विधवा विदुर- भाग 3: किस कशमकश में थी दीप्ति

दीप्ति की सास को यह सुन कर अच्छा तो नहीं लगा पर वह कुछ नहीं बोली और उस ने घर आ कर यह बात जब दीप्ति के ससुर से कही तो वे भी अपना अनुभव बताने लगे कि जब वे सुबह पार्क में टहलने गए थे तब राजेश भी उन से कुछ इसी तरह की बातें कर रहे थे. अब समाज में रहना है तो उस के अनुसार चलना भी तो पड़ेगा ही.

सास ने दीप्ति से कहा कि वे जानते हैं कि उस के आचरण में कहीं कोई कमी नहीं है और उन्हें दीप्ति पर पूरा भरोसा है, लेकिन परी और रजनीश से दूरी बना कर रखने का समय आ गया है.

दीप्ति बहुत कुछ कहना चाहती थी, मगर कह न सकी क्योंकि उसे पता था कि कुछ तो लोग कहेंगे जैसी बातें फिल्मों में तो अच्छी लगती हैं पर असल जिंदगी में तो एक विधवा को मरते दम तक इम्तिहान ही देते रहना पड़ता है. विधवा का कोई अस्तित्व नहीं.

उधर विधुर रजनीश को भी लोग फिर से शादी करने की सलाह देते और उस के न मानने पर कहते कि इधरउधर मुंह मारने से तो अच्छा होता है कि एक ही खूंटे से बंध कर रहा जाए.

लोगों के तानों के आगे 2 सालों तक परी को जो प्यार उस की दीप्ति आंटी से मिल रहा था वह आज बंद हो गया था. रजनीश के सामने फिर से वही बच्ची को पालने वाली समस्या आ रही थी. अब उस के सामने 2 ही रास्ते थे- पहला कि वह दूसरी शादी कर ले और दूसरा यह कि वह परी को बोर्डिंग स्कूल में डाल दे.

रजनीश ने दूसरा रास्ता चुनना ज्यादा बेहतर सम झा क्योंकि दूसरी शादी कर के भी परी को नई मां स्वीकार कर पाए या नहीं इस बात में संदेह था. रजनीश ने परी से बात करी और उसे बोर्डिंग स्कूल में जाने के लिए उस का रुख जानना चाहा. परी वैसे भी मां के अभाव में जल्दी सम झदार हो चुकी थी, इसलिए उस ने बोर्डिंग स्कूल जाने के लिए हामी भर दी.

रजनीश परी को स्कूल में दाखिला दिला कर निश्चिंत हो गया.

एक दिन उस के मोबाइल पर एक फोन आया, उधर से देविका के पापा बोल रहे थे, ‘‘तेरे जीवन में इतना कुछ हो गया पर तूने हमें बताया तक नहीं… हम इतने पराए हो गए क्या?’’

ससुर की आवाज इतने वर्षों के बाद सुन कर रजनीश सिसकता रहा. उन्होंने उसे बताया कि उन्हें तो किसी और से पता चला कि उस की दुनिया उजड़ चुकी है. आखिर कैसे और क्यों? इतना कह कर उन्होंने रजनीश को यह बताया कि पुरानी बातें भूल कर वे लोग गाजियाबाद में उस से मिलने आए हैं.

मां और पापा को अपने फ्लैट पर ले आया था रजनीश, सामने देविका की तसवीर पर माला देख कर काफी व्याकुल हो गए थे उस के मांबाप.

झूठी शान और जातिपाति के भेद में हम डूबे हुए थे और समय रहते सही फैसला नहीं कर पाए थे पर अब उन्हें यह एहसास हो गया था कि रजनीश को नहीं अपनाना उन लोगों की भूल थी. ये सारी बातें रजनीश की सास और ससुर ने उसे बताईं. शायद बढ़ती उम्र और बेटी को त्याग कर अकेलेपन के अनुभव ने उन्हें सही और गलत का बोध करा दिया था और इसलिए वे दोनो यहां आए थे.

‘‘अब हम दोनों यहां आ गए हैं, इसलिए परी की तरफ से तुम्हें चिंता करने की जरूरत

नहीं है.’’

मांबाप की बातें सुन कर रजनीश खुश हो गया और स्कूल में संपर्क कर के परी को वापस घर ले आया. वह अपने नानानानी से मिल कर बहुत खुश हो रही थी. उस ने जीवन में पहली बार बचपन जैसे किसी स्वाद का अनुभव किया था.

आज परी का जन्मदिन था, वह 8 साल की हो चुकी थी. नानानानी के साथ मिल कर परी ने केक काटा और पापा के तो पूरे चेहरे पर ही केक लगा दिया परी ने.

घर के हलकेफुलके माहौल के बीच

रजनीश के ससुर ने कहा, ‘‘बेटे रजनीश, हम जानते हैं कि देविका के जाने के बाद भी तुम ने शादी नहीं करी क्योंकि नई मां आ कर कोई लापरवाही न बरते.’’

रजनीश सम झ नहीं पा रहा था कि उस के ससुर क्या कहना चाह रहे हैं. इस के बाद ससुर ने कहा कि अभी रजनीश का पूरा जीवन बाकी है और परी भी बड़ी हो रही है. इस नाजुक उम्र में मां की बहुत जरूरत रहती है. इसलिए वे चाहते हैं कि रजनीश दोबारा शादी कर ले.

ससुर की यह बात सुन कर रजनीश चौंक गया. वह कुछ बोल नहीं पाया. कुछ देर तक खामोश रहने के बाद बोला और अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क भी दिए मसलन नई मां ने अगर परी को नहीं अपनाया तो? कौन करेगा एक बच्चे वाले विदुर से शादी? फिर समाज. समाज क्या कहेगा?

परी अब अपने नाना की गोद से उतर कर दूसरे कमरे में चली गई थीं.

‘‘देखो बेटा, तुम्हारी हर बात का जवाब मैं सिर्फ एक बार में दे सकता हूं अगर तुम कहो तो.’’

रजनीश की आंखों में कई सवाल थे.

तभी सासूमा ने परी को आवाज लगाई.

दूसरे कमरे से परी निकल कर आई,

उस के साथ में दीप्ति भी थी और उस का बेटा शान और दीप्ति के सासससुर भी थे जो रजनीश की तरफ उम्मीद और प्रेम भरी नजरों से देखे जा रहे थे.

रजनीश कुछ सम झ नहीं पाया तो उस के ससुर ने कहा कि इस दुनिया में इंसान को स्वार्थी बनना पड़ता है, दीप्ति भी जिंदगी के सफर में अकेली है और तुम भी और फिर तुम दोनों पर बच्चों की जिम्मेदारी भी है… साथ मिल कर चलोगे तो राह की मुश्किलें भी आसान हो जाएंगी और सफर भी सुहाना हो जाएगा.

‘‘पर पापा… मैं तो एक नीची जाति से हूं और दीप्ति ऊंची जाति की. दीप्ति को उस का परिवार मंजूरी नहीं देगा.’’

‘‘इस का समाधान सब परी ने कर लिया है. वह अकसर दीप्ति से तेरी बातें करती थी और दीप्ति व शान भी तेरे बारे में रुचि रखते थे. जब यह बात हमें पता चली तो हम ने दीप्ति के मम्मीपापा से बात चलाई तो हमें सहमति मिल गई. तुम दोनों की हां का तो देविका को भी इंतजार होगा.’’

परी दीप्ति की उंगली पकड़े हुए अपने

पापा को निहार रही थी. दीप्ति और रजनीश की नजरें टकराईं तो दोनों के होंठों पर हलकी सी मुसकराहट फैल गई, जिस का मतलब था कि एक विधवा और एक विदुर ने अपने बच्चों के जीवन की बेहतरी और खुद के अस्तित्व के

लिए समाज से बिना डरे एक साहस भरा फैसला ले ही लिया.

तोषू को तलाक के लिए कोर्ट में घसीटेगी किंजल, Anupama देगी साथ

सीरियल अनुपमा (Anupama) की टीआरपी बीते कुछ दिनों से दूसरे नंबर पर आ गई है, जिसके चलते मेकर्स सीरियल को दिलचस्प बनाने के लिए कहानी में नया ट्विस्ट लाने के लिए तैयार हैं. इसी के चलते शो का नया प्रोमो सोशलमीडिया पर वायरल हो रहा है. प्रोमो में तोषू, अनुपमा और अनुज की बेटी को नुकसान पहुंचाने की बात कर रहा है. हालांकि अपकमिंग एपिसोड में तोषू के ऐसा करने की वजह अब सामने आ गई है. आइए आपको बताते हैं क्यों तोषू लेगा छोटी अनु को नुकसान पहुंचाने का फैसला (Anupama Update In Hindi)…

तोषू की हरकत से नाराज हुई किंजल

अब तक आपने देखा कि वनराज और बा के कहने पर किंजल दोबारा शाह हाउस रहने आ जाती है, जिसके चलते तोषू उसके करीब जाने की कोशिश करता है. वहीं गुस्से में किंजल उसे धक्का देती है और उसे पास ना आने की चेतावनी देती है. किंजल और तोषू की लड़ाई देखकर पूरा शाह परिवार इकट्ठा हो जाता है. वहीं किंजल, अनुपमा को शाह हाउस बुलाती है.

तलाक का फैसला करेगी किंजल

 

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अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि अनुपमा के शाह हाउस आने की बात किंजल अपनी बात शाह फैमिली के सामने रखेगी. दरअसल, किंजल पूरे परिवार से कहेगी कि वह उस पर दबाव बनाना बंद करे और तोषू के करीब आने की बात परिवार से कहेगी. वहीं तोषू एक बार फिर अनुपमा पर किंजल को उकसाने का आरोप लगाएगा. हालांकि किंजल, अनुपमा के सपोर्ट में आकर शाह फैमिली को खरी खोटी सुनाएगी. इसी के साथ वह तोषू से तलाक लेने की बात कहेगी.

 

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कोर्ट जाएगी किंजल

इसके अलावा आप देखेंगे कि तलाक की बात सुनकर बा बौखला जाएगी और वह भी अनुपमा, परितोष और किंजल के घर को तोड़ने की बात कहेगी, जिसे सुनकर किंजल, अनुपमा को दोष नहीं देने की बात कहेगी. दूसरी तरफ, तोषू, किंजल से माफी मांगते हुए उसे आर्या से अलग न करने के लिए कहेगा. लेकिन किंजल किसी की नहीं सुनेगी और उससे कहेगी कि वह न केवल तलाक देगी बल्कि व्यभिचार और धोखाधड़ी के आधार पर तलाक का केस कोर्ट में दायर करेगी. वहीं किंजल, अनुपमा से उसका सपोर्ट मांगेगी और वह राजी हो जाएगी.

तौबा- भाग 2

‘‘मारे गुस्से के मैं सारी रात जाग कर और क्या करती रही हूं? तेरे पति की दुम हमेशा के लिए सीधी करने की बड़ी सटीक योजना है मेरे पास.’’

‘‘मैं हर कदम पर तेरा साथ दूंगी, माधवी,’’ मैं ने भावुक हो कर अपनी सहेली को गले से लगा लिया.

दोपहर के भोजन के समय तक मैं ने माधवी की योजना पूरी तरह समझ ली. उसी दिन से उस पर अमल करने का हम ने पक्का निर्णय लिया.

मेरे साथ खाना खाने के बाद उस ने पहला कदम उठा भी लिया.

मेरे घर के फोन से माधवी ने सुमित के औफिस का नंबर मिला कर उस से बातें कीं. पिछली रात सुमित ने उसे अपना कार्ड दिया था.

तभी माधवी की आवाज सुन कर उसे सुखद हैरानी जरूर हुई पर किसी तरह का शक उस के दिमाग में बिलकुल पैदा नहीं हुआ.

‘‘अपनी आवाज सुना कर तुम ने मेरे दिन को बहुत खूबसूरत बना दिया है, माधवी. कहो, कैसे याद आ गई बंदे की?’’ सुमित की स्पीकर से आती आवाज मैं साफ सुन सकती थी.

