Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

औरत ने सुमित को महीने की पगार बताई और साथ ही, यह भी कि वह एक पैसा भी कम नहीं लेगी.

दोनों दोस्तों ने सवालिया निगाहों से एकदूसरे की तरफ देखा. पगार थोड़ी ज्यादा थी, मगर और चारा भी क्या था. ‘‘हमें मंजूर है,’’ सुमित ने कहा. आखिरकार खाने की परेशानी तो हल हो जाएगी.

‘‘ठीक है, मैं कल से आ जाऊंगी,’’ कहते हुए वह जाने के लिए उठी.

‘‘आप ने नाम नहीं बताया?’’ सुमित ने उसे पीछे से आवाज दी.

‘‘मेरा नाम ज्योति है,’’ कुछ सकुचा कर उस औरत ने अपना नाम बताया और चली गई.

दूसरे दिन सुबह जल्दी ही ज्योति आ गई थी. रसोई में जो कुछ भी पड़ा था, उस से उस ने नाश्ता तैयार कर दिया.

आज कई दिनों बाद सुमित और मनीष ने गरम नाश्ता खाया तो उन्हें मजा आ गया. रोहन अभी तक सो रहा था, तो उस का नाश्ता ज्योति ने ढक कर रख दिया था.

‘‘भैयाजी, राशन की कुछ चीजें लानी पड़ेंगी. शाम का खाना कैसे बनेगा? रसोई में कुछ भी नहीं है,’’ ज्योति दुपट्टे से हाथ पोंछते हुए सुमित से बोली.

सुमित ने एक कागज पर वे सारी चीजें लिख लीं जो ज्योति ने बताई थीं. शाम को औफिस से लौटता हुआ वह ले आएगा.

रोहन को अब तक इस सब के बारे में कुछ नहीं पता था. उसे जब पता चला तो उस ने अपने हिस्से के पैसे देने से साफ इनकार कर दिया. ‘‘बहुत ज्यादा पगार मांग रही है वह, इस से कम पैसों में तो हम आराम से बाहर खाना खा सकते हैं.’’

‘‘रोहन, तुम को पता है कि बाहर का खाना खाने से मेरी तबीयत खराब हो जाती है. कुछ पैसे ज्यादा देने भी पड़ रहे तो क्या हुआ, सुविधा भी तो हमें ही होगी.’’

‘‘हां, सुमित ठीक कह रहा है. घर के बने खाने की बात ही कुछ और है,’’ सुबह के नाश्ते का स्वाद अभी तक मनीष की जबान पर था.

लेकिन रोहन पर इन दलीलों का कोई असर नहीं पड़ा. वह जिद पर अड़ा रहा कि वह अपने हिस्से के पैसे नहीं देगा और अपने खाने का इंतजाम खुद कर कर लेगा.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी’’, सुमित बोला, उसे पता था रोहन अपने मन की करता है.

थोड़े ही दिनों में ज्योति ने रसोई की बागडोर संभाल ली थी. ज्योति के हाथों के बने खाने में सुमित को मां के हाथों का स्वाद महसूस होता था.

ज्योति भी उन की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखती. अपने परिवार से दूर रह रहे इन लड़कों पर उसे एक तरह से ममता हो आती. अन्नपूर्णा की तरह अपने हाथों के जादू से उस ने रसोई की काया ही पलट दी थी.

कई बार औफिस की भागदौड़ से सुमित को फुरसत नहीं मिल पाती तो वह अकसर ज्योति को ही सब्जी वगैरह लाने के पैसे दे देता.

जिन घरों में वह काम करती थी, उन में से अधिकांश घरों की मालकिनें अव्वल दर्जे की कंजूस और शक्की थीं. नापतौल कर हरेक चीज का हिसाब रख कर उसे खाना पकाना होता था. सुमित या मनीष ज्योति से कभी, किसी चीज का हिसाब नहीं पूछते थे. इस बात से उस के दिल में इन लड़कों के लिए एक स्नेह का भाव आ गया था.

अपनी हलकी बीमारी में भी वह उन के लिए खाना पकाने चली आती.

एक शाम औफिस से लौटते वक्त रास्ते में सुमित की बाइक खराब हो गई. किसी तरह घसीटते हुए उस ने बाइक को मोटर गैराज तक पहुंचाया.

‘‘क्या हुआ? फिर से खराब हो गई?,’’ गैराज में काम करने वाला नौजवान शकील ग्रीस से सने हाथ अपनी शर्ट से पोंछता हुआ सुमित के पास आया.

‘‘यार, सुरेश कहां है? यह तो उस के हाथ से ही ठीक होती है, सुरेश को बुलाओ.’’

जब भी उस की बाइक धोखा दे जाती, वह गैराज के सीनियर मेकैनिक सुरेश के ही पास आता और उस के अनुभवी हाथ लगते ही बाइक दुरुस्त चलने लगती.

शकील सुरेश को बुलाने के लिए गैराज के अंदर बने छोटे से केबिन में चला गया. थोड़ी ही देर में मध्यम कदकाठी के हंसमुख चेहरे वाला सुरेश बाहर आया. ‘‘माफ कीजिए सुमित बाबू, हम जरा अपने लिए दोपहर का खाना बना रहे थे.’’

‘‘आप अपना खाना यहां गैराज में बनाते हैं? परिवार से दूर रहते हैं क्या?’’ सुमित ने हैरानी से पूछा. इस गैराज में वह कई सालों से काम कर रहा था. अपने बरसों के अनुभव और कुशलता से आज वह इस गैराज का सीनियर मेकैनिक था. ऐसी कोई गाड़ी नहीं थी जिस का मर्ज उसे न पता हो, इसलिए हर ग्राहक उसे जानता था.

‘‘अब क्या बताएं, 2 साल पहले घरवाली कैंसर की बीमारी से चल बसी. तब से यह गैराज ही हमारा घर है. कोई बालबच्चा हुआ नहीं, तो परिवार के नाम पर हम अकेले हैं. बस, कट रही है किसी तरह. लाइए, देखूं क्या माजरा है?’’

‘‘सुरेश, पिछली बार आप नहीं थे तो राजू ने कुछ पार्ट्स बदल कर बाइक ठीक कर दी थी. अब तो तुम्हें ही अपने हाथों का कमाल दिखाना पड़ेगा,’’ सुमित बोला.

सुरेश ने दाएंबाएं सब चैक किया, इंजन, कार्बोरेटर सब खंगाल डाला. चाबी घुमा कर बाइक स्टार्ट की तो घरर्रर्र की आवाज के साथ बाइक चालू हो गई.

‘‘देखो भाई, ऐसा है सुमित बाबू, अब इस को तो बेच ही डालो. कई बरस चल चुकी है. अब कितना खींचोगे? अभी कुछ पार्ट्स भी बदलने पड़ेंगे. उस में जितना पैसा खर्च करोगे उस से तो अच्छा है नई गाड़ी ले लो.’’

‘‘तुम ही कोई अच्छी सी सैकंडहैंड दिला दो,’’ सुमित बोला.

‘‘अरे यार, पुरानी से अच्छा है नईर् ले लो,’’ सुरेश हंसते हुए बोला.

‘‘बात तो तुम्हारी सही है, मगर थोड़ा बजट का चक्कर है.’’

‘‘हूं,’’ सुरेश कुछ सोचने की मुद्रा में बोला, ‘‘कोई बात नहीं, बजट की चिंता मत करो. मेरा चचेरा भाई एक डीलर के पास काम करता है. उस को बोल कर कुछ डिस्काउंट दिलवा सकता हूं, अगर आप कहो तो.’’

सुमित खिल गया, कब से सोच रहा था नई बाइक लेने के लिए. कुछ डिस्काउंट के साथ नई बाइक मिल जाए, इस से बढि़या क्या हो सकता था. उस ने सुरेश का धन्यवाद किया और नई बाइक लेने का मन बना लिया.

‘‘ठीक है सुरेश, मैं अगले ही महीने ले लूंगा नई गाड़ी. बस, आप जरा डिस्काउंट अच्छा दिलवा देना.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो सुमित बाबू, निश्ंिचत रहो.’’

लगभग 45 वर्ष का सुरेश नेकदिल इंसान था. सुमित ने उसे सदा हंसतेमुसकराते ही देखा था. मगर वह अपनी जिंदगी में एकदम अकेला है, इस बात का इल्म उसे आज ही हुआ.

इधर कुछ दिनों से रोहन बहुत परेशान था. औफिस में उस के साथ हो रहे भेदभाव ने उस की नींद उड़ा रखी थी. रोहन के वरिष्ठ मैनेजर ने रोहन के पद पर अपने किसी रिश्तेदार को रख लिया था और रोहन को दूसरा काम दे दिया गया जिस का न तो उसे खास अनुभव था न ही उस का मन उस काम में लग रहा था. अपने साथ हुई इस नाइंसाफी की शिकायत उस ने बड़े अधिकारियों से की, लेकिन उस की बातों को अनसुना कर दिया गया. नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उस की शिकायतें दब कर रह गई थीं. आखिरकार, तंग आ कर उस ने नौकरी छोड़ दी.

Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

‘‘हां मां, खाना खा लिया था औफिस की कैंटीन में. तुम बेकार ही इतनी चिंता करती हो मेरी. मैं अपना खयाल रखता हूं,’’ एक हाथ से औफिस की मोटीमोटी फाइलें संभालते हुए और दूसरे हाथ में मोबाइल कान से लगाए सुमित मां को समझाने की कोशिश में जुटा हुआ था.

‘‘देख, झूठ मत बोल मुझ से. कितना दुबला गया है तू. तेरी फोटो दिखाती रहती है छुटकी फेसबुक पर. अरे, इतना भी क्या काम होता है कि खानेपीने की सुध नहीं रहती तुझे.’’ घर से दूर रह रहे बेटे के लिए मां का चिंतित होना स्वाभाविक ही था, ‘‘देख, मेरी बात मान, छुटकी को बुला ले अपने पास, बहन के आने से तेरे खानेपीने की सब चिंता मिट जाएगी. वैसे भी 12वीं पास कर लेगी इस साल, तो वहीं किसी कालेज में दाखिला मिल जाएगा,’’ मां उत्साहित होते हुए बोलीं.

जिस बात से सुमित को सब से ज्यादा कोफ्त होती थी वह यही बात थी. पता नहीं मां क्यों नहीं समझतीं कि छुटकी के आने से उस की चिंताएं मिटेंगी नहीं, उलटे, बहन के आने से सुमित के ऊपर जिम्मेदारी का एक और बोझ आ पड़ेगा.

अभी तो वह परिवार से दूर अपने दोस्तों के साथ आजाद पंछी की तरह बेफिक्र जिंदगी का आनंद ले रहा था. उस के औफिस में ही काम करने वाले रोहन और मनीष के साथ मिल कर उस ने एक किराए पर फ्लैट ले लिया था. महीने का सारा खर्च तीनों तयशुदा हिसाब से बांट लेते थे. अविवाहित लड़कों को घरगृहस्थी का कोई ज्ञान तो था नहीं, मनमौजी में दिन गुजर रहे थे. जो जी में आता करते, किसी तरह की बंदिश, कोई रोकटोक नहीं थी उन की जिंदगी में. कपड़े धुले तो धुले, वरना यों ही पहन लिए. हफ्ते में एक बार मन हुआ तो घर की सफाई हो जाती थी, वरना वह भी नहीं.

सुमित से जब भी उस की मां छोटी बहन को साथ रखने की बात कहती, वह घोड़े सा बिदक जाता. छुटकी रहने आएगी तो सुमित को दोस्तों से अलग कमरा ले कर रहना पड़ेगा और ऊपर से उस की आजादी में खलल भी पड़ेगा. यही वजह थी कि वह कोई न कोई बहाना बना कर मां की बात टाल जाता.

‘‘मां, अभी बहुत काम है औफिस में, मैं बाद में फोन करता हूं,’’ कह कर सुमित ने फोन रख दिया.

वह सोच रहा था, कहीं मां सचमुच छुटकी को न भेज दें.

तीनों दोस्तों को यों तो कोई समस्या नहीं थी लेकिन खाना पकाने के मामले में तीनों ही अनाड़ी थे, ब्रैड, अंडा, दूध पर गुजारा करने वाले. रोजरोज एक ही तरह का खाना खा कर सुमित उकता गया था. बाहर का खाना अकसर उस का हाजमा खराब कर देता था. परिवार से दूर रहने का असर सचमुच उस की सेहत पर पड़ रहा था. मां का इस तरह चिंता करना वाजिब भी था. इस समस्या का कोई स्थायी हल निकालना पड़ेगा, वह मन ही मन सोचने लगा. फिलहाल तो 4 बजे उस की एक मीटिंग थी. खाने की चिंता से ध्यान हटा, वह एक बार फिर से फाइलों के ढेर में गुम हो गया.

सुमित के अलावा रोहन और मनीष की भी यही समस्या थी. उन के घर वाले भी अपने लाड़लों की सेहत की फिक्र में घुले जाते थे.

शाम को थकहार कर सुमित जब घर आया तो बड़ी देर तक घंटी बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला. एक तो दिनभर औफिस में माथापच्ची करने के बाद वह बुरी तरह थक गया था, उस पर घर की चाबी ले जाना आज वह भूल गया था. फ्लैट की एकएक चाबी तीनों दोस्तों के पास रहती थी, जिस से किसी को असुविधा न हो.

थकान से बुरी तरह झल्लाए सुमित ने एक बार फिर बड़ी जोर से घंटी पर हाथ दे मारा.

थोड़ी ही देर में इंचभर दरवाजे की आड़ से मनीष का चेहरा नजर आया. सुमित को देख कर उस ने हड़बड़ा कर दरवाजा पूरा खोल दिया.

‘‘क्यों? इतना टाइम लगता है क्या? बहरा हो गया था क्या जो घंटी सुनाई नहीं दी?’’ अंदर घुसते ही सुमित ने उसे आड़ेहाथों लिया.

गले में बंधी नैकटाई को ढीला कर सुमित बाथरूम की तरफ जा ही रहा था कि मनीष ने उसे टोक दिया, ‘‘यार, अभी रुक जा कुछ देर.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ सुमित ने पूछा, फिर मनीष को बगले झांकते देख कर वह सबकुछ समझ गया, ‘‘कोई है क्या, वहां?’’

‘‘हां यार, वह नेहा आई है. वही है बाथरूम में.’’

‘अरे, तो ऐसा बोल न,’’ सुमित ने फ्रिज खोल कर पानी की ठंडी बोतल निकाल ली.

मनीष की प्रेमिका नेहा नौकरी करती थी और एक वुमेन होस्टल में रह रही थी. जब भी सुमित और रोहन घर पर नहीं होते, मनीष नेहा को मिलने के लिए बुला लेता.

