Hindi Love Stories : परफ्यूम की लुभावनी खुशबू उड़ाता एक बाइकचालक सुमेधा की बिलकुल बगल से तेजी से गुजर गया.
‘‘उफ, गाड़ी चलाने की जरा भी तमीज नहीं है लोगों में,’’ सुमेधा गुस्से में बोली. उस की गाड़ी थोड़ी सी डगमगाई, लेकिन किसी तरह बैलेंस बना ही लिया उस ने.
वाकई रोड पर जबरदस्त ट्रैफिक था. अगर वह बाइक वाला फुरती से न निकला होता, तो आज 2 गाडि़यों में टक्कर हो ही जाती. शाम के समय कलैक्ट्रेट के सामने के रास्ते पर भीड़ बहुत बढ़ जाती है. धूप ढलते ही लोग खरीदारी करने निकल पड़ते हैं और फिर औफिसों के बंद होने का समय भी लगभग वही होता है.
थोड़ी दूर पहुंची थी सुमेधा कि वह बाइकचालक उस की बाईं ओर फिर से प्रकट हो गया और रुकते हुए बोला, ‘‘सौरी मैडम.’’
‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ सुमेधा हलकी सी खीज के साथ बोली. फिर बुदबुदाई कि अब यह क्या तुक है कि बीच रास्ते रुक कर सौरी बोले जा रहा है.
‘‘सौरी तो बोल दिया न आंटी,’’ सुमेधा ने आवाज की तरफ नजर उठा कर देखा तो बाइक की टंकी पर बैठी नन्ही सी बच्ची भोलेपन से उस की ओर ही देख रही थी.
‘सुबोध,’ हां सुबोध ही तो था वह, जो उस बच्ची की बात सुन कर उसे ही देख रहा था.
‘‘पापा, आंटी अभी भी गुस्से में हैं. आंटी ने क्या बांधा है?’’ सुमेधा को नकाब की तरह दुपट्टा बांधे देख कर बच्ची फिर से बोली.
‘‘बेटा, मैं गुस्से में नहीं हूं. अब जाओ,’’ इतना कह कर सुमेधा फुरती से आगे बढ़ गई.
घर पहुंची तो उस पर अजीब सी खुमारी छाई हुई थी. आज सालों बाद स्कूल के दिन याद आने लगे. सारी सखियां मिल कर कितनी अठखेलियां किया करती थीं. पता नहीं 11वीं में नए विषय पढ़ने की उमंग थी या उम्र के नए पड़ाव का प्रभाव, सब कुछ धुलाधुला और रंगीन लगता था. डाक्टर बनना सपना था उस का. इसी सपने को पूरा करने के लिए वह पढ़ाई में जीजान से जुटी हुई थी. सभी शिक्षिकाएं सुमेधा से बहुत खुश थीं, क्योंकि विज्ञान के साथसाथ साहित्य में भी खास दिलचस्पी रखती थी वह. हिंदी में उस का प्रदर्शन गजब का था.
उस की चित्रकला में रुचि होने की वजह से उस की फाइलें भी अन्य सहपाठियों के लिए उदाहरण बन गई थीं. किसी भी शिक्षिका को जब अच्छी फाइलें बनाने की बात विद्यार्थियों को बतानी होती, तो वे सुमेधा की फाइलें मंगवा लेतीं.
‘‘कोएड स्कूल में मत पढ़ाओ इसे. लड़कियां बिगड़ जाती हैं,’’ मां ने ऐडमिशन के समय बाबूजी से कहा था.
‘‘तुम चिंता मत करो. देखना, हमारी बेटी ऐसा कोई काम नहीं करेगी. यह तो हमारा नाम रौशन करेगी,’’ बाबूजी ने सुमेधा के पक्ष में निर्णय सुनाया था.
सिर झुका कर बैठी सुमेधा ने बाबूजी के शब्दों को दिमाग में अच्छी तरह बैठा लिया था. स्कूल में वह लड़कियों के ही ग्रुप में रहती थी. हालांकि सहपाठी लड़कों से थोड़ीबहुत बातचीत हो जाती थी, लेकिन वह उन से कटीकटी ही रहती थी. कई लड़के उस के इस व्यवहार से उसे घमंडी कहते या फिर उस की कठोरता को देख कर बातचीत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.
