

“बेटी, तुम किस्मत वाली हो, जो ऐसे सासससुर मिले तुम्हें,” तुहिना की मां फोन पर उसे बोलती.

आगे पढ़ें- अब तुहिना को वाकई इधरउधर डोलने के सिवा…अब तुहिना को वाकई इधरउधर डोलने के सिवा कोई काम नहीं था. सो, वह अब हर कमरे को खोलखोल कर देखने लगी. हवेली के पिछवाड़े में खलिहान था, जहां शायद फसल कटने पर रखी जाती थी. अनाज की कोठरियां थीं और बड़ा सा गौशाला भी, जहां कई मजदूर लोग थे, जो वहां मौजूद दसियों गायों की देखभाल करते थे.

तुहिना ने सब पता किया, दूध हर दिन विशेष गाड़ी से पटना स्थित एक डेरी फार्म में जाता था और अनाज की बोरियां भी ट्रकों में भर मंडियों मे बिकने जाती थीं. अब तक थैली में दूध खरीदने वाली आश्चर्य से अपनी मिल्कीयत देख रही थी.

एक बात उसे अजीब लगती कि उस की सास अपने पति यानी उस के ससुर से परदा करती थी, जबकि तुहिना को कुछ भी मनाही नहीं थी.

एक दिन तुहिना ने सुबहसुबह देखा था, आंगन में ससुरजी कुरसी पर बैठे थे और सास एक बहीनुमा खाते को खोल कर कुछ बता रही थीं. वह ऊपर तले की मुंडेर से नीचे झांक रही थी, पूरे वक्त उस की सास कुछ समझाने का प्रयास कर रही थीं.

उस ने यह भी देखा कि उन्होंने बहुत सारे रुपए एक पोटली में जो बंधे हुए थे, उन के हाथ में दिए. ससुरजी ने न उसे गिना या ठीक से देखा, उसे फिर से बांध सास के ही हाथ में थमा दिए. वे बिलकुल वैसे ही कर रहे थे, जैसे अंकुर से कुछ जबरदस्ती करवाओ तो करता है. वह हावभाव से समझ रही थी ऊपर से.

दीवाली का दिन था. अंकुर दोपहर में खाना खा कर फिर सो गया था. उस के ससुरजी नीचे पूजा वाले कमरे में थे और तुहिना रसोई के बगल वाले स्टोर रूम में घुस कर संदूकों और बक्सों को खोलखोल कर देख रही थी. बहुत पुरानेपुराने कपड़े थे, कई बक्सों में तो सिर्फ साड़ियां भरी हुई थीं. भारीभारी बनारसी साड़ियां थीं ज्यादातर.

एक लकड़ी की सुंदर सी अलमारी थी, उस में बहुत सारी ब्लैक ऐंड व्हाइट तसवीरें थीं. एक संदूक था, जिसे खोलना तुहिना को आ ही नहीं रहा था. वह दीवाल में लगा हुआ था और उस के दरवाजे पर अंदर घुसा कर खोलने वाले ताले थे.

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चर्रमर्र की आवाज से मम्मी भी वहां आ कर खड़ी हो गई थीं. पहले तो तुहिना को भान ही नहीं हुआ, फिर जब देखा कि वे उसे ही मूक हो देख रही हैं, तो तुहिना थोड़ी झेंप सी गई. क्या सोच रही होंगी वे कि कैसी लड़की है सबकुछ मानो देख ही लेगी. तुहिना झट से हाथ में पकड़ी तसवीर को अलमारी में रखने लगी.

“रुको बहू, मैं खुद तुम्हें इस कमरे में लाना चाह रही थी, पर तुम्हारे ससुरजी राजी नहीं हो रहे थे,“ सासू मां ने कहा, तो वह थम गई.

उस के बाद देर तक वे उसे अलमारी के फोटो दिखाती रहीं, बताती रहीं, सुनाती रहीं. संदूक खोल कर उसे दिखाया, जिस में सोनेचांदी, हीरेमोती के गहने भरे पड़े थे.

एक लाल बनारसी साड़ी उस में से निकाल कर उसे पहना दी और गहनों से लाद दिया ऊपर से नीचे तक.

तुहिना किंकर्तव्यविमूढ़ हो सब करती रही. शाम हो चली थी. उसे ले कर वे पूजाघर में पहुंचा आईं और खुद बाहर जा कर बैठ दीयाबाती की तैयारी करने लगीं.