‘‘मैं एक बार तुम्हें जरूर फोन करूं, तुम्हारी उसी जिद को पूरा कर रही हूं,’’ माधवी ने वार्त्तालाप सहज ढंग से बोलते हुए आरंभ किया.

‘‘थैंक्यू, डियर. अब मेरी एक और जिद पूरी कर दो.’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘आज शाम चायकौफी पीने के लिए कहीं मिल लो. कल रात तुम से ज्यादा बातें नहीं हो सकीं. वह प्यास अभी भी बनी हुई है.’’

‘‘शादीशुदा इंसान को लड़कियों से दोस्ती करने के चक्कर में नहीं रहना चाहिए, जनाब.’’

‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई. तुम से दोस्ती करने की मेरी इच्छा कैसे गलत है?’’

‘‘साधारण दोस्ती करने में कोई बुराई नहीं, पर तुम ने कल रात जो मेरा हाथ पकड़ा, क्या वह गलत नहीं था?’’

‘‘तुम्हें बुरा लगा?’’

‘‘मेरे सवाल का जवाब दो पहले.’’

‘‘सारे जवाब जब हम आमनेसामने बैठे होंगे, तब दूंगा. प्लीज, मिलो न आज शाम को.’’

‘‘मैं आधे घंटे से ज्यादा देर तक नहीं रुक सकूंगी.’’

‘‘ओह, थैंक्यू, थैंक्यू, थैंक्यू,’’ सुमित की आवाज की खुशी पहचान कर मेरा खून उबलने लगा था.

आने वाले दिनों में अपने पति के चालाक व्यवहार को देख कर मैं मन ही मन बड़ा अचंभा करती. मुझे माधवी रोज की रिपोर्ट न दे रही होती, तो मुझे सपने में भी शक न होता कि सुमित किसी और लड़की के चक्कर में फंस गए हैं. घर में देर से आने के उन के बहाने एक से बढ़ कर एक होते.

‘‘आज कार स्टार्ट ही नहीं हुई. मैकेनिक ने ठीक करने में पूरे 2 घंटे लगाए. आगे से ठीक टाइम पर सर्विसिंग कराया करूंगा,’’ माधवी के साथ पहली बार रेस्तरां में मिलने के बाद जनाब ने यह बहाना बनाया था.

छुट्टी के दिन वे माधवी को फिल्म दिखाने ले गए. उस दिन वे अस्पताल में दाखिल अपने एक सहयोगी को देखने जाने की बात कह कर घर से निकले थे.

जिस दिन 5 सितारा होटल में माधवी के साथ डिनर किया, उस रात वे औफिस में एक महत्त्वपूर्ण कौन्फ्रैंस में व्यस्त थे. अगले डिनर का बहाना, अपने दोस्त के बेटे की जन्मदिन पार्टी में जाने का था.

मुझे उन के माधवी के साथ बने हर कार्यक्रम की पहले से जानकारी होती थी. उन्हें बड़ी सहजता व सफाई के साथ झूठ बोलते देख मैं सचमुच दांतों तले उंगली दबा लेती. न कोई झिझक, न बेचैनी और न किसी तरह का अपराधबोध. अपने पतियों पर आंखें मूंद कर विश्वास करने वाली औरतें महामूर्ख होती हैं, उन का व्यवहार देख कर यह धारणा हर रोज मेरे मन में मजबूत होती जाती.

करीब 10 दिनों की मेलमुलाकातों के बाद सुमित को सबक सिखाने का समय आ ही गया.

उस दिन माधवी के पास सुबह 11 बजे सुमित का फोन आया तो उस ने मेरे पति को जानकारी दी, ‘‘आज शाम को नहीं मिल सकूंगी. एक समारोह में शामिल होना है.’’

सुमित के पूछने पर उस ने खुलासा किया, ‘‘मौसी के यहां गृहप्रवेश का फंक्शन हो रहा है. मम्मीपापा सुबह चले गए. मैं शाम को जाऊंगी.’’

‘‘तो क्या अभी घर में अकेली हो?’’

‘‘हां, और जी भर कर खूब सोऊंगी.’’

‘‘लंच मेरे साथ करो और बाकी समय सोना.’’

‘‘मैं बाहर निकलने के मूड में नहीं हूं, सुमित.’’

‘‘नो प्रौब्लम, डियर. मैं ‘पैक्ड लंच’ ले कर हाजिर होता हूं. ठीक 1 बजे पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘नहीं, तुम यहां मत…’’

‘‘बेकार में डरो मत. मैं आ रहा हूं. अच्छा बाय. बौस बुला रहे हैं. मैं 1 बजे मिलता हूं.’’

ऐसा प्रोग्राम बना कर धोखेबाज सुमित हमारे जाल में पूरी तरह फंस गए थे.

1 बजे से चंद मिनट पहले ही मैं ने उतावले सुमित को माधवी के फ्लैट में प्रवेश करते देखा. इस वक्त मैं माधवी के पड़ोसी योगेशजी के घर में उपस्थित थी. उन के यहां आधा घंटा पहले मुझे माधवी ही बैठा कर गई थी.

मैं ने गंभीरता का मुखौटा ओढ़ा, मन में गुस्से के भाव पैदा करने शुरू किए और सुमित के अंदर जाने के करीब 5 मिनट बाद माधवी के फ्लैट की घंटी बजाई.

दरवाजा माधवी ने खोला. किसी सज्जन पुरुष की तरह सुमित बड़े सलीके से सोफे पर बैठे नजर आए.

मुझे देख कर माधवी ने चौंकने का शानदार अभिनय किया, जबकि सुमित सचमुच यों उछले मानो उन्हें अचानक बिजली का झटका लगा हो.

‘‘अरे, सपना तुम? यों अचानक? सचमुच मजा आ गया तुम्हें देख कर,’’ माधवी ने बढि़या नाटक करते हुए मुझे गले से लगा लिया.

‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम इस फ्लैट में रहती हो,’’ मैं ने उस की पकड़ से छूट कर शुष्क लहजे में जवाब दिया.

‘‘मुझ से नहीं तो फिर किस से मिलने आई हो?’’

‘‘तुम से ही. मेरा मतलब है कि मैं ‘माधवी’ नाम की लड़की से ही मिलने आई हूं, पर मुझे नहीं पता था कि वह लड़की मेरे साथ कालेज में पढ़ी मेरी सब से अच्छी सहेली निकलेगी.’’

मेरी नजरें सुमित की तरफ घूमीं. मेरी बात सुन कर सुमित का चेहरा पीला पड़ता चला गया.

‘‘ये मेरे अच्छे दोस्त सुमित हैं,’’ माधवी ने मुझे सुमित की तरफ देखता पा कर हमारा परिचय कराया.

‘‘प्रेमी को दोस्त मत कहो, माधवी,’’ मैं रूखे अंदाज में मुसकराई.

‘‘नहीं वैसा चक्कर नहीं है हमारे बीच. सुमित शादीशुदा हैं,’’ माधवी शरमाए से अंदाज में हंस पड़ी.

‘‘मुझे मालूम है.’’

‘‘कैसे?’’ उस ने माथे पर बल डाले.

‘‘तुम्हारे रोमियो की पत्नी तुम्हारे सामने ही खड़ी है. हैलो, पतिदेव,’’ मैं ने जहर बुझे अंदाज में सुमित को ‘हैलो’ कहा.

सुमित ने अपने को संभाला और नाराजगी भरे स्वर में मुझ से बोले, ‘‘माधवी और मुझ पर गलत शक करने की बेवकूफी मत करो, सपना. एक शादी में कुछ दिन पहले ही मेरी इन से जानपहचान हुई है. आज सुबह फोन करने से मालूम पड़ा कि इन की तबीयत खराब है. मैं तो सिर्फ हालचाल पूछने आया हूं.’’

‘‘झूठ मत बोलिए,’’ मैं फौरन गुस्से से फट पड़ी, ‘‘मेरे ऐसे शुभचिंतक हैं आप के औफिस में जो मुझे आप की कारगुजारियों की सारी खबरें देते रहते हैं. आप ने माधवी के साथ एक फिल्म देखी है, 3 बार डिनर किया है और लगभग रोज शाम को मिलते रहे हो इस से. आज रंगे हाथों पकड़ा है मैं ने आप को. अब तो झूठ मत बोलो.’’

तौबा- भाग 1

मेरे पति सुमित बढि़या डांस करते हैं. उन की पार्टनर नीली जींस और लाल टौप वाली लड़की भी कम न थी. क्लब के डांस फ्लोर पर वे दोनों छाए हुए थे.

मैं उस लड़की को पहचानती नहीं थी. सुमित में उस की दिलचस्पी देख कर मेरी कई सहेलियों ने आ कर मुझे उस का परिचय दिया.

‘‘उस का नाम निशा है. वह जो सांवले चेहरे वाली मोटी सुषमा है, यह निशा उस की ननद है. जौब करने के लिए मेरठ से दिल्ली कुछ दिन पहले आई है. सुमित तो एकदम दीवाना हो गया है उस का,’’ मुझे यह जानकारी देते हुए उन सभी की आंखों में खुराफाती चमक मौजूद थी.

सुमित से मेरी शादी करीब डेढ़ साल पहले हुई थी. मेरे सुंदर स्मार्ट पति की छाती में एक दिलफेंक आशिक का हृदय धड़कता है, यह बात शादी के आरंभिक दिनों में ही मैं समझ गई थी.

अमीर लोगों को अमीर बने रहने के लिए बड़ी तनाव भरी जिंदगी जीनी पड़ती है. तनावमुक्ति के लिए फिर खूब पार्टियों का आयोजन होता है. शादी के बाद हमें भी सप्ताह में 1-2 ऐसी पार्टियों में शामिल होना पड़ता.

इन पार्टियों में खूबसूरत स्त्रियों की भरमार होती. उन से सामना होते ही सुमित का व्यक्तित्व बदल जाता. बातबात में वे चुटकुले और शेर सुनाते. उन की लच्छेदार बातें किसी भी हसीना की प्रशंसा कर उसे सातवें आसमान पर चढ़ा देतीं. वे जहां होते, वहां हंसनेहंसाने का माहौल आसानी से बन जाता.

ऐसे अवसरों पर मुझ जैसी नई दुलहन की मन:स्थिति का अंदाजा लगाना कठिन नहीं. मैं अपने को उपेक्षित व असुरक्षित सा महसूस करती. नकली मुसकराहट जब मेरे चेहरे की मांसपेशियों को थका देती, तो मेरा चेहरा लटक जाता.

देरसवेर उन्हें मेरी परेशानी या नाराजगी का एहसास हो ही जाता. पहले तो वे बड़े स्टाइल से हैरानी प्रकट करते, फिर माथे पर बल डाल कर नाराजगी भरे कुछ वाक्य मुंह से निकाल कर मुझे डांटतेडपटते.

जब मेरी आंखों में आंसू छलक आते तो बड़े प्यार से वे मुझे समझाते, ‘‘सपना डार्लिंग, मुझ पर शक करने की अपनी गलत आदत का गला घोंट दो. सिर्फ तुम मेरे दिल की रानी थी, हो और रहोगी. तुम्हारा व्यवहार मेरे दिल को बड़ी ठेस पहुंचाता है.’’

‘‘आप के दिलफेंक व्यवहार के कारण सब स्त्रियां मुझ पर हंसती हैं. मेरी खिल्ली उड़वाना, सब की नजरों में मुझे गिराना क्या आप को अच्छा लगता है?’’ कभी गुस्से से, तो कभी आंखों में आंसू ला कर मैं उन से अपने दिल की बात कहती.

‘‘लोगों की फिक्र छोड़ो और मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चलो, सपना डियर. मेरा स्वभाव हंसनेहंसाने का जरूर है, पर मेरी नीयत में खोट नहीं. मेरे साथ मस्त हो कर जिओ, जानेमन.’’

उन की ऐसी बातें सुन कर मैं खुद को ही अपराधी सा महसूस करती. कोशिश कर के जल्द ही मैं ने अपने स्वभाव को बदल लिया. उन्हें हसीनाओं से खुल कर हंसतेबोलते देख मैं मन ही मन बेचैन हो लेती, पर मुंह से शिकायत करना या उन से नाराज नजर आना मैं ने बिलकुल छोड़ दिया.