एक दिन सुमेधा के एक सहपाठी रमेश ने उस के नाम प्रेमपत्र लिख कर नोटबुक में रख दिया. पत्र किसी तरह नंदिनी के हाथ में पड़ गया तो क्लास की सारी लड़कियां सुमेधा को छेड़ने से बाज नहीं आईं.
‘‘लाली, तुम बनती तो बड़ी भोली हो, लेकिन एक दिन यह गुल खिलाओगी हमें पता न था,’’ नंदिनी गंभीर स्वर में बोली तो सारी लड़कियां हंस पड़ीं.
सुमेधा आगबबूला हो गई और उस ने तुरंत रमेश का प्रेमपत्र प्रिंसिपल के समक्ष प्रस्तुत कर दिया. उस के बाद रमेश की ऐसी पेशी हुई कि भविष्य में स्कूल और कोचिंग के किसी भी लड़के का सुमेधा के सामने कोई प्रस्ताव रखने का साहस ही न हुआ.
लड़कों के ग्रुप में अकसर कहा जाता कि झांसी की रानी के आगे न जाना, नहीं तो अपनी जान से हाथ धोने पड़ सकते हैं.
इस घटना के बाद सुमेधा ने स्वयं को पढ़ाई में व्यस्त कर लिया. सुमेधा और नंदिनी में गहरी छनती थी. दोनों के व्यक्तित्व बिलकुल अलगअलग नदी के 2 किनारों की तरह थे, लेकिन एकदूसरे से प्यार की तरल धारा दोनों को जोड़े रखती थी. सुमेधा जहां शांत सरोवर की तरह थी, वहीं नंदिनी बरसात में उफनती हुई नदी की तरह थी. दोनों की पारिवारिक स्थितियों में भी जमीनआसमान का अंतर था. सुमेधा सरकारी स्कूल के टीचर की बेटी थी, तो नंदिनी एक बिजनैसमैन की बेटी. नंदिनी का सुबोध के प्रति आकर्षण किसी से छिपा नहीं रह सका था, लेकिन किताब का कीड़ा कहे जाने वाले सुबोध की नंदिनी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हां, अनु और मनोज, प्रीति और रजत आदि कई जोडि़यां बन गई थीं स्कूल में, जो आगे चल कर साथसाथ पढ़ने और उस के बाद सैटल होने पर एकदूजे का हो जाने के सपने देखा करती थीं.
एक बार बायोलौजी की लैक्चरर सारिका ने बातों ही बातों में कह दिया, ‘‘यह तुम लोगों के पढ़नेलिखने की उम्र है. बेहतर है कि रोमांस का भूत अपनेअपने दिमाग से उतार दो.’’
क्लास के भावी जोड़ों ने सारिका मैडम को खूब कोसा. उन की बात में छिपे तथ्य को वे अपरिपक्व मस्तिष्क नहीं समझ पाए थे.
‘कितने सुहाने दिन थे वे,’ सुमेधा मुसकराते हुए सोचने लगी.
सुमेधा बालकनी में आ गई. गुनगुनाते हुए सामने के ग्राउंड में खेलते बच्चों को देखना उसे बहुत अच्छा लग रहा था. आज सुमेधा को न जाने क्या हो गया था. न उस ने हवा में उड़ते केशों को संवारने की कोशिश की, न उड़ान भरने को आतुर दुपट्टे को हमेशा की तरह काबू में करने का प्रयत्न.
‘‘बिट्टू, चाय ले ले,’’ मां की आवाज सुनते ही सुमेधा चौंक गई जैसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो.
‘‘अरे मां, मैं अंदर ही आ जाती,’’ सुमेधा कुछ झेंपते हुए बोली.
‘‘तो क्या हुआ. दिन भर तो तुम भागदौड़ करती रहती हो. इसी बहाने मैं भी थोड़ी देर ताजा हवा में बैठ लूंगी,’’ मां ने कुरसी खींच ली और चाय की चुसकियां लेने लगीं.
सुमेधा भी बेमन से कुरसी पर बैठ गई. आज किसी से भी बात करने का मन नहीं हो रहा था उस का. दिल चाह रहा था कि वह अकेली रहे. किसी से बात न करे.