सुमित को इस बात से कोई एतराज नहीं था, मगर रोहन को यह बात पसंद नहीं आती थी. उस का मानना था कि मालिकमकान कभी भी इस बात को ले कर उन्हें घर खाली करने को कह सकता है.

जब कभी नेहा को ले कर मनीष और रोहन के बीच में तकरार होती, सुमित बीचबचाव से मामला शांत करवा लेता.

‘‘यार, बड़ी भूख लगी है, खाने को कुछ है क्या?’’ सुमित ने फ्रिज में झांका.

‘‘देख लो, सुबह की ब्रैड पड़ी होगी,’’ नेहा के जाने के बाद मनीष आराम से सोफे पर पसरा टीवी देख रहा था.

सुमित को जोरों की भूख लगी थी.

इस वक्त उसे मां के हाथ का

बना गरमागरम खाना याद आने लगा. वह जब भी कालेज से भूखाप्यासा घर आता था, मां उस की पसंद का खाना बना कर बड़े लाड़ से उसे खिलाती थीं. ‘काश, मां यहां होतीं,’ मन ही मन वह सोचने लगा.

‘‘बहुत हुआ, अब कुछ सोचना पड़ेगा. ऐसे काम नहीं चलने वाला,’’ सुमित ने कहा तो मनीष बोला, ‘‘मतलब?’’

‘‘यार, खानेपीने की दिक्कत हो रही है, मैं ने सोच लिया है किसी खाना बनाने वाले को रखते हैं,’’ सुमित बोला.

‘‘और उस को पगार भी तो देनी पड़ेगी?’’ मनीष ने कहा.

‘‘हां, तो दे देंगे न, आखिर कमा किसलिए रहे हैं.’’

‘‘लेकिन, हमें मिलेगा कहां कोई खाना बनाने वाला,’’ मनीष ने कहा.

‘‘मैं पता लगाता हूं,’’ सुमित ने जवाब दिया.

दूसरे दिन सुबह जब सुमित काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा, किसी ने दरवाजा खटखटाया. करीब 30-32 साल की मझोले कद की एक औरत दरवाजे पर खड़ी थी.

सुमित के कुछ पूछने से पहले ही वह औरत बोल पड़ी, ‘‘मुझे चौकीदार ने भेजा है, खाना बनाने का काम करती हूं.’’

‘‘ओ हां, मैं ने ही चौकीदार से बोला था.’’

‘‘अंदर आ जाइए,’’ सुमित उसे रास्ता देते हुए बोला और कमरे में रखी कुरसी की तरफ बैठने का इशारा किया.

कुछ झिझकते हुए वह औरत अंदर आई. गेहुंए रंग की गठीले बदन वाली वह औरत नजरें चारों तरफ घुमा कर उस अस्तव्यस्त कमरे का बारीकी से मुआयना करने लगी. बेतरतीब पड़ी बिस्तर की चादर, कुरसी की पीठ पर लटका गीला तौलिया, फर्श पर उलटीसीधी पड़ी चप्पलें.

‘‘हमें सुबह का नाश्ता और रात का खाना चाहिए. दिन में हम लोग औफिस में होते हैं, तो बाहर ही खा लेते हैं,’’ सुमित ने उस का ध्यान खींचा.

मनीष भी सुमित के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘कितने लोगों का खाना बनेगा?’’ औरत ने सुमित से पूछा.

‘‘कुल मिला कर 3 लोगों का, हमारा एक और दोस्त है, वह अभी घर पर नहीं है.’’

दो सखियां: भाग 3- क्या बुढ़ापे तक निभ सकती है दोस्ती

तारा ने भी पुराने दिन याद करते हुए कहा, ‘‘क्या खूब याद दिलाई. हम तो देव आनंद पर फिदा थे. हाय जालिम, क्या चलता था. मेरे पति तो मधुबाला के इतने दीवाने थे कि घर पर उस की फोटो टांग रखी थी. इन का बस चलता तो सौतन बना करले आते.’’

‘‘तभी एक देव आनंद जैसे लड़के पर रीझ गई थीं शादी के बाद?’’

‘‘ताना मार रही हो या तारीफ कर रही हो?’’

‘‘अरे सहेली हूं तेरी, ताना क्यों मारूंगी. अपनी जवानी के दिन याद भी नहीं कर सकते. फिर जवानी में तो सब से खताएं होती हैं.’’

‘‘हां, तू भी तो गफूर भाई को दिलीप कुमार समझ दिल दे बैठी थी.’’

‘‘अरे, उस कमबख्त की याद मत दिलाओ. मुझ से आशिकी बघारता रहता और निकाह कर लिया किसी और से. समझा था दिलीप कुमार, निकला प्राण. मेरा तो घर टूटतेटूटते बचा.’’

‘‘हम औरतों का यही तो रोना है. जिसे देव आनंद समझ कर बतियाते रहे उस ने महल्लेभर में बदनामी करवा दी हमारी. यह तो अच्छा हुआ कि हमारे पति को हम पर भरोसा था. फिर जो पिटाई की थी उस की, वह दोबारा दिखा नहीं. जिसे देव आनंद समझा वह अजीत निकला. खैर, पुरानी बातें छोड़ो, यह बताओ कि जफर भाई के बारे में कुछ सुना है?’’

‘‘हां, सुना तो है. घर की नौकरानी को पेट से कर दिया. इज्जत और जान पर आई तो निकाह करना पड़ा.’’

‘‘लेकिन जफर ठहरे 50 साल के और लड़की 20 साल की.’’

‘‘अरे मर्द और घोड़े की उम्र नहीं देखी जाती. घोड़ा घास खाता है और मर्द ने सुंदर जवान लड़की देखी कि मर्दों का दिमाग घास चरने चला जाता है.’’

‘‘जफर भाई बुढ़ाएंगे तो नई दुलहन को बाहर किसी का मुंह ताकना पड़ेगा.’’

‘‘यह तो सदियों से चला आ रहा है.’’

बातचीत चल रही थी कि इसी बीच फिर आवाज आई, ‘‘दादी, ओ दादी.’’

‘‘लो आ गया बुलावा. बात अधूरी रह गई. कल मिल कर बताऊंगी. तब तक कुछ और पता चलेगा.’’

रात में अल्पविराम लग गया. महिलाओं की गपें उस पर निंदारस, कहीं पूर्णविराम लग ही नहीं सकता था. बुढ़ापे में वैसे भी नींद कहां आती है. खापी कर बेटा काम पर चला जाता. बहू घर के काम निबटा सोने चली जाती. पोती स्कूल चली जाती तो सितारा बैठने चली जाती तारा के घर. तारा का भी यही हाल था. भोजनपानी होने के बाद पोता स्कूल निकल जाता. बहू घर के कामकाज में लगी रहती. कामकाज हो जाता तो बिस्तर पर झपकी लग जाती. अब तारा क्या करे.

अकेला मन और एकांत काटने को दौड़ता. वह सितारा को आवाज देती. कभी सितारा अपने घर महफिल जमा लेती. तारासितारा के अलावा यदि कोई और वृद्ध महिला बैठने आ जाती तो दोनों की बातें रुक जातीं. उन्हें सभ्यता के तकाजे के कारण बात करनी पड़ती, बिठाना पड़ता. लेकिन अंदर से उन्हें ऐसा लगता मानो कबाब में हड्डी. कब जाए? वे यही दुआ करतीं. उन्हें अपने बीच तीसरा ऐसे अखरता जैसे पत्नी को सौतन. फिर दूसरी महिलाओं के पास इतना समय भी नहीं होता कि दोपहर से रात तक बैठतीं.

इस उम्र में तो आराम चाहिए. तारासितारा तो बैठेबैठे थक जातीं तो वहीं जमीन पर चादर बिछा कर लेट जातीं. फिर कोई बात याद आ जाती तो फिर शुरू हो जातीं. उन की थकान तो बात करते रहने से ही दूर होती थी. एक बार सितारा के बेटे ने पूछा भी, ‘‘अम्मी, क्या बात चलती रहती है? घर की बुराई तो नहीं करती हो?’’ सितारा समझ गई कि यह बात बहू ने कही होगी बेटे से. सितारा भी जवाब में कहती, ‘‘क्या मैं अपने बहूबेटे की बुराई करूंगी?’’

बेटे ने कहा, ‘‘नहीं अम्मी, बात यह है कि हम ठहरे मुसलमान और वे हिंदू. आजकल माहौल बिगड़ता रहता है. फिर तुम्हारी सहेली का बेटा तो मुसलिम का विरोध करने वाली पार्टी का खास है. सावधानी रखना थोड़ी.’’

वहीं, तारा के बेटे ने भी कहा, ‘‘अम्मा, हम हिंदू हैं और वे मुसलमान. देखना कहीं धोखे से गाय का मांस खिला कर भ्रष्ट न कर दें. उन का कोई भरोसा नहीं. पाकिस्तान समर्थक हैं वे.’’ अम्मा ने कहा, ‘‘बेटा, हमें क्या लेनादेना तुम्हारी राजनीति से. हम ठहरे उम्रदराज लोग, धर्मकर्म की बातें कर के अपने मन की कह कर दिल हलका कर लेते हैं. मेरे बचपन की सहेली है. मुझे गोमांस नहीं खिलाएगी. इतना विश्वास है. इस के बाद वे मिलीं तो बातों का जायका कुछ बदला.

तारा ने कहा, ‘‘तुम गाय खाती हो. हम लोग तो उसे पूजते हैं.’’ सितारा ने कहा, ‘‘खाने को क्या गाय ही रह गई है. बकरा, मुरगा, मछली सब तो हैं. मैं अपने धर्म को जितना मानती हूं उतना ही दूसरे धर्म का सम्मान करती हूं. मैं पहले तुम्हारी सहेली हूं, बाद में मुसलमान. क्यों? किसी ने कुछ कहा है? भरोसा नहीं है मुझ पर?’’

‘‘नहींनहीं, गंभीर मत हो. ऐसे ही पूछ लिया.’’

‘‘दिल साफ कर लो. पूछने में क्या एतराज करना.’’

‘‘तुम पाकिस्तान की तरफ हो?’’

‘‘ऐसा आरोप लगाया जाता है हम पर.’’

‘‘कभी माहौल बिगड़ा तो क्या करोगी?’’

‘‘तुम्हारे घर आ जाऊंगी, क्योंकि मुझे भरोसा है तुम पर. तुम मेरी और मेरे परिवार की रक्षा करोगी. कभी तुम पर मुसीबत आई तो मैं तुम्हारे परिवार की रक्षा करूंगी,’’ और दोनों सहेलियों की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘तुम्हारा बेटा अजय, मुसलमान विरोधी क्यों है? उसे समझाओ.’’

‘‘वह सब समझता है. कहता है, राजनीति है. बस और कुछ नहीं. लेकिन सुना है तुम्हारा बेटा हिंदू विरोधी है?’’

‘‘नहीं रे, वह तो हिंदुओं के डर के कारण मात्र मुसलिम संघों से जुड़ा है. केवल दिखाने के लिए. बाकी वह समझता सब है. हम एक ही देश के रहने वाले पड़ोसी हैं एकदूसरे के. चलो, कोई और बात करो. इन बातों से हमारा क्या लेनादेना.’’ और फिर वे वर्मा की बेटी, गफूर का नौकरानी से निकाह, बहुओं की तानाशाही, बेटों की धनलोलुपता, अपने पोतेपोतियों के स्नेह पर चर्चा करने लगीं.

समाज में फैली अश्लीलता, बेहूदा गीत, संगीत पर भी उन्होंने चर्चा की. अपनी जवानी, बचपन को भी याद किया और बुढ़ापे की इस उम्र में सत्संग आदि पर भी चर्चा की. लेकिन आनंद उन्हें दूसरों की बहूबेटियों के विषय में बात करने में ही आता था. पराए मर्दों के अवैध संबंधों में जो रस मिलता वह दुनिया में और कहां था.

तारा ने कहा, ‘‘मेरा पोता 20 साल का हो चुका है. खुद को शाहरुख खान समझता है.’’

सितारा ने कहा, ‘‘मेरी पोती भी 18 साल की हो गई. अपनेआप को करीना कपूर समझती है.’’

तारा ने कहा, ‘‘एक विचार आया मन में. कहो तो कहूं. बुरा मत मानना, मैं जानती हूं संभव नहीं और ठीक भी नहीं.’’

सितारा ने कहा, ‘‘यही आया होगा कि मेरी पोती शबनम और तुम्हारे पोते अजय की जोड़ी क्या खूब रहेगी? मेरे मन में आया कई बार. लेकिन हमारे हाथ में कहां कुछ है. कितने हिंदूमुसलिम लड़केलड़कियों ने शादी की. वे बड़े लोग हैं. उन की मिसालें दी जाती हैं. हम मिडिल क्लास. हम करें तो धर्म, जात से बाहर. हमारे यहां तो औरतें बच्चा पैदा करने की मशीन भर हैं. जमाने भर के नियमकायदे. फिर पुरुष को 4 शादियों की छूट. तुम्हारे यहां अच्छा है कि एक शादी.’’

तारा ने कहा, ‘‘लेकिन हमारे यहां दहेज जैसी प्रथा भी है. हर धर्म में अच्छाई और बुराई हैं. खैर, यह बताओ कि वर्मा की बेटी का कुछ पता चला? क्या सचमुच एबौर्शन हुआ था उस का? उस के मातापिता शादी क्यों नहीं कर देते उस लड़के से?’’

सितारा ने कहा, ‘‘वर्मा ठहरे कायस्थ. ऊंची जात के. वे कहते हैं मर जाएंगे लेकिन छोटी जात से शादी नहीं करेंगे.’’

‘‘इतना खयाल था तो ध्यान रखना था. अब लड़की तो उसी जात की हो गई जिस जात वाले के साथ सो गई थी. अब अपनी जात में करेंगे तो यह तो धोखा होगा उस लड़के के साथ. अगर लड़के को पता चल गया तो शादी के बाद फिर क्या होगा. धक्के मार कर भगा देगा.’’

तारासितारा की गपें चलती रहतीं. इसी बीच उन के पोते, पोती की भी आंखें लड़ गईं. उन में प्यार हो गया. कब हो गया, कैसे हो गया, उन्हें भी पता न चला. चुपकेचुपके निहारते रहे. फिर ताकने लगे धीरेधीरे, फिर मुसकराने लगे और दीवाने दिल मचलने लगे. बात हुई छोटी सी. फिर बातें हुईं बहुत सी. प्यार परवान चढ़ा. दिल बेकरार हुए और पाने को मचल उठे एकदूसरे को. फिर दोनों ने इकरार किया. फिर तो बातों का सिलसिला चल निकला. मुलाकातें होने लगीं दुनिया से छिप कर, मरमिटने की कसमें खाईं. दुनिया से न डरने की, साथ जीनेमरने की ठान ली. और एक दिन दुनिया को पता चला तो तूफान आ गया.

