फिर वही शून्य: क्या शादी के बाद पहले प्यार को भुला पाई सौम्या

फिर वही शून्य- भाग 3 : क्या शादी के बाद पहले प्यार को भुला पाई सौम्या

वज्रपात हुआ जैसे मुझ पर. नियति ने कैसा क्रूर मजाक किया था मेरे साथ. समर की रिहाई  हुई तो मेरी शादी के फौरन बाद. किस्मत के अलावा किसे दोष देती? समय मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल चुका था. अब हो भी क्या सकता था?

इसी उधेड़बुन में कई दिन निकल गए. पहले सोचा कि वीरां से बिना मिले ही वापस लौट जाऊंगी, लेकिन फिर लगा कि जो होना था, हो गया. उस के लिए, वीरां के साथ जो मेरा खूबसूरत रिश्ता था, उसे क्यों खत्म करूं? अजीब सी मनोदशा में मैं ने उस के घर का नंबर मिलाया.

‘‘हैलो,’’ दूसरी तरफ से वही आवाज सुनाई दी जिसे सुन कर मेरी धड़कनें बढ़ जाती थीं.

विधि की कैसी विडंबना थी कि जो मेरा सब से ज्यादा अपना था, आज वही पराया बन चुका था. मैं अपनी भावनाओं पर काबू न रख पाई. रुंधे गले से इतना ही बोल पाई, ‘‘मैं, सौम्या.’’

‘‘कैसी हो तुम?’’ समर का स्वर भी भीगा हुआ था.

‘‘ठीक हूं, और आप?’’

‘‘मैं भी बस, ठीक ही हूं.’’

‘‘वो…मुझे वीरां से बात करनी थी.’’

‘‘अभी तो वह घर पर नहीं है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मैं रिसीवर रखने लगी कि समर बोल उठा, ‘‘रुको, सौम्या, मैं…मैं कुछ कहना चाहता हूं. जानता हूं कि मेरा अब कोई हक नहीं, लेकिन क्या आज एक बार और तुम मुझ से शाम को उसी काफी शाप पर मिलोगी, जहां मैं तुम्हें ले जाता था?’’

एक बार लगा कि कह दूं, हक तो तुम्हारा अब भी इतना है कि बुलाओगे तो सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास आ जाऊंगी, लेकिन यह सच कहां था? अब दोनों के जीवन की दिशा बदल गई थी. अग्नि के समक्ष जिस मर्यादा का पालन करने का वचन दिया था उसे तो पूरा करना ही था.

‘‘अब किस हैसियत से मिलूं मैं आप से? हम दोनों शादीशुदा हैं और आप की नजरों का सामना करने का साहस नहीं है मुझ में. किसी और से शादी कर के मैं ने आप को धोखा दिया है. नहीं, आप की आंखों में अपने लिए घृणा और वितृष्णा का भाव नहीं देख सकती मैं.’’

‘‘फिर ऐसा धोखा तो मैं ने भी तुम्हें दिया है. सौम्या, जो कुछ भी हुआ, हालात के चलते. इस में किसी का भी दोष नहीं है. मैं तुम से कभी भी नफरत नहीं कर सकता. मेरे दिल पर जैसे बहुत बड़ा बोझ है. तुम से बात कर के खुद को हलका करना चाहता हूं बाकी जैसा तुम ठीक समझो.’’

मैं जानती थी कि मैं उसे इनकार नहीं कर सकती थी. ?एक बार तो मुझे उस से मिलना ही था. मैं ने समर से कह दिया कि मैं उस से 6 बजे मिलने आऊंगी.

शाम को मैं साढे़ 5 बजे ही काफी शाप पर पहुंच गई, लेकिन समर वहां पहले से ही मौजूद था. जब उस ने मेरी ओर देखा, तो उठ कर खड़ा हो गया. उफ, क्या हालत हो गई थी उस की. जेल में मिली यातनाओं ने कितना अशक्त कर दिया था उसे और उस का बायां पैर…बड़ी मुश्किल से बैसाखियों के सहारे खड़ा था वह. कभी सोचा भी न था कि उसे इन हालात में देखना पडे़गा.

हम दोनों की ही आंखों में नमी थी. बैरा काफी दे कर चला गया था.

‘‘वीरां कैसी है?’’ मैं ने ही शुरुआत की.

‘‘अच्छी है,’’ एक गहरी सांस ले कर समर बोला, ‘‘वह खुद को तुम्हारा गुनाहगार मानती है. कहती है कि अगर उस ने जोर न दिया होता तो शायद आज तुम मेरी…’’

मैं निगाह नीची किए चुपचाप बैठी रही.

‘‘गुनाहगार तो मैं भी हूं तुम्हारा,’’ वह कहता रहा, ‘‘तुम्हें सपने दिखा कर उन्हें पूरा न कर सका, लेकिन शायद यही हमारी किस्मत में था. पकड़े जाने पर मुझे भयंकर अमानवीय यातनाएं दी जातीं. अगर हिम्मत हार जाता, तो दम ही तोड़ देता, लेकिन तुम से मिलन की आस ही मुझे उन कठिन परिस्थितियों में हौसला देती. एक बार भागने की कोशिश भी की, लेकिन पकड़ा गया. फिर एक दिन सुना कि दोनों तरफ की सरकारों में संधि हो गई है जिस के तहत युद्धबंदियों को रिहा किया जाएगा.

‘‘मैं बहुत खुश था कि अब तुम से आ कर मिलूंगा और हम नए सिरे से जीवन की शुरुआत करेंगे. जब यहां आ कर पता चला कि तुम्हारी शादी हो चुकी है, तो मेरी हताशा का कोई अंत न था. फिर वीरां भी शादी कर के चली गई. जेल में मिली यातनाओं ने मुझे अपंग कर दिया था. मैं ने खुद को गहन निराशा और अवसाद से घिरा पाया. मेरे व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगा था. जराजरा सी बात पर क्रोध आता. अपना अस्तित्व बेमानी लगने लगा था.

‘‘उन्हीं दिनों नेहा से मुलाकात हुई. उस ने मुझे बहुत संबल दिया और जीवन को फिर एक सकारात्मक दिशा मिल गई. मेरा खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था. मैं तुम्हें तो खो चुका था, अब उसे नहीं खोना चाहता था. तुम मेरे दिल के एक कोने में आज भी हो, मगर नेहा ही मेरे वर्तमान का सच है…’’

मैं सोचने लगी कि एक पुरुष के लिए कितना आसान होता है अतीत को पीछे ढकेल कर जिं?दगी में आगे बढ़ जाना. फिर खुद पर ही शर्मिंदगी हुई. अगर समर मेरी याद में बैरागी बन कर रहता, तब खुश होती क्या मैं?

‘‘…बस, तुम्हारी फिक्र रहती थी, पर तुम अपने घरसंसार में सुखी हो, यह जान कर मैं सुकून से जी पाऊंगा,’’ समर कह रहा था.

‘‘मुझे खुशी है कि तुम्हें ऐसा साथी मिला है जिस के साथ तुम संतुष्ट हो,’’ मैं ने सहजता से कहने की कोशिश की, ‘‘दिल पर कोई बोझ मत रखो और वीरां से कहना, मुझ से आ कर मिले. अब चलती हूं, देर हो गई है,’’ बिना उस की तरफ देखे मैं उठ कर बाहर आ गई.

जिन भावनाओं को अंदर बड़ी मुश्किल से दबा रखा था, वे बाहर पूरी तीव्रता से उमड़ आईं. यह सोच कर ही कि अब दोबारा कभी समर से मुलाकात नहीं होगी, मेरा दिल बैठने लगा. अपने अंदर चल रहे इस तूफान से जद्दोजहद करती मैं तेज कदमों से चलती रही.

तभी पर्स में रखे मोबाइल की घंटी बज उठी. अनिरुद्ध का स्वर उभरा, ‘‘मैं तो अभी से तुम्हें मिस कर रहा हूं. कब वापस आओगी तुम?’’

‘‘जल्दी ही आ जाऊंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा. सौम्या, वह बात कहो न.’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘वही, जिसे सुनना मुझे अच्छा लगता है.’’

मैं ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ कर कहा, ‘‘मैं आप से बहुत प्यार करती हूं,’’ जेहन में समर का चेहरा कौंधा और आंखों में कैद आंसू स्वतंत्र हो कर चेहरे पर ढुलक आए. जीवन में फिर वही शून्य उभर आया था.

फिर वही शून्य- भाग 2 : क्या शादी के बाद पहले प्यार को भुला पाई सौम्या

हमारे प्यार को परिवार वालों की सहमति मिल गई और तय हुआ कि मेरी पढ़ाई पूरी होने के बाद हमारा विवाह किया जाएगा.

समर की छुट्टियां खत्म होने को थीं. उस के वापस जाने से पहले जो लम्हे मैं ने उस के साथ गुजारे वे मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं. उस का शालीन व्यवहार, मेरे प्रति उस की संवेदनशीलता और प्रेम के वे कोमल क्षण मुझे भावविह्वल कर देते. उस के साथ अपने भविष्य की कल्पनाएं एक सुखद अनुभूति देतीं.

मगर इनसान जैसा सोचता है वैसा हो कहां पाता है? पड़ोसी देश के अचानक आक्रमण करने की वजह से सीमा पर युद्ध के हालात उत्पन्न हो गए. एक फौजी के परिवार को किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, इस का अंदाजा मुझे उस वक्त ही हुआ. टीवी पर युद्ध के हृदयविदारक दृश्य और फौजियों की निर्जीव देहें, उन के परिजनों का करुण रुदन देख कर मैं विचलित हो जाती. मन तरहतरह की आशंकाआें से घिरा रहता. सारा वक्त समर की कुशलता की प्रार्थना करते ही बीतता.

