शह और मात: शरद को पता चला पल्लवी के झूठे प्यार का सच

“पल्लवी, तुम्हारे चेहरे पर कुछ लगा है,” शरद ने पल्लवी के चेहरे की ओर इशारा करते हुए कहा.

वह उस की सहकर्मी भी थी और अच्छी दोस्त भी.

“कहां?” पल्लवी ने अपने चेहरे पर उंगलियां फिराते हुए पूछा.

“यहां,” शरद ने आगे झुक कर जैसे ही पल्लवी के गाल को छुआ, वह दर्द से कराहते हुए पीछे हो गई.

“संजीव ने तुम पर फिर से हाथ उठाया?” शरद ने उस की आंखों में झांकते हुए प्रश्न किया.

“ऐसा कुछ नहीं है. बेखयाली में कुछ लग गया होगा. मैं अभी आती हूं,” पल्लवी नजरें चुराती हुई उठ कर वहां से जाने लगी.

“अपने जिस्म पर पड़े निशानों को कब तक मेकअप से छिपाती रहोगी पल्लवी? मैं अब भी कहता हूं, मेरा हाथ थाम लो,” शरद के सवाल को सुन कर पल्लवी एक पल के लिए रुकी, लेकिन अगले ही पल तेज कदमों से वहां से चली गई.

पल्लवी के जाने के बाद भी शरद वहीं बैठा रहा. उस के दोस्त मोहसिन ने पीछे से आ कर उसकी पीठ पर धौल जमाई, “और तुम कब तक पल्लवी से इकतरफा मोहब्बत करते रहोगे? क्या तुम जानते नहीं कि वह शादीशुदा है?”

“जानता हूं यार. पूरा औफिस जानता है कि पल्लवी का पति उस के साथ कैसा जानवरों जैसा सुलूक करता है. मगर वह फिर भी उस के खिलाफ एक शब्द नहीं कहती है. मुझ से उस की यह हालत देखी नहीं जाती है,” शरद ने हताश हो कर अपने बालों में हाथ फिराया.

“लेकिन जब पल्लवी ही उस के साथ रहना चाहती है तो कोई कर भी क्या सकता है. वैसे एक बात बता, क्या तू पल्लवी को ले कर सीरियस है?” मोहसिन ने पूछा.

“मैं पल्लवी से बहुत प्यार करता हूं और मैं जानता हूं कि वह भी मुझ से प्यार करती है. वह बस एक बार हां कह दे फिर मैं सब संभाल लूंगा,” शरद ने गंभीरता से उत्तर दिया.

“मैं कामना करुंगा कि तुम्हारी मोहब्बत को मंजिल मिल जाए. अब जल्दी चल लंच ब्रैक खत्म हो गया है.”

ब्रैक खत्म होने के बाद भी शरद की नजरें रह रहकर पल्लवी पर जा कर टिक जाती थीं. पल्लवी ने कुछ ही महीनों पहले यह औफिस जौइन किया था. उस के सरल और सुंदर व्यक्तित्व ने शरद का मनमोह लिया था. उसे पता था कि पल्लवी शादीशुदा है इसलिए उस ने अपनी भावनाओं को मन में ही रखा और मर्यादा की लकीर पार नहीं की.

पल्लवी सब से बहुत कम बात करती थी पर जब शरद ने पल्लवी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो उस ने खुशीखुशी थाम लिया. वह चाहता था कि पल्लवी हमेशा खुश रहे. लेकिन जब धीरेधीरे पल्लवी की शादीशुदा जिंदगी की कुरूप सचाई सामने आनी शुरू हुई तो वह खुद पर काबू नहीं रख पाया.

पल्लवी का पति संजीव एक नंबर का नकारा और शराबी था. वह अकसर पल्लवी के साथ मारपीट करता था, जिस के निशान वह कई दिनों तक मेकअप के सहारे छिपाती रहती थी.

पल्लवी की हालत देख कर शरद का मन तड़प उठता था. वह बस किसी तरह उसे इस नर्क से मुक्ति दिलाना चाहता था और इस के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार था. लेकिन इस बात से डरता था कि कहीं पल्लवी उसे गलत न समझ ले. इसी उधेड़बुन में एक दिन उसने पल्लवी को अपने दिल की बात बता दी. शरद को लगा था कि वह उस की बात सुन कर नाराज हो जाएगी लेकिन पल्लवी की प्रतिक्रिया तो उस की उम्मीद के बिलकुल परे थी. पल्लवी ने हां नहीं की तो इनकार भी नहीं किया. बस डबडबाई आंखों से शरद की ओर देखती रही जैसे खुद भी मन ही मन उस से प्यार करती हो.

पल्लवी की इस मूक सहमति से शरद को थोड़ी हिम्मत मिल गई थी और वह उस पर अपना अधिकार समझने लगा था. इसी अधिकार के नाते वह पल्लवी से कहता था कि वह संजीव को छोड़ कर उस से शादी कर ले. मगर पल्लवी को पता नहीं किस बात ने अब तक रोक रखा था. शरद ने गहरी सांस ली और अपने काम में व्यस्त हो गया.

अगले दिन शाम के समय पल्लवी अपने औफिस के बाहर सड़क पर औटोरिकशा का इंतजार कर रही थी. शरद‌ उसी समय बाइक से अपने घर जाने के लिए निकल रहा था. वह पल्लवी को देख कर रुक गया, “पल्लवी, आओ मैं तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं.”

पल्लवी बिना कुछ कहे बाइक पर बैठ गई. रास्ते में उस ने शरद को एटीएम के सामने बाइक रोकने के लिए कहा और बाइक से उतर कर भीतर चली गई. कुछ मिनटों के बाद पल्लवी बाहर आई तो वह बहुत मायूस लग रही थी.

“क्या बात है पल्लवी? सब ठीक तो है ना?” शरद ने उस की मायूसी की वजह जाननी चाही.

“मुझे घर का किराया देने के लिए ₹ 10 हजार निकालने थे, लेकिन मेरे अकाउंट में इतना बैलेंस ही नहीं है. जरूर संजीव ने रुपए निकाल लिए होंगे. किराया भी आज ही देना है,” पल्लवी ने परेशान होते हुए कहा.

“बस इतनी सी बात. तुम परेशान क्यों हो रही हो, मैं तुम्हें रुपए दे देता हूं,” शरद ने कहा.

“लेकिन शरद मैं तुम से रुपए कैसे ले सकती हूं और अभी तो सैलरी मिलने को भी कई दिन बाकी हैं.”

“लेकिनवेकिन कुछ नहीं. मैं अभी रुपए निकाल कर लाता हूं.”

शरद पल्लवी एटीएम से रुपए निकाल लाया और पल्लवी के हाथ में नोट पकड़ा दिए.

“शरद मैं सैलरी मिलते ही तुम्हारे रुपए  वापस कर दूंगी,” पल्लवी ने भावुक होते हुए कहा.

“ज्यादा मत सोचो पल्लवी. घर का किराया समय पर दे देना बस. अब चलो घर नहीं जाना है क्या?” शरद ने मुसकराते हुए कहा और बाइक स्टार्ट कर दी.

अपने घर से कुछ दूरी पर पल्लवी ने शरद को बाइक रोकने के लिए कहा, “बस शरद यहां से मैं अपनेआप चली जाऊंगी.”

शरद ने कुछ कहे बिना बाइक रोक दी और पल्लवी उसे बाय बोल कर चली गई.

शरद ने पहले भी कई बार पल्लवी को यहां छोड़ा था. वह जानता था कि पल्लवी अपने पति संजीव के डर के कारण उसे यहीं रोक देती थी. पल्लवी के जाने के बाद शरद वहीं खड़ा हो कर उसे आंखों से ओझल होने तक देखता रहा.

इधर पल्लवी जैसे ही चाबी से दरवाजा खोल कर अपने घर में दाखिल हुई, संजीव हाथ में शराब का गिलास लिए सोफे पर बैठा उस का इंतजार कर रहा था.

“रुपए मिले?” संजीव ने पूछा.

“हां, ₹10 हजार मिले हैं,” पल्लवी ने पर्स से नोट निकाल कर मेज पर रख दिए.

“चलो आज की पार्टी का इंतजाम तो ‌हो गया. लेकिन अगली बार अपने प्रेमी की जेब से जरा बड़ी रकम निकलवाना. आजकल ₹10 हजार में क्या होता है?” संजीव ने नोटों को अपनी ओर सरकाते हुए कहा.

पल्लवी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गई. वहां रुक कर करती भी क्या, संजीव को शराब पीने के बाद होश ही कहां रहता था. वैसे भी अब तो उस की इच्छा पूरी हो गई थी. उस के हाथ में रुपए पहुंच गए थे. इसलिए वह कम से कम 2-4 दिन तो शांति से जी सकती थी.

कुछ देर बाद रसोई में खाना पकाते समय पल्लवी अपनी नियति के बारे में सोच रही थी. उसे वह दिन याद आ रहा था जब उस के परिवार वालों को उस के और पड़ोस में रहने वाले संजीव के रिश्ते के बारे में पता चला था. घर में कुहराम मच गया था. एक तो संजीव उस समय बेरोजगार था, ऊपर से पल्लवी के मातापिता और भाई की नजरों में उस की छवि कुछ खास अच्छी नहीं थी. उस समय पल्लवी की हालत चक्की के 2 पाटों के बीच पिसते गेहूं की तरह हो गई थी. एक तरफ पापा ने साफ कह दिया था कि वह अपनी बेटी का हाथ संजीव के हाथों में कभी नहीं देंगे. दूसरी तरफ संजीव उस पर शादी करने का दबाव बना रहा था.

पल्लवी समझासमझा कर‌ थक गई थी, मगर पापा और संजीव में से कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं हुआ. दोनों ने पल्लवी को जल्दी ही कोई निर्णय लेने के लिए कहा था.

इसलिए पल्लवी ने निर्णय ले लिया. उस ने अपने मातापिता और परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर संजीव का हाथ थाम लिया. उसे संजीव पर इतना भरोसा था कि वह बिना कुछ सोचेसमझे अपना घर छोड़ कर उस के साथ चली आई. उस के मातापिता ने उसी समय उस से रिश्ता तोड़ लिया था. मां ने जातेजाते उस से कहा था कि एक दिन वह अपने इस फैसले पर जरूर पछताएगी.

घर छोड़ने के बाद दोनों दिल्ली आ गए जहां उन्होंने शादी कर ली. संजीव को नौकरी भी मिल गई थी. शादी के बाद कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा. पल्लवी अपने प्यार को पा कर बहुत खुश थी. लेकिन जैसेजैसे उस के सिर से नई शादी का खुमार उतरना शुरू हुआ, उसे संजीव का असली चेहरा नजर आने लगा. संजीव को शराब की लत थी. वह अकसर शराब के नशे में उस पर हाथ भी उठाने लगा था. सिर्फ यही नहीं, वह पैसे कमाने के लिए उलटेसीधे काम करने से भी बाज नहीं आता था. उस ने बहुत लोगों को चूना लगाया था. इन्हीं आदतों के चलते उस की नौकरी भी चली गई थी.

एक बार काम से निकाले जाने के बाद संजीव ने नौकरी ढूंढ़ने की जहमत नहीं उठाई.

तब घर चलाने के लिए पल्लवी ने एक औफिस में नौकरी कर ली. उसे सारी तनख्वाह ला कर संजीव के हाथों पर रखनी पड़ती. लेकिन उस से भी संजीव का पेट नहीं भरता. वह आएदिन उस से रुपए मांगता और जब पल्लवी उस की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाती तो वह उसे रूई की तरह धुन देता. अगले दिन वह उस से माफी मांग लेता और‌ पल्लवी उसे माफ भी कर देती. वह किसी भी कीमत पर संजीव से अलग नहीं होना चाहती थी. वापस लौट कर मांपिता के घर भी तो नहीं जा सकती थी.

जिंदगी इसी तरह ऊबड़खाबड़ रास्तों पर चल रही थी. समय के साथ संजीव की फरमाइशें बढ़ती जा रही थीं. जब उस के लिए पल्लवी की तनख्वाह कम पड़ने लगी तो उस ने एक रास्ता निकाला. वह चाहता था कि पल्लवी किसी आदमी को अपने प्रेमजाल में फंसा कर उस से ठगी करे. पल्लवी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. उसे हैरानी हो रही थी कि कोई पति अपनी पत्नी से ऐसा करने के लिए भी कह सकता है. लेकिन उसे कुछ ही दिनों में अपना फैसला बदलना पड़ा.

एक दिन जब संजीव लहूलुहान हालत में घर आया, तब उसे पता चला कि उस ने शराब और जुए के लिए कुछ गलत लोगों से बहुत मोटा कर्ज ले रखा है और वे लोग अपना पैसा वापस लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. जब उन लोगों से बचने और‌ उन का कर्ज चुकाने का और कोई रास्ता नजर नहीं आया, तो पल्लवी ने मजबूरन वही किया जो संजीव ने उसे करने के लिए कहा था.

पल्लवी का एक सहकर्मी दिनेश उसे पसंद करता था और यह बात उस से छिपी नहीं थी. पल्लवी ने पहले उस से दोस्ती की और फिर उसे अपनी दुखभरी दास्तान सुना कर धीरेधीरे उस के साथ नजदीकियां बढ़ाने लगी.

थोड़े ही दिनों में दिनेश उस की खातिर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हो गया. यहां से झूठीसच्ची कहानियां सुना कर पैसे ऐंठने का सिलसिला शुरू हो गया. दिनेश उस के झूठों को सच मान कर उस पर विश्वास करता गया. इस तरह कुछ महीनों में संजीव का सारा कर्ज उतर गया. लेकिन पल्लवी के लिए दिनेश को संभालना मुश्किल होता जा रहा था. वह उस से शादी करना चाहता था और कई बार उस के घर तक पहुंच गया था. अगर उसे सचाई पता चल जाती तो उन के लिए बड़ी मुसीबत हो जाती. पल्लवी उस के लाखों रुपए कहां से लौटाती.

अपनी पोल खुलने से बचाने के लिए संजीव और पल्लवी ने रातोरात शहर बदल लिया. शहर बदलने के बाद भी संजीव में कोई बदलाव नहीं आया. पल्लवी ने यहां भी नौकरी कर ली थी. वह संजीव से भी नौकरी ढूंढ़ने के लिए कहती‌ थी. लेकिन संजीव के दिमाग में तो कोई और ही खिचड़ी पक रही थी. कुछ ही दिनों में वह फिर से कर्ज में डूब गया था और उस ने पल्लवी पर दोबारा वही खेल खेलने का‌ दबाव बनाना शुरू कर दिया था. पल्लवी ने फिर से उस की बात मान ली.

बस इसी तरह शहर बदलबदल कर लोगों के साथ ठगी करना उन का पेशा बन गया था. लेकिन इस पेशे के भी कुछ नियम थे जो संजीव ने बनाए थे. उसे हर वक्त यह शक होता कि कहीं पल्लवी अपने शिकार के ज्यादा नजदीक तो नहीं जा रही है. और इस बात की झुंझलाहट वह उस पर हाथ उठा कर निकालता. कभीकभी पल्लवी को लगता था कि वह एक अंधे कुएं में गिरती जा रही है. वह जब भी संजीव से ऐसा करने के लिए मना करती, वह उस से वादा करता कि बस यह आखिरी बार है. इस के बाद वह खुद को पूरी तरह से बदल लेगा और वे दोनों एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे.

पल्लवी न चाहते हुए भी उस पर भरोसा कर बैठती थी. उसे लगता था कि संजीव पर भरोसा करने के अलावा उस के पास विकल्प भी क्या था? अपने सारे रिश्तेनाते तो वह खुद ही पैरों तले रौंद आई थी.

कुछ महीने पहले इंदौर आने के बाद भी संजीव ने उस से वादा किया था कि वह अब सुधर जाएगा. लेकिन हुआ क्या, अब वह पैसों के लिए शरद जैसे शरीफ और अच्छे आदमी को बेवकूफ बना रही थी. इस बार भी संजीव ने वादा किया था कि यह उन की आखिरी ठगी है, क्योंकि नई जिंदगी शुरू करने के लिए रुपयों की जरूरत तो पड़ेगी ही.

उसे अकसर यह महसूस होता था कि वे पुरुष मूर्ख नहीं हैं जिन्हें उस ने ठगा है, असल में वह खुद मूर्ख है जो बारबार संजीव की बात मान लेती है.

उस की इच्छाओं की पूर्ति करतेकरते भी उस से गालियां सुनती है, मार खाती है. पल्लवी उन मूर्खों में से थी जिस ने खुद अपना पैर कुल्हाड़ी पर दे मारा था. अपनी गलतियों के कारण वह संजीव की बिछाई शतरंज की बिसात पर सिर्फ एक मुहरा बन कर रह गई थी. पल्लवी ने आंसू पोंछे और मन मार कर संजीव को खाना परोसने चली गई.

इस के बाद कुछ दिनों तक तो संजीव शांत रहा, लेकिन वह ₹10 हजार रुपयों पर आखिर कितने दिन ऐश करता? उस ने पल्लवी को शरद से ₹1 लाख निकलवाने के लिए कहा और इस के लिए योजना भी समझा दी.

पल्लवी ने संजीव के कहे अनुसार अभिनय करना शुरू कर दिया. एक दोपहर शरद के साथ खाना खाते समय उस ने अपनी छोटी बहन से फोन पर बात करने का नाटक किया और रोने लगी. पल्लवी को इस तरह रोता देख कर शरद परेशान हो गया.

“पल्लवी तुम इस तरह क्यों रो रही हो? घर पर सब ठीक है न?” शरद ने पूछा.

“शरद मेरी मां की तबीयत बहुत खराब है. मुझे उन के औपरेशन के लिए ₹1 लाख का इंतजाम करना होगा और वह भी 2 दिनों के अंदर. मैं इतनी जल्दी इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगी?” पल्लवी ने परेशान होने का नाटक किया.

“तुम फिक्र मत करो पल्लवी. कोई न कोई इंतजाम हो जाएगा,” शरद ने उसे हौसला बंधाते हुए कहा.

“कैसे फिक्र न करूं शरद. मेरा बैंक अकाउंट संजीव खाली कर चुका है. जो थोड़ेबहुत गहने थे वे मैंने कर्ज उतारने के लिए बेच दिए थे. अभी कुछ दिन पहले मेरे पास घर का किराया देने के लिए एक फूटी कौड़ी तक नहीं थी. उस वक्त तुम ने मेरी मदद की थी. अब मैं किस के आगे हाथ फैलाऊं?” पल्लवी अपने चेहरे को हथेलियों के पीछे छिपा कर रो पड़ी.

शरद अपनी कुरसी खींच कर पल्लवी के पास ले आया और उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा,“पल्लवी ‌सब ठीक हो जाएगा, पहले तुम रोना बंद करो प्लीज.”

शरद को पिघलता देख कर पल्लवी ने उस की बांह को कस कर पकड़ लिया और अपना सिर उस के कंधे पर टिका दिया और रोते हुए कहा, “अगर मां को कुछ हो गया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. मैं क्या करूं मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मैं बहुत अकेली हो गई हूं शरद.”

“तुम अकेली नहीं हो पल्लवी. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं,” शरद ने पल्लवी के हाथ पर अपना हाथ रखा. वह उस के चेहरे पर उभरती कुटिल मुसकान से बेखबर था.

अगले दिन औफिस पहुंचने से पहले ही पल्लवी को मालूम था कि शरद ने रुपयों का इंतजाम कर लिया होगा. आखिर उस ने अभिनय भी तो कमाल का किया था.

पल्लवी का अंदाजा बिलकुल सही निकला. शरद ने लंच ब्रैक के समय उस के हाथ में ₹1 लाख थमा दिए.

“थैंक यू सो मच शरद. मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी. मैं जल्द से जल्द तुम्हारे सारे रुपए लौटा दूंगी,” पल्लवी ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा.

“कैसी बातें करती हो पल्लवी, क्या मेरा सब कुछ तुम्हारा नहीं है? अब बातें करने में समय बरबाद मत करो. जाओ और अपनी बहन को यह रुपए दे दो,” शरद ने मुसकरा कर उस का माथा चूम लिया.

पल्लवी ने एक बार फिर से शरद को धन्यवाद कहा और रुपए ले कर अपने घर आ गई. ₹1 लाख देख कर संजीव खुशी से उछल पड़ा और एक पल गंवाए बिना पल्लवी के हाथ से नोट झपट लिए, “अरे वाह पल्लवी, आज तो तुम ने कमाल ही कर दिया. अच्छा यह बताओ शरद को तुम पर शक तो नहीं हुआ?”

“नहीं…”

“वैरी गुड… अब अगली बार ₹2 लाख से कम मत मांगना,” संजीव ने हिदायत दी.

“लेकिन संजीव, इस तरह बारबार बहाने कर के ज्यादा रुपए मांगूगी तो शरद को मुझ पर शक हो जाएगा,” पल्लवी ने तर्क दिया.

“पल्लवी, तुम अपने छोटे से दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालो. यह शरद तुम पर पूरी तरह से लट्टू हो चुका है. इस का जितना फायदा उठा सकती हो उठा लो. फिर कोई नया बकरा फंसा लेना,” संजीव ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा और चलता बना.

संजीव के जाने के बाद पल्लवी का हाथ अनायास ही अपने माथे पर चला गया. जब शरद ने उस के माथे को चूमा था तो उसे अजीब सी सुखद अनुभूति हुई थी. शरद ने उसे भीतर तक छू लिया था. आज से पहले उस ने न जाने कितने लोगों के साथ प्यार का नाटक किया था मगर उसे ऐसा तो कभी महसूस नहीं हुआ. सिर्फ यही नहीं, शरद के रुपए संजीव को देते समय उसे ग्लानि हो रही थी. वह संजीव के पूछने पर इनकार कर देती थी लेकिन सच तो यह था कि उसे शरद का साथ अच्छा लगने लगा था.

पल्लवी को आभास हुआ कि उस का मन भटक रहा है. वह शादीशुदा होते हुए भी पता नहीं क्याक्या सोचने लगी थी. उसने मन ही मन खुद को फटकारा और अपना ध्यान बंटाने के लिए घर के काम में व्यस्त हो गई.

₹1 लाख रुपए मिलने के बाद भी संजीव का पेट नहीं भरा. उस;ने जल्द ही सारे रुपए उड़ा दिए और पल्लवी को शरद से दोबारा रुपए मांगने के लिए मजबूर करने लगा. इस बार उस:के लालच के साथ रुपयों की मांग भी बड़ी थी. पल्लवी के इनकार करने पर वह उसे प्रताड़ित करने लगा.

इधर औफिस में पल्लवी और शरद के बीच नजदीकियां बढ़ती जा रहीं थीं. संजीव का बुरा बरताव आग में घी का काम कर रहा था. संजीव के दिए जख्मों को शरद के प्रेम का मरहम भरने लगा था. पल्लवी के प्रति शरद की परवाह उसे शरद की तरफ खींचती चली जा रही थी. जब पल्लवी शरद के करीब होती तो खुद को बेहद सुरक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि शरद की बांहों में ही उस का घर है. पल्लवी के लिए प्यार का नाटक धीरेधीरे सच होता चला गया. उस ने बहुत कोशिश की मगर वह खुद को शरद से प्यार करने से नहीं रोक पाई. पल्लवी ने निश्चय कर लिया था कि अब चाहे जो हो जाए, वह शरद से कभी रुपयों की मांग नहीं करेगी.

अपने इनकार का खामियाजा पल्लवी को कई बार भुगतना पड़ा. संजीव बातबात में राई का पहाड़ बना कर उस पर हाथ उठाने लगा. उसे शक था कि पल्लवी उसे धोखा दे रही है. जब शरद ने उस के जिस्म पर पड़े निशानों को देखा तो वह अपने आपे से बाहर हो गया.

“आज मैं संजीव को‌ छोड़ूंगा नहीं. उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वह जिंदगी भर याद रखेगा,” शरद ने गुस्से मैं दांत पीसते हुए कहा और बाहर जाने लगा.

“नहीं शरद, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे,” पल्लवी ने उसे रोका.

“इतना कुछ होने के बाद भी उस आदमी की तरफदारी कर रही हो?” शरद ने आश्चर्य से पूछा.

“मैं किसी की तरफदारी नहीं कर रही हूं शरद. मैं बस इतना चाहती हूं कि तुम संजीव से दूर रहो. तुम नहीं जानते हो कि वह कितना घटिया आदमी है. कैसेकैसे लोगों के साथ उस का उठनाबैठना है,” पल्लवी ने उसे समझाया.

“मैं किसी से डरता नहीं हूं पल्लवी,” शरद जोश में आ गया था.

“लेकिन मैं तो डरती हूं. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी,” पल्लवी ने सिर झुका कर कहा तो शरद ने उसे सीने से लगा लिया, “ओह पल्लवी, मैं तुम्हें इस हाल में नहीं देख सकता. तुम संजीव को छोड़ क्यों नहीं देतीं ? मैं ने पहले भी कहा था पल्लवी, मैं हमेशा तुम्हारा खयाल रखूंगा, बस एक बार मेरा हाथ थाम लो.”

“संजीव मेरी जान ले लेगा, मगर मुझे तलाक नहीं देगा. मैं ने देखा है कि वह किस हद तक‌ जा सकता है. शरद मैं चाह कर भी उसे नहीं छोड़ सकती हूं,” पल्लवी की आंखों से आंसू टपक पड़े.

“क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?”

“हां शरद. मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.”

“तो फिर मेरे साथ भाग चलो.”

“शरद, यह तुम क्या कह रहे हो? यह मजाक का वक्त नहीं है,” पल्लवी हैरान हो गई.

“मेरी आंखों में देखो पल्लवी, क्या तुम्हें लगता है कि मैं मजाक कर रहा हूं? मुझ पर भरोसा करो, बस एक बार हां कह दो. फिर हम दोनों यहां से बहुत दूर चले जाएंगे, जहां तुम पर उस संजीव का साया तक नहीं पड़ेगा,” शरद ने पल्लवी की आंखों में झांकते हुए कहा.

शरद की आंखों में अपने लिए प्यार की गहराई देख कर पल्लवी सिहर उठी. उस से कुछ कहते नहीं बना. उस ने शरद से सोचने के लिए कुछ वक्त मांगा और घर चली आई.

कुछ दिन बीत जाने के बाद भी पल्लवी ने शरद को जवाब नहीं दिया था. संजीव ने उसे जलील करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी. एक रात जब उस के कोप का भाजन बनने के बाद पल्लवी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी, उस वक्त उस के कानों में शरद की कही बातें गूंज रही थीं. सालों पहले उस ने अपने मातापिता की बात न मान कर जो गलती की थी, उस की कीमत वह आज तक चुका रही थी. संजीव पर भरोसा कर के उस ने अपनी जिंदगी की सब से बड़ी गलती की थी इसलिए आज वह शरद पर भरोसा करने से भी डर रही थी. हालांकि उस ने शरद की आंखों में अपने लिए जितना प्यार देखा था, उस का आधा भी उसे संजीव की आंखों में कभी नजर नहीं आया था. मगर अब वह कोई भी कदम उठाने से पहले पूरी तरह निश्चिंत हो जाना चाहती थी.

