मां: क्या मीरा को छोड़ कर चला गया सनी

तीसरी बार फिर मोबाइल की घंटी बजी थी. सम झते देर नहीं लगी थी मीरा को कि फिर वही राजुल का फोन होगा. आज जैसी बेचैनी उसे कभी महसूस नहीं हुई थी. सनी भी तो अब तक आया नहीं था. यह भी अच्छा है कि उस के सामने फोन नहीं आया. मोबाइल की घंटी लगातार बजती जा रही थी. कांपते हाथों से उस ने मोबाइल उठाया-‘‘हां, तो मीरा आंटी, फिर क्या सोचा आप ने?’’ राजुल की आवाज ठहरी हुई थी.‘‘तुम फिर एक बार सोच लो,’’ मीरा ने वे ही वाक्य फिर से दोहराने चाहे थे.

‘मेरा तो एकमात्र सहारा है सनी, तुम्हारा क्या, तुम तो किसी को भी गोद ले सकती हो.’’‘‘अरे, आप सम झती क्यों नहीं हैं? किसी और में और सनी में तो फर्क है न. फिर मैं कह तो रही हूं कि आप को कोई कमी नहीं होगी.’’ ‘‘देखो, सनी से ही आ कर कल सुबह बात कर लेना,’’ कह कर मीरा ने फोन रख दिया था. उस की जैसे अब बोलने की शक्ति भी चुकती जा रही थी.यहां मैं इतनी दूर इस शहर में बेटे को ले कर रह रही हूं. ठीक है, बहुत संपन्न नहीं है, फिर भी गुजारा तो हो ही रहा है. पर राजुल इतने वर्षों बाद पता लगा कर यहां आ धमकेगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. बेटे की इतनी चिंता थी, तो पहले आती.अब जब पालपोस कर इतना बड़ा कर दिया, बेटा युवा हो गया तो… एकाएक फिर  झटका लगा था.

यह क्या निकल गया मुंह से, क्यों कल सुबह आने को कह दिया, सनी तो चला ही जाएगा, वियोग की कल्पना करते ही आंखें भर आई थीं. सनी उस का एकमात्र सहारा.पिछले 3 दिनों से लगातार फोन आ रहे थे राजुल के. शायद यहां किसी होटल में ठहरी है, पुराने मकान मालिक से ही पता ले कर यहां आई है. और 3 दिनों से मीरा का रातदिन का चैन गायब हो गया है. पता नहीं कैसे जल्दबाजी में उस के मुंह से निकल गया कि यहां आ कर सनी से बात कर लेना. यह क्या कह दिया उस ने, उस की तो मति ही मारी गई.‘‘मां, मां, कितनी देर से घंटी बजा रहा हूं, सो गईं क्या?’’ खिड़की से सनी ने आवाज दी, तब ध्यान टूटा.‘‘आई बेटा, तेरा ही इंतजार कर रही थी,’’ हड़बड़ा कर उठी थी मीरा.‘‘अरे, इंतजार कर रही थीं तो दरवाजा तो खोलतीं. देखो, बाहर कितनी ठंड है,’’ कहते हुए अंदर आया था सनी, ‘‘अब जल्दी से खाना गरम कर दो, बहुत भूख लगी है और नींद भी आ रही है.’’किचन में आ कर भी विचारतंद्रा टूटी नहीं थी मीरा की. अभी बेटा कहेगा कि फिर वही सब्जी और रोटी,

कभी तो कुछ और नया बना दिया करो. पर आज तो जैसेतैसे खाना बन गया, वही बहुत है.‘‘यह क्या, तुम नहीं खा रही हो?’’ एक ही थाली देख कर सनी चौंका था.‘‘हां बेटा, भूख नहीं है, तू खा ले, अचार निकाल दूं?’’‘‘नहीं रहने दो, मु झे पता था कि तुम वही खाना बना दोगी. अच्छा होता, प्रवीण के घर ही खाना खा आता. उस की मां कितनी जिद कर रही थीं. पनीर, कोफ्ते, परांठे, खीर और पता नहीं क्याक्या बनाया था.’’मीरा जैसे सुन कर भी सुन नहीं पा रही थी.‘‘मां, कहां खो गईं?’’ सनी की आवाज से फिर चौंक गई थी.‘‘पता है, प्रवीण का भी सलैक्शन हो गया है. कोचिंग से फर्क तो पड़ता है न, अब राजू, मोहन, शिशिर और प्रवीण सभी चले जाएंगे अच्छे कालेज में. बस मैं ही, हमारे पास भी इतना पैसा होता, तो मैं भी कहीं अच्छी जगह पढ़ लेता,’’ सनी का वही पुराना राग शुरू हो गया था.‘

‘हां बेटा, अब तू भी अच्छे कालेज में पढ़ लेना, मन चाहे कालेज में ऐडमिशन ले लेना, बस, सुबह का इंतजार.’’‘‘क्या? कैसी पहेलियां बु झा रही हो मां. सुबह क्या मेरी कोईर् लौटरी लगने वाली है, अब क्या दिन में भी बैठेबैठे सपने देखने लगी हो. तबीयत भी तुम्हारी ठीक नहीं लग रही है. कल चैकअप करवा दूंगा, चलना अस्पताल मेरे साथ,’’ सनी ने दो ही रोटी खा कर थाली खिसका दी थी.‘‘अरे खाना तो ढंग से खा लेता,’’ मीरा ने रोकना चाहा था.‘‘नहीं, बस. और हां, तुम किस लौटरी की बात कर रही थीं?’’ ‘‘हां, लौटरी ही है, कल सुबह कोई आएगा तु झ से मिलने.’’‘‘कौन? कौन आएगा मां,’’ सनी चौंक गया था.‘‘तू हाथमुंह धो कर अंदर चल, फिर कमरे में आराम से बैठ कर सब सम झाती हूं.’’मीरा ने किसी तरह मन को मजबूत करना चाहा था. क्या कहेगी किस प्रकार कहेगी.‘‘हां मां, आओ,’’ कमरे से सनी ने आवाज दी थी.मन फिर से भ्रमित होने लगा. पैर भी कांपे. किसी तरफ कमरे में आ कर पलंग के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई थी मीरा.‘‘क्या कह रही थीं तुम, किस लौटरी के बारे में?’’ सनी का स्वर उत्सुकता से भरा हुआ था. मीरा ने किसी तरह बोलना शुरू किया,

‘‘बेटा, मैं आज तु झे सबकुछ बता रही हूं, जो अब तक बता नहीं पाई. तेरी असली मां का नाम राजुल है, जोकि बहुत बड़ी प्रौपर्टी की मालिक हैं. उन की कोई और औलाद नहीं है. वे अब तु झे लेने आ रही हैं,’’ यह कहते हुए गला भर्रा गया था मीरा का और आंसू छिपाने के लिए मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया था उस ने.मां, आप कह क्या रही हो, मेरी असली मां कोई और है. तो अब तक कहां थी, आई क्यों नहीं?’’ सनी सम झ नहीं पा रहा था कि आज मां को हुआ क्या है? क्यों इतनी बहकीबहकी बातें कर रही हैं.‘‘हां बेटा, तेरी असली मां वही है. बस, तु झे जन्म नहीं देना चाह रही थी तो मैं ने ही रोक दिया था और कहा था कि जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. मेरे भी कोईर् औलाद नहीं थी. मैं वहीं अस्पताल में नर्स थी. बस, तु झे जन्म दे कर और मु झे सौंप कर वह चली गई.’’‘‘अब तू जो भी सम झ ले. हो सके तो मु झे माफ कर दे. मैं ने अब तक तु झ से यह सब छिपाए रखा था. मेरे लिए तो तू बेटे से भी बढ़ कर है. बस, अब और कुछ मत पूछ,’’ यह कहते फफक पड़ी थी मीरा और जोर की रुलाई को रोकते हुए कमरे से बाहर निकल गई.अपने कमरे में आ कर गिर रुलाई फूट ही पड़ी थी. सनी उस का बेटा इतने लाड़प्यार से पाला उसे.

कल पराया हो जाएगा. सोचते ही कलेजा मुंह को आने लगता है. कैसे जी पाएगी वह सनी के बिना. इतना दुख तो उसे अपने पति जोसेफ के आकस्मिक निधन पर भी नहीं हुआ था. तब तो यही सोच कर संतोष कर लिया था कि बेटा तो है उस के पास. उस के सहारे बची जिंदगी निकल जाएगी. यही सोच कर पुराना शहर छोड़ कर यहां आ कर अस्पताल में नौकरी कर ली थी. तब क्या पता था कि नियति ने उस के जीवन में सुख लिखा ही नहीं. तभी तो, आज राजुल पता लगाते हुए यहां आ धमकी है. शायद वक्त को यही मंजूर होगा कि सनी को अच्छा, संपन्न परिवार मिले, उस का कैरियर बने, तभी तो राजुल आ रही है. बेटा भी तो यही चाहता है कि उसे अच्छा कालेज मिले. अब कालेज क्या, राजुल तो उसे ऐसे ही कई फैक्ट्री का मालिक बना देगी.ठीक है, उसे तो खुश होना चाहिए. आखिर, सनी की खुशी में ही तो उस की भी खुशी है. और उस की स्वयं की जिंदगी अब बची ही कितनी है, काट लेगी किसी तरह.लेकिन अपने मन को लाख उपाय कर के भी वह सम झा नहीं पा रही थी. पुराने दिन फिर से सामने घूमने लगे थे. तब वह राजुल के पड़ोस में ही रहा करती थी. राजुल के पिता नगर के नामी व्यवसायी थे.

उन्हीं के अस्पताल में वह नर्स की नौकरी कर रही थी. राजुल अपने पिता की एकमात्र संतान थी. खूब धूमधाम से उस की शादी हुई पर शादी के चारपांच माह बाद ही वह तलाक ले कर पिता के घर आ गईर् थी. तब उसे 3 माह का गर्भ था. इसीलिए वह एबौर्शन करा कर नई जिंदगी जीना चाह रही थी. इस काम के लिए मीरा से संपर्क किया गया. तब तक मीरा और जोसेफ की शादी हुए एक लंबा अरसा हो चुका था और उन की कोई संतान नहीं थी.मीरा ने राजुल को सम झाया था. ‘तुम्हारी जो भी संतान होगी, मैं ले लूंगी. तुम एबौर्शन मत करवाओ.’ बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए राजुल तैयार हुई थी. और बेटे को जन्म दे कर ही उस शहर से चली गई. बेटे का मुंह भी नहीं देखना चाहा था उस ने.सनी का पालनपोषण उस ने और जोसेफ ने बड़े लाड़प्यार से किया था. राजुल की शादी फिर किसी नामी परिवार के बेटे से हो गई थी और वह विदेश चली गई थी.यह तो उसे राजुल के फोन से ही मालूम पड़ा कि वहां उस के पति का निधन हो गया और अब वह अपनी जायदाद संभालने भारत आ गई है, चूंकि निसंतान है, इसलिए चाह रही है कि सनी को गोद ले ले, आखिर वह उसी का तो बेटा है.

मीरा समझ नहीं पा रही थी कि नियति क्यों उस के साथ इतना क्रूर खेल खेल रही है. सनी उस का एकमात्र सहारा, वह भी अलग हो जाएगा, तो वह किस के सहारे जिएगी.आंखों में नींद का नाम नहीं था. शरीर जैसे जला जा रहा था. 2 बार उठ कर पानी पिया.सुबह उठ कर रोज की तरह दूध लाने गई, चाय बनाई. सोचा, कमरा थोड़ा ठीकठाक कर दे, राजुल आती होगी. सनी को भी जगा दे, पर वह जागा हुआ ही था. उसे चाय थमा कर वह अपने कमरे में आ गई. बेटे को देखते ही कमजोर पड़ जाएगी. नहीं, वह राजुल के सामने भी नहीं जाएगी.जब राजुल की कार घर के सामने रुकी, तो उस ने उसे सनी के ही कमरे में भेज दिया था. ठीक है, मांबेटा आपस में बात कर लें. अब उस का काम ही क्या है? वैसे भी राजुल के पिता के इतने एहसान हैं उस पर, अब किस मुंह से वह सनी को रोक पाएगी. पर मन था कि मान ही नहीं रहा था और राजुल और सनी के वार्त्तालाप के शब्द पास के कमरे से उस के कानों में पड़ भी रहे थे.‘‘बस बेटा, अब मैं तु झे लेने आ गईर् हूं. मीरा ने बताया था कि तू अपने कैरियर को ले कर बहुत चिंतित है.