‘‘बिट्टू, आज तो तू बड़ी खुश दिख रही है. तुझे ऐसा देखने के लिए तो आंखें तरस जाती हैं,’’ मां बोलीं.
‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है,’’ कह बात टाल गई सुमेधा.
रात को सोने लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. वह लुभावनी खुशबू और तरल आवाज जेहन को सराबोर किए जा रही थी. लेकिन एक पल बाद सुमेधा ने रोमानी विचारों को झटक दिया. सुबोध, जिसे आज वर्षों बाद देखा, अब किसी और की अमानत है. उसका इस तरह की कल्पनाएं करना भी गलत है. और वह अबोध बच्ची कितनी प्यारी है. कौन होगी उस की मां? अब तो पुराने परिचय के तार कहां रहे, जो किसी से संपर्क कर के पूछताछ की जा सके. पुराने साथी न जाने कहां गुम हो गए. एक नंदिनी थी, लेकिन वह भी दिल्ली चली गई और गई भी ऐसी कि पीछे सुध लेने का होश तक न रहा. वह खुद भी तो एक नए लक्ष्य को पाने के लिए किसी तीरंदाज की तरह भिड़ गई थी. 1-2 बार पत्रों का आदानप्रदान कर दोनों ने अपनेअपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली और संपर्क के सूत्र ओझल होते गए.
‘‘बाबूजी, मां, यह देखिए मैं फौर्म ले आई,’’ सुमेधा आंगन से ही चिल्लाते हुए घर में घुसी और बाबूजी के सामने सोफे पर बैठ गई.
कुछ पल बाबूजी खामोश रहे, फिर एकएक शब्द सोचते हुए बोलने लगे, ‘‘बेटी, तुम्हारी जिद की खातिर बायोलौजी सब्जैक्ट तुम्हें दिला दिया था. लेकिन मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा बी.एससी. करा सकता हूं. डाक्टरी कराने की हैसियत नहीं है मेरी.’’
बाबूजी की बेबस आवाज आज भी कानों में गूंजती रहती है. बाबूजी की हैसियत सुमेधा से छिपी कहां थी, लेकिन यौवन की उमंगों ने उन्हें अनदेखा कर कई सपने पाल लिए थे.
‘‘बाबूजी, आप ने मेरे सपने तोड़े हैं. मैं आप को कभी माफ नहीं करूंगी,’’ सुबकते हुए सुमेधा ने कहा और पी.एम.टी. प्रवेश परीक्षा के फौर्म के टुकड़ेटुकड़े कर हवा में उछाल दिए.
‘‘मुझे समझने की कोशिश कर बेटी,’’ बाबूजी के अंतिम शब्द थे वे. उस के बाद उन्हें लकवा मार गया, जो उन की वाणी ले गया.
‘‘सौरी बाबूजी, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था. आप अपनेआप को संभालिए बाबूजी, मुझे नहीं बनना डाक्टर. मां तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’ न जाने क्याक्या कह गई सुमेधा, लेकिन तीर कमान से निकल कर सुनने वाले को जख्मी कर चुका था और वह जख्म लाइलाज था.
उस दिन के बाद तो सुमेधा की जिंदगी ही बदल गई. उस ने बी.ए. में दाखिला ले लिया.
परिचित कई बार हंसी भी उड़ाते, ‘‘अरे डाक्टर बनना हर किसी के बूते की बात नहीं. 2 साल साइंस पढ़ कर ही पसीने छूट गए, तभी तो आर्ट्स कालेज में अपना नाम लिखवा लिया है.’’
सुमेधा ऐसी बातों को अनसुना कर जाती. अब घर के 3 प्राणियों की जिम्मेदारी भी उसी की थी. उस ने पार्टटाइम जौब कर ली. बाबूजी की थोड़ी जमापूंजी और मां के गहने कितने दिन काम आते. बी.ए. की परीक्षा में वह पूरी यूनिवर्सिटी में अव्वल आई. बाबूजी की खुशी से चमकती आंखें देख सुमेधा की आत्मग्लानि कुछ कम होने लगी. फिर एम.ए., पीएच.डी. और कालेज में लैक्चररशिप. कालेज में जौब के बाद उसे महसूस हुआ कि अब कुछ विराम मिला है भटकती हुई जिंदगी को. लेकिन इस प्रयत्न में उम्र का पक्षी फरफर करता हुआ 32वें वर्ष की दहलीज पर पहुंचा गया.