वह जानती थी कि इस तरह संजीव को धोखा दे कर शरद के साथ भागना गलत होगा. लेकिन अगर वह संजीव से अलग होने या तलाक लेने की कोशिश करेगी तो शरद के सामने उन की सारी असलियत आ जाएगी. शरद को पता चल जाएगा कि पल्लवी उसे किस तरह मूर्ख बना कर उस से पैसा ऐंठती रही और वह उस से नफरत करने लगेगा. नहीं, वह किसी भी कीमत पर शरद को खोना नहीं चाहती थी. आज तक उस ने गलत काम के लिए झूठ और धोखे का सहारा लिया, तो अब एक आखिरी बार अपने प्यार को पाने के लिए ही सही.

पल्लवी के दिल से डर खत्म हो गया था. वह शरद को पाने की खातिर किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थी. वह कई सालों से जिस पिंजरे में कैद थी, अब वह उसे तोड़ कर उड़ जाना चाहती थी.

पल्लवी ने धीरे से मोबाइल उठा कर शरद का नंबर डायल किया और उस के फोन उठाने पर बस इतना कहा, “मैं तैयार हूं.”

अगले दिन पल्लवी शरद की बताई जगह पर उस से मिलने गई. शरद ने उसे पूरी योजना बताई. पल्लवी ने अपनी सहमति दे दी और घर वापस आकर सामान्य व्यवहार करने लगी जिस से संजीव को उस के ऊपर जरा भी शक न हो.

3 दिन बाद शरद के कहे अनुसार पल्लवी ने अपने कपड़े, कुछ जरूरी कागजात और कुछ रुपए एक बैग में रख लिए. उस ने बैग को पलंग के नीचे छिपा कर रख दिया. उस रात भी संजीव रोज की तरह नशे में धुत्त हो कर घर आया. पल्लवी ने कुछ मीठे बोल बोल कर उसे थोड़ी और शराब पिला दी. थोड़ी ही देर बाद संजीव बेसुध हो गया. पल्लवी ने धीरे से अपना बैग निकाला और घर के बाहर चली आई. बाहर आ कर वह रेलवे स्टेशन के लिए टैक्सी में बैठ गई. कुछ दूर तक वह बारबार पीछे मुड़ कर देखती रही. उसे डर था कि कहीं संजीव उस का पीछा तो नहीं कर रहा है. रेलवे स्टेशन पहुंच कर उस की जान में जान आई.

उस ने अंदर जा कर देखा तो पाया कि शरद पहले से ही वहां उस का इंतजार कर रहा था. उस ने अगली ट्रेन की 2 टिकटें भी ले ली थीं.

“तुम ठीक हो न?” शरद ने पूछा.

“मैं ठीक हूं शरद. हम कहां जा रहे हैं?”

“बस कुछ ही मिनटों में जम्मू जाने वाली ट्रेन आती होगी. मैं ने उसी की 2 टिकटें ले ली हैं. कुछ दिन वहीं रहेंगे, बाद में कोई और इंतजाम कर लूंगा. तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं है न?”

“शरद हम दोनों साथ हैं, बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए.”

तभी ट्रेन भी आ गई. पल्लवी और शरद ट्रेन में चढ़ कर एक खाली बर्थ पर बैठ गए.

“तुम सो जाओ पल्लवी. जब सुबह तुम्हारी आंखें खुलेंगी तो एक नया सवेरा तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा,” शरद‌ ने मुसकराते हुए कहा.

पल्लवी ने उस के कंधे पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. वह कुछ ही देर में नींद के आगोश में समा गई.

सुबह जब पल्लवी की आंख खुली तो ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी हुई थी और शरद उस के पास नहीं था. उसे लगा कि वह शायद स्टेशन से कुछ लाने के लिए उठा होगा. लेकिन जब कुछ मिनटों के बाद भी शरद वापस नहीं आया तो पल्लवी घबरा गई. उस ने पूरे डिब्बे में देख लिया, लेकिन शरद वहां नहीं था.

“शरद…शरद…” वह खिड़की से बाहर झांक कर उसे पुकारने लगी. उस ने पर्स से मोबाइल निकाल कर शरद का नंबर डायल किया तो उस का फोन बंद आ रहा था.

पल्लवी बुरी तरह से घबरा गई. वह घबरा कर इधरउधर देख ही रही थी कि उस की नजर सीट पर रखे अपने बैग के नीचे दबे एक कागज पर पड़ी.

पल्लवी ने कांपते हाथों से कागज उठाया और खोल कर पढ़ना शुरू किया. वह उसके नाम शरद का पत्र था. उस में लिखा था-

‘पल्लवी,

जब तक तुम्हारी आंखें खुलेंगी, मैं तुम से बहुत दूर जा चुका होऊंगा. हां, तुम्हारा डर बिलकुल सही है. मैं ने तुम्हें धोखा दिया है. तुम्हें सुंदर भविष्य के सपने दिखा कर बीच रास्ते में तुम्हारा साथ छोड़ दिया है. मगर यह धोखा उस धोखे के आगे कुछ भी नहीं है जो तुम ने मुझे दिया. अब तुम सोच रही होगी कि मुझे तुम्हारी असलियत के बारे में कैसे पता चला? पल्लवी, जिस दिन मैं ने तुम्हें ₹1 लाख दिए थे, उस दिन तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारी बहुत फिक्र हो रही थी. मुझे डर था कि कहीं संजीव तुम से वे रुपए न छीन ले जो तुम्हारी मां की जान बचा सकते हैं. लेकिन तुम्हारे घर के बाहर आ कर मुझे कुछ और ही सचाई नजर आई. उस दिन मैं ने तुम्हारी और संजीव की सारी बातें सुन ली थीं. मुझे पता चल गया था कि किस तरह तुम दोनों पतिपत्नी मुझे पैसों के लिए बेवकूफ बना रहे हो. सिर्फ मुझे ही नहीं तुम ने न जाने कितने लोगों को अपने प्यार के जाल में फंसा कर लूटा होगा.

‘पल्लवी, मैं तुम से बहुत प्यार करता था. लेकिन तुम ने मेरे साथ क्या किया? तुम ने मेरे जज्बातों के साथ खिलवाड़ किया. मेरे प्यार का मजाक बनाकर रख दिया. मैं ने सोच लिया था कि मैं तुम्हें सबक जरूर सिखाऊंगा, इसलिए मैं ने तुम से अपने साथ भाग चलने के लिए कहा ताकि तुम्हें पता चले कि दिल टूटने पर कितना दर्द होता है. अब जिंदगी भर सोचना कि तुम ने कितने लोगों के साथ कितना गलत किया. और हां, घर वापस जाने के बारे में मत सोचना. मैं ने संजीव को चिट्ठी लिख कर उसे सब बता दिया है. अब तुम्हारे लिए उस घर में भी कोई जगह नहीं है.

‘मैं तुम से सच्चा प्यार करता था पल्लवी. मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार था. लेकिन शुक्र है कि सही समय पर मेरी आंखें खुल गईं. तुम्हें लोगों को शतरंज के मुहरे बना कर उन के साथ खेल खेलने का बहुत शौक था न पल्लवी. आज मैं ने तुम्हें तुम्हारे ही खेल में अपने दांव से मात दे दी है. हो सके तो जो तुम ने मेरे साथ किया वह आइंदा किसी के साथ मत करना…

शरद’

पल्लवी की आंखों से आंसू टपकटपक कर चिट्ठी पर गिर रहे थे. झूठ और धोखे का सहारा ले कर वह आज कहीं की भी नहीं रही थी. वह भूल गई थी कि छल के सहारे शतरंज की चाल भले ही जीती जा सकती थी, किसी का प्यार नहीं.

उस के मुंह से हौले से वे शब्द निकले जो शरद चिट्ठी के आखिर में लिखना भूल गया था,’शह और मात’.

नहीं बदली हूं मैं : क्यों सुनयना का पति उसे लेस्बियन समझने लगा?

‘‘चलो कहीं घूमने चलते हैं. राघव भी अपने दोस्तों के साथ 15 दिनों के लिए सिंगापुर जा रहा है. कितने दिन हो गए हमें कहीं गए हुए,’’ सुनयना ने अपने पति जय से बहुत ही मनुहार करते हुए कहा.

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना. कोफ्त होती है मुझे कहीं जाने की सुन कर. मिलता क्या है कहीं बाहर जा कर? वापस घर ही तो आना होता है. ट्रेन में सफर करो, थको और फिर किसी होटल में रहो और बेवकूफों की तरह उस जगह की सैर करते रहो. बेकार में इतना पैसा खर्च हो जाता है और वापस आ कर फिर थकान उतारने में 2 दिन लग जाते हैं. सारा शैड्यूल बिगड़ जाता है वह अलग. पता नहीं क्यों तुम्हें हमेशा घूमने की लगी रहती है. तुम्हें पता है मुझे कहीं बाहर जाना पसंद नहीं, फिर भी कहती रहती हो,’’ जय ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘पता है मुझे तुम्हें नहीं पसंद पर कभी मेरी खुशी की खातिर तो जा सकते हो? शादी को 22 साल हो गए पर कभी कहीं ले कर नहीं गए. राघव को भी नहीं ले जाते थे. शुक्र है वह तुम्हारे जैसा खड़ूस नहीं है और घूमने का शौक रखता है. शादी के बाद हर लड़की का ख्वाब होता है कि उस का पति उसे घुमाने ले जाए. बंधीबंधाई रूटीन जिंदगी से निकल कुछ समय अगर रिलैक्स कर लिया जाए तो स्फूर्ति आ जाती है और फिर नएनए लोगों और जगहों को जानने का भी अवसर मिलता है. दुनिया पागल नहीं जो देशविदेश की सैर पर जाती है. केवल तुम ही अनोखे इनसान हो. असल में पैसा खर्चते हुए मुसीबत होती है तुम्हें. अव्वल दर्जे के कंजूस जो ठहरे… कभी दूसरे की भावना का भी सम्मान करना सीखो. छोटीछोटी खुशियों को तरसा देते हो,’’ सुनयना के अंदर भरा गुबार जैसे बाहर आने को बेताब था.

‘‘ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. रही बात राघव की तो अभी उस की शादी नहीं हुई है. हो जाने दो अपनेआप सारे शौक खत्म हो जाएंगे जब पैसे खर्चने पड़ेंगे. अभी तो बाप के पैसों पर ऐश कर रहा है.’’

‘‘बेकार की बातें न करो. तुम्हारी जेब से कहां निकलते हैं पैसे. उस के ट्रिप का सारा खर्च मैं ने ही दिया है,’’ सुनयना गुस्से से बोली.

‘‘हां, तो कौन सा एहसान कर दिया. कमाती हो तो खर्च करना ही पड़ेगा वरना क्या सारा पैसा अपने ऊपर ही खर्च करने का इरादा है?’’

दोनों के बीच बहस बढ़ती जा रही थी. यह कोई एक दिन की बात नहीं थी. अकसर उन में मतभेद पैदा हो जाते थे. जय का स्वभाव ही ऐसा था. पता नहीं उसे खुश रहने से क्या ऐलर्जी थी. बस सुनयना की हर बात को काटना, उस में दोष देखना… जैसे उसे मजा आता था इस सब में.

‘‘मैं ने भी सोच लिया है कि कहीं घूमने जाऊंगी,’’ उस ने जैसे जय को चुनौती दी. उसे पता था कि इन दिनों वूमन ओनली ट्रैवल जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं, जिन में औरतें चाहें तो अकेले या फिर ग्रुप में ट्रैवल कर सकती हैं. सारा अरेंजमैंट वही करते हैं, इसलिए सेफ्टी की भी चिंता नहीं रहती.

उस ने गूगल पर ऐसे अरेंजमैंट करने वाले देखने शुरू किए. ‘वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप’ नामक साइट पर क्लिक करने पर जब उस ने संस्थापक का नाम पढ़ा तो जानापहचाना लगा. उस का प्रोफाइल पढ़ते ही उस की आंखें चमक उठीं. मानसी उस की कालेज फ्रैंड. शादी के बाद दोनों का संपर्क टूट गया था, जैसेकि अकसर लड़कियों के साथ होता है. जय को तो वैसे भी उस का किसी से मिलना या किसी के घर जाना पसंद नहीं था खासकर दोस्तों के तो बिलकुल भी नहीं. इसलिए शादी के बाद उस ने अपने सारे फ्रैंड्स से नाता ही तोड़ लिया था खासकर पुरुष मित्रों से.

साइट से मानसी का फोन नंबर ले कर सुनयना ने जैसे ही उसे फोन कर अपना परिचय दिया वह चहक उठी. बोली, ‘‘हाय सुनयना, कितने दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुन रही हूं… यार कहां गायब हो गई थी? बता कैसा चल रहा है?’’

फिर तो जो उन के बीच बातों का सिलसिला चला तो रुका ही नहीं. उसे पता चला कि मानसी के साथ इस वूमन ऐंजौय विद ट्रैवलर्स ग्रुप में उन के कालेज की 2 फै्रंड्स भी शामिल हैं.

‘‘अब तुम्हारा नैक्स्ट ट्रिप कब और कहां जा रहा है? मैं भी जाना चाहती हूं.’’

‘‘अरे, तो चल न. 4 दिन बाद ही लद्दाख का 10 दिन का ट्रिप प्लान किया है. सारा अरेंजमैंट हो चुका है. 10 लेडीज का ग्रुप ले कर जाते हैं, पर मैं तुझे शामिल कर लूंगी. मजा आएगा. चलेगी न? लैट्स हैव फन… इसी बहाने पुरानी यादों को ताजा भी कर लेंगे… तू बस हां कर दे… मैं बाकी सारी व्यवस्था कर लूंगी और हां तुझे डिस्काउंट भी दे दूंगी.’’

‘‘बिलकुल… मैं तैयारी कर लेती हूं. ऐसा मौका कौन गंवाना चाहेगा,’’ सुनयना ने चहकते हुए कहा.

पर जय को जैसे ही उस ने यह बात बताई उस का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया. बोला, ‘‘दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा… इतना पैसा बरबाद करोगी… फिर ऐसी औरतें जिन के साथ तुम जा रही हो न सब फ्रस्ट्रेटेड होती हैं… या तो इन की शादी नहीं हुई होती है या फिर तलाकशुदा होती हैं अथवा पति से अलग रह रही होती हैं वरना क्यों बनातीं वे ऐसा ग्रुप, जो केवल औरतों के लिए हो? न जाने ये औरतें क्याक्या करती हैं… घूमने के बहाने क्या गुल खिलाती हैं… कोई जरूरत नहीं है तुम्हें जाने की. पुरुषों के लाइफ में न होने पर आपस में ही संबंध बना लेती होंगी तो भी कोई बड़ी बात नहीं… पुरुषों की न सही, औरतों की ही कंपनी सही… यही फंडा होता है इन का. सब की सब बेकार की औरतें होती हैं. ऐक्सपैरिमैंट करने के चक्कर में यहांवहां घूमती हैं और स्वयं को इंटेलैक्चुअल कह समाज को दिखाती हैं कि अकेले भी वे बहुत कुछ कर सकती हैं. ऐसी औरतें सैक्सुअल प्लैजर को तरसने वाले वर्ग में आती हैं. तुम्हें तो नहीं है न मुझ से कोई ऐसी शिकायत?’’ जय ने व्यंग्य कसा.

‘‘छि:… तुम्हारी इस तरह की सोच पर मुझे हैरानी होती है जय. तुम्हें क्या लगता है कि जो औरतें अकेले बिना पति के या बिना किसी पुरुष के फिर चाहे वह उन का पिता हो या पुत्र अथवा भाई अकेले कुछ करती हैं तो उन में

कोई खोट होता है या वे फ्रस्ट्रेट होती हैं? अपनी खुशी से कुछ पल गुजारना क्या इतने प्रश्नचिन्ह लगा सकता है, मैं ने कभी सोचा न था… और यह सैक्सुअल प्लैजर की बात कहां से आ गई… मुझे तुम से किसी तरह की बहस नहीं करनी है. मैं नहीं जाती… लेकिन तब तुम्हें मुझे ले कर जाना होगा.’’

सुनयना की बात सुन तिलमिला गया जय. चुपचाप दूसरे कमरे में चला गया.

मानसी और अन्य 2 फ्रैंड्स से मिल सुनयना बहुत अच्छा महसूस कर रही थी. जय की रूढि़वादी मानसिकता और रोकटोक से मुक्त वह 1-1 पल ऐंजौय कर रही थी. लद्दाख की प्राकृतिक सुंदरता अभिभूत करने वाली थी. वहां जा कर ऐसा महसूस होता है मानो पूरी दुनिया की छत पर घूम रहे हैं. लद्दाख की ऊंचाई इतनी है मानो हम धरती और आकाश के बीच खड़े हैं. लद्दाख का नीला पानी और ताजा हवा उस पर जादू सा असर कर रही थी. मानसी ने उसे बताया कि लद्दाख भारत का ऐसा क्षेत्र है जो आधुनिक वातावरण से बिलकुल अलग है. वास्तविकता से जुड़ी पुरानी परंपराओं को समेटे हुए है यहां का जीवन. जो पर्यटक यहां आते हैं उन्हें लद्दाख का जनजीवन, संस्कृति और लोग दुनिया से अलग लगते हैं. महान बुद्ध की परंपरा को वहां के लोगों ने आज भी सहेज रखा है. इसी कारण लद्दाख को छोटा तिब्बत भी कहा जाता है. छोटा तिब्बत कहने का एकमात्र कारण यह है कि यहां तिब्बती संस्कृति का प्रभाव दिखाईर् देता है. यह अपनेआप में इतना अद्भुत है कि हर किसी को आकर्षित करता है. पहाड़ों के बीच बने यहां के गांव, आकाश छूते स्तूप और खड़ी व पथरीली चट्टानों पर बने मठ ऐसे दिखाई देते हैं जैसे हवा में झूल रहे हों.

सुनयना को लग रहा था कि वह बहुत लंबे समय के बाद अपने हिसाब से जी रही है. उस ने तय कर लिया कि वह अब मानसी के साथ अकसर ऐसे ट्रिप में आया करेगी.

10 दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला मानसी को. एकदम रिलैक्स हो कर जब वह लौटी तब तक राघव भी वापस आ चुका था. दोनों एकदूसरे के साथ अपने ट्रिप के अनुभवों को शेयर कर रहे थे कि अचानक जय भड़क गया, ‘‘पता नहीं दोनों क्या तीर मार कर आए हैं, जो इतने खुश हो रहे हैं… और तुम सुनयना जरूरत से ज्यादा खिली हुई लग रही हो. क्या बात है? उन औरतों का साथ कहीं ज्यादा तो नहीं भा गया तुम्हें? कहीं उन औरतों का रंग तो नहीं चढ़ गया है तुम पर?’’

मानसी जो जय के व्यवहार व सोच से पहले ही दुखी रहती थी, अब उस से कटीकटी रहने लगी. उस की बातें, उस के कटाक्ष सीधे उस के दिल पर चोट करते थे. उस के बाद दोनों के बीच तनाव बहुत बढ़ गया. कैसेकैसे इलजाम लगाता है जय. वह जब भी उस के साथ सैक्स संबंध बनाने की कोशिश करता वह उस का हाथ झटक देती… हद होती है, किसी बात की. इतने ताने सुनने के बाद कैसे वह जय के करीब जा सकती थी… थोड़ी देर पहले किसी का दिल दुखाओ और फिर उस के शरीर को पाना चाहो, आखिर कैसे संभव है यह? मन खुश न हो तो तन कैसे साथ देगा?

जय की तिलमिलाहट सुनयना के  इस व्यवहार से और बढ़ गई. एक रात उस के करीब आने की कोशिश में जब सुनयना ने उसे धक्का दे दिया तो वह चिल्लाने लगा, ‘‘सब समझ रहा हूं मैं तुम में आए इस बदलाव की वजह…

औरतों के साथ रहोगी तो पति का साथ कैसे अच्छा लगेगा? स्वाद जो बदल गया है तुम्हारा अब…. देख रहा हूं मानसी से भी खूब मिलने लगी हो तुम.’’

सुनयना यह सुन सकते में आ गई, ‘‘क्या कहना चाहते हो तुम? साफसाफ कहो.’’

‘‘साफसाफ क्यों सुनना चाहती हो, समझ जाओ न खुद ही,’’ जय ने ताना मारा.

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूं. जब से घूम कर लौटी हूं तुम कुछ न कुछ मुझे सुनाते ही रहते हो… आखिर ऐसा क्या बदल गया मुझ में?’’ सुनयना का चेहरा लाल हो गया था.

‘‘तुम तो पूरी ही बदल गई हो. मुझे तो लगता है कि तुम लेस्बियन बन गई हो. इसलिए मेरे स्पर्श से भी दूर भागती हो.’’

सुनयना अवाक खड़ी रह गई. कैसे जय ने इतनी आसानी से रिश्ते की सारी गरिमा को कलंकित कर दिया था… अगर महिला दोस्तों के साथ कोई महिला घूमने जाए तो लेस्बियन कहलाती है और पुरुष मित्रों के साथ घूमे तो चरित्रहीन… समाज की खोखली परिभाषाएं उसे परेशान कर रही थीं.

अब जय रात को देर से घर लौटने लगा. वह कुछ पूछती तो कहता कि घूमता रहता हूं दोस्तों के साथ, पर जान लो मैं गे नहीं हूं. बीचबीच में उस के कानों में यह बात जरूर पहुंच रही थी कि जय आजकल बहुत सी औरतों से मिलता है. उन्हें घुमाने ले जाता है, मूवी भी देखता है और शायद उन के साथ संबंध भी बनाता है. सुनयना इन सब बातों पर विश्वास नहीं करना चाहती थी पर एक दिन जय की शर्ट पर लिपस्टिक के निशान देख उस का शक यकीन में बदल गया. हालांकि पहले भी उस के कई दोस्तों ने उसे चेताया था कि जय के कदम डगमगा रहे हैं, पर उन की बातों को नजरअंदाज कर देती थी.

रात को जब जय लौटा तो नशे की हालत में था. शराब की बदबू कमरे में फैल गई थी. सुनयना ने गुस्से में जब जय से सवाल किया

तो वह चिल्लाया, ‘‘मेरी जासूसी करने लगी हो. खुद लद्दाख में ऐय्याशी कर के आई हो और मुझ से सवाल कर रही हो. तुम तो एकदम ही बदल गई हो. जब तुम मुझे सैक्स सुख नहीं दोगी तो कहीं तो जाऊंगा या नहीं. हां, मेरे संबंध हैं कई औरतों से तो इस में गलत क्या है? कम से कम पुरुषों से तो नहीं हैं… तुम लेस्बियन बन गई हो पर मैं….’’

‘‘जय मेरी बात सुनो, मैं नहीं बदली हूं. मुझे तुम्हारा साथ, स्पर्श अच्छा लगता है, पर तुम्हारा व्यवहार कचोटता है मुझे… एक बार मुझे समझने की कोशिश तो करो…’’

मगर सुनयना की बात ठीक से सुने बिना ही जय बिस्तर पर लुढ़क गया था. सुनयना को समझ नहीं आ रहा था कि जय ने उस पर अपने दोष छिपाने के लिए इतना बड़ा इलजाम लगाया था ताकि उसे और औरतों से संबंध बनाने का लाइसैंस मिल जाए या फिर उसे उस के  ट्रिप पर जाने की सजा दे रहा था.

दहकता पलाश: क्या प्रवीण के दोबारा जिंदगी में आने से खुश रह पाई अर्पिता?

‘‘अरे अर्पिता तुम?’’

अपना नाम सुन कर अर्पिता पीछे मुड़ी तो देखा, एक गोरा स्टाइलिश बालों वाला लंबा व्यक्ति उस की ओर देख कर मुसकरा रहा था. अर्पिता ने उसे गौर से देख कर पहचाना तो उत्साह से चहक कर बोली, ‘‘अरे प्रवीण तुम… यहां कैसे?’’

‘‘3 महीने पहले ही मेरी यहां पोस्टिंग हुई है और तुम अब भी यहीं हो?’’ प्रवीण ने उस से पूछा.

‘‘हां, मैं तो यहीं हूं. बस घर का पता बदल गया है,’’ अर्पिता ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां उस की निशानी तो मैं देख रहा हूं,’’ प्रवीण ने मंगलसूत्र की तरफ इशारा किया तो दोनों हंस पड़े.

‘‘आओ न, यहां पास के रैस्टोरैंट में चल कर बैठते हैं,’’ प्रवीण ने सुझाव दिया तो अर्पिता इनकार नहीं कर पाई. फिर दोनों रैस्टोरैंट में एक कोने वाली टेबल पर जा कर बैठ गए.

‘‘तुम तो अब भी पहले जैसी हो, जरा भी नहीं बदलीं,’’ बेयरे को कौफी का और्डर देते हुए प्रवीण बोला.

‘‘वैसी कहां हूं मैं, थोड़ी मोटी तो हो ही गई हूं. हां, तुम जरूर बिलकुल पहले जैसे ही हो,’’ अर्पिता ने कहा.

‘‘मैं कहना चाह रहा था कि तुम्हारा चेहरा आज भी वैसा ही नाजुक और मासूम है, जैसा 7-8 साल पहले था. तभी तो मैं तुम्हें देखते ही पहचान गया…’’ प्रवीण ने अर्पिता को भरपूर नजर से देखते हुए कहा तो वह शरमा गई.

‘‘चलो छोड़ो, तुम क्या मेरे चेहरे को ले कर बैठ गए. यह बताओ कि आज भरी दोपहरी में बाजार में क्या कर रहे थे?

कालेज छोड़ने के बाद क्या किया? तुम तो आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे थे न, क्या हुआ? और इतने दिन कहां रहे? अभी क्या काम कर रहे हो?’’ अर्पिता ने एक के बाद एक इतने सारे सवाल कर डाले कि प्रवीण हड़बड़ा गया.

‘‘तुम ने तो प्रैस वालों की तरह एक के बाद एक ढेर सारे सवाल कर डाले. पहले किस सवाल का जवाब दूं यही समझ में नहीं आ रहा,’’ फिर हंसते हुए बोला, ‘‘मैं बी.ए. करने के बाद आई.ए.एस. की कोचिंग करने इंदौर चला गया था, यह तो तुम्हें पता ही है. 2 साल जम कर मेहनत की पर पहली बार में सिलैक्शन नहीं हुआ. पर दूसरे अटैंप्ट में मैं सिलैक्ट हो ही गया. फिर मेन ऐग्जाम फिर इंटरव्यू. 6-7 साल के बाद अब जा कर मनचाही पोस्ट मिली है और चार इमली पर एक घर भी अलौट हुआ है.’’

‘‘अरे वाह,’’ अर्पिता के चेहरे पर प्रशंसा के भाव आ गए, ‘‘वहां के मकान तो बहुत बड़े और सुंदर है.’’

‘‘हां, उसी के लिए थोड़ाबहुत फर्नीचर देखने आया था. अब तो पापा का भी ट्रांसफर फिर से यहां हो गया है. अगले हफ्ते वे लोग भी यहां आ जाएंगे,’’ प्रवीण ने बताया.

‘‘और तुम्हारी पत्नी? शादी की या नहीं की अब तक?’’ अर्पिता ने पूछा.

