मेरा संसार: अतीत और वर्तमान के अंतर्द्वंद्व में उलझे व्यक्ति की कहानी

प्यार की किश्ती में सवार मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरा साहिल कौन है, रचना या ज्योति? एक तरफ रचना जो सिर्फ अपने बारे में सोचती थी. दूसरी ओर ज्योति, जिस की दुनिया मुझ तक और मेरी बेटी तक सीमित थी.

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया. मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती?

कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है.

यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए.

जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है. तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता.

मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है.

जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं?

हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे. संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई.

मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है.

पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद. किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है.

गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है.

उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं.

ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है.

ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है. तब तक फक्कड़ की तरह… मजबूरी जो होती है. सचमुच ज्योति कितना सारा काम करती है, बावजूद उस के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं देखी. यहां तक कि कभी उस ने मुझ से शिकायत भी नहीं की. ऊपर से जब मैं दफ्तर से लौटता हूं तो थका हुआ मान कर मेरे पैर दबाने लगती है. मानो दफ्तर जा कर मैं कोई नाहर मार कर लौटता हूं. दफ्तर और घर के दरम्यान मेरे ज्यादा घंटे दफ्तर में गुजरते हैं. न ज्योति का खयाल रख पाता हूं, न रोमी का. दायित्वों के नाम पर महज पैसा कमा कर देने के कुछ और तो करता ही नहीं.

फोन की घंटी घनघनाई तो मेरा ध्यान भंग हुआ.

‘‘हैलो…? हां ज्योति…कैसी हो?…रोमी कैसी है?…मैं…मैं तो ठीक हूं…बस बैठा तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था. अकेले मन नहीं लगता यार…’’

कुछ देर बात करने के बाद जब ज्योति ने फोन रखा तो फिर मेरा दिमाग दौड़ने लगा. ज्योति को सिर्फ मेरी चिंता है जबकि मैं उसे ले कर कभी इतना गंभीर नहीं हो पाया. कितना प्रेम करती है वह मुझ से…सच तो यह है कि प्रेम शरणागति का पर्याय है. बस देते रहना उस का धर्म है.

ज्योति अपने लिए कभी कुछ मांगती नहीं…उसे तो मैं, रोमी और हम से जुडे़ तमाम लोगों की फिक्र रहती है. वह कहती भी तो है कि यदि तुम सुखी हो तो मेरा जीवन सुखी है. मैं तुम्हारे सुख, प्रसन्नता के बीच कैसे रोड़ा बन सकती हूं? उफ, मैं ने कभी क्यों नहीं इतना गंभीर हो कर सोचा? आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है? इसलिए कि मैं अकेला हूं?

रचना…फिर उस की याद…लड़ाई… गुस्सा…स्वार्थ…सिर्फ स्वयं के बारे में सोचनाविचारना….बावजूद मैं उसे प्रेम करता हूं? यही एक सत्य है. वह मुझे समझ नहीं पाई. मेरे प्रेम को, मेरे त्याग को, मेरे विचारों को. कितना नजरअंदाज करता हूं रचना को ले कर अपने इस छोटे से परिवार को? …ज्योति को, रोमी को, अपनी जिंदगी को.

बिजली गुल हो गई तो पंखा चलतेचलते अचानक रुक गया. गरमी को भगाने और मुझे राहत देने के लिए जो पंखा इस तपन से संघर्ष कर रहा था वह भी हार कर थम गया. मैं समझता हूं, सुखी होने के लिए बिजली की तरह निरंतर प्रेम प्रवाहित होते रहना चाहिए, यदि कहीं व्यवधान होता है या प्रवाह रुकता है तो इसी तरह तपना पड़ता है, इंतजार करना होता है बिजली का, प्रेम प्रवाह का.

घड़ी पर निगाहें डालीं तो पता चला कि दिन के साढे़ 3 बज रहे हैं और मैं यहां इसी तरह पिछले 2 घंटों से बैठा हूं. आदमी के पास कोई काम नहीं होता है तो दिमाग चौकड़ी भर दौड़ता है. थमने का नाम ही नहीं लेता. कुछ चीजें ऐसी होती हैं जहां दिमाग केंद्रित हो कर रस लेने लगता है, चाहे वह सुख हो या दुख. अपनी तरह का अध्ययन होता है, किसी प्रसंग की चीरफाड़ होती है और निष्कर्ष निकालने की उधेड़बुन. किंतु निष्कर्ष कभी निकलता नहीं क्योंकि परिस्थितियां व्यक्ति को पुन: धरातल पर ला पटकती हैं और वर्तमान का नजारा उस कल्पना लोक को किनारे कर देता है. फिर जब भी उस विचार का कोना पकड़ सोचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है तो नईनई बातें, नएनए शोध होने लगते हैं. तब का निष्कर्ष बदल कर नया रूप धरने लगता है.

सोचा, डायरी लिखने बैठ जाऊं. डायरी निकाली तो रचना के लिखे कुछ पत्र उस में से गिरे. ये पत्र और आज का उस का व्यवहार, दोनों में जमीनआसमान का फर्क है. पत्रों में लिखी बातें, उन में दर्शाया गया प्रेम, उस के आज के व्यवहार से कतई मेल नहीं खाते. जिस प्रेम की बातें वह किया करती है, आज उसी के जरिए अपना सुख प्राप्त करने का यत्न करती है. उस के लिए पे्रेम के माने हैं कि मैं उस की हरेक बातों को स्वीकार करूं. जिस प्रकार वह सोचती है उसी प्रकार व्यवहार करूं, उस को हमेशा मानता रहूं, कभी दुख न पहुंचाऊं, यही उस का फंडा है.

बंद खिड़कियां: क्या हुआ था रश्मि के साथ

वैशिकीकी आज विदाई थी. बड़ी धूमधाम से बेटी की हर छोटीबड़ी ख्वाहिश का ध्यान रखते हुए वैशिकी के मम्मीपापा बेटी की विदाई की तैयारी कर रहे थे. पूरे रीतिरिवाजों के साथ वैशिकी अपने मायके से विदा हो गई.

आज ससुराल में वैशिकी का पहला दिन था. चारों तरफ धूम मची हुई थी. सभी लोग खुश दिखाई दे रहे थे. चारों तरफ गहमागहमी का माहौल था.

वैशिकी अपनी जेठानी, ननदों, चाची इत्यादि की हंसीठिठोली के बीच लाल पड़ रही थी. जैसे ही वंशूक कमरे में आया, पल्लवी चाची उस का कान खींचते हुए बोलीं, ‘‘शैतान कहीं का, रुका नहीं जा रहा तु झ से… पूरी उम्रभर का साथ है तुम दोनों का… अभी तो थोड़ा सब्र करो.’’

वैशिकी ने देखा सब लोग हंसीठिठोली कर रहे थे परंतु वंशूक की मां यानी वैशिकी की सास रश्मि के चेहरे पर एक निर्लिप्त भाव थे. महंगे कपड़े और गहनों से लदीफदी होने के बावजूद वह बेहद अजीब सी लग रही थी. वैशिकी और वंशूक का आलीशान रिसैप्शन हुआ था. कुंदन के सैट और मोतिया रंग के जड़ाऊ काम के लहंगे में वैशिकी जितनी खूबसूरत लग रही थी और वहीं क्रीम रंग की शेरवानी में लाल दुपट्टे के साथ वंशूक भी बहुत सौम्य और प्यारा लग रहा था.

अगले दिन दोपहर तक पूरा घर खाली हो गया. सभी रिश्तेदार वापस जा चुके थे. अब घर में बस रह गए वंशूक की बड़ी बहन सुजाता और वंशूक के पापा अमित तथा मां रश्मि. अगले दिन वैशिकी को पगफेरे के लिए जाना था. वह साड़ी का चुनाव कर रही थी कि तभी उसे लगा कि क्यों न सास से पूछ ले, फिर हाथों में साड़ी ले कर वह रश्मि के पास चली गई. बोली, ‘‘मम्मीजी, यह बताइए पीली और नारंगी में से कौन सी साड़ी पहनूं कल?’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, जो अच्छी लगे उसे पहन लो… वैसे यह नारंगी रंग तुम पर खूब फबेगा.’’

तभी अमित ठहाके मारते हुए बोले, ‘‘रही न तुम गंवार की गंवार… यह चुभता हुआ रंग सर्दियों में अच्छा लगता है न कि मई के महीने में.’’

रश्मि एकदम चुप हो गई तो अमित फिर बोले, ‘‘वैशिकी बेटा, तुम अपनी सुजाता दीदी से पूछ लो.’’

वैशिकी को अपने ससुर का अपनी सास के प्रति व्यवहार बहुत अजीब सा लगा, साथ ही साथ उस के मन में यह डर भी समा गया कि क्या होगा अगर वंशूक का व्यवहार भी ऐसा ही हुआ तो? आखिर बेटा अपने पिता से ही तो सीखता है.

अगले दिन पगफेरे की रस्म के लिए वैशिकी पीले रंग की शिफौन की साड़ी पहन कर जाने को तैयार हो गई. रश्मि ने सुबह उठ कर नाश्ते में आलू के परांठे और मूंग की दाल का हलवा बनाया था.

सुजाता बोली, ‘‘मम्मी, आप तो हम सब को मोटा कर के ही मानेंगी.’’

वंशूक भी कटाक्ष करते हुए बोला, ‘‘मम्मी, कितनी बार कहा है कि कुछ डाइट फूड बनाना भी सीख लो.’’

अमित बोले, ‘‘कहां से सीखेगी तुम्हारी मम्मी? इसे तो खुद अपनी कमर को कमरा बनाने से फुरसत नहीं है.’’

सभी हंस पड़े, लेकिन तभी वैशिकी बोल उठी, ‘‘भई किसी को अच्छा लगे या न लगे

मु झे तो ऐसा लजीज नाश्ता पहली बार मिला है.’’

वैशिकी की बात सुन कर रश्मि का चेहरा खिल उठा. पगफेरे के बाद वैशिकी और वंशूक 15 दिनों के लिए हनीमून पर चले गए. हनीमून पर भी वैशिकी ने महसूस किया कि वंशूक के घर से या तो उस की दीदी या फिर पापा ही फोन करते. जब वंशूक और वैशिकी हनीमून से वापस आए तो वंशूक की दीदी सुजाता अपनी ससुराल जा चुकी थी. वैशिकी शाम को अपने साथ लाए उपहारों को रश्मि और अमित को दिखाने लगी.

वैशिकी अमित के लिए टीशर्ट और रश्मि के लिए धूप का चश्मा लाई थी. रश्मि का उपहार देख कर अमित बोले, ‘‘वैशिकी बेटा यह क्या ले आई हो तुम अपनी मम्मी के लिए? तुम्हारी मम्मी ने यह कभी नहीं लगाया… यह तो शहर में इतने सालों तक रहते हुए भी अभी तक नहीं बदल पाई है… अब क्या लगाएगी…’’

वैशिकी बोली, ‘‘अरे पापा तो अब लगा लेंगी, मैं बहुत मन से लाई हूं.’’

अगले दिन अमित और वंशूक दफ्तर चले गए, वैशिकी की अभी 7 दिन की छुट्टियां बची थीं. उस ने  िझ झकते हुए रसोई में कदम रखा तो देखा कि रश्मि बेसन के लड्डू बनाने में व्यस्त थी. वैशिकी को देख कर मुसकरा कर बोली, ‘‘बेटा, तुम्हें बेसन के लड्डू पसंद हैं न वही बना रही हूं.’’

वैशिकी ने एक लड्डू उठा कर खाते हुए कहा, ‘‘मम्मी, आप के हाथों में बहुत स्वाद है.  झूठ नहीं बोल रही हूं.’’

रश्मि उदास सी हो कर बोली, ‘‘बेटा पिछले 30 सालों से खाना बना रही हूं… यह भी अच्छा नहीं बना पाऊंगी तो क्या फायदा?’’

वैशिकी बोली, ‘‘मम्मी, नहीं सच कह रही हूं, आप बहुत अच्छा खाना बनाती हैं. हरकोई इतना अच्छा खाना नहीं बना सकता है.’’

वैशिकी सोच में पड़ गई कि सास घर के हर काम में बहुत सुघड़ हैं, पर न जाने क्यों अपने खुद के रखरखाव को ले कर बहुत उदासीन हैं.

जब शाम होने लगी तो रश्मि अमित और वंशूक के लिए

पोहा बनाने लगी. इतनी देर में वैशिकी तैयार हो कर आ गई. रश्मि को देख कर बोली, ‘‘मम्मी, जब तक मैं चाय बना रही हूं, आप भी तैयार हो जाइए.’’

‘‘वह भला क्यों?’’ रश्मि ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘वैशिकी रश्मि को एक नया सूट देते हुए बोली, ‘‘पापा आप को फ्रैशफ्रैश देखेंगे, तो खिल उठेंगे.’’

मगर अमित और वंशूक दफ्तर से वापस आए तो चाय की गरमगरम चुसिकयों के साथ वंशूक वैशिकी को अपने दफ्तर के नए प्रोजैक्ट के बारे में बता रहा था.

अमित ने एक सरसरी नजर रश्मि पर डाली और व्यंग्य करते हुए बोले, ‘‘काश, मैं भी किसी से दफ्तर के तनाव को डिस्कस कर सकता? केवल पोहा ही तनाव को कम नहीं कर सकता है.’’

रश्मि आंसुओं को पीते हुए कमरे में चली गई. वैशिकी का दिया हुआ सूट जो उस ने पहना था, उसे बदलते हुए सोच रही थी कि अमित ने उसे कब पत्नी का सम्मान दिया है. हर समय उसे गंवार बोलबोल कर ऐसे कर दिया है कि कभीकभी तो उसे अपनी पोस्ट ग्रैजुएशन की डिगरी पर शक होने लगता है.

रात को सोने के बिस्तर पर वैशिकी से नहीं रहा गया तो वह वंशूक से बोल उठी, ‘‘पापा क्यों मम्मी को हर समय ताने देते रहते हैं?’’

वंशूक बोला, ‘‘अरे पापा इतने  स्मार्ट हैं और मम्मी एकदम गंवार लगती हैं, इसलिए पापा ऐसे बोलते हैं,’’ फिर वैशिकी को बांहों में लेते हुए बोला, ‘‘हरकोई मेरी तरह नहीं होता है कि उसे सुंदर और स्मार्ट पत्नी मिले.’’

अगले दिन बापबेटे के औफिस जाने के बाद वैशिकी और रश्मि दोनों घर पर अकेली थीं तो वैशिकी रश्मि से बोली, ‘‘मम्मी, अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं? आप पापा की हर बात क्यों सुनती हैं?’’

रश्मि बोली, ‘‘बेटा, क्योंकि मैं तुम्हारी तरह न स्मार्ट हूं, न ही सुंदर और न ही अपने पैरों पर खड़ी हूं.’’

वैशिकी आंखें बड़ी करते हुए बोली, ‘‘उफ, आप के पास कितने तीखे नैननक्श हैं… इतनी वैल मैंटेन्ड है, बस एक प्यारी सी मुसकान की कमी है.’’

रश्मि बोली, ‘‘अरे बेटा मजाक मत करो… मेरी सास, ननद, जेठानी और यहां तक कि बच्चे भी मु झे गंवार ही मानते हैं और फिर तुम्हारे पापा का और मेरा कोई जोड़ नहीं है.’’

वैशिकी बोली, ‘‘मम्मी, क्योंकि आप ऐसा सोचती हैं… जैसा आप अपने बारे में सोचेंगी दूसरे लोग भी वैसा ही सोचेंगे.’’

रात में वैशिकी ने खाने की टेबल पर अमित से कहा, ‘‘पापा, मम्मी इतना अच्छा खाना बनाती हैं… क्यों न हम कोई छोटामोटा बिजनैस सैटअप कर लें.’’

अमित बेचारगी से बोले, ‘‘बेटा, प्रेजैंटेशन का जमाना है… रश्मि जैसा खाना तो हरकोई बना लेता है… कौन करेगा मार्केटिंग और बाकी सब काम, तुम्हारी मम्मी तो बाहर वालों के सामने दो शब्द भी नहीं बोल सकती हैं… पूरी उम्र कुछ नहीं किया तो अब 51 वर्ष की उम्र में क्या करेंगी?’’

कोई भी कुछ नहीं बोल सका. सभी खाना खा कर सोने चले गए. रश्मि रसोई समेटने लगी.

अगले दिन रश्मि किचन में व्यस्त थी तो वैशिकी ने पूरी रूपरेखा तैयार कर ली थी. उस ने ‘रश्मि की रसोई’ नामक एक यूट्यूब चैनल खोल दिया, फिर बोली, ‘‘मम्मीजी, आप जो भी बनाती हैं बस मैं उस का वीडियो बना कर डालूंगी…’’

‘‘धीरेधीरे जैसेजैसे आप के सब्सक्राइबर बढ़ेंगे, वैसेवैसे लोगों को आप के नाम के बारे में पता चलेगा और फिर आप की आमदनी भी आरंभ हो जाएगी.’’

रश्मि घबरा कर बोली, ‘‘वैशिकी बेटा, मु झ से ये सब नहीं हो पाएगा.’’

‘‘मगर फिर वैशिकी के बहुत जोर देने पर रश्मि तैयार हो गई, लेकिन कभी कुछ न करने की लोगों की बातें दिमाग में घूम रही थीं,’’ जिस की वजह से घबराहट में रश्मि से पूरी सेव भाजी की सब्जी जल गई, तो रश्मि बोली, ‘‘देखा, वैशिकी, मैं ने कहा था न कि मैं गंवार हूं. मैं कुछ नहीं कर सकती हूं.’’

मगर वैशिकी पर तो जैसे जनून सवार था. शाम को बोली, ‘‘मम्मी, आप एक काम करें, पहले आप खूब अच्छी तरह से तैयार हो जाइए, फिर कोई छोटामोटा नाश्ता बनाइए. हम उसी से शुरू करते हैं.’’

इस बार वैशिकी ने रश्मि के द्वारा आटे का हलवा बनाने का वीडियो बना कर डाल दिया. वैशिकी ने उस वीडियो को अपने दफ्तर और दोस्तों के ग्रुप में शेयर कर दिया. शाम होने तक रश्मि के वीडियो को बहुत सारे व्यूज और काफी कमैंट भी मिल गए.

एक आदमी का यह कमैंट था, ‘‘भई, बीवी हो तो ऐसी सुंदर, सुशील और पाककला में निपुण.’’

वैशिकी ने कहा, ‘‘मम्मी, देखो आप की तो फैन फौलोइंग भी आरंभ हो गई है.’’

अगली सुबह रश्मि खुद ही तैयार हो गई थी. आज की वीडियो में वह

कल से अधिक कौन्फिडैंट थी. रश्मि के अपनी बहू वैशिकी के साथ दिन पलक  झपकते ही बीत रहे थे. इन दिनों में रश्मि ने फिर से हंसना, मुसकराना और अपने ऊपर विश्वास करना सीख लिया था.

वैशिकी छुट्टियों के बाद अगले दिन दफ्तर जाने की तैयारी में जुटी थी. रश्मि उस के कमरे में आ कर बोली, ‘‘बेटा, अब वह चैनल का क्या होगा?’’

वैशिकी बोली, ‘‘मम्मी, हम लोग रोज शाम को एक वीडियो करेंगे… और मैं आप को सिखा भी दूंगी कि कैसे बिना किसी की मदद के आप अपना वीडियो खुद बना सकती हैं.’’

वैशिकी के प्यार और सम्मान के कारण रश्मि अब फिर से अपने खुद के करीब आ गई थी. अब हर समय एक मुसकान उस के होंठों पर थिरकती रहती थी. धीरेधीरे वैशिकी की मदद से रश्मि ने औनलाइन और्डर भी लेने शुरू कर दिए थे.

आज रश्मि को अपनी मेहनत का पहला चैक मिला था क्व10 हजार का. रकम चाहे बहुत बड़ी न हो पर उस से निकलने वाले हौसले को रश्मि अपने शब्दों में बयां नहीं कर पा रही थी. जो अब तक लोगों की नजरों में फूहड़, गंवार आदि थी, यहां तक कि अमितजी खुद अपनी पत्नी के इस बदले हुए रूप पर चकित थे.

वंशूक बोला, ‘‘मम्मी, बहू ने तो आप की काया पलट कर दी.’’

वैशिकी बोली, ‘‘नहीं, हुनर तो पहले से ही था मम्मी में, बस उन हौसलों को उड़ान देनी थी.’’

रश्मि को सब की बातें सुन कर ऐसा लगा कि बहुत दिनों से अपनी जिंदगी की बंद पड़ी खिड़कियां खुल गई हैं और एक नई रैसिपी की खुशबू उन खुली खिड़कियों से आ रहे हवा के  झोंकों के साथ उस के मन को महका गई हो.

घोंसले का तिनका: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

7 बज चुके थे. मिशैल के आने में अभी 1 घंटा बचा था. मैं ने अपनी मनपसंद कौफी बनाई और जूते उतार कर आराम से सोफे पर लेट गया. मैं ने टेलीविजन चलाया और एक के बाद एक कई चैनल बदले पर मेरी पसंद का कोई भी प्रोग्राम नहीं आ रहा था. परेशान हो टीवी बंद कर अखबार पढ़ने लगा. यह मेरा रोज का कार्यक्रम था. मिशैल के आने के बाद ही हम खाने का प्रोग्राम बनाते थे. जब कभी उसे अस्पताल से देर हो जाती, मैं चिप्स और जूस पी कर सो जाता. मैं यहां एक मल्टीस्टोर में सेल्समैन था और मिशैल सिटी अस्पताल में नर्स.

दरवाजा खुलने के साथ ही मेरी तंद्रा टूटी. मिशैल ने अपना पर्स दरवाजे के पास बने काउंटर पर रखा और मेरे पास पीछे से गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘बहुत थके हुए लग रहे हो.’’

‘‘हां,’’ मैं ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, ‘‘वीकएंड के कारण सारा दिन व्यस्त रहा,’’ फिर उस की तरफ प्यार से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं. मैं भी अपने लिए कौफी बना कर लाती हूं,’’ कह कर वह किचन में जातेजाते पूछने लगी, ‘‘मेरे कौफी बींस लाए हो या आज भी भूल गए.’’

‘‘ओह मिशैल, आई एम रियली सौरी. मैं आज भी भूल गया. स्टोर बंद होने के समय मुझे बहुत काम होता है. फूड डिपार्टमेंट में जा नहीं सका.’’

3 दिन से लगातार मिशैल के कहने के बावजूद मैं उस की कौफी नहीं ला सका था. मैं ने उसी समय उठ कर जूते पहने और कहा, ‘‘मैं अभी सामने की दुकान से ला देता हूं, वह तो खुली होगी.’’

‘‘ओह नो, टोनी. मैं आज भी तुम्हारी कौफी से गुजारा कर लूंगी. मुझे तो तुम इसीलिए अच्छे लगते हो कि फौरन अपनी गलती मान लेते हो. थके होने के बावजूद तुम अभी भी वहां जाने को तैयार हो. आई लव यू, टोनी. तुम्हारी जगह कोई यहां का लड़का होता तो बस, इसी बात पर युद्ध छिड़ जाता.’’

मैं ऐसे हजारों प्रशंसा के वाक्य पहले भी मिशैल से अपने लिए सुन चुका था. 5 साल पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ जरमनी आया था और बस, यहीं का हो कर रह गया. भारत में वह जब भी मेरे घर आता, उस का व्यवहार और रहनसहन देख कर मैं बहुत प्रभावित होता था. उस का बातचीत का तरीका, उस का अंदाज, उस के कपड़े, उस के मुंह से निकले वाक्य और शब्द एकएक कर मुझ पर अमिट छाप छोड़ते गए. मुझ से कम पढ़ालिखा होने के बावजूद वह इतने अच्छे ढंग से जीवन जी रहा है और मैं पढ़ाई खत्म होने के 3 साल बाद भी जीवन की शुरुआत के लिए जूझ रहा था. मैं अपने परिवार की भावनाओं की कोई परवा न करते हुए उसी के साथ यहां आ गया था.

पहले तो मैं यहां की चकाचौंध और नियमित सी जिंदगी से बेहद प्रभावित हुआ. यहां की साफसुथरी सड़कें, मैट्रो, मल्टीस्टोर, शौपिंग मौल, ऊंचीऊंची इमारतों के साथसाथ समय की प्रतिबद्धता से मैं भारत की तुलना करता तो यहीं का पलड़ा भारी पाता. जैसेजैसे मैं यहां के जीवन की गहराई में उतरता गया, लगा जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं समझता था.

एक भारतीय औपचारिक समारोह में मेरी मुलाकत मिशैल से हो गई और उस दिन को अब मैं अपने जीवन का सब से बेहतरीन दिन मानता हूं. चूंकि मिशैल के साथ काम करने वाली कई नर्सें एशियाई मूल की थीं इसलिए उसे इन समारोहों में जाने की उत्सुकता होती थी. उसे पेइंग गेस्ट की जरूरत थी और मुझे घर की. हम दोनों की जरूरतें पूरी होती थीं इसलिए दोनों के बीच एक अलिखित समझौता हो गया.

मिशैल बहुत सुंदर तो नहीं थी पर उसे बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था. धीरेधीरे हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि अब एकदूसरे के पर्याय बन गए हैं. मेरी नीरस जिंदगी में बहार आने लगी है.

मिशैल जब भी मुझ से भारत की संस्कृति, सभ्यता और भारतीयों की वफादारी की बात करती है तो मैं चुप हो जाता हूं. मैं कैसे बताता कि जो कुछ उस ने सुना है, भारत वैसा नहीं है. वहां की तंग और गंदी गलियां, गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी से भाग कर ही तो मैं यहां आया हूं. उसे कैसे बताता कि भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बिजलीपानी का अभाव कैसे वहां के आमजन को तिलतिल कर जीने को मजबूर करता है. इन बातों को बताने का मतलब था कि उस के मन में भारत के प्रति जो सम्मान था वह शायद न रहता और शायद वह मुझ से भी नफरत करने  लग जाती. चूंकि मैं इतना सक्षम नहीं था कि अलग रह सकूं इसलिए कई बार उस की गलत बातों का भी समर्थन करना पड़ता था.

‘‘जानते हो, टोनी,’’ मिशैल कौफी का घूंट भरते हुए बोली, ‘‘इस बार हैनोवर इंटरनेशनल फेयर में तुम्हारे भारत को जरमन सरकार ने अतिथि देश चुना है और यहां के अखबार, न्यूज चैनलों में इस समाचार को बहुत बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है. जगहजगह भारत के झंडे लगे हुए हैं.’’

‘‘भारत यहां का अतिथि देश होगा?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनने की कोशिश की.

‘‘और क्या? देखा नहीं तुम ने…मैं एक बार तो जरूर जाऊंगी, शायद कोई सामान पसंद आ जाए.’’

‘‘मिशैल, भारतीय तो यहां से सामान खरीद कर भारत ले जाते हैं और तुम वहां का सामान…न कोई क्वालिटी होगी न वैराइटी,’’ मैं ने मुंह बनाया.

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर उस ने कौफी का आखिरी घूंट भरा और मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर बोली, ‘‘टोनी, तुम भी चलो न, वस्तुओं को समझने में आसानी होगी.’’

फेयर के पहले दिन सुबहसुबह ही मिशैल तैयार हो गई. मैं ने सोचा था कि उस को वहां छोड़ कर कोई बहाना कर के वहां से चला जाऊंगा. पर मैं ने जैसे ही मेन गेट पर गाड़ी रोकी, गेट पर ही भारत के विशालकाय झंडे, कई विशिष्ट व्यक्तियों की टीम, भारतीय टेलीविजन चैनलों की कतार और नेवी का पूरा बैंड देख कर मैं दंग रह गया. कुल मिला कर ऐसा लगा जैसे सारा भारत सिमट कर वहीं आ गया हो.

