वे 20 दिन : क्या राजेश से शादी करना चाहती थी रश्मि?

लेखक- किशोर

नेहरू प्लेस से राजीव चौक का करीब आधे घंटे का मैट्रो का सफर कुछ ज्यादा रुहानी हो गया है. अब यह मैट्रो स्टेशन रात को भी सपने में नजर आता है. क्यों नहीं आएगा? यहीं मैं ने उसे पहली बार देखा था. देखा क्या? पहली नजर में उस से प्यार करने लगा. पता नहीं कि यह मेरा प्यार है या महज आकर्षण. पहला दिन, दूसरा दिन और फिर शुरू हो गया आनेजाने का सिलसिला.

स्टेशन पर जब वह नजर आती तो मेरा दिल उछलने लगता. अगर नहीं दिखती तो एकदम उदास हो जाता. पूरे 24 घंटे उस की तसवीर मेरी आंखों के इर्दगिर्द घूमती रहती. एक सवाल मुझे परेशान करता रहता कि क्या उस की किसी और से दोस्ती है? रोजाना यही सोच कर जाता कि आज तो दिल की बात उस से कह ही दूंगा, लेकिन उस के सामने आते ही मेरी घिग्घी बंध जाती. मुझे उस से कभी एकांत में मिलने का मौका ही नहीं मिला.

देखने में तो वह मुझ से बस 2-3 साल ही छोटी लगती. उस पर नीली जींस और लाल टौप खूब फबता. कभीकभी तो वह सलवारकुरते में भी बेहद खूबसूरत नजर आती. उस के बौब कट बाल और कानों में बड़ेबड़े झुमके, काला चश्मा, हलका मेकअप उस की सादगी को बयान करते. मैं उस की इसी सादगी का कायल

हो गया था. मैट्रो में पूरे सफर के दौरान मेरी नजरें उसी के चेहरे पर टिकी रहतीं.

मैं सोचता, ‘कैसी लड़की है? मेरी तरफ देखती तक नहीं,‘ फिर दिल को किसी तरह तसल्ली दे देता. फिर सोचता कि कभी तो उसे तरस आएगा.

दोस्त कहते हैं, ‘लड़कियां तो पहली नजर में ही अपने मजनू को ताड़ जाती हैं.’ मैं भी तो उस का मजनू हूं, फिर क्यों… मैट्रो में मोबाइल की लीड लगा कर उस का गाना सुनना मुझे अखरता रहता. कभीकभी तो वह गाने सुनने के साथसाथ अंगरेजी उपन्यास

भी पढ़ना शुरू कर देती. मैट्रो में राजीव चौक स्टेशन की घोषणा होते ही वह सीट से उठ जाती और तेजी से चल पड़ती. मैं भी भीड़ के साथसाथ उस के पीछे हो लेता. रीगल सिनेमाहौल के आसपास कहीं उस का कार्यालय था.

जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो जाती, तब तक मैं खड़ा एकटक उसे देखता रहता. बाद में धीरेधीरे मैं भी अपने कार्यालय की ओर चल पड़ता. कार्यालय में काम करने का मन ही नहीं करता. मेरा पूरा ध्यान तो घड़ी की सूई पर टिका रहता. कब 1 बजे और मैं लंच का बहाना बना कर नीचे उतरूं. क्या पता, मार्केट में मुझे कहीं उस के दर्शन हो जाएं. एकाध बार तो वह नजर आई थी, लेकिन तब उस के साथ कार्यालय के कई सहयोगी थे. हफ्ता बीत गया. मेरी बेचैनी दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. कितना दब्बू हूं मैं…  लड़का हूं, मुझे तो पहले पहल करनी चाहिए थी. डरता हूं कि कहीं कोई तमाशा खड़ा न हो जाए.

कुछ दिन से तो खानासोना पूरी तरह से हराम हो गया था. जब टिफिन का खाना वापस घर लौटने लगा तो भाभी नाराज होने लगीं. शिकायत मां तक पहुंची. सुबह भी मेरा नाश्ता ढंग से नहीं होता. वजह एक ही थी कि कहीं मैट्रो न छूट जाए.

‘‘छोटू, क्या बात है?’’ बड़े भाई ने पूछा.

मां बोलीं, ‘‘शायद इस की तबीयत खराब होगी. जवान लड़का है. बाजार में खट्टीमीठी चीजें खा लेता होगा.’’

‘‘नहींनहीं सासूजी, राजू बाहर कुछ खाता नहीं है, समझ में नहीं आ रहा है कि इस लड़के को किस बात की जल्दबाजी रहती है. मैं समय पर नाश्ता बना लेती हूं. कल थोड़ी देर क्या हो गई, बरस पड़ा था. पहले तो इस की कभी बोलने की भी हिम्मत नहीं होती थी. देवरानी आ जाएगी तो दिमाग ठिकाने लगा देगी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘हां, मेरी नजर में मास्टर देवधरजी की बेटी नीता है. इसी साल उस ने 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की है. देखने में गोरीचिट्टी, सुंदर और सुशील है,’’ भैया बोले, ‘‘राजेश से बात तो चलाओ. मुझ से तो वह शरमाता है. मां, तुम ही उस से बात कर के देख लो.’’

रविवार को छुट्टी का दिन था. मैं अपने कमरे में बैठा उन सब लोगों की बातें सुन रहा था. मुझे लगा कि अब तो मां मेरे कमरे में आ ही जाएंगी.

मैं फौरन उठा और अपने 8 साल के भतीजे को आवाज लगाई, ‘‘सोनू, चल, छत पर पतंग उड़ाते हैं.’’

‘‘अच्छा चाचू, आया, लेकिन चाचू मम्मी ने पढ़ने को कहा है.’’

‘‘चल तो सही, मैं भाभी से कह दूंगा.’’

‘‘राजेश सुन,’’ मां ने आवाज दी पर मैं ने मां की आवाज को अनसुना कर दिया. भतीजे को कंधे पर बैठाया और तेज कदमों से छत पर चला गया. पीछे से भाभी की आवाज सुनाई दी, ‘‘राजू, सुन नाश्ता तो कर ले.’’

‘‘बाद में भाभी.’’

इतने में भैया बोले, ‘‘शरमा गया है. लगता है कि उस ने हमारी बातें सुन ली हैं. चलो, इतनी भी जल्दी क्या है? आराम से बात कर लेंगे,’’ भैया यह कह कर बाहर चले गए और मांभाभी अपनेअपने काम में व्यस्त हो गईं.

छत पर जाना तो मेरा बस, एक बहाना था. मैं फिर उस की यादों में खो गया और सोचने लगा, ‘कल तो कुछ भी हो जाए, मैं उस से अवश्य बात करूंगा.’

‘‘चाचूचाचू, कहां ध्यान है आप का. डोर तो ठीक से पकड़ो. हमारी पतंग कट जाएगी.’’

‘‘अच्छाअच्छा, तू ढील तो छोड़,’’ छत पर काफी देर हो गई. भाभी से रहा नहीं गया तो वे नाश्ता ले कर ऊपर छत पर ही आ गईं. भाभी से मेरा बचपन से ही गहरा लगाव था.

बचपन में मुझे नहलानेधुलाने की सारी जिम्मेदारी उन्हीं की होती थी. भाभी से रहा नहीं गया और बोलीं, ‘‘राजेश, नाश्ता कर ले. कब तक भूखा रहेगा? आखिर ऐसी क्या नाराजगी है. अब तो दोपहर के खाने का समय होने वाला है.’’

‘‘हां, भाभी, रख दो. खा लूंगा.’’

‘‘नहींनहीं. पहले खा क्योंकि तब तक मैं जाने वाली नहीं. तेरे भैया ने सुन लिया तो दोनों को डांट पड़ेगी.’’

‘‘क्या बनाया है भाभी?’’

‘‘आलू के परांठे और आम की चटनी है.’’

‘‘अरे वाह,’’ और फिर मैं खाने पर टूट पड़ा.

भाभी मेरे बदले व्यवहार से परेशान थीं, इसलिए वह अकेले में मुझ से बात करने का बहाना तलाश रही थीं, ‘‘अरे, राजू, कब तक भाभी से छिपाता फिरेगा. मैं तुझ से बहुत बड़ी हूं. जिंदगी की समझ मुझे तुझ से ज्यादा है.’’

‘‘नहींनहीं, भाभी, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘कहीं तेरा कोई प्यारव्यार का चक्कर तो नहीं है. मुझे बता दे. अब तो घर में तेरी शादी की बातें होने लगी हैं. तुझे कोई लड़की पसंद है तो मुझे बता दे. तेरे भैया को बता दूंगी. वे आधुनिक विचारों के हैं. मान जाएंगे. हां, सासूजी को मैं मना लूंगी. बाकी जैसी तेरी मरजी. मैं चलती हूं दोपहर के खाने का समय हो गया है. तुम दोनों भी जल्दी नीचे

आ जाना और सोनू को स्कूल का होमवर्क करा देना.’’

‘‘ठीक है भाभी, हम दोनों आते हैं.’’

खाना खाने के बाद मैं बिस्तर पर लेट गया. नींद तो कोसों दूर थी. रात के खाने पर मां ने शादी की बात छेड़ने की कोशिश की. मैं बोला, ‘‘इतनी भी जल्दी क्या है?’’

इतने में भाभी बोल पड़ीं, ‘‘ठीक है, मैं राजेश को समझा दूंगी. अभी उसे खाना तो खा लेने दो. सप्ताह में एक दिन तो घर पर रहता है.’’

मैं भतीजे को ले कर अपने कमरे में चला गया. भाभी मेरा कितना खयाल रखती हैं. उन से कोई बात छिपानी नहीं चाहिए. लेकिन पहले उस लड़की से बात तो हो जाए. सोमवार से सोचतेसोचते शुक्रवार बीत गया. इस बीच उस से बात करने का मौका नहीं मिला. अब तो मुझे सोमवार का इंतजार करना पड़ेगा. शनिवाररविवार को तो उस का अवकाश होता है. आज शनिवार था इसलिए मुझे उठने की जल्दी नहीं थी.

सुबह का नाश्ता मैं ने आराम से किया. मैट्रो स्टेशन पहुंचा तो उसे देख कर चौंक पड़ा. वह पीछे वाले कोच की तरफ जा रही थी. आज कोच में कम लोग थे. मैं फौरन उस की बगल वाली सीट पर जा बैठा.

मैं कांपती आवाज में उस से बोल पड़ा, ‘‘मैं राजेश.’’

उस ने पहले मेरे चेहरे की ओर देखा और बोल पड़ी, ‘‘आई एम रश्मि. तुम भी रोजाना राजीव चौक जाते हो. कई बार तुम्हें देखा है. क्या करते हो?’’

‘‘एमबीए किया है मैं ने. एक पीआर कंपनी में नौकरी करता हूं.’’

‘‘मैं भी एक टायर कंपनी में काम करती हूं. वैसे शनिवार को छुट्टी होती है, लेकिन आज औफिस में काम कुछ ज्यादा था इसलिए आना पड़ा.’’

कब राजीव चौक आ गया पता ही नहीं चला.

‘‘अच्छा, चलती हूं.’’

आज पूरे 13 दिन के तनाव व बेचैनी के बाद मुझे राहत मिली. ‘अब तो भाभी को बता ही दूंगा. नहींनहीं,’ आज तो पहली बार बात हुई है. 2-3 बार मिलेगी तो खुल कर बात करने का मौका मिल जाएगा,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

सोमवार को वह दिखाई नहीं दी. लगता है कि पहले निकल गई होगी. जब 2-3 दिन ऐसे ही गुजर गए तो मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. ’कहां गई होगी? काश, मैं ने उस से मोबाइल नंबर मांग लिया होता.’ सोचसोच कर मैं परेशान हो उठा. शाम को पूरी तरह से निराश था. उम्मीद ही नहीं थी कि रश्मि से मुलाकात हो जाएगी.

रश्मि का चेहरा कुछ थकाथका सा लग रहा था. पास पहुंचा तो बोल पड़ी, ‘‘अरे, राजेश, कैसे हो.’’

‘‘ठीक हूं. क्या बात है 3-4 दिन…’’

‘‘हां, मैं हैदराबाद गई थी. मामाजी का देहांत हो गया था. आज सुबह की फ्लाइट से दिल्ली लौटी हूं.’’

मैट्रो तेज रफ्तार पकड़ चुकी थी. बातचीत में सफर कब कट गया, पता ही नहीं चला. नेहरू प्लेस स्टेशन आते ही वह उतरी और तेज कदमों से आटो ले कर घर चली गई. मैं भी अपने घर चला गया. घर पहुंचा तो भाभी मेरी चालढाल से समझ गईं. ‘‘देवरजी, आज तो चेहरे पर रौनक नजर आ रही है. क्या कोई खुशखबरी है?’’

‘‘नहीं भाभी, आप तो…’’

‘‘चल, चाय बना कर लाती हूं. हाथमुंह धो ले.’’

मां भी आ गईं. मां कुछ पूछें उस से पहले ही मैं कपड़े बदलने का बहाना बना कर अपने कमरे में चला गया. भतीजा भी मेरे पीछेपीछे हो लिया.

‘‘चाचू, 10 रुपए…’’

‘‘क्यों, कुछ लेना है. ठीक है, लेकिन मम्मीपापा को मत बताना.’’

आज दिल बहुत खुश था. सबकुछ अच्छा लग रहा था. भाभी को बताना चाहता था इसलिए किचन में चला गया.

‘‘अरे, देवरजी, किचन में क्यों आ गए.’’

‘‘क्यों, मैं यहां नहीं आ सकता भाभी?‘‘

’’क्यों नहीं. कोई न कोई बात होगी. पहले तो कभी नहीं आया था. तेरे पास हमारे साथ बात करने का तो समय ही नहीं होता. बोल, खाने में क्या बनाऊं तेरे लिए.’’

‘‘पनीर खाने का मन हो रहा है, भाभी.’’

‘‘ठीक है,’’ भाभी ने कहा, ‘‘बाजार से खरीद कर ले आ. मैं बना देती हूं. बहुत

दिन से सोनू भी पनीर खाने की जिद कर रहा था.’’

अचानक मां आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या बातचीत हो रही है दोनों देवरभाभी में.’’

‘‘कुछ नहीं मां, मैं भाभी से कह रहा था कि पनीर की सब्जी बना दो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. ठीक है, पालक भी ले आना. पालकपनीर की सब्जी तेरे भाई को पसंद है.’’

मैं फौरन बाजार की तरफ निकल पड़ा. बाजार क्या पहुंचा? पुराने दोस्तों की टोली मिल गई. मैं चाह कर भी उन से पीछा नहीं छुड़ा पाया. फिर तो मेरी खिंचाई का दौर शुरू हो गया. ’घर में बैठेबैठे क्या करते हो.’ ’शादी के लिए कोई लड़की पसंद की है कि नहीं,’ एकसाथ कई सवालों ने मेरा दिमाग खराब कर दिया…

’’अरे भाई, अब जाने भी दो. भाभी ने पनीर और पालक के लिए भेजा है. भैया भी आते होंगे. देर हो गई तो मुझे डांट पड़ेगी.’’

‘‘आज तो तुझे इतनी जल्दी नहीं छोड़ेंगे बच्चू. बहुत दिन बाद बड़ी मुरगी जाल में फंसी है. नौकरी की पार्टी हमें अभी तक नहीं मिली है.’’

‘‘सब ठीक है अगली बार… पक्का.’’

‘‘रविवार को हम सब इंतजार करेंगे.’’

बाप रे, पीछा छूटा, और कोई पुराना दोस्त मिले इस से पहले घर भागता हूं. सब्जी की दुकान पर पहुंचा तो नीता अपने पापा और छोटी बहन के साथ खड़ी थी. नजरें मिलीं तो शरमा गई और मुंह फेर लिया. उसे इस बात की भनक लग चुकी थी कि मेरे साथ उस के रिश्ते की बात चल रही है. इस से पहले कि उस के पापा की नजर मुझ पर पड़ती, मैं फौरन घर भाग लिया. मैं घर के अंदर कदम रख ही रहा था कि भैया नीता के रिश्ते के बारे में मां से पूछ रहे थे, ‘‘मां, राजू से बात की.’’

‘‘नहीं, अभी नहीं. पहले उस की हां तो हो जाए फिर सभी उन के घर चल पड़ेंगे.’’

मैं ने नीता को बचपन से देखा था. हम दोनों साथसाथ खेलते थे. पिछली बार देखा तो पहचान नहीं पाया. तभी दोस्तों ने बताया कि वह नीता है. अब घर वाले उस के हाथ पीले करने की सोच रहे हैं. मैं आधुनिक और पढ़ीलिखी लड़की को अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं, नीता की तरफ मेरा ध्यान ही नहीं गया था. रश्मि तो पढ़ीलिखी है. अच्छी नौकरी है. घर वालों को जल्दी पसंद आ जाएगी. बस, अब रश्मि का इंतजार है. दोचार दिन में हम दोनों पूरी तरह से घुलमिल गए थे, लेकिन अभी तक इतनी हिम्मत नहीं हुई कि दिल की बात कह सकूं.

सोचता हूं कि जल्दबाजी में कहीं बात बिगड़ न जाए. रश्मि वैसे भी खुले विचारों की युवती थी. खुल कर बात होने लगी. अगले शनिवार को रश्मि ने मेरा घूमने का प्रस्ताव मान लिया. दिन में हम ने दिल्ली दरबार में लंच किया और फिर आटो पकड़ कर इंडिया गेट की तरफ चल पड़े. खूब घूमेफिरे, लेकिन दिल की बात करने का मौका ही नहीं मिला. असल में रश्मि ने ऐसा कोई मौका ही नहीं दिया.

औफिस और हैदराबाद की बातों में ही पूरा दिन निकल गया. घर वापसी में ज्यादा बात नहीं हो पाई. वह थोड़ी परेशान नजर आई. नेहरू प्लेस स्टेशन आते ही वह तेजी से बाहर निकली और मुझे बाय करते हुए चल पड़ी. 1-2 घंटे पहले तो सब ठीक था. अचानक इसे क्या हो गया? कोई समस्या होगी. अगले 2 दिन तक रश्मि नजर नहीं आई. आखिर क्या बात हो गई. किसी ने हमें साथ घूमते देख तो नहीं लिया. मिलने पर ही सारी स्थिति स्पष्ट हो पाएगी. बुधवार को रश्मि से मुलाकात हो गई.

‘‘क्या हुआ रश्मि?’’

वह बोली, ‘‘पहले आराम से बैठते हैं, फिर बातें करते हैं.’’

उस का चेहरा बुझाबुझा सा लग रहा था. आज ठीक से मेकअप भी नहीं किया. लगता है कि रातभर सोई नहीं होगी. मेरे कई सवालों का उस ने एक उत्तर दिया. ‘‘बहुत जल्दबाजी करते हो,’’ कहते ही वह अचानक गंभीर हो गई.

‘‘राजेश, तुम बहुत अच्छे लड़के हो. अच्छी नौकरी है. दिखने में हैंडसम हो. एक अच्छे दोस्त के नाते तुम्हें एक सलाह देती हूं कि जल्दी ही शादी कर लो.’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘मैं सब समझती हूं. शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं शादीशुदा हूं और 2 बच्चों की मां हूं. पति आर्मी में हैं. उन की ड्यूटी ज्यादातर सीमा पर रहती है. मैं सासससुर के साथ रहती हूं. मैं दोस्ती तोड़ने को थोड़े कह रही हूं. वह तो चलती ही रहेगी. यह सब अलग बात है. जिंदगी की गाड़ी चलाना अलग बात है.’’

मैं पूरी तरह से जड़वत हो गया. क्या सोचा था? क्या हो गया? एक ही झटके में सब खत्म हो गया. अचानक रश्मि सीट से उठी और तेजी से चल पड़ी. मैं अवाक् रह गया.

उस के जाते ही मैं ने खुद को संभाला. मेरी क्या गलती थी? स्टेशन पर उतरने के बाद मैं धीरेधीरे घर की ओर चल पड़ा. पैर जमीन पर ठीक से नहीं पड़ रहे थे. दरवाजे पर पहुंचा ही था कि भाभी खड़ी थीं. ‘‘अरे राजू, तू आ गया. क्या बात है तेरे चेहरे पर तो पूरे 12 बजे हैं.‘‘

‘‘नहीं, भाभी, ऐसा कुछ नहीं है,’’ अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘भाभी, आप लोग नीता को देखने कब जा रहे हो. भाभी, मुझे नीता पसंद है.’’

भाभी को एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ. उन्होंने उत्साह में भैया को जोर से आवाज दी, ‘‘अजी, सुनते हो…’’

‘‘क्या है, क्यों इतना चिल्ला रही हो?’’ भैया बोले.

‘‘जल्दी से बाजार से 2 किलो अच्छी बरफी तो ले आओ.’’

‘‘आखिर ऐसी क्या बात हो गई. कौन सी खुशी की बात है.’’

‘‘अपने राजू को नीता पसंद आ गई है. वह शादी के लिए मान गया है.’’

मां भी दौड़ीदौड़ी बाहर आ गईं. घर में पूरी तरह से खुशी का माहौल था. भतीजे ने सुना तो वह भी खुशी से पागल हो गया.

‘‘मैं अपने दोस्तों को बताने जा रहा हूं, चाचू. मेरे चाचू की शादी होगी. बहुत मजे आएंगे.’’

प्यार के रंग : क्यों अपराधबोध महसूस कर रही थी वर्षा?

लेखिका- नीलम राकेश

सफेद कोट पहने और गले में आला लटकाए वह अपलक उसे आता देख रहा था. कुछ तो बात थी उस लड़की में कि डाक्टर मृणाल सा उस की ओर खिंचता जा रहा था.

मझोला कद, साधारण नैननक्श के बावजूद उस लड़की में एक कशिश थी जो डाक्टर मृणाल को बेचैन कर रही थी. कुछ भी तो नहीं जानता था वह उस के बारे में, सिवा इस के कि उस की एक मरीज चांदनी को देखने वह रोज सुबहशाम आती है. 6 महीने से यह क्रम बिना नागा चला आ रहा है, जबकि वह जानती है कि उस का आना चांदनी को पता नहीं चलता.

आज डाक्टर मृणाल ने तय कर लिया था कि वे आज उस से कुछ पूछेंगे. “गुड मौर्निंग डाक्टर, आप को कुछ चाहिए?” रिसैप्शनिस्ट विनम्रता से पूछ रही थी.