‘‘नहीं, अभी तक तो नहीं की. 1-2 साल जरा सर्विस में जम जाऊं फिर सोचूंगा. अब

मैं तुम्हारी तरह सवालों की झड़ी नहीं लगाऊंगा, तुम खुद ही अपने बारे में बता दो,’’ प्रवीण ने कौफी का खाली प्याला नीचे रखते हुए कहा.

‘‘कुछ खास नहीं. बी.ए. करने के बाद मैं ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया. अभी शहर के 4-5 बुटीक्स के लिए सूट्स डिजाइन करती हूं. रोजरोज आनेजाने की झंझट नहीं है. जब उन को जरूरत होती है बुला लेते हैं. बस कमाई भी हो जाती है और शौक भी पूरा हो जाता है. अगर मन हुआ तो अपना एक बुटीक भी खोल लूंगी. बस मेरी तो सीधीसादी छोटी सी कहानी है,’’ अर्पिता ने बताया.

‘‘और तुम्हारे पतिदेव क्या करते हैं?’’ प्रवीण ने पूछा.

‘‘वे एक प्राइवेट कंपनी में हैं और अकसर टूर पर रहते हैं,’’ अर्पिता के मुंह पर पति के टूर पर रहने की बात कहने पर हलकी सी मायूसी छा गई जिसे प्रवीण ने भांप लिया. वह तुरंत ही बातचीत का विषय कालेज के दिनों और पुराने साथियों की तरफ ले गया. फिर 2 घंटे कब निकल गए पता ही नहीं चला. फिर दोनों ने एकदूसरे के फोन नंबर लिए और अपनेअपने घरों की ओर लौट गए.

अर्पिता जब घर पहुंची तब तक उस के पति आनंद घर नहीं पहुंचे थे. बाजार से लाया सामान टेबल पर रख कर वह टीवी औन कर के बैठ गई, लेकिन आज उस का मन टीवी देखने में नहीं लग रहा था. वह तो प्रवीण के बारे में सोच रही थी.

वह और प्रवीण 8वीं कक्षा से साथसाथ पढ़े थे. कालेज में भी दोनों एक ही सैक्शन में थे. अन्य लड़कों की अपेक्षा प्रवीण अंतर्मुखी और मेधावी लड़का था. वह फ्री पीरियड में भी बाकी लड़कों की तरह ऊधम, मस्ती न करते हुए कुछ न कुछ पढ़ता रहता था. क्लास के अन्य लड़कों से अलग प्रवीण को स्कूल या कालेज की किसी भी लड़की में दिलचस्पी लेते हुए कभी किसी ने नहीं देखा था. प्रवीण के स्वभाव की इसी खूबी से अर्पिता मन ही मन उस से प्रभावित थी. फर्स्ट ईयर के अंत तक जहां क्लास के प्रत्येक लड़के की क्लास की या दूसरे क्लास की या महल्ले की किसी लड़की के साथ अफेयर की बातें सुनाई देती थीं, वहीं प्रवीण के बारे में अर्पिता ने कभी भी ऐसी कोई बात नहीं सुनी.

प्रवीण दिखने में बहुत अच्छा था. ऊंचा कद, हलके घुंघराले बाल, गोरा रंग, तीखी नाक. वह क्लास में ही क्या कालेज में सब से स्मार्ट लड़के के रूप में मशहूर हो गया था. पास से गुजरती लड़की चाहे जूनियर हो चाहे सीनियर एक बार तो भरपूर नजर से उसे देखती जरूर थी. प्रवीण के रंगरूप और बुद्धि पर फिदा बहुत सी लड़कियां उस पर मरती थीं, लेकिन वह आंख उठा कर भी किसी की ओर नहीं देखता था.

फाइनल तक पहुंचतेपहुंचते अर्पिता से उस की अच्छी पटने लगी थी, क्योंकि क्लास में प्रवीण के बाद अर्पिता ही पढ़ाई में तेज थी. विभिन्न चैप्टर्स और किस किताब में कौन सा चैप्टर कितना अच्छा है इस विषय पर क्लास में या लाइब्रेरी में दोनों देर तक बातें करते रहते थे. प्रवीण से दोस्ती की वजह से कई लड़कियां अर्पिता से ईर्ष्या करने लगी थीं. वर्ष के अंत तक अर्पिता भी प्रवीण के प्रति एक अलग ही आकर्षण महसूस करने लगी थी. उसे यह भी लगने लगा था कि प्रवीण का उसे देखने का अंदाज भी कुछ बदल सा गया है.

एक दिन फ्री पीरियड में दोनों लाइब्रेरी में बैठे थे. अर्पिता किताब पढ़ने में तल्लीन थी. बीच में इतिहास की एक तारीख समझ में न आने के कारण उस ने प्रवीण से पूछने के लिए सिर ऊपर उठाया तो देखा वह किताब टेबल पर रख कर खोईखोई सी नजरों से उसे देख रहा था.

अर्पिता का दिल बड़ी जोर से धड़कने लगा. वह भी बिना कुछ कहे अपनी किताब देखने लगी, लेकिन बड़ी देर तक उस के मन में एक हलचल सी होती रही.

इस के बाद अर्पिता को लगने लगा कि वह शायद धीरेधीरे प्रवीण की ओर आकर्षित होती जा रही थी. कालेज में प्रवेश करते ही उस की नजरें प्रवीण को खोजती रहतीं.

क्लास में बैठे हुए भी अर्पिता की नजरें दरवाजे पर ही टिकी रहतीं और जैसे ही प्रवीण अंदर आता अर्पिता का दिल बड़ी जोरजोर से धड़कने लगता.

अर्पिता के मन में भावनाओं के कई नएनए, अनजाने मगर अपने से लगने वाले रंग तैरने लगे थे. लेकिन दोनों ही ओर से ये रंग भावनाओं का रूप ले कर शब्दों में अभिव्यक्त हो पाते, फाइनल ऐग्जाम सिर पर आ गए और फिर लास्ट पेपर जिस दिन था उसी दिन प्रवीण अपने मातापिता के साथ इंदौर चला गया, क्योंकि उस के पिता का वहां ट्रांसफर हो चुका था. वे तो बस प्रवीण के पेपर की खातिर ही रुके थे. प्रवीण एक ख्वाहिश भरी नजर अर्पिता पर डाल कर चला गया.

दोनों के बीच जो भी था बस मूक ही रहा. कभी शब्दों या भावनाओं के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाया, इसलिए कोई किसी का इंतजार भी क्या करता. अर्पिता ने फैशन डिजाइनर का कोर्स किया और जब उस के मातापिता ने आनंद को उस के जीवनसाथी  के रूप में चुना तो उस ने भी उन की इच्छा का सम्मान करते हुए अपनी स्वीकृति दे दी.

आनंद के साथ उस का जीवन आराम से गुजर रहा था. आनंद अर्पिता का बहुत ध्यान रखता था, लेकिन उस के बारबार टूर पर जाने और काम में अत्यधिक व्यस्त रहने से अर्पिता अकेलापन महसूस करती थी. दिन तो घर के काम और बुटीकों के डिजाइन वगैरह तैयार करने में कट जाता, लेकिन उदास शामें और तनहा रातें उसे काट खाने को दौड़तीं. आनंद के बगैर वह सारीसारी रातें पलंग पर करवटें बदलते हुए गुजार देती. महीनों वह आनंद के साथ पिक्चर देखने या कहीं बाहर घूमने जाने को तरस जाती. लेकिन फिर भी आनंद की भी मजबूरी समझ कर वह अपने मन को समझा लेती.

अर्पिता एक गहरी सांस ले कर उठी. आज प्रवीण से मिल कर न जाने क्यों वह अपने अंदर बहुत खुशी महसूस कर रही थी. मन के कोने में बरसों से दबे हुए जिन रंगों पर समय की धूल पड़ गई थी, उन्हें जैसे किसी ने पानी की कुनकुनी फुहारें बरसा कर धो दिया था. और फीके पडे़ रंग धुल जाने से ताजे हो कर चमचमाने लगे थे.

2 दिन बाद बुटीक से आ कर अर्पिता चाय पीते हुए एक फैशन मैगजीन में कपड़ों के लेटैस्ट डिजाइन देख रही थी कि फोन बज उठा. अर्पिता ने फोन उठाया, ‘‘हैलो…’’

‘‘हैलो, क्या कर रही हो अर्पिता?’’ उधर से प्रवीण का स्वर सुनाई दिया.

‘‘अरे, तुम?’’ अर्पिता का स्वर और चेहरा दोनों खिल गए.

‘‘हां सुनो, संग्रहालय में मणिपुरी कलाकारों की बहुत अच्छी प्रस्तुति है. सारा इंतजाम मेरी ही देखरेख में चल रहा है. तुम लोग आ जाओ,’’ प्रवीण ने कहा.

‘‘आनंद तो टूर पर बैंगलुरु गए हुए हैं. मैं अगर आई तो लौटते वक्त रात हो जाएगी. मैं अकेली इतनी दूर रात में वापस कैसे आऊंगी?’’ अर्पिता के स्वर में मायूसी छा गई.

‘‘बस इतनी सी बात,’’ प्रवीण हंसते हुए बोला, ‘‘अरे पगली मेरे होते हुए तुम्हें अकेले आने की क्या जरूरत है? तुम ठीक 5 बजे तैयार रहना, मैं ड्राइवर को भेज दूंगा तुम्हें ले आने को. मैं बहुत बिजी हूं नहीं तो खुद आ जाता,’’ इतना कह कर बिना जवाब का इंतजार किए प्रवीण ने फोन काट दिया. अर्पिता मुसकरा दी.

प्रवीण ने उस दिन बताया कि वह संस्कृति विभाग में एग्जीक्यूटिव डायरैक्टर है. उसे यों भी भारतीय लोक संस्कृति से बहुत लगाव था. स्कूल, कालेज में भी वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन व संचालन करने में हमेशा आगे रहता था.

अर्पिता को भी सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनियां आदि देखने का बहुत शौक था लेकिन आनंद को कभी भी टाइम नहीं मिलता. संडे को भी आनंद अकसर या तो औफिस में या फिर घर पर ही कोई न कोई काम करता रहता था. 4 साल पहले 10 दिनों के लिए वे हनीमून पर गए थे. उस के बाद से आनंद लगातार अपने काम में व्यस्त ही रहा है.

5 बजे बाहर गाड़ी का हौर्न सुन कर अर्पिता ने खिड़की से झांक कर देखा. बाहर एक गाड़ी खड़ी थी. अर्पिता समझ गई कि यह गाड़ी प्रवीण ने ही भेजी होगी. वह ताला लगा कर बाहर आ गई.

‘‘आप अर्पिताजी हैं?’’ ड्राइवर ने गाड़ी से उतरते हुए पूछा. और अर्पिता के ‘हां’

कहते ही दरवाजा खोल दिया. अर्पिता गाड़ी में बैठ गई. संग्रहालय पहुंच कर ड्राइवर ने उसे प्रवीण के पास पहुंचा दिया और वापस चला गया.

‘‘आओ अर्पिता,’’ प्रवीण ने आगे बढ़ कर उस का स्वागत किया और उसे ले कर आगे चल कर सब से आगे के एक सोफे पर बैठा कर बोला, ‘‘तुम थोड़ी देर यहां बैठो मैं जरा व्यवस्था देख कर आता हूं. कार्यक्रम बस 10 मिनट में शुरू हो जाएगा.’’

10 मिनट बाद ही प्रवीण आ कर उस के बगल बैठ गया. कार्यक्रम शुरू हुआ और कलाकार अपनी मनोरम प्रस्तुतियां देने लगे. बेयरे पानी, चाय, कौफी और स्नैक्स वगैरह सर्व कर रहे थे. प्रवीण अर्पिता को अपने विभाग और विभाग के अन्य लोगों के बारे में बताता जा रहा था.

सुरमई शाम, सुहावना मौसम, सामने नृत्य व संगीत की प्रस्तुति. अर्पिता को लग रहा था कि वह सपनों के लोक में पहुंच गई है. कुछ बात कहने के लिए जब प्रवीण उस की ओर झुका तो उस का कंधा अर्पिता के कंधे से छू गया. अर्पिता का दिल अचानक वैसे ही जोर से धड़कने लगा जैसे कालेज के दिनों में प्रवीण को पहली बार अपनी ओर देखता पा कर धड़का था.

दिल में सालों से दबी हुई कोई कुंआरी अनछुई सी अनुभूति अचानक ही जाग गई. मन में न जाने कब से सोए पड़े एहसास अंगड़ाई ले कर जाग गए. अर्पिता को लग रहा था जैसे वह कुंआरी है और उस के कुंआरे मन में आज पहली बार किसी के प्रति कोई अनजानी सी कशिश, अनजाना सा रोमांच महसूस किया है. प्रवीण के साथ पहली पंक्ति में बैठी वह और चारों ओर बड़ेबड़े सरकारी अफसर और गणमान्य अतिथि. सब कुछ कितना भव्य लग रहा था.

तालियों की गड़गड़ाहट से अर्पिता की तंद्रा भंग हुई. कार्यक्रम समाप्त हो चुका था. प्रवीण ने अपने साथी अफसरों और उन की पत्नियों से अर्पिता की पहचान कराई. देर तक सब से बातें होती रहीं फिर डिनर के बाद प्रवीण उसे घर पहुंचा कर चला गया. विवाह के बाद शायद यह पहली शाम थी, जो अर्पिता अपनी मरजी से अपनी खुशी के लिए इतनी अच्छी तरह से बिताई थी.

उस रात पलंग पर लेटी अर्पिता देर तक प्रवीण के बारे में और उस शाम के बारे में सोचती रही. उस के मन की गहराई में एक कसक सी उठी कि काश, उस समय वह अपनी भावनाओं को प्रवीण के सामने व्यक्त कर देती तो आज प्रवीण के बगल में वह अधिकारपूर्वक बैठी होती. आज तो यह जाहिर ही है कि जल्दी ही उस की भी शादी हो जाएगी और फिर उस के साथ उस की पत्नी बैठा करेगी.

अर्पिता हमेशा चाहती थी कि उस की शादी किसी ऊंचे पद वाले सरकारी अधिकारी से हो और बड़ा बंगला, नौकरचाकर, गाड़ी हो. अर्पिता खिड़की से झांकते चांद में अपने सपनों का चेहरा तलाशती पता नहीं कब गहरी नींद में सो गई.

दूसरे दिन प्रवीण की छुट्टी थी. वह सुबह ही अर्पिता को लेने आ पहुंचा. सिर से पैर तक सादगी में लिपटी वह इतनी सुंदर लग रही थी कि प्रवीण उसे देखता ही रह गया. अर्पिता का दिल जोर से धड़क गया. उस ने तुरंत ही प्रवीण के चेहरे से अपनी नजरें हटा लीं और दूसरी ओर देखने लगी. प्रवीण मुसकरा दिया.

दिन भर प्रवीण और अर्पिता आसपास की जगहों में घूमतेफिरते रहे. दोनों एक जगह लगी चित्र प्रदर्शनी भी देखने गए. शाम को दोनों ने भारत भवन में नाटक देखा. लंच और डिनर भी बाहर ही किया. चित्र प्रदर्शनी व नाटक देखते और साथ में घूमते जब प्रवीण की बांह अर्पिता की बांह से छू जाती तब अर्पिता के शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती.

आनंद के साथ उसे यह अनुभूति कभी नहीं हो पाई थी, क्योंकि आनंद के मन ने आज तक उस के मन की कोमल अभिरुचियों को छुआ ही नहीं था. आनंद का साहचर्य अर्पिता के तनमन के पलाश को आज तक खिला नहीं पाया था.

चित्र प्रदर्शनी में दोनों देर तक 1-1 चित्र के ऊपर आपस में चर्चा करते रहे. एक जैसी रुचियां बातचीत के कितने मार्ग प्रशस्त कर देती हैं, अर्पिता को पहली बार लगा.

डिनर के बाद प्रवीण अर्पिता को घर तक छोड़ने आया तो अर्पिता ने उस से बहुत आग्रह किया कि वह कौफी पी कर जाए लेकिन प्रवीण बाहर से ही चला गया.

अर्पिता कपड़े बदल कर पलंग पर लेट गई. आज उसे लग रहा था कि वह एक सुंदर बगीचे में खड़ी है और उस के चारों ओर सुर्ख पलाश खिल रहा है. देर तक वह फूलों की मादक गंध से सराबोर हो कर मन ही मन महकती रही.

2 दिनों तक अर्पिता स्वप्नलोक में खोई उन्हीं भावनाओं में विचरती रही. तीसरे दिन आनंद टुअर से वापस आ गया तो अर्पिता भी स्वप्नलोक से निकल कर यथार्थ में आ गई. जीवन अपनी गति से चलता रहा. लेकिन अर्पिता के लिए जीवन में एक नया रोमांच भर गया था. घर और बुटीक्स से उसे जब भी समय मिलता और प्रवीण को फुरसत होती, दोनों कहीं न कहीं घूमने चले जाते. कभी चित्रों की तो कभी फूलों की या क्राफ्ट की प्रदर्शनी में. कभी किसी नाटक का मंचन देखने तो कभी किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम या मेले में.

अर्पिता के तनमन में प्रवीण की नजदीकियों से एक अलग ही खुमारी छाती जा रही थी. वह प्रवीण के चेहरे पर भी अपने प्रति आकर्षण के विशिष्ट भाव ढूंढ़ने का प्रयास करती, लेकिन प्रवीण उसे बिलकुल सहज व संतुलित नजर आता. अर्पिता समझ नहीं पा रही थी कि प्रवीण उसे बस एक बहुत अच्छी दोस्त भर समझता है या फिर उस का उस से खास लगाव भी है. अर्पिता देर तक अकेले में इसी ऊहापोह में पड़ी रहती पर समझ नहीं पाती तब सिर को झटका दे कर अपनेआप को यही समझाती कि मुझे क्या करना, प्रवीण का साथ और अटैंशन मिल रहा है यही बहुत है.

इस तरह 6-7 महीने बीत गए. आनंद इतने महीनों में काम में अधिक व्यस्त हो गया था और अर्पिता अकेली होती चली गई थी.

घर का अकेलापन अर्पिता को काट खाने को दौड़ता था. ऐसे में प्रवीण का साथ ही था जिस ने उसे संबल दिया हुआ था. कभीकभी अर्पिता के मन के साथसाथ तन भी प्रवीण की नजदीकियां पाने के लिए मचल उठता था. खासतौर पर तब, जब आनंद कईकई दिनों कंपनी के काम की वजह से शहर से बाहर रहता था.

पलंग पर करवटें बदलती अर्पिता सोचने लगती कि काश… लेकिन प्रवीण का संतुलित व्यवहार और अर्पिता के संस्कार अर्पिता को मर्यादा की सीमा पार नहीं करने देते थे. कभीकभी आनंद के साथ रहते हुए अर्पिता को अचानक ग्लानि और अपराधबोध सा महसूस होने लगता था कि वह उस के साथ विश्वासघात तो नहीं कर रही? ऐसे में वह आनंद से सहज हो कर आंखें नहीं मिला पाती थी. उसे लगता था कि कहीं वह उस का चेहरा देख कर मन के भावों को पढ़ न ले. पर आनंद के टुअर पर जाते ही अर्पिता निश्चिंत हो जाती और अपनी भावनाओं की मादकता में खोई रहती.

इसी बीच प्रवीण के पिताजी रिटायर हो गए तो वे और प्रवीण की मां प्रवीण के पास ही आ कर रहने लगे. प्रवीण की मां जोरशोर से प्रवीण के लिए लड़की तलाशने लगीं ताकि उस का विवाह हो जाए. अर्पिता ऐसी खबरों पर ऊपर से तो सहज रहती लेकिन अंदर ही अंदर अत्यंत चिंतित हो जाती. पर जब सुनती किसी कारण बात नहीं बन पाई तो चैन की सांस लेती.

तभी प्रवीण के लिए एक बहुत ही अच्छा रिश्ता आया. घरपरिवार भी बहुत अच्छा था और लड़की भी बहुत योग्य थी. प्रवीण की मां की इच्छा थी कि उस का रिश्ता यहां पक्का हो जाए. बस प्रवीण ही था, जो आनाकानी कर रहा था. अर्पिता भी मन ही मन बेचैन थी. वह जानती थी कि उस का सोचना गलत है पर प्रवीण की शादी हो जाएगी यह बात सोच कर वह मन ही मन एक पीड़ा का अनुभव करती थी. इस बात को ले कर उस का मन उदास सा रहता था.

प्रवीण अर्पिता को उदास देख कर उस से पूछता रहता था कि उस की उदासी का क्या कारण है पर अर्पिता क्या बताती, कैसे बताती. कैसे कहती प्रवीण से कि वह शादी न करे. उसे उदास देख कर अपनी व्यस्तता के बावजूद प्रवीण समय निकाल कर उस से बराबर संपर्क बनाए रखता और उसे खुश रखने का प्रयत्न करता रहता. अर्पिता आनंद और प्रवीण की तुलना कर के एक गहरी सांस भर कर रह जाती. प्रवीण व्यस्त रहते हुए भी उस का हालचाल पूछने के लिए समय निकाल लेता था, लेकिन आनंद कभी भी काम के बीच में से समय निकाल कर पूछताछ नहीं करता था कि वह कैसी है, उसे कोई परेशानी तो नहीं है.

आनंद की कंपनी उसे ट्रेनिंग के लिए कैलिफोर्निया भेज रही थी. उसे साल भर के लिए वहां ठहरना था और 15 दिन के भीतर ही दिल्ली से फ्लाइट पकड़नी थी. आनंद के जाने के नाम से अर्पिता एक ओर जहां खुद को दुखी महसूस कर रही थी वहीं दूसरी ओर खुश भी थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि प्रवीण के साथ घूमते हुए जो थोड़ीबहुत झिझक होती थी, वह अब नहीं रहेगी.

‘‘तुम अकेली कैसे रहोगी साल भर? अपने मम्मीपापा के यहां शिफ्ट हो जाओ,’’ आनंद ने कहा.

‘‘मम्मी का घर तो शहर के दूसरे कोने में है. वहां से तो मुझे बुटीक काफी दूर पड़ेंगे. फिर बेवजह घर को साल भर बंद रखने से क्या फायदा? इतने सारे सामान की देखभाल कौन करेगा? कभीकभी मैं वहां चली जाया करूंगी या बीचबीच में उन्हें यहां बुला लिया करूंगी. आप मेरी चिंता मत कीजिए,’’ अर्पिता ने आनंद को आश्वस्त कर दिया.

वैसे आनंद के साथ रहते हुए भी एक तरह से अर्पिता अकेली ही रहती आई है. फिर मम्मीपापा के यहां रहे तो प्रवीण से मिलना कहां हो पाएगा? मम्मी के सामने वह प्रवीण से बात भी नहीं कर पाएगी. यह सब सोच कर उस ने अपने घर पर ही रहना ठीक समझा. अर्पिता के पिताजी अभी रिटायर नहीं हुए थे, उन का औफिस घर के पास ही था. इसलिए वे लोग साल भर के लिए अर्पिता के पास आ कर रह पाएंगे, इस की भी संभावना कम थी.

15 दिनों बाद आनंद कैलिफोर्निया चला गया. अर्पिता के मातापिता 5-6 दिन उस के साथ रह कर अपने घर चले गए. अब अर्पिता के सामने अपनी खुशियों का उन्मुक्त और विस्तृत खुला आसमान था. अब वह अपने पंख फैला कर इस आसमान में जी भर कर उड़ लेना चाहती थी. वर्षों से मन में दबा कर रखी इच्छाएं पंख फड़फड़ाने लगी थीं. प्रवीण का ठाटबाट, प्रतिष्ठा और आनबान देख कर अर्पिता की आंखें चौंधियाने लगी थीं. काश पिताजी उस की शादी की इतनी जल्दी न करते, तो आज उस के पास सब कुछ होता. वह भी सरकारी गाडि़यों में घूमती. बड़े सरकारी बंगले में रहती. नौकरचाकर दिन भर उस की जी हुजूरी करते.

प्रवीण की जिस दिन छुट्टी रहती, वह कभीकभी अर्पिता को अपने घर भी ले जाता था. अर्पिता प्रवीण की मां से बातें करती रहती. प्रवीण के मातापिता को पता था कि अर्पिता और प्रवीण कालेज में साथ पढ़े हैं, इसलिए वे दोनों उन की मित्रता को सहज रूप से लेते थे.

अर्पिता को कभीकभी मन ही मन ग्लानि होती थी अपनेआप पर कि वह आनंद को धोखा दे रही है. कितना विश्वास करता है आनंद उस पर. लेकिन जीवन में सुख की और भी कई इच्छाएं होती हैं. सिर्फ विश्वास के बल पर रिश्ते उम्र भर नहीं ढोए जा सकते. प्रवीण से उस की इच्छाएं, उस की रुचियां उस के विचार मेल खाते हैं, तभी उस का साथ इतना अच्छा लगता है.

‘‘पचमढ़ी चलोगी 2 दिनों के लिए?’’ कौफी हाउस में जब एक दिन दोनों कौफी पी रहे थे तो प्रवीण ने अर्पिता से पूछा.

‘‘अचानक पचमढ़ी?’’ अर्पिता ने आश्चर्यमिश्रित खुशी से पूछा.

‘‘हां, वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत लोकरंग का कार्यक्रम होने वाला है, इसलिए मुझे 2 दिनों के लिए वहां जाना है,’’ प्रवीण ने बताया.

‘‘तुम्हारे साथ और कौन जा रहा है?’’ अर्पिता ने थोड़ी मायूसी से पूछा.

‘‘कोई नहीं. मम्मीपापा तो उस समय इंदौर जा रहे हैं शादी में. बस तुम और मैं चलेंगे,’’ प्रवीण ने कौफी खत्म करते हुए कहा.

अर्पिता के मन की कली खिल उठी. 2 दिन वह पूरा समय प्रवीण के साथ बिताएगी. उसे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई. अगले हफ्ते दोनों पचमढ़ी रवाना हो गए. दिन भर दोनों पचमढ़ी के दर्शनीय स्थलों पर घूमते रहे. शाम 5-6 बजे दोनों गैस्ट हाउस में वापस आए. चाय पी और अपनेअपने कमरों में तैयार होने चले गए. शाम 7 बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने वाला था.

शाम को 7 बजे के पहले प्रवीण ने दरवाजे पर नौक कर के उसे आवाज दी. अर्पिता ने दरवाजा खोला तो वह अर्पिता को देखता रह गया.

‘‘बहुत खूबसूरत लग रही हो अर्पिता,’’ प्रवीण ने उस के गाल से बालों की लट को पीछे हटाते हुए प्रशंसात्मक स्वर में उस की तारीफ की.

यह पहली बार हुआ था कि प्रवीण ने मुक्त कंठ से उस की सुंदरता की तारीफ की थी और उस के गालों को छुआ था. अर्पिता का रोमरोम सिहर गया.

‘‘चलो न,’’ अर्पिता ने आगे बढ़ते हुए कहा.

‘‘2 मिनट रुको तो सही तुम्हें जी भर कर देख तो लूं,’’ प्रवीण ने बांह पकड़ कर अर्पिता को अपने सामने खड़ा कर लिया.

अर्पिता नई दुलहन की तरह शरमा गई. बंधनरहित मुक्त वातावरण में आ कर प्रवीण की झिझक भी दूर हो गई थी. वह मुग्ध भाव से उसे ऊपर से नीचे तक निहारता रहा.