फिर शादी के करीब 5 महीने बाद माधवी मुझ से मिलने मेरे घर आई और सुमित के कमजोर चरित्र की सचाई मेरे सामने उजागर हो गई.

तबीयत ठीक न होने के कारण सुमित के एक दोस्त की बरात में मैं शामिल नहीं हुई. मेरे साथ कालेज में पढ़ी मेरी अच्छी सहेली माधवी उस दोस्त की ममेरी बहन थी.

चुलबुली और हंसमुख माधवी बरात में खूब नाची. वहां सुमित ने लगातार उस का साथ दिया. सिर्फ 1 घंटे के अंदर उन की आपस में अच्छी जानपहचान हो गई.

माधवी ने मुझे बताया, ‘‘सपना, तेरे पति की शक्ल मुझे शुरू से ही जानीपहचानी सी लगी थी. सिर्फ यह ध्यान नहीं आया कि वे तेरे पति हैं. जब बाद में मुझे सुमित और तेरे रिश्ते का पता चला, तब तक देर हो चुकी थी.’’

‘‘कैसी देर हो चुकी थी? क्या मतलब है तुम्हारा?’’ मैं फौरन उलझन और बेचैनी का शिकार हो गई.

‘‘सपना, बरात में नाचते हुए हम खूब हंसबोल रहे थे. मुझे लगा कि सुमित अविवाहित है. उस की आंखों में अपने लिए प्रशंसा के भाव देख कर मैं खुश हुई थी.

‘‘बाद में वरमाला के समय भीड़ का फायदा उठा कर सुमित ने अचानक मेरा हाथ पकड़ा और फुसफुसाया कि तुम बहुत सुंदर हो, माधवी. मुझ से दोस्ती करोगी?

‘‘मैं ने हाथ छुड़ाया और उस से दूर हट गई, लेकिन मेरे मन में बड़ी गुदगुदी हो रही थी. फिर मैं ने पूछताछ की, तो पाया कि मुझ पर लाइन मारने वाले साहब न सिर्फ शादीशुदा हैं, बल्कि मेरी पक्की सहेली के जीवनसाथी हैं.

‘‘तब मुझे तेरे सुमित पर बहुत गुस्सा आया था… और अभी भी आ रहा है,’’ कुछ विस्तार से पिछली रात की घटना का विवरण बताते हुए माधवी का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा था.

सुमित की कारस्तानी जान कर मुझे भी बड़ा गुस्सा आया. साथ ही खुद को शर्मिंदा भी महसूस किया. अचानक ही मेरी आंखों में आंसू छलक आए.

‘‘यों कमजोर पड़ कर दुखी मत हो, सपना,’’ माधवी की आवाज कठोर हो गई, ‘‘अपने दिल की बात मुझ से खुल कर कह. तुम जैसी सुंदर, सुघड़ पत्नी को पा कर भी सुमित क्यों दूसरी लड़कियों के पीछे भागता है? क्या वह तुम से प्रेम नहीं करता?’’

‘‘अब तक तो वह धोखेबाज इंसान मुझे ही अपने दिल की रानी बताता था, माधवी,’’ मेरी आवाज बेहद कड़वी हो गई, ‘‘शुरू में मैं शोर मचाती थी कि सुंदर लड़कियों के पीछे मत भागो, तो मुझे गलत बता कर कठघरे में खड़ा कर देते थे वे. तेरे मुंह से उन की असलियत जान कर मेरा दिल कह रहा है कि… या मैं उन्हें तलाक दे दूं या उन का मुंह नोच लूं.’’

‘‘तलाक लेने की बात तो तू मत कर, सपना, पर तेरे पति को सबक तो सिखाना ही पड़ेगा,’’ माधवी का चेहरा तमतमा उठा.

‘‘डांटफटकार या आंसू बहाने से वे रास्ते पर नहीं आने वाले हैं, माधवी.’’ ‘‘मैं समझती हूं इस बात को, लेकिन हम सुमित को ऐसा जबरदस्त झटका देंगे कि उस के पैरों तले से जमीन खिसक जाएगी. भविष्य में किसी लड़की पर लाइन मारने से वे हमेशा के लिए तोबा न कर लें, तो मेरा नाम बदल देना.’’

‘‘उन्हें सीधे रास्ते पर लाने का कोई प्लान है तेरे पास?’’

परवरिश- भाग 2: मानसी और सुजाता में से किसकी सही थी परवरिश

आखिर दीदी ने अक्षत का रिश्ता तय कर ही दिया. अक्षत के विवाह की तैयारियां होने लगीं. विवाह हुआ, सुंदर, सलोनी सी बहू घर आई तो सभी खुश थे कि आखिर दीदी ने अपने बच्चों की लाइफ सेटल कर ही दी.

मेरा राहुल, अक्षत से डेढ़ साल ही छोटा है. उस के नौकरी पर लगते ही मैं ने भी शादी के लिए उस के दिमाग के पेंच कसने शुरू कर दिए, ‘अभी कैसे शादी कर सकता हूं मम्मी…पैसे भी तो चाहिए, इतने कम में कैसे गुजारा होगा.’ उस का जवाब सुन कर  मैं हतप्रभ रह गई. आखिर प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत मेरे बेटे के पास गृहस्थी बसाने के लिए पैसे कब होंगे?

नौकरी पर लग जाने के बाद भी मेरे बेटे व मुझ में किसी न किसी बात पर ठन ही जाती. जब घर आता तब आने के कुछ दिन तक और जाने के कुछ दिन पहले तक हमारे बीच में कुछ ठीक रहता. बाकी दिन किसी न किसी कारण से हम मांबेटे के बीच अनबन चलती रहती. शादी के लिए हां बोलने में भी उस ने मुझे बहुत परेशान किया.

उस के पापा ने एक दिन उसे खूब जोर की डांट लगा दी, ‘राहुल, यदि तुम अभी शादी के लिए हां नहीं बोलोगे तो तुम्हारी शादी करने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं, तब तुम खुद ही कर लेना…बच्चों की शादी करना मातापिता की जिम्मेदारी है और हम तुम्हारी शादी कर के अपनी जिम्मेदारी से फारिग होना चाहते हैं.’

तब जा कर उस ने मौन स्वीकृति दी और रहस्योद्घाटन किया कि उसे एक लड़की पसंद है और वह उसी से शादी करेगा. उस के रहस्योद्घाटन से बचीखुची आशा भी टूट गई. ऐसे लगा जैसे बेटे ने हम से मांबाप होने का हक भी छीन लिया. मैं ने कुछ समय तक बेटे से बात भी नहीं की. किसी तरह मौन रह कर मैं अपने दुख पीती रही और खुद को आने वाली परिस्थितियों के लिए तैयार करती रही.

दीदी की बहू को देखती तो दिल में एक हूक सी उठती. काश, राहुल ने भी लड़की ढूंढ़ने का काम मुझ पर छोड़ा होता. छांट कर खानदानी बहू ढूंढ़ती. आखिर रिश्तेदारी भी कोई चीज होती है. संबंधी भी तो अच्छे होने चाहिए. मातापिता अच्छे होते हैं तभी तो लड़की में अच्छे संस्कार आते हैं.

लेकिन जब राहुल से कहा तो तुरंत  जवाब मिल गया, ‘ये पुराने जमाने की घिसीपिटी बातें मत करो मुझ से. जिस लड़की से हम थोड़ी देर के लिए मिलते हैं उस के बारे में हम क्या जानते हैं और जिस को मैं ने पसंद किया है उसे मैं पिछले 4 साल से जानता हूं. नियोनिका अच्छी लड़की है मां और वैसे भी, परिवार और बीवी में संतुलन रखने का काम तो लड़के का है, और वह मुझे अच्छी तरह से आता है.’

दिल किया कि कहूं, तू तो मां और अपने बीच ही संतुलन नहीं रख पाया, कितनी लड़ाई करता है. अब बीवी और परिवार के बीच तू क्या संतुलन रखेगा? फिर भी उस तुनकमिजाज लड़के से ऐसी गंभीर बात सुन कर कुछ अच्छा सा लगा.

उधर, बहू के आने के बाद दीदी व्यस्त हो गईं. उन के उत्साह की कोई सीमा नहीं थी. हम सभी खुश थे. जीजाजी के जाने के बाद उदासी व गम में डूबी दीदी को जिंदगी जीने का खूबसूरत बहाना मिल गया था. लेकिन कुछ समय बाद ही उन का उत्साह कुछ कम होने लगा. फोन पर भी उन की बातें गमगीन होने लगीं. उत्साह की जगह चुप्पी व उच्छ्वासों ने ले ली. मैं बहू के बारे में कोई बात करती तो अकसर टाल जातीं. जिस बेटे की तारीफ करते दीदी की जबान नहीं थकती थी, उस के बारे में बात करने पर दीदी अकसर टाल जातीं.

मुझे कारण समझ में नहीं आ रहा था. बेटा तो दीदी का हमेशा से ही आज्ञाकारी था. बहू भी ठीक ही लगती थी. मिलना ही कितना होता था उस से. फिर भी जितना देखा चुलबुली सी लगी थी. पता नहीं दीदी को क्या दुख खाए जा रहा है. जीजाजी के जाने का दुख तो खैर अपनी जगह पर है ही. पर 2 साल हो गए हैं उन को गए हुए. दीदी कभी इतनी गमगीन नहीं दिखीं.

इन से कहा तो बोले, ‘तुम दीदी को उन के हाल पर छोड़ दो, उन का अब एक परिवार है, तुम बेकार बात में अपनी टांग मत अड़ाओ. दीदी को हमेशा अपनी मर्जी की आदत रही है. अब बहू आ गई है, बेटेबहू की अपनी जिंदगी है, हो सकता है अब उन्हें अकेलापन महसूस हो रहा हो?’

हो सकता है यही कारण हो. मैं ने अपने मन को समझा लिया, हो सकता है बहू के आने से थोड़ाबहुत अनदेखा महसूस कर रही हों. मेरे बेटे ने तो लड़की पसंद कर ही ली थी, ना की गुंजाइश ही कहां थी. मैं भी अपना मन पक्का कर शादी की तैयारियों में जुट गई. शादी की तैयारी करतेकरते उदासी का स्थान आखिर उत्साह ने ले ही लिया, मैं भी भूल गई कि बेटा अपनी मर्जी से ब्याह कर रहा है.

शादी में दीदी भी परिवार सहित आईं. दीदी की बहू में अब नई बहू का सा छुईमुईपन नहीं था. आखिर वह भी अब 1 साल के बेटे की मां बन चुकी थी. अक्षत भी पहले की तरह मां की हां में हां मिलाते नहीं दिखा, बल्कि मां से बातबात पर टोकाटाकी करता व तिरस्कार करता सा दिखा. मुझे आश्चर्य व दुख हुआ, जब बेटा ही मां से इस भाषा में बात करता है, मां की कमियां गिनाता रहता है तो बहू से क्या उम्मीद कर सकते हैं.

मुझे अपनी भी चिंता हो आई. मेरा बेटा तो हमेशा लड़ाई में ही बात करता है. अब बहू के सामने भी ऐसे ही बोलेगा तो दूसरी जाति की वह अनजानी लड़की, जिस का मैं ने इस घर में आने का विरोध भी किया था, मेरी क्या इज्जत करेगी? सासससुर को क्या मानेगी?

खैर, विवाह संपन्न हुआ और मेरे बेटेबहू हनीमून पर चले गए. दीदी 1-2 दिन रुकना भी चाह रही थीं पर अक्षत बिलकुल नहीं माना, शायद उस को अपने 1 साल के बच्चे की देखभाल की चिंता थी. मैं ने भी बहुत कहा पर अक्षत का रवैया तो हमारे प्रति भी पराया सा हो गया था.

‘दीदी, राहुल और नियोनिका हनीमून से लौट आएं तब मैं आऊंगी इस बार आप के पास…’

‘अच्छा…’ दीदी खास उत्साहित नहीं दिखीं. मेरे कुछ दिन शादी के बाद के कार्य निबटाने में बीत गए. लगभग 10 दिन बाद राहुल और नियोनिका वापस आ गए. घर आ कर भी वे अत्यधिक व्यस्त थे. आएदिन कोई न कोई उन को डिनर और लंच पर बुला लेता. उस के बाद थोडे़ दिन के लिए नियोनिका मायके चली गई और राहुल को भी मैं ने ठेलठाल कर उस के साथ भेज दिया. यही सही समय था. मैं ने इन को मुश्किल से मनाया और 2-4 दिन के लिए दीदी के पास चली गई.