“नहीं, धन्यवाद. मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा था,” कहते हुए डाक्टर मृणाल रिसैप्शन से हट कर उस के पीछे चल दिए.

उन की मरीज चांदनी एक साधारण परिवार से थी. किसी हादसे के कारण वह कोमा में चली गई थी. शुरू में उस के भाई, भाभी, पिता सब उसे देखने आते थे. परंतु इलाज के खर्चे के आगे घुटने टेकने लगे. अस्पताल से दबाव पड़ा कि और पैसे जमा करो या मरीज को घर ले जाओ, तो परिजनों ने आना बंद कर दिया. बेचारी को अस्पताल के रहमोकरम पर छोड़ दिया. परंतु, यह लड़की लगातार सुबहशाम आती रहती है.

वार्ड में वह चांदनी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कुछ बोल रही थी इस बात से अनजान कि उस की बात चांदनी नहीं, पीछे खड़े डाक्टर मृणाल सुन रहे हैं, “तुझे ठीक होना होगा चांदनी, मैं तुझे इस तरह से नहीं देख सकती.”

“आप का विश्वास इसे ठीक करेगा, मिस…” डाक्टर मृणाल ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

” वर्षा, मेरा नाम वर्षा है डाक्टर,” वह उठती हुई बोली.

“वर्षा जी, आप इन की बहन हैं?”

“नहीं डाक्टर, यह मेरी सहेली है.”

“सहेली ? आप सहेली के लिए…” डाक्टर मृणाल को कुछ सूझा नहीं तो वे चुप हो गए.

” जी हां, मैं अपनी सहेली के लिए ही आती हूं. आप को एतराज है क्या डाक्टर?” वह सीधे डाक्टर की आंखों में देख रही थी.

“क्षमा करें, आप की भावना को आहत करने का मेरा इरादा नहीं था. पर आजकल … आप समझ रही हैं न वर्षा जी, मैं क्या कहना चाह रहा हूं.”

“जी डाक्टर, समझ रही हूं. मैं भी क्षमा चाहती हूं. मुझे इस तरह उत्तेजित नहीं होना चाहिए था.”

“क्षमा तो आप को मिल सकती है वर्षा जी, अगर आप कैंटीन में चल कर मेरे साथ एक कप कौफी पिएं.”

अपने हाथ में बंधी घड़ी पर नजर डालते हुए वर्षा बोली, “लेकिन मुझे जाना है.”

“क्या 10 मिनट भी नहीं निकाल सकतीं?”

“ठीक है, 10 मिनट तो हैं.”

“आइए.”

दोनों मौन कैंटीन की ओर चल दिए. वहां पहुंच कर डाक्टर मृणाल बैठने से पहले काउंटर पर 2 कौफी बोल आए.

“वर्षा जी, आप क्या कर रही हैं?”

“मैं स्कूल में पढ़ा रही हूं डॉक्टर,” मृदु मुसकान के साथ वर्षा बोली.

“आप मुझे मृणाल ही कहें. मृणाल, मेरा नाम है,” विनम्रता से डाक्टर मृणाल बोले.

“बहुत अच्छा नाम है.”

“आप को देख कर तो लगता है आप पढ़ ही रही होंगी.”

“मैं पढ़ ही रही थी डाक्टर…मेरा मतलब है मृणाल जी.”

“अं…?”

“परिस्थितियां बदल गईं मृणाल जी और मुझे पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करनी पड़ी.”

“हां, समय बहुत बलवान होता है.”

“अरे, समय हो गया, मुझे निकलना होगा. मेरे स्कूल का टाइम हो गया,” अपना कप रखती हुई वर्षा उठ खड़ी हुई.

“कौफी पर मेरा साथ देने के लिए धन्यवाद वर्षा जी.”

मृणाल वहीं बैठा वर्षा को जाता देखता रहा. धीरेधीरे यह रोज की दिनचर्या बन गई. मृणाल सुबहसुबह वर्षा के आने के समय पर चांदनी के वार्ड में पहुंच जाता और शाम को फिर वर्षा को वहीं मिलता.

एक दिन वर्षा ने हंसते हुए पूछा, “मृणाल, आप मेरी सहेली के इलाज में कुछ ज्यादा ही रुचि लेते हैं, क्या बात है?”

“आप की सहेली तो मेरी मरीज है. उस के प्रति मेरी जिम्मेदारी है. लेकिन आप से मुझे प्यार हो गया है.”

“नहीं…” कहती हुई वर्षा उठी और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई.

हतप्रभ सा मृणाल कुछ समझ ही नहीं पाया. अगली सुबह मृणाल बेसब्री से वार्ड में टहल रहा था, सोच रहा था, वह आएगी या नहीं. तभी वह रोज की तरह आती दिखाई दी और मृणाल की जान में जान आ गई.

“गुडमौर्निंग वर्षा.”

“गुडमौर्निंग डाक्टर.”

“क्या बात है वर्षा, तुम ठीक तो हो?” वर्षा की लाल आंखों की ओर देखते हुए मृणाल ने पूछा.

“मैं ठीक हूं डाक्टर. लेकिन क्षमा चाहती हूं, यदि मेरी किसी बात से आप के मन में यह प्यार वाली बात आई है तो.”

“वर्षा…”

“डा. मृणाल, प्यार या ऐसी सारी कोमल भावनाएं मेरे जीवन से दूर जा चुकी हैं. मेरे जीवन का एक ही लक्ष्य है, कि मेरी चांदनी ठीक हो जाए. उस के पहले मैं और कुछ नहीं सोच सकती.”

“तुम्हें पता है, चांदनी ठीक भी हो सकती है और…”

“जानती हूं, आप सब डाक्टरों यही बताया है.”

“फिर?”

“अपने जीवन का निर्णय लेने का अधिकार तो मुझे है ही.”

“वर्षा, तुम्हारा यह निस्वार्थ समर्पण, तुम्हें औरों से अलग खड़ा करता है.”

“एक मिनट, डाक्टर मुझे महान समझने की भूल मत करिएगा.”

“तुम महान हो वर्षा. जो जीवन में अकेला होता है, इस निश्च्छ्ल स्नेह की कीमत वही जानता है. आज से 4 वर्षों पहले जब मुझे पहली सैलरी मिली थी तब मैं ने अपने मम्मीपापा को तीर्थयात्रा के लिए भेजा था. यह उन का सपना था. परंतु मेरा समय देखो, लौटते समय उन की बस खाई में गिर गई और कोई नहीं बचा. डाक्टर हो कर भी मैं कुछ नहीं कर सका. मेरी दुनिया उजड़ गई. मैं बिलकुल अकेला हो गया. इस दर्द को मैं ने भोगा है. फिर मैं ने चांदनी को अकेले होते हुए देखा. परंतु समय की बलवान है वह, कि अपनों द्वारा छोड़े जाने के बाद भी तुम ने उसे नहीं छोड़ा. तुम्हारे लिए मेरे मन में प्यार के साथसाथ बहुत आदर भी है.”

“नहीं डाक्टर मृणाल, मैं इस प्यार और आदर के योग्य नहीं हूं. जहां तक बात अपनों के तिरस्कार की है तो डूबते सूरज को कौन जल चढ़ाता है? और अगर मेरी बात करें तो यह मेरा प्रायश्चित्त भी है. कहीं ना कहीं मैं खुद

को दोषी पाती हूं.”

“भरोसा कर सको, तो मुझे पूरी बात बताओ. पर प्लीज, मुझे मृणाल ही कहो.”

“भरोसा तो जाने क्यों आप पर हो गया है. और जहां तक अकेलेपन की बात है, तो चांदनी का साथ देने का निर्णय ले कर मैं भी पूरी तरह अकेली ही हो गई हूं.”

“बैठो,” स्टूल वर्षा की ओर खिसकाते हुए डाक्टर मृणाल बोले.

दोनों चांदनी की बैड के पास 2 स्टूलों पर बैठ गए. वर्षा शून्य में देखती हुई बोली, “मेरे मम्मीपापा नहीं हैं. केवल भाई, भाभी हैं. उन पर मैं बोझ हूं. चांदनी के पापा हैं और भाई, भाभी भी हैं. भाभी को वह फूटी आंख नहीं सुहाती. दुनियादारी निभाने कुछ समय वे लोग अस्पताल आए और अब खुश हैं कि उस की शादी का खर्चा बचा. अंकल खुद बेटे के ऊपर ही आश्रित हैं. हम दोनों सहेलियां बचपन से साथ ही पढ़ी हैं. घर हमारा भले ही दूर था, पर मन बहुत करीब था. हमारे दर्द साझा थे. हम दोनों पढ़ कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहते थे. परंतु चांदनी के जीवन में तपन नाम का एक लड़का आ गया. दोनों के बीच गहरा प्रेम था, ऐसा मुझे लगता था. चांदनी मेरे घर आने का बहाना कर तपन के साथ समय बिताती थी. पर हमेशा मुझे बता देती थी ताकि मैं घर वालों के प्रश्नों को संभाल लूं. सबकुछ ठीक ही चल रहा था. उस दिन तपन ने मुझे फोन कर कहा, ‘मैं चांदनी को सरप्राइज देना चाहता हूं. चांदनी को विराट होटल के कमरा नंबर 16 में भेज दो. मेरा जन्मदिन है और मैं चाहता हूं कि मैं आज के दिन ही उसे प्रपोज करूं.’ मैं बहुत खुश हो गई और उस के सरप्राइज में शामिल हो गई. चांदनी को फोन कर के वहां बुला लिया.”

यह सब बोलतेबोलते वर्षा फफक कर रो पड़ी. मृणाल ने उठ कर उसे गिलास में पानी दिया. शून्य में देखते हुए ही उस ने पानी पी कर गिलास मृणाल को पकड़ा दिया.

“मैं चांदनी के फोन की प्रतीक्षा कर रही थी. पर उस का फोन नहीं आया. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि इतनी बड़ी बात वह मुझे क्यों नहीं बता रही. जब नहीं रहा गया तो मैं ने उसे फोन लगाया. पर फोन नहीं उठा. थकहार कर मैं ने उस की भाभी को फोन मिलाया. वे बोलीं, ‘तुम्हारी सहेली तुम्हारे घर जाने का बहाना कर जाने कौन सा गुल खिलाने होटल विराट चली गई थी. वहां गिर गई है. पता नहीं बचेगी कि नहीं. हम लोग अस्पताल में हैं.’

“मैं भागतीदौड़ती अस्पताल पहुंची. उस की हालत देख कर साफ पता चल रहा था कि उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश हुई है. मैं ने पुलिस को, भैया और अंकल को उस के होटल विराट जाने का कारण बताया और तपन का नंबर दे दिया. पता चला तपन एक रईस परिवार का बिगड़ा हुआ लड़का था और उस ने गलत इरादे से चांदनी को वहां बुलाया था. कमरे में वह 2 दोस्तों के साथ उस की प्रतीक्षा कर रहा था. परंतु चांदनी ने उन सब का डट कर मुकाबला किया और आखिर में खुद को बचाने के लिए खिड़की से कूद गई. उस का सिर दीवार से टकराया था और वह कोमा में चली गई. तपन ने पुलिस वालों के साथसाथ चांदनी के भाई को भी मोटी रकम दे कर केस वापस करा लिया. और अब वे लोग उस का इलाज भी नहीं करा रहे हैं. इसलिए, मैं ने पढ़ाई छोड़ कर 2 महीना पहले यह नौकरी जौइन कर ली, ताकि चांदनी का इलाज न रुके. मैं और कुछ तो नहीं कर सकती, पर उस का इलाज तो जरूर करवाऊंगी,” यह कह कर वह फिर रो पड़ी.

मृणाल ने धीरे से वर्षा के कंधे पर हाथ रखा, “वर्षा, तुम अपने इस निर्णय पर मुझे हमेशा अपने साथ खड़ा पाओगी. आंसू पोंछ लो वर्षा.”

वर्षा ने नजर उठा कर मृणाल की ओर देखा जैसे तोल रही हो.

“वर्षा हम दोस्त हैं, और दोस्त ही रहेंगे. यह दोस्ती प्यार के रिश्ते में तब ही बदलेगी जब तुम चाहोगी. मैं सारी उम्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर सकता हूं. रही बात चांदनी के इलाज की, तो मैं तुम से वादा करता हूं, आज से यह जिम्मेदारी मेरी है.”

“मृणाल…”

“कुछ मत बोलो वर्षा. बस, मुझे अपने साथ खड़े रहने की अनुमति दे दो.”

एक महीने बाद डा. मृणाल और वर्षा एक सादे समारोह में परिणय सूत्र में बंध गए. मृणाल के छोटे से घर में पहुंच कर वर्षा ने चारों ओर नजर घुमाई. सलीके और सादगी से सजा घर मृणाल के व्यक्तित्व से मेल खा रहा था. उसी समय मृणाल ने पीछे से आ कर उसे बांहों में भर लिया. इस अनोखी छुअन से वह सिहर उठी और आंखें बंद कर मृणाल की आगोश में समा गई.

“वर्षा, तुम्हें कुछ दिखाना है, आओ मेरे साथ.”

वर्षा मृणाल के पीछे चल दी. एक कमरे का दरवाजा खोल कर मृणाल उस का हाथ पकड़ कर अंदर प्रविष्ट हुआ. चकित सी वर्षा देखती रह गई. वह कमरा अस्पताल का कमरा लग रहा था, जिस में सारी मैडिकल सुविधाएं उपलब्ध थीं. और ठीक बीचोंबीच अस्पताल वाला लोहे का एक बैड पड़ा हुआ था.

“वर्षा, यह कमरा तुम्हारी सहेली और मेरी बहन चांदनी के लिए है. कल हम दोनों चल कर उसे यहां ले आएंगे. अब से वह अपने घर में रहेगी और हम दोनों मिल कर उस की देखभाल करेंगे.”

वर्षा आश्चर्य से मृणाल की ओर पलटी और उस के गले से लग कर सिसक उठी, “मृणाल.”

“वर्षा,” मृणाल ने कस कर उसे अपनी बांहों में ले लिया.

“आप बहुत महान हैं मृणाल. शायद ही किसी पति ने अपनी पत्नी को इतना अनमोल तोहफा दिया होगा.”

“नहीं वर्षा, तुम्हारे लिए तो कुछ भी किया जाए वह कम ही है. आज के समय में किसी के लिए अपना पूरा जीवन उत्सर्ग करने को कोई तत्पर हो तो वह हीरा ही है. और ऐसा हीरा मेरे जीवन में आया है. तो उसे तो मैं पलकों पर बिठा कर ही रखूंगा.”

“मृणाल, प्यार पर से तो मेरा विश्वास ही उठ गया था. पर तुम ने मेरे जीवन को प्यार से सराबोर कर दिया,” कह कर वर्षा फिर आलिंगनबद्ध हो गई.

दोनों का तनमन प्यार की फुहार से भीग रहा था.

मैं झूठ नहीं बोलती: ममता को सच बोलना क्यों पड़ा भारी?

‘‘निधि रुक जा, कहां भागी जा रही है? बस निकल जाएगी, ममता ने गेट की ओर तेजी से जाती हुई निधि को पुकारा, पर निधि तो अपनी ही धुन में थी. उस ने ममता को वहीं रुकने का इशारा किया और गेट से बाहर निकल गई. तब तक बस आ गई और सभी छात्राएं उस में बैठने लगीं. ममता जानती थी कि यदि वह निधि के पीछे गई तो उस की बस भी निकल जाएगी. अत: वह बस में जा कर बैठ गई.

तभी निधि दौड़ती हुई बस की ओर आई और बोली, ‘‘ममता, मां पूछें तो कह देना कि मेरी ऐक्सट्रा क्लास है.’’

‘‘मैं क्यों झूठ बोलूं, दादीमां कहती हैं कि सब बुराइयां झूठ से ही शुरू होती हैं,’’ ममता ने चिढ़ कर उत्तर दिया.

‘‘सतयुग में एक राजा हरिश्चंद्र थे और कलियुग में तू, तेरे जो मन में आए कह देना. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ निधि झुंझलाते हुए बोली और देखते ही देखते आंखों से ओझल हो गई. ममता उसे पुकारती ही रह गई, लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर देखा भी नहीं. उधर बस में बैठी छात्राएं निधि और ममता की बातचीत के मजे ले कर खूब हंस रही थीं.

‘‘अब तो निधि ने भी आज्ञा दे दी है. आज ही जा कर निधि की मम्मी को सब सच बता देना. समझा देना कि आजकल उन की बेटी कक्षा में कम और कैंटीन में आशीष के साथ अधिक नजर आती है. तू ने इतना सा साहस दिखा दिया तो उस के घर वाले तुझे उपहारों से लाद देंगे,’’ रचना बोली तो बस में फिर से ठहाके गूंज उठे.

‘‘क्या हो रहा है ये सब? रचना, मैं ने तुम से सलाह मांगी है क्या?’’ ममता गुस्से से बोली.

हंसहंस कर दोहरी हो रही रचना पर ममता इतनी जोर से चीखी कि हवा जैसे थम सी गई.

‘‘तुम जानो और तुम्हारी सहेली. हमें क्या पड़ी है दूसरों के झमेलों में पड़ने की,’’ रचना ने बड़ी अदा से मुंह बनाया व अपनी अन्य सहेलियों के साथ गपें हांकने लग गई. अन्य छात्राएं भी शीघ्र ही निधि प्रकरण को भूल गईं और ममता ने चैन की सांस ली. पर असली समस्या तो अभी भी मुंहबाए खड़ी थी. सत्या आंटी ने अगर पूछ लिया कि उन की बेटी निधि कहां है तो वह क्या उत्तर देगी. न वह झूठ बोल सकती है और न ही सच. निधि उस की सब से प्यारी सहेली है. उस के राज को राज रखना उस का कर्तव्य भी तो बनता है.

निधि की मां, सत्या आंटी अपने गेट के पास निधि की प्रतीक्षा में खड़ी रहती थीं. आज उन्हें वहां खड़ा न देख कर ममता ने चैन की सांस ली और लपक कर अपने घर में घुस गई.

‘‘क्या हुआ, इस तरह दौड़ कर क्यों घर में घुस गई? मैं बाहर दरवाजे पर खड़ी तेरी प्रतीक्षा कर रही थी, मुझे देखा तक नहीं तू ने,’’ उस की मां निशा अचरज से बोलीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है मां, मुझे लगा कहीं सत्या आंटी सामने मिल गईं तो मैं क्या करूंगी,’’ ममता ने अपनी मां को अपना स्वर नीचे रखने का इशारा किया.

‘‘क्यों, ऐसा क्या किया है तुम ने, जो सत्या से डर रही हो,’’ मां चकित स्वर में बोलीं.

‘‘मैं ने कुछ नहीं किया है मां पर निधि…’’

‘‘क्या हुआ निधि को?’’

‘‘कुछ नहीं हुआ उसे, पर आप ने क्या देखा नहीं कि निधि मेरे साथ बस से नहीं उतरी?’’

‘‘अरे, हां, कहां गई वह? घर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यही तो मुश्किल है मां, वह अपने मित्र के साथ घूमने गई है. मुझ से कहा कि अगर उस की मम्मी पूछें तो कह दूं कि उस की आज ऐक्स्ट्रा क्लास है.’’

‘‘पर गई कहां है वह?’’

‘‘उस का एक मित्र है, आशीष, आजकल उसी के साथ घूमती रहती है. कई बार तो कक्षा छोड़ कर भी चली जाती है.’’

‘‘आशीष? यह तो लड़के का नाम है.’’

‘‘वह लड़का ही है मां, आप भी न बस…’’

‘‘पर तुम्हारा स्कूल तो केवल लड़कियों के लिए है. वहां यह आशीष कहां से आ गया?’’

‘‘स्कूल तो लड़कियों के लिए है पर स्कूल के बाहर तो लड़के भी होते हैं, मां. हमारे स्कूल के आसपास तो लड़के कुछ अधिक ही मंडराते रहते हैं.’’

‘‘हो क्या गया है निधि को. 9वीं कक्षा में पढ़ने वाली इतनी सी लड़की को डर नहीं लगता क्या? किसी के भी साथ चल पड़ती है.’’

‘‘निधि बहुत निडर और स्मार्ट है, मां. मेरी तरह डरपोक नहीं है.’’

‘‘क्या मतलब, तुम डरपोक नहीं होती तो किसी के साथ भी घूमने चल पड़ती,’’ मां तीखे स्वर में बोलीं.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा मां. आप हर बात का गलत अर्थ क्यों निकालती हो. कुछ खाने को दो न, बहुत भूख लगी है.’’

‘‘ड्रैस बदल कर और हाथमुंह धो कर आओ, तब तक खाना लगाती हूं,’’ मां रसोई में जातेजाते बोलीं.

‘‘पर मन में ममता की बातें गूंजती रहीं. किसी अनहोनी की आशंका से मन कांप उठा. खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है. कहीं निधि को देख कर ममता भी उसी राह पर चल पड़ी तो क्या करूंगी,’’ सोचतेसोचते निशा अपनी बेटी से बोली, ‘‘देख ममता, निधि तेरी मित्र है इसीलिए कह रही हूं, उस की मम्मी को सबकुछ सचसच बता दे नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी वे.’’

‘‘और अगर सच बता दिया तो निधि मुझे कच्चा चबा जाएगी. वह मेरी सब से अच्छी मित्र है, मुझ पर विश्वास कर के ही वह अपने राज मुझे बताती है. 2 सहेलियों के बीच विश्वास ही नहीं रहा तो बचेगा क्या,’’ ममता कुछ ऐसे अंदाज में बोली कि मां अपनी हंसी नहीं रोक पाईं.

‘‘मांबेटी के बीच क्या गंभीर वार्त्तालाप चल रहा है हम भी तो सुनें,’’ तभी ममता की दादी ने कमरे में प्रवेश किया.

‘‘कुछ नहीं मांजी, यों ही स्कूल की बातें कर रही थी. कह रही थी कि दादी कहती हैं कि झूठ बोलने से बड़ा पाप और कोई नहीं है,’’ मां फिर हंस दीं.

‘‘अरे, वाह, मेरी गुडि़या तो बहुत सयानी हो गई है. जीवन में पढ़तेलिखते तो सब हैं पर गुनते बहुत कम लोग हैं और ममता गुनने वालों में से है. देख लेना यह एक दिन अवश्य तुम दोनों का नाम रोशन करेगी.’’

