देश खुशहाल रहेगा जब औरतें खुश रहेंगी

लो जी देश की औरतों और उन के परिवारों को (मंदिर और मसजिद भी) ले जाने के लिए प्रचार का धुआंधार कार्यक्रम ज्ञानवाणी मसजिद और मथुरा से चालू हो गया है. जितनी मंदिर के नाम पर सुर्खियां आएंगी उतने ज्यादा मंदिरों के ग्राहक बढ़ेंगे और पूजा सामग्री भी ज्यादा बिकेगी, मोहल्लेका मंदिर हो या चारधाम, लाइनें बढेंगी, लोग कुंडलियों, वास्तु, आयुर्वेद, शुभ समय, पूजापाठ को दोड़ेंगे. यह औरतों को पता भी नहीं चलेगा कि इस की कीमत वे दे रही हैं, वे तो इस बात से खुश हैं कि उन का धर्म चमचमा रहा है या इस बात से गम में कमजोर हो रही है कि उन के धर्म पर हमले हो रहे हैं.

मंदिर मसजिद विवाद का अंतिम असर जो जीवन भर दर्द रहेगा, औरत पर पड़ता है. यह उसी का बेटा या पति है जो उस भीड़ में गला फाड़ता है जो मंदिरमंदिर चिल्ला रही है और घर आ कर पूछता है खाने को क्या है? वह  काम पर नहीं जाता पर खाना ज्यादा मांगना है क्योंकि उस का गला सूख रहा है, बदन दर्द कर रहा है.

जो चंदा मंदिर के नाम पर उपद्रव करने के लिए जमा किया वह औरत की आय का हिस्सा है. जिस का घर जलाया गया, बुलडोजर से तोड़ा गया वह औरत की सुरक्षा की छाया थी. जिसे रात्रि जागरण के लिए बुलाया गया, 4 घंटे जमीन पर बैठा कर कीर्तन गाए गए जिस के अंत में मंदिर वहीं चाहिए के नारे लगे वह औरतें ही थीं. ये वे औरतें हैं जो घर लौट कर कपड़े धोएंगी, सुखाएंगी, राशन, लाएंगी, खाना बनाएंगी, पर घर साफ रखेंगी. न मंदिर यह काम करेगा, न मसजिद.

अगर शहरों में मंदिरमसजिद को ले कर दंगे हुए तो आज का खाना कैसे बने या मिलेगा इसी औरत को होगी. अगर मंदिर के आदेश पर घर में 12 मूर्तियां या फोटो लगा दी गई तो उन के कपड़े धोने उन के आगे दिए जलाने का काम औरत का ही है जो उस महान हिंदू धर्म की रक्षा कर रही है जो उसे पाप योनि का कहना है, उसे वस्तु मान कर दान करवाता है, जीवन भर सुहागन रहने के लिए तरहतरह व्रत करवाता है, पति के लौन पर दोषी ठहरा कर स्थान वे कोने में फेंक देता है.

वाराणसी और मथुरा में अयोध्या के बाद क्या होगा यह निरर्थक अगर देश की औरतें खुश नहीं हैं उन्हें तो अंधविश्वास की आग में झोंक कर जय सती माता का नारा लगा दिया जाता है.

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लिवइन रिलेशनशिप और कानून

जब मन को कोई अच्छा लगे तो उस की बैकग्राउंड बेमतलब हो जाती है. गुडग़ांव में अभी एक जोड़े के शव किराए के मकान में मिले 22-23 के साल के दोनों लिवइन में रह रहे थे जबकि युवक शादीशुदा था और उस की पत्नी बूटान की थी. लडक़ी जानते हुए थी कि लडक़ा शादीशुदा है 15 महीने से उस के साथ रह रही थी. दोनों अच्छाखासा कमा रहे थे. एक 5 स्टार होटल में शैफ था. दूसरी फूड डिलिवरी चेन में मैनेजर थी.

उन्होंने किस कारण जान दीं, यह नहीं पता पर यह अवश्य पहली बार में पता चला कि बाहर के किसी जने ने आकर उन्हें मारा नहीं था. पुलिस को लडक़ी बैड पर मिली और लडक़ा पंखे से लटका.

अपनी ङ्क्षजदगी अपने मनचाहे के साथ मनमर्जी से जीने का हक सब को है पर जब यह हक विवाह में बदल जाए तो बहुत चुभता है. लिवइन में सब से बड़ा खतरा यही है कि पार्टनर कभी भी बिना नोटिस दिए वर्क आउट कर सकता है और दूसरे के सुखदुख का तब उसे कोई ख्याल नहीं रहता. लिवइन रिलेशनशिप में जिम्मेदारी वर्षों बाद आ पाती है. अगर दोनों में से एक भी शादीशुदा हुआ या मातापिता पर निर्भर हो या उन की जिम्मेदारी हो तो लिवइन के लिए मुश्किलें बढ़ जाती है. पैसे और समय को ले कर कभी भी तकरार हो सकती है क्योंकि लिवइन पार्टनर आमतौर पर साथ वाले की समस्याओं को अपनी समझना.

लिवइन का मतलब ही टैंपरेरी अरेजमैंट होता है और इस में एक कुर्सी तक खरीदने पर 4 बार सोचना पड़ता कि कौन खर्च करेगा और रास्ते अलग हो जाने के बाद इस का क्या होगा? अब जब तक साथ रहेंगे तो 4 कुर्सियां, 1 बैड, 1-2 टेबल, गैस, बर्तन तो चाहिए होंगे न. पार्टनरशिप टूटने पर क्या होगा.

लिवइन रिलेशनशिप न कानून है, न होना चाहिए. यह 2 व्यस्कों की अपनी टेलेंट और अपना नीडबेस्ड है. इसे कानूनी दायरों में नहीं बांध जाना चाहिए. अदालतों को लिवइन पार्टनर की हर शिकायत को पहली बार में ही खिडक़ी से बाहर फेंक देना चाहिए क्योंकि जो लोग अपनी प्रौब्लम्स खुद सोल्व नहीं कर सकते उन्हें लिवइन के रास्ते पर जाना ही नहीं चाहिए.

पुलिस को मारपीट में भी दखल कम करना चाहिए क्योंकि जरा सा गुस्सा दिखाने पर दूसरे के पास घर का हक है. जब लडक़ालडक़ी राजी तो क्या करेगा काजी का फार्मूला निभाया जाना चाहिए.