अक्षत और उस की पत्नी ने मुझे खास तवज्जो नहीं दी. लगता था जैसे पहले वाला अक्षत कहीं खो गया है. दीदी अलबत्ता खुश हो गईं. इस बार मैं ने दीदी को पकड़ ही लिया.

‘दीदी, मुझे सच बताओ…क्या गम खाए जा रहा है आप को, आधी भी नहीं रह गई हो. चेहरा तो देखो अपना,’ मैं बोली.

‘कुछ नहीं…’ दीदी की आंखें भर आईं.

‘कुछ तो है, दीदी, मुझे भी नहीं बताओगी तो किसे बताओगी?’ दीदी चुप आंसू पोंछती  रहीं. मैं उन का हाथ सहलाने लगी, ‘बोलो न, दीदी.’

‘पता नहीं सुजाता, अक्षत को क्या हो गया है. बातबात पर मुझे टोकता है, मुझ पर चिल्लाता है. यों तो बात ही नहीं करता और जब बात करता है तो कड़वा ही बोलता है. बहू तो तीखी है ही, पलट कर जवाब देना उस का स्वभाव ही है…पर अक्षत भी हमेशा उस का साथ देता है. उसे मुझ में कमियां दिखाई देती हैं. कैसे दिन बिताऊं इन दोनों के साथ? मेरे सामने जोर से भी न हंसने वाला मेरा बेटा, जिस ने कभी मुझ से अलग जाने की हिम्मत नहीं की थी, आज मुझ पर अपनी बीवी के सामने इतनी जोर से चिल्लाता है कि सहन नहीं होता,’ दीदी फफकफफक कर रोने लगीं.

‘पर ऐसा क्यों करता है अक्षत?’

‘पता नहीं, पुरानीपुरानी बातें याद करकर के मुझ पर दहाड़ता रहता है. पढ़ने वाले बच्चों पर तो बंधन सभी लगाते हैं सुजाता, मैं ने क्या गलत किया?’

परवरिश- भाग 1: मानसी और सुजाता में से किसकी सही थी परवरिश

मानसी दीदी की चिट्ठी मिलते ही मैं एक ही सांस में पूरी चिट्ठी पढ़ गई. चिट्ठी पढ़ कर दो बूंद आंसू मेरे गालों पर लुढ़क गए. मानसी दीदी के हिस्से में भी कभी सुख नहीं रहा. कुछ दुख उन्हें उन के हिस्से के मिले, कुछ कर्मों से और कुछ स्वभाव से. इन तीनों में से कुछ भी यदि उन का ठीक होता तो शायद उन्हें इतने दुख नहीं भुगतने पड़ते. दीदी के बारे में सोचती मैं अतीत में खो सी गई.

हम दोनों बहनें मातापिता की लाड़ली थीं. पिता ने हमें ही बेटा मान हमारे लालनपालन व शिक्षादीक्षा में कोई कमी नहीं रखी. दीदी सुंदरता में मां पर व स्वभाव से पापा पर गई थीं. वह दबंग व उग्र स्वभाव की थीं. वह दूसरे के अनुसार ढलने के बजाय दूसरे को अपने अनुसार ढालने में विश्वास रखती थीं. परिस्थितियों के अनुसार ढलने के बजाय परिस्थितियों को अपने अनुसार ढाल लेती थीं. यह उन का स्वभाव भी था और इस की उन में क्षमता भी थी.

इस के विपरीत मेरा स्वभाव मां पर व शक्लसूरत पापा पर गई थी. मैं देखने में ठीकठाक थी. शालीन व लुभावना सा व्यक्तित्व था. हर एक के साथ समझौता करने वाला लगभग शांत स्वभाव था. जब तक बहुत परेशानी न हो तब तक मैं खुश ही रहती थी. हर तरह की परिस्थिति के साथ समझौता करना जानती थी. मेरे स्वभाव में दबंगता तो नहीं थी पर मैं दब्बू स्वभाव की भी नहीं थी.

दीदी का दबंग स्वभाव सब को अपनी मुट्ठी में रखना चाहता. जो करे उन की मन की करे. जो उन को ठीक लगे वह करे. विवाह के बाद भी पति व बच्चों पर उन का ही शासन रहा. यहां तक कि सासससुर ने भी उन की ही सुनी. किसी की क्या मजाल कि कोई उन की इच्छा के विपरीत घर में कुछ कर दे.

‘दीदी, इतना मत दबाया करो सब को, बच्चों पर इतनी अधिक बंदिश रखना ठीक नहीं है…’ मैं अकसर दीदी को समझाने का प्रयास करती.

‘तू अपनी समझ अपने पास रख…जैसे तू ने खुल्ला छोड़ा हुआ है बच्चों को…मेरे दोनों बच्चे, मजाल है मेरे सामने जोर से हंस भी दें…कितने आज्ञाकारी बच्चे हैं…मेरे ही नियंत्रण का फल है…वरना इन के पापा तो इन को बिगाड़ कर रख देते,’ दीदी बडे़ गर्व से कहतीं.

‘दीदी, आप के बच्चे आज्ञाकारी नहीं बल्कि डरते हैं आप से. आज्ञा प्यार से मानें बच्चे, तब तो ठीक लेकिन यदि वे डर कर मानें, तो जिस दिन वे आत्मनिर्भर हो जाएंगे आप की सुनेंगे भी नहीं,’ मैं दलील देती तो दीदी मुझे जोर से झिड़क देतीं.

दीदी के इस दबंग रूप को अगर सकारात्मक पहलू से देखा जाए तो पूरी गृहस्थी का भार उन के ही कंधों पर था. जीजाजी अकसर बीमार रहते थे. उन्हें दिल की बीमारी थी. किसी तरह वह नौकरी कर लेते थे बस, बाकी समस्याएं दीदी के जिम्मे थीं.

दीदी हिम्मत वाली थीं. हर मुश्किल का सामना वह किसी तरह कर लेती थीं. इसीलिए जीजाजी बीमार होने के बावजूद थोड़ा जी गए, लेकिन बीमार दिल के साथ आखिर वह कितने दिन जी पाते. एक दिन परिवार को आधाअधूरा छोड़ वह इस दुनिया से कूच कर गए. दीदी की हिम्मत ने परिवार की पतवार फिर से चलानी शुरू कर दी. उन्होंने बेटी की पढ़ाई छुड़वा कर उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया.

‘दीदी, आमना पढ़ने में तेज है, उस की इतनी जल्दी शादी क्यों कर रही हो…उसे पढ़ने दो,’ मैं बोली.

‘तू अपनी गृहस्थी के बारे में सोच, सुजाता. मेरी बेटी मेरी जिम्मेदारी है,’ उन्होंने मुझे दोटूक जवाब दे दिया. दीदी न किसी की सुनती थीं, न किसी की मानती थीं. आमना भी बहुत रोई, गिड़गिड़ाई, बेटे ने भी बहुत कहा पर दीदी ने बी.काम. खत्म करते ही उस का विवाह कर दिया.

अपनी सफलता पर दीदी बहुत खुश थीं कि उन्होंने अकेले होते हुए भी बेटी का विवाह कर दिया और बेटी ने चूं भी नहीं की. आमना को खुश देख कर मैं ने भी अपने दिल को समझा लिया. हालांकि उस के सपनों की कोंपलों को झुलसते हुए मैं ने साफ महसूस किया था.

दीदी कभीकभी बच्चों के साथ हमारे घर रहने आ जाती थीं. उन का बेटा अक्षत इतना आज्ञाकारी था कि उन दिनों मुझे अपना राहुल कुछ ज्यादा ही बिगड़ा हुआ और उद्दंड दिखाई देता. उन दोनों मांबेटे में मैंने कभी बहस होते नहीं देखी. मांबेटे के बीच झगड़ा तो दूर की बात थी, जबकि मेरे और मेरे बेटे के बीच बिना कारण हमेशा ठनी ही रहती. मेरे बेटे को मुझ में कमी ही कमी दिखाई देती.

दीदी अकसर मुझे टोकतीं, ‘तू राहुल पर थोड़ी सख्ती रखा कर सुजाता, अभी से ऐसा लड़ता है तुझ से तो बड़ा हो कर क्या करेगा? तेरी जगह पर मैं होती तो थप्पड़ लगा देती.’

‘इतने बड़े बच्चे थप्पड़ से कहां काबू होते हैं, दीदी…किशोरावस्था से गुजर रहे हैं बच्चे इस समय, थोड़ीबहुत समस्याएं तो होती ही हैं उन के साथ इस दौर में,’ मैं दीदी से बात करते हुए बीच का रास्ता अपनाती.

‘नहीं, जैसे हम तो इस दौर से कभी गुजरे ही नहीं थे,’ दीदी तुनक कर कहतीं. मैं कैसे कहती कि मैं ने तो मां के साथ झगड़ा नहीं भी किया होगा पर तुम तो हमेशा झगड़ती थीं.

दीदी के बेटे अक्षत ने इंजीनियरिंग के बाद एम.बी.ए. किया और प्रतिष्ठित कंपनी में उसे जौब मिल गई. दीदी बहुत खुश थीं. उन को देख कर हम सभी खुश थे. अक्षत को देख कर दिल खुश हो जाता. अक्षत खूबसूरत, स्मार्ट, आज्ञाकारी, नम्र स्वभाव का प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत युवक था. उसे देख कर कोई भी रश्क कर सकता था. एक से एक लड़कियों के रिश्ते उस के लिए आते. दीदी खुद ही सब जगह बात करतीं.

दीदी से कई बार कहा भी मैं ने, ‘दीदी हर किसी पर अंधा भरोसा मत किया करो…जिस ने भी रिश्ता बताया, आप सोचती हो अक्षत पसंद कर ले…बस, हां बोल दे.’

‘तो और क्या देखना है, सबकुछ तो बायोडाटा में लिखा रहता है. शक्ल अक्षत देख ही लेता है, मैं अधिक प्रपंच में नहीं पड़ती.’

आखिर दीदी ने अक्षत का रिश्ता तय कर ही दिया. अक्षत के विवाह की तैयारियां होने लगीं. विवाह हुआ, सुंदर, सलोनी सी बहू घर आई तो सभी खुश थे कि आखिर दीदी ने अपने बच्चों की लाइफ सेटल कर ही दी.

मेरा राहुल, अक्षत से डेढ़ साल ही छोटा है. उस के नौकरी पर लगते ही मैं ने भी शादी के लिए उस के दिमाग के पेंच कसने शुरू कर दिए, ‘अभी कैसे शादी कर सकता हूं मम्मी…पैसे भी तो चाहिए, इतने कम में कैसे गुजारा होगा.’ उस का जवाब सुन कर  मैं हतप्रभ रह गई. आखिर प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत मेरे बेटे के पास गृहस्थी बसाने के लिए पैसे कब होंगे?

भाभी- भाग 3: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

आप के भैया के लाख मना करने पर भी मैं ने आप को ऐबी बना दिया है… आप के पतन की दोषी मैं ही हूं…आप कहीं नहीं जाएंगे, जाना ही होगा तो मैं जाऊंगी,’’ कह कर उन्होंने अटैची से मेरे कपड़े निकाल कर हैंगर में डाल अलमारी में लटका दिए और पुस्तकें मेज पर लगा दीं.

‘‘किस अधिकार से आप मुझे रोक रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अधिकार की बात मत कीजिए, मैं नहीं जानती कि अधिकार किसे कहते हैं, बस आप कहीं नहीं जाएंगे, कह दिया सो कह दिया, कोई मेरी बात टाले, मुझे बरदाश्त नहीं.’’