‘‘क्या नाम रोशन करेगी मांजी. आजकल नाम सच बोलने से नहीं पढ़नेलिखने से होता है. ममता को तो आप जानती ही हैं कि कभी 50% से अधिक अंक नहीं आए इस के.’’

‘‘अभी तो मुझे यह बताओ कि यह क्या बात थी जिस के लिए ममता झूठ बोलने से कतरा रही थी.’’

‘‘कुछ नहीं, पड़ोस में इस की सहेली निधि रहती है. एक लड़के से दोस्ती है उस की. स्कूल के बाद उस से मिलतीजुलती है, घूमने जाती है और ममता से कहती है कि उस की मम्मी पूछें तो कह देना कि स्कूल में ऐक्स्ट्रा क्लास है.’’

‘‘यह तो बहुत गलत बात है. सच बोलने के लिए बड़े साहस की आवश्यकता होती है. सत्य बोलना कायरों का काम नहीं है. तुम्हें अपनी सहेली के लिए झूठ बोलने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘वही तो रोना है मांजी, दोस्ती में न कुछ कहते बनता है न छिपाते. फिर ममता अपनी सहेली को खोना भी नहीं चाहती. पता नहीं किस ने उसे बता दिया है कि अपनी सहेली के राज को राज ही रखना चाहिए,’’ मां ने झिझकते हुए बताया.

‘‘अब जमाना बहुत बदल गया है. अब केवल सच बोलने से काम नहीं चलता. आज की दुनिया में बड़ा जोड़तोड़ करना पड़ता है.’’

‘‘कहना क्या चाहती हो तुम.’’

‘‘मेरा मतलब बस इतना है कि हमें दूसरों के झमेलों में पड़ने की क्या जरूरत है. मैं नहीं चाहती कि इन सब बातों का असर ममता की पढ़ाई पर पड़े.’’

‘‘सच नहीं बोलेगी तो उस पर असर पड़ेगा. हर बार अपनी सहेली के बारे में ही सोचती रहेगी ममता. तुम बच्चों के मनोविज्ञान को नहीं समझती हो,’’ दादीमां भी अपनी बात पर अड़ गईं.

‘‘आप दोनों शांत हो जाइए. मैं वादा करती हूं कि मैं किसी को भी शिकायत का अवसर नहीं दूंगी,’’ ममता नाराज हो कर अपने कमरे में चली गई.

थोड़ी ही देर में बात आईगई हो गई. ममता ही नहीं उस की मां और दादी भी सारे प्रकरण को भूल चुकी थीं, अचानक रात के 10 बजे घंटी बजी.

ममता की मां ने जैसे ही दरवाजा खोला तो सामने निधि की मां सत्या खड़ी थीं.

‘‘जी, कहिए,’’ न चाहते हुए भी वह अचकचा गईं.

‘‘ममता कहां है, कृपया उसे बुलाइए,’’ निधि की मम्मी बोलीं.

सत्या आंटी की आवाज सुन कर ममता स्वयं ही चली आई.

‘‘ममता, निधि कहां है अब तक घर नहीं आई.’’

‘‘क्या अब तक नहीं आई,’’ मां और ममता एकसाथ बोलीं.

‘‘कुछ कह कर गई थी क्या?’’

‘‘ऐक्स्ट्रा क्लास थी ऐसा कुछ कह कर तो गई थी पर अब तक उस का कोई अतापता नहीं है, इसी से चिंता हो रही है. तुम कितने बजे घर पहुंची,’’ उन्होंने ममता से पूछा.

‘‘मैं तो स्कूल बस से ही आ गई थी. आज कोई ऐक्स्ट्रा क्लास नहीं थी,’’ डरतेडरते बोली.

‘‘तुम्हारी नहीं रही होगी. निधि कह रही थी कि यह क्लास केवल 90त्न से अधिक वाली छात्राओं के लिए है जिन की 10वीं में मैरिट लिस्ट में आने की आशा है,’’ सत्या तनिक गर्व से बोलीं.

‘‘कोई फोन आदि,’’ ममता की मां ने दोबारा पूछा.

‘‘यही तो रोना है. स्कूल वाले फोन ले जाने की अनुमति कहां देते हैं. फिर भी निधि छिपा कर ले जाती थी, पर आज भूल गई, पता नहीं कहां होगी मेरी बच्ची?’’ सत्या रो पड़ी.

‘‘धीरज रखिए, मिल जाएगी,’’ ममता की मां ने उन्हें ढाढ़स बंधाना चाहा.

‘‘क्या धीरज रखूं? मैं ने सोचा था कि शायद ममता को कुछ पता हो पर यहां भी निराशा ही हाथ लगी.’’

‘‘आंटी, मुझे पता है. आज कोई ऐक्स्ट्रा क्लास नहीं थी. निधि तो आशीष के साथ डिस्को गई थी. वह नवीन जूनियर कालेज का विद्यार्थी है, निधि उस से अकसर मिलती है.’’

‘‘क्या, इतना घटिया आरोप मेरी बेटी पर? मैं ने तो सोचा था कि तुम निधि की मित्र हो. पर अब समझ में आया कि तुम मन ही मन उस से जलती हो.’’

‘‘नहीं यह सच नहीं है. मैं भला निधि से क्यों जलने लगी.’’

‘‘मां, जल्दी घर चलो. दीदी के स्कूल की प्राचार्या का फोन आया है. वह किसी के साथ मोटरसाइकिल पर जा रही थी कि दुर्घटनाग्रस्त हो गई. वह निर्मल अस्पताल में भरती है,’’ तभी निधि के भाई ने सारी बात बताई और सत्या के साथ ममता के मातापिता भी अस्पताल के लिए रवाना हो गए. रह गई थीं केवल ममता और उस की दादी दमयंती.

ममता फूटफूट कर रो रही थी और दादी उसे समझा रही थीं कि सच बोलने वालों को तो इस तरह की हर बात के लिए तैयार रहना चाहिए. पर ममता के पल्ले उन की बात पड़ी या नहीं.

बीच बहस में : पति की समझदारी का श्रेय ले गई पत्नी

मुद्दा जरा टेढ़ा था लेकिन हम ने दिमाग के घोड़े ऐसे दौड़ाए कि अमीनाजी हमारी कायल हो गईं. ऐसे में पत्नीजी भी हमारी बुद्धिमानी पर नतमस्तक हुए बगैर न रह सकीं, पर तुर्रा देखो, हमारी समझदारी का श्रेय भी वे खुद ले गईं.

मैं जब अपने औफिस से लौट कर आया तो पत्नी के चेहरे पर अजीब सी खुशी नाच रही थी. मैं समझ गया कि शायद हमारी सासुजी आ रही हैं क्योंकि बरसात के मौसम में जब घने काले बादल छाए हों, बिजली चमके, मौसम में अजीब सी उमस हो तो जान लें कि तेज बरसात होने वाली है. उसी तर्ज पर पत्नीजी के चेहरे की मुसकान देख कर हम जान गए कि हमारी आफत (सासुजी) आने वाली होंगी और पता नहीं यह साढ़ेसाती कितने बरसों तक रहेगी? कब तक हम परेशान होते रहेंगे. लेकिन पत्नी ने हमारे भ्रम को तोड़ते हुए कहा, ‘‘आज आप के पसंद के पकौड़े बनाए हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘एक खुशखबरी है…’’

‘‘अच्छा,’’ हम ने डरते हुए थूक निगलते हुए आगे कहा, ‘‘मम्मीजी आ रही होंगी?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘मैं मेरी मां की नहीं, तुम्हारी अम्मा की कह रहा हूं.’’

‘‘न मेरी मां, न तुम्हारी मम्मी.’’

पत्नी ने हमें संशय में डाल दिया था.

‘‘फिर क्या बात है?’’ हम ने अपने को संयत करते हुए प्रश्न किया.

‘‘मैं ने तुम्हें बताया था न, कि मेरी एक सहेली थी,’’ पत्नी ने कहा.

‘‘कौन, वो मीनाटीना?’’

‘‘जी नहीं, अमीना,’’ पत्नी ने बताया.

‘‘अमीना के बारे में तो कभी नहीं बताया.’’

‘‘भूल गई शायद.’’

‘‘कौन, वो…?’’

‘‘जी नहीं, मैं बताना भूल गई.’’

‘‘तो क्या हो गया.’’

‘‘वह दिल्ली जा रही थी, तो उस ने खबर दी कि वह यहां रुकते हुए आगे जाएगी,’’ पत्नी ने बताया.

‘‘तो ठीक है न, आ जाने दो.’’

‘‘लेकिन…?’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘वह मुसलमान है.’’

‘‘तो क्या हो गया?’’

‘‘तुम ऐडजस्ट कर लोगे?’’

‘‘मुझे ऐसा क्या करना है. आए, शौक से,’’ मैं ने कहा.

‘‘तुम कितने अच्छे हो.’’

‘‘सो तो पहले से ही हूं.’’

‘‘जानती हूं इसलिए तो मैं ने तुम से शादी की,’’ पत्नी ने जवाब दिया, फिर मेरे सामने गोभी के पकौड़े रखते हुए वे कहने लगीं, ‘‘जानते हैं, अमीना और हमारा घर पासपास था. हम दोनों के बीच कभी भी धर्म दीवार नहीं बनी. हमारे त्योहार में वह भागीदारी करती थी और ईद पर हम सब उस के घर जाते थे. कभी किसी भी तरह का धर्म या जाति का भेदभाव नहीं था. उस के बाद वह स्थानीय चुनाव में खड़ी हो गई थी. उसे जिताने में हम ने एड़ीचोटी की ताकत लगा दी थी और वह जीत गई थी. क्या दिन थे वे…’’

पत्नीजी अपने में गुम मुझे पूरा किस्सा सुनाए जा रही थीं. मैं हूं हां करते जा रहा था.

‘‘तर्क देने में तो वह माहिर है.’’

‘‘कौन?’’

‘‘अमीना, और कौन,’’ पत्नी समझ गई थी कि मेरा ध्यान उस ओर कम ही है, इसलिए वह नाराज हो कर किचन में चली गई. मैं न्यूज देखने लगा था. रात को भोजन किया तो पत्नी की आंखों में अपनी सहेली के आने की खुशी जाहिर हो रही थी. खरबूजे को तो कटना ही है, चाहे सासू के नाम पर, चाहे सहेली के नाम पर.

सुबह 8 बजे टैक्सी रुकी तो अमीनाजी ने हमारे गरीबखाने में प्रवेश किया. दोनों सहेलियां गलबहियां हुईं. हम से परिचय हुआ. हमारी शादी के समय वह कहीं विदेश गई हुई थी. इसलिए हम से माफी मांगी और मैरिज का गिफ्ट शादी के

7 बरसों बाद ला कर दिया. हम ने भी दांतों को निपोरते हुए स्वीकार कर लिया. इस में 2 मत नहीं थे कि अमीना वास्तव में बहुत सुंदर थी. बातचीत में तहजीब थी. उस की आवाज का सुर कम था, लय में था जबकि हमारी बेगम का तो बेसुर कभीकभी तो गधे को मात देने वाला हो जाता था. वह जब चीखती तो मैं शांत ही रहना पसंद करता था.

सुबह नाश्ते में इतने विभिन्न प्रकार के व्यंजन थे कि तबीयत खुश हो गई. नाश्ते के टेबल पर मैं ने प्रशंसा करते हुए अमीनाजी से कहा, ‘‘आप तो महीने में

4-6 बार आ जाया करें.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘ताकि हमारी बेगम इतने वैरायटी का नाश्ता रोज बना कर खिलाएं.’’ पत्नीजी ने हंसते हुए कहा, ‘‘जनाब, यह मेहनत, मेरी नहीं, अमीना की है. यह खाना पकाने में भी मास्टर है.’’ अमीना थोड़ा शरमा गई थी.

‘‘भई अमीनाजी, कुछ प्रकार का नाश्ता इधर भी सिखा देना.’’

अमीना चुप हो गई, लेकिन अणुबम जैसे आग्नेय नेत्रों से पत्नी ने हमें देखा.

नाश्ते के बाद हम घूमने गए. अगले दिन अमीनाजी को रवाना होना था. एक समाचारपत्र वाहक सांध्य का समाचारपत्र ले कर चीखता हुआ निकला. वह हैडलाइन को देख कर चीख रहा था, ‘‘राज्य में गौमांस पर प्रतिबंध…’’

मैं ने पेपर लिया. उस को पढ़ा. उस में लिखा था, ‘पूरे देश में गौहत्या या बीफ के मांस पर रोक लगाने के लिए सरकार विचार कर रही है.’

पत्नीजी बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, उन्होंने खुश हो कर कहा, ‘‘चलो, हमारी गौमाता अब मरने से बचेगी.’’

मुझ से नहीं रहा गया, मैं ने कहा, ‘‘बूढ़ी होने पर उसे सड़कों पर छोड़ देंगे मरने के लिए.’’

‘‘उस में तैंतीस करोड़ देवीदेवताओं का वास होता है,’’ पत्नी ने तर्क दिया.

‘‘एक बात बताओ, रेलगाड़ी से कट कर या ट्रक से टकरा कर जब

वह मरती है तो यह तैंतीस करोड़ देवीदेवता कहां चले जाते हैं? वे भी कटमरते होंगे?’’

‘‘चुप रहो, फालतू की बातें नहीं करते,’’ पत्नीजी ने तुनक कर कहा.

‘‘यार, जीजाजी सही ट्रैक पर हैं, तुम इस बात का जवाब दो. ये तर्क की बातें हैं,’’ अमीना ने बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘तुम ही बताओ, अरबों का मांस विदेश में निर्यात होता है, हजारों लोग इस व्यवसाय में लगे हैं, वे सब बेरोजगार हो जाएंगे. फिर सस्ता प्रोटीन जो मिलता है वह भी नहीं मिल पाएगा. यह तो किसी एक वर्ग एक जाति को संतुष्ट करने की राजनीतिभर है,’’ मैं ने अमीना के सामने खुद को बुद्धिमान साबित करते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब?’’ पत्नी लगभग दहाड़ीं.

‘‘तुम नाराज मत हो तो एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए न जीजाजी,’’ अमीनाजी ने मजे लेते हुए कहा.

‘‘देखो, हिंदुओं में गाय की पूजा होती है, इसलिए धर्म के खिलाफ है गौहत्या. कहो, सच है?’’

‘‘बिलकुल सच है.’’

‘‘धर्म में ऐसा उल्लेख है, ऐसा कहा जाता है.’’

‘‘बिलकुल,’’ पत्नीजी ने उछलते हुए कहा.

‘‘हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है.’’

‘‘हां, है,’’ पत्नी ने कहा.

‘फिर एक बात बताएं?’

‘‘कहिए?’’

‘‘अमीनाजी इसलाम में शराब को हराम माना गया है, उन के धर्म की चिंता करते हुए पूरे देश में शराबबंदी हो जानी चाहिए.’’

‘‘हां, यह तो सच है,’’ पत्नीजी ने कहा.

‘‘क्या सरकार कर पाएगी?’ बिलकुल नहीं. देश में कुछ राज्यों में चूहे को खाया जाता, कुछ राज्यों में कुत्तों को खाया जाता है और कुछ राज्यों में भैंसे को खाया जाता है. डियर, एक बात बताओ, इन में से कौन सा पशु हिंदू देवीदेवता का पूजनीय नहीं है? गणेश को ले कर दत्तात्रेय तक सब पशु देवताओं के नाम के साथ जुड़े हैं. क्या सरकार खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए इन जानवरों को मार कर खाने पर प्रतिबंध लगाएगी? बिलकुल नहीं.’’

‘‘यह बात बिलकुल सच है, जीजाजी,’’ अमीना ने खुश हो कर कहा.

‘‘अरे, हमारे धर्म में तो चींटी, चिडि़या, बरबूटे, मोर, सारस, तोता, उल्लू सब खाए जाते हैं और सब किसी न किसी देवीदेवता के वाहन हैं. फिर बताओ, क्या देश में सरकार खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए मांसाहार पर प्रतिबंध लगा सकती है? देश की 35 प्रतिशत आबादी मांसाहार पर निर्भर है. और तो और, कछुआ, सांप, अजगर, मछली तक खाए जाते हैं जो कि हमारे देवीदेवता के पूज्य वाहन हैं. मैं ऐसे किसी भी प्रतिबंध के खिलाफ हूं. जिसे नहीं खाना है वह न खाए. लेकिन झूठी धर्मनिरपेक्षता की आड़ में, झूठी प्रसिद्धि पाने का प्रयास करना गलत है. क्यों अमीनाजी, सच है या गलत?’’

अमीनाजी खुश हो गईं और मेरी पत्नी को एक ओर खींच कर ले गईं. थोड़ी देर में पत्नी आईं और फिर हम लौट कर घर आ गए.

सुबह अमीनाजी गईं तो हम सब को बहुत दुख हो रहा था बिछुड़ने का. अमीनाजी चली गईं तो मैं ने पत्नीजी से प्रश्न किया, ‘‘बीच बहस में तुम उठ कर अमीना के साथ कहां चली गई थीं? और अमीना ने तुम से क्या कहा था जो तुम एकदम शांत हो कर लौटी थीं?’’

पत्नीजी थोड़ा मुसकराईं और कहने लगीं, ‘‘वह मुझे खींच कर एक ओर ले गई और मेरा हाथ जोरों से पकड़ कर कहा, ‘तुझे बधाई हो.’ मैं ने पूछा, ‘किस बात की बधाई?’ तो उस ने कहा, ‘मालिक ने तुझे इतना समझदार, तर्क में निपुण पति दिया है. सच में यहां आ कर धन्य हो गई. मेरी इच्छा तो उन्हें उस्ताद बनाने की हो रही है.’’

‘‘सच, यही कहा था अमीनाजी ने?’’ मैं ने खुश हो कर पूछा.

‘‘बिलकुल सच. उस के बोलने के बाद मुझे लगा कि अमीना जैसी तार्किक बात करने वाली यदि तुम्हारी इतनी प्रशंसा कर रही है, तो दम तो है तुम में,’’ पत्नीजी ने खुश हो कर कहा.

‘‘सो तो हम हैं ही,’’ मैं ने हंस कर कहा.

‘‘वो तो तुम शादी होने के बाद इतने बुद्धिमान हो गए, वरना मैं जानती हूं तुम कैसे थे?’’ पत्नी ने कहा और मेरे किसी तरह के उत्तर को सुने बिना अंदर किचन में चली गई थीं.

वसंत लौट गया : क्या था किन्नी का फैसला

टेलीविजन पर मेरा इंटरव्यू दिखाया जा रहा है. मुझे साहित्य का इतना बड़ा सम्मान जो मिला है. बचपन से ही कागज काले करती आ रही हूं. छोटेबड़े और सम्मान भी मिलते रहे हैं लेकिन इतना बड़ा सम्मान पहली बार मिला है. इसलिए कई चैनल वाले मेरा इंटरव्यू लेने पहुंच गए थे.

मैं ने इस बारे में अपने घर में किसी को कुछ भी नहीं बताया. बताना भी किसे था? आज तक कभी किसी ने मेरी इस प्रतिभा को सराहा ही नहीं. घर की मुरगी दाल बराबर. न पति को, न बच्चों को, न मायके में और न ही ससुराल में किसी को भी आज तक मेरे लेखिका होने से कोई मतलब रहा है.

मैं एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी, अच्छी मां बनूं यह आशा तो मुझ से सभी ने की, लेकिन मैं एक अच्छी लेखिका भी बनूं, मानसम्मान पाऊं, ऐसी कोई चाह किसी अपने को नहीं रही. मैं अपनों की उम्मीद पर पता नहीं खरी उतरी या नहीं लेकिन आलोचकों और पाठकों की उम्मीदों पर पूरी तरह खरी उतरी. तभी तो आज मैं साहित्य के इस शिखर पर पहुंची हूं.

इंटरव्यू लेने वाले भी कैसेकैसे प्रश्न पूछते हैं? शायद अनजाने में हम लेखक ही कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो पाठकों को हमारे अंतर्मन का पता दे देता है जबकि लेखकों को लगता है कि वे मात्र दूसरों के जीवन को, उन की समस्याओं को, उन के परिवेश को ही कागज पर उतारते हैं.

इंटरव्यू लेने वाले ने बड़े ही सहज ढंग से एक सवाल मेरी तरफ उछाला था, ‘‘वैसे तो जीवन में कभी किसी को रीटेक का मौका नहीं मिलता फिर भी यदि कभी आप को जीवन की एक भूल सुधारने का अवसर दिया जाए तो आप क्या करेंगी? क्या आप अपनी कोई भूल सुधारना चाहेंगी?’’

मैं ने 2 बार इस सवाल को टालने की कोशिश की, लेकिन हर बार शब्दों का हेरफेर कर उस ने गेंद फिर मेरे ही पाले में डाल दी. मैं उत्तर देने से बच न सकी. झूठ मैं बोल नहीं पाती, इसीलिए झूठ मैं लिख भी नहीं पाती. मैं ने जीवन की अपनी एक भूल स्वीकार कर ली और कहा कि अगर मुझे अवसर मिले तो मैं अपनी वह एक भूल सुधारना चाहूंगी जिस ने मुझ से मेरे जीवन के वे कीमती 25 साल छीन लिए हैं, जिन्हें मैं आज भी जीने की तमन्ना रखती हूं, हालांकि यह सब अब बहुत पीछे छूट गया है.

प्रोग्राम कब का खत्म हो चुका था लेकिन मैं वर्तमान में तब लौटी जब फोन की घंटी बजी.

बेटी किन्नी का फोन था. मेरे हैलो कहते ही वह चहक कर बोली, ‘‘क्या मम्मा, आप को इतना बड़ा सम्मान मिला, इतना अच्छा इंटरव्यू टैलीकास्ट हुआ और आप ने हमें बताया तक नहीं? वह तो चैनल बदलते हुए एकाएक आप को टैलीविजन स्क्रीन पर देख कर मैं चौंक गई.’’

‘‘इस में क्या बताना था? यह सब तो…’’

‘‘फिर भी मम्मा, बताना तो चाहिए था. मुझे मालूम है आप को एक ही शिकायत है कि हम कभी आप का लिखा कुछ पढ़ते ही नहीं. खैर, छोड़ो यह शिकायत बहुत पुरानी हो गई है. मम्मा, बधाई हो. आई एम प्राउड औफ यू.’’

‘‘थैंक्स, किन्नी.’’