बुजुर्ग बातें करते हैं. अधेड़ धर्म और समाज की चिंता करते हैं. नौजवान प्यार करते हैं. पहले एक परिवार ने दूसरे को चेतावनी दी. अपनेअपने बच्चों को डांटाफटकारा. उन पर पहरे लगाए. पहरेदार जागते रहे और प्यार करने वाले भाग खड़े हुए. किसी को समाज से निष्कासन की सजा मिली. किसी पर फतवा जारी हुआ. बच्चों ने दूर कहीं शादी कर के घर बसा लिया और अपनेअपने परिवार के साथ थाने में भी सूचना भिजवा दी ताकि लड़की भगाने, अपहरण, बलात्कार जैसी रिपोर्ट दर्ज न हों. समाज पर थूक कर चले गए दोनों. दोनों परिवार कसमसा कर रह गए.

तारासितारा का मिलना बंद हो गया. दोनों को खरीखोटी सुनने को मिलीं, ‘सब तुम लोगों की वजह से. कहीं का नहीं छोड़ा. दिखा दी न अपनी जात, औकात.’ तारासितारा ने भी बचपन की दोस्ती खत्म कर ली. हिंदूमुसलिम दंगों का सवाल ही पैदा नहीं हुआ. बाकायदा कोर्ट मैरिज की थी दोनों ने. फसाद का कोई मौका ही नहीं दिया कमबख्तों ने. कट्टरपंथी मन मसोस कर रह गए. दूसरों पर हंसने वाली तारा और सितारा पर आज दूसरों के साथ उन के घर वाले भी हंस रहे थे. लानतें भेज रहे थे. 2 घनिष्ठ सखियों की दोस्ती समाप्त हो चुकी थी हमेशाहमेशा के लिए.

एक कट्टरपंथी ने सलाह दी, ‘‘भाईजान, हिंदू महल्ले में रहने का अंजाम देख लिया. आज लड़की गई है, कल…ऐसा करें, मकान बेचें और मोमिनपुरा चलें. अपनों के बीच.’’

शर्म और जिल्लत से बचने के लिए अपनी जान से प्यारी लड़की को मृत मान कर सितारा अम्मी सहित वह घर बेच कर मोमिनपुरा चली गईं. ऐसा नहीं है कि मोमिनपुरा की लड़कियों ने हिंदू लड़कों से और बजरंगपुरा की लड़कियों ने मुसलिम लड़कों से विवाह न किया हो, लेकिन जिस पर गुजरी वही नफरत पालता है. बच्चों ने मातापिता को फोन किया. विवाह स्वीकारने का निवेदन किया लेकिन दोनों घर के मिडिल क्लास दरवाजे बंद हो चुके थे उन के लिए. बच्चों ने न आना ही बेहतर समझा. वे अपने दकियानूसी विचारों वाले परिवारों को जानते थे. तारा और सितारा दो जिस्म एक जान थीं.

बचपन की सहेलियां. अलगअलग हो कर भी एकदूसरे को याद करतीं. एकदूसरे की याद में आंसू बहातीं. वह दिनदिन भर बतियाना, एकदूसरे को पान खिलाना, चायनाश्ता करवाना, गपें करने का हर संभव बहाना तलाशना. मीठी ईद की सेंवइयां, दीवाली की मिठाई. लेकिन क्या करें, धर्म के पहरे, समाज की चेतावनी के आगे दोनों बुजुर्ग सहेलियां मजबूर थीं. इश्क की कोई जात नहीं होती. प्यार का कोई धर्म नहीं होता. दिल से दिल का मिलन, प्रेमियों का हो या सखियों का, कहां टूटता है. पहरे शरीर पर होते हैं मन और विचारों पर नहीं. अपने अहं और जिद की वजह से दोनों परिवारों और समाज के लोगों ने उन्हें शेष जीवन मिलने तो नहीं दिया पर सुना है कि

अंतिम समय तारा की जबान पर सितारा का नाम था और सितारा ने तारा कह कर अंतिम सांस ली थी. यह भी सुना है कि दोनों की मृत्यु एक ही दिन लगभग एक ही समय हुई थी. 2 बुजुर्ग सहेलियों में इतना प्रेम देख कर मातापिता ने धर्म की दीवार तोड़ कर, मजहब के ठेकेदारों को ठोकर मारते हुए अजय को अपना दामाद और शबनम को अपनी बहू स्वीकार कर लिया था और उन से निवेदन किया था कि वे घर वापस आ जाएं.

सच्चाई: आखिर क्यों मां नहीं बनना चाहती थी सिमरन?

पड़ोस में आते ही अशोक दंपती ने 9 वर्षीय सपना को अपने 5 वर्षीय बेटे सचिन की दीदी बना दिया था. ‘‘तुम सचिन की बड़ी दीदी हो. इसलिए तुम्हीं इस की आसपास के बच्चों से दोस्ती कराना और स्कूल में भी इस का ध्यान रखा करना.’’ सपना को भी गोलमटोल सचिन अच्छा लगा था. उस की मम्मी तो यह कह कर कि गिरा देगी, छोटे भाई को गोद में भी नहीं उठाने देती थीं.

समय बीतता रहा. दोनों परिवारों में और बच्चे भी आ गए. मगर सपना और सचिन का स्नेह एकदूसरे के प्रति वैसा ही रहा. सचिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मणिपाल चला गया. सपना को अपने ही शहर में मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया था. फिर एक सहपाठी से शादी के बाद वह स्थानीय अस्पताल में काम करने लगी थी. हालांकि सचिन के पापा का वहां से तबादला हो चुका था.

फिर भी वह मौका मिलते ही सपना से मिलने आ जाता था. सऊदी अरब में नौकरी पर जाने के बाद भी उस ने फोन और ईमेल द्वारा संपर्क बनाए रखा. इसी बीच सपना और उस के पति सलिल को भी विदेश जाने का मौका मिल गया. जब वे लौट कर आए तो सचिन भी सऊदी अरब से लौट कर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहा था.

‘‘बहुत दिन लगा दिए लौटने में दीदी? मैं तो यहां इस आस से आया था कि यहां आप अपनी मिल जाएंगी. मम्मीपापा तो जबलपुर में ही बस गए हैं और आप भी यहां से चली गईं. इतने साल सऊदी अरब में अकेला रहा और फिर यहां भी कोई अपना नहीं. बेजार हो गया हूं अकेलेपन से,’’ सचिन ने शिकायत की. ‘‘कुंआरों की तो साथिन ही बेजारी है साले साहब,’’ सलिल हंसा, ‘‘ढलती जवानी में अकेलेपन का स्थायी इलाज शादी है.’’

‘‘सलिल का कहना ठीक है सचिन. तूने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’ सपना ने पूछा.

‘‘सऊदी अरब में और फिर यहां अकेले रहते हुए शादी कैसे करता दीदी? खैर, अब आप आ गई हैं तो लगता है शादी हो ही जाएगी.’’

‘‘लगने वाली क्या बात है, शादी तो अब होनी ही चाहिए… और यहां अकेले का क्या मतलब हुआ? शादी जबलपुर में करवा कर यहां आ कर रिसैप्शन दे देता किसी होटल में.’’

‘‘जबलपुर वाले मेरी उम्र की वजह से न अपनी पसंद का रिश्ता ढूंढ़ पा रहे हैं और न ही मेरी पसंद को पसंद कर रहे हैं,’’ सचिन ने हताश स्वर में कहा, ‘‘अब आप समझा सको तो मम्मीपापा को समझाओ या फिर स्वयं ही बड़ी बहन की तरह यह जिम्मेदारी निभा दो.’’ ‘‘मगर चाचीचाचाजी को ऐतराज क्यों है? तेरी पसंद विजातीय या पहले से शादीशुदा बालबच्चों वाली है?’’ सपना ने पूछा.

‘‘नहीं दीदी, स्वजातीय और अविवाहित है और उसे भविष्य में भी संतान नहीं चाहिए. यही बात मम्मीपापा को मंजूर नहीं है.’’

‘‘मगर उसे संतान क्यों नहीं चाहिए और अभी तक वह अविवाहित क्यों है?’’ सपना ने शंकित स्वर में पूछा. ‘‘क्योंकि सिमरन इकलौती संतान है. उस ने पढ़ाई पूरी की ही थी कि पिता को कैंसर हो गया और फिर मां को लकवा. बहुत इलाज के बाद भी दोनों को ही बचा नहीं सकी. मेरे साथ ही पढ़ती थी मणिपाल में और अब काम भी करती है. मुझ से शादी तो करना चाहती है, लेकिन अपनी संतान न होने वाली शर्त के साथ.’’

‘‘मगर उस की यह शर्त या जिद क्यों है?’’

‘‘यह मैं ने नहीं पूछा न पूछूंगा. वह बताना तो चाहती थी, मगर मुझे उस के अतीत में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं तो उसे सुखद भविष्य देना चाहता हूं. उस ने मुझे बताया था कि मातापिता के इलाज के लिए पैसा कमाने के लिए उस ने बहुत मेहनत की, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया, जिस के लिए कभी किसी से या स्वयं से लज्जित होना पड़े. शर्त की कोई अनैतिक वजह नहीं है और वैसे भी दीदी प्यार का यह मतलब यह तो नहीं है कि उस में आप की प्राइवेसी ही न रहे? मेरे बच्चे होने न होने से मम्मीपापा को क्या फर्क पड़ता है? जतिन और श्रेया ने बना तो दिया है उन्हें दादादादी और नानानानी. फूलफल तो रही है उन की वंशबेल,’’ फिर कुछ हिचकते हुए बोला, ‘‘और फिर गोद लेने या सैरोगेसी का विकल्प तो है ही.’’

‘‘इस विषय में बात की सिमरन से?’’ सलिल ने पूछा. ‘‘उसी ने यह सुझाव दिया था कि अगर घर वालों को तुम्हारा ही बच्चा चाहिए तो सैरोगेसी द्वारा दिलवा दो, मुझे ऐतराज नहीं होगा. इस के बावजूद मम्मीपापा नहीं मान रहे. आप कुछ करिए न,’’ सचिन ने कहा, ‘‘आप जानती हैं दीदी, प्यार अंधा होता है और खासकर बड़ी उम्र का प्यार पहला ही नहीं अंतिम भी होता है.’’

‘‘सिमरन का भी पहला प्यार ही है?’’ सपना ने पूछा. सचिन ने सहमति में सिर हिलाया, ‘‘हां दीदी, पसंद तो हम एकदूसरे को पहली नजर से ही करने लगे थे पर संयम और शालीनता से. सोचा था पढ़ाई खत्म करने के बाद सब को बताएंगे, लेकिन उस से पहले ही उस के पापा बीमार हो गए और सिमरन ने मुझ से संपर्क तक रखने से इनकार कर दिया. मगर यहां रहते हुए तो यह मुमकिन नहीं था. अत: मैं सऊदी अरब चला गया. एक दोस्त से सिमरन के मातापिता के न रहने की खबर सुन कर उसी की कंपनी में नौकरी लगने के बाद ही वापस आया हूं.’’ ‘‘ऐसी बात है तो फिर तो तुम्हारी मदद करनी ही होगी साले साहब. जब तक अपना नर्सिंगहोम नहीं खुलता तब तक तुम्हारे पास समय है सपना. उस समय का सदुपयोग तुम सचिन की शादी करवाने में करो,’’ सलिल ने कहा.

‘‘ठीक है, आज फोन पर बात करूंगी चाचीजी से और जरूरत पड़ी तो जबलपुर भी चली जाऊंगी, लेकिन उस से पहले सचिन मुझे सिमरन से तो मिलवा,’’ सपना ने कहा. ‘‘आज तो देर हो गई है, कल ले चलूंगा आप को उस के घर. मगर उस से पहले आप मम्मी से बात कर लेना,’’ कह कर सचिन चला गया. सपना ने अशोक दंपती को फोन किया. ‘‘कमाल है सपना, तुझे डाक्टर हो कर भी इस रिश्ते से ऐतराज नहीं है?  तुझे नहीं लगता ऐसी शर्त रखने वाली लड़की जरूर किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रस्त होगी?’’ चाची के इस प्रश्न से सपना सकते में आ गई.

‘‘हो सकता है चाची…कल मैं उस से मिल कर पता लगाने की कोशिश करती हूं,’’ उस ने खिसियाए स्वर में कह कर फोन रख दिया.

‘‘हम ने तो इस संभावना के बारे में सोचा ही नहीं था,’’ सब सुनने के बाद सलिल ने कहा. ‘‘अगर ऐसा कुछ है तो हम उस का इलाज करवा सकते हैं. आजकल कोई रोग असाध्य नहीं है, लेकिन अभी यह सब सचिन को मत बताना वरना अपने मम्मीपापा से और भी ज्यादा चिढ़ जाएगा.’’

‘‘उन का ऐतराज भी सही है सलिल, किसी व्याधि या पूर्वाग्रस्त लड़की से कौन अभिभावक अपने बेटे का विवाह करना चाहेगा? बगैर सचिन या सिमरन को कुछ बताए हमें बड़ी होशियारी से असलियत का पता लगाना होगा,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के घर जाने के बजाय उस से पहले कहीं मिलना बेहतर रहेगा. ऐसा करो तुम कल लंचब्रेक में सचिन के औफिस चली जाओ. कह देना किसी काम से इधर आई थी, सोचा लंच तुम्हारे साथ कर लूं. वैसे तो वह स्वयं ही सिमरन को बुलाएगा और अगर न बुलाए तो तुम आग्रह कर के बुलवा लेना,’’ सलिल ने सुझाव दिया. अगले दिन सपना सचिन के औफिस में पहुंची ही थी कि सचिन लिफ्ट से एक लंबी, सांवली मगर आकर्षक युवती के साथ निकलता दिखाई दिया.

‘‘अरे दीदी, आप यहां? खैरियत तो है?’’ सचिन ने चौंक कर पूछा.

‘‘सब ठीक है, इस तरफ किसी काम से आई थी. अत: मिलने चली आई. कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘सिमरन को लंच पर ले जा रहा था. शाम का प्रोग्राम बनाने के लिए…आप भी हमारे साथ लंच के लिए चलिए न दीदी,’’ सचिन बोला.

‘‘चलो, लेकिन किसी अच्छी जगह यानी जहां बैठ कर इतमीनान से बात कर सकें.’’

‘‘तब तो बराबर वाली बिल्डिंग की ‘अंगीठी’ का फैमिलीरूम ठीक रहेगा,’’ सिमरन बोली. चंद ही मिनट में वे बढि़या रेस्तरां पहुंच गए. ‘बहुत बढि़या आइडिया है यहां आने का सिमरन. पार्किंग और आनेजाने में व्यर्थ होने वाला समय बच गया,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के सुझाव हमेशा बढि़या और सटीक होते हैं दीदी.’’