मैं ने उत्सुकतावश गाड़ी पार्किंग में खड़ी की तो मिशैल भाग कर वहां पहुंच गई. मेरे वहां पहुंचते ही बोली, ‘‘देखो, कैसा सजा रखा है गेट को.’’

मैं ने उत्सुकता से वहां खड़े एक भारतीय से पूछा, ‘‘यहां क्या हो रहा है?’’

‘‘यहां तो हम केवल प्रधानमंत्रीजी के स्वागत के लिए खड़े हैं. बाकी का सारा कार्यक्रम तो भीतर हमारे हाल नं. 6 में होगा.’’

‘‘भारत के प्रधानमंत्री यहां आ रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकतावश मिशैल से पूछा.

‘‘मैं ने कहा था न कि भारत अतिथि देश है पर लगता है यहां हम लोग ही अतिथि हो गए हैं. जानते हो टोनी, उन के स्वागत के लिए यहां के चांसलर स्वयं आ रहे हैं.’’

थोड़ी देर में वंदेमातरम की धुन चारों तरफ गूंजने लगी. प्रधानमंत्रीजी के पीछेपीछे हम लोग भी हाल नं. 6 में आ गए, जहां भारतीय मंडप को दुलहन की तरह सजाया हुआ था.

प्रधानमंत्रीजी के वहां पहुंचते ही भारतीय तिरंगा फहराने लगा और राष्ट्रीय गीत के साथसाथ सभी लोग सीधे खड़े हो गए, जैसा कि कभी मैं ने अपने स्कूल में देखा था. टोनी आज भारतीय होने पर गर्व महसूस कर रहा था. उसे भीतर तक एक झुरझुरी सी महसूस हुई कि क्या यही वह भारत था जिसे मैं कई बरस पहले छोड़ आया था. आज यदि जरमनी के लोगों ने इसे अतिथि देश स्वीकार किया है तो जरूर अपने देश में कोई बात होगी. मुझे पहली बार महसूस हुआ कि अपना देश और उस के लोग किस कदर अपने लगते हैं.

समारोह के समाप्त होते ही एक विशेष कक्ष में प्रधानमंत्री चले गए और बाकी लोग भारतीय सामान को देखने में व्यस्त हो गए. थोड़ी देर में प्रधानमंत्रीजी अपने मंत्रिमंडल एवं विदेश विभाग के लोगों के साथ भारतीय निर्यातकों से मिलने चले गए. उधर हाल में अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम होेते रहे. एक कोने में भारतीय टी एवं कौफी बोर्ड के स्टालों पर भी काफी भीड़ थी.

मैं ने मिशैल से कहा, ‘‘चलो, तुम्हें भारतीय कौफी पिलवाता हूं.’’

‘‘नहीं, पहले यहां कठपुतलियों का यह नाच देख लें. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.’’

अगले दिन मेरा मन पुन: विचलित हो उठा. मैं ने मिशैल से कहा तो वह भी वहां जाने को तैयार हो गई.

मैं एकएक कर के भारतीय सामान के स्टालों को देख रहा था. भारत की क्राकरी, हस्तनिर्मित सामान, गृहसज्जा का सामान, दरियां और कारपेट तथा हैंडीक्राफ्ट की गुणवत्ता और नक्काशी देख कर दंग रह गया. मैं जिस स्टोर में काम करता था वहां ऐसा कुछ भी सामान नहीं था. मैं एक भारतीय स्टैंड के पास बने बैंच पर कौफी ले कर सुस्ताने को बैठ गया. पास ही बैठे किसी कंपनी के कुछ लोग आपस में जरमन भाषा में बात कर रहे थे कि भारत का सामान कितना अच्छा और आधुनिक तरीकों से बना हुआ है. वे कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि यह सब भारत में ही बना हुआ है और एशिया के बाकी देशों की तुलना में भारत कहीं अधिक तरक्की कर चुका है. मुझे यह सब सुन कर अच्छा लग रहा था.

उन्होंने मेरी तरफ देख कर पूछा, ‘‘आप को क्या लगता है कि क्या सचमुच माल भी ऐसा ही होगा जैसा सैंपल दिखा रहे हैं?’’

‘‘मैं क्या जानूं, मैं तो कई वर्षों से यहीं रहता हूं,’’ मैं ने अपना सा मुंह बनाया.

मिशैल ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई गलत बात कह दी हो. वह धीरे से मुझ से कहने लगी, ‘‘तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था. क्या तुम्हें अपने देश से कोई प्रेम नहीं रहा?’’

मैं उस की बातों का अर्थ ढूंढ़ने का प्रयास करता रहा. शायद वह ठीक ही कह रही थी. हाल में दूर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में राजस्थानी लोकगीत की धुन के साथसाथ मिशैल के पांव भी थिरकने लगे. वह वहां से उठ कर चली गई.

मैं थोड़ी देर आराम करने के बाद भारतीय सामान से सजे स्टैंड की तरफ चला गया. मेरे हैंडीक्राफ्ट के स्टैंड पर पहुंचते ही एक व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया और बोला,  ‘‘मे आई हैल्प यू?’’

‘‘नो थैंक्स, मैं तो बस, यों ही,’’ मैं हिंदी में बोलने लगा.

‘‘कोई बात नहीं, भीतर आ जाइए और आराम से देखिए,’’ वह मुसकरा कर हिंदी में बोला.

तब तक पास के दूसरे स्टैंड से एक सरदारजी आ कर उस व्यक्ति से पूछने लगे, ‘‘यार, खाने का यहां क्या इंतजाम है?’’

‘‘पता नहीं सिंह साहब, लगता है यहां कोई इंडियन रेस्तरां नहीं है. शायद यहीं की सख्त बै्रड और हाट डाग खाने पड़ेंगे और पीने के लिए काली कौफी.’’

जिस के स्टैंड पर मैं खड़ा था वह मेरी तरफ देख कर बोले, ‘‘सर, आप तो यहीं रहते हैं. कोई भारतीय रेस्तरां है यहां? ’’

‘‘भारतीय रेस्तरां तो कई हैं, पर यहां कुछ दे पाएंगे…यह पूछना पड़ेगा,’’ मैं ने अपनत्व की भावना से कहा.

मैं ने एक रेस्तरां में फोन कर के उस से पूछा. पहले तो वह यहां तक पहुंचाने में आनाकानी करता रहा. फिर जब मैं ने उसे जरमन भाषा में थोड़ा सख्ती से डांट कर और इन की मजबूरी तथा कई लोगों के बारे में बताया तो वह तैयार हो गया. देखते ही देखते कई लोगों ने उसे आर्डर दे दिया. सब लोग मुझे बेहद आत्मीयता से धन्यवाद देने लगे कि मेरे कारण उन्हें यहां खाना तो नसीब होगा.

अगले 3 दिन मैं लगातार यहां आता रहा. मैं अब उन में अपनापन महसूस कर रहा था. मैं जरमन भाषा अच्छी तरह जानता हूं यह जान कर अकसर मुझे कई लोगों के लिए द्विभाषिए का काम करना पड़ता. कई तो मुझ से यहां के दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछते तो कई यहां की मैट्रो के बारे में. मैं ने उन को कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां दीं, जिस से पहले दिन ही उन के लिए सफर आसान हो गया.

आखिरी दिन मैं उन सब से विदा लेने गया. हाल में विदाई पार्टी चल रही थी. सभी ने मुझे उस में शामिल होने की प्रार्थना की. हम ने आपस में अपने फोन नंबर दिए, कइयों ने मुझे अपने हिसाब से गिफ्ट दिए. भारतीय मेला प्राधिकरण के अधिकारियों ने मुझे मेरे सहयोग के लिए सराहा और भविष्य में इस प्रकार के आयोजनों में समर्थन देने को कहा. मिशैल मेरे साथ थी जो इन सब बातों को बड़े ध्यान से देख रही थी.

अगले कई दिन तक मैं निरंतर अपनों की याद में खोया रहा. मन का एक कोना लगातार मुझे कोसता रहा, न चाहते हुए भी रहरह कर यह विचार आता रहा कि किस तरह अपने मातापिता से झूठ बोल कर विदेश चला आया. उस समय यह भी नहीं सोचा कि मेरे पीछे उन्होंने कैसे यह सब सहा होगा.

एक दिन मिशैल और मैं टेलीविजन पर कोई भारतीय प्रोग्राम देख रहे थे. कौफी की चुस्कियों के साथसाथ वह बोली, ‘‘तुम्हें याद है टोनी, उस दिन इंडियन कौफी बोर्ड की कौफी पी थी. सचमुच बहुत ही अच्छी थी. सबकुछ मुझे बहुत अच्छा लगा और वह कठपुतलियों का नाच भी…कभीकभी मेरा मन करता है कुछ दिन के लिए भारत चली जाऊं. सुना है कला और संस्कृति में भारत ही विश्व की राजधानी है.’’

‘‘क्या करोगी वहां जा कर. जैसा भारत तुम्हें यहां लगा असल में ऐसा है नहीं. यहां की सुविधाओं और समय की पाबंदियों के सामने तुम वहां एक दिन भी नहीं रह सकतीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर मैं जाना जरूर चाहूंगी. तुम वहां नहीं जाना चाहते क्या? क्या तुम्हारा मन नहीं करता कि तुम अपने देश जाओ?’’

‘‘मन तो करता है पर तुम मेरी मजबूरी नहीं समझ सकोगी,’’ मैं ने बड़े बेमन से कहा.

‘‘चलो, अपने लोगों से तुम न मिलना चाहो तो न सही पर हम कहीं और तो घूम ही सकते हैं.’’

मैं चुप रहा. मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर क्या चल रहा है. दरअसल, जिन हालात में मैं यहां आया था उन का सामना करने का मुझ में साहस नहीं था.

सबकुछ जानते हुए भी मैं ने अपनेआप को आने वाले समय पर छोड़ दिया और मिशैल के साथ भारत रवाना हो गया.

हमारा प्रोग्राम 3 दिन दिल्ली रुकने के बाद आगरा, जयपुर और हरिद्वार होते हुए वापस जाने का तय हो गया था. मिशैल के मन में जो कुछ देखने का था वह इसी प्रोग्राम से पूरा हो जाता था.

जैसे ही मैं एअरपोर्ट से बाहर निकला कि एक वातानुकूलित बस लुधियाना होते हुए अमृतसर के लिए तैयार खड़ी थी. मेरा मन कुछ क्षण के लिए विचलित सा हो गया और थोड़ा कसैला भी. मेरा अतीत इन शहरों के आसपास गुजरा था. इन 5 वर्षों में भारत में कितना बदलाव आ गया था. आज सबकुछ ठीक होता तो सीधा अपने घर चला जाता. मैं ने बड़े बेमन से एक टैक्सी की और मिशैल को साथ ले कर सीधा पहाड़गंज के एक होटल में चला गया. इस होटल की बुकिंग भी मिशैल ने की थी.

मैं जिन वस्तुओं और कारणों से भागता था, मिशैल को वही पसंद आने लगे. यहां के भीड़भाड़ वाले इलाके, दुकानों में जा कर मोलभाव करना, लोगों का तेजतेज बोलना, अपने अहं के लिए लड़ पड़ना और टै्रफिक की अनियमितताएं. हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर बैठना, मंदिरों में जा कर घंटियां बजाना उस के लिए एक सपनों की दुनिया में जाने जैसा था.

जैसेजैसे हमारे जाने के दिन करीब आते गए मेरा मन विचलित होने लगा. एक बार घर चला जाता तो अच्छा होता. हर सांस के साथ ऐसा लगता कि कुछ सांसें अपने घर के लिए भी तैर रही हैं. अतीत छाया की तरह भरमाता रहा. पर मैं ने ऐसा कोई दरवाजा खुला नहीं छोड़ा था जहां से प्रवेश कर सकूं. अपने सारे रास्ते स्वयं ही बंद कर के विदेश आया था. विदेश आने के लिए मैं इतना हद दर्जे तक गिर गया था कि बाबूजी के मना करने के बावजूद उन की अलमारी से फसल के सारे पैसे, बहन के विवाह के लिए बनाए गहने तक मैं ने नहीं छोड़े थे. तब मन में यही विश्वास था कि जैसे ही कुछ कमा लूंगा, उन्हें पैसे भेज दूंगा. उन के सारे गिलेशिक वे भी दूर हो जाएंगे और मैं भी ठीक से सैटल हो जाऊंगा. पर ऐसा हो न सका और धीरेधीरे अपने संबंधों और कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

शाम को मैं मिशैल के साथ करोल बाग घूम रहा था. सामने एक दंपती एक बच्चे को गोद में उठाए और दूसरे का हाथ पकड़ कर सड़क पार कर रहे थे. मिशैल ने उन की तरफ इशारा कर के मुझ से कहा, ‘‘टोनी, उन को देखो, कैसे खुशीखुशी बच्चों के साथ घूम रहे हैं,’’ फिर मेरी तरफ कनखियों से देख कर बोली, ‘‘कभी हम भी ऐसे होंगे क्या?’’

किसी और समय पर वह यह बात करती तो मैं उसे बांहों में कस कर भींच लेता और उसे चूम लेता पर इस समय शायद मैं बेगानी नजरों से उसे देखते हुए बोला, ‘‘शायद कभी नहीं.’’

‘‘ठीक भी है. बड़े जतन से उन के मातापिता उन्हें बड़ा कर रहे हैं और जब बडे़ हो जाएंगे तो पूछेंगे भी नहीं कि उन के मातापिता कैसे हैं…क्या कर रहे हैं… कभी उन को हमारी याद आती है या…’’ कहतेकहते मिशैल का गला भर गया.

मैं उस के कहने का इशारा समझ गया था, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’ मेरी आवाज भारी थी.

‘‘कुछ नहीं, डार्लिंग. मैं ने तो यों ही कह दिया था. मेरी बातों का गलत अर्थ मत लगाओ,’’ कह कर उस ने मेरी तरफ बड़ी संजीदगी से देखा और फिर हम वापस अपने होटल चले आए.

उस पूरी रात नींद पलकों पर टहल कर चली गई थी. सूरज की पहली किरणों के साथ मैं उठा और 2 कौफी का आर्डर दिया. मिशैल मेरी अलसाई आंखों को देखते हुए बोली, ‘‘रात भर नींद नहीं आई क्या. चलो, अब कौफी के साथसाथ तुम भी तैयार हो जाओ. नीचे बे्रकफास्ट तैयार हो गया होगा,’’ इतना कह कर वह बाथरूम चली गई.

दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने मिशैल को बाथरूम में ही रहने को कहा क्योंकि वह ऐसी अवस्था में नहीं थी  कि किसी के सामने जा सके.

दरवाजा खोलते ही मैं ने एक दंपती को देखा तो देखता ही रह गया. 5 साल पहले मैं ने जिस बहन को देखा था वह इतनी बड़ी हो गई होगी, मैं ने सोचा भी न था. साथ में एक पुरुष और मांग में सिंदूर की रेखा को देख कर मैं समझ गया कि उस की शादी हो चुकी है. मेरे कदम वहीं रुक गए और शब्द गले में ही अटक कर रह गए. वह तेजी से मेरी तरफ आई और मुझ से लिपट गई…बिना कुछ कहे.

मैं उसे यों ही लिपटाए पता नहीं कितनी देर तक खड़ा रहा. मिशैल ने मुझे संकेत किया और हम सब भीतर आ गए.

‘‘भैया, आप को मेरी जरा भी याद नहीं आई. कभी सोचा भी नहीं कि आप की छोटी कैसी है…कहां है…आप के सिवा और कौन था मेरा,’’ यह कह कर वह सुबकने लगी.

मेरे सारे शब्द बर्फ बन चुके थे. मेरे भीतर का कठोर मन और देर तक न रह सका और बड़े यत्न से दबाया गया रुदन फूट कर सामने आ गया. भरे गले से मैं ने पूछा, ‘‘पर तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिशैल के कारण. उन्होंने ही यहां का पता बताया था,’’ छोटी सुबकियां लेती हुई बोली.

तब तक मिशैल भी मेरे पास आ चुकी थी. वह कहने लगी, ‘‘टोनी, सच बात यह है कि तुम्हारे एक दोस्त से ही मैं ने तुम्हारे घर का पता लिया था. मैं सोचती रही कि शायद तुम एक बार अपने घर जरूर जाओगे. मैं तुम्हारे भीतर का दर्द भी समझती थी और बाहर का भी. तुम ने कभी भी अपने मन की पीड़ा और वेदना को किसी से नहीं बांटा, मेरे से भी नहीं. मैं कहती तो शायद तुम्हें बुरा लगता और तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचती. मुझ से कोई गलती हो गई हो तो माफ कर देना पर अपनों से इस तरह नाराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मां कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मां तो रही नहीं…तुम्हें बताते भी तो कहां?’’ कहतेकहते छोटी की आंखें नम हो गईं.

‘‘कब और कैसे?’’

‘‘एक साल पहले. हर पल तुम्हारा इंतजार करती रहती थीं. मां तुम्हारे गम में बुरी तरह टूट चुकी थीं. दिन में सौ बार जीतीं सौ बार मरतीं. वह शायद कुछ और साल जीवित भी रहतीं पर उन में जीने की इच्छा ही मर चुकी थी और आखिरी पलों में तो मेरी गोद में तुम्हारा ही नाम ले कर दरवाजे पर टकटकी बांधे देखती रहीं और जब वह मरीं तो आंखें खुली ही रहीं.’’

यह सब सुनना और सहना मेरे लिए इतना कष्टप्रद था कि मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. मैं दीवार का सहारा ले कर बैठ गया. मां की भोली आकृति मेरी आंखों के सामने तैरने लगी. मुझे एकएक कर के वे क्षण याद आते रहे जब मां मुझे स्कूल के लिए तैयार कर के भेजती थीं, जब मैं पास होता तो महल्ले भर में मिठाइयां बांटती फिरतीं, जब होलीदीवाली होती तो बाजार चल कर नए कपड़े सिलवातीं, जब नौकरी न मिली तो मुझे सांत्वना देतीं, जब राखी और भैया दूज का टीका होता तो इन त्योहारों का महत्त्व समझातीं और वह मां आज नहीं थीं.

‘‘उन के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन भी शायद मेरी तकदीर में नहीं थे,’’ कह कर मैं फूटफूट कर रोने लगा. छोटी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे इस अपमान और संवेदना से निकालने का प्रयत्न किया.

छोटी ने ही मेरे पूछने पर मुझे बताया था कि मेरे घर से निकलने के अगले दिन ही पता लग चुका था कि मैं विदेश के लिए रवाना हो चुका हूं. शुरू के कुछ दिन तो वह मुझे कोसने में लगे रहे पर बाद में सबकुछ सहज होने लगा. छोटी ही उन दिनों मां को सांत्वना देती रहती और कई बार झूठ ही कह देती कि मेरा फोन आया है और मैं कुशलता से हूं.

छोटी का पति उस की ही पसंद का था. दूसरी जाति का होने के बावजूद मांबाबूजी ने चुपचाप उसे शादी की सहमति दे दी. मेरे विदेश जाने में मेरी बातों का समर्थन न देने का अंजाम तो वे देख ही चुके थे.

अपने पति के साथ छोटी ने मुझे ढूंढ़ने की कोशिश भी की थी पर सब पुराने संपर्क टूट चुके थे. अब अचानक मिशैल के पत्र से वह खुश हो गई और बाबूजी को बताए बिना यहां तक आ पहुंची थी.

‘‘बाबूजी कैसे हैं?’’ मैं ने बड़ी धीमी और सहमी आवाज में पूछा.

‘‘ठीक हैं. बस, जी रहे हैं. मां के मरने के बाद मैं ने कई बार अपने साथ रहने को कहा था पर शायद वह बेटी के घर रहने के खिलाफ थे.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता, मिशैल बोली, ‘‘टोनी, यह देश तो तुम्हारे लिए पराया हो गया है पर मांबाप तो तुम्हारे अपने हैं. तुम अपने फादर को मिल लोगे तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और तुम्हारे बेचैन मन को शांति मिलेगी…फिर न जाने तुम्हारा आना कब हो,’’  उस के स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया.

मिशैल ठीक ही कह रही थी. मेरे पास समय बहुत कम था. मैं बिना कोई समय गंवाए उन से मिलने चला गया.

बाबूजी को देखते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी. पर वह ठहरे हुए पानी की तरह एकदम शांत थे. पहले वाली मुसकराहट उन के चेहरे पर अब नहीं थी. उन्होंने अपनी बूढ़ी पनीली आंखों से मुझे देखा तो मैं टूटी टहनी की तरह उन की गोद में जा गिरा और उन के कदमों में अपना सिर सटा दिया. बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए बाबूजी. मां की असामयिक मौत का मैं ही जिम्मेदार हूं.’’

मैं ने नजर उठा कर घर के चारों तरफ देखा. एकदम रहस्यमय वातावरण व्याप्त था. बीता समय बारबार याद आता रहा. बाबूजी ने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. आज पहली बार महसूस हुआ कि शांति तो अपनी जड़ों से मिल कर ही मिलती है. मैं उन्हें साथ ले जाने की जिद करता रहा पर वह तो जैसे वहां से कहीं जाना ही नहीं चाहते थे.

‘‘तू आ गया है बस, अब तेरी मां को भी शांति मिल जाएगी,’’ कह कर वह भीतर मेरे साथ अपने कमरे में आ गए और मां की तसवीर के पीछे से लाल कपड़ों में बंधी मां की अस्थियों को मुझे दे कर कहने लगे, ‘‘देख, मैं ने कितना संभाल कर रखा है तेरी मां को. जातेजाते कुरुक्षेत्र में प्रवाहित कर देना. बस, यही छोटी सी तेरी मां की इच्छा थी,’’ बाबूजी की सरल बातें मेरे अंतर्मन को छू गईं.

मां की अस्थियां हाथ में आते ही मेरे हाथ कांपने लगे. मां कितनी छोटी हो चुकी थीं. मैं ने उन्हें कस कर सीने में भींच लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां.’’

2 दिन बाद ही मैं, छोटी, उस के पति और पापा के साथ दिल्ली एअरपोर्र्ट रवाना हुआ. मिशैल बड़ी ही भावुक हो कर सब से विदा ले रही थी. भाषा न जानते हुए भी उस में अपनी भावनाओं को जाहिर करने की अभूतपूर्व क्षमता थी. बिछुड़ते समय वह बोली, ‘‘आप सब लोग एक बार हमारे पास जरूर आएं. मेरा आप के साथ कोई रिश्ता तो नहीं है पर मेरी मां कहती थीं कि कुछ रिश्ते इन सब से कहीं ऊपर होते हैं जिन्हें हम समझ नहीं सकते.’’

‘‘अब कब आओगे, भैया?’’ छोटी के पूछने पर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. मैं कोई भी उत्तर न दे सका और तेजी से भीतर आ गया. उस का सवाल अनुत्तरित ही रहा. मैं ने भीतर आते ही मिशैल से भरे हृदय से कहा, ‘‘मिशैल, आज तुम न होतीं तो शायद मैं…’’

सच तो यह था कि मेरा पूरा शरीर ही मर चुका था. मैं फूटफूट कर रोने लगा. मिशैल ने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे पास ही बिठा दिया और बड़े दार्शनिक स्वर में बोली, ‘‘सच, दुनिया तो यही है जो तुम्हारा तिलतिल कर इंतजार करती रही और करती रहेगी, और तुम अपनी ही झूठी दुनिया में खोए रहना चाहते हो. तुम यहां से जाना चाहते हो तो जाओ पर कितनी भी ऊंचाइयां छू लो जब भी नीचे देखोगे स्वयं को अकेला ही पाओगे.

‘‘मेरी मानो तो अपनी दुनिया में लौट जाओ. चले जाओ…अब भी वक्त है…लौट जाओ टोनी, अपनी दुनिया में.’’

मिशैल ने बड़ा ही मासूम सा अनुरोध किया. मेरे सोए हुए जख्म भीतर से रिसने लगे. मेरे सोचने के सभी रास्ते थोड़ी दूर जा कर बंद हो जाते थे. मैं ने इशारे से उस से सहमति जतलाई.

मैं उस से कस कर लिपट गया और वह भी मुझ से चिपक गई.

‘‘बहुत याद आओगे तुम मुझे,’’ कह कर वह रोने लगी, ‘‘पर मुझे भूल जाना, पता नहीं मैं पुन: तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं,’’ कह कर वह तेज कदमों से जहाज की ओर चली गई.

आज सोचता हूं और सोचता ही रह जाता हूं कि वह कौन थी…अपना सर्वस्व मुझे दे कर, मुझे रास्ता दिखा कर वह न जाने अब वहां कैसे रह रही होगी.

शुभचिंतक: सविता के पति पर शक का क्या था अंजाम

राकेश से झगड़ कर सविता महीने भर से मायके में रह रही थी. उन के बीच सुलह कराने के लिए रेणु और संजीव ने उन दोनों को अपने घर बुलाया.

यह मुलाकात करीब 2 घंटे चली पर नतीजा कुछ न निकला.

‘‘अब साक्षी के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है,’’ राकेश बोला, ‘‘अतीत के उस प्रेम को भुलाने के बाद ही मैं ने सविता से शादी की है. अब वह मेरी सिर्फ सहकर्मी है. उसे और मुझे ले कर सविता का शक बेबुनियाद है. हमारे विवाहित जीवन की सुरक्षा व सुखशांति के लिए यह नासमझी जबरदस्त खतरा पैदा कर रही है.’’

अपने पक्ष में ऐसी दलीलें दे कर राकेश बारबार सविता पर गुस्से से बरस पड़ता था.

‘‘मैं नहीं चाहती हूं कि ये दोनों एकदूसरे के सामने रहें,’’ फुफकारती हुई सविता बोली, ‘‘इन्हें किसी दूसरी जगह नौकरी करनी होगी. इन की उस के साथ ही नौकरी करने की जिद हमारी गृहस्थी के लिए खतरा पैदा कर रही है.’’

‘‘तुम्हारे बेबुनियाद शक को दूर करने के लिए मैं अपनी लगीलगाई यह अच्छी नौकरी कभी नहीं छोडूंगा.’’

‘‘जब तक तुम ऐसा नहीं करोगे, मैं तुम्हारे पास नहीं लौटूंगी.’’

दोनों की ऐसी जिद के चलते समझौता होना असंभव था. नाराज हो कर राकेश वापस चला गया.

‘‘हमारा तलाक होता हो तो हो जाए पर राकेश की जिंदगी में दूसरी औरत की मौजूदगी मुझे बिलकुल मंजूर नहीं है,’’ सविता ने कठोर लहजे में अपना फैसला सुनाया तो उस की सहेली रेणु का दिल कांप उठा था.

रेणु के पति संजीव ने सविता के पास जा कर उस का कंधा पकड़ हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘सविता, मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं. राकेश की नौकरी न छोड़ने की जिद यही साबित कर रही है कि दाल में कुछ काला है. तुम अभी सख्ती से काम लोगी तो कई भावी परेशानियों से बच जाओगी.’’

राकेश की इस सलाह को सुन कर सविता और रेणु दोनों ही चौंक पड़ीं. वह बिलकुल नए सुर में बोला था. अभी तक वह सविता को राकेश के पास लौट जाने की ही सलाह दिया करता था.

‘‘मैं अभी भी कहती हूं कि राकेश पर विश्वास कर के सविता को वापस उस के पास लौट जाना चाहिए. उसे उलटी सलाह दे कर आप बिलकुल गलत शह दे रहे हैं,’’  रेणु की आवाज में नाराजगी के भाव उभरे.

‘‘मेरी सलाह बिलकुल ठीक है. राकेश को अपनी पत्नी की भावनाओं को समझना चाहिए. यह यहां रहती रही तो जल्दी ही उस की अक्ल ठिकाने आ जाएगी.’’