पर तु झे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. करोड़ों की जायदाद का मालिक होगा तू,’’ राजुल कह रही थी.‘‘कौन बेटा, कैसी जायदाद, मैं अपनी मां के साथ ही हूं, और यहीं रहूंगा. ठीक है, बहुत पैसा नहीं है हमारे पास, पर जो है, हम खुश हैं. मेरी मां ने मु झे पालपोस कर बड़ा किया है और आप चाहती हैं कि इस उम्र में उन्हें छोड़ कर चल दूं. आप होती कौन हैं मेरे कैरियर की चिंता करने वाली, कैसे सोच लिया आप ने कि मैं आप के साथ चल दूंगा?’’ सनी का स्वर ऊंचा होता जा रहा था.इतने कठोर शब्द तो कभी नहीं बोलता था सनी. मीरा भी चौंकी थी. उधर, राजुल का अनुनयभरा स्वर, ‘‘बेटे, तू मीरा की चिंता मत कर, उन की सारी व्यवस्था मैं कर दूंगी. आखिर तू मेरा बेटा ही है, न तो मैं ने तु झे गोद दिया था, न कानूनीरूप से तेरा गोदनामा हुआ है. मैं तेरी मां हूं, अदालत भी यही कहेगी मैं ही तेरी मां हूं. परिस्थितियां थीं, मैं तु झे अपने पास नहीं रख पाई. मीरा को मैं उस का खर्चा दूंगी. तू चाहेगा तो उसे भी साथ रख लेंगे.

मु झे तेरे भविष्य की चिंता है. मैं तेरा अमेरिका में दाखिला करा दूंगी, यहां तु झे सड़ने नहीं दूंगी. तू मेरा ही बेटा है.’’ ‘‘मत कहिए मु झे बारबार बेटा, आप तो मु झे जन्म देने से पहले ही मारना चाहती थीं. आप को तो मेरा मुंह देखना भी गवारा नहीं था. यह तो मां ही थीं जिन्होंने मु झे संभाला और अब इस उम्र में वे आप पर आश्रित नहीं होंगी. मैं हूं उन का बेटा, उन की संभाल करने वाला, आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है, सम झीं? और अब आप कृपया यहां से चली जाएं, आगे से कभी सोचना भी मत कि मैं आप के साथ चल दूंगा.’’सनी ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया था. फिर राजुल शायद धीमे स्वर में रो भी रही थी. मीरा सम झ नहीं पा रही थी कि क्या कह रही है.तभी सनी का तेज स्वर सुनाई दिया, ‘‘मैं जो कुछ कह रहा हूं, आप सम झ क्यों नहीं पा रही हैं. मैं कोई बिकाऊ कमोडिटी नहीं हूं. फिर जब आप ने मु झे मार ही दिया था तो अब क्यों आ गई हैं मु झे लेने. मैं बालिग हूं, मु झे अपना भविष्य सोचने का हक है. आप चाहें तो आप भी हमारे साथ रह सकती हैं. पर मैं, आप के साथ मां को छोड़ कर जाने वाला नहीं हूं. आप मु झे भी सम झने की कोशिश करें. मेरा अपना भी उत्तरदायित्व है.

जिस ने मुझे पालापोसा, बड़ा किया, मैं उसे इस उम्र में अंधकार में नहीं छोड़ सकता. कानून आप की मदद नहीं करेगा. दुनिया में आप की बदनामी अलग होगी. आप भी शांति से रहें, हमें भी रहने दें. आप मु झे सम झने की कोशिश करें. अब मैं और कुछ कहूं और अपशब्द निकल जाएं मेरे मुंह से, मेरी रिक्वैस्ट है, आप चली जाएं. सुना नहीं आप ने?’’ सनी की आवाज फिर और तेज हो गई थी.इधर, राजुल धड़ाम से दरवाजा बंद करते हुए निकल गई थी. फिर कार के जाने की आवाज आई. मीरा की जैसे रुकी सांसें फिर लौट आई थीं. सनी कमरे से बाहर आया और मां के गले लग गया और बोला, ‘‘मेरी मां सिर्फ आप हो. कहीं नहीं जाऊंगा आप को छोड़ कर.’’ मीरा को लगा कि उस की ममता जीत गई है.

नीली झील में गुलाबी कमल: ईशानी ने कौनसा प्रस्ताव रखा था

ईशानी अपनी दीदी शर्मिला से बहुत प्यार करती थी. शर्मिला भी हमेशा अपनी ममता उस पर लुटाती रहती थी, तभी तो वह जबतब हमारे घर आ जाया करती थी. जब मैं ने शुरूशुरू में शर्मिला को देने के लिए एक पत्र उस के हाथों में सौंपा था, तब वह मात्र 12 वर्ष की थी. वह लापरवाह सी साइकिल द्वारा इधरउधर बेरोकटोक आयाजाया करती थी. मेरा और शर्मिला का गठबंधन कराने में ईशानी का ही हाथ था. जाति, बिरादरी से भरे शहर में हम दोनों छिपछिप कर मिलते रहे, लेकिन किसी को पता ही न चला. ईशानी ने एक दिन कहा, ‘‘तुम दोनों में क्या गुटरगूं चल रही है… मां को बता दूं?’’

उस की चंचल आंखों ने मानो हम दोनों को चौराहे पर ला खड़ा कर दिया. किसी तरह शर्मिला ने अंधेरे में तीर मार कर मामला संभाला, ‘‘मैं भी मां को बता दूंगी कि तू टैस्ट में फेल हो गई है.’’ वह सहम गई और विवाह तक उस ने हम लोगों की मुहब्बत को राज ही रहने दिया.

बड़ी बहन होने के नाते शर्मिला ने ईशानी की टीचर से मिल कर उस के इतिहासभूगोल के अंक बढ़वाए और पास करवा दिय?. शर्मिला ही ईशानी की देखरेख करती, सो, दोनों में मांबेटी जैसा ममतापूर्ण स्नेह भी पनपता रहा. अपनी सहेलियों से मजाक करतेकरते ईशानी दावा कर दिया करती थी, ‘मैं शर्मिला दीदी को ‘मां’ कह सकती हूं.’ यह बात मेरे दोस्त की बहन ने बताई थी, जो ईशानी की सहेली थी. समय ने करवट ली. एक दिन बाजार से लौटते समय ईशानी की मां को एक तीव्र गति से आती हुई कार ने धक्का दे दिया. उन्हें अस्पताल ले जाया गया, परंतु बिना कुछ कहे, बताए वे संसार से विदा हो गईं. ईशानी के बड़े भाई प्रशांत का इंजीनियरिंग का अंतिम वर्ष था. वह किशोरी अपने बड़े भैया को समझाती रही, तसल्ली देती रही, जैसे परिवार में वह सब से बड़ी हो.

उस की मां ने अपने पति के रहते हुए ही तीनों बच्चों में संपत्ति का बंटवारा करवा लिया था. इस से उन लोगों के न रहने पर भी आपस में मधुर संबंध बने रहे. मैं परिवार का बड़ा बेटा था. मुझ से छोटी 2 बहनें सुधा, सीमा हाई स्कूल और इंटर बोर्ड की तैयारी कर रही थीं. मैं बैंक में नौकरी करता था. पिता बचपन में ही चल बसे थे. मां ने अपनेआप को अकेलेपन से बचाने के लिए एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने का काम ले लिया था. कुल मिला कर जीवन आराम से चल रहा था.

एक दिन ईशानी बोली, ‘‘होने वाले जीजाजी, अब आप लोग जल्दी से शादी कर लीजिए.’’

मैं ने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो… क्या भैया ने कुछ कह दिया है.’’

‘‘नहीं,’’ वह बोली, ‘‘बात यह है कि कल मामाजी आए थे. भैया ने उन से दीदी के लिए लड़का ढूंढ़ने को बोला है.’’

‘‘तो क्या हुआ, हम तुझ से शादी कर लेंगे.’’ यह सुन कर वह ऐसे मुसकराई जैसे मुझे बच्चा समझ रही हो. मैं ने झेंपते हुए उस से कहा, ‘‘फिर क्या करें? मेरे घर में तो सब मान जाएंगे… हां, तुम्हारे भैया…’’

‘‘उन को मैं मनाऊंगी,’’ वह चुटकी बजाते हुए हंसती हुई चली गई.

पता नहीं उस ने भैया को कौन सी घुट्टी पिलाई कि वे एक बार में ही हम लोगों का विवाह करने को राजी हो गए.

ईशानी हमारे यहां आतीजाती रहती थी और भैया के समाचार देती रहती थी. भैया इंजीनियर के पद पर नियुक्त हुए तो उस दिन वह बहुत खुश हुई और आ कर मुझ से लिपट गई. फिर झेंपती हुई अपनी दीदी के पास चली गई. हाई स्कूल का फार्म भरते समय ईशानी ने अभिभावक के स्थान पर भैया का नाम न लिख कर मेरा लिखा था. तब मैं ने उस से कहा, ‘‘ईशानी, गलती से तुम ने यहां मेरा नाम लिख दिया है.’’ ‘‘वाह जीजाजी, आप तो अपुन के माईबाप हो, मैं ने तो समझबूझ कर ही आप का नाम लिखा है,’’ कहते हुए वह खिलखिला पड़ी थी.

मेरे पिता बनने का समाचार भी ईशानी ने ही मुझे दिया था. पर मैं ने इस बात को सामान्यतौर पर ही लिया था.

‘‘जीजाजी, आज हम सब इस खुशी में आइसक्रीम खाएंगे,’’ वह चहक रही थी.

शर्मिला भी बोली, ‘‘सच तो है, चलिए…आज सब लोग आइसक्रीम खाएंगे.’’

‘‘ठीक है, आइसक्रीम खिला देंगे पर मैं तो इतनी बड़ी घोड़ी का बाप पहले से ही बना दिया गया हूं. तब तो किसी ने कुछ खिलाने की बात नहीं की,’’ मैं ने ईशानी की ओर देख कर कहा.

मेरी बात पर वह जोर से हंस पड़ी. फिर बोली, ‘‘बगल में खड़ी हो जाऊं तो आधी घरवाली लगूंगी और उंगली पकड़ लूं तो…’’

शर्मिला ने मीठी झिड़की दी, ‘‘चल हट, यह मुंह और मसूर की दाल…’’

मेरी बहन सुधा के विवाह में उस की विदाई पर ईशानी मुझे सांत्वना दे रही थी, ‘‘बेटियां तो पराए घर जाती ही हैं.’’

सीमा प्रेमविवाह करना चाहती थी, पर मां इस के लिए तैयार नहीं थीं, तब मैं ईशानी की बात सुन कर दंग रह गया. वह मां को समझा रही थी, ‘‘आप सीमा से नाराज मत होइए. आप के जो भी अरमान रह गए हों, मेरी शादी में पूरे कर लीजिएगा. आप जैसी कहेंगी मैं वैसी ही शादी करूंगी और जिस से कहेंगी, उस से कर लूंगी. बस, अब आप शांत हो जाइए.’’ मैं ने वातावरण को सहज करने के लिए मजाक किया, ‘‘मां कहेंगी, बच्चों के बापू से विवाह कर लो तो करना पड़ेगा…’’

मैं कई वर्षों बाद बेटे का बाप बना था. इस सुख ने मुझे अंदर से पुलकित और पूर्ण बना दिया था. बेटे का नाम रखना था, सो, सब ने अपनेअपने सोचे हुए नाम सुझाए पर निश्चित नहीं हो पा रहा था कि किस के द्वारा सुझाया हुआ नाम रखा जाए. फिर तय किया गया कि सब बारीबारी से बच्चे के कान में नाम का उच्चारण करेंगे, जिस के नाम पर वह जबान खोलेगा उसी का सुझाया गया नाम रखा जाएगा. सब से पहले शर्मिला ने उस का नाम लिया, ‘विराट’, सुधा ने ‘विक्रम’, सीमा ने ‘राघव’, मां ने पुकारा, ‘पुरुषोत्तम’. आखिर में ईशानी की बारी थी. उस ने बच्चे के कान के पास फूंक मारी और ‘अंकित’ कहते ही वह ‘ममम…ऊं…अं…मम…’ गुनगुना उठा.

सब लोग हंस पड़े, तालियां बज उठीं. मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘ईशानी, तू ने आधी घरवाली का रोल अदा किया है.’’ य-पि सुधा को यह अच्छा नहीं लगा था, परंतु मां का चेहरा दमक रहा था. वे बोलीं, ‘‘मौसी है न, मां ही होती है, गया भी तो मौसी पर ही है.’’

सुधा से न रहा गया. वह बोली, ‘‘सब कुछ मौसी का ही लिया है, क्या बात है ईशानी?’’ इस मजाक में य-पि सुधा की चिढ़ छिपी थी पर ईशानी झेंप गई थी. उस की झुकीझुकी पलकें मर्यादा से बोझिल थीं, परंतु होंठों की मुसकराहट में गौरव की झलक थी, ‘‘हां, मुझे मौसी होने पर गर्व है.’’