‘‘सौमित्र और राघव की हुक्मउदूली तो आप बरदाश्त कर लेंगी,’’ सुनते ही उन्होंने मेरे मुंह पर तड़ातड़ चांटे बरसाने शुरू कर दिए. बदहवास सी सौमित्र… राघव… सौमित्र… राघव…चीखे जा रही थीं और मेरे मुंह पर थप्पड़ पर थप्पड़ मारे जा रही थीं. मैं हाथ पीछे बांधे मूर्तिवत खड़ा थप्पड़ खाता रहा और फिर मैं ने उन की कोली भर ली और उन के मुंह को दोनों हथेलियों के बीच ले कर उन से आंखें मिलाते हुए कहा, ‘‘मां, मुझे माफ कर दे, मैं ने तो कभी की सिगरेट पीनी छोड़ दी है. देखो, ये रहे सारे रुपए,’’ और मैं ने अपने बैड के नीचे रखे सौसौ के नोटों की ओर इशारा किया. फिर फफकफफक कर रो पड़ा.

उन्होंने मुझे कस कर अपनी छाती से लगा लिया. कुछ देर वे यों ही खड़ी रहीं, फिर साड़ी के पल्लू से अपने आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘ठीक है, मैं एक बार फिर विश्वास कर लेती हूं,’’ कह कर वे जाने लगीं.

मैंने उन का हाथ पकड़ कर उन्हें रोका और बोला, ‘‘भाभी मां, मैं वादा करता हूं कि अब कोई गलती नहीं करूंगा.’’

‘‘ठीक है, ठीक है,’’ कह कर वे चली गईं.

‘‘और यह उसी का फल है बेला कि मैं आज इस रूप में तुम्हारे सामने हूं.’’

बेला बोली, ‘‘खैर छोडि़ए, अब सुधरे हुए हैं तो क्या हुआ, हैं तो आप ऐक्सऐबी,’’ और मुसकराते हुए जातेजाते कह गई, ‘‘आप आज ही चले जाइए भाभी से मिलने.’’

‘‘तुम भी चलो.’’

‘‘नहीं, शायद वे तुम से कोई प्राइवेट बात करना चाहती हों, मेरी उपस्थिति शायद उन्हें अच्छी न लगे. आप अकेले ही जाइए.’’

‘‘ठीक है, मैं अकेला ही जाता हूं, ड्राइवर को आज छुट्टी दे दो.’’

बेला बोली, ‘‘उसे भी साथ ले जाते तो क्या बुराई थी? कोई साथ में हो तो अच्छा है.’’

‘‘अरी, यह रहा आगरा, दोढाई घंटे का ही तो सफर है.’’

थोड़ी देर बाद तैयार हो कर मैं आगरा के लिए निकल पड़ा और 3 बजे आगरा पहुंच गया. कोठी के गेट में घुसते ही देखा कि भाभी सामने ही लौन में कुरसी पर बैठी हैं.

मुझे देखते ही वे खिल उठीं, ‘‘आ गए गौरव.’’

‘‘हां भाभी,’’ कहते हुए मैं ने उन्हें प्रणाम किया.

‘‘अकेले ही चले आए हो, बेला को भी ले आते.’’

मैं ने कहा, ‘‘उसे कुछ जरूरी काम था.

मैं जल्दी में चला आया इसलिए कि ऐसी क्या बात है, जो आप ने बुलाया है और कारण भी नहीं बताया. सब ठीक तो है?’’

‘‘हां, यहां सब ठीकठाक है, कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘बात तो कुछ जरूर है भाभी, वरना आप इतनी जल्दी फोन छोड़ने वाली कहां थीं? बताइए क्या बात है?’’

‘‘अरे दम तो ले, चायपानी पी, फिर बैठ कर आराम से बातें करेंगे,’’ कह कर भाभी ने नौकर को आवाज लगाई, ‘‘अरे रामू.’’

रामू भागता हुआ आया और बोला, ‘‘कहिए बीबीजी.’’

‘‘जा, 2 कप चाय बना ला.’’

चाय पीतेपीते कुछ देर बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसी हो भाभी?’’

‘‘यों तो सब ठीकठाक है गौरव, पर यहां अब मन नहीं लगता, मुझे अपने साथ दिल्ली ले चल.’’

‘‘इस में क्या मुझे किसी की आज्ञा लेनी होगी? जब चाहिए चलिए,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां आज्ञा लेनी होगी, बेला की,’’

वे बोलीं.

‘‘कैसी बात करती हो भाभी, आप को साथ ले चलने के लिए बेला की आज्ञा? बेला कौन होती है आज्ञा देने वाली? नहीं भाभी नहीं, अपने इस बेटे पर तुम्हारा कितना अधिकार है, यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा? पर बताओ तो सही कि बात क्या है? सौमित्र, राघव, दोनों बहुएं क्या नाराज चल रहे हैं? किसी ने कुछ कहा है आप से?’’

‘‘मुझे कुछ कहने की हिम्मत कौन करेगा? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, बस मन नहीं लगता. अब मेरा दम घुटता है यहां,’’ कह कर वे कुछ उदास सी हो गईं.

‘‘भाभी, साफसाफ बताओ न? कुछ बात तो जरूर है.’’

‘‘समझो तो बहुत कुछ है, न समझो तो कुछ भी नहीं. बस यों समझ ले, बहूबेटों के रंगढंग मुझे अच्छे नहीं लगते. मुझे लगता है कि ये बहुएं तुम्हारे भैया की इज्जत खाक में मिलाने पर तुली हुई हैं. इन की चालढाल, इन का रंगढंग, इन का लाइफस्टाइल मुझे बिलकुल पसंद नहीं.’’

मुझे इस के अतिरिक्त कोई और कारण नहीं दिखाई दे रहा था, भाभी की परेशानी का. मैं पहले ही जानता था, हो न हो वही सासबहू का, मांबेटे का पारंपरिक तनाव है.

थोड़ी देर बाद भाभी फिर बोलीं, ‘‘गौरव, अब सहन नहीं होती मुझ से बहुओं की यह चालढाल… सौमित्र और राघव तो जोरू के पक्के गुलाम बन गए हैं… दब्बू कहीं के, उन के ही रंग में रंग गए हैं, जन्म से जवानी तक चढ़ा हुआ मां का रंग इतना कच्चा पड़ गया कि बहुओं के आते ही उतर गया? अरे, मैं तो इन से बड़े खानदान की थी, पढ़ीलिखी भी इन से कम नहीं हूं, इन से हर बात में आगे हूं. चलो और कुछ न सही, इन की सास तो हूं, यह सब कुछ मेरा ही तो है, फिर भी…’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

मैं ने कहा, ‘‘भाभी, मैं समझ तो रहा हूं, पर यह भी जानता हूं भाभी, मेरे कहे को उपदेश मत समझना, यह भी मत समझना कि मैं तुम्हें बोझ समझ कर टालना चाहता हूं, मैं मानता हूं भाभी कि तुम प्रसन्न नहीं हो, परेशान हो, पर क्या तुम सुख खोजने का अपना दृष्टिकोण नहीं बदल सकतीं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह भाभी कि सुख तो हमारे चारों ओर बिखरा पड़ा है, उसे बीनने और संजो कर रखने का ढंग बदल दो तो तुम्हारी झोली में सुख ही सुख होगा. स्पष्ट कहूं, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारी रुचि बेटेबहुओं के दोष ढूंढ़ने तक ही सीमित हो गई हो, अच्छाई देखने की इच्छा ही नहीं हो?’’

‘‘अरे, तू तो मुझे उपदेश ही देने बैठ गया,’’ इतना ही कह पाई थीं कि मैं बोल उठा, ‘‘देखो भाभी, मुझे तुम से यह आशा कदापि नहीं है कि तुम अपने गौरव को उपदेश झाड़ने वाला समझोगी. मैं ने कभी तुम से कुछ नहीं छिपाया, अपने मन की बात सदा ही साफसाफ करता रहा हूं, आज भी मैं तुम से उसी रूप में अपने मन की बात कह रहा हूं. जरूरी तो नहीं कि मेरे मन में आई हर बात सही हो, मैं गलत भी हो सकता हूं, बिना किसी लागलपेट के मैं ने अपने मन की बात आप से कह दी, आप प्लीज अन्यथा न लें.’’

इस पर वे बोलीं, ‘‘तू बता गौरव, बहुएं जींस पहन कर बाहर निकलें, यह गलत नहीं तो और क्या है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बड़े भैया की बड़ी बेटी एम.ए.कर रही है, कालेज जींस पहन कर जाती है या नहीं?’’

‘‘जाती तो है, पर वह तो बेटी है.’’

‘‘बस, यही तो गड़बड़ है भाभी, बहुएं क्या तुम्हारी बेटियां नहीं?’’

‘‘जो कुछ भी हो, पर बेटीबहू में अंतर तो रहता ही है, बहुएं बड़ेबूढ़ों का इतना भी लिहाज न करें कि उन्हें देख कर तिनके की ओट जितना परदा कर लें?’’

‘‘और बेटी भले ही नौजवान लड़कों के साथ बेलिहाज घूमती फिरे?’’ मैं ने कहा, ‘‘यह तो भाभी एक कोल्डवार है, न जाने कब से जारी है, इस का अंत होता नजर नहीं आता. सास, मां नहीं बन सकती और बहू, बेटी. इस में मैं आप को दोषी नहीं ठहराता, कदाचित आप ठीक कह रही हैं,’’ मैं ने मन ही मन सोचा कि कहीं मैं यह भाभी के डर से तो नहीं कह गया. पर मैं डर जरूर रहा था कि कहीं वे मेरी बात को अन्यथा न ले लें.

वही हुआ, वे बोलीं, ‘‘अरे, तू तो वाकई मुझे उपदेश झाड़ने लगा. लगता है अब तू बड़ा हो गया है, मुझे उपदेश देने लगा.’’

‘‘वही हुआ न भाभी, जिस का मुझे अंदेशा था. निश्छल बात मैं ने आप से कही तो आप बुरा मान गईं, सौरी. सोचता हूं आप ठीक कहती हैं- एक दिन में ही बेटा, मां का न हो कर बहू का हो जाए, तो गलत तो है ही,’’ और मैं चुप हो गया.

अजीब दास्तान- भाग 1: क्या हुआ था वासन और लीना के साथ

कुछ महीनों से लीना महसूस कर रही थी कि उस का पति वासन कुछ बदल सा गया है. पहले, हफ्ते में 2 दिन टूर करता था पर अब हफ्ते में 5 दिन बाहर रहता था.

पूछने पर बोलता कि तुम और बच्चे इतना आरामदायक जीवन जी रहे हो, उस के लिए मु झे अधिक काम करना पड़ रहा है. लीना उसे सच मान लेती क्योंकि उसे वासन पर पूरा विश्वास था. टूर से जब वासन वापस आता तो बच्चों के लिए ढेरों उपहार और उस के लिए 2-4 सुंदरसुंदर साडि़यां लाता. उपहार देते समय वासन अपना मनपसंद वाक्य बोलना न भूलता, ‘आई लव माई फैमिली’. ऐसे में वासन पर शक करने की कोई गुुंजाइश ही नहीं थी.

पर आज जब मंगला ने कालेज से वापस घर आ कर पूछा, ‘‘आजकल डैडी का कोई और घर भी है क्या? मेरी एक सहेली ने मु झे आज बताया कि मेरे डैडी कोडमबक्कम में रहते हैं. मैं उस सहेली से लड़ बैठी पर वह अपनी बात की इतनी पक्की थी कि मैं चुप हो गई. अब मैं आप से पूछ रही हूं कि क्या यह सच है?’’

मंगला की इन बातों ने लीना को  झक झोर दिया. लीना तो जैसे नींद से जागी हो. लीना के मन में वासन को ले कर कहीं न कहीं ऐसी बात थी पर वह वासन की प्यारभरी बातों में भूल जाती थी. लेकिन आज यह शक सच में बदलता नजर आ रहा था. वह बोली, ‘‘डैडी घर आएंगे तभी सच का पता चलेगा.’’

‘‘मां, इस से पहले ही हम सचाई का पता लगा सकते हैं. उस सहेली का पता मु झे मालूम है. हम वहां चलते हैं,’’ और दोनों मांबेटी कोडमबक्कम जाने के लिए निकल पड़ीं.