संजीव को अपने पक्ष में बोलते देख सविता की आवाज में नई जान पड़ गई, ‘‘रेणु, तुम मेरी सब से अच्छी सहेली हो. कम से कम तुम्हें तो मेरी मनोदशा को समझ कर मेरा पक्ष लेना चाहिए. मुझे तो आज संजीव अपना ज्यादा बड़ा शुभचिंतक नजर आ रहा है.’’

‘‘लेकिन यह समझदारी की बात नहीं कर रहे हैं,’’ रेणु ने नाराजगी भरे अंदाज में उन दोनों को घूरा.

‘‘मेरा बताया रास्ता समझदारी भरा है या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा रेणु. फिलहाल लंच कराओ क्योंकि भूख के मारे अब पेट का बुरा हाल हो रहा है,’’ संजीव ने प्यार से अपनी पत्नी रेणु का गाल थपथपाया, पर वह बिलकुल भी नहीं मुसकराई और नाराजगी दर्शाती रसोई की तरफ बढ़ गई.

आगामी दिनों में संजीव का सविता के प्रति व्यवहार पूरी तरह से बदल गया. इस बदलाव को देख रेणु हैरान भी होती और परेशान भी.

‘‘सविता, तुम जैसी सुंदर, स्मार्ट और आत्मनिर्भर युवती को अपमान भरी जिंदगी बिलकुल नहीं जीनी चाहिए…

‘‘तुम राकेश से हर मामले में इक्कीस हो, फिर तुम क्यों झुको और दबाव में आ कर गलत तरह का समझौता करो?

‘‘तुम जैसी गुणवान रूपसी को जीवनसंगिनी के रूप में पा कर राकेश को अपने भाग्य पर गर्व करना चाहिए. तुम्हें उस के हाथों किसी भी तरह का दुर्व्यवहार नहीं सहना है,’’ संजीव के मुंह से निकले ऐसे वाक्य सविता का मनोबल भी बढ़ाते और उस के मन की पीड़ा भी कम करते.

अगर रेणु सविता को बिना शर्त वापस लौटने की बात समझाने की कोशिश करती तो वह फौरन नाराज हो जाती.

धीरेधीरे सविता और संजीव एक हो गए और रेणु अलगथलग पड़ती चली गई. राकेश की चर्चा छिड़ती तो उस के शब्दों पर दोनों ही ध्यान नहीं देते. सविता संजीव को अपना सच्चा हितैषी बताती. अब रेणु के साथ अकसर उस का झगड़ा ही होता रहता था.

सविता के सामने ही संजीव अपनी पत्नी रेणु से कहता, ‘‘यह बेचारी कितनी दुखी और परेशान चल रही है. इस कठिन समय में इस का साथ हमें  देना ही होगा.

‘‘अपने दुखदर्द के दायरे से निकल कर जब यह कुछ खुश और शांत रहने लगेगी तब हम जो भी इसे समझाएंगे, वह इस के दिमाग में ज्यादा अच्छे ढंग

से घुसेगा. अभी हमें इस का मजबूत सहारा बनना है, न कि सब से बड़ा आलोचक.’’

संजीव, सविता का सब से बड़ा प्रशंसक बन गया. उस के हर कार्य की तारीफ करते उस की जबान न थकती. उसे खुश करने को वह उस के सुर में सुर मिला कर बोलता. उस के लतीफे  सुन सविता हंसतेहंसते दोहरी हो जाती. अपने रंगरूप की तारीफ सुन उस के गाल गुलाबी हो उठते.

‘‘तुम कहीं सविता पर लाइन तो नहीं मार रहे हो?’’ एक रात अपने शयनकक्ष में रेणु ने पति संजीव से यह सवाल पूछ ही लिया.

‘‘इस सवाल के पीछे क्या ईर्ष्या व असुरक्षा का भाव छिपा है, रेणु?’’ संजीव उस की आंखों में आंखें डाल कर मुसकराया.

‘‘अभी तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है न?’’

‘‘जिस दिन मैं अपनी आंखों से कुछ गलत देख लूंगी उस दिन तुम दोनों की खैर नहीं,’’ रेणु ने नाटकीय अंदाज में आंखें तरेरीं.

संजीव ने हंसते हुए उसे छाती से लगाया और कहा, ‘‘पति की जिंदगी में दूसरी औरत के आने की कल्पना ऐसा सचमुच हो जाने की सचाई की तुलना में कहीं ज्यादा भय और चिंता को जन्म देती है डार्लिंग. मैं सविता का शुभचिंतक हूं, प्रेमी नहीं. तुम उलटीसीधी बातें न सोचा करो.’’

उस वक्त संजीव की बांहों के घेरे में कैद हो कर रेणु अपनी सारी चिंताएं भूल गई पर सविता व अपने पति की बढ़ती निकटता के कारण अगले दिन सुबह से वह फिर तनाव का शिकार हो गई थी.

संजीव का साथ सविता को बहुत भाने लगा था. वह लगभग रोज शाम को उन के घर चली आती या फिर संजीव आफिस से लौटते समय उस के घर रुक जाता. सविता के मातापिता व भैयाभाभी उसे भरपूर आदरसम्मान देते थे. उन सभी को लगता कि संजीव से प्रभावित सविता उस के समझाने से जल्दी ही राकेश के पास लौट जाएगी.

सविता ने एक शाम ड्राइंगरूम में सामने बैठे संजीव से कहा, ‘‘यू आर माई बेस्ट फ्रेंड. तुम्हारा सहारा न होता तो मैं तनाव के मारे पागल ही हो जाती. थैंक यू वेरी मच.’’

‘‘दोस्तों के बीच ऐसे ‘थैंक यू’ कानों को चुभते हैं, सविता. हमारी दोस्ती मेरे जीवन में भी खुशियों की महक भर रही है. तुम्हारे शानदार व्यक्तित्व से मैं भी बहुत प्रभावित हूं,’’ संजीव की आंखों में प्रशंसा के भाव उभरे.

‘‘तुम दिल के बहुत अच्छे हो, संजीव.’’

‘‘और तुम बहुत सुंदर हो, सविता.’’

संजीव ने उस की प्रशंसा आंखों में गहराई से झांकते हुए की थी. उस की भावुक आवाज सविता के बदन में अजीब सी सरसराहट दौड़ा गई. वह संजीव की आंखों से आंखें न मिला सकी और लजाते से अंदाज में उस ने अपनी नजरें झुका लीं.

संजीव अचानक उठा और उस के पास आ कर बोला, ‘‘मेरे होते हुए तुम किसी बात की चिंता न करना. मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं. कल रविवार को नाश्ता हमारे साथ करना, बाय.’’

आगे जो हुआ वह सविता के लिए अप्रत्याशित था. संजीव ने बड़े भावुक अंदाज में उस का हाथ पकड़ कर चूम लिया था. संजीव की इस हरकत ने सविता की सोचनेसमझने की शक्ति हर ली. उस ने नजरें उठाईं तो संजीव की आंखों में उसे अपने लिए प्रेम के गहरे भाव नजर आए.

संजीव को सविता अपना अच्छा दोस्त और सब से बड़ा शुभचिंतक मानती थी. उस दोस्त ने अब प्रेमी बनने की दिशा में पहला कदम उस का हाथ चूम कर उठाया था.

संजीव की आंखों में देखते हुए सविता पहले शर्माए से अंदाज में मुसकराई और फिर अपनी नजरें झुका लीं. उस ने संजीव को अपना प्रेमी बनने की इजाजत इस मुसकान के रूप में दे दी थी.

बिना और कुछ कहे संजीव अपने घर चला गया था. उस रात सविता ढंग से सो नहीं पाई थी. सारी रात मन में संजीव व राकेश को ले कर उथलपुथल चलती रही थी. सुबह तक वह न राकेश के पास लौटने का निर्णय ले सकी और न ही संजीव से निकटता कम करने का.

मन में घबराहट व उत्तेजना के मिलेजुले भाव लिए वह अगले दिन सुबह संजीव और रेणु के घर पहुंच गई. मौका मिलते ही वह संजीव से खुल कर ढेर सारी बातें करने की इच्छुक थी. नएनए बने

प्रेम संबंध को निभाने के लिए बड़ी गोपनीयता व सतर्कता की जरूरत को वह रेखांकित करने के लिए आतुर थी.

‘‘रेणु नाराज हो कर मायके चली गई है,’’ घर में प्रवेश करते ही संजीव के मुंह से यह सुन कर सविता जोर से चौंक पड़ी थी.

‘‘क्यों नाराज हुई रेणु?’’ सविता ने धड़कते दिल से पूछा.

‘‘कल शाम तुम्हारा हाथ चूमने की खबर उस तक पहुंच गई.’’

‘‘वह कैसे?’’ घबराहट के मारे सविता का चेहरा पीला पड़ गया.

‘‘शायद तुम्हारी भाभी ने कुछ देखा और रेणु को खबर कर दी.’’

‘‘यह तो बहुत बुरा हुआ, संजीव. मैं रेणु का सामना कैसे करूंगी? वह मेरी बहुत अच्छी सहेली है,’’ सविता तड़प उठी.

सविता को सोफे पर बिठाने के बाद उस की बगल में बैठते हुए संजीव ने दुखी स्वर में कहा, ‘‘कल शाम जो घटा वह गलत था. मुझे अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रखना चाहिए था.’’

‘‘दोस्ती को कलंकित कर दिया मैं ने,’’ सविता की आंखों से आंसू बहने लगे.

एक गहरी सांस छोड़ कर संजीव बोला, ‘‘रेणु से मैं बहुत प्यार करता हूं. फिर भी न जाने कैसे तुम ने मेरे दिल में जगह बना ली है…तुम से भी प्यार करने लगा हूं मैं…रेणु बहुत गुस्से में थी. मुझे समझ नहीं आ रहा है, अब क्या होगा?’’

‘‘हम से बड़ी भूल हो गई है,’’ सविता सुबक उठी.

‘‘ठीक कह रही हो तुम. तुम्हारे दुखदर्द को बांटतेबांटते मैं भावुक हो उठता था. तुम्हारा अकेलापन दूर करने की कोशिश मैं शुभचिंतक बन कर रहा था और अंतत: प्रेमी बन बैठा.’’

‘‘कुसूरवार मैं भी बराबर की हूं, संजीव. जो पे्रम अपने पति से मिलना चाहिए था, उसे अपने दोस्त से पाने की इच्छा ने मुझे गुमराह किया.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो, सविता,’’ संजीव सोचपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘तुम अगर राकेश के साथ होतीं…उस के साथ प्रसन्न व सुखी होतीं, तो हमारे बीच अच्छी दोस्ती की सीमा कभी न टूटती. तुम्हारा अकेलापन, राकेश से बनी अनबन और मेरी सहानुभूति व तुम्हारा सहारा बनने की कोशिशें हमारे बीच अवैध प्रेम संबंध को जन्म देने का कारण बन गए. अब क्या होगा?’’

‘‘मुझे राकेश के पास लौट जाना चाहिए…अपनी सहेली के दिल पर लगे जख्म को भरने का यही एक रास्ता है, बाद में कभी मैं उस से माफी मांग लूंगी,’’ सविता ने कांपते स्वर में समस्या का हल सामने रखा.

‘‘तुम्हारा लौटना ही ठीक रहेगा, सविता, फिर मेरे दिमाग में एक और बात भी उठ रही है.’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि तुम राकेश से दूर हो कर अगर मेरी सहानुभूति व ध्यान पा कर गुमराह हो सकती हो, तो आजकल राकेश भी तुम से दूर व अकेला रह रहा है. उस लड़की साक्षी के साथ उस का आज संबंध नहीं भी है, तो कल को वह ऐसी ही सहानुभूति व अपनापन तुम्हारे पति से जता कर उस के दिल में अवैध प्रेम संबंध का बीज क्या आसानी से नहीं बो सकेगी?’’

संजीव की अर्थपूर्ण नजरें सविता के दिल की गहराइयों तक उतर गईं. देखते ही देखते आंसुओं के बजाय उस की आंखों में तनाव व चिंता के भाव उभर आए.

‘‘यू आर वेरी राइट, संजीव,’’ सविता अचानक उत्तेजित सी नजर आने लगी, ‘‘राकेश से अलग रह कर मैं सचमुच भारी भूल कर रही हूं. खुद भी मुसीबत का शिकार बनी हूं और उधर राकेश को किसी साक्षी की तरफ धकेलने का इंतजाम भी नासमझी में खुद कर रही हूं. आई मस्ट गो बैक.’’

‘‘हां, तुम आज ही राकेश के पास लौट जाओ. मैं भी रेणु को मना कर वापस लाता हूं.’’

‘‘रेणु मुझे माफ कर देगी न?’’

‘‘जब मैं कहूंगा कि आज तुम ने मुझे यहां आ कर खूब डांटा, तो वह निश्चित ही तुम्हें कुसूरवार नहीं मानेगी. तुम दोनों की दोस्ती बनाए रखने को…एकदूसरे की इज्जत आंखों में बनाए रखने को मैं सारा कुसूर अपने ऊपर ले लूंगा.’’

‘‘थैंक यू, संजीव. मैं सामान पैक करने जाती हूं,’’ सविता झटके से उठ खड़ी हुई.

‘‘मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं,’’ संजीव भावुक हो उठा.

‘‘तुम बहुत अच्छे दोस्त…बहुत अच्छे इनसान हो.’’

‘‘तुम भी, अपना और राकेश का ध्यान रखना. गुडबाय.’’

सविता ने हाथ हिला कर ‘गुडबाय’ कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

उस के जाने के बाद दरवाजा बंद कर के संजीव ड्राइंगरूम में लौटा तो मुसकराती रेणु ने उस का स्वागत किया. वह अंदर वाले कमरे से निकल कर ड्राइंगरूम में आ गई थी.

‘‘तुम ने तो कमाल कर दिया. सविता तो राकेश के पास आज ही वापस जा रही है,’’ रेणु बहुत प्रसन्न नजर आ रही थी.

‘‘मुझे खुशी है कि मेरी योजना सफल रही. सविता को यह बात समझ में आ गई है कि जीवनसाथी से, उस की जिंदगी में दूसरी औरत की उपस्थिति के भय के कारण दूर रहना मूर्खतापूर्ण भी है और खतरनाक भी.’’

‘‘मैं फोन कर के राकेश को पूरे घटनाक्रम की सूचना दे देता हूं,’’ संजीव मुसकराता हुआ फोन की तरफ बढ़ा.

‘‘आप ने अपनी योजना की जानकारी मुझे आज सुबह से पहले क्यों नहीं दी?’’

‘‘तब तुम्हारी प्रतिक्रियाओं में बनावटीपन आ जाता, डार्ल्ंिग.’’

‘‘योजना समाप्त हुई, तो अब सविता को भुला तो दोगे न?’’

‘‘तुम अकेला छोड़ कर नहीं जाओगी तो उस का प्रेम मुझे कभी याद नहीं आएगा जानेमन,’’ उसे छेड़ कर संजीव जोर से हंसा तो रेणु ने पहले जीभ निकाल कर उसे चिढ़ाया और फिर उस की छाती से जा लगी.

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भूल का अंत : जब बहन के कारण खतरे में पड़ी मीता की शादीशुदा जिंदगी

पूरे घर में हलचल मची हुई थी. कोई परदे बदल रहा था तो कोई नया गुलदस्ता सजा रहा था. अम्मा की आवाज रहरह कर पूरे घर में गूंज उठती, ‘‘किसी भी चीज पर धूल नहीं दिखनी चाहिए. बाजार से मिठाई आ गई या नहीं?’’

नित्या को यह हलचल, ये आवाजें बहुत भली लग रही थीं. फिर भी हृदय में विचित्र सी उथलपुथल थी. उस ने द्वार पर खड़े हो कर एक दृष्टि घर में हो रही सजावट पर डाली, और वह मीता को खोजने लगी. थोड़ी देर पहले तक तो उसी के साथ थी. उस की उंगलियों के नाखून सजाते हुए लगातार बोलती जा रही थी, ‘‘अब हाथ नहीं सजेंगे तो भला उन के सामने प्लेट बढ़ाती तुम्हारी उंगलियों पर ध्यान कैसे जाएगा जीजाजी का,’’ नित्या के दिमाग में पूरी घटना एकबारगी दौड़ गई.

मीता कैसे उसे चिढ़ाती हुई बोली, ‘‘क्या दहीबड़े बनाए हैं मैं ने. आने दो जरा, सजावट में इतनी लाल मिर्च डालूंगी कि ‘सीसी’ न कर उठें हमारे होने वाले जीजाजी तो कहना.’’

नित्या के मन में तो मीठीमीठी गुदगुदी हो रही थी पर ऊपर से क्रोध का दिखावा कर वह उसे डांटती भी जा रही थी, ‘‘चुप, मीतू, अभी वे कौन लगते हैं हम दोनों के?’’

‘‘हां भई, अभी कौन लगते हैं. अभी तो केवल देखनादिखाना हो रहा है.’’

फिर उस की हथेलियां छोड़ बोली, ‘‘तू भी दीदी, एकदम बोर है. वही पुराना जमाना लिए जी रही है. अपना तमाशा बनवाना,’’ यह कहने के साथ ही वह स्तब्ध सी हो उठी. नजरें झुकाए एकदम कमरे से बाहर निकल गई.

‘उफ, अब जाने कहां जा कर रो रही होगी, पगली,’ नित्या ने स्मृतियों को झटकते हुए सोचा तभी बड़ी ताई दनदनाती हुई उस के कमरे में आ गईं, ‘‘मीता कहां है?’’

‘‘पता नहीं,’’ उस ने कहा.

‘‘हूं…बता नहीं रहे तो ठीक है,’’ उन्होंने होंठ सिकोड़ कर कहा, ‘‘मैं ने तो सुबह ही छोटी को कह दिया था कि मीता को लड़के वालों के सामने न आने देना.’’

‘‘लेकिन ताई…’’ उस ने टोकना चाहा.

‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं. उस के कारण तू कब तक भुगतती रहेगी?’’

नित्या का मन अवसाद से भर उठा. पता नहीं ताई की बात में कितना सत्य है? मीता की एक छोटी सी भूल क्या उस के साथसाथ पूरे घर के लिए भी दुखों का पहाड़ बन गई है?

नित्या की आंखों में मीता की मस्तमौला छवि घूम गई. बचपन से ही अलमस्त सी हिरणी की तरह कुलांचें भरती. झूठे आडंबरों के विरुद्ध ऊंचीऊंची आवाज में बहस करती. जीवन के प्रति सदा अलग दृष्टिकोण अपनाकर चलने की धुन ने ही शायद उस से वह भूल हो जाने दी, जिस का पछतावा उस के जीवन से सारी उमंगें ही छीन ले गया.

कुछ देर को सब भूलभाल कर यदि वह खुश होती भी है तो ताई या मां सरीखी महिलाएं उसे पुरानी बातें याद दिला कर फिर से दुख के सागर में डूब जाने को विवश कर देती हैं.

नित्या को तैयार कराने की जिम्मेदारी ताई की बड़ी बहू पर थी. इस बीच नित्या ने कई बार मीता के बारे में जानना चाहा पर उसे टाल दिया गया. वह समझ गई कि मां ने मीता को एकांत में बैठने का आदेश दे दिया होगा ताकि लड़के वालों के सामने वह न पड़ने पाए.

लड़के वाले आ चुके थे और गहमागहमी बढ़ गई थी. सब के चेहरों पर नित्या के पसंद किए जाने की चिंता से अधिक संभवत: मीता का डर व्याप्त था. कहीं इन लोगों को भी भनक न लग गई हो कि लड़की की छोटी बहन अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गई थी. हां, यही शब्द तो सब दोहराते हैं.

कितना भोंडा सा लगता है यह सब. क्या उस समय कोई भी मीता के हृदय में झांकना चाहता है? क्या बीतती होगी उस के मन पर. कैसी कोमल उमंगों के साथ सारे आडंबरों को अंगूठा दिखाती हुई वह अपने प्रेमी के साथ ब्याह रचाने गई थी.

वह भी इसलिए विवश हुई थी क्योंकि घर के सारे सदस्य एक विजातीय के साथ उस का विवाह करने को तैयार नहीं थे. कैसे उस ने अपने अरमानों का खयाली सेहरा उस व्यक्ति के सिर बांधा होगा और आर्य समाज मंदिर में चंद लोगों के समक्ष विवाह किया होगा.

इधर, हर तरफ उस की खोज के बाद पुलिस तक बात पहुंच गई थी. जब वह अपने पति के साथ स्कूटर पर घर वालों से मिलने आ रही थी, तभी पुलिस की जीप उन के पीछे लग गई.

मीता जल्दी से सीधे घर पहुंचना चाह रही थी कि तभी अचानक तेज रफ्तार के कारण घटी दुर्घटना में वह अपने सारे सपनों, सारे अरमानों से हाथ धो बैठी थी.

मीता अपने पति के शव पर ढंग से रो भी न पाई थी कि उसे घर वाले जबरदस्ती पकड़ कर ले आए थे.

मीता के ससुर ने एक पत्र द्वारा अपनी बहू को घर ले जाने का अनुरोध भी किया था पर उस के मातापिता ने उस विवाह को मान्यता देने से ही इनकार कर दिया था.

कई माह तक मीता एकदम गुमसुम हो गई थी. तब चुपकेचुपके नित्या ही उसे समझाती थी. लेकिन घर के शेष सदस्य उसे इस सब से बाहर निकलने ही नहीं दे रहे थे. एक भूल की उसे इतनी कठोर सजा मिलेगी, यह तो उस ने सोचा भी नहीं था. वह अपने ही घर में एक कैदी बना दी गई थी.

पढ़ाई बंद हो गई. समाज की दृष्टि से छिपा कर उसे घर के कार्यों में लगा दिया गया. अभी उस की बड़ी बहन कुंआरी थी. यदि मीता पर कठोर अनुशासन न बैठाया जाता तो नित्या का जीवन भी अंधकारमय हो जाता. हालांकि तमाम सावधानियों के बाद भी नित्या के विवाह में निरंतर बाधाएं आ रही थीं. इसलिए अब लड़के वालों से मीता को छिपाया जाता था.

मेज पर कई प्रकार की मिठाइयां, नमकीन और मेवे सजाए जा रहे थे. ताई की बहू अतिथियों को शीतल पेय पेश कर रही थी.

ताई, मां व पिताजी लड़के वालों के सामने जम कर बैठ गए. मीता को रसोई में चाय बनाने में व्यस्त कर दिया गया था. थोड़ी ही देर में नित्या चाय की ट्रे ले कर भाभी के साथ बैठक में आई तो सब की दृष्टि उस की तरफ उठ गई. मां व पिताजी की आंखें अतिथियों की नजरों की टोह लेने में जुट गईं.

मेहमानों में लड़का, उस के मातापिता, विवाहित बहन व छोटा भाई भी था. सभी उत्सुकता से नित्या को देख रहे थे. मातापिता नित्या से उस की पढ़ाई आदि के बारे में प्रश्न कर रहे थे.

नित्या से अधिक उन के प्रश्नों का उत्तर ताई दे रही थीं. तभी अचानक जैसे धमाका हुआ. लड़के के पिता ने नित्या से कहा, ‘‘बेटी, हम ने सुना था कि तुम 2 बहनें हो. तुम्हारी छोटी बहन दिखाई नहीं दे रही.’’

नित्या ने घबरा कर मां व पिताजी को देखा. ताई सहित सभी के चेहरे का रंग उड़ गया.

पिताजी ने स्थिति को संभालने के लिए कहा, ‘‘जी हां, वह बहुत शरमीली है. रसोई में व्यस्त है.’’

‘‘वाह, बहुत अच्छी चाय बनी है,’’ लड़के के पिता ने कहा. शेष मेहमान मुसकरा कर उन का साथ दे रहे थे.

तभी लड़के की मां ने कहा, ‘‘बुलाइए न उसे भी, मिल तो लें.’’

पिताजी, मां तथा ताई आदि मन ही मन पिता को कोसने लगे कि आखिर वह घड़ी आ ही गई जिस का डर था. सब एकदूसरे का मुंह देख कर जैसे आंखों ही आंखों में पूछ रहे थे कि अब क्या करें.

‘‘जाओ बेटी, तुम बुला लाओ अपनी बहन को. आखिर अपने होने वाले जीजाजी से उसे भी तो मिलना चाहिए.’’

उन की इस बात पर घर वालों की आंखों में जहां यह संकेत पा कर चमक आ गई थी कि नित्या उन्हें पसंद आ गई है, वहीं आगे अब क्या होगा, यह सोच कर उन का सिर चकराने लगा.

ये लोग कुछ कहते, उस से पहले ही नित्या उठ कर अंदर चली गई. उस की आंखों में प्रसन्नता की लहर थी कि उसे पसंद कर लिया गया है. पीछे से ताई उठने लगीं तो लड़के की मां ने कहा, ‘‘आप बैठिए, वह ले आएगी.’’

ताई को मन मार कर बैठना पड़ा. नित्या ने मीता को पहले यह समाचार सुनाया कि उसे शायद पसंद कर लिया गया है. सुनते ही मीता की आंखों में प्रसन्नता के आंसू आ गए पर बाहर चलने के नाम पर उस के मन में भय की लहर दौड़ गई.

थोड़ी देर बाद लड़के की बहन जब भाभी के साथ वहीं आ गई तो मीता को बाहर जाना ही पड़ा.

मां और पिताजी के चेहरों का रंग बुरी तरह उड़ा हुआ था, जैसे सुख हाथ में आतेआते छीना जा रहा हो. मीता को उन लोगों ने अपने बीच में ही बैठा लिया.

लड़के की मां ने हंसते हुए कहा, ‘‘भई, छोटी बहनें तो सब से पहले बड़ी बहन के होने वाले पति को पसंद करने आती हैं. तुम तो अंदर ही छिपी बैठी थीं.’’

मीता ने मुसकरा कर गरदन झुका ली, लेकिन इस से पहले एक भयभीत दृष्टि मातापिता पर डाल ली.

वे लोग नित्या को छोड़ मीता से ही बातें करने लगे तो मां ने उन का ध्यान भंग करते हुए कहा, ‘‘आप लोग मेज तक चलें, नाश्ता ठंडा हो रहा है.’’

‘‘हांहां, वहां भी चलेंगे,’’ लड़के के पिता ने कहा, ‘‘लेकिन पहले अपने घर की सब से बड़ी बहू से कुछ बातें तो कर लें.’’

उन्होंने स्नेहपूर्वक मीता को देखा तो मां व पिताजी भय व आश्चर्य से एकदूसरे का मुख देखने लगे. सोचने लगे कि शायद इन लोगों ने नित्या की जगह मीता को पसंद कर लिया है.

तभी लड़के के पिता ने कहा, ‘‘आप लोग मेरी बात पर इतना परेशान न हों. हमें मालूम है कि आप की छोटी बेटी ने विवाह किया था. जिस घर की यह बहू है वह हमारे अभिन्न मित्र ही नहीं, सगे भाई से भी बढ़ कर हैं.’’

मीता की आंखों में सोया हुआ दर्द जाग उठा था. मातापिता की समझ में नहीं आ रहा था कि अब उन्हें क्या करना चाहिए.

तभी लड़के की मां ने कहा, ‘‘हम मानते हैं कि मीता ने कुछ जल्दबाजी की, पर एक भूल आप से भी हुई. अगर उस सत्य को आप स्वीकार कर लेते तो उस घर का इकलौता दीपक इस तरह बुझने से शायद बच जाता.’’

उन लोगों की आंखें नम थीं. लड़के के पिता बोले, ‘‘जो हुआ सो हुआ, अब हम अपनी बहू को पूरी मानमर्यादा से लेने आए हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अचानक नित्या के पिता ने चौंक कर कहा.

मीता के सिर पर हाथ फेरते हुए लड़के के पिता बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारा खोया सुख तो वापस नहीं दे पाएंगे हम लेकिन दुख भी नहीं देंगे कभी. हमारा छोटा बेटा यदि तुम्हें पसंद हो तो हम दोनों बहनों को एक ही दिन विदा करवा कर ले जाएंगे.’’