ऐसे में मैं एक दिन वीरां के साथ बैठी थी कि समर की बटालियन से फोन आया. समर को लापता कर दिया गया था. माना जा रहा था कि उसे दुश्मन देश के सैनिकों ने बंदी बना लिया था.

कुछ देर के लिए तो हम सब जड़ रह गए. फिर मन की पीड़ा आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकली. वहां समर न जाने कितनी यातनाएं झेल रहा था और यहां…खुद को कितना बेबस और लाचार महसूस कर रहे थे हम.

युद्ध की समाप्ति पर दुश्मन देश ने अपने पास युद्धबंदी होने की बात पर साफ इनकार कर दिया. हमारी कोई कोशिश काम न आई. हम जहां भी मदद की गुहार लगाते, हमें आश्वासनों के अलावा कुछ न मिलता. उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी.

वक्त गुजरता गया. इतना सब होने के बाद भी जिंदगी रुकी नहीं. वाकई यह बड़ी निर्मोही होती है. जीवन तो पुराने ढर्रे पर लौट आया लेकिन मेरा मन मर चुका था. वीरां और मैं अब भी साथ ही कालिज जाते, मगर समर अपने साथ हमारी हंसीखुशी सब ले गया. बस जीना था…तो सांस ले रहे थे, ऐसे ही…निरुद्देश्य. जीवन बस, एक शून्य भर रह गया था.

फिर हम दोनों ने साथ ही बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स भी कर लिया. तब एक दिन मम्मी ने मुझे अनिरुद्ध की तसवीर दिखाई.

‘मैं जानती हूं कि तुम समर को भुला नहीं पाई हो, लेकिन बेटा, ऐसे कब तक चलेगा? तुम्हें आगे के बारे में सोचना ही पडे़गा. इसे देखो, मातापिता सूरत में रहते हैं और खुद अमेरिका में साफ्टवेयर इंजीनियर है. इतना अच्छा रिश्ता बारबार नहीं मिलता. अगर तुम कहो तो बात आगे बढ़ाएं,’  वह मुझे समझाने के स्वर में बोलीं.

उन की बात सुन कर मैं तड़प उठी, ‘आप कैसी बातें कर रही हैं, मम्मी? मैं समर के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. आप एक औरत हैं, कम से कम आप तो मेरी मनोदशा समझें.’

‘तो क्या जिंदगी भर कुंआरी  रहोगी?’

‘हां,’ अब मेरा स्वर तल्ख होने लगा था, ‘और आप क्यों परेशान होती हैं? आप लोगों को मेरा बोझ नहीं उठाना पडे़गा. जल्दी ही मैं कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगी. फिर तो आप निश्ंिचत रहेंगी न…’

‘पागल हो गई हो क्या? हम ने कब तुम्हें बोझ कहा, लेकिन हम कब तक रहेंगे? इस समाज में आज के दौर में एक अकेली औरत का जीना आसान नहीं है. उसे न जाने कितने कटाक्षों और दूषित निगाहों का सामना करना पड़ता है. कैसे जी पाओगी तुम? समझ क्यों नहीं रही हो तुम?’ मम्मी परेशान हो उठीं.

मगर मैं भी अपनी जिद पर अड़ी रही, ‘मैं कुछ समझना नहीं चाहती. मैं बस, इतना जानती हूं कि मैं सिर्फ समर से प्यार करती हूं.’

‘और समर का कुछ पता नहीं. वह जिंदा भी है या…कुछ पता नहीं,’ वीरां की धीमी आवाज सुन कर हम दोनों चौंक पड़ीं. वह न जाने कब से खड़ी हमारी बातें सुन रही थी, लेकिन हमें पता ही न चला था. मम्मी कुछ झेंप कर रह गईं लेकिन उस ने उन्हें ‘मैं बात करती हूं’ कह कर दिलासा दिया और वह हम दोनों को अकेला छोड़ कर वहां से चली गईं.

‘वीरां, तू कुछ तो सोचसमझ कर बोला कर. तू भूल रही है कि जिस के बारे में तू यह सब बातें कर रही है, वह तेरा ही भाई है.’

‘जानती हूं, लेकिन हकीकत से भी तो मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. हमारी जो जिम्मेदारियां हैं, उन्हें भी तो पूरा करना हमारा ही फर्ज है. तुम्हें शायद भाई के लौटने की आस है, लेकिन जब 1971 के युद्धबंदी अब तक नहीं लौटे, तो हम किस आधार पर उम्मीद लगाएं.’

‘लेकिन…’

‘लेकिन के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, सौम्या. तुम अपने मातापिता की इकलौती संतान हो. तुम चाहती हो कि वे जीवनभर तुम्हारे दुख में घुलते रहें? क्या तुम्हारा उन के प्रति कोई फर्ज नहीं है?’

‘लेकिन मेरा भी तो सोचो, समर के अलावा मैं किसी और से कैसे शादी कर सकती हूं?’

‘अपनी जिम्मेदारियों को सामने रखोगी तो फैसला लेना आसान हो जाएगा,’ उस दिन हम दोनों सहेलियां आपस में लिपट कर खूब रोईं.

फिर मैं अनिरुद्ध से विवाह कर के न्यू जर्सी आ गई, मगर मैं समर को एक दिन के लिए भी नहीं भूल पाई. हालांकि मैं ने अनिरुद्ध को कभी भी शिकायत का मौका नहीं दिया, अपने हर कर्तव्य का निर्वहन भली प्रकार से किया, पर मेरे मन में उस के लिए प्रेम पनप न सका. मेरे मनमंदिर में तो समर बसा था, अनिरुद्ध को कहां जगह देती.

यही बात मुश्किल भी खड़ी करती. मैं कभी मन से अनिरुद्ध की पत्नी न बन पाई. उस के सामने जब अपना तन समर्पित करती, तब मन समर की कल्पना करता. खुद पर ग्लानि होती मुझे. लगता अनिरुद्ध को धोखा दे रही हूं. आखिर उस की तो कोेई गलती नहीं थी. फिर क्यों उसे अपने हिस्से के प्यार से वंचित रहना पडे़़? अब वही तो मेरे जीवन का सच था. मगर खुद को लाख समझाने पर भी मैं समर को दिल से नहीं निकाल पाई. शायद एक औरत जब प्यार करती है तो बहुत शिद्दत से करती है.

अलार्म की आवाज ने विचारों की शृंखला को तोड़ दिया. सारी रात सोचतेसोचते ही बीत गई थी. एक ठंडी सांस ले कर मैं उठ खड़ी हुई.

फिर 1 साल बाद ही भारत आना हुआ. इस बीच वीरां का विवाह भी हो चुका था. जब इस बात का पता चला तो मन में एक टीस सी उठी थी.

‘‘तुम्हारी पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाया है, वहां तो क्या खाती होगी तुम यह सब,’’ मम्मी मेरे आने से बहुत उत्साहित थीं.

‘‘वीरां कैसी है, मम्मी? वह अपने ससुराल में ठीक तो है न?’’

‘‘हां, वह भी आई है अभी मायके.’’

‘‘अच्छा, तो मैं जाऊंगी उस से मिलने,’’ मैं ने खुश हो कर कहा.

इस पर मम्मी कुछ खामोश हो गईं. फिर धीरे से बोलीं, ‘‘हम ने तुम से एक बात छिपाई थी. वीरां की शादी के कुछ दिन पहले ही समर रिहा किया गया था. उस का एक पांव बेकार हो चुका है. बैसाखियों के सहारे ही चल पाता है. अभी महीना भर पहले ही उस का भी विवाह हुआ है. तुम वहां जाओगी तो जाहिर है, अत्यंत असहज महसूस करोगी. बेहतर होगा किसी दिन वीरां को यहीं बुला लेना.’’

हमसफर: भाग 3- प्रिया रविरंजन से दूर क्यों चली गई

मौसम में बदलाव आया. वसंत विदाई पर था. टेसू के फूलों से प्रकृति सिंदूरी हो गई थी. मैं जब भी रविरंजन को याद करती, दिल में अंगारे दहक जाते. रवि कह के गए थे कि जब भी मेरी जरूरत हो कहना, मैं चला आऊंगा पर आए नहीं थे. गरम हवा के थपेड़े

तन को   झुलसाने लगे थे. मैं ने लंबी छुट्टी पर जाने का मन बना लिया. फोन से मां को सूचित भी कर दिया.

बहुत दिनों बाद मां के पास पहुंची तो मु  झे लगा जैसे मेरा बचपन लौट आया है. अकसर मां की गोद में सिर रख कर लेटी रहती. मां भी दुलार से कहतीं कि बस, तेरी एक नहीं सुनूंगी. कई घरवर देख रखे हैं. अब भी चेत जा. अपना कहने वाला कोई तो होना चाहिए, मैं और कितने दिन की हूं.

उत्तर में मैं ने मां को साफसाफ कह दिया कि मां मेरी जिंदगी में दखल मत दो. मैं जैसी हूं वैसी ही रहूंगी. अभी वर्तमान में जी रही हूं. कल की कल देखी जाएगी. और हां मां, मेरी कुछ कुलीग मसूरी जा रही हैं छुट्टियां मनाने, उन के साथ मैं ने भी जाने का प्रोग्राम बना लिया है. बस 2 दिन बाद ही जाना है.

मसूरी में मैं ने एक कौटेज बुक करा लिया था. दरअसल, मैं अपना मन शांत करने के लिए एकांत में कुछ दिन बिताना चाहती थी. मां से मैं ने   झूठ ही कह दिया था कि मेरी फ्रैंड्स मेरे साथ जा रही हैं. सच तो यह था कि रवि द्वारा दी गई चोट ने मु  झे बड़ी पीड़ा पहुंचाई थी. एकांत शायद मु  झे राहत दे यह सोचा था मैं ने, इसीलिए अकेले मसूरी चली आई थी.