शर्मिला बीमार पड़ी तो पता चला कि उसे कैंसर ने दबोच लिया है. हम सब लोगों के तो जैसे हाथपांव ही फूल गए. एक ईशानी ही सब को दिलासा दे रही थी. अंकित की देखभाल अब ईशानी ही करती थी.

एक दिन ईशानी डाक्टर के सामने रो पड़ी, ‘‘डाक्टर साहब, मेरी दीदी को बचा लीजिए.’’ मृत्यु के पूर्व शर्मिला का चेहरा चमकने लगा था. उस के कष्ट जैसे समाप्त ही हो गए थे. ईशानी यह देख कर खुश थी. लेकिन उसे क्या पता था कि मृत्यु इतनी निकट आ गई है. ईशानी अंकित को पैरों पर बिठा कर झुला रही थी, ‘‘बता, तू मुझे दीदी कहेगा या मौसी? बता न, तू मुझे दीदी कहेगा… हां…’’

मैं आरामकुरसी पर बैठा आंखें मूंदे सोने की चेष्टा कर रहा था. पर ईशानी की तोतली बोली में ‘दीदी’ का संबोधन सुन कर मन ही मन हंस पड़ा. मां पास बैठी थीं, बोलीं, ‘‘ईशानी, नीचे गद्दी रख ले, गीला कर देगा,’’ और उन्होंने गद्दी उठा कर उसे दे दी. ईशानी गद्दी रखते हुए दुलार से अंकित से बोली, ‘‘अगर तू दीदी कहेगा तो गीला नहीं करना, मौसी कहेगा तो गीला…’’ मैं हंस पड़ा, ‘‘तुम मौसी हो तो मौसी ही कहेगा न.’’

शर्मिला की सहेलियां उस से मिल कर जा चुकी थीं. भैया भी आ गए थे. शाम हो गई, पर अंकित ने गद्दी गीली नहीं की थी. मां बोलीं, ‘‘देखो तो इस अंकू को, आज गद्दी गीली ही नहीं की.’’ ईशानी जूस बना रही थी, झट से देखने आ गई, ‘‘अरे, वाह, यह हुई न बात.’’ फिर मुझे आवाज दे कर बोली, ‘‘जीजाजी, देखिए, अंकू ने गद्दी गीली नहीं की,’’ और फिर खुद ही झेंप गई. उसी रात साढ़े 11 बजे शर्मिला हम सब से विदा हो गई. अंदर से मैं पूरी तरह ध्वस्त हो गया था, परंतु कुछ ऐसा अनुभव कर रहा था कि ईशानी मुझ से भी ज्यादा बिखर कर चूरचूर हो गई है. उस की गंभीर आंखें देख कर मेरा मन और भी उदास होने लगता. मैं अपना दुख भूल कर उसे समझाने की चेष्टा करता, परंतु वह मेरे सामने पड़ने से कतरा जाती.

समय बीतने लगा. अंकित ईशानी के बिना नहीं रहता था. वह उसे कईकई दिनों के लिए अपने साथ ले जाने लगी. मैं ही अंकित से मिलने चला जाता. अंकित का जन्मदिन आने वाला था. मां अपनी योजनाएं बनाने लगीं. सुधा, सीमा को भी निमंत्रण भेजा गया. ईशानी और मैं बड़े पैमाने पर जन्मदिन मनाने के पक्ष में नहीं थे. पर मां का कहना था कि वे अपने पोते के जन्मदिन पर शानदार दावत देंगी.

मां और ईशानी का विवाद चल रहा था. ऐसा लग रहा था कि मां खिसिया गई हैं, तभी उन्होंने यह प्रस्ताव रख दिया, ‘‘ईशानी, तुम जब अंकित पर इतना अधिकार समझती हो तो उसे सौतेला बेटा बनने से बचा लो,’’ और वे रोने लगीं. सब चुप थे. शीघ्र ही मां ने धीरेधीरे कहा, ‘‘तुम एक बार यहां इस की मां बन कर आ जाओ, बेटी. अंकित अनाथ होने से बच जाएगा…’’ ईशानी उठ कर चली गई थी. वह अंकित के जन्मदिन पर भी नहीं आई. अंकित रोता, चिड़चिड़ाता, बीमार पड़ा, तब भी वह नहीं आई. मां अंकित की देखरेख करती थक जातीं. मेरा बेटा ईशानी के बिना नहीं रह सकता, यह मैं जानता था. वह निरंतर दुर्बल होता जा रहा था. क्या करें, कुछ समझ नहीं आ रहा था. लगभग 2 माह बीत गए. फिर इस विषय पर कोई बातचीत न हुई. एक शाम मैं उदास बैठा ईशानी के बारे में ही सोच रहा था. साथ ही, मां के प्रस्ताव की भी याद आ गई. लेकिन मैं ने ईशानी को कभी उस नजर से नहीं देखा था. मुझे उम्मीद नहीं थी कि विशाल नभ के नीचे फैली नीली नदी में भी झील उतर सकती है और उस में गुलाबी कमल खिल सकते हैं.

तभी भैया को आते देखा तो मैं उठ खड़ा हुआ, ‘‘आइए, मां देखो तो, भैया आए हैं.’’ मां झट से अंकित को गोद में उठाए आ गईं.

भैया ने कहा, ‘‘यह पत्र ईशानी ने दिया है,’’ और वह पत्र मेरे हाथ में दे दिया.

मैं कुछ घबरा गया, ‘‘सब ठीक तो है न, भैया?’’ ‘‘हां, सब ठीक ही है,’’ कहते हुए उन्होंने अंकित को गोद में ले लिया, ‘‘मैं इसे ले जा रहा हूं. घुमा कर थोड़ी देर में ले आऊंगा,’’ और वे अंकित को ले कर चले गए. ‘‘क्या बात है बेटा, देखो तो क्या लिखा है? मालूम नहीं, वह क्या सोच रही होगी, मुझे ऐसा प्रस्ताव नहीं रखना चाहिए था. सचमुच उस दिन से मैं पछता रही हूं. वह घर नहीं आती तो अच्छा नहीं लगता…’’ और मां की आंखों में आंसू आ गए. मैं ने पत्र खोला. उस में लिखा था…

‘मां, मैं बहुत सोचविचार कर, भैया से पूछ कर फैसला कर रही हूं. मुझे आप का प्रस्ताव स्वीकार है, ईशानी.’ मुझे अचानक महसूस हुआ जैसे सचमुच नीली झील में गुलाबी कमल खिल गए हैं.

श्रीमतीजी जाएं मायके: पति की सजा या मजा

पति पत्नीमें झगड़ा होता रहता है, परंतु यदि पत्नी रूठ कर मायके जा बैठे तो पति की क्या स्थिति होती है, जब हम ने इस पर विचार किया तो पाया कि 20-25 वर्ष पूर्व जो स्थिति थी वह आज नहीं है.

पहले लड़ाई का कारण बड़ा मासूम होता था जैसे हमें मिसेज शर्मा की साड़ी जैसी साड़ी चाहिए. यदि पति महोदय औफिस से डांट खा कर आए होते तो गुस्सा पत्नी पर निकलता, ‘‘चाहिए तो मंगा लो न अपने मायके से.’’

‘‘देखो मेरे मायके का नाम मत लेना,’’ और फिर वाकयुद्ध इतना बढ़ता कि श्रीमतीजी रूठ कर मायके जा बैठतीं और पति महोदय का वनवास शुरू हो जाता.

प्रात: दूध वाले से दूध ले कर फिर सो जाते. औफिस के लिए देर हो रही होती. उसी समय महरी आ धमकती. वह भी भद्दी, मैलीकुचैली सी. श्रीमतीजी ने छांट कर रखी ताकि उस की ओर देखने को भी मन न करे.

सो उसे वापस भेज स्वयं ही फ्रिज में कुछ पड़ा खा कर, बिना प्रैस किए कपड़े पहन कर, बिना पौलिश किए जूते पहन कर दफ्तर भागते. औफिस देर से जाने पर साहब से नजरें चुरानी पड़तीं.

दोपहर में सब अपनाअपना खाने का डब्बा खोलते तो विभिन्न प्रकार की

सब्जियों की महक भूख और बढ़ा देती. बेचारे पति महोदय कैंटीन की रूखी, फीकी थाली खाते हुए सोचते कि बेकार में श्रीमतीजी पर गुस्सा किया. उन्हें मायके जाने से रोक लेते तो ढंग का खाना तो मिलता.

घर पहुंच कर चाय बनाना चाहते तो वह फट जाती. ऐंटरटेनमैंट के नाम पर केवल दूरदर्शन. उस में कृषि दर्शन से मन बहलाते. खाने में सोचते खिचड़ी बना ली जाए. इस से अधिक की वे सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि मां और श्रीमतीजी ने कभी रसोई में जो घुसने नहीं दिया.

फिर क्या था. चावलदाल मिला कर कुकर में डाल दिए और पानी कम होने के कारण सेफ्टिवौल्व उड़ गया. बेचारे अब क्या करें? जनाब 3 तल्ले नीचे सीढि़यों से जाते और फिर स्कूटर को किक पर किक लगा बड़ी मुश्किल से स्टार्ट कर पास वाले ढाबे में जा कर छोलेभठूरे खाते. घर आ कर सोने लगते तो सुबह का भीगा तौलिया और कपड़े बिस्तर पर बिखरे मिलते. सब को किनारे रख कर सोने की कोशिश करते. उस समय श्रीमतीजी की बहुत याद आती. सोचते फोन कर लिया जाए पर तभी पुरुष अहं रोक देता कि वे गई हैं स्वयं और आएं भी स्वयं.

प्रात: कामवाली जल्दी आ गई. रसोई की हालत देख कर भड़क गई. जला कुकर देख कर तो और जलभुन गई.

बेचारे मिमियाते हुए उस से बोले, ‘‘वो न खिचड़ी जल गई थी,’’ मन ही मन सोच रहे थे कि अगर यह भाग गई तो झाड़ू, बरतन सब खुद करना पड़ेगा. नाश्ते के समय आलू के परांठे याद आते. सोचते कि क्या बुला लूं? पर फिर पुरुष अहं रोक देता.

उस दिन शाम को औफिस से घर लौटे तो तभी मिसेज शर्मा आ गईं, चीनी मांगने के बहाने यह टोह लेने की श्रीमतीजी कहां गईं और कब आएंगी.

बिना नाश्ता किए औफिस जाना, दूसरों का टिफिन देख ललचाना, होटल का खाना खाना, पेट खराब होना, दूरदर्शन और रेडियो पर किसी विशेष व्यक्ति की मृत्यु पर शोक मनाना, बिना प्रैस किए कपड़े और बिना पौलिश किए जूते पहन कर औफिस जाना और रात में विरह गीत रेडियो पर सुनना सब खलने लगा. मन लगाएं तो कहां?

औफिस में 1-2 महिलाएं हैं, जो शादीशुदा हैं. कहीं और जाएं तो किसी को पता चल जाए या फिर श्रीमतीजी को पता चल जाए तो समाज में क्या इज्जत रह जाएगी? बच्चों की भी याद आती. सब सहना कठिन होता.

सोचते मिसेज शर्मा का ‘भाभीजी कब आएंगी’, से आसान है मिसेज शर्मा की साड़ी जैसी साड़ी ले कर देना. 2 दिनों में अकल ठिकाने आ गई. श्रीमतीजी को लेने उन के मायके पहुंच गए. पहले की यानी पुराने जमाने की श्रीमतीजी भी विरह में आस लगाए बैठी होतीं कि कब संदेशा आए और वे वापस अपने श्रीमान के पास जाएं. सो हैप्पी ऐंडिंग.

आज के पति महोदय 33-34 वर्ष के एक बच्चे के पिता कैरियर की सीढि़यां चढ़ने में लगे हुए. अगर पत्नी मायके बैठ जाए तो? यह सौभाग्य तो किसी नसीब वाले को ही मिलता है. आजकल यदि मायका और ससुराल एक ही शहर में हैं तो महीने में एक बार श्रीमतीजी एक शाम के लिए मायके जाती ही हैं, क्योंकि वे भी काम करती हैं और साप्ताहिक छुट्टी में आउटिंग पर जाती हैं.

मायके की हर पल की खबर सोशल मीडिया पर मिलती रहती है और फिर फोन तो दिन भर होता ही रहता है तो फिर जाने की क्या आवश्यकता? हां, जब बच्चा छोटा था तो डेली उसे मायके छोड़ कर औफिस जाती थीं.

अब श्रीमतीजी के रूठ कर मायके जाने के फायदे देखिए. सुबहसुबह कोई अलार्म की तरह उठोउठो का राग नहीं अलापता. बच्चे को स्कूल बस तक छोड़ने को कोई नहीं कहता.