वहां जा कर उस बिल्ंिडग में रहने वाले लोगों के नाम वहां लगे बोर्ड पर पढ़े. वासन का नाम वहां नहीं था. वे लौट आईं.

5 दिन बाद जब वासन वापस आया तो परिवार वालों के लिए ढेरों तोहफे लाया. लीना घर में अकेली थी. बच्चे कालेज गए हुए थे. लीना ने आते ही उसे सामने बिठाया और बोली, ‘‘हम लोगों को कब तक गिफ्ट दे कर बहलाओगे? अब मैं सचाई जानना चाहती हूं.’’

‘‘कौन सी सचाई?’’

‘‘अब भी भोले बन रहे हो तुम. क्या जानते नहीं हो कि मैं क्या पूछ रही हूं?’’

‘‘हां, मैं सेल्वी के साथ रहता हूं. हम ने अलग फ्लैट लिया हुआ है. पर यह भी सच है कि मेरा परिवार तो यही है. आई लव माई फैमिली.’’

इतना सुनते ही लीना स्तब्ध रह गई. वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि वासन सेल्वी के साथ रह रहा है.

सेल्वी उन के सब से करीबी दोस्त राजन की पत्नी

थी. वह भी सेल्वी को बहुत अच्छी तरह से जानती थी.

लीना जानती थी कि राजन और सेल्वी के बीच बहुत  झगड़े होते थे. दोनों की शादी घर वालों ने जबरदस्ती करवाई थी. सेल्वी अपने ही मामा के साथ शादी नहीं करना चाहती थी पर उस की नानी, जो बहुत पैसे वाली थी, अपनी बेटी की बेटी को ही बहू बनाना चाहती थी. उन की जाति में मामा ही पहला उम्मीदवार होता है. बड़ों की जोरजबरदस्ती से विवाह तो हो गया था पर विवाह के बाद सेल्वी का जीवन नारकीय हो गया था. सेल्वी राजन को पति के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर पाई. ऐसे में वासन और लीना ही दोनों के  झगड़े निबटाते थे. इस दौरान वे दोनों कब करीब आ गए, पता ही नहीं चला.

सेल्वी के पति राजन को खबर थी पर वह अपने गम में शराबी बन चुका था. दिनरात शराब पी कर धुत पड़ा रहता था. ऐसे में वासन और सेल्वी ने एक नया आशियाना बना लिया था. दोनों ने एकसाथ रहना शुरू कर दिया था. पिछले 7 महीने से दोनों एकसाथ एक ही फ्लैट में रह रहे थे और वासन अधिक समय सेल्वी के साथ ही गुजारता था. घर में टूर का बहाना बनाना बहुत आसान था. पर आज जब रहस्य खुल ही गया था तो वासन बोला, ‘‘हां, मैं सेल्वी के साथ रहता हूं. उसे मेरी जरूरत है. वह बहुत दुखी है पर मैं ने तुम्हें और बच्चों को तो किसी भी बात की कमी नहीं होने दी है.’’

‘‘पर अब यह सब नहीं चलेगा. तुम्हें आज ही फैसला लेना होगा कि तुम सेल्वी के साथ रहना चाहते हो या हमारे साथ,’’ लीना क्रोध में बोली.

‘‘एक बार फिर सोच लो.’’

‘‘सोच लिया, मु झे अपने बच्चों का भविष्य देखना है. तुम्हारी इस जीवनशैली का जवान होते बच्चों पर क्या असर पड़ेगा? मैं यह सहन नहीं कर सकती.’’

‘‘तो ठीक है, मैं चला जाता हूं,’’ और वासन अपनी अटैची उठा कर घर से बाहर निकल गया.

लीना जोर से चिल्लाई, ‘‘अब कभी वापस मत लौटना, तुम्हारे लिए यहां जगह नहीं है.’’

वासन के जाने के बाद लीना चुप बैठ गई. उस ने स्वयं को कभी भी इतना असहाय नहीं पाया था. वासन को शराब की लत तो बहुत पहले से थी. उस लत को वह किसी प्रकार सहन करती थी. वासन का आधी रात के बाद नशे की हालत में घर लौटना उस ने अपनी आदत में शामिल कर लिया था. पर बच्चों के लिए वह सांताक्लौज जैसा था जो उन्हें उपहारों से लादता रहता था. बच्चों को इस के अलावा वासन से कुछ भी प्राप्त नहीं होता था. उस के पास समय नहीं था बच्चों से बात करने का या उन की कोई समस्या सुल झाने का. वह तो यह भी नहीं जानता था कि बच्चे कौन से कालेज में जाते हैं और क्या पढ़ते हैं. पैसा दे कर ही उस की जिम्मेदारी पूरी हो जाती थी.

ऐसी परिस्थितियों को  झेलते झेलते लीना भी कठोर बन गई थी. वह अब बातबात में रोने वाली लीना नहीं थी. उस ने वासन की इस प्रतिक्रिया को भी सहज रूप से स्वीकार कर लिया था. उस ने मन में निश्चय किया था कि वह वासन को फिर कभी इस घर में वापस नहीं आने देगी. जिस आदमी ने इतनी आसानी से रिश्ता तोड़ लिया हो, ऐसे आदमी के लिए वह न रोएगी और न  झुकेगी.

मंगला और शुभम ने जब डैडी के लिए पूछा तो लीना ने बिना कुछ भी छिपाए सबकुछ बता दिया. वह बोली, ‘‘अब तुम्हारे डैडी यहां कभी नहीं आएंगे. अब वे अलग घर में सेल्वी आंटी के साथ रहते हैं, अब तुम लोग भी उन का नाम इस घर में मेरे सामने कभी नहीं लोगे. उन के बिना हम अच्छी तरह से जीएंगे. तुम लोग अपनी पढ़ाई करो और मेरा सपना पूरा करो. मंगला को डाक्टर बनना है और शुभम को इंजीनियर बनना है.’’

मां की आवाज की दृढ़ता को सुन कर दोनों बच्चे चुप हो गए थे. वे जानते थे कि मां जो भी बोल रही हैं वह ठीक है. अब उन्हें पीछे मुड़ कर नहीं देखना है और मेहनत कर के मां के सपने को पूरा करना है.

एक हफ्ते के अंदर ही वासन वापस आया था. उसे दरवाजे पर देख कर लीना ने उसे अंदर आने को नहीं कहा. वह ही बोला, ‘‘बस, 1 मिनट के लिए तुम से बात करनी है, मैं नहीं चाहता कि तुम्हें किसी प्रकार की कोई तकलीफ हो या बच्चों की पढ़ाई में कोई कमी आए,’’ इतना कह कर उस ने अपनी प्रौपर्टी के सारे कागजात लीना को सौंप दिए, उस ने अपनी सारी प्रौपर्टी लीना और बच्चों के नाम कर दी थी.

अनमोल उपहार- भाग 3: सरस्वती के साथ क्या हुआ

गायत्री ने कहा, ‘मन के बुरे नहीं हैं. न ही आप के प्रति गलत धारणा रखते हैं. पर बचपन से जो बातें कूटकूट कर उन के दिमाग में भर दी गई हैं उन का असर धीरेधीरे ही खत्म होगा न? बूआ का प्रभाव उन के मन पर बचपन से हावी रहा है. आज उन्हें इस बात का एहसास है कि उन्होंने आप का दिल दुखाया है.’

गायत्री के मुंह से यह सुन कर सरस्वती का चेहरा एक अनोखी आभा से चमक उठा था.

गायत्री की गोदभराई के दिन घर सारे नातेरिश्तेदारों से भरा हुआ था. गहनों और बनारसी साड़ी में सजी गायत्री बहुत सुंदर लग रही थी.

‘चलो, बहू, अपना आंचल फैलाओ. मैं तुम्हारी गोद भर दूं,’ बूआ ने मिठाई और फलों से भरा थाल संभालते हुए कहा.

‘रुकिए, बूआजी, बुरा मत मानिएगा. पर मेरी गोद सब से पहले अम्मां ही भरेंगी.’

‘यह तुम क्या कह रही हो, बहू? ये काम सुहागन औरतों को ही शोभा देता है और तुम्हारी सास तो…’ पड़ोस की विमला चाची ने टोका, तो कमला बूआ जोर से बोलीं, ‘रहने दो बहन, 4 अक्षर पढ़ कर आज की बहुएं ज्यादा बुद्धिमान हो गई हैं. अब शास्त्र व पुराण की बातें कौन मानता है?’

‘जो शास्त्र व पुराण यह सिखाते हों कि एक स्त्री की अस्मिता कुछ भी नहीं और एक विधवा स्त्री मिट्टी के ढेले से ज्यादा अहमियत नहीं रखती, मैं ऐसे शास्त्रों और पुराणों को नहीं मानती. आइए, अम्मांजी, मेरी गोद भरिए.’

गायत्री का आत्मविश्वास से भरा स्वर कमरे में गूंज उठा. सरस्वती जैसे नींद से जागी. मन में एक अनजाना भय फिर दस्तक देने लगा.

‘नहीं बहू, बूआ ठीक कहती हैं,’ उस का कमजोर स्वर उभरा.

‘आइए, अम्मां, मेरी गोद पहले आप भरेंगी फिर कोई और.’

बहू की गोद भरते हुए सरस्वती की आंखें मानो पहाड़ से फूटते झरने का पर्याय बन गई थीं. रोमरोम से बहू के लिए आसीस का एहसास फूट रहा था.

निर्धारित समय पर विपुल का जन्म हुआ तो सरस्वती उसे गोद में समेट अतीत के सारे दुखों को भूल गई. विपुल में नन्हे विश्वनाथ की छवि देख कर वह प्रसन्नता से फूली नहीं समाती थी.

अपने बेटे के लिए जोजो अरमान संजोए थे, वह सारे अरमान पोते के लालनपालन में फलनेफूलने लगे. फिर 2 साल के बाद नेहा गायत्री की गोद में आ गई. सरस्वती की झोली खुशियों की असीम सौगात से भर उठी थी. गायत्री जैसी बहू पा कर वह निहाल हो उठी थी. विश्वनाथ और उस के बीच में तनी अदृश्य दीवार गायत्री के प्रयास से टूटने लगी थी. बेटे और मां के बीच का संकोच मिटने लगा था.

अब विश्वनाथ खुल कर मां के बनाए खाने की प्रशंसा करता. कभीकभी मनुहारपूर्वक कोई पकवान बनाने की जिद भी कर बैठता, तो सरस्वती की आंखें गायत्री को स्नेह से निहार, बरस पड़तीं. कौन से पुण्य किए थे जो ऐसी सुघड़ बहू मिली. अगर इस ने मेरा साथ नहीं दिया होता तो गांव के उसी अकेले कमरे में बेहद कष्टमय बुढ़ापा गुजारने पर मैं विवश हो जाती.

समय अपनी गति से बीतता रहा. 3 वर्ष पहले कमला बूआ की मृत्यु हो गई. विपुल ने इसी साल मैट्रिक की परीक्षा दी थी. और नेहा 8वीं कक्षा की होनहार छात्रा थी. दोनों बच्चों के प्राण तो बस, अपनी दादी में ही बसते थे.

गायत्री ने उन का दामन जमाने भर की खुशियों से भर दिया था और वही गायत्री इस तरह, अचानक उन्हें छोड़ गई? उन की सोच को एक झटका सा लगा.

‘‘दादीमां, दवा ले लीजिए,’’ पोती नेहा की आवाज से वह वर्तमान में लौटीं. उठने की कोशिश की पर बेहोशी की गर्त में समाती चली गईं.

नेहा की चीख सुन कर सब कमरे में भागे चले आए. विपुल दौड़ कर डाक्टर को बुला लाया. मां के सिरहाने बैठे विश्वनाथ की आंखें रहरह कर भीग उठती थीं.

‘‘इन्हें बहुत गहरा सदमा पहुंचा है, विश्वनाथ बाबू. इस उम्र में ऐसे सदमे से उबरना बहुत मुश्किल होता है. मैं कुछ दवाएं दे रहा हूं. देखिए, क्या होता है?’’

डाक्टर ने कहा तो विपुल और नेहा जोरजोर से रोने लगे.