मसूरी में सैलानियों की टोलियां थीं और मैं बिलकुल अकेली अलगथलग घूमती. एक दिन अचानक एक 14-15 साल की किशोरी मेरे सामने आ खड़ी हुई. नमस्ते की और बोली, ‘‘आप शायद अकेली हैं. हमारी कंपनी लेना चाहेंगी? मैं और मेरे पापा हैं, हमें खुशी होगी आप के साथ. वे आ रहे हैं मेरे पापा.’’

फिर हमारा परिचय हुआ और लगभग रोज हमारे प्रोग्राम साथ बनने लगे.

हम अपनेअपने कौटेज से चल कर नियत समय पर, नियत स्थान पर पहुंच जाते. पर एक दिन मेरा मन निकलने को नहीं किया क्योंकि मेरा माथा तप रहा था. मैं अवचेतनावस्था में सोती रही.

शाम गहरा गई थी. ज्वर का जोर कम हुआ तब मैं ने आंखें खोलीं. देखा कि राजीव और उन की बेटी दोनों मेरे पास बैठे हैं. लड़की मेरे सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही थी.

‘‘यह अचानक आप को क्या हो गया मिस प्रिया? हम तो चिंतित हो उठे थे. अब आप

कैसी हैं? मेरे पास दवा थी मैं ले आया हूं,

नीलू बेटा चाय बनाओ और आंटी को दवा दो,’’ राजीव बोले.

मैं ने बच्ची की ओर देखा. मासूम सा चिंतित चेहरा. मेरे ज्वर ने दोनों को उदास कर दिया था. मैं द्रवित हो उठी.

मैं सोचने लगी कितना अंतर है रवि और राजीव में. एक बरसाती नदी सा चंचल, दूसरा सागर सा शांत. मैं ने सोच पर लगाम लगाई. मैं इस अकेलेपन से डरने क्यों लगी हूं? मैं सदा यही सोचा करती कि रवि के अलावा मेरे जीवन में अब किसी पुरुष की जगह नहीं. पर राजीव… जागजाग कर दवा देना, कभी दूध गरम करना कभी पानी उबालना. ये नहीं होते तो इस अनजान जगह में बीमारी के बीच कौन होता मेरे पास?

मैं बहला रही थी अपनेआप को, भाग रही थी खुद से दूर. शायद सोच में डूब गई थी कि राजीव ने टोका, ‘‘क्या सोच रही हैं प्रियाजी?’’

‘‘आप के विषय में, आप नहीं जानते आप ने मु  झे क्या दिया है. अकेलेपन और अंतर्द्वंद्व के भयावह दौर से गुजर रही हूं मैं.’’

‘‘देखिए प्रियाजी, आप बिलकुल फिक्र न करें. आप के ठीक हो जाने के बाद ही हम यहां से जाएंगे. मेरी बच्ची नीलू को आप ने ममता भरा जो प्यार दिया है, वह उसे इस से पहले नहीं मिला. वह चाह रही है कि आप सदा उस के साथ रहें. जब उस ने अपनी मां को खोया, तब बच्ची थी मात्र 2 साल की. बाकी मेरे विषय में आप जान चुकी हैं और मैं आप के. आप सम  झ रही होंगी, मैं क्या कहना चाह रहा हूं?’’

‘‘मैं सम  झ रही हूं, राजीवजी पर अभी कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूं. इत्तफाक से हम दोनों का कार्यस्थल दिल्ली है. मैं बाद में आप से बात करती हूं.’’

छुट्टियां पूरी होने पर मैं मां के पास न लौट कर सीधे दिल्ली पहुंची.

घर इतने दिनों से बंद था. खोला तो लगा कि एक अनजानी रिक्तता हर तरफ पसरी थी. औफिस पहुंची तो वहां सन्नाटे भरी गहमागहमी थी. ज्ञात हुआ कि मिस सुजान की तबीयत अचानक खराब हो गई. उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया. सुजान मेरे ही साथ काम करती थी. मैं स्वयं अपनेआप से उबर नहीं पा रही थी फिर भी सुजान को देखने अस्पताल पहुंची.

उस के आसपास अपना कहने वाला कोई नहीं था. मांबाप की मौत के बाद वह बिलकुल अकेली थी. उस की मानसिकता मेरे जैसी ही थी. अपने अहं, अपनी स्वतंत्रता की चाह में उस ने विवाह नहीं किया था. दिल की बातों को वह किसी से शेयर नहीं कर पाती थी और आज उस का परिणाम उस के सामने था. लोग कह रहे थे कि इसी कारण वह डिप्रैशन और मानसिक बीमारी की शिकार हो गई.

शायद मेरी मां इसी कारण मेरी चिंता करती रहती हैं, यह सोच कर मैं ऐसी दुखद और त्रासद स्थिति के लिए भयभीत हो उठी.

आगे का पूरा सप्ताह मैं ने ऊहापोह की स्थिति में गुजारा. मैं दोराहे पर खड़ी थी. कोई फैसला लेना कठिन हो रहा था. जीवन की

नौका अथाह जल में घूमती अपनी दिशा खो बैठी थी. किनारा उस की पहुंच से दूर होता जा रहा था. कभीकभी लगता कि मां का कहना मान लूं. पर क्या मां राजीव जैसे व्यक्ति से शादी करने की आज्ञा देंगी, जिस की एक बेटी है और जो विधुर है?

काफी सोचविचार के उपरांत मैं ने राजीव को फोन लगाया क्योंकि उन का और उन की बेटी का प्रस्ताव ही मु  झे उचित लगा. मैं ने फोन पर बस इतना ही कहा, ‘‘इस अकेलेपन में मु  झे आप की जरूरत है.’’

शाम   झुक आई थी. मैं ने कमरे की खिड़की खोली तो ठंडी हवा के   झोंके के साथ देखा कि राजीव की कार मेरे घर के नीचे आ लगी थी और वे अपनी बेटी के साथ मुख्य द्वार से प्रवेश कर रहे थे. मैं खुशी से झूम उठी. मु  झे लगा कि यही सच है, यही सृष्टि का नियम है. मां को बताना ही होगा, उन्हें मानना ही होगा.

फिर वही शून्य- भाग 1 : क्या शादी के बाद पहले प्यार को भुला पाई सौम्या

सुनहरी सीपियों वाली लाल साड़ी पहन कर जब मैं कमरे से बाहर निकली तो मुझे देख कर अनिरुद्ध की आंखें चमक उठीं. आगे बढ़ कर मुझे अपने आगोश में ले कर वह बोले, ‘‘छोड़ो, सौम्या, क्या करना है शादीवादी में जा कर? तुम आज इतनी प्यारी लग रही हो कि बस, तुम्हें बांहों में ले कर प्यार करने का जी चाह रहा है.’’

‘‘क्या आप भी?’’ मैं ने स्वयं को धीरे से छुड़ाते हुए कहा, ‘‘विशाल आप का सब से करीबी दोस्त है. उस की शादी में नहीं जाएंगे तो वह बुरा मान जाएगा. वैसे भी इस परदेस में आप के मित्र ही तो हमारा परिवार हैं. चलिए, अब देर मत कीजिए.’’

‘‘अच्छा, लेकिन पहले कहो कि तुम मुझे प्यार करती हो.’’

‘‘हां बाबा, मैं आप से प्यार करती हूं,’’ मेरा लहजा एकदम सपाट था.

अनिरुद्ध कुछ देर गौर से मेरी आंखों में झांकते रहे, फिर बोले, ‘‘तुम सचमुच बहुत अच्छी हो, तुम्हारे आने से मेरी जिंदगी संवर गई है. अपने आप को बहुत खुशनसीब समझने लगा हूं मैं. फिर भी न जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे तुम दिल से मेरे साथ नहीं हो, कि जैसे कोई समझौता कर रही हो. सौम्या, सच बताओ, तुम मेरे साथ खुश तो हो न?’’

मैं सिहर उठी. क्या अनिरुद्ध ने मेरे मन में झांक कर सब देख लिया था? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. खुद को संयत कर मैं ने इतना ही कहा, ‘‘आप भी कैसी बातें करते हैं? मेरे खुश न होने का क्या कारण हो सकता है? इस वक्त मुझे बस, समय से पहुंचने की चिंता है और कोई बात नहीं है.’’

शादी से वापस आतेआते काफी देर हो गई थी. अनिरुद्ध तो बिस्तर पर लेटते ही सो गए, लेकिन मेरे मन में उथलपुथल मची हुई थी. पुरानी यादें दस्तक दे कर मुझे बेचैन कर रही थीं, ऐसे में नींद कहां से आती?

कितने खुशनुमा दिन थे वे…स्कूल के बाद कालिज में प्रवेश. बेफिक्र यौवन, आंखों में सपने और उमंगों के उस दौर में वीरांगना का साथ.

वीरांगना राणा…प्यार से सब उसे वीरां बुलाते थे. दूध में घुले केसर सी उजली रंगत, लंबीघनी केशराशि, उज्ज्वल दंतपंक्ति…अत्यंत मासूम लावण्य था उस का. जीवन को भरपूर जीने की चाह, समस्याओं का साहस से सामना करने का माद्दा, हर परिस्थिति में हंसते रहने की अद्भुत क्षमता…मैं उस की जीवंतता से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. हम दोनों कब एकदूसरे के निकट आ गईं, खुद हमें भी न पता चला.

फिर तो कभी वह मेरे घर, कभी मैं उस के घर में होती. साथ नोट्स बनाते और खूब गप लड़ाते. मां मजाक में कहतीं, ‘जिस की शादी पहले होगी वह दूसरी को दहेज में ले जाएगी,’ और हम खिलखिला कर हंस पड़ते.