मीता ने धीरेधीरे पलकें उठा कर उधर देखा. एक सलोना युवक मंदमंद मुसकरा रहा था. जैसे इतनी घुटन के बीच शीतल हवा का एक झोंका उस की राह में खुशियां बिखेरने को उत्सुक हो रहा हो.

मीता ने मातापिता की ओर देखा और दुख व संकोच से गरदन झुका ली. नहीं, अब कोई निर्णय वह स्वयं नहीं करेगी. मालूम नहीं, फिर कौन सी भूल कर बैठे.

लेकिन उस के मातापिता कदाचित अपनी सोच से बाहर निकल चुके थे. अनायास ही पिता ने उठ कर लड़के के पिता के दोनों हाथ थाम लिए, ‘‘हमें अपनी भूल का बहुत पछतावा है.’’

मां ने भी खुशी के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘हम अपनी दोनों बेटियों का रिश्ता आज ही करने को तैयार हैं.’’

घर में अचानक ही चारों ओर खुशियां बिखर गई थीं. शगुन की रस्म से पहले साडि़यां पहनते हुए नित्या ने अचानक मीता के कान में कहा, ‘‘मीतू, तेरे ‘उस’ की प्लेट में कितनी मिर्च डालूं कि जन्मभर ‘सीसी’ करता रहे…?’’

तुम्हारे हिस्से में : पत्नी के प्यार में क्या मां को भूल गया हर्ष?

बाइक ‘साउथ सिटी’ मौल के सामने आ कर रुकी तो एक पल के लिए दोनों के बदन में रोमांच से गुदगुदी हुई. मौल का सम्मोहित कर देने वाला विराट प्रवेशद्वार. द्वार के दोनों ओर जटायु के विशाल डैनों की मानिंद दूर तक फैली चारदीवारी. चारदीवारी पर फ्रेस्को शैली के भित्तिचित्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय उत्पादों की नुमाइश करते बड़ेबड़े आदमकद होर्डिंग्स और विंडो शोकेस. सबकुछ इतना अचरजकारी कि देख कर आंखें बरबस फटी की फटी रह जाएं.

भीतर बड़ा सा वृत्ताकार आंगन. आंगन के चारों ओर भव्यता की सारी सीमाओं को लांघते बड़ेबड़े शोरूम. बीच में थोड़ीथोड़ी दूर पर आगतों को मासूमियत के संग अपनी हथेलियों पर ले कर ऊपर की मनचाही मंजिलों तक ले जाने के लिए तत्पर एस्केलेटर.

‘‘कैसा लग रहा है, जेन?’’ नाम तो संजना था, पर हर्ष उसे प्यार से जेन पुकारता. शादी के पहले संजना मायके में ‘संजू’ थी. शादी के बाद हर्ष उसे बांहों में भरते हुए ठुनका था, ‘संजू कैसा देहाती शब्द लगता है. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सबकुछ ग्लोबल होना चाहिए, नाम भी. इसलिए आज से मैं तुम्हें जेन कहूंगा, माय जेन फोंडा.’

‘‘अद्भुत,’’ संजना के होंठों की लिपस्टिक में गर्वीली ठनक घुल गई. चेहरा ओस में नहाए गुलाब सा खिल गया, ‘‘लगता है, पेरिस का मिनी संस्करण ही उतर आया हो यहां.’’

‘‘एक बात जान लो. यहां हर चीज की कीमत बाहर के स्टोरों की तुलना में दोगुनी मिलेगी,’’ हर्ष चहका.

संजना खिलखिला कर हंस पड़ी तो लगा जैसे छोटीछोटी घंटियां खनखना उठी हों. होंठों की फांक के भीतर करीने से जड़े मोतियों से दांत चमक उठे. वह शरारत से आंखें नचाती बोली, ‘‘कुछ हद तक बेशक सही है तुम्हारी बात. पर जनाब, इस तरह के मौल में खरीदारी का रोमांच ही कुछ और है. इस रोमांच को हासिल करने के लिए थोड़ा त्याग भी करना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं.’’

‘‘लगता है, इस क्रैडिट कार्ड का कचूमर निकाल देने का इरादा है आज,’’ हर्ष ने जेब से आयताकार क्रैडिट कार्ड निकाल कर संजना के आगे लहराते हुए कहा. संजना फिर से खिलखिला पड़ी. इस बार उस की हंसी में रातरानी सी महक घुली थी. हंसने से देह में थिरकन हुई तो बालों की एक महीन लट आंखों के पास से होती हुई होंठों तक चली आई.

‘‘तुम औरतों में बचत की आदत तो बिल्कुल नहीं होती,’’ होंठों पर लोटते लट को मुग्ध भाव से देखता हर्ष मुसकराया.

‘‘न, ऐसा नहीं कह सकते तुम. उचित जगह पर भरपूर किफायत और बचत भी किया करती हैं हम औरतें. विश्वास करो, तुम्हारे इस क्रैडिट कार्ड पर जो भी खरोंचें लगेंगी आज, उन पर जल्द ही बचत की पौलिश भी लगा दूंगी. ठीक? पर अभी स्टेटस सिंबल…’’

दोनों एस्केलेटर की ओर बढ़ गए.

‘‘जानते हो हर्ष, पड़ोस के 402 नंबर वाले गुप्ताजी तुम से जूनियर हैं न? उन की मिसेज इसी मौल से खरीदारी कर गई हैं कल,’’ संजना हाथ नचानचा कर बता रही थी, ‘‘आज मैं खबर लूंगी उन की.’’

‘‘नारीसुलभ डाह,’’ हर्ष ने चुटकी ली.

‘‘नहीं, केवल स्टेटस सिंबल,’’ दोनों की आंखों में दुबके शरारत के नन्हे चूजे पंचम स्वर में चींचीं कर रहे थे.

पहली मंजिल. मौल का सब से मशहूर शोरूम ‘अप्सरा’. दोनों शोरूम के भीतर चले आए. अंदर का माहौल तेज रोशनी से जगमगा रहा था. चारों ओर बड़ीबड़ी शैल्फें. वस्त्र ही वस्त्र. राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय ब्रांड. फैशन व डिजाइनों के नवीनतम संग्रह. जीवंत से दिखने वाले पुतले खड़े थे, तरहतरह के डिजाइनर कपड़ों को प्रदर्शित करते हुए.

शोरूम का विनम्र व कुशल सेल्समैन उन्हें खास काउंटर पर ले आया. साडि़यां, जींसटौप, पैंटशर्ट, अंडरगार्मेंट्स…रंगों के अद्भुत शेड्स. एक से बढ़ कर एक कसीदाकारी की नवीनतम बानगी. मनपसंद को चुन लेने की प्रक्रिया 3 घंटे तक चली. आखिरकार चुने हुए वस्त्र ढेर से अलग हुए और आकर्षक भड़कीले पैकेटों में बंद हो कर आ गए. पेमेंट काउंटर पर बिल पेश हुआ, 18,500 रुपए का. क्रैडिट कार्ड पर कुछ खरोंचें लगीं और भुगतान हो गया.

संजना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलक रहे थे. पैकेटों को चमगादड़ की तरह हाथों में झुलाए कैप्सूल लिफ्ट से नीचे उतरे ही थे कि संजना के पांव थम गए.

‘‘दीवाली के इस मौके पर जींसटौप का एक सैट बुलबुल के लिए भी ले लिया जाए तो कैसा रहेगा, हर्ष? जीजू की ओर से गिफ्ट पा कर तो वह नटखट बौरा ही जाएगी.’’

‘‘अरे, वंडरफुल आइडिया, यार,’’ बुलबुल के जिक्र मात्र से ही हर्ष रोमांच से भर गया.

बुलबुल संजना की इकलौती बहन थी. शोख व चंचल. रूप और लावण्य में संजना से दो कदम आगे. 12वीं कक्षा में कौमर्स की छात्रा. शादी की गहमागहमी में तो परिचय बस औपचारिक ही रहा था, पर सप्ताह भर बाद ‘पीठफेरी’ पर संजना को लिवाने हर्ष गया तो संकोचों की बालुई दीवार को ढहते देर नहीं लगी. 3 दिनों का प्रवास था. एक दिन मैथान डैम की सैर का प्रोग्राम बना. डैम देख चुकने के बाद तीनों समीप के पार्क में चले गए. अचानक संजना की नजर दूर खड़े आइसक्रीम के ठेले पर पड़ी तो वह उठ कर आइसक्रीम लाने चली गई. बरगद की ओट. रिश्ते की अल्हड़ता और बुलबुल की आंखों से झरती महुआ की मादक गंध. हर्ष ने आगे बढ़ कर बुलबुल के होंठों पर चुंबन जड़ दिया.

हर्ष की उंगलियां अनायास ही होंठों पर चली गईं. बुलबुल के होंठों का गीलापन अभी भी कुंडली मारे बैठा था वहां. सिहरन से लरज कर हर्ष चहका, ‘‘जींसटौप के साथसाथ एक साड़ी भी ले लो. अपनी जैसी प्राइस रेंज की लेना, ठीक?’’

दोनों वापस एस्केलेटर पर सवार हो कर ऊपर की ओर बढ़ गए.

रमा सिलाई मशीन से उठ कर बाहर बरामदे में आ गई. मशीन पर लगातार 5 घंटे बैठने से पीठ और कमर अकड़ गई थी. सूई की ओर लगातार नजरें गड़ाए रखने से आंखें जल रही थीं. रात के 11 बज रहे थे. बाहर रात की काली चादर पर आधे चांद की धूसर चांदनी झर रही थी. अंधेरे के अदृश्य कोनों से झींगुरों का समवेत रुदन सन्नाटे को रहस्यमय बना रहा था.

चैन नहीं पड़ा तो वापस कोठरी में लौट आई. कोठरी के भीतर बिखरे सामान को देख कर हंसी छूट गई. मरम्मत की हुई पुरानी सिलाई मशीन. पास ही कपड़ों के ढेर, जो महाजनों के यहां से रफू के लिए आए थे. मरम्मत की हुई पुरानी खड़खड़ करती टेबल. बरतनभांडे, दीवार, छत, कपड़ेलत्ते, खाटखटोले सब के सब जैसे रफूमय हों, मरम्मत किए हुए.

रमा ब्याह कर पहली बार आई थी यहां तो उम्र 16 साल थी. रमेसर एक एल्युमिनियम कारखाने में लेबर था. जिंदगी की गाड़ी सालभर ठीकठाक चली. उस के बाद श्रमिक संगठनों व प्रबंधन के आपसी मल्लयुद्ध में लहूलुहान हो कर एशिया का यह सब से बड़ा संयंत्र भीष्म पितामह की तरह शरशय्या पर ऐसा पड़ा कि फिर उठ नहीं सका. हजारों श्रमिक बेकारी की अंधी सुरंग में धकेल दिए गए.

रमेसर ने काम के लिए बहुत हाथपांव मारे पर कहीं भी जुगाड़ नहीं बैठ पाया. अंत में वह रिकशा चलाने लगा. पर दमे का पुराना मरीज होने के कारण कितनी सवारियां खींच पाता भला? खाने के लाले पड़ने लगे. तब बचपन में सीखा सिलाई और रफूगीरी का शौकिया हुनर काम आया. रमा ने पुरानी सिलाई मशीन का जुगाड़ किया. धैर्य रखते हुए पास के रानीगंज व आसनसोल शहर के व्यापारियों से संपर्क साधा और इस तरह सिलाई व रफूगीरी के पेशे से जिंदगी की फटी चादर पर रफू लगाने की कवायद शुरू हुई.

फिर हर्ष पेट में आया. तबीयत ढीली रहने लगी. डाक्टरों के पास जाने की औकात कहां? देशी टोटकों को देह पर सहेजा. देखतेदेखते 9वां महीना आ गया. फूले पेट के भीतर हर्ष की कलाबाजियों से मरणासन्न रमा वेदना को दांत पर दांत जमा कर बर्दाश्त करने की नाकाम कोशिश करती रही, तभी डाक्टर ने ऐलान किया, ‘केस सीरियस हो गया है और जच्चा या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है.’

रमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया, पर दूसरे ही पल उस ने दृढ़ता के साथ डाक्टर से कहा, ‘सिर्फ और सिर्फ बच्चे को बचा लेना हुजूर. रमेसर की गोद में हमारे प्यार की निशानी तो रह जाएगी जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी.’

डाक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया. रमा कोमा में चली गई. कोमा की यह स्थिति 15 दिनों तक बनी रही. डाक्टरों ने उस की जिंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी. पर मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार रमा बच ही गई.

हर्ष पढ़नेलिखने में औसत था. पढ़ने से जी चुराता. स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जा कर आवारा लड़कों के संग इधरउधर मटरगश्ती करता रहता. राजमार्ग के पास वाली पुलिया पर बैठ कर आतीजाती लड़कियों को छेड़ा करता. इन सब बातों को ले कर रमेसर अकसर उस की पिटाई कर देता.

‘तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे,’ रमा उसे प्यार से समझाती, ‘पढ़लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटियां मिलने लगेंगी, नहीं तो अभावों और जलालत की जिंदगी ही जीनी पड़ेगी.’

किसी तरह मैट्रिक पास हो गया तो रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया. पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा, तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा.

‘पर वहां का खर्च क्या आसमान से आएगा?’ रमेसर ने शंका जाहिर की तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की पुखराजी धूप खिल आई, ‘आसमान से कभी कोई चीज आई है जो अब आएगी? खर्चा हम पूरा करेंगे. आधा पेट खा कर रह लेंगे. जरूरतों में और कटौती कर लेंगे. चाहे जैसे भी हो, हर्ष को पढ़ाना ही होगा. उस की जिंदगी संवारनी होगी.’

रमा की जीवटता देख कर रमेसर चुप हो गया. हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया. एक सस्ते से पीजी होम में रहने का इंतजाम हुआ. नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी. रमा पैसे लगातार भेजती रही. इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुजर कर हो रहा है, हर्ष को कोई मतलब नहीं था. पहले इंटर, फिर बीए और फिर एमबीए. एकएक सीढि़यां तय करता हुआ हर्ष अपनी मंजिल तक पहुंच ही गया.

एमबीए की डिगरी का झोली में आ जाना टर्निंग पौइंट साबित हुआ हर्ष के लिए. पहले ही प्रयास में एक बड़ी स्टील कंपनी में जौब मिल गया. फिर सुंदर और पढ़ीलिखी संजना से ब्याह हो गया. कोलकाता में पोस्ंिटग और अलीपुर में कंपनी के आवासीय कौंप्लैक्स में शानदार फ्लैट. अरसे से दानेदाने को मुहताज किसी वंचित को जैसे अथाह संपदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो. एकबारगी ढेर सारी सुविधाएं, ढेर सारा वैभव. सबकुछ छोटे से आयताकार क्रैडिट कार्ड में कैद.

उस स्टील कंपनी में जौब लगे 3 साल हो गए. जौब लगते ही हर्ष ने कहा था, ‘नई जगह है मम्मी, सैट होने में हमें वक्त लगेगा. सैट होते ही तुम्हें यहां अपने पास बुला लेंगे. इस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे.’

सुन कर अच्छा लगा. रफूगीरी का काम करतेकरते तन और मन पर इतने सारे रफू चस्पां हो गए हैं कि घिन्न आने लगी है इन से. अब वह भी सामान्य जिंदगी जीना चाहती है, जिस दिन भी हर्ष कहेगा, चल देगी. यहां कौन सी संपत्ति पड़ी है? सारी गृहस्थी एक छोटी सी गठरी में ही समा जाएगी.

लेकिन 3 साल गुजर गए. इसी बीच हर्ष कई बार आया यहां. 2 दिनों के प्रवास के डेढ़ दिन ससुराल में बीतते. फिर बिना कुछ कहे लौट जाता. ‘मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है,’ इस एक पंक्ति को सुनने के लिए तड़प कर रह जाती रमा.

‘तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए, गिड़गिड़ाते हुए विनती करनी होगी? मां की तनहाइयों और मुसीबतों का एहसास खुद ही नहीं होना चाहिए उसे? न, वह ऐसा नहीं कर सकती. उस के जमीर को ऐसा कतई मंजूर नहीं होगा. सिर्फ एक बार, कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करनी ही होगी. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे. वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही.’

शोरूम में आधे घंटे का वक्त और लगा. जींसटौप के साथ सीक्वेंस वर्क की खूबसूरत साड़ी भी खरीद ली. क्रैडिट कार्ड पर एक और गहरी खरोंच. हाथों में झूलते चमगादड़ों के गुच्छों में एक चमगादड़ और जुड़ गया. लिफ्ट से नीचे उतर कर दोनों शाही अंदाज से चलते हुए मुख्यद्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा.

‘‘मम्मी को तो भूल ही गए. उन के लिए साड़ी,’’ हर्ष मिमियाया.

‘‘ओह,’’ संजना भी थम गई.

‘‘एक बार फिर वापस अप्सरा,’’ हर्ष हंसा और हड़बड़ा कर वापस भीतर जाने को मुड़ा तो संजना ने उसे बांह से पकड़ कर रोक लिया, ‘‘अब उतर ही आए हैं तो चलो न, बाहर के किसी स्टोर से ले लेंगे.’’

‘‘बाहर के स्टोर से?’’ हर्ष सकपका गया.

‘‘ऐनी प्रौब्लम?’’ संजना ने आंखें मटकाईं, ‘‘मां ही तो हैं, मैडम मिशेल ओबामा जैसी बड़ी तोप तो नहीं कि साउथ मौल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताखी हो जाएगी. हुंह…वैसे भी उन जैसी कसबाई महिला को क्या फर्क पड़ेगा कि साड़ी कहां से खरीदी गई है. बाहर के स्टोर से खरीदने पर सस्ती भी तो मिलेगी, आखिर बचत ही तो होगी.’’

‘‘सचमुच, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं. यू आर रियली जीनियस, जेन,’’ हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा, ‘‘पर लेनी तो प्योर सिल्क ही है यार.’’

‘‘प्योर सिल्क?’’ संजना चौंक पड़ी, ‘‘प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?’’

‘‘पिछली बार वहां गया था तो दीवाली पर प्योर सिल्क देने का वादा कर के आया था,’’ हर्ष अपराधबोध से भर गया.

‘‘उफ, तुम भी न…’’ संजना बड़बड़ाई, ‘‘इस तरह के उलटेसीधे वादे करने से पहले थोड़ा तो सोचना चाहिए था न.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता, जेन. वादा कर आया हूं न. नहीं दी तो मम्मी क्या सोचेंगी?’’

‘‘ठीक है. कोई उपाय करते हैं,’’ संजना सोच में पड़ गई.

बाइक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी. पीछे बैठी संजना ने बायां हाथ आगे ले जा कर हर्ष की कमर को लपेट लिया. संजना की सांसों की मखमली खुशबू हर्ष को सनसनी से भर दे रही थी.

रासबिहारी मैट्रो स्टेशन के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाइक रुकी. दोनों भीतर चले आए. उन के हाथों में भारीभरकम भड़कीले पैकेट्स देख कर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंके. ऐसे हाईफाई ग्राहक का उन के साधारण से शोरूम में क्या काम?

‘‘वैलकम मैडम, क्या सेवा करें?’’ हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू.

‘‘प्योर सिल्क की एक साड़ी लेनी है हमें. कुछ बढि़या डिजाइनें दिखाइए.’’

मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिया. देखते ही देखते काउंटर पर दसियों साडि़यां आ गिरीं. मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एकएक साड़ी खोल कर डिजाइन व रंगों की प्रशंसा करने लगे. संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नजर डाली, 3 से 4 हजार की थीं साडि़यां. उस ने हर्ष की ओर देखा.

‘‘तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा,’’ संजना धीमे से बोली.

‘‘मैडम, इस से कम प्राइस में अच्छी क्वालिटी की प्योर सिल्क नहीं आएगी. सिंथेटिक दिखा दें?’’ मुखर्जी बाबू सोच रहे थे, ‘इतना मालदार आसामी प्राइस देख कर हड़क क्यों रहा है?’

‘‘प्योर सिल्क ही लेनी है,’’ संजना रुखाई से बोली. फिर तमतमाई आंखों से हर्ष की ओर देखा. दोनों अंगरेजी में बातें करने लगे.

‘‘तुम्हारी मम्मी का दिमाग सनक गया है. माना 40-45 की ही हैं अभी, पर हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज्यादा कीमती और फैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है. यह बात उन्हें सोचनी चाहिए. मुंह उठाया और प्योर सिल्क मांग लिया, हुंह. प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का चाव चढ़ा है.’’

‘‘आय एम सौरी, जेन. वायदा कर चुका हूं न. अब कोई उपाय नहीं,’’

हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफसोस जाहिर किया.

उसे अच्छी तरह याद है. उस दिन दोस्तों के संग घूमफिर कर घर लौटा तो रात के 10 बज रहे थे. मम्मी बिना खाए उस का इंतजार कर रही थीं. दोनों ने साथ भोजन किया. फिर वह मम्मी की गोद में सिर रख कर लेट गया. नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा. ऊपर चेहरे पर उस के ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श. न जाने कैसा सम्मोहन घुला था इन में कि झपकी आ गई. काफी दिनों के बाद एक सुकून भरी नींद. 3 घंटे बाद अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों की त्यों बैठी बालों में उंगलियां फिरा रही हैं.

उन्हीं क्षणों के दौरान उस के मुंह से निकल गया, ‘इस बार दीवाली पर अच्छी सी प्योर सिल्क की साड़ी दूंगा तुम्हें.’ यह सुन कर मम्मी सिर्फ मुसकरा भर दी थीं.

हर्ष और जेन के बीच बातचीत भले ही अंगरेजी में हो रही थी और मुखर्जी बाबू को अंगरेजी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी.

‘‘मैडम,’’ मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘यदि बुरा न मानें तो क्या हम पूछ सकते हैं कि साड़ी किस के लिए ले रही हैं?’’

इस के पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने झट से स्पष्टीकरण भी पेश कर दिया, ‘‘न, न, मैडम, अन्यथा न लें, सिर्फ इसलिए पूछा कि हम उस के अनुकूल दूसरा किफायती औप्शन बता सकें.’’

संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गांठ खोल दी, ‘‘साहब की विडो (विधवा) मदर के लिए.’’

पलक झपकते मुखर्जी बाबू के जेहन में पूरा माजरा बेपरदा हो गया. मैडम ने साहब की मां को ‘मम्मी’ नहीं कहा, ‘सासूमां’ भी नहीं कहा, बल्कि ‘साहब की विडो मदर’ कहा और साहब कार्टून की तरह खड़ा दुम हिलाता ‘खीखी’ करता रहा.

‘‘आप का काम हो गया,’’ उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए. थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क का नया बंडल दस्ती बम की तरह आ गिरा. एक से एक खूबसूरत प्रिंट. एक से एक लुभावने कलर.

‘‘वैसे तो ये साडि़यां भी 4 हजार से ऊपर की ही हैं मैडम, पर हम इन्हें सिर्फ 800 रुपए में सेल कर रहे हैं. लोडिंगअनलोडिंग के समय हुक लग जाने से या चूहे के काट देने से माल में छोटामोटा छेद हो जाता है. हमारा ट्रैंड कारीगर प्लास्टिक सर्जरी कर के उस नुक्स को इस माफिक ठीक करता है कि साड़ी एकदम नई हो जाती है. सरसरी नजर से देखने पर नुक्स बिलकुल भी पता नहीं चलेगा.’’

‘‘यानी कि रफू की हुई,’’ संजना हकला उठी.

‘‘रफू नहीं मैडम, प्लास्टिक सर्जरी बोलिए. रफू तो देहाती शब्द है. आप खुद देखिए न.’’

सचमुच, बिलकुल नई और बेदाग साडि़यां. जहांतहां छोटेछोटे डिजाइनर तारे नजर आ रहे थे जो साड़ी की खूबसूरती को बढ़ा ही रहे थे. सरसरी तौर पर कोई भी नुक्स नहीं दिख रहा था साडि़यों में, दोनों की बाछें खिल उठीं. आंखों में ‘यूरेकायूरेका’ के भाव उभर आए, मन तनावमुक्त हो गया जैसे जेन का.

आननफानन ढेर में से एक साड़ी चुनी गई और पैक हो कर आ गई. यह नया पैकेट मौल के पैकेटों के बीच ऐसा लग रहा था जैसे प्राइवेट स्कूल के बच्चों के बीच किसी सरकारी स्कूल का बच्चा आ घुसा हो.

‘‘मैं ने कहा था न, सही मौका आते ही क्रैडिट कार्ड की खरोंचों पर रफू लगा दूंगी. देख लो, तुम्हारा वादा भी पूरा हो गया और चिराग पर पूरे 3 हजार का रफू भी लग गया.’’

‘‘यू आर जीनियस, जेन,’’ हर्ष की प्रशंसा सुन कर संजना खिलखिलाई तो बालों की कई महीन लटें पहले की ही तरह आंखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली आईं. बाइक की ओर बढ़ते हुए दोनों के चेहरे खिले हुए थे.

प्रायश्चित्त : तनीषा से शादी टूटने के बाद क्या सुधर पाया शराबी पवन?

बरात लड़की वालों के दरवाजे पर पहुंच चुकी थी. लड़की की मां दूल्हे की अगवानी के लिए आरती की थाली लिए पहले से ही दरवाजे पर खड़ी थीं. दूल्हे को घोड़ी से उतारने के लिए दुलहन के पिता और भाईर् आगे बढ़े. घोड़ी से उतरते ही दूल्हा लड़खड़ा गया तो उन्होंने सोचा बहुत देर से घोड़ी पर बैठा था, इसलिए ऐसा हुआ होगा. लेकिन स्टेज तक पहुंचतेपहुंचते उन को सारा माजरा समझ में आ गया. दूल्हे साहब ने जम कर शराब पी रखी थी, इसलिए उस से चला भी नहीं जा रहा था. किसी तरह उसे स्टेज पर ले जा कर कुरसी पर बैठाया गया. दोनों बापबेटे ने आंखोंआंखों में ही बात की.

बेटे ने अपने पिता के चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर उन के कान में कहा, ‘‘कोई बात नहीं पापा, खुशी में ज्यादा पी ली होगी.’’

इस से पहले कि आपस में कुछ और कहते दुलहन के रूप में सजी तनीषा अपनी सहेलियों के साथ स्टेज पर पहुंच गई, वरमाला की रस्म अदायगी के लिए. लेकिन जैसे ही दूल्हे को कुरसी से उठने को कहा गया, वह जरा सा उठ कर फिर कुरसी पर धम्म से बैठ गया. इस बार 2 लोगों की मदद से उसे उठाया गया. उस ने तनीषा के गले में वरमाला डालने के लिए अपने दोनों हाथ हवा में लहराए, लेकिन यह क्या उस के हाथ बिना वरमाला डाले लहरा कर वापस आ गए. जब 2-3 बार ऐसा हुआ तो आसपास के लोग आपस में कानाफूसी करने लगे.

दुलहन के लिबास में लजाईशरमाई तनीषा ने सारा माजरा समझते ही उग्र रूप धारण कर लिया और जयमाला को स्टेज पर पटक कर बोली, ‘‘नहीं करनी मुझे इस शराबी से शादी,’’ और पैर पटकते स्टेज से जाने लगी, तो उस की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से सभी मेहमान सकते में आ गए.

इस से पहले कि कोई उसे रोके, वह अपने कमरे में गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. दोनों पक्षों में हलचल मच गई.

तनीषा के मातापिता ने उसे दरवाजा खोलने के लिए कहा, तो वह इस शर्त पर खोलने को राजी हुई कि उस के निर्णय का विरोध नहीं होगा. दरवाजा खुलते ही सब यह देख कर हैरान रह गए कि उस ने दुलहन के कपड़े बदल कर साधारण कपड़े पहन लिए थे.