गाड़ी में प्रवीण पिछली सीट पर अर्पिता के साथ ही बैठा. दोनों के बीच की दूरियां सिमट गई थीं. प्रवीण अर्पिता से सट कर बैठा था. अर्पिता की देह की सिहरन पलपल बढ़ती जा रही थी.

आयोजन स्थल पर पहुंच कर प्रवीण थोड़ा अलग हट कर बैठ गया. वहां दूसरे पहचान वालों के साथ प्रवीण ने अर्पिता की मुलाकात अपने दोस्त की पत्नी के रूप में करवाई. मेल मुलाकात के समय ही एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी ने रायपुर से हाल ही में भोपाल ट्रांसफर हो कर आए चौधरीजी से प्रवीण को मिलवाया.

‘‘इन्हें तो तुम जानते ही होगे. चौधरीजी और उन की पत्नी नीलांजना चौधरी. 8 दिन ही हुए हैं इन्हें भोपाल आए हुए. परसों ही जौइन किया है.’’

नीलांजना को देखते ही प्रवीण अचानक सकपका गया. उन्होंने एक भरपूर नजर प्रवीण पर डाली और फिर उस के पास खड़ी अर्पिता को अजीब सी नजरों से देखने लगीं. अर्पिता को उन का देखने का अंदाज अच्छा नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि नीलांजना की आंखें उस की आंखों से होती हुईं उस के मन में छिपे हुए चोर का भेद पा गई हैं. कुछ देर बाद नीलांजनाजी के मुख पर एक तिरछी व्यंग्यात्मक मुसकान तैरने लगी.

अर्पिता अपना ध्यान हटा कर दूसरी ओर देखने लगी. प्रवीण भी जल्दी ही वहां से चला गया. कुछ ही देर में कार्यक्रम शुरू हो गया और सब लोग अपनीअपनी जगह बैठ गए.

अर्पिता को लग रहा था मानो वह स्वप्नलोक में पहुंच गई है. सामने खुले आकाश के नीचे भव्य मंच पर नर्तकों द्वारा नृत्य की प्रस्तुति. वह स्वप्नलोक के सुखसागर में तैरने लगी.

कार्यक्रम समाप्त होने पर वहीं रात के खाने का इंतजाम था. प्रवीण और अर्पिता भी वहीं डिनर करने लगे. खाना खाते हुए जब भी नीलांजना से आमनासामना होता वे अजीब नजरों से घूरघूर कर प्रवीण और अर्पिता को देखने लगतीं. अर्पिता को अच्छा नहीं लग रहा था और प्रवीण भी उन्हें देखते ही अर्पिता को ले कर उन के सामने से हट जाता था.

रात के लगभग 12 बजे दोनों वहां के गैस्ट हाउस वापस आ गए. चौकीदार दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में सोने चला गया. अर्पिता अपने कमरे में जाने लगी तो प्रवीण भी उस के पीछे आ गया और दरवाजा बंद कर के उस ने अर्पिता को अपनी बांहों में भर लिया. अर्पिता के अंगअंग में पलाश की कलियां चटक कर फूल बनने लगीं और वह पलाश के दहकते फूलों की तरह पलंग पर बिछ गई.

2 दिन और 2 रातें प्यार की बड़ी खुमारी में बीत गईं. अर्पिता को लग रहा था कि जैसे वह हनीमून पर आई है. प्यार क्या होता है, कितना रोमांचक और सुखद होता है यह तो उस ने पहली बार ही जाना है. उस का अंगअंग निखर आया. तीसरे दिन सुबह प्रवीण और वह वापस आ गए.

इस के बाद अकसर ही शनिवार रविवार को आसपास के छोटे छोटे टूरिस्ट स्पौट्स, जहां ज्यादा लोगों का आनाजाना नहीं होता था, प्रवीण अर्पिता को ले कर चला जाता. दोनों गैस्ट हाउस या फिर होटल में रुकते. अब तो

2 कमरों की औपचारिकता भी समाप्त हो गई थी. अर्पिता के गले का मंगलसूत्र देख कर गैस्ट हाउस के चौकीदार उसे प्रवीण की पत्नी ही समझते. दोनों 2 दिन साथ रहते मौजमस्ती करते और वापस आ जाते. पड़ोसियों को लगता अर्पिता मां के यहां गई है और मां से अर्पिता किसी सहेली के घर जाने का बहाना कर देती.

धीरेधीरे 7 महीने निकल गए. अर्पिता और प्रवीण का मिलनाजुलना बदस्तूर जारी था. प्रवीण कभीकभी सरकारी काम से इंदौर या रायपुर चला जाता तो अर्पिता से जुदाई के ये दिन काटे नहीं कटते थे. ऐसे ही समय कटता रहा और आनंद को कैलिफोर्निया गए 10 महीने बीत गए. अर्पिता का मन कभीकभी घबरा जाता. वह प्रवीण के साथ इतनी आगे बढ़ गई है, अब लौट कर आनंद के साथ कैसे निभा पाएगी? अगर वह आनंद को तलाक दे दे तो क्या प्रवीण उस से शादी कर लेगा? अब प्रवीण के बिना जिंदगी बिताने के बारे में वह सोच भी नहीं सकती और ऐसी हालत में आनंद के साथ अपने रिश्ते को जबरन ढो भी नहीं सकती. अर्पिता रातदिन सोच में डूबी रहती. वह कैसे दोराहे पर आ कर खड़ी हो गई थी. एक ओर आनंद मम्मीपापा, समाज और दूसरी ओर प्रवीण का साथ.

एक दिन प्रवीण इंदौर गया हुआ था. अर्पिता का मन उदास था. बुटीक में काम निबटा कर अर्पिता पार्लर चली गई. सोचा, फेस मसाज करवा कर थोड़ा रिलैक्स फील करेगी. पार्लर में भीड़ थी, अर्पिता बाहर के रूम में सोफे पर बैठ कर मैगजीन पढ़ने लगी.

‘‘कैसी हो अर्पिता?’’

अपना नाम सुन कर अर्पिता ने चौंक कर सिर उठाया. देखा तो सामने नीलांजना खड़ी थीं, जो उसे पचमढ़ी में मिली थीं. नीलांजना अर्पिता के पास ही सोफे पर बैठ गईं.

‘‘जी मैं ठीक हूं. आप कैसी हैं?’’ अर्पिता ने मुसकरा कर पूछा. 2 मिनट तक दोनों के बीच औपचारिक बातें होती रहीं, फिर अचानक नीलांजना असल बात पर आ गईं.

‘‘प्रवीण को कब से जानती हो?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘जी वह मेरा कालेज के समय का दोस्त है,’’ अर्पिता को उन के हावभाव देख कर आशंका हो रही थी कि वे उस के बारे में ही बात करना चाह रही हैं.

‘‘मैं इधरउधर की बात न कर के सीधी बात पर आती हूं अर्पिता. प्रवीण ठीक आदमी नहीं है. उस का चरित्र अच्छा नहीं है. तुम उस से दूर ही रहो तो ठीक होगा. तुम्हारा उस के साथ अकेले पचमढ़ी जाना और वहां तुम दोनों के एकदूसरे के प्रति जो ऐक्सप्रेशंस थे उस से मैं समझ गई थी कि तुम उस की दोस्त से आगे बढ़ कर कुछ और भी हो,’’ नीलांजना की गहरी आंखें अर्पिता के मन में छिपे चोर को साफ देख रही थीं.

अर्पिता अपनी चोरी पकड़ी जाने से हड़बड़ा गई. नीलांजनाजी ने इतने दृढ़ और विश्वास भरे स्वर में यह बात कही थी कि क्षण भर को अर्पिता को समझ ही नहीं आया कि उन की बात कैसे झुठलाए.

क्षण भर बाद खुद को संयत कर के उस ने कमजोर स्वर में प्रतिवाद किया, ‘‘मैं उसे सालों से जानती हूं. वह तो किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखता था.’’

‘‘तब की बात मैं नहीं जानती. मैं तो आज के प्रवीण को जानती हूं. प्रवीण के कई शादीशुदा औरतों से संबंध हैं. रायपुर में जब यह 6 माह की ट्रेनिंग पर आया था तो वहां के भी एक अधिकारी की खूबसूरत बीवी को अपने जाल में फांस लिया था. यह अब भी वहां जा कर उस से मिलता है,’’ नीलांजना ने बताया तो अर्पिता को लगा कि जैसे उस के चारों ओर एकसाथ सैकड़ों धमाके हो गए हैं. वह सन्न सी बैठी रह गई.

‘‘लेकिन अगर ऐसा ही है तो उसे कुंआरी लड़कियों की क्या कमी, वह शादीशुदा औरतों के पीछे क्यों पड़ेगा भला?’’ अर्पिता ने नीलांजना को गलत साबित करना चाहा.

‘‘प्रवीण बहुत शातिर है. कुंआरी लड़की शादी के सपने देखने लगती है और फिर छोड़े जाने पर व्यर्थ का बवाल खड़ा करती है, जो उस की छवि को खराब करेगा. शादीशुदा औरतों को अगर वह छोड़ भी देता है तो वे आंसू बहा कर चुप रह जाती हैं. अपनी और पति व घर की इज्जत की खातिर वे तमाशा खड़ा नहीं करतीं. बस प्रवीण का काम बन जाता है. जैसा कि उस ने इंदौर के एक बिजनैसमैन की पत्नी के साथ किया.

‘‘पति की अनुपस्थिति में उस के साथ खूब घूमाफिरा, मौजमस्ती की और फिर भोपाल आ गया. वह बेचारी आज भी उस की याद में रो रही है. जहां तक शादी का सवाल है, उस की महत्त्वाकांक्षा बहुत ऊंची है. उस की इच्छा किसी बहुत बड़े अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी से ही शादी करने की रही है. इसीलिए 2 महीने पहले उस ने इंदौर के एक उच्च अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी नीलम से सगाई कर ली है,’’ नीलांजना ने संक्षेप में बताया.

‘‘क्या प्रवीण की सगाई हो गई?’’ अर्पिता बुरी तरह चौंक कर बोली. उसे लगा जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो.

नीलांजना बोलीं, ‘‘तुम तो उस से दोस्ती का दम भरती हो, तुम्हें उस ने बताया नहीं कि उस की शादी पक्की हो गई है? तभी तो आजकल उस के इंदौर के टूर बढ़ गए हैं.’’

प्रवीण उस से इतनी बड़ी बात छिपाएगा, उसे धोखे में रखेगा, इस का उसे जरा भी अंदेशा नहीं था. उस का सिर चकराने लगा.

‘‘आप प्रवीण के बारे में इतना सब कैसे जानती हैं?’’ अर्पिता ने थके से स्वर में पूछा.

‘‘रायपुर वाली घटना तो मेरी आंखों के सामने की ही है और इंदौर वाली…’’ नीलांजना एक गहरी सांस भर कर बोलीं, ‘‘वह बिजनैसमैन और कोई नहीं मेरा भाई है. तभी प्रवीण मुझे देखते ही सकपका जाता है. प्रवीण के चक्कर में पड़ कर अपना घरसंसार व्यर्थ में बरबाद मत करो. आज नहीं तो कल वह वैसे भी तुम्हें छोड़ ही देगा. अच्छा है समय रहते ही तुम खुद उसे छोड़ दो.’’

अर्पिता शाम को घर लौटी तो उस का सिर बुरी तरह से चकरा रहा था. नीलांजना की बातों में सचाई झलक रही थी. वह भी देख रही थी कि पिछले 2 महीनों से प्रवीण कुछ बदल सा गया है. अब छुट्टियों में अर्पिता के साथ बाहर जाने के बजाय वह सरकारी काम का बहाना बना कर अकेला ही चला जाता है. यदि यह सच है कि प्रवीण को औरतों को फंसाने की आदत ही है तो वह कितनी बड़ी गलती कर बैठी है. उस के पद और प्रतिष्ठा की चकाचौंध में अंधी हो कर अपने पति के साथ बेवफाई कर बैठी. अब पता नहीं अपनी गलती की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी. धोखे के एहसास से अर्पिता तिलमिला गई. उस ने प्रवीण को फोन लगाया.

‘‘तुम ने सगाई कर ली और मुझे बताया भी नहीं,’’ प्रवीण के फोन उठाने पर अर्पिता गुस्से से चिल्लाई.

‘‘ओह तो तुम्हें पता चल गया. अच्छा हुआ. मैं खुद ही सोच रहा था कि मौका देख कर तुम्हें बता दूं,’’ प्रवीण का स्वर अत्यंत सामान्य था.

‘‘तुम ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम ने मुझे धोखा दिया है,’’ उस के सामान्य स्वर पर अर्पिता तिलमिला गई.

‘‘क्या किया है मैं ने?’’ प्रवीण आश्चर्य से बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें कौन सा धोखा दिया है? मैं कुंआरा हूं और एक न एक दिन मेरी शादी होगी यह तो तुम जानती ही थीं. मैं ने कोई तुम से तो शादी का वादा किया नहीं था फिर धोखे की बात कहां से आ गई?’’

‘‘तुम ने मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है. क्यों खेलते रहे मेरे जज्बातों से इतने दिन?’’ अर्पिता अब भी तिलमिला रही थी.

‘‘मैं ने तुम्हारी भावनाओं से नहीं खेला. जो कुछ हुआ तुम्हारी मरजी से हुआ. मैं ने कोई जबरदस्ती तो की नहीं. हम दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगा और हम ने साथ में जीवन के मजे लूटे. मैं ने जिंदगी भर साथ निभाने का कोई वादा तो किया नहीं है तुम से. हां, तुम कालेज के दिनों से मुझे पसंद थीं. तुम कुंआरी होती तो मैं तुम से शादी के बारे में सोच भी सकता था, लेकिन तुम तो शादीशुदा हो. ऐसा सोच भी कैसे सकती हो कि तुम से शादी करूंगा? मैं इतनी बड़ी पोस्ट पर हूं. शहर में मेरा नाम व रुतबा है. तुम से शादी कर के मुझे अपनी इज्जत खराब नहीं करवानी,’’ प्रवीण तल्ख स्वर में बोला, ‘‘हां, तुम चाहो तो हम ये रिश्ता ऐसे ही बरकरार रखेंगे वरना…’’

अपमान और पीड़ा से अर्पिता छटपटा गई. वह बिफर कर बोली, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतने गिरे हुए होगे.’’ फिर उस ने उस से रायपुर और इंदौर वाले किस्सों का जवाब भी मांगा.

‘‘तुम औरतें पतियों से दुखी रह कर उन से ऐडजस्ट न कर पाने के कारण खुद ही बाहर किसी सहारे की तलाश में रहती हो. तुम लोगों को हमेशा एक ऐसे कंधे की तलाश रहती है, जिस पर सिर रख कर तुम अपना दुख हलका कर सको. अपने जीवनसाथी की थोड़ी सी भी कमी तुम लोगों से सहन नहीं होती और तुम लोग बाहर उसे पूरा करने को तत्पर रहती हो.

‘‘सच तो यह है कि मर्दों की बजाय औरतों को ऐसे संबंधों की ज्यादा जरूरत होती है और वे इन्हें ज्यादा ऐंजौय करती हैं. अगर औरतें ऐसे संबंधों को न चाहें तो मर्द की हिम्मत ही नहीं होगी किसी भी औरत की ओर आंख उठा कर देखने की. औरतें खुद ही यह सब चाहती हैं और मर्दों को फालतू बदनाम करती हैं. अपने पति से बेवफाई कर के उन्हें धोखा तुम ने दिया और धोखेबाज मुझे कह रही हो. तुम सोचो, बेवफा और धोखेबाज सही अर्थों में कौन है?’’

अर्पिता सन्न रह गई. प्रवीण ने उसे आईना दिखा दिया था. आनंद की जो कमियां उसे खलती थीं उन्हें प्रवीण के द्वारा पूरा कर के वह सुख पाना चाहती थी. गलत तो वही थी. पलाश की सुर्ख मादकता में डूबने से पहले उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि सुर्ख रंग सिर्फ मादकता का ही नहीं खतरे का प्रतीक भी होता है. लेकिन अब क्या हो सकता था. उस ने खुद ही अपने ही संसार में आग लगा ली थी. अर्पिता कटे पेड़ की भांति पलंग पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. दहकते पलाश ने इस का जीवन झुलसा दिया था.

पेशी : क्या थी न्यायाधीश के बदले व्यवहार की वजह?

लेखक- डा. नंदकिशोर चौरसिया

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, शिवपुर में डा. राजेश इकलौते चिकित्सक हैं. आज वे बहुत जल्दी में हैं क्योंकि उन्हें सरकारी गवाह के तौर पर गवाही देने के लिए 25 किलोमीटर दूर शाहगांव की अदालत में जाना है.

डा. राजेश ने चिकित्सालय में 2-4 मरीज देखे, फिर सिस्टर को बुला कर कहा, ‘‘सिस्टर, मैं शाहगांव कोर्ट जा रहा हूं, आप मरीजों को दवाएं दे दीजिएगा, कोई अधिक बीमार हो तो रेफर कर दीजिएगा.’’

डा. राजेश बाइक से शाहगांव के लिए चल दिए, वे ठीक 11 बजे न्यायालय पहुंच गए. न्यायालय के बाहर सन्नाटा था. कुछ पक्षी, विपक्षी और निष्पक्षी लोग, चायपान की दुकान में चायपान कर रहे थे.

डा. राजेश ने सोचा कि बयान हो जाए तभी खाना खाऊंगा और 1 बजे तक शिवपुर पहुंच जाऊंगा. इसलिए वे सीधे न्यायालय के कक्ष में चले गए. न्यायालय के कक्ष में 1-2 बाबू और 1 पुलिस वाला फाइलें उलटपलट रहे थे. डा. राजेश ने पुलिस वाले को समन दिखा कर उस को पदोन्नत करते हुए कहा, ‘‘चीफ साहब, मेरा बयान शीघ्र करा दें, अपने अस्पताल में मैं अकेला हूं.’’

‘‘साहब अभी चैंबर में हैं, उन के आने पर बात कर लीजिएगा,’’ पुलिस वाले ने

डा. राजेश से कहा.

डा. राजेश कक्ष में पड़ी एक बैंच पर बैठ गए. उन्होंने देखा कि न्यायाधीश की टेबल पर एक लैपटौप रखा है और टेबल के दोनों छोर पर एकएक टाइपिंग मशीन रखी थी. न्यायाधीश महोदय की कुरसी के पीछे की दीवार पर हृष्टपुष्ट और मुसकराते हुए गांधीजी की तसवीर टंगी थी. तसवीर के  गांधीजी अदालत की ओर न देख कर बाहर खिड़की की ओर देख रहे थे. तसवीर पर 4-5 माह पुरानी, सूखी फूलों की एक माला टंगी थी. केवल जज साहब की कुरसी के ऊपर पंखा चल रहा था. तब डा. राजेश ने न्यायालय के सेवक से कहा, ‘‘भाई, गरमी लग रही है, पंखा चला दो.’’

सेवक तपाक से बोला, ‘‘इन्वर्टर का कनैक्शन केवल साहब के लिए है.’’

कमरे के सारे लोग पसीनापसीना हो रहे थे. पक्षीविपक्षी (वादी, प्रतिवादी) अपने वकीलों के साथ आ कर बाबू से बात कर रहे थे, वे शायद अगली पेशी की सुविधाजनक तारीख ले रहे थे.

बाबू लोग फाइलें व कागज ले कर साहब के कक्ष में आजा रहे थे. फिर जज साहब के कक्ष से डिक्टेशन और टाइपिंग की आवाजें आने लगीं. वे शायद कोई फैसला लिखवा रहे थे. अब तक 1 बज गया था. डा. राजेश गरमी और अनावश्यक बैठने के कारण विचलित हो कर सोचने लगे कि जैसे उन्होंने अपराध किया हो. उन के मन में बचाव पक्ष के वकील के प्रश्नों, तर्कों, वितर्कों का भय और चिंतन भी था. तभी सेवक, साहब की टेबल पर 1 गिलास पानी रख गया.

साहब कुरसी पर आए. उन के चेहरे पर शासन और अभिजात्य की आभा प्रदीप्त थी. उन्होंने दो घूंट पानी पिया, कुछ फाइलें देखीं. तभी लोक अभियोजक, कुछ वकील और कुछ वादीप्रतिवादी आ गए. साहब ने जब तक फैसला सुनाया तब तक भोजनावकाश हो गया था.

भोजनावकाश के बाद जज साहब आए तब डा. राजेश ने विनती की, ‘‘सर, मैं डा. राजेश हूं, मेरा बयान हो जाए तो अच्छा है.’’

न्यायाधीश महोदय ने उन का समन देखा, फाइल देखी. उन्होंने प्रतिवादी को आवाज लगवाई परंतु तब तक प्रतिवादी का वकील नहीं आया था. तब जज साहब ने कहा, ‘‘डाक्टर साहब, थोड़ा और रुकें, आप को प्रमाणपत्र तो पूरे दिन का ही दिया जाएगा.’’

प्रतिवादी ने वकील को बुलवाया, वह करीब 4 बजे आया. वकील ने फाइल देख कर कहा कि डाक्टर ने तो वादी को कोई चोट ही नहीं लिखी, इसलिए बयान की कोई आवश्यकता नहीं है. डाक्टर को कोर्ट आने का प्रमाणपत्र दिया गया. डा. राजेश खिन्न मन से, भुनभुनाते हुए वापस शिवपुर लौट गए.

न्यायाधीश महोदय अवकाश के बाद शाहगांव लौट रहे थे. शिवपुर के पास ही दिन के 3 बजे उन की गाड़ी का ऐक्सीडैंट हो गया. उन के साथी को कई जगह चोट आई और सिर से खून बहने लगा. साथी को ले कर जज साहब शिवपुर अस्पताल आए पर अस्पताल में ताला लगा था. डाक्टर के आवास में भी ताला लगा था. अस्पताल का सेवक दौड़ कर सिस्टर को बुला लाया.

जज साहब ने सिस्टर को डांटते हुए कहा, ‘‘अस्पताल क्यों बंद है, डाक्टर कहां है?’’

सिस्टर ने धीरे से बताया, ‘‘सर, अस्पताल तो 1 बजे बंद हो जाता है और डाक्टर साहब तो पेशी पर गए हैं.’’

जज साहब ने सिस्टर से कहा, ‘‘फोन कर के तुरंत डाक्टर को बुलाओ.’’

सिस्टर ने डाक्टर को फोन लगाया और रिंग जाने पर उस ने फोन जज साहब को दे दिया.

उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

‘‘मैं, सिविल जज, आप के अस्पताल से बोल रहा हूं. मेरे साथी को काफी चोट लगी है.’’

‘‘सर, मैं अभी आप के कोर्ट में ही हूं, जितनी देर में मैं आऊंगा उतनी देर में तो आप शाहगांव आ जाएंगे, फिर यहां पर सुविधा भी अधिक है,’’ डा. राजेश ने विनयपूर्वक  कहा.

जज साहब जब तक साथी को ले कर शाहगांव आए तब तक काफी खून बह चुका था. 2 यूनिट खून देने के बाद साथी को होश आया.

न्यायालय में आ कर जज साहब ने स्टाफ को निर्देशित किया कि अगर कोई चिकित्सक गवाही को आए तो यथाशीघ्र उस का बयान करा कर उसे जाने दिया जाए क्योंकि अस्पताल में बहुत से मरीज उस की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं.

फेसबुकिया समाज का सच

दुनिया में तरहतरह की जातियां, जनजातियां और उपजातियां हैं. सभी अपनेअपने में मस्त हैं. कभी दुखी हैं तो कभी सुखी. दुखसुख तो लगा ही रहता है. ऐसे ही है एक फेसबुकिया समाज, जहां हर छोटेबड़े, अमीरगरीब, हर धर्म व जाति के लोगों को बराबर का स्थान प्राप्त है.

फेसबुकिया कई प्रकार के होते हैं. एक बहुत ही हलके टाइप फेसबुकिया होते हैं जो कभीकभार भूलेभटके यहां विचरण करते हैं. इन से बढ़ कर मिडिल क्लास यानी वे फेसबुकिया होते हैं जो थोड़ेथोड़े समय के अंतराल पर इस समाज में घुसपैठ करते रहते हैं. हैलोहाय की, हिंदी, अंगरेजी या किसी भी भाषा में दसपांच लाइनें लिखींपढ़ीं, कुछ लाइकवाइक, कमैंटशमैंट किए और फिर बैक टू पवेलियन हुए.

एक होते हैं अत्यंत कट्टर फेसबुकिया. असल में फेसबुक इन्हीं लोगों की बदौलत चमकती है क्योंकि इन का उठनाबैठना, चलनाफिरना, खानापीना, सोनाजागना, आनाजाना, रोनाहंसना सब फेसबुक से ही होता है यानी फेसबुक के नाम से शुरू, फेसबुक के नाम पर खत्म. फेसबुक इन से और ये फेसबुक से होते हैं. ये फेसबुकिया किसी के मरने की खबर को भी लाइक करते हैं.

ये जो कट्टर फेसबुकिया होते हैं न, वे सुबह उठते ही ब्रश करने से पहले आंखें मींचते हुए फेसबुकियाने बैठ जाते हैं. जिसे कुछ आता है वह अपनी वाल पर कुछ लिखता है, जिसे नहीं आता वह भी कुछ लिखता ही है.

तमाम किताबें उलटतेपलटते जितना कि इग्जाम के समय कोर्स की किताबें भी नहीं उलटीपलटी होंगी या फिर किसी शेरोशायरी की किताब से ही कुछ उड़ा कर अपनी वाल पर लगा लेते हैं या लिख लेते हैं. और अगर कुछ नहीं मिला तो अपने घर की कोई रामकहानी, जैसे ‘कल मेरी बालकनी में एक गोरैया आई थी…’ या ‘मेरी बगिया में कल एक गुलाब की कली निकली…’ अथवा ‘मैं फलां जगह की यात्रा से लौटा हूं… या जाने वाला हूं’ वगैरहवगैरह लिखते हैं. लिखने के बाद उन के दिल की धड़कन तब तक रुकी रहती है जब तक उन के स्टेटस को कोई दूसरा फेसबुकिया लाइक न कर दे या फिर 2-4 कमैंट स्टेटस की झूठीसच्ची प्रशंसा में न ठोंक दे.

अगर जल्दी ही कुछ लोगों ने लाइक कर दिया और कोई कमैंट ठोंक दिया तो समझो कि उन का फेसबुकिया होना सार्थक हो गया. दिन भी बहुत अच्छा गुजरेगा. कहीं लाइक कमैंट करने वाले फेसबुकियों की संख्या उन के अनुमान से ज्यादा हो गई तो सोने पे सुहागा. ये वैसे ही खुश होते हैं जैसे कोई नेता अनुमान से कहीं अधिक वोट पा कर फूला नहीं समाता. और अगर किसी ने लाइक नहीं किया तो बेचारों का दिन खराब. मुंह ऐसे लटकता है जैसे जून की तपती धूप में पीले कनेर का मुरझाया फूल.

बड़े लुटेपिटे, थकेहारे भाव से वे उठ कर दैनिक क्रियाकलापों को निबटाना शुरू करते हैं. कुछ समय बाद फोन कर के कट्टर, हलके या अत्यंत हलके फेसबुकिया समाज के अन्य सदस्यों, जो उन के जरा ज्यादा करीब होते हैं, से अपने स्टेटस को बिना पढ़े लाइक करने और कुछ कमैंट करने का अनुरोध भी करते हैं, बड़ी विनम्रतापूर्वक डरते हुए कि कहीं अगला मना न कर दे या व्यस्तता का बहाना न बना दे.