एक दिन वीरां ने मुझ से कहा, ‘आज भाई घर आने वाला है, इसलिए मैं कालिज नहीं चलूंगी. तू शाम को आना, तब मिलवाऊंगी अपने भाई से.’

वीरां का बड़ा भाई फौज में कैप्टन था और छुट्टी ले कर काफी दिन के बाद घर आ रहा था. इसी वजह से वह बहुत उत्साहित थी.

शाम को वीरां के घर पहुंच कर मैं ने डोरबेल बजाई और दरवाजे से थोड़ा टिक कर खड़ी हो गई, लेकिन अपनी बेखयाली में मैं ने देखा ही नहीं कि दरवाजा सिर्फ भिड़ा हुआ था, अंदर से बंद नहीं था. मेरा वजन पड़ने से वह एक झटके से खुल गया, मगर इस से पहले कि मैं गिरती, 2 हाथों ने मुझे मजबूती से थाम लिया.

मैं ने जब सिर उठा कर देखा तो देखती ही रह गई. वीरां जैसा ही उजला रंग, चौड़ा सीना, ऊंचा कद…तो यह था कैप्टन समर राणा. उस की नजरें भी मुझ पर टिकी हुई थीं जिन की तपिश से मेरा चेहरा सुर्ख हो गया और मेरी पलकें स्वत: ही झुक गईं.

‘लो, तुम तो मेरे मिलवाने से पहले ही भाई से मिल लीं. तो कैसा लगा मेरा भाई?’ वीरां की खनकती आवाज से मेरा ध्यान बंटा. उस के बाद मैं ज्यादा देर वहां न रह पाई, जल्दी ही बहाना बना कर घर लौट आई.

उस पूरी रात जागती रही मैं. उन बलिष्ठ बांहों का घेरा रहरह कर मुझे बेचैन करता रहा. एक पुरुष के प्रति ऐसी अनुभूति मुझे पहले कभी नहीं हुई थी. सारी रात अपनी भावनाओं का विश्लेषण करते ही बीती.

समर से अकसर ही सामना हो जाता. वह बहन को रोज घुमाता और वीरां मुझे भी साथ पकड़ कर ले जाती. दोनों भाईबहन एक से थे, ऊपर से सताने के लिए मैं थी ही. रास्ते भर मुझे ले कर हंसीठिठोली करते रहते, मुझे चिढ़ाने का एक भी मौका न छोड़ते. मगर मेरा उन की बातों में ध्यान कहां होता?

मैं तो समर की मौजूदगी से ही रोमांचित हो जाती, दिल जोरों से धड़कने लगता. उस का मुझे कनखियों से देखना, मुझे छेड़ना, मेरे शर्माने पर धीरे से हंस देना, यह सब मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था. कभीकभी डर भी लगता कि कहीं यह खुशी छिन न जाए. मन में यह सवाल भी उठता कि मेरा प्यार एकतरफा तो नहीं? आखिर समर ने तो मुझे कोई उम्मीद नहीं दी थी, वह तो मेरी ही कल्पनाएं उड़ान भरने लगी थीं.

अपने प्रश्न का मुझे जल्दी ही उत्तर मिल गया था. एक शाम मैं, समर और वीरां उन के घर के बरामदे में कुरसी डाले बैठे थे तभी आंटी पोहे बना कर ले आईं, ‘मैं सोच रही हूं कि इस राजपूत के लिए कोई राजपूतनी ले आऊं,’ आंटी ने समर को छेड़ने के लहजे में कहा.

‘मम्मा, भाई को राजपूतनी नहीं, गुजरातिन चाहिए,’ वीरां मेरी ओर देख कर बडे़ अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराई.

आंटी मेरी और समर की ओर हैरानी से देखने लगीं, पर समर खीज उठा, ‘क्या वीरां, तुम भी? हर बात की जल्दी होती है तुम्हें…मुझे तो कह लेने देतीं पहले…’

समर ने आगे क्या कहा, यह सुनने के लिए मैं वहां नहीं रुकी. थोड़ी देर बाद ही मेरे मोबाइल पर उस का फोन आया. अपनी शैली के विपरीत आज उस का स्वर गंभीर था, ‘सारी सौम्या, मैं खुद तुम से बात करना चाहता था, लेकिन वीरां ने मुझे मौका ही नहीं दिया. खैर, मेरे दिल में क्या है, यह तो सामने आ चुका है. अब अगर तुम्हारी इजाजत हो तो मैं मम्मीपापा से बात करूं. वैसे एक फौजी की जिंदगी तमाम खतरों से भरी होती है. अपने प्यार के अलावा तुम्हें और कुछ नहीं दे सकता. अच्छी तरह से सोच कर मुझे अपना जवाब देना…’

‘सोचना क्या है? मैं मन से तुम्हारी हो चुकी हूं. अब जैसा भी है, मेरा नसीब तुम्हारे साथ है.’

हमसफर: भाग 2- प्रिया रविरंजन से दूर क्यों चली गई

दूसरे दिन शाम को जब रवि आए तो मैं ने उन से पड़ोसियों के व्यंग्य और आक्षेपों की बात कही. रवि बोले, ‘‘तुम क्यों दूसरों की बातों में अपना दिमाग खराब करती हो? तुम शहर से बाहर घूमने भी तो नहीं जातीं. अच्छा हो कि

तुम कुछ दिनों की छुट्टी ले कर मां के पास चली जाओ या उन्हें यहां बुला लो. तुम्हें अच्छा लगेगा. क्यों अपनेआप को सब से काटती जा रही हो?’’

‘‘रवि, मैं तुम्हारे बिना कहीं जाने की कल्पना भी नहीं कर सकती. 2 दिन का विछोह भी मेरे लिए कठिन है. और मां को कैसे बुला लूं? मां इस बात को कभी नहीं स्वीकार करेंगी कि उन की बेटी एक…’’

‘‘फिर तुम बताओ प्रिया, मैं अपना घरबार, बीवीबच्चे छोड़ कर तो तुम्हारे पास रह नहीं सकता, यह सब तुम्हें पहले सोचना था.’’

रवि के कथन और इस प्रकार की प्रतिक्रिया से मैं अवाक रह गई. मेरे विश्वास को ठेस लगी.

‘‘खैर छोड़ो, चलो कहीं लौंग ड्राइव पर चलते हैं,’’ रवि बोले.

मैं आहत सी बोली, ‘‘नहीं रवि, आज मन नहीं है.’’

थोड़ी देर में रवि चले गए तो मैं सोचने लगी कि यह क्या कर डाला मैं ने? रवि ठीक ही तो कहते हैं. वे मेरे लिए अपना घरबार तो नहीं छोड़ सकते. दोष मेरा है. यह जानने के बाद कि रवि शादीशुदा हैं मु  झे पीछे हट जाना चाहिए था. पर मैं दिल के हाथों मजबूर हो गई. रवि की चाहत में बुराभला सब कुछ भूल गई.

मेरा औफिस से लौटने के बाद पहला काम होता था लेटर बौक्स खोल कर उस दिन की डाक देखना. एक दिन देखा तो एक निमंत्रणपत्र था विवाह का, वह भी रवि के घर से. रवि के बेटे के विवाह का. मु  झे आश्चर्य हुआ. रवि ने पहले तो नहीं बताया.

रवि आए तो मैं ने कहा, ‘‘तुम ने पहले नहीं बताया कि तुम्हारा विवाह योग्य बेटा है.’’

‘‘इस में बतलाने को क्या था?’’

‘‘अच्छा छोड़ो इस बात को, मु  झे सिर्फ इतना बताओ कि क्या सचमुच अपने घर शादी में शामिल होने के लिए बुलाया है मु  झे? तुम रोज आते हो, निमंत्रण खुद भी तो दे सकते थे. मैं शादी में आऊं तो क्या कह कर मेरा परिचय कराओगे अपने परिवार से?’’

‘‘तुम मेरी मित्र हो क्या इतना काफी नहीं?’’

‘‘केवल मित्र?’’

‘‘अब चलता हूं, बहुत से काम हैं. एक

ही बेटा है, बहुत जश्न से उस की शादी करना चाहता हूं.’’

विवाह समारोह में सम्मिलित होने के लिए मैं दिन भर ऊहापोह में रही. अंतत: निर्णय ले ही लिया कि मैं वरवधू के स्वागत समारोह में अवश्य जाऊंगी. उपहार दफ्तर से लौटते वक्त ही लेती आई थी.

नियत समय पर मैं रवि के घर पहुंच गई. वाकई विवाह स्थल की सजावट काबिलेतारीफ थी. काफी गहमागहमी थी. मैं तो वहां किसी को भी नहीं जानती थी. आंखें रवि को खोज रही थीं. रवि पुरुषों की भीड़ में नजर आए. उन्होंने भी मुझे देख लिया था पर लगा जैसे मु  झ से बचना चाहते हैं. तभी मेरे करीब आई एक आवाज ने मु  झे चौंका दिया, ‘‘तो आखिर आप आ ही गईं.’’

यह वही व्यंग्य भरी आवाज थी जिस ने मु  झे बहुत आहत किया था. अपने करीब खड़ी एक महिला को संबोधित करते हुए वे बोलीं, ‘‘दीदी, ये वही हैं जिन का जिक्र मैं ने किया था.’’

उन महिला ने आग्नेय और हिकारत भरी दृष्टि मेरी तरफ डाली और बोलीं, ‘‘आप जैसी महिलाएं, जो दूसरों की हरीभरी गृहस्थी में आग लगाती हैं, समाज के लिए कलंक हैं. अपना कैरियर बनाने के गरूर में आप जैसी औरतें समय रहते विवाह तो करतीं नहीं पर शरीर की भूख मिटाने के लिए जूठी पत्तल चाटने से नहीं चूकतीं.’’