उस की मां यह देखते ही चीख पड़ी, ‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है… ऐसे कोई बरात दरवाजे से वापस करता है… कितने इंतजार के बाद तो यह दिन आया है और तू सब बरबाद करने पर तुली हुई है… तू ने यह सोचा कि कितने पैसों की बरबादी होगी? तेरे पापा कहां से लाएंगे इतने पैसे? बिरादरी में हम क्या मुंह दिखाएंगे? कितनी दूरदूर से लोग आए हैं, शादी में शामिल होने के लिए. तेरे इस बरताव के कारण कोई दूसरा रिश्ता होना भी मुश्किल हो जाएगा… बाद में सब ठीक हो जाता है, लेकिन तू किसी की सुने तब न…’’

‘‘नहीं, इस का निर्णय ठीक है, मैं अपनी बेटी को कुएं में नहीं धकेल सकता. वह जब ऐसे खास मौके पर भी इतनी पी कर आया है, तो उस का क्या विश्वास है कि उसे शराब की लत नहीं होगी… मेरी बेटी पढ़ीलिखी है, उसे अपने जीवन के निर्णय लेने का पूरा हक है… मैं लड़के वालों से सारी स्थिति का पता करता हूं, उस के बाद जो यह चाहेगी, वही होगा,’’ तनीषा के पिता ने अपनी पत्नी की बात काटते हुए कहा.

‘‘इस के साथ आप की बुद्धि पर भी पत्थर पड़ गए हैं… यह तो नासमझ है, आप को तो समझदारी से काम लेना चाहिए…’’ पत्नी ने आक्रोश में कहा.

‘‘मैं अपनी जान दे दूंगी, लेकिन ऐसे पियक्कड़ से शादी नहीं करूंगी. अपनी सहेलियों के सामने मेरा सिर शर्म से झुक गया… मेरा कितना मजाक बनाएंगी. आप को नहीं पता, कितनी बार मैं ने उन के सामने नशे में धुत्त व्यक्ति की ऐक्टिंग कर के उन्हें हंसाया है… उन के विरोध में बोला है, आज मेरा पति… मैं कल्पना भी नहीं कर सकती…’’ तनीषा ने रोतेरोते अपना निर्णय सुनाया.

यह सुन उस की मां उस के पापा की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘और चढ़ाओ बेटी को सिर… मैं ने कितनी बार समझाया कि बेटी को इतना मत पढ़ाओ, लेकिन मेरी सुनता कौन है… अब भुगतो, एक हमारा जमाना था…’’

वे कुछ और बोलतीं उस से पहले ही दूल्हे का भाई उन्हें यह कह कर बुलाने आया कि उस के मम्मीपापा उन से मिलना चाह रहे हैं. अभी तक तनीषा का भाई तथा और लोग मूक दर्शक बने खड़े थे. वे इधरउधर चले गए.

तनीषा के पापा ने अपनी पत्नी को साथ ले जाना उचित नहीं समझा और अपने

बेटे तथा उस के मामा के साथ उन से मिलने पहुंच गए. बैठने के बाद थोड़ी देर चुप्पी छाई रही. दुल्हे के मातापिता के चेहरों से शर्मिंदगी के भाव साफ झलक रहे थे. फिर पिता ने कहा, ‘‘माफ कर दीजिए, हमारे बेटे ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा… उसे पीने की थोड़ीबहुत आदत है, लेकिन ऐसे मौके पर भी इतना पी कर आएगा, मैं सोच भी नहीं सकता था. असल में उस के दोस्तों ने ही उसे इस हाल में पहुंचाया. आप तो जानते हैं आज के बच्चों का लाइफस्टाइल, लेकिन मैं वादा करता हूं कि शादी के बाद आप को कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा, कृपया रिश्ता स्वीकार कर लीजिए. इसी में दोनों परिवारों की भलाई है.’’

‘‘रमेशजी, मेरे परिवार की किस में भलाई है, इस के लिए आप को सोचने की आवश्यकता नहीं है. मैं ऐसे नशेड़ी दामाद को कभी स्वीकार नहीं कर सकता. आप ने मुझे धोखा दिया है. पहले क्यों नहीं बताया कि उसे नशे की लत है? यह तो अच्छा हुआ कि फेरों के पहले भेद खुल गया, नहीं तो मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो जाती. अब हमारे धन और मानसम्मान की भरपाई कैसे होगी? मेरी बेटी को आप के बेटे के कुकृत्य से जो सदमा लगा है, उस के लिए आप के पास कोई समाधान है?’’

‘‘भाई साहब, मैं आप से दोबारा माफी मांगता हूं. असल में मैं ने सोचा था कि एक बार शादी हो जाएगी तो वह सुधर जाएगा…’’

उन की बात बीच में ही काटते हुए तनीषा के मामा बोले, ‘‘सुधारने के लिए हमारी ही बेटी मिली थी? अपने स्वार्थ के लिए हमारी बेटी के सपने चूरचूर करने का आप को क्या अधिकार था? अब यह शादी नहीं हो सकती और जो भी अभी तक कपड़े और गहनों का लेनदेन हुआ है, उस का हिसाब कर लीजिए.’’

दूल्हे को अब तक होश आ गया था, वह दूर सिर झुकाए बैठा था. उस के पिता भारी मन से उठे और उस के पास जा कर उसे कंधे से पकड़ कर उठाते हुए गाड़ी में बैठा कर चले गए. पीछेपीछे बाकी बराती भी अपमानित होने के कारण झल्लाए से लौट गए.

थोड़ी देर पहले जिस जगह चारों ओर सजेसंवरे लोगों की चहलपहल थी, बैंडबाजे की धुन पर बच्चे, जवान और बूढ़े थिरक रहे थे, वहां सन्नाटा पसरा था. किराए पर जो भी सामान आया था, उन्हें समेटने के लिए आए लोग प्रश्नवाचक दृष्टि से सारे वातावरण को घूर रहे थे. कमरे में एक ओर तनीषा घुटनों में मुंह छिपाए बैठी थी, तो दूसरी तरफ उस के मातापिता नि:शब्द पलंग पर लुढ़के थे. छोटा भाई आशीष बाहर सामान ढोने वालों को निर्देश दे रहा था.

सच में समय अपना कब क्या रंग दिखा दे, हम कल्पना भी नहीं कर सकते. हमें उस के आगे घुटने टेकने ही पड़ते हैं. अब इस परिवार को तनीषा के भविष्य के लिए नए सिरे से सोचना पड़ेगा. गलती किसी की और भुगतना पड़ेगा किसी और को. लोगों की यह धारणा कब बदलेगी कि विवाह कोई जादू की छड़ी है कि उस के होते ही कोई इनसान बदल जाएगा? मांबाप जब अपने बेटे की नशे की लत नहीं छुड़ा पाए, तो किसी अनजानी लड़की से कैसे उम्मीद कर सकते हैं और उस के लिए हम कैसे किसी दूसरे परिवार की लड़की को बली का बकरा बना सकते हैं?

दूल्हे पवन को इस घटना से बहुत बड़ा झटका लगा था. वह पढ़ालिखा था, एक अच्छी कंपनी में काम करता था. दोस्तों की गलत संगत से उसे पीने की लत लग गई थी, लेकिन ऐसे मौके पर भी उस के दोस्त ऐसी घटिया हरकत करेंगे, यह उस के लिए बहुत अप्रत्याशित था. सारे घटनाचक्र ने उस को झकझोर दिया था. उसे अपनेआप से घृणा होने लगी. उस के मनमस्तिष्क में आंदोलन चलने लगा कि उसे क्या हक था अपने कुकृत्य से मातापिता और किसी दूसरे परिवार को तबाह करने का. उसे आत्मग्लानि हुई और वह पश्चात्ताप की आग में जलने लगा. फिर मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह इस का प्रायश्चित्त कर के रहेगा.

यह सचाई है कि जब हम कुछ ठान लेते हैं, तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता. उस ने मन ही मन शराब और शराबी दोस्तों से किनारा करने की ठान ली. वह अपने मातापिता के पास जा कर उन के पैरों से लिपट कर खूब रोया और माफी मांगते हुए बोला कि वह अब कभी शराब को हाथ नहीं लगाएगा. वे लोग अपमानित हो कर इतने सकते में थे कि कुछ भी नहीं बोले.

पवन की तनीषा के घर जाने की हिम्मत नहीं थी, लेकिन उस ने मोबाइल पर माफी मांगने का मैसेज छोड़ा और लिखा कि अपने कुकृत्य के लिए वह बहुत शर्मिंदा है और उस का प्रायश्चित्त कर के रहेगा. हो सके तो उस के लिए वह इंतजार करे. तनीषा ने कोई उत्तर नहीं दिया.

पवन ने अपने सभी दोस्तों से किनारा कर लिया और डाक्टर के पास अपने पीने की समस्या को ले कर गया. उस का इलाज शुरू हो गया. उस ने औफिस के बाद अधिकतर समय जिसे वह अपने दोस्तों के साथ बिताता था, अपने परिवार के साथ बिताने लगा. पार्टियों में जाना बंद कर दिया.

आरंभ में उसे काफी बेचैनी हुई, लेकिन धीरेधीरे उस में परिवर्तन आने लगा. पवन के मातापिता उस की इस अप्रत्याशित प्रवृत्ति को देख कर दंग रह गए. मन ही मन तनीषा को धन्यवाद देने लगे कि उस के द्वारा विवाह को ठुकरा देने के कारण ही उस में यह परिवर्तन आया है. वे उस के सुखद भविष्य के लिए आशान्वित हो गए. अत: तनीषा को अपनी बहू के रूप में देखने की कल्पना करने लगे, लेकिन अगले ही पल फिर यह सोच कर उन का मन बुझ जाता कि यदि उस ने स्वीकार नहीं किया तो?

तनीषा के घर में जब भी उस के विवाह की चर्चा होती, तो वह उठ कर चली जाती. उसे बहुत मानसिक आघात लगा था. उसे वे दिन याद आते थे जब वह सगाई के बाद कई बार पवन से मिली थी और फोन पर तो उस से उस की लगभग प्रतिदिन बात होती थी. उसे पहले ही पता होता कि वह पियक्कड़ है, तो कभी उस से रिश्ता नहीं रखती. उस ने अपने मातापिता से कह दिया कि वह अभी मानसिक रूप से विवाह के  लिए बिलकुल तैयार नहीं है, इसलिए उसे उस के हाल पर छोड़ दें. नौकरी तो वह करती ही थी, व्यस्त रहने के लिए उस ने हौबी क्लास जौइन कर ली.

समय बीतता गया. करीब 1 साल बाद हिम्मत कर के पवन तनीषा के औफिस पहुंच गया. उसे अचानक देख कर वह अचकचा गई और फिर बोली, ‘‘तुम यहां किसलिए आए हो? मैं तुम से कोई संपर्क नहीं रखना चाहती.’’

‘‘प्लीज एक बार मेरी बात सुन लो, मैं बदल गया हूं, अपनी बुरी आदत मैं ने छोड़ दी है.’’

लेकिन तनीषा ने उस की एक न सुनी पवन उस की इस प्रतिक्रिया के लिए पहले से

ही तैयार था. 1 हफ्ते बाद वह फिर उस से मिला और बोला, ‘‘मैं प्रायश्चित्त करना चाह रहा हूं, प्लीज माफ कर दो.’’

लेकिन इस बार भी तनीषा ने उस की बातों को अनसुना कर दिया और पहले वाला ही जवाब दिया.

मगर पवन निराश नहीं हुआ. उस ने अपना प्रयत्न जारी रखा. धीरेधीरे उस के मिलते रहने से तनीषा का दिल पिघलने लगा. एक दिन जब पवन ने उस से कहा कि वह उस से बहुत प्यार करता है और उस के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई और वह सकारात्मक रूप से सोचने पर मजबूर हो गई.

अब वह उस से मिलने लगी. जब उसे पवन पर पक्का विश्वास हो गया, तो उस ने अपने मातापिता को सारी स्थिति से अवगत कराया और बोली, ‘‘यदि वे ठीक समझें तो उस के घर जा कर उस के मातापिता से मिल लें और सारी स्थिति पता करें.’’

उस के पिता बोले, ‘‘लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि वह शादी के बाद दोबारा नहीं पीना आरंभ कर देगा?’’

‘‘पापा, हम आज की स्थिति देख कर ही निर्णय ले सकते हैं, भविष्य को किस ने जाना है. ऐसा भी तो हो सकता है कि कोई शादी के पहले न पीता हो, बाद में पीने लग जाए.’’ बेटी की यह बात सुन कर उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और फिर पवन के मातापिता से मिलने का  प्रोग्राम बना लिया.

जब उन्होंने पवन के मातापिता को अपने आने की सूचना दी, तो वे इस अप्रत्याशित मिली खुशी से फूले नहीं समाए और उन की अगवानी की तैयारी में जुट गए.

पवन को भी लगा कि उस का प्रायश्चित्त करना सफल हो गया. दोनों परिवार जब आपस में मिले, तो खुशी से एकदूसरे के गले लग गए.

पवन के पिता बोले, ‘‘मैं आप की बेटी का कर्जदार हूं, हम अपने बेटे को नहीं बदल पाए, लेकिन आप की बेटी ने बदल दिया.’’

‘‘हां भई, अब देर किस बात की, जल्दी से इन की शादी करवाओ.’’

‘‘देर आए दुरुस्त आए,’’ तनीषा के पापा बोले.

‘‘लेकिन मेरी एक शर्त है,’’ यह सुन कर तनीषा के पिता हैरान से रह गए.

तनीषा के पिता को हैरान खड़ा देख पवन के पिता बोले, ‘‘इस बार शादी का सारा खर्च मेरी तरफ से…’’

तनीषा और पवन कनखियों से एकदूसरे को देखते हुए मुसकरा रहे थे.

शह और मात: शरद को पता चला पल्लवी के झूठे प्यार का सच

“पल्लवी, तुम्हारे चेहरे पर कुछ लगा है,” शरद ने पल्लवी के चेहरे की ओर इशारा करते हुए कहा.

वह उस की सहकर्मी भी थी और अच्छी दोस्त भी.

“कहां?” पल्लवी ने अपने चेहरे पर उंगलियां फिराते हुए पूछा.

“यहां,” शरद ने आगे झुक कर जैसे ही पल्लवी के गाल को छुआ, वह दर्द से कराहते हुए पीछे हो गई.

“संजीव ने तुम पर फिर से हाथ उठाया?” शरद ने उस की आंखों में झांकते हुए प्रश्न किया.

“ऐसा कुछ नहीं है. बेखयाली में कुछ लग गया होगा. मैं अभी आती हूं,” पल्लवी नजरें चुराती हुई उठ कर वहां से जाने लगी.

“अपने जिस्म पर पड़े निशानों को कब तक मेकअप से छिपाती रहोगी पल्लवी? मैं अब भी कहता हूं, मेरा हाथ थाम लो,” शरद के सवाल को सुन कर पल्लवी एक पल के लिए रुकी, लेकिन अगले ही पल तेज कदमों से वहां से चली गई.

पल्लवी के जाने के बाद भी शरद वहीं बैठा रहा. उस के दोस्त मोहसिन ने पीछे से आ कर उसकी पीठ पर धौल जमाई, “और तुम कब तक पल्लवी से इकतरफा मोहब्बत करते रहोगे? क्या तुम जानते नहीं कि वह शादीशुदा है?”

“जानता हूं यार. पूरा औफिस जानता है कि पल्लवी का पति उस के साथ कैसा जानवरों जैसा सुलूक करता है. मगर वह फिर भी उस के खिलाफ एक शब्द नहीं कहती है. मुझ से उस की यह हालत देखी नहीं जाती है,” शरद ने हताश हो कर अपने बालों में हाथ फिराया.

“लेकिन जब पल्लवी ही उस के साथ रहना चाहती है तो कोई कर भी क्या सकता है. वैसे एक बात बता, क्या तू पल्लवी को ले कर सीरियस है?” मोहसिन ने पूछा.

“मैं पल्लवी से बहुत प्यार करता हूं और मैं जानता हूं कि वह भी मुझ से प्यार करती है. वह बस एक बार हां कह दे फिर मैं सब संभाल लूंगा,” शरद ने गंभीरता से उत्तर दिया.

“मैं कामना करुंगा कि तुम्हारी मोहब्बत को मंजिल मिल जाए. अब जल्दी चल लंच ब्रैक खत्म हो गया है.”

ब्रैक खत्म होने के बाद भी शरद की नजरें रह रहकर पल्लवी पर जा कर टिक जाती थीं. पल्लवी ने कुछ ही महीनों पहले यह औफिस जौइन किया था. उस के सरल और सुंदर व्यक्तित्व ने शरद का मनमोह लिया था. उसे पता था कि पल्लवी शादीशुदा है इसलिए उस ने अपनी भावनाओं को मन में ही रखा और मर्यादा की लकीर पार नहीं की.

पल्लवी सब से बहुत कम बात करती थी पर जब शरद ने पल्लवी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो उस ने खुशीखुशी थाम लिया. वह चाहता था कि पल्लवी हमेशा खुश रहे. लेकिन जब धीरेधीरे पल्लवी की शादीशुदा जिंदगी की कुरूप सचाई सामने आनी शुरू हुई तो वह खुद पर काबू नहीं रख पाया.

पल्लवी का पति संजीव एक नंबर का नकारा और शराबी था. वह अकसर पल्लवी के साथ मारपीट करता था, जिस के निशान वह कई दिनों तक मेकअप के सहारे छिपाती रहती थी.

पल्लवी की हालत देख कर शरद का मन तड़प उठता था. वह बस किसी तरह उसे इस नर्क से मुक्ति दिलाना चाहता था और इस के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार था. लेकिन इस बात से डरता था कि कहीं पल्लवी उसे गलत न समझ ले. इसी उधेड़बुन में एक दिन उसने पल्लवी को अपने दिल की बात बता दी. शरद को लगा था कि वह उस की बात सुन कर नाराज हो जाएगी लेकिन पल्लवी की प्रतिक्रिया तो उस की उम्मीद के बिलकुल परे थी. पल्लवी ने हां नहीं की तो इनकार भी नहीं किया. बस डबडबाई आंखों से शरद की ओर देखती रही जैसे खुद भी मन ही मन उस से प्यार करती हो.

पल्लवी की इस मूक सहमति से शरद को थोड़ी हिम्मत मिल गई थी और वह उस पर अपना अधिकार समझने लगा था. इसी अधिकार के नाते वह पल्लवी से कहता था कि वह संजीव को छोड़ कर उस से शादी कर ले. मगर पल्लवी को पता नहीं किस बात ने अब तक रोक रखा था. शरद ने गहरी सांस ली और अपने काम में व्यस्त हो गया.

अगले दिन शाम के समय पल्लवी अपने औफिस के बाहर सड़क पर औटोरिकशा का इंतजार कर रही थी. शरद‌ उसी समय बाइक से अपने घर जाने के लिए निकल रहा था. वह पल्लवी को देख कर रुक गया, “पल्लवी, आओ मैं तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं.”

पल्लवी बिना कुछ कहे बाइक पर बैठ गई. रास्ते में उस ने शरद को एटीएम के सामने बाइक रोकने के लिए कहा और बाइक से उतर कर भीतर चली गई. कुछ मिनटों के बाद पल्लवी बाहर आई तो वह बहुत मायूस लग रही थी.

“क्या बात है पल्लवी? सब ठीक तो है ना?” शरद ने उस की मायूसी की वजह जाननी चाही.

“मुझे घर का किराया देने के लिए ₹ 10 हजार निकालने थे, लेकिन मेरे अकाउंट में इतना बैलेंस ही नहीं है. जरूर संजीव ने रुपए निकाल लिए होंगे. किराया भी आज ही देना है,” पल्लवी ने परेशान होते हुए कहा.

“बस इतनी सी बात. तुम परेशान क्यों हो रही हो, मैं तुम्हें रुपए दे देता हूं,” शरद ने कहा.

“लेकिन शरद मैं तुम से रुपए कैसे ले सकती हूं और अभी तो सैलरी मिलने को भी कई दिन बाकी हैं.”

“लेकिनवेकिन कुछ नहीं. मैं अभी रुपए निकाल कर लाता हूं.”

शरद पल्लवी एटीएम से रुपए निकाल लाया और पल्लवी के हाथ में नोट पकड़ा दिए.

“शरद मैं सैलरी मिलते ही तुम्हारे रुपए  वापस कर दूंगी,” पल्लवी ने भावुक होते हुए कहा.

“ज्यादा मत सोचो पल्लवी. घर का किराया समय पर दे देना बस. अब चलो घर नहीं जाना है क्या?” शरद ने मुसकराते हुए कहा और बाइक स्टार्ट कर दी.

अपने घर से कुछ दूरी पर पल्लवी ने शरद को बाइक रोकने के लिए कहा, “बस शरद यहां से मैं अपनेआप चली जाऊंगी.”

शरद ने कुछ कहे बिना बाइक रोक दी और पल्लवी उसे बाय बोल कर चली गई.

शरद ने पहले भी कई बार पल्लवी को यहां छोड़ा था. वह जानता था कि पल्लवी अपने पति संजीव के डर के कारण उसे यहीं रोक देती थी. पल्लवी के जाने के बाद शरद वहीं खड़ा हो कर उसे आंखों से ओझल होने तक देखता रहा.

इधर पल्लवी जैसे ही चाबी से दरवाजा खोल कर अपने घर में दाखिल हुई, संजीव हाथ में शराब का गिलास लिए सोफे पर बैठा उस का इंतजार कर रहा था.

“रुपए मिले?” संजीव ने पूछा.

“हां, ₹10 हजार मिले हैं,” पल्लवी ने पर्स से नोट निकाल कर मेज पर रख दिए.

“चलो आज की पार्टी का इंतजाम तो ‌हो गया. लेकिन अगली बार अपने प्रेमी की जेब से जरा बड़ी रकम निकलवाना. आजकल ₹10 हजार में क्या होता है?” संजीव ने नोटों को अपनी ओर सरकाते हुए कहा.

पल्लवी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गई. वहां रुक कर करती भी क्या, संजीव को शराब पीने के बाद होश ही कहां रहता था. वैसे भी अब तो उस की इच्छा पूरी हो गई थी. उस के हाथ में रुपए पहुंच गए थे. इसलिए वह कम से कम 2-4 दिन तो शांति से जी सकती थी.

कुछ देर बाद रसोई में खाना पकाते समय पल्लवी अपनी नियति के बारे में सोच रही थी. उसे वह दिन याद आ रहा था जब उस के परिवार वालों को उस के और पड़ोस में रहने वाले संजीव के रिश्ते के बारे में पता चला था. घर में कुहराम मच गया था. एक तो संजीव उस समय बेरोजगार था, ऊपर से पल्लवी के मातापिता और भाई की नजरों में उस की छवि कुछ खास अच्छी नहीं थी. उस समय पल्लवी की हालत चक्की के 2 पाटों के बीच पिसते गेहूं की तरह हो गई थी. एक तरफ पापा ने साफ कह दिया था कि वह अपनी बेटी का हाथ संजीव के हाथों में कभी नहीं देंगे. दूसरी तरफ संजीव उस पर शादी करने का दबाव बना रहा था.

पल्लवी समझासमझा कर‌ थक गई थी, मगर पापा और संजीव में से कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं हुआ. दोनों ने पल्लवी को जल्दी ही कोई निर्णय लेने के लिए कहा था.

इसलिए पल्लवी ने निर्णय ले लिया. उस ने अपने मातापिता और परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर संजीव का हाथ थाम लिया. उसे संजीव पर इतना भरोसा था कि वह बिना कुछ सोचेसमझे अपना घर छोड़ कर उस के साथ चली आई. उस के मातापिता ने उसी समय उस से रिश्ता तोड़ लिया था. मां ने जातेजाते उस से कहा था कि एक दिन वह अपने इस फैसले पर जरूर पछताएगी.

घर छोड़ने के बाद दोनों दिल्ली आ गए जहां उन्होंने शादी कर ली. संजीव को नौकरी भी मिल गई थी. शादी के बाद कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा. पल्लवी अपने प्यार को पा कर बहुत खुश थी. लेकिन जैसेजैसे उस के सिर से नई शादी का खुमार उतरना शुरू हुआ, उसे संजीव का असली चेहरा नजर आने लगा. संजीव को शराब की लत थी. वह अकसर शराब के नशे में उस पर हाथ भी उठाने लगा था. सिर्फ यही नहीं, वह पैसे कमाने के लिए उलटेसीधे काम करने से भी बाज नहीं आता था. उस ने बहुत लोगों को चूना लगाया था. इन्हीं आदतों के चलते उस की नौकरी भी चली गई थी.

एक बार काम से निकाले जाने के बाद संजीव ने नौकरी ढूंढ़ने की जहमत नहीं उठाई.

तब घर चलाने के लिए पल्लवी ने एक औफिस में नौकरी कर ली. उसे सारी तनख्वाह ला कर संजीव के हाथों पर रखनी पड़ती. लेकिन उस से भी संजीव का पेट नहीं भरता. वह आएदिन उस से रुपए मांगता और जब पल्लवी उस की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाती तो वह उसे रूई की तरह धुन देता. अगले दिन वह उस से माफी मांग लेता और‌ पल्लवी उसे माफ भी कर देती. वह किसी भी कीमत पर संजीव से अलग नहीं होना चाहती थी. वापस लौट कर मांपिता के घर भी तो नहीं जा सकती थी.

जिंदगी इसी तरह ऊबड़खाबड़ रास्तों पर चल रही थी. समय के साथ संजीव की फरमाइशें बढ़ती जा रही थीं. जब उस के लिए पल्लवी की तनख्वाह कम पड़ने लगी तो उस ने एक रास्ता निकाला. वह चाहता था कि पल्लवी किसी आदमी को अपने प्रेमजाल में फंसा कर उस से ठगी करे. पल्लवी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. उसे हैरानी हो रही थी कि कोई पति अपनी पत्नी से ऐसा करने के लिए भी कह सकता है. लेकिन उसे कुछ ही दिनों में अपना फैसला बदलना पड़ा.

एक दिन जब संजीव लहूलुहान हालत में घर आया, तब उसे पता चला कि उस ने शराब और जुए के लिए कुछ गलत लोगों से बहुत मोटा कर्ज ले रखा है और वे लोग अपना पैसा वापस लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. जब उन लोगों से बचने और‌ उन का कर्ज चुकाने का और कोई रास्ता नजर नहीं आया, तो पल्लवी ने मजबूरन वही किया जो संजीव ने उसे करने के लिए कहा था.

पल्लवी का एक सहकर्मी दिनेश उसे पसंद करता था और यह बात उस से छिपी नहीं थी. पल्लवी ने पहले उस से दोस्ती की और फिर उसे अपनी दुखभरी दास्तान सुना कर धीरेधीरे उस के साथ नजदीकियां बढ़ाने लगी.

थोड़े ही दिनों में दिनेश उस की खातिर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हो गया. यहां से झूठीसच्ची कहानियां सुना कर पैसे ऐंठने का सिलसिला शुरू हो गया. दिनेश उस के झूठों को सच मान कर उस पर विश्वास करता गया. इस तरह कुछ महीनों में संजीव का सारा कर्ज उतर गया. लेकिन पल्लवी के लिए दिनेश को संभालना मुश्किल होता जा रहा था. वह उस से शादी करना चाहता था और कई बार उस के घर तक पहुंच गया था. अगर उसे सचाई पता चल जाती तो उन के लिए बड़ी मुसीबत हो जाती. पल्लवी उस के लाखों रुपए कहां से लौटाती.

अपनी पोल खुलने से बचाने के लिए संजीव और पल्लवी ने रातोरात शहर बदल लिया. शहर बदलने के बाद भी संजीव में कोई बदलाव नहीं आया. पल्लवी ने यहां भी नौकरी कर ली थी. वह संजीव से भी नौकरी ढूंढ़ने के लिए कहती‌ थी. लेकिन संजीव के दिमाग में तो कोई और ही खिचड़ी पक रही थी. कुछ ही दिनों में वह फिर से कर्ज में डूब गया था और उस ने पल्लवी पर दोबारा वही खेल खेलने का‌ दबाव बनाना शुरू कर दिया था. पल्लवी ने फिर से उस की बात मान ली.