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‘मरीजों की चिंता सबसे पहले होती है’- डा. नेहा सिंह

डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले अधिकतर लोग निजी क्षेत्र में चिकित्सा सेवा को प्रथमिकता देते है. मिर्जापुर की रहने वाली डॉ नेहा सिंह ने निजी क्षेत्र में काम करने की जगह पर सरकारी अस्पतालों में सेवा करने को प्रथमिकता दी. डॉ नेहा का मानना था कि सरकारी अस्पतालों के जरिये वो गरीब और कमजोर वर्ग से आने वाले लोगो की अधिक सेवा कर सकती है. डॉ नेहा सिंह ने प्रोविंशियल मेडिकल ऑफिसर के रूप में काम करने की चुनौती भी स्वीकार की. उनकी सोंच थी कि अच्छी चिकित्सा व्यवस्था के लिये अच्छे डाक्टर के साथ ही साथ अच्छे प्रोविंशियल मेडिकल ऑफिसर की भी जरूरत होती है. यही नहीं डॉ नेहा ने प्राइवेट सेक्टर में जाकर डाग्नोसिस सेंटर खोलने की जगह पर सरकारी अस्पतालों में प्रोविंशियल मेडिकल ऑफिसर के रूप में काम करने की चुनौती को स्वीकार किया. वह ऐसे लोगो के लिये प्रेरणा का काम करती है जो सरकारी अस्पतालो में काम करके खुशी का अनुभव नहीं कर रहे होते है. डॉ नेहा ने अपने काम से एक अलग छवि बनाई है. जिसकी वजह से मरीज उनकी हर बात मानते है और उनसे अपनी हर बात शेयर करते है.

प्रोविंशियल मेडिकल सर्विस को बनाया अपना कैरियर:

डॉ नेहा सिंह के पिता खुद डाक्टर है. ऐसे में 12 वीं के बाद नेहा ने भी डाक्टर बनने के लिये परीक्षा दी. रूहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली में उनको एमबीबीएस करने के लिये प्रवेश मिल गया. वहां से अपनी पढाई पूरी करने के बाद नेहा ने प्रोविंशियल मेडिकल सर्विस में अपना कैरियर बनाने की सोची. पहली ही बार में ही परीक्षा में सफल हो गई. उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों के सरकारी अस्पतालों में उन्हें सेवा करने का मौका मिला.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती और देवरिया में काम करने का उनका अनुभव कैसा रहा? पूछने पर नेहा बताती है, ‘टीबी और चेस्ट विभाग में काम करते वक्त हमने देखा कि ज्यादातर लोग इस बीमारी को शुरुआती दिनों में गंभीरता से नहीं लेते है. इससे बचने की कोशिश नहीं करते है. लोगों को जागरूक होना चाहिये. अपनी सफाई का ध्यान रखना चाहिये. नशे से बचना चाहिये. अच्छा भोजन करना चाहिये.

“अगर कोई दिक्कत हो तो इलाज कराना चाहिये. लापरवाही नही बरतनी चाहिये. टीबी अब पहले जैसा घातक नहीं है पर इससे सावधान रहने की जरूरत है.”

कोरोना संकट में जनता की सेवा:

2020 में जब कोरोना का प्रकोप पूरी दुनिया पर संकट बनकर छाया तो भारत के सामने सबसे बडी समस्या खडी हो गई. ऐसे समय में सरकारी अस्पताल और वहां का आधारभूत ढांचा ही ढाल बनकर कोरोना के सामने खडा हुआ. डॉ नेहा सिंह का अनुभव और साहस भी इसमें बडा सहारा बना. उनकी ड्यूटी बस्ती जिले के सरकारी अस्पताल में लगी थी. इस अस्पताल को एल-2 का दर्जा दिया गया था. जिसका मतलब था कि कोरोना के गंभीर मरीजों का इलाज यहां होता था. वहां काम करना सबसे खतरनाक माना जा रहा था.

यहां काम करना चुनौती से कम नहीं था. डॉ नेहा सिंह ने इस चुनौती को स्वीकार किया. बच्चों और घर परिवार की चिंता छोड दी. वहां 15 दिन ड्यूटी देने के बाद बाकी के 15 दिन क्वारंटीन रहना पडता था. ऐसे में लगातार दो माह तक बच्चों से दूर रही. यह उनके जीवन में पहला अवसर था जब बच्चों से इतने लंबे समय तक दूर रहना पडा.

डॉ नेहा सिंह बताती है ‘मुझे भी एक बार कोरोना हो गया था. उस समय थोडा सा डर लग रहा था. मेरी 8 साल की बेटी और 3 साल का बेटा है. उनकी चिंता हो रही थी. अच्छी बात यह थी कि हमारा परिवार साथ रहता है तो बच्चों की देखभाल हो रही थी. दो माह तक बच्चों से दूर रहना बहुत अलग लग रहा था. दूसरे लोगों की दिक्कतों को देखते हुये हमारी परेशानी कम थी. इस बात को सोंच कर अपना हौसला बनाती रही.’

सशक्त समाज के लिये जागरूक हो महिलाएं:

“साफसफाई के अभाव में महिलाएं तमाम तरह की बीमारियों की शिकार हो जाती है, जिससे उनकी सेहत पर बुरा असर पडता है. सरकारी अस्पताल में काम करते वक्त हमें गांव और छोटेबडे शहरों की महिलाओं से मिलने का मौका मिला. हम उन्हें समझाने का काम करते थे. बहुत सारी महिलाएं सरवाइकल कैंसर से ग्रस्त होने के बाद इलाज के लिये आती थी. सफाई और पीरियडस के दिनो में हाईजीन का ख्याल रखने से महिलाएं तमाम बीमरियों से बच सकती है.”

डॉ नेहा का मानना है कि महिलाओं को अपनी हेल्थ से जुडे विषयों पर जागरूक होना चाहिये. इसके लिये पत्र-पत्रिकाएं पढे. उन्हें केवल मनोरंजन की निगाह से न देखे. इनमें आजकल बहुत सामग्री छपने लगी है. उसे पढ़े और समझे ताकि किसी मुसीबत में न पडे. राजनीति और समाज के दूसरे विषयों को पढ़े और समझे ताकि यह पता चल सके कि समाज और राजनीति में क्या कुछ आपके लिये हो रहा और क्या नहीं हो रहा है.  महिलाएं जागरूक और आत्मनिर्भर रहेगी तो अपने फैसले खुद ले सकेगी और एक सशक्त समाज का निर्माण कर सकेगी.