‘‘दादीमां, तुम हमें छोड़ कर नहीं जा सकतीं. मां तुम्हारे ही भरोसे हमें छोड़ कर गई हैं,’’ नेहा के रुदन से सब की आंखें नम हो गई थीं.

4 दिन तक दादीमां नीम बेहोशी की हालत में पड़ी रहीं. 5वें दिन सुबह अचानक उन्हें होश आया. आंखें खोलीं और करवट बदलने का प्रयास किया तो हाथ किसी के सिर को छू गया. दादीमां ने चौंक कर देखा. उन के पलंग की पाटी से सिर टिकाए उन का बेटा गहरी नींद में सो रहा था. कुरसी पर अधलेटे विश्वनाथ का सिर मां के पैरों के पास था.

तभी नेहा कमरे में आ गई. दादी की आंखें खुली देख वह खुशी से चीख पड़ी, ‘‘पापा, दादीमां को होश आ गया.’’ विश्वनाथ चौंक कर उठ बैठे.

बेटे से नजर मिलते ही दादीमां का दिल फिर से धकधक करने लगा. मन की पीड़ा अधरों से फूट पड़ी.

‘‘मैं सच में आभागी हूं, बेटा. मनहूस हूं, तभी तो सोने जैसी बहू सामने से चली गई और मुझे देख, मैं फिर भी जिंदा बच गई. मेरे जैसे मनहूस लोगों को तो मौत भी नहीं आती.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा मत कहो. तुम ऐसा कहोगी तो गायत्री की आत्मा को तकलीफ होगी. कोई इनसान मनहूस नहीं होता. मनहूस तो होती हैं वे रूढि़यां, सड़ीगली परंपराएं और शास्त्रपुराणों की थोथी अवधारणाएं जो स्त्री और पुरुष में भेद पैदा कर समाज में विष का पौधा बोती हैं. अब मुझे ही देख लो, गायत्री की मृत्यु के बाद किसी ने मुझे अभागा या बेचारा नहीं कहा.

‘‘अगर गायत्री की जगह मेरी मृत्यु हुई होती तो समाज उसे अभागी और बेचारी कह कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता.’’

दादीमां आंखें फाड़े अपने बेटे का यह नया रूप देख रही थीं. गायत्री जैसे पारस के स्पर्श से उन के बेटे की सोच भी कुंदन हो उठी थी.

विश्वनाथ अपनी रौ में कहे जा रहा था, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां. बचपन से ही मैं तुम्हारा प्यार पाने में असमर्थ रहा. अब तुम्हें हमारे लिए जीना होगा. मेरे लिए, विपुल के लिए और नेहा के लिए.’’

‘‘बेटा, आज मैं बहुत खुश हूं. अब अगर मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.’’

‘‘नहीं मां, अभी तुम्हें बहुत से काम करने हैं. विपुल और नेहा को बड़ा करना है, उन की शादियां करनी हैं और मुझे वह सारा प्यार देना है जिस से मैं वंचित रहा हूं,’’ विश्वनाथ बच्चे की तरह मां की गोद में सिर रख कर बोला.

सरस्वती देवी के कानों में बहू के कहे शब्द गूंज उठे थे. ‘मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन आप के मन की मुराद पूरी होगी. आप के प्रति उन का पछतावे से भरा एहसास जल्दी ही असीम स्नेह और आदर में बदल जाएगा, देखिएगा.’

सरस्वती देवी ने स्नेह से बेटे को अपने अंक में समेट लिया. बहू द्वारा दिए गए इस अनमोल उपहार ने उन की शेष जिंदगी को प्राणवान कर दिया था.

मीत मेरे- भाग 1

एकदम सामने से करीब आ रही कार को देख कर गौरव ने घबराहट में कार बाईं ओर मोड़ दी. किर्र की आवाज के साथ कार किनारे खड़े पेड़ से टकरा कर रुक गई. सामने वाली कार के चालक ने ब्रेक लगा कर अपनी कार रोक ली. कार को किनारे पार्क कर के कार चालक पेड़ से टकराई कार के यात्रियों की ओर आया और बोला, ‘‘आर यू ओके गाइज?’’ उन के सामने एक 29-30 वर्ष का अमेरिकी युवक खड़ा था.

‘‘जी…’’ गौरव इतना ही कह सका.

संयोग से गौरव और नेहा को ज्यादा चोट नहीं आई थी, पर स्टीयरिंग व्हील से टकराने के कारण गौरव के माथे से खून निकल रहा था. दहशत की वजह से नेहा सुन्न सी हो रही थी.

‘‘क्या मरने के लिए घर से निकले थे? अपनी लेन का भी ध्यान नहीं रहा. गलत लेन में आने पर कितना जुर्माना देना होगा, जानते हो न?’’

‘‘सौरी, माफ कीजिए, मैं कुछ परेशान था, इसलिए लेन का ध्यान नहीं रहा,’’ कार से उतर कर गौरव ने अपनी गलती मानी.

‘‘परेशान होने का मतलब यह तो नहीं कि किसी दूसरे को मुश्किल में डाल दो. अगर मेरी कार की टक्कर से तुम्हें कुछ हो जाता तो…’’ अचानक युवक की दृष्टि गौरव के माथे से निकलते खून पर पड़ी.

‘‘अरे, तुम्हारे माथे पर तो चोट लगी है, चलो, तुम्हें हास्पिटल ले चलता हूं,’’ अमेरिकी युवक ने अब हमदर्दी से कहा.

‘‘नहीं, नहीं, इस की जरूरत नहीं है. मामूली सी चोट है, घर में फर्स्ट एड का सामान है. चोट पर दवा लगा लेंगे,’’ गौरव ने संकोच से कहा.

‘‘नहीं, सिर पर लगी चोट को मामूली नहीं समझना चाहिए. यहां पास ही हास्पिटल है, वहीं चलते हैं.’’

‘‘हम हास्पिटल नहीं जा सकते,’’ गौरव की आवाज में उदासी थी.

‘‘क्यों, क्या प्रौब्लम है?’’

‘‘हमारे पास मैडिकल इंश्योरैंस नहीं है,’’ मायूसी से गौरव ने बताया.

‘‘क्या… बिना मैडिकल इंश्योरैंस के तुम अमेरिका में कैसे मैनेज कर सकते हो? यहां कब से रह रहे हो?’’

‘‘बस, 4 महीने पहले यहां आए थे. सब कुछ ठीक चल रहा था, पर एक वीक पहले मेरी जौब चली गई. जौब के साथ मेरा मैडिकल इंश्योरैंस भी खत्म हो गया.’’

‘‘ओह समझा. इकोनोमिक क्राइसिस के कारण न जाने कितनों की जौब चली गई. एनीहाऊ, मैं एक डाक्टर को जानता हूं, वे तुम्हारी हैल्प कर देंगे.’’

‘‘थैंक्स, पर मेरी कार तो शायद स्टार्ट ही न हो सके,’’ कार की दयनीय स्थिति पर गौरव ने नजर डाली.

‘‘ओह, यस. ऐसा करो, तुम दोनों मेरी कार में चलो, तुम्हारी कार ठीक होने पर घर पहुंचा दी जाएगी,’’ युवक ने अपने मोबाइल

से किसी मैकेनिक को निर्देश दे कर गौरव की तरफ उस के घर का पता बताने के लिए अपना फोन बढ़ा दिया.

‘‘आप को तकलीफ होगी,’’ गौरव ने संकोच से कहा.

‘‘तुम्हारे साथ इतनी ब्यूटीफुल यंग वाइफ है. उस के साथ तुम्हें सड़क पर तो नहीं छोड़ा जा सकता. हां, अपना परिचय देना तो भूल ही गया, मैं हैरीसन, पर सब हैरी ही पुकारते हैं,’’ अपना नाम बता कर हैरी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया.

‘‘मैं गौरव और यह मेरी वाइफ, नेहा,’’ हैरी से हाथ मिलाते हुए गौरव ने कहा.

हैरी के साथ उस की कार में दोनों डाक्टर के पास पहुंचे. डाक्टर हैरी का अच्छा मित्र था. कुछ ही शब्दों में हैरी ने उन की समस्या बता कर उन की हैल्प के लिए रिक्वैस्ट की.

‘‘नो प्रौब्लम, आइए, आप की चोट एग्जामिन कर लूं.’’

गौरव के माथे की चोट एग्जामिन कर के डाक्टर ने नर्स को इंस्ट्रक्शन दे कर कहा, ‘‘डोंट वरी, मामूली चोट है. नर्स अभी ड्रेसिंग कर देगी. 2-3 दिन में ठीक हो जाएगी.’’

‘‘थैंक्स डाक्टर,’’ गौरव ने सम्मान में धन्यवाद दिया.

‘‘वेलकम, हैरी मेरे नेबर ही नहीं, मेरे बहुत अच्छे दोस्त भी हैं, एनीथिंग फौर हिम,’’ मुसकराते हुए डाक्टर ने कहा.

डाक्टर से विदा ले तीनों हास्पिटल से बाहर आए. गौरव ने हैरी से कहा, ‘‘हम आप के बहुत आभारी हैं. अब हम चलते हैं.’’

‘‘कैसे जाओगे, पैदल? तुम्हारी कार तो रोड की साइड पर पड़ी है?’’ हैरी के चेहरे पर मुसकान थी.

‘‘हम कोई बस या टैक्सी ले लेंगे, आप को बहुत थैंक्स.’’

‘‘आज संडे है. मेरे पास पूरा दिन खाली है, यहीं पास ही मेरा घर है. मेरे खयाल से तुम दोनों को कौफी की सख्त जरूरत है.

1-1 कप कौफी के बाद तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘नहीं मिस्टर हैरीसन, अब आप को और ज्यादा तकलीफ नहीं दे सकते. हम मैनेज कर लेंगे,’’ संकोच से नेहा ने कहा.

‘‘इट्स माई प्लैजर, नेहा. हां, तुम्हें नेहा पुकारा, बुरा तो नहीं लगा? अमेरिका में तो बच्चे भी मांबाप को उन के नाम से पुकारते हैं. हम अमेरिकी फ्रैंक होते हैं. अगर कुछ बुरा लगे तो साफसाफ कह देते हैं. आई होप यू डौंट माइंड. एक बात और, मुझे मिस्टर हैरीसन न कह कर सिर्फ हैरी कहना ही ठीक है. यहां इस तरह की फार्मैलिटी नहीं चलती.’’

‘‘ठीक है, हम आप को हैरी ही पुकारेंगे,’’ नेहा हंस पड़ी.

कार हैरी के घर में प्रविष्ट हो रही थी. गेट के अंदर आते ही दोनों ओर सुंदर फूलों की क्यारियों को देख कर नेहा मुग्ध हो गई. सामने हैरी का बड़ा सा घर था. घर में सोफे पर बैठी नेहा ने चारों ओर नजर दौड़ाई, सब कुछ कितना सुव्यवस्थित था.

‘‘आप का गार्डन तो बहुत सुंदर है. इतने रंगों के गुलाब देखना एक सुखद अनुभव है.’’

‘‘म्यूजिक और गार्डनिंग, मेरे यही 2 शौक हैं या यों कहो, इन्हीं के सहारे जिंदगी का मजा उठाता हूं,’’ बात कहते हुए हैरी हंस दिया.

‘‘अरे वाह, नेहा को भी म्यूजिक से प्यार है. इस ने इंडियन म्यूजिक में एम.ए. की डिग्री ली है, गौरव ने कहा.’’

‘‘वाउ, ग्रेट. गौरव, यू आर ए लकी गाई. तुम्हारी वाइफ म्यूजीशियन है, तुम जब चाहो अपने मनपसंद गीत सुन सकते हो,’’ हैरी की आंखों में प्रशंसा थी.

‘‘सौरी, मुझे संगीत से कोई लगाव नहीं है,’’ गौरव के सपाट जवाब से नेहा का चेहरा उतर गया.

सच ही तो कहा था गौरव ने, शादी के बाद से आज तक उस ने कभी भी नेहा से कोई गीत सुनाने का अनुरोध नहीं किया था. गौरव के रिश्तेदार और मित्र उस की मीठी आवाज में गाए गए गीतों की जी खोल कर प्रशंसा करते, पर गौरव हमेशा उदासीन ही रहा.