बस इसी तरह शहर बदलबदल कर लोगों के साथ ठगी करना उन का पेशा बन गया था. लेकिन इस पेशे के भी कुछ नियम थे जो संजीव ने बनाए थे. उसे हर वक्त यह शक होता कि कहीं पल्लवी अपने शिकार के ज्यादा नजदीक तो नहीं जा रही है. और इस बात की झुंझलाहट वह उस पर हाथ उठा कर निकालता. कभीकभी पल्लवी को लगता था कि वह एक अंधे कुएं में गिरती जा रही है. वह जब भी संजीव से ऐसा करने के लिए मना करती, वह उस से वादा करता कि बस यह आखिरी बार है. इस के बाद वह खुद को पूरी तरह से बदल लेगा और वे दोनों एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे.

पल्लवी न चाहते हुए भी उस पर भरोसा कर बैठती थी. उसे लगता था कि संजीव पर भरोसा करने के अलावा उस के पास विकल्प भी क्या था? अपने सारे रिश्तेनाते तो वह खुद ही पैरों तले रौंद आई थी.

कुछ महीने पहले इंदौर आने के बाद भी संजीव ने उस से वादा किया था कि वह अब सुधर जाएगा. लेकिन हुआ क्या, अब वह पैसों के लिए शरद जैसे शरीफ और अच्छे आदमी को बेवकूफ बना रही थी. इस बार भी संजीव ने वादा किया था कि यह उन की आखिरी ठगी है, क्योंकि नई जिंदगी शुरू करने के लिए रुपयों की जरूरत तो पड़ेगी ही.

उसे अकसर यह महसूस होता था कि वे पुरुष मूर्ख नहीं हैं जिन्हें उस ने ठगा है, असल में वह खुद मूर्ख है जो बारबार संजीव की बात मान लेती है.

उस की इच्छाओं की पूर्ति करतेकरते भी उस से गालियां सुनती है, मार खाती है. पल्लवी उन मूर्खों में से थी जिस ने खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर दे मारा था. अपनी गलतियों के कारण वह संजीव की बिछाई शतरंज की बिसात पर सिर्फ एक मुहरा बन कर रह गई थी. पल्लवी ने आंसू पोंछे और मन मार कर संजीव को खाना परोसने चली गई.

इस के बाद कुछ दिनों तक तो संजीव शांत रहा, लेकिन वह ₹10 हजार रुपयों पर आखिर कितने दिन ऐश करता? उस ने पल्लवी को शरद से ₹1 लाख निकलवाने के लिए कहा और इस के लिए योजना भी समझा दी.

पल्लवी ने संजीव के कहे अनुसार अभिनय करना शुरू कर दिया. एक दोपहर शरद के साथ खाना खाते समय उस ने अपनी छोटी बहन से फोन पर बात करने का नाटक किया और रोने लगी. पल्लवी को इस तरह रोता देख कर शरद परेशान हो गया.

“पल्लवी तुम इस तरह क्यों रो रही हो? घर पर सब ठीक है न?” शरद ने पूछा.

“शरद मेरी मां की तबीयत बहुत खराब है. मुझे उन के औपरेशन के लिए ₹1 लाख का इंतजाम करना होगा और वह भी 2 दिनों के अंदर. मैं इतनी जल्दी इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगी?” पल्लवी ने परेशान होने का नाटक किया.

“तुम फिक्र मत करो पल्लवी. कोई न कोई इंतजाम हो जाएगा,” शरद ने उसे हौसला बंधाते हुए कहा.

“कैसे फिक्र न करूं शरद. मेरा बैंक अकाउंट संजीव खाली कर चुका है. जो थोड़ेबहुत गहने थे वे मैंने कर्ज उतारने के लिए बेच दिए थे. अभी कुछ दिन पहले मेरे पास घर का किराया देने के लिए एक फूटी कौड़ी तक नहीं थी. उस वक्त तुम ने मेरी मदद की थी. अब मैं किस के आगे हाथ फैलाऊं?” पल्लवी अपने चेहरे को हथेलियों के पीछे छिपा कर रो पड़ी.

शरद अपनी कुरसी खींच कर पल्लवी के पास ले आया और उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा,“पल्लवी ‌सब ठीक हो जाएगा, पहले तुम रोना बंद करो प्लीज.”

शरद को पिघलता देख कर पल्लवी ने उस की बांह को कस कर पकड़ लिया और अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया और रोते हुए कहा, “अगर मां को कुछ हो गया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. मैं क्या करूं मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मैं बहुत अकेली हो गई हूं शरद.”

“तुम अकेली नहीं हो पल्लवी. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं,” शरद ने पल्लवी के हाथ पर अपना हाथ रखा. वह उस के चेहरे पर उभरती कुटिल मुसकान से बेखबर था.

अगले दिन औफिस पहुंचने से पहले ही पल्लवी को मालूम था कि शरद ने रुपयों का इंतजाम कर लिया होगा. आखिर उस ने अभिनय भी तो कमाल का किया था.

पल्लवी का अंदाजा बिलकुल सही निकला. शरद ने लंच ब्रैक के समय उस के हाथ में ₹1 लाख थमा दिए.

“थैंक यू सो मच शरद. मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी. मैं जल्द से जल्द तुम्हारे सारे रुपए लौटा दूंगी,” पल्लवी ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा.

“कैसी बातें करती हो पल्लवी, क्या मेरा सब कुछ तुम्हारा नहीं है? अब बातें करने में समय बरबाद मत करो. जाओ और अपनी बहन को यह रुपए दे दो,” शरद ने मुसकरा कर उस का माथा चूम लिया.

पल्लवी ने एक बार फिर से शरद को धन्यवाद कहा और रुपए ले कर अपने घर आ गई. ₹1 लाख देख कर संजीव खुशी से उछल पड़ा और एक पल गंवाए बिना पल्लवी के हाथ से नोट झपट लिए, “अरे वाह पल्लवी, आज तो तुम ने कमाल ही कर दिया. अच्छा यह बताओ शरद को तुम पर शक तो नहीं हुआ?”

“नहीं…”

“वैरी गुड… अब अगली बार ₹2 लाख से कम मत मांगना,” संजीव ने हिदायत दी.

“लेकिन संजीव, इस तरह बारबार बहाने कर के ज्यादा रुपए मांगूगी तो शरद को मुझ पर शक हो जाएगा,” पल्लवी ने तर्क दिया.

“पल्लवी, तुम अपने छोटे से दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालो. यह शरद तुम पर पूरी तरह से लट्टू हो चुका है. इस का जितना फायदा उठा सकती हो उठा लो. फिर कोई नया बकरा फंसा लेना,” संजीव ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा और चलता बना.

संजीव के जाने के बाद पल्लवी का हाथ अनायास ही अपने माथे पर चला गया. जब शरद ने उस के माथे को चूमा था तो उसे अजीब सी सुखद अनुभूति हुई थी. शरद ने उसे भीतर तक छू लिया था. आज से पहले उस ने न जाने कितने लोगों के साथ प्यार का नाटक किया था मगर उसे ऐसा तो कभी महसूस नहीं हुआ. सिर्फ यही नहीं, शरद के रुपए संजीव को देते समय उसे ग्लानि हो रही थी. वह संजीव के पूछने पर इनकार कर देती थी लेकिन सच तो यह था कि उसे शरद का साथ अच्छा लगने लगा था.

पल्लवी को आभास हुआ कि उस का मन भटक रहा है. वह शादीशुदा होते हुए भी पता नहीं क्याक्या सोचने लगी थी. उसने मन ही मन खुद को फटकारा और अपना ध्यान बंटाने के लिए घर के काम में व्यस्त हो गई.

₹1 लाख रुपए मिलने के बाद भी संजीव का पेट नहीं भरा. उस;ने जल्द ही सारे रुपए उड़ा दिए और पल्लवी को शरद से दोबारा रुपए मांगने के लिए मजबूर करने लगा. इस बार उस:के लालच के साथ रुपयों की मांग भी बड़ी थी. पल्लवी के इनकार करने पर वह उसे प्रताड़ित करने लगा.

इधर औफिस में पल्लवी और शरद के बीच नजदीकियां बढ़ती जा रहीं थीं. संजीव का बुरा बरताव आग में घी का काम कर रहा था. संजीव के दिए जख्मों को शरद के प्रेम का मरहम भरने लगा था. पल्लवी के प्रति शरद की परवाह उसे शरद की तरफ खींचती चली जा रही थी. जब पल्लवी शरद के करीब होती तो खुद को बेहद सुरक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि शरद की बांहों में ही उस का घर है. पल्लवी के लिए प्यार का नाटक धीरेधीरे सच होता चला गया. उस ने बहुत कोशिश की मगर वह खुद को शरद से प्यार करने से नहीं रोक पाई. पल्लवी ने निश्चय कर लिया था कि अब चाहे जो हो जाए, वह शरद से कभी रुपयों की मांग नहीं करेगी.

अपने इनकार का खामियाजा पल्लवी को कई बार भुगतना पड़ा. संजीव बातबात में राई का पहाड़ बना कर उस पर हाथ उठाने लगा. उसे शक था कि पल्लवी उसे धोखा दे रही है. जब शरद ने उस के जिस्म पर पड़े निशानों को देखा तो वह अपने आपे से बाहर हो गया.

“आज मैं संजीव को‌ छोड़ूंगा नहीं. उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वह जिंदगी भर याद रखेगा,” शरद ने गुस्से मैं दांत पीसते हुए कहा और बाहर जाने लगा.

“नहीं शरद, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे,” पल्लवी ने उसे रोका.

“इतना कुछ होने के बाद भी उस आदमी की तरफदारी कर रही हो?” शरद ने आश्चर्य से पूछा.

“मैं किसी की तरफदारी नहीं कर रही हूं शरद. मैं बस इतना चाहती हूं कि तुम संजीव से दूर रहो. तुम नहीं जानते हो कि वह कितना घटिया आदमी है. कैसेकैसे लोगों के साथ उस का उठनाबैठना है,” पल्लवी ने उसे समझाया.

“मैं किसी से डरता नहीं हूं पल्लवी,” शरद जोश में आ गया था.

“लेकिन मैं तो डरती हूं. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी,” पल्लवी ने सिर झुका कर कहा तो शरद ने उसे सीने से लगा लिया, “ओह पल्लवी, मैं तुम्हें इस हाल में नहीं देख सकता. तुम संजीव को छोड़ क्यों नहीं देतीं ? मैं ने पहले भी कहा था पल्लवी, मैं हमेशा तुम्हारा खयाल रखूंगा, बस एक बार मेरा हाथ थाम लो.”

“संजीव मेरी जान ले लेगा, मगर मुझे तलाक नहीं देगा. मैं ने देखा है कि वह किस हद तक‌ जा सकता है. शरद मैं चाह कर भी उसे नहीं छोड़ सकती हूं,” पल्लवी की आंखों से आंसू टपक पड़े.

“क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?”

“हां शरद. मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.”

“तो फिर मेरे साथ भाग चलो.”

“शरद, यह तुम क्या कह रहे हो? यह मजाक का वक्त नहीं है,” पल्लवी हैरान हो गई.

“मेरी आंखों में देखो पल्लवी, क्या तुम्हें लगता है कि मैं मजाक कर रहा हूं? मुझ पर भरोसा करो, बस एक बार हां कह दो. फिर हम दोनों यहां से बहुत दूर चले जाएंगे, जहां तुम पर उस संजीव का साया तक नहीं पड़ेगा,” शरद ने पल्लवी की आंखों में झांकते हुए कहा.

शरद की आंखों में अपने लिए प्यार की गहराई देख कर पल्लवी सिहर उठी. उस से कुछ कहते नहीं बना. उस ने शरद से सोचने के लिए कुछ वक्त मांगा और घर चली आई.

कुछ दिन बीत जाने के बाद भी पल्लवी ने शरद को जवाब नहीं दिया था. संजीव ने उसे जलील करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी. एक रात जब उस के कोप का भाजन बनने के बाद पल्लवी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी, उस वक्त उस के कानों में शरद की कही बातें गूंज रही थीं. सालों पहले उस ने अपने मातापिता की बात न मान कर जो गलती की थी, उस की कीमत वह आज तक चुका रही थी. संजीव पर भरोसा कर के उस ने अपनी जिंदगी की सब से बड़ी गलती की थी इसलिए आज वह शरद पर भरोसा करने से भी डर रही थी. हालांकि उस ने शरद की आंखों में अपने लिए जितना प्यार देखा था, उस का आधा भी उसे संजीव की आंखों में कभी नजर नहीं आया था. मगर अब वह कोई भी कदम उठाने से पहले पूरी तरह निश्चिंत हो जाना चाहती थी.

वह जानती थी कि इस तरह संजीव को धोखा दे कर शरद के साथ भागना गलत होगा. लेकिन अगर वह संजीव से अलग होने या तलाक लेने की कोशिश करेगी तो शरद के सामने उन की सारी असलियत आ जाएगी. शरद को पता चल जाएगा कि पल्लवी उसे किस तरह मूर्ख बना कर उस से पैसा ऐंठती रही और वह उस से नफरत करने लगेगा. नहीं, वह किसी भी कीमत पर शरद को खोना नहीं चाहती थी. आज तक उस ने गलत काम के लिए झूठ और धोखे का सहारा लिया, तो अब एक आखिरी बार अपने प्यार को पाने के लिए ही सही.

पल्लवी के दिल से डर खत्म हो गया था. वह शरद को पाने की खातिर किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थी. वह कई सालों से जिस पिंजरे में कैद थी, अब वह उसे तोड़ कर उड़ जाना चाहती थी.

पल्लवी ने धीरे से मोबाइल उठा कर शरद का नंबर डायल किया और उस के फोन उठाने पर बस इतना कहा, “मैं तैयार हूं.”

अगले दिन पल्लवी शरद की बताई जगह पर उस से मिलने गई. शरद ने उसे पूरी योजना बताई. पल्लवी ने अपनी सहमति दे दी और घर वापस आकर सामान्य व्यवहार करने लगी जिस से संजीव को उस के ऊपर जरा भी शक न हो.

3 दिन बाद शरद के कहे अनुसार पल्लवी ने अपने कपड़े, कुछ जरूरी कागजात और कुछ रुपए एक बैग में रख लिए. उस ने बैग को पलंग के नीचे छिपा कर रख दिया. उस रात भी संजीव रोज की तरह नशे में धुत्त हो कर घर आया. पल्लवी ने कुछ मीठे बोल बोल कर उसे थोड़ी और शराब पिला दी. थोड़ी ही देर बाद संजीव बेसुध हो गया. पल्लवी ने धीरे से अपना बैग निकाला और घर के बाहर चली आई. बाहर आ कर वह रेलवे स्टेशन के लिए टैक्सी में बैठ गई. कुछ दूर तक वह बारबार पीछे मुड़ कर देखती रही. उसे डर था कि कहीं संजीव उस का पीछा तो नहीं कर रहा है. रेलवे स्टेशन पहुंच कर उस की जान में जान आई.

उस ने अंदर जा कर देखा तो पाया कि शरद पहले से ही वहां उस का इंतजार कर रहा था. उस ने अगली ट्रेन की 2 टिकटें भी ले ली थीं.

“तुम ठीक हो न?” शरद ने पूछा.

“मैं ठीक हूं शरद. हम कहां जा रहे हैं?”

“बस कुछ ही मिनटों में जम्मू जाने वाली ट्रेन आती होगी. मैं ने उसी की 2 टिकटें ले ली हैं. कुछ दिन वहीं रहेंगे, बाद में कोई और इंतजाम कर लूंगा. तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं है न?”

“शरद हम दोनों साथ हैं, बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए.”

तभी ट्रेन भी आ गई. पल्लवी और शरद ट्रेन में चढ़ कर एक खाली बर्थ पर बैठ गए.

“तुम सो जाओ पल्लवी. जब सुबह तुम्हारी आंखें खुलेंगी तो एक नया सवेरा तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा,” शरद‌ ने मुसकराते हुए कहा.

पल्लवी ने उस के कंधे पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. वह कुछ ही देर में नींद के आगोश में समा गई.

सुबह जब पल्लवी की आंख खुली तो ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी हुई थी और शरद उस के पास नहीं था. उसे लगा कि वह शायद स्टेशन से कुछ लाने के लिए उठा होगा. लेकिन जब कुछ मिनटों के बाद भी शरद वापस नहीं आया तो पल्लवी घबरा गई. उस ने पूरे डिब्बे में देख लिया, लेकिन शरद वहां नहीं था.

“शरद…शरद…” वह खिड़की से बाहर झांक कर उसे पुकारने लगी. उस ने पर्स से मोबाइल निकाल कर शरद का नंबर डायल किया तो उस का फोन बंद आ रहा था.

पल्लवी बुरी तरह से घबरा गई. वह घबरा कर इधरउधर देख ही रही थी कि उस की नजर सीट पर रखे अपने बैग के नीचे दबे एक कागज पर पड़ी.

पल्लवी ने कांपते हाथों से कागज उठाया और खोल कर पढ़ना शुरू किया. वह उसके नाम शरद का पत्र था. उस में लिखा था-

‘पल्लवी,

जब तक तुम्हारी आंखें खुलेंगी, मैं तुम से बहुत दूर जा चुका होऊंगा. हां, तुम्हारा डर बिलकुल सही है. मैं ने तुम्हें धोखा दिया है. तुम्हें सुंदर भविष्य के सपने दिखा कर बीच रास्ते में तुम्हारा साथ छोड़ दिया है. मगर यह धोखा उस धोखे के आगे कुछ भी नहीं है जो तुम ने मुझे दिया. अब तुम सोच रही होगी कि मुझे तुम्हारी असलियत के बारे में कैसे पता चला? पल्लवी, जिस दिन मैं ने तुम्हें ₹1 लाख दिए थे, उस दिन तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारी बहुत फिक्र हो रही थी. मुझे डर था कि कहीं संजीव तुम से वे रुपए न छीन ले जो तुम्हारी मां की जान बचा सकते हैं. लेकिन तुम्हारे घर के बाहर आ कर मुझे कुछ और ही सचाई नजर आई. उस दिन मैं ने तुम्हारी और संजीव की सारी बातें सुन ली थीं. मुझे पता चल गया था कि किस तरह तुम दोनों पतिपत्नी मुझे पैसों के लिए बेवकूफ बना रहे हो. सिर्फ मुझे ही नहीं तुम ने न जाने कितने लोगों को अपने प्यार के जाल में फंसा कर लूटा होगा.

‘पल्लवी, मैं तुम से बहुत प्यार करता था. लेकिन तुम ने मेरे साथ क्या किया? तुम ने मेरे जज्बातों के साथ खिलवाड़ किया. मेरे प्यार का मजाक बनाकर रख दिया. मैं ने सोच लिया था कि मैं तुम्हें सबक जरूर सिखाऊंगा, इसलिए मैं ने तुम से अपने साथ भाग चलने के लिए कहा ताकि तुम्हें पता चले कि दिल टूटने पर कितना दर्द होता है. अब जिंदगी भर सोचना कि तुम ने कितने लोगों के साथ कितना गलत किया. और हां, घर वापस जाने के बारे में मत सोचना. मैं ने संजीव को चिट्ठी लिख कर उसे सब बता दिया है. अब तुम्हारे लिए उस घर में भी कोई जगह नहीं है.

‘मैं तुम से सच्चा प्यार करता था पल्लवी. मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार था. लेकिन शुक्र है कि सही समय पर मेरी आंखें खुल गईं. तुम्हें लोगों को शतरंज के मुहरे बना कर उन के साथ खेल खेलने का बहुत शौक था न पल्लवी. आज मैं ने तुम्हें तुम्हारे ही खेल में अपने दांव से मात दे दी है. हो सके तो जो तुम ने मेरे साथ किया वह आइंदा किसी के साथ मत करना…

शरद’

पल्लवी की आंखों से आंसू टपकटपक कर चिट्ठी पर गिर रहे थे. झूठ और धोखे का सहारा ले कर वह आज कहीं की भी नहीं रही थी. वह भूल गई थी कि छल के सहारे शतरंज की चाल भले ही जीती जा सकती थी, किसी का प्यार नहीं.

उस के मुंह से हौले से वे शब्द निकले जो शरद चिट्ठी के आखिर में लिखना भूल गया था,’शह और मात’.

नहीं बदली हूं मैं : क्यों सुनयना का पति उसे लेस्बियन समझने लगा?

‘‘चलो कहीं घूमने चलते हैं. राघव भी अपने दोस्तों के साथ 15 दिनों के लिए सिंगापुर जा रहा है. कितने दिन हो गए हमें कहीं गए हुए,’’ सुनयना ने अपने पति जय से बहुत ही मनुहार करते हुए कहा.

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना. कोफ्त होती है मुझे कहीं जाने की सुन कर. मिलता क्या है कहीं बाहर जा कर? वापस घर ही तो आना होता है. ट्रेन में सफर करो, थको और फिर किसी होटल में रहो और बेवकूफों की तरह उस जगह की सैर करते रहो. बेकार में इतना पैसा खर्च हो जाता है और वापस आ कर फिर थकान उतारने में 2 दिन लग जाते हैं. सारा शैड्यूल बिगड़ जाता है वह अलग. पता नहीं क्यों तुम्हें हमेशा घूमने की लगी रहती है. तुम्हें पता है मुझे कहीं बाहर जाना पसंद नहीं, फिर भी कहती रहती हो,’’ जय ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘पता है मुझे तुम्हें नहीं पसंद पर कभी मेरी खुशी की खातिर तो जा सकते हो? शादी को 22 साल हो गए पर कभी कहीं ले कर नहीं गए. राघव को भी नहीं ले जाते थे. शुक्र है वह तुम्हारे जैसा खड़ूस नहीं है और घूमने का शौक रखता है. शादी के बाद हर लड़की का ख्वाब होता है कि उस का पति उसे घुमाने ले जाए. बंधीबंधाई रूटीन जिंदगी से निकल कुछ समय अगर रिलैक्स कर लिया जाए तो स्फूर्ति आ जाती है और फिर नएनए लोगों और जगहों को जानने का भी अवसर मिलता है. दुनिया पागल नहीं जो देशविदेश की सैर पर जाती है. केवल तुम ही अनोखे इनसान हो. असल में पैसा खर्चते हुए मुसीबत होती है तुम्हें. अव्वल दर्जे के कंजूस जो ठहरे… कभी दूसरे की भावना का भी सम्मान करना सीखो. छोटीछोटी खुशियों को तरसा देते हो,’’ सुनयना के अंदर भरा गुबार जैसे बाहर आने को बेताब था.

‘‘ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. रही बात राघव की तो अभी उस की शादी नहीं हुई है. हो जाने दो अपनेआप सारे शौक खत्म हो जाएंगे जब पैसे खर्चने पड़ेंगे. अभी तो बाप के पैसों पर ऐश कर रहा है.’’

‘‘बेकार की बातें न करो. तुम्हारी जेब से कहां निकलते हैं पैसे. उस के ट्रिप का सारा खर्च मैं ने ही दिया है,’’ सुनयना गुस्से से बोली.

‘‘हां, तो कौन सा एहसान कर दिया. कमाती हो तो खर्च करना ही पड़ेगा वरना क्या सारा पैसा अपने ऊपर ही खर्च करने का इरादा है?’’

दोनों के बीच बहस बढ़ती जा रही थी. यह कोई एक दिन की बात नहीं थी. अकसर उन में मतभेद पैदा हो जाते थे. जय का स्वभाव ही ऐसा था. पता नहीं उसे खुश रहने से क्या ऐलर्जी थी. बस सुनयना की हर बात को काटना, उस में दोष देखना… जैसे उसे मजा आता था इस सब में.

‘‘मैं ने भी सोच लिया है कि कहीं घूमने जाऊंगी,’’ उस ने जैसे जय को चुनौती दी. उसे पता था कि इन दिनों वूमन ओनली ट्रैवल जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं, जिन में औरतें चाहें तो अकेले या फिर ग्रुप में ट्रैवल कर सकती हैं. सारा अरेंजमैंट वही करते हैं, इसलिए सेफ्टी की भी चिंता नहीं रहती.

उस ने गूगल पर ऐसे अरेंजमैंट करने वाले देखने शुरू किए. ‘वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप’ नामक साइट पर क्लिक करने पर जब उस ने संस्थापक का नाम पढ़ा तो जानापहचाना लगा. उस का प्रोफाइल पढ़ते ही उस की आंखें चमक उठीं. मानसी उस की कालेज फ्रैंड. शादी के बाद दोनों का संपर्क टूट गया था, जैसेकि अकसर लड़कियों के साथ होता है. जय को तो वैसे भी उस का किसी से मिलना या किसी के घर जाना पसंद नहीं था खासकर दोस्तों के तो बिलकुल भी नहीं. इसलिए शादी के बाद उस ने अपने सारे फ्रैंड्स से नाता ही तोड़ लिया था खासकर पुरुष मित्रों से.

साइट से मानसी का फोन नंबर ले कर सुनयना ने जैसे ही उसे फोन कर अपना परिचय दिया वह चहक उठी. बोली, ‘‘हाय सुनयना, कितने दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुन रही हूं… यार कहां गायब हो गई थी? बता कैसा चल रहा है?’’

फिर तो जो उन के बीच बातों का सिलसिला चला तो रुका ही नहीं. उसे पता चला कि मानसी के साथ इस वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप में उन के कालेज की 2 फै्रंड्स भी शामिल हैं.

‘‘अब तुम्हारा नैक्स्ट ट्रिप कब और कहां जा रहा है? मैं भी जाना चाहती हूं.’’

‘‘अरे, तो चल न. 4 दिन बाद ही लद्दाख का 10 दिन का ट्रिप प्लान किया है. सारा अरेंजमैंट हो चुका है. 10 लेडीज का ग्रुप ले कर जाते हैं, पर मैं तुझे शामिल कर लूंगी. मजा आएगा. चलेगी न? लैट्स हैव फन… इसी बहाने पुरानी यादों को ताजा भी कर लेंगे… तू बस हां कर दे… मैं बाकी सारी व्यवस्था कर लूंगी और हां तुझे डिस्काउंट भी दे दूंगी.’’

‘‘बिलकुल… मैं तैयारी कर लेती हूं. ऐसा मौका कौन गंवाना चाहेगा,’’ सुनयना ने चहकते हुए कहा.

पर जय को जैसे ही उस ने यह बात बताई उस का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया. बोला, ‘‘दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा… इतना पैसा बरबाद करोगी… फिर ऐसी औरतें जिन के साथ तुम जा रही हो न सब फ्रस्ट्रेटेड होती हैं… या तो इन की शादी नहीं हुई होती है या फिर तलाकशुदा होती हैं अथवा पति से अलग रह रही होती हैं वरना क्यों बनातीं वे ऐसा ग्रुप, जो केवल औरतों के लिए हो? न जाने ये औरतें क्याक्या करती हैं… घूमने के बहाने क्या गुल खिलाती हैं… कोई जरूरत नहीं है तुम्हें जाने की. पुरुषों के लाइफ में न होने पर आपस में ही संबंध बना लेती होंगी तो भी कोई बड़ी बात नहीं… पुरुषों की न सही, औरतों की ही कंपनी सही… यही फंडा होता है इन का. सब की सब बेकार की औरतें होती हैं. ऐक्सपैरिमैंट करने के चक्कर में यहांवहां घूमती हैं और स्वयं को इंटेलैक्चुअल कह समाज को दिखाती हैं कि अकेले भी वे बहुत कुछ कर सकती हैं. ऐसी औरतें सैक्सुअल प्लैजर को तरसने वाले वर्ग में आती हैं. तुम्हें तो नहीं है न मुझ से कोई ऐसी शिकायत?’’ जय ने व्यंग्य कसा.