भीगा तौलिया बैड पर फेंकने पर कोई टोकने वाला नहीं. सुबहसुबह महकती स्टाइलिश कपड़ों में सजीसंवरी कामवाली को देख कर मन खिल जाता.

श्रीमती के सामने कनखियों से देख पाते थे अब खुली छूट. नाश्ता स्वयं बनाना आता है ब्रैडबटर, अंडाफ्राई और डिप वाली चाय. काम वाली तब तक घर साफ कर देती है. जनाब औफिस समय पर पहुंच जाते हैं.

मैडम मायके गई, सुन कर सब दोस्त जश्न मनाने लगते हैं, ‘‘तुम्हारे फोर्स्ड बैचलर होने की पार्टी तो बनती है.’’

औफिस की कुछ कुंआरियां, जिन की शादी की उम्र निकल रही होती है वे चांस लेने लगती हैं. घर का बना खाना औफर करने लगती हैं. आज के श्रीमान को फ्लर्ट करने का पूरा अवसर मिलता है. मजे ही मजे.

देर शाम तक औफिस में काम कर के घर 8 बजे पहुंचो या 9 बजे कोई कुछ कहने  वाला नहीं. रात का खाना किसी अच्छे रैस्टोरैंट में किसी लड़की मित्र के साथ खाओ या घर पर पिज्जा मंगा लो. विकल्प बहुत हैं. छुट्टी के दिन इंटरनैट से देख कर नईनई रैसिपीज बनाने का मजा ही अलग होता है.

आजकल श्रीमतियां (पत्नियां) समान अधिकार के कारण श्रीमान को भी किचन में हाथ बंटाने को कहती हैं. इसीलिए वे भी बहुत कुछ पकानाबनाना जानते हैं.

वाशिंग मशीन में कपड़े औटोमैटिक धुल जाते हैं. कुछ काम कामवाली से करा लिए जाते हैं. ऐंटरटेनमैंट की भी कमी नहीं. जो चाहो चैनल देखो टीवी में या फिर देर रात तक औफिस का काम करें लैपटौप पर अथवा स्मार्ट फोन में लगे रहें सोशल साइट्स पर सब अपनी मरजी से. कोई बैड पर सोने का इंतजार नहीं कर रहा. श्रीमतीजी घर में हैं या नहीं किसी पड़ोसी को इस से कोई मतलब नहीं.

बच्चों से रोज बात हो जाती है, पर श्रीमतीजी से नहीं. वे सोचतीं इतने दिन बीत गए कहीं कोई और तो नहीं ढूंढ़ ली और फिर अपने अधिकार से अपने घर अपने बच्चों के साथ लौट आती हैं तो सारे गिलेशिकवे दूर हो जाते हैं.

‘‘आप हमें छोड़ कर कभी मत जाना. हम तुम्हारे बिना नहीं रह सकते,’’ यह श्रीमानजी मुंह से तो कह देते हैं पर मन हीमन सोचते हैं श्रीमतीजी को कभीकभी मायके भी जाना चाहिए.

मेरा बाबू: क्या हुआ था फरजाना के साथ

जून, 1993 की बात है. मुंबई में बंगलादेशियों की धरपकड़ जारी  थी. पुलिस उन्हें पकड़पकड़ कर ट्रेनों में ठूंस रही थी. कुछ तो चले गए, कुछ कल्याण स्टेशन से वापस मुड़ गए. किसी का बाप पकड़ा गया और टे्रेन में बुक कर दिया गया तो बीवीबच्चे छूट गए. किसी की मां पकड़ी गई तो छोटेछोटे बच्चे इधर ही भीख मांगने के लिए छूट गए. पुलिस को किसी का फैमिली डिटेल मालूम नहीं था, बस, जो मिला, धर दबोचा और किसी भी ट्रेन में चढ़ा दिया. सब के चेहरे आंसुओं से भीग गए थे.

यह धरपकड़ करवाने वाले दलाल इन्हीं में से बंगाली मुसलमान थे. रात के अंधेरे में सोए हुए लोगों पर पुलिस का कहर नाजिल होता था, क्योंकि इन्हें दिन में पकड़ना मुश्किल था. कभी तो कोई मामला लेदे कर बराबर हो जाता और कभी किसी को जबरदस्ती ट्रेन में ठूंस दिया जाता. इन की सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आया, न ही बंगलादेश की सरकार और न ही मानवाधिकार आयोग.

उन दिनों मेरे पास कुछ औरतों का काम था. सब की सब सफाई पर लगा दी गई थीं. कुछ को मैं ने कब्रिस्तान में घास की सफाई पर लगा रखा था. ज्यादातर औरतें बच्चों के साथ थीं. उन के साथ जो मर्द थे, उन के पति थे या भाई, मालूम नहीं. ये भेड़बकरियों की तरह झुंड बना कर निकलती थीं और झुंड ही की शक्ल में रोड के ब्रिज के नीचे अपने प्लास्टिक के झोपड़ों में लौट जाती थीं.

उन्हीं में एक थी फरजाना. देखने में लगता था कि वह 17 या 18 साल की होगी. मुझे तब ज्यादा आश्चर्य हुआ जब उस ने बताया कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है. उस का 2 साल का बच्चा जमालपुर (बंगलादेश) में है.

इस धरपकड़ के दौरान एक दिन वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘साहब, मैं यहां से वापस बंगलादेश नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों? चली जाओ. यहां अकेले क्या करोगी?’’

‘‘साहब, मेरा मर्द एक्सीडेंट में मर गया. मेरा एक लड़का है जावेद, मेरा बाबू, मैं अपनी भाभी और भाई के पास उसे छोड़ कर आई हूं. मैं अपने बाबू के लिए ढेर सारा पैसा कमाना चाहती हूं ताकि उसे अच्छे स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला सकूं और बड़ा आदमी बना सकूं.’’

फरजाना को पुकारते समय मैं उसे ‘बेटा’ कहता था और इसी एक शब्द की गहराई ने उस को मेरे बहुत करीब कर दिया था. न जाने क्यों, जब वह मेरे पास आती तो मेरे इतने करीब आ जाती जैसे किसी बाप के पास बेटी आती है. वह मुझे ‘रे रोड’ के प्लास्टिक के झोंपड़ों की सारी दास्तान सुनाती.

उस की कई बार इज्जत खतरे में पड़ी, लेकिन वह भाग कर या तो रे रोड के रेलवे स्टेशन पर आ गई या रोड पर आ कर चिल्लाने लगी. ये इज्जत लूटने वाले या उन्हें जिस्मफरोशी के बाजार में बेचने वाले बंगलादेशी ही थे. पहले वह यहां के दलालों से मिलते थे. रात के समय औरतों को दिखाते थे और फिर सौदा पक्का हो जाता था. कितनी ही औरतें फकलैंड रोड, पीली कोठी और कमाठीपुरा में धंधा करने लगीं और कुछ तंग आ कर मुंबई से भाग गईं.

फरजाना ने एक दिन मुझे बताया कि वह बंगाली नहीं है. बंटवारे के समय उस के पिता याकूब खां जिला गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) से पूर्वी पाकिस्तान गए थे. उस के बाद 1971 के गृहयुद्ध में वह मुक्ति वाहिनी के हाथों मारे गए. इस के बाद उस के भाई ने उस की शादी कर दी. उस का पति एक्सीडेंट में मर गया. जब उस का पति मरा तो वह पेट से थी. अब यह खानदान पूरी तरह उजड़ गया था. बंगलादेश से जब बिहारी मुसलमानों  ने उर्दू भाषी पाकिस्तान की तरफ कूच करना शुरू किया तो वहां की सरकार ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. इधर बंगलादेश सरकार भी उन्हें अपने पास रखना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस गृहयुद्ध में इन की सारी वफादारी पाकिस्तान के साथ थी. यहां तक कि इन्होंने मुक्ति वाहिनी से लड़ने के लिए अपनी रजाकार सेना बनाई थी.

जबपाकिस्तान हार गया और एक नए देश, बंगलादेश, का जन्म हो गया तो ये सारे लोग बीच में लटक गए. न बंगलादेश के रहे न पाकिस्तान के. फरजाना उन्हीं में से एक थी. वह भोजपुरी के साथ बहुत साफ बंगला बोलती थी. एक दिन तो हद हो गई, जब वह टूटेफूटे बरतनों में मेरे लिए मछली और चावल पका कर लाई.

मैं ने अपने दिल के अंदर कई बार झांक कर देखा कि फरजाना कहां है? हर बार वही हुआ. फरजाना ठीक मेरी लड़की की तरह मेरे दिल में रही. अब वह मुझे बाबा कह कर पुकारती थी. दिल यही कहता था कि उसे इन सारे झमेलों से उठा कर क्यों न अपने घर ले जाऊं, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि मेरी 3 के बजाय 4 लड़कियां हो जाएंगी. लेकिन उस के बाबू जावेद का क्या होगा, जिस को वह जमालपुर (बंगलादेश) में छोड़ कर आई थी और फिर मैं ने उसे इधरउधर के काम से हटा कर अपने पास, अपने दफ्तर में रख लिया. काम क्या था, बस, दफ्तर की सफाई, मुझे बारबार चाय पिलाना और कफन के कपड़ों की सफाई.

मुंबई एक ऐसा शहर है जहां ढेर सारे ट्रस्ट, खैराती महकमे हैं, बुरे लोगों से ज्यादा अच्छे लोग भी हैं और जिस विभाग का मैं मैनेजर था वह भी एक चैरेटी विभाग था. मसजिदों की सफाई, इमामों, मोअज्जिनों की भरती, पैसों का हिसाब- किताब लेकिन इस के अलावा सब से बड़ा काम था लावारिस मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करना. जो भी मुसलिम लाशें अस्पताल से मिलती थीं, उन का वारिस हमारा महकमा था. हमारा काम था कि उन को नहला कर नए कपड़ों में लपेट कर उन्हें कब्रिस्तान में सुला दिया जाए.

मुंबई में कब्रिस्तानों का तो यह आलम है कि चाहे जहां भी किसी के लिए कब्र खोदी जाए, वहां 2-4 मुर्दों की हड्डियां जरूर मिलती हैं. मतलब इस से पहले यहां कई और लोग दफन हो चुके हैं, और फिर इन हड्डियों को इकट्ठा कर के वहीं दफन कर दिया जाता है. यहां कब्रिस्तानों में कब्र के लिए जमीन बिकती है और यह दो गज जमीन का टुकड़ा वही खरीद पाते हैं जिन के वारिस होते हैं.

सोनापुर के इलाके में ज्यादातर कब्रें इसलिए पुख्ता कर दी गई हैं ताकि दोबारा यहां कोई और मुर्दा दफन न हो सके. मुंबई में मुर्दों की भी भीड़ है, इन के लिए दो गज जमीन का टुकड़ा कौन खरीदे? इसलिए हमारा विभाग यह काम करता है. हमारे विभाग ने लावारिस लाशों के लिए एक जगह मुकर्रर कर रखी है. यह संस्था कफनदफन का सारा खर्च बरदाश्त करती है. बाकायदा एक मौलाना और कुछ मुसलमान इस काम पर लगा दिए गए हैें कि जब कोई लावारिस लाश आए उसे नहलाएं, कफन पहनाएं और नमाजेजनाजा पढ़ कर कब्र में उतारें. शायद ऐसा विभाग हिंदुस्तान के किसी शहर में नहीं है, लेकिन मुंबई में है और यह चैरेटी इस काम को खुशीखुशी करती है. वैसे इस दफ्तर का मुंबई की भाषा में एक दूसरा नाम भी है, ‘कफन आफिस.’

एक दिन फरजाना ने आ कर मुझे एक मुड़ीतुड़ी तसवीर दिखाई, ‘‘बाबा, यह मेरा बाबू है, ठीक अपने बाप पर गया है,’’ और फिर उस ने किसी कीमती चीज की तरह उसे अपने ब्लाउज में रख लिया. बच्चे की तसवीर बड़ी प्यारी थी. बड़ीबड़ी आंखें, उस में ढेर सारा काजल, माथे पर काजल का टीका, बाबासूट पहने फरजाना की गोद में बैठा हुआ है. मैं ने पूछा, ‘‘फरजाना, यह छोटा बच्चा तुम्हारे बगैर कैसे रहता होगा?’’

‘‘मैं वहां उसे भैयाभाभी के पास छोड़ कर आई हूं. उन के अपने 2 बच्चे हैं. यह तीसरा मेरा है. बड़े आराम से रह रहा होगा बाबा. आखिर, इस का बाप नहीं, दादा नहीं, चाचा नहीं, फिर इस के लिए कौन कमाएगा? इस को कौन बड़ा आदमी बनाएगा? मैं अपने सीने पर पत्थर रख कर आई हूं. जब किसी का बच्चा रोता है तो मेरा बाबू याद आता है. मैं अकेले में चुपके- चुपके रोती हूं. लेकिन मैं चाहती हूं, थोड़ा- बहुत पैसा कमा लूं तो वहां जाऊं, अपनेबाबू का अच्छे स्कूल में नाम लिखाऊं और फिर बड़ा हो कर मेरा बाबू कुछ बन जाए.’’