‘‘फिर तो इसे जल्दी से परिवार में लाना पड़ेगा सब का थिंक टैंक बनाने के लिए.’’ सचिन ने मुसकरा कर सिमरन की ओर देखा. सपना को लगा कि मुसकराहट के साथ ही सिमरन के चेहरे पर एक उदासी की लहर भी उभरी जिसे छिपाने के लिए उस ने बात बदल कर सपना से उस के विदेश प्रवास के बारे में पूछना शुरू कर दिया. ‘‘मेरा विदेश वृतांत तो खत्म हुआ, अब तुम अपने बारे में बताओ सिमरन.’’ ‘‘मेरे बारे में तो जो भी बताने लायक है वह सचिन ने बता ही दिया होगा दीदी. वैसे भी कुछ खास नहीं है बताने को. सचिन की सहपाठिन थी, अब सहकर्मी हूं और नेहरू नगर में रहती हूं.’’

‘‘अपने पापा के शौक से बनाए घर में जो लाख परेशानियां आने के बावजूद इस ने बेचा नहीं,’’ सचिन ने जोड़ा, ‘‘अकेली रहती है वहां.’’

‘‘डर नहीं लगता?’’

‘‘नहीं दीदी, डर तो अपना साथी है,’’ सिमरन हंसी. ‘‘आई सी…इस ने तेरे बचपन के नाम डरपोक को छोटा कर दिया है सचिन.’’ सिमरन खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘नहीं दीदी, इस ने बताया ही नहीं कि इस का नाम डरपोक था. किस से डरता था यह दीदी?’’ ‘‘बताने की क्या जरूरत है जब रातदिन इस के साथ रहोगी तो अपनेआप ही पता चल जाएगा,’’ सपना हंसी. ‘‘रातदिन साथ रहने की संभावना तो बहुत कम है, मैं मम्मीजी की भावनाओं को आहत कर के सचिन से शादी नहीं कर सकती,’’ सिमरन की आंखों में उदासी, मगर स्वर में दृढ़ता थी. सपना ने घड़ी देखी फिर बोली, ‘‘अभी न तो समय है और न ही सही जगह जहां इस विषय पर बहस कर सकें. जब तक मेरा नर्सिंगहोम तैयार नहीं हो जाता, मैं तो फुरसत में ही हूं, तुम्हारे पास जब समय हो तो बताना. तब इतमीनान से इस विषय पर चर्चा करेंगे और कोई हल ढूंढ़ेंगे.’’

‘‘आज शाम को आप और जीजाजी चल रहे हैं न इस के घर?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘अभी यहां से मैं नर्सिंगहोम जाऊंगी यह देखने कि काम कैसा चल रहा है, फिर घर जा कर दोबारा बाहर जाने की हिम्मत नहीं होगी और फिर आज मिल तो लिए ही हैं.’’

‘‘आप मिली हैं न, जीजाजी से भी तो मिलवाना है इसे,’’ सचिन बोला, ‘‘आप घर पर ही आराम करिए, मैं सिमरन को ले कर वहीं आ जाऊंगा.’’

‘‘इस से अच्छा और क्या होगा, जरूर आओ,’’ सपना मुसकराई, ‘‘खाना हमारे साथ ही खाना.’’ शाम को सचिन और सिमरन आ गए. सलिल की चुटकियों से शीघ्र ही वातावरण अनौपचारिक हो गया. जब किसी काम से सपना किचन में गई तो सचिन उस के पीछेपीछे आया.

‘‘आप ने मम्मी से बात की दीदी?’’

‘‘हां, हालचाल पूछ लिया सब का.’’

‘‘बस हालचाल ही पूछा? जो बात करनी थी वह नहीं की? आप को हो क्या गया है दीदी?’’ सचिन ने झल्ला कर पूछा. ‘‘तजरबा, सही समय पर सही बात करने का. सिमरन कहीं भागी नहीं जा रही है, शादी करेगी तो तेरे से ही. जहां इतने साल सब्र किया है थोड़ा और कर ले.’’ ‘‘इस के सिवा और कर भी क्या सकता हूं,’’ सचिन ने उसांस ले कर कहा. इस के बाद सपना ने सिमरन से और भी आत्मीयता से बातचीत शुरू कर दी. यह सुन कर कि सचिन औफिस के काम से मुंबई जा रहा है, सपना उस शाम सिमरन के घर चली गई. उस का घर बहुत ही सुंदर था. लगता था बनवाने वाले ने बहुत ही शौक से बनवाया था. ‘‘बहुत अच्छा किया तुम ने यह घर न बेच कर सिमरन. जाहिर है, शादी के बाद भी यहीं रहना चाहोगी. सचिन तैयार है इस के लिए?’’ ‘‘सचिन तो बगैर किसी शर्त के मेरी हर बात मानने को तैयार है, लेकिन मैं बगैर उस के मम्मीपापा की रजामंदी के शादी नहीं कर सकती. मांबाप से उन के बेटे को विमुख कभी नहीं करूंगी. प्रेम तो विवेकहीन और अव्यावहारिक होता है दीदी. उस के लिए सचिन को अपनों को नहीं छोड़ने दूंगी.’’

‘‘यह तो बहुत ही अच्छी बात है सिमरन. चाचाचाचीजी यानी सचिन के मम्मीपापा भी बहुत अच्छे हैं. अगर उन्हें ठीक से समझाया जाए यानी तुम्हारी शर्त का कारण बताया जाए तो वे भी सहर्ष मान जाएंगे. लेकिन सचिन ने उन्हें कारण बताया ही नहीं है.’’ ‘‘बताता तो तब न जब उसे खुद मालूम होता. मैं ने उसे कई बार बताने की कोशिश की, लेकिन वह सुनना ही नहीं चाहता. कहता है कि जब मेरे साथ हो तो भविष्य के सुनहरे सपने देखो, अतीत की बात मत करो. मुझे भी अतीत याद रखने का कोई शौक नहीं है दीदी, मगर अतीत से या जीवन से जुड़े कुछ तथ्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें चाह कर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, उन के साथ जीना मजबूरी होती है.’’ ‘‘अगर चाहो तो उस मजबूरी को मुझ से बांट सकती हो सिमरन,’’ सपना ने धीरे से कहा. ‘‘मैं भी यही सोच रही थी दीदी,’’ सिमरन ने जैसे राहत की सांस ली, ‘‘अकसर देर से जाने और बारबार छुट्टी लेने के कारण न नौकरी पर ध्यान दे पा रही थी न पापा के इलाज पर, अत: मैं नौकरी छोड़ कर पापा को इलाज के लिए मुंबई ले गई थी. वहां पैसा कमाने के लिए वैक्यूम क्लीनर बेचने से ले कर अस्पताल की कैंटीन, साफसफाई और बेबी सिटिंग तक के सभी काम लिए. फिर मम्मीपापा के ऐतराज के बावजूद पैसा कमाने के लिए 2 बार सैरोगेट मदर बनी. तब तो मैं ने एक मशीन की भांति बच्चों को जन्म दे कर पैसे देने वालों को पकड़ा दिया था, लेकिन अब सोचती हूं कि जब मेरे अपने बच्चे होंगे तो उन्हें पालते हुए मुझे जरूर उन बच्चों की याद आ सकती है, जिन्हें मैं ने अजनबियों पर छोड़ दिया था. हो सकता है कि विचलित या व्यथित भी हो जाऊं और ऐसा होना सचिन और उस के बच्चे के प्रति अन्याय होगा. अत: इस से बेहतर है कि यह स्थिति ही न आने दूं यानी बच्चा ही पैदा न करूं. वैसे भी मेरी उम्र अब इस के उपयुक्त नहीं है. आप चाहें तो यह सब सचिन और उस के परिवार को बता सकती हैं. उन की कोई भी प्रतिक्रिया मुझे स्वीकार होगी.’’

‘‘ठीक है सिमरन, मैं मौका देख कर सब से बात करूंगी,’’ सपना ने सिमरन को आश्वासन दिया. सिमरन ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था. उस की भावनाओं का खयाल रखना जरूरी था. सचिन के साथ तो खैर कोई समस्या नहीं थी, उसे तो सिमरन हर हाल में ही स्वीकार थी, लेकिन उस के घर वालों से आज की सचाई यानी सैरोगेट मदर बन चुकी बहू को स्वीकार करवाना आसान नहीं था. उन लोगों को तो सिमरन की बड़ी उम्र बच्चे पैदा करने के उपयुक्त नहीं है कि दलील दे कर समझाना होगा. सचिन के प्यार के लिए इतने से कपट का सहारा लेना तो बनता ही है.

सलाहकार

छात्र छात्राओं का प्रिय शगल हर एक अध्यापक- अध्यापिका को कोई नाम देना होता है और चाहे अध्यापक हों या प्राध्यापक, सब जानबूझ कर इस तथ्य से अनजान बने रहते हैं, शायद इसलिए कि अपने जमाने में उन्होंने भी अपने गुरुजनों को अनेक हास्यास्पद नामों से अलंकृत किया होगा.

ऋतिका इस का अपवाद थीं. वह अंगरेजी साहित्य की प्रवक्ता ही नहीं होस्टल की वार्डन भी थीं, लेकिन न तो लड़कियों ने खुद उन्हें कोई नाम दिया और न ही किसी को उन के खिलाफ बोलने देती थीं. मिलनसार, आधुनिक और संवेदनशील ऋतिका का लड़कियों से कहना था :

‘‘देखो भई, होस्टल के कायदे- कानून मैं ने नहीं बनाए हैं, लेकिन मुझे इस होस्टल में रह कर पीएच.डी. करने की सुविधा इसलिए मिली है कि मैं किसी को उन नियमों का उल्लंघन न करने दूं. मैं नहीं समझती कि आप में से कोई भी लड़की होस्टल के कायदेकानून तोड़ कर मुझे इस सुविधा से वंचित करेगी.’’

इस आत्मीयता भरी चेतावनी के बाद भला कौन लड़की मैडम को परेशान करती?  वैसे लड़कियों की किसी भी उचित मांग का ऋतिका विरोध नहीं करती थीं. खाना बेस्वाद होने पर वह स्वयं कह देती थीं, ‘‘काश, मुझ में होस्टल की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों को दावत पर बुला कर यह खाना खिलाने की हिम्मत होती.’’

लड़कियां शिकायत करने के बजाय हंसने लगतीं.

ऋतिका मैडम का व्यवहार सभी लड़कियों के साथ सहृदय था. किसी के बीमार होने पर वह रात भर जाग कर उस की देखभाल करती थीं. पढ़ाई में कोई दिक्कत होने पर अपना विषय न होते हुए भी वह यथासंभव सहायता कर देती थीं, लेकिन अगर कभी कोई लड़की व्यक्तिगत समस्या ले कर उन के पास जाती थी तो बजाय समस्या सुनने या कोई हल सुझाने के वह बड़ी बेरुखी से मना कर देती थीं. लड़कियों को उन की बेरुखी उन के स्वभाव के अनुरूप तो नहीं लगती थी फिर भी किसी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया.

मनोविज्ञान की छात्रा श्रेया ने कुछ दिनों में ही यह अटकल लगा ली कि ऊपर से सामान्य लगने वाली ऋतिका मैम, भीतर से बुरी तरह घायल थीं और जिंदगी को सजा समझ कर जी रही थीं. मगर उन से पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि अगर उस का प्रश्न सुन कर ऋतिका मैडम जरा सी भी उदास हो गईं तो सब लड़कियां उन का होस्टल में रहना मुश्किल कर देंगी.

एम.ए. की छात्रा होने के कारण श्रेया अन्य लड़कियों से उम्र में बड़ी और ऋतिका मैडम से कुछ ही छोटी थी, सो प्राय: हमउम्र होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गई और दोनों एक ही कमरे में रहने लगीं.

एक दिन एक पत्रिका द्वारा आयोजित निबंध लेखन प्रतियोगिता में भाग ले रही छात्रा रश्मि उन के कमरे में आई.

‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं हिंदी में निबंध लिखूं या अंगरेजी में?’’

‘‘लिखना तो उसी भाषा में चाहिए जिस में तुम सुंदरता से अपने भाव व्यक्त कर सको,’’ श्रेया बोली.

‘‘दोनों में ही कर सकती हूं.’’

‘‘इस की दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ है,’’ ऋतिका मैडम के स्वर में सराहना थी जिसे सुन कर रश्मि का उत्साहित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘इस प्रतियोगिता में मैं प्रथम पुरस्कार जीतना चाहती हूं, सो आप सलाह दें मैडम, कौन सी भाषा में लिखना अधिक प्रभावशाली रहेगा?’’ रश्मि ने ऋतिका से मनुहार की.

‘‘तुम्हारी शिक्षिका होने के नाते बस, इतना ही कह सकती हूं कि तुम अच्छी अंगरेजी लिखती हो और सलाह तो मैं किसी को देती नहीं,’’ ऋतिका मैडम ने इतनी रुखाई से कहा कि रश्मि सहम कर चली गई.

‘‘जब आप को पता है कि उस की अंगरेजी औसत से बेहतर है, तो उसे उसी भाषा में लिखने को कहना था क्योंकि अंगरेजी में जीत की संभावना अधिक है,’’ श्रेया बोली.

‘‘इतनी समझ रश्मि को भी है.’’

‘‘फिर भी बेचारी आश्वस्त होने आप के पास आई थी और आप ने दुत्कार दिया,’’ श्रेया के स्वर में भर्त्सना थी, ‘‘मैडम, आप से सलाह मांगना तो सांड को लाल कपड़ा दिखाना है.’’

ऋतिका ने अपनी हंसी रोकने का असफल प्रयास किया, जिस से प्रभावित हो कर श्रेया पूछे बगैर न रह सकी :

‘‘आखिर आप सलाह देने से इतना चिढ़ती क्यों हैं?’’

‘‘चिढ़ती नहीं श्रेया, डरती हूं,’’ ऋतिका मैडम आह भर कर बोलीं, ‘‘मेरी सलाह से एकसाथ कई जीवन बरबाद हो चुके हैं.’’

‘‘किसी आतंकवादी गिरोह की आप सदस्या रह चुकी हैं?’’ श्रेया ने उन की ओर कृत्रिम अविश्वास से देखा.

ऋतिका ने गहरी सांस ली, ‘‘असामाजिक तत्त्व ही नहीं शुभचिंतक भी जिंदगियां तबाह कर सकते हैं, श्रेया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘बड़ी लंबी कहानी है.’’