‘‘छि:… तुम्हारी इस तरह की सोच पर मुझे हैरानी होती है जय. तुम्हें क्या लगता है कि जो औरतें अकेले बिना पति के या बिना किसी पुरुष के फिर चाहे वह उन का पिता हो या पुत्र अथवा भाई अकेले कुछ करती हैं तो उन में

कोई खोट होता है या वे फ्रस्ट्रेट होती हैं? अपनी खुशी से कुछ पल गुजारना क्या इतने प्रश्नचिन्ह लगा सकता है, मैं ने कभी सोचा न था… और यह सैक्सुअल प्लैजर की बात कहां से आ गई… मुझे तुम से किसी तरह की बहस नहीं करनी है. मैं नहीं जाती… लेकिन तब तुम्हें मुझे ले कर जाना होगा.’’

सुनयना की बात सुन तिलमिला गया जय. चुपचाप दूसरे कमरे में चला गया.

मानसी और अन्य 2 फ्रैंड्स से मिल सुनयना बहुत अच्छा महसूस कर रही थी. जय की रूढि़वादी मानसिकता और रोकटोक से मुक्त वह 1-1 पल ऐंजौय कर रही थी. लद्दाख की प्राकृतिक सुंदरता अभिभूत करने वाली थी. वहां जा कर ऐसा महसूस होता है मानो पूरी दुनिया की छत पर घूम रहे हैं. लद्दाख की ऊंचाई इतनी है मानो हम धरती और आकाश के बीच खड़े हैं. लद्दाख का नीला पानी और ताजा हवा उस पर जादू सा असर कर रही थी. मानसी ने उसे बताया कि लद्दाख भारत का ऐसा क्षेत्र है जो आधुनिक वातावरण से बिलकुल अलग है. वास्तविकता से जुड़ी पुरानी परंपराओं को समेटे हुए है यहां का जीवन. जो पर्यटक यहां आते हैं उन्हें लद्दाख का जनजीवन, संस्कृति और लोग दुनिया से अलग लगते हैं. महान बुद्ध की परंपरा को वहां के लोगों ने आज भी सहेज रखा है. इसी कारण लद्दाख को छोटा तिब्बत भी कहा जाता है. छोटा तिब्बत कहने का एकमात्र कारण यह है कि यहां तिब्बती संस्कृति का प्रभाव दिखाईर् देता है. यह अपनेआप में इतना अद्भुत है कि हर किसी को आकर्षित करता है. पहाड़ों के बीच बने यहां के गांव, आकाश छूते स्तूप और खड़ी व पथरीली चट्टानों पर बने मठ ऐसे दिखाई देते हैं जैसे हवा में झूल रहे हों.

सुनयना को लग रहा था कि वह बहुत लंबे समय के बाद अपने हिसाब से जी रही है. उस ने तय कर लिया कि वह अब मानसी के साथ अकसर ऐसे ट्रिप में आया करेगी.

10 दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला मानसी को. एकदम रिलैक्स हो कर जब वह लौटी तब तक राघव भी वापस आ चुका था. दोनों एकदूसरे के साथ अपने ट्रिप के अनुभवों को शेयर कर रहे थे कि अचानक जय भड़क गया, ‘‘पता नहीं दोनों क्या तीर मार कर आए हैं, जो इतने खुश हो रहे हैं… और तुम सुनयना जरूरत से ज्यादा खिली हुई लग रही हो. क्या बात है? उन औरतों का साथ कहीं ज्यादा तो नहीं भा गया तुम्हें? कहीं उन औरतों का रंग तो नहीं चढ़ गया है तुम पर?’’

मानसी जो जय के व्यवहार व सोच से पहले ही दुखी रहती थी, अब उस से कटीकटी रहने लगी. उस की बातें, उस के कटाक्ष सीधे उस के दिल पर चोट करते थे. उस के बाद दोनों के बीच तनाव बहुत बढ़ गया. कैसेकैसे इलजाम लगाता है जय. वह जब भी उस के साथ सैक्स संबंध बनाने की कोशिश करता वह उस का हाथ झटक देती… हद होती है, किसी बात की. इतने ताने सुनने के बाद कैसे वह जय के करीब जा सकती थी… थोड़ी देर पहले किसी का दिल दुखाओ और फिर उस के शरीर को पाना चाहो, आखिर कैसे संभव है यह? मन खुश न हो तो तन कैसे साथ देगा?

जय की तिलमिलाहट सुनयना के  इस व्यवहार से और बढ़ गई. एक रात उस के करीब आने की कोशिश में जब सुनयना ने उसे धक्का दे दिया तो वह चिल्लाने लगा, ‘‘सब समझ रहा हूं मैं तुम में आए इस बदलाव की वजह…

औरतों के साथ रहोगी तो पति का साथ कैसे अच्छा लगेगा? स्वाद जो बदल गया है तुम्हारा अब…. देख रहा हूं मानसी से भी खूब मिलने लगी हो तुम.’’

सुनयना यह सुन सकते में आ गई, ‘‘क्या कहना चाहते हो तुम? साफसाफ कहो.’’

‘‘साफसाफ क्यों सुनना चाहती हो, समझ जाओ न खुद ही,’’ जय ने ताना मारा.

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूं. जब से घूम कर लौटी हूं तुम कुछ न कुछ मुझे सुनाते ही रहते हो… आखिर ऐसा क्या बदल गया मुझ में?’’ सुनयना का चेहरा लाल हो गया था.

‘‘तुम तो पूरी ही बदल गई हो. मुझे तो लगता है कि तुम लेस्बियन बन गई हो. इसलिए मेरे स्पर्श से भी दूर भागती हो.’’

सुनयना अवाक खड़ी रह गई. कैसे जय ने इतनी आसानी से रिश्ते की सारी गरिमा को कलंकित कर दिया था… अगर महिला दोस्तों के साथ कोई महिला घूमने जाए तो लेस्बियन कहलाती है और पुरुष मित्रों के साथ घूमे तो चरित्रहीन… समाज की खोखली परिभाषाएं उसे परेशान कर रही थीं.

अब जय रात को देर से घर लौटने लगा. वह कुछ पूछती तो कहता कि घूमता रहता हूं दोस्तों के साथ, पर जान लो मैं गे नहीं हूं. बीचबीच में उस के कानों में यह बात जरूर पहुंच रही थी कि जय आजकल बहुत सी औरतों से मिलता है. उन्हें घुमाने ले जाता है, मूवी भी देखता है और शायद उन के साथ संबंध भी बनाता है. सुनयना इन सब बातों पर विश्वास नहीं करना चाहती थी पर एक दिन जय की शर्ट पर लिपस्टिक के निशान देख उस का शक यकीन में बदल गया. हालांकि पहले भी उस के कई दोस्तों ने उसे चेताया था कि जय के कदम डगमगा रहे हैं, पर उन की बातों को नजरअंदाज कर देती थी.

रात को जब जय लौटा तो नशे की हालत में था. शराब की बदबू कमरे में फैल गई थी. सुनयना ने गुस्से में जब जय से सवाल किया

तो वह चिल्लाया, ‘‘मेरी जासूसी करने लगी हो. खुद लद्दाख में ऐय्याशी कर के आई हो और मुझ से सवाल कर रही हो. तुम तो एकदम ही बदल गई हो. जब तुम मुझे सैक्स सुख नहीं दोगी तो कहीं तो जाऊंगा या नहीं. हां, मेरे संबंध हैं कई औरतों से तो इस में गलत क्या है? कम से कम पुरुषों से तो नहीं हैं… तुम लेस्बियन बन गई हो पर मैं….’’

‘‘जय मेरी बात सुनो, मैं नहीं बदली हूं. मुझे तुम्हारा साथ, स्पर्श अच्छा लगता है, पर तुम्हारा व्यवहार कचोटता है मुझे… एक बार मुझे समझने की कोशिश तो करो…’’

मगर सुनयना की बात ठीक से सुने बिना ही जय बिस्तर पर लुढ़क गया था. सुनयना को समझ नहीं आ रहा था कि जय ने उस पर अपने दोष छिपाने के लिए इतना बड़ा इलजाम लगाया था ताकि उसे और औरतों से संबंध बनाने का लाइसैंस मिल जाए या फिर उसे उस के  ट्रिप पर जाने की सजा दे रहा था.

दहकता पलाश: क्या प्रवीण के दोबारा जिंदगी में आने से खुश रह पाई अर्पिता?

‘‘अरे अर्पिता तुम?’’

अपना नाम सुन कर अर्पिता पीछे मुड़ी तो देखा, एक गोरा स्टाइलिश बालों वाला लंबा व्यक्ति उस की ओर देख कर मुसकरा रहा था. अर्पिता ने उसे गौर से देख कर पहचाना तो उत्साह से चहक कर बोली, ‘‘अरे प्रवीण तुम… यहां कैसे?’’

‘‘3 महीने पहले ही मेरी यहां पोस्टिंग हुई है और तुम अब भी यहीं हो?’’ प्रवीण ने उस से पूछा.

‘‘हां, मैं तो यहीं हूं. बस घर का पता बदल गया है,’’ अर्पिता ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां उस की निशानी तो मैं देख रहा हूं,’’ प्रवीण ने मंगलसूत्र की तरफ इशारा किया तो दोनों हंस पड़े.

‘‘आओ न, यहां पास के रैस्टोरैंट में चल कर बैठते हैं,’’ प्रवीण ने सुझाव दिया तो अर्पिता इनकार नहीं कर पाई. फिर दोनों रैस्टोरैंट में एक कोने वाली टेबल पर जा कर बैठ गए.

‘‘तुम तो अब भी पहले जैसी हो, जरा भी नहीं बदलीं,’’ बेयरे को कौफी का और्डर देते हुए प्रवीण बोला.

‘‘वैसी कहां हूं मैं, थोड़ी मोटी तो हो ही गई हूं. हां, तुम जरूर बिलकुल पहले जैसे ही हो,’’ अर्पिता ने कहा.

‘‘मैं कहना चाह रहा था कि तुम्हारा चेहरा आज भी वैसा ही नाजुक और मासूम है, जैसा 7-8 साल पहले था. तभी तो मैं तुम्हें देखते ही पहचान गया…’’ प्रवीण ने अर्पिता को भरपूर नजर से देखते हुए कहा तो वह शरमा गई.

‘‘चलो छोड़ो, तुम क्या मेरे चेहरे को ले कर बैठ गए. यह बताओ कि आज भरी दोपहरी में बाजार में क्या कर रहे थे?

कालेज छोड़ने के बाद क्या किया? तुम तो आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे थे न, क्या हुआ? और इतने दिन कहां रहे? अभी क्या काम कर रहे हो?’’ अर्पिता ने एक के बाद एक इतने सारे सवाल कर डाले कि प्रवीण हड़बड़ा गया.

‘‘तुम ने तो प्रैस वालों की तरह एक के बाद एक ढेर सारे सवाल कर डाले. पहले किस सवाल का जवाब दूं यही समझ में नहीं आ रहा,’’ फिर हंसते हुए बोला, ‘‘मैं बी.ए. करने के बाद आई.ए.एस. की कोचिंग करने इंदौर चला गया था, यह तो तुम्हें पता ही है. 2 साल जम कर मेहनत की पर पहली बार में सिलैक्शन नहीं हुआ. पर दूसरे अटैंप्ट में मैं सिलैक्ट हो ही गया. फिर मेन ऐग्जाम फिर इंटरव्यू. 6-7 साल के बाद अब जा कर मनचाही पोस्ट मिली है और चार इमली पर एक घर भी अलौट हुआ है.’’

‘‘अरे वाह,’’ अर्पिता के चेहरे पर प्रशंसा के भाव आ गए, ‘‘वहां के मकान तो बहुत बड़े और सुंदर है.’’

‘‘हां, उसी के लिए थोड़ाबहुत फर्नीचर देखने आया था. अब तो पापा का भी ट्रांसफर फिर से यहां हो गया है. अगले हफ्ते वे लोग भी यहां आ जाएंगे,’’ प्रवीण ने बताया.

‘‘और तुम्हारी पत्नी? शादी की या नहीं की अब तक?’’ अर्पिता ने पूछा.

‘‘नहीं, अभी तक तो नहीं की. 1-2 साल जरा सर्विस में जम जाऊं फिर सोचूंगा. अब

मैं तुम्हारी तरह सवालों की झड़ी नहीं लगाऊंगा, तुम खुद ही अपने बारे में बता दो,’’ प्रवीण ने कौफी का खाली प्याला नीचे रखते हुए कहा.

‘‘कुछ खास नहीं. बी.ए. करने के बाद मैं ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया. अभी शहर के 4-5 बुटीक्स के लिए सूट्स डिजाइन करती हूं. रोजरोज आनेजाने की झंझट नहीं है. जब उन को जरूरत होती है बुला लेते हैं. बस कमाई भी हो जाती है और शौक भी पूरा हो जाता है. अगर मन हुआ तो अपना एक बुटीक भी खोल लूंगी. बस मेरी तो सीधीसादी छोटी सी कहानी है,’’ अर्पिता ने बताया.

‘‘और तुम्हारे पतिदेव क्या करते हैं?’’ प्रवीण ने पूछा.

‘‘वे एक प्राइवेट कंपनी में हैं और अकसर टूर पर रहते हैं,’’ अर्पिता के मुंह पर पति के टूर पर रहने की बात कहने पर हलकी सी मायूसी छा गई जिसे प्रवीण ने भांप लिया. वह तुरंत ही बातचीत का विषय कालेज के दिनों और पुराने साथियों की तरफ ले गया. फिर 2 घंटे कब निकल गए पता ही नहीं चला. फिर दोनों ने एकदूसरे के फोन नंबर लिए और अपनेअपने घरों की ओर लौट गए.

अर्पिता जब घर पहुंची तब तक उस के पति आनंद घर नहीं पहुंचे थे. बाजार से लाया सामान टेबल पर रख कर वह टीवी औन कर के बैठ गई, लेकिन आज उस का मन टीवी देखने में नहीं लग रहा था. वह तो प्रवीण के बारे में सोच रही थी.

वह और प्रवीण 8वीं कक्षा से साथसाथ पढ़े थे. कालेज में भी दोनों एक ही सैक्शन में थे. अन्य लड़कों की अपेक्षा प्रवीण अंतर्मुखी और मेधावी लड़का था. वह फ्री पीरियड में भी बाकी लड़कों की तरह ऊधम, मस्ती न करते हुए कुछ न कुछ पढ़ता रहता था. क्लास के अन्य लड़कों से अलग प्रवीण को स्कूल या कालेज की किसी भी लड़की में दिलचस्पी लेते हुए कभी किसी ने नहीं देखा था. प्रवीण के स्वभाव की इसी खूबी से अर्पिता मन ही मन उस से प्रभावित थी. फर्स्ट ईयर के अंत तक जहां क्लास के प्रत्येक लड़के की क्लास की या दूसरे क्लास की या महल्ले की किसी लड़की के साथ अफेयर की बातें सुनाई देती थीं, वहीं प्रवीण के बारे में अर्पिता ने कभी भी ऐसी कोई बात नहीं सुनी.

प्रवीण दिखने में बहुत अच्छा था. ऊंचा कद, हलके घुंघराले बाल, गोरा रंग, तीखी नाक. वह क्लास में ही क्या कालेज में सब से स्मार्ट लड़के के रूप में मशहूर हो गया था. पास से गुजरती लड़की चाहे जूनियर हो चाहे सीनियर एक बार तो भरपूर नजर से उसे देखती जरूर थी. प्रवीण के रंगरूप और बुद्धि पर फिदा बहुत सी लड़कियां उस पर मरती थीं, लेकिन वह आंख उठा कर भी किसी की ओर नहीं देखता था.

फाइनल तक पहुंचतेपहुंचते अर्पिता से उस की अच्छी पटने लगी थी, क्योंकि क्लास में प्रवीण के बाद अर्पिता ही पढ़ाई में तेज थी. विभिन्न चैप्टर्स और किस किताब में कौन सा चैप्टर कितना अच्छा है इस विषय पर क्लास में या लाइब्रेरी में दोनों देर तक बातें करते रहते थे. प्रवीण से दोस्ती की वजह से कई लड़कियां अर्पिता से ईर्ष्या करने लगी थीं. वर्ष के अंत तक अर्पिता भी प्रवीण के प्रति एक अलग ही आकर्षण महसूस करने लगी थी. उसे यह भी लगने लगा था कि प्रवीण का उसे देखने का अंदाज भी कुछ बदल सा गया है.

एक दिन फ्री पीरियड में दोनों लाइब्रेरी में बैठे थे. अर्पिता किताब पढ़ने में तल्लीन थी. बीच में इतिहास की एक तारीख समझ में न आने के कारण उस ने प्रवीण से पूछने के लिए सिर ऊपर उठाया तो देखा वह किताब टेबल पर रख कर खोईखोई सी नजरों से उसे देख रहा था.

अर्पिता का दिल बड़ी जोर से धड़कने लगा. वह भी बिना कुछ कहे अपनी किताब देखने लगी, लेकिन बड़ी देर तक उस के मन में एक हलचल सी होती रही.

इस के बाद अर्पिता को लगने लगा कि वह शायद धीरेधीरे प्रवीण की ओर आकर्षित होती जा रही थी. कालेज में प्रवेश करते ही उस की नजरें प्रवीण को खोजती रहतीं.

क्लास में बैठे हुए भी अर्पिता की नजरें दरवाजे पर ही टिकी रहतीं और जैसे ही प्रवीण अंदर आता अर्पिता का दिल बड़ी जोरजोर से धड़कने लगता.

अर्पिता के मन में भावनाओं के कई नएनए, अनजाने मगर अपने से लगने वाले रंग तैरने लगे थे. लेकिन दोनों ही ओर से ये रंग भावनाओं का रूप ले कर शब्दों में अभिव्यक्त हो पाते, फाइनल ऐग्जाम सिर पर आ गए और फिर लास्ट पेपर जिस दिन था उसी दिन प्रवीण अपने मातापिता के साथ इंदौर चला गया, क्योंकि उस के पिता का वहां ट्रांसफर हो चुका था. वे तो बस प्रवीण के पेपर की खातिर ही रुके थे. प्रवीण एक ख्वाहिश भरी नजर अर्पिता पर डाल कर चला गया.

दोनों के बीच जो भी था बस मूक ही रहा. कभी शब्दों या भावनाओं के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाया, इसलिए कोई किसी का इंतजार भी क्या करता. अर्पिता ने फैशन डिजाइनर का कोर्स किया और जब उस के मातापिता ने आनंद को उस के जीवनसाथी  के रूप में चुना तो उस ने भी उन की इच्छा का सम्मान करते हुए अपनी स्वीकृति दे दी.

आनंद के साथ उस का जीवन आराम से गुजर रहा था. आनंद अर्पिता का बहुत ध्यान रखता था, लेकिन उस के बारबार टूर पर जाने और काम में अत्यधिक व्यस्त रहने से अर्पिता अकेलापन महसूस करती थी. दिन तो घर के काम और बुटीकों के डिजाइन वगैरह तैयार करने में कट जाता, लेकिन उदास शामें और तनहा रातें उसे काट खाने को दौड़तीं. आनंद के बगैर वह सारीसारी रातें पलंग पर करवटें बदलते हुए गुजार देती. महीनों वह आनंद के साथ पिक्चर देखने या कहीं बाहर घूमने जाने को तरस जाती. लेकिन फिर भी आनंद की भी मजबूरी समझ कर वह अपने मन को समझा लेती.

अर्पिता एक गहरी सांस ले कर उठी. आज प्रवीण से मिल कर न जाने क्यों वह अपने अंदर बहुत खुशी महसूस कर रही थी. मन के कोने में बरसों से दबे हुए जिन रंगों पर समय की धूल पड़ गई थी, उन्हें जैसे किसी ने पानी की कुनकुनी फुहारें बरसा कर धो दिया था. और फीके पडे़ रंग धुल जाने से ताजे हो कर चमचमाने लगे थे.

2 दिन बाद बुटीक से आ कर अर्पिता चाय पीते हुए एक फैशन मैगजीन में कपड़ों के लेटैस्ट डिजाइन देख रही थी कि फोन बज उठा. अर्पिता ने फोन उठाया, ‘‘हैलो…’’

‘‘हैलो, क्या कर रही हो अर्पिता?’’ उधर से प्रवीण का स्वर सुनाई दिया.

‘‘अरे, तुम?’’ अर्पिता का स्वर और चेहरा दोनों खिल गए.

‘‘हां सुनो, संग्रहालय में मणिपुरी कलाकारों की बहुत अच्छी प्रस्तुति है. सारा इंतजाम मेरी ही देखरेख में चल रहा है. तुम लोग आ जाओ,’’ प्रवीण ने कहा.

‘‘आनंद तो टूर पर बैंगलुरु गए हुए हैं. मैं अगर आई तो लौटते वक्त रात हो जाएगी. मैं अकेली इतनी दूर रात में वापस कैसे आऊंगी?’’ अर्पिता के स्वर में मायूसी छा गई.

‘‘बस इतनी सी बात,’’ प्रवीण हंसते हुए बोला, ‘‘अरे पगली मेरे होते हुए तुम्हें अकेले आने की क्या जरूरत है? तुम ठीक 5 बजे तैयार रहना, मैं ड्राइवर को भेज दूंगा तुम्हें ले आने को. मैं बहुत बिजी हूं नहीं तो खुद आ जाता,’’ इतना कह कर बिना जवाब का इंतजार किए प्रवीण ने फोन काट दिया. अर्पिता मुसकरा दी.

प्रवीण ने उस दिन बताया कि वह संस्कृति विभाग में एग्जीक्यूटिव डायरैक्टर है. उसे यों भी भारतीय लोक संस्कृति से बहुत लगाव था. स्कूल, कालेज में भी वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन व संचालन करने में हमेशा आगे रहता था.

अर्पिता को भी सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनियां आदि देखने का बहुत शौक था लेकिन आनंद को कभी भी टाइम नहीं मिलता. संडे को भी आनंद अकसर या तो औफिस में या फिर घर पर ही कोई न कोई काम करता रहता था. 4 साल पहले 10 दिनों के लिए वे हनीमून पर गए थे. उस के बाद से आनंद लगातार अपने काम में व्यस्त ही रहा है.

5 बजे बाहर गाड़ी का हौर्न सुन कर अर्पिता ने खिड़की से झांक कर देखा. बाहर एक गाड़ी खड़ी थी. अर्पिता समझ गई कि यह गाड़ी प्रवीण ने ही भेजी होगी. वह ताला लगा कर बाहर आ गई.

‘‘आप अर्पिताजी हैं?’’ ड्राइवर ने गाड़ी से उतरते हुए पूछा. और अर्पिता के ‘हां’

कहते ही दरवाजा खोल दिया. अर्पिता गाड़ी में बैठ गई. संग्रहालय पहुंच कर ड्राइवर ने उसे प्रवीण के पास पहुंचा दिया और वापस चला गया.

‘‘आओ अर्पिता,’’ प्रवीण ने आगे बढ़ कर उस का स्वागत किया और उसे ले कर आगे चल कर सब से आगे के एक सोफे पर बैठा कर बोला, ‘‘तुम थोड़ी देर यहां बैठो मैं जरा व्यवस्था देख कर आता हूं. कार्यक्रम बस 10 मिनट में शुरू हो जाएगा.’’

10 मिनट बाद ही प्रवीण आ कर उस के बगल बैठ गया. कार्यक्रम शुरू हुआ और कलाकार अपनी मनोरम प्रस्तुतियां देने लगे. बेयरे पानी, चाय, कौफी और स्नैक्स वगैरह सर्व कर रहे थे. प्रवीण अर्पिता को अपने विभाग और विभाग के अन्य लोगों के बारे में बताता जा रहा था.

सुरमई शाम, सुहावना मौसम, सामने नृत्य व संगीत की प्रस्तुति. अर्पिता को लग रहा था कि वह सपनों के लोक में पहुंच गई है. कुछ बात कहने के लिए जब प्रवीण उस की ओर झुका तो उस का कंधा अर्पिता के कंधे से छू गया. अर्पिता का दिल अचानक वैसे ही जोर से धड़कने लगा जैसे कालेज के दिनों में प्रवीण को पहली बार अपनी ओर देखता पा कर धड़का था.

दिल में सालों से दबी हुई कोई कुंआरी अनछुई सी अनुभूति अचानक ही जाग गई. मन में न जाने कब से सोए पड़े एहसास अंगड़ाई ले कर जाग गए. अर्पिता को लग रहा था जैसे वह कुंआरी है और उस के कुंआरे मन में आज पहली बार किसी के प्रति कोई अनजानी सी कशिश, अनजाना सा रोमांच महसूस किया है. प्रवीण के साथ पहली पंक्ति में बैठी वह और चारों ओर बड़ेबड़े सरकारी अफसर और गणमान्य अतिथि. सब कुछ कितना भव्य लग रहा था.

तालियों की गड़गड़ाहट से अर्पिता की तंद्रा भंग हुई. कार्यक्रम समाप्त हो चुका था. प्रवीण ने अपने साथी अफसरों और उन की पत्नियों से अर्पिता की पहचान कराई. देर तक सब से बातें होती रहीं फिर डिनर के बाद प्रवीण उसे घर पहुंचा कर चला गया. विवाह के बाद शायद यह पहली शाम थी, जो अर्पिता अपनी मरजी से अपनी खुशी के लिए इतनी अच्छी तरह से बिताई थी.

उस रात पलंग पर लेटी अर्पिता देर तक प्रवीण के बारे में और उस शाम के बारे में सोचती रही. उस के मन की गहराई में एक कसक सी उठी कि काश, उस समय वह अपनी भावनाओं को प्रवीण के सामने व्यक्त कर देती तो आज प्रवीण के बगल में वह अधिकारपूर्वक बैठी होती. आज तो यह जाहिर ही है कि जल्दी ही उस की भी शादी हो जाएगी और फिर उस के साथ उस की पत्नी बैठा करेगी.

अर्पिता हमेशा चाहती थी कि उस की शादी किसी ऊंचे पद वाले सरकारी अधिकारी से हो और बड़ा बंगला, नौकरचाकर, गाड़ी हो. अर्पिता खिड़की से झांकते चांद में अपने सपनों का चेहरा तलाशती पता नहीं कब गहरी नींद में सो गई.

दूसरे दिन प्रवीण की छुट्टी थी. वह सुबह ही अर्पिता को लेने आ पहुंचा. सिर से पैर तक सादगी में लिपटी वह इतनी सुंदर लग रही थी कि प्रवीण उसे देखता ही रह गया. अर्पिता का दिल जोर से धड़क गया. उस ने तुरंत ही प्रवीण के चेहरे से अपनी नजरें हटा लीं और दूसरी ओर देखने लगी. प्रवीण मुसकरा दिया.

दिन भर प्रवीण और अर्पिता आसपास की जगहों में घूमतेफिरते रहे. दोनों एक जगह लगी चित्र प्रदर्शनी भी देखने गए. शाम को दोनों ने भारत भवन में नाटक देखा. लंच और डिनर भी बाहर ही किया. चित्र प्रदर्शनी व नाटक देखते और साथ में घूमते जब प्रवीण की बांह अर्पिता की बांह से छू जाती तब अर्पिता के शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती.

आनंद के साथ उसे यह अनुभूति कभी नहीं हो पाई थी, क्योंकि आनंद के मन ने आज तक उस के मन की कोमल अभिरुचियों को छुआ ही नहीं था. आनंद का साहचर्य अर्पिता के तनमन के पलाश को आज तक खिला नहीं पाया था.

चित्र प्रदर्शनी में दोनों देर तक 1-1 चित्र के ऊपर आपस में चर्चा करते रहे. एक जैसी रुचियां बातचीत के कितने मार्ग प्रशस्त कर देती हैं, अर्पिता को पहली बार लगा.