अंकुर भी कुरतापाजामा में सजीला बन पूजाघर में आ बैठा, पापाजी तो थे ही. देर रात तक पूजा चली, फिर सब ने मां के हाथ के पकवानों को चाव से खाया, मम्मी बारबार आंखें पोंछ रही थीं.

दूसरे दिन सुबह तीनों पटना के लिए निकल पड़े. अंकुर मां के गले लग कर रोने वाला इस बार अकेला नहीं था, तुहिना भी उसी व्यग्रता से रो रही थी.

पापाजी कार में पहले ही जा बैठे थे. लौटते वक्त रास्तेभर शायद ही किसी ने आपस में बातें की होंगी मानो सब गमगीन हों. पर तुहिना अब तक सुन रही थी, गुन रही थी, जो उस दोपहरी मम्मी ने उसे बताया था, “दुलहन ई सब संभाल लो, अब मुझ से नहीं होता है. न… न, ई फोटो को नहीं रखो अंदर. पहले इन्हें ध्यान से देखो, प्रणाम करो इन को. ये ही तुम्हारी सास हैं ‘राधा’, अंकुर को जन्म देने वाली. मैं तो राधा दीदी के मायके से आई अनाथ हूं, जो राधा के संग उस के ब्याह के साथ ही आई थी उस की देखभाल करने. क्या जानती थी कि ऐसा हो जाएगा कि सब चले जाएंगे और मैं ही रह जाऊंगी देखभाल करती हुई सबकुछ. सबकुछ है इस घर में, बस रहने वाले आदमी ही नहीं हैं. अंकुर के पिता भी अकेले थे, उस के दादा भी अकेली संतान ही थे.“

फिर उन्होंने तुहिना को वह बात बताई, जिस से अंकुर भी अनजान है, “अंकुर को जन्म देने के बाद से ही राधा दीदी बीमार रहने लगी थीं. अंकुर के 6 महीने का होतेहोते वे चल बसीं. अब इत्ते बड़े घर में रह गए अंकुर के पापा और दादाजी और नन्हा सा अंकुर. मैं कहां जाती. मैं बच्चे को सीने से लगा कर पालने लगी, जब तक अंकुर के दादाजी रहे, वे कोशिश करते रहे कि मेरी शादी हो जाए, पर न मेरी शादी हुई और न अंकुर के पापा ने दूसरी शादी की.

“हम अंकुर के मांबाप जरूर थे, पर पतिपत्नी नहीं. बचपन में अंकुर यहीं गांव के स्कूल में पढ़ता रहा, फिर कुछ बड़ा होने पर ठाकुर साहब पटना में बैंक की नौकरी करने लगे. कारण, यहां गांव में लोग तरहतरह की बातें करने लगे थे हम दोनों को ले कर.

“फिर अंकुर को आगे अच्छी तालीम भी तो देनी थी, इतना बड़ा आदमी अपना सबकुछ मुझ दाई के हाथों सौंप कर एक छोटी सी नौकरी करने लगा. अंकुर की मां बन मैं यहीं इस घर में रह गई, राधा की अमानत समझ संभालती रही. सुनती भी रही जमाने के जहरीले बोल, ठाकुर साहब तो मुझ से हिसाब भी न पूछते, पर मैं कैसे कुछ गलत करती. आखिर सब मेरे बेटे अंकुर का ही तो है. पर अब अकेलापन हावी होने लगा है, ये सब धनदौलत तुम लोगों का ही है, दुलहन अब संभालो अपनी अमानत.

“अंकुर मुझे मां समझता है, बस यही भरम मेरे जीने के लिए बहुत है. उम्मीद है दुलहन, तुम हमेशा उस की मां को जिंदा रखोगी कम से कम जब तक मैं जिंदा हूं. मत तोड़ना ये भरम,” मम्मी हाथ जोड़ कर कहने लगी थीं.

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी

कार पटना एयरपोर्ट पहुंचने को थी, तुहिना को अपना कहा याद आ रहा था, जिसे उसे जल्दी ही पूरा करना भी है, “मां, अब आप अकेली नहीं हैं. आप यहां जितना होता है समेट दें. बहुत काम कर लिया, अब आप अपने बेटेबहू के संग रहेंगी, बस अगले महीने मैं फिर आ कर आप को ले जाऊंगी.”

तुहिना सोच रही थी कि अचानक ध्यान आया कि मम्मी का नाम तो उस ने पूछा ही नहीं, अवश्य उन का नाम ‘अहिल्या’ ही होगा.

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