इस से आगे मैं नहीं सुन सकी. वहां खड़े रहना मुश्किल हो गया. किसी तरह तेजतेज कदमों से चल कर गाड़ी तक आई और डोर खोल कर धम से बैठ गई. वरवधू के लिए लाए गिफ्ट को सीट पर फेंक दिया और गाड़ी स्टार्ट कर दी. घर पहुंचने पर थकीथकी चाल से चलते हुए दरवाजा खोला और ढह गई पलंग पर. इतना अपमान, इतने अपशब्द जीवन में पहली बार   झेले थे.

उस के बाद मैं रोज रवि के आने का इंतजार करती और सोचती रहती कि क्यों नहीं आए रवि? बेटे के विवाह को तो कई दिन बीत गए. कहां जाऊं मैं? जब से रवि जीवन में आए सब कुछ तो छोड़ दिया. न क्लब जाती न पार्टियों में. यहां तक कि आर्ट गैलरी में भी जाना छोड़ दिया, जिस का बड़ा चाव था.

लंबी प्रतीक्षा के बाद एक दिन रवि आए तो मैं भरभरा कर उन पर ढह गई, ‘‘कहां थे इतने दिन?’’

‘‘शांत हो प्रिया और सुनो. मेरा यहां आना अब नहीं हो सकेगा. पत्नी को सब कुछ पता चल गया. उसी ने रोक लगाई है. फिर घर में बहू आ गई है. क्या यह सब मु  झे शोभा देगा?’’

आहत होती हुई मैं बोली, ‘‘यह सब तुम क्या कह रहे हो रवि, क्या भूल गए अपने उस वादे को जो तुम ने मु  झ से किया था?’’

‘‘तुम्हें सब कुछ पहले सोचना था. कौन पत्नी सह सकती है दूसरी औरत?’’

‘‘पहले तो मेरे लिए पूरी दुनिया से लोहा लेने के लिए तैयार थे.’’

‘‘प्रिया सम  झा करो, अब बात कुछ और है.’’

‘‘मैं सम  झ गई थी उसी समय जब तुम ने बताया था कि तुम शादीशुदा हो. मु  झे तभी तुम से नाता तोड़ लेना था, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर थी. यह क्यों नहीं कहते रवि कि तुम मु  झ से कटना चाहते हो. तुम्हारा जी भर गया मु  झ से. मैं तो केवल अपने प्यार का वास्ता दे कर ही तुम्हें रोक सकती हूं. बाकी तो मेरा कोई अधिकार नहीं. अधिकार मिलता है रिश्ते से और हमारा कोई रिश्ता ही नहीं. मु  झे क्या मिला रवि? केवल तुम्हारा इंतजार. हफ्तों न भी आओ तो मैं शिकायत नहीं कर सकती. सब कुछ जानते हुए भी तुम्हारे प्यार के जाल में उल  झती चली गई.’’

‘‘प्रिया, वर्तमान में, सचाई में जीना सीखो. भावुकता इंसान को कमजोर बनाती है. मैं तुम से दूर नहीं, अलग नहीं. जब भी तुम्हें जरूरत होगी, आता रहूंगा.’’

‘‘बस रवि, बस,’’ कह कर मैं ने रवि को चुप करा दिया. थोड़ी देर में वे मेरे घर से चले गए.

हमसफर: भाग 1- प्रिया रविरंजन से दूर क्यों चली गई

भूली तो कुछ भी नहीं, सब याद है. वह दिन, वह घटना, वह समय जब रविरंजन से पहली मुलाकात हुई थी. चित्र प्रदर्शनियां मु  झे सदा आकर्षित करती रहीं. मैं घंटों आर्ट गैलरी में घूमा करती. कलाकार की मूक तूलिका से उकेरे चित्र बोलते से जीवंत नजर आते. उन चित्रों में जिंदगी के सत्य को खोजती, तलाशती मैं उन्हें निहारती रह जाती. ऐसी ही एक आर्ट गैलरी में एक ऐसे व्यक्ति से मुलाकात हुई कि मेरी जीवनधारा ही बदल गई. वे थे रविरंजन.

राष्ट्रीय कला दीर्घा में नएपुराने नामी चित्रकारों की प्रदर्शनी लगी थी. बिक्री के लिए भी नयनाभिराम चित्र थे. मैं ने एक चित्र पसंद किया, पर कीमत अधिक होने के कारण मु  झे छोड़ना पड़ा. वहीं रविरंजन भी कुछ चित्र खरीद रहे थे. मेरी पसंद का चित्र भी उन्होंने खरीद लिया. फिर पैक करवा कर बोले, ‘‘मैडम, यह मेरी ओर से,’’ तो मैं एकदम अचकचा गई, ‘‘नहींनहीं, हम एकदूसरे को जानतेपहचानते नहीं, फिर यह

किस लिए?’’ और तत्काल पार्क की हुई अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गई. वे भी मेरे पीछेपीछे निकले. मेरे विरोध को नजरअंदाज करते हुए उन्होंने वह चित्र अपने ड्राइवर से मेरी गाड़ी में रखवा दिया. साथ में उन का कार्ड भी था. उस रात मैं सो न सकी. रहरह कर रविरंजन का प्रभावशाली और सुंदर व्यक्तित्व आंखों के सामने तैर जाता.

दूसरे दिन औफिस में भी मन विचलित सा रहा तो रविरंजन के कार्ड से उन के औफिस नंबर पर ही उन्हें फोन लगाया. सोचा पता नहीं कौन फोन उठाएगा पर फोन उठाया रविरंजन ने ही. मैं ने उन्हें कल वाले चित्र के लिए शुक्रिया कहा तो वे बोले, ‘‘फोन पर शुक्रिया नहीं प्रियाजी. न मैं आप का घर जानता हूं न आप मेरा. देखिए, हम आज शाम पार्क ऐवेन्यू में मिलते हैं,’’ और इस के साथ ही फोन कट गया.

शाम 5 बजे हम कौफी हाउस में मिले. पहली ही मुलाकात में रविरंजन इतने अनौपचारिक हो बैठेंगे, ये मैं ने सोचा ही नहीं था. इस के बाद हमारी मुलाकातें बारबार होने लगीं, बल्कि एक तरह से हम दोनों हर रोज मिलने लगे.

मेरे शांत जीवन में न जाने कैसी हलचल शुरू हो गई. मैं ने अपनेआप को बहुत संभाला,  पर रविरंजन में ऐसा आकर्षण था कि मैं उन की ओर खिंचती चली गई. सारी बंदिशें तोड़ने को दिल मचलने लगा, पर अंकुश था उम्र का. ऐसी चंचलता ऐसी भावुकता शोभा नहीं देगी. फिर ऊंचे पद पर एक जिम्मेदार औफिसर हूं मैं. मेरे लिए जरूरी था संयम और अपनी चाहतों पर काबू रखना.

यह वय:संधि होती बड़ी अजीब है. फिर चाहे किशोरावस्था और युवावस्था के बीच की हो अथवा जवानी और प्रौढावस्था के बीच की. मैं तो सोच रही थी कि उम्र के उफान का समय बीत चुका है. मन ही मन यह तय कर चुकी थी कि अब कोई और राह चुनूंगी पर अब हो तो रहा कुछ और था.

मैं शुरू से ही स्वतंत्र स्वभाव की थी. उम्र होने पर जब मां ने विवाह पर जोर दिया कि पढ़ाई पूरी हुई विवाह कर घर बसा, तो इतनी ही बात पर मैं मां की विरोधी हो गई. सीधे पिता से कहा कि मैं विवाह नहीं करना चाहती, नौकरी करना चाहती हूं. आम औरतों जैसी जिंदगी मैं नहीं जीना चाहती.

पिता ने साथ दिया. वे सम  झ गए कि बेटी इतनी सम  झदार हो चुकी है कि अपना निर्णय वह खुद ले सकती है. उन्होंने सहमति दे दी. तब से मैं दिल्ली में नौकरी कर रही हूं. पर इसे एक संयोग ही कहेंगे कि अपनी विचारधारा के एकदम विपरीत मैं रवि के प्रेमपाश में ऐसी बंधी कि उस से निकलना मेरे लिए मुश्किल हो गया.

‘‘रवि, हम एकदूसरे के बारे में तो कुछ जानते ही नहीं,’’ एक दिन मैं ने कहा.

वे बोले, ‘‘क्या इतना काफी नहीं कि मैं तुम से प्यार करता हूं और तुम मु  झ से?’’

‘‘फिर भी मैं बता देना चाहती हूं कि मेरी मां और मेरे भाई को मेरा नौकरी करना तक पसंद नहीं. मेरा यहां अकेले रहना भी पसंद नहीं और अब बिना विवाह के तुम्हारे साथ ऐसे संबंधों को तो वे कतई पसंद नहीं करेंगे. पिता की सहमति न होती, उन्होंने मेरा साथ न दिया होता तो आज जहां मैं हूं, नहीं होती. पर अब पिता नहीं रहे तो मां और भाई का प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है. वे अब भी विवाह करने पर जोर देते रहते हैं. इसलिए आज मैं सोच रही हूं कि मेरे सपनों का पुरुष मिल गया है. रवि, तुम मिले तो लगा कि स्त्रीपुरुष के संबंधों का यह रिश्ता कितना गरिमामय होता है. मैं तो स्वतंत्र जीवन को बड़ी नियामत सम  झती थी पर लगता है कि जीवन में बंधन भी कम आकर्षक नहीं होते.’’