‘‘सिर्फ इसलिए नहीं कि आप मेरी मम्मा हैं बल्कि आप में सच बोलने की हिम्मत है. पर यह सच मेरी समझ से परे है कि आप ने इस को स्वीकारने में इतने साल क्यों लगा दिए? मैं ने तो जब से होश संभाला है मुझे हमेशा लगा कि पता नहीं आप इस रिश्ते को कैसे ढो रही हैं? मैं तो यह सोच कर हैरान हूं कि जब आप इसे अपनी भूल मान रही थीं तो ढो क्यों रही थीं?’’

‘‘तुम दोनों के लिए बेटा, तब इस भूल को सुधार कर मैं तुम दोनों का जीवन और भविष्य बरबाद कर कोई और भूल नहीं करना चाहती थी. भूल का प्रायश्चित्त भूल नहीं होता, किन्नी.’’

‘‘ओह, मम्मा, हमारे लिए आप ने अपना पूरा जीवन…इस के लिए थैंक्स. आई एम रियली प्राउड आफ यू. अच्छा मम्मा, जल्दी ही आऊंगी. अभी फोन रखती हूं. मिलने पर ढेर सारी बातें करेंगे,’’ कहते हुए किन्नी ने फोन रख दिया.

किन्नी हमेशा ऐसे ही जल्दी मेें होती है. बस, अपनी ही कहती है. मुझे तो कभी कुछ कहने या पूछने का अवसर ही नहीं देती. इस से पहले कि मैं कुछ और सोचती फोन फिर बज उठा. दीपक का फोन था.

‘‘हैलो दीपू, क्या तुम ने भी प्रोग्राम देखा है?’’

‘‘हां, देख लिया है. वह तो मेरे एक दोस्त, रवि का फोन आया कि आंटी का टैलीविजन पर इंटरव्यू आ रहा है, बताया नहीं? मैं उसे क्या बताता? पहले मुझे तो कोई कुछ बताए,’’ दीपक नाराज हो रहा था.

‘‘वह तो बेटा, तुम लोग इस सब में कभी रुचि नहीं लेते तो सोचा क्या बताना है,’’ मैं ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘मम्मा, यह तो आप को पता है कि हम रुचि नहीं लेते, लेकिन आप ने कभी यह सोचा है कि हम रुचि क्यों नहीं लेते? क्या यही सब सुनने और बेइज्जत होने के लिए हम रुचि लें इस सब में?’’

‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘इस इंटरव्यू का आखिर मतलब क्या है? क्या हम सब की सोसाइटी में नाक कटवाने के लिए आप यह सब…आज तो इंटरव्यू देखा है, किताबों में पता नहीं क्याक्या लिखती रहती हैं. पता तो है न कि हम आप का लिखा कुछ पढ़ते नहीं.’’

‘‘बेटा, तुम ही नहीं पढ़ते, मैं ने तो कभी किसी को पढ़ने से नहीं रोका. बल्कि मुझे तो खुशी ही होगी अगर कोई मेरी…’’

‘‘वैसे पढ़ कर करना भी क्या है? कभी सोचा ही नहीं था कि पापा से अपनी शादी को आप भूल मानती आ रही हैं, तो क्या मैं और किन्नी आप की भूल की निशानियां हैं?’’ बेटे का स्वर तीखा होता जा रहा था.

‘‘यह तू क्या कह रहा है दीपू. मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’

‘‘वैसे जब 25 साल तक चुप रहीं तो अब मुंह खोलने की क्या जरूरत थी? चुप भी तो रह सकती थीं आप?’’

‘‘बेटा, इंटरव्यू में कहे मेरे शब्दों का यह मतलब नहीं था. तू समझ नहीं रहा है मैं…’’

‘‘मैं क्या समझूंगा, पापा भी कहां समझ पाए आप को? दरअसल, औरतों को तो बड़ेबड़े ज्ञानीध्यानी भी नहीं समझ पाए. पता नहीं आप किस मिट्टी से बनी हैं, कभी खुश रह ही नहीं सकतीं,’’ कहते हुए उस ने फोन पटक दिया था.

मैं तो ठीक से समझ भी नहीं पाई कि उसे शिकायत मेरे इंटरव्यू के उत्तर से थी या अपनी पत्नी से लड़ कर बैठा था, जो इतना भड़का हुआ था. यह इतनी जलीकटी सुना कर भड़क रहा है, दूसरी तरफ बेटी है जो गर्व अनुभव कर रही है.

औरत को खानेकपड़े के अलावा भी जीवन में बहुत कुछ चाहिए होता है. यह बात जब पिछले 25 वर्षों में मैं इस के पापा को नहीं समझा पाई तो भला इसे क्या समझा पाऊंगी? बहुत सहा है इन 25 वर्षों में, आज पहली बार मुंह खोला तो परिवार में तूफान के आसार बन गए. कैसे समझाऊं अपने बेटे को कि मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि यदि कभी पता होता कि शादीशुदा जीवन में इतनी घुटन, इतनी सीलन, इतना अकेलापन, इतने समझौते हैं तो मैं शादी ही नहीं करती.

मैं तो उस पल में वापस जाना चाहती हूं जब इंद्रजीत को दिखा कर मेरे मम्मीपापा ने शादी के लिए मेरी राय पूछी थी और मैं ने इन की शिक्षा, इन का रूप देख कर शादी के लिए हां कर दी थी. तब मुझे क्या पता था कि साल में 8 महीने घर से दूर रहने वाला यह व्यक्ति अपने परिवार के लिए मेहमान बन कर रह जाएगा. इस का सूटकेस हमेशा पैक ही रहेगा. न जाने कब एक फोन आएगा और यह फिर काम पर निकल जाएगा.

बच्चों का क्या है…बचपन में कीमती तोहफों से बहलते रहे, बड़े हुए तो पढ़ाई और कैरियर की दौड़ में दौड़ते हुए मित्रों के साथ मस्त हो गए और शादी के बाद अपने घरपरिवार में रम गए. मां और बाप दोनों की जिम्मेदारियां उठाती हुई घर की चारदीवारी में मैं कितनी अकेली हो गई हूं, इस ओर किसी का कभी ध्यान ही नहीं गया. जब मुझे जीवन अकेले अपने दम पर ही जीना था और कलम को ही अपने अकेलेपन का साथी बनाना था तो इस शादी का मतलब ही क्या रह जाता है?

बेटे के गुस्से को देख कर तो मुझे इंद्रजीत की तरफ से और भी डर लगने लगा है. अगर उन्होंने भी यह इंटरव्यू देखा होगा तो क्या होगा? पता नहीं क्या कहेंगे? मैं जब इतने वर्षों में अपनी परेशानी कभी उन्हें नहीं कह पाई तो अब अपनी सफाई में क्या कह पाऊंगी? वे कहीं मुझे तलाक ही न दे दें और कहें कि लो, मैं ने तुम्हारी भूल सुधार दी है.

मैं परेशान हो उठी. वर्षों से सच उजागर करने वाली मैं अपने जीवन के एक सच का सामना नहीं कर पा रही थी. आंसुओं से मेरा चेहरा भीग गया. पहली बार मुझे सच बोलने पर खेद हो रहा था. मेरा मन मुझे धिक्कार रहा था. बेटा ठीक ही तो कह रहा था कि अब इस उम्र में मुझे मुंह खोलने की क्या जरूरत थी. काश, इंटरव्यू देते समय मैं ने यह सब सोच लिया होता.

ये मीडिया वाले भी कैसे हैं… ‘मौका पाते ही सामने वाले को नंगा कर के रख देते हैं.’

अचानक फोन की घंटी बज उठी. इंद्रजीत का फोन था. मैं ने कांपते हाथों से फोन उठाया. मेरे रुंधे गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी. मुझे लगा अभी उधर से आवाज आएगी, ‘तलाक… तलाक…’

‘‘सुभी…हैलो सुभी…’’ वह मुझे पुकार रहे थे.

‘‘हैलो…’’ मैं चाह कर भी इस के आगे कुछ नहीं बोल पाई.

‘‘अरे, सुभी, मैं ने तो सोचा था खुशी से चहकती हुई फोन उठाओगी. तुम तो शायद रो रही हो? क्या हुआ, सब ठीक तो है न?’’ उन के स्वर में घबराहट थी. मैं ने पहली बार उन्हें अपने लिए परेशान पाया था.

‘‘अरे, भई, इतना बड़ा सम्मान मिला है. तुम्हें बताना तो चाहिए था? खैर, मैं परसों दोपहर पहुंच रहा हूं फिर सैलीब्रेट करेंगे तुम्हारे इस सम्मान को.’’

पति का यह रूप मैं ने 25 साल में पहली बार देखा था. आज अचानक यह परिवर्तन कैसा? मैं भय से कांप उठी. कहीं यह किसी तूफान की सूचना तो नहीं?

‘‘क्या आप ने टैलीविजन पर मेरा इंटरव्यू देखा है?’’ मैं ने घबराते हुए पूछा. मुझे लगा शायद उन्हें किसी से मुझे मिले सम्मान की बात पता लगी है.

‘‘देखा है सुभी, उसे देख कर ही तो सब पता लगा है, वरना तुम कब कुछ बताती हो?’’

‘‘क्या आप ने इंटरव्यू पूरा देखा था?’’ मेरी शंका अभी भी अपनी जगह खड़ी थी. पति में आए इस परिवर्तन को मैं पचा नहीं पा रही थी.

‘‘पूरा देखा ही नहीं रिकार्ड भी कर लिया है. रिकार्डिंग भी साथ ले आ रहा हूं.’’

‘‘फिर भी आप नाराज नहीं हैं?’’

‘‘नाराज तो मैं अपनेआप से हो रहा हूं. मैं ने अनजाने में तुम्हें कितनी तकलीफ पहुंचाई है. तुम इतनी बड़ी लेखिका हो, जिस का सम्मान पूरा देश कर रहा है उसे मेरे कारण अपनी शादी एक भूल लग रही है. काश, मैं तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ता होता तो यह सब मुझे बहुत पहले पता लग जाता. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, शेष जीवन प्रायश्चित्त के लिए बहुत है,’’ इंद्रजीत हंसने लगे.

‘‘मैं क्षमा चाहती हूं, क्या आप मुझे माफ कर पाएंगे?’’ मैं रोंआसी हो गई.

‘‘क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए पगली, लेकिन मैं मात्र क्षमा मांग कर इस भूल का प्रायश्चित्त नहीं करना चाहता, बल्कि तुम्हारे पास आ रहा हूं, तुम्हारे हिस्से की खुशियां लौटाने. वास्तव में यह तुम्हारी भूल नहीं मेरे जीवन की भूल थी जो मैं ने अपनी गुदड़ी में पड़े हीरे को नहीं पहचाना.’’

मेरे आंसू खुशी के आंसुओं में बदल चुके थे. मुझे इंद्रजीत का बेसब्री से इंतजार था. उन के कहे शब्द मेरे लिए किसी भी सम्मान से बड़े थे. मैं वर्षों से इसी प्यार के लिए तो तरस रही थी.

जैसे तेज बारिश और तूफान अपने साथ सब गंदगी बहा ले जाए और निखरानिखरा सा, खिलाखिला सा प्रकृति का कणकण दिलोदिमाग को अजीब सी ताजगी से भर दे कुछ ऐसा ही मैं महसूस कर रही थी. खुशियों के झूले में झूलते हुए न मालूम कब आंख लग गई. सपने भी बड़े ही मोहक आए. अपने पति की बांहों में बांहें डाल मैं फूलों की वादियों में, झरनों, पहाड़ों में घूमती रही.

सुबह दरवाजे की घंटी से नींद खुली. सूरज सिर पर चढ़ आया था. संगीता काम करने आई होगी यह सोच कर मैं ने जल्दी से जा कर दरवाजा खोला तो सामने किन्नी खड़ी थी. मुझे देखते ही मुझ से लिपट गई. मैं वर्षों से अपनी सफलताओं पर किसी अपने की ऐसी ही प्रतिक्रिया, ऐसे ही स्वागत की इच्छुक थी. मैं भी उसे कस कर बांहों में समेटे हुए ड्राइंगरूम तक ले आई. मन अंदर तक भीग गया.

‘‘मम्मा, मुझे हमेशा लगता था कि आप नहीं समझेंगी, लेकिन कल टैलीविजन पर आप का इंटरव्यू देख कर लगा, मैं गलत थी,’’ किन्नी मेरी बांहों से अपने को अलग करती हुई बोली.

‘‘क्या नहीं समझूंगी? क्या कह रही है?’’ मैं वास्तव में कुछ नहीं समझी थी.

‘‘मम्मा, मैं ने तय कर लिया है कि मैं कार्तिक के साथ अब और नहीं रह सकती,’’ किन्नी एक ही सांस में बोल गई.

‘‘क्या…क्या कह रही है तू? किन्नी, यह कैसा मजाक है?’’ मैं ने उसे डांटते हुए कहा.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही. यह सच है. यह कोई जरूरी तो नहीं कि मैं भी अपनी भूल स्वीकार करने में 25 वर्ष लगा दूं?’’

‘‘लेकिन कार्तिक के साथ शादी करने का फैसला तो तुम्हारा ही था?’’

‘‘तभी तो इसे मैं अपनी भूल कह रही हूं. फैसले गलत भी तो हो जाते हैं. यह बात आप से ज्यादा कौन समझ सकेगा?’’

‘‘बेटा, मैं ने कहा था कि मैं शादी ही करने की भूल नहीं करती, न कि तुम्हारे पिता से शादी करने की भूल नहीं करती. तुम गलत समझ रही हो. दोनों में बहुत फर्क है.’’

‘‘आप अपनी बात को शब्दों में कैसे भी घुमा लो, मतलब वही है. मैं कार्तिक के साथ और नहीं रह सकती. बस, मैं ने फैसला कर लिया है,’’ कहते हुए उस ने अपने दोनों हाथ कुछ इस तरह से सोफे की सीट पर फेरे मानो अपनी शादी की लिखी इबारत को मिटा रही हो.

मैं हैरान सी उस का चेहरा देख रही थी. ठीक इसी तरह 2 वर्ष पहले उस ने कार्तिक के साथ शादी करने का अपना फैसला हमें सुनाया था. कार्तिक पढ़ालिखा, अच्छे संस्कारों वाला, कामयाब लड़का है इसलिए हमें भी हां करने में कोई ज्यादा सोचना नहीं पड़ा. वैसे भी आज के दौर में मातापिता को अपने बच्चों की शादी में अपनी राय देने का अधिकार ही कहां है? हमारी पीढ़ी से चला वक्त बच्चों की पीढ़ी तक पहुंचतेपहुंचते कुछ ऐसी ही करवट ले चुका है.

लेकिन अब क्या करूं? क्या आज भी किन्नी की हां में हां मिलाने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है? एकदूसरे को समझने के लिए तो पूरा जीवन भी कम पड़ जाता है, 2 वर्षों की शादीशुदा जिंदगी होती ही कितनी है?

बहुत पूछने पर भी किन्नी ने अपने इस फैसले का कोई ठोस कारण नहीं बताया. उस का कहना था, मैं नहीं समझ पाऊंगी. मैं जो लोगों के भीतर छिपे दर्द को महसूस कर लेती हूं, उस के बताने पर भी कुछ नहीं समझ पाऊंगी, ऐसा उस का मानना है.

मैं जानती हूं आज की पीढ़ी के पास रिश्तों को जोड़ने, निभाने और तोड़ने की कोई ठोस वजह होती ही नहीं फिर भी इतने बड़े फैसले के पीछे कोई बड़ा कारण तो होना ही चाहिए.

एक दिन वह उस के बिना नहीं रह सकती थी तो शादी का फैसला कर लिया. अब उस के साथ नहीं रह सकती तो तलाक का फैसला ले लिया. जीवन कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल है क्या? लेकिन मैं उसे कुछ भी न समझा पाई क्योंकि वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी. अपनी तथा परिवार की नजरों में भी मैं इस के लिए कुसूरवार थी. इंद्रजीत को भी किन्नी के फैसले का पता लग गया था. अगले दिन लौटने वाले वे अगले महीने भी नहीं लौटे थे. कोई नया प्रोजैक्ट शुरू कर दिया था. दीपक उस दिन से ही नाराज है. अब उसे कौन समझाता. किन्नी का यह फैसला मेरी खुशियों पर तुषारापात कर गया.

यह नया दर्द, यह उपेक्षा, यह साहिल पर उठा भंवर फिर किसी कालजयी रचना का माहौल बना रहा है. सभी खिड़कीदरवाजे बंद कर मैं ने कलम उठा ली है.

बहू हो या बेटी

रूबी ताई ने जैसे ही बताया कि हिना छत पर रेलिंग पकड़े खड़ी है तो घर में हलचल सी मच गई.

‘‘अरे, वह छत पर कैसे चली गई, उसे तीसरे माले पर किस ने जाने दिया,’’ शारदा घबरा उठी थीं, ‘‘उसे बच्चा होने वाला है, ऐसी हालत में उसे छत पर नहीं जाना चाहिए.’’

आदित्य चाय का कप छोड़ कर तुरंत सीढि़यों की तरफ दौड़ा और हिना को सहारा दे कर नीचे ले आया. फिर कमरे में ले जा कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

हिना अब भी न जाने कहां खोई थी, न जाने किस सोच में डूबी हुई थी.

हिना का जीवन एक सपना जैसा ही बना हुआ था. खाना बनाती तो परांठा तवे पर जलता रहता, सब्जी छौंकती तो उसे ढकना भूल जाती, कपड़े प्रेस करती तो उन्हें जला देती.

हिना जब बहू के रूप में घर में आई थी तो परिवार व बाहर के लोग उस की खूबसूरती देख कर मुग्ध हो उठे थे. उस के गोरे चेहरे पर जो लावण्य था, किसी की नजरों को हटने ही नहीं देता था. कोई उस की नासिका को देखता तो कोई उस की बड़ीबड़ी आंखों को, किसी को उस की दांतों की पंक्ति आकर्षित करती तो किसी को उस का लंबा कद और सुडौल काया.

सांवला, साधारण शक्लसूरत का आदित्य हिना के सामने बौना नजर आता.

शारदा गर्व से कहतीं, ‘‘वर्षों खोजने पर यह हूर की परी मिल पाई है. दहेज न मिला तो न सही पर बहू तो ऐसी मिली, जिस के आगे इंद्र की अप्सरा भी पानी भरने लगे.’’

धीरेधीरे घर के लोगों के सामने हिना के जीवन का दूसरा पहलू भी उजागर होने लगा था. उस का न किसी से बोलना न हंसना, न कहीं जाने का उत्साह दिखाना और न ही किसी प्रकार की कोई इच्छा या अनिच्छा.

‘‘बहू, तुम ने आज स्नान क्यों नहीं किया, उलटे कपडे़ पहन लिए, बिस्तर की चादर की सलवटें भी ठीक नहीं कीं, जूठे गिलास मेज पर पडे़ हैं,’’ शारदा को टोकना पड़ता.

फिर हिना की उलटीसीधी विचित्र हरकतें देख कर घर के सभी लोग टोकने लगे, पर हिना न जाने कहां खोई रहती, न सुनती न समझती, न किसी के टोकने का बुरा मानती.

एक दिन हिना ने प्रेस करते समय आदित्य की नई शर्ट जला डाली तो वह क्रोध से भड़क उठा, ‘‘मां, यह पगली तुम ने मेरे गले से बांध दी है. इसे न कुछ समझ है न कुछ करना आता है.’’

उस दिन सभी ने हिना को खूब डांटा पर वह पत्थर बनी रही.

शारदा दुखी हो कर बोलीं, ‘‘हिना, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, घर का काम करना नहीं आता तो सीखने का प्रयास करो, रूबी से पूछो, मुझ से पूछो, पर जब तुम बोलोगी नहीं तो हम तुम्हें कैसे समझा पाएंगे.’’

एक दिन हिना ने अपनी साड़ी के आंचल में आग लगा ली तो घर के लोग उस के रसोई में जाने से भी डरने लगे.

‘‘हिना, आग कैसे लगी थी?’’

‘‘मांजी, मैं आंचल से पकड़ कर कड़ाही उतार रही थी.’’

‘‘कड़ाही उतारने के लिए संडासी थी, तौलिया था, उन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया था?’’ शारदा क्रोध से भर उठी थीं, ‘‘जानती हो, तुम कितनी बड़ी गलती कर रही थीं…इस का दुष्परिणाम सोचा है क्या? तुम्हारी साड़ी आग पकड़ लेती तब तुम जल जातीं और तुम्हारी इस गलती की सजा हम सब को भोगनी पड़ती.’’

आदित्य हिना को मनोचिकित्सक को दिखाने ले गया तो पता लगा कि हिना डिप्रेशन की शिकार थी. उसे यह बीमारी कई साल पुरानी थी.

‘‘डिपे्रशन, यह क्या बला है,’’ शारदा के गले से यह बात नहीं उतर पा रही थी कि अगर हिना मानसिक रोगी है तो उस ने एम.ए. तक की पढ़ाई कैसे कर ली, ब्यूटीशियन का कोर्स कैसे कर लिया.

‘‘हो सकता है हिना पढ़ाई पूरी करने के बाद डिप्रेशन की शिकार बनी हो.’’

आदित्य ने फोन कर के अपने सासससुर से जानकारी हासिल करनी चाही तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर कर दी.

शारदा परेशान हो उठीं. लड़की वाले साफसाफ तो कुछ बताते नहीं कि उन की बेटी को कौन सी बीमारी है, और कुछ हो जाए तो सारा दोष लड़के वालों के सिर मढ़ कर अपनेआप को साफ बचा लेते हैं.

‘‘मां, इस पागल के साथ जीवन गुजारने से तो अच्छा है कि मैं इसे तलाक दे दूं,’’ आदित्य ने अपने मन की बात जाहिर कर दी.

घर के दूसरे लोगोें ने आदित्य का समर्थन किया.

घर में हिना को हमेशा के लिए मायके भेजने की बातें अभी चल ही रही थीं कि एक दिन उसे जोरों से उलटियां शुरू हो गईं.

डाक्टर के यहां ले जाने पर पता चला कि वह मां बनने वाली है.

‘‘यह पागल हमेशा को गले से बंध जाए इस से तो अच्छा है कि इस का एबौर्शन करा दिया जाए,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.

शारदा का विरोध घर के लोगों की तेज आवाज में दब कर रह गया.

आदित्य, हिना को डाक्टर के यहां ले गया,  पर एबौर्शन नहीं हो पाया क्योंकि समय अधिक गुजर चुका था.