‘‘अगर कोशिश करो तो म्यूजिक का आनंद जरूर उठा सकते हो. नेहा, शायद तुम हमारे म्यूजिक को भी पसंद करो,’’ हैरी ने टीवी औन कर दिया.

टीवी पर पाश्चात्य संगीत आ रहा था. हैरी सामने किचन में कौफी बनाने गया.

हैरी कौफी बनाते देख नेहा उठ आई. बोली, ‘‘लाइए, कौफी मैं बनाती हूं. मेरे रहते आप कौफी बनाएं, यह ठीक नहीं.’’

‘‘ओह नो. तुम हमारी गैस्ट हो. वैसे तो हमारे यहां गैस्ट और होस्ट दोनों मिल कर काम करते हैं, पर आज पहली बार घर आई हो, इसलिए बस, म्यूजिक ऐंजौय करो. अगली बार कौफी तुम बनाना,’’ हैरी ने परिहास किया.

‘‘एक बात बताएं, भारत में किचन का काम पुरुष कम ही करते हैं. यह काम हम स्त्रियों के ही जिम्मे है. इन्हें तो अपनी चाय तक बनानी नहीं आती,’’ मुसकराती नेहा ने गौरव की ओर देखा.

 

‘‘कोई बात नहीं, अभी तो आप लोग यहां आए हैं, कुछ ही दिनों में आप के हसबैंड यहां की लाइफस्टाइल अपना लेंगे और आप के हर काम में मदद देंगे. अमेरिका में पति और पत्नी दोनों घर के कामों में बराबर साथ देते हैं. मैं और मेरी वाइफ दोनों कामकाजी हैं, पर घर के कामों में हम साथी हैं. हम दोनों को बराबर की आजादी भी है. आज वह मूवी देखने गई है वरना आप उस से भी मिल लेतीं.’’

‘‘शायद इसीलिए यहां रहने के बाद भारतीय स्त्रियां भी अपने देश वापस नहीं जाना चाहतीं,’’ मुसकराती नेहा ने कहा.

नेहा को याद आया, उस की चचेरी बहन भारत लौटने को तैयार नहीं है, जबकि उस के पति वापसी के लिए बेचैन हैं.

‘‘इस का मतलब इंडिया में पतियों को बहुत आराम होता है. सोचता हूं, मुझे किसी इंडियन लड़की से मैरिज करनी चाहिए थी. आराम से अपना गिटार बजाता और चैन से रहता,’’ हैरी के साथ नेहा भी हंस पड़ी.

‘‘यह सच नहीं है, आजकल वर्किंग लेडीज के पति भी घर के कामों में मदद करते हैं. हां, जो औरतें काम नहीं करतीं वे किचन में काम नहीं करेंगी तो फिर क्या करेंगी?’’ गौरव की आवाज की रुखाई साफ थी.

‘‘ओ.के., लैट्स फौरगेट दिस इशू. कौफी तैयार है. हां, ब्लैक कौफी या मिल्क?’’

‘‘चलिए, इतना काम तो मैं कर ही

सकती हूं,’’ कह अपने और गौरव के लिए कौफी में दूध और चीनी डाल कर हैरी से मिल्क के लिए पूछा.

‘‘मैं ब्लैक कौफी विदाउट शुगर लेता हूं.’’

कौफी के मग थमाते हैरी ने कहा, ‘‘हां, अब परिचय हो जाए. तुम्हारी क्वालिफिकेशन क्या है, गौरव? इंजीनियर लगते हो.’’

‘‘जी नहीं, मैं ने मार्केटिंग में एम.बी.ए. किया है. यहां जौब मिलने की वजह से इंडिया की अच्छीभली जौब छोड़ आया. यह कब सोचा था कि यहां इकोनोमिक क्राइसिस आ जाएगा. समझ में नहीं आ रहा है, क्या करूं,’’ परेशानी उस के चेहरे पर स्पष्ट थी.

‘‘अब समझ में आ रहा है, इसी परेशानी की वजह से तुम अपनी लेन से गलत लेन में आ गए थे. तुम्हारी प्रौब्लम तो सीरियस है. इन दिनों जौब मिलना आसान नहीं है. बिना जौब के मैडिकल इंश्योरैंस भी नहीं रहता. इलाज इतना महंगा होता है कि अपने पैसों से इलाज कराना संभव नहीं होता. कोई डाक्टर भी इंश्योरैंस के बिना केस नहीं लेता,’’ कहते हुए हैरी सोच में पड़ गया.

‘‘मैं सोचता हूं, हम इंडिया वापस चले जाएं, लेकिन मुझे मेरे मांबाप ने बड़ी उम्मीदों से भेजा था, उन्हें क्या जवाब दूंगा? लोग तो यही सोचेंगे, मैं नाकामयाब रहा.’’

‘‘मुझे कुछ टाइम दो, मेरा एक म्यूजिक स्कूल है. मेरे स्टूडेंट्स के कुछ पेरैंट्स इंडस्ट्रियलिस्ट हैं. उन से बात कर के देखूंगा, शायद कहीं चांस मिल जाए.’’

‘‘आप की बहुत मेहरबानी होगी. अब हमें इजाजत दीजिए. आज के लिए बहुत थैंक्स,’’ गौरव की आवाज में उत्साह छलक आया.

‘‘चलो, तुम्हें घर छोड़ दूं. कार ठीक होने में कुछ देर लगेगी. कार को मैकेनिक घर पहुंचा देगा.’’

गौरव के अपार्टमैंट के सामने कार रोक हैरी ने विदा मांगी, पर नेहा अनुरोध कर बैठी, ‘‘आज आप की वाइफ तो देर से वापस आएंगी. आइए, आज हमारे घर लंच लीजिए. हमारा इंडियन फूड आप के अमेरिकी फूड से अलग होता है. शायद आप को पसंद आए. वैसे भी खाना तो आप को ही तैयार करना होगा.’’

‘‘नहीं, आज नहीं, फिर कभी. जब आप लोग इन्वाइट करेंगे, हम जरूर आएंगे. बिना इन्विटेशन अचानक लंच या डिनर पर अमेरिकी कहीं नहीं जाते. कहीं जाने के लिए पहले से टाइम और डेट तय रहती है. डौंट वरी, वी विल मीट अगेन. थैंक्स फौर दि इन्विटेशन,’’ और कुछ कहने का अवसर दिए बिना हैरी कार स्टार्ट कर चला गया.

अपार्टमैंट का लौक खुलने की आवाज सुनते ही पास वाले अपार्टमैंट में रहने वाली मंगला रामास्वामी बाहर आ गईं.

 

‘‘अइअइयो, नेहा, तुम लोग कहां रह गया जी, हम को बहुत फिकर होने लगा. वो तुम्हारा कार कहां है, यह अंगरेज तुम को इधर कैसे लाया?’’

‘‘हमारी कार खराब हो गई, हैरी ने हमें लिफ्ट दी,’’ नेहा ने संक्षेप में बात बता दी.

‘‘ऐसा… पर ये गोरा लोग किसी की हैल्प नहीं करने का जी. ठीक से बात भी नहीं करने का, पर तुम को कैसे हैल्प किया,’’ मंगला ने एक भरपूर नजर नेहा के सुंदर चेहरे पर डाली.

‘‘सब इनसान एक से नहीं होते, मंगला बहन. चलूं, खाना बनाना है.’’

‘‘तुम अभी थक कर आया है, हमारे घर सांभरराइस तैयार है. अभी लाने का, नेहा,’’ मंगला ने प्यार से कहा.

‘‘नहीं मंगला बहन, आप तकलीफ न करें,’’ मंगला को और कुछ कहने का अवसर न दे कर नेहा अपार्टमैंट के भीतर चली गई.

2 महीने पहले मंगला, श्रीधर रामास्वामी की पत्नी बन कर चेन्नई से अमेरिका आई थीं. श्रीधर कंप्यूटर ठीक करने का काम करते थे. मंगला 10वीं कक्षा पास सीधीसादी गृहिणी थीं. अपने सीमित ज्ञान और टूटीफूटी अंगरेजी के कारण वे पास में रहने वाली अमेरिकी औरतों से बात करने में हिचकती थीं. एक नेहा ही थी, जो उन के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार रखती थी. जब से मंगला को पता चला, नेहा को इडलीडोसा पसंद है, तब से जब भी वह इडलीडोसा बनातीं, नेहा को जरूर देतीं. नेहा भी मंगला को उन की पसंद वाली खस्ता कचौडि़यां भेजना नहीं भूलती थी. विदेशी धरती ने दोनों को एक सूत्र में बांध दिया था.

पिछले कुछ दिनों से मंगला का परिचय अन्य दक्षिण भारतीय परिवारों से हो गया था. मंगला पाककला में दक्ष थीं. वे ड्राइव नहीं कर पाती थीं, पर दक्षिण भारतीय व्यंजन बनाने की कला में निपुण होने के कारण उन के समाज के समारोहों में कोई न कोई उन्हें अपनी कार से सम्मानपूर्वक ले जाता. समारोहों में कुछ खास बनाने का दायित्व लेने के कारण उन का सम्मान बढ़ गया था. अकसर दक्षिण भारतीय परिवारों की पार्टियों में भी उन का सहयोग लिया जाता. अपनों के बीच मंगला चेन्नई को जैसे भूल सी जाती.

पहली बार एक परिवार में भोजन बनाने के बाद जब गृहस्वामिनी ने उन के हाथ में

50 डालर दिए तो मंगला चौंक गईं, ‘‘यह क्या? मैं कोई खाना बनाने वाली नहीं हूं.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मंगला. अमेरिका में कोई भी इनसान किसी का काम मुफ्त में नहीं करता, न ही कोई काम छोटा समझा जाता है. हमारे घर जो सफाई करने वाली आती है, हम उसे भी इज्जत देते हैं. कभीकभी तो घर के बुजुर्ग अपने ग्रैंड चिल्ड्रन की देखभाल के लिए भी पैसे लेते हैं. इसे अपनी मेहनत का पहला इनाम समझ कर रख लो. यह हिंदुस्तान नहीं, अमेरिका है,’’ गृहस्वामिनी ने प्यार से समझाया.

हिचकती मंगला ने पैसे रख तो लिए पर मन में संकोच था. नेहा ने भी मंगला को उत्साहित किया. उस ने मंगला से कहा कि यह उन की मेहनत का फल है, किसी का दिया हुआ दान नहीं. गौरव के बौस के यहां एक अच्छे परिवार की महिला खाना बनाने का काम करती है. अपनी छोटीमोटी जरूरतें तो इन पैसों से पूरी की ही जा सकती हैं.

अब मंगला को कुछ आय होने लगी थी, चेहरा भी आत्मविश्वासपूर्ण हो चला था. उन्हें देख नेहा के मन में भी आता कि वह भी कोई काम कर पाती, पर गौरव का वेतन दोनों के लिए बहुत था, इसलिए उस ने इस बारे में अधिक नहीं सोचा.

‘‘अमेरिका में हर पार्टी, त्योहार यानी शनिवार या इतवार को आयोजित किए जाते हैं,’’ नेहा ने गौरव से कहा, ‘‘इस शनिवार को हैरी दंपती को डिनर पर बुलाना चाहिए, उस मुश्किल के समय अगर हैरी ने हमारी मदद न की होती तो हम क्या करते.’’

‘‘यह तो ठीक है, पर अभी मैं किसी को डिनर देने के मूड में नहीं हूं, मेरी जौब नहीं है, जमापूंजी खत्म होती जा रही है,’’ अनमने से गौरव ने जवाब दिया.

‘‘हैरी ने हम पर बहुत एहसान किया है वरना हम पुलिस के चक्कर में आ सकते थे. उन के उपकार के बदले हमें धन्यवाद के रूप में डिनर तो देना ही चाहिए. तुम मायूस क्यों होते हो? हो सकता है, हैरी की मदद से तुम्हें कोई जौब मिल जाए.’’

‘‘अरे, उस की आशा करना बेकार है, आजकल स्थिति बहुत खराब है. हां, उस की मदद में कोई स्वार्थ नहीं था, चलो मैं फोन करता हूं.’’

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