परिवार है सफलता की धुरी:

डॉ नेहा मानती है कि किसी भी महिला की सफलता में उसके परिवार की भूमिका सबसे अधिक होती है. कोरोनाकाल में मेरा परिवार मेरे बच्चों की देखभाल करने के लिये उपलब्ध न होता तो मै अपने बच्चों को छोड़ कर अपना काम बेहतर तरह से नहीं कर पाती. कैरियर और सफलता के लिये परिवार को ले कर आगे चलना चाहिये. इससे ही मजबूत समाज बनता है.

यहां झूठ भी है और फरेब भी

पिछले 2 दशकों में फोटोग्राफों व आडियो व विडियो क्लिपों के साथ छेडख़ानी कर के राजनीति उपयोग करने की एक प्रैक्टिस जम कर शुरू हुई है. सत्ता में बैठे लोगों ने इस का खूब फायदा उठाया है. हिंदूमुसलिम अलगाव भी भडक़ाया गया है और ऊंचीनीची जाति का स्कल भी अपने मन में उलझाया गया है. विरोधी दल के नेताओं को भी खूब बदनाम फोटोग्राफों व वीडियों को मनमाने ढंग से टेढ़े सीधे ढंग से जोड़तोड़ कर सोशल मीडिया पर झोक दिया गया है. मानने की बात है कि यह टैक्नोलौजी समझने वाले काफी शातिर दिमाग के हैं.

यही शातिरयना औरतों व लड़कियों को झेलना पड़ रहा है. दिल्ली के निकट गाजियाबाद के एक टैक्सटाइल कंपनी के प्रबंधक फंस गए जब उन की पत्नी के आधार या पैनकार्ड से फोटो को ले कर एक अश्लील चित्र के साथ जोड़ दिया गया और मैसेज पति के सेब नंवरों पर भेज दिए गए. फोटो वायरल न करने के लिए 5 लाख रुपए मांग लिए गए.

महिला ने अपना फोन ठीक करने के लिए एक दुकानदार को दिया था जिस से पूरा डाटा कौफी कर लिया गया होगा हालांकि यह आरोप मैकेनिक ने गलत बताया है.

बात इस महिला की नहीं है, बात यह है कि धर्म टैक्नोलौजी का जिस तरह धर्म की राजनीति करने वालों ने दुरुपयोग किया है उस से यह महिमामंडित हो गई है. जब सरकार में बैठे लोगों के समर्थक खुलेआम फोटो व वीडियो से छेड़छाड़ कर सकते हैं और पुलिस, अदालत और सरकार अनदेखा करती है तो आम शातिर क्यों नहीं अपने मतलवा इस टैक्नोलौजी के ज्ञान का इस्तेमाल करें. यह तो सब जानते हैं कि दुश्मन के लिए तैयार की गई गन अपनों पर ज्यादा चलती हैं. अमेरिका का उदाहरण है जहां अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखने का हक मास मर्डर के लिए लगातार वर्षों से हो रहा है और स्कूलों तक में सिरफिरे घुस कर 10-20 को भून डालते हैं.

जो हक अमेरिकी संविधान ने गन रखने का हर नागरिक को दिया है वही आज जनता के टैक्नोलौजी को समझने वालों को सत्ता में बैठे लोगों ने दे दिया है और इस का इस्तेमाल राजनीति में भी हो रहा है और लड़कियों व औरतों पर भी. उन के वैसें सैंकड़ों सैक्सी क्लिप वायरल हो रहे हैं जिन में अपने मजे के लिए लड़कियों के बनाए थे. उन्हें तोड़मरोड़ कर. इन पर चेहरे बदलकर, इन के फोटो बना कर जम कर इस्तेमाल हो रहा है. शिकार कमजोर बेचारी औरतें और लड़कियां हो रही हैं.

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जंग की कीमत चुकाती है औरत

रूसयूक्रेन युद्ध का मंजर दिल दहलाने वाला है. करीब 2 महीनों से जारी युद्ध की विभीषिका बढ़ती ही जा रही है. यह लड़ाई अब रूस और यूक्रेन के बीच नहीं बल्कि दुनिया की 2 बड़ी ताकतों- रूस और अमेरिका के बीच होती स्पष्ट दिखाई दे रही है. यह लड़ाई तीसरे विश्वयुद्ध का संकेत देती भी नजर आ रही है. इस आशंका ने दुनियाभर की औरतों की चिंता बढ़ा दी है क्योंकि युद्ध कोई भी लड़े, कोई भी जीते, मगर उस का सब से बड़ा खमियाजा तो औरतों को ही भुगतना पड़ता है.

रूस के बारूदी गोलों और मिसाइलों ने यूक्रेन को राख के ढेर में तबदील कर दिया है. लोगों के घर, कारोबार, दुकानें, फैक्टरियां सबकुछ युद्ध की आग में भस्म हो चुका है. युवा अपने देश को बचाने के लिए सेना की मदद कर रहे हैं तो औरतें, बच्चे, बूढ़े अपना सबकुछ खो कर यूक्रेन की सीमाओं की तरफ भाग रहे हैं ताकि दूसरे देश में पहुंच कर अपनी जान बचा सकें.

एक खबर के अनुसार अब तक करीब 70 लाख यूक्रेनी पड़ोसी देशों पोलैंड, माल्डोवा, रोमानिया, स्लोवाकिया और हंगरी में शरण ले चुके हैं. इन शरणार्थियों में औरतों और बच्चों की तादात सब से ज्यादा है. युद्ध की विभीषिका सब से ज्यादा महिलाओं को भुगतनी पड़ती है. युद्ध के मोरचे के अलावा घरेलू मोरचे पर भी.

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सभी संकटों और संघर्षों में महिलाएं और लड़कियां सब से अधिक कीमत चुकाती हैं. म्यांमार, अफगानिस्तान से ले कर साहेल और हैती के बाद अब यूक्रेन का भयानक युद्ध उस सूची में शामिल हो गया है. हर गुजरते दिन के साथ यह महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी, उम्मीदों और भविष्य को बरबाद कर रहा है. यह युद्ध गेहूं और तेल उत्पादक 2 देशों के बीच होने की वजह से दुनियाभर में जरूरी चीजों तक पहुंच को खतरा पैदा कर रहा है और यह महिलाओं और लड़कियों को सब से कठिन तरीके से प्रभावित करेगा.