‘‘मैडम, आज पढ़ाई यहीं बंद करते हैं. कल रविवार को कहीं घूमने न जा कर पढ़ाई कर लेंगे,’’ कह कर श्रेया उठी और उस ने कमरे का दरवाजा बंद किया, बत्ती बुझा कर बोली, ‘‘अब आप शुरू हो जाओ. कहानी सुनाने से आप का दिल हलका हो जाएगा और मेरी जिज्ञासा शांत.’’

‘‘मेरा दिल तो कभी हलका नहीं होगा मगर चलो, तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देती हूं.

‘‘शुचिता मेरी स्कूल की सहपाठी थी. जब वह 7वीं में पढ़ती थी तो उस के डाक्टर मातापिता उसे दादी के पास छोड़ कर मस्कट चले गए थे. जब भी वह उन्हें याद करती, दादी प्रार्थना करने को कहतीं या उसे दिलासा देने को राह चलते ज्योतिषियों से कहलवा देती थीं कि उस के मातापिता जल्दी आएंगे.

‘‘मस्कट कोई खास दूर तो था नहीं, सो दादी से शुचि की उदासी के बारे में सुन कर अकसर उस के मातापिता में से कोई न कोई बेटी से मिलने आता रहता था. इस तरह शुचि भाग्य और भविष्यवक्ताओं पर विश्वास करने लगी. विदेश से लौटने पर उस के आधुनिक मातापिता ने शुचि को बहुत समझाया मगर उस की अंधविश्वास के प्रति आस्था नहीं डिगी.

‘‘रजत शुचि का पड़ोसी और मेरे पापा के दोस्त का बेटा था, सो एकदूसरे के घर आतेजाते मालूम नहीं कब हमें प्यार हो गया, लेकिन यह हम दोनों को अच्छी तरह मालूम था कि सही समय पर हमारे मातापिता सहर्ष हमारी शादी कर देंगे, मगर अभी से इश्क में पड़ना गवारा नहीं करेंगे. लेकिन मिले बगैर भी नहीं रहा जाता था, सो मैं पढ़ने के बहाने शुचि के घर जाने लगी. शुचि के मातापिता नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे इसलिए रजत बेखटके वहां आ जाता था. जिंदगी मजे में गुजर रही थी. मैं शुचि से कहा करती थी कि प्यार जिंदगी की अनमोल शै है और उसे भी प्यार करना चाहिए. तब उस का जवाब होता था, ‘करूंगी मगर शादी के बाद.’

‘‘ ‘उस में वह मजा नहीं आएगा जो छिपछिप कर प्यार करने में आता है.’

‘‘‘न आए, मगर जब मैं अपने मम्मीपापा को यह वचन दे चुकी हूं कि मैं शादी उन की पसंद के डाक्टर लड़के से करूंगी, जो उन का नर्सिंग होम संभाल सके तो फिर मैं किसी और से प्यार कैसे कर सकती हूं?’

‘‘असल में शुचि के मातापिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे लेकिन शुचि की रुचि संगीत साधना में थी, सो दामाद डाक्टर पर समझौता हुआ था. हम सब बी.ए. फाइनल में थे कि रजत का चचेरा भाई जतिन एम.बी.ए. करने वहां आया और रजत के घर पर ही रहने लगा.

‘‘एक रोज शुचिता पर नजर पड़ते ही जतिन उस पर मोहित हो गया और रजत के पीछे पड़ गया कि वह उस की दोस्ती शुचिता से करवाए. रजत के असलियत बताने का उस पर कोई असर नहीं हुआ. मालूम नहीं जतिन को कैसे पता चल गया कि रजत मुझ से मिलने शुचिता के घर आता है. उस ने रजत को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया कि या तो वह उस की दोस्ती शुचिता के साथ करवाए नहीं तो वह हमारे मातापिता को सब बता देगा.

‘‘इस से बचने की मुझे एक तरकीब समझ में आई कि शुचिता के अंधविश्वास का फायदा उठा कर उस का चक्कर जतिन के साथ चला दिया जाए. रजत के रंगकर्मी दोस्त सुधाकर को मैं ने अपने और शुचिता के बारे में सबकुछ अच्छी तरह समझा दिया. एक रोज जब मैं और शुचिता कालिज से घर लौट रहे थे तो साधु के वेष में सुधाकर हम से टकरा गया और मेरी ओर देख कर बोला कि मैं चोरी से अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं. उस के बाद उस ने मेरे और रजत के बारे में वह सब कहना शुरू कर दिया जो हम दोनों के अलावा शुचिता को ही मालूम था, सो शुचिता का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘शुचिता ने साधु बाबा से अपने घर चलने को कहा. वहां जा कर सुधाकर ने भविष्यवाणी कर दी कि शीघ्र ही शुचिता के जीवन में भी उस के सपनों का राजकुमार प्रवेश करेगा. सुधाकर ने शुचिता को आश्वस्त कर दिया कि वह कितना भी चाहे प्रेमपाश से बच नहीं सकेगी क्योंकि यह तो उस के माथे पर लिखा है. उस ने यह भी बताया कि वह कहां और कैसे अपने प्रेमी से मिलेगी.

‘‘शुचिता के यह पूछने पर कि उस की शादी उस व्यक्ति से होगी या नहीं, सुधाकर सिटपिटा गया, क्योंकि इस बारे में तो हम ने उसे कुछ बताया ही नहीं था, सो टालने के लिए बोला कि फिलहाल उस की क्षमता केवल शुचिता के जीवन में प्यार की बहार देखने तक ही सीमित है. वैसे जब प्यार होगा तो विवाह भी होगा ही. सच्चे प्यार के आगे मांबाप को झुकना ही पड़ता है.

‘‘उस के बाद जैसे सुधाकर ने बताया था उसी तरह जतिन धीरेधीरे उस के जीवन में आ गया. शुचिता का खयाल था कि जब साधु बाबा की कही सभी बातें सही निकली हैं तो मांबाप के मानने वाली बात भी ठीक ही निकलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जतिन ने यहां तक कहा कि उसे उन का एक भी पैसा नहीं चाहिए…वे लोग चाहें तो किसी गरीब बच्चे को गोद ले कर उसे डाक्टर बना कर अपना नर्सिंग होम उसे दे दें. शुचिता ने भी जतिन की बात का अनुमोदन किया. शुचिता के मातापिता को मेरी और अपनी बेटी की गहरी दोस्ती के बारे में मालूम था, सो एक रोज वह दोनों हमारे घर आए.

‘‘‘देखो ऋतिका, शुचि हमारी इकलौती बेटी है. हम ने रातदिन मेहनत कर के जो इतना बढि़या नर्सिंग होम बनाया है या दौलत कमाई है इसीलिए कि हमारी बेटी हमेशा राजकुमारियों की तरह रहे. जतिन अच्छा लड़का है लेकिन उस की एक बंधीबधाई तनख्वाह रहेगी. वह एक डाक्टर जितना पैसा कभी नहीं कमा पाएगा और फिर हमारे इतनी लगन से बनाए नर्सिंग होम का क्या होगा? अपनी बेटी के रहते हम किसी दूसरे को कैसे गोद ले कर उसे सब सौंप दें? हम ने शुचि के लिए डाक्टर लड़का देखा हुआ है जो हर तरह से उस के उपयुक्त है और उस के साथ वह बहुत खुश रहेगी. तुम भी उसे जानती हो.’

‘‘ ‘कौन है, अंकल?’

‘‘‘तुम्हारा भाई कुणाल. उस के अमेरिका से एम.एस. कर के लौटते ही दोनों की शादी कर देंगे.’

‘‘ ‘मैं ठगी सी रह गई. शुचिता मेरी भाभी बन कर हमेशा मेरे पास रहे इस से अच्छा और क्या होगा? जतिन तो आस्ट्रेलिया जाने को कटिबद्ध था.

‘‘ ‘आप ने यह बात छिपाई क्यों?’ मैं ने पूछा, ‘क्या पता भैया ने वहीं कोई और पसंद कर ली हो.’

‘‘ ‘उसे वहां इतनी फुरसत ही कहां है? और फिर मैं ने कुणाल और तुम्हारे मम्मीपापा को साफ बता दिया था कि मैं कुणाल को अमेरिका जाने में जो इतनी मदद कर रहा हूं उस की वजह क्या है. उन सब ने तभी रिश्ता मंजूर कर लिया था. तुम्हें बता कर क्या ढिंढोरा पीटना था?’

‘‘अब मैं उन्हें कैसे बताती कि मुझे न बताने से क्या अनर्थ हुआ है. तभी मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. शुचिता के जिस अंधविश्वास का सहारा ले कर मैं ने उस का और जतिन का चक्कर चलवाया था, एक बार फिर उसी अंधविश्वास का सहारा ले कर उस चक्कर को खत्म भी कर सकती थी लेकिन अब यह इतना आसान नहीं था. रजत कभी भी मेरी मदद करने को तैयार नहीं होता और अकेली मैं कहां साधु बाबा को खोजती फिरती? मैं ने शुचिता की मम्मी को सलाह दी कि वह शुचि के अंधविश्वास का फायदा क्यों नहीं उठातीं? उन्हें सलाह पसंद आई. कुछ रोज के बाद उन्होंने शुचिता से कहा कि वह उस की और जतिन की शादी करने को तैयार हैं मगर पहले दोनों की जन्मपत्री मिलवानी होगी. अगर कुछ गड़बड़ हुई तो ग्रह शांति की पूजा करा देंगे.

‘‘अंधविश्वासी शुचिता तुरंत मान गई. उस ने जबरदस्ती जतिन से उस की जन्मपत्री मंगवाई. मातापिता ने एक जानेमाने पंडित को शुचिता के सामने ही दोनों कुंडलियां दिखाईं. पंडितजी देखते ही ‘त्राहिमाम् त्राहिमाम्’ करने लगे.

‘‘‘इस कन्या से विवाह करने के कुछ ही समय बाद वर की मृत्यु हो जाएगी. कन्या के ग्रह वर पर भारी पड़ रहे हैं.’

‘‘ ‘उन्हें हलके यानी शांत करने का कोई उपाय जरूर होगा पंडितजी. वह बताइए न,’ शुचिता की मम्मी ने कहा.

‘‘ ‘ऐसे दुर्लभ उपाय जबानी तो याद होते नहीं, कई पोथियां देखनी होंगी.’

‘‘‘तो देखिए न, पंडितजी, और खर्च की कोई फिक्र मत कीजिए. अपनी बिटिया की खुशी के लिए आप जो पूजा या दान कहेंगे हम करेंगे.’

‘‘‘मगर पूजा से अमंगल टल जाएगा न पंडितजी?’ शुचिता ने पूछा.

‘‘‘शास्त्रों में तो यही लिखा है. नियति में लिखा बदलने का दावा मैं नहीं करता,’ पंडितजी टालने के स्वर में बोले.

‘‘ ‘ऐसा है बेटी. जैसे डाक्टर अपने इलाज की शतप्रतिशत गारंटी नहीं लेते वैसे ही यह पंडित लोग अपनी पूजा की गारंटी लेने से हिचकते हैं,’ शुचिता के पापा हंसे.

‘‘उस के बाद शुचिता ने कुछ और नहीं पूछा. अगली सुबह उस के कमरे से उस की लाश मिली. शुचिता ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि पंडितजी की बात से साफ जाहिर है कि उस की जिंदगी में जतिन का साथ नहीं लिखा है, वह जतिन से बेहद प्यार करती है. उस के बगैर जीने की कल्पना नहीं कर सकती और न ही उस का अहित चाहती है, सो आत्महत्या के सिवा उस के पास कोई और विकल्प नहीं है.

‘‘शुचिता की आत्महत्या के लिए उस के मातापिता स्वयं को अपराधी मानते हैं, मगर असली दोषी तो मैं हूं जिस की सलाह पर पहले एक नकली ज्योतिषी ने शुचिता का जतिन से प्रेम करवाया और मेरी सलाह से ही उस प्रेम संबंध को तोड़ने के लिए फिर एक झूठे ज्योतिषी का सहारा लिया गया.

‘‘शुचिता के मातापिता और उस से अथाह प्यार करने वाला जतिन तो जिंदा लाश बन ही चुके हैं. मगर मेरे कुणाल भैया, जो बचपन से शुचिता से मूक प्यार करते थे और जिस के कारण ही वह बजाय इंजीनियर बनने के डाक्टर बने थे, बुरी तरह टूट गए हैं और भारत लौटने से कतरा रहे हैं इसलिए मेरे मातापिता भी बहुत मायूस हैं. यही नहीं मेरे इस तरह क्षुब्ध रहने से रजत भी बेहद दुखी हैं. तुम ही बताओ श्रेया, इतना अनर्थ कर के, इतने लोगों को संत्रास दे कर मैं कैसे खुश रह सकती हूं या सलाहकार बनने की जुर्रत कर सकती हूं?’

फरिश्ता

‘‘मम्मी,मेरा दोष क्या था जो कुदरत ने मेरे साथ इतना क्रूर मजाक किया?’’ नंदिता अपनी मां से रोरो कर पूछ रही थी. उस के रुदन से मां का कलेजा फटा जा रहा था. वे क्या जवाब दें? बेटी का दुख इस कदर हावी हो रहा था कि जैसे उन के खुद के प्राण न निकल जाएं. बूढ़ी हड्डियां कितना सहन करेंगी? पिता का भी वही हाल था. भाईबहन सभी की आंखें गीली थीं. सभी उसे धैर्य बंधा रहे थे. मगर वह थी कि रोना बंद करने का नाम नहीं ले रही थी.

नंदिता की यह दूसरी शादी थी. पहले से उसे एक लड़की मीना थी. वह 5 साल की रही होगी जब उस के पिता एक ऐक्सीडैंट में गुजर गए. नंदिता के लिए इस हादसे को सह पाना आसान न था. मात्र 30 साल की होगी नंदिता, जब उसे वैधव्य का असहनीय दुख  झेलना पड़ा. गोरीचिट्टी, तीखे नैननक्श वाली नंदिता में चित्ताकर्षण के सारे गुण थे. खूबसूरत इतनी थी कि जो उसे एक बार देखे बस देखता ही रह जाए. उस का पहला पति अक्षय एक निजी कंपनी में उच्चाधिकारी था. कार, फ्लैट, आधुनिक सुखसुविधा का सारा सामान घर में मौजूद था. अक्षय उसे बेहद प्यार करता था. वह अपने छोटे से परिवार में खुश थी कि एक दिन उस के ऐक्सीडैंट की खबर ने नंदिता की खुशियों पर ग्रहण लगा दिया. सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ. अक्षय की लाश के पास बैठ कर वह बारबार उस से उठने को कहती. इस हृदयविदारक दृश्य को देख कर सब की आंखें नम थीं. किसी तरह लोगों ने नंदिता को संभाला.