बाबूजी उस के सैटल होते ही एक दिन खुली आंखों से उसे आशीर्वाद देते हुए चल बसे जैसे सुमेधा को सक्षम और सफल देखने के लिए ही उन के प्राण अटके पड़े थे.
अब सुमेधा और मां 2 ही प्राणी बचे थे घर में. 1-2 बार उस के विवाह की बात चली, लेकिन सुमेधा ने शर्त रख दी, ‘‘मां भी विवाह के बाद मेरे साथ ही रहेंगी.’’
धन के लालची युवक एक बूढ़े जीव को दहेज के रूप में अपनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, इसलिए ऐसे भागते जैसे गधे के सिर से सींग. धीरेधीरे 35वें साल तक पहुंचतेपहुंचते सुमेधा ने जीवनसाथी की आस को तिलांजलि दे दी. लेकिन आज की घटना ने उसे अच्छी तरह वाकिफ करा दिया कि चाहे वह ऊपर से कितनी भी कठोर क्यों न बने, एक साथी की आकांक्षा उसे अब भी है. कोमल भावों के अंकुर अब भी उस के हृदय की मरुभूमि में फूटते हैं.
सोचतेसोचते उसे नींद आ गई. सुबह उठ कर फिर कालेज जाने का रूटीन चालू हो गया.
एक दिन शाम को मां के साथ पास के ही गार्डन में टहलने गई, तो वहां बाइकचालक की उसी प्यारी बच्ची को देख कर खुद को रोक न सकी. पूछा, ‘‘बेटी, कैसी हैं आप?’’
‘‘आप कौन हैं आंटी?’’ बच्ची ने भोलेपन से पूछा.
‘‘मैं वही, उस दिन वाली आंटी, जिस ने चेहरे पर स्कार्फ बांधा था.’’
बच्ची कुछ देर सोचती रही, फिर प्यार से मुसकरा दी.
सुमेधा का मातृत्व उमड़ पड़ा. बच्ची
के गाल थपथपा कर बोली, ‘‘आप का नाम क्या है?’’
‘‘पहले अपना नाम बताइए?’’ बच्ची
द्वारा किए गए प्रश्न पर सुमेधा खिलखिला कर हंस पड़ी.
फिर बच्ची ‘‘पापापापा…’’ चिल्लाते हुए सुबोध को खींच लाई.
उसे देख कर चौंक पड़ा सुबोध, ‘‘अरे, सुमेधा तुम?’’
‘‘पापा, ये तो वही आंटी हैं जिन को हम ने सौरी कहा था.’’
‘‘उस दिन तुम्हीं थीं, आई मीन आप ही थीं?’’
‘‘ठीक है, मुझे तुम भी कह सकते हो,’’ सुमेधा मुसकराते हुए बोली.
सुबोध कुछ झेंप सा गया.
‘‘नमस्ते डाक्टर साहब. बच्ची को घुमाने लाए हैं?’’
‘‘अरे मांजी आप भी यहां, अब कैसी तबीयत है आप की?’’
‘‘तुम लोग एकदूसरे को पहचानते हो?’’
सुबोध कुछ हंसते हुए बोला, ‘‘दरअसल, हम सभी लोग एकदूसरे को जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि हम एकदूसरे को जानते हैं.’’
‘‘पापा, पापा, आप क्या बोल रहे हो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है,’’ बच्ची मासूमियत से बोली तो तीनों हंस पड़े.
सुबोध जान गया कि बुजुर्ग महिला जो 4 दिन पहले इलाज के लिए आई थीं, सुमेधा की मां हैं और सुमेधा भी जान गई कि मां जिन डाक्टर साहब का बखान करते हुए नहीं थक रही थीं, वह डाक्टर साहब और कोई नहीं, बल्कि सुबोध ही है.
मां ने तुरंत सुबोध को घर आने का निमंत्रण दे डाला. परिचय की कडि़यां कुछ इस तरह जुड़ीं कि सारे दायरे खत्म होते से नजर आने लगे. सुबोध की बेटी कनु सुमेधा को चाहने लगी थी. बिन मां की बच्ची कनु पर सुमेधा का प्यार कुछ ज्यादा ही उमड़ता था. एक दिन सुमेधा, कनु के जिद करने पर सुबोध के घर गई. वहां नंदिनी की तसवीर पर फूलों की माला देख कर सुमेधा का चेहरा फक पड़ गया. आंखें डबडबा आईं.