कुछ दिनों के बाद पुलिस ने इन की धरपकड़ बंद कर दी. लेकिन मैं ने उन सारी औरतों को काम से हटा दिया. वह कहां गईं, किधर से आईं, किधर चली गईं, मैं इस फिक्र से आजाद हो गया क्योंकि इन में कुछ रेडलाइट एरिया का चक्कर भी काटती थीं. मैं अपनेआप को इन तमाम झंझटों से दूर रखना चाहता था.

एक दिन जब दफ्तर की सफाई करते समय एक थैला मिला. खोल कर देखा तो उस में छोटे बच्चे के लिए नएनए कपड़े थे. मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सारे कपड़े फरजाना ने अपने बाबू के लिए खरीदे होंगे और जल्दबाजी या पुलिस की धरपकड़ के दौरान वह इन्हें भूल गई होगी. अब ऐसे खानाबदोश लोगों का न घर है न टेलीफोन नंबर. फिर इन कपड़ों का क्या किया जाए?

मैं ने एकएक कपड़े को गौर से देखा. बाबासूट, जींस की पैंट, जूता, मोजा और एक छोटी सी टोपी. मैं ने भी उन्हें वहीं संभाल कर रख दिया. शहर में फरजाना को तलाश करना मुश्किल था.

एक दिन अखबार पर सरसरी निगाह डालते हुए मैं ने देखा कि कुछ औरतें सोनापुर (भानडूप) के रेडलाइट एरिया से पकड़ी गई हैं और पुलिस की हिरासत में हैं. इन में फरजाना का भी नाम था. इन सारी औरतों को कमरे के नीचे तहखाने में रखा गया था. दिन में केवल एक बार खाना दिया जाता था और जबरदस्ती उन से देह व्यापार का धंधा कराया जाता था.

उस का नाम पढ़ते ही मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उस का बारबार मुझे बाबा कह के पुकारना याद आने लगा. दिल नहीं माना और मैं उस की तलाश में निकल पड़़ा.

उसे ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई. वह भांडूप पुलिस स्टेशन में थी और वहां की पुलिस उसे बंगलादेश भेज रही थी. मैं थोड़ी देर के लिए उस से मिला लेकिन अब वह बिलकुल बदल चुकी थी. वह मुझे टकटकी लगा कर देख रही थी. उस के चेहरे की सारी मुसकराहट गुम हो चुकी थी. मुझे मालूम था कि उस की इज्जत भी लुट चुकी है. औरत की जब इज्जत लुट जाती है तो उस का चेहरा हारे हुए जुआरी की तरह हो जाता है, जो अपना सबकुछ गंवा चुका होता है. मैं ने वह प्लास्टिक का थैला उस के हाथ में दे दिया. उस ने उसे देखा और रोते हुए बोली, ‘‘बाबा, अब इस की जरूरत नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाबा, मेरा बाबू मर गया.’’

‘‘क्या बात कर रही हो. यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘बाबा, वह मर गया. मैं अपने भाई और भाभी को पैसा भेजती रही और वह मेरे बाबू की मौत मुझ से छिपाए रहे. वह  उसे कमरे के बाहर सुला देते थे. रात भर वह नन्हा फरिश्ता बारिश और ठंड में पड़ा रहता था. उसे सर्दी लगी और वह मर गया. भाभी और भाई ने उस की मौत को मुझ से छिपाए रखा ताकि उन को हमेशा पैसा भेजती रहूं. वह तो एक औरत वहां से आई थी और उस ने रोरो कर मेरे बाबू की दास्तान सुनाई. अब मेरा जिस्म बाकी है. अब मुझे जिंदगी से कोई दिलचस्पी नहीं.’’

फिर वह दहाड़ मार कर रोने लगी.

उस के इस तरह रोने से पुलिस स्टेशन में हड़बड़ी मच गई. सभी अपना काम छोड़ कर उस की तरफ दौड़ पड़े. उसे पानी वगैरह पिला कर चुप कराया गया. पुलिस अपनी काररवाई कर रही थी लेकिन मुझे यकीन था कि अब वह बंगलादेश नहीं जाएगी, अलीगंज या किशनगंज से दोबारा भाग आएगी. अब वहां उस का था भी कौन? एक बच्चा था वह भी मर गया. मैं उसे पुलिस स्टेशन में छोड़ कर आ गया और अपने कफन आफिस के कामों में लग गया. रोज एक नया मुर्दा और उस का कफनदफन.

एक दिन अस्पताल से फोन आने पर वहां गया. एक लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी. लाश लोकल ट्रेन से कट गई थी. दोनों जांघों की हड्डियां कट गई थीं. पेट की आंतें बाहर थीं. यह एक औरतकी लाश थी. ब्लाउज के अंदर एक छोटे बच्चे की तसवीर खून में डूबी हुई थी. तसवीरको पानी से साफ किया. अब सबकुछ साफ था. यह फरजाना की लाश थी. उस का बाबू अपनी तसवीर में हंस रहा था. न जाने अपनी मौत पर, या अपनी मां की मौत पर या फिर इस मुल्क के बंटवारे पर. मैं उस लाश को उठा कर ले आया और तसवीर के साथ उसे कब्र में दफन कर दिया.

राशनकार्ड: क्या हुआ नरेश की बेटियों के साथ

‘‘पापा, सब लोग हम को घर में घुस कर देख क्यों रहे हैं? ऐसा लग रहा है, जैसे वे कोई अजूबा देख रहे हों,’’ नरेश की 22 साला बेटी नेहा बेटी ने पूछा.

‘‘वह… दरअसल, आज हम लोग शहर से आने के बाद क्वारंटीन सैंटर में 14 दिन रहने के बाद अपने घर जा रहे हैं न, इसीलिए सब लोग हमें अजीब नजरों से देख रहे हैं,’’ गांव में नरेश ने अपनी बेटी नेहा को बताया.

नरेश पिछले 20 साल से दिल्ली शहर में रह रहा था. अपनी शादी के कुछ दिनों बाद ही वह अपनी पत्नी के साथ शहर चला गया था.

शहर में कोई काम शुरू करने के लिए नरेश के पास रकम तो थी नहीं, बस थोड़ाबहुत पैसा अपने बड़े भाई से मांग कर ले गया था, जो वहां सामान खरीदने में ही खर्च हो गया.

पर नरेश ने हिम्मत नहीं हारी और महल्ले के लोगों की गाडि़यां साफ करने का काम ले लिया. बस एक बालटी, एक पुराना कपड़ा, कार शैंपू और पानी तो कार वालों के यहां मिल ही जाता था.

जैसेजैसे लोगों के पास गाडि़यां  बढ़ीं, वैसेवैसे नरेश का काम भी बढ़ता चला गया और वह ठीकठाक पैसे कमाने लगा.

शहर में ही नरेश की पत्नी ने 2 बेटियों को जन्म दिया और अब तो बड़ी बेटी नेहा 22 साल की हो चली थी और छोटी बेटी 16 साल की.

नेहा के लिए तो लड़के वालों से बातचीत भी हो गई थी और रिश्ता भी पक्का हो गया था, पर इस लौकडाउन ने तो सभी के सपनों पर पानी ही फेर दिया. बहुत सारे मजदूरों को शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.

माना कि यह संकट कुछ महीनों में चला जाएगा, पर तब तक नरेश के पास इतनी जमापूंजी तो थी नहीं कि वह हालात सामान्य होने का इंतजार कर ले और वैसे भी बहुत से कार मालिकों ने अब नरेश को काम से हटा दिया था.

इस कोरोना काल में नरेश और उस का परिवार जितना सामान साथ ले सकते थे उतना ले आए और बाकी का सामान उन्हें मजबूरी के चलते शहर में ही छोड़ना पड़ गया था. पर मरता क्या न करता, जान बचाने के आगे भला सामान की चिंता कौन करता.

गांव में नरेश के बड़े भाई राजू का परिवार था. जब नरेश का परिवार गांव में अपने घर के दरवाजे पर पहुंचा तो सिर्फ राजू ही दरवाजे पर खड़ा था. उस ने उंगली के इशारे से ही नरेश और उस के परिवार को वहीं बाहर वाले कमरे में रुक जाने को कहा. उस कमरे में बरसात के दिनों में जानवरों को बांधा जाता था.

नरेश को पहले तो बहुत बुरा लगा, पर बाद में मन मार कर उस ने उसी कमरे को अपना घर बना लिया.

‘‘मैं ने पहले से ही कुछ दिनों का राशनपानी, एक चूल्हा और ईंधन इसी कमरे में रखवा दिया था, ताकि जब तुम लोग आओ तो दिक्कत का सामना न करना पड़े,’’ राजू ने नरेश से कहा.

‘‘हां भैया, बहुत अच्छा किया आप ने,’’ नरेश ने कहा और मन ही मन सोचने लगा, ‘भैया ने तो पानी भी नहीं पूछा और उलटा हम से अछूतों जैसा बरताव कर रहे हैं.’

नरेश रोज सुबह राजू को बैलों की जोड़ी को हांक कर खेत ले जाते देखता, तो उस का भी मन हो आता कि वह भी इस तरह ही खेती करे.

‘‘हां… तो जाते क्यों नहीं… खेती और मकान में हम लोगों का भी तो हिस्सा होगा न,’’ नरेश की पत्नी संध्या  ने कहा.

‘‘हां… होना तो चाहिए… पर इतने बरसों से इस जमीन की देखभाल भैया ही कर रहे हैं, इसलिए पूछने की हिम्मत नहीं हो रही है,’’ नरेश ने संध्या से कहा.

‘‘पर नहीं पूछोगे, तो यहां गांव में क्या करोगे… किस के सहारे 2 बेटियों को ब्याहोगे… और खुद भी क्या  खाओगे भला,’’ संध्या ने नरेश को समझाते हुए कहा.

जब नरेश को उस कमरे में रहते हुए 15 दिन हो गए, तो एक दिन जब राजू खेत की ओर जा रहा, तो नरेश भी वहां पहुंच गया और बोला. ‘‘भैया वहां गांव के बाहर भी हम सैंटर में 14 दिन रुके थे और अब अपने घर के बाहर भी हम 15 दिन तक पड़े रहे हैं… तो क्या अब हम घर के अंदर आ जाएं?’’

‘‘हां… कोई जरूरत हो तो आ जाना. वैसे, उस कमरे में भी कोई दिक्कत तो होगी नहीं तुम को…’’ राजू ने पूछा.

‘‘नहीं भैया… दिक्कत तो कोई नहीं है… साथ ही, मैं यह बात जानना चाह रहा था कि खेती में हमारा भी तो हिस्सा होगा, तो वह भी बता दीजिए, तो हम

भी अपना धंधापानी शुरू कर दें,’’ नरेश ने कहा.

इतना सुनते ही राजू के तेवर बदल गए. वह घर के अंदर गया. थोड़ी ही देर में वापस आ गया और एक कागज नरेश को दिखाते हुए बोला, ‘‘लो… पहचानो इस कागज को… शहर जाते समय जब तुम्हें पैसे की जरूरत थी, तब तुम्हीं ने तो अपने हिस्से का मकान और खेत सब मेरे नाम कर दिया था. देखो, तुम्हारा ही तो अंगूठा लगा है न?’’

यह सुन कर सन्न रह गया था नरेश… उसे आज भी अच्छी तरह याद था कि शहर जाने के लिए जब उसे कुछ पैसे की जरूरत थी, तब उस ने अपने बड़े भाई से पैसे मांगे थे. तब राजू ने यह कह कर उसे पैसे दिए थे कि वह ये पैसे गांव के चौधरी से ले कर आया है और उसे इस पैसे पर एक निश्चित ब्याज हर महीने देना होगा. इसी बात के इकरारनामे पर अंगूठा लगाया था नरेश ने… अपने ही सगे भाई ने लूट लिया था उसे.

‘‘अरे, यह तो मैं बड़ा भाई होने का फर्ज निभा रहा हूं जो तुम्हें घर में आने भी दिया है, वरना तो तुम लोग बीमारी फैलाने वाले बम से कम नहीं हो इस समय. देख लो गांव में जा कर, कोई पास भी खड़ा हो जाए तो नाम बदल देना मेरा,’’ राजू बोला.

नरेश चुपचाप वहां से लौट गया. नरेश के पास राशन अब खत्म होने को आया था. पत्नी के साथ बातचीत के बाद उस ने सोचा कि क्यों न गांव में बनी दुकान से कुछ राशन उधार ले आऊं, बाद में कुछ काम जम जाएगा, तो लाला का उधार चुकता कर देगा.