श्रीलंका में औरतों की दुर्दशा

दुनियाभर में घरपरिवार से ले कर राष्ट्र तक को बनाने और संवारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली औरतें युद्ध, महंगाई और अस्थिरता जैसे हालात में हिंसा और शोषण का सर्वाधिक शिकार होती हैं. युद्ध के हालात से जू झने वाले समाज का रुख प्रगतिशील हो या परंपरागत, आधी आबादी को घाव ही घाव मिलते हैं.

स्त्री होने के नाते उन्हें बर्बरता और अमानवीय स्थितियों का सामना करना पड़ता है. श्रीलंका में गृहयुद्ध के बाद करीब 59 हजार महिलाएं विधवा हो गईं, मगर उन में से अधिकांश यह मानने को तैयार नहीं थीं कि उन के पति मर चुके हैं. इन में से अधिकतर उत्तरी और पूर्वी तमिल आबादी वाले इलाकों में रहती थीं.

वे जानती थीं कि उन के पति मर चुके हैं, फिर भी वे विधवा का जीवन नहीं जीना चाहती थीं क्योंकि उस हालत में उन्हें समाज में बुरी नजरों का सामना करना पड़ता. घर चलाने के लिए मजबूरन सैक्स वर्क के पेशे में जाना पड़ता.

श्रीलंका की हालत आज एक बार फिर बहुत नाजुक दौर से गुजर रही है. बढ़ती महंगाई के चलते तमिल औरतें अपने बच्चों को ले कर पलायन कर रही हैं. वे नाव के जरीए भारत के रामेश्वरम में बने शरणार्थी कैंपों में पहुंच रही हैं. कैंपों में जहां हर दिन खानेपीने और जरूरत के सामान के लिए उन्हें एक युद्ध लड़ना पड़ता है, वहीं उन की अस्मत पर गिद्ध नजरें भी टिकी रहती हैं.

युद्ध में औरत वस्तु मात्र है

किसी भी युद्ध का इतिहास पलट कर देख लें, नुकसान में औरतें ही होती हैं. पति सेना में है, लड़ाई में मारा जाए तो विधवा बन कर समाज के दंश सहने के लिए औरत मजबूर होती है. युद्ध जीतने वाली सेना हारने वाले देश की औरतों को भेड़बकरियों की तरह बांध कर अपने साथ ले जाते है ताकि उन से देह की भूख शांत की जाए, हरम की दासी बनाया जाए या बंधुआ बना कर काम लिया जाए.

भारत में हुए तमाम युद्धों में मारे जाने वाले सैनिकों की औरतें जौहर कर के खुद को आग में भस्म कर लेती थीं ताकि दुश्मन सेना के हाथ पड़ कर अपनी लाज न खोनी पड़े. 2 देशों के बीच युद्ध 2 राष्ट्राध्यक्षों का फैसला या यों कहें कि सनक है, जिस में औरतों और बच्चों की हिफाजत का कोई नियम नहीं बनाया जाता है. वे युद्ध में जीती जाने वाली वस्तुएं सम झी जाती हैं. युद्ध में लड़ाकों को औरतें तोहफे के रूप में मिलती हैं. वे चाहे यौन सुख भोगें या बैलगाड़ी में बैल की तरह जोतें, उन की मरजी. युद्ध की त्रासदी सिर्फ औरतें भोगती हैं.

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर कब्जा कर लिया. घरों से खींचखींच कर जरमन औरतेंबच्चियां बाहर निकाली गईं और एकसाथ दसियों सैनिक उन पर टूट पड़े. सब का एक ही मकसद था- जर्मन गर्व को तोड़ देना. किसी पुरुष के गर्व को तोड़ने का आजमाया हुआ नुसखा है उस की औरत से बलात्कार. रैड आर्मी ने यही किया.

पहले और दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका को जब भी याद किया गया, महिलाओं के साथ हुई बर्बरता का जिक्र जरूर हुआ. दरअसल, युद्ध में शक्ति प्रदर्शन का एक तरीका स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करने की सोच से जुड़ा हुआ है. यही वजह है कि जंग के दौरान ही नहीं, बल्कि युद्ध खत्म होने के बाद भी औरतों के साथ अमानवीय घटनाएं जारी रहती हैं.

मानव तस्करों का सवाल

हमेशा से ही युद्ध ग्रस्त इलाकों में संगठित आपराधिक गिरोह सक्रिय रूप से महिलाओं और बच्चों को अपना शिकार बनाते रहे हैं. युद्ध के हालात में विस्थापन के चलते दूसरे देशों में पनाह लेने वाली ज्यादातर महिलाएं वेश्यावृत्ति, आपराधिक गतिविधियों, मानव तस्करी और गुलामी के जाल में भी फंस जाती हैं. शरणार्थी के रूप में दूसरे देशों में पहुंचने वाली औरतें मानव तस्करों का शिकार बन जाती हैं. औरतों की मजबूरी का फायदा उठा कर उन्हें दुष्कर्म और यौन दासता की अंधेरी सुरंग में हमेशा के लिए धकेल दिया जाता है.

90 के दशक में जब अफगानिस्तान में तालिबान ने सिर उठाया तो इत्र लगा कर घर से निकलने वाली औरतों को गोली मारने का आदेश हो गया. पढ़ाईलिखाई, नौकरी सब छूट गया. ऊंची आवाज में औरतों का बात करना बैन हो गया. कहा गया कि इत्र की खुशबू, खूबसूरत चेहरा और औरत की आवाज मर्द को बहकाती है. औरतें घरों में कैदी बन गईं.

फिर जब अफगानिस्तान की गलियों में अमेरिकी बूटों की गूंज सुनाई देने लगी तो औरतें फिर आजाद हुईं. वे इत्र लगाने लगीं, खुल कर हंसनेबोलने लगीं, पढ़ाई और नौकरी करने लगीं. मगर अगस्त, 2021 में तालिबान ने फिर अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले लिया और फिर औरतों को तहखानों में छिपाया और बुरकों से ढक दिया गया. यानी हुकूमत बदलने का पहला असर औरत पर होता है. सब से पहले उस की आजादी छीन कर उस को नोचा, डराया और मारा जाता है.