वक्त हर जख्म को भर देता है. ऐसा ही हुआ. नंदिता ने एक निजी कंपनी में नौकरी कर ली. वह धीरेधीरे अतीत के हादसों से उबरने लगी. अब सबकुछ सामान्य हो चुका था. मगर उस के मांबाप को चैन नहीं था. वे उस की पहाड़ जैसी जिंदगी को ले कर चिंताकुल थे. वे चाहते थे कि नंदिता की दूसरी शादी हो जाए ताकि उस की जिंदगी में आया सूनापन भर जाए. कब तक अकेली रहेगी? क्या अकेले जिंदगी काटना एक स्त्री के लिए आसान होगा? माना कि वह अपने पैरों पर खड़ी है फिर भी जब काम से घर आती तो अपनेआप में खोई रहती. न किसी से ज्यादा बोलना न किसी से जिरह करना. यकीनन अकेलापन उसे अंदर ही अंदर बेचैन किए हुए था. भले ही जाहिर न करे पर क्या मांबाप की अनुभवी नजरों से छिप सकता है? वे बेटी की दुर्दशा देख कर गहरी वेदना से भर जाते.

ये सब देख कर एक दिन पिता ने नंदिता से कहा, ‘‘हम तुम्हारी दूसरी शादी करना चाहते हैं.’’

यह अप्रत्याशित था नंदिता के लिए. फिर भी इस का जवाब देना था. अत: वह बोली, ‘‘मेरी बेटी का क्या होगा? मैं उसे आप लोगों पर छोड़ कर ब्याह रचाऊं यह मेरे लिए संभव नहीं है.’’

‘‘अगर लड़का तुम्हारी बेटी को अपनाने के लिए तैयार हो जाए तब क्या स्वीकार करोगी?’’

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है जो किसी और से पैदा बेटी को अपनी बेटी माने?’’

‘‘सब एकजैसे नहीं होते. एक ऐसा ही रिश्ता आया है. लड़के को कोई एतराज नहीं है. वह सरकारी नौकरी में है. पहली पत्नी से

2 संतानें हैं. एक 15 साल का बेटा और एक 10 साल की बेटी है,’’ पिता बोले.

‘‘उन के पालने की जिम्मेदारी मेरी होगी?’’

‘‘पालना क्या है… दोनों अपने पैरों पर खड़े हैं. सिर्फ साथ की बात है, जिस की तुम दोनों की जरूरत है.’’

पिता के कथन पर नंदिता ने सोचने के लिए समय मांगा. उस ने हर तरीके से सोचा. फिर इस फैसले पर पहुंची कि उसे शादी कर लेनी चाहिए. इस से जहां उस के मांबाप की चिंता कम होगी, वहीं उसे भी आर्थिक सुरक्षा मिलेगी. मांबाप, कब तक जिंदा रहेंगे. भैयाभाभी का क्या भरोसा? कल वे बदल गए तो क्या बेटी को ले कर जीना आसान होगा?

नंदिता की रजामंदी के बाद एक दिन उस के औफिस में उस का भावी पति विश्वजीत उसे देखने आया. सांवला रंग, सामान्य कदकाठी, सिर पर नाममात्र बाल. नैननक्श ऐसे मानों 19वीं सदी के हों. नंदिता को वह जमा नहीं. उस का पहला पति बेहद स्मार्ट था. एमबीए किया.  वहीं विश्वजीत देखने से ही सरकारी विभाग का बाबू लग रहा था. न ढंग से कपड़े पहने था न ही बातचीत में स्मार्टनैस की  झलक थी. उस का मन उदास हो गया. विधवा न होती तो आज भी उस के लिए कुंआरों की कमी न थी.

‘‘आप का नाम नंदिता है?’’ विश्वजीत ने पूछा.

‘‘जी,’’ नंदिता मुसकराई.

‘‘मेरा नाम विश्वजीत है. अगर आप को एतराज न हो तो आज शाम किसी रैस्टोरैंट में चलते हैं.’’

कुछ देर के लिए नंदिता हिचकिचाई. फिर खुद को संयत कर उस से क्षमा मांग कर एकांत में आई. अपनी मां को फोन लगाया. मां ने उस के साथ जाने की इजाजत दे दी. न चाहते हुए भी वह विश्वजीत के साथ रैस्टोरैंट में गई.

कौफी के शिप के बीच विश्वजीत बोला, ‘‘क्या आप शादी के लिए तैयार हैं?’’

नंदिता के सामने दूसरा कोई चारा न था. उसे लगा रंगरूप अपनी जगह है. मगर जिंदगी जीने के लिए एक पारिवारिक व्यक्ति होना बेहद जरूरी है, साथ में उस का आर्थिक भविष्य भी सुनिश्चित हो. यही सब सोच कर उस ने उस के रंगरूप को नजरअंदाज कर दिया.

‘‘मु झे अपनी बेटी की फिक्र है. क्या उसे आप पिता का नाम देंगे?’’ नंदिता के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ थीं.

‘‘क्यों नहीं? जब आप मेरे बेटेबेटी को मां का प्यार देंगी तो मैं भला क्यों पिता के फर्ज से विमुख होऊंगा? आप की बेटी मेरी बेटी होगी. भरोसा रखिए मैं आप को शिकायत का मौका कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘मु झे अलग से कुछ नहीं चाहिए. मैं सिर्फ इस बात के लिए आश्वस्त होना चाहूंगी कि आप अपने और मेरे में कोई भेद नहीं करेंगे.’’

‘‘ऐसा ही होगा,’’ विश्वजीत मुसकराया.

नंदिता को विश्वजीत के कथन में सत्यता नजर आई. सो शादी के लिए हां कर दी.

शादी संपन्न हो गई. नंदिता ने नौकरी छोड़ दी. धीरेधीरे उस ने खुद को नए

माहौल के अनुरूप ढाल लिया. विश्वजीत के लिए वह किसी हूर से कम नहीं थी. करीबियों को छोडि़ए उस के दूरदूर के रिश्ते में नंदिता जैसी कोई खूबसूरत महिला नहीं थी. इसी के बल पर वह विश्वजीत के दिल पर राज करने लगी. विश्वजीत की हालत यह थी कि जब उसे नंदिता धकेलती तब कहीं औफिस जाता वरना उसी के मोहपाश में बंध कर समय काटना उसे अच्छा लगता. औफिस जाता तो भी नंदिता को 10 बार फोन लगा कर अपना हाल ए दिल बयां करता रहता.

2 साल गुजर गए. इस बीच वह एक लड़के की मां भी बन गई. बच्चा दोनों की सहमति से पैदा हुआ. नंदिता के लिए यह अच्छी खबर थी. एक लड़की तो थी ही. अब वह एक लड़के की भी मां बन गई. बच्चे की मां बनते ही नंदिता का पूरा ध्यान उसी पर लग गया.

लड़का पूरी तरह अपनी मां पर गया था. एकदम गोरा था. कहीं से नहीं लगता था कि वह विश्वजीत का बेटा है. ऐसा बेटा पा कर विश्वजीत निहाल था. यों बेटे का नाम सुबोध रखा.

एक दिन विश्वजीत की बड़ी बहन सुमन हालचाल लेने के लिए आई. जब तक विश्वजीत की दूसरी शादी नहीं हो गई थी तब तक घर की देखभाल वही करती थी. जब शादी हो गई तो आनाजाना कम कर दिया. उस का अपना भी परिवार था. विश्वजीत का हाल लेने के बाद वह विश्वजीत की पहली पत्नी से पैदा बेटे अंकित और बेटी अनुराधा के कमरे में आई. विश्वजीत नंदिता के साथ नीचे रहता तो उस की दोनों संतानें दूसरी मंजिल पर.

‘‘पढ़ाईलिखाई कैसी चल रही है?’’ कमरे में घुसते ही विश्वजीत की बहन ने पूछा.

दोनों बच्चे अपनी पढ़ाई छोड़ कर बूआ की तरफ मुखातिब हो गए.

‘‘ठीक चल रही है,’’ अंकित बोला.

‘‘क्या बात है तुम्हारी आवाज इतनी दबी क्यों है? सब ठीक तो है?’’ सुमन ने भांप लिया. उस ने फिर पूछा, ‘‘नई मां कैसी हैं?’’

अंकित सम झदार था, इसलिए कुछ नहीं बोला.

वहीं अनुराधा बोल पड़ी, ‘‘पापा, ऊपर बहुत कम आते हैं. ज्यादातर नीचे नई मां और बच्चे के साथ रहते हैं. पहले रोज हमारे लिए बाजार से कुछ न कुछ लाते थे, अब सिवा डांटने के उन्हें कुछ नहीं सू झता.’’

सुन कर सुमन को दुख हुआ. उसे अपने ही बच्चे पराए लगने लगे? ऐसा होना स्वाभाविक था. मगर इस कदर अपने बच्चों से बेखबर हो जाएगा, इस की कल्पना उस ने नहीं की थी. सुमन को विश्वजीत का दोबारा बाप बनना नागवार गुजरा. जब पहले से ही 2 संतानें थीं, नंदिता की जोड़ें तो 3 उस पर एक और बेटा लाना कहां की सम झदारी थी? सुमन को विश्वजीत मूर्ख लगा, जो अपनी बीवी के रंगरूप में ऐसा डूबा कि सहीगलत का फैसला भी नहीं कर पाया. सुमन पहले से ही उस के इस फैसले से खिन्न थी.

एक बार सोचा विश्वजीत से इस संदर्भ में बात करे. उसे दुनियादारी सिखाए पर फिर अगले ही पल सोचा यह उन लोगों का आपसी मामला है. बिना वजह बुरा बनेगी. विचारप्रक्रिया बदली तो सोचा उन का आपसी मामला बता कर क्या वह अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग रही?

क्या उस का इस परिवार पर कोई हक नहीं? सगी बहन है कोई सौतेली मां नहीं. जब कोई नहीं था तब तो उसी ने अपने परिवार का हरज कर के विश्वजीत का घर संभाला. अब उन का आपसी मामला बता कर किनारा कर ले? उस का मन नहीं माना. उसे अंकित और अनुराधा की फिक्र थी. इसलिए विश्वजीत को रास्ते पर लाना जरूरी लगा.

‘‘विश्वजीत, आजकल तुम अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे रहे हो? वे बेचारे खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं.’’

‘‘अपने बच्चे? यह क्या कह रही दीदी? क्या नंदिता के बच्चे मेरे अपने बच्चे नहीं हैं?’’

‘‘मैं ने यह कब कहा? मगर तुम्हें उन पर विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि वे बिन मां के हैं.’’

विश्वजीत को सुमन की बात बुरी लगी.

सुमन आगे बोली, ‘‘सुना है तुम ने अनुराधा का नाम पहले वाले स्कूल से कटवा कर उसे एक छोटे से स्कूल में डलवा दिया है?’’

दूसरे कमरे में अपने नवजात को दूध पिलाते हुए नंदिता सारी बातें सुन रही थी. एक बार सोचा इस का प्रतिकार करे, मगर भाईबहन का आपसी मामला सम झ कर चुप रही.

‘‘स्कूल इसलिए छुड़वा दिया क्योंकि उस की फीस बहुत ज्यादा थी. अंकित का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था. ऐसे में बिना वजह महंगे स्कूल में डालने का क्या औचित्य है?’’

‘‘इसीलिए सस्ते स्कूल में डलवा दिया?’’ सुमन के स्वर में व्यंग्य का पुट था, ‘‘तुम उस की पढ़ाईलिखाई पर ध्यान देते तो वह कमजोर नहीं होती. तुम्हारा सारा ध्यान नंदिता के इर्दगिर्द रहता है.’’

सुमन का कथन विश्वजीत को शूल की तरह चुभ गया. अत: गुस्से में बोला, ‘‘दीदी, बेहतर होगा तुम इस पचड़े में न पड़ो. नंदिता मेरी पत्नी है. मैं उस का ध्यान नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा?’’

‘‘बीवी का खयाल है अपने खून का नहीं?’’ सुमन तलख स्वर में बोली, ‘‘अब मैं तुम्हारे घर कभी नहीं आऊंगी. अंकित और अनुराधा को नहीं पाल सकते तो मेरे यहां छोड़ देना. मैं देख लूंगी,’’ कह कर सुमन चली गई.

विश्वजीत खून का घूंट पी कर रह गया. उस का मन किया कि सुमन को खूब खरीखोटी सुनाए, मगर हिम्मत नहीं हुई.

उस दिन पतिपत्नी दोनों में इस बात को ले कर खूब कहासुनी हुई. नंदिता कहने लगी, ‘‘मैं ने सपने में भी न सोचा था कि तुम्हारे बच्चे इस हद तक जा सकते हैं? क्या जरूरत थी सुमन दीदी के कान भरने की? क्या नहीं उन्हें यहां मिल रहा है? लगाईबु झाई करना कोई इन से सीखे,’’ और फिर वह मुंह फुला कर बैठ गई.

विश्वजीत को काफी देर तक उसे मनाना पड़ा. तब जा कर मानी.

उधर सुमन का मन विश्वजीत के रवैए से खिन्न था. नंदिता का रंगरूप इस कहर हावी हो गया कि अपना खून ही बेगाना लगने लगा. नंदिता की बेटी को अच्छे से अच्छे कपड़े लाना, बड़े स्कूल में दाखिला दिलाना, बाजार, मौल घूमना, उस की उलटीसीधी हर मांग पूरी करना, प्यारदुलारमनुहार सब नंदिता के ही परिवार तक सिमट गया.

विश्वजीत के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से उस की सभी बहनें उस से कटने लगीं. मगर विश्वजीत को कोई फर्क नहीं पड़ा. उस के लिए नंदिता ही सबकुछ थी. नंदिता ने इस का भरपूर फायदा उठाया. विश्वजीत के मकान पर नंदिता का नाम चढ़ गया. औफिस में पत्नी की जगह नंदिता का नाम हो गया. ये सब नंदिता ने खुद को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने के लिए किया.

अंकित से कुछ भी छिपा न था. राखी के दिन जब वह सुमन के घर आया तो सारी बातों का खुलासा कर दिया. सारी बात जानने के बाद वह बोली, ‘‘नंदिता ने अच्छा नहीं किया. आते ही तुम्हारी मां के सारे गहने ले लिए. अब धीरेधीरे हर चीज पर कब्जा करती जा रही है.’’

मां का जिक्र आते ही अंकित की आखें भर आईं. भरे कंठ से बोला, ‘‘मां होतीं तो ये सब न होता.’’

‘‘सब समय का खेल है. कल विश्वजीत के लिए तुम्हारी मां ही सबकुछ थी. बदलाव आता है, मगर विश्वजीत इतना बदल जाएगा, मु झे सपने में भी भान नहीं था. खैर छोड़ो, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?