‘‘लालाजी, कुछ राशन चाहिए… पर पैसा अभी नहीं दे पाऊंगा… कुछ दिनों बाद काम जमते ही मैं आप को पूरे पैसे दे दूंगा,’’ नरेश ने लाला के पास जा

कर कहा.

‘‘अरे भैया… खुद हमारे पास ही सामान ज्यादा नहीं बचा है और पीछे से भी आवक बंद है. ऐसे में अगर तुम उधार की बात करोगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी… उधार तो नहीं दे पाऊंगा अब. जब तुम्हारे पास पैसे हों… तब गल्ला ले जाना आ कर,’’ लाला की बात सुन कर अपना सा मुंह ले कर रह गया था नरेश.

नरेश अब उलझन में पड़ गया  था. बच्चों का पेट तो भरना ही होगा,  पर कैसे?

अब नरेश के पास आखिरी चारा था कि कुछ सामान गिरवी रख दिया जाए, जिस के बदले में जो पैसे मिलें उस से राशन खरीद लिया जाए.

जब नरेश ने यह बात संध्या को बताई, तो वह अपने कान की बालियां ले आई और बोली, ‘‘आप इन्हीं को गिरवी रख दीजिए और जो पैसे मिलें उस से सामान खरीद लाइए.’’

कोई चारा न देख नरेश बालियां ले कर गांव के एक पैसे वाले आदमी के पास पहुंचा, जो गांठगिरवी का काम करता था.

‘‘अरे भैया… ये सारे काम तो हम ने बहुत पहले से ही बंद कर रखे हैं. और अब तो सरकार का भी इतना दबाव है, फिर तुम तो शहर से आए हो… तुम्हारे पास से ली हुई किसी भी चीज से बीमारी लगने का ज्यादा खतरा है…

‘‘भाई, तुम से तो हम चाह कर भी कुछ नहीं ले सकते… हमें माफ करना भाई… हम तुम्हारी कोई मदद नहीं कर पाएंगे,’’ उस आदमी के दोटूक शब्द थे.

इधर नरेश गल्ला और पैसे के लिए परेशान हो रहा था, तो उधर उस की पत्नी संध्या और बेटियां एक दूसरी ही तरह की समस्या से जूझ रही थीं.

दरअसल, गांव की लड़कियों के पहनावे और शहर की लड़कियों के पहनावे में बहुत फर्क होता है. शहरों में किसी भी तबके की लड़की के लिए लोअर, टीशर्ट और जींस पहनना आम बात है, पर गांवों में अभी भी लड़कियां सलवारसूट पहनती हैं और ऊपर से दुपट्टा भी डालती हैं. यही फर्क नरेश की बेटियों के लिए परेशानी का सबब बन रहा था. गांव के लड़के तो लड़के, बड़ी उम्र के लोग भी उन्हें अजीब ललचाई नजरों से देखते थे.

एक दिन की बात है. गांव के नजदीक बहने वाली नदी के पानी में एक निठल्ले गैंग के 5 लड़के पैर डाल कर बैठे हुए थे.

‘‘यार, वह जो परिवार दिल्ली से आया है, उस में माल बहुत मस्त है…’’ पहले लड़के ने कहा.

‘‘लड़कियां तो लड़कियां… उन की मां भी बहुत मस्त है,’’ दूसरा लड़का बोला.

‘‘अरे यार, उन लड़कियों से दोस्ती करवा दो मेरी… मैं हमेशा से ही जींस वाली लड़कियों से दोस्ती करना चाहता था…’’ तीसरा लड़का बोला.

‘‘ठीक है भाई… तू उन लड़कियों  से दोस्ती करना और हम लोग… तो करेंगे प्रोग्राम…’’

‘‘नहींनहीं… भाई ऐसी बात भी मन में मत लाना… वे लोग शहर से आए हैं और अगर उन लड़कियों के साथ प्रोग्राम किया, तो हम लोगों को भी कोरोना हो जाएगा,’’ थोड़ी समझदारी दिखाते हुए एक लड़का बोला, जो मोबाइल और इंटरनैट की कुछ जानकारी रखता था.

‘‘वह तो सब हो जाएगा… सरकार का कहना है कि अगर हम रबड़ के दस्ताने इस्तेमाल करेंगे, तो इंफैक्शन  का खतरा नहीं होगा,’’ पहले वाले ने ज्ञान बघारा.

‘‘अबे तो फिर क्या तू पूरे शरीर में रबड़ पहनेगा?’’ ठहाका मारते हुए एक लड़का बोला.

उस के बाद सब आपस में प्लान बनाने में बिजी हो गए.

नरेश अपनी उधेड़बुन में परेशान चला आ रहा था… उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब शहर से गांव आ कर कैसे गुजारा करेगा, शहर में होता तो कुछ भी काम कर लेता, पर यहां गांव में न तो काम है और न ही कोई किसी भी तरह से मदद करने को तैयार है.

‘‘चाचाजी, नमस्ते.’’

नरेश ने आवाज की दिशा में सिर घुमाया, तो सामने निठल्ले गैंग का हैड खड़ा था.

नरेश जब से गांव में आया था, तब से सब लोगों की अनदेखी ही झेल रहा था, ऐसे में अपने लिए चाचाजी के संबोधन ने उसे बड़ा अच्छा महसूस कराया.

नरेश के होंठों पर एक मुसकराहट दौड़ गई, ‘‘भैया नमस्ते.’’

‘‘अरे चाचा… क्यों परेशान दिख  रहे हैं… कोई समस्या है क्या?’’ वह लड़का बोला.

‘‘भैया… अब क्या बताऊं… वहां की सारी समस्याएं झेल कर परिवार के साथ अपने गांव में पहुंचा हूं, पर यहां भी राशन खत्म हो गया है. न ही कोई पैसे उधार दे रहा है और न ही कोई गल्ला देने को तैयार है,’’ नरेश ने अपनी लाचारी दिखाते हुए कहा.

‘‘अरे तो इस में क्या दिक्कत है चाचा… सरकार की तरफ से सब लोगों को मुफ्त राशन दिया तो जा रहा है,’’ वह लड़का बोला.

‘‘पर भैया… उस के लिए तो राशनकार्ड होना चाहिए… और हमारे पास राशनकार्ड तो है नहीं,’’ नरेश  ने कहा.

‘‘अरे चाचा तो इस में कौन सी बड़ी बात है… रोज दोपहर यहां स्कूल में राशनकार्ड वाले बाबूजी बैठते हैं, जो गांव आए हुए लोगों का राशनकार्ड बनाते हैं… बस, आप को इतना करना है कि पूरे परिवार समेत कल दोपहर स्कूल पर पहुंच जाना. मेरी बाबूजी से अच्छी पहचान है… मैं उन से कह कर आप का कार्ड बनवा दूंगा, और फिर जितना चाहो उतना राशन भी दिलवा दूंगा आप को,’’ निठल्ले गैंग के हैड ने कहा.

अचानक से अपनी समस्याओं का अंत होते देख कर नरेश बहुत खुश हो गया और घर आ कर कल दोपहर होने का इंतजार करने लगा. वह सोचने लगा, ‘एक बार पेट भरने की समस्या का अंत हो जाए, फिर यही गांव के बाजार में कुछ कामधंधा जमाऊंगा. कुछ पैसा बैंक से लोन ले कर, शहर से सामान ले कर बाजार में बेचा करूंगा और फिर भैया का यह कमरा भी छोड़ दूंगा. फिर आराम से अपनी बेटियों का ब्याह करूंगा,’ बस इसी तरह के भविष्य के सपनों में नरेश की आंख लग गई.

अगले दिन 12 बजने से पहले ही नरेश अपनी दोनों बेटियों और पत्नी  को ले कर स्कूल में बाबू से मिलने चलने लगा.

अचानक से रास्ते में निठल्ले गैंग का हैड नरेश के सामने आ गया और नरेश की पत्नी और लड़कियों को घूरते हुए बोला, ‘‘अरे चाचा, वे राशनकार्ड वाले बाबूजी कह रहे थे कि आप सब लोगों का एक पहचानपत्र भी जरूरी है. क्या उस की कौपी लाए हैं आप लोग?’’

‘‘नहीं भैया… आप ने तो कल ऐसा कुछ बताया ही नहीं था…’’ अपनी नासमझी पर परेशान हो उठा था नरेश.

‘‘अरे चाचा… आप परेशान हो रहे हो… वे देखो सामने मेरी झोंपड़ी है. उस में इन बच्चों को आराम से बिठा देते हैं. और हम और आप चल कर पहचानपत्र ले आते हैं,’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, ठीक?है… ऐसा है संध्या… जब तक हम लोग अपना पहचानपत्र नहीं ले कर आते, तुम वहीं झोंपड़ी में बैठ जाओ,’’ नरेश ने अपनी पत्नी से कहा.

नरेश उस लड़के के साथ वापस हो लिया, जबकि उस की पत्नी संध्या अपनी दोनों बेटियों के साथ झोंपड़ी में चारपाई पर जा बैठीं.

रास्ते में जब नरेश उस लड़के के साथ आ रहा था, तब एक जगह वह लड़का रुका और बोला, ‘‘चाचा, बड़ी गरमी है. सामने ही मेरे दोस्त का घर है. पहले एक गिलास पानी पी लें, फिर चलते हैं.’’

दोनों के सामने बिसकुट और शरबत आया. शरबत पीते ही नरेश का अपने शरीर पर कोई जोर नहीं रहा और उसे बेहोशी आने लगी. वह वहीं गिर गया.

उधर जिस झोंपड़ी में नरेश अपने परिवार को छोड़ कर आया था, वहां पर 3-4 लड़के एकसाथ आ गए.

‘‘वाह भाई… आज तो हम शहरी माल के साथ सटासट करेंगे… चलो पहले कौन है लाइन में,’’ बेशर्मी से निठल्ले गैंग का एक लड़का बोल रहा था.

संध्या को उन लड़कों की नीयत पर शक हो गया और वह बचाव का रास्ता खोजने लगी.

अचानक एक लड़के ने संध्या के सीने को हाथों से भींच लिया, जिसे देख कर दूसरा लड़का हंसने लगा.

‘‘अरे, जब बछिया पास में हो तो… गाय को काहे को परेशान करना…’’

‘‘अरे, तुझे बछिया के साथ मजे लेने हैं, तो उस के साथ ले… मुझे तो यह गाय ही पसंद आ गई है.’’

दूसरे लड़के ने संध्या को चारपाई पर बांध दिया और इसी तरह जबरदस्ती  उस की दोनों बेटियों के भी हाथमुंह बांध दिए गए.

पूरा निठल्ला गैंग इस परिवार पर टूट पड़ा और लड़के बलात्कार करने में जुट गए, इतने में वहां गैंग का हैड भी आ गया.

‘‘अरे, अकेले ही सब माल मत खा जाना… मेरे लिए भी छोड़ देना.’’

‘‘अरे, लो यार… आज तो 3-3 हैं. जिस के साथ चाहो, उस के साथ  मजे करो.’’

और उस निठल्ले गैंग के पांचों लड़कों ने बारीबारी से और बारबार संध्या और उस की बेटियों का बलात्कार किया और इतना ही नहीं, बल्कि जो लड़का इंटरनैट की जानकारी रखता था, उस ने अपने मोबाइल से अश्लील वीडियो भी शूट किया और जी भर जाने के बाद वहां से भाग गए.

कुछ ही देर में संध्या का सबकुछ लुट चुका था. आज उस के ही सामने उस की बेटियों और उस का बलात्कार हो गया. उसे और कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह पागल सी हो रही थी. अचानक उस ने अपनी दोनों बेटियों को साथ लिया और गांव के नजदीक बहने वाली नदी में छलांग लगा दी.

इधर जब नरेश होश में आया, तो दौड़ कर उस झोंपड़ी में पहुंचा. पर, वहां के हालात तो कुछ और ही बयान कर रहे थे. अब भी उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उस का परिवार कहां चला गया.

तभी नरेश की नजर अंदर बैठे हुए निठल्ले गैंग के लड़कों पर पड़ी, जिन पर मस्ती का नशा अब भी चढ़ा हुआ था. वह उन की ओर लपका.

‘‘ऐ भैया… हम अपनी पत्नी और बेटियों को यहीं छोड़ कर गए थे… अब कहां हैं वे सब… कुछ समझ नहीं आ रहा है हम को.’’

‘‘ओह… तो तू होश में आ गया… ले यह मोबाइल में देख ले और समझ ले कि तेरे बच्चे कहां हैं,’’ उस मोबाइल वाले लड़के ने मोबाइल पर बलात्कार का वीडियो नरेश की आंखों के सामने कर दिया.