हर युद्ध में औरत को रौंदा गया

चाहे रूस हो, ब्रिटेन हो, चीन हो या पाकिस्तान- हर जंग में मिट्टी के बाद जिसे सब से ज्यादा रौंदा गया, वह है औरत. वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों के दिल बहलाव के लिए एक पूरी की पूरी सैक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गई. कांच के सदृश्य चमकती त्वचा वाली वियतनामी युवतियों के सामने विकल्प था- या तो वे अपनी देह उन के हवाले करें या कुचली और मारी जाएं.

इस दौरान हजारों कम उम्र लड़कियों को हारमोन के इंजैक्शन दिए गए ताकि उन का भराभरा शरीर अमेरिकी सैनिकों को ‘एट होम’ महसूस कराए. इस पूरी जंग के दौरान सीलन की गंध वाले वियतनामी बारों में सुबह से ले कर रात तक उकताए सैनिक आते, जिन के साथ कोई न कोई वियतनामी औरत होती थी.

लड़ाई खत्म हुई. अमेरिकी सेना लौट गई, लेकिन इस के कुछ ही महीनों के भीतर 50 हजार से भी ज्यादा बच्चे इस दुनिया में आए. ये वियतनामीअमेरिकी मूल के थे, जिन्हें कहा गया- बुई दोय यानी जीवन की गंदगी. इन बच्चों की आंसू भरी मोटी आंखें देख मांओं का कलेजा फटता था, बच्चों को गले लगाने के लिए नहीं, बल्कि उन बलात्कारों को याद कर के, जिन की वजह से वे इन बच्चों की मांएं बनीं. इन औरतों और बच्चों के लिए वियतनामी समाज में कोई जगह नहीं थी. ये सिर्फ नफरत के पात्र थे, जबकि इन की कोई गलती नहीं थी.

1919 से लगभग ढाई साल चले आयरिश वार की कहानी भी औरतों के साथ हुई कू्ररताओं का बयान है. जहां खुद ब्यूरो औफ मिलिटरी हिस्ट्री ने माना था कि इस पूरे दौर में औरतों पर बर्बरता हुई. सैनिकों ने रेप और हत्या से अलग बर्बरता का नया तरीका इख्तियार किया था. वे दुश्मन औरत के बाल छील देते. सिर ढकने की मनाही थी. सिर मुंडाए चलती औरत गुलामी का इश्तिहार होती थीं.

राह चलते कितनी ही बार उन के शरीर को दबोचा जाता, अश्लील ठहाके लगते, खुलेआम उन से सामूहिक बलात्कार होते और अकसर अपने बच्चों के लिए खाना खरीदने निकली मजबूर औरतें घर नहीं लौट पाती थीं. उन के आदमी लेबर कैंपों में बंधुआ थे और छोटे बच्चे घर पर इंतजार करते हुए- उन मां और दीदी का जो कभी लौटी नहीं.

मुक्ति का रास्ता क्या है

पितृसत्तात्मक समाज का विध्वंस ही नारी मुक्ति और सुरक्षा का एकमात्र रास्ता है. जब औरत और पुरुष दोनों को समान बुद्धि प्रकृति ने प्रदान की है, तो उस का समान उपयोग होना चाहिए. उसे हर क्षेत्र में समान अवसर मिलना चाहिए. शिक्षा, व्यवसाय, नौकरी, सेना, युद्ध, राजनीति इन सभी क्षेत्रों में उन्हें न केवल बराबरी पर आना होगा बल्कि पुरुषों से आगे भी निकलना होगा. तभी वे उन के खूंखार पंजों से बच पाएंगी जो उन की बोटीबोटी नोच लेने को आतुर रहते हैं.

युद्ध पुरुष वर्चस्व की मानसिकता पर आधारित कृत्य है. यह विध्वंस को बढ़ावा देता है, साथ ही सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टि से पुरुष तंत्र को मजबूत भी बनाता है. युद्ध का सब से नकारात्मक एवं विचारणीय पक्ष यह है कि यहां स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है. युद्ध के दौरान औरत एक वस्तु हो जाती है, जिसे एक पक्ष हार जाता है और दूसरा जीत कर ले जाता है और उस से बलात्कार करता है और दासी बना कर रखता है.

औरत वस्तु क्यों

महाभारत काल से आज तक औरत वस्तु ही बनी हुई है. युधिष्ठिर चौसर की बिसात पर द्रौपदी को हार जाता है और दुर्योधन भरी सभा में उस से बलात्कार पर उतारू हो जाता है. यही द्रौपदी अगर पत्नी या रानी होने के साथ उस पद पर बैठी होती, जहां निर्णय लिए जाते हैं तो न चौसर की बिसात बिछती, न मुकाबला होता और न ही औरत को नंगा करने की कोशिश होती.

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ के दावेदार अपनी खुद में  झांक कर देखें और बताएं कि क्या औरत को देवी बनाने का असल मकसद उसे उस के व्यक्तित्व से वंचित करने और बेडि़यों में जकड़ने का षड्यंत्र नहीं है? सामाजिकराजनीतिक सत्ता तंत्र में स्त्री व्यक्तित्व की बराबर की हिस्सेदारी एक सहज स्वाभाविक अधिकार से होनी चाहिए न कि किसी कृपा के रूप में.

कहने का मतलब यह है कि औरत को राजनीति के उन ऊंचे पदों तक अपनी बुद्धि और शिक्षा के बल पर पहुंचना है, जहां से उस की मुक्ति संभव है. बड़ेबड़े देशों की सब से ऊंची और निर्णायक कुरसी पर अगर औरत बैठी होगी तो विश्व के देशों के बीच होने वाले युद्ध भी समाप्त हो जाएंगे. एक औरत कभी भी अपनी संतान को युद्ध में नहीं  झोंकना चाहती. एक शासक के लिए प्रजा उस की संतान ही है, ऐसे में शासक का स्त्री होना विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त करेगा. मगर विडंबना से राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को स्वीकारने के बावजूद तमाम देशों में अब भी राजनीतिक जीवन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों की अपेक्षा काफी कम है.

तमाम प्रकार के रोजगारों एवं पेशों में भी महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर नहीं है. अब भी समान कार्यों के लिए समान वेतन को लागू नहीं गया है. शिक्षा और व्यवसाय में उन की पुरुषों से कोई बराबरी नहीं है. शादी के बाद उन्हें ही अपना घर छोड़ कर दूसरे के घर की नौकरानी बनने के लिए मजबूर होना पड़ता है. उच्च शिक्षा पा कर भी वे दूसरे के घर का  झाड़ूबरतन करती हैं. उस के बच्चे पैदा करती हैं और उन्हें पालने में अपनी जान सुखाती हैं. उस पर भी ताने और मार खाती हैं. वे आवाज भी नहीं उठा पाती हैं क्योंकि वह उन का अपना घर नहीं है.