घर में सिर्फ शारदा ही खुश थीं, सब से कह रही थीं, ‘‘बच्चा हो जाने के बाद हिना का डिप्रेशन अपनेआप दूर हो जाएगा. मैं अपनी बहू को बेटी के समान प्यार दूंगी. हिना ने मेरी बेटी की कमी दूर कर दी, बहू के रूप में मुझे बेटी मिली है.’’

अब शारदा सभी प्रकार से हिना का ध्यान रख रही थीं, हिना की सभी प्रकार की चिकित्सा भी चल रही थी.

लेकिन हिना वैसी की वैसी ही थी. नींद की गोलियों के प्रभाव से वह घंटों तक सोई रहती, परंतु उस के क्रियाकलाप पहले जैसे ही थे.

‘‘अगर बच्चे पर भी मां का असर पड़ गया तो क्या होगा,’’ आदित्य का मन संशय से भर उठता.

‘‘तू क्यों उलटीसीधी बातें बोलता रहता है,’’ शारदा बेटे को समझातीं, ‘‘क्या तुझे अपने खून पर विश्वास नहीं है? क्या तेरा बेटा पागल हो सकता है?’’

‘‘मां, मैं कैसे भूल जाऊं कि हिना मानसिक रोगी है.’’

‘‘बेटा, जरूर इस के दिल को कोई सदमा लगा होगा, वक्त का मरहम इस के जख्म भर देगा. देख लेना, यह बिलकुल ठीक हो जाएगी.’’

‘‘तो करो न ठीक,’’ आदित्य व्यंग्य कसता, ‘‘आखिर कब तक ठीक होगी यह, कुछ मियाद भी तो होगी.’’

‘‘तू देखता रह, एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा…पहले घर में बच्चे के रूप में खुशियां तो आने दे,’’ शारदा का विश्वास कम नहीं होता था.

पूरे घर में एक शारदा ही ऐसी थीं जो हिना के पक्ष में थीं, बाकी लोग तो हिना के नाम से ही बिदकने लगे थे.

शारदा अपने हाथों से फल काट कर हिना को खिलातीं, जूस पिलातीं, दवाएं पिलातीं, उस के पास बैठ कर स्नेह दिखातीं.

प्यार से तो पत्थर भी पिघल जाता है, फिर हिना ठहरी छुईमुई सी लड़की.

‘‘मांजी, आप मेरे लिए इतना सब क्यों कर रही हैं,’’ एक दिन पत्थर के ढेर से पानी का स्रोत फूट पड़ा.

हिना को सामान्य ढंग से बातें करते देख शारदा खुश हो उठीं, ‘‘बहू, तुम मुझ से खुल कर बातें करो, मैं यही तो चाहती हूं.’’

हिना उठ कर बैठ गई, ‘‘मैं अपनी जिम्मेदारियां ठीक से नहीं निभा पा रही हूं.’’

‘‘तुम मां बनने वाली हो, ऐसी हालत में कोई भी औरत काम नहीं कर सकती. सभी को आराम चाहिए, फिर मैं हूं न. मैं तुम्हारे बच्चे को नहलाऊंगी, मालिश करूंगी, उस के लिए छोटेछोटे कपडे़ सिलूंगी.’’

हिना अपने पेट में पलते नवजात शिशु की हलचल को महसूस कर के सपनों में खो जाती, और कभी शारदा से बच्चे के बारे में तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती.

‘‘हिना ठीक हो रही है. देखो, मैं कहती थी न…’’ शारदा उत्साह से भरी हुई सब से कहती रहतीं.

आदित्य भी अब कुछ राहत महसूस कर रहा था और हिना के पास बैठ कर प्यार जताता रहता.

एक शाम आदित्य हिना के लिए जामुन खरीद कर लाया तो शारदा का ध्यान जामुन वाले कागज के लिफाफे की तरफ आकर्षित हुआ.

‘‘देखो, इस कागज पर बनी तसवीर हिना से कितनी मिलतीजुलती है.’’

आदित्य के अलावा घर के अन्य लोग भी उस तसवीर की तरफ आकर्षित हुए.

‘‘हां, सचमुच, यह तो दूसरी हिना लग रही है, जैसे हिना की ही जुड़वां बहन हो, क्यों हिना, तुम भी तो कुछ बोलो.’’

हिना का चेहरा उदास हो उठा, उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘हां, यह मेरी ही तसवीर है.’’

‘‘तुम्हारी?’’ घर के लोग आश्चर्य से भर उठे.

‘‘मैं ने कुछ समय मौडलिंग की थी. पैसा और शौक पूरा करने के लिए यह काम मुझे बुरा नहीं लगा था, पर आप लोग मेरी इस गलती को माफ कर देना.’’

‘‘तुम ने मौडलिंग की, पर मौडल बनना आसान तो नहीं है?’’

‘‘मैं अपने कालिज के ब्यूटी कांटेस्ट में प्रथम चुनी गई थी. फिर…’’

‘‘फिर क्या?’’ शारदा ने उस का उत्साह बढ़ाया, ‘‘बहू, तुम ब्यूटी क्वीन चुनी गईं, यह बात तो हम सब के लिए गर्व की है, न कि छिपाने की.’’

‘‘फिर इस कंपनी वालों ने खुद ही मुझ से कांटेक्ट कर के मुझे अपनी वस्तुओं के विज्ञापनों में लिया था,’’ इतना बताने के बाद हिना हिचकियां भर कर रोने लगी.

काफी देर बाद वह शांत हुई तो बोली, ‘‘मुझे एक फिल्म में सह अभिनेत्री की भूमिका भी मिली थी, पर मेरे पिताजी व ताऊजी को यह सब पसंद नहीं आया.’’

अब हिना की बिगड़ी मानसिकता का रहस्य शारदा के सामने आने लगा था.

हिना ने बताया कि उस के रूढि़वादी घर वालों ने न सिर्फ उसे घर में बंद रखा बल्कि कई बार उसे मारापीटा भी गया और उस के फोन सुनने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी.

शारदा के मन में हिना के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा था.

हिना के मौडलिंग की बात खुल जाने से उस के मन का बोझ हलका हो गया था. वह बोली, ‘‘मांजी, मुझे डर था कि आप लोग यह सबकुछ जान कर मुझे गलत समझने लगेंगे.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचा तुम ने?’’

‘‘लोग मौडलिंग के पेशे को अच्छी नजर से नहीं देखते और ऐसी लड़की को चरित्रहीन समझने लगते हैं. फिर उस लड़की का नाम कई पुरुषों के साथ जोड़ दिया जाता है, मेरे साथ भी यही हुआ था.’’

‘‘बेटी, सभी लोग एक जैसे नहीं हुआ करते. आजकल तुम खुश रहा करो. खुश रहोगी तो तुम्हारा बच्चा भी खूबसूरत व निरोग पैदा होगा.’’

शारदा का स्नेह पा कर हिना अपने को धन्य समझ रही थी कि आज के समय में मां की तरह ध्यान रखने वाली सास भी है, वरना उस ने तो सास के बारे में कुछ और ही सुन रखा था.

नियत समय पर हिना ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया तो घर में खुशियों की शहनाई गूंज उठी.

हिना बेटे की किलकारियों में खो गई. पूरे दिन बच्चे के इतने काम थे कि उस के अलावा और कुछ सोचने की उसे फुरसत ही नहीं थी.

एक दिन शारदा की इस बात ने घर में विस्फोट जैसा वातावरण बना दिया कि हिना धारावाहिक में काम करेगी. पारस, मेरी सहेली के पति हैं और वह एक पारिवारिक धारावाहिक बना रहे हैं. उन्होंने हिना को कई बार देखा है और मेरे सामने प्रस्ताव रखा है कि आदर्श बहू की भूमिका वह हिना को देना चाहते हैं.

‘‘मां, तुम यह क्या कह रही हो. हिना को धारावाहिक में काम दिलवाओगी, वह कहावत भूल गईं कि औरत को खूंटे से बांध कर रखना चाहिए. एक बार औरत के कदम घर से बाहर निकल जाएं तो घर में लौटना कठिन रहता है,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.

शारदा भी क्रोध से भर उठीं, ‘‘क्या मैं औरत नहीं हूं? पति के मरने के बाद मैं ने घर से बाहर जा कर सैकड़ों जिम्मेदारियां पूरी की हैं. मां बन कर तुम्हें जन्म दिया और बाप बन कर पाला है. सैकड़ों कष्ट झेले, पैसा कमाने को छोटीछोटी नौकरियां कीं, कठिन परिश्रम किया, तो क्या मैं ने अपना घर उजाड़ लिया? पुरुष तो सभी जगहों पर होते हैं, रूबी ताई भी तो दफ्तर में नौकरी कर रही है, क्या उस ने अपना घर उजाड़ लिया है. फिर हिना के बारे में ही ऐसा क्यों सोचा जा रहा है?

‘‘अगर तुम हिना को खूंटे से ही बांधना चाहते हो तो पहले मुझे बांधो, रूबी को बांधो. हिना का यही दोष है न कि वह सामान्य से कुछ अधिक ही खूबसूरत है, पर यह उस का दोष नहीं है. अरे, कोई खूबसूरत चीज है तो लोगों की नजरें उस तरफ उठेंगी ही.’’

शारदा के तर्कों के आगे सभी की जुबान पर ताले लग गए थे.

हिना शारदा की गोद में मुंह छिपा कर रो रही थी. फिर अपने आंसुओं को पोंछ कर बोली, ‘‘मां, तुम सचमुच मेरे लिए मेरा आदर्श ही नहीं बल्कि मां भी हो.’’

एक दिन जब हिना का धारावाहिक टेलीविजन पर प्रसारित हुआ तो उस के अभिनय की सभी ने तारीफ की और बधाइयां मिलने लगीं.

हिना उत्तर देती, ‘‘बधाई की पात्र तो मेरी सास हैं, उन्हीं ने मुझे डिप्रेशन से मुक्ति दिलाई और एक नया सम्मान से भरा जीवन दिया.’’

शारदा सिर्फ मुसकरा कर रह जातीं, ‘‘बहू हो या बेटी, दोनों ही एक हैं. दोनों के प्रति एक ही प्रकार से फर्ज निभाना चाहिए.’’

चिड़िया का बच्चा

लेखिका- कोमल तुलसानी

‘टिंग टांग…टिंग टांग’…घंटी बजते ही मैं बोली, ‘‘आई दीपू.’’

मगर जब तक दरवाजा न खुल जाए, दीपू की आदत है कि घंटी बजाता ही रहता है. बड़ा ही शैतान है. दरवाजा खुलते ही वह चहकने लगा, ‘‘मौसी, आप को कैसे पता चलता है कि बाहर कौन है?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘पता कैसे नहीं चलेगा.’’

तभी अचानक मेरे मुंह से चीख निकल गई, मैं ने फौरन दीपू को उस जगह से सावधानी से परे कर दिया. वह हैरान हो कर बोला, ‘‘क्या हुआ, मौसी?’’

मैं आंगन में वहीं बैठ गई जहां अभीअभी एक चिडि़या का बच्चा गिरा था. मैं ने ध्यान से उसे देखा. वह जिंदा था. मैं फौरन ठंडा पानी ले आई और उसे चिडि़या के बच्चे की चोंच में डाला. पानी मिलते ही उसे कुछ आराम मिला. मैं ने फर्श से उठा कर उसे एक डब्बे पर रख दिया. फिर सोच में पड़ गई कि अगर दीपू का पांव इस के ऊपर पड़ गया होता तो? कल्पना मात्र से ही मैं सिहर उठी.

मैं ने ऊपर देखा. पड़ोसियों का वृक्ष हमारे आंगन की ओर झुका हुआ था. शायद उस में कोई घोंसला होगा. बहुत सारी चिडि़यां चूंचूं कर रही थीं. मुझे लगा, जैसे वे अपनी भाषा में रो रही हैं. पशुपक्षी बेचारे कितने मजबूर होते हैं. उन का बच्चा उन से जुदा हो गया पर वह कुछ नहीं कर पा रहे थे.

‘‘करुणा…’’ कमला दीदी की आवाज ने मुझे चौंका दिया. मैं ने फौरन चिडि़या के बच्चे को उठाया और नल के पास ऊंचाई पर बनी एक सुरक्षित जगह पर रख दिया.

छुट्टियों में हमारे घर बड़ी रौनक रहती है. इस बार तो मेरी दीदी और उस के बच्चे भी अहमदाबाद से आए थे. इत्तफाक से विदेश से फूफाजी भी आए हुए थे. फूफाजी को सब लोग ‘दादाजी’ कहते थे. यह विदेशी दादाजी हमारे छोटे शहर के लिए बहुत बड़ी चीज थे. सुबह से शाम तक लोग उन्हें घेरे ही रहते. कभी लोग मेहमानों से मिलने आते तो कभी मेहमान लोग घूमनेफिरने निकल जाते.

मेहमानों के लिए शाम का नाश्ता तैयार कर के मैं फिर चिडि़या के बच्चे के पास चली आई. वह अपना छोटा सा मुंह पूरा खोले हुए था. ऐसा लगता था जैसे वह पानी पीना चाहता है. पर नहीं, पानी तो बहुत पिलाया था. मुझे अच्छी तरह पता भी तो नहीं था कि यह क्या खाएगा?

‘‘ओ करुणा मौसी, चिडि़या को पानी में डाल दो,’’ दीपू ने मेरे पास रखी गेंद उठाते हुए कहा.

मैं ने उसे पकड़ा, ‘‘अरे दीपू, सामने जो सफेद प्याला पड़ा है, उसे ले आ. मैं ने उस में दूधचीनी घोल कर रखी है. इसे भूख लगी होगी.’’

मेरी बात सुन कर दीपू जोर से हंसा, ‘‘मौसी, इसे उठा कर बाहर फेंक दो,’’ कहते हुए वह गेंद नचाते हुए बाहर चला गया.

मैं दूध ले आई, चिडि़या का बच्चा बारबार मुंह खोल रहा था. मैं अपनी उंगली दूध में डुबो कर दूध की बूंदें उस की चोंच में डालने लगी.

‘‘बूआ…’’ मेरी भतीजी उर्मिला की आवाज थी, ‘‘अरे बूआ, यहां क्या कर रही हो?’’ वह करीब आ कर बोली.

मैं ने उसे चिडि़या के बच्चे के बारे में बताया. मैं चाहती थी कि मेरी गैरमौजूदगी में उर्मिला जरा उस का खयाल रखे.

‘‘वाह बूआ, वाह, भला चिडि़या के बच्चे के पास बैठने से क्या फायदा?’’ कह कर वह अंदर चली गई. नल के पास बैठे हुए जो भी मुझे देखता वह खिलखिला कर हंस पड़ता. सब के लिए चिडि़या का बच्चा मजाक का विषय बन गया था.

मैं फिर रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद मैं ने बाहर झांका तो देखा कि मेरी भतीजी जूली, उर्मिला और कुछ अन्य लड़कियां नल के पास आ कर खड़ी हो गई थीं. मैं एकदम चिल्लाई, ‘‘अरे, रुको.’’

मैं उन के पास आई तो वे बोलीं, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘वहां एक चिडि़या का बच्चा है.’’

‘‘चिडि़या का बच्चा? अरे हम ने सोचा, पता नहीं क्या बात है जो आप इतनी घबराई हुई हैं,’’ वे भी जोरदार ठहाके मारती हुई चली गईं.

मैं खीज उठी और शीघ्र ही ऊपर चली गई. वहां आले में रखे एक घोंसले को देखा,जो इत्तफाक से खाली था. मैं ने उस में चिडि़या के बच्चे को रख कर घोंसले को ऊपर एक कोने में रख दिया.

मैं रसोई में आ गई और सब्जी काटने लगी. तभी पड़ोसन सुषमा बोली, ‘‘आज तो पता नहीं, करुणा का ध्यान कहां है? मैं रसोई में आ गई और इसे पता नहीं चला.’’

‘‘इस का ध्यान चिडि़या के बच्चे में है,’’ नमिता ने उसे चिडि़या के बच्चे के बारे में बताया.

‘‘अरे, पक्षी बिना घोंसले के बड़ा नहीं होगा. उसे किसी घोंसले में रखो,’’ सुषमा सलाह देती हुई बोली.

‘‘मैं उसे घोंसले में ही रख कर आई हूं,’’ मैं ने खुश होते हुए कहा.

रात को सब लोग खाना खाने के बाद घूमने गए. शायद किशनचंद के यहां से भी हो कर आए थे, ‘‘भई, हद हो गई, किशनचंद की औरत इतनी बीमार है. इतनी छटपटाहट घर के लोग कैसे देख रहे थे?’’ यह दादाजी की आवाज थी.

सब लोग आंगन में बैठे बातचीत कर रहे थे. दादाजी विदेश की बातें सुना रहे थे, ‘‘भई, हमारे अमेरिका में तो कोई इस कदर छटपटाए तो उसे ऐसा इंजेक्शन दे देते हैं कि वह फौरन शांत हो जाए. भारत न तो कभी बदला है और न ही बदलेगा. अभी मैं मुंबई से हो कर ही राजस्थान आया हूं. वहां मूलचंद की दादी की मृत्यु हो गई. अजीब बात है, अभी तक यहां लोग अग्निसंस्कार करते हैं.’’

सुनते ही अम्मां बोलीं, ‘‘आप लोग मृत व्यक्ति का क्या करते हैं?’’

‘‘अरे, बस एक बटन दबाते हैं और सारा झंझट खत्म. अमेरिका में तो…’’ दादाजी पता नहीं कैसी विचित्र बातें सुना रहे थे.

मैं ने सोने से पहले चिडि़या के बच्चे की देखभाल की और फिर सो गई. सुबह उठते ही देखा, चिडि़या का बच्चा बड़ा ही खुश हो कर फुदक रहा था. दीपू ने उस की ओर पांव बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मौसी, रख दूं पैर इस के ऊपर?’’

‘‘अरे, नहीं…’’ मैं उस का पैर हटाते हुए चीख पड़ी. अचानक मैं ने सामने देखा, ‘‘अरे, यह तो वही आदमी है…’’

शायद जीजाजी ने मेरी बात सुन ली थी. वह बाहर ‘विजय स्टोर’ की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘तुम जानती हो क्या उस आदमी को?’’

मेरे सामने एक दर्दनाक दृश्य ताजा हो उठा, ‘‘हां,’’ मैं ने कहा, ‘‘यह वही आदमी है. एक प्यारा सा कुत्ता लगभग मेरे ही पास पलता था, क्योंकि मैं उसे कुछ न कुछ खिलाती रहती थी. एक दिन वह सामने भाभी के घर से दीदी के घर की तरफ आ रहा था कि इस आदमी का स्कूटर उसे तेजी से कुचलता हुआ निकल गया. कुत्ता बुरी तरह तड़प कर शांत हो गया. हैरत की बात यह थी कि इस आदमी ने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा था.’’

जीजाजी पहले तो ठहाका मार कर हंसे फिर जरा क्र्रोधित होते हुए बोले, ‘‘अब कहीं वह फिर तुम्हें नजर आ जाए तो उसे कुछ कह मत देना. हम कुत्ते वाली फालतू बात के लिए किसी से कहासुनी करेंगे क्या?’’

कुछ दिन पहले की ही तो बात है. पड़ोस में शोर उठा, ‘अरे पास वाली झाडि़यों से सांप निकला है,’ सुनते ही मेरा बड़ा भतीजा फौरन एक लाठी ले कर गया और कुछ ही पलों में खुश होते हुए उस ने बताया कि सांप को मार कर उस ने तालाब में फेंक दिया है.

‘‘क्या?…तुम ने उसे जान से मार दिया है?’’ मैं ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘मारता नहीं तो क्या उसे घर ले आता? अगर किसी को काट लेता तो?’’

एक दिन दादाजी बालकनी में कुछ लोगों के साथ बैठे कौफी पी रहे थे, बाहर का दृश्य देखते हुए बोले, ‘‘अफ्रीका में सूअर को घंटों खौलते हुए पानी में डालते हैं और फिर उसे पकाने के लिए…’’ दादाजी बोले जा रहे थे और मैं सूअर की दशा की कल्पना मात्र से ही तड़प उठी थी. मुझे डर लगने लगा कि कहीं चिडि़या के बच्चे को कोई बाहर न फेंक दे.

घोंसले में झांका तो देखा कि बच्चा उलटा पड़ा था. मैं ने डरतेडरते हाथों में कपड़ा ले कर उसे सीधा किया. बिना कपड़ा लिए मेरे नाखून उसे चुभ जाते.

‘‘करुणा मौसी, आप ने चिडि़या के बच्चे को हाथ लगाया?’’ ज्योति ने पूछा.

‘‘हां, क्यों?’’ मैं ने उसे आश्चर्य से देखा.

‘‘अब देखना मौसी, चिडि़या के बच्चे को उस की मां अपनाएगी नहीं. मनुष्य के हाथ लगाने के बाद दूसरे पक्षी उस की ओर देखते भी नहीं.’’

‘‘अरे, उठाती कैसे नहीं, आंगन के बीचोबीच पड़ा था. किसी का पांव आ जाता तो?’’ मैं ने कहा और अपने काम में लग गई.

3 दिन गुजर गए. जराजरा सी देर में मैं चिडि़या के बच्चे की देखभाल करती. चौथे दिन बहुत सवेरे ही चिडि़यों के झुंड के झुंड घोंसले के पास आ कर जोरजोर से चींचीं, चूंचूं करने लगे. मुझे लगा जैसे वे रो रहे हों. मैं ने घोंसले के अंदर देखा. चिडि़या का बच्चा बिलकुल शांत पड़ा था. मेरा दिल भर आया. तरहतरह के खयाल मन में उठे. रात को वह बिलकुल ठीक था. कहीं सच में दीपू ने उस के ऊपर पांव तो नहीं रख दिया?

चिडि़या के बच्चे पर किसी तरह के हमले का कोई निशान नहीं था. मगर फिर भी मैं ने दीपू से पूछा, ‘‘सच बता दीपू, तू ने चिडि़या के बच्चे को कुछ किया तो नहीं?’’

पर दीपू ने तो जैसे सोच ही रखा था कि मौसी को दुखी करना है. वह बोला, ‘‘मौसी, मैं ने सुबह उठते ही पहले उस का गला दबाया और फिर सैर करने चला गया.’’