अपनी बेटियों और पत्नी का एकसाथ बलात्कार होते देख नरेश का खून खौल गया. उस ने कोने में रखी लाठी उठाई और उन लड़कों पर हमला कर दिया. एक तो नरेश पर नशे का असर अब भी था, ऊपर से वे जवान  5 लड़के.

उन लड़कों ने नरेश के हाथों से लाठी छीन ली और तब तक मारा जब तक वह मर नहीं गया.

इस कोरोना संकट और गांव पलायन ने नरेश की मेहनत से बनाए हुए सपनों के छोटेमोटे घोंसले को बरबाद कर दिया था.

नरेश और उस का पूरा परिवार अब खत्म हो चुका था. अब उसे न तो घर की जरूरत थी, न पैसे की, न नौकरी की, न ही राशन की और न ही राशनकार्ड की…

सपना-भाग 3: कैसा था नेहा का सफर

नेहा की मुसकराहट गायब हो चुकी थी. उस ने आकाश में चांद को देखा. न जाने उस ने कितनी रातें चांद से यह कहते हुए बिताई थीं कि तुम देखना चांद, वह रात भी आएगी जब वह अकेली नहीं होगी. इन तमाम सूनी रातों की कसम… वह रात जरूर आएगी जब उस का चांद उस के साथ होगा. तुम देखना चांद, वह आएगा… जरूर आएगा…

‘अरे, कहां खो गई? बस चली जाएगी,’ आकाश उस के कानों के पास फुसफुसाते हुए बोला. वह चुपचाप बस के भीतर चली आई. आकाश बहुत खुश था. इन चंद घंटों में वह नेहा को न जाने क्याक्या बता चुका था. पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना और जाने से पहले पिता की जिद पूरी करने के लिए शादी करना उस की विवशता थी. अचानक मातापिता की एक कार ऐक्सिडैंट में मृत्यु हो गई. उसे वापस इंडिया लौटना पड़ा, लेकिन अपनी पत्नी को किसी और के साथ प्रेमालाप करते देख उस ने उसे तलाक दे दिया और मुक्त हो गया.

रात्रि धीरेधीरे खत्म हो रही थी. सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. नेहा ने समय देखा और दोबारा अपनी अमूर्त दुनिया में खो गई. जिंदगी भी कितनी अजीब है. पलपल खत्म होती जाती है. न हम समय को रोक पाते हैं और न ही जिंदगी को, खासकर तब जब सब निरर्थक सा हो जाए. बस, अब अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए आधे घंटे का सफर और था. बस की सवारियां अपनी मंजिल तक पहुंचेंगी या नहीं यह तो कहना आसान नहीं था, लेकिन आकाश की फ्लाइट है, वह वापस अमेरिका चला जाएगा और वह अपनी सहेली के घर शादी अटैंड कर 2 दिन बाद लौट जाएगी, अपने घर. फिर से वही… पुरानी एकाकी जिंदगी.

‘‘क्यों सोच रही हो?’’ आकाश ने ‘क्या’ के बजाय ‘क्यों’ कहा तो उस ने सिर उठा कर आकाश की तरफ देखा. उस की आंखों में प्रकाश की नई उम्मीद बिखरी नजर आ रही थी.

‘तुम जानते हो आकाश, दिल्ली बाईपास पर राधाकृष्ण की बड़ी सी मूर्ति हाल ही में स्थापित हुई है, रजत के कृष्ण और ताम्र की राधा.’

‘क्या कहना चाहती हो?’ आकाश ने असमंजस भाव से पूछा.

‘बस, यही कि कई बार कुछ चीजें दूर से कितनी सुंदर लगती हैं, पर करीब से… आकाश छूने की इच्छा धरती के हर कण की होती है लेकिन हवा के सहारे ताम्र रंजित धूल आकाश की तरफ उड़ती हुई प्रतीत तो होती है, पर कभी आकाश तक पहुंच नहीं पाती. उस की नियति यथार्थ की धरा पर गिरना और वहीं दम तोड़ना है वह कभी…’

‘राधा और कृष्ण कभी अलग नहीं हुए,’ आकाश ने भारी स्वर में कहा.

‘हां, लेकिन मरने के बाद,’ नेहा की आवाज में निराशा झलक रही थी.

‘ऐसा नहीं है नेहा, असल में राधा और कृष्ण के दिव्य प्रेम को समझना सहज नहीं,’ आकाश गंभीर स्वर में बोला.

‘क्या?’ नेहा पूछने लगी, ‘राधा और कान्हा को देख कर तुम यह सोचती हो?’ आकाश की आवाज की खनक शायद नेहा को समझ नहीं आ रही थी. वह मौन बैठी रही. आकाश पुन: बोला, ‘ऐसा नहीं है नेहा, प्रेम की अनुभूति यथार्थ है, प्रेम की तार्किकता नहीं.’

‘क्या कह रहे हो आकाश? मुझे सिर्फ प्रेम चाहिए, शाब्दिक जाल नहीं,’ नेहा जैसे अपनी नियति प्रकट कर उठी.

‘वही तो नेहा, मेरा प्यार सिर्फ नेहा के लिए है, शाश्वत प्रेम जो जन्मजन्मांतरों से है, न तुम मुझ से कभी दूर थीं और न कभी होंगी.’

‘आकाश प्लीज, मुझे बहलाओ मत, मैं इंसान हूं, मुझे इंसानी प्यार की जरूरत है तुम्हारे सहारे की, जिस में खो कर मैं अपूर्ण से पूर्ण हो जाऊं.’’

‘‘तुम्हें पता है नेहा, एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा मैं कहां हूं? कृष्ण ने मुसकरा कर कहा, ‘सब जगह, मेरे मनमस्तिष्क, तन के रोमरोम में,’ फिर राधा ने दूसरा प्रश्न किया, ‘मैं कहां नहीं हूं?’ कृष्ण ने फिर से मुसकरा कर कहा, ‘मेरी नियति में,’ राधा पुन: बोली, ‘प्रेम मुझ से करते हो और विवाह रुक्मिणी से?’

कृष्ण ने फिर कहा, ‘राधा, विवाह 2 में होता है जो पृथकपृथक हों, तुम और मैं तो एक हैं. हम कभी अलग हुए ही नहीं, फिर विवाह की क्या आवश्यकता है?’

‘आकाश, तुम मुझे क्या समझते हो? मैं अमूर्त हूं, मेरी कामनाएं निष्ठुर हैं.’

‘तुम रुको, मैं बताता हूं तुम्हें, रुको तुम,’ आकाश उठा, इस से पहले कि नेहा कुछ समझ पाती वह जोर से पुकारने लगा. ‘खड़ी हो जाओ तुम,’ आकाश ने जैसे आदेश दिया.

‘अरे, लेकिन तुम कर क्या रहे हो?’ नेहा ने अचरज भरे स्वर में पूछा.

‘खड़ी हो जाओ, आज के बाद तुम कृष्णराधा की तरह केवल प्रेम के प्रतीक के रूप में याद रखी जाओगी, जो कभी अलग नहीं होते, जो सिर्फ नाम से अलग हैं, लेकिन वे यथार्थ में एक हैं, शाश्वत रूप से एक…’

नेहा ने देखा आकाश के हाथ में एक लिपस्टिक थी जो शायद उस ने उसी के हैंडबैग से निकाली थी, उस से आकाश ने अपनी उंगलियां लाल कर ली थीं.

‘अब सब गवाह रहना,’ आकाश ने बुलंद आवाज में कहा.

नेहा ने देखा बस का सन्नाटा टूट चुका था. सभी यात्री खड़े हो कर इस अद्भुत नजारे को देख रहे थे. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती आकाश की उंगलियां उस के माथे पर लाल रंग सजा चुकी थीं. लोगों ने तालियां बजा कर उन्हें आशीर्वाद दिया. उन के चेहरों पर दिव्य संतुष्टि प्रसन्नता बिखेर रही थी और मुबारकबाद, शुभकामनाओं और करतल ध्वनि के बीच अलौकिक नजारा बन गया था.

आकाश नतमस्तक हुआ और उस ने सब का आशीर्वाद लिया.

बाहर खिड़की से राधाकृष्ण की मूर्ति दिख रही थी जो अब लगातार उन के नजदीक आ रही थी… पास… और पास… जैसे आकाश और नेहा उस में समा रहे हों.

‘‘नेहा… नेहा… उठो… दिल्ली आ गया. कब तक सोई रहोगी?’’ नेहा की सहेली बेसुध पड़ी नेहा को झिंझोड़ कर उठाने का प्रयास करने लगी. कुछ देर बाद नेहा आंखें मलती हुई उठने का प्रयास करने लगी.

सफर खत्म हो गया था… मंजिल आ चुकी थी. लेकिन नेहा अब भी शायद जागना नहीं चाह रही थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था… वे सब क्या था? काश, जिंदगी का सफर भी कुछ इसी तरह चलता रहे… वह पुन: सपने में खो जाना चाहती थी.

पराया लहू: वर्षा को मजबूरन सुधीर से विवाह क्यों करना पड़ा

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सपना-भाग 2: कैसा था नेहा का सफर

बस ने एक झटका लिया. उस की तंद्रा उसे मदहोशी में घेरे हुए थी. उसे अपने आसपास तूफानी सांसों की आवाज सुनाई दी. वह फिर से मुसकराने लगी, तभी पता नहीं कैसे 2 अंगारे उसी के होंठों से हट गए. वह झटके से उठी… आसपास अब भी अंधियारा फैला था. बस की खिड़की का परदा पूरी तरह तना था. उस की सीट ड्राइवर की तरफ पहले वाली थी, इसलिए जब भी सामने वाला परदा हवा से हिलता तो ड्राइवर के सामने वाले शीशे से बाहर सड़क का ट्रैफिक और बाहरी नजारा उसे वास्तविकता की दुनिया से रूबरू कराता. वह धीरे से अपनी रुकी सांस छोड़ती व प्यास से सूखे होंठों को अपनी जबान से तर करती. उस ने उड़ती नजर अपनी सहेली पर डाली, लेकिन वह अभी भी गहन निद्रा में अलमस्त और सपनों में खोई सी बेसुध दिखी.

उस की नजर अचानक अपनी साथ वाली सीट पर पड़ी. वहां एक पुरुष साया बैठा था. उस ने घबरा कर सामने हिल रहे परदे को देखा. उस की हथेलियां पसीने से लथपथ हो उठीं. डर और घबराहट में नेहा ने अपनी जैकेट को कस कर पकड़ लिया. थोड़ी हिम्मत जुटा कर, थूक सटकते हुए उस ने अपनी साथ वाली सीट को फिर देखा. वह साया अभी तक वहीं बैठा नजर आ रहा था. उसे अपनी सांस गले में अटकी महसूस हुई. अब चौकन्नी हो कर वह सीधी बैठ गई और कनखियों से उस साए को दोबारा घूरने लगी. साया अब साफ दिखाई पड़ने लगा था. बंद आंखों के बावजूद जैसे वह नेहा को ही देख रहा था. सुंदरसजीले, नौजवान के चेहरे की कशिश सामान्य नहीं थी. नेहा को यह कुछ जानापहचाना सा चेहरा लगा. नेहा भ्रमित हो गई. अभी जो स्वप्न देखा वह हकीकत था या… कहीं सच में यह हकीकत तो नहीं? क्या इसी ने उसे सोया हुआ समझ कर चुंबन किया था? उस के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं.

‘क्या हुआ तुम्हें?’ यह उस साए की आवाज थी. वह फिर से अपने करीब बैठे युवक को घूरने लगी. युवक उस की ओर देखता हुआ मुसकरा रहा था.

‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो?’ युवक पूछने लगा, लेकिन इस बार उस के चेहरे पर हलकी सी घबराहट नजर आ रही थी. नेहा के चेहरे की उड़ी हवाइयों को देख वह युवक और घबरा गया. ‘लीजिए, पानी पी लीजिए…’ युवक ने जल्दी से अपनी पानी की बोतल नेहा को थमाते हुए कहा. नेहा मौननिस्तब्ध उसे घूरे जा रही थी. ‘पी लीजिए न प्लीज,’ युवक जिद करने लगा.

नेहा ने एक अजीब सा सम्मोहन महसूस किया और वह पानी के 2-3 घूंट पी गई.

‘अब ठीक हो न तुम?’ उस ने कहा.

नेहा के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला. पता नहीं क्यों युवक की बेचैनी देख कर उसे हंसी आने लगी. नेहा को हंसते देख वह युवक सकपकाने लगा. तनाव से कसे उस के कंधे अब रिलैक्स की मुद्रा में थे. अब वह आराम से बैठा था और नेहा की आंखों में आंखें डाल उसे निहारने लगा था. उस युवक की तीक्ष्ण नजरें नेहा को बेचैन करने लगीं, लेकिन युवक की कशिश नेहा को असीम सुख देती महसूस हुई.