असली फेसबुक पूजा मतलब किसी तप करने वाले साधुमहात्मा की तरह करने वाला हठयोग तो अब शुरू होता है. फोन करने के बाद लाइक, कमैंट के इंतजार करने में फेसबुक के सामने ही ब्रेकफास्ट करते हैं. और लंच तक वहीं डटे रहते हैं. समय गुजरता ही रहता है, उस का काम ही यही है, लेकिन ये लोग लंच के बाद शाम की चाय और फिर डिनर के बाद तक कर्तव्यनिष्ठ फेसबुकिया की तरह ऐसे जमे रहते हैं जैसे फ्रीजर में बर्फ. अरे भाई, वहां एक ही काम थोड़े ही होता है, बहुत काम रहते हैं.

दूसरों का स्टेटस भी लाइक करना होता है. उस पर कमैंट करना होता है. यानी इस हाथ ले उस हाथ दे… दूसरों के स्टेटस को लाइक, कमैंट या शेयर नहीं करेंगे तो भैया दूसरे भी नहीं करेंगे. क्यों करें, जमाना निस्वार्थ नहीं रहा न. बीचबीच में हरी बत्ती वालों से, मतलब औनलाइन उपस्थित रहने वालों से, बतियाना भी तो रहता है.

ये लोग तब तक नहीं उठते जब तक आंखें थक न जाएं, पलकें मना न कर दें और उंगलियां टाइप करतेकरते दर्द से कराहने न लगें. भारी मन से ये लोग फेसबुक छोड़ते हैं और छोड़ते समय विदाई पर दुलहन के उदास होने से ज्यादा उदास होते हैं. इन लोगों को तो सपने में भी फेसबुक ही दिखती है. किस ने क्या लिखा, कौन सी फोटो लगाई और न जाने क्याक्या…

फेसबुकिया समाज में कुछ विचित्र जीव ऐसे भी होते हैं जो किसी को हरा होता देख, माफ कीजिएगा औनलाइन होता देख हाय, हैलो, हाऊ आर यू, हाऊ योर लाइफ, हाऊ वाज योर डे… जैसे जुमले पीटने शुरू कर देते हैं. एकसाथ ढेर सारे लोगों से जब तक ये बतिया न लें तब तक इन का खाना क्या, पानी की बूंद भी हजम नहीं होती.

और भाई, कुछ थोड़े इतर जीव होते हैं जो जाने कहां से उड़ा कर, चुरा कर गीत, गजलें, शेरोशायरी और न जाने क्याक्या अपने व दूसरों की वाल पर झोंके रहते हैं, भड़भूंजे के भाड़ की तरह.

पहले जब मेरा अकाउंट फेसबुक पर नहीं था तब मैं कहीं जाती थी चाहे कोई सम्मेलन हो, गोष्ठी हो, बाजारहाट या नातेरिश्तेदारियों अथवा जानपहचान वालों के यहां, सब मिलने पर यही पूछते थे, ‘आप का फेसबुक पर अकाउंट है, है तो किस नाम से, प्रोफाइल पिक्स कैसी है?’

‘नहीं, मैं नहीं हूं, वहां.’ मेरे नकारात्मक जवाब पर लोग ऐसे देखते थे जैसे मैं कितनी पिछड़ी, जाहिल, गंवार हूं. जब ऐसा कई बार हुआ तो मैं बड़ी शर्मिंदगी महसूस करने लगी. अपनी काबिलीयत पर शक होने लगा. फिर भैया, मैं ने भी अपना अकाउंट फेसबुक पर बना ही डाला. अब कहीं जाती हूं तो किसी के पूछने पर तुरंत ‘हां’ कहती हूं. यकीन मानिए, बड़े गर्व का अनुभव होता है और मैं बड़े चहकते स्वर में दूसरों से पूछती हूं, ‘क्या आप का फेसबुक पर अकाउंट है?’

मेरी एक जानने वाली हैं, दीदी, चाची, बूआ, भाभी…कौन? यह मैं नहीं बताऊंगी वरना उन के नाराज होने का भयंकर खतरा है. वे बड़ी कट्टर फेसबुकिया हैं. सुबह उन की आंखें फेसबुक पर ही खुलती हैं. ब्रशमंजन, नहानाधोना सब बाद में. बड़े मनोयोग से फेसबुक का निरीक्षण करती हैं. फिर जो कुछ फेसबुक पर घटित हुआ रहता है यानी लिखापढ़ी, लाइक, कमैंट, फोटो, टैगिंग आदिआदि, उस की चर्चापरिचर्चा बड़े विस्तार से अपने अन्य जानने वालों से फोन पर करती हैं. यह नियम सुबह, दोपहर, शाम और रात तक बिना बाधित हुए चलता है.

संयोग से किसी दिन उन की फेसबुक नहीं चलती, तब तो वे मुझ से अपनी वाल की डिटेल फोन पर लेती ही हैं साथ में, अपने अन्य खास लोगों की वाल डिटेल, लाइक, कमैंट के साथ लेती हैं.

एक बार उन के घर कुछ मेहमान आने वाले थे. डिनर पर उन्होंने मुझे भी बुलाया था. 9 बजे का टाइम था. पर सभ्यता का पालन करते हुए मैं 8 बजे ही पहुंच गई. मोहतरमा फेसबुक पर ही मिलीं, कंप्यूटर स्क्रीन में डूबी हुई सी. मैं ने सोचा, लगता है इन्होंने डिनर की पूरी तैयारी कर ली है और अब निश्ंिचतता से बैठी हैं.

‘‘शुचिता, यह देखो, मैं ने कितनी अच्छी फोटो लगाई है. और हां, ओल्ड सौंग लगाया था. तुम ने लाइक नहीं किया, कोई कमैंट लिख देतीं यार,’’ उन्होंने कहा फिर खिलखिलाने लगीं, ‘‘अरे, यह देखो, इतने लोग मेरी कविता को लाइक कर चुके हैं और ये इतने सारे कमैंट. गजब… वाह, मजा आ गया.’’

‘‘हां, सचमुच यह तो बहुत अच्छा है,’’ मैं ने कहा, इस के अलावा मुझे कुछ और सूझा नहीं.

मैं एक पत्रिका उठा कर देखने लगी. मन में सोचते हुए कि ये उठें तो जरा एक नजर मैं भी अपनी फेसबुक देख लूं. करीब आधे घंटे तक खामोशी छाई रही, जिसे तोड़ने के उद्देश्य से मैं ने कहा, ‘‘मेहमानों के आने का टाइम हो गया है, क्यों?’’

‘‘आं, हां, हां, देखो न, ये लिंक बड़े अच्छे गानों के हैं. जरा सुनते हैं,’’ उन्होंने कहा.

‘‘हां, अच्छा है,’’ मैं ने कहा, ‘‘अरे, आप के मेहमान कहां हैं, पता कीजिए?’’ मैं ने फिर गुस्ताखी की.

‘‘हां, कितने बजे हैं अभी?’’ उन्होंने फेसबुक पर नजरें टिकाए हुए ही कहा.

‘‘पौने 9,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या? पौने 9? इतनी जल्दी कैसे पौने 9 बज गए?’’ उन्होंने नींद से जागते हुए कहा जैसे.

‘‘हां, पौने 9 ही बजे हैं,’’ मैं ने फिर से कहा.

अब उन्होंने फटाक से लौगआउट किया और सटाक से उठते हुए बोलीं, ‘‘यार, अभी तो मैं ने कुछ बनाया ही नहीं. असल में क्या हुआ, रमनजी ने बहुत बढि़या कविता लिखी थी, उसे पढ़ा और फिर सुमनजी से एक बड़े गंभीर विषय पर चैटिंग करने लग गई.’’

मुझे समझ में नहीं आया कि क्या करूं, क्या कहूं. मैं आश्चर्य से कभी कंप्यूटर को देखती तो कभी अपनी मेजबान को. तुरंत वे दौड़ती, हांफती किचन में पहुंचीं और हबड़तबड़ कुछ बनाना शुरू किया.

वह तो भला हो उन के मेहमानों का जो ट्रैफिक के कारण आधा घंटा लेट पहुंचे. आखिरकार चावल पकने तक हमसब को 20 मिनट इंतजार करना पड़ा था.

मेरी एक पड़ोसन हैं रागिनी शर्मा. जब भी सामने दिखेंगी, बस हायहैलो के अलावा कोई बात नहीं करतीं. मगर जब कभी फेसबुक पर औनलाइन मिलेंगी तो जाने कैसे दुनियाजहान की बातें उन्हें याद आती हैं बतियाने के लिए.

एक और पक्की फेसबुकिया हैं. एक बार मेरे यहां दावत पर आई थीं. सब लोग खाना खा रहे थे. सभी मटरपनीर और आलू की प्रशंसा कर रहे थे.

‘‘हां, कोफ्ता और भिंडी सचमुच बहुत टेस्टी बनी हैं,’’ उन्होंने बड़ी लंबी खामोशी के बाद अचानक कहा तो हम सब अचकचा कर उन का मुंह देखने लगे. लाइक, कमैंट की बात उन्होंने तुरंत शुरू कर दी और उन्हें यह भी पता नहीं चला कि क्या हुआ? खैर, मैं उन्हें क्या कहूं, जब से मैं खुद कट्टर फेसबुकिया बनी हूं मेरे घर, परिवार, अगलबगल, समाज, देशदुनिया में क्या हो रहा है, मुझे खुद किसी की फिक्र नहीं रहती, फिक्र रहती है तो बस फेसबुक की. यह एक तरह से अच्छा भी है, सुबह से रात तक इस की चिंता में डूबे रहने के कारण कोई और चिंता भी नहीं सताती.

बिजली, पानी, टैलीफोन का बिल जमा हो या न हो, कोई परवा नहीं करता है. लेकिन इंटरनैट का बिल नियत समय पर चाहे सर्दी हो, गरमी या बरसात, मैं बिना विलंब के जरूर जमा करने जाती हूं.

एक दिन पापा का शेविंग ब्रश कहीं खो गया. सब लोग उसे ढूंढ़ने में बिजी थे और मैं अपने प्रिय फेसबुक पर आनंदित थी. थोड़ी देर बाद पापा मेरे कमरे में आए और पूछने लगे, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘वो मैं… मैं आप का तौलिया ढूंढ़ रही हूं जो खो गया है,’’ हड़बड़ी में मेरे मुंह से यही निकला. मुझे सचमुच ध्यान नहीं था कि शेविंग ब्रश खोया है.

‘‘फेसबुक पर ढूंढ़ रही हो?’’ पापा ने कहा.

अब मुझे अपनी बेवकूफी और भूल का एहसास हुआ. उसी समय मेरे स्टेटस को कई लोगों ने लाइक किया था. सो, मैं खुश थी इसलिए कोई अफसोस नहीं हुआ. मैं फिर से वहीं जम गई और पापा चले गए.

मुझे तो फेसबुक की महिमा देख कर लगता है कि वह दिन दूर नहीं है जब एक ही घर के सदस्य अपनेअपने कमरे में बैठ कर फेसबुक पर ही औनलाइन बात करेंगे. अपनेअपने मोबाइल फोन से अपनी और अपने कुत्तेबिल्लियों की फोटो खींच अपडेट करेंगे और लाइक, कमैंट किया करेंगे… वैसे कितना अच्छा लगेगा,  जरा सोचिए… ‘जय हो फेसबुक की.’

ठंडक का एहसास

हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी. जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य.

‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में…’’ चाचाजी ने कहा.

‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’

‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’

‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं…’’

‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा समझदार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न…हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही समझ में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मुझे अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’

चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सचझूठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं. सच है कहां? वह तो बेचारा कहीं दम तोड़ चुका नजर आता है. एक ‘नोबल प्रोफैशन’ माना जाने वाला पेशा भी आज के युग में ‘नोबल’ नहीं रह गया तो इस पेशे से तो उम्मीद भी क्या की जा सकती है.

दोपहर को हम धूप सेंक रहे थे तभी पुराने कपड़ों के बदले नए बरतन देने वाली चली आई. उम्रदराज औरत है. साल में 2-3 बार ही आती है. कह सकती हूं अपनी सी लगती है. बरतन देखतेदेखते मैं ने हालचाल पूछा. पिछली बार मैं ने 2 जरी की साडि़यां उसे दे दी थीं. उस की बेटी की शादी जो थी.

‘‘शादी अच्छे से हो गई न रमिया… लड़की खुश है न अपने घर में?’’

‘‘जी, बीबीजी, खुश है…कृपा है आप लोगों की.’’

‘‘साडि़यां उसे पसंद आई थीं कि नहीं?’’

फीकी सी हंसी हंस गरदन हिला दी उस ने.

‘‘साडि़यां तो थानेदार ने निकाल ली थीं बीबीजी. आदमी को अफीम का इलजाम लगा कर पकड़ लिया था. छुड़ाने गई तो टोकरा खुलवा कर बरतन भी निकाल लिए और सारे कपड़े भी. पुलिस वालों ने आपस में बांट लिए. तब हमारा बड़ा नुकसान हो गया था. चलो, हो गया किसी तरह लड़की का ब्याह, यह सब तो हम गरीबों के साथ होता ही रहता है.’’

उस की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गई थी. लोगों की उतरन क्या पुलिस वालों ने आपस में बांट ली. इतने गएगुजरे होते हैं क्या ये पुलिस वाले?

सहसा मेरे मन में कुछ कौंधा. कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र के घर कोई उत्सव था और उस के घर हूबहू मेरी वही जरी की साड़ी पहने एक महिला आई थी. मित्र ने मुझे उस से मिलाया भी था. उस ने बताया था कि उस के पति पुलिस में हैं. तो क्या वह मेरी साड़ी थी? कितनी ठसक थी उस औरत में. क्या वह जानती होगी कि उस ने जिस की उतरन पहन रखी है, उसी के सामने ही वह इतरा रही है.

‘‘कौन से थाने में गई थी तू अपने आदमी को छुड़ाने?’’

‘‘बीबीजी, यही जो रेलवे फाटक के पीछे पड़ता है. वहां तो आएदिन किसी न किसी को पकड़ कर ले जाते हैं. जहान के कुत्ते भरे पड़े हैं उस थाने में. कपड़ा, बरतन न निकले तो बोटियां चबाने को रोक लेते हैं. मां पसंद आ जाए तो मां, बेटी पसंद आ जाए तो बेटी…’’

‘‘कोई कुछ कहता नहीं क्या?’’

‘‘कौन कहेगा और किसे कहेगा. उस से ऊपर वाला उस से बड़ा चोर होगा. कहां जाएं हम…बस, उस मालिक का ही भरोसा है. वही न्याय करेगा. इनसान से तो कोई उम्मीद है नहीं.’’

आसमान की तरफ देखा रमिया ने तो मन अजीब सा होने लगा मेरा. क्या कोई इतना भी नीचे गिर सकता है. थाली की रोटी तोड़ने से पहले इनसान यह तो देखता ही है कि थाली साफसुथरी है कि नहीं. लाख भूखा हो कोई पर नाली की गंदगी तो उठा कर नहीं खाई जा सकती.

रमिया से ऐसा कहा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘पेट की भूख और तन की भूख मैलीउजली थाली नहीं देखती बीबीजी. हम लोगों की हाय उन्हें दिनरात लगती है. अब देखना है कि उन्हें अपने किए की सजा कब मिलती है.’’

उस थानेदारनी के प्रति एक जिज्ञासा भाव मेरे मन में जाग उठा. एक दिन मैं अपनी उसी मित्र से मिलने गई. बातोंबातों में किसी बहाने उस का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘उस की साड़ी बड़ी सुंदर थी. मेरी मां के पास भी ऐसी ही जरी की साड़ी थी. पीछे से उसे देख कर लग रहा था कि मेरी मां ही खड़ी हैं. कैसे लोग हैं…इस इलाके में नएनए आए हैं…वे कोई नई किट्टी शुरू कर रही थीं और कह रही थीं कि मैंबर बनना चाहें तो…तुम कैसे जानती हो उन्हें?’’

‘‘उन का बेटा मेरे राजू की क्लास में है. ज्यादा जानपहचान नहीं करना चाहती हूं मैं…इन पुलिस वालों के मुंह कौन लगे. अब राजू ने बुला लिया तो मैं क्या कहती. तुम किट्टी के चक्कर में उसे मत डालना. ऐसा न हो कि उस की किट्टी निकल आए और बाकी की सारी तुम्हें भरनी पड़े. उस की हवा अच्छी नहीं है. शरीफ आदमी नहीं हैं वे लोग. औरत आदमी से भी दो कदम आगे है. मुंह पर तो कोई कुछ नहीं कहता पर इज्जत कोई नहीं करता.’’

अपनी मित्र का बड़बड़ाना मैं देर तक सुनती रही. अपने राजू की उन के बेटे के साथ दोस्ती से वे परेशान थीं.

‘‘कापीकिताब लेने अकसर उस का लड़का आता रहता है. एक दिन राजू ने मना किया तो कहने लगा कि शराफत से दे दो, नहीं तो पापा से कह कर अंदर करवा दूंगा.’’

‘‘क्या सच में ऐसा…?’’

मेरी हैरानी का एक और कारण था.

‘‘इन पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मैं तो परेशान हूं उस के लड़के से. अपनी कुरसी का ऐसा नाजायज फायदा…समझ में नहीं आता कि राजू को कैसे समझाऊं. बच्चा है कहीं कह देगा कि मेरी मां ने मना किया है तो…’’

एक बेईमान इनसान अपने आसपास कितने लोगों को प्रभावित करता है, यह मुझे शीशे की तरह साफ नजर आ रहा था. एक चरित्रहीन इनसान अपनी वजह से क्याक्या बटोर रहा है. बदनामी और गंदगी भी. क्या डर नहीं लगता है आने वाले कल से? सब से ज्यादा विकार तो वह अपने ही लिए संजो रहा है. कहांकहां क्याक्या होगा, जब यही सब प्रश्नचिह्न बन कर सामने खड़ा होगा तब उत्तर कहां से लाएगा.

सच है, अपने दंभ में मनुष्य क्याक्या कर जाता है. पता तो तब चलता है जब कोई उत्तर ही नहीं सूझता. वक्त की लाठी में आवाज नहीं होती और जब पड़ती है तब सूद समेत सब वापस भी कर देती है.

कहने को तो हम सभ्य समाज में रहते हैं और सभ्यता का ही कहांकहां रक्त बह रहा है, हमें समझ में ही नहीं आता. अगर दिखाई दे भी जाए तो हम उस से आंखें फेर लेते हैं. बुराई को पचा जाने की कितनी अच्छी तरह सीख मिल चुकी है हमें.

गरीब बरतन वाली की पीड़ा और उस जैसी औरों पर गिरती थानेदार की गाज ने कई दिन सोने नहीं दिया मुझे. क्या हम पढ़ेलिखे लोग उन के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी मानसिकता इतनी नपुंसक है कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा हमें जरा सा भी नहीं रुलाती? अगर ऊंचनीच का भेद मिटा दें तो एक मानवीय भाव तो जागना ही चाहिए हमारे मन में. अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी.

समाज इतना गंदा हो चुका है कि अपनी चादर को ही बचा पाना आज आसान नहीं रहा. दिन निकलता है तो उम्मीद ही नहीं कर सकते कि रात सहीसलामत आएगी कि नहीं. फूंकफूंक कर पैर रखो तो भी कीचड़ की छींटों से बचाव नहीं हो पाता. क्या करें हम? अपना मानसम्मान ही बचाना भारी पड़ता है और किसी को कोई कैसे बचाए.

मेरे पति जिस विभाग में कार्यरत हैं वहां हर पल पैसों का ही लेनदेन होता है. पैसा लेना और पैसा देना ही उन का काम है. एक ऐसा इनसान जिसे दिनरात रुपयों में ही जीना है, वही रुपए कब गले में फांसी का फंदा बन कर सूली पर लटका दें पता ही नहीं चल सकता. कार्यालय में आने वाला चोर है या साधु…समझ ही नहीं पाते. कैसे कोई काम कर पाए और कैसे कोई अपनी चादर दागदार होने से बचाए?

आज ईमानदारी और बेईमानी का अर्थ बदल चुका है. आप लाख चोरी करें, जी भर कर अपना और सामने वाले का चरित्रहनन करें. बस, इतना खयाल रखिए कि कोई सुबूत न छोड़ें. पकड़े न जाएं. यहीं पर आप की महानता और समझदारी प्रमाणित होती है. कच्चे चोर मत बनिए. जो पकड़ा गया वही बेईमान, जो कभी पकड़ा ही न जाए वह तो है ही ईमानदार, उस पर कैसा दोष?

इसी कुलबुलाहट में कितने दिन बीत गए. ‘कबिरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास, करन गे सो भरन गे तू क्यों भेया उदास’ की तर्ज पर अपने मन को समझाने का मैं प्रयास करती रही. बुराई का अंत कब होगा…कौन करेगा…किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था मुझे.

एक शाम मुझे जम्मू से फोन आया :

‘‘आप के शहर में कर्फ्यू लग गया है. क्या हुआ…आप ठीक हैं न?’’ मेरी बहन का फोन था.

‘‘नहीं तो, मुझे तो नहीं पता.’’

‘‘टीवी पर तो खबर आ रही है,’’ बहन बोली, ‘‘आप देखिए न.’’

मैं ने झट से टीवी खोला. शहर का एक कोना वास्तव में जल रहा था. वाहन और सरकारी इमारतें धूधू कर जल रही थीं. रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी. रेलों की आवाजाही ठप थी.

एक विशेष वर्ग पर ही सारा आरोप आ रहा था. शहर के बाहर से आया मजदूर तबका ही मारकाट और आगजनी कर रहा था. एसएसपी सहित 12-15 पुलिसकर्मी भी घायल अवस्था में अस्पताल पहुंच चुके थे. मजदूरों के एक संगठन ने पुलिस पर हमला कर दिया था. मैं ने झट से पति को फोन किया. पता चला, उस तरफ भी बहुत तनाव है. अपना कार्यालय बंद कर के वे लोग बैठे हैं. कब हालात शांत होेंगे, कब वे घर आ पाएंगे, पता नहीं. बच्चों  के स्कूल फोन किया, पता चला वे भी डी.सी. के और्डर पर अभी छुट्टी नहीं कर पा रहे क्योंकि सड़कों पर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. दम घुटने लगा मेरा. क्या सभी दुबके रहेंगे अपनेअपने डेरों में. पुलिस खुद मार खा रही है, वह बचाएगी क्या?

अपनी सहेली को फोन किया. कुछ तो रास्ता निकले. उस का बेटा राजू भी अभी स्कूल में ही है क्या?

‘‘क्या तुम्हें कुछ भी पता नहीं है? कहां रहती हो तुम? मैं ने तो राजू को स्कूल जाने ही नहीं दिया था.’’

‘‘क्यों, तुम्हें कैसे पता था कि आज कर्फ्यू लगने वाला है?’’

‘‘उस थानेदार की खबर नहीं सुनी क्या तुम ने? सुबह उस की पत्नी और बेटे का अधकटा शव पटरी पर से मिला है. थानेदार के भी दोनों हाथ काट दिए गए हैं. भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया था.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. यह क्या सुना रही है मेरी मित्र? वह बहुत कुछ और भी कहतीसुनती रही. सब जैसे मेरे कानों से टकराटकरा कर लौट गया. जो सुना उसे तो आज नहीं कल होना ही था. सच कहा है किसी ने, अपनी लड़ाई सदा खुद ही लड़नी पड़ती है.

रमिया की सारी बातें याद आने लगीं मुझे. हम तो उस के लिए कुछ नहीं कर पाए. हम जैसा एक सफेदपोश आदमी जो अपनी ही पगड़ी बड़ी मुश्किल से बचा पाता है किसी की इज्जत कैसे बचा सकता है. यह पुलिस और मजदूर वर्ग की लड़ाई सामान्य लड़ाई कहां है, यह तो मानसम्मान की लड़ाई है. सब को फैलती आग दिखाई दे रही है पर किसी को वह आग क्यों नहीं दिखती जिस ने न जाने कितनों के घर का मानसम्मान जला दिया?

थानेदारनी और उस के बच्चे का अधकटा शव तो अखबार के पन्नों पर भी आ जाएगा, उन का क्या, जिन की पीड़ा अनसुनी रह गई. क्या करते गरीब लोग? तरीका गलत सही, सही तरीका है कहां? कानून हाथ में ले लिया, कानून है कहां? सुलगती आग एक न एक दिन तो ज्वाला बन कर जलाती ही.

‘‘शुभा, तू सुन रही है न, मैं क्या कह रही हूं. घर के दरवाजे बंद रखना, सुना है वे घरों में घुस कर सब को मारने वाले हैं. अपना बचाव खुद ही करना पड़ेगा.’’

फोन रख दिया मैं ने. अपना बचाव खुद करने के लिए सारे दरवाजेखिड़कियां तो बंद कर लीं मैं ने लेकिन मन की गहराई में कहीं विचित्र सी मुक्ति का भाव जागा. सच कहा है उस ने, अपना बचाव खुद ही करना पड़ता है. अपनी लड़ाई हमेशा खुद ही लड़नी पड़ती है. यह आग कब थमेगी, मुझे पता नहीं, मगर वास्तव में मेरी छाती में ठंडक का एहसास हो रहा था.

माध्यम: सास के दुर्व्यवहार को क्या भुला पाई मीना

बंबई से आए इस पत्र ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है. दोपहर को पत्र आया था, तब प्रदीप दफ्तर में थे. अब रात के 9 बज गए हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए.

फाड़ कर फेंक दूं इसे? डाक विभाग पर दोष लगाना बड़ा सरल है. बाद में कभी प्रदीप या उन की मां ने इस विषय को उठाया तो मैं कह दूंगी कि वह पत्र मुझे कभी मिला ही नहीं.

या फिर प्रदीप से सीधी बात कर ली जाए. जैसेतैसे उन्हें छुट्टी मिली है. छुट्टी यात्रा भत्ता ले कर वह दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहे हैं. सिर्फ हम दोनों. बंगलौर, ऊटी, त्रिवेंद्रम, कोवलम और कन्याकुमारी. पिछले कई दिनों से तैयारियां चल रही हैं और परसों सुबह की गाड़ी से हमें रवाना हो जाना है. प्रदीप को इस पत्र के बारे में बताया तो संभव है कि हमारे पिछले 2 वर्ष के वैवाहिक जीवन में प्रथम बार यह यात्रा कार्यक्रम स्थगित हो जाए.

फिर मन इस मानवीय आधार पर पूरे प्रसंग की विवेचना करने लगा. प्रदीप की मां मेरी सास हैं. सास और मां में क्या अंतर है? कुछ भी तो नहीं. उन की बाईं टांग में प्लास्टर चढ़ा है. स्नानागार में फिसल गईं. टखने और घुटने की हड्डियों में दरार आ गई है. गनीमत हुई कि वे टूटी नहीं. उन्हें 3 सप्ताह तक बिस्तर पर विश्राम करने की सलाह दी गई है.