‘‘प्रिया, मैं बता दूं तुम्हें कि मैं विवाहित हूं. मेरी पत्नी है, बेटा है. फिर भी मेरा अंतर खाली ही रहा. तुम मिलीं तो तुम ने भरा उसे. मैं तुम से दूर नहीं रह पाऊंगा,’’ कहते हुए रवि ने मु  झे अपनी बांहों में समेट लिया. मैं ने तनिक भी विरोध नहीं किया, यह जान कर भी कि वे शादीशुदा हैं. फिर बहुत से पल हम ने एकदूसरे के बाहुपाश में बंधेबंधे गुजार दिए.

फिर होश में आए तो रवि ने गहरी नजरों से मु  झे देखा और बोले, ‘‘अच्छा, अब

चलता हूं मैं,’’

उन्होंने अपना सारा सामान, लाइटर, सिगरेट केस, चश्मा आदि समेटा और ब्रीफकेस में डालते हुए बोले, ‘‘आज बहुत देर हो गई.’’

मैं गाड़ी तक उन्हें छोड़ने आई तो बोली, ‘‘दफ्तर से ही आ रहे थे क्या? क्या घर पहुंचने पर मौका निकालना मुश्किल हो जाता है? तुम्हारी पत्नी तो जानती है कि तुम्हारी शामें कहां गुजरती हैं? तुम्हीं ने तो बताया था कि औफिस के बाद अकसर तुम क्लब चले जाते हो.’’

‘‘हां, लेकिन न जाने कैसे वह हम पर शक करने लगी है. अच्छा है, कभी न कभी तो उसे जानना ही है. कभी तनाव का मौका आया तो मैं उसे सब कुछ बता दूंगा,’’ कह कर रवि ने मेरी ओर देखा और गाड़ी स्टार्ट कर दी.

मैं ने कलाई घड़ी पर नजर डाली और सोचा थोड़ा बाहर चहलकदमी कर आऊं. खुली हवा में माइंड फ्रैश हो जाएगा. बाहर निकली तो देखा पड़ोस के गेट पर 3 महिलाएं खड़ी बतिया रही थीं. अपनी ओर मेरा ध्यान खींच उन में से एक बोली, ‘‘घूमने जा रही हैं बहनजी? आप तो दिखती ही नहीं. आप क्या यहां अकेली रहती हैं?’’

‘‘जी हां कहिए…’’

‘‘आज आप के वो कुछ जल्दी चले गए. हम उन्हें अकसर आप के घर आतेजाते देखती हैं. आप उन से शादी क्यों नहीं कर लेतीं, ये रोज का आनाजाना तो छूट जाता?’’

मेरा चेहरा राख हो गया. कोई जवाब देते नहीं बना. बिना कुछ बोले मैं घर लौट आई. मैं महसूस कर रही थी कि उन महिलाओं की व्यंग्य और परिहास भरी दृष्टि मेरी पीठ पर चिपकी होगी. मैं उन को करारा जवाब भी दे सकती थी, जैसे आप को दूसरों की पर्सनल लाइफ से क्या लेनादेना, पर नहीं दे सकी. मु  झे तो ऐसा लगा जैसे किसी ने चोरी करते हुए पकड़ लिया हो.

उस के बाद से जब भी मैं घर से निकलती आसपास की व्यंग्य भरी नजरें मु  झे घूरने लगतीं. इसलिए औफिस जातेआते वक्त मैं गाड़ी गैराज से निकालने के पहले उस के शीशे चढ़ा देती. पड़ोसियों को पूछताछ के अवसर ही नहीं देती.

रवि के दिल में मेरे लिए क्या स्थान है? क्या वे मु  झे भी वही मर्यादा देंगे, जो अपनी पत्नी को देते हैं? मैं अकसर सोचती. रवि ने मु  झ से एक बार कहा था कि संबंध केवल साथ रहने से ही नहीं बनता. सच्चा साथ तो मन का होता है. अधिकतर लोग जीवन भर साथ रहते हैं मगर सभी एकदूसरे के नहीं हो पाते. मेरा दांपत्य जीवन वर्षों से इतना कोल्ड है कि पूछो मत. पत्नी को भी इस का एहसास है. पर और दंपतियों की तरह शारीरिक संबंध हमारे बीच है, चाहे मन मिले

चाहे न मिले. प्रिया, अगर तुम मु  झे पहले मिली होतीं तो…’’

‘‘क्यों, क्या मैं अभी तुम्हारी और तुम मेरे नहीं हो?’’

‘‘नहीं, अगर नियति ने तुम्हें ही मेरे लिए बनाया होता तो हमारा इस तरह घड़ी दो घड़ी

का साथ न हो कर जीवन भर का साथ होता.

मुझे मन मार कर तुम से अलग हो जाने की जरूरत न पड़ती.’’

सच कह रहे थे रवि. न चाहते हुए भी रवि को जाने देना, क्या दूसरी औरत की

भूमिका नहीं निभा रही मैं? कभीकभी अपनेआप से बड़ी कोफ्त होती. किस मायाजाल में फंस गई मैं? इतना भी नहीं सोचा कि विवाहित पुरुष पूरा मेरा नहीं होगा. प्यार एक छलावा मात्र बन जाएगा मेरे लिए.

प्रेम की उदास गाथा

चपरासी एक स्लिप दे गया था. जब उस की निगाहें उस पर पड़ीं तो वह चौंक गया, ‘क्या वे ही होंगे जिन के बारे में वह सोच रहा है.’ उसे कुछ असमंजस सा हुआ. उस ने खिड़की से झांक कर देखने का प्रयास किया पर वहां से उसे कुछ नजर नहीं आया. वह अपनी सीट से उठा. उसे यों इस तरह उठता देख औफिस के कर्मचारी भी अपनीअपनी सीट से उठ खड़े हुए. वह तेजी से दरवाजे की ओर लपका. सामने रखी एक बैंच पर एक बुजुर्ग बैठे थे और शायद उस के बुलाने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

हालांकि वह उन्हें पहचान नहीं पा रहा था पर उसे जाने क्यों भरोसा सा हो गया था कि यह रामलाल काका ही होंगे. वह सालों से उन से मिला नहीं था. जब वह बहुत छोटा था तब पिताजी ने परिचय कराया था…

‘अक्षत, ये रामलालजी हैं. कहानियां और कविताएं वगैरह लिखते हैं और एक प्राइवेट स्कूल में गणित पढ़ाते हैं.’

मुझे आश्चर्य हुआ था कि भला गणित के शिक्षक कहानियां और कविताएं कैसे लिख सकते हैं. मैं ने उन्हें देखा. गोरा, गोल चेहरा, लंबा और बलिष्ठ शरीर, चेहरे पर तेज.

‘तुम इन से गणित पढ़ सकते हो,’ कहते हुए पिताजी ने काका की ओर देखा था जैसे स्वीकृति लेना चाह रहे हों. उन्होंने सहमति में केवल अपना सिर हिला दिया था. मेरे पिताजी मनसुख और रामलाल काका बचपन के मित्र थे. दोनों ने साथसाथ कालेज तक की पढ़ाई की थी. पढ़ाई के बाद मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में आ गए पर रामलाल काका प्रतिभाशाली होने के बाद भी नौकरी नहीं पा सके थे.

उन्हें एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापन का कार्य कर अपनी रोजीरोटी चलानी पड़ रही थी. वे गणित के बहुत अच्छे शिक्षक थे. उन के द्वारा पढ़ाया गया कोई भी छात्र गणित में कभी फेल नहीं होता था, यह बात मु?ो बाद में पता चली.

मैं इंजीनियर बनना चाहता था. इस कारण पिताजी के मना करने के बाद भी मैं ने गणित विषय ले लिया था पर कक्षाएं प्रारंभ होते ही मुझे लगने लगा था कि यह चुनाव मेरा गलत था. मुझे गणित समझ में आ ही नहीं रहा था. इस के लिए मैं क्लास के शिक्षक को दोषी मान सकता था. वे जो समझते मेरे ऊपर से निकल जाता.

तीसरी सैमेस्टर परीक्षा में जब मुझे गणित में बहुत कम अंक मिले तो मैं उदास हो गया. मुझे यों उदास देख कर एक दिन पिताजी ने प्यार से मुझे से पूछ ही लिया, वैसे तो मैं उन्हें कुछ भी बताना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उन्होंने तो मुझे मना किया था पर उन के प्यार से पूछने से मैं अपनी पीड़ा व्यक्त करने से नहीं रह सका.

पिताजी ने धैर्य के साथ सारी बात समझे और मुसकराते हुए रामलाल काका से गणित पढ़ने की सलाह दे दी. पिताजी मुझे खुद ले कर काका के पास आए थे. रामलाल काका ट्यूशन कभी नहीं पढ़ाते थे, इस कारण ही तो मुझे उन के पास जाने में हिचक हो रही थी पर वे पिताजी के बचपन के मित्र थे, यह जान कर मुझे भरोसा था कि वे मुझे मना नहीं करेंगे. हुआ भी ऐसा ही. मैं रोज उन के घर पढ़ने जाने लगा.

मेरे जीवन में चमत्कारी परिवर्तन दूसरे तो महसूस कर ही रहे थे, मैं स्वयं भी महसूस करने लगा था. मेरा बहुत सारा समय अब काका के घर में ही गुजरने लगा था. मैं उन के परिवार का एक हिस्सा बन गया था. उन्होंने शादी नहीं की थी, इस कारण वे अकेले ही रहते थे. स्वयं खाना बनाते और घर के सारे काम करते. काका से मैं गणित की बारीकियां तो सीख ही रहा था, साथ ही, जीवन की बारीकियों को भी सीखने का अवसर मुझे मिल रहा था.