मैं सरला दीदी से बोली, ‘‘दीदी, ऐसा नहीं लगता कि यह आराम से सो रहा है?’’

दीपू ने मुझे दुखी देख कर फिर कहा, ‘‘मौसी, मैं ने इसे मारा ही ऐसे है कि जैसे हत्या न लग कर स्वाभाविक मौत लगे.’’

पता नहीं क्यों, मुझ से उस दिन कुछ खायापिया नहीं गया. संगीतशाला भी नहीं गई. दिल भर आया था. कागजकलम ले कर दिल के दर्द को रचना के जरिए कागज की जमीन पर उतारने लगी. रचना भेजने के बाद लगा कि जैसे मैं ने उस चिडि़या के बच्चे को अपनी श्रद्धांजलि दे दी है.

एक बार फिर: सुमित को क्या बताना चाहती थी आरोही

आरोही ने रात 8 बजे औफिस से निकलते ही जय को फोन किया, ‘‘मैं अभी निकली हूं, तुम घर पहुंच गए?’’

‘‘हां, जल्दी फ्री हो गया था, सीधे घर ही आ गया. औफिस नहीं आया फिर.’’

‘‘डिनर का क्या करना है? कुछ बना लोगे या और्डर करना है? मु  झे भी घर आतेआते 1 घंटा तो लग ही जाएगा.’’

‘‘और्डर कर दो यार, कुछ बनाने का मन नहीं… और हां आइसक्रीम भी खत्म हो गई है, वह भी और्डर कर दो.’’

आरोही ने फोन रख दिया, दिन काफी व्यस्त रहा था, शारीरिक और मानसिक रूप से काफी थक गई थी. अभी भी दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था…

जय और आरोही एक ही कंपनी में अलगअलग डिवीजन में काम करते हैं. आरोही पुणे की है और मुंबई में 2 साल से एक बड़ी कंपनी में जय से बड़ी पोस्ट पर है और बहुत अच्छी तरह अपनी लाइफ जी रही है. जय के साथ 1 साल से लिव इन रिलेशनशिप में रह रही है. दोनों एक मीटिंग में मिले थे, एक ही बिल्डिंग में दोनों के औफिस हैं, बस अलगअलग हैं, जय दिल्ली का है. दोनों एकदूसरे के साथ खुशीखुशी फ्लैट शेयर कर रहे हैं और काम भी मिलबांट कर करते हैं.

दोनों के परिवार वालों को नहीं पता कि दोनों लिव इन में रहते हैं. आरोही का जय का मस्त स्वभाव बहुत अच्छा लगता है. जय को आरोही का जिम्मेदार स्वभाव भाता है. दोनों एकदूसरे से बिलकुल अलग हैं पर एकदूसरे को बहुत पसंद करते हैं. मगर आजकल जय के बारे में जितनी गहराई से सोचती जा रही थी, कहीं कुछ खल रहा था, जिस पर पहले कभी ध्यान नहीं गया था…

तभी उस की मम्मी रेखा का फोन आ गया, दिन में एक बार आरोही की अपनी फैमिली से बात हो ही जाती. बात कर के आरोही ने डिनर और्डर कर दिया. वह जब घर पहुंची, जय कोई मूवी देख रहा था. फ्रैश हो कर आरोही भी लेट गई. इतने में खाना भी आ गया.

आरोही ने कहा, ‘‘चलो जय, खाना लगा लें?’’

‘‘प्लीज, तुम ही लगा लो, मूवी छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा है,’’ जय ने कहतेकहते आरोही को फ्लाइंग किस दे दिया. आरोही मुसकरा दी. दोनों ने डिनर साथ किया. मूवी खत्म होने पर जब जय सोने आया, आरोही लेटीलेटी फोन पर ही कुछ देख रही थी. जय ने आरोही के पास लेट कर अपनी बांहों में भर लिया.

आरोही भी उस के सीने से लगती हुई बोली, ‘‘कैसा था दिन?’’

‘‘बोर.’’

आरोही चौंकी, ‘‘क्यों?’’

‘‘बहुत काम करना पड़ा.’’

‘‘तो इस में बुराई क्या है?’’

‘‘अरे यार, मेरा मन ही नहीं करता कोई काम करने का, मन होता है कि बस आराम करूं. घर में भी सब मु  झे कामचोर कहते हैं,’’ जय ने हंसते हुए बताया और आगे शरारत से कहा, ‘‘असल में बस मन यही होता है कि या आराम करूं या तुम्हें प्यार.’’

‘‘पर डियर, खाली आराम या मु  झे प्यार करने से तो लाइफ नहीं चलेगी न?’’

‘‘चल जाएगी बड़े आराम से… देखो, तुम्हारी सैलरी मु  झ से बहुत ज्यादा है, इस में हमारा घर आसानी से चल सकता है और तुम हो भी अपने पेरैंट्स की इकलौती संतान, वहां का भी सब तुम्हारा है. चलो, शादी कर लेते हैं. मजा आ जाएगा,’’ कहतेकहते जय उस के थोड़ा और नजदीक आ गया.

2 युवा दिलों की धड़कनें जब तेज होने लगीं तो बाकी बातों की फिर जगह न रही. सब भूल दोनों एकदूसरे में खोते चले गए. अगले कुछ दिन तो रोज की तरह ही बीते, दोनों पतिपत्नी तो नहीं थे पर लिव इन में रहने वाले रहते तो पतिपत्नी की ही तरह हैं. रिश्ते पर मुहर नहीं लगी होती है पर रिश्ता तो होता ही है.

कभी नोक  झोंक भी होती, फिर रूठनामनाना भी होता, पर कुछ बातें आरोही को आजकल सचमुच खल रही थीं, बातें तो छोटी थीं पर उन पर ध्यान तो जा ही रहा था. हर तरह के खर्च आरोही के ही जिम्मे आते जा रहे थे, सारे बिल्स, खानेपीने के सामान की जिम्मेदारी, फ्लैट का किराया भी काफी दिन से जय ने नहीं दिया था. यह विषय आने पर कहता कि यार, तुम तो मु  झ से ज्यादा कमाती हो, मेरे पास तो प्यार है, बस.

ऐसा नहीं कि जय की सैलरी बहुत कम थी, हां, आरोही जितनी नहीं थी. इस पर

आरोही कहना तो बहुत कुछ चाहती थी पर जय को इतना प्यार करने लगी थी कि उस से पैसों की बात करना उसे बहुत छोटी बात लगती थी. वह यही सोचती कि एक दिन तो दोनों शादी कर ही लेंगे, क्या फर्क पड़ता है, पर जितना जय को दिन ब दिन जान रही थी, वह मन ही मन थोड़ा अलर्ट हो रही थी. 6 महीने और बीते, आरोही ने नोट किया, जय जब भी अपने घर दिल्ली जाता, वहां से उसे न कोई फोन करता, न किसी तरह का कोई मतलब रखता. एक दिन उस के कलीग रवि ने आरोही को हिंट दिया कि जय अपने पेरैंट्स की पसंद की लड़की से शादी करने के लिए तैयार है, इसलिए उस के दिल्ली के चक्कर बढ़ गए हैं.

आरोही के लिए यह एक बड़ा   झटका था. वह अकेले में खूब रोई, सचमुच जय को अपना जीवनसाथी मानने लगी थी. बहुत दुखी भी रही पर वह आजकल की हिम्मती, आत्मनिर्भर और इंटैलीजैंट लड़की थी. जीभर कर रोने के बाद वह सोचने लगी कि अच्छा हुआ,जय की सचाई पता चल गई. वही तो सारे खर्च, सारे काम करती आ रही थी. ठीक है, अब ब्रेकअप होगा, ठीक है, कोई बात नहीं, दुनिया में न जाने कितनी लड़कियों के साथ ऐसा होता है. मैं एक चालाक लड़के के लिए अब और नहीं रोऊंगी, एक बार फिर अपनी लाइफ शुरू करूंगी.

जय जब वापस आया तो आरोही ने उसे लंच टाइम में औफिस की कैंटीन में आने के लिए कहा और सीधेसीधे बात करना शुरू किया, ‘‘देखो जय, मु  झे साफसाफ बात करना पसंद है… अब हम साथ नहीं रह सकते.’’

जय चौंका, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मैं और बेवकूफ नहीं बन सकती, तुम आराम से अपने पेरैंट्स की मरजी से शादी करो, मु  झे कोई प्रौब्लम नहीं है. मैं तुम्हारे साथ रह कर काफी आर्थिक रूप से नुकसान उठा चुकी हूं. अब इतनी भी बेवकूफ नहीं कि तुम्हें पालती रहूं और जब तक तुम्हारी शादी न हो, तुम्हारे शरीर की जरूरतों के लिए एक सुविधा बनी नहीं… अब यह बताओ मैं दूसरा फ्लैट ढूंढ़ू या तुम जाओगे?’’

जय का चेहरा शर्म और अपमान से काला हो गया.   झेंपते हुए बोला, ‘‘मैं ही चला

जाता हूं.’’

‘‘ठीक है, अगर हो सके तो कल शनिवार है, कल कहीं भी शिफ्ट हो जाना, मैं पुणे जा

रही वीकैंड में… मेरे आने से पहले अपना सामान ले जाना.’’

आरोही ने औफिस से जल्दी उठ कर रात की ही बस पकड़ ली और पुणे चली गई. शिवनेरी बस पुणे और मुंबई के बीच चलने वाली आरामदायक बसें हैं, सोफे जैसी सीट पर बैठ कर आरोही बीते दिनों को याद कर उदास तो हो रही थी पर वह लाइफ में आगे बढ़ने के लिए भी खुद को संभालती जा रही थी.

कई बार आंखें नम हुईं, कई बार दिल बैठने को हुआ पर जय की चालाकियां बहुत दिनों से देख रही थी, बहुत कुछ खलने लगा था. दिमाग कहता रहा जो हुआ, अच्छा हुआ.

पुणे आने तक दिल भी दिमाग का साथ देने लगा कि अच्छा हुआ, एक लालची, स्वार्थी और कामचोर इंसान का साथ छूटा. मजबूत कदमों से चलते हुए उस ने घर पहुंच कर खुद को मां की नर्म, स्नेही बांहों में सौंप दिया. मां मां थीं, उदास चेहरा देख कर सम  झ गईं बेटी रात को यों ही तो नहीं आई. हमेशा सुबह की बस पकड़ कर आती थी, पर उस समय किसी ने कुछ नहीं पूछा.

उस के पापा संजय ने उसे खूब दुलारा. खाना खा कर थकी हूं मां, सुबह बात करते हैं, कह कर आरोही सोने लेट गई.

शनिवार और रविवार आरोही ने हमेशा की तरह अपने मम्मीपापा के साथ बिताए, तीनों थोड़ा घूम कर आए, बाहर खायापीया. रेखा आरोही की पसंद की चीजें बनाती रहीं, आरोही का बु  झा चेहरा देख 1-2 बार पूछा, ‘‘आरोही, सब ठीक तो है न? औफिस के काम का स्ट्रेस है क्या?’’

‘‘नहीं मम्मी, सब ठीक है.’’

रेखा सम  झदार मां थीं. सम  झ गईं, बेटी अभी अपने मन की कोई बात शेयर करने के मूड में नहीं है, जब ठीक सम  झेगी, खुद ही शेयर कर लेगी. मांबेटी की बौंडिंग अच्छी है, जब ठीक लगेगा, बताएगी. संडे की रात आरोही वापस मुंबई आने के लिए पैकिंग कर रही थी.

संजय ने कहा, ‘‘बेटा, एक परिचित हैं, उन्होंने अपने बेटे सुमित के लिए तुम्हारे लिए

बात की है. तुम जब ठीक सम  झो, उन से मिल लो, कहो तो अगली बार तुम्हारे आने पर उन्हें बुला लूं?’’

बैग बंद करते हुए आरोही के हाथ पल भर को रुके, फिर रेखा की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘मम्मी, मु  झे थोड़ा समय दो.’’

संजय ने कहा, ‘‘अरे बेटा, अब तुम 30 की हो गई, वैलसैटल्ड हो… यह परिवार अच्छा है. एक बार मिल तो लो. सबकुछ तुम्हारी हां कहने के बाद ही होगा.’’

आरोही ने कहा, ‘‘इस समय मु  झे जाने दें, मैं बहुत जल्दी आप से इस बारे में बात कर लूंगी.’’

संजय और रेखा आज के जमाने के पेरैंट्स थे… उन्होंने बेटी पर अपनी मरजी कभी नहीं थोपी. उसे भरपूर सहयोग दिया हमेशा. यह भी एक कारण था कि आरोही बहुत स्ट्रौंग, बोल्ड और इंटैलीजैंट थी, वह अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़की थी, फिर भी अपने पेरैंट्स की बहुत रिस्पैक्ट करती.

रेखा ने मन ही मन कुछ अंदाजा लगाया कि कोई बात है जरूर, हमेशा खिला रहने वाला

चेहरा यों ही नहीं बु  झा, फिर कहा, ‘‘ठीक है,

तुम आराम से जाओ… ये बातें तो फोन पर भी

हो जाएंगी.’’

मुंबई अपने फ्लैट पर आ कर आरोही ने देखा कि जय अपना सारा सामान ले जा चुका है… खालीखाली तो लगा पर उस ने अपनेआप को इतने समय में संभाल लिया था. उस ने यह बात स्वाभाविक तौर पर ली. खुद से ही कहा

कि इतने दिन का साथ था, कोई बात नहीं.

आदत थी उस की, छूट जाएगी. ऐसे   झूठे रिश्तों के लिए अफसोस करने में वह अपनी लाइफ नहीं बिता सकती. अभी बहुत कुछ करना है, खुश रहना है, जीना है, लाइफ जय जैसों के साथ खत्म नहीं हो जाती.

बस यह विचार आते ही आरोही रोज की तरह औफिस पहुंची. रवि ने बताया कि जय किसी दोस्त के साथ रहने चला गया है… तुम ने जो किया, ठीक किया.

जय के औफिस की बिल्डिंग से आतेजाते जब भी कभी उस का आमनासामना हुआ, आरोही के निर्विकार चेहरे को देख जय की कभी हिम्मत ही नहीं हुई उस से बात करने की. कुछ महीनों बाद आरोही ने पेरैंट्स के कहने पर सुमित से मिलना स्वीकार कर लिया.

सुमित मुंबई में ही काम करता था. वह अपने 2 दोस्तों के साथ फ्लैट शेयर करता था. पुणे में सुमित अपने मम्मीपापा, विकास और आरती और छोटी बहन सीमा के साथ उन के घर आया. पहली मीटिंग में तो सब एकदूसरे से मिल कर खुश हुए.

मुंबई में ही होने के कारण सुमित चाहता था कि वह मुंबई में ही जौब करने वाली लड़की के साथ शादी करे. सब को यह सोच कर अच्छा लग रहा था कि दोनों पुणे आतेजाते रहेंगे. दोनों के ही घर एक जगह थे, सबकुछ ही देखते तय होता गया. आरोही ने पेरैंट्स की पसंद का मान रखा, सुमित से जितना मिली, वह ठीक ही लगा.

आरोही चाहती थी कि नया रिश्ता वह ईमानदारी के साथ शुरू करे, वह

सुमित को जय के साथ लिव इन में रहने के बारे में बताना चाहती थी. इस बारे में जब उस ने अपने पक्के दोस्त रवि से बात की, तो रवि ने कहा, ‘‘क्या जरूरत है? मत बताओ, कोई भी लड़का कितनी भी मौडर्न हो, यह बरदाश्त नहीं करेगा.’’

‘‘क्यों? अगर वह मु  झे बताए कि वह भी किसी गर्लफ्रैंड के साथ लिव इन में रहा है, तो मैं तो कुछ नहीं कहूंगी, उलटा इस बात पर खुश होऊंगी कि मेरे होने वाले पति ने ईमानदारी के साथ मु  झ से अपना सच शेयर किया.’’

‘‘यार, तुम आरोही हो. सब से अलग, सब से प्यारी लड़की,’’ फिर आरोही को हंसाने के लिए शरारत से कहा, ‘‘मेरी बीवी आज तक मेरे कालेज की गर्लफ्रैंड को ले कर ताने मारती है… अब बोलो.’’

आरोही हंस पड़ी, ‘‘बकवास मत करो, जानती हूं मैं तुम्हारी बीवी को, वह बहुत अच्छी हैं.’’

‘‘हां, यही तो… सम  झो, लड़के जल्दी हजम नहीं करते ऐसी बातों को… वह तो तुम बहुत बड़े दिल की हो.’’

रवि ने काफी सम  झाया पर आरोही जब सुमित के कहने पर उस के साथ डिनर पर गई, तो आरोही ने जय के बारे में सब बता दिया.

सुन कर सुमित मुसकराया, ‘‘तुम बहुत सच्ची हो. आरोही, मु  झे इन बातों का फर्क नहीं पड़ता, मेरे भी 2 ब्रेकअप हुए हैं, क्या हो गया. यह तो लाइफ है. होता ही रहता है. अब तुम मिली हो, बस मैं खुश हूं.’’

आरोही के दिल से जैसे बो  झ हट गया.

1-2 बार और सुमित से मिलने के बाद उस ने अपने पेरैंट्स को इस शादी के लिए हां कर दी. उन की खुशी का ठिकाना न था. 4 महीने बाद की शादी की डेट भी फिक्स हो गई.

दोनों पक्ष शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गए. बहुत तो नहीं पर सुमित और आरोही बीचबीच में मिलते रहते, दोनों औफिस के काम में व्यस्त रहते पर चैटिंग, फोन कौल्स चलते रहते. शादी पुणे में ही धूमधाम से हुई. दोनों के काफी कलीग्स आए.

मुंबई आ कर आरोही के ही फ्लैट में सुमित अपने सामान के साथ शिफ्ट कर गया.

दोनों खुश थे, आरोही ने जय का खयाल पूरी तरह से दिलोदिमाग से निकाल दिया था. 1 साल बहुत खुशी से बीता.

आरोही अपनी लाइफ से अब पूरी तरह संतुष्ट व सुखी थी. दोनों छुट्टी होने पर कभी साथ पुणे निकल जाते, कभी किसी के पेरैंट्स मिलने आ जाते. सब ठीक था, आरोही की अगली 2 प्रोमोशंस तेजी से हुई, वह अब काफी अच्छे पैकेज पर थी, उस ने बहुत जल्दी अब एक अपना फ्लैट लेने की इच्छा जाहिर की.

सुमित ने कहा, ‘‘देखो आरोही, तुम्हारी सैलरी मु  झ से अब काफी ज्यादा है, तुम चाहो तो ले लो.’’

आरोही चौंकी, ‘‘अरे, मेरा पैसा तुम्हारा पैसा अलगअलग है क्या? हमारा भी प्यारा सा अपना घर होगा, कब तक इतना किराया देते रहेंगे?’’

‘‘देख लो, तुम ही सोच लो, मैं तो अपनी सैलरी से ईएमआई दे नहीं पाऊंगा, घर भी पैसा भोजना होता है मु  झे.’’

आरोही ने सुमित के गले में बांहें डाल दीं. कहा, ‘‘ठीक है, तुम बस मेरे साथ फ्लैट पसंद करते चलो, सब हो जाएगा.’’

यह सच था कि सुमित की सैलरी आरोही से बहुत कम थी और जब से आरोही की प्रोमोशंस हुई थीं, सुमित की मेल ईगो बहुत हर्ट होने लगी थी. वह अकसर उखड़ा रहता. आरोही यह सम  झ रही थी, उसे खूब प्यार करती, उस की हर जरूरत का ध्यान रखती और जब आरोही ने कहा कि सुमित, मैं सोच रही हूं, मैं औफिस जानेआने के लिए एक कार ले लूं. बस में ट्रैफिक में बहुत ज्यादा टाइम लग रहा है. मजा आएगा, फिर पुणे भी कार से जायाआया करेंगे, अभी तो बस और औटो में बैठने का मन नहीं करता.’’

सुमित ने कुछ तलख लहजे में कहा, ‘‘तुम्हारे पैसे हैं, चाहे उड़ाओ चाहे बचाओ, मु  झे क्या,’’ कह कर सुमित वहां से चला गया.

आरोही इस बदले रूप पर सिर पकड़ कर बैठी रह गई. 2 महीने में ही आरोही ने फ्लैट और कार ले ही ली. सुमित मशीन की तरह पसंद करने में साथ देता रहा.

थोड़ा समय और बीता तो आरोही को

सुमित के व्यवहार में कुछ और बदलाव दिखे, अब वह कहता, ‘‘तुम ही पुणे जा कर सब से मिल आओ, तो कभी कहता टूर पर जा रहा हूं, 2 दिनों में आ जाऊंगा.’’

आरोही ने कहा, ‘‘मैं भी चलूं? कार से चलते हैं, मैं घूम लूंगी… तुम अपना काम करते रहना. आनेजाने में दोनों का कुछ चेंज हो जाएगा.

सुमित ने साफ मना कर दिया. वह चला गया. अब वह पहले की तरह बाहर जा कर आरोही से उस की खबर बिलकुल न लेता. आरोही फोन करती तो बहुत बिजी हूं, घर आ

कर ही बात करूंगी, कह कर फोन रख देता. सुमित बहुत बदल रहा था और इस का कारण

भी आरोही के सामने जब आया, तो वह ठगी सी रह गई.

एक सुबह सुमित सो रहा था, उस का मोबाइल साइलैंट था, पर जब कविता नाम उस की स्क्रीन पर बारबार चमकता रहा, आरोही ने धीरे से फोन उठाया और दूसरे कमरे में जा कर जैसे ही हैलो कहा, फोन कट गया. आरोही ने यों ही व्हाट्सऐप चैट खोल ली और जैसेतैसे फिर कविता और सुमित की चैट पढ़ती गई, साफ हो गया कि दोनों का जबरदस्त अफेयर चल रहा है, गुस्से के मारे आरोही का खून खौल उठा.

साफसाफ सम  झ आ गया कि सुमित की बेरुखी का क्या कारण है. वह चुपचाप सोफे पर बैठी कभी रोती, कभी खुद को सम  झाती, सुमित के जागने का इंतजार कर रही थी, सुमित जब सो कर उठा, आरोही के हाथ में अपना फोन देख चौंका. आरोही का चेहरा देख उसे सब सम  झ आ गया. बेशर्मी से बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘तुम बताओ, यह सब क्या चल रहा है?

‘‘तो तुम भी तो शादी से पहले लिव इन रिलेशनशिप में रही थी?’’