‘‘क्या नंदिनी ही…?’’
‘‘हां.’’
सुमेधा सोफे पर बैठ गई. अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था उसे.
कुछ ही देर में सुबोध 2 कप कौफी बना लाया. प्याला थामते हुए बड़ा असहज महसूस कर रही थी सुमेधा. कनु पड़ोस के घर में खेलने चली गई थी.
कौफी पीते हुए सुबोध कह रहा था, ‘‘एम.बी.बी.एस. करने के बाद दिल्ली में ही एक अस्पताल में मैं ने प्रैक्टिस चालू कर दी थी. नंदिनी के मौसाजी हमारे डिपार्टमैंट के हैड थे. उन्हीं की पहल पर हमारी शादी हो गई. मेरे ख्वाबों में तो कोई और ही बसी थी. मैं राजी नहीं था, लेकिन मां की जिद के आगे मेरी एक न चली.
‘‘नंदिनी बहुत प्यारी लड़की थी, लेकिन मेरे स्वभाव के बिलकुल विपरीत. हम लोगों के दिल ज्यादा जुड़ नहीं पाए. उसे हर वक्त मुझ से शिकायत रहती थी कि मैं उसे समय नहीं देता हूं, उस के साथ शौपिंग पर और पार्टियों में नहीं जाता हूं. उस के शौक कुछ अलग ही थे मुझ से. न वह मुझे समझ पाई और न मैं उसे संतुष्ट कर पाया. सोचा था, बच्चे के आने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन डिलीवरी में ही कौंप्लिकेशन पैदा हो गया. लाख कोशिशों के बावजूद हम नंदिनी को बचा नहीं पाए. तब से मैं ही मां और बाप दोनों की भूमिका निभा रहा हूं कनु के लिए,’’ कहतेकहते सुबोध का गला रुंध गया.
किन शब्दों में सांत्वना देती सुमेधा. बड़ी देर तक बुत बनी बैठी रही.
‘‘मैं तो सोच भी नहीं सकती कि नंदिनी अब इस दुनिया में नहीं है. और इस मासूम कनु का क्या कुसूर है जो इसे बिन मां के रहना पड़ रहा है,’’ कहते हुए सुमेधा की आवाज कांप रही थी.
वह जैसे ही उठने को हुई, सुबोध की आवाज ने चौंका दिया, ‘‘तुम चाहो तो कनु को मां मिल सकती है.’’
‘‘मैं समझी नहीं?’’ उस ने चौंक कर पूछा.
‘‘कई दिनों से पूछना चाह रहा था सुमेधा मैं… मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’’
‘‘सुबोध, क्या कह रहे हो तुम? कुछ होश है तुम्हें?’’
‘‘मैं तो होश में हूं, लेकिन निर्णय तुम्हें लेना है,’’ सुबोध मुसकराते हुए अधिकार भाव से बोला.
सुबोध का अधिकार भाव से भरा स्वर सुमेधा को अपने अहं पर प्रहार सा ही लगा. उस का अप्रत्याशित सवाल सुमेधा के दिल में हलचल मचा गया. वह फिर सोफे पर बैठ गई.
‘‘मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. अभी मैं कुछ नहीं कह सकती,’’ न चाहते हुए भी सुमेधा के स्वर में हलकी सी कड़वाहट घुल गई.
‘‘ठीक है, आखिर फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ सुबोध कोमलता से बोला.
घर वापस आई तो देखा मां अपने काम में व्यस्त थीं. सुमेधा मन ही मन बोली, ‘अच्छा हुआ, नहीं तो तरहतरह के सवालों से हैरान कर देतीं मुझे. पता नहीं कैसे मेरे मन की थाह मिल जाती है मां को.’
कुरसी पर बैठी सुमेधा के सामने टेबल पर दूसरे दिन के लैक्चर से संबंधित किताब थी, लेकिन दिल जरा भी नहीं लग रहा था. उसे एकएक पंक्ति पढ़ना भारी लग रहा था.