घर पर कौन है? प्रदीप के पिता, छोटा भाई और सीमा. अरे, सीमा कहां है? उस का तो पिछले वर्ष विवाह हो गया. पत्र में लिखा है कि सीमा को बुलाने के लिए दिल्ली फोन किया था पर उस की सास ने अनुमति नहीं दी. सीमा की ननद अपना पहला जापा करने मायके आई हुई है. सास का गठिया परेशान कर रहा है. उधर सीमा का पति किसी विभागीय परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा है.

प्रदीप के भाई ने पत्र लिखा है. मांजी ने ही लिखवाया है. यह भी लिखा है कि घर के कामकाज में बड़ी दिक्कत हो रही है. नौकरानी भी छुट्टी कर गई है.

घर की इस दुर्दशा का वर्णन पढ़ कर मेरा अंतर द्रवित हो गया. मैं ने सोचा, संकट के समय अपने बच्चे ही तो काम आते हैं. मांजी चाहती हैं कि मैं उन की सेवा के लिए औरंगाबाद से बंबई आ जाऊं. पर शालीनता या संकोचवश उन्होंने लिखवाया नहीं. उन्हें पता है कि हम लोग 2 सप्ताह की छुट्टी ले कर घूमने जा रहे हैं.

एक मन किया, छुट्टी का सदुपयोग दक्षिण भारत की यात्रा नहीं, संकटग्रस्त परिवार की सेवा कर के किया जाए. पर तभी मन कसैला सा हो गया. शादी के पहले वर्ष में मेरे साथ मांजी ने जो व्यवहार किया था उस की कटु स्मृति आज तक मुझे छटपटाती है.

तब प्रदीप बंबई में ही नियुक्त थे. मैं अपने सासससुर के साथ ही रह रही थी. एक दिन नासिक से पिताजी का पत्र आया था. लिखा था कि कौशल्या बीमार है. उसे टायफाइड हुआ और बाद में पीलिया. डाक्टरों ने 4 हफ्ते पूर्ण विश्राम की सलाह दी है. वह बेहद परेशान है. पर मैं और तेरा छोटा भाई उस की देखभाल कर लेते हैं. खाना पकाने में दिक्कत होती है. पर पेट भरने के लिए कुछ कच्चापक्का बना ही लेते हैं. कभी दूध, डबलरोटी ले लेते हैं, कभी बाजार से छोलेभठूरे ले आते हैं.

पत्र पढ़ कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. घर की ऐसी दुर्दशा. मेरा दिल किया कि मैं उड़ कर नासिक पहुंच जाऊं. शादी के बाद, पूरे 1 वर्ष में केवल रक्षाबंधन पर मैं 1 दिन के लिए अपने घर गई थी. प्रदीप साथ में थे.

मैं ने मांजी से घर जाने के लिए कहा तो वह संवेदनशून्य स्वर में बोलीं, ‘शादी के बाद लड़की को बातबेबात मायके जाना शोभा नहीं देता. उसे तो सिर्फ एक बार, और वह भी किसी त्योहार पर ही मां के घर जाना चाहिए.’

‘मांजी, मां को पीलिया हो गया है. घर में…’

‘बहू, घर में यह मामूली हारीबीमारी तो चलती रहती है. इस तरह छोटेमोटे बहाने से मायके की तरफ लपकना अच्छा लगता है?’ मांजी ने विद्रूप स्वर में ताना कसा.

‘पर भाई और पिताजी को ठीक से खाना नहीं मिल रहा है…’

‘देखो बहू, उस घर को भूल जाओ. अब तो तुम्हारा घर यह है. तुम्हारा पहला फर्ज बनता है हम लोगों की सेवा.’

‘मांजी, यह तो ठीक है पर जरा सोचिए, जिन मांबाप ने जन्म दिया, जिन्होंने पालपोस कर इतना बड़ा किया, शादीब्याह किया, क्या कोई लड़की उन्हें एकदम भुला सकती है? यह तो खून का अटूट संबंध है. इसे भुलाना संभव नहीं,’ मैं भावावेश में कह गई.

‘बहू, हमारे भी मांबाप थे. हमारे भी खून के संबंध थे. पर एक बार इस घर की चौखट के अंदर कदम रखा नहीं कि एक झटके से मायके को भूल गए. यह तो जग की रीति है. शादी होती है. सात फेरों के साथ लड़की का नया रिश्ता जुड़ता है. पुराना रिश्ता टूट जाता है. ऐसा ही होता आया है.’

‘वह तो ठीक है, मांजी. लड़की का कर्तव्य है कि वह सासससुर, पति, बच्चों की सेवा करे पर इस का यह अर्थ नहीं कि वह अपने जन्मदाताओं के सुखदुख में भी काम न आए. यह कैसी एकांगी विचारधारा है?’

‘जो शादीशुदा लड़कियां हर समय मायके वालों के चक्कर में पड़ी रहती हैं वे ससुराल में किसी को सुखी नहीं रख सकतीं. 2 घरों की एकसाथ देखभाल असंभव है.’

‘मांजी, क्या दोनों के बीच कोई संतुलन…’

‘मीना, तुम बहुत बहस करती हो, मानती हूं, तुम पढ़ीलिखी हो पर इस का यह मतलब नहीं कि…’

‘मैं बहस नहीं कर रही हूं. मैं 1 हफ्ते के लिए नासिक जाने की आज्ञा मांग रही हूं.’

‘मैं कुछ नहीं जानती. तुम जानो और तुम्हारा पति.’

मांजी का उखड़ा स्वर, फूला मुंह और मटकती हुई गरदन क्या मेरी प्रार्थना की अस्वीकृति के साक्षी नहीं थे? मेरा मन बुझ गया. क्या यह क्रूरता और हृदयहीनता नहीं? अपने स्वार्थ के लिए संबंधियों के सुखदुख में भागीदारी न करना क्या उचित है?

उद्विग्न और निराश मैं चुप लगा गई. जी में तो आया कि मांजी के इस अनुचित व्यवहार के विरुद्ध विरोध का झंडा खड़ा कर दूं.

कहूं, ‘कल को आप की बेटी का विवाह होगा. आप को कोई तकलीफ हो और आप उसे बुलाएं और उस के ससुराल वाले न भेजें तो आप को कैसा महसूस होगा, जरा सोचिए.’

मैं ने आगे बहस नहीं की. उस से कुछ नहीं होना था. केवल धैर्य, सहिष्णुता तथा उदारता के आधार पर ही हम पारिवारिक शांति स्थापित कर सकते हैं. वही मैं ने किया.

पर मेरे अंदर की घुटन को अभिव्यक्ति मिली रात में. जब हम दोनों बिस्तर पर अकेले थे तब प्रदीप ने मेरी उदासी का कारण पूछा था. मैं ने पूरा किस्सा उन्हें सुना दिया. सुन कर वह हंसे और बोले, ‘मांजी के इन विचारों का मैं स्वागत करता हूं.’

‘आप क्यों नहीं करेंगे? अरे, घुटना पेट की तरफ मुड़ता है. एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं आप दोनों.’

‘नहीं श्रीमतीजी, मांजी की बात में सार है. विवाह के बाद इतनी जल्दी पतिपत्नी विरह की अग्नि में जलें, कोई मां ऐसा चाहेगी.’

‘आप सोचते हैं, किसी लड़की के मांबाप. भाईबहन भूखे रहें और वह मिलन के गीत तू मेरा चांद, मैं तेरी चांदनी… गाती रहे.’

इस बार प्रदीप गंभीर हो गए. बोले, ‘भई, नाराज क्यों होती हो? अगर जाना चाहती हो तो ठीक है. कल सुबह मांजी को पटाने की कोशिश करेंगे.’

‘मैं जाऊं या न जाऊं, इस से कोई खास अंतर नहीं पड़ता पर मांजी का यह व्यवहार, संवेदनाशून्य, क्रूर और एकांगी नहीं है क्या? आप ही बताइए?’

‘हर व्यक्ति अपने हिसाब से काम करता है. मां ने जो कुछ कहा और किया वह उन का दृष्टिकोण है, जीवनदर्शन है. और यह दर्शन बनता है हमारी अतीत की अनुभूतियों से. मीना, शायद तुम्हें विश्वास न हो पर यह सच है कि मां एक ऐसे परिवार से आईं जहां लड़की का विवाह एक मुक्ति का एहसास माना जाता था और दोबारा मायके आना अभिशाप.’

‘वह क्यों?’ मैं ने उत्सुक हो कर पूछा.

‘इसलिए कि मां के मायके में 11 बहनभाई थे. 8 बहनें और 3 भाई. नानानानी एकएक लड़की की शादी करते और दोबारा उस का नाम नहीं लेते. मां भी इस घर में आईं. भीड़, अभाव और विपन्नता से शांति, समृद्धि और सुख के माहौल में एक बार इस घर में आईं तो फिर मुड़ कर उस घर को नहीं देखा. बस, शादीब्याह के मौके पर गईं या न गईं.’

‘वह तो ठीक है, पर…’

‘सच कहूं,’ प्रदीप ने कहा, ‘हम लोग ननिहाल जाते तो वहां पर मां का कोई खास स्वागत नहीं होता. हम लोग एक तरह से उन पर बोझ बन जाते. ज्यादा काम, मेहमानदारी पर खर्चा और लौटने पर बेटी और बच्चों को उपहार देने का संकट.’

‘ठीक है, प्रदीप, मैं मांजी की मनोदशा समझ गई. पर वह यह क्यों नहीं सोचतीं कि उन की और मेरी स्थिति में आकाशपाताल का अंतर है. उन के मायके में संकट में घर का काम करने के लिए और बहनें थीं. मैं अकेली हूं. उन को पीहर में एक बोझ समझा जाता था पर मेरा मेरे घर में अभूतपूर्व स्वागत होता है, आप स्वयं देख चुके हैं.’

‘ठीक है. मैं कल सुबह मांजी से बात करूंगा,’ कह कर प्रदीप ने मुझे अपने अंक में समेट लिया. शारीरिक उत्तेजना और रासरंग की बाढ़ में मेरे अंतर की समस्त कड़वाहट डूब गई.

अगले दिन सुबह मैं तो रसोईघर में नाश्ता बनाने में व्यस्त थी और मांबेटा बाहर मेरे नासिक जाने के प्रश्न पर ऐसी गंभीरता से विचार कर रहे थे जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में निरस्त्रीकरण पर बहस.

मैं नाश्ता ले कर बाहर आई तो महसूस किया जैसे प्रदीप विजय के द्वार पर पहुंच गए हैं. मां उन से कह रही थीं, ‘बीवी का गुलाम हो गया है. उसी के स्वर में बोलने लगा है.’

मुझे देख, उन्होंने बनावटी गुस्से से कहा, ‘बहू, तू 2 हफ्ते के लिए नासिक चली जाएगी तो इस घर और प्रदीप की देखभाल कौन करेगा?’

‘आप जो हैं, मांजी,’ मेरे मुंह से अनायास निकल गया.

मैं नासिक गई. पहुंच कर देखा, मां पीली पड़ गई थीं. एकदम अशक्त और असहाय. पिताजी कैसे उलझे और अस्तव्यस्त से लग रहे थे…और भाई क्लांत. मुझे देखते ही तीनों के चेहरे खिल गए. एक मुक्ति, निश्चिंतता का भाव उन के मुख पर उभर आया.

‘तू आ गई, बेटी. अब कोई चिंता नहीं. तेरे बिना तो यह घर खाने को दौड़ता है, मैं बिस्तर पर पड़ गई. घर के रंगढंग ही बिगड़ गए,’ मां ने उदास स्वर में कहा.

काश, मेरी सास होतीं उस समय और देख पातीं उन लोगों के मुख पर उभरती संतुष्टि, कृतज्ञता तथा संकटमुक्ति की अनुभूति को.

‘‘मीना, क्या बात है? आज तो शाम से तुम गौतम बुद्ध हो गई हो. एकदम समाधिस्थ, चिंतन में डूबी.’’

प्रदीप ने मेरे दोनों कंधे पकड़ कर झकझोर दिया. मैं अतीत की गलियों से लौट कर, वर्तमान के राजपथ पर आ गई. हां, मैं सचमुच खो गई थी. 3 विकल्प थे मेरे सामने. 2 में बेईमानी, संवेदनशून्यता और क्रूरता थी.

अनायास मैं ने दोपहर को बंबई से आया पत्र प्रदीप की ओर बढ़ा दिया. उलझे हुए हावभाव का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने मुझ से पत्र लिया और गौर से पढ़ने लगे. मेरी दृष्टि प्रदीप के मुख पर टिकी थी. कुछ पल पूर्व की प्रफुल्लता उन के चेहरे से काफूर हो गई और उस का स्थान ले लिया, चिंता, ऊहापोह, उलझन और उदासी ने.

पत्र पढ़ कर प्रदीप ने मेरी तरफ याचक दृष्टि से ताका और बोले, ‘‘यह तो सब गड़बड़ हो गया. अब क्या करना है?

‘‘सीमा की ससुराल वाले भी कमाल के लोग हैं. मायके में इतनी परेशानी है. पर उन्हें तो अपने बेटे के इम्तिहान और बेटी के जापे की चिंता है, बहू की मां चाहे मरे या जिए, उन की बला से.’’

‘‘प्रदीप, हर सास ऐसे ही सोचती है. याद है, पिछले साल, आप का औरंगाबाद तबादला होने से पहले मेरे घर से चिट्ठी आई थी.’’

‘‘मैं ने तुम्हें भेजा था.’’

‘‘हां, प्रदीप. आप ने समझदारी से काम लिया था. पर मैं ने आप को एक बात नहीं बताई.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मांजी ने मुझ से बड़ी कड़वी बातें कही थीं. उन्होंने कहा था कि जो लड़कियां बातबेबात मायके दौड़ती हैं, उन का अपना घर कभी सुखी नहीं रह सकता. लड़की की मां, बेटी की समस्याओं के लिए ससुराल वालों की आलोचना करती है, लड़की को भड़काती है. ससुराल वालों के प्रति उन के मन में वितृष्णा उत्पन्न करती है. फल यह होता है कि लड़की अपने घर जा कर स्थापित नहीं हो पाती.’’

‘‘मीना, उस को छोड़ो. अब बताओ, क्या करना है?’’ प्रदीप ने पूछा.

‘‘करना क्या है? हमें कल सुबह ही बंबई रवाना होना है.’’

‘‘और छुट्टी का क्या होगा?’’

‘‘प्रदीप, घूमनेफिरने के लिए पूरी जिंदगी पड़ी है. हम मांजी को बीमार और पिताजी तथा भैया को इस संकट में छोड़ कर सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते हैं? मायका हो या पति का घर, बच्चों तथा बहूबेटी का मांबाप, सासससुर की सेवा करना प्रथम कर्तव्य है.’’

‘‘और यह जो सामान बंधा हुआ है, उस का क्या होगा?’’

‘‘उसे भी बंबई लिए चलते हैं.’’

प्रदीप ने मेरी ओर अनुराग भरी दृष्टि डाली. क्या उस में केवल स्नेह था? नहीं, उस में प्रशंसा, गर्व, खुशी और संतोष सब का संगम था.

अगले दिन दोपहर बाद करीब साढ़े 3 बजे हम लोग बंबई पहुंच गए. अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के हमें आया देख कर मां, पिताजी और छोटे भैया के चेहरों पर सूर्योदय के बाद की सी चमक आ गई. वे कितने खुश, मुग्ध और चिंतारहित से लगने लगे थे.

मैं ने मांजी की दशा देखी तो अपने निर्णय की बुद्धिमत्ता का विचार आत्मतुष्टि उत्पन्न कर गया. वास्तव में वह काफी तकलीफ में थीं. साथ ही घर पूरी तरह से अस्तव्यस्त हो चुका था.

‘‘बहू आ गई. अब कोई चिंता नहीं,’’ यह थी पिताजी की प्रतिक्रिया. उन्होंने चैन की सांस ली.

‘‘भाभी, आप अचानक कैसे आ गईं?’’ मेरे देवर ने घोर आश्चर्य से पूछा.

‘‘बहू, तुम लोग तो दक्षिण भारत की यात्रा पर जाने वाले थे?’’ मांजी ने पूछा.

‘‘हां, मांजी. पर मातापिता की सेवा तो हम सब का प्रथम कर्तव्य है. आप की दुर्घटना की सूचना पा कर हम सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते थे?’’

मांजी कुछ नहीं बोलीं. केवल उन की आंखों में नमी उभर आई.

हमारे आगमन से घर में नवजीवन का संचार हो गया. मैं ने आते ही घर के संचालन की बागडोर संभाल ली. सफाई, धुलाई, रसोईघर का काम, खाना बनाना, मांजी की सेवा और समयसमय पर उन को दवा तथा खानपान देना.

3-4 दिन में ही घर का कायाकल्प हो गया.

चौथे दिन मांजी के मुख से निकल ही गया, ‘‘घर को पुरुष नहीं, औरत ही चला सकती है, चाहे वह बहू हो या बेटी.’’

मैं क्या कहती? शब्दों में नहीं, गरदन को हिला कर मैं ने मांजी के कथन से अपनी सहमति प्रकट कर दी.

‘‘सीमा की ससुराल वाले बड़े मतलबी और स्वार्थी हैं. जोत रखा होगा मेरी बेटी को. 4 दिन पहले ननद के बेटी हुई है. जच्चा का कितना काम फैल जाता है. सास की निर्दयता तो देखो, उसे इतना भी खयाल नहीं कि बहू की मां की टांग टूट गई है और घर पर कोई नहीं है देखभाल करने वाला…’’

मांजी की भुनभुनाहट सुन कर मुझे अंदर से खुशी हुई. इनसान पर जब बीतती है तब उसे पता चलता है. पिछले वर्ष मांजी को क्या हुआ? तब वह सास थीं और आज? केवल मां.

7वें दिन एक अप्रत्याशित घटना घटी. शाम के 7 बजे अचानक, बिना किसी पूर्व सूचना के सीमा आ धमकी. साथ में था अशोक, उस का पति.

घर में खुशी की धूम मच गई. मांजी की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. बेटी और दामाद का अनायास आगमन निश्चित रूप से अभूतपूर्व सुख का क्षण था.

हमें देख कर वे दोनों चौंके. उन्होंने हमारे वहां होने की कल्पना तक नहीं की थी.

‘‘चिट्ठी पा कर दौड़े चले आए बेचारे. 1 सप्ताह से बहू ऐसी सेवा कर रही है कि बस पूछो मत,’’ मांजी के स्वर में सच्ची प्रशंसा थी.

‘‘भाभी, कितनी छुट्टियां बची हैं तुम्हारी?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘यही 8-10 दिन,’’ मैं ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ कर कहा.

‘‘ठीक है. कल खिसको यहां से. अब मैं संभालती हूं यह मोरचा,’’ सीमा बोली.

‘‘पर अब आरक्षण वगैरह कैसे मिलेगा?’’ प्रदीप के स्वर में निराशा?थी.

‘‘भैया, मतलब तो छुट्टी और सैरसपाटे से है. दक्षिण नहीं जा सकते तो गोआ चले जाओ. बसें जाती हैं. वहां ठहरने के लिए जगह मिल ही जाएगी. कैलनगूट तट की सुनहरी बालू में अर्धनग्न लेट कर मस्ती मारो,’’ सीमा एक सांस में कह गई.

प्रदीप ने मेरी तरफ देखा और मैं ने उस की तरफ.

‘‘हां, बहू. अब सीमा आ गई है. तुम लोग कल चले जाओ. क्यों छुट्टियां बरबाद करते हो,’’ कह कर मांजी ने सीमा से पूछा, ‘‘क्यों री, तेरी सास ने तुझे कैसे छोड़ दिया?’’

‘‘पिताजी की चिट्ठी पढ़ कर उन्होंने खुद कहा कि मैं तुरंत बंबई जाऊं. उन्होंने तो पहले भी मना नहीं किया था. वह तो मुझे ही कहने का साहस नहीं हुआ. इन के इम्तिहान, मंजू बहनजी का जापा और फिर यह भी आप को देखने के लिए चिंतित हो गए.’’

मांजी के मुख पर रुपहली आभा बिखर गई. वह भावातिरेक से कांपने लगीं फिर कुछ क्षण बाद बोलीं, ‘‘सचमुच, मेरे बच्चे और संबंधी इतने उदार, कृपालु और प्रेमी हैं. कितना खयाल रखते हैं हमारा.’’

‘‘बहू,’’ मांजी ने मुझे संबोधित कर के कहा, ‘‘6 मास पूर्व के अपने आचरण पर मैं लज्जित हूं. पहले जमाने में परिवार के अंदर लड़कियों की सेना होती थी. एक गई तो दूसरी उस का स्थान ले लेती थी. पर आज? हम दो, हमारे दो. एकमात्र लड़की चली जाए तो बहुत खलता है. उस पर वह हारीबीमारी, सुखदुख में काम न आए तो बड़ा भावनात्मक कष्ट होता?है,’’ कह कर मांजी ने थकान के कारण आंखें बंद कर लीं.

‘‘आप आराम कीजिए, मांजी,’’ कह कर हम सब बगल के कमरे में चले गए और गप्पें मारने लगे.

मुझे अपने निर्णय पर संतोष था. साथ ही अगले दिन गोआ जाने का मन में उत्साह था. संभवत: मेरे लिए सब से ज्यादा गौरव की बात थी, मेरे अपने घर में मानवीय संबंधों के आधारभूत मूल्यों की पुन: स्थापना…शायद इस का माध्यम मैं ही थी.

बोझ: ससुरजी की मन की पीड़ा को कैसे किया बहू अंजू ने दूर

उस  रात अंजु और मनोज बुरी तरह झगड़े. मनोज अपने दोस्त के घर से पी कर आया था और अंजु ने अपनी सास के साथ झड़प हो जाने के बाद कुछ देर पहले ही तय किया था कि वह अपनी ससुराल में किसी से डरेगीदबेगी नहीं. इन दोनों कारणों से उन के बीच झगड़ा बढ़ता ही चला गया.

‘‘तुम्हें इस घर में रहना है, तो काम में मां का पूरा हाथ बंटाओ. तुम मटरगस्ती करती फिरो और मां रसोई में घुसी रहे, यह मैं बिलकुल बरदाश्त नहीं करूंगा,’’ मनोज की गुस्से से कांपती आवाज पूरे घर में गूंज उठी.

‘‘आज औफिस में ज्यादा काम था, इसलिए देर से आई थी. फिर भी मैं ने उन के साथ थोड़ा सा काम कराया… अपनी मां की हर बात सच मानोगे, तो हमारी रोज लड़ाई होगी,’’ अंजु भी जोर से चिल्लाई.

‘‘उन की रोज की शिकायत है कि जिस दिन तुम वक्त से घर आ जाती हो, उस दिन भी तुम उन के साथ कोई काम नहीं कराती हो.’’

‘‘यह झठ बात है.’’

‘‘झठी तुम हो, मेरी मां नहीं.’’

‘‘नहीं, झठी तुम्हारी मां है.’’

उस रात मनोज ने अपनी दूसरी पत्नी पर पहली बार हाथ उठा दिया. उन की शादी को अभी 2 महीने ही बीते थे.

‘‘तुम्हारी मुझ पर हाथ उठाने की जुर्रत कैसे हुई? अब दोबारा हाथ उठा कर देखो… मैं अभी पुलिस बुला लूंगी.’’

उस की चिल्ला कर दी गई इस धमकी को सुन कर राजनाथ और आरती अपने बेटेबहू को शांत कराने के लिए उन के कमरे में आए.

गुस्से से कांप रही अंजु ने अपनी सास को जलीकटी बातें सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जवाब में आरती कुछ देर ही चुप रही. फिर वह भी ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए उस से भिड़ गई.

‘‘मुझे नहीं रहना है इस नर्क में. मैं कल सुबह ही अपने मायके जा रही हूं. तुम्हारे मांबाप का बोझ मुझे नहीं ढोना है,’’ धमकी देने के बाद अंजु ने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

‘‘ये मुझे कैसे दिन देखने पड़ रहे हैं… पहली बीवी चरित्रहीन थी, सो मुझे छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ भाग गई. अब यह दूसरी जो पल्ले पड़ी है, बहुत ही बदतमीज है,’’ अपने को कोसता मनोज उस रात सोफे पर ही सोया.

अगले दिन रविवार था. आंखों में गुस्सा भरी जब 10 बजे के करीब अंजु अपने कमरे से बाहर आई, तो उस ने मनोज को ड्राइंगरूम में मुंह लटकाए बैठे पाया.

उस के पूछे बिना मनोज ने उसे दुखी लहजे में बताया, ‘‘मम्मीपापा सुबह की गाड़ी से मामाजी के पास मेरठ चले गए हैं.’’

‘‘क्यों?’’ चाय बनाने रसोई में जा रही अंजु ने ठिठक कर पूछा.

‘‘ उन के जाने का कारण समझना क्या मुश्किल है?’’

‘‘मुझे जबरदस्ती कुसूरवार मत ठहराओ, प्लीज. तुम्हारी माताजी ने मुझे एक की चार सुनाई थीं.’’

‘‘वे दोनों बीमार रहते हैं. घर से दूर जा कर उन की कैसी भी दुर्गति हो, तुम्हारी बला से.’’

‘‘जब आज मैं ही घर छोड़ कर जाने वाली थी, तो तुम ने उन्हें रोका क्या नहीं?’’

‘‘मैं ने बहुत कोशिश करी, पर पापा नहीं माने.’’

‘‘वे कब तक लौटेंगे?’’

‘‘कुछ बता कर नहीं गए हैं,’’ मनोज ने थकेहारे अंदाज में अपना चेहरा हथेलियों से रगड़ा तो अंजु भी कुछ उदास सी हो गई.

दोनों दिनभर सुस्त ही रहे, पर शाम को उन का बाजार घूम आने का कार्यक्रम बन गया. पहले उन्होंने कुछ खरीदारी करी और फिर खाना भी बाहर ही खाया.

उस रात अंजु को जीभर के प्यार करते हुए मनोज को एक बार भी अपने मातापिता का ध्यान नहीं आया.

अगले 2-3 दिन उन के बीच झगड़ा नहीं हुआ. फिर एक दिन औफिस से अंजु देर से लौटी तो मनोज उस से उलझ पड़ा. दोनों के बीच काफी तूतू, मैंमैं हुई पर फिर जल्द ही सुलह भी हो गई. तब दोनों के मन में यह विचार एकसाथ उभरा कि अगर आरती घर में मौजूद होती, तो यकीनन झगड़ा लंबा खिंचता.

मनोज लगभग रोज ही अपने मातापिता से फोन पर बात कर लेता. अंजु ने उन से पूरा हफ्ता बीत जाने के बाद बात करी थी. उस ने उन दोनों का हालचाल तो पूछ लिया, पर उन के वापस घर लौट आने की चर्चा नहीं छेड़ी.

‘‘देखो, शायद अगले हफ्ते वापस आएं,’’ मनोज जब भी उन के घर लौटने की बात उठाता, तो राजनाथ उसे यही जवाब देते.

जब उन्हें मेरठ गए 1 महीना बीत गया तो अंजु और मनोज के मन की बेचैनी बढ़ने लगी. पड़ोसी और रिश्तेदार जब भी मिलते, तो आरती और राजनाथ के लौटने के बारे में ढेर सारे सवाल पूछते. तब उन्हें कोई झठा कारण बताना पड़ता और यह बात उन्हें अजीब से अपराधबोध का शिकार बना देती.