आरोही हैरान रह गई. बोली, ‘‘ये सब तो शादी से पहले की बात है और तुम्हें सब पता था. मैं ने तुम्हें शादी के बाद तो कभी धोखा नहीं दिया? तुम तो मु  झे अब धोखा दे रहे हो…’’

‘‘असल में मैं तुम से अलग होना चाहता हूं… मैं अब कविता से शादी करना चाहता हूं.’’

आरोही ने गुस्से से कहा, ‘‘तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आ रही है?’’

‘‘तुम्हें आई थी लिव इन में रहते हुए?’’

‘‘पहले की बात अब इतने दिनों बाद करने का मतलब? अब अपनी ऐय्याशी छिपाने के लिए मु  झ पर ऊंगली उठा रहे हो?’’

‘‘मैं ने अपना ट्र्रांसफर दिल्ली करवा लिया है. आज मैं पुणे जा रहा हूं,’’ कह कर सुमित आरोही की तरफ कुटिलता से देखते हुए मुसकराया और वाशरूम चला गया.

आरोही को कुछ नहीं सू  झ रहा था. यह क्या हो गया, अपना अफेयर चल रहा है, तो गड़े मुरदे उखाड़ कर मु  झ पर ही इलजाम डाल रहा है. मेड आ गई तो वह भी औफिस के लिए तैयार होने लगी और चुपचाप सुमित को एक शब्द कहे बिना औफिस चली गई.

रवि ने उस की उड़ी शकल देखी तो उसे कैंटीन ले गया और परेशानी का कारण पूछा. देर से रुके आंसू दोस्ती की आवाज सुन कर ही बह निकले. वह सब बताती चली गई. इतने में दोनों की एक और कलीग दोस्त सान्या भी आ गई. सब जान कर वह भी हैरान रह गई. थोड़ी देर बाद तीनों उठ कर काम में लग गए.

आरोही के दिल को चैन नहीं आ रहा था. फिर एक और धोखा. क्या करे. क्या यह रिश्ता किसी तरह बचाना चाहिए? नहीं, जबरदस्ती

कैसे किसी को अपने से बांध कर रखा जा सकता है? यह तो प्यार, विश्वास का रिश्ता है. अब तो कुछ भी नहीं बचा. वह अपना आत्मसम्मान खो कर तो जबरदस्ती इस रिश्ते को नहीं ढो सकती.. जो होगा देखा जाएगा. ऐसे रिश्ते का टूटना ही अच्छा है.

जब रात को आरोही घर लौटी, सुमित जा चुका था. वह अपनी पैकिंग अच्छी तरह

कर के गया था, लगभग सारा सामान ले गया. कुछ दिन बाद ही आरोही को तलाक के पेपर मिले तो वह रो पड़ी. यह क्या हो गया, सब बिखर गया. उस की कहां क्या गलती है.

सुमित ने उसे फोन किया और कहा, ‘‘साइन जल्दी कर देना, मैं कोर्ट में यही कहने वाला हूं कि तुम चरित्रहीन हो, तुम पहले भी लिव इन में बहुत समय रह चुकी हो और मु  झे ये सब बताया नहीं गया था.’’

‘‘पर मैं ने तुम्हें सारा सच बता दिया था और तुम्हें कोई परेशानी नहीं थी.’’

‘‘पर तुम्हारे पास कोई सुबूत नहीं है न कि तुम ने मु  झे सब बता दिया था.’’

आरोही चुप रह गई. अगले दिन रवि और सान्या ने सब जान कर अपना सिर पकड़ लिया. फिर सान्या ने पूछा, ‘‘आरोही, तुम ने कैसे बताया था सुमित को जय के बारे में?’’

‘‘मिल कर, फिर बहुत कुछ चैटिंग में भी इस बारे में बात होती रही थी.’’

‘‘चैट कहां है?’’

‘‘उन्हें तो मैं डिलीट करती रहती हूं. सुमित भी जानता है कि मु  झे चैट डिलीट करते रहने की आदत है.’’

‘‘अभी राजनीति में, ड्रग केसेज में जो इतनी चैट खंगाल दी गईं, वह भी नामी लोगों की, तो इस का मतलब यह मुश्किल भी नहीं.’’

‘‘और मेरे पास कविता और उस के अफेयर का सुबूत है… मैं ने जब उन दोनों की चैट पढ़ी, खूब सारी पिक्स ले ली थीं.’’

‘‘यह अच्छा किया तुम ने, गुस्से में होश नहीं खोया, दिमाग लगाया. भांडुप में मेरा कजिन सुनील पुलिस इंस्पैक्टर है, उस से बात करूंगी, वह तुम्हारी पुरानी चैट निकलवा पाएगा, इसे तो तलाक हम देंगे. बच्चू याद रखेगा.’’

सान्या ने उसी दिन सुनील से बात की. उस ने कहा सब हेल्प मिल जाएगी. रवि और सान्या आरोही के साथ खड़े थे. वीकैंड आरोही ने पुणे जा कर अपने पेरैंट्स से बात करने का, उन्हें पूरी बात बताने का मन बनाया.

अभी तक आरोही ने अपने पेरैंट्स से कुछ भी शेयर नहीं किया था. सुमित आरोही से अब बिलकुल टच में नहीं था. कभीकभी एक मैसेज तलाक के बारे में कर देता.

संजय और रेखा पूरी बात सुन कर सिर पकड़ कर बैठ गए. कुछ सम  झ न आया, दोनों को जय के बारे में भी अब ही पता चला था, क्या कहते, बच्चे जब आत्मनिर्भर  हो कर हर फैसला खुद लेने लगें तो सम  झदार पेरैंट्स, कुछ कहने का फायदा नहीं है, यह भी जानते हैं. जय के साथ, सुमित के साथ बेटी का अनुभव अच्छा नहीं रहा, प्यारी, सम  झदार बेटी दुखी है, यह समय उसे कुछ भी ज्ञान देने का नहीं है.

इस समय उसे अपने पेरैंट्स की सपोर्ट चाहिए. कोई ज्ञान नहीं… और सुमित तो गलत कर ही रहा था… जय की बात जरूर अजीब लगी थी, पर अब वे बेटी के साथ थे.

संजय ने कहा, ‘‘मैं आज ही वकील से बात करता हूं.’’

रेखा ने सुमित के पेरैंट्स अनिल और रमेश से बात की. मिलने के लिए कहा, उन्होंने आरोही को चरित्रहीन कहते हुए रेखा के साथ काफी अपमानजनक तरीके से बात की तो सब को सम  झ आ गया, यह रिश्ता नहीं बचेगा.

रवि और सान्या आरोही के टच में थे. सुनील ने काफी हिम्मत बंधा दी थी, बहुत कुछ सोच कर सुमित को आरोही ने फोन किया, ‘‘सुमित, मैं पुणे आई हुई हूं, कल सुबह चली जाऊंगी. आज तुम से मिलना चाहती हूं… कैफे कौफी डे में आज शाम को 5 बजे आओगे?’’

‘‘ठीक है,’’ पता नहीं क्या सोच कर सुमित मिलने के लिए तैयार हो गया.

आरोही बिना पेरैंट्स को बताए सुमित से मिलने के लिए पहुंची. दिल में अपमान और क्रोध का एक तूफान सा था. आज भड़ास निकालने का एक मौका मिल ही गया था. एक टेबल पर बैठा सुमित उसे देख कर जीत और बेशर्मी के भाव के साथ मुसकराया. उस के बैठते ही कहा, ‘‘देखो, गिड़गिड़ाना मत, मु  झे दीनहीन लड़कियां अच्छी नहीं लगतीं.’’

यह सुनते ही आरोही के दिल में कुछ बचा भी एक पल में खत्म हो गया. मजबूत स्वर में

बोली, ‘‘मु  झे भी धोखेबाज लोग अच्छे नहीं लगते. आज तुम्हें बस इतना बताने आई हूं कि मैं जा कर तलाक के पेपर साइन कर दूंगी… अभी तक पूरी तैयारी भी तो करनी थी.’’

सुमित उस की आवाज की मजबूती पर चौंका, ‘‘कैसी तैयारी?’’

‘‘तुम मु  झे चरित्रहीन बताने वाले हो न? मैं ने भी तुम्हारी और कविता की सारी चैट के फोटो ले लिए थे और इंस्पैक्टर सुनील हमारी वे चैट निकाल रहे हैं, जिन में मैं ने तुम्हें साफसाफ जय के बारे में पहले ही बता दिया था और तुम्हें

उस में कोई आपत्ति नहीं थी. तुम्हारे ऊपर तो ऐसीऐसी बात उठेगी कि किसी लड़की को आगे धोखा देना भूल जाओगे, सारी ऐयाशियां न भूल जाओ तो कहना.

‘‘मैं कभी कमजोर लड़की नहीं रही… तुम्हारे जाने का अफसोस हो ही नहीं सकता

मु  झे, मैं खुश हूं कि जल्द ही तुम से पीछा छूट गया. मैं तो एक बार फिर जीवन में आगे बढ़ने के लिए पूरी तरह तैयार हूं. अब कोर्ट में अपने वकील के साथ मिलेंगे,’’ कह कर मुसकराते हुए आरोही खड़ी हो गई. फिर कुछ याद करते हुए बैठ गई. वेटर को इशारा करते हुए बिल मांगा और कहा, ‘‘कौफी भले ही ठंडी हो गई थी, भले ही पी भी नहीं, पर आज एक बार फिर मेरे आत्मविश्वास को देख कर तुम जैसे, जय जैसे पुरुष की यह उड़ी शकल देखने में बहुत मजा आया,’’ कहतेकहते उस ने पेमैंट की और वहां से निकल गई.

सुमित आने वाले तूफान से अभी से घबरा गया था.

बेइज्जती पाने की होड़

पहले मैं इस भरम में जीता था कि हर इनसान इज्जत के साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहता है लेकिन बाद में मेरी इस सोच में बदलाव तब आया जब मुझे अपनी खुद की आंखों से बेइज्जती के साथ जीनेमरने की कसमें खाने वाले धुरंधरों के दर्शन करने का मौका मिला.

भारत की खोज बड़े ही मौज के साथ वास्को डी गामा ने की थी, लेकिन बेइज्जती के बोझ की खोज किस रोज और किस ने की थी, यह बता पाना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल आम आदमी के लिए बिना रीचार्ज किए स्मार्ट फोन की बैटरी को पूरा दिन चलाना है.

कुछ लोग बेइज्जत होने को अपना बुनियादी हक मानते हैं और इसे पाने के लिए वे लगातार अपनी इज्जत को तारतार करते हुए इसी जद्दोजेहद में लगे रहते हैं. ‘बेइज्जती पिपासु’ लोगों को अपनी पूरी उम्र इज्जत की प्राणवायु हजम नहीं होती है. इज्जत भरी जिंदगी की इच्छा से ही ‘बेइज्जती प्रिय’ लोग सहम जाते हैं और इज्जत जैसी नुकसान पहुंचाने वाली और मारक चीज से उचित दूरी बना कर चलते हैं. बेइज्जत होना इन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों में शुमार होता है.

बेइज्जती के नशेड़ी उलट हालात में भी बेइज्जती का हरण कर उस का वरण करने में कामयाब हो जाते हैं. आम का सीजन हो या केले का, ये लोग हमेशा से ही सरेआम बेइज्जती से गले मिलना पसंद करते हैं ताकि सार्वजनिक जिंदगी में ट्रांसपेरैंसी बनी रहे.

इसी ट्रांसपेरैंसी और ईमानदारी के चलते ये जल्द ही बेइज्जती के वामन रूप से विराट रूप धर लेते हैं. हर देश, काल और हालात में ‘बेइज्जती उपासक’ अपनी निष्ठा और निष्ठुरता से बेइज्जती हासिल कर ही लेते हैं.

बेइज्जती के इस धंधे में कभी मंदी नहीं आती है क्योंकि बेइज्जती में हमेशा नकद से ही आप का कद बढ़ता रहता है और उधार से बेइज्जती की धार कुंद होती चली जाती है.

विजय माल्या और नीरव मोदी ने भले ही बैंक से कर्ज ले कर बैंक को चूना लगा दिया हो, लेकिन देश से भाग कर, बेइज्जत होने की दौड़ में सब को पछाड़ कर ‘बेइज्जती उद्योग’ को चार चांद लगा दिए हैं.

कुछ लोगों में बेइज्जत होने का जुनून ही उन के सुकून की वजह होता है. बेइज्जती का घूंट वे कहीं से भी लूट लेते हैं. गलती से मिली इज्जत की वाह, इन की धमनियों में होने वाली बेइज्जती के नियमित बहाव को नहीं रोक पाती है.

बेइज्जती प्रदेश के मूल निवासी, चाहे अपने निवास पर हों या दूसरी किसी जगह के प्रवास पर, वे बेइज्जती की लौजिंगबोर्डिंग हमेशा अपने शरीर पर धारण किए रहते हैं.

इस प्रदेश के मूल निवासी हमेशा बेइज्जत होने के नएनए मौके और तरीके खोजने की कोशिश करते रहते हैं ताकि बेइज्जती की बोरियत से बचा कर इसे समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके.

लगातार बेइज्जत होना भी एक ऐसी कला है जिसे आम आदमी के लिए अंजाम देना मुश्किल होता है. बेइज्जती के फील्ड में पेशेवर फील्डिंग करने वालों की कमी महसूस की जाती रही है.

डिमांड के मुकाबले सप्लाई न होने से बैलैंस गड़बड़ा रहा?है. लेकिन फिर भी देख कर संतोष और कुछकुछ होता है कि कुछ लोगों ने बेइज्जत होने को अपनी जिंदगी का मिशन और सहारा बना लिया है और वे बेइज्जती के सामने मुसाफिर की तरह ट्रैफिक के नियमों का पालनपोषण कर, इस रास्ते पर दांडी मार्च रहे हैं.

इन्हीं लोगों द्वारा उपजी क्वालिटी के चलते क्वांटिटी की कमी महसूस नहीं हो पाती है और क्वांटिटी की कमी के खिलाफ उठने वाली संगठित आवाज बेइज्जती के बोझ के नीचे दब जाती है.

बेइज्जती उद्योग में अभी भी बहुत उम्मीदें हैं जिन पर बेइज्जत हो कर गंभीरता से विचार करना जरूरी है. समाज के फायदे के लिए इस क्षेत्र में लोगों को बढ़ावा देने की जरूरत है क्योंकि आज की गलाकाट होड़ में जहां लोगों को इज्जत और नाम के लिए दरदर भटकने के बाद भी बेइज्जती ही हाथ लगती है, वहीं अगर उन्हें सीधे ही बेइज्जत होने के लिए बढ़ावा दिया जाए तो उन का यह भटकाव काफी हद तक कम होगा और नतीजतन समाज में इज्जत पाने की अंधी दौड़ में भागने वाले, उसेन बोल्ट जैसे धावक की आवक भी कम हो जाएगी.

वादियों का प्यार : जब दो प्यार करनेवालों के बीच बनी शक की दीवार

साकेत से विवाह कर के कितनी खुश थी मैं, तभी एक शक की दीवार हमारे बीच आ खड़ी हुई और शिमला की वादियों में पनपा प्यार किन्हीं और वादियों में खोता दिखाई देने लगा.

नैशनल कैडेट कोर यानी एनसीसी की लड़कियों के साथ जब मैं कालका से शिमला जाने के लिए टौय ट्रेन में सवार हुई तो मेरे मन में सहसा पिछली यादों की घटनाएं उमड़ने लगीं.

3 वर्षों पहले ही तो मैं साकेत के साथ शिमला आई थी. तब इस गाड़ी में बैठ कर शिमला पहुंचने तक की बात ही कुछ और थी. जीवन की नई डगर पर अपने मनचाहे मीत के साथ ऐसी सुखद यात्रा का आनंद ही और था.

पहाडि़यां काट कर बनाई गई सुरंगों के अंदर से जब गाड़ी निकलती थी तब कितना मजा आता था. पर अब ये अंधेरी सुरंगें लड़कियों की चीखों से गूंज रही हैं और मैं अपने जीवन की काली व अंधेरी सुरंग से निकल कर जल्द से जल्द रोशनी तलाश करने को बेताब हूं. मेरा जीवन भी तो इन सुरंगों जैसा ही है- काला और अंधकारमय.

तभी किसी लड़की ने पहाड़ी के ऊपर उगे कैक्टस को छूना चाहा तो उस की चीख निकल गई. साथ आई हुई एनसीसी टीचर निर्मला उसे फटकारने लगीं तो मैं अपने वर्तमान में लौटने का प्रयत्न करने लगी.

तभी सूरज बादलों में छिप गया और हरीभरी खाइयां व पहाड़ और भी सुंदर दिखने लगे. सुहाना मौसम लड़कियों का मन जरूर मोह रहा होगा पर मुझे तो एक तीखी चुभन ही दे रहा था क्योंकि इस मौसम को देख कर साकेत के साथ बिताए हुए लमहे मुझे रहरह कर याद आ रहे थे.

सोलन तक पहुंचतेपहुंचते लड़कियां हर स्टेशन पर सामान लेले कर खातीपीती रहीं, लेकिन मुझे मानो भूख ही नहीं थी. निर्मला के बारबार टोकने के बावजूद मैं अपने में ही खोई हुई

थी उन 20 दिनों की याद में जो मैं

ने विवाहित रह कर साकेत के साथ गुजारे थे.

तारा के बाद 103 नंबर की सुरंग पार कर रुकतीचलती हमारी गाड़ी ने शिमला के स्टेशन पर रुक कर सांस ली तो एक बार मैं फिर सिहर उठी. वही स्टेशन था, वही ऊंचीऊंची पहाडि़यां, वही गहरी घाटियां. बस, एक साकेत ही तो नहीं था. बाकी सबकुछ वैसा का वैसा था.

लड़कियों को साथ ले कर शिमला आने का मेरा बिलकुल मन नहीं था, लेकिन प्रिंसिपल ने कहा था, ‘एनसीसी की अध्यापिका के साथ एक अन्य अध्यापिका का होना बहुत जरूरी है. अन्य सभी अध्यापिकाओं की अपनीअपनी घरेलू समस्याएं हैं और तुम उन सब से मुक्त हो, इसलिए तुम्हीं चली जाओ.’

और मुझे निर्मला के साथ लड़कियों के एनसीसी कैंप में भाग लेने के लिए आना पड़ा. पिं्रसिपल बेचारी को क्या पता कि मेरी घरेलू समस्याएं अन्य अध्यापिकाओं से अधिक गूढ़ और गहरी हैं पर खैर…

लड़कियां पूर्व निश्चित स्थान पर पहुंच कर टैंट में अपनेअपने बिस्तर बिछा रही थीं. मैं ने और निर्मला ने

भी दूसरे टैंट में अपने बिस्तर बिछा लिए. खानेपीने के बाद मैं बिस्तर पर

जा लेटी.

थकान न तो लड़कियों को महसूस हो रही थी और न निर्मला को. वह उन सब को ले कर आसपास की सैर को निकल गई तो मैं अधलेटी सी हो कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी.

यद्यपि हम लोग शिमला के बिलकुल बीच में नहीं ठहरे थे और हमारा कैंप भी शिमला की भीड़भाड़ से काफी दूर था फिर भी यहां आ कर मैं एक अव्यक्त बेचैनी महसूस कर रही थी.

मेरा किसी काम को करने का मन नहीं कर रहा था. मैं सिर्फ पत्रिका के पन्ने पलट रही थी, उस में लिखे अक्षर मुझे धुंधले से लग रहे थे. पता नहीं कब उन धुंधले हो रहे अक्षरों में कुछ सजीव आकृतियां आ बैठीं और इस के साथ ही मैं तेजी से अपने जीवन के पन्नों को भी पलटने लगी…

वह दिन कितना गहमागहमी से भरा था. मेरी बड़ी बहन की सगाई होने वाली थी. मेरे होने वाले जीजाजी आज उस को अंगूठी पहनाने वाले थे. सभी तरफ एक उल्लास सा छाया हुआ था. पापा अतिथियों के स्वागतसत्कार के इंतजाम में बेहद व्यस्त थे.

सब अपेक्षित अतिथि आए. उस में मेरे जीजाजी के एक दोस्त भी थे.

जीजाजी ने दीदी के हाथ में अंगूठी पहना दी, उस के बाद खानेपीने का दौर चलता रहा. लेकिन एक बात पर मैं ने ध्यान दिया कि जीजाजी के उस

दोस्त की निगाहें लगातार मुझ पर ही टिकी रहीं.

यदि कोई और होता तो इस हरकत को अशोभनीय कहता, किंतु पता नहीं क्यों उन महाशय की निगाहें मुझे बुरी नहीं लगीं और मुझ में एक अजीब सी मीठी सिहरन भरने लगी. बातचीत में पता चला कि उन का नाम साकेत है और उन का स्वयं का व्यापार है.

सगाई के बाद पिक्चर देखने का कार्यक्रम बना. जीजाजी, दीदी, साकेत और मैं सभी इकट्ठे पिक्चर देखने गए. साकेत ने बातोंबातों में बताया, ‘तुम्हारे जीजाजी हमारे शहर में 5 वर्षों पहले आए थे. हम दोनों का घर पासपास था, इसलिए आपस में कभीकभार बातचीत हो जाती थी पर जब उन का तबादला मेरठ हो गया तो हम लोगों की बिलकुल मुलाकात न

हो पाई.

‘मैं अपने काम से कल मेरठ आया था तो ये अचानक मिल गए और जबरदस्ती यहां घसीट लाए. कहो, है न इत्तफाक? न मैं मेरठ आता, न यहां आता और न आप लोगों से मुलाकात होती,’ कह कर साकेत ठठा कर हंस दिए तो मैं गुदगुदा उठी.

सगाई के दूसरे दिन शाम को सब लोग चले गए, लेकिन पता नहीं साकेत मुझ पर कैसी छाप छोड़ गए कि मैं दीवानी सी हो उठी.

घर में दीदी की शादी की तैयारियां हो रही थीं पर मैं अपने में ही खोई हुई थी. एक महीने बाद ही दीदी की शादी हो गई पर बरात में साकेत नहीं आए. मैं ने बातोंबातों में जीजाजी से साकेत का मोबाइल नंबर ले लिया और शादी की धूमधाम से फुरसत पाते ही

मैसेज किया.

साकेत का रिप्लाई आ गया. व्यापार की व्यस्तता की बात कह कर उन्होंने माफी मांगी थी.