‘‘जल्दी से पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाओ… सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘बूआजी, मु झे अनुराधा की फिक्र होती है. सोचता हूं जितनी जल्दी हो सके मैं कमाने लायक हो जाऊं ताकि उस की अच्छी शादी कर सकूं.’’

अंकित की बातों से लगा सचमुच वह सम झदार हो गया है. सुमन का मन भर आया.

अंकित ने सिविल सर्विसेज की तैयारी की और उस में सफल हो गया. उस के नौकरी पा जाने पर नंदिता ज्यादा खुश नहीं थी. उस की नजर में अंकित औसत बुद्धि का लड़का था. वहीं विश्वजीत खुश था. नंदिता को लगा विश्वजीत का  झुकाव कहीं अंकित की तरफ न हो जाए, इसलिए तंज कसने से बाज नहीं आती.

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि एक दिन मनहूस खबर आई कि

विश्वजीत को फूड पौइजनिंग हो गया है. वह शहर से 100 किलोमीटर दूर एक गांव में शादी अटैंड करने अकेला गया था. वहीं पर उसे फूड पौइजनिंग हो गया. तब तक काफी देर हो चुकी थी. वह रास्ते में ही चल बसा.

अंकित फैजाबाद में पोस्टेड था. भागाभागा आया. पिता की लाश देख कर फूटफूट कर रोने लगा. आज पहली बार उसे लगा कि वह सचमुच अनाथ हो गया.

पिता के सारे क्रियाक्रम करने के बाद वह वापस जाने लगा तो नंदिता के पास आया. बोला, ‘‘मम्मी, आप यह मत समझिएगा कि आप अकेली हो गईं. मैं हमेशा आप के साथ रहूंगा. मोना की शादी मेरे हिस्से की जिम्मेदारी है. जैसे अनुराधा वैसी मोना. मैं आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगा.’’

अचानक नंदिता फफकफफक कर रो पड़ी. वहां बैठे सब के सब अचंभित.

अंकित पास बैठी सुमन से बोला, ‘‘बूआ, मां को देखिए क्या हो गया?’’

एकबारगी सुमन को लगा क्यों वह उस से सहानुभूति जताने जाए… जैसा किया वैसा भुगते.

बूआ की दुविधा अंकित ने भांप ली. उसे अच्छा नहीं लगा. जो भी हो वह उस की मां है. क्या उन्हें मं झधार में छोड़ कर यों चले जाना उचित होगा? उन्हें दोबारा वैधव्य की पीड़ा  झेलने पड़ी, इस से बड़ा दंड क्या हो सकता है कुदरत का एक स्त्री के लिए?

‘‘मु झे क्षमा कर दें. मैं स्वार्थ में अंधी हो गई थी. मु झे नहीं पता था कि जिस के साथ भेदभाव कर रही हूं वह मेरे बेटे से भी बढ़ कर होगा.’’

नंदिता का इतना भर कहना था कि सब के मन के भाव एकाएक बदल गए. सुमन को अब भी नंदिता के व्यवहार में आए परिवर्तन पर भरोसा नहीं था. उसे यही लग रहा था कि उस ने वक्त की नजाकत सम झ कर अपना पैतरा बदल लिया है. फिर एकांत में ले जा कर अंकित को सम झाने का प्रयास किया.

‘‘नहीं बूआजी, उन का अब मेरे सिवा कोई नहीं है. उन्होंने चाहे जैसा भी व्यवहार मेरे साथ किया हो मैं अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होऊंगा.’’

सुमन को अंकित का कद उस से भी बड़ा नजर आने लगा. वह इंसान नहीं साक्षात फरिश्ता लगा उसे. वह भावविभोर हो उठी.

बाहरवाली

बूआ का दुखड़ा सुनना मेरी दिनचर्या में शामिल था. रोज दोपहर में वे भनभनाती हुई चली आतीं और रोना ले कर बैठ जातीं, ‘‘क्या बताऊं सुधा, बेटों को पालपोस कर कितने जतन से बड़ा करो और बहुएं उन्हें ऐसे छीन ले जाती हैं जैसे सब उन्हीं का हो. अरे, हम तो जैसे कुछ हैं ही नही.’’

‘‘आप ने तो जैसे कभी किसी को पलापलाया छीना ही नहीं है, क्यों बूआ?’’ मेरे पति ने अकारण ही हस्तक्षेप कर दिया, ‘‘आप की तीनों बेटियां भी तो किन्हीं के पलेपलाए छीन कर बैठी हैं.’’

मैं ने आंखें तरेर कर पति को मना करना चाहा, मगर अखबार एक तरफ फेंक वे बोलते ही चले गए, ‘‘मेरी मां भी कहती हैं, शादी के बाद मैं सुधा का ही हो कर रह गया हूं. अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं? समझ में नहीं आता, जब बहुओं से इतनी ही जलन होती है तो उन्हें तामझाम के साथ घर लाने की क्या जरूरत होती है?

‘‘बेटे की शादी करने से पहले हर मां को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अब उसे बेटा किसी और को सौंपना है, जैसे लड़की के मांबाप सोच लेते हैं. एक नया घर बनता है बूआ, लड़के पर जिम्मेदारी पड़ती है. वह भी कई रिश्तों में बंट जाता है. ऐसे में मां का यह सोचना कि वह अभी भी दुधमुंहा बच्चा बन उस का पल्लू थामे ‘राजा बेटा’ ही बना रहे तो यह उस के प्रति अन्याय होगा.’’

‘‘न, न सुधीर, मां का पल्लू क्यों पकड़े बेचारा राजा बेटा, वह हूर जो मिल गईर् है, पल्लू देने को,’’ बूआ ने हाथ झटक दिया.

मैं विषय उलझाना नहीं चाहती थी पर लाख इशारों के बाद भी पति मान नहीं रहे थे. वे बोले, ‘‘हूर लाता कौन है, तुम्हीं तो ठोकबजा कर, सैकड़ों लड़कियां देख अपनी बहू लाई थीं. फिर रोजरोज बहू का रोना ले कर क्यों बैठ जाती हो. उसे आए 2 महीने ही तो हुए हैं. नईनई शादी हुई है, तुम्हें तो बहू को लाड़प्यार से अपने काबू में रखना चाहिए. कभी तुम भी तो किसी की बहू बनी थीं.’’

‘‘लाड़प्यार करे मेरी जूती, मैं पीछेपीछे घूमने वालों में से नहीं हूं. देख सुधीर, मुझे विशू का उस की ससुराल वालों से ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं है. 3 दिन से उस का छोटा भाई आया हुआ है. बाहर पढ़ता है न, इसलिए छुट्टियों में बहन के घर चला आया.’’

‘‘तो क्या हुआ, तुम भी 3-3 महीने अपनी बेटियों के घर रह आती हो. वह तो फिर भी छोटा भाई है.’’

‘‘वह…वह… मैं तो इलाज कराने…’’

‘‘इलाज कराने ही सही, पर दामाद ने भरपूर सेवा की, तुम स्वयं ही तो सुनाती रही हो. क्या तुम्हारा दामाद किसी

का पलापलाया बेटा नहीं है? तब तो तुम्हारी समधिन भी तुम्हारी तरह ही चीखतीचिल्लाती होगी?’’

‘‘सुधीर’’, बूआ का चेहरा फक पड़ गया. उन का चेहरा देख मुझे घबराहट होने लगी. मैं कभी बूआ की बातों को काटती नहीं थी. हमेशा यही सोचती, क्यों बुजुर्ग औरत का मन दुखाऊं. दो घड़ी मन हलका कर के भला वे मेरा क्या ले जाती हैं. परंतु पति का उन्हें आईना दिखा देना मुझे अनावश्यक सा लगा.

मेरे पति आगे बोले, ‘‘अपनी बेटी पराए घर में जा कर चाहे जो नाच नचाए, परंतु बहू का ऊंची आवाज में बात करना भी तुम्हें खलता है. अच्छा बूआ, घर में सुखशांति रखने का एक गुरुमंत्र लोगी मुझ से, बोलो?’’

बूआ कुछ न बोलीं, गुस्से से इन्हें घूरती रहीं.

पति बातें करते रहे, परंतु बूआ चली गईं. मुझे अच्छा नहीं लगा, मगर प्रत्यक्ष में मैं मौन ही रही. समय ने अतीत को पीछे धकेल दिया था, परंतु एक घाव सदा मेरे मानसपटल पर हरा रहा. चाहती तो पति को फटकार कर बूआ के अपमान पर नाराजगी प्रकट कर सकती थी, मगर ऐसा किया नहीं. शायद मैं भी बूआ को आईना दिखाना चाहती थी.

यही बूआ थीं जिन्होंने कभी सासुमां का पैर इस घर में जमने नहीं दिया था. मुझे अपनी सास निरीह गाय सी लगी थीं. पता नहीं क्यों, सासुमां ने मुझे कभी अपना नहीं समझा था. बूआ के सामने चुप रहने वाली सासुमां मेरे सामने शेरनी सी बन जाती थीं.

शायद अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार सासुमां मुझ से लेना चाहती थीं. मुझ से मन की बात कभी न करतीं और जराजरा सी बात मेरे पति के कानों में जा डालतीं, जिस का प्रभाव अकसर हमारी गृहस्थी पर पड़ता. हम आपस में झगड़ पड़ते, जिस की कोई वजह हमारे पास होती ही नहीं थी.

एक शाम मायके से मेरे भाई की सगाई का पत्र आया तो मैं खुशीखुशी अम्मा को सुनाने दौड़ी. पर मेरी प्रसन्नता पर कुठाराघात हो गया. वे गुस्से से बोलीं, ‘बसबस, हमारे घर में मायके की ज्यादा चर्चा करने का रिवाज नहीं है.’

मैं अवाक रह गई और पति के सामने रो पड़ी, ‘इस घर में ब्याह दी गई, इस का अर्थ यह तो नहीं कि मेरा मायका समाप्त ही हो गया.’

उस दिन पहली बार पति को मां पर क्रोध आया था. मेरे मन में अम्मा के लिए संजोया सम्मान धीरेधीरे समाप्त होने लगा. यह सत्य है, अम्मा ने जो कुछ अपनी ससुराल से पाया था, वही मुझे लौटा रही थीं, मगर क्या यह न्यायसंगत था?

तब इन्होंने अम्मा से कहा था, ‘तुम्हें इस तरह नहीं करना चाहिए, अम्मा. तुम बबूल का पेड़ बो कर आम के फल की उम्मीद कैसे कर सकती हो? बिना वजह सुधा का मन दुखाओगी तो घर में सुखशांति कैसे रहेगी? इज्जत चाहती हो तो इज्जत देना भी सीखो, उस की खुशी में भी तो हमें खुश होना चाहिए.’

‘अरे’, विस्फारित आंखें लिए अम्मा मुझे यों घूरने लगीं मानो पति ने मेरी वकालत कर किसी की हत्या जैसा अपराध कर दिया हो. वे तुनक कर बोलीं, ‘यह कल की आई तुझे इतनी प्यारी हो गई, जो मुझे समझाने चला है. जोरू का गुलाम.’

उसी पल से अम्मा मेरी प्रतिद्वंद्वी बन गईं. कभी रुपए चोरी हो जाने का इलजाम मुझ पर लगता और कभी यह आरोप लगता कि मैं अपनी ननदों की पूरी देखभाल नहीं करती. धीरेधीरे पति ने हस्तक्षेप करना छोड़ दिया. 20

वर्ष बीत जाने पर भी अम्मा मुझे स्वीकार नहीं कर पाईं. पति पर जोरू का गुलाम होने का ठप्पा आज भी लगा है. अम्मा और मैं नदी के 2 किनारों की तरह जीते हैं.

मैं हैरान थी कि मेरी ननदों के घर में अम्मा का पूरा दखल है, मगर मेरे मायके से किसी का आना उन्हें पसंद नहीं. अम्मा, जो स्वयं बूआ और अपनी सास के दुर्व्यवहार से आजीवन अपमानित होती रहीं, क्यों मेरे मन की पीड़ा समझ नहीं पाईं? मैं उन के बेटे की पत्नी हूं, उन की प्रतिद्वंद्वी नहीं.

बूआ तो चली गईं, मगर अपने पीछे कड़वाहट का गहरा धुआं छोड़

गई थीं. पति बुरी तरह झल्ला रहे थे, ‘‘पता नहीं प्रकृति ने स्त्री को ऐसा क्यों बनाया है? 10-10 पुरुष एकसाथ  रह लेते हैं, लेकिन 2 औरतें जब भी साथ रहेंगी, अधिकारों को ले कर लड़ेंगी, विशेषकर अपना बेटा, बहू के साथ बांटने में औरत को बड़ी तकलीफ होती है.’’

‘‘हर घर में तो ऐसा नहीं होता,’’ मैं ने उन्हें टोका.

‘‘हां, सच कहती हो. 10 प्रतिशत घर ऐसे होंगे, जहां सासबहू में तालमेल होता होगा, वरना 90 प्रतिशत तो ऐसे ही हैं, जिन में अमनचैन नहीं है. सास अच्छी है तो बहू नकचढ़ी और कहीं बहू सेवा करने वाली हो, तो सास मेरी मां और बूआ जैसी.

‘‘सत्य तो यह है कि झगड़ा होता ही नहीं, सिर्फ उसे पैदा किया जाता है. भई, सीधी सी बात है, बेटा काबू में रखना हो तो बहू को वश में करो, उस से प्रेम करो, वह वश में रहेगी तो बेटा भी पीछेपीछे खिंचा चला आएगा.’’

‘‘और पति को वश में रखना हो तो क्या बहू को सास को वश में रखना चाहिए, ताकि बेटा, बहू के वश में रहे?’’ मेरी इस बात पर पति हंस पड़े, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. बहू बाहर से आती है, उसे विश्वास में लेना ज्यादा जरूरी होता है. बेटा तो अपना ही होता है, उस से इतना प्यार बढ़ाने की भला क्या जरूरत होती है.

‘‘मजा तो तब है जब पराई को अपना बनाओ. मगर होता उलटा है. शादी कर के सास अकसर असुरक्षा से घिर जाती है, बेटे पर हाथ कसने लगती है और बस, यहीं से झगड़ा शुरू हो जाता है.’’

‘‘यह सब अपनी अम्मा से भी कहा है कभी?’’

‘‘नहीं कह पाया न, इसीलिए तुम्हें समझा रहा हूं. आने वाले कुछ वर्षों में तुम भी तो सास बनने वाली हो, कुछ समझीं?’’

मैं क्या कहती, सिर्फ हंस कर रह गई कि कौन जाने जब सास बनूंगी, तब मैं कैसी हो जाऊंगी. कहीं मैं भी अपनी बहू को वही न परोसने लगूं, जो मुझे मिलता रहा था.