लोगों के परेशान करने वाले सवालों से बचने के लिए तब दोनों ने मेरेठ जा कर उन्हे वापस लाने का फैसला कर लिया.

‘‘अब वहां पहुंच कर उन से बहस में मत उलझना. उन्हें मनाने को अगर ‘सौरी’ बोलना पडे़, तो बोल देंगे. उन को साथ रखना हमारी जिम्मेदारी है, मामाजी या किसी और की नहीं,’’ मनोज सारे रास्ते अंजू को ऐसी बातें समझता रहा.

मामामामी के यहां 2 दिन बिताने के लिए शुक्रवार की रात को करीब 9 बजे उन के घर पहुंच गए.

उन दोनों से मामामामी बड़े प्यार से मिले. उन की नजरो में अपने लिए नाराजगी के भाव न देख कर अंजु मन ही मन हैरान हुई.

‘‘दीदी और जीजाजी खाना खाने के बाद पार्क में घूमने गए हैं,’’ अपने मामा की यह बात सुन कर मनोज हैरान रह गया.

‘‘पापामम्मी घूमने गए हैं? उन्होंने यह आदत कब से पाल ली?’’ मनोज की आंखों में अविश्वास के भाव पैदा हुए.

‘‘वे दोनों अब नियम से सुबह भी घूमने जाते हैं. तुम उन की फिटनैस में आए बदलाव को देखोगे, तो चकित रह जाओगे.’’

‘‘मम्मी की कमर का दर्द उन्हें घूमने की इजाजत देता है?’’

‘‘दर्द अब पहले से काफी कम है. जीजाजी दीदी का हौसला बढ़ा कर उन्हें सुस्त नहीं पड़ने देते हैं.’’

‘‘क्या मम्मी का किसी नए डाक्टर से इलाज चल रहा है?’’

‘‘हां, डाक्टर राजनाथ के इलाज में है दीदी,’’ अपने इस मजाक पर मामाजी ने जोरदार ठहाका लगाया, तो मनोज और अंजु जबरदस्त उलझन का शिकार बन गए.

जब वे सब चाय पी रहे थे, तब राजनाथ और आरती ने घर में प्रवेश किया. उन पर नजर पड़ते ही मनोज उछल कर खड़ा हो गया और प्रसन्न लहजे में बोला, ‘‘वाह, पापामम्मी. इन स्पोर्ट्स शूज में तो आप दोनों बड़े जंच रहे हो.’’

‘‘तुम्हारे मामाजी ने दिलाए हैं. अच्छे हैं न?’’ राजनाथ पहले किसी बच्चे की तरह खुश हुए और फिर उन्होंने मनोज को गले से लगा लिया.

अपनी मां के पैर छूते हुए मनोज ने उन की तारीफ करी, ‘‘ये बड़ी खुशी की बात है कि कमर का दर्द कम हो जाने से अब तुम्हे चलने में ज्यादा दिक्कत नहीं आ रही है. चेहरे पर भी चमक है. मामाजी के यहां लगता है खूब माल उड़ा रहे हैं.’’

‘‘मेरी यह शुगर की बीमारी कहां मुझे माल खाने देती है. तुम दोनों कैसे हो? आने की खबर क्यों नहीं दी?’’ अपने बेटेबहू को आशीर्वाद देते हुए आरती की पलकें नम हो उठीं.

‘‘तुम दोनों को भूख लग रही होगी. बोलो, क्या खाओगे?’’ बड़े उत्साहित अंदाज में अपनी हथेलियां आपस में रगड़ते हुए राजनाथ ने अपने बेटेबहू से पूछा.

‘‘ज्यादा भूख नहीं है, इसलिए बाजार से कुछ हलकाफुलका ले आते हैं,’’ कह मनोज अपने पिता के साथ जाने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘बाजार से क्यों कुछ लाना है? आलूमटर की सब्जी रखी है. मैं फटाफट परांठे तैयार कर देती हूं,’’ कह मामी रसोई में जाने को उठ खड़ी हुई.

‘‘भाभी, आज आप अपने इस शिष्य को काम करने की आज्ञा दो,’’ रहस्यमयी अंदाज में मुसकरा रहे राजनाथ ने अपनी सलहज का हाथ पकड़ कर वापस सोफे पर बैठा दिया.

‘‘क्या परांठे आप बनाएंगे?’’ मनोज का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया.

‘‘पिछले दिनों तुम्हारी मामी से कुछ कुकिंग सीखी है मैं ने. बस 15 मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा खाना लगाने में. तुम दोनों तब तक फ्रैश हो जाओ,’’ अपने बेटे का गाल प्यार से थपथपाने के बाद राजनाथ सीटी बजाते हुए रसोई की तरफ चले गए.

राजनाथ ने क्याक्या बनाना सीख लिया है, इस की जानकारी उन दोनों को देते हुए आरती और मामामामी की आंखें खुशी से चमक रही. ‘‘मटरपनीर, कोफ्ते, बैगन का भरता, भरवां भिंडी. पापा ये सब बना सकते हैं. मुझे विश्वास नहीं हो रहा है. कैसे हुआ यह चमत्कार?’’ मनोज सचमुच बहुत हैरान नजर आ रहा था, क्योंकि राजनाथ को तो पहले चाय भी ढंग से बनानी नहीं आती थी.

‘‘अरे, जीजाजी आजकल बड़े मौडर्न हो गए हैं. कहते हैं कि आज के समय में हर इंसान को घर और बाहर के सारे काम करने आने चाहिए. किसी पर आश्रित हो कर बोझ बन जाना नर्क में जीने जैसा है… अपने इस नए आदर्श वाक्य को वे दिन में कई बार हम सब को सुनाते हैं. इस उम्र में कोई इतना ज्यादा बदल सकता है, यह सचमुच हैरान करने वाली बात है,’’ मामाजी की इस बात का पूरा अर्थ मनोज को अगले 2 दिनों में समझ आया.

राजनाथजी ने उन्हें उस रात खस्ता परांठे बना कर खिलाए. फिर रेत गरम कर के उसे एक पोटली में भरा और आरती की कमर की सिंकाई करी. वे पहले बहुत कम बोलत थे, पर अब उन की हंसी से कमरा बारबार गूंज उठता था.

अगले दिन सब को बैड टी उन्होंने ही पिलाई. इस से पहले वे और आरती घंटाभर पास के पार्क में घूम आए थे. नाश्ते में ब्रैडपकौड़े मामीजी ने बनाए पर सब को गरमगरम पकौड़े खिलाने का काम उन्होंने बड़े उत्साह से किया.

आरती ने पूरे घर में झड़ू लगाया और डस्टिंग का काम राजनाथजी ने किया. फिर नहाधो कर वे लाइब्रेरी में अखबार पढ़ने चले गए.

मनोज और अंजु उन की चुस्तीफुरती देख कर बारबार हैरान हो उठते. ऐसा प्रतीत होता जैसे उन में जीने का उत्साह कूटकूट कर भर गया हो.

शाम को वे सब बाजार घूमने गए. चाट खाने की शौकीन अंजु को राजनाथजी ने एक मशहूर दुकान से चाट खिलाई. बाद में आइसक्रीम भी खाई.

वापस आने पर किसी को ज्यादा भूख नहीं थी, इसलिए पुलाव बनाने का कार्यक्रम बना. आरती और मामीजी यह काम करना चाहती थीं, लेकिन राजनाथजी ने किसी की न चलने दी और रसोई में अकेले घुस गए.

उन्होंने बहुत स्वादिष्ठ पुलाव बनाया. सब के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर वे फूले नहीं समाए.

काफी थके होने के बावजूद उन्होंने सोने से पहले आरती की कमर की सिंकाई करने के बाद मूव लगाने में कोई आलस नहीं किया.

रविवार की सुबह मामीजी ने सब को सांभरडोसे का नाश्ता कराया. राजनाथजी उन की बगल में खड़े हो कर डोसा बनाने की विधि बड़े ध्यान से देखते रहे.

सब ने इतना ज्यादा खाया कि लंच करने की जरूरत ही न रहे. कुछ देर आराम करने के बाद मनोज ने दिल्ली लौटने की तैयारी शुरू कर दी.

‘‘पापा, मम्मी, आप दोनों भी अपना सामान पैक करना शुरू कर दो. यहां से 2 बजे तक निकलना ठीक रहेगा. लेट हो गए तो शाम के ट्रैफिक में फंस जाएंगे,’’ मनोज की यह बात सुन कर राजनाथजी एकदम गंभीर हो गए तो आरती बेचैन अंदाज में उन की शक्ल ताकने लगी.

‘‘इन्हें अभी कुछ और दिन यहीं रहने दो, मनोज बेटा,’’ मामाजी भी सहज नजर नहीं आ रहे थे.

‘‘मामाजी, ये दोनों 1 महीना तो रह लिए हैं यहां. इन का अगला चक्कर मैं जल्दी लगवा दूंगा,’’  मनोज ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

राजनाथ ने एक बार अपना गला साफ करने के बाद मनोज से कहा, ‘‘हम अभी नहीं चल रहे हैं मनोज.’’

‘‘क्यों? क्या आप अब भी हम से नाराज हो?’’ मनोज एकदम से चिड़ उठा.

‘‘मेरी बात समझ बेटे. हमारे कारण तेरे घर में क्लेश हो, यह हम बिलकुल नहीं चाहते हैं,’’ राजनाथ असहज नजर आने लगे.

‘‘इस तरह के झगड़े घर में चलते रहते हैं, पापा. इन के कारण आप दोनों का घर छोड़ देना समझदारी की बात नहीं है.’’

‘‘तेरी मां की बहू से नहीं बनती है. किसी दिन लड़झगड़ कर अंजु घर छोड़े, इस से बेहतर है कि हम तुम दोनों को अकेले रहने दें.’’

‘‘हमे अकेले नहीं, बल्कि आप दोनों के साथ रहना है. अब आप पिछली बातें भुला कर सामान बांधना शुरू कर दो. अंजु, तुम क्यों नहीं कुछ बोल रही हो?’’ मनोज ने उन दोनों पर दबाव बनाने के लिए अपनी पत्नी से सहायता मांगी.

‘‘आप दोनों हमारे साथ चलिए, प्लीज,’’ अंजु ने धीमी आवाज में अपने ससुर से प्रार्थना करी.

राजनाथजी कुछ पलों की खामोशी के बाद बोले, ‘‘तुम दोनों जोर डालोगे, तो हम वापस चल पड़ेंगे, पर पहले मैं कुछ कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या यह कहनासुनना घर पहुंच कर नहीं हो सकता है, पापा?’’

‘‘अभी मैं ने तुम्हारे साथ वापस चलने का फैसला नहीं किया है, मनोज.’’

‘‘वापस तो मैं आप दोनों को ले ही जाऊंगा. हम से क्या कहना चाहते हो आप?’’

तब राजनाथजी ने भावुक स्वर में बोलना शुरू किया, ‘‘बहू, तुम भी मेरी बात ध्यान से सुनो. उस रात मनोज से लड़ते हुए गुस्से में तुम ने हमें बोझ बताया था. तुम्हारी उस शिकायत को दूर करने के लिए मैं ने खाना बनाना, घर साफ रखना और मशीन से कपड़े धोना सीख लिया है. तुम्हारी सास से ज्यादा काम नहीं होता, पर मैं तुम्हारा हाथ बंटाने लायक हो गया हूं.

‘‘तुम्हारी सास का भी गुस्सा तेज है. मैं ने यहां आ कर इसे बहुत समझया है… इस ने मुझ से वादा किया है कि यह तुम्हारे साथ अपना व्यवहार बदल लेगी.

‘‘उस रात मनोज से झगड़ते हुए जब तुम ने घर छोड़ कर मायके चले जाने की धमकी दी, तो मैं अंदर तक कांप उठा था. उसी रात मैं ने ये फैसला कर लिया था कि घर में सुखशांति बनाए रखने को अगर कोई घर छोड़ेगा, तो वे तुम्हारी सास और मैं, तुम नहीं.

‘‘बहू, मनोज को अपनी पहली पत्नी से तलाक आसानी से नहीं मिला था. जिन दिनों केस चल रहा था, हम शर्मिंदगी के मारे लोगों से नजर नहीं मिला पाते थे. उन के सवालों के जवाब देने से बचने के लिए हम ने घर से निकलना बिलकुल कम कर दिया था. वकीलों और पुलिस वालों ने हमें बहुत सताया था.

‘‘वैसा खराब वक्त मेरी जिंदगी में फिर से आ सकता है, ऐसी कल्पना भी मेरी रूह कंपा देती है. तभी मैं कह रहा हूं कि तुम दोनों हमें साथ ले जाने की जिद न करो. अगर तुम दोनों के बीच कभी अलगाव हुआ और मुझे वैसी शर्मिंदगी का बोझ एक बार फिर से ढोना पड़ा, तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा.’’

‘‘पापा, आप अपने आंसू पोंछ लो, प्लीज… मैं वादा करती हूं कि घर छोड़ कर जाने की बात मेरे मुंह से कभी नहीं निकलेगी.’’ अपने ससुर के मन की पीड़ा को दूर करने के लिए अंजु ने भरे गले से तुरंत उन्हें  विश्वास दिलाया.

‘‘और मैं ने आज से शराब छोड़ दी,’’ मनोज के इस फैसले को सुन राजनाथजी ने भावविभोर हो कर उसे गले से लगा लिया.

‘‘आरती, तुम पैकिंग शुरू करो और मैं इस खुशी के मौके पर सब का मुंह हलवे से मीठा कराता हूं,’’ बहुत खुश नजर आ रहे राजनाथजी ने अपने बहूबेटे के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और फिर रसोई की तरफ चले गए.

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: कनिष्क के दिल में खूबसूरती के मायने बदलती रीतिका

उस ने उसे देखा तो बस देखता ही रह गया. कितने दिनों बाद किसी की आंखों में डूब जाने का मन हुआ था उस का. ऐसा लग रहा था जैसे इतने दिन इस पूरे चांद की आस में ही अधूरी चांदनी रातें गुजारी थीं उस ने. कनिष्क मैट्रो में सामने बैठी उस लड़की को पिछले कुछ मिनटों से देख रहा था, कभी पलकें झुकाता तो कभी उठाता. उस लड़की के चेहरे पर मास्क लगा हुआ था. आखिर लगा क्यों न होता, लगभग सभी ने मास्क पहना हुआ था, कोरोना का डर अभी तक गया जो नहीं था. कनिष्क का मास्क से दम घुटने लगा था और इसीलिए उस ने अपना मास्क उतार लिया था. उस ने अपने बगल में दाएंबाएं देखा तो बगल में बैठे दोनों ही लड़के अपने फोन की स्क्रीन में घुसे हुए थे. उस ने अपने हाथों में पकड़े फोन का कैमरा खोला और उस लड़की की फोटो खींचने लगा.

उस लड़की के हाथ में किताब थी. उस की नजरें अपनी किताब से हर आने वाले स्टेशन पर उठतीं और सामने खिड़की से बाहर देखने लगतीं. शायद उसे लगता हो कि उस का स्टेशन किताब के चक्कर में छूट न जाए. जब वह सामने की ओर देखती तो कनिष्क को लगता जैसे उसे देख रही हो. वह खुश हो जाता. अचानक उस लड़की के सामने एक वृद्ध अंकल आ कर खड़े हुए तो कनिष्क की ताकाझांकी में खलल पड़ गया. वह मन ही मन उन अंकल को दोतीन अपशब्द कहता, उस से पहले ही वह लड़की अपनी सीट से उठ गई और अंकल उसे थैंक्यू कहते हुए उस की सीट पर बैठ गए. कनिष्क को एक पल लगा कि उठ कर उस लड़की को अपनी सीट दे दे, लेकिन वह सोच में पड़ गया कि उठे या नहीं. वह लड़की जब खड़ी हुई तो राजेंद्र प्लेस आ चुका था. जैसे ही अगला स्टेशन करोल बाग आने वाला था, कनिष्क के बगल की सीट पर बैठा लड़का उठ खड़ा हुआ और वह कनिष्क के बगल में आ कर बैठ गई.

कनिष्क के मन में तो जैसे प्रेमगीत

गुनगुनाने लगे थे. वह उस लड़की के इतना करीब बैठा था लेकिन उस से कुछ कहने की उस की हिम्मत नहीं हुई. होती भी कैसे? आखिर उस लड़की को बुरा लग गया और उस ने मैट्रो में कोई तमाशा कर दिया तो? कनिष्क अपने सुंदर से चेहरे को उस लड़की के हाथों थप्पड़ खा कर लाल नहीं कराना चाहता था. वह लड़की अपनी किताब में खोई हुई थी कि अचानक उस के बैग में रखे फोन से नोटिफिकेशन की आवाज सुनाई दी. उस लड़की ने बैग से फोन निकाला. कनिष्क की नजरें भी उस के फोन पर जा अटकीं. स्क्रीन पर लिखा था, ‘नीतिका हैज मेंशंड इन अ स्टोरी’. यह इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन था जिस पर उस लड़की ने झट इंस्टाग्राम खोल लिया. उस का इंस्टाग्राम खुला और कनिष्क की नजर सब से ऊपर कोने में दिख रहे उस के यूजरनेम पर गई. यूजरनेम था ‘टोस्का’. कनिष्क ने यह शब्द ही पहली बार सुना था तो झट अपना इंस्टाग्राम खोल टोस्का टाइप कर उस लड़की  को ढूंढ़ने लगा कि तभी अनाउंसमैंट हुआ कि अगला स्टेशन राजीव चौक है. लड़की  झट उठी और बैग में किताब डालते हुए गेट पर जा खड़ी हुई. कनिष्क के देखते ही देखते गेट खुला और वह लड़की भी भीड़ में कहीं ओझल हो गई.

टोस्का….टोस्का…टोस्का….कनिष्क अपनी क्लास में बैठ अब भी उसी लड़की के बारे में सोच रहा था. लौकडाउन के बाद कालेज खुलने का यह तीसरा दिन ही था और सभी अपने क्वारंटाइन के दिनों की बातें करने में बिजी थे. कनिष्क बीएससी जूलोजी का सैकंड ईयर का स्टूडैंट था. तेजतर्रार डिबेटिंग सोसाइटी का मैंबर, वुमैन डेवलपमैंट सोसाइटी, बोटानिकल सोसाइटी, स्पिक मेके, लगभग हर करीकुलर एक्टिविटी से वह जुड़ा हुआ था.

वह स्कूलटाइम से ही कई रिलेशनशिप्स में रहा था. लेकिन कोई भी बहुत सीरियस कभी नहीं हुई थी और कालेज में पिछले एक साल में उस ने एकदो लड़कियों को डेट किया ही था. आज जब उस लड़की को देखा तो उसे लगा जैसे उसे कुछ महसूस हुआ है, कुछ नौर्मल से हट कर. हर मिनट वह इंस्टाग्राम पर चैक करता कि उस ने अब तक उस की फौलोरिक्वैस्ट एक्सैप्ट की है या नहीं. उस लड़की की प्रोफाइल प्राइवेट थी यानी डिस्प्ले पिक्चर के अलावा कनिष्क को कुछ भी नहीं दिख रहा था. डिस्प्ले पिक्चर में भी उस का चेहरा साफ नहीं था, उस ने अपने मुंह पर हाथ रखा हुआ था. कनिष्क बेताब हुआ जा रहा था उन हाथों के पीछे छिपे उस के खूबसूरत चेहरे को देखने के लिए. कनिष्क को इस तरह कशमकश में देख उस का दोस्त सुमित उस के बगल में आ कर बैठ गया.

‘‘कुछ बात है क्या,’’ सुमित ने सवाल किया.

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुमित उठ ही रहा था कि कनिष्क बोल पड़ा, ‘‘कभी ऐसा हुआ है कि तू ने कोई लड़की देखी हो मैट्रो में और तुझे उस पर क्रश टाइप कुछ आ गया हो?’’

‘‘रोज ही आता है नया क्रश तो,’’ सुमित ने कहा और ठहाका मार हंसा.

‘‘फिर आगे? तू बात करता है उस से जा कर या कभी इंस्टाग्राम या फेसबुक पर मिली वह?’’

‘‘पागल है क्या? मैट्रो में देख कर उस का नाम थोड़ी पता चल जाता है. और वैसे भी, आजकल हर लड़की का बौयफ्रैंड होता ही है. सो, बिना जाने उसे अप्रोच करने का कोई फायदा नहीं है,’’ सुमित ने कहा.

‘‘ओह.’’

‘‘तुझे कौन पसंद आ गई?’’

‘‘नहीं, कोई नहीं,’’ कनिष्क ने बताया.

‘‘अब बता भी.’’

‘‘यार, एक लड़की दिखी थी आज मैट्रो में मास्क पहने हुए. महरून टौप, ब्लू जींस, लंबेघने बाल, स्पोर्टशूज पहने हुए थी. उस की आंखें इतनी सुंदर थीं कि क्या बताऊं. उस ने हैंडबैग ले रखा था और किताब पढ़ रही थी मुराकामी की, मतलब समझदार किस्म की थी. एक तो इतनी पतली थी, ऊपर से पर्सनैलिटी इतनी अच्छी, उठनेबैठने का तरीका इतना अच्छा था. देख, मैं ने उस की फोटो भी ली थी. चेहरा नहीं दिख रहा लेकिन पर्सनैलिटी देख यार,’’ कहते हुए कनिष्क सुमित को उस लड़की की तसवीर दिखाने लगा.

‘‘तो तू ने बात नहीं की?’’ सुमित बोल उठा.

‘‘नहीं न, यही तो प्रौब्लम है. लेकिन मैं ने उस का इंस्टा यूजरनेम देखा था और उसे रिक्वैस्ट भी भेज दी. अब वह एक्सैप्ट कर ले, तो कुछ बात बने.’’

‘‘हम्म, लेट्स सी.’’

कनिष्क पूरा दिन इंतजार करता रहा. लेकिन उस लड़की ने रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की. आखिर उसे खुद को रोका नहीं गया और उस ने उसे मैसेज कर दिया, ‘हाय, आई एम कनिष्क. मैं ने तुम्हें मैट्रो में देखा था, आज तुम मेरे बगल में आ कर बैठी भी थीं. मैं तुम से बात करना चाहता था. और हां, मैं ने तुम्हारी कुछ तसवीरें भी ली थीं, तुम इतनी सुंदर लग रही थीं कि

मैं खुद को रोक नहीं पाया,’ कनिष्क ने इतना लिखा और तसवीरें उस लड़की को भेज दीं.

5 मिनट बाद ही उधर से रिप्लाई आ गया, ‘हाय, ये तसवीरें बहुत खूबसूरत हैं, थैंक्यू.’ कनिष्क तो मानो रिप्लाई देख कर उछल पड़ा. उस ने लिखा, ‘ओह वेल, आई एम ग्लैड. बाई द वे तुम्हारा नाम क्या है?’

‘रीतिका,’ रिप्लाई आया.

‘तुम्हारा नाम भी तुम्हारी तरह ही खूबसूरत है,’ कनिष्क ने लिखा और उस की मुसकराहट मानो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी.

‘हाहाहा, इतनी तारीफ?’

‘तुम हो ही तारीफ के काबिल, वैसे मेरा नाम कनिष्क है. मैं हंसराज कालेज का स्टूडैंट हूं, और तुम?’

‘गार्गी कालेज, सैकंड ईयर बीकौम,’ रीतिका ने उधर से लिखा.

‘ओहह, इंप्रैसिव.’

‘थैंक्स.’

कनिष्क सोच में पड़ गया कि अब क्या लिखे. उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि अब आगे क्या कहे सो, वह पूछ उठा, ‘तुम ने अपना यूजरनेम टोस्का क्यों रखा?’

‘मुझे इस का अर्थ पसंद है, मैं खुद को इस शब्द से कनैक्ट कर पाती हूं.’

‘मैं ने इस शब्द को गूगल किया था. यह रूसी शब्द है जिस का अर्थ है अनंत दुख, दर्द, पीड़ा. आखिर इतने दुखी शब्द से तुम कनैक्ट कैसे कर लेती हो?’

‘बस, कर लेती हूं, कोई विशेष कारण नहीं है इस के पीछे.’

‘अच्छा, तुम्हें किताबें पढ़ना भी पसंद है न?’

‘हां, बेहद.’

‘अच्छा सुनो?’ कनिष्क ने लिखा.

‘कहो,’ रीतिका ने कहा.

‘तुम ने अब तक मेरी रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की है, मैं तुम्हारी प्रोफाइल नहीं देख पा रहा हूं.’

‘हां, नैटवर्क में कुछ प्रौब्लम है शायद. नैटवर्क ठीक होते ही एक्सैप्ट कर लूंगी.’

‘ओह, कोई बात नहीं. वैसे एक बात कहूं?’

‘कहो.’

‘तुम्हें देखते ही तुम पर क्रश आ गया था मुझे,’ कनिष्क खुद को कहने से रोक नहीं पाया.

‘सचमुच?’

‘हां, सच. तुम ने तो मुझे बिलकुल नोटिस नहीं किया था वैसे.’

‘ऐसा तो कुछ नहीं है. तुम अपना फोन हाथ में ले कर बैठे थे, बारबार मेरी तरफ देख रहे थे. तुम ने ग्रीन शर्ट पहनी थी चैक वाली. ब्लैक स्पोर्ट्स शूज और ब्लू जींस. मैं तुम्हारे बगल में आ कर बैठी थी तो तुम्हारे चेहरे पर मुसकान आ गई थी.’

रीतिका का मैसेज देख कर कनिष्क सातवें आसमान पर पहुंच गया. वे दोनों रातभर एकदूसरे से बातें करते रहे. कौन सा गाना पसंद है, खाने में क्या पसंद है, कालेज की ऐक्टिविटीज, दोस्तयार. लगभग हर टौपिक पर दोनों बातें करते रहे. देखतेदेखते कब सुबह के 4 बज गए, दोनों को पता ही नहीं चला.

‘वैसे किताबें किस तरह की पढ़ती हो तुम, फिक्शन या नौनफिक्शन?’

‘दोनों ही, लेकिन मुझे फिक्शन ज्यादा पसंद है.’

‘ऐसा क्यों? हकीकत से बेहतर कल्पनाएं लगती हैं तुम्हें?’

‘हकीकत मुझे डराती है.’

‘अच्छा, फिर बीकौम क्यों ली तुम ने? उस में तो सब हकीकत ही है, कुछ कल्पना नहीं है.’ कनिष्क ने चुटकी लेने के अंदाज में पूछा.

‘हाहा, टौपर थी मैं स्कूल में और फर्स्ट सैमेस्टर की भी.’

‘तुम तो समझदार भी हो मतलब.’

‘वो तो मैं हूं.’

‘कल मिलोगी?’ कनिष्क ने मैसेज किया. उधर से मैसेज का जवाब आया, ‘सुबह

8:55, सुभाष नगर मैट्रो स्टेशन.’

‘मिलते हैं,’ आखिरी मैसेज में कनिष्क ने छोटा सा दिल भी भेज दिया और उधर से भी रिप्लाई में दिल आया तो उस की खुशी और बढ़ गई.