काका बहुत ही सुलझे हुए इंसान थे. ‘न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर’ की कहावत का जीवंत प्रमाण थे वे. शायद इसी कारण समाज में उन की बहुत इज्जत भी थी. लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे और सम्मान भी देते थे. उन की दिनचर्या बहुत सीमित थी. वे स्कूल के अलावा घर से केवल शाम को ही निकलते थे, सब्जी वगैरह लेने. इस के अलावा वे पूरे समय घर पर ही रहते थे. वे अकसर कहानियां या कविता लिखते नजर आते.

‘काका इन कहानियों के लिखने से समाज नहीं बदलता. आप कुछ और लिखा करिए,’ एक दिन मैं बोल पड़ा.

‘मैं समाज को बदलने के लिए और उन्हें सिखाने के लिए कहानियां नहीं लिखता हूं. मैं अपने सुख के लिए कहानियां लिखता हूं. किसी को पसंद आए या न आए.’

मैं चुप हो जाता. पहले मैं सोचता था कि यह मेरा विषय नहीं है, इसलिए न तो मैं उन की लिखी कहानी पढ़ता और न ही उन में रुचि लेता पर कहते हैं न कि संगत का असर आखिर पड़ ही जाता है, इसलिए मुझे भी पड़ गया. एक दिन जब काका सब्जी लेने बाजार गए थे, मैं बोर हो रहा था. मैं ने यों ही उन की अधूरी कहानी उठा ली और पढ़ता चला गया था.

कहानी मुझे कुछकुछ उन के जीवन परिचय का बोध कराती सी महसूस हुई थी. वह एक प्रणय गाथा थी. किन्ही कारणों से नायिका की शादी कहीं और हो जाती है. नायक शादी नहीं करता. चूंकि कहानी अधूरी थी, इसलिए आगे का विवरण जानने के लिए मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी.

मैं ने यह जाहिर नहीं होने दिया था कि मैं ने कहानी को पढ़ा है. काकाजी की यह कहानी 2-3 दिनों में पूरी हो गई थी. अवसर निकाल कर मैं ने शेष भाग पढ़ा था.

नायिका की एक संतान है. वह विधवा हो जाती है. उस का बेटा उच्च शिक्षा ले कर अमेरिका चला जाता है. यहां नायिका अकेली रह जाती है. उस के परिवार के लोग उस पर अत्याचार करते हैं और उसे घर से निकाल देते हैं. वह एक वृद्धाश्रम में रहने लगती है. कहानी अभी भी अधूरी सी ही लगी पर काकाजी ने कहानी में जिस तरह की वेदना का समावेश किया था उसे पढ़ने वाले की आंखें नम हुए बगैर नहीं रह पाती थीं. आंखें तो मेरी भी नम हो गई थीं. यह शब्दों का ही चमत्कार नहीं हो सकता था, शायद आपबीती थी. तभी तो इतना बेहतर लेखन हो पाया था. मैं ने काकाजी को बता दिया था कि मैं ने उन की कहानी को पढ़ा है और कुछ प्रश्न मेरे दिमाग में घूम रहे हैं. काकाजी नाखुश नहीं हुए थे.

‘देखो, कहानी समसामयिक है, इसलिए तुम्हारे प्रश्नों का जवाब देना जरूरी नहीं है. पर तुम्हारी जिज्ञासा को दबाना भी उचित नहीं है, इसलिए पूछ सकते हो,’ काकाजी के चेहरे पर हलकी सी वेदना दिखाई दे रही थी.

‘कहानी पढ़ कर मुझे लगा कि शायद आप इन घटनाक्रम के गवाह हैं.’ वे मौन रहे.

‘इस कहानी के नायक में आप की छवि नजर आ रही है, ऐसा सोचना मेरी गलती है,’ मैं ने काकाजी के चेहरे की ओर नजर गड़ा ली थी. उन के चेहरे पर अतीत में खो जाने के भाव नजर आने लगे थे मानो वे अपने जीवन के अतीत के पन्ने उलट रहे हों.

काकाजी ने गहरी सांस ली थी, ‘वैसे तो मैं तुम को बोल सकता हूं कि यह सही नहीं है, पर मैं ऐसा नहीं बोलूंगा. तुम ने कहानी को वाकई ध्यान से पढ़ा है, इस कारण ही यह प्रश्न तुम्हारे ध्यान में आया. हां, यह सच है. कहानी का बहुत सारा भाग मेरा अपना ही है.’

‘नायक और नायिका भी?’

‘हां…’ हम दोनों मौन हो गए थे.

काकाजी ने उस दिन फिर और कोई बात नहीं की. दूसरे दिन मैं ने ही बात छेड़ी थी, ‘‘वह कहानी प्रकाशन के लिए भेज दी क्या?’’

‘नहीं, वह प्रकाशन के लिए नहीं लिखी,’ उन्होंने संक्षिप्त सा जबाब दिया था.

‘काकाजी, आप ने उन के कारण ही शादी नहीं की क्या?’ वे मौन बने रहे.

‘पर इस से नुकसान तो आप का ही हुआ न,’ मैं आज उन का अतीत जान लेना चाहता था.

‘प्यार में नुकसान और फायदा नहीं देखा जाता, बेटा.’

‘जिस जीवन को आप बेहतर ढंग से जी सकते थे, वह तो अधूरा ही रह गया न और इधर नायिका का जीवन बहुत अच्छा भले ही न रहा हो पर आप के जीवन से अच्छा रहा,’’ वे मौन बने रहे.

‘‘मेरे जीवन का निर्णय मैं ने लिया है. उसे तराजू में तोल कर नहीं देखा जा सकता,’ काकाजी की आंखों में आंसू की बूंदें नजर आने लगी थीं.

हम ने फिर और कोई बात नहीं की पर अब चूंकि बातों का सिलसिला शुरू हो गया था, इस कारण काकाजी ने टुकड़ोंटुकड़ों में मुझे सारी दास्तां सुना दी थी.

कालेज के दिनों उन के प्यार का सिलसिला प्रारंभ हुआ था. रेणू नाम था उस का. सांवली रंगत पर मनमोहक छवि, बड़ीबड़ी आंखें और काले व लंबे घने बाल. पढ़ने में भी बहुत होशियार. उन्होंने ही उस से पहले बात की थी. उन्हें कुछ नोट्स की जरूरत थी और वे सिर्फ रेणू के पास थे. काकाजी अभावों में पढ़ाई कर रहे थे. किताबें खरीदने की गुंजाइश नहीं थी.

उन्हें नोट्स चाहिए थे ताकि वे उसे ही पढ़ कर परीक्षा की तैयारी कर सकें. साथियों का मानना था कि रेणू बेहद घमंडी लड़की है और वह उन्हें नोट्स नहीं देगी. निराश तो वे भी थे पर उन के पास इस के अलावा और कोई विकल्प था भी नहीं. उन्होंने डरतेडरते रेणू से नोट्स देने का अनुरोध किया था. रेणू ने बगैर किसी आनाकानी के उन्हें नोट्स दे भी दिए थे. उन्हें और उन के साथियों को वाकई आश्चर्य हुआ था. रेणू शायद उन की आवश्यकताओं से परिचित थी, इस कारण वह उन्हें पुस्तकों से ले कर कौपीपेन तक की मदद करने लगी थी. संपर्क बढ़ा और प्यार की कसमों पर आ गया.

काकाजी तो अकेले जीव थे. उन के न तो कोई आगे था और न पीछे. उन्होंने जब अपनी आंखें खोली थीं तो केवल मां को ही पाया था. मां भी ज्यादा दिन उन का साथ नहीं निभा सकीं और एक दिन उन की मृत्यु हो गई. काकाजी अकेले रह गए. काकाजी का अनाथ होना उन के प्यार के लिए भारी पड़ गया. रेणू के पिताजी ने रेणू के भारी विरोध के बावजूद उस की शादी कहीं और करा दी. रेणू के दूर चले जाने के बाद काकाजी के जीवन का महकता फलसफा खत्म हो गया था .

काकाजी गांव वापस आ गए और नए सिरे से अपनी दिनचर्या को बनाने में जुट गए. कहानी सुनातेसुनाते कई बार काकाजी फूटफूट कर रोए थे. मैं ने उन को बच्चों जैसा रोते देखा था. शायद वे बहुत दिनों से अपने दर्द को अपने सीने में समेटे थे. मैं ने उन को जी भर रोने दिया था. इस के बाद हमारे बीच इस विषय को ले कर फिर कभी कोई बात नहीं हुई.

मैं उन के पास नियमित गणित पढ़ने जाता और वे पूरी मेहनत के साथ मुझे पढ़ाते भी. उन की पढ़ाई के कारण मेरा गणित बहुत अच्छा हो गया था. उन्होंने मुझे इंग्लिश विषय की पढ़ाई भी कराई.

काकाजी की मदद से मेरा इंजीनियर बनने का स्वप्न पूरा हो गया था पर मैं ज्यादा दिन इंजीनियर न रह कर आईएएस में सलैक्ट हो गया और कलैक्टर बन कर यहां पदस्थ हो गया था. लगभग 10 सालों का समय यों ही व्यतीत हो गया था. इन सालों में मैं काकाजी से फिर नहीं मिल पाया था. मैं 1-2 बार जब भी गांव गया, काकाजी से मिलने का प्रयास किया. पर काकाजी गांव में नहीं मिले.

कलैक्टर का पदभार ग्रहण करने के पहले भी मैं गांव गया था. तभी पता चला था कि काकाजी तो कहीं गए हैं और तब से यहां लौटे ही नहीं. उन के घर पर ताला पड़ा है. गांव के लोग नहीं जानते थे कि आखिर काकाजी चले कहां गए. आज जब अचानक उन की स्लिप चपरासी ले कर आया तो गुम हो चुका पूरा परिदृश्य सामने आ खड़ा हुआ. औफिस के बाहर मिलने आने वालों के लिए लगी बैंच पर वे बैठे थे, सिर झुकाए और कुछ सोचते हुए से.