सामाजिक तानेबाने में यदि थोड़ा सा परिवर्तन हो जाए और शादी के बाद स्त्री के बजाय पुरुष को अपना घर छोड़ कर स्त्री के घर पर रहना पड़े तो स्त्री की दशा तुरंत बदल जाएगी. सारी चीजें पलट जाएंगी. अपने घर में औरत के पास निर्णय लेने की ताकत और आजादी होगी और यही आजादी उस की अपनी आजादी को सुनिश्चित करेगी.

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औरतों और बच्चों को तो बख्शो

भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने एक नैशनल लैंड मोनेटाइजेशन कौरपोरेशन बनाई है जिस का काम होगा देशभर में फैली केंद्र सरकार की जमीन का हिसाब रखना और उसे बेच देना. सरकार आजकल जनता से पैसे इकट्ठे करने में लगी है और पिछले कानूनों के बल पर कौडि़यों में पिछली सरकारों की खरीदी जमीन को अब महंगे दाम पर बेचना चाह रही है. यह पक्का है कि अब जो जमीन बिकेगी उस में घने कंक्रीट के जंगल उगेंगे और उन में से ज्यादातर शहरों, कसबों में होंगे.

सरकारी जमीन फालतू नहीं पड़ी रहे, यह सोचना वाजिब है पर उस की जगह कंक्रीट के ऊंचे मकान, दफ्तर या फैक्टरियां आ जाएं, यह गलत होगा. आज सभी शहर भीड़भाड़ व प्रदूषण से कराह रहे हैं और सरकार इस में धुएं देने वाली मशीनें लगाने की योजना बना रही है. जो लोग शहरों, कसबों में रहते हैं उन्हें राहत देने की जगह ये कदम आफत देंगे.

अच्छा तो यह होगा कि इस सारी जमीन पर पेड़ उगा कर उन्हें छोटेबड़े जंगलों में बदल दिया जाए. सरकार जंगलों का रखरखाव नहीं कर पा रही है और न ही खेती की जमीन का आज के भाव से मुआवजा दे कर वहां जंगल उगा पा रही है. इसलिए जो जमीन उस के पास है चाहे 100-200 मीटर हो या लाख 2 लाख मीटर हो वहां बने बाग और जंगल बेहद सुकून देंगे.

अब शहरीकरण तो देश का होना ही है और जमीन का बढ़ता भाव देख कर लोगों को दड़बों में रहना पड़ेगा. उन्हें उन बागों व जंगलों में सांस लेने की जगह मिल जाए तो यह सुकून वाली बात होगी. इन छोटेबड़े जंगलों से पौल्यूशन निकलेगा नहीं, खत्म होगा.

अब यह देश की औरतों पर निर्भर है कि वे इस मुद्दे को कितना समझें और कितना लैंड मोनेटाइजेशन का अर्थ समझें. आज तो यह समझ लें कि सरकारी दफ्तर के आगेपीछे खाली जगह उन्हें सांस देती है, बिक जाने के बाद इंचइंच जगह पर कुछ बहुमंजिला बन जाएगा जो गला घोंट जहर उगलेगा. आदमियों को अब फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें बच्चे नहीं पालने होते, उन के खेलने की जगह नहीं ढूंढ़नी होती. सरकार लैंड मोनेटाइजेशन नहीं कर रही, लैंडपौइजनेशन कर रही है जिस का सीधा शिकार औरतें और बच्चे होंगे.

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धर्म की रक्षा में अपनों की बलि

पिता पुत्र के लिए अपनी जान देता है या पुत्र की जान ली जाती है ताकि पिता की जान बच जाए. हाल ही में पुलिस ने एक व्यक्ति को पकड़ा जिस ने खजाना मिलने की आशा में तांत्रिक के कहने पर अपने 16 वर्षीय पुत्र की बलि चढ़ा दी. मामला उरैयर, तमिलनाडु का 2014 का है और इस मामले में मां सौतेली थी.

पौराणिक कथाओं में भी पुत्रों को मारने, बलि चढ़ाने के किस्से अकसर आते हैं. भीम के हिडिंबा से हुए पुत्र घटोत्कच को कर्ण द्वारा एक स्ट्रैटेजी के अनुसार विशेष अस्त्र से मारने दिया गया क्योंकि वह अस्त्र वरना अर्जुन के विरुद्ध इस्तेमाल होता.

अंगरेजी में लिखी लेखिका अनुजा रामचंदन की महाभारत पर आधारित पुस्तक ‘अर्जुन’ में इस कहानी का पूरा वर्णन है. इंद्र ने कर्ण को वह अजेय ‘शक्ति’ अस्त्र दिया था और कर्ण ने उसे अर्जुन के विरुद्ध प्रयोग करने का निश्चय किया था परंतु उस अस्त्र का घटोत्कच पर प्रयोग जानबूझ कर युद्ध कौशल के अंतर्गत करवा दिया गया.

भीम के पुत्र की मृत्यु कितनी ही आवश्यक हो, यह जो संदेश देती है वह परेशान करने वाला है. युद्ध जीतने के लिए इस प्रकार की नीति को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता. युद्ध में मौत होती है पर बड़े हमेशा छोटों की रक्षा करते हैं.

महाभारत की ये कथाएं मिथक नहीं हैं, इन्हें कौमिक्स, प्रवचनों, टीवी धारावाहियों के जरीए लोगों तक रोजाना पहुंचाया जाता है और अवचेतना में बैठा दिया जाता है कि अपने स्वार्थ के लिए रिश्तेदारों का सफाया करना अनुचित नहीं है. तमिलनाडु के इस पिता के मन में भी ऐसा ही होगा.

महान संस्कृति का गुणगान करने वाले भूल जाते हैं कि हिंदू धर्मग्रंथों में ही नहीं हर धर्म के ग्रंथों की कथाओं में अनैतिकता के प्रसंग भरे हैं और लोग उन का उपयोग अपने गलत कामों को धर्म सम्मत सिद्ध करने के लिए करते हैं. जब भी कोई प्रभावशाली व्यक्ति जैसे कोई राजा, कोई सेठ, कोई अमीर जजमान अपने किए गलत काम के लिए धर्म के किसी दुकानदार से प्रश्न करता है तो इस तरह की कोई कथा सुन कर उसे बता दिया जाता है कि यह तो धर्म सिद्ध है.