‘मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’ आखिर सुबोध के यह पूछने का मतलब क्या है? क्या मेरा अपना कोई अस्तित्व नहीं? क्या सहचर की आवश्यकता सुबोध को नहीं है या सिर्फ अपनी बेटी के लिए मां की प्राप्ति से उस की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएगी? मैं कनु की मां बन सकती हूं, तो तुम्हारे जीवन में मेरा क्या स्थान होगा? लगता है, सुबोध अभी भी नंदिनी को भुला नहीं पाया है. साथ ही, उस के मन में बिन मां की कनु को देख कर अपराधभाव भी है. तभी तो उस ने प्रस्ताव अपने विवाह का नहीं, बल्कि कनु की मां बनने का रखा है. पर मेरी मां का क्या होगा? उस का तो इस दुनिया में कोई भी नहीं. कल अगर मैं विवाह के लिए हामी भर देती हूं, इस शर्त पर कि मां शादी के बाद मेरे साथ ही रहेगी, तो क्या सुबोध स्वीकारेगा इसे?
तरहत रह के सवालों ने सुमेधा के दिमाग को मथ दिया. दूसरे दिन अनमने भाव से वह कालेज पहुंची. क्लास में रोज की तरह उमंग और उत्साह नहीं था. थोड़ी ही देर में सिरदर्द का बहाना बना कर उस ने लड़कियों को फ्री कर दिया. कुछ ही पलों में सारी लड़कियां चहकती हुई चली गईं.
‘‘भई, आज हमारी संयोगिता कहां खोई है?’’ अनीता की जोशीली आवाज ने स्टाफरूम में बैठी सुमेधा का ध्यान भंग कर दिया. यों तो उम्र में वह सुमेधा से 3-4 साल बड़ी और सीनियर भी थी, फिर भी सुमेधा को अपने दोस्ताना व्यवहार की वजह से हमउम्र भी लगती थी.
‘‘रिलैक्स यार, किसी बात का इतना टैंशन ले लेती हो तुम कि पूछो मत. और तुम्हें टैंशन में देखती हूं न, तो मेरी भी तबीयत बिगड़ने लगती है,’’ अनीता, सुमेधा के कंधे पर हाथ रखते हुए बड़ी अदा से बोली.
अनीता की बात सुन कर सुमेधा की हंसी छूट गई.
‘‘आ गईं वापस मैडम आप?’’
‘‘हां बच्चू. तुम्हें तनहा छोड़ कर मैं कहां जाऊंगी?’’
‘‘मजाक छोड़ो यार. मैं अभी मजाक के मूड में बिलकुल नहीं हूं,’’ सुमेधा गंभीरता से बोली.
‘‘अभी क्या, तुम तो कभी भी मजाक के मूड में नहीं होतीं. क्यों संयोगिता, मैं ने कुछ गलत तो नहीं कहा?’’
‘‘यह क्या संयोगितासंयोगिता लगा कर रखा है?’’ सुमेधा परेशान हो कर बोली.
‘‘भई, जब हमारे पृथ्वीराज तुम पर जान छिड़कते हैं, तो तुम संयोगिता ही हुईं न,’’ अनीता मसखरी करती हुई बोली.
अनीता सुबोध की मुंहबोली बहन थी और उस से भी बढ़ कर दोस्त और सलाहकार. और जब से उसे सुबोध और सुमेधा के पूर्व परिचय के बारे में पता चला था वह दोनों का मेल कराने में बड़ी उत्सुक थी. कनु की प्यारी बातों और सुमेधा के प्रति उस के स्नेह ने, उस की इस चाहत को और बढ़ा दिया था. एक बार तो वह सुमेधा की मां के सामने ही यह किस्सा छेड़ बैठी. उन्होंने अनीता की बात सुनी तो उन्हें जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. लेकिन सुमेधा ने अपने स्वाभिमान का वास्ता दे कर मां को कभी भी यह बात करने से रोक दिया.
लेकिन सुमेधा मां के मन और उस के प्यार भरे दिल की हसरतों को कैसे रोकती?
एक दिन फिर वे यह बात करने लगीं तो वह बोली, ‘‘मां, बातचीत करना एक बात है और घरपरिवार बसाना दूसरी. पहले भी तुम 2-3 लड़कों को देख चुकी हो न, जो मेरी नौकरी के आकर्षण से शादी के लिए राजी हुए थे. लेकिन शादी के बाद तुम्हारे भी साथ रहने की बात सुन कर ऐसे गायब हुए कि दोबारा शक्ल न दिखाई.’’