और उस के बाद हम दोनों में मैसेज का सिलसिला चलता रहा. मैं तब बीएड कर चुकी थी और कहीं नौकरी की तलाश में थी, क्योंकि पापा आगे पढ़ाने को राजी नहीं थे. मैसेज के रूप में खाली वक्त गुजारने का बड़ा ही मोहक तरीका मुझे मिल गया था.

साकेत के प्रणयनिवेदन शुरू हो गए थे और मैं भी चाहती थी कि हमारा विवाह हो  जाए पर मम्मीपापा से खुद यह बात कहने में शर्म आती थी. तभी अचानक एक दिन साकेत का मैसेज मेरे मोबाइल पर मेरी अनुपस्थिति में आ गया. मैं मोबाइल घर पर छोड़ मार्केट चली गई, पापा ने मैसेज पढ़ लिया.

मेरे लौटने पर घर का नकशा ही बदला हुआ सा लगा. मम्मीपापा दोनों ही बहुत गुस्से में थे और मेरी इस हरकत की सफाई मांग रहे थे.

लेकिन मैं ने भी उचित अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और अपने दिल की बात पापा को बता दी. पहले तो पापा भुनभुनाते रहे, फिर बोले, ‘उस से कहो कि अगले इतवार को हम से आ कर मिले.’

और जब साकेत अगले इतवार को आए तो पापा ने न जाने क्यों उन्हें जल्दी ही पसंद कर लिया. शायद बदनामी फैलने से पहले ही वे मेरा विवाह कर देना चाहते थे. जब साकेत भी विवाह के लिए राजी हो गए तो पापा ने उसी दिन मिठाई का डब्बा और कुछ रुपए दे कर हमारी बात पक्की कर दी. साकेत इस सारी कार्यवाही में पता नहीं क्यों बहुत चुप से रहे, जाते समय बोले, ‘अब शादी अगले महीने ही तय कर दीजिए. और हां, बरात में हम ज्यादा लोग लाने के हक में नहीं हैं, सिर्फ 5 जने आएंगे. आप किसी तकल्लुफ और फिक्र में

न पड़ें.’

और 1 महीने बाद ही मेरी शादी साकेत से हो गई. सिर्फ 5 लोगों का बरात में आना हम सब के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श था.

किंतु शादी के बाद जब मैं ससुराल पहुंची तो मुंहदिखाई के वक्त एक उड़ता सा व्यंग्य मेरे कानों में पड़ा, ‘भई, समय हो तो साकेत जैसा, पहली भी कम न थी लेकिन यह तो बहुत ही सुंदर मिली है.’

मुझे समझ नहीं आया कि इस का मतलब क्या है? जल्दी ही सास ने आनेजाने वालों को विदा किया तो मैं उलझन में डूबनेउतरने लगी.

कहीं ऐसा तो नहीं कि साकेत ने पहले कोई लड़की पसंद कर के उस से सगाई कर ली हो और फिर तोड़ दी हो या फिर प्यार किसी से किया हो और शादी मुझ से कर ली हो? आखिर हम ने साकेत के बारे में ज्यादा जांचपड़ताल की ही कहां है. जीजाजी भी उस के काफी वक्त बाद मिले थे. कहीं तो कुछ गड़बड़ है. मुझे पता लगाना ही पड़ेगा.

पता नहीं इसी उधेड़बुन में मैं कब तक खोई रही और फिर यह सोच कर शांत हो गई कि जो कुछ भी होगा, साकेत से पूछ लूंगी.

किंतु रात को अकेले होते ही साकेत से जब मैं ने यह बात पूछनी चाही तो साकेत मुझे बाहों में भर कर बोले, ‘देखो, कल रात कालका मेल से शिमला जाने के टिकट ले आया हूं. अब वहां सिर्फ तुम होगी और मैं, ढेरों बातें करेंगे.’ और भी कई प्यारभरी बातें कर मेरे निखरे रूप का काव्यात्मक वर्णन कर के उन्होंने बात को उड़ा दिया.

मैं ने भी उन उन्मादित क्षणों में यह सोच कर विचारों से मुक्ति पा ली कि ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि प्यार किसी और से किया होगा पर विवाह तो मुझ से हो गया है. और मैं थकान से बोझिल साकेत की बांहों में कब सो गई, मुझे पता ही न चला.

दूसरे दिन शिमला जाने की तैयारियां चलती रहीं. तैयारियां करते हुए कई बार वही सवाल मन में उठा लेकिन हर बार कोई न कोई बात ऐसी हो जाती कि मैं साकेत से पूछतेपूछते रह जाती. रात को कालका मेल से रिजर्व कूपे में हम दोनों ही थे. प्यारभरी बातें करतेकरते कब कालका पहुंच गए, हमें पता ही न चला. सुबह 7 बजे टौय ट्रेन से शिमला पहुंचने के लिए उस गाड़ी में जा बैठे.

घुमावदार पटरियों, पहाड़ों और सुरंगों के बीच से होती हुई हमारी गाड़ी बढ़ी जा रही थी और मैं साकेत के हाथ पर हाथ धरे आने वाले कल की सुंदर योजनाएं बना रही थी.

मैं बीचबीच में देखती कि साकेत कुछ खोए हुए से हैं तो उन्हें खाइयों और पहाड़ों पर उगे कैक्टस दिखाती और सुरंग आने पर चीख कर उन के गले लग जाती.

खैर, किसी तरह शिमला भी आ गया. पहाड़ों की हरियाली और कोहरे ने मन मोह लिया था. स्टेशन से निकल कर हम मरीना होटल में ठहरे.

कुछ देर आराम कर के चाय आदि पी कर हम माल रोड की सैर को निकल पड़े.

साकेत सैर करतेकरते इतनी बातें करते कि ऊंची चढ़ाई हमें महसूस ही न होती. माल रोड की चमकदमक देख कर और खाना खा कर हम अपने होटल लौट आए. लौटते हुए काफी रात हो गई थी व पहाड़ों की ऊंचाईनिचाई पर बसे होटलों व घरों की बत्तियां अंधेरे में तारों की झिलमिलाहट का भ्रम पैदा कर रही थीं. दूसरे दिन से घूमनेफिरने का यही क्रम रहने लगा. इधरउधर की बातें करतेकरते हाथों में हाथ दिए हम कभी रिज, कभी माल रोड, कभी लोअर बाजार और कभी लक्कड़ बाजार घूम आते.

दर्शनीय स्थलों की सैर के लिए तो साकेत हमेशा टैक्सी ले लेते. संकरी होती नीचे की खाई देख कर हम सिहर जाते. हर मोड़ काटने से पहले हमें डर लगता पर फिर प्रकृति की इन अजीब छटाओं को देखने में मग्न हो जाते.

इस प्रकार हम ने वाइल्डफ्लावर हौल, मशोबरा, फागू, चैल, कुफरी, नालडेरा, नारकंडा और जाखू की पहाड़ी सभी देख डाले.

हर जगह ढेरों फोटो खिंचवाते. साकेत को फोटोग्राफी का बहुत शौक था. हम ने वहां की स्थानीय पोशाकें पहन कर ढेरों फोटो खिंचवाईं. मशोबरा के संकरे होते जंगल की पगडंडियों पर चलतेचलते साकेत कोई ऐसी बात कह देते कि मैं खिलखिला कर हंस पड़ती पर आसपास के लोगों के देखने पर

हम अचानक अपने में लौट कर चुप

हो जाते.

नारकंडा से हिमालय की चोटियां और ग्लेशियर देखदेख कर प्रकृति के इस सौंदर्य से और उन्मादित हो जाते.

इस प्रकार हर जगह घूम कर और माल रोड से खापी कर हम अपने होटल लौटने तक इतने थक जाते कि दूसरे दिन सूरज उगने पर ही उठते.

इस तरह घूमतेघूमते कब 10 दिन गुजर गए, हमें पता ही न चला. जब हम लौट कर वापस दिल्ली पहुंचे तो शिमला की मस्ती में डूबे हुए थे.

साकेत अब अपनी वर्कशौप जाने लगे थे. मैं भी रोज दिन का काम कराने के लिए रसोई में जाने लगी.

एक दिन चुपचाप मैं अपने कमरे में

खिड़की पर बैठी थी कि साकेत

आए. मैं अभी कमरे में उन के आने का इंतजार ही कर रही थी कि मेरी सासूजी की आवाज आई, ‘साकेत, कल काम पर मत जाना, तुम्हारी तारीख है.’ और साकेत का जवाब भी फुसफुसाता सा आया, ‘हांहां, मुझे पता है पर धीरे बोलो.’

उन लोगों की बातचीत से मुझे कुछ शक सा हुआ. एक बार आगे भी मन में यह बात आई थी लेकिन साकेत ने टाल दिया था. मुझे खुद पर आश्चर्य हुआ, पहले दिन जिस बात को साकेत ने प्यार से टाल दिया था उसे मैं शिमला के मस्त वातावरण में पूछना ही भूल गई थी. खैर, आज जरूर पूछ कर रहूंगी. और जब साकेत कमरे में आए तो मैं ने पूछा, ‘कल किस बात की तारीख है?’

साकेत सहसा भड़क से उठे, फिर घूरते हुए बोले, ‘हर बात में टांग अड़ाने को तुम्हें किस ने कह दिया है? होगी कोई तारीख, व्यापार में ढेरों बातें होती हैं. तुम्हें इन से कोई मतलब नहीं होना चाहिए. और हां, कान खोल कर सुन लो, आसपड़ोस में भी ज्यादा आनेजाने की जरूरत नहीं. यहां की सब औरतें जाहिल हैं. किसी का बसा घर देख नहीं सकतीं. तुम इन के मुंह मत लगना.’ यह कह कर साकेत बाहर चले गए.

मैं जहां खड़ी थी वहीं खड़ी रह गई. एक तो पहली बार डांट पड़ी थी, ऊपर से किसी से मिलनेजुलने की मनाही कर दी गई. मुझे लगा कि दाल में अवश्य ही कुछ काला है. और वह खास बात जानने के लिए मैं एड़ीचोटी का जोर लगाने के लिए तैयार हो गई.

दूसरे दिन सास कहीं कीर्तन में गई थीं और साकेत भी घर पर नहीं थे. काम वाली महरी आई. मैं उस से कुछ पूछने की सोच ही रही थी कि वह बोली, ‘मेमसाहब, आप से पहले वाली मेमसाहब की साहबजी से क्या खटरपटर हो गई थी कि जो वे चली गईं, कुछ पता है आप को?’

यह सुन कर मेरे पैरों तले जमीन खिसकने लगी. कुछ रुक कर वह धीमी आवाज में मुझे समझाती हुई सी बोली, ‘साहब की एक शादी पहले हो चुकी है. अब उस से कुछ मुकदमेबाजी चल रही है तलाक के लिए.’ सुन कर मेरा सिर चकरा गया.

?सगाई और शादी के समय साकेत का खोयाखोया रहना, सगाई के लिए मांबाप तक को न लाना और शादी में सिर्फ

5 आदमियों को बरात में लाना, अब मेरी समझ में आ गया था. पापा खुद सगाई के बाद आ कर घरबार देख गए थे. जा कर बोले थे, ‘भई, अपनी सुनीता का समय बलवान है. अकेला लड़का है, कोई बहनभाई नहीं है और पैसा बहुत है. राज करेगी यह.’

उन को भी तब इस बात का क्या गुमान था कि श्रीमान एक शादी पहले ही रचाए हुए हैं.

जीजाजी भी तब यह कह कर शांत हो गए थे, ‘लड़का मेरा जानादेखा है पर पिछले 5 वर्षों से मेरी इस से मुलाकात नहीं हुई, इसलिए मैं इस से ज्यादा क्या बता सकता हूं.’

इन्हीं विचारों में मैं न जाने कब तक खोई रही और गुस्से में भुनभुनाती रही कि वक्त का पता ही न चला. अपने संजोए महल मुझे धराशायी होते लगे. साकेत से मुझे नफरत सी होने लगी.

क्या इसी को प्यार कहते हैं? प्यार की पुकार लगातेलगाते मुझे कहां तक घसीट लिया और इतनी बड़ी बात मुझ से छिपाई. यदि तलाक मिल जाता तो शादी भी कर लेते पर अभी तो यह कानूनन जुर्म था. तो क्या साकेत इतना गिर गए हैं?

और मैं ने अचानक निश्चय कर लिया कि मैं अभी इसी वक्त अपने मायके चली जाऊंगी. साकेत से मुझे कोई स्पष्टीकरण नहीं चाहिए. इतना बड़ा धोखा मैं कैसे बरदाश्त कर सकती थी? और मैं दोपहर को ही बिना किसी से कुछ कहेसुने अपने मायके के लिए चल पड़ी. आते समय एक नोट जल्दी में गुस्से में लिख कर अपने तकिए के नीचे छोड़ आई थी :

‘मैं जा रही हूं. वजह तुम खुद जानते हो. मुझे धोखे में रख कर तुम सुख चाहते थे पर यह नामुमकिन है. अपने जीवनसाथी के साथ विश्वासघात करते तुम को शर्म नहीं आई? क्या मालूम और कितनी लड़कियां ऐसे फांस चुके हो. मुझे तुम से नफरत है. मिलने की कोशिश मत करना.          -सुनीता’

घर आ कर मम्मीपापा को मैं ने यह सब बताया तो उन्होंने सिर धुन लिया. पापा गुस्से में बोले, ‘उस की यह हिम्मत, इतना बड़ा जुर्म और जबान तक न हिलाई. अब मैं भी उसे जेल भिजवा कर रहूंगा.’

मैं यह सब सुन कर जड़ सी हो गई. यद्यपि मैं साकेत को जेल भिजवाना नहीं चाहती थी पर पापा मुकदमा करने पर उतारू थे.

मेरी समझ को तो जैसे लकवा मार गया था और पापा ने कुछ दिनों बाद ही साकेत पर इस जुर्म के लिए मुकदमा ठोंक दिया. मैं भी पापा के हर इशारे पर काम करती रही और साकेत को दूसरा विवाह करने के अपराध में 3 वर्षों की सजा हो गई.

मेरे सासससुर ने साकेत को बचाने के लिए बहुत हाथपैर मारे, पर सब बेकार.

इस फैसले के बाद मैं गुमसुम सी रहने लगी. कोर्ट में आए हुए साकेत की उखड़ीउखड़ी शक्ल याद आती तो मन भर आता, न जाने किन निगाहों से एकदो बार उस ने मुझे देखा कि घर आने पर मैं बेचैन सी रही. न ठीक से खाना खाया गया और न नींद आई.

साकेत के साथ बिताया, हुआ हर पल मुझे याद आता. क्या सोचा था और क्या हो गया.

इन सब उलझनों से मुक्ति पाने के लिए मैं ने स्थानीय माध्यमिक विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी कर ली.

दिन गुजरते गए और अब स्कूल की तरफ से ही शिमला आ कर मुझे पिछली यादें पागल बनाए दे रही थीं.

बाहर लड़कियों के खिलखिलाने के स्वर गूंज रहे थे. मैं अचानक वर्तमान में लौट आई. निर्मला जब मेरे करीब आई तो वह हंसहंस कर ऊंचीनीची पहाडि़यों से हो कर आने की और लड़कियों की बातें सुनाती रही और मैं निस्पंद सी ही पड़ी रही.

दूसरे दिन से एनसीसी का काम जोरों से शुरू हो गया. लड़कियां सुबह होते ही चहलपहल शुरू कर देतीं और रात तक चुप न बैठतीं.

एक दिन लड़कियों की जिद पर उन्हें बस में मशोबरा, फागू, कुफरी और नालडेरा वगैरह घुमाने ले जाया गया. हर जगह मैं साकेत की ही याद करती रही, उस के साथ जिया हरपल मुझे पागल बनाए दे रहा था.

हमारे कैंप के दिन पूरे हो गए थे. आखिरी दिन हम लोग लड़कियों को ले कर माल रोड और रिज की सैर को गए.

मैं पुरानी यादों में खोई हुई हर चीज को घूर रही थी कि सामने भीड़ में एक जानापहचाना सा चेहरा दिखा. बिखरे बाल, सूजी आंखें, बढ़ी हुई दाढ़ी पर इस सब के बावजूद वह चेहरा मैं कभी भूल सकती थी भला? मैं जड़ सी हो गई. हां, वह साकेत ही थे. खोए, टूटे और उदास से.

मुझे देख कर देखते ही रहे, फिर बोले, ‘‘क्या मैं ख्वाब देख रहा हूं? तुम और यहां? मैं तो यहां तुम्हारे साथ बिताए हुए क्षणों की याद ताजा करने के लिए आया था पर तुम? खैर, छोड़ो. क्या मेरी बात सुनने के लिए दो घड़ी रुकोगी?’’

मेरी आंखें बरस पड़ने को हो रही थीं. निर्मला से सब लड़कियों का ध्यान रखने को कह कर मैं भीड़ से हट कर किनारे पर आ गई. मुझे लगा साकेत आज बहुतकुछ कहना चाह रहे हैं.

सड़क पार कर साकेत सीढि़यां उतर कर नीचे प्लाजा होटल में जा बैठे, मैं भी चुपचाप उन के पीछे चलती रही.

साकेत बैठते ही बोले, ‘‘सुनीता, तुम मुझ से बगैर कुछ कहेसुने चली गईं. वैसे मुझे तुम को पहले ही सबकुछ बता देना चाहिए था. उस गलती की मैं बहुत बड़ी सजा भुगत चुका हूं. अब यदि मेरे साथ न भी रहना चाहो तो मेरी एक बात जरूर सुन लो कि मेरी शादी मधु से हुई जरूर थी पर पहले दिन ही मधु ने मेरे पैर पकड़ कर कहा था, ‘आप मेरा जीवन बचा सकते हैं. मैं किसी और से प्यार करती हूं और उस के बच्चे की मां बनने वाली हूं. यह बात मैं अपने पिताजी को समझासमझा कर हार गई पर वे नहीं माने. उन्होंने इस शादी तक मुझे एक कमरे में बंद रखा और जबरदस्ती आप के साथ ब्याह दिया.

‘‘‘मैं आप की कुसूरवार हूं. मेरी वजह से आप का जीवन नष्ट हो गया है पर मैं आप के पैर पड़ती हूं कि मेरे कारण अपनी जिंदगी खराब मत कीजिए. आप तलाक के लिए कागजात ले आइए, मैं साइन कर दूंगी और खुद कोर्ट में जा कर सारी बात साफ कर दूंगी. आप और मैं जल्दी ही मुक्त हो जाएंगे.’

‘‘यह कह कर मधु मेरे पैरों में गिर पड़ी. मेरी जिंदगी के साथ भी खिलवाड़ हुआ था पर उस को जबरदस्ती अपने गले मढ़ कर मैं और बड़ी गलती नहीं करना चाहता था, इसलिए मैं ने जल्दी ही तलाक के लिए अरजी दे दी. मुझे तलाक मिल भी जाता, पर तभी तुम जीवन में आ गईं.’’

‘‘मैं स्वयं चाह कर भी अपनी तरफ से तुम्हें मैसेज नहीं लिख रहा था पर जब तुम्हारा मैसेज आया तो मैं समझ गया कि आग दोनों तरफ लगी है और मैं अनचाहे ही तुम्हें भावभरे मैसेज भेजता गया.

‘‘फिर तुम्हारे पापा ने जब सगाई करनी चाही तो मैं अपनी बात कहने के लिए इसलिए मुंह नहीं खोल पाया कि कहीं इस बात से बनीबनाई बात बिगड़ न जाए और मैं तुम्हें खो न बैठूं.

‘‘बस, वहीं मुझ से गलती हुई. तुम्हें पा जाने की प्रबल अभिलाषा ने मुझ से यह जुर्म करवाया. शिमला की रंगीनियां कहीं फीकी न पड़ जाएं, इसलिए यहां भी मैं ने तुम्हें कुछ नहीं बताया. उस के बाद मुझे लगा कि यह बात छिपाई जा सकती है और तलाक मिलने पर तुम्हें बता दूंगा पर वह नौबत ही नहीं आई. तुम अचानक कहीं चली गईं और मिलने से भी मना कर गईं.

‘‘जेल की जिंदगी में मैं ने जोजो कष्ट सहे, वे यह सोच कर दोगुने हो जाते थे कि अब तुम्हारा विश्वास कभी प्राप्त न कर सकूंगा और इस विचार के आते ही मैं पागल सा हो जाता था.

‘‘पिछले महीने ही मैं सजा काट कर आया हूं पर घर में मन ही नहीं लगा. तुम्हारे साथ बिताए हर पल दोबारा याद करने के लालच में ही मैं यहां आ गया.’’

और साकेत उमड़ आए आंसुओं को अपनी बांह से पोंछने लगे, फिर झुक कर बोले, ‘‘हाजिर हूं, जो सजा दो, भुगतने को तैयार हूं. पर एक बार, बस, इतना कह दो कि तुम ने मुझे माफ कर दिया.’’

मैं बौराई हुई सी साकेत की बातें सुन रही थी. अब तक सिर्फ श्रोता ही बनी रही. भर आए गले को पानी के गिलास से साफ कर के बोली, ‘‘क्या समझते हो, मैं इस बीच बहुत सुखी रही हूं? मुझे भी तुम्हारी हर याद ने बहुत रुलाया है. बस, दुख था तो यही कि तुम ने मुझ से इतनी बड़ी बात छिपाई.

‘‘यदि एक बार, सिर्फ एक बार मुझे अपने बारे में खुल कर बता देते तो यहां तक नौबत ही न आती. पतिपत्नी में जब विश्वास नाम की चीज मर जाती है तब उस की जगह नफरत ले लेती है. इसी वजह से मैं ने तुम्हें मिलने को भी मना कर दिया था पर तुम्हारे बिना रह भी नहीं पाती थी.

‘‘जब तुम्हें सजा हुई तब मेरे दिल पर क्या बीती, तुम्हें क्या बताऊं. 3-4 दिनों तक न खाना खाया और न सोई, पर खैर उठो…जो हुआ, सो हुआ, विश्वास के गिर जाने से जो खाई बन गई थी वह आज इन वादियों में फिर पट गई है. इन वादियों के प्यार को हलका न होने दो.’’

और हम दोनों एकएक कप कौफी पी कर हाथ में हाथ डाले होटल से बाहर आ गए माल रोड की चहलपहल में खो जाने के लिए, एकदूसरे की जिंदगी में समा जाने के लिए.

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