‘आप का नाम पूछ सकती हूं?’ नेहा ने बात शुरू करते हुए पूछा.

‘आकाश,’ युवक अभी भी कुछ सकपकाया सा था.

‘मेरा नाम नहीं पूछोगे?’ नेहा खनकते स्वर में बोली.

‘जी, बताइए न, आप का नाम क्या है?’ आकाश ने व्यग्र हो कर पूछा.

‘नेहा,’ वह मुसकरा कर बोली.

‘नेहा,’ आकाश उस का नाम दोहराने लगा. नेहा को लगा जैसे आकाश कुछ खोज रहा है.

‘वैसे अभी ये सब क्या था मिस्टर?’ अचानक नेहा की आवाज में सख्ती दिखी. नेहा के ऐसे सवाल से आकाश का दिल बैठने लगा.

‘जी, क्या?’ आकाश अनजान बनते हुए पूछने लगा.

‘वही जो अभीअभी आप ने मेरे साथ किया.’

‘देखिए नेहाजी, प्लीज…’ आकाश वाक्य अधूरा छोड़ थूक सटकने लगा.

‘ओह हो, नेहाजी? अभीअभी तो मैं तुम थी?’ नेहा अब पूरी तरह आकाश पर रोब झाड़ने लगी.

‘नहीं… नहीं, नेहाजी… मैं…’ आकाश को समझ नहीं आ रहा था कि वह अब क्या कहे. उधर नेहा उस की घबराहट पर मन ही मन मुसकरा रही थी. तभी आकाश ने पलटा खाया, ‘प्लीज, नेहा,’ अचानक आकाश ने उस का हाथ थामा और तड़प के साथ इसरार भरे लहजे में कहने लगा, ‘मत सताओ न मुझे,’ आकाश नेहा का हाथ अपने होंठों के पास ले जा रहा था.

‘क्या?’ उस ने चौंकते हुए अपना हाथ पीछे झटका. अब घबराने की बारी नेहा की थी. उस ने सकुचाते हुए आकाश की आंखों में झांका. आकाश की आंखों में अब शरारत ही शरारत महसूस हो रही थी. ऐसी शरारत जो दैहिक नहीं बल्कि आत्मिक प्रेम में नजर आती है. दोनों अब खिलखिला कर हंस पड़े.

बाहर ठंड बढ़ती जा रही थी. बस का कंडक्टर शीशे के साथ की सीट पर पसरा पड़ा था. ड्राइवर बेहद धीमी आवाज में पंजाबी गाने बजा रहा था. पंजाबी गीतों की मस्ती उस पर स्पष्ट झलक रही थी. थोड़ीथोड़ी देर बाद वह अपनी सीट पर नाचने लगता. पहले तो उसे देख कर लगा शायद बस ने झटका खाया, लेकिन एकदम सीधी सड़क पर भी वह सीट पर बारबार उछलता और एक हाथ ऊपर उठा कर भांगड़ा करता, इस से समझ आया कि वह नाच रहा है. पहले तो नेहा ने समझा कि उस के हाथ स्टेयरिंग पकड़ेपकड़े थक गए हैं, तभी वह कभी दायां तो कभी बायां हाथ ऊपर उठा लेता. उस के और ड्राइवर के बीच कैबिन का शीशा होने के कारण उस तरफ की आवाज नेहा तक नहीं आ रही थी, लेकिन बिना म्यूजिक के ड्राइवर का डांस बहुत मजेदार लग रहा था. आकाश भी ड्राइवर का डांस देख कर नेहा की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. शायद 2 प्रेमियों के मिलन की खुशी से उत्सर्जित तरंगें ड्राइवर को भी खुशी से सराबोर कर रही थीं. मन कर रहा था कि वह भी ड्राइवर के कैबिन में जा कर उस के साथ डांस करे. नेहा के सामीप्य और संवाद से बड़ी खुशी क्या हो सकती थी? आकाश को लग रहा था कि शायद ड्राइवर उस के मन की खुशी का ही इजहार कर रहा है.

‘बाहर चलोगी?’ बस एक जगह 20 मिनट के लिए रुकी थी.

‘बाहर… किसलिए… ठंड है बाहर,’ नेहा ने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा.

‘चलो न प्लीज, बस दो मिनट के लिए.’

‘अरे?’ नेहा अचंभित हो कर बोली. लेकिन आकाश नेहा का हाथ थामे सीट से उठने लगा.

‘अरे…रे… रुको तो, क्या करते हो यार?’ नेहा ने बनावटी गुस्से में कहा.

‘बाहर कितनी धुंध है, पता भी है तुम्हें?’ नेहा ने आंखें दिखाते हुए कहा.

‘वही तो…’ आकाश ने लंबी सांस ली और कुछ देर बाद बोला, ‘नेहा तुम जानती हो न… मुझे धुंध की खुशबू बहुत अच्छी लगती है. सोचो, गहरी धुंध में हम दोनों बाइक पर 80-100 की स्पीड में जा रहे होते और तुम ठंड से कांपती हुई मुझ से लिपटतीं…’

‘आकाश…’ नेहा के चेहरे पर लाज, हैरानी की मुसकराहट एकसाथ फैल गई.

‘नेहा…’ आकाश ने पुकारा… ‘मैं आज तुम्हें उस आकाश को दिखाना चाहता हूं… देखो यह… आकाश आज अकेला नहीं है… देखो… उसे जिस की तलाश थी वह आज उस के साथ है.’

सपना-भाग 1: कैसा था नेहा का सफर

सरपट दौड़ती बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी. बस में सवार नेहा का सिर अनायास ही खिड़की से सट गया. उस का अंतर्मन सोचविचार में डूबा था. खूबसूरत शाम धीरेधीरे अंधेरी रात में तबदील होती जा रही थी. विचारमंथन में डूबी नेहा सोच रही थी कि जिंदगी भी कितनी अजीब पहेली है. यह कितने रंग दिखाती है? कुछ समझ आते हैं तो कुछ को समझ ही नहीं पाते? वक्त के हाथों से एक लमहा भी छिटके तो कहानी बन जाती है. बस, कुछ ऐसी ही कहानी थी उस की भी… नेहा ने एक नजर सहयात्रियों पर डाली. सब अपनी दुनिया में खोए थे. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें अपने साथ के लोगों से कोई लेनादेना ही नहीं था. सच ही तो है, आजकल जिंदगी की कहानी में मतलब के सिवा और बचा ही क्या है.

वह फिर से विचारों में खो गई… मुहब्बत… कैसा विचित्र शब्द है न मुहब्बत, एक ही पल में न जाने कितने सपने, कितने नाम, कितने वादे, कितनी खुशियां, कितने गम, कितने मिलन, कितनी जुदाइयां आंखों के सामने साकार होने लगती हैं इस शब्द के मन में आते ही. कितना अधूरापन… कितनी ललक, कितनी तड़प, कितनी आहें, कितनी अंधेरी रातें सीने में तीर की तरह चुभने लगती हैं और न जाने कितनी अकेली रातों का सूनापन शूल सा बन कर नसनस में चुभने लगता है. पता नहीं क्यों… यह शाम की गहराई उस के दिल को डराने लगती है…

एसी बस के अंदर शाम का धुंधलका पसरने लगा था. बस में सवार सभी यात्री मौन व निस्तब्ध थे. उस ने लंबी सांस छोड़ते हुए सहयात्रियों पर दोबारा नजर डाली. अधिकांश यात्री या तो सो रहे थे या फिर सोने का बहाना कर रहे थे. वह शायद समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर नेहा यों ही बेचैन सी बैठी रही. उस का मन अशांत था. न जाने क्यों इस शांतनीरव माहौल में वह अपनी जिंदगी की अंधेरी गलियों में गुम होती जा रही थी. कुछ ऐसी ही तो थी उस की जिंदगी, अथाह अंधकार लिए दिग्भ्रमित सी, जहां उस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं था. आत्मसाक्षात्कार भी अकसर कितना भयावह होता है? इंसान जिन बातों को याद नहीं करना चाहता, वे रहरह कर उस के अंतर्मन में जबरदस्ती उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकतीं. जिंदगी की कमियां, अधूरापन अकसर बहुत तकलीफ देते हैं. नेहा इन से भागती आई थी लेकिन कुछ चीजें उस का पीछा नहीं छोड़ती थीं. वह अपना ध्यान बरबस उन से हटा कर कल्पनाओं की तरफ मोड़ने लगी.

उन यादों की सुखद कल्पनाएं थीं, उस की मुहब्बत थी और उसे चाहने वाला वह राजकुमार, जो उस पर जान छिड़कता था और उस से अटूट प्यार करता था.

नेहा पुन: हकीकत की दुनिया में लौटी. बस की तेज रफ्तार से पीछे छूटती रोशनी अब गुम होने लगी थी. अकेलेपन से उकता कर उस का मन हुआ कि किसी से बात करे, लेकिन यहां बस में उस की सीट के आसपास जानपहचान वाला कोई नहीं था. उस की सहेली पीछे वाली सीट पर सो रही थी. बस में भीड़ भी नहीं थी. यों तो उसे रात का सफर पसंद नहीं था, लेकिन कुछ मजबूरी थी. बस की रफ्तार से कदमताल करती वह अपनी जिंदगी का सफर पुन: तय करने लगी.

नेहा दोबारा सोचने लगी, ‘रात में इस तरह अकेले सफर करने पर उस की चिंता करने वाला कौन था? मां उसे मंझधार में छोड़ कर जा चुकी थीं. भाइयों के पास इतना समय ही कहां था कि पूछते उसे कहां जाना है और क्यों?’

रात गहरा चुकी थी. उस ने समय देखा तो रात के 12 बज रहे थे. उस ने सोने का प्रयास किया, लेकिन उस का मनमस्तिष्क तो जीवनमंथन की प्रक्रिया से मुक्त होने को तैयार ही नहीं था. सोचतेसोचते उसे कब नींद आई उसे कुछ याद नहीं. नींद के साथ सपने जुड़े होते हैं और नेहा भी सपनों से दूर कैसे रह सकती थी? एक खूबसूरत सपना जो अकसर उस की तनहाइयों का हमसफर था. उस का सिर नींद के झोंके में बस की खिड़की से टकरातेटकराते बचा. बस हिचकोले खाती हुई झटके के साथ रुकी.

नेहा को कोई चोट नहीं लगी, लेकिन एक हाथ पीछे से उस के सिर और गरदन से होता हुआ उस के चेहरे और खिड़की के बीच सट गया था. नेहा ने अपने सिर को हिलाडुला कर उस हाथ को अपने गालों तक आने दिया. कोई सर्द सी चीज उस के होंठों को छू रही थी, शायद यह वही हाथ था जो नेहा को सुखद स्पर्श प्रदान कर रहा  था. उंगलियां बड़ी कोमलता से कभी उस के गालों पर तो कभी उस के होंठों पर महसूस हो रही थीं. उंगलियों के पोरों का स्पर्श उसे अपने बालों पर भी महसूस हो रहा था. ऐसा स्पर्श जो सिर्फ प्रेमानुभूति प्रदान करता है. नेहा इस सुकून को अपने मनमस्तिष्क में कैद कर लेना चाहती थी. इस स्पर्श के प्रति वह सम्मोहित सी खिंची चली जा रही थी.

नेहा को पता नहीं था कि यह सपना था या हकीकत, लेकिन यह उस का अभीष्ट सपना था, वही सपना… उस का अपना स्वप्न… हां, वही सपनों का राजकुमार… पता नहीं क्यों उस को अकेला देख कर बरबस चला आता था. उस के गालों को छू लेता, उस की नींद से बोझिल पलकों को हौले से सहलाता, उस के चेहरे को थाम कर धीरे से अपने चेहरे के करीब ले आता. उस की सांसों की गर्माहट उसे जैसे सपने में महसूस होती. उस का सिर उस के कंधे पर टिक जाता, उस के दिल की धड़कन को वह बड़ी शिद्दत से महसूस करती, दिल की धड़कन की गूंज उसे सपने की हकीकत का स्पष्ट एहसास कराती. एक हाथ उस के चेहरे को ठुड्डी से ऊपर उठाता… वह सुकून से मुसकराने लगती.

नींद से ज्यादा वह कोई और सुखद नशा सा महसूस करने लगती. उस का बदन लरजने लगता. वह लहरा कर उस की बांहों में समा जाती. उस के होंठ भी अपने राजकुमार के होंठों से स्पर्श करने लगते. बदन में होती सनसनाहट उसे इस दुनिया से दूर ले जाती, जहां न तनहाई होती न एकाकीपन, बस एक संबल, एक पूर्णता का एहसास होता, जिस की तलाश उसे हमेशा रहती.

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