‘‘मेरा क्या देखती है तू? मैं तो अकेली भी रह लूंगी,’’ मां सहमते हुए बोलीं.
‘‘तुम्हें अकेला छोड़ कर शादी करना इतना जरूरी नहीं है, मेरे लिए. और हां, यह
बात आज के बाद इस घर में नहीं होगी,’’ सुमेधा ने कड़े स्वर में मां की जबान पर ताला लगा दिया.
अनीता से विदा ले कर सुमेधा घर की तरफ रवाना हुई तो विचारों के चक्र में उलझी हुई थी. उसे जब होश आया, तब तक उस का स्कूटर विपरीत दिशा से तेज गति से आती कार की चपेट में आ चुका था. टक्कर होते ही सुमेधा उछल कर रोड पर जा गिरी.
राहगीरों ने सहारा दे कर उसे उठाया. फिर जब सामान्य हुई तो उसे आटोरिकशा में बैठा कर रवाना कर दिया. स्कूटर को पास ही के गैराज में खड़ा कर दिया.
मां सुमेधा को देखते ही सुधबुध खो बैठीं. बमुश्किल अपनेआप को संभाल कर उन्होंने सब से पहले सुबोध को ही फोन लगाया.
‘‘बेटा, सुमेधा का ऐक्सिडैंट हो गया है. आप जल्दी आ जाओ.’’
सुबोध आते ही बोला, ‘‘क्या हो गया? किस से भिड़ गईं?’’ फिर मां की तरफ पलट कर बोला, ‘‘चलिए मांजी, मेरे दोस्त डा. आकाश का क्लीनिक पास ही है. मैडम की ड्रैसिंग करवा लाते हैं.’’
सुमेधा मंत्रमुग्ध सी दोनों के साथ चलती रही. कब चलते हुए उस ने सुबोध का सहारा लिया और ड्रैसिंग कराते वक्त दर्द बढ़ने पर कब उस का हाथ थाम लिया, ध्यान न रहा. लेकिन इन लमहों ने अपनों के महत्त्व से
सुमेधा को परिचित करवा दिया. आज मां अकेली होतीं तो क्या करतीं? कोई न कोई मदद तो कर ही देता, लेकिन ऐसा अपनत्व भरा सहयोग, मदद का हाथ मिलना क्या संभव था?
शाम को सुबोध कनु को ले आया. सुमेधा को देख कर कनु उस से लिपट गई. सुमेधा असहनीय दर्द से कराह उठी. सुबोध ने आहिस्ता से कनु को अलग कर के बैठाया.
‘‘बेटा, आंटी को चोट लगी है न, उन को परेशान नहीं करना,’’ सुबोध ने समझाते हुए कहा.
‘‘ठीक है, पापा. पापा, आंटी को दवा दो न.’’
‘‘हां बेटा, दवा देंगे.’’
‘‘अगर आंटी ने नहीं ली तो?’’ कनु ने मासूमियत से पूछा.
‘‘तो हम उन से कुट्टी कर लेंगे,’’ सुबोध मुसकरा कर बोला.
सुबोध की बात सुन कर कनु और मां खिलखिला कर हंस पड़ीं. माहौल में ताजगी भरी खुशबू फैल गई.
रात खाना खा कर सो गई सुमेधा. सुबह उठ कर देखा तो मां और सुबोध बतिया रहे थे. दोनों की आंखों के लाल डोरे बता रहे थे कि उन्होंने रात जाग कर काटी है. इस का मतलब सुबोध घर वापस नहीं गया. यानी कल से क्लीनिक भी बंद ही है. कोई किसी अपने के लिए ही ये सब कर सकता है. मैं बेकार की शंका में फंसी रही.
सुमेधा को जागा हुआ देख कर मां लपक कर आ गईं और सहारा दे कर बैठाया. हाथ और पैर की चोटों में दर्द बराबर बना हुआ था. मां सुमेधा को सहारा दे कर मुंह धुला लाईं. तब तक सुबोध चाय और बिस्कुट ले आया. कनु होमवर्क करने में व्यस्त थी. बगल के कमरे से उस के पढ़ने की आवाज आ रही थी. थोड़ी देर बाद कनु उन के पास पहुंच गई.