ऐसी होती हैं बेटियां

स्नातक करने के बाद पिता के कहने पर मीना ने बीएड भी कर लिया था. एक दिन पिता ने मीना को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘मीना, मैं चाहता हूं कि अब तुम्हारे हाथ पीले कर दूं. तुम्हारे छोटे भाईबहन भी हैं न. बेटे, एकएक कर के अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहता हूं.’’

नाराज हो गई थी वह पापा से, शादी की बात सुन कर, ‘‘पापा, प्लीज, मुझे शादी कर के निबटाने की बात न करें. मैं आगे पढ़ना चाहती हूं. मुझे एमए कर के पीएचडी भी करनी है.’’

कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘अगर तुम्हारी पढ़ने की इतनी ही इच्छा है तो मैं तुम्हारे रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगा. जितनी मरजी हो पढ़ो.’’

पापा की बात सुन कर वह उस दिन कितना खुश हुई थी. लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु के कारण उत्तरदायित्व के एहसास ने महत्त्वाकांक्षाओं पर विजय पा ली थी. मीना ने 20 साल की छोटी उम्र में ही घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली थी.

7 साल बाद जब 2 बड़े भाई और बहन ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली तो उन्होंने कहा था, ‘‘जीजी, आप ने हमारे लिए बहुत किया है. अब हमें घर संभालने दीजिए.’’

जिम्मेदारियों के कंधे बदलते ही मीना ने सोच लिया कि वह अब ब्याह कर के अपना घर बसा लेगी. 3 साल बाद 30 वर्षीय मीना की शादी 35 वर्षीय सुशांत से हो गई.

शादी के 2 वर्ष बाद जब मीना ने पुत्री को जन्म दिया तो वह खुशी से फूली नहीं समाई. मीना की सास ने बच्ची का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘इस बार लक्ष्मी आई है, ठीक है. पोते का मुंह कब दिखा रही हो?’’

बेटी नीता, अभी 2 साल की भी नहीं हुई थी कि घर के बुजुर्गों ने मीना पर बेटे के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया. जल्द ही मीना गर्भवती हुई और समय पूरा होने पर उस ने फिर बेटी को जन्म दिया. दूसरी बेटी मीता के जन्म पर सब के लटके हुए चेहरों को देख कर मीना ने सुशांत से कहा, ‘‘सुशांत, हमारी इस बेटी का भी जोरशोर से स्वागत होना चाहिए. बेटियां, बेटों से किसी तरह भी कम नहीं हैं. किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के बजाय, हम बेटियों को ऊंची से ऊंची शिक्षा देंगे. फिर देखिए, कल आप उन पर गर्व करेंगे.’’

‘‘ठीक है मीना, तुम इतनी भावुक मत बनो. यह मेरी भी तो बेटी है, जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा.’’

कुछ दिन तो सबकुछ ठीक रहा. फिर घर में बेटे की रट शुरू हो गई. मीना के संस्कार उसे इजाजत नहीं देते थे कि वह घर के बड़ों से बहस करे. उस ने सुशांत से बात की.

‘‘सुशांत, हम इन 2 बेटियों की परवरिश अच्छी तरह करेंगे. मैं ने आप से पहले भी कहा था, तो फिर यह जिद क्यों?’’

सुशांत पर अपने मातापिता का प्रभाव इतना था कि वे भी उन की ही भाषा बोलते थे. वे मीना को समझाने लगे, ‘‘मीना, हमें एक बेटे की बहुत चाह है. कल को ये बेटियां ब्याह कर अपनेअपने घरों को चली जाएंगी, तो हमारी देखभाल के लिए बेटा ही साथ रहेगा न.’’

सुशांत का उत्तर सुन कर भड़क गई मीना, ‘‘सुशांत, क्या मैं ने अपने परिवार को नहीं संभाला? फिर हमारी बच्चियां हमारा सहारा क्यों नहीं बनेंगी? वास्तव में अपने बच्चों से ऐसी अपेक्षा हम रखें ही क्यों?’’

मीना की एक न चली. वह तीसरी बार भी गर्भवती हुई और उस ने फिर एक बेटी को जन्म दिया.

3 बच्चों की परवरिश, फिर स्कूल का काम, दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करना मीना को काफी मुश्किल लग रहा था. इस का असर मीना के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.

3 बेटियों के बाद मीना पर जब फिर से दबाव डालने का सिलसिला शुरू हुआ तो वह चुप नहीं रह सकी. बरदाश्त की हद जब पार हो गई तो जैसे बम फूट पड़ा, मीना चीख उठी, ‘‘मैं कोई बच्चा पैदा करने की मशीन हूं? मेरी उम्र 40 पार कर चुकी है. ऐसे में एक और बच्चा पैदा करने का मेरे स्वास्थ्य पर क्या असर होगा, सोचा है आप ने? बस, बहुत हो गया. मुझ पर दबाव डालना बंद कीजिए.’’

मीना की सास अवाक् खड़ी बहू का मुंह देखती रह गईं. मीना भी वहां खड़ी नहीं रह सकी. अपने कमरे में पहुंच कर फूटफूट कर रोने लगी. सुशांत ने मीना को गले से लगा कर शांत कराया. शांत होने पर मीना मन ही मन सोचने लगी कि उस ने इस अनावश्यक दबाव के खिलाफ आवाज उठा कर कोई गलत नहीं किया है. थोड़े दिन तक तो सब शांत रहा. एक दिन सुशांत ने मीना से कहा, ‘‘मीना, क्यों न हम एक अंतिम कोशिश कर लेते हैं. अब की बार चाहे लड़का हो या लड़की, मैं तुम से वादा करता हूं, फिर कभी इस बारे में कुछ नहीं कहूंगा. प्लीज, मान जाओ.’’

कोमल स्वभाव की मीना पति की बातों में आ गई. इस बार जब वह गर्भवती हुई तो 3 बच्चों की परवरिश, ऊपर से बढ़ती उम्र उस के स्वास्थ्य पर हावी होने लगी. मीना को हार कर लंबी छुट्टी लेनी पड़ी, जो वेतनरहित थी.

समय पूरा होने पर मीना ने एक बेटे को जन्म दिया. अपनी मनोकामना पूरी होते देख, सब के चेहरों पर खुशी देखते बनती थी. उन की ये खुशी क्षणभंगुर साबित हुई. बच्चे को अचानक सांस लेने में तकलीफ होने लगी. उसे औक्सीजन दी जाने लगी. डाक्टरों ने बताया, ‘‘बच्चे के शरीर में औक्सीजन की कमी होने की वजह से मस्तिष्क को सही समय पर औक्सीजन नहीं मिल पाई, इसलिए उस के दोनों हाथ और पैर विकृत हो गए हैं.’’

ऐसा शायद गर्भावस्था के दौरान मीना की बढ़ती उम्र और कमजोरी के कारण हुआ था. इस के बाद पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद मीना का बेटा अरुण स्वस्थ नहीं हो पाया था. वह जिंदगीभर के लिए अपाहिज बन गया.

मीना और सुशांत पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. पहले तो सुशांत बेटा चाहते थे, जो उन के बुढ़ापे की लाठी बने. अब उन्हें यह चिंता सताने लगी कि उन के बाद उन के बेटे की देखभाल कौन करेगा.

करीब 1 साल तक छुट्टी लेने के बाद मीना फिर से स्कूल जाने लगी. पहले वाली मीना और इस मीना में जमीनआसमान का अंतर था. पहले कितनी सुघड़ रहा करती थी मीना. अब तो कपड़े भी अस्तव्यस्त रहा करते थे. दिनरात की चिंता ने उसे समय से पहले ही बूढ़ा बना दिया था.

बच्चियां मां को सांत्वना देतीं, ‘‘मां, आप पहले की तरह हंसतीबोलती क्यों नहीं हैं? भाई की देखभाल हम सब मिल कर करेंगे. आप चिंता मत कीजिए.’’

बच्चियों की बातें सुन कर मीना उन्हें गले लगा लेती. अपनेआप को बदलने की कोशिश भी करती, पर फिर वही ‘ढाक के तीन पात.’ वास्तव में बच्चियों की बातों से मीना आत्मग्लानि से भर जाती थी. वह अपनेआप को कोसती, ‘अरुण को इस दुनिया में ला कर मैं ने बच्चियों के साथ अन्याय किया है. एक और बच्चे को इस दुनिया में न लाने के अपने निर्णय पर मैं अटल क्यों नहीं रह सकी? अपनी इस कायरता के लिए दूसरे को दोष देने का क्या फायदा? अन्याय के खिलाफ कदम न उठाना भी किसी गुनाह से कम तो नहीं.’

एक तो बढ़ती उम्र में कमजोर शरीर, ऊपर से यह मानसिक पीड़ा.

मानसिक चिंताएं शरीर को दीमक की तरह खोखला कर जाती हैं. दुखों का सामना न कर पाने की स्थिति में दुर्बल शरीर, कमजोर इमारत की तरह भरभरा कर गिर जाता है. यही हाल हुआ मीना का. एक रात जब वह सोई तो, फिर उठ नहीं सकी. वह चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी. मीना की सास की बूढ़ी हड्डियों में इतना दम कहां था कि वे सबकुछ संभाल सकें. कुछ ही दिनों में वे भी इस दुनिया से कूच कर गईं.

पत्नी और मां की विरह वेदना से ग्रसित सुशांत एक जिंदा लाश बन कर रह गए. उन की 2 बड़ी बेटियां जैसे रातोंरात बड़ी हो गईं. लड़कियां बारीबारी से अपने भाई का ध्यान रखतीं. दोनों बड़ी बहनें, भाई की दैनिक जरूरतों, खानेपीने का ध्यान रखतीं. नीता ने अपनी सब से छोटी बहन प्रिया को हिदायत दे रखी थी कि वह अरुण के पास बैठ कर पढ़ाई करे.

कहानी की पुस्तकें जोर से पढ़े ताकि अरुण भी उन का मजा ले सके. लड़कियां बारीबारी से अपने भाई को पढ़ाती भी थीं. पर वह अपने विकृत हाथों की वजह से कुछ लिख नहीं पाता था. उस के हाथों के मुकाबले उस के पांव कम विकृत थे. लड़कियों ने महसूस किया कि अरुण के पैरों की उंगलियों के बीच पैंसिल फंसा देने पर वह लिखने लगा था. उस की लिखावट अस्पष्ट होने पर भी, जोर देने पर पढ़ी जा सकती थी. कभीकभी अरुण कागज पर आड़ीतिरछी रेखाएं खींचता था, तो कुछ चित्र उभर कर आ जाता. बहनों ने जब देखा कि अरुण चित्रकारी में रुचि ले रहा है, तो उन्होंने उस के लिए एक गुरु की तलाश शुरू कर दी. इस के लिए उन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ा. घर बैठे ही इंटरनैट में उन्हें एक ऐसा गुरु मिल गया जो अपने हाथों से अक्षम बच्चों को पैरों की मदद से चित्रकारी करना सिखाता था. अरुण बहुत मन लगा कर सीखता था. देखते ही देखते वह इस कला में माहिर हो गया.

एक दिन ऐसा भी आया जब बहनों ने अरुण के चित्रों की प्रदर्शनी लगाई. प्रदर्शनी काफी कामयाब रही. अरुण के चित्रों को बहुत सराहा गया. चित्रों की अच्छी बिक्री हुई और बहुत से और्डर भी मिले. फिर अरुण ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बहनों ने अरुण का नाम विकलांगों की श्रेणी में ‘गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स’ में भी दर्ज करा दिया. एक विदेशी संस्था, जो विकलांगों की मदद करती थी, ने इसे देखा और इस तरह अरुण के पास विदेशों से ग्रीटिंग कार्ड्स डिजाइन करने के और्डर आने लगे. अरुण अब डौलर में कमाने लगा.

सुशांत अब काफी संभल चुके थे. वक्त घावों को भर ही देता है. एकएक कर के उन्होंने अपनी 2 बड़ी बेटियों की शादियां कर दीं. छोटी अभी पढ़ रही थी. अरुण अब बड़ा हो गया था, इसलिए उस की देखभाल में दिक्कतें आने लगी थीं. ऐसा लगा जैसे प्रकृति ने उन की सुन ली थी. मीता इस बार जब मायके आई तो अपने साथ असीम को ले कर आई, जो बेहद ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ था. असीम पढ़ालिखा था पर बेरोजगार था. वह मीता के पति के पास नौकरी की तलाश में आया था. अरुण, असीम को मोटी रकम पगार के तौर पर देने लगा. असीम जैसा साथी पा कर अरुण बेहद खुश था.

आज टीवी वाले घर पर आए हुए हैं. वे अरुण का इंटरव्यू लेना चाहते हैं. कैमरा अरुण की तरफ घुमा कर कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता ने अरुण का परिचय देने के बाद कहा, ‘‘अरुण से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए. हाथपैर सहीसलामत रहने पर भी लोग अपनी असमर्थता का रोना रोते रहते हैं. अपने पैरों की उंगलियों की सहायता से अरुण जिस तरह जानदार चित्र बनाता है, वैसा शायद हम हाथ से भी नहीं बना सकते. अरुण ने यह साबित कर दिया है कि जिंदगी में कितनी भी मुश्किलें क्यों न आएं, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती. अरुण, अब आप को बताएगा कि वह अपनी सफलता का श्रेय किसे देता है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, अपनी बहनों की बदौलत हूं. मैं ने अपनी मां को बचपन में ही खो दिया था. बहनों ने न सिर्फ मुझे मां का प्यार दिया बल्कि मेरी प्रतिभा को पहचान कर, मेरे लिए गुरुजी की व्यवस्था भी की. आज मैं अपने पिता, गुरुजी और सब से बढ़ कर अपनी बहनों का आभारी हूं.’’

अरुण की बातें कुछ अस्पष्ट सी थीं, इसलिए असीम, अरुण द्वारा कही बातों को दोहराने के लिए आगे आया. सुशांत वहां और ठहर नहीं सके. उन्होंने अपनेआप को कमरे में बंद कर लिया. मीना का फोटो हाथ में ले कर विलाप करने लगे, ‘‘मीना, देख रही हो अपने बच्चों को, उन की कामयाबी को. काश, आज तुम हमारे बीच होतीं. तुम्हें तो शुरू से ही अपनी बच्चियों पर विश्वास था. मैं ही तुम्हारे विश्वास पर विश्वास नहीं कर सका और तुम्हें खो बैठा. लेकिन आज मैं फख्र के साथ कह सकता हूं कि ऐसी होती हैं बेटियां क्योंकि उन्होंने अपनी पढ़ाई को जारी रखते हुए पूरे घर को संभाला, यहां तक कि मुझे भी. अपने भाई को काबिल बनाया और मेरी एक आवाज पर दौड़ी चली आती हैं.’’

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