डिनर के बाद प्रवीण अर्पिता को घर तक छोड़ने आया तो अर्पिता ने उस से बहुत आग्रह किया कि वह कौफी पी कर जाए लेकिन प्रवीण बाहर से ही चला गया.

अर्पिता कपड़े बदल कर पलंग पर लेट गई. आज उसे लग रहा था कि वह एक सुंदर बगीचे में खड़ी है और उस के चारों ओर सुर्ख पलाश खिल रहा है. देर तक वह फूलों की मादक गंध से सराबोर हो कर मन ही मन महकती रही.

2 दिनों तक अर्पिता स्वप्नलोक में खोई उन्हीं भावनाओं में विचरती रही. तीसरे दिन आनंद टुअर से वापस आ गया तो अर्पिता भी स्वप्नलोक से निकल कर यथार्थ में आ गई. जीवन अपनी गति से चलता रहा. लेकिन अर्पिता के लिए जीवन में एक नया रोमांच भर गया था. घर और बुटीक्स से उसे जब भी समय मिलता और प्रवीण को फुरसत होती, दोनों कहीं न कहीं घूमने चले जाते. कभी चित्रों की तो कभी फूलों की या क्राफ्ट की प्रदर्शनी में. कभी किसी नाटक का मंचन देखने तो कभी किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम या मेले में.

अर्पिता के तनमन में प्रवीण की नजदीकियों से एक अलग ही खुमारी छाती जा रही थी. वह प्रवीण के चेहरे पर भी अपने प्रति आकर्षण के विशिष्ट भाव ढूंढ़ने का प्रयास करती, लेकिन प्रवीण उसे बिलकुल सहज व संतुलित नजर आता. अर्पिता समझ नहीं पा रही थी कि प्रवीण उसे बस एक बहुत अच्छी दोस्त भर समझता है या फिर उस का उस से खास लगाव भी है. अर्पिता देर तक अकेले में इसी ऊहापोह में पड़ी रहती पर समझ नहीं पाती तब सिर को झटका दे कर अपनेआप को यही समझाती कि मुझे क्या करना, प्रवीण का साथ और अटैंशन मिल रहा है यही बहुत है.

इस तरह 6-7 महीने बीत गए. आनंद इतने महीनों में काम में अधिक व्यस्त हो गया था और अर्पिता अकेली होती चली गई थी.

घर का अकेलापन अर्पिता को काट खाने को दौड़ता था. ऐसे में प्रवीण का साथ ही था जिस ने उसे संबल दिया हुआ था. कभीकभी अर्पिता के मन के साथसाथ तन भी प्रवीण की नजदीकियां पाने के लिए मचल उठता था. खासतौर पर तब, जब आनंद कईकई दिनों कंपनी के काम की वजह से शहर से बाहर रहता था.

पलंग पर करवटें बदलती अर्पिता सोचने लगती कि काश… लेकिन प्रवीण का संतुलित व्यवहार और अर्पिता के संस्कार अर्पिता को मर्यादा की सीमा पार नहीं करने देते थे. कभीकभी आनंद के साथ रहते हुए अर्पिता को अचानक ग्लानि और अपराधबोध सा महसूस होने लगता था कि वह उस के साथ विश्वासघात तो नहीं कर रही? ऐसे में वह आनंद से सहज हो कर आंखें नहीं मिला पाती थी. उसे लगता था कि कहीं वह उस का चेहरा देख कर मन के भावों को पढ़ न ले. पर आनंद के टुअर पर जाते ही अर्पिता निश्चिंत हो जाती और अपनी भावनाओं की मादकता में खोई रहती.

इसी बीच प्रवीण के पिताजी रिटायर हो गए तो वे और प्रवीण की मां प्रवीण के पास ही आ कर रहने लगे. प्रवीण की मां जोरशोर से प्रवीण के लिए लड़की तलाशने लगीं ताकि उस का विवाह हो जाए. अर्पिता ऐसी खबरों पर ऊपर से तो सहज रहती लेकिन अंदर ही अंदर अत्यंत चिंतित हो जाती. पर जब सुनती किसी कारण बात नहीं बन पाई तो चैन की सांस लेती.

तभी प्रवीण के लिए एक बहुत ही अच्छा रिश्ता आया. घरपरिवार भी बहुत अच्छा था और लड़की भी बहुत योग्य थी. प्रवीण की मां की इच्छा थी कि उस का रिश्ता यहां पक्का हो जाए. बस प्रवीण ही था, जो आनाकानी कर रहा था. अर्पिता भी मन ही मन बेचैन थी. वह जानती थी कि उस का सोचना गलत है पर प्रवीण की शादी हो जाएगी यह बात सोच कर वह मन ही मन एक पीड़ा का अनुभव करती थी. इस बात को ले कर उस का मन उदास सा रहता था.

प्रवीण अर्पिता को उदास देख कर उस से पूछता रहता था कि उस की उदासी का क्या कारण है पर अर्पिता क्या बताती, कैसे बताती. कैसे कहती प्रवीण से कि वह शादी न करे. उसे उदास देख कर अपनी व्यस्तता के बावजूद प्रवीण समय निकाल कर उस से बराबर संपर्क बनाए रखता और उसे खुश रखने का प्रयत्न करता रहता. अर्पिता आनंद और प्रवीण की तुलना कर के एक गहरी सांस भर कर रह जाती. प्रवीण व्यस्त रहते हुए भी उस का हालचाल पूछने के लिए समय निकाल लेता था, लेकिन आनंद कभी भी काम के बीच में से समय निकाल कर पूछताछ नहीं करता था कि वह कैसी है, उसे कोई परेशानी तो नहीं है.

आनंद की कंपनी उसे ट्रेनिंग के लिए कैलिफोर्निया भेज रही थी. उसे साल भर के लिए वहां ठहरना था और 15 दिन के भीतर ही दिल्ली से फ्लाइट पकड़नी थी. आनंद के जाने के नाम से अर्पिता एक ओर जहां खुद को दुखी महसूस कर रही थी वहीं दूसरी ओर खुश भी थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि प्रवीण के साथ घूमते हुए जो थोड़ीबहुत झिझक होती थी, वह अब नहीं रहेगी.

‘‘तुम अकेली कैसे रहोगी साल भर? अपने मम्मीपापा के यहां शिफ्ट हो जाओ,’’ आनंद ने कहा.

‘‘मम्मी का घर तो शहर के दूसरे कोने में है. वहां से तो मुझे बुटीक काफी दूर पड़ेंगे. फिर बेवजह घर को साल भर बंद रखने से क्या फायदा? इतने सारे सामान की देखभाल कौन करेगा? कभीकभी मैं वहां चली जाया करूंगी या बीचबीच में उन्हें यहां बुला लिया करूंगी. आप मेरी चिंता मत कीजिए,’’ अर्पिता ने आनंद को आश्वस्त कर दिया.

वैसे आनंद के साथ रहते हुए भी एक तरह से अर्पिता अकेली ही रहती आई है. फिर मम्मीपापा के यहां रहे तो प्रवीण से मिलना कहां हो पाएगा? मम्मी के सामने वह प्रवीण से बात भी नहीं कर पाएगी. यह सब सोच कर उस ने अपने घर पर ही रहना ठीक समझा. अर्पिता के पिताजी अभी रिटायर नहीं हुए थे, उन का औफिस घर के पास ही था. इसलिए वे लोग साल भर के लिए अर्पिता के पास आ कर रह पाएंगे, इस की भी संभावना कम थी.

15 दिनों बाद आनंद कैलिफोर्निया चला गया. अर्पिता के मातापिता 5-6 दिन उस के साथ रह कर अपने घर चले गए. अब अर्पिता के सामने अपनी खुशियों का उन्मुक्त और विस्तृत खुला आसमान था. अब वह अपने पंख फैला कर इस आसमान में जी भर कर उड़ लेना चाहती थी. वर्षों से मन में दबा कर रखी इच्छाएं पंख फड़फड़ाने लगी थीं. प्रवीण का ठाटबाट, प्रतिष्ठा और आनबान देख कर अर्पिता की आंखें चौंधियाने लगी थीं. काश पिताजी उस की शादी की इतनी जल्दी न करते, तो आज उस के पास सब कुछ होता. वह भी सरकारी गाडि़यों में घूमती. बड़े सरकारी बंगले में रहती. नौकरचाकर दिन भर उस की जी हुजूरी करते.

प्रवीण की जिस दिन छुट्टी रहती, वह कभीकभी अर्पिता को अपने घर भी ले जाता था. अर्पिता प्रवीण की मां से बातें करती रहती. प्रवीण के मातापिता को पता था कि अर्पिता और प्रवीण कालेज में साथ पढ़े हैं, इसलिए वे दोनों उन की मित्रता को सहज रूप से लेते थे.

अर्पिता को कभीकभी मन ही मन ग्लानि होती थी अपनेआप पर कि वह आनंद को धोखा दे रही है. कितना विश्वास करता है आनंद उस पर. लेकिन जीवन में सुख की और भी कई इच्छाएं होती हैं. सिर्फ विश्वास के बल पर रिश्ते उम्र भर नहीं ढोए जा सकते. प्रवीण से उस की इच्छाएं, उस की रुचियां उस के विचार मेल खाते हैं, तभी उस का साथ इतना अच्छा लगता है.

‘‘पचमढ़ी चलोगी 2 दिनों के लिए?’’ कौफी हाउस में जब एक दिन दोनों कौफी पी रहे थे तो प्रवीण ने अर्पिता से पूछा.

‘‘अचानक पचमढ़ी?’’ अर्पिता ने आश्चर्यमिश्रित खुशी से पूछा.

‘‘हां, वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत लोकरंग का कार्यक्रम होने वाला है, इसलिए मुझे 2 दिनों के लिए वहां जाना है,’’ प्रवीण ने बताया.

‘‘तुम्हारे साथ और कौन जा रहा है?’’ अर्पिता ने थोड़ी मायूसी से पूछा.

‘‘कोई नहीं. मम्मीपापा तो उस समय इंदौर जा रहे हैं शादी में. बस तुम और मैं चलेंगे,’’ प्रवीण ने कौफी खत्म करते हुए कहा.

अर्पिता के मन की कली खिल उठी. 2 दिन वह पूरा समय प्रवीण के साथ बिताएगी. उसे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई. अगले हफ्ते दोनों पचमढ़ी रवाना हो गए. दिन भर दोनों पचमढ़ी के दर्शनीय स्थलों पर घूमते रहे. शाम 5-6 बजे दोनों गैस्ट हाउस में वापस आए. चाय पी और अपनेअपने कमरों में तैयार होने चले गए. शाम 7 बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने वाला था.

शाम को 7 बजे के पहले प्रवीण ने दरवाजे पर नौक कर के उसे आवाज दी. अर्पिता ने दरवाजा खोला तो वह अर्पिता को देखता रह गया.

‘‘बहुत खूबसूरत लग रही हो अर्पिता,’’ प्रवीण ने उस के गाल से बालों की लट को पीछे हटाते हुए प्रशंसात्मक स्वर में उस की तारीफ की.

यह पहली बार हुआ था कि प्रवीण ने मुक्त कंठ से उस की सुंदरता की तारीफ की थी और उस के गालों को छुआ था. अर्पिता का रोमरोम सिहर गया.

‘‘चलो न,’’ अर्पिता ने आगे बढ़ते हुए कहा.

‘‘2 मिनट रुको तो सही तुम्हें जी भर कर देख तो लूं,’’ प्रवीण ने बांह पकड़ कर अर्पिता को अपने सामने खड़ा कर लिया.

अर्पिता नई दुलहन की तरह शरमा गई. बंधनरहित मुक्त वातावरण में आ कर प्रवीण की झिझक भी दूर हो गई थी. वह मुग्ध भाव से उसे ऊपर से नीचे तक निहारता रहा.

गाड़ी में प्रवीण पिछली सीट पर अर्पिता के साथ ही बैठा. दोनों के बीच की दूरियां सिमट गई थीं. प्रवीण अर्पिता से सट कर बैठा था. अर्पिता की देह की सिहरन पलपल बढ़ती जा रही थी.

आयोजन स्थल पर पहुंच कर प्रवीण थोड़ा अलग हट कर बैठ गया. वहां दूसरे पहचान वालों के साथ प्रवीण ने अर्पिता की मुलाकात अपने दोस्त की पत्नी के रूप में करवाई. मेल मुलाकात के समय ही एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी ने रायपुर से हाल ही में भोपाल ट्रांसफर हो कर आए चौधरीजी से प्रवीण को मिलवाया.

‘‘इन्हें तो तुम जानते ही होगे. चौधरीजी और उन की पत्नी नीलांजना चौधरी. 8 दिन ही हुए हैं इन्हें भोपाल आए हुए. परसों ही जौइन किया है.’’

नीलांजना को देखते ही प्रवीण अचानक सकपका गया. उन्होंने एक भरपूर नजर प्रवीण पर डाली और फिर उस के पास खड़ी अर्पिता को अजीब सी नजरों से देखने लगीं. अर्पिता को उन का देखने का अंदाज अच्छा नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि नीलांजना की आंखें उस की आंखों से होती हुईं उस के मन में छिपे हुए चोर का भेद पा गई हैं. कुछ देर बाद नीलांजनाजी के मुख पर एक तिरछी व्यंग्यात्मक मुसकान तैरने लगी.

अर्पिता अपना ध्यान हटा कर दूसरी ओर देखने लगी. प्रवीण भी जल्दी ही वहां से चला गया. कुछ ही देर में कार्यक्रम शुरू हो गया और सब लोग अपनीअपनी जगह बैठ गए.

अर्पिता को लग रहा था मानो वह स्वप्नलोक में पहुंच गई है. सामने खुले आकाश के नीचे भव्य मंच पर नर्तकों द्वारा नृत्य की प्रस्तुति. वह स्वप्नलोक के सुखसागर में तैरने लगी.

कार्यक्रम समाप्त होने पर वहीं रात के खाने का इंतजाम था. प्रवीण और अर्पिता भी वहीं डिनर करने लगे. खाना खाते हुए जब भी नीलांजना से आमनासामना होता वे अजीब नजरों से घूरघूर कर प्रवीण और अर्पिता को देखने लगतीं. अर्पिता को अच्छा नहीं लग रहा था और प्रवीण भी उन्हें देखते ही अर्पिता को ले कर उन के सामने से हट जाता था.

रात के लगभग 12 बजे दोनों वहां के गैस्ट हाउस वापस आ गए. चौकीदार दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में सोने चला गया. अर्पिता अपने कमरे में जाने लगी तो प्रवीण भी उस के पीछे आ गया और दरवाजा बंद कर के उस ने अर्पिता को अपनी बांहों में भर लिया. अर्पिता के अंगअंग में पलाश की कलियां चटक कर फूल बनने लगीं और वह पलाश के दहकते फूलों की तरह पलंग पर बिछ गई.

2 दिन और 2 रातें प्यार की बड़ी खुमारी में बीत गईं. अर्पिता को लग रहा था कि जैसे वह हनीमून पर आई है. प्यार क्या होता है, कितना रोमांचक और सुखद होता है यह तो उस ने पहली बार ही जाना है. उस का अंगअंग निखर आया. तीसरे दिन सुबह प्रवीण और वह वापस आ गए.

इस के बाद अकसर ही शनिवार रविवार को आसपास के छोटे छोटे टूरिस्ट स्पौट्स, जहां ज्यादा लोगों का आनाजाना नहीं होता था, प्रवीण अर्पिता को ले कर चला जाता. दोनों गैस्ट हाउस या फिर होटल में रुकते. अब तो

2 कमरों की औपचारिकता भी समाप्त हो गई थी. अर्पिता के गले का मंगलसूत्र देख कर गैस्ट हाउस के चौकीदार उसे प्रवीण की पत्नी ही समझते. दोनों 2 दिन साथ रहते मौजमस्ती करते और वापस आ जाते. पड़ोसियों को लगता अर्पिता मां के यहां गई है और मां से अर्पिता किसी सहेली के घर जाने का बहाना कर देती.

धीरेधीरे 7 महीने निकल गए. अर्पिता और प्रवीण का मिलनाजुलना बदस्तूर जारी था. प्रवीण कभीकभी सरकारी काम से इंदौर या रायपुर चला जाता तो अर्पिता से जुदाई के ये दिन काटे नहीं कटते थे. ऐसे ही समय कटता रहा और आनंद को कैलिफोर्निया गए 10 महीने बीत गए. अर्पिता का मन कभीकभी घबरा जाता. वह प्रवीण के साथ इतनी आगे बढ़ गई है, अब लौट कर आनंद के साथ कैसे निभा पाएगी? अगर वह आनंद को तलाक दे दे तो क्या प्रवीण उस से शादी कर लेगा? अब प्रवीण के बिना जिंदगी बिताने के बारे में वह सोच भी नहीं सकती और ऐसी हालत में आनंद के साथ अपने रिश्ते को जबरन ढो भी नहीं सकती. अर्पिता रातदिन सोच में डूबी रहती. वह कैसे दोराहे पर आ कर खड़ी हो गई थी. एक ओर आनंद मम्मीपापा, समाज और दूसरी ओर प्रवीण का साथ.

एक दिन प्रवीण इंदौर गया हुआ था. अर्पिता का मन उदास था. बुटीक में काम निबटा कर अर्पिता पार्लर चली गई. सोचा, फेस मसाज करवा कर थोड़ा रिलैक्स फील करेगी. पार्लर में भीड़ थी, अर्पिता बाहर के रूम में सोफे पर बैठ कर मैगजीन पढ़ने लगी.

‘‘कैसी हो अर्पिता?’’

अपना नाम सुन कर अर्पिता ने चौंक कर सिर उठाया. देखा तो सामने नीलांजना खड़ी थीं, जो उसे पचमढ़ी में मिली थीं. नीलांजना अर्पिता के पास ही सोफे पर बैठ गईं.

‘‘जी मैं ठीक हूं. आप कैसी हैं?’’ अर्पिता ने मुसकरा कर पूछा. 2 मिनट तक दोनों के बीच औपचारिक बातें होती रहीं, फिर अचानक नीलांजना असल बात पर आ गईं.

‘‘प्रवीण को कब से जानती हो?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘जी वह मेरा कालेज के समय का दोस्त है,’’ अर्पिता को उन के हावभाव देख कर आशंका हो रही थी कि वे उस के बारे में ही बात करना चाह रही हैं.

‘‘मैं इधरउधर की बात न कर के सीधी बात पर आती हूं अर्पिता. प्रवीण ठीक आदमी नहीं है. उस का चरित्र अच्छा नहीं है. तुम उस से दूर ही रहो तो ठीक होगा. तुम्हारा उस के साथ अकेले पचमढ़ी जाना और वहां तुम दोनों के एकदूसरे के प्रति जो ऐक्सप्रेशंस थे उस से मैं समझ गई थी कि तुम उस की दोस्त से आगे बढ़ कर कुछ और भी हो,’’ नीलांजना की गहरी आंखें अर्पिता के मन में छिपे चोर को साफ देख रही थीं.

अर्पिता अपनी चोरी पकड़ी जाने से हड़बड़ा गई. नीलांजनाजी ने इतने दृढ़ और विश्वास भरे स्वर में यह बात कही थी कि क्षण भर को अर्पिता को समझ ही नहीं आया कि उन की बात कैसे झुठलाए.

क्षण भर बाद खुद को संयत कर के उस ने कमजोर स्वर में प्रतिवाद किया, ‘‘मैं उसे सालों से जानती हूं. वह तो किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखता था.’’

‘‘तब की बात मैं नहीं जानती. मैं तो आज के प्रवीण को जानती हूं. प्रवीण के कई शादीशुदा औरतों से संबंध हैं. रायपुर में जब यह 6 माह की ट्रेनिंग पर आया था तो वहां के भी एक अधिकारी की खूबसूरत बीवी को अपने जाल में फांस लिया था. यह अब भी वहां जा कर उस से मिलता है,’’ नीलांजना ने बताया तो अर्पिता को लगा कि जैसे उस के चारों ओर एकसाथ सैकड़ों धमाके हो गए हैं. वह सन्न सी बैठी रह गई.

‘‘लेकिन अगर ऐसा ही है तो उसे कुंआरी लड़कियों की क्या कमी, वह शादीशुदा औरतों के पीछे क्यों पड़ेगा भला?’’ अर्पिता ने नीलांजना को गलत साबित करना चाहा.

‘‘प्रवीण बहुत शातिर है. कुंआरी लड़की शादी के सपने देखने लगती है और फिर छोड़े जाने पर व्यर्थ का बवाल खड़ा करती है, जो उस की छवि को खराब करेगा. शादीशुदा औरतों को अगर वह छोड़ भी देता है तो वे आंसू बहा कर चुप रह जाती हैं. अपनी और पति व घर की इज्जत की खातिर वे तमाशा खड़ा नहीं करतीं. बस प्रवीण का काम बन जाता है. जैसा कि उस ने इंदौर के एक बिजनैसमैन की पत्नी के साथ किया.

‘‘पति की अनुपस्थिति में उस के साथ खूब घूमाफिरा, मौजमस्ती की और फिर भोपाल आ गया. वह बेचारी आज भी उस की याद में रो रही है. जहां तक शादी का सवाल है, उस की महत्त्वाकांक्षा बहुत ऊंची है. उस की इच्छा किसी बहुत बड़े अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी से ही शादी करने की रही है. इसीलिए 2 महीने पहले उस ने इंदौर के एक उच्च अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी नीलम से सगाई कर ली है,’’ नीलांजना ने संक्षेप में बताया.

‘‘क्या प्रवीण की सगाई हो गई?’’ अर्पिता बुरी तरह चौंक कर बोली. उसे लगा जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो.

नीलांजना बोलीं, ‘‘तुम तो उस से दोस्ती का दम भरती हो, तुम्हें उस ने बताया नहीं कि उस की शादी पक्की हो गई है? तभी तो आजकल उस के इंदौर के टूर बढ़ गए हैं.’’

प्रवीण उस से इतनी बड़ी बात छिपाएगा, उसे धोखे में रखेगा, इस का उसे जरा भी अंदेशा नहीं था. उस का सिर चकराने लगा.

‘‘आप प्रवीण के बारे में इतना सब कैसे जानती हैं?’’ अर्पिता ने थके से स्वर में पूछा.

‘‘रायपुर वाली घटना तो मेरी आंखों के सामने की ही है और इंदौर वाली…’’ नीलांजना एक गहरी सांस भर कर बोलीं, ‘‘वह बिजनैसमैन और कोई नहीं मेरा भाई है. तभी प्रवीण मुझे देखते ही सकपका जाता है. प्रवीण के चक्कर में पड़ कर अपना घरसंसार व्यर्थ में बरबाद मत करो. आज नहीं तो कल वह वैसे भी तुम्हें छोड़ ही देगा. अच्छा है समय रहते ही तुम खुद उसे छोड़ दो.’’

अर्पिता शाम को घर लौटी तो उस का सिर बुरी तरह से चकरा रहा था. नीलांजना की बातों में सचाई झलक रही थी. वह भी देख रही थी कि पिछले 2 महीनों से प्रवीण कुछ बदल सा गया है. अब छुट्टियों में अर्पिता के साथ बाहर जाने के बजाय वह सरकारी काम का बहाना बना कर अकेला ही चला जाता है. यदि यह सच है कि प्रवीण को औरतों को फंसाने की आदत ही है तो वह कितनी बड़ी गलती कर बैठी है. उस के पद और प्रतिष्ठा की चकाचौंध में अंधी हो कर अपने पति के साथ बेवफाई कर बैठी. अब पता नहीं अपनी गलती की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी. धोखे के एहसास से अर्पिता तिलमिला गई. उस ने प्रवीण को फोन लगाया.

‘‘तुम ने सगाई कर ली और मुझे बताया भी नहीं,’’ प्रवीण के फोन उठाने पर अर्पिता गुस्से से चिल्लाई.

‘‘ओह तो तुम्हें पता चल गया. अच्छा हुआ. मैं खुद ही सोच रहा था कि मौका देख कर तुम्हें बता दूं,’’ प्रवीण का स्वर अत्यंत सामान्य था.

‘‘तुम ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम ने मुझे धोखा दिया है,’’ उस के सामान्य स्वर पर अर्पिता तिलमिला गई.

‘‘क्या किया है मैं ने?’’ प्रवीण आश्चर्य से बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें कौन सा धोखा दिया है? मैं कुंआरा हूं और एक न एक दिन मेरी शादी होगी यह तो तुम जानती ही थीं. मैं ने कोई तुम से तो शादी का वादा किया नहीं था फिर धोखे की बात कहां से आ गई?’’

‘‘तुम ने मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है. क्यों खेलते रहे मेरे जज्बातों से इतने दिन?’’ अर्पिता अब भी तिलमिला रही थी.

‘‘मैं ने तुम्हारी भावनाओं से नहीं खेला. जो कुछ हुआ तुम्हारी मरजी से हुआ. मैं ने कोई जबरदस्ती तो की नहीं. हम दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगा और हम ने साथ में जीवन के मजे लूटे. मैं ने जिंदगी भर साथ निभाने का कोई वादा तो किया नहीं है तुम से. हां, तुम कालेज के दिनों से मुझे पसंद थीं. तुम कुंआरी होती तो मैं तुम से शादी के बारे में सोच भी सकता था, लेकिन तुम तो शादीशुदा हो. ऐसा सोच भी कैसे सकती हो कि तुम से शादी करूंगा? मैं इतनी बड़ी पोस्ट पर हूं. शहर में मेरा नाम व रुतबा है. तुम से शादी कर के मुझे अपनी इज्जत खराब नहीं करवानी,’’ प्रवीण तल्ख स्वर में बोला, ‘‘हां, तुम चाहो तो हम ये रिश्ता ऐसे ही बरकरार रखेंगे वरना…’’

अपमान और पीड़ा से अर्पिता छटपटा गई. वह बिफर कर बोली, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतने गिरे हुए होगे.’’ फिर उस ने उस से रायपुर और इंदौर वाले किस्सों का जवाब भी मांगा.

‘‘तुम औरतें पतियों से दुखी रह कर उन से ऐडजस्ट न कर पाने के कारण खुद ही बाहर किसी सहारे की तलाश में रहती हो. तुम लोगों को हमेशा एक ऐसे कंधे की तलाश रहती है, जिस पर सिर रख कर तुम अपना दुख हलका कर सको. अपने जीवनसाथी की थोड़ी सी भी कमी तुम लोगों से सहन नहीं होती और तुम लोग बाहर उसे पूरा करने को तत्पर रहती हो.

‘‘सच तो यह है कि मर्दों की बजाय औरतों को ऐसे संबंधों की ज्यादा जरूरत होती है और वे इन्हें ज्यादा ऐंजौय करती हैं. अगर औरतें ऐसे संबंधों को न चाहें तो मर्द की हिम्मत ही नहीं होगी किसी भी औरत की ओर आंख उठा कर देखने की. औरतें खुद ही यह सब चाहती हैं और मर्दों को फालतू बदनाम करती हैं. अपने पति से बेवफाई कर के उन्हें धोखा तुम ने दिया और धोखेबाज मुझे कह रही हो. तुम सोचो, बेवफा और धोखेबाज सही अर्थों में कौन है?’’

अर्पिता सन्न रह गई. प्रवीण ने उसे आईना दिखा दिया था. आनंद की जो कमियां उसे खलती थीं उन्हें प्रवीण के द्वारा पूरा कर के वह सुख पाना चाहती थी. गलत तो वही थी. पलाश की सुर्ख मादकता में डूबने से पहले उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि सुर्ख रंग सिर्फ मादकता का ही नहीं खतरे का प्रतीक भी होता है. लेकिन अब क्या हो सकता था. उस ने खुद ही अपने ही संसार में आग लगा ली थी. अर्पिता कटे पेड़ की भांति पलंग पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. दहकते पलाश ने इस का जीवन झुलसा दिया था.

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