अनैतिक कामों को बढ़ावा देने में धर्म का योगदान कम नहीं है और मानव की भूख को धर्म ने ही गलत तरीके से उकसाया है जिस की वजह से मंगोल राजा चंगेज खान, तैमूर लंग और एडोल्फ हिटलर जैसे आक्रांता हुए. आज व्लादिमीर पुतिन जिस तरह से यूक्रेन में अपने और्थोडोक्स चर्च की सलाह पर अत्याचार होने दे रहे हैं, वैसा ही भारत में न जाने कहांकहां हो रहा है और औरतों व निचलों को खासतौर पर पाप का जन्म से भागी मान कर उन से भेदभाव किए जाते हैं और फिर घटोत्कच की जैसी कथाएं सुना कर आपत्ति करने वालों के मुंह बंद कर दिए जाते हैं.

केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कथन ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने हंसी में कही बात कह कर हलके में लिया है तो वैसा ही जैसा इस पूरे प्रसंग में पांडवों के सलाहकार कृष्ण का व्यवहार है जिसे अनुजा रामचंद्रन की किताब में पढ़ा जा सकता है.

अपनी रक्षा या अपने लिए धन के लिए अपनों की बलि भी देनी पड़े तो हंसने की बात नहीं है. देश में हर सरकार विरोधी गद्दार नहीं है, हर नागरिक अपना है. अपनों को गोली मारने की बात की कही जाए और उच्च न्यायालय उसे लाइट मूड वाली बात कह दे, समझ नहीं आता.

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नकल से काम नहीं चलेगा

हिंदी का मुंबई सिनेमा जिसे बौलीवुड कहा जाता है अब दक्षिण की फिल्मों से डरा हुआ लगता है क्योंकि एक के बाद एक कई दक्षिण में बनी और हिंदी में सिर्फ डब हुई फिल्में सफल हुई हैं. पहले दक्षिण की सफल फिल्मों की उत्तर भारतीय सितारों के साथ नए सिरे से बनाया जाता था पर अब केवल साउंड ट्रैक और कुछ एडििटग से बढिय़ा काम चल रहा है. अल्लू अर्जुन की  ‘पुष्पा : द राइज’,  ‘आरआरआर’,  ‘बहुबली : द बिगिनग’,  ‘साहू,’  ‘बहुबली-2’ ने अच्छा पैसा हिंदी में कमाया और इस दौरान बौलीवुड की फिल्में बुरी तरह पिटी.

असल में एक कारण है कि हिंदी फिल्म निर्माताओं की जो पीढ़ी आज बौलीवुड पर कब्जा किए हुए है वह अनपढ़ है, जी हां, अनपढ़. अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से रेव पाॢटयों और रैिसग कोर्स में घूमने वाले बच्चे अब एडल्ट हो गए हैं और एक्टर प्रोड्यूसर पिता से फिल्म बिजनैस तो संभाल लिया पर वह जमीनी हकीकत नहीं पाई जिस में वे पलेबड़े थे और जिस जमीन में वे कणकण के वाकिफ थे. आज के युवा निर्माता पार्टी गो भर और विदेशों में रहने वाले हो गए हैं और भारत की जनता का दर्द और समस्याएं जरा भी नहीं समझते.

दक्षिण में जाति और वर्ग का भेद नहीं है, ऐसा नहीं है पर फिर भी वहां ज्यादातर फिल्म निर्माता पिछड़ी जातियों के दर्द को खुद झेल चुके हैं या समझ सकते हैं वे अंधभक्त जरूर हैं क्योंकि वे भी लौजिक, फैक्ट और एनेलिसिस की जगह पूजापाठ में भरोसा करते हैं पर रिएलिटी जानते और समझते हैं.

मुंबई के ऊचे मकानों में रहने वाले नीचे की झोपड़ी बस्तियां देखते हैं पर उन पर वे गुस्सा नहीं होते हैं कि शहर को क्यों घेरे हुए हैं, उन की सामाजिक, आॢथक व धाॢमक सोच के बारे में एबीसी ने जानते हैं और न जानना चाहते हैं. उन के लिए वे ग्राहक हैं पर कंगाल ग्राहक. उन के असल ग्राहक वे हैं जो एजि कमरों में ओमीटी पर फिल्में देखते हैं या विदेश में रह कर भारतीय संस्कृति पर हाउिलग अपने हो या शिएटर में करते हैं.

मुंबई की सिनेमा संस्कृति ने मल्टीप्लैक्स बना कर फिल्मों को आम आदमी से दूर कर दिया है, ….भी व्यायाम हो गई, उस आडियंस के सबजैक्ट भी. दक्षिणी फिल्मों में जंगल भी हैं. गरीबी भी है, गरीबों के प्रति वौयलैंस भी, क्लास डिस्क्रीमिनेशन भी है, गरीब की अमीर पर जीत भी हैं.

हां यह बात दूसरी है कि जैसे रामानंद सागर और ताराचंद बडज़ात्य ने वैश्य होते हुए भी खूब पौराणिक धर्म का प्रचार फिल्मों से किया था, वैसे ही दक्षिणी निर्माता बैक्वर्ड होते हुए भी कट्टर हिंदू धर्म के एजेंट हैं पर पूरे भक्त नहीं है क्योंकि वे उस जमात के हैं उन परिवारों के हैं, जिन्होंने अपने पर होते अत्याचार देखे हैं. हिंदी फिल्मों में यह युग 1950-60 में था जब एक लाभ धाॢमक फिल्में बन रही थीं तो दूसरी ओर विशुद्ध कम्युनिस्ट विचारधारा वाली जिनमें औरतों को भी बराबर का दिखाया गया जैसे ‘मदर इंडिया’ या  ‘अछूत कन्या’ में गिया गया. बौलीवुड अब यह मूल बात भूल गया है.

हिंदी वाले दक्षिणी भारतीय फिल्में इसलिए लपक रहे हैं क्योंकि उन में अपना दुखदर्द दिखता है चाहे भव्य सैटों के पीछे छिपा हो और लाउड वौयस और रंगबिरंगे कपड़ों के पीछे हिंदी फिल्म वाले अपने को सुधार पाएंगे, इस में संदेह है. अब सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भी दक्षिण हावी होने लगा क्योंकि उसे गाय और राम की नहीं बराबरी और कमाई की िचता है जो दक्षिण की फिल्मों में भी दिखती है.