अगली सुबह कनिष्क 8:40 पर ही मैट्रो पर पहुंच गया. वह इंतजार में था कि कब रीतिका आए और वह उस का चेहरा देखे, उस से हाथ मिलाए, बातें करे. उस ने सुबह से अब तक रीतिका को कोई मैसेज नहीं भेजा. उसे लगा, कहीं वह ज्यादा उत्सुकता दिखाएगा तो रीतिका उसे डैसप्रेट न समझने लगे. वह मैट्रो में नवादा से चढ़ा था और लगभग 5 मिनट में ही सुभाष नगर पहुंच गया था. वह सुभाष नगर मैट्रो स्टेशन के प्लैटफौर्म पर रखी बैंच पर बैठ गया. उस की नजरें बारबार रीतिका के इंतजार में दाईं ओर मुड़ रही थीं.

वह सोच रहा था कि रीतिका से क्या कहेगा, हाय कैसी हो, नहीं यह नहीं. हाय यू लुक ब्यूटीफुल, नहीं यह तो बड़ा फ्लर्टी साउंड कर रहा है. हैलो, आज तो तुम कल से भी ज्यादा सुंदर लग रही हो, हां परफैक्ट, कनिष्क सब सोच ही रहा था कि एक लड़की उस के सामने आ कर रुक गई. वह समझ गया कि यह रीतिका है. आज उस ने पीला टौप पहना हुआ था, बाल खोले हुए थे और चेहरे पर अब भी मास्क था. रीतिका की आंखें खुशी से चमचमाती हुई दिख रही थीं. कनिष्क की आंखों में उस से मिलने की ललक साफसाफ झलक रही थी.

‘‘हाय,’’ रीतिका ने कहा और हाथ आगे बढ़ाया.

‘‘हैलो,’’ कनिष्क ने कहते हुए हाथ मिलाया. वह कुछ और कह पाता उस से पहले ही रीतिका ने अपना मास्क उतारना शुरू कर दिया. कनिष्क का चेहरा अचानक पीला पड़ गया. वह रीतिका का चेहरा देख कर दंग रह गया. रीतिका के होंठों का आकार बिगड़ा हुआ था, वे कटेफटे हुए लग रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो कोई हादसा हुआ हो उस के साथ. उस की सारी खूबसूरती उस के होंठों की बदसूरती से धरी की धरी रह गई. कनिष्क की आंखें फटी हुई थीं. कुछ कहने के लिए जैसे उस की जबान पर ताले पड़ गए थे.

रीतिका शायद समझ चुकी थी कनिष्क के मन का हाल. उस ने कहा, ‘‘ओह, मैं अपने नोट्स घर भूल गई हूं आज सबमिट करने थे कालेज में. मैं तुम से बाद में मिलती हूं, तुम जाओ कालेज के लिए लेट हो जाओगे वरना,’’ रीतिका ने बनावटी मुसकराहट के साथ कहा.

कनिष्क ने ओके कहा और मैट्रो उस के सामने आ कर रुकी ही थी कि वह उस में चढ़ गया. पूरे रास्ते वह सोचता रहा कि अब क्या करे. अब उसे रीतिका की खूबसूरती नजर नहीं आ रही थी बल्कि उस के चेहरे का वह दाग बारबार उस की आंखों के सामने आ रहा था. उस ने फोन चैक किया तो रीतिका उस की फौलो रिक्वैस्ट एक्सैप्ट कर चुकी थी. उस ने उस की प्रोफाइल देखी तो एक बार फिर उस के होंठों की जगह मांस के लोथड़े को देख उस का मन खीझ उठा.वह कालेज पहुंचा और अपनी कैंटीन में जा कर बैठ गया. उस का अब क्लास में जाने का भी मन नहीं था. कुछ मिनटों बाद ही सुमित वहां आ गया.

‘‘यार, बड़ी गड़बड़ हो गई,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘क्या हो गया?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘वह लड़की याद है कल वाली, उस से मिला आज मैं.’’

‘‘ओहहो, यह कैसे हो गया, कैसा रहा सब. नाम क्या है उस का? नंबर लिया या नहीं?’’ सुमित एक के बाद एक सवाल करने लगा.

‘‘रीतिका नाम है उस का और नंबर मांगता मैं आज लेकिन… यार उस का चेहरा… यह देख,’’ कनिष्क ने फोन खोल रीतिका की इंस्टा पर जितनी तसवीरें थीं सुमित को दिखाईं.

तसवीरें देख कर सुमित का मुंह भी खुला का खुला रह गया. उस के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘भाईसाहब यह क्या है, कैसे, क्यों, मतलब यह कैसे हुआ?’’

‘‘यार, मुझे क्या पता. मैं बस उस की शक्ल नहीं देख पा रहा अब. मुझे कल ही उस की शक्ल दिख जाती तो ऐसा नहीं होता न.’’

‘‘तो कल तू ने शक्ल कैसे नहीं देखी? इंस्टाग्राम पर तो तुझे कल भी शक्ल दिख ही गई होगी.’’

‘‘उस ने मुझे फंसाया है,’’ कनिष्क बोल उठा.

‘‘क्या मतलब?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘पहले तो उस ने मेरी रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की ताकि मैं उस की शक्ल न देख पाऊं, फिर इतनी मीठीमीठी बातें कीं मुझ से, लेकिन यह नहीं बताया कि उस की शक्ल ऐसी है. अब तो मुझे लग रहा है कल मेरे बगल में भी वह जानबूझ कर ही बैठी होगी और अपना यूजरनेम भी जान कर ही दिखाया होगा. आजकल की लड़कियां इतनी चालाक हैं न कि क्या बताऊं…’’ कनिष्क लगातार बोले ही जा रहा था कि उस के फोन पर इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन आ गया.

उस ने फोन खोला तो देखा रीतिका का मैसेज था, ‘‘हाय, मुझे तुम्हें देख कर लगा था तुम अलग हो पर तुम भी सब की तरह ही निकले. सौरी, मुझे तुम से बात करने से पहले अपनी शक्ल दिखा देनी चाहिए थी ताकि आज सुबह जो हुआ वह न होता. मेरी शक्ल के आगे तुम मेरी सारी खूबियां भूल गए होगे, है न? तुम पहले नहीं हो जिस ने ऐसा किया है. मेरा चेहरा बचपन से ही ऐसा है और यकीन मानो, मेरे लिए भी इसे देखना एक वक्त पर बहुत मुश्किल था, लेकिन अब नहीं है. तुम्हें मुझ से बात करने की या मुझे आगे जाननेसमझने की कोई जरूरत नहीं है, एक दिन में कौन सा तुम और मैं एकदूसरे को इतना जानते ही हैं जो किसी तरह की कोई मुश्किल होगी. चिल्ल करो.’’

कनिष्क और सुमित दोनों ने ही यह मैसेज पढ़ा. कनिष्क ने मैसेज पढ़ कर रिप्लाई किए बिना ही फोन बंद कर दिया.

‘‘तू रिप्लाई नहीं करेगा?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ कनिष्क बोला.

‘‘पर क्यों नहीं?’’ सुमित हैरान था.

‘‘तू ने देखा नहीं? एक तो इस की शक्ल इतनी बुरी है ऊपर से इतना घमंड, इतना एटीट्यूड, किस बात का? पहले खुद मुझे फंसाने की कोशिश की अब मुझे इमोशनल करने की कोशिश कर रही है अपना दुखड़ा सुना कर. ‘मुझे लगा तुम अलग हो’ इस का क्या मतलब है. खुद की शक्ल ऐसी है तो मैं क्या करूं. मुझे न इस से कोई बात करनी है न इस को देखना है. पता नहीं कौन सी घड़ी में मुझे यह अच्छी लग गई,’’ कनिष्क जिस मुंह से कल तक फूल गिरा रहा था, आज जहर उगल रहा था.

‘‘तू यह बोल क्या रहा है, कुछ सोच भी रहा है? तू उस के पीछे था, तू ने उसे सामने से अप्रोच किया, अब तू कह रहा है कि उस में सैल्फरिस्पैक्ट तक नहीं होनी चाहिए क्योंकि उस की शक्ल बुरी है. तू ही था न जिस ने पिछले साल एसिड अटैक पर भाषण दिया था स्टेज पर और कहा था कि खूबसूरती सीरत में होती है सूरत में नहीं, अब अपनी बात से ऐसे कैसे पलट रहा है.’’

‘‘यार, तू मेरा दोस्त है या उस का?’’ कनिष्क ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘हूं तो तेरा ही पर अब लग रहा है कि क्यों हूं. तेरी सारी खूबियां तेरी घटिया सोच के आगे फीकी पड़ गई हैं और यकीन मान, तू परफैक्ट नमूना है इस बात का कि लोग शक्ल से सुंदर हों तो जरूरी नहीं मन से भी हों.’’

‘‘मुझ से इस तरह बात करने की कोई जरूरत नहीं है सुमित,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘मेरे आगे किसी के बारे में इस तरह की बात करने की तुझे भी कोई जरूरत नहीं है. मैं तेरा दोस्त हूं, इस का मतलब यह नहीं तेरी हर गलतसलत बातें सुनूंगा. और पता है, मैं खुश हूं कि वह लड़की  बच गई. क्या कौन्फिडैंस है उस में. तुझ जैसे लड़के की गर्लफ्रैंड बनती तो आत्मग्लानि और इंसिक्योरिटी से भर जाती.’’ सुमित अपनी बात कह कर चला गया और कनिष्क गुस्से से भर गया. उस ने फोन उठाया और इंस्टाग्राम से रीतिका को ब्लौक कर दिया.

उस शाम कनिष्क न चाहते हुए भी बारबार रीतिका के बारे में ही सोच रहा था. उसे सुमित की कही बातें भी याद आ रही थीं. कनिष्क ने फोन उठाया और रीतिका को अनब्लौक कर मैसेज टाइप किया, ‘सौरी, मैं ने इतनी बुरी तरह बिहेव किया.’ कनिष्क के मैसेज भेजने के कुछ ही सैकंड्स में उसे रीतिका का रिप्लाई आया, ‘कोई बात नहीं.’

कनिष्क के चेहरे पर एक बार फिर मुसकराहट लौट आई थी. एक बार फिर उन दोनों की बातों का सिलसिला चल पड़ा था.

‘अपना नंबर ही दे दो, मुझ से इंस्टाग्राम पर बात करना बहुत बोरिंग लगता है,’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका ने उसे अपना नंबर दे दिया. उन दोनों ने फिर कभी उस सुबह की बात नहीं की लेकिन फिर कभी मैं और तुम से हम होने का खयाल भी दोनों के जेहन में नहीं आया. कनिष्क इस बारे में बात नहीं करना चाहता था और रीतिका की अब हिम्मत नहीं थी इस बारे में कुछ कहने की. वह चाहे जितनी भी मजबूत थी लेकिन रिजैक्शन सहने का डर उस में अंदर तक घर कर चुका था. खैर, दोनों को ही एक नया दोस्त मिल चुका था. कभीकभी दोनों साथ मैट्रो से राजीव चौक तक जाते तो ढेरों बातें किया करते, उस के बाद अपनेअपने कालेज के रूट पर निकल जाया करते.

‘‘तू ने वह सीरीज देखी जो मैं ने रात में बताई थी?’’ कनिष्क मैट्रो में रीतिका से पूछने लगा.

‘‘हां, उस लड़की  का कैरेक्टर कितना मजबूत था न, मैं तो इंप्रैस हो गई उस से,’’ रीतिका उत्सुकता से भर कर कहने लगी.

‘‘तू भी तो वैसी ही है, मजबूत और नकचढ़ी,’’ कनिष्क कह कर हंसने लगा.

‘‘नकचढ़ी और मैं? तू न, जलता है मुझ से, बस, आया बड़ा,’’ रीतिका झूठा गुस्सा दिखाने लगी.

‘‘तुझ से जलूंगा मैं, हाहा, रहने दे सुबहसुबह हंसा मत.’’

‘‘चल जा न, तंग मत कर मुझे अब.’’

‘‘तुझे तंग नहीं करूंगा तो दिन कैसे कटेगा मेरा,’’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका और वह दोनों ही हंस पड़े.

‘‘मैं आज राइटिंग कंपीटिशन में जा रही हूं. जीत गई तो तेरी पार्टी पक्की.’’

‘‘पिज्जा से कम कुछ नहीं चलेगा, पहले ही बता रहा हूं.’’

‘‘हां भुक्खड़, खा लियो पिज्जा.’’

यह वादा रहा : ऐसा क्या हुआ जो आशा की नजरें शर्म से झुक गईं?

‘‘निक्की डार्लिंग, गुड मौर्निंग,’’ नर्स ने निक्की के वार्ड में प्रवेश करते हुए कहा.

‘‘गुड मौर्निंग सिस्टर,’’ निक्की ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अब कैसा महसूस कर रही हो?’’

‘‘पहले से बेहतर हूं, पर बहुत कमजोरी लग रही है,’’ निक्की ने करवट लेते हुए कहा.

इतनी कम उम्र में निक्की के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उस का शरीर कमजोर हो गया है.

‘‘थोड़ी देर में डाक्टर साहब आएंगे तो बता देना. अभी आराम करो,’’ कह नर्स चली गई.

निक्की सोचने में पड़ गई, ‘अपनी इस हालत की जिम्मेदार मैं खुद हूं या मेरी मां? शायद हम दोनों. समझ में नहीं आता है कि किसे अपना समझूं, अपने रिश्तेदार को या बाहर वालों को? अकसर रिश्तों की आड़ में ही लड़कियां ज्यादा शोषित होती हैं. काश, मां ने मेरी बात सुन ली होती… मेरी भी गलती है. जब वह बारबार मुझे छूने की कोशिश करता था तभी मुझे सतर्क हो जाना चाहिए था. तब आज यह दिन न देखना पड़ता हमें. पापा डिप्रैशन में हैं, मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया है और मैं यहां अस्पताल में पड़ी हूं.’

निक्की को उस दिन की बातें याद आने लगीं जब आशा (निक्की की मां) तरहतरह के पकवान बना कर टेबल पर रख रही थीं और गुनगुना भी रही थीं.

निक्की ने स्कूल से आते ही पूछा, ‘‘मां, क्या बना रही हो? बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. कोई मेहमान आने वाला है क्या?’’

‘‘मोहित आ रहा है… उसे कितने दिनों बाद देखूंगी. अब तो बड़ा हो गया होगा. मैं ने उसे अपनी गोद में बहुत खिलाया है,’’ आशा बहुत खुश थीं कि उन की बड़ी बहन का बेटा आ रहा है.

‘‘क्यों आ रहे हैं?’’ निक्की ने पूछा.

‘‘मोहित को डाक्टर बनना है… यहीं कोटा में दाखिला हुआ है उस का. अब उस की सगी मौसी यहां रहती है, तो वह होस्टल में क्यों रहेगा? वैसे दीदी ने मुझ से कहा है कि तुम परेशान मत हो. वह होस्टल में रह लेगा, पर मैं ही नहीं मानी. ठीक किया न?’’ अपने पति संजय की तरफ देखते हुए आशा बोलीं.

‘‘निक्की, मोहित तुम से सिर्फ 3 साल बड़ा है. मेरी शादी में वह 1 साल का था. मैं ने ही उस का नाम मोहित रखा था. बड़ा ही प्यारा बच्चा है.’’

मोहित कोटा आ कर सब से घुलनेमिलने की कोशिश करने लगा. संजय को

कुछ ठीक नहीं लग रहा था कि एक जवान लड़का उस के घर आ कर रह रहा है. अपनी जवान होती बेटी की चिंता हो रही थी उन्हें पर आशा को कौन समझाए, यह सोच कर उन्हें चुप रहना ही बेहतर लगा.

संजय की चुप्पी को भांप कर आशा ने कहा, ‘‘आप चिंता न करो. हम ने अपनी बच्ची को अच्छे संस्कार दिए हैं.’’

आशा चाहती थीं कि निक्की मोहित से घुलमिल जाए, पर उसे मोहित जरा भी अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन आशा ने निक्की से कहा, ‘‘निक्की तू मोहित के साथ ही स्कूल चली जाया करना.’’

आशा चाहती थीं कि अगर दोनों बच्चे आपस में हंसेबोलें नहीं तो मोहित बोर हो जाएगा.

संजय को कुछ दिनों के लिए औफिस के काम से बाहर जाना पड़ा, तो मजबूरी में निक्की को मोहित के साथ स्कूल जाना पड़ता था.

मोहित उसे स्कूल छोड़ कर वहीं से कालेज चला जाता था. इस तरह धीरेधीरे दोनों में दोस्ती हो गई. अब निक्की को भी अपने मोहित भैया के साथ बातें करना, कहीं घूमने जाना अच्छा लगने लगा. पहले निक्की चुपचुप रहती थी पर अब खुश रहने लगी थी. यह देख कर आशा भी खुश थीं.

निक्की अब स्कूल से आते ही मोहित के कमरे में चली जाती और मोबाइल में गेम खेलती, फिल्में देखती. ये बातें संजय को ठीक नहीं लग रही थीं.

‘‘निक्की अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो. हमेशा मोबाइल पर लगी रहती हो,’’ एक दिन संजय ने निक्की को डांटते हुए कहा तो मोहित बोल पड़ा, ‘‘मौसाजी, मोबाइल में हम पढ़ भी सकते हैं.’’

‘‘तेरे मौसाजी को क्या पता कि महंगे मोबाइल के क्याक्या फायदे हैं,’’ आशा मजाक के लहजे में बोलीं.

बात हंसीमजाक में खत्म हो गई, पर मोहित का नजरिया निक्की के लिए सही प्रतीत  नहीं हो रहा था. मोहित की कुछ हरकतें धीरेधीरे निक्की को परेशान करने लगीं.

वह कोई भी बात निक्की को छूछू कर कहता. कभी किसी बात पर हंसी आ जाए तो निक्की पर गिर ही जाता. फिर सौरी बोल देता.

निक्की सोचती कि अब बोल दूंगी भैया से कि इस तरह न किया करो. अच्छा नहीं लगता. पर अगले ही पल मोहित कुछ ऐसा करता कि  निक्की को लगता वह कुछ ज्यादा ही सोच रही है.

मोहित हर वक्त निक्की के इर्दगिर्द ही मंडराता रहता, लेकिन आशा इसे भाईबहनों का प्यार समझती रहीं.

‘‘निक्की, चल तुझे मोबाइल पर कार्टून दिखाता हूं,’’ एक दिन मोहित ने कहा.

‘‘कार्टून? वह भी मोबाइल में?’’ चहकते हुए निक्की ने कहा.

‘‘हां, मोबाइल में, मौसामौसी आओ आप भी देखो न,’’ मोहित सब के सामने अपने को अच्छा दिखाने की कोशिश करता रहता.

संजय को भी अब मोहित अच्छा लगने लगा था. कभीकभी संजय भी उन दोनों के साथ मोबाइल के गेम में शामिल हो जाते थे.

‘‘पापा, मुझे भी एक ऐसा मोबाइल ला दो,’’ एक दिन निक्की ने पापा से कहा.

‘‘मेरा ले ले, मैं दूसरा खरीद लूंगा,’’ मोहित ने अपना मोबाइल निक्की को देते हुए कहा.

‘‘निक्की, अभी 2 महीने बाद ही तुम्हारी परीक्षा शुरू होने वाली है न? उस के बाद दिला दूंगा,’’ संजय बेटी को समझाते हुए बोले तो वह मान गई.

अब जब भी दोनों पढ़ाई से बोर हो जाते तो मोबाइल में गेम खेलने लगते. दोनों का साथ हंसना या बातें करना अब संजय को भी अच्छा लगने लगा था.

आशा और संजय को एक रात किसी दूर के रिश्तेदार के घर शादी में जाना था. निक्की को भी ले जाना चाहते थे पर वह जाना नहीं चाहती थी.

‘‘निक्की, हम जा रहे हैं. दरवाजा ठीक से लगा लेना. हमें आने में थोड़ी देर हो जाएगी… तुम दोनों खाना खा लेना,’’ आशा जाते हुए निक्की को समझा गईं.

निक्की, मोहित को खाने को बुलाने गई तो वह हड़बड़ा गया. जब निक्की ने पूछा कि मोबाइल में क्या देख रहे थे? तो वह टालते हुए बोला कि कुछ नहीं… वह मेरे दोस्त ने एक वीडियो भेजा है. उसे देख रहा था.

थोड़ी देर रुक कर मोहित बोला, ‘‘हम खाना बाद में खाएंगे पहले तुम भी  यह वीडियो देखो. बहुत मजा आएगा,’’ कह कर उस ने मोबाइल औन कर दिया.

‘‘छि: भैया, यह तो बहुत गंदा वीडियो है… मुझे नहीं देखना,’’ कह कर निक्की जाने लगी.

‘‘अरे निक्की रुको तो… अच्छा मत देखो. कुछ और देखते हैं,’’ पर थोड़ी देर में मोहित ने फिर वही वीडियो शुरू कर दिया.

निक्की मना करती रही पर मोहित नहीं माना और अब तो वह निक्की के साथ गलत व्यवहार करने लगा.

‘‘भैया, यह क्या कर रहे हो? छोड़ो मुझे,’’ निक्की कहते रही पर मोहित कहां मानने वाला था. उस ने अपनी बहन के साथ ही कुकर्म कर डाला, भाईबहन के रिश्ते को तारतार कर डाला.

निक्की के मातापिता घर देर से आए. निक्की को सोता देख वे दोनों भी सो गए.

आशा सुबह जब निक्की के लिए कौफी ले कर गईं तो निक्की मां के गले लग कर रोने लगी.

‘‘क्या हुआ बेटा?’’ आशा ने आश्चर्य से पूछा.

निक्की कुछ कहती उस से पहले ही मोहित वहां आ गया, ‘‘कुछ नहीं मौसी रात को भूत वाला वीडियो देख कर डर गई…’’

‘‘तुम ने ऐसा वीडियो दिखाया ही क्यों जो यह डर गई?’’ संजय ने थोड़ा गुस्से में कहा.

निक्की जब भी अकेली होती तो मोहित उस के साथ संबंध बनाने की कोशिश करता.

‘‘मैं मां को सब बता दूंगी कि आप मेरे साथ क्या करते हो,’’ निक्की ने कहा तो मोहित उसे एक और वीडियो दिखाते हुए बोला, ‘‘अब बताओगी कुछ मौसीमौसा को? बोलो निक्की?’’

निक्की बहुत डरी हुई थी कि अब क्या करेगी वह… कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, किस से कहे. मोहित उसे उन दोनों के अंतरंग संबंध का वीडियो जो दिखा चुका था और यह भी कह गया कि अगर तुम ने किसी को भी हमारे संबंधों के बारे में बताने की कोशिश की तो यह वीडियो सार्वजनिक कर दूंगा.

अब यह सोच कर ही निक्की की रूह कांप जाती कि उस के मातापिता की क्या

इज्जत रह जाएगी और वह कहां जा कर अपना मुंह छिपाएगी.

निक्की अपनी मां आशा को अपने हावभाव से बारबार समझाने की कोशिश करती रही, पर मां की आंखों पर तो प्यार का परदा पड़ा था.

एक दिन फोन आया कि आशा के पिताजी की तबीयत बहुत खराब है पर निक्की नहीं चाहती थी कि उस की मां उसे यहां छोड़ कर जाएं.

‘‘मां, मुझे भी ले चलो. मैं यहां आप के बिना नहीं रह सकूंगी,’’ निक्की जिद करने लगी.

‘‘निक्की तुम कैसे जा सकती हो… कुछ दिनों बाद तुम्हारी परीक्षा शुरू होने वाली है… वैसे भी तुम कितनी बार मेरे बिना रह चुकी हो तो अब क्यों जिद कर रही हो?’’ आशा थोड़ा गुस्से में बोलीं.

आशा के चले जाने के बाद तो मोहित और भी ज्यादा बदतमीजी पर उतर आया. निक्की अपने पापा से भी कुछ कह नहीं पा रही थी. पूरे 1 हफ्ते बाद जब आशा आईं तो मां को देखते ही निक्की रो पड़ी.

‘‘निक्की, क्या हुआ बेटा? कितनी कमजोर हो गई हो… मैं हफ्ते भर के लिए चली क्या गई खानापीना ही छोड़ दिया… संजय, आप मेरी बेटी का ध्यान नहीं रखते थे क्या?’’ आशा चिंतित होते हुए बोलीं.

‘‘मुझे क्या पता होता था कि ये दोनों कब जाते और कब आते थे… मैं तो खाना बना कर औफिस चला जाता था.’’

निक्की करीब 2 महीने से ये सब झेल रही थी. अपने में ही  घुट रही थी. 1 महीने से ज्यादा हो गया था मासिकधर्म आए, यह बात भी उसे सताए जा रही थी, पर यह बात अपने मांपापा को कैसे बताती… पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पा रही थी.

एक दिन अचानक निक्की बेहोश हो कर गिर पड़ी. निक्की की आंखें खुलीं तो अपने सामने मां को रोते देखा.

‘‘मां,’’ निक्की के मुंह से निकला.

अपनी बेटी की आवाज सुन कर आशा की जान में जान आई.

‘‘मुझे क्या हुआ था मां?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा… अब सब ठीक है.’’

डाक्टर की आवाज से निक्की अतीत में आई. डाक्टर के पूछने पर निक्की ने कहा कि उसे बहुत कमजोरी हो रही है.

‘‘गर्भपात के कारण बहुत ज्यादा खून बह गया है… शुक्र है जान बच गई,’’ निक्की ने डाक्टर को अपने मातापिता से यह कहते सुना.

‘‘आप की कृपा है डाक्टर साहब,’’ उस के मातापिता हाथ जोड़े खड़े थे.

डाक्टर कह रहे थे, ‘‘मैं सब समझता हूं, पर आप लोगों को पुलिस थाने में

एफआईआर लिखा देनी चाहिए. खैर, जो आप को ठीक लगे. कल आप इसे घर ले जा सकते हैं. दवा टाइम पर देते रहना. कोई परेशानी हो तो फिर दिखा जाना.’’

घर आते ही निक्की की आंखों के सामने वही सब कुछ घूमने लगा.

‘‘अगर वह लड़का यहां से भाग नहीं गया होता तो मैं उस का खून कर देता… ये सब तुम्हारे अंधविश्वास का नतीजा है, जो आज मेरी बेटी को भुगतना पड़ा… मुझे तो उस का हमारे घर आ कर रहना ही पसंद नहीं था, पर तुम मेरा बेटा, मेरा बेटा रटती रहती थीं,’’ गुस्से में तमतमाते हुए संजय ने अपनी पत्नी आशा से कहा.

‘‘हांहां, ये सब मेरी करनी का ही फल है… मेरी बेटी मुझे बारबार इशारा करती रही और मैं पागल उसी पापी को बेटा समझती रही… अपनी निक्की का बड़ा भाई समझती रही. अगर दीदी उस दिन फोन पर गिड़गिड़ाती नहीं तो मैं उसे उम्र भर की सजा करवाती… यह सोच कर भी चुप रही कि मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो जाएगी. लेकिन अब प्रण करती हूं कि किसी पर भी भरोसा नहीं करूंगी. संजय और निक्की आप दोनों मुझे माफ कर दीजिए… अब किसी पर भी जल्दी विश्वास नहीं करूंगी, अपनी बेटी की सुरक्षा और उस के मानसम्मान पर किसी की भी बुरी नजर नहीं पड़ने दूंगी. यह वादा है आप दोनों से.’’

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