मैं पूरी तरह तय नहीं कर पा रहा था पर मुझे लग रहा था कि वे ही हैं. बैंच पर और भी कुछ लोग बैठे थे जो मुझ से मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. मुझे इस तरह भाग कर आता देख सभी चौंक गए थे. बैंच पर बैठे लोग उठ खड़े हुए पर काकाजी यों ही बैठे रहे. उन का ध्यान इस ओर नहीं था.

मैं ने ही आवाज लगाई थी, ‘‘काकाजी…’’ वे चौंक गए. उन्होंने यहांवहां देखा भी पर समझ नहीं पाए कि आवाज कौन लगा रहा है. बाकी लोगों को खड़ा हुआ देख कर वे भी खड़े हो गए. उन्होंने मुझे देखा अवश्य पर वे पहचान नहीं पाए थे.

मैं ने फिर से आवाज लगाई, ‘‘काकाजी,’’ उन की निगाह सीधे मुझ से जा टकराई. यह तो तय हो चुका था कि वे काकाजी ही थे. मैं ने दौड़ कर उन को अपनी बांहों में भर लिया था.

‘‘काकाजी, नहीं पहचाना? मैं मनसुखजी का बेटा. आप ने मुझे गणित पढ़ाई थी, ‘‘काकाजी के चेहरे पर पहचान के भाव उभर आए थे.

‘‘अरे अक्षत,’’ अब की बार उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया था.

औफिस के रिटायररूम के सोफे पर वे इत्मीनान के साथ बैठे थे और मैं सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ उन के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था. चपरासी के हाथों से पानी ले कर वे एक ही घूंट में पी गए थे.

‘‘आप यहां कैसे, काकाजी?’’

‘‘तुम, यहां के कलैक्टर हो? जब नाम सुना था तब कुछ पहचाना सा जरूर लगा था पर तुम तो इंजीनियर…’’

‘‘हां, बन गया था. आप ने ही तो मुझे बनवाया था. फिर आईएएस में सिलैक्शन हो गया और मैं कलैक्टर बन गया.’’ उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘आप यहां कैसे, मैं ने तो आप को गांव में कितना ढूंढ़ा?’’

‘‘मैं यहां आ गया था. रेणू को मेरी जरूरत थी,’’ उन्होंने कुछ सकुचाते हुए बोला था.

मेरे दिमाग में काकाजी की कहानी की नायिका ‘रेणू’ सामने आ गई. उन्होंने ही बोला, ‘‘रेणू को उस के परिवार के लोग सता रहे थे. मैं ने बताया था न?’’

‘‘हां, पर यह तो बहुत पुरानी बात है.’’

‘‘वह अकेली पड़ गई थी. उसे एक सहारा चाहिए था.’’

‘‘उन्होंने आप को बुलाया था?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ही आ गया था.’’

‘‘यों इस तरह गांव में किसी को बताए बगैर?’’

‘‘सोचा था कि उस की समस्या दूर कर के जल्दी लोट जाऊंगा पर…’’

‘‘क्या आप उस के साथ ही रह रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ने यहां एक कमरा ले लिया है.’’

‘‘और… वो… उन्हें भी तो घर से निकाल दिया था…’’

दरअसल, मेरे दिमाग में ढेरों प्रश्न आजा रहे थे.

‘‘हां, वह वृद्धाश्रम में रह रही है.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘यहां अदालत में उन का केस चल रहा है.’’

वे मुझे आप कहने लगे थे, शायद उन्हें याद आया कि मैं यहां का कलैक्टर हूं.

‘‘काकाजी, यह ‘आप’ क्यों लगा रहे

हैं, आप?’’

‘‘वह… बेटा, अब तुम इतने बड़े पद पर हो…’’

‘‘तो?’’

‘‘देखो अक्षत, रेणू का केस सुलझा दो. यह मेरे ऊपर तुम्हारा बड़ा एहसान होगा,’’ कहतेकहते काकाजी ने मेरे सामने हाथ जोड़ लिए.

कमरे में पूरी तरह निस्तब्धता छा चुकी थी. काकाजी की आंखों से आंसू बह रहे थे. वे रेणू के लिए दुखी थे. वह रेणू जिस के कारण काकाजी ने विवाह तक नहीं किया था और सारी उम्र यों ही अकेले गुजार दी थी. मैं ने काकाजी को ध्यान से देखा. वे इन

10 सालों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए थे. चेहरे की लालिमा जा चुकी थी उस पर उदासी ने स्थायी डेरा जमा लिया था. बाल सफेद हो चुके थे और बोलने में हांफने भी लगे थे.

 

औफिस के कोने में लगे कैक्टस के पौधे को वे बड़े ध्यान से देख रहे थे और मैं उन्हें. उन का सारा जीवन रेणू के लिए समर्पित हो चुका था. आज भी वे रेणू के लिए ही संघर्ष कर रहे थे.

‘‘काकाजी, मैं केस की फाइल पढ़ं ूगा और जल्दी ही फैसला दे दूंगा,’’ मैं उन्हें झूठा आश्वासन नहीं देना चाह रहा था.

‘‘केस तो तुम को मालूम ही है न, मैं ने बताया था, ’’काकाजी ने आशाभरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘हां, आप ने बताया था पर फाइल देखनी पड़ेगी तब ही तो कुछ समझ पाऊंगा न,’’ मैं उन के चेहरे की बेबसी को पढ़ रहा था पर मैं भी मजबूर था. यों बगैर केस को पढ़े कुछ कह नहीं पा रहा था.

काकाजी के चेहरे पर भाव आजा रहे थे. मुझ से मिलने के बाद उन्हें उम्मीद हो गई थी कि रेणू के केस का फैसला आज ही हो जाएगा और वह उन के पक्ष में ही रहेगा पर मेरी ओर से ऐसा कोई आश्वासन न मिल पाने से वे फिर से हताश नजर आने लगे थे.

‘‘काकाजी, आप भरोसा रखें, मैं बहुत जल्दी फाइल देख लूंगा,’’ मैं उन्हें आश्वस्त करना चाह रहा था.

 

काकाजी थके कदमों से बाहर चले गए थे. वे 2-3 दिन बाद मुझे मेरे औफिस के सामने बैठे दिखे थे. चपरासी को भेज कर मैं ने उन्हें अंदर बुला लिया था. उन के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी. काम की व्यस्तता के कारण फाइल नहीं देख पाया था. मैं मौन रहा. चपरासी ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया, ‘‘काकाजी, कुछ खाएंगे क्या?’’ मैं  उन से बोल नहीं पा रहा था कि मैं फाइल नहीं देख पाया हूं पर काकाजी समझ गए थे. वे बगैर कुछ बोले औफिस से निकल गए थे.

फाइल का पूरा अध्ययन मैं ने कर लिया था. यह तो समझ में आ ही गया था कि रेणूजी के साथ अन्याय हुआ है पर फाइल में लगे कागज रेणूजी के खिलाफ थे. दरअसल, रेणू को उन के पिताजी ने एक मकान शादी के समय दिया था. शादी के बाद जब तक हालात अच्छे रहते आए तब तक रेणू ने कभी उस मकान के बारे में जानने और समझने की जरूरत नहीं समझ. उन के पति यह बता दिया था कि उसे किराए पर उठा रखा है पर जब रेणू की अपने ससुराल में अनबन हो गई और उन्हें अपने पति का घर छोड़ना पड़ा तब अपने पिताजी द्वारा दिए गए मकान का ध्यान आया.

उन्होंने अपने पति से अपना मकान मांगा ताकि वे रह सकें पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया. रेणू ने मकान में कब्जा दिलाए जाने के लिए एक आवेदन कलैक्टर की कोर्ट में लगा दिया. रेणू को नहीं मालूम था कि उन के पति ने वह मकान अपने नाम करा लिया है. कागजों और दस्तावेजों के विपरीत जा कर मैं फैसला दे नहीं सकता था. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं काकाजी से क्या बोलूंगा.

वृद्धाश्राम के एक कार्यक्रम में मैं ने पहली बार रेणूजी को देखा था. आश्रम की ओर से पुष्पगुच्छ भेंट किया था उन्होंने मुझे. तब तक तो मैं समझ नहीं पाया था कि यही रेणूजी हैं पर कार्यक्रम के बाद जब मैं लौटने लगा था तो गेट पर काकाजी ने हाथ दे कर मेरी गाड़ी को रोका था. उन के साथ रेणूजी भी थीं. ‘‘अक्षत, मैं और रेणू गांव जा रहे हैं. हम ने फैसला कर लिया है कि हम दोनों वहीं साथ में रहेंगे,’’ काकाजी के बूढ़े चेहरे पर लालिमा नजर आ रही थी. मैं ने रेणूजी को पहली बार नख से सिर तक देखा था. बुजुर्गियत से ज्यादा उन के चेहरे पर परेशानी के निशान थे पर वे बहुत खूबसूरत रही होंगी, यह साफ झलक रहा था.

‘‘सुनो बेटा, अब हमें तुम्हारे फैसले से भी कुछ लेनादेना नहीं है. जो लगे, वह कर देना.’’ उन्होंने रेणू का हाथ अपने हाथों में ले लिया था.

‘‘तुम ने मेरी अधूरी कहानी पढ़ी थी न. वह आज पूरी हुई,’’ काकाजी के कदमों में नौजवानों जैसी फुरती दिखाई दे रही थी. काकाजी के ओ?ाल होते ही मेरी निगाह आश्रम के गेट पर कांटों के बीच खिले गुलाब पर जा टिकी.

पेचीदा हल: नई जिंदगी जीना चाहता था संजीव

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