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तो व्यापार कई गुना उन्नति करेगा

व्यापार में अब पत्नी को आर्थिक भागीदार बनाना जरूरी होता जा रहा है. जब से भाइयों, बहनों और चचेरे भाइयों की कमी होने लगी है, छोटा व्यापार हो या विशाल, घर के लोगों के बीच काम रखने के लिए बच्चों से पहले पत्नी को भागीदार, पार्टनर, सुप्त मालिक, शेयर होल्डर, डाइरैक्टर बनाना पड़ रहा है. पहले संयुक्त परिवार होते थे और बापबेटे, भाई काफी होते थे व्यापार को चलाने के लिए कंपनी या पार्टनरशिप कंपनी बनाने के लिए.

मगर यह पत्नी को आर्थिक सहयोगी बनाना अब टेढ़ा मामला होता जा रहा है. मैक्स हैल्थकेयर के मालिक अनलजीत सिंह ने अपनी पत्नी को 24.75% शेयर होल्डर बना दिया पर बाद में उस का किसी और औरत से अफेयर चलने लगा. अब वह 75% शेयर होल्डिंग के बल पर कंपनी की संपत्ति को अपनी प्रेमिका को ट्रांसफर करने लगा है और यह आरोप उस की पत्नी नीलू सिंह ने अदालत में लगाया है.

घर में पार्टनर के साथ पत्नी जब बिजनैस पार्टनर भी हो तो जहां व्यापार कई गुना उन्नति कर सकता है और पत्नी अपने और बच्चों के लिए हर तरह की मेहनत करने को तैयार हो जाती है और पति के बढ़ते काम के घंटों पर कुढ़मुढ़ाती नहीं, वहीं घरेलू विवाद चल कर दफ्तर में पहुंच जाते हैं और व्यापार के मतभेद घर की डाइनिंगटेबल पर सज भी जाते हैं.

नीलू सिंह ने अदालत का दरवाजा खटखटाया ताकि अनलजीत सिंह पर रोक लगाई जा सके और वह सारा पैसा प्रेमिका को न दे सके. पर सवाल यह भी खड़ा होता है कि ऐसी पत्नी कहां पैर में काटती थी कि पति 2015 से साउथ अफ्रीका में प्रेमिका के साथ ही समय बिताना ज्यादा अच्छा समझने लगा था?

पत्नी के काम में भागीदार बनाने में जो कमिटमैंट चाहिए होती है वह हमेशा रहे यह जरूरी नहीं. कई बार पति पत्नी को किसी भी तरह की छूट नहीं देता और छोटे अदने से मैनेजर से भी कम समझता है, तो कई बार उस पर कमाई करने का बोझ डाल कर इधरउधर समय बरबाद करने लगता है. यह भी खलता है.

अगर पति या पत्नी के काम की जगह किसी और से संबंध बनने लगें तो यह बात तुरंत पता चल जाती है और मनमुटाव होना शुरू हो जाता है. शादी के समय अर्दांगिनी बने रहने के सारे वादे व्यापार की कठोर उबड़खाबड़ जमीन पर हवा हो जाते हैं. पतिपत्नी घर में भी दुश्मन बनने लगते हैं और व्यापार में भी. घर भी ठप्प, व्यापार, कामकाज भी ठप्प.

पहले व्यापारों पर ताले संयुक्त परिवार में भाइयों, चाचाओं, तायों को ले कर लगते थे, अब पतिपत्नी विवाद पर लगने लगे हैं. जो भी पार्टनर मजबूत हो या जिस के पास कोई और सहारा हो, मतलबी या दिल पर छाया, हर कदम आसान रहता है पर आमतौर पर पति और पत्नी दोनों अकेले रह जाते हैं और दोनों के अपने घर वाले संबंधी भी बेवफा हो जाते हैं.

व्यापार में पत्नी को साझेदार बनाना जोखिम वाला काम है पर आज का व्यापार इतना कौंप्लिकेटेड है कि इस के बिना काम भी नहीं चलता.

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जनसंख्या कानून और महिलाएं

सरकार ने जापान और चीन से सबक लेते हुए जनसंख्या नियंत्रण कानून को अब निरर्थक मान लिया है. कुछ भारतीय जनता पार्टी सरकारों ने कानून पास किए हैं जो 2 से ज्यादा बच्चे होने पर बहुत सी सुविधाएं छीनते हैं और एक तरह से उस तीसरे बच्चे को अपराधी मान लेते हैं जिस ने न अपनी इच्छा से जन्म लिया, व कुछ गलत किया.

भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों में कूटकूट कर भर दिया गया है कि मुसलमानों को 4 शादियों की छूट है और वे दर्जनों बच्चे पैदा करते हैं. यह बात तर्क की नहीं अंधेपन की है, उन बेवकूफों की जो 2+2 करना नहीं जानते. उन से पूछो कि अगर एक मुसलिम मर्द की 4 बीवियां हैं तो क्या वहां 4 गुने औरतें भी हैं तो उन का खत्म नहीं और होगा. जैसे ले चलो चावड़ी बाजार हजूम दिख जाएगा.

भारतीय जनता पार्टी के अंधभक्त वैसे भी तर्क का उत्तर उसी तरह देते हैं जैसे रामदेव पैट्रोल के दामों के सवाल पर भडक़ते हैं. एक पत्रकार ने पूछा कि आप ने तो 35 रुपए लीटर पैट्रोल दिलाने को कहा था, कहां है वह. तो उस ने जवाब दिया कि तू ठेकेदार है क्या सवाल पूछने का.

तर्क का उत्तर तथ्य से देना न पौराणिक परंपरा न आज है और इसलिए आश्चर्य है कि अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के कानूनों पर बिना टिप्पणी किए केंद्र सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण कानून से पल्ला झाड़ लिया.

जनसंख्या कानून की आज कोई आवश्यकता नहीं रह गई क्योंकि कामकाजी औरतें खुद एक या दो से ज्यादा बच्चे नहीं चाहतीं और कानूनी या गैरकानूनी गर्भपात तक करा आती है. अगर गर्भनिरोधक …..और गुलाम हो जाएं तो शायद अब एक बच्चा भी पैदा न हो. क्योंकि 35-40 की आयु से पहले कोई औरत बच्चा चाहती ही नहीं हैं चाहे बाद में डाक्टरों को इलाज और आईवीएच की सुविधा का लाखों खर्च करती फिरे.

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