सुबोध बोला, ‘‘मांजी, अब मैं इजाजत चाहूंगा. कनु को तैयार कर स्कूल भेजना है और मेरे मरीज राह देखते होंगे. हां, मैं शाम को आऊंगा. अच्छा सुमेधा, मैं चलूं?’’
‘‘ठीक है, बाय कनु बेटा,’’ मां और सुमेधा ने दोनों को विदा दी.
शाम को 4 बजे अनीता कालेज से सीधे सुमेधा से मिलने चली आई.
‘‘मैं बोलती थी न, बेकार की चिंता मत पालो. कहां ध्यान रहता है और कैसे गाड़ी चलाती हो तुम?’’ अनीता आते ही बनावटी रोष में बरस पड़ी.
‘‘देखो, मेरा तो वैसे ही बुरा हाल है. तुम मुझे और तंग मत करो,’’ सुमेधा धीमी आवाज में बोली.
6 बजे तक सुबोध भी कनु को ले कर आ गया. बूआ को देख कर कनु चहक उठी.
अनीता बोली, ‘‘हम अपनी कनु बिटिया को अपने घर ले जाएंगे.’’
‘‘नहीं, जब तक आंटी ठीक नहीं हो जातीं हम कहीं नहीं जाएंगे,’’ कनु इतराते हुए बोली और सुमेधा के गले लग गई.
कनु का प्यार देख कर मां, सुबोध और अनीता की आंखें गीली हो गईं. सुमेधा भी इस से अछूती नहीं रह पाई.
‘‘चलिए मांजी, नाश्ते की तैयारी करें. चलो कनु, तुम भी हमारी हैल्प करो,’’ अनीता मांजी और कनु को किचन में ले गई.
सुबोध पास की कुरसी खींच कर बैठते हुए बोला, ‘‘सुमेधा, पता नहीं उस दिन की मेरी बात का क्या मतलब निकाला तुम ने. आज तुम्हारे लिए एक खास चीज लाया हूं. और हां, अनीता ने मुझे सब बता दिया है. मांजी की जितनी चिंता तुम्हें है, उतनी ही मुझे भी. यदि तुम ने इस नए रिश्ते को स्वीकार किया तो मांजी को अपने साथ पा कर मुझे बेहद खुशी होगी. तुम्हारे बाबूजी की असमय बीमारी और उन के गुजरने के बाद इतने सालों की तपस्या से तुम ने जिस स्वाभिमान की शिला को रचा है, मैं उसे भी ठेस नहीं पहुंचाना चाहता. हां, उस शिला में कोई दरवाजा निकल सके तो मैं और कनु जरूर उस से गुजर कर तुम्हारे करीब पहुंचना चाहेंगे.’’
सब सुन कर सुमेधा सिमट सी गई.
सुबोध ने एक पुरानी डायरी उस की ओर बढ़ा दी.
पहले ही पन्ने पर लिखी थी छोटी सी कविता-
‘‘सरस्वती कहूं तुम्हें कि तुम्हें मैं परी कहूं
कह दो तुम्हीं क्या मैं तुम्हें सुंदरी कहूं.
तुम को कुंतला पुकारूं या कहूं शकुंतला
या फिर तुम को मैं कादंबरी कहूं.
चित्रा कहूं या सुमित्रा चंदा या सितारा
अथवा सावित्री सत्य से तुम्हें भरी कहूं.’’
नीचे लिखा था- सुमेधा के लिए, जो इन पंक्तियों को कभी नहीं पढ़ेगी. उस में तारीख थी उस साल की जब वे 12वीं कक्षा में थे.
डायरी बंद कर सुमेधा ने सुबोध की ओर देखा. फिर हौले से बोली, ‘‘सुबोध, सुमेधा ने अपने लिए लिखी पंक्तियों को पढ़ लिया है,’’ और अपनी स्वीकृति देते हुए सुबोध के हाथों को अपनी हथेलियों में छिपा लिया.
उस पल दर्द के बावजूद सुमेधा के चेहरे पर मुसकान थी, नए रिश्ते को अपना कर मिली मुसकान. सुबोध की आंखों में खुशहाल परिवार के सपने झिलमिलाने लगे.